दो भूत : उर्मिल ने अम्माजी को दी अनोखी राहत

मेरी निगाह कलैंडर की ओर गई तो मैं एकदम चौंक पड़ी…तो आज 10 तारीख है. उर्मिल से मिले पूरा एक महीना हो गया है. कहां तो हफ्ते में जब तक चार बार एकदूसरे से नहीं मिल लेती थीं, चैन ही नहीं पड़ता था, कहां इस बार पूरा एक महीना बीत गया. घड़ी पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि अभी 11 ही बजे हैं और आज तो पति भी दफ्तर से देर से लौटेंगे. सोचा क्यों न आज उर्मिल के यहां ही हो आऊं. अगर वह तैयार हो तो बाजार जा कर कुछ खरीदारी भी कर ली जाए. बाजार उर्मिल के घर से पास ही है. बस, यह सोच कर मैं घर में ताला लगा कर चल पड़ी. उर्मिल के यहां पहुंच कर घंटी बजाई तो दरवाजा उसी ने खोला. मुझे देखते ही वह मेरे गले से लिपट गई और शिकायतभरे लहजे में बोली, ‘‘तुझे इतने दिनों बाद मेरी सुध आई?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं तो आखिर चली भी आई पर तू तो जैसे मुझे भूल ही गई.’’

‘‘तुम तो मेरी मजबूरियां जानती ही हो.’’

‘‘अच्छा भई, छोड़ इस किस्से को. अब क्या बाहर ही खड़ा रखेगी?’’

‘‘खड़ा तो रखती, पर खैर, अब आ गई है तो आ बैठ.’’

‘‘अच्छा, क्या पिएगी, चाय या कौफी?’’ उस ने कमरे में पहुंच कर कहा.

‘‘कुछ भी पिला दे. तेरे हाथ की तो दोनों ही चीजें मुझे पसंद हैं.’’

‘‘बहूरानी, कौन आया है?’’ तभी अंदर से आवाज आई.

‘‘उर्मिल, कौन है अंदर? अम्माजी आई हुई हैं क्या? फिर मैं उन के ही पास चल कर बैठती हूं. तू अपनी चाय या कौफी वहीं ले आना.’’

अंदर पहुंच कर मैं ने अम्माजी को प्रणाम किया और पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है अब आप की?’’

‘‘बस, तबीयत तो ऐसी ही चलती रहती है, चक्कर आते हैं. भूख नहीं लगती.’’

‘‘डाक्टर क्या कहते हैं?’’

‘‘डाक्टर क्या कहेंगे. कहते हैं आप दवाएं बहुत खाती हैं. आप को कोई बीमारी नहीं है. तुम्हीं देखो अब रमा, दवाओं के बल पर तो चल भी रही हूं, नहीं तो पलंग से ही लग जाती,’’ यह कह कर वे सेब काटने लगीं.

‘‘सेब काटते हुए आप का हाथ कांप रहा है. लाइए, मैं काट दूं.’’

‘‘नहीं, मैं ही काट लूंगी. रोज ही काटती हूं.’’

‘‘क्यों, क्या उर्मिल काट कर नहीं देती?’’

‘‘तभी उर्मिल ट्रे में चाय व कुछ नमकीन ले कर आ गई और बोली, ‘‘यह उर्मिल का नाम क्यों लिया जा रहा था?’’

‘‘उर्मिल, यह क्या बात है? अम्माजी का हाथ कांप रहा है और तुम इन्हें एक सेब भी काट कर नहीं दे सकतीं?’’

‘‘रमा, तू चाय पी चुपचाप. अम्माजी ने एक सेब काट लिया तो क्या हो गया.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं ही काट लूंगी. तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है,’’ तनाव के कारण अम्माजी की सांस फूल गई थी.

मैं उर्मिल को दूसरे कमरे में ले गई और बोली, ‘‘उर्मिल, तुझे क्या हो गया है?’’

‘‘छोड़ भी इस किस्से को? जल्दी चाय खत्म कर, फिर बाजार चलें,’’ उर्मिल हंसती हुई बोली.

मैं ठगी सी उसे देखती रह गई. क्या यह वही उर्मिल है जो 2 वर्ष पूर्व रातदिन सास का खयाल रखती थी, उन का एकएक काम करती थी, एकएक चीज उन को पलंग पर हाथ में थमाती थी. अगर कभी अम्माजी कहतीं भी, ‘अरी बहू, थोड़ा काम मुझे भी करने दिया कर,’ तो हंस कर कहती, ‘नहीं, अम्माजी, मैं किस लिए हूं? आप के तो अब आराम करने के दिन हैं.’

तभी उर्मिल ने मुझे झिंझोड़ दिया, ‘‘अरे, कहां खो गई तू? चल, अब चलें.’’

‘‘हां.’’

‘‘और हां, तू खाना भी यहां खाना. अम्माजी बना लेंगी.’’

मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, ‘‘उर्मिल, तुझे हो क्या गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्माजी बना लेंगी. इस में बुरा क्या है?’’

‘‘नहीं, उर्मिल, चल दोनों मिल कर सब्जीदाल बना लेते हैं और अम्माजी के लिए रोटियां भी बना कर रख देते हैं. जरा सी देर में खाना बन जाएगा.’’

‘‘सब्जी बन गई है, दालरोटी अम्माजी बना लेंगी, जब उन्हें खानी होगी.’’

‘‘हांहां, मैं बना लूंगी. तुम दोनों जाओ,’’ अम्माजी भी वहीं आ गई थीं.

‘‘पर अम्माजी, आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हाथ भी कांप रहे हैं,’’ मैं किसी भी प्रकार अपने मन को नहीं समझा पा रही थी.

‘‘बेटी, अब पहले का समय तो रहा नहीं जब सासें राज करती थीं. बस, पलंग पर बैठना और हुक्म चलाना. बहुएं आगेपीछे चक्कर लगाती थीं. अब तो इस का काम न करूं तो दोवक्त का खाना भी न मिले,’’ अम्माजी एक लंबी सांस ले कर बोलीं.

‘‘अरे, अब चल भी, रमा. अम्माजी, मैं ने कुकर में दाल डाल दी है. आटा भी तैयार कर के रख दिया है.’’

बाजार जाते समय मेरे विचार फिर अतीत में दौड़ने लगे. बैंक उर्मिल के घर के पास ही था. एक सुबह अम्माजी ने कहा, ‘मैं बैंक जा कर रुपए जमा कर ले आती हूं.’

‘नहीं अम्माजी, आप कहां जाएंगी, मैं चली जाऊंगी,’ उर्मिल ने कहा था.

‘नहीं, तुम कहां जाओगी? अभी तो अस्पताल जा रही हो.’

‘कोई बात नहीं, अस्पताल का काम कर के चली जाऊंगी.’

और फिर उर्मिल ने अम्माजी को नहीं जाने दिया था. पहले वह अस्पताल गई जो दूसरी ओर था और फिर बैंक. भागतीदौड़ती सारा काम कर के लौटी तो उस की सांस फूल आई थी. पर उर्मिल न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी कि कभी खीझ या थकान के चिह्न उस के चेहरे पर आते ही न थे.

उर्मिल की भागदौड़ देख कर एक दिन जीजाजी ने भी कहा था,

‘भई, थोड़ा काम मां को भी कर लेने दिया करो. सारा दिन बैठे रहने से तो उन की तबीयत और खराब होगी और खाली रहने से तबीयत ऊबेगी भी.’

इस पर उर्मिल उन से झगड़ पड़ी थी, ‘आप भी क्या बात करते हैं? अब इन की कोई उम्र है काम करने की? अब तो इन से तभी काम लेना चाहिए जब हमारे लिए मजबूरी हो.’

बेचारे जीजाजी चुप हो गए थे और फिर कभी सासबहू के बीच में नहीं बोले.  मैं इन्हीं विचारों में खोई थी कि उर्मिल ने कहा, ‘‘लो, बाजार आ गया.’’ यह सुन कर मैं विचारों से बाहर आई.

बाजार में हम दोनों ने मिल कर खरीदारी की. सूरज सिर पर चढ़ आया था. पसीने की बूंदें माथे पर झलक आई थीं. दोनों आटो कर के घर पहुंचीं. अम्माजी ने सारा खाना तैयार कर के मेज पर लगा रखा था. 2 थालियां भी लगा रखी थीं. मेरा दिल भर आया.

अम्माजी बोलीं, ‘‘तुम लोग हाथ धो कर खाना खा लो. बहुत देर हो गई है.’’

‘‘अम्माजी, आप?’’  मैं ने कहा.

‘‘मैं ने खा लिया है. तुम लोग खाओ, मैं गरमगरम रोटियां सेंक कर लाती हूं.’’

मैं अम्माजी के स्नेहभरे चेहरे को देखती रही और खाना खाती रही. पता नहीं अम्माजी की गरम रोटियों के कारण या भूख बहुत लग आने के कारण खाना बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खा कर अम्माजी को स्वादिष्ठ खाने के लिए धन्यवाद दे कर मैं अपने घर लौट आई.

कुछ दिनों बाद एक दिन जब मैं उर्मिल के घर पहुंची तो दरवाजा थोड़ा सा खुला था. मैं धीरे से अंदर घुसी और उर्मिल को आवाज लगाने ही वाली थी कि उस की व अम्माजी की मिलीजुली आवाज सुन कर चौंक पड़ी. मैं वहीं ओट में खड़ी हो कर सुनने लगी.

‘‘सुनो, बहू, तुम्हारी लेडीज क्लब की मीटिंग तो मंगलवार को ही हुआ करती है न? तू बहुत दिनों से उस में गई नहीं.’’

‘‘पर समय ही कहां मिलता है, अम्माजी?’’

‘‘तो ऐसा कर, तू आज हो आ. आज भी मंगलवार ही है न?’’

‘‘हां, अम्माजी, पर मैं न जा सकूंगी. अभी तो काम पड़ा है. खाना भी बनाना है.’’

‘‘उस की चिंता न कर. मुझे बता दे, क्याक्या बनेगा.’’

‘‘अम्माजी, आप सारा खाना कैसे बना पाएंगी? वैसे ही आप की तबीयत ठीक नहीं रहती है.’’

‘‘बहू, तू क्या मुझे हमेशा बुढि़या और बीमार ही बनाए रखेगी?’’

‘‘अम्माजी मैं…मैं…तो…’’

‘‘हां, तू. मुझे इधर कई दिनों से लग रहा है कि कुछ न करना ही मेरी सब से बड़ी बीमारी है, और सारे दिन पड़ेपड़े कुढ़ना मेरा बुढ़ापा. जब मैं कुछ काम में लग जाती हूं तो मुझे लगता है मेरी बीमारी ठीक हो गई है और बुढ़ापा कोसों दूर चला गया है.’’

‘‘अम्माजी, यह आप कह रही हैं?’’ उर्मिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

‘‘हां, मैं. इधर कुछ दिनों से तू ने देखा नहीं कि मेरी तबीयत कितनी सुधर गई है. तू चिंता न कर. मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे जहां जाना है जा. आज शाम को सुधीर के साथ किसी पार्टी में भी जाना है न? मेरी वजह से कार्यक्रम स्थगित मत करना. यहां का सब काम मैं देख लूंगी.’’

‘‘ओह अम्माजी,’’  उर्मिल अम्माजी से लिपट गई और रो पड़ी.

‘‘यह क्या, पगली, रोती क्यों है?’’ अम्माजी ने उसे थपथपाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी, मेरे कान कब से यह सुनने को तरस रहे थे कि आप बूढ़ी नहीं हैं और काम कर सकती हैं. मैं ने इस बीच आप से जो कठोर व्यवहार किया, उस के लिए क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. चल जा, जल्दी उठ. क्लब की मीटिंग का समय हो रहा है.’’

‘‘अम्माजी, अब तो नहीं जाऊंगी आज. हां, आज बाजार हो आती हूं. बच्चों की किताबें और सुधीर के लिए शर्ट लेनी है.’’

‘‘तो बाजार ही हो आ. रमा को भी फोन कर देती तो दोनों मिल कर चली जातीं.’’

‘‘अम्माजी, प्रणाम. आप ने याद किया और रमा हाजिर है.’’

‘‘अरी, तू कब से यहां खड़ी थी?’’

‘‘अभी, बस 2 मिनट पहले आई थी.’’

‘‘तो छिप कर हमारी बातें सुन रही थी, चोर कहीं की.’’

‘‘क्या करती? तुम सासबहू की बातचीत ही इतनी दिलचस्प थी कि अपने को रोकना जरूरी लगा.’’

‘‘तुम दोनों बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ अम्माजी रसोई की ओर बढ़ गईं.

मैं अपने को रोक न पाई. उर्मिल से पूछ ही बैठी, ‘‘यह सब क्या हो रहा था? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. यह माफी कैसी मांगी जा रही थी?’’

‘‘रमा, याद है, उस दिन, तू मुझ से बारबार मेरे बदले हुए व्यवहार का कारण पूछ रही थी. बात यह है रमा, अम्माजी के सिर पर दो भूत सवार थे. उन्हें उतारने के लिए मुझे नाटक करना पड़ा.’’

