छुटकारा: क्या ऐसे मिलता है लड़की से छुटकारा

खुला सा आंगन. आंगन में ही है टूटाफूटा सा बड़ा दरवाजा और उस दरवाजे से लग कर 2 कमरे. कमरों से सटे हुए बरामदे में रसोई. यह है गंजोई का घर. 4 बेटियां और पत्नी है गंजोई के परिवार में.

गंजोई की पत्नी सुगना पुरानी साड़ी की फटी पट्टियों से गुंथी रहती. मैली सी चारपाई पर गंजोई पैर फैला कर लेटा रहता और सुगना अपनी बातों से उस का मन बहलाया करती.

सुगना को पति की सेवा से फुरसत मिलती, तो घर की खोजखबर लेती. गंजोई तो अजगर था. दास मलूका का शुक्रिया अदा करता और अपने दाने के इंतजार में पड़ा रहता. गंजोई की बड़ी बेटी अंजू 15 साल से कुछ ऊपर. काली, ठिगनी, सुस्त, थोड़ी मोटी और चुपचुप सी रहती थी. वह लोगों के घरों में झाड़ूबरतन किया करती और धीरेधीरे उस ने अपनी दोनों छोटी बहनों को भी जानपहचान के घरों में काम पर लगवा दिया था.

अंजू के बाद वाली संजू 13 साल की दुबलीपतली, गठी हुई, उम्र के मुताबिक सही कदकाठी. खूबसूरत तो नहीं, पर बदसूरत भी नहीं थी वह. धीमी और मीठी आवाज. जल्दीजल्दी काम निबटाती. जिन घरों में काम करती, वहीं के बच्चों से वह अपना मन बहलाती.

8 साल की रंजू बेहद दुबली. गेहुआं रंग. उलझेउलझे तेल चुपड़े बाल और मैली सी फ्रौक. उस के काम में सब से ज्यादा फुरती थी. उस का मन मचलता था अपने साथ के बच्चों के साथ खेलने और भागनेदौड़ने के लिए, इसलिए वह जल्दीजल्दी काम करने की कोशिश में कुछ न कुछ गड़बड़ करती रहती और डांट सुनती रहती, पर थी धुन की पक्की.

सब से छोटी रीना 6 साल की थी. अंजू के साथ काम पर जाती और उस की मदद करती. बरतन मांजना अभी वह सीख रही थी और झाड़ू ठीकठाक लगा लेती थी  कुलमिला कर सारी बहनें मिल कर दालरोटी का जुगाड़ कर लेती थीं.

एक चीज थी, जो चारों बहनों में एकजैसी थी. उन की खाली आंखों में जिंदगी की चमक. खूब जीना चाहती थीं. वे सब जो भी थीं, जैसे भी थीं, खूब हंसना और कुछ न कुछ गुनगुनाते रहना उन की आदत थी.

महल्ले की औरतें ज्यादातर मजदूर थीं या फिर लोगों के यहां आया, महरी का काम करती थीं. गंजोई जब घर पर नहीं होता था, तो सुगना रेशमी साड़ी पहन कर किसी पड़ोसन के यहां जा बैठती. औरतें भी बातोंबातों मे उसे छेड़तीं, ‘ये चटकमटक के दिन तेरे नहीं तेरी बेटियों के हैं. जवानी में भी उन से अपने ही घर का पानी भरवाएगी क्या?

‘लड़कियां बड़ी हो रही हैं. भेज अपने निठल्ले मरद को बाहर. घरबार देखे. रिश्ताकुनबा देखे. ऐसे घर बैठे तो कोई तुम्हारे दरवाजे चढ़ेगा नहीं.’

सुगना खिसियानी सी हंसी हंसती और बोलती, ‘‘तू ही बता सरोज, हमारे पास न जेवर है, न जमीन. जो थोड़ाबहुत मेरी सास के गांठपल्ले था, वह पहले ही अंजू के बापू ने दारू में घोल कर चढ़ा लिया. अब तो ऐसा है कि चूल्हा भी अनाज देख कर ही गरम होता है.’’ ‘‘अरे तो उसे काम पर क्यों नहीं भेजती? इतनी बड़ी अनाज की मंडी है, बड़ेबड़े आढ़ती बैठते हैं. जाए किसी के पास. कोई न कोई काम मिल ही जाएगा, बेटियों की कमाई से घर चलता है कोई,’’ सरोज की सास ने दोटूक सुनाया.

अब सुगना ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी. ऐसा नहीं है कि सुगना और गंजोई को अपनी जवान होती बेटियों की फिक्र नहीं थी, पर वे दोनों ठहरे मिजाज के मस्तमौला. उन्हें लगता था कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा.

सुगना और गंजोई का परिवार समय की ताल में ताल मिलाता एकएक कदम उस के साथ चलता चला जा रहा था. समय भी चिकनी सड़क पर सरपट चाल चल रहा था बिना किसी रुकावट के, बिना किसी मुश्किल के. अंजू की ज्यादातर सखियों का ब्याह हो चुका था, पर उसे अपने ब्याह न होने का मलाल न था. न ही उसे जरूरत महसूस होती थी. सुगना और गंजोई को उस के ब्याह की काई आस न थी. इसलिए कोशिश करने का खयाल भी किसी के धकियाने से ही आता था और धक्का हटते ही वे फिर आराम की मुद्रा में टेक लगा लेते और फिर घर चलाने में अंजू का अहम योगदान था.

संजू भी 14 साल की उम्र में ज्यादा तीखी और मुखर हो गई थी. अब वह घर से निकलती, तो उस की उभरती देह पर चुस्त फिटिंग वाला सूट होता. अपनी मालकिनों की उतरन को सजाचमका कर जब वह अपने तन पर डालती, तो उन पुराने कपड़ों से भी ताजगी फूट पड़ती. महल्ले के जवान होते मजदूर बच्चे छिपछिप कर उसे देखते और वह उन्हें देख कर बड़ी अदा से अनदेखा कर देती, मानो सावन को पता ही न हो कि उस की बारिश में सब भीग जाता है.

अब संजू का ध्यान काम में कम लगता, सोचती और मुसकराती रहती. उस के साथ की लड़कियां उस से चिढ़तीं, ‘बड़ी फैशन वाली बन गई है. बरतन मांजने जाती है या थाली में मुंह देखने? ’ अंजू भी पीछे न रहती. वह कहती, ‘‘अरे, बरतन तो मुझे देखते ही चमक जाते हैं. तुम्हारी तरह नहीं कि शक्ल देख कर घूरा भी छींक दे.’’

गंजोई के घर से बाईं तरफ 3 मकान छोड़ कर कमलकिशोर का घर था. वह एक 17 साल का ठीकठाक सी शक्ल वाला लड़का था, जो बाजार में साइकिल की दुकान पर पंचर लगाने का काम करता था.वह जवानी के उस पायदान पर था, जहां सबकुछ खूबसूरत और आसान लगता है. खाली समय में रंगीन चश्मा लगा कर वह फिल्मी गाने गुनगुनाता.उस ने मालिक से बड़ी मिन्नत कर के दुकान से एक पुरानी साइकिल ले ली थी और साइकिल की दुकान पर मंजे हुए अपने हुनर को आजमा कर उस साइकिल को नई जिंदगी दे डाली थी.

एक दिन कमलकिशोर घर के बाहर खड़ा हो कर अपनी साइकिल को साफ कर रहा था और साथ ही कुछ गाना गुनगुना रहा था, ‘‘चोरीचोरी आ जा गोरी पीपल की छांव में, कहीं कोई…’’ तभी उस की नजर संजू पर पड़ी, ‘‘यह कौन है. बड़ी मस्त दिख रही है.’’

इतने में संजू की नजर कमलकिशोर पर पड़ी. आंखें सिकोड़, कमर पर हाथ रख संजू थोड़ा गुस्से और बड़ी अदा से गुर्रा कर बोली, ‘‘आंखें फाड़ कर क्या देख रहा है? बोलूं तेरे बापू को?’’

