एक रात की उजास

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

ये भी पढ़ें- सरहद पार से

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

ये भी पढ़ें- एक मां की अंतर्व्यथा

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

ये भी पढ़ें- बंद गले का कोट

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

मेरे घर के सामने

मेरे घर के सामने एक कम्युनिटी हाल है, या अगर यों कहें कि कम्युनिटी हाल के सामने मेरा घर है तो भी घर की भौगोलिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आएगा. कम्युनिटी हाल के सामने मेरा घर होना ही मेरी सब से बड़ी मुसीबत है. इस कम्युनिटी हाल में आएदिन ब्याहशादी, अन्य समारोह और पार्टियां आयोजित होती रहती हैं.

पर एक मुसीबत और भी है, वह यह कि मेरे घर के आंगन में एक आम का पेड़ भी है. बस, यों ही समझिए कि करेला और नीम चढ़ा जैसी स्थिति है. शुभकार्य हो और उस में आम के पत्तों का तोरण न बांधा जाए ऐसा हो ही नहीं सकता. कम्युनिटी हाल के सामने घर के आंगन में प्रवेशद्वार पर ही आम का पेड़ हो, इस का दर्द सिर्फ वही भुक्तभोगी जान सकता है जिस का घर कम्युनिटी हाल के सामने हो.

जैसे ही मेजबान कम्युनिटी हाल किराए पर ले कर अपना मंगलकार्य शुरू करता है, उस के कुछ देर बाद ही प्रभात वेला में मेरे दरवाजे की घंटी बजती है. संपन्न घर के कोई सज्जन या सजनी विनम्रता से पूछते हैं, ‘‘आप को कष्ट दिया. कुछ आम के पत्ते मिल सकेंगे क्या? बेटी की शादी है, मंडप में तोरण बांधना है. और सब सामान तो ले आए, पर देखिए, कैसे भुलक्कड़ हैं हम कि आम के पत्ते तो मंगाना ही भूल गए.’’

शायद उन्हें आम का पेड़ देख कर ही आम के पत्तों का तोरण बांधने की सूझती है. इनकार कैसे करना चाहिए, यह कला मुझे आज तक नहीं आई. हर बार यही होता है कि जरूरत से ज्यादा पत्ते तोड़ लिए जाते हैं. इन में से कुछ पत्ते मेरे साफसुथरे आंगन में इधरउधर बिखर कर बेमौसमी पतझड़ का आनंद देते हैं और कुछ पत्ते मेरे घर से कम्युनिटी हाल तक ले जाने में सड़क पर लावारिस से गिरते जाते हैं. जिन के घर विवाह हो रहा है, उन को इस की कोई चिंता नहीं होती. पर मुझे तो ऐसा महसूस होता है जैसे कोई मेरा रोमरोम मुझ से खींच कर ले जा रहा है. पर अपना यह दर्द मैं किस से कहूं? कैसे कहूं?

और यह तो इस दर्द की शुरुआत है. उस के बाद बड़ी देर तक ‘‘हैलो, माइक टेस्टिंग, हैलो’’ की मधुर ध्वनि के बाद फिल्मी गीतों के रिकार्ड पूरे जोर से बजने शुरू हो जाते हैं. उस पर तुर्रा यह कि माइक्रोफोन के भोंपू का मुंह हमेशा मेरे घर की ओर ही रहता है. ऐसा लगता है जैसे कि यह बहरों की बस्ती है. अगर धीमी आवाज में रिकार्ड बजता रहे तो हमें कैसे मालूम पड़ेगा कि सामने कम्युनिटी हाल में आज विवाह समारोह है? इस के बाद हमें दिन भर घर के अंदर भी एकदूसरे से चीख- चिल्ला कर बातचीत करनी पड़ती है, तभी एकदूसरे को सुनाई पड़ेगा.

इन रिकार्डों ने मेरे बच्चों की पढ़ाई का रिकार्ड बिगाड़ कर रख दिया है. धूमधाम और दिखावे के लिए ये लोग खूब खर्च करते हैं. पर एक बचत वे अवश्य करते हैं. पता चला कि इन सब के बिजली वाले इतने चतुर हैं कि इन की बचत के लिए बिजली का कनेक्शन गली के खंभे से ही लेते हैं ताकि कम्युनिटी हाल के मीटर के अनुसार बिजली का खर्च उन्हें नाममात्र ही अदा करना पड़े.

फिर आती है नगरनिगम की पानी की गाड़ी, जो ठीक मेरे घर के सामने आ कर खड़ी हो जाती है. इस गाड़ी से पानी अंदर पंडाल में पहुंचाने के प्रयत्न में जो पानी बहता है, वह ढलान के कारण मेरे आंगन में इकट्ठा हो जाता है. बस, सावनभादों सा सुहावना कीचड़भरा वातावरण बन जाता है. और फिर इस कीचड़ से सने पैरों के घर में आने के कारण घर का हर सदस्य मेरे कोप का भाजन बनता है. अकसर गृहयुद्ध छिड़ने की नौबत आ जाती है.

सामने शामियाने में जब भट्ठियां सुलगाई जाती हैं तब उन का धुआं हवा के बहाव के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह सीधा मेरे ही घर का रुख करता है. हवा भी मुझ से ऐसे समय न जाने किस जनम का बैर निकालती है. वनस्पति घी की मिठाई की खुशबू और तरहतरह के मसालों की महक से घर के सारे सदस्यों के नथने फड़क उठते हैं. परिणामस्वरूप सब की पाचन प्रणाली में खलबली मच जाती है.

ये भी पढ़ें- सोने का झुमका

आएदिन इस कम्युनिटी हाल में होने वाले ऐसे भव्य भोजों की खुशबू के कारण अब मेरे परिवार को मेरे हाथों की बनाई रूखीसूखी गले नहीं उतरती. रोज यही उलाहना सुनने को मिलता है, ‘‘क्या तुम ऐसा खाना नहीं बना सकतीं जैसा कम्युनिटी हाल में बनता है? कब तक ऐसा घासफूस जैसा खाना खिलाती रहोगी?’’ अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि सामने कम्युनिटी हाल में होने वाले समारोहों को बंद करा दूं या यह घर ही बदल लूं?

इस तरह सारा दिन तेज स्वर में बज रहे फूहड़ फिल्मी रिकार्डों से कान पकने लगते हैं और पकवानों की खुशबू से नाक फड़कती है. जैसेतैसे दिन गुजर जाता है. शाम को बरात आने का (यदि लड़की की शादी हो तो) या बरात विदा होने का (यदि लड़के की शादी हो तो) समय होता है, दिन भर में दिमाग की नसें तड़तड़ाने और कानों की फजीहत करने में जो कसर रह गई थी, उसे ये बैंडबाजे वाले पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. ऐन दरवाजे पर डटे हुए बैंडमास्टर अपनी सारी ताकत लगा कर बैंड बजा रहे हैं.

कुछ ही देर में कुछ नई उम्र की फसलें लहलहा कर डिस्को और भंगड़ा का मिलाजुला नृत्य करने लगती हैं. फिर तो ऐसा लगने लगता है जैसे बैंड वालों और नृत्य करने वालों के बीच कोई प्रतियोगिता चल रही है. नोट पर नोट न्योछावर होते हैं. यह क्रम बड़ी देर तक चलता है. मैं यही सोचती हूं कि कितना अच्छा होता अगर ये कान कहीं गिरवी रखे जा सकते. मैं अपने डाक्टर को कैसे बताऊं कि मेरे रक्तचाप बढ़ने का कारण मेरा मोटापा नहीं, बल्कि मेरे घर के सामने कम्युनिटी हाल का होना है. पर मैं जानती हूं कि इस तथ्य पर कोई विश्वास नहीं करेगा.

ये भी पढ़ें-  सहयात्री

बड़ी मुश्किल से बरात आगे रेंगती है. गाढ़े मेकअप में सजीसंवरी कुंआरियों और सुहागनों की फैशन परेड और उन के चमकीले और भड़कीले गहनों व कपड़ों की नुमाइश देख कर मेरी पत्नी के हृदय पर सांप तो क्या अजगर लोटने लगता है. हाय, कित्ती सुंदरसुंदर साडि़यां हैं सब के पास, नए से नए फैशन की. अब की बार पति से ऐसी साड़ी की फरमाइश जरूर करूंगी, चाहे जो भी हो जाए. और देखो तो सही सब की सब गहनों से कैसी लदी हुई हैं.

मेरी दूरबीन जैसी आंखें एकएक के गहनों और कपड़ों की बारीकियां परखने लगती हैं. उस कांजीवरम साड़ी पर मोतियों का सेट कितना अच्छा लग रहा है. उस राजस्थानी घाघरा चोली पर यह सतलड़ी सोने का हार कितना फब रहा है. और झीनीझीनी शिफान की साड़ी पर हीरों का सेट पहने वह महिला तो बिलकुल रजवाड़ों के परिवार की सी लग रही है. पर कौन जाने ये हीरे असली हैं या नकली.

इन बरातनियों के गहनों और कपड़ों में उलझी हुई मैं बड़ी देर तक अपने होश खोए रहती हूं. मेरे घर के सामने कम्युनिटी हाल होने का यह सब से हृदयविदारक पहलू है. जैसेजैसे बरात आगे बढ़ती है, देसीविदेशी परफ्यूम की झीनीझीनी लपटें आआ कर मेरी खिड़की से टकराने लगती हैं और इस खुशबू में रचबस कर मैं एकदूसरे ही लोक में पहुंच जाती हूं.

बरात आ जाने के बाद तो कम्युनिटी हाल में चहलपहल, दौड़भाग तथा चीखपुकार और बढ़ जाती है. उपहारों के पैकेट थामे, सजेसंवरे दंपती एक के बाद एक चले आते हैं. उन के स्कूटर, मोटर आदि मेरे घर के सामने ही खड़े किए जाते हैं. घर में आनेजाने के लिए मार्ग बंद हो जाता है. और मेरा घर किसी टापू सा लगने लगता है.

कुछ जोड़े ऐसे भी हैं जिन्हें मैं ने इस कम्युनिटी हाल में होने वाले हर समारोह में शामिल होते देखा है. वे इन समारोहों में आमंत्रित रहते हैं या नहीं, पर उन के हाथों में एक लिफाफा अवश्य रहता है. वे इस लिफाफे को वरवधू को थमाते हैं या नहीं, यह तो वे ही जानें. मैं तो बस, इतना जानती हूं कि वे हमेशा तृप्त हो कर डकार लेते हुए रूमाल से मुंह पोंछते बाहर निकलते हैं.

लिफाफे में 11 रुपए रख कर, सूट पहन कर, सजसंवर कर किसी भी विवाह समारोह में जा कर छक कर भोजन कर के आना तो किसी होटल में जा कर भोजन करने से काफी सस्ता पड़ता है. कन्या पक्ष वाला यह समझता है कि बरातियों में से कोई है और वर पक्ष समझता है कि यह कन्या पक्ष का आमंत्रित है. ऐसे में उन्हें कोई यह पूछने नहीं आता कि ‘‘श्रीमान आप यहां कैसे पधारे?’’

मेरे घर की ऊपरी मंजिल से इस कम्युनिटी हाल का पिछला दरवाजा बहुत अच्छी तरह दिखाई देता है. वहां का आलम कुछ निराला ही रहता है. जैसे मिठाई देखते ही उस पर मक्खियां भिनभिनाने लगती हैं, वैसे ही कहीं शादीब्याह के समारोह होते देख मांगने वाले, परोसा लेने वाले पहले से ही इकट्ठे हो जाते हैं. इन के साथ ही गाय, सूअर, कुत्ते आदि भी अपनी क्षुधा शांति के लिए पिछले दरवाजे पर ऐसे इकट्ठे होते हैं मानो उन सब का सम्मेलन हो रहा हो.

हर पंगत के उठने के बाद जब पत्तलदोनों का ढेर पिछवाड़े फेंका जाता है, उस के बाद वहां इनसान और जानवर के बीच जूठी पत्तलों के लिए हाथापाई और छीनाझपटी का जो दृश्य सामने आता है उसे देख कर इनसानियत और न्याय पर से विश्वास उठ जाता है.

यह दृश्य देखे बगैर कोई विश्वास नहीं कर सकता कि लोग जूठन पर भी कितनी बुरी तरह टूट सकते हैं. उस के लिए मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं. गाय की पूंछ मरोड़ कर या उसे सींगों से धकिया कर और कुत्तों को लतिया कर उन के मुंहमारी हुई जूठी पत्तलों में से खाना बटोर कर अपनी टोकरी में रखने में इनसान को कोई हिचक नहीं, कोई शर्म नहीं. घर ले जा कर शायद वह इसी जूठन को अपने परिवारजनों के साथ बैठ कर चटखारे ले कर खाएगा.

गृहस्वामी या ब्याहघर का प्रमुख केवल 2 ही जगह मिल सकता है, या तो प्रमुख द्वार पर, जहां वह सजधज कर हर आमंत्रित का स्वागत करता है या पिछवाड़े के दरवाजे पर जहां वह हाथों में मोटा डंडा लिए जूठन पर मंडराते जानवरों और इनसानों को एकसाथ धकेलता है. साथ ही जूते, हलवाई व उस के साथ आए कारीगरों पर निगाह रखता है.

ये भी पढ़ें- पहला-पहला प्यार

जैसेजैसे विवाह समारोह यौवन पर आता है कुछ बराती सुरा की बोतलें खोलने के लिए लालायित हो जाते हैं. बरातों में जाना और पीना तो आजकल एक तरह से विवाह का आवश्यक अंग माना जाने लगा है. कुछ ब्याहघरों में, जहां सुरापान की अनुमति नहीं मिलती है, उन के बराती अंदर कम्युनिटी हाल में बोतलें ले कर मेरे ही घर की ओट ले कर नीम अंधेरे में बैठ कर यह शुभकार्य संपन्न करते हैं.

मैं जानती हूं कि जैसेजैसे यह सुरा अपना रंग दिखाएगी, वैसेवैसे उन की वाणी मुखर होती जाएगी. उन की वाणी मुखर हो उस के पहले ही मुझे अपनी खिड़कियां और दरवाजे सब बंद कर के अंदर दुबक जाना पड़ता है.

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

वह जमाना गया, जब बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना हुआ करता था. परंतु मेरे घर की तरह ही जिस का घर कम्युनिटी हाल के सामने हो, वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला कैसे बन सकता है? वैसे विवाह संपन्न होने के बाद जब घरबाहर के सब लोग विदा हो जाते हैं, तो वे कभी सफाई करवाने का कष्ट नहीं करते. उस से जो सड़ांध उठती है, उस से अब्दुल्ला तो क्या हर अड़ोसीपड़ोसी दीवाना हो जाता है.

दूसरे दिन ब्याह निबटा कर जब सारा कारवां गुजर जाता है, तब मैं भी ऐसी ही शांति की सांस लेती हूं जैसे कि मैं अपनी ही बेटी का ब्याह कर के निवृत्त हुई हूं.

सारे जहां से अच्छा

पहला भाग, दृश्य-1

सुबह  के 9 बजे थे. टोक्यो स्थित एक जापानी बैंक की शानदार  इमारत में कुछ अमेरिकी डालर खरीदने की नीयत से मैं ने प्रवेश किया. उस बैंक की अंदरूनी भव्य साजसज्जा देख कर मैं एक पल को चकरा गया. ऐसा लगा मानो मैं किसी गलत जगह पर आ गया हूं लेकिन जब काउंटरों के पीछे दमकते चेहरों ने एक स्वर में ‘स्वागत है इस बैंक में आप का स्वागत है’ की मधुर स्वर लहरियां छेड़ीं तो लगा कि जगह सही है.

लगभग 2 दर्जन से कम लोगों का स्टाफ था. शायद सभी ने अपनीअपनी कुरसी पर बैठेबैठे ही मेरा स्वागत कर दिया था. तभी एक सज्जन बेहद शालीनता से मेरे पास आए और अपनी कमर व सिर को 900 का कोण बनाने के बाद कुछ बोले.

उन की ओर देख कर मैं ने कहा कि जापान में मैं बिलकुल नया हूं अत: जापानी भाषा का ज्ञान न के बराबर है. मैं ने अंगरेजी में कहा कि मुझे कुछ डालर खरीदने हैं.

मुझे अंगरेजी में बोलता देख कर वह कुछ शर्मिंदा हुए और उन्होंने काउंटर पर बैठी लड़की को कुछ इशारा किया. फिर उस लड़की ने आगे वाले को इशारा किया और इस तरह वह इशारा एक मेज से दूसरी मेज तक सरकता हुआ अपनी मंजिल यानी बिलकुल कोने वाली मेज तक पहुंचा.

मैं ने गौर किया, वह एक खूबसूरत लड़की थी. उस ने तुरंत अपने कंप्यूटर की फाइल बंद की और तेज कदमों से चलती हुई मेरे पास आई और स्वर में मधुरता घोलते हुए बोली, ‘‘व्हाट कैन आई डू फार यू, सर?’’

उसे अंगरेजी बोलता देख मुझे अपनी मुश्किल आसान लगी. मेरी समस्या सुन कर वह मुझे सामने लगी ‘करेंसी एक्सचेंज मशीन’ के पास ले गई. फिर उस के डायरेक्शन में मैं ने अपनी जरूरत के मुताबिक जापानी येन मशीन में डाले, जो चंद लम्हों में ही उस दिन के एक्सचेंज रेट के हिसाब से डालर में बदल कर मशीन ने बाहर निकाल दिए.

ये भी पढ़ें- आईना

लड़की ने पुन: पूरे आदर के साथ मेरे आने का आभार प्रकट किया. जापानी एटीकेट में पूरी दुनिया में अव्वल नंबर पर हैं, यह सुना तो था, किंतु आज रूबरू हो कर मंत्रमुग्ध हो मैं ने विदा ली.

पहला भाग, दृश्य-2

सुबह के 10 बजे थे. अपने भारत महान के एक कसबे में स्थित बैंक के भग्नावशेष में अपने काम के सिलसिले में मैं प्रवेश करता हूं. गेट पर स्टूल डाल कर 12 बोर की पिछली सदी की दोनाली बंदूक लिए बैठे घनी मूंछों वाले गार्ड ने मुझे घूर कर देखा. शायद उस को मेरा इतनी सुबह आना नागवार गुजरा था.

लोहे के जंग लगे चैनल गेट से थोड़ा तिरछा हो कर मैं अंदर घुसा तो देखा, सफाई वाला झाड़ू लिए कूड़ेकरकट के ढेर पर पिला पड़ा है. हालांकि उस ने कनखियों से मुझे देख लिया था मगर अनदेखा करते हुए ऐसी झाड़ू मारी कि तमाम जहां की गर्द मेरे पूरे वजूद में समा गई. उस पर भी बगैर पश्चात्ताप के वह निर्विकार भाव से अपना काम करता रहा.

मैं ने हाल में नजर दौड़ाई तो देखा, सभी बाबू अपनीअपनी कुरसियां घुमा कर उस दिन की खास खबर पर जम कर चर्चा कर रहे थे. (मैं तब तक जापान नहीं गया था इसलिए मुझे सबकुछ सामान्य लगा था.)

धीरेधीरे उन के बीच की बहस ज्यादा ही गरम हो चली और शोरगुल ने जब भद्दा रूप ले लिया तब बगल के कमरे से एक भद्र पुरुष अवतरित हुए और विनम्र स्वर में सब को शांत करा कर अपनीअपनी मेजों पर भेज दिया.

मैं ने अपना काम करा लेने की नीयत से अपनी काम वाली मेज पर निगाह मारी तो वह खाली थी, यानी मेरे परिचित केशव बाबू हमेशा की तरह आज भी लेट थे. मैं ने उन के बगल वाले बाबू से बेहद नरमी से पूछा, ‘‘केशव बाबू नहीं आए हैं क्या?’’

वह पूरा भन्नाया हुआ लग रहा था. एक पल के लिए मुझे घूरा फिर जोर से फाइल पर हाथ पटकते हुए बोला, ‘‘आए होते तो दिखाई नहीं देते क्या?’’

मुझे लगा, रात को बीवी से हुए झगड़े की पूरी खुन्नस वह मुझ पर निकाल रहा है. बहरहाल, उस का जवाब तर्कपूर्ण था सो मुझे भी अपने प्रश्न पर खीज हुई.

शर्मिंदगी से जब मेरा दम घुटा तो ताजा हवा के चक्कर में मैं बैंक से बाहर निकल आया. तभी दूर से केशव बाबू लुढ़कतेपढ़कते आते दिखाई पड़े. मुझे देख कर मुसकराए और चेहरे को  आसमान की ओर उठा कर गुड़गुड़ाते हुए बोले, ‘‘क्या हाल है?’’

ये भी पढ़ें- कायरता का प्रायश्चित्त

मैं समझ गया कि मुंह पान की पीक से भरा हुआ है सो सामान्य स्वर निकलना मुश्किल है.

कुशलक्षेम के बाद हम अंदर की ओर बढ़े, तो स्टूल पर बैठ कर ऊंघते हुए गार्ड के बगल में रखे हुए गमले पर केशव बाबू ने भच्च से पान की पीक उगल दी और हलके हो लिए.

अब आगे क्या था, केशव बाबू से समीपता के चलते मेरा काम घंटे भर में ही निबट गया. चूंकि 11 बज चुके थे सो बैंक का काम भी कहां तक न शुरू होता. कर्मचारी खिंचे हुए चेहरों के साथ अपनीअपनी फाइलों में व्यस्त हो गए.

दूसरा भाग, दृश्य-1

तकरीबन दोपहर के 12 बजे थे. टोक्यो स्थित एक पुलिस चौकी पर मैं सशरीर बैठा था. हुआ यह था कि आज सुबह एक टेलीफोन बूथ से फोन करने के बाद मैं अपना पर्स वहीं भूल गया. कुछ देर बाद जब वहां गया तो पर्स नहीं था. भारतीय व्यवस्था के अनुसार मुझे उस पर्स का मोह त्याग देना चाहिए था, किंतु एक दोस्त के जोर देने पर मैं ने कुछ कर गुजरने की ठानी और पुलिस के पास पहुंच गया.

ड्यूटी पर तैनात आफिसर ने मुझे बड़े ही आदर के साथ कुरसी पर बैठने को कहा और घटना की बाबत सवालात पूछे. (चूंकि अब मुझे जापान में कई साल हो गए हैं इसलिए भाषा की कोई समस्या नहीं है) उस ने पर्स का रंग, गायब होने का स्थान व समय, पर्स में क्याक्या रखा था आदि बातें विस्तार के साथ अपने पास नोट कर लीं. इस पूरी बातचीत के दौरान उस के शालीन व्यवहार से मैं बेहद प्रभावित हुआ. अंत में उस ने मेरा पता व फोन नंबर नोट कर के मुझे इस हिदायत के साथ विदा किया कि मैं आगे से अपने सामान का खयाल रखूं.

अगले दिन अप्रत्याशित रूप से उस ने फोन कर के मुझे बुलाया. थोड़ी ही देर में मैं वहां पहुंचा तो उस ने मेरा पर्स दराज से निकाल कर मेज पर रख दिया. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने बताया कि एक व्यक्ति को यह पर्स वहां पर मिला जिसे उस ने पास के पुलिस स्टेशन में जमा करा दिया था. आप की रिपोर्ट दर्ज होने के बाद यह पर्स यहां ट्रांसफर कर दिया गया है. अब आप इसे देख कर सुनिश्चित कर लें कि इस में सबकुछ सहीसलामत है या नहीं.

मैं ने पर्स खोल कर देखा तो मेरे तमाम कार्ड के अलावा करीब 22 हजार येन अनछुए पड़े हुए थे.

हद तो तब हो गई जब मेरे शुक्रिया अदा करने से पहले उस ने सिर झुका कर नम्र स्वर में कहा कि हम आप के किसी काम आ सके इस के लिए हम आप के आभारी हैं.

मैं ने चकित मन से विदा ली.

दूसरा भाग, दृश्य-2

शाम के 4 बजे का समय था. भारत महान के एक कसबे के पुलिस स्टेशन पर रिपोर्ट लिखाने पहुंचता हूं. क्योंकि कुछ देर पहले बाजार में मेरा पर्स कहीं गिर गया था. एक दोस्त के लाख मना करने के बाद भी मैं ने जापान के अनुभव का लाभ उठाने की ठानी और सीधा थाने पहुंच गया.

थाने में घुसते ही मुझे किसी की कातर चीखें सुनाई दीं. मैं ने देखा कि एक गरीब से दिखने वाले को 2 पुलिस वालों ने कस कर जकड़ रखा है और एक 6 फुट का खूब मोटा पुलिस वाला मोटी बेंत से उस की धुनाई कर रहा है. मैं ने इधरउधर निगाह दौड़ाई तो देखा 2 पुलिस वाले लुंगी और बनियान पहने खैनी ठोंक रहे थे और उस गरीब की चीखों का भरपूर आनंद ले रहे थे.

मैं ने संतरी से अपनी समस्या बताई तो उस ने पास पड़ी बेंच की ओर इशारा कर दिया और बोला कि बड़े साहब उस की तफ्तीश निबटा लें फिर आप का बयान लेंगे. चूंकि मैं भी अपना कुछ रुआब कायम करने के लिए ‘ले विस्ले’ का महंगा सूट और गुच्ची की नेकटाई पहन कर गया था सो टूटी बेंच पर बैठना उचित न समझा. संतरी को मेरी अवज्ञा रास न आई तो जरा तल्ख आवाज में बोला, ‘‘अरे, बैठ जाइए न, काहे सिर पर खड़े हैं?’’

मैं बैठ गया और सामान्य दिखने की कोशिश की मगर वहां का माहौल और बड़े साहब का भूगोल मुझे भीतर से भयभीत कर रहा था.

बहरहाल, अपनी कसरत से फारिग होने के बाद बड़े साहब उखड़ी सांसों के साथ कुरसी पर विराजे. मैं ने नजदीक जा कर नमस्कार किया और पास की खाली कुरसी पर बैठ गया.

बड़े साहब ने उल्लू जैसी आंखों से मुझे घूरा मगर गनीमत यह रही कि चुप रहे. मैं ने बात शुरू की, ‘‘देखिए, मैं एन.आर.आई. हूं और जापान से आया हूं. आज मेरा पर्स गायब हो गया है जिस की रिपोर्ट दर्ज करवाना चाहता हूं.’’

दर्द भरी मेरी छोटी सी दास्तान सुनने के बाद बड़े साहब ने मुझे घूरा, (मानो कहना चाहते हों कि जब पर्स ही नहीं है तो यहां आने की क्या जरूरत थी) फिर जोर से गुहार लगाई, ‘‘अरे, दीवानजी, यह बाबू साहब एन.आर.आई. हैं भाई, इन की रिपोर्ट लिख लीजिए.’’

दीवानजी अपने बस्ते के साथ तशरीफ लाए और मेरा बयान लेने लगे. इस दौरान बड़े साहब की नजरें मेरे सूट व नेकटाई पर पड़ीं और वह मुझ में कुछ दिलचस्पी लेते प्रतीत हो रहे थे. उन्होंने थोड़ा दोस्ताना लहजा अपनाते हुए कहा, ‘‘तो बाबू साहेब, आप जापान में बड़ा माल काटते होंगे?’’

उन के इस सवाल पर मैं ने मुसकरा भर दिया. इस के बाद बहुत देर तक जापान की बातें होती रहीं, चायसमोसे का भी दौर चल गया. वह भी काफी घुलमिल गए थे सो मैं भी काफी सामान्य महसूस कर रहा था.

अचानक बड़े साहब ने कहा, ‘‘आप की टाई खूबसूरत है, वहीं की होगी.’’ मैं ने हां में जवाब दिया. फिर बड़े साहब ने दीवानजी को कुछ इशारा किया और पुन: गरीब की तफ्तीश के लिए बेंत उठा कर खड़े हो गए. मैं ने भी उठ कर विदा लेनी चाही तो बोले, ‘‘अरे, आप तो बैठिए, दीवानजी से गपशप कीजिए, क्या जल्दी है.’’

ये भी पढ़ें- महाभोज

दीवानजी सुलझे हुए आदमी थे. तुरंत लाइन पर आ गए. बोले, ‘‘वो क्या है बाबू साहब कि आज विधायकजी के लड़के की शादी है. बड़े साहब भी इनवाइट हैं. अब देखिए न, उन के सूट के मैच की टाई हम ने पूरे बाजार में ढूंढ़ी मगर मिली नहीं. संयोगवश आप की टाई पूरी तरह से मैच कर रही है और वैसे भी आज पार्टी निबट जाए तो कल आ कर लेते जाइएगा. अब देखिए, बड़े साहब इतनी छोटी बात आप से तो कहेंगे नहीं, और अगर कहेंगे तो आप टाल थोड़ी पाएंगे.’’

दीवानजी के स्वर में अनुग्रह कम धमकी का पुट ज्यादा था. यह टाई मुझे बहुत अजीज थी. उधर गरीब की चीखों से पूरा अहाता गूंज रहा था.

मेरा दम घुटने लगा. मैं ने बगैर कुछ बोले टाई उतार कर मेज पर रख दी और बाहर निकल गया. बाहर नुक्कड़ पर पान वाले की दुकान पर रेडियो अपनी पूरी आवाज के साथ बज रहा था, ‘सारे जहां से अच्छा…’

उपहार

कांती द्वारा इनकार किए जाने पर रविकांत ने जीवनभर शादी न करने का फैसला किया था. शायद वह अपने इस प्रण पर अडिग भी रहते, यदि क्षमा उन की जिंदगी में न आती. आखिर कौन थी क्षमा, जिस ने रविकांत के वीरान जीवन में बहार ला दी थी?

अपने पहले एकतरफा प्रेम का प्रतिकार रविकांत केवल ‘न’ मेें ही पा सका. उस की कांती तो मांबाप के ढूंढ़े हुए लड़के आशुतोष के साथ विवाह कर जरमनी चली गई. वह बिखर गया. विवाह न करने की ठान ली. मांबाप अपने बेटे को कहतेसमझाते 4 साल के अंदर दिवंगत हो गए.

कांती के साथ कालिज में बिताए हुए दिनों की यादें भुलाए नहीं भूलती थीं. यह जानते हुए भी कि वह निर्मोही किसी और की हो कर दूर चली गई है वह अपने मन को उस से दूर नहीं कर पा रहा था. कालिज की 4 सालों की दोस्ती मेें वह उसे अपना दिल दे बैठा था. कई बार कोशिश करने के बाद रविकांत ने बड़ी कठिनाई से सकुचातेझिझकते एक दिन कांती से कहा था, ‘मैं तुम से प्रेम करने लगा हूं और तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में पा कर अपने को धन्य समझूंगा.’

जवाब में कांती ने कहा था, ‘रवि, मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं और इसी नाते से मैं तुम से मिलतीजुलती रही. मैं तुम से उस तरह का प्रेम नहीं करती हूं कि मैं तुम्हारी जीवनसंगिनी बनूं. रही विवाह की बात, तो मैं तुम्हें यह भी बता देती हूं कि मैं शादी तो अपने मांबाप की मर्जी और उन के ढूंढ़े हुए लड़के से ही करूंगी. अब चूंकि तुम्हारे विचार मेरे प्रति दोस्ती से बढ़ कर दूसरा रुख ले रहे हैं, इसलिए मेरा अनुरोध है कि तुम भविष्य में मुझ से मिलनाजुलना छोड़ दो और हम दोनों की दोस्ती को यहीं खत्म समझो.’

उस के बाद कांती फिर कभी रविकांत से नहीं मिली. रविकांत भी यह साहस नहीं कर सका कि उस के मातापिता से मिल कर कांती का हाथ उन से मांगता क्योेंकि उस आखिरी मुलाकात  के दिन उसे कांती की आंखों में प्यार तो दूर सहानुभूति तक नजर नहीं आई थी.

रविकांत ने खुद को प्रेम में असफल समझ कर जिंदगी को बेमानी, बेकार और बेरौनक मान लिया. ऐसे में अधिकतर लोग कठिनाइयों और असफलताओं से घबरा कर खुद को कमजोर समझ अपना आत्मविश्वास और उत्साह खो बैठते हैं.

रविकांत अब 50 पार कर चुके हैं. उन के कनपटी के बाल सफेद हो चुके हैं. आंखों पर चश्मा लग गया  है. इतने सालों तक एक ही कंपनी की सेवा में पूरी निष्ठा से लगे रहे तो अब वह जनरल मैनेजर बन गए हैं.

कंपनी से मिले हुए उन के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में कुछ दिन पहले ही शोभना नाम की एक महिला अपनी 24 साल की बेटी क्षमा के साथ किराए पर रहने के लिए आई.

क्षमा अपनी मां की ही तरह अत्यंत सुंदर और हंसमुख लड़की थी. वह जब भी रविकांत के सामने पड़ती ‘अंकल नमस्ते’ कहना और उन्हें एक मुसकराहट देना कभी नहीं भूलती. रविकांत भी ‘हैलो, कैसी हो बेटी’ कहते और उस के उत्तर में वह ‘थैंक यू’ कहती. क्षमा एम.एससी. कर के 2 वर्ष का कंप्यूटर कोर्स कर रही थी. इधर कई दिनों से रविकांत को न देख कर उस ने उन के नौकर से पूछा तो पता चला कि वह तो कई दिनों से बीमार हैं और नर्सिंग होम में भरती हैं. नौकर से नर्सिंग होम का पता पूछ कर क्षमा उसी शाम उन से मिलने नर्सिंग होम पहुंची.

ये भी पढ़ें- उलझन

क्षमा को देख कर रविकांत बेहद खुश हुए पर क्षमा ने पहले तो इस बात का गुस्सा दिखाया कि इतने दिनों से बीमार होने पर भी उन्होंने उसे खबर क्यों नहीं दी. वह तो हमेशा की तरह यही सोचती रही कि आप कहीं ‘टूर’ पर गए होंगे. क्षमा की झिड़की वह चुपचाप सुनते रहे. मन में उन्हें अच्छा लगा. क्षमा काफी देर तक उन के पास बैठी उन का हालचाल पूछती रही.

रविकांत ने जब बताया कि अब वह ठीक हैं और कुछ ही दिनों में उन्हें नर्सिंग होम से छुट्टी मिल जाएगी तभी उस की प्रश्नावली रुकी. घर वापस लौटते समय वह उन्हें जल्दी से अच्छे होने की शुभकामना देना नहीं भूली.

क्षमा अब रोज शाम को रविकांत को देखने नर्सिंग होम जाती. रविकांत का भी मन बहल जाता था. वह बड़ी बेसब्री से उस के आने की प्रतीक्षा करते. उस के आने पर वे दोनों विभिन्न विषयों पर बहस करते और हंसते हुए बातचीत करते रहते. 2 घंटे कितनी जल्दी गुजर जाते पता ही नहीं लगता.

जिस दिन रविकांत को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली, क्षमा उन्हें अपने साथ ले कर उन के फ्लैट पर आई. अगले दिन रविकांत अपनी ड्यूटी पर जाने लगे तो क्षमा ने यह कह कर जाने नहीं दिया कि आप आज आराम करें और फिर कल तरोताजा हो कर काम पर जाएं.

अगले दिन शाम को जब रविकांत देर से वापस लौटे तो उन के आने की आहट सुन उस ने दरवाजा खोला. नमस्ते की. साथ ही देर करने का उलाहना भी दिया.

सप्ताह में 1-2 बार क्षमा उन के बुलाने पर या खुद ही उन के फ्लैट में जा कर घंटे डेढ़ घंटे गप लड़ाती, नौकर थोड़ी देर में चाय दे जाता. चाय की चुस्कियां लेते हुए वह अपनी बातें चालू रखते जो अकसर अन्य विषयों से सिमट कर अब कालिज, आफिस, घरेलू और निजी बातों पर आ जाती थीं.

क्षमा ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, आप अकेले क्यों हैं? आप ने शादी क्यों नहीं की? आप को साथी की कमी महसूस नहीं होती क्या? आप को अकेले घर काटने को नहीं दौड़ता? नौकर के हाथ का खाना खातेखाते आप का जी नहीं ऊबता?’’

रविकांत ने अपने पिछले प्रेम का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘क्षमा, हम सब नियति के हाथों की कठपुतली हैं जिसे वह जैसा चाहती है नचाती है. अकेलापन तो मुझे भी बहुत काटता है पर मैं अपने आप को आफिस के काम में व्यस्त रख उसे भगाए रहता हूं. मुझे खुशी है कि अब मेरा कुछ समय तुम्हारे साथ हंसतेबोलते कट जाता है. तुम्हारे साथ बिताए ये क्षण मुझे अब भाने लगे हैं.’’

रविकांत की बीमारी को धीरेधीरे

1 वर्ष हो गया. इस बीच क्षमा ने अपनी मां से पूछ रविकांत को करीबकरीब हर माह 1-2 बार खाने पर बुलाया. रविकांत शोभनाजी से मिलने पर क्षमा की बड़ी प्रशंसा करते. उन की थोड़ीबहुत औपचारिक बातें भी होतीं. जिस दिन रविकांत खाने पर आने को होते उस दिन क्षमा बड़े उत्साह से घर ठीक करने और खाना बनाने में मां के साथ लग जाती. वह अकसर मां से रविकांत के गुणों और विशेषताओं पर चर्चा करती रहती. वे हांहूं कर उस की बातें सुनती रहतीं.

बेटी और पड़ोसी रविकांत की बढ़ती दोस्ती और मिलनाजुलना कुछ महीनों से शोभना के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था. क्षमा से इस बारे में कुछ न कह उन्होंने उस के विवाह के लिए प्रयत्न जोरों से शुरू कर दिए. उन की सहेली रमा का बेटा रौनक इन दिनों आस्ट्रेलिया से कुछ दिनों के लिए भारत आया हुआ था. क्षमा भी उस से बपचन से परिचित थी. शोभना ने रमा को क्षमा और रौनक के विवाह का सुझाव दिया तो वह अगले दिन शाम को अपने पति देवनाथ और बेटे रौनक के साथ मिलने आ गईं. शोभना और रमा के बीच कोई औपचारिकता तो थी नहीं सो उस ने उन्हें खाने के लिए रोक लिया.

भोजन के समय रमा ने सब के सामने क्षमा से सीधा प्रश्न कर दिया, ‘‘क्षमा बेटी, मेरा बेटा रौनक तुम्हें बचपन से पसंद करता है. यदि तुम्हें भी रौनक पसंद है तो तुम दोनों के विवाह से तुम्हारी मां और हमें बहुत खुशी होगी.’’

क्षमा पहले तो चुप रही पर रमा के बारबार आग्रह पर उस ने कहा, ‘‘आंटी, आप लोग हमारे बड़े हैं. मां जैसा कहेंगी मुझे मान्य होगा.’’

शोभना ने कहा, ‘‘क्षमा, रौनक सब प्रकार से तुम्हारे लिए उपयुक्त वर है. हमारे परिवारों के बीच संबंध भी मधुर हैं, इसलिए मैं चाहूंगी कि तुम और रौनक दोनों खाना खत्म करने के बाद बाहर लान में एकसाथ बैठ कर आपस में सलाह कर लो.’’

आपस में बातें कर के जब वे लौटे तो दोनों को खुश देख कर शोभना ने क्षमा को अंदर कमरे में ले जा कर उस से कहा, ‘‘तो फिर मैं बात पक्की कर दूं?’’

क्षमा के सकुचाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाते ही उन्होंने उस के माथे को चूम कर उसे आशीर्वाद दिया. वे दोनों मांबेटी तब डाइंगरूम में आ गईं. शगुन के रूप में शोभना ने 1 हजार रुपए रौनक के हाथ में रख दोनों को आशीर्वाद दिया और रमा से लिपट उसे और उस के पति को बधाई दी. रौनक के आस्ट्रेलिया लौटने से पहले ही विवाह संपन्न करने की बात भी अभिभावकों के बीच हो गई.

क्षमा, शोभना और उस के पति का पासपोर्ट जापान, हांगकांग और आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए पहले से ही बना हुआ था पर 3 वर्ष पहले क्षमा के पिता की अचानक मृत्यु हो जाने से वह प्रोग्राम कैंसिल हो गया था. यदि इस बीच क्षमा का वीसा बन गया तो वह भी रौनक के साथ आस्ट्रेलिया चली जाएगी नहीं तो रौनक 6 महीने बाद आ कर उसे ले जाएगा.

अगली शाम रविकांत से मिलने पर क्षमा ने उन्हें अपनी शादी के बारे में जब बताया तो उन्हें चुप और गंभीर देख वह बोली, ‘‘ऐसा लगता है अंकल कि आप को मेरे विवाह की बात सुन कर खुशी नहीं हुई.’’

रविकांत बोले, ‘‘तुम चली जाओगी तो मैं फिर अकेला हो जाऊंगा. मैं तो इन कुछ महीनों में ही तुम्हें अपने बहुत नजदीक समझने लगा था. पर यह तो मेरा स्वार्थ ही होगा, यदि मैं तुम्हारे विवाह से खुश न होऊं. मैं तो वर्षों से अकेले रहने का आदी हो गया हूं. मेरी बधाई स्वीकार करो.’’

ये भी पढ़ें- एक कश्मीरी

क्षमा इठलाते हुए बोली, ‘‘ऐसे नहीं, मैं तो आप से बहुत बड़ा उपहार भी लूंगी, तभी आप की बधाई स्वीकार करूंगी.’’

रविकांत ने कहा, ‘‘तुम जो भी चाहोगी, मैं तुम्हें दूंगा. तुम कहो तो, तुम क्या लेना चाहोगी. अपनी इतनी अच्छी प्रिय दोस्त के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘पहले वादा कीजिए कि आप मना नहीं करेंगे.’’

‘‘अरे, मना क्योें करूंगा. लो, वादा भी करता हूं.’’

क्षमा बोली, ‘‘अंकल, मेरे सामने एक बड़ी समस्या है मेरी मां, जिन्होंने मेरे लिए इतना कुछ किया है, मैं उन्हें अकेली छोड़ विदेश चली जाऊं, ऐसा मेरा मन नहीं मानता. मैं चाहती हूं कि आप  और मेरी मां, जो खुद भी एकाकी जीवन जी रही हैं, विवाह कर लें. आप दोनों को साथी मिल जाएगा. मैं मां को मना लूंगी. बस, आप हां कर दें.’’

रविकांत चुप रहे. कुछ देर के बाद क्षमा ने फिर कहा, ‘‘ठीक है, यदि आप तैयार नहीं हैं तो मैं अपने विवाह के लिए मना कर देती हूं. देखिए, मेरा विवाह अभी तय हुआ है, हुआ तो नहीं. मैं ने गलत सोचा था कि आप मेरे बहुत निकट हैं और मेरी भलाई के लिए मेरी भावनाओं को समझते हुए आप अपना दिया हुआ वादा निभाएंगे,’’ कहतेकहते क्षमा का गला रुंध गया.

रविकांत अपनी जगह से उठे. उन्होंने क्षमा के सिर पर हाथ रखा और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी बेटी की खुशी के लिए सबकुछ करूंगा. मैं तुम्हारे सुझाव से सहमत हूं.’’

क्षमा खुशी से उछल पड़ी और उन के गले से लिपट गई. क्षमा ने अपनी शादी से पहले उन दोनों के विवाह कर लेने की जिद पकड़ ली ताकि वे दोनों संयुक्त रूप से उस का कन्यादान कर सकें.

अगले सप्ताह ही रविकांत और शोभना का विवाह बड़े सादे ढंग से संपन्न हुआ और उस के 5 दिन बाद रौनक और क्षमा की शादी बड़ी धूमधाम से हुई.

पद्मिनी सिंह

कल हमेशा रहेगा- अंतिम भाग

लेखिका- सुजाता वाई ओवरसियर

मम्मीपापा के दबाव में आ कर वेदश्री ने डा. साकेत से शादी करने का फैसला ले लिया. वह इस बात से दुखी थी कि अभि को यह बात कैसे समझाएगी. लेकिन बहते हुए आंसुओं को रोक कर उस ने एक निर्णय ले ही लिया कि वह अभि से मिलने आखिरी बार जरूर जाएगी.

वेदश्री की बातें सुनने के बाद अभि तय नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाए. वह श्री को दिल से चाहता था और अपनी जिंदगी उस के साथ हंसीखुशी बिताने का मनसूबा बना रहा था. उस का सपना आज हकीकत के कठोर धरातल से टकरा कर चकनाचूर हो गया था और वह कुछ भी करने में असमर्थ था.

उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की अपनी गरीबी और लाचारी उस की जिंदगी से इस कदर खिलवाड़ करेगी. यदि वह अमीर होता तो क्या मानव के इलाज के लिए अपनी तरफ से योगदान नहीं देता? श्री उस के लिए सबकुछ थी तो उस के परिवार का हर सदस्य भी तो उस का सबकुछ था.

अब समय मुट्ठी से रेत की तरह सरक गया था. समय पर अब उस का कोई नियंत्रण नहीं रहा था. अब तो वह सिर्फ श्री और साकेत के सफल सहजीवन के लिए दुआ ही कर सकता था.

ये भी पढ़ें- कल हमेशा रहेगा

अपना हृदय कड़ा कर और आवाज में संतुलन बना कर अभिजीत बोला, ‘‘श्री, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूं पर तुम से तो मैं यही कहूंगा कि हमें समझदार प्रेमियों की तरह हंसीखुशी एकदूसरे से अलग होना चाहिए. प्यार कोई ऐसी शै तो है नहीं कि दूरियां पैदा होने पर दम तोड़ दे. प्यार किया है तो उसे निभाने के लिए शादी करना कतई जरूरी नहीं. प्लीज, तुम मेरी चिंता न करना. मैं अपनेआप को संभाल लूंगा पर तुम वचन दो कि आज के बाद मुझे भुला कर सिर्फ साकेत के लिए ही जिओगी.’’

आंखों में आंसू लिए भारी मन से दोनों ने एकदूसरे से विदा ली.

‘‘श्री, आज का दिन यहां खत्म हुआ तो क्या हुआ? याद रखना, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा… और हर आने वाला कल तुम्हारी जिंदगी को और कामयाब बनाए, यही मेरी दुआ है.’’

मंगलसूत्र पहनाते समय साकेत की उंगलियों ने ज्यों ही वेदश्री की गरदन को छुआ, उस के सारे शरीर में सिहरन सी भर गई. सप्तपदी की घोषणा के साथसाथ शहनाई का उभरता संगीत हवा में घुल कर वातावरण को और भी मंगलमय बनाता गया. एकएक फेरे की समाप्ति के साथ उसे लगता गया कि वह अपने अभिजीत से एकएक कदम दूर होती जा रही है. आज से अभि उस से इस एक जन्म के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले सात जन्मों के लिए दूर हो गया है. अब उस का आज और कल साकेत के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया है.

फेरों के खत्म होते ही मंडप में मौजूद लोगों ने अपनेअपने हाथों के सारे फूल एक ही साथ नवदंपती पर निछावर कर दिए. तब वेदश्री ने अपने दिल में उमड़ते हुए भावनाओं के तूफान को एक दृढ़ निश्चय से दबा दिया और सप्तपदी के एकएक शब्द को, उस से गर्भित हर अर्थ हर सीख को अपने पल्लू में बांध लिया. उस ने मन ही मन संकल्प किया कि वह अपने विवाहित जीवन को आदर्श बनाने का हरसंभव प्रयास करेगी क्योंकि वह इस सच को जानती थी कि औरत की सार्थकता कार्येषु दासी, कर्मेषु मंत्री, भोज्येशु माता और शयनेशु रंभा के 4 सूत्रों के साथ जुड़े हर कर्तव्यबोध में समाई हुई है.

सुहाग सेज पर सिकुड़ी बैठी वेदश्री के पास बैठ कर साकेत ने कोमलता से उस का चेहरा ऊपर की ओर इस तरह उठाया कि साकेत का चेहरा उस की आंखों के बिलकुल सामने था. वह धड़कते हृदय से अपने पति को देखती रही, लेकिन उसे साकेत के चेहरे पर अभि का चेहरा क्यों नजर आ रहा है? उसे लगा जैसे अभि कह रहा हो, ‘श्री, आखिर दिखा दिया न अपना स्त्रीचरित्र. धोखेबाज, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगा.’ और घबराहट के मारे वेदश्री ने अपनी पलकें भींच कर बंद कर लीं.

ये भी पढ़ें- देवी की कृपा…

‘‘क्या हुआ, श्री. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ साकेत उस की हालत देख कर घबरा गया.

‘‘नहींनहीं…बिलकुल ठीक हूं…आप चिंता न करें…पहली बार आज आप ने मुझे इस तरह छुआ न इसलिए पलकें स्वत: शरमा कर झुक गईं,’’ कह कर वह अपनी घबराहट पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगी.

मन में एक निश्चय के साथ श्री ने अपनी आंखें खोल दीं और चेहरा उठा कर साकेत को देखने लगी.

‘‘अब मैं ठीक हूं, साकेत. पर आप से कुछ कहना चाहती हूं…प्लीज, मुझे एक मौका दीजिए. मैं अपने मन और दिल पर एक बोझ महसूस कर रही हूं, जो आप को हकीकत से वाकिफ कराने के बाद ही हलका हो सकता है.’’

‘‘किस बोझ की बात कर रही हो तुम? देखो, तुम अपनेआप को संभालो, और जो कुछ भी कहना चाहती हो, खुल कर कहो. आज से हम नया जीवन शुरू करने जा रहे हैं और ऐसे में यदि तुम किसी भी बात को मन में रख कर दुखी होती रहोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘साकेत, मैं ने आप से अपनी जिंदगी से जुड़ा एक गहरा राज छिपा कर रखा है और यह छल नहीं तो और क्या है?’’ फिर वह अभिजीत और अपने रिश्ते से जुड़ी हर बात साकेत को बताती चली गई.

‘‘साकेत, मैं आप को वचन देती हूं कि मैं अपनी ओर से आप को शिकायत का कोई भी मौका नहीं दूंगी,’’ अपनी बात खत्म करने के बाद भी वह रो रही थी.

‘‘गलत बात है श्री, आज का यह विशेष अवसर और उस का हर पल, हमारी जिंदगी में पहली और आखिरी बार आया है. क्या इन अद्भुत पलों का स्वागत आंसुओं से करोगी?’’ साकेत ने प्यार से उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘रही बात तुम्हारे और अभिजीत के प्रेम की तो वह तुम्हारा अतीत था और अतीत की धूल को उड़ा कर अपने वर्तमान को मैला करने में मैं विश्वास नहीं रखता…भूल जाओ सबकुछ…’’

ये भी पढ़ें- चौथापन

वह रात उन की जिंदगी में अपने साथ ढेर सारा प्यार और खुशियां लिए आई. साकेत ने उसे इतना प्यार दिया कि उस का सारा डर, घबराहट, कमजोर पड़ता हुआ आत्मविश्वास…उस प्यार की बाढ़ में तिनकातिनका बन कर बह गया.

वसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त वेदश्री के जीवन में एक कभी न खत्म होने वाली वसंत को साथ ले आया जिस ने उस के जीवन को भी फूलों की तरह रंगीन बना दिया क्योंकि साकेत एक अच्छे पति होने के साथ ही एक आदर्श जीवनसाथी भी साबित हुए.

पहले दिन से ही श्री ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा घर के सभी सदस्यों को अपना बना लिया. समय के पंखों पर सवार दिन महीनों में और महीने सालों में तबदील होते गए. 5 साल यों गुजर गए मानो 5 दिन हुए हों. इन 5 सालों में वेदश्री ने जुड़वां बेटियां ऋचा एवं तान्या तथा उस के बाद रोहन को जन्म दिया. ऋचा व तान्या 4 वर्ष की हो चली थीं और रोहन अभी 3 महीने का ही था. साकेत का प्यार, 3 बच्चों का स्नेह और परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा, यही उस के जीवन की सार्थकता के प्रतीक थे.

साकेत की दादी दुर्गा मां सुबह जल्दी उठ जातीं. उन के स्नान से ले कर पूजाघर में जाने तक सभी तैयारियों में श्री का सुबह का वक्त कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता. उस के बाद मांबाबूजी, साकेत तथा भैयाभाभी बारीबारी उठ कर तैयार होते. फिर अनिकेत और आस्था की बारी आती. सभी के नहाधो कर अपनेअपने कामों में लग जाने के बाद श्री अपना भी काम पूरा कर के दुर्गा मां की सेवा में लग जाती.

अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’

आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.

ये भी पढ़ेंइक विश्वास था

वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.

बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’

सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.

‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.

‘‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.

‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.

‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’

‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.

‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.

‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.

ये भी पढ़ें-

घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.

उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.

अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.

अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.

श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.

साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’

‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.

‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’

‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.

‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’

ये भी पढ़ें- विश्वासघात

श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.

साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.

‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’

आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.

‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.

‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’

‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’

श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.

सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…

‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.

उस रात अचानक

लेखिका- नीता दानी

पूर्व कथा

सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है,

‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

ये भी पढ़ें- रिश्ते की बुआ

गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…अब आगे…

गतांक से आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था. प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

ये भी पढ़ें- अधूरे प्यार की टीस

गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.

समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.

इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.

रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.

समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.

पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.

बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.

किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था.

ये भी पढ़ें- आंधी से बवंडर की ओर

मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.

उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.

अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’

अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.

अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी.

सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.

अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं.

‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.

‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’

ये भी पढ़ें- पिताजी

रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.

‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.

‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’

‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’

प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.

अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था.

टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’

‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.

सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.

मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी.

‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.

वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.

अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.

रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.

अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.

गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.

कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.

बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’

गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.

‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.

‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.

अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.

गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.

‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’

आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.

‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.

‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.

‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?

‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’

प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था.

ये भी पढ़ें- कैक्टस के फूल

प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.

गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.

मां और मोबाइल

‘‘मेरा मोबाइल कहां है? कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें इधरउधर मत किया करो पर तुम सुनती कहां हो,’’ आफिस जाने की हड़बड़ी में मानस अपनी पत्नी रोमा पर बरस पड़े थे.

‘‘आप की और आप के बेटे राहुल के कार्यालय और स्कूल जाने की तैयारी में सुबह से मैं चकरघिन्नी की तरह नाच रही हूं, मेरे पास कहां समय है किसी को फोन करने का जो मैं आप का मोबाइल लूंगी,’’ रोमा खीझपूर्ण स्वर में बोली थी.

‘‘तो कहां गया मोबाइल? पता नहीं यह घर है या भूलभुलैया. कभी कोई सामान यथास्थान नहीं मिलता.’’

‘‘क्यों शोर मचा रहे हो, पापा? मोबाइल तो दादी मां के पास है. मैं ने उन्हें मोबाइल के साथ छत पर जाते देखा था,’’ राहुल ने मानो बड़े राज की बात बताई थी.

‘‘तो जा, ले कर आ…नहीं तो हम दोनों को दफ्तर व स्कूल पहुंचने में देर हो जाएगी…’’

पर मानस का वाक्य पूरा हो पाता उस से पहले ही राहुल की दादी यानी वैदेहीजी सीढि़यों से नीचे आती हुई नजर आई थीं.

‘‘अरे, तनु, मेरे ऐसे भाग्य कहां. हर घर में तो श्रवण कुमार जन्म लेता नहीं,’’ वे अपने ही वार्त्तालाप में डूबी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे देर हो रही है,’’ मानस अधीर स्वर में बोले थे.

‘‘पता है, इसीलिए नीचे आ रही हूं. तान्या से बात करनी है तो कर ले.’’

‘‘मैं बाद में बात कर लूंगा. अभी तो मुझे मेरा मोबाइल दे दो.’’

‘‘मुझे तो जब भी किसी को फोन करना होता है तो तुम जल्दी में रहते हो. कितनी बार कहा है कि मुझे भी एक मोबाइल ला दो, पर मेरी सुनता ही कौन है. एक वह श्रवण कुमार था जिस ने मातापिता को कंधे पर बिठा कर सारे तीर्थों की सैर कराई थी और एक मेरा बेटा है,’’ वैदेहीजी देर तक रोंआसे स्वर में प्रलाप करती रही थीं पर मानस मोबाइल ले कर कब का जा चुका था.

‘‘मोबाइल को ले कर क्यों दुखी होती हैं मांजी. लैंडलाइन फोन तो घर में है न. मेरा मोबाइल भी है घर में. मैं भी तो उसी पर बातें करती हूं,’’ रोमा ने मांजी को समझाना चाहा था.

‘‘तुम कुछ भी करो बहू, पर मैं इस तरह मन मार कर नहीं रह सकती. मैं किसी पर आश्रित नहीं हूं. पैंशन मिलती है मुझे,’’ वैदेही ने अपना क्रोध रोमा पर उतारा था पर कुछ ही देर में सब भूल कर घर को सजासंवार कर रोमा को स्नानगृह में गया देख कर उन्होंने पुन: अपनी बेटी तान्या का नंबर मिलाया था.

‘‘हैलो…तान्या, मैं ने तुम से जैसा करने को कहा था तुम ने किया या नहीं?’’ वे छूटते ही बोली थीं.

‘‘वैदेही बहन, मैं आप की बेटी तान्या नहीं उस की सास अलका बोल रही हूं.’’

‘‘ओह, अच्छा,’’ वे एकाएक हड़बड़ा गई थीं.

‘‘तान्या कहां है?’’ किसी प्रकार उन के मुख से निकला था.

‘‘नहा रही है. कोई संदेश हो तो दे दीजिए. मैं उसे बता दूंगी.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है, मैं कुछ देर बाद दोबारा फोन कर लूंगी,’’ वैदेही ने हड़बड़ा कर फोन रख दिया था. पर दूसरी ओर से आती खनकदार हंसी ने उन्हें सहमा दिया था.

‘कहीं छोकरी ने बता तो नहीं दिया सबकुछ? तान्या दुनियादारी में बिलकुल कच्ची है. ऊपर से यह फोन. स्थिर फोन में यही तो बुराई है. घरपरिवार को तो क्या सारे महल्ले को पता चल जाता है कि कहां कैसी खिचड़ी पक रही है. मोबाइल फोन की बात ही कुछ और है…किसी भी कोने में बैठ कर बातें कर लो.’ उन की विचारधारा अविरल जलधारा की भांति बह रही थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘हैलो मां, मैं तान्या. मां ने बताया कि जब मैं स्नानघर में थी तो आप का फोन आया था. कोई खास बात थी क्या?’’

‘‘खास बात तो कितने दिनों से कर रही हूं पर तुम्हें समझ में आए तब न. अरे, जरा अक्ल से काम लो और निकाल बाहर करो बुढि़या को. जब देखो तब तुम्हारे यहां पड़ी रहती है. कब तक उस की गुलामी करती रहोगी?’’

‘‘धीरे बोलो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो बुरा मानेंगी.’’

‘‘फोन पर हम दोनों के बीच हुई बात को कैसे सुनेगी वह?’’

‘‘छोड़ो यह सब, शनिवाररविवार को आप से मिलने आऊंगी तब विस्तार से बात करेंगे. जो जैसा चल रहा है चलने दो. क्यों अपना खून जलाती हो.’’

‘‘मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूं पर तुम लोगों को बुरा लगता है तो आगे से नहीं कहूंगी,’’ वैदेही रोंआसे स्वर में बोली थीं.

‘‘मां, क्यों मन छोटा करती हो. हम सब आप का बड़ा सम्मान करते हैं. यथाशक्ति आप की सलाह मानने का प्रयत्न करते हैं पर यदि आप की सलाह हमारा अहित करे तो परेशानी हो जाती है.’’

‘‘लो और सुनो, अब तुम्हें मेरी बातों से परेशानी भी होने लगी. ठीक है, आज से कुछ नहीं कहूंगी,’’ वैदेही ने क्रोध में फोन पटक दिया था और मुंह फुला कर बैठ गई थीं.

‘‘क्या हुआ, मांजी, सब ठीक तो है?’’ उन्हें दुखी देख कर रोमा ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों? तुम्हें कैसे लगा कि सब ठीक नहीं है?’’ वैदेही ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न ही पूछ लिया.

‘‘आप का मूड देख कर.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. छिप कर मेरी बातें सुनते हो तुम लोग. इसीलिए तो मोबाइल लेना चाहती हूं मैं.’’

‘‘मैं ने आज तक कभी किसी का फोन वार्त्तालाप नहीं सुना. आप को दुखी देख कर पूछ लिया था. आगे से ध्यान रखूंगी,’’ रोमा तीखे स्वर में बोली और अपने काम में व्यस्त हो गई.

वैदेही बेचैनी से तान्या के आने की प्रतीक्षा करती रही कि कब तान्या आए और कब वे उस से बात कर के अपना मन हलका करें पर जब सांझ ढलने लगी और तान्या नहीं आई तो उन का धीरज जवाब देने लगा. मानस सुबह से अपने मोबाइल से इस तरह चिपका था कि उन्हें तान्या से बात करने का अवसर ही नहीं मिल रहा था.

‘‘मुझे अपनी सहेली नीता के यहां जाना है, मांजी. मैं सुबह से तान्या दीदी की प्रतीक्षा में बैठी हूं पर लगता है कि आज वे नहीं आएंगी. आप कहें तो मैं थोड़ी देर के लिए नीता के घर हो आऊं. उस का बेटा बीमार है,’’ रोमा ने आ कर वैदेही से अनुनय की तो वे मना न कर सकीं.

रोमा को घर से निकले 10 मिनट भी नहीं बीते होंगे कि तान्या ने कौलबेल बजाई.

‘‘लो, अब समय मिला है तुम्हें मां से मिलने आने का? सुबह से दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी हूं. आंखें भी पथरा गईं.’’

‘‘इस में टकटकी लगा कर बैठने की क्या बात थी, मां?’’ मानस बोल पड़ा, ‘‘आप मुझ से कहतीं मैं तान्या दीदी से फोन कर के पूछ लेता कि वे कब तक आएंगी.’’

‘‘लो और सुनो, सुबह से पता नहीं किसकिस से बात कर रहा है तेरा भाई. सारे काम फोन कान से चिपकाए हुए कर रहा है. बस, सामने बैठी मां से बात करने का समय नहीं है इस के पास.’’

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो सदासर्वदा आप की सेवा में मौजूद रहता हूं. फिर राहुल है, रोमा है जितनी इच्छा हो उतनी बात करो,’’ मानस हंसा.

‘‘2 बेटों, 2 बेटियों का भरापूरा परिवार है मेरा पर मेरी सुध लेने वाला कोई नहीं है. यहां आए 2 सप्ताह हो गए मुझे, तान्या को आज आने का समय मिला है.’’

‘‘मेरा बस चले तो दिनरात आप के पास बैठी रहूं. पर आजकल बैंक में काम बहुत बढ़ गया है. मार्च का महीना है न. ऊपर से घर मेहमानों से भरा पड़ा है. 3-4 नौकरों के होने पर भी अपने किए बिना कुछ नहीं होता,’’ तान्या ने सफाई दी थी.

‘‘इसीलिए कहती हूं अपने सासससुर से पीछा छुड़ाओ. सारे संबंधी उन से ही मिलने तो आते हैं.’’

‘‘क्या कह रही हो मां, कहीं मांजी ने सुन लिया तो गजब हो जाएगा. बहुत बुरा मानेंगी.’’

‘‘पता नहीं तुम्हें कैसे शीशे में उतार लिया है उन्होंने. और 2 बेटे भी तो हैं, वहां क्यों नहीं जा कर रहतीं?’’

‘‘जौय और जोषिता को मांजी ने बचपन से पाल कर बड़ा किया है. अब तो स्थिति यह है कि बच्चे उन के बिना रह ही नहीं पाते. दोचार दिन के लिए भी कहीं जाती हैं तो बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.’’

‘‘तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को कठपुतली बना कर रखा है उन्होंने. जैसा चाहते हैं वैसा नचाते हैं दोनों. सारा वेतन रखवा लेते हैं. दुनिया भर का काम करवाते हैं. यह दिन देखने के लिए ही इतना पढ़ायालिखाया था तुम्हें?’’

‘‘किसी ने जबरदस्ती मेरा वेतन कभी नहीं छीना है मां. उन के हाथ में वेतन रखने से वे लोग भी प्रसन्न हो जाते हैं और मेरे सासससुर भी वह पैसा अपनी जेब में नहीं रख लेते बल्कि उन्हें हमारे पर ही खर्च कर देते हैं. जो बचता है उसे निवेश कर देते हैं. ’’

‘‘पर अपना पैसा उन के हाथ में दे कर उन की दया पर जीवित रहना कहां की समझदारी है?’’

‘‘मां, आप क्यों तान्या दीदी के घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करती हैं,’’ इतनी देर से चुप बैठा मानस बोला था.

‘‘अरे, वाह, अपनी बेटी के हितों की रक्षा मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा. पर मेरी बेटी तो समझ कर भी अनजान बनी हुई है.’’

‘‘मां, मैं आप के सुझावों का बहुत आदर करती हूं पर साथ ही घर की सुखशांति का विचार भी करना पड़ता है.’’

‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. अपनी समस्याएं क्या कम हैं, जो आप तान्या दीदी की समस्याएं सुलझाने लगीं? और मां, आप ने तो दीदी के आते ही अपने सुझावों की बमबारी शुरू कर दी. न चाय, न पानी…कुछ तो सोचा होता,’’ मानस ने मां को याद दिलाया.

‘‘रोमा अभी तक लौटी नहीं जबकि उसे पता था कि तान्या आने वाली है. फोन करो कि जल्दी से घर आ जाए.’’

‘‘फोन करने की जरूरत नहीं है. वह स्वयं ही आ जाएगी. उस की मां आई हुई हैं, उन से मिलने गई है.’’

‘‘मां आई हुई हैं? मुझ से तो कह कर गई है कि नीता का बेटा बीमार है. उसे देखने जा रही है.’’

‘‘उसे भी देखने गई है. कई दिनों से सोच रही थी पर जा नहीं पा रही थी. नीता के घर के पास रोमा के दूर के रिश्ते के मामाजी रहते हैं. वे बीमार हैं और रोमा की मम्मी उन्हें देखने आई हुई हैं.’’

‘‘ठीक है, सब समझ में आ गया. मां से मिलने जा रही हूं यह भी तो कह कर जा सकती थी, झूठ बोल कर जाने की क्या आवश्यकता थी. रोमा अपना फोन तो ले कर गई है?’’

‘‘हां, ले गई है.’’

‘‘ला, अपना फोन दे तो मैं उस से बात करूंगी.’’

‘‘क्या बात करेंगी आप? वह अपनेआप आ जाएगी,’’ मानस ने तर्क दिया.

‘‘फोन कर दूंगी तो जल्दी आ जाएगी. तान्या आई है तो खाना खा कर ही जाएगी न…’’

‘‘आप चिंता न करें मां, मैं खाना नहीं खाऊंगी. आप को जो खाना है मैं बना देती हूं,’’ तान्या ने उन्हें बीच में ही टोक दिया.

‘‘फोन तो दे मानस, रोमा से बात करनी है,’’ वैदेही जिद पर अड़ी थीं.

‘‘एक शर्त पर मोबाइल दूंगा कि आप रोमा से कुछ नहीं कहेंगी. बेचारी कभीकभार घर से बाहर निकलती है. दिनभर घर के काम में जुटी रहती है.’’

‘‘ठीक है, रोमा को कुछ नहीं कहूंगी, उस की मां से बात करूंगी. कहूंगी आ कर मिल जाएं. बहुत लंबे समय से मिले नहीं हम दोनों.’’

मां को फोन थमा कर मानस और तान्या रसोईघर में जा घुसे थे.

‘‘हैलो रोमा, तुम नीता के बीमार बेटे से मिलने की बात कह कर गई थीं. सौदामिनी बहन के आने की बात तो साफ गोल कर गईं तुम,’’ वैदेही बोलीं.

‘‘नहीं मांजी, ऐसा कुछ नहीं था. मुझे लगा, आप नाराज होंगी,’’ रोमा सकपका गई.

‘‘लो भला, मांबेटी के मिलने से भला मैं क्यों नाराज होने लगी? सौदामिनी बहन को फोन दो जरा. उन से बात किए हुए तो महीनों बीत गए,’’ वैदेहीजी का अप्रत्याशित रूप से मीठा स्वर सुन कर रोमा का धैर्य जवाब देने लगा था. उस ने तुरंत फोन अपनी मां सौदामिनी को थमा दिया था.

‘‘नमस्ते, सौदामिनी बहन. आप तो हमें भूल ही गईं,’’ उन्होंने उलाहना दिया.

‘‘आप को भला कैसे भूल सकती हूं दीदी, पर दुनिया भर के पचड़ों से समय ही नहीं मिलता.’’

‘‘तो यहां तक आ कर क्या हम से मिले बिना चली जाओगी? मेरा तो सब से मिलने को मन तरसता रहता है. इसीलिए बच्चों से कहती हूं एक मोबाइल ला दो, कम से कम सब से बात कर के मन हलका कर लूंगी.’’

रसोईघर में भोजन का प्रबंध करते मानस और तान्या हंस पड़े थे, ‘‘मां फिर मोबाइल पुराण ले कर बैठ गईं, लगता है उन्हें मोबाइल ला कर देना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं ने भी कई बार सोचा पर डरती हूं अपना मोबाइल मिलते ही वे हम भाईबहनों का तो क्या, अपने खानेपीने का होश भी खो बैठेंगी.’’

‘‘मुझे दूसरा ही डर है. फोन पर ऊलजलूल बात कर के कहीं कोई नया बखेड़ा न खड़ा कर दें.’’

‘‘जो भी करें, उन की मर्जी है. पर लगता है कि अपने अकेलेपन से जूझने का इन्होंने नया ढंग ढूंढ़ निकाला है.’’

‘‘चलो, तान्या दीदी, आज ही मां के लिए मोबाइल खरीद लाते हैं. इन का इस तरह फोन के लिए बारबार आग्रह करना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चाय तैयार है. चाय पी कर चलते हैं, भोजन लौट कर करेंगे,’’ तान्या ने स्वीकृति दी थी.

‘‘मैं रोमा और जीजाजी दोनों को फोन कर के सूचित कर देता हूं कि हम कुछ समय के लिए बाहर जा रहे हैं.’’

‘‘कहां जा रहे हो तुम दोनों?’’ वैदेही ने अपना दूरभाष वार्त्तालाप समाप्त करते हुए पूछा.

‘‘हम दोनों नहीं, हम तीनों. चाय पियो और तैयार हो जाओ, आवश्यक कार्य है,’’ मानस ने उन का कौतूहल शांत करने का प्रयत्न किया.

वे उन्हें मोबाइल की दुकान पर ले गए तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. मानो कोई मुंह में लड्डू ठूंस दे और उस का स्वाद पूछे.

वैदेहीजी के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे लंबे समय से अपने मनपसंद खिलौने के लिए मचलते बच्चे को उस का मनपसंद खिलौना मिल गया हो.

उन्होंने अपनी पसंद का अच्छा सा मोबाइल खरीदा जिस से अच्छे छायाचित्र खींचे जा सकते थे. घर के पते आदि का सुबूत देने के बाद उन के फोन का नंबर मिला तो उन का चेहरा खिल उठा.

‘‘आप को अपना फोन प्रयोग में लाने के लिए 24 घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,’’ सेल्समैन ने बताया तो वे बिफर उठीं.

‘‘यह कौन सी दुकान पर ले आए हो तुम लोग मुझे? इन्हें तो फोन चालू करने में ही 24 घंटे लगते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं है, मां जहां आप ने इतने दिनों तक प्रतीक्षा की है एक दिन और सही,’’ तान्या ने समझाना चाहा.

‘‘तुम नहीं समझोगी. मेरे लिए तो एक क्षण भी एक युग की भांति हो गया है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

घर पहुंचते ही फोन को डब्बे से निकाल कर उस के ऊपर मोमबत्ती जलाई गई. फिर बुला कर सब में मिठाई बांटी, मानो मोबाइल का जन्म उन्हीं के हाथों हुआ था और उस के चालू होने की प्रतीक्षा की जाने लगी.

यह कार्यक्रम चल ही रहा था कि रोमा, सौदामिनी और अपने मामा आलोक बाबू के साथ आ पहुंची.

वैदेही का नया फोन आना ही सब से बड़ा समाचार था. उन्होंने डब्बे से निकाल कर सब को अपना नया मोबाइल फोन दिखाया.

‘‘कितना सुंदर फोन है,’’ राहुल तो देखते ही पुलक उठा.

‘‘दादी मां, मुझे भी दिया करोगी न अपना मोबाइल?’’

‘‘कभीकभी, वह भी मेरी अनुमति ले कर. छोटे बच्चों पर नजर रखनी पड़ती है न सौदामिनी बहन.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ सौदामिनी ने सिर हिला दिया था.

‘‘सच कहूं, तो आज कलेजा ठंडा हो गया. यों तो राहुल को छोड़ कर सब के पास अपनेअपने मोबाइल हैं. पर अपनी चीज अपनी ही होती है. आयु हो गई है तो क्या हुआ, मैं ने तो साफ कह दिया कि मुझे तो अपना मोबाइल फोन चाहिए ही. मैं क्या किसी पर आश्रित हूं? मुझे पैंशन मिलती है,’’ वे देर तक सौदामिनी से फोन के बारे में बातें करती रही थीं.

कुछ देर बाद सौदामिनी और आलोक बाबू ने जाने की अनुमति मांगी थी.

‘‘आप ने फोन किया तो लगा कि यहां तक आ कर आप से मिले बिना जाना ठीक नहीं होगा,’’ सौदामिनी बोलीं.

‘‘यही तो लाभ है मोबाइल फोन का. अपनों को अपनों से जोड़े रखता है,’’ वैदेही ने उत्तर दिया.

‘‘चिंता मत करना. अब मेरे पास अपना फोन है. मैं हालचाल लेती रहूंगी.’’

‘‘मैं भी आप को फोन करती रहूंगी. आप का नंबर ले लिया है मैं ने,’’ सौदामिनी ने आश्वासन दिया था.

हाथ में अपना मोबाइल फोन आते ही वैदेही का तो मानो कायाकल्प ही हो गया. उन का मोबाइल अब केवल वार्त्तालाप का साधन नहीं है. उन के परिचितों, संबंधियों और दोस्तों के जवान बेटेबेटियों का सारा विवरण उन के मोबाइल में कैद है. वे चलताफिरता मैरिज ब्यूरो बन गई हैं. पहचान का दायरा इतना विस्तृत हो गया है कि किसी का भी कच्चा चिट्ठा निकलवाना हो तो लोग उन की ही शरण में आते हैं.

‘‘इस बुढ़ापे में भी अपने पांवों पर खड़ी हूं मैं. साथ में पैंशन भी मिलती है,’’ वे शान से कहती हैं. और एक राज की बात. उन के पास अब एक नहीं 5 मोबाइल फोन हैं जो पहले दूरभाष पर उन के लंबे वार्त्तालाप का उपहास करते थे अब उसी गुण के कारण उन का सम्मान करने लगे हैं.

राशनकार्ड की महिमा

रसोई गैस का सिलेंडर लेने के लिए राशनकार्ड जरूरी हो गया था. चूंकि जिंदा रहने के लिए भोजन अतिआवश्यक है, सो राजगोपालजी राशनकार्ड दफ्तर के चक्कर लगाने लगे. दफ्तर वालों ने आवेदन की औपचारिकता में उन्हें बुरी तरह उलझा दिया था. वे बिचौलियों के इर्दगिर्द घूमे, फिर भी काम न बना तो उन्होंने राशनकार्ड को ही अपने जीने का मकसद बना लिया और इसी धुन में लगे रहे.

‘‘साहब, सिलेंडर खाली हो गया है,’’ रसोईघर से रामकिशन के शब्द किसी फोन की घंटी की तरह मुझे चौंका गए.

हम ने एजेंसी को फोन खड़खड़ाया, ‘‘गैस सिलेंडर बुक करवाना है.’’

‘‘नंबर?’’ किसी मैडम की आवाज थी.

‘‘9242,’’ मैं ने भी ऐसे बोला जैसे फोन में नंबर पहले से ही फीड हो.

‘‘राजगोपालजी?’’

‘‘जी हां, देवीजी.’’

‘‘आप को अपना राशनकार्ड दिखाना होगा,’’ मधुर आवाज में मैडम बोलीं.

‘‘क…क्या?’’ हम हकलाए, ‘‘राशनकार्ड?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘बस, हमारी खुशी है. इसी खुशी में.’’

हम घबरा गए. यह तो नहले पे दहला मार रही है, ‘‘लेकिन वह तो मैं ने कभी बनवाया ही नहीं?’’

अब की बारी उन की थी, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘हां. कभी बनवाया ही नहीं तो लाने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘कमाल है,’’ मैडमजी बोलीं, ‘‘अच्छा, ऐसा कीजिए, अपनी सिलेंडर बुक ले कर हमारी एजेंसी के दफ्तर में आ जाइए. पता जानते हैं न कि एजेंसी कहां है? बहुचरजी के पास.’’

‘‘जी हां, उस जगह को आबाद कर चुका हूं.’’

हम जब सिलेंडर बुक ले कर वहां पहुंचे तो मैडमजी ने हमेें घूरा और बोलीं, ‘‘आप ही राजगोपालजी हैं.’’

हम ने हां में गरदन हिलाई तो एक मोटा रजिस्टर हमारे सामने कर दिया गया.

‘‘इस में आप अपनी सिलेंडर बुक का नंबर लिखिए फिर यह भी लिखिए कि अगली बार राशनकार्ड दिखाऊंगा और यहां हस्ताक्षर कर दीजिए. इस बार हम आप का सिलेंडर बुक कर देते हैं लेकिन अगली बार राशनकार्ड दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह सिलेंडर बुक देखिए. 1988 से मैं आप से सिलेंडर लेता आ रहा हूं तो अब की यह राशनकार्ड की आफत कैसे आ गई?’’

‘‘सर, ऊपर से आदेश आया है कि बिना राशनकार्ड देखे किसी को सिलेंडर न दिया जाए.’’

‘‘लेकिन मेरी समझ से तो राशन- कार्ड केवल गरीबों की मदद के लिए होता है ताकि उन्हें सरकारी रियायत से सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे चावल, गेहूं, तेल, चीनी आदि मिल जाएं. मैं इस श्रेणी में नहीं आता. यहां बड़ौदा में कभी राशनकार्ड का उल्लेख नहीं हुआ. पासपोर्ट है, बिजली, टेलीफोन, हाउस टैक्स के बिल हैं, पैनकार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस हैं. इन सब से ही हमारा काम चल जाता है.’’

‘‘अरे साहब, कई लोगों ने कईकई जाली कनेक्शन ले रखे हैं इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. कोई गैरकानूनी ढंग से तिपहिए में गैस लगा रहा है तो कोई मोटर में. कोई कईकई सिलेंडरों की ब्लैक कर रहा है.’’

‘‘अच्छा? तो हम बेचारे सीधेसादे पुरुष लोग पकड़ गए? कमाल है.’’

वे हंस पड़ीं.

‘‘यह तो बताइए कि यह कम्बख्त कार्ड बनता कहां है?’’

‘‘कुबेर भवन में.’’

‘‘ठीक,’’ कह कर हम ने स्कूटर दौड़ाया. बहू कुबेर भवन में ही 8वीं मंजिल पर काम करती है, यह सोच कर मन में तसल्ली मिली.

वैसे हमें अजनबियों से पूछताछ करने में कोई झिझक नहीं होती. अधिक से अधिक ‘न’ या ‘नहीं मालूम’ यही तो कोई कहेगा. झांपड़ तो नहीं मारेगा. और इसी बहाने कई बार नए मित्र भी बन जाते हैं.

जानकारी के बाद हम राशन कार्ड आफिस पहुंच गए. क्लर्क से आवेदनपत्र (फार्म) मांगा, मिल गया. फिर पूछा, ‘‘भैया, क्याक्या भरना है और क्याक्या प्रमाणपत्र इस के साथ देने हैं?’’

‘‘बिजली का बिल, पुराना राशन- कार्ड और उस में क्याक्या बदलना है, पता या प्राणियों की संख्या,’’ भैया एक सांस में बोल गया.

हम घबरा गए, ‘‘लेकिन मैं ने तो कभी राशनकार्ड बनवाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों, कहां से आए हो?’’

‘‘बरेली, यू.पी. से.’’

‘‘तो वहां का राशनकार्ड लाओ,’’ भैया ने फरमाया.

‘‘अरे, वहां भी कभी बनवाया नहीं और वह तो बहुत पुरानी बात हो गई. बड़ौदा में 22 साल से रह रहा हूं. तो अब मैं बड़ौदा का ही रहने वाला हो गया.’’

उस ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम कोई अजायबघर के जीव हों. फिर बोला, ‘‘तो फिर साहब से मिलो,’’ और दाईं तरफ इशारा किया.

हमारी भृकुटि तन गईं, ‘‘वहां तो कोई है ही नहीं?’’

‘‘साहब हर सोमवार को आते हैं और 11 से 2 बजे तक, तभी मिलो. आज गुरुवार है,’’ और हमें दरवाजा नापने का इशारा किया.

सोमवार को सवा 11 बजे पहुंचे तो देखा छोटे से दरवाजे के सामने करीब 60 लोग लाइन लगाए खड़े हैं. हम भी उन के पीछे खड़े हो गए. कुछ देर गिनती करते रहे और पाया कि एक प्राणी हर 4 मिनट में अंदर जाता है यानी हमारा नंबर 4 घंटे बाद आएगा. दिल टूट गया, कुछ तिकड़म लगाना पड़ेगा.

वहां से बाहर आए और मित्र सागरभाई को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई. वे फोन पर बोले, ‘‘काटजू साहब, चिंता की कोई बात नहीं, सब पैसे बनाने के धंधे हैं. आप अपने कागज मुझे दे दीजिए. मैं अपने एक एजेंट मित्र से काम करवा दूंगा. 3 साल पहले मैं ने अपना भी राशनकार्ड ऐसे ही बनवाया था.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो, बला टली. मन ही मन कहा कि सागरभाई, दोस्त हो तो आप जैसा. जा कर उन्हें सब कागजों की एकएक प्रतिलिपि दे दी.

एक बात और, ‘एक हथियार काम न करे तो दूसरा तो काम करे,’ यह सोच कर अपने एक और मित्र गोबिंदभाई से भी संपर्क किया. उन्होंने तो अपने एक पुराने मामलतदार मित्र से मुलाकात भी करवा दी.

पटेल साहब बोले, ‘‘आप को कब तक राशनकार्र्ड चाहिए?’’

‘‘यही 8-10 दिन में.’’

वे बेफिक्री से बोले, ‘‘ठीक है, अपने सब कागजात दे दीजिएगा.’’

वापस लौटते समय गोबिंदभाई ने समझाया कि पटेल साहब को कुछ दक्षिणा भी देनी पड़ेगी और दक्षिणा समय पर निर्भर रहेगी, कम समय माने अधिक दक्षिणा. हम समझ गए, सिर हिला दिया.

2 दिन बाद हम ने फोन किया, ‘‘सागरभाई, मामला तय हो गया?’’

फोन पर रोनी आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं साहब, उस ने कहा है कि अब यह काम बहुत मुश्किल हो गया है. वह नहीं बनवा सकता. राशन विभाग के भाईलोग बहुत सख्त हो गए हैं, उस को घास भी नहीं डालते.’’

मन ही मन हम ने सागरभाई और उन के एजेंट को गाली देते हुए फोन रख दिया. यह दांव तो खाली गया.

अब हम पहुंचे पटेल साहब के यहां. उन की बहू घंटी सुनने पर बाहर निकली.

‘‘साहब हैं?’’ हम ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’

‘‘भारगाम.’’

‘‘कब आएंगे?’’

‘‘5 दिन बाद.’’

हम ने फिर माथा पकड़ लिया. लगता है यह सोमवार भी गया. दर्देदिल लिए हुए गोबिंदभाई को मामला-ए-राशन कार्ड की रिपोर्ट दी. उन्होंने दिलासा दिया, ‘‘कोई बात नहीं काटजू साहब, 5 दिन बाद पटेल साहब आप का काम जरूर करवा देंगे.’’

हम ने घर की राह ली.

मंगलवार को फिर पटेल साहब के दर्शन हेतु निकल पड़े. अब की किस्मत से साहब घर पर ही थे.

‘‘साहब, मेरे राशनकार्ड का काम?’’

पटेल साहब ने दुखभरी मुद्रा बनाई, ‘‘काटजू साहब, 2-3 महीने लग जाएंगे. डिपार्टमेंट में कुछ अंदरूनी जांच चल रही है. मेरी समझ से आप खुद ही कार्ड के लिए जाएं तो ठीक होगा.’’

हम ने मन ही मन अपनेआप को कोसा और पटेल साहब को भी. बड़ा तीसमार खां बना फिरता था. कहता था, ‘कितने दिनों में कार्ड चाहिए?’ मेरे 2 सोमवारों का खून कर दिया. सोचा भीम और अर्जुन तो फेल हो गए, अब शेर की मांद में खुद ही जाना पड़ेगा और कोई चारा बचा ही नहीं था. चलो, इस को भी आजमा लिया जाए.

खैर, सोमवार को पौने 11 बजे राशनकार्ड के दफ्तर पहुंचे तो देखा लंबी लाइन लगी हुई है, जबकि दरवाजा बंद है, हम भी लाइन में लग गए. बुढ़ापे में समय की कोई तकलीफ नहीं और करना भी क्या है? हां, स्टैमिना अवश्य चाहिए, कहीं खड़ेखड़े दिल धड़कना न बंद कर दे.

गिनती की तो सामने 55 जवान व बूढ़े खड़े थे. अगर हरेक पर 3-3 मिनट लगता है तो ढाई या 3 घंटे लगेंगे. खैर, देखते हैं क्या होता है?

झोले से यह सोच कर किताब निकाली कि चलो, 2-3 अध्याय ही पढ़ लिए जाएं. वैसे भी हमारी आदत है कि जहां किसी काम के लिए बैठना या खड़े रहना पड़ेगा वहां हम कोई किताब जरूर ले जाते हैं, टाइम पास के लिए. अभी 3 पन्ने पढ़े ही थे कि दफ्तर खुला. आधे घंटे में 5 प्राणी अंदर घुसे. हम गम में डूब गए, अब क्या होगा? सामने वाले पुरुष ज्ञानी व दयालु निकले. पूछा तो उन्होंने सवाल किया, ‘‘आप को क्या करवाना है?’’

‘‘नया राशनकार्ड बनवाना है.’’

‘‘सौगंधपत्र बनवा लिया है?’’

‘‘यह क्या बला है.’’

वे हंसे (हमारे दुख पर), ‘‘अरे, ऐफिडेविट. इस के बिना कुछ नहीं होगा. आप इसे बनवा लीजिए.’’

‘‘बगल वाली इमारत में इस का दफ्तर है. वहां आवेदनपत्र भी मिल जाएगा और स्टैंपपेपर भी.’’

हम उस ओर भागे.

रास्ते में एक और सज्जन से पूछा, ‘‘सौगंधपत्र यहां कहां पर बनता है?’’

वे भी ज्ञानी व मार्गदर्शक निकले. बोले, ‘‘यहीं बनता था, किंतु गांधी- जयंती के बाद से अब नर्मदा भवन में बनता है.’’

वडोदरा शहर की खासीयत है कि सभी सरकारी आफिस, दोचार किलोमीटर के भीतर ही मिल जाते हैं. उन्हें धन्यवाद दे कर हम नर्मदा भवन भागे.

नर्मदा भवन में 3 देवियों ने हमारी बहुत सहायता की. एक सज्जन ने फार्म तो दे दिया किंतु कुबेर भवन जाने की सलाह दी. हम अब तक काफी अनुभव प्राप्त कर चुके थे. कुछ शंका हुई और पास खड़े चौकीदार की तरफ देखा. वह भी अनुभवप्राप्त प्राणी था उस ने अपने पास बुलाया फिर अंदर इशारा किया, ‘‘उस महिला से मिलो.’’

उस युवती ने फार्म भरवाया फिर बिजली बिल, पासपोर्ट की कापी इत्यादि नत्थी की और अंदर दाईं तरफ की मेज पर जाने को कहा.

वहां एक मुहर लगाई गई, रजिस्टर में कुछ लिखा गया और 11 नंबर का सिक्का दिया और कहा, ‘‘उस 11 नंबर के काउंटर पर जाइए, वहां आप का सब काम हो जाएगा.’’

11 नंबर काउंटर की कुमारी मुसकराई तो बड़ी भोली लगी. वह थी तो दुबलीपतली पर बहुत खूबसूरत थी. बोली, ‘‘कहिए?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए.’’

वह खिले चेहरे से बोली, ‘‘निकी.’’

‘‘आगे?’’

‘‘पाटिल.’’

‘‘कुछ खातीपीती नहीं हो क्या? देखो, हाथ की हड्डी भी उभरी हुई दिख रही है और उम्र तो 17 की होगी.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘अंकल, खाती बहुत हूं किंतु वजन नहीं बढ़ता, और 22 वर्ष की हूं.’’

‘‘पढ़ाई कितनी की, बी.कौम या 12वीं?’’

‘‘नहीं, कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा किया है.’’

‘‘और शादी?’’

उस ने सिर हिला दिया.

हम ने सोचा कि इसे अपने बेटे के लिए गांठ लें तो बहुत भाग्यवान समझेंगे.

अपने काम के बीच में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हैं, अंकल?’’

लगता है, हमारे मन के विचारों को उस ने पढ़ लिया था. सो बोला, ‘‘सोच रहा था कि तुम्हारी व मेरे बेटे की जोड़ी कैसी रहेगी? वह भी अविवाहित है. वैसे तुम मेरा काम पूरा करो नहीं तो बातों ही बातों में पूरा दिन बीत जाएगा.’’

उस ने कनखियों से हमें घूरा, आंखों से आश्चर्य जाहिर किया. सोचा होगा कि कैसे अंकल से पाला पड़ा है, काम के साथ रिश्ता भी ले आए. फिर कहा, ‘‘20 रुपए दीजिए, अंकल. यहां हस्ताक्षर कीजिए और सीधे खड़े रहिए. मुझे आप की फोटो खींचनी है, सौगंधपत्र पर जाएगी.’’

फोटो खींचने के बाद निकी ने भरा फार्म हमें थमाते हुए उप मामलतदार की तख्ती की तरफ इशारा किया कि वहां यह दे दीजिए. वे रजिस्टर में इसे दर्ज व हस्ताक्षर कर आप को दे देंगी.

उस को धन्यवाद दे हम आगे बढ़े.

कुछ ही देर में नर्मदा भवन का सारा काम समाप्त हुआ. सौगंधपत्र हमारे हाथ में था.

घड़ी में देखा तो साढ़े 12 बज चुके थे. सोचा, शायद आज ही काम बन जाए और हम कुबेर भवन जा पहुंचे.

देखा, भीड़ तो कम थी. करीब 20 प्राणी. हम भी उन्हीं में लग गए, 21वें. सामने एक जवान था. परिचय किया, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘हितेनभाई.’’

हम ने कहा, ‘‘यार, जरा आगे जा कर पता लगा लो कि भीड़ कितनी रफ्तार से चल रही है और नए राशनकार्ड के लिए कुछ और झमेला यानी कुछ और कागजात तो नहीं चाहिए. मैं कतार में तुम्हारी जगह सुरक्षित रखता हूं.’’

हितेन मान गया और आगे दरियाफ्त कर के बदहवास हालत में वापस लौटा. बोला, ‘‘नया राशनकार्ड यहां नहीं भुतड़ी कचहरी में बनता है. यहां केवल पुराने कार्डों के नाम या बदले पते ठीक किए जाते हैं.’’

‘‘अच्छा, यह भूत की कचहरी है कहां?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’

हमारा यह वार्त्तालाप एक और सज्जन सुन रहे थे. बीच में आ गए, ‘‘मैं जानता हूं और मुझे भी वहीं जाना है. जुबली बाग यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है.’’

हितेनभाई के पास मोटरसाइकिल थी, हमारे पास स्कूटर तो हम ने उस सज्जन से कहा, ‘‘चलिए, आप को ले चलते हैं. रास्ता बता दीजिएगा.’’

भुतड़ी कचहरी में केवल 4 लोग कतार में थे. हमारा नंबर आने पर अधिकारी बदतमीजी से बोला, ‘‘यह क्या है? आवेदनपत्र कहां है, ऐफिडेविट व मतदाता पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘यह रहा आवेदनपत्र और यह ऐफिडेविट है. मतदाता पहचानपत्र खो गया.’’

‘‘उस के बिना कुछ नहीं होगा. वह लाओ. कहां से आए हो?’’

‘‘वैसे तो बरेली, यू.पी. का रहने वाला हूं लेकिन वडोदरा में 22 साल से रह रहा हूं. अभी तक राशनकार्ड की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए बनवाया नहीं था.’’

‘‘तो अब कौन सी जरूरत आन पड़ी है?’’

‘‘गैस सिलेंडर वाला राशनकार्ड दिखाने को कह रहा है.’’

उस ने हमारे सारे कागज वापस करते हुए कहा, ‘‘जाओ, मेरा समय बरबाद न करो. बाहर दाईं तरफ दरवाजे पर एक आदमी बैठा है. वह आप को सब समझा देगा कि क्याक्या लाना है.’’

हम निराश हो बाहर निकले. देखा हितेन भी मुंह लटकाए खड़ा था. उस को भी अधिकारी ने झिड़क दिया था. बाहर के आदमी से पूछा तो वह ज्ञानी निकला. हमारे कागजात देखे और सुझाव दिया.

‘‘यहां कुछ नहीं होगा. आप कुबेर भवन के नीचे कमरा नं. 23 में जाइए. वहीं सब काम होगा.’’

‘‘लेकिन वहां से तो हम आए हैं. और यहां उस अंदर के बाबू ने यह सब और मांग लिया. कहां से लाएंगे?’’

‘‘आप उन की परवा न कीजिए. जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिए.’’

वहां से हट कर हम उबल पड़े. ‘‘सच, हम भारतवासियों को एकदूसरे को तड़पाने व तड़पते देख खूब आनंद आता है. कभी कहते हैं यह लाओ, कभी कहते हैं वह लाओ.’’

हमारे समाज में पुरुषों को रोना वर्जित है, स्त्री होते तो दहाड़ मारमार कर रो लेते. गम में डूबे हुए जब कुबेर भवन पहुंचे तो देखा कमरा नंबर 23 बंद हो चुका था.

8वीं मंजिल पर बहू से जा कर मिले तो उस ने कहा, ‘‘पापा, अपने कागज मुझे दीजिए. मैं अपनी एक मित्र से पूछताछ करवाऊंगी. वह नीचे की पहली मंजिल पर काम करती है और ऐसे मामलों को निबटाती भी है.’’

हम बोले, ‘‘ठीक है, बेटी. कोशिश करो. 400-500 तक खर्च करने को मैं तैयार हूं.’’

2 दिन बाद बहू का फोन आया, ‘‘मैं अपनी दोस्त के साथ राशन अधिकारी से मिली थी. बड़ा बदतमीज आदमी है. पहले तो एकदम मना कर दिया. फिर जब मैं ने कहा कि मैं भी राज्य सरकार में काम करती हूं तब माना. उस का रेट 500 रुपए है. आप अगले सोमवार को आइएगा.’’

हम ने बहू को धन्यवाद दिया. विक्रम और बेताल की कहानी में विक्रम की तरह सोमवार को हम फिर दफ्तर पहुंचे. बहू को फोन मिलाया तो वह नीचे उतर कर आई और लाइन में हमें खड़े देख संतुष्ट हुई. बोली, ‘‘मेरी दोस्त की किसी करीबी रिश्तेदार की 2 दिन पहले मौत हो गई है. वह कई दिन नहीं आ पाएगी. अच्छा किया आप लाइन में लग गए.’’

कतार में करीब 25 लोग लगे थे. 40 मिनट में अपना नंबर आ गया. साहब के पास कागज का पुलिंदा रख चुपचाप खड़े हो गए. सब पन्नों पर उन्होंने एक निगाह डाली फिर कुछ कहे बिना हस्ताक्षर कर हमें बाहर की तरफ इशारा कर दिया.

बाहर गए. पावती पाने वालों की कतार लगी थी, यानी कागज व रुपए जमा कर रसीद लेना. इस कतार मेें हम घंटे भर तक धीरेधीरे सरकते रहे फिर आफिस के अंदर दाखिल हुए. 20 रुपए दिए, रसीद मिली और आदेश मिला कि 5 नवंबर को शाम 4 से 6 बजे के बीच कार्ड लेने आ जाना.

रसीद को पर्स में संभाल कर रखा (खरा सोना जो हो गया था) ऊपर भागे बहू को धन्यवाद देने. देखें, अब 5 नवंबर को क्याक्या गुल खिलते हैं.

5 नवंबर को राशनकार्ड मिल गया, आप को आश्चर्य हुआ न? हमें भी हो रहा है, आज तक.

 राज गोपाल काटजू  

फ्लौपी

कलकत्ता के लिए प्रस्थान करने में केवल 2 दिन शेष रह गए थे. जाती बार सुदर्शन हिदायत दे गए थे कि सांझ तक अपना पूरा काम निबटा लूं. सारे फर्नीचर को ठिकाने से व्यवस्थित कर दूं. बारबार के तबादलों ने दुखी कर रखा था. कितने परिश्रम और चाव से एक अरसे बाद घर बन कर पूरा हुआ था. अब सब छोड़छाड़ कर कलकत्ता चलो. अचानक घंटी ने ध्यान अपनी ओर खींच लिया. भाग कर किवाड़ खोला तो बबल को सामने खड़ा मुसकराता पाया. उस के हाथ में खूबसूरत सा काला और सफेद पिल्ला था.

‘‘कहां से लाए? बड़ा प्यारा है,’’ मैं ने उस के नन्हे मुख को हाथ में ले कर पुचकारा.

‘‘मां, यह बी ब्लाक वाली चाचीजी का है. पूरे साढ़े 700 रुपए का है,’’ उस ने उत्साह से भर कर उस के कीमती होने का  बखान किया.

‘‘हां, बहुत प्यारा है,’’ मैं ने पिल्ले को हाथ में ले कर कहा.

‘‘गोद में ले लो. देखो, कैसे रेशम जैसे बाल हैं इस के,’’ उस ने पिल्ले के चमकते हुए बालों को हाथ से सहलाया.

गोद में ले कर मैं ने उसे 3-4 बिस्कुट खिलाए तो वह गपागप चट कर गया और जब उस की आंखें डब्बे में बंद शेष बिस्कुटों की तरफ भी लोलुपता से निहारने लगीं तो मैं ने उसे डांट दिया, ‘‘बस, चलो भागो यहां से. बहुत हो गया लाड़प्यार.’’

फिर मैं ने बबल से कहा, ‘‘बबल, देखो अब ज्यादा समय नष्ट मत करो. इस पिल्ले को इस के घर छोड़ आओ और वापस आ कर अपना सामान बांधो. विकी से भी कहना कि जल्दी घर लौटे. अपने- अपने कमरों का जिम्मा तुम्हारा है, मैं कुछ नहीं करूंगी.’’

‘‘चलो भई, मां तुम्हारे साथ खेलने नहीं देंगी,’’ उस ने पिल्ले का मुख चूम लिया और बी ब्लाक की तरफ भाग गया.

आधे घंटे बाद जब वह पुन: लौटा तो विकी उस के साथ था. दोनों अपने- अपने कमरों में जा कर सामान समेटने लगे परंतु बीचबीच में कुछ खुसुरफुसुर की आवाजों से मैं शंकित हो उठी. मैं ने आवाज दे कर पूछा, ‘‘क्या बात है. आज तो दोनों भाइयों में बड़े प्रेम से बातचीत हो रही है.’’

जब भी मेरे दोनों बेटे आपस में घुलमिल कर एक हो जाते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि जरूर मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. जैसे वे घर में देवरानी और जेठानी हों और मैं उन की कठोर सास. एक बार हंस कर मेरे पति ने पूछा भी था, ‘‘तुम इन्हें देवरानीजेठानी क्यों कहती हो?’’

‘‘इसलिए कि वैसे तो दोनों में पटती नहीं, परंतु जब भी मेरे खिलाफ होते हैं तो आपस में मिल कर एक हो जाते हैं. आप ने देखा होगा, अकसर देवरानीजेठानी के रिश्तों में ऐसा ही होता है,’’ मेरी इस बात पर घर में सब बहुत हंसे थे.

‘‘मेरी प्यारीप्यारी मां,’’ पीठ के पीछे से आ कर बबल ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया.

‘‘जरूर कोई बात है, तभी मस्का लगा रहे हो?’’

‘‘फ्लौपी है न सुंदर.’’

‘‘कौन फ्लौपी?’’

‘‘वही पिल्ला, जिसे मैं घर लाया था.’’

‘‘उस का नाम फ्लौपी है, बड़ा अजीब सा नाम है,’’ मैं ने व्यंग्य से मुंह बिचकाया.

‘‘वह गिरता बहुत है न, इसलिए चाचीजी ने उस का नाम फ्लौपी रख दिया है.’’

‘‘हमारे पामेरियन माशा के साथ उस की कोई तुलना नहीं. जैसी शक्ल वैसी ही अक्ल पाई थी उस ने. कितनी मेहनत की थी मैं ने उस पर. हमारे दिल्ली आने से पहले ही बेचारा मर गया,’’ मैं ने एक ठंडी आह भरी, ‘‘कोई भी घर आता तो कैसे 2 पांवों पर खड़ा हो कर हाथ जोड़ कर नमस्ते करता. मैं उसे कभी भूल नहीं सकती.’’

‘‘वैसे तो मां अपना ब्ंिलकर भी किसी से कम न था, जिसे आप की एक सहेली ने भेंट किया था,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘पर उस के बाल बड़े लंबे थे. बेचारा ठीक से देख भी नहीं सकता था. हर समय अपनी आंखें ही झपकता रहता था. तभी तो पिताजी ने उस का नाम ब्ंिलकर रख छोड़ा था.’’

बबल की बातें सुन कर मैं कुछ देर के लिए खो सी गई और एक ठंडी आह भर कर बोली, ‘‘1 साल बाद ब्ंिलकर चोरी हो गया और माशा को किसी ने मार डाला.’’

‘‘कई लोग बड़े निर्दयी होते हैं,’’ बबल ने मेरी दुखती रग पकड़ी.

‘‘तुम्हें याद है, जिस दिन मैं एक पत्रिका के लिए साक्षात्कार कर के लौटी तो कितनी देर तक मेरे हाथपांव चाटता रहा. जहां भी जा कर लेटती वहीं भाग आता. मैं सुबह से गायब रही, शायद इसलिए उदास हो गया था. उस रात हम किसी के घर आमंत्रित थे. चुपके से कमरे से बाहर निकल गया और लगा कार के पीछे भागने. मैं कार से उतर कर पुन: उसे घर छोड़ आई. पर वह था बड़ा बदमाश. हमारे जाते ही गेट से निकल कर फिर कहीं मटरगश्ती करने निकल पड़ा.’’

‘‘मां, उस रात आप ने बड़ी गलती की. वह आप के साथ कार में जाना चाहता था. आप उसे साथ ले जातीं तो वह बच जाता.’’

‘‘बच्चे, अगर उसे बचना होता तो उसे एक जगह टिक कर बंधे रहने की समझ अपनेआप आ जाती. उस का सब से बड़ा दोष था कि वह एक जगह बंध कर नहीं रहना चाहता था. जब भी बांधने का नाम लो, आगे से गुर्राना शुरू कर देता. उस रात भी तो उस ने ऐसा ही किया था.’’

‘‘मां, आप मेरी बात मानो, वह किसी की कार के नीचे आ कर नहीं मरा. उस के शरीर पर एक भी जख्म नहीं था. ऐसे लगता था जैसे सो रहा हो. जरूर उस निकम्मे नौकर ने ही उसे मार डाला था. माशा उसे पसंद नहीं करता था. नौकर ने ही तो आ कर खबर दी थी कि माशा मर गया है,’’ बबल ने क्रोध में अपने दांत पीसे.

‘‘हम कुत्ता पालते तो हैं लेकिन उस का सुख नहीं भोग सकते,’’ मैं ने उदास हो कर कहा.

‘‘मां, अगर आप को फ्लौपी जैसा पिल्ला मिल जाए तो आप ले लेंगी?’’ विनम्रता से चहक कर उस ने मतलब की बात कही.

‘‘मैं साढ़े 700 रुपए खर्च करने वाली नहीं. कोई मजाक है क्या? मुझे नहीं चाहिए फ्लौपी,’’ मैं ने गुस्से में अपने तेवर बदले.

‘‘कौन कहता है आप को रुपए खर्च करने को. चाचीजी तो उसे मुफ्त में दे रही हैं.’’

‘‘क्यों? तो फिर जरूर उस में कोई खोट होगी. वरना कौन अपना कुत्ता किसी को देता है?’’

‘‘खोटवोट कुछ नहीं. उन का बच्चा छोटा है, इसलिए उसे समय नहीं दे पातीं. आप तो बस हर बात पर शक करती हैं.’’

हम दोनों की बहस सुन कर मेरा बड़ा बेटा विकी भी उस की तरफदारी करने अपने कमरे से निकल आया, ‘‘मां, बबल बिलकुल ठीक कह रहा है. चाचीजी पिल्ले के लिए कोई अच्छा सा परिवार ढूंढ़ रही हैं. आप को शक हो तो स्वयं उन से मिल लो.’’

‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से. माशा के बाद अब मुझे कोई कुत्ता नहीं पालना. सुना तुम ने,’’ मैं पांव पटकती पुन: सामान समेटने लगी, ‘‘कलकत्ता के 8वें तल्ले पर है हमारा फ्लैट. उसे पालना कोई मजाक नहीं. तुम्हारे पिता भी नहीं मानेंगे,’’ मैं ने कड़ा विरोध किया. परंतु उन दोनों में से मेरी बात मानने वाला वहां था कौन?

‘‘हम तो फ्लौपी को जरूर पालेंगे,’’ दोनों भाई जोरदार शब्दों में घोषणा कर के अपनेअपने कमरों में चले गए.

जब दूसरे दिन इस विषय पर कोई चर्चा न हुई तो मैं ने चैन की सांस ली. परंतु तीसरे दिन सवेरा होते ही पुन: वही रट शुरू हो गई, ‘‘मां, कृपया फ्लौपी को ले लो न. हम वादा करते हैं, उस की सारी जिम्मेदारी हमारी होगी. आप को कुछ भी नहीं करना होगा,’’ दोनों भाई एकसाथ बोल पड़े.

इस तरह मेरे कड़े विरोध के बावजूद उस रोज 1 घंटे के अंदर ही नन्हा फ्लौपी हमारे परिवार का सदस्य हो गया. शाम को जब यह दफ्तर से घर आए तो फ्लौपी को देख कर बोले, ‘‘तो इन दोनों ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया. बड़ा मुश्किल काम है इसे पालना.’’

इस बार मेरे साहित्यप्रेमी पति को पिल्ले का नाम सोचने के सुख से हमें वंचित ही रखा, क्योंकि गिरतालुढ़कता फ्लौपी अपना नामकरण तो पहले परिवार से ही करवा कर आया था. दूसरे दिन लाख कोशिशों के बावजूद राजधानी एक्सप्रेस से जब फ्लौपी की बुकिंग न हो सकी तो मैं ने पुन: खैर मनाई. सोचा, चलो सिर से बला टली. पर बबल की आंखों से बहती आंसुओं की अविरल धारा ने मेरे पति के कोमल हृदय को छू लिया और बाध्य हो कर उन्होंने वादा किया कि किसी भी हालत में वे फ्लौपी को कलकत्ता जरूर पहुंचा देंगे.

लगभग 20 रोज पश्चात जब यह दिल्ली दौरे पर गए तो फ्लौपी को लिवा लेने के लिए बच्चों ने फिर जिद की. फिर एक रात सचमुच मैं ने फ्लौपी को सुदर्शन के साथ मुख्यद्वार पर खड़ा पाया.

दोनों बच्चों के मुख पर खुशी का वेग उमड़ आया, ‘‘अरे, तू तो कितना मोटू हो गया है,’’ दोनों उसे बारीबारी सहलाने लगे और बदले में फ्लौपी उन का मुख चाटचाट कर दुम हिलाता रहा.

सवेरा होते ही सारे मिंटो पार्क में हर्षोल्लास की लहर दौड़ गई. बारीबारी सब बच्चे उसे देखने आए, मानो घर में कोई नववधू विराजी हो. पड़ोस की लाहसा ऐप्सो टापिसी तो अपनी मालकिन को हमारे घर ऐसे खींच ले आई मानो फ्लौपी उस का भावी दूल्हा हो और सब बच्चों में धाक अलग से जमी कि बबल का कुत्ता हवाई जहाज से आया है.

कलकत्ता में मिंटो पार्क के मैदान और बगीचे की कोई सानी नहीं. हरी मखमली घास पर जब हमारा फ्लौपी चिडि़यों के पीछे भागता तो बच्चे भी उस के साथ भागते. अच्छाखासा बच्चों का जमघट कहकहों और किलकारियों से गूंजता रहता.

एक रोज हमें कहीं बाहर जाना पड़ा तो हम फ्लौपी को एक कमरे में बंद कर के खुला छोड़ गए. सोचा, आखिर कुत्ते को घर में रह कर मकान की रखवाली करनी चाहिए. लौट कर आसपड़ोस से पता चला कि पीछे से भौंकभौंक कर उस ने सारा मिंटो पार्क सिर पर उठा लिया था. अपने प्रति अन्याय का ढोल पीटपीट कर सब को खूब परेशान किया. अब एक ही चारा था कि या तो कोई घर में सदा उस के पास रहे या फिर वह कार में हमारे साथ चले.

बहुत सोचविचार करने पर दूसरा उपाय ही सब को ठीक लगा. एक रविवार हम टालीगंज क्लब गए तो उसे भी अपने साथ ले गए. मैं ने तरणताल के साथ रखी एक बेंच से उसे बांध दिया और स्वयं तैरने चली गई. तैरते हुए हंसतेखेलते बच्चों व अन्य लोगों को देख कर फ्लौपी ऐसा अभिभूत हुआ कि वहां पर आतीजाती सभी सुंदरियां उसी की हो गईं. जो भी लड़की वहां से गुजरती हम से हैलो पीछे करती, पहले फ्लौपी का मुख चूमती. क्लब का बैरा उस के लिए मीट की हड्डी ले आया. अब हम जहां भी जाते, उसे साथ ले जाते.

फिर बारी आई डाक्टर और दवाइयों के खर्चों की. परंतु जब विटामिन की ताकत उच्छृंखलता में परिवर्तित होने लगी तो मैं सकते में आ गई. अब उसे बांधा जाने लगा. परंतु जैसे ही उस नटखट पिल्ले को मौका मिलता, वह चीजों को मटियामेट करने से न चूकता. कभी जुराब तो कभी बनियान तो कभी परदा यानी जो भी उस के हाथ लगता, हम से नजर चुरा कर उस का कचूमर निकाल डालता.

एक रोज एक कीमती ब्लाउज इस्तरी करने लगी. उसे खोल कर मेज पर बिछाया तो उस की हालत देख कर दंग रह गई, ‘‘ओ मंगला, यह देख इस की हालत, क्या इसे किसी काकरोच ने काट डाला?’’ मैं ने हैरानगी जाहिर की.

मंगला बेचारी सारा काम छोड़ कर भागी आई, ‘‘मेमसाहब, इसे तो फ्लौपी ने काटा है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? देखो, गले के पीछे से और बाजुओं पर से ही तो काटा गया है.’’

‘‘हां, जहांजहां पसीने के दाग थे, वह हिस्सा चबा गया.’’

‘‘इस मुसीबत ने तो जीना मुश्किल कर दिया है,’’ मैं ने फ्लौपी को जंजीर समेत घसीट कर अपना ब्लाउज दिखाया.

मेरी कठोर आवाज सुन कर वह सहम गया और उस ने अपना मुख दूसरी तरफ फेर लिया. मेरी गुस्से भरी आवाज सुन कर बबल भी अपने कमरे से भाग आया और गुस्से से बोला, ‘‘हमें जीने नहीं देगा. अब तू क्या चाहता है?’’ उस ने उस रात उसे पलंग के पाए से कस कर बांध दिया, ‘‘बच्चू, तेरी यही सजा है. अपनी हरकतों से बाज आ जा वरना मार डालूंगा,’’ बबल ने उंगली दिखा कर उसे कड़ा आदेश दिया.

फ्लौपी दुम दबा कर पलंग के नीचे दुबक गया.

‘‘मां, आप मेरी बात मानो. इस बेवकूफ को मीट की हड्डी ला दो, सारा दिन बैठा चबाता रहेगा. याद है, माशा हड्डी से कितना खुश रहता था,’’ रात को मेरे बड़े बेटे ने खाने की मेज पर हिदायत दी.

‘‘पर माशा ने हमारी एक भी चीज खराब नहीं की थी. बड़ा ही समझदार कुत्ता था.’’

‘‘हां मां, पर वह बंगले के बाहर के बरामदे में बंधा रहता था और रात को अपना चौकीदार उस की देखभाल करता था. आप उस को घर के अंदर कहां आने देती थीं.’’

‘‘बेटे, यही तरीका है कुत्ता पालने का और यहां इस 8वें तल्ले पर हम इस बेजबान के साथ सरासर अन्याय कर रहे हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘मेमसाहब. कितनी बार हम इस के साथ नीचे जाएंगे,’’ मंगला ने गुस्से में मेरी बात का समर्थन किया.

अगले दिन खरीदारी करने जब मैं बाजार गई तो 4-5 मोटीमोटी मीट की हड्डियां खरीद लाई. रोज उसे एक पकड़ा देती. हड्डी देख कर वह नाच उठता. दिन के समय वह कुरसी के पाए से बंधा रहता और रात को पलंग के पाए से. हड्डी उस के पास धरी रहती. जब उस का जी करता, चबा लेता. 5-6 रोज तक फिर उस ने कोई चीज न फाड़ी. एक सुबह सो कर उठी तो यह सोच कर बहुत प्रसन्न थी कि फ्लौपी की आदतों में सुधार हो रहा है. मैं ने उसे प्यार से सहलाया और फिर रसोई में नाश्ता बनाने चली गई.

इस बीच बच्चे अपना कमरा बंद कर के पढ़ने का नाटक रचते रहे और फ्लौपी को बड़ी मेज की कुरसी के पाए से बांध गए. जब खापी कर नाश्ता खत्म हो गया तो मैं ने आमलेट का एक टुकड़ा दे कर फ्लौपी को पुचकारा, ‘‘अब तो मेरा फ्लौपी बहुत सयाना हो गया है.’’

मेरी बात सुन कर बबल सहम गया. पर उस के सहज होने के नाटक से मैं ताड़ गई कि कोई न कोई बात जरूर है जो मुझ से छिपाई जा रही है. चुपके से जा कर मैं ने विकी के कमरे का दरवाजा सरकाया तो दंग रह गई. हाल ही में खरीदे गए गद्दे पर विकी सफाई से पैबंद लगा रहा था.

‘‘तो यह बात है. 400 रुपए का नया गद्दा है मेरा. इस मुसीबत के कारण तो सारे घर की शांति भंग हो गई है,’’ मैं ने दोचार करारे थप्पड़ उस बेजबान के मुख पर जड़ दिए, ‘‘तू है ही नालायक.’’

रोजरोज घर की शांति भंग होने लगी. शेष बची चीजों को मैं संभालती ताकि कंबल, साडि़यां आदि पर वह अपने दांत न आजमाए. अब उस ने हमारे एक कीमती गलीचे को अपना शिकार बनाया और हमारे बारबार मना करने पर भी वह नजर चुरा कर उसे पेशाब और मल से गंदा कर देता. दिल चाहा कि फ्लौपी के टुकड़े कर दिए जाएं और बच्चों की भी जम कर पिटाई की जाए, जो उसे घर में लाने के जिम्मेदार थे.

एक रात को तो हद हो गई. रात के 3 बजे थे. यह दौरे पर थे. मेरी तबीयत खराब थी. फ्लौपी ने मुझे पांव मार कर जगाया कि उसे नीचे जाना है. मैं ने बबल को आवाज दी, ‘‘रात का समय है, मेरे साथ नीचे चलो.’’

बेचारा झट उठ खड़ा हुआ. बाहर बरामदे में जा कर देखा तो लिफ्ट काम नहीं कर रही थी. अब एक ही चारा था कि सीढि़यों से नीचे उतरा जाए. बेचारा जानवर अपनेआप को कब तक रोकता. उस ने सीढि़यों में ही ‘गंदा’ कर दिया.

मिंटो पार्क कलकत्ता की एक बेहद आधुनिक जगह है. कागज का एक टुकड़ा भी सारे अहाते में दिखाई दे जाए तो बहुत बड़ी बात है.

सवेरा होते मैं डर ही रही थी कि यहां के प्रभारी आ धमके, ‘‘सुनिए, या तो आप अपने कुत्ते को पैंट पहनाइए या फिर किसी नीचे रहने वाले निवासी को सौंप दीजिए. यही मेरी राय है.’’

उस दिन से हम एक ऐसे अदद परिवार की तलाश करने लगे जो फ्लौपी को उस की शैतानियों के साथ स्वीकार कर सके.

हमारे घर विधान नामक एक युवक दूध देने आता था. वह फ्लौपी को बहुत प्यार करता था. हमारी समस्या से वह कुछकुछ वाकिफ हो गया. एक रोज साहस कर के बोला, ‘‘मेमसाहब, नीचे वाला दरबान बोल रहा है कि आप फ्लौपी किसी को दे रहे हैं.’’

‘‘हां, हमारा ऊपर का फ्लैट है न, इसलिए कुछ मुश्किल हो रही है.’’

‘‘मेमसाहब, हमारा घर तो नीचे का है. हमें दे दीजिए न फ्लौपी को.’’

‘‘पूरे 800 रुपए का कुत्ता है, भैया,’’ पास खड़ी मंगला ने रोबदार आवाज में कहा.

‘‘नहींनहीं, हमें इसे बेचना नहीं है. देंगे तो वैसे ही. जो भी इसे प्यार से, ठीक से रख सके.’’

‘‘हम तो इसे बहुत प्यार से रखेंगे,’’ विधान बोला.

‘‘पर तुम तो काम करते हो. घर पर इस की देखभाल कौन करेगा,’’ मैं ने पूछा.

‘‘घर में मां, बहन और एक छोटा भाई है.’’

‘‘इस का खर्चा बहुत है, कर सकोगे?’’

‘‘दूध तो अपने पास बहुत है और मीट भी हम खाते ही हैं.’’

‘‘इस की दवाइयों और डाक्टर का खर्चा?’’

‘‘आप चिंता न करें,’’ विधान ने मुसकराते हुए कहा.

हम दोनों की बातें सुन कर विकी अपने कमरे से भागा आया, ‘‘मां, वह प्यार से फ्लौपी को मांग रहा है. मेरी बात मानो, दे दो इसे. मुझे घर की शांति ज्यादा प्यारी है.’’

सचमुच उस ने फ्लौपी को दोनों हाथों से उठा कर विधान के हाथों में दे दिया.

मैं हतप्रभ सी खड़ी बबल के चेहरे पर उतरतेचढ़ते भावों को पढ़ कर बोली, ‘‘विधान, तुम इसे कुछ रोज अपने पास रखो, फिर मैं सोचूंगी.’’

फ्लौपी चला गया तो ऐसा लगा कि घर में कुछ विशेष काम ही नहीं. ‘चलो मुसीबत टली,’ मैं ने सोचा. पर 2 दिन पश्चात ही महसूस होने लगा कि घर का सारा माहौल ही कसैला हो गया है. बच्चे स्कूल से लौटते तो चुपचाप अपनेअपने कमरों में दुबक जाते. न कोई हंसी न खेल. 2 रोज पहले तो फ्लौपी था. बच्चों की आहट पाते ही भौंभौं कर के झूमझूम जाता था और बदले में विकी और बबल के प्रेमरस से सराबोर फिकरे सुनने को मिलते.

उल्लासरहित वातावरण मन को अखरने लगा. जब खाने की मेज पर बच्चे बैठते तो बारबार उस कोने को देख कर ठंडी आहें भरते जहां वह बंधा रहता था. मन एक तीव्र उदासी से लबालब हो उठा. अगली सुबह जब विधान दूध देने आया तो मैं ने फ्लौपी के बारे में पूछताछ की.

‘‘बहुत खुश है, मेमसाहब. मेरी बहन उसे बहुत प्यार करती है,’’ विधान ने बताया.

‘‘कल शाम को उसे मिलाने के लिए जरूर लाना. बच्चे उसे बहुत याद करते हैं.’’

‘‘अच्छा मेमसाहब, कल शाम 4 बजे उसे जरूर लाऊंगा,’’ वह कुछ सोच कर बोला.

दूसरे दिन 3 बजते ही बच्चे फ्लौपी का बेसब्री से इंतजार करने लगे थे. इतने उत्साहित थे कि अपने मित्रों के साथ नीचे खेलने भी न गए. जरा सी आहट पाते ही मंगला बारबार दरवाजा खोल कर देखती. पहले 4 बजे, फिर 5 बज गए, पर फ्लौपी न आया और न विधान ही दिखाई दिया. हम सब का धैर्य जवाब देने लगा. बबल उदास स्वर में बोला, ‘‘अब वह लड़का फ्लौपी को कभी नहीं लाएगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं हैरान हो कर बोली.

‘‘उस ने उस पर अपना हक जमा लिया है.’’

‘‘तो क्या, 2 रोज में ही फ्लौपी विधान का हो गया. मैं कल ही उस से बात करूंगा,’’ विकी क्रोध में बोला.

‘‘कितना महंगा कुत्ता है. कहीं उस ने बेच न दिया हो, मेमसाहब,’’ मंगला ने अपनी शंका व्यक्त की.

‘‘बेच कर तो देखे. हम उस की पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे,’’ विकी ने ऊंचे स्वर में कहा.

‘‘ऐसा करो बबल, जा कर देख आओ कि सब ठीक है न,’’ इन्हीं बातों में शाम बीत गई पर विधान न आया.

‘‘मां, एक बात कहूं पर डर लगता है,’’ विकी बोला.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं फ्लौपी का एक्सीडेंट तो नहीं हो गया,’’ उस की बात सुन कर मेरा कलेजा धक से रह गया कि कहीं माशा वाले अंत की पुनरावृत्ति न हो जाए. मुझे तो विधान से यह भी पूछना याद नहीं रहा कि कहीं उस का घर सड़क के किनारे तो नहीं.

अज्ञात आशंका के कारण सारा उत्साह भय में तबदील हो गया. मन एक तीव्र अपराधबोध से भर उठा. एक घुटन सी मेरे भीतर गूंजने लगी. सोचा, जल्दबाजी में सब गड़बड़ हो गया. कुछ दिनों में फ्लौपी अपनेआप ठीक हो जाता.

सवेरा होते ही मैं दरवाजे पर टकटकी लगाए विधान की राह देखने लगी. जैसे ही लिफ्ट की आहट हुई, मैं ने झट से किवाड़ खोला, उसे अकेला आया देख कर एक बार तो संशय तनमन को झकझोरने लगा.

‘‘फ्लौपी को क्यों नहीं लाए? सब ठीक तो है न?’’ मैं एकसाथ कई प्रश्न कर उठी.

‘‘कल कुछ मेहमान आ गए थे, मेमसाहब. इसलिए नहीं आ सका. वैसे वह ठीक है.’’

विधान की बात सुन कर मैं एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो कर बोली, ‘‘देखो, आज शाम को फ्लौपी को जरूर लाना वरना बच्चे बहुत नाराज होंगे.’’

शाम को 3 बजे जैसे ही बाहर की घंटी बजी, बच्चों ने लपक कर दरवाजा खोला. फ्लौपी हम सब को देखते ही विधान की बांहों से छूट कर मेरी गोद में आ गया.

मुख चाटचाट कर, दुम हिलाहिला कर और झूमझूम कर वह अपनी खुशी प्रकट करने लगा. बच्चों का उत्साह से नाचना और खिलखिलाना मुझे बड़ा भला लगा. एक बार तो मुझे ऐसा लगा कि दीर्घकाल से बिछुड़ा मेरा तीसरा बच्चा मिल गया हो और हमारी ममता भरी छाया में पहुंच गया हो. आधे घंटे बाद जब विधान पुन: फ्लौपी को लेने के लिए आया तो मेरे मुख से बस इतना ही निकला, ‘‘विधान, अब फ्लौपी को यहीं रहने दो, हमारा मन नहीं मानता.’’

एक मुलाकात जिन्ना से

मोहम्मद अली जिन्ना, जिन को पाकिस्तान का संस्थापक होने का श्रेय दिया जाता है, अब इस दुनिया में नहीं हैं. जाहिर है उन से मुलाकात तो अब सिर्फ सपने में ही हो सकती है. चलिए ऐसा ही एक सपना एक दिन मैं ने भी देख लिया. सपने में मैं ने देखा कि मैं जिन्ना का इंटरव्यू ले रहा हूं.

राजनेता वैसे भी इंटरव्यू देने में बड़े उतावले व कुशल होते हैं. खुद का अधिक से अधिक प्रचार व सत्ता की प्राप्ति ही उन के जीवन का इकलौता ध्येय होता है. जिन्ना कोई साधारण राजनेता नहीं थे, वे आजादी के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा थे. कोई एक व्यक्ति ही नए राष्ट्र के निर्माण का सारा श्रेय ले जाए, ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में विरला है. जिन्ना साहब ने यही श्रेय प्राप्त किया है.

मेरे मन में मुख्य प्रश्न तो यही था कि यदि इस पृथ्वी पर धर्म जैसी कोई चीज नहीं होती तो क्या जिन्ना जिन्ना होते या कुछ और होते? माना, जिन्ना ने देश के 2 टुकड़े किए लेकिन जिस चाकू से उन्होंने 2 टुकड़े किए वह चाकू तो धर्म का ही था. सदियों से इनसान समझ नहीं पाया है कि धर्म जोड़ने का काम करता है या तोड़ने का. धर्म को ले कर इनसान इतना टची क्यों है? खैर, यहां आप के लिए पेश हैं उस काल्पनिक इंटरव्यू के कुछ अंश :

जिन्ना साहब, आप हमेशा हौट रहे हैं. आप उन राजनेताओं में हैं जो हमेशा हौट डिमांड में रहते हैं. आप इस समय भी बड़ी चर्चा में हैं. आप को चर्चा में लाने वाले हैं जसवंत सिंह. आप जिन्ना और वे जसवंत. मजे की बात यह है कि वे एक ऐसे राजनीतिक दल के सदस्य रहे हैं जो धर्म की बैसाखियों के सहारे ही चलता रहा है. जसवंत ने बड़ी कुशलता से अपने विचारों को वर्षों छिपा कर रखा और अब जब उन्होंने उन विचारों को जाहिर किया तो उन के दल ने उन्हें बाहर निकाल दिया.

हूं हूं. राजनीति कुछ ऐसी ही होती है. एक समय सुभाष चंद्र बोस को भी कांगे्रस छोड़ कर जाना पड़ा था.

आप को यह जान कर खुशी होगी कि जसवंत ने आप को एक महान भारतीय बताया है?

इनसानों पर लेबल लगाना हमेशा से समाज का काम रहा है. किसी पर वह भगवान होने का लेबल लगाता है तो किसी पर शैतान होने का लेबल लगाता है. हिंदूमुसलमान के लेबल भी तो समाज ही लगाता है, कोई अपनी मां के पेट से तो हिंदूमुसलमान हो कर आता नहीं है. दूसरे इनसानों की तरह मैं भी सिर्फ एक इनसान ही हूं.

(आश्चर्य से) जिन्ना साहब, यह आप कह रहे हैं?

यकीन रखो, मैं अब बहुत बदल चुका हूं. मैं वह नहीं हूं जो कभी पहले था. गांधी भी आज होते तो वही नहीं होते जो वे 1948 में थे. इनसान निरंतर बदलता रहता है, समय व समाज भी निरंतर बदलते रहते हैं. बौद्ध ठीक कहते हैं कि सत्य परिवर्तनशील है.

आप की बातों से मेरा आश्चर्य बढ़ता है. इन दिनों मैं ने आप पर दर्जनों लेख समाचारपत्रपत्रिकाओं में पढ़े हैं. ये लेख स्वनामधन्य, नामीगिरामी लेखकों द्वारा लिखे गए हैं. सब पढ़ कर भी कुछ हाथ नहीं लगा. और तो और यह भी पता नहीं लगा कि जिन्ना साहब नायक हैं या खलनायक, और न ही यह पता चला कि देश का बंटवारा क्यों हुआ. क्या आप बता सकते हैं कि देश का बंटवारा क्यों हुआ?

देश का बंटवारा हुआ, इस बारे में हम कह सकते हैं कि पहली बार 2 आधुनिक राष्ट्रों के रूप में भारत व पाकिस्तान का गठन हुआ. 540 रियासतों को एक कर पहली बार भारत देश बना. वरना तो यह भूभाग हजारों वर्षों से छोटेछोटे राजामहाराजाओं के कब्जे में रहा है. मैं ने भी पाकिस्तान के रूप में एक आधुनिक देश के निर्माण का प्रयास किया. यह अलग बात है कि वह आधुनिक राष्ट्र नहीं बन पाया. अब तो पाकिस्तान तालिबानीकरण का शिकार हो गया है. न जाने मेरे सपने का क्या होगा?

इस देश के लोग हमेशा से धर्म व जाति के नाम पर बंटे हुए थे. देश का बंटवारा क्यों हुआ यह पूछने से पहले यह पूछो कि देश गुलाम क्यों हुआ? हजारों साल से यह देश गुलाम था. देश का गुलाम होना, आजाद होना, देश का बंटवारा होना, ये सब एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं.

1971 में तो देश फिर एक बार टूटा. पाकिस्तान व भारत पर आज भी विभाजन का खतरा ज्यों का त्यों बना हुआ है. लोग धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर दिनरात लड़ रहे हैं. बंटवारे के लिए किसी एक व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. पूरा देश व पूरा समाज इस के लिए जिम्मेदार था.

मैं पूछता हूं कि 1947 में मुझ जिन्ना के सिवा शेष 40 करोड़ लोग क्या कर रहे थे. यदि मैं देश को तोड़ने में लगा था तो उन्होंने मेरा हाथ क्यों नहीं पकड़ा? उन्होंने मुझ को उठा कर गटर में क्यों नहीं डाल दिया? अपने को धोखा न दो, बंटवारे के लिए उस समय मौजूद देश का हर नागरिक जिम्मेदार था. हां, मेरी जिम्मेदारी दूसरों से कुछ ज्यादा हो सकती है.

जिन्ना साहब, आप तो धर्मवादी नहीं थे. धर्म ने एकता के नाम पर हमेशा लोगों को विभाजित किया है. आप का निजी जीवन तो धर्म से लगभग मुक्त था. फिर क्यों आप ने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए धार्मिक विभाजन की बैसाखियों का सहारा लिया?

मजेदार बात यह है कि मैं, नेहरू व पटेल तो शुद्ध राजनेता थे. हम में से किसी को भी साधु होने का शौक नहीं था. केवल गांधी ही कभी यह तय नहीं कर पाए कि उन्हें साधु होना है या राजनीति करनी है. उन का जीवन एक घालमेल बन गया. राजनेता हर हाल में सत्ता पाना चाहता है. लेकिन समाज द्वारा थोपे गए आदर्शों के कारण उसे हिप्पोक्रेट बनना पड़ता है.

मैं भी अपने समय का शीर्षस्थ नेता होना चाहता था लेकिन 1915 में गांधी ने अफ्रीका से आ कर मेरे सपनों को तोड़ना शुरू कर दिया. पटेल व नेहरू तो उन के अनुयायी हो गए. मेरे लिए यह संभव नहीं था. उन्होंने सार्वजनिक जीवन में जिस तरह धर्म का उपयोग शुरू किया उस का मुकाबला भी मैं किसी प्रकार नहीं कर सकता था. राजनेता के लिए लोकप्रियता उस का जीवन रस है. आखिर एक समय भगतसिंह का अपने बराबर लोकप्रिय हो जाना गांधी को भी रास नहीं आया था.

राजनीति में अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करना बुरी बात नहीं समझी जाती है. चाणक्य ने भी साम, दाम, दंड, भेद की बात की है. हजारों वर्षों से राजा, राजनेता अपने स्वार्थ, अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए राज्यों को बनाते व तोड़ते आए हैं. इसलिए मैं न तो ऐसा पहला व्यक्ति हूं और न ही अंतिम. हां, आज मुझे यह लगता है कि मैं ने धर्म व राजनीति की जगह इनसानियत को तरजीह दी होती तो बेहतर होता.

तो आप विभाजन में अपनी जिम्मेदारी स्वीकारते हैं?

जितनी मेरी थी उतनी स्वीकारता हूं. उस से ज्यादा जिम्मेदारी मुझ पर मत थोपें.

कुछ लोग यह सपना देखते हैं कि भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश फिर एक हो जाएं. क्या आप भी ऐसा सोचते हैं?

उस से क्या होगा? एक हो भी गए तो क्या होगा? जो हाल अभी इन 3 देशों का है एक होने पर भी वही हाल बना रहेगा. भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, वोटों की राजनीति, कमजोरों और दलितों पर अत्याचार, पैसे की ताकत का नंगा नाच, स्त्रियों से बलात्कार आदि मामलों में एक होने से हालात कुछ बदल नहीं जाएंगे.

धर्मों ने हमेशा एकतासमानता की बातें की हैं, लेकिन वे कभी एकता- समानता ला नहीं पाए हैं. सच तो यह है कि हर नए धर्म ने विश्व को एक नया विभाजन दिया है. एक ही धर्म के मानने वाले लोग भी कभी आपस में एकतासमानता को स्थापित नहीं कर सके तो अन्य धर्मावलंबियों के साथ तो एकतासमानता की बात ही व्यर्थ है.

शायद वैश्विक एकता की बात वे लोग करते हैं जो दूसरों पर शासन करने को उत्सुक होते हैं. बगैर लोगों को संगठित किए नेता बना नहीं जा सकता है. यदि विश्व सरकार स्थापित हो जाए तो एक राजनेता पूरे विश्व पर शासन कर सकता है. यदि विश्व के सब नागरिक हिंदू हो जाएं तो एक हिंदू धर्मगुरु पूरे विश्व पर शासन कर सकता है. इसी तरह यदि सब मुसलमान एक हो जाएं तो एक मुसलमान धर्मगुरु सब पर शासन कर सकता है. बुरा होगा वह दिन जब एक ही व्यक्ति या एक ही दल का शासन पूरे विश्व पर होगा.

राजनेता हो या धर्मगुरु, कोई भी आखिरी सांस तक अपनी सत्ता छोड़ना नहीं चाहता है. जनता मजबूर कर दे तो बात अलग है.

खेद व्यक्त करता हूं जिन्ना साहब कि आप का इंटरव्यू करतेकरते मैं अपने विचार व्यक्त करने लग गया.

खैर, आप आज के युवकों को कोई संदेश देना चाहते हैं?

मेरा कोई संदेश नहीं है. हजारों वर्षों में धर्मगुरुओं, विचारकों ने हजारों व्यर्थ धारणाओं, आदर्शों को गढ़ा है. हमें इस जाल को काट फेंकना है. इनसान को धर्म व राजनीति की जकड़ से छुड़ाना है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें