Relationship Trend: देशी लड़के से दिल लगा बैठी विदेशन

Relationship Trend: सोशल मीडिया पर अकसर हमें अनोखी प्रेम कहानियां देखने को मिलती हैं, जिन में लोग अलगअलग देशों से होते हुए भी एकदूसरे के प्यार में पड़ जाते हैं और उस प्यार को पाने के लिए वे सारी सीमाएं पार करने को तैयार हो जाते हैं. ऐसे कई उदाहरण आएदिन हमें न्यूज चैनलों पर देखने को मिलते हैं.

हाल ही में एक ऐसी दिल को छूने वाली कहानी सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है, जिसे देख कर आप का दिल भी पिघल जाएगा. दरअसल, यह कहानी है एक अमेरिकन लड़की और एक भारतीय लड़के की, जिन की प्रेम कहानी ने इंटरनैट पर सब का दिल जीत लिया है. इतना ही नहीं, इन की प्यार की गहराई इतनी ज्यादा है कि दोनों एकसाथ अमेरिका में शिफ्ट होने की प्लानिंग भी कर रहे हैं.

आजकल यह कोई आम बात नहीं है, जब किसी विदेशी लड़की को कोई भारतीय लड़का पसंद आया है. इस से पहले भी कई ऐसी लव स्टोरी सुनने को मिली हैं.

एक विदेशी लड़की जैकलीन फोरेरो ने अपनी लव स्टोरी का एक वीडियो शेयर किया है, जिस में वे बताती हैं कि कैसे 2 अलग दुनिया से होने के बावजूद वे एक शख्स से औनलाइन मिलीं और महीनों तक औनलाइन डेटिंग करने के बाद उस से असल में मिलने के लिए भारत आईं. एयरपोर्ट पर दोनों ने एकदूसरे को देखते ही गले लगा लिया.

बताते चलें कि जैकलीन फोरेरो पेशे से फोटोग्राफर हैं. वे बताती हैं कि कैसे वे आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव में रहने वाले चंदन से मिलीं और इंस्टाग्राम के जरीए उन की बातचीत हुई. 8 महीने तक दोनों एकदूसरे को वीडियो काल पर डेट करते रहे, फिर फाइनली उन्होंने मिलने का फैसला किया और वे भारत आईं. अब उन दोनों को डेट करते हुए कुल 14 महीने हो चुके हैं और दोनों साथ में यूएस में बसना चाहते हैं.

बताते चलें कि जैकलीन ने इस वीडियो को अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर शेयर किया है, जिसे अब तक 5 लाख से ज्यादा व्यूज मिल चुके हैं. वीडियो में दोनों कपल एकदूसरे के साथ घूमतेफिरते, तो कहीं पर एकसाथ चाय की चुसकी लेते नजर आ रहे हैं. दोनों ने एकदूसरे के साथ खूब सारे फोटो क्लिक कराए हैं.

उन का यह प्यार देख कर लोग जम कर तारीफ कर रहे हैं… साथ ही खूब सारे प्यार भरे मैसेज भेज रहे हैं… लोगों ने इस कपल की प्रेम कहानी पर पौजिटिव रिएक्शन दिए हैं और उन्हें भविष्य के लिए शुभकामनाएं भी दी हैं.

राह से भटकते नौजवान

बेरोजगारी से तंग आकर अक्षत ने खुदकुशी करने की कोशिश की. यह बात जब अक्षत के दोस्त समीर को पता चली, तो वह हैरान रह गया, क्योंकि दोनों साथ में ही सरकारी नौकरी के इम्तिहान की तैयारी कर रहे थे.

समय रहते समीर ने अपना रास्ता बदल लिया और अपने पापा के बिजनैस में लग गया. लेकिन अक्षत सरकारी नौकरी के पीछे पागल था, क्योंकि सरकारी नौकरी का मतलब परमानैंट नौकरी, अच्छी तनख्वाह वगैरह, इसलिए वह जीतोड़ मेहनत भी कर रहा था, मगर हर बार वह कुछ नंबरों से रह जाता था.

33 साल के हो चुके अक्षत को लगने लगा कि अब उस के पास कोई रास्ता नहीं बचा, सिवा खुदकुशी करने के.

बढ़ती बेरोजगारी से न सिर्फ देशभर के नौजवान परेशान हैं, बल्कि विदेशों में पढ़ेलिखे नौजवान भी इस की चपेट में हैं. बेरोजगारी से जुड़ा एक काफी पेचीदा मामला है. औक्सफोर्ड जैसी एक नामचीन यूनिवर्सिटी से पढ़े एक 41 साल के शख्स ने बेरोजगारी से तंग आ कर अपने मातापिता पर ही केस ठोंक दिया. यह बेरोजगार शख्स जिंदगीभर के लिए हर्जाने की मांग कर बैठा.

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, आतिश (बदला हुआ नाम) ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है. साथ ही, वह वकालत की ट्रेनिंग ले चुका है. इस के बावजूद वह बेरोजगार है.

आतिश का कहना है कि अगर उस के मांबाप उस की मदद नहीं करेंगे, तो उस के मानवाधिकार का उल्लंघन होगा.

आतिश के पिता की उम्र 71 साल है और उस की मां 69 साल की हैं. इतने उम्रदराज होने के बावजूद वे अपने बेटे को हर महीने 1,000 पाउंड भेजते हैं. इतना ही नहीं, वे अपने बेटे के दूसरे कई खर्च भी उठा रहे हैं यानी वह अपने सभी खर्चों के लिए अपने मातापिता पर ही निर्भर है.

लेकिन, अब मांबाप अपने बेटे की मांगों से तंग आ चुके हैं और छुटकारा चाहते हैं, पर कैसे? यह उन्हें समझ नहीं आ रहा है.

अच्छी पढ़ाईलिखाई होने के बावजूद भी कई नौजवान बेरोजगार हैं, तो यह बड़े हैरत की बात है. हाल ही में इंस्टीट्यूट फौर ह्यूमन डवलपमैंट ऐंड इंटरनैशनल लेबर और्गनाइजेशन ने इंडिया इंप्लायमैंट रिपोर्ट, 2024 जारी की है. यह रिपोर्ट भी भारत में रोजगार के हालात को बहुत गंभीर रूप में पेश करती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि जो बेरोजगार कार्यबल में हैं, उन में तकरीबन 83 फीसदी नौजवान हैं.

यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की नौजवान पीढ़ी बेरोजगारी से जू?ा रही है. कई नौजवान नौकरियों के लिए मौके तलाश रहे हैं. 15-20 हजार रुपए महीने की नौकरी पाने के लिए हजारोंलाखों बेरोजगार नौजवान अर्जी देते हैं और जब इस में भी उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाती है, तो वे बुरी तरह हताश और निराश हो जाते हैं.

सरकारी नौकरी नहीं लग पा रही है, तो इस का यह मतलब नहीं है कि आप कोई गलत कदम उठा लें या फिर अपने मांबाप पर बो?ा बन जाएं और उन से अपने खर्चे उठवाएं और उन्हें परेशान करें, तब, जब उन की उम्र हो चुकी है और वे खुद अपनी पैंशन पर गुजरबसर कर रहे हैं.

टैक्नोलौजी के इस जमाने में नौजवान पीढ़ी को अब अपनी सोच बदलनी होगी. उसे अब नौकरी ढूंढ़ने के बजाय नौकरी देने वाला बनने पर ध्यान देना चाहिए.