‘‘दो भूत? नाटक? यह सब क्या है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. पहेलियां न बुझा, साफसाफ बता.’’

‘‘बता तो रही हूं, तू उतावली क्यों है? अम्माजी के सिर पर चढ़ा पहला भूत था उन का यह समझ लेना कि बहू आ गई है, उस का कर्तव्य है कि वह प्राणपण से सास की सेवा और देखभाल करे, और सास होने के नाते उन का अधिकार है दिनभर बैठे रहना और हुक्म चलाना. अम्माजी अच्छीभली चलफिर रही होती थीं तो भी अपने इन विचारों के कारण चायदूध का समय होते ही बिस्तर पर जा लेटतीं ताकि मैं सारी चीजें उन्हें बिस्तर पर ही ले जा कर दूं. उन के जूठे बरतन मैं ही उठा कर रखती थी. मेरे द्वारा बरतन उठाते ही वे फिर उठ बैठती थीं और इधरउधर चहलकदमी करने लगती थीं.’’

‘‘अच्छा, दूसरा भूत कौन सा था?’’

‘‘दूसरा भूत था हरदम बीमार रहने का. उन के दिमाग में घुस गया था कि हर समय उन को कुछ न कुछ हुआ रहता है और कोई उन की परवा नहीं करता. डाक्टर भी जाने कैसे लापरवाह हो गए हैं. न जाने कैसी दवाइयां देते हैं, फायदा ही नहीं करतीं.’’

‘‘भई, इस उम्र में कुछ न कुछ तो लगा ही रहता है. अम्माजी दुबली भी तो हो गई हैं,’’ मैं कुछ शिकायती लहजे में बोली.

‘‘मैं इस से कब इनकार करती हूं, पर यह तो प्रकृति का नियम है. उम्र के साथसाथ शक्ति भी कम होती जाती है. मुझे ही देख, कालेज के दिनों में जितनी भागदौड़ कर लेती थी उतनी अब नहीं कर सकती, और जितनी अब कर लेती हूं उतनी कुछ समय बाद न कर सकूंगी. पर इस का यह अर्थ तो नहीं कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं,’’ उर्मिल ने मुझे समझाते हुए कहा.

‘‘अम्माजी की सब से बड़ी बीमारी है निष्क्रियता. उन के मस्तिष्क में बैठ गया था कि वे हर समय बीमार रहती हैं, कुछ नहीं कर सकतीं. अगर मैं अम्माजी की इस भावना को बना रहने देती तो मैं उन की सब से बड़ी दुश्मन होती. आदमी कामकाज में लगा रहे तो अपने दुखदर्द भूल जाता है और शरीर में रक्त का संचार बढ़ता है, जिस से वह स्वस्थ अनुभव करता है, और फिर व्यस्त रहने से चिड़चिड़ाता भी नहीं रहता.’’

मुझे अचानक हंसी आ गई. ‘‘ले भई, तू ने तो डाक्टरी, फिलौसफी सब झाड़ डाली.’’

‘‘तू चाहे जो कह ले, असली बात तो यही है. अम्माजी को अपने दो भूतों के दायरे से निकालने का एक ही उपाय था कि…’’

‘‘तू उन की अवहेलना करे, उन्हें गुस्सा दिलाए जिस से चिढ़ कर वे काम करें और अपनी शक्ति को पहचानें. यही न?’’  मैं ने वाक्य पूरा कर दिया.

‘‘हां, तू ने ठीक समझा. यद्यपि गुस्सा और उत्तेजना शरीर और हृदय के लिए हानिकारक समझे जाते हैं पर कभीकभी इन का होना भी मनुष्य के रक्तसंचार को गति देने के लिए आवश्यक है. एकदम ठंडे मनुष्य का तो रक्त भी ठंडा हो जाता है. बस, यही सोच कर मैं अम्माजी को जानबूझ कर उत्तेजित करती थी.’’

‘‘कहती तो तू ठीक है.’’

‘‘तू मेरे नानाजी से तो मिली है न?’’

‘‘हां, शादी से पहले मिली थी एक बार.’’

‘‘जानती है, कुछ दिनों में वे 95 वर्ष के हो जाएंगे. आज भी वे कचहरी जाते हैं. जितना कर पाते हैं, काम करते हैं. कई बार रातरातभर अध्ययन भी करते हैं. अब भी दोनों समय घूमने जाते हैं.’’

‘‘इस उम्र में भी?’’  मुझे आश्चर्य हो रहा था.

‘‘हां, उन की व्यस्तता ही आज भी उन्हें चुस्त रखे हुए है. भले ही वे बीमार से रहते हैं, फिर भी उन्होंने उम्र से हार नहीं मानी है.’’

मैं ने आंख भर कर अपनी इस सहेली को देखा जिस की हर टेढ़ी बात में भी कोई न कोई अच्छी बात छिपी रहती है. ‘‘अच्छा एक बात तो बता, क्या जीजाजी को पता था? उन्हें अपनी मां के प्रति तेरा यह रूखा व्यवहार चुभा नहीं?’’

‘‘उन्होंने एकदो बार कहा, पर मैं ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया कि यह सासबहू का मामला है, आप बीच में न ही बोलें तो अच्छा है.’’

मैं चाय पीते समय कभी हर्ष और आत्मसंतोष से दमकते अम्माजी के चेहरे को देख रही थी, कभी उर्मिल को. आज फिर एक बार उस का बदला रूप देख कर पिछले माह की उर्मिल से तालमेल बैठाने का प्रयत्न कर रही थी.

आलू वड़ा : मामी से उलझे दीपक के नैन

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया. मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

कोट का अस्तर : रफीक बाबू को किस घटना ने तोड़ दिया था

सर्दी इस कदर ज्यादा थी कि खून भी जमा दे. दफ्तर पहुंच कर रफीक बाबू की रगों में जैसे खून का दौरा शुरू हुआ.

दफ्तर में लोगों की तादाद में इजाफा होने लगा था और शुरू हुई फाइलों की उठापटक, अफसरान की घंटियां.

रफीक बाबू की दाहिनी ओर निरंजन शर्मा बैठते थे, तो बाईं ओर आमोद प्रकाश. वे दोनों उन पर किसी दुश्मन की तरह काबिज रहते थे. उन के तरकश के तीर रफीक के मन को बींध कर रख देते थे.

दफ्तर में कहने को तो और भी बहुत लोग थे, पर उन दोनों का एक ही टारगेट था, रफीक बाबू.

आज फिर निरंजन शर्मा ने ताना कसा, ‘‘यार रफीक, मेरी राय में तुम्हें एक नया कोट खरीद लेना चाहिए. इस बार की सर्दी कम से कम यह कोट तो नहीं   झेल पाएगा.’’

‘‘आप की मानें तब न. जनाब तो कानों में रुई ठूंसे रखते हैं. पता नहीं, इस कोट की जान कहां बाकी है?’’ आमोद प्रकाश ने चुटकी ली.

‘‘भाई, जान नहीं होती, तो ओढे़ रहते?’’ निरंजन शर्मा ने कहा.

‘‘शर्माजी, सच कहूं तो इन की हालत उस बंदरिया जैसी है, जो मरे बच्चे को जिंदा सम  झ कर अपनी छाती से चिपकाए फिरती है. इसे कहते हैं प्यारमुहब्बत,’’ कहते हुए आमोद प्रकाश ने हलकी सी मुसकान छोड़ी, तो रफीक बाबू जलभुन कर खाक हो गए, लेकिन वे सिर   झुकाए खयालों की दुनिया में मशगूल रहे.

उन्होंने सोचा, ‘यह कमबख्त सर्दी कब खत्म होगी और कब इन बदमाशों का ध्यान इस कोट से हटेगा. आज कोट बनवा लूं, तो पेट काटने वाली बात हो जाएगी.

‘इस तनख्वाह से बेटी के निकाह में लिए कर्ज की किस्त चुकता करूं कि बीवी समेत 3-3 बच्चों के मुंह में निवाला डालूं. जितनी चादर होगी, उतने ही तो पैर पसरेंगे.

‘इन का क्या है. बापदादा का कमाया पोता ही तो बरतेगा. ऊपरी कमाई है, सो अलग. अपने गले में ईमानदारी का तमगा जो लगा है, कोढ़ में खाज की तरह. जब समय आएगा, तब कोट भी बन जाएगा.’

इसी उधेड़बुन में शाम ढलने लगी. ऐसा नहीं है कि रफीक बाबू की हैसियत कोट सिलवाने की न थी, पर कुछ पैसे वे मसजिद में चढ़ा कर आते, तो कुछ खैनीजरदा खाने में खर्च कर देते थे. कमजोरी की वजह से डाक्टर का खर्च भी था. जब कोट बनवाने की बात हो, तो दूसरे खर्च काटने का मन न करता और धर्म व जरदे को वे छोड़ नहीं पा रहे थे.

आज महीने का पहला दिन था. तनख्वाह बैंक में चली गई थी. बेगम ने सुबह ही लंबी फेहरिस्त हाथ में थमा दी थी कि यह ले आना, वह ले आना. अब 1-2 दिन हिसाबकिताब में कटेंगे, बाकी बचे दिनों की गिनती करने में.

इधर दीवार घड़ी 5 बार ठुनकी, तब जा कर रफीक बाबू फ्लैशबैक से लौटे.

रफीक बाबू हड़बड़ा कर उठे और सीधे एटीएम की ओर चल दिए. वहां से नोट निकाले. कड़क नोटों को उंगलियों के बीच मसल कर उन्हें पलभर को गरमी का एहसास हुआ.

रफीक बाबू बाहर निकले थे कि तभी उन का निरंजन शर्मा से सामना हो गया.

रफीक बाबू उन की अनदेखी कर दोबारा एटीएम में घुस गए. लेकिन भला निरंजन शर्मा ऐसा मौका क्यों चूकते. उन्होंने धीरे से जुमला उछाल दिया, ‘‘वाह रे कोट, क्या किस्मत पाई है. सर्दी में भी गरमी का एहसास.’’

रफीक बाबू उन से उल  झना नहीं चाहते थे. बस, खून के घूंट पी कर रह गए. आज जल्दी घर पहुंचना चाहते थे, लेकिन निकलतेनिकलते शाम के 6 बज गए.

बसस्टैंड पर पहुंच कर रफीक बाबू ने सोचा, ‘चलो, एक पैकेट सिगरेट ही खरीद लें.’ उन के हाथ की उंगलियां जेबें टटोल रही थीं, मगर रुपयों से टकराव नहीं हुआ. मारे घबराहट के उन्हें सर्दी के बावजूद पसीना छलक आया.

पान वाला रफीक बाबू की उड़ती रंगत भांप गया. सो, मुसकरा कर दूसरे ग्राहकों को निबटाने लगा.

रफीक बाबू के हाथों के तोते उड़ गए थे और जेब से पगार. हिम्मत कर के वे तेजी से उस एटीएम की ओर लपके, जहां से रुपए निकाले थे.

एटीएम का कोनाकोना देख मारा, पर कहीं कुछ न मिला. थकहार कर वे बैरंग लौट आए. अब किस से कहें और किस से पूछें?

अंधेरे के काले डैने फैलने लगे थे. रफीक बाबू खुद को धकियाते हुए पैदल ही घर तक का सफर तय करने लगे.

उन की हालत यह हो गई कि एक बार वे मोटरसाइकिल से टकरातेटकराते बचे थे, तो दूसरी बार ठेली वाले से बातोंबातों में   झगड़ने से बचे थे.

रफीक बाबू किसी तरह घर पहुंचे. उन्हें देखते ही बेगम नसीरा का चेहरा खिल गया, पर रफीक बाबू के मुर्दनी चेहरे को देख कर वे पलभर में उदास हो गईं.

‘‘इतनी देर कैसे हुई? सब ठीक तो है न?’’ शक और डर के अंबार को दबा कर नसीरा ने पूछा.

रफीक बाबू ने जैसे कुछ सुना ही नहीं और सीधे कुरसी में पसर गए.

‘‘क्या बात है? कुछ कहोगे भी या नहीं?’’ नसीरा घबरा कर बोलीं.

‘‘कुछ नहीं नसीरा. बस, बदकिस्मती   झपट गई. लगता है, यह महीना फाका करने में गुजरेगा,’’ रफीक बाबू अपना सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘आखिर हुआ क्या है? मुझे भी तो कुछ पता चले?’’ नसीरा खीज उठीं.

‘‘आज तनख्वाह में से 15 हजार रुपए निकाले थे… और पूरे रुपए कोट की जेब में डाल कर बाहर निकल आया था. जब मैं बसस्टैंड पर पहुंचा, तो देखा कि रुपए नदारद थे,’’ रफीक बाबू ने उदास हो कर कहा.

‘‘मेरे मालिक, तू भी खूब है. किसी को छप्पर फाड़ कर दे और किसी से दो जून की रोटी भी छीन ले,’’ नसीरा दुपट्टे में मुंह छिपा कर रो पड़ीं.

बच्चे दीनदुनिया से बेखबर सो गए थे. उस रात वे दोनों बगैर खाए ही लेट गए. रात चढ़ आई थी, लेकिन नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी.

नसीरा को इस घटना ने तोड़ कर रख दिया था. वे खिड़की से अंदर आ रही रोशनी में खूंटी से लटके कोट को घूरे जा रही थीं, मानो सारा कुसूर उस पुराने कोट का था, जिस का अस्तर कोट से बाहर   झांक रहा था, मानो उन्हें चिढ़ा रहा हो.

नसीरा ने उठ कर खिड़की पर परदा तान दिया, तो भी नींद कहां थी भला?

‘‘कितनी बार कहा था कि एक कोट बनवा लो, मगर कान पर जूं तक न रेंगी. ईद भी चली गई. न जाने कब तक लादे रहेंगे इस कमबख्त कोट को?’’ नसीरा लेटेलेटे बड़बड़ाती रहीं.

रफीक बाबू कुछ नहीं बोले. बस, चुपचाप सुनते रहे.

‘इन्होंने कोट अच्छी तरह देख लिया था न? कहीं रुपए अस्तर में न उल  झे पड़े हों?’ नसीरा सारे घटनाक्रम को नए सिरे से सोच रही थीं कि शायद कोई सुराग हाथ आ जाए, मगर पूछने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं.

रफीक बाबू खामोशी का लबादा ओढ़े लेटे हुए थे. सारी रात आंखों में ही कट गई. सुबह होने को थी. रफीक बाबू उठे नहीं, बिस्तर से चिपके रहे.

नसीरा से रहा नहीं गया, ‘‘आज दफ्तर नहीं जाओगे क्या? कुछ तो हौसला रखो. ऐसे लेटे रहने से कुछ नहीं होने वाला.’’

न चाह कर भी रफीक बाबू को दफ्तर का मुंह देखना पड़ा. देर हो गई थी. साथी मुलाजिम अपनेअपने कामों में मसरूफ थे.

रफीक बाबू के मुर  झाए चेहरे को देख कर सभी को हैरानी हो रही थी. वैसे भी आज सब से देर में पहुंचने वालों में वे ही थे.

निरंजन शर्मा ने पलट कर देखा और बोले, ‘‘आओ मियां, आज देर कैसे कर दी? लगता है कि भाभीजान ने बुरी गत बनाई है. खैर, दफ्तर आ गए हो, तो कम से कम हुलिया तो ठीक करो. घरगृहस्थी में सब चलता रहता है.’’

रफीक बाबू से और बरदाश्त नहीं हुआ. मन में आया कि सीधे निरंजन शर्मा का गरीबान पकड़ लें, लेकिन कुछ नहीं कर पाए. बस, वे चिल्ला कर रह गए, ‘‘शर्मा, जूती का मुंह जब खुल जाता है, तो बहुत आवाज करती है. कभी किसी का दर्द महसूस करोगे या नहीं?’’

‘‘अरे क्या हुआ, क्यों तैश खाते हो? कुछ गड़बड़ है क्या?’’ निरंजन शर्मा ने मौके की नजाकत को सम  झा.

रफीक बाबू ने एक लंबी आह छोड़ी और वे बु  झी सी आवाज में बोले, ‘‘मेरे 15 हजार… न जाने कहां गिर गए.’’

‘‘बस, इतनी सी बात और इतनी सारी गालियां. ये लो, पूरे 15 हजार रुपए. मगर एक बार मुसकरा तो दो,’’ कहते हुए निरंजन शर्मा ने रुपए मेज पर रख दिए.

रफीक बाबू की आंखें खुली की खुली रह गईं. उन की जान में जान लौट आई, ‘‘लेकिन तुम्हें… ये रुपए तुम्हें कहां मिले?’’

‘‘इसे गनीमत कहो कि ऐनवक्त पर मैं भी एटीएम पहुंच गया. ठीक तुम्हारे बाद. जब तुम ने रुपए कोट के हवाले किए थे, तभी पूरी गड्डी खिसक कर फर्श पर आ गिरी थी.

‘‘उस समय मैं ने सोचा कि तुम्हें लौटा दूं, फिर खयाल आया कि तुम्हें थोड़ा एहसास करा ही दूं.’’

निरंजन शर्मा ने उन के कंधे पर हाथ रख कर धीमे से कहा, ‘‘कहीं अस्तर तो फटा नहीं है बरखुरदार?’’

रफीक बाबू बुरी तरह   झेंप गए. रुपए मिलने की खुशी में शुक्रिया भी न कह सके. बस, होंठ कांप कर रह गए.

निरंजन शर्मा और आमोद प्रकाश मुसकरा रहे थे. इस बार रफीक बाबू को उन का मुसकराना नहीं अखरा. उन्होंने मन ही मन फैसला कर डाला कि चाहे इस महीने कर्जा न दे पाएं तो चलेगा, लेकिन हर हाल में कोट बनवाएंगे.

अब रफीक बाबू का मन शांत था. वे अपनी कुरसी की ओर बढ़े. उन के ठीक सामने की कुरसी पर एक बड़ा सा पैकेट रखा था. कुछ देर तक वे पैकेट को हैरानी से देखते रह गए.

‘‘क्या देख रहे हो मियां… आप के लिए ही है… नए साल का तोहफा.’’

रफीक बाबू ने पैकेट हाथों में लिया, जिस पर लिखा था, ‘प्रिय रफीक बाबू, अपने दुश्मनों की ओर से यह तोहफा कबूल फरमाएं. इसे पहनें और पुराने कोट को अलविदा कहें. बस, बदले में इन दुश्मनों को मसजिद और जरदे पर पैसा न खर्च करने का वादा करना है.’

रफीक बाबू के होंठों पर पहली बार एक लंबी मुसकान फैल गई. उन्होंने फौरन उन दोनों को ऐसी   झप्पी मारी कि साथी मुलाजिम औरतें पहले तो मुंह खोले देखती रहीं, फिर उन्होंने शरमा कर अपना मुंह दूसरी तरफ कर लिया.

चरित्रहीन कौन: क्या उषा अपने पति को बचा पाई?

ऊषा का पति प्रकाश शादी के 3 महीने बाद ही नौकरी ढूंढ़ने मुंबई चला गया था. वह ज्यादा पढ़ालिखा नहीं था और एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में मजदूरी कर रहा था. जो भी कमाई होती थी उस में से आधा हिस्सा वह ऊषा को भेजता था और आधे हिस्से में खुद गुजारा करता था.

दीवाली की छुट्टियां थीं तो प्रकाश एक साल बाद घर आ रहा था. मुंबई में खुद के रहने का कोई ठौरठिकाना नहीं था, ऐसे में वह ऊषा को कहां ले जाता.

ऊषा बिहार के एक छोटे से गांव में अकेली रहती थी. वह इस उम्मीद में पति की याद में दिन बिता रही थी कि कभी तो प्रकाश उसे मुंबई ले जाएगा.

प्रकाश के आते ही ऊषा मानो जी उठी. एक साल बाद पति से मिल कर वह ताजा गुलाब सी खिल गई.

प्रकाश महीनेभर की छुट्टी ले कर आया था, पर कुछ ही दिनों में उस की तबीयत बिगड़ने लगी. सरकारी अस्पताल में सारे टैस्ट कराने पर पता चला कि प्रकाश को एड्स है. इस खबर से दोनों पतिपत्नी पर मानो आसमान टूट पड़ा.

प्रकाश ने ऊषा से माफी मांगते हुए कहा, “मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुंबई में मैं अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और 1-2 बार रैड लाइट एरिया की धंधे वालियों से मुलाकात का यह नतीजा है. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

ऊषा के ऊपर दर्द का पहाड़ सा गिरा. नफरत, दुख और दर्द से उस का मन तड़प उठा, पर आखिर पति था, लिहाजा उसे माफ कर दिया. जो होना था, वह तो हो चुका, अब वह हालात को बदल तो नहीं सकती.

आहिस्ताआहिस्ता प्रकाश सूख कर कांटा हो गया. ऊषा ने बचाबचा कर जो थोड़ीबहुत पूंजी जमा की थी वह सारी प्रकाश के इलाज में लगा दी, लेकिन कोई दवा काम न आई और एक दिन प्रकाश ऊषा को इस दुनिया में अकेली छोड़ कर चल बसा.

इस बेरहम दुनिया में ऊषा अकेली रह गई. आज तक तो मांग का सिंदूर उस की हिफाजत करता था, पर अब उस की सूनी मांग मानो गांव में सब की जागीर हो गई. ऊपर से कमाने वाला भी चला गया. अब अकेली जान को भी दो वक्त की रोटी भी तो चाहिए, लिहाजा वह गांव के मुखिया के घर काम मांगने गई.

ऊषा को देख कर मुखिया की आंखों में हवस के सांप लोटने लगे और अबला, लाचार सी ऊषा के ऊपर वह किसी भेड़िए की तरह टूट पड़ा.

बेबस ऊषा यह जुल्म सह तो गई, पर आज मुखिया ने उस के मन में मर्द जात के प्रति नफरत का एक बीज बो दिया था. अब तो हर कोई उस की देह का पुजारी बन बैठा था. किसकिस से बचती वह…

ऊषा आसपास के शहर में बने बड़े बंगलों में जा कर झाड़ूपोंछा और बरतन धोने का काम कर के अपना गुजारा करती थी, पर कुछ ही दिनों में प्रकाश से मिला प्यार का तोहफा ऊषा के शरीर को दीमक की तरह खोखला करने लगा, क्योंकि उसे भी एड्स की जानलेवा बीमारी हो गई थी.

अस्पताल में टैस्ट कराने पर इस बीमारी का पता चला, पर ऊषा खुश थी कि इस दरिंदगी भरी दुनिया से डरती, बिलखती वह जी तो रही थी, लेकिन सोच रही थी कि ऐसी जिंदगी से तो बेहतर है कि उसे मौत आ जाए.

एक दिन ऊषा काम से घर लौट रही थी कि रास्ते में 2 गुंडों ने उसे घेर लिया और पास के खंडहर में घसीटते हुए ले जा कर उस की इज्जत एक बार और तारतार कर दी.

अब ऊषा ने ठान लिया कि जब मर्दों की फितरत यही है तो यही सही, अब वह देह तो देगी, साथ में एकएक को यह बीमारी भी देगी.

अब ऊषा अपने जिस्म की दुकान खोल कर बैठ गई. हर रोज लाइन लगती थी जिस्म के भूखे दरिंदों की. ऊषा को पैसे भी मिलते थे और उस का मकसद भी पूरा होता था.

ऊषा की झोंपड़ी के सामने ही एक मंदिर था, जिस का पुजारी रोज ऊषा को नफरत या दया के भाव से देखता था, पर ऊषा हमेशा उस पुजारी को हाथ जोड़ कर नमस्ते करती थी.

इस इज्जत की वजह से वह पुजारी ऊषा की जवानी को पाने की ललक होते हुए भी पहल नहीं कर पाता था, पर एक दिन उस पुजारी का सब्र जवाब दे गया और उस ने आधी रात को ऊषा की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया.

ऊषा ने दरवाजा खोल कर पूछा, “पुजारीजी, आप यहां?”

पुजारी ने कहा, “पुजारी हूं तो क्या हुआ, हूं तो मैं भी इनसान ही न. तन की आग मुझे भी जलाती है. थोड़ी खुशी मुझे भी दे दो, बदले में जितना चाहे पैसा ले लो. पर गांव में किसी को पता न चले, आखिर लोगों की मेरे ऊपर श्रद्धा जो है.”

ऊषा के दिल में नफरत का सैलाब उठा. खुद ऊपर वाले का तथाकथित सेवक भी औरत देह का भूखा है और साथ ही यह भी चाहता है कि उस का पाप दबा रहे. पुजारी क्या ऊषा की देह को दागदार करता, ऊषा ने ही उसे बीमारी का तोहफा दे दिया.

कुछ ही दिनों में सब से पहले मुखिया के शरीर में एड्स कहर ढाने लगा. वह आगबबूला हो कर सीधा ऊषा की झोंपड़ी में घुस कर गालीगलौज करने लगा और चिल्लाचिल्ला कर कहने लगा, “सुनो गांव वालो, यह एक चरित्रहीन औरत है. इसे यहां रहने का कोई हक नहीं है. यह गांव के लड़कों को खा जाएगी. अगर अपने बेटों की सलामती चाहते हो तो इस औरत को पत्थर मारमार कर गांव से बाहर निकाल दो.”

यह सुन कर सारा गांव वहां जमा हो गया और सब ऊषा की झोंपड़ी पर पत्थर मारने लगे. ऊषा भी अब रणचंडी बन कर घर में रखी कुल्हाड़ी ले कर बाहर निकली और दहाड़ते हुए बोली, “खबरदार, अगर किसी ने मेरी तरफ पत्थर फेंका तो चीर कर रख दूंगी.

“हां हूं मैं चरित्रहीन, पर मुझे चरित्रहीन बनाया किस ने? मुखिया, पहले तू अपने गरीबान में झांक कर देख. पहली बार मेरे तन को दाग तू ने ही तो लगाया था, तो मैं अकेली चरित्रहीन कैसे कहलाऊंगी? सब से बड़ा चरित्रहीन तो तू है.

“यहां पर जमा हुए बहुत से नामर्द भी चरित्रहीन हैं, तो मेरे साथ पूरा गांव भी तो चरित्रहीन कहलाएगा. और एक बात कान खोल कर सुन लो कि मुझे एड्स नाम का गुप्त रोग है और सब से पहले इस मुखिया को मैं ने दान दी यह बीमारी. इसी वजह से यह अब उछलउछल कर सब को भड़का रहा है.”

ऊषा की यह बात सुन कर पुजारी का दिल बैठ गया, फिर वह भी अपनी भड़ास निकालते हुए गांव वालों को भड़काने आगे आ गया और बोला, “सही कहा मुखियाजी ने, ऐसी औरतों को गांव में रहने का कोई हक नहीं है.”

ऊषा ने आंखें तरेरते हुए कहा, “पुजारीजी, इन अनपढ़, गंवारों की ओछी सोच तो समझ में आ सकती है, पर आप जैसे ज्ञानी और ऊपर वाले के सेवक ने भी मुझे इनसान न समझ कर एक भोगने की चीज ही समझा न?

“सुनो, इस पुजारी की असलियत. इस ने भी कई बार आधी रात को मेरा दरवाजा खटखटा कर अपना मुंह काला कराया है. सब से बड़ा चरित्रहीन तो यह पुजारी है, जिस ने खुद ऊपर वाले को भी धोखा दिया है.

“और हां, जिसजिस ने मेरे साथ जिस्मानी रिश्ता बनाया है, वे सब पहले अस्पताल पहुंचो, फिर इस चरित्रहीन औरत का हिसाब करने आना.”

इतना सुनते ही ज्यादातर मर्द वहां से भागे. ऊषा ने मुखिया और पुजारी से कहा, “कोई औरत अपनी मरजी से चरित्रहीन नहीं बनती, बल्कि उस के पीछे कहीं न कहीं किसी मर्द का ही हाथ होता है.

“बेबस, लाचार, अबला के सिर पर कोई पल्लू डालने की नहीं सोचता, हर एक को औरत के सीने के भीतर लटक रहा मांस का टुकड़ा ललचाता है. आज के बाद किसी अबला को रौंदने से पहले सौ बार सोचना.”

पुजारी और मुखिया दोनों शर्मिंदा थे. पुजारी ने कहा, “आज मेरी आंखें खुल गई हैं. मैं बहुत शर्मिंदा हूं. डूब तो हम सब को मरना चाहिए. तुम ने बिलकुल सही कहा कि अगर मर्द जात अपनी हवस को काबू में रख कर अपनी हद में रहे तो कोई औरत कभी चरित्रहीन नहीं बनेगी.”

पुजारी के इतना कहते ही वहां जमा इक्कादुक्का लोग भी चले गए. ऊषा ने अपनी झोंपड़ी का दरवाजा बंद कर लिया और बक्से में से नींद की गोलियों की शीशी निकाल कर सारी की सारी गोलियां निगल गई.

अगली सुबह एक चरित्रहीन औरत की श्मशान यात्रा में पूरा गांव तो उमड़ा, पर सब से पहले मुखिया और पुजारी ने उस की अर्थी को कंधा दिया. उन नकारों के मुंह से ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज सुनते ही ऊषा के बेजान होंठ भी मानो हंस दिए.

राहें जुदा जुदा : संबंधों की अनसुलझी कहानी

‘‘निशा….’’ मयंक ने आवाज दी. निशा एक शौपिंग मौल के बाहर खड़ी थी, तभी मयंक की निगाह उस पर पड़ी. निशा ने शायद सुना नहीं था, वह उसी प्रकार बिना किसी प्रतिक्रिया के खड़ी रही. ‘निशा…’ अब मयंक निशा के एकदम ही निकट आ चुका था. निशा ने पलट कर देखा तो भौचक्की हो गई. वैसे भी बेंगलुरु में इस नाम से उसे कोई पुकारता भी नहीं था. यहां तो वह मिसेज निशा वशिष्ठ थी. तो क्या यह कोई पुराना जानने वाला है. वह सोचने को मजबूर हो गई. लेकिन फौरन ही उस ने पहचान लिया. अरे, यह तो मयंक है पर यहां कैसे?

‘मयंक, तुम?’ उस ने कहना चाहा पर स्तब्ध खड़ी ही रही, जबान तालू से चिपक गई थी. स्तब्ध तो मयंक भी था. वैसे भी, जब हम किसी प्रिय को बहुत वर्षों बाद अनापेक्षित देखते हैं तो स्तब्धता आ ही जाती है. दोनों एकदूसरे के आमनेसामने खड़े थे. उन के मध्य एक शून्य पसरा पड़ा था. उन के कानों में किसी की भी आवाज नहीं सुनाई दे रही थी. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पूरा ब्रह्मांड ही थम गया हो, धरती स्थिर हो गई हो. दोनों ही अपलक एकदूसरे को निहार रहे थे. तभी ‘एक्सक्यूज मी,’ कहते हुए एक व्यक्ति दोनों के बीच से उन्हें घूरता हुआ निकल गया. उन की निस्तब्धता भंग हो गई. दोनों ही वर्तमान में लौट आए.

‘‘क्यों, कैसी लग रही हूं?’’ निशा ने थोड़ा मुसकराते हुए नटखटपने से कहा.

अब मयंक थोड़ा सकुंचित हो गया. फिर अपने को संभाल कर बोला, ‘‘यहीं खड़ेखड़े सारी बातें करेंगे या कहीं बैठेंगे भी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, चलो इस मौल में एक रैस्टोरैंट है, वहीं चल कर बैठते हैं.’’ और मयंक को ले कर निशा अंदर चली गई. दोनों एक कौर्नर की टेबल पर बैठ गए. धूमिल अंधेरा छाया हुआ था. मंदमंद संगीत बज रहा था. वेटर को मयंक ने 2 कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम का और्डर दिया.

‘‘तुम्हें अभी भी मेरी पसंदनापंसद याद है,’’ निशा ने तनिक मुसकराते हुए कहा.

‘‘याद की क्या बात है, याद तो उसे किया जाता है जिसे भूल जाया जाए. मैं अब भी वहीं खड़ा हूं निशा, जहां तुम मुझे छोड़ कर गई थीं,’’ मयंक का स्वर दिल की गहराइयों से आता प्रतीत हो रहा था. निशा ने उस स्वर की आर्द्रता को महसूस किया किंतु तुरंत संभल गई और एकदम ही वर्षों से बिछड़े हुए मित्रों के चोले में आ गई.

‘‘और सुनाओ मयंक, कैसे हो? कितने वर्षों बाद हम मिल रहे हैं. तुम्हारा सैमिनार कब तक चलेगा. और हां, तुम्हारी पत्नी तथा बच्चे कैसे हैं?’’ निशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘उफ, निशा थोड़ी सांस तो ले लो, लगातार बोलने वाली तुम्हारी आदत अभी तक गई नहीं,’’ मयंक ने निशा को चुप कराते हुए कहा.

‘‘अच्छा बाबा, अब कुछ नही बोलूंगी, अब तुम बोलोगे और मैं सुनूंगी,’’ निशा ने उसी नटखटपने से कहा.

मयंक देख रहा था आज 25 वर्षों बाद दोनों मिल रहे थे. उम्र बढ़ चली थी दोनों की पर 45 वर्ष की उम्र में भी निशा के चुलबुलेपन में कोई भी कमी नहीं आई थी जबकि मयंक पर अधेड़ होने की झलक स्पष्ट दिख रही थी. वह शांत दिखने का प्रयास कर रहा था किंतु उस के मन में उथलपुथल मची हुई थी. वह बहुतकुछ पूछना चाह रहा था. बहुतकुछ कहना चाह रहा था. पर जबान रुक सी गई थी.

शायद निशा ने उस के मनोभावों को पढ़ लिया था, संयत स्वर में बोली, ‘‘क्या हुआ मयंक, चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो.’’

‘‘अ…हां,’’ मयंक जैसे सोते से जागा, ‘‘निशा, तुम बताओ क्या हालचाल हैं तुम्हारे पति व बच्चे कैसे हैं? तुम खुश तो हो न?’’

निशा थोड़ी अनमनी सी हो गई, उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मयंक के प्रश्नों का क्या उत्तर दे. फिर अपने को स्थिर कर के बोली, ‘‘हां मयंक, मैं बहुत खुश हूं. आदित्य को पतिरूप में पा कर मैं धन्य हो गई. बेंगलुरु के एक प्रतिष्ठित, संपन्न परिवार के इकलौते पुत्र की वधू होने के कारण मेरी जिंदगी में चारचांद लग गए थे. मेरे ससुर का साउथ सिल्क की साडि़यों का एक्सपोर्ट का व्यवसाय था. कांजीवरम, साउथ सिल्क, साउथ कौटन, बेंगलौरी सिल्क मुख्य थे. एमबीए कर के आदित्य भी उसी व्यवसाय को संभालने लगे. जब मैं ससुराल में आई तो बड़ा ही लाड़दुलार मिला. सासससुर की इकलौती बहू थी, उन की आंखों का तारा थी.’

‘‘विवाह के 15 दिनों बाद मुझे थोड़ाथोड़ा चक्कर आने लगा था और जब मुझे पहली उलटी हुई तो मेरी सासूमां ने मुझे डाक्टर को दिखाया. कुछ परीक्षणों के बाद डाक्टर ने कहा, ‘खुशखबरी है मांजी, आप दादी बनने वाली हैं. पूरे घर में उत्सव का सा माहौल छा गया था. सासूमां खुशी से फूली नहीं समा रही थीं. बस, आदित्य ही थोड़े चुपचुप से थे. रात्रि में मुझ से बोले,’ ‘निशा, मैं तुम्हारा हृदय से आभारी हूं.’

‘क्यों.’ मैं चौंक उठी.

‘क्योंकि तुम ने मेरी इज्जत रख ली. अब मैं भी पिता बन सकूंगा. कोई मुझे भी पापा कहेगा,’ आदित्य ने शांत स्वर में कहा.

‘‘मैं अपराधबोध से दबी जा रही थी क्योंकि यह बच्चा तुम्हारा ही था. आदित्य का इस में कोई भी अंश नहीं था. फिर भी मैं चुप रही. आदित्य ने तनिक रुंधी हुई आवाज में कहा, ‘निशा, मैं एक अधूरा पुरुष हूं. जब 20 साल का था तो पता चला मैं संतानोत्पत्ति में अक्षम हूं, जब दोस्त लोग लड़की के पास ले गए, अवसर तो मिला था पर उस से वहां पर कुछ ज्यादा नहीं हो सका. नहीं समझ पाता हूं कि नियति ने मेरे साथ यह गंदा मजाक क्यों किया? मांपापा को यदि यह बात पता चलती तो वे लोग जीतेजी मर जाते और मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था. मुझ पर विवाह के लिए दबाव पड़ने लगा और मैं कुछ भी कह सकने में असमर्थ था. सोचता था, मेरी पत्नी के प्रति यह मेरा अन्याय होगा और मैं निरंतर हीनता का शिकार हो रहा था.

‘मैं ने निर्णय ले लिया था कि मैं विवाह नहीं करूंगा किंतु मातापिता पर पंडेपुजारी दबाव डाल रहे थे. उन्हें क्या पता था कि उन का बेटा उन की मनोकामना पूर्र्ण करने में असमर्थ है. और फिर मैं ने उन की इच्छा का सम्मान करते हुए विवाह के लिए हां कर दी. सोचा था कि घरवालों का तो मुंह बंद हो जाएगा. अपनी पत्नी से कुछ भी नहीं छिपाऊंगा. यदि उसे मुझ से नफरत होगी तो उसे मैं आजाद कर दूंगा. जब तुम पत्नी बन कर आई तब मुझे बहुत अच्छी लगी. तुम्हारे रूप और भोलेपन पर मैं मर मिटा.

‘हिम्मत जुटा रहा था कि तुम्हें इस कटु सत्य से अवगत करा दूं किंतु मौका ही न मिला और जब मुझे पता चला कि तुम गर्भवती हो तो मैं समझ गया कि यह शिशु विवाह के कुछ ही समय पूर्व तुम्हारे गर्भ में आया है. अवश्य ही तुम्हारा किसी अन्य से संबंध रहा होगा. जो भी रहा हो, यह बच्चा मुझे स्वीकार्य है.’ कह कर आदित्य चुप हो गए और मैं यह सोचने पर बाध्य हो गई कि मैं आदित्य की अपराधिनी हूं या उन की खुशियों का स्रोत हूं. ये किस प्रकार के इंसान हैं जिन्हें जरा भी क्रोध नहीं आया. किसी परपुरुष के बच्चे को सहर्ष अपनाने को तैयार हैं. शायद क्षणिक आवेग में किए गए मेरे पाप की यह सजा थी जो मुझे अनायास ही विधाता ने दे दी थी और मेरा सिर उन के समक्ष श्रद्धा से झुक गया.

‘‘9 माह बाद प्रसून का जन्म हुआ. आदित्य ने ही प्रसून नाम रखा था. ठीक भी था, सूर्य की किरणें पड़ते ही फूल खिल उठते हैं, उसी प्रकार आदित्य को देखते ही प्रसून खिल उठता था. हर समय वे उसे अपने सीने से लगाए रखते थे. रात्रि में यदि मैं सो जाती थी तो भी वे प्रसून की एक आहट पर जाग जाते थे. उस की नैपी बदलते थे. मुझ से कहते थे, ‘मैं प्रसून को एयरफोर्स में भेजूंगा, मेरा बेटा बहुत नाम कमाएगा.’

‘‘मेरे दिल में आदित्य के लिए सम्मान बढ़ता जा रहा था, देखतेदखते 15 वर्ष बीत चुके थे. मैं खुश थी जो आदित्य मुझे पतिरूप में मिले. लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था. अकस्मात एक दिन एक ट्रक से उन की गाड़ी टकराई और उन की मौके पर ही मौत हो गई. तब प्रसून 14 वर्ष का था.’’

मयंक निशब्द निशा की जीवनगाथा सुन रहा था. कुछ बोलने या पूछने की गुंजाइश ही नहीं रह गई थी. क्षणिक मौन के बाद निशा फिर बोली, ‘‘आज मैं अपने बेटे के साथ अपने ससुर का व्यवसाय संभाल रही हूं. प्रसून एयरफोर्स में जाना नहीं चाहता था, अब वह 25 वर्ष का होने वाला है. उस ने एमबीए किया और अपने पुश्तैनी व्यवसाय में मेरा हाथ बंटा रहा है या यों कहो कि अब सबकुछ वही संभाल रहा है.’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मयंक ने मुंह खोला, ‘‘निशा, तुम्हें अतीत की कोई बात याद है?’’

‘‘हां, मयंक, सबकुछ याद है जब तुम ने मेरे नाम का मतलब पूछा था और मैं ने अपने नाम का अर्थ तुम्हें बताया, ‘निशा का अर्र्थ है रात्रि.’ तुम मेरे नाम का मजाक बनाने लगे तब मैं ने तुम से पूछा, ‘आप को अपने नाम का अर्थ पता है?’

‘‘तुम ने बड़े गर्व से कहा, ‘हांहां, क्यों नहीं, मेरा नाम मयंक है जिस का अर्थ है चंद्रमा, जिस की चांदनी सब को शीतलता प्रदान करती है’ बोलो याद है न?’’ निशा ने भी मयंक से प्रश्न किया.

मयंक थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘और तुम ने कहा था, ‘मयंक जी, निशा है तभी तो चंद्रमा का अस्तित्व है, वरना चांद नजर ही कहां आएगा.’ अच्छा निशा, तुम्हें वह रात याद है जब मैं तुम्हारे बुलाने पर तुम्हारे घर आया था. हमारे बीच संयम की सब दीवारें टूट चुकी थीं.’’ मयंक निशा को अतीत में भटका रहा था.

‘‘हां,’’ तभी निशा बोल पड़ी, ‘‘प्रसून उस रात्रि का ही प्रतीक है. लेकिन मयंक, अब इन बातों का क्या फायदा? इस से तो मेरी 25 वर्षों की तपस्या भंग हो जाएगी. और वैसे भी, अतीत को वर्तमान में बदलने का प्रयास न ही करो तो बेहतर होगा क्योंकि तब हम न वर्तमान के होंगे, न अतीत के, एक त्रिशंकु बन कर रह जाएंगे. मैं उस अतीत को अब याद भी नहीं करना चाहती हूं जिस से हमारा आज और हमारे अपनों का जीवन प्रभावित हो. और हां मयंक, अब मुझ से दोबारा मिलने का प्रयास मत करना.’’

‘‘क्यों निशा, ऐसा क्यों कह रही हो?’’ मयंक विचलित हो उठा.

‘‘क्योंकि तुम अपने परिवार के प्रति ही समर्पित रहो, तभी ठीक होगा. मुझे नहीं पता तुम्हारा जीवन कैसा चल रहा है पर इतना जरूर समझती हूं कि तुम्हें पा कर तुम्हारी पत्नी बहुत खुश होगी,’’ कह कर निशा उठ खड़ी हुई.

मयंक उठते हुए बोला, ‘‘मैं एक बार अपने बेटे को देखना चाहता हूं.’’

‘‘तुम्हारा बेटा? नहीं मयंक, वह आदित्य का बेटा है. यही सत्य है, और प्रसून अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता है. वह तुम्हारा ही प्रतिरूप है, यह एक कटु सत्य है और इसे नकारा भी नहीं जा सकता किंतु मातृत्व के जिस बीज का रोपण तुम ने किया उस को पल्लवित तथा पुष्पित तो आदित्य ने ही किया. यदि वे मुझे मां नहीं बना सकते थे, तो क्या हुआ, यद्यपि वे खुद को एक अधूरा पुरुष मानते थे पर मेरे लिए तो वे परिपूर्ण थे. एक आदर्श पति की जीवनसंगिनी बन कर मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं. मेरे अपराध को उन्होंने अपराध नहीं माना, इसलिए वे मेरी दृष्टि में सचमुच ही महान हैं.

‘‘प्रसून तुम्हारा अंश है, यह बात हम दोनों ही भूल जाएं तो ही अच्छा रहेगा. तुम्हें देख कर वह टूट जाएगा, मुझे कलंकिनी समझेगा. हजारों प्रश्न करेगा जिन का कोई भी उत्तर शायद मैं न दे सकूंगी. अपने पिता को अधूरा इंसान समझेगा. युवा है, हो  सकता है कोई गलत कदम ही उठा ले. हमारा हंसताखेलता संसार बिखर जाएगा और मैं भी कलंक के इस विष को नहीं पी सकूंगी. तुम्हें वह गीत याद है न ‘मंजिल वही है प्यार की, राही बदल गए…’

‘‘भूल जाओ कि कभी हम दो जिस्म एक जान थे, एक साथ जीनेमरने का वादा किया था. उन सब के अब कोई माने नहीं है. आज से हमारी तुम्हारी राहें जुदाजुदा हैं. हमारा आज का मिलना एक इत्तफाक है किंतु अब यह इत्तफाक दोबारा नहीं होना चाहिए,’’ कह कर उस ने अपना पर्स उठाया और रैस्टोरैंट के गेट की ओर बढ़ चली. तभी मयंक बोल उठा, ‘‘निशा…एक बात और सुनती जाओ.’’ निशा ठिठक गई.

‘‘मैं ने विवाह नहीं किया है, यह जीवन तुम्हारे ही नाम कर रखा है.’’ और वह रैस्टोरैंट से बाहर आ गया. निशा थोड़ी देर चुप खड़ी रही, फिर किसी अपरिचित की भांति रैस्टोरैंट से बाहर आ गई और दोनों 2 विपरीत दिशाओं की ओर मुड़ गए.

चलतेचलते निशा ने अंत में कहा, ‘‘मयंक, इतने जज्बाती न बनो. अगर कोई मिले तो विवाह कर लेना, मुझे शादी का कार्ड भेज देना ताकि मैं सुकून से जी सकूं.’’

थप्पड़: मामू ने अदीबा के साथ क्या किया?

शाम ढलने को थी. इक्कादुक्का दुकानों में बिजली के बल्ब रोशन होने लगे थे. ऊन का आखिरी सिरा हाथ में आते ही अदीबा को धक्का सा लगा कि पता नहीं अब इस रंग की ऊन का गोला मिलेगा कि नहीं.

अदीबा ने कमरे की बत्ती जलाई और अपनी अम्मी को बता कर झटपट ऊन का गोला खरीदने निकल पड़ी.

जातेजाते अदीबा बोली, “अम्मी, ऊन खत्म हो गई है, लाने जा रही हूं, कहीं दुकान बंद न हो जाए.”

अम्मी ने कहा, “अच्छा, जा, पर जल्दी लौट आना, रात होने वाली है.”

लेकिन यह क्या. जहां सिर्फ दुकान जाने में ही आधा घंटा लगता है, वहां से ऊन खरीद कर आधा घंटा से पहले ही अदीबा वापस आ गई… यह कैसे?

मां ने बेटी के चेहरे को गौर से देखा. बेटी का चेहरा धुआंधुआं सा था और उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं.

“क्या हुआ अदीबा, ऊन नहीं लाई?”

अदीबा ने रोते हुए अपनी अम्मी को जो आपबीती सुनाई तो अम्मी के होश उड़ गए.

अदीबा की आपबीती सुन कर अम्मी गुस्से से आगबबूला हो उठीं और उस नामुराद आदमी को तरहतरह की गालियां देने लगीं.

कुछ देर बाद जब अम्मी का गुस्सा ठंडा हुआ, तो उन्होंने कहना शुरू किया, “अब तुझे क्या बताऊं बेटी, यह मर्द जात होती ही ऐसी है. उन की नजरों में औरत का जिस्म बस मर्द की प्यास बुझाने का जरीया होता है.

“मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है. वह भी एक दफा नहीं, बल्कि कईकई दफा,”
इतना कह कर अम्मी अपने पुराने दिनों के काले पन्ने पलटने लगीं…

अम्मी ने अदीबा को बताया, “जब मैं 5वीं जमात में थी, तब एक दिन मदरसे के मौलवी साहब ने मुझे अपने पास बुलाया और अपनी गोद में बिठा कर वे मेरे सीने पर हाथ फेरने लगे. वे अपना हाथ चलाते रहे और मुझे बहलाते रहे.

“मैं मासूम थी, इसलिए उन की इस गंदी हरकत को समझ न सकी. उन की इस गलत हरकत की वजह से मेरा सीना दर्द करने लगा था…”

हैरान अदीबा ने पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

“उस जमाने में गलत और सही छूने का पता तो बड़े लोगों को भी ज्यादा नही था, मैं तो भला बच्ची थी. बहरहाल, छुट्टी मिलते ही मैं रोते हुए घर गई और अपनी अम्मी से सबकुछ साफसाफ बता दिया.

“फिर क्या था… अब्बू ने न सिर्फ मौलवी साहब की जबरदस्त पिटाई की, बल्कि उन्हें मदरसे से बाहर भी निकलवा दिया.

“इसी तरह एक बार, एक दिन मेरे दूर के रिश्ते के मामू अपनी 5 साल की बेटी के साथ हमारे घर मेहमान बन कर आए. वे तोहफे में ढेर सारी मिठाइयां और फल लाए थे.

“अपने रिश्ते के भाई की खातिरदारी में मेरी अम्मी ने मटन बिरयानी और चिकन कोरमा बनाया था. सब ने खुश हो कर खाया.

“अरसे बाद मिले भाईबहन अपने पुराने दिनों को याद करते रहे और मैं मामू की बेटी के साथ देर रात तक उछलकूद करती रही…”

यह बतातेबताते जब अदीबा की अम्मी सांस लेने के लिए ठहरीं, तो अदीबा ने बेसब्री से पूछा, “फिर क्या हुआ अम्मी?”

अम्मी ने कहना जारी रखा, “जैसे कि हर बच्चा आने वाले मेहमान के बच्चों के साथ सोना पसंद करता है, वैसा ही मैं ने भी किया और अपनी हमउम्र दोस्त के साथ मामू के बिस्तर पर ही सो गई.

“रात के किसी पहर में मेरी नींद तब खुली, जब मुझे एहसास हुआ कि मेरे तथाकथित मामू मेरी सलवार की डोरी खोल रहे हैं.

“मेरा हाथ फौरन सलवार की डोरी पर चला गया. डोरी खुल चुकी थी. मेरा हाथ अपने हाथ से टकराते ही तथाकथित मामू ने अपना हाथ तेजी से खींच लिया. मैं डर गई और जोरजोर से चिल्लाने लगी.

“यह चिल्लाना सुन कर मेरी अम्मी अपने कमरे से भागीभागी आईं और दरवाजा पीटने लगीं.

“तथाकथित मामू ने उठ कर दरवाजा खोला और अम्मी को देखते ही कहा, ‘अदीबा सपने में बड़बड़ा रही है…’

“अम्मी फौरन हालात की नजाकत भांप गईं और मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ ले चलीं. एक हाथ से सलवार पकड़े मैं थरथर कांपती उन के साथ चल पड़ी. इस बीच उन मामू की बेटी भी जाग चुकी थी और सारा तमाशा हैरत से देख रही थी.

“उस हादसे के बाद से हमेशाहमेशा के लिए उन तथाकथित मामू से हमारे परिवार का रिश्ता खत्म हो गया.”

अदीबा ने जोश में कहा, “अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ. ऐसे गंदे लोग रिश्तेदार के नाम पर बदनुमा दाग होते हैं.”

अम्मी जब यादों के झरोखों से वापस लौटीं, तो फिर कहने लगीं, “छोड़ो, अब इस किस्से को यहीं दफन करो वरना जितने मुंह उतनी बातें होंगी. लड़कियां सफेद चादर की तरह होती हैं, जिन पर दाग बहुत जल्दी लग जाते हैं, जो छुड़ाने से भी नहीं छूटते, इसलिए भूल कर भी किसी से इस बात का जिक्र मत करना.”

दरअसल, ऊन खरीदने के लिए जाते समय रास्ते में अदीबा को दूर के एक रिश्तेदार मिल गए थे. वे बातें करते हुए साथसाथ चलने लगे और चंद मिनटों में ही कुछ ज्यादा ही करीब होने की कोशिश करने लगे. अदीबा फासला बढ़ा कर चलना चाहती और वे फासला घटा कर चलना चाहते.

पहले तो वे अदीबा के साथ सलीके से बातचीत करते रहे, लेकिन जैसे ही गली में अंधेरा मिला, तो वे अपनी असलियत पर उतर आए.

उन का हाथ बारबार किसी न किसी बहाने अदीबा के सीने को छूने लगा. अदीबा उन की नीयत भांप गई, फिर बिना लिहाज के एक जोरदार थप्पड़ उन के चेहरे पर रसीद कर दिया कि वे बिलबिला उठे.

इस के बाद अदीबा ऊन का गोला खरीदने का इरादा छोड़ कर बीच रास्ते से ही घर वापस लौट आई.

बड़े मियां इस अचानक होने वाले हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. उन के कानों में अचानक सीटियां सी बजने लगीं और आंखों के सामने गोलगोल तारे नाचने लगे. उन्होंने बिना इधरउधर देखे सामने वाली पतली गली से निकलना मुनासिब समझा.

यही वजह थी कि अदीबा जब घर में दाखिल हुई, तो उस का चेहरा धुआंधुआं था और सांसें तेजतेज चल रही थीं.

बहरहाल, इस तरह मांबेटी की बातचीत में कई परतें और कई गांठें खुलती चली गईं.

ऐसा कोई सगा नहीं : संतोषीलाल का परिवार क्यां फूला नहीं समाया

संतोषीलाल के घर पर आज उत्सव का सा माहौल था. हो भी क्यों न, एक साधारण परिवार की एकलौती लड़की को उन के समाज के जानेमाने और लगातार 4 बार विधानसभा चुनाव जीत कर इतिहास रचने वाले बबलूराम ने अपने एकलौते बेटे के लिए पसंद जो किया है. बबलूराम खुद चल कर शादी का प्रस्ताव लाए हैं.

इतने बड़े घर में संबंध होने की बात से संतोषीलाल का परिवार फूला नहीं समा रहा था.

चूंकि 2 साल पहले ही बबलूराम की पत्नी की मौत हो चुकी थी, इसलिए घर में सासननद नाम का कोई झंझट नहीं था. यह दूसरी बड़ी बात थी. यह भी तय ही था कि शादी के बाद उन की लड़की गोपी ही घर की सर्वेसर्वा रहेगी. ऐसे प्रस्ताव को नकारना बेवकूफी ही होगी.

बबलूराम पर कई हत्याओं के आरोप थे और विरोधी भी उन के करैक्टर पर उंगलियां उठाते रहते थे, पर संतोषीलाल ने अपने घर वालों का मुंह यह कह कर बंद कर दिया था, ‘‘देखो, राजनीति में विरोधियों का काम ही आरोप लगाना है. ऐसा कोई नेता नहीं, जिस पर आरोप न लगे हों. अभी कोर्ट में भी कुछ साबित नहीं हुआ है.

‘‘हो सकता है कि बबलूराम ने आगे बढ़ने के लिए कुछ गलत किया हो, पर हम शादी तो उन के एकलौते लड़के दीपक से कर रहे हैं, जिस का राजनीति से दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं है. वह अपनी फैक्टरी चलाता है और उस का राजनीति में आने का अभी कोई इरादा भी नहीं है.

‘‘फैक्टरी से अच्छीखासी आमदनी हो जाती है. अगर कल को बबलूराम को सजा हो भी जाती है तो भी गोपी महफूज रहेगी.’’

गोपी 19 साल की एक खूबसूरत लड़की थी जो कालेज के आखिरी साल का इम्तिहान दे रही थी.

एक शादी समारोह में अच्छी तरह से सजीसंवरी गोपी बेहद ही आकर्षक लग रही थी, वहीं पर बबलूराम ने गोपी को देखा और अपने बेटे दीपक के लिए चुन लिया था.

दीपक की उम्र भी 24 साल है. बबलूराम ने अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा के बल पर उस के लिए एक फैक्टरी डलवा दी है जो अच्छीखासी चलती है. उस शादी में दीपक भी था और उसे भी गोपी बहुत अच्छी लगी थी.

बबलूराम ने दीपक की शादी को तड़कभड़क से दूर रखा था. परिवार के अलावा कुछ चुनिंदा लोगों को ही शादी में बुलाया गया था.

शादी होने के साथ ही आए हुए रिश्तेदार भी अपनेअपने घर को चले गए थे. अब घर में वे तीनों ही रह गए थे और कुछ घरेलू नौकर थे, जो समयसमय पर आते थे.

शुरूशुरू में तो गोपी को सब अच्छा लगा, पर जल्दी ही घर पर अकेलापन उसे खलने लगा.

एक दिन गोपी ने दीपक से कहा, ‘‘मैं घर में अकेले बोर हो जाती हूं. क्यों न मैं भी तुम्हारे साथ फैक्टरी चलूं?’’

‘‘अरे नहीं, कारखाने में कई मजदूर हैं और मजदूरों की सोच तो तुम्हें मालूम ही है. मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे बारे में कोई अनापशनाप बोले…’’

दीपक उसे समझाने लगा, ‘‘और वैसे भी पिताजी के आनेजाने का समय तय नहीं है, इसलिए तुम घर पर ही रहो तो बेहतर रहेगा.’’

शादी के 2 साल पूरे होतेहोते गोपी ने एक बेटे को जन्म दे दिया, जिस का नाम राजन रखा गया.

अब गोपी का ज्यादातर समय राजन के साथ ही बीत जाता और उस के बोर होने की शिकायत दूर हो गई.

राजन अब 4 साल का हो गया था और प्रीनर्सरी स्कूल में जाने लगा था.

अब गोपी की पुरानी समस्या फिर से सिर उठाने लगी थी. एक दिन नाश्ते की टेबल पर जब तीनों बैठे थे, तभी गोपी ने दीपक से कहा, ‘‘मुझे भी फैक्टरी ले जाया करो. मैं यहां अकेली घर पर बोर हो जाती हूं.’’

‘‘देखो गोपी, यह मुमकिन नहीं है. मैं तरहतरह के लोगों से मिलता हूं. सभी लोगों से बात करने का लहजा भी अलग होता है. ऐसे में तुम्हारे वहां बैठने से मुझे भी परेशानी होगी और तुम भी सहज नहीं रह पाओगी,’’ दीपक गोपी को समझते हुए बोला.

‘‘तब तो पापाजी आप ही मुझे राजनीति में शामिल करवा लीजिए. इस बहाने कुछ समाजसेवा भी हो जाएगी और मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा…’’ गोपी बबलूराम से अनुरोध करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी आप सीएम के बाद दूसरे नंबर की पोजीशन पर हैं, इसीलिए आप के लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं है.’’

‘‘वह तो ठीक है गोपी, पर राजनीति कई तरह के बलिदान मांगती है. हो सकता है, राजनीति में आने के बाद तुम अपने परिवार… मेरा मतलब है कि दीपक व राजन को पूरा समय न दे पाओ. कभी सुबह जल्दी जाना तो रात में देर से घर आना पड़ सकता है. कई उलटेसीधे काम भी करने पड़ सकते हैं,’’ बबलूराम हंसते हुए बोले.

‘‘अरे पापाजी, घरपरिवार का तो आप को मालूम ही है. दीपक तो महीने में 15 दिन तो टूर पर रहते हैं और मैं घर पर अकेली.

‘‘राजन डे बोर्डिंग में जाता है तो शाम को ही घर आ पाता है. आप खुद भी ज्यादातर बाहर ही रहते हैं, इसलिए मेरे अकेले रहने को तो परिवार नहीं कह सकते न,’’ गोपी बोली.

‘‘पापा ठीक कह रहे हैं गोपी. राजनीति बहुत ज्यादा समर्पण मांगती है,’’ दीपक बोला.

‘‘आप तो रहने ही दो. न फैक्टरी जाने देते हो और न समाजसेवा के लिए राजनीति में. जब तक पापाजी मेरे साथ हैं, मुझे कोई डर नहीं,’’ गोपी बनावटी गुस्से से बोली.

‘‘ठीक है, अगले साल नगरनिगम के चुनाव हैं. हम कोशिश करेंगे कि इस में अच्छा पद पाने की, पर इस के लिए अभी से मेहनत करनी पड़ेगी,’’ बबलूराम बोले.

नाश्ता कर के सभी अपनेअपने कामों में लग गए.

उस शाम बबलूराम जल्दी घर आ गए. तकरीबन 15 मिनट बाद गोपी जब चाय देने के लिए कमरे में गई तो यह देख कर हैरान रह गई कि बबलूराम के कमरे में एक गुप्त अलमारी लगी हुई थी जिस में कई तरह की विदेशी शराब रखी हुई थी.

उसे कमरे में देख कर बबलूराम बोले, ‘‘यह राजनीति का पहला सबक है. एक नेता को अपने चेहरे पर कई चेहरे लगाने पड़ते हैं, इसलिए राजनीति में जो जैसा दिखता है, जैसा बोलता है, वैसा होता नहीं. समझ?’’

‘‘जी, पापाजी,’’ गोपी कुछ घबरा कर बोली.

‘‘अच्छा, ऐसा करो, इस हरे रंग की बोतल में से एक पैग बना कर मुझे दे दो. उस के बाद फ्रिज में से निकाल कर एक क्यूब बर्फ भी डाल दो और चली जाओ. जब दीपक आ जाए तो मुझ भी खाने पर बुला लेना. और हां, राजन आ गया क्या?’’ बबलूराम ने पूछा.

‘‘जी, आ गया वह,’’ कह कर गोपी ने पैग बना कर बबलूराम को दे दिया.

तकरीबन डेढ़ घंटे बाद दीपक फैक्टरी से आ गया और सभी खाने की टेबल पर इकट्ठा हो गए.

बबलूराम दीपक से बोले, ‘‘आज से गोपी की राजनीतिक तालीम शुरू हो गई है. आज मैं ने उसे समझाया है कि राजनीति में हर आदमी के एक से ज्यादा चेहरे होते हैं.’’

यह सुन कर सभी हंस दिए. खाना खाते समय दीपक ने बताया कि उसे परसों पूना निकलना पड़ेगा. फैक्टरी का कुछ काम है, इसलिए एक हफ्ते तक वहीं रुकना पड़ेगा.

तय कार्यक्रम के अनुसार दीपक सुबह जल्दी पूना के लिए निकल गया.

नाश्ता करते समय बबलूराम ने गोपी से कहा, ‘‘आज दोपहर 12 बजे तुम पार्टी दफ्तर आ जाना. मैं तुम्हें यहां का नगर अध्यक्ष बनवा दूंगा, ताकि चुनाव लड़ने में कोई दिक्कत नहीं आए.’’

गोपी समय पर पार्टी दफ्तर पहुंच गई, जहां पर बबलूराम ने उसे पार्टी की महिला मोरचे की अध्यक्ष अपने गुरगों के जरीए बनवा दिया. दिनभर जुलूस व रैली का कार्यक्रम चलता रहा. शाम को गोपी घर आ गई, पर बबलूराम पार्टी दफ्तर में ही रुक गए.

रात तकरीबन 9 बजे तक इंतजार करने के बाद गोपी ने खाना खा लिया. बबलूराम तकरीबन 11 बजे घर लौटे और गोपी की तरफ देख कर बोले, ‘‘अब तो तुम खुश हो न?’’

‘‘जी पापाजी, मैं बहुत खुश हूं. आप के लिए खाना लगा दूं क्या?’’ गोपी ने बडे़ ही अपनेपन से पूछा.

‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है. लेकिन मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है. तुम थोड़ी मालिश कर दोगी क्या?’’ बबलूराम ने गोपी से पूछा.

‘‘जी हां, क्यों नहीं,’’ गोपी बोली. ‘‘मैं चेंज कर के आती हूं,’’ गोपी ने गाउन पहन रखा था.

‘‘अरे, नहींनहीं, इस की क्या जरूरत है. 10 मिनट में तो मेरी मालिश हो ही जाएगी. फिर तुम क्यों परेशान होती हो. आ जाओ ऐसे ही,’’ बबलूराम ने कहा.

गोपी सकुचाते हुए बबलूराम के कमरे में चली गई.

बबलूराम अपने बैड पर लेट गए और गोपी हलके हाथ से उन की मालिश करने लगी.

धीरेधीरे बबलूराम का सिर गोपी की गोद में आ गया. गोपी समझ कि शायद बबलूराम को नींद लग गई है और ऐसा हो गया है, पर ऐसा नहीं था. यह सबकुछ जानबूझ कर हो रहा था.

धीरेधीरे बबलूराम ने गोपी को अपनी तरफ खींच लिया. गोपी कुछ समझ पाती, उस के पहले ही वह सब हो गया, जो नहीं होना चाहिए था.

सुबह राजन अपने स्कूल चला गया. गोपी अभी अपने कमरे में ही पड़ी हुई थी, तभी बबलूराम उस के कमरे में आए और बोले, ‘‘मैं ने तुम्हें समझाया था कि राजनीति में तुम्हें काफी बलिदान करना पड़ेगा और यह तुम्हारा बलिदान ही है.

‘‘यह भी याद रख लो, इस घटना का जिक्र दीपक या किसी और से किया तो उस आदमी का इस धरती पर वह आखिरी दिन होगा.

‘‘दीपक की मां को भी हम ने ही स्वर्ग में स्थान दिलवाया है, क्योंकि उसे सब पता चल चुका था.

‘‘इस के अलावा जो लोग हमारे विरोध में बोलते थे, उन को भी हम ने ही मुक्ति दिलवाई है. अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम कैसी जिंदगी चाहती हो. सुख से भरी हुई या एक मैली साड़ी वाली घरवाली की.’’

‘‘पर, यह गलत है. और गलत बात एक न एक दिन सामने आ ही जाती है,’’ गोपी रोते हुए बोली.

‘‘पता तो तब चलेगा न, जब हम दोनों में से कोई बताएगा.

‘‘रही बात गलत होने की, तो प्यार, जंग और राजनीति में सबकुछ जायज है. यही तो रहस्य नीति मतलब राजनीति है.

‘‘अगर तुम आगे बढ़ना चाहती हो तो दोपहर 12 बजे पार्टी दफ्तर पहुंच जाना. अपने सपनों को पूरा करने का सुनहरा मौका तुम्हारे सामने है,’’ बबलूराम समझने के अंदाज में धमका कर चले गए.

काफी देर तक रोनेधोने और काफी सोचनेसमझने के बाद गोपी दोपहर 12 बजे पार्टी दफ्तर पहुंच गई.

अगले साल होने वाले नगरनिगम के चुनाव में गोपी को अध्यक्ष पद का टिकट दे दिया गया और बबलूराम ने अपने गुरगों के प्रभाव से उसे अच्छे वोटों से जितवा भी दिया.

बबलूराम की सलाह पर दीपक ने कारखाने में एक मैनेजर रख दिया और वह खुद को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जोड़ने के लिए दुबई चला गया.

अब दीपक 3-4 महीनों के बाद ही घर आ पाता है. राजन को भी दूर के पहाड़ी स्कूल में अच्छी तालीम के लिए भेज दिया गया है.

अब गोपी विधानसभा का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है. उस का प्रमोशन जारी है. अब वह अकसर प्रदेश अध्यक्ष की गाड़ी से देर रात में उतरती है तो बबलूराम उसे एक पैग बना कर पिला देते हैं, ताकि थकान दूर हो जाए.

मुझे यकीन है: गुलशन के ससुराल वाले क्या ताना देते थे ?

पढ़ीलिखी गुलशन की शादी मसजिद के मुअज्जिन हबीब अली के बेटे परवेज अली से धूमधाम से हुई. लड़का कपड़े का कारोबार करता था. घर में जमीनजायदाद सबकुछ था. गुलशन ब्याह कर आई तो पहली रात ही उसे अपने मर्द की असलियत का पता चल गया. बादल गरजे जरूर, पर ठीक से बरस नहीं पाए और जमीन पानी की बूंदों के लिए तरसती रह गई. वलीमा के बाद गुलशन ससुराल दिल में मायूसी का दर्द ले कर लौटी. खानदानी घर की पढ़ीलिखी लड़की होने के बावजूद सीधीसादी गुलशन को एक ऐसे आदमी को सौंप दिया गया, जो सिर्फ चारापानी का इंतजाम तो करता, पर उस का इस्तेमाल नहीं कर पाता था.

गुलशन को एक हफ्ते बाद हबीब अली ससुराल ले कर आए. उस ने सोचा कि अब शायद जिंदगी में बहार आए, पर उस के अरमान अब भी अधूरे ही रहे. मौका पा कर एक रात को गुलशन ने अपने शौहर परवेज को छेड़ा, ‘‘आप अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से क्यों नहीं कराते?’’

‘‘तुम चुपचाप सो जाओ. बहस न करो. समझी?’’ परवेज ने कहा.

गुलशन चुपचाप दूसरी तरफ मुंह कर के अपने अरमानों को दबा कर सो गई. समय बीतता गया. ससुराल से मायके आनेजाने का काम चलता रहा. इस बात को दोनों समझ रहे थे, पर कहते किसी से कुछ नहीं थे. दोनों परिवार उन्हें देखदेख कर खुश होते कि उन के बीच आज तक तूतूमैंमैं नहीं हुई है. इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिस ने गुलशन की जिंदगी बदल दी. मसजिद में एक मौलाना आ कर रुके. उन की बातचीत से मुअज्जिन हबीब अली को ऐसा नशा छाया कि वे उन के मुरीद हो गए. झाड़फूंक व गंडेतावीज दे कर मौलाना ने तमाम लोगों का मन जीत लिया था. वे हबीब अली के घर के एक कमरे में रहने लगे.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी के 2 साल हो गए, पर मुझे दादा बनने का सुख नहीं मिला. कहो तो मौलाना से तावीज डलवा दूं, ताकि इस घर को एक औलाद मिल जाए?’’ हबीब अली ने अपनी बहू गुलशन से कहा. गुलशन समझदार थी. वह ससुर से उन के बेटे की कमी बताने में हिचक रही थी. चूंकि घर में ससुर, बेटे, बहू के सिवा कोई नहीं रहता था, इसलिए वह बोली, ‘‘बाद में देखेंगे अब्बूजी, अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’ हबीब अली ने कुछ नहीं कहा.

मुअज्जिन हबीब अली के घर में रहते मौलाना को 2 महीने बीत गए, पर उन्होंने गुलशन को देखा तक नहीं था. उन के लिए सुबहशाम का खाना खुद हबीब अली लाते थे. दिनभर मौलाना मसजिद में इबादत करते. झाड़फूंक के लिए आने वालों को ले कर वे घर आते, जो मसजिद के करीब था. हबीब अली अपने बेटे परवेज के साथ दुकान में रहते थे. वे सिर्फ नमाज के वक्त घर या मसजिद आते थे. मौलाना की कमाई खूब हो रही थी. इसी बहाने हबीब अली के कपड़ों की बिक्री भी बढ़ गई थी. वे जीजान से मौलाना को चाहते थे और उन की बात नहीं टालते थे. एक दिन दोपहर के वक्त मौलाना घर आए और दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘जी, कौन है?’’ गुलशन ने अंदर से ही पूछा.

‘‘मैं मौलाना… पानी चाहिए.’’

‘‘जी, अभी लाई.’’

गुलशन पानी ले कर जैसे ही दरवाजा खोल कर बाहर निकली, गुलशन के जवां हुस्न को देख कर मौलाना के होश उड़ गए. लाजवाब हुस्न, हिरनी सी आंखें, सफेद संगमरमर सा जिस्म… मौलाना गुलशन को एकटक देखते रहे. वे पानी लेना भूल गए.

‘‘जी पानी,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘लाइए,’’ मौलाना ने मुसकराते हुए कहा.

पानी ले कर मौलाना अपने कमरे में लौट आए, पर दिल गुलशन के कदमों में दे कर. इधर गुलशन के दिल में पहली बार किसी पराए मर्द ने दस्तक दी थी. मौलाना अब कोई न कोई बहाना बना कर गुलशन को आवाज दे कर बुलाने लगे. इधर गुलशन भी राह ताकती कि कब मौलाना उसे आवाज दें. एक दिन पानी देने के बहाने गुलशन का हाथ मौलाना के हाथ से टकरा गया, उस के बाद जिस्म में सनसनी सी फैल गई. मुहब्बत ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था. ऊपरी मन से मौलाना ने कहा, ‘‘सुनो मियां हबीब, मैं कब तक तुम्हारा खाना मुफ्त में खाऊंगा. कल से मेरी जिम्मेदारी सब्जी लाने की. आखिर जैसा वह तुम्हारा बेटा, वैसा मेरा भी बेटा हुआ. उस की बहू मेरी बहू हुई. सोच कर कल तक बताओ, नहीं तो मैं दूसरी जगह जा कर रहूंगा.’’

मुअज्जिन हबीब अली ने सोचा कि अगर मौलाना चले गए, तो इस का असर उन की कमाई पर होगा. जो ग्राहक दुकान पर आ रहे हैं, वे नहीं आएंगे. उन को जो इज्जत मौलाना की वजह से मिल रही है, वह नहीं मिलेगी. इस समय पूरा गांव मौलाना के अंधविश्वास की गिरफ्त में था और वे जबरदस्ती तावीज, गंडे, अंगरेजी दवाओं को पीस कर उस में राख मिला कर इलाज कर रहे थे. हड्डियों को चुपचाप हाथों में रख कर भूतप्रेत निकालने का काम कर रहे थे. बापबेटे दोनों ने मौलाना से घर छोड़ कर न जाने की गुजारिश की. अब मौलाना दिखाऊ ‘बेटाबेटी’ कह कर मुअज्जिन हबीब अली का दिल जीतने की कोशिश करने लगे. नमाज के बाद घर लौटते हुए हबीब अली ने मौलाना से कहा, ‘‘जनाब, आप इसे अपना ही घर समझिए. आप की जैसी मरजी हो वैसे रहें. आज से आप घर पर ही खाना खाएंगे, मुझे गैर न समझें.’’ मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गई. अब वे ज्यादा वक्त घर पर गुजारने लगे. बाहर के मरीजों को जल्दी से तावीज दे कर भेज देते. इस काम में अब गुलशन भी चुपकेचुपके हाथ बंटाने लगी थी.

तकरीबन 6 महीने का समय बीत चुका था. गुलशन और मौलाना के बीच मुहब्बत ने जड़ें जमा ली थीं. एक दिन मौलाना ने सोचा कि आज अच्छा मौका है, गुलशन की चाहत का इम्तिहान ले लिया जाए और वे बिस्तर पर पेट दर्द का बहाना बना कर लेट गए. ‘‘मेरा आज पेट दर्द कर रहा है. बहुत तकलीफ हो रही है. तुम जरा सा गरम पानी से सेंक दो,’’ गुलशन के सामने कराहते हुए मौलाना ने कहा.

‘‘जी,’’ कह कर वह पानी गरम करने चली गई. थोड़ी देर बाद वह नजदीक बैठ कर मौलाना का पेट सेंकने लगी. मौलाना कभीकभी उस का हाथ पकड़ कर अपने पेट पर घुमाने लगे.

थोड़ा सा झिझक कर गुलशन मौलाना के पेट पर हाथ फिराने लगी. तभी मौलाना ने जोश में गुलशन का चुंबन ले कर अपने पास लिटा लिया. मौलाना के हाथ अब उस के नाजुक जिस्म के उस हिस्से को सहला रहे थे, जहां पर इनसान अपना सबकुछ भूल जाता है. आज बरसों बाद गुलशन को जवानी का वह मजा मिल रहा था, जिस के सपने उस ने संजो रखे थे. सांसों के तूफान से 2 जिस्म भड़की आग को शांत करने में लगे थे. जब तूफान शांत हुआ, तो गुलशन उठ कर अपने कमरे में पहुंच गई.

‘‘अब्बू, मुझे यकीन है कि मौलाना के तावीज से जरूर कामयाबी मिलेगी,’’ गुलशन ने अपने ससुर हबीब अली से कहा.

‘‘हां बेटी, मुझे भी यकीन है.’’

अब हबीब अली काफी मालदार हो गए थे. दिन काफी हंसीखुशी से गुजर रहे थे. तभी वक्त ने ऐसी करवट बदली कि मुअज्जिन हबीब अली की जिंदगी में अंधेरा छा गया. एक दिन हबीब अली अचानक किसी जरूरी काम से घर आए. दरवाजे पर दस्तक देने के काफी देर बाद गुलशन ने आ कर दरवाजा खोला और पीछे हट गई. उस का चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. बदन में कंपकंपी आ गई थी. हबीब अली ने अंदर जा कर देखा, तो गुलशन के बिस्तर पर मौलाना सोने का बहाना बना कर चुपचाप मुंह ढक कर लेटे थे. यह देख कर हबीब अली के हाथपैर फूल गए, पर वे चुपचाप दुकान लौट आए.

‘‘अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है,’’ कहते हुए गुलशन मौलाना के सीने से लिपट गई.

‘‘कुछ नहीं होगा. हम आज ही रात में घर छोड़ कर नई दुनिया बसाने निकल जाएंगे. मैं शहर से गाड़ी का इंतजाम कर के आता हूं. तुम तैयार हो न?’’ ‘‘मैं तैयार हूं. जैसा आप मुनासिब समझें.’’ मौलाना चुपचाप शहर चले गए. मौलाना को न पा कर हबीब अली ने समझा कि उन के डर की वजह से वह भाग गया है.

