पिंजरे वाली मुनिया : भाग 1

मरा हुआ मन भी कभीकभी कुलबुलाने लगता है. आखिर मन ही तो है, सो पति के आने पर उन्होंने हिम्मत कर ही डाली.

‘‘आज चलिए ‘मन मंदिर’ में चल कर परिणीता देख आते हैं. नई ऐक्ट्रेस का लाजवाब काम है. अच्छी ‘रीमेक’ है. मैं ने टिकट मंगवा लिया है.’’

‘‘टिकट मंगवा लिया? यह तुम्हारा अच्छाखासा ठहरा हुआ दिमाग अचानक छलांगें क्यों लगाने लगता है? पता है न कि पिक्चर हाल की भीड़भाड़ में मेरा दम घुटता है. मंगा लो सीडी, देख लो. इतना बड़ा ‘प्लाज्मा स्क्रीन’ वाला टीवी किस लिए लिया है? हाल के परदे से कम है क्या? तुम भी न तरंग, अपने ‘मिडिल क्लास टेस्ट’ से ऊपर ही नहीं उठ पातीं.’’

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वह चुप हो गईं. पति से बहस करना, उन की किसी बात को काटना तो उन्होंने सीखा ही नहीं है. बात चाहे कितनी भी कष्टकारी हो, वह चुप ही लगा जाती हैं. वैसे यह भी सही है कि जितनी सुखसुविधा, आराम का, मनोरंजन का हर साधन यहां उपलब्ध है, इस की तो वह कभी कल्पना कर ही नहीं सकती थीं.

वह स्वयं से कई बार पूछती हैं कि इतना सबकुछ पा कर भी वह प्रसन्न क्यों नहीं? तब उन का अंतर्मन चीत्कार कर उठता है.

‘तरंग, क्या जीवन जीने के लिए, खुश रहने के लिए शारीरिक सुख- सुविधाएं ही पर्याप्त हैं? क्या इनसान केवल एक शरीर है? तो फिर मनुष्य और पशुपक्षी में क्या अंतर हुआ? तुम तो स्वच्छंद विचरती चिडि़या से भी बदतर हो. पिंजरे वाली मुनिया में और तुम में अंतर क्या है? तुम भी तो अपना मुंह तभी खोलती हो जब कहा जाए. ठीक वही बोलती हो जो सिखाया गया हो, न एक शब्द कम, न एक शब्द अधिक.’

और अपने अंतर्मन की इस आवाज को सुन कर उन का मन हाहाकार कर उठा. लेकिन घर आने वाला हर मेहमान, रिश्तेदार उन की तारीफ करते नहीं थकता कि तरंग अपनी बातों में शहद घोल देती हैं, सब का मन मोह लेती हैं.’’

वह सोचने लगीं कि सब का मन वह मोह लेती है, तो कोई कभी उन का मन मोहने की कोशिश क्यों नहीं करता?

एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार की असाधारण लड़की. तीखे नाकनक्श, गोरा रंग, लंबा छरहरा शरीर. पढ़ने में जहीन, क्लास में हमेशा फर्स्ट. कभी पापा की सीमित आय में उसे सेंध नहीं लगानी पड़ी. फेलोशिप, स्कालरशिप, बुकग्रांट, बचपन से खुशमिजाज, हमेशा गुनगुनाती, लहराती, बलखाती लड़की को दादी कहतीं, ‘यह लड़की आखिर है क्या? कभी इसे रोते नहीं देखा, चोट लग जाए तो भी खिलखिला कर हंसना, दूसरों को हंसाना. इस का नाम तो तरंग होना चाहिए.’

और पापा ने सचमुच उन का नाम विजया से बदल कर तरंग कर दिया. वह ऐसी ही थीं. पूरी गंभीरता से पढ़ाई करते हुए गाने गुनगुनाना. चलतीं तो लगता दौड़ रही हैं, सीढि़यां उतरतीं तो लगता छलांगें लगा रही हैं. स्कूलकालिज में सब कहते, ‘तुम्हारा नाम बड़ा सोच कर रखा गया है. हमेशा तुम तरंग में ही रहती हो.’

और उस दिन उन की ननद कह रही थीं, ‘समझ में नहीं आता भाभी, आप का नाम आप के स्वभाव से एकदम उलटा क्यों रखा अंकलआंटी ने? आप इतनी शांत, दबीदबी और नाम तरंग.’

क्या कहतीं वह? कैसे कहतीं कि यहां, इस घर में आ कर तरंग ने हिलोरें लेना बंद कर दिया है.

बी.काम. के पहले साल में वह बहुत बीमार हो गई थीं. सब के मुंह यह सोच कर लटक गए थे कि तरंग का क्या हाल होगा, लेकिन वह सामान्य थीं बल्कि उन्होंने पापा को धीरज बंधाया, ‘पापा, क्या हो गया? यह सब तो चलता रहता है. मेरे पास 2 वर्ष हैं अभी तो, आप देखिएगा, गोल्ड मेडल मैं ही लूंगी.’

पापा आत्मविश्वास से ओतप्रोत उस नन्हे से चेहरे को निहारते ही रह गए थे. उन की बेटी थी ही अलग. उन्हें गर्व था उन पर. ड्रामा, डांस सब में आगे और पढ़ाई तो उन की मिल्कीयत, कालिज की शान थीं, प्रिंसिपल की जान थीं वह.

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आई.आई.एम. कोलकाता के सालाना जलसे में स्टेज पर उर्वशी बनी तरंग सीधी सिद्धांत के दिल में उतर गईं. सारा अतापता ले कर सिद्धांत घर लौटे और रट लगा दी कि जीवनसंगिनी बनाएंगे तो उसी को.

मां ने समझाया, ‘देख बेटा, इतने साधारण परिवार की लड़की भला हमारे ऊंचे खानदान में कहां निभेगी? इन लोगों में ठहराव नहीं होता.’

जवाब जीभ पर था. ‘सब हो जाता है मां. आएगी तो हमारे तौरतरीकों में रम जाएगी. तेज लड़की है, बुद्धिमती है, सब सीख जाएगी.’

‘यह भी एक चिंता की ही बात है बेटा. इतनी पढ़ीलिखी, इतनी लायक है तो महत्त्वाकांक्षिणी भी होगी. आगे बढ़ने की, कुछ करने की ललक होगी. कहां टिक पाएगी हमारे घर में?’ पापा ने दबाव डालना चाहा.

‘पापा, आप भी…जब उसे घर बैठे सारा कुछ मिलेगा, हर सुखसुविधा उस के कदमों में होगी तो वह रानीमहारानी की गद्दी छोड़ कर भला चेरी बनने बाहर क्यों जाएगी?’

हर तर्क का जवाब हाजिर कर के सिद्धांत ने सब का मुंह ही बंद नहीं किया, उन्हें समझा भी दिया.

तरंग ब्याह कर आ गईं. तरंग के घर वालों की तो जैसे लाटरी खुल गई. भला कभी सपने में सोच सकते थे, बेटी के लिए ऐसा घर जुटाना तो दूर की बात थी. घर बैठे मांग कर ले गए लड़की.

तरंग भी बहुत खुश थी. सिद्धांत कद में उस के बराबर और जरा गोलमटोल हैं तो क्या हुआ. इतने बड़े ‘बिजनेस हाउस’ की वह अब मालकिन बन गई थीं.

मेहमानों के जाने, लोगों का आतिथ्य ग्रहण करने और मधुयामिनी से लौटते 2 महीने निकल गए. ऐसे खुशगवार दिन तो इसी तरह पंख लगा कर उड़ते हैं. माउंट टिटलस पर बर्फ के गोले एकदूसरे पर मारतेमरवाते स्विट्जरलैंड की सैर, तो कभी रोशनी से जगमगाते सुनहरे ‘एफिल टावर’ को निहारता पेरिस का कू्रज. वेनिस के जलपथ में अठखेलियां करते वे दोनों कब एकदूसरे के दिलों में ही नहीं शरीर में भी समा गए, पता ही नहीं चला. वे दो बदन एक जान बन चुके थे. ऐसे में कोई छोटीमोटी बात चुभी भी तो तरंग ने उसे गुलाब का कांटा समझ कर झटक दिया.

उस दिन पेरिस का मशहूर ‘लीडो शो’ देखने के लिए तरंग अपनी वह सुनहरी बेल वाली काली साड़ी ‘मैचिंग ज्वेलरी’ के साथ पहन कर इठलाती निकली तो सिद्धांत ने एकदम टोक दिया, ‘बदलो जा कर, यह क्या पहन लिया है? वह आसमानी रंग वाली शिफान पहनो, मोती वाले सेट के साथ.’

चुपचाप उन्होंने अपने वस्त्र बदल तो लिए थे पर कुछ समझ में नहीं आया कि इस में क्या बुराई थी. लेकिन उन सुनहरे पलों में वह कटुता नहीं लाना चाहती थीं. इसलिए चुप रहीं.

अब उस दिन कोकाकोलाके एम.डी. के यहां जाने के लिए उन्होंने बड़े शौक से मोतियोंके बारीक झालर वाली डे्रस निकाल कर रखी थी, मोतियों के ही इटेलियन सेट के साथ. बाथरूम से बाहर निकलीं तो देखा सिद्धांत बड़े ध्यान से उस डे्रस को देख रहे थे. खुश हो कर वह बोलीं, ‘अच्छी है न यह डे्रस?’

