शकुंतला शर्मा
रौयल मिशन स्कूल के वार्षिकोत्सव काआज अंतिम दिन था. छात्राओं का उत्साह अपनी चरम सीमा पर था, क्योंकि पुरस्कार समारोह की सब को बेचैनी से प्रतीक्षा थी. खेलकूद, वादविवाद, सामान्य ज्ञान के अतिरिक्त गायन, वादन, नृत्य, अभिनय जैसी अनेक प्रतियोगिताएं थीं. पर सब से अधिक उत्सुकता ‘कालेज रत्न‘ पुरस्कार को ले कर थी, क्योंकि जिस छात्रा को यह पुरस्कार मिलता, उसे अदलाबदली कार्यक्रम के अंतर्गत विदेश जाने का अवसर मिलने वाला था. कालेज में कई मेधावी छात्राएं थीं और सभी स्वयं को इस पुरस्कार के योग्य समझती थीं पर जब कालेज रत्न के लिए सुजाता के नाम की घोषणा हुईर् तो तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ही एक ओर से आक्रोश के स्वर भी गूंज उठे. सब को धन्यवाद दे कर सुजाता स्टेज से नीचे उतरी तो उस की परम मित्र रोमा उसे मुबारकबाद देती हुई, उस के गले से लिपटती हुई बोली, ‘‘आज मैं तेरे लिए बहुत खुश हूं. तू ने असंभव को भी संभव कर दिखाया.‘‘
‘‘इस में तेरा योगदान भी कम नहीं है. तेरा सहयोग न होता तो यह कभी संभव न होता,‘‘ सुजाता कृतज्ञ स्वर में बोली. तभी सुजाता को उस के अन्य प्रशंसकों ने घेर लिया. उस के मातापिता भी व्याकुलता से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे पर रोमा के मनमस्तिष्क पर तो पिछले कुछ दिनों की यादें दस्तक दे रही थीं. ‘सुजाता नहीं आई अभी तक?‘ रोमा ने उस दिन सत्या के घर पहुंचते ही पूछा.
‘नहीं, तुम्हारी प्रिय सखी नहीं आई अभी तक,‘ सत्या बड़े ही नाटकीय अंदाज में बोली और वहां उपस्थित सभी युवतियों ने जोरदार ठहाका लगाया. ‘सौरी, तेरी हंसी उड़ाने का हमारा कोई इरादा नहीं था,‘ सत्या क्षमा मांगती हुई बोली.