सेक्स समस्याओं पर खुलकर बात करें लड़के

बात भी सही है पर सेक्स से जुड़ी बीमारियों के बारे में किसी अपने से बात करना इतना आसान नहीं है, कम से कम जवान होते लड़कों के लिए. अब संजय को ही लीजिए, उस ने हाल में आई मूंछों को ताव देते हुए एक सेक्स वर्कर से संबंध बना लिए और कंडोम का भी इस्तेमाल नहीं किया. इस के बाद उसे बीमारी हो गई. वह किसी माहिर डॉक्टर के पास नहीं गया और किसी तंबू वाले नीमहकीम से दवा ले ली. सब से बड़ी बात तो यह कि संजय ने अपने किसी खास दोस्त को भी इस मामले में कुछ नहीं बताया, घर वालों से तो दूर की बात है.

नीमहकीम ने संजय को जम कर लूटा और बीमारी भी बढ़ती गई. हार कर वह डॉक्टर के पास गया और अपनी बीमारी का सही इलाज कराया.

संजय जैसे बहुत से लड़के हैं जो अपनी सेक्स समस्याओं को राज ही रखते हैं. कहीं न कहीं इस में उन का अहम आड़े आ जाता है कि भरी जवानी में अगर वे किसी से इस का जिक्र करेंगे तो उन का मजाक बनाया जाएगा. पर ऐसा होता नहीं है. अगर वे जरा सी भी दिक्कत महसूस करें तो सीधे किसी अपने से बात करें, ठीक उसी तरह जैसे कोई लड़की अपनी मां या किसी बड़ी से अपनी शारीरिक समस्याओं पर बात करती है. इस मामले में मांबेटी का रिश्ता आपस में इतना खुला होता है कि वे जिगरी सहेलियों की तरह अपनी ऐसी समस्याओं जैसे माहवारी आदि पर बेहिचक बातचीत करती हैं और समस्या को ज्यादा गंभीर नहीं होने देती हैं.

लड़कों के मामले में उन के बड़ों जैसे पिता या भाई को भी उन पर नजर रखनी चाहिए कि वे कहीं किसी सेक्स समस्या को ले कर मानसिक तनाव से तो नहीं गुजर रहे हैं या उन के किसी दोस्त से भी वे पूछ सकते हैं, क्योंकि बहुत सी बार लड़के अपने दोस्त से ऐसी समस्या को शेयर कर लेते हैं. वैसे तो जवान होते लड़कों को अपने बड़ों से ऐसा कुछ नहीं छिपाना चाहिए जो सेक्स की बीमारी से जुड़ा हो. यह उन के फायदे का ही सौदा होता है, इसलिए झिझके नहीं बल्कि किसी आम बीमारी की तरह सेक्स से जुडी बीमारी पर अपनों से बात करें और सुखी रहें.

उम्र के साथ आम बदलाव है सफेद मोतिया

आंखें इस शरीर का वह हिस्सा है, जिस के बिना इस रंगबिरंगे संसार में आना खाने में नमक न होने के बराबर है. आंखोंका न होना या तो जन्मजात होता है या फिर किसी बीमारी या हादसे के चलते ऐसा होता है.

आजकल आंखों की बीमारियां, खासतौर पर दृष्टि दोष, आंखों का कमजोर होना वगैरह जैसे कारण बच्चे हों या जवान या फिर बूढ़े, किसी में भी पाए जा सकते हैं. आंखों की बीमारी मोतियाबिंद एक आम समस्या बन चुकी है. इस का इलाज भी आसान है, पर थोड़ा खर्चीला है.

मोतियाबिंद आंखों की एक ऐसी बीमारी है, जिस में या तो आंखों से धुंधला दिखाई देने लगता है या फिर दिखना बंद भी हो जाता है. इस बीमारी से एक या दोनों आंखें एकसाथ भी प्रभावित हो सकती हैं. इस की वजह आंख के लैंस का धुंधला हो जाना है, जिस से चीजों का साफ प्रतिबिंब नहीं बन पाता और आंख कमजोर हो जाती है.

* आंखों के लैंस घुलनशील प्रोटीन के बने होते हैं. जब किसी वजह से यह प्रोटीन अघुलनशील अवस्था ले लेता है, तो मोतियाबिंद बन जाता है.

* सफेद मोतिया उम्र के साथ होने वाली एक बीमारी (आम बदलाव)  है, जबकि काला मोतिया आमतौर पर 40 साल के बाद होने की संभावना रहती है. काले मोतिया में आंखों का लाल होना, पानी आना और दर्द आम बातें हैं. किंतु सफेद मोतिया में आंखों की रोशनी धीरेधीरे कम होती है और दर्द या लाली नहीं होती.

* सफेद मोतिया में आपरेशन के बाद आंखों की रोशनी दोबारा वापस आ जाती है, पर काले मोतिया में जो रोशनी चली जाती है, वह फिर वापस नहीं आती, इसलिए काले मोतिया को खतरनाक बताया जाता है.

* आमतौर पर सफेद मोतियाबिंद उम्र के साथ लैंस की पारदर्शिता खत्म होने पर होता है. इस में लैंस का पूरी तरह खराब होना जरूरी नहीं है. लैंस का कौन सा भाग खराब हुआ, उस के मुताबिक ही दृष्टि में बाधा आती है. आमतौर पर यह 60 साल की उम्र के  आसपास ही होता है.

* बच्चों में सफेद मोतिया जन्मजात हो सकता है और जवानों में आंखों में चोट लगने या आंखों की कई बीमारियों में स्टेरौयड के ज्यादा सेवन से हो सकता है.

* मोतियाबिंद सूरज की रोशनी आंख पर सीधे पड़ना, दूसरे किसी कारण से आंख में रेडियो थैरेपी होना, आंख में सूजन पैदा करने वाली बीमारी होना, आंख में चोट लगना, गर्भावस्था में संक्रमण व कुछ बीमारियों जैसे मधुमेह से भी हो सकता है.

* सफेद मोतिया आमतौर पर उम्र के साथ बढ़ता है. इस संबंध में कई मिथ हैं. जैसे बाजार में कई देशीविदेशी दवाएं हैं, जिन्हें डालने पर सफेद मोतिया रुक जाता है.

* जब मरीज को काफी कम दिखने लगे, रोजमर्रा का काम करने में उसे असुविधा होने लगे, तो मोतियाबिंद  आपरेशन करा लेना चाहिए.

* सफेद मोतिया का आपरेशन में आंख को सुन्न कर के एक छोटा सा चीरा डाल कर, उस में प्राकृतिक लैंस को जिस की पारदर्शिता खत्म हो चुकी होती है, निकाल देते हैं और उस की जगह एक कृत्रिम लैंस आंख में लगा देते हैं.

* अगर इस में आपरेशन के बाद आंखों के अंदर लैंस न डालें, तो मरीज को 10 नंबर के आसपास का मोटा चश्मा पहनना पड़ता है और बगैर चश्मे के उसे खास कुछ दिखाई नहीं देता. लैंस लगाने के बाद मरीज रोजमर्रा के काम बगैर चश्मे के ही कर सकता है.

* आपरेशन के बाद आमतौर पर केवल पढ़नेलिखने या दूर के बारीक काम के लिए चश्मे की जरूरत पड़ती है.

* बिना टांकों का आपरेशन, एक सूक्ष्म चीरा डाल कर (स्माल इंसीशन केटारेक्ट सर्जरी एसकेएस) या फिर फैकोमल्सीफिकेशन मशीन से हो सकता है.

* फैकोमल्सीफिकेशन मशीन में एक छोटे छेद (माइक्रोस्कोपिक कट) द्वारा मोतिया को अल्ट्रासाउंड से आंख के अंदर गला देते हैं और उसी यंत्र (प्रोब) से गले हुए लैंस को सोख लेते हैं. उसी छेद से हम दूसरा पारदर्शी लैंस आंख के अंदर डाल देते हैं, जिस से मरीज को तुरंत दिखने लगता है.

* सफेद मोतिया का आपरेशन लेजर सर्जरी से नहीं हो सकता. हां, कई बार आपरेशन के बाद वह ?िल्ली, जिस पर लैंस टिका होता है, अगर मोटी हो जाए, तो लेजर से उस ?िल्ली को आसानी से काटा जा सकता है.

क्या जिम जाने वाला अग्रेसिव होता है?

कुछ साल पहले की बात है. मैं दिल्ली देहात के एक गांव में एक इंटरनैशनल पहलवान के सगाई समारोह में गया था. वहां कई नामचीन लोग आए थे और माहौल बड़ा खुशनुमा था कि अचानक वहां कुछ नौजवान लड़कों का ग्रुप आया. सभी गांवदेहात के थे, पर पैसे वाले भी दिख रहे थे.

हैरत की बात थी कि उन नौजवानों में से कइयों के पास महंगी और मौडर्न पिस्टल थीं और ज्यादातर जिम में जा कर बौडी बनाए हुए थे. उन में जो लड़का सब से बीच में चल रहा था, वह बहुत हैंडसम था और उस की बौडी के तो कहने ही क्या. उस की महंगी शर्ट से बौडी के कट्स साफसाफ दिख रहे थे.

वे लड़के वहां कुछ देर रहे, चंद लोगों और दूल्हे से मुलाकात की और फिर अपनी महंगी गाड़ियों में चले गए.

यह सोच कर मेरे मन में सवाल उठा था कि जो लोग जिम जा कर बौडी बनाते हैं, क्या वे सभी अग्रेसिव होते हैं या हो जाते हैं? वजह, जो लड़के शादी में आए थे, वे दिखने में बदमाश जैसे नहीं थे, पर हाथ में पिस्टल और कसी हुई बौडी से ऐसा लग था कि अगर कोई उन से पंगे लेगा तो वे उसे छोड़ेंगे नहीं.

