नया सवेरा: आखिर सेठजी ने भोला को क्यों माफ नहीं किया

सेठ चमन लाल का कपड़े का व्यापार बढ़ता जा रहा था, इसलिए उन्हें एक अकाउंटेंट की आवश्यकता थी. इस के लिए अखबार में विज्ञापन निकाला गया था. इस पद के लिए दर्जनों लोग आ चुके थे, लेकिन उन के पास इतना समय नहीं था कि स्वयं बैठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन कर सकें, इसलिए यह जिम्मेवारी वे अपनी पत्नी रंजना देवी को दिए थे.

रंजना देवी आए हुए उम्मीदवारों से कई तरह के सवाल पूछ कर जांचने की कोशिश की, लेकिन रंजना देवी की उम्मीदों के तराजू पर सिर्फ भोला ही खरा निकला था. क्योंकि भोला का ध्यान सवालों पर कम, रंजना के ब्लाउज के ऊपर से दिख रहे उभारों को निहारने में ज्यादा था, जिसे रंजना भांप चुकी थी. सवालों के जवाब देते समय उस ने यह भी जतला दिया था कि रंजना जो कहेंगी, वह कभी भी करने से मना नहीं करेगा.

रंजना जानती थी कि ऐसे कामों के लिए वैसे व्यक्ति को रखना ठीक है जो उन के पति के साथसाथ उस का भी आज्ञापालक हो. भोला बिलकुल वैसा ही था, जैसा रंजना चाहती थी. भोला देखने में आकर्षक और सुंदर नौजवान था.

जब कभी सेठजी 1-2 दिन के लिए किसी काम के सिलसिले में बाहर चले जाते थे, तो भोला ही उन का कारोबार संभालता था. भोला उन के लेनदेन का हिसाब तो सटीक रखता ही था, लेकिन वह रंजना के कई कामों को चुटकी में निबटा देता था. इसीलिए सेठजी का सब से प्रिय कर्मचारी में से एक था.

सेठजी घर में नौकर नहीं रखना चाहते थे क्योंकि वह दुनियादारी जानते थे. उन का मानना था कि आजकल नौकर लोग घर पर विश्वास जमा कर डाका डाल देते हैं. मालिक की हत्या तक कर डालते हैं. इसी डर की वजह से वे घर के लिए कोई नौकर नहीं रख पाए थे.

इस जरूरत को भी भोला पूरा कर देता था. जब कभी भी रंजना भोला को किसी काम के लिए कहती, वह खुशीखुशी कर देता था. यही कारण था कि वह सेठजी का भी विश्वासी हो चुका था. अकसर उसे ही किसी भी काम के लिए घर पर भेजते रहते थे. वह तुरंत हाजिर हो जाता था. वह किसी भी काम को करने में नानुकर नहीं करता था. इसी स्वभाव के कारण वह सेठजी के साथ रंजना का भी दुलारा बन गया था.

एक दिन सेठजी दुकान बढ़ा कर घर लौट रहे थे, तो उन की मोबाइल की घंटी बजी थी. सेठजी ने जब फोन उठाया, तो उन्हें मालूम हुआ कि मुंबई में व्यापारियों का बहुत बड़ा सम्मेलन होने वाला है. उस में शामिल होने के लिए उन्हें जाना पड़ेगा. वे जिन कंपनियों के माल बेचते थे, उस कंपनी के मालिक ने इन को खास आमंत्रित किया था. भला ऐसे अवसर को कोई व्यापारी कैसे हाथ से जाने दे सकता था. उन्होंने घर आते ही प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी रंजना देवी से कहा, ‘‘रंजना, आज मुझे मुंबई निकलना पड़ेगा.‘‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘क्योंकि मंुबई में बड़ेबड़े व्यापारियों का खास सम्मेलन होने वाला है. खुशी की बात यह है कि मुंबई की नामी कंपनी के मालिक रतनभाईजी ने मुझे खास निमंत्रण भेजा है. हो सकता है, उन से मुझे नया कौंट्रैक्ट मिल जाए,‘‘ यह सुन कर रंजना मन ही मन मुसकराई.

‘‘आप जल्दी से खाना खा लीजिए,‘‘ रंजना ने टेबल पर खाना लगाते हुए कहा.

‘‘अरे हां, कल से दुकान को भोला को ही संभालना पड़ेगा. लेकिन एक समस्या है, रंजना?‘‘ खाना खाते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या समस्या है?‘‘ रंजना ने अपने पति से सवाल किया.

‘‘समस्या यह है कि भोला तो दुकान संभालने के लिए तैयार ही नहीं था. कहने लगा कि आप के बिना इतने दिनों तक दुकान कैसे चला पाऊंगा. मैं ने उस को समझा दिया है कि रंजना भी इस काम में मदद कर देंगी.‘‘

‘‘आप बेफिक्र हो कर जाइए. मैं भोला को दुकान संभालने में मदद कर दूंगी,‘‘ उन की पत्नी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए जवाब दिया.

सेठजी को रात में ट्रेन से ही निकलना था, इसलिए उन्होंने भोला को भी बुला लिया था. वह उन की गाड़ी से स्टेशन छोड़ देगा. इधर सेठ भी जल्दीजल्दी जाने की तैयारी कर रहे थे. तभी भोला भी आ गया था.

भोला हर काम में दक्ष था. सेठजी की गाड़ी को भी वही चलाता था, क्योंकि सेठजी ज्यादा से ज्यादा भोला जैसे सीधेसादे कर्मचारी से काम लेना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने गाड़ी का ड्राइवर अलग से नहीं रखा था.

रंजना मन ही मन बहुत खुश थी कि आज भोला उस के घर पर ही रुकेगा. दरअसल, रंजना जब से सेठजी के घर आई थी, उस ने सेठजी को पैसे के पीछे ज्यादा भागते देखा था. रंजना के लिए सभी सुखसुविधाएं तो घर में थीं, लेकिन एक कमी थी तो सेठजी की. जब भी इस की इच्छाएं जगती, तो सेठजी के थके होने के कारण वह अपने अरमानों को दबा लेती थी. अंदर ही अंदर वह कुढ़ती रहती थी.

जब से रंजना देवी ने भोला को काम पर रखा था, अधूरी इच्छाएं मचलने लगी थीं. वह अवसर की तलाश में थी. पति की गैरमौजूदगी में आज अरमान पूरे होने वाले थे.

इधर भोला भी चाहता था कि आज रंजना और उस के बीच दूरियां मिट जाएं, क्योंकि वह रंजना के व्यवहार से समझ चुका था. वह जब कभी भी सेठजी के घर जाता था, रंजना के अंदरूनी अंगों को ताड़ने की कोशिश करता था. वह रंजना के मौन समर्थन को भी समझ गया था. लेकिन सेठजी के यहां नौकरी जाने के डर से वह आगे नहीं बढ़ पाया था. इस बात का अहसास रंजना को भी था.

भोला जैसे ही घर में दाखिल हुआ, वे दोनों जल्दी ही एकदूसरे की बांहों में समा गए थे. भोला उस के कोमल अंगों से खेलने लगा था. आज रंजना भी कई महीनों बाद देहसुख की प्राप्ति कर रही थी.

कुछ दिन बाद ही सेठजी सम्मेलन से लौट आए थे. अब भोला का दुकान से ज्यादा घर के कामों में मन लग रहा था. वह किसी न किसी बहाने घर के कामों के लिए मौके की तलाश में रहता था. जब कभी भी सेठजी घर के कामों के लिए कहते, वह जल्दी ही तैयार हो जाता था.

इधर जब भी भोला और उन की पत्नी को मौका मिलता, प्यार के खेल में शामिल हो जाते. अब दोनों को किसी प्रकार की रुकावट पसंद नहीं थी. किसी भी हाल में एकदूसरे से अलग नहीं रहना चाह रहे थे. इसलिए वेे सही मौके की तलाश में थे.

इधर भोला का मन काम में नहीं लग रहा था. पहले की तरह इस का ध्यान दुकान पर नहीं रहता था. सेठजी भी भोला के बदले हुए रूप से परेशान थे. उन्हें भी लग रहा था कि कहीं ना कहीं गड़बड़ है. वे जब भी भोला को गलत काम पर डांटतेफटकारते, वह ढीठ की तरह एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता था.

वे चाह कर भी उसे नहीं हटा पा रहे थे, क्योंकि वे किसी भी सूरत में अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाह रहे थे. जब भी वे भोला को हटाने की बात करते, उन की पत्नी ढाल बन कर खड़ी हो जाती थी. वह घर की जिम्मेवारियों की दुहाई देने लगती थी. भोला घर और उन के व्यापार के लिए कितना महत्वपूर्ण था. यह बात उन्हें भी पता थी.

एक दिन सेठजी काफी बीमार पड़ गए. उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. उन की बीमारी काफी गंभीर थी. इसलिए उन की देखभाल पत्नी और भोला ही कर रहा था. भोला ही उन की पत्नी को अस्पताल ले कर जाता और ले कर आता था. उन की बीमारी काफी लंबे समय तक रह गई.

इघर भोला और रंजना मौका देख अपने अरमान पूरा करते. क्योंकि दोनों को रोकनेटोकने वाला कोई नहीं था. एक दिन भोला ने रंजना को बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘आखिर कब तक हम लोग सेठजी से छुप कर मिलते रहेंगे?‘‘

‘‘और आखिर उपाय भी क्या है?‘‘ रंजना ने उस की बांहों में समाते हुए सवाल किया था.

‘‘यही कि हम दोनों को यहां से भाग जाना चाहिए. हमें अलग दुनिया बसा लेनी चाहिए,‘‘ यही बातें रंजना के मन में भी चल रही थीं. वह ऐसा करने के लिए पहले से तैयार थी.

दोनों ने मिल कर सब से पहले खाते से कुछ रुपए निकाले. रंजना ने अपने कीमती गहने समेटे और अपना घर छोड़ भोला के साथ स्टेशन आ गई. फिर दोनों मिल कर एक अनजान रास्ते पर चल पड़े थे. लेकिन मंजिल का कोई अतापता नहीं था.

कई दिनों तक जब सेठजी से कोई अस्पताल में मिलने नहीं पहुंचा, तो सेठजी को शक हुआ. कुछ दिन बाद वे घर पर स्वस्थ हो कर लौटे तो पता चला कि भोला और उन की पत्नी मिल कर अकाउंट खाली कर चुके हैं. दरअसल, उन की पत्नी के साथ ही उन का जौइंट अकाउंट था. सेठजी के न रहने पर बिजनेस के लिए वह पत्नी से ही चेक पर साइन करवाता रहता था. दोनों ने मिल कर बैंक से सारे पैसे निकाल लिए थे. साथ ही, उन की पत्नी के कीमती गहने भी गायब थे.

अब सेठजी पछता रहे थे. उन्हें बेहद अफसोस हो रहा था कि वे अपनी पत्नी को भी नहीं समझ पाए. उन का घर पत्नी के बिना बहुत सूना लग रहा था. घर जैसे काटने को दौड़ रहा था. वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाए.

वे कई महीने बाद धीरेधीरे अपने व्यापार को दूसरे शहर में शिफ्ट करने के लिए सोचने लगे. उन्हें याद आया कि कुछ दिन पहले से ही अपने राज्य की राजधानी में घर खरीदने की सोच रहे थे. पहले उन का विचार था कि उस घर को वहां किराए पर लगा दिया जाएगा. कुछ कमरे अपने लिए बंद रख छोड़ा जाएगा, क्योंकि व्यापार के सिलसिले में कई शहरों में जाना पड़ता था. उन की इच्छा थी कि उन का कुछ दूसरे बड़े शहरों में अपना घर होना ही चाहिए.

जल्दी ही सेठजी ने घर बेचने वाले दलालों से बात की. एक मकान देखने के लिए बुलाया गया. मकान अच्छा था. व्यापार के लिहाज से शहर भी बहुत अच्छा था. उन की राय थी कि इस शहर में आ जाने के बाद पुरानी बातें भूल जाएंगे. फिर नए सिरे से जिंदगी शुरू की जा सकती है. यही सोच कर घर खरीद लिया गया. नए शहर में दुकान के लिए इधरउधर दौड़ रहे थे. भागदौड़ के चलते उन्हें होटलों में ही खाना पड़ता था.

एक दिन सेठजी काफी थके हुए थे. होटल में खाना खाने के बाद चाय की चुसकी ले रहे थे, तभी उन की नजर होटल के किचन में बरतन धोती एक महिला पर गई. वह महिला बरतन धोने में व्यस्त थी.

सेठजी की नजर जैसे ही उस महिला के चेहरे पर गई, उन की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. वह कोई और नहीं, बल्कि उन की पत्नी रंजना देवी थी. जैसे ही रंजना उस होटल से बरतन धो कर बाहर निकली, तभी सेठ चमन लाल उस के पीछेपीछे चलने लगे थे. रंजना अपनी धुन में चली जा रही थी. पीछे से सेठजी ने पुकारा, ‘‘रंजना…‘‘

रंजना ने पीछे मुड़ कर देखा था. वह कुछ क्षण सेठ चमन लाल को देखते रह गई थी. तभी उस की आंखों में अंधेरा छा गया था. वह गिरने वाली थी. सेठजी ने उसे संभाला. होश आने पर उसे अपने नए घर ले आए.

सेठजी ने रंजना से भोला के बारे में पूछा, तो उस ने बताया, ‘‘भोला के साथ वह कुछ दिन होटल में रही. लेकिन वह मुझे छोड़ कर पैसे और गहने ले कर भाग गया. आज तक नहीं लौटा वह.

‘‘पेट की भूख मिटाने के लिए वह आसपास के ढाबे और होटलों में बरतन धोने लगी. वह जहांतहां फुटपाथ पर ही सो कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी. अब वह किस मुंह से आप के पास लौटती.

आज बरतन धो कर निकल रही थी तो पता नहीं आप ने कहां से देख लिया. उस ने सेठजी से अपने किए करतूतों के लिए माफी मांगी और जाने की अनुमति चाही. सेठजी ने उसे गले लगा लिया और बोले, ‘‘रंजना, तुम्हें गलत रास्ते पर जाने देने के लिए दोषी मैं भी उतना ही हूं. अगर मैं तुम्हें भरपूर प्यार देता तो शायद तुम भी गलत राह पर नहीं जाती.

दरअसल, मैं भी पैसे के पीछे ज्यादा भागने लगा था, इसलिए तुम्हारे ऊपर मेरा ध्यान बिलकुल नहीं था. अब तो मुझे तुम से माफी मांगनी चाहिए.

ऐसा कहते हुए दोनों ने एकदूसरे को माफ कर गले लगा लिया था. रंजना को लग रहा था, आज उस के लिए नया सवेरा हुआ है.

मलमल की चादर : वैदही और नीरज का क्या रिश्ता था

आज फिर बरसात हो रही है. वर्षा ऋतु जैसी दूसरी ऋतु नहीं. विस्तृत फैले नभ में मेघों का खेल. कभी एकदूसरे के पीछे चलना तो कभी मुठभेड़. कभी छींटे तो कभी मूसलाधार बौछार. किंतु नभ और नीर की यह आंखमिचौली तभी सुहाती है जब चित्त प्रसन्न होता है. मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन ही हताश, निराश, घायल हो तब…? वैदेही ने कमरे की खिड़की की चिटकनी चढ़ाई और फिर बिस्तर पर पसर गई.

उस की दृष्टि में कितना बेरंग मौसम था, घुटा हुआ. पता नहीं मौसम की उदासी उस के दिल पर छाई थी या दिल की उदासी मौसम पर. जैसे बादलों से नीर की नहीं, दर्द की बौछार हो रही हो. वैदेही ने शौल को अपने क्षीणकाय कंधों पर कस कर लपेट लिया.

शाम ढलने को थी. बाहर फैला कुहरा मन में दबे पांव उतर कर वहां भी धुंधलका कर रहा था. यही कुहरा कब डूबती शाम का घनेरा बन कमरे में फैल गया, पता ही नहीं चला. लेटेलेटे वैदेही की टांगें कांपने लगीं. पता नहीं यह उस के तन की कमजोरी थी या मन की. उठ कर चलने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी उस की. शौल को खींच कर अपनी टांगों तक ले आई वह.

अचानक कमरे की बत्ती जली. नीरज थे. कुछ रोष जताते हुए बोले, ‘‘कमरे की बत्ती तो जला लेतीं.’’ फिर स्वयं ही अपना स्वर संभाल लिया, ‘‘मैं तुम्हारे लिए बंसी की दुकान से समोसे लाया था. गरमागरम हैं. चलो, उठो, चाय बना दो. मैं हाथमुंह धो आता हूं, फिर साथ खाएंगे.’’