‘‘भड़क क्यों रही है? देख ही तो रहा हूं. तू सुगना काकी की बेटी है न? चल, नाम बता अपना?’’ कमलकिशोर ने उस की तरफ बढ़ते हुए फिल्मी अंदाज में पूछा.

संजू को हंसी आ गई, ‘‘चल जा अपना काम कर,’’ कह कर वह घर में घुस गई. कमलकिशोर का मन गुदगुदाहट से भर गया. संजू को गए बहुत वक्त बीत चुका था, पर वह वहीं खड़ा अब भी उन पलों को आगेपीछे कर के अपने सपनों में जी रहा था.

‘‘संजू, जरा चूल्हा जला दे और आटे में थोड़ा नमक डाल कर मुझे दे दे. खाने का समय हो गया है. बस, अभी सब खाना मांगने वाले हैं,’’ अंजू ने कहा. इतने में ही सुगना की आवाज आई, ‘‘ऐ अंजू, खाना कब देगी? मुझे जोरों की भूख लगी है.’’

सुगना और गंजोई आंगन में पड़ी खाट पर जमे हुए थे. गंजोई आसमान की ओर मुंह कर के लेटा था और सुगना उस के पैर दबा रही थी. रसोई में जान खपाने से ज्यादा आसान था यह काम. गंजोई के खाते ही सुगना खुद खाने बैठ जाती, फिर बाद में बच्चे आपस में मिलबैठ कर खा लेते.

‘‘हांहां, खाना बन रहा है,’’ संजू ने चिढ़ कर जवाब दिया. अंजू ने संजू की तरफ देखा, पर बोली कुछ भी नहीं. अब उसे संजू के लिए फिक्र होने लगी थी. जब तक उस का खुद का ब्याह न हो जाता, तब तक संजू का ब्याह होना मुश्किल था. अपनी आस उसे थी नहीं, पर संजू…

आज रात संजू को भी नींद नहीं आ रही थी. ‘चल, नाम बता अपना’ उस के कानों में गूंज रहा था. उसे फिर हंसी आने लगी. वह कमलकिशोर ही तो था. कितनी ही बार तो देखा है उसे, फिर आज क्या बात हो गई? संजू समझने की कोशिश कर रही थी.

आज संजू की लाली में कुछ ज्यादा ही चमक थी. शायद सुबह की धूप का असर था या फिर रात को दबे पैर उस की चारपाई में घुस आए खयालों का, पता नहीं. घर से पहला कदम ही निकला था कि नजर बाईं ओर मुड़ गई. हड़बड़ाहट में दूसरा कदम तो बाहर निकला नहीं, पहला भी अंदर चला गया.

दरवाजे की ओट ले कर संजू अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करने लगी. अपने घर के बाहर कमलकिशोर पूरी तरह मुस्तैद खड़ा था. आखिर संजू की चारपाई से निकल कर वह खयाल उस के भी तो बिस्तर में घुसा था.

कमलकिशोर की नजर संजू पर पड़ चुकी थी. वह समझ गया था कि संजू काम पर जाने वाली है. वह पहले ही साइकिल ले कर उस के काम की दिशा की ओर चल पड़ा थाइधर संजू भी संभल चुकी थी. वह तन कर बाहर निकली, बाएं देखा, फिर दाएं देखा, फिर एक निराशा की ढीली सांस, जिस में राहत पाने की भरसक कोशिश की गई थी, छोड़ते हुए अनमनी सी काम पर चल दी.

‘‘संजू, तेरे मांबापू तेरा ब्याह मुझ से तो क्या किसी से भी नहीं होने देंगे,’’ कमलकिशोर संजू से कह रहा था. कमलकिशोर और संजू को एकदूसरे के नजदीक आने में ज्यादा समय नहीं लगा था. दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता. अपना काम खत्म कर दोनों रोज मिलते, एकदूसरे के साथ जीने के सपने देखते. सुगना और गंजोई की बेजारी संजू की चाह को और हवा देती, पर वह अंजू के बारे में सोच कर बेचैन हो जाती. उसे कोई रास्ता नजर नहीं आता था, जो उस घर की बेटियों को ससुराल के दरवाजे तक पहुंचाता हो. मांबाप को अपनी कमाऊ बेटियों को विदा करने की कोई जल्दी न थी.

अंजू को संजू और कमलकिशोर के इश्क की खबर थी, संजू ने ही उसे बताया था एक दिन.

‘‘संजू, भाग कर जाएगी मेरे साथ?’’

‘‘चल हट. बड़ा आया भगा कर ले जाने वाला. कहां रखेगा? क्या खिलाएगा मुझे? और मेरे घर वाले? महल्ले वाले जीने नहीं देंगे. मेरी बहनों की जिंदगी खराब हो जाएगी,’’ संजू ने उसे घुड़का और आखिरी बात कहतेकहते उसे खुद की आवाज सुनाई नहीं दी, आंखें सिकुड़ गईं और चेहरे पर उदासी उभर आई.

कमलकिशोर ने हलके से झिड़क कर कहा, ‘‘तो यहां रह कर तू कौन सा उन का घर भर देगी. भाग चल. तेरे बाप का बोझ कुछ कम हो जाएगा. यहां रह कर जिंदा भूत की तरह बरतन ही तो घिसेगी. मेरे साथ चल, तेरी जिंदगी संवार दूंगा.’’

संजू ने उसे घूर कर देखा, पर बोली कुछ नहीं . गरमी की रात में सभी आंगन और बरामदे में ही सोते थे. आज संजू ने अपना बिस्तर अंजू के साथ जमीन पर ही बिछा लिया था. चारपाइयां कम थीं, सो अंजू जमीन पर ही सोती थी. रीना और रंजू भी एक चारपाई पर वहां बेसुध सो रही थीं. सुगना बरामदे में थी.

संजू और अंजू दोनों चुपचाप सी आसमान को घूर रही थीं. दोनों को नींद नहीं आ रही थी. वे चुप थीं, पर शायद उन के मन के बीच संवाद चल रहा था. संजू जरा बेचैन दिखी, तो अंजू ने अपना हाथ उस के सिर पर रखते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ संजू, नींद नहीं आ रही है?’’

बेहद अपनेपन में भीगे शब्दों की नमी में संजू भी नहा गई, ‘‘हां दीदी, आज तो नींद सचमुच नहीं आ रही.’’

‘‘अच्छा, यह बता कि कमलकिशोर कैसा है? क्या लाया वह आज तेरे लिए? आजकल तो तू कुछ बताती ही नहीं मुझे,’’ अंजू ने बनावटी गुस्से से मुंह फुला कर कहा.

संजू ने अंजू की तरफ देखा और खिलखिला कर हंस दी, ‘‘दीदी, तुम बड़ी चालाक हो. मेरा मुंह खुलवाने के लिए कमलकिशोर का नाम ले दिया.’’

कमलकिशोर का नाम लेते ही संजू जरा संजीदा हो गई. ठंडी सांस छोड़ते हुए उस ने कहा, ‘‘दीदी, आज वह मुझे अपने साथ भाग चलने के लिए कह रहा था.’’

‘‘तो भाग जा. किस के लिए रुकी हुई है?’’ अंजू ने सहज भाव से कहा.

और एक दिन महल्ले में आग लग गई. गंजोई पहली बार हरकत में आया, ‘‘अरी सुगना, संजू आई क्या?’’

‘‘नहीं. अंजू के बापू,’’ कहते हुए सुगना बीच आंगन में बैठ छाती पीटपीट कर रो रही थी.

दिन ढल रहा था. सुबह से निकली संजू का अब तक कुछ पता न था. गंजोई ने हर जगह खबर ले ली थी और यह बात अब पूरे महल्ले को पता थी. पता चला था कि कमलकिशोर भी सुबह से गायब था. दो और दो चार भांपने में किसी ने समय न गंवाया. गंजोई ने अपना सिर पीट लिया.