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‘अच्छी है? मुझे तो यह समझ में नहीं आता कि तुम हमेशा यह मनहूस रंग लादने को क्यों तैयार रहती हो?’ सिद्धांत की आवाज में बेहद खीज थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

फेसबुक फ्रैंडशिप : वर्चुअल वर्ल्ड की दुनिया

फेसबुक फ्रैंडशिप : भाग 3

लड़का कौफीहाउस में काफी देर इंतजार करता रहा. तभी उसे सामने आती एक मोटी सी औरत दिखी जिस का पेट काफी बाहर लटक रहा था. हद से ज्यादा मोटी, काली, दांत बाहर निकले हुए थे. मेकअप की गंध उसे दूर से आने लगी थी. ऐसा लगता था कि जैसे कोई मटका लुढ़कता हुआ आ रहा हो. वह औरत उसी की तरफ बढ़ रही थी. अचानक लड़के का दिल धड़कने लगा इस बार घबराहट से, भय से उसे  कुछ शंका सी होने लगी. वह भागने की फिराक में था लेकिन तब तक वह भारीभरकम काया उस के पास पहुंच गई.

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‘‘हैलो.’’

‘‘आप कौन?’’ लड़के ने अपनी सांस रोकते हुए कहा.

‘‘तुम्हारी फेसबुक…’’

‘‘लेकिन तुम तो वह नहीं हो. उस पर तो किसी और की फोटो थी और मैं उसी की प्रतीक्षा में था,’’ लड़के ने हिम्मत कर के कह दिया. हालांकि वह समझ गया था कि वह बुरी तरह फंस चुका है.

‘‘मैं वही हूं. बस, वह चेहरा भर नहीं है. मैं वही हूं जिससे इतने दिनों से मोबाइल पर तुम्हारी बात होती रही. प्यार का इजहार और मिलने की बातें होती रहीं. तुम नंबर लगाओ जो तुम्हें दिया था. मेरा ही नंबर है. अभी साफ हो जाएगा. कहो तो फेसबुक खोल कर दिखाऊं?’’

‘‘कितनी उम्र है तुम्हारी?’’ लड़के ने गुस्से से कहा. लड़के ने उस के बालों की तरफ देखा. जिन में भरपूर मेहंदी लगी होने के बाद भी कई सफेद बाल स्पष्ट नजर आ रहे थे.

‘‘प्यार में उम्र कोई माने नहीं रखती, मैं ने यह पूछा था तो तुम ने हां कहा था.’’

‘‘फिर भी कितनी उम्र है तुम्हारी?’’

‘‘40 साल,’’ सामने बैठी औरत ने कुछ कम कर के ही बताया.

‘‘और मेरी 20 साल,’’ लड़के ने कहा.

‘‘मुझे मालूम है,’’ महिला ने कहा.

‘‘आप ने सबकुछ झूठ लिखा अपनी फेसबुक पर. उम्र भी गलत. चेहरा भी गलत?’’

‘‘प्यार में चेहरे, उम्र का क्या लेनादेना?’’

‘‘क्यों नहीं लेनादेना?’’ लड़के ने अब सच कहा. अधेड़ उम्र की सामने बैठी बेडौल स्त्री कुछ उदास सी हो गई.

‘‘अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘की तो थी, लेकिन तलाक हो गया. एक बेटा है, वह होस्टल में पढ़ता है.’’

‘‘क्या?’’ लड़के ने कहा, ‘‘आप मेरी उम्र देखिए? इस उम्र में लड़के सुरक्षित भविष्य नहीं, सुंदर, जवान लड़की देखते हैं. उम्र थोड़ीबहुत भले ज्यादा हो लेकिन बाकी चीजें तो अनुकूल होनी चाहिए. मैं ने जब अपनी फैंटेसी में श्रद्धा कपूर बताया, तभी तुम्हें समझ जाना चाहिए था.’’

‘‘तुम सपनों की दुनिया से बाहर निकलो और हकीकत का सामना करो? मेरे साथ तुम्हें कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी. पैसों से ही जीवन चलता है और तुम मुझे यहां तक ला कर छोड़ नहीं सकते.’’

लड़के को उस अधेड़ स्त्री की बातों में लोभ के साथ कुछ धमकी भी नजर आई.

‘‘मैं अभी आई, जाना नहीं.’’ अपने भारीभरकम शरीर के साथ स्त्री उठी और लेडीज टौयलेट की तरफ बढ़ गई. लड़के की दृष्टि उस के पृष्ठभाग पर पड़ी. काफी उठा और बेढंगे तरीके से फैला हुआ था. लड़का इमेजिन करने लगा जैसा कि फैंटेसी करता था वह रात में.

लटकती, बड़ीबड़ी छातियों और लंबे उदर के बीच में वह फंस सा गया था और निकलने की कोशिश में छटपटाने लगा. कहां उस की वह सुंदर सपनीली दुनिया और कहां यह अधेड़ स्त्री. उस के होंठों की तरफ बढ़ा जहां बाहर निकले बड़बड़े दांतों को देख कर उसे उबकाई सी आने लगी. अपने सुंदर 20 वर्ष के बेटे को देख कर मां अकसर कहती थी, मेरा चांद सा बेटा. अपने कृष्णकन्हैया के लिए कोई सुंदर सी कन्या लाऊंगी, आसमान की परी. इस अधेड़ स्त्री को मां बहू के रूप में देखे तो बेहोश ही हो जाए?

लड़के को लगा फिर एक आंधी चल रही है और अधेड़ स्त्री के शरीर में वह धंसता जा रहा है. अधेड़ के शरीर पर लटकता हुआ मांस का पहाड़ थरथर्राते हुए उसे निगलने का प्रयास कर रहा है. उसे कुछ कसैलाविषैला सा लगने लगा. इस से पहले कि वह अधेड़ अपने भारीभरकम शरीर के साथ टौयलेट से बाहर आती, लड़का उठा और तेजी से बाहर निकल गया. उस की विशालता की विकरालता से वह भाग जाना चाहता था. उसे डर नहीं था किसी बात का, बस, वह अब और बरदाश्त नहीं कर सकता था.

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बाहर निकल कर वह स्टेशन की तरफ तेज कदमों से गया. उस के शहर जाने वाली ट्रेन निकलने को थी. वह बिना टिकट लिए तेजी से उस में सवार हो गया. सब से पहले उस ने इंटरनैट की दुनिया से अपनेआप को अलग किया. अपनी फेसबुक को दफन किया. अपना मेल अकाउंट डिलीट किया. अपने मोबाइल की सिम निकाल कर तोड़ दी. जिस से वह उस खूबसूरत लड़की से बातें किया करता था जो असल में थी ही नहीं. झूठफरेब की आभासी दुनिया से उस ने खुद को मुक्त किया. अब उसे घर पहुंचने की जल्दी थी, बहुत जल्दी. वह उन सब के पास पहुंचना चाहता था, उन सब से मिलना चाहता था, जिन से वह दूर होता गया था अपनी सोशल साइट, अपनी फेसबुक और ऐसी ही कई साइट्स के चलते.

वह उस स्त्री के बारे में बिलकुल नहीं सोचना चाहता था. उसे नहीं पता था कि लेडीज टौयलेट से निकल कर उस ने क्या सोचा होगा. क्या किया होगा? बिलकुल नहीं. लेकिन सुंदर लड़की बनी अधेड़ स्त्री तो जानती होगी कि जिस के साथ वह प्रेम की पींगे बढ़ा रही है, वह 20 वर्ष का नौजवान है और आमनासामना होते ही सारी बात खत्म हो जाएगी.

सोचा तो होगा उस ने. सोचा होता तो शायद वह बाद में स्थिति स्पष्ट कर देती या महज उस के लिए यह एक एडवैंचर था या मजाक था. कही ऐसा तो नहीं कि उस ने अपनी किसी सहेली से शर्त लगाई हो कि देखो, इस स्थिति में भी जवान लड़के मुझ पर मरते हैं. यह भी हो सकता है कि उसे लड़के की बेरोजगारी और अपनी सरकारी नौकरी के चलते कोई गलतफहमी हो गई हो. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह केवल शारीरिक सुख के लिए जुड़ रही हो, कुछ रातों के लिए.

हां, इधर लडके को याद आया कि उस ने तो शादी की बात की ही नहीं थी. वह तो केवल होटल में मिलने की बात कर रही थी. शादी की बात तो मैं ने शुरू की थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अधेड़ स्त्री अपने अकेलेपन से निबटने के लिए भावुक हो कर बह निकली हो. अगर ऐसा है, तब भी मेरे लिए संभव नहीं था. बात एक रात की भी होती तब भी मेरे शरीर में कोई हलचल न होती उस के साथ.

उसे सोचना चाहिए था. मिलने से पहले सबकुछ स्पष्ट करना चाहिए था. वह तो अपने ही शहर में थी, मैं ने ही बेवकूफों की तरह फेसबुक पर दिल दे बैठा और घर से झूठ बोल कर निकल पड़ा. गलती मेरी भी है. कहीं ऐसा तो नहीं…सोचतेसोचते लड़का जब किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा तो फिर उस के दिमाग में अचानक यह खयाल आया कि पिताजी के पूछने पर वह क्या बहाना बनाएगा और वह बहाने के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने लगा.