सुबह हबीब अली के बेटे परवेज ने बताया, ‘‘अब्बू, गुलशन भी घर पर नहीं है. मैं ने तमाम जगह खोज लिया, पर कहीं उस का पता नहीं है. वह बक्सा भी नहीं है, जिस में गहने रखे हैं.’’ हबीब अली घबरा कर अपनी जिंदगी की कमाई और बहू गुलशन को खोजने में लग गए. पर गुलशन उन की पहुंच से काफी दूर जा चुकी थी, मौलाना के साथ अपना नया घर बसान.

तारे जमीन पे: बचपन की टीस

कालोनी के पार्क से ‘चौक्का’, ‘छक्का’ का शोर गूंजने लगा था. पार्क में अभी धूप पूरी तरह नहीं उतरी थी कि कालोनी के उत्साही किशोर खिलाड़ी नवीन, रजत, सौरभ, रौबिन, अनुराग, शेखर, विलास और सुहास अन्य सभी मित्रों के साथ मैदान में आ जमा हुए. परीक्षा नजदीक थी, पर इन क्रिकेट के दीवानों के सिर पर तो क्रिकेट का जादू सवार था. ऐसे में मम्मीपापा की नसीहतें सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ जाती थीं. कहां रोमांचक खेल कहां नीरस पढ़ाई.

सौरभ अपनी मम्मी की नजरों से बच कर घर से जैसे ही निकला, मम्मी दूध वाले की आवाज सुन कर बाहर आ गईं. सौरभ को चुपके से निकलते देख क्रोधित हो उठीं. फिर तो उसे मम्मी की इतनी फटकार सुननी पड़ी कि रोंआसा हो उठा.  मित्र मंडली में पहुंचते ही सौरभ बोला, ‘‘मम्मीपापा तो हमें कुछ समझते ही नहीं. हमारी पसंदनापसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही नहीं.’’

शेखर भी हाथ नचाते हुए बोला, ‘‘सचिन व गावस्कर के मम्मीपापा का उन के साथ ऐसा व्यवहार रहता तो वे क्रिकेट के सम्राट न बन पाते.’’  नवीन भी बड़े आक्रोश में था. उस के पापा ने तो रात को ही उस का बैट कहीं छिपा दिया था. फिर भी उस के कदम रुके नहीं. सीधे पार्क में पहुंच गया.

दूसरे दिन शनिवार का अवकाश था. आसपास के फ्लैटों में बड़ी रौनक थी. कहीं लजीज नाश्ते की फरमाइश हो रही थी तो कहीं बाहर लंच पर जाने का प्रोग्राम बन रहा था, पर इन सिरफिरे किशोरों पर तो सिर्फ क्रिकेट का भूत सवार था.

पार्क के दूसरी ओर राहुलजी का बंगला दिखाई दे रहा था. वहां की दास्तान और अलग थी. राहुलजी का इकलौता बेटा राजेश भी पार्क में खे रहे बच्चों की ही उम्र का था पर उस की मम्मी रीमा किसी जेलर से कम नहीं थीं. राजेश की दशा भी किसी कैदी सी थी. कड़े अनुशासन में उस की दिनचर्या में सिर्फ पढ़ाई करना ही शामिल था. मौजमस्ती, खेलकूद का उस में कोई स्थान न था. राहुल व रीमा के विचार से चौक्के व छक्के लगाने वाले बच्चे बहुत ही गैरजिम्मेदार एवं बिगड़े होते हैं. वे अपने बेटे राजेश को इन लड़कों से दूर रखते थे. रास्ते में आतेजाते जब कभी राहुल दंपती का सामना इन बच्चों से हो जाता, तो दोनों बड़ी बेरुखी से मुंह फेर कर निकल जाते. बच्चे भी उन्हें देख कर सहम जाते थे.

आज अवकाश के दिन भी राजेश सवेरे से ही किताबी कीड़ा बना था. बच्चों की उत्साह भरी किलकारियां उस के भी कानों तक पहुंच रही थीं. उस का मन मचल उठता पर मम्मी की कड़ी पाबंदी के कारण मन मसोस कर रह जाता. जितना पढ़ाई में मन लगाने की कोशिश करता मन उतना ही पंछी बन खेल के मैदान में उड़ने लगता.

राजेश इसी उधेड़बुन में बैठा था कि तभी अजीब सी गंध महसूस होने लगी. उस के पापा तो बहुत सवेरे ही जरूरी काम से शहर से बाहर गए थे. मम्मी भी किट्टी पार्टी में चली गई थीं. अवसर पा कर रसोइया रामू तथा शंकर भी 1 घंटे की छुट्टी ले कर किसी नेता के दर्शन करने चले गए थे. धीरेधीरे गंध राजेश के दिमाग पर छाने लगी. घरेलू बातों से वह बिलकुल अनजान था. पढ़ाईलिखाई के अलावा मम्मीपापा ने उसे कुछ बताया ही न था.

स्वादिष्ठ लंच व डिनर खाने की मेज पर हो जाता. बाहर जाना होता तो कार दरवाजे पर आ खड़ी होती. अब क्या करे? घबराहट के मारे वह थरथर कांपने लगा. बेहोशी सी आने लगी. सहायता के लिए किसे पुकारे? सामने बच्चे खेल रहे थे पर उन्हें किस मुंह से पुकारे? मम्मी तो उन्हें बिगड़े लड़कों के खिताब से कई बार विभूषित कर चुकी थीं. न जाने कैसे उस के मुंह से नवीन… नवीन… सौरभ… सौरभ… की आवाजें निकलने लगीं.

बच्चों के कानों में जब राजेश की आवाज टकराई तो वे आश्चर्य में डूब गए. खेल वहीं रुक गया. उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था पर रजत ने देखा राजेश सहायता के लिए हाथ से इशारा कर रहा था. फिर क्या था, बैटबौल छोड़ कर सारे बच्चे बंगले की ओर दौड़ पड़े.

राजेश बेहोश हो चुका था. नवीन व सौरभ उसे उठा कर खुले स्थान में ले आए. तब तक रजत, शेखर, सुहास ने घर के सारे दरवाजे, खिड़कियां खोल कर गैस सिलैंडर की नोब बंद कर दी. दरअसल, रसोइया जाने की जल्दी में गैस बंद करना भूल गया था. सौरभ ने तुरंत ऐंबुलैंस के लिए फोन कर दिया.

उसी समय राजेश की मम्मी रीना भी किट्टी पार्टी से लौट आईं. सारी बात जान कर वे बच्चों के सामने ही रो पड़ीं. आज इन बच्चों के कारण एक बड़ी दुर्घटना घटने से टल गई थी. 2 दिन में जब राजेश सामान्य हो गया तो सभी बच्चे उस से मिलने आए. तब राहुलजी ने बारीबारी से सभी बच्चों को गले से लगा लिया. अब वे जान चुके थे कि पढ़ाईलिखाई के साथसाथ खेलकूद भी जरूरी है. इस से सूझबूझ व आपसी सहयोग व मित्रता की भावनाएं पनपती हैं.

अगली शाम को जब क्रिकेट टीम कालोनी के पार्क में इकट्ठी हुई तो अधिक चौक्के व छक्के राजेश ने ही लगाए. सामने खड़ी उस की मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थीं. उन्हें मुसकराते देख कर बच्चों को लगा जैसे तपिश भरी शाम के बाद हलकीहलकी बरसात हो रही हो.

मुक्त : बेवफाई की राह पर सरोज

आज मंगलवार है और राज के आने का दिन भी. सरोज कल रात से ही अपनी आंखों में अनगिनत सपनों को संजोए सो नहीं पाई थी. राज के नाम से ही उस के जिस्म में एक अनछुई हलचल हिलोरें मार रही थी. वह अपनेआप को 18 बरस की उस कमसिन कली सा महसूस कर रही थी, जिसे पहली बार किसी लड़के ने छुआ हो.

सरोज ने आज बहुत ही जल्दी काम निबटा लिया था. विकास को भी टिफिन दे कर बहुत ही अच्छे मन से विदा किया था. विकास के साथ सरोज की शादी 10 साल पहले हुई थी. उन्होंने सरोज को 2 प्यारेप्यारे बच्चे उस उपहार के रूप में दिए थे, जिस का मोल वह कभी नहीं चुका सकती थी.

विकास बहुत ही सीधे स्वभाव के इनसान हैं. वे सरोज की हर बात में सिर्फ और सिर्फ अपनी रजामंदी ही देते हैं. कभी भी उन्होंने सरोज के फैसले पर अपने फैसले की मुहर नहीं लगाई है. सच कहें, तो सरोज अपने गरीबखाने की महारानी है.

इस सब के बावजूद बस एक यही बात सरोज को बेचैन कर देती है कि विकास को तो बच्चे हो जाने के बाद उस से दूर होने का बहाना मिल गया था. वह जब भी रात में उन के करीब जा कर अपनी इच्छा जाहिर करने की कोशिश करती, तो वे ‘आज नहीं’, ‘बच्चे उठ जाएंगे’, ‘फिर कभी’ कह कर सरोज को बड़ी ही सफाई से मना कर देते थे. वह भी अपने अंदर उठते ज्वारभाटे के तूफान को दबाते हुए आंखों में आंसुओं का सैलाब ले कर सोने का नाटक करती थी.

इसी तरह महीने, फिर साल बीतने लगे. सरोज उस मछली सा तड़पने लगी, जिस के पास समुद्र तो है, फिर भी वह प्यासी ही है. इसी प्यास को अपने गले में भर कर सरोज भी नौकरी करने लगी. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और वह और ज्यादा प्यास से तड़पने लगी.

राज सरोज के सीनियर थे और अपनी हर बात उस से शेयर करने लगे थे. वह भी जैसे उन के मोहपाश में बंध कर अपनी सीमाओं को पार कर उन के साथ चलते हुए सात घोड़े के रथ पर सवार आकाश में बिन पंख के उड़ने लगी थी.

धीरेधीरे राज और सरोज कब एक होने को उतावले हो गए, सच में पता ही नहीं चला और आखिरकार आज वह दिन भी आ गया, जब राज को अपने घर आने का न्योता देते हुए उस ने अपनी आंखों से रजामंदी भी दे दी थी.

आज सरोज ने छुट्टी ले ली थी और राज आधे दिन की छुट्टी ले कर उस के घर आ जाएंगे. बस उसी पल के इंतजार में वह न जाने कितनी बार खुद को आईने में निहारती रही. उसे आज एक अजीब सी सिहरन महसूस हो रही थी.

सरोज आज उस कुएं में खुद को विलीन करने जा रही थी, जिस के पनघट पर उस का कोई हक नहीं था. पर वह आज जी भर कर उस कुएं का पानी पीना चाहती थी. बस यही सोचते हुए वह एकएक पल गिन रही थी.

अचानक दरवाजे की घंटी ने सरोज का ध्यान हटा दिया. आज अपने बैडरूम से मेन दरवाजा खोलने तक का सफर उसे कई मीलों सा लग रहा था. उस के कदम शरीर का साथ नहीं दे रहे थे. वे उस के दिल में उठे उस तूफान को शांत करने में लगे थे, जो उस के और राज के बीच एक कमजोर से धागे को बांध कर उस से विश्वास की मजबूती की चाहत करने की सोच रहे थे.

बड़ी ही जद्दोजेहद से सरोज दरवाजे तक पहुंच पाई. आज पहली बार दरवाजे को खोलने में वह अपनी नजरों को नीचे किए हुए थी. वह पापपुण्य के बीच अपनी उस प्यास को महसूस कर रही थी, जिस की बेचैनी उसे जीने नहीं दे रही थी.

सरोज ने धड़कते दिल से दरवाजा खोला. देखा कि सामने विकास हाथ में गजरा लिए मुसकराते हुए खड़े थे.

‘‘क्या सरोज, इतनी देर से घंटी बजा रहा था. क्या कर रही थी?’’

सरोज कुछ बोल पाती, इस के पहले ही विकास ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. उस के बालों को गजरे से सजातेसजाते वे धीरे से कानों में फुसफुसाने लगे, ‘‘अच्छा हुआ, जो तुम ने आज छुट्टी कर ली. मैं कल से ही तुम्हें सरप्राइस देने की सोच चुका था. आज मैं पूरा दिन सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे मुताबिक जीना चाहता हूं और तुम्हारी सारी शिकायतें भी तो दूर करनी हैं.’’

सरोज सपनों की दुनिया से बाहर आ गई और अपने उस फैसले पर पछताने लगी, जो आज उस के और विकास के विश्वास को तोड़ते हुए उसे उस पलभर के सुख के बदले आत्मग्लानि के अंधे और सूखे कुएं में गिराने वाला था.

सरोज विकास की बांहों से खुद को मुक्त कर के उस अंधेरे को फोन करने जाने लगी, जो उसे अपने खुशहाल परिवार की रोशनी से दूर करने वाला था और वह अंधकार भी सरोज ने ही तो चुना था.

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