नौजवानों को अपने रोजगार और आजीविका के लिए अपने मातापिता का मुंह देखने के बजाय अपने रास्ते खुद तलाशने होंगे. इस में कोई दोराय नहीं है कि नौजवानों के पास भरपूर क्षमता और कौशल है और इसे साबित करने के लिए मौके भी खूब हैं. उन्हें केवल अपने टारगेट को पहचानने की जरूरत है.

मौडर्न टैक्नोलौजी इस काम में बहुत मददगार साबित हो सकती है. इस की वजह से न केवल नौजवान पीढ़ी रोजगार पा सकती है, बल्कि कइयों को रोजगार दे भी सकती है.

नौजवानों के पास आगे बढ़ने के कई मौके हैं. लेकिन मुद्दा यह है कि सही दिशा में कदम किस तरह उठाया जाए, जिस से कि परिवार, समाज और देश को फायदा पहुंचे?

इस के लिए नौजवानों के साथसाथ सरकार को भी आगे आना होगा. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज बुनियादी जरूरतों की कमी के चलते कई नौजवान टैलेंटेड होते हुए भी पीछे रह जाते हैं.

24 साल के एक नौजवान का कहना है कि वह अच्छा क्रिकेट खेलता है. लेकिन उस के पास क्रिकेट खेल को बेहतर बनाने के लिए कोई सुविधाएं नहीं हैं. अगर उसे सुविधाएं मुहैया कराई जाएं, तो वह क्रिकेट में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है.

भारत में नौजवानों (15-29 साल की उम्र) में बेरोजगारी की दर सामान्य आबादी की तुलना में काफी ज्यादा है. साल 2022 में शहरी नौजवानों के लिए बेरोजगारी की दर 17.2 फीसदी थी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर तकरीबन 10.6 फीसदी थी.

देश में बढ़ती बेरोजगारी के और भी कई कारण हैं, जैसे बढ़ती आबादी, उचित पढ़ाईलिखाई की कमी, कौशल विकास की कमी, नौकरियों के मौकों की कमी वगैरह.

सरकार की जिम्मेदारी केवल टैक्स कलैक्शन तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि देश का पूरा विकास हो, नौजवानों को रोजगार मिले, यह भी सरकार की ही जिम्मेदारी है.

बलि का अपराध और जेल, हैवानियत का गंदा खेल

हमारे देश में सैकड़ों सालों से अंधविश्वास चला आ रहा है. दिमाग में कहीं न कहीं यह झूठ घर करा दिया गया है कि अगर अगर गड़ा हुआ धन हासिल करना है, तो किसी मासूम की बलि देनी होगी, जबकि हकीकत यह है कि यह एक ऐसा झूठा है, जो न जाने कितने किताबों में लिखा गया है और अब सोशल मीडिया में भी फैलता चला जा रहा है. ऐसे में कमअक्ल लोग किसी की जान ले कर रातोंरात अमीर बनना चाहते हैं. मगर पुलिस की पकड़ में आ कर जेल की चक्की पीसते हैं और ऐसा अपराध कर बैठते हैं, जिस की सजा तो मिलनी ही है.

सचाई यह है कि आज विज्ञान का युग है. अंधविश्वास की छाई धुंध को विज्ञान के सहारे साफ किया जा सकता है, मगर फिर अंधविश्वास के चलते एक मासूम बच्चे की जान ले ली गई.

देश के सब से बड़े धार्मिक प्रदेश कहलाने वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में एक तथाकथित तांत्रिक ने 2 नौजवानों के साथ मिल कर एक 8 साल के मासूम बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी और तंत्रमंत्र का कर्मकांड किया गया था. उस बच्चे की लाश को गड्डा खोद कर छिपा दिया गया था.

ऐसे लोगों को यह लगता है कि अंधविश्वास के चलते किसी की जान ले कर के वे बच जाएंगे और कोई उन्हें पकड़ नहीं सकता, मगर ऐसे लोग पकड़ ही लिए जाते हैं. इस मामले में भी ऐसा ही हुआ.

अंधविश्वास के मारे इन बेवकूफों को लगता है कि ऐसा करने से जंगल में कहीं गड़ा ‘खजाना’ मिल जाएगा, मगर आज भी ऐसे अनपढ़ लोग हैं, जिन्हें लगता है कि जादूटोना, तंत्रमंत्र या कर्मकांड के सहारे गड़ा धन मिल सकता है.

समाज विज्ञानी डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक, आज तकनीक दूरदराज के इलाकों तक पहुंच चुकी है और इस के जरीए ज्यादातर लोगों तक कई भ्रामक जानकारियां पहुंच पाती हैं. मगर जिस विज्ञान और तकनीक के सहारे अज्ञानता पर पड़े परदे को हटाने में मदद मिल सकती है, उसी के सहारे कुछ लोग अंधविश्वास और लालच में बलि प्रथा जैसे भयावाह कांड कर जाते हैं जो कमअक्ल और पढ़ाईलिखाई की कमी का नतीजा है.

डाक्टर जीआर पंजवानी के मुताबिक, कोई भी इनसान इंटरनैट पर अपनी दिलचस्पी से जो सामग्री देखतापढ़ता है, उसे उसी से संबंधित चीजें दिखाई देने लगती हैं फिर पढ़ाईलिखाई की कमी और अंधश्रद्धा के चलते, जिस का मूल है लालच के चलते अंधविश्वास के जाल में लोग उलझ जाते हैं और अपराध कर बैठते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता सनद दास दीवान के मुताबिक, अपराध होने पर कानूनी कार्यवाही होगी, मगर इस से पहले हमारा समाज और कानून सोया रहता है, जबकि आदिवासी अंचल में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, लिहाजा इस के लिए सरकार को सजक हो कर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए.

हाईकोर्ट के एडवोकेट बीके शुक्ला ने बताया कि एक मामला उन की निगाह में ऐसा आया था, जिस में एक मासूम की बलि दी गई थी. कोर्ट ने अपराधियों को सजा दी थी.

दरअसल, इस की मूल वजह पैसा हासिल करना होता है. सच तो यह है कि लालच में आ कर पढ़ाईलिखाई की कमी के चलते यह अपराथ हो जाता है. लोगों को यह समझना चाहिए कि किसी भी अपराध की सजा से वे किसी भी हालत में बच नहीं सकते और सब से बड़ी बात यह है कि ऐसे अपराध करने वालों को समाज को भी बताना चाहिए कि उन के हाथों से ऐसा कांड हो गया और उन्हें कुछ भी नहीं मिला, उन के हाथ खाली के खाली रह गए.

फूटती जवानी के डर और खुदकुशी की कसमसाहट

इसे जागरूकता की कमी कहें या फिर अनपढ़ता, लड़के हों या लड़कियां एक उम्र आने पर उन के शरीर में कुछ बदलाव होते हैं और अगर ऐसे समय में समझदारी और सब्र का परिचय नहीं दिया जाए, तो जिंदगी में कुछ अनहोनी भी हो सकती है. ऐसे ही एक वाकिए में एक लड़की जब अपनी माहवारी के दर्द को सहन नहीं कर पाई और न ही अपनी मां को कुछ बता पाई, तो उस ने खुदकुशी का रास्ता चुन कर लिया.

