नया सवेरा: आखिर सेठजी ने भोला को क्यों माफ नहीं किया

सेठ चमन लाल का कपड़े का व्यापार बढ़ता जा रहा था, इसलिए उन्हें एक अकाउंटेंट की आवश्यकता थी. इस के लिए अखबार में विज्ञापन निकाला गया था. इस पद के लिए दर्जनों लोग आ चुके थे, लेकिन उन के पास इतना समय नहीं था कि स्वयं बैठ कर योग्य उम्मीदवार का चयन कर सकें, इसलिए यह जिम्मेवारी वे अपनी पत्नी रंजना देवी को दिए थे.

रंजना देवी आए हुए उम्मीदवारों से कई तरह के सवाल पूछ कर जांचने की कोशिश की, लेकिन रंजना देवी की उम्मीदों के तराजू पर सिर्फ भोला ही खरा निकला था. क्योंकि भोला का ध्यान सवालों पर कम, रंजना के ब्लाउज के ऊपर से दिख रहे उभारों को निहारने में ज्यादा था, जिसे रंजना भांप चुकी थी. सवालों के जवाब देते समय उस ने यह भी जतला दिया था कि रंजना जो कहेंगी, वह कभी भी करने से मना नहीं करेगा.

रंजना जानती थी कि ऐसे कामों के लिए वैसे व्यक्ति को रखना ठीक है जो उन के पति के साथसाथ उस का भी आज्ञापालक हो. भोला बिलकुल वैसा ही था, जैसा रंजना चाहती थी. भोला देखने में आकर्षक और सुंदर नौजवान था.

जब कभी सेठजी 1-2 दिन के लिए किसी काम के सिलसिले में बाहर चले जाते थे, तो भोला ही उन का कारोबार संभालता था. भोला उन के लेनदेन का हिसाब तो सटीक रखता ही था, लेकिन वह रंजना के कई कामों को चुटकी में निबटा देता था. इसीलिए सेठजी का सब से प्रिय कर्मचारी में से एक था.

सेठजी घर में नौकर नहीं रखना चाहते थे क्योंकि वह दुनियादारी जानते थे. उन का मानना था कि आजकल नौकर लोग घर पर विश्वास जमा कर डाका डाल देते हैं. मालिक की हत्या तक कर डालते हैं. इसी डर की वजह से वे घर के लिए कोई नौकर नहीं रख पाए थे.

इस जरूरत को भी भोला पूरा कर देता था. जब कभी भी रंजना भोला को किसी काम के लिए कहती, वह खुशीखुशी कर देता था. यही कारण था कि वह सेठजी का भी विश्वासी हो चुका था. अकसर उसे ही किसी भी काम के लिए घर पर भेजते रहते थे. वह तुरंत हाजिर हो जाता था. वह किसी भी काम को करने में नानुकर नहीं करता था. इसी स्वभाव के कारण वह सेठजी के साथ रंजना का भी दुलारा बन गया था.

एक दिन सेठजी दुकान बढ़ा कर घर लौट रहे थे, तो उन की मोबाइल की घंटी बजी थी. सेठजी ने जब फोन उठाया, तो उन्हें मालूम हुआ कि मुंबई में व्यापारियों का बहुत बड़ा सम्मेलन होने वाला है. उस में शामिल होने के लिए उन्हें जाना पड़ेगा. वे जिन कंपनियों के माल बेचते थे, उस कंपनी के मालिक ने इन को खास आमंत्रित किया था. भला ऐसे अवसर को कोई व्यापारी कैसे हाथ से जाने दे सकता था. उन्होंने घर आते ही प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी रंजना देवी से कहा, ‘‘रंजना, आज मुझे मुंबई निकलना पड़ेगा.‘‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘क्योंकि मंुबई में बड़ेबड़े व्यापारियों का खास सम्मेलन होने वाला है. खुशी की बात यह है कि मुंबई की नामी कंपनी के मालिक रतनभाईजी ने मुझे खास निमंत्रण भेजा है. हो सकता है, उन से मुझे नया कौंट्रैक्ट मिल जाए,‘‘ यह सुन कर रंजना मन ही मन मुसकराई.

‘‘आप जल्दी से खाना खा लीजिए,‘‘ रंजना ने टेबल पर खाना लगाते हुए कहा.

‘‘अरे हां, कल से दुकान को भोला को ही संभालना पड़ेगा. लेकिन एक समस्या है, रंजना?‘‘ खाना खाते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या समस्या है?‘‘ रंजना ने अपने पति से सवाल किया.

‘‘समस्या यह है कि भोला तो दुकान संभालने के लिए तैयार ही नहीं था. कहने लगा कि आप के बिना इतने दिनों तक दुकान कैसे चला पाऊंगा. मैं ने उस को समझा दिया है कि रंजना भी इस काम में मदद कर देंगी.‘‘

‘‘आप बेफिक्र हो कर जाइए. मैं भोला को दुकान संभालने में मदद कर दूंगी,‘‘ उन की पत्नी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए जवाब दिया.

सेठजी को रात में ट्रेन से ही निकलना था, इसलिए उन्होंने भोला को भी बुला लिया था. वह उन की गाड़ी से स्टेशन छोड़ देगा. इधर सेठ भी जल्दीजल्दी जाने की तैयारी कर रहे थे. तभी भोला भी आ गया था.

भोला हर काम में दक्ष था. सेठजी की गाड़ी को भी वही चलाता था, क्योंकि सेठजी ज्यादा से ज्यादा भोला जैसे सीधेसादे कर्मचारी से काम लेना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने गाड़ी का ड्राइवर अलग से नहीं रखा था.

रंजना मन ही मन बहुत खुश थी कि आज भोला उस के घर पर ही रुकेगा. दरअसल, रंजना जब से सेठजी के घर आई थी, उस ने सेठजी को पैसे के पीछे ज्यादा भागते देखा था. रंजना के लिए सभी सुखसुविधाएं तो घर में थीं, लेकिन एक कमी थी तो सेठजी की. जब भी इस की इच्छाएं जगती, तो सेठजी के थके होने के कारण वह अपने अरमानों को दबा लेती थी. अंदर ही अंदर वह कुढ़ती रहती थी.

जब से रंजना देवी ने भोला को काम पर रखा था, अधूरी इच्छाएं मचलने लगी थीं. वह अवसर की तलाश में थी. पति की गैरमौजूदगी में आज अरमान पूरे होने वाले थे.

इधर भोला भी चाहता था कि आज रंजना और उस के बीच दूरियां मिट जाएं, क्योंकि वह रंजना के व्यवहार से समझ चुका था. वह जब कभी भी सेठजी के घर जाता था, रंजना के अंदरूनी अंगों को ताड़ने की कोशिश करता था. वह रंजना के मौन समर्थन को भी समझ गया था. लेकिन सेठजी के यहां नौकरी जाने के डर से वह आगे नहीं बढ़ पाया था. इस बात का अहसास रंजना को भी था.

भोला जैसे ही घर में दाखिल हुआ, वे दोनों जल्दी ही एकदूसरे की बांहों में समा गए थे. भोला उस के कोमल अंगों से खेलने लगा था. आज रंजना भी कई महीनों बाद देहसुख की प्राप्ति कर रही थी.

कुछ दिन बाद ही सेठजी सम्मेलन से लौट आए थे. अब भोला का दुकान से ज्यादा घर के कामों में मन लग रहा था. वह किसी न किसी बहाने घर के कामों के लिए मौके की तलाश में रहता था. जब कभी भी सेठजी घर के कामों के लिए कहते, वह जल्दी ही तैयार हो जाता था.

इधर जब भी भोला और उन की पत्नी को मौका मिलता, प्यार के खेल में शामिल हो जाते. अब दोनों को किसी प्रकार की रुकावट पसंद नहीं थी. किसी भी हाल में एकदूसरे से अलग नहीं रहना चाह रहे थे. इसलिए वेे सही मौके की तलाश में थे.

इधर भोला का मन काम में नहीं लग रहा था. पहले की तरह इस का ध्यान दुकान पर नहीं रहता था. सेठजी भी भोला के बदले हुए रूप से परेशान थे. उन्हें भी लग रहा था कि कहीं ना कहीं गड़बड़ है. वे जब भी भोला को गलत काम पर डांटतेफटकारते, वह ढीठ की तरह एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता था.

वे चाह कर भी उसे नहीं हटा पा रहे थे, क्योंकि वे किसी भी सूरत में अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाह रहे थे. जब भी वे भोला को हटाने की बात करते, उन की पत्नी ढाल बन कर खड़ी हो जाती थी. वह घर की जिम्मेवारियों की दुहाई देने लगती थी. भोला घर और उन के व्यापार के लिए कितना महत्वपूर्ण था. यह बात उन्हें भी पता थी.

एक दिन सेठजी काफी बीमार पड़ गए. उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. उन की बीमारी काफी गंभीर थी. इसलिए उन की देखभाल पत्नी और भोला ही कर रहा था. भोला ही उन की पत्नी को अस्पताल ले कर जाता और ले कर आता था. उन की बीमारी काफी लंबे समय तक रह गई.

इघर भोला और रंजना मौका देख अपने अरमान पूरा करते. क्योंकि दोनों को रोकनेटोकने वाला कोई नहीं था. एक दिन भोला ने रंजना को बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘आखिर कब तक हम लोग सेठजी से छुप कर मिलते रहेंगे?‘‘

‘‘और आखिर उपाय भी क्या है?‘‘ रंजना ने उस की बांहों में समाते हुए सवाल किया था.

‘‘यही कि हम दोनों को यहां से भाग जाना चाहिए. हमें अलग दुनिया बसा लेनी चाहिए,‘‘ यही बातें रंजना के मन में भी चल रही थीं. वह ऐसा करने के लिए पहले से तैयार थी.

दोनों ने मिल कर सब से पहले खाते से कुछ रुपए निकाले. रंजना ने अपने कीमती गहने समेटे और अपना घर छोड़ भोला के साथ स्टेशन आ गई. फिर दोनों मिल कर एक अनजान रास्ते पर चल पड़े थे. लेकिन मंजिल का कोई अतापता नहीं था.

कई दिनों तक जब सेठजी से कोई अस्पताल में मिलने नहीं पहुंचा, तो सेठजी को शक हुआ. कुछ दिन बाद वे घर पर स्वस्थ हो कर लौटे तो पता चला कि भोला और उन की पत्नी मिल कर अकाउंट खाली कर चुके हैं. दरअसल, उन की पत्नी के साथ ही उन का जौइंट अकाउंट था. सेठजी के न रहने पर बिजनेस के लिए वह पत्नी से ही चेक पर साइन करवाता रहता था. दोनों ने मिल कर बैंक से सारे पैसे निकाल लिए थे. साथ ही, उन की पत्नी के कीमती गहने भी गायब थे.

अब सेठजी पछता रहे थे. उन्हें बेहद अफसोस हो रहा था कि वे अपनी पत्नी को भी नहीं समझ पाए. उन का घर पत्नी के बिना बहुत सूना लग रहा था. घर जैसे काटने को दौड़ रहा था. वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या किया जाए.

वे कई महीने बाद धीरेधीरे अपने व्यापार को दूसरे शहर में शिफ्ट करने के लिए सोचने लगे. उन्हें याद आया कि कुछ दिन पहले से ही अपने राज्य की राजधानी में घर खरीदने की सोच रहे थे. पहले उन का विचार था कि उस घर को वहां किराए पर लगा दिया जाएगा. कुछ कमरे अपने लिए बंद रख छोड़ा जाएगा, क्योंकि व्यापार के सिलसिले में कई शहरों में जाना पड़ता था. उन की इच्छा थी कि उन का कुछ दूसरे बड़े शहरों में अपना घर होना ही चाहिए.

जल्दी ही सेठजी ने घर बेचने वाले दलालों से बात की. एक मकान देखने के लिए बुलाया गया. मकान अच्छा था. व्यापार के लिहाज से शहर भी बहुत अच्छा था. उन की राय थी कि इस शहर में आ जाने के बाद पुरानी बातें भूल जाएंगे. फिर नए सिरे से जिंदगी शुरू की जा सकती है. यही सोच कर घर खरीद लिया गया. नए शहर में दुकान के लिए इधरउधर दौड़ रहे थे. भागदौड़ के चलते उन्हें होटलों में ही खाना पड़ता था.

एक दिन सेठजी काफी थके हुए थे. होटल में खाना खाने के बाद चाय की चुसकी ले रहे थे, तभी उन की नजर होटल के किचन में बरतन धोती एक महिला पर गई. वह महिला बरतन धोने में व्यस्त थी.

सेठजी की नजर जैसे ही उस महिला के चेहरे पर गई, उन की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. वह कोई और नहीं, बल्कि उन की पत्नी रंजना देवी थी. जैसे ही रंजना उस होटल से बरतन धो कर बाहर निकली, तभी सेठ चमन लाल उस के पीछेपीछे चलने लगे थे. रंजना अपनी धुन में चली जा रही थी. पीछे से सेठजी ने पुकारा, ‘‘रंजना…‘‘

रंजना ने पीछे मुड़ कर देखा था. वह कुछ क्षण सेठ चमन लाल को देखते रह गई थी. तभी उस की आंखों में अंधेरा छा गया था. वह गिरने वाली थी. सेठजी ने उसे संभाला. होश आने पर उसे अपने नए घर ले आए.

सेठजी ने रंजना से भोला के बारे में पूछा, तो उस ने बताया, ‘‘भोला के साथ वह कुछ दिन होटल में रही. लेकिन वह मुझे छोड़ कर पैसे और गहने ले कर भाग गया. आज तक नहीं लौटा वह.

‘‘पेट की भूख मिटाने के लिए वह आसपास के ढाबे और होटलों में बरतन धोने लगी. वह जहांतहां फुटपाथ पर ही सो कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी. अब वह किस मुंह से आप के पास लौटती.

आज बरतन धो कर निकल रही थी तो पता नहीं आप ने कहां से देख लिया. उस ने सेठजी से अपने किए करतूतों के लिए माफी मांगी और जाने की अनुमति चाही. सेठजी ने उसे गले लगा लिया और बोले, ‘‘रंजना, तुम्हें गलत रास्ते पर जाने देने के लिए दोषी मैं भी उतना ही हूं. अगर मैं तुम्हें भरपूर प्यार देता तो शायद तुम भी गलत राह पर नहीं जाती.

