Family Story: पवित्र प्रेम – क्यों खुद से नफरत करने लगी थी रूपा

Family Story, लेखिका- सुनीता महेश्वरी

‘‘रूपा मैडम, आप कितनी प्यारी हैं. आप का मन कितना सुंदर है. काश, आप की जैसी हिम्मत हम सब में भी होती,’’ रूपा की मेड नीना ने बड़े आदर से कहा और फिर कौफी का कप दे कर अपने घर चली गई.

रूपा मुसकराने लगी. वह पिछले 2 वर्षों से पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की क्लासेज ले रही थी. इस क्षेत्र में उसे अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई थी. उस के सैंटर की ख्याति दूरदूर तक फैली हुई थी. 2 वर्षों में ही उस ने अपने व्यवहार, मेहनत, कौशल, आत्मविश्वास एवं आत्मीयता से समाज में सम्मान अर्जित कर लिया था. उस के गुणों

और आत्मिक सौंदर्य के आगे उस की कुरूपता एकदम बौनी हो गई थी. अनेक विषम परिस्थितियों में तप कर उस ने अपने सोने जैसे व्यक्तित्व को संवारा था. प्रेम की अपार शक्ति जो थी उस के साथ.

उस दिन नीना के जाने के बाद रूपा घर में बिलकुल अकेली हो गई थी. उस के पति विशाल और ससुर ऐडवोकेट प्रमोद केस की सुनवाई के लिए गए हुए थे. कौफी का कप हाथ में लिए सोफे पर बैठी रूपा अपने जीवन की गहराइयों में खो गई. उस की जिंदगी का 1-1 पल उस की आंखों में उतरने लगा.

रूपा की यादों में युवावस्था का वह चित्र जीवंत हो उठा, जब एक दिन अचानक एक सुनसान गली में आवारा रोहित उस का रास्ता रोक अश्लील फबतियां कसते हुए बोला, ‘‘मेरी जान, तुम किसी और की नहीं हो सकती, तुम बस मेरी हो.’’

रोहित की बदनीयत देख कर रूपा डर से कांपने लगी. उस दिन वह जैसेतैसे भाग कर अपने घर पहुंची थी. उस की सांसें बहुत तेज चल रही थीं. उस की मां गीता ने उसे सीने से लगा लिया. जब रूपा कुछ शांत हुई तब मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’

रूपा ने रोहित के विषय में सबकुछ बता दिया. रोहित के व्यवहार से वह इतनी डर गई थी कि अब कालेज भी नहीं जाना चाहती थी. जब कभी वह अकेली बैठती, रोहित की घूरती आंखें और अश्लील हरकतें उसे डराती रहती.

कुछ दिन बाद रूपा ने बड़ी मुश्किल से कालेज जाना शुरू किया, परंतु रोहित उसे रोज कुछ न कुछ कह कर सताता रहता था. एक दिन जब रूपा ने उसे पुलिस की धमकी दी तो उस

ने कहा, ‘‘पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी. मुझ से शादी नहीं करोगी, तो मैं तुम्हें जीने भी नहीं दूंगा.’’

रूपा ने अपनी प्रिंसिपल को भी रोहित के विषय में सब बताया, परंतु कालेज के बाहर का मामला होने के कारण उन्होंने भी कोई खास ध्यान नहीं दिया. रूपा को अपने पापा की बहुत याद आती थी. वह सोचती थी कि काश पापा जीवित होते तो कोई उसे इस तरह तंग नहीं कर पाता.

रूपा और उस की मां का चैन से जीना दूभर होता जा रहा था. रूपा ने बड़ी मुश्किलों का सामना कर एमए (मनोविज्ञान) फाइनल की परीक्षा दी थी.

एक दिन उस की मां गीता ने उसे विवाह के लिए मनाते हुए कहा, ‘‘रूपा, चंडीगढ़ में मेरी सहेली का बेटा विशाल है. वह इंजीनियर है. बहुत ही समझदार है. क्या मैं उस से तुम्हारी शादी की बात चलाऊं?’’

रूपा तुरंत मान गई. वह भी उस गुंडे रोहित से अपना पीछा छुड़ाना चाहती थी. शादी की बात चली और रिश्ता तय हो गया.

विवाह के मधुर पलों की याद आते ही रूपा की आंखों में एक चमक सी आ गई. उस ने कौफी का कप एक ओर रख दिया और सोफे पर ही लेट गई. उस के विचारों की पतंग उड़े जा रही थी.

रूपा और विशाल का विवाह चंडीगढ़ में बड़ी धूमधाम से संपन्न हो गया. विशाल जैसे होशियार, रूपवान, समझदार और प्यार करने वाले युवक का साथ पा कर रूपा बहुत खुश थी. उसे जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं.

रूपा धीरेधीरे अपनी नई प्यारभरी जिंदगी में रचबस गई. वह अपने सासससुर की भी बहुत लाडली थी. उस ने घर की सभी जिम्मेदारियां संभाल ली थीं. सभी उस के रूप और गुणों के प्रशंसक बन गए थे.

रूपा ने रोहित के विषय में विशाल को भी सबकुछ बता दिया था. विशाल ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘डरना छोड़ो रूपा. होते हैं कुछ ऐसे सिरफिरे. तुम उसे भूल जाओ. अब मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

विवाह के 3 वर्ष बीत चुके थे. इस बीच कई बार रूपा और विशाल

चंडीगढ़ से लखनऊ गए, पर वह आवारा रोहित कभी उन के सामने नहीं आया. रूपा धीरेधीरे उसे भूल गई. उसे अपनी जिंदगी पर नाज होने लगा था.

एक दिन रूपा लखनऊ में अपने पति विशाल के साथ बाजार से लौट रही थी. तभी अचानक उस मनचले गुंडे रोहित ने रूपा के सुंदर चेहरे पर तेजाब फेंकते हुए कहा, ‘‘ले अब दिखा, अपना यह रूप विशाल को.’’

रूपा का सुंदर चेहरा पलभर में जल कर बदसूरत हो गया. वह रूपा से कुरूपा हो गई. मगर सुंदर चेहरे पर तेजाब डालने वाला रोहित अपनी जीत पर मुसकरा रहा था.

विशाल तो ये सब देख कर स्तब्ध सा रह गया. फिर तुरंत पुलिस को फोन किया और सहायता के लिए चिल्लाने लगा. कुछ ही देर में बहुत लोग एकत्रित हो गए. रोहित के हाथ में ऐसिड की बोतल थी. अत: कोई भी डर के मारे उस के पास नहीं जा रहा था. तभी पुलिस ने आ कर उसे पकड़ लिया.

विशाल रूपा को ऐंबुलैंस में अस्पताल ले गया.

औपचारिकताएं पूरी होने के बाद रूपा का इलाज शुरू हुआ. उस की दोनों आंखों की पुतलियां दिखाई ही नहीं दे रही थीं. उस का चेहरा इतना बिगड़ चुका था कि डाक्टर ने विशाल को भी उसे देखने की इजाजत नहीं दी. रूपा को इंटैंसिव केयर में रखा गया. 2 दिन बाद जब रूपा की मां गीता और विशाल को रूपा से मिलाया गया तब मां की चीख निकल गई. ऐसिड फेंकने का घिनौना अपराध करने वाले रोहित के प्रति उन का मन विद्रोह की आग से भर उठा.

लगभग ढाई महीने बाद रूपा को अस्पताल से छुट्टी मिली, परंतु

इलाज का यह अंत नहीं था. इस बीच न तो उसे दृष्टि मिली थी और न ही रूप. उस के और कई औपरेशन होने बाकी थे.

विशाल रूपा को वापस चंडीगढ़ ले गया. उस की आंखों और चेहरे के कई औपरेशन हुए.

धीरेधीरे आंखों की रोशनी वापस आ गई. जब रूपा ने इस घटना के बाद पहली बार दुनिया देखी तब उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा, अपना चेहरा देखा तो चीख पड़ी. उसे शीशे में अपना ही भूत नजर आया. वह विशाल के सीने से लग कर जोरजोर से रोते हुए बोली, ‘‘विशाल, इस कुरूप चेहरे को ले कर मैं तुम्हारी जिंदगी नहीं बिगाड़ सकती. मैं जीवित नहीं रहना चाहती. मुझ से इतना प्यार मत करो.’’

विशाल की आंखें छलकने को थीं, पर उस ने अपने आंसुओं को किसी तरह पी लिया. उस ने रूपा को प्यार से गले लगाते हुए कहा, ‘‘रूपा, तुम मेरी बहादुर पत्नी हो. तुम ही तो मेरी जान हो. तुम्हारे बिना मेरा कोई वजूद नहीं है. मैं मात्र तुम्हारी सूरत से नहीं, अपितु तुम से प्यार करता हूं. तुम ऐसे हार मान जाओगी तो मेरा क्या होगा?’’

रूपा अपने कुरूप चेहरे पर विशाल के होंठों का स्पर्श पा कर फफकफफक कर रोने लगी. उस की हिचकियां रुकने का नाम नहीं ले रही थीं. वह विशाल के नि:स्वार्थ प्यार की गहराइयों में डूब कर अपनी कुरूपता को दोषी मान रही थी. उसे लग रहा था जैसे उस का चेहरा ही नहीं, बल्कि विशाल की खुशियां भी तेजाब से जल कर खाक हो गई हैं.

अपने डरावने चेहरे को देख कर रूपा की निराशा दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी. ऐसी विदू्रपता, विकृति को देख उस के मन को गहरी चोट पहुंची थी. जब वह लोगों को स्वयं को घूरते देखती तो ऐसा लगता मानों सब उस की कुरूपता को देख कर सहम गए हैं. हर नजर उस के मन को छेद देती थी.

रूपा एक दिन परेशान हो कर विशाल से बोली, ‘‘विशाल, मेरी जैसी कुरूप लड़की के साथ तुम क्यों अपना जीवन व्यर्थ करना चाहते हो? तुम क्यों दूसरी शादी नहीं कर लेते हो? अपनी खुशियां मेरी इस कुरूपता पर मत लुटाओ. तुम मुझे तलाक दे दो.’’

विशाल ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘रूपा, मैं ने विवाह का प्यारा बंधन तोड़ने के लिए नहीं जोड़ा. पतिपत्नी का मिलन 2 दिलों का मिलन होता है. क्या मात्र एक

दुर्घटना हमें जुदा कर सकती है? यदि मेरे साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती तो क्या तुम मुझे तलाक दे देतीं?’’

रूपा ने विशाल के मुंह पर हाथ रख दिया. उस की आंखों से प्रेम के आंसुओं के झरने बहने लगे. उस का मन विशाल के त्याग और प्रेम को पा कर धन्य हो उठा.

चंडीगढ़ में रूपा का इलाज चलता रहा. तेजाब से जली त्वचा का महंगा

और लंबा इलाज विशाल की माली हालत तथा उस के काम पर भी दुष्प्रभाव डाल रहा था, किंतु उस ने रूपा को कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया. वह एक जिम्मेदार पति की तरह अपने कर्तव्यों को बखूबी निभा रहा था.

विशाल के पिता ऐडवोकेट प्रमोद नामी वकील थे. वे रूपा की न्यायिक प्रक्रिया के कार्यों में दिनरात लगे थे. उन्होंने उस जघन्य अपराधी को सजा दिलवाने की ठान ली थी. इस के अतिरिक्त इलाज आदि के लिए जो सरकार से मदद का प्रावधान था, उसे प्राप्त करने के लिए भी वे प्रयत्नशील थे.

अचानक रूपा की स्मृतियों में अपने रिश्तेदार की बातें कांटे की तरह चुभने लगीं. एक दिन रूपा को देखने रिश्तेदार आए थे. वे रूपा से मिले और चलतेचलते विशाल से बोले, ‘‘भैया, तुम्हारी ही हिम्मत है जो तुम इस की सेवा कर रहे हो. आजकल की लड़कियां तो प्रेम किसी से करती हैं और शादी किसी से. परिणाम तुम जैसे पतियों को भुगतना पड़ता है. पहले ही जन्मपत्री मिला कर शादी की होती तो ऐसी दुर्घटना से बच जाते. मेरी सलाह मानो तो दूसरी शादी कर लो. कब तक ढोओगे इस की बदसूरती को.’’

विशाल के पिता प्रमोद ये सब सुन रहे थे. वे तपाक से बोले, ‘‘भाई साहब, आप ने तो अपने बेटे की शादी खूब जन्मपत्री मिला कर की थी न, फिर क्या हुआ था? याद है न, आप की बहूरानी तो शादी के दूसरे दिन ही आप सब को छोड़ कर मायके चली गई थी. जन्मपत्री मिला कर आप ने कौन से फूल खिला लिए थे? हमारी निर्दोष बहू पर लांछन लगाने से पहले अपने गरीबान में तो झांक कर देख लिया होता.’’

उस दिन रिश्तेदार की बात सुन कर रूपा को ऐसा लगा था जैसे एक बार फिर किसी ने कटुता का ऐसिड उस पर डाल दिया हो. उस का मन छलनी हो गया था. वह मर जाना चाहती थी. अपना मुंह छिपा कर रोने लगी.

विशाल दिल पर पत्थर रख कर उस का हाथ अपने हाथ में ले कर बोला, ‘‘तुम चिंता मत करो रूपा. मैं तुम्हारा पति हूं और मैं तुम्हारे साथ हूं. जब कोई ऐसी बेतुकी बात करता है, तो मन करता है उस का मुंह नोच लूं. पर यह भी इस का समाधान नहीं… समाज में स्त्रियों को जब तक मानसम्मान नहीं मिलेगा तब तक यही स्थिति रहेगी. हमें ऐसे दकियानूसी और पाखंडी लोगों की सोच बदलनी होगी.’’

रूपा विशाल की गोदी में सिर रख कर रोए जा रही थी.

विशाल ने उस के बालों को सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि मेरी रूपा फिर से हंसना सीख ले. अपने को बारबार कुरूप कहना छोड़ दे. रूपा, मेरे लिए तुम आज भी उतनी ही सुंदर हो जितनी पहले थी. मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन कितना सुंदर और पवित्र है.’’ और फिर विशाल ने रूपा को जूस पिला कर सुला दिया.

हर दिन एक नया दिन होता था. कुछ घाव सूखते थे तो कुछ वाणी के घाव नए बन जाते थे. विशाल ने रूपा का मन धीरेधीरे प्राणायाम की ओर आकर्षित किया. वह हमेशा उस से कहता कि अपने मन को महसूस करो, जो बहुत सुंदर है. रूपा तुम्हें ऐसे अपराधियों के विरुद्ध लड़ना है. तुम्हें हिम्मत बढ़ानी है. तुम सुंदर हो. शक्तिशाली हो, मनोविज्ञान की ज्ञाता हो. तुम्हारे अंदर असीम शक्तियां छिपी हैं. तुम ऐसे हार नहीं मान सकतीं. मन में आशा और विश्वास भर कर तुम्हें समाज की बुराइयों को दूर करना है.

रूपा पर विशाल की बातों का असर होने लगा था. वह मरमर कर भी जीना सीख रही थी. उस ने मन में विश्वास भर कर पर्सनैलिटी डैवलपमैंट की पुस्तकें पढ़नी शुरू कर दीं. उस के भीतर अपनी नई पहचान बनाने की लौ जाग उठी थी.

दूसरी ओर न्यायिक प्रक्रिया भी चल रही थी. विशाल और उस के पिता तारीख पड़ने पर कोर्ट जाते थे. 1 वर्ष बाद की तारीख में विशाल अपने मातापिता और रूपा को भी कोर्ट में ले कर पहुंचा था. अपराधी रोहित पहले से वहां था. विशाल रूपा को सहारा दे कर बड़े प्यार और सम्मान से जब कोर्ट में दाखिल हुआ तो उस नजारे को देख कर अपराधी रोहित की उम्मीदों पर तो जैसे पानी ही फिर गया. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसी बदसूरत लड़की को भी कोई पति प्यार करेगा.

विशाल ने रूपा की खुशियां छीनने वाले अपराधी रोहित को नफरतभरी नजर से देखते हुए कहा, ‘‘तुम ने जो हमारे संग किया है, उस का दंड तुम्हें बहुत जल्दी मिलेगा. मेरे हिसाब से तुम दुनिया के सब से कुरूप व्यक्ति हो… दुनिया में तुम्हें कोई पसंद नहीं करेगा, जबकि रूपा को इस हालत में भी सब चाहते हैं. वह हमेशा सुंदर थी और सुंदर रहेगी.’’

उस दिन रूपा भी रणचंडी बनी हुई थी. उस की आंखों में उस अपराधी के लिए घृणा के साथसाथ क्रोध की भी ज्वाला धधक रही थी. वह किसी तरह अपना गुस्सा पी रही थी.

रूपा अपने विचारों के सागर में डूबी हुई थी कि अचानक घड़ी के 5 घंटे सुनाई दिए तो सकपका कर उठ खड़ी हुई और फिर अपने काम में लग गई.

कुछ ही देर में विशाल और प्रमोद कोर्ट से घर लौट आए. वे बहुत खुश थे, क्योंकि रूपा की जीत हुई थी. उस अपराधी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

Hindi Story: मातृत्व का अमृत – क्या विभा ने एड्स पीड़ित विनोद को अपनाया?

Hindi Story, लेखक- सुखविंदर कौर

लाल सुर्ख जोडे़ में सजी विभा के चारों तरफ गूंजती शहनाई और विवाह की रौनक थी. सुमित की छवि जैसे विभा की आंखों के सामने घूम रही थी और स्वत: ही उसे याद आती थी, सुमित के साथ उस की पहली मुलाकात.

वह दिन, जब सुमित उसे देखने आया था तो उस से ज्यादा नर्वस शायद सुमित खुद ही था. मुंह नीचा किए वह चुपचाप बैठा था और जैसे ही मां विभा को ले कर ड्राइंगरूम में पहुंचीं, मां के पांव छूने की बजाय गलती से सुमित ने विभा के पांव छू लिए. तब अल्हड़ विभा ने उसे ‘दूधों नहाओ और पूतों फलो’ का आशीर्वाद दिया तो वहां उपस्थित सभी ठहाका मार कर हंस पडे़.

सुमित को विभा की चंचलता बहुत भा गई और वह उस के मनमोहक रूप से आकर्षित हुए बिना भी न रह सका. वहीं विभा को भी सुमित की सादगी पसंद आई थी.

विभा सुमित से अपनी पहली भेंट को जब भी याद करती, बहुत देर तक हंसती थी.

आज फिर विभा लाल सुर्ख जोडे़ में लिपटी बैठी थी. पहले जैसी चहलपहल आज नहीं थी. 11 साल पहले जो उत्सुकता विभा की आंखों में विवाह को ले कर थी वह आज आंसू बन कर बह रही थी और कई सवाल उस के कोमल हृदय पर आघात कर रहे थे पर जवाब तलाशने से भी उसे नहीं मिल रहे थे.

एक समझदार पति के साथसाथ उस का सब से प्यारा दोस्त सुमित याद आ रहा था तो याद आ रही थी उसे अपनी ससुराल, जहां पति का बेइंतहा प्यार मिला और देवर, सासससुर के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने उस के जीवन में इंद्रधनुषी रंग भर दिए.

उस का घरेलू जीवन तब और साकार हो गया जब विभा के घर में एक नन्हेमुन्ने की आहट हुई. विभा की ससुराल और मायके में खुशियों का उत्सव छाया हुआ था. लेकिन उस को क्या पता था कि उस की खुशियों पर एक ऐसी बिजली गिरेगी जो सबकुछ जला कर राख कर देगी.

दीवाली के दीपों की ज्योति से अंधेरे जीवन में भी प्रकाश हो जाता है पर इस बार की दीवाली विभा के जीवन में अंधकार भरने आई थी. सुमित दीवाली के अवसर पर बाजार गया. विभा कोे 4 महीने का गर्भ था, इसलिए वह न जा सकी. बाजार में बम विस्फोट हुआ और सुमित लौट कर घर न आ सका. उस की मृत्यु का समाचार और फिर उस का क्षतविक्षत शव देख कर जो सदमा विभा को लगा उसे वह सहन न कर सकी और उस का गर्भपात हो गया.

सुमित की यादें जहां विभा के मुखमंडल पर खास छटा बिखेर देती थीं वहीं उस की मृत्यु की कल्पना से भी विभा सिहर उठती थी.

विभा आज अपने अतीत के सारे पृष्ठ पलट लेना चाहती थी. यादें समय के प्रवाह के साथ धूमिल अवश्य पड़ जाती हैं परंतु खत्म कभी नहीं होतीं, क्योंकि हृदय पर बने उन के निशान सागर की गहराई से भी गहरे होते हैं.

गुजरे हुए कल ने विभा के जीवन पर गहरे निशान छोडे़ थे, ऐसे निशान जो उसे बहुत गहरे आघात दे गए थे.

विधवा विभा अपने सासससुर की सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहती थी, साथ ही एक शिक्षिका होने के नाते अपना सारा जीवन अपने विद्यालय और विद्यार्थियों के हित में समर्पित करना चाहती थी, पर जिस औरत का सुहाग उजड़ जाए उस के अपने भी बेगाने हो जाते हैं. यहां तक कि घर के लोग भी सांप की तरह फुफकारते हैं व दंश भी मारते हैं.

सुमित की मौत के बाद उस के ससुराल वालों का व्यवहार विभा के प्रति अनायास ही बदल गया. सास का छोटीछोटी बातों पर फटकारना, किसी न किसी बात में कमी निकालना, अब आम हो गया था. मगर जब देवर और ससुर की कामुक नजर उसे कचोटने लगी तो उस की सहनशक्ति परास्त हो गई. तब अपना सारा साहस जुटा कर विभा अपने मायके चली आई. घर में मांबाबूजी के अलावा विभा का एक छोटा भाई प्रभात भी था.

घर का सारा काम विभा अकेले ही करती, मांबाबूजी का पूरा खयाल रखती, विद्यालय जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती और प्रभात की पढ़ाई में सहयोग भी देती. इस तरह उस ने अपनी दिनचर्या को पूरी तरह व्यस्त कर लिया था.

देखते ही देखते 9 साल गुजर गए. प्रभात, विभा के सहयोग की बदौलत आईटी प्रोफेशनल के रूप में अपने पैर जमा चुका था. उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आने लगे. मांबाबूजी ने विभा की सलाह से एक सुंदर व सुशिक्षित लड़की सुनैना को देख कर प्रभात का रिश्ता तय कर दिया. विवाह भी हंसीखुशी संपन्न हो गया. घर में एक नई बहू आ गई.

प्रभात की खुशियों में विभा अपनी खुशियां तलाशना सीख गई थी. तभी मुंहदिखाई के समय सुनैना को अपना हीरों जडि़त हार देते वक्त उस ने कहा था, ‘‘सुनैना, तुम्हें इस से भी ज्यादा सुंदर तोहफा तब दूंगी जब तुम हमें एक प्यारा सा, प्रभात जैसा भतीजा दोगी.’’

घर के सारे छोटेबडे़ फैसले विभा की सलाह से लिए जाते थे और प्रभात भी अपनी दीदी के पूरे प्रभाव में था, इसलिए सुनैना के मन में विभा के प्रति द्वेष घर कर गया. अब वह विभा को नीचा दिखाने का कोई न कोई मौका ढूंढ़ती रहती थी.

हालांकि विभा उसे अपनी छोटी बहन की तरह समझती थी और उस की गलतियों को भी क्षमा कर देती थी.

सुनैना मां बनने वाली थी और कमजोरी के कारण डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी, इसलिए बाकी कार्यों के साथसाथ विभा फिर से घर का सारा काम संभालने लगी. सुनैना की हर जरूरत का भी वह पूरापूरा खयाल रखती.

उस दिन विद्यालय से लौटने के बाद विभा फ्रैश हो कर दोपहर के खाने में जुट गई. प्रभात भी घर पर ही था. सब मेज पर खाना खाने के लिए बैठे ही थे कि सुनैना झल्ला उठी.

खाने की थाली में से एक बाल निकल आने के कारण सुनैना गुस्से से लालपीली होते हुए बोली, ‘दीदी, अगर आप को कोई परेशानी है तो यों ही कह दीजिए. वैसे भी हमारी हैसियत तो है ही कि हम एक नौकरानी रख लें.’

आवेश में विभा से यह कटु वचन बोल कर सुनैना प्रभात की सहानुभूति बटोरने के लिए अभिनय करती हुई धम्म से कुरसी पर बैठ गई.

प्रभात ने सुनैना को संभालते हुए तैश में आ कर कहा, ‘दीदी, जरा ध्यान से खाना बनाया कीजिए. सुनैना को डाक्टर ने जरा सा भी स्ट्रेस लेने से मना किया है. आप की ऐसी हरकत की वजह से अगर हमारे बच्चे को कुछ हो गया तो…’

प्रभात के ऐसे व्यवहार से सुनैना को बल मिला और फिर उस ने विभा पर अपने बच्चे को गिराने का आरोप जड़ते हुए कहा, ‘आप तो, जब से मैं इस घर में आई हूं, कुछ न कुछ मेरे खिलाफ करती ही रहती हैं और आज जब मैं मां बनने वाली हूं तो जादूटोना कर के हमारी होने वाली संतान को मारना चाहती हैं. अरे, शैतान भी एक बार खाए हुए नमक की लाज रख लेता होगा और आप जिस घर में बरसों से रह रही हैं उसी घर की दीवारों की नींव को खोद देना चाहती हैं.’

विभा ने जब खुद पर लगे आरोपों का विरोध करना चाहा तो प्रभात ने उसे तमाचा जड़ दिया था. यह चोट सब से गहरी थी और सब से ज्यादा दुखदायी था मांबाबूजी का मूकदर्शक बने रहना. उस दिन एक विधवा की वेदना को विभा पूरी तरह समझ गई थी. विभा ने आवेश में आ कर अकेले ही कहीं और मकान ले कर रहने का फैसला किया पर दिल्ली जैसे शहर में एक महिला का अकेले रहना कहां तक सुरक्षित है, यह सोच कर मांबाबूजी ने उसे रोक लिया.

सुनैना, विभा को परिवार वालों की नजरों में गिराना ही नहीं बल्कि उसे घर से निकलवाना भी चाहती थी, पर अपनी आशाओं पर पानी फिरता देख अवसर पा कर उस ने मांबाबूजी के मन में विभा के दूसरे विवाह का विचार डाल दिया.

मांबाबूजी विभा के लिए किसी उचित वर की तलाश में थे तो सुनैना ने एक लड़के का नाम भी उन्हें सुझाया. उस की बातों में आ कर घर वालों ने ‘विधवा’ विभा का रिश्ता तय कर दिया.

विभा यह तो जान ही चुकी थी कि एक औरत का अस्तित्व उस के पति की मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है. और एक सादे समारोह में विभा की दूसरी शादी संपन्न हो गई.

विभा अपने अतीत में खोई हुई थी कि तभी मां ने उसे झकझोरा और कहा, ‘‘विभा बेटा, तुम्हारी विदाई का समय हो गया है.’’

आज विभा, विनोद की दूसरी पत्नी बन कर उस के घर जा रही थी. उस की आंखों से आंसुओं का सागर उमड़ रहा था. किंतु इन आंसुओं का औचित्य समझ पाना उस के बस की बात नहीं थी. यह आंसू अपने उस घर से विदाई के थे जहां से वह 11 साल पहले ही विदा की जा चुकी थी या एक विधवा की बदकिस्मती के, विभा स्वयं नहीं जानती थी.

विभा अब तक विनोद से नहीं मिली थी. उसे केवल इतना बताया गया था कि विनोद पेशे से एक सर्जन है, उस की पहली पत्नी की मृत्यु कुछ समय पहले हुई थी और विनोद के 2 बच्चे हैं. प्रांजल जो 8 वर्ष का है और परिधि 6 वर्ष की है. घर में विनोद और बच्चों के अलावा मातापिता हैं.

विभा इस शादी से खुश नहीं थी पर विदाई के बाद ससुराल पहुंचते ही जब प्रांजल और परिधि ने उसे ‘नई मम्मी’ कह कर पुकारा तो वह गद्गद हो गई. मातृत्व क्या होता है, उसे यह खुशी नसीब नहीं हुई थी मगर प्रांजल और परिधि के एक छोटे से उच्चारण ने उस के भीतर दबी हुई ममता को जागृत कर दिया. उस के सासससुर का व्यवहार बेहद करुणा- मयी और विनम्र था.

विनोद से अब तक उस की भेंट नहीं हुई थी. विभा कमरे में काफी देर तक उस की प्रतीक्षा करती रही और इंतजार करतेकरते कब उस की आंख लग गई उसे पता नहीं चला. शायद विनोद ने उसे जगाना भी ठीक नहीं समझा.

विभा में नईनवेली दुलहनों जैसे नाजनखरे नहीं थे इसलिए विवाह के अगले दिन से ही घर का सारा काम उस ने अपने हाथों में ले लिया. सुबह जल्दी उठ कर अपना पूजापाठ समाप्त कर के पहले वह अपने सासससुर को चाय बना कर देती, फिर नाश्ता तैयार करती, विनोद को नर्स्ंिग होम और बच्चों को स्कूल भेज कर वह अपने विद्यालय जाती.

दोपहर को विद्यालय से आते ही बच्चे उसे घेर लेते. पहले तो उन्हें खाना खिला कर विभा उन का होमवर्क पूरा करवाती और फिर उन के साथ खूब खेलती. अब प्रांजल और परिधि उसे ‘नई मम्मी’ के बजाय ‘मम्मी’ कह कर पुकारने लगे थे. बच्चों के साथ विभा ने अपने सासससुर का भी दिल जीत लिया था.

विनोद देर रात घर आता तब तक विभा सो चुकी होती थी. विनोद के साथ विभा की जो बातें होतीं वे केवल औपचारिकता भर ही थीं. विवाह को दिन ही नहीं महीनों बीत गए थे पर जीवनसाथी के रूप में दोनों को एकदूसरे के विचार जानने का मौका ही नहीं मिला था.

विनोद का व्यवहार घर वालों के प्रति बहुत असहज था. माना वह घर पर कम रहता था मगर जितनी देर रहता उतनी देर भी न तो बच्चों से और न ही मांबाबूजी से वह खुल कर बातें करता था. विभा ने उन सब के बीच एक अजीब सी दूरी का अनुभव किया और वह शंकित हो गई. वह मांबाबूजी से सीधे कुछ भी कहना नहीं चाहती थी मगर विनोद से कहना भी ठीक नहीं था.

एक दिन विभा घर पर ही थी और बच्चे विनोद के साथ कहीं गए थे. विभा ने अवसर पा कर मांजी से पूछ ही लिया, ‘‘मांजी, मैं जब से इस घर में आई हूं उन्होंने कभी मुझ से बात नहीं की और मुझे उन का व्यवहार भी बहुत अजीब लगता है. मुझे कहना तो नहीं चाहिए, मगर लगता है आप लोगों के बीच कोई समस्या…?’’

विभा की बात काटते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटा, विनोद इस विवाह से…’’

विभा चौंक पड़ी, ‘‘खुश नहीं हैं, क्या?’’

‘‘देखो बेटा, सुनैना और प्रभात को हम ने पहले ही बता दिया था कि विनोद न तो तुम से शादी करना चाहता है और न ही वह तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा. विनोद खुद को तुम्हारा अपराधी समझता है,’’ मांजी ने उत्तर दिया.

बाबूजी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और बोले, ‘‘बहू, तुम जानती हो कि हमारी बहू ‘पायल’ की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हुई थी. उस में विनोद भी बुरी तरह घायल हो गया था. उस का काफी खून बह चुका था. आपरेशन के समय उसे खून चढ़ाया गया और यही विनोद की बदकिस्मती थी.’’

‘‘मगर बाबूजी, उस आपरेशन से हमारे रिश्ते का क्या संबंध?’’ विभा अभी भी सकते में थी.

‘‘विनोद के आपरेशन से कुछ समय बाद उसे पता चला कि जो खून उसे चढ़ाया गया था वह एचआईवी पौजीटिव था,’’ कहतेकहते बाबूजी का गला रुंध गया.

विभा खुद को ठगा सा महसूस कर रही थी. वह सुनैना को दोष नहीं दे सकती थी मगर जो विश्वासघात भाई हो कर प्रभात ने उस के साथ किया, उस से वह सोचने को विवश हो गई थी कि क्या विधवा पुनर्विवाह का औचित्य यही है कि उस का प्रयोग केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए किया जाता है. आज वह एक सधवा हो कर भी खुद को विधवा ही महसूस कर रही है.

बाबूजी ने विभा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहना शुरू किया, ‘‘विनोद के सीडी फोर सेल्स का स्तर अब धीरेधीरे कम होने लगा है. हम बूढ़े हो चुके हैं. विनोद को कुछ हो गया तो हम बूढ़े तो वैसे ही खत्म हो जाएंगे. हम ने सोचा कि हमारे बाद इन फूल से बच्चों को कौन संभालेगा? क्या होगा इन का? यही सोच कर हम ने विनोद का विवाह जबरन तुम्हारे साथ करवाया ताकि इन बच्चों को संभालने वाला कोई तो हो,’’ इतना कह कर बाबूजी कमरे से बाहर निकल गए.

अपने को संभालते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, तुम्हें लग रहा होगा कि हम लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए तुम्हारा जीवन बरबाद कर दिया. निर्णय अब तुम्हें ही लेना है. हो सके तो हमें क्षमा कर देना.’’

निरुत्तर खड़ी विभा वहां से भाग निकलना चाहती थी और जा कर प्रभात, मां व बाबूजी से पूछना चाहती थी कि क्या विधवा होना उस का कुसूर है? आज वह दोराहे पर खड़ी थी.

तभी प्रांजल और परिधि स्कूल से आते ही उस से लिपट गए और अपनी स्कूल की दिनचर्या बताबता कर उस की गोद में झूलने लगे. बच्चों का स्पर्श पाते ही विभा की मानो सारी उलझनें सुलझ गई थीं.

उस की नियति लिखी जा चुकी थी. वह विनोद के समर्पण, मांबाबूजी के प्रेम और अपने मातृत्व के सामने नतमस्तक हो गई, फिर प्रांजल और परिधि ने विभा के आंसू पोंछे और उस से लिपट गए. आज सबकुछ खो कर भी विभा ने मातृत्व का अमृत पा लिया था. उसे अपना आज और आने वाला कल साफ नजर आने लगा था.

Family Story: मैं हूं न

Family Story: लड़के वाले मेरी ननद को देख कर जा चुके थे. उन के चेहरों से हमेशा की तरह नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देखने को मिली थी. कोई कमी नहीं थी उन में. पढ़ी लिखी, कमाऊ, अच्छी कदकाठी की. नैननक्श भी अच्छे ही कहे जाएंगे. रंग ही तो सांवला है. नकारात्मक उत्तर मिलने पर सब यही सोच कर संतोष कर लेते कि जब कुदरत चाहेगी तभी रिश्ता तय होगा. लेकिन दीदी बेचारी बुझ सी जाती थीं. उम्र भी तो कोई चीज होती है.

‘इस मई को दीदी पूरी 30 की हो चुकी हैं. ज्योंज्यों उम्र बढ़ेगी त्योंत्यों रिश्ता मिलना और कठिन हो जाएगा,’ सोचसोच कर मेरे सासससुर को रातरात भर नींद नहीं आती थी. लेकिन जिसतिस से भी तो संबंध नहीं जोड़ा जा सकता न. कम से कम मानसिक स्तर तो मिलना ही चाहिए. एक सांवले रंग के कारण उसे विवाह कर के कुएं में तो नहीं धकेल सकते, सोच कर सासससुर अपने मन को समझाते रहते.

मेरे पति रवि, दीदी से साल भर छोटे थे. लेकिन जब दीदी का रिश्ता किसी तरह भी होने में नहीं आ रहा था, तो मेरे सासससुर को बेटे रवि का विवाह करना पड़ा. था भी तो हमारा प्रेमविवाह. मेरे परिवार वाले भी मेरे विवाह को ले कर अपनेआप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. उन्होंने भी जोर दिया तो उन्हें मानना पड़ा. आखिर कब तक इंतजार करते.

मेरे पति रवि अपनी दीदी को बहुत प्यार करते थे. आखिर क्यों नहीं करते, थीं भी तो बहुत अच्छी, पढ़ीलिखी और इतनी ऊंची पोस्ट पर कि घर में सभी उन का बहुत सम्मान करते थे. रवि ने मुझे विवाह के तुरंत बाद ही समझा दिया था उन्हें कभी यह महसूस न होने दूं कि वे इस घर पर बोझ हैं. उन के सम्मान को कभी ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए, इसलिए कोई भी निर्णय लेते समय सब से पहले उन से सलाह ली जाती थी. वे भी हमारा बहुत खयाल रखती थीं. मैं अपनी मां की इकलौती बेटी थी, इसलिए उन को पा कर मुझे लगा जैसे मुझे बड़ी बहन मिल गई हैं.

एक बार रवि औफिस टूअर पर गए थे. रात काफी हो चुकी थी. सासससुर भी गहरी नींद में सो गए थे. लेकिन दीदी अभी औफिस से नहीं लौटी थीं. चिंता के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. तभी कार के हौर्न की आवाज सुनाई दी. मैं ने खिड़की से झांक कर देखा, दीदी कार से उतर रही थीं. उन की बगल में कोई पुरुष बैठा था. कुछ अजीब सा लगा कि हमेशा तो औफिस की कैब उन्हें छोड़ने आती थी, आज कैब के स्थान पर कार में उन्हें कौन छोड़ने आया है.

मुझे जागता देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘सोई नहीं अभी तक?’’

‘‘आप का इंतजार कर रही थी. आप के घर लौटने से पहले मुझे नींद कैसे आ सकती है, मेरी अच्छी दीदी?’’ मैं ने उन के गले में बांहें डालते हुए उन के चेहरे पर खोजी नजर डालते हुए कहा, ‘‘आप के लिए खाना लगा दूं?’’

‘‘नहीं, आज औफिस में ही खा लिया था. अब तू जा कर सो.’’

‘‘गुड नाइट दीदी,’’ मैं ने कहा और सोने चली गई. लेकिन आंखों में नींद कहां?

दिमाग में विचार आने लगे कि कोई तो बात है. पिछले कुछ दिनों से दीदी कुछ परेशान और खोईखोई सी रहती हैं. औफिस की समस्या होती तो वे घर में अवश्य बतातीं. कुछ तो ऐसा है, जो अपने भाई, जो भाई कम और मित्र अधिक है से साझा नहीं करती और आज इतनी रात को देर से आना, वह भी किसी पुरुष के साथ, जरूर कुछ दाल में काला है. इसी पुरुष से विवाह करना चाहतीं तो पूरा परिवार जान कर बहुत खुश होता. सब उन के सुख के लिए, उन की पसंद के किसी भी पुरुष को स्वीकार करने में तनिक भी देर नहीं लगाएंगे, इतना तो मैं अपने विवाह के बाद जान गई हूं. लेकिन बात कुछ और ही है जिसे वे बता नहीं रही हैं, लेकिन मैं इस की तह में जा कर ही रहूंगी, मैं ने मन ही मन तय किया और फिर गहरी नींद की गोद में चली गई.

सुबह 6 बजे आंख खुली तो देखा दीदी औफिस के लिए तैयार हो रही थीं. मैं ने कहा, ‘‘क्या बात है दीदी, आज जल्दी…’’

मेरी बात पूरी होने हो पहले से वे बोलीं,  ‘‘हां, आज जरूरी मीटिंग है, इसलिए जल्दी जाना है. नाश्ता भी औफिस में कर लूंगी…देर हो रही है बाय…’’

मेरे कुछ बोलने से पहले ही वे तीर की तरह घर से निकल गईं. बाहर जा कर देखा वही गाड़ी थी. इस से पहले कि ड्राइवर को पहचानूं वह फुर्र से निकल गईं. अब तो मुझे पक्का यकीन हो गया कि अवश्य दीदी किसी गलत पुरुष के चंगुल में फंस गई हैं. हो न हो वह विवाहित है. मुझे कुछ जल्दी करना होगा, लेकिन घर में बिना किसी को बताए, वरना वे अपने को बहुत अपमानित महसूस करेंगी.

रात को वही व्यक्ति दीदी को छोड़ने आया. आज उस की शक्ल की थोड़ी सी झलक

देखने को मिली थी, क्योंकि मैं पहले से ही घात लगाए बैठी थी. सासससुर ने जब देर से आने का कारण पूछा तो बिना रुके अपने कमरे की ओर जाते हुए थके स्वर में बोलीं, ‘‘औफिस में मीटिंग थी, थक गई हूं, सोने जा रही हूं.’’

‘‘आजकल क्या हो गया है इस लड़की को, बिना खाए सो जाती है. छोड़ दे ऐसी नौकरी, हमें नहीं चाहिए. न खाने का ठिकाना न सोने का,’’ मां बड़बड़ाने लगीं, तो मैं ने उन्हें शांत कराया कि चिंता न करें. मैं उन का खाना उन के कमरे में पहुंचा दूंगी. वे निश्चिंत हो कर सो जाएं.

मैं खाना ले कर उन के कमरे में गई तो देखा वे फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. मुझे देखते ही फोन काट दिया. मेरे अनुरोध करने पर उन्होंने थोड़ा सा खाया. खाना खाते हुए मैं ने पाया कि पहले के विपरीत वे अपनी आंखें चुराते हुए खाने को जैसे निगल रही थीं. कुछ भी पूछना उचित नहीं लगा. उन के बरतन उन के लाख मना करने पर भी उठा कर लौट आई.

2 दिन बाद रवि लौटने वाले थे. मैं अपनी सास से शौपिंग का बहाना कर के घर से सीधी दीदी के औफिस पहुंच गई. मुझे अचानक आया देख कर एक बार तो वे घबरा गईं कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि मुझे औफिस आना पड़ा.

मैं ने उन के चेहरे के भाव भांपते हुए कहा, ‘‘अरे दीदी, कोई खास बात नहीं. यहां मैं कुछ काम से आई थी. सोचा आप से मिलती चलूं. आजकल आप घर देर से आती हैं, इसलिए आप से मिलना ही कहां हो पाता है…चलो न दीदी आज औफिस से छुट्टि ले लो. घर चलते हैं.’’

‘‘नहीं बहुत काम है, बौस छुट्टी नहीं देगा…’’

‘‘पूछ कर तो देखो, शायद मिल जाए.’’

‘‘अच्छा कोशिश करती हूं,’’ कह उन्होंने जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश की. फिर बौस के कमरे में चली गईं.

बौस के औफिस से निकलीं तो वह भी उन के साथ था, ‘‘अरे यह तो वही आदमी

है, जो दीदी को छोड़ने आता है,’’ मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला. मैं ने चारों ओर नजर डाली. अच्छा हुआ आसपास कोई नहीं था. दीदी को इजाजत मिल गई थी. उन का बौस उन्हें बाहर तक छोड़ने आया. इस का मुझे कोई औचित्य नहीं लगा. मैं ने उन को कुरेदने के लिए कहा, ‘‘वाह दीदी, बड़ी शान है आप की. आप का बौस आप को बाहर तक छोड़ने आया. औफिस के सभी लोगों को आप से ईर्ष्या होती होगी.’’

दीदी फीकी सी हंसी हंस दीं, कुछ बोलीं नहीं. सास भी दीदी को जल्दी आया देख कर बहुत खुश हुईं.

रात को सभी गहरी नींद सो रहे थे कि अचानक दीदी के कमरे से उलटियां करने की आवाजें आने लगीं. मैं उन के कमरे की तरफ लपकी. वे कुरसी पर निढाल पड़ी थीं. मैं ने उन के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्या बात है दीदी? ऐसा तो हम ने कुछ खाया नहीं कि आप को नुकसान करे फिर बदहजमी कैसे हो गई आप को?’’

फिर अचानक मेरा माथा ठकना कि कहीं दीदी…मैं ने उन के दोनों कंधे हिलाते हुए कहा, ‘‘दीदी कहीं आप का बौस… सच बताओ दीदी…इसीलिए आप इतनी सुस्त…बताओ न दीदी, मुझ से कुछ मत छिपाइए. मैं किसी को नहीं बताऊंगी. मेरा विश्वास करो.’’

मेरा प्यार भरा स्पर्श पा कर और सांत्वना भरे शब्द सुन कर वे मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रोने लगीं और सकारात्मकता में सिर हिलाने लगीं. मैं सकते में आ गई कि कहीं ऐसी स्थिति न हो गई हो कि अबौर्शन भी न करवाया जा सके. मैं ने कहा, ‘‘दीदी, आप बिलकुल न घबराएं, मैं आप की पूरी मदद करूंगी. बस आप सारी बात मुझे सुना दीजिए…जरूर उस ने आप को धोखा दिया है.’’

दीदी ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘ये बौस नए नए ट्रांसफर हो कर मेरे औफिस में आए थे. आते ही उन्होंने मेरे में रुचि लेनी शुरू कर दी और एक दिन बोले कि उन की पत्नी की मृत्यु 2 साल पहले ही हुई है. घर उन को खाने को दौड़ता है, अकेलेपन से घबरा गए हैं, क्या मैं उन के जीवन के खालीपन को भरना चाहूंगी? मैं ने सोचा शादी तो मुझे करनी ही है, इसलिए मैं ने उन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी. मैं ने उन से कहा कि वे मेरे मम्मी पापा से मिल लें. उन्होंने कहा कि ठीक हूं, वे जल्दी घर आएंगे. मैं बहुत खुश थी कि चलो मेरी शादी को ले कर घर में सब बहुत परेशान हैं, सब उन से मिल कर बहुत खुश होंगे. एक दिन उन्होंने मुझे अपने घर पर आमंत्रित किया कि शादी से पहले मैं उन का घर तो देख लूं, जिस में मुझे भविष्य में रहना है. मैं उन की बातों में आ गई और उन के साथ उन के घर चली गई.

वहां उन के चेहरे से उन का बनावटी मुखौटा उतर गया. उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और धमकी दी कि यदि मैं ने किसी को बताया तो उन के कैमरे में मेरे ऐसे फोटो हैं, जिन्हें देख कर मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी. होश में आने के बाद जब मैं ने पूरे कमरे में नजर दौड़ाई तो मुझे पल भर की भी देर यह समझने में न लगी कि वह शादीशुदा है. उस समय उस की पत्नी कहीं गई होगी. मैं क्या करती, बदनामी के डर से मुंह बंद कर रखा था. मैं लुट गई, अब क्या करूं?’’ कह कर फिर फूटफूट कर रोने लगीं.

तब मैं ने उन को अपने से लिपटाते हुए कहा, ‘‘आप चिंता न करें दीदी. अब देखती हूं वह कैसे आप को ब्लैकमेल करता है. सब से पहले मेरी फ्रैंड डाक्टर के पास जा कर अबौर्शन की बात करते हैं. उस के बाद आप के बौस से निबटेंगे. आप की तो कोई गलती ही नहीं है.

आप डर रही थीं, इसी का फायदा तो वह उठा रहा था. अब आप निश्चिंत हो कर सो जाइए. मैं हूं न. आज मैं आप के कमरे में ही सोती हूं,’’ और फिर मैं ने मन ही मन सोचा कि अच्छा है, पति बाहर गए हैं और सासससुर का कमरा दूर होने के कारण आवाज से उन की नींद नहीं खुली. थोड़ी ही देर में दोनों को गहरी नींद ने आ घेरा.

अगले दिन दोनों ननदभाभी किसी फ्रैंड के घर जाने का बहाना कर के डाक्टर के पास जाने के लिए निकलीं. डाक्टर चैकअप कर बोलीं, ‘‘यदि 1 हफ्ता और निकल जाता तो अबौर्शन करवाना खतरनाक हो जाता. आप सही समय पर आ गई हैं.’’

मैं ने भावातिरेक में अपनी डाक्टर फ्रैंड को गले से लगा लिया.

वे बोलीं, ‘‘सरिता, तुम्हें पता है ऐसे कई केस रोज मेरे पास आते हैं. भोलीभाली लड़कियों को ये दरिंदे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वे बदनामी के डर से सब सहती रहती हैं. लेकिन तुम तो स्कूल के जमाने से ही बड़ी हिम्मत वाली रही हो. याद है वह अमित जिस ने तुम्हें तंग करने की कोशिश की थी. तब तुम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर के उसे स्कूल से निकलवा कर ही दम लिया था.’’

‘‘अरे विनीता, तुझे अभी तक याद है. सच, वे भी क्या दिन थे,’’ और फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

पारुल के चेहरे पर भी आज बहुत दिनों बाद मुसकराहट दिखाई दी थी. अबौर्शन हो गया.

घर आ कर मैं अपनी सास से बोली, ‘‘दीदी को फ्रैंड के घर में चक्कर आ गया था, इसलिए डाक्टर के पास हो कर आई हैं. उन्होंने बताया

है कि खून की कमी है, खाने का ध्यान रखें और 1 हफ्ते की बैडरैस्ट लें. चिंता की कोई बात नहीं है.’’

सास ने दुखी मन से कहा, ‘‘मैं तो कब से कह रही हूं, खाने का ध्यान रखा करो, लेकिन मेरी कोई सुने तब न.’’

1 हफ्ते में ही दीदी भलीचंगी हो गईं. उन्होंने मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘तुम कितनी अच्छी हो भाभी. मुझे मुसीबत से छुटकारा दिला दिया. तुम ने मां से भी बढ़ कर मेरा ध्यान रखा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है…ऐसी भाभी सब को मिले.’’

‘‘अरे दीदी, पिक्चर अभी बाकी है. अभी तो उस दरिंदे से निबटना है.’’

1 हफ्ते बाद हम योजनानुसार बौस की पत्नी से मिलने के लिए गए. उन को उन के पति का सारा कच्चाचिट्ठा बयान किया, तो वे हैरान होते हुए बोलीं, ‘‘इन्होंने यहां भी नाटक शुरू कर दिया…लखनऊ से तो किसी तरह ट्रांसफर करवा कर यहां आए हैं कि शायद शहर बदलने से ये कुछ सुधर जाएं, लेकिन कोई…’’ कहते हुए वे रोआंसी हो गईं.

हम उन की बात सुन कर अवाक रह गए. सोचने लगे कि इस से पहले न जाने

कितनी लड़कियों को उस ने बरबाद किया होगा. उस की पत्नी ने फिर कहना शुरू

किया, ‘‘अब मैं इन्हें माफ नहीं करूंगी. सजा दिलवा कर ही रहूंगी. चलो पुलिस

स्टेशन चलते हैं. इन को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप जैसी पत्नियां हों तो अपराध को बढ़ावा मिले ही नहीं. हमें आप पर गर्व है,’’ और फिर हम दोनों ननदभाभी उस की पत्नी के साथ पुलिस को ले कर बौस के पास उन के औफिस पहुंच गए.

पुलिस को और हम सब को देख कर वह हक्काबक्का रह गया. औफिस के सहकर्मी भी सकते में आ गए. उन में से एक लड़की भी आ कर हमारे साथ खड़ी हो गई. उस ने भी कहा कि उन्होंने उस के साथ भी दुर्व्यवहार किया है. पुलिस ने उन्हें अरैस्ट कर लिया. दीदी भावातिरेक में मेरे गले लग कर सिसकने लगीं. उन के आंसुओं ने सब कुछ कह डाला.

घर आ कर मैं ने सासससुर को कुछ नहीं बताया. पति से भी अबौर्शन वाली बात तो छिपा ली, मगर यह बता दिया कि वह दीदी को बहुत परेशान करता था.

सुनते ही उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और बोले, ‘‘वाह, मुझे तुम पर गर्व है. तुम ने मेरी बहन को किसी के चंगुल में फंसने से बचा लिया. बीवी हो तो ऐसी.,’’

उन की बात सुन कर हम ननदभाभी दोनों एकदूसरे को देख मुसकरा दीं.

Hindi Story: दंश – सोना भाभी क्यों बीमार रहती थी?

Hindi Story: सोना भाभी वैसे तो कविता की भाभी थीं. कविता, जो स्कूल में मेरी सहपाठिनी थी और हमारे घर भी एक ही गली में थे. कविता के साथ मेरा दिनरात का उठनाबैठना ही नहीं उस घर से मेरा पारिवारिक संबंध भी रहा था. शिवेन भैया दोनों परिवारों में हम सब भाईबहनों में बड़े थे. जब सोना भाभी ब्याह कर आईं तो मुझे लगा ही नहीं कि वह मेरी अपनी सगी भाभी नहीं थीं.

सोना भाभी का नाम उषा था. उन का पुकारने का नाम भी सोना नहीं था, न हमारे घर बहू का नाम बदलने की कोई प्रथा ही थी पर चूंकि भाभी का रंग सोने जैसा था अत: हम सभी भाईबहन यों ही उन्हें सोना भाभी बुलाने लगे थे. बस, वह हमारे लिए उषा नहीं सोना भाभी ही बनी रहीं. सुंदर नाकनक्श, बड़ीबड़ी भावपूर्ण आंखें, मधुर गायन और सब से बढ़ कर उन का अपनत्व से भरा व्यवहार था. उन के हाथ का बना भोजन स्वाद से भरा होता था और उसे खिलाने की जो चिंता उन के चेहरे पर झलकती थी उसे देख कर हम उन की ओर बेहद आकृष्ट होते थे.

शिवेन भैया अभी इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे कि उन्हें मातापिता ही नहीं दादादादी के अनुरोध से विवाह बंधन में बंधना पड़ा. पढ़ाई पूरी कर के वह दिल्ली चले गए फिर वहीं रहे. हम लोग भी अपनेअपने विवाह के बाद अलगअलग शहरों में रहने लगे. कभी किसी खास आयोजन पर मिलते तो सोना भाभी का प्यार हमें स्नेह से सराबोर कर देता. उन का स्नेहिक आतिथ्य हमेें भावविभोर कर देता.

आखिरी बार जब सोना भाभी से मिलना हुआ उस समय उन्होंने सलवार सूट पहना हुआ था. वह मेरे सामने आने में झिझकीं. मैं ड्राइंगरूम में बैठने वाली तो थी नहीं, भाग कर दूसरे कमरे में पहुंची तो वह साड़ी पहनने जा रही थीं.

मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘यह क्या भाभी, आज तो आप बड़ी सुंदर लग रही हो, खासकर इस सलवार सूट में.’’

‘‘नहीं,’’ उन्होंने जोर देते हुए कहा.

मैं ने उन्हें शह दी, ‘‘भाभी आप की कमसिन छरहरी काया पर यह सलवार सूट तो खूब फब रहा है.’’

‘‘नहीं, माया, मुझे संकोच लगता है. बस, 2 मिनट में.’’

‘‘पर क्यों? आजकल तो हर किसी ने सलवार सूट अपने पहनावे में शामिल कर लिया है. यहां तक कि उन बूढ़ी औरतों ने भी जिन्होंने पहले कभी सलवार सूट पहनने के बारे में सोचा तक नहीं था… सुविधाजनक होता है न भाभी, फिर रखरखाव में भी साड़ी से आसान है.’’

‘‘यह बात नहीं है, माया. मुझे कमर में दर्द रहता है तो सब ने कहा कि सलवार सूट पहना करूं ताकि उस से कमर अच्छी तरह ढंकी रहेगी तो वह हिस्सा गरम रहेगा.’’

‘‘हां, भाभी, सो तो है,’’ मैं ने हामी भरी पर मन में सोचा कि सब की देखादेखी उन्हें भी शौक हुआ होगा तो कमर दर्द का एक बहाना गढ़ लिया है…

सोना भाभी ने इस हंसीमजाक के  बीच अपनी जादुई उंगलियों से खूब स्वादिष्ठ भोजन बनाया. इस बीच कई बार मोबाइल फोन की घंटी बजी और भाभी मोबाइल से बात करती रहीं. कोई खास बात न थी. हां, शिवेन भैया आ गए थे. उन्होंने हंसीहंसी में कहा कि तुम्हारी भाभी को उठने में देर लगती थी, फोन बजता रहता था और कई बार तो बजतेबजते कट भी जाता था, इसी से इन के लिए मोबाइल लेना पड़ा.

साल भर बाद ही सुना कि सोना भाभी नहीं रहीं. उन्हें कैंसर हो गया था. सोना भाभी के साथ जीवन की कई मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई थीं इसलिए दुख भी बहुत हुआ. लगभग 5 सालों के बाद कविता से मिली तब भी हम दोनों की बातों में सोना भाभी ही केंद्रित थीं. बातों के बीच अचानक मुझे लगा कि कविता कुछ कहतेकहते चुप हो गई थी. मैं ने कविता से पूछ ही लिया, ‘‘कविता, मुझे ऐसा लगता है कि तुम कुछ कहतेकहते चुप हो जाती हो…क्या बात है?’’

‘‘हां, माया, मैं अपने मन की बात तुम्हें बताना चाहती हूं पर कुछ सोच कर झिझकती भी हूं. बात यह है…

‘‘एक दिन सोना भाभी से बातोंबातों में पता लगा कि उन्हें प्राय: रक्तस्राव होता रहता है. भाभी बताने लगीं कि पता नहीं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है. 50 से 5 साल ऊपर की हो रही हूं्…

‘‘भाभी पहले से भी सुंदर, कोमल लग रही थीं. बालों में एक भी रजत तार नहीं था. वह भी बिना किसी डाई के. वह इतनी अच्छी लग रही थीं कि मेरे मुंह से निकल गया, ‘भाभी, आप चिरयौवना हैं न इसीलिए. देखिए, आप का रंग पहले के मुकाबले और भी निखरानिखरा लग रहा है और चेहरा पहले से भी कोमल, सुंदर. आप बेकार में चिंता क्यों कर रही हैं.

‘‘यही कथन, यही सोच मेरे मन में आज भी कांटा सा चुभता रहता है. क्यों नहीं उस समय उन पर जोर दिया था कि आप के साथ जो कुछ हो रहा है वह ठीक नहीं है. आप डाक्टर से परामर्श लें. क्यों झूठा परिहास कर बैठी थी?’’

मुझे भी उन के कमर दर्द की शिकायत याद आई. मैं ने भी तो उन की बातों को गंभीरता से नहीं लिया था. मन में सोच कर मैं खामोश हो गई.

भाभी और भैया दोनों ही अस्पताल जाने से बहुत डरते थे या यों कहें कि कतराते थे. शायद कुछ कटु अनुभव हों. वहां बातबात में लाइन लगा कर खड़े रहना, नर्सो की डांटडपट, बेरहमी से सूई घुसेड़ना, अटेंडेंट की तीखी उपहास करती सी नजर, डाक्टरों का शुष्क व्यवहार आदि से बचना चाहते थे.

भाभी को सब से बढ़ कर डर था कि कैंसर बता दिया तो उस के कष्टदायक उपचार की पीड़ा को झेलना पड़ेगा. उन्हें मीठी गोली में बहुत विश्वास था. वह होम्योपैथिक दवा ले रही थीं.

‘‘माया, बहुत सी महिलाएं अपने दर्द का बखान करने लगती हैं तो उन की बातों की लड़ी टूटने में ही नहीं आती,’’ कविता बोली, ‘‘उन के बयान के आगे तो अपने को हो रहा भीषण दर्द भी बौना लगने लगता है. सोना भाभी को भी मैं ने ऐसा ही समझ लिया. उन से हंसी में कही बात आज भी मेरे मन को सालती है कि कहीं उन्होंने मेरे मुंह से अपनी काया को स्वस्थ कहे जाने को सच ही तो नहीं मान लिया था और गर्भाशय के अपने कैंसर के निदान में देर कर दी हो.

‘‘माया, लगता यही है कि उन्होंने इसीलिए अपने पर ध्यान नहीं दिया और इसे ही सच मान लिया कि रक्तस्राव होते रहना कोई अनहोनी बात नहीं है. सुनते हैं कि हारमोन वगैरह के इंजेक्शन से यौवन लौटाया जा रहा है पर भाभी के साथ ऐसा क्यों हुआ? मैं यहीं पर अपने को अपराधी मानती हूं, यह मैं किसी से बता न सकी पर तुम से बता रही हूं. भाभी मेरी बातों पर आंख मूंद कर विश्वास करती थीं. 3-4 महीने भी नहीं बीते थे जब रोग पूरे शरीर में फैल गया. सोने सी काया स्याह होने लगी. अस्पताल के चक्कर लगने लगे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.’’

मुझे भी याद आने लगा जब मैं अंतिम बार उन से मिली थी. मैं ने भी उन्हें कहां गंभीरता से लिया था.

‘‘माया, तुम कहानियां लिखती हो न,’’ कविता बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि सोना भाभी के कष्ट की, हमारे दुख की, मेरे अपने मन की पीड़ा तुम लिख दो ताकि जो भी महिला कहानी पढ़े, वह अपने पर ध्यान दे और ऐसा कुछ हो तो शीघ्र ही निदान करा ले.’’

कविता बिलख रही थी. मेरी आंखें भी बरस रही थीं. उसे सांत्वना देने वाले शब्द मेरे पास नहीं थे. वह मेरी भी तो बहुत अपनी थी. कविता का अनुरोध नहीं टाल सकी हूं सो उस की व्यथाकथा लिख रही हूं.

Family Story: अहिल्या – रज्जो को अपने चरित्र का क्यों प्रमाण देना पड़ा

Family Story, लेखिका- वंदना सोलंकी

रज्जो गांव की सीधीसादी,अल्हड़ पर बेहद खूबसूरत लड़की थी. उम्र यही कोई 18 या 19 साल रही होगी. 2 साल पहले उस के मांबाप की एक हादसे में मौत हो गई थी. उस के बाद भैयाभाभी ने उस की शादी रमेश से करा दी और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया. तब तक वह 12वीं जमात तक ही पढ़ पाई थी.

रमेश तकरीबन 25 साल का नौजवान था जो फौज में तैनात था. इस समय उस की पोस्टिंग पुणे में थी. शादी के समय रमेश को 15 दिन की छुट्टी मिली थी. तब से वह अब घर आया था और इस बार अपनी नई ब्याहता पत्नी रज्जो को साथ ले जा रहा था.

पति के साथ रेल के एयरकंडीशनर डब्बे में बैठी रज्जो बहुत रोमांचित हो रही थी. वह पहली बार ऐसे ठंडे डब्बे में सफर कर रही थी, वह भी अपने नएनवेले पति के साथ.

खिड़की के पास बैठी रज्जो भविष्य के सपने बुनने में इतनी तल्लीन थी कि उस का पति रमेश कब उस की बगल में आ कर बैठ गया, इस बात का उसे भान ही नहीं रहा.

जब रमेश ने रज्जो को कुहनी मार कर छेड़ा तब वह वर्तमान के धरातल पर आई. उस ने प्यार से पति को मुसकरा कर देखा और उस के कंधे पर अपना सिर टिका दिया.

रमेश की बर्थ रज्जो की बर्थ के ऊपर की थी. सामने की सीट पर एक नौजवान बैठा था, जो अजीब सी नजरों से रज्जो को घूरे जा रहा था. उस की गहरी नीली आंखें मानो रज्जो के शरीर के अंदर तक का मुआयना कर रही थीं.

रज्जो इस बात से असहज महसूस कर रही थी. उस नौजवान की उम्र भी रमेश के बराबर ही रही होगी. रमेश ने उस से अपने साथ सीट बदलने का आग्रह किया, तो उस ने बताया कि यह उस की सीट नहीं है, बल्कि उस की सीट ऊपर की है.

रमेश ने सोचा कि इस सीट पर जो भी आएगा तब वह उस से सीट बदलने की बात कर लेगा.

उन का आपस में परिचय हुआ. वह नौजवान एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उस की पोस्टिंग नवी मुंबई में थी. वह दिल्ली से किसी शादी समारोह से लौट रहा था. अभी उस की छुट्टियां बाकी थीं, तो वह अपनी बहन के पास पुणे जा रहा था.

रमेश उस के साथ बातों में मशगूल था, पर रज्जो को यह अच्छा नहीं लग रहा था. वह पति के साथ ढेर सारी बातें करना चाहती थी, पर यह कबाब में हड्डी बन उस की सारी उम्मीदों पर पानी फेर रहा था.

जब रज्जो से रहा नहीं गया तो वह बोली, “सुनिए, मुझे तो बहुत भूख लगी है… खाना निकालूं?”

रमेश के हां कहते ही रज्जो खाना निकालने लगी, तो सामने वाला नौजवान, जिस का नाम विपिन नाम था, वहां से उठ कर जाने लगा. रमेश ने उसे भी खाने के लिए पूछा तो थोड़ी नानुकर के बाद वह मान गया.

खाना खाने के बाद धन्यवाद कह कर विपिन ऊपर अपनी सीट पर चला गया.

रमेश अब रज्जो के साथ सट कर बैठ गया और धीरेधीरे प्यारभरी बातें करने लगा. रज्जो का शर्म से चेहरा लाल हो रहा था.

डब्बा तकरीबन खाली सा ही था. अमावस की रात थी और बाहर घनघोर अंधकार छाया था. दीनदुनिया से बेखबर पतिपत्नी का जोड़ा अपनी प्यार की दुनिया में खोया था, इस बात से अनजान कि 2 आंखें लगातार उन पर नजरें जमाए हुए थीं.

रमेश ने रज्जो के कान में धीमे से फुसफुसाते हुए कहा कि थोड़ी देर बाद सब के सो जाने पर वह उस की सीट पर आ जाएगा. यह सुन कर रज्जो के दिल की धड़कनें तेज हो गईं और पलकें खुद ही झुक गईं, पर अचानक उसे लगा कि कोई उन्हें घूर रहा है. उस की नजर ऊपर गई तो उस ने देखा कि विपिन उसे अपलक देखे जा रहा था.

तभी विपिन ने रमेश को कौफी के लिए पूछा तो रमेश ने हां में सिर हिला दिया. रज्जो ने पहले तो आनाकानी की, पर रमेश के कहने पर 2-4 घूंट कौफी पी कर डिस्पोजेबल कप सीट के नीचे सरका दिया, फिर बत्ती बुझा कर लेट गई. रमेश और विपिन सामने की सीट पर बैठ कर बातें करते हुए कौफी पीने लगे.

काफी ठंड थी तो रमेश ने बैग से मंकी कैप निकाल कर पहन ली. अगला स्टेशन आने पर एक बुजुर्ग औरत उस डब्बे में आ गईं. उन की सामने वाली बर्थ थी.

सुनहरे भविष्य के सपनों के झूले में झूलती रज्जो को कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया, उसे पता ही नहीं चला.

अचानक नींद में रज्जो को महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे अपनी बांहों में भर लिया हो. कुनमुनाती हुई रज्जो ने जान लिया कि यह रमेश है तो उस ने खिसक कर उस के लिए जगह बना दी. प्यार की खुमारी तो छाई ही थी दोनों पर, लिहाजा बिना किसी तीसरे की परवाह किए वे एकदूजे में समा गए.

थोड़ी देर बाद रमेश ऊपर अपनी सीट पर सोने चला गया. रज्जो तृप्त हो कर फिर गहरी नींद सो गई.

कुछ घंटों बाद फिर रज्जो की नींद में खलल पड़ा. रज्जो ने कहा, “अरे, अभी तो… हद है फिर से…” पर रमेश ने उस का मुंह बंद कर दिया. रज्जो ने आनाकानी की, पर रमेश पर प्यार का रंग छाया था, लिहाजा रज्जो भी लता सी उस के आगोश में सिमट गई.

सुबह होतेहोते उन की मंजिल आ गई थी. जल्दीजल्दी सामान समेट कर वे दोनों उतर गए. विपिन पता नहीं कब उतर गया था.

अपने नए आशियाने में आ कर रज्जो बेहद खुश थी. वह जल्द ही अपनी घरगृहस्थी में रम गई. उस ने रमेश के सामने आगे पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर की तो रमेश मान गया. रज्जो ने एक अस्पताल में नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए दाखिला ले लिया और बड़ी लगन से पढ़ाई करने लगी.

आजकल रमेश अपने काम में बहुत बिजी हो गया था. वह देर रात को थकाहारा आता और सो जाता. कभीकभी रात की ड्यूटी भी रहती थी. इस से उन की शादीशुदा जिंदगी में पहले जैसा प्यार अब कहीं नजर नहीं आता था.

रेल की घटना याद कर के रज्जो को गुदगुदी हो जाती थी. उन पलों को याद कर के उस का रोमरोम खिल जाता था.

एक रात बात करते हुए रज्जो ने रमेश से यों ही पूछ लिया, “ए जी, आजकल आप को क्या हो गया है कि कभी दो घड़ी मेरे पास नहीं बैठते. आप के मुंह से प्यार के दो बोल सुनने को तरस जाती हूं मैं. उस दिन रेल में तो…” कहतेकहते बीते सुखद पलों को याद कर के उस के गोरे गाल लाल हो गए.

“क्या हुआ था रेल में…”

“अरे, उस दिन तो आप के प्यार का रंग ही नहीं उतर रहा था. लाजशर्म सब छोड़ कर एक ही रात में 2 बार..”

“क्याक्या सोचती रहती हो रज्जो तुम भी…” शायद रमेश ने ठीक से रज्जो की बातों पर ध्यान नहीं दिया था. वह बस इतना ही बोला था, “तब नईनई शादी हुई थी यार. इतने दिनों के बाद हम मिले थे. नहीं रहा गया मुझ से.

“वैसे मैडम, मैं ने एक ही बार जगाया था तुम्हें. तुम ने जरूर कोई सपना देखा होगा. हर समय सपनों की दुनिया में जो रहती हो, फिर उसे सच मान लेती हो.”

रज्जो लाज से मुसकरा दी, पर कुछ सोच में पड़ गई. फिर इस खयाल को महज खयाल समझ कर झटक दिया कि शायद वह सपना ही होगा.

आज रज्जो कुछ अनमनी सी थी. तबीयत भी ठीक नहीं लग रही थी. बिस्तर से उठी तो चक्कर आ गया. डाक्टर को दिखाया तो उस ने जांच कर के बताया कि रज्जो पेट से है. रमेश तो खुशी से उछल पड़ा. रज्जो लाज से दोहरी हो गई. साथ ही एक नया सुखद अहसास भी हुआ.

15 दिन बाद अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट में पता चला कि रज्जो जुड़वां बच्चों की मां बनने वाली है. अब तो खुशी दोगुनी जो गई थी. रमेश ने उस की देखभाल के लिए गांव से अपनी बहन कीर्ति को बुला लिया था.

निश्चित समय पर रज्जो ने 2 बेटों को जन्म दिया. घर खुशियों से और बच्चों की किलकारियों से भर गया. इस से ज्यादा पाने की उम्मीद भी नहीं की थी रज्जो ने, पर एक अनजाना सा डर हर पल उसे घेरे रहता था.

बच्चे बड़े होने लगे थे. बच्चों के दादाजी ने नाम रखे रघु और राघव. जुड़वां होने के बावजूद दोनों बच्चे एकदम अलग थे, देखने में भी और आदतों में भी.

रघु थोड़ा शांत, गंभीर स्वभाव का सेहतमंद बालक था, वहीं राघव चंचल, शरारती बच्चा था. वह थोड़ा दुबलापतला सा था और जल्दी बीमार पड़ जाता था. उस की नीली आंखें सब को आकर्षित करती थीं, पर रज्जो को डराती थीं.

इस तरह 3 साल बीत गए. एक बार राघव गंभीर रूप से बीमार पड़ गया. डाक्टर ने बताया कि खून चढ़ाना पड़ेगा. उस का ब्लड ग्रुप बी नैगेटिव निकला. अस्पताल में इस ग्रुप का खून नहीं था, तो मातापिता या दूसरे घर वालों को खून देने के लिए बुलाया गया.

रज्जो और रमेश का ब्लड ग्रुप ए पौजिटिव और बी पौजिटिव था. बाकी परिवार में भी किसी का ब्लड ग्रुप राघव के खून से मेल नहीं खा रहा था.

राघव की हालत बहुत नाजुक थी. रमेश किसी दूसरी जगह से खून लाने चला गया. रज्जो राघव के पास बैठी थी. डाक्टर ने उस ब्लूड ग्रुप के बारे में अस्पताल में भी अनाउंस कर दिया गया था.

तभी एक आदमी तेजतेज कदमों से चलता हुआ आया और उस ने कहा कि उस का ब्लड ग्रुप बच्चे से मेल खाता है. जल्दी से उस का खून ले कर बच्चे को चढ़ाया गया.

यह तो रेल वाला विपिन था, जो अपने किसी जानपहचान वाले मरीज को अस्पताल देखने आया था.

नीली आंखों वाले विपिन को देख कर रज्जो का दिल मानो उछल कर बाहर आने को तैयार हो गया था. वह वहीं बेहोश हो कर गिर पड़ी. इतने दिनों से बच्चे की चिंता में वह खुद बीमार सी हो गई थी.

जब रज्जो को होश आया तब वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी. उस ने चारों ओर नजर घुमाई. रमेश, उस का बेटा रघु और मांजी बिस्तर के पास खड़े थे. रज्जो और राघव की तबीयत देखते हुए रमेश ने अपनी मां को भी गांव से बुला लिया था.

नन्हा रघु रोनी सूरत लिए अपनी मां के पास आने को मचल रहा था. रज्जो ने उसे गोद मे ले कर खूब प्यार किया. उस ने विपिन से मिलने की इच्छा जताई जिस से कि उसे धन्यवाद कह सके, तो नर्स ने बताया कि वह तो जा चुका है, पर अपना विजिटिंग कार्ड छोड़ गया है.

रज्जो की तबीयत दिन ब दिन खराब रहने लगी थी. डाक्टर भी हैरान थे कि क्यों उस का ब्लड प्रैशर लगातार ऊपरनीचे हो रहा था?

कुछ दिनों में राघव की तबीयत ठीक हो गई, तो उसे डिस्चार्ज कर दिया गया. रज्जो भी जिद कर के घर आ गई. थोड़ा ठीक होने के बाद उस ने उसी अस्पताल में नर्स की नौकरी कर ली.

एक दिन रज्जो ने अस्पताल की सीनियर डाक्टर शालिनी से पूछा, “एक बात बताइए डाक्टर, क्या एक ही मां की कोख से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के 2 पिता हो सकते हैं?”

डाक्टर शालिनी ने बताया, “बहुत ही रेयर केस में ऐसा होने की संभावना हो सकती है. जैसे एक ही समय में अनेक मर्दों के साथ किसी औरत ने संबंध बनाए हों या कोई लड़की या फिर औरत सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई हो, तभी यह मुमकिन हो सकता है. पर तुम क्यों पूछ रही हो यह सब?”

रज्जो ने कहा, “मैं ने कहीं पढ़ा था. मुझे ऐसी अनहोनी पर यकीन नहीं हो रहा था, इसलिए आप से पूछा.”

डाक्टर शालिनी ने कहा कि बहुत सी ऐसी अनहोनी और रहस्यमयी बातें होती हैं, जिन का जवाब विज्ञान के पास भी नहीं है.

डाक्टर शालिनी की बात सुन कर रज्जो का चेहरा सफेद पड़ गया, पर उस ने किसी तरह खुद को संभाला और 15 दिन की छुट्टी ले कर घर आ गई. सासू मां भी गांव चली गई थीं. कीर्ति ही बच्चों का खयाल रखती थी.

रज्जो खुद से नजरें नहीं मिला पा रही थी. वह अंदर ही अंदर घुट रही थी. इस से उस की तबीयत बिगड़ने लगी थी.

रमेश रज्जो को अस्पताल ले गया. डाक्टर शालिनी रज्जो की ऐसी हालत देख कर हैरान रह गईं. उन्होंने उस की ऐसी हालत की वजह पूछी तो रमेश ने बताया, “पता नहीं यह क्या सोचती रहती है? न किसी से बात करती है और न किसी से मिलतीजुलती है. अपनेआप को बस घर मे बंद कर के रखती है. इसे बच्चों का भी खयाल नहीं है.”

डाक्टर शालिनी ने चैकअप के बहाने रमेश को बाहर भेज दिया, फिर रज्जो से पूछा, “सचसच बताओ रज्जो, उस दिन तुम ने मुझ से जो सवाल पूछे थे क्या उन का संबंध तुम से है? क्या तुम्हारे साथ कोई घटना घटी है? घबराओ मत. तुम इस समय मेरी मरीज हो. हमारे बीच जो भी बातें होंगी वे राज रहेंगी. अगर तुम नहीं चाहोगी तो मैं तुम्हारे पति को भी नहीं बताऊंगी.”

यह सुन कर रज्जो फफकफफक कर रो पड़ी और रेल में हुई घटना सुनाई. उस ने कहा, “मुझे अभी भी शक ही है. मैं पक्का नहीं कह सकती कि वह सब वाकई मेरे साथ उस रात हुआ भी था या सिर्फ एक वहम है, क्योंकि मैं तब शायद अपने होशोहवास में नहीं थी या फिर इतने समय बाद पति मिलन को उतावली हो रही थी.”

डाक्टर शालिनी ने कहा, “अगर तुम्हें पक्का करना है तो उस आदमी का और अपने बच्चे का डीएनए टैस्ट करवा लो, सारी बात साफ पता चल जाएगी.”

रमेश के पूछने पर डाक्टर शालिनी ने बताया कि 2 बच्चों और घर की जिम्मेदारी से रज्जो की यह हालत हुई है और ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है.

घर आते ही रज्जो अलमारी में वह विजिटिंग कार्ड ढूंढ़ने लगी जो विपिन ने नर्स को दिया था. कार्ड मिलने पर उस ने कांपते हाथों से अपने मोबाइल से उस का नंबर मिलाया.

अगले दिन राघव को दिखाने के बहाने रज्जो अस्पताल पहुंच गई. विपिन पहले से वहां मौजूद था. उस ने अपने बुलाने की वजह पूछी तो डाक्टर ने कहा कि टैस्ट की सभी कार्यवाही पूरी करने के बाद बता दिया जाएगा.

विपिन ने आनाकानी करनी चाही तो डाक्टर शालिनी ने पुलिस बुलाने की धमकी दी और उस से रेल की उस घटना का सच पूछा. इसी बीच पुलिस को बुला लिया गया और उन लोगों की हाजिरी में डीएनए टैस्ट कराया गया.

विपिन ने सब के सामने अपना गुनाह कुबूल किया और कहा कि वह रेल में रज्जो की सुंदरता पर मोहित हो गया था और उसे पाने की चाहत में उस ने कौफी में नशे की दवा मिला कर उन दोनों को पिला दी थी.

रमेश के गहरी नींद में सो जाने के बाद उस ने रमेश की टोपी पहन कर अंधेरी रात में उस घिनौनी वारदात को अंजाम दिया था.

विपिन को पुलिस के हवाले कर दिया गया. एक हफ्ते बाद रिपोर्ट आ गई. विपिन और राघव का डीएनए मैच कर रहा था.

डाक्टर ने रज्जो को रिपोर्ट पढ़ कर बताया, “राघव का पिता विपिन ही है.”

उसी समय अस्पताल आए रमेश ने डाक्टर शालिनी की बात सुन ली और पूरी बात जानने के बाद तो वह अपना आपा खो बैठा. वहीं सब के सामने उस ने रज्जो को खरीखोटी सुनाई. यहां तक कि उस ने रज्जो को चरित्रहीन तक साबित कर दिया.

डाक्टर शालिनी ने उसे समझाने की लाख कोशिश की पर रमेश हिकारत भरी नजरों से रज्जो को देखता हुआ उसे छोड़ कर चला गया.

रज्जो अपने ऊपर लगा इतना बड़ा इलजाम सह न सकी और सदमे से बेहोश हो गई. इस के बाद वह कोमा में चली गई. महीनाभर कोमा में रहने के बाद आखिरकार वह जिंदगी की जंग हार गई.

आज एक और अहिल्या किसी इंद्र के छल से अपमानित हुई. कोई कुसूर न होते हुए भी अपने ही पति द्वारा कुसूरवार ठहरा दी गई और ठुकरा दी गई. आज कोई राम उस के पाषाण हृदय में प्राण न डाल पाया… उस का उद्धार करने नहीं आया… न ही कोई राम उस की निर्जीव देह में प्राण लौटा सका, क्योंकि वह पति था परमेश्वर नहीं.

Family Story: दगाबाज – आयुषा के साथ क्या हुआ

Family Story: सरन अपने बेटे विनय की दुलहन आयुषा का परिचय घर के बुजुर्गों और मेहमानों से करवा रही थीं. बरात को लौटे लगभग 2 घंटे बीत चुके थे. आयुषा सब के पैर छूती, बुजुर्ग उसे आशीर्वाद देते व आशीर्वाद स्वरूप कुछ भेंट देते. आयुषा भेंट लेती और आगे बढ़ जाती.

जीत का परिचय करवाते हुए सरन ने जब आयुषा से कहा, ‘‘ये मोहना के पति और तुम्हारे ननदोई हैं,’’ तो एकाएक उस की निगाह जीत पर उठ गई. जीत से निगाह मिलते ही उस के शरीर में झुरझुरी सी छूट गई. जीत उस का पहला प्यार था, लेकिन अब मोहना का पति. जिंदगी कभी उसे ऐसा खेल भी खिलाएगी, आयुषा सोचती ही रह गई. अंतर्द्वंद्व के भंवर में फंसी वह निश्चय नहीं कर पाई कि जीत के पैर छुए या नहीं? अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयास करते हुए उस ने बड़े संकोच से उस के पैरों की तरफ अपने हाथ बढ़ाए.

जीत भी उसे अपने साले की पत्नी के रूप में देख कर हैरान था. वह भी नहीं चाहता था कि आयुषा उस के पैर छुए. आयुषा के हाथ अपने पैरों की ओर बढ़ते देख कर वह पीछे खिसक गया. खिसकते हुए उस ने आयुषा के समक्ष अपने हाथ जोड़ दिए. प्रत्युत्तर में आयुषा ने भी वही किया. दोनों के बीच उत्पन्न एक अनचाही स्थिति सहज ही टल गई.

जीत को देखते ही आयुषा के मन का चैन लुट गया था. जीवन में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें भुलाने को जी चाहता है. वे पल यदि जीवित रहें तो ताजे घाव सा दर्द देते हैं. ठीक वही दर्द वह इस समय महसूस कर रही थी. सुहागशय्या पर अकेली बैठी वह अतीत में खो गई.

मामा की लड़की रंजना की शादी में पहली बार उस का साक्षात्कार जीत से हुआ था. मामा दिल्ली में रहते हैं. पेशे से वकील हैं. गली सीताराम में पुश्तैनी हवेली के मालिक हैं. तीनमंजिला हवेली की निचली मंजिल में बड़े हौल से सटे 4 कमरे हैं. मुख्य द्वार से सटे एक बड़े कमरे में उन का औफिस चलता है. बाकी कमरे खाली पड़े रहते हैं. बीच की मंजिल में 12 कमरे हैं, जिन में उन का 4 प्राणियों का परिवार रहता है. नानी, वे स्वयं, मामी और रंजना. बेटा प्रमोद भोपाल में सर्विस में है. ऊपरी मंजिल में 6 कमरे हैं, लेकिन सभी खाली हैं.

मैं अपनी मम्मी के साथ शादी अटैंड करने आई थी. पापा 2 दिन बाद आने वाले थे. मेहमानों को रिसीव करने के लिए मामा, मामी और उन के परिवार के कुछ सदस्य ड्योढ़ी पर खड़े थे. हवेली में घुसते हुए अचानक मेरे पैर लड़खड़ा गए थे. इस से पहले कि मैं गिरती, मामी के पास खड़े जीत ने मुझे संभाल लिया था. वह पहला क्षण था जब मेरी निगाहें जीत से टकराई थीं. प्रेम बरसात में उफनती नदियों की तरह पानी बड़े वेग से आता है, उस क्षण भी यही हुआ था. हम दोनों ने उस वेग का एहसास किया था.

उस के बाद शादी के दौरान ऐसा कोई क्षण नहीं आया जब हमारी नजरें एकदूसरे से हटी हों. जीत सा सुंदर और आकर्षक जवान मैं ने इस से पहले कभी नहीं देखा था. मैं मानूं या न मानूं पर सत्य कभी नहीं बदला जा सकता. कोई जब हमारी कल्पना से मिलनेजुलने लगता है, तो हम उसे चाहने लगते हैं. उस की समीपता पाने की कोशिश में लग जाते हैं. उस समय मेरा भी यही हाल था. मैं जीत की समीपता हर कीमत पर पा लेना चाहती थी.

मामा द्वारा रंजना की शादी हवेली से करने का फैसला हमारे लिए फायदेमंद सिद्ध हुआ था. इतनी विशाल हवेली में किसी को पुकार कर बुला लेना या ढूंढ़ पाना दूभर था. रंजना की सगाई वाले दिन सारी गहमागहमी निचली और पहली मंजिल तक ही सीमित थी. जीत ने सीढि़यां चढ़ते हुए जब मुझे आंख के इशारे से अपने पास बुलाया तो न जाने क्यों चाह कर भी मैं अपने कदमों को रोक नहीं पाई थी.

सम्मोहन में बंधी सब की नजरों से बचतीबचाती मैं भी सीढि़यों पर उस के पीछेपीछे चढ़ती चली गई थी. थोड़े समय में ही हम ऊपरी मंजिल की सीढि़यों पर थे. एकाएक उस ने मुझे अपनी बांहों में जकड़ कर अपने तपते होंठों को मेरे होंठों पर रख दिया था. अपने शरीर पर उस के हाथों का दबाव बढ़ते देख कर मैं ने न चाहते हुए भी उस से कहा था, ‘छोड़ो मुझे, कोई ऊपर आ गया तो?’

पर वह कहां सुनने वाला था और मैं भी कहां उस के बंधन से मुक्त होना चाह रही थी. मैं ने अपनी बांहों का दबाव उस के शरीर पर बढ़ा दिया था. न जाने कितनी देर हम दोनों उसी स्थिति में आनंदित होते रहे थे. लौट कर सारी रात मुझे नींद नहीं आई थी. जीत की बांहों का बंधन और तपते होंठों का चुंबन मेरे मनमस्तिष्क से हटाए भी नहीं हटा था.

अगली रात ऊपरी मंजिल का एक कमरा हमारे शारीरिक संगम का गवाह बना था. जीत और मैं एकदूसरे में समाते चले गए थे. दो शरीरों की दूरियां कैसे कम होती जाती हैं, यह मैं ने उसी रात जाना था. कितने सुखमय क्षण थे वे मेरी जवानी के, सिर्फ मैं ही जान सकती हूं. उन क्षणों ने मेरी जिंदगी ही बदल डाली थी.

शादी के बाद हम बिछुड़े जरूर थे पर इंटरनैट हमारे मिलन का एक माध्यम बना रहा था. हम घंटों चैट करते थे. एकदूसरे की समीपता पाने को तरसते रहते थे. हम निश्चय कर चुके थे कि हम शीघ्र ही शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

तभी एक दिन मैं ने पापा को मम्मी से कहते हुए सुना था, ‘आयुषा के लिए मैं ने एक सुयोग्य वर तलाश लिया है. लड़का सफल व्यवसायी है. पिता का अलग व्यापार है. लड़के के पिता का कहना है कि वे अपनी लड़की की शादी पहले करना चाहते हैं. उस की शादी होते ही वे बेटे की शादी कर देंगे. तब तक हमारी आयुषा भी एमए कर चुकी होगी.’

मम्मी तो पापा की बात सुन कर प्रसन्न हुई थीं, पर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. उसी शाम जीत से चैट करते हुए मैं ने उसे साफ शब्दों में कहा था, ‘जीत या तो तुम यहां आ कर पापा से मेरा हाथ मांग लो या फिर मैं पापा को स्थिति स्पष्ट कर के उन्हें तुम्हारे डैडी से मिलने के लिए भेज देती हूं.’

जीत ने कहा था, ‘तुम चिंता मत करो. यह समस्या अब तुम्हारी नहीं बल्कि मेरी है. मैं वादा करता हूं, तुम्हें मुझ से कोई नहीं छीन पाएगा. तुम सिर्फ मेरी हो. मुझे सिर्फ थोड़ा सा समय दो.’ उस ने मुझे आश्वस्त किया था.

उस के बाद जीत ने चैट करना कम कर दिया था. फिर धीरेधीरे मेरे और जीत के बीच दूरियों की खाई इतनी बढ़ती चली गई कि भरी नहीं जा सकी. जीत ने मुझ से अपना संपर्क ही तोड़ लिया. बरबस मुझे पापा की इच्छा के समक्ष झुकना पड़ा था.

सुहागकक्ष का दरवाजा बंद होने की आवाज के साथ मेरी तंद्रा टूट गई. विनय सुहागशय्या पर आ कर बैठ गए, ‘‘परेशान हो,’’ उन्होंने प्रश्न किया.

अपने मन के भावों को छिपाते हुए मैं ने सहज होने की कोशिश की, ‘‘नहीं तो,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘आयुष,’’ मुझे अपनी बांहों में भरते हुए विनय बोले, ‘‘मैं इस पल को समझता हूं. तुम्हें घर वालों की याद आ रही होगी, पर एक बात मेरी भी सच मानो कि मैं तुम्हारी जिंदगी में इतनी खुशियां भर दूंगा कि बीती जिंदगी की हर याद मिट जाएगी.’’

मेरे मन के कोने में हमसफर की एक छवि अंकित थी. विनय का व्यक्तित्व ठीक उस छवि से मिलता था. इसलिए मैं विनय को पा कर धन्य हो गई थी. ऐसे में हर पल मेरा मन यह कहने लगा था कि विनय जैसे सीधेसच्चे इंसान से कुछ भी छिपाना ठीक नहीं होगा. संभव है भविष्य में मेरे और जीत के रिश्तों का पता चलने पर विनय इन्हें किस प्रकार लें? तब पता नहीं हमारी विवाहित जिंदगी का क्या हश्र हो? मैं उस समय कोई भी कुठाराघात नहीं सह पाऊंगी. मुझे आत्मीयों की प्रताड़ना अधिक कष्टकर प्रतीत होती है, पर जबजब मैं ने विनय को सत्य बताने का साहस किया. मेरा अपना मन मुझे ही दगा दे गया. बात जबान पर नहीं आई. दिन बीतते गए. यहां तक कि हम महीने भर का हनीमून ट्रिप कर के यूरोप से लौट भी आए.

हनीमून के दौरान विनय ने मेरी उदासी को कई बार नोटिस किया था. उदासी का कारण भी जानना चाहा, पर मैं द्वंद्व में फंसी विनय को कुछ भी नहीं बता पाई. उसे अपने प्यार में उलझा कर मैं ने हर बार बातों का रुख ही बदल दिया था.

हनीमून से लौटते ही विनय 2 महीने के बिजनैस टूर पर फ्रांस और जरमनी चले गए. सासूमां ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया पर वे नहीं रुके. जीत और मोहना को उन्होंने जरूर रोक लिया.

उन्होंने जीत से कहा, ‘‘मोहना को तो मैं अभी महीनेदोमहीने और आप के पास नहीं भेजूंगी. आयुषा घर में नई है. उस का मन बहलाने के लिए कोई तो उस का हमउम्र चाहिए. वैसे आप भी यहीं से अपना बिजनैस संभाल सकें, तो मुझे ज्यादा खुशी होगी. कम से कम आयुषा को 2 हमउम्र साथी तो मिल जाएंगे.’’

जीत थोड़ी नानुकर के बाद रुक गया. मैं समझ चुकी थी कि उस के रुकने का आशय क्या है? वह मुझे फिर से पाने का प्रयास करना चाहता है. मैं तभी से सतर्क हो गई थी. उस ने पहले कुछ दिन तो मुझ से दूरियां बनाए रखीं. फिर एक दिन जब सासूमां मोहना के साथ उस के लिए कपड़े और आभूषण खरीदने बाजार गईं तो जीत मेरे कमरे में चला आया. वह अतिप्रसन्न था. ठीक उस शिकारी की तरह जिस के हाथों एक बड़ा सा शिकार आ गया हो.

मेरे समीप आते हुए उस ने कहा, ‘‘हाय, आयुषा. व्हाट ए सरप्राइज? वी आर बैक अगेन. अब हम फिर से एक हो सकते हैं. कम औन बेबी,’’ जीत ने कहते हुए अपने हाथ मुझे बांहों में भरने के लिए बढ़ा दिए.

मेरे सामने अब मेरा संसार था. प्यारा सा पति था. उस का परिवार था. जीत के शब्द मुझे पीड़ा देने लगे. उस के दुस्साहस पर मुझे क्रोध आने लगा. न जाने उस ने मुझे क्या समझ लिया था? अपनी बपौती या बिकाऊ स्त्री? मैं उस पर चिंघाड़ पड़ी, ‘‘जीत, यहां से चले जाओ वरना,’’ गुस्से में मेरे शब्द ही टूट गए.

‘‘वरना क्या?’’

‘‘मैं तुम्हारी करतूत का भंडाफोड़ कर दूंगी.’’

‘‘उस से मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, लेकिन तुम कहीं की नहीं रहोगी. आयुषा, तुम्हारा भला अब सिर्फ इसी में है कि मैं जैसा कहूं तुम करती जाओ.’’

‘‘यह कभी नहीं होगा,’’ क्रोध में मैं ने मेज पर रखा हुआ वास उठा लिया.

मेरे क्रोध की पराकाष्ठा का अंदाजा लगाते हुए उस ने मेरे समक्ष कुछ फोटो पटक दिए और बोला, ‘‘ये मेरे और तुम्हारे कुछ फोटो हैं, जो तुम्हारे विवाहित जीवन को नष्ट करने के लिए काफी हैं. यदि अपना विवाह बचाना चाहती हो तो कल शाम 7 बजे होटल सनराइज में चली आना. मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ जीत तेजी से मुझ पर एक विजयी मुसकान उछालते हुए कमरे से बाहर निकल गया.

अब मेरा क्रोध पस्त हो गया था. उस के जाते ही मैं फूटफूट कर रो पड़ी. मुझे अपना विवाहित जीवन तारतार होता हुआ लगा. जीत ने मेरी सारी खुशियां छीन ली थीं. बेशुमार आंसू दे डाले थे. मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं? कैसे जीत से छुटकारा पाऊं? मेरी एक जरा सी नादानी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था, पर मैं ने यह निश्चय अवश्य कर लिया था कि यह मेरी लड़ाई है, मुझे ही लड़नी है. मैं किसी और को बीच में नहीं लाऊंगी. कैसे लड़ूंगी? यही सोचसोच कर सारी रात मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रही थी.

सवेरे उठी तो लग रहा था कि तनाव से दिमाग किसी भी समय फट जाएगा. विपरीत परिस्थितियों में कई बार इंसान विचलित हो जाता है और घबरा कर कुछ उलटासीधा कर बैठता है. मुझे यही डर था कि मैं कहीं कुछ गलत न कर बैठूं. दिन यों ही गुजर गया. शाम के 5 बजते ही जीत घर से निकल गया. जाते हुए मुझे देख कर मुसकरा रहा था. अब तक मैं भी यह निश्चय कर चुकी थी कि आज जीत से मेरी आरपार की लड़ाई होगी. अंजाम चाहे जो भी हो.

मैं जब होटल पहुंची तो जीत बड़ी बेताबी से मेरे आने का इंतजार कर रहा था. मुझे देखते ही वह बड़ी अक्कड़ से बोला, ‘‘हाय डियर, आखिर जीता मैं ही, अगर सीधी तरह मेरी बात मान लेती तो मैं तुम्हें परेशान क्यों करता?’’

‘‘जीत,’’ मैं ने उस की बात अनसुनी करते हुए कहा, ‘‘मैं बड़ी मुश्किल से अपनों की इज्जत दांव पर लगा कर तुम्हारी इच्छा पूरी करने आई हूं. मेरे पास ज्यादा समय नहीं है. आओ और जैसे चाहो मेरे शरीर को नोच डालो. मैं उफ तक नहीं करूंगी,’’ कहते हुए मैं ने अपनी साड़ीब्लाउज उतारना शुरू कर दिया, उस के बाद पेटीकोट भी.

अचानक मेरे इस व्यवहार को देख कर जीत चकित रह गया. उस ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी. विचारों के बवंडर ने संभवत: उसे विवेकशून्य कर दिया. आयुषा से क्या कहे, कुछ नहीं सूझा. घबराते हुए उस ने मुझ से पूछा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है?’’

‘‘जहर की शीशी,’’ मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम्हें तृप्त कर के इसे पी लूंगी. सारा किस्सा एक बार में खत्म हो जाएगा.’’

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘चाहो तो तुम भी इसे पी सकते हो. हमारा प्यार भी अमर हो जाएगा और हम भी.’’

तभी मैं ने देखा उसे अपनी आशाओं पर पानी फिरता हुआ नजर आया था. उस के चेहरे से पसीना चूने लगा था. फिर उस के पैर मुझ से कुछ दूर हुए और दूर होतेहोते कमरे से बाहर हो गए.

सवेरे जब नींद टूटी तो मैं ने देखा कि जीत कहीं बाहर जा रहा था.

सासूमां और मोहना उस के पास दरवाजे पर खड़ी थीं. मुझ पर नजर पड़ते ही मोहना ने मुझे बताया कि आज जीत की एक जरूरी मीटिंग है, उसे 10 बजे की फ्लाइट पकड़नी है. सच क्या था. वह केवल जीत जानता था या मैं. जीत ने जाते समय मुझे देखा तक नहीं, पर मैं उसे जाते हुए देख कर मंदमंद मुसकरा रही थी. मैं अब विनय के प्रति पूरी तरह समर्पित थी.दगाबाज : आयुषा के साथ क्या हुआ

Family Story: नई सुबह – कैसे नीता की जिंदगी बदल गई

Family Story, लेखिका- परिणीता

‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया.

नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

नशे में चूर पारस को एहसास ही नहीं था कि उस ने नीता की गरदन को कस कर दबा रखा है. दर्द से छटपटाती नीता खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. अंतत: उस ने खुद को छुड़ाने के लिए पारस की जांघों के बीच कस कर लात मारी. दर्द से तड़पते हुए पारस एक तरफ लुढ़क गया.

मौका पाते ही नीता पलंग से उतर कर भागी और फिर जोर से चिल्लाते हुए बोली,

‘‘नहीं पैदा करनी तुम्हारे जैसे जानवर से एक और संतान. मेरे लिए मेरी बेटी ही सब कुछ है.’’

पारस जब तक अपनेआप को संभालता नीता ने कमरे से बाहर आ कर दरवाजे की कुंडी लगा दी. हर रात यही दोहराया जाता था, पर आज पहली बार नीता ने कोई प्रतिक्रिया दी. मगर अब उसे डर लग रहा था. न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी 3 साल की नन्ही बिटिया के लिए भी. फिर क्या करे क्या नहीं की मनोस्थिति से उबरते हुए उस ने तुरंत घर छोड़ने का फैसला ले लिया.

उस ने एक ऐसा फैसला लिया जिस का अंजाम वह खुद भी नहीं जानती थी, पर इतना जरूर था कि इस से बुरा तो भविष्य नहीं ही होगा.

नीता ने जल्दीजल्दी अलमारी में छिपा कर रखे रुपए निकाले और फिर नन्ही गुडि़या को शौल से ढक कर घर से बाहर निकल गई. निकलते वक्त उस की आंखों में आंसू आ गए पर उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. वह घर जिस में उस ने 7 साल गुजार दिए थे कभी अपना हो ही नहीं पाया.

जनवरी की कड़ाके की ठंड और सन्नाटे में डूबी सड़क ने उसे ठंड से ज्यादा डर से कंपा दिया पर अब वापस जाने का मतलब था अपनी जान गंवाना, क्योंकि आज की उस की प्रतिक्रिया ने पति के पौरुष को, उस के अहं को चोट पहुंचाई है और इस के लिए वह उसे कभी माफ नहीं करेगा.

यही सोचते हुए नीता ने कदम आगे बढ़ा दिए. पर कहां जाए, कैसे जाए सवाल निरंतर उस के मन में चल रहे थे. नन्ही सी गुडि़या उस के गले से चिपकी हुई ठंड से कांप रही थी. पासपड़ोस के किसी घर में जा कर वह तमाशा नहीं बनाना चाहती थी. औटो या किसी अन्य सवारी की तलाश में वह मुख्य सड़क तक आ चुकी थी, पर कहीं कोई नहीं था.

अचानक उसे किसी का खयाल आया कि शायद इस मुसीबत की घड़ी में वे उस की मदद करें. ‘पर क्या उन्हें उस की याद होगी? कितना समय बीत गया है. कोई संपर्क भी तो नहीं रखा उस ने. जो भी हो एक बार कोशिश कर के देखती हूं,’ उस ने मन ही मन सोचा.

आसपास कोई बूथ न देख नीता थोड़ा आगे बढ़ गई. मोड़ पर ही एक निजी अस्पताल था. शायद वहां से फोन कर सके. सामने लगे साइनबोर्ड को देख कर नीता ने आश्वस्त हो कर तेजी से अपने कदम उस ओर बढ़ा दिए.

‘पर किसी ने फोन नहीं करने दिया या मयंकजी ने फोन नहीं उठाया तो? रात भी तो कितनी हो गई है,’ ये सब सोचते हुए नीता ने अस्पताल में प्रवेश किया. स्वागत कक्ष की कुरसी पर एक नर्स बैठी ऊंघ रही थी.

‘‘माफ कीजिएगा,’’ अपने ठंड से जमे हाथ से उसे धीरे से हिलाते हुए नीता ने कहा.

‘‘कौन है?’’ चौंकते हुए नर्स ने पूछा. फिर नीता को बच्ची के साथ देख उसे लगा कि कोई मरीज है. अत: अपनी व्यावसायिक मुसकान बिखेरते हुए पूछा, ‘‘मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?’’

‘‘जी, मुझे एक जरूरी फोन करना है,’’ नीता ने विनती भरे स्वर में कहा.

पहले तो नर्स ने आनाकानी की पर फिर

उस का मन पसीज गया. अत: उस ने फोन आगे कर दिया.

गुडि़या को वहीं सोफे पर लिटा कर नीता ने मयंकजी का नंबर मिलाया. घंटी बजती रही पर फोन किसी ने नहीं उठाया. नीता का दिल डूबने लगा कि कहीं नंबर बदल तो नहीं गया है… अब कैसे वह बचाएगी खुद को और इस नन्ही सी जान को? उस ने एक बार फिर से नंबर मिलाया. उधर घंटी बजती रही और इधर तरहतरह के संशय नीता के मन में चलते रहे.

निराश हो कर वह रिसीवर रखने ही वाली थी कि दूसरी तरफ से वही जानीपहचानी आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

नीता सोच में पड़ गई कि बोले या नहीं. तभी फिर हैलो की आवाज ने उस की तंद्रा तोड़ी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘मैं… नीता…’’

‘‘तुम ने इतनी रात गए फोन किया और वह भी अनजान नंबर से? सब ठीक तो है? तुम कैसी हो? गुडि़या कैसी है? पारसजी कहां हैं?’’ ढेरों सवाल मयंक ने एक ही सांस में पूछ डाले.

‘‘जी, मैं जीवन ज्योति अस्पताल में हूं. क्या आप अभी यहां आ सकते हैं?’’ नीता ने रुंधे गले से पूछा.

‘‘हां, मैं अभी आ रहा हूं. तुम वहीं इंतजार करो,’’ कह मयंक ने रिसीवर रख दिया.

नीता ने रिसीवर रख कर नर्स से फोन के भुगतान के लिए पूछा, तो नर्स ने मना करते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप आराम से बैठ जाएं, लगता है आप किसी हादसे का शिकार हैं.’’

नर्स की पैनी नजरों को अपनी गरदन पर महसूस कर नीता ने गरदन को आंचल से ढक लिया. नर्स द्वारा कौफी दिए जाने पर नीता चौंक गई.

‘‘पी लीजिए मैडम. बहुत ठंड है,’’ नर्स बोली.

गरम कौफी ने नीता को थोड़ी राहत दी. फिर वह नर्स की सहृदयता पर मुसकरा दी.

इसी बीच मयंक अस्पताल पहुंच गए. आते ही उन्होंने गुडि़या के बारे में पूछा. नीता ने सो रही गुडि़या की तरफ इशारा किया तो मयंक ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया. नर्स ने धीरे से मयंक को बताया कि संभतया किसी ने नीता के साथ दुर्व्यवहार किया है, क्योंकि इन के गले पर नीला निशान पड़ा है.

नर्स को धन्यवाद देते हुए मयंक ने गुडि़या को और कस कर चिपका लिया. बाहर निकलते ही नीता ठंड से कांप उठी. तभी मयंक ने उसे अपनी जैकेट देते हुए कहा, ‘‘पहन लो वरना ठंड लग जाएगी.’’

नीता ने चुपचाप जैकेट पहन ली और उन के पीछे चल पड़ी. कार की पिछली सीट पर गुडि़या को लिटाते हुए मयंक ने नीता को बैठने को कहा. फिर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गए. मयंक के घर पहुंचने तक दोनों खामोश रहे.

कार के रुकते ही नीता ने गुडि़या को निकालना चाहा पर मयंक ने उसे घर की चाबी देते हुए दरवाजा खोलने को कहा और फिर खुद धीरे से गुडि़या को उठा लिया. घर के अंदर आते ही उन्होंने गुडि़या को बिस्तर पर लिटा कर रजाई से ढक दिया. नीता ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप रहने का इशारा कर एक कंबल उठाया और बाहर सोफे पर लेट गए.

दुविधा में खड़ी नीता सोच रही थी कि इतनी ठंड में घर का मालिक बाहर सोफे पर और वह उन के बिस्तर पर… पर इतनी रात गए वह उन से कोई तर्क भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुपचाप गुडि़या के पास लेट गई. लेटते ही उसे एहसास हुआ कि वह बुरी तरह थकी हुई है. आंखें बंद करते ही नींद ने दबोच लिया.

सुबह रसोई में बरतनों की आवाज से नीता की नींद खुल गई. बाहर निकल कर देखा मयंक चायनाश्ते की तैयारी कर रहे थे.

नीता शौल ओढ़ कर रसोई में आई और धीरे से बोली, ‘‘आप तैयार हो जाएं. ये सब मैं कर देती हूं.’’

‘‘मुझे आदत है. तुम थोड़ी देर और सो लो,’’ मयंक ने जवाब दिया.

नीता ने अपनी भर आई आंखों से मयंक की तरफ देखा. इन आंखों के आगे वे पहले भी हार जाते थे और आज भी हार गए. फिर चुपचाप बाहर निकल गए.

मयंक के तैयार होने तक नीता ने चायनाश्ता तैयार कर मेज पर रख दिया. नाश्ता करते हुए मयंक ने धीरे से कहा, ‘‘बरसों बाद तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता कर रहा हूं,’’ और फिर चाय के साथ आंसू भी पी गए.

जातेजाते नीता की तरफ देख बोले, ‘‘मैं लंच औफिस में करता हूं. तुम अपना और गुडि़या का खयाल रखना और थोड़ी देर सो लेना,’’ और फिर औफिस चले गए.

दूर तक नीता की नजरें उन्हें जाते हुए देखती रहीं ठीक वैसे ही जैसे 3 साल पहले देखा करती थीं जब वे पड़ोसी थे. तब कई बार मयंक ने नीता को पारस की क्रूरता से बचाया था. इसी दौरान दोनों के दिल में एकदूसरे के प्रति कोमल भावनाएं पनपी थीं पर नीता को उस की मर्यादा ने और मयंक को उस के प्यार ने कभी इजहार नहीं करने दिया, क्योंकि मयंक नीता की बहुत इज्जत भी करते थे. वे नहीं चाहते थे कि उन के कारण नीता किसी मुसीबत में फंस जाए.

यही सब सोचते, आंखों में भर आए आंसुओं को पोंछ कर नीता ने दरवाजा बंद किया और फिर गुडि़या के पास आ कर लेट गई. पता नहीं कितनी देर सोती रही. गुडि़या के रोने से नींद खुली तो देखा 11 बजे रहे थे. जल्दी से उठ कर उस ने गुडि़या को गरम पानी से नहलाया और फिर दूध गरम कर के दिया. बाद में पूरे घर को व्यवस्थित कर खुद नहाने गई. पहनने को कुछ नहीं मिला तो सकुचाते हुए मयंक की अलमारी से उन का ट्रैक सूट निकाल कर पहन लिया और फिर टीवी चालू कर दिया.

मयंक औफिस तो चले आए थे पर नन्ही गुडि़या और नीता का खयाल उन्हें बारबार आ रहा था. तभी उन्हें ध्यान आया कि उन दोनों के पास तो कपड़े भी नहीं हैं… नई जगह गुडि़या भी तंग कर रही होगी. यही सब सोच कर उन्होंने आधे दिन की छुट्टी ली और फिर बाजार से दोनों के लिए गरम कपड़े, खाने का सामान ले कर वे स्टोर से बाहर निकल ही रहे थे कि एक खूबसूरत गुडि़या ने उन का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, तो उन्होंने उसे भी पैक करवा लिया और फिर घर चल दिए.

दरवाजा खोलते ही नीता चौंक गई. मयंक ने मुसकराते हुए सारा सामान नीचे रख नन्हीं सी गुडि़या को खिलौने वाली गुडि़या दिखाई. गुडि़या खिलौना पा कर खुश हो गई और उसी में रम गई.

मयंक ने नीता को सारा सामान दिखाया. बिना उस से पूछे ट्रैक सूट पहनने के लिए नीता ने माफी मांगी तो मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘एक शर्त पर, जल्दी कुछ खिलाओ. बहुत तेज भूख लगी है.’’

सिर हिलाते हुए नीता रसोई में घुस गई. जल्दी से पुलाव और रायता बनाने लग गई. जितनी देर उस ने खाना बनाया उतनी देर तक मयंक गुडि़या के साथ खेलते रहे. एक प्लेट में पुलाव और रायता ला कर उस ने मयंक को दिया.

खातेखाते मयंक ने एकाएक सवाल किया, ‘‘और कब तक इस तरह जीना चाहती हो?’’

इस सवाल से सकपकाई नीता खामोश बैठी रही. अपने हाथ से नीता के मुंह में पुलाव डालते हुए मयंक ने कहा, ‘‘तुम अकेली नहीं हो. मैं और गुडि़या तुम्हारे साथ हैं. मैं जानता हूं सभी सीमाएं टूट गई होंगी. तभी तुम इतनी रात को इस तरह निकली… पत्नी होने का अर्थ गुलाम होना नहीं है. मैं तुम्हारी स्थिति का फायदा नहीं उठाना चाहता हूं. तुम जहां जाना चाहो मैं तुम्हें वहां सुरक्षित पहुंचा दूंगा पर अब उस नर्क से निकलो.’’

मयंक जानते थे नीता का अपना कहने को कोई नहीं है इस दुनिया में वरना वह कब की इस नर्क से निकल गई होती.

नीता को मयंक की बेइंतहा चाहत का अंदाजा था और वह जानती थी कि मयंक कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे. इसीलिए तो वह इतनी रात गए उन के साथ बेझिझक आ गई थी.

‘‘पारस मुझे इतनी आसानी से नहीं छोड़ेंगे,’’ सिसकते हुए नीता ने कहा और फिर पिछली रात घटी घटना की पूरी जानकारी मयंक को दे दी.

गरदन में पड़े नीले निशान को धीरे से सहलाते हुए मयंक की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘तुम ने इतनी हिम्मत दिखाई है नीता. तुम एक बार फैसला कर लो. मैं हूं तुम्हारे साथ. मैं सब संभाल लूंगा,’’ कहते हुए नीता को अपनी बांहों में ले कर उस नीले निशान को चूम लिया.

हां में सिर हिलाते हुए नीता ने अपनी मौन स्वीकृति दे दी और फिर मयंक के सीने पर सिर टिका दिया.

अगले ही दिन अपने वकील दोस्त की मदद से मयंक ने पारस के खिलाफ केस दायर कर दिया. सजा के डर से पारस ने चुपचाप तलाक की रजामंदी दे दी.

मयंक के सीने पर सिर रख कर रोती नीता का गोरा चेहरा सिंदूरी हो रहा था. आज ही दोनों ने अपने दोस्तों की मदद से रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी कर ली थी. निश्चिंत सी सोती नीता का दमकता चेहरा चूमते हुए मयंक ने धीरे से करवट ली कि नीता की नींद खुल गई. पूछा, ‘‘क्या हुआ? कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘हां. 1 मिनट. अभी आता हूं मैं,’’ बोलते हुए मयंक बाहर निकल गए और फिर कुछ ही देर में वापस आ गए, उन की गोद में गुडि़या थी उनींदी सी. गुडि़या को दोनों के बीच सुलाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बेटी हमारे पास सोएगी कहीं और नहीं.’’

मयंक की बात सुन कर नन्ही गुडि़या नींद में भी मुसकराने लग गई और मयंक के गले में हाथ डाल कर फिर सो गई. बापबेटी को ऐसे सोते देख नीता की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. मुसकराते हुए उस ने भी आंखें बंद कर लीं नई सुबह के स्वागत के लिए.

Hindi Story: आया – कैसी थी अधेड़ उम्र की नौकरानी लक्ष्मी?

Hindi Story: तुषार का तबादला मुंबई हुआ तो रश्मि यह सोच कर खुश हो उठी कि चलो इसी बहाने फिल्मी कलाकारों से मुलाकात हो जाएगी, वैसे कहां मुंबई घूमने जा सकते थे. तुषार ने मुंबई आ कर पहले कंपनी का कार्यभार संभाला फिर बरेली जा कर पत्नी व बेटे को ले आया.

इधरउधर घूमते हुए पूरा महीना निकल गया, धीरेधीरे दंपती को महंगाई व एकाकीपन खलने लगा. उन के आसपास हिंदीभाषी लोग न हो कर महाराष्ट्र के लोग अधिक थे, जिन की बोली अलग तरह की थी.

काफी मशक्कत के बाद उन्हें तीसरे माले पर एक कमरे का फ्लैट मिला था, जिस के आगे के बरामदे में उन्होंने रसोई व बैठने का स्थान बना लिया था.

रश्मि ने सोचा था कि मुंबई में ऐसा घर होगा जहां से उसे समुद्र दिखाई देगा, पर यहां से तो सिर्फ झुग्गीझोंपडि़यां ही दिखाई देती हैं.

तुषार रश्मि को चिढ़ाता, ‘‘मैडम, असली मुंबई तो यही है, मछुआरे व मजदूर झुग्गीझोंपडि़यों में नहीं रहेंगे तो क्या महलों में रहेंगे.’’

जब कभी मछलियों की महक आती तो रश्मि नाक सिकोड़ती. घर की सफाई एवं बरतन धोने के लिए काम वाली बाई रखी तो रश्मि को उस से भी मछली की बदबू आती हुई महसूस हुई. उस ने उसी दिन बाई को काम से हटा दिया. रश्मि के लिए गर्भावस्था की हालत में घर के काम की समस्या पैदा हो गई. नीचे जा कर सागभाजी खरीदना, दूध लाना, 3 वर्ष के गोलू को तैयार कर के स्कूल भेजना, फिर घर के सारे काम कर के तुषार की पसंद का भोजन बनाना अब रश्मि के वश का नहीं था. तुषार भी रात को अकसर देर से लौटता था.

तुषार ने मां को आने के लिए पत्र लिखा, तो मां ने अपनी असमर्थता जताई कि तुम्हारे पिताजी अकसर बीमार रहते हैं, उन की देखभाल कौन करेगा. फिर तुम्हारे एक कमरे के घर में न सोने की जगह है न बैठने की.

तुषार ने अपनी पहचान वालों से एक अच्छी नौकरानी तलाश करने को कहा पर रश्मि को कोई पसंद नहीं आई. तुषार ने अखबार में विज्ञापन दे दिया, फिर कई काम वाली बाइयां आईं और चली गईं.

एक सुबह एक अधेड़ औरत ने आ कर उन का दरवाजा खटखटाया और पूछा कि आप को काम वाली बाई चाहिए?

‘‘हां, हां, कहां है.’’

‘‘मैं ही हूं.’’

तुषार व रश्मि दोनों ही उसे देखते रह गए. हिंदी बोलने वाली वह औरत साधारण  मगर साफसुथरे कपडे़ पहने हुए थी.

‘‘मैं घर के सभी काम कर लेती हूं. सभी प्रकार का खाना बना लेती हूं पर मैं रात में नहीं रुक पाऊंगी.’’

‘‘ठीक है, तुम रात में मत रुकना. तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘लक्ष्मी.’’

‘‘देखो लक्ष्मी, हमारी छोटी सी गृहस्थी है इसलिए अधिक काम नहीं है पर हम साफसफाई का अधिक ध्यान रखते हैं,’’ रश्मि बोली.

‘‘बीबीजी, आप को शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.’’ लक्ष्मी ने प्रतिमाह 3 हजार रुपए वेतन मांगा, पर थोड़ी नानुकुर के बाद वह ढाई हजार रुपए पर तैयार हो गई और उसी दिन से वह काम में जुट गई, पूरे घर की पहले सफाईधुलाई की, फिर कढ़ीचावल बनाए और गोलू की मालिश कर के उसे नहलाया.

तुषार व रश्मि दोनों ही लक्ष्मी के काम से बेहद प्रभावित हो गए. यद्यपि उन्होंने लक्ष्मी से उस का पता तक भी नहीं पूछा था. लक्ष्मी शाम को जब चली गई तो दंपती उस के बारे में देर तक बातें करते रहे.

तुषार व रश्मि आश्वस्त होते चले गए जैसे लक्ष्मी उन की मां हो. वे दोनों उस का सम्मान करने लगे. लक्ष्मी परिवार के सदस्य की भांति रहने लगी.

सुबह आने के साथ ही सब को चाय बना कर देना, गोलू को रिकशे तक छोड़ कर आना, तुषार को 9 बजे तक नाश्ता व लंच बाक्स तैयार कर के देना, रश्मि को फलों का रस निकाल कर देना, यह सब कार्य लक्ष्मी हवा की भांति फुर्ती से करती रहती थी.

लक्ष्मी वाकई कमाल का भोजन बनाना जानती थी. रश्मि ने उस से ढोकला, डोसा बनाना सीखा. भांतिभांति के अचार चटनियां बनानी सीखीं.

‘‘ऐसा लगता है अम्मां, आप ने कुकिंग स्कूल चलाया है?’’ एक दिन मजाक में रश्मि ने पूछा था.

‘‘हां, मैं सिलाईकढ़ाई का भी स्कूल चला चुकी हूं’’

रश्मि मुसकराती मन में सोचती रहती कि उसे तो बढ़चढ़ कर बोलने की आदत है. डिलीवरी के लिए रश्मि को अस्पताल में दाखिल कराया गया तो लक्ष्मी रात को अस्पताल में रहने लगी.

तुषार और अधिक आश्वस्त हो गया. उस ने मां को फोन कर दिया कि तुम पिताजी की देखभाल करो, यहां लक्ष्मी ने सब संभाल लिया है.

रश्मि को बेटी पैदा हुई. तीसरे दिन रश्मि नन्ही सी गुडि़या को ले कर घर लौटी. लक्ष्मी ने उसे नहलाधुला कर बिस्तर पर लिटा दिया और हरीरा बना कर रश्मि को पिलाया.

‘‘लक्ष्मी अम्मां, आप ने मेरी सास की कमी पूरी कर दी,’’ कृतज्ञ हो रश्मि बोली थी.

‘‘तुम मेरी बेटी जैसी हो. मैं तुम्हारा नमक खा रही हूं तो फर्ज निभाना मेरा कर्तव्य है.’’

तुषार ने भी लक्ष्मी की खूब प्रशंसा की. एक शाम तुषार, रश्मि व बच्ची को ले कर डाक्टर को दिखाने गया तो रास्ते में लोकल ट्रेन का एक्सीडेंट हो जाने के कारण दंपती को घर लौटने में रात के 12 बज गए.

घर में ताला लगा देख दोनों अवाक् रह गए. अपने पास रखी दूसरी चाबी से उन्होंने ताला खोला व आसपास नजरें दौड़ा कर लक्ष्मी को तलाश करने लगे.

चिंता की बात यह थी कि लक्ष्मी, गोलू को भी अपने साथ ले गई थी. तुषार व रश्मि के मन में लक्ष्मी के प्रति आक्रोश उमड़ पड़ा था. रश्मि बोली, ‘‘यह लक्ष्मी भी अजीब नौकरानी है, एक रात यहीं रह जाती तो क्या हो जाता, गोलू को क्यों ले गई.’’

बच्चे की चिंता पतिपत्नी को काटने लगी. पता नहीं लक्ष्मी का घर किस प्रकार का होगा, गोलू चैन से सो पाएगा या नहीं.

पूरी रात चिंता में गुजारने के पश्चात जब सुबह होने पर भी लक्ष्मी अपने निर्धारित समय पर नहीं लौटी तो रश्मि रोने लगी, ‘‘नौकरानी मेरे बेटे को चोरी कर के ले गई, पता नहीं मेरा गोलू किस हाल में होगा.’’

तुषार को भी यही लग रहा था कि लक्ष्मी ने जानबूझ कर गोलू का अपहरण कर लिया है. नौकरों का क्या विश्वास, बच्चे को कहीं बेच दें या फिर मोटी रकम की मांग करें.

लक्ष्मी के प्रति शक बढ़ने का कारण यह भी था कि वह प्रतिदिन उस वक्त तक आ जाती थी. रश्मि के रोने की आवाज सुन कर आसपास के लोग जमा हो कर कारण पूछने लगे. फिर सब लोग तुषार को पुलिस को सूचित करने की सलाह देने लगे.

तुषार को भी यही उचित लगा. वह गोलू की तसवीर ले कर पुलिस थाने जा पहुंचा. लक्ष्मी के खिलाफ बेटे के अपहरण की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज करा कर वह लौटा तो पुलिस वाले भी साथ आ गए और रश्मि से पूछताछ करने लगे.

रश्मि रोरो कर लक्ष्मी के प्रति आक्रोश उगले जा रही थी. पुलिस वाले तुषार व रश्मि का ही दोष निकालने लगे कि उन्होंने लक्ष्मी का फोटो क्यों नहीं लिया, बायोडाटा क्यों नहीं बनवाया, न उस के रहने का ठिकाना देखा, जबकि नौकर रखते वक्त यह सावधानियां आवश्यक हुआ करती हैं.

अब इतनी बड़ी मुंबई में एक औरत की खोज, रेत के ढेर में सुई खोजने के समान है. अभी यह सब हो ही रहा था कि अकस्मात लक्ष्मी आ गई, सब भौचक्के से रह गए.

‘‘हमारा गोलू कहां है?’’ तुषार व रश्मि एकसाथ बोले.

लक्ष्मी की रंगत उड़ी हुई थी, जैसे रात भर सो न पाई हो, फिर लोगों की भीड़ व पुलिस वालों को देख कर वह हक्की- बक्की सी रह गई थी.

‘‘बताती क्यों नहीं, कहां है इन का बेटा, तू कहां छोड़ कर आई है उसे?’’ पुलिस वाले लक्ष्मी को डांटने लगे.

‘‘अस्पताल में,’’ लक्ष्मी रोने लगी.

‘‘अस्पताल में…’’ तुषार के मुंह से निकला.

‘‘हां साब, आप का बेटा अस्पताल में है. कल जब आप लोग चले गए थे तो गोलू सीढि़यों पर से गिर पड़ा. मैं उसे तुरंत अस्पताल ले गई, अब वह बिलकुल ठीक है. मैं उसे दूध, बिस्कुट खिला कर आई हूं. पर साब, यहां पुलिस आई है, आप ने पुलिस बुला ली…मेरे ऊपर शक किया… मुझे चोर समझा,’’ लक्ष्मी रोतेरोते आवेश में भर उठी.

‘‘मैं मेहनत कर के खाती हूं, किसी पर बोझ नहीं बनती, आप लोगों से अपनापन पा कर लगा, आप के साथ ही जीवन गुजर जाएगा… मैं गोलू को कितना प्यार करती हूं, क्या आप नहीं जानते, फिर भी आप ने…’’

‘‘लक्ष्मी अम्मां, हमें माफ कर दो, हम ने तुम्हें गलत समझ लिया था,’’ तुषार व रश्मि लक्ष्मी के सामने अपने को छोटा समझ रहे थे.

‘‘साब, अब मैं यहां नहीं रहूंगी, कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़ लूंगी पर जाने से पहले मैं आप को आप के बेटे से मिलाना ठीक समझती हूं, आप सब मेरे साथ अस्पताल चलिए.’’

तुषार, लक्ष्मी, कुछ पड़ोसी व पुलिस वाले लक्ष्मी के साथ अस्पताल पहुंच गए. वहां गोलू को देख दंपती को राहत मिली. गोलू के माथे पर पट्टी बंधी हुई थी और पैर पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

डाक्टर ने बताया कि लक्ष्मी ने अपने कानों की सोने की बालियां बेच कर गोलू के लिए दवाएं खरीदी थीं.

‘‘साब, आप का बेटा आप को मिल गया, अब मैं जा रही हूं.’’

तुषार और रश्मि दोनों लक्ष्मी के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, ‘‘माफ कर दो अम्मां, हमें छोड़ कर मत जाओ.’’

दोनों पतिपत्नी इतनी अच्छी आया को खोना नहीं चाहते थे इसलिए बारबार आग्रह कर के उन्होंने उसे रोक लिया.

लक्ष्मी भी खुश हो उठी कि जब आप लोग मुझे इतना मानसम्मान दे रहे हैं, रुकने का इतना आग्रह कर रहे हैं तो मैं यहीं रुक जाती हूं. ‘‘साब, मेरा मुंबई का घर नहीं देखोगे,’’ एक दिन लक्ष्मी ने आग्रह किया.

तुषार व रश्मि उस के साथ गए. वह एक साधारण वृद्धाश्रम था, जिस के बरामदे में लक्ष्मी का बिस्तर लगा हुआ था. आश्रम वालों ने उन्हें बताया कि लक्ष्मी अपने वेतन का कुछ हिस्सा आश्रम को दान कर देती है और रातों को जागजाग कर वहां रहने वाले लाचार बूढ़ों की सेवा करती है.

अब तुषार व रश्मि के मन में लक्ष्मी के प्रति मानसम्मान और भी बढ़ गया था. लक्ष्मी के जीवन की परतें एकएक कर के खुलती गईं. उस विधवा औरत ने अपने बेटे को पालने के लिए भारी संघर्ष किए मगर बहू ने अपने व्यवहार से उसे आहत कर दिया था, अत: वह अपने बेटे- बहू से अलग इस वृद्धाश्रम में रह रही थी.

‘‘संघर्ष ही तो जीवन है,’’ लक्ष्मी, मुसकरा रही थी.

Family Story: दोस्तियाप्पा – आखिर दादी की डायरी में क्या लिखा था?

Family Story: दादी अकसर दादाजी से कहा करती थीं कि जिंदगी में एक यार तो होना ही चाहिए. सुनते ही दादाजी बिदक जाया करते थे.

‘किसलिए?’ वे चिढ़ कर पूछते.

‘अपने सुखदुख सा?ा करने के लिए,’ दादी का जवाब होता, जिसे सुन कर दादाजी और भी अधिक भड़क जाते.

‘क्यों? घरपरिवार, मातापिता, भाईबहन, पतिसहेलियां काफी नहीं हैं जो यार की कमी खल रही है. भले घरों की औरतें इस तरह की बातें करती कभी देखी नहीं. हुंह, यार होना चाहिए,’ दादाजी देर तक बड़बड़ाते रहते. यह अलग बात थी कि दादी को उस बड़बड़ाहट से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. वे मंदमंद मुसकराती रहती थीं.

मैं अकसर सोचा करती थी कि हमेशा सखीसहेलियों और देवरानीजेठानी से घिरी रहने वाली दादी का ऐसा कौन सा सुखदुख होता होगा जिसे सा?ा करने के लिए उन्हें किसी यार की जरूरत महसूस होती है.

‘‘दादी, आप की तो इतनी सारी सहेलियां हैं, यार क्या इन से अलग होता है?’’ एक दिन मैं ने दादी से पूछा तो दादी अपनी आदत के अनुसार हंस दीं. फिर मु?ो एक कहानी सुनाने लगीं.

‘‘मान ले, तुझे कुछ पैसों की जरूरत है. तू ने अपने बहुत से दोस्तों से मदद मांगी. कुछ ने सुनते ही बहाना बना कर तुझे टाल दिया. ऐसे लोगों को जानपहचान वाला कहते हैं. कुछ ने बहुत सोचा और हिसाब लगा कर देखा कि कहीं उधार की रकम डूब तो नहीं जाएगी. आश्वस्त होने के बाद तु?ो समयसीमा में बांध कर मांगी गई रकम का कुछ हिस्सा दे कर तेरी मदद के लिए जो तैयार हो जाते हैं उन्हें मित्र कहते हैं. और जो दोस्त बिना एक भी सवाल किए चुपचाप तेरे हाथ में रकम धर दे, उसे ही यार कहते हैं. कुछ सम?ां?’’ दादी ने कहा.

‘‘जी समझ यही कि जो दोस्त आप से सवालजवाब न करे, आप को व्यर्थ सलाहमशवरा न दे और हर समय आप के साथ खड़ा रहे वही आप का यार है. है न?’’ मैं ने अपनी समझ से कहा.

‘‘बिलकुल सही. लेकिन तेरे दादाजी को ये तीनों एक ही लगते हैं,’’ कहते हुए दादी की आंखों में उदासी उतर आई. यार न होने की टीस उन्हें सालने लगी.

मैं बचपन से ही अपने दादादादी के साथ रहती हूं, क्योंकि मेरे मम्मीपापा दोनों नौकरी करते हैं. चूंकि दादाजी भी सरकारी सेवा में थे, इसलिए दादी न तो उन्हें अकेला छोड़ सकती थीं और न ही वे चाहती थीं कि उन की पोती आया और नौकरों के हाथों में पले. इसलिए, सब ने मिल कर तय किया कि मैं अपनी दादी के पास ही रहूंगी. बस, इसीलिए मेरा और दादी का दोस्तियाप्पा बना हुआ है.

जब से हमारे सामने वाले घर में सीमा आंटी रहने के लिए आई हैं तब से हमारे घर में भी रौनक बढ़ गई है. सीमा आंटी हैं ही इतनी मस्तमौला. जिधर से निकलती हैं, हंसी के अनार फोड़ती जाती हैं. चूंकि हमारे घर आमनेसामने हैं, इसलिए इन अनारों की रोशनी सब से ज्यादा हमारे घर पर ही होती है.

सीमा आंटी शायद कहीं नौकरी करती हैं. आंटी को गप्पें मारने का बहुत शौक है. औफिस से आने के बाद वे शाम ढलने तक दादीदादाजी के साथ गप्पें मारती रहती हैं. दादी कहीं इधरउधर गई भी हों तो भी उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता. चायकौफी के दौर में डूबी वे दादाजी के साथ ही देर तक गपियाती रहती हैं.

मैं ने कई बार नोटिस किया है कि जब दादाजी अकेले होते हैं तब सीमा आंटी के ठहाकों में गूंज अधिक होती है. उस समय दादाजी के चेहरे पर भी ललाई बढ़ जाती है. पिछले कुछ दिनों से तो तीनों का बाहर आनाजाना भी साथ ही होने लगा है.

जब से सीमा आंटी हमारी जिंदगी का हिस्सा बनी हैं तब से दादाजी दादी के प्रति जरा नरम हो गए हैं. आजकल वे दादी के इस तर्क पर बहस नहीं करते कि जिंदगी में यार होना चाहिए कि नहीं. लेकिन हां, खुल कर इस की वकालत तो वे अब भी नहीं करते.

‘‘आप को नहीं लगता कि सीमा आंटी दादाजी में ज्यादा ही इंटरैस्ट लेने लगी हैं,’’ एक दिन मैं ने दादी को छेड़ा. दादी हंस दीं और बोलीं, ‘‘शायद इसी से उन्हें जिंदगी में यार की अहमियत सम?ा में आ जाए.’’

दादी की सहजता मुझे आश्चर्य में डाल रही थी. ‘‘आप को जलन नहीं होती?’’ मैं ने पूछा.

‘‘किस बात की जलन?’’ अब आश्चर्यचकित होने की बारी दादी की थी.

‘‘अरे, आप उन की पत्नी हो. आप के पति के साथ कोई और समय बिता रहा है. आप को इसी बात की जलन होनी चाहिए और क्या?’’ मैं ने अपनी बात साफ की.

‘‘तो क्या हुआ, यार कहां पति या पत्नी के अधिकारों का अतिक्रमण करता है?’’ दादी ने उसी सहजता से कहा. मैं उन की सरलता पर हंस दी.

आज दादी हमारे बीच नहीं हैं. अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे हम सब को हतप्रभ सा छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल दीं. 15 दिनों बाद मम्मीपापा सामाजिक औपचारिकताएं निभा कर वापस चले गए. वे तो मु?ो और दादाजी को भी अपने साथ ले जाने की जिद कर रहे थे लेकिन दादाजी किसी सूरत में इस घर को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुए. मैं उन की देखभाल करने के लिए उन के पास रुक गई. वैसे भी, मेरी स्नातक की पढ़ाई अभी चल ही रही थी.

एक दोपहर दादी की अलमारी सहेजते समय मु?ो उन के पुराने पर्स के अंदर एक छोटी सी चाबी मिली. सभी ताले टटोल लिए, लेकिन उस चाबी का कोई ताला मु?ो नहीं मिला. बात आईगई हो गई. फिर एक दिन जब मैं ने दादी का पुराना बक्सा खोल कर देखा तो उस में एक छोटी सी कलात्मक मंजूषा मु?ो दिखाई दी. उस पर लगा छोटा सा ताला मु?ो उस छोटी चाबी की याद दिला गया. लगा कर देखा तो ताला खुल गया.

मंजूषा के भीतर मुझे एक पुरानी पीले पड़ते पन्नों वाली छोटी सी डायरी मिली. ताले का रहस्य जानने के लिए मैं दादाजी को बिना बताए उसे छिपा कर अपने साथ ले आई. रात को दादाजी के सोने के बाद मैं ने वह डायरी निकाल कर पढ़ना शुरू किया.

पन्नादरपन्ना दादी खुलती जा रही थीं. डायरी में जगहजगह किसी धरम का जिक्र था. डायरी में लिखी बातों के अनुसार मैं ने सहज अनुमान लगाया कि धरम दादी की प्रेम कहानी का नायक नहीं था, वह उन का यार था. जब भी वे परेशान होतीं तो सिर्फ धरम से बात करती थीं.

मु?ो याद आया कि दादी अकसर छत पर जा कर फोन पर किसी से बात किया करती थीं. दादाजी के आते ही तुरंत नीचे दौड़ आती थीं. जब वे वापस नीचे आती थीं तो एकदम हवा सी हलकी होती थीं. मैं अंदाजा लगा रही हूं कि शायद वे धरम से ही बात करती होंगी.

दादी की डायरी क्या थी, दुखों का दस्तावेज थी. हरदम मुसकराती दादी अपनी हंसी के पीछे कितने दर्द छिपाए थीं, यह मुझे आज पता चल रहा है. पता नहीं क्यों दादाजी एक खलनायक की छवि में ढलते जा रहे हैं.

दादी और दादाजी का विवाह उन के समय के चलन के अनुसार घर के बड़ों का तय किया हुआ रिश्ता था. धरम उन दोनों के उन के बचपन का यार था. हालांकि, दुनियाजहान की बातेंशिकायतें दादी दादाजी से ही करती थीं लेकिन दादाजी का जिक्र या उन के प्रति उपजी नाराजगी को जताने के लिए भी तो कोई अंतरंग साथी होना चाहिए न. भावनाओं के मटके जहां छलकते थे, वह पनघट था धरम. यह बात दादाजी भी जानते थे लेकिन वे कभी भी स्त्रीपुरुष के याराने के समर्थक नहीं थे.

धीरेधीरे प्यार को अधिकार ढकने लगा और धरम दादाजी की आंखों में रेत सा अड़ने लगा. दादाजी को धरम के साथ दादी की निकटता डराने लगी. खोने का डर उन्हें अपराध करने के लिए उकसाने लगा. उन्होंने अपने प्यार का वास्ता दे कर दादी को उन के यार से दूर करने की साजिश की. दादाजी की खुशी और परिवार की सुखशांति बनाए रखने के लिए दादी ने धरम से दूरियां बना लीं. वे अब दादाजी के सामने धरम का जिक्र नहीं करती थीं. दादाजी को लगा कि वे अपने षड्यंत्र में कामयाब हो गए, लेकिन वे दादी को धरम से दूर कहां कर पाए.

डायरी इस बात की गवाह है कि दादी अपने आखिरी समय तक धरम से जुड़ी हुई थीं और मैं इस बात की गवाही पूरे होशोहवास में दे सकती हूं कि दादी की जिंदगी धरम को कलंकरहित यार का दर्जा दिलवाने की आस में ही पूरी हो गई.

आखिरी पन्ना पढ़ कर डायरी बंद करने लगी तो पाया कि मेरा चेहरा आंसुओं से तर था. दादी ने अपनी अंतिम पंक्तियों में लिखा था, ‘‘हमारे समाज में सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि कुछ शब्द भी लैंगिक भेदभाव का दंश ?ोलते हैं. स्त्री और पुरुष के संदर्भ में उन की परिभाषा अलग होती है. उन्हीं अभागे शब्दों में से एक शब्द है ‘यार’. उस का सामान्य अर्थ बहुत जिगरी होने से लगाया जाता है लेकिन जब यही शब्द कोई महिला किसी पुरुष के लिए इस्तेमाल करे तो उस के चरित्र की चादर पर काले धब्बे टांक दिए जाते हैं.’’

पता नहीं दादी द्वारा लिखा गया यही पन्ना आखिरी था या इस के बाद दादी का कभी डायरी लिखने का मन ही नहीं हुआ, क्योंकि दादी ने किसी भी पन्ने पर कोई तारीख अंकित नहीं की थी. लेकिन इतना तो तय था कि दादी के याराने को न्याय नहीं मिला. काश, कोई जिंदगी में यार की अहमियत सम?ा सकता. काश, समाज याराने को स्त्रीपुरुष की सीमाओं से बाहर स्वीकार कर पाता.

दादी के न रहने पर दादाजी एकदम चुप से हो गए थे. कितने दिन तो घर से बाहर ही नहीं निकले. सीमा आंटी के आने पर जरूर उन का अबोला टूटता था. सीमा आंटी भी उन्हें अकेलेपन के खोल से बाहर लाने की पूरी कोशिश कर रही थीं. कोशिश थी, आखिर तो कामयाब होनी ही थी. दादाजी फिर से हंसनेबोलने लगे. रोज शाम सीमा आंटी का इंतजार करने लगे. जब भी कभी परेशान या दादी की याद में उदास होते, सब से पहला फोन सीमा आंटी को ही जाता.

आंटी भी अपने सारे जरूरी काम छोड़ कर उन का फोन अटैंड करतीं. मैं कई बार देखती कि जब दादाजी बोल रहे होते तब आंटी चुपचाप उन्हें सुनतीं. न वे अपनी तरफ से कोई सलाह देतीं और न ही कभी किसी काम में दादाजी की गलती निकाल कर उन्हें कठघरे में खड़ा करतीं. क्या वे दादाजी की यार थीं?

सीमा आंटी दादाजी के लिए उस दीवार जैसी हो गई थीं जिस के सहारे इंसान अपनी पीठ टिका कर बैठ जाता है और मौन आंसू बहा कर अपना दिल भी हलका कर लेता है, यह जानते हुए भी कि यह दीवार उस की किसी भी मुश्किल का हल नहीं है. लेकिन हां, दुखी होने पर रोने के लिए हर समय हाजिर जरूर है.

दादी को गए साल होने को आया.  2 दिनों बाद उन की बरसी है. दादाजी पूरी श्रद्धा के साथ आयोजन में जुटे हैं. सीमा आंटी उन की हरसंभव सहायता कर रही हैं. मेरे मम्मीपापा भी आ चुके हैं. घर में एक उदासी सी छाई है. लग रहा है जैसे दादाजी के भीतर कोई मंथन चल रहा है.

‘‘मिन्नी, आज शाम मेरा एक दोस्त धरम आने वाला है,’’ दादाजी ने कहा. सुनते ही मैं चौंक गई. ‘धरम यानी दादी का यार… तो क्या दादाजी सब जान गए? क्या दादी की डायरी उन के हाथ लग गई?’ मैं ने लपक कर अपनी अलमारी संभाली. दादी की डायरी तो जस की तस रखी थी. धरम अंकल के आने का कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मैं ने टोह लेने के लिए दादाजी को टटोला.

‘‘धरम अंकल कौन हैं, पहले तो कभी नहीं आए हमारे घर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘धरम तेरी दादी का जिगरी था. वह बेचारी इस रिश्ते को मान्यता दिलाने के लिए जिंदगीभर संघर्ष करती रही. लेकिन मैं ने कभी स्वीकार नहीं किया. आज जब अपने मन के पेंच खोलने के लिए किसी चाबी की जरूरत महसूस करता हूं तो उस का दर्द समझ में आता है,’’ दादाजी की आंखों में आंसू थे.

दादी की बरसी पर धरम अंकल आए. पता नहीं दादाजी ने उन से क्या कहा कि दोनों देर तक एकदूसरे से लिपटे रोते रहे. सीमा आंटी भी उन के पास ही खड़ी थीं. थोड़ा सहज हुए दादाजी ने सीमा आंटी की तरफ इशारा करते हुए धरम अंकल से उन का परिचय करवाया. ‘‘यह सीमा है. हमारी पड़ोसिन… मेरी यार.’’ और तीनों मुसकरा उठे.

मैं भी खुश थी. आज दादी के याराने को मान्यता मिल गई थी.

Family Story: पहचान – आखिर वसुंधरा अपनी ननद को क्या देना चाहती थी?

Family Story, लेखिका- शोभा मेहरोत्रा

बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’

आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया. गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’

घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.

अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.

वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं. सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.

छोटी ननद रूपाली का विवाह तय हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि रूपाली की ससुराल उसी शहर में थी जहां उस के बड़े भाई नियुक्त थे. वसुंधरा पुलकित थी कि भाई के घर जाने पर वह ननद से भी मिल लिया करेगी. वैसे भी रूपाली से उसे बड़ा स्नेह था. जब वह ब्याह कर आई थी तो रूपाली ने उसे सगी बहन सा अपनत्व दिया था. परिवार के तौरतरीकों से परिचित कराया और कदमकदम पर साथ दिया.

शादी तय होने की खबर पाते ही वह हर महीने 5 सौ रुपए घरखर्च से अलग निकाल कर रखने लगी. छोटी ननद के विवाह में कम से कम 5 हजार रुपए तो देने ही चाहिए और अधिक हो सका तो वह भी करेगी. वेतनभोगी परिवार किसी एक माह में ही 5 हजार रुपए अलग से व्यय कर नहीं सकता. सो, बड़ी सूझबूझ के साथ वसुंधरा हर महीने 5 सौ रुपए एक डब्बे में निकाल कर रखने लगी.

1-2 महीने तो सुकांत को कुछ पता न चला. फिर जानने पर उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘वसुंधरा,  तुम व्यर्थ ही परेशान हो रही हो. मेरे सभी भाई जानते हैं कि मेरा सीमित वेतन है. अम्मा और बाबूजी के पास भी काफी पैसा है. विवाह अच्छी तरह निबट जाएगा.’’

वसुंधरा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि हमारे 5-10 हजार रुपए देने से ही रूपाली की डोली उठेगी. परंतु मैं उस की भाभी हूं. मुझे भी तो कुछ न कुछ उपहार देना चाहिए.’’

‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कह कर सुकांत तटस्थ हो गए.

वसुंधरा को पति पर क्रोध भी आया कि कैसे लापरवाह हैं. बहन की शादी है और इन्हें कोई फिक्र ही नहीं. इन का क्या? देखना तो सबकुछ मुझे ही है. ये जो उपहार देंगे उस से मेरा भी तो मान बढ़ेगा और अगर उपहार नहीं दिया तो मैं भी अपमानित होऊंगी, वसुंधरा ने मन ही मन विचार किया और अपनी जमापूंजी को गिनगिन कर खुश रहने लगी.

जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ. रूपाली के विवाह के एक माह पहले ही उस के पास 5 हजार रुपए जमा हो गए. उस का मन संतोष से भर उठा. उस ने सहर्ष सुकांत को अपनी बचत राशि दिखाई. दोनों बड़ी देर तक विवाह की योजना की कल्पना में खोए रहे.

विवाह में जाने से पहले बच्चे के कपड़ों का भी प्रबंध करना था. वसुंधरा पति के औफिस जाते ही नन्हे मुकुल के झालरदार झबले सिलने बैठ जाती. इधर कई दिनों से मुकुल दूध पीते ही उलटी कर देता. पहले तो वसुंधरा ने सोचा कि मौसम बदलने से बच्चा परेशान है. परंतु जब 3-4 दिन तक बुखार नहीं उतरा तो वह घबरा कर बच्चे को डाक्टर के पास ले गई. 2 दिन दवा देने पर भी जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर ने खूनपेशाब की जांच कराने को कहा. जांच की रिपोर्ट आते ही सब के होश उड़ गए. बच्चा पीलिया से बुरी तरह पीडि़त था. बच्चे को तुरंत नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा.

15 दिन में बच्चा तो ठीक हो कर घर आ गया परंतु तब तक सालभर में यत्न से बचाए गए 5 हजार रुपए खत्म हो चुके थे. बच्चे के ठीक होने का संतोष एक तरफ था तो दूसरी ओर अगले महीने छोटी ननद के विवाह का आयोजन सामने खड़ा था. वसुंधरा चिंता से पीली पड़ गई. एक दिन तो वह सुकांत के सामने फूटफूट कर रोने लगी. सुकांत ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अपने परिवार को मैं जानता हूं. अब बच्चा बीमार हो गया तो उस का इलाज तो करवाना ही था. पैसे इलाज में खर्च हो गए तो क्या हुआ? आज हमारे पास पैसा नहीं है तो शादी में नहीं देंगे. कल पैसा आने पर दे देंगे.’’

वसुंधरा ने माथा ठोक लिया, ‘‘लेकिन शादी तो फिर नहीं होगी. शादी में तो एक बार ही देना है. किसकिस को बताओगे कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है. 10 साल से शहर में नौकरी कर रहे हो. बहन की शादी के समय पर हाथ झाड़ लोगे तो लोग क्या कहेंगे?’’

बहस का कोई अंत न था. वसुंधरा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह खाली हाथ ननद के विवाह में कैसे शामिल हो. सुकांत अपनी बात पर अड़ा था. आखिर विवाह के 10 दिन पहले सुकांत छुट्टी ले कर परिवार सहित अपने घर आ पहुंचा. पूरे घर में चहलपहल थी. सब ने वसुंधरा का स्वागत किया. 2 दिन बीतते ही जेठानियों ने टटोलना शुरू किया, ‘‘वसुंधरा, तुम रूपाली को क्या दे रही हो?’’

वसुंधरा सहम गई मानो कोई जघन्य अपराध किया हो. बड़ी देर तक कोई बात नहीं सूझी, फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी कुछ तय नहीं किया है.’’

‘पता नहीं सुकांत ने अपने भाइयों को क्या बताया और अम्माजी से क्या कहा,’ वसुंधरा मन ही मन इसी उलझन में फंसी रही. वह दिनभर रसोई में घुसी रहती. सब को दिनभर चायनाश्ता कराते, भोजन परोसते उसे पलभर का भी कोई अवकाश न था. परंतु अधिक व्यस्त रहने पर भी उसे कोई न कोई सुना जाता कि वह कितने रुपए का कौन सा उपहार दे रही है. वसुंधरा लज्जा से गड़ जाती. काश, उस के पास भी पैसे होते तो वह भी सब को अभिमानपूर्वक बताती कि वह क्या उपहार दे रही है.

वसुंधरा को सब से अधिक गुस्सा सुकांत पर आता जो इस घर में कदम रखते ही मानो पराया हो गया. पिछले एक सप्ताह से उस ने वसुंधरा से कोई बात नहीं की थी. वसुंधरा ने बारबार कोशिश भी की कि पति से कुछ समय के लिए एकांत में मिले तो उन्हें फिर समझाए कि कहीं से कुछ रुपए उधार ले कर ही कम से कम एक उपहार तो अवश्य ही दे दें. विवाह में आए 40-50 रिश्तेदारों के भरेपूरे परिवार में वसुंधरा खुद को अत्यंत अकेली और असहाय महसूस करती. क्या सभी रिश्ते पैसों के तराजू पर ही तोले जाते हैं. भाईभाभी का स्नेह, सौहार्द का कोई मूल्य नहीं. जब से वसुंधरा ने इस घर में कदम रखा है, कामकाज में कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है. बीमारी से उठे बच्चे पर भी ध्यान नहीं देती. बच्चे को गोद में बैठा कर दुलारनेखिलाने पर भी उसे अपराधबोध होता. वह अपनी सेवा में पैसों की भरपाई कर लेना चाहती थी.

वसुंधरा मन ही मन सोचती, ‘अम्माजी मेरा पक्ष लेंगी. जेठानियों के रोबदाब के समक्ष मेरी ढाल बन जाएंगी. रिश्तेदारों का क्या है. विवाह में आए हैं, विदा होते ही चले जाएंगे. उन की बात का क्या बुरा मानना. शादीविवाह में हंसीमजाक, एकदूसरे की खिंचाई तो होती ही है. घरवालों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग रहे, यही जरूरी है.’

परंतु अम्माजी के हावभाव से किसी पक्षधरता का आभास न होता. एक नितांत तटस्थ भाव सभी के चेहरे पर दिखाई देता. इतना ही नहीं, किसी ने व्यग्र हो कर बच्चे की बीमारी के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. वसुंधरा ने ही 1-2 बार बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार बच्चे को अस्पताल में भरती कराया, कितना व्यय हुआ? पर हर बार उस की बात बीच में ही कट गई और साड़ी, फौल, ब्लाउज की डिजाइन में सब उलझ गए. वसुंधरा क्षुब्ध हो गई. उसे लगने लगा जैसे वह किसी और के घर विवाह में आई है, जहां किसी को उस के निजी सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उस की विवशता से किसी को सरोकार नहीं है.

वसुंधरा को कुछ न दे पाने का मलाल दिनरात खाए जाता. जेठानियों के लाए उपहार और उन की कीमतों का वर्णन हृदय में फांस की तरह चुभता, पर वह किस से कहती अपने मन की व्यथा. दिनरात काम में जुटी रहने पर भी खुशी का एक भी बोल नहीं सुनाई पड़ता जो उस के घायल मन पर मरहम लगा पाता.

शारीरिक श्रम, भावनात्मक सौहार्द दोनों मिल कर भी धन की कमी की भरपाई में सहायक न हुए. भावशून्य सी वह काम में लगी रहती, पर दिल वेदना से तारतार होता रहता. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ.

सभी ने बढ़चढ़ कर इस अंतिम आयोजन में हिस्सा लिया. विदा के समय वसुंधरा ने सब की नजर बचा कर गले में पड़ा हार उतारा और गले लिपट कर बिलखबिलख कर रोती रूपाली के गले में पहना दिया.

रूपाली ससुराल में जा कर सब को बताएगी कि छोटी भाभी ने यह हार दिया है, हार 10 हजार रुपए से भला क्या कम होगा. पिताजी ने वसुंधरा की पसंद से ही यह हार खरीदा था. हार जाने से वसुंधरा को दुख तो अवश्य हुआ, पर अब उस के मन में अपराधबोध नहीं था. यद्यपि हार देने का बखान उस ने सास या जेठानी से नहीं किया, पर अब उस के मन पर कोई बोझ नहीं था. रूपाली मायके आने पर सब को स्वयं ही बताएगी. तब सभी उस का गुणगान करेंगे. वसुंधरा के मुख पर छाए चिंता के बादल छंट गए और संतोष का उजाला दमकने लगा.

रूपाली की विदाई के बाद से ही सब रिश्तेदार अपनेअपने घर लौटने लगे थे. 2 दिन रुक कर सुकांत भी वसुंधरा को ले कर इलाहाबाद लौट आए. कई बार वसुंधरा ने सुकांत को हार देने की बात बतानी चाही, पर हर बार वह यह सोच कर खामोश हो जाती कि उपहार दे कर ढिंढोरा पीटने से क्या लाभ? जब अपनी मरजी से दिया है, अपनी चीज दी है तो उस का बखान कर के पति को क्यों लज्जित करना. परंतु स्त्रीसुलभ स्वभाव के अनुसार वसुंधरा चाहती थी कि कम से कम पति तो उस की उदारता जाने. एक त्योहार पर वसुंधरा ने गहने पहने, पर उस का गला सूना रहा. सुकांत ने उस की सजधज की प्रशंसा तो की, पर सूने गले की ओर उस की नजर न गई.

वसुंधरा मन ही मन छटपटाती. एक बार भी पति पूछे कि हार क्यों नहीं पहना तो वह झट बता दे कि उस ने पति का मान किस प्रकार रखा. लेकिन सुकांत ने कभी हार का जिक्र नहीं छेड़ा.

एक शाम सुकांत अपने मित्र  विनोद के साथ बैठे चाय पी रहे  थे. विनोद उन के औफिस में ही लेखा विभाग में थे. विनोद ने कहा, ‘‘अगले महीने तुम्हारे जीपीएफ के लोन की अंतिम किस्त कट जाएगी.’’

सुकांत ने लंबी सांस ली, ‘‘हां, भाई, 5 साल हो गए. पूरे 15 हजार रुपए लिए थे.’’ संयोग से बगल के कमरे में सफाई करती वसुंधरा ने पूरी बात सुन ली. वह असमंजस में थी. सोचा कि सुकांत ने जीपीएफ से तो कभी लोन नहीं लिया. लोन लिया होता तो मुझ को अवश्य पता होता. फिर 15 हजार रुपए कम नहीं होते. सुकांत में तो कोई गलत आदतें भी नहीं हैं, न वह जुआ खेलता है न शराब पीता है. फिर 15 हजार रुपए का क्या किया. अचानक वसुंधरा को याद आया कि 5 साल पहले ही तो रूपाली की शादी हुई थी.

वसुंधरा अपनी विवशता पर फूटफूट कर रोने लगी. काश, सुकांत ने उसे बताया होता. उस पर थोड़ा विश्वास किया होता. तब वह ननद की शादी में चोरों की तरह मुंह छिपाए न फिरती. हार जाने का गम उसे नहीं था. हार का क्या है, अपने लौकर में पड़ा रहे या ननद के पास, आखिर उस से रहा नहीं गया. उस ने सुकांत से पूछा तो उस ने बड़े निरीह स्वर में कहा, ‘‘मैं ने सोचा, मैं बताऊंगा तो तुम झगड़ा करोगी,’’ फिर जब वसुंधरा ने हार देने की बात बताई तो सुकांत सकते में आ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मुझे क्या पता था तुम अपना भी गहना दे डालोगी. मैं तो समझता था तुम बहन के विवाह में 15 हजार रुपए देने पर नाराज हो जाओगी,’’ वसुंधरा के मौन पर लज्जित सुकांत ने फिर कहा, ‘‘वसुंधरा, मैं तुम्हें जानता तो वर्षों से हूं किंतु पहचान आज सका हूं.’’

वसुंधरा को अपने ऊपर फक्र हो रहा था, पति की नजरों में वह ऊपर जो उठ गई थी.

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