पैसे दे कर जिम में बौडी बनाने का चलन आजकल बहुत ज्यादा बढ़ गया है. बड़े शहरों में ही नहीं, बल्कि छोटे कसबों में भी अब जिम खुलने लगे हैं. वहां ज्यादातर लड़के इसलिए बौडी बनाने जाते हैं कि दुनिया पर उन का रोब जमे, खासकर जवान लड़कियों पर. जब उन की बौडी दिखाने लायक बन जाती है, तो उन में अकड़ आ जाती है. पर क्या इस के पीछे कोई अग्रेशन होती है, जो उन्हें जिम तक ले जाती है?

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अंजू गुप्ता

इस मसले पर मुंबई के ‘आइडियल बौडी फिटनैस’ जिम में फिटनैस इंस्ट्रक्टर अंजू गुप्ता ने बताया, “जिम जाने से अग्रेशन का कुछ लेनादेना नहीं है, बल्कि जिम जाने से बौडी में जो बदलाव आता है, उस से तो बहुत अच्छा महसूस होता है.

“अमूमन जिम जाने वाले लोग अपने रूटीन को ले कर बहुत अनुशासित होते हैं, तो शायद देखने वाले को लगे कि वे अग्रेसिव हैं. एक बात और है कि जब जिम जाने वाले लोग किसी स्ट्रिक्ट डाइट पर होते हैं, तो उन का मैटाबौलिक रेट बढ़ जाता है, हार्ट रेट ज्यादा हो जाती है, पर यह फिटनैस का हिस्सा है.

“लेकिन अगर हम किसी एक तरह के ऐक्सरसाइज स्टाइल को अपनाते हैं तो ब्रेन को उसी की आदत पड़ जाती है, जिस से अग्रेशन बढ़ने का डर बना रहता है, इसलिए हमेशा जिम और ऐक्सरसाइज के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए. अपने को दूसरे ऐसे काम में बिजी रखना चाहिए, जो मन को शांत करते हैं. इस के अलावा खानपान का भी खास ध्यान चाहिए.”

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कपिल गुप्ता

फरीदाबाद के 47 साल के कारोबारी कपिल गुप्ता अपने कालेज के दिनों से जिम में जाने लगे थे. एक समय ऐसा था जब वे अपने सिक्स पैक्स एब्स के लिए जाने जाते थे. तब उन्होंने अपना वजन 106 किलो से घटा कर 82 किलो किया था.

कपिल गुप्ता ने बताया, “मैं जिम में तरहतरह के लोगों से मिला हूं, पर मेरी नजर में कोई ऐसा नहीं आया, जो जिम जौइन करने के बाद अग्रेसिव हुआ हो. हां, अगर कोई शुरू से ही अग्रेसिव सोच का रहा होगा तो कहा नहीं जा सकता.

“जिम अपने शरीर को सेहतमंद रखने की ठीक वैसे ही जगह है, जैसे कोई दूसरे खेल की जगह. यहां आने वाले लोगों का मकसद यही रहता है कि वे अच्छी बौडी बनाएं और अपनी फिटनैस बरकरार रखें.

“जहां तक किसी के अग्रेसिव होने की बात है तो अगर कोई अपने स्वभाव से अग्रेसिव है, तो वह जिम क्या कहीं भी जैसे अपने घर, औफिस, बाजार या फिर किसी दूसरी जगह वैसा ही बरताव करेगा. यह तो बच्चों पर भी लागू होता है. अगर किसी बच्चे में एनर्जी ज्यादा है तो वह दूसरे बच्चों के मुकाबले अग्रेसिव होता है. अगर उस अग्रेसिवनैस का सही से इस्तेमाल किया जाए तो बच्चा शांत रहता है.

“हां, अगर जिम में कोई ऐक्सरसाइस के लिए सप्लीमैंट्स लेता है तो कभीकभार उस के साइड इफैक्ट के तौर पर ऐसे लोग अग्रेसिव हो जाते हैं, पर यह नहीं कहा जा सकता है कि जिम जाने वाले लोग अग्रेसिव हो जाते हैं या होते हैं.”

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निश्चिंत कटोच

भारत के अल्ट्रा रनर निश्चिंत कटोच एक समय अपने ज्यादा वजन से परेशान थे. उन्होंने अपनी लगन से खुद में इस हद तक बदलाव किया कि वे आज कईकई किलोमीटर तक आसानी से दौड़ लेते हैं. इस सब बदलाव में जिम ने बड़ा रोल निभाया है.

निश्चिंत कटोच ने बताया, “यह सब वर्कआउट की इंटैंसिटी पर डिपैंड करता है. हार्ड ट्रेनिंग ऐक्सरसाइज से टैस्टोस्टेरोन के कुदरती लैवल में बढ़ोतरी होती है, जिस से अग्रेशन का लैवल बढ़ सकता है. इस पर कंट्रोल करने का तरीका यही है कि वर्कआउट और इंटैंसिटी में बैलैंस बनाया जाए. गुड मैंटल हैल्थ के लिए वर्कआउट को इस ढंग से करना चाहिए कि जिम जाने वाला अग्रेसिव न हो.”

इस मुद्दे पर एक बात बहुत ज्यादा अहम है कि जिम जाने वाले लोगों में से बहुत से ऐसे होते हैं, खासकर नौजवान, जो बौडी बनाने को ही जिंदगी की सब से बड़ी कामयाबी मानते हैं और उन के पास ऐसी कोई उपलब्धि नहीं होती है, जिस पर वे या उन का परिवार गर्व कर सके.

Liver को हेल्दी बनाने के लिए अपनी डाइट में शामिल करें ये 7 चीजें

लिवर (Liver)  आपके शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंगों में से एक है. यह पूरे शरीर को डिटाक्स करता है. अगर लीवर स्वस्थ और मजबूत रहता है तो आप भी स्वस्थ रहेंगे. तो आइए जानते हैं उन 7 चीजों के बारे में जो आपके लिवर को मजबूत बनाती हैं.

  1. लहसुन- लहसुन में एलिसिन कंपाउंड होता है जो पूरी बौडी को डिटाक्स करने के लिए जाना जाता है. लहसुन में एंटीऔक्सिडेंट और एंटीबायोटिक गुण भी होते हैं. ये लिवर को साफ और मजबूत बनाता है.

2. चकोतरा- चकोतरा में मौजूद एंटीऔक्सीडेंट इंफ्लेमेशन को कम करते हैं और लिवर कोशिकाओं की रक्षा करने में मदद करते हैं.

3. चुकंदर- चुकंदर  एंटीऔक्सीडेंट, मिनरल्स और विटामिन से भरपूर होता है. ये पित्त को बेहतर बनाता है और विषाक्त पदार्थों को बॉडी से बाहर निकालता है.

4. धनिया, हल्दी, अदरक का मिश्रण- धनिया, हल्दी, अदरक और सिंहपर्णी की जड़ों शक्तिशाली डिटौक्सिफायर माने जाते हैं. ये सारी जड़ी-बूटियां लिवर को मजबूत बनाती हैं.

5. कौफी- कौफी में मौजूद पालीफेनोल्स में एंटीऔक्सिडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण होते हैं जो सिरोसिस को बढ़ने से रोकते हैं और लिवर की रक्षा करते हैं.

6. बेरीज- क्रैनबेरी और ब्लूबेरी जैसे बेरीज में एंथोसायनिन होता है जो लिवर को किसी भी तरह के नुकसान से बचाता है. ये एंटीऑक्सीडेंट लिवर के इम्यून सिस्टम को भी सही रखता है.

एड्स एक खतरनाक बीमारी है !

1 दिसम्बर का दिन पूरे विश्व में  एड्स दिवस के रूप में मनाया जाता है. जिसका उद्देश्य लोगों को एड्स के प्रति जागरूक करना है. जागरूकता के तहत लोगों को एड्स के लक्षण, इससे बचाव, उपचार, कारण इत्यादि के बारे में जानकारी दी जाती है और कई अभियान चलाए जाते हैं जिससे इस महामारी को जड़ से खत्म करने के प्रयास किए जा सकें. साथ ही एचआईवी एड्स से ग्रसित लोगों की मदद की जा सकें.

विश्व एड्स दिवस की शुरूआत 1 दिसंबर 1988 को हुई थी जिसका मकसद, एचआईवी एड्स से ग्रसित लोगों की मदद करने के लिए धन जुटाना, लोगों में एड्स को रोकने के लिए जागरूकता फैलाना और एड्स से जुड़े मिथ को दूर करते हुए लोगों को शिक्षित करना था.  चूंकि एड्स का अभी तक कोई इलाज नही है इसलिए यह आवश्‍यक है‍ कि लोग एड्स के बारे में जितना संभव हो सके रोकथाम संबंधी जानकारी प्राप्‍त करे और इसे फ़ैलाने से रोके.

एड्स यानि एक्‍वायर्ड इम्‍युनोडेफिशिएंसी सिन्‍ड्रोम एक खतरनाक बीमारी है जो हर किसी के लिए चिंता का विषय है.  1981 में  न्यूयॉर्क में एड्स के बारे में पहली बार पता चला, जब कुछ ”समलिंगी यौन क्रिया” के शौकीन अपना इलाज कराने डॉक्टर के पास गए. इलाज के बाद भी रोग ज्यों का त्यों रहा और रोगी बच नहीं पाए, तो डॉक्टरों ने परीक्षण कर देखा कि इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो चुकी थी. फिर इसके ऊपर शोध हुए, तब तक यह कई देशों में जबरदस्त रूप से फैल चुकी थी और इसे नाम दिया गया ”एक्वायर्ड इम्यूनो डिफिशिएंसी सिंड्रोम” यानी एड्स.

