Social Issue : आबादी की भरमार बेरोजगारी अपार

Social Issue : बढ़ती आबादी भारत के लिहाज से तो और भी बेहद गंभीर मामला है. इस देश की लगातार बढ़ती आबादी देख कर तो यही लगता है कि अगर मैडल मिलने की प्रथा होती तो भारत की झोली में एक गोल्ड मैडल जरूर होता. सब से ज्यादा आबादी वाला देश बनने का गौरव हमारे भारत का सरताज ही होता.

भारत दुनिया में सब से ज्यादा आबादी वाला देश तो बन गया है, लेकिन यहां संसाधनों की बेहद कमी होती जा रही है. आज जिस भी जगह जाओ एक लंबी कतार लगी मिलती है. लगता है, मानो जहां हम जा रहे हैं, वहीं सब से ज्यादा भीड़ उमड़ जाती है, चाहे बात करें एयरपोर्ट की, रेलवे स्टेशन की, अस्पताल की, यहां तक कि घरों के आसपास लगने वाले बाजारों में भी ऐसा लगता है कि सारी जनता वहीं आ जाती है. जहां हम हैं. फोन काल से ले कर रोजगार के मौके तक हर जगह यही सुनने को मिलता है कि ‘कृपया प्रतीक्षा करें’, ‘असुविधा के लिए खेद है’, ‘आप लाइन में हैं’.

आज दुनिया की आबादी 8 अरब है, जबकि साल 1950 में दुनिया की आबादी 2.5 अरब थी. महज चंद दशकों में यह आंकड़ा कहां से कहां पहुंच गया है. अंदाजा है कि साल 2050 तक दुनियाभर की आबादी 10 अरब तक पहुंच जाएगी, जो दुनियाभर में शांति के लैवल को गंभीर चुनौती दे सकती है. वहीं अगर सिर्फ हमारे भारत में देखें, तो 142 करोड़ की आबादी है, जो हमें गंभीर श्रेणी में ले जाता है.

अगर दुनिया में क्षेत्रफल के नजरिए से भारत को देखें, तो यह 7वें पायदान पर है और दुनियाभर का सिर्फ
2.5 फीसदी क्षेत्रफल ही भारत के पास है, लेकिन यह आबादी के नजरिए से सब से पहले नंबर पर है.

एक अंदाजे के मुताबिक, भारत में एक वर्ग किलोमीटर में 438 लोग रहते हैं और बात करें अमेरिका की, तो वहां एक वर्ग किलोमीटर में कुल 37 लोग रहते हैं.

यहां हम तुलना कर सकते हैं कि बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी आने वाले दिनों में और भी ज्यादा होने वाली है, वहीं बढ़ती आबादी को बुनियादी सुविधाएं जैसे घर, पीने का साफ पानी, दवाएं आदि मुहैया करा पाना सरकार के लिए भी चिंता की बात है.

लेकिन अगर हम सीख लें, तो बहुतकुछ बदल सकता है. भारत की तुलना दूसरे विकसित देशों से करें, तो दक्षिण कोरिया में 527, जापान में 347, सिंगापुर में 8,358, जरमनी में 233 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो बहुत ज्यादा है, लेकिन इन देशों की कामयाबी के पीछे कई वजहें हैं, जैसे कि अच्छी विकास दर, अच्छा शासन, स्थिर व्यवस्था, उच्च शिक्षा व तकनीक कौशल आदि.

भारत में नौजवानों की भरमार है. ऐसे में रोजगार की नजर से देखें, तो इतनी बड़ी आबादी को कामकाजी बनाना सब से बड़ी चुनौती है. नौजवान पीढ़ी का होना हर देश की तरक्की का मूलभूत तरीका है. जिस देश में नौजवान ज्यादा होंगे, उस देश की तरक्की होना मुमकिन है, लेकिन तब जब नौजवान अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक होंगे.

लेकिन अगर यही नौजवान अपने दिन का ज्यादा से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर बिताएंगे, तो कहां से कोई देश तरक्की कर सकेगा, बल्कि यही नौजवान देश की गरीबी की वजह बनेंगे, क्योंकि युवा पीढ़ी हर देश का भविष्य तय करती है.

रोजगार व आबादी के बीच तालमेल बिठाने के लिए कुछ बदलावों की जरूरत है. जरूरी है कि देश को पूंजी प्रधान न बना कर श्रम प्रधान बनाया जाए.

हमारे देश की बड़ी आबादी खेतीबारी पर निर्भर है, तो इस के लिए ज्यादा से ज्यादा काम किया जाए. रोजगार के मामले में सरकारी योजनाओं का हर नौजवान फायदा उठा सके, इस के लिए उसे आसान और कुशलता से कार्यक्रमों की मदद से जागरूक किया जाए.

विकसित देशों का इतिहास खंगालें, तो देश की आबादी या परिवार की तादाद अगर छोटी और पढ़ीलिखी हो, तो वह देश और परिवार ज्यादा तरक्की करता है और वहीं अगर बढ़ती आबादी किसी समुदाय की हो और वह संविधान के कायदेकानून के तहत व्यवस्थित नहीं है, तो उस देश में संसाधनों की लूट, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याएं पैदा होने लगती हैं.

भारत के अच्छे भविष्य के लिए समय की मांग है कि आबादी के बढ़ने से बचने के लिए कड़े कानून बनाए जाएं और जिन का जनता हर हाल में पालन करे और देश की तरक्की में योगदान दे.

Social Issue : छोटी सी बात और खुदकुशी

Social Issue : हाल ही में दिल्ली के पश्चिम विहार पूर्वी थाना क्षेत्र में सुबहसुबह एक नौजवान ने होटल के कमरे में फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली. उस नौजवान की पहचान निहाल विहार के रहने वाले 24 साल के अभिनव सागर के तौर पर की गई थी.

पुलिस को घटना की जानकारी 13 फरवरी की सुबह तकरीबन सवा 7 बजे मिली थी. मौके पर पहुंची पुलिस टीम ने पाया कि वह नौजवान अभिनव सागर फंदे पर लटका था. उसे फंदे से उतार कर पास के अस्पताल ले जाया गया, जहां डाक्टरों ने उसे मरा हुआ बता दिया.

जांच में पता चला कि जिस कमरे में उस नौजवान ने खुदकुशी की थी, उसी कमरे में उस की महिला मित्र भी साथ थी. एक पुलिस अफसर के मुताबिक, होटल का कमरा अभिनव ने ही बुक करवाया था. गुरुवार को देर शाम वे दोनों होटल में आए थे.

लड़की ने पुलिस को बताया कि पिछले कुछ दिनों से उन के बीच किसी बात को ले कर झगड़ा चल रहा था. बीती रात को भी कमरे में उन के बीच पुरानी बात को ले कर झगड़ा हुआ था. झगड़े के बाद वे दोनों सो गए थे.

सुबह जब वह लड़की उठी, तो उस ने देखा कि अभिनव बिस्तर पर नहीं था. उस ने शौचालय में जा कर उसे देखा, तो अंदर अभिनव फांसी के फंदे पर लटका हुआ था.

पुलिस अफसर ने बताया कि जांच में पता चला कि महिला मित्र के साथ पिछले एक साल से उस की दोस्ती थी. हालांकि, पुलिस को मौके से कोई सुसाइड नोट नहीं मिला.

पुलिस ने अपराध शाखा और फोरैंसिक टीम को घटना वाली जगह पर बुलाया, जिस ने कमरे से सुबूत इकट्ठा किए. पुलिस ने होटल मुलाजिमों से पूछताछ करने के साथसाथ सीसीटीवी फुटेज की भी जांच की.

इस तरह के हालात से बचाव के अनेक रास्ते हैं. डाक्टर जीआर पंजवानी के मुताबिक, ‘‘जब हम किसी बात पर हद से ज्यादा दुखी हो जाते हैं, तो हमारी जिंदगी में मानो अंधकार सा छाने लगता है. ऐसा लगता है कि आगे सब बेकार है और इनसान खुदकुशी करने को उतारू हो जाता है.

‘‘दरअसल, ऐसे हालात से बचने का सब से आसान रास्ता यह है कि हम यह सोचें कि आज जो जिंदगी में मुश्किलें हैं, वे बदल जाएंगी, मैं इसे बदल सकता हूं, मैं सम झा सकता हूं, मैं कर सकता हूं. इस दृढ़संकल्प के साथ कोई भी खुदकुशी के घेरे से बाहर निकल सकता है.’’

आज इस तरह हमारा समाज एक ऐसी समस्या से जू झ रहा है, जो हमारे नौजवानों को अपनी जद में ले रही है. खुदकुशी की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर हमें तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.

खुदकुशी के पीछे की वजह को सम झना मुश्किल है, लेकिन यह साफ है कि यह एक जटिल समस्या है, जिस में कई कारक शामिल हैं. मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, सामाजिक दबाव, आर्थिक समस्याएं और निजी संबंधों में समस्याएं सभी खुदकुशी के जोखिम को बढ़ा सकती हैं.

लेकिन, यह भी खास है कि हम खुदकुशी को एक निजी समस्या के रूप में न देखें. यह एक सामाजिक समस्या है. हमें अपने समाज में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है और लोगों को खुदकुशी के विचारों से निबटने के लिए संबल प्रदान करने की जरूरत है.

हमें यह भी सम झने की जरूरत है कि खुदकुशी को रोकने के लिए समय पर दखलअंदाजी करना खास है. अगर आप या आप के किसी परिचित को खुदकुशी के विचार आ रहे हैं, तो तुरंत मदद लेना जरूरी है. हमें अपने आसपास के लोगों के प्रति ज्यादा हमदर्दी से भरा होने की जरूरत है.

खुदकुशी की समस्या का समाधान करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता संगठन को एकसाथ मिल कर काम करने की जरूरत है. हमें अपने समाज में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने, लोगों को समर्थन प्रदान करने और समय पर दखलअंदाजी देने की जरूरत है.

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए अपने समाज में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करने की जरूरत है. हमें लोगों को यह सम झाने की जरूरत है कि मानसिक स्वास्थ्य उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि शारीरिक स्वास्थ्य.

लोगों को यह भी सम झाने की जरूरत है कि मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं किसी को भी हो सकती हैं और यह किसी भी इनसान की कमजोरी नहीं है.

