Funny Story : वीकली ऑफ – पति महोदय की फरमाइशें

Funny Story : साप्ताहिक छुट्टी के दिन खूब मजे करने के इरादे से सुबह उठते ही रवि ने किरण से   2-3 बढि़या चीजें बनाने को कहा और बताया कि उस के 2 दोस्त सपत्नीक हमारे घर लंच पर आ रहे हैं. इस से पहले कि किरण रवि से पूछ पाती कि नाश्ते में आज क्या बनाया जाए आंखें मलते हुए रवि के बेडरूम से आ रही रोजी और बंटी ने अपनी मम्मी को बताया कि वह इडली और डोसा खाना चाहते हैं.

पति और बच्चों की फरमाइशें सुन कर किरण रसोईघर में जाने के लिए उठी ही थी कि  उसे याद आया कि गैस तो खत्म होने को है.

‘‘रवि, स्कूटर पर जा कर गैस एजेंसी से सिलेंडर ले आओ, गैस खत्म होने वाली है. कहीं ऐसा न हो कि मेहमान घर आ जाएं और गैस खत्म हो जाए.’’

‘‘ओह, एक तो हफ्ते भर बाद एक छुट्टी मिलती है वह भी अब तुम्हारे घर के कामों में बरबाद कर दूं. तुम खुद ही रिकशे पर जा कर गैस ले आओ, मुझे अभी कुछ देर और सोने दो.’’

‘‘मैं कैसे ला सकती हूं, बच्चों के लिए अभी नाश्ता तैयार करना है और साढ़े 8 बज रहे हैं, अब और कितनी देर सोना है तुम्हें,’’ किरण ने अपनी मजबूरी जाहिर की.

‘‘जाओ यार यहां से, तंग मत करो, लाना है तो लाओ, नहीं तो खाना होटल से मंगवा लो, पर मुझे कुछ देर और सोने दो, वीकली रेस्ट का मजा खराब मत करो.’’

‘‘छुट्टी मनाने का तुम्हें इतना ही शौक है तो दोस्तों को दावत क्यों दी,’’ खीझते हुए किरण बोली और माथे    पर बल डालते हुए रसोई की तरफ बढ़ गई.

‘‘बहू, पानी गरम हो गया?’’ जैसे ही यह आवाज किरण के कानों में पड़ी उस का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘पानी कहां से गरम करूं, पिताजी, गैस खत्म होने वाली है और रवि को छुट्टी मनाने की पड़ी है.’’

1 घंटे बाद रवि उठा और     गैस एजेंसी से गैस का सिलेंडर और मंडी से सब्जियां ला कर उस ने किरण के हवाले कर दीं.

‘‘स्नान कर के मैं तैयार हो जाता हूं,’’ रवि बोला, ‘‘कहीं पानी न चला जाए, बच्चे कहां हैं?’’

सिलेंडर आया देख किरण थोड़ी ठंडी हुई और फिर बोली, ‘‘बच्चे पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने गए हैं,’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम शांति से काम कर सकोगी, नाश्ता तो कर गए हैं न,’’ कहते हुए रवि बाथरूम में घुस गया.

‘‘नाश्ता कहां कर गए हैं, गैस तो चाय रखते ही खत्म हो गई थी,’’ किरण की आवाज रवि के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही टकरा कर लौट आई.

‘10 बजने को हैं, यह शांति अभी तक क्यों नहीं आई? सारे बर्तन साफ करने को पड़े हैं, कपड़ों से मशीन भरी पड़ी है,’ किरण मन ही मन बुदबुदाई.

‘‘रवि, जरा मीना के यहां फोन कर के पता करना, यह शांति की बच्ची अभी तक क्यों नहीं आई,’’ लेकिन बाथरूम में चल रहे पानी के शोर में किरण की आवाज दब कर रह गई.

स्नान कर के जैसे ही रवि बाथरूम से निकला तो देखा कि किरण बर्तन साफ करने में जुटी है. भूख ने उस के पारे को और बढ़ा दिया, ‘‘अब क्या खाना भी नहीं मिलेगा?’’

‘‘खाओगे किस में, एक भी बर्तन साफ नहीं है.’’

‘‘शांति कहां हैं, जब यह वक्त पर आ नहीं सकती तो किसी और को काम पर रख लो, कम से कम खाना तो वक्त पर मिले,’’ 2 अलगअलग बातों को एक ही वाक्य में समेटते हुए रवि बोला.

‘‘तुम से बोला तो था कि फोन कर के मीना के यहां से शांति के बारे में पूछ लो लेकिन तुम सुनते कब हो. अब छोड़ो, 5 मिनट इंतजार करो, मैं बना देती हूं तुम्हारे लिए कुछ खाने को.’’

‘‘बाबूजी ने नाश्ता कर लिया?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, उन्हें दूध के साथ ब्रैड दे दी थी. वैसे भी वह हलका ही नाश्ता करते हैं.’’

नाश्ते से फ्री होते ही किरण बिना नहाएधोए रसोई में दोपहर का खाना बनाने में जुट गई.

‘‘आप के दोस्त आते ही होंगे, काम जल्दी निबटाना होगा. ऐसा करो, कम से कम तुम तो तैयार हो जाओ…और तुम ने यह क्या कुर्तापायजामा पहन रखा है, कम से कम कपड़े तो बदल लो.’’

‘‘अरे भई, कपड़े निकाल कर तो दो, और उन्हें आने में अभी 1 घंटा बाकी है.’’

‘‘अलमारी से कपड़े निकाल नहीं सकते. आप को तो हर चीज हाथ में चाहिए,’’ खीजती हुई किरण अलमारी से कपड़े भी निकालने लगी, ‘‘अभी सब्जियां काटनी हैं, आटा गूंधना है, कितना काम बाकी है.’’

सब्जियां गैस पर चढ़ा कर किरण नहाने चली गई. बच्चों को भी नहला कर किरण ने तैयार कर दिया.

थोड़ी देर बाद ही रवि के दोस्त अपने बीवीबच्चों के साथ घर आ गए. हाल में बैठा कर रवि उन की खातिरदारी में लग गया. किरण, पानी लाना, किरण, खाना लगा दो, किरण, ये ला दो, वो ला दो के बीच चक्कर लगातेलगाते किरण थक चुकी थी लेकिन रवि की फरमाइशें पूरी नहीं हो रही थीं.

शाम 4 बजे जब सारे मेहमान चले गए तब जा कर कहीं किरण ने चैन की सांस ली.

वह थोड़ी देर लेटना चाहती थी लेकिन तभी बाबूजी की आवाज ने उस के लेटने के अरमान पर पानी फेर दिया, ‘‘बहू, जरा चाय तो बना दो, सोचता हूं थोड़ी दूर टहल आऊं.’’

किरण ने चाय बना कर जैसे ही बाबूजी को दी कि बच्चे उठ गए, रवि सो चुका था. बच्चों को कुछ खिलापिला कर अभी उसे थोड़ी फुर्सत हुई थी कि काम वाली शांति बाई ने बेल बजा कर उस के चैन में खलल डाल दिया.

शांति को देखते ही किरण भड़क उठी, ‘‘क्या शांति, यह तुम्हारे आने का टाइम है. सारा काम मुझे खुद करना पड़ा. नहीं आना होता है तो कम से कम बता तो दिया करो, तुम्हें मालूम है कि कितनी परेशानी हुई आज,’’ एक ही सांस में किरण बोल गई.

‘‘क्या करूं बीबीजी, आज मेरे मर्द को काम पर नहीं जाना था, सो कहने लगा कि आज तू मेरे पास रह,’’ शांति ने अपनी रामकहानी सुनानी शुरू कर दी.

‘‘चल छोड़ अब रहने दे, जल्दी से कपड़े धो ले, पानी आ गया, सारे कपड़े गंदे हो गए हैं,’’ 2 घंटे शांति के साथ कपड़े धुलवाने और साफसफाई करवाने के बाद किरण डिनर बनाने में जुट गई. सब को खाना खिला कर जब रात को वह बिस्तर पर लेटी तो रवि अपनी रूमानियत पर उतर आया.

‘‘अब तंग मत करो, सो जाओ चुपचाप, मैं भी थक गई हूं.’’

‘‘क्या थक गई हूं, रोज तुम्हारा यही हाल है. कम से कम छुट्टी वाले दिन तो मान जाया करो.’’

‘‘छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी, तुम्हारी तो छुट्टी है, पर मुझ से क्यों ट्रिपल शिफ्ट में काम करवा रहे हो?’’

Short Story : आशीर्वाद – क्या हुआ नीलम की कहानी का अंजाम

Short Story : नीलम ने आलोक के लिए चाय ला कर मेज पर रख दी और चुपचाप मेज के पास पड़ी कुरसी पर बैठ केतली से प्याले में चाय डालने लगी. आलोक ने नीलम के झुके हुए मुख पर दृष्टि डाली. लगता था, वह अभीअभी रो कर उठी है. आलोक रोजाना ही नीलम को उदास देखता है. वैसे नीलम रोती बहुत कम है. वह समझता है कि नीलम के रोने का कारण क्या हो सकता है, इसलिए उस ने पूछ कर नीलम को दोबारा रुलाना ठीक नहीं समझा. उस ने कोमल स्वर में पूछा, ‘‘मां और पिताजी ने चाय पी ली?’’ ‘‘नहीं,’’ नीलम के स्वर में हलका सा कंपन था.

‘‘क्यों?’’ ‘‘मांजी कहती हैं कि उन्हें इस कदर थकावट महसूस हो रही है कि चाय पीने के लिए बैठ नहीं सकतीं और पिताजी को चाय नुकसान करती है.’’

‘‘तो पिताजी को दूध दे देतीं.’’ ‘‘ले गई थी, किंतु उन्होंने कहा कि दूध उन्हें हजम नहीं होता.’’

आलोक चाय का प्याला हाथ में ले कर मातापिता के कमरे की ओर जाने लगा तो नीलम धीरे से बोली, ‘‘पहले आप चाय पी लेते. तब तक उन की थकान भी कुछ कम हो जाती.’’ ‘‘तुम पियो. मेरे इंतजार में मत बैठी रहना. मां को चाय पिला कर अभी आता हूं.’’

नीलम ने चाय नहीं पी. गोद में हाथ रखे खिड़की से बाहर देखती रही. काश, वह भी हवा में उड़ते बादलों की तरह स्वतंत्र और चिंतारहित होती. नीलम के पिता एक सफल डाक्टर थे. पर उन की सब से बड़ी कमजोरी यह थी कि वे किसी को कष्ट में नहीं देख सकते थे. जब भी कोई निर्धनबीमार उन के पास आता तो वे उस से फीस का जिक्र तक नहीं करते, बल्कि उलटे उसे फल व दवाइयों के लिए कुछ पैसे अपने पास से दे देते. परिणाम यह हुआ कि वे जितना काम व मेहनत करते थे उतना धन संचित नहीं कर पाए. फिर उन की लंबी बीमारी चली, जो थोड़ाबहुत धन था वह खत्म हो गया.

उन की मृत्यु के बाद सिर्फ एक मकान के अलावा और कोई संपत्ति नहीं बची थी. सब से बड़ी बहन होने के नाते नीलम ने घर का भार संभालना अपना कर्तव्य समझा. उस ने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली. छोटी बहन पूनम मैडिकल कालेज में चौथे साल में थी और भाई अनुनय बीए द्वितीय वर्ष में. आलोक ने जब नीलम के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो उस ने साफ इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि जब तक पूनम पढ़ाई पूरी कर के कमाने लायक नहीं हो जाती, तब तक वह विवाह की बात सोच भी नहीं सकती. इस पर आलोक ने आश्वासन दिया था कि विवाह में वह कुछ खर्च न होने देगा और विवाह के पश्चात भी नीलम अपना वेतन घर में देने के लिए स्वतंत्र होगी. आलोक का यह तर्क था कि वह एक मित्र के नाते उस के परिवार के प्रति सबकुछ नहीं कर सकता जो परिवार का सदस्य बन जाने के पश्चात कर सकेगा.

यह तर्क नीलम को भी ठीक लगा था. कभीकभी अपनी चिंताओं के बीच वह खुद को बहुत ही अकेला व असहाय सा पाती थी. उस ने सोचा यदि उसे आलोक जैसा साथी, जो उस की भावनाओं को अच्छी तरह समझता है, मिल गया तो उस की चिंताएं कम हो जाएंगी. फिर भी नीलम की आशंका थी कि अकेली संतान होने के कारण आलोक से उस के मातापिता को बहुत सी आशाएं होंगी और इसलिए शायद उन्हें दहेजरहित लड़की को अपनी बहू बनाने में आपत्ति हो सकती है, पर आलोक ने इस बात को भी टाल दिया था. उस का कहना था कि उस के मातापिता उसे इतना अधिक प्यार करते हैं कि उस की इच्छा के सामने वे दहेज जैसी बात पर सोचेंगे भी नहीं.

आलोक के पिता प्रबोध राय एक साधारण औफिस असिस्टैंट की हैसियत से ऊपर न उठ सके थे. आलोक उन की आशाओं से बहुत अधिक उन्नति कर गया था. घर के रहनसहन का स्तर भी ऊंचा उठ गया था. आलोक सोचता था कि उस के मातापिता उस की अर्जित आय से ही इतने अधिक संतुष्ट हैं कि नीलम के वेतन की आवश्यकता अनुभव नहीं करेंगे. यही उस की भूल थी, जिसे वह अब समझ पाया था. उस के मातापिता ने पुत्र का विवाह बिना दहेज लिए केवल इसलिए किया था कि बहू अपने वेतन से वह कमी पूरी कर देगी. जब उन की वह आशा पूरी नहीं हुई तो वे क्षुब्ध हो उठे. उन्हें इस भावना ने जकड़ लिया कि उन्हें धोखा दिया गया. आलोक कमरे में पहुंचा तो उस की मां सुमित्रा अपने पलंग पर लेटी हुई थीं. प्रबोध राय पास ही पड़ी कुरसी पर बैठे समाचारपत्र देख रहे थे. आलोक बोला, ‘‘मां, नीलम कह रही थी कि आप थकान महसूस कर रही हैं. चाय पी लीजिए, थकान कुछ कम हो जाएगी.’’

‘‘रहने दे बेटा, चाय के लिए मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है.’’ ‘‘तो बताइए फिर क्या लेंगी? नीलम पिताजी के लिए मौसमी का रस निकाल रही है, आप के लिए भी निकाल देगी.’’

‘‘रहने दे, मैं रस नहीं पिऊंगी. मैं तेरी मां हूं. क्या मुझे अच्छा लगता है कि मैं अपने खर्चे बढ़ाबढ़ा कर तेरे ऊपर बोझ बन जाऊं? क्या करूं, उम्र से मजबूर हूं. अब काम नहीं होता.’’ ‘‘तो फिर क्यों नहीं नीलम को रोटी बनाने देतीं? वह तो कहती है कि सुबह आप दोनों के लिए पूरा भोजन बना कर स्कूल जा सकती है.’’

‘‘कैसी बातें कर रहा है, आलोक? 7 बजे का पका खाना 12 बजे तक बासी नहीं हो जाएगा? तू ने कभी अपने पिताजी को ठंडा फुलका खाते देखा है?’’ फिर एक ठंडी सांस ले मां बोलीं, ‘‘मांबाप पुत्र का विवाह कितने अरमानों से करते हैं. घर में बहू आएगी, रौनक होगी. शरीर को आराम मिलेगा,’’ फिर एक और लंबी सांस छोड़ कर बोलीं, ‘‘खैर, इस में किसी का क्या दोष? अपनाअपना समय है. श्यामसुंदर लाल 25 लाख रुपए नकद और एक कार देने का वादा कर रहे थे.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, मां? जो लड़की इतनी रकम ले कर आती वह क्या आप को रस निकाल कर देती? कार में उसे फिल्में दिखाने और शौपिंग कराने में ही मेरा आधे से ज्यादा वेतन स्वाहा हो जाता. ऊपर से उस के उलाहने सुनने को मिलते कि उस के मायके में तो इतने नौकरचाकर काम करते थे. और मां, यदि मेरा विवाह अभी हुआ ही न होता तो क्या होता? यदि नीलम कुछ लाई नहीं, तो वह अपने ऊपर खर्च भी तो कुछ नहीं कराती. तुम से इतनी बार मैं ने कहा है कि नौकर रख लो, पर तुम्हें तो नौकर के हाथ का खाना ही पसंद नहीं. अब तुम ही बताओ कि यह समस्या कैसे हल हो?’’ सुमित्रा के पास जो समाधान था, वह उस के बिना बताए भी आलोक जानता था, सो, वह चुप रही. आलोक ही फिर बोला, ‘‘थोड़े दिन और धीरज रखो, मां, पूनम ने आखिरी वर्ष की परीक्षा दे दी है. अब उस का खर्च तो समाप्त हो ही जाएगा. अनुनय भी 1-2 वर्ष में योग्य हो जाएगा और उस के साथ नीलम का उस का उत्तरदायित्व भी खत्म हो जाएगा. वह नौकरी छोड़ देगी.’’

‘‘अरे, एक बार नौकरी कर के कौन छोड़ता है? फिर वह इसलिए धन जमा करती रहेगी कि बहन का विवाह करना है.’’

आलोक हंस कर बोला, ‘‘इतने दूर की चिंता आप क्यों करती हैं मां? पूनम डाक्टर बन कर स्वयं अपने विवाह के लिए बहुत धन जुटा लेगी.’’ ‘‘मुझे तो तेरी ही चिंता है. तेरे अकेले के ऊपर इतना बोझ है. मुझे तो छोड़ो, इन्हें तो फल इत्यादि मिलने ही चाहिए, नहीं तो शरीर कैसे चलेगा?’’

तभी नीलम 2 गिलासों में मौसमी का जूस ले कर कमरे में आई. आलोक हंस कर बोला, ‘‘देखो मां, तुम तो केवल पिताजी की आवश्यकता की बात कह रही थीं, नीलम तो तुम्हारे लिए भी जूस ले आई है. अब पी लो. नीलम ने इतने स्नेह से निकाला है. नहीं पिओगी तो उस का दिल दुखेगा.’’ इस प्रकार की घटनाएं अकसर होती रहतीं. मां का जितना असंतोष बढ़ता जाता है, आलोक का पत्नी के प्रति उतना ही मान और अनुराग. विवाह के पश्चात नीलम ने एक बार भी सुना कर नहीं कहा कि आलोक ने उसे जो आश्वासन दिए थे वे निराधार थे. उस ने कभी यह नहीं कहा कि आलोक के मातापिता की तरह उस के मातापिता ने भी उसे योग्य बनाने में उतना ही धन खर्च किया था. तब क्या उस का उन के प्रति इतना भी कर्तव्य नहीं है कि वह अपने बहनभाई को योग्य बनाने में सहायता करे. वह तो अपने सासससुर को संतुष्ट करने में किसी प्रकार की कसर नहीं छोड़ती. स्कूल से आते ही घरगृहस्थी के कार्यों में उलझ जाती है.

कभी उस ने पति से कोई स्त्रीसुलभ मांग नहीं की. अपने मायके से जो साडि़यां लाई थी, अब भी उन्हें ही पहनती, पर उस के माथे पर शिकन तक नहीं आती थी. नीलम ने सरलता से परिस्थितियों से समझौता कर लिया था, उसे देख आलोक उस से काफी प्रभावित था. यही बात वह अपने मातापिता को समझाने का प्रयत्न करता था, किंतु वे तो जैसे समझना ही नहीं चाहते थे. वे घर के खर्चों को ले कर घर में एक अशांत वातावरण बनाए रखते, केवल इसलिए कि वे बहू को यह बतलाना चाहते थे कि वह अपने बहनभाई के ऊपर जो धन खर्च करती है वह उन के अधिकार का अपहरण है. नीलम स्कूल के लिए तैयार हो रही थी. उसे सास की पुकार सुनाई दी तो बाहर निकल आई. पड़ोस के 2 लड़कों ने उन्हें बताया कि प्रबोध राय जब अपने नियम के अनुसार सुबह की सैर के बाद घर लौट रहे थे, तब एक स्कूटर वाला उन्हें धक्का दे कर भाग निकला और वे सड़क पर गिरे पड़े हैं. नीलम तुरंत घटनास्थल पर पहुंची. ससुर बेहोश पड़े थे. नीलम कुछ लोगों की सहायता से उन्हें उठा कर घर लाई.

उस ने जल्दी से पूनम को फोन किया, पूनम ने कहा कि वे चिंता न करें, वह जल्दी ही एंबुलेंस ले कर आ रही है. नीलम ने छुट्टी के लिए स्कूल फोन कर दिया और घर आ कर अस्पताल के लिए जरूरी सामान रखने लगी. तभी पूनम आ गई. जितनी तत्कालीन चिकित्सा करना संभव था, उस ने की और उन्हें अस्पताल ले गई.

पूनम अपने स्वभाव व व्यवहार के कारण पूरे अस्पताल में सर्वप्रिय थी. यह जान कर कि उस का कोई निकट संबंधी अस्पताल में भरती होने आया है, उस के मित्रों और संबंधित डाक्टरों ने सब प्रबंध कर दिए. घबराहट के कारण सुमित्रा को लग रहा था कि वह शक्तिरहित होती जा रही है. सारे अस्पताल में एक हलचल सी मची हुई थी. वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि कभी उस के रिटायर्ड पति को इस प्रकार का विशेष इलाज उपलब्ध हो सकेगा. बीचबीच में नीलम आ कर सास को धीरज बंधाने का प्रयत्न करती.

आलोक औफिस के कार्य से कहीं बाहर गया हुआ था. नीलम ने उसे भी इस घटना की सूचना दे दी. अनुनय समाचार पाते ही तुरंत आ गया था. दवाइयों के लिए भागदौड़ वही कर रहा था. मदद के लिए उस के एक मित्र ने उसे अपनी कार दे दी थी. 5-6 घंटे बाद प्रबोध राय कमरे में लाए गए. पूनम ने बारबार नीलम की सास को तसल्ली दी कि प्रबोध राय जल्दी ही ठीक हो जाएंगे. वातावरण में एक ठहराव सा आ गया था. सुमित्रा ने कमरे में चारों ओर देखा. अस्पताल में इतना अच्छा कमरा तो काफी महंगा पड़ेगा. जब उस ने अपनी शंका व्यक्त की तब अनुनय बोला, ‘‘मांजी, आप 2 बेटों की मां हो कर खर्च की चिंता क्यों करती हैं? मेरे होते यदि आप को किसी प्रकार का कष्ट हो तो मैं बेटा होने का अधिकार कैसे पाऊंगा?’’

नीलम हंस कर बोली, ‘‘मांजी, आज इस ने पिताजी को अपना रक्त दिया है न, इसीलिए यह बढ़बढ़ कर आप का बेटा होने का दावा कर रहा है.’’ यह सुन सुमित्रा की आंखें छलछला आईं. वे सोच रही थीं कि यदि नीलम ने बहन की पढ़ाई में सहायता न की होती तो क्या आज पूनम डाक्टर होती और क्या उस के पति को ये सुविधाएं मिल पातीं, श्यामसुंदर लाल का पुत्र क्या अपनी बहन को दहेज के बाद उस के ससुर को खून देने की बात सोचता?

प्रबोध राय जब घर आए, तब तक सुमित्रा की मनोस्थिति बिलकुल बदल चुकी थी और सारी कमजोरी भी गायब हो चुकी थी. रात को पति को जल्दी भोजन करा कर वे नीलम के लिए कार्डीगन बुन रही थीं. तभी उन्हें अनुनय के आने की आवाज सुनाई दी. प्रसन्नता से उन का मुख उज्ज्वल हो उठा. अनुनय ने एक डब्बा ला कर उन के पैरों के पास रख दिया और पूछने पर बोला, ‘‘मांजी, मैं ने एक पार्टटाइम जौब कर लिया है. पहला वेतन मिला तो आप से आशीर्वाद लेने चला आया.’’

यह सुन कर सुमित्रा चकित रह गईं. वे रुष्ट हो कर बोलीं, ‘‘क्या तेरा दिमाग खराब हुआ है? पढ़ना नहीं है, जो पार्टटाइम जौब करेगा?’’ ‘‘पढ़ाई में इस से कुछ अंतर नहीं पड़ता, मां. बेशक अब आवारागर्दी का समय नहीं मिलता.’’

‘‘मैं तेरी बात नहीं मानूंगी. जब तक तू नौकरी छोड़ने का वादा नहीं करेगा, मैं इस डब्बे को हाथ भी नहीं लगाऊंगी.’’ ‘‘और मांजी, आप तो जीजाजी से भी ज्यादा धमकियां दे रही हैं. चलिए, मैं ने आप की बात मान ली. अब शीघ्र डब्बा खोलिए,’’ अनुनय ने आतुरता से कहा.

डब्बा खोला तो सुमित्रा स्तब्ध रह गईं और डबडबाई आंखों से बोलीं, ‘‘पगले, मैं बुढि़या यह साड़ी पहनूंगी? अपनी जीजी को देता न?’’ ‘‘पहले मां, फिर बहन. अच्छा मांजी, अब जल्दी से आशीर्वाद दे दो,’’ और अनुनय ने सुमित्रा का हाथ अपने सिर पर रख लिया. सुमित्रा हंसे बिना न रह सकीं, ‘‘तू तो बड़ा शातिर है, आशीर्वाद लेने के लिए भी रिश्वत देता है. तुम सब भाईबहन सदा प्रसन्न रहो और दूसरों को प्रसन्न रखो, मैं तो कामना करती हूं.’’

Family Story : उस का घर – दिलों के विभाजन की गंध

Family Story : बहुत अजीब थी वह सुबह. आवाजरहित सुबह. सबकुछ खामोश. भयानक सन्नाटा. किसी तरह ही आवाज का नामोनिशान न था. उस ने हथेलियां रगड़ीं, सर्दी के लिए नहीं, सरसराहट की आवाज के लिए. खिड़की खोली, सोचा, हवा के झोंके से ही कोई आवाज हो सकती है. लकड़ी के फर्श पर भी थपथपाया कि आवाज तो हो. कुछ भी, कहीं से सुनाई तो पड़े. पेड़ भी सुन्न खड़े थे, आवाजरहित.

उस ने अपनी घंटी बजाई, थोड़ी आवाज हुई…आवाज होती थी, मर जाती थी, कोई अनुगूंज नहीं बचती थी. ये कैसे पेड़ थे. कैसी हवा थी, हरकतरहित जिस में न सुर, न ताल. उस ने खांस कर देखा. खांसी भी मर गई थी जैसे प्रेरणा, उस की दोस्त…अब उस की कभी आवाज नहीं आएगी. वह क्या गई, मानो सबकुछ अचानक मर गया हो. यह सोच कर उस के हाथपैर ठंडे पड़ने लगे. शायद वह प्रेरणा की मौत की खबर को सहन नहीं कर पा रहा था. पिछले सप्ताह ही तो मिली थी उसे वह.

अब तक तो अंतिम संस्कार भी हो गया होगा. हैरान था वह खुद पर. अब तक हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाया उस के घर जाने की. शायद लोगों को उस की मौत का मातम मनाते देख नहीं सकता था, या फिर प्रेरणा की छवि जो उस के जेहन में थी उसे संजो कर रखना चाहता था.

अंतिम संस्कार हुए 4 दिन हो चुके थे. तैयार हो कर उस ने गैराज से कार निकाली और भारी मन से चल दिया. रास्तेभर यही सोचता रहा, वहां जा कर क्या कहेगा. आज तक वह किसी शोकाकुल माहौल में गया नहीं. वह नहीं जानता था कि ऐसी स्थिति में क्या कहना चाहिए, क्या करना चाहिए. यही सोचतेसोचते प्रेरणा के घर की सड़क भी आ गई. उस का दिल धड़कने लगा. दोनों ओर कतारों में पेड़ थे. उस का मन तो धुंधला था ही, धुंध ने वातावरण को भी धुंधला कर दिया था. उस ने अपना चश्मा साफ किया, बड़ी मुश्किल से उस के घर का नंबर दिखाई दिया. घर बहुत अंदर की तरफ था. उस ने कार बाहर ही पार्क कर दी. कार से पांव बाहर रखते ही उस के पांव साथ देने से इनकार करने लगे. बाहर लगे लोहे के गेट की कुंडी हटाते ही, लोहे के टकराव से, कुछ क्षणों के लिए वातावरण में एक आवाज गूंजी. वह भी धीरेधीरे मरती गई. पलभर को उसे लगा, मानो प्रेरणा सिसकियां भर रही हो…

वहां 3 कारें खड़ी थीं. घर के चारों ओर इतने पेड़ लगे थे कि उस के मन के अंधेरे और बढ़ने लगे. एक भयानक नीरवता चारों ओर घिरी थी. लगता था हमेशा की तरह ब्रिटेन की मरियल धूप कहीं दुबक कर बैठ गई थी. बादल बरसने को तैयार थे.

मन के भंवर में धंसताधंसता न जाने कब और कैसे उस के दरवाजे पर पहुंचा. दिल की धड़कन बढ़ने लगी. एक पायदान दरवाजे के बाहर पड़ा था. उस ने जूते साफ किए और गहरी सांस ली. उस ने घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि दरवाजा खुला. शायद लोहे के गेट की गुंजन ने इत्तला दे दी होगी. प्रेरणा के पति ने उस के आगे बढ़े हाथ को अनदेखा कर, रूखेपन से कहा, ‘‘अंदर आओ.’’

उस ने अपना हाथ पीछे करते कहा, ‘‘आई एम राहुल. प्रेरणा और मैं एक ही कंपनी में काम करते थे.’’

‘‘आई एम सुरेश, बैठो,’’ उस ने सोफे की ओर इशारा करते कहा.

सोफे पर बैठने से पहले राहुल ने नजरें इधरउधर दौड़ाईं और कुछ बिखरी चीजें सोफे से हटा कर बैठ गया. राहुल को विश्वास नहीं हुआ, हैरान था वह, क्या सचमुच यह प्रेरणा का घर है. यहां तो उस के व्यक्तित्व से कुछ भी तालमेल नहीं खाता. दीवारें भी सूनीसहमी खड़ी थीं. उन पर न कोई पेंटिंग, न ही कोई तसवीर. अखबारों के पन्ने, कुशन यहांवहां बिखरे पड़े थे. टैलीविजन व फर्नीचर पर धूल चमक रही थी. बीच की मेज पर पड़े चाय के खाली प्यालों में से चाय के सूखे दाग झांकझांक कर अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे थे.

हर तरफ वीरानगी थी. लगता था मानो घर की दीवारें तक मातम मना रही हों. दिलों के विभाजन की गंध सारे घर में फैली थी. अचानक उस की नजर एक कोने में बैठे 2 उदास कुत्तों पर पड़ी जो सिर झुकाए बैठे थे. शायद वे भी प्रेरणा की मौत का मातम मना रहे थे.

‘‘राहुल, चाय?’’

‘‘नहींनहीं, चाय की आवश्यकता नहीं, आ तो मैं पहले ही जाता, सोचा, अंतिम संस्कार के बाद ही जाऊंगा, तब तक लोगों का आनाजाना कुछ कम हो जाएगा.

‘‘वैसे, प्रेरणा ने आप का जिक्र तो कभी किया नहीं. हां, अगर आप पहले आ जाते तो अच्छा ही रहता, आप का नाम भी उस के चाहने वालों की सूची में आ जाता. सच पूछो तो मैं नहीं जानता था कि हिंदी में कविता और कहानियों की इतनी मांग है. क्या आज के युग में भी सभ्य इंसान हिंदी बोलता या पढ़ता है?’’ प्रेरणा के पति ने बड़े पस्त और व्यंग्यात्मक लहजे में कहा.

‘‘प्रेरणा तो बहुत अच्छा लिखती थी. उस की एकएक कविता मन को छू लेने वाली है. व्यक्तिगत दुखसुख व प्रेम के रंगों की सुगंध है. ऐसी संवदेनाएं हैं जो पाठकों व श्रोताओं को आपबीती लगती हैं. आप ने तो पढ़ी होंगी,’’ राहुल ने कहा.

इतना सुनते ही एक कुटिल छिपी मुसकराहट उस के चेहरे पर फैल गई. उस ने राहुल की बात को तूल न देते हुए संदर्भ बदल कर कहना शुरू किया, ‘‘अच्छा हुआ, आप वहां नहीं थे. कैसे बेवकूफ बना गई वह मुझे, मैं जान ही नहीं पाया कि मेरी पार्टनर कितनी फ्लर्ट थी. कितने दोस्त आए थे अंतिम संस्कार के मौके पर. उस वक्त हमारे परिवार का समाज के सामने नजरें उठाना दूभर हो गया था. उम्रभर मना करता रहा, ऐसी प्रेमभरी कविताएं मत लिखो, बदनामी होगी, लोग क्या कहेंगे. वही हुआ जिस का डर था. लोग कानाफूसी कर रहे थे, बुदबुदा रहे थे, ‘पति हैं, बच्चे हैं…’ किस के लिए लिखती थी?’’ इतना कह कर कुछ क्षण वह चुप रहा, फिर बिफरता सा बोला, ‘‘राहुल, कहीं वह तुम्हारे लिए तो…’’ उस की जबान बेलगाम चलती रही.

राहुल हैरान था, क्या यह वही दरिंदा है जिस से वह एक बार कंपनी के सालाना डिनर पर मिला था. राहुल कसमसाता रहा, तय नहीं कर पा रहा था कि उस की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए. पलभर को उस का मन किया कि उठ कर चला जाए, फिर मन को समझाते बुदबुदाया, ‘मैं उस के स्तर पर नहीं गिर सकता.’ वक्त की नजाकत को देखते वह गुस्से को पी गया. मन में तो उस के आया कि इस पत्थरदिल से साफसाफ कह दे, हां, हां, था रिश्ता.

मानवता के रिश्ते को जो नाम देना चाहो, दे दो. जीवन का सच तो यह है कि प्रेरणा मेरे जीवन में रोशनी बन कर आई थी और आंसू बन कर चली गई.

वहां बैठेबैठे राहुल को एक घंटा हो चुका था. अभी तक घर में अक्षुब्ध शांति थी. चुप्पी को भंग करते राहुल ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, बच्चे दिखाई नहीं दे रहे?’’

‘‘श्रुति तो कालेज गई है, रुचि सहेलियों के साथ बाहर गई है. सारा दिन घर में बैठ कर करेगी भी क्या. मैं उस की मां की मौत को बड़ा मुद्दा बना कर उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं डालना चाहता. घर को बिखरते नहीं देख सकता. मेरा घर मेरे लिए सबकुछ है, इसे बनाने में मैं ने बहुत पैसा और जान लगाई है. प्रेरणा ने तो पीछा छुड़ा लिया है सभी जिम्मेदारियों से. बच्चों की पढ़ाई, विवाह, घर का लोन सब मुझे ही तो चुकाना है. इस के लिए पैसा भी तो चाहिए,’’ वह भावहीन बोलता गया.

राहुल ने सबकुछ जानते हुए भी विरोध का नहीं, मौन के हथियार को अपनाना सही समझा. सोचने लगा, जो तुम नहीं जानते, मैं वह जानता हूं. मैं ने ही तो करवाया था प्रेरणा के मकान के लिए इतना बड़ा लोन सैंक्शन. फिर लोन का इंश्योरैंस कराने के लिए उसे बाध्य भी किया. इस सुरेश पाखंडी ने प्रेरणा को बदले में क्या दिया? आंसू, यातनाएं, उम्रभर आजादी से कलम न उठा पाने की बंदिशें? एक मैं ही था जिसे वह पति के नुकीले शब्दों के कंकड़ों से पड़े दाग दिखा सकती थी. उस की हंसी तक खोखली हो चुकी थी. अकसर वह कहती थी कि उसे अपना घर कभी अपना नहीं लगा. वह सीखती रही अशांति में भी शांति से जीने की कला. वह खुद पर मुखौटा चढ़ा कर उम्रभर खुद को धोखा देती रही.

राहुल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. वह प्रेरणा की लिखनेपढ़ने की जगह देखने को उतावला हो रहा था. अभी तक उसे कोई सुराग नहीं मिला था. कभी बाथरूम इस्तेमाल करने का बहाना कर के दूसरे कमरों में झांक कर देखा, कहीं भी स्टडी टेबल दिखाई नहीं दी. राहुल टटोलता रहा. चाय पीतेपीते जब राहुल से रहा नहीं गया, तो हिम्मत बटोर कर उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, क्या मैं प्रेरणा का अध्ययन करने का स्थान देख सकता हूं. आई मीन, जहां बैठ कर वह पढ़ालिखा करती थी?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोला, ‘‘आओ मेरे साथ, वह देखो, सामने,’’ उस ने गार्डन में एक खोके की ओर इशारा किया और फिर बोला, ‘‘वह जो आखिर में कमरा है वही था उस का स्टडीरूम.’’

राहुल भलीभांति जानता था कि जिसे वह कमरा कह रहा है वह कमरा नहीं, 5×8 फुट का लकड़ी का शैड है. मुरगीखाने से भी छोटा. शैड को खोलते ही राहुल का दिमाग चकरी की तरह घूमने लगा. शैड के चारों और मकड़ी के जाले लगे थे. सीलन की गंध पसरी थी. शैड फालतू सामान से भरा था. उस की दीवारों पर फावड़ा, खुरपी, कैंची, फौर्क वगैरह टंगे थे.

एकदो पुराने सूटकेस और पेंट के खाली डब्बे पड़े थे. आधा हिस्सा तो घास काटने वाली मशीन ने ले लिया था, बाकी थोड़ी सी जगह में पुराना लोहे का बुकशैल्फ था, जिस पर शायद प्रेरणा किताबें, पैन, पेपर रखती रही होगी. कुछ मोमबत्तियां और बैट्री वाली हैलोजन की बत्तियां पड़ी थीं. दीवार से टिकी 2 फुट की फोल्ंिडग मेज और फोल्ंिडग गार्डनकुरसी पड़ी थीं. एक छोटा सा पोर्टेबल हीटर भी पड़ा था. फर्श पर चूहे व कीड़ेमकोडे़ दौड़ रहे थे. बिजली का वहां कोई प्रबंध नहीं था. हां, एक छोटी सी प्लास्टिक की खिड़की जरूर थी जहां से दिन की रोशनी झांक रही थी. अविश्वसनीय था कि कैसे एक इंसान दूसरे से किस हद तक क्रूर हो सकता है.

डरतेडरते राहुल ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘भला बिना बिजली के कैसे लिखती होगी? डर भी तो लगता होगा?’’

‘‘डर, वह सामने 2 कुत्ते देख रहे हो, प्रेरणा के वफादार कुत्ते. उस की किसी चीज को हाथ लगा कर तो देखो, खाने को दौड़ पड़ेंगे.

‘‘प्रेरणा के अंगरक्षक या बौडीगार्ड, जो चाहे कह लो. यह कहावत तो सुनी होगी तुम ने, ‘जहां चाह वहां राह? मेरे सामने उसे लिखने की इजाजत ही कहां थी. मुझे तो बच्चों की मां और मेरी पत्नी चाहिए थी, लेखिका नहीं. मैं नहीं चाहता था मेरे घर में कविताओं के माध्यम से प्रेम का इजहार हो. देखो न, अब बेकार हैं उस की सब किताबें. कौन पढ़ना चाहेगा इन्हें? बच्चे तो पढ़ेंगे नहीं. नौकर से कह कर बक्से में रखना ही है. तुम चाहो तो ले जा सकते हो वरना रद्दी वाला ले जाएगा या फिर मैं गार्डन में लोहड़ी जला दूंगा,’’ उस ने क्रूरता से कहा.

राहुल को लगा उस के कानों में किसी ने किरचियां डाल दी हों. राहुल उसे कह भी क्या सकता था, वह प्रेरणा का पति था. बस, बड़बड़ाता रहा, ‘जा, थोड़ा सा दिल खरीद कर ला, कैसा मर्द है समानता का दर्जा तो क्या, उसे उस के हिसाब से जीने का हक तक न दे सका. तुम क्या जानो कुबेर का खजाना. लेखन का भी एक अनूठा नशा होता है. पत्रिका या किताबों पर अपना नाम देख कर अपने लिखे शब्दों को देख कर जो शब्द धुएं की तरह मन में उठते हैं और हमेशा के लिए कागज पर अंकित हो जाते हैं, दुनिया में कोई और चीज उन से अधिक स्थायी नहीं हो सकती.’

‘‘सर, कुछ किताबें तो रख लेते यादगार के लिए.’’

‘‘यादगार, बेकार की बातें क्यों करते हो. औरत भी कोई याद रखने की चीज है क्या. हां, प्रेरणा ने 2 बच्चियां जरूर दी हैं, उन के लिए मैं आभारी हूं. जानवर भी घर में रहता है तो उस से मोह हो ही जाता है.’’

राहुल अब वहां पलभर भी रुकना नहीं चाहता था. सोचने लगा, इतनी तौहीन, कठोर शब्दों के बाण. शाबाशी है प्रेरणा को, जो ऐसी बंदिशों व घुटनभरी जिंदगी की रेलपेल से पिस्तेपिस्ते भी अपना काम करती रही.

भारी मन से गार्डन से अंदर आतेआते राहुल का पांव हाल में पड़े एक खुले गत्ते के डब्बे से टकराया, जिस में से प्रेरणा का सभी सामान और ट्रौफियां उचकउचक कर झांक रहे थे.

‘‘लगी तो नहीं तुम्हें? मैं तो इन्हें देख कर आपे से बाहर हो जाता हूं. नौकर से कह कर इन्हें बक्से में रखवा दिया है. इन्हें कबाड़ी वाले को धातु के भाव दे दूंगा.’’

उस की हृदयहीन बातें राहुल के हृदय को बींधती रहीं. कितनी आसानी से समेट लिया था सुरेश ने सबकुछ. प्रेरणा की 25 वर्षों की मेहनत के अध्याय को चार दिन में अपने जीवन से निकाल कर फेंक दिया था उस ने. अभी तो उस की राख भी ठंडी नहीं हुई थी, उस का तो नामोनिशान तक मिटा दिया इस बेदर्द ने.

इतनी  नफरत, आखिर क्यों? फिर वह मन ही मन ही बड़बड़ाने लगा, ‘हो सकता है प्रेरणा की तरक्की से जलता हो. इस का क्या गया, खोया तो मैं ने है अपना सोलमेट. अब किस से करूंगा मन की बातें. कौन सुनेगा एकदूसरे की कविताएं,’ बहुत रोकतेरोकते भी राहुल की आंखें भर्रा गईं.

राहुल की भराई आंखें देख कर सुरेश का चेहरा तमतमा उठा, भौंहों पर बल पड़ गए, माथे की रेखाएं गहरा गईं. उस के स्वर में कसैलापन झलका, वह बोला, ‘‘आई सी, राहुल, कहीं तुम वह तो नहीं हो जिस के साथ वह रात को देरदेर तक बातें करती रहती थी, आई मीन उस के बौयफ्रैंड?’’

इतना सुनते ही राहुल की सांस रुक गई. निगाह ठहर गई. उसे लगा जैसे किसी ने उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया हो या फिर पंजा डाल कर उस का दिल चाकचाक कर दिया हो. प्रेरणा तो उस की दोस्त थी, केवल दोस्त जिस में न कोई शर्त, न आडंबर, खालिस अपनेपन की गहनता. प्रेरणा के पास नई राह पर चलने का हौसला नहीं था. उस की खामोशी शब्दों में परिभाषित रहती थी. ऐसी थी वह.

राहुल वहां से भाग जाना चाहता था. वह अपनी खामोश गीली आंखों में चुपचाप प्रेरणा की असहनीय पीड़ा को गले लगाए, उस की कुर्बानियों पर कुर्बान महसूस करता अपने घर को निकलने की तैयारी करने लगा. उसे संतुष्टि थी कि अब प्रेरणा आजाद है. उसे याद आया प्रेरणा अकसर कहा करती थी, ‘भविष्य क्या है, मैं नहीं जानती. इतना जरूर जानती हूं कि सीतासावित्री का जीवन भी इस देश में गायभैंस के जीवन जैसा है, जिन के गले की रस्सी पर उस का कोई अधिकार नहीं.’’

जैसे ही राहुल अपना पैर चौखट के बाहर रखने लगा, उस ने दोनों बक्सों की ओर देखा और सोचा, ‘प्रेरणा की 25 वर्षों की अमूल्य कमाई मैं इस विषैले वातावरण में दोबारा मरने के लिए नहीं छोड़ सकता.’’

राहुल ने प्रेरणा के पति की ओर देखते इशारे से पूछा, ‘‘सर, क्या मैं इन्हें ले जा सकता हूं?’’

‘‘शौक से, लेकिन इन कुत्तों से इजाजत ले लेना?’’

राहुल ने दोनों बक्सों को छूते हुए, कुत्तों की ओर देखा. कुत्ते पूंछ हिला रहे थे. उस ने बक्से कार में रखे. कुत्ते उस के पीछेपीछे कार तक गए, मानो, कह रहे हों प्रेरणा का घर तो कभी उस का था ही नहीं.

Family Story : सुबह 10 बजे

Family Story : मेघाआज फिर जाम में फंस गई थी. औफिस से आते समय उस के कई घंटे ऐसे ही बरबाद हो जाते हैं, प्राइवेट नौकरी में ऐसे ही इतनी थकान हो जाती है, उस पर इतनी दूर स्कूटी से आनाजाना.

मेघा लोअर व टौप ले कर बाथरूम में घुस गई, कुछ देर बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. उस के कानों में अभी भी सड़क की गाडि़यों के हौर्न गूंज रहे थे. तभी उस ने लौबी में अपनी मां को कुछ पैकेट फैलाए देखा, वे बड़ी खुश दिख रही थीं. मेघा भी उन के पास बैठ गई. मम्मी उत्साह से पैकेट से साड़ी निकाल कर उसे

दिखाने लगीं, ‘‘यह देखो अब की अच्छी साड़ी लाई हूं.’’

पर मम्मी अभी कुछ दिन पहले ही तो 6 साडि़यों का कौंबो मैं ने और 6 का रिया ने तुम्हें औनलाइन मंगा कर दिया था.’’

‘‘वे तो डेली यूज की हैं. कहीं आनेजाने पर उन्हें पहनूंगी क्या? लोग कहेंगे कि 2-2 बेटियां कमा रही हैं और कैसी साडि़यां पहनती हैं,’’ कह कर उन्होंने प्यार से मेघा के गाल पर धीरे से एक चपत लगा दी.

मेघा मुसकरा दी.

तभी वे फिर बोलीं, ‘‘और देख यह बिछिया… ये मैचिंग चूडि़यां और पायलें… अच्छी हैं न?’’

‘‘हां मां बहुत अच्छी हैं. आप खुश रहें बस यही सब से अच्छा है, अब मैं बहुत थक गई हूं. चलो खाना खा लेते हैं. मुझे कल जल्दी औफिस जाना है,’’ मेघा बोली.

‘‘ठीक है तुम चलो मैं आई,’’ कह कर मम्मी अपना सामान समेटने लगीं.

उन के चेहरे पर खिसियाहट साफ दिखाई दे रही थी. सभी ने हंसीमजाक करते हुए खाना खाया. फिर अपनेअपने बरतन धो कर रैक में रख दिए. उन के घर में शुरू से ही यह नियम है कि खाना खाने के बाद हर कोई अपने जूठे बरतन खुद धोता है.

खाना खा कर मेघा लेटने चली गई, पर आंखों से नींद कोसों दूर थी, वह सोचने लगी कि हर नारी अपने को किसी के लिए समर्पित करने में ही सब से बड़ी खुशी महसूस करती है. कल की ही बात है. मेघा की दोस्त सोनल उस से कह रही थी कि यार तू भी 30 पार कर रही है. क्या शादी करने का इरादा नहीं है? मगर मेघा उसे कैसे बताती कि जब से उस ने नौकरी शुरू की है घर थोड़ा अच्छे से चलने लगा है.

अब कोई उस की शादी की बात उठाता ही नहीं, क्योंकि उन्हें उस से ज्यादा घर खर्च की चिंता रहती है… छोटी बहनों की पढ़ाई कैसे होगी… वे 4 बहनें हैं. पापा का काम कुछ खास चलता नहीं है. इसलिए उन्होंने बचपन अभाव में काटा है. जब से मेघा से छोटी रिया भी सर्विस करने लगी है, मम्मी अपनी कुछ इच्छाएं पूरी कर पा रही हैं वरना तो घर खर्च की खींचतान में ही लगी रहती थीं.

मेघा की दोस्त सोनल की 2 साल पहले ही शादी हुई है. औफिस में वह मेघा की कुलीग है. उसे खुश देख कर मेघा को बड़ा अच्छा लगता है. कभीकभी उस का मन कहता है, मेघा क्या तू भी कभी यह जीवन जी सकेगी?

आज सोनल ने फिर बात उठाई थी, ‘‘मेघा पिछले साल हम लोग औफिस टूर पर बाहर गए थे तो मयंक तुझ से कितना मिक्स हो गया था… यार तेरी ही कास्ट का है. तुझ से फोन पर तो अकसर बात होती रहती है. अच्छा लड़का है… क्यों नहीं मम्मी से कह कर उस से बात चलवाती हो? अगर बात बन गई तो दहेज का भी चक्कर नहीं रहेगा. फिर मयंक की तुझ से अंडरस्टैंडिंग भी अच्छी है. अच्छा ऐसा कर तू पहले मयंक से पूछ. अगर वह तैयार हो जाता है, तो अपने घर वालों को उस के घर भेज देना.’’

मेघा को सोनल की बात में दम लगा.

1-2 दिन पहले ही उस की मयंक से बात हुई थी, तो वह बता रहा था कि घर वाले उस की शादी के मूड में हैं. हर दूसरे दिन कोई न कोई रिश्ता ले कर आ रहा है.

मेघा सोचने लगी, ‘कल मयंक से बात करती हूं. यह तो मुझे भी महसूस होता है कि शादी करना जीवन में जरूरी होता है, पर कोई अच्छा लड़का मिले. मुझे जीवन में खुशियां देने के साथसाथ मेरे घर वालों को भी सपोर्ट करे, तो इस से अच्छी और क्या बात होगी,’ सोचतेसोचते उसे नींद आ गई.

सुबह नींद खुली तो 7 बज रहे थे. उसे 8 बजे औफिस पहुंचना था. वह जल्दी से फ्रैश होने के लिए बाथरूम की ओर भागी. जब तक वह तैयार हुई तब तक मम्मी ने मेज पर नाश्ता लगा दिया. टिफिन भी वहीं रख दिया. मेघा ने दौड़तेभागते 2 ब्रैड पीस खा कर चाय पी और फिर स्कूटी निकाल औफिस के लिए निकल गई. काम के चक्कर में उसे कुछ याद ही नहीं रहा.

लंच के समय सोनल ने फिर वही बात छेड़ी तो उसे कल रात की बात याद आई. लंच खत्म कर के उस ने मयंक को फोन लगाया.

सोनल सामने ही बैठी थी. वह इशारे से कह रही थी कि शादी के लिए पूछ. मेघा ने हिम्मत कर के पूछा तो मयंक हंस दिया, ‘‘अरे यार तुझे पा कर कौन खुश नहीं होगा भला… तुम ने मुझे अपने लायक समझा तो संडे को अपने मम्मीपापा को मेरे घर भेजो, बाकी सब मैं देख लूंगा.’’

‘‘ठीक है कह कर मेघा ने फोन काट दिया और फिर सोनल को सब बताया तो वह भी बहुत खुश हुई.

‘‘पर सोनल मैं अपनी शादी के बारे में अपने मम्मीपापा से कैसे बात कर पाऊंगी?’’

मेघा को परेशान देख कर सोनल बोली, ‘‘तू घर पहुंच उन से मेरी बात करा देना.’’

मेघा शाम 4 बजे ही औफिस से चल दी. घर पहुंच चाय पी कर बैठी ही थी कि सोनल का फोन आ गया. उसे दिन की सारी बातें याद आ गई. उस ने फोन मम्मी की ओर बढ़ा दिया. सोनल ने मम्मी को सब बता उन्हें संडे को मयंक के घर जाने के लिए कहा.

मम्मी के चेहरे पर मेघा को कुछ खास खुशी की झलक नहीं दिख रही थी. वे केवल हांहां करती जा रही थीं.

फोन कटने पर वे मेघा की तरफ घूम कर बोलीं, ‘‘हम लोगों के पास तो दहेज के लिए पैसे नहीं हैं. फिर हम रिश्ता ले कर कैसे जाएं? तुम्हें पहले मुझ से बात करनी चाहिए थी.’’

यह सुन कर मेघा हड़बड़ा गई. बोली, ‘‘मैं ने कुछ नहीं कहा. सोनल ने ही मयंक से बात की थी… आप और पापा उस के घर हो आओ… देखो घर में और लोग कैसे हैं… मयंक तो बहुत सुलझा हुआ है.’’

तभी पापा भी आ गए. जब उन्हें सारी बात पता लगी तो उन के चेहरे पर खुशी के भाव आ गए, ‘‘ठीक है हम लोग संडे को ही मयंक के घर जाएंगे,’’ कह उन्होंने खुशी से मेघा की पीठ थपथपाई.

फिर सब बहनों ने मिल कर आगे की प्लानिंग की. यह तय हुआ कि सोनल के हसबैंड, मम्मीपापा और छोटी बहन मयंक के घर चले जाएंगे. छोटी बहन के मयंक के घर जाने से वहां क्या बात हुई, कैसा व्यवहार रहा, सब पता लग जाएगा. मम्मी से तो पूछते नहीं बनेगा. पापा से भी पूछने में संकोच होगा.

मेघा की छोटी तीनों बहनें मन से उस की शादी के लिए सोचती रहती थीं, पर आज की महंगाई और दहेज के बारे में सोच कर चुप हो जाती थीं. मयंक के बारे में सुन कर सब को जोश आ गया था.

‘‘मैं अब अपना पैसा बिलकुल खर्च नहीं करूंगी,’’ यह रिया की आवाज थी.

‘‘मुझे भी कुछ ट्यूशन बढ़ानी पड़ेंगी, तो बढ़ा लूंगी,’’ यह तीसरे नंबर की ज्योति बोली.

‘‘मैं भी अब कोई फरमाइश नहीं करूंगी,’’ छोटी कैसे पीछे रहती.

‘‘ठीक है ठीक है, सब लोगों को जो करना है करना पर पहले मयंक के घर तो हो आओ,’’ कह कर मेघा टीवी खोल कर बैठ गई.

संडे परसों था, पापा समय बरबाद नहीं करना चाहते थे. उन्होंने जाने की पूरी तैयारी कर ली. मम्मी ने भी कौन सी साड़ी पहननी है, छोटी क्या पहनेगी सब तय कर लिया.

दूसरे दिन शनिवार था. मेघा ने सोनल को बता दिया कि उस के हसबैंड को साथ जाना पड़ेगा.

वह तैयार हो गई. बोली, कोई इशू नहीं. एक अंकल का स्कूटर रहेगा एक इन की मोटरसाइकिल हो जाएगी… आराम से सब लोग मयंक के घर पहुंच जाएंगे.

मेघा ने फोन कर के मयंक से उस के पापा का फोन नंबर ले लिया. शाम को पापा ने मयंक के पापा को फोन कर के संडे को उन के घर पहुंचने का समय ले लिया. सुबह 10 बजे मिलना तय हुआ.

मेघा की मम्मी बड़ी उलझन में थी कि अगर वे लोग तैयार हो गए तो कैसे मैनेज करेंगे. कुछ नहीं पर अंगूठी तो चाहिए ही. मेरे सारे जेवर तो धीरेधीरे कर के बिक गए… बरात की खातिरदारी तो करनी ही पड़ेगी.

मेघा की मां को परेशान देख उस के पापा बोले, ‘‘अभी से क्यों परेशान हो? पहले वहां मिल तो आएं.’’

रविवार सुबह ही चुपके से मेघा ने मयंक को फोन मिला कर कहा, ‘‘मयंक, तुम घर में ही रहना… कोई बात बिगड़ने न पाए… सब संभाल लेना.’’

‘‘हांहां ठीक है. मेरे मम्मीपापा बहुत सुलझे हुए हैं… उन्हें अपने बेटे की खुशी के आगे कुछ नहीं चाहिए… जिस में मैं खुश उस में वे भी खुश.’’

मेघा बेफिक्र हो कर अंदर आ गई. देखा मम्मी तैयार हो गई थीं.

‘‘चलो, जल्दी लौट आएंगे वरना आज दुकान बंद रह जाएगी.’’ मेघा की मां बोली.

कुछ दिन पहले ही मेघा के पापा ने एक दुकान खोली थी.

करीब 12 बजे सभी लौट आए. पापा बहुत खुश थे. सभी बातें कायदे से हुई थीं. बस मयंक के पापा कुंडली मिला कर बात आगे बढ़ाना चाहते थे. वे पापा से बोले कि आप बिटिया की कुंडली भिजवा देना.

जब सब लोग खाना खा कर लेट गए तो सब बहनों ने छोटी को बुला कर वहां का सारा हाल पूछा. छोटी ने वहां की बड़ी तारीफ की. बताया कि अगर कुंडली मिल गई तो शादी पक्की हो जाएगी.

मम्मी ने तो वहां साफसाफ कह दिया कि हम लोग पैसा नहीं दे सकते. किसी तरह जोड़ कर बरात की खातिरदारी कर देंगे. दहेज देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है.

सुन कर रिया गुस्सा गई. बोली, ‘‘ये सब कहने की पहले ही दिन क्या जरूरत थी? आगे बात चलती तो बता देतीं.’’

‘‘दूसरे दिन मेघा की तबीयत ठीक नहीं थी. औफिस से छुट्टी ले कर जल्दी घर आ गई. दवा खा कर चादर ओढ़ कर लेट गई. थोड़ी देर बाद रिया और मम्मी की आवाज उस के कानों में पड़ी. रिया बोली, ‘‘दीदी की शादी फाइनल हो जाए तो मजा आ जाए. मयंक अच्छा लड़का है. एक बार मैं भी उस से मिली हूं.’’

मम्मी तुरंत बोली,‘‘अरे नहीं बहुत मौडर्न परिवार है. हम उन के स्तर का खर्च ही नहीं कर पाएंगे. तभी तो मैं उस दिन सब साफ कह आई थी. अगर मयंक मेघा से शादी का इच्छुक है, तो कुछ खर्च उसे भी तो करना चाहिए. सगाई, शादी सारे खर्च को आधाआधा बांट लें… जेवर भी… मैं ने कह दिया है हमारे पास नहीं हैं… जेवर तो आप को ही लाने पड़ेंगे… फिर मेरी तो 4 लड़कियां हैं. मुझे तो सब पर बराबर ध्यान देना पड़ेगा. आप के तो केवल एक लड़का है. आप को तो बस उसी के लिए सोचना है.’’

सुनते ही रिया गुस्सा हो गई, ‘‘मम्मी, आप को इस तरह नहीं बोलना चाहिए था. इस तरह तो शादी तय ही नहीं हो पाएगी.’’

‘‘तो न हो… कौन मेरी बेटी सड़क पर खड़ी भीग रही है. वह अपने घर में अपने मांबाप के साथ है. एक मयंक ही थोड़े हैं. हजार लड़के मिलेंगे. आखिर वह सर्विस कर रही है. हजार लड़के उस के आगेपीछे घूमेंगे.’’

‘‘मम्मी यह कहना आसान है, पर ऐसा संभव नहीं होता है,’’ रिया झल्ला कर बोली और फिर वहां से चली गई. मम्मी भी भुनभुनाती हुई किचन में चली गईं.

मेघा सारी बातें सुन कर सकपका गई कि आखिर मम्मी क्या चाहती हैं? क्या लड़की की शादी की बात करने जाने पर पहली बार ही इस तरह की बातें की जाती हैं… इस से तो इमेज खराब ही होगी. फिर मयंक भी कैसे बात संभाल पाएगा.

कल ही सोनल बता रही थी कि उस ने शादी के पहले 4 साल सर्विस की थी और उस की मम्मी ने उस की ही सैलरी से 2 अंगूठियां, 1 चेन और 1 जोड़ी पायल बनवा ली थीं. हर महीने कोई न कोई सामान उस के पीछे पड़ कर औनलाइन और्डर करा देती थी. साडि़यां, पैंटशर्ट, ऊनी सूट सब धीरेधीरे इकट्ठे कर लिए थे. बरतन, मिक्सी, बैडसीट्स कुछ भी शादी के समय नहीं खरीदना पड़ा था. सोनल के घर की हालत तो उन के घर से भी बदतर थी.

आज सोनल अपनी छोटी सी गृहस्थी में बहुत खुश है. एक प्यारा सा बेटा भी है. जीजाजी भी बहुत सुलझे हुए हैं. वे सोनल के मम्मीपापा का भी बहुत खयाल रखते हैं.

इसी बीच 8-10 दिन बीत गए. न यहां से किसी ने फोन किया, न मयंक के यहां से फोन आया. सोनल ने मेघा से पूछा तो वह बोली, ‘‘बारबार मेरा कहना अच्छा नहीं लगता.’’

तब सोनल ने ही मम्मी को फोन मिला कर पूछा तो वे बोलीं, ‘‘उन लोगों ने मेघा की कुंडली मांगी है… वह तो हम ने बनवाई नहीं… हमें कुंडली में विश्वास नहीं है.’’

तब सोनल बोली, ‘‘आंटी आप किसी से कुंडली चक्र बनवा कर भेज दीजिए. आप को तो वही करना पड़ेगा जो वे चाहते हैं. आखिर वे लड़के वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हमारी लड़की कमजोर है? वह भी कमाती है. हम उन के हिसाब से क्यों चलें? वे रिश्ता बराबरी का समझें तभी ठीक है.’’

सुन कर सोनल ने फोन काट दिया.

दूसरे दिन मयंक का फोन आया, ‘‘अरे यार अपनी कुंडली तो भिजवाओ. उस दिन तो मैं ने सब संभाल लिया था पर बिना कुंडली के बात कैसे आगे बढ़ाऊं?’’

मेघा ने पापा से कहा तो उन्होंने अगले दिन दे कर आने की बात कही. मेघा के मन में यह बात चुभ रही थी कि मम्मी के मन में क्या यह इच्छा नहीं होती कि उन की बेटियों की भी शादी हो… कल ही पड़ोस की आंटी आई थीं तो मम्मी उन से कह रही थीं, ‘‘मैं तो कहती हूं चारों बेटियां अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं… कमाएं और आराम से साथ रहें. क्या दुनिया में सभी की शादी होती है? अपनी कमाई से ऐश करें.’’

सुन कर मेघा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई कि केवल उस को ही नहीं ये तो चारों बेटियों की शादी न करने के पक्ष में है. क्या कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है? उधर पापा जन्मकुंडली बनवा कर मयंक के घर दे आए.

4-5 दिन बाद मयंक के पापा का मेघा के पापा के पास फोन आया. उन्होंने कुंडली मिलवा ली थी. मिल गई थी. आगे की बात करने के लिए पापा को अपने घर बुलाया था.

पापा ने खुशीखुशी रात के खाने पर सब को यह बात बताई तो सभी बहनें खुशी से तालियां बजाने लगीं.

‘‘तो आप लोग कब जा रहे हैं? रिया ने पूछा.’’

‘‘आप लोग नहीं अकेले मैं जाऊंगा,’’ कह कर पापा खाना खाने लगे.

मम्मी हैरानी से उन का मुंह देखने लगीं. फिर बोली, ‘‘अकेले क्यों?’’

‘‘अभी भीड़ बढ़ाने से कोई फायदा नहीं. पता नहीं बात बने या नहीं. फिर दुकान तुम देख लेना… बंद नहीं करनी पड़ेगी.’’

‘‘आप साफ बात कर भी पाएंगे?’’

मम्मी की आवाज सुन कर पापा खाना खातेखाते रुक गए. बोले, ‘‘हां, ऐसी साफसाफ भी नहीं करूंगा कि बात ही साफ हो जाए.’’

सुन कर हम बहनें हंस पड़ी. मम्मी गुस्सा कर किचन में चली गईं.

रात में फिर चारों बहनों की मीटिंग हुई. पापा अकेले मयंक के घर जाएंगे, इस बात से सभी बहुत खुश थीं.

Family Story : अपनी अपनी खुशियां

Family Story : ‘कौन कहता है कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं? आदमी में समझ होनी चाहिए,’ रूपेश ने दिल ही दिल में कहा. फिर उस ने अर्चना के सुंदर मुखड़े की ओर ताका व उस के बाद उस की नजरें अपनी पत्नी शिखा के चेहरे पर पड़ीं. शिखा अपनी प्लेट में धीरेधीरे उंगलियां चला रही थी. अर्चना से रूपेश की मुलाकात अपने एक मित्र के कार्यालय में हुई थी, जो उसे इंतजार करने को कह कर खुद कहीं चला गया था. एकडेढ़ घंटे की बातचीत के बाद अर्चना और रूपेश में इतनी घनिष्ठता हो गई थी कि रूपेश को अर्चना के बगैर रहना कठिन महसूस होने लगा था.

कुछ दिनों तक सिनेमाघरों, पार्कों और होटलों में मुलाकातों के बाद रूपेश उसे अपने घर लाने की लालसा को न दबा पाया. शिखा को रूपेश ने जब यह कहा कि वह अर्चना को भी अपने घर में रहने दे तो शिखा पर मानो बिजली गिर पड़ी थी. वह काफी चीखीचिल्लाई थी किंतु रूपेश ने उस को समझाया था कि जब हम अपने हर रिश्तेदार, मित्रों और जानपहचान वालों की खुशियों के लिए सबकुछ करने को तैयार रहते हैं, तब यह कितनी अजीब बात है कि पतिपत्नी, जिन का रिश्ता संसार में सब से बड़ा और गहरा होता है, एकदूसरे की खुशियों का खयाल न रखें.

रूपेश ने शिखा से कहा कि अर्चना पर और घर पर उसे पूरा अधिकार होगा. उस को अपनी हर इच्छा को पूरा करने का अधिकार होगा. बस, वह अर्चना को उस के साथ इस घर में रहने पर आपत्ति न उठाए. पड़ोसियों को वह यही बताए कि अर्चना उस की मामी की या चाची की लड़की है और वह, यहां पर नौकरी करने आई है तथा अब उन लोगों के साथ ही रहेगी. आखिर जब शिखा ने देखा कि रूपेश को समझानेबुझाने का अब कोई फायदा नहीं है तो एक हफ्ते की खींचतान के बाद उस ने रूपेश की इच्छा के आगे सिर झुका दिया.

रूपेश के पांव धरती पर न टिकते थे. वह उसी दिन जा कर अर्चना को अपने घर ले आया. पड़ोसियों से कहा गया कि वह शिखा की बहन है. रिश्तेदारों ने आपत्ति उठाई तो रूपेश ने यह कह कर मुंह बंद कर दिया कि जब मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी. शिखा ने अर्चना का खुले दिल से स्वागत किया. उस के रहने की व्यवस्था रूपेश के कमरे में कर दी गई. अर्चना को नहानेधोने के लिए शिखा स्नानघर में खुद ले गई. अपने हाथों से तौलिया, साबुन, तेल वहां पहुंचाया. बाथरूम स्लीपर खुद अर्चना के पांव के पास रख दिए. रूपेश मानो खुशियों के हिंडोलों में झूल रहा था. नहाने के बाद नाश्ते की मेज पर बड़े आग्रह के साथ शिखा ने अर्चना को खिलायापिलाया. शिखा से ऐसे बरताव की आशा रूपेश को कभी न थी.

रूपेश मन ही मन मुसकरा रहा था और अपने सुंदर जीवन की कल्पना में डूबतैर रहा था. औटोरिकशा की भड़भड़ाहट से उस की कल्पना में सहसा विघ्न पड़ा. औटोरिकशा से एक लंबाचौड़ा खूबसूरत युवक उतरा और ‘हैलो शिखा’ बोलते हुए घर में घुस गया. शिखा एकाएक उस की तरफ बढ़ी. किंतु फिर थोड़ा रुक गई. उस नौजवान ने आगे बढ़ कर शिखा के कंधे पर अपनी बांह रख दी.

‘‘रूपेश भैया, जरा औटोरिकशा से सामान तो उतार लाना,’’ उस नवयुवक ने रूपेश की तरफ मुंह फेर कर कहा.

कुछ न समझते हुए भी रूपेश ने औटोरिकशे वाले से उस नवयुवक का सामान अंदर रखवाया और उसे पैसे दे कर चलता किया. शिखा और वह युवक सोफे पर पासपास बैठे बातों में मग्न थे जैसे जिंदगीभर की सारी बातें आज ही खत्म कर के दम लेंगे.

‘‘आप की तारीफ,’’ रूपेश ने शिखा से पूछा. शिखा थोड़ा सा मुसकराई और शर्म से सिमटसिकुड़ गई. फिर उस ने एक बार उस नवयुवक के सुंदर मुखड़े की ओर ताका.

‘‘यह संजय है. तुम्हें शायद याद होगा कि एक बार तुम्हारे बहुत जोर देने पर मैं ने स्वीकार किया था कि शादी से पहले मैं भी किसी से प्यार करती थी. मेरी अधूरी प्रेमकहानी का हीरो यही है.’’

रूपेश को झटका सा लगा. उस की आंखें फैल गईं.

‘‘जब मैं ने अर्चना को साथ रखने की बात सुनी और तुम ने मेरा पूरा हक और मेरी खुशियां मुझे देने का वचन दे दिया, तब मैं ने संजय को अपने साथ रखने का फैसला कर लिया,’’ शिखा ने अपनी आंखों को नचाते हुए कहा, ‘‘अपने मिलनेजुलने वालों से हम यही कहेंगे कि संजय आप के मामाजी, फूफाजी या चाचाजी का बेटा है और यह नौकरी के सिलसिले में यहां आया हुआ है और अब हमारे साथ ही रहेगा.’’

‘‘अरे, शिखा डार्लिंग, पहले तो मुझे यकीन ही नहीं आया. किंतु जब तुम ने बताया कि तुम लोग एकदूसरे की खुशियों के लिए झूठे रस्मोरिवाज तोड़ रहे हो तब मैं ने उस महान आदमी के दर्शन करने के लिए यहां आने का निश्चय कर ही लिया,’’ संजय बोला.

‘‘अब तुम इन से खुद पूछ लो,’’ शिखा ने संजय की तरफ देखा और फिर वह अपने पति की तरफ घूम गई, ‘‘क्यों जी, है न यही बात? आप मेरी खुशियों के आगे दीवार तो नहीं बनेंगे? प्यार की जिस प्यास से मैं आज तक तड़पती रही हूं, अब उसे बुझाने में आप मुझे पूरा सहयोग देंगे न?’’

‘‘हांहां.’’ रूपेश आगे कुछ न कह सका.

‘‘डार्लिंग, तुम थकेहारे आए हो. आओ, नहाधो लो ताकि थकावट दूर हो जाए.’’

‘‘स्नानघर किधर है?’’ संजय ने पूछा.

‘‘जाइए जी, इन को स्नानघर बताइए,’’ शिखा ने कहा, ‘‘और हां, यह तौलिया और साबुन वहां रख दीजिएगा.’’ रूपेश ने तौलिया और साबुन हाथ में ले लिया और स्नानघर की ओर मुड़ा. संजय उस के पीछेपीछे चल पड़ा.

‘‘अरे हां, यह बाथरूम स्लीपर भी साथ ले जाइए.’’ शिखा ने संजय का ब्रीफकेस खोल कर उस में से बाथरूम स्लीपर निकाले.

संजय बाथरूम से स्लीपर लेने के लिए पलटा.

‘‘अरे, नहीं. आप चलिए. ये ले कर आते हैं.’’ शिखा ने बाथरूम स्लीपर रूपेश की तरफ बढ़ा दिए. रूपेश ने कंधे उचकाए और फिर बाथरूम स्लीपर पकड़ कर आगे बढ़ गया.

स्नानघर से पानी गिरने की आवाज आ रही थी और संजय मग्न हो कर गुनगुना रहा था.

‘‘यह क्या मजाक है?’’ रूपेश ने शिखा से कमरे में लौटते ही कहा.

‘‘कैसा मजाक, क्या आप को संजय का यहां आना अच्छा नहीं लगा?’’ शिखा ने पूछा.

‘‘नहीं, यह बात नहीं, मैं पूछता हूं कि संजय के बाथरूम स्लीपर मुझ से उठवाना क्या तुम्हें शोभा देता है?’’

‘‘डार्लिंग, मैं आप की खुशी के लिए अर्चना बहन की दिल से सेवा कर रही हूं. आप मेरी खुशी के लिए माथे पर बल न डालिए. कहीं ऐसा न हो कि संजय के दिल को चोट पहुंचे. वह बहुत भावुक है,’’ शिखा ने कहा.

रूपेश मन ही मन ताव खाए कंधे हिला कर रह गया.

‘‘अब ऐसा करिए, दो?पहर के खाने के लिए कुछ सब्जी वगैरह लेते आइए. आप डब्बों में बंद सब्जी ले आइए.’’

रूपेश ने अर्चना की तरफ देखा.

‘‘यदि अर्चना बहन आराम करना चाहती हैं तो आराम करें या आप के साथ जाना चाहती हैं तो बाजार घूम आएं. मैं रसोई की तैयारी करती हूं.’’

‘‘नहीं, अर्चना यहीं रहेगी,’’ रूपेश ने जल्दी से कहा.

‘‘क्या आप मुझे संजय के साथ अकेले छोड़ते हुए डरते हैं?’’ शिखा ने तीखी नजरों से रूपेश की तरफ देखा.

‘‘नहीं, मैं ऐसा तंगदिल नहीं हूं. मैं तो इसलिए कह रहा हूं कि यह काम में तुम्हारी मदद करेगी,’’ रूपेश ने जल्दी से कहा और फिर थैला उठा कर बाहर निकल गया.

रूपेश ताव खाते हुए बाजार की ओर जा रहा था. उस के घर में उस की पत्नी उस से किसी के जूते उठवाए, यह कहां तक ठीक था. शिखा ने यदि अर्चना के लिए तौलिया, साबुन, स्लीपर स्नानघर में पहुंचा दिए तो अपनी खुशी से. उस ने उसे मजबूर तो नहीं किया था? संजय को बुलाने से पहले वह उस से पूछ तो लेती, सलाह तो कर लेनी चाहिए थी. और अब नौकर की तरह थैला थमा कर उसे बाजार की ओर ठेल दिया है. यह ठीक है कि शिखा को उस ने घर में पूरा हक देने का वादा जरूर किया था, मगर उसे एकदूसरे की बेइज्जती करने का तो अधिकार नहीं है.

इस की कुछ न कुछ सजा जरूर संजय और शिखा को मिलनी चाहिए. वे दोनों फूड पौयजन से बीमार हो जाएं तो कैसा रहे? रूपेश के दिमाग में एकदम विचार उभरा. हां, यह ठीक रहेगा. उस के कदम एक डिपार्टमैंटल स्टोर की ओर बढ़े.

‘‘आप के यहां कोई ऐसी डब्बाबंद सब्जी है जिस से फूड पौयजन होने का खतरा हो?’’ उस ने सेल्समैन से सीधा सवाल किया.

‘‘क्या मजाक करते हैं, साहब? हमारे यहां तो बिलकुल ताजा स्टौक है,’’ सेल्समैन ने दांत निकालते हुए कहा.

‘‘एकआध डब्बा भी नहीं?’’

‘‘क्या आप स्वास्थ्य विभाग से आए हैं?’’ सेल्समैन ने सतर्क हो कर पूछा.

‘‘नहीं, डरो नहीं. हां, यह बताओ कि कोई ऐसा डब्बा…’’

‘‘जी नहीं. हम इमरजैंसी से पहले और इमरजैंसी के बाद भी अच्छा ही माल बेचते रहे हैं,’’ सेल्समैन ने कहा.

‘‘अच्छा, कोई ऐसी दुकान का पता बता दो जहां ऐसी डब्बाबंद सब्जी मिल जाए.’’ अपनी बेइज्जती के बाद की भावना से पागल हो रहे रूपेश ने 500 रुपए का नोट सेल्समैन की तरफ सरकाया.

‘‘क्रांति बाबू, जरा पुलिस को फोन करना. यह पागल आदमी किसी की हत्या करना चाहता है,’’ सेल्समैन ने टैलीफोन के करीब बैठे एक नौजवान से कहा.

पुलिस का नाम सुन कर रूपेश उड़नछू हो गया. 500 रुपए का नोट काउंटर से उठाने की भी उसे सुध न रही, संजय व शिखा को बीमार कर देने का विचार भी उस के दिमाग से उड़ गया. अब तो वह उन दोनों की सेहत ठीक रहने की ख्वाहिश कर रहा था. उस के डरे हुए मस्तिष्क में यह विचार उभरा कि संजय व शिखा को कुछ हो गया तो सेल्समैन की गवाही पर वह पकड़ लिया जाएगा.

रात को खाने के बाद कौफी का दौर चला. वे चारों बैठक में बैठे थे. संजय अपने चुटकुलों से सब को हंसाता रहा.

‘‘क्या बात है, डार्लिंग, तुम कुछ नहीं बोल रहे हो?’’ अर्चना ने रूपेश के करीब सरकते हुए कहा.

‘‘मैं तो कहता हूं, रूपेशजी, यदि सब लोग आप की तरह समझदार हो जाएं तो प्रेम के कारण होने वाली सारी समस्याएं समाप्त हो सकती हैं,’’ संजय ने कहा.

‘‘और प्रेम में निराश हो कर आत्महत्याएं भी कोई न करे,’’ अर्चना बोली.

‘‘मानव जाति को कितना अच्छा सुझाव दिया है रूपेशजी ने,’’ शिखा ने कहा.

‘‘मगर पहले तो तुम अडि़यल घोड़े की तरह दुलत्तियां झाड़ रही थीं, मरनेमारने की धमकियां दे रही थीं,’’ रूपेश ने शिखा की तरफ देख कर कहा.

‘‘तब मैं तुम्हारे दिल की गहराई नाप नहीं पाई थी.’’

‘‘अच्छा भई, तुम दिल की गहराइयां नापो. हम तो नींद की गहराइयों में उतरने चले,’’ संजय उठ खड़ा हुआ, ‘‘शिखा डार्लिंग, सोने का कमरा किधर है?’’

‘‘वह बाएं कोने वाला इन का है और दाएं वाला हमारा.’’

‘‘अच्छा भई, गुडनाइट,’’ स्लीपिंग गाउन सरकाता हुआ संजय दाईं ओर के सोने के कमरे की ओर बढ़ गया.

संजय के चले जाने के बाद कुछ देर तक अर्चना अंगरेजी पत्रिका के पन्ने पलटती रही. फिर वह भी अंगड़ाई ले कर उठ खड़ी हुई.

‘‘सोना नहीं है, रूपेश डार्लिंग?’’

‘‘तुम चलो, मैं थोड़ी देर और बैठूंगा.’’ रूपेश ने अनमने स्वर में कहा.

‘‘ओके, गुडनाइट.’’

‘‘गुडनाइट,’’ रूपेश कुछ नहीं बोला लेकिन शिखा ने स्वेटर पर सलाई चलाते हुए कहा.

फिर बैठक में खामोशी छा गई. घड़ी की टिकटिक और शिखा की सलाइयों की टकराहट इस खामोशी को तोड़ देती. रूपेश अनमना सा कुरसी पर बैठा रहा.

‘‘अब सो जाइए, 1 बजने को है, मुझे तो नींद आ रही है,’’ शिखा ऊन के गोलों में सलाइयां खोंसती हुई बोली.

शिखा ने स्वेटर और ऊन के गोलों को कारनेस पर टिका कर एक अंगड़ाई ली, रूपेश की तरफ देखा और और फिर पलट पड़ी दाएं कोने वाले सोने के कमरे की ओर.

‘‘रुक जाओ, शिखा,’’ रूपेश तड़प कर शिखा और कमरे के दरवाजे के बीच बांहें फैला कर खड़ा हो गया, ‘‘बेशर्मी की भी हद होती है.’’

‘‘बेशर्मी, कैसी बेशर्मी? रूपेश डार्लिंग, तुम ने मुझे जो हक दिया है मैं उसी का इस्तेमाल कर रही हूं. हट जाओ, मेरी वर्षों से मुरझाई हुई खुशियों के बीच दीवार न बनो. मुझे खुशियों का रास्ता दिखा कर राह में कांटे न बिछाओ.’’

‘‘अपने पति के सामने ऐसा कदम उठाते हुए तुझे डर नहीं लगता? शर्म नहीं आती?’’

‘‘डर, शर्म आप से? क्यों? यह तो बराबरी का सौदा है. रात काफी हो चुकी है, सो जाइए. आप का कमरा उधर है,’’ शिखा ने बाएं कोने में कमरे की ओर इशारा किया, ‘‘छोडि़ए, मेरा रास्ता.’’

‘‘बेशर्म, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि तुम इतनी गिर सकती हो. तुम्हारी इस हरकत से एक पति के दिल पर क्या गुजर सकती है, यह तुम ने कभी सोचा है?’’ रूपेश की आंखें क्रोध से जल उठीं.

‘‘मर्द जब दूसरी पत्नी ब्याह कर लाता है तब क्या अपनी पहली पत्नी के दिल में उठने वाली चीखों की शहनाइयों के शोर को सुनता है? रातरातभर कोठों पर ऐश की शमाएं जलाने वाले पति कभी अपनी पत्नी के दिल के अंधेरों में झांक कर देखते हैं? हर जवान लड़की पर लार टपकाने वाला पति कभी यह भी सोचता है कि उस की पत्नी के गालों पर आंसू के निशान क्यों बने रहते हैं? आप ने जब अर्चना को लाने की तजवीज पेश की थी, तब मैं भी रोईचिल्लाई थी. अब मैं संजय के पास जा रही हूं तो आप क्यों चीख उठे?’’

‘‘मैं उस का सिर तोड़ दूंगा,’’ रूपेश कमरे की तरफ बढ़ा.

‘‘अरे, रुको तो,’’ शिखा ने उस की बांह पकड़ ली.

‘‘मैं कुछ सुनना नहीं चाहता. उसे इसी वक्त चलता कर दो.’’

‘‘और अर्चना?’’

‘‘वह भी जाएगी. मेरा फैसला गलत था. मैं अंधे जज्बात की धारा में बह गया था,’’ रूपेश ने हथियार डाल दिए.

‘‘अंधे जज्बात नहीं, वासना ने तुम्हें अंधा कर दिया था. रूपेश भैया,’’ संजय  पूरे कपड़े पहन अतिथिकक्ष के दरवाजे पर खड़ा था.

रूपेश कभी सोने के कमरे की तरफ और कभी अतिथिकक्ष के दरवाजे पर खड़े संजय की ओर देख रहा था.

‘‘जी हां, आप का खयाल ठीक है. मैं सोने के कमरे में स्लीपिंग सूट पहन कर गया जरूर था. किंतु दूसरे दरवाजे से बाहर निकल गया था,’’ संजय ने कहा, ‘‘आप को फिर कोई शो करना हो तो याद कीजिएगा. यह रहा मेरा कार्ड.’’

‘नितिन…निर्देशक तथा स्टेज आर्टिस्ट,’ रूपेश कार्ड की पहली पंक्ति पर अटक गया.

‘‘आगे हमारे ड्रामा क्लब का पता भी लिखा है. नोट कर लीजिए,’’ नितिन मुसकरा दिया.

रूपेश मुंह फाड़ कभी कार्ड को तो कभी उस युवक को देख रहा था, जो संजय से नितिन बन गया था.

‘‘यह नितिन है, हमारे शहर के माने हुए कलाकार और भैया के जिगरी दोस्त. जब मैं ने भैया को आप की अर्चना को साथ रखने की जिद के बारे में लिखा तब उन्होंने नितिन की सहायता से यह सारा नाटक रचवाया,’’ शिखा ने सारी बात समझाते हुए कहा.

‘‘ओह,’’ रूपेश ने एक लंबी सांस ली और धम से सोफे पर बैठ गया.

Social Story : वक्त के धमाके – क्या पूरे हो पाए रवि के सपने?

Social Story : एक तरफ प्रशांत महासागर की अथाह गहराइयां और दूसरी ओर माउंट फूजी की बर्फ से ढकी गगनचुंबी चोटियों के बीच दूर तक फैली हरियाली का सीना चीरती हुई ‘शिनकानसेन’ (बुलेट ट्रेन का जापानी नाम) तेज रफ्तार से भागती जा रही थी. आरक्षित कोच की शानदार सीट पर सिर रखे, आंखें बंद किए रवि का मन उस से भी तेज गति से अतीत की ओर भाग रहा था.

तकरीबन 1 साल हुआ जब उस से रवि की मुलाकात हुई थी. बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा परिणाम का अखबार हाथ में आते ही पिताजी ने आसमान सिर पर उठा लिया था. मां ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उन का फैसला पत्थर की लकीर जो था. चंद जरूरी कपड़े साथ में ले जाने की उसे इजाजत मिली थी. घर से निकलते समय अपने ही जन से नजरें मिलाने की भी उस में हिम्मत न थी. आखिर उन की तकलीफों से वह वाकिफ था.

सरकारी महकमे का एक ईमानदार बाबू किस प्रकार परिवार की गाड़ी खींचता था, उस से छिपा तो न था. बड़ा बेटा होने के नाते उस से उम्मीदें भी बहुत थीं. ‘पढ़ नहीं सकते हो तो महकमे से लोन ले कर एक छोटीमोटी दुकान खुलवा सकता हूं’, कहा था पिताजी ने, लेकिन वह जिंदगी जीना उस का ख्वाब होता तब न. बचपन से एक ही सपना पाल रखा था कि विदेश जाऊंगा, कुछ बनूंगा.

जून की तपती दोपहरी में कुछ सुकून के पल तलाश करने के लिए वह दिल्ली स्थित ‘जापान कल्चरल सेंटर’ के बाहर एक पेड़ की छांव में बैठा ही था कि तभी गेट से एक जापानी बाला बाहर आई और फुटपाथ के पास खड़ी हो गई. उसे शायद किसी टैक्सी का इंतजार था. भीषण गरमी से उस का सफेद दूध सा दमकता चेहरा लाल हो गया था. उस जापानी युवती को परेशान देख कर रवि के मन में परमार्थ की भावना जागी. कुछ ठिठकते कदमों के साथ उस के थोड़ा नजदीक गया और धड़कते दिल से अंगरेजी में पूछा कि क्या तुम अंगरेजी में बातचीत कर सकती हो. उस ने बेहद पतली आवाज में अंगरेजी में जवाब दिया, ‘यस अफकोर्स.’ और इसी के साथ ही उस में साहस का संचार हुआ, बोला, ‘डू यू नीड ऐनी हेल्प?’ ‘नो थैंक्स, एक्चुली आई अराइव्ड हियर लास्ट नाइट एंड बाई टुमारो मार्निंग आई हैव टु फ्लाई फौर जयपुर, सो ड्यूरिंग दीज फ्यू आवर्स आई विश टू सी सम गुड प्लेसिज हियर.’

उस की बातें खत्म होने से पहले वह बोल उठा, ‘इफ यू डोंट माइंड एंड फील कंफर्टेबल, इट वुड बी माई प्लेजर टु शो यू सम ब्यूटीफुल एंड हिस्टोरिकल प्लेसिज?’

एक पल के लिए गहरी खामोशी छा गई थी, उस युवती के मुंह से निकलने वाली हां या ना पर रवि के पूरे सपने पल भर टिके रहे. ‘ओह श्योर,’ ने रवि की तंद्रा भंग की और वह सातवें आसमान पर जा पहुंचा था.

शाम होतेहोते दिल्ली की वे तमाम ऐतिहासिक चीजें रवि ने जापानी युवती को दिखाईं जिन से एक पर्यटक वाकई अभिभूत हो उठता है. रवि के लिए सब से महत्त्वपूर्ण था उस का सुखद सामीप्य. एक वाक्य बोलने से पहले उस के खूबसूरत होंठों से जो खिलखिलाहट उभरती थी और बातोंबातों में रवि की नाक को पकड़ कर हिला देने का जो उस का अंदाज था, उस ने उसे रवि के दिल के बेहद करीब पहुंचा दिया.

दिल्ली के कई पर्यटन स्थलों को देखतेदेखते उन्हें शाम हो गई. दोनों को भूख लगी थी. एक अच्छे रेस्तरां में खाना खाने के बाद वे टहलते हुए इंडिया गेट की ओर निकल गए थे. चांदनी चारों ओर बिखरी थी, बोट क्लब की ओर से आती ठंडी हवाएं, माहौल को और भी खुशनुमा बना रही थीं. चलतेचलते मिकी ने उस की उंगलियों को अपनी हथेली में भर कर बहुत ही गंभीर स्वर में कहा था, ‘रवि, मैं दुनिया के बहुत से देशों में गई हूं और अनेक दोस्त भी बनाए हैं लेकिन तुम वास्तव में उन दोस्तों में एक बेहतरीन दोस्त हो. मैं तुम्हारे देश से मधुर यादों को ले कर जापान जाऊंगी. मेरी इच्छा है कि तुम जापान आओ. भविष्य में यदि तुम कभी अपने देश को छोड़ कर जापान आने के लिए मानसिक रूप से तैयार होना तो मुझे लिखना, मैं तुम्हारे लिए टिकट और वीजा के लिए जरूरी पेपर भेज दूंगी. कल सुबह 8 बजे से पहले तुम मुझे पार्क होटल के रिसेप्शन पर आ कर मिलना. मैं तुम्हें अपना जापान का पता व टेलीफोन नंबर दे दूंगी.’

बहुत मुश्किल से रवि तब  सिर्फ ‘यस’ बोल सका था. चेतना जा चुकी थी वह सिर्फ जड़वत सा खड़ा रह गया था. शायद इतनी बड़ी खुशी का बोझ उस से उठाया नहीं जा रहा था. बचपन का एक सपना शायद सच होने जा रहा था. तभी उस की नाक को पकड़ कर मिकी ने हिलाया तो मानो वह नींद से जाग गया.

‘रवि, अब तुम जाओ, उम्मीद करती हूं कि कल सुबह मुलाकात होगी.’ इतना कह कर मिकी चली गई थी और रवि उस के कदमों की आखिरी आवाज भी सुनने को बेचैन ठगा सा वहीं खड़ा रहा.

कुछ देर बाद रवि अपने ठिकाने पर जा कर सो गया. वह पास की एक बेंच पर लेट गया था. रात सरकती रही और वह मिकी और अपने भविष्य के बारे में सोचता ही जा रहा था. सोचतेसोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला और सुबह आंख खुली रवि ने सब से पहले घड़ी को देखा तो 8 बज चुके थे. वह हांफते हुए होटल के रिसेप्शन पर पहुंचा तो पता चला कि मिकी की फ्लाइट 8.45 बजे की थी और वह 8 बजे से पहले ही होटल से जा चुकी थी. जिस बेल ब्वाय ने उस का कमरा साफ किया था उस ने बताया कि मिकी काफी देर तक लौबी में बैठी थी. उस की मायूस निगाहें मानो किसी को तलाश रही थीं.

रवि को लगा कि उस का सबकुछ लुट चुका है. वह भीतर से बिलकुल टूट गया, फिर भी उसे जीना है क्योंकि अब तो उसे जिंदगी का मकसद मिल गया था. मिकी को पाने की एक अटूट चाहत ने उस के भीतर जन्म ले लिया था.

हलके झटके के साथ ट्रेन रुकी तो रवि ने आंखें खोलीं और उस का मन अतीत से वर्तमान में आ गया. एक सहयात्री ने रवि के पूछने पर बताया कि यह हमामातसुचो स्टेशन है. लगभग आधा सफर खत्म हो चुका है. भारत के स्टेशनों से कितना भिन्न, जगमगाता प्लेटफार्म, कोई शोरशराबा नहीं, इतना साफसुथरा फर्श कि पैर भी रखने को दिल न करे. उतरने और चढ़ने वालों का अनुशासन देख जापान की सभ्यता से रवि थोड़ाबहुत परिचित हो रहा था. ट्रेन सरकने लगी और कुछ ही क्षणों में फिर तूफानी रफ्तार पकड़ ली. रवि एक बार फिर आंखें बंद कर अतीत में खो गया.

तब दोचार दिन तलाश करने पर रवि को पास ही के एक छोटे से रेस्तरां में काम मिल गया था जिस से पेट की भूख और छत की समस्या का हल हो गया. लगभग रोजाना समय निकाल कर एक उम्मीद दिल में लिए रवि उसी पेड़ के नीचे आ बैठता था. इस दौरान उस ने बहुत जापानी चेहरे देखे लेकिन वह चेहरा दोबारा देखने की चाहत लिए एक साल गुजर गया.

ऐसे ही एक दिन शाम को रवि पेड़ के नीचे उदास बैठा था कि तभी एक आटोरिकशा ब्रेक की तेज आवाज के साथ आ कर रुका तो उस की तंद्रा भंग हुई. रवि ने देखा कि एक जापानी नौजवान आटो से उतरा और आटो वाले को किराया देने के बाद अपने मोटे से पर्स को तंग जींस की पिछली जेब में खोंस कर लापरवाह ढंग से सीढि़यों की तरफ बढ़ा. महज 2 सीढि़यां चढ़ते ही उस युवक का पर्स जेब से निकल कर वहीं गिर गया, लेकिन उस से अनजान वह जापानी नौजवान आगे बढ़ता गया. रवि ने आसपास किसी को न देख कर धीरे से जा कर पर्स उठाया और पेड़ के नीचे आ कर उसे खोल कर देखा तो उस में हजार के नोट भरे थे. धड़कते दिल से रवि ने उसे तुरंत बंद किया. उस के अनुमान से लगभग 40-50 नोट रहे होंगे. इस का मतलब भारतीय करेंसी में तो ये लाखों में होंगे. एक पल को उस के दिमाग में आया कि ये रुपए अगर वह पिताजी को जा कर दे दे तो उन की तमाम परेशानियां दूर हो सकती हैं, लेकिन दूसरे ही पल उस की आत्मा धिक्कार उठी कि रवि, यदि यह धन तुम ने अपने पास रखा तो शायद जीवन भर अपने को माफ न कर सकोगे. इस को वापस करना होगा. तभी बेचैनी की हालत में वह जापानी नौजवान बाहर आता दिखाई पड़ा. उस की निगाहें जमीन के भीतर से भी कुछ निकाल लेने को आतुर थीं. रवि हौले से उस के करीब आ कर बोला, ‘एक्सक्यूज मी, आई हैव योर वालेट. यू ड्राप्ड इट हियर,’ कह कर पर्स उस के हाथों में थमा दिया.

उस जापानी नौजवान के चेहरे पर जो खुशी और कृतज्ञता के भाव आए और धन्यवाद से संबंधित जितने भी शब्द उसे आते थे, कहे. उन्हें सुन कर रवि गौरवान्वित हो उठा था. पर्स निकाल कर युवक ने चंद नोट उसे थमाने चाहे थे, लेकिन उस ने जो किया था उस के बदले में कुछ पैसे ले कर खुद से शर्मिंदा नहीं होना चाहता था. रवि की ऐसी अभि- व्यक्ति को सुन कर जापानी नौजवान ने आश्चर्यमिश्रित ढंग से उस की ओर देखा और बोला, ‘आई एम वेरी मच इंप्रेस्ड, मे आई डू समथिंग फौर यू?’

इसी सवाल का तो रवि को इंतजार था और एक झटके में उस के मुंह से निकला, ‘आई विश टु कम टु जापान?’

एक पल को उन दोनों के बीच गहरी खामोशी छा गई. फिर उस जापानी नौजवान ने धीरे से रवि के कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘डू यू नो एनी रेस्टोरेंट अराउंड दिस एरिया? आई एम हंग्री.’

करीब 5 मिनट पैदल चलते ही रवि का रेस्टोरेंट था, संयोग से कोने की एक मेज खाली थी. उस ने रवि को जबरदस्ती अपने पास बिठाया और भोजन के दौरान ही रवि ने अपनी जिंदगी के हर पहलू, हर सपने को खोल कर उस के सामने रख दिया.

इस दौरान जापानी नौजवान कुछ भी नहीं बोला, सिर्फ खाता रहा और रवि की बातें सुनता रहा. भोजन समाप्त करने के बाद वह रवि को अपने बारे में बताने लगा. अभी हाल ही में उस की शादी हुई है और करीब एक बरस पहले उस के पिता प्लास्टिक के एक छोटेमोटे कारखाने को उस के कंधों पर छोड़ कर हार्टअटैक से चल बसे थे.

पिछले एक साल में उस के अथक परिश्रम से उस की ‘खायशा’ (कंपनी) की काफी तरक्की हुई. घूमनेफिरने का उसे बचपन से शौक है, इसलिए काम की जिम्मेदारी अपनी पत्नी को सौंप कर वह एक सप्ताह की भारत यात्रा पर निकल पड़ा था. एक पल रुक कर उस ने गिलास में रखा पानी पीया और आगे बताने लगा कि आने वाले दिनों में उस की कंपनी में काफी काम बढ़ने वाला है, लिहाजा उसे कुछ नए कर्मचारियों की जरूरत है. अगर तुम लंबे अरसे तक जापान में रहना चाहते हो और मेरे साथ काम करना पसंद करो तो मैं तुम्हें अपनी कंपनी में जगह दे सकता हूं, लेकिन जापान में बहुत मेहनत से काम करना होता है, जहां तक तुम्हारी ईमानदारी का सवाल है उस से तो मैं परिचित हो चुका हूं और तमाम नसीहतें देता चला गया.

रवि के कानों में सीटियां बज रही थीं. एक साल में दूसरी बार ऐसा अवसर आया था. वह अपनी सुध खो बैठा था ‘व्हाट डू यू डिसाइड?’ चौंक कर यथार्थ में आया रवि उस का हाथ थाम कर थरथराते होंठों से सिर्फ इतना बोल सका, ‘आई विल डू माई बेस्ट.’

मेरे ऐसे भाग्य होंगे, यह मैं ने सोचा न था. उस के रेस्तरां का पता नोट कर वह जापानी नौजवान बोला, ‘आई हैव टु फ्लाई फौर मुंबई टुनाइट एंड आफ्टर स्पेंडिंग 2 डेज ओवर दियर आई विल बी बैक टु जापान, सून आई विल सेंड औल द डाक्यूमेंट्स, सो जस्ट वेट फौर माई लेटर.’ उसे टैक्सी में बिठा कर एक उमंग मन में लिए रवि तब वापस रेस्तरां में आ गया था. भीड़ बढ़ने लगी थी.

उस जापानी नौजवान के जाने के बाद हरेक दिन रवि के लिए एक बरस की तरह गुजरा और ठीक 15वें दिन रेस्टोरेंट के काउंटर पर कैशियर ने उसे बड़ा सा लिफाफा पकड़ाया. एक कोने में जापान लिखा देख वह भागता हुआ अंदर गया और कांपती उंगलियों से लिफाफा खोला. वीजा से संबंधित सारे कागजात और एक ‘ओपन डेटेड’ एयर टिकट था. छोटे से पत्र में उस ने लिखा था कि शीघ्र आने की कोशिश करो.

खुशी के मारे उस की आंखों में आंसू आ गए.

आगे के 10 दिन तूफान की सी तेजी से गुजरे.

लगातार 5 दिन तक जापानी दूतावास के चक्कर काटने के बाद वीजा मिला और फिर जाने का समय आ गया था. पिताजी के स्नेहयुक्त नसीहत भरे अल्फाज ‘बेटा रवि, ईमानदारी का साथ मत छोड़ना तो खुशियां तुम से दूर नहीं रह पाएंगी,’ को रवि ने आत्मसात कर लिया था. छोटी बहन को सीने से लगा कर द्रवित हृदय से विदा ली थी.

ओसाका इंटरनेशनल एअरपोर्ट से क्लियरेंस की तमाम औपचारिकताएं पूरी होने के बाद उसे कार्यक्रम के अनुसार ओसाका स्टेशन से टोकियो के लिए बुलेट ट्रेन पर सफर करना था.

आंखें खुलीं तो रवि अतीत से बाहर आया. बाहर अंधेरा हो चला था. दूर टिमटिमाती रोशनियां दिखाई पड़ने लगी थीं. सहयात्री ने बताया कि टोकियो आने वाला है. फ्रेश होने की नीयत से रवि टायलेट गया. जब वह बाहर आया तो चारों तरफ जगमगाता शहर था. ट्रेन टोकियो में प्रवेश कर चुकी थी. आगामी कुछ ही मिनटों में ट्रेन रवि के अंतिम पड़ाव यानी वेनो स्टेशन पर पहुंचने वाली थी.

पश्चिम के दरवाजे से बाहर निकलते ही आरक्षण काउंटर के पास वह जापानी नौजवान रवि का इंतजार कर रहा था. दोनों गले मिले. रवि को उस ने बताया कि महज 10 मिनट की दूरी पर उस का अपार्टमेंट है. जगमगाता शहर और उस पर से आतिशबाजियों का मंजर (कुछ ही दूर पर बहती सुमिदा नदी के तट पर हर साल इसी दिन आतिशबाजी का उत्सव होता है जिसे ‘हानाबी’ कहते हैं) किसी भी नए इनसान को भौंचक कर देने के लिए पर्याप्त था.

कार उस शानदार अपार्टमेंट के पोर्च में जा लगी थी. रवि अब कुछ थकान का अनुभव कर रहा था. ड्राइंगरूम से अटैच्ड बाथरूम में गरम पानी के बाथटब में नहा कर रवि ने थकान उतारी और जब फ्रेश हो कर बाहर निकला तो देखा वह जापानी नौजवान अपना पसंदीदा पेय ले कर बैठा था. रवि ने सिर्फ एक कप कौफी पीने की इच्छा जाहिर की.

वह अंदर गया और रवि सोफे की पुश्त पर सिर टिका कर आंखें बंद कर दिल के उस हिस्से को छूने लगा जिस पर मिकी का नाम लिखा था. किसी भी सूरत में उसे ढूढ़ना होगा, रवि ने सोचा.

‘‘मि. रवि, प्लीज मीट टु माई वाइफ, मिकी,’’ और साथ में बेहद पतली आवाज में ‘हेलो’ के स्वर ने रवि की तंद्रा भंग की. झटके के साथ आंखें खोलीं और वह चेहरा जिसे रवि करोड़ों में भी पहचान सकता था, उस के सामने था. उस की मिकी उस के सामने खड़ी थी. नजरें मिलाते ही मिकी ने आंखें जमीन में गाड़ दी थीं. बहुत संयम के साथ वह सिर्फ ‘हेलो’ बोल सका था. दोस्त से मुखातिब हो कर बोला, ‘आई एम सौरी, ड्यू टु जेटलैक (टाइम जोन बदलने से होने वाली भारी थकान) आई एम फीलिंग अनवेल,’ इतना कह कर रवि सोफे में धंस सा गया. दूर सुमिदा नदी के तट पर हानाबी के धमाके कानों में गूंज रहे थे.

Family Story : भटकाव – क्या नरेश अंजू के साथ कुछ कर पाया

Family Story : ‘‘मैं अब और इस घर में नहीं रह सकती. रोजरोज के झगड़े भी अब बरदाश्त के बाहर हैं. मैं रक्षा को ले कर अपनी मां के पास जा रही हूं. आप ज्यादा पैसा कमाने की कोशिश करें और जब कमाने लगें, तब मुझे बुला लेना,’’ पत्नी सुनीता का यह रूप देख कर नरेश सहम गया.

नरेश बोला, ‘‘देखो, तुम्हारा इस तरह से मुझे अकेले छोड़ कर जाना समस्या का हल नहीं है. तुम्हारे जाने से सबकुछ डिस्टर्ब हो जाएगा.’’

‘‘तो हो जाने दो. कम से कम आप को अक्ल तो आएगी,’’ सुनीता बोली. ‘‘मैं कोशिश कर तो रहा हूं. तुम थोड़ी हिम्मत नहीं रख सकतीं. मैं ने अपनेआप से बहुत समझौता किया है,’’ नरेश बोला.

‘‘मैं ने भी बहुत सहा है और आप के मुंह से यह सुनतेसुनते तो मेरे कान पक गए हैं. आप बस कहते रहते हैं, कुछ करतेधरते तो हैं नहीं.’’

‘‘मैं क्या कर रहा हूं, कहांकहां बात कर रहा हूं, क्या तुम्हें पता नहीं…’’

‘‘मुझे रिजल्ट चाहिए. आप यह नौकरी बदलें और जब ज्यादा तनख्वाह वाली दूसरी नौकरी करने लगें, तब हमें बुला लेना. तब तक के लिए मैं जा रही हूं,’’ यह कहते हुए सुनीता अपने सामान से भरा बैग ले कर बेटी रक्षा के साथ पैर पटकते हुए चली गई.

नरेश ठगा सा देखता रह गया. दरअसल, जब से उस ने नौकरी बदली है और उसे थोड़ी कम तनख्वाह वाली नौकरी करनी पड़ी है, तब से घर की गाड़ी ठीक से नहीं चल रही है. वह परेशान था, लेकिन कुछ कर नहीं पा रहा था.

घर में झगड़े की वजह से अगले दिन नरेश का दफ्तर के काम में मन नहीं लगा. उस ने सारा काम बेमन से निबटाया. छात्राओं के दाखिले का समय होने से काम यों भी बहुत ज्यादा था. यह सब सुनीता नहीं समझती थी. उस के इस नादानी भरे कदम से नरेश चिढ़ गया था.

नरेश ने भी तय कर लिया था कि अब वह सुनीता को बुलाने नहीं जाएगा. वह अपनी मरजी से गई है, अपनी मरजी से ही उसे आना होगा. रात के 10 बज रहे थे. नरेश नींद के इंतजार में बिस्तर पर करवटें बदल रहा था. इतने में मोबाइल फोन की घंटी बजी. उसे लगा, कहीं सुनीता का तो फोन नहीं. शायद उसे गलती का एहसास हुआ हो, पर नंबर देखा तो किसी और का था.

‘‘कौन?’’ नरेश ने पूछा.

‘सौरी सर, इस समय आप को डिस्टर्ब करना पड़ रहा है,’ नरेश को फोन पर आई उस औरत की आवाज कुछ पहचानी सी लगी.

‘‘कोई बात नहीं, आप बोलें?’’ नरेश ने कहा.

‘नमस्ते, पहचाना… मैं अंजू… ट्रेनिंग में दाखिले को ले कर 1-2 बार आप से पहले भी बात हो चुकी है.’

‘‘ओह हां, अंजू. तो तुम हो. कहो, इस वक्त कैसे फोन किया तुम ने?’’

‘सर, आज दिन में जब आप को फोन किया था, तो आप ने ही कहा था कि अभी मैं बिजी हूं, शाम को बात करना.’

‘‘पर इस वक्त तो रात है.’’

‘सर, मैं कब से ट्राई कर रही हूं. नैटवर्क ही नहीं मिल रहा था. अब जा कर मिला है.’

‘‘ठीक है. कहो, क्या कहना है?’’

‘सर, उस प्रोफैशनल कोर्स के लिए मेरा दाखिला तो हो जाएगा न?’

‘‘देखो, इन्क्वायरी काफी आ रही हैं. मुश्किल तो पडे़गी.’’

‘सर, दाखिले का काम आप देख रहे हैं. आप चाहें तो मेरा एडमिशन पक्का हो सकता है. मैं 2 साल से ट्राई कर रही हूं. आप नए आए हैं, पर आप के पहले जो सर थे, वे तो कुछ सुनते ही नहीं थे,’ उस की आवाज में चिरौरी थी.

‘‘आप की परिवारिक हालत कैसी है? आप ने बताया था कि आप की माली हालत ठीक नहीं है?’’ नरेश ने कहा.

‘आप को यह बात याद रह गई. देखिए, मैं शादीशुदा हूं. मेरे पति प्राइवेट नौकरी में हैं. उन की तनख्वाह तो वैसे ही कम है, ऊपर से वे शराब भी पीते हैं. वे मुझ पर बेवजह शक करते हैं. मुझे मारतेपीटते रहते हैं. मैं ऐसे आदमी के साथ रहतेरहते तंग आ गई हूं. मेरी एक बच्ची भी है.

‘मैं हायर सैकेंडरी तक पढ़ी हूं. मेरी सहेली ने ही मुझे आप के यहां के इंस्टीट्यूट के बारे में बताया था. अगर आप की मदद से मेरा ट्रेनिंग में दाखिला हो जाएगा, तो मैं आप का बड़ा उपकार मानूंगी,’ अंजू जैसे भावनाओं में बह कर सबकुछ कह गई.

‘‘देखो, इस वक्त रात काफी हो गई है. अभी दाखिले में समय है. आप 1-2 दिन बाद मुझ से बात करें.’’

‘ठीक है. थैक्यू. गुडनाइट,’ और फोन कट गया.

अगले दिन अंजू का दिन में ही फोन आ गया. बात लंबी होती थी, सो नरेश को कहना पड़ा कि वह रात को उसी समय फोन करे, तो ठीक रहेगा. रात के 9 बजे अंजू का फोन आ गया. उस ने बताया कि उस के पति के नशे में धुत्त सोते समय ही वह बात कर सकती है. नरेश अंजू के दुख से अपने दुख की तुलना करने लगा. वह अपनी पत्नी से दुखी था, तो वह अपने पति से परेशान थी.

धीरेधीरे अंजू नरेश से खुलने लगी थी. नरेश ने भी अपने अंदर उस के प्रति लगाव को महसूस किया था. उसे लगा कि वह औरत नेक है और जरूरतमंद भी. उस की मदद करनी चाहिए.

अंजू ने फोन पर कहा, ‘आप की बदौलत अगर यह काम हो गया, तो मैं अपने शराबी पति को छोड़ दूंगी और अपनी बच्ची के साथ एक स्वाभिमानी जिंदगी जीऊंगी.’

नरेश ने उस से कहा, ‘‘जब इंटरव्यू होगा, तो मैं तुम्हें कुछ टिप्स दूंगा.’’

अब उन दोनों में तकरीबन रोजाना फोन पर बातें होने लगी थीं. एक बार जब अंजू ने नरेश से उस के परिवार के बारे में पूछा, तो वह शादी की बात छिपा गया. नरेश के अंदर एक चोर आ गया था. अनजाने में ही वह अंजू के साथ जिंदगी बिताने के सपने देखने लगा था. शायद ऐसा सुनीता की बेरुखी से भी होने लगा था. अंजू ने एक बार नरेश से पूछा था कि जब वह ट्रेनिंग के लिए उस के शहर आएगी, तो वह उसे अपने घर ले जाएगा या नहीं? शौपिंग पर ले जाएगा या नहीं?

नरेश ने उस से कहा, ‘‘पहले दाखिला तो हो जाए, फिर यह भी देख लेंगे.’’

दाखिले का समय निकट आने लगा था. नरेश ने सोचा कि अब अंजू का काम होने तक तो यहां रुकना ही पड़ेगा. रहा सवाल सुनीता का तो और रह लेने दो उसे अपने मातापिता के पास.

अंजू के फार्म वगैरह सब जमा हो गए थे. इंटरव्यू की तारीख तय हो गई थी. नरेश ने अंजू को फोन पर ही इंटरव्यू की तारीख बता दी. वह बहुत खुश हुई और बताने लगी कि फीस के पैसे का सारा इंतजाम हो गया है. कुछ उधार लेना पड़ा है. एक बार ट्रेनिंग हो जाए, फिर वह सब का उधार चुकता कर देगी.

फोन पर हुई बात लंबी चली. बीच में 3-4 ‘बीप’ की आवाज का ध्यान ही नहीं रहा. देखा तो सुनीता के मिस्ड काल थे. इतने समय बाद, वे भी अभी…

उसे फोन करने की क्या सूझी? इतने में फिर सुनीता का फोन आया. वह शक करने लगी कि वह किस से इतनी लंबी बातें कर रहा था. नरेश ने झूठ कहा कि स्कूल के जमाने का दोस्त था. सुनीता ने खबरदार किया कि वह किसी औरत के फेर में न पड़े और आजादी का गलत फायदा न उठाए, वरना उस के लिए ठीक नहीं होगा.

नरेश ने कहा, ‘‘मुझ पर इतना ही हक जमा रही हो, तो मुझे छोड़ कर गई ही क्यों?’’

सुनीता ने बात को बदलते हुए नरेश को नई नौकरी की याद दिलाई. नरेश ने भी इधरउधर की बातें कर के फोन काट दिया. अभी तक अंजू से सारी बातें फोन पर ही होती रही थीं. फार्म भरा तो उस में अंजू का फोटो था. फोटो में वह अच्छीखासी लगी थी, मानो अभी तक कुंआरी ही हो. अब जब आमनासामना होगा, तो कैसा लगेगा, यह सोच कर ही नरेश को झुरझुरी सी होने लगी थी.

जैसेजैसे दिन कम होने लगे थे, वैसेवैसे अंजू के फोन भी कम आने लगे थे. शायद नरेश को अंजू के बैलैंस की फिक्र थी कि जब मिलना हो रहा है, तो फिर फोन का फुजूल खर्च क्यों? आखिरी दिनों में अंजू ने आनेजाने और ठहरने संबंधी सभी जानकारी ले ली थी.

आखिर वह दिन आ ही गया. नरेश ने अपना घर साफसुथरा कर लिया कि वह उसे घर लाएगा. सभी प्रवेशार्थी इकट्ठा होने लगे थे. सभी की हाजिरी ली जा रही थी कि कहीं कोई बाकी तो नहीं रह गया. लेकिन यह क्या, अंजू की हाजिरी नहीं थी.

नरेश तड़प उठा. जिस का दाखिला कराने के लिए इतने जतन किए, उसी का पता नहीं. यह औरत है कि क्या है. कुछ फिक्र है कि नहीं. अगर कोई रुकावट है, तो बताना तो चाहिए था न फोन पर.

नरेश ने अंजू को फोन किया, लेकिन यह क्या फोन भी बंद था. यह तो हद हो गई. इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था. मुमकिन हो कि ट्रेन लेट हो गई हो. स्टेशन भी फोन लगा लिया, तो मालूम पड़ा कि ट्रेन तो समय पर आ गई थी. अब हो सकता है कि टिकट कंफर्म न होने से वह बस से आ रही हो.

इंटरव्यू हो गए और सभी सीटों की लिस्ट देर शाम तक लगा दी गई. अब कुछ नहीं हो सकता. अंजू तो गई काम से. अच्छाभला काम हो रहा था कि यह क्या हो गया. जरूर कोई अनहोनी हुई होगी उस के साथ, वरना वह आती.

नरेश अगले 2-3 दिन लगातार फोन मिलाता रहा, पर वह बंद ही मिला. हार कर उस ने कोशिश छोड़ दी. 5वें दिन अचानक दफ्तर का समय खत्म होने से कुछ पहले अंजू का फोन आया.

‘हैलो..’ अंजू की आवाज में डर था.

नरेश उबला, ‘‘अरे अंजू, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है. यह क्या किया तुम ने? तुम को आना चाहिए था न. मैं इंटरव्यू वाले दिन से तुम्हें लगातार फोन लगा रहा हूं और तुम्हारा फोन बंद आ रहा है. आखिर बात क्या है,’’ वह एक सांस में सबकुछ कह जाना चाहता था वह.

‘मैं आप की हालत समझ सकती हूं, पर मुझे माफ कर दें…’

‘‘आखिर बात क्या हुई? कुछ तो कहो? कहीं तुम्हारा वह शराबी पति…’’

‘दरअसल, मैं आप के यहां के लिए निकलने के पहले अपनी बेटी निशा को अपनी मम्मी के यहां गांव छोड़ने जाने के लिए सवारी गाड़ी में बैठी थी. गाड़ी जरूरत से ज्यादा भर ली गई थी.

‘ड्राइवर तेज रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रहा था. इतने में सामने से आ रहे ट्रक से बचने के लिए ड्राइवर ने कच्चे में गाड़ी उतारी और ऐसा करते समय गाड़ी पलट गई…’

‘‘ओह, फिर…’’ आगे के हालात जानने के लिए जैसे नरेश बेसब्र हो उठा था.

‘गाड़ी पलटने से सभी सवारियां एकदूसरे पर गिरने से दबने लगीं. चीखपुकार मच गई. निशा बच्ची थी. वह भी चीखने लगी. मैं निशा के ऊपर गिर गई थी.

‘तभी कुछ मददगार लोग आ गए. थोड़ी देर और हो जाती, तो कुछ भी हो सकता था. उन लोगों ने हमें बांह पकड़ कर खींचा.

‘निशा बेहोश हो गई थी और मुझे भी चोटें आई थीं. कई सारे लोग घायल हुए थे. सभी को अस्पताल पहुंचाया गया. निशा को दूसरे दिन आईसीयू में होश आया. उस की कमर की हड्डी टूट गई थी. हम दोनों के इलाज में फीस के जोड़े पैसे ही काम आ रहे थे.

‘हम अभी भी अस्पताल में ही हैं. मैं थोड़ी ठीक हुई हूं और निशा के पापा दवा लेने बाहर गए हैं, तभी आप से बात कर पा रही हूं. ‘मुझे लग रहा था कि आप नाराज हो रहे होंगे. मुझे आप की फिक्र थी. आप ने सचमुच मेरा कितना साथ दिया. मैं आप को कभी भूल नही पाऊंगी. जब सबकुछ ठीक हो रहा था, तो यह अनहोनी हो गई. सारा पैसा खत्म होने को है. अब मेरा आना न होगा कभी. मुझे अब हालात से समझौता करना पड़ेगा.

‘लेकिन, मैं एक अच्छी बात बताने से अपनेआप को रोक नहीं पा रही हूं कि निशा के पापा अस्पताल में हमारी फिक्र कर रहे हैं. उन्हें ट्रेनिंग को ले कर, फीस को ले कर मेरी कोशिश के बारे में सबकुछ मालूम हुआ, तो वे दुखी हुए.

‘रात में उन्होंने मेरे माथे पर हाथ फेर कर सुबकते हुए कहा कि बहुत हुआ, संभालो अपनेआप को. मैं नशा करना छोड़ दूंगा. अब सब ठीक हो जाएगा.

‘इन के मुंह से ऐसा सुन कर तो जैसे मैं निहाल हो गई हूं. ऐसा लगता है, जैसे वे अब सुधर जाएंगे.’ फोन पर यह सब सुन कर तो जैसे नरेश धड़ाम से गिरा. सारे सपने झटके में चूरचूर हो गए.

आखिर में अंजू ने कहा, ‘अच्छा, अब ज्यादा बातें नहीं हो पाएंगी. रखती हूं. गुडबाय’.

नरेश ने अपना सिर पकड़ लिया. क्या सोचा था, क्या हो गया. कैसेकैसे सपने अंजू को ले कर बुन डाले थे, पर आखिर वही होता है जो होना होता है. यह सब एक याद बन कर रह जाएगा.

दफ्तर का समय पूरा हो चुका था. नरेश घर की ओर बोझिल कदमों से निकल पड़ा. घर पहुंचा तो देखा कि सुनीता बैग पकड़े रक्षा का हाथ थामे दरवाजे पर खड़ी थी.

नरेश को देख कर सुनीता ने एक मुसकान फेंकी, पर उस का भावहीन चेहरा देख कर बोली, ‘‘क्या बात है, हमें देख कर आप को खुशी नहीं हुई?’’ तब तक रक्षा नरेश के नजदीक आ चुकी थी. उस ने रक्षा को प्यार से उठा कर चूमा और नीचे खड़ा कर जेब से चाबी निकाल कर बोला, ‘‘अपनी मरजी से आई हो या पिताजी ने समझाया?’’

‘‘पिताजी ने तो समझाया ही. मुझे भी लगा कि अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी के लिए आप की कोशिश में हमारे घर लौटने से ही तेजी आएगी.’’

‘‘सुनीता, रबड़ को उतना ही खींचो कि वह टूटे नहीं.’’

‘‘इसलिए तो चली आई जनाब.’’

दरवाजा खुल चुका था. तीनों अंदर आ गए.

‘‘अरे वाह, घर इतना साफसुथरा… कहीं कोई…’’ सुनीता ने आंखें तरेरीं.

‘‘सुनीता, अब बस भी करो. फुजूल के वहम ठीक नहीं हैं.’’

‘‘आप का आएदिन फोन बिजी होना शक पैदा करने लगा था. आप मर्दों का क्या…’’

‘‘बोल चुकीं? क्या हम सब तुम्हारे लौटने की खुशी मना सकते हैं?’’

‘‘क्यों नहीं. मैं सब से पहले चाय बनाती हूं,’’ कहते हुए सुनीता रसोईघर में चली गई. रक्षा ने टैलीविजन चलाया और नरेश फै्रश होने बाथरूम में घुस गया.

सुनीता के आने से अंजू के मामले में नरेश का सिर भारी होने से बच गया. आमतौर पर नरेश शाम को नहीं नहाता था, पर न जाने क्यों आज नहाने की इच्छा हो गई और वह बाथरूम में घुस गया.

Social Story : अपहरण – रायन दंपती का दिखावा

Social Story : नीरव शांति भी कितनी जानलेवा हो सकती है इस का ऋचा को रायन दंपती के कमरे में जा कर ही आभास हुआ था. बडे़ से सजेधजे ड्राइंगरूम में 20-25 लोग बैठे थे पर किसी के पास कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं था. बीचबीच में बज रही फोन की घंटी ही इस घोर शांति को भंग कर रही थी. ऋषभ और सारंगी रायन शहर के धनवान दंपती थे.

ऋषभ रायन की व्यापारिक कामयाबी का लोहा सभी मानते थे. उधर सारंगी के हर हावभाव से झलकता था कि वह अभिजात्य वर्ग से हैं. कई समाजसेवी और गैरसरकारी संगठनों से वह जुड़ी थीं. उन के समाज सेवा के कार्यों की तो सराहना होती ही थी, मीडिया व समाचारपत्रों में  भी उन की अच्छीखासी पैठ थी.

ऐसे नामीगिरामी परिवार के इकलौते पुत्र आर्यन का अपहरण कर लिया गया था. दिनरात मित्रों से घिरे रहने वाले आर्यन का भला कौन शत्रु हो सकता है? ऋचा की आंखों के सामने आर्यन का हंसता चेहरा तैर गया था. आर्यन के अपहरण के बाद सारंगी का रोरो कर बुरा हाल था. ऋषभ उसे सांत्वना देने के अलावा कुछ नहीं कह पा रहे थे. बीचबीच में उन्हें पुलिस वालों के सवालों का उत्तर भी देना पड़ता था. शहर में जो भी सुनता दौड़ा चला आता. कब? क्या? कैसे हुआ? इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए ऋषभ पस्त हो गए थे.

अपने  लाड़ले पुत्र का अपहरण, ऊपर से पुलिस और मीडिया वालों के तीखे सवाल…वह बहुत कठिनाई से खुद पर संयम रख पा रहे थे. उन के मित्रों व संबंधियों ने यह भार अपने कंधों पर उठा लिया था. वह केवल दोनों हाथ जोड़ कर मुसकराने की असफल कोशिश करते थे.

काफी देर तक निरुद्देश्य बैठे रहने के बाद ऋचा और रोमेश ने रायन दंपती से विदा ली थी. वैसे उस तनाव में किसी से विदा लेना न लेना अर्थहीन था. बातबात पर ठहाके  लगाने, चुटकुले सुनाने वाले ऋषभ रायन सामान्य व्यवहार में भी स्वयं को असमर्थ पा रहे थे.

कार में बैठते समय ऋचा को अपनी पिछली किटी पार्टी याद आ गई. पार्टी में सारंगी बड़े उत्साह से आर्यन के जन्मदिन के बारे में क्लब के सदस्यों को बता रही थी :

‘अगले माह अपनी पार्टी सारंगी के यहां होगी,’ ऋचा ने रुपए गिन कर सारंगी की ओर बढ़ाते हुए कहा था.

‘क्या? मेरे यहां? नहींनहीं. अगले माह मैं अपने यहां पार्टी नहीं रख पाऊंगी. आर्यन का जन्मदिन है न. बड़ी तैयारी करनी है. किसी को चाहिए तो इस माह चिट ले ले, मुझे कोई आपत्ति नहीं है,’ सारंगी अपना पर्स खोल छोटे से आईने में अपनी छवि निहारती और लिपस्टिक ठीक करती हुई बड़ी अदा से बोली थी.

‘मुझे नहीं लगता कि यह इतनी बड़ी समस्या है?’ तवांगी बोली, ‘आर्यन का जन्मदिन जून के अंत में है. आज तो पहली मई है. जन्मदिन क्या 2 माह तक मनाओगी?’

उस की इस बात पर ऋचा के साथ रूपा और मीना भी खिलखिला पड़ीं तो सारंगी का चेहरा तमतमा गया था.

‘मेरे इकलौते बेटे का जन्मदिन है. उस के लिए 2 माह तो क्या 2 वर्ष भी कम हैं,’ सारंगी रूखे स्वर में बोली थी.

‘कोई बात नहीं, इस माह की किटी पार्टी मैं अपने यहां रख लेती हूं, पर उस में आने के लिए तो समय निकाल लेना,’ रूपा ने सारंगी को शांत करने का प्रयत्न किया था.

‘देखूंगी, कोई वादा नहीं करती,’ सारंगी का उत्तर था.

‘पार्टी में तो आना ही पड़ेगा. यह बात तो पहले दिन ही तय हो गई थी कि चाहे कितनी भी व्यस्तता हो, कोई सदस्या पार्टी में आने से मना नहीं करेगी,’ रूपा अड़ गई थी.

‘छोड़ो न इस बहस को, चलो, अपना पत्ता फेंको, सारंगी को तुम्हारे यहां पार्टी में लाने का जिम्मा मेरा रहा,’ ऋचा ने चर्चा पर वहीं विराम लगाया था.

‘क्या उपहार दे रही हो आर्यन को?’ अचानक ही ऋचा ने बात का रुख मोड़ दिया था.

‘ऋषभ ने मर्सीडीज मंगवाई है. आर्यन की यही मांग थी. छोेटीमोटी वस्तुओं पर तो वह हाथ रखता ही नहीं. वैसे भी हमारा एक ही बेटा है और इस बार ऐसी शानदार पार्टी देंगे कि शहर  में उस की चर्चा साल भर होती रहेगी.’

‘लेकिन सारंगी, 14 साल के बच्चे को कार का उपहार, तुम्हें डर नहीं लगता?’ ऋचा ने प्रश्न किया तो वहां बैठी सभी महिलाओं की प्रश्नवाचक निगाहें सारंगी पर टिक गई थीं.

‘14 वर्षीय? आर्यन तो पिछले 2 सालों से कार चला रहा है,’ सारंगी ने गर्वपूर्ण स्वर में बताया था.

‘लाइसेंस का कैसे करोगी? 14 साल के बच्चे को ड्राइविंग  लाइसेंस कौन देगा?’

‘इन छोटीछोटी बातों की चिंता मिडिल क्लास के लोग करते हैं हम नहीं. आर्यन का लाइसेंस तो 2 साल पहले ही बन गया था. वैसे भी उस की सहायता के लिए एक ड्राइवर हमेशा उस के साथ रहेगा,’ अपनी बात पूरी करते हुए सारंगी मुसकराई थी. अपनी सहेलियों के चेहरों पर आए प्रशंसा और ईर्ष्या के भाव देख कर सारंगी पुलक उठी थी.

किटी पार्टी समाप्त होने तक चर्चा आर्यन और उस के जन्मदिन के इर्दगिर्द ही घूमती रही थी.‘अच्छा, अब मैं चलूंगी,’ सारंगी अचानक उठ खड़ी हुई और बोली, ‘आज अपने मित्रों के साथ वह छुट्टियां बिताने मालदीव जा रहा है. मैं जरा जल्दी में हूं.’

‘अच्छा, अब हमें भी चलना चाहिए,’ रूपा और मीना भी उठ खड़ी हुई थीं.

‘बैठो न कुछ देर, अब तो सारंगी चली गई है, वह जब तक यहां रहती है केवल अपना गुणगान करती रहती है. हम तो खुल कर हंसबोल भी नहीं सकते,’ ऋचा और कुछ अन्य सहेलियां बोली थीं.

‘मैं ने तो मना किया था पर सारंगी ने ऐसी जिद पकड़ी कि उसे शामिल करना पड़ा. पर आप लोग नहीं चाहतीं तो अगली चिट में साफ मना कर देंगे. मुझे भी लगता है कि सारंगी का दंभ बढ़ता ही जा रहा है.’ ऋचा ने आश्वासन दिया था.

उस का बेटा प्रसाद, जो आर्यन का सहपाठी था, बोर्ड की परीक्षा में सारे प्रांत में प्रथम आया था और अब फोन पर बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ था.

सारंगी का स्वर सुनते ही ऋचा को लगा कि प्रसाद की कामयाबी पर उसे बधाई देने के लिए ही फोन किया है. पर सारंगी तो दूर की हांक रही थी. छुट्टियां मनाने आर्यन गया था पर उस का असर सारंगी पर दिख रहा था. वह चटखारे लेले कर आर्यन की मालदीव में छुट्टी का विस्तार से वर्णन कर रही थी पर एक बार भी प्रसाद की उपलब्धि का नाम तक नहीं लिया था.

‘कल ही प्रसाद का परीक्षाफल आया है,’ ऋचा बोली, ‘‘मेरा बेटा पूरे प्रांत में प्रथम आया है. आजकल तो कालिज में दाखिले के लिए भी प्रवेश परीक्षा देनी होती है. प्रसाद उसी की तैयारी में जुटा है.’

‘ओह हां, मैं तो भूल ही गई थी. आर्यन बता रहा था. आर्यन ने भी अच्छा किया है. वह तो पूरे 10 हजार रुपए ले कर अपने मित्रों के साथ मस्ती करने गया है. उसे कालिज में दाखिले के लिए दिनरात एक करने की आवश्यकता नहीं है.’

‘क्यों? अभी से पढ़ाई छोड़ कर पिता के साथ बिजनेस करने का इरादा है क्या?’

‘क्या कह रही हो? ऋषभ रायन का बेटा इतनी सी आयु में क्या बिजनेस करेगा? वह आगे की पढ़ाई के लिए स्विट्जरलैंड जा रहा है. मुझे तो मध्यवर्गीय बच्चों पर बड़ा तरस आता है. आधा जीवन तो किताबों में सिर खपाए रहते हैं. शेष आधा 10 से 5 हजार की नौकरी में,’ सारंगी ने सहानुभूति जताते हुए कहा था पर ऋचा के कानों में मानो किसी ने पिघला सीसा उडे़ल दिया था.

‘समझती क्या है अपनेआप को? मेरे प्रसाद से तुलना करेगी आर्यन की?’ फोन रखते ही चीख उठी थी ऋचा.

‘क्या हुआ? बड़े क्रोध में हो? किस से बात कर रही थीं?’ समाचारपत्र पढ़ते रोमेश ने चौंक कर सिर उठाया था.

‘सारंगी थी. कभीकभी ऐसी बेहूदा बातें करती है कि सहन नहीं होतीं.’

‘तुम्हारी प्यारी सहेली है सारंगी. पता नहीं कैसे सहन कर लेती हो उसे,’ रोमेश तल्खी से बोले थे.

‘दिल की बुरी नहीं है. बस, कभीकभी…’ ऋचा हकला गई थी.

‘हांहां कहो न…चुप क्यों हो गईं? कभीकभी दौलत के नशे में ऊटपटांग बातें करने लगती हैं तुम्हारी सारंगी जी…’

‘छोड़ो यह सब, प्रसाद पूरे प्रांत में प्रथम आया है. चलो, कहीं बाहर चलते हैं,’ ऋचा ने किताबों में सिर गड़ाए बैठे प्रसाद को देख कर कहा था.

‘क्या हुआ, मां?’ प्रसाद ने चौंक कर सिर उठाया था.

‘कुछ नहीं, तुम्हारी इस कामयाबी से हम बहुत खुश हैं. तुम जल्दी से तैयार हो कर आ जाओ. आज बाहर जाने का बहुत मन है,’ ऋचा ने आग्रह किया था.

‘ठीक है मां, पर कल हम कुछ मित्र मिल कर पार्टी दे रहे हैं यह भूल मत जाना,’ प्रसाद ने याद दिलाया था.

‘मुझे अच्छी तरह याद है, मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं. इतनी कड़ी मेहनत के बाद वैसे भी यह तुम्हारा अधिकार बनता है,’ ऋचा ने प्रसाद को दुलारते हुए कहा था.

रोमेश चुपचाप बैठे मांबेटे के संवाद को सुन रहे थे. प्रसाद तैयार होने चला गया तो उन्होंने ऋचा पर गहरी नजर डालते हुए निश्वास ली थी.

‘क्या है? ऐसे क्यों देख रहे हो? जाना है, तैयार नहीं होना क्या?’ ऋचा ने प्रश्न किया था.

‘मैं सोच रहा था कि अपने अहं की तुष्टि के लिए मातापिता अपने बच्चों को भी नहीं बख्शते हैं.’

‘क्या मतलब?’

‘यही कि प्रसाद को उस के पुराने स्कूल से निकाल कर जीनियस इंटरनेशनल में डालने की जिद तुम ने ही की थी, क्योंकि वहां तुम्हारी सहेली सारंगी का पुत्र पढ़ता था. तुम ने इसे सम्मान का प्रश्न बना लिया था.’

‘तो इस में बुरा क्या था. आजकल छात्र स्कूल में केवल पढ़ने ही नहीं जाते, संपर्क सूत्र विकसित करने भी जाते हैं. इस का लाभ प्रसाद को बाद में मिलेगा. वैसे भी बच्चों के विद्यालय के स्तर से ही मातापिता के स्तर का पता चलता है,’ ऋचा ने अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए कहा था.

‘हां, पर प्रसाद इन वर्षों में किस तनाव से गुजरा है इस का तुम्हें थोड़ा सा भी आभास नहीं है. आर्यन और उस के मित्रों ने प्रसाद और उस के जैसे बच्चों को उपहास का पात्र बना कर रख दिया. अधिकतर शिक्षक भी आर्यन और उस के मित्रों का ही पक्ष लेते थे. यह तो प्रसाद की पढ़ाई में लगन ने उसे बचा लिया, नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता.’

‘जो भी हुआ अच्छा ही हुआ. यहां पढ़ कर प्रसाद पूरे प्रांत में प्रथम आया है. पुराने स्कूल में होता तो न जाने क्या हाल होता.’

‘हां, मैं तुम्हें भी सलाह दूंगा. मित्रता अपने स्तर के लोगों में ही शोभा देती है. अपनी क्षमता से अधिक तेजी से दौड़ोगी तो मुंह के बल गिरोगी.’

तभी प्रसाद तैयार हो कर आ गया तो ऋचा और रोमेश की बहस को वहीं विराम लग गया. पूरे परिवार ने पहले फिल्म देखने और फिर क्लब जा कर भोजन करने का निर्णय लिया था. वहीं भोजन करते समय उन्हें आर्यन के अपहरण का समाचार मिला था. टीवी पर आर्यन का छायाचित्र देख कर यह संशय भी जाता रहा था कि वह आर्यन रायन ही था.

ऋचा, रोमेश और प्रसाद का खाना बीच में ही अधूरा रह गया. तीनों चुपचाप भोजन कक्ष से बाहर आ गए थे. ऋचा वहां से सीधे जाना चाहती थी जबकि रोमेश, प्रसाद के साथ वहां जाने के पक्ष में नहीं थे. उन्हें डर था कि प्रसाद के वहां जाने पर न केवल ऋषभ और सारंगी बल्कि पुलिस और मीडिया भी उस से पूछताछ प्रारंभ कर देंगे.

प्रसाद पिता का रुख देख कर चुप रह गया था. ऋचा ने भी दोचार बार जोर डाला था पर रोमेश के कहने पर मान गई थी.

रायन कैसल यानी ऋषभ के घर पहुंच कर ऋचा को लगा कि शायद रोमेश की बात ही सही थी. सदा मित्रों से घिरे रहने वाले आर्यन का एक भी मित्र वहां नहीं था. दबे स्वर में लोग यह भी बात कर रहे थे कि आर्यन के तथाकथित मित्रों ने ही उस का अपहरण कर लिया और अब 10 करोड़ की फिरौती की मांग की थी.

कार रुकी तो ऋचा की तंद्रा टूटी, वह कार से उतर कर घर में आ गई.

प्र्रसाद की अपने मित्रों के साथ सफलता की पार्टी धरी की धरी रह गई थी. उस के अन्य मित्रों के मातापिता ने अपनेअपने पुत्र को न केवल किसी पार्टी में जाने से मना कर दिया, उन के घर से निकलने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था.

रोमेश 2-3 बार ऋचा के साथ रायन कैसल गए थे पर अब उन्हें वहां बारबार जाने की कोई तुक नजर नहीं आती थी. हां, ऋचा जरूर दिन में 3-4 चक्कर लगाती, सारंगी को सांत्वना देती पर समझ नहीं पाती थी कि बुरी तरह टूट चुकी सारंगी से क्या कहे.

‘‘धीरज रखो सारंगी, मुझे पूरा विश्वास है कि आर्यन सहीसलामत लौट आएगा. कोई उस का बाल भी बांका नहीं कर सकता,’’ बहुत सोचविचार कर एक दिन बोली थी ऋचा.

‘‘तुम सारंगी की सहेली हो न बेटी,’’ तभी अचानक ऋषभ की मां पूछ बैठी थीं.

‘‘जी.’’

‘‘तो तुम ने समझाया नहीं कि बेटे की हर इच्छा पूरी करना ही मां का धर्म नहीं होता. मैं ने हर बार मना किया कि आर्यन के हाथ में इतना धन मत दो. पर सारंगी को तो अपनी शानोशौकत के सामने कुछ नजर ही नहीं आता था. मैं तो पुराने जमाने की हूं, नए जमाने के रंगढंग क्या समझूं. जाओ, अब जा कर मेरे आर्यन को ले आओ,’’ एक ही सांस में बोल कर वह बिलख कर रोने लगी थीं.

ऋषभ और कुछ अन्य संबंधी उन्हें उठा कर ले गए थे पर बड़े से हाल में सन्नाटा छा गया था और ऋषभ की मां की सिसकियां देर तक गूंजती रही थीं.

ऋचा कुछ देर तक सारंगी को सांत्वना देती रही थी, फिर चुपचाप उठ कर चली आई थी. उस ने रोमेश को सारी बात बताई तो वह भी सोच में डूब गए थे.

पति रोमेश को गंभीर देख ऋचा बोली, ‘‘एक सप्ताह होने को आया पर आर्यन का कहीं पता नहीं है. पुलिस भी हाथ पर हाथ रख कर बैठी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है, ऋषभ बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हैं. कल तो रायन दंपती की अपहरणकर्ताओं के नाम अपील भी प्रसारित की गई थी. पुलिस भी पूरा प्रयत्न कर रही है,’’ रोमेश ने मत व्यक्त किया था.

‘‘मेरे मित्र कह रहे थे कि रायन अंकल ने फिरौती के रुपए भी दे दिए हैं पर आर्यन का अभी तक पता नहीं है,’’ प्रसाद ने रहस्योद्घाटन किया था.

कुछ देर तक आर्यन के बारे में चिंता कर के पूरा परिवार सो गया था.

रात में दरवाजे की घंटी के स्वर से ऋचा की नींद खुल गई. झांक कर देखा तो कोई नजर नहीं आया. घबरा कर उस ने रोमेश को जगाया.

रोमेश ने दरवाजा खोला तो कोई नीचे गिरा पड़ा था. उठा कर मुंह देखा तो दोनों चौंक कर पीछे हट गए. फटे कपडे़ में आर्यन जमीन पर पड़ा था जिस के शरीर पर जहांतहां चोट के निशान थे. फिर तो प्रसाद की सहायता से उसे उठा कर वे अंदर ले आए. आननफानन में रायन दंपती को खबर की और आर्यन को अपनी गाड़ी में डाल कर अस्पताल ले गए.

आर्यन वहां तक कैसे पहुंचा यह सभी के लिए एक पहेली थी. उधर बेहोश पडे़ आर्यन के होश में आने की प्रतीक्षा थी. पहली बार रोमेश ने निरीह पिता की मजबूरी देखी थी. आज ऋषभ की सारी दौलत बेमानी हो गई थी.

‘‘आर्यन ठीक हो जाएगा न,’’ उन्होंने रोमेश से पूछा था. उन्होंने उन का हाथ दबा कर मौन आश्वासन दिया था.

Family Story : परीक्षाफल – क्या चिन्मय सपने को साकार कर सका

Family Story : जैसे किसान अपने हरेभरे लहलहाते खेत को देख कर गद्गद हो उठता है उसी प्रकार रत्ना और मानव अपने इकलौते बेटे चिन्मय को देख कर भावविभोर हो उठते थे.

चिन्मय की स्थिति यह थी कि परीक्षा में उस की उत्तर पुस्तिकाओं में एक भी नंबर काटने के लिए उस के परीक्षकों को एड़ीचोटी का जोर लगाना पड़ता था. यही नहीं, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर की अन्य प्रतिभाखोज परीक्षाओं में भी उस का स्थान सब से ऊपर होता था.

इस तरह की योग्यताओं के साथ जब छोटी कक्षाओं की सीढि़यां चढ़ते हुए चिन्मय 10वीं कक्षा में पहुंचा तो रत्ना और मानव की अभिलाषाओं को भी पंख लग गए. अब उन्हें चिन्मय के कक्षा में प्रथम आने भर से भला कहां संतोष होने वाला था. वे तो सोतेजागते, उठतेबैठते केवल एक ही स्वप्न देखते थे कि उन का चिन्मय पूरे देश में प्रथम आया है. कैमरों के दूधिया प्रकाश में नहाते चिन्मय को देख कर कई बार रत्ना की नींद टूट जाती थी. मानव ने तो ऐसे अवसर पर बोलने के लिए कुछ पंक्तियां भी लिख रखी थीं. रत्ना और मानव उस अद्भुत क्षण की कल्पना कर आनंद सागर में गोते लगाते रहते.

चिन्मय को अपने मातापिता का व्यवहार ठीक से समझ में नहीं आता था. फिर भी वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्हें प्रसन्न रखने की कोशिश करता रहता. पर तिमाही परीक्षा में जब चिन्मय के हर विषय में 2-3 नंबर कम आए तो मातापिता दोनों चौकन्ने हो उठे.

‘‘यह क्या किया तुम ने? अंगरेजी में केवल 96 आए हैं? गणित में भी 98? हर विषय में 2-3 नंबर कम हैं,’’ मानव चिन्मय के अंक देखते ही चीखे तो रत्ना दौड़ी चली आई.

‘‘क्या हुआ जी?’’

‘‘होना क्या है? हर विषय में तुम्हारा लाड़ला अंक गंवा कर आया है,’’ मानव ने रिपोर्ट कार्ड रत्ना को थमा दिया.

‘‘मम्मी, मेरे हर विषय में सब से अधिक अंक हैं, फिर भी पापा शोर मचा रहे हैं. मेरे अंगरेजी के अध्यापक कह रहे थे कि उन्होंने 10वीं में आज तक किसी को इतने नंबर नहीं दिए.’’

‘‘उन के कहने से क्या होता है? आजकल बच्चों के अंगरेजी में भी शतप्रतिशत नंबर आते हैं. चलो, अंगरेजी छोड़ो, गणित में 2 नंबर कैसे गंवाए?’’

‘‘मुझे नहीं पता कैसे गंवाए ये अंक, मैं तो दिनरात अंक, पढ़ाई सुनसुन कर परेशान हो गया हूं. अपने मित्रों के साथ मैं पार्क में क्रिकेट खेलने जा रहा हूं,’’ अचानक चिन्मय तीखे स्वर में बोला और बैट उठा कर नौदो ग्यारह हो गया.

मानव कुछ देर तक हतप्रभ से बैठे शून्य में ताकते रह गए. चिन्मय ने इस से पहले कभी पलट कर उन्हें जवाब नहीं दिया था. रत्ना भी बैट ले कर बाहर दौड़ कर जाते हुए चिन्मय को देखती रह गई थी.

‘‘मानव, मुझे लगता है कि कहीं हम चिन्मय पर अनुचित दबाव तो नहीं डाल रहे हैं? सच कहूं तो 96 प्रतिशत अंक भी बुरे नहीं हैं. मेरे तो कभी इतने अंक नहीं आए.’’

‘‘वाह, क्या तुलना की है,’’ मानव बोले, ‘‘तुम्हारे इतने अंक नहीं आए तभी तो तुम घर में बैठ कर चूल्हा फूंक रही हो. वैसे भी इन बातों का क्या मतलब है? मेरे भी कभी 80 प्रतिशत से अधिक अंक नहीं आए, पर वह समय अलग था, परिस्थितियां भिन्न थीं. मैं चाहता हूं कि जो मैं नहीं कर सका वह मेरा बेटा कर दिखाए,’’ मानव ने बात स्पष्ट की.

उधर रत्ना मुंह फुलाए बैठी थी. मानव की बातें उस तक पहुंच कर भी नहीं पहुंच रही थीं.

‘‘अब हमें कुछ ऐसा करना है जिस से चिन्मय का स्तर गिरने न पाए,’’ मानव बहुत जोश में आ गए थे.

‘‘हमें नहीं, केवल तुम्हें करना है, मैं क्या जानूं यह सब? मैं तो बस, चूल्हा फूंकने के लायक हूं,’’ रत्ना रूखे स्वर में बोली.

‘‘ओफ, रत्ना, अब बस भी करो. मेरा वह मतलब नहीं था, और चूल्हा फूंकना क्या साधारण काम है? तुम भोजन न पकाओ तो हम सब भूखे मर जाएं.’’

‘‘ठीक है, बताओ क्या करना है?’’ रत्ना अनमने स्वर में बोली थी.

‘‘मैं सोचता हूं कि हर विषय के लिए एकएक अध्यापक नियुक्त कर दूं जो घर आ कर चिन्मय को पढ़ा सकें. अब हम पूरी तरह से स्कूल पर निर्भर नहीं रह सकते.’’

‘‘क्या कह रहे हो? चिन्मय कभी इस के लिए तैयार नहीं होगा.’’

‘‘चिन्मय क्या जाने अपना भला- बुरा? उस के लिए क्या अच्छा है क्या नहीं, यह निर्णय तो हमें ही करना होगा.’’

‘‘पर इस में तो बड़ा खर्च आएगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. हमें रुपएपैसे की नहीं चिन्मय के भविष्य की चिंता करनी है.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें,’’ रत्ना ने हथियार डाल दिए पर चिन्मय ने मानव की योजना सुनी तो घर सिर पर उठा लिया था.

‘‘मुझे किसी विषय में कोई ट्यूशन नहीं चाहिए. मैं 5 अध्यापकों से ट्यूशन पढ़ूंगा तो अपनी पढ़ाई कब करूंगा?’’ उस ने हैरानपरेशान स्वर में पूछा.

‘‘5 नहीं केवल 2. पहला अध्यापक गणित और विज्ञान के लिए होगा और दूसरा अन्य विषयों के लिए,’’ मानव का उत्तर था.

‘‘प्लीज, पापा, मुझे अपने ढंग से परीक्षा की तैयारी करने दीजिए. मेरे मित्रों को जब पता चलेगा कि मुझे 2 अध्यापक घर में पढ़ाने आते हैं तो मेरा उपहास करेंगे. मैं क्या बुद्धू हूं?’’ यह कह कर चिन्मय रो पड़ा था.

पर मानव को न मानना था, न वह माने. थोड़े विरोध के बाद चिन्मय ने इसे अपनी नियति मान कर स्वीकार लिया. स्कूल और ट्यूशन से निबटता चिन्मय अकसर मेज पर ही सिर रख सो जाता.

मानव और रत्ना ने उस के खानेपीने पर भी रोक लगा रखी थी. चिन्मय की पसंद की आइसक्रीम और मिठाइयां तो घर में आनी ही बंद थीं.

समय पंख लगा कर उड़ता रहा और परीक्षा कब सिर पर आ खड़ी हुई, पता ही नहीं चला.

परीक्षा के दिन चिन्मय परीक्षा केंद्र पहुंचा. मित्रों को देखते ही उस के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई, पर रत्ना और मानव का बुरा हाल था मानो परीक्षा चिन्मय को नहीं उन्हें ही देनी हो.

परीक्षा समाप्त हुई तो चिन्मय ही नहीं रत्ना और मानव ने भी चैन की सांस ली. अब तो केवल परीक्षाफल की प्रतीक्षा थी.

मानव, रत्ना और चिन्मय हर साल घूमने और छुट्टियां मनाने का कार्यक्रम बनाते थे पर इस वर्ष तो अलग ही बात थी. वे नहीं चाहते थे कि परीक्षाफल आने पर वाहवाही से वंचित रह जाएं.

धु्रव पब्लिक स्कूल की परंपरा के अनुसार परीक्षाफल मिलने का समाचार मिलते ही रत्ना और मानव चिन्मय को साथ ले कर विद्यालय जा पहुंचे थे. उन की उत्सुकता अब अपने चरम पर थी. दिल की धड़कन बढ़ी हुई थी. विद्यालय के मैदान में मेला सा लगा था. कहीं किसी दिशा में फुसफुसाहट होती तो लगता परीक्षाफल आ गया है. कुछ ही देर में प्रधानाचार्या ने इशारे से रत्ना को अंदर आने को कहा तो रत्ना हर्ष से फूली न समाई. इतने अभिभावकों के बीच से केवल उसे ही बुलाने का क्या अर्थ हो सकता है, सिवा इस के कि चिन्मय सदा की तरह प्रथम आया है. वह तो केवल यह जानना चाहती थी कि वह देश में पहले स्थान पर है या नहीं.

उफ, ये मानव भी ऐन वक्त पर चिन्मय को ले कर न जाने कहां चले गए. यही तो समय है जिस की उन्हें प्रतीक्षा थी. रत्ना ने दूर तक दृष्टि दौड़ाई पर मानव और चिन्मय कहीं नजर नहीं आए. रत्ना अकेली ही प्रधानाचार्या के कक्ष में चली गई.

‘‘देखिए रत्नाजी, परीक्षाफल आ गया है. हमारी लिपिक आशा ने इंटरनेट पर देख लिया है, पर बाहर नोटिसबोर्ड पर लगाने में अभी थोड़ा समय लगेगा,’’ प्रधानाचार्या ने बताया.

‘‘आप नोटिसबोर्ड पर कभी भी लगाइए, मुझे तो बस, मेरे चिन्मय के बारे में बता दीजिए.’’

‘‘इसीलिए तो आप को बुलाया है. चिन्मय के परीक्षाफल से मुझे बड़ी निराशा हुई है.’’

‘‘क्या कह रही हैं आप?’’

‘‘मैं ठीक कह रही हूं, रत्नाजी. कहां तो हम चिन्मय के देश भर में प्रथम आने की उम्मीद लगाए बैठे थे और कहां वह विद्यालय में भी प्रथम नहीं आया. वह स्कूल में चौथे स्थान पर है.’’

‘‘मैं नहीं मानती, ऐसा नहीं हो सकता,’’ रत्ना रोंआसी हो कर बोली थी.

‘‘कुछ बुरा नहीं किया है चिन्मय ने, 94 प्रतिशत अंक हैं. किंतु…’’

‘‘अब किंतुपरंतु में क्या रखा है?’’ रत्ना उदास स्वर में बोली और पलट कर देखा तो मानव पीछे खड़े सब सुन रहे थे.

‘‘चिन्मय कहां है?’’ तभी रत्ना चीखी थी.

‘‘कहां है का क्या मतलब है? वह तो मुझ से यह कह कर घर की चाबी ले गया था कि मम्मी ने मंगाई है,’’ मानव बोले.

‘‘क्या? उस ने मांगी और आप ने दे दी?’’ पूछते हुए रत्ना बिलखने लगी थी.

‘‘इस में इतना घबराने और रोने जैसा क्या है, रत्ना? चलो, घर चलते हैं. चाबी ले कर चिन्मय घर ही तो गया होगा,’’ मानव रत्ना के साथ अपने घर की ओर लपके थे. वहां से जाते समय रत्ना ने किसी को यह कहते सुना कि पंकज इस बार विद्यालय में प्रथम आया है और उसी ने चिन्मय को परीक्षाफल के बारे में बताया था, जिसे सुनते ही वह तीर की तरह बाहर निकल गया था.

विद्यालय से घर तक पहुंचने में रत्ना को 5 मिनट लगे थे पर लिफ्ट में अपने फ्लैट की ओर जाते हुए रत्ना को लगा मानो कई युग बीत गए हों.

दरवाजे की घंटी का स्विच दबा कर रत्ना खड़ी रही, पर अंदर से कोई उत्तर नहीं आया.

‘‘पता नहीं क्या बात है…इतनी देर तक घंटी बजने के बाद भी अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही है मानव, कहीं चिन्मय ने कुछ कर न लिया हो,’’ रत्ना बदहवास हो उठी थी.

‘‘धीरज रखो, रत्ना,’’ मानव ने रत्ना को धैर्य धारण करने को कहा पर घबराहट में उस के हाथपैर फूल गए थे. तब तक वहां आसपास के फ्लैटों में रहने वालों की भीड़ जमा हो गई थी.

कोई दूसरी राह न देख कर किसी पड़ोसी ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस अपने साथ फायर ब्रिगेड भी ले आई थी.

बालकनी में सीढ़ी लगा कर खिड़की के रास्ते फायरमैन ने चिन्मय के कमरे में प्रवेश किया तो वह गहरी नींद में सो रहा था. फायरमैन ने अंदर से मुख्यद्वार खोला तो हैरानपरेशान रत्ना ने झिंझोड़कर चिन्मय को जगाया.

‘‘क्या हुआ, बेटा? तू ठीक तो है?’’ रत्ना ने प्रेम से उस के सिर पर हाथ फेरा था.

‘‘मैं ठीक हूं, मम्मी, पर यह सब क्या है?’’ उस ने बालकनी से झांकती सीढ़ी और वहां जमा भीड़ की ओर इशारा किया.

‘‘हमें परेशान कर के तुम खुद चैन की नींद सो रहे थे और अब पूछ रहे हो यह सब क्या है?’’ मानव कुछ नाराज स्वर में बोले थे.

‘‘सौरी पापा, मैं आप की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटे, हमें तुम पर गर्व है,’’ रत्ना ने उसे गले से लगा लिया था. मानव की आंखों में भी आंसू झिलमिला रहे थे. कैसा जनून था वह, जिस की चपेट में वे चिन्मय को शायद खो ही बैठते. मानव को लग रहा था कि जीवन कुछ अंकों से नहीं मापा जा सकता, इस का विस्तार तो असीम, अनंत है.

Family Story : गर्भदान – मां इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती है

Family Story : ‘‘नहीं, आरव, यह काम मुझ से नहीं होगा. प्लीज, मुझ पर दबाव मत डालो.’’

‘‘वीनी, प्लीज समझने की कोशिश करो. इस में कोई बुराई नहीं है. आजकल यह तो आम बात है और इस छोटे से काम के बदले में हमारा पूरा जीवन आराम से गुजरेगा. अपना खुद का घर लेना सिर्फ मेरा ही नहीं, तुम्हारा भी तो सपना है न?’’

‘‘हां, सपना जरूर है पर उस के लिए…? छि…यह मुझ से नहीं होगा. मुझ से ऐसी उम्मीद न रखना.’’

‘‘वीनी, दूसरे पहलू से देखा जाए तो यह एक नेक काम है. एक निसंतान स्त्री को औलाद का सुख देना, खुशी देना क्या अच्छा काम नहीं है?’’

‘‘आरव, मैं कोई अनपढ़, गंवार औरत नहीं हूं. मुझे ज्यादा समझाने की कोई आवश्यकता नहीं.’’

‘‘हां वीनी, तुम कोई गंवार स्त्री नहीं हो. 21वीं सदी की पढ़ी हुई, मौडर्न स्त्री हो. अपना भलाबुरा खुद समझ सकती हो. इसीलिए तो मैं तुम से यह उम्मीद रखता हूं. आखिर उस में बुरा ही क्या है?’’

‘‘यह सब फालतू बहस है, आरव, मैं कभी इस बात से सहमत नहीं होने वाली हूं.’’

‘‘वीनी, तुम अच्छी तरह जानती हो. इस नौकरी में हम कभी अपना घर खरीदने की सोच भी नहीं सकते. पूरा जीवन हमें किराए के मकान में ही रहना होगा और कल जब अपने बच्चे होंगे तो उन को भी बिना पैसे हम कैसा भविष्य दे पाएंगे? यह भी सोचा है कभी?’’

‘‘समयसमय की बात है, आरव, वक्त सबकुछ सिखा देता है.’’

‘‘लेकिन वीनी, जब रास्ता सामने है तो उस पर चलने के लिए तुम क्यों तैयार नहीं? आखिर ऐसा करने में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? तुम्हें मेरे बौस के साथ सोना थोड़े ही है?’’

‘‘लेकिन, फिर भी 9 महीने तक एक पराए मर्द का बीज अपनी कोख में रखना तो पड़ेगा न? नहींनहीं, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?’’

‘‘कभी न कभी तुम को बच्चे को 9 महीने अपनी कोख में रखना तो है ही न?’’

‘‘यह एक अलग बात है. वह बच्चा मेरे पति का होगा. जिस के साथ मैं ने जीनेमरने की ठान रखी है. जिस के बच्चे को पालना मेरा सपना होगा, मेरा गौरव होगा.’’

‘‘यह भी तुम्हारा गौरव ही कहलाएगा. किसी को पता भी नहीं चलेगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो पता है न? नहीं, आरव, मुझ से यह नहीं होगा.’’

पिछले एक हफ्ते से घर में यही एक बात हो रही थी. आरव वीनी को समझाने की कोशिश करता था. लेकिन वीनी तैयार नहीं हो रही थी.

बात कुछ ऐसी थी. मैडिकल रिपोर्ट के मुताबिक आरव के बौस की पत्नी को बच्चा नहीं हो सकता था. और साहब को किसी अनाथ बच्चे को गोद लेने का विचार पसंद नहीं था. न जाने किस का बच्चा हो, कैसा हो. उसे सिर्फ अपना ही बच्चा चाहिए था. साहब ने एक बार आरव की पत्नी वीनी को देखा था. साहब को सरोगेट मदर के लिए वह एकदम योग्य लगी थी. इसीलिए उन्होंने आरव के सामने एक प्रस्ताव रखा. यों तो अस्पताल किसी साधारण औरत को तैयार करने के लिए तैयार थे पर साहब को लगा था कि उन औरतों में बीमारियां भी हो सकती हैं और वे बच्चे की गर्भ में सही देखभाल न करेंगी. प्रस्ताव के मुताबिक अगर वीनी सरोगेट मदर बन कर उन्हें बच्चा देती है तो वे आरव को एक बढि़या फ्लैट देंगे और साथ ही, उस को प्रमोशन भी मिलेगा.

बस, इसी लालच में आरव वीनी के पीछे पड़ा था और वीनी को कैसे भी कर के मनाना था. यह काम आरव पिछले एक हफ्ते से कर रहा था. लेकिन इस बात के लिए वीनी को मनाना आसान नहीं था. आरव कुछ भी कर के अपना सपना पूरा करना चाहता था. लेकिन वीनी मानने को तैयार ही नहीं थी.

‘‘वीनी, इतनी छोटी सी बात ही तो है. फिर भी तुम क्यों समझ नहीं रही हो?’’

‘‘आरव, छोटी बात तुम्हारे लिए होगी. मेरे लिए, किसी भी औरत के लिए यह छोटी बात नहीं है. पराए मर्द का बच्चा अपनी कोख में रखना, 9 महीने तक उसे झेलना, कोई आसान बात नहीं है. मातृत्व का जो आनंद उस अवस्था में स्त्री को होता है, वह इस में कहां? अपने बच्चे का सपना देखना, उस की कल्पना करना, अपने भीतर एक रोमांच का एहसास करना, जिस के बलबूते पर स्त्री प्रसूति की पीड़ा हंसतेहंसते झेल सकती है, यह सब इस में कहां संभव है? आरव, एक स्त्री की भावनाओं को आप लोग कभी नहीं समझ सकते.’’

‘‘और मुझे कुछ समझना भी नहीं है,’’ आरव थोड़ा झुंझला गया.

‘‘फालतू में छोटी बात को इतना बड़ा स्वरूप तुम ने दे रखा है. ये सब मानसिक, दकियानूसी बातें हैं. और फिर जीवन में कुछ पाने के लिए थोड़ाबहुत खोना भी पड़ता है न? यहां तो सिर्फ तुम्हारी मानसिक भावना है, जिसे अगर तुम चाहो तो बदल भी सकती हो. बाकी सब बातें, सब विचार छोड़ दो. सिर्फ और सिर्फ अपने आने वाले सुनहरे भविष्य के बारे में सोचो. अपने घर के बारे में सोचो. यही सोचो कि कल जब हमारे खुद के बच्चे होंगे तब हम उन का पालन अच्छे से कर पाएंगे. और कुछ नहीं तो अपने बच्चे के बारे में सोचो. अपने बच्चे के लिए मां क्याक्या नहीं करती है?’’ आरव साम, दाम, दंड, भेद कोई भी तरीका छोड़ना नहीं चाहता था.

आखिर न चाहते हुए भी वीनी को पति की बात पर सहमत होना पड़ा. आरव की खुशी का ठिकाना न रहा. अब बहुत जल्द सब सपने पूरे होने वाले थे.

अब शुरू हुए डाक्टर के चक्कर. रोजरोज अलग टैस्ट. आखिर 2 महीनों की मेहनत के बाद तीसरी बार में साहब के बीज को वीनी के गर्भाशय में स्थापित किए जाने में कामयाबी मिल गई. आईवीएफ के तीसरे प्रयास में आखिर सफलता मिली.

वीनी अब प्रैग्नैंट हुई. साहब और उन की पत्नी ने वीनी को धन्यवाद दिया. वीनी को डाक्टर की हर सूचना का पालन करना था. 9 महीने तक अपना ठीक से खयाल रखना था.

वीनी के उदर में शिशु का विकास ठीक से हो रहा था, यह देख कर सब खुश थे. लेकिन वीनी खुश नहीं थी. रहरह कर उसे लगता था कि उस के भीतर किसी और का बीज पनप रहा है, यही विचार उस को रातदिन खाए जा रहा था. जिंदगी के पहले मातृत्व का कोई रोमांच, कोई उत्साह उस के मन में नहीं था. बस, अपना कर्तव्य समझ कर वह सब कर रही थी. डाक्टर की सभी हिदायतों का ठीक से पालन कर रही थी. बस, उस के भीतर जो अपराधभाव था उस से वह मुक्ति नहीं पा रही थी. लाख कोशिशें करने पर भी मन को वह समझा नहीं पा रही थी.

आरव पत्नी को समझाने का, खुश रखने का भरसक प्रयास करता रहता पर एक स्त्री की भावना को, उस एहसास को पूरी तरह समझ पाना पुरुष के लिए शायद संभव नहीं था.

वीनी के गर्भ में पलबढ़ रहा पहला बच्चा था, पहला अनुभव था. लेकिन अपने खुद के बच्चे की कोई कल्पना, कोई सपना कहां संभव था? बच्चा तो किसी और की अमानत था. बस, पैदा होते ही उसे किसी और को दे देना था. वीनी सपना कैसे देखती, जो अपना था ही नहीं.

बस, वह तो 9 महीने पूरे होने की प्रतीक्षा करती रहती. कब उसे इस बोझ से मुक्ति मिलेगी, वीनी यही सोचती रहती. मन का असर तन पर भी होना ही था. डाक्टर नियमितरूप से सारे चैकअप कर रहे थे. कुछ ज्यादा कौंप्लीकेशंस नहीं थे, यह अच्छी बात थी. साहब और उन की पत्नी भी वीनी का अच्छे से खयाल रखते. जिस से आने वाला बच्चा स्वस्थ रहे. लेकिन भावी के गर्भ में क्या छिपा है, कौन जान सकता है. होनी के गर्भ से कब, कैसी पल का प्रसव होगा, कोई नहीं कह सकता है.

वीनी और आरव का पूरा परिवार खुश था. किसी को सचाई कहां मालूम थी?

सातवें महीने में बाकायदा वीनी की गोदभराई भी हुई. जिस दिन की कोई भी स्त्री उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती है, उस दिन भी वीनी खुश नहीं हो पा रही थी. अपने स्वजनों को वह कितना बड़ा धोखा दे रही थी. यही सोचसोच कर उस की आंखें छलक जाती थीं.

गोदभराई की रस्म बहुत अच्छे से हुई. साहब और उन की पत्नी ने उसी दिन नए फ्लैट की चाबी आरव के हाथ में थमाई. आरव की खुशी का तो पूछना ही क्या?

आरव पत्नी की मनोस्थिति नहीं समझता था, ऐसा नहीं था. उस ने सोचा था, बस 2 ही महीने निकालने हैं न. फिर वह वीनी को ले कर कहीं घूमने जाएगा और वीनी धीरेधीरे सब भूल जाएगी. और फिर से वह नौर्मल हो जाएगी.

आरव फ्लैट देख कर खुशी से उछल पड़ा था. उस की कल्पना से भी ज्यादा सुंदर था यह फ्लैट. बारबार कहने पर भी वीनी फ्लैट देखने नहीं गई थी. बस, मन ही नहीं हो रहा था. उस मकान की उस ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी, ऐसा उस को प्रतीत हो रहा था. बस, जैसेतैसे

2 महीने निकल जाएं और वह इन सब से मुक्त हो जाए. नियति एक स्त्री की भावनाओं के साथ यह कैसा खेल खेल रही थी, यही खयाल उस के दिमाग में आता रहता था. इसी बीच, आरव का प्रमोशन भी हो चुका था. साहब ने अपना वादा पूरी ईमानदारी से निभाया था.

लेकिन 8वां महीना शुरू होते ही वीनी का स्वास्थ्य बिगड़ा. उस को अस्पताल में भरती होना पड़ा. और वहां वीनी ने एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची 9 महीना पूरा होने से पहले ही आ गई थी, इसीलिए बहुत कमजोर थी. बड़ेबड़े डाक्टरों की फौज साहब ने खड़ी कर दी थी.

बच्ची की स्थिति धीरेधीरे ठीक हो रही थी. अब खतरा टल गया था. अब साहब ने बच्ची मानसिकरूप से नौर्मल है या नहीं, उस का चेकअप करवाया. तभी पता चला कि बच्ची शारीरिकरूप से तो नौर्मल है लेकिन मानसिकरूप से ठीक नहीं है. उस के दिमाग के पूरी तरह से ठीक होने की कोई संभावना नहीं है.

यह सुनते ही साहब और उन की पत्नी के होश उड़ गए. वे लोग ऐसी बच्ची के लिए तैयार नहीं थे. साहब ने आरव को एक ओर बुलाया और कहा कि बच्ची का उसे जो भी करना है, कर सकता है. ऐसी बच्ची को वे स्वीकार नहीं कर सकते. अगर उस को भी ऐसी बच्ची नहीं चाहिए तो वह उसे किसी अनाथाश्रम में छोड़ आए. हां, जो फ्लैट उन्होंने उसे दिया है, वह उसी का रहेगा. वे उस फ्लैट को वापस मांगने वाले नहीं हैं.

आरव को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? साहब और उन की पत्नी तो अपनी बात बता कर चले गए. आरव सुन्न हो कर खड़ा ही रह गया.

वीनी को जब पूरी बात का पता चला तब एक पल के लिए वह भी मौन हो गई. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?

तभी नर्स आ कर बच्ची को वीनी के हाथ में थमा गई. बच्ची को भूख लगी थी. उसे फीड कराना था. बच्ची का मासूम स्पर्श वीनी के भीतर को छू गया. आखिर अपने ही शरीर का एक अभिन्न हिस्सा थी बच्ची. उसी के उदर से उस ने जन्म लिया था. यह वीनी कैसे भूल सकती थी. बाकी सबकुछ भूल कर वीनी ने बच्ची को अपनी छाती से लगा लिया. सोई हुई ममता जाग उठी.

दूसरे दिन आरव ने वीनी के पास से बच्ची को लेना चाहा और कहा, ‘‘साहब, उसे अनाथाश्रम में छोड़ आएंगे और वहां उस की अच्छी देखभाल का बंदोबस्त भी करेंगे. मुझे भी यही ठीक लगता है.’’

‘‘सौरी आरव, यह मेरी बच्ची है, मैं ने इसे जन्म दिया है. यह कोई अनाथ नहीं है,’’ वीनी ने दृढ़ता से जवाब दिया.

‘‘पर वीनी…’’

‘‘परवर कुछ नहीं, आरव.’’

‘‘पर वीनी, यह बच्ची मैंटली रिटायर्ड है. इस को हम कैसे पालेंगे?’’

‘‘जैसी भी है, मेरी है. मैं ही इस की मां हूं. अगर हमारी बच्ची ऐसी होती तो क्या हम उसे अनाथाश्रम भेज देते?’’

‘‘लेकिन वीनी…’’

‘‘सौरी आरव, आज कोई लेकिनवेकिन नहीं. एक दिन तुम्हारी बात मैं ने स्वीकारी थी. आज तुम्हारी बारी है. यह हमारे घर का चिराग बन कर आई है. हम इस का अनादर नहीं कर सकते. जन्म से पहले ही इस ने हमें क्याक्या नहीं दिया है?’’

आरव कुछ पल पत्नी की ओर, कुछ पल बच्ची की ओर देखता रहा. फिर उस ने बच्ची को गोद में उठा लिया और प्यार करने लगा.

‘‘वीनी, हम इस का नाम क्या रखेंगे?’’

वीनी बहुत लंबे समय के बाद मुसकरा रही थी.

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