एड्स का मतलब 

– ए यानी एक्वायर्ड यानी यह रोग किसी दूसरे व्यक्ति से लगता है.

– आईडी यानी इम्यूनो डिफिशिएंसी यानी यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता समाप्त कर देता है.

– एस यानी सिण्ड्रोम यानी यह बीमारी कई तरह के लक्षणों से पहचानी जाती है.

एड्स का बढ़ता क्षेत्र

कई देशों में एड्स मौत का सबसे बड़ा कारण बन गया है. पहली बार ऐसा हुआ है कि पिछले एक साल में अफ्रीका में एचआईवी के मामलों में कमी दर्ज की गई है . लेकिन सच यह भी है कि अब भी अफ्रीका में करीब 38 लाख लोग एचआईवी से बुरी तरह से प्रभावित हैं. पूरी दुनिया धीरे-धीरे जानलेवा बीमारी एचआईवी/एड्स की चपेट में आ रही है. संयुक्त राष्ट्र के नए आंकडों के अनुसार  एड्स एक भयावह बीमारी बनाते जा रहा है . संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि पूरी दुनिया में करीब 33.3 मिलियन लोग एचआईवी/ एड्स से ग्रस्त हो चुके हैं और हर साल करीब 53 लाख एड्स के नए मामले सामने आ रहे हैं. हर चौबीस घंटे में 7 हजार एचआईवी के नये मामले सामने आ रहे हैं. यही नहीं इस दौरान एक मिलियन संचारित यौन संक्रमण(एसटीडी) के मामले आ रहे हैं. दस साल में तेजी से फ़ैल रहा है यह बीमारी .  एड्स और एचआईवी से ग्रस्त लोगों की संख्या विशेषज्ञों द्वारा दस साल पहले लगाए गए अनुमानों से 50 फीसद अधिक है.

2019 तक 2.9 मिलियन लोग इस इंफेक्शन के संपर्क में आए हैं, जिसमें से 3 लाख 90 हजार बच्चे भी इसकी चपेट में आएं. इतना ही नहीं पिछले पांच सालों में  एड्स से ग्रसित लगभग 1.8 मिलियन लोगों की मौत हो चुकी है.

आमतौर पर देखा गया है कि एड्स अधिकतर उन देशों में है जहां लोगों की आय बहुत कम है या जो लोग मध्यवर्गीय परिवारों से ताल्लुक रखते हैं.

बहरहाल, एचआईवी एड्स आज दुनिया भर के सभी महाद्वीपों में महामारी की तरह फैला हुआ है जो कि पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के जीवन के लिए एक बड़ा खतरा है और जिसे मिटाने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं.

एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है की कुल मामलों में से 15 से 24 साल की लड़कियां एचआईवी पीड़ित हैं. जबकि 23 फीसद कुल एचआईवी पीड़ितों में 24 की आयु के हैं. 35 फीसद मामले नए संक्रमणों के हैं. संयुक्त राष्ट्र सहायता के कार्य निदेशक पीटर पीयोट कहते हैं कि पूरी दुनिया को इस बात का अंदाजा हो चुका है कि एड्स कितना भयानक रूप ले चुका है.

एक अनुमान के अनुसार 2009-2019 तक करीब 40 लाख लोग एड्स की बलि चढ़ चुके है. इससे पहले के दशक में  एड्स से इतने लोगों की मौत नहीं हुई है. साथ ही पहली बार ऐसा हुआ है कि जहाँ से यह बीमारी फैलाना शुरू हुई वही अब इस बीमारी के मामले काफी कम प्रकाश में आ रहे है. पिछले एक साल में अफ्रीका में एचआईवी के मामलों में कमी दर्ज की गई है. लेकिन  अब भी अफ्रीका में करीब 38 लाख लोग एचआईवी से बुरी तरह से प्रभावित हैं.  यह हालत तब है जब इस बीमारी की रोकथाम के प्रयास ईमानदारी के साथ किए जा रहे हैं.

विश्व में ढाई करोड़ लोग अब तक इस बीमारी से मर चुके हैं और करोड़ों अभी इसके प्रभाव में हैं. अफ्रीका पहले नम्बर पर है, जहाँ एड्स रोगी सबसे ज्यादा हैं. भारत दूसरे स्थान पर है. भारत में अभी करीबन 1.25 लाख मरीज हैं, प्रतिदिन इनकी सँख्या बढ़ती जा रही है. भारत में पहला एड्स मरीज 1986 में मद्रास में पाया गया था.

क्या है एचआईवी और एड्स?

एचआईवी (ह्यूमन इम्यूनोडिफिशिएंसी वायरस) एक ऐसा से एड्स होता है. जिस इंसान में इस वायरस की मौजूदगी एचआईवी पॉजिटिव कहते हैं. एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब एड्स रोगी नहीं होता. जब एचआईवी वायरस शरीर में प्रवेश हो जाता है, उसके बाद शरीर की प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे कम होने लगती है. एचआईवी वायरस व्हाइट ब्लड सेल्स पर आक्रमण करके उन्हें धीरे-धीरे मारते हैं. इस कारण से कई तरह की बीमारियां होने लगती हैं, जिनका असर तत्काल महसूस नहीं होता. यह लगभग 10 साल बाद प्रत्यक्ष रूप में सामने आती है. व्हाइट सेल्स के खत्म होने के बाद संक्रमणऔर बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होने लगती है. परिणामस्वरूप शरीर में विभिन्न प्रकार के इन्फेक्शन होने लगते हैं. एचआईवी इन्फेक्शन वह अंतिम पड़ाव है, जिसे एड्स कहा जाता है.

एचआईवी दो तरह का होता है. एचआईवी-1 और एचआईवी-2. एचआईवी-1 पूरी दुनिया में पाया जाता है.

भारत में भी 80 प्रतिशत मामले इसी श्रेणी के हैं. एचआईवी- 2 खासतौर से अफ्रीका में मिलता है. भारत में भी कुछ लोगों में इसके संक्रमण से पीड़ित पाए जाते हैं.

क्या है एचआईवी पॉजिटिव होने का मतलब ?

एच.आई.वी. पॉजिटिव होने का मतलब है, एड्स वायरस आपके शरीर में प्रवेश कर गया है. इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको एड्स है. एच.आई.वी. पॉजिटिव होने के 6 महीने से 10 साल के बीच में कभी भी एड्स हो सकता है. स्वस्थ व्यक्ति अगर एच.आई.वी. पॉजिटिव के संपर्क में आता है, तो वह भी संक्रमित हो सकता है. एड्स का पूरा नाम है ˜ एक्वार्यड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम ˜ और यह बीमारी एच.आई.वी. वायरस से होती है.

यह वायरस मनुष्य की प्रतिरोधी क्षमता को कमजोर कर देता है. एड्स एच.आई.वी. पॉजिटिव गर्भवती महिला से उसके बच्चे को, असुरक्षित यौन संबंध से या संक्रमित रक्त या संक्रमित सुई के प्रयोग से हो सकता है. जब आपके शरीर की प्रतिरक्षा को भारी नुकसान पहुंच जाता है, तो एच आई वी का संक्रमण, एड्स के रूप में बदल जाता है. अगर नीचे लिई हुई स्थितियों में से आपको कुछ भी है, तो आपको एड्स है : 200 से कम सी 4 डी सेल (200), 14 प्रतिशत से कम सी डी 4 सेल (14), मौकापरस्त संक्रमण (पुराना), मुंह या योनि में फफूंद, आंखों में सी एम वी संक्रमण (सीएमवी), फेफड़ा में पी सी पी निमोनिया, कपोसी कैंसर.

एच.आई.वी. पॉजिटिव को इस बीमारी का तब तक नहीं चलता, जब तक कि इसके लक्षण प्रदर्शित नहीं होते. इसका मतलब है वे जीवाणु जो शरीर की प्रतिरक्षा को कम करे. एच.आई.वी. से संक्रमित होने पर आपका शरीर इस रोग से लड़ने की कोशिश करता है. आपका शरीर रोग प्रतिकारक कण बनाता है, जिसे एंटीबॉडीज कहते हैं. एच.आई.वी. के जांच में अगर आपके खून में एंटीबॉडीज पाया जाता है, तो इसका मतलब है कि आप एच आई वी के रोगी हैं और आप एच आई वी पॉजिटिव (सकारात्मक एचआईवी) हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि आपको एड्स है. कई लोग एच आई वी पॉजिटिव होते हैं किंतु वे सालों तक बीमार नहीं पड़ते हैं.

समय के साथ एच आई वी आपके शरीर की प्रतिरक्षा को कमजोर कर देता है. इस हालत में, विभिन्न प्रकार के मामूली जीवाणु, कीटाणु, फफूंद आपके शरीर में रोग फैला सकते हैं, जिसे मौकापरस्त संक्रमण (अवसरवादी संक्रमण/पुराना) कहते हैं.

ऐसे फैल सकता है एड्स

* एचआईवी पॉजिटिव पुरुष या महिला के साथ अनसेफ (कॉन्डम यूज किए बिना) सेक्स से, चाहे सेक्स होमोसेक्सुअल ही क्यों न हो.

* संक्रमित (इन्फेक्टेड) खून चढ़ाने से.

* एचआईवी पॉजिटिव महिला से पैदा हुए बच्चे में. बच्चा होने के बाद एचआईवी ग्रस्त मां के दूध पिलाने से भी इन्फेक्शन फैल सकता है.

* खून का सैंपल लेने या खून चढ़ाने में डिस्पोजेबल सिरिंज (सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल में आने वाली सुई) न यूज करने से या फिर स्टर्लाइज किए बिना निडल और सिरिंज का यूज करने से.