दरअसल, मैं भी पैसे के पीछे ज्यादा भागने लगा था, इसलिए तुम्हारे ऊपर मेरा ध्यान बिलकुल नहीं था. अब तो मुझे तुम से माफी मांगनी चाहिए.

ऐसा कहते हुए दोनों ने एकदूसरे को माफ कर गले लगा लिया था. रंजना को लग रहा था, आज उस के लिए नया सवेरा हुआ है.

मलमल की चादर : वैदही और नीरज का क्या रिश्ता था

आज फिर बरसात हो रही है. वर्षा ऋतु जैसी दूसरी ऋतु नहीं. विस्तृत फैले नभ में मेघों का खेल. कभी एकदूसरे के पीछे चलना तो कभी मुठभेड़. कभी छींटे तो कभी मूसलाधार बौछार. किंतु नभ और नीर की यह आंखमिचौली तभी सुहाती है जब चित्त प्रसन्न होता है. मन चंगा तो कठौती में गंगा. और मन ही हताश, निराश, घायल हो तब…? वैदेही ने कमरे की खिड़की की चिटकनी चढ़ाई और फिर बिस्तर पर पसर गई.

उस की दृष्टि में कितना बेरंग मौसम था, घुटा हुआ. पता नहीं मौसम की उदासी उस के दिल पर छाई थी या दिल की उदासी मौसम पर. जैसे बादलों से नीर की नहीं, दर्द की बौछार हो रही हो. वैदेही ने शौल को अपने क्षीणकाय कंधों पर कस कर लपेट लिया.

शाम ढलने को थी. बाहर फैला कुहरा मन में दबे पांव उतर कर वहां भी धुंधलका कर रहा था. यही कुहरा कब डूबती शाम का घनेरा बन कमरे में फैल गया, पता ही नहीं चला. लेटेलेटे वैदेही की टांगें कांपने लगीं. पता नहीं यह उस के तन की कमजोरी थी या मन की. उठ कर चलने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी उस की. शौल को खींच कर अपनी टांगों तक ले आई वह.

अचानक कमरे की बत्ती जली. नीरज थे. कुछ रोष जताते हुए बोले, ‘‘कमरे की बत्ती तो जला लेतीं.’’ फिर स्वयं ही अपना स्वर संभाल लिया, ‘‘मैं तुम्हारे लिए बंसी की दुकान से समोसे लाया था. गरमागरम हैं. चलो, उठो, चाय बना दो. मैं हाथमुंह धो आता हूं, फिर साथ खाएंगे.’’

एक वह जमाना था जब वैदेही और नीरज में इसी चटरमटर खाने को ले कर बहस छिड़ी रहती थी. वैदेही का चहेता जंकफूड नीरज की आंख की किरकिरी हुआ करता था. उन्हें तो बस स्वास्थ्यवर्धक भोजन का जनून था. लेकिन आज उन के कृत्य के पीछे का आशय समझने पर वह मन ही मन चिढ़ गई. वह समझ रही थी कि समोसे उस के खानेपीने के शौक को पूरा करने के लिए नहीं थे बल्कि यह एक मदद थी, नीरज की एक और कोशिश वैदेही को जिंदगी में लौटा लाने की. पर वह कैसे पहले की तरह हंसेबोले?

वैदेही तो जीना ही भूल गई थी जब डाक्टर ने बताया था कि उसे कैंसर है. कैंसर…पहले इस चिंता में उस का साथ निभाने को सभी थे. केवल वही नहीं, उस का पूरा परिवार झुलस रहा था इस पीड़ाग्नि में. वैदेही का मन शारीरिक पीड़ा के साथ मानसिक ग्लानि के कारण और भी झुलस उठता था कि सभी को दुखतकलीफ देने के लिए उस का शरीर जिम्मेदार था. बारीबारी कभी सास, कभी मां, कभी मौसी, सभी आई थीं उस की 2 वर्र्ष पुरानी गृहस्थी संभालने को. नीरज तो थे ही. लेकिन वही जानती थी कि सब से नजरें मिलाना कितना कठिन होता था उस के लिए. हर दृष्टि में  ‘मत जाओ छोड़ कर’ का भाव उग्र होता. तो क्या वह अपनी इच्छा से कर रही थी? सभी जरूरत से अधिक कोशिशें कर रहे थे. शायद कोई भी उसे खुश रखने का आखिरी मौका हाथ से खोना नहीं चाहता था.

अब तक उस की जिंदगी मलमल की चादर सी रही थी. हर कोई रश्क करता, और वह शान से इस मलमल की चादर को ओढ़े इठलाती फिरती. लेकिन पिछले 8 महीनों में इस मलमल की चादर में कैंसर का पैबंद लग गया था. इस की खूबसूरती बिगड़ चुकी थी. अब इसे दूसरे तो क्या, स्वयं वैदेही भी ओढ़ना नहीं चाहती थी. आजकल आईना उसे डराता था. हर बार उस की अपनी छवि उसे एक झटका देती.

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. देखो न, तुम्हारे बाल फिर से आने लगे हैं. और आजकल तो इस तरह के छोटे कटे बाल लेटेस्ट फैशन भी हैं. क्या कहते हैं इस हेयरस्टाइल को…हां, याद आया, क्रौप कट,’’ आईने से नजरें चुराती वैदेही को कनखियों से देख नीरज ने कहा.

क्यों समझ जाते हैं नीरज उस के दिल की हर बात, हर डर, हर शंका? क्यों करते हैं वे उस से इतना प्यार? आखिर 2 वर्ष ही तो बीते हैं इन्हें साथ में. वैदेही के मन में जो बातें ठंडे छींटे जैसी लगनी चाहिए थीं, वे भी शूल सरीखी चुभती थीं.

समोसे और चाय के बाद नीरज टीवी देखने लगे. वैदेही को भी अपने साथ बैठा लिया. डाक्टरों के पिछले परीक्षण ने यह सिद्ध कर दिया था कि अब वैदेही इस बीमारी के चंगुल से मुक्त है. सभी ने राहत की सांस ली थी और फिर अपनीअपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए थे. रिश्तेदार अपनेअपने घर लौट गए थे. नीरज सारा दिन दफ्तर में व्यस्त रहते. लेकिन शाम को अब भी समय से घर लौट आते थे. डाक्टरी राय के अनुसार, नीरज हर मुमकिन प्रयास करते रहते वैदेही में सकारात्मक विचार फूंकने की.

परंतु कैंसर ने न केवल वैदेही के शरीर पर बल्कि उस के दिमाग पर भी असर कर दिया था. सभी समझाते कि अकेले उदासीन बैठे रहना सर्वथा अनुचित है. बाहर निकला करो, लोगों से मिलाजुला करो. लेकिन वह जब भी घर के दरवाजे तक पहुंचती, उस का अवचेतन मन उसे देहरी के भीतर धकेल देता. घर की चारदीवारी जैसे सिकुड़ गई थी. मन में अजीब सी छटपटाहट बढ़ने लगी थी. दिल बहलाने को कुछ देर सड़क पर टहलने के इरादे से गई. मगर यह इतना आसान नहीं था. सड़क पर पहुंचते ही लगा जैसे सारा वातावरण इस स्थिति को घूरने को एकत्रित हो गया हो. आसमान में उस के अधूरे मन सा अधूरा चांद, आसपास के उदास पत्थर, फूलपत्ते, गहराती रात…सभी उस के अंदर की पीड़ा को और गहरा रहे थे. इस अकेली ठंडी सांध्य में वैदेही घर लौट कर बिस्तर पर निढाल हो लेट गई. दिल कसमसा उठा. नयनों के पोरों से बहते अश्रुओं ने अब कान के पास के बाल भी गीले कर दिए थे.

उस की सूरत से उस की मनोस्थिति को भांप कर नीरज बोले, ‘‘वैदू, आगे की जिंदगी की ओर देखो. अभी हमारी गृहस्थी नई है, उग रही है. आगे इस में नूतन पुष्प खिलेंगे. क्या तुम भविष्य के बारे में कभी भी सकारात्मक नहीं होगी?’’

पर वैदेही आंखें मूंदे पड़ी रही. एक बार फिर वह वही सब नहीं सुनना चाहती थी. उस को नहीं मानना कि उस के कारण सभी के सकारात्मक स्वप्न धूमिल हो रहे हैं. अन्य सभी की भांति वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ है. कैंसर के बारे में उस ने जो कुछ भी पढ़ासुना था, उस से यही जाना था कि कैंसर एक ढीठ, जिद्दी बीमारी है. यदि उस के अंदर अब भी इस का कोई अंश पनप रहा हो तो? मन में यह बात आ ही जाती.

अगली सुबह वैदेही रसोई में गई तो पाया कि नीरज ने पहले ही चाय का पानी चढ़ा दिया था. प्रश्नसूचक नजरों के उत्तर में वे बोले, ‘‘आज शाम मेरे कालेज का जिगरी दोस्त व उस की पत्नी आएंगे. तुम दिन में आराम करो ताकि शाम को फ्रैश फील करो. और हां, कोई अच्छी सी साड़ी पहन लेना.’’

दिन फिर उसी खिन्नता में गुजरा. किंतु सूर्यास्त के समय वैदेही को नीरज का उत्साह देख मन ही मन हंसी आई. भागभाग कर घर साफसुथरा किया, रैस्तरां से मंगवाई खानेपीने की वस्तुओं को करीने से डाइनिंग टेबल पर सजाया.

वैदेही अपने कक्ष में जा साड़ी पहन कर जैसे ही बिंदी लगाने को आईने की ओर मुड़ी, सिर पर छोटेछोटे केश देख फिर हतोत्साहित हो गई. क्या फायदा अच्छी साड़ी, इत्र या सजने का जब शक्ल से ही वह… तभी दरवाजे पर बजी घंटी के कारण उसे कक्ष से बाहर आना पड़ा.

‘‘इन से मिलो, ये है मेरा लंगोटिया यार, सुमित, और ये हैं साक्षी भाभी,’’ कहते हुए नीरज ने वैदेही का परिचय मेहमानों से करवाया. हलकी मुसकान लिए वैदेही ने हाथ जोड़ दिए किंतु उस की अपेक्षा से परे साक्षी ने आगे बढ़ फौरन उसे गले से लगा लिया. ‘‘इन दोनों को अपना शादीशुदा गम हलका करने दो, हम बैठ कर इन की खूब चुगली करते हैं,’’ साक्षी हंस कर कहने लगी.

लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिल रहे हैं. इतनी घनिष्ठता से मिले दोनों मियांबीवी कि उन के घर में अचानक रौनक आ गई. धूमिल से वातावरण में मानो उल्लास की किरणें फूट पड़ीं. साक्षी पुरानी बिसरी सखी समान बातचीत में मगन हो गई थी. वैदेही भी आज खुद को अपने पुराने अवतार में पा कर खुश थी.

दोनों की गपबाजी चल रही थी कि नीरज लगभग भागते हुए उस के पास आए और बोले, ‘‘वैदेही, सुमित को पिछले वर्ष कैंसर हुआ था, अभी बताया इस ने.’’ इस अप्रत्याशित बात से वैदेही का मुंह खुला रह गया. बस, विस्फारित नेत्रों से कभी सुमित, तो कभी साक्षी को ताकने लगी.

‘‘अरे यार, वह बात तो कब की खत्म हो गई. अब मैं भलाचंगा हूं, तंदुरुस्त तेरे सामने खड़ा हूं.’’

‘‘हां भैया, अब ये बिलकुल ठीक हैं. और इस का परिणाम यहां है,’’ अपनी कोख की ओर इशारा करते हुए साक्षी के कपोल रक्ताभ हो उठे. नीरज और वैदेही ने अचरजभाव से एकदूसरे को देखा, फिर फौरन संभलते हुए अपने मित्रों को आने वाली खुशी हेतु बधाई दी.

‘‘दरअसल, कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो आज आम सी बनती जा रही है. बस, डर है तो यही कि उस का इलाज थोड़ा कठिन है. परंतु समय रहते ज्ञात हो जाने पर इलाज भी भली प्रकार संभव है. अब मुझे ही देख लो. स्थिति का आभास होते ही पूरा इलाज करवाया और फिर जब डाक्टर ने क्लीनचिट दे दी तो एक बार फिर जिंदगी को भरपूर जीना आरंभ कर डाला,’’ सुमित के स्वर से कोई नहीं भांप सकता था कि वे एक जानलेवा बीमारी से लड़ कर आए हैं.

‘‘हमारा मानना तो यह है कि यह जीवन एक बार मिलता है. यदि इस में थोड़ी हलचल हो भी जाए तो कोशिश कर इसे फिर पटरी पर ले आना चाहिए. शरीर है तो हारीबीमारी लगी ही रहेगी, उस में हताश हो कर तो नहीं बैठा जा सकता न? जो समय मिले, उसे भरपूर जियो.’’

साक्षी ने अपनी बात सुमित की बात से जोड़ी. ‘‘अरे यार, वह कौन सा डायलौग था ‘आनंद’ मूवी का जो अपने कालेज में बोला करते थे…हां, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, हा हा…’’ और सचमुच वे सब हंसने लगे.

नीरज हंसे, वैदेही हंसी. सारा वातावरण, जो अब तक वैदेही को केवल घायल किए रहता था, अचानक बेहद खुशनुमा हो गया था. वैदेही के चक्षु खुल गए थे, वह देख पा रही थी कि उस ने अपनी और अपनों की जिंदगी के साथ क्या कर रखा था अब तक.

सुमित और साक्षी के लौटने के बाद वैदेही ने अलमारी के कोने से अपनी लाल नाइटी निकाली. उसे भी आगे बढ़ना था अब नए सपने सजाने थे. अपनी मलमल की चादर को आखिर कब तक तह कर अलमारी में छिपाए रखेगी जबकि पैबंद तो कब का छूट कर गिर चुका था.

चावल पर लिखे अक्षर : जब हार गई सीमा

दशहरे की छुट्टियों के कारण पूरे 1 महीने के लिए वर्किंग वूमेन होस्टल खाली हो गया था. सभी लड़कियां हंसतीमुसकराती अपनेअपने घर चली गई थीं. बस सलमा, रुखसाना व नगमा ही बची थीं. मैं उदास थी. बारबार मां की याद आ रही थी. बचपन में सभी त्योहार मुझे अच्छे लगते थे. दशहरे में पिताजी मुझे स्कूटर पर आगे खड़ा कर रामलीला व दुर्गापूजा दिखाने ले जाते. दीवाली के दिन मां नाना प्रकार के पकवान बनातीं, पिताजी घर सजाते. शाम को धूमधाम से गणेशलक्ष्मी पूजन होता. फिर पापा ढेर सारे पटाखे चलाते. मैं पटाखों से डरती थी. बस, फुल झड़ियां ही घुमाती रहती. उस रात जगमगाता हुआ शहर कितना अच्छा लगता था. दीवाली के दिन यह शहर भी जगमगाएगा पर मेरे मन में तब भी अंधेरा होगा. 10 वर्ष की थी मैं जब मां का देहांत हो गया. तब से कोई भी त्योहार, त्योहार नहीं लगा. सलमा वगैरह पूछती हैं कि मैं अपने घर क्यों नहीं जाती? अब मैं उन्हें कैसे कहूं कि मेरा कोई घर ही नहीं.

मन उलझने लगा तो सोचा, कमरे की सफाई कर के ही मन बहलाऊं. सफाई के क्रम में एक पुराने संदूक को खोला तो सुनहरे डब्बे में बंद एक शीशी मिली. छोटी और पतली शीशी, जिस के अंदर एक सींक और रुई के बीच चावल का एक दाना चमक रहा था, जिस पर लिखा था, ‘नोरा, आई लव यू.’ मैं ने उस शीशी को चूम लिया और अतीत में डूबती चली गई. यह उपहार मुझे अनवर ने दिया था. दिल्ली के प्रगति मैदान में एक छोटी सी दुकान है, जहां एक लड़की छोटी से छोटी चीजों पर कलाकृतियां बनाती है. अनवर ने उसी से इस चावल पर अपने प्रेम का प्रथम संदेश लिखवाया था.

अनवर मेरे सौतेले बडे़ भाई के मित्र थे, अकसर घर आया करते थे. पिताजी की लंबी बीमारी, फिर मृत्यु के समय उन्होंने हमारी बहुत मदद की थी. भाई उन पर बहुत विश्वास करता था. वह उस के मित्र, भाई, राजदार सब थे पर भाई का व्यवहार मुझ से ठीक न था. कारण यह था कि पिताजी ने अपनी आधी संपत्ति मेरे नाम लिख दी थी. वह चाहता था कि जल्दी से जल्दी मेरी शादी कर के बाकी संपत्ति पर अधिकार कर ले. पर मैं आगे पढ़ना चाहती थी.

एक दिन इसी बात को ले कर उस ने मुझे काफी बुराभला कहा. मैं ने गुस्से में सल्फास की गोलियां खा लीं पर संयोग से अनवर आ गए. वह तत्काल मुझे अस्पताल ले गए. भाई तो पुलिस केस के डर से मेरे साथ आया तक नहीं. जहर के प्रभाव से मेरा बुरा हाल था. लगता था जैसे पूरे शरीर में आग लग गई हो. कलेजे को जैसे कोई निचोड़ रहा हो. उफ , इतनी तड़प, इतनी पीड़ा. मौत जैसे सामने खड़ी थी और जब डाक्टर ने जहर निकालने  के लिए नलियों का प्रयोग किया तो मैं लगभग बेहोश हो गई.

जब होश आया तो देखा अनवर मेरे सिरहाने उदास बैठे हुए हैं. मुझे होश में देख कर उन्होंने अपना ठंडा हाथ मेरे तपते माथे पर रख दिया. आह, ऐसा लगा किसी ने मेरी सारी पीड़ा खींच ली हो. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे तो उन की भी आंखें नम हो आईं. बोले, ‘पगली, रोती क्यों है? उस जालिम की बात पर जान दे रही थी? इतनी सस्ती है तेरी जान? इतनी बहादुर लड़की और यह हरकत…?’

मैं ने रोतेरोेते कहा, ‘मैं अकेली पड़ गई हूं, कोई मेरे साथ नहीं है. मैं क्या करूं?’

वह बोले, ‘आज से यह बात मत कहना, मैं हूं न, तुम्हारा साथ दूंगा. बस, आज से इन प्यारी आंखों में आंसू न आने पाएं. समझीं, वरना मारूंगा.’

मैं रोतेरोते हंस पड़ी थी.

अनवर ने भाई को राजी कर मेरा एम.ए. में दाखिला करा दिया. फिर तो मेरी दुनिया  ही बदल गई. अनवर घर में मुझ से कम बातें करते पर जब बाहर मिलते तो खूब चुटकुले सुना कर हंसाते. धीरेधीरे वह मेरी जिंदगी की एक ऐसी जरूरत बनते जा रहे थे कि जिस दिन वह नहीं मिलते मुझे सूनासूना सा लगता था.

एक दिन मैं अपने घर में पड़ोसी के बच्चे के साथ खेल रही थी. जब वह बेईमानी करता तो मैं उसे चूम लेती. तभी अनवर आ गए और हमारे खेल में शामिल हो गए. जब मैं ने बच्चे को चूमा तो उन्होंने भी अपना दायां गाल मेरी तरफ बढ़ा दिया. मैं ने शरारत से उन्हें भी चूम लिया. जब उन्होंने अपने होंठ मेरी तरफ बढ़ाए तो मैं शरमा गई पर उन की आंखों का चुंबकीय आकर्षण मुझे खींचने लगा और अगले ही पल हमारे अधर एक हो चुके थे. एक अजीब सा थरथराता, कोमल, स्निग्ध, मीठा, नया एहसास, अनोखा सुख, होंठों की शिराओं से उतर कर विद्युत तरंगें बन रक्त के साथ प्रवाहित होने लगा. देह एक मद्धिम आंच में तपने लगी और सितार के कसे तारों से मानो संगीत बजने लगा. तभी भाई की चीखती आवाज से हमारा सम्मोहन टूट गया. अनवर भौचक्के से खड़े हो गए थे. भाई की लाललाल आंखों ने बता दिया कि हम कुछ गलत कर रहे थे.

‘क्या कर रही थी तू बेशर्म, मैं जान से मार डालूंगा तुम्हें,’ उस ने मुझे मारने के लिए हाथ उठाया तो अनवर ने उस का हाथ थाम लिया.

‘इस की कोई गलती नहीं. जो कुछ दंड देना हो मुझे दो.’

भाई चीखा, ‘कमीने, मैं ने तुझे अपना दोस्त समझा और तू…जा, चला जा…फिर कभी मुंह मत दिखाना. मैं गद्दारों से दोस्ती नहीं रखता.’

अनवर आहत दृष्टि से कुछ क्षण भाई को देखते रहे. कल तक वह उस के लिए आदर्श थे, मित्र थे और आज इस पल इतने बुरे हो गए. उन्होंने लंबी सांस ली और धीरेधीरे बाहर चले गए.

मेरा मन तड़पने लगा. यह क्या हो गया? अनवर अब कभी नहीं आएंगे. मैं ने क्यों चूम लिया उन्हें? वह बच्चे नहीं हैं? अब क्या होगा? उन के बिना मैं कैसे जी सकूंगी? मैं अपनेआप में इस प्रकार गुम थी कि भाई क्या कह रहा है, मुझे सुनाई ही नहीं दे रहा था.

उस घटना के कई दिन बाद अनवर मिले और मुझे बताया कि भाई उन्हें घर से ले कर आफिस तक बदनाम कर रहा है. उन के हिंदू मकान मालिक ने उन से कह दिया कि जल्द मकान खाली करो. आफिस में भी काम करना मुश्किल हो रहा है. सब उन्हें अजीब  निगाहों से घूरते हुए मुसकराते हैं, मानो वह कह रहे हों, ‘बड़ा शरीफ बनता था?’ सब से बड़ा गुनाह तो उन का मुसलमान होना बना दिया गया है. मुझे भाई पर क्रोध आने लगा.

अनवर बेहद सुलझे हुए, शरीफ, समझदार व ईमानदार इनसान के रूप में प्रसिद्ध थे. कहीं अनवर बदनामी के डर से कुछ कर  न बैठें, यही सोच कर मैं ने दुखी स्वर में कहा, ‘यह सब मेरी नासमझी के कारण हुआ, मुझे माफ कर दें.’ वह प्यार से बोले, ‘नहीं पगली, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, दोष उमर का है. मैं ने ही कब सोचा था कि तुम से’…वाक्य अधूरा था पर मुझे लगा खुशबू का एक झोंका मेरे मन को छू कर गुजर गया है, मन तितली बन कर उस सुगंध की तलाश में उड़ने लगा.

अचानक उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘सीमा, मुझ से शादी करोगी?’ यह क्या, मैं अपनेआप को आकाश के रंगबिरंगे बादलों के बीच दौड़तेभागते, खिल- खिलाते देख रही हूं. ‘सीमा, बोलो सीमा, क्या दोगी मेरा साथ?’ मैं सम्मोहित व्यक्ति की तरह सिर हिलाने लगी.

वह बोले, ‘मैं दिल्ली जा रहा हूं, वहीं नौकरी ढूंढ़ लूंगा…यहां तो हम चैन से जी नहीं पाएंगे.’

अनवर जब दिल्ली से लौटे थे तो मुझे चावल पर लिखा यह प्रेम संदेश देते हुए बोले थे, ‘आज से तुम नोरा हो…सिर्फ मेरी नोरा’…और सच  उस दिन से मैं नोरा बन कर जीने लगी थी.

अनवर देर कर रहे थे. उधर भाई की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं. वह सब के सामने मुझे अपमानित करने लगा था. उस का प्रिय विषय ‘मुसलिम बुराई पुराण’ था. इतिहास और वर्तमान से छांटछांट उस ने मुसलमानों की गद्दारियों के किस्से एकत्र कर लिए थे और उन्हें वह रस लेले कर सुनाता. मुझे पता था कि यह सब मुझे जलाने के लिए कर रहा था. भाई जितनी उन की बुराई करता, उतनी ही मैं उन के नजदीक होती जा रही थी. हम अकसर मिलते. कभीकभी तो पूरे दिन हम टैंपो से शहर का चक्कर लगाते ताकि देर तक साथ रह सकें. अजीब दिन थे, दहशत और मोहब्बत से भरे हुए. उन की एक नजर, एक मुसकराहट, एक बोल, एक स्पर्श कितना महत्त्वपूर्ण हो उठा था मेरे लिए.

वह अपने प्रेमपत्र कभी मेरे घर के पिछवाडे़ कूडे़ की टंकी के नीचे तो कभी बिजली के खंभे के पास ईंटों के नीचे दबा जाते.

मैं कूड़ा फेंकने के बहाने जा कर उन्हें निकाल लाती. वे पत्र मेरे लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रेमपत्र होते थे.

उन्हें मेरा सतरंगी दुपट्टा विशेष प्रिय था, जिसे ओढ़ कर मैं शाम को छत पर टहलती और वह दूर सड़क से गुजरते हुए फोन पर विशेष संकेत दे कर अपनी बेचैनी जाहिर करते. भाई घूरघूर कर मुझे देखता और मैं मन ही मन रोमांचकारी खुशी से भर उठती.

एक दिन जब मैं विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो ड्राइंग रूम से भाई के जोरजोर से बोलने की आवाज सुनाई दी. अंदर जा कर देखा तो धक से रह गई. अनवर सिर झुकाए खडे़ थे. अनवर को यह क्या सूझा? आखिर वही पागलपन कर बैठे न, कितना मना किया था मैं ने? पर ये मर्द अपनी ही बात चलाते हैं. इतना आसान तो नहीं है जातिधर्म का भेदभाव मिट जाना? चले आए भाई से मेरा हाथ मांगने, उफ, न जाने क्याक्या कहा होगा भाई ने उन्हें. भाई मुझे देख कर और भी शेर हो गया. उन का हाथ पकड़ कर बाहर की तरफ धकेलते हुए गालियां बकने लगा. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी. बाहर कालोनी के कुछ लोग भी जमा हो गए थे. मैं तमाशा बनने के डर से कमरे में बंद हो गई. रात भर तड़पती रही.

दूसरे दिन शाम को किसी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया. खोल कर देखा तो अनवर के एक मित्र थे. किसी भावी आशंका से मेरा मन कांप उठा. वह बोले, ‘अनवर ने काफी मात्रा में जहर खा लिया है और मेडिकल कालिज में मौत से लड़ रहा है. बारबार नोरानोरा पुकार रहा है. जल्दी चलिए.’ मैं घबरा गई. मैं ने जल्दी से पैरों में चप्पल डालीं और सीढ़ियां उतरने लगी. देखा तो आखिरी सीढ़ी पर भाई खड़ा था. मैं ठिठक गई. फिर साहस कर बोली, ‘मुझे जाने दो, बस, एक बार देखना चाहती हूं उन्हें.’

‘नहीं, तुम नहीं जाओगी, मरता है तो मर जाने दो, साला अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है.’

‘प्लीज, भाई, चाहो तो तुम भी साथ चलो, बस, एक बार मिल कर आ जाऊंगी.’

‘कदापि नहीं, उस गद्दार का मुंह भी देखना पाप है.’

‘भाई, एक बार मेरी प्रार्थना सुन लो, फिर तुम जो चाहोगे वही करूंगी. अपने हिस्से की जायदाद भी तुम्हारे नाम कर दूंगी.’

‘सच? तो यह लो कागज, इस पर हस्ताक्षर कर दो.’ उस ने जेब से न जाने कब का तैयार दस्तावेज निकाल कर मेरे सामने लहरा दिया. मेरा मन घृणा से भर उठा. जी तो चाहा कागज के टुकडे़ कर के उस के मुंह पर दे मारूं पर इस समय अनवर की जिंदगी का सवाल था. समय बिलकुल नहीं था और बाहर कालोनी वाले जुटने लगे थे. मैं ने भाई के हाथ से पेन ले कर उस दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए और तेजी से लोगों के बीच से रास्ता बनाती अनवर के मित्र के स्कूटर पर बैठ गई.

