राजपूतों का सपा से मोहभंग

नीरज शेखर के समाजवादी पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल होने के बाद एक बार फिर यह चर्चा गरम है कि समाजवादी पार्टी से राजपूत नेताओं का मोहभंग हो चुका है. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही एक के बाद एक राजपूत नेता सपा को छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे हें. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के खासे करीबी माने जाते थे. अखिलेश के कई फैसलों में नीरज शेखर की अहम सहमति रहा करती थी. मगर उन्हें भी पार्टी में रोक पाने में अखिलेश नाकाम रहे. दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव में नीरज शेखर बलिया से टिकट चाहते थे. बलिया में उनका काफी दबदबा है, मगर ऐसा न होने से वे अखिलेश से नाराज चल रहे थे.

बलिया से लगातार सांसद रहने के बाद देश के प्रधानमंत्री बने स्व. चंद्रशेखर के परिवार से दूरी समाजवादी पार्टी को काफी भारी पड़ सकती है. गौरतलब है कि बलिया पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की परंपरागत सीट रही है. 2007 में उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में नीरज शेखर को समाजवादी पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया और सपा के टिकट पर वह पहली बार सांसद बने. इसके बाद 2009 के आम चुनाव में भी नीरज ने सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और दूसरी बार सांसद बने. मगर 2014 के लोकसभा चुनाव में बलिया की सीट पहली बार मोदी लहर में भाजपा के खाते में चली गयी. इसके बाद भी समाजवादी पार्टी ने चंद्रशेखर परिवार से अपने रिश्ते को मजबूती देते हुए नीरज शेखर को राज्यसभा सदस्य बनाया. 2019 कि लोकसभा के लिए सपा-बसपा गठबंधन हुआ और इस गठबंधन ने ही नीरज शेखर की सपा से दूरी बना दी.

दरअसल नीरज शेखर अपने पुश्तैनी संसदीय क्षेत्र बलिया से खुद या अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाना चाहते थे. अखिलेश की ओर से उन्हें पूरा आश्वासन भी दिया गया था परंतु ऐन वक्त पर बहनजी के दबाव में अखिलेश के इनकार से नीरज काफी आहत हो गये. उनकी नाराजगी इसलिए ज्यादा थी कि बलिया का टिकट बसपा के इशारे पर  दिया गया. लोकसभा चुनाव में बलिया की सीट सपा-बसपा बंटवारे में समाजवादी पार्टी के खाते में थी. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की इस परंपरागत सीट से नीरज शेखर या उनकी पत्नी का लड़ना तय माना जा रहा था. नीरज राज्यसभा सदस्य भी थे, लिहाजा माना जा रहा था कि समाजवादी पार्टी अपनी एक सीट कम नहीं करेगी. ऐसे में नीरज शेखर की पत्नी डॉ. सुषमा शेखर को उम्मीदवार बनाने पर मंथन हो ही रहा था कि ऐन मौके पर चंद्रशेखर की विरासत पर विराम लगाते हुए सपा ने यहां से सनातन पांडे को उम्मीदवार बना दिया. अखिलेश के इस फैसले ने नीरज का दिल तोड़ दिया. नीरज पहले ही यह मान रहे थे कि बसपा के साथ गठजोड़ सपा के लिए आत्मघाती कदम साबित होगा, और वह हुआ भी. अब नीरज के पार्टी छोड़ने से सपा के भीतर क्षत्रिय वोटों का समीकरण भी गड़बड़ाएगा. नीरज शेखर के सपा से इस्तीफे और उनके भाजपा से जुड़ने के बाद भाजपा की जड़ें न केवल पूर्वांचल में मजबूत होंगी वरन राज्यसभा के भीतर सपा की ताकत घटने का लाभ भी उसे मिलेगा. खबर तो यह भी है कि नीरज के कई समर्थक और समाजवादी पार्टी के कई बड़े नेता अब भाजपा नेतृत्व के संपर्क में हैं और आने वाले चंद दिनों में कई और लोग सपा का दामन छोड़ कर भाजपा में शामिल होंगे.

गौरतलब है कि यादव, मुसलमान और राजपूत समुदाय ही सपा का मूल वोटबैंक था. इसी गठजोड़ में सपा की ताकत निहित थी, मगर मुसलमान पहले ही सपा से निराश हैं. अबकी लोकसभा में सपा का मुस्लिम वोट कांग्रेस, भाजपा और बसपा के बीच बंट गया. अब राजपूतों के भी छिटकने से यह साफ दिख रहा है कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत को संभालने और सहेजने में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार नाकाम हो रहे हैं. पार्टी की प्रतिष्ठा बचाने व समाजवादी दिग्गजों को संभालने में वह पूरी तरह फेल हैं.

उल्लेखनीय है कि मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह मौलाना मुलायम बन कर मुसलमानों को साध रखा था और अपने मित्र अमर सिंह के जरिये उन्होंने जिस तरह प्रदेश के ठाकुर-क्षत्रीय-भूमिहारों को पार्टी से जोड़े रखा था, वह गुण और कला अखिलेश में कतई नहीं है. मुलायम के जमाने में पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक के राजपूत नेता साइकिल पर सवार थे. अमर सिंह, रघुराज प्रताप सिंह और बृजभूषण शरण सिंह जैसे प्रतापी नेताओं ने पूरे प्रदेश के राजपूत समुदाय को सपा से जोड़े रखा. सपा के राष्ट्रीय संगठन से लेकर जिला संगठन तक में राजपूत छाये रहे. वर्ष 2003 में प्रदेश में सपा की सरकार बनाने में राजपूतों का अहम रोल रहा. राजपूतों को पार्टी से जोड़ने में अहम रोल अमर सिंह का था. मुलायम के दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमर सिंह का पार्टी में काफी रुतबा था. वे पार्टी के अहम फैसले लिया करते थे और मुलायम सिंह यादव उनके फैसलों को सिर-माथे पर रखते थे. मुलायम के वक्त सपा में अमर सिंह की तूती बोलती थी, लेकिन शिवपाल और अखिलेश के बीच हुई वर्चस्व की जंग के बाद उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. मुलायम भी दोस्त और बेटे के बीच फंस गये और मजबूरन उन्हें बेटे का साथ देना पड़ा. अमर सिंह के पार्टी से बाहर होने के बाद और पार्टी की कमान अखिलेश के हाथों में आने के बाद धीरे-धीरे राजपूत नेताओं ने सपा से किनारा करना शुरू कर दिया. यह फेहरिस्त काफी लम्बी है, जिसमें मयंकेश्वर शरण सिंह, राज किशोर सिंह, बृजभूषण शरण सिंह, राजा अरिदमन सिंह, कीर्तिवर्धन सिंह, आनंद सिंह, अक्षय प्रताप सिंह, रघुराज प्रताप सिंह और यशवंत सिंह जैसे कद्दावर नेताओं का नाम उल्लेखनीय है. 2014 के लोकसभा चुनाव से सूबे में राजपूत नेताओं के सपा का साथ छोड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ है वह यथावत जारी है. सपा का साथ छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है.

देश के वर्तमान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह कभी उत्तर प्रदेश के कद्दावर राजपूत नेता थे. वर्ष 2002 में राजनाथ सिंह के उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर आने के बाद राजपूत समुदाय का झुकाव सपा की ओर हुआ था. अमर सिंह ने इस मौके का खूब फायदा उठाया था और उनके प्रयासों से प्रदेश का राजपूत समुदाय समाजवादी पार्टी का मजबूत स्तम्भ बन गया था. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जब राजनाथ सिंह ने राजधानी लखनऊ से पर्चा भरा तो सपा से नाखुश राजपूत भाजपा की ओर झुक गये. वहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी राजपूत बिरादरी से सम्बन्ध रखते हैं. उनका चार्म भी राजपूतों को भाजपा के पाले में खींचने के लिए उत्तरदायी है.

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में राजपूत आठ फीसदी के आस-पास हैं. उत्तर प्रदेश में संख्या के हिसाब से यह बड़ी जाति नहीं है लेकिन राजनीतिक रूप से 90 के दशक तक यह जाति बहुत महत्वपूर्ण रही है. राजपूत सामाजिक रूप से दबदबे वाले, ग्रामीण उच्च वर्ग के प्रतिनिधि, लाठी से मजबूत एवं ओपिनियन बनाने वाले माने जाते हैं. चुनावों में लाठी से मजबूत होने के कारण बूथ मैनेजमेंट में यह जाति काफी प्रभावी रहती है. इसीलिए पार्टियों के प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व के रूप में यह जाति हमेशा छायी रही है. इनके दबदबे में गांव के गांव अपना वोट सपा की झोली में डाल देते हैं. अब जबकि राजपूत नेता सपा का दामन छोड़ कर लगातार भाजपा में शामिल हो रहे हैं, तो 2020 के विधानसभा चुनाव में सपा के लिए परिस्थितियां काफी विकट होने वाली हैं, इसमें कोई दोराय नहीं है. अब सिर्फ पिछड़ों और यादवों के भरोसे तो सपा की साइकिल चलने से रही. समाजवादी पार्टी में बसपा से गठबंधन को लेकर पनपा असंतोष भी कायम है. इसके साथ ही लोकसभा चुनाव के वक्त टिकटों के बंटवारे से गहराया गुस्सा भी कम नहीं हुआ है. पार्टी में चंद्रशेखर परिवार से वर्षों पुराना नाता टूट जाने से चिन्ता और गहरी हो गयी है. इससे समाजवादी आंदोलन की धार कुंद होने और पूर्वांचल में जनाधार घटने का डर भी अखिलेश को सता रहा है. नीरज शेखर का समाजवादी पार्टी को छोड़ना पार्टी के लिए पूर्वांचल में एक बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है.