* हेयर ड्रेसर (नाई) के यहां बिना स्टर्लाइज्ड (रोगाणु-मुक्त) उस्तरा, पुराना इन्फेक्टेड ब्लेड यूज करने से.

* सलून में इन्फेक्टेड व्यक्ति की शेव में यूज किए ब्लेड से. सलून में हमेशा नया ब्लेड यूज हो रहा है, यह इंशुअर करें.

ऐसे नहीं फैलता एड्स 

* चूमने से. अपवाद अगर किसी व्यक्ति को एड्स है और उसके मुंह में कट या मसूड़े में सूजन जैसी समस्या है, तो इस तरह के व्यक्ति को चूमने से भी एड्स फैल सकता है.

* हाथ मिलाना, गले मिलना, एक ही टॉयलेट को यूज करना, एक ही गिलास में पानी पीना, छीकने, खांसने से इन्फेक्शन नहीं फैलता.

* एचआईवी शरीर के बाहर ज्यादा देर तक नहीं रह सकता, इसलिए यह खाने और हवा से भी नहीं फैलता.

* रक्तदान करने से बशर्ते खून निकालने में डिस्पोजेबल (इस्तेमाल के बाद फेंक दी जाने वाली) सुई का इस्तेमाल किया गया हो.

* मच्छर काटने से.

* टैटू बनवाने से, बशर्ते इस्तेमाल किए जा रहे औजार स्टर्लाइज्ड हों.

* डॉक्टर या डेंटिस्ट के पास इलाज कराने से. ये लोग भी आमतौर पर स्टरलाइज्ड औजारों का ही इस्तेमाल करते हैं.

इनके जरिए शारीर में पहुंचता है वायरस

* ब्लड

* सीमेन (वीर्य)

* वैजाइनल फ्लूइड (स्त्रियों के जननांग से निकलने वाला दव)

* ब्रेस्ट मिल्क

* शरीर का कोई भी दूसरा फ्लूइड, जिसमें ब्लड हो मसलन, बलगम

लक्षण –  एचआईवी से ग्रस्त इंसान शुरू में बिल्कुल नॉर्मल और सेहतमंद लगता है. कुछ साल बाद ही इसके लक्षण सामने आते हैं. अगर किसी को नीचे दिए गए लक्षण हैं, तो उसे एचआईवी का टेस्ट कराना चाहिए  .

* एक महीने से ज्यादा समय तक बुखार बने रहना, जिसकी कोई खास वजह भी पता न चले.

* बिना किसी वजह के लगातार डायरिया बने रहना.

* लगातार सूखी खांसी.

* मुंह में सफेद छाले जैसे निशान होना.

* बिना किसी वजह के लगातार थकान बने रहना और तेजी से वजन गिरना.

* याददाश्त में कमी, डिप्रेशन आदि.

एचआईवी के लिए मेडिकल टेस्ट  –  एड्स के लक्षणों से शक होने पर निम्न टेस्ट  कराये .

टेस्ट कराएं अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि

* कभी वह एचआईवी के संपर्क में आ गया होगा.

* पिछले 12 महीनों के दौरान अगर एक से ज्यादा पार्टनर के साथ उसके सेक्स संबंध रहे हों.

* अपने पार्टनर के सेक्सुअल बिहेवियर को लेकर वह निश्चिंत न हो.

* वह पुरुष हो और उसने कभी किसी पुरुष के साथ अनसेफ सेक्स किया हो. उसे एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) हो. वह हेल्थ वर्कर हो, जो ब्लड आदि के सीधे संपर्क में आता हो.

* वह प्रेग्नेंट हो.  बचाव ही  इलाज है!

दुनिया भर में तेजी से पांव पसारते जा रहे एड्स का इलाज भी तक खोजा नहीं जा  सका है, इससे बचाव में ही इसका कारगर इलाज है.

एड्स का कोई उपचार नहीं है. एड्स के लिए जो दवा हैं, वे या तो एच आई वी के जीवाणु को बढ़ने से रोकते हैं या आपके शरीर के नष्ट होते हुए प्रतिरक्षा को धीमा करते हैं. ऐसा कोई ईलाज नहीं है कि एच आई वी के जीवाणु का शरीर से सफाया हो सके. अन्य दवाएं मौकापरस्त संक्रमण को होने से रोकती हैं या उनका उपचार कर सकती हैं. आधिकांश समय, ये दवाइयां सही तरह से काम करती हैं.

हालांकि दवाओं की मदद से एचआईवी पॉजिटिव होने से लेकर एड्स होने तक के समय को बढ़ाया जा सकता है. दवाएं देकर व्यक्ति को ज्यादा लंबे समय तक बीमारियों से बचाए रखने की कोशिश की जाती है. इलाज के दौरान एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स दिए जाते हैं. एजेडटी, डीडीएल, डीडीसी कुछ कॉमन ड्रग्स हैं, लेकिन इनका असर कुछ ही वक्त के लिए होता है.

होम्योपैथी होम्योपैथी कहती है कि बीमारियों से नहीं लड़ा जाता, बल्कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाया जाता.

लक्षण –  एचआईवी से ग्रस्त इंसान शुरू में बिल्कुल नॉर्मल और सेहतमंद लगता है. कुछ साल बाद ही इसके लक्षण सामने आते हैं. अगर किसी को नीचे दिए गए लक्षण हैं, तो उसे एचआईवी का टेस्ट कराना चाहिए  .

* एक महीने से ज्यादा समय तक बुखार बने रहना, जिसकी कोई खास वजह भी पता न चले.

* बिना किसी वजह के लगातार डायरिया बने रहना.

* लगातार सूखी खांसी.

* मुंह में सफेद छाले जैसे निशान होना.

* बिना किसी वजह के लगातार थकान बने रहना और तेजी से वजन गिरना.

* याददाश्त में कमी, डिप्रेशन आदि.

एचआईवी के लिए मेडिकल टेस्ट  –  एड्स के लक्षणों से शक होने पर निम्न टेस्ट  कराये .

* टेस्ट कराएं अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि

* कभी वह एचआईवी के संपर्क में आ गया होगा.

* पिछले 12 महीनों के दौरान अगर एक से ज्यादा पार्टनर के साथ उसके सेक्स संबंध रहे हों.

* अपने पार्टनर के सेक्सुअल बिहेवियर को लेकर वह निश्चिंत न हो.

* वह पुरुष हो और उसने कभी किसी पुरुष के साथ अनसेफ सेक्स किया हो. उसे एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज) हो. वह हेल्थ वर्कर हो, जो ब्लड आदि के सीधे संपर्क में आता हो.

* वह प्रेग्नेंट हो.

बचाव ही  इलाज है!

दुनिया भर में तेजी से पांव पसारते जा रहे एड्स का इलाज भी तक खोजा नहीं जा  सका है, इससे बचाव में ही इसका कारगर इलाज है.

एड्स का कोई उपचार नहीं है. एड्स के लिए जो दवा हैं, वे या तो एच आई वी के जीवाणु को बढ़ने से रोकते हैं या आपके शरीर के नष्ट होते हुए प्रतिरक्षा को धीमा करते हैं. ऐसा कोई ईलाज नहीं है कि एच आई वी के जीवाणु का शरीर से सफाया हो सके. अन्य दवाएं मौकापरस्त संक्रमण को होने से रोकती हैं या उनका उपचार कर सकती हैं. आधिकांश समय, ये दवाइयां सही तरह से काम करती हैं.

हालांकि दवाओं की मदद से एचआईवी पॉजिटिव होने से लेकर एड्स होने तक के समय को बढ़ाया जा सकता है. दवाएं देकर व्यक्ति को ज्यादा लंबे समय तक बीमारियों से बचाए रखने की कोशिश की जाती है. इलाज के दौरान एंटी-रेट्रोवायरल ड्रग्स दिए जाते हैं. एजेडटी, डीडीएल, डीडीसी कुछ कॉमन ड्रग्स हैं, लेकिन इनका असर कुछ ही वक्त के लिए होता है.

होम्योपैथी होम्योपैथी कहती है कि बीमारियों से नहीं लड़ा जाता, बल्कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाया जाता है. होम्योपैथिक इलाज में शरीर के इम्युनिटी स्तर को बढ़ाने की कोशिश की जाती है. इसके अलावा एड्स में होने वाले हर्पीज, डायरिया, बुखार आदि का इलाज किया जाता है.

एचआईवी पर काउंसलिंग  – एचआईवी टेस्ट और काउंसलिंग के लिए सरकार ने पूरे देश में 5 हजार इंटिग्रेटेड काउंसलिंग एंड टेस्टिंग सेंटर (आईसीटीसी) बनाए हैं. इन सेंटरों पर व्यक्ति की काउंसलिंग और उसके बाद बाजू से खून लेकर जांच की जाती है. यह जांच फ्री होती है और रिपोर्ट आधे घंटे में मिल जाती है. आमतौर पर सभी जिला अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों और कुछ कम्यूनिटी हेल्थ सेंटरों पर यह सुविधा उपलब्ध है. यहां पूरी जांच के दौरान व्यक्ति की आइडेंटिटी गुप्त रखी जाती है. पहले रैपिड या स्पॉट टेस्ट होता है, लेकिन इस टेस्ट में कई मामलों में गलत रिपोर्ट भी पाई गई हैं. इसलिए स्पॉट टेस्ट में पॉजिटिव आने के बाद व्यक्ति का एलाइजा टेस्ट किया जाता है. एलाइजा टेस्ट में कन्फर्म होने के बाद व्यक्ति को एचआईवी पॉजिटिव होने की रिपोर्ट दे दी जाती है.