जातेजाते भाई के कुछ शब्द कान में पडे़, ‘देख रहे हैं न आप लोग, यह अपनी मर्जी से जा रही है. कल कोई यह न कहे, सौतेले भाई ने घर से निकाल दिया. विधर्मी की मोहब्बत ने इसे पागल कर दिया है. अब मैं इसे कभी घर में घुसने नहीं दूंगा. मेरे खानदान का नाम और धर्म सब भ्रष्ट कर दिया है इस कुलकलंकिनी ने.’

स्कूटर मेडिकल कालिज की तरफ बढ़ा जा रहा था. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए, ‘तो यह…यह है मां के घर से मेरी विदाई.’ अनवर खतरे से बाहर आ चुके थे. उन्हें होश आ गया पर मुझे देखते ही वह थरथरा उठे, ‘तुम…तुम कैसे आ गईं? जाओ, लौट जाओ, कहीं पुलिस…’ मैं ने अनवर का हाथ दबा कर कहा, ‘आप चिंता न करें, कुछ नहीं होगा.’ पर अनवर का भय कम नहीं हो रहा था. वह उसी तरह थरथराते रहे और मुझे वापस जाने को कहते रहे. मैं उन्हें कैसे समझाती कि मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, अब मेरी वापसी कभी नहीं होगी.

वह नीमबेहोशी में थे. जहर ने उन के दिमाग पर बुरा असर डाला था. उन को चिंतामुक्त करने के लिए मैं बाहर इमली के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई. बीचबीच में जा कर उन के पास पडे़ स्टूल पर बैठ जाती और निद्रामग्न उन के चेहरे को देखती रहती और सोचती, ‘किस्मत ने मुझे किस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है?’ आगे का रास्ता सुझाई नहीं पड़ रहा था.

पक्षी चहचहाने लगे तो पता चला कि सुबह हो चुकी है. मैं अनवर के सिरहाने बैठ कर उन का सिर सहलाने लगी. उन्होंने आंखें खोल दीं और मुसकराए. उन की मुसकराहट ने मेरे रात भर के तनाव को धो दिया. मारे खुशी के मेरी आंखें नम हो आईं.

‘सच ही सुबह हो गई है क्या?’ मैं ने उन की तरफ शिकायती नजरों से देखा, ‘तुम ने ऐसा क्यों किया अनवर, क्यों…मुझे छोड़ कर पलायन करना चाहते थे. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा?’

उन्होंने शायद मेरी आंखें पढ़ ली थीं. कमजोर स्वर में बोले, ‘मैं ने बहुत सोचा और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ये मजहबी लोग हमें कहीं भी साथ जीने नहीं देंगे. इन के दिलों में एकदूसरे के लिए इतनी घृणा है कि हमारा प्रेम कम पड़ जाएगा. नोरा, तुम ने सुना होगा, बाबरी मसजिद गिरा दी गई है. चारों तरफ दंगेफसाद, आगजनी, उफ, इतनी जानें जा रही हैं पर इन की खून की प्यास नहीं बुझ रही है. तब सोचा, तुम्हें पाने का एक ही उपाय है, तुम्हारे भाई से तुम्हारा हाथ मांग लूं. आखिर वह मेरा पुराना मित्र है, शायद इनसानियत की कोई किरण उस में शेष हो, पर नहीं.’ अनवर की आंखों से आंसू टपक पडे़.

मेरे मन में हाहाकार मचा हुआ था. एक पहाड़ को टूटते देख रही थी मैं. मैं बोली, पर हमें हारना नहीं है अनवर. जैसे भी जीने दिया जाएगा हम जीएंगे. यह हमारा अधिकार है. तुम ठीक हो जाओ फिर सोचेंगे कि हमें क्या करना है. मैं यहां से वर्किंग वूमन होस्टल चली जाऊंगी…’ बात अधूरी रह गई. उसी समय कुछ लोग वहां आ कर खडे़ हो गए. उन की वेशभूषा ने बता दिया कि वे अनवर के रिश्तेदार हैं. वे लोग मुझे ऐसी नजरों से देख रहे थे कि मैं कट कर रह गई. अनवर ने मुझे चले जाने का संकेत किया. मैं वहां से सीधे बस अड्डे आ गई.

महीनों गुजर गए. अनवर का कोई समाचार नहीं मिला. न जाने उन के रिश्तेदार उन्हें कहां ले गए थे. मेरे पास सब्र के सिवा कोई रास्ता न था. एक दिन अचानक उन का खत मिला. मैं ने कांपते हाथों से उसे खोला. लिखा था, ‘नोरा, मुझे माफ करना. मैं तुम्हारा साथ न निभा सका. मुझे सब अपनी शर्तों पर जीने को कहते हैं. मैं कमजोर पड़ गया हूं. तुम सबल हो, समर्थ हो, अपना रास्ता खोज लोगी. मैं तुम से बहुत दूर जा रहा हूं, शायद कभी न लौटने के लिए.’

छनाक की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा वह पतली शीशी हाथ से छूट कर टूट गई पर चावल का वह दाना साबुत था और उस पर लिखे अक्षर उसी ताजगी से चमक रहे थे.

निर्णय आपका: सास से परेशान दामाद की कहानी

संसार में शायद मुझ से अधिक कोई बदनसीब नहीं होगा. विवाह में सब को दहेज में गाड़ी, सोफा, फ्रिज मिलता है, सुंदर पत्नी घर आती है, लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ. हमारा विवाह हुआ, पत्नी भी आई और दहेज में सास मिल गई.

हम ने सोचा 1-2 दिन की परेशानी होगी सो भोग लो, किंतु हमारी सोच एकदम गलत साबित हुई. हमें पत्नीजी ने बताया कि आप की सास को यहां का हवापानी काफी जम गया है सो वह अब यहीं रहेंगी. यहां की जलवायु से उन का ब्लड प्रेशर भी सामान्य हो गया है.

हम ने सुना तो हमारा ब्लड प्रेशर बढ़ गया, लेकिन यदि विरोध करते तो तलाक की नौबत आ जाती. हो सकता है ससुराल पक्ष के व्यक्ति दहेज लेने का, प्रताड़ना का मुकदमा ठोंक देते. इसलिए मन मार कर हम ने यह सोच कर कि आज का दौर एक पर एक फ्री का है, सास को भी स्वीकार कर लिया.

2-3 माह तक दिल पर पत्थर रख कर हम अपनी सास को सहन करते रहे, लेकिन सोचा कि आखिर यह छाती पर पत्थर रख कर हम कब तक जीवित रह पाएंगे? सो हम ने पत्नीजी से सास की पसंद एवं नापसंद वस्तुओं को जान लिया. हमारी सास को कुत्ते, बिल्ली से सख्त नफरत थी. बचपन में उन की मां का स्वर्गवास कुतिया के काटने से हुआ था. पिताजी का नरकवास बिल्ली के पंजा मारने से हुआ था. हम ने भी मन ही मन ठान लिया कि कुत्ता, बिल्ली जल्दी से लाएंगे ताकि सासूजी प्रस्थान कर जाएं और हम अपनी जिंदगी को सुचारु रूप से चला सकें.

हम ने अपने अभिन्न मित्र मटरू से अपनी समस्या बताई और वह महल्ले से एक खजिया कुत्ते का पिल्ला और एक मरियल बिल्ली को ले आए. हम उन्हें खुशीखुशी झोले में डाल कर अपने घर ले आए. हमारी पत्नी ने देखा तो दहाड़ मार कर पीछे हट गई. सासूमां ने बेटी की दहाड़ सुनी तो दौड़ती आईं. हमारे झोले से खजिया कुत्ता एवं बिल्ली को देखा. हम खुश हो गए कि अब तो हमारी सास आधे घंटे बाद घर छोड़ कर प्रस्थान कर जाएंगी लेकिन मनुष्य जो सोचता है वह कब पूरा होता है?

सास ने उन 2 निरीह प्राणियों को देखा तो चच्चच् कर के वहीं जमीन पर बैठ गईं और हमारी ओर बड़ी दया की नजरों से देख कर कहा, ‘‘सच में दामाद हो तो तुम जैसा.’’

‘‘क्यों, ऐसा हम ने क्या कर दिया सासूमां?’’ हम ने प्रसन्नता को मन में छिपाते हुए पूछा.

‘‘अरे, दामादजी, तुम इन निरीह प्राणियों को ऐसी स्थिति में उठा लाए, ये काम बिरले व्यक्ति ही कर सकते हैं. मैं पहले जानवरों से बहुत नफरत करती थी, लेकिन जब से जानवरों की रक्षा करने वाली संस्था की सदस्य बनी हूं तब से  मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. तुम खड़े क्यों हो…आटोरिकशा लाओ?’’ सासूजी ने आदेश दिया.

‘‘आटोरिकशा किसलिए?’’

‘‘अस्पताल चलना है.’’

‘‘क्यों? यह (पत्नीजी उठ बैठी थीं) तो ठीकठाक हैं?’’ हम ने भोलेपन से कहा.

‘‘दामादजी, इन कुत्तेबिल्ली के बच्चों को ले कर चलना है, जल्दी करो,’’ सासूमां ने आर्डर दिया. हम दिल पर पत्थर रख कर चले गए. आगे की घटना बड़ी छोटी है.

आटोरिकशा आया, उस के रुपए हम ने दिए. वेटनरी डाक्टर को दिखाया उस के रुपए हम ने दिए. जानवरों के लिए 1 हजार रुपए की दवा खरीदी वह रुपए देतेदेते हमें चक्कर आने लगे थे. कुल जमा 1,500 रुपयों पर हमें हमारे दोस्त मटरू ने उतार दिया था. घर ला कर उन जानवरों के लिए दूध, ब्रेड की व्यवस्था भी की, और जब ओवर बजट होने लगा तो एक रात चुपके से हम ने दोनों को थैली में बंद कर के मटरू के?घर में छोड़ दिया.

हमारी सास जब सुबह उठीं तो बड़ी दुखी थीं कि पालतू जानवर कहां चले गए? हमारा दुर्भाग्य देखो कि मटरू स्कूटर से सुबह ही आ धमका, ‘‘अरे, गोपाल, ये दोनों मेरे घर आ गए थे. मैं इन्हें ले आया हूं,’’ कह कर उस ने मुझे शादी के तोहफे की तरह कुत्ते का पिल्ला और बिल्ली दी. सासूमां खुशी से झूम उठीं. हम मन ही मन कुढ़ कर रह गए. आखिर किस से अपने मन की व्यथा कहते?

कुत्ते का पिल्ला ठीक हो गया था. उस की खुराक भी हमारी सास की खुराक की तरह बढ़ रही थी. हम खून के आंसू रो रहे थे. सास को जमे 6 माह हो चुके थे. पत्नी थीं कि उन्हें घर भेजने का नाम ही नहीं ले रही थीं.

हम अपने दोस्त मटरू के पास गए. उस के सामने खूब रोएधोए. उसे हमारी दशा पर दया आ गई. उस ने मुझे एक प्लान बताया जिसे सुन कर हम खुश हो गए. उस प्लान में एक ही गड़बड़ी थी कि श्रीमती को ले कर मुझे बाहर जाना था, लेकिन वह सास के बिना माफ करना, अपनी मां के बिना जाने को तैयार ही नहीं होती थीं.

हम ने अपने मित्र मटरू को वचन दिया कि उस की दी गई तारीख को केवल सास ही घर में रहेंगी. मैं और पत्नी सिनेमा देखने जाएंगे. इन 3-4 घंटों में वह काम निबटा कर सब ठीक कर लेगा.

हम ने मौका देख कर पत्नी की प्रशंसा की, उस के साथ कुछ पल तन्हातन्हा गुजारने की मनोकामना प्रकट की. वह थोड़ा लजाई, थोड़ा घबराई, मां की याद भी आई, लेकिन हमारे प्यार ने जोर मारा और वह तैयार हो गई कि मैं और वह शाम को फिल्म देखने चलेंगे.

हालांकि सासूमां को अकेला छोड़ कर जाने पर उन्होंने आपत्ति प्रकट की लेकिन पत्नी ने उन्हें समझाया कि टिक्कू कुत्ता, दीयापक बिल्ली है इसलिए अकेलापन खलेगा नहीं. बुझे मन से उन्होंने भी जाने की इजाजत दे दी.

हम ने खट से मटरू को मोबाइल से यह खबर दे दी कि हम शाम को निकल रहे हैं, देर से लौटेंगे. रात 10 से 1 के बीच सासूमां का काम निबटा ले. मटरू भी तैयार हो गया?था. हम भी खुश थे कि चलो, बला टलेगी, लेकिन पति हमेशा से ही बदकिस्मत पैदा होता है.

प्लान यह था कि मटरू रात में साढ़े 10 बजे के बीच घर में प्रवेश करेगा और मुंह पर कपड़ा बांध कर सासूमां को डरा कर चोरी कर लेगा. सासूमां डर के मारे या तो भाग जाएंगी या हमारे घर से हमेशा के लिए बायबाय कर लेंगी.

हम पत्नी को 4 घंटे की एक फिल्म दिखलाने शहर से बाहर ले गए. रात 10 बजे फिल्म छूटी. हम ने भोजन किया. फोन से मटरू को खबर भी कर दी कि जल्दी से अपने आपरेशन को अंजाम दे. हमारी पत्नी अपनी मां को ले कर काफी चिंतित थी. हम ने आटोरिकशा वाले को पटा कर 50 रुपए अधिक दिए ताकि वह घर पर लंबे रास्ते से धीमी गति से पहुंचे.

रात साढ़े 12 बजे जब हम अपने घर पहुंचे तो घर के बाहर भीड़ जमा थी. पुलिस की एक वैन खड़ी थी. चंद पुलिस वाले भी थे. हमारा माथा ठनका कि मटरू ने कहीं जल्दबाजी में सासूमां का मर्डर तो नहीं कर दिया?

हम जब आटोरिकशा से उतरे तो महल्ले के निवासी काफी घबराए थे. पत्नी अपनी मां की याद में रोने  लगी तभी अंदर से सासूमां पुलिस इंस्पेक्टर के साथ बाहर हंसतीखिलखिलाती निकलीं. उन्हें हंसते देख हमारा माथा ठनका कि भैया आज मटरू पकड़ा गया और हमारा प्लान ओपन हुआ. बस, तलाक के साथसाथ पूरा महल्ला थूथू करेगा सो अलग. सब कहेंगे, ‘‘ऐसे टुच्चे दोस्त हैं जो ऐसी सलाह देते हैं.’’

हम शर्म से जमीन में गड़ गए. मन ही मन विचार किया, कभी ऐसा गंदा प्लान नहीं बनाएंगे. अचानक हमारे कान में मटरू की आवाज सुनाई पड़ी. देखा कि वह तो भीड़ में खड़ा तमाशा देख रहा है. अब हमारी बारी चक्कर खा कर गिरने की आ गई थी.

हम हिम्मत कर के आगे बढ़े तो देखते हैं कि पुलिस एक चोर को पकड़ कर बाहर आ रही थी. हमें देख कर सासूमां ने कहा, ‘‘लो दामादजी, इसे पकड़ ही लिया, पूरा शहर इस की चोरियों से परेशान था.’’

पुलिस इंस्पेक्टर ने हमें बधाई दी और कहा, ‘‘आप की सास वाकई बड़ी हिम्मती हैं. इन्होंने एक शातिर चोर को पकड़वाया है. इन्हें सरकार से इनाम तो मिलेगा ही लेकिन हमें आज आप के भाग्य पर ईर्ष्या हो रही है कि ऐसी सास हमारे भाग्य में क्यों नहीं थी?’’ हम ने सुना तो गद्गद हो गए. हमारी पत्नी ने लपक कर अपनी मां को गले से लगा लिया.

किस्सा यों हुआ कि हमारे मटरू दोस्त को आने में देर हो गई थी. उस की जगह उस रात अचानक असली चोर घुस आया. सासूमां ने पुराना घी खाया था, सो बिना घबराए अपने कुत्ते के साथ उसे धोबी पछाड़ दे दी. महल्ले वालों को आवाज दे कर बुलाया, पुलिस आ गई. इस तरह सासूमां ने एक शातिर चोर को पकड़ लिया. अगले दिन समाचारपत्रों में फोटो सहित सासूमां का समाचार छपा हुआ था.

अब आप ही विचार करें, ऐसी प्रसिद्ध सासूमां को कौन घर से जाने को कहेगा? आप ही निर्णय करें कि हम भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली? आप जो भी निर्णय लें लेकिन हमारी सासूमां जरूर सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ऐसा दामाद मिला…

अपने पराए, पराए अपने

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था.

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़ मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

क सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

प्रेम परिसीमा: कैसा था उन दोनों का वैवाहिक जीवन

अस्पताल के एक कमरे में पलंग पर लेटेलेटे करुणानिधि ने करवट बदली और प्रेम से अपनी 50 वर्षीया पत्नी मधुमति को देखते हुए कहा, ‘‘जा रही हो?’’

मधुमति समझी थी कि करुणानिधि सो रहा है. आवाज सुन कर पास आई, उस के माथे पर हाथ रखा, बाल सहलाए और मंद मुसकान भर कर धीमे स्वर में बोली, ‘‘जाग गए, अब तबीयत कैसी है, बुखार तो नहीं लगता.’’

करुणानिधि ने किंचित मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे हाथ रखने से तबीयत तो ठीक हो गई है, पर दिल की धड़कन बढ़ गई है.’’

घबरा कर मधुमति ने उस की छाती पर हाथ रखा. करुणानिधि ने उस के हाथ पर अपना हाथ रख कर दबा दिया. मधुमति समझ गई, और बोली, ‘‘फिर वही हरकत, अस्पताल में बिस्तर पर लेटेलेटे भी वही सूझता है. कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?’’

करुणानिधि ने बिना हाथ छोड़े कहा, ‘‘देख लेगा तो क्या कहेगा? यही न कि पति ने पत्नी का हाथ पकड़ रखा है या पत्नी ने पति का. इस में डरने या घबराने की क्या बात है? अब तो उम्र बीत गई. अब भी सब से, दुनिया से डर लगता है?’’

मधुमति ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और बोली, ‘‘डाक्टर ने आप को आराम करने को कहा है, आवेश में आना मना है. दिल का दौरा पड़ चुका है, कुछ तो खयाल करिए.’’

‘‘दिल का दौरा तो बहुत पहले ही पड़ चुका है. शादी से भी पहले. अब तो उस दौरे का अंतिम पड़ाव आने वाला है.’’

मधुमति ने उंगली रख कर उस का मुंह बंद किया और फिर सामान उठा कर घर चलने लगी. वह चलते हुए बोली, ‘‘दोपहर को आऊंगी. जरा घर की व्यवस्था देख आऊं.’’

करुणानिधि ने उस की पीठ देखते हुए फिकरा कसा, ‘‘हांहां, घर को तो कोई उठा ले जाएगा. बस, घर ही घर, तुम्हारा तो वही सबकुछ रहा है.’’

मधुमति बिना कोई उत्तर दिए कमरे से बाहर चली गई. डाक्टर ने कह दिया था कि करुणानिधि से बहस नहीं करनी है.

उस के जाते ही करुणानिधि थोड़ी देर छत की ओर देखता रहा. चारों तरफ शांति थी. धीरेधीरे उस की आंखें मुंदने लगीं. पिछला सारा जीवन उस की आंखों के सामने आ गया, प्रेमभरा, मदभरा जीवन…

शादी से पहले ही मधुमति से उसे प्रेम हो गया था. शादी के बाद के शुरुआती वर्ष तो खूब मस्ती से बीते. बस, प्रेम ही प्रेम, सुख ही सुख, चैन ही चैन. वे दोनों अकेले रहते थे. मधुमति प्रेमकला से अनभिज्ञ सी थी. पर धीरेधीरे वह विकसित होने लगी. मौसम उन का अभिन्न मित्र और प्रेरक बन गया. वर्षा, शरद और बसंत जैसी ऋतुएं उन्हें आलोडित करने लगीं.

होली तो वे दोनों सब से खेलते, पर पहले एकदूसरे के अंगप्रत्यंग में रंग लगाना, पानी की बौछार डालना, जैसे कृष्ण और राधा होली खेल रहे हों. दीवाली में साथसाथ दीए लगाना और जलाना, मिठाई खाना और खिलाना. दीवाली के दिन विशेषकर एक बंधी हुई रीति थी. मधुमति, करुणानिधि के सामने अपनी मांग भरवाने खड़ी हो जाती थी. कितने प्रेम से हर वर्ष वह उस की मांग भरता था. याद कर करुणानिधि की आंखों से आंसू ढलक गए, प्रेम के आंसू.

वे दिन थे जब प्रेम, प्रेम था, जब प्रेम चरमकोटि पर था. एक दिन की जुदाई भी असहनीय थी. कैसे फिर साथ हो, वियोग जल्दी से कैसे दूर हो, इस के मनसूबे बनाने में ही जुदाई का समय कटता था.

वे अविस्मरणीय दिन बीतते गए. अनंतकाल तक कैसे इस उच्चस्तर पर प्रेमालाप चल सकता था? फिर बच्चे हुए. मधुमति का ध्यान बच्चों को पालने में बंटा. बच्चों के साथ ही सामाजिक मेलजोल बढ़ने लगा. बच्चे बड़े होने लगे. मधुमति उन की पढ़ाई में व्यस्त, उन को स्कूल के लिए तैयार करने में, स्कूल के बाद खाना खिलाने, पढ़ाने में व्यस्त, घर सजाने का उसे बहुत शौक था. सो, घंटों सफाई, सजावट में बीत जाते. उद्यान लगाने का भी शौक चढ़ गया था. कभी किसी से मिलने चली गई. कभी कोई मिलने आ गया और कभी किसी पार्टी में जाना पड़ता. रिश्तेदारों से भी मिलनामिलाना जरूरी था.

मधुमति के पास करुणानिधि के लिए बहुत कम समय रह गया. इन सब कामों में व्यस्त रहने से वह थक भी जाती. उन की प्रेमलीला शिखर से उतर कर एकदम ठोस जमीन पर आ कर थम सी गई. जीवन की वास्तविकता ने उस पर अंकुश लगा दिए.

यह बात नहीं थी कि करुणानिधि व्यस्त नहीं था, वह भी काम में लगा रहता. आमतौर पर रात को देर से भी आता. पर उस की प्रबल इच्छा यही रहती कि मधुमति से प्रेम की दो बातें हो जाएं. पर अकसर यही होता कि बिस्तर पर लेटते ही मधुमति निद्रा में मग्न और करुणानिधि करवटें बदलता रहता, झुंझलाता रहता. ऐसा नहीं था कि प्रेम का अंत हो गया था. महीने में 2-3 बार सुस्त वासना फिर तीव्रता से जागृत हो उठती. थोड़े समय के लिए दोनों अतीत जैसे सुहावने आनंद में पहुंच जाते, पर कभीकभी ही, थोड़ी देर के लिए ही.

करुणानिधि मधुमति की मजबूरी  समझता था, पर पूरी तरह नहीं. पूरे जीवन में उसे यह अच्छी तरह समझ नहीं आया कि व्यस्त रहते हुए भी उस की तरह मधुमति प्रेमालाप के लिए कोई समय क्यों नहीं निकाल सकी. उसे तिरछी, मधुर दृष्टि से देखने में, कभी स्पर्शसुख देने में, कभीकभी आलिंगन करने में कितना समय लगता था? कभीकभी उसे ऐसा लगता जैसे उस में कोई कमी है. वह मधुमति को पूरी तरह जागृत करने में असफल रहा है. पर उसे कोई तसल्लीबख्श उत्तर कभी न मिला.

समय बीतता गया. बच्चे बड़े हो गए, उन की शादियां हो गईं. वे अपनेअपने घर चले गए, लड़के भी लड़कियां भी. घर में दोनों अकेले रह गए. तब करुणानिधि को लगा कि अब समय बदलेगा. अब मधुमति उस की ज्यादा परवा करेगी. उस के पास ज्यादा समय होगा. अब शादी के शुरू के वर्षों की पुनरावृत्ति होगी. पर उस की यह इच्छा, इच्छा ही बन कर रह गई. स्थिति और भी खराब हो गई, क्योंकि मधुमति दामादों, बहुओं व अन्य संबंधियों में और भी व्यस्त हो गई.

बेचारा करुणानिधि अतृप्त प्रेम के कारण क्षुब्ध, दुखी रहने लगा. मधुमति उस के क्रोध, दुख को फौरन समझ जाती, कभीकभी उन्हें दूर करने का प्रयत्न भी करती, पर करुणानिधि को लगता यह प्रेम वास्तविक नहीं है.

पिछले 20 वर्षों में कई बार करुणानिधि ने मधुमति से इस बारे में बात की. बातचीत कुछ ऐसे चलती…

करुणानिधि कहता, ‘मधुमति, तुम्हारे प्रेम में अब कमी आ गई है.’

‘वह कैसे? मुझे तो नहीं लगता, प्रेम कम हो गया है. आप का प्रेम कम हो गया होगा. मेरा तो और भी बढ़ गया है.’

‘यह तुम कैसे कह सकती हो? शादी के बाद के शुरुआती वर्ष याद नहीं हैं… कैसेकैसे, कहांकहां, कबकब, क्याक्या होता था.’

इस पर मधुमति कहती, ‘वैसा हमेशा कैसे चल सकता है? उम्र का तकाजा तो होगा ही. तुम्हारी दी हुई किताबों में ही लिखा है कि उम्र के साथसाथ रतिक्रीड़ा कम हो जाती है. फिर क्या रतिक्रीड़ा ही प्रेम है? उम्र के साथसाथ पतिपत्नी साथी, मित्र बनते जाते हैं. एकदूसरे को ज्यादा समझने लगते हैं. समय बीतने पर, पासपास चुप बैठे रहना भी, बात करना भी, प्रेम को समझनेसमझाने के लिए काफी होता है.’

‘किताबों में यह भी तो लिखा है कि इस के अपवाद भी होते हैं और हो सकते हैं. मैं उस का अपवाद हूं. इस उम्र में भी मेरे लिए, सिर्फ पासपास गुमसुम बैठना काफी नहीं है. तुम अपवाद क्यों नहीं बन सकती हो?’

ऐसे में मधुमिता कुछ नाराज हो कर कहती, ‘तो आप समझते हैं, मैं आप से प्रेम नहीं करती? दिनभर तो आप के काम में लगी रहती हूं. आप को अकेला छोड़ कर, मांबाप, बेटों, लड़कियों के पास बहुत कम जाती हूं. किसी परपुरुष पर कभी नजर नहीं डाली. आप से प्रेम न होता तो यह सब कैसे होता?’

‘बस, यही तो तुम्हारी गलती है. तुम समझती हो, प्रेमी के जीवन के लिए यही सबकुछ काफी है. पारस्परिक आकर्षण कायम रखने के लिए इन सब की जरूरत है. इन के बिना प्रेम का पौधा शायद फलेफूले नहीं, शायद शुष्क हो जाए. पर इन का अपना स्थान है. ये वास्तविक प्रेम, शारीरिक सन्निकटता का स्थान नहीं ले सकते. मैं ने भी कभी परस्त्री का ध्यान नहीं किया. कभी भी किसी अन्य स्त्री को प्रेम या वासना की दृष्टि से नहीं देखा. मैं तो तुम्हारी नजर, तुम्हारे स्पर्श के लिए ही तरसता रहा हूं. और तुम, इस पर कभी गौर ही नहीं करती. किताबों में लिखा है या नहीं कि पति के लिए स्त्री को वेश्या का रूप भी धारण करना चाहिए.’

करुणानिधि की इस तरह की बात सुन मधुमति तुनक कर जवाब देती, ‘मैं, और वेश्या? इस अधेड़ उम्र में? आप का दिमाग प्रेम की बातें सोचतेसोचते सही नहीं रहा. उम्र के साथ संतुलन भी तो रखना ही चाहिए. आप मेरी नजर को तरसते रहते हैं, मैं तो आप की नजर का ही इंतजार करती रहती हूं. आप के मुंह के रंग से, भावभंगिमा से, इशारे से समझ जाती हूं कि आप के मन में क्या है.’

‘मधुमति, यही अंतर तो तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा. नजर ‘को’ मत देखो, नजर ‘में’ देखो. कितना समय हो गया है आंखें मिला कर एकदूसरे को देखे हुए? तुम्हारे पास तो उस के लिए भी समय नहीं है. आतेजाते, कभी देखो तो फौरन पहचान जाओगी कि मेरा मन तुम्हें चाहने को, तुम्हें पाने को कैसे उतावला रहता है, अधीर रहता है. पर तुम तो शायद समझ कर भी नजर फेर लेती हो. पता कैसे लगे? बताऊं कैसे?’

‘जैसे पहले बताते थे. पहले रोक कर, कभी आप मेरी आंखों में नहीं देखते थे? कभी हाथ नहीं पकड़ते थे? अब वह सब क्यों नहीं करते?

‘वह भी तो कर के देख लिया, पर सब बेकार है. हाथ पकड़ता हूं तो झट से जवाब आता है, ‘मुझे काम करना है या कोई देख लेगा,’ झट हाथ खींच लेती हो या करवट बदल कर सो जाती हो. मैं भी आखिर स्वाभिमानी हूं. जब वर्षों पहले तय कर लिया कि किसी स्त्री के साथ, पत्नी के साथ भी जोरजबरदस्ती नहीं करूंगा, क्योंकि उस से प्रेम नहीं पनपता, उस से प्रेम की कब्र खुदती है, तो फिर सिवा चुप रहने के, प्रेम को दबा देने के, अपना मुंह फेर लेने के और क्या शेष रह जाता है?

‘तुम साल दर साल और भी बदलती जा रही हो. हमारे पलंग साथसाथ हैं…2 फुट की दूरी पर हम लेटते हैं. पर ऐसा लगता है जैसे मीलों दूर हों. मीलों दूर रहना फिर भी अच्छा है. उस से विरह की आग तो नहीं भड़केगी. उस के बाद पुनर्मिलन तो प्रेम को चरमसीमा तक पहुंचा देगा. पर पासपास लेटें और फिर भी बहुत दूर. इस से तो पीड़ा और भी बढ़ती है. कभीकभी, लेटेलेटे, यदि सोई न हो, तो मुझे आशा बंधती कि शायद आज कुछ परिवर्तन हो. पर तुम घर की, बच्चों की बात शुरू कर देती हो.’

ऐसी बातें कई बार हुईं. कुछ समय तक कुछ परिवर्तन होता. पुराने दिनों, पुरानी रातों की फिर पुनरावृत्ति होती. पर कुछ समय बाद करुणानिधि फिर उदास हो जाता. जब से मधुमति ने 50 वर्ष पार किए थे, तब से वह और भी अलगथलग रहने लगी थी. करुणानिधि ने बहुत समझाया, पर वह कहती, ‘आप तो कभी बूढ़े नहीं होंगे. पर मैं तो हो रही हूं. अब वानप्रस्थ, संन्यास का समय आ गया है. बच्चों की शादी हो चुकी है. अब तो कुछ और सोचो. मुझे तो अब शर्म आती है.’

‘पतिपत्नी के बीच शर्म किस बात की?’ करुणानिधि झुंझला कर कहता, ‘मुझे पता है, तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियां पड़ रही हैं. मेरे भी कुछ दांत निकल गए हैं. तुम मोटी भी हो रही हो. मैं भी बीमार रहता हूं. पर इस से क्या होता है? मेरे मन में तो तुम वही और वैसी ही मधुमति हो, जिस के साथ मेरा विवाह हुआ था. मुझे तो अब भी तुम वही नई दुलहन लगती हो. अब भी तुम्हारी नजर से, स्पर्श से, आवाज से मैं रोमांचित हो उठता हूं. फिर तुम्हें क्या कठिनाई है, किस बात की शर्म है?

‘हम दोनों के बारे में कौन सोच रहा है, क्या सोच रहा है, इस से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? अधिक से अधिक बच्चे और उन के बच्चे, मित्र, संबंधी यही तो कहेंगे कि हम दोनों इस उम्र में भी एकदूसरे से प्रेम करते हैं, एकदूसरे का साथ चाहते हैं, शायद सहवास भी करते हैं…तो कहने दो. हमारा जीवन, अपना जीवन है. यह तो दोबारा नहीं आएगा. क्यों न प्रेम की चरमसीमा पर रहतेरहते ही जीवन समाप्त किया जाए.’

मधुमति यह सब समझती थी. आखिर वर्षों से पति की प्रेमिका थी, पर पता नहीं क्यों, उतना नहीं समझती थी, जितना करुणानिधि चाहता था. उस के मन के किसी कोने में कोई रुकावट थी, जिसे वह पूर्णतया दूर न कर सकी. शायद भारतीय नारी के संस्कारों की रुकावट थी.

अस्पताल में बिस्तर पर पड़ा, यह सब सोचता हुआ, करुणानिधि चौंका, मधुमति घर से वापस आ गई थी. वह खाने का सामान मेज पर रख रही थी. वैसा ही सुंदर चेहरा जैसा विवाह के समय था…मुख पर अभी भी तेज और चमक. बाल अभी भी काफी काले थे. कुछ सफेद बाल भी उस की सुंदरता को बढ़ा रहे थे.

बरतनों की आवाज सुन कर करुणानिधि ने मधुमति की ओर देखा तो उसे दिखाई दीं, वही बड़ीबड़ी, कालीकाली आंखें, वही सुंदर, मधुर मुसकान, वही गठा हुआ बदन कसी हुई साड़ी में लिपटा हुआ. करुणानिधि को उस के चेहरे, गले, गरदन पर झुर्रियां तो दिख ही नहीं रही थीं. उसे प्रेम से देखता करुणानिधि बुदबुदाया, ‘तेरे इश्क की इंतिहा चाहता हूं.’

छोटे से कमरे में गूंजता यह वाक्य मधुमति तक पहुंच गया. सब समझते हुए वह मुसकराई और पास आ कर उस के माथे पर हाथ रख कर बोली, ‘‘फिर वही विचार, वही भावनाएं. दिल के दौरे के बाद कुछ दिन तो आराम कर लो.’’

करुणानिधि ने निराशा में एक लंबी, ठंडी सांस ली और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह कर लिया.

लेकिन कुछ समय बाद ही मधुमति को भी करुणानिधि की तरह लंबी, ठंडी सांस भरनी पड़ी और करवट बदल कर दीवार की ओर मुंह करना पड़ा.

अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद करुणानिधि घर आ गया. अच्छी तरह स्वास्थ्य लाभ करने में कुछ महीने लग गए. तब तक मधुमति उस से परे ही रही. उसे डर था कि समीप आने पर उसे दोबारा दिल का दौरा न पड़ जाए. उस ने इस डर के बारे में करुणानिधि को समझाने की कोशिश की, पर सब व्यर्थ. जब भी इस के बारे में बातें होतीं, करुणानिधि कहता कि वह उसे केवल टालने की कोशिश कर रही है.

कुछ महीने बाद करुणानिधि 61 वर्ष का हो गया और लगभग पूर्णतया स्वस्थ भी. इस कारण विवाह की सालगिरह की रात जब उस ने मधुमति की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने इनकार न किया, पर उस के बाद करुणानिधि स्तब्ध रह गया. पहली बार उसे अंगरेजी कहावत ‘माइंड इज विलिंग, बट द फ्लैश इज वीक’ (मन तो चाहता है, पर शरीर जवाब देता है.) का अर्थ ठीक से समझ में आया और वह दुखी हो गया.

मधुमति ने उसे समझाने की कोशिश की. उस रात तो कुछ समझ न आया, पर जब फिर कई बार वैसा ही हुआ तो उसे उस स्थिति को स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि डाक्टरों ने उसे बता दिया था कि उच्च रक्तचाव और मधुमेह के कारण ही ऐसी स्थिति आ गई थी.

अब मधुमति दीवार की ओर मुंह मोड़ने लगी, पर मुसकरा कर. एक बार जब करुणानिधि ने इस निराशा पर खेद व्यक्त किया तो उस ने कहा, ‘‘खेद प्रकट करने जैसी कोई बात ही नहीं है. प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कोई कैसे जा सकता है. जब बच्चों की देखभाल के कारण या घर के कामकाज के कारण मेरा ध्यान आप की ओर से कुछ खिंचा, तो वह भी प्रकृति के नियमों के अनुसार ही था. आप को उसे स्वीकार करना चाहिए था. जैसे आज मैं स्वीकार कर रही हूं.

आप के प्रति मेरे प्रेम में तब भी कोई अंतर नहीं आया था और न अब आएगा. प्रेम, वासना का दूसरा नाम नहीं है. प्रेम अलग श्रेणी में है, जो समय के साथ बढ़ता है, परिपक्व होता है. उस में ऐसी बातों से, किसी भी उम्र में कमी नहीं आ सकती. यही प्रेम की परिसीमा है.’’

करुणानिधि को एकदम तो नहीं, पर समय बीतने के साथ मधुमति की बातों की सत्यता समझ में आने लगी और फिर धीरेधीरे उन का जीवन फिर से मधुर प्रेम की निश्छल धारा में बहने लगा.

गड़ा धन: क्या रमेश ने दी राजू की बलि

‘‘चल बे उठ… बहुत सो लिया… सिर पर सूरज चढ़ आया, पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही नहीं लेती,’’ राजू का बाप रमेश को झकझोरते हुए बोला.

‘‘अरे, अभी सोने दो. बेचारा कितना थकाहारा आता है. खड़ेखड़े पैर दुखने लगते हैं… और करता भी किस के लिए है… घर के लिए ही न… कुछ देर और सो लेने दो…’’ राजू की मां लक्ष्मी ने कहा.

‘‘अरे, करता है तो कौन सा एहसान करता है. खुद भी तो रोटी तोड़ता है चार टाइम,’’ कह कर बाप रमेश फिर से राजू को लतियाता है, ‘‘उठ बे… देर हो जाएगी, तो सेठ अलग से मारेगा…’’

लात लगने और चिल्लाने की आवाज से राजू की नींद तो खुल ही गई थी. आंखें मलता, दारूबाज बाप को घूरता हुआ वह गुसलखाने की ओर जाने लगा.

‘‘देखो तो कैसे आंखें निकाल रहा है, जैसे काट कर खा जाएगा मुझे.’’

‘‘अरे, क्यों सुबहसुबह जलीकटी बक रहे हो,’’ राजू की मां बोली.

‘‘अच्छा, मैं बक रहा हूं और जो तेरा लाड़ला घूर रहा है मुझे…’’ और एक लात राजू की मां को भी मिल गई.

राजू जल्दीजल्दी इस नरक से निकल जाने की फिराक में है और बाप रमेश सब को काम पर लगा कर बोतल में मुंह धोने की फिराक में. छोटी गलती पर सेठ की गालियां और कभीकभार मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को.

यहां राजू की मां लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई. वह भी घर का खर्च चलाने के लिए दूसरों के घरों में झाड़ूबरतन करती थी.

‘‘लक्ष्मी, तू उस बाबा के मजार पर गई थी क्या धागा बांधने?’’ मालकिन के घर कपड़े धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी.

माला अधेड़ उम्र की थी और लक्ष्मी की परेशानियों को जानती भी थी, इसलिए वह कुछ न कुछ उस की मदद करने को तैयार रहती.

‘‘हां गई थी उसे ले कर… नशे में धुत्त रहता है दिनरात… बड़ी मुकिश्ल से साथ चलने को राजी हुआ…’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया, ‘‘पर होगा क्या इस सब से… इतने साल तो हो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा का मजार… ये मंदिर… उस बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो कर के देख लिया, पर न ही कोख फलती है और न ही घर पनपता है. बस, आस के सहारे दिन कट रहे हैं,’’ कहतेकहते लक्ष्मी की आंखों से आंसू आ गए.

माला उसे हिम्मत बंधाते हुए बोली, ‘‘सब कर्मों के फल हैं री… और जो भोगना लिखा है, वह तो भोगना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…’’ बोलते हुए लक्ष्मी अपने सूखे आंसुओं को पीने की कोशिश करने लगी.

‘‘सुन, एक बाबा और है. उस को देवता आते हैं. वह सब बताता है और उसी के अुनसार पूजा करने से बिगड़े काम बन जाते हैं,’’ माला ने बताया.

‘‘अच्छा, तुझे कैसे पता?’’ लक्ष्मी ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उस की लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई. मुझे तभी तेरा खयाल आया और उस बाबा का पताठिकाना पूछ कर ले आई. अब तू बोल कि कब चलना है?’’

‘‘उस से पूछ कर बताऊंगी… पता नहीं किस दिन होश में रहेगा.’’

‘‘हां, ठीक है. वह बाबा सिर्फ इतवार और बुधवार को ही बताता है. और कल बुधवार है, अगर तैयार हो जाए, तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही, फिर हम साथ चलेंगे… मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है,’’ माला बोली.

लक्ष्मी ने हां भरी और दोनों काम निबटा कर अपनेअपने रास्ते हो लीं.

लक्ष्मी माला की बात सुन कर खुश थी कि अगर सबकुछ सही रहा, तो जल्दी ही उस के घर की भी मनहूसियत दूर हो जाएगी. पर कहीं राजू का बाप न सुधरा तो… आने वाली औलाद के साथ भी उस ने यही किया तो… जैसे सवालों ने उस की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की, पर उस ने खुद को संभाल लिया.

सामने आम का ठेला देख कर लक्ष्मी को राजू की याद आ गई.

‘राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है. सुबहसुबह बेचारा राजू उदास हो कर घर से निकला था, आम के रस से रोटी खाएगा, तो खुश हो जाएगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूंगी,’ मन में ही सारे तानेबाने बुन कर लक्ष्मी रुकी और एक आम ले कर जल्दीजल्दी घर की ओर चल दी.

घर पहुंच कर दोनों को खाना खिला कर सारे कामों से फारिग हो लक्ष्मी राजू के बाप से बात करने लगी. शराब का नशा कम था शायद या आम के रस का नशा हो आया था, वह अगले ही दिन जाने को मान गया.

अगले दिन राजू, उस का बाप और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ ले कर बाबा के ठिकाने पर चल दिए.

बाबा के दरवाजे पर 8-10 लोग पहले से ही अपनीअपनी परेशानी को दूर कर सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे. एकएक कर के सब को अंदर बुलाया जाता. वे लोग भी जा कर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए.

सभी लोग अपनीअपनी परेशानी में खोए थे. यहां माला लक्ष्मी को बीचबीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा बरताव करना है और इतनी जोर से समझाती कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुंच जाती. एकदो बार तो रमेश को गुस्सा आया, पर लक्ष्मी ने उसे हाथ पकड़ कर बैठाए रखा.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद उन की बारी आई, तब तक 5-6 परेशान लोग और आ चुके थे. खैर, अपनी बारी आने की खुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ झलक रही थी. यों लग रहा था, मानो यहां से वह बच्चा ले कर और घर की गरीबी यहीं छोड़ कर जाएगी.

चारों अंदर गए. बाबा ने उन की समस्या सुनी. फिर थोड़ी देर ध्यान लगा कर बैठ गया.

कुछ देर बाद बाबा ने जब आंखें खोलीं, तो आंखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं. अब लक्ष्मी को भरोसा हो गया था कि उस की समस्या का खात्मा हो ही जाएगा.

बाबा ने कहा, ‘‘कोई है, जिस की काली छाया तुम लोगों के घर पर पड़ रही है. वही तुम्हारे बच्चा न होने की वजह है और जहां तुम रहते हो, वहां गड़ा धन भी है, चाहो तो उसे निकलवा कर रातोंरात सेठ बन सकते हो…’’

रमेश और लक्ष्मी की आंखें चमक उठीं. उन दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर रमेश बाबा से बोला, ‘‘हम लोग खुद ही खुदाई कर के धन निकाल लेंगे और आप को चढ़ावा भी चढ़ा देंगे. आप तो जगह बता दो बस…’’

बाबा ने जोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘‘यह सब इतना आसान नहीं…’’

‘‘तो फिर… क्या करना होगा,’’ रमेश उतावला हो उठा.

‘‘कर सकोगे?’’

‘‘आप बोलिए तो… इतने दुख सहे हैं, अब तो थोड़े से सुख के बदले भी कुछ भी कर जाऊंगा.’’

‘‘बलि लगेगी.’’

‘‘बस, इतनी सी बात. मैं बकरे का इंतजाम कर लूंगा.’’

‘‘बकरे की नहीं.’’

‘‘तो फिर…’’

‘‘नरबलि.’’

रमेश को काटो तो खून नहीं. लक्ष्मी और राजू भी सहम गए.

‘‘मतलब किसी इनसान की हत्या?’’ रमेश बोला.

‘‘तो क्या गड़ा धन और औलाद पाना मजाक लग रहा था तुम लोगों को. जाओ, तुम लोगों से नहीं हो पाएगा,’’ बाबा तकरीबन चिल्ला उठा.

माला बीच में ही बोल उठी, ‘‘नहीं बाबा, नाराज मत हो. मैं समझाती हूं दोनों को,’’ और लक्ष्मी को अलग ले जा कर माला बोलने लगी, ‘‘एक जान की ही तो बात है. सोच, उस के बाद घर में खुशियां ही खुशियां होंगी. बच्चापैसा सब… देदे बलि.’’

लक्ष्मी तो जैसे होश ही खो बैठी थी. तब तक रमेश भी उन दोनों के पास आ गया और माला की बात बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘किस की बलि दे दें?’’

‘‘जिस का कोई नहीं उसी की. अपना खून अपना ही होता है. पराए और अपने में फर्क जानो,’’ माला बोली.

यह बात सुन कर रमेश का जमा हुआ खून अचानक खौल उठा और माला पर तकरीबन झपटते हुए बोला, ‘‘किस की बात कर रही है बुढि़या… जबान संभाल… वह मेरा बेटा है. 2 साल का था, जब वह मुझे बिलखते हुए रेलवे स्टेशन पर मिला था. कलेजे का टुकड़ा है वह मेरा,’’ राजू कोने में खड़ा सब सुनता रहा और आंखें फाड़फाड़ कर देखता रहा.

बाबा सब तमाशा देखसमझ चुका था कि ये लोग जाल में नहीं फंसेंगे और न ही कोई मोटी दक्षिणा का इंतजाम होगा, इसलिए शिष्य से कह कर उन चारों को वहां से बाहर निकलवा दिया.

राजू हैरान था. बाहर निकल कर राजू के मुंह से बस यही शब्द निकले, ‘‘बाबा, मैं तेरा गड़ा धन बनूंगा.’’

यह सुन कर रमेश ने राजू को अपने सीने से लगा लिया. उस ने राजू से माफी मांगी और कसम खाई कि आज के बाद वह कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा.

न्याय: क्या उस बूढ़े आदमी को न्याय मिला?

लेखक- Dheeraj Pundir

राजीव अदालत के बाहर पड़ी लकड़ी की बेंच पर खामोश बैठा अपनी बारी का इंतजार करतेकरते ऊंघने लगा था. बड़ी संख्या में लोग आजा रहे थे. कुछ के हाथों में बेड़ियां थीं, जो कतई ये साबित नहीं करती थीं कि वे मुजरिम ही थे.

कुछ राजीव जैसे हालात के सताए गलियारे में बैठे ऊंघ रहे थे. उन में बहुत से चेहरे जानेपहचाने थे, जिन को अपनी वहां एक बरस की आवाजाही के दौरान वह देखता आ रहा था. इतना जरूर था कि कुछ चेहरे दिखाई देना बंद हो जाते और उन की जगह नए चेहरे शामिल हो जाते. ऐसा लगता जैसे कोई मेला था, जहां लोगों की आवाजाही कोई बड़ा मसला नहीं थी.

रहरह कर वादियों, प्रतिवादियों को पुकारा जाता और वे उम्मीद के अतिरेक में दौड़ कर अंदर जाते. उन में से जो  खुशनसीब होते, लौटते वक्त उन के चेहरे पर मुसकान होती, वरना अमूमन लोग मुंह लटकाए नाउम्मीद ही लौटते नजर आते.

बात बस इतनी सी थी कि एक साल पहले औफिस से घर लौटते वक्त रास्ते में पड़ी लावारिस लाश के बारे में उस ने थाने को इत्तिला दे दी थी. तब से वह निरंतर मानवता की अपनी बुरी आदत को कोसता अदालत की हाजिरी भर रहा था.

भीतर चक्कर लगा आने के लिए जैसे ही वह उठा, सामने से शरीर का भार अपनी लाठी पर लिए वह बूढ़ा आता दिखा, जिसे राजीव एक साल से लगातार देखता आ रहा था.

वक्त की मार से उस का शरीर झुकताझुकता 90 अंश के कोण पर आ टिका कथा. आंखें चेहरे के सांचे में धंस गई थीं और शरीर की त्वचा सिकुड़ कर झुर्रियों में तबदील हो गई थी.

बूढ़े को देख कर राजीव को हर बार यही ताज्जुब होता कि उस की सांसें आखिर कहां अटकी हुई हैं और क्या न्याय की अपुष्ट उम्मीद ही उस को इतनी शक्ति दे रही थी कि तकरीबन 100 बरस की उम्र के बावजूद वह बेसहारा इस कभी न खत्म होने वाले सिलसिले से जूझ रहा था. चर्चा थी कि बूढ़े की कोई औलाद और नजदीकी रिश्तेदार भी न था.

बूढ़ा लोगों की भीड़ के बीच से अपने शरीर का बोझ ढोता सा धीरेधीरे चला आ रहा था. लोग उस की बगल से ऐसे निकल जाते जैसे वह अदृश्य हो. किसी को उस पर तरस न आता कि जरा सा सहारा दे कर उसे उस की मंजिल तक पहुंचा दे. शायद हर कोई उस बूढ़े की तरह ही असहाय था. उन मुकदमों के कारण जो शायद अंतहीन थे. रोज की तरह सब विचार छोड़ कर राजीव ने बूढ़े को सहारा दे कर बैंच पर बैठा दिया.

राजीव उस बूढ़े और उस के मसले से खूब परिचित था.64 साल पहले दर्ज जमीन के जिस मुकदमे की पैरवी करने बरसों से लगातार आ रहा था उस का औचित्य क्या बचा था, राजीव की समझ से परे था.

हुआ यों था कि बूढ़े का एकलौता 12 बिस्से का जमीन का रकबा उस के पड़ोसी ने अपने खेत में मिला लिया था. तब वह जवान हुआ करता था. पहले तो उस ने लट्ठ के जोर से जमीन छुड़ाने की सोची, मगर कुछ समझदार लोगों ने कहा, “देश में गरीब मजलूम के लिए कानून है, अदालत है, वहां जाओ. क्यों आफत गले डालते हो. कहीं चोट लग गई तो जेल हो जाएगी और कामधंधे से जाओगे सो अलग.”

उसे बात कुछ तर्कसंगत लगी. उस ने मुकदमा दायर कर दिया. उम्मीद करते जवानी गुजर गई. वकील की फीस का पाईपाई का हिसाब पास था, वह भी जमीन की कीमत से ऊपर पहुंच गया. मगर बात न्याय की ठहरी, इसलिए हार नहीं मानी.

बूढ़े को इत्मीनान से वहीं बैठा छोड़ कर राजीव बूढ़े के वकील के पास पहुंचा, जो कि कहीं निकलने को ही था.

“वह बूढ़ा आया है. आप का क्लायंट,” राजीव ने बताया.

“इस बूढ़े की…” लोगों की बातों में मशगूल वकील शायद कोई कड़वी बात कहतेकहते अचानक चुप हुआ, फिर अपने सहायक से कहा, “आज उस का फैसला आ जाएगा. उसे थमा कर जान छुड़ा,” कह कर वकील लोगों से हाथ मिला कर बड़ी तेजी से निकल गया.

राजीव वापस उस बूढ़े के पास लौटा. बूढ़े के कान के पास मुंह कर के ऊंची आवाज में उस ने बूढ़े को बताया कि वकील को सूचित कर दिया है. तभी उस ने सुना कि हरकारा पेशी के लिए पुकार लगा रहा था, “राजीव कुमार वल्द हरिसिंह हाजिर हों…”

प्रतिदिन की तरह 50 रुपए अर्दली की भेंट कर वह जज साहब के समक्ष हाजिर हुआ. जज साहब ने बस चंद बोल कहे, “तुम बरी किए जाते हो और ताकीद रहे कि एक नेक शहरी का फर्ज निभाते हुए भविष्य में भी अगर ऐसा वाकिया पेश आए तो कानून को इत्तला जरूर करोगे.”

न चाहते हुए भी हामी भर कर राजीव चल पड़ा मन में सोचता हुआ कि कोई मरता है मरे कभी दरियादिली के चक्कर में नहीं पड़ेगा.

तभी उसे जज साहब की आवाज सुनाई दी. वे कह रहे थेे, “बूढ़े की फाइल निकालो.”

अनायास ही राजीव के कदम जड़ हो गए. मन में घूम रहे सब विचार नेपथ्य में गुम हो गए. उसे वकील की कही बात याद थी, “आज उस का फैसला आ जाएगा.”

घर लौटने की इच्छा छोड़ कर वह एक तरफ दीवार के पास खड़ा हो गया.

जज साहब ने बूढ़े की फाइल पर सरसरी नजर डाली और पेशकार की तरफ देख कर पूछा, “वादी अदालत के समक्ष हाजिर है?”

“नहीं हुजूर, वादी बहुत बूढ़ा है. पांव पर खड़ा नहीं हो सकता, मगर वह बाहर बैंच पर लेटा है.”

सुन कर जज साहब के चेहरे पर दया के भाव आ गए, फिर संभाल कर पूछा,

“सब सुबूत दुरुस्त हैं?”

पेशकार ने हां में सिर हिलाया.

“तब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं. लिहाजा, अदालत फैसला सुनाती है कि जिस जमीन के टुकड़े पर बूढ़े ने अपना दावा पेश किया था, वह टुकड़ा उसी का है. प्रतिपक्ष को इस ताकीद के साथ कि बूढ़े को परेशान न किया जाए फैसला बूढ़े के हक में सुनाया जाता है… और साथ ही, पुलिस को आदेश जारी किया जाता है कि चूंकि वादी बूढ़ा हो चुका  है, इसलिए मौके पर जा कर उसे जमीन पर कब्जा दिलाया जाए.”

इतना कह कर जज साहब उठ कर चले गए.

राजीव को अपने बरी होने से कहीं ज्यादा बूढ़े के मुकदमे की खुशी थी. फिर यह सोच कर वह गंभीर हो गया कि फैसला मुफीद ही सही, मगर 64 बरस बाद क्या अब भी उस का औचित्य जस का तस है.

राजीव बाहर आया कि बूढ़े को खुशखबरी दे. उस ने देखा कि वह बैंच पर इत्मीनान से सो रहा है. सुकुन की नींद जैसे उसे फैसले के अपने पक्ष में आने का पूर्वाभास हो.

राजीव ने जमीन पर उकड़ू बैठ कर बूढ़े का कंधा पकड़ कर धीरे से हिलाया, तो पहले से बेजान शरीर एक तरफ लुढ़क गया. वह मर चुका था बिना यह जाने कि देश के कानून ने कितनी दरियादिली दिखा कर 64 साल बाद उस की जमीन का मालिकाना हक वापस लौटाया था.

पीछे हरकारा आवाज दे रहा था, “नेकीराम वल्द बिशनसिंह निवासी मोहनपुर हाजिर हो.”

इस बात से बेखबर कि  न्याय की बाट जोहते बूढ़े की हाजिरी का वक्त कहीं ओर मुकर्रर हो गया था.

विधवा रहू्ंगी पर दूसरी औरत नहीं बनूंगी

लखिया ठीक ढंग से खिली भी न थी कि मुरझा गई. उसे क्या पता था कि 2 साल पहले जिस ने अग्नि को साक्षी मान कर जिंदगीभर साथ निभाने का वादा किया था, वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा. शादी के बाद लखिया कितनी खुश थी. उस का पति कलुआ उसे जीजान से प्यार करता था. वह उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता. वह खुद तो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता था, लेकिन लखिया पर खरोंच भी नहीं आने देता था. महल्ले वाले लखिया की एक झलक पाने को तरसते थे.

पर लखिया की यह खुशी ज्यादा टिक न सकी. कलुआ खेत में काम कर रहा था. वहीं उसे जहरीले सांप ने काट लिया, जिस से उस की मौत हो गई. बेचारी लखिया विधवा की जिंदगी जीने को मजबूर हो गई, क्योंकि कलुआ तोहफे के रूप में अपना एक वारिस छोड़ गया था. किसी तरह कर्ज ले कर लखिया ने पति का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन कर्ज चुकाने की बात सोच कर वह सिहर उठती थी. उसे भूख की तड़प का भी एहसास होने लगा था.

जब भूख से बिलखते बच्चे के रोने की आवाज लखिया के कानों से टकराती, तो उस के सीने में हूक सी उठती. पर वह करती भी तो क्या करती? जिस लखिया की एक झलक देखने के लिए महल्ले वाले तरसते थे, वही लखिया अब मजदूरों के झुंड में काम करने लगी थी.

गांव के मनचले लड़के छींटाकशी भी करते थे, लेकिन उन की अनदेखी कर लखिया अपने को कोस कर चुप रह जाती थी. एक दिन गांव के सरपंच ने कहा, ‘‘बेटी लखिया, बीडीओ दफ्तर से कलुआ के मरने पर तुम्हें 10 हजार रुपए मिलेंगे. मैं ने सारा काम करा दिया है. तुम कल बीडीओ साहब से मिल लेना.’’

अगले दिन लखिया ने बीडीओ दफ्तर जा कर बीडीओ साहब को अपना सारा दुखड़ा सुना डाला. बीडीओ साहब ने पहले तो लखिया को ऊपर से नीचे तक घूरा, उस के बाद अपनापन दिखाते हुए उन्होंने खुद ही फार्म भरा. उस पर लखिया के अंगूठे का निशान लगवाया और एक हफ्ते बाद दोबारा मिलने को कहा.

लखिया बहुत खुश थी और मन ही मन सरपंच और बीडीओ साहब को धन्यवाद दे रही थी. एक हफ्ते बाद लखिया फिर बीडीओ दफ्तर पहुंच गई. बीडीओ साहब ने लखिया को अदब से कुरसी पर बैठने को कहा.

लखिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब, मैं कुरसी पर नहीं बैठूंगी. ऐसे ही ठीक हूं.’’ बीडीओ साहब ने लखिया का हाथ पकड़ कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं है कि अब सामाजिक न्याय की सरकार चल रही है. अब केवल गरीब ही ‘कुरसी’ पर बैठेंगे. मेरी तरफ देखो न, मैं भी तुम्हारी तरह गरीब ही हूं.’’

कुरसी पर बैठी लखिया के चेहरे पर चमक थी. वह यह सोच रही थी कि आज उसे रुपए मिल जाएंगे. उधर बीडीओ साहब काम में उलझे होने का नाटक करते हुए तिरछी नजरों से लखिया का गठा हुआ बदन देख कर मन ही मन खुश हो रहे थे.

तकरीबन एक घंटे बाद बीडीओ साहब बोले, ‘‘तुम्हारा सब काम हो गया है. बैंक से चैक भी आ गया है, लेकिन यहां का विधायक एक नंबर का घूसखोर है. वह कमीशन मांग रहा था. तुम चिंता मत करो. मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और वहीं पर अकेले में रुपए दे दूंगा.’’ लखिया थोड़ी नाउम्मीद तो जरूर हुई, फिर भी बोली, ‘‘ठीक है साहब, कल जरूर आइएगा.’’

इतना कह कर लखिया मुसकराते हुए बाहर निकल गई. आज लखिया ने अपने घर की अच्छी तरह से साफसफाई कर रखी थी. अपने टूटेफूटे कमरे को भी सलीके से सजा रखा था. वह सोच रही थी कि इतने बड़े हाकिम आज उस के घर आने वाले हैं, इसलिए चायनाश्ते का भी इंतजाम करना जरूरी है.

ठंड का मौसम था. लोग खेतों में काम कर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. बीडीओ साहब दोपहर ठीक 12 बजे लखिया के घर पहुंच गए. लखिया ने बड़े अदब से बीडीओ साहब को बैठाया. आज उस ने साफसुथरे कपड़े पहन रखे थे, जिस से वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आप बैठिए साहब, मैं अभी चाय बना कर लाती हूं,’’ लखिया ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, चाय की कोई जरूरत नहीं है. मैं अभी खाना खा कर आ रहा हूं,’’ बीडीओ साहब ने कहा.

मना करने के बावजूद लखिया चाय बनाने अंदर चली गई. उधर लखिया को देखते ही बीडीओ साहब अपने होशोहवास खो बैठे थे. अब वे इसी ताक में थे कि कब लखिया को अपनी बांहों में समेट लें. तभी उन्होंने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

जल्दी ही लखिया चाय ले कर आ गई. लेकिन बीडीओ साहब ने चाय का प्याला ले कर मेज पर रख दिया और लखिया को अपनी बांहों में ऐसे जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह उन की पकड़ से छूट न सकी. बीडीओ साहब ने प्यार से उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘देख लखिया, अगर इनकार करेगी, तो बदनामी तेरी ही होगी. लोग यही कहेंगे कि लखिया ने विधवा होने का नाजायज फायदा उठाने के लिए बीडीओ साहब को फंसाया है. अगर चुप रही, तो तुझे रानी बना दूंगा.’’

लेकिन लखिया बिफर गई और बीडीओ साहब के चंगुल से छूटते हुए बोली, ‘‘तुम अपनेआप को समझते क्या हो? मैं 10 हजार रुपए में बिक जाऊंगी? इस से तो अच्छा है कि मैं भीख मांग कर कलुआ की विधवा कहलाना पसंद करूंगी, लेकिन रानी बन कर तुम्हारी रखैल नहीं बनूंगी.’’ लखिया के इस रूखे बरताव से बीडीओ साहब का सारा नशा काफूर हो गया. उन्होंने सोचा भी न था कि लखिया इतना हंगामा खड़ा करेगी. अब वे हाथ जोड़ कर लखिया से चुप होने की प्रार्थना करने लगे.

लखिया चिल्लाचिल्ला कर कहने लगी, ‘‘तुम जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा कर पूरे गांव वालों को इकट्ठा कर लूंगी.’’ घबराए बीडीओ साहब ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी.

यादगार: आखिर क्या हुआ कन्हैयालाल के मकान का?

पिछले कुछ महीने से बीमार चल रहे कन्हैयालाल बैरागी को गांव में उन के साथ रह रहा छोटा बेटा भरतलाल पास के शहर के बड़े अस्पताल में ले गया. सारी जरूरी जांचें कराने के बाद डाक्टर महेंद्र चौहान ने उसे अलग बुला कर समझाते हुए कहा, ‘‘देखो बेटा भरत, आप के पिताजी की बीमारी बहुत बढ़ चुकी है और इस हालत में इन को घर ले जा कर सेवा करना ही ठीक होगा. वैसे, मैं ने तसल्ली के लिए कुछ दवाएं लिख दी हैं. इन्हें जरूर देते रहना.’’

डाक्टर साहब की बात सुन कर भरत रोने लगा. आंसू पोंछते हुऐ उस ने अपनेआप को संभाला और फोन कर के भाईबहनों को सारी बातें बता कर इत्तिला दे दी.

इस बीच कन्हैयालाल का खानापीना बंद हो गया और सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. दूसरे दिन बीमार पिता से मिलने दोनों बेटे रामप्रसाद और लक्ष्मणदास गांव आ गए. बेटियां लक्ष्मी और सरस्वती की ससुराल दूर होने से वे बाद में आईं.

कन्हैयालाल के दोनों बेटे सरकारी नौकरियो में बड़े ओहदों पर थे, जबकि  छोटा बेटा गांव में ही पिता के पास रहता था. बेटियों की ससुराल भी अच्छे  परिवारों मे थी. शाम होतेहोते कन्हैयालाल ने सब बेटेबेटियों को अपने पास बुला कर बैठाया, सब के सिर पर हाथ फेर कर हांपते हुए रोने लगे, फिर थोड़ी देर बाद वे धीरेधीरे कहने लगे, ‘‘मेरे बच्चो, मुझे लगता है कि मेरा आखिरी वक्त आ गया है. तुम सभी ने मेरी खूब सेवा की. मेरी बात ध्यान से सुनना. मेरे मरने के बाद सब भाईबहन मिलजुल कर प्यार से रहना.‘‘

ऐसा कहते हुए वे कुछ देर के लिए चुप हो गए, फिर थोड़ी देर बाद रूंधे गले से कहने लगे, ‘बच्चो, तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारी मां की आखिरी इच्छा और मेरा सपना पूरा करने के लिए मैं ने यहां गांव में एक मकान  बनाया है, ताकि तुम लोगों को गांव में आनेजाने और ठहरने में कोई परेशानी न हो,‘‘ कहतेकहते अचानक कन्हैयालाल को जोर की खांसी चलने लगी. कुछ दवाएं देने के बाद उन की खांसी रुकी, तो वे फिर कहने लगे, ‘‘बच्चो, ये मकान मिट्टीपत्थर से बना जरूर है, पर याद रखना, ये तुम्हारी मां और मेरी निशानी  है. मैं जानता हूं कि इस मकान की कोई ज्यादा कीमत तो नहीं है, फिर भी मेरी इच्छा है कि तुम लोग इस मकान को मांबाप की आखिरी निशानी मान कर मत बेचना…

‘‘आज तुम सब मेरे सामने ये वादा करोगे कि हम ये मकान कभी नहीं बेचेंगे. तुम वादा करोगे, तभी मैं चैन की सांस ले सकूंगा.‘‘

ऐसा कहते समय कन्हैयालाल ने पांचों बेटेबेटियों के हाथ अपने हाथ में ले रखे थे, वे बारबार कह रहे थे, ‘‘वादा करो मेरे बच्चो, वादा करो कि मकान नहीं बेचोगे.‘‘

लेकिन, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप मुंह लटकाए बैठे रहे, तभी अचानक कन्हैयालाल को एक हिचकी आई और उन के हाथ से बेटेबेटियों के हाथ छूट गए और वे एक तरफ लुढ़क गए.

कन्हैयालालजी को गुजरे अभी 15 दिन ही हुए हैं. आज उन के मकान के आसपास मकान खरीदने वालों की भीड़ लगी है. मकान की बोली लगाने में  दूर खड़ा एक नौजवान बहुत बढ़चढ़ कर बोली लगा रहा था. सब को ताज्जुब हो रहा था कि मकान की इतनी ज्यादा बोली लगाने वाला ये ऐसा खरीदार कौन है?

गांव के धनी सेठ बजरंगलाल जैन के बेटे ने युवक को इशारा कर के बुलाया और मकान की इतनी ज्यादा कीमत लगाने की वजह पूछी, तो वह बताने लगा, ‘‘मेरा नाम रुखसार खां है. हमारा परिवार भी इसी गांव में रहता था. मेरे वालिद हबीब खां और कन्हैयालाल अंकल दोनों दोस्त थे. उन की दोस्ती इतनी गहरी थी कि आसपास के गांवों में इन की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं.‘‘

‘‘दीपावली पर मिठाइयों की थाली खुद अंकल ले कर हमारे घर आते थे, तो होली पर घर भर को रंगगुलाल लगाना भी नहीं भूलते थे.

‘‘हमारी माली हालत अच्छी नहीं थी. लेकिन, अंकल हर बुरे वक्त में हमारे परिवार के लिए मदद ले कर खडे़ रहते थे.

‘‘मैं पास के शहर अजमेर में एक इलैक्ट्रिकल कंपनी में इंजीनियर हूं. इस गांव के स्कूल से मैं ने 12वीं जमात फर्स्ट डिवीजन में पास की. मैं ने घर वालों से इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करने की इच्छा जताई, तो घर वालों ने घर  के हालात बताते हुए हाथ खड़े कर दिए. मेरे पास फीस भरने के लिए भी पैसे नहीं थे.

‘‘जब यह बात अंकल को पता चली, तो वे एक थैले में रुपए ले कर आए और मुझे बुला कर सिर पर हाथ फेर कर हिम्मत दिलाते हुए थैला मेरे हाथ मे दे कर कहा, ‘‘जाओ बेटा, अपनी पढ़ाई पूरी करो और इंजीनियर बन कर ही आना.

‘‘कल जब गांव के मेरे एक दोस्त ने कन्हैयालाल अंकल के मकान बिकने और उन के परिवार के बीच बंटवारे के विवाद के साथसाथ अंकल की आखिरी इच्छा के बारे में बताया, तो मैं सारे काम छोड़ कर गांव आ गया.

‘‘आज मैं जो कुछ भी हूं, सिर्फ और सिर्फ अंकल बैरागी की वजह से हूं. अगर वे नहीं होते, तो मैं कहां होता, पता नहीं,‘‘ ये कहतेकहते रुखसार खां फफकफफक कर रोने लगा.

वह रोते हुए फिर बोला, ‘‘इसीलिए आज यह सोच कर आया हूं कि अंकल बैरागी और आंटी की यादगार को अपने सामने बिकने नहीं दूंगा. मैं इसे खरीद कर उन की यादों को जिंदा रखना चाहता हूं.‘‘

आखिर रुखसार खां ने अंकल बैरागी के मकान की सब से ज्यादा बोली लगा कर 25 लाख रुपयों में वह मकान खरीद लिया और सभी कानूनी कार्यवाही पूरी होते ही मकान पर बोर्ड लगवा दिया. बोर्ड पर मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘बैरागी  भवन’.

थोडी देर बाद कन्हैयालाल के बेटेबेटियां अपने मांबाप की आखिरी निशानी को बेच कर रुपयों से भरी अटैची ले गरदन झुकाए चले जा रहे थे, वहीं दूसरी तरफ रुखसार खां गर्व से बैरागी अंकलआंटी की यादगार को बिकने से बचा कर मकान पर लगे ‘बैरागी भवन’ का बोर्ड देख रहा था.

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