एक वह जमाना था जब वैदेही और नीरज में इसी चटरमटर खाने को ले कर बहस छिड़ी रहती थी. वैदेही का चहेता जंकफूड नीरज की आंख की किरकिरी हुआ करता था. उन्हें तो बस स्वास्थ्यवर्धक भोजन का जनून था. लेकिन आज उन के कृत्य के पीछे का आशय समझने पर वह मन ही मन चिढ़ गई. वह समझ रही थी कि समोसे उस के खानेपीने के शौक को पूरा करने के लिए नहीं थे बल्कि यह एक मदद थी, नीरज की एक और कोशिश वैदेही को जिंदगी में लौटा लाने की. पर वह कैसे पहले की तरह हंसेबोले?

वैदेही तो जीना ही भूल गई थी जब डाक्टर ने बताया था कि उसे कैंसर है. कैंसर…पहले इस चिंता में उस का साथ निभाने को सभी थे. केवल वही नहीं, उस का पूरा परिवार झुलस रहा था इस पीड़ाग्नि में. वैदेही का मन शारीरिक पीड़ा के साथ मानसिक ग्लानि के कारण और भी झुलस उठता था कि सभी को दुखतकलीफ देने के लिए उस का शरीर जिम्मेदार था. बारीबारी कभी सास, कभी मां, कभी मौसी, सभी आई थीं उस की 2 वर्र्ष पुरानी गृहस्थी संभालने को. नीरज तो थे ही. लेकिन वही जानती थी कि सब से नजरें मिलाना कितना कठिन होता था उस के लिए. हर दृष्टि में  ‘मत जाओ छोड़ कर’ का भाव उग्र होता. तो क्या वह अपनी इच्छा से कर रही थी? सभी जरूरत से अधिक कोशिशें कर रहे थे. शायद कोई भी उसे खुश रखने का आखिरी मौका हाथ से खोना नहीं चाहता था.

अब तक उस की जिंदगी मलमल की चादर सी रही थी. हर कोई रश्क करता, और वह शान से इस मलमल की चादर को ओढ़े इठलाती फिरती. लेकिन पिछले 8 महीनों में इस मलमल की चादर में कैंसर का पैबंद लग गया था. इस की खूबसूरती बिगड़ चुकी थी. अब इसे दूसरे तो क्या, स्वयं वैदेही भी ओढ़ना नहीं चाहती थी. आजकल आईना उसे डराता था. हर बार उस की अपनी छवि उसे एक झटका देती.

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. देखो न, तुम्हारे बाल फिर से आने लगे हैं. और आजकल तो इस तरह के छोटे कटे बाल लेटेस्ट फैशन भी हैं. क्या कहते हैं इस हेयरस्टाइल को…हां, याद आया, क्रौप कट,’’ आईने से नजरें चुराती वैदेही को कनखियों से देख नीरज ने कहा.

क्यों समझ जाते हैं नीरज उस के दिल की हर बात, हर डर, हर शंका? क्यों करते हैं वे उस से इतना प्यार? आखिर 2 वर्ष ही तो बीते हैं इन्हें साथ में. वैदेही के मन में जो बातें ठंडे छींटे जैसी लगनी चाहिए थीं, वे भी शूल सरीखी चुभती थीं.

समोसे और चाय के बाद नीरज टीवी देखने लगे. वैदेही को भी अपने साथ बैठा लिया. डाक्टरों के पिछले परीक्षण ने यह सिद्ध कर दिया था कि अब वैदेही इस बीमारी के चंगुल से मुक्त है. सभी ने राहत की सांस ली थी और फिर अपनीअपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए थे. रिश्तेदार अपनेअपने घर लौट गए थे. नीरज सारा दिन दफ्तर में व्यस्त रहते. लेकिन शाम को अब भी समय से घर लौट आते थे. डाक्टरी राय के अनुसार, नीरज हर मुमकिन प्रयास करते रहते वैदेही में सकारात्मक विचार फूंकने की.

परंतु कैंसर ने न केवल वैदेही के शरीर पर बल्कि उस के दिमाग पर भी असर कर दिया था. सभी समझाते कि अकेले उदासीन बैठे रहना सर्वथा अनुचित है. बाहर निकला करो, लोगों से मिलाजुला करो. लेकिन वह जब भी घर के दरवाजे तक पहुंचती, उस का अवचेतन मन उसे देहरी के भीतर धकेल देता. घर की चारदीवारी जैसे सिकुड़ गई थी. मन में अजीब सी छटपटाहट बढ़ने लगी थी. दिल बहलाने को कुछ देर सड़क पर टहलने के इरादे से गई. मगर यह इतना आसान नहीं था. सड़क पर पहुंचते ही लगा जैसे सारा वातावरण इस स्थिति को घूरने को एकत्रित हो गया हो. आसमान में उस के अधूरे मन सा अधूरा चांद, आसपास के उदास पत्थर, फूलपत्ते, गहराती रात…सभी उस के अंदर की पीड़ा को और गहरा रहे थे. इस अकेली ठंडी सांध्य में वैदेही घर लौट कर बिस्तर पर निढाल हो लेट गई. दिल कसमसा उठा. नयनों के पोरों से बहते अश्रुओं ने अब कान के पास के बाल भी गीले कर दिए थे.

उस की सूरत से उस की मनोस्थिति को भांप कर नीरज बोले, ‘‘वैदू, आगे की जिंदगी की ओर देखो. अभी हमारी गृहस्थी नई है, उग रही है. आगे इस में नूतन पुष्प खिलेंगे. क्या तुम भविष्य के बारे में कभी भी सकारात्मक नहीं होगी?’’

पर वैदेही आंखें मूंदे पड़ी रही. एक बार फिर वह वही सब नहीं सुनना चाहती थी. उस को नहीं मानना कि उस के कारण सभी के सकारात्मक स्वप्न धूमिल हो रहे हैं. अन्य सभी की भांति वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ है. कैंसर के बारे में उस ने जो कुछ भी पढ़ासुना था, उस से यही जाना था कि कैंसर एक ढीठ, जिद्दी बीमारी है. यदि उस के अंदर अब भी इस का कोई अंश पनप रहा हो तो? मन में यह बात आ ही जाती.

अगली सुबह वैदेही रसोई में गई तो पाया कि नीरज ने पहले ही चाय का पानी चढ़ा दिया था. प्रश्नसूचक नजरों के उत्तर में वे बोले, ‘‘आज शाम मेरे कालेज का जिगरी दोस्त व उस की पत्नी आएंगे. तुम दिन में आराम करो ताकि शाम को फ्रैश फील करो. और हां, कोई अच्छी सी साड़ी पहन लेना.’’

दिन फिर उसी खिन्नता में गुजरा. किंतु सूर्यास्त के समय वैदेही को नीरज का उत्साह देख मन ही मन हंसी आई. भागभाग कर घर साफसुथरा किया, रैस्तरां से मंगवाई खानेपीने की वस्तुओं को करीने से डाइनिंग टेबल पर सजाया.

वैदेही अपने कक्ष में जा साड़ी पहन कर जैसे ही बिंदी लगाने को आईने की ओर मुड़ी, सिर पर छोटेछोटे केश देख फिर हतोत्साहित हो गई. क्या फायदा अच्छी साड़ी, इत्र या सजने का जब शक्ल से ही वह… तभी दरवाजे पर बजी घंटी के कारण उसे कक्ष से बाहर आना पड़ा.

‘‘इन से मिलो, ये है मेरा लंगोटिया यार, सुमित, और ये हैं साक्षी भाभी,’’ कहते हुए नीरज ने वैदेही का परिचय मेहमानों से करवाया. हलकी मुसकान लिए वैदेही ने हाथ जोड़ दिए किंतु उस की अपेक्षा से परे साक्षी ने आगे बढ़ फौरन उसे गले से लगा लिया. ‘‘इन दोनों को अपना शादीशुदा गम हलका करने दो, हम बैठ कर इन की खूब चुगली करते हैं,’’ साक्षी हंस कर कहने लगी.

लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिल रहे हैं. इतनी घनिष्ठता से मिले दोनों मियांबीवी कि उन के घर में अचानक रौनक आ गई. धूमिल से वातावरण में मानो उल्लास की किरणें फूट पड़ीं. साक्षी पुरानी बिसरी सखी समान बातचीत में मगन हो गई थी. वैदेही भी आज खुद को अपने पुराने अवतार में पा कर खुश थी.

दोनों की गपबाजी चल रही थी कि नीरज लगभग भागते हुए उस के पास आए और बोले, ‘‘वैदेही, सुमित को पिछले वर्ष कैंसर हुआ था, अभी बताया इस ने.’’ इस अप्रत्याशित बात से वैदेही का मुंह खुला रह गया. बस, विस्फारित नेत्रों से कभी सुमित, तो कभी साक्षी को ताकने लगी.

‘‘अरे यार, वह बात तो कब की खत्म हो गई. अब मैं भलाचंगा हूं, तंदुरुस्त तेरे सामने खड़ा हूं.’’

‘‘हां भैया, अब ये बिलकुल ठीक हैं. और इस का परिणाम यहां है,’’ अपनी कोख की ओर इशारा करते हुए साक्षी के कपोल रक्ताभ हो उठे. नीरज और वैदेही ने अचरजभाव से एकदूसरे को देखा, फिर फौरन संभलते हुए अपने मित्रों को आने वाली खुशी हेतु बधाई दी.

‘‘दरअसल, कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो आज आम सी बनती जा रही है. बस, डर है तो यही कि उस का इलाज थोड़ा कठिन है. परंतु समय रहते ज्ञात हो जाने पर इलाज भी भली प्रकार संभव है. अब मुझे ही देख लो. स्थिति का आभास होते ही पूरा इलाज करवाया और फिर जब डाक्टर ने क्लीनचिट दे दी तो एक बार फिर जिंदगी को भरपूर जीना आरंभ कर डाला,’’ सुमित के स्वर से कोई नहीं भांप सकता था कि वे एक जानलेवा बीमारी से लड़ कर आए हैं.

‘‘हमारा मानना तो यह है कि यह जीवन एक बार मिलता है. यदि इस में थोड़ी हलचल हो भी जाए तो कोशिश कर इसे फिर पटरी पर ले आना चाहिए. शरीर है तो हारीबीमारी लगी ही रहेगी, उस में हताश हो कर तो नहीं बैठा जा सकता न? जो समय मिले, उसे भरपूर जियो.’’

साक्षी ने अपनी बात सुमित की बात से जोड़ी. ‘‘अरे यार, वह कौन सा डायलौग था ‘आनंद’ मूवी का जो अपने कालेज में बोला करते थे…हां, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, हा हा…’’ और सचमुच वे सब हंसने लगे.

नीरज हंसे, वैदेही हंसी. सारा वातावरण, जो अब तक वैदेही को केवल घायल किए रहता था, अचानक बेहद खुशनुमा हो गया था. वैदेही के चक्षु खुल गए थे, वह देख पा रही थी कि उस ने अपनी और अपनों की जिंदगी के साथ क्या कर रखा था अब तक.

सुमित और साक्षी के लौटने के बाद वैदेही ने अलमारी के कोने से अपनी लाल नाइटी निकाली. उसे भी आगे बढ़ना था अब नए सपने सजाने थे. अपनी मलमल की चादर को आखिर कब तक तह कर अलमारी में छिपाए रखेगी जबकि पैबंद तो कब का छूट कर गिर चुका था.

चावल पर लिखे अक्षर : जब हार गई सीमा

दशहरे की छुट्टियों के कारण पूरे 1 महीने के लिए वर्किंग वूमेन होस्टल खाली हो गया था. सभी लड़कियां हंसतीमुसकराती अपनेअपने घर चली गई थीं. बस सलमा, रुखसाना व नगमा ही बची थीं. मैं उदास थी. बारबार मां की याद आ रही थी. बचपन में सभी त्योहार मुझे अच्छे लगते थे. दशहरे में पिताजी मुझे स्कूटर पर आगे खड़ा कर रामलीला व दुर्गापूजा दिखाने ले जाते. दीवाली के दिन मां नाना प्रकार के पकवान बनातीं, पिताजी घर सजाते. शाम को धूमधाम से गणेशलक्ष्मी पूजन होता. फिर पापा ढेर सारे पटाखे चलाते. मैं पटाखों से डरती थी. बस, फुल झड़ियां ही घुमाती रहती. उस रात जगमगाता हुआ शहर कितना अच्छा लगता था. दीवाली के दिन यह शहर भी जगमगाएगा पर मेरे मन में तब भी अंधेरा होगा. 10 वर्ष की थी मैं जब मां का देहांत हो गया. तब से कोई भी त्योहार, त्योहार नहीं लगा. सलमा वगैरह पूछती हैं कि मैं अपने घर क्यों नहीं जाती? अब मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरा कोई घर ही नहीं.

मन उलझने लगा तो सोचा, कमरे की सफाई कर के ही मन बहलाऊं. सफाई के क्रम में एक पुराने संदूक को खोला तो सुनहरे डब्बे में बंद एक शीशी मिली. छोटी और पतली शीशी, जिस के अंदर एक सींक और रुई के बीच चावल का एक दाना चमक रहा था, जिस पर लिखा था, ‘नोरा, आई लव यू.’ मैं ने उस शीशी को चूम लिया और अतीत में डूबती चली गई. यह उपहार मुझे अनवर ने दिया था. दिल्ली के प्रगति मैदान में एक छोटी सी दुकान है, जहां एक लड़की छोटी से छोटी चीजों पर कलाकृतियां बनाती है. अनवर ने उसी से इस चावल पर अपने प्रेम का प्रथम संदेश लिखवाया था.

अनवर मेरे सौतेले बडे़ भाई के मित्र थे, अकसर घर आया करते थे. पिताजी की लंबी बीमारी, फिर मृत्यु के समय उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी. भाई उन पर बहुत विश्वास करता था. वह उस के मित्र, भाई, राजदार सब थे पर भाई का व्यवहार मुझ से ठीक न था. कारण यह था कि पिताजी ने अपनी आधी संपत्ति मेरे नाम लिख दी थी. वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरी शादी कर के बाकी संपत्ति पर अधिकार कर ले. पर मैं आगे पढ़ना चाहती थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उस ने मुझे काफी बुराभला कहा. मैं ने गुस्से में सल्फास की गोलियां खा लीं पर संयोग से अनवर आ गए. वह तत्काल मुझे अस्पताल ले गए. भाई तो पुलिस केस के डर से मेरे साथ आया तक नहीं. जहर के प्रभाव से मेरा बुरा हाल था. लगता था जैसे पूरे शरीर में आग लग गई हो. कलेजे को जैसे कोई निचोड़ रहा हो. उफ , इतनी तड़प, इतनी पीड़ा. मौत जैसे सामने खड़ी थी और जब डाक्टर ने जहर निकालने  के लिए नलियों का प्रयोग किया तो मैं लगभग बेहोश हो गई.

जब होश आया तो देखा अनवर मेरे सिरहाने उदास बैठे हुए हैं. मुझे होश में देख कर उन्होंने अपना ठंडा हाथ मेरे तपते माथे पर रख दिया. आह, ऐसा लगा किसी ने मेरी सारी पीड़ा खींच ली हो. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे तो उन की भी आंखें नम हो आईं. बोले, ‘पगली, रोती क्यों है? उस जालिम की बात पर जान दे रही थी? इतनी सस्ती है तेरी जान? इतनी बहादुर लड़की और यह हरकत…?’

मैं ने रोतेरोेते कहा, ‘मैं अकेली पड़ गई हूं, कोई मेरे साथ नहीं है. मैं क्या करूं?’

वह बोले, ‘आज से यह बात मत कहना, मैं हूं न, तुम्हारा साथ दूंगा. बस, आज से इन प्यारी आंखों में आंसू न आने पाएं. समझीं, वरना मारूंगा.’

मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

अनवर ने भाई को राजी कर मेरा एम.ए. में दाखिला करा दिया. फिर तो मेरी दुनिया  ही बदल गई. अनवर घर में मुझ से कम बातें करते पर जब बाहर मिलते तो खूब चुटकुले सुना कर हंसाते. धीरेधीरे वह मेरी जिंदगी की एक ऐसी जरूरत बनते जा रहे थे कि जिस दिन वह नहीं मिलते मुझे सूनासूना सा लगता था.

एक दिन मैं अपने घर में पड़ोसी के बच्चे के साथ खेल रही थी. जब वह बेईमानी करता तो मैं उसे चूम लेती. तभी अनवर आ गए और हमारे खेल में शामिल हो गए. जब मैं ने बच्चे को चूमा तो उन्होंने भी अपना दायां गाल मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं ने शरारत से उन्हें भी चूम लिया. जब उन्होंने अपने होंठ मेरी तरफ बढ़ाए तो मैं शरमा गई पर उन की आंखों का चुंबकीय आकर्षण मुझे खींचने लगा और अगले ही पल हमारे अधर एक हो चुके थे. एक अजीब सा थरथराता, कोमल, स्निग्ध, मीठा, नया एहसास, अनोखा सुख, होंठों की शिराओं से उतर कर विद्युत तरंगें बन रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा. देह एक मद्धिम आंच में तपने लगी और सितार के कसे तारों से मानो संगीत बजने लगा. तभी भाई की चीखती आवाज से हमारा सम्मोहन टूट गया. अनवर भौचक्के से खड़े हो गए थे. भाई की लाललाल आंखों ने बता दिया कि हम कुछ गलत कर रहे थे.

‘क्या कर रही थी तू बेशर्म, मैं जान से मार डालूंगा तुम्हें,’ उस ने मुझे मारने के लिए हाथ उठाया तो अनवर ने उस का हाथ थाम लिया.

‘इस की कोई गलती नहीं. जो कुछ दंड देना हो मुझे दो.’

भाई चीखा, ‘कमीने, मैं ने तुझे अपना दोस्त समझा और तू…जा, चला जा…फिर कभी मुंह मत दिखाना. मैं गद्दारों से दोस्ती नहीं रखता.’

अनवर आहत दृष्टि से कुछ क्षण भाई को देखते रहे. कल तक वह उस के लिए आदर्श थे, मित्र थे और आज इस पल इतने बुरे हो गए. उन्होंने लंबी सांस ली और धीरेधीरे बाहर चले गए.

मेरा मन तड़पने लगा. यह क्या हो गया? अनवर अब कभी नहीं आएंगे. मैं ने क्यों चूम लिया उन्हें? वह बच्चे नहीं हैं? अब क्या होगा? उन के बिना मैं कैसे जी सकूंगी? मैं अपनेआप में इस प्रकार गुम थी कि भाई क्या कह रहा है, मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा था.

उस घटना के कई दिन बाद अनवर मिले और मुझे बताया कि भाई उन्हें घर से ले कर आफिस तक बदनाम कर रहा है. उन के हिंदू मकान मालिक ने उन से कह दिया कि जल्द मकान खाली करो. आफिस में भी काम करना मुश्किल हो रहा है. सब उन्हें अजीब  निगाहों से घूरते हुए मुसकराते हैं, मानो वह कह रहे हों, ‘बड़ा शरीफ बनता था?’ सब से बड़ा गुनाह तो उन का मुसलमान होना बना दिया गया है. मुझे भाई पर क्रोध आने लगा.

अनवर बेहद सुलझे हुए, शरीफ, समझदार व ईमानदार इनसान के रूप में प्रसिद्ध थे. कहीं अनवर बदनामी के डर से कुछ कर  न बैठें, यही सोच कर मैं ने दुखी स्वर में कहा, ‘यह सब मेरी नासमझी के कारण हुआ, मुझे माफ कर दें.’ वह प्यार से बोले, ‘नहीं पगली, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष उमर का है. मैं ने ही कब सोचा था कि तुम से’…वाक्य अधूरा था पर मुझे लगा खुशबू का एक झोंका मेरे मन को छू कर गुजर गया है, मन तितली बन कर उस सुगंध की तलाश में उड़ने लगा.

अचानक उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘सीमा, मुझ से शादी करोगी?’ यह क्या, मैं अपनेआप को आकाश के रंगबिरंगे बादलों के बीच दौड़तेभागते, खिल- खिलाते देख रही हूं. ‘सीमा, बोलो सीमा, क्या दोगी मेरा साथ?’ मैं सम्मोहित व्यक्ति की तरह सिर हिलाने लगी.

वह बोले, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूं, वहीं नौकरी ढूंढ़ लूंगा…यहां तो हम चैन से जी नहीं पाएंगे.’

अनवर जब दिल्ली से लौटे थे तो मुझे चावल पर लिखा यह प्रेम संदेश देते हुए बोले थे, ‘आज से तुम नोरा हो…सिर्फ मेरी नोरा’…और सच  उस दिन से मैं नोरा बन कर जीने लगी थी.

अनवर देर कर रहे थे. उधर भाई की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं. वह सब के सामने मुझे अपमानित करने लगा था. उस का प्रिय विषय ‘मुसलिम बुराई पुराण’ था. इतिहास और वर्तमान से छांटछांट उस ने मुसलमानों की गद्दारियों के किस्से एकत्र कर लिए थे और उन्हें वह रस लेले कर सुनाता. मुझे पता था कि यह सब मुझे जलाने के लिए कर रहा था. भाई जितनी उन की बुराई करता, उतनी ही मैं उन के नजदीक होती जा रही थी. हम अकसर मिलते. कभीकभी तो पूरे दिन हम टैंपो से शहर का चक्कर लगाते ताकि देर तक साथ रह सकें. अजीब दिन थे, दहशत और मोहब्बत से भरे हुए. उन की एक नजर, एक मुसकराहट, एक बोल, एक स्पर्श कितना महत्त्वपूर्ण हो उठा था मेरे लिए.

वह अपने प्रेमपत्र कभी मेरे घर के पिछवाडे़ कूडे़ की टंकी के नीचे तो कभी बिजली के खंभे के पास ईंटों के नीचे दबा जाते.

मैं कूड़ा फेंकने के बहाने जा कर उन्हें निकाल लाती. वे पत्र मेरे लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रेमपत्र होते थे.

उन्हें मेरा सतरंगी दुपट्टा विशेष प्रिय था, जिसे ओढ़ कर मैं शाम को छत पर टहलती और वह दूर सड़क से गुजरते हुए फोन पर विशेष संकेत दे कर अपनी बेचैनी जाहिर करते. भाई घूरघूर कर मुझे देखता और मैं मन ही मन रोमांचकारी खुशी से भर उठती.

एक दिन जब मैं विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो ड्राइंग रूम से भाई के जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. अंदर जा कर देखा तो धक से रह गई. अनवर सिर झुकाए खडे़ थे. अनवर को यह क्या सूझा? आखिर वही पागलपन कर बैठे न, कितना मना किया था मैं ने? पर ये मर्द अपनी ही बात चलाते हैं. इतना आसान तो नहीं है जातिधर्म का भेदभाव मिट जाना? चले आए भाई से मेरा हाथ मांगने, उफ, न जाने क्याक्या कहा होगा भाई ने उन्हें. भाई मुझे देख कर और भी शेर हो गया. उन का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ धकेलते हुए गालियां बकने लगा. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी. बाहर कालोनी के कुछ लोग भी जमा हो गए थे. मैं तमाशा बनने के डर से कमरे में बंद हो गई. रात भर तड़पती रही.

दूसरे दिन शाम को किसी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया. खोल कर देखा तो अनवर के एक मित्र थे. किसी भावी आशंका से मेरा मन कांप उठा. वह बोले, ‘अनवर ने काफी मात्रा में जहर खा लिया है और मेडिकल कालिज में मौत से लड़ रहा है. बारबार नोरानोरा पुकार रहा है. जल्दी चलिए.’ मैं घबरा गई. मैं ने जल्दी से पैरों में चप्पल डालीं और सीढ़ियां उतरने लगी. देखा तो आखिरी सीढ़ी पर भाई खड़ा था. मैं ठिठक गई. फिर साहस कर बोली, ‘मुझे जाने दो, बस, एक बार देखना चाहती हूं उन्हें.’

‘नहीं, तुम नहीं जाओगी, मरता है तो मर जाने दो, साला अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है.’

‘प्लीज, भाई, चाहो तो तुम भी साथ चलो, बस, एक बार मिल कर आ जाऊंगी.’

‘कदापि नहीं, उस गद्दार का मुंह भी देखना पाप है.’

‘भाई, एक बार मेरी प्रार्थना सुन लो, फिर तुम जो चाहोगे वही करूंगी. अपने हिस्से की जायदाद भी तुम्हारे नाम कर दूंगी.’

‘सच? तो यह लो कागज, इस पर हस्ताक्षर कर दो.’ उस ने जेब से न जाने कब का तैयार दस्तावेज निकाल कर मेरे सामने लहरा दिया. मेरा मन घृणा से भर उठा. जी तो चाहा कागज के टुकडे़ कर के उस के मुंह पर दे मारूं पर इस समय अनवर की जिंदगी का सवाल था. समय बिलकुल नहीं था और बाहर कालोनी वाले जुटने लगे थे. मैं ने भाई के हाथ से पेन ले कर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए और तेजी से लोगों के बीच से रास्ता बनाती अनवर के मित्र के स्कूटर पर बैठ गई.

जातेजाते भाई के कुछ शब्द कान में पडे़, ‘देख रहे हैं न आप लोग, यह अपनी मर्जी से जा रही है. कल कोई यह न कहे, सौतेले भाई ने घर से निकाल दिया. विधर्मी की मोहब्बत ने इसे पागल कर दिया है. अब मैं इसे कभी घर में घुसने नहीं दूंगा. मेरे खानदान का नाम और धर्म सब भ्रष्ट कर दिया है इस कुलकलंकिनी ने.’

स्कूटर मेडिकल कालिज की तरफ बढ़ा जा रहा था. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए, ‘तो यह…यह है मां के घर से मेरी विदाई.’ अनवर खतरे से बाहर आ चुके थे. उन्हें होश आ गया पर मुझे देखते ही वह थरथरा उठे, ‘तुम…तुम कैसे आ गईं? जाओ, लौट जाओ, कहीं पुलिस…’ मैं ने अनवर का हाथ दबा कर कहा, ‘आप चिंता न करें, कुछ नहीं होगा.’ पर अनवर का भय कम नहीं हो रहा था. वह उसी तरह थरथराते रहे और मुझे वापस जाने को कहते रहे. मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, अब मेरी वापसी कभी नहीं होगी.

वह नीमबेहोशी में थे. जहर ने उन के दिमाग पर बुरा असर डाला था. उन को चिंतामुक्त करने के लिए मैं बाहर इमली के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई. बीचबीच में जा कर उन के पास पडे़ स्टूल पर बैठ जाती और निद्रामग्न उन के चेहरे को देखती रहती और सोचती, ‘किस्मत ने मुझे किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है?’ आगे का रास्ता सुझाई नहीं पड़ रहा था.

पक्षी चहचहाने लगे तो पता चला कि सुबह हो चुकी है. मैं अनवर के सिरहाने बैठ कर उन का सिर सहलाने लगी. उन्होंने आंखें खोल दीं और मुसकराए. उन की मुसकराहट ने मेरे रात भर के तनाव को धो दिया. मारे खुशी के मेरी आंखें नम हो आईं.

‘सच ही सुबह हो गई है क्या?’ मैं ने उन की तरफ शिकायती नजरों से देखा, ‘तुम ने ऐसा क्यों किया अनवर, क्यों…मुझे छोड़ कर पलायन करना चाहते थे. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा?’

उन्होंने शायद मेरी आंखें पढ़ ली थीं. कमजोर स्वर में बोले, ‘मैं ने बहुत सोचा और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ये मजहबी लोग हमें कहीं भी साथ जीने नहीं देंगे. इन के दिलों में एकदूसरे के लिए इतनी घृणा है कि हमारा प्रेम कम पड़ जाएगा. नोरा, तुम ने सुना होगा, बाबरी मसजिद गिरा दी गई है. चारों तरफ दंगेफसाद, आगजनी, उफ, इतनी जानें जा रही हैं पर इन की खून की प्यास नहीं बुझ रही है. तब सोचा, तुम्हें पाने का एक ही उपाय है, तुम्हारे भाई से तुम्हारा हाथ मांग लूं. आखिर वह मेरा पुराना मित्र है, शायद इनसानियत की कोई किरण उस में शेष हो, पर नहीं.’ अनवर की आंखों से आंसू टपक पडे़.

मेरे मन में हाहाकार मचा हुआ था. एक पहाड़ को टूटते देख रही थी मैं. मैं बोली, पर हमें हारना नहीं है अनवर. जैसे भी जीने दिया जाएगा हम जीएंगे. यह हमारा अधिकार है. तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि हमें क्या करना है. मैं यहां से वर्किंग वूमन होस्टल चली जाऊंगी…’ बात अधूरी रह गई. उसी समय कुछ लोग वहां आ कर खडे़ हो गए. उन की वेशभूषा ने बता दिया कि वे अनवर के रिश्तेदार हैं. वे लोग मुझे ऐसी नजरों से देख रहे थे कि मैं कट कर रह गई. अनवर ने मुझे चले जाने का संकेत किया. मैं वहां से सीधे बस अड्डे आ गई.

महीनों गुजर गए. अनवर का कोई समाचार नहीं मिला. न जाने उन के रिश्तेदार उन्हें कहां ले गए थे. मेरे पास सब्र के सिवा कोई रास्ता न था. एक दिन अचानक उन का खत मिला. मैं ने कांपते हाथों से उसे खोला. लिखा था, ‘नोरा, मुझे माफ करना. मैं तुम्हारा साथ न निभा सका. मुझे सब अपनी शर्तों पर जीने को कहते हैं. मैं कमजोर पड़ गया हूं. तुम सबल हो, समर्थ हो, अपना रास्ता खोज लोगी. मैं तुम से बहुत दूर जा रहा हूं, शायद कभी न लौटने के लिए.’

छनाक की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा वह पतली शीशी हाथ से छूट कर टूट गई पर चावल का वह दाना साबुत था और उस पर लिखे अक्षर उसी ताजगी से चमक रहे थे.

निर्णय आपका: सास से परेशान दामाद की कहानी

संसार में शायद मुझ से अधिक कोई बदनसीब नहीं होगा. विवाह में सब को दहेज में गाड़ी, सोफा, फ्रिज मिलता है, सुंदर पत्नी घर आती है, लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ. हमारा विवाह हुआ, पत्नी भी आई और दहेज में सास मिल गई.

हम ने सोचा 1-2 दिन की परेशानी होगी सो भोग लो, किंतु हमारी सोच एकदम गलत साबित हुई. हमें पत्नीजी ने बताया कि आप की सास को यहां का हवापानी काफी जम गया है सो वह अब यहीं रहेंगी. यहां की जलवायु से उन का ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया है.

हम ने सुना तो हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ गया, लेकिन यदि विरोध करते तो तलाक की नौबत आ जाती. हो सकता है ससुराल पक्ष के व्यक्ति दहेज लेने का, प्रताड़ना का मुकदमा ठोंक देते. इसलिए मन मार कर हम ने यह सोच कर कि आज का दौर एक पर एक फ्री का है, सास को भी स्वीकार कर लिया.

2-3 माह तक दिल पर पत्थर रख कर हम अपनी सास को सहन करते रहे, लेकिन सोचा कि आखिर यह छाती पर पत्थर रख कर हम कब तक जीवित रह पाएंगे? सो हम ने पत्नीजी से सास की पसंद एवं नापसंद वस्तुओं को जान लिया. हमारी सास को कुत्ते, बिल्ली से सख्त नफरत थी. बचपन में उन की मां का स्वर्गवास कुतिया के काटने से हुआ था. पिताजी का नरकवास बिल्ली के पंजा मारने से हुआ था. हम ने भी मन ही मन ठान लिया कि कुत्ता, बिल्ली जल्दी से लाएंगे ताकि सासूजी प्रस्थान कर जाएं और हम अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से चला सकें.

हम ने अपने अभिन्न मित्र मटरू से अपनी समस्या बताई और वह महल्ले से एक खजिया कुत्ते का पिल्ला और एक मरियल बिल्ली को ले आए. हम उन्हें खुशीखुशी झोले में डाल कर अपने घर ले आए. हमारी पत्नी ने देखा तो दहाड़ मार कर पीछे हट गई. सासूमां ने बेटी की दहाड़ सुनी तो दौड़ती आईं. हमारे झोले से खजिया कुत्ता एवं बिल्ली को देखा. हम खुश हो गए कि अब तो हमारी सास आधे घंटे बाद घर छोड़ कर प्रस्थान कर जाएंगी लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह कब पूरा होता है?

सास ने उन 2 निरीह प्राणियों को देखा तो चच्चच् कर के वहीं जमीन पर बैठ गईं और हमारी ओर बड़ी दया की नजरों से देख कर कहा, ‘‘सच में दामाद हो तो तुम जैसा.’’

‘‘क्यों, ऐसा हम ने क्या कर दिया सासूमां?’’ हम ने प्रसन्नता को मन में छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे, दामादजी, तुम इन निरीह प्राणियों को ऐसी स्थिति में उठा लाए, ये काम बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं. मैं पहले जानवरों से बहुत नफरत करती थी, लेकिन जब से जानवरों की रक्षा करने वाली संस्था की सदस्य बनी हूं तब से  मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. तुम खड़े क्यों हो…आटोरिकशा लाओ?’’ सासूजी ने आदेश दिया.

‘‘आटोरिकशा किसलिए?’’

‘‘अस्पताल चलना है.’’

‘‘क्यों? यह (पत्नीजी उठ बैठी थीं) तो ठीकठाक हैं?’’ हम ने भोलेपन से कहा.

‘‘दामादजी, इन कुत्तेबिल्ली के बच्चों को ले कर चलना है, जल्दी करो,’’ सासूमां ने आर्डर दिया. हम दिल पर पत्थर रख कर चले गए. आगे की घटना बड़ी छोटी है.

आटोरिकशा आया, उस के रुपए हम ने दिए. वेटनरी डाक्टर को दिखाया उस के रुपए हम ने दिए. जानवरों के लिए 1 हजार रुपए की दवा खरीदी वह रुपए देतेदेते हमें चक्कर आने लगे थे. कुल जमा 1,500 रुपयों पर हमें हमारे दोस्त मटरू ने उतार दिया था. घर ला कर उन जानवरों के लिए दूध, ब्रेड की व्यवस्था भी की, और जब ओवर बजट होने लगा तो एक रात चुपके से हम ने दोनों को थैली में बंद कर के मटरू के?घर में छोड़ दिया.

हमारी सास जब सुबह उठीं तो बड़ी दुखी थीं कि पालतू जानवर कहां चले गए? हमारा दुर्भाग्य देखो कि मटरू स्कूटर से सुबह ही आ धमका, ‘‘अरे, गोपाल, ये दोनों मेरे घर आ गए थे. मैं इन्हें ले आया हूं,’’ कह कर उस ने मुझे शादी के तोहफे की तरह कुत्ते का पिल्ला और बिल्ली दी. सासूमां खुशी से झूम उठीं. हम मन ही मन कुढ़ कर रह गए. आखिर किस से अपने मन की व्यथा कहते?

कुत्ते का पिल्ला ठीक हो गया था. उस की खुराक भी हमारी सास की खुराक की तरह बढ़ रही थी. हम खून के आंसू रो रहे थे. सास को जमे 6 माह हो चुके थे. पत्नी थीं कि उन्हें घर भेजने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

हम अपने दोस्त मटरू के पास गए. उस के सामने खूब रोएधोए. उसे हमारी दशा पर दया आ गई. उस ने मुझे एक प्लान बताया जिसे सुन कर हम खुश हो गए. उस प्लान में एक ही गड़बड़ी थी कि श्रीमती को ले कर मुझे बाहर जाना था, लेकिन वह सास के बिना माफ करना, अपनी मां के बिना जाने को तैयार ही नहीं होती थीं.

हम ने अपने मित्र मटरू को वचन दिया कि उस की दी गई तारीख को केवल सास ही घर में रहेंगी. मैं और पत्नी सिनेमा देखने जाएंगे. इन 3-4 घंटों में वह काम निबटा कर सब ठीक कर लेगा.

हम ने मौका देख कर पत्नी की प्रशंसा की, उस के साथ कुछ पल तन्हातन्हा गुजारने की मनोकामना प्रकट की. वह थोड़ा लजाई, थोड़ा घबराई, मां की याद भी आई, लेकिन हमारे प्यार ने जोर मारा और वह तैयार हो गई कि मैं और वह शाम को फिल्म देखने चलेंगे.

हालांकि सासूमां को अकेला छोड़ कर जाने पर उन्होंने आपत्ति प्रकट की लेकिन पत्नी ने उन्हें समझाया कि टिक्कू कुत्ता, दीयापक बिल्ली है इसलिए अकेलापन खलेगा नहीं. बुझे मन से उन्होंने भी जाने की इजाजत दे दी.

हम ने खट से मटरू को मोबाइल से यह खबर दे दी कि हम शाम को निकल रहे हैं, देर से लौटेंगे. रात 10 से 1 के बीच सासूमां का काम निबटा ले. मटरू भी तैयार हो गया?था. हम भी खुश थे कि चलो, बला टलेगी, लेकिन पति हमेशा से ही बदकिस्मत पैदा होता है.

प्लान यह था कि मटरू रात में साढ़े 10 बजे के बीच घर में प्रवेश करेगा और मुंह पर कपड़ा बांध कर सासूमां को डरा कर चोरी कर लेगा. सासूमां डर के मारे या तो भाग जाएंगी या हमारे घर से हमेशा के लिए बायबाय कर लेंगी.

हम पत्नी को 4 घंटे की एक फिल्म दिखलाने शहर से बाहर ले गए. रात 10 बजे फिल्म छूटी. हम ने भोजन किया. फोन से मटरू को खबर भी कर दी कि जल्दी से अपने आपरेशन को अंजाम दे. हमारी पत्नी अपनी मां को ले कर काफी चिंतित थी. हम ने आटोरिकशा वाले को पटा कर 50 रुपए अधिक दिए ताकि वह घर पर लंबे रास्ते से धीमी गति से पहुंचे.

रात साढ़े 12 बजे जब हम अपने घर पहुंचे तो घर के बाहर भीड़ जमा थी. पुलिस की एक वैन खड़ी थी. चंद पुलिस वाले भी थे. हमारा माथा ठनका कि मटरू ने कहीं जल्दबाजी में सासूमां का मर्डर तो नहीं कर दिया?

हम जब आटोरिकशा से उतरे तो महल्ले के निवासी काफी घबराए थे. पत्नी अपनी मां की याद में रोने  लगी तभी अंदर से सासूमां पुलिस इंस्पेक्टर के साथ बाहर हंसतीखिलखिलाती निकलीं. उन्हें हंसते देख हमारा माथा ठनका कि भैया आज मटरू पकड़ा गया और हमारा प्लान ओपन हुआ. बस, तलाक के साथसाथ पूरा महल्ला थूथू करेगा सो अलग. सब कहेंगे, ‘‘ऐसे टुच्चे दोस्त हैं जो ऐसी सलाह देते हैं.’’

हम शर्म से जमीन में गड़ गए. मन ही मन विचार किया, कभी ऐसा गंदा प्लान नहीं बनाएंगे. अचानक हमारे कान में मटरू की आवाज सुनाई पड़ी. देखा कि वह तो भीड़ में खड़ा तमाशा देख रहा है. अब हमारी बारी चक्कर खा कर गिरने की आ गई थी.

हम हिम्मत कर के आगे बढ़े तो देखते हैं कि पुलिस एक चोर को पकड़ कर बाहर आ रही थी. हमें देख कर सासूमां ने कहा, ‘‘लो दामादजी, इसे पकड़ ही लिया, पूरा शहर इस की चोरियों से परेशान था.’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने हमें बधाई दी और कहा, ‘‘आप की सास वाकई बड़ी हिम्मती हैं. इन्होंने एक शातिर चोर को पकड़वाया है. इन्हें सरकार से इनाम तो मिलेगा ही लेकिन हमें आज आप के भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि ऐसी सास हमारे भाग्य में क्यों नहीं थी?’’ हम ने सुना तो गद्गद हो गए. हमारी पत्नी ने लपक कर अपनी मां को गले से लगा लिया.

किस्सा यों हुआ कि हमारे मटरू दोस्त को आने में देर हो गई थी. उस की जगह उस रात अचानक असली चोर घुस आया. सासूमां ने पुराना घी खाया था, सो बिना घबराए अपने कुत्ते के साथ उसे धोबी पछाड़ दे दी. महल्ले वालों को आवाज दे कर बुलाया, पुलिस आ गई. इस तरह सासूमां ने एक शातिर चोर को पकड़ लिया. अगले दिन समाचारपत्रों में फोटो सहित सासूमां का समाचार छपा हुआ था.

अब आप ही विचार करें, ऐसी प्रसिद्ध सासूमां को कौन घर से जाने को कहेगा? आप ही निर्णय करें कि हम भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली? आप जो भी निर्णय लें लेकिन हमारी सासूमां जरूर सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा दामाद मिला…

जेएनयू इलैक्शन और बोल्ड लवस्टोरी

दिल्ली पढ़ाई का गढ़ है. यहां की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के तो कहने ही क्या. साल 1969 में बनी इस मजबूत लाल इमारत में किसी छात्र का दाखिला होना अपनेआप में बड़ी बात है. निर्मला सीतारमण, एस. जयशंकर, मेनका गांधी, नेपाल से बाबूराम भट्टाराई, लीबिया से अली जैदान, अमिताभ कांत, आलोक जोशी, सुभाषिनी शंकर, दीपक रावत, मनु महाराज जैसे न जाने कितने दिग्गजों ने कभी न कभी यहीं से पढ़ाई की है.

बिहार की मालती कुमारी भी जिंदगी में कुछ कर दिखाने के मकसद से इसी यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म की पढ़ाई कर रही है. मालती अपने नाम की तरह महकता फूल है. गोरा रंग, बड़ी आंखें, कंधों तक कटे बाल, 5 फुट, 6 इंच कद, लंबी टांगें… मतलब जो लड़का एक बार देख ले, तो फिर आहें भरता रह जाए.

मालती कुमारी को अपने हुस्न पर नाज है और वह है भी बड़ी बिंदास. सिगरेट पीती है, चायकौफी की चसोड़ी है, बोलने में झिझकती नहीं और जब मुसकराती है, तो ‘तेजाब’ की माधुरी दीक्षित लगती है.

आज मालती ने टौर्न जींस, ह्वाइट टीशर्ट पहनी है. पैरों में कोल्हापुरी चप्पल. हाथ में मोबाइल और जब वह क्लास में घुसी तो देखा कि आज कहां बैठना है.

कुछ लड़कों ने इशारों में साथ बैठने के लिए औफर दिया, पर मालती तो मालती है, ऐसे किसी के भाव कैसे बढ़ा दे.

मालती ने नजर दौड़ाई और एक लड़के पर उस की आंखें जम गईं. लड़का क्या, तूफान था. एकदम ‘गली बौय’

का रणवीर सिंह. 6 फुट लंबा, गठा हुआ बदन, केसरी रंग का कुरता और जींस, पैरों में पुराने पर ब्रांडेड शू.मालती उस लड़के के पास जा कर बोली, ‘‘मे आई…’’

उस लड़के ने आज पहली बार मालती को देखा था और बस देखता

ही रह गया. उस के मुंह से निकला, ‘‘श्योर…’’

मालती उस लड़के के बगल में बैठ कर हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘‘मालती…’’

उस लड़के ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘ओह, तभी इतना महक रही हो.’’

‘‘लाइन मार रहे हो. वह भी बिना नाम बताए. गजब का हौसला है,’’ मालती ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘बंदे को अभिषेक दीक्षित कहते हैं,’’ उस लड़के ने स्टाइल मारते हुए कहा.

‘‘अच्छा, ब्राह्मण पुत्र हो… और मैं दलित पुत्री,’’ मालती ने बेबाकी से कहा.

‘‘दोस्ती में कैसी जातपांत. दिल मिलने चाहिए और बाद में…’’ अभिषेक ने मालती को कुहनी मारते हुए कहा.

‘‘ज्यादा इतराओ मत. मुझे पाने के लिए कई तरह के पापड़ बेलने पड़ेंगे,’’ मालती बोली.

‘‘अजी, हम तो आप के लिए पापड़ क्या पूरियां भी बेल लेंगे.’’

‘‘अच्छा चलो, मेरा एक काम कर दो. मुझे नोट्स दिलवा दो कहीं से, फिर देखते हैं कि पूरी बेलने में माहिर हो या पापड़. कहीं मेरा झापड़ न मिल जाए तुम्हें,’’ मालती ने हंसते हुए कहा.

‘‘नोट्स देने पर मुझे क्या मिलेगा?’’ अभिषेक ने कहा.

‘‘डार्लिंग, मैं तुम्हारे साथ चाय और सुट्टे की डेट पर चल लूंगी. अगर मुझे तुम और तुम्हारे नोट्स पसंद आए, तो फिर किसी बोल्ड डेट पर चल पड़ेंगे,’’ मालती ने अपने बालों पर हाथ फिराते हुए कहा.

थोड़ी देर में वे दोनों गंगा ढाबे पर थे. अभिषेक ने अपने एक दोस्त को नोट्स लाने भेज दिया. दोनों ने चाय का और्डर दिया और 1-1 सिगरेट सुलगा ली. मालती सिगरेट पीने में माहिर थी, तगड़ी सुट्टेबाज.

‘‘एक महीने बाद यूनिवर्सिटी में इलैक्शन हैं. तुम किस साइड हो?’’ मालती ने सिगरेट का कश खींचते हुए पूछा.

‘‘मैं तो एबीवीपी का कट्टर कार्यकर्ता हूं. इस लाल इमारत में रामराज लाना है,’’ अभिषेक ने घमंडी अंदाज में कहा.

‘‘ओह, तुम तो भगवाधारी निकले.  अंधभक्त कार्यकर्ता. अब हम दोनों की कैसे जमेगी, क्योंकि मैं हूं वामपंथी

और तुम ठहरे दक्षिणापंथी… माफ

करना दक्षिणपंथी,’’ मालती ने ताना फेंक कर मारा.

‘‘ओ मालती देवी, हमारे बीच में अचानक भगवा और लाल सलाम कहां से आ गया,’’ अभिषेक ने यह बात कह तो दी थी, पर उस के अहम को शायद ठेस पहुंची थी, क्योंकि एक दलित लड़की ने उसे दक्षिणापंथी जो कह दिया था, पर उस ने अपने चेहरे के हावभाव से जाहिर नहीं होने दिया.

इतने में अभिषेक का दोस्त नोट्स ले आया.

‘‘तुम ने मुझे नोट्स तो दिए और हमारी चाय और सुट्टे की डेट भी हो गई. अब आगे…?’’ मालती ने पूछा.

‘‘तुम्हारा कमरा या मेरा कमरा?’’ अभिषेक ने डायरैक्ट सवाल किया.

‘‘बता दूंगी, पर ज्यादा उम्मीद मत रखना.’’

फिर वे दोनों कई बार मिले. एक दिन अभिषेक ने अगली डेट की याद दिलाई, तो मालती ने कहा, ‘‘आज रात को 9 बजे तुम्हारे कमरे में… और हां, प्रोटैक्शन लाना मत भूलना. मुझे गोलीवोली नहीं खानी है,’’ मालती ने आंख मारते हुए कहा.

इधर मालती और अभिषेक की गुटरगूं चल रही थी, उधर छात्र संघ के चुनाव का ऐलान हो गया था. छात्र बड़े दिनों से चुनाव कराने की मांग कर रहे थे.

इसी सिलसिले में नोटिफिकेशन जारी किया गया कि 22 मार्च को जेएनयूएसयू के चुनाव होंगे और 24 मार्च को नतीजे का ऐलान होगा.

11 मार्च, 2024 को एक अस्थायी वोटिंग लिस्ट जारी की जाएगी. उस लिस्ट में सुधार 12 मार्च को सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे के बीच शुरू होगा.

बता दें कि जेएनयू छात्रसंघ का पिछला चुनाव साल 2019 में हुआ था, जिस में लैफ्ट गुट की उम्मीदवार आइशी घोष ने चुनाव जीता था. उस के बाद कोरोना की वजह से चुनाव रद्द हुआ था. अब 4 साल बाद छात्रसंघ चुनाव होने पर सभी दलों के छात्र दल जोश में आ गए.

रात को मालती अभिषेक के रूम में पहुंच गई थी. होस्टल के रखवालों को हवा तक नहीं लगने दी. पिंक शौर्ट और ब्लैक राउंड नैक स्लीवलैस टीशर्ट में वह कमाल की लग रही थी. शायद वह नहा कर आई थी. उस के गीले बाल उसे और ज्यादा खूबसूरत बना रहे थे.

अभिषेक हरे रंग की बनियान और भूरे रंग के पाजामा में था. वह बहुत ज्यादा हैंडसम लग रहा था. एलैक्सा पर किसी इंगलिश गाने की मादक धुन बज रही थी. उस ने मालती को देखते ही कहा, ‘‘पहले से ही इतनी खूबसूरत थी या मुझे देख कर यह निखार आया है?’’

‘‘वैरी फनी…’’ कहते हुए मालती

ने सिगरेट सुलगाई और बिस्तर पर अधलेटी हो गई. फिर कश लगा कर सिगरेट अभिषेक को दे कर बोली, ‘‘इलैक्शन का क्या सीन है… राम राज लाओगे या मैं लाल सलाम का नारा बुलंद करूं…’’

अभिषेक सिगरेट ले कर मालती के करीब बैठ गया और बोला, ‘‘एबीवीपी ओनली. उमेश चंद्र अजमीरा से मेरी अच्छी बातचीत है. अध्यक्ष तो वही बनेगा. इस बार लैफ्ट वालों का सूपड़ा साफ है.’’