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फेसबुक फ्रैंडशिप : भाग 2

तब लड़के के मन में खयाल आया कि एक ही शहर के होने में बहुत समस्या है. जो लड़की की समस्या है वही लड़के की भी है. लड़के ने हिम्मत कर के पूछ तो लिया, लेकिन लड़की ने कहा कि फेसबुक फ्रैंड हो तो फेसबुक पर मिलो. अपनी बात कहने के बाद लड़के ने भी सोचा कि यदि उसे भी कोई घर का या परिचित देख लेता तो प्रश्न तो करता ही. भले ही वह कोई भी जवाब दे देता लेकिन वह जवाब ठीक तो नहीं होता. यह तो नहीं कह देता कि फेसबुक फ्रैंड है. बिलकुल नहीं कह सकता था. फिर बातें उठतीं कि जब इस तरह की साइड पर लड़कियों से दोस्ती हो सकती है तो और भी अनैतिक, अराजक, पापभरी साइट्स देखते होंगे.

ऐसे में दूसरे शहर की वीर, साहसी, दलबल, विचारधारा, जाति, धर्म सब देखते हुए जिस में चेहरे का मनोहारी चित्र तो प्रमुख है ही, फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी जाती है और लड़की की तरफ से भी तभी स्वीकृति मिलती है जब उस ने सारा स्टेटस, फोटो, योग्यता, धर्म, जाति आदि सब देख लिया हो. और वह भी किसी कमजोर व एकांत क्षणों से गुजरती हुई आगे बढ़ती गई हो. लड़की क्यों इतना डूबती जाती है, आगे बढ़ती जाती है. शायद तलाश हो प्रेम की, सच्चे साथी की. उसे जरूरत हो जीवन की तीखी धूप में ठंडे साए की.

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और जब बराबर लड़की की तरफ से उत्तर और प्रश्न दोनों हो रहे हो. मजाक के साथ, ‘‘मेरे मोबाइल में बेलैंस डलवा सकते हो?’’ और लड़के ने तुरंत ‘‘हां’’ कहा. लड़की ने हंस कर कहा कि मजाक कर रही हूं. तुम तो इसलिए भी तैयार हो गए कि इस बहाने मोबाइल नंबर मिल जाएगा. चाहिए नंबर?

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बात करने के लिए.’’

‘‘लेकिन समय, जो मैं बताऊं.’’

‘‘मंजूर है.’’

और लड़की ने नंबर भी भेज दिया. अब मोबाबल पर भी अकसर बातें होने लगीं. बातों से ज्यादा एसएमएस. बात भी हो जाए और किसी को पता भी न चले. बातें होती रहीं और एक दिन लड़की की तरफ से एसएमएस आया.

‘‘कुछ पूछूं?’’

‘‘पूछो.’’

‘‘एक लड़की में क्या जरूरी है?’’

‘‘मैं समझा नहीं.’’

‘‘सूरत या सीरत?’’

लड़के को किताबी उत्तर ही देना था हालांकि देखी सूरत ही जाती है. सिद्धांत के अनुसार वही उत्तर सही भी था. लड़के ने कहा, ‘‘सीरत.’’

‘‘क्या तुम मानते हो कि प्यार में उम्र कोई माने नहीं रखती?’’

‘‘हां,’’ लड़के ने वही किताबी उत्तर दिया.

‘‘क्या तुम मानते हो कि सूरत के कोई माने नहीं होते प्यार में?’’

‘‘हां,’’ वही थ्योरी वाला उत्तर.

और इन एसएमएस के बाद पता नहीं लड़की ने क्या परखा, क्या जांचा और अगला एसएमएस कर दिया.

‘‘आई लव यू.’’

लड़के की खुशी का ठिकाना न रहा. यही तो चाहता था वह. कमैंट्स, शेयर, लाइक और इतनी सारी बातें, इतना घुमावफिराव इसलिए ही तो था. लड़के ने फौरन जवाब दिया, ‘‘लव यू टू.’’

रात में दोनों की एसएमएस से थोड़ीबहुत बातचीत होती थी, लेकिन इस बार बात थोड़ी ज्यादा हुई. लड़की ने एसएमएस किया, ‘‘तुम्हारी फैंटेसी क्या है?’’

‘‘फैंटेसी मतलब?’’

‘‘किस का चेहरा याद कर के अपनी कल्पना में उस के साथ सेक्स…’’

लड़के को उम्मीद नहीं थी कि लड़की अपनी तरफ से सेक्स की बातें शुरू करेगी, लेकिन उसे मजा आ रहा था. कुछ देर वह चुप रहा. फिर उस ने उत्तर दिया, ‘‘श्रद्धा कपूर और तुम.’’

लड़की की तरफ से उत्तर आया, ‘‘शाहरुख.’’

फिर एक एसएमएस आया, ‘‘आज तुम मेरे साथ करो.’’ लड़की शायद भूल गई थी उस ने जो चेहरा फेसबुक पर लगाया है वह उस का नहीं है. एसएमएस में लड़की ने आगे लिखा था, ‘‘और मैं तुम्हारे साथ.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ लड़के का एसएमएस पर जवाब था.

‘‘ठीक है क्या? शुरू करो, इतनी रात को तो तुम बिस्तर पर अपने कमरे में ही होंगे न.’’

‘‘हां, और तुम?’’

‘‘ऐसे मैसेज बंद कमरे से ही किए जाते हैं. ये सब करते हुए हम अपने मोबाइल चालू रख कर अपने एहसास आवाज के जरिए एकदूसरे तक पहुंचाएंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ लड़के ने कहा. फिर उस ने अपने अंडरवियर के अंदर हाथ डाला. उधर से लड़की की आवाजें आनी शुरू हुईं. बेहद मादक सिसकारियां. फिर धीरेधीरे लड़के के कानों में ऐसी आवाजें आने लगीं मानो बहुत तेज आंधी चल रही हो. आंधियों का शोर बढ़ता गया.

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लड़के की आवाजें भी लड़की के कानों में पहुंच रही थीं, ‘‘तुम कितनी सुंदर हो. जब से तुम्हें देखा है तभी से प्यार हो गया. मैं ने तुम्हें बताया नहीं. अब श्रद्धा के साथ नहीं, तुम्हारे साथ सैक्स करता हूं इमेजिन कर के. काश, किसी दिन सचमुच तुम्हारे साथ सैक्स करने का मौका मिले.’’

लड़की की आंधीतूफान की रफ्तार बढ़ती गई, ‘‘जल्दी ही मिलेंगे फिर जो करना हो, कर लेना.’’

थोड़ी देर में दोनों शांत हो गए. लेकिन अब लड़का सैक्स की मांग और मिलने की बात करने लगा. जिस के लिए लड़की ने कहा, ‘‘मैं तैयार हूं. तुम दिल्ली आ सकते हो. हम पहले मिल लेते हैं वहीं से किसी होटल चलेंगे.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मुझे घर वालों से झूठ बोलना पड़ेगा और पैसों का इंतजाम भी करना पड़ेगा. हां, संबंध बनने के बाद शादी के लिए तुरंत मत कहना. मैं अभी कालेज कर रहा हूं. प्राइवेट जौब में पैसा कम मिलेगा. और आसानी से मिलता भी नहीं है काम, लेकिन मेरी कोशिश रहेगी कि…’’

लड़की ने बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम आ जाओ. पैसों की चिंता मत करो. मेरे पास अच्छी सरकारी नौकरी है. शादी कर भी ली तो तुम्हें कोई आर्थिक समस्या नहीं होगी.’’

‘‘मैं कोशिश करता हूं.’’ और लड़के ने कोशिश की. घर में झूठ बोला और अपनी मां से इंटरव्यू देने जाने के नाम पर रुपए ले कर दिल्ली चला गया. पिताजी घर पर होते तो कहते दिखाओ इंटरव्यू लैटर. लौटने पर पूछेंगे तो कह दूंगा कि गिर गया कहीं या हो सकता है कि लौटने पर सीधे शादी की ही खबर दें. लड़का दिल्ली पहुंचा 6 घंटे का सफर कर के.

घर पर तो जा नहीं सकते. घर का पता भी नहीं लिखा रहता है फेसबुक पर. सिर्फ शहर का नाम रहता है. यह पहले ही तय हो गया था कि दिल्ली पहुंच कर लड़का फोन करेगा. और लड़के ने फोन कर के पूछा, ‘‘कहां मिलेगी?’’

‘‘कहां हो तुम अभी?’’

‘‘स्टेशन के पास एक बहुत बड़ा कौफी हाउस है.’’

‘‘मैं वहीं पहुंच रही हूं.’’

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लड़के के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. उस के सामने लड़की का सुंदर चेहरा घूमने लगा. लड़के ने मन ही मन कहा, ‘‘कदकाठी अच्छी हो तो सोने पर सुहागा.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

फेसबुक फ्रैंडशिप : भाग 1

शुरुआत तो बस यहीं से हुई कि पहले उस ने फेस देखा और फिदा हो कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी. रिक्वैस्ट 2-3 दिनों में ऐक्सैप्ट हो गई. 2-3 दिन भी इसलिए लगे होंगे कि उस सुंदर फेस वाली लड़की ने पहले पूरी डिटेल पढ़ी होगी. लड़के के फोटो के साथ उस का विवरण देख कर उसे लगा होगा कि ठीकठाक बंदा है या हो सकता है कि तुरंत स्वीकृति में लड़के को ऐसा लग सकता है कि लड़की उस से या तो प्रभावित है या बिलकुल खाली बैठी है जो तुरंत स्वीकृति दे कर उस ने मित्रता स्वीकार कर ली.

यह तो बाद में पता चलता है कि यह भी एक आभासी दुनिया है. यहां भी बहुत झूठफरेब फैला है. कुछ भी वास्तविक नहीं. ऐसा भी नहीं कि सभी गलत हो. ऐसा भी हो सकता है कि जो प्यार या गुस्सा आप सब के सामने नहीं दिखा सकते, वह अपनी पोस्ट, कमैंट्स, शेयर से जाहिर करते हो. अपनी भावनाएं व्यक्त करने का साधन मिला है आप को, तो आप कर रहे हैं अपने को छिपा कर किसी और नाम, किसी और के फोटो या किसी काल्पनिक तसवीर से.

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यदि अपनी बात रखने का प्लेटफौर्म ही चाहिए था तो उस में किसी अप्सरा की तरह सुंदर चेहरा लगाने की क्या जरूरत थी? आप कह सकती हैं कि हमारी मरजी. ठीक है, लेकिन है तो यह फर्जी ही. आप साधारण सा कोई चित्र, प्रतीक या फिर कोई प्राकृतिक तसवीर लगा सकते थे. खैर, यह कहने का हक नहीं है. अपनी मरजी है. लेकिन जिस ने फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी उस ने उस मनोरम छवि को वास्तविक जान कर भेजी न आप को?

आप शायद जानती हो कि मित्र संख्या बढ़ाने का यही साधन है, तो भी ठीक है, लेकिन बात जब आगे बढ़ रही हो तब आप को समझना चाहिए कि आगे बढ़ती बात उस सुंदर चित्र की वजह से है जो आप ने लगाई हुई है अपने फेसबुक अकांउट पर. आप ने अपने विषय में ज्यादा कोई जानकारी नहीं लिखी. आप से पूछा भी मैसेंजर बौक्स पर जा कर. और पूछा तभी, जब बात कुछ आगे बढ़ गई थी. कोई किसी से यों ही तो नहीं पूछ लेगा कि आप सिंगल हो. और आप का उत्तर भी गोलमोल था. यह मेरा निजी मामला है. इस से हमारी फेसबुक फ्रैंडशिप का क्या लेनादेना?

बात लाइक और कमैंट्स तक सीमित नहीं थी. बात मैसेंजर बौक्स से होते हुए आगे बढ़ती जा रही थी. इतनी आगे कि जब लड़के ने मोबाइल नंबर मांगा तो लड़की ने कहा, ‘‘फोन नहीं, मेल से बात करो. फोन गड़बड़ी पैदा कर सकता है. किस का फोन था, कौन है वगैराहवगैरहा.’’

अब मेल पर बात होने लगी. शुरुआत में लड़के  ने फेस देखा. मित्र बन जाने पर लड़के ने विवरण देखा उसे पसंद आया. उसे किसी बात की उम्मीद जगी. भले ही वह उम्मीद एकतरफा थी. उसे नहीं पता था शुरू में कि वह जिस दुनिया से जुड़ रहा है वहां भ्रम ज्यादा है,  झूठ ज्यादा है. पहले लड़की के हर फोटो, हर बात पर लाइक, फिर अच्छेअच्छे कमैंट्स और शेयर के बाद निजी बातें जानने की जिज्ञासा हुई दोनों तरफ से. हां, यह सच है कि पहल लड़के की तरफ से हुई. लड़के ही पहल करते हैं. लड़कियां तो बहुत सोचनेविचारने के बाद हां या नहीं में जवाब देती हैं.

बात आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी लड़के पर ही आती है समाज, संस्कारों के तौर पर. तो शुरुआत लड़के ने ही की. इंटरनैट की दुनिया में आ जाने के बाद भी समाज, संस्कार नहीं छूट रहे हैं यानी 21वीं सदी में प्रवेश किंतु 19वीं सदी के विचारों के साथ. फेसबुक पर सुंदर चेहरे से मित्रता होने  पर लड़के के अंदर उम्मीद जगी. विस्तृत विवरण देख कर उस ने हर पोस्ट पर लाइक और सुंदर कमैंट्स के ढेर लगा दिए. बात इसी तरह धीरेधीरे आगे बढ़ती रही. लड़की के थैंक्स के बाद जब गुडमौर्निंग, गुडइवनिंग और अर्धरात्रि में गुडनाइट होने लगी तो किसी भाव का उठना, किसी उम्मीद का बंधना स्वाभाविक था. लगता है कि दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई है. लड़के को तो यही लगा.

लड़के ने विस्तृत विवरण में जाति, धर्म, शिक्षा, योग्यता, आयु सब देख लिया था. पूरा स्टेटस पढ़ लिया था और उस को ही अंतिम सत्य मान लिया था. जो बातें स्टेटस मेें नहीं थीं, उन्हें लड़का पूछ रहा था और लड़की जवाब दे रही थी. जवाब से लड़के को स्पष्ट जानकारी तो नहीं मिल रही थी लेकिन कोई दिक्कत वाली बात भी नजर नहीं आ रही थी. फेसबुक पर ऐसे सैकड़ों, हजारों की संख्या में मित्र होते हैं सब के. आमनेसामने की स्थिति न आए, इसलिए एक शहर के मित्र कम ही होते हैं. होते भी हैं तो लिमिट में बात होती है. सीमित लाइक या कमैंट्स ही होते हैं खास कर लड़केलड़की के मध्य.

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लड़का छोटे शहर का था. विचार और खयालात भी वैसे ही थे. लड़कियों से मित्रता होती ही नहीं है. होती है तो भाई बनने से बच गए तो किसी और रिश्ते में बंध गए. नहीं भी बंधे तो सम्मानआदर के भारीभरकम शब्दों या किसी गंभीर विषय पर विचारविमर्श, लाइक, कमैंट्स तक. ऐसे में और उम्र के 20वें वर्ष में यदि किसी दूसरे शहर की सुंदर लड़की से जब बात इतनी आगे बढ़ जाए तो स्वाभाविक है उम्मीद का बंधना.

फोटो के सुंदर होने के साथसाथ यह भी लगे कि लड़की अच्छे संस्कारों के साथसाथ हिम्मत वाली है. किसी विशेष राजनीतिक दल, जाति, धर्म के पक्ष या विपक्ष में पूरी कट्टरता और क्रोध के साथ अपने विचार रखने में सक्षम है और आप की विचारधारा भी वैसी ही हो. आप जब उस की हर पोस्ट को लाइक कर रहे हैं तो जाहिर है कि आप उस के विचारों से सहमत हैं. लड़की की पोस्ट देख कर आप उस के स्वतंत्र, उन्मुक्त विचारों का समर्थन करते हैं, उस के साहस की प्रशंसा करते हैं और आप को लगने लगता है कि यही वह लड़की है जो आप के जीवन में आनी चाहिए. आप को इसी का इंतजार था.

बात तब और प्रबल हो जाती है जब लड़का जीवन की किसी असफलता से निराश हो कर परिवार के सभी प्रिय, सम्माननीय सदस्यों द्वारा लताड़ा गया हो, अपमानित किया गया हो, अवसाद के क्षणों में लड़के ने स्वयं को अकेला महसूस किया हो और आत्महत्या करने तक का विचार मन में आ गया हो. तब जीवन के एकाकी पलों में लड़के ने कोई उदास, दुखभरी पोस्ट डाली हो. लड़की ने पूछा हो कि क्या बात है और लड़के ने कह दिया हाले दिल का. लड़की ने बंधाया हो ढांढ़स और लड़के को लगा हो कि पूरी दुनिया में बस यही है एक जीने का सहारा.

लड़के ने पहले अपने ही शहर में महिला मित्र बनाने का प्रयास किया था, जिस में उसे सफलता भी मिली थी. लड़की खूबसूरत थी. पढ़ीलिखी थी. स्टेटस में खुले विचार, स्वतंत्र जीवन और अदम्य साहस का परिचय होने के साथ कुछ जबानी बातें भी थीं. लड़के ने इतनी बार उस लड़की का फोटो व स्टेटस देखा कि दोनों उस के दिलोदिमाग में बस गए. फोटो कुछ ज्यादा ही. अपने शहर की वही लड़की जब उसे रास्ते में मिली तो लड़के ने कहा, ‘‘नमस्ते कल्पनाजी.’’

लड़की हड़बड़ा गई, ‘‘आप कौन? मेरा नाम कैसे जानते हैं?’’

लड़के ने खुशी से अपना नाम बताते हुए कहा, ‘‘मैं आप का फेसबुक फ्रैंड.’’

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और लड़की ने गुस्से में कहा, ‘‘फेसबुक फ्रैंड हो तो फेसबुक पर ही बात करो. घर वालों ने देख लिया तो मुश्किल हो जाएगी. उन्हें फेसबुक का पता चलेगा तो वह अकाउंट भी बंद हो जाएगा. चार बातें अलग सुनने को मिलेंगी. वे कहेंगे स्वतंत्रता दी है तो इस का यह मतलब नहीं कि तुम लड़कों से फेसबुक के जरिए मित्रता करो. उन से मिलो…और प्लीज, तुम जाओ यहां से, मैं नहीं जानती तुम्हें. क्या घर से मेरा निकलना बंद कराओगे? घर पर पता चल गया तो घर वाले नजर रखना शुरू कर देंगे.’’ फिर, घर वालों का प्रेम, विश्वास और भी बहुतकुछ कह कर लड़की चली गई.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

 

रहने दो इन सवालों को : भाग 4

रिजवाना के कमरे में 3 और लड़कियां थीं, जिन्हें बाहर कर दिया गया था. शशांक बुरी तरह रिजवाना को जलील कर रहा था और उसे शारीरिक चोट भी पहुंचाई थी. मृगांक तुरंत रिजवाना को अपनी तरफ खींचते हुए अभी कुछ कहता, उस से पहले गगन त्रिपाठी मृगांक पर बुरी तरह चीखे, ‘‘क्या रासलीला चल रही है यहां मुसलिम वेश्या के साथ?’’ साफ शब्दों में मगर ऊंची आवाज में मृगांक ने कहा, ‘‘मुझे उम्मीद नहीं थी कि आप लोग मुझे इतना अपना समझते हैं कि यहां तक पहुंच जाएंगे. नीति, ज्ञान और सचाई को सीढ़ी बना कर आप लोगों ने लोगों के सरल विश्वास का जितना बलात्कार किया है उतना ही इन मासूम लड़कियों के साथ हुआ है. छोटी बच्चियों को मांस के भाव खरीदबिक्री करने वाले लोग भी आप जैसे हैं और उन की बोटी नोचने वाले भी आप जैसे. धर्म की आड़, कभी जाति की आड़, कभी संस्कृति की आड़ में बस लोगों के झांसे में आने की देर है, आप उन के विश्वास का शोषण भी करते हैं और उन के उद्धार करने का श्रेय भी स्वयं लेते हैं.’’

गगन त्रिपाठी की पूरी पौलिश उतर चुकी थी. वे क्रोधित हो सभी को ले वहां से निकल गए. उन के जाने के बाद रिजवाना की ओर देखा मृगांक ने. मृगांक की तरफ पीठ कर के वह बगीचे में शांति से खड़े पेड़ों को देख रही थी. फल हो या छाया, हमेशा सबकुछ लुटाने को तैयार थे पेड़, मगर हमेशा हर व्यवहार को सहन कर जाने को विवश भी. उस की पीठ की आधी फटी कुरती की ओर नजर गई मृगांक की. शशांक ने कुरती को फाड़ डाला था. झक गोरी पीठ पर झुलसे हुए इलैक्ट्रिक शौक के दाग. मृगांक करुणा से भर उठा. अब तक छोटी बच्चियों के प्रति उस के मन में हमेशा पिता सा वात्सल्य रहा. लेकिन रिजवाना ने अपनी दृष्टि से मृगांक की अनुभूतियों को विराग से रागिनी के मदमाते निर्झर की ओर मोड़ दिया था.

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नेहभरे स्वर में पुकारा उस ने, ‘‘रिजवाना.’’ वह अब तक खिड़की के पास खड़ी बाहर देख रही थी. पुकारते ही आंखों में मूकभाषा लिए अपनी मुखर दृष्टि उस की आंखों में डाल दी.

मृगांक ने पूछा, ‘‘बताओगी तुम्हारी पीठ पर जो झुलसे हुए दाग हैं, क्या ये उन्हीं दरिंदों की वजह से हैं.’’

‘‘हां, भूखे भेडि़यों के आगे शरीर न डालने की बेकार कोशिशों का नतीजा. और भी हैं, पेट के पास,’’ यह कह कर उस ने अपनी कमीज उठा कर दिखाई. फिर धीरे से कहा, ‘‘जाने क्यों मैं आप के सामने खुद को बहुत महफूज समझती हूं. लगता है जैसे…’’ और उस ने सिर झुका लिया. रिजवाना के अनकहे शब्दों की गरमी मृगांक के जज्बातों को पिघलाने लगी. मृगांक स्थिर नेत्रों से उस की ओर देखता रहा. एक नशा सा छाने लगा, कहा, ‘‘और कहो.’’ ‘‘मैं आप के पास रहना चाहती हूं हमेशा के लिए. जानती हूं, यह कहां मुमकिन होगा- आप ब्राह्मण और मैं मुसलमान, वह भी मैं बदनाम.’’

‘‘बस, यह मत कहो. जाति, धर्म और पेशे से इंसान कभी इंसान नहीं होता, न कोई इन्हें मानने से पाक होता है. जो दिल दूसरों के दर्द में पसीजे और दूसरों को हमेशा अपने प्रेम के काबिल समझे, बराबर समझे, वहीं इंसान है. और इस लिहाज से तुम पाक हो, प्यार के काबिल हो. लेकिन, एक दिक्कत है.’’ यह सुन कर आंखों में रिजवाना के खुशियां तैरने लगी थीं. अचानक वह खुशियों में डूबने लगी, पूछा, ‘‘क्या?’’

‘‘मैं तुम से उम्र में 20 साल बड़ा हूं. तुम्हारे साथ जुल्म न हो जाएगा? कैसे चाह सकोगी मुझे?’’ ‘‘सच कहूं तो उम्र का यह फासला आप की शख्सियत में रूमानियत भरता है.’’

उस ने अपनी आंखें झुका लीं. मृगांक ने अपनी दोनों बांहें उस की ओर पसार दीं. रिजवाना अपने दोनों बाजुओं के घेरे में मृगांक को ले कर खुद उस में समा गई. एक महीने के भीतर ही दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली. दोनों मिल कर नवलय का काम देखने लगे. इन दोनों की शादी की बात गगन त्रिपाठी तक पहुंच चुकी थी. गगन त्रिपाठी अब सांसद बनने की तैयारी में थे, बड़ा बेटा विधायक. ब्राह्मण की ऊंची नाक की इस बेटे ने ऐसीतैसी कर दी तो सीधा असर वोटबैंक पर आ पड़ा. कम से कम मुसलिम वोट और देहव्यापार तथा नाचगाने करने वाली औरतों के वोट गगन त्रिपाठी को मिल जाएं तो ब्राह्मण वोट के खिसकने का दर्द कुछ कम हो. इस बीच, ब्राह्मण वोटर मान जाएं तो वारेन्यारे.

गगन त्रिपाठी सदलबल पहुंच गए चिल्लाघाट. पंचायतसभा बुलाई गई. रिजवाना के भाई को नौकरी, गांव में 2 हैंडपंप, बिजली की व्यवस्था तत्काल करवाई गई.

पंचायत और मुसलिम समाज के साथ चर्चा कर के इस नतीजे पर पहुंचा गया कि रिजवाना गांव की बेटी है, जब इस गांव की बेटी गगन त्रिपाठी के घर की बहू बन गई है तो उसे बदनाम औरत न समझ, पूरी इज्जत बख्शी जाए. अगर त्रिपाठी की पार्टी को जिताने का वादा किया जाए तो गांव के लोगों की मुंहमांगी मुराद पूरी होगी.

उधर, मुसलिम भाई, जो रिजवाना के साथ हाथापाई में उतरे थे, अब उस की बदौलत बांदा की कुछ मुख्य सीटों पर त्रिपाठी की पार्टी से खुद के भाईभतीजों को उतारना चाहते थे, आपस में जबरदस्त गठबंधन.

मृगांक और रिजवाना को हिंदुमुसलिम एकता का प्रतीक बना कर चुनावी रणनीति तैयार होने लगी. बड़ेबड़े होर्डिंग्स में दोनों की तसवीरें लग गईं. उन दोनों को सार्वजनिक चुनावी सभा में उपस्थित होने का निमंत्रण भेजा गया.

मंच पर आज मृगांक, रिजवाना और उस की बेटी शीरी उपस्थित थे. काफी लुभावने भाषणों के बाद मृगांक की बारी आई. उस ने माइक संभाला, कहा, ‘‘आज जो भी मैं कहूंगा, जरूरी नहीं कि उस से सब के मनोरथ पूरे हो पाएं. मैं ने रिजवाना से इसलिए शादी नहीं की कि मुझे हिंदूमुसलिम एकता के झंडे गाड़ने थे. सच कहूं तो जातिधर्म को ले कर मैं कोई भेद महसूस नहीं करता, जो जोड़ने की जुगत करूं. उस का मुसलिम होना, मेरा हिंदू होना सबकुछ सामान्य है मेरे लिए, जैसे इंसान होना. यह भी नहीं कि लाचार औरत पर मैं ने कोई कृपा बरसाई है. उस ने मुझे पसंद किया, मैं ने उसे. उम्र का फासला उसे डिगा नहीं पाया और हम एक हो गए. और हमारी बेटी, जो उस के किसी पाप का नतीजा नहीं है, हमदोनों के प्रेम में माला सी है. मेरे पिता मुझे हमेशा बड़ा आदमी बनने की नसीहत देते थे. उन्हें अफसोस होगा उन के हिसाब से मैं बड़ा नहीं बन पाया.’’

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रिजवाना की गोद से मृगांक ने बच्ची को लिया, रिजवाना का हाथ पकड़ा और स्टेज से उतर कर दोनों ने राह पकड़ी अपने तरीके से अपनी दुनिया बसाने की सोची.

रहने दो इन सवालों को : मृगांक की कैसी थी जिंदगी

रहने दो इन सवालों को : भाग 3

रिजवाना जमीन की ओर देखती, कहती गई, ‘‘ग्राहक के साथ सोने की जबरदस्ती, पैसे वे लोग रखेंगे, हम बस उन के गुलाम. जब तक हम कहीं और न बिकें, उन के लाए ग्राहकों को खुश करें. और उन्हें भी.’’ मृगांक ने पूछा, ‘‘तुम घर से निकल कर उन तक पहुंची कैसे?’’

‘‘आप को मालूम होगा, बांदा जिले में शजर पत्थरों के नक्काशीदार गहने बड़े भाव से बिकते हैं. मैं शजर पत्थरों से गहने बनाती थी, रोजीरोटी के लिए. ‘‘घर में मुझे मिला कर 3 बहनें थीं. एक भाई भी. अब्बा कौटन मिल में मजदूरी करतेकरते फेफड़े की बीमारी से चल बसे. भाई काम पर तो जाता लेकिन उम्र कम होने की वजह से मजदूरी नहीं मिलती थी. बहनों को घर पर काम होता था. 4 साल पहले जब मैं 16 साल की थी, सोचा शजर पत्थरों से गहने अच्छी बनाती हूं, क्यों न शहर में बेचा करूं, पैसे आएंगे.

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‘‘चिल्लाघाट से बांदा मुख्य बाजार आने के लिए बस पर चढ़ी, तभी अचानक किसी ने नाक पर रूमाल रख दिया. जब होश आया, खुद को होटल के कमरे में 4 लोगों के साथ पाया. कोठे में बेच दी गई. बेटी शीरी वहीं हुई. ‘‘अचानक उस कोठे पर पुलिस और महिला सुरक्षा संस्थान की दबिश पड़ी तो कोठे की मालकिन ने इन लोगों के हाथों हम 15 लड़कियों को बेच दिया था. हम महीनेभर से यहीं इलाहाबाद में थे.’’

‘‘चलो, एकबार कोशिश करते हैं. तुम्हारे घर वालों तक तुम्हें पहुंचाना मेरा काम है. स्वीकार न किए जाने पर नवलय तो है ही.’’ केन नदी के किनारे से मृगांक की जीप दौड़ती जा रही थी.

भुरागढ़ किला और विंध्य पठारों के पास से गुजरती जीप पर बैठे रिजवाना और मृगांक किले को ही एकटक देख रहे थे. मृगांक ने पूछा, ‘‘जानती हो इस भुरागढ़ किले के बारे में?’’ रिजवाना उदासीन थी, कहा, ‘‘ज्यादा नहीं, आप ही बताइए.’’

‘‘महाराजा धनसाल के बेटे जगत राई और उन के बेटे थे किराट सिंह. उन्हीं किराट सिंह ने यह किला बनवाया था. 1857 में नवाब अली बहादुर ने यहीं से ब्रिटिश अधीनता के विरुद्ध बिगुल फूंका था.’’

‘‘हूं,’’ रिजवाना दूर काली मिट्टी और उस पर उपजे सरसों, मटर, गेहूं के खेतों में कहीं खो गई थी. यमुना और केन की मिलनरेखा दूर से दिखने लगी थी. चिल्लाघाट आने को था, शाम की सुरमई शांति में दूर से फाग गीतों के धुन कानों में पड़ रहे थे. धर्म के मोह से ऊपर उठ कर फाग ने यौवन की मादकता को पुकारा था.

रिजवाना बचपन के दिनों की इस मनोरम जगह पर मृगांक की उपस्थिति से प्रफुल्लित सी सिहर गई. गोद में बच्ची और गांवघर के लोगों का अचानक खयाल आना उसे मायूस कर गया. रिजवाना के छोटे से घरआंगन में तब दीपक की रोशनी टिमटिमा रही थी. दोनों बहनें खाना बना रही थीं. भाई चारपाई पर लेटा था. बहन को देख दोनों बहनें दौड़ी आईं. लेकिन रिजवाना की गोद में बच्ची को देख दोनों ठिठक गईं. भाई चारपाई से उठ बैठा. मगर, बस बैठा देखता रहा. दोनों बहनें मां को बुला लाईं जो अंदर कढ़ाई और कशीदे का काम कर रही थीं. मृगांक के साथ उस की अम्मी की बातों का सार यही रहा कि एक बेटी के चलते शबाना और अमीना, जिन का निकाह होना लगभग तय है, की जिंदगियों पर पानी फिर जाएगा. ऊपर से इस की गोद में हराम की औलाद. गांव वाले हुक्कापानी बंद कर देंगे. ऐसे भी, बेटी की गुमशुदगी से कम जिल्लतें नहीं हुई हैं.

मृगांक समझ गया कि दाल नहीं गलेगी. कम से कम सुबह तक तो ठहरें. इलाहाबाद से बांदा तक

7 घंटे के सफर के बाद अब रात को वापस जाना मुमकिन नहीं. इधर, रिजवाना को ले कर या छोड़ कर अपने घर जाना भी संभव नहीं. अम्मी ने रातभर के लिए खाना भी मुहैया कराया और पनाह भी. सुबह दोनों निकलने वाले ही थे कि चिल्लाघाट पंचायत के 4 लोग दनदनाते सुबह 7 बजे इन के घर पहुंच गए. एक ने चीखा, ‘‘अंदर नापाक औरत के साथ क्या गुल खिला रहे हो, मृगांक बाबू? इतने बड़े नेता के बेटे हो कर भगोड़ी के साथ नापाक रिश्ता?’’

वे लोग रिजवाना को अब तक बाहर खींच लाए थे. रिजवाना की अम्मी दहाड़े मार कर रोने लगीं. बहनों ने उन्हें डपटा, तो चुप हो गईं. मृगांक ने बाहर आ कर उन्हें रोकने के लिए कहा, ‘‘क्यों मासूम परिवार को सता रहे हो आप लोग? मुझे अपने पिताजी के काम से अब कोई मतलब नहीं.’’

पंचायत के एक आदमी ने कहा, ‘‘सात घाट का पानी पीने के लिए घर से भाग खड़ी हुई और अब नापाक हो कर वापस लौटी है. हमारे मजहब में ऐसी औरतों को बागी मान कर सजा के लायक माना गया है.’’ इतना कहते हुए उन लोगों ने उस की चुन्नी नीचे खींच दी और उस के हाथों को मरोड़ कर खुद के करीब ले आए. मृगांक ने झपट कर रिजवाना को अपने पास खींचा और चीखा, ‘‘शर्म नहीं आती लड़की की इज्जत उतार कर गांव की इज्जत बचा रहे हो?’’

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‘‘बात आप के पिताजी तक पहुंचेगी. आप लड़की हमें सौंप दें तो हम आप को और आप के इस लड़की के साथ ताल्लुकात को हजम कर जाएंगे.’’ ‘‘नापाक कौन है मैं समझ नहीं पा रहा- लड़की को सौंप दूं- ताकि आप शौक से इस की बोटी नोचें. कह दें गगन त्रिपाठीजी से, मुझे कोई दिक्कत नहीं,’’ मृगांक ने साफ कहा.

वे दोनों इलाहाबाद वापस आ गए थे. दोनों के रिश्तों के बारे में इतने कसीदे काढ़े गए थे कि गगन त्रिपाठी और उन के बड़े बेटे शशांक आपे से बाहर हो गए. रिश्तेदारों में मृगांक के सामाजिक कामों को ले कर बड़ी छीछालेदार हुई. अब लेदे कर वेश्या ही बची थी, सपूत ने वह भी पूरा कर दिया. जातिबिरादरीधर्म सबकुछ उजड़ गया था त्रिपाठीजी का. ब्राह्मण बिरादरी गगन त्रिपाठी पर बड़ा गर्व करती थी. कैसा दिमाग चला कर सत्ता के करीबी हो गया उन की ही बिरादरी का व्यक्ति. गगन त्रिपाठी अपनी जातिबिरादरी के गर्व थे. अब बेटे ने कुजात की लड़की की संगत कर के धर्मभ्रष्ट कर दिया. गगन त्रिपाठी जितना सोचते, उन का पारा उतना सातवें आसमान पर पहुंच जाता. सदलबल बड़े बेटे को साथ ले वे इलाहाबाद पहुंच गए.

नवलय संस्थान पर त्रिपाठीजी और उन के लोगों का जब धावा पड़ा तब मृगांक के वापस आने में एक घंटा बाकी था. उन के इस तरह यहां आने से यहां की दीदियां घबरा गईं. सहयोगी नेकराम ने मृगांक को फोन लगाया. जब तक मृगांक यहां पहुंचे, शशांक रिजवाना के कमरे में घुस आया था.

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रहने दो इन सवालों को : भाग 2

इधर एक भी ईंट भरभरी हुई, तो पूरी मीनार के ढहने का अंदेशा हो जाता है. बेटे तो नींव की ईंटें हैं, चूलें हिल जाएंगी. यह अनाड़ी तो बिना भविष्य बांचे दरदर लोगों की भलाई किए फिरता है. दिमाग ही नहीं लगाता कि जहां भलाई कर रहा है वहां फायदा है भी या नहीं. न जाति देखता, न धर्म, न विरोधी पार्टी, न विरोधी लोग. कोई भेदविचार नहीं. सत्यवादी हरिश्चंद्र सा आएदिन सत्य उगल देता है जो अपनी ही पार्टी के लिए खतरे का सिग्नल बन जाता है. सो, क्यों न इस लड़के को यहां से निकाल कर इलाहाबाद भेज दिया जाए. कम से कम इस से उस का भला हो न हो, पार्टी को नुकसान तो कम होगा. ऐसे भी इस लड़के के आसार सुख देने वाले तो लगते नहीं. काफीकुछ भलेबुरे का सोच गगन त्रिपाठी बेटे मृगांक को आईएएस की तैयारी करने के लिए इलाहाबाद छोड़ आए. जिस के पंख निकले ही थे दूसरों को मंजिल तक पहुंचाने के लिए, वह क्या दूसरों के पंख कुतरेगा खुद की भलाई के लिए?

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मृगांक इलाहाबाद में भी अपने ही तौरतरीकों में रम गया. इतिहास में पीएचडी करते हुए विश्वविद्यालय में ही प्रोफैसर हो गया. आईएएस की कोचिंग से निसंदेह उस में ज्ञान के प्रति ललक बढ़ी थी और मानव जीवन के प्रति जिज्ञासा भी. लिहाजा, सामाजिक कार्यों की उस की फेहरिस्त बड़ी लंबी थी. 29 वर्ष की अवस्था में वह 700 मुकदमे लड़ रहा था जो उपभोक्ता संरक्षण से ले कर सड़क परिवहन व्यवस्था में सुरक्षा की अनदेखी, शिक्षा के गिरते स्तरों में प्राइवेट स्कूलों की उदासीनता और सरकारी स्कूलों में लापरवाही तथा देहव्यापार में लिप्त लोगों को कानूनी दायरे में ला कर सजा दिलवाने व इस व्यापार में लगी मासूम बच्चियों के संरक्षण वगैरा के मामले थे. प्रोफैसर की नौकरी बजाते हुए अकेले ही कुछ अच्छे लोगों के सहयोग से वह इन कामों को आगे बढ़ा रहा था. हां, उस के दादाजी का कभी पुलिस विभाग में होना उसे पहचान का लाभ जरूर देता था. न जाने पहचान का लाभ लोग किसकिस वजह लेते हैं, मृगांक के लिए तो यह लाभ सिर्फ सर्वजनहिताय था.

5 फुट 10 इंच की लंबाई के साथ बलिष्ठ कदकाठी में सांवला रंग आकर्षण पैदा करता था उस में. रूमानी व्यक्तित्व में निर्विकार भाव. दिनभर क्लास, फिर दोपहर 3 बजे से शाम 8 बजे तक भागादौड़ी और रात अपनी छोटी सी कोठरी में अध्ययन, चिंतन, मनन व निद्रा. घरपरिवार, राजनीति, रिश्तों के मलाल, आदेशनिर्देश, लाभनुकसान सब पीछे छूट गए थे.

शादी के लिए घर वालों ने कितनी ही लड़कियों की तसवीरें भेजीं, मां ने कितने ही खत लिखे. दीदी ने सैकड़ों बार फोन किए. मगर मृगांक की आंखें लक्ष्य पर अर्जुन सी टिकी रहीं. उधर, बांदा में पिता की राजनीतिक ताकत और बड़े भाई का राजपाट मृगांकनुमा बाधा के बिना बेरोकटोक फलफूल रहे थे. भाई की पत्नी ऊंचे घराने की बेटी थी जो बेटा पैदा कर के ससुर की आंखों का तारा बन बैठी थी.

जिंदगी की रफ्तार तेज थी, एकतरफ लावलश्कर के साथ ठसकभरी जिंदगी, दूसरी तरफ मृगांक के कंधों पर जमानेभर का दर्द. मगर सब अपनी धुन में रमे थे. मृगांक भी लक्ष्य की ओर दौड़ रहे थे मगर निजी जिंदगी से बेखबर.

इन दिनों उस ने ‘नवलय’ संस्थान की शुरुआत की. दरअसल, देहव्यापार से मुक्त हुई लड़कियां काफी असुरक्षित थीं. एक तरफ उन लोगों से इन्हें खतरा था जो इन्हें खरीदबेच रहे थे. दूसरे, घर परिवार इन लड़कियों को सहज स्वीकार नहीं करते थे, जिन के लिए अकसर वे अपनी जिंदगियां दांव पर लगाती रही थीं. ऐसे में मृगांक खुद को जिम्मेदार मान इन लड़कियों की सुव्यवस्था के लिए पूरी कोशिश करता. नवलय इन असुरक्षित लड़कियों का सुरक्षित आसरा था. मृगांक ने बांदा जिले के चिल्लाघाट की रिजवाना को कल घर पहुंचाने की जिम्मेदारी ली थी. इस बहाने वह मां से भी मिल लेगा. कई साल हो गए थे घर गए हुए. बड़े भाई का बेटा भी अब 7 साल का हो चुका था.

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शाम 5 बजे जब वह नवलय आया, तो नीम के पेड़ के पास खड़े हो कर रिजवाना को घुटघुट कर सुबकते देखा. वह संस्थान के औफिस में जा कर बैठ तो गया लेकिन मन उस का रिजवाना की ओर ही लगा रहा. अपने औफिसरूम से अब भी वह रिजवाना और उस की उदास भंगिमा को देख पा रहा था. चेहरा मृगांक का जितना ही पौरुष से भरा था, भावनाएं उस की उतनी ही मृदुल थीं. रसोइए कमल को बुला कर कहा कि वह रिजवाना को बुला लाए. रिजवाना की रोनी सूरत देख वैसे तो उस का मिजाज उखड़ गया था, सो जरा सी डपट के साथ समझाने के लहजे में उस ने कहा, ‘‘जब घर से बाहर आ ही गई हो, काफी मुसीबतें झेल भी चुकी हो, तो अब रोना क्या? अब तो हम तुम्हारे घर जा ही रहे हैं.’’

गहरी चुप्पी. ‘‘क्यों, कुछ कहोगी?’’

चुप्पी… ‘‘देखो, मैं थप्पड़ जड़ दूंगा,’’ थकामांदा मृगांक आजकल कुछ चिड़चिड़ा सा हो रहा था. मृगांक के मुख से यह सुनते ही गुस्से से भर रिजवाना ने मृगांक की तरफ देखा. रोने से आंखें कुछ सूजी हुई थीं, मगर दृष्टि स्पष्ट. गोरे से रक्तिम चेहरे पर अनगिनत भाव, जिन में स्वाभिमान सब से मुखर था. तीखे नैननक्श, गोलाई में नुकीला चेहरा, ठुड्डी तक हीरे सी कटिंग. मृगांक के कंधे तक उस की ऊंचाई. दुबली ऐसी, कि वक्त की रेत ने चंचल नदी के किनारों को पाट दिया हो जैसे. नदी आधी जरूर हो गई थी, मगर प्यार और संभाल की बारिश मिले तो वह आबाद हो जाए.

मृगांक का गुस्सा उस के रूमानी नखरों के बीच काफूर हो गया. मन ही मन उस ने कहा, ‘वाह.’ एक मिनट तक दोनों एकदूसरे की ओर देखते रहे. मृगांक ने चुप्पी तोड़ी, कहा, ‘‘क्या बात है, मुझ से कहो. यहां की सारी बच्चियों के लिए मैं ही पिता, मैं ही मां. तुम्हारी भी अगर…’’

‘‘मेरे हिस्से का रिश्ता मुझे तय करने दीजिए. जरूरी नहीं कि तुरंत 2 व्यक्तियों को किसी रिश्ते के नाम में बांध ही दिया जाए.’’ रिजवाना की इन बातों में बड़ी कशिश थी. वह क्या अनछुआ सा था अब तक जिसे छूने की प्यास सताने लगी मृगांक को. कभी ऐसा महसूस तो नहीं हुआ था उसे, आज क्यों…?

मृगांक ने मुसकराते हुए उस की तरफ देखा, फिर कहा, ‘‘क्यों दुखी हो, मुझ से कहो.’’ तड़पती सी वह धीरे से बोली, ‘‘मैं अपने घर चिल्लाघाट नहीं जाऊंगी. बच्ची को ले कर वहां जाऊंगी तो घर वाले तो क्या, पूरे गांव वाले कच्चा चबा जाएंगे.’’

मृगांक को बड़ा तरस आया उस पर. पूछा, ‘‘क्या हुआ था तुम्हारे साथ? मैं ने पुलिस की दबिश डलवा कर तुम 15 लड़कियों को जहां से छुड़ाया, वह तो नरक से कुछ कम नहीं था. इन में से कई लड़कियां असम, बिहार और पश्चिम बंगाल से लाई गई हैं. तुम और 3 दूसरी लड़कियां उत्तर प्रदेश की हो. ये लोग दुबई आदि जगहों पर शेखों के पास तुम जैसी लड़कियों को बेच देते हैं.’’

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‘‘3 महीनों से हमें इलाहाबाद में रखा हुआ था. हमारे साथ यहां बहुत बुरा सुलूक होता था. करंट देने से ले कर कोड़े बरसाने तक. 3-4 दिनों तक खाना नहीं देना, सब के सामने कपड़े फाड़ डालना, मारना, पीटना आदि.’’ रिजवाना की बातें सुन कर मृगांक की आंखों में दर्द भर आया. उस ने तड़प कर पूछा, ‘‘क्यों?’’

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रहने दो इन सवालों को : भाग 1

‘भाइयो और बहनो, मैं अदना सा गगन त्रिपाठी, महान बांदा जिले के लोगों का अभिवादन करता हूं. यहां राजापुर गांव में गोस्वामी तुलसीदास ने जन्म ले कर देश के इस हिस्से की धरती को तर दिया था. वहीं, यह जिला मशहूर शायर मिर्जा गालिब का कितनी ही बार पनाहगार रहा है. उसी बांदा जिले के बाश्ंिदों को अच्छेबुरे की मैं क्या तालीम दूं? वे खुद ही जानते हैं कि इस जिले का समुचित विकास कौन कर सकेगा, हिंदूमुसलिम एकता को बरकरार रख दोनों की तहजीबों को कौन सही इज्जत देगा, यमुना को प्रदूषण से कौन बचाएगा, केन नदी की धार को कौन फसलों की उपज के बढ़ाने के काम में लाएगा. कहिए भाइयोबहनो, कौन करेगा ये सब?’ गगन चीरने वाले नारों के बीच गगन त्रिपाठी का चेहरा दर्प से दमकने लगा. सभी ऊंची आवाजों में दोहरा रहे थे, गगन त्रिपाठी जिंदाबाद, लोकहित पार्टी जिंदाबाद.

भीड़ में पहली लाइन की कुरसी पर बैठा 13 साल का मृगांक पिता के ऊंचे आदर्शों और महापुरुषों से संबंधित बातों को अपने जज्बातों में शिद्दत से पिरो रहा था. वह पिता गगन त्रिपाठी के संबोधनों और भाषणों से खूब प्रेरित होता है. अकसर उन के भाषणों में गांधी, ज्योतिबा फूले और मदर टेरेसा का जिक्र होता, वे इन के कामों की प्रशंसा करते, लोगों से उन सब की जीवनधारा को अपनाने की अपील करते. बांदा जिले के प्रसिद्ध राजनीतिक परिवार से है मृगांक. उस के दादाजी पुलिस विभाग में अफसर थे. मृगांक के पिता गगन त्रिपाठी को नौकरी में रुचि नहीं थी.

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गगन त्रिपाठी के होने वाले ससुरजी की राजनीतिक पैठ के चलते मृगांक के दादा के पास उन का आनाजाना लगा रहता, सरकारी अफसरशाही से राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश. इधर, पिता के अफसरी अनुशासन की वजह से गगन त्रिपाठी अपने पिता से कुछ खिंचे से रहते. घर आतेजाते भावी ससुरजी को गगन में उन का पसंदीदा राजनीतिज्ञ नजर आया. उन्होंने देर किए बिना, गनन त्रिपाठी के पिता को मना कर अपनी बेटी की घंटी गगन के गले में बांध दी और उस के फुलटाइम ट्रेनर हो गए.

समय के साथ राजनीति में माहिर होते गगन त्रिपाठी विधायक बन गए. साल गुजरे. बेटी हुई, 18 साल की उस के होते ही दौलतमंद व्यवसायी के साथ उस की शादी कर दी. पारिवारिक मर्यादा अक्षुण्ण रखने के लिए उसे 10वीं से ज्यादा नहीं पढ़ाया गया. अभी बड़ा बेटा 27 वर्ष का था, पिता की राजनीति में विश्वस्त मददगार और भविष्य का राजनीतिविद, पिता की नजरों में कुशल और उन के दिशानिर्देशों के मर्म को समझने वाला. बड़े बेटे की पढ़ाई कालेज की यूनियन और राजनीतिक चुनावों के गलियारों में ही संपन्न हो गई.

मृगांक अभी 23 वर्ष का था, पढ़ाई, खेलकूद में अव्वल, विरोधी किस्म के सवाल खड़े करने वाला, कम शब्दों में गहरी बातें कहने वाला, मां का लाड़ला, पिता की दुविधा बढ़ाने वाला. मृगांक के स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद गगन त्रिपाठी की ओर से उस पर कलैक्टर बनने का जोर आ पड़ा. घरभर में इस बात की चर्चा दिनोंदिन जोर पकड़ रही थी. एक दिन पिताजी की ओर से मृगांक के लिए बुलावा आया. बुलावे

का अर्थ मृगांक भलीभांति समझ रहा था. 2 मंजिले पुश्तैनी मकान के बीचोंबीच संगमरमरी चबूतरा, आंगन में कई सारे पौधे लगे थे. गगन त्रिपाठी नाश्ते से निवृत हो आंगन में रखी आरामकुरसी पर बैठे थे. सुबह 9 बजे का वक्त था. 55 वर्ष की उम्र, गोरा रंग धूप में ताम्रवर्ण, कदकाठी ऊंची और बलिष्ठ, खालिस सफेद कुरता, चूड़ीदार पजामे पर भूरे रंग का जैकेट. वे तैयार बैठे थे, कहीं निकलना था, शायद. मृगांक सामने आ खड़ा हुआ. पिता के प्रति सम्मान और अबोला डर था लेकिन हृदय में पिता की सात्विकता और आदर्श को ले कर बड़ा गहरा विश्वास था. इस के पहले पिता से जब भी उस की बातें होतीं, वे अकसर उस की पढ़ाई व सेहत की बेहतरी के साथ बड़ा आदमी बनने की नसीहत देते.

आज उस के भविष्य के स्वप्नों की जिरह थी. पिता की सुननी थी, अपनी कहनी भी थी. उस ने पिता की नजरों में देखा. पिता के आसन से गगन त्रिपाठी बोले, ‘‘तो आप कलैक्टर बनने की तैयारी को ले कर क्या फैसला ले रहे हैं? आप पढ़ने में अच्छे हैं. हम उम्मीद लगाए हैं कि आप कलैक्टर बन कर हमारी पार्टी और परिवार का भला करेंगे. पुरानी पार्टी हम ने छोड़ दी है. अब हमारी अपनी पार्टी को सरकारी बल चाहिए. आप का इस बारे में न कहना हम पसंद नहीं करेंगे.’’

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मंच के भाषण और पत्रकारों के जवाबों से अलग यह सुर मृगांक को अवाक कर गया. क्या अलग परिस्थितियों में राजनेता की सोच अलगअलग होती है? वास्तव में कौन है-पिता या गगन त्रिपाठी? या कि पिता का वास्तविक रूप यही है जो अभीअभी वह देख रहा है. सफल होना और सार्थक होना दोनों अलग बातें हैं, क्यों नहीं लोग सार्थक होने की भी पहल करें. मृगांक के दिल में आंदोलन के तूफान उठने शुरू हुए. वह स्थिर और भावहीन खड़ा रहा फिर भी.

पिता ने आगे कहा, ‘‘बेटा ऐसा हो जो पिता का सहारा बने. जैसा कि आप के अंदाज से लग रहा है, आप अपने मन की करना चाहते हैं. ऐसा है, तो आप को मुझ से सचेत रहना चाहिए.’’ बेटे के रूप में जिस गगन त्रिपाठी ने खुद के पिता की इच्छाओं को किनारे कर दिया, अब मृगांक के लिए उन की बातें कुछ और ही थीं. विशुद्ध राजनीतिज्ञ की तरह एक पिता कहता गया, ‘‘मेरे लोग कई बार आप के बारे में खबर दे चुके हैं कि बिना सोचेसमझे आप लोगों के बीच संत बने फिरते हैं. दूसरे वार्डों, तहसीलों में उन लोगों की मदद कर आते हैं जिन्होंने दूसरी पार्टी के लोगों को जिताया. समझ रहे हैं मेरी बात आप?’’

यह पहला अवसर था जब वह पिता को भलीभांति समझने का प्रयास कर रहा था. इस के पहले वह जो देखतासुनता आया था, गहरे विश्वास की लकीर पर चल कर फकीर बना बैठा था. मृगांक कितना भी कोमल हृदय क्यों न हो, था तो खानदानी पूत ही. वह सख्त हुआ. यह बात और थी कि इस अड़े हुए घोड़े को वह कौन सी दिशा दे. विनम्रता में भी उस ने ठसक नहीं छोड़ी, कहा, ‘‘पिताजी, मैं जो भी सोचता हूं कुछ सोचसमझ कर ही. आप की सलाह मैं ने सुन ली है. अगर मैं कलैक्टर बन भी जाता हूं तो सिवा न्याय और सचाई के, किसी को नाजायज लाभ न दे पाऊंगा. कानों में मेरे न्याय के लिए चीखते लोगों की गूंज होगी तो मैं उन्हें अनसुना कर के न खुद ऐयाशी कर सकता हूं, न दूसरे को ऐयाशी करने में मदद कर सकता हूं.’’

अचानक क्रोध से फट पड़े गगन त्रिपाठी. उन्होंने कहा, ‘‘अरे मूर्ख सम्राट, जो आदर्श का पाठ मैं पढ़ाता रहा हूं, वह राजनीति की बिसात थी. शिकार के लिए फैलाए दानों को तो तू ने भूख का इलाज ही बना लिया. दूर हो जा मेरे सामने से. जिस दिन दिमाग ठिकाने आए, मेरे सामने आना.’’

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आराम से सभ्य शब्दों में बातें करने वाले, लोगों को पिघला कर मक्खन बनाने वाले गगन त्रिपाठी बेटे की बातों से इतने उतावले हो चुके थे कि उन की लोकलुभावन बाहरी परत निकल गई थी. वे असली चेहरे के साथ अब बाहर थे. क्यों न हो, यह तो आस्तीन में ही सांप पालने वाली बात हो गई थी न. राजनीति की इतनी सीढि़यां चढ़ने में उन के दिमाग के पुरजेपुरजे ढीले हो गए थे. और फिर सशक्त खेमे वाले विरोधियों को पछाड़ कर ऊंचाई पर बने रहने की कूवत भी कम माने नहीं रखती.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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