एड्स के साथ जिंदगी

एचआईवी पॉजिटिव पाए जाने का मतलब यह नहीं है कि जिंदगी में कुछ नहीं रहा. एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति भी आम लोगों की तरह जिंदगी जी सकते हैं.  अगर डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक चला जाए तो यह सम्भव  हैं. तो  आईये जानते है  एड्स के साथ जिंदगी जीने के लिए किन- किन  बातो का ध्यान रखे.

* अपने डॉक्टर से मिलकर एचआईवी इन्फेक्शन से संबंधित अपना पूरा मेडिकल चेकअप कराएं.

* टीबी और एसटीडी का चेकअप भी जरूर करा लें. डॉक्टर की सलाह के मुताबिक दवाएं लें.

* महिलाएं थोड़े-थोड़े दिनों बाद अपनी गाइनिकॉलिजकल जांच कराती रहें.

* अपने पार्टनर को इस बारे में बता दें.

* दूसरे लोग वायरस से प्रभावित न हों, इसके लिए पूरी तरह से सावधानी बरतें.

*अगर अल्कोहल और ड्रग्स का इस्तेमाल करते है , तो बंद कर दें.

* अच्छी पौष्टिक डाइट लें और टेंशन से दूर रहें.

* नजदीकी लोगों से मदद लें और वक्त-वक्त पर प्रफेशनल काउंसलिंग कराते रहें.

* ब्लड, प्लाज्मा, सीमेन या कोई भी बॉडी ऑर्गन डोनेट न करें.

चुकंदर खाने से कम होता है हाई ब्लड प्रेशर और कोलेस्ट्राल, जानें 5 फायदे

चुकंदर का टेस्ट भले ही आपको पसंद न हो पर इससे होने वाले फायदे आपको जरूर हैरान कर देंगे. जी हां, चुकंदर का टेस्ट हर किसी को पसंद नहीं आता है. लेकिय ये आपके सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है. तो आइए जानते हैं, चुकंदर खाने के क्या लाभ है.

  1. कैंसर से बचा सकता है चुकंदर

चुकंदर के जूस में बेटालेन होता है जो एक घुलनशील एंटीआक्सीडेंट हैं. एक शोध के अनुसार, बेटालेन में कीमो-निवारक प्रभाव होते हैं जो कैंसर की घातक कोशिकाओं को फैलने से रोकते हैं. बेटालेन फ्री रेडिकल्स पर भी काम करता है.

2. वजन कम करता है

चुकंदर के जूस में कैलोरी बहुत कम होती है और फैट बिल्कुल भी नहीं होता है. ये वजन को बढ़ने नहीं देता है. सुबह की शुरूआत चुकंदर के जूस से करने से आप पूरे दिन एक्टिव रहते हैं.

3. ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करता है

चुकंदर का जूस हाई ब्लड प्रेशर को कम करने में मदद करता है. शोधकर्ताओं ने पाया है कि जो लोग रोजाना 250 मिलीलीटर चुकंदर का जूस पीते हैं, उनका सिस्टोलिक और डायस्टोलिक ब्लड प्रेशर दोनों कम होता है. चुकंदर के रस मे नाइट्रेट होता है जो रक्त वाहिकाओं को फैलाता है जिससे खून का दबाव कम पड़ता है.

4. कोलेस्ट्राल को कम करता है

अगर आपका कोलेस्ट्राल ज्यादा रहता है तो अपनी डाइट में चुकंदर का जूस जरूर शामिल करें. चुकंदर के जूस में फ्लेवोनोइड्स और फाइटोन्यूट्रिएंट्स होते हैं जो बैड कोलेस्ट्राल को कम करते हैं और गुड कोलेस्ट्राल को बढ़ाते हैं.

5. लिवर को ठीक रखता है

लिवर को ठीक रखता है- खराब लाइफस्टाइल, शराब के अत्यधिक सेवन से और ज्यादा जंक फूड खाने से लिवर खराब हो डाता है. चुकंदर में बीटेन एंटीआक्सीडेंट होता है जो लिवर में फैट जमा होने से रोकता है. ये लिवर को विषाक्त पदार्थों से भी बचाता है.

वजन कम करने के लिए डाइट में नींबू का ऐसे करें इस्तेमाल

नींबू  आपके हेल्द के लिए काफी फायदेमंद है. अगर आप वजन कम करना चाहते हैं तो इसके लिए भी नींबू बहुत ज्यादा लाभदायक है. यह बौडी में कौलेस्ट्राल के स्तर को भी कम करता है. तो चलिए जानते हैं, आप अपने डाइट में नींबू का कैसे इस्तेमाल करें कि आपका वजन झट से कम हो जाए.

  1. नींबू में एंटीऔक्सिडेंट पाया जाता है. जिससे यह आपके बौडी के विकारों पर कई प्रभाव डालता है. अच्छी त्वचा और अच्छे पाचन के लिए गुनगुने पानी में नींबू का रस सुबह-सुबह डाल कर पी सकते हैं.

2. अगर आप नौनवेज के शौकिन हैं तो  चिकन को लिए टेस्टी बनाने के लिए  रेसिपी में नींबू के रस का जरूर इस्तेमाल करें. यह फिटनेस फ्रीक लोगों के लिए फायदेमंद है और इसमें निश्चित रूप से कम कैलोरी होती है.

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3. नींबू की चाय वजन घटाने के लिए फायदेमंद है. एक कप चाय में 2-3 नींबू की बूंदें डालकर पीने से ये आपके बौडी को टोन करेगा.

4.सैलेड में नींबू का रस का इस्तेमाल अवश्य करें. अपने सलाद में पर्याप्त मात्रा में नींबू का रस निचोड़ें. यह न केवल आपको एक स्वादिष्ट और चटपटा स्वाद देता है, बल्कि वजन घटाने में भी तेजी से मदद करता है.

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बेहतर पाचन तंत्र के लिए क्या खाएं क्या नहीं

पाचनतंत्र भोजन को इस तरह पचाता है कि शरीर इस से मिले पोषक पदार्थों और ऐनर्जी का इस्तेमाल कर सके. कुछ प्रकार के भोजन जैसे सब्जियां और योगहर्ट पचाने में आसान होते हैं. विशेष प्रकार का भोजन खाने या अचानक आहार में कुछ बदलाव लाने से पाचनतंत्र की समस्याएं हो सकती हैं.

अगर पाचनतंत्र ठीक से काम न कर सके तो अपच की समस्या हो सकती है. अपच आमतौर पर कई बीमारियों और जीवनशैली से जुड़े कारकों की वजह से होता है. पाचन संबंधी समस्याओं के लक्षण आमतौर पर कुछ इस तरह होते हैं:

पेट फूलना, गैस, कब्ज, डायरिया, उलटी, सीने में जलन.

आहार जो पाचनतंत्र के लिए फायदेमंद है

छिलके वाली सब्जियां: सब्जियों में फाइबर भरपूर मात्रा में होता है, जो पाचन के लिए महत्त्वपूर्ण है. फाइबर कब्ज दूर करने में मदद करता है. सब्जियों के छिलके में फाइबर बहुत अधिक होता है, इसलिए अच्छा होगा कि आप पूरी सब्जी खाएं. आलू, बींस और फलियों के छिलकों में फाइबर बहुत ज्यादा मात्रा में पाया जाता है.

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फल: फलों में फाइबर बहुत अधिक पाया जाता है. इन में विटामिन और मिनरल्स भी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं जैसे विटामिन सी और पोटैशियम. उदाहरण के लिए सेब, संतरा और केला पाचन के लिए बेहद कारगर हैं.

साबूत अनाज से युक्त आहार: साबूत अनाज भी घुलनशील और अघुलनशील फाइबर का अच्छा स्रोत है. घुलनशील फाइबर बड़ी आंत में जैल जैसा पदार्थ बना लेता है, जिस से पेट भरा महसूस करते हैं और शरीर में ग्लूकोस का अवशोषण धीरेधीरे होता रहता है. अघुलनशील फाइबर कब्ज से बचाने में मदद करता है. फाइबर पाचनतंत्र में अच्छे बैक्टीरिया को पोषण भी देता है.

खूब तरल का सेवन करें: त्वचा को स्वस्थ रखने, इम्यूनिटी और ऊर्जा बढ़ाने के लिए शरीर को पानी की जरूरत होती है. पानी पाचन के लिए भी जरूरी है. जिस तरह हमारे पाचनतंत्र में अच्छे बैक्टीरिया को होना जरूरी है उसी तरह तरल भी बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है.

अदरक: अदरक पाचन की समस्याओं जैसे पेट फूलना में राहत देती है. सूखा अदरक पाउडर बेहतरीन मसाला है, जो भोजन को बेहतरीन स्वाद देता है. अदरक का इस्तेमाल चाय बनाने में भी किया जाता है. अच्छी गुणवत्ता का अदरक चुनें. चाय के लिए ताजा अदरक लें.

हलदी: हलदी आप की किचन में मौजूद ऐंटीइनफ्लैमेटरी और ऐंटीकैंसर मसाला है. इस में करक्युमिन पाया जाता है, जो पाचनतंत्र के भीतरी स्तर को सुरक्षित रखता है, अच्छे बैक्टीरिया को पनपने में मदद करता है और बोवल रोगों एवं कोलोरैक्टल कैंसर के उपचार में भी कारगर पाया गया है.

योगहर्ट: इस में प्रोबायोटिक्स होते हैं. ये लाइव बैक्टीरिया और यीस्ट हैं, जो पाचनतंत्र के लिए फायदेमंद होते हैं.

