पौलिटिकल राउंडअप: भाजपा में चुनावी सरगर्मी

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने बताया कि सोमवार, 8 जुलाई को हुई एक बैठक में फैसला लिया गया था कि ‘दिल्ली के मन की बात, बीजेपी के साथ’ अभियान चलाया जाएगा. सदस्यता अभियान के साथ इस कवायद की शुरुआत हो चुकी है.

पार्टी नेता अलगअलग इलाकों में जा कर लोगों से बात कर के उन की राय जानेंगे और पार्टी अपना चुनावी घोषणापत्र तैयार करेगी. पार्टी जनता से जुड़े तमाम मुद्दों पर कानूनी राय भी लेगी, ताकि आगे चल कर कानूनी अड़चनों का सामना न करना पड़े.

लौट आए अखिलेश यादव

लखनऊ. पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती के साथ महागठबंधन बना कर भाजपा से लोहा लेने का फार्मूला फुस होने के बाद समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव राजनीति से थोड़ा कट से गए थे, पर जुलाई महीने के दूसरे हफ्ते में वे पूरे जोश के साथ वापस अपने कार्यालय में आ गए.

उत्तर प्रदेश की 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. उम्मीद जताई जा रही है कि समाजवादी पार्टी इन चुनावों के लिए अपनी तैयारियां शुरू करेगी. वैसे, पार्टी कार्यकर्ताओं को बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती के रुख पर अखिलेश यादव के कुछ कहने का अब भी इंतजार है.

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राहुल आए रंग में

अहमदाबाद. राहुल गांधी भाजपा पर हमला करने से नहीं चूक रहे हैं और प्रधानमंत्री के गढ़ में जा कर जनता के सामने अपनी बात रख रहे हैं.

राहुल गांधी ने शुक्रवार, 12 जुलाई को आरोप लगाया कि भाजपा सरकारें गिराने के लिए ‘धनबल’ और ‘डरानेधमकाने’ का सहारा ले रही हैं.

याद रहे कि कर्नाटक में 13 महीने पुरानी कांग्रेस और जद (एस) की गठबंधन सरकार से 2 निर्दलीय विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया है और कांग्रेस के 13 विधायकों समेत कुल 16 विधायक इस्तीफा दे चुके हैं.

राहुल गांधी मानहानि के एक मामले में मैट्रोपोलिटन अदालत के सामने पेशी के लिए अहमदाबाद आए हुए थे. मानहानि का यह मामला अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक की तरफ से दायर किया गया है जिस में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एक निदेशक हैं. राहुल गांधी ने खुद को बेकुसूर बताया और उन्हें इस मामले में जमानत मिल गई.

मानहानि के कानून का आजकल अखबारों और राजनीतिबाजों को अदालतों में घसीटने के लिए जम कर इस्तेमाल किया जा रहा है.

ममता हुईं ममतामयी

कोलकाता. ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि राजनीति उन के खून में बसी है. हाल के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बढ़ते दबदबे के बाद उन्होंने खूब कड़े तेवर दिखाए थे और पूरे दमखम के साथ लोहा लिया था. पर जब बात नहीं बनी और उन्हें लगा कि इस से पार्टी को आने वाले विधानसभा चुनाव में नुकसान हो सकता है तो वे मोम की तरह पिघल गईं और गुरुवार, 11 जुलाई को तृणमूल कांग्रेस के सभी विधायकों से कहा कि वे और विनम्र हो कर जनता से मिलें और अपनी पिछली गलतियों के लिए उन से माफी मांगें.

लगता है कि लोकसभा चुनाव में मिले करारे झटके के बाद से ममता बनर्जी बहुतकुछ नया सीख गई हैं और अभी से ही विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जीजान से जुट गई?हैं.

‘दिग्गी राजा’ का दांव

पुणे. अपने चहेतों में ‘दिग्गी राजा’ के नाम से मशहूर कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने शुक्रवार, 12 जुलाई को कर्नाटक और गोवा के हालात पर दावा किया कि नोटबंदी के दौरान भाजपा ने खूब पैसा बनाया और अब उसी पैसे का इस्तेमाल कर पार्टी विधायकों को खरीद रही है. विधायकों को ऐसे खरीदा जा रहा है जैसे बाजार से सामान खरीदा जाता है.

हालांकि, दिग्विजय सिंह ने यह भी कहा कि मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार पूरी तरह सुरक्षित है. मुख्यमंत्री कमलनाथ के पास 121 विधायकों का समर्थन है.

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पत्नियों की सरकार से गुहार

श्रीनगर. जम्मूकश्मीर पर अपना नियंत्रण बनाने के मनसूबे पालने वाली भाजपा के सामने एक नई चुनौती आ गई है. बात यह है कि भारतपाकिस्तान नियंत्रण रेखा के उस पार से एक पुनर्वास योजना के तहत वापस आए पूर्व कश्मीरी आतंकवादियों की पाकिस्तानी पत्नियों ने शुक्रवार, 12 जुलाई को केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की थी कि उन्हें या तो भारतीय नागरिकता दी जाए या फिर वापस भेज दिया जाए.

ऐसी महिलाओं में शामिल ऐबटाबाद की रहने वाली तैयबा ने कहा, ‘‘हम कुल 350 महिलाएं हैं. हमें यहां का नागरिक बनाया जाए, जैसा किसी भी देश में पुरुषों के साथ विवाह करने वाली महिलाओं के साथ होता है. हम भारत सरकार और राज्य सरकार से अपील करती हैं कि या तो हमें पासपोर्ट प्रदान किए जाएं या वापस जाने के लिए यात्रा दस्तावेज प्रदान किए जाएं.’’

 हिमाचल के नए राज्यपाल

शिमला. भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता कलराज मिश्र को हिमाचल प्रदेश का नया राज्यपाल बनाया गया है. याद रहे कि कभी उत्तर प्रदेश और भारतीय राजनीति के कद्दावर नेता रहे कलराज मिश्र को नरेंद्र मोदी सरकार के 2014 से 2019 के पहले कार्यकाल में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया था, हालांकि उन्होंने साल 2017 में ही मंत्री पद छोड़ दिया था. इस के बाद कलराज मिश्र ने साल 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था.

कलराज मिश्र को आचार्य देवव्रत की जगह हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है जबकि आचार्य देवव्रत को गुजरात का राज्यपाल बनाया गया है.

विज के फिर बिगड़े बोल

अंबाला. हरियाणा के बड़े भाजपाई नेता और राज्य सरकार में मंत्री अनिल विज ने बड़ी ओछी बात कह दी. हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दिए गए इस्तीफे पर अंबाला में 6 जुलाई को अनिल विज ने कहा, ‘‘यह तो उन का फैमिली ड्रामा है. राजीव गांधी ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है, लेकिन उन के बेटे राहुल ने इस्तीफा दिया तो एक कुत्ता भी नहीं भूंका.’’

इस से पहले फरवरी, 2019 में अनिल विज ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तुलना ‘रामायण’ की एक किरदार ताड़का से की थी. तब उन्होंने कहा था, ‘‘छोटे होते थे जब रामलीला देखने जाया करते थे तो उस में एक सीन आया करता था कि ऋषिमुनि जब यज्ञ किया करते थे तो ताड़का आ कर उस में रुकावट डाल दिया करती थी. ठीक उसी तरह की भूमिका ममता बनर्जी कर रही हैं.’’

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लगेगी चुनावी पाठशाला

रायपुर. छत्तीसगढ़ में वोटरों में जागरूकता लाने के लिए चुनाव पाठशाला की शुरुआत की जाने वाली है. इन पाठशालाओं में रोचक खेल और मनोरंजक कार्यक्रमों का सहारा लिया जाएगा. वैसे, राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटिंग के प्रति जागरूक करने के लिए चुनावी पाठशालाएं लगाई गई थीं जिन में चुनावी साक्षरता क्लबों का भी सहारा लिया गया था.

संयुक्त मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी समीर विश्नोई का इस मसले पर कहना है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान चुनावी साक्षरता

क्लब के जरीए बेहतर काम किया गया था. इस से छत्तीसगढ़ में वोटरों में जागरूकता बढ़ी है.

आखिर क्यों कट्टरपंथियों के निशाने पर आईं नुसरत जहां

बंगाली ऐक्ट्रैस से सांसद बनीं नुसरत जहां नेता से अधिक बेपनाह खूबसूरती और अपने अलग अंदाज के लिए आजकल चर्चा में हैं.
टीएमसी सांसद नुसरत अब शादी के 2 महीनों बाद हनीमून पर हैं और उन का यह हनीमून अब चर्चा में है.
अभिनेत्री से नेता बनीं नुसरत जहां ने जब से राजनीति में कदम रखा है, तब से कठमुल्लों के निशाने पर रही हैं. राजनीति में पहले ही दिन अपने गेटअप और ड्रैस को ले कर कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गईं और ट्रोल हुई थीं.

स्वर्ग जगहों से नहीं

इसी साल 19 जून को कोलकाता के जानेमाने बिजनैसमैन निखिल जैन से नुसरत जहां ने शादी की है. शादी के के 2 महीने बाद वे पति संग हनीमून मनाने निकली हैं.
इस हनीमून को यादगार बनाने के लिए उन्होंने अपनी कई खूबसूरत तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर कीं और शीर्षक दिया,’बेहतर हो कि आप का सिर बादलों में हो और आप को पता हो कि आप कहां हो. स्वर्ग जगहों से नहीं बल्कि खूबसूरत पलों, आपसी जुङाव और वक्त की चमक में मौजूद होते हैं.’

तसवीरें देख कर लगता है कि वे मालदीव्स में हनीमून मना रही हैं पर असल में वे कहां हैं यह नहीं पता चल पा रहा है.
हालांकि सोशल मीडिया पर हर किसी को नुसरत का यह अंदाज खूब पसंद आ रहा है. वे वेस्टर्न आउटफिट्स में नजर आ रही हैं और बेहद खूबसूरत दिख रही हैं.

फतवा जारी हो चुका है

शादी के बाद मांगटीका, साङी और मांग में सिंदूर लगाने की वजह से नुसरत पर फतवा भी जारी हो चुका है. कट्टरपंथी लोगों ने नुसरत की आलोचना करते हुए उन्हें धर्म विरोधी बताया है. हालांकि नुसरत जहां ने ऐसे लोगों को अपने अंदाज में जवाब भी दिया है.

वेस्टर्न आउटफिट्स और शानदार गेटअप में नुसरत जहां ने यह संदेश दिया है कि नेता बनने के लिए झूठा आवरण ओढने की कोई जरूरत नहीं है. अपने खुद के अंदाज में रहते हुए भी लोगों का दिल जीता जा सकता है.
नुसरत मानती हैं कि किसी नेता अथवा सांसद की पहचान उस के लिबास से नहीं जनता का काम कर के होती है और जिसे वह बखूबी कर रही हैं. ऐसे चंद लोग जो जातिमजहब के नाम से समाज को बांटने की कोशिश करते हैं उस की कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं करनी चाहिए.
सच कहा, बात में तो दम है.

Edited by- Neelesh singh sisodia

उन्नाव की उलझन

चूंकि अपराधी भारतीय जनता पार्टी का नेता है, उसे हर तरह की मनमानी करने का पैदाइशी हक है और उस के रास्ते में जो आएगा उस की मौत भी होगी तो बड़ी बात नहीं. इस लड़की के पिता को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया गया कि उस ने अपनी बेटी को शिकायत करने से क्यों नहीं रोका. वहां उसे मार डाला गया.

उस लड़की ने खुद को जलाने की कोशिश की तो उस पर तोहमत लगा दी गई. लड़की के चाचा को गिरफ्तार कर लिया गया और अदालत से सजा दिला दी गई. अब जब लड़की, उस की चाची और चाची की बहन जेल में बंद चाचा वकील के साथ लौट कर गाड़ी से आ रहे थे तो एक बड़े ट्रक ने उसे टक्कर मार कर चकनाचूर कर दिया जिस में चाची और चाची की बहन मारी गईं. लड़की बच गई जो न अस्पताल में सुरक्षित है, न घर में रहेगी. मां को हर हाल में समझौता करना पड़ेगा. वह कब तक सरकार से लड़ेगी?

यह कहानी आज की नहीं सदियों की है. देश में बलात्कार की शिकार ही जिम्मेदार है, बलात्कारी नहीं. बलात्कारी का तो हक है खासतौर पर अगर वह शिकार से ऊंची जाति का हो. पहले लड़कियों के पास कुएं या नदी में कूदने या फांसी लगाने के अलावा कोई और रास्ता न था, आज पुलिस में शिकायत का हक है पर तभी अगर दूसरी तरफ का कुछ कमजोर हो, पैसे और रसूख वाला न हो. जिस पर बलात्कार का आरोप है और जो जेल में बंद है, उसे शुक्रिया कहने 4 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज जेल में पहुंचे थे और उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे यहां के यशस्वी और लोकप्रिय विधायक कुलदीप सेंगर जो काफी दिनों से यहां हैं. चुनाव के बाद उन्हें धन्यवाद देना उचित समझा तो मिलने आ गया.’’

यह लड़की भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर के घर नौकरी मांगने के लिए 2017 में गई थी. उस का कहना है कि उस के साथ गलत काम किया गया था. शिकायत करने के बाद उस के घर वालों को धमकियां मिल रही थीं और अब अमलीजामा पहना दिया गया है.

इस मामले में बहुतकुछ नहीं होगा. सबकुछ रफादफा हो जाएगा, क्योंकि गलत तो लड़की ही थी, क्योंकि ऐसे मामले में गलती लड़की की ही होती है. ‘रामायण’ तक में अहल्या और सीता गलत थीं. सजाएं उन्हें ही मिली थीं. ऐसे समय जब पौराणिक युग को वापस लाया जा रहा हो, जब पिछले जन्मों के कर्मों के फल का पाठ पढ़ाने वाली किताबों को ही अकेला ज्ञान माना जा रहा हो, यह तो होना ही था.

यह संदेश है बलात्कार की शिकार हर लड़की को कि बलात्कार के बाद घर जाए, नहाए, क्रोसिन की 4 गोलियां ले कर सो जाए और हादसे को भूल कर अगली बार इसे दोहराने को तैयार रहे. यह तो होगा ही अगर वह जरा भी जवान है. बच्चियों और प्रौढ़ों को भी नहीं छोड़ा जाता और उन के लिए भी संदेश है कि हम 2019 में नहीं 919 में रह रहे हैं, जब इस देश में पूरी तरह धर्म राज था. सुनहरे दिन लौट रहे हैं.

सोशल मीडिया की दहशत

पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों पर बढ़ते मारपीट के मामलों के पीछे ह्वाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक बहुत हद तक जिम्मेदार हैं, क्योंकि ये अफवाहों, अश्लीलता, गंदीभद्दी गालियों, जातिसूचक बकवास को दूरदूर तक ले जाते हैं. पहले जो बात गांव की चौपाल के पास के पेड़ के नीचे तक, शहर में महल्ले की चाय की दुकान या कालेज की कैंटीन तक रहती थी अब मीलों, सैकड़ों मीलों, चली जाती है.

यह मानना पड़ेगा कि ऊंची जातियों के पढ़ेलिखों में ऐसे बहुत से सोशल मीडिया लड़ाकू हैं जो तुर्कीबतुर्की जवाब देने में माहिर हैं. वे सैकड़ों में सही साफ बात कहने वाले की खाल उतार देते हैं. उन के पास सच नहीं होता तो वे झूठ पर उतर आते हैं, उन के पास जवाब नहीं होता तो गाली पर उतर आते हैं. वे बारबार पाकिस्तान भेजने की धमकी दे सकते हैं.

इन सोशल मीडिया बहादुरों ने चाहे कभी मजदूरी न की हो, कोई सामान न ढोया हो, किसी सीमा पर पहरेदारी न की हो, कुछ देश के लिए बनाया न हो, पर ये देशभक्त ऐसे बने रहते हैं मानो भारत इन की वजह से एक है और सैनिक, व्यापारी, किसान, मजदूर, बेरोजगार से ये ज्यादा देश के लिए मर रहे हैं.

इन के पास पढ़ेलिखों का मुंह बंद करने की ताकत आ गई है क्योंकि ये शोर मचा कर सही बात को कुचल सकते हैं. इन के पास समय ही समय है इसलिए ये हर तरह की टेढ़ीमेढ़ी बात गढ़ सकते हैं. ये दलितों के अत्याचारों की कहानियां बना सकते हैं. ये मुसलमानों द्वारा की गई हत्याओं की झूठी कहानियों को ऐसे फैला सकते हैं मानो ये वहीं खड़े थे. दलितों की पिटाई पर ये शिकायत करने वाले की खाल खींच सकते हैं.

ये आदतें इन्हें पीढि़यों से मिली हुई हैं. पीढि़यों से उलटीसुलटी कहानियां कहकह कर ही देशभर में झूठ के मंदिर फैले हुए हैं और वहां से इन लोगों को अच्छी आमदनी होती है. वास्तु, भविष्य, टोनेटोटके, कुंडली, हवनपूजन के नाम पर इन की आमदनी पक्की है. चूंकि पढ़ाई में अच्छे होते हैं, किताबें इन के हिसाब से बनती हैं, इन्हीं के साथी परीक्षा लेते हैं, नौकरियां इन को ही मिलती हैं. जो आरक्षण पा कर कुछ ले रहे हैं वे डरेसहमे रहते हैं, चुप रहते हैं, उन के मुंह से बस ‘जी हुजूर’, ‘जय भीम’, ‘जय अंबेडकर’ निकलता है.

वैसे भी पिछड़ों और दलितों के तो मन में गहरे बैठा है कि वे तो पिछले जन्मों के पापों का फल भोग ही रहे हैं, अगर उन्होंने इन लोगों को जवाब दिया तो उन का हाल शंबूक और एकलव्य जैसा होगा, उन्हें मरने के लिए घटोत्कच की तरह आगे कर दिया जाएगा. वे तो आज भी गंदे सीवर में डूब कर उसे साफ करने भर लायक हैं. वे ट्विटर, फेसबुक, ह्वाट्सएप की तो छोडि़ए एक पोस्टर भी नहीं पढ़ने की हिम्मत रखते. वे क्या मुंहतोड़ जवाब देंगे. और जवाब नहीं दोगे तो बोलने वाले की हिम्मत बढ़ेगी ही, वह मुंह भी चलाएगा और हाथपैर भी चलाएगा ही.

भाजपा में चुनावी सरगर्मी

नई दिल्ली. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पानी पीपी कर कोसने वाली भारतीय जनता पार्टी अब लगता है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में उन्हीं के पैतरे आजमाना चाहती है तभी तो उस ने ऐलान किया है कि अगले विधानसभा चुनावों में वह अपना घोषणापत्र जनता की राय ले कर बनाएगी.

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने बताया कि सोमवार, 8 जुलाई को हुई एक बैठक में फैसला लिया गया था कि ‘दिल्ली के मन की बात, बीजेपी के साथ’ अभियान चलाया जाएगा. सदस्यता अभियान के साथ इस कवायद की शुरुआत हो चुकी है.

पार्टी नेता अलगअलग इलाकों में जा कर लोगों से बात कर के उन की राय जानेंगे और पार्टी अपना चुनावी घोषणापत्र तैयार करेगी. पार्टी जनता से जुड़े तमाम मुद्दों पर कानूनी राय भी लेगी, ताकि आगे चल कर कानूनी अड़चनों का सामना न करना पड़े.

लौट आए अखिलेश यादव

लखनऊ. पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती के साथ महागठबंधन बना कर भाजपा से लोहा लेने का फार्मूला फुस होने के बाद समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव राजनीति से थोड़ा कट से गए थे, पर जुलाई महीने के दूसरे हफ्ते में वे पूरे जोश के साथ वापस अपने कार्यालय में आ गए.

उत्तर प्रदेश की 12 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं. उम्मीद जताई जा रही है कि समाजवादी पार्टी इन चुनावों के लिए अपनी तैयारियां शुरू करेगी. वैसे, पार्टी कार्यकर्ताओं को बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती के रुख पर अखिलेश यादव के कुछ कहने का अब भी इंतजार है.

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राहुल आए रंग में

अहमदाबाद. राहुल गांधी भाजपा पर हमला करने से नहीं चूक रहे हैं और प्रधानमंत्री के गढ़ में जा कर जनता के सामने अपनी बात रख रहे हैं.

राहुल गांधी ने शुक्रवार, 12 जुलाई को आरोप लगाया कि भाजपा सरकारें गिराने के लिए ‘धनबल’ और ‘डरानेधमकाने’ का सहारा ले रही हैं.

याद रहे कि कर्नाटक में 13 महीने पुरानी कांग्रेस और जद (एस) की गठबंधन सरकार से 2 निर्दलीय विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया है और कांग्रेस के 13 विधायकों समेत कुल 16 विधायक इस्तीफा दे चुके हैं.

राहुल गांधी मानहानि के एक मामले में मैट्रोपोलिटन अदालत के सामने पेशी के लिए अहमदाबाद आए हुए थे. मानहानि का यह मामला अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक की तरफ से दायर किया गया है जिस में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एक निदेशक हैं. राहुल गांधी ने खुद को बेकुसूर बताया और उन्हें इस मामले में जमानत मिल गई.

मानहानि के कानून का आजकल अखबारों और राजनीतिबाजों को अदालतों में घसीटने के लिए जम कर इस्तेमाल किया जा रहा है.

ममता हुईं ममतामयी

कोलकाता. ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि राजनीति उन के खून में बसी है. हाल के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बढ़ते दबदबे के बाद उन्होंने खूब कड़े तेवर दिखाए थे और पूरे दमखम के साथ लोहा लिया था. पर जब बात नहीं बनी और उन्हें लगा कि इस से पार्टी को आने वाले विधानसभा चुनाव में नुकसान हो सकता है तो वे मोम की तरह पिघल गईं और गुरुवार, 11 जुलाई को तृणमूल कांग्रेस के सभी विधायकों से कहा कि वे और विनम्र हो कर जनता से मिलें और अपनी पिछली गलतियों के लिए उन से माफी मांगें.

लगता है कि लोकसभा चुनाव में मिले करारे झटके के बाद से ममता बनर्जी बहुतकुछ नया सीख गई हैं और अभी से ही विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जीजान से जुट गई?हैं.

‘दिग्गी राजा’ का दांव

पुणे. अपने चहेतों में ‘दिग्गी राजा’ के नाम से मशहूर कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने शुक्रवार, 12 जुलाई को कर्नाटक और गोवा के हालात पर दावा किया कि नोटबंदी के दौरान भाजपा ने खूब पैसा बनाया और अब उसी पैसे का इस्तेमाल कर पार्टी विधायकों को खरीद रही है. विधायकों को ऐसे खरीदा जा रहा है जैसे बाजार से सामान खरीदा जाता है.

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हालांकि, दिग्विजय सिंह ने यह भी कहा कि मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार पूरी तरह सुरक्षित है. मुख्यमंत्री कमलनाथ के पास 121 विधायकों का समर्थन है.

पत्नियों की सरकार से गुहार

श्रीनगर. जम्मूकश्मीर पर अपना नियंत्रण बनाने के मनसूबे पालने वाली भाजपा के सामने एक नई चुनौती आ गई है. बात यह है कि भारतपाकिस्तान नियंत्रण रेखा के उस पार से एक पुनर्वास योजना के तहत वापस आए पूर्व कश्मीरी आतंकवादियों की पाकिस्तानी पत्नियों ने शुक्रवार, 12 जुलाई को केंद्र और राज्य सरकारों से अपील की थी कि उन्हें या तो भारतीय नागरिकता दी जाए या फिर वापस भेज दिया जाए.

ऐसी महिलाओं में शामिल ऐबटाबाद की रहने वाली तैयबा ने कहा, ‘‘हम कुल 350 महिलाएं हैं. हमें यहां का नागरिक बनाया जाए, जैसा किसी भी देश में पुरुषों के साथ विवाह करने वाली महिलाओं के साथ होता है. हम भारत सरकार और राज्य सरकार से अपील करती हैं कि या तो हमें पासपोर्ट प्रदान किए जाएं या वापस जाने के लिए यात्रा दस्तावेज प्रदान किए जाएं.’’

हिमाचल के नए राज्यपाल

शिमला. भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता कलराज मिश्र को हिमाचल प्रदेश का नया राज्यपाल बनाया गया है. याद रहे कि कभी उत्तर प्रदेश और भारतीय राजनीति के कद्दावर नेता रहे कलराज मिश्र को नरेंद्र मोदी सरकार के 2014 से 2019 के पहले कार्यकाल में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया था, हालांकि उन्होंने साल 2017 में ही मंत्री पद छोड़ दिया था. इस के बाद कलराज मिश्र ने साल 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था.

कलराज मिश्र को आचार्य देवव्रत की जगह हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है

जबकि आचार्य देवव्रत को गुजरात का राज्यपाल बनाया गया है.

विज के फिर बिगड़े बोल

अंबाला. हरियाणा के बड़े भाजपाई नेता और राज्य सरकार में मंत्री अनिल विज ने बड़ी ओछी बात कह दी. हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के दिए गए इस्तीफे पर अंबाला में 6 जुलाई को अनिल विज ने कहा, ‘‘यह तो उन का फैमिली ड्रामा है. राजीव गांधी ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है, लेकिन उन के बेटे राहुल ने इस्तीफा दिया तो एक कुत्ता भी नहीं भूंका.’’

इस से पहले फरवरी, 2019 में अनिल विज ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तुलना ‘रामायण’ की एक किरदार ताड़का से की थी. तब उन्होंने कहा था, ‘‘छोटे होते थे जब रामलीला देखने जाया करते थे तो उस में एक सीन आया करता था कि ऋषिमुनि जब यज्ञ किया करते थे तो ताड़का आ कर उस में रुकावट डाल दिया करती थी. ठीक उसी तरह की भूमिका ममता बनर्जी कर रही हैं.’’

लगेगी चुनावी पाठशाला

रायपुर. छत्तीसगढ़ में वोटरों में जागरूकता लाने के लिए चुनाव पाठशाला की शुरुआत की जाने वाली है. इन पाठशालाओं में रोचक खेल और मनोरंजक कार्यक्रमों का सहारा लिया जाएगा. वैसे, राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटिंग के प्रति जागरूक करने के लिए चुनावी पाठशालाएं लगाई गई थीं जिन में चुनावी साक्षरता क्लबों का भी सहारा लिया गया था.

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संयुक्त मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी समीर विश्नोई का इस मसले पर कहना है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव के दौरान चुनावी साक्षरता

क्लब के जरीए बेहतर काम किया गया था. इस से छत्तीसगढ़ में वोटरों में जागरूकता बढ़ी है.        द्य

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद

अब घबराया हुआ है क्योंकि भाजपा के अंधभक्त अब पौराणिक कानून को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के बराबर समझने लगे हैं. सोशल मीडिया में यह ज्यादा दिख रहा है.

नरेंद्र मोदी ने फिलहाल अपने जानेपहचाने चेहरों को बेवजह बेमतलब की बातें न बोलने की बात कह दी है पर उन के लाखों भक्त जिन्होंने बिना भाजपा के मैंबर बने पिछले 6-7 सालों में सोशल मीडिया पर लगातार पहले राहुल गांधी, फिर जब मायावती से फैसला नहीं हुआ तो उन्हें गालियों से नवाजा है, अब अपनी निशानेबाजी नहीं छोड़ रहे.

गौतम गंभीर और सुषमा स्वराज तक को नहीं छोड़ा गया जो भाजपा के ही हैं क्योंकि उन्होंने मुसलिमों को बचाने की कोशिश कर डाली. बहुत से टीवी पत्रकार जिन्होंने न चाहते हुए भी भाजपा की खिंचाई करते हुए उसे मुफ्त पब्लिसिटी दी इन को नहीं छोड़ा क्योंकि वे हिंदूवादी जयजयकार करने से कतरा रहे थे.

ये भक्त असल में अब भाजपा के भी कंट्रोल से बाहर हैं. थे तो वे पहले भी किसी के कंट्रोल के बाहर, पर तब उन की पैठ बस घरोंपरिवारों, दुकानों, व्यापारों तक थी. अब ये राजा बनवाने वाले कहे जा रहे हैं और राजा के नाम पर ये किसी से कुछ भी करा सकते हैं. जो काम ये पहले गांवों के चौराहों पर बैठ कर किया करते थे, अब मोबाइल के सहारे कर रहे हैं. इन के पास शब्दों का भंडार है. फालतू समय है. ये दिनभर नएनए शब्द गढ़ कर बात का बतंगड़ बना सकते हैं और अपनी सफाई देने वाले की धुलाई कर सकते हैं. धर्म के नाम पर सदाचार, नैतिकता की बात करने वाले अपने नाम से ट्विटर और फेसबुक पर मांबहन की गालियां भी दे सकते हैं.

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ये लोग बेहद ताकतवर हो चले हैं क्योंकि भाजपा को इस मुफ्तखोरों की विशाल भीड़ की जरूरत रहेगी ताकि अपने हकों को मांगने वाले कभी सिर न उठा पाएं. जिस ने हक मांगा उसे फौरन देशद्रोही कह डाला जाएगा. जैसे कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल व चंद्रशेखर आजाद को जेलों में सड़ाया गया, वैसे हर गांव, कसबे, शहरी महल्ले मेंहोने लगेगा.

देश के दलित, मुसलिमों, पिछड़ों, सिखों, ईसाइयों को ही नहीं, ऊंची जातियों के पढ़ेलिखे भी खतरे में हैं क्योंकि यह फौज अपने पूज्य के खिलाफ एक शब्द न सुनने को तैयार कर दी गई है. इन के पास समय और पैसा है क्योंकि ये ही जागरणों, आरतियों, तीर्थयात्राओं, मंदिरों, कुंडलियों, धर्म के धंधों पर कब्जा जमाए हुए हैं, इन्हें न किसानों की फिक्र है, न बेरोजगारों की, न सड़कों पर सोने वालों की पर हिंदू धर्म और उस की चहेती पार्टी बनी रहे.

राम का नाम लेने से परलोक में स्वर्ग मिले या न मिले इहलोक में सत्ता तो मिल ही रही है. भारतीय जनता पार्टी अब नए पैतरे में ‘भारत माता की जय’ का नारा छोड़ कर पश्चिम बंगाल में ‘जय श्रीराम’ के नारे को इस्तेमाल कर रही है और चूंकि ममता बनर्जी के गढ़ में भाजपा ने अच्छीखासी कामयाबी पा ली है, उसे उम्मीद है कि रामजी उस की नैया पार करा ही देंगे.

राम का नाम ले कर देश के गरीब और अमीर दोनों ही सदियों से अपना वर्तमान व भविष्य लिखते आए हैं. यह बात अलग है कि देश का रामनामी गरीब गरीब बना रहा है और अमीर भी कष्टों से दूर नहीं रहा. राम का नाम लेने वालों को बीमारियां, कारोबार में नुकसान, पारिवारिक क्लेश, अपराधियों से सामना उसी तरह करना पड़ता रहा है जैसे किसी को भी किसी भी समाज में करना पड़ता है. गरीब का तो हाल और बुरा रहा है. वह इस देश में हमेशा ही गरीबी में जिया है.

राम के मंदिर को बनवाने या राम के नाम को ले कर राजनीति करना वैसे गलत है, क्योंकि अगर राम में यकीन हो तो भी यह किसी इनसान का अपना निजी मामला है. एक छोटे या बड़े समूह को कोई हक नहीं कि उसे अपने मतलब के लिए दूसरों पर थोपे और मारपिटाई पर उतर आए. आज देशभर में राम के नाम पर तरहतरह के बवाल करने का मानो लाइसैंस मिल गया है क्योंकि राम को राष्ट्रवाद की चाशनी में लपेट कर इस तरह वोटरों को परोसा गया कि वे देशभक्ति व रामभक्ति में फर्क ही नहीं कर पाए.

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सरकार का काम धर्म चलाना नहीं, प्रशासन चलाना है, टैक्स जमा करना है, इंसाफ कायम रखना है, बुनियादी चीजें बनवाना है, देश की हिफाजत करना है, नागरिकों की जानमाल की सिक्योरिटी करना है, इन में राम नाम कहीं नहीं आता. पूजापाठ से तो 2 दाने गेहूं के भी नहीं उग सकते.

हां, राम के नाम पर धार्मिक धंधे जोर से चल सकते हैं अगर जनता को बहकाया जा सके कि उस से उस की माली तरक्की होगी, बीमारियां दूर होंगी, मुसीबतें खत्म होंगी. यह बात इतनी पीढि़यों से कही जा रही है और इतने यकीन से कही जा रही है कि लोगों की दिमागी बीमारी का हिस्सा बन गई है. लोग अब फिर अपनी सोच से नहीं, नारों पर फैसले लेने लगे हैं. पहले देश 2500 साल इसी वजह से गुलाम सा रहा है. अब गुलामी चाहे न हो, गरीबी जरूर बनी रहेगी.

मायावती का मिशन अधूरा

लोकसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को वह कामयाबी नहीं मिली, जिस की उम्मीद दोनों ही दलों को थी.

मायावती ने इस का ठीकरा सपा नेता अखिलेश यादव के सिर पर फोड़ते हुए कहा, ‘‘समाजवादी पार्टी के वोट बसपा ट्रांसफर नहीं हुए. अखिलेश यादव को सपा में मिशनरी सिस्टम यानी कैडर बेस को सही करना चाहिए.’’

साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा की हालत सब से ज्यादा खराब थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन का ही फायदा है कि बसपा को 10 सीटें मिल गईं.

चुनाव आयोग के आंकड़ों को भी देखें तो यह बात साफ होती है कि सपा के वोट तो बसपा को मिले, उलटे बसपा के वोट सपा को नहीं मिले.

बीते तकरीबन 20 सालों से बसपा में कैडर के कार्यकर्ताओं की घोर अनदेखी हुई है. बसपा प्रमुख मायावती को सब

से ज्यादा नुकसान 2009 के बाद से

शुरू हुआ, जब वह बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुई, पर उन्होंने दलित कार्यकर्ताओं और दूसरे दलित संगठनों की अनेदखी शुरू की थी.

टूटता बसपा का मिशन

बसपा से जाटव बिरादरी को छोड़ बाकी दलित जातियों का पूरी तरह से मोह भंग हो चुका है. इस की सब से बड़ी वजह खुद मायावती की नीतियां हैं.

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मायावती ने बसपा में लोकतंत्र को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया. धीरेधीरे

कर के जनाधार वाले नेता पार्टी से दूर होते चले गए और पार्टी का जनाधार खिसकता गया.

टिकट के लिए पैसा लेने के सब

से ज्यादा आरोप बसपा पर लगते हैं. राजधानी लखनऊ के पास की मोहनलालगंज सुरक्षित लोकसभा सीट को देखें तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने रिटायर अफसर राम बहादुर को टिकट दिया था. वे कम वोट से चुनाव हार गए.

2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने इस सीट पर राम बहादुर को टिकट नहीं दिया और सीएल वर्मा को टिकट दिया जो मायावती के बेहद करीबी माने जाते हैं. सीएल वर्मा 2014 के मुकाबले ज्यादा वोट से चुनाव हार गए.

जानकार लोग कहते हैं कि अगर राम बहादुर को दोबारा इस सीट से चुनाव लड़ाया जाता तो वे सीएल वर्मा के मुकाबले बेहतर चुनाव लड़ते.

कांशीराम के समय में बसपा में सभी दलित जातियों की नुमाइंदगी

होती थी. कांशीराम की मुहिम

‘85 बनाम 15’ की थी. यही लड़ाई भीमराव अंबेडकर की भी थी.

कांशीराम के बाद मायावती के हाथ सत्ता आते ही पार्टी अपने मिशन से भटक गई. मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. वहीं से बसपा का मिशन अधूरा रह गया और पार्टी का जनाधार खिसकने लगा.

नाकाम सोशल इंजीनियरिंग

1998 के बाद से बसपा अपने मिशन को दरकिनार कर आगे बढ़ने लगी. ‘ठाकुर, बामन, बनिया छोड़ बाकी सब है डीएस फोर’ का नारा देने वाली बसपा अब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ब्राह्मण समाज को आगे बढ़ाने लगी. इस तरह बसपा का मिशन खत्म हो गया.

बसपा के लिए परेशानी का सबब यह है कि पार्टी के दलित तबके ने सवर्णों की तरह से रीतिरिवाज और पूजापाठ करना शुरू कर दिया. भाजपा ने इन सब को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी तरफ खींचना शुरू कर दिया.

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुसलिम को टिकट नहीं दिया तो बसपा ने दलितमुसलिम गठजोड़ बनाना शुरू किया. उस समय तक मायावती को इस बात का अहसास ही नहीं था कि दलित सवर्ण से ज्यादा मुसलिमों से दूर हैं. ऐसे में दलितों ने बसपा के मुसलिम प्रेम को नकारते हुए पार्टी से किनारा कर लिया.

2017 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने बसपा के तकरीबन 100 टिकट मुसलिम बिरादरी को दिए. नतीजा एक बार फिर से बसपा के खिलाफ गया और बसपा तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई.

दलितपिछड़ा गठजोड़

चुनाव में जातीय समीकरण मजबूत करने के लिए बसपासपा ने गठबंधन किया. दोनों को लग रहा था कि यह गठजोड़ काम करेगा. असल में बसपा नेता मायावती की ही तरह सपा नेता अखिलेश यादव भी केवल यादव जाति के नेता बन कर रह गए. जमीनी स्तर पर दलित पिछड़ों के बीच वैसा ही भेदभाव है जैसा दलित और सवर्ण के बीच है. दलित तबके को अब लगता है कि उस को अगर समाज की मुख्यधारा में शामिल होना है तो धार्मिक होना पड़ेगा.

बसपा के खिसकते जनाधार को चुनावी नतीजों से समझा जा सकता है. 2014 में बसपा ने 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, उस को 19.77 फीसदी वोट मिले. 2019 में बसपा ने सपा के साथ मिल कर 38 सीटों पर चुनाव लड़ा और 19.36 फीसदी वोट मिले. केवल 38 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी उसे पहले जैसे ही वोट मिले. इस से पता चलता है कि गठबंधन का लाभ बसपा को मिला. गठबंधन नहीं हुआ होता तो वोट प्रतिशत घट गया होता.

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सपा को देखें तो 2014 में उस को 22.35 फीसदी वोट मिले थे. 2019 में वे घट कर 18 फीसदी रह गए. ऐसे में साफ है कि गठबंधन का सपा को कोई फायदा नहीं हुआ. बसपा को केवल वोट फीसदी में ही फायदा नहीं हुआ बल्कि लोकसभा में वह जीरो से 10 सीटों पर आ पहुंची.

मायावती जो सीख अखिलेश यादव को दे रही हैं कि वे सपा कार्यकर्ताओं को समाजवादी मिशन से जोड़ें, असल में यह काम खुद मायावती को करने की जरूरत है. मुसलिम वोट बैंक मायावती के साथ नहीं है. वह भाजपा के खिलाफ है. ऐसे में जब तक चुनाव में राष्ट्रवाद और धर्म पर वोट डाले जाएंगे, तब

तक जातीय गठजोड़ काम नहीं आएगा. मुसलिमों का हिमायती बनने के चलते भी दलित सब से ज्यादा बसपा से नाराज हो कर पार्टी से दूर जा रहे हैं.         द्य

RTI: क्या सरकार ने सूचना का अधिकार कानून की शक्तियां कम कर दी हैं?

विपक्ष के कई दलों और सांसदों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार कानून में संशोधन संबंधी एक विधेयक को मंजूरी दी है.

राज्यसभा ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को चर्चा के बाद ध्वनिमत से पारित कर दिया. साथ ही सदन ने इस विधेयक को प्रवर समिति में भेजने के लिए लाए गए विपक्ष के सदस्यों के प्रस्तावों को 75 के मुकाबले 117 मतों से खारिज कर दिया.
कांग्रेस सहित विपक्ष के कई सदस्यों ने इस का कड़ा विरोध किया.
नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने विरोध करते हुए आरोप लगाया,”आज पूरे सदन ने देख लिया कि आप ने चुनाव में 303 सीटें कैसे प्राप्त की थीं? ऐसा लगता है जैसे सरकार संसद को एक सरकारी विभाग की तरह चलाने की मंशा रखती है.”
इस के बाद विरोध में कई विपक्षी दलों के सदस्य वाक आउट कर गए.

विधेयक में क्या है प्रावधान

इस विधेयक में प्रावधान किया गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्तें केंद्र सरकार द्वारा तय किए जाएंगे.
इस संशोधन विधेयक पर विपक्ष ने एतराज जताते हुए कहा कि सरकार सूचना के अधिकार कानून पर भी अपनी पकङ मजबूत बना कर उसे अपने हिसाब से डील करना चाहती है.
इस पर कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा,”हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शासनकाल में सूचना के अधिकार की अवधारणा सामने आई थी. कोई कानून और उस के पीछे की अवधारणा एक सतत प्रक्रिया है जिस से सरकारें समयसमय पर जरूरत के अनुरूप संशोधित करती रहती हैं.”
मंत्री ने आगे कहा,”मैं ने कभी यह नहीं कहा कि मोदी सरकार के शासनकाल में आरटीआई संबंधित कोई पोर्टल जारी किया गया था. मोदी सरकार के शासनकाल में एक ऐप जारी किया गया है. इस की मदद से कोई रात 12 बजे के बाद भी सूचना के अधिकार के लिए आवेदन कर सकता है.”

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केंद्र का अधिकार बढेगा

विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों में कहा गया है कि आरटीआई अधिनियम की धारा-13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की पदावधि और सेवा शर्तों का उपबंध किया गया है. इस में कहा गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ते और शर्तें क्रमश: मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के समान होंगी. इस में यह भी उपबंध किया गया है कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन क्रमश: निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव के समान होगा. मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के वेतन एवं भत्ते एवं सेवा शर्तें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समतुल्य हैं.

क्यों हो रहा है विरोध

जब से सूचना का अधिकार कानून लागू किया गया तब से ही जनता को इस के तहत कई तरह के अधिकार मिल गए थे. मगर सरकार द्वारा इस कानून में संशोधन को ले कर कङा एतराज जताया जा रहा है.
इस बदलाव पर लोकपाल आंदोलन को ले कर संघर्ष करने वाले अन्ना हजारे ने कङा विरोध किया और सरकार की मंशा पर संदेह जताया.
कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी ने भी इस विधेयक का विरोध किया है.
दरअसल, विरोध इसलिए भी हो रहा है कि अब तक सूचना आयोग के सामने जो भी मामले आते हैं उन में सरकार से ही सूचना ले कर लोगों को दिया जाता है. मगर संशोधन से सरकार की सेवा शर्तें तय करने का अधिकार आयुक्तों को मिल जाएगा. जाहिर है, इस से इस कानून में कमजोरी आने की संभावना बढ जाएगी.

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क्या जनता की शक्ति कम हो गई है

बदले हुए आरटीआई ऐक्ट के तहत क्या जनता की शक्ति कम हो जाएगी? आइए, जानते हैं :
● इस संशोधन से सूचना का अधिकार कानून कमजोर हो जाएगा.
● इस संशोधन से सूचना आयुक्तों की खुदमुख्तारी पर असर पङेगा.
● जब से यह कानून लागू हुआ था तब से ही सरकार के अंदर की कई महत्वपूर्ण सूचनाएं सामने आई थीं, जिन का संबंध लोगों और सरकारी तंत्रों से था. अब ऐसी सूचनाओं को सार्वजनिक करने में अड़चन आ सकती है.
● आरटीआई 2005 से एक जनआंदोलन बन चुका है. जनता इस से मजबूत थी. नए संशोधन से जनता के लिए सूचना का अधिकार कानून सीमित हो जाएंगे.
● सरकारी हस्तक्षेप से निष्पक्षता का अभाव हो सकता है.
● पहले छोटेबङे लगभग हर मामले आरटीआई के दायरे में आते थे, अब इस पर असर हो सकता है और अधिकार सीमित हो सकते हैं.

कानून में संशोधन बदले की भावना

उधर अन्ना हजारे और सोनिया गांधी के विरोध के बाद कांग्रेस के राज्य सभा सदस्य जयराम रमेश ने सूचना का अधिकार कानून में संशोधन को ले कर मोदी सरकार की तीखी आलोचना की है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी तौर पर ‘बदले की भावना’ का परिणाम करार दिया है।
एक बयान में उन्होंने कहा,”सूचना का अधिकार अधिनियम में बदलाव भविष्य के लिए खतरनाक हैं। आरटीआई से जुङे 5 मामले जो सीधे तौर पर प्रधानमंत्री से जुङे हैं, के कारण प्रधानमंत्री के इशारे पर इस में बदलाव किया गया है।”
जयराम रमेश ने आगे कहा कि पहला मामला सूचना आयोग द्वारा आरटीआई के तहत प्रधानमंत्री की शैक्षिक योग्यता को उजागर करने के मामले से जुङा है और इसीलिए इस में संशोधन किया गया।
यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में विचाराधीन है और हाल ही में इस पर सुनवाई भी हुई थी।
रमेश ने कहा,”दूसरा मामला 4 करोङ फर्जी राशनकार्ड पकङे जाने के प्रधानमंत्री के दावे से जुङा है जिस की सचाई आरटीआई में 2.5 करोङ फर्जी राशन कार्ड के रूप में सामने आई है।
“तीसरा मामला नोटबंदी के कारण विदेशों से कालेधन की वापसी मात्रा को उजागर करने के साथसाथ 2 अन्य मामले नोटबंदी के फैसले से जुङे आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के सुझावों से जुङे हैं।”
रमेश यहीं नहीं रूके। उन्होंने दावा किया कि प्रधानमंत्री ने योजना आयोग को समाप्त कर नीति आयोग इसलिए बनाया क्योंकि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उस समय तत्कालीन योजना आयोग ने गुजरात के शिक्षा व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में सही टिप्पणी नहीं की थी।

Edited By- Neelesh Singh Sisodia 

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक बिसात

आज की हमारी इस रिपोर्ट में डॉ. चरणदास महंत की राजनीतिक दौड़ में बार-बार पिछड़ने की समीक्षा करना चाहेंगे . लाख टके का सवाल यह है कि डॉ. चरणदास महंत छत्तीसगढ़ के मोस्ट सीनियर राजनेता होने के बाद मुख्यमंत्री की दौड़ में पीछे क्यों रह जाते हैं . और भविष्य में क्या वे अर्जुन के मानिदं लक्ष भेदने के अनुसधांन में नहीं लगे हुए हैं . छत्तीसगढ़ की राजनीतिक फिजा को महसूस करें तो आज भूपेश बघेल के पश्चात ताम्रध्वज साहू, टी.एस. सिंहदेव मुख्यमंत्री पद की दौड़ में है मगर डॉ. चरणदास महंत की दौड़ भी जारी है और ऐसा तथ्य बताते हैं कि उन्होंने अपनी स्थिति धीरे-धीरे ही सही मजबूत बनाई है इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण अपनी बेगम श्रीमती ज्योत्सना को सांसद चुनाव में विजयी बनाकर भी है . आज हम इस रिपोर्ट में डॉक्टर चरणदास का भविष्य और राजनीतिक कद को समझने का प्रयास करेंगे .

कौन कछुआ कौन खरगोश

छत्तीसगढ़ की राजनीति की नब्ज को समझने वाले जानते हैं कि डा. चरणदास महंत को छत्तीसगढ़ की राजनीति में नकारना असंभव है .1987 में आप पहली दफे विधायक बने और सीधे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने आपको राज्य कृषि मंत्री बनाया था .तब से अपनी 30 सालों की राजनीतिक यात्रा में डाक्टर चरणदास ने संघर्ष झैला है कभी अर्श पर रहे कभी फर्श पर मगर उन्होंने राजनीति के मैदान में अपनी अमिट छाप छोड़ी और प्रदेश भर में समर्थकों की भीड़ जोड़ी दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने तो आप जनसंपर्क मंत्री, आबकारी मंत्री और गृह मंत्री भी बने . दिग्विजय सिंह ने ही डॉ चरणदास को संसद की टिकट दी और मध्य प्रदेश की राजनीति से रुखसत कर सांसद बनवाया फिर हारे फिर जीते फिर हारे और यूपीए-2 में केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री बन कर सोनिया और राहुल गांधी के प्रियपात्र बन गए . डॉ . चरणदास अपने मृदु व्यवहार और पारखी नजर के बूते छत्तीसगढ़ में अपनी अलग ही बखत रखते हैं इससे उनके विरोधी भी इंकार नहीं करते .

छत्तीसगढ़ के मोस्ट सीनियर लीडर

डाक्टर चरणदास महंत छत्तीसगढ़ में मोतीलाल वोरा के पश्चात नि:संदेह मोस्ट सीनियर राजनेता है . आप सीधे मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे मगर इसलिए चुक गए क्योंकि भूपेश बघेल और टी.एस.सिंहदेव के नेतृत्व में चुनाव हुए थे डॉक्टर महंत को भी केंद्र ने जिम्मेदारी दी थी वे चुनाव संयोजक थे . जब अजीत जोगी छत्तीसगढ़ कांग्रेस से किनारा कर के चले गए तो डॉक्टर चरणदास महंत का वजन बेहद बढ़ गया . इधर जब वे सांसद चुनाव हार गए और दुर्ग से ताम्रध्वज साहू सांसद बन दिल्ली पहुंचे तो उनकी कद्र बड़ी . मगर चरण दास लगे रहे और निष्ठा से छत्तीसगढ़ के कार्यकर्ताओं को टटोलते रहते क्षेत्र में पहुंच उत्साहवर्धन करते रहते . यही कारण है कि सक्ति विधानसभा से स्वयं भारी मतों से जीत गए वहीं अपनी धर्मपत्नी जो ज्योत्सना महंत को कोरबा लोकसभा से सांसद भेजने में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की . यह ऐसा दांव था जो डॉक्टर महंत पर भारी पड़ सकता था अगर श्रीमती चुनाव हार जाती तो डॉक्टर चरणदास राहुल गांधी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहते मगर अपनी सधी हुई राजनीतिक चाल से उन्होंने छत्तीसगढ़ में अपनी पैठ जबरदस्त रूप से बनाई .

ज्योत्सना महंत की जीत का अर्थ

डा चरणदास महंत की बेगम ज्योत्सना महंत के लोकसभा चुनाव में विजयी होने से विपक्ष भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस में उनके विरोधियों के हाथों के तोते उड़ गये . जी हां यह सच है ज्योत्सना महंत अस्वस्थ रहती है राजनीति से कोई मतलब नहीं मगर आपने चुनाव जीत कर दिखा दिया की राजनीति में सिर्फ चेहरा ही सब कुछ नहीं मैनेजमेंट भी कोई चीज होती है .

ज्योत्सना महंत चुनाव में मौन मौन रही अभी भी डा. चरणदास की छाया की तरह उन्हें आगे बढ़ा रहे हैं मगर यह जीत छत्तीसगढ़ की राजनीति में भूचाल लेकर आई है . क्योंकि भूपेश बघेल मुख्यमंत्री रहते टी.एस.सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू कैबिनेट मंत्री रहते जो कारनामा नहीं दिखा पाए डा चरणदास ने विधानसभा अध्यक्ष रहते संवैधानिक पद की गरिमा की रक्षा करते हुए कर के दिखा दिया . अब इस खरगोश- कछुआ दौड़ में आगे क्या हो सकता है आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं भूपेश बघेल के नेतृत्व क्षमता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता उन्होंने अपना काम बखूबी किया है मगर डॉक्टर चरणदास की पैठ अनेक चेहरो पर शिकन खींच चुकी है यह छत्तीसगढ़ की राजनीति की सच्चाई है .

Edited By – Neelesh Singh Sisodia  

सिद्धू सरकार से बाहर : क्या बड़बोलापन जिम्मेदार?

इस अहम की लड़ाई में सिद्धू मोहरा बन गए. यह जंग दिल्ली दरबार तक भी पहुंची और 15 जुलाई को इस्तीफे की शक्ल में बाहर आई. नवजोत सिंह सिद्धू ने 15 जुलाई, 2019 को पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को अपना इस्तीफा भेज दिया था और उन्होंने पंजाब के राज्यपाल वीपी सिंह बदनोर को यह इस्तीफा भेज दिया.

कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच विवाद 14 जुलाई को उस समय गहरा गया था, जब सिद्धू ने नवीन एवं नवीनीकरण ऊर्जा स्रोत मंत्रालय लेने से मना कर दिया था. सिद्धू ने इस्तीफे में लिखा है, ‘मैं पंजाब मंत्रिमंडल के मंत्री पद से इस्तीफा देता हूं.’

ट्विटर पर अपना इस्तीफा पोस्ट करते हुए नवजोत सिंह सिद्धू ने ट्वीट किया कि मेरा इस्तीफा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के पास 10 जून, 2019 को पहुंच गया था. पर मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा यह बताने के बाद कि सिद्धू का इस्तीफा नहीं मिला है तो सिद्धू ने ट्वीट किया कि पंजाब के मुख्यमंत्री को अपना इस्तीफा भेजूंगा.

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6 जून को मंत्रिमंडल के पुनर्गठन में नवजोत सिंह सिद्धू से स्थानीय सरकार, पर्यटन और सांस्कृतिक मामलों का विभाग ले कर उन्हें नए और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत मंत्रालय दे दिया था, पर उन्होंने कामकाज संभालने से मना कर दिया था.

हालांकि नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच विवाद में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने दखल दिया तो उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू का इस्तीफा मंजूर नहीं किया था.

नवजोत सिंह सिद्धू फिर से कैबिनेट में स्थानीय निकाय विभाग मांग रहे थे, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह किसी भी कीमत पर उन्हें यह विभाग देने को तैयार नहीं हुए. 40 दिनों के बाद भी सिद्धू ने ऊर्जा विभाग का कामकाज नहीं संभाला. 14 जुलाई को उन्होंने खुलासा किया कि वह मंत्री पद से अपना इस्तीफा 10 जून को राहुल गांधी को सौंप चुके हैं. सवाल उठने पर नवजोत सिंह सिद्धू ने 15 जुलाई को मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपना इस्तीफा सौंप दिया.

वजह, कैप्टन ने सिद्धू पर आरोप लगाया था कि उन की घटिया कारगुजारी के कारण लोकसभा चुनाव में पार्टी को शहरों में नुकसान हुआ. इसे सिद्धू अपने माथे पर कलंक मान रहे हैं.

जिन 13 मंत्रियों के विभाग बदले गए हैं, उन में सिद्धू ही एकमात्र ऐसे मंत्री थे जिन पर नकारा होने का ठप्पा लगा. हालांकि कांग्रेस नवजोत सिंह सिद्धू को खोना नहीं चाहती. उसे लग रहा है कि अगर सिद्धू किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं तो वह कांग्रेस के लिए परेशानी खड़ी कर सकते हैं.

कांग्रेस की भी यही सोच है कि सिद्धू हमेशा से ही अपने बड़बोलेपन के कारण परेशानी खड़ी कर देते हैं तभी तो अमरिंदर सिंह ने उन से इस्तीफा मांग लिया. कांग्रेस अब सिद्धू को नया काम दे कर चुप कराने की कोशिश में है.

वैसे, सिद्धू का क्रिकेट से राजनीति की ओर आना और उस के बाद छोटा परदा यानी टैलीविजन पर अपनी एक्टिंग के चलते छा जाना और वहां पर अपनी शेरोशायरी का लोहा मनवाना उन्हें अच्छी तरह आता है.

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सिद्धू का इस्तीफा कहीं दूसरी ओर का संकेत न हो, यह देखने वाली बात होगी. कहीं वे फिर से भाजपा की ओर न चले जाएं, इसलिए कांग्रेस भी उन्हें नाराज नहीं करना चाहती. यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि नवजोत सिंह सिद्धू किस करवट बैठते हैं.

Edited By- Neelesh Singh Sisodia 

राजपूतों का सपा से मोहभंग

नीरज शेखर के समाजवादी पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल होने के बाद एक बार फिर यह चर्चा गरम है कि समाजवादी पार्टी से राजपूत नेताओं का मोहभंग हो चुका है. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही एक के बाद एक राजपूत नेता सपा को छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे हें. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के खासे करीबी माने जाते थे. अखिलेश के कई फैसलों में नीरज शेखर की अहम सहमति रहा करती थी. मगर उन्हें भी पार्टी में रोक पाने में अखिलेश नाकाम रहे. दरअसल 2019 के लोकसभा चुनाव में नीरज शेखर बलिया से टिकट चाहते थे. बलिया में उनका काफी दबदबा है, मगर ऐसा न होने से वे अखिलेश से नाराज चल रहे थे.

बलिया से लगातार सांसद रहने के बाद देश के प्रधानमंत्री बने स्व. चंद्रशेखर के परिवार से दूरी समाजवादी पार्टी को काफी भारी पड़ सकती है. गौरतलब है कि बलिया पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की परंपरागत सीट रही है. 2007 में उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में नीरज शेखर को समाजवादी पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया और सपा के टिकट पर वह पहली बार सांसद बने. इसके बाद 2009 के आम चुनाव में भी नीरज ने सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और दूसरी बार सांसद बने. मगर 2014 के लोकसभा चुनाव में बलिया की सीट पहली बार मोदी लहर में भाजपा के खाते में चली गयी. इसके बाद भी समाजवादी पार्टी ने चंद्रशेखर परिवार से अपने रिश्ते को मजबूती देते हुए नीरज शेखर को राज्यसभा सदस्य बनाया. 2019 कि लोकसभा के लिए सपा-बसपा गठबंधन हुआ और इस गठबंधन ने ही नीरज शेखर की सपा से दूरी बना दी.

दरअसल नीरज शेखर अपने पुश्तैनी संसदीय क्षेत्र बलिया से खुद या अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाना चाहते थे. अखिलेश की ओर से उन्हें पूरा आश्वासन भी दिया गया था परंतु ऐन वक्त पर बहनजी के दबाव में अखिलेश के इनकार से नीरज काफी आहत हो गये. उनकी नाराजगी इसलिए ज्यादा थी कि बलिया का टिकट बसपा के इशारे पर  दिया गया. लोकसभा चुनाव में बलिया की सीट सपा-बसपा बंटवारे में समाजवादी पार्टी के खाते में थी. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की इस परंपरागत सीट से नीरज शेखर या उनकी पत्नी का लड़ना तय माना जा रहा था. नीरज राज्यसभा सदस्य भी थे, लिहाजा माना जा रहा था कि समाजवादी पार्टी अपनी एक सीट कम नहीं करेगी. ऐसे में नीरज शेखर की पत्नी डॉ. सुषमा शेखर को उम्मीदवार बनाने पर मंथन हो ही रहा था कि ऐन मौके पर चंद्रशेखर की विरासत पर विराम लगाते हुए सपा ने यहां से सनातन पांडे को उम्मीदवार बना दिया. अखिलेश के इस फैसले ने नीरज का दिल तोड़ दिया. नीरज पहले ही यह मान रहे थे कि बसपा के साथ गठजोड़ सपा के लिए आत्मघाती कदम साबित होगा, और वह हुआ भी. अब नीरज के पार्टी छोड़ने से सपा के भीतर क्षत्रिय वोटों का समीकरण भी गड़बड़ाएगा. नीरज शेखर के सपा से इस्तीफे और उनके भाजपा से जुड़ने के बाद भाजपा की जड़ें न केवल पूर्वांचल में मजबूत होंगी वरन राज्यसभा के भीतर सपा की ताकत घटने का लाभ भी उसे मिलेगा. खबर तो यह भी है कि नीरज के कई समर्थक और समाजवादी पार्टी के कई बड़े नेता अब भाजपा नेतृत्व के संपर्क में हैं और आने वाले चंद दिनों में कई और लोग सपा का दामन छोड़ कर भाजपा में शामिल होंगे.

गौरतलब है कि यादव, मुसलमान और राजपूत समुदाय ही सपा का मूल वोटबैंक था. इसी गठजोड़ में सपा की ताकत निहित थी, मगर मुसलमान पहले ही सपा से निराश हैं. अबकी लोकसभा में सपा का मुस्लिम वोट कांग्रेस, भाजपा और बसपा के बीच बंट गया. अब राजपूतों के भी छिटकने से यह साफ दिख रहा है कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत को संभालने और सहेजने में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लगातार नाकाम हो रहे हैं. पार्टी की प्रतिष्ठा बचाने व समाजवादी दिग्गजों को संभालने में वह पूरी तरह फेल हैं.

उल्लेखनीय है कि मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह मौलाना मुलायम बन कर मुसलमानों को साध रखा था और अपने मित्र अमर सिंह के जरिये उन्होंने जिस तरह प्रदेश के ठाकुर-क्षत्रीय-भूमिहारों को पार्टी से जोड़े रखा था, वह गुण और कला अखिलेश में कतई नहीं है. मुलायम के जमाने में पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक के राजपूत नेता साइकिल पर सवार थे. अमर सिंह, रघुराज प्रताप सिंह और बृजभूषण शरण सिंह जैसे प्रतापी नेताओं ने पूरे प्रदेश के राजपूत समुदाय को सपा से जोड़े रखा. सपा के राष्ट्रीय संगठन से लेकर जिला संगठन तक में राजपूत छाये रहे. वर्ष 2003 में प्रदेश में सपा की सरकार बनाने में राजपूतों का अहम रोल रहा. राजपूतों को पार्टी से जोड़ने में अहम रोल अमर सिंह का था. मुलायम के दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमर सिंह का पार्टी में काफी रुतबा था. वे पार्टी के अहम फैसले लिया करते थे और मुलायम सिंह यादव उनके फैसलों को सिर-माथे पर रखते थे. मुलायम के वक्त सपा में अमर सिंह की तूती बोलती थी, लेकिन शिवपाल और अखिलेश के बीच हुई वर्चस्व की जंग के बाद उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. मुलायम भी दोस्त और बेटे के बीच फंस गये और मजबूरन उन्हें बेटे का साथ देना पड़ा. अमर सिंह के पार्टी से बाहर होने के बाद और पार्टी की कमान अखिलेश के हाथों में आने के बाद धीरे-धीरे राजपूत नेताओं ने सपा से किनारा करना शुरू कर दिया. यह फेहरिस्त काफी लम्बी है, जिसमें मयंकेश्वर शरण सिंह, राज किशोर सिंह, बृजभूषण शरण सिंह, राजा अरिदमन सिंह, कीर्तिवर्धन सिंह, आनंद सिंह, अक्षय प्रताप सिंह, रघुराज प्रताप सिंह और यशवंत सिंह जैसे कद्दावर नेताओं का नाम उल्लेखनीय है. 2014 के लोकसभा चुनाव से सूबे में राजपूत नेताओं के सपा का साथ छोड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ है वह यथावत जारी है. सपा का साथ छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है.

देश के वर्तमान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह कभी उत्तर प्रदेश के कद्दावर राजपूत नेता थे. वर्ष 2002 में राजनाथ सिंह के उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर आने के बाद राजपूत समुदाय का झुकाव सपा की ओर हुआ था. अमर सिंह ने इस मौके का खूब फायदा उठाया था और उनके प्रयासों से प्रदेश का राजपूत समुदाय समाजवादी पार्टी का मजबूत स्तम्भ बन गया था. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जब राजनाथ सिंह ने राजधानी लखनऊ से पर्चा भरा तो सपा से नाखुश राजपूत भाजपा की ओर झुक गये. वहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी राजपूत बिरादरी से सम्बन्ध रखते हैं. उनका चार्म भी राजपूतों को भाजपा के पाले में खींचने के लिए उत्तरदायी है.

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में राजपूत आठ फीसदी के आस-पास हैं. उत्तर प्रदेश में संख्या के हिसाब से यह बड़ी जाति नहीं है लेकिन राजनीतिक रूप से 90 के दशक तक यह जाति बहुत महत्वपूर्ण रही है. राजपूत सामाजिक रूप से दबदबे वाले, ग्रामीण उच्च वर्ग के प्रतिनिधि, लाठी से मजबूत एवं ओपिनियन बनाने वाले माने जाते हैं. चुनावों में लाठी से मजबूत होने के कारण बूथ मैनेजमेंट में यह जाति काफी प्रभावी रहती है. इसीलिए पार्टियों के प्रभावी राजनीतिक नेतृत्व के रूप में यह जाति हमेशा छायी रही है. इनके दबदबे में गांव के गांव अपना वोट सपा की झोली में डाल देते हैं. अब जबकि राजपूत नेता सपा का दामन छोड़ कर लगातार भाजपा में शामिल हो रहे हैं, तो 2020 के विधानसभा चुनाव में सपा के लिए परिस्थितियां काफी विकट होने वाली हैं, इसमें कोई दोराय नहीं है. अब सिर्फ पिछड़ों और यादवों के भरोसे तो सपा की साइकिल चलने से रही. समाजवादी पार्टी में बसपा से गठबंधन को लेकर पनपा असंतोष भी कायम है. इसके साथ ही लोकसभा चुनाव के वक्त टिकटों के बंटवारे से गहराया गुस्सा भी कम नहीं हुआ है. पार्टी में चंद्रशेखर परिवार से वर्षों पुराना नाता टूट जाने से चिन्ता और गहरी हो गयी है. इससे समाजवादी आंदोलन की धार कुंद होने और पूर्वांचल में जनाधार घटने का डर भी अखिलेश को सता रहा है. नीरज शेखर का समाजवादी पार्टी को छोड़ना पार्टी के लिए पूर्वांचल में एक बड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है.

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