सुगना रोरो कर बच्चियों को कोस रही थी, ‘‘जाओ, तुम लोग भी भाग जाओ, कोई न कोई मिल ही जाएगा चौक पर. अरे, भागना ही था तो तू ही भाग जाती,’’ उस ने अंजू की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘भगोड़ों का घर नाम धरा जाएगा हमारा. अंजू के बापू कुछ करो. हाय, यह क्या कर दिया? अब तो जिंदगी पत्थर जैसी भारी हो जाएगी. लोग हमें जीने नहीं देंगे, कौन ब्याहेगा इन बेटियों को?’’

गंजोई महल्ले के बड़ेबूढ़ों के आगे रो रहा था. एक बुजुर्ग ने अपनी घरघराती आवाज में लताड़ा, ‘‘देख गंजोई, तू ने तो कभी खबर ली नहीं अपने बच्चों की, अब पछताने से क्या होगा. लड़की भाग गई और धर गई कलंक तेरी सात पुश्तों पर. अब जरा सुध ले और बाकियों को संभाल.’’

‘‘देख, अब तू हमारी बिरादरी से बाहर हो गया है. हमारे भी लड़केलड़कियां हैं. कुछ तो कायदाकानून रखना पड़ेगा,’’ एक ने कहा था.

यह सुन कर गंजोई फफक कर रो पड़ा. वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘देखिए, आप लोग ऐसा मत कहिए. आप ही साथ छोड़ने की बात करेंगे, तो हम किस से मदद मांगेंगे. मुश्किल में तो अपने ही काम आते हैं.’’

हुमेशा यहां के एक मंदिर के बुजुर्ग थे. वे बहुत ही कांइयां मिजाज के थे. कुछ सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘देख गंजोई, जब हम गांव में रहते थे, वहां के नियमकानून अलग थे. या यों कह लो कि बड़ेबुजुर्गों ने बड़ी सूझबूझ के साथ परिवार पर विपत्ति का तोड़ निकाला था. जो तब भी सही थे और अब भी सही ही माने जाएंगे.

‘‘गांव में जब कोई लड़की भाग जाती थी, तो उस परिवार को जाति से बाहर कर दिया जाता था और बच्चे की एक नादानी की वजह से पूरा कुनबा बरबाद हो जाता था.

‘‘तू अपनी लड़की को न खोज, न ही उसे दोबारा घर में घुसने देना. तू उस का श्राद्ध कर दे, ऐसा करने से माना जाता है कि लड़की भागी नहीं मर गई. फिर कोई उंगली नहीं उठाता. यह हमारी जाति का एक रिवाज है, जो गांव में आज भी माना जाता है. गांव वालों को खूब खिलापिला कर खुश कर दिया जाता है. फिर सब उसे मरा मान कर भूल जाते हैं.’’

गंजोई ने संजू का श्राद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उस ने तय भोजन से 2 अतिरिक्त पकवान बनवाए. सुगना ने चाव से सब को परोसा. अंजू ने भी जलेबी खाई. हुमेशा को 2 जोड़ी कपड़े भी दिए गए. कमलकिशोर के परिवार को उस का श्राद्ध करने की जरूरत नहीं थी. वह तो लड़का था न.

हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा!

हमारे देश के शहरों के बाजारों में अगर बेहद भीड़ दिखती है तो वह ज्यादा ग्राहकों की वजह से तो है ही, असली वजह ज्यादा दुकानदार हैं. लगभग हर शहर और यहां तक कि बड़े गांवों में भी दुकानें तो अपना सामान दुकान के बाहर रखती हैं, उस के बाद पटरी दुकानदार अपनी रेहड़ी या कपड़ा या तख्त लगा कर सामान बेचने लगते हैं. बाजार में भीड़ ग्राहकों के साथ इन दुकानदारों और उन की पब्लिक की घेरी जगह होती है.

कोविड को फैलाने में जहां कुंभ जैसे धार्मिक और पश्चिम बंगाल व बिहार जैसे चुनाव जिम्मेदार हैं, ये बाजार भी जिम्मेदार हैं. इन बाजारों में यदि पटरी दुकानदार न हों और हर दुकानदार अपना सामान दुकान में अंदर रखे तो किसी भी बाजार में भीड़ नजर आएगी ही नहीं.

पटरी दुकानदारों को असल में लगता है कि पब्लिक की जमीन तो गरीब की जोरू है जो सब की साझी है. उन्हें और कुछ नहीं आता, कोई हुनर नहीं है, खेती की जगह बची नहीं हैं, कारखाने लग नहीं रहे, आटोमेशन बढ़ रहा है तो एक ही चीज को एक ही बाजार में बेचने वाले 10 पैदा हो जाते हैं जो पटरी पर दुकान जमा कर बैठ जाते हैं और ग्राहकों के लिए फुट भर की जगह नहीं छोड़ते.

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यह सीधासादा हिसाब भारत में लोगों को समझ नहीं आता क्योंकि यहां लोगों में हुनर की कमी है और भेड़चाल ज्यादा है. एक ने देखा कि किसी के जामुन बिक रहे हैं तो 4 दिन में 20-25 दुकानदार उसी जामुन को बेचने लगेंगे. उन्हें कुछ और आता ही नहीं. 20-25 बेचने वालों का पेट ग्राहक पालते हैं, 20-25 दुकानदारों ने जो रिश्वत पुलिस या कमेटी वालों को दी, वह ग्राहक देता है और जो माल 20-25 जगह सड़ा या बिखरा वह ग्राहक से वसूला जाता है.

हमारे दुकानदार न केवल बेवकूफ हैं अब कोरोना के शाही घुड़सवार बन रहे हैं. उन की वजह से चौड़े बाजारों में ग्राहकों के लिए संकरी सी जगह चलने के लिए बच रही है. दिल्ली में कई मार्केटें बंद कर दी गईं क्योंकि लौकडाउन हटते ही पटरी दुकानदार आ गए और ग्राहकों को सटसट कर चलने को मजबूर करने लगे.

अब बेचारगी के नाम पर ढील नहीं दी जा सकती. गरीब दुकानदारों को कोई और हुनर ही सीखना होगा. भाजपा ने धर्म की दुकानें खोल रखी हैं, वहीं जाओ पर कोरोना तो वहां से भी फैलेगा.

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इन पटरी दुकानदारों को चाहे कितना बेचारा और गरीब कह लो पर अब इन की मौजूदगी पूरी जनता के लिए खतरनाक है. ग्राहकों को अब पूरा स्पेस चाहिए ताकि डिस्टैंस बना रहे. ग्राहक और दुकानदार दोनों के लिए यह जरूरी है. इस तरह के बाजार हमेशा से दुनियाभर में बनते हैं और चलते हैं पर अब समय आ गया है जब दुकानें पक्की ही हों, बड़ी हों और उन में ग्राहकों को चलने की अच्छी जगह मिले.

पब्लिक की सड़कों और बाजारों को अब बेचारे गरीब दुकानदारों के नाम पर कुरबान नहीं किया जा सकता, यह खतरनाक है. वैसे भी पटरी दुकानदार सस्ते पड़ते हैं, यह गलतफहमी है. वे बेकार में अपना समय खर्च करते हैं और इस समय की कीमत उस ग्राहक से वसूलते हैं जो उस सामान को खरीदना चाहता है. यदि एक चीज को खरीदने के लिए दिन में 100 ग्राहक बाजार आते हैं और 1-2 दुकानदारों से खरीदते हैं तो उन्हें काफी मुनाफा होगा और वे दाम कम रख सकेंगे. जब वही चीज 30-40 दुकानदार बेचेंगे तो दाम घटेंगे नहीं बढ़ेंगे क्योंकि हर दुकानदार अपनी मेहनत का पैसा वसूलेगा.

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समस्या: लोन, ईएमआई और टैक्स भरने में छूट मिले

डाक्टर अर्जिनबी यूसुफ शेख

देशभर के कारोबारी आज कोविड 19 के चलते लगे लौकडाउन से बुरी तरह त्रस्त हैं. बाजार बंद हैं. लिहाजा, सामान या तो दुकान और गोदाम में सड़ रहा है या फिर आ नहीं रहा है और न ही जा रहा है, पर खर्च वहीं के वहीं हैं. कहींकहीं कारोबारी कुछ छुटपुट होहल्ला कर रहे हैं, पर उन की कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

महाराष्ट्र के अकोला जिले में कोरोना के बाद के हालात देखें. वहां कारोबारियों ने जगहजगह मोरचे निकाले. ‘लोग मरेंगे कोरोना से, हम तो वैसे ही मर जाएंगे’ के नारे लगाए.

कुलमिला कर कोरोना के चलते अब लौकडाउन सहनशक्ति से बाहर होता जा रहा है… कोढ़ पर खाज यह है कि कोरोना मरीज रोजाना बढ़ते ही जा रहे हैं. उन की दैनिक इन्क्वायरी, देखभाल और दवा की कमी जनता में चिंता की बात बनी हुई है. साथ ही, रोजगार और कारोबार कोरोना की चपेट में होने से आजीविका चला पाना मुश्किल हो गया है.

‘अशोक फैशंस’ के रोहित भोजवानी का कहना है, ‘‘पिछले एकडेढ़ साल से उपजी कोरोना महामारी में बड़े कारोबारी अपनेआप को संभाले हुए हैं, लेकिन छोटेमोटे कारोबारी बड़ी बदहाली से गुजर रहे हैं.

‘‘ऐसे कारोबारी वे हैं, जिन्हें अपनी दुकान का किराया देना होता है, लोन और ईएमआई भी देनी होती है, बिजली  के बिल भरने होते हैं, अपने कामगारों को भी संभालना होता है और अपने  घर को भी चलाना होता है.

‘‘सरकार या प्रशासन की ओर से ऐसे कारोबारियों के लिए न तो कोई नीति है और न ही कोई सुविधा. कोरोना में लगे लौकडाउन से यह सीजन भी कारोबारियों के हाथ से निकल चुका है.’’

आलोक खंडेलवाल काफी सालों से एक बुक स्टौल चला रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘‘कोरोना का इलाज है, पर इस की दहशत इतनी फैल चुकी है कि ‘कोरोना पौजिटिव है’ सुनते ही मरीज आधा मर जाता है. दूसरी ओर कारोबारी, मजदूर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या?

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‘‘सरकार को इस से कोई सरोकार नहीं कि कोई खाए या भूखा सोए, बल्कि उसे तो केवल अपने टैक्स से मतलब है, जो कारोबारियों को हर हाल में भरना ही भरना है. न कारोबारियों के लिए कोई सुविधा है, न ही कोई छूट.

‘‘वैक्सीनेशन के लिए औनलाइन रजिस्ट्रेशन और उस की फीस मध्यमवर्गीय जनता के लिए चिंता की बात बनी हुई है, तो गरीब जनता कहां जाए और क्या करे?

‘‘कारोबारी तबका स्वाभिमान से जीता आया है, पर कोरोना की इस विकट घड़ी में भरे जाने वाले टैक्स से उसे राहत दी जानी चाहिए.’’

पशु खाद्य विक्रेता अजय बजाज से जब पूछा गया कि इस लौकडाउन को वे कितना उचित मानते हैं, तो उन्होंने कहा, ‘‘लौकडाउन समय की जरूरत है. अगर यह नहीं होता, तो हो सकता है कि मरने वालों की तादाद और ज्यादा बढ़ जाती. पौजिटिव केस ज्यादा बढ़ जाने से उन्हें संभाल पाना मुश्किल होता.

‘‘हां, यह जरूर है कि लौकडाउन से छोटेमोटे कारोबारियों का जीना मुहाल हो चुका है. उन की मदद के लिए कोई सरकारी नीति नहीं है. कारोबारियों को अपना बो झ खुद ढोना पड़ रहा है.

‘‘कुछ कारोबारी मजबूरी के चलते बैकडोर से अपने कारोबार चला रहे हैं. कुछ सजा के डर से घरों में बैठे हैं, पर वे मानसिक तनाव के शिकार होते जा रहे हैं. आमदनी के रास्ते बंद हैं, पर खर्च चलाना अनिवार्य होने से वे मानसिक रूप से तनाव के बो झ तले दबते जा रहे हैं.

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‘‘इस मुश्किल घड़ी में जनता नियमों का पालन करे, सावधानी बरते तो हम कोरोना को जल्दी ही मात दे सकते हैं. बिगड़ते हालात संभल सकते हैं. होना यह चाहिए कि छोटेमोटे कारोबारियों को लोन, ईएमआई, टैक्स, बिजली के बिल भरने में जरूर कुछ सुविधा या छूट दी जाए.’’

लगातार लौकडाउनों के बावजूद सरकार ने टैक्सों में कोई छूट नहीं दी है और आगे देगी, इस की बात भी नहीं की जा रही है.

शर्मनाक! सरकार मस्त, मजदूर त्रस्त

लेखक- रोहित और शाहनवाज

कोरोना की दूसरी लहर ने देश में हाहाकार मचा दिया है. इस की गवाही श्मशान से ले कर कब्रिस्तान ने चीखचीख के दे दी है. इस समय जिन्होंने अपने कानों को बंद कर लिया है, उन के लिए अस्पतालों में तड़पते लोग, गंगा में बहती लाशें किसी सुबूत से कम नहीं हैं. सैकड़ों मौतें सरकारी पन्नों में दर्ज हुईं, तो कई अनाम मौतें सरकार की लिस्ट में अपना नाम तक दर्ज नहीं कर पाईं.

कोरोना की पड़ती इस दूसरी मार से बचने के लिए देश की तमाम सरकारों ने अपनेअपने राज्यों में लौकडाउन लगाया, जिस से दिल्ली व एनसीआर का इलाका भी अछूता नहीं रहा.

कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिल्ली सरकार ने लौकडाउन को सिलसिलेवार तरीके से लागू किया. पहले नाइट कर्फ्यू लगाया गया, जिसे कुछ दिनों बाद वीकैंड कर्फ्यू में बदला गया और आखिर में हफ्ते दर हफ्ते पूरे लौकडाउन में तबदील किया गया.

जाहिर है, यह इसलिए हुआ, क्योंकि सभी सरकारों खासकर मोदी सरकार ने पिछले एक साल से कोई खास तैयारी नहीं की थी. अगर उन की पिछले एक साल की कोरोना प्रबंधन की रिपोर्ट मांगी जाए, तो सारी सरकारें बगलें ?ांकतीं और एकदूसरे पर छींटाकशी करती नजर आएंगी.

इस सब ने समाज के कौन से हिस्से पर गहरी चोट की है, उस पर आज कोई भी सरकार बात करने को तैयार नहीं है.

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पिछले साल जब देश में लौकडाउन लगा था, तब लाखों मजदूर शहरों से पैदल सैकड़ों मील चलने को मजबूर हुए थे. वे चले थे, क्योंकि लौकडाउन के चलते उन की नौकरियां, रहने और खानेपीने के लाले पड़ गए थे, क्योंकि सरकार ने बिना इंतजाम किए सख्त लौकडाउन लगा दिया था.

सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में लौकडाउन के चलते अप्रैल महीने में 12.2 करोड़ भारतीयों ने अपनी नौकरियां गंवा दी थीं. वहीं 60 लाख डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अकाउंटैंट ने मई से अगस्त 2020 में अपनी नौकरियां गंवाईं. उस दौरान सरकार ने लौकडाउन में यातायात के सारे साधनों को बंद कर दिया था और मजदूर तबके को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया था.

इस साल भी सरकार ने मजदूरों के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किए हैं. जो मजदूर शहरों में फिर से नई उम्मीद ले कर आए थे, उन्हें खाली हाथ निराश हो कर अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा है. लौकडाउन से पहले बसअड्डों की भारी भीड़ ने इस बात की गवाही दी.

पिछले साल इन मजदूरों की आवाज सरकार तक पहुंची भी थी, पर इस साल उन की समस्याओं को उठाने वाला कोई नहीं है. जो मजदूर अभी भी शहरों में रुक गए हैं, उन का या तो गांव में कुछ भी नहीं है या वे घर का सामान गिरवी रख कर अपना घर चला रहे हैं. कई मजदूर ऐसे भी हैं, जिन के पास घर जाने तक का किराया भी नहीं है और वे यहांवहां से उधार मांग कर अपने खानेपीने का इंतजाम ही कर पा रहे हैं.

इस साल सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल, 2021 में कम से कम 73 लाख कामगारों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं.

इन मजदूरों की हालत खस्ता है, काम नहीं है. गांव की जमीन गिरवी रख कर, घरों के गहने गिरवी रख कर ये जैसेतैसे अपना गुजारा चला रहे हैं. आखिर इन शहरों ने इन्हें दिया क्या है?

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एक समय था, जब गांव से कोई शहर अपनी माली हालत ठीक करने के लिए आता था, लेकिन आज ये शहर मानो काटने के लिए दौड़ रहे हैं. शहरों में बैठे हुक्मरान वादे और दावे दोनों करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन्हें सामाजिक सिक्योरिटी तक मुहैया नहीं है.

दिल्ली के बलजीत नगर के पंजाबी बस्ती इलाके में रहने वाले 19 साला ललित पेशे से मोची हैं. ललित समाज की दबाई गई उस जाति से संबंध रखते हैं, जिसे आमतौर पर गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. आज भी वे इस काम को पारंपरिक तरीके से ढो रहे हैं.

ललित बताते हैं कि वे रोज ही सुबह 7 बजे से ले कर रात के 9 बजे तक अपने इलाके में तकरीबन 12-14 किलोमीटर तक चलते हैं. लौकडाउन के समय में बचबचा कर वे यह काम कर रहे हैं. कोई राहगीर उन से अपने जूतेचप्पल ठीक कराते हैं, तो वे दिन का 200 रुपए तक बना लेते हैं. लौकडाउन से पहले यह कमाई 400 रुपए तक हो जाती थी.

ललित के कंधे पर लकड़ी का छोटा संदूक रहता है, जिस के अंदर वे अपने पेशे से जुड़े औजार रखते हैं. वहीं उन के दूसरे हाथ में फटापुराना काला बस्ता रहता है, जिस में जूतेचप्पल की पौलिश करने का सामान होता है. संदूक का बो?ा इतना है कि लगातार उसे बाएं कंधे पर टांगे रखने की वजह से उन का कंधा ?ाक गया है.

ललित बताते हैं कि उन्होंने 7वीं जमात तक ही पढ़ाई की और घर में माली तंगी होने के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़ कर अपने पिताजी के इस परंपरागत काम को सीखना पड़ा.

ललित की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी. उन के परिवार में पत्नी,  बच्चे और मातापिता हैं. वे सभी अपने गांव वापस जाना चाहते हैं, लेकिन पैसा न होने के चलते वे यहां बुरी तरह फंस चुके हैं. ललित जिस कालोनी में रहते हैं, वहां इसी पेशे से जुड़े और भी मोची हैं और सभी इस समय त्रस्त हैं.

यह सिर्फ ललित का हाल नहीं है, बल्कि पूरे देश में मजदूर तबके का हाल है. वे इस समय जिंदगी और मौत से जू?ा रहे हैं. उन्हें कोरोना से ज्यादा इस बात का डर लग रहा है कि कोरोना से पहले उन्हें भूख मार देगी. सरकार का हाल यह तबका पिछले साल ही देख चुका था, इसलिए इस साल इसे सरकार से कोई उम्मीद भी नहीं बची.

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ये लोग उस सरकार से उम्मीद भी  लगाएं कैसे, जो इस समय प्राथमिकताएं ही नहीं तय कर पा रही है? ऐसे त्रस्त हालात में भी यह सरकार लोगों को माली और सामाजिक मदद पहुंचाने के बजाय अपनी शानोशौकत के लिए हजारों करोड़ रुपए का सैंट्रल विस्टा तैयार कर रही है.

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आज भी बहुत से कामधंधे और कारोबार ऐसे हैं, जो सालभर न चल कर एक खास सीजन में ही चलते हैं और इन कारोबारों से जुड़े लोग इसी सीजन में कमाई कर अपने परिवार के लिए सालभर का राशनपानी जमा कर लोगों का पेट पाल लेते हैं. पर लगातार दूसरे साल कोरोना महामारी ने इन कारोबारियों पर रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है.

हमारे देश में सब से ज्यादा शादीब्याह अप्रैल से जुलाई महीने तक होते हैं. इस वैवाहिक सीजन में कोरोना की मार से टैंट हाउस, डीजे, बैंडबाजा, खाना बनाने और परोसने वाले, दोनापत्तल बनाने वाले लोग सब से ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

सरकारी ढुलमुल नीतियां भी इस के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. पूरे मध्य प्रदेश में अप्रैल महीने में लौकडाउन लागू कर दिया, जबकि दमोह जिले में विधानसभा उपचुनाव के चलते सरकार बड़ी सभाओं और रैलियों में मस्त रही. सरकार की इन ढुलमुल नीतियों की वजह से लोगों का गुस्सा आखिरकार फूट ही पड़ा.

दमोह में उमा मिस्त्री की तलैया पर  चुनावी सभा संबोधित करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का  डीजे और टैंट हाउस वालों ने खुला विरोध कर दिया. मुख्यमंत्री को इन लोगों ने जो तख्तियां दिखाईं, उन पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था :

‘चुनाव में नहीं है कोरोना,

शादीविवाह में है रोना.

चुनाव का बहिष्कार,

पेट पर पड़ रही मार.’

आंखों पर सियासी चश्मा चढ़ाए मुख्यमंत्री को इन लोगों का दर्द समझ नहीं आया. लोगों के गुस्से की यही वजह भाजपा उम्मीदवार राहुल लोधी की हार का सबब बनी.

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पिछले साल के लौकडाउन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और न ही कोरोना से लड़ने के लिए कोई माकूल इंतजाम किए. मध्य प्रदेश के गाडरवारा तहसील के सालीचौका रोड के बाशिंदे दिनेश मलैया अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा टैंट डैकोरेशन का काम है, जिसे मैं घर से ही चलाता हूं, लेकिन इस कोरोना बीमारी के चलते पिछले साल सरकार के लगाए हुए लौकडाउन में पूरा धंधा चौपट हो गया.

‘‘पिछले साल का नुकसान तो जैसेतैसे सहन कर लिया, लेकिन इस साल फिर वही बीमारी और लौकडाउन ने तंगहाली ला दी है. इस साल शादियों के सीजन को देखते हुए कर्ज ले कर टैंट डैकोरेशन का सामान खरीद लिया था, पर लौकडाउन की वजह से धंधा चौपट हो गया.’’

साईंखेड़ा के रघुवीर और अशोक वंशकार का बैंड और ढोल आसपास के इलाकों में जाना जाता है, लेकिन पिछले 2 साल से शादियों में बैंडबाजा की इजाजत न होने से उन के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा हो गया है.

वे कहते हैं कि सरकार और उन के मंत्री व विधायक सभाओं और रैलियों में तो हजारों की भीड़ जमा कर सकते हैं, पर 10-15 लोगों की बैंड और ढोल बजाने वाली टीम से उन्हें कोरोना फैलने का खतरा नजर आता है.

दोनापत्तल का कारोबार करने वाले नरसिंहपुर के ओम श्रीवास बताते हैं, ‘‘मार्च के महीने में ही बड़ी तादाद में दोनापत्तल बनवा कर रख लिए थे, पर अप्रैल महीने में लौकडाउन के चलते शादियों में 20 लोगों के शामिल होने की इजाजत मिलने से दोनापत्तल का कारोबार ठप हो गया.’’

शादीब्याह में भोजन बनाने का काम करने वाले राकेश अग्रवाल बताते हैं कि उन के साथ 50 से 60 लोगों की टीम रहती है, जो खाना बनाने और परोसने का काम करती है, लेकिन इस बार इन लोगों को खुद का पेट भरने का कोई काम नहीं मिल रहा है.

शादियों में मंडप की फूलों से डैकोरेशन करने वाले चंदन कुशवाहा ने तो कर्ज ले कर फूलों की खेती शुरू की थी. चंदन को उम्मीद थी कि उन के खेतों से निकले फूलों से वे शादियों में डैकोरेशन कर खूब पैसा कमा लेंगे, पर कोरोना महामारी के चलते सरकार ने जनता कर्फ्यू लगा कर उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

हाथ ठेला पर सब्जी और फल बेचने वालों का बुरा हाल है. लौकडाउन में वे अपने परिवार के लिए भोजनपानी की तलाश में कुछ करना चाहते हैं, तो पुलिस की सख्ती उन्हे रोक देती है. हाथ ठेला लगाने वाले ये विक्रेता गांव से सब्जी खरीद कर लाते हैं और दिनभर की मेहनत से उन्हें सिर्फ 200-300 रुपए ही मिल पाते हैं.

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रायसेन जिले के सिलवानी में नगरपरिषद के सीएमओ ने जब एक फलसब्जी बेचने वाले का हाथ ठेला पलट दिया, तो उस का गुस्सा फूट पड़ा और मजबूरन उसे सीएमओ से गलत बरताव करना पड़ा.

यही समस्या दिहाड़ी मजदूरों की भी है, जिन्हें लौकडाउन की वजह से काम नहीं मिल पा रहा है और उन के बीवीबच्चे भूख से परेशान हैं. दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और रोज राशन दुकान से सामान खरीदते हैं, पर राशन दुकान भी बंद हैं.

राजमिस्त्री का काम करने वाले रामजी ठेकेदार का कहना है कि सरकारी ढुलमुल नीतियों की वजह से गरीब मजदूर ही परेशान होता है.

सरकार अभी तक यह नहीं समझ पाई है कि कोरोना वायरस का इलाज लौकडाउन नहीं है, बल्कि सतर्क और जागरूक रह कर उस से मुकाबला किया जा सकता है. पिछले साल से अब तक सरकार अस्पतालों में कोई खास इंतजाम नहीं कर पाई है. जैसे ही अप्रैल महीने  में संक्रमण बढ़ा, तो सरकार ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौकडाउन  लगा दिया.

सरकार की इस नीति से लाखों की तादाद में छोटामोटा कामधंधा करने वाले लोगों की रोजीरोटी पर जो बुरा असर पड़ा है, उस की भरपाई सालों तक पूरी नहीं हो सकती.

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कोरोना काल में कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं का ‘सहारा’ बनी योगी सरकार

लखनऊ . मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल पर यूपी में कुपोषण के खात्मे के लिए पोषण अभियान चलाया जा रहा है. इस अभियान में कुपोषितों को पोषण युक्त आहार मिल रहा है. वहीं, गांवों में काम कर रही स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं को रोजगार भी मिला है. कोरोना काल में भी कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं का ‘सहारा’ योगी सरकार बनी है.

सीएम योगी के निर्देश पर प्रदेश से कुपोषण के खात्मे के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उत्तर प्रदेश राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत संचालित स्वयं सहायता समूहों की महिलाएं भी जुटी हैं. प्रदेश के 75 जिलों के सभी विकास खंडों में 63,000 स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं द्वारा कोटेदार के यहां से ड्राई राशन, गेहूं, चावल और नाफेड से मिले चना, दाल, एडिबले आयल का उठान कर उसकी पैकिंग की जा रही है. छह माह से तीन वर्ष तक के बच्चों, तीन से छह साल तक के बच्चों, गर्भवती एवं धात्री महिलाओं, अति कुपोषित बच्चों और किशोरी बालिकाओं के कुल 1,47,99,150 लाभार्थियों के लिए 1,64,714 आंगनबाड़ी केन्द्रों से ड्राई राशन वितरित किया जा रहा है. सरकार की ओर से शुरू की गई ड्राई राशन परियोजना से करीब 6,30,000 महिलाओं को रोजगार भी मिला है.

राज्य सरकार कोरोना काल में भी कुपोषण की शिकार मां, बच्चे और लड़कियों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए सभी आवश्यक कदम उठा रही है. बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार विभाग को इसके लिए सरकार ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी है. प्रदेश में आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों और स्वयं सहायता समूह के सदस्यों को फील्ड में कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पोषक आहार वितरण में लगाया गया है. पोषण का लाभार्थियों को वितरण के लिए ऑनलाइन मॉनीटरिंग भी की जा रही है.

3060 महिलाओं को और मिलेगा रोजगार, आय में होगी वृद्धि

रेसिपी बेस्ट टेक होम राशन के लिए प्रदेश के 43 जिलों के 204 विकास खंडों में उत्पादन ईकाई की स्थापना कर 15 से 20 महिलाओं द्वारा रेसिपी तैयार कर आंगनबाड़ी केंद्रों में वितरित किया जाना है. प्रथम चरण में फतेहपुर के विकास खंड मलवां और उन्नाव के विकास खंड बीघापुर में उत्पादन ईकाई की स्थापना की गई है. शेष 202 विकास खंडों में भी जल्द उत्पादन ईकाई की स्थापना होने वाली है. हर ईकाई में 15 से 20 महिलाएं काम करेंगी, जिससे करीब 3060 महिलाओं को रोजगार मिलेगा और उनकी आय में वृद्धि होगी.

सरकार के लगातार प्रयासों से कुपोषण में आ रही कमी

योगी सरकार ने कोरोना काल में कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पोषण युक्त आहार पहुंचाने के लिए हाल ही में तीन महीने की राशि जारी की है. कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को अनाज, दाल, घी और दूध पाउडर बांटा जाता है. सरकार के लगातार किए जा रहे प्रयासों से गांवों में लगातार कुपोषण में कमी आ रही है.

भोजपुरी स्टार पवन सिंह के इस गाने ने मचाया तहलका, घंटेभर में मिले 5 लाख के करीब व्यूज

पावर स्टार पवन सिंह ने एक बार फिर अपने नए गाने से भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री में तहलका मचा दिया है. पवन सिंह का नया गाना ‘पुदीना ऐ हसीना’ आज रिलीज हुआ है, जो रिलीज के साथ ही खूब वायरल भी हो रहा है. गाने को रिलीज हुए महज कुछ ही घंटे हुए, लेकिन इस बीच पवन के इस गाने को तकरीबन 5 लाख व्यूज मिल चुके हैं. यह गाना मशहूर म्यूजिक कंपनी वेब के ऑफिसियल यूट्यूब चैनल से रिलीज हुआ है.

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‘पुदीना ऐ हसीना’ एक शानदार गाना है, जिसका थीम बेहद रोमांटिक है. लॉक डाउन की वजह से एक प्रेमी यानी पवन सिंह की प्रेमिका घर में कैद हो जाती है. ऐसे में पवन उससे मिलने को बेताब रहते हैं. फिर पवन के दोस्त ने उसे अपनी प्रेमिका से मिलने की तरकीब बताया और दोनों ठेले पर पुदीना लेकर चल निकली. फिर जो हुआ वो देख कर आप भी दंग रह जायंगे. गाने में पवन ने इसी स्टोरी के जरिये एक प्रेमी की बेताबी का रखा है, जो लोगों को बेहद पसंद आ रहा है.

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पवन सिंह के इस बेहतरीन गाना पुदीना ऐ हसीना में अनुपमा यादव ने भी अपनी आवाज दी है. लिरिक्स कुमार पांडेय और अर्जुन अकेला का है. म्यूजिक डायरेक्टर प्रियांशु सिंह हैं. वीडियो एडीटर रवि पंडित,पी आर ओ रंजन सिन्हा (Ranjan Sinha) हैं. आपको बता दें कि पवन सिंह का गाना हमेशा से भोजपुरी के ऑडियंस के लिए प्राथमिकता रही है, इसलिए जब भी उनका कोई गाना रिलीज होता है तो वो तुरंत वायरल हो जाता है. वैसे भी पवन के चाहने वाले पूरे देश में हैं. बॉलीवुड की भी नज़र पवन सिंह के काम पर रहता है, तभी वे भोजपुरी के साथ बॉलीवुड में भी पसंद किए जाने लगे हैं.

नरेंद्र दामोदरदास मोदी के “आंसू”

आने वाले समय में शायद हमारे देश में एक कहावत प्रचलित हो जाएगी-” नरेंद्र मोदी के आंसू…”

बीते दिनों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डॉक्टरों से संवाद कर रहे थे इसी दरमियान एक बार पुनः आंसू बहाने लगे . मोदी के साथ विसंगति यह है कि अपने आप को चट्टान की तरह कठोर भी साबित करना चाहते हैं और खुद को 56 इंच का सीने वाला बताने में गर्व महसूस करते थे और आजकल उन्होंने आंसू बहा कर संवेदना का चोला पहन कर देश की जनता को यह बताने का प्रयास किया है कि वे बहुत ही नरम हृदय के स्वामी है.

कोरोना कोविड-19 के इस संक्रमण काल में देश के प्रधानमंत्री को मजबूती के साथ खड़े होने की आवश्यकता है जैसे देश के हालात बन गए हैं उसके लिए एक मजबूत और विवेकशील नेतृत्व की आवश्यकता है.

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मगर, दो नावों की सवारी से मोदी अपनी छवि जो देश के जनमानस पर गढ़ना चाहते हैं, उसमें स्वयं ही अपनी भद पिटवा कर देशभर में कौतुक और हास्य का विषय बन गए हैं.

प्रधानमंत्री कैसा हो?

सीधी सी बात है कि हर आदमी, देश का हर एक नागरिक चाहता है कि उसका नेतृत्व करने वाला प्रधानमंत्री विवेकशील और संवेदनशील हो. वह आम जनता के दुख, दर्द समस्या को महसूस करें और उसे दूर करने का ईमानदारी से प्रयास करें.

मगर आज कोरोना वायरस के इस समय में हमारे देश के प्रधानमंत्री की गतिविधि और व्यवहार से आम जनता संतुष्ट नजर नहीं आती. जिस तरीके से देश में ऑक्सीजन की कमी हुई क्या वह जायज है ? जिस तरीके से हॉस्पिटलों में लोगों के लिए बेड और चिकित्सा की व्यवस्था नहीं थी क्या वह जायज है? जिस तरीके से डॉक्टरों, प्रशासन का व्यवहार आम जनता के साथ देखा गया क्या वह जायज है? ऐसे ही कुछ और भी महत्वपूर्ण पहलू हैं जिन्हें देखकर के आम जनमानस में यह धारणा बनी है कि हमारे देश के नेतृत्व था प्रधानमंत्री आज पूरी तरीके से असफल हो गए हैं. दुनिया के लगभग 40 से ज्यादा देशों ने हमें ऑक्सीजन भेजा, हमें मदद की, छोटे-छोटे देशों ने आगे आकर मदद का आह्वान किया और बिना मांगे चिकित्सा रसद भेजी इन सब बातों से यह संदेश गया कि हमारा देश और हमारा नेतृत्व कितना कमजोर है. आज हमें हाथ पसारना पड़ रहा है हम विश्व गुरु बनने की दौड़ में है हम बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं, हमारे प्रधानमंत्री इतना ऊंचा ऊंचा हांकते हैं कि लोग उनके मुरीद हो गए, लेकिन जमीनी हकीकत को देख कर के मानो धरती का सीना है फट गया.

अगर मोदी एक प्रधानमंत्री और मुखिया होने के नाते अपने आप को असहाय बताएंगे आंसू बहाने लगेंगे तो देश की जनता का क्या होगा… हमें अखिर कैसा प्रधानमंत्री चाहिए? 56 इंच के सीने के झूठे वादे के साथ चुनाव के दंगल में आप ने बाजी मार ली. मगर हकीकत यह है कि आप एक बहुत ही कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में याद किए जाएंगे एक सीधा सा उदाहरण यह है कि संकट आने पर अगर घर का मुखिया आंसू बहाने लगेगा तो घर के दूसरे सदस्यों पर क्या बीतेगी. शायद इसीलिए कहा जाता है कहावत है कि घर के मुखिया को मजबूत होना चाहिए उसे आंसू नहीं बहाना चाहिए . मगर यह एक छोटी सी बात प्रधानमंत्री जी को शायद पता नहीं है.क्योंकि आप के आंसू आपकी कमजोरी भारत देश के इस परिवार को कमजोर बनाने वाली है.

आंसू, प्रधानमंत्री और प्रोटोकॉल!

शायद आने वाले समय में इतिहास में नरेंद्र दामोदरदास मोदी को एक आंसू बहाने वाले प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा. शायद ही देश में कोई ऐसा प्रधानमंत्री हुआ हो जो इस तरह बात बेबात आंसू बहाने लगा हो. अभी तक जाने कितनी बार में अपने आंसू देश की जनता को दिखा चुके हैं और अब शायद आगे इस पर शोध भी होने लगेगा.

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एक महत्वपूर्ण तथ्य हमें नहीं भूलना चाहिए कि एक बैठक में अभी हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रोटोकॉल बताया गया था. याद दिला कर कहा गया था कि प्रोटोकॉल का पालन करना चाहिए! तो क्या देश के प्रधानमंत्री के लिए प्रोटोकॉल का कोई नियम नहीं है, उन्हें भी तो स्वप्रेरणा से इस बात को महसूस करना चाहिए कि वह इस महान देश के एक प्रधानमंत्री हैं और उनका भी कुछ धर्म है, एक प्रोटोकॉल है. छोटी-छोटी बात पर उन्हें आंसू नहीं बहाना चाहिए इसका गलत संदेश देश की जनता में जाता है.

मगर, नरेंद्र दामोदरदास मोदी बारंबार अपने आप जनता की सपोर्ट प्राप्त करने के लिए देश की जनता की संवेदना और प्यार पाने के लिए आंसू बहाने लगते हैं.

जिस तरह एक अभिनेता का व्यवहार होता है आंसू बहाने के दृश्य को जीवंत बना करके तालियां बटोर लेता है, अपने आप को एक अच्छा महान अभिनेता सिद्ध करना चाहता है वैसे ही प्रधानमंत्री मोदी भी बड़ी ही चतुराई के साथ देश की जनता को भ्रमित करना चाहते हैं यही कारण है कि उनके आंसुओं को मगरमच्छ के आंसू जैसा बता करके उनका देश भर में खूब मजाक उड़ा है.

बंदर और मगरमच्छ की कहानी को याद किया है – शायद आपको भी मगरमच्छ और बंदर कहानी याद होगी. मगरमच्छ की पत्नी बंदर का मीठा कलेजा खाना चाहती है क्योंकि जिस पेड़ पर बंदर रहता है और जामुन खाता है तो उसका हृदय कितना मीठा होगा ? और पत्नी के दबाव दबाव में बंदर का कलेजा लेकर मगरमच्छ जब पानी में आगे बढ़ता है और बंदर चतुराई के साथ कहता है मेरा हृदय तो जामुन के पेड़ पर‌ ही रह गया. मगरमच्छ बंदर को वापिस पेड़ पर छोड़ देता है तो बंदर कहता है कि अरे मूर्ख तेरी मेरी दोस्ती आज से खत्म….!

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अब सवाल लाख टके का यह है कि देश की जनता को क्या कोरोंना संक्रमण काल की पीड़ा, त्रासदी से सबक सीखा है या फिर आंसुओं में बह जाती है.

आक्सीजन पर आत्मनिर्भर बनेगा उत्तर प्रदेश

सहारनपुर. नोएडा, मेरठ, गाजियाबाद और मुजफ्फरनगर के मैराथन दौरे के बाद सहारनपुर पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिले में 11 नए आक्सीजन प्लांट लगाने का काम किया जाएगा.