एक विधायक की गुंडागर्दी

इंदोर विधानसभा क्रमांक – 3 के युवा और खूबसूरत विधायक आकाश विजयवर्गीय अब 11 जुलाई तक न्यायिक हिरासत यानि जेल में रहेंगे जिन्होने 26 जून को इंदोर नगर निगम के अमले के साथ गुंडागर्दी वह भी खुलेआम करते एक अधिकारी धीरेंद्र बायस की कुटाई क्रिकेट के बल्ले से कर दी थी.इस पर विधायक के खिलाफ इंदोर के एमजी रोड थाने में शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने , मारपीट और बलबा करने की रिपोर्ट आईपीसी की धाराओं 353 , 294 , 506 , 147 और 148 के तहत दर्ज कर उन्हें अदालत में पेश किया गया था.

अदालत ने सुनवाई के बाद इस टिप्पणी के साथ आकाश की जमानत याचिका खारिज कर दी कि विधायक से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती उन पर कानून निर्माण की ज़िम्मेदारी है. अगर वही कानून तोड़ेंगे तो आम लोगों पर उल्टा असर होगा. आरोपी बाहर रहा तो गवाहों को डरा धमका सकता है. सरकारी कर्मचारी अपना काम ईमानदारी से करते हैं. आरोपी को जमानत मिलने से सरकारी कर्मचारी भयभीत होंगे.

ये भी पढ़ें- भूपेश क्यों नहीं ‘अध्यक्षी’ छोड़ना चाहते !

यह था मामला – अव्वल तो अदालत की टिप्पणी ही बताती है कि मामला वाकई जरूरत से ज्यादा गंभीर था जिसमें जनता की निगाह में हीरो बनने इस विधायक ने जो किया वह निहायत ही शर्मनाक और हिंसक था. 26 जून को इंदोर नगर निगम का अमला गंजी कंपाउंड क्षेत्र में पुराने जर्जर मकान ज़मींदोज़ करने गया था जिनके गिरने की आशंका थी. अमला इमारतें तोड़ने की करररवाई कर पाता इसके पहले ही विधायक महोदय अपनी टीम सहित पहुँच गए और उसे इमारत तोड़ने से रोका. नगरनिगम कर्मियों ने उनकी बात न मानने की गुस्ताखी की तो नजारा देखने काबिल था.

आकाश ने क्रिकेट के बल्ले से कर्मचारियों की धुनाई शुरू कर दी और तरह तरह की धमकियाँ भी दीं. बस फिर क्या था देखते ही देखते खासतौर से धीरेंद्र बायस क्रिकेट की गेंद बन गए और आकाश विराट कोहली की तरह शाट पर शाट मारने लगा और उसके समर्थक उसका हौसला बढ़ाते रहे. खबर मिलने पर पुलिस आई तो भी इस विधायक के कान पर जूं नहीं रेंगी और वह पुलिस बालों से भी उलझा. यह होनहार और जोशीला विधायक गुस्से में भूल गया था कि इन दिनों राज्य में सरकार भाजपा की नहीं बल्कि कांग्रेस की है लिहाजा न तो नगरनिगम के मुलाजिम उसकी बात को ही कानून या पहले की तरह ईश्वरीय आदेश मानते चुपचाप वापस चले जाएँगे और न ही पुलिस बाले सेल्यूट ठोकेंगे.

जब तक अपनी हैसियत और हकीकत का एहसास आकाश को हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी लेकिन इसके बाद भी भाजपाई हँगामा मचाते रहे. उन्होने थाने के बाहर भी इस रॉबिन हुड के समर्थन में नारे लगाए और अदालत परिसर में भी हल्ला मचाते रहे.

ये भी पढ़ें- मीडिया को मिटाने की चाह

बचकाने बयान पिता पुत्र के – आकाश की अपनी कोई पहचान नहीं है बल्कि अपने पिता कैलाश विजयवर्गीय की वजह से वह जाना जाता है जिनकी पहुँच के चलते ही उसे विधानसभा का टिकिट मिला था और पिता के प्रभाव के चलते ही वह जीत गया था. कैलाश विजयवर्गीय का रसूख और दबदबा कभी किसी सबूत का मोहताज नहीं रहा जो इन दिनो भाजपा के महामंत्री हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी खासमखास हैं.  हालिया लोकसभा में उनके पास पश्चिम बंगाल का प्रभार था वहाँ भाजपा ने 18 सीटें जीतीं थीं तो इसका श्रेय कैलाश को ही दिया गया था जिन्होने इस राज्य का माहौल पूरी तरह हिंदूमय बना दिया था.

इस चुनाव के बाद इंदोर में पोस्टर लगे थे जिनमे कैलाश विजयवर्गीय को शेर बताया गया था. जब इस शेर के शावक की करतूत का वीडियो वायरल हुआ तो हर किसी ने इस पर चिंता जताई. लेकिन हैरानी उस वक्त हुई जब पुत्र मोह में धृतराष्ट्र की तरह अंधे हो चले कैलाश विजयवर्गीय ने एक न्यूज़ चेनल के पत्रकार को यह कहते हड़काया कि तुम्हारी औकात क्या है. बाद में एक और बयान में उन्होने कहा कि हालात ऐसे बन गए होंगे तभी आकाश ने ऐसा किया नहीं तो आमतौर पर वह शांत प्रवर्ति बाला लड़का है.

लेकिन बेटे के व्यवहार और स्वभाव के बखान से बात नहीं बनना थी तो नहीं बनी. एक तरह से कैलाश विजयवर्गीय अपने विधायक बेटे की गुंडागर्दी की वकालत और हिमायत करते ही नजर आए यह जरूर चिंता की बात है कि पुत्रों की ऐसी हरकतों पर पिता उन्हें बजाय सीख देने के प्रोत्साहित करे. आकाश के बयान तो पिता से भी ज्यादा बचकाने और बेबकूफी भरे थे कि चूंकि नगरनिगम के कर्मचारी महिलाओं से बदसलूकी कर रहे थे इसलिए उसका खून खौल उठा और गुस्से में उसने ऐसा कर डाला. इस बयान को रेस्पान्स नहीं मिला तो उसने पीडब्लूडी मंत्री सज्जन सिंह वर्मा पर आरोप लगा डाला कि वे इस मकान पर कब्जा करना चाहते थे इसलिए उसे जबरन तुड्बा रहे थे.

ये भी पढ़ें- मोदी का योग: भूपेश बघेल का बायकाट

बात आईने की तरह साफ है कि भाजपाई गुंडागर्दी की यह नायाब उजागर मिसाल है जिस पर सोचना नरेंद्र मोदी और अमित शाह को चाहिए कि न्यू इंडिया के बाबत उनके ओल्ड नेता पुत्र कानून अपने हाथ में लेने लगे हैं और कुछ समर्थकों की भीड़ से हल्ला मचाकर मनमानी पर उतारू होने लगे हैं जिससे पार्टी की साख पर बट्टा लग रहा है. बड़े बापों के बिगड़ैल बेटे बेलगाम होकर कानून व्यवस्था और लोकतन्त्र के लिए गंभीर खतरा बनते जा रहे हैं इन्हें वक्त रहते नहीं रोका गया तो वक्त पार्टी के हाथ से फिसल जाएगा.

अजीत-माया गठबंधन: अगर “हम साथ साथ” होते!

छत्तीसगढ़ में तीसरे मोर्चे के रूप में उभर कर राज्य की सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी का टूट कर बिखर चुका है . प्रदेश की राजनीति को अपनी उंगलियों पर कठपुतली की भांति नचाने का गुरूर अजीत जोगी की आंखों में, बौडी लैंग्वेज में अब दिखाई नहीं देता…इन दिनों आप प्रदेश की राजनीति मैं हाशिए पर है .

मगर जब अजीत प्रमोद कुमार जोगी ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस आलाकमान के सामने खम ठोंक कर जनता कांग्रेस ( जे ) का गठन किया था तब उनके पंख आकाश की ऊंचाई को छूने बेताब थे . यही कारण है कि अजीत जोगी के विशाल कद को देखकर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने उनसे हाथ मिलाया और कांग्रेस के खिलाफ दोनों ने मिलकर छत्तीसगढ़ में अपनी अलग जमीन तैयार करने की कोशिश की जो असफल हो गई . अजीत जोगी के सामने 2018 का विधानसभा चुनाव नई आशा की किरणों को लेकर आया था . राजनीतिक प्रेक्षक यह मानने से गुरेज नहीं करते की अजीत जोगी जहां से खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से प्रारंभ होती है . मगर विधानसभा चुनाव के परिणामों ने अजीत जोगी और मायावती दोनों पर मानो “पाला” गिरा दिया. दोनों चुनाव परिणाम से सन्न, भौचक रह गए और अंततः यह गठबंधन आज टूट कर बिखर गया है .

अजीत जोगी : अकेले हम अकेले तुम
विधानसभा चुनाव के परिणाम के पश्चात अजीत जोगी और मायावती की राह जुदा हो गई . यह तो होना ही था क्योंकि अजीत जोगी और मायावती दोनों ही अति महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ हैं . साथ ही जमीन पर पुख्ताई से पांव रखकर आगे बढ़ने वाले राजनेता भी माने जाते हैं. विधानसभा चुनाव में इलेक्शन गेम में अजीत जोगी ने कोई कमी नहीं की थी. यह आज विरोधी भी मानते हैं उन्होंने अपने फ्रंट को तीसरी ताकत बनाया उन्होंने जनता के नब्ज पर हाथ भी रखा था . संपूर्ण कयास यही लगाए जा रहे थे कि अजीत जोगी के बगैर छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हवाओं में पत्ते भी नहीं हिलेंगे.
अगर कांग्रेस को दो चार सीटें कम पड़े तो अजीत जोगी साथ देंगे अगर भाजपा को दो चार सीटे कम मिली तो अजीत जोगी कठिन डगर में साथ देंने हाजिर हो जाएंगे . मगर प्रारब्ध किसको पता है ? छत्तीसगढ़ में अनुमानों को तोड़ते ढहाते हुए छत्तीसगढ़ की आवाम ने कांग्रेस को ऐतिहासिक 68 सीटों पर विजय दिलाई और सारे सारे ख्वाब, सारे मंसूबे चाहे वे अजीत जोगी के हो या मायावती के ध्वस्त हो गए .

अगर “हम साथ साथ होते” !
मायावती ने निसंदेह जल्दी बाजी की और छत्तीसगढ़ की राजनीति में अजीत जोगी और अपनी पार्टी के लिए स्वयं गड्ढा खोदा . विधानसभा चुनाव के अनुभव अगरचे मायावती और अजीत जोगी देश की 17 वीं लोकसभा समर में साथ होते तो कम से कम दो सीटें प्राप्त कर सकते थे . विधानसभा चुनाव में बिलासपुर संभाग की तीन लोकसभा सीटों पर इस गठबंधन को बेहतरीन प्रतिसाद साथ मिला था . और यह माना जा रहा था कि बिलासपुर और कोरबा लोकसभा सीट पर बसपा और जोगी कांग्रेस कब्जा कर सकते हैं . इसके अलावा तीसरी सीट जांजगीर लोकसभा में बहुजन समाज पार्टी के दो विधायक के साथ अच्छी बढ़त मिली जिससे यह माना जा रहा था कि यह गठबंधन बड़ी आसानी से यह लोकसभा सीट पर पताका फहरा सकता है . मगर बहन मायावती ने भाई अजीत जोगी जैसे मजबूत खंबे पर विश्वास नहीं किया और अपने प्रत्याशियों को मैदान-ए-जंग में उतारा . अजीत जोगी मन मसोस कर रह गए .

लोकसभा में दोनों की साख बढ़ती
यहां यह बताना आवश्यक है कि अजीत जोगी और मायावती की पार्टियों को विधानसभा चुनाव में आशा के अनुरूप भले ही परिणाम नहीं मिले मगर यह मोर्चा तीसरे मोर्चे के विरुद्ध समर्पित हो गया अजीत जोगी को 5 सीटें मिली और मायावती को सिर्फ दो विधान सभा क्षेत्रों मैं सफलता मिली . संभवत: इसी परिणाम से मायावती नाराज हो गई . क्योंकि छत्तीसगढ़ में बसपा को 2 से 3 सीटों पर तो विजयश्री मिलती ही रही है . ऐसे में यह आकलन की अजीत जोगी से गठबंधन का कोई लाभ नहीं मिला तो सौ फीसदी सही है मगर इसके कारणों का भी पार्टी को चिंतन करना चाहिए था जो नहीं किया गया और लोकसभा में अपनी-अपनी अलग डगर पकड़ ली गई जो भाजपा और कांग्रेस के लिए मुफीद रही .
लोकसभा समर में बसपा को कभी भी एक सीट भी नहीं मिली है अगरचे यह गठबंधन मैदान में होता तो बसपा आसानी से एक सीट पर विजय होती . यह क्षेत्र है जांजगीर लोकसभा का . मगर बसपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली भाजपा के नये चेहरे की राह आसान कर दी . दूसरी तरफ जोगी और उनकी पार्टी का भविष्य भी अंधकारमय हो चला .