खुदकुशी के लिए उतारू शख्स को यह सम झाने की जरूरत है कि वह अकेला नहीं है और हम उन के साथ हैं. हमें लोगों को समर्थन प्रदान करने के लिए अपने समय और संसाधनों को समर्पित करने की जरूरत है.

समय पर दखलअंदाजी करने के लिए हमें अपने आसपास के लोगों के बरताव में बदलाव को पहचानने की जरूरत है.

हमें लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि खुदकुशी के विचार आना एक गंभीर समस्या है और इस के लिए तुरंत मदद लेने की जरूरत है. हमें लोगों को समर्थन प्रदान करने के लिए अपने समय और संसाधनों को समर्पित करने की जरूरत है.

Fraud : झांसे‌ के‌ फांसे से बचना

Fraud : मध्य प्रदेश के कटनी थाना क्षेत्र में राजा रसगुल्ला की गली में सुबहसवेरे 60 साल की एक बूढ़ी औरत चंद्रकला जैन से जेवर ठग लिए. बाबा के वेश में पहुंचे ठगों ने उन्हें अपने जाल में फंसाया और फिर उन के घर की परेशानियों का समाधान करने के नाम पर जेवर उतरवा कर चंपत हो गए.

ठगी का शिकार हुईं चंद्रकला जैन द्वारा थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई. पुलिस आसपास लगे सीसीटीवी कैमरे खंगाल कर आरोपियों की तलाश में जुट गई.

कोतवाली पानी की टंकी के पास रहने वाली चंद्रकला जैन ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि वे सुबह पैदल राजा रसगुल्ला की गली से हनुमान ताल की तरफ जा रही थीं. वे बखरी वाले रोड पर पहुंची थीं कि तभी पीछे से एक आदमी ने उन्हें आवाज दी. आवाज देने वाला बाबा के वेश में था. उस ने आदमी ने उन से चश्मे की दुकान पूछी फिर बातचीत करते हुए कहा कि वह हरिद्वार से आया है. उस ने उन्हें दान देने के लिए कहा और फिर बातों में उलझा कर घर में कई परेशानियां होने और उन का समाधान करने का भरोसा दिलाते हुए सोने की चेन व कान टौप्स उतरवा कर पर्स में रखवाए. उस के बाद ठग ने पर्स अपने साथी को दिलवाया और चंद्रकला जैन से कहा कि वे 10 कदम आगे जाएं और लौट कर अपना पर्स उठाएं व घर जा कर पर्स पर दूध चढ़ाएं तो उन की सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.

उस आदमी की बातों में आ कर चंद्रकला जैन 10 कदम आगे चलीं और पीछे मुड़ कर देखा तो दोनों ठग गायब थे.

सब से खास बात यह है कि हिंदू समाज में अगर कोई गेरुआ कपड़े पहन लेता है, दाढ़ी बड़ा लेता है, तो लोग उस की बात को पत्थर की लकीर समझने लगते हैं. इस तरह गलती हमारी खुद की है. हमें यह समझना चाहिए कि क्या सच है और क्या गलत. क्या फरेब है और क्या हकीकत. जब तक हम में यह समझ नहीं होगी, तब तक पुलिस और सरकार भी कुछ नहीं कर सकती. लिहाजा, हम ठगी के शिकार होते रहेंगे.

ऐसे करें बचाव

-लोगों खासकर बूढ़ी औरतों को अनजान लोगों से सावधान रहने की जरूरत है.

-बूढ़ों को अपने आसपास के माहौल को जानने की कोशिश करनी चाहिए. उन्हें जागरूक होना चाहिए कि आज का समय ठगी और फरेब का है और किसी की बातों में नहीं आना चाहिए.

-बूढ़ी औरतों को अपने परिवार और जानपहचान वालो को अपनी गतिविधियों के बारे में सूचना देते रहना चाहिए.

-बूढ़ी औरतों को अपने जेवर और पैसे सुरक्षित रखने चाहिए.

-बूढ़ों को सामाजिक समर्थन प्रदान करने के लिए सामुदायिक कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए.

-ठगी के बारे में जागरूकता अभियान चलाएं, ताकि लोगों को इस के बारे में जानकारी मिल सके.

-पुलिस और प्रशासन के साथ सहयोग कर के ठगी की घटनाओं को रोकने के लिए कदम उठाएं.

-बूढ़ी औरतों के लिए सुरक्षा सेवाएं प्रदान करने के लिए सामुदायिक संगठनों को सामने आना चाहिए.

-ठगी की घटनाओं की जांच करने के लिए पुलिस को सूझबूझ के साथ कार्यवाही करनी चाहिए.

-ठगों को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को सख्त निर्देश देना चाहिए.

ठगी होने की खास वजह लालच है. जैसे ही कोई रुपए या सोनाचांदी दोगुना करने का भरोसा देता है, लोग उस के पीछे घूमने लगते हैं. लोगों को यह समझना चाहिए कि अगर उस के पास कुछ चमत्कार है, तो वह खुद गरीब क्यों है.

Social Problem : हर जगह पसरा नशा

Society Problem : बात चाहे शराब की हो या फिर स्मैक और गांजे की, सब से बड़ी चिंताजनक बात यह है कि बड़े तो दूर बच्चे भी अब नशे की लत में जकड़ते जा रहे हैं. इन में स्कूली बच्चे भी शामिल हैं. किशोर उम्र के बच्चे गलत संगत के चलते बिगड़ रहे हैं और नशा कर रहे हैं.

नशे की लत लगने से जहां एक ओर नौजवान व बच्चों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर उन का भविष्य भी अंधकारमय हो रहा है.

स्मैक और गांजे का सेवन आम हो गया है. इन से शरीर का नाश ही नहीं होता है, बल्कि इन की लत को पूरा करने के लिए बहुत से बच्चे जुर्म के दलदल में फंस रहे हैं.

पुलिस के अब तक के ऐक्शन में यह सचाई सामने आई है कि गांजा और स्मैक पीने वालों की बढ़ती तादाद के चलते इस का गैरकानूनी कारोबार तेजी से पनपा है. यह नशा केबिन, ठेले और दुकानों पर आसानी से मिल रहा है. इन के खरीदार बड़े ही नहीं, बल्कि बच्चे भी खूब हैं.

हाल ही में भीलवाड़ा पुलिस के हाथ लगे बच्चे भी गांजा और स्मैक के आदी नजर आए. इज्जत को धक्का न लगे, इसलिए परिवार ने भी पुलिस अफसरों से गुजारिश कर के उन की कार्यवाही से पल्ला झाड़ लिया.

निशाने पर कोटा और सीकर के छात्र भी

देशभर से कोटा और सीकर शहर में तालीम के लिए आए छात्र ड्रग्स माफिया का सौफ्ट टारगेट बन रहे हैं. ड्रग कैरियर पहलेपहल बच्चों के रोजमर्रा के कामों में मदद कर के उन का भरोसा जीतते हैं, फिर पढ़ाई में एकाग्रता बढ़ाने की ‘गोली’ देने के बहाने उन्हें ड्रग्स से जोड़ देते हैं. पहले कुछ दिन में एक पुडि़या या गोली से बात शुरू होती है, फिर धीरेधीरे लत लग जाती है.

ड्रग्स सप्लाई करने वालों ने कोचिंग और होस्टल वाले इलाकों के आसपास अपने ठिकाने बना रखे हैं, जहां से एक फोन करने पर ड्रग्स सप्लाई की जाती है. कोटा व सीकर में अलगअलग इलाकों में एमडी, गांजा, स्मैक और चरस के अलगअलग कोडवर्ड भी चलन में हैं.

‘पुडि़या’, ‘माल’, ‘बंशी’, ‘पीपी’, ‘टिकट’, ‘बच्चा’, ‘ट्यूब’, ‘पन्नी’, ‘डब्बा’ जैसे कोडवर्ड में नशे का कारोबार होता है. यहां 200 से 2,000 रुपए की कीमत पर गलीगली में नशा बिक रहा है. शहर में रोजाना 40 से
50 लाख रुपए का नशा बिकता है.

ड्रग्स के सौदागर छात्रों को होम डिलीवरी भी कर रहे हैं. बुकिंग सोशल मीडिया पर होती है और बिना नंबर की बाइक से ड्रग्स सप्लाई की जाती है.

प्राइवेट पार्ट में नशे का इंजैक्शन

नशे ने गांव से शहर तक नौजवानों को इस कदर अपने आगोश में ले लिया है कि नौजवान नशे के इंजैक्शन लगा कर अपनी जिंदगी को बरबाद कर रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि जब हाथपैर की नसें इंजैक्शन लगाने के काबिल नहीं रहती हैं, तो वे अपने प्राइवेट पार्ट पर भी इंजैक्शन लगाने लगते हैं और कुछ महीनों या कुछ साल नशा करने के बाद बहुत से तो दम तोड़ देते हैं.

बीते कुछ ही महीनों में राजस्थान के अलगअलग इलाकों से 2 दर्जन से ज्यादा नौजवानों की मौत की ऐसी ही खबरें सामने आई हैं. ये नौजवान सुनसान जगहों पर जा कर नशे का इंजैक्शन लगाते हैं और फिर ओवरडोज से वहीं दम तोड़ देते हैं.

8 जनवरी, 2025 को जयपुर के चाकसू कसबे के एक सूखे तालाब में एक नौजवान की लाश मिली थी, जिस के नशे की ओवरडोज से मौत होने की बात सामने आई है.

पिछले कुछ महीनों में देहात इलाकों में नशे का चलन खतरनाक ढंग से बढ़ा है. नौजवान समूह में झाडियों व सुनसान जगह जा कर नशा कर रहे हैं.

जो नौजवान नशे के आदी हो चुके हैं, उन में ज्यादातर की उम्र 30 साल से कम है. ये नौजवान नशे को स्टेटस सिंबल बना रहे हैं और फिर इस मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं. जिसे एक बार नशे की लत लग जाती है, वह फिर नशा करने के लिए आपराधिक वारदातों को अंजाम देता है.

ये नशेड़ी कृषि यंत्रों, कबाड़ की दुकानों, धार्मिक स्थलों को भी निशाना बनाते हैं. नशे की ललक पूरी करने के लिए वे अपने घर का सामान तक भी चोरी कर के बेच देते हैं.

स्मैक के बढ़ते मामलों पर ऐक्सपर्ट लोगों का मानना है कि यह ऐसा नशा है, जिस से मुंह से बदबू नहीं आती. ऐसे में परिवार के दूसरे सदस्य को इस का पता नहीं चल पाता. जब नशे की लत पड़ जाती है, तो वे घर में छोटीबड़ी चोरियां करने लगते हैं.

जब तक उन की हरकतों का पता परिवार वालों को चलता है, तब तक वे नशे के पूरी तरह आदी हो चुके होते हैं और अब तो नौजवानों के साथ ही औरतें और लड़कियां भी नशा कर रही हैं. यह बड़ी चिंता की बात है.

बच्चों में नशे के लक्षण

डाक्टरों के मुताबिक, जिन बच्चों को गांजे और दूसरे नशे की लत पड़ जाती है, उन के बरताव में बदलाव होता है. वे अनिद्रा के शिकार होने लगते हैं, आंखों के नीचे काले धब्बे पड़ जाते हैं, वे पढ़ाई में दिलचस्पी लेना बंद कर देते हैं. इस के साथ घर से चोरी और झूठ का सहारा तक लेते हैं.

इस के समाधान के लिए आने वाली नौजवान पीढ़ी को नशामुक्ति अभियान से जोड़ना जरूरी है. स्कूलों में बच्चों के साथ काउंसिलिंग कर के उन को नशे के गलत नतीजों के बारे में समयसमय पर बताना जरूरी है.

इस के तहत बच्चों को नशे का प्रकार, शारीरिक नुकसान, गलत संगति और बुरे असर के बारे में अच्छी तरह से बताना जरूरी है. इस के अलावा परिवार वालों के साथ टीचर भी बच्चों पर नजर रखें.

दिक्कत यह है कि लोग इस समस्या को छोटा समझ कर अनदेखा कर देते हैं. पुलिस प्रशासन भी ढीला पड़ जाता है. यही वजह है कि नशे का दानव दिनोंदिन अपने पैर पसार रहा है.

ब्राह्मण बनते Upper Cast OBC

Upper Cast OBC : रविवार, 8 दिसंबर, 2024 को विश्व हिंदू परिषद के विधि प्रकोष्ठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के लाइब्रेरी हाल में ‘विधि कार्यशाला’ नामक कार्यक्रम कराया था. इस कार्यक्रम में जस्टिस शेखर कुमार यादव के अलावा इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक और मौजूदा जस्टिस दिनेश पाठक भी शामिल हुए थे.

इस कार्यक्रम में ‘वक्फ बोर्ड अधिनियम’, ‘धर्मांतरण कारण एवं निवारण’ और ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ जैसे विषयों पर अलगअलग लोगों ने अपनी बात रखी थी.

इस दौरान जस्टिस शेखर कुमार यादव ने ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ विषय पर बोलते हुए कहा था कि देश एक है, संविधान एक है, तो कानून एक क्यों नहीं है?

तकरीबन 34 मिनट के इस भाषण के दौरान जस्टिस शेखर कुमार यादव ने कहा कि ‘हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा. यही कानून है. आप यह भी नहीं कह सकते कि हाईकोर्ट के जज हो कर ऐसा बोल रहे हैं. कानून तो भैया बहुसंख्यक से ही चलता है’.

अपने इसी भाषण में जस्टिस शेखर यादव यह भी कह गए कि ‘कठमुल्ले’ देश के लिए घातक हैं. वे यह सम?ाते हैं कि ‘कठमुल्ला’ शब्द गलत है. इस के बाद भी कहते हैं, ‘जो कठमुल्ला है, शब्द गलत है, लेकिन कहने में गुरेज नहीं है, क्योंकि वे देश के लिए घातक हैं. जनता को बहकाने वाले लोग हैं. देश आगे न बढ़े, इस प्रकार के लोग हैं. उन से सावधान रहने की जरूरत है’.

‘कठमुल्ला’ का शाब्दिक अर्थ ‘कट्टरपंथी मौलवी’, ‘मत या सिद्धांत’ के प्रति अत्यंत आग्रहशील या दुराग्रही व्यक्ति होता है. इस का मतलब कट्टर मौलवी होता है, जो काठ के मनकों की माला फेरता हो. अब यही ‘कठमुल्ला’ शब्द विवाद का विषय बन गया है.

जस्टिस शेखर कुमार यादव की दूसरी उस बात पर विवाद है, जिस में यह कहा कि ‘कानून तो बहुसंख्यक से ही चलता है’. इस देश में कठमुल्ला, बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक जैसे शब्द राजनीतिक दलों को बहुत लुभाते हैं’.

जस्टिस शेखर कुमार यादव जैसे ओबीसी समाज के तमाम ऐसे लोग हैं, जिन को लगता है कि देश से वर्ण व्यवस्था खत्म हो गई है. ऐसे ही लोगों में एक बड़ा नाम है बाबा रामदेव का, जिन्होंने धर्म का इस्तेमाल अपनेआप को स्थापित करने में किया.

साल 2012-13 में बाबा रामदेव अन्ना हजारे के आंदोलन का हिस्सा बने थे. उस समय केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार थी. साल 2014 में जैसे ही सरकार बदली, वैसे ही बाबा रामदेव धर्म के प्रचारक हो गए. योग के साथसाथ उन्होंने अपने जो सामान बेचने शुरू किए, उन का आधार धर्म को बनाया.

दक्षिणपंथ से अलग थी समाजवादी विचारधारा

धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर बाबा रामदेव का कारोबार भले ही बढ़ गया हो, पर इस से वर्ण व्यवस्था पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसे ओबीसी नेताओं की लिस्ट लंबी है, जो ओबीसी के नाम पर आगे तो बढ़ गए, लेकिन वे खुद को ब्राह्मण जैसा समझने लगे.

ओबीसी के जो नेता आगे बढ़े, वे धर्म की आलोचना कर के ही आगे बढ़े थे. उन की विचारधारा दक्षिणपंथी पंडावाद की नहीं थी.

वे सब समाजवादी विचारधारा के थे, जिस में औरतों और रूढि़वादी विचारों को काफी जगह दी गई थी. समाजवादी राजनीति उस पक्ष या विचारधारा को कहते हैं, जो वर्ण व्यवस्था वाले समाज को बदल कर उस में और ज्यादा माली और जातीय समानता लाना चाहते हैं. इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए हमदर्दी जताई जाती है, जो किसी भी वजह से दूसरे लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या कमजोर रह गए हों.

समाजवादी विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की बात करती है. यह वर्ण व्यवस्था के ठीक उलट विचारों को ले कर चलती है. यही वजह है कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की विधानसभा में कहा कि ‘हम शूद्र हैं’. समाजवादी पार्टी के दफ्तर पर इस का प्रचार करता होर्डिंग भी लगाया गया था.

उत्तर प्रदेश में ‘रामचरितमानस’ पर विवादित बयान देने वाले नेता स्वामी प्रसाद मौर्य उस समय समाजवादी पार्टी में थे. इस को ले कर सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर सवाल उठ रहे थे. अखिलेश यादव को हिंदू संगठनों ने काले झंडे दिखाए और उन के खिलाफ नारेबाजी की.

इसे ले कर अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार पर हमला बोला. उन्होंने कहा कि ‘मैं मुख्यमंत्रीजी से सदन में पूछूंगा कि मैं शूद्र हूं कि नहीं हूं? भाजपा और आरएसएस के लोग दलितों और पिछड़ों को शूद्र समझते हैं’. यह वर्ण व्यवस्था की देन थी.

क्या है वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था का सब से पहले जिक्र ऋग्वेद के 10वें मंडल में पाया जाता है. यही बाद में जातीय व्यवस्था बन गई. जातीय व्यवस्था में 4 जातियां प्रमुख रूप से रखी गईं. ये वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं. शूद्र का मतलब दलित वर्ग से नहीं था. वर्ण व्यवस्था में उन को तो चर्चा के लायक भी नहीं समझ जाता था.

वर्ण व्यवस्था 1500 ईसा पूर्व आर्यों के आने के साथ ही भारत में आ गई थी. वे मध्य एशिया से भारत आए थे. वे गोरे रंग वाले लोग थे. अपनी नस्लीय श्रेष्ठता को बनाए रखने की कोशिश में उन्होंने देश के मूल निवासियों यानी काली चमड़ी वाले लोगों से खुद को अलग रखा था.

आर्यों के आने के बाद समाज में 2 वर्ग हो गए. मूल वर्ग काले रंग का था, जिस को दास कहा गया. ऋग्वैदिक काल में ही समाज का बंटवारा हो गया था. आर्यों के एक समूह ने बौद्धिक नेतृत्व के लिए खुद को दूसरों से अलग रखा.

इस समूह को ‘पुजारी’ कहा जाता था. दूसरे समूह ने समाज की रक्षा के लिए दावा किया, जिसे ‘राजन्या’ यानी राजा से पैदा कहा जाता था. यही आगे चल कर क्षत्रिय वर्ग बन गया. तीसरे वर्ग ने कारोबार करना शुरू किया, यही वैश्य कहलाया.

उत्तर वैदिक काल में शूद्र नामक एक नए वर्ण का उदय हुआ. इस की जानकारी ‘ऋग्वेद’ के 10वें मंडल में मिलती है. ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को द्विज का दर्जा दिया गया था, जबकि शूद्रों को द्विज के दायरे से बाहर रखा गया था और उन्हें ऊपरी 3 वर्णों की सेवा के लिए बनाया गया था.

वर्ण व्यवस्था के तहत लोगों को उन के सामाजिक और माली हालात के आधार पर दर्जा दिया जाता था. वर्ण व्यवस्था के तहत समाज को 4 अलगअलग वर्णों में बांटा गया था. इस के आधार पर जातीय भेदभाव भी खूब होता है.

वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों का स्थान सब से ऊपर था. एक ब्राह्मण औरत एक ब्राह्मण मर्द से ही शादी कर सकती थी. इस के बाद दूसरे नंबर पर क्षत्रिय वर्ग आता था. इन का मुख्य काम युद्धभूमि में लड़ना था. एक क्षत्रिय को सभी वर्णों की औरत से विवाह करने की इजाजत थी. हालांकि, एक ब्राह्मण या क्षत्रिय महिला को प्राथमिकता दी जाती थी.

इस व्यवस्था में तीसरा नंबर वैश्य का था. इस वर्ण की औरतें पशुपालन, कृषि और व्यवसाय में अपने पति का साथ देती थीं. वैश्य औरतों को किसी भी वर्ण के मर्द से शादी करने की आजादी दी गई थी. शूद्र मर्द से शादी करने की कोशिश नहीं की जाती थी.

शूद्र वर्ण व्यवस्था में सब से निचले स्थान पर थे. इन को किसी भी तरह के अनुष्ठान करने से रोक दिया गया था. कुछ शूद्रों को किसानों और व्यापारियों के रूप में काम करने की इजाजत थी. शूद्र औरतें किसी भी वर्ण के मर्द से विवाह कर सकती थीं, जबकि एक शूद्र मर्द केवल शूद्र वर्ण की औरत से ही विवाह कर सकता था.

बौद्ध और जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था में जातीय भेदभाव को खत्म करने की कोशिश की गई, लेकिन यह खत्म नहीं हो सका. आजादी के बाद भी इस का असर कायम है.

संविधान से मिली आरक्षण की ताकत से शूद्र वर्ग के लोग राजनीतिक और सामाजिक रूप से आगे बढ़ गए. पैसा आने से यह खुद को ब्राह्मणों जैसा समझने लगे हैं.

असल में, ये अपने वर्ग में श्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था में इन की जगह जहां पहले थी, आज भी वहीं है. इस की सब से बड़ी मिसाल समाचारपत्रों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में देखी जा सकती है.

वैवाहिक विज्ञापनों में वर्ण व्यवस्था

‘ब्राह्मण, 29 वर्षीय पोस्ट ग्रेजुएट बिजनैसमैन युवक के लिए सर्वगुण, सुंदर, स्लिम, संस्कारी, गृहकार्य में दक्ष, विश्वसनीय, ईमानदार व शाकाहारी वधू चाहिए. नौकरी केवल सरकारी टीचर और केवल ब्राह्मण परिवार ही स्वीकार्य. कुंडली मिलान और 36 गुणयोग, बायोडाटा फोटो सहित संपर्क करें.’

ऐसे वैवाहिक विज्ञापनों में पूरी जातीय और वर्ण व्यवस्था दिखती है. हर जाति के लिए अलग कौलम बने हैं, जहां अंतर्जातीय विवाह की बात होती है. उस का मतलब है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आपस में विवाह कर सकते हैं. शूद्र के साथ ये लोग अंतर्जातीय विवाह नहीं करते हैं. ये विज्ञापन आज भी उतने ही रूढि़वादी और जातिवादी हैं, जितने पहले थे.

हाल के 10-15 सालों में विज्ञापन और ज्यादा पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त हो गए हैं. इन विज्ञापनों में यह भी दिखता है कि कैसे हमारे समाज में विवाह की मूल सोच को नकारते हुए इसे वैवाहिक सौदा बनाया गया है, जिस में जाति, धर्म, गोत्र का ध्यान रखना सब से पहले जरूरी है.

कुछ विज्ञापनों में बिना दहेज और कोई जाति बाधा न होने जैसी बातें भले ही लिखी जा रही हैं, लेकिन विज्ञापन देने वाले अपनी जाति का जिक्र करना नहीं भूलते हैं.

असलियत में अपनी जाति से हट कर शादी करना कितना मुश्किल होता है, इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में अपनी पसंद से शादी करने वाले जोड़े को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है.

शादी के नाम पर पहले भी मातापिता की रजामंदी के आधार पर जातीय व धार्मिक व्यवस्था को लागू किया जाता रहा है. मैट्रिमोनियल साइटें इन बातों को ध्यान में रखते हुए जाति, धर्म, समुदाय, क्षेत्र और व्यवसाय जैसे वर्गों में बंटी हुई हैं. वैवाहिक विज्ञापनों और साइटों की भाषा समाज की उसी सोच को दिखाती है, जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की सोच है.

वैवाहिक विज्ञापनों की शुरुआत के पहले कौलम में ‘ब्राह्मण’ वैसे ही लिखा होता है, जैसे वर्ण व्यवस्था में उस का नाम पहले आता है. वर चाहिए या वधू… इस के अलगअलग कौलम होते हैं. इस के बाद क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ, जाट, जाटव, मुसलिम, यादव, बंगाली, पंजाबी, सिख होते हैं.

एक कौलम अन्य का होता है. इस में पासी, विश्वकर्मा, पाल, गडरिया, प्रजापति जैसी जातियों के लिए वर या वधू का जिक्र होता है.

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के विज्ञापनों में सजातीय शब्द के वर या वधू की चाहत ज्यादा होती है. बहुत कम में जाति बंधन नहीं लिखा मिलता है. पासी, विश्वकर्मा, पाल, गडरिया, प्रजापति, जाटव जैसी जातियों के वर्ग में जाति बंधन नहीं लिखा होता है.

सोशल मीडिया पर वैवाहिक साइटों की मैंबरशिप लेने से पहले वर या वधू की पूरी जानकारी बायोडाटा के रूप में ली जाती है. अब इस में लड़का, लड़की और उस के मातापिता की जानकारी के अलावा भाई, बहन, चाचा और चाची की जानकारी भी ली जाती है.

इस के साथ ही यह भी लड़की शाकाहारी है और अल्कोहल का सेवन नहीं करती, लिखा जाता है. एक नया कौलम और जुड़ गया है, जिस में पूछा जाता है कि वह सोशल मीडिया पर रील तो नहीं बनाती. समाचारपत्रों के वैवाहिक विज्ञापनों में कम बातों का जिक्र किया जाता है.

वैवाहिक साइटों में तमाम तरह की गोपनीय जानकारी ली जाती है, जिस में माली हालत, लोन, ईएमआई जैसे सवाल होते हैं. कुछ बातें फार्म में भरी नहीं जाती हैं, जो अपने परिचय में बताई जाती हैं.

वैवाहिक साइट चलाने वालों का दावा है कि इन जानकारियों के जरीए ही वे परफैक्ट मैच तलाश करते हैं. इन के जरीए लोगों की गोपनीय जानकारियां कहीं की कहीं पहुंचने का खतरा रहता है.

इस तरह से आजादी के 77 साल बाद यह वर्ण व्यवस्था आज भी कायम है. आज भी शादी का वहीं ढांचा चल रहा है, जो मनु के समय में था. ऐसे में कुछ ओबीसी और एससी के ब्राह्मण जैसा बनने से पूरे समाज में बदलाव नहीं माना जा सकता.

Live-In Relationship बम है या बर्फ

Live-In Relationship : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अपनी एक खास टिप्पणी में कहा है कि समाज में ‘लिवइन’ संबंधों को मंजूरी नहीं मिली है, लेकिन नौजवान पीढ़ी इन संबंधों की ओर खिंच रही है. अदालत के मुताबिक, अब समय आ गया है कि समाज में नैतिक मूल्यों को बचाने के लिए हमें कुछ रूपरेखा तैयार करनी चाहिए और समाधान निकालना चाहिए.

जस्टिस नलिन कुमार श्रीवास्तव ने कहा, “हम बदलते समाज में रहते हैं जहां परिवार, समाज या कार्यस्थल पर युवा पीढ़ी का नैतिक मूल्य और सामान्य आचरण बदल रहा है.”

अदालत ने इस टिप्पणी के साथ वाराणसी जिले के आकाश केशरी को जमानत दे दी.

आकाश केशरी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत सारनाथ थाने में मामला दर्ज किया गया था.

अदालत ने कहा कि जहां तक ‘लिवइन संबंध’ का सवाल है, इसे कोई सामाजिक मंजूरी नहीं मिली है, लेकिन नौजवान लोग ऐसे संबंधों की ओर खिंचते हैं, क्योंकि वे अपने साथी के प्रति अपनी जिम्मेदारी से आसानी से बच सकते हैं.

लिवइन रिलेशनशिप एक तरह का ऐसा संबंध है, जहां 2 लोग एकसाथ रहते हैं और एक दूसरे के साथ भावनात्मक और शारीरिक संबंध बनाते हैं, लेकिन वे शादीशुदा नहीं होते हैं या उन में किसी भी तरह के औपचारिक संबंध में नहीं होते हैं. वे अपने संबंध को अपने तरीके से चलाते हैं और अपने फैसले लेते हैं.

लिवइन रिलेशनशिप के फायदे

-यह दोनों लोगों को अपने संबंध को अपने तरीके से चलाने की आजादी देता है.

-यह दोनों लोगों को एकदूसरे के साथ समय बिताने और एकदूसरे के साथ भावनात्मक और शारीरिक संबंध बनाने का मौका देता है.

-यह दोनों लोगों को अपने संबंध को अपने तरीके से खत्म करने की आजादी देता है.

लिवइन रिलेशनशिप के नुकसान

-यह दोनों लोगों को समाज में अलगथलग महसूस करा सकता है.

-यह दोनों लोगों को अपने संबंध को औपचारिक रूप से मंजूरी नहीं दिला सकता है.

आइए देखिए और समझिए कई चर्चित लोगों की लिवइन रिलेशनशिप :

सैफ अली खान और रोसा कैटरीना ने साल 2011 में लिवइन रिलेशनशिप में रहना शुरू किया था, लेकिन बाद में वे दोनों अलग हो गए.

करीना कपूर और सैफ अली खान ने साल 2007 में लिवइन रिलेशनशिप में रहना शुरू किया था और साल 2012 में शादी कर ली थी.

कोंकणा सेन शर्मा और रणवीर शौरी ने साल 2007 में लिवइन रिलेशनशिप में रहना शुरू किया था और साल 2010 में शादी कर ली थी. साल 2020 में उन का तलाक हो गया था.

नेहा धूपिया और रोहन रोशन ने साल 2008 में लिवइन रिलेशनशिप में रहना शुरू किया था, लेकिन बाद में वे दोनों अलग हो गए थे.

अनुराग कश्यप और कल्कि कोचलिन ने साल 2011 में लिवइन रिलेशनशिप में रहना शुरू किया था, फिर शादी की और साल 2015 में तलाक ले लिया था.

दरअसल, यह जानकारी सार्वजनिक रूप से मुहैया है और इन लोगों ने अपने रिश्तों के बारे में खुल कर बात की है.

Honey Trap : सोशल मीडिया पर डाक्टर को ठगा

Honey Trap : आरोपियों ने अपने अपराध को अंजाम देने के लिए एक शातिर योजना बनाई थी. उन्होंने सोशल मीडिया पर डाक्टर को अपना निशाना बनाया और उन्हें अपने जाल में फंसाया.

आरोपियों ने डाक्टर को यह यकीन दिलाया कि वे दिल्ली पुलिस में हैं और उन्हें अपनी सेवाओं के लिए पैसे देने होंगे. डाक्टर ने आरोपियों की बातों पर यकीन कर लिया और उन्हें तकरीबन 9 लाख रुपए दे दिए. पर जब डाक्टर को यह एहसास हुआ कि वे ठगी के शिकार हो गए हैं, तो उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. पुलिस ने आरोपियों की तलाश शुरू की और आखिरकार उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.

आरोपियों की पहचान तिलक नगर के बाशिंदे 42 साल के नीरज त्यागी उर्फ धीरज उर्फ धीरू, कराला के रहने वाले 32 साल के आशीष माथुर और खरखौदा, हरियाणा के रहने वाले 30 साल के दीपक उर्फ साजन के रूप में हुई थी.

पुलिस ने आरोपियों के पास से हैड कांस्टेबल की पूरी वरदी और दिल्ली पुलिस के 3 पहचानपत्र, एक कार और 3 मोबाइल फोन बरामद किए.

आरोपी नीरज त्यागी और दीपक उर्फ साजन के खिलाफ पहले से ही बिंदापुर थाने में प्रेमजाल में फंसा कर वसूली करने का मामला दर्ज है.

हनी ट्रैप की शुरुआत का सटीक समय नहीं बताया जा सकता है, क्योंकि यह एक तरह की धोखाधड़ी है, जो अलगअलग रूप में और अलगअलग समयों में हुई है.

हालांकि, यह कहा जा सकता है कि हनी ट्रैप की शुरुआत प्राचीनकाल में हुई थी, जब लोगों को औरतों के बहाने से लुभाने और उन से फायदा उठाने के लिए अलगअलग तरीकों का इस्तेमाल किया जाता था.

दरअसल, आधुनिक समय में हनी ट्रैप की शुरुआत 60 के दशक में हुई थी, जब अमेरिकी और सोवियत जासूसों ने अपने फायदे की जानकारी हासिल करने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल करना शुरू किया था.

इंटरनैट और सोशल मीडिया के आने के साथ हनी ट्रैप की शुरुआत और भी आसान हो गई है और अब यह एक आम तरह की धोखाधड़ी बन गई है, जो दुनियाभर के देशों में होती है.

कुछ दिलचस्प बातें

* 60 के दशक में अमेरिकी और सोवियत जासूसों ने हनी ट्रैप का इस्तेमाल करना शुरू किया था.

* 80 के दशक में हनी ट्रैप का इस्तेमाल व्यावसायिक जासूसी में किया जाने लगा था.

* 90 के दशक में इंटरनैट के आने के साथ हनी ट्रैप औनलाइन हो गई और यह और भी आसान हो गई.

हनी ट्रैप की कुछ घटनाएं

मध्य प्रदेश के इंदौर में हनी

ट्रैप का एक मामला सामने आया, जिस में एक औरत ने कई मर्दों को अपने जाल में फंसा कर उन से पैसे ऐंठे. इस मामले में पुलिस ने कई आरोपियों को गिरफ्तार किया था.

इसी तरह दिल्ली में भी हनी ट्रैप का एक मामला सामने आया था, जिस में एक औरत ने एक मर्द को अपने प्रेमजाल में फंसा कर उसे पैसे देने के लिए मजबूर किया था. इस मामले में पुलिस ने आरोपी औरत को गिरफ्तार किया था.

मुंबई में हनी ट्रैप का एक मामला सामने आया, जिस में एक औरत ने कई मर्दों को अपने प्रेमजाल में फंसा कर उन से पैसे ऐंठे. इस मामले में पुलिस ने कई आरोपियों को गिरफ्तार किया.

हनी ट्रैप के प्रकार

औनलाइन हनी ट्रैप : औनलाइन हनी ट्रैप में आरोपी सोशल मीडिया या औनलाइन डेटिंग प्लेटफार्म का इस्तेमाल कर के पीडि़त को अपने प्रेमजाल में फंसाता है.

औफलाइन हनी ट्रैप : औफलाइन हनी ट्रैप में आरोपी किसी पीडि़त से निजीतौर पर मिलता है और उसे अपने जाल में फंसाता है.

कौरपोरेट हनी ट्रैप : कौरपोरेट हनी ट्रैप में आरोपी किसी कंपनी के शख्स को अपने जाल में फंसाता है और उस से कारोबारी जानकारी हासिल करता है.

हनी ट्रैप के लक्षण

* अगर कोई किसी अनजान शख्स से अचानक मिलता है और उस के साथ बहुत जल्दी गहरे संबंध बनाने की कोशिश करता है, तो यह हनी ट्रैप का एक लक्षण हो सकता है.

* अगर कोई किसी के प्रति बहुत ज्यादा प्यार और आकर्षण दिखाता है, तो यह हनी ट्रैप का एक लक्षण हो सकता है.

* यदि कोई किसी की निजी जानकारी मांगता है, जैसे कि पता, फोन नंबर या बैंक खाते से जुड़ी जानकारी, तो यह हनी ट्रैप का एक लक्षण हो सकता है.

बचाव के कानूनी उपाय

* अगर आप हनी ट्रैप के शिकार हुए हैं, तो तुरंत ही पुलिस थाने में अपनी शिकायत दर्ज करें.

* हनी ट्रैप से संबंधित कानूनी सलाह लेने के लिए किसी माहिर वकील से बात करें.

* आप औनलाइन हनी ट्रैप के शिकार हुए हैं, तो साइबर सैल में शिकायत दर्ज करें.

हनी ट्रैप में लड़कियां और लड़के दोनों ही शामिल हो सकते हैं. हालांकि, ज्यादातर मामलों में लड़कियां ही हनी ट्रैप के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हर बार ऐसा ही हो. कुछ मामलों में लड़के भी हनी ट्रैप में शामिल हो सकते हैं.

हनी ट्रैप में शामिल होने वाले के लिए उस के लिंग या उम्र की कोई अहमियत नहीं है. यह एक ऐसी धोखाधड़ी है, जिस में कोई भी शामिल हो सकता है और किसी को भी अपना शिकार बना सकता है. ऐसे शातिर लोग अमीरों को फांसते हैं. वे लड़की को आगे रख कर अपने शिकार को गुमराह करते हैं और उन से फायदा उठाते हैं.

Reality of Society : पढ़ाई छोड़ रही एससीएसटी लड़कियां

Reality of Society : देशराज अपनी 18 साल की बेटी की शादी का न्योता देने गांव के प्रधान इंद्र प्रताप के पास गया. उन्होंने पूछा, ‘‘इतनी कम उम्र में शादी क्यों कर रहे हो? तुम ने अपनी बेटी को स्कूल की पढ़ाई भी नहीं करने दी? कानून और संविधान की बहुत सी कोशिशों के बावजूद भी एससीएसटी लड़कियां जल्दी पढ़ाई छोड़ रही हैं और उन की शादी भी जल्दी हो जा रही हैं, जिस से कम उम्र में कई बच्चों का पैदा होना उन को बीमार बनाता है.

‘‘पढ़ाई छोड़ने के चलते वे अच्छी नौकरी नहीं कर पाती हैं, जिस से बाद में वे मजदूरी ही करती रहती हैं. आजादी के 77 सालों के बाद आखिर एससीएसटी लड़कियों की ऐसी हालत क्यों है? एससीएसटी तबका हिंसा का ज्यादा शिकार होता है. ये गरीब हैं और लड़कियां हैं, इसलिए इन को नीची नजरों से देखा जाता है. इन के हक में खड़े होने वाले कम होते हैं, इसलिए इन्हें सैक्स हिंसा का ज्यादा शिकार होना पड़ता है.’’

देश की आबादी में एससीएसटी औरतों और लड़कियों की तादाद 18 से 20 फीसदी है. आजादी और आरक्षण के बाद भी आज वे जातीय व्यवस्था और भेदभाव की शिकार हैं. इन की परेशानी यह है कि ये घर के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर जोरजुल्म का शिकार होती हैं, जिस के चलते इन की पढ़ाई जल्दी छुड़वा दी जाती है, जबकि लड़कों को बाहर पढ़ने भेजा जाता है. मातापिता लड़कियों को जिम्मेदारी भरा बोझ समझ कर शादी कर देना चाहते हैं, ताकि इन की जिम्मेदारी पति उठाए.

जातिगत होती है सैक्स हिंसा

एससीएसटी लड़कियों के साथ किस तरह से जातिगत सैक्स हिंसा होती है, उत्तर प्रदेश का हाथरस कांड इस का बड़ा उदाहरण है. यहां एससी तबके की लड़की के साथ कथित तौर पर ऊंची जाति के लोगों द्वारा रेप और हत्या का मसला सुर्खियों में रहा है. गांव के इलाकों में एससी औरतें और लड़कियां सैक्स हिंसा की शिकार रही हैं. यहां की ज्यादातर जमीन, संसाधन और सामाजिक ताकत ऊंची जातियों के पास है.
एससीएसटी के खिलाफ जोरजुल्म को रोकने के लिए साल 1989 में बनाए गए कानून के बावजूद भी एससीएसटी औरतों और लड़कियों के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई है. आज भी इन का पीछा किया जाता है. इन के साथ छेड़छाड़ और रेप की वारदातें होती हैं. विरोध करने पर इन की हत्या भी की जाती है.

आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर दिन 10 एससीएसटी औरतों और लड़कियों के साथ रेप होता है. उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में एससीएसटी लड़कियों के खिलाफ सैक्स हिंसा के सब से ज्यादा मामले होते हैं.

500 एससीएसटी औरतों और लड़कियों पर की गई एक रिसर्च से पता चलता है कि 54 फीसदी पर शारीरिक हमला किया गया, 46 फीसदी पर सैक्स से जुड़ा जुल्म किया गया, 43 फीसदी ने घरेलू हिंसा का सामना किया, 23 फीसदी के साथ रेप हुआ और 62 फीसदी के साथ गालीगलौज की गई.

क्या है 1989 का कानून

साल 1989 का कानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के नाम से जाना जाता है. इस को एससीएसटी ऐक्ट के नाम से भी जाना जाता है.

यह अधिनियम अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव और हिंसा से बचाने के लिए बनाया गया था.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 पर यह अधिनियम आधारित है. इस अधिनियम को 11 सितंबर, 1989 को पास किया गया था और 30 जनवरी, 1990 से इसे जम्मूकश्मीर को छोड़ कर पूरे भारत में लागू
किया गया.

कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू होने के चलते वहां यह कानून लागू नहीं हो सका था. साल 2019 में अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद अब यह कानून वहां भी लागू होता है.

इस अधिनियम के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ शारीरिक हिंसा, जोरजुल्म, और सामाजिक भेदभाव जैसे अपराधों को अत्याचार माना गया है.

इस अधिनियम के तहत इन अपराधों के लिए कठोर सजा दी जाती है. ऐसे अपराधों के लिए स्पैशल कोर्ट बनाई गई हैं. इस के तहत ही पीडि़तों को राहत और पुनर्वास भी दिया जाता है. साथ ही, पीडि़तों को अपराध के स्वरूप और गंभीरता के हिसाब से मुआवजा दिया जाता है.

कम उम्र में होती हैं शिकार

भारत के 16 जिलों में एससीएसटी औरतों और लड़कियों के खिलाफ सैक्स हिंसा की 100 घटनाओं की स्टडी से पता चलता है कि 46 फीसदी पीड़ित 18 साल से कम उम्र की थीं. 85 फीसदी 30 साल से कम उम्र की थीं. हिंसा के अपराधी एससी तबके सहित 36 अलगअलग जातियों से थे.

इस का मतलब यह है कि दूसरी जाति के लोग ही नहीं, बल्कि अपनी जाति के लोग भी एससीएसटी औरतों और लड़कियों पर जोरजुल्म करते हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब ये लड़कियां मुखर हो कर अपनी बात कहने लगी हैं. इन की आवाज को दबाने के लिए जोरजुल्म किया जाता है. एससी के बढ़ते दबदबे से ऊंची जातियां विरोध करने लगी हैं.

एससी परिवारों में जागरूक और पढ़ेलिखे लोग भी अपनी लड़कियों को ऊंची तालीम के मौके दे रहे हैं. इस के बावजूद ज्यादातर परिवार अपनी लड़कियों की पढ़ाई क्लास 5वीं से क्लास 8वीं के बीच छुड़वा दे रहे हैं. पढ़ाई छोड़ने वाली लड़कियों की तादाद में एससी लड़कियां सब से आगे पाई जाती हैं.

आज भी 18 से 20 साल की उम्र के बीच इन की शादी तय कर दी जाती है, जो औसत उम्र से काफी कम है. इस वजह से इन को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है. आंकड़ों के मुताबिक, 25 फीसदी एसटी और 20 फीसदी एससी 9वीं और 10वीं क्लास में स्कूल छोड़ देती हैं.

एससीएसटी औरतों और लड़कियों के साथ सैक्स हिंसा जिंदगी के हर पहलू में असर डाल रही है. इन को काम करने की जगहों पर सैक्स से जुड़ा जोरजुल्म, लड़कियों की तस्करी, सैक्स शोषण और घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है.

20 साल की एक एससी लड़की प्रेमा बताती है, ‘‘जब मैं पहली बार पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने गई, तो पुलिस ने मेरे रेप और अपहरण की शिकायत पर एफआईआर दर्ज करने से इनकार कर दिया था.

थाने में बिचौलिए ने कहा कि मैं आरोपी से कुछ पैसे ले लूं और मामले में समझौता कर लूं. समझौाता करने के लिए मुझ पर दबाव बनाया गया.’’

परिवार पर पड़ता है असर

आज भी पुलिस में एफआईआर दर्ज कराना आसान नहीं है. कई बार थाने में एफआईआर नहीं लिखी जाती, तो बड़े पुलिस अफसरों तक जाना पड़ता है. बड़े पुलिस अफसरों तक शिकायतें पहुंचने के बाद ही एफआईआर दर्ज की जाती है. कई मामलों में तो अदालत के आदेश के बाद ही मुकदमा दर्ज हो पाता है.

पुलिस और कोर्ट के चक्कर काटने में ही घरपरिवार और नौकरी पर बुरा असर पड़ता है. कई लोगों को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है, क्योंकि कोर्ट केस लड़ने के लिए उन को छुट्टी नहीं मिलती है.

देवरिया के रहने वाले राधेश्याम की 17 साल की बेटी कविता का अपहरण कर लिया गया था. 2 साल तक उसे तस्करी, सैक्स हिंसा और बाल मजदूरी का शिकार होना पड़ा था. कई अलगअलग शहरों में मुकदमे दर्ज हुए.

पुलिस के बयान, टैस्ट के लिए उसे अपनी बेटी को साथ ले कर जाना पड़ता था. इस के लिए उसे छुट्टियां लेनी पड़ती थीं, जिस की वजह से उसे काम से निकाल दिया गया था.

राधेश्याम बताते हैं, ‘‘मेरी बेटी के साथ रेप हुआ था, लेकिन उस की शिकायत करने पर थाना, अस्पताल और कचहरी में वही बात इतनी बार पूछी गई कि मुझे रोजरोज उस पीड़ा से गुजरना पड़ता था.’’

एससीएसटी तबके की ज्यादातर औरतें और लड़कियां मजदूरी करती हैं. ऐसे में उन को पैसा देने वाले ठेकेदार और मैनेजर टाइप के लोग पैसा देने के बहाने जबरदस्ती करते हैं. उन को ज्यादा पैसा देने की बात कह कर सैक्स हिंसा करना चाहते हैं.

आज बड़ी तादाद में घरेलू नौकर के रूप में काम करने वाली लड़कियों और औरतों के साथ भी ऐसी वारदातें खूब हो रही हैं. 1997 में विशाखा कमेटी के दिशानिर्देश केवल कागजी साबित हो रहे हैं. इन औरतों और लड़कियों के खिलाफ हिंसा काम करने की जगह और घर दोनों पर होती है. घरेलू काम करने वाली लड़कियों की उम्र 15 से 18 साल होती है. ये शारीरिक हिंसा की सब से ज्यादा शिकार होती हैं.

बदनामी भी इन्हीं की होती है

बहुत सारी जागरूकता के बाद भी सैक्स हिंसा और रेप जैसी घटनाओं को महिलाओं के किरदार से जोड़ कर देखा जाता है. इस में कुसूरवार औरत या लड़की को हीबदचलनसमझ जाता है. उसे ही ज्यादातर कुसूरवार साबित किया जाता है.

रुचि नामक एक एससी तबके की लड़की अपने परिवार की मदद करने के लिए एक डाक्टर के यहां घरेलू नौकरी करती थी. डाक्टर के पति ने उस को लालच दे कर अपने साथ सैक्स करने के लिए तैयार कर लिया. एक दिन उन की पत्नी ने देख लिया. पतिपत्नी में थोड़ी नोकझों हुई.

इस का शिकार रुचि बनी. उसे बदचलन बता कर काम से निकाल दिया गया. इस के बाद उस
पूरी कालोनी में रुचि को दूसरी नौकरी नहीं मिली. बदनामी से बचने के लिए इस बात को दबा दिया गया.

रेप को हादसा मान कर घरपरिवार और समाज उस लड़की को आगे नहीं बढ़ने देते हैं. उस को बदचलन सम? जाता है. ऐसे में वह जिंदगीभर उस दर्द को भूल नहीं पाती है. ऐसे में एससीएसटी परिवारों में लड़कियों की शादी जल्दी करा दी जाती है, जिस से किसी तरह की बदनामी से बचा जा सके.

यह बात और है कि कम उम्र में शादी और मां बनने से लड़कियों का कैरियर और हैल्थ दोनों पर ही बुरा असर पड़ता है, जिस से तरक्की की दौड़ में वे पूरे समाज से काफी पीछे छूट जाती हैं.

एससीएसटी समाज की लड़कियों के लिए सब से मुश्किल अपने ही घरपरिवार के लोगों को समझाना होता है, जिस की वजह से उन की स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं होती है और वे तालीम से आज भी कोसों दूर हैं.

आज भी कायम है छुआछूत

हाल ही में 3 अक्तूबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति पर आधारित भेदभाव रोकने के लिए दायर जनहित याचिका पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जेल नियमावली जाति के आधार पर कामों का बंटवारा कर के सीधे भेदभाव करती है. सफाई का काम सिर्फ निचली जाति के कैदियों को देना और खाना बनाने का काम ऊंची जाति वालों को देना आर्टिकल 15 का उल्लंघन है.

सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जेल मैन्युअल के उन प्रावधानों को बदलने का निर्देश दिया है, जो जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यह तो साफतौर पर जाहिर करता है कि आजादी के 77 साल बाद भी छुआछूत समाज में ही नहीं, बल्कि सरकारी सिस्टम पर भी बुरी तरह हावी है.

जेलों के अंदर जातिगत भेदभाव आम बात है. जेल में कैदियों की जाति के आधार पर उन्हें काम सौंपा जाता है, जहां दलितों को अकसर साफसफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है.

समाज में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. आएदिन देश के अलगअलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर जोरजुल्म करने की घटनाएं होती रहती हैं.

आज भी गांवकसबों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े तबके के लोग जिल्लतभरी जिंदगी जी रहे हैं.

गांवों में होने वाली शादी में दलितों व पिछडे़ तबके को खुले मैदान में बैठ कर खाना खिलाया जाता है और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठा कर फेंकनी पड़ती हैं.

टीचर मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मजदूरी का काम दलित और कम पढ़ेलिखे पिछड़ों को करना पड़ता है. दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से ले कर फसल काटने तक के सारे काम करवाते हैं और बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. छुआछूत बनाए रखने में पंडेपुजारी धर्म का डर दिखाते हैं.

25 साल की होनहार लड़की काव्या यों तो गांव में पलीबढ़ी, पर अपनी पढ़ाई के बलबूते वह बैंक में क्लर्क सिलैक्ट हो गई और उस की पोस्टिंग इंदौर में हो गई.

इंदौर में नौकरी करते वह अपने साथ बैंक में काम करने वाले हमउम्र लड़के की तरफ आकर्षित हुई. वह लड़का भी उसे चाहता था.

काव्या ने घर में बिना बताए उस लड़के से शादी कर ली. वह जानती थी कि उस के मातापिता शादी करने की इजाजत हरगिज नहीं देंगे, क्योंकि वह लड़का दलित जाति का था.

देरसवेर इस बात की जानकारी गांव में रहने वाले मातापिता को लग ही गई. इस बात को ले कर वे काफी आगबबूला हो गए और इंदौर पहुंच कर तुरंत ही काव्या को गांव ले आए.

घर में काव्या को दलित लड़के से शादी करने की बात को ले कर इतना टौर्चर किया गया कि उस ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली.

साल 2024 के मार्च महीने में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले से आई इस खबर ने साबित कर दिया है कि समाज में छुआछूत आज भी बदस्तूर जारी है. किस तरह पढ़ेलिखे गांव के मातापिता ने अपने ?ाठे मानसम्मान के लिए अपनी बेटी की खुशियां ही छीन लीं.

गांवकसबों और छोटे शहरों में आज भी लड़की को यह हक नहीं है कि वह अपनी मरजी और पसंद के लड़के से शादी कर सके. दूसरी जाति और धर्म में शादी करने पर परिवार और समाज के बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और कई बार तो जान से हाथ भी धोना पड़ता है.

गांवकसबों में छुआछूत का आलम यह है कि दलितों के महल्ले, बसावट अलग हैं. इन के पानी पीने के नल और मंदिर तक अलग हैं. भूल से भी इन्हें ऊंची जाति के लोगों के नल को छूने और उन के मंदिर में घुसने की इजाजत नहीं है.

अपने चुनावी फायदे के लिए केंद्र और राज्य सरकारें दलितों को साधने के लिए भले ही करोड़ों रुपए खर्च कर संत रविदास का मंदिर बनवा रहे हों, लेकिन देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी दलितों को छुआछूत का सामना करना पड़ रहा है.

मध्य प्रदेश सरकार गांवकसबों में छुआछूत मिटाने के लिए भले ही ‘स्नेह यात्राएं’ निकाले, गांधी जयंती पर ‘समरसता’ भोज कराए, मगर गरीब और दलितों के लिए सामाजिक समरसता का सपना अभी भी अधूरा है, क्योंकि तमाम कोशिशों के बाद भी आज लोग अपनी छोटी सोच से बाहर नहीं आ पाए हैं.

छुआछूत का एक मामला मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में दलित औरतों के साथ सरकारी नल पर पानी भरने को ले कर पिछले साल सामने आया था.

17 अगस्त, 2023 को छतरपुर जिले के गांव पहरा के गौरिहार थाना क्षेत्र के पहरा चौकी की रहने वाली 2 औरतें गांव में पानी की कमी के चलते एक सरकारी नल पर पानी भरने गई हुई थीं.

यह नल गांव के यादव परिवार के घर के सामने लगा हुआ था. जैसे ही इन उन औरतों ने पानी भरने के लिए बरतन हैंडपंप के नीचे रखा और नल चलाना शुरू किया, तभी वहां मंगल यादव, दंगल यादव और देशराज यादव आ गए और उन के बरतन फेंकते हुए कहा, ‘तुम दलित जाति की हो, तुम ने हमारे इलाके के इस नल को कैसे छुआ? तुम्हारे छूने से नल अशुद्ध हो गया.’

सरकारी नल पर पानी भरने गई दलित औरतों संदीपा और अभिलाषा ने जब उन से मिन्नतें करते हुए कहा, ‘हमारे घर में पानी नहीं है. पानी के बिना खाना भी नहीं बना है, बच्चे भूख से बेचैन हैं.’

इस बात पर हमदर्दी दिखाने के बजाय इन दबंगों ने मारपीट शुरू कर दी. अपने साथ हुई मारपीट की शिकायत करने पुलिस थाना पहुंची इन दोनों औरतों को पुलिस ने भी दुत्कार दिया.

छुआछूत से जुड़ी यह कोई अकेली घटना नहीं है. मध्य प्रदेश के अलगअलग इलाकों में इस तरह की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं. कभी स्कूलों में दलित बच्चों के जूठे बरतन धोने से मना किया जाता है, तो कभी उन्हें धर्मस्थलों पर घुसने नहीं दिया जाता.

छुआछूत से जूझते हैं लोग

60 साल की उम्र पार कर चले लोगों की पीढ़ी ने छुआछूत का जो रूप समाज में देखा था, उसे उन्होंने उस समय के हालात के लिहाज से सहज तरीके से अपना लिया था, मगर मौजूदा दौर की नौजवान पीढ़ी को यह नागवार गुजरता है.

72 वसंत देख चुके डोभी गांव के सालक राम अहिरवार बताते हैं कि आजादी मिलने के बाद देश से अंगरेज भले ही चले गए थे, मगर गांव में रहने वाले ऊंची जाति के जमींदारों का जुल्म कम नहीं हुआ था. दलित तबके का कोई भी इन जमींदारों की हवेली के सामने से गुजरता था, तो अपने पैर के जूतों को सिर पर रख कर निकलता था.

दलितों के बेटों को शादी में घोड़ी पर चढ़ने की मनाही थी. गांव के ऊंची जाति के लोग उन्हें शादीब्याह में बुलाते तो थे, मगर भोजन उन्हें जमीन पर बैठ कर करना होता था और अपनी पत्तल खुद ही फेंकनी पड़ती थी. पीने के लिए घर से पानी भर कर ले जाना पड़ता था.

उस दौर की पीढ़ी को यह बुरा भी नहीं लगता था. वक्त बदलने के साथ जब आज की नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर  पुराने रिवाजों को नहीं मानती, तो टकराव के हालात बनते हैं और दलितों को जोरजुल्म का सामना करना पड़ता है.

मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में हर साल दलितों के घुड़चढ़ी करने और बरात में डीजे बजाने पर ?ागड़ा होता है.

पढ़ीलिखी नई पीढ़ी इन दकियानूसी रिवाजों को नहीं मानती. गांवकसबों में आज शादियों में बफे सिस्टम तो लागू हो गया है, मगर दलित समुदाय के लिए अलग काउंटर बनाए जाते हैं, उन्हें ऊंची जाति के लोगों के साथ दावत करने की आजादी आज भी नहीं है.

ऐसा नहीं है कि दलितों से छुआछूत बिना पढ़ेलिखे लोगों या गांवकसबों तक सीमित है, बल्कि पढ़ेलिखे लोग भी इसे बदस्तूर अपना रहे हैं.

2 साल पहले मध्य प्रदेश के एक मंत्री, जो दलित समुदाय से आते थे, भी ऊंची जाति के लोगों से छुआछूत के शिकार हुए थे.

दरअसल, वे मंत्री ठाकुरों के परिवार में मातमपुरसी के लिए गए थे. वहां और भी ऊंची जाति के नेता मौजूद थे. जब खानेपीने की बारी आई, तो ऊंची जाति के दूसरे लोगों को स्टील की थाली में खाना परोसा गया और दलित समुदाय से आने वाले मंत्री को डिस्पोजल थाली परोसी गई थी.

समाज में छुआछूत के लिए धर्म और मनुवादी व्यवस्था भी जिम्मेदार है. मनुवादियों ने अपने फायदे के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की. ब्राह्मणों ने अपने को श्रेष्ठ साबित कर समाज को 4 वर्णों में बांटा और शूद्रों को उन के मौलिक अधिकारों से दूर रखा. उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया. इस के पीछे की वजह भी यही थी कि ये लोग पढ़लिख कर काबिल न बन सकें. यही वजह रही कि दलितों ने धर्म परिवर्तन का रास्ता अपनाया.

स्कूलकालेज भी नहीं अछूते

राष्ट्र निर्माण की शिक्षा देने वाले सरकारी संस्थान भी छुआछूत को खत्म नहीं कर पा रहे हैं. ‘ऐजूकेशन मौल’ कहे जाने वाले इंगलिश मीडियम प्राइवेट स्कूलों में सरकारी अफसरों और ऊंची जाति के पैसे वाले लोगों के बच्चे पढ़ रहे हैं और सरकारी स्कूलों में गरीब, मजदूर, दलितपिछड़े तबके के बच्चे पढ़ रहे हैं.

सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाले मिड डे मील में भी दलित और ऊंची जाति के छात्रछात्राओं के बीच गुटबाजी देखने को मिलती है.

स्कूल में ऊंची जाति के बच्चे दलित और पिछड़ी जाति के बच्चों के साथ भोजन करना पसंद नहीं करते. उन्हें यह सीख अपने घर से तो मिलती ही है, टीचर भी इस खाई को नहीं पाट रहे.

अगर कोई दलित जाति की महिला भोजन बना कर परोसती है, तब भी ऊंची जाति के बच्चे वह भोजन नहीं करते. अगर कोई ऊंची जाति की रसोइया खाना बनाती है, तो वह दलित बच्चों के जूठे बरतन नहीं धोती.

साल 2022 में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले से 50 किलोमीटर दूर चरगवां थाना क्षेत्र से सटे गांव सूखा में दलित बच्चों से सरकारी स्कूल में खाने के बरतन धुलवाए जाने का मामला सामने आया था.

इसी साल गुजरात के मोरबी जिले के एक गांव में प्राइमरी स्कूल में मिड डे मील का खाना पिछड़े समुदाय के छात्रों ने इसलिए नहीं खाया, क्योंकि यह दलित औरत द्वारा बनाया गया था

मिड डे मील बनाने वाली दलित महिला गरमी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल पहुंची, तो प्रिंसिपल ने 100 बच्चों के लिए खाना बनाने के लिए कहा, लेकिन एससी जाति के केवल 7 बच्चे ही भोजन के लिए पहुंचे. दूसरे दिन प्रिंसिपल ने 50 बच्चों के लिए खाना बनाने को कहा, जिसे सिर्फ दलित बच्चों ने ही खाया.

साल 2023 में कर्नाटक के तुमकुरु जिले से बेहद ही हैरान कर देने वाला मामला सामने आया था. सिरा तालुका के नरगोंडानहल्ली सरकारी स्कूल में कुछ बच्चों ने मिड डे मील के भोजन का बहिष्कार कर दिया था, जिस की वजह भी एक दलित महिला द्वारा भोजन पकाया जाना थी.

छुआछूत की समस्या स्कूलों में नासमझ बच्चों के बीच ही नहीं, बल्कि भविष्य गढ़ने वाले टीचरों के बीच भी है. लंच टाइम में ऊंची जाति के टीचर भी दलित जाति के टीचरों के साथ लंच बौक्स शेयर करना पसंद नहीं करते. स्कूल के अलावा दूसरे दफ्तरों में भी उन के साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है.

दलित जाति के चपरासी से दफ्तरों में झाड़ू लगाने और शौचालय साफ करने का काम करवाया जाता है, मगर उन के हाथ से खानेपीने की चीज और पानी नहीं मंगाया जाता.

जातियों में बंट गए देवीदेवता

जिस तरह समाज जातियों में बंटा हुआ है, उसी तरह उन्होंने देवीदेवता को भी बांट लिया है. पंडितों ने परशुराम को, कायस्थों ने चित्रगुप्त को, तो यादवों ने कृष्ण को ले लिया. कुशवाहा ने कुश से संबंध जोड़ लिया, कुर्मियों ने लव को पकड़ लिया, तो कहारों ने जरासंध को अपना पूर्वज बता दिया. लोहारों ने विश्वकर्मा के साथ संबंध जोड़ लिया.

दलितों की एक जाति ने वाल्मीकि से अपना नाता जोड़ा, तो एक तबका रैदास को भगवान मानने लगा. कुम्हारों ने अपना संबंध ब्रह्मा से बता दिया. तमाम जातियों को कोई न कोई देवता या कुलदेवता या ऋषि पूर्वज के तौर पर मिल गए.

ऊंची जाति के लोगों से हुई बेइज्जती से छुटकारा पाने का ये इन जातियों का अपना तरीका था. शूद्र और अतिशूद्र होने की बेइज्जती से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने देवीदेवताओं का ढाल बना लिया. यह जाति व्यवस्था से विद्रोह भी था और ऊंची जातियों की तरह बनने की लालसा भी थी.

अमीर ऊंची जाति वालों की होड़ में दलितों ने भी अपनेअपने देवीदेवताओं के मंदिर बना लिए, मगर पुजारी की कुरसी उन की जेब ढीली करने वाले पंडितों के हाथ में ही रही.

‘गुलामगिरी’ किताब से सबक लें सरकार हिंदूमुसलिम का भेद करा कर कट्टरवादी हिंदुत्व की हिमायती तो बनती है, पर हिंदुओं के बीच ही जातिवाद की दीवार तोड़ने और दलितपिछड़े तबके के लोगों पर दबंग हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले जोरजुल्म पर चुप्पी साधे रहती है.

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पेशे से वकील मनीष अहिरवार कहते हैं कि एक इनसान का दूसरे इनसान के साथ गुलामों सरीखा बरताव करना सभ्यता के सब से शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस है कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की तकरीबन सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. भारत में जाति प्रथा के चलते पैदा हुआ भेदभाव आज तक बना हुआ है.

वे आगे कहते हैं कि एक बार ज्योतिबा फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ पढ़ लें, तो उन की आंखों के चश्मे पर पड़ी धूल साफ हो जाएगी. साल 1873 में लिखी गई इस किताब का मकसद दलितपिछड़ों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण तबके की उच्चता के ?ाठे दंभ से परिचित कराना था.

इस किताब के जरीए ज्योतिबा फुले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकल कर इज्जत से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस माने में यह किताब काफी खास है कि यहां इनसानों में भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कठघरे में खड़ा किया गया है.

दलितपिछड़ों की हमदर्द बनने का ढोंग करने वाली सरकारें पीडि़त लोगों को केवल मुआवजे का झनझना हाथों में थमा देती हैं. सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से दलितों का उत्पीड़न कर बाद में केवल मुआवजा दे कर उन के जख्म नहीं भर सकते. ऐसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के

77 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत से मुक्त हो पाएगा?

जिस तरह किसान आंदोलन ने सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर के सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था, उसी तरह दलितपिछड़ों को भी अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना होगा.

राह से भटकते नौजवान

बेरोजगारी से तंग आकर अक्षत ने खुदकुशी करने की कोशिश की. यह बात जब अक्षत के दोस्त समीर को पता चली, तो वह हैरान रह गया, क्योंकि दोनों साथ में ही सरकारी नौकरी के इम्तिहान की तैयारी कर रहे थे.

समय रहते समीर ने अपना रास्ता बदल लिया और अपने पापा के बिजनैस में लग गया. लेकिन अक्षत सरकारी नौकरी के पीछे पागल था, क्योंकि सरकारी नौकरी का मतलब परमानैंट नौकरी, अच्छी तनख्वाह वगैरह, इसलिए वह जीतोड़ मेहनत भी कर रहा था, मगर हर बार वह कुछ नंबरों से रह जाता था.

33 साल के हो चुके अक्षत को लगने लगा कि अब उस के पास कोई रास्ता नहीं बचा, सिवा खुदकुशी करने के.

बढ़ती बेरोजगारी से न सिर्फ देशभर के नौजवान परेशान हैं, बल्कि विदेशों में पढ़ेलिखे नौजवान भी इस की चपेट में हैं. बेरोजगारी से जुड़ा एक काफी पेचीदा मामला है. औक्सफोर्ड जैसी एक नामचीन यूनिवर्सिटी से पढ़े एक 41 साल के शख्स ने बेरोजगारी से तंग आ कर अपने मातापिता पर ही केस ठोंक दिया. यह बेरोजगार शख्स जिंदगीभर के लिए हर्जाने की मांग कर बैठा.

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, आतिश (बदला हुआ नाम) ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की है. साथ ही, वह वकालत की ट्रेनिंग ले चुका है. इस के बावजूद वह बेरोजगार है.

आतिश का कहना है कि अगर उस के मांबाप उस की मदद नहीं करेंगे, तो उस के मानवाधिकार का उल्लंघन होगा.

आतिश के पिता की उम्र 71 साल है और उस की मां 69 साल की हैं. इतने उम्रदराज होने के बावजूद वे अपने बेटे को हर महीने 1,000 पाउंड भेजते हैं. इतना ही नहीं, वे अपने बेटे के दूसरे कई खर्च भी उठा रहे हैं यानी वह अपने सभी खर्चों के लिए अपने मातापिता पर ही निर्भर है.

लेकिन, अब मांबाप अपने बेटे की मांगों से तंग आ चुके हैं और छुटकारा चाहते हैं, पर कैसे? यह उन्हें समझ नहीं आ रहा है.

अच्छी पढ़ाईलिखाई होने के बावजूद भी कई नौजवान बेरोजगार हैं, तो यह बड़े हैरत की बात है. हाल ही में इंस्टीट्यूट फौर ह्यूमन डवलपमैंट ऐंड इंटरनैशनल लेबर और्गनाइजेशन ने इंडिया इंप्लायमैंट रिपोर्ट, 2024 जारी की है. यह रिपोर्ट भी भारत में रोजगार के हालात को बहुत गंभीर रूप में पेश करती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि जो बेरोजगार कार्यबल में हैं, उन में तकरीबन 83 फीसदी नौजवान हैं.

यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की नौजवान पीढ़ी बेरोजगारी से जू?ा रही है. कई नौजवान नौकरियों के लिए मौके तलाश रहे हैं. 15-20 हजार रुपए महीने की नौकरी पाने के लिए हजारोंलाखों बेरोजगार नौजवान अर्जी देते हैं और जब इस में भी उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाती है, तो वे बुरी तरह हताश और निराश हो जाते हैं.

सरकारी नौकरी नहीं लग पा रही है, तो इस का यह मतलब नहीं है कि आप कोई गलत कदम उठा लें या फिर अपने मांबाप पर बो?ा बन जाएं और उन से अपने खर्चे उठवाएं और उन्हें परेशान करें, तब, जब उन की उम्र हो चुकी है और वे खुद अपनी पैंशन पर गुजरबसर कर रहे हैं.

टैक्नोलौजी के इस जमाने में नौजवान पीढ़ी को अब अपनी सोच बदलनी होगी. उसे अब नौकरी ढूंढ़ने के बजाय नौकरी देने वाला बनने पर ध्यान देना चाहिए.

नौजवानों को अपने रोजगार और आजीविका के लिए अपने मातापिता का मुंह देखने के बजाय अपने रास्ते खुद तलाशने होंगे. इस में कोई दोराय नहीं है कि नौजवानों के पास भरपूर क्षमता और कौशल है और इसे साबित करने के लिए मौके भी खूब हैं. उन्हें केवल अपने टारगेट को पहचानने की जरूरत है.

मौडर्न टैक्नोलौजी इस काम में बहुत मददगार साबित हो सकती है. इस की वजह से न केवल नौजवान पीढ़ी रोजगार पा सकती है, बल्कि कइयों को रोजगार दे भी सकती है.

नौजवानों के पास आगे बढ़ने के कई मौके हैं. लेकिन मुद्दा यह है कि सही दिशा में कदम किस तरह उठाया जाए, जिस से कि परिवार, समाज और देश को फायदा पहुंचे?

इस के लिए नौजवानों के साथसाथ सरकार को भी आगे आना होगा. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज बुनियादी जरूरतों की कमी के चलते कई नौजवान टैलेंटेड होते हुए भी पीछे रह जाते हैं.

24 साल के एक नौजवान का कहना है कि वह अच्छा क्रिकेट खेलता है. लेकिन उस के पास क्रिकेट खेल को बेहतर बनाने के लिए कोई सुविधाएं नहीं हैं. अगर उसे सुविधाएं मुहैया कराई जाएं, तो वह क्रिकेट में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है.

भारत में नौजवानों (15-29 साल की उम्र) में बेरोजगारी की दर सामान्य आबादी की तुलना में काफी ज्यादा है. साल 2022 में शहरी नौजवानों के लिए बेरोजगारी की दर 17.2 फीसदी थी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर तकरीबन 10.6 फीसदी थी.

देश में बढ़ती बेरोजगारी के और भी कई कारण हैं, जैसे बढ़ती आबादी, उचित पढ़ाईलिखाई की कमी, कौशल विकास की कमी, नौकरियों के मौकों की कमी वगैरह.

सरकार की जिम्मेदारी केवल टैक्स कलैक्शन तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि देश का पूरा विकास हो, नौजवानों को रोजगार मिले, यह भी सरकार की ही जिम्मेदारी है.

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