उन्होंने कहा कि हर जनपद में गन्ना विभाग से आक्सीजन जनरेटर प्लांट लगाये जायेंगे. यहां उन्होंने इंटीग्रेटेड कोविड कमांड एंड कन्ट्रोल सेंटर का निरीक्षण किया और तत्पश्चात जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के साथ समीक्षात्मक बैठक में जरूरी निर्देश दिये. बैठक में सहारनपुर मंडल के मुजफ्फरनगर और शामली जनपद के अधिकारी भी वर्चुअल जुड़े.

इसलिये नहीं लगाया पूरा लाकडाउन

मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि अर्थव्यवस्था को देखते हुए हमनें कोरोना कर्फ्यू लगाया है, यह सम्पूर्ण लाकडाउन नहीं है. आवश्यक सेवाएं चालू हैं. मजदूरों को समस्या न आए, उनके समक्ष रोजीरोटी की समस्या ने आये, इसके लिए उद्योग धंधे और कारोबार चालू हैं.

उन्होंने कहा कि हमारा मकसद परेशानी भी न हो, भीड़ भी न हो, साथ ही भुखमरी की समस्या भी न आये. इसके लिए कम्युनिटी किचन की व्यवस्था की गयी है. सरकारी अस्पतालों में उपचार के साथ भोजन मिल रहा है. नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण शुरू किया जा रहा है.

मुख्यमंत्री ने कहा कि यूपी के माडल को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सराहा है. अन्य राज्य भी यूपी का अनुसरण कर रहे हैं. आक्सीजन के मामले में प्रदेश आत्मनिर्भर होता जा रहा है. उन्होंने कहा कि सहारनपुर में 13 हजार युवाओं को वैक्सीन लग चुकी है.

सोरोना और बलवन्तपुर गांव में देखे हालात

मुख्यमंत्री जिले के गांव सोरोना का दौरा किया. जहां उन्होंने होम आइसोलेशन में रह रहे एक ग्रामीण से उसका कुशलक्षेम जाना. उन्होंने अन्य लोगों से व्यवस्था के बाबत पूछताछ की और ग्राम्यवासियों से वैक्सीन लगवाने की अपील की. उसके बाद वे बलवन्तपुर सलेमपुर गांव पहुंचे और वहां निगरानी समिति के लोगों से वार्ता कर वस्तुस्थिति से अवगत हुए. उस गांव में भी मुख्यमंत्री ने लोगों से कोरोना वैक्सीन लगवाने के लिए कहा.

कोरोना: साधु संत, ओझाओं के चक्कर में!

कोरोना कोविड 19 का भयावह रूप आज देश देख रहा है. आज वैज्ञानिक भी इस संक्रमण के सामने असहाय हैं‌ और एक गाइडलाइन जारी कर दी गई है. ऐसे में देश में कुछ साधु, संत, ओझा, गुनिया ज्ञान बघार रहे हैं. और एक तरह से कानून को चैलेंज करते हुए बकायदा सोशल मीडिया में वीडियो वायरल करके अपनी बात प्रसारित कर रहे हैं.

जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि आज भी हमारे देश में किस तरह साधु संत और ओझाओं की तूती बोल रही है. होना यह चाहिए कि ऐसे लोगों पर शासन प्रशासन तत्काल लगाम लगाए, ताकि कोई भी कुछ मनगढ़ंत ज्ञान बघार करके लोगों की जान का दुश्मन न बन सके.

आज हालात इतने गम्भीर हो रहे हैं कि यह साधु संत झूठे ही कोरोना से बचाव के दावे करके, एक तरह से लोगों की जान सांसत में डालने का काम कर रहे हैं.

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छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक अनाम तिलकधारी साधु का वीडियो वायरल है, जो बड़े ही धीरे गंभीर वाणी में नींबू के दो चार रस के प्रयोग की सलाह दे रहा है, यह वीडियो बड़ी तेजी से गांव गांव पहुंच रहा है. लोग इस गेरुआ वस्त्र धारी के बताए हुए बातों में विश्वास भी कर रहे हैं जो कि सौ फीसदी झूठ के अलावा कुछ भी नहीं है.

वायरल वीडियो में कथित साधु! कि दावा है – ‘एक नींबू लो और उसके रस की दो-तीन बूंदें अपनी नाक में डालें…. इसे डालने के महज 5 सेकेंड के बाद आप देखेंगे कि आपका नाक, कान, गला और हृदय का सारा हिस्सा शुद्ध हो जाएगा.’
वीडियो में गेरूए कपड़ा पहने साधु कह रहा है- ‘आपका गला जाम है, नाक जाम है, गले में दर्द है या फिर इनफेक्शन की वजह से बुखार है, ये नुस्खा सारी चीजें दूर कर देगा. आप इसका प्रयोग जरूर कीजिए, मैंने आज तक इस घरेलू नुस्खे का उपयोग करना वालों को मरते हुए नहीं देखा है. यह नुस्खा नाक, कान, गला और हृदय के लिए रामबाण है. बाकी आपको जो करना है कीजिए लेकिन एक बार इसे जरूर आजमाइए.

यह साधु इतने भोलेपन से अपनी बात कह रहा है कि लोग सहज ही इसे मान सकते हैं. क्योंकि सोशल मीडिया में प्रसारित ऐसे लोगों के झूठे वायरल वीडियो की कोई काट सरकार के पास नहीं है और न ही प्रशासन कोई सख्त कार्रवाई कर पाता है.

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झूठ फैलाने का माध्यम बना सोशल मीडिया….!

जैसा कि हम जानते हैं सोशल मीडिया आज लोगों तक बात पहुंचाने का एक सशक्त माध्यम मंच बन चुका है.

मगर जैसा की कहावत है किसी भी चीज की अच्छाई और बुराई दोनों होती है सोशल मीडिया की भी यही सच्चाई है इसका प्रयोग कई जगह नकारात्मक ढंग से भी किया जाता है. प्रणाम स्वरूप झूठ बड़ी तेजी से फैलता है और यह लोगों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है. ऐसे में नींबू की चार बूंद से कोरोना के इलाज का दवा यह बता जाता है कि किस तरह सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जा रहा है. इसलिए जहां सरकार को इसके लिए कुछ कठोर नियम बनाने चाहिए वहीं लोगों में भी यह समझ होनी चाहिए कि सोशल मीडिया में प्रसारित हर बात का तथ्य सही नहीं होता उसे हम अपने नीर क्षीर बुद्धि से समझे कि यह हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो नहीं है. दरअसल कई संदर्भ आ चुके हैं जब सोशल मीडिया में प्रसारित नुस्खों के कारण लोगों की जान पर बन आई.

एक्शन और जागृति जरूरी

सोशल मीडिया में कुछ भी अपने अधकचरे ज्ञान से परोस देना समझदारी नहीं है. वस्तुत: लोगों का हित सोचते सोचते लोग बुरा कर बैठते हैं. इसकी प्रमुख वजह है हमारे देश ने बहुतायत लोग अशिक्षित हैं और अफवाह बाजी में सिद्धहस्त हैं. ऐसे लोग अपने आप को परम ज्ञानी समझते हैं. और साथ ही कुछ लोग अपने प्रचार प्रसार के लिए और इसे एक धंधा बनाने के लिए भी झूठे अध कचरे ज्ञान को प्रसारित करने की चेष्टा करते है. देश में बहुसंख्यक लोग आज भी गांव में रहते हैं, वही शहरों में भी साधु संत के चोले में आकर के कुछ भी कहने वाले लोगों के लिए बड़ी श्रद्धा और अंधविश्वास है, परिणाम स्वरूप इसका नुकसान भी लोग उठाते हैं.ऐसे में यही कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया में आ रहे किसी जानकारी को आंख बंद करके कभी भी स्वीकार ना करें. इसके लिए वैज्ञानिक सच्चाई को जानने समझने और मानने में ही आपका भला है.

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