स्टेशन की वह रात : भाग 2

शायद 12-15 दिन हो गए हैं. पहली ट्रेन छोड़ने के बाद मैं भटकती रही और फिर देर शाम सड़क से गुजरते ट्रक वालों ने मुझे आगे छोड़ने की पेशकश की. ‘‘कोई रास्ता न देख वह ट्रक में चढ़ गई. फिर चलते ट्रक में मेरे साथ वह सब हुआ, बारबार हुआ, जिस का टीवी न्यूज वाले ढिंढोरा पीटते रहते हैं. जब एक बार ट्रक वालों का मन भर जाता तो मुझे सड़क किनारे फेंक देते. कुछ देर बाद दूसरे उठा लेते. ‘‘मुझे खुद भी याद नहीं कि अब तक कितनों ने मेरे साथ हैवानियत की है. अब मुझे सड़क से डर लगता है. रेलवे स्टेशन पर भीड़ रहती है, कोई मुझे उठा कर नहीं ले जा सकता है, इसलिए अब मैं स्टेशन पर हूं. ‘‘रास्ते में किसी औरत ने बताया था कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊं, वहां धार्मिक मेले में बड़े दानी लोग आए हुए हैं. मेरा भला होगा. किसी से पूछ कर बिना टिकट मैं कुरुक्षेत्र से गुजरने वाली ट्रेन में चढ़ गई, स्टेशन चूक गया सो कुरुक्षेत्र के बजाय अंबाला पहुंच गई.

हालत खराब होने की वजह से तब से मैं इसी बड़े स्टेशन पर पड़ी हूं.’’ रश्मि के चुप होने पर हैरानी से सबकुछ सुन रहे तेजा ने दिमाग को झकझोरा. सख्त दिखने वाले तेजा ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें पटना जाने वाली ट्रेन का टिकट खरीद कर दूंगा, साथ में खाना खाने लायक पैसे भी दूंगा. तुम अपने घर लौट जाओ.’’ लेकिन रश्मि तैयार नहीं हुई. उस ने कहा, ‘‘अब घर और समाज में कोई मुझे नहीं अपनाएगा.’’ तेजा अब रश्मि पर हक से बोलने लगा, ‘‘बेशक, लोग तुम पर ताने मारें, पर तुम अपने बच्चों के लिए घर लौट जाओ. उन मासूमों का इस दुनिया में कोई पराया ध्यान नहीं रखेगा और तुम्हारा पति तो पहले ही नशेड़ी है.’’ रश्मि ने कहा, ‘‘मैं ऐसी गलती कर चुकी हूं, जहां से कभी वापसी नहीं हो सकती है.’’ तेजा ने रश्मि से कहा, ‘‘तुम पहले कुछ खा लो, फिर डाक्टर से दवा ले लो, ताकि तुम्हारे शरीर में कुछ जान आ सके.’’ तेजा की बात सुन कर अब तक मन की बात बताने वाली रश्मि का चेहरा और अंदाज बदल गया. उस ने धीमी आवाज में अपना फैसला साफ कर देने वाली बात कही,

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‘‘मैं रेलवे स्टेशन के बाहर नहीं जाऊंगी, चाहे तुम पैसे दो या मत दो.’’ यह बात कहने का अंदाज देख कर तेजा समझ गया कि इस औरत का भरोसा सब से उठ चुका है, जो दरिंदगी इस के साथ की गई है, उस ने दिल में डर बैठा दिया है, इसलिए वह अब उस पर भी भरोसा नहीं करेगी. तेजा ने कहा, ‘‘अगर तुम कुछ दिन और स्टेशन पर पड़ी रही तो शायद मर जाओगी.’’ लेकिन रश्मि पर इस का भी खास असर नहीं हुआ. उस ने मुरदा से हो चुके चेहरे को और ढीला छोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं बेशक मर जाऊं, लेकिन स्टेशन से बाहर नहीं जाऊंगी. न ही वापस अपने घर जाऊंगी.’’ तेजा ने मन में सोचा कि वह बुरी तरह फंस गया है, इस हालत में इसे छोड़ कर गया तो यह फिर गलत लोगों के हाथ पड़ जाएगी या फिर कुछ दिनों बाद मरने की हालत में पहुंच जाएगी. लेकिन साथ ही उसे यह एहसास भी हुआ कि वह खुद कौन सा चीफ मिनिस्टर है, जो अचानक से इस औरत की जिंदगी को वाकई जिंदा कर देगा? अंदर एक कोने में यह डर भी था कि कहीं उसे आधी रात को बेवकूफ तो नहीं बनाया जा रहा है? बैठेबैठे एक दौर बीत चुका था. तेजा की ट्रेन का वक्त नजदीक आ रहा था. खड़ूस तेजा का दिमाग कन्फ्यूज हो कर तेजी से घूम रहा था. मन में यह भी आ रहा था कि अगर औरत सच बोल रही है तो बरबादी की जिम्मेदार वह खुद ही है. इस तरह घर छोड़ कर भागेगी तो ऐसा ही अंजाम होगा. लेकिन उसे वह वक्त भी याद आया जब झगड़ कर तेजा खुद घर छोड़ कर दिल्ली के एक आश्रम में चला गया था. घर से संन्यासी बनने की ठान कर निकला था, लेकिन 4-5 दिन बाद सुबह 3 बजे चुपचाप आश्रम छोड़ कर वापस घर का रास्ता पकड़ लिया. घर लौटने पर मातापिता और पड़ोसियों ने उस की गरदन नहीं पकड़ी, बल्कि राहत की सांस ली थी. तेजा के मन में आया कि क्या दुनिया है कि घर से भागा एक लड़का वापस आ जाए तो सब को चैन, लेकिन एक औरत के लिए वही सब करना पाप… तेजा की नजर बारबार घड़ी पर जा रही थी.

लग रहा था, वक्त ने रफ्तार बढ़ा ली है. उस की टे्रन के आने की घोषणा हो चुकी थी. लेकिन रश्मि का सच और उस की जिद जान कर तेजा उस के लिए कुछ भी कर पाने की हालत में नहीं था. बिना सोचे तेजा के मुंह से अचानक शब्द निकले, ‘‘मुझे अब जाना होगा रश्मि. ट्रेन आ रही है.’’ तेजा ने जेब से पर्स निकाला. उसे ध्यान नहीं कितने नोट निकले, लेकिन रश्मि को थमा दिए और बैंच से खड़ा हो गया. ‘‘अपना ध्यान रखना,’’ बोल कर तेजा आगे बढ़ने लगा. तेजा को जाते देख रश्मि के चेहरे पर फिर से कुछ बड़ा खो देने के भाव थे. कई दिन से पत्थर बनी उस की आंखें नम हो गईं. पुल पर पलट कर तेजा ने अंधेरे कोने में नजरें दौड़ाईं. ऐसा लग रहा था मानो बैंच के साथ रश्मि की मूर्ति हमेशा से वहीं चिपकी हुई है. तेजा के पैर आगे बढ़ते जा रहे थे. रेलवे स्टेशन की तमाम चिल्लपौं से दूर उस का दिमाग खोया हुआ था, उसे भी नहीं मालूम कहां. एक सन्नाटा पसरा हुआ था. पीछे से धक्का मारते हुए एक आदमी ने कहा, ‘‘नहीं चढ़ना है तो रास्ते से हट जाओ.’’ तेजा जागा और देखा कि उस की ट्रेन सामने है, वह अनजाने में चलते हुए ठीक अपनी बोगी के सामने पहुंच गया है, लेकिन ऊपर चढ़ने के बजाय गेट के बाहर पैर जम गए हैं, इसलिए पीछे से बाकी मुसाफिर उस पर गुस्से में चिल्ला रहे हैं. तेजा हड़बड़ाहट में तेजी से अंदर चढ़ गया. चंद पलों में सीटी बजी और बिजली से चलने वाली ट्रेन के पहियों ने फर्राटा भर दिया. इस से पहले कि ट्रेन पूरी रफ्तार पकड़ पाती, तेजा ने बैग के साथ गेट से छलांग लगा दी. कालेज जाते वक्त रोजाना सरकारी बस के सफर का तजरबा था, इसलिए इंजन की दिशा में दौड़ता रहा वरना स्टेशन पर खड़े लोग तेजा के गिरने के डर में आंखें तकरीबन बंद कर चुके थे.

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स्टेशन की वह रात : भाग 3

कम से कम 30-40 मीटर दौड़ते रहने पर तेजा के लड़खड़ाते पैर संतुलन में आ पाए. तेज सांसें छोड़ता हुआ तेजा रुका और चमकती आंखों के साथ वापस मुड़ा. तेजा को अंदाजा था कि पठानकोट में जाट रैजीमैंट के कैंप पहुंच कर मामा से मदद मिलने की गुंजाइश कम है. मामी और उन के घर वालों का असर फौजी मामा को लाचार बना चुका था, इसलिए वहां जाने में वक्त बरबाद कर नाउम्मीद होने से बेहतर है कि रश्मि और उस के बच्चों को मिलाया जाए. मांबच्चों का मिलन हो जाएगा तो बाकी सब भाड़ में जाएं. तेजा ने फोन निकाल कर दिल्ली के न्यूज चैनल में काम करने वाले दोस्त गौरव को मिला दिया. मालूम था, रात के 2 बजे हैं, गौरव के फोन रिसीव करने के चांस कम हैं, लेकिन फोन को स्पीकर पर लगा कर वह टिकट काउंटर की तरफ बढ़ चला. कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन तेजा को कोई परवाह नहीं. रीडायल बटन दबा दिया. घंटी बज रही थी. देर रात होने की वजह से काउंटर खाली था. अंदर टिकट बाबू और एक मैडमजी बातों में मस्त थे. तेजा ने कहा, ‘‘पटना के लिए टे्रन कब मिलेगी?’’ बातचीत के मधुर सफर में खोए टिकट बाबू को यह सवाल घोर बेइज्जती लगा. पहले नजरों से नफरत के बाण चलाए, फिर जबान खोली, ‘‘एक घंटे बाद सुपरफास्ट ट्रेन है. जम्मू से आ रही है, सीधी हावड़ा जाएगी. बीच में दिल्लीपटना जैसे बड़े स्टेशनों पर रुकती है. सीट भी दिलवा दूंगा. अंदर मस्तमस्त बिस्तर मिलेगा, साथ में गरमागरम खाना. लेकिन टिकट खरीदने के लिए औकात चाहिए, अब बोल खरीदेगा टिकट?

‘‘वैसे, सुबह 8 बजे दिल्ली तक पैसेंजर ट्रेन है. वहां से पटना के लिए मिल जाएगी, चल भाग अभी. ये बिहार वाले शांति से चार बात भी नहीं करने देते हैं. हां, तो सपना… मैं क्या कह रहा था?’’ ‘अरे भैया, रात को 2 बजे भी सोने नहीं देते हो, 5-7 दिन की छुट्टी मिलती हैं. समझा करो यार,’ नींद में ऊंघ रहे गौरव ने फोन पर जवाब दिया. ‘‘गौरव, तुम फोन पर बने रहो,’’ तेजा ने स्पीकर बंद कर मुसकराते हुए टिकट बाबू से कहा, ‘‘2 टिकट दे दीजिए,’’ और उस ने डैबिट कार्ड आगे बढ़ा दिया. टिकट बाबू ने तेजा की सूरत को घूरते हुए कार्ड ले लिया. बुनियादी जानकारी पूछी और बटन दबा दिया. 2 टिकट निकाल कर तेजा को थमा दी. टिकट और डैबिट कार्ड ले कर तेजा तेज कदमों से रश्मि की तरफ चल पड़ा. तेजा ने चलते हुए एक सांस में रश्मि की पूरी कहानी फोन पर गौरव को बता दी. गौरव पटना का ही रहने वाला था. दोनों जोधपुर के मिलिटरी स्कूल में एकसाथ पढ़ते थे, क्योंकि दोनों के पिता फौज में वहीं तैनात थे. हालांकि गौरव तेजा से कई क्लास सीनियर था, लेकिन दोनों की खूब जमती थी.

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फोन पर गौरव ने कहा, ‘तेजा इतने दिनों बाद फोन किया वह भी रात के 2 बजे. और यह किस के लिए पागल हुआ जा रहा है. अरे भाई, ऐसे कितने ही लोग रोज बरबाद होते हैं. कितनों को घर पहुंचाएगा तू.’ तेजा ने मजबूत आवाज में कहा, ‘‘गौरव भाई, मैं उसे ले कर पटना आ रहा हूं. समझो, अब मसला पर्सनल है. कुछ देर में तुम्हें उस के घर का अतापता सब मैसेज कर रहा हूं. मुझे इस औरत को उस के बच्चों से मिलाना है. इतना ही नहीं, उस का घर भी बसना चाहिए. तुम अपने विधायक भाई को बोलो या थानेदार को. बस, यह होना चाहिए.’’ गौरव समझ गया कि तेजा के दिमाग में धुन चढ़ गई है. अब यह कुछ नहीं मानेगा या समझेगा. उस ने तेजा को कहा, ‘मैं कल ही दिल्ली से छुट्टी ले कर पटना आया था. तू मुझे उस औरत की जानकारी मैसेज कर. मैं लल्लन भैया से बात करता हूं. अब तू ने कहा है तो निबटाते हैं मसला यार.’ लल्लन भैया 2 दफा विधायक रह चुके थे. गौरव उन की रिश्तेदारी में था. रश्मि अंधेरे की तरफ मुंह किए उसी बैंच पर पत्थर बनी बैठी थी. तेजा ने पहुंच कर कहा, ‘‘तुम्हें स्टेशन से बाहर नहीं जाना है. ट्रेन में मेरे साथ सफर करना है. मैं तुम्हें ले कर पटना जाऊंगा. अगर तुम्हारे बच्चों से मिला कर तुम्हारा संसार नहीं बसा सका, तो जो तुम्हें करना है उस के बाद भी कर सकती हो. चलो उठो, प्लेटफार्म बदलना है.’’ तेजा की इस अंदाज में वापसी देख कर रश्मि सकपका गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. तेजा की बातें सुन कर वह कल्पना करने की कोशिश कर रही थी कि क्या उस की जिंदगी फिर से खिल सकती है? ‘‘मेरा पति और लोग मुझे जीने नहीं देंगे बाबू,’’ रश्मि ने तेजा से कहा. ‘‘वह सब मुझ पर छोड़ दो,’’ तेजा ने जवाब दिया. जब ट्रेन आई और दोनों उस में चढ़े तो अजीब नजारा था. अंदर के मुसाफिर रश्मि को घूर कर देख रहे थे और रश्मि आलीशान ट्रेन के अंदर हर चीज को घूर रही थी. तेजा उस का हाथ पकड़ कर सीट तक ले गया. प्लेटफार्म पर खरीदा गया खानेपीने का सामान उसे थमा दिया और कहा, ‘‘अब कुछ खा लो.’’ थोड़ी देर में ट्रेन ने सीटी बजा दी और दौड़ चली. पूरे सफर में तेजा और गौरव की फोन पर बातचीत चलती रही. रश्मि इस दौरान लेटेलेटे कभी अचेत सी हो कर सो जाती, तो कभी शीशे की खिड़की के पार नजरें गड़ाए देखती रहती. पटना स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो रश्मि का भाई, मां उस के 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ खड़े थे.

उन के साथ गौरव और लल्लन भैया के 2 आदमी भी थे. ट्रेन से उतर कर रश्मि को समझ नहीं आ रहा था, वह बच्ची बन कर अपनी मां से लिपट कर रोए या रोते हुए ‘मम्मीमम्मी’ बोल कर उस की तरफ आ रहे बच्चों को छाती से चिपका ले. तेजा के सामने वक्त ठहर गया था. उस के मन में सुकून और प्यार की बयार बह रही थी. गौरव तेजा को देखे जा रहा था. लल्लन भैया के दोनों लोग पूरे नजारे पर नजरें गड़ाए हुए थे. बूढ़ी मां, रश्मि, दोनों बच्चे एकदूसरे में खो गए. दूर देहात से आए रश्मि के बड़े भाई को भी खुद पर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी. जब रश्मि ने पति के बरताव और घर के हालात के बारे में भाई को बताया था तब उस ने जरूरी कदम नहीं उठाया. उसी का नतीजा छोटी बहन और 2 छोटेछोटे मासूम बच्चों को भुगतना पड़ा. लेकिन अब बड़े भाई ने मन मजबूत कर लिया था. गौरव ने तेजा को बताया कि लल्लन भैया ने रश्मि के आदमी को उठवा लिया है. अब वह नशा मुक्ति केंद्र में बंद है. नशे की हालत में उस का बरताव देख लल्लन भैया भी गरम हो गए थे. 2 थप्पड़ जड़ दिए उसे और बोले कि ऐसे आदमी के पास कोई कैसे रह सकता है? लल्लन भैया ने अपने चमचों से कह दिया था कि रश्मि के ससुराल और मायके वालों से पूरा सच पता करें. सच यही निकला कि रश्मि गलत औरत नहीं थी, लेकिन पति बिगड़ैल निकला. कामचोर, नशेड़ी और दूसरों की सीख मानने वाला. उस हालत में रश्मि को 2 ही रास्ते सूझे, एक तो गले में फंदा लगा ले या फिर घर से भाग जाए.

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लेकिन अब बच्चों के चेहरे देख कर उस के अंदर की ताकत जाग गई थी. उस ने मन ही मन फैसला किया, अब बच्चों के लिए जिएगी. आदमी सही रास्ते पर आया तो ठीक है, वरना बच्चों को खुद पालेगी. बड़े भैया ने बीच में आ कर रश्मि से कहा कि फिलहाल वह मायके में चले. वह और मां उन का ध्यान रखेंगे. गौरव ने कहा, ‘‘रश्मि की सेहत ठीक होने पर उसे लल्लन भैया के दोस्त के स्कूल में नौकरी लगवा देंगे. वह वहां अपने बच्चों को भी पढ़ा सकती है. उस के बिगड़ैल पति को सुधारने की जिम्मेदारी अब लल्लन भैया ने ले ली है. जब वह इनसान बन जाएगा, तब उसे सब बता दिया जाएगा.’’ स्टेशन के बाहर रश्मि का सामान एक जीप में लदा था. यह जीप लल्लन भैया की थी. रश्मि के भाई ने हाथ जोड़ कर तेजा को शुक्रिया कहा. बच्चों के साथ रश्मि और उस के भाई और मां जीप में बैठ गए. दोनों लोग भी गाड़ी में लद लिए. चमचों को और्डर था कि रश्मि को उस के गांव तक सहीसलामत छोड़ कर आएं. जीप तेज धुआं छोड़ते हुए आगे बढ़ चली. गौरव ने तेजा को झकझोरते हुए कहा, ‘‘चलो भैया, अब तो हम मिल कर पटना दर्शन करते हैं.’’

स्टेशन की वह रात

स्टेशन की वह रात : भाग 1

इसलिए उस ने पुल से चलते हुए आखिरी प्लेटफार्म की तरफ कदम बढ़ाए. सीढि़यों से उतर कर आखिरी प्लेटफार्म की भी वह बैंच पकड़ी, जिस के बाद नशेडि़यों, चोरउच्चकों का इलाका शुरू हो रहा था. थोड़ाबहुत जोखिम लेना तेजा के लिए आम बात थी. कुछ दूरी पर ही मैलीकुचैली चादरों में भिखारी सो रहे थे.

चाय की दुकान पर एकाध खरीदार पहुंच रहे थे. रेलवे जंक्शन के कोने में मौजूद दुकान पर चाय खरीद रहे लोगों की हालत भी टी स्टौल की तरह उजड़ी हुई थी. तेजा जिस मंजिल के लिए निकला था, उसे पाना नामुमकिन था, लेकिन सपनों का पीछा करना उस की लत बन चुकी थी. इस वजह से दिमाग में कभी चैन नहीं रहा था. अचानक ही पीछे से आई हलकी आवाज ने तेजा को चौंका दिया, ‘‘भैयाजी, 2 दिन से कुछ खाया नहीं है.’’ कहने को तो तेजा तेज आवाज से भी डरने वालों में से नहीं था, लेकिन इतनी रात में आखिरी प्लेटफार्म का कोना पकड़ते वक्त उसे नशेडि़यों की नौटंकी का अंदाजा था. सो, अचानक पीछे से आ कर बैंच पर बैठ जाने वाली 30-35 साल की एक औरत की धीमी आवाज ने भी उसे सकते में डाल दिया था. पहनी हुई साड़ी और शक्लसूरत से वह औरत कहीं से भी रईस नहीं लग रही थी, लेकिन भिखारी भी दिखाई नहीं देती थी. हालांकि यह जरूर लगता था कि वह घर से निकल कर सीधी यहां नहीं आई है. उस का कई दिन भटकने जैसा हुलिया बना हुआ था. हालात भांप कर तेजा ने चौकस आवाज में कहा कि वह पैसे नहीं देगा. हां, अपने पैसे से दुकान वाले को बोल कर चायबिसकुट जरूर दिला सकता है. लेकिन औरत का अंदाज चायबिसकुट पाने तक सिमट जाने वाला नहीं था.

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औरत ने दुखियारी बन कर कहा, ‘‘मैं बहुत ही मुश्किल में हूं, कुछ पैसे दे दो.’’ तेजा का दिमाग चकरा गया, क्योंकि यह औरत उस टाइप की भी नहीं लग रही थी, जो अंधेरी रातों में नौजवानों को इशारे कर बुलाती हैं. न ही कपड़े और सूरत उस के भिखारी होने पर मोहर लगा रहे थे. तेजा ने चेहरा थोड़ा नरम करने की कोशिश करते हुए पूछा, ‘‘यहां स्टेशन के अंधेरे कोने में क्या कर रही हो?’’ उस औरत ने धीमी आवाज में और दर्द लाते हुए कहा, ‘‘बस, थोड़े पैसे दे दीजिए.’’ तेजा ने नजरें घुमा कर चारों तरफ देखा. उस की नजरें यह तसल्ली कर लेना चाहती थीं कि कम रोशनी वाले स्टेशन के कोने में एक औरत के साथ बैठने पर दूसरों की नजरें उसे किसी अलग नजरिए से तो नहीं देख रही हैं? लेकिन तेजा को यह जान कर तसल्ली हुई कि स्टेशन जैसे कुछ देर पहले था, ठीक अब भी वैसा ही है. नए हालात देख कर कालेज के फाइनल ईयर का स्टूडैंट तेजा रोमांच से भर उठा. यह रोमांच इस उम्र के लड़कों में खास हालात बनने पर खुद ही पैदा हो जाता है. तेजा भी दूसरे ग्रह का प्राणी नहीं था. सो, उसे भी यह एहसास हुआ. अब जब आसपास के हालात बैंच के माहौल में खलल डालने वाले नहीं थे, तो तेजा का खोजी दिमाग सवाल उछालने लगा. उस ने कहा, ‘‘मैं पैसे तो दे दूंगा, लेकिन पहले यह बताओ कि तुम इस हालत में यहां क्या कर रही हो?’’ पैसे मिलने की बात सुन कर उस औरत ने बताया कि वह बिहार के पटना की रहने वाली है.

मेरा मर्द बहुत बुरा आदमी था. घर खर्च के लिए वह पैसे नहीं देता था. वह दारू पीता था. बच्चे खानेखिलौनों के लिए हमेशा मां को ही कहते थे, लेकिन पति के गलत बरताव और नशेड़ी होने की वजह से वह घुट रही थी. एक दिन जेठानी से उस का झगड़ा हो गया. जब पति घर आया तो उस ने बाल धोने के लिए शैंपू खरीदने के पैसे मांग लिए. पहले से ही जेठानी के सिखाए नशेड़ी पति ने उस की बेरहमी से पिटाई कर दी. यह पिटाई नई नहीं थी, लेकिन लंबे अरसे से उस के मन में जो बगावती ज्वालामुखी दबा बैठा था, उस रात फट पड़ा. पति को जवाब देना तो उस के बूते से बाहर था, लेकिन घर में सबकुछ छोड़ फिल्मी हीरोइन की तरह सीधे स्टेशन पहुंच गई. आंसू पोंछने का दौर चलने के बाद दिल को पत्थर बना लिया और आखिर में अनजान ट्रेन में कदम रख ही दिया और आज यहां है. मच्छरों का काटना, मुसाफिरों की शक्की नजर का डर, सबकुछ तेजा के दिमाग से भाग चुका था और उस औरत की बातें सुन कर उस का घनचक्कर दिमाग और ज्यादा घूम गया.

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तेजा ने पूछा, ‘‘शैंपू की खातिर पति ने पीट क्या दिया, तुम अपने छोटेछोटे बच्चोें को छोड़ कर घर से भाग आई? कितने दिन पहले घर छोड़ा था? क्या तुम ट्रेन से सीधे अंबाला स्टेशन पर उतरी हो? तुम्हारा नाम क्या है?’’ तेजा के 4 सवालों की बौछार का सामना करने के बाद अपने लंबे बालों को हलके से खुजलाते हुए उस औरत ने खुद का नाम रश्मि बता कर कहा, ‘‘सही से याद नहीं.

Serial Story : सजा

Serial Story : सजा – भाग 3

लेखक : विजया वासुदेवा  

असगर ने तरन्नुम का हाथ दबाया, ‘‘मेरे दोस्त अपने घर में मुझे मेहमान रखने की इजाजत नहीं देंगे.’’

‘‘पर मैं तो मेहमान नहीं, आप की बीवी हूं,’’ तरन्नुम ने मरियल आवाज में दोहराया.

‘‘उन की पहली शर्त ही कुंआरे को रखने की थी और ऐसी जल्दी भी क्या थी. मैं ने लिखा था कि घर मिलते ही बुला लूंगा,’’ असगर का दबा गुस्सा बाहर आया.

‘‘हमारी शादी को 8 महीने हो गए. तब से अभी तक अगर अपना घर नहीं मिला तो क्या किराए का भी नहीं मिल सकता था,’’ तरन्नुम ने खीज कर पूछा. उसे दिल ही दिल में बहुत बुरा लग रहा था कि शादी के चंद महीने बाद ही वह खास औरताना अंदाज में मियांबीवी वाला झगड़ा कर रही थी.

‘‘ठीक है,’’ असगर ने कहा, ‘‘अब तुम दिल्ली आ ही गई हो तो घरों की खोज भी कर लो. तुम्हें खुद ही पता लग जाएगा कि घर ढूंढ़ना कितना आसान है,’’ होटल में आ कर भी तरन्नुम महसूस कर रही थी कहीं कुछ है जो असगर को सामान्य नहीं होने दे रहा.

अगले दिन असगर जब दफ्तर चला गया तब तरन्नुम ने अपनी सहेली रीता अरोड़ा को फोन किया और अपनी घर न मिलने की मुश्किल बताई. रीता ने कहा कि वह शाम को अपने परिचितों, मित्रों से बातचीत कर के कुछ इंतजाम करेगी.

दूसरे दिन रीता अपनी कार ले कर तरन्नुम को लेने आई. रास्ते से उन्होंने एक दलाल को साथ लिया जो विभिन्न स्थानों में उन्हें मकान दिखाता रहा. शाम होने को आई लेकिन अभी तक जैसा घर तरन्नुम चाहती थी वैसा एक भी नहीं मिला. कहीं घर ठीक नहीं लगा तो कहीं पड़ोस तरीके का नहीं. अगर दोनों ठीक मिल गए तो आसपास का माहौल बेतुका. दलाल को छोड़ते हुए रीता ने घर के बारे में पूरी तरह अपनी इच्छा समझाई.

दलाल ने कहा 2-3 दिन के अंदर ही ऐसे कुछ घर खाली होने वाले हैं तब वह खुद ही उन्हें फोन कर के सही घर दिखाएगा.

असगर तरन्नुम से पहले ही होटल आ गया था. थकी, बदहवास तरन्नुम को देख कर उसे बहुत अफसोस हुआ. फोन पर चाय का आदेश दे कर बोला, ‘‘कहां मारीमारी फिर रही हो? यह काम तुम्हारे बस का नहीं है.’’

‘‘वाह, जब शादी की है तो घर भी बसा कर दिखा देंगे. आप हमारे लिए घर नहीं खोज सके तो क्या. हम ही आप को घर ढूंढ़ कर रहने को बुला लेंगे,’’ तरन्नुम खुशी से छलकती हुई बोली.

‘‘चलो, यही सही,’’ असगर ने कहा, ‘‘चायवाय पी कर नहा कर ताजा हो लो फिर घर पर फोन कर देना. अभी अब्बू परेशान हो रहे होंगे. उस के बाद नाटक देखने चलेंगे. और हां, साड़ी की जगह सूट पहनना. तुम पर बहुत फबता है.’’

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असगर की इस बात पर तरन्नुम इठलाई, ‘‘अच्छा मियांजी.’’

रात देर से लौटे, दिन भर की थकान थी, इतना तो तरन्नुम कभी नहीं घूमी थी. पर अब रात को भी उसे नींद नहीं आ रही थी. कल देखे जाने वाले घरों के बारे में वह तरहतरह के सपने संजो रही थी. उस का अपना घर, उस का अपना खोजा घर.

नाश्ते के बाद असगर दफ्तर चला गया. तरन्नुम रीता के इंतजार में तैयार हो कर बैठी उपन्यास पढ़ रही थी. उस का मन सुबह से ही किसी भी चीज में नहीं लग रहा था. होटल भला घर हो सकता है कभी? उसे लग रहा था जैसे वह मुसाफिरखाने में अपने सामान के साथ बैठी अपनी मंजिल का इंतजार कर रही है और गाड़ी घंटों नहीं, हफ्तों की देर से आने का सिर्फ ऐलान ही कर रही है और हर पल उस की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है.

अचानक फोन की घंटी से जैसे वह गहरी सोच से जाग उठी. रीता ने होटल की लौबी से फोन किया था. रीता की आवाज खुशी से खनक रही थी. तरन्नुम ने झटपट पर्स उठाया और लौबी में आ गई. रीता ने बाहर आतेआते कहा, ‘‘आज ही सुबह बिन्नी दी का फोन आया था. उन के पड़ोस में कोई मुसलिम परिवार है, उन्हीं की कोठी का ऊपरी हिस्सा खाली हुआ था. उस घर की मालकिन बिन्नी दी की खास सहेली हैं. उन्हीं की गारंटी पर तुम्हें घर देने के लिए तैयार हैं. जितना किराया तुम दे सकोगी उन्हें मंजूर होगा.’’

रीता और तरन्नुम पंचशील पार्क की उस कोठी में गए. तरन्नुम को गेट खोलते ही बहुत अच्छा लगा. घर के बाहर छोटा सा लेकिन बहुत खूबसूरत लौन, इस भरी गरमी में भी हराभरा नजर आ रहा था.

घंटी की आवाज सुनते ही हमउम्र जुड़वां 3 साल के नन्हे बच्चे, एक पमेरियन कुत्ता और नौकर चारों ही दरवाजे पर लपके. जाली के दरवाजे के अंदर से ही नौकर बोला, ‘‘आप कौन, कहां से तशरीफ ला रही हैं?’’

रीता ने कहा, ‘‘जा कर मालकिन से बोलो, बिन्नी दी ने भेजा है.’’

नौकर ने दरवाजा पूरा खोलते हुए कहा, ‘‘आइए, वे तो सुबह से आप का ही इंतजार कर रही हैं.’’

बैठक कक्ष सजाने वाले की नफासत की दाद दे रहा था जैसे हर चीज अपनी सही जगह पर थी. यहां तक कि खरगोश की तरह सफेद कुरतेपाजामे में उछलकूद मचाते बच्चे भी जैसे इस कमरे की सजावट का हिस्सा हों. उन्हें बैठे 5 मिनट ही बीते होंगे कि कमरे का परदा सरका, आने वाली को देख कर रीता झट से उठी, ‘‘हाय निकहत आपा, कितनी प्यारी दिख रही हैं आप इस फालसाई रंग में.’’

निकहत हंस दी, ‘‘आज ज्यादा ही सुंदर दिख रही हूं. गरज की मारी आ गई वरना तो बिन्नी के पास आ कर गुपचुप से चली जाती है, कभी भूले से भी यहां तशरीफ नहीं लाई.’’

‘‘क्यों बिन्नी के साथ ईद पर नहीं आई थी,’’ रीता ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘पर अभी तो ईद भी नहीं और नया साल भी नहीं. खैर इनायत है, गरज से ही सही, आई तो,’’ निकहत ने कहा, ‘‘और सुनाओ, कैसा चल रहा है तुम्हारा कामकाज.’’

‘‘वहां से आजकल छुट्टी ले रखी है. इन से मिलिए, ये हैं मेरी सहेली तरन्नुम, रामपुर से आई हैं. इन के शौहर यहां पर हैं. अपना मकान है लेकिन किराएदार खाली नहीं कर रहे हैं. शादी को 8-10 महीने होने को आए लेकिन अब तक मियां का साथ नहीं हो पाया. किराए पर ढंग का घर मिल नहीं रहा और होटल में रहते 5-7 दिन हो गए. बिन्नी दी से बात की तो उन्होंने आप के घर का ऊपरी हिस्सा खाली होने की बात कही. सुनते ही मैं तुरंत इन्हें खींचती आप के पास ले आई.’’

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‘‘रामपुर में किस के घर से हैं आप?’’ निकहत ने पूछा.

‘‘वहां बहुत बड़ी जमींदारी है मेरे अब्बू की. क्या आप भी वहीं से हैं?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो कभी वहां गई नहीं. पिछले साल मेरे शौहर गए थे अपने दोस्त की शादी में. मैं ने सोचा शायद आप उन्हें जानती होंगी.’’

‘‘किस के यहां गए थे? रामपुर में हमारे खानदानी घर ही ज्यादातर हैं.’’

‘‘अब नाम तो मुझे याद नहीं होगा, क्या लेंगी आप…चाय या ठंडा? वैसे अब थोड़ी देर में ही खाना लग रहा है. आप को हमारे साथ आज खाना जरूर खाना होगा. हमारे साहब तो दौरे पर गए हैं. बच्चों के साथ 5-6 दिन से खिचड़ी, दलिया खातेखाते मुंह का स्वाद ही खराब हो गया.

Serial Story : सजा – भाग 2

लेखक : विजया वासुदेवा    

शहनाज खाला ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी आंखों से लगाया, ‘‘बेटा, तुम तो मेरे लिए फरिश्ते की तरह आए हो, जिस ने मेरी बच्ची की जिंदगी बहारों से भर दी,’’ खुशी से गमकते वह और खालू घर के अंदर खबर देने चले गए.

उन के जाने के बाद शकील कमरे में आते हुए बोला, ‘‘तो हुजूर ने मुझे शह देने के लिए सब हथकंडे आजमाए.’’

असगर ने कहा, ‘‘तू डर मत, मैं जीत का दावा कार मांग कर नहीं कर रहा हूं.’’

‘‘तू न भी मांगे,’’ शकील ने कहा, ‘‘तो भी मैं कार दूंगा. हम मुगल अपनी जबान पर जान भी दे सकने का दावा करते हैं, कार की तो बात ही क्या.’’

‘‘मजाक छोड़ शकील,’’ असगर ने कहा, ‘‘कल उसे पता लगेगा तब…’’

‘‘अब कुछ असर होने वाला नहीं है,’’ शकील ने कहा, ‘‘अपनेआप शादी के बाद हालात से सुलह करना सीख जाएगी. अपने यहां हर लड़की को ऐसा ही करने की नसीहत दी जाती है.’’

‘‘पर तू कह रहा था शकील कि वह आम लड़कियों जैसी नहीं है, बड़ी तेजतर्रार है.’’

‘‘वह तो शादी से पहले 50 फीसदी लड़कियां खास होने का दावा करती हैं पर असलीयत में वे भी आम ही होती हैं. है न, जब तक तरन्नुम को शादी में दिलचस्पी नहीं थी, मुहब्बत में यकीन नहीं था, वह खास लगती थी. पर तुम्हें चाह कर उस ने जता दिया है कि उस के खयाल भी आम औरतों की तरह घर, खाविंद, बच्चों पर ही खत्म होते हैं. मैं तो उस के ख्वाबों को पूरा करने में उस की मदद कर रहा हूं,’’ शकील ने तफसील से बताते हुए कहा.

और यों दोस्त की शादी में शरीक होने वाला असगर अपनी शादी कर बैठा. तरन्नुम को दिल्ली ले जाने की बात से शकील कन्नी काट रहा था. अपना मकान किराए पर दिया है, किसी के घर में पेइंगगेस्ट की तरह रहता हूं. वे शादीशुदा को नहीं रखेंगे. इंतजाम कर के जल्दी ही बुला लेने का वादा कर के असगर दिल्ली वापस चला आया.

तरन्नुम ने जब घर का पता मांगा तो असगर बोला, ‘‘घर तो अब बदलना ही है. दफ्तर के पते पर चिट्ठी लिखना,’’ और वादे और तसल्लियों की डोर थमा कर असगर दिल्ली चला आया.

7-8 महीने खतों के सहारे ही बीत गए. घर मिलने की बात अब खटाई में पड़ गई. किराएदार घर खाली नहीं कर रहा था इसलिए मुकदमा दायर किया है. असगर की इस बात से तरन्नुम बुझ गई, मुकदमों का क्या है, अब्बा भी कहते हैं वे तो सालोंसाल ही खिंच जाते हैं, फिर क्या जिन के अपने घर नहीं होते वह भी तो कहीं रहते ही हैं. शादी के बाद भी तो अब्बू, अम्मी के ही घर रह रहे हैं, ससुराल नहीं गई, इसी को ले कर लोग सौ तरह की बातें ही तो बनाते हैं.

असगर यों अचानक तरन्नुम को अपने दफ्तर में खड़ा देख कर हैरान हो गया, ‘‘आप यहां? यों अचानक,’’ असगर हकलाता हुआ बोला.

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तरन्नुम शरारत से हंस दी, ‘‘जी हां, मैं यों अचानक किसी ख्वाब की तरह,’’ तरन्नुम ने चहकते से अंदाज में कहा, ‘‘है न, यकीन नहीं हो रहा,’’ फिर हाथ आगे बढ़ा कर बोली, ‘‘हैलो, कैसे हो?’’ असगर ने गरमजोशी से फैलाए हाथ को अनदेखा कर के सिगरेट सुलगाई और एक गहरा कश लिया.

तरन्नुम को लगा जैसे किसी ने उसे जोर से तमाचा मारा हो. वह लड़खड़ाती सी कुरसी पकड़ कर बैठ गई. मरियल सी आवाज में बोली, ‘‘हमें आया देख कर आप खुश नहीं हुए, क्यों, क्या बात है?’’

असगर ने अपने को संभालने की कोशिश की, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम्हें यों अचानक आया देख कर मैं घबरा गया था,’’ असगर ने घंटी बजा कर चपरासी से चाय लाने को कहा.

‘‘हमारा आना आप के लिए खुशी की बात न हो कर घबराने की बात होगी, ऐसा तो मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ तरन्नुम की आंखें नम हो रही थीं.

तब तक चपरासी चाय रख कर चला गया था. असगर ने चाय में चीनी डाल कर प्याला तरन्नुम की तरफ बढ़ाया. तरन्नुम जैसे एकएक घूंट के साथ आंसू पी रही थी.

असगर ने एकदो फाइलें खोलीं. कुछ पढ़ा, कुछ देखा और बंद कीं. अब उस ने तरन्नुम की तरफ देखा, ‘‘क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘मेरा कार्यक्रम तो फेल हो गया,’’ तरन्नुम लजाती सी बोली, ‘‘मैं ने सोचा था पहुंच कर आप को हैरान कर दूंगी. फिर अपना घर देखूंगी. हमेशा ही मेरे दिमाग में एक धुंधला सा नक्शा था अपने घर का, जहां आप एक खास तरीके से रहते होंगे. उस कमरे की किताबें, तसवीरें सभी कुछ मुझे लगता है मेरी पहचानी सी होंगी लेकिन यहां तो अब आप ही जब अजनबी लग रहे हैं तब वे सब…’’

असगर के चेहरे पर एक रंग आया और गया. फिर वह बोला, ‘‘यही परेशानी है तुम औरतों के साथ. हमेशा शायरी में जीना चाहती हो. शायरी और जिंदगी 2 चीजें हैं. शायरी ठीक वैसी ही है जैसे मुहब्बत की इब्तदा.’’

‘‘और मुहब्बत की मौत शादी,’’ असगर की तरफ गहरी आंखों से देखते हुए तरन्नुम बोली.

‘‘मुझे पता है तुम ने बहुत से इनाम जीते हैं वादविवाद में, लेकिन मैं अपनी हार कबूल करता हूं. मैं बहस नहीं करना चाहता,’’ असगर ने उठते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा सामान कहां है?’’

‘‘बाहर टैक्सी में,’’ तरन्नुम ने बताया.

‘‘टैक्सी खड़ी कर के यहां इतनी देर से बैठी हो?’’

‘‘और क्या करती? पता नहीं था कि आप यहां मिलोगे भी या नहीं. फिर सामान भी भारी था,’’?तरन्नुम ने खुलासा किया.

जाहिर था असगर उस की किसी भी बात से खुश नहीं था.

जब टैक्सी में बैठे तो असगर ने टैक्सी चालक को किसी होटल में चलने को कहा, ‘‘पर मैं तो आप का घर देखना…’’

Serial Story : सजा – भाग 1

लेखक : विजया वासुदेवा    

असगर अपने दोस्त शकील की शादी में शरीक होने रामपुर गया. स्कूल के दिनों से ही शकील उस के करीबी दोस्तों में शुमार होता था. सो दोस्ती निभाने के लिए उसे जाना मजबूरी लगा था. शादी की मौजमस्ती उस के लिए कोई नई बात नहीं थी और यों भी लड़कपन की उम्र को वह बहुत पीछे छोड़ आया था.

शकील कालेज की पढ़ाई पूरी कर के विदेश चला गया था. पिछले कितने ही सालों से दोनों के बीच चिट्ठियों द्वारा एकदूसरे का हालचाल पता लगते रहने से वे आज भी एकदूसरे के उतने ही नजदीक थे जितना 10 बरस पहले.

असगर को दिल्ली से आया देख शकील खुशी से भर उठा, ‘‘वाह, अब लगा शादी है, वरना तेरे बिना पूरी रौनक में भी लग रहा था कि कुछ कसर बाकी है. तुझ से मिल कर पता लगा क्या कमी थी.’’

‘‘वाह, क्या विदेश में बातचीत करने का सलीका भी सिखाया जाता है या ये संवाद भाभी को सुनाने से पहले हम पर आजमाए जा रहे हैं.’’

‘‘अरे असगर, जब तुझे ही मेरे जजबात का यकीन न आ रहा हो तो वह क्यों करेगी मेरा यकीन, जिसे मैं ने अभी देखा भी नहीं,’’ शकील, असगर के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला.

बातें करतेकरते जैसे ही दोनों कमरे के अंदर आए असगर की निगाहें पल भर के लिए दीवान पर किताब पढ़ती एक लड़की पर अटक कर रह गईं. शकील ने भांपा, फिर मुसकरा दिया. बोला, ‘‘आप से मिलिए, ये हैं तरन्नुम, हमारी खालाजाद बहन और आप हैं असगर कुरैशी, हमारे बचपन के दोस्त. दिल्ली से तशरीफ ला रहे हैं.’’

दुआसलाम के बाद वह नाश्ते का इंतजाम देखने अंदर चली गई. असगर के खयाल जैसे कहीं अटक गए. शकील ने उसे भांप लिया, ‘‘क्यों साहब, क्या हुआ? कुछ खो गया है या याद आ रहा है?’’

असगर कुछ नहीं बोला, बस एक नजर शकील की तरफ देख कर मुसकरा भर दिया.

शादी के सारे माहौल में जैसे तरन्नुम ही तरन्नुम असगर को दिखाई दे रही थी. उसे बिना बात ही मौसम, माहौल सभी कुछ गुनगुनाता सा लगने लगा. उस के रंगढंग देख कर शकील को मजा आ रहा था. वह छेड़खानी पर उतर आया. बोला, ‘‘असगर यार, अपनी दुनिया में वापस आ जाओ. कुछ बहारें देखने के लिए होती हैं, महसूस करने के लिए नहीं, क्या समझे? भई, यह औरतों की आजादी के लिए नारा बुलंद करने वालियों की अपने कालेज की जानीमानी सरगना है, तुम्हारे जैसे बहुत आए और बहुत गए. इसे कुछ असर होने वाला नहीं है.’’

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‘‘लगानी है शर्त?’’ असगर ने चुनौती दी, ‘‘अगर शादी तक कर के न दिखा दूं तो मेरा नाम असगर कुरैशी नहीं.’’

शकील ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘मियां, लोग तो नींद में ख्वाब देखते हैं, आप जागते में भी.’’

‘‘बकवास नहीं कर रहा मैं,’’ असगर ने कहा, ‘‘बोल, अगर शादी के लिए राजी कर लूं तो?’’

‘‘ऐसा,’’ शकील ने उकसाया, ‘‘जो नई गाड़ी लाया हूं न, उसी में इस की डोली विदा करूंगा, क्या समझा. यह वह तिल है जिस में तेल नहीं निकलता.’’

और इस चुनौती के बाद तो असगर तरन्नुम के आसपास ही नजर आने लगा. अचानक ही एक से एक शेर उस के होंठों पर और हर महफिल में गजलें उस की फनाओं में बिखर रही थीं.

शकील हैरान था. यह तरन्नुम, जो हर आदमी को, आदमी की जात पर लानत देती थी, कैसे अचानक ही बहुत लजीलीशर्मीली ओस से भीगे गुलाब सी धुलीधुली नजर आने लगी.

घर में उस के इस बदलाव पर हलकी सी चर्चा जरूर हुई. शकील के साथ तरन्नुम के अब्बाअम्मी उस से मिलने आए. शकील ने कहा, ‘‘ये तुम से कुछ बातचीत करना चाहते थे, सो मैं ने सोचा अभी ही मौका है फिर शाम को तो तुम वापस दिल्ली जा ही रहे हो.’’

असगर हैरान हो कर बोला, ‘‘किस बारे में बातचीत करना चाहते हैं?’’

‘‘तुम खुद ही पूछ लो, मैं चला,’’ फिर अपनी खाला शहनाज की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘खालू, देखो जो भी बात आप तफसील से जानना चाहें उस से पूछ लें, कल को मेरे पीछे नहीं पडि़एगा कि फलां बात रह गई और यह बात दिमाग में ही नहीं आई,’’ इस के बाद शकील कमरे से बाहर हो गया.

असगर ने कहा, ‘‘आप मुझ से कुछ पूछना चाहते थे, पूछिए?’’

शहनाज बड़ा अटपटा महसूस कर रही थीं. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या सवाल करें. उन के शौहर रज्जाक अली ने चंद सवाल पूछे, ‘‘आप कहां के रहने वाले हैं. कितने बहनभाई हैं, कहां तक पढ़े हैं? सरकारी नौकरी न कर के आप प्राइवेट नौकरी क्यों कर रहे हैं? अपना मकान दिल्ली में कैसे बनवाया? वगैरहवगैरह.’’

असगर जवाब देता रहा लेकिन उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी तहकीकात किसलिए की जा रही है. शहनाज खाला थीं कि उस की तरफ यों देख रही थीं जैसे वह सरकस का जानवर है और दिल बहलाने के लिए अच्छा तमाशा दिखा रहा है. खालू के चंदएक सवाल थे जो जल्दी ही खत्म हो गए.

शहनाज खाला बोलीं, ‘‘तो बेटा, जब तुम्हारे सिर पर बुजुर्गों का साया नहीं है तो तुम्हें अपने फैसले खुद ही करने होते होंगे, है न…’’

‘‘जी,’’ असगर ने कहा.

‘‘तो बताओ, निकाह कब करना चाहोगे?’’

‘‘निकाह?’’ असगर ने पूछा.

‘‘और क्या,’’ खाला बोलीं, ‘‘भई, हमारे एक ही बेटी है. उस की शादी ही तो हमारी जिंदगी का सब से बड़ा अरमान है. फिर हमारे पास कमी भी किस चीज की है. जो कुछ है सब उसे ही तो देना है,’’ खाला ने खुलासा करते हुए कहा.

‘‘पर आप यह सब मुझ से क्यों कह रही हैं?’’

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इस पर खालू ने कहा, ‘‘बात ऐसी है बेटा कि आज तक हमारी तरन्नुम ने किसी को भी शादी के लायक नहीं समझा. हम लोगों की अब उम्र हो रही है. अब उस ने तुम्हें पसंद किया है तो हमें भी अपना फर्ज पूरा कर के सुर्खरू हो लेने दो.’’

‘‘क्या?’’ असगर हैरान रह गया, ‘‘तरन्नुम मुझे पसंद करती है? मुझ से शादी करेगी?’’ असगर को यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘हां बेटा, उस ने अपनी अम्मी से कहा है कि वह तुम्हें पसंद करती है और तुम्हीं से शादी करेगी. देखो बेटा, अगर लेनेदेने की कोई फरमाइश हो तो अभी बता दो. हमारी तरफ से कोई कसर नहीं रहेगी.’’

‘‘पर खालू मैं तो शादी,’’ असगर कुछ कहने के लिए सही शब्द सोच ही रहा था कि खालू बीच में ही बोले, ‘‘देखो बेटा, मैं अपनी बच्ची की खुशियां तुम से झोली फैला कर मांग रहा हूं, न मत कहना. मेरी बच्ची का दिल टूट जाएगा. वह हमेशा से ही शादी के नाम से किनारा करती रही है. अब अगर तुम ने न कर दी तो वह सहन नहीं कर सकेगी.’’

एक पल को असगर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप ने शकील से बात कर ली है.’’

‘‘हां,’’ खालू बोले, ‘‘उस की रजामंदी के बाद ही हम तुम से बात करने आए हैं.’’

शहनाज खाला उतावली सी होती हुई बोलीं, ‘‘तुम हां कह दो और शादी कर के ही दिल्ली जाओ. सभी इंतजाम भी हुए हुए हैं. इस लड़की का कोई भरोसा नहीं कि अपनी हां को कब ना में बदल दे.’’

‘‘ठीक है, जैसा आप सही समझें करें,’’ असगर ने कहा.

Serial Story : सजा – भाग 4

लेखक : विजया वासुदेवा  

‘‘रीता को तो हैदराबादी बिरयानी पसंद है, साथ में मुर्गमुसल्लम भी. मैं जरा रसोई में खानेपीने का इंतजाम देख लूं. नौकर नया है वरना मुर्गे का भरता ही बना देगा. तब तक आप यह अलबम देखिए. रीता, अपनी पसंद का रेकार्ड लगा लो,’’ कहती हुई निकहत अंदर चली गई.

तरन्नुम ने अलबम खोला और उस की आंखें असगर से मिलतेजुलते एक आदमी पर अटक गईं. अगला पन्ना पलटा. निकहत के साथ असगर जैसा चेहरा. अलगअलग जगह, अलगअलग कपड़े. पर असगर से इतना कोई मिल सकता है वह सोच भी नहीं सकती थी. उस ने रीता को फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘ये हजरत कौन हैं?’’

‘‘क्यों, आंखों में चुभ गया है क्या?’’ रीता हंस दी, ‘‘संभल के, यह तो निकहत दीदी के पति हैं. है न व्यक्तित्व जोरदार, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. असल में इन के मांबाप जल्दी ही गुजर गए. निकहत अपने मांबाप की इकलौती बेटी थी तिस पर लंबीचौड़ी जमीनजायदाद, बस, समझो लाटरी ही लग गई इन साहब की. नौकरी भी निकहत के अब्बू ने दिलवाई थी.’’

तरन्नुम को अब न गजल सुनाई दे रही थी और न ही कमरे में बच्चों की खिलखिलाती हंसी का शोर, वह एकदम जमी बर्फ सी सर्द हो गई. दिल की धड़कन का एहसास ही बताता था कि सांस चल रही है.

निकहत ने जब खाने के लिए बुलाया तब वह जैसे किसी दूसरी दुनिया से लौट कर आई, ‘‘आप बेकार ही तकल्लुफ में पड़ गईं, हमें भूख नहीं थी,’’ उस ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ, आज का खाना हमारी भूख के नाम पर ही खा लीजिए. हमें तो आप की सोहबत में ही भूख लग आई है.’’

रोशनी सा दमकता चेहरा, उजली धूप सी मुसकान, तरन्नुम ठगी सी देखती रही. फिर बोली, ‘‘आप के पति कितने खुशकिस्मत हैं, इतनी सुंदर बीवी, तिस पर इतना बढि़या खाना.’’

‘‘अरे आप तो बेकार ही कसीदे पढ़ रही हैं. अब इतने बरसों के बाद तो बीवी एक आदत बन जाती है, जिस में कुछ समझनेबूझने को बाकी ही नहीं रहता. पढ़ी किताब सी उबाऊ वरना क्या इतनेइतने दिन मर्द दौरे पर रहते हैं? बस, उन की तरफ से घर और बच्चे संभाल रहे हैं यही बहुत है,’’ निकहत ने तश्तरी में खाना परोसते हुए कहा.

‘‘कहां काम करते हैं कुरैशी साहब?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘कटलर हैमर में, उन का दफ्तर कनाट प्लेस में है. असगर पहले इतना दौरे पर नहीं रहते थे जितना कि पिछले एक बरस से रह रहे हैं.’’

‘‘असगर,’’ तरन्नुम ने दोहराया.

‘‘हां, मेरे शौहर, आप ने बाहर तख्ती पर अ. कुरैशी देखा था. अ. से असगर ही है. हमारे बच्चे हंसते हैं, अब्बू, ‘अ’ से अनार नहीं हम अपनी अध्यापिका को बताएंगे ‘अ’ से असगर,’’ फिर प्यार से बच्चे के सिर पर धौल लगाती बोली, ‘‘मुसकराओ मत, झटपट खाना खत्म करो फिर टीवी देखेंगे.’’

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‘‘अरे, तरन्नुम तुम कुछ उठा नहीं रहीं,’’ रीता ने तरन्नुम को हिलाया.

‘‘हूं, खा तो रही हूं.’’

‘‘क्यों, खाना पसंद नहीं आया?’’ निकहत ने कहा, ‘‘सच तरन्नुम, मैं भी बहुत भुलक्कड़ हूं. बस, अपनी कहने की रौ में मुझे दूसरे का ध्यान ही नहीं रहता. खाना सुहा नहीं रहा तो कुछ फल और दही ले लो.’’

‘‘न दीदी, मुझे असल में भूख थी ही नहीं, वह तो खाना बढि़या बना है सो इतना खा गई.’’

‘‘अच्छा अब खाना खत्म कर लो फिर तुम्हें ऊपर वाला हिस्सा दिखाते हैं, जिस में तुम्हें रहना है. तुम्हारे यहां आ कर रहने से मेरा भी अकेलापन खत्म हो जाएगा.’’

‘‘पर किराए पर देने से पहले आप को अपने शौहर से नहीं पूछना होगा,’’ तरन्नुम ने कहा.

‘‘वैसे कानूनन यह कोठी मेरी मिल्कियत है. पहले हमेशा ही उन से पूछ कर किराएदार रखे हैं. इस बार तुम आ रही हो तो बजाय 2 आदमियों के बीच बातचीत हो इस बार तरीका बदला जाए,’’ निकहत शरारत से हंस दी, ‘‘यानी मकान मालकिन और किराएदारनी तथा मध्यस्थ भी इस बार मैं औरत ही रख रही हूं. राजन कपूर की जगह बिन्नी कपूर वकील की हैसियत से हमारे बीच का अनुबंध बनाएंगी, क्यों?’’

रीता जोर से हंस दी, ‘‘रहने दो निकहत दीदी, बिन्नी दी ने शादी के बाद वकालत की छुट्टी कर दी.’’

‘‘इस से क्या हुआ,’’ निकहत हंसी, ‘‘उन्होंने विश्वविद्यालय की डिगरी तो वापस नहीं कर दी है. जो काम कभी न हुआ तो वह आज हो सकता है. क्यों तरन्नुम, तुम्हारी क्या राय है? मैं आज शाम तक कागजात तैयार करवा कर होटल भेज देती हूं. तुम अपनी प्रति रख लेना, मेरी दस्तखत कर के वापस भेज देना. रही किराए के अग्रिम की बात, उस की कोई जल्दी नहीं है, जब रहोगी तब दे देना. आदमी की जबान की भी कोई कीमत होती है.’’

रीता तरन्नुम को तीसरे पहर होटल छोड़ती हुई निकल गई.

शाम को असगर के आने से पहले तरन्नुम ने खूब शोख रंग के कपड़े, चमकदार गहने पहने, गहरा शृंगार किया, असगर उसे तैयार देख कर हैरान रह गया. यह पहरावा, यह हावभाव उस तरन्नुम के नहीं थे जिसे वह सुबह छोड़ कर गया था.

‘‘आप को यों देख कर मुझे लगा जैसे मैं गलत कमरे में आ गया हूं,’’ असगर ने चौंक कर कहा.

‘‘अब गलत कमरे में आ ही गए हो तो बैठने की गलती भी कर लो,’’ तरन्नुम ने कहा, ‘‘क्या मंगवाऊं आप के लिए, चाय, ठंडा या कुछ और,’’ तरन्नुम ने लहरा कर पूछा.

‘‘होश में तो हो,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, आंखें खुल गईं तो होश में ही हूं,’’ तरन्नुम ने जवाब दिया, ‘‘आज का दिन मेरी जिंदगी का बहुत कीमती दिन है. आज मैं ने अपनी हिम्मत से तुम्हारे शहर में बहुत अच्छा घर ढूंढ़ लिया है. उस की खुशी मनाने को मेरा जी चाह रहा है. अब तो अनुबंध की प्रति भी है मेरे पास. देखो, तुम इतने महीने में जो न कर सके वह मैं ने 6 दिन में कर दिया,’’ अपना पर्स खोल कर तरन्नुम ने कागज असगर की तरफ बढ़ाए.

असगर ने कागज लिए. तरन्नुम ने थरमस से ठंडा पानी निकाल कर असगर की तरफ बढ़ाया. असगर के हाथ कांप रहे थे. उस की आंखें कागज को बहुत तेजी से पढ़ रही थीं. उस ने कागज पढ़े और मेज पर रख दिए. तरन्नुम उस के चेहरे के उतारचढ़ाव देख रही थी लेकिन असगर का चेहरा सपाट था कोरे कागज सा.

‘‘असगर, तुम ने पूछा नहीं कि मैं ने कागजात में खाविंद का नाम न लिख कर वालिद का नाम क्यों लिखा?’’ बहुत बहकी हुई आवाज में तरन्नुम ने कहा.

असगर ने सिर्फ सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा.

‘‘इसलिए कि मेरे और निकहत कुरैशी के खाविंद का एक ही नाम है और अलबम की तसवीरें कह रही हैं कि हम दोनों बिना जाने ही एकदूसरे की सौतन बना दी गईं. निकहत बहुत प्यारी शख्सियत है मेरे लिए, बहुत सुलझी हुई, बेहद मासूम.’’

‘‘तरन्नुम,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, मैं कह रही थी वह बहुत अच्छी, बहुत प्यारी है. मैं उन का मन दुखाना नहीं चाहती, वैसा कुछ भी मैं नहीं करूंगी जिस से उन का दिल दुखी हो. इसलिए मैं वह घर किराए पर ले चुकी हूं और वहां रहने का मेरा पूरा इरादा है लेकिन उस घर में मैं अकेली रहूंगी. पर एक सवाल का जवाब तुम्हारी तरफ बाकी है, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया?’’

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‘‘मुझे तुम बेहद पसंद थीं,’’ असगर ने हकलाते हुए कहा.

‘‘तो?’’

‘‘जब तुम्हें भी अपनी तरफ चाहत की नजर से देखते पाया तो सोचा…’’

‘‘क्या सोचा?’’ तरन्नुम ने जिरह की.

‘‘यही कि अगर तुम्हारे घर वालों को एतराज नहीं है तो यह निकाह हो सकता है,’’ असगर ने मुंह जोर होने की कोशिश की.

‘‘मेरे घर वालों को तुम ने बताया ही कहां?’’ तरन्नुम गुस्से से तमतमा उठी.

‘‘देखो, तरन्नुम, अब बाल की खाल निकालना बेकार है. शकील को सब पता था. उसी ने कहा था कि एक बार निकाह हो गया तो तुम भी मंजूर कर लोगी. तुम्हारी अम्मी ने झोली फैला कर यह रिश्ता अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई दे कर मांगा था. वैसे इसलाम में 4 शादियों तक भी मुमानियत नहीं है.’’

‘‘देखिए, मुझे अपने ईमान के सबक आप जैसे आदमी से नहीं लेने हैं. आप की हिम्मत कैसे हुई निकहत जैसी नेक बीवी के साथ बेईमानी करने की और मुझे धोखा देने की,’’ तरन्नुम ने तमतमा कर कहा.

‘‘धोखाधोखा कहे जा रही हो. शकील को सब पता था, उसी ने चुनौती दे रखी थी तुम से शादी करने की.’’

‘‘वाह, क्या शर्त लगा रहे हैं एक औरत पर 2 दोस्त? आप को जीत मुबारक हो, लेकिन यह आप की जीत आप की जिंदगी की सब से बड़ी हार साबित होगी, असगर साहब. मैं आप के घर में किराएदार बन कर जिंदगी भर रहूंगी और दिल्ली आने के बाद अदालत में तलाक का दावा भी दायर करूंगी. वैसे मेरी जिंदगी में शादी के लिए कोई जगह नहीं थी. शकील ने शादी के बहुत बार पैगाम भेजे, मैं ने हर बार मना कर दिया. उसी का बदला इस तरह वह मुझ से लेगा, मैं ने सोचा भी नहीं था. आज पंचशील पार्क जा कर मुझे एहसास हुआ कि क्यों दिल्ली में घर नहीं मिल रहे? क्यों तुम उखड़ाउखड़ा बरताव कर रहे थे? देर आए दुरुस्त आए.’’

‘‘पर मैं तुम्हें तलाक देना ही नहीं चाहता,’’ असगर ने कहा, ‘‘मैं ने तुम्हें अपनी बीवी बनाया है. मैं तुम्हारे लिए दूसरी जगह घर बसाने के लिए तैयार हूं.’’

बहुत खुले दिमाग हैं आप के, लेकिन माफ कीजिए. अब औरत उस कबीली जिंदगी से निकल चुकी है जब मवेशियों की गिनती की तरह हरम में औरत की गिनती से आदमी की हैसियत परखी जाती थी. बच्चों से उन का बाप और निकहत से उस का शौहर छीनने का मेरा बिलकुल इरादा नहीं है और वैसे भी एक धोखेबाज आदमी के साथ मैं जी नहीं सकती. हर घड़ी मेरा दम घुटता रहेगा लेकिन तुम्हें बिना सजा दिए भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. इसीलिए तुम्हारे घर के ऊपर मैं किराएदार की हैसियत से आ रही हूं.’’

फिर तेज सांसों पर नियंत्रण करती हुई बोली थी तरन्नुम, ‘‘मैं सामान लेने जा रही हूं. तुम निकहत को कुछ बताने का दम नहीं रखते. तुम बेहद कमजोर और बुजदिल आदमी हो. हम दोनों औरतों के रहमोकरम पर जीने वाले.’’

असगर के चेहरे पर गंभीरता व्याप्त थी. तरन्नुम अपनी अटैची बंद कर रही थी. वह मन ही मन सोच रही थी…अम्मीअब्बू की खुशी के लिए उसे वहां कोई भी बात बतानी नहीं है. यह स्वांग यों ही चलने दो जब तक वे हैं.’’

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अधिकार : क्या रिश्ते में अधिकार की भावना जरूरी है – भाग 1

प्रेम में त्याग होता है स्वार्थ नहीं. जो यह कहता है कि अगर तुम मेरे नहीं हो सके तो किसी दूसरे के भी नहीं हो सकते…यहां प्यार नहीं स्वार्थ बोल रहा है…सच तो यह है कि प्रेम में जहां अधिकार की भावना आती है वहीं इनसान स्वार्थी होने लगता है और जहां स्वार्थ होगा वहां प्रेम समाप्त हो जाएगा. उपरोक्त पंक्तियां पढ़तेपढ़ते विनय ने आंखें मूंद लीं…

एकएक शब्द सत्य है इन पंक्तियों का. क्या उस के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित नहीं हो रहा. अतीत का एकएक पल उस की स्मृतियों में विचरने लगा. विनय जब छोटा था तभी उस के पापा गुजर गए. उसे और उस की छोटी बहन संजना को उस की मां सपना ने बड़ी कठिनाई से पाला था.

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वह कैसे भूल सकता है वे दिन जब मां बड़ी कठिनाइयों से दो वक्त की रोटी जुटा पाती थीं. अपने जीवनकाल में पिता ने घर के सामान के लिए इतना कर्ज ले लिया था कि पी.एफ. में से कुछ बचा ही नहीं था. पेंशन भी ज्यादा नहीं थी. मां को आज से ज्यादा कल की चिंता थी. उस की और संजना की उच्चशिक्षा के साथसाथ उन्हें संजना के विवाह के लिए भी रकम जमा करनी थी. उन का मानना था कि दहेज का लेनदेन अभी भी समाज में विद्यमान है. कुछ रकम होगी तो दहेजलोभियों को संतुष्ट किया जा सकेगा अन्यथा बेटी के हाथ पीले करना आसान नहीं है.

बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली पर वेतन इतना था कि घर का खर्च ही चल पाता था. फायदा बस इतना हुआ कि अध्यापिका की संतान होने के कारण उन को आसानी से स्कूल में दाखिला मिल गया. मां ने उन की देखभाल में कोई कमी नहीं होने दी. आवश्यकता का सभी सामान उन्हें उपलब्ध कराने की उन्होंने कोशिश की. इस के लिए ट्यूशन भी पढ़ाए. उन दोनों ने भी मां के विश्वास को भंग नहीं होने दिया. उन की खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैट्रिक में उन्होंने राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया. स्कूल की तरफ से स्कौलरशिप तो मिली ही, उस को पहचान भी मिली. यही 12वीं में हुआ. उसे आई.आई.टी. में दाखिला तो नहीं मिल पाया पर निट में मिल गया.

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संजना ने भी अपने भाई विनय का अनुसरण किया. उस ने भी बायो- टैक्नोलौजी को अपना कैरियर बनाया. बच्चों को अपनेअपने सपने पूरे करते देख मां को सुकून तो मिला पर मन ही मन उन्हें यह डर भी सताने लगा कि कहीं बच्चे अपनी चुनी डगर पर इतने मस्त न हो जाएं कि उन की अनदेखी करने लगें. अब वे उन के प्रति ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं. मां स्कूल, कालेज की हर बात तो पूछती हीं, उन के मित्रों के बारे में भी हर संभव जानकारी लेने का प्रयास करतीं. विनय और संजना ने कभी उन की इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उन्हें लगता था कि मां का अतिशय प्रेम ही उन से यह करवा रहा है. भला मां को उन की चिंता नहीं होगी तो किसे होगी. मां की खुशी की सीमा न रही जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही उस की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी लग गई. संजना का कोर्स भी पूरा होने वाला था. मां ने उस के विवाह की बात चलानी प्रारंभ कर दी…संजना रिसर्च करना चाहती थी. उस ने अपना पक्ष रखा तो मां ने यह कह कर अनसुना कर दिया कि मुझे प्रयास करने दो, यह कोई आवश्यक नहीं कि तुरंत अच्छा रिश्ता मिल ही जाए.

संयोग से एक अच्छा घरपरिवार मिल गया. संजना के मना करने के बावजूद मां ने अपने अधिकार का प्रयोग कर उस पर विवाह के लिए दबाव बनाया. विनय ने संजना का साथ देना चाहा तो मां ने उस से कहा कि मुझे अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेने दो, मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूं. तुम स्वयं जा कर लड़के से मिल लो, अगर कुछ कमी लगे तो बता देना मैं अपना निर्णय बदल दूंगी और जहां तक संजना की पढ़ाई का प्रश्न है वह विवाह के बाद भी कर सकती है. विनय तब समीर से मिला था. उस में उसे कोई भी कमी नजर नहीं आई, आकर्षक व्यक्तित्व होने के साथ वह अच्छे खातेपीते घर से है, कमा-खा भी अच्छा रहा है.

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इंजीनियरिंग कालेज में लैक्चरर है. मां ने जैसे दिन देखे थे, जैसा जीवन जिया था उस के अनुसार उसे उन का सोचना गलत भी नहीं लगा. वे एक मां हैं, हर मां की इच्छा होती है कि उन के बच्चे जीवन में जल्दी स्थायित्व प्राप्त कर लें. आखिर वह संजना को मनाने में कामयाब हो गया. संजना और समीर का विवाह धूमधाम से हो गया. संजना के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर मां कुछ दिनों की छुट्टी ले कर विनय के पास आईं. एक दिन बातोंबातों में उस ने अपने मन की बात उन के सामने रखते हुए कहा, ‘मां अब आप की सारी जिम्मेदारियां समाप्त हो गई हैं. अब नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, अब यहीं रहो.’

बेटे के मुख से यह बात सुन कर मां भावविभोर हो गईं. आखिर इस से अधिक एक मां को और क्या चाहिए. उन्होंने त्यागपत्र भेज दिया. कुछ दिन वे उस घर को किराए पर उठा कर तथा वहां से कुछ आवश्यक सामान ले कर आ गईं. उस ने भी आज्ञाकारी पुत्र की तरह मां का कर्ज उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर के खर्च के पूरे पैसे मां को ला कर देता, हर जगह अपने साथ ले कर जाता. उन की हर इच्छा पूरी करने का हरसंभव प्रयत्न करता. धीरेधीरे पुत्र की जिंदगी में उन का दखल बढ़ता गया. वे उस से एकएक पैसे का हिसाब लेने लगीं, अगर वह कभी मित्रों के साथ रेस्तरां में चला जाता तो मां कहतीं, ‘बेटा फुजूलखर्ची उचित नहीं है, आज की बचत कल काम आएगी.’

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