Story in hindi

Story in hindi
अगले दिन जब निखिल दफ्तर गया तो उस की मां आशी को कोसने लगीं, ‘‘मेरा बेटा कल तक मेरी सारी बातें मानता था… अब तुम ने न जाने क्या पट्टी पढ़ा दी कि मेरी सुनता ही नहीं.’’
अब घर में ये कलह बढ़ती ही जा रही थी. आज आशी और निखिल दोनों ही मां से परेशान हो कर मेरे घर आए. मैं ने जब उन की सारी बातें सुन लीं तो कहा, ‘‘एक समस्या सुलझती नहीं की दूसरी आ जाती है. पर समाधान तो हर समस्या का होता है.’’
अब मां का क्या करें? रोज घर में क्लेश होगा तो आशी के होने वाले बच्चे पर भी तो उस का बुरा प्रभाव पड़ेगा,’’ निखिल बोला.
मैं ने उन के जाने के बाद अपनी मां से आशी व निखिल की मजबूरी बताते हुए कहा, ‘‘मां, क्या आप आशी की डिलिवरी नहीं करवा सकतीं? बच्चा होने तक आशी तुम्हारे पास रह ले तो ठीक रहेगा.’’
मां कहने लगीं, ‘‘बेटी, इस से तो नेक कोई काम हो ही नहीं सकता. यह तो सब से बड़ा मानवता का काम है. मेरे लिए तो जैसे तुम वैसे ही आशी, पर क्या उस के पति मानेंगे?’’
‘‘पूछती हूं मां,’’ कह मैं ने फोन काट दिया.
अब मैं ने निखिल के सामने सारी स्थिति रख दी कि वह आशी को मेरी मां के घर छोड़ दे.
मेरी बात सुन कर निखिल को हिचकिचाहट हुई.
तब मैं ने कहा, ‘‘निखिल आप भी तो मेरे पति जब यहां नहीं होते हैं तो हर संभव मदद करते हैं. क्या मुझे मेरा फर्ज निभाने का मौका नहीं देंगे?’’
मेरी बात सुन कर निखिल मुसकरा दिया, बोला, ‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’
‘‘और आशी जब तुम स्वस्थ हो जाओ तो तुम भी मेरी कोई मदद कर देना,’’ मैं ने कहा. यदि हम एकदूसरे के सुखदुख में काम न आएं तो सहेली का रिश्ता कैसा?
मेरी बात सुन आशी ने भी मुसकरा कर हामी भर दी. फिर क्या था. निखिल आशी की जरूरत का सारा सामान पैक कर आशी को मेरी मां के पास छोड़ आ गया.
वक्त बीता. 9 माह पूरे हुए. आशी ने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया, जिस की शक्ल हूबहू आशी की सास व पति से मिलती थी.
उस के पति निखिल ने जब अपनी बेटी को देखा तो फूला न समाया. वह आशी को अपने घर चलने को कहने लगा, लेकिन मेरी मां ने कहा कि बेटी थोड़ी बड़ी हो जाए तब ले जाना ताकि आशी स्वयं भी अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सके.
इधर आशी की मां निखिल से रोज पूछतीं, ‘‘निखिल बेटा, आशी को क्या हुआ बेटा या बेटी?’’
‘‘मां, बेटी हुई है पर जाने दो मां तुम्हें तो पोता चाहिए था न.’’
मां जब पूछतीं कि किस जैसी है बेटी तेरे जैसी या आशी जैसी. तो वह कहता कि मां क्या फर्क पड़ता है, है तो लड़की ही न.
अब आशी की सास से रहा नहीं जा
रहा था. अत: एक दिन बोलीं, ‘‘आशी को कब लाएगा?’’
‘‘मां अभी बच्ची छोटी है. थोड़ी बड़ी हो जाने दो फिर लाऊंगा. यहां 3 बच्चों को अकेली कैसे पालेगी?’’
यह सुन आशी की सास कहने लगीं, ‘‘और कितना सताएगा निखिल… क्या तेरी बच्ची पर हमारा कोई हक नहीं? माना कि मैं पोता चाहती थी पर यह बच्ची भी तो हमारी ही है. हम इसे फेंक तो न देंगे? अब तू मुझे आशी और मेरी पोती से कब मिलवाएगा यह बता?’’
निखिल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अगले संडे को मां.’’
अगले रविवार ही निखिल अपनी मां को मेरी मां के घर ले गया. निखिल की मां आशी की बच्ची को देखने को बहुत उत्सुक थीं. उसे देखते ही लगीं शक्ल मिलाने. बोलीं, ‘‘अरे, इस की नाक तो बिलकुल आशी जैसी है और चेहरा निखिल तुम्हारे जैसा… रंग तो देखो कितना निखरा हुआ है,’’ वे अपनी पोती की नाजुक उंगलियों को छू कर देख रही थीं और उस के चेहरे को निहारे जा रही थीं.
तभी आशी ने कहा, ‘‘मां, अभी तो यह सोई है, जागेगी तब देखिएगा आंखें बिलकुल आप के जैसी हैं नीलीनीली… आप की पोती बिलकुल आप पर गई है मां.’’
यह सुन आशी की सास खुश हो उठीं और फिर मेरी मां को धन्यवाद देते हुए बोलीं, ‘‘आप ने बहुत नेक काम किया है बहनजी, जो आशी की इतनी संभाल की… मैं किन शब्दों में आप का शुक्रिया अदा करूं… अब आप इजाजत दें तो मैं आशी को अपने साथ ले जाऊं.’’
‘‘आप ही की बेटी है बेशक ले जाएं… बस इस का सामान समेट देती हूं.’’
‘‘अरे, आप परेशान न हों. सामान तो निखिल समेट लेगा और अगले रविवार को वह आशी को ले जाएगा. अभी जल्दबाजी न करें. तब तक मैं आशी के स्वागत की तैयारियां भी कर लेती हूं.’’
अगले रविवार को निखिल आशी व उस की बेटी को ले कर अपने घर आ गया. उस की मां ने घर को ऐसे सजाया था मानो दीवाली हो. आशी का कमरा खूब सारे खिलौनों से सजा था. आशी की सास उस की बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े लाई थीं.
जब आशी घर पहुंची तो निखिल की मां दरवाजे पर खड़ी थीं. उन्होंने झट से अपनी पोती को गोद में ले कर कहा, ‘‘आशी, मुझे माफ कर दो. मैं अज्ञान थी या यों कहो कि पोते की चाह में अंधी हो गई थी और सोचनेसमझने की क्षमता खत्म हो गई थी. लेकिन बहू तुम बहुत समझदार हो. तुम ने मेरी आंखें खोल दीं… मुझे व हमारे पूरे घर को एक घोर अपराध करने से बचा लिया. अब सारा घर खुशियों से भर गया है. फिर वे अपनी बेटी व अन्य रिश्तेदारों को समझाने लगीं कि कन्या भू्रण हत्या अपराध है… उन्हें भी बेटेबेटी में फर्क नहीं करना चाहिए. बेटियां भी वंश बढ़ा सकती हैं, जमीनजायदाद संभाल सकती हैं. जरूरत है तो सिर्फ हमें अपना नजरिया बदलने की.’’
15 दिन और बीत गए. आशी की सास रोज घर में आशी के बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने के लिए कहतीं. निखिल की बहन भी फोन कर निखिल को समझाती कि आजकल तो उन की जातबिरादरी में सभी गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण करवा लेते हैं ताकि यदि गर्भ में कन्या हो तो छुटकारा पा लिया जाए.
पहले तो निखिल को ये सब बातें दकियानूसी लगीं, पर फिर धीरेधीरे उसे भी लगने लगा कि यदि सभी ऐसा करवाते हैं, तो इस में बुराई भी क्या है?
उस दिन आशी अचानक फिर से मेरे घर आई. इधरउधर की बातों के बाद मैं ने पूछा, ‘‘कैसा महसूस करती हो अब? मौर्निंग सिकनैस ठीक हुई या नहीं? अब तो 4 महीने हो गए न?’’
‘‘ऋचा क्या बताऊं. आजकल न जाने निखिल को भी क्या हो गया है. कुछ सुनते ही नहीं मेरी. इस बार जब चैकअप के लिए गई तो डाक्टर से बोले कि देख लीजिए आप. पहले ही हमारी 2 बेटियां हैं, इस बार हम बेटी नहीं चाहते. ऋचा मुझे बहुत डर लग रहा है. अब तक तो बच्चे में धड़कन भी शुरू हो गई है… यदि निखिल न समझे और फिर से लड़की हुई तो कहीं मुझे गर्भपात न करवाना पड़े,’’ वह रोतेरोते कह रही थी, ‘‘नहीं ऋचा यह तो हत्या है, अपराध है… यह बच्चा गर्भ में है, तो किसी को नजर नहीं आ रहा. पैदा होने के बाद तो क्या पता मेरी दोनों बेटियों जैसा हो और उन जैसा न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है. उस में भी जान तो है. उसे भी जीने का हक है. हमें क्या हक है अजन्मी बेटी की जान लेने का… यह तो जघन्य अपराध है और कानूनन भी यह गलत है. यदि पता लग जाए तो इस की तो सजा भी है. लिंग परीक्षण कर गर्भपात करने वाले डाक्टर भी सजा के हकदार हैं.’’
आशी बोले जा रही थी और उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहे जा रही थी. मेरी आंखें भी नम हो गई थीं.
अत: मैं ने कहा, ‘‘देखो आशी, तुम्हें यह समय हंसीखुशी गुजारना चाहिए. मगर तुम रोज दुखी रहती हो… इस का पैदा होने वाले बच्चे पर भी असर पड़ता है. मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं. यदि निखिल तुम्हारी बात समझ जाए तो शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए… तुम्हें उसे यह समझाना होगा कि यह उस का भी बच्चा है. इस में उस का भी अंश है… एक मूवी है ‘साइलैंट स्क्रीम’ जिस में पूरी गर्भपात की प्रक्रिया दिखाई गई है. तुम आज ही निखिल को वह मूवी दिखाओ. शायद उसे देख कर उस का मन पिघल जाए. उस में सब दिखाया गया है कि कैसे अजन्मे भू्रण को सक्शन से टुकड़ेटुकड़े कर दिया जाता है और उस से पहले जब डाक्टर अपने औजार उस के पास लाता है तो वह कैसे तड़पता है, छटपटाता है और बारबार मुंह खोल कर रोता है, जिस की हम आवाज तो नहीं सुन सकते, किंतु देख तो सकते हैं. किंतु यदि उस के अपने मातापिता ही उस की हत्या करने पर उतारू हों तो वह किसे पुकारे? जब उस का शरीर मांस के लोथड़ों के रूप में बाहर आता है तो बेचारे का अंत हो जाता है. उस का सिर क्योंकि हड्डियों का बना होता है, इसलिए वह सक्शन द्वारा बाहर नहीं आ पाता तो किसी औजार से दबा कर उसे चूरचूर कर दिया जाता है… उस अजन्मे भू्रण का वहीं खात्मा हो जाता है. बेचारे की अपनी मां की कोख ही उस की कब्र हो जाती है. कितना दर्दनाक है… यदि वह भू्रण कुछ माह और अपनी मां के गर्भ में रह ले तो एक मासूम, खिलखिलाता हुआ बच्चा बन जाता है. फिर शायद सभी उसे बड़े प्यार व दुलार से गोद में उठाए फिरें. मुझे ऐसा लगता है कि शायद निखिल इस मूवी को देख लें तो फिर शायद अपनी मां की बात न मानें.
‘‘ठीक है, कोशिश करती हूं,’’ कह आशी थोड़ी देर बैठ घर चली गई.
मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक औरत पुरुष के सामने इतना विवश क्यों हो जाती है कि अपने बच्चे को जन्म देने में भी उसे अपने पति की स्वीकृति लेनी होती है?
खैर, आशी ने रात को अपने पति निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ मूवी दिखाई. मैं बहुत उत्सुक थी कि अगले दिन आशी क्या खबर लाती है?
अगले दिन जब आशी बेटियों को स्कूल बस में बैठाने आई तो कुछ चहक सी रही थी, जो अच्छा संकेत था. फिर भी मेरा मन न माना तो मैं उसे सैर के लिए ले गई और फिर एकांत मिलते ही पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ आशी, निखिल तुम्हारी बात मान गए? तुम ने मूवी दिखाई उन्हें?’’
वह कहने लगी, ‘‘हां ऋचा तुम कितनी अच्छी हो. तुम ने मेरे लिए कितना सोचा… जब रात को मैं ने निखिल को ‘साइलैंट स्क्रीम’ यूट्यूब पर दिखाई तो वे मुझे देख स्वयं भी रोने लगे और जब मैं ने बताया कि देखिए बच्चा कैसे तड़प रहा है तो फूटफूट कर रोने लगे. फिर मैं ने कहा कि यदि हमारे बच्चे का लिंग परीक्षण कर गर्भपात करवाया तो उस का भी यही हाल होगा… अब निखिल ने वादा किया है कि वे ऐसा नहीं होने देंगे. चाहे कुछ भी हो जाए.’’
मैं ने सोचा काश, आशी जो कह रही है वैसा ही हो. किंतु जैसे ही निखिल ने मां को अपना फैसला सुनाया कि चाहे बेटा हो या बेटी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाएगा तो उस की मां बिफर पड़ीं. कहने लगीं कि क्या तू ने भी आशी से पट्टी पढ़ ली है?’’
‘‘मां, यह मेरा फैसला है और मैं इसे हरगिज नहीं बदलूंगा,’’ निखिल बोला.
अब तो निखिल की मां आशी को रोज ताने मारतीं. निखिल का भी जीना हराम कर दिया था. निखिल ने मां को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह आशी को ताने न दें. वह गर्भवती है, इस बात का ध्यान रखें.
आशी तो अपने मातापिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वे भी तो यही चाहते थे कि बस आशी को एक बेटा हो जाए.
निखिल मां को समझाता, ‘‘मां, ये सब समाज के लोगों के बनाए नियम हैं कि बेटा वंश बढ़ाता है, बेटियां नहीं. इन के चलते ही लोग बेटियों की कोख में ही हत्या कर देते हैं. मां यह घोर अपराध है… तुम्हारी और दीदी की बातों में आ कर मैं यह अपराध करने जा रहा था, किंतु अब ऐसा नहीं होगा.’’
निखिल की बातें सुन कर एक बार को तो उस की मां को झटका सा लगा, पर पोते की चाह मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी.
आज आशी जब अपनी जुड़वां बेटियों को स्कूल बस में छोड़ने आई तो रोज की तरह नहीं खिलखिला रही थी. मैं उस की चुप्पी देख कर समझ गई कि जरूर कोई बात है, क्योंकि आशी और चुप्पी का तो दूरदूर तक का वास्ता नहीं है.
आशी मेरी सब से प्यारी सहेली है, जिस की 2 जुड़वां बेटियां मेरी बेटी प्रिशा के स्कूल में साथसाथ पढ़ती हैं. मैं आशी को 3 सालों से जानती हूं. मात्र 21 वर्ष की उम्र में उस का अमीर परिवार में विवाह हो गया था और फिर 1 ही साल में 2 जुड़वां बेटियां पैदा हो गईं. रोज बच्चों को बस में बैठा कर हम दोनों सुबह की सैर को निकल जातीं. स्वास्थ्य लाभ के साथसाथ अपने मन की बातों का आदानप्रदान भी हो जाता. किंतु उस के चेहरे पर आज उदासी देख कर मेरा मन न माना तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है आशी, आज इतनी उदास क्यों हो?’’
‘‘क्या बताऊं ऋचा घर में सभी तीसरा बच्चा चाहते हैं. बड़ी मुश्किल से तो दोनों बेटियों को संभाल पाती हूं. तीसरे बच्चे को कैसे संभालूंगी? यदि एक बच्चा और हो गया तो मैं तो मशीन बन कर रह जाऊंगी.’’
‘‘तो यह बात है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’
‘‘निखिल को नहीं उन की मां को चाहिए बच्चा. उन का कहना है कि इतनी बड़ी जायदाद का कोई वारिस मिल जाता तो अच्छा रहता. असल में उन्हें एक पोता चाहिए.’’
‘‘पर क्या गारंटी है कि इस बार पोता ही होगा? यदि पोती हुई तो क्या वारिस पैदा करने के लिए चौथा बच्चा भी पैदा करोगी?’’
‘‘वही तो. पर निखिल की मां को कौन समझाए. फिर वे ही नहीं मेरे अपने मातापिता भी यही चाहते हैं. उन का कहना है कि बेटियां तो विवाह कर पराए घर चली जाएंगी. वंशवृद्धि तो बेटे से ही होती है.’’
‘‘तुम्हारे पति निखिल क्या कहते हैं?’’
‘‘वैसे तो निखिल बेटेबेटी में कोई फर्क नहीं समझते. किंतु उन का भी कहना है कि पहली बार में ही जुड़वां बेटियां हो गईं वरना क्या हम दूसरी बार कोशिश न करते? एक कोशिश करने में कोई हरज नहीं… सब को वंशवृद्धि के लिए लड़का चाहिए बस… मेरे शरीर, मेरी इच्छाओं के बारे में तो कोई नहीं सोचता और न ही मेरे स्वास्थ्य के बारे में… जैसे मैं कोई औरत नहीं वंशवृद्धि की मशीन हूं… 2 बच्चे पहले से हैं और बेटे की चाह में तीसरे को लाना कहां तक उचित है?’’
मैं सोचती थी कि जमाना बदल गया है, लेकिन आशी की बात सुन कर लगा कि हमारा समाज आज भी पुरातन विचारों से जकड़ा हुआ है. बेटेबेटी का फर्क सिर्फ गांवों और अनपढ़ घरों में ही नहीं वरन बड़े शहरों व पढ़ेलिखे परिवारों में भी है. यह देख कर मैं बहुत आश्चर्यचकित थी. फिर मैं तो सोचती थी कि आशी का पति बहुत समझदार है… वह कैसे अपनी मां की बातों में आ गया?
आशी मन से तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. न बेटा न बेटी. अब आशी अकसर अनमनी सी रहती. मैं भी सोचती कि रोजरोज पूछना ठीक नहीं. यदि उस की इच्छा होगी तो खुद बताएगी. हां, हमारा बच्चों को बस में बैठा कर सुबह की सैर का सिलसिला जारी था.
एक दिन आशी ने बताया, ‘‘ऋचा मैं गर्भवती हूं… अब शायद रोज सुबह की सैर के लिए न जा सकूं.’’
उस की बात सुन मैं मन ही मन सोच रही थी कि यह शायद निखिल की बातों में आ गई या क्या मालूम निखिल ने इसे मजबूर किया हो. फिर भी पूछ ही लिया, ‘‘तो अब तुम्हें भी वारिस चाहिए?’’
‘‘नहीं. पर यदि मैं निखिल की बात न मानूं तो वे मुझे ताने देने लगेंगे… इसीलिए सोचा कि एक चांस और ले लेती हूं. अब वही फिर से 9 महीनों की परेड.’’
इस के बाद आशी को कभी मौर्निंग सिकनैस होती तो सैर पर नहीं आती. देखतेदेखते 3 माह बीत गए. फिर एक दिन अचानक आशी मेरे घर आई. उसे अचानक आया देख मुझे लगा कि कुछ बात जरूर है. अत: मैं ने पूछा, सब ठीक तो है? कोई खास वजह आने की? तबीयत कैसी है तुम्हारी आशी?’’
आशी कहने लगी, ‘‘कुछ ठीक नहीं चल रहा है ऋचा… निखिल की मम्मी को किसी ने बताया है कि आजकल अल्ट्रासाउंड द्वारा गर्भ में ही बच्चे का लिंग परीक्षण किया जाता है… लड़की होने पर गर्भपात भी करवा सकते हैं. अब मुझे मेरी सास के इरादे ठीक नहीं लग रहे हैं.
2 दिन से मेरे व निखिल के पीछे बच्चे के लिंग की जांच कराने के लिए पड़ी हैं.’’
‘‘यह तो गंभीर स्थिति है… तुम सास की बातों में मत आ जाना… निखिल को समझा दो कि तुम अपने बच्चे का लिंग परीक्षण नहीं करवाना चाहती,’’ मैं ने कहा.
सीमा भुनभनाती, मुंह फुलाती, अपनी मां से हुज्जत करती पर सास का फरमान कोई टाल नहीं सकता था.
मैं मन ही मन जानती थी कि मेरी सास जानबूझ कर सीमा को हमारे साथ नहीं भेजती थीं और उसे घर के किसी काम में उलझाए रखती थीं. मैं मन ही मन उन का आभार मानती.
एक बार मेरे भैया मुझ से मिलने आए थे. मां ने अपने सामर्थ्य भर कुछ सौगात भेजी थीं. मेरी सास ने उन वस्तुओं की बहुत तारीफ की और घर भर को दिखाया. फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘बहू, बहुत दिनों बाद तुम्हारे भाई तुम से मिलने आए हैं. तुम अपनी निगरानी में आज का खाना बनवाओ और उन की पसंद की चीजें बनवा कर उन्हें खिलाओ.’’
मेरा मन खुशी से नाच उठा. उन के प्रति मेरा मन आदर से झुक गया. कितना फर्क था मेरी मां और मेरी सास के बरताव में, मैं ने सोचा. मुझे याद है जब भी मेरी भाभी का कोई रिश्तेदार उन से मिलने आता तो मेरी मां की भृकुटी तन जाती. वे किचन में जा कर जोरजोर से बरतन पटकतीं ताकि घर भर को उन की अप्रसन्नता का भान हो जाए.
मुझे याद आया कि जब मेरी शादी हुई तो मेरी मां ने मुझे बुला कर हिदायत दी थी, ‘‘देख छुटकी, तेरा दूल्हा बड़ा सलोना है. तू उस के मुकाबले में कुछ भी नहीं है. मैं तुझे चेताए देती हूं कि तू हमेशा उन के सामने बनठन कर रहना. तभी तू उन का मन जीत पाएगी.’’
मुझ से कहे बिना नहीं रहा गया, ‘‘लेकिन भाभी को तो तुम हमेशा बननेसंवरने पर टोका करती थीं.’’
‘‘वह और बात है. तेरी भाभी कोई नईनवेली दुलहन थोड़े न है. बालबच्चों वाली है,’’ मां मुझ से बोलीं.
इस के विपरीत मेरी ससुराल में जब भी कोई त्योहार आता तो मेरी सास आग्रह कर के मुझे नई साड़ी पहनातीं और अपने गहनों से सजातीं. वे सब से कहती फिरतीं, ‘‘मेरी बहू तो लाखों में एक है.’’
इधर मेरी मां थीं जिन्होंने भाभी को तिलतिल जलाया था. उन की भावनाओं की अवहेलना कर के उन के जीवन में जहर घोल दिया था. ऐसा क्यों किया था उन्होंने? ऐसा कर के न केवल उन्होंने मेरे भाई की सुखशांति भंग कर दी थी बल्कि भाभी के व्यक्तित्व को भी पंगु बना दिया था.
मुझे लगता है भाभी अपने प्रति बहुत ही लापरवाह हो गई थीं. उन में जीने की इच्छा ही मर गई थी. यहां तक कि जब कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी ने उन्हें धर दबोचा तब भी उन्होंने अपनी परवाह न की, न घर में किसी को बताया कि उन्हें इतनी प्राणघातक बीमारी है. जब भैया को भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
जब मैं घर पहुंची तो भाभी की अर्थी उठने वाली थी. मैं ने अपने बक्से से बनारसी साड़ी निकाली और भाभी को पहना दी.
‘‘ये क्या कर रही है छुटकी,’’ मां ने कहा, ‘‘थोड़ी देर में तो सब राख होने वाला है.’’
‘‘होने दो,’’ मैं ने रुक्षता से कहा.
मुझे भाभी की वह छवि याद आई जब वे वधू के रूप में घर के द्वार पर खड़ी थीं. उन के माथे पर गोल बिंदी सूरज की तरह दमक रही थी. उन के होंठों पर सलज्ज मुसकान थी. उन की आंखों में हजार सपने थे.
भाभी की अर्थी उठ रही थी. मां का रुदन सब से ऊंचा था. वे गला फाड़फाड़ कर विलाप कर रही थीं. भैया एकदम काठ हो गए थे. उन के दोनों बेटे रो रहे थे पर छोटी बेटी नेहा जो अभी 4 साल की ही थी चारों ओर अबोध भाव से टुकुरटुकुर देख रही थी. मैं ने उस बच्ची को गोद में उठा लिया और भैया से कहा, ‘‘लड़के बड़े हैं. कुछ दिनों में बोर्डिंग में पढ़ने चले जाएंगे. पर यह नन्ही सी जान है जिसे कोई देखने वाला नहीं है. इस को तुम मुझे दे दो. मैं इसे पाल लूंगी और जब कहोगे वापस लौटा दूंगी.’’
‘‘अरी ये क्या कर रही है?’’ मां फुसफुफसाईं ‘‘तू क्यों इस जंजाल को मोल ले रही है. तुझे नाहक परेशानी होगी.’’
‘‘नहीं मां मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. उलटे अगर बच्ची यहां रहेगी तो तुम उसे संभाल न सकोगी.’’
‘‘लेकिन तेरी सास की मरजी भी तो जाननी होगी. तू अपनी भतीजी को गोद में लिए पहुंचेगी तो पता नहीं वे क्या कहेंगी.’’
‘‘मैं अपनी सास को अच्छी तरह जानती हूं. वे मेरे निर्णय की प्रशंसा ही करेंगी,’’ मैं ने दृढ़ शब्दों में कहा.
मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे भाभी अंतरिक्ष से मुझे देख रही हैं और हलकेहलके मुसकारा रही हैं. ‘भाभी,’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘मैं तुम्हारी थाती लिए जा रही हूं. मुझे पक्का विश्वास है कि इस में तुम्हारे संस्कार भरे हैं. इसे अपने हृदय से लगा कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करूंगी.
लेकिन क्या यह काम इतना आसान था? सम्मिलित परिवार में हर सदस्य को खुश रखना कठिन था.
भैया प्रशासन आधिकारी थे. आय अधिक न थी पर शहर में दबदबा था. लेकिन महीना खत्म होतेहोते पैसे चुक जाते और कई चीजों में कटौती करनी पड़ती. मुझे याद है एक बार दीवाली पर भैया का हाथ बिलकुल तंग था. उन्होंने मां से सलाह की और तय किया कि इस बार दीवाली पर पटाखे और मिठाई पर थोड़ेबहुत पैसे खर्च किए जाएंगे और किसी के लिए नए कपड़े नहीं लिए जाएंगे.
‘‘लेकिन छुटकी के लिए एक साड़ी जरूर ले लेना. अब तो वह साड़ी पहनने लगी है. उस का मन दुखेगा अगर उसे नए कपड़े न मिले तो. अब कितने दिन हमारे घर रहने वाली है? पराया धन, बेटी की जात.’’
‘‘ठीक है,’’ भैया ने सिर हिलाया.
मैं नए कपड़े पहन कर घर में मटकती फिरी. बाकी सब ने पुराने धुले हुए कपड़े पहने हुए थे. लेकिन भाभी के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आई. जहां तक मुझे याद है शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरा हो जब घर में किसी बात को ले कर खटपट न हुई हो. भैया के दफ्तर से लौटते ही मां उन के पास शिकायत की पोटली ले कर बैठ जातीं. भैयाभाभी कहीं घूमने जाते तो मां का चेहरा फूल जाता. फिर जैसे ही वे घर लौटते वे कहतीं, ‘‘प्रशांत बेटा, घर में बिन ब्याही बहन बैठी है. पहले उस को ठिकाने लगा. फिर तुम मियांबीवी जो चाहे करना. चाहे अभिसार करना चाहे रास रचाना. मैं कुछ नहीं बोलूंगी.’’
कभी भाभी को सजतेसंवरते देखतीं तो ताने देतीं, ‘‘अरी बहू, सारा समय शृंगार में लगाओगी, तो इन बालगोपालों को कौन देखेगा?’’ कभी भाभी को बनठन कर बाहर जाते देख मुंह बिचकातीं और कहतीं, ‘‘उंह, 3 बच्चों की मां हो गईं पर अभी भी साजशृंगार का इतना शौक.’’
इधर भैया भाभी को सजतेसवंरते देखते तो उन का चेहरा खिल उठता. शायद यही बात मां को अखरती थी. उन्हें लगता था कि भाभी ने भैया पर कोई जादू कर दिया है तभी वे हर वक्त उन का ही दम भरते रहते हैं. जबकि भाभी के सौम्य स्वभाव के कारण ही भैया उन्हें इतना चाहते थे. मैं ने कभी किसी बात पर उन्हें झगड़ते नहीं देखा था. कभीकभी मुझे ताज्जुब होता था कि भाभी जाने किस मिट्टी की बनी हैं. इतनी सहनशील थीं वे कि मां के तमाम तानों के बावजूद उन का चेहरा कभी उदास नहीं हुआ. हां, एकाध बार मैं ने उन्हें फूटफूट कर रोते हुए देखा था. भाभी के 2 छोटे भाई थे जो अभी स्कूल में पढ़ रहे थे. वे जब भी भाभी से मिलने आते तो भाभी खुशी से फूली न समातीं. वे बड़े उत्साह से उन के लिए पकवान बनातीं.
उस समय मां का गुस्सा चरम पर पहुंच जाता, ‘‘ओह आज तो बड़ा जोश चढ़ा है. चलो भाइयों के बहाने आज सारे घर को अच्छा खाना मिलेगा. लेकिन रानीजी मैं पूछूं, तुम्हारे भाई हमेशा खाली हाथ झुलाते हुए क्यों आते हैं? इन को सूझता नहीं कि बहन से मिलने जा रहे हैं, तो एकाध गिफ्ट ले कर चलें. बालबच्चों वाला घर है आखिर.’’
‘‘मांजी, अभी पढ़ रहे हैं दोनों. इन के पास इतने पैसे ही कहां होते हैं कि गिफ्ट वगैरह खरीदें.’’
‘‘अरे इतने भी गएगुजरे नहीं हैं कि 2-4 रुपए की मिठाई भी न खरीद सकें. आखिर कंगलों के घर से है न. ये सब तौरतरीके कहां से जानेंगे.’’
भाभी को यह बात चुभ गई. वे चुपचाप आंसू बहाने लगीं.
कुछ वर्ष बाद मेरी शादी तय हो गई. मेरे ससुराल वाले बड़े भले लोग थे. उन्होंने दहेज लेने से इनकार कर दिया. जब मैं विदा हो रही थी तो भाभी ने वह बनारसी साड़ी मेरे बक्से में रखते हुए कहा, ‘‘छुटकी, यह मेरी तरफ से एक तुच्छ भेंट है.’’
‘‘अरे, यह तो तुम्हारी बहुत ही प्रिय साड़ी है.’’
‘‘हां, पर इस को पहनने का अवसर ही कहां मिलता है. जब भी इसे पहनोगी तुम्हें मेरी याद आएगी.’’
‘हां भाभी’ मैं ने मन ही मन कहा, ‘इस साड़ी को देखूंगी तो तुम्हें याद करूंगी. तुम्हारे जैसी स्त्रियां इस संसार में कम होती हैं. इतनी सहिष्णु, इतनी उदार. कभी अपने लिए कुछ मांगा नहीं, कुछ चाहा नहीं हमेशा दूसरों के लिए खटती रहीं, बिना किसी प्रकार की अपेक्षा किए.’ मुझे उन की महानता का तब एहसास होता था जब वे अपने प्रति होते अन्याय को नजरअंदाज कर जातीं.
मेरी ससुराल में भरापूरा परिवार था. 2 ननदें, 1 लाड़ला देवर, सासससुर. हर नए ब्याहे जोड़े की तरह मैं और मेरे पति भी एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताने की कोशिश करते. शाम को जब मेरे पति दफ्तर से लौटते तो हम कहीं बाहर जाने का प्रोग्राम बनाते. जब मैं बनठन का तैयार होती, तो मेरी नजर अपनी ननद पर पड़ती जो अकसर मेरे कमरे में ही पड़ी रहती और टकटकी बांधे मेरी ओर देखती रहती. वह मुझ से हजार सवाल करती. कौन सी साड़ी पहन रही हो? कौन सी लिपस्टिक लगाओगी? मैचिंग चप्पल निकाल दूं क्या? इत्यादि. बाहर की ओर बढ़ते मेरे कदम थम जाते. ‘‘सुनो जी,’’ मैं अपने पति से फुसफुसा कर कहती, ‘‘सीमा को भी साथ ले चलते हैं. ये बेचारी कहीं बाहर निकल नहीं पाती और घर में बैठी बोर होती रहती है.
‘‘अच्छी बात है,’’ ये बेमन से कहते, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो.’’
मेरी सास के कानों में यह बात पड़ती तो वे बीच ही में टोक देतीं,
‘‘सीमा नहीं जाएगी तुम लोगों के साथ. उसे स्कूल का ढेर सारा होमवर्क करना है और उस को ले जाने का मतलब है टैक्सी करना, क्योंकि मोटरसाइकिल पर 3 सवारियां नहीं जा सकतीं.’’
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मैंने घड़ी देखी. अभी लगभग 1 घंटा तो स्टेशन पर इंतजार करना ही पड़ेगा. कुछ मैं जल्दी आ गया था और कुछ ट्रेन देरी से आ रही थी. इधरउधर नजरें दौड़ाईं तो एक बैंच खाली नजर आ गई. मैं ने तुरंत उस पर कब्जा कर लिया. सामान के नाम पर इकलौता बैग सिरहाने रख कर मैं पांव पसार कर लेट गया. अकेले यात्रा का भी अपना ही आनंद है. सामान और बच्चों को संभालने की टैंशन नहीं. आराम से इधरउधर ताकाझांकी भी कर लो.
स्टेशन पर बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी. पर जैसे ही कोई ट्रेन आने को होती, एकदम हलचल मच जाती. कुली, ठेले वाले एकदम चौकन्ने हो जाते. ऊंघते यात्री सामान संभालने लगते. ट्रेन के रुकते ही यात्रियों के चढ़नेउतरने का सिलसिला शुरू हो जाता. उस समय यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता था कि ट्रेन के अंदर ज्यादा भीड़ है या बाहर? इतने इतमीनान से यात्रियों को निहारने का यह मेरा पहला अवसर था. किसी को चढ़ने की जल्दी थी, तो किसी को उतरने की. इस दौरान कौन खुश है, कौन उदास, कौन चिंतित है और कौन पीडि़त यह देखनेसमझने का वक्त किसी के पास नहीं था.
किसी का पांव दब गया, वह दर्द से कराह रहा है, पर रौंदने वाला एक सौरी कह चलता बना. ‘‘भैया जरा साइड में हो कर सहला लीजिए,’’ कह कर आसपास वाले रास्ता बना कर चढ़नेउतरने लगे. किसी को उसे या उस के सामान को चढ़ाने की सुध नहीं थी. चढ़ते वक्त एक महिला की चप्पलें प्लेटफार्म पर ही छूट गईं. वह चप्पलें पकड़ाने की गुहार करती रही. आखिर खुद ही भीड़ में रास्ता बना कर उतरी और चप्पलें पहन कर चढ़ी.
मैं लोगों की स्वार्थपरता देख हैरान था. क्या हो गया है हमारी महानगरीय संस्कृति को? प्रेम, सौहार्द और अपनेपन की जगह हर किसी की आंखों में अविश्वास, आशंका और अजनबीपन के साए मंडराते नजर आ रहे थे. मात्र शरीर एकदूसरे को छूते हुए निकल रहे थे, उन के मन के बीच का फासला अपरिमित था. मुझे सहसा कवि रामदरश मिश्र की वह उपमा याद आ गई, ‘कैसा है यह एकसाथ होना, दूसरे के साथ हंसना न रोना. क्या हम भी लैटरबौक्स की चिट्ठियां बन गए हैं?’
इस कल्पना के साथ ही स्टेशन का परिदृश्य मेरे लिए सहसा बदल गया. शोरशराबे वाला माहौल निस्तब्ध शांति में तबदील हो गया. अब वहां इंसान नहीं सुखदुख वाली अनंत चिट्ठियां अपनीअपनी मंजिल की ओर धीरेधीरे बढ़ रही थीं. लेकिन कोई किसी से नहीं बोल रही थी. मैं मानो सपनों की दुनिया में विचरण करने लगा था.
‘‘हां, यहीं रख दो,’’ एक नारी स्वर उभरा और फिर ठकठक सामान रखने की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग कर दी. गोद में छोटे बच्चे को पकड़े एक संभ्रांत सी महिला कुली से सामान रखवा रही थी. बैंच पर बैठने का उस का मंतव्य समझ मैं ने पांव समेट लिए और जगह बना दी. वह धन्यवाद दे कर मुसकान बिखेरती हुई बच्चे को ले कर बैठ गई. एक बार उस ने अपने सामान का अवलोकन किया. शायद गिन रही थी पूरा आ गया है या नहीं? फिर इतमीनान से बच्चे को बिस्कुट खिलाने लगी.
यकायक उस महिला को कुछ खयाल आया. उस ने अपनी पानी की बोतल उठा कर हिलाई. फिर इधरउधर नजरें दौड़ाईं. दूर पीने के पानी का नल और कतार नजर आ रहें थे. उस की नजरें मुड़ीं और आ कर मुझ पर ठहर गईं. मैं उस का मंतव्य समझ नजरें चुराने लगा. पर उस ने मुझे पकड़ लिया, ‘‘भाई साहब, बहुत जल्दी में घर से निकलना हुआ तो बोतल नहीं भर सकी. प्लीज, आप भर लाएंगे?’’
एक तो अपने आराम में खलल की वजह से मैं वैसे ही खुंदक में था और फिर ऊपर से यह बेगार. मेरे मन के भाव शायद मेरे चेहरे पर लक्षित हो गए थे. इसलिए वह तुरंत बोल पड़ी, ‘‘अच्छा रहने दीजिए. मैं ही ले आती हूं. आप थोड़ा टिंकू को पकड़ लेंगे?’’
वह बच्चे को मेरी गोद में पकड़ाने लगी, तो मैं झटके से उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं ही ले आता हूं,’’ कह कर बोतल ले कर रवाना हुआ तो मन में एक शक का कीड़ा बुलबुलाया कि कहीं यह कोई चोरउचक्की तो नहीं? आजकल तो चोर किसी भी वेश में आ जाते हैं. पीछे से मेरा बैग ही ले कर चंपत न हो जाए? अरे नहीं, गोद में बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कहां भाग सकती है? लो, बन गए न बेवकूफ? अरे, ऐसों का पूरा गिरोह होता है. महिलाएं तो ग्राहक फंसाती हैं और मर्द सामान ले कर चंपत. मैं ठिठक कर मुड़ कर अपना सामान देखने लगा.
‘‘मैं ध्यान रख रही हूं, आप के सामान का,’’ उस ने जोर से कहा.
मैं मन ही मन बुदबुदाया कि इसी बात का तो डर है. कतार में खड़े और बोतल भरते हुए भी मेरी नजरें अपने बैग पर ही टिकी रहीं. लौट कर बोतल पकड़ाई, तो उस ने धन्यवाद कहा. फिर हंस कर बोली, ‘‘आप से कहा तो था कि मैं ध्यान रख रही हूं. फिर भी सारा वक्त आप की नजरें इसी पर टिकी रहीं.’’
अब मैं क्या कहता? ‘खैर, कर दी एक बार मदद, अब दूर रहना ही ठीक है,’ सोच कर मैं मोबाइल में मैसेज पढ़ने लगा. यह अच्छा जरिया है आजकल, भीड़ में रहते हुए भी निस्पृह बने रहने का.
‘‘आप बता सकते हैं कोच नंबर 3 कहां लगेगा?’’ उस ने मुझ से फिर संपर्कसूत्र जोड़ने की कोशिश की.
‘‘यहीं या फिर थोड़ा आगे,’’ सूखा सा जवाब देते वक्त अचानक मेरे दिमाग में कुछ चटका कि ओह, यह भी मेरे ही डब्बे में है? मेरी नजरें उस के ढेर सारे सामान पर से फिसलती हुईं अपने इकलौते बैग पर आ कर टिक गईं. अब यदि इस ने अपना सामान चढ़वाने में मदद मांगी या बच्चे को पकड़ाया तो? बच्चू, फूट ले यहां से. हालांकि ट्रेन आने में अभी 10 मिनट की देर थी. पर मैं ने अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा.
कुछ ही देर में ट्रेन आ पहुंची. मैं लपक कर डब्बे में चढ़ा और अपनी सीट पर जा कर पसर गया. अभी मैं पूरी तरह जम भी नहीं पाया था कि उसी महिला का स्वर सुनाई दिया, ‘‘संभाल कर चढ़ाना भैया. हां, यह सूटकेस इधर नीचे डाल दो और उसे ऊपर चढ़ा दो… अरे भाई साहब, आप की भी सीट यहीं है? चलो, अच्छा है… लो भैया, ये लो अपने पूरे 70 रुपए.’’
मैं ने देखा वही कुली था. पैसे ले कर वह चला गया. महिला मेरे सामने वाली सीट पर बच्चे को बैठा कर खुद भी बैठ गई और सुस्ताने लगी. मुझे उस से सहानुभूति हो आई कि बेचारी छोटे से बच्चे और ढेर सारे सामान के साथ कैसे अकेले सफर कर रही है? पर यह सहानुभूति कुछ पलों के लिए ही थी. परिस्थितियां बदलते ही मेरा रुख भी बदल गया. हुआ यों कि टी.टी. आया तो वह उस की ओर लपकी. बोली, ‘‘मेरी ऊपर वाली बर्थ है. तत्काल कोटे में यही बची थी. छोटा बच्चा साथ है, कोई नीचे वाली सीट मिल जाती तो…’’
मेरी नीचे वाली बर्थ थी. कहीं मुझे ही बलि का बकरा न बनना पड़े, सोच कर मैं ने तुरंत मोबाइल निकाला और बात करने लगा. टी.टी. ने मुझे व्यस्त देख पास बैठे दूसरे सज्जन से पूछताछ आरंभ कर दी. उन की भी नीचे की बर्थ थी. वे सीटों की अदलाबदली के लिए राजी हो गए, तो मैं ने राहत की सांस ले कर मोबाइल पर बात समाप्त की. वे सज्जन एक उपन्यास ले कर ऊपर की बर्थ पर जा कर आराम से लेट गए. महिला ने भी राहत की सांस ली.
‘‘चलो, यह समस्या तो हल हुई… मैं जरा टौयलेट हो कर आती हूं. आप टिंकू को देख लेंगे?’’ बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह उठ कर चल दी. मुझ जैसे सज्जन व्यक्ति से मानो इनकार की तो उसे उम्मीद ही नहीं थी.
मैं ने सिर थाम लिया कि इस से तो मैं सीट बदल लेता तो बेहतर था. मुझे आराम से उपन्यास पढ़ते उन सज्जन से ईर्ष्या होने लगी. उस महिला पर मुझे बेइंतहा गुस्सा आ रहा था कि क्या जरूरत थी उसे एक छोटे बच्चे के संग अकेले सफर करने की? मेरे सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया. मैं बैग से अखबार निकाल कर पढ़े हुए अखबार को दोबारा पढ़ने लगा. वह महिला तब तक लौट आई थी.
‘‘मैं जरा टिंकू को भी टौयलेट करा लाती हूं. सामान का ध्यान तो आप रख ही रहे हैं,’’ कहते हुए वह बच्चे को ले कर चली गई. मैं ने अखबार पटक दिया और बड़बड़ाया कि हां बिलकुल. स्टेशन से बिना पगार का नौकर साथ ले कर चढ़ी हैं मैडमजी, जो कभी इन के बच्चे का ध्यान रखेगा, कभी सामान का, तो कभी पानी भर कर लाएगा…हुंह.
तभी पैंट्रीमैन आ गया, ‘‘सर, आप खाना लेंगे?’’
‘‘हां, एक वैज थाली.’’
वह सब से पूछ कर और्डर लेने लगा. अचानक मुझे उस महिला का खयाल आया कि यदि उस ने खाना और्डर नहीं किया तो फिर स्टेशन से मुझे ही कुछ ला कर देना पड़ेगा या शायद शेयर ही करना पड़ जाए. अत: बोला, ‘‘सुनो भैया, उधर टौयलेट में एक महिला बच्चे के साथ है. उस से भी पूछ लेना.’’
कुछ ही देर में बच्चे को गोद में उठाए वह प्रकट हो गई, ‘‘धन्यवाद, आप ने हमारे खाने का ध्यान रखा. पर हमें नहीं चाहिए. हम तो घर से काफी सारा खाना ले कर चले हैं. वह रामधन है न, हमारे बाबा का रसोइया उस ने ढेर सारी सब्जी व पूरियां साथ रख दी हैं. बस, जल्दीजल्दी में पानी भरना भूल गया, बल्कि हम तो कह रहे हैं आप भी मत मंगाइए. हमारे साथ ही खा लेना.’’
मैं ने कोई जवाब न दे कर फिर से अखबार आंखों के आगे कर लिया और सोचने लगा कि या तो यह महिला निहायत भोली है या फिर जरूरत से ज्यादा शातिर. हो सकता है खाने में कुछ मिला कर लाई हो. पहले भाईचारा गांठ रही है और फिर… मुझे सावधान रहना होगा. इस का आज का शिकार निश्चितरूप से मैं ही हूं.
जबलपुर स्टेशन आने पर खाना आ गया था. मैं कनखियों से उस महिला को खाना निकालते और साथ ही बच्चे को संभालते देख रहा था. पर मैं जानबूझ कर अनजान बना अपना खाना खाता रहा.
‘‘थोड़ी सब्जीपूरी चखिए न. घर का बना खाना है,’’ उस ने इसरार किया.
‘‘बस, मेरा पेट भर गया है. मैं तो नीचे स्टेशन पर चाय पीने जा रहा हूं,’’ कह मैं फटाफट खाना खत्म करते हुए वहां से खिसक लिया कि कहीं फिर पानी या और कुछ न मंगा ले.
‘‘हांहां, आराम से जाइए. मैं आप के सामान का खयाल रख लूंगी.’’
‘ओह, बैग के बारे में तो भूल ही गया था. इस की नजर जरूर मेरे बैग पर है. पर क्या ले लेगी? 4 जोड़ी कपड़े ही तो हैं. यह अलग बात है कि सब अच्छे नए जोड़े हैं और आज के जमाने में तो वे ही बहुत महंगे पड़ते हैं. पर छोड़ो, बाहर थोड़ी आजादी तो मिलेगी. इधर तो दम घुटने लगा है,’ सोचते हुए मैं नीचे उतर गया. चाय पी तो दिमाग कुछ शांत हुआ. तभी मुझे अपना एक दोस्त नजर आ गया. वह भी उसी गाड़ी में सफर कर रहा था और चाय पीने उतरा था. बातें करते हुए मैं ने उस के संग दोबारा चाय पी. मेरा मूड अब एकदम ताजा हो गया था. हम बातों में इतना खो गए कि गाड़ी कब खिसकने लगी, हमें ध्यान ही न रहा. दोस्त की नजर गई तो हम भागते हुए जो डब्बा सामने दिखा, उसी में चढ़ गए. शुक्र है, सब डब्बे अंदर से जुड़े हुए थे. दोस्त से विदा ले कर मैं अपने डब्बे की ओर बढ़ने लगा. अभी अपने डब्बे में घुसा ही था कि एक आदमी ने टोक दिया, ‘‘क्या भाई साहब, कहां चले गए थे? आप की फैमिली परेशान हो रही है.’’
आगे बढ़ा तो एक वृद्ध ने टोक दिया, ‘‘जल्दी जाओ बेटा. बेचारी के आंसू निकलने को हैं,’’ अपनी सीट तक पहुंचतेपहुंचते लोगों की नसीहतों ने मुझे बुरी तरह खिझा दिया था.
मैं बरस पड़ा, ‘‘नहीं है वह मेरी फैमिली. हर किसी राह चलते को मेरी फैमिली बना देंगे आप?’’
‘‘भैया, वह सब से आप का हुलिया बताबता कर पूछ रही थी, चेन खींचने की बात कर रही थी. तब किसी ने बताया कि आप जल्दी में दूसरे डब्बे में चढ़ गए हैं. चेन खींचने की जरूरत नहीं है, अभी आ जाएंगे तब कहीं जा कर मानीं,’’ एक ने सफाई पेश की.
‘‘क्या चाहती हैं आप? क्यों तमाशा बना रही हैं? मैं अपना ध्यान खुद रख सकता हूं. आप अपना और अपने बच्चे का ध्यान रखिए. बहुत मेहरबानी होगी,’’ मैं ने गुस्से में उस के आगे हाथ जोड़ दिए.
इस के बाद पूरे रास्ते कोई कुछ नहीं बोला. एक दमघोंटू सी चुप्पी हमारे बीच पसरी रही. मुझे लग रहा था मैं अनावश्यक ही उत्तेजित हो गया था. पर मैं चुप रहा. मेरा स्टेशन आ गया था. मैं उस पर फटाफट एक नजर भी डाले बिना अपना बैग उठा कर नीचे उतर गया. अपना वही दोस्त मुझे फिर नजर आ गया तो मैं उस से बतियाने रुक गया. हम वहीं खड़े बातें कर रहे थे कि एक अपरिचित सज्जन मेरी ओर बढ़े. उन की गोद में उसी बच्चे को देख मैं ने अनुमान लगा लिया कि वे उस महिला के पति होंगे.
‘‘किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं? संजना बता रही है, आप ने पूरे रास्ते उस का और टिंकू का बहुत खयाल रखा. वह दरअसल अपने बीमार बाबा के पास पीहर गई हुई थी. मैं खुद उसे छोड़ कर आया था. यहां अचानक मेरे पापा को हार्टअटैक आ गया. उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. संजना को पता चला तो आने की जिद पकड़ बैठी. मैं ने मना किया कि कुछ दिनों बाद मैं खुद लेने आ जाऊंगा पर उस से रहा नहीं गया. बस, अकेले ही चल पड़ी. मैं कितना फिक्रमंद हो रहा था…’’
‘‘मैं ने कहा था न आप को फिक्र की कोई बात नहीं है. हमें कोई परेशानी नहीं होगी. और देखो ये भाई साहब मिल ही गए. इन के संग लगा ही नहीं कि मैं अकेली सफर कर रही हूं.’’
मैं असहज सा महसूस करने लगा. मैं ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओह, 5 बज गए. मैं चलता हूं… क्लाइंट निकल जाएगा,’’ कहते हुए मैं आगे बढ़ते यात्रियों में शामिल हो गया. लिफाफाबंद चिट्ठियों की भीड़ में एक और चिट्ठी शुमार हो गई थी.
लड़की जैसे हावभाव होने पर श्री ने सिया बनने का फैसला ले तो लिया, पर मुसीबतों ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा. ट्रांसजेंडर और हिजड़ा शब्द बारबार उस के कानों में गूंजते. श्री से सिया बनने के बाद क्या मुसीबतों का खात्मा हो गया या फिर सामाजिक व मानसिक सोच में कोई बदलाव आया.
‘छनाक’ की आवाज के साथ आईना चकनाचूर हो गया था. कई टुकड़ों में बंटा हुआ आईने का हर टुकड़ा सिया का अक्स दिखा रहा था.
मांग में भरा सिंदूर, गले का मंगलसूत्र, कानों के कुंडल ये सब मानो सिया को चिढ़ा रहे थे.
शायद समाज के दोहरेपन के आगे वह हार मान चुकी थी.
एकसाथ कई सवाल सिया के मन में उमड़घुमड़ रहे थे.
आईने के नुकीले टुकड़ों में सिया को उस के सवालों का उत्तर नहीं मिल सका. आंखों में आंसुओं के साथ पिछली यादें किसी फिल्म की तरह सिया की आंखों के सामने से गुजरने लगी थी.
“श्री” नाम था उस का. 20 साल का होतेहोते वह और उस के मांबाप ये समझ चुके थे कि श्री का शरीर भले ही एक पुरुष का हो, पर उस के अंदर आत्मा एक महिला की ही है.
मांबाप ने श्री को कई डाक्टरों और मनोचिकित्सकों को दिखलाया, इलाज भी चला, पर कोई लाभ नहीं हुआ. डाक्टरों ने श्री को ‘जेंडर आइडेंटिटी डिसऔर्डर’ का मरीज बताया, जिस में शरीर तो स्त्री या पुरुष का हो सकता है, पर हावभाव और लक्षण विपरीत लिंग के होते हैं.
श्री के नैननक्श तीखे थे. उस के चेहरे की खूबसूरती और चमक से लड़कियों को जलन होना स्वाभाविक ही था. वह लड़कियों के कपड़े पहनता, उन की तरह हावभाव रखता, गाने गाता और लड़कियों की तरह डांस करना उसे बहुत अच्छा लगता था. किसी से बात करते समय लचकनामचकना श्री की आदत थी. अनजाने में ही श्री के अंदर की स्त्री सहज रूप में उभर कर आती थी.
श्री जीवन के 22वें वर्ष में प्रवेश कर चुका था. बाहर जाने पर भी लड़कियों जैसे कपड़े ही पहनने लगा था वह… मानो अब उसे जमाने के कहनेसुनने की कोई परवाह ही नहीं थी. उस ने अमर नाम का एक दोस्त बनाया था, जिसे वह अपना बौयफ्रैंड कहता था.
अमर को इस बात का अहसास था कि श्री की हरकतें लड़कियों जैसी हैं, पर उसे तो सिर्फ श्री के पैसे से मजे करने थे, इसलिए वह उस के नाज उठाता था. आज वे दोनों श्री का जन्मदिन मनाने के लिए किसी रेस्टोरेंट में जाने वाले थे.
इस खास दिन के लिए श्री ने अपने लंबे बालों को खुला छोड़ा हुआ था और वह सलवारसूट पहने था.
उन दोनों को वापसी में रात के साढ़े 11 बजे गए थे. अमर और श्री एकदूसरे का हाथ पकड़े गाड़ी की पार्किंग की तरफ बढ़ रहे थे.
“अरे लगता है, मैं अपना मोबाइल रेस्टोरेंट में ही भूल आया हूं,” कह कर अमर अंदर की ओर लपक गया, जबकि श्री बाहर ही उस के आने का इंतजार करने लगा था.
एक बड़ी सी गाड़ी श्री के ठीक सामने आ कर खड़ी हुई और उन में से बाहर निकले एक बलशाली लड़के ने श्री को अंदर घसीट लिया और श्री के मुंह पर टेप लगा दिया, ताकि वह शोर न मचा सके. गाड़ी को वे लोग एक निर्माणाधीन बिल्डिंग के पास ले गए और श्री को बाहर घसीटा.
“आज बहुत दिनों बाद कोई चिकना माल मिला है,” श्री के कपड़े फाड़ते हुए एक वहशी बोला, पर अगले ही पल वह बुरी तरह चौंक गया, “स्साला… ये तो लड़की के वेश में लड़का है… क्यों बे साले… लड़की बन कर घूमने में ज्यादा मजा आता है क्या?” दोचार लातघूंसे रसीद कर दिए थे उस वहशी ने श्री के गाल पर.
“अब क्या करें… सारे मूड का तो सत्यानाश हो गया…अब मूड कैसे फ्रेश करें?” दूसरा युवक बोला.
“भाई तुम लोग अपना सोच लो… मुझे तो आज इस लड़के के साथ ही मजे लेना है… कभीकभी स्वाद भी तो बदलना चाहिए न,” इतना कह कर वह युवक श्री के साथ जबरन दुराचार करने लगा और फिर कुछ देर बाद बारीबारी से तीनों दोस्तों ने भी श्री के साथ मुंह काला किया और उसे तड़पती अवस्था में छोड़ कर वहां से चले गए.
अर्धबेहोशी की अवस्था में श्री कब तक रहा, उसे कुछ पता नहीं था. आंखें खुलीं, तो उस ने अपनेआप को एक अस्पताल में पाया. पुलिस वाले उस के सामने खड़े थे.
“तो आप का कहना है कि आप के बेटे का बलात्कार हुआ है,” पुलिस वाले ने श्री के पिता से पूछा.
“जी.”
“हमें पीड़ित का बयान लेना होगा,” इंस्पेक्टर ने कहा और श्री से कुछ अटपटे सवाल पूछने के बाद जल्द ही कार्यवाही करने की बात कह कर बाहर निकलते हुए पुलिस कांस्टेबल इंस्पेक्टर से कह रहा था, “साहब, ये सब अमीर घर के लड़कों के चोंचले हैं… पहले लड़की बन कर घूमते हैं और फिर बलात्कार करवा कर हमारे लिए काम बढ़ा देते हैं… साले हिजड़े कहीं के…”
‘हिजड़े…’ यह शब्द गाली की तरह चुभा था श्री को. श्री का कलेजा अंदर तक छलनी हो गया था.
ये पहला मौका था, जब उसे अपने इस दोहरे जीवन जीने के ढंग पर शर्म आई थी.
करीब 5 दिन तक अस्पताल में रहने के बाद श्री अपने मांबाप के साथ घर आया और अपने बौयफ्रैंड अमर को फोन लगाया.
काफी देर बाद अमर ने उस का फोन उठाया और सीधे शब्दों में कह दिया कि श्री के साथ जो हादसा हुआ है, उस से उस की काफी बदनामी हो गई है, इसलिए वह उस के साथ अब कोई संबंध नहीं रखना चाहता.
जिस दोस्त की अब उसे सब से ज्यादा जरूरत थी, उसी ने उस का साथ छोड़ दिया. ये सोच कर श्री काफी परेशान हो उठा.
श्री ने अपने मर्दाना पर निष्क्रिय पड़े हुए अंग को देखा और नफरत से भर गया. यह पहला मौका था, जब श्री ने अपना लिंग परिवर्तन कराने की बात गहराई से सोची, इस के लिए सब से पहले उस ने इंटरनेट खंगालना शुरू किया. उस के जैसे लक्षणों वाले और बहुत से लोग हैं इस दुनिया में. यह बात उसे पता चली, तो उस के मन को थोड़ा सुकून मिला और गहरे जाने पर श्री को बहुत सी नई बातें पता चलीं. उस में से एक यह बात भी थी कि चिकित्सा के नए स्वरूप में लिंग परिवर्तन कराना कोई बहुत बड़ी बात नहीं रह गई है और 10 लाख से भी कम खर्चे में भारत में ही रह कर अपना लिंग परिवर्तन कराया जा सकता है.
ये सारी बातें जान कर श्री एक नई ऊर्जा से भर गया था. अपने लिंग परिवर्तन अर्थात अपनेआप को एक पुरुष से स्त्री के शरीर में ढालने की बात जब श्री ने अपने मांबाप से की, तो पहले तो वे सकते में आ गए, पर बाद में उन्होंने हामी भर दी.
श्री ने लिंग परिवर्तन के लिए विशेषज्ञों से औनलाइन परामर्श लेना शुरू किया, जिन से उसे पता चला कि ये प्रोसेस धीमा जरूर है, पर इस में धैर्य रख कर इसे सफल बनाया जा सकता है, कुछ और जरूरी खोजबीन के बाद डाक्टर मुकेश माथुर से अपना लिंग परिवर्तन कराने के लिए वह गुजरात में उन से मिला और उन के अस्पताल में भरती हो गया.
डाक्टर माथुर ने सब से पहले उसे हार्मोंस के इंजेक्शन देने शुरू किए और थेरेपी व अन्य दवाएं भी देनी शुरू कीं, जिन के असर से कभीकभी श्री परेशान हो उठता. कभी वह मूड स्विंग्स का शिकार भी हो जाता था. स्त्री के स्वभाव के साथसाथ उस का शरीर भी एक का हो जाएगा, ये सोच कर श्री ये सारे दर्द झेलता रहा.
जब कभी श्री परेशान होता, तो वह रोने लगता. ऐसे में उस के मनोचिकित्सक की कमी डाक्टर मुकेश माथुर पूरी करते.
40 साल के डाक्टर मुकेश माथुर शहर के जानेमाने सर्जन थे और चिकित्सा में उन्होंने कई इनाम भी जीते थे. उन्हें मरीज की मनोदशा का अच्छी तरह से पता था. वह घंटों श्री का हाथ पकड़ कर उस के सिरहाने बैठे रहते और उसे हिम्मत बंधाते. श्री को उन का आत्मिक होना बहुत अच्छा लगता था.
धीरेधीरे दवाएं और हार्मोंस का असर श्री के शरीर पर आने लगा. उस की काया कमनीय हो चली थी. सीने पर उभार आने लगे और शरीर के बाल पतले हो कर गायब होने लगे थे.
और आखिर वह दिन भी आया, जब डाक्टर मुकेश माथुर के द्वारा श्री को स्त्री घोषित कर दिया गया.
डाक्टर माथुर ने श्री को नया नाम भी दिया, “नए शरीर के साथ तुम्हारा नया होगा… सिया.”
अपने नए नाम को बारबार दोहरा रहा था श्री और ऐसा करते समय उस की आंखों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे.
“वैसे तो हमारे देश में अब लिंग परिवर्तन की प्रक्रिया आसान हो गई है, पर डाक्टर मुकेश माथुर ने जितने कम समय और बिना किसी साइड इफेक्ट के इस सर्जरी को अंजाम दिया है, काबिलेतारीफ है,” डाक्टरों के एक पैनल ने सर्वसम्मति से डाक्टर माथुर को “धन्वंतरि अवार्ड” से नवाजा.
श्री से सिया बन कर उस के जीने का अंदाज ही बदल गया था. अपनेआप को घंटों आईने के सामने निहारती रहती थी सिया.
सिया के नाम से नया फेसबुक एकाउंट भी बना लिया था उस ने. सब से पहली फ्रेंड रिक्वेस्ट उस ने अमर को भेजी, एक सुंदर लड़की की फोटो देख कर अमर ने तुरंत ही फ्रेंडशिप स्वीकार कर ली. धीरेधीरे फोन नंबरों का आदानप्रदान हुआ और अमर और सिया में बातचीत होने लगी. सिया ने वीडियो काल कर अमर को अपनी खूबसूरती की एक झलक भी दिखला दी थी.
अमर सिया से मिलने के लिए बेचैन हो उठा और उस ने सिया को मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में बुलाया, फिर उसे बहाने से एक होटल के कमरे में ले गया. उस की मंशा सिया जैसी खूबसूरत लड़की को भोगने की थी इसलिए, पर वह सिया को बातों मे लगा कर उस के कपड़े उतारने लगा. सिया ने भी कोई विरोध नहीं किया. कुछ देर बाद सिया पूरी तरह नग्न हो कर अमर के सामने खड़ी थी.
अमर अपलक सिया को निहारे जा रहा था. सिया को बांहों में भर लिया था अमर ने… जैसे ही सिया के शरीर में अमर ने समाने की कोशिश की, सिया ने उसे जोर का धक्का दिया.
यह देख अमर थोड़ा सा चौंक उठा, “अरे सिया, अब इतना नाटक क्यों कर रही हो?”
“मैं नाटक नहीं कर रही, बल्कि मैं तुम्हें ये अहसास कराना चाहती हूं कि तुम ने क्या खोया है… ये सिया वही श्री है, जिस को तुम ने एक दिन अपनी बदनामी के डर से ठुकरा दिया था.”
ऐसा कह कर सिया ने झट से कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल गई.
अमर को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत थी या कोई छलावा था.
सिया अपने मांबाप के साथ रहने लगी. महल्ले के लोगों को पता चल चुका था कि श्री ही लिंग परिवर्तन के बाद की सिया है, इसलिए सब उसे अजीब नजरों से देखते थे, कभीकभी सिया के पीछे फुसफुसाती आवाजें सिया को अजीब लगतीं, तो कभी 15-16 साल के लड़के उस के पीठ पीछे “हिजड़ा” बोल कर हंसते हुए चले जाते थे.
पहलेपहल तो सिया ने ध्यान नहीं दिया, पर जब इन चीजों की पुनरावृत्ति होने लगी तो सिया के मन में खटास आने लगी.
“मैं कोई हिजड़ा नहीं, बल्कि मैं तो पूरी औरत हूं,” फुसफुसा उठती थी सिया.
इस दौरान उसे हार्मोन थेरेपी के लिए डाक्टर मुकेश माथुर के पास जाना पड़ता था. उस दिन 14 फरवरी अर्थात “वैलेंटाइन डे” था. डाक्टर माथुर ने हाथों में एक सुर्ख गुलाब ले कर सिया को दिया.
“क्या आप किसी लड़की को लाल गुलाब देने का मतलब जानते हैं डाक्टर?” सिया ने पूछा.
“अच्छी तरह जानता हूं…तभी तो दे रहा हूं,” डाक्टर माथुर ने कहा.
“तुम्हारी सर्जरी करने के बाद मुझे तुम से मिलतेमिलते इतना प्यार हो गया है कि अब तुम्हारे बिना मुझ से रहा नहीं जाता है, इसलिए मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.”
एक ट्रांसजेंडर बनने के बाद से ही सिया एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ रही थी, जो उस के साथ शादी करने का साहस जुटा सके और उसे औरत के जिस्म का अहसास करा सके.
सिया डाक्टर माथुर की ये बात सुन कर फूली नहीं समा रही थी. उसे लग रहा था कि उस का सपना साकार हो गया है.
सिया के मांबाप को भला इस फैसले से क्या आपत्ति होती… उन्होंने उस की हां में हां मिला दी.
एक सादा समारोह में डाक्टर मुकेश माथुर ने सिया से शादी कर ली. एक ट्रांसजेंडर की एक डाक्टर से शादी को लोकल समाचारपत्रों ने प्रमुखता से स्थान दिया. सोशल मीडिया पर भी डाक्टर मुकेश माथुर और सिया की शादी खूब सुर्खियों में रही.
शादी के बाद डाक्टर मुकेश और सिया जी भर कर सैक्स का सुख लेने लगे. अपने शरीर को ले कर सिया का हर प्रकार का डर खत्म हो गया था.
आज कुछ मीडिया वाले डाक्टर मुकेश का इंटरव्यू लेने आए थे, जो उन से बारबार वही जानना चाह रहे थे कि एक ट्रांसजेंडर के साथ शादी कर के उन्हें कैसा लग रहा है… पत्रकार घुमाफिरा कर उन के सैक्स संबंधों के बारे में ही सवाल पूछ रहे थे, उन के हर सवाल का जवाब डाक्टर मुकेश माथुर बड़ी गर्मजोशी से जवाब दे रहे थे.
पत्रकारवार्ता खत्म होने के बाद डाक्टर मुकेश के मोबाइल पर एक फोन आया, जिसे सुन कर वे बहुत खुश हुए और सिया से बोले, “सुनो सिया… मैं ने एक लिंग परिवर्तन करवाए हुए एक लड़के से शादी की है. मेरे इस साहसिक निर्णय के लिए मुझे मानव कल्याण संस्था वाले एक अवार्ड दे रहे हैं,” चहक रहे थे डाक्टर मुकेश. उन को खुश देख कर सिया भी खुश हो गई.
2 दिन बाद ही डाक्टर मुकेश माथुर को जब अवार्ड मिल गया, तो उस ने अपने कुछ डाक्टर साथियों को इस खुशी में घर पर पार्टी के लिए बुलाया. सारा खाना बाहर से मंगवाया गया था और महंगी वाली शराब का दौर चल रहा था. मुकेश के सभी साथी नशे में झूमने लगे थे.
“यार मुकेश… शराब तो तू ने पिला दी, पर शबाब के लिए अपनी उस ट्रांसजेंडर बीवी को ही बुला ले,” एक साथी ने कहा.
“हां यार, बड़ा मूड हो रहा है,” दूसरे साथी ने कहा.
“नहीं यार, भले ही वह ट्रांसजेंडर हो… पर है तो उस की बीवी ही,” दूसरे दोस्त ने बचाव किया.
“इन ट्रांसजेंडर की भी क्या इज्जत और क्या बेइज्जती? ये तो ग्रुप सैक्स के लिए भी राजी हो जाते हैं.”
कमाल की बात यह थी कि डाक्टर मुकेश उन सब की बातों का कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा था, बल्कि उन की हां में हां मिला रहा था.
दीवार के पीछे खड़ी सिया ये सब सुन रही थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. इतने में सिया ने अपनी पीठ पर किसी का मजबूत हाथ महसूस किया. ये डाक्टर मुकेश माथुर था.
मुकेश सिया को घसीटते हुए अपने साथियों के सामने ले गया और बोला,
“लो दोस्तो, शराब के बाद… शबाब… मजे ले लो इस के.”
“ये आप क्या कर रहे हैं… मैं पत्नी हूं आप की.”
बड़ी ज़ोर से हंस पड़ा था डाक्टर मुकेश माथुर.
“अरे ओ… मैं ने तुझ जैसे हिजड़े… सौरी… ट्रांसजेंडर से शादी इसलिए की है कि मुझे समाज में सम्मान मिल सके… अवार्ड मिल सके… और मैं एक हिजड़े का उद्धार करने वाले डाक्टर के रूप मे जाना जाऊं,” नशे में डाक्टर मुकेश माथुर बुरी तरह हावी हो रहा था, जबकि डाक्टर मुकेश के साथी सिया के कपड़े खींचने में लगे हुए थे और कुछ ही देर में सिया उन सब के सामने नंगी खड़ी हुई फफक रही थी. वह हाथों से कैंची बना कर अपने सीने को ढकने की असफल कोशिश कर रही थी. एक व्यक्ति ने उसे बिस्तर पर गिरा लिया. उस के बाद सभी लोगों ने बारीबारी से सिया के साथ मुंह काला किया और इस घटना का वीडियो भी बनाया, ताकि इस बलात्कार की यादें ताजा रहें.
अगली सुबह जब सिया को होश आया था, तब कमरे में कोई नहीं था, सिर्फ शराब और सिगरेट की गंध शेष थी.
सिया ने किसी तरह से कपड़े पहने और उस की नजर आईने के टूटे हुए टुकड़ों पर पड़ी, जो उसे चिढ़ा रहे थे मानो कह रहे हो कि तू एक हिजड़ा है… तू एक ट्रांसजेंडर है और तुझे समाज वाले इज्जत की नजर से कभी नहीं देखेंगे…बड़ी चली थी शादी करने… सिया ने भरे मन से टूटे आईने का एक टुकड़ा उठाया और अपनी कलाई की नस को काट लिया. उस की कलाई से खून तेजी से टपकने लगा था. सिया के कानों में अब भी आवाजें गूंज रही थीं… ट्रांसजेंडर… हिजड़ा… हिजड़ा…
राजस्थान प्रदेश के इस हिस्से में लौटरी खेलने पर कोई प्रतिबंध नहीं था. यहां के युवा तो युवा, प्रौढ़ लोग भी लौटरी खेलने के जाल में उलझे हुए थे. इसी कसबे में सूरज नाम का 30 वर्षीय युवक भी रहता था. सूरज को भी लौटरी खेलने की लत लग गई थी.
सूरज के पिताजी गांव के प्रधान हुआ करते थे और किसी समय उन के पास काफी पैसा भी था. सूरज की लौटरी की लत ने काफी पैसा फुजूल उड़ा दिया था. सूरज लौटरी में ज्यादातर हारता, कभीकभी ही जीतता. पर जीत, हारे गए पैसों की तुलना में बहुत छोटी होती. फिर भी सूरज नए उत्साह से लौटरी का टिकट खरीदता और परिणाम का बेसब्री से इंतज़ार करता.
सूरज अपने मांबाप का इकलौता लड़का था. उस की शादी की उम्र हो गई थी, फिर भी उस की शादी नहीं हो रही थी. भला एक जुआरी से शादी करता भी कौन.
सूरज को गांव के लोग अच्छी नज़रों से नहीं देखते थे जिस का कारण उस का लौटरी खेलना तो था ही, साथ ही, सूरज के अंदर एक ऐब और भी था. दरअसल, लौटरी जीतने की खुशी मनाने और हारने का गम मिटाने के लिए वह गेरुई के पास जाता था.
गेरुई एक रुदाली थी. रुदाली, यानी, वह स्त्री जो किसी व्यक्ति की मृत्य हो जाने पर विलाप करती है. रुदाली के विलाप में ऐसा दर्द उभर कर आना चाहिए कि वहां खड़े सभी लोगों की आंखें नम हो जाएं.
सभ्रांत घरों की महिलाएं व्यक्ति की लाश पर हाथ मारमार कर विलाप नहीं कर सकती थीं क्योंकि वे तथाकथित सभ्य समाज का हिस्सा थीं और उन्हें घर की चारदीवारी के अंदर ही रहना होता था. ऐसे में रुदाली, पैसे वाले और कुलीन कहलाने वाले लोगों के बहुत काम आती थी.
और यह भी सच है कि आंसुओं की भी एक सीमा होती है. ऐसे में जब आंसू आंखों का साथ छोड़ देते तो रुदाली का सहारा लिया जाता.
रुदालियां काले रंग का लबादा सा ओढ़ कर आतीं. अच्छे कामों में रुदाली को देख लेने भर से काम बिगड़ जाते हैं, ऐसी मान्यता रखता था यह गांव.
गेरुई और उस के परिवार को गांव वालों ने गांव के कोने पर ही रहने की इज़ाज़त दी हुई थी. वह गांव में तब ही आती जब उसे किसी की मृत्यु पर विलाप करने के लिए बुलाया जाता, वरना उसे गांव के अंदर जाने की सख्त मनाही थी.
आज के समाज में भी लोकरीति के चलते उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर गेरुई के पास जब सूरज प्यार की तलाश में पहुंचा तो अपनेपन और सम्मान की भूखी गेरुई ने अपना तन और मन दोनों ही सूरज पर लुटा दिए थे. सूरज जब भी लौटरी में हार कर आता, तो हताशा में गेरुई से कुछ अलग डिमांड करता. तब गेरुई उसे बिस्तर पर लिटाती और उस की आंखों के सामने अपने मांसल अंगों से खुद कपड़े अलग करती. सूरज का कहना था कि गेरुई को ऐसा करते देख उसे कामसुख जैसा ही आनंद प्राप्त होता है. जब गेरुई पूरी तरह से निर्वस्त्र हो जाती और सूरज की सांसें धौकनी बन रही होतीं तो वह गेरुई को बिस्तर पर पटक देता और अपना मुंह गेरुई के विशाल वक्ष स्थल के बीच में डाल देता और गेरुई के कोमल व गोल अंगों को जी भर प्यार करता. गेरुई और सूरज जम कर कामसुख का आनंद लेते और फिर सूरज देर तक गेरुई की आगोश में पड़ा रहता. जातेजाते सूरज कुछ पैसे भी गेरुई को दे कर जाता.
एक दिन सूरज सड़क के किनारे वाली चाय की दुकान पर बैठा हुआ लौटरी के टिकट का गणित बिठा रहा था. तभी वहां पर अपने स्कूटर पर बैठा हुआ राजू सिंह आया और सूरज से जानपहचान बढ़ाने लगा. राजू सिंह ने उसे बताया कि वह आसपास के गांव और कसबों में घूमता है और उम्र निकल जाने के कारण जिन लड़केलड़कियों की शादी नहीं हो पाती है वह उन की शादी करवाने में मदद करता है. राजू सिंह ने 4-5 फोटो सूरज के सामने फैला दी थीं. सूरज ने उड़ती नज़र उन पर डाली. वे सभी बहुत सुंदर लड़कियां थीं. देखने से ही बड़े घर की लड़कियां लग रही थीं. उन की सुंदरता देख कर एकबारगी सूरज के मुंह में भी पानी आ गया.
“ये… इत्ती सुंदर लड़कियां मुझ से शादी करने के लिए क्यों राजी होंगी भला?” सूरज ने सवाल किया.
“अरे हुज़ूर, आप के रसूख के बारे में किसे पता नहीं है. बस, आप यह लौटरी और रुदाली गेरुई का चक्कर छोड़ दीजिए, फिर देखिए, आप के पास लड़कियां कैसी खिंची चली आती हैं,” राजू सिंह ने चिकनीचुपड़ी बातें शुरू कर दीं और जातेजाते लड़कियों की फोटो सूरज के पास ही छोड़ गया और 2-3 दिनों बाद आने को कह गया.
संयोग की बात थी कि जब सूरज घर पहुंचा तो उस की मां ने खाना देते समय बेहद भावपूर्ण स्वर में सूरज से कहा, “क्या बेटा उम्रभर मुझ से ही खाना बनवाएगा? शादी कर ले, तो मुझे भी बहू के हाथ की रोटी नसीब हो जाएगी. एक दिन तो मरना ही है मुझे.”
मां के मुंह से ऐसी बातें सुन कर सूरज को भी लगा कि भटकना बहुत हो गया, अब मांबाप के सुख के लिए उसे शादी कर लेनी चाहिए.
आज राजू सिंह आया तो सूरज ने अपनी परेशानी उसे बताई, “शादी तो मैं कर लूं पर मेरे पास पैसाकौड़ी तो कुछ है नहीं. फिर, सारा इंतज़ाम कैसे होगा?”
“पैसे की चिंता आप मत करो. पहले तो आप लड़की फाइनल करो. आगे का रास्ता मैं आप को बताता हूं.”
राजू सिंह को सूरज ने अपने मांबाप से मिलवा दिया ताकि शादी आदि की बात आगे बढ़ सके. लड़की की फोटो पर मांबाप और सूरज ने मोहर लगाई, तो राजू सिंह ने बताया कि यह लड़की सिंगरी गांव के एक गरीब किसान की बेटी है. इस के पास रूप है पर इस के बाप के पास पैसा नहीं है. ऐसे में आप लोगों को ही इन का खर्चा भी उठाना पड़ेगा. आप लोगों का रिश्ता इतनी सुंदर लड़की से हो रहा है, इसलिए गांव में अभी इस रिश्ते की चर्चा किसी से मत करना वरना लोग शादी तुड़वा भी देते हैं.
“पर हमारे पास भी तो अधिक पैसे नहीं हैं,” सूरज के पिता ने कहा.
“अरे चाचा, कोई बात नहीं है. मैं सूरज को बैंक से लोन दिलवा दूंगा.”
“लोन पर बैंक में बंधक यानी गारंटी के नाम पर हमारे पास तो सिर्फ ज़मीन के कागज़ ही हैं,” सूरज ने कहा.
“बस, उतना ही बहुत है. आप चिंता मत करो, सब इंतज़ाम हो जाएगा,” राजू सिंह ने शेखी बघारी.
राजू सिंह ने अगले दिन ही सूरज को अपने साथ ले जा कर बैंक में कागजी कार्यवाही भी शुरू कर दी और अपने स्कूटर को सिंगरी गांव के बाहर बने मंदिर की तरफ मोड़ दिया.
“यह हम सिंगरी गांव की तरफ क्यों जा रहे हैं?” सूरज ने पूछा, तो राजू सिंह ने बताया कि वह उसे अपनी होने वाली पत्नी से मिलाने ले जा रहा है.
सूरज आज मंदिर में जा कर उस फोटो वाली खूबसूरत लड़की से जा कर मिल भी लिया था. भले ही उस ने अपना चेहरा घूंघट में छिपाए रखा था पर उस लड़की के हाथों की हलकी सी छुअन ने सूरज के जवान मन को विचलित कर दिया था.
सूरज ने अपने गले में पड़ी सोने की चेन को लड़की के गले में डाल कर यह रिश्ता पक्का कर दिया .
सूरज और उस का मन भी एक नवयौवना से मिल कर पुलकित हो रहा था. इस बीच गाहेबगाहे उस के मन में गेरुई की याद भी आ जाती थी. उसे लगता कि उस ने गेरुई के साथ धोखा किया है. पर भला वह भी क्या करे, अब एक रुदाली से शादी थोड़े ही की जा सकती है, ऐसा सोच कर गेरुई की याद को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता था.करीब 2 महीने बाद लोन के रुपए भी सूरज के हाथ में आ गए थे, पूरे 5 लाख थे. लड़की वाले गरीब थे, इसलिए उन की तरफ से लड़के वालों को दहेज देने के लिए सूरज ने अपने हाथों से 2 लाख रुपए लड़की के भाई को दे दिए और बाकी के पैसों से 3 तोला सोना और चांदी के गहने ले आया, जिन्हें शादी के समय दुलहन को देना था.
सूरज और उस का परिवार पूरी कोशिश कर रहा था ताकि शादी में कहीं से भी सूरज के परिवार की बेइज़्ज़ती न हो जाए.
सूरज ने सोचा, एक बार और लौटरी का टिकट ले लिया जाए, क्या पता बाद में पत्नी लौटरी खेलने पर प्रतिबंध ही लगा दे. सूरज ने 50 लाख रुपए के बम्पर प्राइज वाला टिकट ले लिया और शादी की तैयारियों में जुट गया.
शादी की तारीख नज़दीक आ रही थी. एक दिन राजू सिंह का फोन आया कि लड़की वाले के घर में किसी की मौत हो गई है, इसलिए वे सब सिंगरी गांव न जा कर एक दूसरे गांव बेकल में बरात ले कर आएंगे. बड़ी विपदा आ गई थी लड़की वालों पर. सूरज के परिवार में रिश्तेदार आ गए थे पर उन्हें भला दूसरे गांव में बरात ले जाने से क्या आपत्ति होती. शादी की तारीख आई, तो ज़ोरशोर से सूरज की बरात बेकल गांव के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर बेहद ही सादे समारोह में सूरज के ब्याह को निबटा दिया गया. उसे दहेज के नाम पर भी कोई सामान नहीं दिखा जिस का कारण लड़की के खानदान में हुई मौत को बताया जा रहा था.
सूरज और उस के मांबाप ने समझदारी व शांति का परिचय देते हुए लड़की वालों की मनोदशा को समझा और जैसेजैसे रिश्ते की मध्यस्थता करने वाले राजू सिंह ने बताया, उन लोगों ने वैसा ही किया और शादी कर के दुलहन विदा करा कर घर ले आए.
आज सूरज की सुहागरात थी. बड़ी खास तैयारियां कर रखी थी सूरज ने. सुनहरे रंग का कुरता और सुनहरे रंग की धोती पहने सूरज अपने कमरे में दाखिल हुआ. बिस्तर पर बैठी दुलहन के पास जा कर हौले से बैठ गया. सूरज ने जैसे ही दुलहन का घूंघट पलटना चाहा तो लड़की ने धीमे से कहा कि अभी वह किसी भी प्रकार का शारीरिक संबंध नहीं बना सकती क्योंकि टीले वाले मंदिर पर उसे एक नारियल फोड़ना है. उस के बाद ही वह अपनी सुहागरात मनाएगी.
पत्नी बड़ी धार्मिक है, ऐसा सोच व जान कर सूरज को बड़ा अच्छा लगा और उस ने पत्नी की बात का पूरा सम्मान किया, उसे हाथ तक नहीं लगाया. अपने साथ मुंहदिखाई के तौर पर लाया हुआ मोबाइल सूरज ने अपनी दुलहन को बिना उस का मुंह देखे ही दे दिया.
अगला दिन निकला, तो सूरज ने सोचा कि फटाफट दुलहन को टीले वाले मंदिर ले जा कर नारियल फोड़वा लाऊं ताकि आज अपनी सुहागरात जम कर मना सकूं. मांबाप से आज्ञा ले कर मोटरसाइकिल पर अपनी नईनवेली दुलहन को बिठा कर सूरज टीले वाले मंदिर की ओर चल दिया.
अपने हाथ में नारियल लिए दुलहन मंदिर की ओर बढ़ चली. बीचबीच में सूरज दुलहन के चेहरे को देखने की कोशिश करता भी, तो दुलहन बड़ी सफाई से अपना घूंघट और निकाल लेती. बेचारा मनमसोस कर रह जाता. अब तो उसे और भी बेसब्री से अपनी सुहागरात का इंतज़ार था.
मंदिर में नारियल फोड़ने के बाद सूरज को मंदिर की सीढ़ियों पर बिठा कर दुलहन मंदिर की परिक्रमा करने चली गई. सूरज काफी देर तक वहीं उस के इंतज़ार में बैठा रहा. जब करीब घंटेभर तक दुलहन नहीं लौटी तब सूरज ने उसे ढूंढना शुरू किया. पर दुलहन का कहीं अतापता न मिला. सूरज बहुत परेशान हो गया. आसपास पूछताछ की. पर कोई फायदा न हुआ. सूरज बदहवास हो लोगों से पूछता और उपहास का पात्र बनता. शाम तक भी दुलहन का कोई पता न चला, तो हार कर सूरज अपने घर चला आया और सारी बात अपने मांबाप को बताई.
अभी वह मांबाप से बातें कर ही रहा था कि उस के मोबाइल पर फोन आया. उधर से एक लड़की की आवाज़ थी, “सुनो, मुझे ढूंढने की कोशिश मत करो क्योंकि जो तसवीर देख कर तुम ने शादी की थी, वैसी कोई लड़की तुम्हें कभी नहीं मिलेगी क्योंकि वह लड़की मात्र तसवीरभर है. ये सब राजू सिंह और उस के गैंग की करतूत है. और मुझे भी इस काम के पैसे मिलते हैं, हज़ार रुपए रोज़. हां, तुम ने मुझे जो मोबाइल गिफ्ट किया था, इसलिए उसी मोबाइल से फोन कर रही हूं. वैसे भी, तुम आदमी मुझे भले लगे, पर कोई रपट मत करना क्योंकि ये सब राजू सिंह का प्लान रहता है जिस में बैंक से लोन पास कराने से ले कर लड़कियों के रिश्तेदार आदि सब के सब मिले होते हैं.”
सूरज और उस का परिवार सन्न रह गया था. मांबाप ने अंदर जा कर देखा तो उन की नईनवेली बहू के कमरे से सारे गहने और नकदी गायब थी. उन लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपना दर्द किस से जा कर कहें. वे लोग एक सोचेसमझे ढंग की साज़िश का शिकार हुए थे. इस सदमे से उबरने के लिए उन्हें वक़्त चाहिए था.
सूरज और उस के मांबाप ने खुद के ठगे जाने की बात किसी से नहीं बताई. पर भला जंगल की आग और प्रपंच के फैलने को कोई रोक सकता है क्या?
पूरे गांव वालों में यह बात फैल गई थी और लोग चुस्की व चटखारे लेले कर यह बात एकदूसरे से कहसुन रहे थे.
सूरज के बाप अपनी बदनामी सहन नहीं कर पा रहे थे, इसलिए वे सूरज की मां को ले कर शहर में अपने भाई के पास रहने चले गए और गांव में सूरज अकेला रह गया.
अब तो सूरज से कोई भी बात नहीं करता था. सूरज के पास पैसा नहीं बचा था, ऊपर से बैंक के लोन को चुकाने का तनाव अलग से उस पर हावी हो रहा था. उसे लगने लगा कि अब उस का जीना बेमानी है. उसे लालची लोगों ने ठगा, मुश्किल वक़्त में मांबाप ने भी साथ छोड़ दिया, इसलिए अब उस के जीवन में बचा ही क्या है…उसे मर जाना चाहिए… सूरज तुरंत ही रस्सी ले आया और अपना जीवन खत्म करने के लिए एक मजबूत फंदा बनाने लगा. अचानक उस का मोबाइल बज गया. यह मेरी दुलहन का फोन तो नहीं? उस ने जो कहानी सुनाई थी कहीं वह सब झूठ तो नहीं? यह सोच तपाक से फोन रिसीव कर लिया था सूरज ने.
पर अफसोस, उधर से किसी मर्द की आवाज़ थी. यह मर्द कोई और नहीं, बल्कि सूरज का लौटरी बेचने वाला एजेंट था जो तेज़ आवाज़ में बोल रहा था, “बधाई हो सूरज भैया, पूरे 50 लाख रुपए की लौटरी लगी है तुम्हारी. जल्दी से टिकट ले आओ. भैया, तुम्हारी तो मौज हो गई.”
सूरज़ को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था जो उस ने अभी सुना. उसे भरोसा नहीं हुआ, तो उस ने दोबारा लौटरी एजेंट को फोन लगा कर उस से इस बात की पुष्टि की.
कुछ देर बाद गांव वालों ने देखा कि हाथ में लौटरी का टिकट पकड़े सूरज तेज़ी से गांव के बाहर की ओर भागा जा रहा है. पर किधर? यह तो रुदालियों के घर की तरफ चला गया. हां, रुदाली के पास ही तो गया था सूरज.
गेरुई को अपनी बांहों में कस कर दबोच लिया था सूरज ने. उस के कपोलों को कस कर चूम रहा था सूरज.
गेरुई सारा माजरा समझ ही नहीं पा रही थी. उसे सूरज की शक्ल में नया ही सूरज दिखाई दे रहा था.
सूरज ने गेरुई का हाथ पकड़ा और शहर की ओर भाग पड़ा. जहां एक नया जीवन, एक नया सवेरा उन दोनों की प्रतीक्षा में था. जहां किसी की मौत पर रोने के लिए किसी रुदाली की ज़रूरत नहीं होती. गेरुई के पैरों में भी यह सोच कर पंख लग गए थे कि अब उसे किसी की मौत पर रोने जैसा अजीब कार्य नहीं करना पड़ेगा.
9 दिसंबर मेरे जीवन का सब से बड़ा काला दिन है क्योंकि 2 साल पहले आज के ही दिन नियति के क्रूर हाथों ने मेरी उस गुडि़या को छीन लिया था जो फूल बन कर अपने साजन के आंगन को महका रही थी. एक दिन पहले गुडि़या ने फोन किया था, ‘मम्मा, जाने क्यों पिछले कुछ दिनों से आप की बहुत याद आ रही है. राजीव की 2 दिन की छुट्टी है, हम लोग आप से मिलने आ रहे हैं.’
मैं ने रात को ही दहीबडे़ और आलू की कचौडि़यों की तैयारी कर के रख दी थी. मेरी बेटी गुडि़या, दामाद राजीव और दोनों नातिनें गीतूमीतू सुबह की ट्रेन से आ रहे थे पर सुबहसुबह ही टेलीविजन पर समाचार आया कि जिस ट्रेन से वे लोग आ रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई.
चेतना जागृत होने पर यह क्रूर सचाई मेरे सामने थी कि मेरी गुडि़या अपनी अबोध गीतूमीतू और पति राजीव को छोड़ कर इस संसार से जा चुकी थी. समझाने वाले मुझे समझाते रहे पर मैं यह मानने को कहां तैयार थी कि मेरी गुडि़या अब हमारे बीच नहीं है और इसे स्वीकारने में मुझे वर्षों लग गए थे.
राजीव की आंखों में कैसा अजीब सा सूनापन उभर आया था और वह दोनों नन्ही कलियां इतनी नादान थीं कि उन्हें इस का अहसास तक नहीं था कि कुदरत ने उन के साथ कितना क्रूर खेल खेला है. उन की आंखें अपनी मां को ढूंढ़तेढूंढ़ते थक गईं. आखिर में उन के मन में धीरेधीरे मां की छवि धुंधली पड़तेपड़ते लुप्त सी हो गई और उन्होंने मां के बिना जीना सीख लिया.
दादी व बूआ के भरपूर लाड़प्यार के बावजूद मुझे गीतूमीतू अनाथ ही नजर आतीं. कभी दोपहर में बालकनी में खड़ी हो जाती तो देखती नन्हेमुन्ने बच्चे रंगबिरंगी यूनीफार्म में सजे अपनीअपनी मम्मी की उंगली पकड़ कर उछलतेकूदते स्कूल जा रहे हैं. उन्हें देख कर मेरे सीने में हूक सी उठती कि हाय, मेरी गीतूमीतू किस की उंगली पकड़ कर स्कूल जाएंगी. किस से मचलेंगी, किस से जिद करेंगी कि मम्मी, हमें टौफी दिला दो, हमें चिप्स दिला दो. और यही सब सोचते- सोचते मेरा मन भर उठता था.
जब से उड़ती- उड़ती सी यह खबर मेरे कानों में पड़ी है कि राजीव की मां अपने बेटे के पुन- र्विवाह की सोच रही हैं तो लगा किसी ने गरम शीशा मेरे कानोें में डाल दिया है. कई लड़की वाले अपनी अधेड़ बेटियों के लिए राजीव को विधुर और 2 बेटियों का बाप जान कर सहजप्राप्य समझने लगे थे.
राजीव की दूसरी शादी का मतलब था मासूम कलियों को विमाता के जुल्म व अत्याचार की आग में झोंकना. इस सोच ने मेरी बेचैनी को अपनी चरमसीमा पर पहुंचा दिया था. अब राजीव के पुनर्विवाह को रोकना मेरे लिए पहला और सब से अहम मकसद बन गया.
मैं ने अपनी चचेरी बहन, जो राजीव के घर से कुछ ही दूरी पर रहती थी, को सख्त हिदायत दे डाली कि किसी भी कीमत पर राजीव की दूसरी शादी नहीं होनी चाहिए. कोई लड़की वाला राजीव या उस के घरपरिवार के बारे में जानकारी हासिल करना चाहे तो उन की कमियां बताने में कोई कोरकसर न छोडे़.
राजीव के साथ अपनी बेटी की शादी की इच्छा ले कर जो भी मातापिता मेरे पास उन के घरपरिवार की जानकारी लेने आते, मैं उन के सामने उस परिवार के बुरे स्वभाव का कुछ ऐसा चित्र खींचती कि वह दोबारा वहां जाने का नाम नहीं लेते थे और अपनी इस सफलता पर मैं अपार संतुष्टि का अनुभव करती थी.
मेरे बहुत अनुरोध पर उस दिन राजीव गीतूमीतू को मुझ से मिलाने ले आया. इस बार वह काफी खीजा हुआ सा लग रहा था. बातबात में गीतूमीतू को झिड़क बैठता. पता नहीं, मेरे कुचक्रों से या किसी और वजह से उस का विवाह नहीं हो पा रहा था और वह एकाकी जीवन जीने को विवश था.
मेरी समधिन बारबार फोन पर मुझ से अनुरोध करतीं, ‘बहनजी, कोई अच्छी लड़की हो तो बताइएगा. मैं चाहती हूं कि मेरी आंखों के सामने राजीव का घर फिर से बस जाए. कल को बेटी सुधा भी ब्याह कर अपने घर चली जाएगी तो इन बच्चियों को संभालने वाला कोई तो चाहिए न.
प्रकट में तो मैं कुछ नहीं कहती पर मेरी गुडि़या के बच्चों को सौतेली मां मिले, यह मेरे दिल को मंजूर न था. आखिर तिनकातिनका जोड़ कर बसाए अपनी बेटी के घोंसले को मैं किसी और का होता हुआ कैसे देख सकती थी.
मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें यह पता लग गया कि राजीव का घर बसाने के मामले में जड़ काटने का काम मैं खुद कर रही हूं तो उन्हें सतर्क होना ही था और उन के सतर्क होने का नतीजा यह निकला कि राजीव ने अपनी सहकर्मी से विवाह कर लिया.
इस मनहूस खबर ने तो मुझे तोड़ कर ही रख दिया. हाय, अब मेरी गुडि़या के बच्चों का क्या होगा. अब मैं ने लगातार राजीव और उस की मां को कोसना शुरू कर दिया.
अब दिनोदिन मेरी बेचैनी बढ़ने लगी. जाने कितनी सौतेली मांओं के क्रूरता भरे किस्से मेरे दिमाग में कौंधते रहते और एक पल भी मुझे चैन न लेने देते. मन ही मन में गीतूमीतू को सौतेली मां की झिड़कियां खाते, पिटते और कई तरह के अत्याचारों को तसवीर में ढाल कर देखती रहती और अपनी बेबसी पर खून के आंसू रोती.
उस दिन मैं घर में अकेली ही थी. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने जो खड़ा था उसे देख कर मेरी त्यौरियां चढ़ गईं. मैं तो दरवाजा ही बंद कर लेती पर बगल में मुसकराती गीतूमीतू को देख कर मैं अपने गुस्से को पी गई.
राजीव ने नमस्ते की और उस के साथ जो औरत खड़ी थी उस ने भी कुछ सकुचाते हुए हाथ जोड़ कर नजरें झुका लीं.
राजीव ने कुछ अपराधी मुद्रा में कहा, ‘मांजी, मुझे माफ कीजिएगा कि आप को बिना बताए मैं ने फिर से विवाह कर लिया. मैं तो यहां आने में संकोच का अनुभव कर रहा था पर नेहा की जिद थी कि वह आप से मिल कर आप का आशीर्वाद जरूर लेगी.
मैं ने क्रोध भरी नजरों से नेहा को देखा पर उस के होंठों पर सरल मुसकान खेल रही थी. उस ने अपने सिर पर गुलाबी साड़ी का पल्लू डाला और मेरे चरण स्पर्श करने को झुकी पर उसे आशीर्वाद देना तो दूर, मैं ने अपने कदमों को पीछे खींच लिया. नेहा ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, शायद वह इस के लिए तैयार थी.
बहुत दिनों बाद गीतूमीतू को अनायास ही अपने पास पा कर अपनी ममता लुटाने का जो अवसर आज मुझे मिला था उसे मैं किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसलिए मजबूरीवश सब को अंदर आने के लिए कहना पड़ा.
राजीव तो बिना कहे ही सोफे पर बैठ गया और अपने माथे पर उभर आए पसीने को रूमाल से जज्ब करते हुए कहीं खो सा गया. गीतूमीतू ने खुद को टेलीविजन देखने में व्यस्त कर लिया पर नेहा थोड़ी देर ठिठकी सी खड़ी रही फिर स्वयं रसोई में जा कर सब के लिए पानी ले आई.
उस ने सब से पहले पानी के लिए मुझ से पूछा पर मैं ने बड़ी रुखाई से मना कर दिया. उस ने गीतूमीतू और राजीव को पानी पिलाया और फिर खुद पिया. इस के बाद मेरे रूखे व्यवहार की परवा न करते हुए वह मेरे पास ही बैठ गई.
पानी पी कर राजीव अचानक उठ कर बाहर चला गया. उस के चेहरे से मुझे लगा कि शायद यहां आ कर उस के मन में मेरी गुडि़या की याद ताजा हो गई थी पर अब क्या फायदा. मेरी गुडि़या से यदि वह इतना ही प्यार करता तो उस का स्थान किसी और को क्यों देता. और उस पर से मुझ से मिलाने के बहाने मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए उसे यहां ले आया है. मेरी सोच की लकीरें मेरे चेहरे पर शायद उभर आई थीं तभी नेहा उन लकीरों को पढ़ कर अपराधबोध से पीडि़त हो उठी.
अगले ही पल नेहा ने अपने चेहरे से अपराधभाव को उतार फेंका और सहज हो कर पूछने लगी, ‘मांजी, आप की तबीयत ठीक नहीं है शायद? मैं अभी चाय बना कर लाती हूं.’
राजीव बाहर से अपने को सहज कर वापस आ गया. गीतूमीतू दौड़ती हुई राजीव की गोद में चढ़ गईं. नेहा चाय और रसोई के डब्बों में से ढूंढ़ कर बिस्कुटनमकीन भी ले आई. सब से पहले उस ने चाय मुझे ही दी, न चाहते हुए भी मुझे चाय लेनी ही पड़ी.
मीतू अचानक राजीव की गोद से उतर कर नेहा की गोद में बैठ गई. बिस्कुट कुतरती मीतू बारबार नेहा से चिपकी जा रही थी और नेहा उस के माथे पर बिखर आई लटों को पीछे करते हुए उस का माथा सहला रही थी. मीतू का इस तरह दुलार होता देख गीतू भी नेहा की गोद में जगह बनाती हुई चढ़ बैठी और नेहा ने उसे भी अपने अंक में समेट लिया तो गीतूमीतू दोनों एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़ीं. पता नहीं उन की हंसी मेरे रोने का सबब क्यों बन गई. मैं आंखों के कोरों में छलक आए आंसुओं को कतई न छिपा सकी.
तभी नेहा ने दोनों बच्चों को गोद से उतार कर आंखों ही आंखों में राजीव को जाने क्या इशारा किया कि वह दोनों बच्चों को ले कर बाहर चला गया. नेहा खाली हो गया कप जो अभी भी मेरे हाथों में ही था, को ले कर सारे बरतन समेट रसोई में रख आई और मेरे एकदम करीब आ कर बैठ गई. फिर मेरे हाथों को अपने कोमल हाथों में ले कर जैसे मुझे आश्वस्त करती हुई बोली, ‘मांजी, मैं आप का दुख समझ सकती हूं. आप ने अपने कलेजे के टुकडे़ को खोया है और मैं यह भी जानती हूं कि मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है. आप बेहद आशंकित हैं कि कहीं सौतेली मां आ कर आप की नातिनों पर अत्याचार करना न शुरू कर दे और उन के पिता को उन से दूर न कर दे.
‘मेरा विश्वास कीजिए मांजी, जब यह बात मुझे पता चली तो मैं ने मन में यह ठान लिया कि मैं आप से मिल कर आप की आशंका जरूर दूर करूंगी. सभी ने तो मुझे रोका था कि आप पता नहीं मुझ से कैसे पेश आएंगी लेकिन मुझे यह पता था कि आप का वह व्यवहार बच्चों की असुरक्षा की आशंका से ही प्रेरित होगा.’
मेरे हाथों पर नेहा के कोमल हाथों का हल्का सा दबाव बढ़ा और थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहना शुरू किया, ‘मांजी, आप अपने दिल से यह डर बिलकुल निकाल दीजिए कि मैं गीतू व मीतू के साथ बुरा सुलूक करूंगी. आप निश्ंिचत हो कर रहिए ताकि आप का स्वास्थ्य सुधर सके,’ नेहा ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा कर मेरा कंधा थपथपाया और मेरी आंखों में झांकती हुई बोली, ‘मांजी, मेरी विनती है कि मुझे भी आप अपनी बेटी जैसी ही समझें. मेरा आप से वादा है कि आप बच्चों से मिलने को नहीं तरसेंगी. हम उन्हें आप से मिलाने लाते रहेंगे.’
नेहा की बात समाप्त भी न होने पाई थी कि राजीव व बच्चे आ गए. दोनों बच्चे दौड़ कर नेहा की टांगों से लिपट गए और ‘मम्मी घर चलो,’ ‘मम्मी घर चलो’ की रट लगाने लगे.
नेहा ने उन्हें गोद में बिठाते हुए कहा, ‘चलते हैं बेटे, पहले आप नानी मां को नमस्ते करो.’
गीतूमीतू ने एकसाथ अपनी छोटीछोटी हथेलियां जोड़ कर तोतली भाषा में मुझे नमस्ते की. मेरे अंदर जमा शिलाखंड पिघलने को आतुर होता सा जान पड़ा. राजीव व नेहा ने चलने की इजाजत मांगी.
उन्हें कुछ पल रुकने को कह कर मैं अंदर गई और अलमारी से गीतूमीतू को देने के लिए 100-100 के 2 नोट निकाले तो लिफाफे के नीचे से झांकती नीली कांजीवरम् की साड़ी ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. साड़ी देखते ही मेरी आंखें भर आईं क्योंकि यह साड़ी मैं अपनी गुडि़या को देने के लिए लाई थी. साड़ी का स्पर्श करते ही मेरे हाथ कांपने लगे पर न जाने कैसे मैं वह साड़ी उठा लाई और टीके की थाली भी लगा लाई.
टीके के बाद मेरे पैर छू कर नेहा ने मीतू को गोद में उठाया और गीतू की उंगली पकड़ कर आटो में बैठने चल दी. आटो में बैठने से पहले नेहा ने मुझे पीछे मुड़ कर देखा. पता नहीं उस की आंखों में मैं ने क्या देखा कि मेरी आंखें झरझर बरसने लगीं. आंसुओं के सैलाब ने आंखों को इतना धुंधला कर दिया कि कुछ भी दिखना संभव न रहा.
जब धुंध छंटी तो सामने से जाती नेहा में मुझे अपनी गुडि़या की छवि का कुछकुछ आभास होने लगा. अब मुझे लगने लगा कि गुडि़या के जाने के बाद मैं जिस डर व आशंका के साथ जी रही थी वह कितना बेमानी था.
एक सवाल मन को मथे जा रहा था कि मैं जो करने जा रही थी क्या वह उचित था?
आज नेहा से मिल कर ऐसा लगा कि मेरी समधिन ने मुझ से छिपा कर राजीव का पुनर्विवाह कर के बहुत ही अच्छा काम किया, वरना मैं तो अपनी नातिनों की भलाई सोच कर उन का बुरा करने ही जा रही थी. कभी अपनी हार भी इतनी सुखदाई हो सकती है यह मैं ने आज नेहा से मिलने के बाद जाना. राजीव के चेहरे पर छाई संतुष्टि और गीतूमीतू के लिए नेहा के हृदय से छलकता ममता का सागर देख कर मैं भावविभोर थी.
मैं यह सोचने पर विवश थी, कितना बड़ा दिल है नेहा का. एक तो उसे विधुर पति मिला और उस पर से 2 अबोध बच्चियों के पालनपोषण की जिम्मेदारी. फिर भी वह मुझे मनाने चली आई. मुझे नेहा अपने से बहुत बड़ी लगने लगी.
अब मुझ से और नहीं रहा गया. बहुत दिनों बाद मैं ने राजीव के यहां फोन लगाया. रुंधे कंठ से इतना ही पूछ पाई, ‘‘ठीक से पहुंच गई थीं, बेटी?’’
‘‘जी, मम्मीजी,’’ नेहा का भी गला भर आया था. मेरे गले और दिल से एकसाथ निकला, ‘‘खुश रहो, मेरी गुडि़या.’’