यह घटना बताती है कि जवानी के आगाज का समय कितना ध्यान बरतने वाला होता है. ऐसे समय में कोई भी नौजवान भटक सकता है और मौत को गले लगा सकता है या फिर कोई ऐसी अनहोनी भी कर सकता है, जिस का खमियाजा उसे जिंदगीभर भुगतना पड़ सकता है. सब से बड़ी बात यह है कि उस के बाद परिवार वाले अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे.

आज हम इस रिपोर्ट में ऐसे ही कुछ मामलों के साथ आप को और समाज को अलर्ट मोड पर लाने की कोशिश कर रहे हैं. एक बानगी :

-14 साल की उम्र आतेआते जब सुधीर की मूंछ निकलने लगी, तो वह चिंतित हो गया. उसे यह अच्छा नहीं लग रहा था कि उस के चेहरे पर ठीक नाक के नीचे मूंछ उगे और वह परेशान हो गया.

-12 साल की उम्र में जब सोनाली को पहली दफा माहवारी हुई, तो वह घबरा गई. वह बड़ी परेशान हो रही थी. ऐसे में एक सहेली ने जब उसे इस के बारे में अच्छी तरह से बताया, तो उस के ही बाद वह सामान्य हो पाई.

-राजेश की जिंदगी में जैसे ही जवानी ने दस्तक दी, तो उसे ऐसेवैसे सपने आने लगे. वह सोच में पड़ गया कि यह क्या हो रहा है. बाद में एक वीडियो देख कर उसे सबकुछ समझ में आता चला गया.

दरअसल, जिंदगी का यही सच है और सभी के साथ ऐसा समय या पल आते ही हैं. ऐसे में अगर कोई सब्र और समझदारी से काम न ले, तो वह मुसीबत में भी पड़ सकता है. लिहाजा, ऐसे समय में आप को कतई शर्म नहीं करनी चाहिए और घबराना नहीं चाहिए, बल्कि इस दिशा में जागरूक होने की कोशिश करनी चाहिए.

आज सोशल मीडिया का जमाना है. आप दुनिया की हर एक बात को समझ सकते हैं और अपनी जिंदगी को सुंदर और सुखद बना सकते हैं. बस, आप को कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए, जो आप को नुकसान पहुंचा सकता हो.

डरी हुई लड़की की कहानी

दरअसल, मुंबई से एक दिल दहला देने वाला मामला सामने आया है. मुंबई के मालवणी इलाके में रहने वाली 14 साल की लड़की रजनी (बदला हुआ नाम) ने अपनी पहली माहवारी के दौरान दर्दनाक अनुभव के बाद कथिततौर पर खुदकुशी कर ली थी. जब तक परिवार वालों ने यह देखा और समझा, तब तक बड़ी देर हो चुकी थी. उस की लाश घर में लटकी हुई मिली थी.

यह हैरानपरेशान करने वाला मामला मलाड (पश्चिम) के मालवणी इलाके में हुआ था, जहां रहने वाली 14 साल की एक लड़की रजनी की लाश रात में अपने घर के अंदर लोहे के एक एंगल से लटकी हुई पाई गई थी.

पुलिस के मुताबिक, वह नाबालिग लड़की अपने परिवार के साथ गावदेवी मंदिर के पास लक्ष्मी चाल में रहती थी. कथिततौर पर वह किशोरी माहवारी के बारे में गलत जानकारी होने के चलते तनाव में रहती थी. ऐसा लगता है कि उसे सही समय पर सटीक जानकारी नहीं मिल पाई होगी, तभी तो माना जा रहा है कि उस ने यह कठोर कदम उठा लिया होगा.

पुलिस के मुताबिक, देर शाम में जब घर में कोई नहीं था, तो उस लड़की ने खुदकुशी कर ली. जब परिवार वालों और पड़ोसियों को इस कांड के बारे में पता चला, तो वे उसे कांदिवली के सरकारी अस्पताल में ले गए, जहां डाक्टरों ने लड़की को मरा हुआ बता दिया.

मामले की जांच कर रहे एक पुलिस अफसर ने कहा, “शुरुआती पूछताछ के दौरान लड़की के रिश्तेदारों ने बताया कि लड़की को हाल ही में पहली बार माहवारी आने के बाद दर्दनाक अनुभव हुआ था. इसे ले कर वह काफी परेशान थी और मानसिक तनाव में थी, इसलिए हो सकता है कि उस ने इस वजह से अपनी जान दे दी हो.”

कुलमिला कह सकते हैं कि अगर उस लड़की को सही समय पर सही सलाह मिल जाती, तो पक्का है कि वह खुदकुशी करने जैसा कड़ा कदम कभी नहीं उठाती. मांबाप को भी चाहिए कि ऐसे समय में वे बच्चों को सही सलाह दें या फिर उन्हें किसी माहिर डाक्टर के पास ले जाएं.

झूठे प्रचार की मिली सजा : रामदेव की सुप्रीम कोर्ट में माफी

योग के जरीए देशदुनिया में अपनी पहचान बनाने वाले बाबा रामदेव ने सुप्रीम कोर्ट में हाथ जोड़ कर माफी मांग कर देश की जनता को जता दिया है कि अपने झूठे विज्ञापनों के चलते वे देश से माफी मांग रहे हैं और ऐसा काम आगे नहीं करेंगे.

दरअसल, कोरोना काल में कोरोनील नाम की एक दवा आई थी, जिसे लोगों ने विश्वास कर के खरीदा और रामदेव ने करोड़ों रुपए कमा लिए. यह सीधासीधा किसी लूट से कम नहीं था, मगर नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने तब आंखें बंद कर ली थीं.

इस का सीधा सा मतलब यह है कि अगर आप हमारे काम आते हैं तो आप का सारा अपराध माफ है. यह कल्पना की जा सकती है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने रामदेव के बरताव और काम करने के तरीके पर ध्यान नहीं दिया होता तो रामदेव आज भी मुसकराते हुए बड़ेबड़े दावे कर के अपनी उन दवाओं को देश की जनता को बेचते रहते, जिसे सीधेसीधे झूठ और ठगी काम कहा जा सकता है. इतना ही नहीं, देशभर के बड़े चैनलों में विज्ञापन को दे कर अपनी बात को सच बताना भी कोई छोटामोटा अपराध नहीं है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट में इसे गंभीरता से लिया और आखिरकार रामदेव ने वहां हाजिर हो कर माफी मांग ली.

इस तरह जो काम नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं कर पाई उसे देश के सुप्रीम कोर्ट ने देश की जनता के सामने ला कर रख दिया और चेहरे पर से नकाब उतार दी या कहें कि रामदेव के तन से वह चोला उतार दिया, जिस के भरोसे वे देश की जनता और कानून को ठेंगा दिखाते रहे हैं. यह साबित हो गया है कि रामदेव कोई जनसेवा या देश की जनता के हमदर्द नहीं हैं, बल्कि वे भी एक ऐसे व्यापारी हैं, जो सिर्फ मुनाफा कमाना चाहता है.

आप को बता दें कि पहले भ्रामक विज्ञापन के मामले में पतंजलि आयुर्वेद को सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई थी और बाबा रामदेव व कंपनी के एमडी आचार्य बालकृष्ण को पेशी पर बुलाया था. आखिर तय तारीख पर रामदेव और बालकृष्ण दोनों ही बड़ी अदालत पहुंचे. इस दौरान सुनवाई शुरू हुई तो बाबा रामदेव के वकील ने कहा कि हम ऐसे विज्ञापन के लिए माफी मांगते हैं. आप के आदेश पर खुद योगगुरु रामदेव अदालत आए हैं और वे माफी मांग रहे हैं और आप उन की माफी को रिकौर्ड में दर्ज कर सकते हैं.

बाबा रामदेव के वकील ने आगे कहा, ‘हम इस अदालत से भाग नहीं रहे हैं. क्या मैं यह कुछ पैराग्राफ पढ़ सकता हूं? क्या मैं हाथ जोड़ कर यह कह सकता हूं कि जैंटलमैन खुद अदालत में मौजूद हैं और अदालत उन की माफी को दर्ज कर सकती है.

सुनवाई के दौरान पतंजलि के वकील ने भ्रामक विज्ञापन को ले कर कहा कि हमारे मीडिया विभाग को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की जानकारी नहीं थी, इसलिए ऐसा विज्ञापन चला गया.

इस पर बैंच में शामिल जस्टिस अमानुल्लाह और जस्टिस हिमा कोहली की बैंच ने कहा कि यह मानना मुश्किल है कि आप को इस की जानकारी नहीं थी.

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर, 2023 में ही रामदेव के पतंजलि को आदेश दिया था कि वह भ्रामक दावे करने वाले विज्ञापनों को वापस ले. यदि ऐसा नहीं किया गया तो फिर हम ऐक्शन लेंगे. ऐसी हालत में पतंजलि के हर गलत विज्ञापन पर 1 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा.

इस दौरान जस्टिस अमानुल्लाह ने कहा कि रामदेव ने योग के मामले में बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन एलोपैथी दवाओं को ले कर ऐसे दावे करना ठीक नहीं है, जबकि इंडियन मैडिकल एसोसिएशन के वकील ने कहा कि वे अपना विज्ञापन करें, लेकिन उस में एलोपैथी चिकित्सा पद्धति की बेवजह आलोचना नहीं होनी चाहिए.

सुनवाई के दौरान जस्टिस हिमा कोहली ने केंद्र सरकार की भी खिंचाई की. उन्होंने कहा कि हमें हैरानी है कि आखिर इस मामले में केंद्र सरकार ने अपनी आंखें बंद रखीं.

इस पूरे मामले पर अगर देश की जनता गौर करे तो यह साफ है कि रामदेव ने सिर्फ रुपए कमाने के लिए झूठा विज्ञापन जारी किया और सीधेसीधे जनता को ठग लिया. दरअसल, ये सारे पैसे सरकार को वसूल लेने चाहिए, ताकि देश में यह संदेश चला जाए कि ठगी करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली, मध्य प्रदेश में तो बुरा हाल

फरवरी महीने के ठंड और गरमी से मिलेजुले दिनों में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के सरकारी अस्पताल में सुबह 8 बजे से ही मरीजों की काफी भीड़ जमा हो गई थी. भीड़ में मर्दऔरतों का जमावड़ा तो था ही, अपने छोटेछोटे बच्चों को गोद में लिए कुछ नौजवान औरतें भी अपनी बारी के आने का इंतजार कर रही थीं.

10 रुपए काउंटर पर जमा कर के सभी अपने हाथ में ओपीडी की स्लिप पकड़े हुए डाक्टर के आने की बाट जोह रहे थे. सभी आपस में अपने दुखदर्द सा?ा करते हुए अपनीअपनी बीमारी की चर्चा कर रहे थे. ज्यादातर मरीज मौसमी बुखार और सर्दीखांसी से पीडि़त नजर आ रहे थे.

तकरीबन 9 बजे ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ओपीडी में आए, तो घंटों लाइन में लगे मरीजों और उन के साथ आए लोगों के चेहरे पर मुसकान फैल गई. डाक्टर ने बारीबारी से मरीजों को देखना शुरू किया और परचे पर दवाएं लिख दीं.

कुछ ही समय में दवा के काउंटर पर भी भीड़ बढ़ने लगी. काउंटर पर तैनात मुलाजिम कुछ दवाएं दे रहा था और कुछ दवाएं मैडिकल स्टोर से खरीदने का बोल रहा था. मरीज इस बात को ले कर परेशान थे कि उन्हें मैडिकल स्टोर से महंगी दवाएं लेनी पड़ेंगी.

अभी कुछ ही मरीजों का इलाज हुआ था कि सड़क हादसे में घायल हुए एक आदमी को कुछ लोग अस्पताल ले कर आए. उन में से एक आदमी ने डाक्टर से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, पहले इसे देख लीजिए. इस के सिर में चोट लगी है और खून भी बह रहा है.’’

तकरीबन 5,000 की आबादी वाले इस गांव में नौकरी कर रहे उस एकलौते डाक्टर ने ओपीडी छोड़ कर घायल आदमी की तरफ रुख करते हुए उसे ले कर आए लोगों से कहा, ‘‘अस्पताल में पट्टी नहीं है. जब तक मैं घाव पर मरहम लगाता हूं, तब तक आप बाहर मैडिकल स्टोर से पट्टियां मंगवा लीजिए.’’

एक नौजवान भागते हुए बाहर से पट्टियां खरीद कर ले आया, तो डाक्टर ने प्राथमिक उपचार कर उसे डिस्ट्रिक्ट हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया.

गांव में मेहनतमजदूरी करने वाले लोगों का सुबह से काम पर न जाने से मजदूरी का नुकसान तो हो ही रहा था, ऊपर से उन्हें जेब से कुछ रुपए भी खर्च करने पड़ रहे थे. कुछ नौजवान सरकार को कोस भी रहे थे कि सरकारी अस्पताल में इलाज के माकूल इंतजाम नहीं हैं और सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का ढोल पीट रही है.

सरकारी अस्पतालों में बदइंतजामी का नजारा कोई नई बात नहीं है. गांवकसबों के बहुत से अस्पताल तो डाक्टरों के बिना भी चल रहे हैं. सरकार गरीबों के उपचार के लिए ढेर सारी योजनाएं बना रही है, मगर डाक्टर और स्टाफ की कमी से जू?ाते अस्पताल गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को इलाज मुहैया कराने में नाकाम हो रहे हैं. सरकारी अस्पतालों का सच जानने के लिए देश के अलगअलग हिस्सों का रुख करते हैं.

मध्य प्रदेश में कटनी जिले की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी बदहाल है, इस का खुलासा नीति आयोग द्वारा जारी हुई लिस्ट से हुआ है. इस में रीठी स्वास्थ्य केंद्र के हालात काफी खराब बताए गए हैं, जिसे ले कर नीति आयोग ने कटनी सीएमएचओ राजेश आठ्या को चिट्ठी जारी करते हुए उन्हें इंतजाम दुरुस्त करने के निर्देश जारी किए हैं.

कटनी में 6 स्वास्थ्य केंद्र शामिल हैं, जिस के हर केंद्र में 4 से 5 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए गए हैं, लेकिन तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में न तो डाक्टर मिलते हैं, न ही बेहतर इलाज. इन सब बातों की जांच के लिए बाहर से आई टीम ने जिले के सभी ब्लौकों में स्वास्थ्य इंतजामों की जांच की, जिस में सब से खराब हालात रीठी स्वास्थ्य केंद्र में मिले थे.

रीठी ब्लौक का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी इलाकों में शामिल है, जहां गरीब तबके के लोग रहते हैं. हालांकि, क्षेत्र में स्वास्थ्य इंतजामों को दुरुस्त करने के लिए शासन ने लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च किए हैं, लेकिन जमीनी लैवल पर हालात जस के तस बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के गांवदेहात के इलाकों में नएनए अस्पताल भवन तो बन रहे हैं, लेकिन इन अस्पतालों में न तो डाक्टर हैं और न ही इलाज की जरूरी सुविधाएं हैं. कई अस्पताल ऐसे हैं, जो बंद ही रहते हैं, तो कई अस्पताल कभीकभार खुलते हैं.

गांवदेहात के अस्पतालों की इस बदहाली के चलते मरीज व घायलों को इलाज के लिए ?ालाछाप डाक्टरों के यहां जाना पड़ता है, जहां इलाज कराना न सिर्फ जोखिम भरा है, बल्कि जेब पर भी भारी पड़ता है.

मध्य प्रदेश में गांवकसबों के अस्पताल के अलावा कई शहरों के अस्पताल भी अच्छी हालत में नहीं हैं. शाजापुर का जिला अस्पताल खुद बीमार है. इस अस्पताल में लिफ्ट तो है, लेकिन चलती नहीं. एक्सरे मशीन लगी है, लेकिन रिपोर्ट बनाने के लिए फिल्म नहीं है. मजबूरी में लोग कागज पर एक्सरे की रिपोर्ट निकलवाते हैं और यही रिपोर्ट डाक्टर को दिखा कर अपना इलाज कराते हैं.

जब कोई मरीज काफी पूछताछ करता है, तो रेडियोलौजिस्ट एक ही जवाब देता है कि एक्सरे की फिल्म काफी महंगी आती है और कई साल से सरकार ने इस के लिए बजट ही नहीं दिया है.

सरकारी अस्पताल में सरकार ने जांच के लिए भले ही मशीन लगा दी हो, पर स्टाफ की कमी की वजह से मरीजों को सुविधा कम, परेशानी ज्यादा हो रही है.

राजस्थान के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में मरीजों को सोनोग्राफी कराने के लिए लंबी कतार में लगना पड़ता है. उदयपुर में सोनोग्राफी के लिए मरीजों को एक हफ्ते के बाद आने को कहा जाता है और भीलवाड़ा में 15 से 20 दिन बाद की तारीख मिलती है. अलवर के राजीव गांधी सामान्य अस्पताल में तो मरीजों को सोनोग्राफी जांच के लिए 2 महीने का इंतजार करना पड़ता है.

मजबूरन मरीजों को निजी लैब से सोनोग्राफी करानी पड़ रही है. जब तक परची नहीं कटती, तब तक मरीज को पता नहीं चलता कि उसे सोनोग्राफी की कौन सी तारीख दी जा रही है. प्राइवेट लैब से सोनोग्राफी के लिए 800 से 1,000 रुपए ढीले करने पड़ते हैं.

?ां?ानूं के राजकीय भगवानदास खेतान अस्पताल में सिर्फ एक सोनोग्राफी मशीन है, जिस में रोजाना 40 मरीजों की सोनोग्राफी हो पाती है. बाद में आने वालों को आगे की तारीख दे दी जाती है. यहां पर एक दूसरी सोनोग्राफी मशीन स्टोर में ताले में बंद पड़ी है.

जोधपुर के उम्मेद अस्पताल में इंडोर पेशेंट की इमर्जैंसी के हिसाब से उसी दिन और बाकी की 24 घंटे में सोनोग्राफी होती है और आउटडोर मरीजों को सोनोग्राफी के लिए 20 से 25 दिन का इंतजार करना पड़ता है.

भीलवाड़ा के एमजीएच में 4 सोनोग्राफी मशीन हैं, लेकिन 2 ही डाक्टर होने से 2 मशीन पर ही सोनोग्राफी की जाती है. उदयपुर के आरएनटी मैडिकल कालेज में सोनोग्राफी की तारीख 5 से 7 दिन बाद की मिलती है. गर्भवती महिलाओं और दूसरे मरीजों के लिए अलगअलग व्यवस्था रहती है. गर्भवती महिलाओं को 6 से 7 दिन बाद की तारीख दी जाती है.

शहरी बना रहे हैं नीतियां आज भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सरकारी अस्पतालों में इलाज के नाम पर बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. एंबुलैंस, शव वाहन, जननी ऐक्सप्रैस जैसे वाहन केवल प्रचार का जरीया बने हुए हैं. ओडिशा के कालाहांडी से ले कर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और मध्य प्रदेश में अस्पताल से मृतक के शव को परिजनों द्वारा कंधे, साइकिल और आटोरिकशा पर लाद कर घर ले जाने की तसवीरें केंद्र और राज्य सरकारों की स्वास्थ्य योजनाओं की पोल खोलती नजर आती हैं.

आजादी के बाद कांग्रेस के राज को कोसने वाली इस सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि 10 सालों में उस ने देश के अंदर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार में कौन सा बड़ा कदम उठाया है? चौराहों पर लगे बड़ेबड़़े होर्डिंग स्वास्थ्य सुविधाओं का बखान कर देखने में भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर जमीनी तौर पर पर इन योजनाओं का असरदार ढंग से पूरा न होने से देश के नागरिकों का हाल बेहाल है. भूखेनंगे गरीबों को इलाज की सुविधा मुहैया नहीं है और आप ऊंचीऊंची मूर्तियों पर पैसा लुटा रहे हैं.

देश में राम मंदिर बनाने से भले ही वोट बटोरे जा सकते हों, पर गरीब के दुखदर्द नहीं मिटाए जा सकते. शायद आप भूल जाते हैं कि देश को मंदिरों की नहीं, बल्कि अस्पतालों की जरूरत ज्यादा है.

जनता अब अच्छी तरह जान गई है कि जुमलों से इनसान के दुखदर्द को दूर करने का झांसा देने वाले धर्म के ठेकेदार कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण किस तरह मंदिरों में ताले लगा कर मुंह छिपा कर घरों में कैद हो गए थे.

मगर भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बेहद कमजोर है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की तादाद बेहद कम है, तो निजी अस्पतालों का महंगा इलाज गरीब के बूते के बाहर है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, तकरीबन 1,000 की आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए, लेकिन इस पैमाने पर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कहीं नहीं टिकती है. नैशनल हैल्थ प्रोफाइल की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 11,000 से ज्यादा की आबादी पर महज एक सरकारी डाक्टर है.

उत्तर भारत के राज्यों में हालात बद से बदतर हैं. बिहार में एक सरकारी डाक्टर के कंधों पर 28,391 लोगों के इलाज की जिम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश में 19,962, झारखंड में 18,518, मध्य प्रदेश में 17,192, महाराष्ट्र में 16,992 और छत्तीसगढ़ में 15,916 लोगों पर महज एक डाक्टर है.

केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री संसद में बता चुके हैं कि देश में कुल 6 लाख डाक्टरों की कमी है. हाल इतना बुरा है कि देश के 15,700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ एकएक डाक्टर के भरोसे चल रहे हैं.

इंडियन जर्नल औफ पब्लिक हैल्थ ने अपनी एक स्टडी में कहा है कि अगर भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानक पर पहुंचना है, तो उसे साल 2030 तक 27 लाख डाक्टरों की भरती करनी होगी. हालांकि, स्वास्थ्य और शिक्षा के बजाय भगवा रंग में रंगी यह सरकार मंदिर बनाने और मूर्तियां लगाने पर पैसा पानी की तरह बहा देगी, लेकिन गरीब जनता की सेहत से उसे कोई सरोकार नहीं है.

दरअसल, एयरकंडीशनर कमरों में बैठ कर नीतियां बनाने वाले शहरी नीतिनिर्धारक अभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि गांव वालों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते. सच तो यह है कि गांव के लोगों के पास इलाज के लिए पैसे होते तो वे सरकारी अस्पताल के चक्कर काटने के बजाय प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराते.

गांवकसबों के लिए सरकारी नीतियां अब विधायक, सांसद नहीं बनाते, बल्कि शहरों के इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले अफसर बनाते हैं. ये अफसर कंप्यूटर पर 50 पेज का पावर पौइंट प्रैजेंटेशन तैयार कर मीटिंग में मंत्रियों को दिखाते हैं, मगर गांव के हालात से उन्हें कोई मतलब नहीं होता.

सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार कर करोड़ों रुपए की रकम ऐंठने वाले इन अफसरों के गांवकसबों में बड़ेबड़े रिजौर्ट तो बन गए हैं, मगर गांव से इन का कोई सरोकार नहीं है. अफसर और मंत्रियों की काली कमाई से बड़े शहरों में प्राइवेट हौस्पिटल बने हुए हैं, जिन तक गांव के गरीब आदमी की पहुंच ही नहीं है.

स्वास्थ्य सेवाओं में फिसड्डी

मध्य प्रदेश के 51 जिलों में 8,764 प्राथमिक उपस्वास्थ्य केंद्र, 1,157 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 334 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 63 सिविल अस्पताल, 51 जिला अस्पताल हैं, पर कई जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं मानो खुद वैंटिलेटर पर हैं. सरकार रोज नई स्वास्थ्य योजनाएं लागू कर रही है, लेकिन फील्ड पर इस के नतीजे निराशाजनक ही रहे हैं.

ज्यादातर सरकारी अस्पताल डाक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं. सरकारी योजनाओं में फैला भ्रष्टाचार भी व्यवस्थाओं को बरबाद करने में अपना अहम रोल निभा रहा है.

भोपाल और इंदौर जैसे बड़े शहरों के बड़ेबड़े सरकारी अस्पताल बदहाल हैं. ऐसे में छोटे जिलों, तहसीलों, कसबों और गांवदेहात के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

मध्य प्रदेश के गांवदेहात के इलाकों के हालात बद से बदतर हैं. मनकवारा गांव के सुखराम कुशवाहा कहते हैं, ‘‘गांवकसबों में संविदा पर नियुक्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता हफ्ते में एक दिन जा कर पंचायत भवन या स्कूल में घंटे 2 घंटे बैठ कर बच्चों को टीका लगा कर मरीजों को नीलीपीली गोलियां बांट कर अपने काम से पल्ला झाड़ लेते हैं.’’

गरीब दलित और पिछड़े परिवारों का एक बड़ा तबका बीमारी में सरकारी अस्पतालों की ओर ही भागता है. रोजाना 250-300 रुपए मजदूरी से कमाने वाला गरीब प्राइवेट डाक्टरों की भारीभरकम फीस और दवाओं का खर्च नहीं उठा पाता.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली के शिकार गरीब आदमी बीमार होने पर मन मसोस कर सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, जहां उसे रोगी कल्याण समिति के नाम पर 10 रुपए, जांच शुल्क के नाम पर 30 रुपए और भरती होने पर 50 रुपए की रसीद कटवानी पड़ती है. एएनएम और नर्सों द्वारा उन का इलाज किया जाता है.

किसी तरह की अव्यवस्था की शिकायत गरीब डर की वजह से नहीं कर पाता है और कभी उस ने किसी विभागीय टोल फ्री नंबर पर औनलाइन शिकायत कर भी दी, तो विभागीय कर्मचारियों द्वारा शिकायत करने वाले को डरायाधमकाया जाता है. सरकारी पोर्टल पर गोलमोल जवाब डाल कर शिकायत का निबटान कर दिया जाता है.

गरीब के पास वोटरूपी हथियार होता है. कभी व्यवस्था से नाराज हो कर वह सरकार बदलने का कदम उठाता भी है तो अगली सरकार का रवैया भी ढाक के तीन पात के समान ही रहता है. ऐसे में लाचार गरीब सरकारी अस्पतालों में मिल रही आधीअधूरी सुविधाओं से काम चला लेने में ही अपनी भलाई समझाता है.

सरकारी योजनाओं की लूट

मध्य प्रदेश के ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल राजनीतिक रसूख रखने वाले डाक्टरों के हैं, जिन में सरकारी योजनाओं के तहत मरीजों का इलाज किया जाता है और सरकार से लाखों रुपए के क्लेम की बंदरबांट की जाती है.

आयुष्मान योजना केंद्र सरकार ने गरीब मरीजों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से शुरू की थी, लेकिन निजी अस्पतालों के लिए यह योजना पैसा कमाने का जरीया बन गई.

फर्जीवाड़ा कर रहे डाक्टर सामान्य बीमारी वाले मरीजों या स्वस्थ लोगों को गंभीर रोगों से पीडि़त बता कर उन के इलाज के नाम पर सरकारी पैसा लूट रहे हैं. यह रकम थोड़ीबहुत नहीं, बल्कि लाखों रुपए में होती है.

होटल वेगा में भरती मरीजों के बारे में जान कर आप को भी पता चलेगा कि किस तरह आयुष्मान योजना में भ्रष्टाचार किया जाता है.

जबलपुर पुलिस की टीम ने स्वास्थ्य विभाग के साथ मिल कर 26 अगस्त, 2022 को सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में छापा मारा था. उस समय अस्पताल के अलावा होटल वेगा में भी छापा मारा गया था.

जांच के दौरान होटल वेगा और अस्पताल में आयुष्मान कार्डधारी मरीज भरती पाए गए थे. अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी कुमार पाठक ने कई लोगों को फर्जी मरीज बना कर यहां रखा था. होटल के कमरे में 3-3 लोग भरती पाए गए थे. इस के बाद पुलिस ने डाक्टर दंपती के खिलाफ विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था और डाक्टर दंपती को जेल की हवा खानी पड़ी थी.

इस मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया था. एसआईटी की जांच में यह खुलासा हुआ था कि आयुष्मान भारत योजना के तहत सैंट्रल इंडिया किडनी हौस्पिटल में पिछले 2 से ढाई साल में तकरीबन 4,000 मरीजों का इलाज हुआ था, जिस के एवज में सरकार द्वारा तकरीबन साढ़े 12 करोड़ रुपए का भुगतान अस्पताल को किया गया था. इस के साथ ही इस बात के भी दस्तावेज मिले हैं कि

दूसरे राज्यों के मरीजों का उपचार भी सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में हुआ था, जो गैरकानूनी है.

एसआईटी ने सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में काम कर रहे मुलाजिमों से भी पूछताछ की, जिस में कई मुलाजिमों ने बताया कि वे अस्पताल में आयुष्मान हितग्राही को भरती करवाते थे, तो अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी पाठक बतौर कमीशन 5,000 रुपए देते थे.

कमीशन लेने के लिए मुलाजिमों ने कई बार एक ही परिवार के लोगों को अलगअलग तारीख में भरती किया था. उन के नाम पर अस्पताल द्वारा आयुष्मान योजना के फर्जी बिल लगा कर लाखों रुपए की वसूली की गई थी.

इसी तरह टीला जमालपुरा में बनी हाउसिंग बोर्ड कालोनी में रहने वाले 28 साल के खालिद अली ने नवंबर, 2021 में अपने 3 महीने के बेटे जोहान के सर्दीजुकाम के इलाज के लिए भोपाल के मैक्स केयर अस्पताल में भरती कराया था. बाद में डाक्टरों द्वारा बताया गया कि उस बच्चे को निमोनिया हो गया है.

3 महीने तक मासूम को हौस्पिटल में भरती रखा गया, जिस में कई बार में दवाओं और इलाज के नाम पर 3 लाख से ज्यादा रुपए वसूल लिए गए. खालिद अली जब भी बिल मांगता, अस्पताल मैनेजमैंट उसे टका सा जबाव दे देता कि मरीज के डिस्चार्ज होने के समय पूरे बिल दे दिए जाएंगे, आप चिंता न करें.

जनवरी, 2022 में आखिरकार मासूम जोहान की मौत हो गई और बाद में पता लगा कि अस्पताल की ओर से आयुष्मान कार्ड से भी बच्चे के इलाज के नाम पर रकम सरकारी खजाने से ली गई है, जबकि खालिद अली के परिवार को इस की जानकारी नहीं दी गई थी. सब से पहले इस फर्जीवाड़े की शिकायत पुलिस थाने में की तो सुनवाई नहीं हुई. तब जा कर कोर्ट में परिवाद दायर किया.

खालिद अली ने बताया कि मैक्स केयर हौस्पिटल का संचालक डाक्टर अल्ताफ मसूद सरकारी योजनाओं में जम कर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और उन के खिलाफ शिकायतें भी हो रही हैं, मगर अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती है.

अभी भी मैक्स केयर हौस्पिटल की ओपीडी में डाक्टर अल्ताफ मसूद मरीजों का इलाज कर रहे हैं और पुलिस जांच के नाम पर खानापूरी कर यह बता रही है कि वे हास्पिटल में नहीं हैं.

चिंताजनक बात यह है कि देश के दूरदराज के इलाकों में लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. बड़ेबड़े सरकारी अस्पतालों में एंबुलैंस नहीं हैं और जो हैं उन के अस्थिपंजर ढीले पड़ गए हैं. देश के जनसेवक इन सब पर ध्यान देने के बजाय करोड़ों रुपए खर्च कर हवाईजहाज खरीद रहे हैं और जुमले उछाल कर लोगों का मन बहला रहे हैं.

आजादी के 7 दशकों के बाद भी हम गरीबों के लिए कोई खास सुविधाएं नहीं जुटा पाए हैं. जब देश के रहनुमा कोरोना की जंग लड़ने के लिए जुमलों के साथ ताली और थाली बजाने व दीया जलाने को रोग भगाने का टोटका सम?ाते हों, हौस्पिटल में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय भव्य मंदिर और ऊंचीऊंची मूर्तियों के बनाने को विकास समझते हों, ऐसे शासकों से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है?

खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

जानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

1. कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

फसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

2. चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

प्रदूषण बढ़ने की वजह से सरकार ने खेतों में कचरा जलाने पर पाबंदी लगा दी है. उत्तर भारत में हालात ज्यादा खराब हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के खेतों में कचरा जलाने वाले किसानों से 15000 रुपए तक जुर्माना वसूलने व खेती का कचरा निबटाने के लिए मशीनें मुहैया कराने का आदेश दिया है. अब सरकार को ऐसी मशीनों पर दी जाने वाली छूट बढ़ानी चाहिए.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

3. ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

4. पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

बदहाल सरकारी अस्पताल

गांवदेहात के तमाम इलाकों से राजधानी पटना तक के सरकारी अस्पतालों में इलाज का सही इंतजाम नहीं है. जिला अस्पताल या ब्लौक अस्पताल तो इन गरीबों को बड़े अस्पतालों में रैफर कर देते हैं, जबकि इन के पास राजधानी के अस्पतालों में जाने के लिए भाड़ा तक नहीं होता. मजबूर हो कर ऐसे लोग सूद पर या जेवर गिरवी रख कर इन सरकारी अस्पतालों में इलाज कराते हैं.

औरंगाबाद जिले के कंचननगर के बाशिंदे 25 साला जयप्रकाश का पूरा शरीर लुंज हो गया था. इलाज के लिए आसपड़ोस के लोगों ने चंदा जमा कर उसे एम्स अस्पताल, दिल्ली भिजवाया. एक महीने तक जांच होने पर भी बीमारी का पता नहीं चल सका और जयप्रकाश लौट कर अपने गांव चला आया.

अमीर तबके के लोग तो देशविदेश तक में अपना इलाज करा रहे हैं, पर गरीबों के लिए सरकारी इलाज भी मजाक बन कर रह गया है. सरकारी अस्पतालों में जचगी के लिए आई औरतों को कोई न कोई बहाना बना कर प्राइवेट अस्पतालों में आपरेशन से बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर किया जाता है.

सरकारी अस्पताल के बहुत से मुलाजिमों का इन प्राइवेट अस्पतालों से कमीशन बंधा हुआ है और यह खेल पूरे बिहार में बिना डर के खुलेआम चल रहा है.

गरीबों का इलाज

अगर अमीर लोग भी सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए जाते हैं तो उन का खासा खयाल रखा जाता है. पटना पीएमसीएच जैसे अस्पताल में भी जिन लोगों की पैरवी होती है, उन पर खासा ध्यान दिया जाता है. गरीबों की न तो कोई पैरवी होती है, न ही वे ज्यादा पैसा खर्च कर पाते हैं.

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जांच के नाम पर प्राइवेट और सरकारी अस्पताल के डाक्टरों का कमीशन बंधा हुआ है. जिस जांच का कोई मतलब नहीं होता है, वह भी कमीशन के फेर में कराई जाती है.

प्रदेश का सूरतेहाल

100 कुपोषित जिलों में से 18 जिले बिहार के हैं. इन जिलों में गोपालगंज, औरंगाबाद, मुंगेर, नवादा, बांका, जमुई, शेखपुरा, पश्चिमी चंपारण, दरभंगा, सारण, रोहतास, अररिया, सहरसा, नालंदा, सिवान, मधेपुरा, भागलपुर और पूर्वी चंपारण शामिल हैं.

11 जिलों में औसत से कम लंबाई के बच्चे हैं. उन जिलों में जमुई, मुंगेर, पटना, बक्सर, दरभंगा, खगडि़या, बेगूसराय, अररिया, रोहतास, मुजफ्फरपुर और सहरसा में ठिगनेपन की समस्या है.

सेहत का मतलब शारीरिक और मानसिक रूप से सेहतमंद होना है, लेकिन दोनों लैवलों पर बिहार की हालत ज्यादा चिंताजनक है. गरीबों की जबान पर एक नाम है पटना का पीएमसीएच सरकारी अस्पताल. बिहार के किसी कोने में भी गरीबों को अगर कोई गंभीर बीमारी होती है तो लोग सलाह देते हैं कि पटना पीएमसीएच में चले जाओ. लेकिन बहुत से मरीज यहां आ कर भी बुरी तरह फंस जाते हैं.

इस अस्पताल में बिहार के कोनेकोने से मरीज आते हैं. उन्हें यह यकीन होता है कि यहां अच्छा इलाज होगा, लेकिन यहां भी घोर बदइंतजामी है.