नगरीय-निकाय चुनाव में क्या होगा ?
अजीत जोगी ने विधानसभा चुनाव में हाशिए पर जाते ही पार्टी की कमान अपने सुपुत्र अमित ऐश्वर्य जोगी को सौंप दी है . प्रदेश में वे अपना मोर्चा खोलकर आए दिन रूपेश सरकार की नाक में दम किए हुए हैं . अपने हौसले की उड़ान से अमित जोगी ने यह संदेश दिया है कि वे आने वाले समय में एक बड़ी चुनौती भाजपा और कांग्रेस के लिए बनेंगे . उन्होंने अकेले दम पर नगरीय चुनाव पंचायती चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है . इधर बीएसपी ने भी अपने बूते चुनाव लड़ने की घोषणा की है मगर बीएसपी नगरीय चुनाव में कभी भी अपना एक भी महापौर जीता पाने में सफलीभूत नहीं हुई है .

यह तथ्य समझने लायक है कि अजीत जोगी और मायावती की युती छत्तीसगढ़ में बड़े गुल खिला सकती थी. अजीत जोगी की रणनीति और घोषणा पत्र को कांग्रेस ने कापी करना शुरू किया और अपने बड़े संगठनिक ढांचे के कारण कांग्रेस आगे निकल गई अन्यथा अजीत जोगी के 2500 रुपए क्विंटल धान खरीदी और बिजली बिल हाफ फार्मूला को अगर कांग्रेस नहीं चुराती तो जोगी और बसपा की स्थिति आश्चर्यजनक गुल खिला सकती थी . राजनीति में संभावनाओं के द्वार खुले रहते हैं ऐसे में भविष्य में क्या होगा यह आप अनुमान लगा सकते हैं.

केजरीवाल को अब याद आया औटो वाला, बढ़ाया किराया

दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने औटो किराया में वृद्धि को ले कर अधिसूचना जारी कर दी है. इस से मौजूदा किराए दरों में 18.75% की वृद्धि हो जाएगी.
अगले कुछ महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले यह कदम उठाने से राजनीतिक सरगर्मियां बढ जाएंगी यह तय है, क्योंकि अभी हाल ही में दिल्ली सरकार ने बसों और मैट्रो में महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने की घोषणा की थी.
पिछले चुनावों में यह माना जाता है कि आम आदमी पार्टी को आगे बढ़ाने में इन आटो वालों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी.

सरकार ने वादा पूरा किया

आटो किराए में वृद्धि की पुष्टि करते हुए दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत ने ट्विटर पर लिखा है, “अरविंद केजरीवाल सरकार ने अपना एक और वादा पूरा किया. परिवहन विभाग ने औटो रिक्शा किराया संशोधन को अधिसूचित कर दिया है. संशोधन के बाद भी दिल्ली में औटो किराया अन्य महानगरों की तुलना में कम होगा.”

ये भी पढ़ें- नतीजा: लोकसभा चुनाव 2019 फिर लौटी भाजपा

परिवहन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मीडिया से बातचीत में कहा, “औटो रिक्शा चालक मीटर में जरूरी बदलाव कर संशोधित दरें ले सकेंगे. हालांकि इस में दिल्ली में पंजीकृत 90,000 औटो के मीटरों में जरूरी बदलाव के लिए करीब डेढ महीने का समय लगेगा.”

संशोधित दरें क्या हैं

पहले 1.5 किलोमीटर के लिए 25 रुपए लगेंगे. फिलहाल पहले 2 किलोमीटर के लिए 25 रुपए लगते हैं. प्रति किलोमीटर शुल्क मौजूदा 8 रुपए से बढ़ा कर 9.5 रूपए कर दिया गया है. यह करीब 18.75% है.”

वहीं प्रतीक्षा शुल्क 0.75 रुपया प्रति मिनट लगाए जाने की बात भी कही गई है. वहां सामान्य शुल्क 7.50 रूपए होगा.

घटती लोकप्रियता से परेशान है आप

पहले निगम चुनाव में फिर लोकसभा चुनाव में करारी हार और वोट प्रतिशत में भारी गिरावट से परेशान आम आदमी पार्टी सरकार अब हर वर्ग के लोगों को लुभाने में लगी है.
इस से पहले दिल्ली मैट्रो में महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने की बात पर कई लोगों की प्रतिक्रियाएं आई थीं पर किसी राजनीतिक दल ने सीधे तौर पर इस की आलोचना नहीं की है.

ये भी पढ़ें- क्या है राधे मां का भोपाल कनेक्शन

मुफ्त का दांव

दिल्ली सरकार फिलहाल बिजली पर सब्सिडी और एक मात्रा तक पानी के इस्तेमाल को मुफ्त किया हुआ है. मगर औटो किराए में वृद्धि कर आप सरकार चाहती है कि इस से 90 हजार औटो वाले व उन के परिवार को खुश कर वोट हासिल किया जाए.
वहीं, बढे किराए से छात्रों, कामकाजी लाखों लोगों को अपनी जेब ढीली करनी पङेगी और जाहिर है इस से उन में सरकार के खिलाफ नाराजगी ही होगी.

कहीं आलोचना कहीं प्रशंसा

दिल्ली सरकार की इस घोषणा के बाद सोशल मीडिया पर लोगों की तीखी प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं.
कोई सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहा है तो कोई प्रशंसा. कईयों का यह मानना है कि आम आदमी पार्टी खो चुकी अपनी जमीन को फिर से पाना चाहती है और इसलिए चुनाव से पहले घोषणाओं की झड़ी और जनता को लुभाने में लगी है.

ये भी पढ़ें- पौलिटिकल राउंडअप

अगले साल होने हैं चुनाव

दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभी 6-7 महीने बाकी है. देखना है इस बार आम आदमी पार्टी पर दिल्ली की जनता कितना भरोसा करती है.

Edited By- Neelesh singh Siodia 

केजरीवाल को थप्पड़ मारने का मतलब

लेखक- सुनील शर्मा

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का विवादों से मानो गहरा नाता रहा है. आज से तकरीबन 5 साल पहले अन्ना आंदोलन से उपजे इस आम आदमी ने दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो कर साबित कर दिया था कि इस देश में जनता ही जनार्दन है. अगर कोई उस के मन की पढ़ ले तो वह उसे फर्श से अर्श तक ले जाती है. बाद में अरविंद केजरीवाल का सादापन और काम करने का तरीका बहुतों को पसंद आया तो कइयों को यह नौटंकी भी लगा और चूंकि मुख्यमंत्री बनने के बावजूद अरविंद केजरीवाल हर आम आदमी की जद में रहते थे तो उन पर निशाना साधना भी आसान ही था.

लिहाजा, कभी उन पर स्याही फेंकी गई तो कभी किसी ने थप्पड़ ही रसीद कर दिया. हाल ही में लोकसभा चुनाव के उन के एक रोड शो में एक आदमी ने उन्हें फिर थप्पड़ मारा. दरअसल, शनिवार, 4 मई की शाम को दिल्ली के मोती नगर इलाके में अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी के उम्मीदवार बृजेश गोयल का प्रचार कर रहे थे. वे एक खुली जीप में आगे खड़े थे कि तभी लाल रंग की टीशर्ट पहने

हालांकि वहां मौजूद आम आदमी पार्टी के लोगों ने उस आदमी को बख्शा नहीं और धुन दिया, बाद में पुलिस के हवाले भी कर दिया, पर तब तक वह आदमी अपने मकसद में कामयाब हो चुका था.

यूपी ही तय करेगा दिल्ली का सरताज

इस थप्पड़ कांड से पहले अरविंद केजरीवाल पर अक्टूबर 2011 से ले कर अब तक 11 बार हमले हो चुके हैं जबकि पिछले साल के नवंबर महीने में उन पर मिर्च से हमला हुआ था. इतना ही नहीं, अरविंद केजरीवाल पर कभी पत्थर फेंक कर तो कभी जूता उछाल कर भी विरोध जताया गया. आम आदमी पार्टी इस ताजा  थप्पड़ कांड के पीछे भारतीय जनता पार्टी का हाथ मानती है और सवाल उठती है कि क्या वे लोग अरविंद केजरीवाल की हत्या कराना चाहते हैं?

