जानकारी: कमेरों का शानदार रोजगार

कुछ दिन पहले जब हमारे बाथरूम के वाशबेसिन में कुछ समस्या आई, तो नलसाज को बुलाया गया. नलसाज मतलब प्लंबर. उस ने आते ही कुछ मिनटों में वाशबेसिन ठीक कर दिया और अपने मेहनताने के तौर पर 100 रुपए ले लिए. सामान का खर्च अलग से था.

मैं ने उस प्लंबर से दिनभर की कमाई पूछी, तो वह हंसते हुए बोला कि अच्छाखासा कमा लेता है.मूल रूप से ओडिशा के रहने वाले उस प्लंबर कृपाशंकर ने मुझे एक और हैरानी से भरी बात बताई कि ओडिशा का केंद्रपाड़ा जिला नलसाजी यानी प्लंबिंग का हब है और वहां से देश के

70 फीसदी प्लंबर आते हैं. इतना ही नहीं, इस जिले के एक गांव पट्टामुंडाई में हर दूसरे घर में एक प्लंबर है. इस की वजह गांव पट्टामुंडाई में बना ‘स्टेट इंस्टीट्यूट औफ प्लंबिंग टैक्नोलौजी’ है.केंद्रपाड़ा के पट्टामुंडाई, औल, राजकनिका और राजनगर गांवों और उन के आसपास के कसबों में शानदार घर बने हुए हैं, जो प्लंबिंग की ही देन हैं. इन

गांवों के तकरीबन 1,00,000 लोग (यह तादाद ज्यादा भी हो सकती है) देशविदेश में बतौर प्लंबर का काम करते हैं.जहां एक तरफ देश के ज्यादातर नौजवान डाक्टर या इंजीनियर बनने के सपने देखते हैं, इस इलाके के नौजवान उम्दा प्लंबर बनने की सोचते हैं. पर ऐसा क्यों है? दरअसल, यहां के लोगों ने यह काम साल 1930 से सीखना शुरू किया था. तब कोलकाता में ब्रिटिश कंपनियों को प्लंबरों की जरूरत थी. केंद्रपाड़ा के कुछ नौजवानों को वहां नौकरी मिली.

1947 में देश के बंटवारे के समय जब कोलकाता के ज्यादातर प्लंबर पाकिस्तान चले गए, तो केंद्रपाड़ा के प्लंबरों के लिए यह एक सुनहरा मौका बन गया. इस के बाद दूसरे लोग भी काफी तादाद में यह काम सीखने लगे. आज हालात ये हैं कि अकेले पट्टामुंडाई गांव में 14 बैंकों की ब्रांच हैं.

इतना होने के बावजूद आज भी देश में ट्रेनिंग पाए प्लंबरों की बेहद कमी है. दूसरों से काम सीख कर यह रोजगार अपनाने वाले प्लंबर बहुत ज्यादा हैं और उन में से काफी तो माहिर हो चुके हैं, पर डिप्लोमा या सर्टिफिकेट कोर्स कर के इस फील्ड में आने वालों की बात ही अलग है, क्योंकि बड़े संस्थानों और विदेशों में तो उन्हें ही ज्यादा तरजीह दी जाती है, जबकि एक आम भारतीय तो यह भी शायद ही जानता होगा कि प्लंबिंग की ट्रेनिंग भी दी जाती है.

दिल्ली के झंडेवाला में बने फ्लैटेड फैक्टरीज कौंप्लैक्स ई-4 में दिल्ली सरकार की स्वरोजगार समिति के तहत प्लंबिंग का 6 महीने का पार्ट टाइम कोर्स कराया जाता है. इस के लिए 8वीं जमात पास होना जरूरी है और जनरल कैटेगरी वालों से 1,800 रुपए फीस ली जाती है. एससी और एसटी वर्ग से महज 600 रुपए फीस ली जाती है. यह फीस पूरे 6 महीने की है.

कोर्स पूरा करने के बाद सिक्योरिटी के 500 रुपए छात्र को वापस कर दिए जाते हैं. छात्रों को डीटीसी की एसी बस के आल रूट पास की भी सुविधा दी जाती है. यह कोर्स दिल्ली व एनसीआर वालों के लिए ही मुहैया है.

इस संस्थान से जुड़े छात्रों को प्लंबिंग की ट्रेनिंग देने वाले इंस्ट्रक्टर सुरेंद्र ने बताया, ‘‘प्लंबिंग का काम पानी से जुड़ा है, जो हमारी बुनियादी जरूरत है, इसलिए इसे सीखने वाला कभी भी बेरोजगार नहीं रह सकता. घर या कोई भी दूसरी इमारत बनाने के बाद लोग बिजली वगैरह के बिना तो रह सकते हैं, पर पानी के बिना उन का गुजारा नहीं हो सकता.

‘‘प्लंबर का काम घर की बुनियाद खुदने से शुरू हो जाता है और घर की पूरी फिनिशिंग होने तक चलता है, इसलिए एक कामयाब प्लंबर को इमारत का नक्शा पढ़ने की अच्छी समझ होनी चाहिए. उसे पानी की निकासी का हुनर आना चाहिए.

‘‘पर, एक कामयाब प्लंबर का सब से पहला गुण उस का अच्छा स्वभाव है. मीठा बोलना, ईमानदारी और अपने काम की अच्छी समझ उसे ग्राहक की नजर में ऊंचा उठाती है और उसे लगातार काम भी दिलवाती है.

‘‘प्लंबिंग का काम बड़ा टैक्निकल होता है, इसलिए प्लंबर का फोकस अपने काम पर रहना चाहिए. काम खत्म होने के बाद उसे अपने औजारों की अच्छी तरह सफाई करनी चाहिए, क्योंकि औजार ही प्लंबर की रोजीरोटी है. लिहाजा, उन की देखभाल बहुत जरूरी है.’’

सवाल उठता है कि किसी प्लंबर के बेसिक औजार कितने के आते हैं? इस बारे में सुरेंद्र ने बताया, ‘‘एक प्लंबर को जिन औजारों की सब से ज्यादा जरूरत पड़ती है, वे तकरीबन 3,000-4,000 रुपए तक में आ जाते हैं. पर कभी भी लोकल औजार नहीं खरीदने चाहिए.‘‘काम के दौरान कोई हादसा न हो, इस बात का खास खयाल रखना चाहिए. अपनी और ग्राहक की इमारत की सिक्योरिटी सब से ऊपर रखनी चाहिए.’’

नक्शा पढ़ना क्यों आना चाहिए? यह सवाल बड़ा अहम है और इस बारे में सुरेंद्र ने बताया, ‘‘नक्शा पढ़ कर प्लंबर को यह समझ में आता है कि रसोई किधर है और बाकी दूसरे कमरे और बाथरूम वगैरह कहां हैं. उसे सीवर की समझ होनी चाहिए और किस तरह ढलान देनी है, इस का भी पता चल जाता है.

‘‘नक्शा पढ़ने से प्लंबर ऐस्टीमेट लगा सकता है कि कितना और कैसा सामान आएगा. वह लागत का हिसाब भी लगा लेता है. आजकल प्लास्टिक की पाइप फिटिंग चलन में है, जो किफायती और मजबूत होती है.

‘‘कुलमिला कर कह सकते हैं कि प्लंबिंग का काम एक अच्छा रोजगार है, जो भविष्य में खत्म होता भी नहीं दिख रहा है. कामयाब प्लंबर देशविदेश में खूब पैसा कमा रहे हैं और इन की मांग बढ़ती ही जा रही है.’’प्लबिंग का कोर्स आईटीआई से भी कराया जाता है, जो देशभर के राज्यों में होता है. आईटीआई एक सरकारी संस्था है, जिस से हर गांवदेहात के लोग परिचित हैं. यहां से भी बहुत कम खर्च में एक साल का कोर्स कर के सरकारी नौकरी तक जाने के लिए रास्ते खुलते हैं.

आईटीआई से प्लंबिंग का कोर्स करने के लिए न्यूनतम योग्यता 10वीं पास है. कुछ प्राइवेट संस्थान कम समय का भी कोर्स कराते हैं. इस के अलावा किसी तजरबेकार नलसाज के साथ रह कर भी काम सीखा जा सकता है.

अंधविश्वासों का विश्वास करते लोग

मेरे एक परिचित का प्रिंटिंग प्रैस है. उन की मशीन का एक बहुमूल्य पार्ट गायब हो गया. मशीन के कमरे में जाने वाले बहुत थे, पर मशीन को मुख्यरूप से 3 ही कर्मचारी प्रयोग कर रहे थे. उन का प्रैस तीनों शिफ्ट चलता था. पूछताछ करने व धमकाने पर भी कर्मचारी अनजान बने थे. किन्ही कारणों से वे मामला पुलिस में देना नहीं चाहते थे. एकाएक उन को किसी ने एक बाबा का नाम बताया जो चोर कौन है यह भी बता देंगे और सामान भी दिला देंगे. वे अगले ही दिन बाबाजी के पास गए और उस के अगले ही दिन उन्होंने मुझे बताया कि वह पार्ट वहीं रखा मिल गया जहां से गायब हुआ था. वे बाबाजी का गुणगान कर रहे थे कि बिना कुछ कहे उन्होंने सब जान लिया. यहां तक कि कर्मचारियों के नाम भी बता दिए.

मुझे हैरानी हुई. मैं ने उन से विस्तार में बाबाजी से भेंट के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि उन्हें ले जा कर एक कमरे में बिठा दिया गया था. फिर बाबाजी के सहयोगी आए. उन्होंने उन की समस्या पूछी, फिर कागजकलम दे कर कहा कि अपनी समस्या इस कागज पर लिख दीजिए, उस के नीचे अपने इष्ट देव का नाम लिख दीजिए. फिर एक और कागज पर उस कमरे में जाने वाले सभी कर्मचारियों के नाम तथा उस के नीचे किसी फूल का नाम. फिर एक कागज पर जिन कर्मचारियों पर शक है उन के नाम तथा उस के नीचे एक फल का नाम लिखने को कहा.

फिर तीनों कागज अपनी जेब में रखने को कहा और बोले, ‘बाबाजी जब बुलाएंगे तब जाइएगा और जब कागज मांगें तो उन को दे दीजिएगा’. पर उन को हैरानी हुई जब बाबाजी ने कोई कागज नहीं मांगा, खुद ही समस्या बता दी और तीनों संदिग्ध कर्मचारियों के नाम भी बताए.

फिर उन्होंने कुछ देर ध्यान लगाया और फिर आंखें खोल कर कहा, ‘उन्होंने सब देख लिया है और किस ने चोरी की है और कहां ले गया है, यह भी देख रहा हूं. तुम जा कर कर्मचारियों को बोल दो कि बाबा ने सब देख लिया है और उन्होंने कहा है कि यदि परसों सुबह तक उस चोर कर्मचारी ने पार्ट वहीं नहीं रख दिया जहां से चुराया था तो वे परसों प्रैस में आएंगे और सब के सामने उस का नाम भी बता देंगे और सामान भी बरामद करवा देंगे. उस के बाद वह चाहे जेल जाए, चाहे पुलिस के डंडे खाए.’

यह सब सुन कर मैं ने अपने परिचित से कहा कि बाबा ने मनोवैज्ञानिक दांव खेला है और ऐसा भ्रम पैदा किया कि चोर ने चुपचाप सामान वहीं रख दिया. पर मेरे परिचित बोले कि उन्होंने मेरी समस्या और कर्मचारियों के नाम कैसे बता दिए?

मैं ने कुछ सोचते हुए उन से पूछा कि आप ने कागज पर नाम लिखा तो उन के सहयोगी ने देख लिया होगा. वे बोले कि नहीं, उस ने नहीं देखा. मैं ने कहा कि आप ने किसी मेज पर रख कर लिखा. वे बोले कि नहीं, मेज तो वहां थी ही नहीं. बाबाजी के शिष्य एक किताब लिए हुए थे. जब मैं लिखने के लिए कागज रखने के लिए कुछ ढूंढ़ रहा था तो उन्होंने वह किताब मुझे दे कर कहा, ‘इस पर रख कर लिख लो.’ मैं ने पूछा कि किताब कैसी थी. उन्होंने कहा कि पता नहीं, उस पर कवर चढ़ा था. अब सारा माजरा समझते मुझे देर न लगी.

मैं ने उन से कहा कि आप को जो किताब दी गई थी उस पर कवर चढ़ा था, उस के अंदर किताब पर एक सादा कागज लगा कर रखा गया था. उस सादे कागज पर एक कार्बनपेपर लगा दिया गया था. आप से जब समस्या व कर्मचारियों के नाम लिखवाए गए तब नीचे सादे कागज पर कार्बन की वजह से सब कौपी हो गया. नीचे, देवता, फल, फूल के नाम इसलिए लिखवाए गए कि किताब के अंदर के कागज के कवर पर लिखी कार्बन से उतरी प्रति पर लिस्टों को अलगअलग समझा जा सके.

वह व्यक्ति तो वहीं बैठा रहा, मगर किताब उस ने अंदर भिजवा दी. बाकी तो केवल मनोवैज्ञानिक दबाव डालने की बात थी. वे जानते थे कि आप चमत्कृत हो जाएंगे और कर्मचारियों को यह बताएंगे कि किस प्रकार आप के बिना कहे ही बाबाजी सब जान गए और कर्मचारियों के नाम भी बताए. आगे का काम उन की धमकी ने कर दिया.

दरअसल, हम में से बहुत से लोग पढ़ेलिखे हो कर भी इस प्रकार की छोटीछोटी तिकड़मों में विश्वास कर लेते हैं और किसी पाखंडी साधू, बाबा को सिद्धपुरुष मान बैठते हैं. कई लोग तो ऐसों के पीछे अपना तनमनधन सब लुटा बैठते हैं.

पकड़ी गई चोरी

ऐसी ही एक घटना मेरी किशोरवस्था की है. मेरे पिताजी भीमताल (जिला नैनीताल) में राजकीय नौर्मल स्कूल में प्रिंसिपल थे. एक बहुत ही प्रसिद्ध स्वनामधन्य बाबा जिन का लखनऊ में एक बड़ा मंदिर भी है, भीमताल आए. उन के आने से पहले ही छोटे से शहर में चहलपहल बढ़ गई थी. अनेक गाडि़यां, अनेक भक्त, दर्शनार्थियों की भीड़ उन के दर्शन के लिए जमा हो गई.

मेरे पिताजी आधुनिक विचारों के थे और वे इन सब समारोहों, अवसरों में नहीं जाते थे. उस दिन शाम को पिताजी व कुछ परिचित बैठे थे. एकाएक एक व्यक्ति आया, उस ने कहा, ‘बाबाजी ने राकेश को बुलाया है.’ यह मेरा नाम था. मैं उस वर्ष 9वीं कक्षा में था. मेरे पिताजी ने आगे पूछा तो उस ने कहा कि हमें कुछ पता नहीं है, हम तो आप को जानते भी नहीं. बाबाजी ने कहा कि यहां एक श्रीवास्तवजी प्रिंसिपल हैं. उन का लड़का राकेश मेरा बड़ा भक्त है. उस को बुला लाओ. सब लोग हैरान.

मुझे ले कर पिताजी, मां व कुछ परिचित भारी भीड़ के बीच बाबाजी के पास पहुंचे. बाबाजी ने मुझे अपने पास बिठाया और कुछकुछ अच्छी शिक्षाएं दीं और फिर पिताजी से कहा, ‘यह मेरा बड़ा भक्त है. इस का खयाल रखना. फिर मुझ से छोटे भाई का नाम ले कर पूछा कि वह नहीं आया. फिर कहा कि तुम 5 भाई हो. इसी प्रकार की कुछ और बातें कहीं और मुझे आशीर्वाद दे कर जाने को कहा.

सभी लोग बड़े हैरान थे. उस दिन घर में यही चर्चा चलती रही. भीमताल जैसे कसबे में यह बात जल्दी ही फैल गई कि किस प्रकार बाबाजी ने प्रिंसिपल साहब के लड़के को नाम ले कर बुला लिया और घर की भी बातें बताईं. बाबा तो अंतर्यामी हैं.

1-2 दिन बाद एक प्रशिक्षणार्थी शिक्षक पिताजी के पास किसी काम से आया. बातोंबातों ही में उस ने पूछा, ‘साहब, आप बाबाजी के पास गए थे.’ पिताजी को कुछ संदेह हुआ. उन्होंने उस से पूछा, ‘तुम गए थे क्या?’ वह बोला, ‘हां, मैं तो उन का बड़ा भक्त हूं. दर्शन करने गया था.’

पिताजी ने पूछा कि और कुछ बात हुई? उस ने कहा, ‘हां, मुझ से पूछ रहे थे कि तुम्हारे प्रिंसिपल कौन हैं, उन के परिवार में कौनकौन हैं, कितने बच्चे हैं, नाम क्या हैं. मुझे आप के बड़े दोनों बेटों के नाम याद थे, सो, मैं ने बता दिए थे.’

अब सब स्पष्ट हो गया

ऐसे ही एक अंतर्यामी बाबाजी थे जिन्होंने अपने शिष्यों के अलगअलग सांकेतिक नाम रखे थे, जैसे किसी का संतान, किसी का गृहविवाद, किसी का संपत्ति, किसी का मुकदमा. फरियादी को जिस कक्ष में बिठाया जाता था, उस में बाबाजी के कुछ अन्य शिष्य भी फरियादी बन कर बैठे रहते थे. बातोंबातों में लोगों से उन की तकलीफ जान लेते थे. फिर जब बाबाजी के पास किसी फरियादी को ले जाना होता था, तो यह व्यवस्था थी कि उन का वह शिष्य अंदर ले कर जाता जिस संबंध में समस्या होती थी. यानी अगर किसी को संतान की समस्या है तो जिस का सांकेतिक नाम संतान है वह उसे ले जाता था.

बाबाजी सामने आए फरियादी के साथ आए शिष्य के सांकेतिक नाम से तुरंत जान जाते थे कि समस्या किस बारे में है. वे भक्त को देख कर आंख बंद कर लेते. थोड़ी देर ध्यानमग्न हो कर बैठते, फिर आंखें खोल कर बड़े गंभीर शब्दों में कुछ इस प्रकार बोलते, ‘संतान, संतान की समस्या से तो सभी जूझ रहे हैं. कुछ पा कर, कुछ न पा कर. बोल, तू क्या चाहता है?’

भक्त चमत्कृत. बिना कहे बाबाजी ने सब जान लिया. बाबाजी पर उस का विश्वास जम जाता कि ऐसे चमत्कारी बाबा निश्चित ही उस की समस्या दूर करेंगे.

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों, मानवशास्त्रियों जैसे रोंडा ब्रायन, जोसफ मर्फी आदि द्वारा अनेक पुस्तकों व व्याख्यानों के माध्यम से बताया गया है कि मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारतरंगें भी विद्युत चुंबकीय तरंगें यानी इलैक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स होती हैं. वैज्ञानिकों द्वारा यह प्रतिस्थापित किया जा चुका है कि पूरा विश्व व प्रत्येक पदार्थ विद्युत चुंबकीय तरंगों से ही बना है. यदि हम किसी पदार्थ को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तोड़ते जाएं तो अणु, फिर परमाणु और अंत में पदार्थ नष्ट

हो जाएगा और विद्युत चुंबकीय तरंगें वातावरण में विस्तारित हो जाएंगी.

यही कारण है कि वैज्ञानिक इन विद्युत चुंबकीय तरंगों में उस पार्टिकल को ढूंढ़ रहे हैं जो बे्रन पार्टिकल या गौड पार्टिकल (ब्रह्मोस या हिग्स बोसान) है जो यह निश्चित करता है कि कब तरंग, पदार्थ के कण यानी पार्टिकल में बदल जाएगी.

इसी सिद्धांत पर यह विश्लेषण मैटाफिजिक्स के वैज्ञानिकों ने किया है कि मनुष्य का विचार जिस चीज पर सतत केंद्रित हो जाता है तथा उस की प्राप्ति का विश्वास हो जाता है, वह सृष्टि के मूल नियम आकर्षण के नियम (ला औफ अट्रैक्शन) के कारण उस की ओर आकर्षित होती है और उस लक्ष्य, वस्तु की प्राप्ति संभव हो जाती है.

मनचाहे फल की चाह में लुटते लोग

चार्ल्स हैवेल के अनुसार, ‘मनुष्य के प्रत्येक विचार की एक निश्चित आवृत्ति (फ्रीक्वैंसी) होती है. जब एक ही विचार बराबर आता रहता है तो व्यक्ति एक निश्चित फ्रीक्वैंसी लगातार सृष्टि में भेजता रहता है. यह एक चुंबकीय सिग्नल की तरह होती है जो समानांतर फ्रीक्वैंसी को ला औफ अट्रैक्शन द्वारा खींच कर ले आती है और हमारा अभीष्ट हम को प्राप्त हो जाता है’

एक उदाहरण से यह और भी अधिक स्पष्ट होगा. टीवी के भिन्नभिन्न चैनलों की अलगअलग फ्रीक्वैंसी होती है. हम टीवी के रिमोट से जो चैनल चुनते हैं वह उस की फ्रीक्वैंसी से ट्यून हो कर उसे टीवी स्क्रीन पर ले आती है.

फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में शाहरुख  खान द्वारा बोला हुआ यह डायलौग इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट कर देता है, ‘जब हम पूरी शिद्दत से किसी चीज को चाहते हैं तो सारी कायनात उसे हम से मिलाने में लग जाती है.’

इस कारण, यदि किसी इच्छा या वस्तु की प्राप्ति पर निरंतर ध्यान बना रहे और मन में दृढ़विश्वास  हो कि यह तो प्राप्त होगी ही, तो उस के प्राप्ति की संभावना बहुत बढ़ जाती है.

ऊपर लिखे चमत्कारों से प्रभावित होने वाले भक्त के मन में यह विश्वास घर कर जाता है कि इतने चमत्कारी बाबाजी ने कहा है तो यह निश्चित ही हो कर रहेगा. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी परिस्थितियां भी होती हैं परंतु फिर भी यह विश्वास काफी मामलों में मनचाहे फल की प्राप्ति करा देता है और लोग इसे बाबाजी का चमत्कार मान बैठते हैं.

वे यह नहीं समझ पाते कि वे खुद ही अपने लक्ष्य, उद्देश्य की प्राप्ति पर विश्वास रखते, बाबाजी पर विश्वास न कर स्वयं लक्ष्यप्राप्ति पर अडिग विश्वास बना कर अपने प्रयासों, उपक्रमों में लगे रहते तो भी उन को अभीष्ट प्राप्त होता ही.

एक और तथ्य जो विचारणीय है वह यह कि औसत के नियम (ला औफ एवरेजेस) के अनुसार भी जितने लोग ऐसे चमत्कारी बाबाओं के पास जाते हैं उन में लगभग 40-50 फीसदी को वैसे भी अभीष्ट फल मिल जाता है और लगभग आधे खाली हाथ भी रहते हैं.

ऐसा इसलिए भी होता है कि अधिकांश मनुष्य जिस प्रकार की फरियाद करते हैं उन में सामान्यतया पूरी हो सकने वाली मांगें भी रहती हैं, जैसे परीक्षा  में पास होना, मुकदमें में जीत, पुत्र की प्राप्ति आदि. जिस की मुराद स्वाभाविक रूप से भी पूरी हो जाती है वह उसे बाबाजी का चमत्कार मान बैठता है और उन के गुण गाता है. पर जिस की मुराद पूरी नहीं होती, उस का बाबाजी से मोह भंग हो जाता है. वह बाबाजी के पास फिर जाता नहीं. वहां पर मौजूद रहने वाली भीड़ में पुराने वही फरियादी उपस्थित रहते हैं जिन की इच्छा स्वाभाविक रूप से पूरी हो गई हो.

ऐसे में नए फरियादी व भक्त को ये लोग अपनी फलप्राप्ति के किस्से सुनासुना कर बाबाजी के प्रति और भी भरोसा जगाते रहते हैं. इन्हीं भक्तों की सौगातों, भेटों, चढ़ावों से बाबाजी की दुकान चलती है.

सकारात्मक सोच की जरूरत

हर जागरूक व्यक्ति को दूसरों को समझाने और खुद समझने की जरूरत है कि वास्तव में यह चमत्कार किसी बाबाजी का नहीं, केवल अपने खुद की पौजिटिव थिंकिंग यानी सकारात्मक सोच का है.

यदि आप बिना किसी प्रयास, उपक्रम के बैठेबैठे सबकुछ पाने की अभिलाषा रखते हैं तब तो फिर ऐसे बाबाओं, स्वामियों के पास जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. पर, आप अपने लक्ष्यउद्देश्य के प्रति पूरे मनोयोग व निष्ठा के साथ प्रयास करते हैं तथा लक्ष्य प्राप्ति का आप को दृढ़विश्वास है, सोतेजागते आप का विश्वास इस बात पर दृढ़ है कि यह लक्ष्य तो प्राप्त होगा ही, तो आप देखेंगे कि रास्ते बनने लगेंगे, मददगार सामने आने लगेंगे, अवसरों के द्वार खुलने लगेंगे और निश्चितरूप से सफलता आप के द्वार खड़ी होगी.

यहां शादी के लिए किया जाता है लड़की को किडनैप

हर देश और समाज में शादी की अलगअलग परंपराएं होती हैं और शादियों की इन परंपराओं और रस्मों में स्थानीय संस्कृति का बड़ा ही महत्त्व होता है. कई बार अजीबअजीब तरह की रस्में भी इन परंपराओं का हिस्सा बन जाती हैं. ऐसी ही एक अजीब परंपरा  इंडोनेशिया के सुम्बा द्वीप की है. यहां पर शादी के लिए युवती का अपहरण कर लिया जाता है. अपहरण के बाद उस के साथ शादी की जाती है.

सुम्बा द्वीप में शादी की इस अजीबोगरीब प्रथा को काविन टांगकाप कहा जाता  है. वैसे यह प्रथा अजीब तो है ही लेकिन इस के साथ ही विवादित भी ज्यादा है. इस प्रथा के अनुसार शादी के लिए इच्छुक व्यक्ति, उस के दोस्त या परिवार वाले बलपूर्वक किसी भी युवती का अपहरण कर लेते हैं. इस के बाद उस लड़की की शादी कर दी जाती है.

पिछले साल बीबीसी के माध्यम से ऐसी ही एक कहानी सामने आई थी जिस में युवती का शादी के लिए अपहरण कर लिया गया था, हालांकि ऐसा नहीं है कि इस प्रथा को ले कर पूरा सुम्बा समाज एक मत है, कई महिला अधिकार समूह लंबे समय से इस के खिलाफ अभियान चला रहे हैं और सरकार से रोक लगाने की मांग कर रहे हैं.

सरकार ने भी इस प्रथा को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए हैं लेकिन पिछले दिनों2 युवतियों के किडनैप होने की घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद सरकार इसे ले कर सतर्क हो गई थी और इस पर सख्ती से रोक लगा दी थी. इस के बावजूद सुम्बा के कई हिस्सों में अभी भी यह प्रथा चल रही है.

शादी के लिए अपहरण की गई एक युवती ने अपने अपहरण की जो कहानी बताई वह मार्मिक और खौफनाक है. उस ने बताया कि कैसे वह कार के अंदर से अपने मातापिता को मैसेज करने में कामयाब रही.अपहर्त्ता उसे जहां ले कर जा रहे थे, उस घर में शादी की तैयारियां पहले ही हो चुकी थीं. वह घर उस के पिता के ही एक दूर के रिश्तेदार का था. युवती ने बताया कि वहां शादी की रस्मों के लिए तैयार महिलाएं भी उस का इंतजार कर रही थीं. उस के वहां पहुंचते ही महिलाओं ने गीत गाने शुरू कर दिए और फिर शादी के कार्यक्रम शुरू हो गए. सुम्बा सभ्यता पर 3 धर्मों की परंपराओं का पालन किया जाता है. यहां इसलाम और ईसाई धर्म के अलावा मारापू धर्म का भी पालन किया जाता है. कहते हैं कि इस में दुनिया को संतुलित रखने के लिए आत्माओं को बलियों से खुश करने की परंपरा है.

उस युवती ने बताया कि अपहर्त्ता उसे बारबार यही समझा रहे थे कि वह शादी के लिए मन से तैयार हो जाए. लेकिन महिला उस का विरोध करती रही. इस की वजह यह थी कि वह युवती किसी और से प्यार करती थी.

उस युवती  ने उस की एक बात न मानी. वह लगातार रोती रही. रोतेरोते उस का गला सूख गया और वह फर्श पर गिर गई. तब उस ने अपना सिर लकड़ी के एक बड़े पिलर पर मारा. वह चाहती थी कि इस से शायद उन लोगों को उस पर दया आ जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.अगले 6 दिन तक उसे एक तरह से एक घर में कैदी की तरह रखा गया. वह सारी रात रोती रहती थी. वह बिलकुल भी नहीं सोती थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह मर रही है. उस ने खानापीना बंद कर दिया था.

प्रथा के अनुसार यह भी मानना है कि यदि अपहरण की गई युवती खाना खा लेती है तो इस का मतलब यह होता है कि उस ने वह शादी स्वीकार कर ली है लेकिन उस युवती ने उनके घर खाना नहीं खाया. इतना ही नहीं उस ने बता दिया कि वह शादी करने के लिए राजी नहीं है.

दूसरी तरफ उस ने फोन द्वारा अपने घरवालों को जो सूचना दी थी उस के बाद घर वालों ने महिला समूह से संपर्क किया. और कहा कि वह उन की बेटी को उन के चंगुल से छुड़ाने की कोशिश करें. महिला अधिकार समूह पेरुआती ने पिछले 4 साल में महिलाओं के अपहरण की इस तरह की सरकार 7 घटनाओं को दर्ज कराया. समूह का मानना है कि इस तरह की और भी कई घटनाएं हुई होंगी. जो प्रकाश में नहीं आईं. लेकिन इनमें से केवल 3 युवतियां ही खुशकिस्मत निकलीं जो विरोध के कारण ऐसी शादी से बच निकलीं.

पेरुआती की स्थानीय प्रमुख बिंटांग पुष्पयोगा  कहती हैं कि वे शादियों में बनी रहती हैं क्योंकि उन के पास इस का कोई विकल्प नहीं होता. काविन टांगकाप कई दफा एक अरेंज मैरिज का ही रूप होता है. वे कहती हैं कि जो महिलाएं शादी तोड़ने का फैसला लेती हैं, उन्हें  बहुत समझाने की कोशिश की जाती है.

बहरहाल महिला अधिकार समूह के सहयोग से युवती को अपहर्त्ता के चंगुल से मुक्त कराया  और बाद में उस युवती के बौयफ्रैंड के साथ उस की शादी कर दी गई.

लड़कियों के लिए दोहरा मापदंड क्यों

मैं लड़की क्यों पैदा हुई? भाई के लिए टोकाटाकी नहीं? हर समय मुझे ही क्यों नसीहत दी जाती है? ये सब सवाल अधिकतर लड़कियों के मन में बगावत कर रहे होते हैं, मानसिक द्वंद्व चल रहा होता है और कई बार लड़कियां गलत कदम भी उठा लेती हैं.

दुनिया बहुत अलग है. जब लड़की कुछ गलत करती है तो सब लोग उस पर उंगली उठाते हैं. लड़की सोचने पर मजबूर हो जाती है कि उस ने क्या गलत किया, जो उसे लड़की के रूप में जन्म मिला. तुम लड़की हो, लड़कों से अच्छा नहीं कर सकती, लड़की की तरह रहो आदि. समाज यही सब कहता है. उन का समय भी अच्छा होगा जो खुद समाज में अपनी नई पहचान बनाती हैं, पर कुछ को तो घर से बाहर कदम रखते ही बहुत बड़ी सजा मिलती है.

अकसर खुद अपने घर के बड़े सुबह से शाम तक बस, यही नसीहत देते रहते हैं, ‘कभी किसी लड़के से मत बोलो,’ ‘वह तुम्हें बिगाड़ देगा,’ ‘तुम हमारी नाक कटा दोगी,’ वगैरा. लड़कियों को हमेशा ऐसी नसीहत दी जाती है और वह चुपचाप सब सहन कर लेती हैं. लड़की को कितनी मानसिक पीड़ा होती है, उसे कितना तनाव झेलना पड़ता है, शायद यह आप सोच भी नहीं सकते. आज भी अधिकांश घरों में लड़कियों पर ढेरों पाबंदियां हैं. यह क्या बलात्कार से कम है?

उत्तराखंड, काठगोदाम की ज्योति ने इस तरह की पाबंदियों से आजिज आ कर खुदकुशी कर ली, लेकिन आत्महत्या से पहले उस ने एक सुसाइड नोट लिखा जिसे पढ़ कर सब स्तब्ध रह गए. 7वीं क्लास की इस बच्ची ने नोट में लड़कियों के भीतर छिपा दर्द, लड़कालड़की के बीच भेदभाव व पाबंदियों को समाज के सामने रखने की मार्मिक कोशिश की थी. यह न सिर्फ सुसाइड नोट था, बल्कि समाज की रूढि़यों और लड़कियों की बंदिशों पर करारा तमाचा भी था. लड़की होेने के अभिशाप से ज्योति तो हमेशा के लिए बुझ गई, पर बहुत से सवाल खड़े कर गई.

आखिर क्यों मातापिता लड़की पर इतनी पाबंदियां लगाते हैं, जो उन्हें इस सोच के दायरे में रहने को मजबूर करती है और पता नहीं कब तक मजबूर करती रहेगी? इस सोच के जन्मदाता मातापिता हैं. कैसे, कब, कहां, कितना हंसना, रोना, गाना है यह सब मातापिता अपनी बेटियों को सिखाते हैं, लेकिन यही बातें वे बेटों को सिखाना भूल जाते हैं. जब भी घर में मेहमानों का आगमन होता है तो लड़की से पानी लाने को कहा जाएगा बेटे से नहीं. आखिर ऐसा क्यों?

जहां तक यह बात है कि लड़की कैसे कपड़े पहनती है़? किस समय बाहर जाती है? क्यों लड़कों से दोस्ती रखती है? क्यों जोरजोर से हंसती है? तो दरअसल, सामान्य इंसान के रूप में लड़की को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है. आज के बदलते वैश्विक परिवेश में कोई लड़की क्या पहनती है, कैसे रह रही है, किस से मिल रही है आदि उस का पूर्णतया व्यक्तिगत मामला है और इस में हस्तक्षेप करने का, किसी को कोई अधिकार नहीं है.

ग्लैमर और फैशन

मौजूदा दौर में फैशन को ले कर मातापिता और खास कर लड़कियों में तनाव रहता है. मनोवैज्ञानिक डा. मानसी कहती हैं, ‘‘मातापिता को लड़कियों को तल्ख अंदाज के बजाय दोस्त की तरह समझाना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत.’’

सोच अच्छी रखें

जिंदगी के प्रति लड़कियों का रवैया उन की खुशियां तय करता है. चीजें आसानी से नहीं बदलतीं, लेकिन खुद को बदलना असहज लग सकता है.

अकसर मातापिता अपने विचारों का बोझ लड़कियां पर डाल देते हैं, जिस से वे भावनात्मक व मानसिक रूप से टूट जाती हैं और यही बिखराव उन्हें भ्रमित कर देता है. उन्हें यह समझ नहीं आता कि जिंदगी के विभिन्न कालचक्रों में कैसा रुख अख्तियार किया जाए. इस का दबाव उन के द्वारा कैरियर में लिए जाने वाले फैसलों में भी देखने को मिलता है.

क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट डा. राणा कहते हैं, ‘‘जब मातापिता ही लड़कियों के लक्ष्यों का निर्धारण करने लगते हैं, तो लड़की का असमंजस की स्थिति में पड़ना लाजिमी है. पेरैंट्स यह नहीं समझते कि उन की बच्ची की क्षमता कितनी है. वे अपनी बच्ची को वही बनाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सही लगता है.

मनोवैज्ञानिक एम पी सिंह कहते हैं, ‘‘आज के दौर में उन के पास तमाम ऐसी लड़कियां आती हैं जो अपने मातापिता से संबंधों को ले कर मानसिक रूप से परेशान होती हैं. उन में से अधिकतर मांबाप की हर बात पर टोकाटाकी बरदाश्त नहीं कर पाती हैं. ऐसे में वे डिप्रैशन का शिकार हो जाती हैं. वे सोचने लगती हैं कि क्या वे कठपुतली हैं और दूसरों की उम्मीदों पर खरे उतरने में नाकाम हैं. ऐसे में दोनों के बीच विरोधाभास होता है. ऐसी स्थिति में पेरैंट्स की भूमिका काफी बढ़ जाती है. वे लड़की की मनोस्थिति को समझें और उस से दोस्त की तरह पेश आएं.’’

मातापिता कई बार कैरियर के चुनाव में भी लड़की के लिए एक बड़ी उलझन पैदा कर देते हैं. मनोवैज्ञनिक डा. राजीव मेहता कहते हैं, ‘‘मौजूदा समय में लड़कियों में इंडीविजुअलिटी बढ़ी है. ऐसे में कैरियर जैसे अहम फैसलों पर वे दखलंदाजी पसंद नहीं करतीं. वे कई बातों को नजरअंदाज कर देती हैं या फिर मातापिता की उम्मीदों के मुताबिक ही खुद को ढालने के प्रयास में अवसाद की स्थिति में आ जाती हैं.’’

डा. राजीव सवालिया लहजे में आगे कहते हैं कि बलात्कार से लोग क्या समझते हैं? बलात्कार, न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक भी होता है. लड़की को मेहरबानी कर जीने दें. उसे खुली हवा में सांस लेने दें. उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें. उस का मानसिक बलात्कार न होने दें.

हकीकत: विकास का बजता ढोल और मरते लोग

एक तरफ बिहार सरकार विकास का ढोल पीट रही है, वहीं दूसरी तरफ समस्तीपुर जिले के एक ही परिवार के 5 सदस्यों ने माली तंगी से ऊब कर फांसी लगा ली. मरने वालों में मनोज झा, उन की मां सीता देवी, पत्नी सुंदरमणि देवी, बेटे सत्यम और शिवम शामिल हैं. हर घटना की तरह इस कांड की भी जांच होगी. कोशिश की जाएगी कि इसे किसी तरह साबित कर दिया जाए कि यह सामूहिक खुदकुशी कांड कर्ज और माली तंगी की वजह से नहीं हुआ है. इस सिलसिले में शिक्षा और सामाजिक सरोकार से जुड़े प्रोफैसर राम अयोध्या सिंह ने बताया कि रातदिन अखबारों और अलगअलग मीडिया चैनलों के जरीए केंद्र की मोदी सरकार और बिहार की उन की सहयोगी नीतीश कुमार की सरकार अपने विकास के लंबेचौड़े दावे करती थकती नहीं.

इन के बड़बोलेपन का सिर्फ एक ही मतलब निकलता है कि भारत और बिहार विकास के मामले में दुनिया के सिरमौर हैं. भारत और बिहार के सभी बाशिंदे सुखचैन की जिंदगी बसर कर रहे हैं. एक तरफ केंद्र की मोदी सरकार धर्म और राष्ट्र की आड़ में पूरे देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक कर देश की सारी संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों, उद्योगों और लोक उपक्रमों, कलकारखानों, कंपनियों और निगमों व आवागमन के साधनों को पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हवाले करने में जीजान से जुटी हुई है, तो दूसरी तरफ बिहार की नीतीश सरकार भी मोदी के पदचिह्नों पर चलते हुए विकास के नाम पर विनाश की गाथा लिख रही है.

पुल, पुलिया, सड़क और भवन निर्माण को छोड़ कर पूरे बिहार की खेती, वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर, पर्यटन और दूसरे सभी क्षेत्रों को बरबाद कर देने वाले नीतीश कुमार अपने बड़बोलेपन को किस आधार पर सही साबित करेंगे, जब बिहार के समस्तीपुर जिले के विद्यापतिनगर थाने में एक पूरे परिवार के 5 सदस्यों ने एकसाथ सामूहिक खुदकुशी कर अपनी जिंदगी खत्म कर दी. ये लोग गरीब थे और लाचार भी थे. गरीबी और लाचारी का दंश सहतेसहते इस कदर ऊब गए थे कि इन्होंने जीने की आस छोड़ कर जिंदगी को ही खत्म करना जरूरी समझा. क्या यह नीतीश कुमार के गाल पर औंधे विकास का तमाचा नहीं है,

जिस ने उन के विकास के सारे दावों की पोल पलभर में ही खोल कर रख दी है? जनता द्वारा निर्वाचित कोई भी सरकार क्या इतनी भी संवेदनहीन हो सकती है कि वह किसी इनसान की जिंदगी से ज्यादा अहम सड़क, पुल और पुलिया को समझे? क्या यही है राज्य के किसी मुख्यमंत्री की जनता के प्रति जिम्मेदारी और जनसमस्याओं के समाधान की उन की प्राथमिकता? दारू और बालू के गंदे खेल में बालू और दारू माफिया के संग मौज मारते हुए राज्य को विकास के झूठे सपने दिखा कर ठगने वाले नीतीश कुमार ने क्या अपनेआप को सिर्फ कुरसी तक ही सीमित नहीं कर लिया है? मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठे नीतीश कुमार के लिए कुरसी जनता की जिंदगी से ज्यादा खास हो गई है.

अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, आर्यभट्ट के माध्यम से बिहार के गौरवगान करने वाले और उसी प्राचीन बिहार की तरह आज के बिहार को बनाने का सपना दिखाने वाले नीतीश कुमार क्या यह भूल जाते हैं कि इतिहास को लौटाया नहीं जा सकता? न तो नरेंद्र मोदी प्राचीन भारत को लौटा सकते हैं और न ही वे प्राचीन बिहार को. प्राचीन गौरव का ढोल भले ही आप बजाते रहिए, पर वह लौटने वाला नहीं. इस के बजाय जरूरत है कुछ ऐसा नया करने की, जिस से बिहार की सामान्य जनता और उन की समस्याओं का निदान हो. किसी भी सरकार की सब से बड़ी जिम्मेदारी यह होती है कि वह जनता के लिए जीने के बेहतर हालात बनाए. एक ऐसी जिंदगी की गारंटी दे,

जिस पर वह गर्व कर सके. शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, खेलकूद, रोजगार की कमी और दम तोड़ती खेतीबारी से तिलतिल कर मरने वाले भी क्या जानेंगे कि जिंदगी क्या होती है? नीतीशजी, आप ने बिहार और बिहारियों को कहीं का नहीं छोड़ा है. अगर बिहार के बहुसंख्यक मेहनतकश लोग दूसरे राज्यों में जा कर कमाते नहीं और वहां से लाए पैसे से बिहार में अपने परिवार का पालनपोषण नहीं करते, तो आप भी अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात तब कितने भयावह होते. आप ने बिहार को भ्रष्ट नौकरशाही, अफसर, माफिया, दलालों, ठेकेदारों और तस्करों के हाथों में सौंप दिया है. आप की सरकार भी उन की मरजी से ही चल रही है. क्या आप ने कभी ऐसी कल्पना भी की होगी कि किसी परिवार के सभी 5 सदस्य एकसाथ गरीबी और कर्ज की मार न सह सकने के चलते सामूहिक रूप से अपने प्राण त्याग दें? क्या आप ने उन के सामने आए उन हालात की कल्पना भी की होगी,

जिन हालात से मजबूर हो कर किसी परिवार ने अपनी इहलीला समाप्त कर दी हो? वैसे भी आप इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं और पूरी जिंदगी राजनीति की गंदी गलियों में विचरण करते रहे हैं, इसलिए आप से कभी भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि आप एक संवेदनशील इनसान की तरह बरताव करेंगे. समस्तीपुर की यह घटना कोई अपनेआप में अकेली घटना नहीं है. ऐसी घटनाएं रोजाना कहीं न कहीं घट रही हैं. हां, सभी घटनाएं सामने नहीं आ पाती हैं. लेकिन, अगर आप एक संवेदनशील इनसान हैं और थोड़ी सी भी इनसानियत बाकी है, तो अपनी जिम्मेदारी समझते हुए और कबूल करते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें. यह राजनीतिक नैतिकता का न्यूनतम मानदंड है और आप तो खुद को राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का चेला घोषित करते हुए बड़ी शान का अनुभव करते हैं. क्या राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की शान के मुताबिक आप अपने पद से इस्तीफा देंगे?

मैं जानता हूं कि आप से यह काम नहीं होगा. वजह, आप का इतना बड़ा कलेजा नहीं है. आप लोगों ने राजनीति का ककहरा ही तिकड़म और अवसरवाद से सीखा है, न कि किसी आदर्श, संघर्ष और नैतिकता के चलते. आप जैसे लोगों के लिए राजनीति पेशा है, नौकरी है, रोजगार और व्यापार है, जिस के लिए नैतिकता, इनसानियत, मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और इनसानी संवेदनाओं का कोई मोल नहीं होता. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसा ही कुछ किसी नेता, नौकरशाह, बड़े पूंजीपति, माफिया गिरोह, बड़े ठेकेदार या दलाल के परिवार के साथ हुआ होता, तो आप पर क्या बीतती? नीतीशजी, आप ने बिहार की जनता को दारू और बालू ही समझ रखा है,

इसलिए उन के लिए आप के पास कोई संवेदना नहीं है और न ही उन के प्रति आप का कोई फर्ज ही है. आप अपने कैबिनेट के मंत्रियों, दल के नेताओं, विधायकों, पार्षदों, सांसदों, नौकरशाहों और माफिया के साथ हर रोज जश्न मना रहे हैं. क्या उस जश्न में आप ने कभी आम लोगों की जिंदगी की पीड़ा को महसूस किया है? लाखों लोगों के परिवार आज भी कर्ज और पैसों की तंगी में रह कर अपनी जिंदगी को ढो रहे हैं. नीतीशजी, ऐसे परिवारों का सर्वे करा कर उन की जिंदगी के स्टैंडर्ड को ऊंचा उठाया जा सकता है, ताकि इन लोगों के परिवार खुदकुशी करने को मजबूर न हों.

मध्यमवर्गीय परिवार की चाह सरकारी नौकरी

देश के कई गरीब राज्यों में गरीब किसानों के घरों में जीने का मकसद एक ही होता रहा हैसेनाकी नौकरी. ब्रिटिश सरकार ने अपने राज के दौरान बड़ी भारी गिनती में हरियाणाबुंदेलखंडपंजाबमद्रास आदि से सैनिक गांवों से जमा किए थेउन्हें ट्रेनिंग दी थी और उन के बल पर दुनियाभर में अपना राज जमाया था. तब से सेना की नौकरी का फायदा देश के गरीब किसान घरों को मालूम है और सेना में होने वाली मौतों के खतरे के बावजूद लाखों जवान सेना में नौकरी पाने के लिए रिक्रूटमैंट सैंटरों में जमा होते रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी सरकार ने जैसे पढ़ाईरेलोंहवाईअड्डोंप्रैसअदालतोंसंसदविधानसभाओंजांच एजेंसियों का अपनी अधकचरी पौलिसियों से कचरा किया है वैसा ही कचरा सेना के साथ करने की योजना बनाई है जिस में 17.5 साल से 21 साल तक के जवानों को थलवायु और नौ सेना में

4 साल के लिए भरती किया जाएगा और 21 साल से 25 साल तक की उम्र में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगाएक चैक पकड़ा कर जिस में एक कार तक नहीं खरीदी जा सकतीएक प्लौट तक नहीं मिल सकताएक दुकान तक नहीं खोली जा सकती.

4 साल तक इन अग्निवीरों को पकापकाया खानाबनीबनाई ड्रैसअच्छा मकानआर्मी ट्रकों में आनेजाने की सुविधा दे कर इन्हें समाज से काट कर बंदूकों की गोलियों से घेर कर रखा जाएगा और फिर उम्मीद की जाएगी कि ये उस देश में नौकरियां ढूंढ़ें जहां इन 4 सालों में इन के साथी अपनेअपने हुनर सीख चुके होंगेपढ़ाई की 2-3 बाधाएं दूर कर चुके होंगे या फिर व्यापार या किसानी में कुछ जानकार बन चुके होंगे. इन रिटायर्ड अग्निवीरों को 4 साल में सिर्फ परेड करनाअफसर का हुक्म माननाहथियार चलाना सिखाया जाएगा. ऐसी ट्रेनिंग जिस की देश को कोई जरूरत नहीं.

अगर देशभर के युवा सड़कों पर निकल कर इस नई भगवाई स्कीम को अपोज कर रहे हैं और वह कर रहे हैं जो किसान या मुसलमान करते तो उन पर बुलडोजर चलवा दिए जातेतो बड़ी बात नहीं. इस नई स्कीम से सरकार द्वारा लाखोंको चाहे हर साल सेना में नौकरी न मिलती पर उन के सपने तक चकनाचूर कर दिए. सेना की नौकरी मिलने पर भी उन का कल भरोसेमंद नहीं रहेगा और सैनिक होने पर जिंदगीभर पटरी पर रहने की उम्मीद चली जाएगी. सैनिकों से शादी करने के लिए आज लड़कियां विधवा होने के रिस्क के बावजूद तैयार हो जाती हैंक्योंकि सेनाकी नौकरी करने के बाद आर्थिक सुरक्षा मिलती रहती थी. अग्निवीरों को कोई पैंशन नहीं मिलेगीकोई हैल्थ कार्ड नहीं मिलेगाजिंदगी का कोई खूंटा नहीं रहेगा. लाखों लड़कियों के सपने भी चकनाचूर हो गए कि वे सैनिक से शादी कर के पक्की गृहस्थी बना सकेंगी.

अब शादी तो रिटायरड होने के बाद हो सकेगी और बिना पक्की नौकरी वाले को कौन लड़की अपनाएगीअगर बिहारउत्तर प्रदेशउत्तराखंडहिमाचल प्रदेशहरियाणाआंध्र प्रदेश के युवा सड़कों पर उतरे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जिन सपनों के महलों में वे रह रहे थेउन को एक ?ाटके में उन की भगवा सरकार ने चकनाचूर कर दिया. जिन्हें मुसलमानों के घर जलाने की ट्रेनिंग दी गई थीवे अब अपनी सरकार की रेलेंपोस्ट औफिस और भाजपा दफ्तर जला रहे हैं.

देश के सारे युवाओं को सेना में चाहे नौकरी नहीं मिलती पर उम्मीद तो रहती थी और अब वह भी गईक्योंकि 4 साल की नौकरी के लिए कौन मगजमारी करेगा?

 

घनी बस्ती में सैक्सी लुक: कितना दिखाएं और कितना छिपाएं

सब से ज्यादा कठनाई उन लड़कियों के सामने खड़ी होती है जो बनसंवर कर घर से निकलती हैं. उन पर ताक?ांक तो की ही जाती है, लड़कों की गंदी फब्तियों व छेड़छाड़ का शिकार भी उन्हें होना पड़ता है. क्या घनी बस्ती में ताक?ांक ज्यादा होती है? क्या ऐसी बस्ती में गहरी लिपस्टिक लगा कर निकला जा सकता है? क्या घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियों को घुटघुट कर जीना होगा? लड़के कमैंट करें तो कैसे जवाब दें? घनी बस्ती में घर वालों से अधिक बाहर वाले रखते हैं लड़की पर नजर? ‘जै सा देश वैसा भेष’ की कहावत के जरिए यह बताया जाता है कि समाज, वातावरण और सुविधा के अनुसार कपड़े पहनने चाहिए. मध्यवर्गीय परिवार अभी भी घनी बस्तियों में रहते हैं जहां पर घर के दरवाजे पर चारपहिया वाहन नहीं पहुंच पाता.

ऐसे में सब से बड़ी परेशानी उन लड़कियों को होती है जो फैशनेबल कपड़े पहनना चाहती हैं. उन के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि फैशनेबल कपड़े पहन कर ‘सैक्सी लुक’ कहां दिखाएं. लड़कियों को सब से अधिक गलियों में ही चलना पड़ता है. गलियों में ‘सैक्सी लुक’ दिखाने वाले कपड़े पहनने को अच्छा नहीं माना जाता है. ऐसे में सवाल उठता है कि कहां दिखाएं? ‘सैक्सी लुक’ वहां दिखाएं जहां जरूरी हो. गलियों में ‘सैक्सी लुक’ न दिखाएं. घनी बस्ती में रहती हैं तो सैक्सी लुक को वहां ही दिखाएं जहां जरूरी है, गली में नहीं. इस विचार के पीछे की वजह भी ‘जैसा देश वैसा भेष’ की कहावत वाली ही है. घनी बस्तियों में रहने वालों की मानसिकता अभी भी वही है कि

‘सैक्सी लुक’ को देख कर छींटाकशी होती है, सीटियां बज जाती हैं. कई बार इस से आगे बढ़ कर आपराधिक घटना भी घट जाती है, जिस की वजह से जाति और धर्म के ?ागड़े भी शुरू हो जाते हैं. शायद यही वजह है कि तर्क ऐसे दिए जाते हैं कि घनी बस्ती में सैक्सी लुक वहीं दिखाएं जहां जरूरी हो, गलियों में नहीं. यह एक तरह का प्रतिबंध है और कानून व्यवस्था पर सवाल भी है. रूढि़वादी समाज इन मुद्दों को छोड़ कर केवल लड़की से ही उम्मीद कर रहा है कि वह सुधर जाए, सावधानी बरते जिस से गलियों में लड़की के सैक्सी लुक देख कर अपराध करने की मानसिकता न बने. कई बार रेप के मामलों में भी यह तर्क दिया जाता है कि लड़की ने ही गलत पहनावा पहना था,

इस कारण रेप हो गया. यह तर्क पूरी तरह से सही नहीं है. कई बार रेप का शिकार वे लड़कियां हो जाती हैं जो बहुत ही शालीन कपड़े पहनती हैं. बच्चियों के साथ भी रेप और छेड़छाड़ की घटनाएं हो जाती हैं. बच्चों के साथ यौन अपराध कोई नया विषय नहीं है. क्या घनी बस्ती में ताक?ांक ज्यादा होती है? घनी बस्ती में ताकी ज्यादा होती है. इस की वजह यह है कि इस के अवसर यहां ज्यादा होते हैं. घर छोटे होते हैं. आपस में मिले होते हैं. घर के दरवाजे सीधे गली में खुलते हैं. खिड़कियों के खुले होने पर घर के अंदर तक दिख जाता है. घनी बस्ती में आमतौर पर खाली लड़के गलियों में ही खड़े होते हैं. जिन घरों में लड़कियां होती हैं वहां ज्यादा ही भीड़ लगी होती है. देररात तक गलियों में भीड़ रहती है. छींटाकशी और ताक?ांक के लिए केवल गलियों ही नहीं, छतों का भी पूरा इस्तेमाल होता है. गली के लड़कों को पता होता है कि किस घर की लड़की किस समय स्कूलकालेज या बाजार जाती है. कब उस के घर में कौन रहता है. उस का दोस्त कौन है. उस के भाई का दोस्त कौन है.

अगर छत पर सूखते लड़कियों के कपड़े हवा में उड़ कर गली या फिर दूसरे की छत पर पहुंच जाएं तो ही लड़कों के दिल खुश हो जाते हैं. आजकल किसी न किसी तरह से लड़कियों के मोबाइल नंबर हासिल कर लिए जाते हैं. इस के बाद उन से संपर्क करने का काम किया जाता है. गलियों में रहने वाले कई बार घरेलू मदद के बहाने भी करीब आने की कोशिश करते हैं. कई बार लड़की का पीछा तक होता है. लड़की से ताक?ांक का मकसद केवल उस के करीब आने का होता है. लखनऊ की रहने वाली मंतशा कहती है, ‘‘घनी बस्तियों में गली ही नहीं, छतें भी आपस में मिली होती हैं. रात में सोते समय सब से अधिक डर रहता है. कहीं कोई अपनी छत से फांद कर न आ जाए और छेड़खानी करने लगे.

छत पर धूप या हवा खाने जाओ तो लोग घूरते रहते हैं. छतों से ही कमैंट करते हैं. छतों पर इस तरह की घटनाएं बहुत होती हैं.’’ क्या ऐसी बस्ती में गहरी लिपस्टिक लगा कर निकला जा सकता है? गहरे रंग की लिपस्टिक को ले कर भी घनी बस्ती में रहने वालों की सोच अलग होती है. इस का प्रयोग करने वाली लड़कियों को फैशनेबल माना जाता है. घनी बस्ती में रहने वालों की सोच यह होती है कि ऐसी लड़कियां सहज और सरल होती हैं. छींटाकशी करने पर भी केवल सुन कर चली जाती हैं. जवाब नहीं देती हैं. इस वजह से लड़कियां भी गहरे रंग की लिपस्टिक लगाने से बचती हैं. ऐसी लड़कियों पर लड़के ज्यादा निगाह रखते हैं. घरपरिवार भी लड़कियों को यही सम?ाता है कि वह इस तरह लिपस्टिक लगा कर बाहर न जाया करे. नौबस्ता, लखनऊ की रहने वाली निशा कहती है, ‘‘हम लोग जब घर से बाहर निकलती हैं तो जाहिर सी बात है कि मेकअप कर के निकलते हैं.

दूसरों की तरह हमारा मन भी करता है कि हम भी सुंदर दिखें. घनी बस्ती और तंग गलियों में रहने वाले लड़कों के पास आवारागर्दी करने का समय अधिक होता है. वे हमारी ड्रैस और मेकअप पर भद्दे कमैंट करते हैं. इस को ले कर तमाम बार महल्ले में ?ागड़ा भी हो जाता है पर कोई सुधरने को तैयार नहीं.’’ क्या घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियों को घुटघुट कर जीना होगा? आज के दौर में घनी बस्ती में रहने वाली मध्य और कमजोर वर्ग की लड़कियां भी खुले आसमान में जीना चाहती हैं. उन को यह पता होता है कि फैशन की दुनिया क्या होती है. जब तक टिकटौक चल रहा था, बहुत सारी छोटे शहरों की लड़कियां अपने वीडियो बना कर उस पर पोस्ट कर रही थीं.

वहां वे अपने मन की मस्ती करती थीं. इस की वजह यह थी कि वहां टीकाटिप्पणी नहीं होती थी. वहां लोग वीडियो को देखते थे. तारीफ करते थे. उस में लड़की को भी खुशी मिलती थी. अच्छी बात यह थी कि लड़की को कोई पहचानता नहीं था, सो, उस के घरवालों को पता नहीं चलता था. टिकटौक के बंद होने के बाद अब फेसबुक और इंसटाग्राम की रील पर लड़कियां यह हुनर दिखाती हैं. सोशल मीडिया पर वे खुले आसमान पर उड़ती हैं. असल जीवन में उन को अपनी मनमरजी करने को नहीं मिलती. इस कारण यहां रहने वाली लड़कियां घुटघुट कर जीती हैं. लखनऊ के मडियांव इलाके की रहने वाली रूबी खान कहती है, ‘‘महल्ले में हमें बहुत संभल कर रहना पड़ता है.

घर के बाहर खुली हवा में निकलने से रोका जाता है. हम अपना गेट बंद कर के छोटेछोटे कमरों में रहने को मजबूर होते हैं. कालोनियों की तरह दिन या रात में टहलने नहीं जा सकते. बाहर जाने के लिए किसी न किसी बहाने का इंतजार करते रहते हैं.’’ लड़के कमैंट करें तो कैसे जवाब दें? घनी बस्ती में रहने वाली लड़कियां अब चुप नहीं रहती हैं. लड़कियों का एक वर्ग ऐसा बनने लगा है जो अब कमैंट करने वाले लड़कों को जवाब देने लगा है. इस के बाद भी लड़कियों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो कमैंट को सुन कर चुप रहता है. लड़कियों को सम?ाना चाहिए कि वे कमैंट करने वाले लड़कों का जवाब उन के मुंह पर दें. अगर कोई नशे में है तो उस से भिड़ें नहीं, उस की शिकायत घर, परिवार और पुलिस में करें. एक बार पुलिस तक बात जाने के बाद लड़के ऐसी हरकत करने से बचने लगते हैं. लखनऊ की रहने वाली इकरा कहती है, ‘‘हमें ऐसे लड़कों के कमैंट का जवाब तो देना चाहिए.

लेकिन डर लगता है. ऐसा कई बार हो चुका है कि हम लोगों ने जब विरोध किया तो लड़के वालों के घर वालों ने हमारे ऊपर ही इल्जाम लगा कर हमें बेइज्जत करने का काम किया.’’ घनी बस्ती में घर वालों से अधिक बाहर वाले रखते हैं लड़की पर नजर कहते हैं कि घर की लड़की के चालचलन की जानकारी घर वालों तक को बाहर वालों से मिलती है. इस की वजह यही है कि घनी बस्ती में रहने वाली लड़की पर गलीमहल्ले के लोग ज्यादा नजर रखते हैं. इन में से तमाम लोग किसी न किसी बहाने उस के घर पर यह बात जरूर पहुंचा देते हैं कि लड़की कहां, किस के साथ है, क्या कर रही है. लड़कियां जहां भी घूमने जाती हैं तो उन का प्रयास होता है कि महल्ले वालों से उन की मुलाकात न हो. गलियों में होने लगा है परदा? एक दौर था जब लड़कियां परदा करने से मना करती थीं.

परदा करने वाले को प्रगतिशील विचारों का नहीं माना जाता था. अब दौर बदल गया है. आजकल लड़कियां खुद से परदा करने लगी हैं. इस की वजह तो गरमी से स्किन को बचाने को बताया जाता है लेकिन असल वजह घनी बस्ती में लोगों की नजर से बचने को माना जाता है. घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियां छींटाकशी से बचने के लिए परदा करने लगी हैं. अब स्कूलों में भी इसी वजह से लड़कियां परदा कर के जाने लगी हैं. गलियों से परदा कर के निकलती हैं. बाहर जाते ही वे परदा उतार देती हैं. इस वजह से गलियों में निकलने के लिए लड़कियां परदा करने लगी हैं.

अग्निवीर में 4 साल तक परेड करने के बाद क्या युवाओं को मिलेगी नौकरी ?

देश के कई गरीब राज्यों में गरीब किसानों में घरों में जीने का मकसद एक ही होता रहा है, सेना की नौकरी. ब्रिटीश सरकार ने अपने राज के दौरान बड़ी भारी गिनती में हरियाणा, बुंदेलखंड, पंजाब, मद्रास आदि से सैनिक गांवों में जमा किए थे, उन्हें ट्रेङ्क्षनग दी थी और उन के बल पर दुनिया भर में अपना राज जमाया था. तब से सेना की नौकरी का फायदा देश के गरीब किसान घरों को मालूम है और सेना में होने वाली मौतों के खतरे के बावजूद लाखों जवान सेना में नौकरी पाने के लिए रिक्रूटमैंट सैंटरों में जमा होते रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी सरकार के जैसे पढ़ाई, रेलों, हवाई अड्डïों, प्रैस, अदालतों, संसद, विधानसभाओं, जांच ऐजेसियों का अपनी अधमरी पोलिसियों से कचरा किया है वैसा की कचरा सेना केे  साथ करने की योजना बनाई है जिस में 17.5 साल से 21 साल तक के जवानों को थल, वायु और नौ सेना में 4 साल के भर्ती किया जाएगा और 21 से 25 साल की उम्र में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा, एक चैक पकड़ा कर जिस में एक कार तक नहीं खरीदी जा सकती, एक प्लाट तक नहीं मिल सकता, एक दुकान तक नहीं खरीदी जा सकती.

4 साल तक इन अग्निवीरों को पकापकाया खाना, बनीबनाई ड्रेस, अच्छा मकान, आर्मी ट्रकों में आनेजाने की सुविधा देकर इन्हें समाज से काट कर बंदूकों गोलियों

से घेर कर रखा जाएगा और फिर उम्मीद की जाएगी कि ये उस देश में नौकरियां ढूंढ़ें जहां इन 4 सालों में इन के साथी अपनेअपने हुनर सीख चुके होंगे, पढ़ाई की 2-3 बाधाएं दूर कर चुके होंगे या फिर व्यापार या किसानी में कुछ जानकार बन चुके हुए. इन रिटायर्ड अग्निवीरों को 4 साल में सिर्फ परेड करना, अफसर का हुक्म मानना, हथियार चलाना सिखाया जाएगा, ऐसी ट्रेङ्क्षनग जिस की देश का कोई जरूरत नहीं.

अगर देशभर के युवा सडक़ों पर निकल कर इस नई भगवाई स्कीम को ओपोज कर रहे हैं और वह कर रहे हैं जो किसान या मुसलमान करते तो उन पर बुलडोजर चलवा दिए जाते, तो बड़ी बात नहीं. इस नई स्कीम से सरकार लाखों को चाहे हर साल सेना नौकरी न मिलती पर उन के सपने तक चकनाचूर कर दिए. सेना की नौकरी मिलने पर भी उन का कल भरोसेमंद नहीं रहेगा और सैनिक होने पर ङ्क्षजदगी भर पटरी पर रहने की उम्मीद चली जाएगी. सैनिकों से शादी करने के लिए आज लड़कियां विधवा होने के रिस्क के बावजूद तैयार हो जाती है क्योंकि सेना की नौकरी करने के बाद आॢथक सुरक्षा मिलती रहती थी. अग्निवीरों को कोई पेंशन नहीं मिलेगी, कोई हैल्थ कार्ड नहीं मिलेगा, ङ्क्षजदगी का कोई खूंटा नहीं रहेगा. लाखों लड़कियों के सपने भी चकनाचूर हो गए कि वे सैनिक से शादी कर के पक्की गृहस्थी बना सकेंगी.

अब शादी तो रिटायर्ड होने के बाद हो सकेगी और बिना पक्की नौकरी वाले को कौन लडक़ी अपनाएगी? अगर बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, आंध्र के युवा सडक़ों पर उतरे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जिन सपनों के महलों में वे रह रहे थे, उन को एक झटके उन की भगवा सरकार ने चकनाचूर कर दिया. जिन्हें मुसलमानों के घर जलाने के ट्रेङ्क्षनग दी गई थी, वे अब अपनी सरकार की रेलें, पोस्टऔफिस और भाजपा दफ्तर जला रहे हैं.

देश के सारे युवाओं को सेना में चाहे नौकरी नहीं मिलती पर उम्मीद तो रहती थी और अब वह भी गई क्योंकि 4 साल की नौकरी के लिए कौन मगजमारी करेगा?

गांव तब और अब: पैसा आया, हालात वही

गांव तब और अब पैसा आया, हालात वही पिछले कुछ सालों की तुलना करें, तो गांवों में बहुत सारे बदलाव देखने को मिल रहे हैं. वहां तक सड़कें पहुंच गई हैं, भारी तादाद में मकान पक्के हो गए हैं, साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का इस्तेमाल होने लगा है, खेती के काम ट्रैक्टर और दूसरी मशीनों से होने लगे हैं. यहां तक कि कुएं और नदी की जगह पीने का पानी हैंडपंप या वाटर सप्लाई से मिलने लगा है, बिजली तकरीबन हर गांव तक पहुंच गई है, रसोई गैस और बिजली से चलने वाले हीटर का इस्तेमाल खाना बनाने में होने लगा है,

खेती की जमीनों के बिकने से एकमुश्त पैसा भी मिलने लगा है, गांव के स्कूल पहले से बेहतर हो गए हैं, शादीब्याह और दूसरे मौकों पर खर्च और दिखावा बढ़ गया है. लेकिन इतने सारे बदलाव के बाद भी गांवों में आज भी गरीबी है, लोग सरकारी राशन लेने के लिए मजबूर हैं, बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा नहीं पा रहे हैं और अपना इलाज अच्छे अस्पताल में नहीं करा पा रहे हैं. कुलमिला कर हालात परेशानी वाले हैं. किसान खेती से पैसा नहीं कमा पा रहे हैं. गांव के नौजवान रोजगार के लिए शहरों की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं. जिन किसानों के ऊपर पूरे देश की जनता का पेट भरने की जिम्मेदारी है, वे खुद के खाने के लिए सरकारी राशन की दुकानों पर जाने लगे हैं. गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है. सवाल उठता है कि सड़क और बिजली पहुंचने के बाद भी गांवदेहात में गरीबी क्यों है? खेती से दूर भागते नौजवान इस मसले पर यादवेंद्र सिंह बताते हैं,

‘‘गांवों में रहने वाला नौजवान तबका खेतीबारी में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है. वह छोटीमोटी नौकरी करना बेहतर समझता है. जो लोग खेतीकिसानी करते भी हैं, वह खेती के बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखते हैं. ‘‘किस फसल की कब बोआई करनी है? किस मंडी में ज्यादा कीमत मिलती है? सरकार की क्या योजनाएं हैं? फसल को कब बेचा जाए, जिस से ज्यादा मुनाफा हो? ऐसे सवालों के जवाबों से वे अनजान हैं. ‘‘आज बहुत सारी जानकारियां मोबाइल फोन पर मौजूद हैं, पर गांव के लोग मोबाइल का इस्तेमाल गाना सुनने और वीडियो देखने में करते हैं. खेतीकिसानी के बारे में वे ज्यादा नहीं पढ़ते हैं. ‘‘देश में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है. बहुत सारे किसान एक हजार रुपए प्रति माह में भी अपनी जिंदगी की गुजरबसर करते दिखते हैं. ऐसे लोग हमेशा ही इस चाहत में रहते हैं कि सरकार की तरफ से कुछ न कुछ मिल जाए. पर सरकार के मदद करने के बाद भी गांव के लोगों की हालत इसलिए नहीं बदलती है, क्योंकि लोग काम नहीं करना चाहते हैं. वे अपनी जरूरतों को बढ़ा लेते हैं.

‘‘सरकार भी छोटे किसानों को फायदा देने के लिए बुनियादी ढांचा नहीं तैयार करती है. वह केवल छोटीमोटी मदद कर के किसानों को खुश रखना चाहती है, जिस से मदद की चाहत में किसान उसे वोट देते रहें. सरकारी मदद के मुकाबले महंगाई इस कदर बढ़ी है कि किसान की माली हालत जस की तस बनी हुई है.’’ रोजगार की कमी ऋतुजा सिंह बघेल कहती हैं, ‘‘गांव में पहले कुटीर उद्योगधंधे चलते थे. लोहे का काम वहां के रहने वाले लुहार करते थे. लकड़ी का काम भी गांव में होता था. मिट्टी के बरतन गांव में बनते थे. दोनापत्तल भी गांव में बनते थे. सूत कातने, ऊन का काम, अचार, पापड़ जैसी खाने की चीजें गांव में ही बनती थीं. ‘‘भले ही यह बड़ा रोजगार न रहा हो, पर गांव की जरूरतों को पूरा करता था. गांव का पैसा गांव में ही रह जाता था. जैसेजैसे ये काम बाजार के हवाले हो गए, गांव का पैसा बड़ी कंपनियों को जाने लगा. गांव में पैसा आने के बाद भी गरीबी दिखने लगी.

‘‘आज के समय में गांवों में होने वाले शादीब्याह से ले कर छोटेमोटे आयोजनों तक में बाहर का सामान और लोग आते हैं. गांव का पैसा इस तरह से बाहर के लोगों के पास जा रहा है. दिखावा बढ़ गया है. जिन के पास पैसा है, वे भी और जिन के पास पैसा नहीं है, वे भी कर्ज ले कर या जमीन बेच कर अपना काम अच्छे से अच्छा कर रहा है. ‘‘इसे देख कर शहरी लोगों को लगता है कि गांव अमीर हो गए हैं, पर गांव की यह अमीरी केवल हाईवे के किनारे से दिखती है. गांव के अंदर घुसते ही गांव की रहने वाली 80 फीसदी आबादी गरीबी में गुजरबसर करती दिखती है.’’ गरीब होते गांव भारत एक विकासशील देश है, जहां विकास की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उस देश का विकास कैसे हो सकता है, जिस की आधे से ज्यादा आबादी गांव की हो और गरीबी से जूझ रही हो.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे पर आधारित नीति आयोग ने पहली रिपोर्ट जारी कर दी है, जिस के मुताबिक भारत के शहरों के बजाय गांवों में रहने वाले लोग चौगुना ज्यादा गरीब हैं. यह रिपोर्ट 2015-16 के स्वास्थ्य सर्वे पर बनी है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल 25.1 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा में आती है, वहीं गांवों के तकरीबन 37.75 फीसदी लोग गरीबी में आते हैं. शहरों की कुल आबादी का 8.81 फीसदी हिस्सा गरीबों में आता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सब से ज्यादा गरीबी वाला राज्य है, केरल सब से कम गरीबी वाला राज्य है. सब से ज्यादा गरीबी वाले राज्यों में मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर है, वहीं झारखंड और उत्तर प्रदेश दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. सब से कम गरीबी वाले राज्य में गोवा और सिक्किम दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. तेंदुलकर समिति के मुताबिक,

गरीबी में कमी आई है और ग्रामीण आबादी में गरीबी घट कर 33.8 फीसदी से 25.7 फीसदी रह गई है और शहरों में गरीबी आबादी घट कर 29.8 फीसदी से 21.9 फीसदी रह गई है. यहां गौर करने की बात यह है कि गांव की ज्यादातर आबादी किसान तबके की है और खेती पर निर्भर है, लेकिन किसानों को उन की फसल के लिए न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है और न ही उन्हें खेती से जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, जिस से गांव का नौजवान तबका खेती नहीं करना चाहता है और शहरों की तरफ भागता है. गांवदेहात के बहुत से लोग आज भी पढ़ाईलिखाई से दूर हैं और ऐसे न जाने कितनी वजहें हैं, जिन के चलते गांव का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित है. सरकार को चाहिए कि वह जमीनी लैवल पर ऐसे कदम उठाए, जिस से गरीबी कम हो सके. ‘गरीबी हटाओ’ का सच गांव की गरीबी के साथ अपनेअपने समय में सभी नेताओं ने राजनीति की. 70 के दशक में कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. 80 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लागू करते समय यह कहा था कि इस से पिछड़ी जातियों को मजबूत किया जा सकेगा. साल 2004 में जब कांग्रेस की सरकार बनी,

तो गांव में हर घर को रोजगार देने के लिए ‘मनरेगा योजना’ चलाई गई. इस के बाद साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने गांव में रहने वाले किसानों की आमदनी को दोगुना करने का वादा किया. मोदी सरकार बनने के 8 साल बाद भी किसानों और गांव के दूसरे लोगों की हालत जस की तस रही है. किसानों की मदद के लिए 500 रुपए प्रति माह की ‘किसान सम्मान निधि’ और सरकारी राशन की दुकान से राशन देना पड़ा. किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा दरकिनार हो गया. देश की आजादी के 74 साल से ज्यादा बीतने के बाद भी किसानों की हालत जस की तस है. इस का सब से बड़ा उदाहरण राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की हालत को मुद्दा बनाया जाना है. अगर इंदिरा गांधी के समय में गरीबी दूर हो गई होती, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात नहीं करनी पड़ी होती. धर्म और नशाखोरी गांव के लोग अब काम नहीं करना चाहते हैं. महंगी होने के बाद भी वे बाजार में बिकने वाली चीजों का इस्तेमाल करते हैं. इस से गांव की आमदनी खत्म हो रही है.

कामचोरी के साथसाथ गांव में बहुत तेजी से नशा करने की आदत फैल रही है. आज हर तरह का नशा गांव के लोग करने लगे हैं. इस में तंबाकू और शराब के साथसाथ गांजा, भांग और अफीम जैसा नशा भी शामिल है. नशे के चलते अपराध बढ़ रहे हैं. थाना और तहसील में खर्च बढ़ रहा है. कानूनी झगड़े में खेत और जमीनें बिक रही हैं, जो गांव के लोगों पर भारी पड़ रहा है. नशे का दूसरा असर यह है कि शरीर कमजोर होता जा रहा है. दवा और अस्पताल का खर्च बढ़ने लगा है. आज गांवदेहात में भी फास्ट फूड का चलन बढ़ने लगा है. इस से ब्लड प्रैशर और डायबटीज जैसी कई बीमारियां बढ़ रही हैं. गांवदेहात में जो पैसा है, वह किसी उत्पादक काम में नहीं लग रहा है. सब से पहले तो नशाखोरी, उस के बाद धर्म के काम जैसे पूजापाठ, चढ़ावा, दानदक्षिणा में फुजूल का खर्च होता है.

हाल के दिनों में गांवदेहात में भी मंदिरों की तादाद बढ़ गई है. लोग स्कूल और अस्पताल पर खर्च नहीं करते हैं, पर मंदिरों पर जरूर खर्च करते हैं. जब पैसा उत्पादक कामों पर खर्च नहीं होता, तो फायदे की उम्मीद कम हो जाती है. गांवदेहात के लोग अब मेहनत की जगह भाग्य पर भरोसा करने लगे हैं, जिस से ज्यादातर पैसा ऊपर वाले को खुश करने के लिए पंडित को चढ़ावा चढ़ाने में निकल जाता है. गांव छोड़ते लोग गांवदेहात की एक बड़ी आबादी शहरों की तरफ भाग रही है. हर शहर के आसपास ऐसे छोटेछोटे महल्ले बन गए हैं, जहां गांव जैसा ही माहौल देखने को मिलता है. इस से शहरों की व्यवस्था भी खराब होती जा रही है. गांव में अगर रोजीरोजगार का ढांचा तैयार होगा, तो गांव के लोगों का शहरों की तरफ भागना नहीं होगा. बहुत सारे ऐसे रोजगार हैं, जिन की जानकारी देने से गांव के लोगों का फायदा हो सकता है. खेतीबारी से जुड़े रोजगार बढ़ाने की जरूरत है.

अगर ऐसा नहीं किया गया, तो गांव के लोग और भी गरीब होते जाएंगे. शहर में रहने वाले और बिजनैस करने वाले लोगों के पास पैसा बढ़ता जाएगा. इस से गरीबी और अमीरी के बीच की खाई चौड़ी होती जाएगी. गांवदेहात में रोजगार होने से लोगों का शहरों की तरफ भागना रुकेगा. गांव का पैसा गांव में रहेगा, तो तरक्की केवल सड़क तक नहीं दिखेगी, बल्कि गांव के अंदर भी बदलाव दिखेगा. इस के लिए गांव के लोगों को काम करना पड़ेगा, उन्हें नशाखोरी, कामचोरी और धार्मिक अंधविश्वास से दूर होना होगा. नौजवानों की पढ़ाईलिखाई रोजगार देने वाली हो, वह गांव के काम आए, उस तरह की योजना बनाई जाए. भारत की आबादी का सब से बड़ा हिस्सा गांव में रहता है. ऐसे में गांव गरीब रहें और देश तरक्की करे, ऐसा मुमकिन नहीं है. देश की तरक्की गांव के बिना नहीं हो सकती. गांवों को साथ ले कर चलना पड़ेगा, तभी पूरा देश खुशहाल होगा. सरकारी मदद किसी समस्या का समाधान नहीं है. योजना बना कर गांव का रोजगारपरक विकास ही समस्या का एकमात्र हल है.

सेना ही क्यों

सेना ही क्यों जज्बा और हिम्मत कहीं भी काम आ सकते हैं मैंसुबह कसरत करने अपने लोकल पार्क में जाता हूं. वहां कुछ लड़के दौड़ लगाने आते हैं. उन में से ज्यादातर गरीब घर के नौजवान होते हैं और वे बनियान, निक्कर और ‘सैगा’ ब्रांड के जूते पहने हुए होते हैं. पंजाब की इस कंपनी के जूते इसलिए, क्योंकि इतने सस्ते और टिकाऊ रनिंग जूते शायद ही कोई कंपनी बना कर देती होगी. भार में भले ही ये जूते बहुत हलके होते हैं, पर इन्हें पहनने वाले गरीब घरों के लड़कों पर रोजगार पाने का बोझ बहुत ज्यादा होता है. कम जमीन, आमदनी न के बराबर, पर फिर भी ऐसे लड़कों की मेहनत में कोई कमी नहीं होती है और इस बात की गवाही उन के बदन से बहता पसीना दे देता है.

पर चूंकि एक तो भारत में सरकारी नौकरियां वैसे ही कम हैं, ऊपर से बेरोजगारी की हद. लिहाजा, 1-1 सरकारी नौकरी पाने में कंपीटिशन काफी तगड़ा हो जाता है. और जब कोई नौजवान इस कंपीटिशन में लास्ट स्टेज पर चूक जाता है, तो वह कई बार इतने कड़े और दुखदायी कदम उठा लेता है कि देशभर में सुर्खियां बन जाता है. हाल ही में एक 23 साल के लड़के ने इस बात के चलते तनाव में आ कर अपनी जान दे दी कि चूंकि अब वह ओवर एज हो गया है तो सेना में नहीं जा पाएगा, तो फिर जीने से क्या फायदा और उस ने फांसी लगा ली.

यह घटना हरियाणा के भिवानी जिले की है, जहां गांव तालु का रहने वाला 23 साल का नौजवान पवन कुमार पिछले 9 साल से भारतीय सेना में भरती होने के लिए तैयारी कर रहा था, पर सरकार द्वारा भरतियां न निकालने से हताश हो कर उस ने अपनी जान दे दी. पवन कुमार ने खुदकुशी करने से पहले एक हैरान कर देने वाला सुसाइड नोट लिखा, जो किसी कागज पर नहीं, बल्कि रनिंग ट्रैक पर लिखा था. उस सुसाइड नोट में पवन कुमार ने अपने पिताजी से कहा कि इस बार सेना में भरती नहीं हुआ, लेकिन पिताजी अगले जन्म में मैं फौजी जरूर बनूंगा, क्योंकि सेना में भरती न निकलने पर मेरी उम्र भी निकल गई… फिर अपने प्रैक्टिस वाले मैदान में एक पेड़ पर रस्सी का फंदा लगा कर उस ने जान दे दी.

इसी मुद्दे पर तालु गांव में एक सामाजिक संगठन चला रहे इंजीनियर कुलदीप पंघाल ने बताया, ‘‘पवन को सब गांव में ‘पौना’ कहते थे. उस के पिता का नाम जसवंत उर्फ ‘लीला’ है. जब पवन 5 साल का था, तब उस की मां का देहांत हो गया था. परिवार की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी. पिता ने ही किसी तरह दोनों बेटों की परवरिश की थी. पवन दोनों भाइयों में बड़ा था. ‘‘इस बात में कोई दोराय नहीं है कि पवन को सेना में जाने का जुनून था. उसी जुनून को पूरा करने के लिए वह दिन में 3 टाइम ट्रैक पर रेस लगाता था और उस ने क्षेत्रीय लैवल पर रेस में कई बार मैडल भी जीते थे.

वह 3 बार टीए की भरती क्लियर कर चुका था, पर फाइनल रिजल्ट में उस का नाम नहीं आ पाया था. ‘‘साल 2018 में पवन मेरे पास पढ़ने आता था, तब उस की बातों से गहरा सेना प्रेम झलकता था. उस के परिवार के सदस्य बताते हैं कि उन्होंने कई बार प्राइवेट नौकरी लगवाने के लिए उस से पूछा था, पर वह मना करता रहा. ‘‘हरियाणा के तकरीबन हर गांव में पवन जैसे सैकड़ों नौजवान मिल जाएंगे, जिन का सपना केवल भारतीय सेना में जाने का है.

इस बात को सच साबित करने के लिए आप सोशल मीडिया पर ऐसे नौजवानों द्वारा डाली जाने वाली पोस्टों को देख सकते हैं. ‘‘इस के बावजूद अगर सरकार नौकरियां नहीं दे पर रही है तो उसे भी कठघरे में खड़ा करना चाहिए. क्या सरकारी भरतियां समय पर निकाली जा रही हैं? क्या हर सरकारी महकमे में पद खाली नहीं हैं? सेना की भरती में छूट क्यों नहीं दी जाती है,

जबकि हर साल 2.5 लाख नौजवान भरती की उम्र खो देते हैं? सरकार को अपनी इस उदासीनता पर जवाबदेह होना चाहिए.’’ इंजीनियर कुलदीप पंघाल की बात में दम है, क्योंकि अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो सेना का हर 10वां जवान हरियाणा से आता है. रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, भिवानी और रोहतक जिले से सब से ज्यादा नौजवान भारतीय सेना में भरती होते हैं. सेना में जाने और देश के लिए अपनी सेवाएं देने में कोई बुराई नहीं है, पर क्या कुछ करगुजरने का जज्बा और हिम्मत सिर्फ सेना में ही जा कर दिखाए जा सकते हैं? ऐसा नहीं है.

पवन एक होनहार, लगनशील और मेहनती लड़का था. सब से बड़ी बात तो यह कि उस में जुनून की भी कोई कमी नहीं थी. पर सिर्फ सेना में भरती न हो पाने की हताशा से वह पार नहीं पा सका, जबकि अगर वह किसी भी फील्ड में मन लगा कर उतरता, तो यकीनन उसे कामयाबी ही मिलती, क्योंकि वह तन और मन से सेहतमंद था. बस, पवन में इस बात की कमी रह गई कि उस ने अपने मन की पीड़ा किसी से शेयर नहीं की और जिस रनिंग ट्रैक पर वह रोज दौड़ता था,

वहीं अपनी जिंदगी की रेस भी हार गया. लेकिन क्या एक मनचाही नौकरी न मिलने से किसी को अपनी जिंदगी ही दांव पर लगा देनी चाहिए? बिलकुल नहीं. तालु गांव के ही एक चार्टर्ड अकाउंटैंट नरेश शर्मा की मिसाल लेते हैं, जो आज एक प्राइवेट कंपनी में चीफ फाइनैंशियल औफिसर हैं. नरेश शर्मा ने बताया, ‘‘मुझे इस घटना के बारे में जान कर बहुत बुरा लगा. हमारे गांव में हमेशा से आपसी सहयोग का माहौल रहा है. सब एकदूसरे को बढ़ावा देते हैं और ढांढस भी बंधाते हैं.

‘‘मैं जब पढ़ाई कर रहा था तो पड़ोस में सब ने लाउडस्पीकर बजाना बंद कर दिया था कि लड़के की पढ़ाई में बाधा न आए. गांव में किसी के नाकाम होने पर बड़ेबूढ़े दिलासा देते थे कि कोई बात नहीं हारजीत तो होती रहती है. ‘‘लेकिन, समय के साथसाथ नई पीढ़ी में नाकामी को झेलने की ताकत कम हो रही है. बच्चों में डिप्रैशन आ जाता है. यह समस्या शहरों में और भी ज्यादा है. लगता है कि इस बच्चे ने भी बस हताशा में ही यह कदम उठा लिया. ‘‘एक बात तो साफ है कि बढ़ते औटोमेशन के चलते सरकारी नौकरियों में कमी आएगी. प्राइवेट क्षेत्र में भी औटोमेशन बहुत तेजी से बढ़ रहा है, जिस से अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव हो रहे हैं. पारंपरिक दक्षता की जगह नई कुशलता ले रही है.

ऐसे में नौजवानों पर भविष्य की अनिश्चितताओं को ले कर बहुत दबाव है. कोरोना ने जो 2 साल बरबाद कर दिए हैं, उस से भी नौजवानों और छात्रों पर बहुत गहरा मानसिक दबाव पड़ा है. ‘‘पर, जब एक रास्ता बंद होता है, तो और भी कई रास्ते खुल जाते हैं. आगे चल कर लगता है कि वह दरवाजा सही बंद हुआ था. मेरा 10वीं क्लास के बाद एयरफोर्स में सिलैक्शन हो गया था, बस मैडिकल में यह कह कर निकाल दिया था कि तुम्हारे दांत व कान साफ नहीं हैं. ‘‘तब मुझे बहुत दुख हुआ था, लेकिन आज मैं सोचता हूं कि अगर तब नाकाम नहीं हुआ होता तो शायद और ज्यादा पढ़ाई नहीं करता. ‘‘याद रखें कि यह जिंदगी अनमोल है. कामयाबी और नाकामी का फैसला तो जिंदगी जी लेने के बाद ही पता लगेगा कि कौन सी घटना कामयाबी की तरफ ले गई और कौन सी सबक दे गई.’’

हकीकत तो यह है कि पूरे भारत में पवन की खुदकुशी के तूल पकड़ने की वजह देश के हर उस नौजवान की उम्मीद है, जो पवन में अपनेआप को देखता है. फर्क बस इतना है कि उस ने अभी तक खुदकुशी नहीं की है. यह उस की समझदारी कहेंगे या मजबूरी, यह आप को तय करना है. द्य क्या है सरकार की ‘टूर औफ ड्यूटी’ योजना सेना में जवानों की तादाद बढ़ाने और अपना खर्च कम करने के लिए सरकार एक ऐसी ‘टूर औफ ड्यूटी’ योजना पर काम कर रही है, जिस के तहत नौजवान 3 से 5 साल के लिए सेना में अपनी सेवाएं दे सकते हैं. इसे ‘अग्निपथ एंट्री स्कीम’ का नाम दिया जाएगा. बताया जा रहा है कि जो भी लोग इस योजना के तहत सेना में शामिल होंगे, उन में से कुछ को 3 साल के बाद भी सेवा जारी रखने का रास्ता खुला रहेगा. इस योजना के तहत नौजवानों को बतौर सैनिक शौर्ट टर्म करार पर शामिल कर ट्रेनिंग दी जाएगी और अलगअलग इलाकों में तैनात किया जाएगा. साथ ही, बता दें कि उम्मीदवारों को चयन प्रक्रिया में किसी तरह की कोई रियायत नहीं मिलेगी और उन की हर महीने तनख्वाह 80,000 से 90,000 रुपए हो सकती है. इस योजना के तहत सेना में सेवा पूरी करने के बाद नौजवानों को दूसरी नौकरी के लिए सेना मदद करेगी. लिहाजा,

इन ऐसे नौजवानों को कारपोरेट सैक्टर के लिए तैयार करने की योजना भी सेना बना रही है. पर चूंकि फिलहाल यह योजना अभी कागजों पर है, तो यह कब अमल में लाई जाएगी और कितनी कारगर साबित होगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर भारत में जिस तरह से बेरोजगारी बढ़ी है, खासकर सरकारी सैक्टर में नौकरियां कम होने की वजह से, यहां के नौजवानों में इतना सब्र नहीं है कि वे ‘टूर औफ ड्यूटी’ जैसी योजना का इंतजार करें. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर, 2021 तक भारत में बेरोजगार लोगों की तादाद 5.3 करोड़ रही. इन में महिलाओं की तादाद 1.7 करोड़ है. घर बैठे लोगों में उन की तादाद ज्यादा है,

जो लगातार काम खोजने की कोशिश कर रहे हैं. सीएमआईई के मुताबिक, लगातार काम की तलाश करने के बाद भी बेरोजगार बैठे लोगों का बड़ा आंकड़ा चिंताजनक है. रिपोर्ट के मुताबिक, कुल 5.3 करोड़ बेरोजगार लोगों में से 3.5 करोड़ लोग लगातार काम खोज रहे हैं. इन में तकरीबन 80 लाख महिलाएं शामिल हैं. बाकी के 1.7 करोड़ बेरोजगार काम तो करना चाहते हैं, पर वे ऐक्टिव हो कर काम की तलाश नहीं कर रहे हैं. ऐसे बेरोजगारों में 53 फीसदी यानी 90 लाख महिलाएं शामिल हैं. सीएमआईई का कहना है कि भारत में रोजगार मिलने की दर बहुत ही कम है और यह ज्यादा बड़ी समस्या है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें