धार्मिक माहौल का बढ़ता दबदबा

पिछले कुछ सालों से खासकर कोरोना महामारी के तांडव के बाद दुनिया में एक बहुत बड़ा बदलाव आया है. यह बदलाव कोरोना से जीत हासिल करने की खुशी नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में धर्म का असर साफतौर पर दिखने लगा है. इस की सब से बड़ी वजह हताशा है. तमाम उदाहरण ऐसे हैं, जिन से पता चलता है कि हताशा में घिरा इनसान धर्म की शरण में चला जाता है.

एक समय था, जब कोरोना महामारी के चक्रव्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था. भारत में थाली बजाने, दीपक जलाने, ताली बजाने जैसे कामों के साथ ‘गो कोरोना गो’ जैसा माहौल बनाया गया. हताशा का माहौल यह था कि गिलोय जैसे खरपतवार का इतना ज्यादा इस्तेमाल हुआ कि बाद में इस के असर से पेट की तमाम बीमारियां हो गईं.

रामदेव ने अपनी एक दवा पेश की, जिस के बारे में कहा कि यह उन लोगों को भी फायदा देगी, जिन्हें कोरोना हो गया है और उन को भी कोरोना से बचाएगी, जिन्हें कोरोना नहीं हुआ है.

दुनिया में कोई ऐसी दवा नहीं होती, जो बचाव और इलाज दोनों करे. बुखार की दवा इलाज कर सकती है, लेकिन लक्षण दिखने के पहले इस का इस्तेमाल किया जाए तो वह बुखार को रोक नहीं सकती. बीमारी को रोकने के लिए अलग दवा का इस्तेमाल होता है और इलाज के लिए दूसरी दवा का इस्तेमाल होता है.

रामदेव ने अपनी दवा की खासीयत बताई कि वह बचाव और इलाज दोनों करेगी. हताशा में फंसे लोगों ने इस पर यकीन भी कर लिया.

कोरोना के बाद कई तरह की रिसर्च बताती हैं कि कोरोना की हताशा ने लोगों के मन में धर्म का असर बढ़ाने का काम किया. कोरोना के दौरान पूजास्थल भले ही बंद थे या सीमित कर दिए गए थे, लेकिन लोगों की धर्म के प्रति भावना बढ़ी थी.

नाकामी में फंसे लोग ज्यादा धार्मिक

भारत में इस बीच लोगों में धर्म का असर काफी बढ़ गया. धर्म का ही असर था कि लोगों में दानपुण्य की चाहत बढ़ गई. इस के अलगअलग रूप देखने को मिले. भूखे को खाना और प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग मंदिरों के दर्शन के साथ ही साथ इन कामों में लग गए, जहां सामान्य दिनों में खानापानी बेचने का काम होता था.

कोरोना में लोग मुफ्त यह काम करने लगे. उन के मन में यह डर था कि कोरोना में जिंदगी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं. ऐसे में सेवा कर के पुण्य कमा सकते हैं. डाक्टर, दवाएं और पैसा होते हुए भी लोगों की जान जा रही थी. इस हताशा भरे दौर में उस की आस्था ही सहारा बन रही थी. कुंडली दिखाना, हाथों की उंगली में रत्न पहनना, जादूटोना कराना ऐसे तमाम जरीए हैं, जिन से लोग अपनी हताशा से बाहर निकलने का काम करते हैं.

मंदिरों में जाने वाले ज्यादातर लोग वे हैं, जो कुछ न कुछ मांगने जाते हैं. आज का नौजवान तबका इतना धार्मिक इसलिए होता जा रहा है, क्योंकि उस के पास नौकरी नहीं है, काम करने के लिए नहीं है. आपस में होड़ बढ़ गई है.

पड़ोसी का बच्चा सरकारी नौकरी पा गया, तो उस का अलग दबाव बढ़ जाता है. वह निराश भाव से धर्म की शरण में जाता है. तमाम मंदिर ऐसे हैं, जिन के बारे में कहा जाता है कि यहां मनौती मांगने से चाहत पूरी होती है.

मुकदमा चल रहा हो तो लोग यहां आते हैं, बीमार हैं तो मनौती मांगने आते हैं कि बीमारी ठीक हो जाए. हर काम की आस धर्म, पूजा, मंदिर पर टिकी होती है.

बड़ेबड़े अमीर लोग भी अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्ची लगवाते हैं, जिस से उन की दुकान पर किसी की नजर न लगे.

डाक्टरों के आपरेशन थिएटर में भगवान की मूर्ति या फोटो होती है. ड्राइवर अपनी गाड़ी के आगे भगवान की मूर्ति रखते हैं, जिस से कोई हादसा न हो.

धर्म और आस्था ने इतनी गहराई तक पैठ बना ली है कि हताशा और निराशा का इलाज कराने के लिए मैंटल हैल्थ वाले अस्पताल और डाक्टर के पास इलाज की जगह पूजापाठ और मंदिरों में जाते हैं. वे दवा की जगह अंगूठी और रत्नों में इलाज खोजने लगते हैं.

जैसेजैसे बेरोजगारी बढ़ेगी, कामधंधे नहीं होंगे, बीमारियां बढ़ेंगी, मुकदमे झगड़े होंगे, हताशा और निराशा बढ़ेगी, वैसेवैसे लोग धर्म के प्रति आस्था की ओर लोग धकेले जाएंगे. निराशहताश लोगों को यही हल दिखाई देगा. वे मंदिरमंदिर भटकेंगे और भगवान से आशीर्वाद में अपनी और अपने परिवार की तरक्की मांगेंगे.

धर्म बना देता है लोगों को गुलाम

सुप्रीम कोर्ट चाहे लाख कह ले कि हर वयस्क को प्रेम व विवाह का मौलिक अधिकार है और किसी बजरंगी, किसी खाप, किसी सामाजिक या धार्मिक गुंडे को हक नहीं कि इस अधिकार को छीने, मगर असल में धार्मिक संस्थाएं विवाह के बीच बिचौलिए का हक कभी नहीं छोड़ेंगी. विवाह धर्म की लूट का वह नटबोल्ट है जिस पर धर्म का प्रपंच और पाखंड टिका है और इस में किसी तरह का कंप्रोमाइज कोई भी धर्म नहीं सहेगा, सुप्रीम कोर्ट चाहे जो कहे.

जो भी धर्म के आदेश के खिलाफ जा कर शादी करेगा, सजा सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार और रिश्तेदारों को भी मिलेगी. सब को कह दिया जाएगा कि इस परिवार से कोई संबंध न रखो. कोई पंडित, मुल्ला, पादरी शादीब्याह न कराएगा. श्मशान में जगह नहीं मिलेगी, लोग किराए पर मकान नहीं देंगे, नौकरी नहीं मिलेगी.

धर्म का जगव्यापी असर है. जब लोग 7 समंदर पार रहते हुए भी कुंडली मिलान के बाद विवाह करते हों, गोरों व कालों की कुंडली भी बनवा लेते हों ताकि सिद्ध किया जा सके कि धर्म, रंग और नागरिकता अलग होने के बावजूद विवाह विधिविधान से हुआ है, तो क्या किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट की फुसफुसाहट हिंदुत्व के नगाड़ों के बीच खो जाएगी.

पारंपरिक शादियां चलती हैं, तो इसलिए कि शादी चलाना पतिपत्नी के लिए जरूरी होता है, उन का कुंडली, जाति, गोत्र, सपिंड, धर्म से कोई मतलब नहीं होता. शादी दिलों का व्यावहारिक समझौता है. एकदूसरे पर निर्भरता तो प्राकृतिक जरूरत है ही, सामाजिक सुरक्षा के लिए भी जरूरी है और इस के लिए किसी धर्मगुरु के आदेश की जरूरत नहीं. यदि प्यार हो, इसरार हो, इकरार हो, इज्जत हो तो कोई भी शादी सफल हो जाती है. बच्चे मातापिता पर अपनी निर्भरता जता कर किसी भी बंधन को, शादी को ऐसे गोंद से जोड़ देते हैं कि सुप्रीम कोर्ट, कानून या कुंडली की जरूरत नहीं.

कुंडली, जाति, गोत्र, सपिंड के प्रपंच पंडितों ने जोड़े हैं, ये धर्म की देन हैं, प्राकृतिक या वैज्ञानिक नहीं. शादी ऐसा व्यक्तिगत कृत्य है जो व्यक्ति के जीवन को बदल देता है और धर्म इस अवसर पर मास्टर औफ सेरिमनीज नहीं मास्टर परमिट गिवर बन कर पतिपत्नी को जीवन भर का गुलाम बना लेता है.

शादी में धर्म शामिल है, तो बच्चे होने पर उसे बुलाया जाएगा और तभी उसे धर्म में जोड़ लिया जाएगा ताकि वह मरने तक धर्म के दुकानदारों के सामने इजाजतों के लिए खड़ा रहे.

विधर्मी से विवाह पर धर्म का रोष यही होता है कि एक ग्राहक कम हो गया है. चूंकि दूसरे धर्म का ग्राहक भी कम होता है, दोनों धर्मों के लोग एकत्र हो कर इस तरह के विवाह का विरोध करते हैं. आमतौर पर शांति व सुरक्षा तभी मिलती है जब पति या पत्नी में से एक धर्म परिवर्तन को तैयार हो.

अगर उसी धर्म में गोत्र या सपिंड का अंतर भुला कर शादी हो रही हो तो धर्म के दुकानदारों के लिए दोनों को मार डालने के अलावा कोई चारा नहीं होता. शहरों में तो यह संभव नहीं होता पर गांवों में इसे चलाना आसान है, संभव है और लागू करा जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट चाहे जितना कह ले, जब तक देश में धर्म के दुकानदारों का राज है और आज तो राज ही वे कर रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट का आदेश केवल नरेंद्र मोदी के अच्छे दिन आ चुके हैं, जैसा है.

धर्म ने जकड़ा औरत को बेड़ियों में

आम औरतों के लिए घर की चारदीवारी बनी रहे, यह सब से बड़ी नियामत होती है और इसीलिए करोड़ों औरतें अपने शराबी, पीटने वाले, निकम्मे, गंदे, बदबूदार मर्द को झेलती ही नहीं हैं, उसे कुछ होने लगे तो बचाने के लिए जीजान लगा देती हैं. औरतों में मांग में सिंदूर की इतनी ज्यादा इच्छा रहती है कि वे घर छोड़ कर चले गए और दूसरी औरत के पास रहने वाले पति को भी अपना मर्द मानती हैं.

इस की वजह साधारण है. यह कोई त्याग का मामला नहीं है और न ही पति से प्यार का है. हर औरत को बचपन से सिखा दिया जाता है कि मर्द नाम की हस्ती ही उस को दुनिया से बचा सकती है और यह बात उस के मन में इस कदर बैठ जाती है कि चाहे मर्द के दूसरी औरतों के साथ संबंध बनें या खुद औरत के दूसरे मर्दों से संबंध बने हों, वे शादी का ठप्पा नहीं छोड़ पातीं. इस का कहीं कोई फायदा होता है, ऐसा नहीं लगता. यह शादी का बिल्ला, ये हाथ की चूडि़यां, यह मांग का सिंदूर असल में औरतों की गुलामी की निशानी बन जाता है जिस का मर्द, उस का परिवार और दूसरे लोग खूब जम कर फायदा उठाते हैं.

अगर औरत चार पैसे कमा रही है तो उस के पास एक पैसा नहीं छोड़ा जाता. अगर वह अकेले रह रही है तो साजिश के तौर पर दूसरे मर्द उस से अश्लील मजाक करने लगते हैं ताकि वह जैसे भी उसी मर्द की छांव में चली जाए. हर कानून में लिखा गया है कि मर्द का नाम बीवी के साथ लिखा जाएगा जबकि मर्द की पहचान उस के पिता से होती है. समाज ने इस तरह के फंदे बना रखे हैं कि पति को छोड़ चुकी अकेली औरत को, चाहे किसी उम्र की हो, मकान किराए पर नहीं मिलता, रेलवे का टिकट नहीं बनता, राशनकार्ड नहीं बनता, बच्चे हैं तो स्कूल में उन्हें तब तक दाखिला नहीं मिलता, जब तक मर्द का नाम न हो.

मर्द को औरत की चाबी पकड़ाने में धर्मों ने बहुत बड़ा काम किया है. हिंदू धर्म में मर्द परमेश्वर है, इसलाम में वह जब चाहे तलाक दे दे, जब चाहे सौतन ले आए. ईसाई धर्म में ईश्वरी जोड़ा बना डाला. तीनों धर्मों ने शादी अपनी निगरानी में करवानी शुरू कर दी पर औरतों के हकों पर तीनों बड़े धर्मों ने भेदभाव खुल कर रखा.

दुनियाभर में शहरों में ही नहीं गांवों तक में वेश्याएं हैं. यह दोतरफा वार है औरतों पर. एक तो जिन्हें वेश्या बनाया जाता है, उन्हें मशीन की तरह पैसा कमाने का साधन रखा जाता है. ये गरीब घरों की ही होती हैं, जिन्हें लीपपोत कर सजाया जाता है. जैसे ही जवानी घटती है, बीमारी होती है, मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. दूसरी तरफ मर्दों को इनाम दिया गया है कि वे अपनी बीवियों के होते हुए इन वेश्याओं के पास जा सकते हैं. किसी धर्म ने इस वेश्या बाजार को बंद नहीं किया.

जो औरत वेश्या बनती है वह सताई जाती है. जिस का मर्द वेश्या के पास जाता है वह भी लुटती है. कहीं भी मर्दों के बाजार क्यों नहीं हैं? अगर औरत मर्द की कोई जरूरत पूरी करती है तो औरतों की भी तो जरूरतें हो सकती हैं. उन्हें ऐसा करते ही मार डाला जाता है.

औरतों को आज भी किसी भी लोकतंत्र में बराबरी के हक नहीं मिल रहे. उन के सारे फैसले मर्द करते हैं या उन के खाविंद हों, समाज के नेता, धर्म के दुकानदार हों या सरकार चलाने वाले नेता, अफसर, जज, पुलिस के डंडे. इन में कहीं भी औरतों का कोई जोर नहीं, कोई दम नहीं, कोई जगह नहीं. जाहिर है, औरत को छिपने के लिए एक ही जगह छोड़ी गई है, उस का अपना शादीशुदा मर्द, वह भी एकलौता.

लोकतंत्र में या उसे वोटतंत्र कहें, औरतों के पास बराबर के हक हैं पर मजाल है कि कोई बीवी अपने मर्द की इजाजत के बिना किसी को वोट दे दे. जब वह घर से बाहर कदम नहीं रख सकती तो भला अपना नेता खुद कैसे चुन सकती है, अपना धर्म दुकानदार खुद कैसे चुन सकती है, अपना घर खुद कैसे बना सकती है. दुनियाभर के लोकतंत्र भी धर्म की आड़ में चल रहे हैं. यहां तो बहुतकुछ धर्म के नाम पर ही हो रहा है. धर्म कायम है तो औरतों की गुलामी कायम है, रही थी और रहेगी.

रस्मों की मौजमस्ती धर्म में फंसाने का धंधा

धर्म को ईश्वर से मिलाने का माध्यम माना गया है. धर्म मोहमाया, सांसारिक सुखों के त्याग की सीख देता है. धर्मग्रंथों में धर्म की कई परिभाषाएं दी गई हैं. कहा गया है कि धर्म तो वह मार्ग है जिस पर चल कर मनुष्य मोक्ष की मंजिल तय कर सकता है. ईश्वर के करीब पहुंच सकता है. धर्म के मानवीय गुण प्रेम, शांति, करुणा, दया, क्षमा, अहिंसा को व्यक्ति जीवन में उतार कर  मनुष्यता धारण कर सकता है. सांसारिक सुखदुख के जंजाल से छुटकारा पा सकता है. जिस ने धर्म के इस मार्ग पर चल कर ईश्वर को पा लिया वह संसार सागर से पार हो गया.

लेकिन व्यवहार में धर्म क्या है? धर्म का वह मार्ग कैसा है? लोग किस मार्ग पर चल रहे हैं? हिंदू समाज में धार्मिक उसे माना जाता है जो मंदिर जाता है, पूजापाठ करता है, जागरणकीर्तन, हवनयज्ञ कराता है, लोगों को भोजन कराता है, गुरु को आदरमान देता है, प्रवचन सुनता है, धार्मिक कर्मकांड कराता है, जीवन में पगपग पर धर्म के नाम पर रची गई रस्मों को निभाता चलता है और इन सब में दानदक्षिणा जरूर देता है.

धर्मग्रंथ और धर्मगुरु व साधुसंत कहते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने के लिए ये सब करो तो बेड़ा पार हो जाएगा.

ईश्वर तक पहुंचाने वाले इस धर्म का असल स्वरूप कैसा है? हिंदू समाज में धर्म के नाम पर वास्तव में रस्मों का आडंबर है. चारों तरफ रस्मों की ही महिमा है. पगपग पर रस्में बिछी हैं. ‘पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए’ की तर्ज पर धार्मिक रस्मों में नाचना, गाना, खानापीना, कीर्तन, यात्रा, किट्टी पार्टी, गपबाजी, विरोधियों की पोल खोलना, आदि  शामिल हैं. हिंदू समाज में जन्म से ले कर मृत्यु और उस के बाद तक अलगअलग तरह की रस्में हैं. अंधभक्त धर्म के नाम पर बनी इन रस्मों को बड़े उत्साह से निभाते हैं. वे इन रस्मों में उल्लास के साथ भाग लेते हैं.

विवाहशादी, जनममरण की रस्में छोड़ भी दें तो जीवन में और बहुत सारी धार्मिक रस्मों का पाखंड व्याप्त है. पाखंड से भरे रस्मों के प्रति लोगों के निरंतर प्रचार के कारण श्रद्धा बढ़ रही है.

कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर दही हांडी फोड़ने के साथ नाचगाने व अन्य मनोरंजक रस्में महाराष्ट्र में जगहजगह होती हैं. गणेशोत्सव पर तरहतरह की झांकियां निकाली जाती हैं. इन में बच्चे व बड़े हाथी की सूंड लगाए, देवीदेवताओं के मुखौटे चढ़ाए नाचतेगाते दिखते हैं. जागरणों- कीर्तनों की धूम दिखाई देती है. इस तरह पूरे साल धार्मिक रस्में चलती रहती हैं. रस्मों का महाजाल बिछा है. कुछ लोग भय से, लालच से और आनंद उठाने के लिए धार्मिक रस्मों को करने में लगे हुए हैं.

धार्मिक रस्मों में पूजा कई रूपों में की जाती है. पूजापाठ के अनोखे तरीके हैं. नाचगाने, फिल्मी धुनों पर भजनों की बहार के साथ उछलतेकूदते भक्तगणों की टोलियां नाइट क्लबों की तरह करतब दिखाती नजर आती हैं. भक्त मूर्ति को प्रतीकात्मक तौर पर खाद्य सामग्री, पानी और पुष्प चढ़ाते हैं. मूर्ति के आगे  मोमबत्ती या अगरबत्ती जला कर घुमाई जाती है. फिर घंटी बजाने की रस्म की जाती है. भगवान का नाम बारबार जपा जाता है. भगवान को खाने की जो चीज चढाई जाती है उसे ‘प्रसाद’ कहा जाता है. इस ‘प्रसाद’ के बारे में प्रचारित किया गया है कि ‘प्रसाद’ खाना ‘आत्मा’ के लिए लाभप्रद है.

हर धर्म में तीर्थयात्रा जरूर बताई गई है. नदी के किनारे बसे शहरों की तीर्थ यात्रा पर गए लोग नदी में जलता हुआ दीपक और पुष्प रखा हुआ दोना बहाते हैं, मंदिरों में जलते हुए दीपक की लौ को सिरआंखों पर लगाते हैं. राख या चंदन का तिलक माथे के अलावा गले, छाती, नाभि पर लगाते हैं.

ऐसा करने के पीछे कोई तार्किकता नहीं है पर लोगों को ऐसा करने के लिए फायदा होने का लालच दिखाया गया है. दोना बहाने पर सुखसमृद्धि व पतिपत्नी के रिश्ते दूर तक चलने और दीपक की लौ से रोगदोष कटने की बात कही जाती है. हां, इन्हें देखना बड़ा सुखद लगता है, दृश्य फिल्मी हो जाता है.

जागरणकीर्तन की रस्म में लोग फिल्मी धुनों पर रचे भजन गाते हैं और थिरकते हैं. परिवार सहित अन्य लोगों को आमंत्रित किया जाता है तथा सब को भोजन कराया जाता है. धर्म की कमाई नहीं आनंद, मौजमस्ती की कमाई होती है.

लोग कहते फिरते हैं कि धार्मिक रस्में बहुत सुंदर होती हैं. प्रशंसा करते नहीं अघाते कि वाह, कैसा सुंदर जागरण- कीर्तन था. खूब मजा आया. झांकी कितनी खूबसूरत थी यानी मामला भगवान के पास जाने का नहीं, मनोरंजन का है.

रस्मों के नाम पर कहीं सुंदर नए वस्त्र पहने जाते हैं, कहीं तलवार, लाठीबाजी के करतब भी किए जाते हैं तो कहीं जुआ खेला जाता है. शिवरात्रि पर भांग पीना भी एक रस्म मानी जाती है. भंडारा यानी खानापीना और दान की रस्में तो सर्वोपरि हैं. इन रस्मों के बिना तो धर्म ही अधूरा है. सारा पुण्यकर्म ही बेकार है. धार्मिक कार्यक्रमों में भोजन कराना बड़े पुण्य का काम समझा जाता है. इसे प्रसाद मान कर लोगों को खिलाया जाता है. यहां भी बच्चों और बड़े भक्तों का मनोरंजन ही सर्वोपरि होता है. ऊबाऊ फीकी रस्मों के पीछे कम लोग ही पागल होते हैं.

महिलाओं को लुभाने के लिए उन्हें सजनेसंवरने के लिए सुंदर वस्त्र, आभूषण पहनने, घर को सजाने में रुचि रखने वाली औरतों के लिए घर के द्वार पर वंदनवार बांधने, कलश स्थापना जैसी रस्में भी रची गई हैं. औरतें अपनी सब से सुंदर साडि़यां पहन कर, जेवरों से लदफद कर, मोटा मेकअप कर के भगवान के सन्निकट आने के लिए घर का कामकाज छोड़छाड़ कर निकलती हैं. रस्मों के दौरान खूब हंसीठट्ठा होता है. हाहा हीही होती है. छेड़खानी होती है. आसपास मर्द हों तो उन्हें आकर्षित करने का अवसर नहीं छोड़ा जाता.

भांग खाने, जुआसट्टा खेलने की रस्म, गरबा खेलने की रस्म, धार्मिक उत्सवों में लाठी, तलवारबाजी की रस्में की जाती हैं. यहां भी आड़ भगवान की ले ली जाती है यानी रस्म के नाम पर नशेबाजों, जुआसट्टेबाजों, रोमांच, रोमांस के शौकीनों को भी धर्म के फंदे में फंसा लिया गया है. होली, दशहरा, नवरात्र, शिवरात्रि जैसे धार्मिक उत्सवों पर नशा, छेड़छाड़, गरबा, डांडिया उत्सव में रोमांस के मौके उपलब्ध होते हैं.

अरे, वाह, ईश्वर तक पहुंचने का क्या खूब रास्ता है. भगवान तक पहुंचने का यह मार्ग है तभी लोगों की भीड़ बेकाबू होती है.

दक्षिण भारत में धार्मिक रस्मों के नाम पर लोग लोहे की नुकीली लंबीलंबी कीलें दोनों गालों के आरपार निकालने का करतब दिखाते हैं. कई लोग धर्मस्थलों तक मीलों पैदल चल कर जाते हैं, कुछ लेट कर पेट के बल चल कर जाते हैं. यह सबकुछ सर्कसों में भी होता है. गोदान, शैयादान करने की रस्म, बेजान मूर्तियों के आगे देवदासियों (जवान युवतियों) के नाचने की भी रस्म है. कहीं बाल कटवाने की रस्म है, कहीं मंदिरों में पेड़ों पर कलावा, नारियल, घंटी बांधने की रस्म है. कुछ समय पहले तक तीर्थों पर पंडों द्वारा युवा स्त्रियों को दान करवा लेने की परंपरा थी. शुद्धिकरण, पंडों के चरण धो कर गंदा पानी पीने की रस्म, मनों दूध नदियों में बहाने, मनों घी, हवन सामग्री को अग्नि में फूंक डालने की रस्म है. जानवरों को मार कर खाना, देवीदेवताओं को चढ़ाना रस्म है, और यही मांस बतौर प्रसाद फिर खाने को मिलता है क्योंकि भगवान तो आ कर खाने से रहे.

अरे, भाई, यह क्या पागलपन है. क्या भगवान तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ़ा जा रहा है या खानेपीने का लाभ होता है? शायद लोहे के सरियों से जबड़े फाड़ कर, भांग पी कर, जुआ खेल कर, गंजे हो कर, नाचगा कर ईश्वर तक पहुंचने के बजाय बोरियत दूर की जाती है. चूंकि धर्म का धंधा इसी पर टिका है, पंडेपुजारियों ने इस तरह के रोमांच, रोमांस, मौजमस्ती वाली रस्में रची हैं.

रस्मों में खानेपीने यानी भंडारे और दान की रस्म का खास महत्त्व है. ये रस्में हर धर्म में हैं. बाद में खाने की अनापशनाप सामग्री चाहे कूड़े के ढेर में फेंकनी पड़े. धर्म के नाम पर खाना खिलाने की यह रस्म इस गरीब देश के लिए शर्म की बात है. जहां देश की 20 प्रतिशत आबादी को दो वक्त की भरपेट रोटी नहीं मिलती, वहां ऐसी रस्मों में टनों खाद्य सामग्री बरबाद की जाती है.

कुंभ जैसे धार्मिक मेलों में तो रस्मों के नाम पर बड़े मजेदार तमाशे देखने को मिलते हैं. पिछले नासिक कुंभ मेले में इस प्रतिनिधि ने स्वयं देखा, रस्मों के नाम पर लोग गोदावरी के गंदे पानी में बड़ी श्रद्धा से स्नान कर रहे थे, पुष्प, जलते दीपक का दोना नदी में बहा रहे थे. ‘अमृत लूटने वाले दिन’ दोपहर को जब एक महामंडलेश्वर की मंडली घाट पर आई और उस ने नदी में पैसे, प्रसाद फेंके तो भक्तों की भीड़ इस ‘अमृत’ को लूटने के लिए नदी में कूद पड़ी. पैसे के लिए मची, भगदड़ में कई भक्त मोक्ष पा गए.

मेले में कहीं रस्सी के सहारे बाबा लटके हुए थे, इन के आगे एक बोर्ड लगा था और उस पर लिखा था, बाबा खड़ेश्वरी. आगे एक दानपात्र पड़ा था. कहीं लाल मिर्च का ढेर लगा था और 30 मिर्चों को जला कर हवन किया जा रहा था. स्नान के लिए गुरुओं की झांकियां निकल रही थीं. भिखमंगों, अपंगों की भीड़ उमड़ी पड़ी थी. धर्म में बहुरूप धरने वालों का भी रिवाज है. मेले में तरहतरह के बहुरुपिए नजर आ रहे थे. कोई शिव, कोई हनुमान, कोई बंदर, कोई गरुड़ बना हुआ था लेकिन इन के हाथों में कटोरा अवश्य था. हर जगह ऐसा लग रहा था मानो मदारियों को जमा कर रखा है. अगर ये मदारी न हों तो कुंभ मेले में शायद कोई जाए ही नहीं.

दरअसल, रस्मों का यह एक मोहजाल फैलाया गया है. रस्मों के नाम पर इन में मौजमस्ती, रोमांच ज्यादा है. रस्में बनाई ही इसलिए गई हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके क्योंकि मस्ती, मनोरंजन, खानपान, रोमांच के प्रति मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है.

धर्म में इन रस्मों का यह स्वरूप आदमी की कमजोरी को भांप कर धीरेधीरे निर्धारित किया गया क्योंकि ज्यादातर हिंदुओं का धार्मिक जीवन देवीदेवताओं पर केंद्रित होता है. लोग नाच कर, गा कर, खाना खा कर, तरह- तरह के मनोरंजक तमाशे कर के खुश होते हैं और बहाना बनाते हैं पूजा करने का. पंडेपुजारी इस  बात को जानते हैं और वे इवेंट मैनेजर बन जाते हैं.

असल में रस्में अंधविश्वासों का जाल हैं. यह संसार का एक विचित्र गोरखधंधा है. तरक्की रोकने की बाधाएं हैं. असल बात तो यह है कि धर्म के पेशेवर धंधेबाजों ने रस्मों के नाम पर जेब खाली कराने के लिए सैकड़ों रास्ते निकाल लिए हैं. भिन्नभिन्न प्रकार की चतुराई भरी तरकीबों से हर धार्मिक, सामाजिक उत्सवों  पर रस्में रच दी गईं. इन रस्मों के ऊपर दानदक्षिणा, चंदा मांगने की रस्म और बना दी गई. कह दिया गया कि दान के बिना धर्म का हर काम अधूरा है. जनता अपने पसीने की कमाई में से रस्मों के नाम पर पैसा देना अपना धर्म समझती है.

हरिदास परंपरा के संगीत, सूरदास, कबीर, मीराबाई के भजन आखिर हों क्यों? क्यों शब्दजाल से सम्मोहित किया जाता है. भक्तों का मनोरंजन उद्देश्य है या ईश्वर की प्राप्ति? अब इस गीतसंगीत की जगह फिल्मी गीतसंगीत ने ले ली है. अच्छा है. नए युग में नया मनोरंजन. पुराने भजनों से भक्त आकर्षित नहीं होते. लिहाजा भक्तों की रुचि का पूरा खयाल रखा जाता है और अब उन्हें ‘ये लड़की आंख मारे’, ‘चोली के पीछे क्या है’ जैसे उत्तेजक फिल्मी गीतसंगीत पर रचे भजन गाएसुनाए जाते हैं.

धर्म के धंधेबाज लोगों में भय और लालच फैलाते हैं कि फलां रस्म न की गई तो ऐसा अनर्थ हो जाएगा व फलां रस्म की गई तो यह पुण्य होगा, इच्छाएं पूरी होंगी. सुखसमृद्धि आएगी. जन्म के बाद बच्चे का मुंडन नहीं कराया, इसलिए बच्चा बीमार रहने लगा. चाहे किसी कारणवश बच्चा बीमार हो गया हो, दोष रस्म न करना मान लिया जाता है. इस तरह के सैकड़ों भय दिखा कर लोगों को दिमागी गुलाम बना दिया गया है.

भयभीत, अनर्थ से आशंकित लोग यंत्रवत हर धार्मिक रस्म करने को आतुर हैं. चाहे जेब इजाजत दे या न दे. कर्ज ले कर धार्मिक रस्म तो करनी ही है. लोग खुशीखुशी अपनी जमा पूंजी खर्च कर देते हैं, क्योंकि मुंडन पर सैकड़ों को बुला कर खाना खिलाने का अवसर मिलता है. रिश्तेदार जमा होते हैं. देवरभाभी, जीजासाली घंटों चुहलबाजी करते हैं.

घर में बच्चा पैदा हुआ है, यह बताने के लिए डाक्टरी विज्ञान है. विज्ञान पढ़ कर भी इसे भगवान की कृपा मान कर जागरणकीर्तन की रस्म की जाती है. खाना, कपड़े, गहने दान किए जाते हैं. जागरण में अंशिमांएं भरी जाती हैं, सिर नवा कर भगवान को अर्पित कौन करता है? क्या यही सब करने से भक्त भगवान का दर्शन पा जाते हैं?

हम अपने धर्म, संस्कृति को महान बताते रहे. इस की श्रेष्ठता, महानता, गुरुता का गुण गाते रहे पर दूसरी जातियों और संस्कृतियों शक, हूण, यवन, अंगरेजों ने देश में आ कर हमें सैकड़ों सालों तक गुलाम बना कर रखा फिर भी हम अपना पागलपन नहीं त्याग पाए हैं. यह सब इसी पागलपन के कारण हुआ.

धर्म में अगर रस्मों के नाम पर इस तरह के मनोरंजक तमाशे न हों तो सबकुछ नीरस, फीकाफीका, ऊबाऊ लगेगा. रस, मौजमस्ती चाहने वालों की भीड़ नहीं जुटेगी. रस्मों की मौजमस्ती का धर्म की खिचड़ी में तड़का लगा दिया गया, इसलिए भक्तों को स्वाद आने लगा. आनंदरस मिलने लगा. यही कारण है कि धर्म हर किसी को लुभाता है और रस्में धर्म की जान बन गईं.

असल में धर्म का महल रस्मों के इन्हीं खंभों पर ही तो टिका है. तभी तो इस के रखवालों में जरा सी आलोचना से खलबली मच जाती है. घबरा उठते हैं वे कि कहीं असलियत सामने न आ जाए. पोल न खुल जाए. अगर धर्म मनोरंजन करने का एजेंट न बने तो धर्म बेजान, बेकार, दिवालिया सा दिखाई दे. धर्म की दुकानें सूनी, वीरान नजर आएं. क्या फिर ऐसे फीके, उबाऊ धर्म की ओर कोई झांकेगा.

जाहिर सी बात है, हर एजेंट अपना माल बेचने के लिए उसे तरहतरह से सजाएगा, संवारेगा, चांदी सी चमकती वर्क लगा कर दिखाएगा, प्रदर्शित करेगा. ग्राहकों को सब्जबाग दिखाएगा तभी तो ग्राहक आकर्षित होंगे. हिंदू धर्म में औरों से ज्यादा मनोरंजक तमाशे, रस्मों की मौजमस्ती हैं इसलिए यहां अधिक पैसा बरसता है. धर्म मालामाल है. यह सब मनोरंजन, मौजमस्ती न होती तो धर्म का अस्तित्व न होता. यही तो धर्म का मर्म है.

Diwali Special: मिलन के त्योहारों को धर्म से न बांटे

त्योहारों का प्रचलन जब भी हुआ हो, यह निश्चित तौर पर आपसी प्रेम, भाईचारा, मिलन, सौहार्द और एकता के लिए हुआ था. पर्वों को इसीलिए मानवीय मिलन का प्रतीक माना गया है. उत्सवों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना है. सामाजिक बंधनों और पारिवारिक दायित्वों में बंधा व्यक्ति अपना जीवन व्यस्तताओं में बिता रहा है. वह इतना व्यस्त रहता है कि उसे परिवार के लिए खुशियां मनाने का वक्त ही नहीं मिलता.

इन सब से कुछ राहत पाने के लिए तथा कुछ समय हर्षोल्लास के साथ बिना किसी तनाव के व्यतीत करने के लिए ही मुख्यतया पर्वउत्सव मनाने का चलन हुआ, इसलिए समयसमय पर वर्ष के शुरू से ले कर अंत तक त्योहार के रूप में खुशियां मनाई जाती हैं.

उत्सवों के कारण हम अपने प्रियजनों, दोस्तों, शुभचिंतकों व रिश्तेदारों से मिल, कुछ समय के लिए सभी चीजों को भूल कर अपनेपन में शामिल होते हैं. सुखदुख साझा कर के प्रेम व स्नेह से आनंदित, उत्साहित होते हैं. और एक बार फिर से नई चेतना, नई शारीरिकमानसिक ऊर्जा का अनुभव कर के कामधंधे में व्यस्त हो जाते हैं.

दीवाली भी मिलन और एकता का संदेश देने वाला सब से बड़ा उत्सव है. यह सामूहिक पर्र्व है.  दीवाली ऐसा त्योहार है जो व्यक्तिगत तौर पर नहीं, सामूहिक तौर पर मनाया जाता है. एकदूसरे के साथ खुशियां मनाई जाती हैं. एक दूसरे को बधाई, शुभकामनाएं और उपहार दिए जाते हैं. इस से आपसी प्रेम, सद्भाव बढ़ता है. आनंद, उल्लास और उमंग का अनुभव होता है.

व्रत और उत्सव में फर्क है. व्रत में सामूहिकता का भाव नहीं होता. व्रत व्यक्तिगत होता है, स्वयं के लिए. व्रत व्यक्ति अपने लिए रखता है.  व्रत में निजी कल्याण की भावना रहती है जबकि उत्सव में मिलजुल कर खुशी मनाने के भाव. शिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, नवरात्र, दुर्गापूजा, कृष्ण जन्माष्टमी, छठ पूजा, गोवर्धन पूजा आदि ये सब व्रत और व्रतों की श्रेणी में हैं. ये  सब पूरी तरह से धर्म से जुड़े हुए हैं जो किसी न किसी देवीदेवता से संबद्घ हैं. इन में पूजापाठ, हवनयज्ञ, दानदक्षिणा का विधान रचा गया है.

यह सच है कि हर दौर में त्योहार हमें अवसर देते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार कर, खुशियों से सराबोर हो सकें. कुछ समय सादगी के साथ अपनों के साथ बिता सकें ताकि हमें शारीरिक व मानसिक आनंद मिल सके. मनुष्य के भले के लिए ही त्योहार की सार्थकता है और यही सच्ची पूजा भी है. उत्सव जीवन में नए उत्साह का संचार करते हैं. यह उत्साह मनुष्य के मन में सदैव कायम रहता है. जीवन में गति आती है. लोग जीवन में सकारात्मक रवैया रखते हैं. त्योहारों की यही खुशबू हमें जीवनभर खुशी प्रदान करती रहती है.

लेकिन दीवाली जैसे त्योहारों में धर्म और उस के पाखंड घुस आए हैं जबकि इन की कोई जरूरत ही नहीं है. इस में लक्ष्मी यानी धन के आगमन के लिए पूजापाठ, हवनयज्ञ और मंत्रसिद्धि जैसे प्रपंच गढ़ दिए गए हैं. मंदिरों में जाना, पूजन का मुहूर्त, विधिविधान अनिवार्य कर दिया गया है. इसलिए हर गृहस्थ को सब से पहले पंडेपुजारियों के पास यह सब जानने के लिए जाना पड़ता है. उन्हें चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है.

दीवाली पर परिवार के साथ स्वादिष्ठ मिठाइयों, पटाखों, फुलझडि़यों और रोशनी के आनंद के साथसाथ रिश्तेदारों, मित्रों से अपने संबंधों को नई ऊर्जा प्रदान करें. स्वार्थी लोगों ने दीवाली, होली में भी धर्म को इस कदर घुसा दिया है कि इन के मूल स्वरूप ही अब पाखंड, दिखावे, वैर, नफरत में परिवर्तित हो गए हैं.

पिछले कुछ समय से हमारे सामाजिकमजहबी बंधन के धागे काफी ढीले दिखाई देने लगे हैं. दंगों ने सामूहिक एकता को तोड़ने का काम किया है. आज उत्सव कटुता के पर्याय बन रहे हैं. त्योहारों की रौनक पर भाईचारे में आई कमी का कुप्रभाव पड़ा है. स्वार्थपरकता ने यह सब छीन लिया है. त्योहारों को संकीर्ण धार्मिक मान्यताओं के दायरे में समेट कर संपूर्ण समाज की एकता में मजहब, जाति, वर्ग के बैरिकेड खड़े कर दिए गए. लिहाजा, एक ही धर्म के सभी लोग जरूरी नहीं, उस उत्सव को मनाएं.

धर्म व पाखंड के चलते रक्षाबंधन को ब्राह्मणों, विजयादशमी को क्षत्रियों, दीवाली को वैश्यों का पर्व करार सा दे दिया गया है, तो होली को शूद्रों का. ऐसे में शूद्र, दलित दीवाली मनाने में हिचकिचाते हैं. दीवाली मनाने के पीछे जितनी धार्मिक कथाएं हैं, उन से शूद्रों और दलितों का कोई सरोकार नहीं बताया गया. उलटा उन्हें दुत्कारा गया है.

अशांति की जड़ है धर्म       

अगर किसी का इन गढ़ी हुई मान्यताओं में यकीन नहीं है या वह उन से नफरत करता है तो निश्चित ही तकरार, टकराव होगा. दीवाली को लंका पर विजय के बाद राम के अयोध्या आगमन की खुशी का प्रतीक माना जाता है पर कुछ लोग रावण के प्रशंसक भी हैं जो राम को आदर्श, मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं मानते. राम के शंबूक वध की वजह से पढ़ेलिखे दलित उन के इस कृत्य के विरोधी हैं. राम द्वारा अपनी पत्नी सीता की अग्निपरीक्षा और गर्भवती अवस्था में घर से निष्कासन की वजह से उन्हें स्त्री विरोधी भी माना जाता है.

इसी तरह हर त्योहार को ले कर कोईर् न कोई धार्मिक मान्यता गढ़ दी गई. त्योहारों को धर्म और उस की मान्यताओं से जोड़ने से नुकसान यह है कि समाज के सभी वर्गों के लोग अब एकसाथ उन से जुड़ा महसूस नहीं कर पाते. कहने को धर्म को कितना ही प्रेम का प्रतीक संदेशवाहक बताया जाए पर धर्म हकीकत में सामाजिक भेदभाव, वैर, नफरत, अशांति की जड़ है. सच है कि त्योहारों में मिठास घुली होती है पर अपनों तक ही. मजहबी बंटवारे से यह मिठास खट्टेपन में तबदील हो रही है. अकसर त्योहारों पर निकलने वाले जुलूस, झांकियों के वक्त एकदूसरे का विरोध, गुस्सा देखा जा सकता है. कभीकभी तो खूनखराबा तक हो जाता है.

हर धर्म के त्योहार अलगअलग हैं. एक धर्र्म को मानने वाले लोग दूसरे के त्योहार को नहीं मानते. धर्मों की बात तो और, एक धर्र्म में ही इतना विभाजन है कि एक धर्म वाले सभी उत्सव एकसाथ नहीं मनाते. हिंदुओं के त्योहार ईर्साई, सिख, मुसलमान ही नहीं, स्वयं नीचे करार दिए गए हिंदू ही मनाने में परहेज करते हैं. मुसलमानों में शिया अलग, सुन्नी अलग, ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटैस्टेंटों की अलगअलग ढफली हैं. हर धर्म में ऊंचनीच है. श्रेष्ठता और छोटेबड़े की भावना है. फिर कहां है सांझी एकता? कहां है मिलन? क्या त्योहार आज भी मानवीय गुणों को स्थापित करने में, प्रेम, शांति एवं सद्भावना को बढ़ाते दिखाईर् पड़ते हैं?

त्योहारों में धर्म की घुसपैठ सामाजिक मिलन, एकता, समरसता की खाई को पाटने के बजाय और चौड़ी कर रही है. एकता, समन्वय और परस्पर जुड़ने का संदेश देने वाले त्योहारों के बीच मनुष्यों को बांट दिया गया है.

धर्म के धंधेबाजों का औजार 

धार्मिक वर्ग विभाजन की वजह से उत्सव अब सामाजिक मिलन के वास्तविक पर्व साबित नहीं हो पा रहे हैं. त्योहारों के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक महत्त्व को भूल कर धार्मिक, सांस्कृतिक पहलू को सर्वोपरि मान लिया गया है. त्योहार अब धर्म के कारोबारियों के औजार बन गए हैं. नतीजा यह हो रहा है कि विद्वेष, भेदभाव की जड़वत मान्यताओं को त्योहारों के जरिए और मजबूत किया जा रहा है. एक परिवार हजारों, लाखों रुपए दिखावे, होड़ में फूंक देता है. ऐसे में त्योहारों की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं.

केवल समृद्धि, धन के आगमन की उम्मीदों के तौर पर मनाए जाने वाले दीवाली पर्व का महत्त्व धन से ही नहीं है, इस का रिश्ता सारे समाज की एकता, प्रेम, सामंजस्य, मिलन के भाव से है. हमें सोचना होगा कि क्यों सामाजिक, पारिवारिक विघटन हो रहा है. धर्मों में विद्वेष फैल रहा है? त्योहार सौहार्द के विकास में कहां सहयोग कर रहे हैं?

ऐसे में सवाल पूछा जाना चाहिए कि सामाजिक जीवन में धर्मों की क्या उपयोगिता रह गई है? धर्र्म के होते ‘अधर्म’ जैसे काम क्यों हो रहे हैं? त्योहारों के वक्त आतंकी खतरे बढ़ जाते हैं. सरकारों को सुरक्षा व्यवस्था करनी पड़ती है. रामलीलाओं में पुलिस और स्वयंसेवकों का कड़ा पहरा रहता है. वे हर संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखते हैं. अब तो रामलीलाओं की सुरक्षा का जिम्मा द्रोण द्वारा तय किया जाने लगा है. फिर भी आतंकी बम फोड़ जाते हैं और निर्दोष लोग मारे जाते है.

नए सिरे से विचार करना होगा कि परस्पर मेलमिलाप के त्योहार हमारी ऐसी सामाजिक सोच को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं? दीवाली को अंधकार को समाप्त करने वाला त्योहार कहा गया है. कई तरह के अंधकारों में धार्मिक भेदभाव, असहिष्णुता, वैमनस्यता और भाईचारे, सौहार्द के अभाव का अंधेरा अधिक खतरनाक है. जब घरपरिवार, समाज में सद्भाव, प्रेम, मेलमिलाप न रहेगा तो कैसा उत्सव, कैसी खुशी? समाज में फैल रहे धर्मरूपी अंधकार को काटना दीवाली पर्व का उद्देश्य होना चाहिए. तभी इस त्योहार की सही माने में सार्थकता है.

अमेरिका में गर्भपात पर सुप्रीम कोर्ट ने लिया यह फैसला

अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से पेट में आए बच्चे के गिराने के हक की बातचीत यहां भी कुछ ज्यादा होने लगी है. दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले 23 हफ्ते के बिना शादी की युवती के पेट मेंं  पल रहे बच्चे को गिराने की इजाजत देने से इंकार कर दिया. हाईकोर्ट ने कानूनी दलीलें दीं और यह भी अद्भुत सुझाव दिया कि बच्चा पैदा कर के गोद के लिए दे दिया जाए कयोंकि आजकल गोद लेने वालों की लबी कतारें लगी हैं.

कानून ने 1971 से थोड़ा बहुत गर्भपात यानी पेट का बच्चा गिराने का हक दे दिया था पर आज भी ज्यादातर बच्चे चोरीछिपे की गिराए जाते हैं, चाहे नॄसगहोमों में या घरों में. शादी से पहले या बाद में अनचाहे बच्चे को गिराने का हक किस के पास होना चाहिए यह मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के अमेरिकी फैसले ने फिर से जता दिया है. 50 साल पहले अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह हक संविधान ने अमेरिकी औरतों को दिया है. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला बदला है और कहा है कि यह हक कहीं भी संविधान में नहीं लिखा.

भारत में ऐसे बहुत मामले सुप्रीम कोर्ट तक गए हैं पर हर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हक की बात न कर के इजाजत दे कर मामला रफादफा कर दिया.

हमारे संविधान में यह हक है या नहीं इस पर कानूनी सर्कलों में बहस होती रहती है पर जमीनी हकीकत यह है कि गर्भपात कराना बहुत मुश्किल तो नहीं पर होते चोरीछिपे ही हैं.

असल में यह हक हर स्त्री का हक है कि वह अपने बदन का कब कैसे इस्तेमाल करे. सरकारी, समाज, धर्म को नैतिकता, पाप, पुण्य के नाम पर न तो आदमी औरत की सैक्स इच्छा पर कोई बंदिश लगाने का कोई हक है जरूरत. जैसे बच्चे पैदा करने के लिए शादीशुदा को कोई लाइसेंस नहीं देता वैसा ही गैर शादीशुदा को सरकार या पंडे, पादरी से कोई इजाजत चाहिए हो कि सैक्स वर्क या न और बच्चा गिराऊंगा नहीं की इजाजत नहीं चाहिए.

इतना पक्का है कि कोई अदालत, कोई संविधान, कोई सरकार, कोई मंदिर, कोई मसजिद, कोई चर्च गैर शादीशुदा मां को बच्चे को पालने में कोई सहायता नहीं देती. हर कदम पर ये सब मिल कर उसे जलील करते है. ‘हरामजादा’ सभी भाषाओं में, सभी धर्मों में, सभी समाजों में, सभी देशों में गाली है और ‘हरामजादे’ की मां हर जगह ‘वेश्य्या’, ‘रंडी’, ‘प्रौस’ मानी जाती है. जिस के साथ सैक्स संबंध हुए हैं और हो इसे ‘हरामजादे’ का असली बाप और गुनाहगार है समाज में सिर उठा कर घूमता है.

यह कैसी बराबरी है यह कैसी आजादी है. यह कैसा समाज है जो औरत को अकेले सजा देता हैं. जब तक गर्भपात की सेफ तकनीक नहीं थी, यह माना जा सकता था कि गर्भ गिराने के चक्कर में मां की जान भी जा सकती है यह कहां जा सकता था कि यह गलत है और बंदिशें लागई जा सकती थीं पर अब कोई बंदिश लगाना एक जुल्म है जो समाज या सरकार अपने डंडे से एक बेचारी गैर शादीशुदा लडक़ी पर बरसाया जाता है. वैसे ही डरीसहमी कमजोर औरत को कहा जाता है कि यह पाप है और इसे ङ्क्षजदगी भर भुगतों जबकि उस का कुदरती बाप मौज करे, शादियां करे, बच्चे करे.

यह कहना कि गर्भ में पल रहा भ्रूण एक ङ्क्षजदा जना है जिसे मारना अपराध की होगा, गलत है. अगर मां ङ्क्षजदा है तो ही वह भ्रूण ङ्क्षजदा है. मां के बुखार या एक्सीडेंट में मौत हो जाए तो क्या वह ‘जीव’ ङ्क्षजदा रहेगा. वह मां के हाथ, पैर को उंगली की तरह मरेगा. कानून का कहना कि वह जीवित जना है बिलकुल गलत है.

पेट गिराय या गर्भपात औरत और डाक्टर का फैसला है. जैसे औरतों को ब्रेस्ट कैंसर के कारण बेस्ट निकलवाने में कानून या अदालत की इजाजत नहीं चाहिए होती, वैसे ही पेट में पल रहा जो भी है, औरत का हिस्सा है और वह उसे नहीं चाहती तो अपने डाक्टर की सलाह पर गिरावा सके. भारत की अदालतें, पंडेपुजारी, चर्च, अमेरिकी अदालतें क्या औरतों को गुलाम समझती रहेंगी जो बच्चे पैदा करें और पालें.

रेप और धर्म

मुंबई की एक स्पैशल पौक्सो कोर्ट ने कहा है कि रेप तो मर्डर से भी ज्यादा सीरियस क्राइम है क्योंकि यह विक्टिम की आत्माउस के वजूद और उस के आत्मविश्वास की हत्या कर देता है. रेप असल में आदमी का औरत के खिलाफ सब से ज्यादा खतरनाक हथियार है. जहां पशु जगत में यह सैक्स मादा की मरजी से ही होता है,

 

वहां सिविलाइज्ड सोसाइटियों में औरत को मैंटली और फिजिकली ऐसा बना दिया गया है कि वे रेप होते समय न केवल अपनी हैल्पनैस पर तड़पें बल्कि रेप घंटोंदिनोंहफ्तों और सालों बाद भी भूल न पाएं.

रेप का मतलब केवल मेल और्गन का फीमेल और्गन में एंट्री नहीं हैउस का मतलब है अनचाहे तौर पर औरत की सारी प्रौपर्टी लूट लेना कि उसे लगे कि वह अब खाली हाथ रह गई है. जब रेप अबोध छोटी बच्चियों से होता है तो उन्हें इस शारीरिक दर्द होने के सामाजिक परिणाम नहीं मालूम होते हैं. उन के साथ जो हो रहा है वह उन्हें पता रहता कि कुछ अलग हैपर जो लड़कियां मांबाप की मारपीट की आदी होती हैं उन्हें भी इस का दर्द अलग सा होता है क्योंकि रेप का दर्द सब कौंशियस माइंड तक पहुंचता है.

रेप को रोकने का कोई उपाय नहीं है. जब किसी पुरुष पर रेप करने का भूत सवार होता है तो वह सबकुछ भूल जाता है. वह रेप मौमेंट्री प्लेजर के लिए भी कर सकता हैसिर्फ हैबिचुअली कर सकता है और  पनिश करने के लिए भी कर सकता है. घरों में जानपहचान वाली का रेप कई बार निरंतर ब्लैकमेल करने के लिए किया जाता है. जब प्लेजर के लिए किया जाता है तो पुरुष पागल सा होता है और एहसास भी नहीं होता कि इस का परिणाम क्या होगायह उस का जीवन भी खराब कर सकता है और लड़की का भी. रेप के कानून के बारे में सब को मालूम है पर उस समय उस तरह का पागलपन सवार होता है कि सारे कानून धरे रह जाते हैं. उस समय यह भी नहीं मालूम होता कि यह लड़की शोर मचा सकती हैबाद में जेल भेज सकती है या चुप रह कर फिर ब्लैकमेल को तैयार हो जाएगी या फिर इस रेप को इनएविटेबेल मान कर एंजौय करेगी.

सेना और पुलिस तो रेप को लड़की या उस के अजीज को पनिश करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. आमतौर पर किसी भी अपराधी की बेटीबीवी या बहन का रेप पुलिस थाने में किया जाता है तो अपराधी से अपराध कुबूल करवाने के लिए किया जाता है. इस की तो शिकायत भी नहीं की जाती. अदालतें भी नहीं सुनतीं क्योंकि वे सम?ाती हैं कि पुलिस के साथ छेड़खानी आसान नहीं है.

यूक्रेन में रूसी सैनिक लगातार यूक्रेनी लड़कियों और औरतों का रेप कर रहे हैं. लड़ाई में मौत से बचने के लिए भागी औरतों और लड़कियों को पोलैंडरोमानिया आदि में रेप कर के फ्लैश ट्रेड के लिए तैयार किया जा रहा हैबिना यह सोचे कि ये बेचारी दुखों की मारी लड़कियां तो अपना घरबारपिताबेटाप्रेमी या पति को छोड़ कर आ रही हैं.

सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि वे धर्म रेप के मामलों में क्यों गायब हो जाते हैं जो हर जने की सुरक्षा की गारंटी देते फिरते हैंलड़ाइयों में चर्च और मसजिद नष्ट नहीं हो रहेमंदिरों को अगर नष्ट किया जाता था केवल डौमिनैंस दिखाने के लिए. धर्म औरतों को क्यों नहीं बचातेधर्म हर पुरुष में यह खौफ क्यों नहीं भरते कि जैसे चर्च या मंदिर से चोरी नहीं की जा सकतीउसी तरह लड़की का रेप नहीं किया जा सकता?

इस की वजह साफ है. धर्म ने खुद लड़कियों का रेप किया है. धर्म टिके ही औरतों की संपत्ति पर हैं. हर धर्म की किताबों में रेप या रेप जैसे कामों की कहानियां हैं. जीसस हो या पांडुपुत्र अहल्या या शकुंतलाइस तरह की कहानियां हर धर्मग्रंथ में भरी हैं. हर धर्म में औरतों को पनाह देने की जगह नहीं है जहां उन्हें धर्म के रखवालों के हाथों फिर रेप किया गया है. जिस धर्म में रेप पर प्रतिबंध हो वह केवल विचार बन कर फुस्स हो जाता है. जहां रेप के किसी भी रूप को भी एक्सैप्ट किया गया होवहां धर्म के दुकानदारों पर  औरतें भी बरसती हैंपैसा भी.

रामरहीम और आशाराम 21वीं सदी की देन ही नहीं हैंये तो युगों से चलते आ रहे हैं और लगभग हर धर्म में दोषी लड़की होती है जिस का रेप किया जाता है. उसे या तो मौत गले लगानी होती थी या प्रौस्टिट्यूशन में जाना पड़ता था या फिर कड़वा घूंट ले कर चुप रह जाना होता था. अपने ही धर्म की लड़की का रेप करने की सजा किसी धर्म ने दी होइस का उदाहरण ढूंढ़े नहीं मिलेगा.

किराएदार नहीं मकान मालिक बन कर जिएं, कोई धर्म कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा

जब कोई आदमी किसी के घर पर पैसे दे कर रहे तो वह उस का किराएदार कहलाता है. पर अमूमन ज्यादातर किराएदार किराए के मकान में कैसे रहते हैं, यह सब जानते हैं. उन्हें घर के रखरखाव से ज्यादा मतलब नहीं होता है.

दीपक की भी यही समस्या थी. उस का किराएदार नया शादीशुदा जोड़ा अपने में ही मगन रहता था. वे दोनों प्रेम के पंछी किराया तो समय पर देते थे, पर घर की साफसफाई पर कोई ध्यान नहीं देते थे.

एक दिन दीपक की मां छत पर कपड़े सुखाने आईं. छत की साफसफाई की जिम्मेदारी उस जोड़े की थी, क्योंकि वे पहली मंजिल पर रहते थे. पर मजाल है पिछले कई दिनों से बुहारी हुई हो. मां को गुस्सा आया और वे उस जोड़े से मिलने चली गईं. पर घर के भीतर तो और भी बुरा हाल था. पोंछे की तो छोड़िए, फर्श पर झाड़ू तक नहीं लगी थी. रसोईघर का कबाड़ा कर दिया था. दीवारों पर जाले लगे थे और बाथरूम देख कर तो वे धन्य हो गईं. नल टपक रहा था और दीवार पर सीलन के चलते पपड़ी जमा थी. शायद दीवार के भीतर पानी का कोई पाइप फट गया था, लेकिन उन्हें बताया जाना जरूरी नहीं समझा गया.

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यह हाल हर उस घर का है जहां किराएदारों ने मकान मालिक के सपनों के आंगन को नरक बना दिया है. नरक से याद आया धर्म का वह बेरहम एंगल जिस में उस के ठेकेदार धर्मभीरु जनता को यह समझाने में लगे रहते हैं कि यह शरीर और दुनिया तो किराए का घर हैं, अपना असली प्लौट तो यह दुनिया और शरीर छोड़ने के बाद मोक्ष के रूप में स्वर्ग में मिलेगा, जहां मनोरंजन के लिए अप्सराएं और देवता आप के लिए 24 घंटे हाजिर रहेंगे. और अगर कहीं कोई गड़बड़ की तो नरक भी मौजूद है, जहां आप की आत्मा को इतना सताया जाएगा कि वह अगली बार किराएदार बनने के लायक भी नहीं रहेगी.

दरअसल, स्वर्ग का लालच और नरक का डर धर्म के धंधेबाजों का वह अचूक पैतरा है जो गरीबअमीर, अनपढ़ और तालीमशुदा पर एकजैसा असर करता है. यह जो भय का भगवान है, उस ने इस दुनिया में धर्म की बेहिसाब मजबूत दुकानें खोल दी हैं और उस के ठेकेदार उन दुकानों के मालिक बन बैठे हैं जो पूजापाठ कराने के बहाने हमारे जीतेजी हमें ही स्वर्ग का टिकट बांटते हैं.

दरअसल, कोई भी इनसान पूजापाठ 2 वजह से करता है, डर या लालच. लेकिन थोड़ा सा दिमाग लगा कर समझें तो हर धर्म में यह बताया जाता है कि जब कोई मरता है तो उस की आत्मा, सोल या रूह शरीर छोड़ देती है और वही उस स्वर्ग, हैवन या जन्नत में जाती है जहां मोक्ष मिलता है. पर यह आत्मा है क्या और जब यह हमारे शरीर की नहीं हुई तो इस बात की क्या गारंटी है कि यह हमें मोक्ष दिलवा देगी?

हिंदू धर्मग्रंथों में लिखा है कि आत्मा न पानी में डूब सकती है न हवा से उड़ सकती है और न ही आग में जल सकती है. मतलब आत्मा पर किसी चीज का कोई असर नहीं होता. वह तो अमर है. तो फिर लोगों को स्वर्ग का लालच और नरक की डर क्यों दिखाया जाता है?

अगर कोई किराएदार ढंग से नहीं रहता है, घर की साफसफाई में कोताही बरतता है, तो मकान मालिक उसे नोटिस दे कर घर से निकाल देता है. पर धर्म के धंधेबाज इस का उलटा करते हैं. वे तो चाहते हैं कि आप हमेशा इस दुनिया में नकारा किराएदार बन कर रहें. न इस दुनिया की खूबसूरती को समझें और न अपने शरीर की ताकत को.

ऐसे शातिर लोग आप को उन चीजों में उलझाए रखना चाहते हैं जो आप के किसी काम की नहीं हैं, जैसे रोजगार करो या न करो पर दानी पक्के बनो. स्कूल बेशक न जाओ पर धर्मस्थलों की शोभा बनो. मंदिर, मसजिद और चर्च में भजनकीर्तन, नमाज, प्रार्थना को ही अपना सब से बड़ा सुख मानो.

इस प्रपंच में कामयाब होने लिए धर्म के ठेकेदार हमारे शरीर को सब से बड़ा हथियार बनाते हैं. वे ही इसे 4 ऐसे हिस्सों में बांट देते हैं, जो जातिवाद की जहरीली जड़ है. इस में रंगभेद का तड़का लगने से मामला और ज्यादा बिगड़ जाता है. उस के बाद धर्मभीरु लोगों का एक ही मकसद होता है कि चाहे शरीर से प्राण ही क्यों न छूट जाएं, पर धर्म का झंडा हवा में लहराता रहना चाहिए.

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जबकि सच तो यह है कि यह खूबसूरत दुनिया और हमारा निरोगी व कामकाजी शरीर ही सब से बड़ा मोक्ष है और हमें जीतेजी ही उस मोक्ष का मजा लेना है. क्या किसी किसान को खेत में पसीना बहाते हुए किसी भगवान की जरूरत पड़ती है? क्या कोई सेठ दुकान पर ग्राहकों से मोलभाव में चाहेगा कि कोई भगवान उस के काम में खलल डाले? कभी नहीं. कहने का मतलब यह है कि जब हम अपने काम में मगन होते हैं तो मोक्ष में होते हैं. हमें दीनदुनिया से कोई मतलब नहीं रहता है.

लेकिन यही बात धर्म के धंधेबाजों को खटकती है,लिहाजा वे लोगों को नकारा बनाए रखना चाहते हैं. उन्हें इस डर के साए में जीने को मजबूर करते हैं कि भगवान नहीं तो कुछ नहीं.

पर एक लाख टके का सवाल यह है कि वे खुद क्यों इसी दुनिया में रह कर ऐशोआराम से मौज काट रहे हैं? अपने धर्म के रहनुमाओं पर नजर दौड़ाइए. लाल चेहरा, सुर्ख गाल, आलीशन महल जैसे आशियाने, सरकार से मिलने वाली चाकचौबंद सिक्योरिटी, पैरों में गिरते हमआप जैसों के सिर… उन की क्या मति मारी गई है जो इस दुनिया को छोड़ कर किसी अनदेखे स्वर्ग का टिकट कटाएंगे. याद रखिए, जिस दिन इनसान ने अमर होने का फार्मूला खोज लिया, तो उसे पाने की कतार में इन्हीं पाखंडियों का पहला नंबर होगा.

होना तो यह चाहिए कि आम जनता इन शातिरों के धार्मिक प्रपंचों से बाहर निकले और अपने शरीर को सेहतमंद और काम करने लायक बनाए. अपनी मेहनत को कुदरत की नेमत समझे, इसलिए खुद को इस दुनिया में बेगैरत किराएदार न बनने दें, बल्कि एक होशियार मकान मालिक की तरह इसे अपनी जायदाद समझ कर सजाएंसंवारें. फिर किसी भगवान और उस के एजेंट की जरूरत नहीं पड़ेगी, यह गारंटी है.

धर्म के नाम पर औरतों को भरमाता सोशल मीडिया

हाल ही में भारत ने चीन के मशहूर एप ‘टिकटौक’ पर बैन लगा दिया है. अब इस से भारत को कितना फायदा होगा या नुकसान, यह हमारा मुद्दा नहीं है, बल्कि हम तो उस बात से चिंतित हैं, जो सदियों से भारतीय समाज को धर्म के नाम पर घोटघोट कर पिलाई गई है खासकर औरतों को कि अगर वे अपने पति की सेवा करेंगी तो घर में बरकत होगी, बरकत ही नहीं छप्पर फाड़ कर रुपया बरसेगा. इस पूरे प्रपंच में धन की देवी लक्ष्मी और विष्णु का उदाहरण दिया जाता है और साथ ही उन छोटे देवता रूपी ग्रहों का सहारा लिया जाता है, जो अगर अपनी चाल टेढ़ी कर दें तो अच्छेखासे इनसान की जिंदगी में कयामत आ जाए.

पहले हम सोशल मीडिया के समुद्र में तैर रहे एक छोटे से वीडियो की चर्चा करेंगे, जो देखने में एकदम आम सा लगेगा, पर वह हमारी बुद्धि को भ्रष्ट करने की पूरी ताकत रखता है. एक मजेदार बात यह कि वह अलगअलग लोगों द्वारा अलगअलग घरों और माहौल में बनाया गया है, पर अंधविश्वास का जहर पूरे असर के साथ हमारे दिमाग में भर देता है.

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वीडियो की शुरुआत कुछ इस तरह होती है कि एक साधारण से कमरे में एक पलंग बिछा है और उस पर एक ठीकठाक रूपरंग की शादीशुदा औरत बैठी अपने पति के पैर दबा रही है.

अगर कमरे की बात करें तो यह एक लोअर मिडिल क्लास परिवार का लगता है, जहां उस औरत के बगल में एक टेबल फैन रखा हुआ है और पलंग भी ज्यादा महंगा नहीं है. वह औरत जिस आदमी के पैर दबा रही है उस का चेहरा नहीं दिखाया गया है, पर जिस तरह से वह औरत उस आदमी के पैर दबा रही है, वह एक ‘राजा बाबू’ टाइप आदमी ज्यादा लग रहा है.

अब आप पूछेंगे कि भाई इस वीडियो में खास क्या है? तो खास यह है कि वीडियो में जिस औरत का प्रवचननुमा ज्ञान सुनाई दे रहा है, वह है असली मुद्दे की जड़.

दरअसल, जब वह औरत अपने पति के पैर दबा रही होती है, तो बैकग्राउंड में किसी औरत की आवाज सुनाई देती है, ‘हरेक पत्नी को अपने पति के पैर रोज दबाने चाहिए. इस का कारण यह है कि मर्दों के घुटनों से ले कर उंगली तक का भाग शनि होता है और स्त्री की कलाई से ले कर उंगली तक का भाग शुक्र होता है. जब शनि का प्रभाव शुक्र पर पड़ता है तो धन की प्राप्ति के योग बनते हैं. आप ने अकसर देखा होगा तसवीरों में कि लक्ष्मीजी विष्णुजी के पैर दबाती हैं.’

इसी तरह का एक और वीडियो परखते हैं. यह सीन भी तकरीबन पहले सीन की तरह ही है, पर किरदारों के साथसाथ माहौल बदल गया है और स्क्रिप्ट के संवाद भी. इस सीन में दिखाई गई खूबसूरत औरत ने किसी सैलून से अपने बाल कलर करा रखे हैं और वह मौडर्न कपड़े पहने हुए है. हाथ पर टैटू बना है और कलाई पर स्मार्ट वाच बंधी है. घर भी अच्छाखासा लग रहा है. पर पलंग के बदले पत्नी सोफे पर बैठी अपने पति के पैर दबा रही है.

लगे हाथ बैकग्राउंड से आती आवाज का भी लुत्फ उठा लेते हैं. औरत बोल रही है, ‘मेरे पति हैं मेरा गुरूर. मुझ को अपनी पलकों पर बैठाते हैं, दिनभर मेहनत कर के कमाते हैं, पर मेरी हर फरमाइश पर दोनों हाथों से लुटाते हैं. शाम को जब थकेहारे घर आते हैं, फिर भी मुझे देख कर मुसकराते हैं.’

इन दोनों वीडियो में पत्नी अपने पति के पैर दबा रही है. वैसे, किसी के पैर दबाने में कोई बुराई नहीं है, पर जिस तरह से औरत को मर्द के पैर दबाते दिखाया गया है, वह बड़ा सवाल खड़ा करता है कि आज के जमाने में जहां औरतें किसी भी तरह से मर्दों से कम नहीं हैं, वहां इस तरह के वीडियो बनाने और दिखाने का मकसद क्या हो सकता है?

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दरअसल, यह सब उन पोंगापंथियों की चाल है, जो नहीं चाहते हैं कि औरतों को वाकई मर्दों के बराबर समझा जाए, इसलिए उन्हें धर्म की चाशनी में डुबो कर ज्ञान दिया जाता है कि पुराणों में जो लिखा है वह ब्रह्मवाक्य है और जब धन की देवी लक्ष्मी अपने नाथ विष्णु के पैर दबा कर पूरी दुनिया के धन की मालकिन बन सकती हैं, तो आप भी अपने पति के पैर दबा कर धन के घर आने का रास्ता तो बना ही सकती हैं.

यहां पर लक्ष्मी और विष्णु का ही उदाहरण ही नहीं लिया गया है, बल्कि 2 ग्रहों शनि और शुक्र का भी मेल मिलाया जाता है. हमारे दिमाग में भर दिया गया है कि शनि और शुक्र जैसे तमाम ग्रह बड़े मूडी होते हैं, उन्होंने जरा सी भी चाल टेढ़ी की नहीं, हमारी शामत आ जाएगी. ऐसा भरम फैला दिया गया है कि औरत को लगे अगर वह अपने हाथों से पति परमेश्वर के पैर नहीं दबाएगी तो लक्ष्मी रूठ जाएगी.

पर ऐसा कैसे हो सकता है? अगर हर पत्नी के हाथों में शुक्र की ताकत और उस के पति के पैरों में शनि का वास है और उन के मेल से घर में धनवर्षा होती है, तो फिर सब को शादी के बाद यही काम करना चाहिए. पति पलंग तोड़े और पत्नी अपने हाथों से उस के पैर दबाए. घर की सारी तंगी दूर हो जाएगी. जब पैसा अंटी में होगा तो कोई क्लेश भी नहीं होगा. हर तरफ खुशहाली का माहौल होगा और हर दिन त्योहार सा मनेगा.

दूसरा वीडियो धर्म के अंधविश्वास को तो बढ़ावा नहीं देता है, पर यह दिखाता है कि पति चाहे कैसा भी हो, अगर वह किसी औरत यानी अपनी पत्नी को पाल रहा है तो उस के पैर ही नहीं दबाने हैं, बल्कि उन्हें अपने सिरमाथे पर लगा कर रखना है, जिस से वह हमेशा आप पर दोनों हाथों से रुपए लुटाता रहे.

इन दोनों वीडियो की गंभीरता इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि इन में दिखाई गई औरतें पढ़ीलिखी लग रही हैं और शहर में रहती हैं. पक्का मकान है और दूसरी सुखसुविधाएं भी मौजूद हैं. हो सकता है वे खुद भी कमाई करती हों या फिर गृहिणी ही सही, लेकिन देहाती और अनपढ़ तो कतई नहीं हैं.

जब इस तरह की औरतों को ही औरतों की तरक्की का दुश्मन दिखाया जाए तो समझ लीजिए, मामला आप को उलझाने के लिए बुना गया है. जब से धर्म की हिमायती सरकार इस देश में आई है, सनातन के नाम पर उस हर चीज को खूबसूरती के साथ पेश किया जाने लगा है, जो तर्क की कसौटी पर कहीं नहीं टिकती है. सीधी सी बात है कि आज के महंगाई के जमाने में पत्नी अपने पति के पैर दबा कर या उस के चरण अपने माथे पर लगा कर घर को धनवान या खुशहाल नहीं बना सकती है, पर अगर वह पति की तरह अपने कंधे पर लैपटौप टांग कर किसी मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करती है तो परिवार में दोहरी कमाई का सुख जरूर दे सकती है. अगर वह हाउस वाइफ है तो क्या हुआ, घर को सजासंवार कर रख सकती है, घर का हिसाबकिताब अपने हाथ में ले कर पति की चिंता को आधा कर सकती है.

चलो मान लिया कि पति थकाहारा घर आया है और चाहता है कि कोई उस के पैर दबा कर थकान मिटा दे, तो एक अच्छे जीवनसाथी की तरह उस की यह फरमाइश पूरी करने में कोई हर्ज नहीं है. पर अगर ऐसा ही पत्नी चाहती है तो पति को भी अपनी पत्नी के पैर दबाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. इस से शुक्र और शनि जैसे ग्रह नाराज हो जाएंगे, यह तो पता नहीं पर पतिपत्नी का प्यार जरूर बढ़ जाएगा. धनवर्षा न सही प्यार की बारिश जरूर हो जाएगी.

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मजहब गरीबों का सब से बड़ा दुश्मन

बिहार में बहुत ज्यादा गरीबों की हालत कमोबेश वही है, जो आजादी के पहले थी. आज भी निहायत गरीब रोटी, कपड़ा, मकान, तालीम और डाक्टरी सेवाओं जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर है. समाज में पंडेपुजारियों, मौलाना और नेताओं के गठजोड़ ने आम लोगों को धार्मिक कर्मकांड, भूतप्रेत, यज्ञहवन के भरमजाल में उल झा कर रख दिया है.

पंडेपुजारियों द्वारा दलित और कमजोर तबके के बीच इस तरह का माहौल बना दिया है कि ये लोग अपना कामकाज छोड़ कर धार्मिक त्योहारों, पूजापाठ, पंडाल बनवाने के लिए चंदा करने, नाचगाने, यज्ञहवन कराने में अपने समय को गंवा रहे हैं. कसबों और गांवों में भी महात्माओं के प्रवचन, रामायण कथा पाठ, पुत्रेष्टि यज्ञ समेत कई तरह के धार्मिक आयोजन आएदिन कराए जाते हैं. इन कार्यक्रमों का फायदा साधुसंन्यासी, पंडेपुजारी वगैरह उठाते हैं.

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गांवों में यज्ञ का आयोजन किया जाता है. उस यज्ञ की शुरुआत जलभरी रस्म के साथ होती है. नदी से हजारों की तादाद में लड़कियां और औरतें सिर पर मिट्टी के बरतन में नदी का जल ले कर कोसों दूरी तय कर आयोजन की जगह तक पहुंचती हैं. इस काम में ज्यादातर लड़कियां और औरतें दलित और पिछड़ी जाति की होती हैं और साथ में घोड़े और हाथी पर सवार लोग अगड़ी जाति के होते हैं.

जहां पर यह यज्ञ होता है, वहां अगलबगल के गांव के दलित और पिछड़ी जाति के लोग अपना सारा कामधंधा छोड़ कर इन कार्यक्रमों में बिजी रहते हैं यानी अगड़े समुदाय के लोग मंच संचालन, पूजापाठ और यज्ञहवन कराने में और दलित व पिछड़े तबके के लोग यज्ञशाला बनाने, पानी का इंतजाम करने यानी शारीरिक मेहनत वाला काम करते हैं.

दलित और पिछड़े तबके के बच्चे अपनी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर इन्हीं कार्यक्रम में बिजी रहते हैं. गांव में भी अगड़े समुदाय के बच्चे पढ़ाई में लगे रहते हैं. इन कार्यक्रमों में करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं.

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हर गांवकसबे में शिव चर्चा की बाढ़ सी आ गई है. औरतें, मर्द अपने घर का काम छोड़ कर शिव चर्चा में हिस्सा लेते हैं. इन लोगों द्वारा अपने घरों में शिव चर्चा कराने की परंपरा का प्रचलन जोरों पर है. इन्हें नहीं मालूम कि बेटे की नौकरी उस की मेहनत से मिली है, न कि ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप करने से. अगर जाप करने से ही सारा काम होने लगे, तो कामधंधा, पढ़ाईलिखाई छोड़ कर लोग जाप ही करते रहें.

धर्म का महिमामंडन

इन धार्मिक आयोजनों के उद्घाटन समारोहों में नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, उपेंद्र कुशवाहा, सुशील कुमार मोदी समेत दूसरे नेता, जो अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित समाज से आते हैं, शिरकत करते हैं, इस का महिमामंडन करते हैं. वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जड़ों में खादपानी देने का काम अपनी कुरसी बचाए रखने के लिए गाहेबगाहे करते रहते हैं.

पंडेपुरोहितों द्वारा लोगों के दिमाग में भर दिया गया है कि उन की गरीबी की वजह पिछले जन्म में किए गए पाप हैं. अगर इस जन्म में अच्छा काम करोगे यानी पंडेपुजारियों और धर्म पर खर्च करोगे, तो अगले जन्म में स्वर्ग मिलेगा.

बच्चों की जन्मपत्री, कुंडली, उन के बड़े होने पर मुंडन, उस से बड़े होने पर शादीब्याह, नए घर में प्रवेश करने पर, किसी की मौत होने पर इन ब्राह्मणों को आज भी इज्जत के साथ बुलाया जाता है और दानदक्षिणा भी दी जाती है. ये लोग मजदूर तबके की कमाई का एक बड़ा हिस्सा बिना मेहनत किए किसी परजीवी की तरह सदियों से लोगों को जाहिल बना कर लूटते रहे हैं.

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गुलाम बनाने की साजिश ‘शोषित समाज दल’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके रघुनीराम शास्त्री ने बताया कि हमारे लिए मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र और मंदिरमसजिद नहीं हैं, बल्कि ऊंची पढ़ाईलिखाई, रोजगार अच्छा बरताव और नैतिकता है. तीर्थयात्रा, व्रत, पूजापाठ और कर्मकांड में कीमती समय बरबाद करने की जरूरत नहीं है. धर्मग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञ में आहुति देने, मंदिरों में माथा टेकने से हमारी गरीबी कभी दूर नहीं होगी.

भाग्य और ईश्वर के भरोसे नहीं रहें. आप अपना उद्धार खुद करें. जो धर्म हमें इनसान नहीं सम झता, वह धर्म नहीं अधर्म है. जहां ऊंचनीच की व्यवस्था है, वह धर्म नहीं, बल्कि गुलाम बनाने की साजिश है.

स्वर्ग का मजा

पेशे से इंजीनियर सुनील कुमार भारती ने बताया कि सभी धर्म गरीबों को महिमामंडित करते हैं, पर वे गरीबी खत्म करने की बात नहीं करते हैं. कोई फतवा या धर्मादेश इस को खत्म करने के लिए क्यों नहीं जारी किया जाता?

इस धार्मिकता की वजह से साधुओं, फकीरों, मौलवियों, पंडेपुजारियों, पादरियों की फौज मेहनतकश लोगों की कमाई पर पलती है. परलोक का तो पता नहीं, पर इन धार्मिक जगहों के लाखों निकम्मे और कामचोर इस लोक में ही स्वर्ग का मजा ले रहे हैं.

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