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने ट्वीट किया कि क्या मोदी और अमित शाह अब केजरीवाल की हत्या करवाना चाहते हैं? 5 साल सारी ताकत लगा कर जिस का मनोबल नहीं तोड़ सके, अब उसे रास्ते से हटाना चाहते हो?आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने इस हमले की निंदा करते हुए कहा कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन आती है और जानबूझ कर मुख्यमंत्री की सुरक्षा में चूक की जा रही है. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का जीवन सब से असुरक्षित है.

आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक गोपाल राय ने भाजपा पर हमला करते हुए कहा कि दिल्ली में वह बुरी तरह से हार रही है और यह उस की बौखलाहट को दिखा रहा है. पहले भाजपा ने उम्मीदवार बदले, विधायकों की खरीदफरोख्त की मंडी लगाई लेकिन जब इस से भी काम नहीं चला तो मुख्यमंत्री पर हमला करवाया गया. खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस मसले पर कहा, “हमला मुझ पर नहीं दिल्ली की जनता पर है. प्रधानमंत्री मोदी से पाकिस्तान संग रिश्तों पर पूछा सवाल, इसलिए मारा.”

यूपी ही तय करेगा दिल्ली का सरताज

सवाल उठता है कि अरविंद केजरीवाल तक ऐसे लोग कैसे पहुंच जाते हैं जो उन पर हमला भी कर देते हैं? वैसे, ऐसा सिर्फ उन्हीं के साथ ही नहीं हुआ है. देश का पहला बड़ा जूता कांड कांग्रेस के नेता और तब के गृह मंत्री पी. चिदंबरम के साथ हुआ था. साल 2009 में कांग्रेस के दिल्ली मुख्यालय में 1984 के सिख दंगों में जगदीश टाइटलर को सीबीआई द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के सवाल पर मनमुताबिक जवाब न मिलने से गुस्साए एक पत्रकार जरनैल सिंह ने उन पर जूता फेंक कर मारा था.

अब बात करते हैं अरविंद केजरीवाल की सिक्योरिटी की. उन की पार्टी की नाराजगी इस बात को ले कर है कि क्योंकि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के हाथ में है तो वह अपना काम ढंग से नहीं करती है. मनीष सिसोदिया ने आरोप लगाया है कि दिल्ली पुलिस के जरीए भाजपा यह संदेश देना चाहती है कि अगर कोई दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर करे, यहां तक कि उन की हत्या भी कर दे तो वह भी साफ बचा लिया जाएगा. इस के उलट भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने पूछा कि केजरीवाल ने सिक्योरिटी क्यों हटवाई? दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता ने दावा किया कि केजरीवाल ने शनिवार को ही अपनी सिक्योरिटी के लाइजनिंग अफसर को आदेश दिया था कि जब वे रोड शो के लिए निकलते हैं तब उन की गाड़ी के आसपास कोई भी सिक्योरिटी वाला नहीं रहना चाहिए. उन्होंने ऐसा क्यों किया और उस आदेश के पालन के बाद ही उन पर हमला क्यों हुआ?

मीडियाकर्मियों का दिल जीत लिया राहुल ने

विजेंद्र गुप्ता ने आगे बताया कि पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक, हमलावर आप का कार्यकर्ता था और उस की पार्टी के नेताओं द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाने की वजह से नाराज था…असल में अरविंद केजरीवाल को अपनी हार का डर सता रहा है और कोई उन्हें भाव नहीं दे रहा है. यह तो बात रही सियासी आरोपों की लेकिन सच तो यह है कि अरविंद केजरीवाल जैसे बड़े कद के नेताओं को अपने पास इतनी सिक्योरिटी तो रखनी ही होगी कि कोई सिरफिरा बड़ा कांड न कर दे. किसी नेता के विचारों या कामों से असहमत हुआ जा सकता है पर जिस पद पर वह बैठा है उस की गरिमा का खयाल रखते हुए उस पर हमला करना कहीं से भी जायज नहीं है. ऐसे मामलों में कुसूरवार पर कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए. वैसे, जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने पी. चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले जरनैल सिंह को आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़वा कर बाद में विधायक बनवा दिया था, उस से कई लोगों के मन में यह बात घर कर गई होगी कि नेता पर जूता चलाओ और बाद में किसी पार्टी में शामिल हो कर खुद नेता बन जाओ. राजनीति में थप्पड़वाद को बढ़ावा देने के पीछे यह सोच भी काम करती है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें