लड़कियों के लिए दोहरा मापदंड क्यों

मैं लड़की क्यों पैदा हुई? भाई के लिए टोकाटाकी नहीं? हर समय मुझे ही क्यों नसीहत दी जाती है? ये सब सवाल अधिकतर लड़कियों के मन में बगावत कर रहे होते हैं, मानसिक द्वंद्व चल रहा होता है और कई बार लड़कियां गलत कदम भी उठा लेती हैं.

दुनिया बहुत अलग है. जब लड़की कुछ गलत करती है तो सब लोग उस पर उंगली उठाते हैं. लड़की सोचने पर मजबूर हो जाती है कि उस ने क्या गलत किया, जो उसे लड़की के रूप में जन्म मिला. तुम लड़की हो, लड़कों से अच्छा नहीं कर सकती, लड़की की तरह रहो आदि. समाज यही सब कहता है. उन का समय भी अच्छा होगा जो खुद समाज में अपनी नई पहचान बनाती हैं, पर कुछ को तो घर से बाहर कदम रखते ही बहुत बड़ी सजा मिलती है.

अकसर खुद अपने घर के बड़े सुबह से शाम तक बस, यही नसीहत देते रहते हैं, ‘कभी किसी लड़के से मत बोलो,’ ‘वह तुम्हें बिगाड़ देगा,’ ‘तुम हमारी नाक कटा दोगी,’ वगैरा. लड़कियों को हमेशा ऐसी नसीहत दी जाती है और वह चुपचाप सब सहन कर लेती हैं. लड़की को कितनी मानसिक पीड़ा होती है, उसे कितना तनाव झेलना पड़ता है, शायद यह आप सोच भी नहीं सकते. आज भी अधिकांश घरों में लड़कियों पर ढेरों पाबंदियां हैं. यह क्या बलात्कार से कम है?

उत्तराखंड, काठगोदाम की ज्योति ने इस तरह की पाबंदियों से आजिज आ कर खुदकुशी कर ली, लेकिन आत्महत्या से पहले उस ने एक सुसाइड नोट लिखा जिसे पढ़ कर सब स्तब्ध रह गए. 7वीं क्लास की इस बच्ची ने नोट में लड़कियों के भीतर छिपा दर्द, लड़कालड़की के बीच भेदभाव व पाबंदियों को समाज के सामने रखने की मार्मिक कोशिश की थी. यह न सिर्फ सुसाइड नोट था, बल्कि समाज की रूढि़यों और लड़कियों की बंदिशों पर करारा तमाचा भी था. लड़की होेने के अभिशाप से ज्योति तो हमेशा के लिए बुझ गई, पर बहुत से सवाल खड़े कर गई.

आखिर क्यों मातापिता लड़की पर इतनी पाबंदियां लगाते हैं, जो उन्हें इस सोच के दायरे में रहने को मजबूर करती है और पता नहीं कब तक मजबूर करती रहेगी? इस सोच के जन्मदाता मातापिता हैं. कैसे, कब, कहां, कितना हंसना, रोना, गाना है यह सब मातापिता अपनी बेटियों को सिखाते हैं, लेकिन यही बातें वे बेटों को सिखाना भूल जाते हैं. जब भी घर में मेहमानों का आगमन होता है तो लड़की से पानी लाने को कहा जाएगा बेटे से नहीं. आखिर ऐसा क्यों?

जहां तक यह बात है कि लड़की कैसे कपड़े पहनती है़? किस समय बाहर जाती है? क्यों लड़कों से दोस्ती रखती है? क्यों जोरजोर से हंसती है? तो दरअसल, सामान्य इंसान के रूप में लड़की को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है. आज के बदलते वैश्विक परिवेश में कोई लड़की क्या पहनती है, कैसे रह रही है, किस से मिल रही है आदि उस का पूर्णतया व्यक्तिगत मामला है और इस में हस्तक्षेप करने का, किसी को कोई अधिकार नहीं है.

ग्लैमर और फैशन

मौजूदा दौर में फैशन को ले कर मातापिता और खास कर लड़कियों में तनाव रहता है. मनोवैज्ञानिक डा. मानसी कहती हैं, ‘‘मातापिता को लड़कियों को तल्ख अंदाज के बजाय दोस्त की तरह समझाना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत.’’

सोच अच्छी रखें

जिंदगी के प्रति लड़कियों का रवैया उन की खुशियां तय करता है. चीजें आसानी से नहीं बदलतीं, लेकिन खुद को बदलना असहज लग सकता है.

अकसर मातापिता अपने विचारों का बोझ लड़कियां पर डाल देते हैं, जिस से वे भावनात्मक व मानसिक रूप से टूट जाती हैं और यही बिखराव उन्हें भ्रमित कर देता है. उन्हें यह समझ नहीं आता कि जिंदगी के विभिन्न कालचक्रों में कैसा रुख अख्तियार किया जाए. इस का दबाव उन के द्वारा कैरियर में लिए जाने वाले फैसलों में भी देखने को मिलता है.

क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट डा. राणा कहते हैं, ‘‘जब मातापिता ही लड़कियों के लक्ष्यों का निर्धारण करने लगते हैं, तो लड़की का असमंजस की स्थिति में पड़ना लाजिमी है. पेरैंट्स यह नहीं समझते कि उन की बच्ची की क्षमता कितनी है. वे अपनी बच्ची को वही बनाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सही लगता है.

मनोवैज्ञानिक एम पी सिंह कहते हैं, ‘‘आज के दौर में उन के पास तमाम ऐसी लड़कियां आती हैं जो अपने मातापिता से संबंधों को ले कर मानसिक रूप से परेशान होती हैं. उन में से अधिकतर मांबाप की हर बात पर टोकाटाकी बरदाश्त नहीं कर पाती हैं. ऐसे में वे डिप्रैशन का शिकार हो जाती हैं. वे सोचने लगती हैं कि क्या वे कठपुतली हैं और दूसरों की उम्मीदों पर खरे उतरने में नाकाम हैं. ऐसे में दोनों के बीच विरोधाभास होता है. ऐसी स्थिति में पेरैंट्स की भूमिका काफी बढ़ जाती है. वे लड़की की मनोस्थिति को समझें और उस से दोस्त की तरह पेश आएं.’’

मातापिता कई बार कैरियर के चुनाव में भी लड़की के लिए एक बड़ी उलझन पैदा कर देते हैं. मनोवैज्ञनिक डा. राजीव मेहता कहते हैं, ‘‘मौजूदा समय में लड़कियों में इंडीविजुअलिटी बढ़ी है. ऐसे में कैरियर जैसे अहम फैसलों पर वे दखलंदाजी पसंद नहीं करतीं. वे कई बातों को नजरअंदाज कर देती हैं या फिर मातापिता की उम्मीदों के मुताबिक ही खुद को ढालने के प्रयास में अवसाद की स्थिति में आ जाती हैं.’’

डा. राजीव सवालिया लहजे में आगे कहते हैं कि बलात्कार से लोग क्या समझते हैं? बलात्कार, न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक भी होता है. लड़की को मेहरबानी कर जीने दें. उसे खुली हवा में सांस लेने दें. उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें. उस का मानसिक बलात्कार न होने दें.

हकीकत: विकास का बजता ढोल और मरते लोग

एक तरफ बिहार सरकार विकास का ढोल पीट रही है, वहीं दूसरी तरफ समस्तीपुर जिले के एक ही परिवार के 5 सदस्यों ने माली तंगी से ऊब कर फांसी लगा ली. मरने वालों में मनोज झा, उन की मां सीता देवी, पत्नी सुंदरमणि देवी, बेटे सत्यम और शिवम शामिल हैं. हर घटना की तरह इस कांड की भी जांच होगी. कोशिश की जाएगी कि इसे किसी तरह साबित कर दिया जाए कि यह सामूहिक खुदकुशी कांड कर्ज और माली तंगी की वजह से नहीं हुआ है. इस सिलसिले में शिक्षा और सामाजिक सरोकार से जुड़े प्रोफैसर राम अयोध्या सिंह ने बताया कि रातदिन अखबारों और अलगअलग मीडिया चैनलों के जरीए केंद्र की मोदी सरकार और बिहार की उन की सहयोगी नीतीश कुमार की सरकार अपने विकास के लंबेचौड़े दावे करती थकती नहीं.

इन के बड़बोलेपन का सिर्फ एक ही मतलब निकलता है कि भारत और बिहार विकास के मामले में दुनिया के सिरमौर हैं. भारत और बिहार के सभी बाशिंदे सुखचैन की जिंदगी बसर कर रहे हैं. एक तरफ केंद्र की मोदी सरकार धर्म और राष्ट्र की आड़ में पूरे देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक कर देश की सारी संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों, उद्योगों और लोक उपक्रमों, कलकारखानों, कंपनियों और निगमों व आवागमन के साधनों को पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हवाले करने में जीजान से जुटी हुई है, तो दूसरी तरफ बिहार की नीतीश सरकार भी मोदी के पदचिह्नों पर चलते हुए विकास के नाम पर विनाश की गाथा लिख रही है.

पुल, पुलिया, सड़क और भवन निर्माण को छोड़ कर पूरे बिहार की खेती, वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर, पर्यटन और दूसरे सभी क्षेत्रों को बरबाद कर देने वाले नीतीश कुमार अपने बड़बोलेपन को किस आधार पर सही साबित करेंगे, जब बिहार के समस्तीपुर जिले के विद्यापतिनगर थाने में एक पूरे परिवार के 5 सदस्यों ने एकसाथ सामूहिक खुदकुशी कर अपनी जिंदगी खत्म कर दी. ये लोग गरीब थे और लाचार भी थे. गरीबी और लाचारी का दंश सहतेसहते इस कदर ऊब गए थे कि इन्होंने जीने की आस छोड़ कर जिंदगी को ही खत्म करना जरूरी समझा. क्या यह नीतीश कुमार के गाल पर औंधे विकास का तमाचा नहीं है,

जिस ने उन के विकास के सारे दावों की पोल पलभर में ही खोल कर रख दी है? जनता द्वारा निर्वाचित कोई भी सरकार क्या इतनी भी संवेदनहीन हो सकती है कि वह किसी इनसान की जिंदगी से ज्यादा अहम सड़क, पुल और पुलिया को समझे? क्या यही है राज्य के किसी मुख्यमंत्री की जनता के प्रति जिम्मेदारी और जनसमस्याओं के समाधान की उन की प्राथमिकता? दारू और बालू के गंदे खेल में बालू और दारू माफिया के संग मौज मारते हुए राज्य को विकास के झूठे सपने दिखा कर ठगने वाले नीतीश कुमार ने क्या अपनेआप को सिर्फ कुरसी तक ही सीमित नहीं कर लिया है? मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठे नीतीश कुमार के लिए कुरसी जनता की जिंदगी से ज्यादा खास हो गई है.

अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, आर्यभट्ट के माध्यम से बिहार के गौरवगान करने वाले और उसी प्राचीन बिहार की तरह आज के बिहार को बनाने का सपना दिखाने वाले नीतीश कुमार क्या यह भूल जाते हैं कि इतिहास को लौटाया नहीं जा सकता? न तो नरेंद्र मोदी प्राचीन भारत को लौटा सकते हैं और न ही वे प्राचीन बिहार को. प्राचीन गौरव का ढोल भले ही आप बजाते रहिए, पर वह लौटने वाला नहीं. इस के बजाय जरूरत है कुछ ऐसा नया करने की, जिस से बिहार की सामान्य जनता और उन की समस्याओं का निदान हो. किसी भी सरकार की सब से बड़ी जिम्मेदारी यह होती है कि वह जनता के लिए जीने के बेहतर हालात बनाए. एक ऐसी जिंदगी की गारंटी दे,

जिस पर वह गर्व कर सके. शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, खेलकूद, रोजगार की कमी और दम तोड़ती खेतीबारी से तिलतिल कर मरने वाले भी क्या जानेंगे कि जिंदगी क्या होती है? नीतीशजी, आप ने बिहार और बिहारियों को कहीं का नहीं छोड़ा है. अगर बिहार के बहुसंख्यक मेहनतकश लोग दूसरे राज्यों में जा कर कमाते नहीं और वहां से लाए पैसे से बिहार में अपने परिवार का पालनपोषण नहीं करते, तो आप भी अंदाजा लगा सकते हैं कि हालात तब कितने भयावह होते. आप ने बिहार को भ्रष्ट नौकरशाही, अफसर, माफिया, दलालों, ठेकेदारों और तस्करों के हाथों में सौंप दिया है. आप की सरकार भी उन की मरजी से ही चल रही है. क्या आप ने कभी ऐसी कल्पना भी की होगी कि किसी परिवार के सभी 5 सदस्य एकसाथ गरीबी और कर्ज की मार न सह सकने के चलते सामूहिक रूप से अपने प्राण त्याग दें? क्या आप ने उन के सामने आए उन हालात की कल्पना भी की होगी,

जिन हालात से मजबूर हो कर किसी परिवार ने अपनी इहलीला समाप्त कर दी हो? वैसे भी आप इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं और पूरी जिंदगी राजनीति की गंदी गलियों में विचरण करते रहे हैं, इसलिए आप से कभी भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि आप एक संवेदनशील इनसान की तरह बरताव करेंगे. समस्तीपुर की यह घटना कोई अपनेआप में अकेली घटना नहीं है. ऐसी घटनाएं रोजाना कहीं न कहीं घट रही हैं. हां, सभी घटनाएं सामने नहीं आ पाती हैं. लेकिन, अगर आप एक संवेदनशील इनसान हैं और थोड़ी सी भी इनसानियत बाकी है, तो अपनी जिम्मेदारी समझते हुए और कबूल करते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दें. यह राजनीतिक नैतिकता का न्यूनतम मानदंड है और आप तो खुद को राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का चेला घोषित करते हुए बड़ी शान का अनुभव करते हैं. क्या राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की शान के मुताबिक आप अपने पद से इस्तीफा देंगे?

मैं जानता हूं कि आप से यह काम नहीं होगा. वजह, आप का इतना बड़ा कलेजा नहीं है. आप लोगों ने राजनीति का ककहरा ही तिकड़म और अवसरवाद से सीखा है, न कि किसी आदर्श, संघर्ष और नैतिकता के चलते. आप जैसे लोगों के लिए राजनीति पेशा है, नौकरी है, रोजगार और व्यापार है, जिस के लिए नैतिकता, इनसानियत, मूल्यों, आदर्शों, सिद्धांतों और इनसानी संवेदनाओं का कोई मोल नहीं होता. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसा ही कुछ किसी नेता, नौकरशाह, बड़े पूंजीपति, माफिया गिरोह, बड़े ठेकेदार या दलाल के परिवार के साथ हुआ होता, तो आप पर क्या बीतती? नीतीशजी, आप ने बिहार की जनता को दारू और बालू ही समझ रखा है,

इसलिए उन के लिए आप के पास कोई संवेदना नहीं है और न ही उन के प्रति आप का कोई फर्ज ही है. आप अपने कैबिनेट के मंत्रियों, दल के नेताओं, विधायकों, पार्षदों, सांसदों, नौकरशाहों और माफिया के साथ हर रोज जश्न मना रहे हैं. क्या उस जश्न में आप ने कभी आम लोगों की जिंदगी की पीड़ा को महसूस किया है? लाखों लोगों के परिवार आज भी कर्ज और पैसों की तंगी में रह कर अपनी जिंदगी को ढो रहे हैं. नीतीशजी, ऐसे परिवारों का सर्वे करा कर उन की जिंदगी के स्टैंडर्ड को ऊंचा उठाया जा सकता है, ताकि इन लोगों के परिवार खुदकुशी करने को मजबूर न हों.

मध्यमवर्गीय परिवार की चाह सरकारी नौकरी

देश के कई गरीब राज्यों में गरीब किसानों के घरों में जीने का मकसद एक ही होता रहा हैसेनाकी नौकरी. ब्रिटिश सरकार ने अपने राज के दौरान बड़ी भारी गिनती में हरियाणाबुंदेलखंडपंजाबमद्रास आदि से सैनिक गांवों से जमा किए थेउन्हें ट्रेनिंग दी थी और उन के बल पर दुनियाभर में अपना राज जमाया था. तब से सेना की नौकरी का फायदा देश के गरीब किसान घरों को मालूम है और सेना में होने वाली मौतों के खतरे के बावजूद लाखों जवान सेना में नौकरी पाने के लिए रिक्रूटमैंट सैंटरों में जमा होते रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी सरकार ने जैसे पढ़ाईरेलोंहवाईअड्डोंप्रैसअदालतोंसंसदविधानसभाओंजांच एजेंसियों का अपनी अधकचरी पौलिसियों से कचरा किया है वैसा ही कचरा सेना के साथ करने की योजना बनाई है जिस में 17.5 साल से 21 साल तक के जवानों को थलवायु और नौ सेना में

4 साल के लिए भरती किया जाएगा और 21 साल से 25 साल तक की उम्र में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगाएक चैक पकड़ा कर जिस में एक कार तक नहीं खरीदी जा सकतीएक प्लौट तक नहीं मिल सकताएक दुकान तक नहीं खोली जा सकती.

4 साल तक इन अग्निवीरों को पकापकाया खानाबनीबनाई ड्रैसअच्छा मकानआर्मी ट्रकों में आनेजाने की सुविधा दे कर इन्हें समाज से काट कर बंदूकों की गोलियों से घेर कर रखा जाएगा और फिर उम्मीद की जाएगी कि ये उस देश में नौकरियां ढूंढ़ें जहां इन 4 सालों में इन के साथी अपनेअपने हुनर सीख चुके होंगेपढ़ाई की 2-3 बाधाएं दूर कर चुके होंगे या फिर व्यापार या किसानी में कुछ जानकार बन चुके होंगे. इन रिटायर्ड अग्निवीरों को 4 साल में सिर्फ परेड करनाअफसर का हुक्म माननाहथियार चलाना सिखाया जाएगा. ऐसी ट्रेनिंग जिस की देश को कोई जरूरत नहीं.

अगर देशभर के युवा सड़कों पर निकल कर इस नई भगवाई स्कीम को अपोज कर रहे हैं और वह कर रहे हैं जो किसान या मुसलमान करते तो उन पर बुलडोजर चलवा दिए जातेतो बड़ी बात नहीं. इस नई स्कीम से सरकार द्वारा लाखोंको चाहे हर साल सेना में नौकरी न मिलती पर उन के सपने तक चकनाचूर कर दिए. सेना की नौकरी मिलने पर भी उन का कल भरोसेमंद नहीं रहेगा और सैनिक होने पर जिंदगीभर पटरी पर रहने की उम्मीद चली जाएगी. सैनिकों से शादी करने के लिए आज लड़कियां विधवा होने के रिस्क के बावजूद तैयार हो जाती हैंक्योंकि सेनाकी नौकरी करने के बाद आर्थिक सुरक्षा मिलती रहती थी. अग्निवीरों को कोई पैंशन नहीं मिलेगीकोई हैल्थ कार्ड नहीं मिलेगाजिंदगी का कोई खूंटा नहीं रहेगा. लाखों लड़कियों के सपने भी चकनाचूर हो गए कि वे सैनिक से शादी कर के पक्की गृहस्थी बना सकेंगी.

अब शादी तो रिटायरड होने के बाद हो सकेगी और बिना पक्की नौकरी वाले को कौन लड़की अपनाएगीअगर बिहारउत्तर प्रदेशउत्तराखंडहिमाचल प्रदेशहरियाणाआंध्र प्रदेश के युवा सड़कों पर उतरे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जिन सपनों के महलों में वे रह रहे थेउन को एक ?ाटके में उन की भगवा सरकार ने चकनाचूर कर दिया. जिन्हें मुसलमानों के घर जलाने की ट्रेनिंग दी गई थीवे अब अपनी सरकार की रेलेंपोस्ट औफिस और भाजपा दफ्तर जला रहे हैं.

देश के सारे युवाओं को सेना में चाहे नौकरी नहीं मिलती पर उम्मीद तो रहती थी और अब वह भी गईक्योंकि 4 साल की नौकरी के लिए कौन मगजमारी करेगा?

 

घनी बस्ती में सैक्सी लुक: कितना दिखाएं और कितना छिपाएं

सब से ज्यादा कठनाई उन लड़कियों के सामने खड़ी होती है जो बनसंवर कर घर से निकलती हैं. उन पर ताक?ांक तो की ही जाती है, लड़कों की गंदी फब्तियों व छेड़छाड़ का शिकार भी उन्हें होना पड़ता है. क्या घनी बस्ती में ताक?ांक ज्यादा होती है? क्या ऐसी बस्ती में गहरी लिपस्टिक लगा कर निकला जा सकता है? क्या घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियों को घुटघुट कर जीना होगा? लड़के कमैंट करें तो कैसे जवाब दें? घनी बस्ती में घर वालों से अधिक बाहर वाले रखते हैं लड़की पर नजर? ‘जै सा देश वैसा भेष’ की कहावत के जरिए यह बताया जाता है कि समाज, वातावरण और सुविधा के अनुसार कपड़े पहनने चाहिए. मध्यवर्गीय परिवार अभी भी घनी बस्तियों में रहते हैं जहां पर घर के दरवाजे पर चारपहिया वाहन नहीं पहुंच पाता.

ऐसे में सब से बड़ी परेशानी उन लड़कियों को होती है जो फैशनेबल कपड़े पहनना चाहती हैं. उन के लिए यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि फैशनेबल कपड़े पहन कर ‘सैक्सी लुक’ कहां दिखाएं. लड़कियों को सब से अधिक गलियों में ही चलना पड़ता है. गलियों में ‘सैक्सी लुक’ दिखाने वाले कपड़े पहनने को अच्छा नहीं माना जाता है. ऐसे में सवाल उठता है कि कहां दिखाएं? ‘सैक्सी लुक’ वहां दिखाएं जहां जरूरी हो. गलियों में ‘सैक्सी लुक’ न दिखाएं. घनी बस्ती में रहती हैं तो सैक्सी लुक को वहां ही दिखाएं जहां जरूरी है, गली में नहीं. इस विचार के पीछे की वजह भी ‘जैसा देश वैसा भेष’ की कहावत वाली ही है. घनी बस्तियों में रहने वालों की मानसिकता अभी भी वही है कि

‘सैक्सी लुक’ को देख कर छींटाकशी होती है, सीटियां बज जाती हैं. कई बार इस से आगे बढ़ कर आपराधिक घटना भी घट जाती है, जिस की वजह से जाति और धर्म के ?ागड़े भी शुरू हो जाते हैं. शायद यही वजह है कि तर्क ऐसे दिए जाते हैं कि घनी बस्ती में सैक्सी लुक वहीं दिखाएं जहां जरूरी हो, गलियों में नहीं. यह एक तरह का प्रतिबंध है और कानून व्यवस्था पर सवाल भी है. रूढि़वादी समाज इन मुद्दों को छोड़ कर केवल लड़की से ही उम्मीद कर रहा है कि वह सुधर जाए, सावधानी बरते जिस से गलियों में लड़की के सैक्सी लुक देख कर अपराध करने की मानसिकता न बने. कई बार रेप के मामलों में भी यह तर्क दिया जाता है कि लड़की ने ही गलत पहनावा पहना था,

इस कारण रेप हो गया. यह तर्क पूरी तरह से सही नहीं है. कई बार रेप का शिकार वे लड़कियां हो जाती हैं जो बहुत ही शालीन कपड़े पहनती हैं. बच्चियों के साथ भी रेप और छेड़छाड़ की घटनाएं हो जाती हैं. बच्चों के साथ यौन अपराध कोई नया विषय नहीं है. क्या घनी बस्ती में ताक?ांक ज्यादा होती है? घनी बस्ती में ताकी ज्यादा होती है. इस की वजह यह है कि इस के अवसर यहां ज्यादा होते हैं. घर छोटे होते हैं. आपस में मिले होते हैं. घर के दरवाजे सीधे गली में खुलते हैं. खिड़कियों के खुले होने पर घर के अंदर तक दिख जाता है. घनी बस्ती में आमतौर पर खाली लड़के गलियों में ही खड़े होते हैं. जिन घरों में लड़कियां होती हैं वहां ज्यादा ही भीड़ लगी होती है. देररात तक गलियों में भीड़ रहती है. छींटाकशी और ताक?ांक के लिए केवल गलियों ही नहीं, छतों का भी पूरा इस्तेमाल होता है. गली के लड़कों को पता होता है कि किस घर की लड़की किस समय स्कूलकालेज या बाजार जाती है. कब उस के घर में कौन रहता है. उस का दोस्त कौन है. उस के भाई का दोस्त कौन है.

अगर छत पर सूखते लड़कियों के कपड़े हवा में उड़ कर गली या फिर दूसरे की छत पर पहुंच जाएं तो ही लड़कों के दिल खुश हो जाते हैं. आजकल किसी न किसी तरह से लड़कियों के मोबाइल नंबर हासिल कर लिए जाते हैं. इस के बाद उन से संपर्क करने का काम किया जाता है. गलियों में रहने वाले कई बार घरेलू मदद के बहाने भी करीब आने की कोशिश करते हैं. कई बार लड़की का पीछा तक होता है. लड़की से ताक?ांक का मकसद केवल उस के करीब आने का होता है. लखनऊ की रहने वाली मंतशा कहती है, ‘‘घनी बस्तियों में गली ही नहीं, छतें भी आपस में मिली होती हैं. रात में सोते समय सब से अधिक डर रहता है. कहीं कोई अपनी छत से फांद कर न आ जाए और छेड़खानी करने लगे.

छत पर धूप या हवा खाने जाओ तो लोग घूरते रहते हैं. छतों से ही कमैंट करते हैं. छतों पर इस तरह की घटनाएं बहुत होती हैं.’’ क्या ऐसी बस्ती में गहरी लिपस्टिक लगा कर निकला जा सकता है? गहरे रंग की लिपस्टिक को ले कर भी घनी बस्ती में रहने वालों की सोच अलग होती है. इस का प्रयोग करने वाली लड़कियों को फैशनेबल माना जाता है. घनी बस्ती में रहने वालों की सोच यह होती है कि ऐसी लड़कियां सहज और सरल होती हैं. छींटाकशी करने पर भी केवल सुन कर चली जाती हैं. जवाब नहीं देती हैं. इस वजह से लड़कियां भी गहरे रंग की लिपस्टिक लगाने से बचती हैं. ऐसी लड़कियों पर लड़के ज्यादा निगाह रखते हैं. घरपरिवार भी लड़कियों को यही सम?ाता है कि वह इस तरह लिपस्टिक लगा कर बाहर न जाया करे. नौबस्ता, लखनऊ की रहने वाली निशा कहती है, ‘‘हम लोग जब घर से बाहर निकलती हैं तो जाहिर सी बात है कि मेकअप कर के निकलते हैं.

दूसरों की तरह हमारा मन भी करता है कि हम भी सुंदर दिखें. घनी बस्ती और तंग गलियों में रहने वाले लड़कों के पास आवारागर्दी करने का समय अधिक होता है. वे हमारी ड्रैस और मेकअप पर भद्दे कमैंट करते हैं. इस को ले कर तमाम बार महल्ले में ?ागड़ा भी हो जाता है पर कोई सुधरने को तैयार नहीं.’’ क्या घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियों को घुटघुट कर जीना होगा? आज के दौर में घनी बस्ती में रहने वाली मध्य और कमजोर वर्ग की लड़कियां भी खुले आसमान में जीना चाहती हैं. उन को यह पता होता है कि फैशन की दुनिया क्या होती है. जब तक टिकटौक चल रहा था, बहुत सारी छोटे शहरों की लड़कियां अपने वीडियो बना कर उस पर पोस्ट कर रही थीं.

वहां वे अपने मन की मस्ती करती थीं. इस की वजह यह थी कि वहां टीकाटिप्पणी नहीं होती थी. वहां लोग वीडियो को देखते थे. तारीफ करते थे. उस में लड़की को भी खुशी मिलती थी. अच्छी बात यह थी कि लड़की को कोई पहचानता नहीं था, सो, उस के घरवालों को पता नहीं चलता था. टिकटौक के बंद होने के बाद अब फेसबुक और इंसटाग्राम की रील पर लड़कियां यह हुनर दिखाती हैं. सोशल मीडिया पर वे खुले आसमान पर उड़ती हैं. असल जीवन में उन को अपनी मनमरजी करने को नहीं मिलती. इस कारण यहां रहने वाली लड़कियां घुटघुट कर जीती हैं. लखनऊ के मडियांव इलाके की रहने वाली रूबी खान कहती है, ‘‘महल्ले में हमें बहुत संभल कर रहना पड़ता है.

घर के बाहर खुली हवा में निकलने से रोका जाता है. हम अपना गेट बंद कर के छोटेछोटे कमरों में रहने को मजबूर होते हैं. कालोनियों की तरह दिन या रात में टहलने नहीं जा सकते. बाहर जाने के लिए किसी न किसी बहाने का इंतजार करते रहते हैं.’’ लड़के कमैंट करें तो कैसे जवाब दें? घनी बस्ती में रहने वाली लड़कियां अब चुप नहीं रहती हैं. लड़कियों का एक वर्ग ऐसा बनने लगा है जो अब कमैंट करने वाले लड़कों को जवाब देने लगा है. इस के बाद भी लड़कियों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो कमैंट को सुन कर चुप रहता है. लड़कियों को सम?ाना चाहिए कि वे कमैंट करने वाले लड़कों का जवाब उन के मुंह पर दें. अगर कोई नशे में है तो उस से भिड़ें नहीं, उस की शिकायत घर, परिवार और पुलिस में करें. एक बार पुलिस तक बात जाने के बाद लड़के ऐसी हरकत करने से बचने लगते हैं. लखनऊ की रहने वाली इकरा कहती है, ‘‘हमें ऐसे लड़कों के कमैंट का जवाब तो देना चाहिए.

लेकिन डर लगता है. ऐसा कई बार हो चुका है कि हम लोगों ने जब विरोध किया तो लड़के वालों के घर वालों ने हमारे ऊपर ही इल्जाम लगा कर हमें बेइज्जत करने का काम किया.’’ घनी बस्ती में घर वालों से अधिक बाहर वाले रखते हैं लड़की पर नजर कहते हैं कि घर की लड़की के चालचलन की जानकारी घर वालों तक को बाहर वालों से मिलती है. इस की वजह यही है कि घनी बस्ती में रहने वाली लड़की पर गलीमहल्ले के लोग ज्यादा नजर रखते हैं. इन में से तमाम लोग किसी न किसी बहाने उस के घर पर यह बात जरूर पहुंचा देते हैं कि लड़की कहां, किस के साथ है, क्या कर रही है. लड़कियां जहां भी घूमने जाती हैं तो उन का प्रयास होता है कि महल्ले वालों से उन की मुलाकात न हो. गलियों में होने लगा है परदा? एक दौर था जब लड़कियां परदा करने से मना करती थीं.

परदा करने वाले को प्रगतिशील विचारों का नहीं माना जाता था. अब दौर बदल गया है. आजकल लड़कियां खुद से परदा करने लगी हैं. इस की वजह तो गरमी से स्किन को बचाने को बताया जाता है लेकिन असल वजह घनी बस्ती में लोगों की नजर से बचने को माना जाता है. घनी बस्तियों में रहने वाली लड़कियां छींटाकशी से बचने के लिए परदा करने लगी हैं. अब स्कूलों में भी इसी वजह से लड़कियां परदा कर के जाने लगी हैं. गलियों से परदा कर के निकलती हैं. बाहर जाते ही वे परदा उतार देती हैं. इस वजह से गलियों में निकलने के लिए लड़कियां परदा करने लगी हैं.

अग्निवीर में 4 साल तक परेड करने के बाद क्या युवाओं को मिलेगी नौकरी ?

देश के कई गरीब राज्यों में गरीब किसानों में घरों में जीने का मकसद एक ही होता रहा है, सेना की नौकरी. ब्रिटीश सरकार ने अपने राज के दौरान बड़ी भारी गिनती में हरियाणा, बुंदेलखंड, पंजाब, मद्रास आदि से सैनिक गांवों में जमा किए थे, उन्हें ट्रेङ्क्षनग दी थी और उन के बल पर दुनिया भर में अपना राज जमाया था. तब से सेना की नौकरी का फायदा देश के गरीब किसान घरों को मालूम है और सेना में होने वाली मौतों के खतरे के बावजूद लाखों जवान सेना में नौकरी पाने के लिए रिक्रूटमैंट सैंटरों में जमा होते रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी सरकार के जैसे पढ़ाई, रेलों, हवाई अड्डïों, प्रैस, अदालतों, संसद, विधानसभाओं, जांच ऐजेसियों का अपनी अधमरी पोलिसियों से कचरा किया है वैसा की कचरा सेना केे  साथ करने की योजना बनाई है जिस में 17.5 साल से 21 साल तक के जवानों को थल, वायु और नौ सेना में 4 साल के भर्ती किया जाएगा और 21 से 25 साल की उम्र में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा, एक चैक पकड़ा कर जिस में एक कार तक नहीं खरीदी जा सकती, एक प्लाट तक नहीं मिल सकता, एक दुकान तक नहीं खरीदी जा सकती.

4 साल तक इन अग्निवीरों को पकापकाया खाना, बनीबनाई ड्रेस, अच्छा मकान, आर्मी ट्रकों में आनेजाने की सुविधा देकर इन्हें समाज से काट कर बंदूकों गोलियों

से घेर कर रखा जाएगा और फिर उम्मीद की जाएगी कि ये उस देश में नौकरियां ढूंढ़ें जहां इन 4 सालों में इन के साथी अपनेअपने हुनर सीख चुके होंगे, पढ़ाई की 2-3 बाधाएं दूर कर चुके होंगे या फिर व्यापार या किसानी में कुछ जानकार बन चुके हुए. इन रिटायर्ड अग्निवीरों को 4 साल में सिर्फ परेड करना, अफसर का हुक्म मानना, हथियार चलाना सिखाया जाएगा, ऐसी ट्रेङ्क्षनग जिस की देश का कोई जरूरत नहीं.

अगर देशभर के युवा सडक़ों पर निकल कर इस नई भगवाई स्कीम को ओपोज कर रहे हैं और वह कर रहे हैं जो किसान या मुसलमान करते तो उन पर बुलडोजर चलवा दिए जाते, तो बड़ी बात नहीं. इस नई स्कीम से सरकार लाखों को चाहे हर साल सेना नौकरी न मिलती पर उन के सपने तक चकनाचूर कर दिए. सेना की नौकरी मिलने पर भी उन का कल भरोसेमंद नहीं रहेगा और सैनिक होने पर ङ्क्षजदगी भर पटरी पर रहने की उम्मीद चली जाएगी. सैनिकों से शादी करने के लिए आज लड़कियां विधवा होने के रिस्क के बावजूद तैयार हो जाती है क्योंकि सेना की नौकरी करने के बाद आॢथक सुरक्षा मिलती रहती थी. अग्निवीरों को कोई पेंशन नहीं मिलेगी, कोई हैल्थ कार्ड नहीं मिलेगा, ङ्क्षजदगी का कोई खूंटा नहीं रहेगा. लाखों लड़कियों के सपने भी चकनाचूर हो गए कि वे सैनिक से शादी कर के पक्की गृहस्थी बना सकेंगी.

अब शादी तो रिटायर्ड होने के बाद हो सकेगी और बिना पक्की नौकरी वाले को कौन लडक़ी अपनाएगी? अगर बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, आंध्र के युवा सडक़ों पर उतरे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि जिन सपनों के महलों में वे रह रहे थे, उन को एक झटके उन की भगवा सरकार ने चकनाचूर कर दिया. जिन्हें मुसलमानों के घर जलाने के ट्रेङ्क्षनग दी गई थी, वे अब अपनी सरकार की रेलें, पोस्टऔफिस और भाजपा दफ्तर जला रहे हैं.

देश के सारे युवाओं को सेना में चाहे नौकरी नहीं मिलती पर उम्मीद तो रहती थी और अब वह भी गई क्योंकि 4 साल की नौकरी के लिए कौन मगजमारी करेगा?

गांव तब और अब: पैसा आया, हालात वही

गांव तब और अब पैसा आया, हालात वही पिछले कुछ सालों की तुलना करें, तो गांवों में बहुत सारे बदलाव देखने को मिल रहे हैं. वहां तक सड़कें पहुंच गई हैं, भारी तादाद में मकान पक्के हो गए हैं, साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का इस्तेमाल होने लगा है, खेती के काम ट्रैक्टर और दूसरी मशीनों से होने लगे हैं. यहां तक कि कुएं और नदी की जगह पीने का पानी हैंडपंप या वाटर सप्लाई से मिलने लगा है, बिजली तकरीबन हर गांव तक पहुंच गई है, रसोई गैस और बिजली से चलने वाले हीटर का इस्तेमाल खाना बनाने में होने लगा है,

खेती की जमीनों के बिकने से एकमुश्त पैसा भी मिलने लगा है, गांव के स्कूल पहले से बेहतर हो गए हैं, शादीब्याह और दूसरे मौकों पर खर्च और दिखावा बढ़ गया है. लेकिन इतने सारे बदलाव के बाद भी गांवों में आज भी गरीबी है, लोग सरकारी राशन लेने के लिए मजबूर हैं, बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा नहीं पा रहे हैं और अपना इलाज अच्छे अस्पताल में नहीं करा पा रहे हैं. कुलमिला कर हालात परेशानी वाले हैं. किसान खेती से पैसा नहीं कमा पा रहे हैं. गांव के नौजवान रोजगार के लिए शहरों की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं. जिन किसानों के ऊपर पूरे देश की जनता का पेट भरने की जिम्मेदारी है, वे खुद के खाने के लिए सरकारी राशन की दुकानों पर जाने लगे हैं. गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है. सवाल उठता है कि सड़क और बिजली पहुंचने के बाद भी गांवदेहात में गरीबी क्यों है? खेती से दूर भागते नौजवान इस मसले पर यादवेंद्र सिंह बताते हैं,

‘‘गांवों में रहने वाला नौजवान तबका खेतीबारी में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है. वह छोटीमोटी नौकरी करना बेहतर समझता है. जो लोग खेतीकिसानी करते भी हैं, वह खेती के बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखते हैं. ‘‘किस फसल की कब बोआई करनी है? किस मंडी में ज्यादा कीमत मिलती है? सरकार की क्या योजनाएं हैं? फसल को कब बेचा जाए, जिस से ज्यादा मुनाफा हो? ऐसे सवालों के जवाबों से वे अनजान हैं. ‘‘आज बहुत सारी जानकारियां मोबाइल फोन पर मौजूद हैं, पर गांव के लोग मोबाइल का इस्तेमाल गाना सुनने और वीडियो देखने में करते हैं. खेतीकिसानी के बारे में वे ज्यादा नहीं पढ़ते हैं. ‘‘देश में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है. बहुत सारे किसान एक हजार रुपए प्रति माह में भी अपनी जिंदगी की गुजरबसर करते दिखते हैं. ऐसे लोग हमेशा ही इस चाहत में रहते हैं कि सरकार की तरफ से कुछ न कुछ मिल जाए. पर सरकार के मदद करने के बाद भी गांव के लोगों की हालत इसलिए नहीं बदलती है, क्योंकि लोग काम नहीं करना चाहते हैं. वे अपनी जरूरतों को बढ़ा लेते हैं.

‘‘सरकार भी छोटे किसानों को फायदा देने के लिए बुनियादी ढांचा नहीं तैयार करती है. वह केवल छोटीमोटी मदद कर के किसानों को खुश रखना चाहती है, जिस से मदद की चाहत में किसान उसे वोट देते रहें. सरकारी मदद के मुकाबले महंगाई इस कदर बढ़ी है कि किसान की माली हालत जस की तस बनी हुई है.’’ रोजगार की कमी ऋतुजा सिंह बघेल कहती हैं, ‘‘गांव में पहले कुटीर उद्योगधंधे चलते थे. लोहे का काम वहां के रहने वाले लुहार करते थे. लकड़ी का काम भी गांव में होता था. मिट्टी के बरतन गांव में बनते थे. दोनापत्तल भी गांव में बनते थे. सूत कातने, ऊन का काम, अचार, पापड़ जैसी खाने की चीजें गांव में ही बनती थीं. ‘‘भले ही यह बड़ा रोजगार न रहा हो, पर गांव की जरूरतों को पूरा करता था. गांव का पैसा गांव में ही रह जाता था. जैसेजैसे ये काम बाजार के हवाले हो गए, गांव का पैसा बड़ी कंपनियों को जाने लगा. गांव में पैसा आने के बाद भी गरीबी दिखने लगी.

‘‘आज के समय में गांवों में होने वाले शादीब्याह से ले कर छोटेमोटे आयोजनों तक में बाहर का सामान और लोग आते हैं. गांव का पैसा इस तरह से बाहर के लोगों के पास जा रहा है. दिखावा बढ़ गया है. जिन के पास पैसा है, वे भी और जिन के पास पैसा नहीं है, वे भी कर्ज ले कर या जमीन बेच कर अपना काम अच्छे से अच्छा कर रहा है. ‘‘इसे देख कर शहरी लोगों को लगता है कि गांव अमीर हो गए हैं, पर गांव की यह अमीरी केवल हाईवे के किनारे से दिखती है. गांव के अंदर घुसते ही गांव की रहने वाली 80 फीसदी आबादी गरीबी में गुजरबसर करती दिखती है.’’ गरीब होते गांव भारत एक विकासशील देश है, जहां विकास की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उस देश का विकास कैसे हो सकता है, जिस की आधे से ज्यादा आबादी गांव की हो और गरीबी से जूझ रही हो.

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे पर आधारित नीति आयोग ने पहली रिपोर्ट जारी कर दी है, जिस के मुताबिक भारत के शहरों के बजाय गांवों में रहने वाले लोग चौगुना ज्यादा गरीब हैं. यह रिपोर्ट 2015-16 के स्वास्थ्य सर्वे पर बनी है. रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल 25.1 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा में आती है, वहीं गांवों के तकरीबन 37.75 फीसदी लोग गरीबी में आते हैं. शहरों की कुल आबादी का 8.81 फीसदी हिस्सा गरीबों में आता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सब से ज्यादा गरीबी वाला राज्य है, केरल सब से कम गरीबी वाला राज्य है. सब से ज्यादा गरीबी वाले राज्यों में मध्य प्रदेश चौथे नंबर पर है, वहीं झारखंड और उत्तर प्रदेश दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. सब से कम गरीबी वाले राज्य में गोवा और सिक्किम दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. तेंदुलकर समिति के मुताबिक,

गरीबी में कमी आई है और ग्रामीण आबादी में गरीबी घट कर 33.8 फीसदी से 25.7 फीसदी रह गई है और शहरों में गरीबी आबादी घट कर 29.8 फीसदी से 21.9 फीसदी रह गई है. यहां गौर करने की बात यह है कि गांव की ज्यादातर आबादी किसान तबके की है और खेती पर निर्भर है, लेकिन किसानों को उन की फसल के लिए न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है और न ही उन्हें खेती से जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, जिस से गांव का नौजवान तबका खेती नहीं करना चाहता है और शहरों की तरफ भागता है. गांवदेहात के बहुत से लोग आज भी पढ़ाईलिखाई से दूर हैं और ऐसे न जाने कितनी वजहें हैं, जिन के चलते गांव का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित है. सरकार को चाहिए कि वह जमीनी लैवल पर ऐसे कदम उठाए, जिस से गरीबी कम हो सके. ‘गरीबी हटाओ’ का सच गांव की गरीबी के साथ अपनेअपने समय में सभी नेताओं ने राजनीति की. 70 के दशक में कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. 80 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन लागू करते समय यह कहा था कि इस से पिछड़ी जातियों को मजबूत किया जा सकेगा. साल 2004 में जब कांग्रेस की सरकार बनी,

तो गांव में हर घर को रोजगार देने के लिए ‘मनरेगा योजना’ चलाई गई. इस के बाद साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने गांव में रहने वाले किसानों की आमदनी को दोगुना करने का वादा किया. मोदी सरकार बनने के 8 साल बाद भी किसानों और गांव के दूसरे लोगों की हालत जस की तस रही है. किसानों की मदद के लिए 500 रुपए प्रति माह की ‘किसान सम्मान निधि’ और सरकारी राशन की दुकान से राशन देना पड़ा. किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा दरकिनार हो गया. देश की आजादी के 74 साल से ज्यादा बीतने के बाद भी किसानों की हालत जस की तस है. इस का सब से बड़ा उदाहरण राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की हालत को मुद्दा बनाया जाना है. अगर इंदिरा गांधी के समय में गरीबी दूर हो गई होती, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात नहीं करनी पड़ी होती. धर्म और नशाखोरी गांव के लोग अब काम नहीं करना चाहते हैं. महंगी होने के बाद भी वे बाजार में बिकने वाली चीजों का इस्तेमाल करते हैं. इस से गांव की आमदनी खत्म हो रही है.

कामचोरी के साथसाथ गांव में बहुत तेजी से नशा करने की आदत फैल रही है. आज हर तरह का नशा गांव के लोग करने लगे हैं. इस में तंबाकू और शराब के साथसाथ गांजा, भांग और अफीम जैसा नशा भी शामिल है. नशे के चलते अपराध बढ़ रहे हैं. थाना और तहसील में खर्च बढ़ रहा है. कानूनी झगड़े में खेत और जमीनें बिक रही हैं, जो गांव के लोगों पर भारी पड़ रहा है. नशे का दूसरा असर यह है कि शरीर कमजोर होता जा रहा है. दवा और अस्पताल का खर्च बढ़ने लगा है. आज गांवदेहात में भी फास्ट फूड का चलन बढ़ने लगा है. इस से ब्लड प्रैशर और डायबटीज जैसी कई बीमारियां बढ़ रही हैं. गांवदेहात में जो पैसा है, वह किसी उत्पादक काम में नहीं लग रहा है. सब से पहले तो नशाखोरी, उस के बाद धर्म के काम जैसे पूजापाठ, चढ़ावा, दानदक्षिणा में फुजूल का खर्च होता है.

हाल के दिनों में गांवदेहात में भी मंदिरों की तादाद बढ़ गई है. लोग स्कूल और अस्पताल पर खर्च नहीं करते हैं, पर मंदिरों पर जरूर खर्च करते हैं. जब पैसा उत्पादक कामों पर खर्च नहीं होता, तो फायदे की उम्मीद कम हो जाती है. गांवदेहात के लोग अब मेहनत की जगह भाग्य पर भरोसा करने लगे हैं, जिस से ज्यादातर पैसा ऊपर वाले को खुश करने के लिए पंडित को चढ़ावा चढ़ाने में निकल जाता है. गांव छोड़ते लोग गांवदेहात की एक बड़ी आबादी शहरों की तरफ भाग रही है. हर शहर के आसपास ऐसे छोटेछोटे महल्ले बन गए हैं, जहां गांव जैसा ही माहौल देखने को मिलता है. इस से शहरों की व्यवस्था भी खराब होती जा रही है. गांव में अगर रोजीरोजगार का ढांचा तैयार होगा, तो गांव के लोगों का शहरों की तरफ भागना नहीं होगा. बहुत सारे ऐसे रोजगार हैं, जिन की जानकारी देने से गांव के लोगों का फायदा हो सकता है. खेतीबारी से जुड़े रोजगार बढ़ाने की जरूरत है.

अगर ऐसा नहीं किया गया, तो गांव के लोग और भी गरीब होते जाएंगे. शहर में रहने वाले और बिजनैस करने वाले लोगों के पास पैसा बढ़ता जाएगा. इस से गरीबी और अमीरी के बीच की खाई चौड़ी होती जाएगी. गांवदेहात में रोजगार होने से लोगों का शहरों की तरफ भागना रुकेगा. गांव का पैसा गांव में रहेगा, तो तरक्की केवल सड़क तक नहीं दिखेगी, बल्कि गांव के अंदर भी बदलाव दिखेगा. इस के लिए गांव के लोगों को काम करना पड़ेगा, उन्हें नशाखोरी, कामचोरी और धार्मिक अंधविश्वास से दूर होना होगा. नौजवानों की पढ़ाईलिखाई रोजगार देने वाली हो, वह गांव के काम आए, उस तरह की योजना बनाई जाए. भारत की आबादी का सब से बड़ा हिस्सा गांव में रहता है. ऐसे में गांव गरीब रहें और देश तरक्की करे, ऐसा मुमकिन नहीं है. देश की तरक्की गांव के बिना नहीं हो सकती. गांवों को साथ ले कर चलना पड़ेगा, तभी पूरा देश खुशहाल होगा. सरकारी मदद किसी समस्या का समाधान नहीं है. योजना बना कर गांव का रोजगारपरक विकास ही समस्या का एकमात्र हल है.

सेना ही क्यों

सेना ही क्यों जज्बा और हिम्मत कहीं भी काम आ सकते हैं मैंसुबह कसरत करने अपने लोकल पार्क में जाता हूं. वहां कुछ लड़के दौड़ लगाने आते हैं. उन में से ज्यादातर गरीब घर के नौजवान होते हैं और वे बनियान, निक्कर और ‘सैगा’ ब्रांड के जूते पहने हुए होते हैं. पंजाब की इस कंपनी के जूते इसलिए, क्योंकि इतने सस्ते और टिकाऊ रनिंग जूते शायद ही कोई कंपनी बना कर देती होगी. भार में भले ही ये जूते बहुत हलके होते हैं, पर इन्हें पहनने वाले गरीब घरों के लड़कों पर रोजगार पाने का बोझ बहुत ज्यादा होता है. कम जमीन, आमदनी न के बराबर, पर फिर भी ऐसे लड़कों की मेहनत में कोई कमी नहीं होती है और इस बात की गवाही उन के बदन से बहता पसीना दे देता है.

पर चूंकि एक तो भारत में सरकारी नौकरियां वैसे ही कम हैं, ऊपर से बेरोजगारी की हद. लिहाजा, 1-1 सरकारी नौकरी पाने में कंपीटिशन काफी तगड़ा हो जाता है. और जब कोई नौजवान इस कंपीटिशन में लास्ट स्टेज पर चूक जाता है, तो वह कई बार इतने कड़े और दुखदायी कदम उठा लेता है कि देशभर में सुर्खियां बन जाता है. हाल ही में एक 23 साल के लड़के ने इस बात के चलते तनाव में आ कर अपनी जान दे दी कि चूंकि अब वह ओवर एज हो गया है तो सेना में नहीं जा पाएगा, तो फिर जीने से क्या फायदा और उस ने फांसी लगा ली.

यह घटना हरियाणा के भिवानी जिले की है, जहां गांव तालु का रहने वाला 23 साल का नौजवान पवन कुमार पिछले 9 साल से भारतीय सेना में भरती होने के लिए तैयारी कर रहा था, पर सरकार द्वारा भरतियां न निकालने से हताश हो कर उस ने अपनी जान दे दी. पवन कुमार ने खुदकुशी करने से पहले एक हैरान कर देने वाला सुसाइड नोट लिखा, जो किसी कागज पर नहीं, बल्कि रनिंग ट्रैक पर लिखा था. उस सुसाइड नोट में पवन कुमार ने अपने पिताजी से कहा कि इस बार सेना में भरती नहीं हुआ, लेकिन पिताजी अगले जन्म में मैं फौजी जरूर बनूंगा, क्योंकि सेना में भरती न निकलने पर मेरी उम्र भी निकल गई… फिर अपने प्रैक्टिस वाले मैदान में एक पेड़ पर रस्सी का फंदा लगा कर उस ने जान दे दी.

इसी मुद्दे पर तालु गांव में एक सामाजिक संगठन चला रहे इंजीनियर कुलदीप पंघाल ने बताया, ‘‘पवन को सब गांव में ‘पौना’ कहते थे. उस के पिता का नाम जसवंत उर्फ ‘लीला’ है. जब पवन 5 साल का था, तब उस की मां का देहांत हो गया था. परिवार की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी. पिता ने ही किसी तरह दोनों बेटों की परवरिश की थी. पवन दोनों भाइयों में बड़ा था. ‘‘इस बात में कोई दोराय नहीं है कि पवन को सेना में जाने का जुनून था. उसी जुनून को पूरा करने के लिए वह दिन में 3 टाइम ट्रैक पर रेस लगाता था और उस ने क्षेत्रीय लैवल पर रेस में कई बार मैडल भी जीते थे.

वह 3 बार टीए की भरती क्लियर कर चुका था, पर फाइनल रिजल्ट में उस का नाम नहीं आ पाया था. ‘‘साल 2018 में पवन मेरे पास पढ़ने आता था, तब उस की बातों से गहरा सेना प्रेम झलकता था. उस के परिवार के सदस्य बताते हैं कि उन्होंने कई बार प्राइवेट नौकरी लगवाने के लिए उस से पूछा था, पर वह मना करता रहा. ‘‘हरियाणा के तकरीबन हर गांव में पवन जैसे सैकड़ों नौजवान मिल जाएंगे, जिन का सपना केवल भारतीय सेना में जाने का है.

इस बात को सच साबित करने के लिए आप सोशल मीडिया पर ऐसे नौजवानों द्वारा डाली जाने वाली पोस्टों को देख सकते हैं. ‘‘इस के बावजूद अगर सरकार नौकरियां नहीं दे पर रही है तो उसे भी कठघरे में खड़ा करना चाहिए. क्या सरकारी भरतियां समय पर निकाली जा रही हैं? क्या हर सरकारी महकमे में पद खाली नहीं हैं? सेना की भरती में छूट क्यों नहीं दी जाती है,

जबकि हर साल 2.5 लाख नौजवान भरती की उम्र खो देते हैं? सरकार को अपनी इस उदासीनता पर जवाबदेह होना चाहिए.’’ इंजीनियर कुलदीप पंघाल की बात में दम है, क्योंकि अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो सेना का हर 10वां जवान हरियाणा से आता है. रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, भिवानी और रोहतक जिले से सब से ज्यादा नौजवान भारतीय सेना में भरती होते हैं. सेना में जाने और देश के लिए अपनी सेवाएं देने में कोई बुराई नहीं है, पर क्या कुछ करगुजरने का जज्बा और हिम्मत सिर्फ सेना में ही जा कर दिखाए जा सकते हैं? ऐसा नहीं है.

पवन एक होनहार, लगनशील और मेहनती लड़का था. सब से बड़ी बात तो यह कि उस में जुनून की भी कोई कमी नहीं थी. पर सिर्फ सेना में भरती न हो पाने की हताशा से वह पार नहीं पा सका, जबकि अगर वह किसी भी फील्ड में मन लगा कर उतरता, तो यकीनन उसे कामयाबी ही मिलती, क्योंकि वह तन और मन से सेहतमंद था. बस, पवन में इस बात की कमी रह गई कि उस ने अपने मन की पीड़ा किसी से शेयर नहीं की और जिस रनिंग ट्रैक पर वह रोज दौड़ता था,

वहीं अपनी जिंदगी की रेस भी हार गया. लेकिन क्या एक मनचाही नौकरी न मिलने से किसी को अपनी जिंदगी ही दांव पर लगा देनी चाहिए? बिलकुल नहीं. तालु गांव के ही एक चार्टर्ड अकाउंटैंट नरेश शर्मा की मिसाल लेते हैं, जो आज एक प्राइवेट कंपनी में चीफ फाइनैंशियल औफिसर हैं. नरेश शर्मा ने बताया, ‘‘मुझे इस घटना के बारे में जान कर बहुत बुरा लगा. हमारे गांव में हमेशा से आपसी सहयोग का माहौल रहा है. सब एकदूसरे को बढ़ावा देते हैं और ढांढस भी बंधाते हैं.

‘‘मैं जब पढ़ाई कर रहा था तो पड़ोस में सब ने लाउडस्पीकर बजाना बंद कर दिया था कि लड़के की पढ़ाई में बाधा न आए. गांव में किसी के नाकाम होने पर बड़ेबूढ़े दिलासा देते थे कि कोई बात नहीं हारजीत तो होती रहती है. ‘‘लेकिन, समय के साथसाथ नई पीढ़ी में नाकामी को झेलने की ताकत कम हो रही है. बच्चों में डिप्रैशन आ जाता है. यह समस्या शहरों में और भी ज्यादा है. लगता है कि इस बच्चे ने भी बस हताशा में ही यह कदम उठा लिया. ‘‘एक बात तो साफ है कि बढ़ते औटोमेशन के चलते सरकारी नौकरियों में कमी आएगी. प्राइवेट क्षेत्र में भी औटोमेशन बहुत तेजी से बढ़ रहा है, जिस से अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव हो रहे हैं. पारंपरिक दक्षता की जगह नई कुशलता ले रही है.

ऐसे में नौजवानों पर भविष्य की अनिश्चितताओं को ले कर बहुत दबाव है. कोरोना ने जो 2 साल बरबाद कर दिए हैं, उस से भी नौजवानों और छात्रों पर बहुत गहरा मानसिक दबाव पड़ा है. ‘‘पर, जब एक रास्ता बंद होता है, तो और भी कई रास्ते खुल जाते हैं. आगे चल कर लगता है कि वह दरवाजा सही बंद हुआ था. मेरा 10वीं क्लास के बाद एयरफोर्स में सिलैक्शन हो गया था, बस मैडिकल में यह कह कर निकाल दिया था कि तुम्हारे दांत व कान साफ नहीं हैं. ‘‘तब मुझे बहुत दुख हुआ था, लेकिन आज मैं सोचता हूं कि अगर तब नाकाम नहीं हुआ होता तो शायद और ज्यादा पढ़ाई नहीं करता. ‘‘याद रखें कि यह जिंदगी अनमोल है. कामयाबी और नाकामी का फैसला तो जिंदगी जी लेने के बाद ही पता लगेगा कि कौन सी घटना कामयाबी की तरफ ले गई और कौन सी सबक दे गई.’’

हकीकत तो यह है कि पूरे भारत में पवन की खुदकुशी के तूल पकड़ने की वजह देश के हर उस नौजवान की उम्मीद है, जो पवन में अपनेआप को देखता है. फर्क बस इतना है कि उस ने अभी तक खुदकुशी नहीं की है. यह उस की समझदारी कहेंगे या मजबूरी, यह आप को तय करना है. द्य क्या है सरकार की ‘टूर औफ ड्यूटी’ योजना सेना में जवानों की तादाद बढ़ाने और अपना खर्च कम करने के लिए सरकार एक ऐसी ‘टूर औफ ड्यूटी’ योजना पर काम कर रही है, जिस के तहत नौजवान 3 से 5 साल के लिए सेना में अपनी सेवाएं दे सकते हैं. इसे ‘अग्निपथ एंट्री स्कीम’ का नाम दिया जाएगा. बताया जा रहा है कि जो भी लोग इस योजना के तहत सेना में शामिल होंगे, उन में से कुछ को 3 साल के बाद भी सेवा जारी रखने का रास्ता खुला रहेगा. इस योजना के तहत नौजवानों को बतौर सैनिक शौर्ट टर्म करार पर शामिल कर ट्रेनिंग दी जाएगी और अलगअलग इलाकों में तैनात किया जाएगा. साथ ही, बता दें कि उम्मीदवारों को चयन प्रक्रिया में किसी तरह की कोई रियायत नहीं मिलेगी और उन की हर महीने तनख्वाह 80,000 से 90,000 रुपए हो सकती है. इस योजना के तहत सेना में सेवा पूरी करने के बाद नौजवानों को दूसरी नौकरी के लिए सेना मदद करेगी. लिहाजा,

इन ऐसे नौजवानों को कारपोरेट सैक्टर के लिए तैयार करने की योजना भी सेना बना रही है. पर चूंकि फिलहाल यह योजना अभी कागजों पर है, तो यह कब अमल में लाई जाएगी और कितनी कारगर साबित होगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर भारत में जिस तरह से बेरोजगारी बढ़ी है, खासकर सरकारी सैक्टर में नौकरियां कम होने की वजह से, यहां के नौजवानों में इतना सब्र नहीं है कि वे ‘टूर औफ ड्यूटी’ जैसी योजना का इंतजार करें. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर, 2021 तक भारत में बेरोजगार लोगों की तादाद 5.3 करोड़ रही. इन में महिलाओं की तादाद 1.7 करोड़ है. घर बैठे लोगों में उन की तादाद ज्यादा है,

जो लगातार काम खोजने की कोशिश कर रहे हैं. सीएमआईई के मुताबिक, लगातार काम की तलाश करने के बाद भी बेरोजगार बैठे लोगों का बड़ा आंकड़ा चिंताजनक है. रिपोर्ट के मुताबिक, कुल 5.3 करोड़ बेरोजगार लोगों में से 3.5 करोड़ लोग लगातार काम खोज रहे हैं. इन में तकरीबन 80 लाख महिलाएं शामिल हैं. बाकी के 1.7 करोड़ बेरोजगार काम तो करना चाहते हैं, पर वे ऐक्टिव हो कर काम की तलाश नहीं कर रहे हैं. ऐसे बेरोजगारों में 53 फीसदी यानी 90 लाख महिलाएं शामिल हैं. सीएमआईई का कहना है कि भारत में रोजगार मिलने की दर बहुत ही कम है और यह ज्यादा बड़ी समस्या है.

हकीकत: फुटपाथ- बिखरते सपने, जलालत जिंदगी

पौलीथिनों को जोड़जोड़ कर बनाई गई ?ोंपडि़यों के पास पहुंचते ही नथुने में तेज बदबू का अहसास होता है. बगल में बह रही संकरी नाली में बजबजाती गंदगी. कचरा भरा होने की वजह से गंदा पानी गली की सतह पर आने को मचलता दिखता है.

तंग और सीलन भरी छोटीछोटी ?ोंपडि़यों से ?ांकते चीकट भरे चेहरे… खांसते और लड़खड़ाते जिंदगी से बेजार हो चुके बूढ़े, पास की सड़कों और गलियों में हुड़दंग मचाते मैलेकुचैले बच्चे…

यही है फुटपाथों की जिंदगी. सुबह होते ही शहर की चिल्लपौं… गाडि़यों की तेज आवाज और कानफोड़ू हौर्न से ले कर शाम ढलने के बाद के सन्नाटे को आसानी से ?ोलने की कूवत होती है फुटपाथ के बाशिंदों में.

ऐसा नहीं है कि फुटपाथों पर बनी ?ाग्गियों और बाजारों से प्रशासन अनजान होता है या गरीबों पर रहम खा कर उन्हें फुटपाथों पर कारोबार करने या बसने के लिए छोड़ दिया जाता है. इस के पीछे हरे नोटों की चमक काम करती है.

एक पुलिस अफसर बताते हैं कि फुटपाथ पर रहने वालों या कोई धंधा करने वालों को उस के एवज में खासी रकम चुकानी पड़ती है. फुटपाथियों को पुलिस वाले और लोकल रंगदार दोनों की ही मुट्ठी गरम करनी पड़ती है.

सरकार फुटपाथ से कब्जे को हटा तो नहीं सकती, पर उसे वहां रहने वालों या कारोबार करने वालों को पट्टे पर दे दे, तो सरकार के खजाने में काफी पैसा आ सकता है.

पटना के ही ऐक्जीबिशन रोड पर बड़ा पाव और आमलेट का ठेला लगाने वाला एक दुकानदार नाम नहीं छापने की गारंटी देने के बाद कहता है कि वह दिनभर में 2,000 रुपए का धंधा कर लेता है.

रोज शाम होते ही पुलिस वाले और लोकल दादा टाइप लोग ‘टैक्स’ वसूलने के लिए पहुंच जाते हैं. 200 रुपए पुलिस वालों और 300 रुपए गुंडों को चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है. इस के बाद भी वे लोग बड़ा पाव और आमलेट मुफ्त में हजम करना नहीं भूलते हैं.

मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, पटना से ले कर किसी भी बड़े या छोटे शहर के फुटपाथों की जिंदगी एकजैसी ही होती है. आजादी के 74 सालों में शहर का रंगरूप बदला. चमचमाती बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गईं. कोलतार की जगह कंक्रीट की ठोस सड़कें बन गईं. फुटपाथों पर रंगबिरंगी टाइल्स लग गईं. कई सरकारें बदल गईं. तरक्की के हजारों दावे और वादे हुए, पर फुटपाथों पर रहने वालों का कुछ भी नहीं बदला.

शहर के लोग ही फुटपाथियों को मखमल में टाट का पैबंद की तरह मानते हैं और उन्हें हिकारत की नजर से देखा जाता है. सरकार उन्हें अपने वोट बैंक के तौर पर ही देखती है.

दरअसल, इन फुटपाथियों में ज्यादातर दुकानदार पिछड़ी और दलित जातियों के होते हैं, जिन से वसूली का हक तो पौराणिक है और कोई अफसर या नेता इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहता.

एक समाज विज्ञानी कहते हैं कि दलित या भूमिहीन गरीब लोग गांव छोड़ कर शहर इसलिए आते हैं कि उन्हें कोई बढि़या और पक्का काम मिलेगा, लेकिन ज्यादातर लोग मजदूर, रिकशा या ठेला गाड़ी चलाने वाले और भिखारी बन कर रह जाते हैं, शहरों में इधरउधर भटकते हुए फुटपाथों पर टिक जाते हैं.

फुटपाथ पर ही बसना और उजड़ना उन की नियति बन जाती है. कभीकभार जब लोकल पुलिस थानों पर ‘ऊपरी प्रैशर’ आता है, तो आननफानन में ही मुहिम शुरू कर फुटपाथ को साफ करा दिया जाता है और पुलिस की ‘हल्ला गाड़ी’ (बुलडोजर या जेसीबी) के वापस लौटते ही फुटपाथों पर फिर से कब्जा होने लगता है.

सड़कों के किनारे फुटपाथ बनाने का मकसद यही है कि पैदल चलने वाले लोगों को परेशानी न हो और सड़कों पर तेज चलती गाडि़यों से उन की हिफाजत की जा सके.

संविधान के अनुच्छेद 20 के पैरा 2 और 3 में सड़कों पर पैदल चलने वालों को सुरक्षा का अधिकार दिया गया है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि शहरों में 28 फीसदी आबादी ऐसी है, जो पैदल चलती है. इस के बाद भी सरकारें पैदल चलने वालोंकी हिफाजत के लिए गंभीर नहीं रही हैं.

शहरों में कुल सड़कों की लंबाई का 30 फीसदी ही फुटपाथ है और उस के बाद करेले पर नीम वाली हालत यह है कि फुटपाथों पर गैरकानूनी कब्जा है.

पटना शहर का मुख्य और पुराना इलाका है अशोक राजपथ. इसी सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर भिखारियों की झोंपडि़यां बसी हुई हैं. अपने गुजर चुके परिवार वालों की आत्मा को शांति पहुंचाने के टोटके के नाम पर लोग यहां के लोगों के बीच पूरी, सब्जी और मिठाई का पैकेट बांटते रहते हैं.

समाज में फैले अंधविश्वास ने भी फुटपाथों को जिंदा रखने में अहम रोल अदाकिया है. शहर में रोज कोई न कोई मरता ही है और उन के परिवार वाले फुटपाथ पर रहने वाले गरीबों के बीच खाने का पैकेट बांटने की रस्म निभा कर सम?ाते हैं कि मरे हुए परिवार वालों की आत्मा को शांति मिलेगी.

इसी दकियानूसी सोच की वजह से शहरी फुटपाथों के बाशिंदों को कभी पकवानों की कमी नहीं होती है. फुटपाथ पर पिछले 26 सालों से रह रहा जीतन बताता है कि महीने में 15-17 दिन पूरी, सब्जी और मिठाई खाने का मजा मिलता है. वह अपने 3 बच्चों और बीवी के साथ छोटी सी झोंपड़ी में रह रहा है.

कोविड 19 के दिनों में लोगों ने इन लोगों को भरपेट खाना खिला कर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी कम निभाई, पुण्य ही ज्यादा कमाया. उन्हें गरीब रखने से ही तो पुण्य मिलेगा और वैसे भी ये गरीब फटेहाल पिछले जन्मों के पापों के फल भोग रहे हैं.

जब मुफ्त में बैठेठाले खाने को तर माल मिल रहा हो और हराम का खाना खाने की आदत पड़ गई हो, तो कोई काम करने के लिए हाथपैर क्यों चलाए? भिखारियों की इस गली के बसने, पनपने और बढ़ने के पीछे पोंगापंथ का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है.

जब एक बच्चे से पूछा गया कि उसे लोग बढि़याबढि़या खाना खाने के लिए क्यों दे जाते हैं, तो वह छूटते ही कहता है, ‘‘जब तक लोग हम कंगालों को खाना नहीं खिलाएंगे, तब तक मरने वाले की आत्मा भटकती रहेगी. दूसरा जीवन पाने के लिए उसे कोई शरीर ही नहीं मिलेगा.’’

उस बच्चे की बातों को सुन कर यही लगता है कि उस के मांबाप ने भी उसे यह बात घुट्टी में पिला दी है कि लोग उसे खाना खिला कर या दान दे कर कोई अहसान नहीं करते हैं. यह सब काम लोग अपना मतलब साधने के लिए ही करते हैं.

?ारखंड की राजधानी रांची के मेन रोड इलाके में फुटपाथ पर रहने वाले ज्यादातर लोग किसी भी सूरत से अपंग और लाचार नहीं हैं. इस के बाद भी वे कोई काम नहीं करना चाहते हैं. उन्हें कोई काम नहीं देना चाहता है. मेहनतमजदूरी का पैसा कमाने और पेट पालने के बारे में वे लोग सोचते ही नहीं हैं.

अपने 4 बच्चों के साथ रहने वाले डोमन दास से जब पूछा गया कि वह कोई कामधंधा क्यों नहीं करता है? अपंग नहीं होने के बाद भी भीख और दान के भरोसे क्यों रहता है? इन सब सवालों के जवाब में वह उलटा सवाल करता है, ‘‘अगर हम लोग दूसरा कामधंधा करने लगेंगे, तो पैसे वालों के दानपुण्य का काम कैसे चलेगा? गरीबों को दान दे कर ही तो रईस लोग पुण्य बटोरते हैं.’’

हर सरकार और प्रशासन फुटपाथ और ?ाग्गियों में बसे लोगों को हटाने या दूसरी जगह बसाने के बजाय उन्हें बनाए रखने में दिलचस्पी रखते हैं. कभीकभार आम जनता की आंखों में धूल ?ोंकने के लिए प्रशासन पर सनक सवार होती है, तो फुटपाथ पर से कब्जा हटा दिया जाता है और उस के बाद दोबारा कान में तेल डाल कर सो जाता है.

झुग्गियां उखाड़ने के चंद घंट बाद ही फिर से तिनकातिनका जोड़ कर लोग फुटपाथों पर झोंपडि़यां बना लेते हैं. प्रशासन के इसी रवैए की वजह से फुटपाथ पर रहने वालों को पुलिस के डंडों और बुलडोजरों से अब डर नहीं लगता है.

हालांकि वे सम?ा चुके हैं कि साल 2 साल में उन्हें फिर से उजाड़ा जाएगा और वे फिर उसी जगह बस जाएंगे. उस के बाद कुछ सालों तक उन्हें कुछ नहीं होने वाला है.

दरअसल, उजड़ना और बसना ही फुटपाथियों की जिंदगी रही है. पटना के पीरमुहानी महल्ले में फुटपाथ पर बसे कल्लू गोप कहता है कि वह पिछले 8 सालों से उस जगह पर रह रहा है, लेकिन रोजाना ही उस के सिर पर उजड़ने की तलवार लटकी रहती है.

पास ही में खड़ा उस का 12 साल का बेटा बड़ी ही मासूमियत से कहता है कि उस के साथ कई बच्चों ने मिल कर मुख्यमंत्री अंकल और डीएम अंकल से कहा था कि उन्हें रहने के लिए छोटा सा घर दिया जाए, जिस से झोंपड़ी के बच्चे मन लगा कर पढ़ सकें और बड़ा आदमी बन सकें, पर कोई सुनता ही नहीं है.

इलाके के लोग सर्किल अफसर से ले कर गवर्नर तक गुहार लगा चुके हैं, इस के बाद भी गरीबों को उन के हाल पर छोड़ दिया गया है. बेलगाम पुलिस ने गंगा बिंद के 3 साल के मासूम बच्चे को भी लाठी से पीट डाला.

अपनी झोंपड़ी के सामने खड़ी तकरीबन 70 साल की बीना देवी पर भी पुलिस ने रहम नहीं दिखाया और उस के पेट में लाठी मार दी. वह तड़प कर जमीन पर गिर पड़ी. उस के इलाज पर 2,000 रुपए खर्च हो गए.

फुटपाथ पर रहने वालों की जिंदगी को देख कर यही महसूस होता है कि गांवघर को छोड़ कर बेहतर जिंदगी का सपना देखने वालों के लिए शहर का फुटपाथ ही बिछौना और घर है. 6-7 फुट के झोंपड़े में न जाने कितनी जिंदगियां खाक हो गईं और न जाने कितने खाक होने के इंतजार में तिलतिल कर रोज ही मर रहे हैं.

गांवों में तो उन का और भी बुरा हाल है, क्योंकि वहां तो उन के ?ोंपड़ों में आग भी लगा दी जाती है और औरतों को उठा कर ले जाया जाता है.

समस्या: औनलाइन ज्ञान से जिंदगी के साथ खिलवाड़

आजकल यूट्यूब पर वीडियो देख कर घर पर ही कुछ भी करने का चलन बढ़ा है, लेकिन यह खतरनाक भी हो सकता है.

हाल ही में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में 25 साल की एक लड़की ने यूट्यूब पर एक वीडियो देख कर घर पर ही अपना भ्रूण (पेट का बच्चा) निकालने की कोशिश की. नतीजतन, उस की हालत बिगड़ गई और उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, उस लड़की को ऐसी सलाह उस के प्रेमी ने दी थी.

उस लड़की ने पुलिस को बताया कि उस का प्रेमी साल 2016 से उस के साथ रेप कर रहा था और शादी का ?ांसा दे रहा था. अब जब वह पेट से हुई, तब उस के प्रेमी ने सलाह दी कि वह यूट्यूब से वीडियो देख कर बच्चा गिरा ले और उस की बताई हुई दवाएं खा ले.

जब लड़की ने ऐसा करने की कोशिश की, तब उस की हालत बिगड़ गई और उस के बाद उसे अस्पताल में भरती कराया गया.

यूट्यूब वीडियो देख कर खुद पर तजरबा करने का एक ऐसा ही मामला केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के वेंगानूर इलाके में भी देखने को मिला.

7वीं जमात का एक छात्र शिवनारायण सोशल मीडिया या यूट्यूब वीडियो देखने का आदी था. यूट्यूब पर बालों को स्ट्रेट यानी सीधा करने का वीडियो देख कर उस ने खुद पर उस तरीके को आजमाने की कोशिश की.

जब घर में कोई नहीं था, तब उस छात्र ने अपने बालों में मिट्टी का तेल लगा दिया और जलती हुई माचिस की तीली से बालों को सीधा करने की कोशिश करने लगा. इस दौरान वह आग की चपेट में आ गया.

तब वह छात्र अपने घर के बाथरूम में था और घर में सिर्फ उस की दादी थीं. आग की चपेट में आने के बाद वह रोनेचिल्लाने लगा. दादी ने आसपास के लोगों को बुलाया. लोगों ने जैसेतैसे आग बु?ाई और उसे तुरंत अस्पताल ले गए, लेकिन वह छात्र बच नहीं सका.

हम ने देखा है कि आजकल अगर कोई कुछ नया करना चाहता है या कुछ नया सीखना चाहता है, तो यूट्यूब पर उस के बारे में जरूर खोजबीन करता है. यूट्यूब पर कई लोग अलगअलग मुद्दों पर अपने खुद के वीडियो या ट्यूटोरियल पोस्ट करते रहते हैं.

यह सच है कि यूट्यूब और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफार्म आज हमारी जिंदगी में काफी मददगार साबित हो रहे हैं. उन के कई अच्छे नतीजे भी हम सब के सामने आते रहते हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम औनलाइन वीडियो से लिए गए उपायों को इतना जीने लगे हैं कि हम अपनी जान तक जोखिम में डाल रहे हैं?

यह सच है कि दुनिया पूरी तरह से डिजिटल हो रही है और यकीनी तौर पर लोगों को इस से काफी फायदा हो रहा है. औनलाइन साधनों के सही इस्तेमाल का हमें तब पता चला, जब दुनिया कोरोना के चलते लगे लौकडाउन में फंस गई थी, लेकिन औनलाइन काम की सहूलियत होने के चलते न केवल लोगों का कारोबार चलता रहा, बल्कि बच्चों की पढ़ाईलिखाई में कोई बड़ी दिक्कत नहीं आई.

पर इस का मतलब यह नहीं है कि हमें हर उस काम के लिए औनलाइन जरीए का सहारा लेना चाहिए, जिस के लिए फिजिकल होना जरूरी है.

दरअसल, इंटरनैट या यूट्यूब पर दी गई जानकारी के कई मकसद हो सकते हैं. मसलन, मशहूर होना, कारोबार करना, चैनल चलाना, सब्सक्राइबर बढ़ाना या किसी सब्जैक्ट पर थोड़ी जानकारी देना.

ध्यान रहे कि कोई भी चैनल पूरी जानकारी देने को तैयार नहीं है और न ही सारी जानकारी दी जा सकती है.

आमतौर पर यूट्यूब के वीडियो लोगों को जागरूक करने के लिए होते हैं. वे हमें देश और दुनिया की जानकारी देने के लिए होते हैं, लेकिन इस का यह कतई मतलब नहीं है कि हम इन वीडियो को देख कर खुद को किसी खास फील्ड का मास्टर मान बैठें.

बच्चा गिराने से जुड़ा जो काम एक माहिर डाक्टर का है, वह कैसे यूट्यूब के जरीए खुद घर पर हो सकता है? अगर ऐसा ही होता तो सालों तक पढ़ने और रिसर्च करने वाले डाक्टरों की जरूरत ही क्या है?

अगर आधीअधूरी जानकारी के साथ खुद पर तजरबा करेंगे तो इस से आप का नुकसान ही होगा. क्या यूट्यूब वीडियो देख कर हम किसी भी सब्जैक्ट के माहिर बन सकते हैं?

कतई नहीं, क्योंकि किसी सब्जैक्ट को सीखना केवल उसे जानना नहीं होता है, बल्कि उसे होते हुए देखना और खुद करना भी पड़ता है.

आप किसी डाक्टर या माहिर की बराबरी नहीं कर सकते हैं. किसी भी काम में ज्ञान के साथसाथ माहिर के सधे हाथ और तजरबे बेहद खास होते हैं. उन्हें सब्जैक्ट के हर पहलू का बारीकी से पता होता है.

अगर हालात बिगड़ें या कोई मुश्किल आ जाए, तो उन के पास इस से निबटने के तरीके और साधन होते हैं. इसलिए बेहतर होगा कि सेहत से जुड़े हर मामले में यूट्यूब वीडियो पर भरोसा न करें और डाक्टर या माहिर की सलाह लें.

हमें न केवल इसे सम?ाना है, बल्कि अपनी नई पीढ़ी को यह भी सम?ाना है कि यूट्यूब या सोशल साइटों पर मौजूद सामग्री की संजीदगी को सम?ों और यह तय करना भी सीखें कि जिंदगी में उस की कहां और कितनी अहमियत है.   द्य

हकीकत: गरीब घरों में बूढ़ों की हालत

अच्छन मियां का पूरा परिवार पहले साथ में एक छत के नीचे रहता था. अच्छन मियां के 2 भाई और उन का परिवार और अच्छन मियां के अपने 4 बेटे औ 3 बेटियां सब मिलजुल कर रहते थे.

अच्छन मियां की चाबीताले की एक दुकान थी. बाद में दुकान उन का बड़ा लड़का चलाने लगा. अच्छन मियां जब तक दुकान पर बैठते थे, उन की और उन की बेगम सायरा बी की पूरा घर इज्जत करता था और प्यार करता था. बड़े 2 बेटों की शादियां हुईं और उन के बच्चे हुए तो अच्छन मियां और सायरा बी दादादादी की पदवी पा कर और भी ज्यादा प्यार और इज्जत के पात्र हो गए.

लेकिन तीनों बेटियों की शादी के बाद घर की खुशियों में कमी आ गई. अच्छन मियां और सायरा बी भी बुढ़ापे की ओर तेजी से बढ़ने लगे. आंख से दिखाई देना भी कम हो गया. अब चाबी बनाने का हुनर भी किसी काम का नहीं बचा. ऐसे में अच्छन मियां ने दुकान पूरी तरह बड़े बेटे को सौंप दी. उन का छोटा लड़का एक कंपनी में चपरासी लग गया.

अच्छन मियां के दोनों भाइयों के परिवार भी जब बढ़े तो उन लोगों ने गांव वाली अपनी जमीन पर मकान बनवा लिया. अच्छन मियां के दोनों छोटे लड़के अपने बीवीबच्चों को ले कर दूसरे शहर में नौकरी के लिए चले गए.

अब घर में 2 बेटों का परिवार बचा. बहुओं के आगे सायरा बी के फैसले कमजोर पड़ने लगे. उन की रसोई पर अब पूरी तरह बहुओं का कब्जा हो गया. वे अपनी मनमरजी की चीजें पकातीं और खिलातीं. कुछ कहो तो सुनने को मिलता, ‘यहां क्या होटल खुला है कि सब की फरमाइश का अलगअलग खाना बनेगा?’

कई बार ऐसा खाना सामने आता है, जो दांत न होने की वजह से चबाया ही नहीं जाता है. ऐसे में दोनों सत्तू घोल कर पी लेते हैं. दूधदही कभी खाने में दिखता ही नहीं है. एक रोटी और थोड़ी सी दाल देना ही दोनों बहुओं को भारी लगता है.

यही हाल गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश की शारदा रानी का है. शारदा रानी की उम्र 76 साल की है. पति जवानी में ही नहीं  रहे थे. 2 लड़के थे. छोटा लड़का अपना परिवार ले कर शुरू से ही अलग रहता था.

बड़ा लड़का मां को अपने साथ रखता था, मगर उस की पत्नी को हर काम में सास की दखलअंदाजी बरदाश्त नहीं थी, तो उस ने कुछ पैसा लोन ले कर और कुछ जमापूंजी जुटा कर एक अलग घर खरीद लिया. उस में उस के चारों भाइयों ने भी पैसे की मदद की थी.

नए घर में उस ने सास के आने पर बैन लगा दिया. अब बूढ़ी शारदा रानी अपने घर में अकेले रहती हैं. बेटा 2 दिन में एक बार चक्कर लगा लेता है और जरूरत का सामान खरीद कर रख जाता है.

इस उम्र में शारदा रानी जैसेतैसे अपने लिए रोटीदाल बनाती हैं. खुद सुबह सोसाइटी के नल से पानी लाती हैं. दिनभर अकेले पड़े बीते दिनों को याद कर के आंसू बहाती हैं. कोई नहीं है, जो उन से बात करे या उन का हाल जाने.

कोरोना काल में वे एक हफ्ते तक बुखार में तपती रहीं. बेटा बुखार की गोली का पत्ता पकड़ा गया और कोरोना के डर से कई हफ्ते तक मां को देखने भी नहीं आया.

शारदा रानी बुखार की हालत में खुद ही थोड़ाबहुत खाने को बनातीं और माथे पर पानी की पट्टियां रखरख कर बुखार कम करतीं. किसी तरह कोरोना को मात दी और जान बच गई, मगर बेटे के रूखे बरताव ने मां का दिल छलनी कर दिया.

दिल्ली के मोती नगर मैट्रो स्टेशन के नीचे सीढि़यों पर आप हर दिन एक बेहद बुजुर्ग आदमी को कंबल में लिपटा बैठा देखेंगे. वे बुजुर्ग भिखारी नहीं हैं, मगर सालों से वहां बैठे दिख रहे हैं. कभीकभी वे वहीं सीढि़यों पर सोए हुए दिखते हैं.

वे बुजुर्ग साथ में एक कपड़े का बैग रखते हैं, जिस में एक चादर और कुछ कपड़े रहते हैं. इन का मोती नगर में ही अपना घर है. घर में बेटाबहू और पोतेपोतियां हैं, मगर वे अब घर नहीं जाते हैं.

घर में बहू ने उन का बहुत तिरस्कार किया था. बेटा भी लड़ता?ागड़ता था, इसलिए उन्होंने घर छोड़ दिया. अब बेटा सुबहशाम यहीं सीढि़यों पर उन्हें खाने का पैकेट पकड़ा जाता है, जिसे कई बार वे खा लेते हैं या कई बार आसपास के कुत्तों को खिला देते हैं. नहानेधोने के लिए वे मैट्रो स्टेशन के नीचे बने सुलभ शौचालय में चले जाते हैं.

शौचालय का चौकीदार भला आदमी है. वह उन से कोई पैसा नहीं लेता है. आसपास के दुकानदारों को भी उन से हमदर्दी है. कभी कोई चायसमोसा भी खिला देता है. वे लोग उन बुजुर्ग को सम?ाते हैं कि अपने घर चले जाओ, मगर अपनों के तानों से दिल ऐसा फटा है कि वे घर जाने से मना कर देते हैं.

भारत में बुजुर्गों के साथ बहुत ही शर्मनाक बरताव होने लगा है, खासतौर पर गरीब परिवारों में तो इन्हें अब बो?ा सम?ा जाने लगा है. गरीब परिवार के बुजुर्गों को तिरस्कार, माली परेशानी के अलावा दिमागी और जिस्मानी जोरजुल्म का सामना भी करना पड़ता है.

भारत में संयुक्त परिवार का चरमराना बुजुर्गों के लिए नुकसानदायक साबित हुआ है. ज्यादा उम्र या सुस्त होने की वजह से लोग उन से रूखेपन से बात करते हैं. उन की भावनात्मक कमी को पूरा करने के लिए नई पीढ़ी के पास समय नहीं है.

‘एजवेल फाउंडेशन’ नामक संस्था के एक सर्वे में सामने आया है कि कोरोना काल में बुजुर्गों के प्रति हिंसात्मक बरताव में बढ़ोतरी हुई है. तकरीबन हर तीसरे बुजुर्ग (35.1 फीसदी) ने दावा किया कि लोग बुढ़ापे में घरेलू हिंसा (शारीरिक या मौखिक) का सामना करते हैं.

इस फाउंडेशन के अध्यक्ष हिमांशु रथ का कहना है कि कोविड-19 और संबंधित लौकडाउन और प्रतिबंधों ने तकरीबन हर इनसान को प्रभावित किया है, लेकिन बुजुर्ग अब तक सब से ज्यादा प्रभावित रहे हैं. सब से बुरी तरह प्रभावित बुजुर्ग औरतें हैं.

बड़ों के साथ होने वाले गलत बरताव के ज्यादातर मामले पैसे से जुड़े होते हैं. कभी बच्चों का जमीनजायदाद अपने नाम करवाने का दबाव, तो कभी छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी बच्चों से गुजारिश करते रहने के हालात ज्यादातर परिवारों में देखने को मिलते हैं.

भारत में साढ़े 7 करोड़ बुजुर्ग या 60 साल से ज्यादा उम्र के हर 2 में एक इनसान किसी लंबी और पुरानी बीमारी से पीडि़त है. ज्यादातर बुजुर्गों में शारीरिक कमजोरी की परेशानी है.

20 फीसदी से ज्यादा बुजुर्ग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारी से जू?ा रहे हैं. साथ ही, 27 फीसदी बुजुर्ग कई दूसरी तरह की बीमारियों से घिरे हुए हैं, जिन की तादाद साढ़े 3 करोड़ के आसपास है.

ऐसे में पहले से ही पीड़ा और परेशानियों के पहाड़ तले दबे बूढ़ों के लिए कोरोना की मुसीबत ने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं.

अगर अपनों का साथ व सहयोग मिले, तो जिंदगी की हर जद्दोजेहद आसान हो जाती है. अपनेपन का भाव और अपनों का लगाव उम्र के हर मोड़ पर मन को ऊर्जा देता है, पर अफसोस कि थके शरीर व कमजोर होती सोच के चलते बुजुर्गों को अपनों का साथ नहीं, बल्कि शोषण का व्यवहार मिलता है.

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