इस स्कूल में लगती है ‘डीएम अंकल’ की पाठशाला

पटना के बांकीपुर स्कूल की लड़कियां सुबह से जोश में थीं और बारबार उन की निगाहें दरवाजे की ओर उठ जाती थीं. दोपहर के सवा एक बजे एक शख्स क्लासरूम में दाखिल हुए, जो किसी भी तरह से स्कूल के मास्टर नहीं लग रहे थे. दरअसल, वे शख्स थे पटना के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट संजय कुमार अग्रवाल. उन्होंने एक छात्रा खुशबू कुमारी की कौपी उठा कर पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछा, तो उस ने कहा कि स्कूल में पढ़ाई नहीं होती है. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट संजय कुमार अग्रवाल ने जब इस बारे में स्कूल प्रशासन से पूछा, तो पता चला कि वहां पर भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, भूगोल, हिंदी, उर्दू, टाइपिंग और संगीत के टीचर ही नहीं हैं. जब उन्होंने छात्राओं से पूछा कि वे कोचिंग क्यों जाती हैं, तो मासूम बच्चियों ने यह कह कर एक झटके में ऐजूकेशन सिस्टम की कलई खोल दी कि स्कूल में तो पढ़ाई होती ही नहीं है. सभी छात्राओं का यही दर्द था कि अगर वे कोचिंग नहीं करेंगी, तो कोर्स पूरा नहीं होगा.

बिहार की शिक्षा व्यवस्था से रूबरू होने के लिए पटना के कलक्टर संजय कुमार अग्रवाल 27 जनवरी, 2017 को एक सरकारी स्कूल में छात्राओं को पढ़ाने पहुंचे. उन्होंने पटना के तमाम सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए अफसरों की एक टीम बनाई है.

शिक्षा विभाग के सूत्र बताते हैं कि अफसर अपना काम तो ठीक से करते नहीं हैं, ऐक्स्ट्रा काम वे क्या खाक करेंगे. मास्टरों का काम अफसरों से करा कर एजूकेशन सिस्टम को ठीक करने की बात सोचना खुली आंखों से सपना देखने की ही तरह है. सरकारी स्कूलों की बदहाली के लिए अफसरशाही ही जिम्मेदार है.

कुछ भी हो, सरकारी स्कूलों को दुरुस्त करने के लिए पटना के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट संजय कुमार अग्रवाल ने अनोखी पहल की है. उन्होंने 2 सौ अफसरों की एक टीम तैयार की है, जो हर हफ्ते स्कूलों में जा कर एक घंटे तक बच्चों के बीच गुजारेंगे और स्कूल की कमियों को दूर करने की कोशिश करेंगे. हर दिन अफसरों को सामान्य काम में रुकावट नहीं आए, इस के लिए रोस्टर तैयार किया गया है.

डीएम, एसडीएम, एडीएम, डीएसपी, बीडीओ, सीओ, थानेदार, सीडीपीओ और शिक्षा विभाग के तमाम बड़े अफसरों को सरकारी स्कूलों में हो रही पढ़ाई की क्वालिटी को सुधारने की मुहिम में लगाया गया है.

डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट संजय कुमार अग्रवाल ने बताया कि आमतौर पर जब कोई अफसर किसी स्कूल का दौरा करता है, तो उस के पहुंचने से पहले ही स्कूल प्रशासन वहां की तमाम व्यवस्था आननफानन दुरुस्त कर लेता है. अफसर के लौटने के बाद स्कूल की हालत फिर से बदतर हो जाती है. अब अफसर जब रोज स्कूल जाएंगे, तो वहां की हालत हमेशा दुरुस्त रहेगी. अफसर भी स्कूल की कमियों को दूर करने का काम करेंगे.

अफसर जिस किसी स्कूल में जाएंगे, वहां केवल बच्चों को किताबी या नैतिक बातें ही नहीं पढ़ाएंगे, बल्कि वहां की कमियों को भी देखेंगे और उन्हें दूर करने के उपाय करेंगे. हर अफसर स्कूल

के रजिस्टर पर अपनी हाजिरी भी लगाएगा. अफसरों के इस काम की मौनीटरिंग भी होगी.

डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट संजय कुमार अग्रवाल की पहल तो अच्छी है, पर वे अब अफसरों की मौनीटरिंग के ठोस इंतजाम करने की बात कर रहे हैं, तो मास्टरों की मौनीटरिंग के ठोस इंतजाम क्यों नहीं किए जा रहे हैं?

एसिड अटैक रोकने में कानून नाकाम

एसिड अटैक रोकने  में कानून नाकाम   देश की राजधानी दिल्ली में अपनी छोटी बहन के साथ जा रही एक लड़की पर द्वारका मोड़ के पास एक लड़के ने एसिड अटैक कर दिया. लड़की ने इस मामले में 2-3 लोगों पर शक जाहिर किया. पुलिस ने सभी 3 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.

लड़की के पिता ने बताया, ‘‘मेरी दोनों बेटियां सुबह स्कूल के लिए निकली थीं. कुछ देर बाद मेरी छोटी बेटी भागती हुई आई और उस ने बताया कि 2 लड़के आए और दीदी पर एसिड फेंक कर चले गए.  हर साल देश में एसिड अटैक के 1,000 से ज्यादा मामले सामने आते हैं. आरोपी पकड़े जाते हैं. पुलिस अपना काम करती है. इस के बावजूद लड़की की जिंदगी खराब हो जाती है. एसिड अटैक को ले कर साल 2013 में कानून बना था.

यह भी एसिड की शिकार लड़कियों की पूरी मदद नहीं कर पा रहा है. कानून के तहत एसिड हमलों को अपराध की श्रेणी में ला कर भारतीय दंड संहिता की धारा 326ए और धारा 326बी जोड़ी गई. इन धाराओं के तहत कुसूरवार पाए जाने पर कम से कम  10 साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया है. कुछ मामलों में उम्रकैद का भी प्रावधान रखा गया है.  सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में एक पीडि़ता की अर्जी पर सुनवाई के दौरान कहा था, ‘एसिड हमला हत्या से भी बुरा है.

इस से पीडि़त की जिंदगी पूरी तरह बरबाद हो जाती है.’ इस के बाद एसिड अटैक के पीडि़तों के इलाज और सुविधाओं के लिए भी नई गाइडलाइंस जारी की गई थीं. सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों को एसिड हमले के शिकार को तुरंत कम से कम 3 लाख रुपए की मदद देने का प्रावधान है. पीडि़ता का मुफ्त इलाज भी सरकार की जिम्मेदारी है.  देखने में यह बेहतर लगता है, पर हकीकत में इस को संभालना बहुत मुश्किल होता है. एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगी, इस के बाद भी एसिड मिल रहा है.

साल 2018 से साल 2020 के बीच देश में महिलाओं पर एसिड हमलों के 386 मामले दर्ज किए गए थे. इन में से केवल 62 मामलों के आरोपियों को कुसूरवार पाया गया था. एसिड अटैक की शिकार अपना मुकदमा सही से नहीं लड़ पाती हैं. उन के पास अच्छा वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं. एसिड अटैक की शिकार अंशु बताती हैं, ‘‘एसिड अटैक के बाद जिंदगी बेहद मुश्किल हो जाती है. इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं. सरकार से मिलने वाली मदद लेना बेहद मुश्किल होता है. वह मदद इतनी नहीं होती कि सही तरह से इलाज हो सके.  ‘‘इस के बाद जिंदगी में किसी का साथ नहीं मिलता. एसिड अटैक की शिकार लड़कियों के लिए सरकार को पुख्ता कदम उठाने चाहिए.’’

फीफा वर्ल्ड कप 2022 :धर्म के जाल में उलझा खूबसूरत खेल

इस बार का फीफा वर्ल्ड कप कतर देश में हुआ था और वहां की मेजबानी की हर जगह तारीफ भी हुई. हो भी क्यों न, यह फुटबाल वर्ल्ड कप अब तक का सब से महंगा खेल आयोजन जो था.

याद रहे कि कतर को साल 2010 में फुटबाल वर्ल्ड कप की मेजबानी मिली थी और तब से इस देश ने इस आयोजन को कामयाब बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया था. इस के लिए 6 नए स्टेडियम बनाए थे, जबकि 2 पुराने स्टेडियमों का कायाकल्प किया गया था. इस के अलावा दूसरे कामों पर भी जम कर पैसा खर्च किया गया था.

एक अंदाज के मुताबिक, कतर ने इस आयोजन पर कुल 222 अरब डौलर की भारीभरकम रकम खर्च की थी. इस से पहले का फुटबाल वर्ल्ड कप साल 2018 में रूस में कराया गया था, जिस पर कुल 11.6 अरब डौलर खर्च हुए थे.

कतर में हुए वर्ल्ड कप में दुनियाभर से आई 32 देशों की टीमें शामिल थीं और सभी चाहती थीं कि वे अपना बैस्ट खेल दिखाएं. जापान और मोरक्को ने तो सब को चौंकाया भी. जापान ने जरमनी को हराया था, तो मोरक्को कई दिग्गज टीमों को हराते हुए सैमीफाइनल मुकाबले तक जा पहुंची थी, जहां वह फ्रांस से हार गई थी. सऊदी अरब ने भी अर्जेंटीना पर जीत हासिल कर के बड़ा उलटफेर किया था.

पर इतने सारे रोमांच व खिलाडि़यों की कड़ी मेहनत के बावजूद फुटबाल वर्ल्ड कप के साथसाथ सोशल मीडिया पर एक अलग ही खेल चल रहा था, जिस पर धर्म का जाल कसा हुआ था. फीफा वर्ल्ड कप का आयोजन कराने को ले कर मिस्र के एक मौलाना यूनुस माखियान कतर पर ही बरस पड़े थे. उन्होंने अपने बयान में फुटबाल को समय की बरबादी बताते हुए लियोनेल मैसी और क्रिस्टियानो रोनाल्डो जैसे खिलाडि़यों को इसलाम का दुश्मन (काफिर) कह दिया था. उन की राय थी कि फुटबाल पर खर्च करने के बजाय परमाणु बम बनाने में पैसा खर्च करना चाहिए था.

भारत के केरल में नौजवान फुटबाल के दीवाने हैं. लेकिन वहीं के समस्त केरल जाम अय्यातुल उलमा के तहत कुतुबा समिति के महासचिव नासर फैजी कूडाथायी ने अर्जेंटीना के लियोनेल मैसी, पुर्तगाल के क्रिस्टियानो रोनाल्डो और नेमार जूनियर जैसे पसंदीदा फुटबाल सितारों के बड़े कटआउट लगाने को गलत बताया और कहा कि उन्हें इस में बहुत ज्यादा पैसा खर्च करने वाले फुटबाल प्रशंसकों की चिंता है. केरल में पुर्तगाल के झंडे लहराना भी गलत है, क्योंकि उस ने कई देशों पर जबरन राज किया था.

इस के अलावा इस वर्ल्ड कप में मोरक्को की सनसनीखेज जीतों को धर्म और इसलाम से जोड़ा जाने लगा था. सोशल मीडिया पर ऐसा माहौल बनाया जा रहा था मानो मोरक्को देश की शानदार टीम फुटबाल नहीं खेल रही थी, बल्कि धर्म का प्रचार कर रही थी. उस की हर जीत पर अल्लाह का रहम था और वह फुटबाल के मैदान पर नहीं, बल्कि किसी जंग के मैदान पर उतरी थी, जो पूरी दुनिया में इसलाम की जयजयकार करवाने को बेताब थी.

इस धार्मिक एंगल को ऐसे समझते हैं. इस टूर्नामैंट में मोरक्को ने जैसे क्रिस्टियानो रोनाल्डो की टीम पुर्तगाल को हराया, तो इस के बाद इंटरनैट पर मोरक्को की जीत के चर्चे तो हुए ही, इसे ‘इसलाम की जीत’ बताया जाने लगा, जबकि खेल एक ऐसी चीज है जो देशों, धर्मों और समुदायों के बीच की सीमा को मिटा देता है.

पर मोरक्को के सैमीफाइनल मुकाबले में पहुंचने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कप्तान रह चुके इमरान खान ने लिखा, ‘पुर्तगाल पर जीत हासिल कर फुटबाल वर्ल्ड कप के सैमीफाइनल में पहुंचने के लिए मोरक्को को मुबारकबाद. यह पहली बार है, जब एक अरब, अफ्रीकी और मुसलिम टीम फीफा वर्ल्ड कप के सैमीफाइनल में पहुंची है. सैमीफाइनल और आगे की कामयाबी के लिए उन्हें शुभकामनाएं.’

इस बात में कोई दोराय नहीं है कि मोरक्को मुसलिम बहुल अफ्रीकी देश है, पर जिस तरह से इमरान खान ने इसे सियासी और धार्मिक रंग दिया, वह मामला गड़बड़ कर गया. और भी लोगों द्वारा इसे ‘देश की जीत’ से बढ़ कर ‘इसलाम की जीत’ कह कर मामला गरमाया गया. मिशिगन की वेन स्टेट यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ाने वाले प्रोफैसर खालिद बिदुन ने कहा कि मोरक्को के खिलाडि़यों ने हर गोल और जीत के बाद इबादत में सिर झुकाया. यह दुनियाभर के 2 बिलियन मुसलमानों की जीत है.

जरमनी के फुटबाल खिलाड़ी रह चुके मेसुत ओजिल ने ट्वीट किया, ‘यह अफ्रीकी महाद्वीप और मुसलिम जगत के लिए बड़ी उपलब्धि है.’

एक यूजर ने लिखा कि मोरक्को की जीत से ‘फिलिस्तीन को गर्व है’. अब मोरक्को की जीत फिलिस्तीन के लिए गर्व की बात कैसे हो सकती है? क्या इस गर्व को इसलाम नाम की कड़ी जोड़ती है?

दरअसल, ‘अल जजीरा’ की रिपोर्ट के मुताबिक, फिलिस्तीन में भी मोरक्को की जीत का जश्न मनाया जा रहा था. यह जश्न सिर्फ घरों में बैठ कर तालियां बजाने तक सीमित नहीं था, बल्कि लोग सड़कों पर निकल रहे थे और ड्रम बजा कर, नारे लगा कर मोरक्को के लिए अपना समर्थन जाहिर कर रहे थे.

सवाल उठता है कि अगर यह इसलाम या धर्म की जीत थी, तो सैमीफाइनल मुकाबले में फ्रांस से हारने के बाद मोरक्को के प्रशंसक उग्र क्यों हो गए थे और वे टीम की हार को क्यों पचा नहीं पाए? उन्होंने फ्रांस की राजधानी पैरिस और बैल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में क्यों उत्पात मचाया? खुद एक इसलामिक देश कतर अपने तीनों ही मैच क्यों हार गया? ईरान और सऊदी अरब भी क्यों कोई कमाल नहीं दिखा पाए?

हकीकत तो यह है कि जब लोग खेल को धर्म के चश्मे से देखने लगते हैं, तो वे खिलाडि़यों की उस लगन और मेहनत को नकार देते हैं, जिसे सालों का पसीना बहाने के बाद हासिल किया जाता है. अगर मोरक्को फुटबाल टीम की बात करें, तो इस टूर्नामैंट में उस की एकता ही सब से ज्यादा असरदार रही है.

हैरत की बात तो यह है कि 26 सदस्यीय मोरक्को टीम में से सिर्फ 12 सदस्य इस देश में पैदा हुए थे, बाकी 14 सदस्य फ्रांस, स्पेन, बैल्जियम, इटली, नीदरलैंड्स और कनाडा जैसे देशों में पैदा हुए थे.

मोरक्को को इस मुकाम तक लाने के लिए टीम के कोच वालिद रेगरागुई के रोल को भी नहीं नकारा जा सकता है, जिन्होंने चंद महीनों में ही टीम को नए रंग में रंग दिया. उन्हें साल 2022 के अगस्त महीने में टीम का कोच बनाया गया था.

इस के अलावा साल 1999 से मोरक्को पर राज कर रहे किंग मोहम्मद 6 का भी इस देश की फुटबाल टीम के विकास में खास रोल रहा है. उन्होंने इस देश में फुटबाल अकादमी बनाने के लिए पैसे से मदद की. इस का नतीजा यह हुआ कि ऐसे खिलाड़ी उभर कर सामने आए, जो मोरक्को की प्रोफैशनल लीग (बोटोला) के साथसाथ अपने देश और विदेशी लीगों में भी नाम कमा रहे हैं.

सच तो यह है कि मोरक्को की टीम ने चौथे नंबर पर रह कर भी फुटबाल की दुनिया में नाम कमाया है और यह सब खिलाडि़यों, कोच और प्रशासन की मिलीजुली और कड़ी मेहनत का नतीजा है. 18 दिसंबर, 2022 को फ्रांस और अर्जेंटीना की टीमें इसलिए फाइनल मुकाबले में आमनेसामने थीं, क्योंकि उन्होंने पूरे टूर्नामैंट में उम्दा खेल दिखाया था. इस मुकाबले का दुनियाभर के लोगों ने लाइव देख कर मजा लिया, फिर चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले थे.

दोनों में से एक टीम को जीतना था और ऐसा हुआ भी. एक बेहद रोमांचक मुकाबले में अर्जेंटीना ने फ्रांस को मात दी. फ्रांस ने 2 गोल से पिछड़ने के बाद मैच के आखिरी चंद मिनटों में जैसे 2 गोल किए, तो लगा कि पिछली बार के चैंपियन को हराना इतना आसान नहीं है. ऐक्स्ट्रा टाइम में दोनों टीमों ने 1-1 गोल और दागा, जिस से मुकाबला पैनल्टी शूटआउट में चला गया, जहां अर्जेंटीना के गोलकीपर एमिलियानो मार्टिनेज ने अपने शानदार क्षेत्ररक्षण से फ्रांस का लगातार 2 बार फीफा चैंपियन बनने का सपना तोड़ दिया.

लेकिन खेल में हारजीत तो होती रहती है, पर इसे मनोरंजन का साधन ही रहने दिया जाए तो बेहतर रहेगा. सोशल मीडिया पर खिलाडि़यों की जाति, धर्म, रंग वगैरह को बीच में ला कर जो लोगों के दिलों में नफरत की दीवार ऊंची करने के मनसूबे पल रहे हैं, उन पर रोकथाम की जरूरत है, ताकि दुनिया का सब से मशहूर खेल यों ही सब का मनोरंजन करता रहे.अर्जेंटीना को जीत की बधाई और फ्रांस को सांस रोक देने वाले इस महानतम फाइनल मुकाबले का हिस्सा बनने के लिए शुक्रिया.

सोशल मीडिया बना गु्स्सा निकालने का साधन

आजकल इंटरनैट का साधन आम आदमियों का अपना गुस्सा निकालने का सहज साधन बन गया है. दिल्ली, मुंबई एयरपोर्टों पर अब बहुत अधिक भीड़ होने लगी है और लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह वायदा खूब याद आ रहा है कि वे देश के रेलवे स्टेशनों के एयरपार्टों जैसा थानेदार क्या देंगे. लीग वह रहे हैं कि एयरपोर्टों और स्टेशनों में बराबर की भीड़, पीक ने निर्माण, बाहर गाडिय़ों की अफरातफरी, धक्कामुक्की बराबर है. स्टेशन तो एयरपोर्ट नहीं बन सके पर एयरपोर्ट भारतीय स्टेशन जरूर बन गए है.

नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई.

आम हवाई चप्पल पहनने वाला हवार्ई यात्रा तो आज भी नहीं कर रहा पर हवाई चप्पल ही ऐसी मंहगी और फैशेनबेल हो गई है कि गोवा, चैन्नै, बंगलौर में कितने ही रबड़ की ब्राडेंट चप्पलें पहने भी दिख जाएंगे. वह वादा भी भी उन्होंने पूरा कर दिया.

सोयासिटों के लिए सुविधा के नाम पर कुछ स्टेशन ठीकठाक हुए है, वंदे मातरम नाम की कुछ ट्रेनें चली हैं पर आज अब किराए इतने बढ़ा दिए गए हैं कि एक  बार ट्रेन में जा कर 4 दिन खराब करना और 4 दिन की मजूरी खराब करना से हवाई यात्रा करना ज्यादा सस्ता है. रेलों के बढ़ते दाम, हवाई यात्रा के घटते दामों ने यह वादा भी पूरा कर लिया.

वैसे भी देश की जनता हमेशा वादों को सच होता ऐसे ही मानती रही जैसी वे मूॢत के आगे मन्नत को पूरी आगे मानते रहे हैं, 4 में से 1 काम तो हरेक का अपनी मर्जी का अपनेआप हो ही जाता है बीमार ठीक हो जाते हैं, देरसबेर छोटीमोटी नौकरी लग ही जाती है, लडक़ी को काला अनपढ़ा सा पति भी मिल जाता है, 10-20 साल बाद अपना मकान बन ही जाता है, 10 में से 2-3 के धंधे भी चल निकलते हैं और इन सब को मूॢत की दया समझ कर सिर झुकाने वाले, अंटी खाली करने वालों, चुनावी में से कुछ को भी सही होता देख कर वोट डाल ही आते हैं.

जहां तक हवाई यात्रा का सवाल है, यह देश के लिए जरूरी है, जैसे आज बिजली और उस से चलने वाली चीजें जैसे फ्रिज, कूलर, पंखा, बत्ती, एसी, टीवी मोबाइल, लैटपटौप आज हरेक के लिए जरूरी है, वैसे ही हवाई यात्रा हरेक के लिए जरूरी है. पहले जो शान हवाई यात्रा में रहती थी, जब टिकट आज के रुपए की कीमत के हिसाब से मंहगे थे, वह अब कहां. उस के रुपए की कीमत वे हिसाब से मंहगे थे, वह अब कहां. उस के लिए अमीरों ने प्राईवेट जेट रखने शुरू कर दिए है. नरेंद्र मोदी भी या तो 8000 करोड़ के प्राईवेट जेट में सफर करते हैं या 20-25 किलोमीटर की यात्रा हो तो हैलीकौप्टर में आतेजाते हैं. हवाई चप्पल पहनने वाली जनता इस शान की बात भूल जाए.

हवाई यात्रा जरूरी इसलिए है कि देश बहुत बड़ा है और लोग गांवों से शहरों की ओर जा रहे हैं. उन्हें जब भी गांव वापिस जाना होता है तो उन के पास 7-8 दिन रेल के सफर के नहीं होते. वे यह काम हवाई यात्रा से घंटों में कर सकते हैं.

दुनिया भर में हवाई यात्रा अब रेल यात्रा की तरह हो गई है. ट्रेनें और पानी के जहाज तो अब खास लोगों के लिए रह जाएंगी जिन में होटलों जैसी सुविधाए होंगी. लोग चलते या तैरते होटलों का मजा लेंगे और हवाई यात्रा बस काम के लिए करेंगे.

चलन: जाति के बंधन तोड़ रहा है प्यार

गांवकसबे हों या शहर, आज नौजवान पीढ़ी अपने मनचाहे साथी के लिए जाति, धर्म और दूसरे सामाजिक बंधन तोड़ रही है. जरूरत पड़ने पर ऐसे प्रेमी जोड़े घरपरिवार छोड़ कर भाग भी रहे हैं. जाति हो या धर्म हो या फिर रुतबा, सभी पारंपरिक बेडि़यों को तोड़ते हुए आज नौजवानों का प्यार परवान चढ़ रहा है.

19 साल के विकास और 16 साल की स्नेहा की दोस्ती 2 साल पहले स्कूल में शुरू हुई थी. स्नेहा बताती है, ‘‘हमारी पहली मुलाकात स्कूल के रास्ते में हुई थी. यह पहली नजर का प्यार नहीं था. शुरुआत दोस्ती से हुई थी, फिर नंबर ऐक्सचेंज हुए और हमारी बातें होने लगीं.

‘‘मैं ने विकास से 3 वादे कराए थे. पहला, ये मुझे अपने परिवार से मिलाएंगे. दूसरा, मुझ से शादी करेंगे और तीसरा, अपना कैरियर बनाएंगे,’’ यह बताती हुई स्नेहा का चेहरा सुर्ख हो गया.

एक तरफ इन का इश्क परवान चढ़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ स्नेहा के मातापिता का पारा. उस के पिता ने उसे फोन पर विकास से बात करते हुए सुन लिया था. अगले ही पल स्नेहा का फोन तोड़ कर फेंका जा चुका था और वह पिटाई के बाद रोते हुए एक कोने में दुबक गई थी.

विकास को जब इस सब का पता चला, तो उस ने स्नेहा को कुछ औरदिन बरदाश्त करने की बात कही. उन दोनों को यकीन था कि वे जल्द ही शादी कर लेंगे.दिसंबर की सर्दियों में दोपहर के तकरीबन 2 बजे होंगे. विकास एक कंपनी में नाइट ड्यूटी के बाद घर वापस आया था. उस की मां उस के लिए खाना गरम कर रही थीं कि तभी स्नेहा अचानक उन के घर चली आई. कड़कड़ाती सर्दी में उस के शरीर पर सिर्फ एक ढीला टौप और जींस थी.स्नेहा ने विकास की बांह पकड़ कर रोते हुए कहा, ‘‘यहां से चलो, अभी चलो. मेरे घर वाले तुम्हें मार डालेंगे…’’ और विकास उस के साथ निकल गया.

विकास के माबाप को लगा कि वे आसपास ही कहीं जा रहे होंगे, इसलिए उन्होंने दोनों को रोकने की कोशिश भी नहीं की.विकास ने उस दिन के बारे में बताया, ‘‘हम पैदल चल कर जयपुर पहुंचे और वहां हम ने रात बसअड्डे पर बिताई. हम पूरी रात जागते रहे. फिर हम ने जयपुर के पास ही एक गांव में किराए पर छोटा सा कमरा ले लिया और साथ रहने लगे.’’

स्नेहा बताती है कि वे दोनों वहां खुश थे, लेकिन विकास के परिवार को धमकियां मिल रही थीं. उस के मातापिता ने थाने में उन के लापता होने की शिकायत दर्ज कराई थी और स्नेहा के मातापिता जयपुर महिला आयोग जा चुके थे, इसलिए विकास ने अपने घर में फोन कर के अपना ठिकाना बताया.

इस बीच मैडिकल रिपोर्ट भी आगई थी, जिस में विकास और स्नेहा के बीच जिस्मानी संबंध होने की बात कही गई थी.पुलिस ने विकास को पोक्सो ऐक्ट यानी प्रोटैक्शन औफ चिल्ड्रेन फ्रोम सैक्सुअल औफैंस और रेप के आरोप में जेल में डाल दिया. उस ने जेल में 6 महीने बिताए. वहां रोज स्नेहा को याद कर के वह रोता था.क्या इस दौरान उन दोनों का भरोसा नहीं डगमगाया? एकदूसरे के पलटने का डर नहीं लगा? विकास के मन में थोड़ा डर जरूर था, लेकिन स्नेहा ने न में सिर हिलाया. उस ने कहा, ‘‘मैं ने सब समय पर छोड़ दिया था.’’

मामला अदालत में पहुंचा. स्नेहा ने जज के सामने अपने परिवार के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया. उस ने बताया, ‘‘मैं ने कोर्ट में सचसच बता दिया कि मैं इन्हें ले कर घर से निकली थी, ये मुझे नहीं. हम दोनों अपनी मरजी से साथ हैं. इस पूरे मामले में इन की कोई गलती नहीं है.’’

जज ने फैसला सुनाया, ‘‘दोनों याचिकाकर्ता अपनी मरजी से साथ हैं. यह भी नहीं कहा जा सकता कि लड़की समझदार नहीं है. लेकिन चूंकि अभी दोनों नाबालिग हैं, इन्हें साथ रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती.’’

जज ने विकास पर लगे पोक्सो ऐक्ट और रेप के आरोपों को भी खारिज कर दिया.राजस्थान के कोटा जिले के 28 साल के मनराज गुर्जर ने पिछले साल 30 दिसंबर को बांरा जिले की सीमा शर्मा से शादी कर ली. शादी में दोनों के परिवार खुशीखुशी शामिल हुए. राजस्थान यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान दोनों में प्यार हुआ. मनराज राजस्थान पुलिस में सबइंस्पैक्टर हैं, तो सीमा स्कूल में टीचर. पर हर किसी की कहानी इन दोनों की तरह नहीं है. जयपुर की रहने वाली दलित समाज की पूनम बैरवा को ओबीसी समुदाय के सचिन से शादी के लिए न सिर्फ सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, बल्कि उन के परिवार ने भी उन से नाता तोड़ लिया. ऐसा भी नहीं है कि यह हौसला बड़े शहरों की ओर रुख करने वाले ज्यादा पढ़ेलिखे नौजवानों में ही देखा जा रहा है, छोटे कसबों की कहानी तो और भी हैरानी भरी है.

अलवर जिले के तिजारा थाना इलाके के एक गांव की बलाई (वर्मा) जाति की खुशबू ने घर से भाग कर यादव जाति के किशन के साथ शादी रचा ली. जयपुर के महिला एवं बाल विकास संस्थान की सहायक निदेशक तारा बेनीवाल बताती हैं, ‘‘पिछले 2 साल में जयपुर में तकरीबन 30 लड़कियों ने अंतर्जातीय विवाह प्रोत्साहन राशि के लिए आवेदन किया है.’’ अजमेर के सरवाड़ इलाके के विजय कुमार ने जब सुनीता से अंतर्जातीय शादी की, तो उन्हें न केवल परिवार से अलग होना पड़ा, बल्कि पानी, बिजली और शौचालय जैसी सुविधाओं से भी वंचित कर दिया गया. समाज ने उन का बहिष्कार कर दिया. इस दर्द को विजय कुमार कुछ यों बयान करते हैं, ‘‘लोग कहते हैं कि मैं आवारा निकल गया, बिरादरी की नाक कटा दी. आखिरी समय तक शादी तोड़ने की कोशिश की गई.’’ यहां तक कि बेटियों की आजादी पर भी बंदिश लगाई जाती है. 26 सितंबर, 2020 को अंतर्जातीय शादी करने वाली ज्योति बताती हैं, ‘‘मेरे परिवार वाले समाज के तानों से दुखी हैं. लोग कहते हैं कि बेटी को ज्यादा छूट देने की वजह से उस ने नीच जाति के लड़के से शादी कर ली. मांबाबूजी को तो यह भी फिक्र है कि दूसरे बेटेबेटियों की शादी कैसे होगी?’’

विजय कुमार अपने प्यार का राज खोलते हैं, ‘‘हम दोनों का संपर्क मोबाइल फोन के जरीए हुआ और उसी के जरीए परवान भी चढ़ा.’’जाहिर है कि मोबाइल और दूसरी तकनीकों और पढ़ाईलिखाई ने दूरियां मिटा दी हैं. जयपुर के महारानी कालेज में इतिहास की प्रोफैसर नेहा वर्मा इसी ओर इशारा करती हैं, ‘‘मर्दऔरत के बीच समाज ने जो अलगाव गढ़े थे, वे खत्म हो रहे हैं. दोनों के बीच आपसी मेल बढ़ा है, खासकर औरतें घर की दहलीज लांघ रही हैं.’’ अंतर्जातीय प्यार या शादी करने वालों को थोड़ीबहुत रियायत तो मिल भी जाती है, लेकिन अंतर्धार्मिक रिश्तों के लिए परिवार और समाज कतई तैयार नहीं होता.

अजमेर जिले के किशनगढ़ की 20 साला सकीना बानो ने जब घर से भाग कर 22 साल के अमित जाट से शादी की, तो उन्हें न केवल सामाजिक बुराई सहनी पड़ी, बल्कि उन के परिवार वालों ने अमित और उस की मां को जान से मारने और घर जलाने की धमकी तक दी.

मजबूरन उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा और सकीना को पुनर्वास केंद्र भेज दिया गया. लेकिन अब अदालत के आदेश के बाद नवंबर, 2020 से दोनों पतिपत्नी की तरह रह रहे हैं. सकीना अब एक बेटे की मां बन गई है. उस के पिता अब बेहद बीमार हैं, पर बेटी से मिलना तक नहीं चाहते. अमित की मां भी सकीना को ले कर सहज नहीं हैं वहीं टोंक जिले की ही मनीषा की कहानी लव जिहाद की थ्योरी गढ़ने वाले संघी समूहों के मुंह पर करारा तमाचा है. 16 अप्रैल, 2022 को वह अपने प्रेमी मोहम्मद इकबाल के साथ घर से भाग गई.

भला समाज और परिवार को यह कैसे मंजूर होता. मनीषा के पिता जयनारायण ने इकबाल और उस के पिता हसन के खिलाफ अपहरण की प्राथमिकी दर्ज कराई. इस से बचने के लिए मनीषा और इकबाल ने अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया. समाज और परिवार का अडि़यल रुख ही है कि ऐसे ज्यादातर प्रेमी जोड़ों को प्यार या शादी के लिए घर से भागना पड़ रहा है. लेकिन वे उन से पीछा नहीं छुड़ा पाते, क्योंकि परिवार वाले उन के खिलाफ अपहरण और बहलाफुसला कर शादी करने का मामला दर्ज करा देते हैं. लेकिन इस से नौजवानों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा.

इस सिलसिले में राजस्थान पुलिस के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. प्यार के मामलों में घर छोड़ कर भागने वाले नौजवानों की  तादाद में तकरीबन 6 गुना की बढ़ोतरी हुई है. पुलिस ने राज्य में अपहरण के दर्ज मामलों की जांच के बाद खुलासा किया है कि साल 2013 में जहां प्यार की खातिर घर से भागने वालों की तादाद सिर्फ 172 थी, वहीं साल 2021 में 763 हो गई और यह तादाद सिर्फ अपहरण के दर्ज मामलों की है.ब्राह्मण जाति की अंकिता और बहुत पिछड़ी जाति से आने वाले उन के पति के परिवारों में रिश्ते सामान्य होने में 3 साल लग गए. इस के लिए अंकिता के भाई ने ही पहल की. दोनों के 2 बच्चे भी हो गए हैं, तो वहीं कई लड़कियां पुनर्वास केंद्र में अपने प्रेमी से मिलने के इंतजार में दिन काट रही हैं. तमाम दुखों के बावजूद उन का हौसला नहीं टूटा है.

बेडि़यां तोड़ते इस प्यार को मनीषा के इस हौसले में देखा जा सकता है, ‘‘हमारे रिश्ते को जाति और धर्म के बंधन में नहीं बांधा जा सकता. कोई भी मुश्किल हमें डिगा नहीं सकती.’’प्रोफैसर नेहा वर्मा कहती हैं, ‘‘समाज में जहां एक तरफ धर्म और जाति का राजनीतिकरण बढ़ा है, वहीं दूसरी तरफ इन में दरारें भी पैदा हो रही हैं. नौजवान उन को चुनौती भी दे रहे हैं. लिहाजा, बांटने वाली ताकतों की प्रतिक्रिया भी बढ़ी है. लव जिहाद का झूठा मिथक इस की मिसाल है.’’

मिसाल: सामाजिक भाईचारा- जाट के घर से उठी, दलित लड़की की डोली

देवाराम जाखड़ की प्रगतिशील सोच व क्रांतिकारी पहल के चलते एक दलित समाज की लड़की पुष्पा की शादी एक जाट किसान परिवार के आंगन में पूरी होने पर देवाराम जाखड़ की सोच, उन की कोशिश और उन की हिम्मत की हर कोई तारीफ कर रहा है. गंवई इलाके में सब से ज्यादा अछूत समझी जाने वाली हरिजन जाति का नौजवान चाऊ गांव में दूल्हा बन कर घोड़ी पर ही नहीं बैठा, बल्कि वह घोड़ी पर सवार हो कर तोरण मारने के लिए जाट जाति के घर भी पहुंच गया.

जाखड़ों वाली ढाणी पर जब यह बरात पहुंची, तो जाटणी (देवाराम जाखड़ की पत्नी) ने दूल्हे का स्वागत चांदी के सिक्के से तिलक लगा कर किया. जाखड़ों की ढाणी में घोड़ी पर बैठे हरिजन दूल्हे के आगे भी वैसे ही नाचगान चल रहे थे, जैसे अकसर यहां के जाटों में होने वाले शादीब्याह में चलते रहते हैं. देवाराम जाखड़ ने शादी के कार्ड में कार्ल मार्क्स का संदेश ‘लोगों की खुशी के लिए पहली आवश्यकता धर्म का अंत है. धर्म अफीम की तरह है,’ लिखवाया.

कार्ड में कई संदेश दिए गए, जिन में पहला संदेश ज्योतिबा फुले का था, जिस में ज्योतिबा फुले को राष्ट्रपिता मानते हुए असमान व शोषक समाज को उखाड़ फेंकने के उन के ऐलान को उजागर किया गया. इस कार्ड में देवाराम जाखड़ ने ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिकारियों के क्रांतिकारी संदेश लिखवाए, जिन का नाम इस इलाके के लोगों ने पहली बार सुना. शादी के कार्ड में भगत सिंह, डाक्टर भीमराव अंबेडकर, सर छोटूराम, जयपाल सिंह, बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिकारियों के संदेश लिखवाए गए, पर देवाराम जाखड़ ने किसी ब्राह्मणवादी देवीदेवता को पास भी नहीं फटकने दिया. शादी के कार्ड में एकमात्र तसवीर विद्रोही संत रैदास की थी.

शादी के इस कार्ड के कवर पेज पर ‘जय जवान जय किसान’ के स्लोगन के साथ ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का ऐलान किया गया. इतना ही नहीं, इन्होंने इस कार्ड के कवर पेज पर शिक्षा और आजादी के बारे में लिखते हुए ‘किताबों संग आजादी, पढ़े चलो, बढ़े चलो’ का नारा भी दिया.

जाखड़ का यह गांव मशहूर मारवाड़ी लोककवि कानदानजी के गांव ‘मरुधर म्हारो देश झोरड़ों’ का ग्राम पंचायत मुख्यालय है, इसलिए इस निमंत्रणपत्र को पढ़ कर कानदानजी की एक कविता में थार के रेगिस्तान में बसने वाले ऐसे ही हीरेमोतियों के लिए दी गई उपमा ‘मरुधर का मोती’ याद आती है. शायद देवाराम जाखड़ जैसी ऊंची सोच रखने वाले लोगों के लिए ही कानदानजी ने यह उपमा दी होगी. देवाराम जाखड़ द्वारा खेतीकिसानी की आमदनी से करवाई गई यह शादी मरुधर में जाति आधारित ऊंचनीच और अंधविश्वास मिटाने की दिशा में बहुत बड़ा कदम होगा.

गौरतलब है कि इस देश में वर्ण व्यवस्था के चलते हजारों बरसों से सामाजिक व्यवस्था में एक दमघोंटू सा माहौल रहा है, हद दर्जे की छोटी सोच का बोलबाला रहा है, धार्मिक कर्मकांडों के चलते इनसानियत कहीं एक कोने में सदियों तक दफन रही है, दम तोड़ती रही है, सिसकती रही है… कह सकते हैं कि इस दमघोंटू व्यवस्था के खिलाफ भी लोगों ने सोचना और कदम उठाना शुरू किया है.

जाट एक किसान कौम है, जो हमेशा इंसाफ और सच के साथ रही है, जो इतिहास में कमजोर तबके के साथ खड़ी मिली है. जाट पुरखों ने अपना सबकुछ दांव पर लगा कर भी दलितों और कमजोरों के हक की लड़ाई पूरे दमखम के साथ लड़ी है. ज्यादातर यह कौम पाखंड और कर्मकांडी जमात से अकसर दूर ही रही है, बल्कि इन का मुखर विरोध भी रहा है. 11वीं शताब्दी में पैदा हुए इस कौम के महापुरुष वीर तेजाजी का जीवन इस का प्रमाण है, जिन्होंने दलितों को अपने साथ रखा, दूसरों की खातिर अपना जीवन बलिदान कर दिया था. आज भी यह शादी उसी परंपरा में एक और कड़ी है.

देवाराम जाखड़ कहते हैं, ‘‘हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि हमारे असली और स्वाभाविक साथी एससी और एसटी ही हैं. मनुवादी और सामंती  तत्त्वों से हमारी परंपरागत सोच का कोई मेल न कभी गुजरे कल में हुआ और आज और भविष्य में तो इस की उम्मीद कम ही लगती है, क्योंकि उन के हित और हमारे हित एक नहीं हैं. ‘दलित वर्गों से हमारे हितों का कोई टकराव नहीं है, हमारा और इन का मेल स्वाभाविक है. हमें यह बात दिल और अपनी समझ में बैठानी होगी कि बिना एससी व एसटी के साथ हम अधूरे हैं. अगर ये सब एक नहीं हुए, तो सब नुकसान में ही रहेंगे. वक्त की जरूरत को समझते हुए इन की एकता बहुत जरूरी है.’’

यहां केवल यही एक बड़ी बात नहीं है कि इस किसान परिवार ने बिना मांबाप की एक दलित लड़की पुष्पा की शादी का खर्चा उठाया है. इस में बड़ी बात यह है कि ठेठ थार के रेगिस्तान की इस धोरा री धरती में, जहां की बड़ी आबादी ब्राह्मणवाद की गुलाम है, जो 100 फीसदी पिछड़ी सोच में जी रही है, जहां हरिजन लोग मेघवालों, नायकों, बावरियों, ढोली, भीलों और चौकीदारों वगैरह के घर के दरवाजे से भी काफी दूर खड़े रहते हैं, वहां जाट कौम के किसान परिवार ने एक हरिजन की बेटी की शादी अपने घर के आंगन में की है.

छोटी जात की बहू

दिनेश जब से काम के लिए लखनऊ गया है, उस की पत्नी भूरी परेशान है. इस की वजह है भूरी का जेठ सुरेश, जो कई बार उस के साथ गलत हरकत कर चुका है. वह हर वक्त उसे ऐसे घूरता है, मानो आंखों से ही निगल जाएगा. जब देखो तब किसी न किसी बहाने उसे छूने की कोशिश करता है.

आज सुबह तो हद ही हो गई. भूरी नहाने के बाद छत पर धोए हुए कपड़े सुखाने गई तो सुरेश उस के पीछेपीछे छत पर पहुंच गया.

भूरी बालटी से कपड़े निकाल कर रस्सी पर डाल ही रही थी कि सुरेश ने चुपचाप पीछे से आ कर उसे कमर से पकड़ लिया.

भूरी मछली की तरह तड़प कर उस की जकड़ से निकली और उस को धक्का मारते हुए सीढि़यों से नीचे भागी.

रसोई के दरवाजे पर पहुंच कर वह सास के आगे फूटफूट कर रोने लगी.

उस को इस तरह रोते देख सास ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? क्यों रोती है?’’

भूरी बस छत की ओर उंगली उठा कर रह गई, कुछ बोल नहीं पाई.

‘‘अरे बोल न, कौन मर गया?’’

भूरी चुपचाप आंसू पोंछती हुई सास के सामने से हट कर अपनी कोठरी में आ गई. सास से जेठ की शिकायत करना फुजूल था. वह उलटा भूरी पर ही बदचलनी का आरोप लगा देती. फिर दरवाजे पर बैठ कर दहाड़ें मारमार कर सिर पटकती कि बेटे ने निचली जात की औरत से ब्याह कर के खानदान की नाक कटवा दी. देखो, खुद बदन उघाड़े घूमती है और फिर जेठ और ससुर पर इलजाम लगाती है.

इस महल्ले के ज्यादातर लोग इन्हीं लोगों की जात वाले हैं. वे इन्हीं की बातों पर भरोसा करेंगे, भूरी का दर्द कोई नहीं समझेगा. हद तो उस दिन हो गई थी, जब दिनेश पहली बार भूरी को ले कर मंदिर में गया और पुजारी ने भूरी को मंदिर की पहली सीढ़ी पर ही रोक दिया.

पुजारी ने दिनेश से साफ कह दिया कि वह चाहे तो मंदिर आए, मगर अपनी पत्नी को हरगिज न लाए.

पुजारी की बात का दिनेश विरोध भी नहीं कर पाया था, उलटे हाथ जोड़ कर पुजारी से माफी मांगने लगा था. फिर भूरी को सीढि़यों पर छोड़ कर वह मंदिर के भीतर चला गया था.

दिनेश सारे रास्ते भूरी को समझाता आया था कि अभी नईनई बात है, धीरेधीरे सब उसे स्वीकार कर लेंगे. उसे इन बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए.

दरअसल, भूरी का परिवार दिहाड़ी मजदूर था. लखनऊ में दिनेश एक छोटे से रैस्टोरैंट में वेटर का काम करता था. उसी रैस्टोरैंट के सामने वाली मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में काम चल रहा था, जहां भूरी अपने मांबाप और भाइयों के साथ ईंटगारा ढोने का काम कर रही थी. भूरी का पूरा परिवार बिल्डिंग के कंपाउंड में ही तंबू डाल कर रह रहा था. बिल्डिंग का काम अभी कई साल चलना था, इसलिए ठेकेदार ने गांव के कई परिवारों को यहां दिहाड़ी मजदूरी पर रखा हुआ था. इसी में से एक परिवार भूरी का भी था.

काफी समय से रात में रैस्टोरैंट का काम खत्म होने के बाद दिनेश भी इन लोगों के साथ आ कर बैठने लगा था. भूरी के भाई से उस की दोस्ती हो गई थी. दिनेश ने जब भूरी को देखा तो उस का दिल भूरी पर आ गया. भूरी को भी दिनेश अच्छा लगता था. दोनों के बीच प्यार हो गया. 2-4 बार संबंध भी बन गए, जबकि जगह भी सही नहीं थी.

दिनेश भी पूरी तरह से भूरी के लिए कुरबानी करने को तैयार हो गया. दिनेश ने भूरी के बाप से उस का हाथ मांग लिया. भूरी के बाप ने दिनेश को जातपांत समझाई, मगर दिनेश ने यह कह कर उन को चुप करा दिया कि वह ये सब बातें नहीं मानता है. उसे उन लोगों से कोई दानदहेज भी नहीं चाहिए. वे बस भूरी को उस के साथ दो कपड़ों में ब्याह दें.

भूरी के पिता को और क्या चाहिए था. अच्छाखासा लड़का मिल रहा था. पढ़ालिखा था. रैस्टोरैंट में वेटर था और उन से ऊंची जाति का था.

भूरी के परिवार वालों ने दिनेश के परिवार की ज्यादा खोजबीन नहीं की. अपने परिवार के बारे में दिनेश ने जितना बताया, उसी पर यकीन कर लिया.

दिनेश लखनऊ में 4 दोस्तों के साथ एक कमरा शेयर कर के रह रहा था. उस ने भूरी के बाप से कहा कि शादी के बाद वह जल्दी ही लखनऊ में कोई छोटा सा घर ले लेगा, तब तक भूरी को अपने साथ नहीं रख पाएगा. भूरी उन्नाव में उस के घर पर परिवार के साथ रहेगी.

भूरी के पिता राजी हो गए तो दिनेश ने लखनऊ में ही एक मंदिर में भूरी से शादी कर ली. शादी में उस के परिवार से तो कोई नहीं आया, लेकिन उस के रैस्टोरैंट के दोस्त और मालिक जरूर शामिल हुए.

शादी के बाद जब दिनेश भूरी को ले कर अपने घर उन्नाव आया, तो वहां का हाल देख कर भूरी सहम गई. सब ने मिल कर दोनों को खूब खरीखोटी सुनाई. भूरी से उस की जातपांत पूछी. दानदहेज में क्या मिला, यह पूछा. और जब पता चला कि भूरी निचली जाति की है और उस पर खाली हाथ आई है तो सब उस के दुश्मन हो गए.

शादी के बाद बस हफ्तेभर की छुट्टी दिनेश को मिली थी. हफ्ता खत्म हुआ तो वह लखनऊ जाने को तैयार हो गया. भूरी ने लाख मिन्नत की कि वह उसे अपने साथ ले चले, मगर उस ने कहा कि वह यहीं रहे और घर वालों की सेवा करे. मगर इस घर में भूरी किसी की क्या सेवा करती? वह तो यहां किसी चीज को हाथ भी नहीं लगा सकती थी. भूरी को स्वीकार करना तो दूर, यहां तो लोग उस की बेइज्जती पर ही उतर आए.

भूरी का ससुर और जेठ, जो दिन में उस पर ‘नीच जात की औरत’ बोल कर उस के हाथ का पानी भी नहीं पीते हैं, रात के अंधेरे में उस के जिस्म का सुख उठाने के लिए तैयार रहते हैं. उन की लाललाल आंखों से हर वक्त हवस टपकती है.

भूरी को पता है कि उन की इस मंशा में उस की सास की पूरी सहमति है. वे तो चाहती हैं कि भूरी के साथ कोई अनहोनी हो जाए और फिर वे उस पर आरोप लगा कर, उसे बदचलन साबित कर के घर से बाहर का रास्ता दिखा दें.

दिनेश के लखनऊ जाने के बाद तो उन का मुंह खूब खुलता है. खूब ताने मारती हैं, गालीगलौज करती हैं.

भूरी ब्याह कर आई तो सास ने बड़ी हायतोबा मचाई थी. रसोई में कदम नहीं धरने दिया था. तब दिनेश ने भूरी के लिए आंगन के कोने में एक चूल्हा और कुछ राशनबरतन का इंतजाम कर दिया था. तब से भूरी अपना और दिनेश का खाना वहीं बनाती है.

पानी के लिए जहां घर के बाकी लोग नल का इस्तेमाल करते थे, वहीं भूरी गोशाला में लगे हैंडपंप से पानी भरती थी. पिछवाड़े में बने टूटेफूटे शौचालय का भूरी इस्तेमाल करती थी. उस ने कई बार अपने जेठ को इस शौचालय के इर्दगिर्द मंडराते देखा था. वह कोशिश करती थी कि जब जेठ घर पर न हो, तभी उधर जाए.

अपने ससुर और जेठ से भूरी जैसेतैसे अपनी इज्जत बचाए हुए है. रात को वह अपनी कोठरी का दरवाजा कस के बंद करती है, फिर कमरे में पड़ी लकड़ी की अलमारी खिसका कर दरवाजे से अड़ा देती है. भूरी की जेठानी 2 बच्चों के साथ अपने मायके में ही रहती है.

दरअसल, उस की भी सास से बनती नहीं है. हालांकि वह इन्हीं लोगों की जात की है और सुना है कि बड़ी तेजतर्रार औरत है. जेठ उस से दबता है. महीने के महीने खर्चे के पैसे उसे उस के घर दे कर आता है. जब सुरेश 2-3 दिनों के लिए अपनी ससुराल जाता है, तब भूरी को बड़ा सुकून मिलता है. उस के जिस्म से लिपटी गंदी नजरों की जंजीरें थोड़ी कम हो जाती हैं. ससुर की अभी इतनी हिम्मत नहीं पड़ी है कि उसे छू ले, मगर घूरता जरूर रहता है.

दिनेश ने जाते वक्त भूरी से कहा था कि वह अपने अच्छे बरताव से घर वालों का दिल जीत ले, लेकिन यहां तो हाल ही अलग है. सब नीच कह कर उसे दुत्कारते रहते हैं और उस का उपभोग भी करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का वह क्या दिल जीते? ऐसे लोगों को वह क्या अपना समझे? इन से तो वह हर समय डरीसहमी रहती है. पता नहीं, कब क्या कांड कर बैठें.

ऊंची जातियों के लड़के चाहे पिछड़ों की लड़कियों से शादी करें या दलितों की, मुश्किल से ही निभा पाते हैं, क्योंकि कम परिवार ही उन्हें घर में जगह देते हैं. पंडेपुजारियों का जाल चारों ओर इस तरह फैल गया है कि बारबार कुंडली, रीतिरिवाजों की दुहाई दी जाती है. इस में पिछड़ों के लड़केलड़कियां बुरी तरह पिसे हैं. वे मनचाहे से प्रेम नहीं कर सकते, दोस्ती तक करने में जाति आड़े आती है.

जब तक दिल मजबूत न हो और ऊंची या नीची जाति का पति अपने पैरों पर खड़ा न हो, ऐसी शादियों को आज की पंडा सरकार भी कोई बचाव न करेगी, यह तो खुद करना होगा. पिछड़ों का इस्तेमाल तो किया जाएगा, पर उन्हें बराबर की जगह न मिलेगी चाहे पत्नी ही क्यों न बन जाए.

अबकी शादियां बन सकती है आफत

संपादकीय-1

शादियां अब हर तरह के लोगों के लिए एक जुआ बन गर्ई हैं जिस में सब कुछ लुट जाए तो भी बड़ी बात नहीं. राजस्थान की एक औरत ने 2015 में कोर्ट मैरिज की पर शादी के बाद बीवी मर्द से मांग करने लगी कि वह अपनी जमीन उस के नाम कर दे वरना उसे अंजाम भुगतने पड़ेंगे. शादी के 8 दिन बाद ही वह लापता हो गई पर उस से मिलतीजुलती एक लाश दूर किसी शहर में मिली जिसे लावारिस समझ कर जला दिया.

औरत के लापता होने के 6 माह बाद औरत के पिता ने पुलिस में शिकायत कि उस के मर्द ने उन की बेटी एक और जने के साथ मिल कर हत्या कर दी है. दूर थाने की पुलिस ने पिता को जलाई गई लाभ के कपड़े दिखाए तो पिता ने कहा कि ये उस के बेटी के हैं. मर्द और उस के एक साथी को जेल में ठूंस दिया गया. 7 साल तक मर्द जेलों में आताजाता रहा. कभी पैरोल मिलती, कभी जमानत होती.

अब 7 साल बाद वह औरत किसी दूसरे शहर में मिली और पक्की शिनाख्त हुई तो औरत को पूरी साजिश रचने के जुर्म में पकड़ लिया गया है आज जब सरकार हल्ला मचा रही है कि यूनिफौर्म सिविल कोर्ट लाओ, क्योंकि आज इस्लाम धर्म के कानून औरतों के खिलाफ हैं. असलियत यह है कि ङ्क्षहदू मर्दों और औरतों दोनों के लिए ङ्क्षहदू कानून ही अब आफत बने हुए हैं. अब गांवगांव में पुलिस को मियांबीवी झगड़े में बीवी पुलिस को बुला लेती है और बीवी के रिश्तेदार आएंगे निकलते छातियां पीटते नजर खाते हैं तो मर्दों को गिरफ्तार करना ही पड़ता है.

शादी ङ्क्षहदू औरतों के लिए ही नहीं मर्दों के लिए आफत है, जो सीधी औरतें और गुनाह करना नहीं जानती वे मर्द के जुल्म सहने को मजबूर हैं पर मर्द को छोड़ नहीं सकती. क्योंकि ङ्क्षहदुओं का तलाक कानून ऐसा है कि अगर दोनों में से एक भी चाहे तो बरसों तलाक न होगा. ङ्क्षहदू कानूनों में छोड़ी गई औरतों को कुछ पैसा तो मिल सकता है पर उन को न समाज में इज्जत मिलती न दूसरी शादी आसानी से होती है.

चूंकि तलाक मुश्किल से मिलता है और चूंकि औरतें तलाक के समय मोटी रकम वसूल कर सकती हैं. कोई भी नया जना किसी भी कीमत पर तलाकशुदा से शादी करने को तैयार नहीं होता. सरकार को ङ्क्षहदूमुसलिम करने के लिए यूनिफौर्म सिविल कोर्ट की पड़ी है जबकि जरूरत है ऐसे कानून क जिस में शादी एक सिविल समझौता हो, उस में क्रिमीनल पुलिस वाले न आए.

जब औरतें शातिर हो सकती हैं, अपने प्रेमियों के साथ मिल कर पति की हत्या कर सकती हैं, नकली शादी कर के रूपयापैसा ले कर भाग सकती है. न निभाने पर पति की जान को आफत बन सकती है तो समझा जा सकता है कि देश का कानून खराब है और यूनिफौर्म सिविल कोर्ट बने या मन वालूे ङ्क्षहदू विवाह कानून तो बदला जाना चाहिए जिस में किसी जोर जबरदस्ती की गुंजाइश न हो. यदि लोग अपनी बीवियों के फैलाए जालों में फंसते रहेंगे और औरतें मर्दों से मार खाती रहेंगी तो पक्का है समाज खुश नहीं रहेगा और यह लावा कहीं और फूटेगा.

मजबूरी नहीं, जरूरत है दहेजबंदी

‘अगर आप को पता चल जाए कि आप जिस शख्स के विवाह समारोह में जा रहे हैं, वहां दहेज लिया गया है, तो वैसे विवाह में कतई न जाएं. अगर किसी मजबूरी की वजह से वहां जाना पड़े तो जाएं, लेकिन वहां खाना न खाएं.’ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आजकल अपनी हर सभा में यह बात जरूर कहते हैं. बिहार में शराबबंदी को अच्छीखासी कामयाबी मिलने के बाद उन्होंने अब दहेजबंदी की पहल शुरू की है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि दहेज को रोकने की बात को ज्यादातर लोग नामुमकिन करार दे रहे हैं, पर ऐसे लोगों को यह सोचना चाहिए कि शराब पर पाबंदी लगाने के बाद भी ऐसी ही दलीलें दी जा रही थीं. अब यह हालत है कि बिहार में शराबबंदी को कामयाबी मिलने के बाद दूसरे राज्यों में भी शराब पर रोक लगाने की आवाजें बुलंद होने लगी हैं.

बिहार कमजोर वर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016-17 में तकरीबन 987 बेटियां दहेज के नाम पर मार दी गईं, वहीं साल 2015 में 1154 बेटियों की जानें दहेज की वजह से चली गईं. महिला हैल्पलाइन में हर साल दहेज के चलते सताई गई बेटियों के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं.

साल 2015 में जहां 93 मामले दर्ज हुए थे, वहीं साल 2016 में वे बढ़ कर 111 हो गए. इस के अलावा साल 2016 में राज्य के अलगअलग थानों में दहेज के नाम पर सताने के कुल 4852 मामले दर्ज किए गए थे.

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हर घंटे दहेज के नाम पर एक लड़की को मार दिया जाता है. कमजोर वर्ग के एडीजी विनय कुमार ने बताया कि दहेज प्रताड़ना में कानून किसी को बख्श नहीं रहा है, इस के बाद भी ऐसे मामलों में कमी नहीं आ रही है.

दहेज किस कदर परिवार को बरबाद कर रहा है और बेटियों की जानें ले रहा है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि साल 2016 में जहां राज्य में छेड़खानी के 342 मामले थानों में दर्ज हुए, वहीं दहेज के लालच में 987 बेटियों की जानें ले ली गईं.

समाजसेवी आलोक कुमार दावा करते हैं कि सामाजिक जागरूकता के जरीए दहेज को काफी हद तक कम किया जा सकता है. अगर सरकार गंभीरता से साथ दे, तो शराबबंदी की तरह दहेजबंदी को भी कामयाबी मिलनी तय है.

बिहार महिला आयोग की अध्यक्ष अंजुम आरा बताती हैं कि शराबी पति की पिटाई और दूसरे तरीकों से तंग औरतों की रोज 3-4 शिकायतें आयोग को मिलती थीं, पर शराबबंदी के 8 महीने के गुजरने के बाद ऐसा एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ है.

मर्द शराब पीते हैं और उस का खमियाजा औरतों और बच्चों समेत पूरे परिवार को उठाना पड़ता है. दहेज पर रोक लगाने के लिए बिहार सरकार ने बिहार राज्य दहेज निषेध नियमावली 1998 में दहेज निषेध अफसर की तैनाती की बात कही है.

इन अफसरों को दहेज लेनेदेने वालों के खिलाफ कानूनन कार्यवाही करने के साथसाथ सामाजिक जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है.

आज तक दहेज निषेध अफसरों को फाइलों से बाहर ही नहीं निकाला गया था यानी उन की कहीं तैनाती नहीं की गई थी. अब सरकार ने दहेज पर रोक लगाने के लिए कमर कसी है, तो उम्मीद है कि दहेज के लिए बेटियों की जिंदगी दांव पर लगाने वालों को सबक सिखाया जा सकेगा.

क्या चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ आजादी बचा सकेंगे?

देश की सब से बड़ी अदालत के 50वें चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ अपनेआप में इसलिए अलग हैं कि उन्होंने ऐसे अनेक फैसले लिए हैं, जिन से यह कहा जा सकता है कि वे सच्चे माने में भारत के जनमानस की आवाज बन कर देश के चीफ जस्टिस पद की कुरसी पाए हैं. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने 9 नवंबर, 2022 को देश के 50वें चीफ जस्टिस के तौर पर शपथ ली. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में आयोजित एक समारोह में उन्हें इस पद की शपथ दिलाई.

धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ का कार्यकाल 10 नवंबर, 2024 तक रहेगा यानी वे अगले 2 साल तक देश के चीफ जस्टिस के तौर पर अपनी सेवाएं देंगे. शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद उन्होंने कहा, ‘‘शब्दों से नहीं, काम कर के दिखाएंगे. आम आदमी के लिए काम करेंगे. बड़ा मौका है, बड़ी जिम्मेदारी है. आम आदमी की सेवा करना मेरी प्राथमिकता है.’’ चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ की सब से बड़ी खूबी यह है कि वे हर मामले में सब्र के साथ सुनवाई करते हैं. देश ने देखा था कि किस तरह कुछ दिन पहले उन्होंने एक मामले में लगातार 10 घंटे तक सुनवाई की थी. चीफ जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने 2 बार अपने पिता चीफ जस्टिस रह चुके यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ के फैसलों को भी पलटा है, जिस में सब से अहम है इंदिरा गांधी के शासनकाल में जब इमर्जैंसी लगाई गई थी, तो आम लोगों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था, जिस पर उन के पिता ने मुहर लगाई थी, मगर जब समय आया, तो बेटे ने अपने पिता के फैसले को पलट दिया और यह फैसला दिया कि किसी भी हालत में संविधान द्वारा दिए गए निजता के मौलिक अधिकार को स्थगित नहीं किया जा सकता.

इसी तरह गर्भपात को ले कर जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ का फैसला क्रांतिकारी माना जा रहा है.  इस संदर्भ में अपने फैसले में  उन्होंने अविवाहित महिलाओं के  24 हफ्ते तक के गर्भपात की मांग के अधिकारों को बरकरार रखने के बारे में कहा था.  जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ उस संविधान पीठ का भी हिस्सा रहे, जिस ने सहमति से समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया और अनुच्छेद 21 के तहत निजता को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता  दे दी.  वे सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने के लिए सभी उम्र की महिलाओं के अधिकार को बरकरार रखने वाले फैसले का हिस्सा भी रहे.

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