इस अस्पताल में 1,675 बिस्तर हैं लेकिन मरीजों की तादाद दोगुनी है. इमर्जैंसी में 100 से बढ़ा कर 200 बिस्तर किए गए हैं लेकिन स्टाफ की तादाद नहीं बढ़ाई गई है. ओपीडी में तकरीबन रोजाना 1,500 से ले कर 2,500 तक मरीज आते हैं.

इस अस्पताल में 1,258 नर्सों की जगह 1,018 नर्स बहाल हैं. 27 ओटी असिस्टैंट में से महज 19 ही बहाल हैं. 28 ड्रैसर में से महज 11 ही बहाल हैं. 37 फार्मासिस्ट की जगह 31 हैं. 21 लैब टैक्निशियन की जगह 14 हैं.

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ब्लड बैंक में 6 मैडिकल अफसरों में से महज 2 ही बहाल हैं. सैंट्रल इमर्जैंसी के लिए 25 डाक्टरों का कैडर बनना था जो आज तक नहीं बना है.

मर्द डाक्टरों से जचगी

बिहार के गांवदेहात के क्षेत्रों से ले कर शहर तक के सरकारी अस्पतालों में महिला डाक्टरों की कमी है. इस राज्य में 68 फीसदी महिला डाक्टरों के पद खाली हैं. स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ के 533 फीसदी पद स्वीकृत हैं. इन में से महज 167 पद ही भरे गए हैं और 366 पद खाली हैं. संविदा पर नियुक्ति के लिए राज्य स्वास्थ्य समिति ने 88 महिला डाक्टरों की नियुक्ति की जिस में से महज 48 लोगों ने योगदान किया.

बेगूसराय, जहानाबाद, वैशाली, कैमूर, सारण वगैरह जगहों के पीएचसी में मर्द डाक्टरों द्वारा एएनएम का सहारा ले कर जचगी कराने का सिलसिला जारी है. ऐसे डाक्टरों से औरतों का शरमाना लाजिमी है, पर मजबूरी में वे उन्हीं से जचगी करा रही हैं.

बिहार प्रदेश छात्र राजद के प्रभारी राहुल यादव का कहना है कि स्वास्थ्य सूचकांक के सर्वे में बिहार सब से निचले पायदान पर है. स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ने के बजाय इस राज्य में उस की लगातार गिरावट जारी है.

भारत और राज्य सरकार का सेहत से जुड़ा खर्च दुनिया में सब से कम है. बिहार देश में सब से कम खर्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत से भी एकतिहाई कम खर्च करता है.

पिछले 12 सालों से सत्ता पर काबिज नीतीश सरकार का ध्यान शायद इस ओर नहीं है. ऐसा लगता है कि हमारा देश और राज्य दुनिया में ताल ठोंक कर परचम लहरा रहा है, लेकिन सचाई कुछ और ही है.

बिहार की सरकार स्वास्थ्य पर खर्च 450 रुपए प्रति व्यक्ति सालाना करती है, जबकि एक बार की डाक्टर की फीस 500 रुपए है. बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है.

सरकार की उदासीनता की वजह से स्वास्थ्य सुविधाएं इस राज्य के गरीबों की जेब पर भारी पड़ती जा रही हैं और इलाज के लिए लोग घरखेत तक बेचने के लिए मजबूर हैं.

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डाक्टर जब मरीज के परिवार वालों को बोलता है कि 4 लाख रुपए जमा करो या फिर मरीज को मरने के लिए अपने घर ले जाओ, उस समय उन पर क्या गुजरती है, यह सोच कर कलेजा मुंह को आ जाता है. कभीकभार ऐसा भी होता है कि जमीनजायदाद बेचने के बाद भी मरीज की मौत हो जाती है. उस के बाद उस का परिवार सड़क पर आ जाता है.

सच तो यह है कि तरक्की का जितना भी ढोल पीट लिया जाए लेकिन सेहत के मामले में बिहार पूरी तरह फिसड्डी साबित हो चुका है.

संविधान पर खतरा 

आम लोगों को एक सरकार से बहुत उम्मीदें होती हैं चाहे हर 5 साल बाद पता चले कि सरकार उम्मीदों पर पूरी नहीं उतरी. सरकार चलाने वालों के वादे असल में पंडेपुजारियों की तरह होते हैं कि हमें दान दो, सुख मिलेगा. हमें वोट दो, पैसा बरसेगा. अब के तो जैसे हम लोगों ने पंडेपुजारियों को ही संसद में चुन कर भेजा है. यह तब पक्का हो गया जब संसद सदस्यों ने लोकसभा में शपथ ली.

भाजपा सांसद कभी गुरुओं का नाम लेते, कभी ‘भारत माता की जय’ का नारा बोलते, तो कभी ‘वंदे मातरम’ और ‘जय श्रीराम’ एकसुर में चिल्लाते रहे. यह सीन एक धीरगंभीर लोकसभा का नहीं, एक प्रवचन सुनने के लिए जमा हुई भीड़ का सा लगने लगा था. भाजपा की यह जीत धर्म के दुकानदारों, धर्म की देन जातिवाद के रखवालों, हिंदू राष्ट्र की सपनीली जिंदगी की उम्मीदें लगाए थोड़े से लोगों की अगुआई वाली पार्टी के अंधे समर्थकों को चाहे अच्छी लगे, पर यह देश में एक गहरी खाई खोद रही हो, तो पता नहीं.

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जिन्हें हिंदू धर्मग्रंथों का पता है वे तो जानते हैं कि हम किस कंकड़ भरे रास्ते पर चल रहे हैं जहां झंडा उठाने वाले और जयजयकार करने वाले तो हैं, पर काम करने वाले कम हैं. ज्यादातर धर्मग्रंथ, हर धर्म के, चमत्कारों की झूठी कहानियों से भरे हैं. ये कहानियां सुनने में अच्छी लगती हैं पर जब इन को जीवन पर थोपा जाता है तो सिर्फ भेदभाव, डर, हिंसा, लूट, बलात्कार मिलता है.

सदियों से दुनियाभर में अगर लोगों को सताया गया है तो धर्म के नाम पर बहुत ज्यादा यह राजा की अपनी तानाशाही की वजह से बहुत कम था. पिछले 65 सालों में कांग्रेस का राज भी धर्म का राज था पर ऐसा जिस में हर धर्म को छूट थी कि अपने लोगों को मूर्ख बना कर लूटो. अब यह छूट एक धर्म केवल अपने लिए रखना चाह रहा है और संसद के पहले 2 दिनों में ही यह बात साफ हो रही थी.

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दुनिया के सारे संविधानों की तरह हमारा संविधान भी धर्म का हक देता है पर सभी जगह संविधान बनाने वाले भूल गए हैं कि धर्म का दुश्मन नंबर एक जनता का ही बनाया गया संविधान है. यह तो पिछले 300 सालों की पढ़ाई व नई सोच का कमाल है कि दुनिया के लगभग हर देश में एक जनप्रतिनिधि सभा द्वारा बनाया गया संविधान धर्म के भगवान के दिए कहलाए जाने वाले सामाजिक कानून के ऊपर छा गया है. अब भारत में कम से कम यह कोशिश की जा रही है कि हजारों साल पुराना धर्म का आदेश नए संविधान के ऊपर मढ़ दिया जाए.

सांसदों का शपथ लेने का पहला काम तो यही दर्शाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी अपने वादों को याद रखेगी जो विकास और विश्वास के हैं न कि उन नारों के जो संसद में सुनाई दिए गए.

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