‘‘धीरज धरो मेरे ब्राह्मण पुत्र. इस बार नया इतिहास बनेगा. जेएनयू को एक दलित अध्यक्ष मिलेगा. मुझे धनंजय पर पूरा भरोसा है. वह बिहार के गया जिले से है और अपने परिवार में 6 भाईबहनों में सब से छोटा भी. वह स्कूल औफ आर्ट्स ऐंड एस्थैटिक्स से पीएचडी कर रहा है,’’ मालती ने कहा.

‘‘तुम भी क्या इलैक्शन की बात ले कर बैठ गई हो. रात अपनी रफ्तार से भाग रही है और हम लाल और भगवा झंडे में उलझे हुए हैं,’’ कहते हुए अभिषेक ने मालती का हाथ पकड़ लिया.

मालती ने बिस्तर पर लेटे हुए एक अंगड़ाई ली और अभिषेक को अपने ऊपर खींच लिया. दोनों की गरम सांसें एकदूसरे के चेहरे से टकरा रही थीं.

अभिषेक ने मालती के चेहरे पर आए बालों को हटाते हुए उस के होंठों को चूम लिया. मालती एकदम से सुर्ख लाल हो गई. उस के कान गरम हो गए. उस ने भी अभिषेक को कस कर भींच लिया.

अब तो अभिषेक उतावला सा हो गया. उस ने मालती की टीशर्ट उतार दी और उसे देखने लगा.

मालती थोड़ा शरमा गई, फिर एकदम से बोली, ‘‘प्रोटैक्शन कहां है जनाब? मुझे प्रैग्नैंट नहीं होना है.’’

अभिषेक को एकदम से ध्यान आया कि कंडोम का पैकेट तो अलमारी में रखा है. वह फटाफट उठा, अलमारी से कंडोम लाया और मालती पर छा गया. थोड़ी ही देर में वे दोनों इश्क की खुमारी में खो गए.

खुमारी तो यूनिवर्सिटी का इलैक्शन लड़ने वालों पर भी छा रही थी. हर गुट की रणनीतियां बनने लगीं. आल इंडिया स्टूडैंट्स एसोसिएशन (एआईएसए) के धनंजय ने अध्यक्ष पद की बहस के दौरान कई अहम मुद्दे उठाए. कैंपस एरिया में लड़कियों की सिक्योरिटी, पानी की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी, छात्रवृत्ति में बढ़ोतरी और फंड में कटौती पर उन्होंने जम कर बोला.

इस के अलावा धनंजय ने फीस बढ़ने पर भी चिंता जाहिर की. उन्होंने देशद्रोह के आरोप में हिरासत में लिए गए छात्र नेताओं को रिहा करने की मांग भी की.

दूसरी ओर, तेलंगाना के वारंगल जिले के रहने वाले उमेश चंद्र अजमीरा एबीवीपी की तरफ से अध्यक्ष पद के दावेदार बने. वे आदिवासी बंजारा (अनुसूचित जनजाति) समुदाय की बैकग्राउंड से आते हैं और जेएनयू में स्कूल औफ इंटरनैशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.

उमेश चंद्र अजमीरा ने अपने संबोधन में कहा कि इन वामियों की फरेब, मक्कारी और नाकामियों से जेएनयू के छात्र परेशान हो चुके हैं और इस बार विद्यार्थी परिषद पूरे बहुमत से चारों सीटों को जीत रही है.

जिस तरह पिछली 22 जनवरी को भगवान राम के भव्य राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के साथ संपूर्ण देश ने 500 साल के संघर्ष के माध्यम से अन्याय पर विजय प्राप्त की, वैसे ही आने वाली

22 मार्च को जेएनयू के छात्र एबीवीपी के पूरे पैनल को अपना मत डाल कर वामपंथ पर विजय प्राप्त करेंगे.

‘‘तुम दक्षिणापंथी भी न हर बात में राम को ले आते हो. जेएनयू के कैंपस में राम का क्या काम,’’ गंगा ढाबे पर चाय पीते हुए मालती ने अभिषेक से कहा.

‘‘ओ अभिषेक, यह मालती कुछ ज्यादा ही बकवास कर रही है. यहां

कोटे से घुस जाते हैं और फिर बातें ऐसी बनाते हैं कि ये ही आज के अंबेडकर हैं,’’ अभिषेक के एक दोस्त दीपक अग्रवाल ने मालती की बात पर गुस्सा होते हुए कहा.

‘‘मौडर्न कपड़े पहनने से कोई लड़की मौडर्न नहीं बन जाती है. अपनी हैसियत में रह,’’ एक और लड़के ने अपनी भड़ास निकाली.

मालती की यह बात चुभी तो अभिषेक को भी थी, पर वह बात को संभालते हुए बोला, ‘‘देखो, सब को अपनी बात रखने का हक है. मालती को हम इलैक्शन में हरा कर जवाब देंगे.’’

‘‘ओए दीपक, मैं भले ही कोटे से हूं, पर पढ़ाई में तुझ से कम नहीं हूं. तुम्हारे भाईबंधु तो अपने बाप के पैसे के दम पर चले जाते हैं विदेश में पढ़ने. और तुझे क्या लगता है, विदेश में या देश की बड़ी यूनिवर्सिटी में जाने का ठेका क्या तुम लोगों ने ही ले रखा है.

‘‘पता भी है कि विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए दी जाने वाली सरकारी स्कौलरशिप पाने वाले दलित छात्रों की तादाद के मामले में महाराष्ट्र देश में अव्वल रहा है.

‘‘फरवरी, 2018 तक अनुसूचित जाति के 72 छात्रों को नैशनल ओवरसीज स्कौलरशिप स्कीम का फायदा मिला था, जिन में से 40 छात्र तो अकेले महाराष्ट्र के थे.

‘‘मैं मिडिल क्लास दलित फैमिली से जरूर हूं, पर पढ़ना मेरा जुनून है. अरे यार अभिषेक, तू ने कैसे नमूने पाल रखे हैं. ला, एक सिगरेट पिला. दिमाग की दही कर दी.

‘‘और हां, इस गलतफहमी में मत रहना कि तेरीमेरी बातचीत है, तो तेरे कहने पर मैं एबीवीपी वालों पर ठप्पा लगा दूंगी. डेट मारना अलग चीज है और वोट देना अलग,’’ गुस्से में तमतमाई मालती ने चिल्लाते हुए कहा.

अभिषेक के दोनों दोस्त चुप हो गए. उन का मन तो कर रहा था कि इसे यहां से चलता कर दे, पर अभिषेक का लिहाज था, तो चुप रहे. वैसे भी आज मालती लाल रंग के क्रौप टौप और

ब्लैक जींस में मस्त लग रही थी. उन्हें भी लगा कि इलैक्शन तो जीत ही लेंगे, पर अभी तो नैन सुख ले ही लें.

इधर इलैक्शन जोर पकड़ रहा था, उधर अभिषेक और मालती के बीच सुट्टे, चाय और इश्क का तड़का खूब लग रहा था.

मालती और अभिषेक भले ही अलगअलग गुटों का प्रचार कर रहे थे, पर रात को सोते एक ही बिस्तर पर थे.

चुनाव से एक रात पहले मालती अभिषेक के ही रूम में थी. वह बोली, ‘‘डार्लिंग, आज तो बहुत ज्यादा थक गई हूं, थोड़ी देर पैर दबा दो न.’’

अभिषेक मुसकराया और उस ने बड़े प्यार से मालती के दोनों पैरों की मालिश की.

सिगरेट का कश लगाते हुए मालती ने पूछा, ‘‘किस का चांस ज्यादा है? धनंजय या उमेश?’’

अभिषेक ने मालती की गोद में लेटते हुए कहा, ‘‘कोई भी जीते, मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. तुम और मैं साथ हैं, यही बड़ी बात है. वैसे, हमारी इस डेटिंग का फ्यूचर क्या है?’’

‘‘फ्यूचर से तुम्हारा मतलब हमारी शादी से है?’’

‘‘हां, कह सकती हो.’’

‘‘पर यार, अभी तो हमें अपने कैरियर पर फोकस करना है. पहले सैटल हो जाते हैं और अगर तब तक हमारा ब्रेकअप नहीं हुआ तो सोचेंगे शादी के बारे में. वैसे, मुझे कोई दिक्कत नहीं है,’’ मालती ने अभिषेक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

मालती का यह कहना अभिषेक को बहुत अच्छा लगा. वह जानता था कि मालती हर बात में उस से इक्कीस है और उस का साथ कभी नहीं छोड़ेगी. वह उस से सच्ची मुहब्बत करने लगा था. उस ने भावुक हो कर मालती को गले से लगा लिया. वे दोनों कुछ देर ऐसे ही लेटे रहे, फिर कब एकदूसरे में समा गए, पता ही नहीं चला.

22 मार्च की सुबह ही ढोल की थाप के साथ ‘जय भीम’, ‘भारत माता की जय’ और ‘लाल सलाम’ के नारे के साथ ही जेएनयू कैंपस में माहौल गरम होने लगा था. 11 बजे के बाद बड़ी तादाद में छात्र वोटिंग सैंटरों पर जमा होने लगे थे.

जेएनयूएसयू के केंद्रीय पैनल के लिए कुल 19 उम्मीदवार मैदान में थे, जबकि स्कूल काउंसलर के लिए

42 लोगों ने दांव लगाया था. छात्र संघ अध्यक्ष पद के लिए 8 उम्मीदवारों के बीच मुकाबला था.

अभिषेक और मालती समेत 7,700 से ज्यादा रजिस्टर्ड वोटरों ने अपना वोट डाला था. इस बार रिकौर्ड 73 फीसदी वोटिंग हुई थी. वोटिंग के लिए अलगअलग स्टडी सैंटरों में कुल

17 वोटिंग सैंटर बनाए गए थे. वोटिंग शाम के 7 बजे तक चली थी.

और फिर आया वह ऐतिहासिक दिन. 24 मार्च, 2024. वोटों की गिनती शुरू हुई. लैफ्ट गुटों और एबीवीपी में शुरुआती दौर में कांटे की टक्कर दिखाई दी, पर फिर जैसेजैसे दिन ढलता गया, लाल सलाम का गुट भगवाधारियों पर भारी पड़ता गया.

इस चुनाव के लिए लैफ्ट की सभी पार्टियों ने गठबंधन किया था. अध्यक्ष पद के लिए आल इंडिया स्टूडैंट एसोसिएशन के धनंजय की जीत हुई. उन्हें 2,598 वोट मिले. दूसरे नंबर पर रहे एबीवीपी के उमेश चंद्र अजमीरा. उन को कुल 1,667 वोट मिले.

उपाध्यक्ष पद पर भी लैफ्ट गुट के स्टूडैंट फैडरेशन औफ इंडिया को जीत मिली. अभिजीत घोष को कुल 2,409 वोट मिले थे. वहीं दूसरे नंबर पर रही एबीवीपी की दीपिका शर्मा को 1,482 वोट मिले.

महासचिव पद के लिए प्रियांशी आर्या को जीत मिली. वे बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडैंट्स यूनियन की उम्मीदवार थीं. उन्हें लैफ्ट गठबंधन का समर्थन हासिल था. दूसरे नंबर पर रहे एबीवीपी के अर्जुन आनंद. प्रियांशी आर्या को 2,887 और अर्जुन आनंद को 1,961 वोट मिले.

संयुक्त सचिव पद पर एआईएसएफ के उम्मीदवार मोहम्मद साजिद को जीत मिली. उन्हें कुल 2,574 वोट मिले थे, जबकि एबीवीपी के गोविंद दांगी को 2,066 वोट मिले.

जब चुनाव का नतीजा आया, तब मालती और अभिषेक एकसाथ ही थे. अभिषेक ने मालती को बधाई दी और उसे गले लगा लिया. वह बोला, ‘‘तुम सही साबित हुई. इतने साल बाद जेएनयू को एक दलित अध्यक्ष मिला है. उम्मीद है कि धनंजय ने छात्रों से जो वादे किए हैं, वे उन्हें पूरा करेंगे.’’

मालती ने अभिषेक को चूम लिया और बोली, ‘‘यार, सुट्टा मारने का मन कर रहा है. चलें? मुझे आज मसाज करानी है और तुम मना नहीं करोगे.’’

अभिषेक यह सुन कर हंसने लगा. उस ने मालती के बालों में हाथ फेरा और बोला, ‘‘राजनीति में लैफ्ट और राइट का लफड़ा तो चलता ही रहेगा, पर हम दोनों की जोड़ी नहीं टूटनी चाहिए. क्यों दलित पुत्री? आज चाय तुम पिलाना.’’

मालती बोली, ‘‘पक्का, मेरे ब्राह्मण पुत्र,’’ और वे दोनों गंगा ढाबे की तरफ चल दिए.

ध्रुवा: क्या आकाश के माता-पिता को वापस मिला बेटा

हर मातापिता की तरह आकाश के मातापिता ने भी अपने 25 वर्षीय बेटे की शादी के ढेर सारे सपने संजो रखे थे जिन्हें आकाश के एक फैसले ने मिट्टी में मिला दिया था.

“बेटा आकाश, मिश्रा जी हमारे जवाब के इंतज़ार में हैं, उन की बेटी सुकन्या एमबीए कर के,” मां इंद्रा देवी ने बात शुरू ही की थी कि “मां, आप ने सोच भी कैसे लिया कि मैं ध्रुवा को भूल जाऊंगा, उस का और मेरा साथ आज का नहीं, जन्मजन्मांतर का है. कभी तभी तो सोचिए न मां, कि इतनी भीड़भरी दुनिया में वही क्यों मिली मुझे,” आकाश ने मां की बात को बीच में ही काटा.

“इस में सोचने वाली तो कोई बात ही नहीं. तुम पैसे वाले हो, देखने में स्मार्ट हो. इस से ज्यादा एक लड़की को और क्या चाहिए. उस ने सोचसमझ कर तुम पर डोरा डाला है,” मां इंद्रा देवी ने क्रोधित होते हुए कहा.

“मां, मैं गया था उस के पीछे. उस ने तो महीनों तक मुड़ कर भी नहीं देखा था मेरी ओर,” आकाश हारना नहीं चाहता था, उसे हर हाल में अपने प्यार की जीत चाहिए थी.

“हां, तो तुम्हें कोई अपनी बिरादरी की नहीं मिली. वही एक हूर की परी है दुनिया में,” मां अब भी अपनी संस्कृति, रीतिरिवाज का मोरचा संभाले बोली.”

“जो होना था वह हो चुका. कल उस के मातापिता आ रहे हैं आप लोगों से मिलने के लिए और मैं नहीं चाहता आने वाले समय की बुनियाद में थोड़ी सी भी खटास शामिल हो,” आकाश ने दृढ़ निश्चय लेते हुए कहा.

“कल क्लाइंट के साथ मेरी इंपौर्टेंट मीटिंग है,” आकाश के पिता ने अपनी नाराजगी को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की.

“और मेरी महिला समिति की किटी पार्टी है,” मां ने मोबाइल में आंखें गड़ाए कहा.

“समझ गया, आप लोग किसी भी हाल में ध्रुवा को नहीं अपनाने वाले. लेकिन मैं भी कह देता हूं आने वाली परिस्थिति के जिम्मेदार आप लोग ही होंगे,” आकाश का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. अपनी बात कह कर आकाश कमरे से निकल गया.

मातापिता की रजामंदी न मिलने से खीझा हुआ तो वह पहले से ही था, रहीसही कसर दोस्त मनीष के कोरोना पौजिटिव होने की खबर ने पूरी कर दी जिस के संसर्ग में वह भी पिछले कई दिनों से रह रहा था. लेकिन फिलहाल समस्या यह थी कि वह ध्रुवा से क्या कहेगा… रोज उस के सामने अपने मातापिता के खुले विचारों वाले होने के सौ किस्से सुनाया करता था और आज जब सही में खुले विचार से बेटे की खुशियां समेटने की बारी आई तो वे मुकर गए थे.

यही सब सोचता उन कड़ियों को जोड़ने लगा जहां से इस सारे अफसाने की शुरुआत हुई थी. असम राज्य के शिवसागर जिला अपनी खूबसूरती के साथसाथ कई और संस्कृतियों को भी अपनी गोद में उसी प्रकार बढ़नेपनपने देता है जैसे कि वे वहीं की हों. वहीं के एक कौन्वैंट स्कूल में आकाश पढ़ता था. हिंदी फिल्मों के शौकीन आकाश ने गर्लफ्रैंड बनाने के कई प्रयास किए पर हर बार नाकामयाब रहा. उसी समय ध्रुवा ने उसी स्कूल में दाखिला लिया. वैसे तो ध्रुवा के मातापिता की कहीं से औकात न थीं इतने बड़े स्कूल में पढ़ाने की लेकिन ध्रुवा इतनी अच्छी पेंटिंग करती थी कि उसे उस स्कूल के लिए स्कौलरशिप मिली थी और यहीं से शुरुआत हुई थी उन दोनों के प्रेम कहानी की. हुआ यों था कि एक दिन ध्रुवा को कक्षा में डांट पड़ रही थी. ‘ओहो, ध्रुवा, तुम ने फिर होमवर्क नहीं किया,’ राधिका मैम ने उस की कौपी डैस्क पर पटकते हुए कहा. 10वीं कक्षा के सभी विद्यार्थियों की नजर ध्रुवा पर गई- गोरा सा मुखड़ा, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें, हलके गुलाबी रंग के होंठ.

‘बोलो, बोलती क्यों नहीं,’ राधिका मैम ने फिर धमकाया.

‘मैडम, मुझे मैथ्स अच्छी नहीं लगती. वैसे भी ए प्लस बी होलस्कवैर का इस्तेमाल जीवन के किस मोड़ पर होता है, मुझे बताएं जरा,’ ध्रुवा ने मासूमियत से उत्तर दिया.

‘बस ध्रुवा, एक तो तुम ने होमवर्क नहीं किया, ऊपर से बड़ीबड़ी बातें…’

‘मैडम, आप ने कभी रंगों के साथ खेला है. उन्हें कागज या कपड़ों पर उकेरा है…’ ध्रुवा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि छुट्टी की घंटी बज गई और सभी कक्षा से बाहर निकल गए.

ध्रुवा का मासूम, सुंदर सा चेहरा, बेबाक हो कर बोलना और नुमाइश में लगी ध्रुवा की पेंटिंग जिस की खूब तारीफ हो रही थी. इन सारी बातों ने आकाश के मन को मोह लिया था.

आकाश चौधरी ध्रुवा की कक्षा का हैड बौय था. कसरती बदन, ऊंचा मस्तक, घुंघराले बालों वाला यह लड़का लड़कियों के बीच हमेशा चर्चा का विषय बना रहता. दरअसल, आकाश हमेशा से स्कूल टौपर भी था.

‘आप को मैथ्स अच्छी नहीं लगती?’ एक दिन ध्रुवा को लाइब्रेरी में अकेला पा कर आकाश ने पूछा.

‘क्या आप रंगों की भाषा जानते हैं? ध्रुवा ने चिढ़ कर जवाब दिया जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

उसी का तो मैं दीवाना हो गया हूं, आकाश के मन की आवाज थी जो उस के मन में ही दब कर रह गई. पहली मुलाकात में भला कैसे कह सकता है इतनी सारी बातें.

‘आप की पेंटिंग देखी हैं मैं ने, बहुत अच्छा बनाती हैं आप,’ संयोग से मिले अंतरंग पलों को भला कैसे जाने दे सकता था आकाश.

‘क्या फायदा मैथ्स में तो फिसड्डी हूं न,’ ध्रुवा ने होंठों को टेढ़ा करते हुए कहा.

‘आप कहें तो मैं आप की मदद कर सकता हूं,’ आकाश ने अपनी ओर से पहल करते हुए कहा.

‘सच्ची, फिर ठीक है,’ ध्रुवा लगभग उछल पड़ी थी.

स्कूल का टौपर लड़का उस की मदद करना चाह रहा था. इस से अच्छी बात क्या हो सकती थी भला.

इस तरह अपनीअपनी ख्वाहिशों को जरूरतों का नाम दे कर दोनों जीवन के उस राह पर चलने लगे जिसे ज्ञानी लोग बकवास और साधारण लोग पवित्र प्रेम का दर्जा देते हैं. और इस तरह धीरेधीरे दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा.

शुरुआत में तो मुलाकातें छोटी होती थीं पर सपने बड़े होते थे. फिर एक शाम की सिंदूरी बेला में अपने प्यार को सचाई का जामा पहनाने की कोशिश में आकाश का पुरुषत्व हावी हो बैठा जिसे ध्रुवा ने भी नादानी में स्वीकार कर लिया और नदी का अस्तित्व सागर में विलीन हो गया.

इस समर्पण के सिलसिले को रोकने की कोशिश दोनों में से किसी ने न की. नतीजा यह निकला कि ध्रुवा अपनी पढ़ाई भी संपन्न न कर पाई. उसे अपने गर्भवती होने का पता लग चुका. उस ने आकाश को बताने में तनिक भी देरी न की. साधारणतया ऐसी परिस्थितियों में लड़का चिल्लाता है, मुकर जाता है या भागने की कोशिश करता है लेकिन आकाश चौधरी ने इस खुशी को उतने ही प्रसन्नता से स्वीकार किया जितना शायद वह विवाह के बाद स्वीकार करता.

कमी इतनी ही थी की ध्रुवा के मांग में उस के नाम का सिंदूर नहीं था. लोक, समाज की तो जैसे आकाश को परवा ही न थी. उसे, बस, इतना लग रहा था वह पिता बनने वाला है और वह उस जिम्मेदारी को निभाने के लिए पूर्णरूप से तैयार है. ध्रुवा से वह सचमुच प्यार करता था.

आकाश के पिता महेश चौधरी कंप्यूटर कंपनी के मालिक थे जिस का इकलौता वारिस आकाश ही था. अपने पिता के व्यवसाय को उसे आगे ले जाना है, यह बात उसे बचपन से ही घुट्टी की तरह पिलाई गई थी और उस ने भी उसे स्वीकार कर लिया था और व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए मेहनत भी करता था. आज जब उस ने अपने मातापिता के सामने ध्रुवा से विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो मातापिता ने जातिवाद को ऊपर रखते हुए इस विवाह से साफ इनकार कर दिया.

अब चिंता की लकीरें आकाश के माथे पर खिंचने लगी थीं क्योंकि इकलौता बेटा होने की वजह से उसे लगता था वह जो चाहेगा मातापिता उस के लिए सहर्ष इजाजत दे देंगे लेकिन मातापिता ने साफ इनकार कर दिया. फिर भी उस ने कदम पीछे नहीं किया. देरसवेर मातापिता मान जाएंगे, यह सोच कर कुछ दोस्तों की मदद से शादी करने का फैसला ले लिया और मन ही मन ध्रुवा को दुलहन के जोड़े में देख मुसकराने लगा.

24 मार्च की शाम को आकाश ने ध्रुवा को फोन किया, ‘बस, कल भर की देरी है, फिर हम दोनों और हमारा मुन्ना…’

ध्रुवा ने बीच में टोका, ‘मुन्ना क्यों, मुन्नी…’

‘चलो ठीक है मुन्नी, फिर हम तीनों एकसाथ होंगे. मैं तुम्हें हर वह खुशी देने की कोशिश करूंगा जिस की चाहत तुम ने सपने में भी की होगी,’ आकाश बोला.

मुझे यकीन है तुम पर, आकाश,’ ध्रुव तो निहाल हुई जा रही थी.

‘ध्रुवा, तुम्हें मुझ पर यकीन तो है न,’ कहतेकहते आकाश एकदो बार खांसने लगा.

‘अपनेआप से ज्यादा,’ ध्रुवा ने मोबाइल को चूमते हुए कहा जैसे वह मोबाइल को नहीं, अपने उस विश्वास को चूम रही थी जो नैटवर्क के दूसरे छोर पर खांस रहा था.

अचानक से आकाश की खांसी बढ़ने लगी, वह बोला, ‘अभी रखता हूं, फिर बाद में बात करते हैं.’

‘ठीक है, थोड़ा पानी पी लो, खांसी ठीक हो जाएगी,’ ध्रुवा ने कहा.

एक सप्ताह पहले से ही 25 मार्च, 2020 का दिन शादी के लिए तय किया गया. शिवसागर का औडिटोरियम बड़ा ही भव्य और विशालकाय है जिस में दोनों सात फेरे लेने वाले थे. सबकुछ योजना के मुताबिक चल रहा था. लेकिन नियति ने अपनी अलग नीति बनाई थी जिस के बारे में किसी को कुछ पता न था.

रात होतेहोते आकाश की खांसी बढ़ने लगी और शरीर तपने लगा. रात के 12 बजतेबजते आकाश को अस्पताल ले जाने की नौबत आ गई. ऐसे में ध्रुवा को खबर देने की जरूरत किसी ने महसूस न की.

अस्पताल पहुंच कर पता चला आकाश कोरोना पौजीटिव है और उसे औक्सीजन की सख्त जरूरत है. मातापिता का रोरो कर बुरा हाल था. उन्होंने इलाज में कोई कसर न छोड़ी. वैंटिलेटर पर भी रखा गया लेकिन बहुत देर हो चुकी थी. अगले दिन शाम के 4 बजतेबजते आकाश ने आखिरी सांस ले ली और मातापिता के सामने उन की दुनिया उजड़ गई. सबकुछ इतनी जल्दी हो गया कि किसी को यकीन नहीं हो रहा था.

जिस वक्त सात फेरे लेने का समय था उस वक्त उस के पिता उसे मुखाग्नि दे रहे थे.

आखिर एक दोस्त की मदद से ध्रुवा तक खबर पहुंची जो सुबह से औडिटोरियम में इंतजार कर रही थी. आकाश के मोबाइल पर कई बार कौल की जो आकाश के घर में बैड के साइड की टेबल पर रखा था. अब ध्रुवा को काटो तो खून नहीं, अब क्या होगा उस का. चारों तरफ सबकुछ बंद. घर जाने तक की गुंजाइश न थी. शादी के बाद जिस घर जाने की बात थी, अब वह रहा नहीं. पेट में 3 महीने का बच्चा लिए अंधेरे रास्ते से गुजर रही थी. दहाड़े मार कर आकाश का नाम लेले कर रोए जा रही थी. पर कोई सुनने वाला न था. पागलों की तरह अपने शरीर से कपड़े, गहने नोचनोच कर फेंक रही थी.

सवाल था, जाए तो कहां जाए? इसी कशमकश में चली जा रही थी. रात अपने घर के सीढ़ियों पर गुजारी. मातापिता अलग नाराज थे. सुबह हुई तो मां ने स्थिति जान कर थोड़ी सहानुभूति दिखाई. लौकडाउन की वजह से सबकुछ बंद हो चुका था. गर्भपात कराने की भी गुंजाइश नहीं रह गई थी. ऐसे में अब उसे एक ही रास्ता सूझ रहा था जिस रास्ते से गुजर कर वह आकाश के पास पहुंच सकती थी. उस ने दिल पर पत्थर रख कर वही रास्ता चुन लिया. बस, सही तरीका अपना कर अंजाम देना चाहती थी.

कहते हैं, मृत्यु जब तक बांहें न फैलाए तब तक कोई अपनी मरजी से उस की आगोश में नहीं जा सकता और वही हुआ. हर कोशिश नाकाम रही. अकेली जान होती, तो रोचिल्ला कर रह लेती. लेकिन उस की कोख में आकाश की निशानी पल रही थी और उस के साथ वह कोई नाइंसाफी नहीं होने देना चाहती थी. अगली सुबह उस ने थोड़ी हिम्मत जुटाई. दृढ़ निश्चय किया और मातापिता को साथ ले कर आकाश के घर पहुंची. निकलते समय बैग में जीवन को

खत्म करने की सामग्री रखना न भूली. वाचमैन ने गेट पर ही रोक दिया. ध्रुवा जो ठान कर आई थी, उसे अंजाम दिए बगैर वापस जाना नहीं चाहती थी.

उस ने एक कागज़ के टुकड़े पर लिखा, ‘मां, आप अपना इकलौता बेटा खो चुकी हैं, कम से कम उस की आखिरी निशानी को तो बचा लीजिए.’

आकाश के मातापिता, जो बेटे को खो कर अपने लिए जीने की वजह खो चुके थे, उस कागज के टुकड़े को पढ़ते ही दौड़ कर बाहर आए. कहने के लिए शब्द नहीं थे. सभी के आंसुओं ने अपनीअपनी बात कही. इंदिरा देवी का जातिवाद बेटे को खो कर खामोश हो चुका था. ध्रुवा को घर के अंदर लेते वक्त सभी ने आकाश को अपने आसपास महसूस किया जैसे उन का बेटा लौट आया हो.

अपने पराए, पराए अपने

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था.

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़ मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

क सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

प्रेम परिसीमा: कैसा था उन दोनों का वैवाहिक जीवन

अस्पताल के एक कमरे में पलंग पर लेटेलेटे करुणानिधि ने करवट बदली और प्रेम से अपनी 50 वर्षीया पत्नी मधुमति को देखते हुए कहा, ‘‘जा रही हो?’’

मधुमति समझी थी कि करुणानिधि सो रहा है. आवाज सुन कर पास आई, उस के माथे पर हाथ रखा, बाल सहलाए और मंद मुसकान भर कर धीमे स्वर में बोली, ‘‘जाग गए, अब तबीयत कैसी है, बुखार तो नहीं लगता.’’

करुणानिधि ने किंचित मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे हाथ रखने से तबीयत तो ठीक हो गई है, पर दिल की धड़कन बढ़ गई है.’’

घबरा कर मधुमति ने उस की छाती पर हाथ रखा. करुणानिधि ने उस के हाथ पर अपना हाथ रख कर दबा दिया. मधुमति समझ गई, और बोली, ‘‘फिर वही हरकत, अस्पताल में बिस्तर पर लेटेलेटे भी वही सूझता है. कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?’’

करुणानिधि ने बिना हाथ छोड़े कहा, ‘‘देख लेगा तो क्या कहेगा? यही न कि पति ने पत्नी का हाथ पकड़ रखा है या पत्नी ने पति का. इस में डरने या घबराने की क्या बात है? अब तो उम्र बीत गई. अब भी सब से, दुनिया से डर लगता है?’’

मधुमति ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और बोली, ‘‘डाक्टर ने आप को आराम करने को कहा है, आवेश में आना मना है. दिल का दौरा पड़ चुका है, कुछ तो खयाल करिए.’’

‘‘दिल का दौरा तो बहुत पहले ही पड़ चुका है. शादी से भी पहले. अब तो उस दौरे का अंतिम पड़ाव आने वाला है.’’

मधुमति ने उंगली रख कर उस का मुंह बंद किया और फिर सामान उठा कर घर चलने लगी. वह चलते हुए बोली, ‘‘दोपहर को आऊंगी. जरा घर की व्यवस्था देख आऊं.’’

करुणानिधि ने उस की पीठ देखते हुए फिकरा कसा, ‘‘हांहां, घर को तो कोई उठा ले जाएगा. बस, घर ही घर, तुम्हारा तो वही सबकुछ रहा है.’’

मधुमति बिना कोई उत्तर दिए कमरे से बाहर चली गई. डाक्टर ने कह दिया था कि करुणानिधि से बहस नहीं करनी है.

उस के जाते ही करुणानिधि थोड़ी देर छत की ओर देखता रहा. चारों तरफ शांति थी. धीरेधीरे उस की आंखें मुंदने लगीं. पिछला सारा जीवन उस की आंखों के सामने आ गया, प्रेमभरा, मदभरा जीवन…

शादी से पहले ही मधुमति से उसे प्रेम हो गया था. शादी के बाद के शुरुआती वर्ष तो खूब मस्ती से बीते. बस, प्रेम ही प्रेम, सुख ही सुख, चैन ही चैन. वे दोनों अकेले रहते थे. मधुमति प्रेमकला से अनभिज्ञ सी थी. पर धीरेधीरे वह विकसित होने लगी. मौसम उन का अभिन्न मित्र और प्रेरक बन गया. वर्षा, शरद और बसंत जैसी ऋतुएं उन्हें आलोडित करने लगीं.

होली तो वे दोनों सब से खेलते, पर पहले एकदूसरे के अंगप्रत्यंग में रंग लगाना, पानी की बौछार डालना, जैसे कृष्ण और राधा होली खेल रहे हों. दीवाली में साथसाथ दीए लगाना और जलाना, मिठाई खाना और खिलाना. दीवाली के दिन विशेषकर एक बंधी हुई रीति थी. मधुमति, करुणानिधि के सामने अपनी मांग भरवाने खड़ी हो जाती थी. कितने प्रेम से हर वर्ष वह उस की मांग भरता था. याद कर करुणानिधि की आंखों से आंसू ढलक गए, प्रेम के आंसू.

वे दिन थे जब प्रेम, प्रेम था, जब प्रेम चरमकोटि पर था. एक दिन की जुदाई भी असहनीय थी. कैसे फिर साथ हो, वियोग जल्दी से कैसे दूर हो, इस के मनसूबे बनाने में ही जुदाई का समय कटता था.

वे अविस्मरणीय दिन बीतते गए. अनंतकाल तक कैसे इस उच्चस्तर पर प्रेमालाप चल सकता था? फिर बच्चे हुए. मधुमति का ध्यान बच्चों को पालने में बंटा. बच्चों के साथ ही सामाजिक मेलजोल बढ़ने लगा. बच्चे बड़े होने लगे. मधुमति उन की पढ़ाई में व्यस्त, उन को स्कूल के लिए तैयार करने में, स्कूल के बाद खाना खिलाने, पढ़ाने में व्यस्त, घर सजाने का उसे बहुत शौक था. सो, घंटों सफाई, सजावट में बीत जाते. उद्यान लगाने का भी शौक चढ़ गया था. कभी किसी से मिलने चली गई. कभी कोई मिलने आ गया और कभी किसी पार्टी में जाना पड़ता. रिश्तेदारों से भी मिलनामिलाना जरूरी था.

मधुमति के पास करुणानिधि के लिए बहुत कम समय रह गया. इन सब कामों में व्यस्त रहने से वह थक भी जाती. उन की प्रेमलीला शिखर से उतर कर एकदम ठोस जमीन पर आ कर थम सी गई. जीवन की वास्तविकता ने उस पर अंकुश लगा दिए.

यह बात नहीं थी कि करुणानिधि व्यस्त नहीं था, वह भी काम में लगा रहता. आमतौर पर रात को देर से भी आता. पर उस की प्रबल इच्छा यही रहती कि मधुमति से प्रेम की दो बातें हो जाएं. पर अकसर यही होता कि बिस्तर पर लेटते ही मधुमति निद्रा में मग्न और करुणानिधि करवटें बदलता रहता, झुंझलाता रहता. ऐसा नहीं था कि प्रेम का अंत हो गया था. महीने में 2-3 बार सुस्त वासना फिर तीव्रता से जागृत हो उठती. थोड़े समय के लिए दोनों अतीत जैसे सुहावने आनंद में पहुंच जाते, पर कभीकभी ही, थोड़ी देर के लिए ही.

करुणानिधि मधुमति की मजबूरी  समझता था, पर पूरी तरह नहीं. पूरे जीवन में उसे यह अच्छी तरह समझ नहीं आया कि व्यस्त रहते हुए भी उस की तरह मधुमति प्रेमालाप के लिए कोई समय क्यों नहीं निकाल सकी. उसे तिरछी, मधुर दृष्टि से देखने में, कभी स्पर्शसुख देने में, कभीकभी आलिंगन करने में कितना समय लगता था? कभीकभी उसे ऐसा लगता जैसे उस में कोई कमी है. वह मधुमति को पूरी तरह जागृत करने में असफल रहा है. पर उसे कोई तसल्लीबख्श उत्तर कभी न मिला.

समय बीतता गया. बच्चे बड़े हो गए, उन की शादियां हो गईं. वे अपनेअपने घर चले गए, लड़के भी लड़कियां भी. घर में दोनों अकेले रह गए. तब करुणानिधि को लगा कि अब समय बदलेगा. अब मधुमति उस की ज्यादा परवा करेगी. उस के पास ज्यादा समय होगा. अब शादी के शुरू के वर्षों की पुनरावृत्ति होगी. पर उस की यह इच्छा, इच्छा ही बन कर रह गई. स्थिति और भी खराब हो गई, क्योंकि मधुमति दामादों, बहुओं व अन्य संबंधियों में और भी व्यस्त हो गई.

बेचारा करुणानिधि अतृप्त प्रेम के कारण क्षुब्ध, दुखी रहने लगा. मधुमति उस के क्रोध, दुख को फौरन समझ जाती, कभीकभी उन्हें दूर करने का प्रयत्न भी करती, पर करुणानिधि को लगता यह प्रेम वास्तविक नहीं है.

पिछले 20 वर्षों में कई बार करुणानिधि ने मधुमति से इस बारे में बात की. बातचीत कुछ ऐसे चलती…

करुणानिधि कहता, ‘मधुमति, तुम्हारे प्रेम में अब कमी आ गई है.’

‘वह कैसे? मुझे तो नहीं लगता, प्रेम कम हो गया है. आप का प्रेम कम हो गया होगा. मेरा तो और भी बढ़ गया है.’

‘यह तुम कैसे कह सकती हो? शादी के बाद के शुरुआती वर्ष याद नहीं हैं… कैसेकैसे, कहांकहां, कबकब, क्याक्या होता था.’

इस पर मधुमति कहती, ‘वैसा हमेशा कैसे चल सकता है? उम्र का तकाजा तो होगा ही. तुम्हारी दी हुई किताबों में ही लिखा है कि उम्र के साथसाथ रतिक्रीड़ा कम हो जाती है. फिर क्या रतिक्रीड़ा ही प्रेम है? उम्र के साथसाथ पतिपत्नी साथी, मित्र बनते जाते हैं. एकदूसरे को ज्यादा समझने लगते हैं. समय बीतने पर, पासपास चुप बैठे रहना भी, बात करना भी, प्रेम को समझनेसमझाने के लिए काफी होता है.’

‘किताबों में यह भी तो लिखा है कि इस के अपवाद भी होते हैं और हो सकते हैं. मैं उस का अपवाद हूं. इस उम्र में भी मेरे लिए, सिर्फ पासपास गुमसुम बैठना काफी नहीं है. तुम अपवाद क्यों नहीं बन सकती हो?’

ऐसे में मधुमिता कुछ नाराज हो कर कहती, ‘तो आप समझते हैं, मैं आप से प्रेम नहीं करती? दिनभर तो आप के काम में लगी रहती हूं. आप को अकेला छोड़ कर, मांबाप, बेटों, लड़कियों के पास बहुत कम जाती हूं. किसी परपुरुष पर कभी नजर नहीं डाली. आप से प्रेम न होता तो यह सब कैसे होता?’

‘बस, यही तो तुम्हारी गलती है. तुम समझती हो, प्रेमी के जीवन के लिए यही सबकुछ काफी है. पारस्परिक आकर्षण कायम रखने के लिए इन सब की जरूरत है. इन के बिना प्रेम का पौधा शायद फलेफूले नहीं, शायद शुष्क हो जाए. पर इन का अपना स्थान है. ये वास्तविक प्रेम, शारीरिक सन्निकटता का स्थान नहीं ले सकते. मैं ने भी कभी परस्त्री का ध्यान नहीं किया. कभी भी किसी अन्य स्त्री को प्रेम या वासना की दृष्टि से नहीं देखा. मैं तो तुम्हारी नजर, तुम्हारे स्पर्श के लिए ही तरसता रहा हूं. और तुम, इस पर कभी गौर ही नहीं करती. किताबों में लिखा है या नहीं कि पति के लिए स्त्री को वेश्या का रूप भी धारण करना चाहिए.’

करुणानिधि की इस तरह की बात सुन मधुमति तुनक कर जवाब देती, ‘मैं, और वेश्या? इस अधेड़ उम्र में? आप का दिमाग प्रेम की बातें सोचतेसोचते सही नहीं रहा. उम्र के साथ संतुलन भी तो रखना ही चाहिए. आप मेरी नजर को तरसते रहते हैं, मैं तो आप की नजर का ही इंतजार करती रहती हूं. आप के मुंह के रंग से, भावभंगिमा से, इशारे से समझ जाती हूं कि आप के मन में क्या है.’

‘मधुमति, यही अंतर तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा. नजर ‘को’ मत देखो, नजर ‘में’ देखो. कितना समय हो गया है आंखें मिला कर एकदूसरे को देखे हुए? तुम्हारे पास तो उस के लिए भी समय नहीं है. आतेजाते, कभी देखो तो फौरन पहचान जाओगी कि मेरा मन तुम्हें चाहने को, तुम्हें पाने को कैसे उतावला रहता है, अधीर रहता है. पर तुम तो शायद समझ कर भी नजर फेर लेती हो. पता कैसे लगे? बताऊं कैसे?’

‘जैसे पहले बताते थे. पहले रोक कर, कभी आप मेरी आंखों में नहीं देखते थे? कभी हाथ नहीं पकड़ते थे? अब वह सब क्यों नहीं करते?

‘वह भी तो कर के देख लिया, पर सब बेकार है. हाथ पकड़ता हूं तो झट से जवाब आता है, ‘मुझे काम करना है या कोई देख लेगा,’ झट हाथ खींच लेती हो या करवट बदल कर सो जाती हो. मैं भी आखिर स्वाभिमानी हूं. जब वर्षों पहले तय कर लिया कि किसी स्त्री के साथ, पत्नी के साथ भी जोरजबरदस्ती नहीं करूंगा, क्योंकि उस से प्रेम नहीं पनपता, उस से प्रेम की कब्र खुदती है, तो फिर सिवा चुप रहने के, प्रेम को दबा देने के, अपना मुंह फेर लेने के और क्या शेष रह जाता है?

‘तुम साल दर साल और भी बदलती जा रही हो. हमारे पलंग साथसाथ हैं…2 फुट की दूरी पर हम लेटते हैं. पर ऐसा लगता है जैसे मीलों दूर हों. मीलों दूर रहना फिर भी अच्छा है. उस से विरह की आग तो नहीं भड़केगी. उस के बाद पुनर्मिलन तो प्रेम को चरमसीमा तक पहुंचा देगा. पर पासपास लेटें और फिर भी बहुत दूर. इस से तो पीड़ा और भी बढ़ती है. कभीकभी, लेटेलेटे, यदि सोई न हो, तो मुझे आशा बंधती कि शायद आज कुछ परिवर्तन हो. पर तुम घर की, बच्चों की बात शुरू कर देती हो.’

ऐसी बातें कई बार हुईं. कुछ समय तक कुछ परिवर्तन होता. पुराने दिनों, पुरानी रातों की फिर पुनरावृत्ति होती. पर कुछ समय बाद करुणानिधि फिर उदास हो जाता. जब से मधुमति ने 50 वर्ष पार किए थे, तब से वह और भी अलगथलग रहने लगी थी. करुणानिधि ने बहुत समझाया, पर वह कहती, ‘आप तो कभी बूढ़े नहीं होंगे. पर मैं तो हो रही हूं. अब वानप्रस्थ, संन्यास का समय आ गया है. बच्चों की शादी हो चुकी है. अब तो कुछ और सोचो. मुझे तो अब शर्म आती है.’

‘पतिपत्नी के बीच शर्म किस बात की?’ करुणानिधि झुंझला कर कहता, ‘मुझे पता है, तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियां पड़ रही हैं. मेरे भी कुछ दांत निकल गए हैं. तुम मोटी भी हो रही हो. मैं भी बीमार रहता हूं. पर इस से क्या होता है? मेरे मन में तो तुम वही और वैसी ही मधुमति हो, जिस के साथ मेरा विवाह हुआ था. मुझे तो अब भी तुम वही नई दुलहन लगती हो. अब भी तुम्हारी नजर से, स्पर्श से, आवाज से मैं रोमांचित हो उठता हूं. फिर तुम्हें क्या कठिनाई है, किस बात की शर्म है?

‘हम दोनों के बारे में कौन सोच रहा है, क्या सोच रहा है, इस से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? अधिक से अधिक बच्चे और उन के बच्चे, मित्र, संबंधी यही तो कहेंगे कि हम दोनों इस उम्र में भी एकदूसरे से प्रेम करते हैं, एकदूसरे का साथ चाहते हैं, शायद सहवास भी करते हैं…तो कहने दो. हमारा जीवन, अपना जीवन है. यह तो दोबारा नहीं आएगा. क्यों न प्रेम की चरमसीमा पर रहतेरहते ही जीवन समाप्त किया जाए.’

मधुमति यह सब समझती थी. आखिर वर्षों से पति की प्रेमिका थी, पर पता नहीं क्यों, उतना नहीं समझती थी, जितना करुणानिधि चाहता था. उस के मन के किसी कोने में कोई रुकावट थी, जिसे वह पूर्णतया दूर न कर सकी. शायद भारतीय नारी के संस्कारों की रुकावट थी.

अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा, यह सब सोचता हुआ, करुणानिधि चौंका, मधुमति घर से वापस आ गई थी. वह खाने का सामान मेज पर रख रही थी. वैसा ही सुंदर चेहरा जैसा विवाह के समय था…मुख पर अभी भी तेज और चमक. बाल अभी भी काफी काले थे. कुछ सफेद बाल भी उस की सुंदरता को बढ़ा रहे थे.

बरतनों की आवाज सुन कर करुणानिधि ने मधुमति की ओर देखा तो उसे दिखाई दीं, वही बड़ीबड़ी, कालीकाली आंखें, वही सुंदर, मधुर मुसकान, वही गठा हुआ बदन कसी हुई साड़ी में लिपटा हुआ. करुणानिधि को उस के चेहरे, गले, गरदन पर झुर्रियां तो दिख ही नहीं रही थीं. उसे प्रेम से देखता करुणानिधि बुदबुदाया, ‘तेरे इश्क की इंतिहा चाहता हूं.’

छोटे से कमरे में गूंजता यह वाक्य मधुमति तक पहुंच गया. सब समझते हुए वह मुसकराई और पास आ कर उस के माथे पर हाथ रख कर बोली, ‘‘फिर वही विचार, वही भावनाएं. दिल के दौरे के बाद कुछ दिन तो आराम कर लो.’’

करुणानिधि ने निराशा में एक लंबी, ठंडी सांस ली और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह कर लिया.

लेकिन कुछ समय बाद ही मधुमति को भी करुणानिधि की तरह लंबी, ठंडी सांस भरनी पड़ी और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह करना पड़ा.

अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद करुणानिधि घर आ गया. अच्छी तरह स्वास्थ्य लाभ करने में कुछ महीने लग गए. तब तक मधुमति उस से परे ही रही. उसे डर था कि समीप आने पर उसे दोबारा दिल का दौरा न पड़ जाए. उस ने इस डर के बारे में करुणानिधि को समझाने की कोशिश की, पर सब व्यर्थ. जब भी इस के बारे में बातें होतीं, करुणानिधि कहता कि वह उसे केवल टालने की कोशिश कर रही है.

कुछ महीने बाद करुणानिधि 61 वर्ष का हो गया और लगभग पूर्णतया स्वस्थ भी. इस कारण विवाह की सालगिरह की रात जब उस ने मधुमति की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने इनकार न किया, पर उस के बाद करुणानिधि स्तब्ध रह गया. पहली बार उसे अंगरेजी कहावत ‘माइंड इज विलिंग, बट द फ्लैश इज वीक’ (मन तो चाहता है, पर शरीर जवाब देता है.) का अर्थ ठीक से समझ में आया और वह दुखी हो गया.

मधुमति ने उसे समझाने की कोशिश की. उस रात तो कुछ समझ न आया, पर जब फिर कई बार वैसा ही हुआ तो उसे उस स्थिति को स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि डाक्टरों ने उसे बता दिया था कि उच्च रक्तचाव और मधुमेह के कारण ही ऐसी स्थिति आ गई थी.

अब मधुमति दीवार की ओर मुंह मोड़ने लगी, पर मुसकरा कर. एक बार जब करुणानिधि ने इस निराशा पर खेद व्यक्त किया तो उस ने कहा, ‘‘खेद प्रकट करने जैसी कोई बात ही नहीं है. प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है. जब बच्चों की देखभाल के कारण या घर के कामकाज के कारण मेरा ध्यान आप की ओर से कुछ खिंचा, तो वह भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही था. आप को उसे स्वीकार करना चाहिए था. जैसे आज मैं स्वीकार कर रही हूं.

आप के प्रति मेरे प्रेम में तब भी कोई अंतर नहीं आया था और न अब आएगा. प्रेम, वासना का दूसरा नाम नहीं है. प्रेम अलग श्रेणी में है, जो समय के साथ बढ़ता है, परिपक्व होता है. उस में ऐसी बातों से, किसी भी उम्र में कमी नहीं आ सकती. यही प्रेम की परिसीमा है.’’

करुणानिधि को एकदम तो नहीं, पर समय बीतने के साथ मधुमति की बातों की सत्यता समझ में आने लगी और फिर धीरेधीरे उन का जीवन फिर से मधुर प्रेम की निश्छल धारा में बहने लगा.

पढ़ाई सुधर गई : क्या जीत पाया दीपक

जैसे ही दोपहर के खाने की घंटी बजी, सारे बच्चे दौड़ते हुए खाने की तरफ भागे. दीपक सर, जो गणित के टीचर थे और हाल ही में इस स्कूल में आए थे, स्कूल के इन तौरतरीकों को देख कर हैरान थे.

आज बच्चों का खाना देख कर तो और भी हैरान हो गए. दाल बिलकुल पानी जैसी, भात और सब्जी के नाम पर उबले हुए चने. कैसे किसी के गले से उतरेंगे?

स्टाफ रूम में सारे टीचर अपनेअपने खाने का डब्बा खोल कर खाने बैठ गए थे. दीपक सर ने जैसे ही अपने खाने का डब्बा खोला, मिश्रा सर, जो हिंदी के टीचर थे, कहने लगे, ‘‘दीपक सर, क्या बात है… आज तो आप के खाने के डब्बे से बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है?’’

‘‘जी,’’ मुसकराते हुए दीपक सर ने कहा और अपने खाने का डब्बा उन के आगे बढ़ा दिया.

थोडी़ देर बाद दीपक ने वहां बैठे दूसरे टीचरों से पूछा, ‘‘चलिए, मैं तो चलता हूं, अगली क्लास लेने. आप सब को नहीं चलना है?’’

‘‘अरे भैया, क्यों इतने उतावले हो रहे हो? बैठो जरा. बच्चे कहां भागे जा रहे हैं,’’  संस्कृत के पांडे सर ने कहा.

विज्ञान की टीचर वंदना मैडम बोल पड़ीं, ‘‘बच्चे अगर 1-2 सब्जैक्ट नहीं भी पढ़ेंगे, तो कौन सा आईएएस बनना है उन्हें, जो नहीं बन पाएंगे?’’

‘‘वंदना मैडम, बच्चों को पढ़ाना हमारी ड्यूटी है और अगर हम ईमानदारी से बच्चों पढ़ाएंगे न, तो बच्चे एक दिन जरूर आईएएस बनेंगे. हम यहां इसलिए तो आए हैं. तनख्वाह भी तो हमें बच्चों को पढ़ाने की ही मिलती है,’’ दीपक सर ने कहा.

‘‘मैं ने तो कुछ ज्यादा ही खा लिया. अब क्या करें? पत्नीजी खाना ही इतना दे देती हैं. और खाते ही मुझे जोरों की नींद आने लगती है,’’ कह कर सिन्हा सर वहीं पड़ी कुरसी पर अपने पैर पसार कर सो गए.

दीपक ने जब मिश्रा सर की तरफ देखा, तो वे भी अपने मुंह में पान दबाते हुए बोले, ‘‘देखिए दीपक सर, आप भी नएनए आए हैं, तो आप को यहां के नियमकानून का कुछ पता नहीं है.’’

‘‘कैसे नियमकानून हैं सर?’’ दीपक ने हैरान होते हुए पूछा.

मिश्रा सर भी वहीं लगी दूसरी कुरसी पर आराम से अपने पैर पसारते हुए कहने लगे, ‘‘दीपक सर, मैं कोचिंग सैंटर भी चलाता हूं. अब पूरे दिन इसी स्कूल में बैठा रह गया, तो वहां के बच्चे को कौन पढ़ाएगा?

‘‘अब ऐसे मत देखिए दीपक सर. अब अगर कोचिंग सैंटर नहीं चलाएंगे, तो दालरोटी पर मक्खन कहां से मिलेगा.’’

‘‘मिश्रा सर, वह सब तो ठीक है, पर जब प्रिंसिपल मैडम को आप सब की हरकतों का पता चलेगा तो…?’’

दीपक सर की बात को बीच में ही काटते हुए श्रीवास्तव सर कहने लगे, ‘‘अरे छोडि़ए मैडम की बातें. उन को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम क्या करें और क्या न करें. उन के हाथों में हर महीने हरेहरे नोट सरका दीजिए बस. और वे कौन सी दूध की धुली हैं, जो हमें कुछ कहेंगी.’’

तभी मिश्राजी हंसते हुए कहने लगे, ‘‘लगता है दीपक बाबू को प्रिंसिपल मैडम की कहानी नहीं पता?’’

दीपक सर ने हैरानी से सब का मुंह देखते हुए पूछा, ‘‘कौन सी कहानी सर?’’

‘‘लो भैया, अब इन्हें भी बतानी पड़ेगी मैडम की कहानी कि कैसे वे एक अदना सी टीचर से प्रिंसिपल बन बैठीं,’’ अपने मुंह से पान की पीक दीवार पर ही फेंकते हुए मिश्राजी ने कहा.

‘‘दीपक सर, ये बबीता मैडम जो हैं न, पहले अपने ही गांव के एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं. आप समझ रहे हैं न?’’ एक बार फिर उन्होंने पान की पीक दीवार पर मारते हुए कहा.

दीपक सर ने उन्हें बड़ी अजीब नजरों से देखा.

‘‘बबीता मैडम जिस गांव से थीं, उसी गांव से एमएलए प्रवीण यादव चुनाव के लिए खड़े हुए थे. बबीताजी के पति चुनाव महकमे में ही एक छोटेमोटे मुलाजिम थे.

‘‘प्रवीण यादव की तरफ से बबीता मैडम और उन के पति ने खूब चुनाव प्रचार किया था. प्रवीण यादव ने बबीताजी से यह वादा किया था कि अगर वे जीत गए, तो उन्हें खुश कर देंगे और उन्होंने ऐसा किया भी.

‘‘बबीताजी कितनी पढ़ीलिखी हैं, यह तो आज तक हम में से कोई नहीं जानता है. उस के बावजूद उन्हें इस स्कूल में मिडिल तक की टीचर बना दिया गया. बबीता मैडम गांव के स्कूल से सीधा शहर में आ गईं.

‘‘प्रवीण यादव और बबीता मैडम अब किसी न किसी बहाने एकदूसरे से मिलने लगे. लोगों की नजरों में तो वे अच्छे दोस्त थे, पर सचाई कुछ और ही थी. धीरेधीरे सब को पता चल ही गया कि नेता प्रवीण यादव और बबीताजी के रिश्ते कितने गहरे हैं.

‘‘बबीता मैडम स्कूल में तो जब मन करता तब ही आती थीं, पर तनख्वाह पूरे महीने की उठाती थीं. वे अब ज्यादातर नेताजी की सेवा में ही लगी रहती थीं.

‘‘दीपक सर, आप समझ रहे हैं न. मैडम कहां बिजी रहने लगी थीं और नेताजी उन पर इतने मेहरबान क्यों थे?’’ एक खलनायक वाली हंसी हंसते हुए मिश्रा सर  ने कहा, तो दीपक सर ने भी अपना सिर हां में हिला दिया. मिश्रा सर ने पूरा किस्सा बताया.

‘‘नेताजी की पत्नी को जब उन दोनों के नाजायज रिश्तों के बारे में पता चला, तो एक दिन वे सीधे अपने फार्महाउस पहुंच गईं, जहां पहले से बबीता मैडम मौजूद थीं.

‘‘पहले तो उन्होंने बबीताजी के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया, फिर कहने लगीं, ‘नीच औरत, तुझे शर्म नहीं आती किसी पराए मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ाते हुए. अपने पति से मन भर गया, तो मेरे पति का बिस्तर गरम कर रही है. आगे से कभी भी मैं ने तुझे इन के इर्दगिर्द भी देखा ना, तो समझ लेना…’

‘‘नेताजी को भी उन्होंने खूब खरीखोटी सुनाई, ‘आप को यह जो एमएलए की पोस्ट मिली है न, वह मैं मिनटों में छिनवा लूंगी… समझे नेताजी?’

‘‘नेताजी के ससुर खुद ही मुख्यमंत्री रह चुके थे. उन्होंने ही अपने दामाद को टिकट दिलवाया था.

‘‘बबीताजी की हरकतों से परेशान हो कर उन के पति ने भी उन्हें अपनी जिंदगी से निकाल दिया.

‘‘बबीताजी के सिर पर अब शिक्षा मंत्रीजी का हाथ है. अरे, एक ने घर से निकाल दिया, तो दूसरे ने अपनी पत्नी के डर से उन्हें छोड़ दिया तो क्या हुआ. आप ने सुना है दीपक सर, एक नहीं तो और सही,’’ चुटकी लेते हुए मिश्रा सर ने कहा.

मिश्रा सर ने आगे कहा, ‘‘शिक्षा मंत्रीजी, जो अकसर स्कूल की शिक्षा व्यवस्था देखने आते रहते हैं, बबीताजी ने अब उन को फंसा रखा है. उन के साथ भी बबीता मैडम के बहुत गहरे संबंध बन गए हैं. देखिए, एक मामूली टीचर से आज वे प्रिंसिपल बन बैठी हैं.’’

दीपक को ये सब बातें सुन कर बहुत हैरानी हुई. कैसा अंधा कानून चल रहा है इस स्कूल में. एक प्रिंसिपल कितनी पढ़ीलिखी हैं, यह भी किसी को नहीं पता है. वे कैसे इतनी बड़ी कुरसी पर बैठ सकती हैं? और ये सारे निकम्मे टीचर अपनी कामचोरी, रिश्वतखोरी, आलसीपन का सुबूत खुद अपने मुंह से दे रहे हैं.

ऐसे ही कुछ टीचरों की वजह से आज सारे टीचरों को गलत समझा जा रहा है. क्लास में बच्चे तो आते हैं, पर पढ़ाने के लिए टीचर ही नहीं आते हैं. सब अपनाअपना कोचिंग सैंटर चलाते हैं और तनख्वाह इस स्कूल से लेते हैं. यह सरासर गलत है.

उस दिन अंगरेजी की टीचर ममता मैडम बच्चों को 8 की अंगरेजी में स्पैलिंग ईआईजीटी समझा रही थीं.

दीपक ने ही उन्हें टोका था, ‘‘मैडम, आप गलत स्पैलिंग बता रही हैं बच्चों को. ईआईजीटी नहीं, ईआईजीएचटी होगा.’’

इस पर अंगरेजी की मैडम ममता बरस पड़ीं, ‘‘दीपक सर, आप अपनी क्लास के बच्चों को संभालिए.’’

अगले दिन दीपक जब स्कूल गया, तो स्कूल के चपरासी ने आ कर उस से कहा, ‘‘आप को प्रिंसिपल मैडम ने अपने औफिस में बुलाया है.’’

‘‘नमस्ते मैडम,’’ दीपक ने प्रिंसिपल मैडम से कहा. उस ने देखा कि पहले से ही वहां और भी कई टीचर बैठे थे.

‘‘दीपक सर, आइए बैठिए. मैं ने आप सब को यहां यह कहने के लिए बुलाया है कि कल हमारे स्कूल में स्कूल निरीक्षक आने वाले हैं. आप सब अपनीअपनी क्लास के बच्चों को ठीक से समझा दें कि क्या कहना है और क्या नहीं.

‘‘और हां, कल दोपहर का खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनना चाहिए और मिठाई तो जरूर होनी चाहिए.

‘‘मिश्रा सर, आप पूरे स्कूल की व्यवस्था ठीक से देख लीजिएगा. कुछ भी गड़बड़ नहीं होनी चाहिए,’’ बबीता मैडम ने सब को अच्छी तरह से समझा दिया. अगले दिन बराबर बैठी वंदना मैडम ने कहा, ‘‘पांडेजी, जरा देखिए तो, कैसे प्रिंसिपल मैडम निरीक्षक महोदय के बगल में अपनी कुरसी चिपका कर बैठी हैं.

‘‘मैडम की इसी अदा पर तो मर्द फिदा हो जाते हैं,’’ पांडे सर की बातों पर वहां बैठे सारे टीचर हंस पड़े.

‘‘सर, आप को बच्चों से कुछ पूछना है, तो पूछ सकते हैं,’’ प्रिंसिपल मैडम ने निरीक्षक महोदय से कहा.

‘‘बच्चो, आप सब को कोई दिक्कत तो नहीं है न इस स्कूल में? किसी को कुछ कहना हो या कुछ पूछना हो तो पूछो. डरने की कोई बात नहीं है,’’ निरीक्षक महोदय ने कहा.

सारे बच्चों ने एकसाथ जवाब दिया, ‘‘नहीं सर, यहां सबकुछ ठीक है. हमें कोई दिक्कत नहीं है.’’ बच्चों ने वही कहा, जो उन्हें पहले से रटाया गया था.

‘‘आप टीचरों को कुछ कहना है?’’ निरीक्षक महोदय ने पूछा.

‘‘नहीं महोदय, हमें कुछ नहीं कहना है,’’ सारे टीचरों ने जवाब दिया. तभी अपना हाथ ऊपर करते हुए दीपक सर ने कहा, ‘‘महोदयजी, मुझे कुछ कहना है.’’

दीपक ने सोचा कि अगर आज हम चुप रहे तो फिर पता नहीं निरीक्षक सर कब आएं इस स्कूल में. दीपक के इतना कहते ही प्रिंसिपल मैडम समेत सारे टीचर उन का मुंह ताकने लगे कि भाई इन्हें क्या कहना है.

‘‘हांहां, कहिए, आप क्या कहना चाहते हैं?’’ निरीक्षक महोदय ने पूछा.

‘‘महोदय, बच्चे तो वही कह रहे हैं, जो उन्हें कहने को कहा गया है. दरअसल, यहां की स्कूली व्यवस्था बिलकुल अच्छी नहीं है.’’

‘‘आप मुझे जरा खुल कर बताइए,’’ निरीक्षक महोदय ने दीपक से कहा.

‘‘महोदय, पहली बात तो यह है कि कोई भी टीचर अपनी क्लास ठीक से नहीं लेते हैं. जब मन हुआ बच्चों को पढ़ाते हैं, नहीं मन हुआ तो नहीं पढ़ाते हैं.

‘‘दूसरी बात यह कि यहां खाने के नाम पर बच्चों को भात के साथ पानी जैसी दाल और उबली हुई सब्जी परोसी जाती है. हर क्लास में पंखे सिर्फ दिखाने के लिए हैं, चलता कोई नहीं है, जबकि प्रिंसिपल रूम और स्टाफ रूम में एयरकंडीशंड का इंतजाम है.’’

और भी जितनी बातें दीपक ने इस स्कूल में देखीं और सुनीं, वे सब उस ने निरीक्षक को बता दीं, बिना अंजाम की परवाह किए.

निरीक्षक ने सारी बातें अपनी डायरी में लिख लीं, पर रजिस्टर में कुछ नहीं लिखा और पेज खाली छोड़ दिया. बाद में प्रिंसिपल और दूसरे टीचर ने दीपक को बहुत फटकार लगाई और कहने लगे, ‘‘दीपक सर, जो भी बात थी, आप हमें आ कर बताते, निरीक्षक को बताने की क्या जरूरत थी.’’

मिश्रा सर कहने लगे, ‘‘दीपक सर, यह आप ने ठीक नहीं किया. अब आप को क्या होगा देख लेना,’’ जैसे उन्हें सब पता था कि क्या होगा.

‘‘माफ कीजिएगा मिश्रा सर, मैं यहां कोई रिश्वत दे कर या किसी की पैरवी से नहीं आया हूं, जो मैं डर जाऊंगा. अंजाम की परवाह तो वे लोग करते हैं, जो खुद गलत हैं.’’

हफ्तेभर बाद दीपक का तबादला हो गया, तो मिश्रा और सारे टीचर मुसकरा कर बोले, ‘‘देख लिया न अंजाम.’’

दीपक को यह समझते जरा भी देर नहीं लगी कि ये सब मिले हुए हैं, निरीक्षक भी. यहां तो पूरा घोटाला है, अकेला वह कुछ नहीं कर सकता है. यह तो चलता रहेगा.

आज टीचर की नौकरी उस की काबिलीयत को देख कर नहीं लगती है. नौकरी लगती है तो किसी बड़े नेता की पैरवी से. यहां टीचर 15 दिन की नौकरी करते हैं और पूरे महीने की तनख्वाह उठाते हैं. अपना खुद का कोचिंग सैंटर चलाते हैं. पैसे ले कर बच्चों को ज्यादा नंबर देते हैं. आज कोई भी मांबाप अपने बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की कामना कैसे कर सकते हैं, जब वे ही इन नकारा टीचर को बढ़ावा दे रहे हैं.

प्रिंसिपल शिक्षा मंत्री की चमचागीरी करते हैं और टीचर प्रिंसिपल की, ताकि बिना मेहनत के उन्हें तरक्की मिलती रहे. मेहनती टीचर को या तो मैमो दिलवाते हैं या कोसों दूर तबादला कर देते हैं.

दीपक का तबादला एक पहाड़ी गांव में कर दिया गया था, जहां स्कूल की अधूरी बिल्डिंग बनी थी, पर 2 कमरों की छत ढह चुकी थी. बच्चे आते ही नहीं थे, क्योंकि टीचर ऊंची जातियों के थे और बच्चे दलितों के. उन को बहला दिया गया था कि उन्हें पास होने का सर्टिफिकेट मिल जाएगा.

छोटू की तलाश : क्या पूरी हो पाई छोटू की तलाश

सुबह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे. शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

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शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया रे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के 5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

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थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तुझ में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह दूध का गिलास अनमोल को दे आ. ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झूठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालोंपर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

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‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’ छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

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