असंतृप्त वसा: इस तरह की वसा यानी फैट शरीर को विटामिनों के अवशोषण में मदद करते हैं. इन के साथ फाइबर पाचन को आसान बनाता है. पौधों से मिलने वाले तेल जैसे जैतून का तेल अनसैचुरेटेड फैट का अच्छा स्रोत है, लेकिन वसा का इस्तेमाल हमेशा ठीक मात्रा में करें. एक वयस्क को रोजाना अपने आहार में 2000 कैलोरी की जरूरत होती है, जिस में वसा की मात्रा 77 ग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए.

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क्या न खाएं

कुछ खाद्य एवं पेयपदार्थों के कारण पेट फूलना, सीने में जलन और डायरिया जैसी समस्याएं होती हैं. उदाहरण के लिए:

तेलीय/वसा युक्त आहार: तले और मसालेदार भोजन के सेवन से बचें, क्योंकि यह आप के पाचनतंत्र के लिए कई समस्याओं का कारण बन सकता है. ऐसे आहार को पचने में ज्यादा समय लगता है. इस कारण कब्ज, पेट फूलना या डायरिया जैसी समस्याएं होती हैं. तले खाद्यपदार्थों के सेवन से ऐसिडिटी और पेट फूलना जैसी समस्याएं होती हैं.

मसालेदार भोजन: मसालेदार भोजन पेट में दर्द या मलत्याग करते समय असहजता का कारण बन सकता है.

प्रोसैस्ड फूड: अगर आप को पाचन संबंधी समस्याएं हैं. प्रोसैस्ड खाद्यपदार्थों का सेवन न करें, इस तरह के आहार में फाइबर कम मात्रा में होता है, जबकि कृतिम चीनी, कृत्रिम रंग, नमक एवं प्रीजरर्वेटिव बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, जो आप की पाचन संबंधी समस्याओं को और बदतर बना सकते हैं, साथ ही फाइबर न होने के कारण इस तरह के भोजन को पचाने के लिए शरीर के ज्यादा काम करना पड़ता है और यह कब्ज का कारण बन सकता है.

रिफाइंड चीनी, सफेद रिफाइंड चीनी इनफ्लैमेटरी कैमिकल बनाती है और पाचनतंत्र में डिसबायोसिस को बढ़ावा देती है. इस से पाचनतंत्र में बैक्टीरिया का संतुलन बिगड़ जाता है. इस तरह की चीनी हानिकर बैक्टीरिया को बढ़ावा देती है.

शराब: शराब के सेवन से डीहाइड्रेशन हो जाता है, जो कब्ज और पेट फूलने का कारण बन सकता है. यह पेट एवं पाचनतंत्र के लिए नुकसानदायक है और लिवर के मैटाबोलिज्म में बदलाव ला सकती है. शराब ऐसिडिक होती है, इसलिए स्टमक यानी आमाशय के भीतरी अस्तर को नुकसान पहुंचा सकती है.

कैफीन: कैफीन, चाय, कौफी, चौकलेट, सौफ्ट ड्रिंक, एनर्जी ड्रिंक, बेक्ड फूड, आईसक्रीम में पाया जाता है. यह पाचनतंत्र के मूवमैंट को तेज करता है, जिस से पेट जल्दी खाली हो जाता है. इस से पेट दर्द और डायरिया जैसी समस्याएं हो सकती हैं.

कार्बोनेटेड पेय: इन में मौजूद गैस पेट फूलना जैसी समस्याओं का कारण बन सकती है. इस का असर आमाशय के भीतरी स्तर पर भी पड़ता है. साथ ही इस तरह के पेयपदार्थों में चीनी बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती है, जो पाचन की समस्याओं को और बढ़ा सकती है. कार्बोनेटेड पेय, शरीर में इलैक्ट्रोलाइट के संतुलन को बिगाड़ सकते हैं, जिस से शरीर डीहाइड्रेट हो सकता है.

पाचन को बेहतर बनाने के लिए अच्छी आदतें

चबाना: खाने को हमेशा अच्छी तरह चबा कर खाएं. आगे भोजन का पचना आसान हो जाता है, क्योंकि हारमोन इस पर बेहतर काम कर पाते हैं.

टेबल पर खाएं: खाते समय आप का ध्यान खाने पर हो, टेबल पर आराम से बैठ कर खाएं. खाते समय स्क्रीन के सामने न रहें.

रिलैक्स हो कर आराम से खाएं: अकसर हम काम की भागदौड़ में जल्दबाजी में खाते हैं, कभीकभी हम खाने का आनंद नहीं लेते. लेकिन जब हम रिलैक्स हो कर खाना खाते हैं, तो यह अच्छी तरह पचता है. अगर हम तनाव में होंगे, तो शरीर पचाने पर कम ध्यान देगा.

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सब के साथ मिल कर खाएं: इस से न केवल खाना पचाने में मदद मिलती है, बल्कि आपस में प्यार भी बढ़ता है और हम अपने वजन को भी नियंत्रित रख पाते हैं. परिवार में एकसाथ मिल कर खाना खाने से बच्चों और किशोरों को फायदा होता है. उन का आत्मविश्वास बढ़ता है, उग्र व्यवहार, खाने की समस्याओं, नशे की लत, अवसाद, आत्महत्या जैसे खयालों में कमी आती है.

 -डा. सुधा कंसल, रैसपिरेटरी स्पैश्यलिस्ट, इंद्रप्रस्थ अपोलो हौस्पिटल, दिल्ली.

आधुनिक जीवनशैली: नींद न आना बीमारी का खजाना

Writer- शाहिद ए चौधरी

आधुनिक युग की अर्थव्यवस्था ने ज्यादातर लोगों के कामकाज के टाइमटेबल को बदल दिया है. लौकडाउन की वजह से अब वर्क फ्रौम होम और नाइट ड्यूटी करना आवश्यक सा हो गया है. ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जिन को पर्याप्त नींद नहीं मिल पा रही है और जिस का असर उन के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है.

कहते हैं कुंभकरण साल में 6 माह तक गहरी नींद में सोता था. अगर वह आज के युग में होता तो उसे शायद रोजाना की आवश्यक 8 घंटे की नींद भी न मिलती, वह भी हम लोगों की तरह इलैक्ट्रौनिक स्क्रीन से चिपका हुआ नींद के लिए तरसता रहता. इसमें कोई दोराय नहीं है कि 21वीं शताब्दी में ‘जो सोवत है सो खोवत है’ कहावत एकदम सही हो गई है. रात में सोने का अर्थ यह है कि आप बहुत नुकसान में?हैं.

आधुनिक युग की अर्थव्यवस्था ने ज्यादातर लोगों के कामकाज के टाइम टेबल को बदल दिया है. नाइट ड्यूटी और वर्क फ्रौम होम करना लगभग आवश्यक सा हो गया है. जाहिर है इस के कारण ऐसे लोगों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही?है जिन को पर्याप्त नींद नहीं मिल पा रही है. हाल ही में किए गए एक सर्वे के अनुसार, लगभग एकतिहाई भारतीय पर्याप्त नींद से वंचित हैं. लेकिन इस का एक दूसरा पहलू यह भी है कि जो लोग नींद समस्या के समाधान संबंधी व्यापार से जुड़े हुए हैं उन की चांदी हो रही है.

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नींद न आना कोई नई बात नहीं?है. लेकिन आज के युग में अनेक चिंताजनक नए तत्त्वों ने इसे एक ऐसी महामारी बना दिया है कि जो किशोरों व युवाओं के साथसाथ बच्चों को भी प्रभावित कर रही है. इन तत्त्वों में बहुत अधिक तनाव से ले कर अतिसक्रिय दिमाग सहित हाइपर टैक्नोलौजी शामिल है.

दरअसल, अपर्याप्त नींद से जो स्वास्थ्य खतरे उत्पन्न हो रहे हैं उन के बारे में जानकारी को आम करना इतना आवश्यक हो गया है कि वर्ल्ड एसोसिएशन औफ स्लीप मैडिसिन को 15 मार्च को विश्व नींद दिवस मनाना पड़ा.

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि एकतिहाई कामकाजी भारतीय पर्याप्त नींद नहीं प्राप्त कर पा रहे?हैं, जिस से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो ही रही हैं, साथ ही, नींद के लिए बहुत ज्यादा पैसा भी खर्च करना पड़ रहा है.

कुछ वर्ष पहले यह सर्वे रीगस ने किया था जबकि टाइम पत्रिका की एक रिपोर्ट में कहा गया?था कि 2008 से प्रतिवर्ष नींद संबंधी खर्च में 8.8 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है.

एक अन्य सर्वे में मालूम हुआ कि 93 फीसदी भारतीय रात में 8 घंटे से भी कम की नींद ले पाते?हैं, जबकि 58 फीसदी का मानना है कि अपर्याप्त नींद के कारण उन का काम प्रभावित होता है और 38 फीसदी का कहना है कि उन्होंने कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों को सोते हुए देखा है. यह सर्वे नील्सन कंपनी ने फिलिप्स रेस्पीरौनिक्स के लिए किया?है, जो कि स्लीप एड व डायग्नौस्टिक उपकरणों के कारोबार से जुड़ी है.

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स्वास्थ्य समस्याएं

इस में कोई दोराय नहीं है कि पर्याप्त नींद न मिल पाने से कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं. स्लीप डिस्और्डर के 80 से अधिक प्रकार हैं. साथ ही, इस के कारण हार्ट अटैक, डिप्रैशन, हाई ब्लडप्रैशर, याददाश्त में कमी आदि समस्याएं भी हो सकती?हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि मोटापे को रोग समझने में हमें 25 वर्ष का समय लगा था, यही भूल नींद के सिलसिले में नहीं करनी चाहिए.

वहीं, अपर्याप्त नींद की समस्या ने नींद लाने का जबरदस्त बाजार खोल दिया है. पहले जो व्यक्ति रात में सही से सो पाता था तो अगले दिन कार्यस्थल पर जागते रहने के लिए एनर्जी ड्रिंक्स आदि लेने का प्रयास करता था, लेकिन अब नींद न आने से परेशान लोग मैडिकल हस्तक्षेप को महत्त्व देने लगे?हैं. यही वजह है कि देश में स्लीप क्लीनिक्स की बाढ़ सी आ गई है. मुंबई के लीलावती अस्पताल में पिछले कई वर्षों से स्लीप लैब मौजूद है. पहले इस लैब में सप्ताह में मुश्किल से एकदो रोगी आता था, लेकिन अब रोजाना ऐसे रोगियों की संख्या बढ़ती ही

जा रही है जिन को पोलीसोमोनिग्राम कराने की जरूरत पड़ती है. यह टैस्ट महंगा होता?है, इस से मालूम होता?है कि नींद क्यों नहीं आ रही. इस एक अस्पताल के आंकड़े से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाकी देश में क्या हाल होगा?  नींद न आने की समस्या ने गद्दों की मार्केट का भी विस्तार किया है.

बीमारी से फायदा

ऐसा नहीं है कि नींद न आने की समस्या से केवल मैडिकल प्रोफैशन से जुड़े लोगों व कंपनियों को ही लाभ हो रहा है. कुछ रोगियों ने तो अपनी इस बीमारी को भी फायदे में ही बदलने का प्रयास किया है. मसलन, ध्रुव मल्होत्रा को ही लें. इस 27 वर्षीय फोटोग्राफर को दिन में 3-4 घंटे से ज्यादा नींद नहीं आती?है. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि वे कई दिन लगातार नहीं सोए. लेकिन मल्होत्रा ने अपनी इस बीमारी का लाभ यह उठाया कि वे मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, बेंगलुरु, उड्डुपी व जयपुर में रातों को घूमे और फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों, टैक्सियों, फ्लाइओवर के नीचे, पार्कों की बैंचों पर सोते हुए लोगों की तसवीर खींचने लगे. इस तरह ‘स्लीपर्स’ नामक उन की प्रदर्शनी के लिए उन्हें एक नया विषय मिला.

इसी तरह से देर राततक इंटरनैट के जरिए भी बहुत से रोगी अपनी परेशानी को फायदे में बदलने का प्रयास कर रहे?हैं. ये लोग इंटरनैट के जरिए ब्लौगिंग व लेखन के अन्य कार्य करते हैं, इस से इन को आर्थिक लाभ होता?है. रातों को जागने वाले पहले भी रहे?हैं और आज भी मौजूद हैं. इतिहास ऐसी महान शख्सीयतों से भरा हुआ है जो रात को सो नहीं पाते थे. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व्हाइट हाउस में आधी रात के बाद देर तक चहलकदमी करने के लिए बदनाम रहे हैं. इसी तरह नेपोलियन बोनापार्ट, मर्लिन मुनरो, शेक्सपियर, चार्ल्स डिकिन्स आदि भी रतजगे किया करते थे. आज के दौर में देखें तो फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन व शाहरुख खान बमुश्किल ही रात को सो पाते?हैं.

इन शख्सीयतों के कारण ही साहित्य में ऐसे चरित्र भरे हुए हैं जो रात को आरामदायक नींद नहीं ले पाते थे, जैसे शरलौक होम्स आदि. वहीं, शायरों ने प्रेम के कारण नींद उड़ जाने को अपनी कविताओं का विषय बनाया है, मसलन, वीजेंद्र सिंह परवाज का एक शेर है:

जैसे तेरी याद ने मुझ को सारी रात जगाया है तेरे दिल पे क्या बीते जो तेरी नींद चुरा लूं मैं.

लेकिन आज नींद का न आना महान शख्सीयतों या उन से प्रेरित साहित्य के चरित्रों या रोमांटिक शायरी के विषयों तक सीमित नहीं रह गया है. आज नींद का न आना एक चिंताजनक महामारी बनती जा रही?है. इसलिए यह समझना आवश्यक?है कि इस समस्या के कारण?क्या हैं, यह किस तरह आधुनिक जीवन को प्रभावित कर रही है और इस का समाधान क्या है. लेकिन इस से पहले यह बताना आवश्यक है कि व्यक्ति को कितनी नींद रोजाना मिलनी चाहिए. विशेषज्ञों के अनुसार, नवजात शिशुओं को दिन में 12-18 घंटे की नींद मिलनी चाहिए, बच्चों को 11-14 घंटे की और वयस्कों को 6-9 घंटे की नींद कम से कम मिलनी चाहिए.

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एक मत यह भी

आधुनिक विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि व्यक्ति को दिन में कितनी नींद चाहिए, यह एक भ्रमित करने वाला प्रश्न है. शायद इसीलिए यह समस्या का हिस्सा भी है. उन के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति आप से मालूम करे कि आप को कितनी कैलोरी की जरूरत है तो यह बात बहुत चीजों पर निर्भर करती?है कि जैसे प्रेगनैंसी, आयु, ऐक्सरसाइज का स्तर, व्यवसाय आदि. कुछ लोग रात में 3-4 घंटे की नींद से काम चला लेते?हैं और कुछ को कम से कम 10-11 घंटे की नींद चाहिए होती?है. लेकिन नींद की अवधि व गुणवत्ता

2 अलगअलग बातें हैं.

अगर आप दिनभर ऊर्जा से भरे रहते हैं और अच्छे मूड में रहते?हैं, बिना कैफीन या शुगर का सेवन किए हुए तो समझ जाइए आप पर्याप्त नींद ले रहे हैं. दोपहर में नींद का आना सामान्य बात है, यह कोई बीमारी नहीं है.

हेल्थ: 21वीं सदी का बड़ा मुद्दा है बढ़ता बांझपन

चाहे तनाव हो, मोटापा हो, वायु प्रदूषण हो या देर से शादी होना, कुछ भी वजह हो, पिछले तकरीबन 50 सालों में मर्दों के शुक्राणुओं की तादाद में 50 फीसदी तक की कमी पाई गई है. इस में बेऔलाद जोड़ों के लिए स्पर्म डोनेशन का एक नया रास्ता तैयार हुआ है.

‘चाहिए 6 फुट लंबा, गोरा, गुड लुकिंग, अच्छे परिवार से, अच्छा पढ़ालिखा, आईआईटी/एमबीए, विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़ा, सेहतमंद व आकर्षक होना चाहिए…’

आप को यह एक शादी का इश्तिहार लगा होगा, लेकिन यह इस से हट कर स्पर्म डोनर यानी शुक्राणु दान करने वाले की खोज के लिए है. बेऔलाद जोड़े इस सूटेबल स्पर्म के लिए कुछ भी कीमत देने को तैयार रहते हैं.

‘‘अस्पताल में आने वाले तकरीबन  40 फीसदी जोड़ों की स्पर्म डोनर से ऐसी ही मांग होती है, जबकि कुछ की कुछ खास मांगें भी होती हैं जैसे स्पर्म लंबे आदमी का होना चाहिए, क्योंकि वह जोड़ा चाहता है कि उस के बच्चे की लंबाई अमिताभ बच्चन जैसी होनी चाहिए.

‘‘कुछ जोड़े आईआईटी पास का स्पर्म चाहते हैं, क्योंकि वे अपने परिवार में एक आइंस्टाइन चाहते हैं, जबकि नवजात के गुण उस के मातापिता के मिलेजुले रूप से होते हैं, जो बाद में विकसित होते हैं,’’ यह कहना है डाक्टर अमिता शाह का, जो एक नामचीन आईवीएफ विशेषज्ञ हैं और कोलंबिया एशिया अस्पताल में प्रैक्टिस करती हैं.

ज्यादातर लोगों के दिमाग में यह घुसा हुआ है कि स्पर्म दान करना बहुत ही शर्मनाक बात है, लेकिन अब लोग धीरेधीरे इसे स्वीकार कर रहे हैं. बड़े कारोबारी, जो अपनी लक्जरी कार में स्पर्म दान के लिए आते हैं, के अलावा स्कूल व कालेज जाने वाले लड़के भी क्लिनिकों के हस्तमैथुन कमरे में अपनी मर्दानगी आजमाने आते हैं.

इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल साइंस के नियमों के तहत स्पर्म दान करने वाले की उम्र 21 साल से 45 साल की उम्र के बीच की होनी चाहिए, इस के बावजूद बहुत से टीनेजर भी स्पर्म दान करते हैं. यहां केवल पैसा ही आकर्षण का केंद्र नहीं है, बल्कि स्कूली लड़के एक क्लिनिक के दान कक्ष में अपना सैक्स का जोश शांत करने के लिए भी जाते हैं, क्योंकि ज्यादातर फर्टिलिटी क्लिनिकों का लुक काफी जबरदस्त होता है.

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नोएडा के मैक्स सैंटर ने तो मौडल क्लाडिया शिफर की मादक तसवीर लगाई हुई है, जिस से स्पर्म दान बढ़े. और भी बहुत से लोकल क्लिनिक हैं, जिन्होंने दान कक्ष को अच्छे से सजाया हुआ है. उदाहरण के तौर पर मयूर विहार, दिल्ली का ठकराल क्लिनिक है, जिस की दीवारों पर खूबसूरत महिलाओं की उत्तेजक तसवीरें लगी हैं और वे अपनी हथेलियों से अपने उभार दबा रही हैं. एक बार दान कक्ष में जाने के बाद आप खुद को नहीं रोक सकते.

ऐसा दान कक्ष छोटा व आरामदायक होता है. एक क्लिनिक के कमरे की दीवार पर लगे शीशे में नीली, गुलाबी बिकिनी पहने, चीनी मिट्टी से बनी मौडल मूर्तियां रखी थीं. इस के चारों तरफ की तसवीरों में भी औरतें नाममात्र के कपड़ों में थीं. कमरे के एक तरफ फोम के गद्दे वाला आरामदायक बिस्तर लगा था.

इस के पास की एक मेज पर एक विदेशी मैगजीन का ताजा अंक रखा हुआ था, बिकिनी विशेषांक था. दान करने वाले को जोश में लाने के लिए टैलीविजन व डीवीडी भी थीं, जिन पर उत्तेजक वीडियो देखी जा सकती थीं.

मैक्स सैंटर के एक मुलाजिम ने बताया कि आमतौर पर एक डोनर कक्ष में 5-15 मिनट का समय लेता है, पर हमेशा ऐसा नहीं होता कि एक परफैक्ट हैल्दी स्पर्म डोनर का वीर्य लिया ही जाए, क्योंकि अच्छी क्वालिटी के मानकों पर खरा उतरने के बाद ही उस के वीर्य को स्वीकार किया जाता है.

अभी हाल ही में एक औनलाइन इश्तिहार में चेन्नई के एक जोड़े ने साफतौर पर एक आईआईटी पास व खूबसूरत नौजवान के स्पर्म की मांग की थी, जिस के लिए वे लोग 50,000 रुपए प्रति मिलीलिटर तक देने को तैयार थे. उन की इस मांग ने इसे बहस का मुद्दा बना दिया है कि क्या सच में स्पर्म से नवजात का व्यवसाय और सामाजिक जिंदगी में जगह तय हो जाती है?

माहिरों का कहना है कि ऐसा बिलकुल नहीं है. ऐसा अनुरोध करना केवल हास्यास्पद है. लेकिन जोड़े ऐसा करते हैं, क्योंकि वे एक बेहतर वंशावली चाहते हैं.

कौंवैंट स्कूल से पढ़े दानदाताओं की सब से ज्यादा मांग है, क्योंकि आम सोच होती है कि दानकर्ता अच्छे समाज से है और वह वीर्य दान केवल पैसा कमाने के लिए नहीं करेगा.

मुंबई के डाक्टर अनीरधा मालपानी का कहना है कि यह केवल एक भरम है कि ऐसे दाताओं को सामान्य से ज्यादा मिलता है. कुछ क्लिनिकों व अस्पतालों का आरोप है कि हमारे 1,500-2,000 रुपए के भुगतान के अलावा भी जोड़े निजी तौर पर भी भुगतान करते हैं. कुछ जोड़े अपनी पेशकश औनलाइन पेश कर देते हैं.

मौलाना आजाद मैडिकल कालेज के छात्र रह चुके बालकृष्ण अय्यर ने बताया, ‘‘मैं ने छात्र जीवन में ही अपने स्पर्म दान किए थे. मैं हमेशा दूसरों की मदद करना चाहता था. मैं ने नागपुर के एक जोड़े को अपने स्पर्म दान किए थे. वे सरकारी महकमे में ऊंचे पद पर थे.

‘‘वे लोगों की नजरों में नहीं आना चाहते थे. मैं ने उन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. उन्होंने मेरा हवाई यात्रा का खर्चा भी उठाया और शहर के अच्छे थ्रीस्टार होटल का भी सारा खर्चा उठाया, क्योंकि इस सब में मु?ो एक हफ्ता लग गया था.

‘‘मु?ो स्पर्म दान करने के बदले 35,000 रुपए भी मिले थे. आज वह जोड़ा आगरा में 2 बच्चों के साथ रहता है. मु?ो खुशी है कि मेरा स्पर्म किसी के काम आया.’’

इस सामाजिक काम को करने के लिए बालकृष्ण अय्यर जैसे कई लोग हैं, जिन्होंने ऐसा इंटरनैट के जरीए किया है. वैसे तो स्पर्म दाताओं में 56 फीसदी शहरी होते हैं, पर अब गांवदेहात से भी ऐसे लोग आगे बढ़ने लगे हैं.

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लेकिन यह माध्यम कितना सुरक्षित है, इस पर सवालिया निशान लगा है. नकली सीमन एक बड़ा जुआ है, जिस के बारे में जोड़ों को ठीक से जागरूक होना चाहिए. इस के बारे में जोड़ों को जानकारी देने के लिए बहुत से पेशेवर संस्थान भी हैं. वे जोड़ों को सेहतमंद स्पर्म मुहैया कराते हैं व खतरा घटाते हैं.

लेकिन अभी भी 10 फीसदी बेऔलाद जोड़े ऐसे हैं, जो क्लिनिक में आने से शरमाते हैं. वे पारिवारिक डाक्टर के पास जाना पसंद करते हैं, जो प्रक्रिया को सुपरवाइज करता है. इस तरह के केसों में डाक्टरी जांच अधूरी होती है, जिस से डर बना रहता है.

डाक्टर कहते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है, क्योंकि ज्यादातर जोड़े पढ़ेलिखे हैं और इस के लिए वे बहुतकुछ देते हैं. पर पिछले दशक से अब तक स्पर्म दाताओं के नजरिए में बहुत से बदलाव आ गए हैं, फिर भी लोगों की सोच में बहुत सी भ्रांतियां हैं.

2 दशक पहले जब हम ने मुंबई में पहला स्पर्म बैंक शुरू किया था, तो हम से पूछा जाता था कि हम सार्वजनिक रूप से इस शब्द का इस्तेमाल कैसे करेंगे. उस समय डोनर पाना भी मुश्किल था, क्योंकि 25 साल पहले मर्दों का कहना था कि वे सड़क पर अपने जैसों को घूमता नहीं देखना चाहते, पर आज हमारे क्लिनिक में रोजाना 8-9 डोनर खुद आते रहते हैं.

भारत की जानीमानी डाक्टर अंजलि मालपानी कहती हैं कि यह अलग बात है कि इन दानदाताओं में से 70 फीसदी को रिजैक्ट कर दिया जाता है, क्योंकि नियम बहुत सख्त हैं. हर हफ्ते क्लिनिक 500 शीशी सेहतमंद स्पर्म इकट्ठा करता है. हमें मुलुंड, नवी मुंबई व पश्चिमी उपनगर से भी काफी तादाद में नौजवान विद्यार्थी मिलते हैं, जो मामूली पैसों पर उपलब्ध हैं, लेकिन हम आईसीएमआर के शुक्रगुजार हैं कि उस ने डोनर के लिए निश्चित उम्र व मानक तय कर दिए हैं.

दिल्ली के डाक्टर अनूप गुप्ता मानते हैं कि हर फर्टिलिटी क्लिनिक में  रोजाना स्पर्म डोनेशन के लिए 10-15 फोन आते हैं.

दक्षिण दिल्ली की थापर डायग्नोस्टिक लैब के डायरैक्टर सुनील थापर कहते हैं कि उन्हें स्कूली बच्चों से लगातार ईमेल रिक्वैस्ट मिलती रहती हैं. वे लिखते हैं कि स्पर्म दान के लिए वे पूरी तरह फिट हैं. पैसे के अलावा सैक्स के जोश के चलते भी वे अपना स्पर्म दान करना चाहते हैं.

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के नियमों के तहत डोनर की उम्र कम से कम 21 साल होनी चाहिए, लेकिन अकसर नियमों का पालन नहीं होता, जबकि नियमों के उल्लंघन पर फर्टिलिटी क्लिनिक का लाइसैंस रद्द होना व संचालकों को जेल भेजा जाना चाहिए.

डाक्टर अंजलि मालपानी का कहना है कि जब हम ने मुंबई में पहला स्पर्म बैंक खोला, तो एक मिलीलिटर वीर्य  में आसानी से 40-60 मिलियन स्पर्म मिल जाते थे, लेकिन अब ये घट कर तकरीबन 45 फीसदी हो गया है.

प्रजनन प्रणाली के भारतीय गाइडलाइंस के सहायक डाक्टर पीएम भार्गव कहते हैं कि स्पर्म (शुक्राणुओं) के घटने को साल 1990 के बीच में पश्चिम में नोटिस किया गया. कुछ भारतीय डाक्टर भी मानते हैं कि भारतीय मर्दों में भी शुक्राणुओं की संख्या लगातार घट रही है.

पश्चिमी अध्ययन बताते हैं कि हर साल शुक्राणुओं की तादाद 2 फीसदी की दर से घट रही है. इस हिसाब से अगले 40-50 सालों में कोई भी मर्द उपजाऊ नहीं रहेगा.

हिंदी फिल्म ‘विकी डोनर’ के कलाकार आयुष्मान खुराना का कहना है कि जब आप स्पर्मदाताओं जैसे गंभीर मुद्दों पर फिल्म बनाते हैं, तो इस विषय की खोज करनी होती है.

यह बहुत ही नोबल काम था. अगर रक्तदान जीवन देता है, तो स्पर्मदान जीवन की आज्ञा देता है. शहरी मर्दों  में शुक्राणुओं की संख्या बहुत कम हो गई है, जिस से स्पर्मदान आज की जरूरत है.

इसी फिल्म में आईवीएफ विशेषज्ञ की भूमिका निभाने वाले अन्नू कपूर का कहना है कि एक आम भारतीय सैक्स के बारे में बात क्यों नहीं करना चाहता? निजी तौर पर मु?ो यह सम?ा नहीं आता कि भारत में लोग सैक्स और हस्तमैथुन को ले कर इतना हल्लागुल्ला क्यों करते हैं? यह एक सामान्य चीज है, जो जीवन देती है. मेरे लिए सैक्स पवित्र है. हम इसी से जनमे हैं.                    द्य

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