दस्विदानिया: क्या नताशा के बाद दीपक अपनी जिंदगी में आगे बढ़ पाया ?

दीपक उत्तरी बिहार के छोटे से शहर वैशाली का रहने वाला था. वैशाली पटना से लगभग 30 किलोमीटर दूर है. 1982 में गंगा नदी पर गांधी सेतु बन जाने के बाद वैशाली से पटना आनाजाना आसान हो गया था. वैशाली की अपनी एक अलग ऐतिहासिक पहचान भी है.

दीपक इसी वैशाली के एनएनएस कालेज से बीएससी कर रहा था. उस की मां का देहांत बचपन में ही हो चुका था. उस के पिता रामलाल की कपड़े की दुकान थी. दुकान न छोटी थी न बड़ी. आमदनी बस इतनी थी कि बापबेटे का गुजारा हो जाता था. बचत तो न के बराबर थी. वैशाली में ही एक छोटा सा पुश्तैनी मकान था. और कोई संपत्ति नहीं थी. दीपक तो पटना जा कर पढ़ना चाहता था, पर पिता की कम आमदनी के चलते ऐसा नहीं हो सका.

दीपक अभी फाइनल ईयर में ही था कि अचानक दिल के दौरे से उस के पिता भी चल बसे. उस ने किसी तरह पढ़ाई पूरी की. वह दुकान पर नहीं बैठना चाहता था. अब उसे नौकरी की तलाश थी. उस ने तो इंडियन सिविल सर्विस के सपने देखे थे या फिर बिहार लोक सेवा आयोग के द्वारा राज्य सरकार के अधिकारी के. पर अब तो उसे नौकरी तुरंत चाहिए थी.

दीपक ने भारतीय वायुसेना में एअरमैन की नियुक्ति का विज्ञापन पढ़ा, तो आवेदन कर दिया. उसे लिखित, इंटरव्यू और मैडिकल टैस्ट सभी में सफलता मिली. उस ने वायुसेना के टैक्नीकल ट्रेड में एअरमैन का पद जौइन कर लिया. ट्रेनिंग के बाद उस की पोस्टिंग पठानकोट एअरबेस में हुई. ट्रेनिंग के दौरान ही वह सीनियर अधिकारियों की प्रशंसा का पात्र बन गया. पोस्टिंग के बाद एअरबेस पर उस की कार्यकुशलता से सीनियर अधिकारी बहुत खुश थे.

वायुसेना के रसियन प्लेन को बीचबीच में मैंटेनैंस के लिए रूस जाना पड़ता था. दीपक के अफसर ने उसे बताया कि उसे भी जल्दी रूस जाना होगा. वह यह सुन कर बहुत खुश हुआ. उस ने जल्दीजल्दी कुछ आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले रसियन शब्द और वाक्य सीख लिए. अपने एक दोस्त, जो 2 बार रूस जा चुका था से हैवी रसियन ओवरकोट भी उधार ले लिया. रूस की जबरदस्त ठंड के लिए यह जरूरी था.

1 महीने के अंदर ही दीपक को एक रसियन प्लेन के साथ बेलारूस की राजधानी मिंस्क जाना पड़ा. उस जहाज का कारखाना वहीं था. तब तक सोवियत संघ का बंटवारा हो चुका था और बेलारूस एक अलग राष्ट्र बन गया था.

अपने दोस्तों की सलाह पर उस ने भारत से कुछ चीजें जो रूसियों को बेहद पसंद थीं रख लीं. ये स्थानीय लोगों को मित्र बनाने में काम आती थीं. चूंकि जहाज अपना ही था, इसलिए वजन की सीमा नहीं थी. उस ने टूथपेस्ट, परफ्यूम, सुगंधित दार्जिलिंग चायपत्ती, ब्रैंडेड कौस्मैटिक आदि साथ रख लिए.

‘‘लेडीज कौस्मैटिक वहां की लड़कियों को इंप्रैस करने में बहुत काम आएंगे,’’ ऐसा चलते समय दोस्तों ने कहा था.

मिंस्क में लैंड करने के बाद दीपक का सामना जोरदार ठंड से हुआ. मार्च के मध्य में भी न्यूनतम तापमान शून्य से थोड़ा नीचे था. मिंस्क में उस के कम से कम 2 सप्ताह रुकने की संभावना थी. खैर, उस के मित्र का ओवरकोट प्लेन से निकलते ही काम आया.

दीपक के साथ पायलट, कोपायलट, इंजीनियर और क्रू  मैंबर्स भी थे. दीपक को एक होटल में एक सहकर्मी के साथ रूम शेयर करना था. वह दोस्त पहले भी मिंस्क आ चुका था. उस ने दीपक को रसियन से दोस्ती के टिप्स भी दिए.

अगले दिन से दीपक को कारखाना जाना था. उस की टीम को एक इंस्ट्रक्टर जहाज के कलपुरजों, रखरखाव के बारे में रूसी भाषा में समझाता था. साथ में एक लड़की इंटरप्रेटर उसे अंगरेजी में अनुवाद कर समझाती थी.

नताशा नाम था उस लड़की का. बला की खूबसूरत थी वह. उम्र 20 साल के आसपास होगी. गोरा रंग तो वहां सभी का होता है, पर नताशा में कुछ विशेष आकर्षण था जो जबरन किसी को उस की तारीफ करने को मजबूर कर देता. सुंदर चेहरा, बड़ीबड़ी नीली आंखें, सुनहरे बाल और छरहरे बदन को दीपक ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजरें बारबार नताशा पर जा टिकती थीं. जब कभी नताशा उस की ओर देखती दीपक अपनी निगाहें फेर लेता. वह धीमे से मुसकरा देती. जब वह सुबहसुबह मिलती तो दीपक हाथ मिला कर रूसी भाषा में गुड मौर्निंग यानी दोबरोय उत्रो बोलता और कुछ देर तक उस का हाथ पकड़े रहता.

नताशा मुसकरा कर गुड मौर्निंग कह आगे बोलती कि प्रस्तिते पजालास्ता ऐक्सक्यूज मी, प्लीज, हाथ तो छोड़ो. तब दीपक झेंप कर जल्दी से उस का हाथ छोड़ देता.

उस की हरकत पर उस के साथी और इंस्ट्रक्टर भी हंस पड़ते थे. लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक ही टेबल पर बैठते थे. 1 सप्ताह में वे कुछ फ्रैंक हो गए थे. इस में इंडिया से साथ लाए गिफ्ट आइटम्स की अहम भूमिका थी.

नताशा के साथ अब कुछ पर्सनल बातें भी होने लगी थीं. उस ने दीपक को बताया कि रूसी लोग इंडियंस को बहुत पसंद करते हैं. उस के मातापिता का डिवोर्स बहुत पहले हो चुका था और कुछ अरसा पहले मां का भी देहांत हो गया था. उस के पिता चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में काम करते थे और वह उन से मिलती रहती थी.

लगभग 10 दिन बाद दीपक को पता चला कि प्लेन को क्लीयरैंस मिलने में अभी 10 दिन और लगेंगे. एक दिन दीपक ने इंस्ट्रक्टर से कहा कि उस की मास्को देखने की इच्छा है.

इंस्ट्रक्टर ने कहा, ‘‘ओचिन खराशो (बहुत अच्छा) शनिवार को नताशा भी किसी काम से मास्को जा रही है. तुम भी उसी की फ्लाइट से चले जाओ. मात्र 1 घंटे की फ्लाइट है.’’

‘‘स्पासिबा (थैंक्स) गुड आइडिया,’’ दीपक बोला और फिर उसी समय नताशा से फोन पर अपनी इच्छा बताई तो वह बोली नेत प्रौब्लेमा (नो प्रौब्लम).

दीपक बहुत खुश हुआ. उस ने अपने दोस्त से मास्को यात्रा की चर्चा करते हुए पूछा, ‘‘अगर मुझे किसी रूसी लड़की के कपड़ों की तारीफ करनी हो तो क्या कहना चाहिए?’’

जवाब में दोस्त ने उसे एक रूसी शब्द बताया. शनिवार को दीपक और नताशा मास्को पहुंचे. दोनों होटल में आसपास के कमरों में रुके. नताशा ने उसे क्रेमलिन, बोलशोई थिएटर, बैले डांस, रसियन सर्कस आदि दिखाए.

1 अप्रैल की सुबह दोनों मिले. उसी दिन शाम को उन्हें मिंस्क लौटना था. नताशा नीले रंग के लौंग फ्रौक में थी, कमर पर सुनहरे रंग की बैल्टनुमा डोरी बंधी थी, जिस के दोनों छोरों पर पीले गुलाब के फूलों की तरह झालर लटक रही थी. फ्रौक का कपड़ा पारदर्शी तो नहीं था, पर पतला था जिस के चलते उस के अंत:वस्त्र कुछ झलक रहे थे. वह दीपक के कमरे में सोफे पर बैठी थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. तिह क्रासावित्सा (यू आर लुकिंग ब्यूटीफुल).’’

‘‘स्पासिबा (धन्यवाद).’’

वह नताशा की ओर देख कर बोला ‘‘ओचिन खराशो तृसिकी.’’

‘‘व्हाट? तुम ने कैसे देखा?’’

‘‘अपनी दोनों आंखों से.’’

‘‘तुम्हारी आंखें मुझ में बस यही देख रही थीं?’’

फिर अचानक नताशा सोफे से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं इंडियंस की इज्जत करती हूं.’’

‘‘दा (यस).’’

‘‘व्हाट दा. मैं तुम्हें अच्छा आदमी समझती थी. मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ और फिर बिना दीपक की ओर देखे कमरे से तेजी से निकल गई.

दीपक को मानो लकवा मार गया. वह नताशा के कमरे के दरवाजे की जितनी बार बैल बजाता एक ही बात सुनने को मिलती कि चले जाओ. मैं तुम से बात नहीं करना चाहती हूं.

उसी दिन शाम की फ्लाइट से दोनों मिंस्क लौट आए. पर नताशा ने अपनी सीट अलग ले ली थी. दोनों में कोई बात नहीं हुई.

अगले दिन लंच के समय कारखाने की कैंटीन में दीपक, उस का मित्र, नताशा और इंस्ट्रक्टर एक टेबल पर बैठे थे. दीपक बारबार नताशा की ओर देख रहा था पर नताशा उसे नजरअंदाज कर देती. दीपक ने इंस्ट्रक्टर के कान में धीरे से कुछ कहा तो इंस्ट्रक्टर ने नताशा से धीरे से कुछ कहा.

नताशा से कुछ बात कर इंस्ट्रक्टर ने दीपक से पूछा, ‘‘तुम ने नताशा से कोई गंदी बात की थी? वह बहुत नाराज है तुम से.’’

‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात नहीं की थी,’’ बोल कर दीपक ने जो आखिरी बात नताशा को कही थी उसे दोहरा दिया.

इंस्ट्रक्टर ने भी सिर पीटते हुए कहा, ‘‘बेवकूफ यह तुम ने क्या कह दिया? इस का मतलब समझते हो?’’

‘‘हां, तुम्हारी ड्रैस बहुत अच्छी है?’’

‘‘नेत (नो), इस का अर्थ तुम्हारी पैंटी बहुत अच्छी है, होता है बेवकूफ.’’

तब दीपक अपने मित्र की ओर सवालिया आंखों से देखने लगा. फिर कहा, ‘‘तुम ने ही सिखाया था यह शब्द मुझे.’’

नताशा भी आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगी थी. दोस्त भी अपनी सफाई में बोला, ‘‘अरे यार मैं ने तो यों ही बता दिया था. मुझे लेडीज ड्रैस का यही एक शब्द आता था. मुझे क्या पता था कि तू नताशा को बोलने जा रहा है. आई एम सौरी.’’

फिर नताशा की ओर देख कर बोला, ‘‘आई एम सौरी नताशा. मेरी वजह से यह गड़बड़ हुई है. दरअसल, दीपक ने तुम्हारी ड्रैस की तारीफ करनी चाही होगी… यह बेचारा बेकुसूर है.’’

यह सुन कर सभी एकसाथ हंस पड़े.

दीपक ने नताशा से कहा, ‘‘ईजवीनीते (सौरी) नताशा. मैं ने जानबूझ कर उस समय ऐसा नहीं कहा था.’’

‘‘ईजवीनीते. प्रस्तिते (सौरी, ऐक्सक्यूज मी). हम दोनों गलतफहमी के शिकार हुए.’’

इंस्ट्रक्टर बोला, ‘‘चलो इसे भी एक अप्रैल फूल जोक समझ कर भूल जाओ.’’

इस के बाद नताशा और दीपक में मित्रता और गहरी हो चली. दोनों शालीनतापूर्वक अपनी दोस्ती निभा रहे थे. दीपक तो इस रिश्ते को धीरेधीरे दोस्ती से आगे ले जाना चाहता था, पर कुछ संकोच से, कुछ दोस्ती टूटने के भय से और कुछ समय के अभाव से मन की बात जबान पर नहीं ला रहा था.

इसी बीच दीपक के इंडिया लौटने का दिन भी आ गया था. एअरपोर्ट पर नताशा दीपक को बिदा करने आई थी. उस ने आंखों में छलक आए आंसू छिपाने के लिए रंगीन चश्मा पहन लिया. दीपक को पहली बार महसूस हुआ जैसे वह भी मन की कुछ बात चाह कर भी नहीं कर पा रही है. दीपक के चेहरे की उदासी किसी से छिपी नहीं थी.

‘‘दस्विदानिया, (गुड बाई), होप टु सी यू अगेन,’’ बोल कर दोनों गले मिले.

दीपक भारत लौट आया. नताशा से उस का संपर्क फोन से लगातार बना हुआ था. इसी बीच डिपार्टमैंटल परीक्षा और इंटरव्यू द्वारा दीपक को वायुसेना में कमीशन मिल गया. वह अफसर बन गया. हालांकि उस के ऊपर कोई बंदिश नहीं थी, उस के मातापिता गुजर चुके थे, फिर भी अभी तक उस ने शादी नहीं की थी.

इस बीच नताशा ने उसे बताया कि उस के पापा भी चल बसे. उन्हें कैंसर था. संदेह था कि चेर्नोबिल न्यूक्लियर प्लांट में हुई भयानक दुर्घटना के बाद कुछ लोगों में रैडिएशन की मात्रा काफी बढ़ गई थी. शायद उन के कैंसर की यही वजह रही होगी.

पिता की बीमारी में नताशा महीनों उन के साथ रही थी. इसलिए उस ने नौकरी भी छोड़ दी थी. फिलहाल कोई नौकरी नहीं थी और पिता के घर का कर्ज भी चुकाना था. वह एक नाइट क्लब में डांस कर और मसाज पार्लर जौइन कर काम चला रही थी. उस ने दीपक से इस बारे में कुछ नहीं कहा था, पर बराबर संपर्क बना हुआ था.

लगभग 2 साल बाद दीपक दिल्ली एअरपोर्ट पर था. अचानक उस की नजर नताशा पर पड़ी. वह दौड़ कर उस के पास गया और बोला, ‘‘नताशा, अचानक तुम यहां? मुझे खबर क्यों नहीं की?’’

नताशा भी अकस्मात उसे देख कर घबरा उठी. फिर अपनेआप को कुछ सहज कर कहा, ‘‘मुझे भी अचानक यहां आना पड़ा. समय नहीं मिल सका बात करने के लिए…तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं अभी एक घरेलू उड़ान से यहां आया हूं. खैर, चलो कहीं बैठ कर कौफी पीते हैं. बाकी बातें वहीं होंगी.’’

दोनों एअरपोर्ट के रेस्तरां में बैठे कौफी पी रहे थे. दीपक ने फिर पूछा, ‘‘अब बताओ यहां किस लिए आई हो?’’

नताशा खामोश थी. फिर कौफी की चुसकी लेते हुए बोली, ‘‘एक जरूरी काम से किसी से मिलना है. 2 दिन बाद लौट जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है पर क्या काम है, किस से मिलना है, मुझे नहीं बताओगी? क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकता हूं?’’

‘‘नहीं, मुझे वहां अकेले ही जाना होगा.’’

‘‘चलो, मैं तुम्हें ड्रौप कर दूंगा.’’

‘‘नेत, स्पासिबा (नो, थैंक्स). मेरी कार बाहर खड़ी होगी.’’

‘‘कार को वापस भेज देंगे. कम से कम कुछ देर तक तो तुम्हारे साथ ऐंजौय कर लूंगा.’’

‘‘क्यों मेरे पीछे पड़े हो?’’ बोल कर नताशा उठ कर जाने लगी.

दीपक ने उस का हाथ पकड़ कर रोका और कहा, ‘‘ठीक है, तुम जाओ, मगर मुझ से नाराजगी का कारण बताती जाओ.’’

नताशा तो रुक गई, पर अपने आंसुओं को गालों पर गिरने से न रोक सकी.

दीपक के द्वारा बारबार पूछे जाने पर वह रो पड़ी और फिर उस ने अपनी पूरी कहानी बताई, ‘‘मैं तुम से क्या कहती? अभी तक तो मैं सिर्फ डांस या मसाज करती आई थी पर मैं पिता का घर किसी भी कीमत पर बचाना चाहती हूं. मैं ने एक ऐस्कौर्ट एजेंसी जौइन कर ली है. शायद आने वाले 2 दिन मुझे किसी बड़े बिजनैसमैन के साथ ही गुजारने पड़ेंगे. तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना चाहती हूं? ’’

‘‘हां, मैं समझ सकता हूं. तुम्हें किस ने हायर किया है, मुझे बता सकती हो?’’

‘‘नो, सौरी. हो सकता है जो नाम मैं जानती हूं वह गलत हो. मैं ने भी उसे अपना सही नाम नहीं बताया है. वैसे भी इस प्रोफैशन की बात किसी तीसरे आदमी को हम नहीं बताते हैं. मैं बस इतना जानती हूं कि मुझे 3 दिनों के लिए 4000 डौलर मिले हैं.’’

‘‘तुम उसे फोन करो, उसे पैसे वापस कर देंगे.’’

‘‘नहीं, यह आसान नहीं है. वह मेरी एजेंसी का पुराना भरोसे वाला ग्राहक है.’’

कुछ देर सोचने के बाद दीपक ने कहा ‘‘एक आइडिया है, उम्मीद है काम कर जाएगा. उस का फोन नंबर तो होगा तुम्हारे पास?’’

‘‘नहीं, मुझे होटल का नंबर और रूम नंबर पता है.’’

‘‘गुड, तुम उसे फोन लगाओ और कहो कि तुम्हें कस्टम वालों ने पकड़ लिया है. तुम्हारे पर्स में कुछ ड्रग्स मिले. तुम्हें खुद पता नहीं कि कहां से ड्रग्स पर्स में आ गए और अब वही तुम्हारी सहायता कर सकता है.’’

नताशा ने फोन कर उस बिजनैसमैन से बात कर वैसा ही कहा.

उधर से वह फोन पर गुस्सा हो कर नताशा से बोला, ‘‘यू इडियट, तुम ने मेरे या

इस होटल के बारे में कस्टम औफिसर को क्या बताया है?’’

‘‘सर, मैं ने तो अभी तक कुछ नहीं बताया है… पर परदेश में बस आप का ही सहारा है. आप कुछ कोशिश करें तो मामला रफादफा हो जाएगा. मैं अपने डौलर तो साथ लाई नहीं हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता हूं. खबरदार दोबारा फोन करने की कोशिश की.

अब तुम जानो और तुम्हारा काम… भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे 4000 डौलर,’’ और उस ने फोन काट दिया.

बिजनैसमैन की बातें सुन कर दोनों एकसाथ खुशी से उछल पड़े. नताशा बोली, ‘‘अब तो मेरे डौलर भी बच गए. पापा के घर का काफी कर्ज चुका सकती हूं. मेरा रिटर्न टिकट तो 2 दिन बाद का है. फिर भी मैं कोशिश करती हूं कि आज रात की फ्लाइट मिल जाए,’’ कह वह रसियन एअरलाइन एरोफ्लोट के काउंटर की तरफ बढ़ी.

दीपक ने उसे रोक कर कहा, ‘‘रुको, इस की कोई जरूरत नहीं है. तुम अभी मेरे साथ चलो. कम से कम 2 दिन तो मेरा साथ दो.’’

दीपक ने नताशा को एक होटल में ठहराया. काफी देर दोनों बातें करते रहे. दोनोें एकदूसरे का दुखसुख समझ रहे थे. रात में डिनर के बाद दीपक चलने लगा. उसे गले से लगाते हुए होंठों पर ऊंगली फेरते हुए बोला, ‘‘नताशा, या लुवलुवा (आई लव यू). कल सुबह फिर मिलते हैं. दोबरोय नोचि (गुड नाइट).’’

‘‘आई लव यू टू,’’ दीपक के बालों को सहलाते हुए नताशा ने कहा.

अगले दिन जब दीपक नताशा से मिलने आया तो वह स्कारलेट कलर के सुंदर लौंग फ्रौक में बैठी थी. बिलकुल उसी तरह जैसे मास्को के होटल में मिली थी.

दीपक बोला, ‘‘दोबरोय उत्रो. क्रासावित्सा (गुड मौर्निंग, ब्यूटीफुल).’’

‘‘कौन ब्यूटीफुल है मैं या तृसिकी?’’ वह हंसते हुए बोली ‘‘दोनों.’’

‘‘यू नौटी बौय,’’ बोल कर नताशा दीपक से सट कर खड़ी हो गई.

दीपक ने उसे अपनी बांहों में ले कर कहा, ‘‘अब तुम कहीं नहीं जाओगी. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं कल ही अपनी शादी के लिए औफिस में अर्जी दे दूंगा.’’

‘‘आई लव यू दीपक, पर मुझे कल जाने दो. मैं ने पिता की निशानी बचाने के लिए अपनी अस्मिता दांव पर लगा दी… मुझे अपने देश जा कर सबकुछ ठीक करने के लिए मुझे कुछ समय दो.’’

अगले दिन नताशा एरोफ्लोट की फ्लाइट से मास्को जा रही थी. दीपक उसे छोड़ने दिल्ली एअरपोर्ट आया था. उस के चेहरे पर उदासी देख कर वह बोली, ‘‘उम्मीद है फिर जल्दी मिलेंगे. डौंट गैट अपसैट. बाय, टेक केयर, दस्विदानिया,’’ और वह एरोफ्लोट की काउंटर पर चैक इन करने बढ़ गई. दोनों हाथ हिला कर एकदूसरे से बिदा ले रहे थे.

कुछ दिनों बाद दीपक ने अपने सीनियर से शादी की अर्जी दे कर इजाजत मांगने की बात की तो सीनियर ने कहा, ‘‘सेना का कोई भी सिपाही किसी विदेशी से शादी नहीं कर सकता है, तुम्हें पता है कि नहीं?’’

‘‘सर, पता है, इसीलिए तो पहले मैं इस की इजाजत लेना चाहता हूं.’’

‘‘और तुम सोचते हो तुम्हें इजाजत मिल जाएगी? यह सेना के नियमों के विरुद्ध है, तुम्हें इस की इजाजत कोईर् भी नहीं दे सकता है.’’

‘‘सर, हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. मैं शादी उसी से करूंगा.’’

‘‘बेवकूफी नहीं करो, अपने देश में क्या लड़कियों की कमी है?’’

‘‘बेशक नहीं है सर, पर प्यार तो एक से ही किया है मैं ने, सिर्फ नताशा से.’’

‘‘तुम अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हो. तुम्हारा कमीशन पूरा होने में कितना वक्त बाकी है अभी?’’

‘‘सर, अभी तो करीब 12 साल बाकी हैं.’’

‘‘तब 2 ही उपाय हैं या तो 12 साल इंतजार करो या फिर नताशा को अपनी नागरिकता छोड़ने को कहो. और कोई उपाय नहीं है.’’

‘‘अगर मैं त्यागपत्र देना चाहूं तो?’’

‘‘वह भी स्वीकार नहीं होगा. देश और सेना के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य बनता है जो प्यार से ज्यादा जरूरी है, याद रखना.’’

‘‘यस सर, मैं अपनी ड्यूटी भी निभाऊंगा… मैं कमीशन पूरा होने तक इंतजार करूंगा,’’ कह वह सोचने लगा कि पता नहीं नताशा इतने लंबे समय तक मेरी प्रतीक्षा करेगी या नहीं. फिर सोचा कि नताशा को सभी बातें बता दे.

दीपक ने जब नताशा से बात की तो उस ने कहा, ‘‘12 साल क्या मैं कयामत तक तुम्हारा इंतजार कर सकती हूं… तुम बेशक देश के प्रति अपना फर्ज निभाओ. मैं इंतजार कर लूंगी.’’

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नताशा से बात कर दीपक को खुशी हुई. दोनों में प्यारभरी बातें होती रहती थीं. वे बराबर एकदूसरे के संपर्क में रहते. धीरेधीरे समय बीतता जा रहा था. करीब 2 साल बाद एक बार नताशा दीपक से मिलने इंडिया आई थी. दीपक ने महसूस किया उस के चेहरे पर पहले जैसी चमक नहीं थी. स्वास्थ्य भी कुछ गिरा सा लग रहा था.

दीपक के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं है, सफर की थकावट और थोड़ा सिरदर्द है.’’

दोनों में मर्यादित प्रेम संबंध बना हुआ था. एक दिन बाद नताशा ने लौटते समय कहा, ‘‘इंतजार का समय 2 साल कम हो गया.’’

‘‘हां, बाकी भी कट जाएगा.’’

बेलारूस लौटने के बाद से नताशा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. कभी जोर से सिरदर्द, कभी बुखार तो कभी नाक से खून बहता. सारे टैस्ट किए गए तो पता चला कि उसे ब्लड कैंसर है. डाक्टर ने बताया कि फिलहाल दवा लेती रहो, पर 2 साल के अंदर कुछ भी हो सकता है. नताशा अपनी जिंदगी से निराश हो चली थी. एक तरफ अकेलापन तो दूसरी ओर जानलेवा बीमारी. फिर भी उस ने दीपक को कुछ नहीं बताया.

इधर कुछ महीने बाद दीपक को 3-4 दिनों से तेज बुखार था.

वह अपने एअरफोर्स के अस्पताल में दिखाने गया. उस समय फ्लाइट लैफ्टिनैंट डाक्टर ईशा ड्यूटी पर थीं. चैकअप किया तो दीपक को 103 डिग्री से ज्यादा ही फीवर था.

डाक्टर बोली, ‘‘तुम्हें एडमिट होना होगा. आज फीवर का चौथा दिन है…कुछ ब्लड टैस्ट करूंगी.’’

दीपक अस्पताल में भरती था. टैस्ट से पता चला कि उसे टाईफाइड है.

डा. ईशा ने पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं, आई मीन वाइफ, बच्चे?’’

‘‘मैं बैचलर हूं डाक्टर… वैसे भी और कोई नहीं है मेरा.’’

‘‘डौंट वरी, हम लोग हैं न,’’ डाक्टर उस की नब्ज देखते हुए बोलीं.

बीचबीच में कभीकभी दीपक का खुबार 103 से 104 डिग्री तक हो जाता तो वह नताशानताशा पुकारता. डा. ईशा के पूछने पर उस ने नताशा के बारे में बता दिया. डाक्टर ने नताशा का फोन नंबर ले कर उसे फोन कर दिया. 2 दिन बाद नताशा दीपक से मिलने पहुंच गई. उस दिन दीपक का फीवर कम था. नताशा उस के कैबिन में दीपक के बालों को सहला रही थी.

तभी डा. ईशा ने प्रवेश किया. बोलीं, ‘‘आई एम सौरी, मैं बाद में आ जाती हूं. बस रूटीन चैकअप करना है. आज इन्हें कुछ आराम है.’’

दीपक बोला, ‘‘नहीं डाक्टर, आप को जाने की जरूरत नहीं है. आप अपना काम कर लें… अब नताशा आ गई है, तो मैं ठीक हो जाऊंगा.’’

डा. ईशा ने नताशा से पूछा, ‘‘तुम इंडिया कितने दिनों के लिए आई हो?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 2 दिन तक रुक सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, इन का बुखार उतरना शुरू हो गया है. उम्मीद है कल तक कुछ और आराम मिलेगा.’’

डाक्टर के जाने के बाद दीपक ने नताशा से पूछा, ‘‘क्या बात है, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? थकीथकी लग रही हो?’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूं. तुम आराम करो. मैं अभी चलती हूं. फिर आऊंगी शाम को विजिटिंग आवर्स में.’’

नताशा डा. ईशा से मिलने उन के कैबिन में गई तो डा. ईशा बोलीं, ‘‘आप लंच मेरे साथ लेंगी… मेरे क्वार्टर में आ जाना, मैं वेट करूंगी.’’

लंच के बाद नताशा डा. ईशा से बैठी बातें कर रही थी. डा. ईशा ने कहा, ‘‘क्या बात है, इंडियन खाना पसंद नहीं आया? तुम ने तो कुछ खाया ही नहीं. तुम्हें तो इंडियन खाने की आदत डालनी होगी.’’

‘‘नहीं, खाना बहुत अच्छा था. मैं ने भरपेट खा लिया है.’’

‘‘दीपक तुम्हें बहुत चाहते हैं… तुम्हारे लिए लंबा इंतजार करने को तैयार हैं.’’

उसी समय नताशा के सिर में जोर का दर्द हुआ और नाक से खून रिसने लगा. डा. ईशा उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले गई, फिर बैड पर आराम करने के लिए लिटा दिया और पूछा, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ है और ऐसा कितने दिनों से हो रहा है?’’

नताशा ने अपने बैग से दवा खाई और अपनी पूरी बीमारी विस्तार से बता दी. फिर अपनी फाइल और रिपोर्ट उन्हें दिखा कर कहा, ‘‘अब मेरी जिंदगी कुछ ही महीनों की बची है. डाक्टर ने कहा है कि ज्यादा से ज्यादा 1 साल. मैं चाहती हूं आप दीपक को धीरेधीरे समझाएं… हो सकता है मैं इस के बाद अब उस से मिल न सकूं, क्योंकि लंबी यात्रा के लायक नहीं रहूंगी.’’

अगले दिन दीपक को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वह अपने क्वार्टर में नताशा के साथ था. नताशा को अगले दिन जाना था. दीपक बोला, ‘‘मैं तो एअरफोर्स में हूं, मेरा विदेश जाना संभव नहीं है. तुम्हीं मिलने आ जाया करो. मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम से मिल कर.’’

‘‘अच्छा तो मुझे भी लगता है, पर मुझे लगता है तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई यहां होना चाहिए. मेरे इंतजार में कहीं तुम्हारे स्वास्थ्य पर बुरा असर न पड़े.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं वेट कर लूंगा.’’

नताशा जा रही थी. दीपक से बिदा लेते समय उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. डाक्टर ने दीपक को एअरपोर्ट जाने से मना कर दिया था.

नताशा बोली, ‘‘दस्विदानिया, दोस्त.’’

डा. ईशा नताशा के साथ एअरपोर्ट आई थीं.

नताशा बोली, ‘‘डाक्टर, अब मैं दीपक से मिलने नहीं आ सकती हूं…आप समझ ही रही हैं न… मैं ने दीपक से कुछ नहीं कहा है. पर आप उसे सच बता दीजिएगा.’’

नताशा चली गई. डा. ईशा ने उस की बीमारी के बारे में दीपक को बता दिया. वह बहुत दुखी हुआ. डा. ईशा दीपक से अकसर मिलने आतीं और उसे समझातीं. लगभग 6 महीने बाद नताशा का आखिरी फोन उसे मिला. वह अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रही थी.

नताशा ने कहा, ‘‘सौरी दोस्त, मैं अब और तुम्हारा इंतजार नहीं कर सकती हूं. किसी भी पल आखिरी सांस ले सकती हूं. टेक केयर औफ योरसैल्फ. दस्विदानिया, प्राश्चे नवसेदगा (गुड बाय सदा के लिए).’’

करीब आधे घंटे के बाद नताशा की मृत्यु की खबर दीपक को मिली. वह बहुत दुखी हुआ. उस की आंखों से भी लगातार आंसू बह रहे थे. डा. ईशा दीपक को सांत्वना दे रही थी.

बीमारी के बाद दीपक और ईशा दोनों अकसर मिलने लगे थे. एक दिन दोनों साथ बैठे थे. दीपक थोड़ा सहज हो चला था. वह बोला, ‘‘अकेलापन काटने को दौड़ता है.’’

‘‘आप देश के बहादुर सैनिक हो. अपना मनोबल बनाए रखो. ड्यूटी के बाद कुछ अन्य कार्यों में अपनेआप को व्यस्त रखो.’’

‘‘मैं नताशा को भुला नहीं पा रहा हूं.’’

‘‘यादें इतनी आसानी से नहीं भूलतीं, पर कभीकभी यादों को हाशिए पर रख कर जिंदगी में आगे बढ़ना होता है. मैं भी उसे कहां भूल सकी हूं.’’

‘‘किसे?’’

‘‘फ्लाइंग अफसर राकेश से मेरी शादी तय हुई थी. हम दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे, पर एक टैस्ट फ्लाइट के क्रैश होने से वह नहीं रहा.’’

‘‘उफ , सो सौरी.’’

कुछ दिन बाद क्लब में डा. ईशा और दीपक एक सीनियर अफसर स्क्वाड्रन लीडर उमेश के साथ बैठे थे. उमेश ने कहा, ‘‘तुम दोनों की कहानी मिलतीजुलती है. क्यों न तुम दोनों एक हो कर एकदूसरे के सुखदुख में साथ दो.’’

डा. ईशा और दीपक एकदूसरे को देखने लगे. उमेश ने महसूस किया कि दोनों की आंखों से स्वीकृति का भाव साफ छलक रहा है.

कद: आखिर गोमा को शिंदे साहब क्यों पसंद नहीं थे

कहते हुए शिंदे साहब अपना पसीना पोंछते हुए ‘धप’ से सोफे में धंस गए. गोमा तिरछी नजरों से उन्हें एकटक देखता रहा. ‘लाल मुंह का बंदर… इस के खून में जरूर अंगरेजों का खून मिला होगा, नहीं तो ऐसा लाल भभूका मुंह नहीं हो सकता,’ गोमा सोचते हुए मुसकरा उठा.

शिंदे साहब की नजर गोमा पर पड़ी, तो उस की तिरछी नजर देख कर उन के तनबदन में आग लग गई. वे चिल्लाए, ‘‘अरे कैसा बेशर्म है तू, इतनी मार खा कर भी कोई असर नहीं हुआ?’’

शिंदे साहब को गुस्सा तो बहुत आ रहा था और इच्छा भी हो रही थी कि गोमा का खून कर दें, पर वे ऐसा नहीं कर सकते, यह बात वे दोनों जानते थे.

गोमा शराब पीता था, पर तनख्वाह मिलते ही… और वह भी 2 दिन तक. उस के बाद अगली तनख्वाह के मिलने तक शराब को मुंह नहीं लगाता था. लगाता भी कैसे? पैसे मिलते ही घर में खर्च के लिए कुछ पैसे दे कर एक बार जो पीने के लिए जाता, तो तीसरे दिन होश आने पर खुद को किसी नाले या गटर में पाता. फिर उसे साहब का और खुद का घर याद आता.

शिंदे साहब के घर पहुंचते ही हर महीने मेम साहब से पड़ने वाली नियमित डांट सुनने को मिलती कि पिछले 3 दिन से कहां रहे? यहां काम कौन करेगा? इस तरह शराब में धुत्त रहोगे तो साहब से कह कर पिटवाऊंगी.

मेम साहब मन ही मन भुनभुनाती रहतीं और गोमा चुपचाप अपना काम करता जाता मानो वे किसी और को सुना रही हों. इन के जैसे कितने ही साहब और मेम साहब के लिए गोमा काम कर चुका है. उन लोगों का गुजारा गोमा जैसे लोगों के बिना मुमकिन नहीं है.

अर्दली तो बहुत होते हैं, जिन में से आधे तो केवल भरती और गिनती के नाम पर होते हैं, गोमा जैसे पुराने और मंजे हुए तो बस 2-4 ही होते हैं, जो साहब व मेम साहब की सारी जरूरतें जानते हैं. तभी तो मेम साहब केवल धमकी दे कर रह जाती हैं.

साहब लोगों की बातें नौकर असली या नकली नशे की आड़ में ही तो उजागर कर सकते हैं. वैसे, गोमा की यह आदत भी नहीं थी कि वह साहब लोगों के बारे में इधरउधर चर्चा करे.

गोमा अपने काम से काम रखता था, इसलिए साहब या मेम साहब कैसे हैं या उन के स्वभाव के बारे में ज्यादा सोचता ही नहीं था. पर शिंदे साहब को पहली बार देखते ही उस का मन खराब सा हो गया था. उन की शक्ल से ले कर हर चीज, हर बात बनावटी और बेढंगी लगी थी.

शिंदे साहब का अजीब सा गोराभूरा रंग, कंजी आंखें, मोटे होंठ, भारीभरकम शरीर और बेवजह चिल्लाचिल्ला कर बात करने का तरीका कुछ भी अच्छा नहीं लगा था, इसीलिए उन से सामना न हो, इस बात का वह खयाल रखता था.

पर, उस दिन गोमा ने अपने पूरे होशोहवास में साहब के मुंह पर ऐसी बात कही थी क्योंकि मेम साहब उस से उलझी हुई

थीं और जब उस से सहन न हुआ, तो साहब व मेम साहब दोनों को देख कर ही बोला था.

गोमा सोचता है कि इन बड़े लोगों को रोज नियम से शाम को पीनी है, पूरे तामझाम के साथ. एक अर्दली बोतल खोलेगा, दूसरा भुने हुए काजू, पनीर के टुकड़े, नमकीन वगैरह लाता रहेगा.

2-4 अफसर अपनी बीवियों के साथ हर दिन मौजूद रहते थे.

‘‘मैडम, आप थोड़ी सी लीजिए न, फोर कंपनीज सेक.’’

‘‘न बाबा, हम को हमारा सौफ्ट ड्रिंक ही ठीक है. अपनी वाइफ को पिलाओ,’’ बड़े अफसर की बीवी अफसराना अंदाज में कहतीं.

दूसरी तरफ बड़े साहब इन की बीवी से इस तरह चोंच लड़ा रहे होते जैसे सुग्गा अपनी मादा से.

‘‘मोनाजी, आप तो मौडर्न हैं, कम से कम हमारे पैग को तो छू दीजिए,’’ कहतेकहते उन की नजरें मोनाजी के

पूरे जिस्म का सफर कर किसी ऐसे उभार पर टिक जातीं, जो उन्हें लुभावना लगता था.

गोमा मन ही मन सोच कर हंसता कि अगर कोई नया आदमी उस कमरे में आ जाए, तो उस के लिए यह पहचानना मुश्किल होगा कि कौन किस की बीवी है. सभी अपने पति को छोड़ दूसरे मर्दों से सटीं, हंसतींखिलखिलातीं, लाड़ लड़ाती मिलेंगीं. फिर मर्दों का तो क्या कहना, सारी बगिया के फूल तो उन के लिए हैं, कोई भी तोड़ लो.

शिंदे साहब गोमा पर जितना ही चिल्लाते या झल्लाते, उतना ही उन्हें हैरान करने में मजा आ रहा था. उस ने भी कोई झूठ थोड़े ही बोला था, ‘‘अपनी बीवी को संभाल नहीं पाते हैं और दुनिया वालों की बातों पर गुर्राते हैं.’’

गोमा ने तो कई बार मेम साहब और साहब के जूनियर रमेश को चोंच लड़ाते और इशारे करते देखा था. जब शिंदे साहब दौरे पर होते, तो उन दोनों की पौबारह रहती थी. एकलौते बेटे को बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा कर मिसेज शिंदे एकदम आजाद हो गई थीं.

पति के दौरे पर चले जाने के बाद तो मैदान एकदम साफ रहता. पर, एक मुसीबत तो फिर भी सिर पर होती थी. दिनभर रहने वाले अर्दली को भले ही काम न होने का कह कर विदा कर दें, पर रात को पहरे पर रहने वाला गार्ड तो 9 बजे आ धमकता था.

हालांकि रोज शाम को रमेश ‘इधर से जा रहा था, सोचा पूछ लूं कि कोई काम तो नहीं है’ कहते हुए आ जाता था. गार्ड के आते ही वे दोनों ऐसा बरताव करते, मानो चंद मिनट पहले ही मिले हों और रमेश हालचाल पूछ कर चला जाएगा.

मेम साहब बाजार का कुछ काम बता देती थीं. केवल एक चीज के लिए तो कभी भेजती नहीं थीं, लिस्ट बना कर देती थीं. आज भी एक चीज जो वे लाने को कह रही थीं, उस की ऐसी खास जरूरत नहीं थी.

गोमा ने कहा, ‘‘कुछ और चीजों का नाम लिख दीजिए, फिर चला जाऊंगा. एक चीज के पीछे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘अरे वाह, तुझे समय की फिक्र कब से होने लगी. जब पी कर 2 दिनों तक बेसुध पड़ा रहता है, तब समय का खयाल नहीं आता,’’ मेम साहब ने मुंह बनाते हुए जिस तरह कहा, गोमा अपनेआप को रोक न पाया और बोला, ‘‘पीते हैं तो अपने पैसे की, बड़े लोगों की तरह मुफ्त की नहीं.’’

‘‘ठीक है भई, तू शराब पी या कहीं पड़ा रहे, बस अब जा,’’ उन की आवाज में एक उतावलापन था, मानो गोमा को वहां से हटाना ही उन का मकसद था.

गोमा भी शब्दों के तीर छोड़ कर अब वहां से भागना ही चाह रहा था, पर मेम साहब के बरताव से मन में उलझन सी हो रही थी. गोमा को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा, क्योंकि तभी रमेश की शानदार मोटरसाइकिल बंगले के अहाते में घुसी.

जब भी शिंदे साहब के घर कोई पार्टी होती, तो सारे इंतजाम रमेश को ही करने पड़ते थे. शिंदे साहब के हर आदेश को ‘यस सर’ कहते हुए वह इस तरह पूरा करता, मानो सिर पर अपने बौस के आदेश का बोझ नहीं, बल्कि फूलों का ताज हो.

पार्टी के दिन रमेश और मेम साहब के बीच हंसीमजाक, नैनमटक्का चलता रहता था. गोमा के अलावा और भी 3-4 अर्दली होते थे. पानी की तरह ‘ड्रिंक’ ले जाने, परोसने, स्नैक्स की प्लेटें ले जाने, चारों ओर घुमाघुमा कर सब को देने के लिए इतने नौकर तो चाहिए ही थे.

पार्टी के बीच अचानक शिंदे साहब के बौस के दिमाग में आइडिया का बल्ब जला. शाम की ‘डलनैस’ को दूर करने के लिए कोई मौडर्न ‘गेम’ खेलने का फुतूर.

‘‘अरे शिंदे, क्या पिलापिला कर ही मार डालोगे?’’

‘‘नो सर, आप कहें तो डिनर सर्व हो जाए?’’

‘‘होहो…’’ अट्टहास करते हुए बौस ने कहा, ‘‘तुम हो पूरे बेवकूफ और वही रहोगे. कभी दिल्लीमुंबई की ‘ऐलीट’ लोगों की पार्टी में शामिल होओगे,

तब समझ आएगा पार्टी का असली रंग और मजा.’’

‘‘जी सर,’’ शिंदे साहब बोले.

‘‘कुछ ‘थ्रिलिंग गेम’ हो जाए,’’ बौस ने कहा.

शिंदे साहब अपने बौस के चेहरे को उजबक की तरह ताकने लगे, कुछ देर पहले जब वे अपनी बीवी से कुछ कहने अंदर जा रहे थे और रमेश के साथ उन की प्रेमलीला देखी, तो उस से वे काफी आहत थे.

‘‘मैडम, अब आप अंदर जाइए, अच्छा नहीं लगता कि आप इस खादिम के साथ यहां रहें,’’ रमेश मेम साहब को चिढ़ाते हुए बोल रहा था.

‘‘यार रमेश, कम से कम अकेले में मुझे मैडम मत कहो,’’ शिंदे साहब की बीवी मचल कर बोलीं.

ऐसा कह कर मेम साहब हाल की तरफ जाने को पलट ही रही थीं कि शिंदे साहब पास ही दिखे.

‘‘क्या बात है डार्लिंग, थकेथके से लग रहे हो? अभी तो पार्टी पूरे शबाब पर भी नहीं आई है,’’ मेम साहब ने शिंदे साहब से पूछा.

शिंदे साहब मन ही मन बोले, ‘तुम तो हो अभी से पूरे शबाब पर,’ फिर रमेश की ओर देख कर रूखी आवाज में बोले, ‘‘गोमा या किसी और को समझा कर आप भी हाल में तशरीफ ले आइए.’’

उन की रूखी आवाज से रमेश को भला क्या फर्क पड़ता. छड़ा, कुंआरा बस मौजमस्ती चल रही है. ज्यादा से ज्यादा उस का तबादला हो जाएगा. वह तो वैसे भी कभी न कभी होना ही है.

‘‘तुम कब से गायब हो, क्या ऐसे अच्छा लगता है कि ‘होस्टेस’ अपने ‘गैस्ट्स’ का खयाल न रखे,’’ अपनी बीवी से कहते हुए शिंदे साहब की दबी आवाज में भी गुस्सा नजर आ रहा था.

‘‘गैस्ट्स के लिए तो सारा तामझाम कर रही हूं डार्लिंग, परेशान मत होइए. तुम्हारे बौस इतने खुश हो जाएंगे कि तुम भी क्या याद करोगे,’’ मेम साहब बोलीं.

उधर बौस के आदेश से थ्रिलिंग गेम ‘वाइफ स्वैपिंग’ की तैयारी में एक खूबसूरत डब्बों में सब की कारों की चाबियां डाल दी गई थीं.

गोमा साहबों और मेम साहबों के तरहतरह के चोंचले, सनकीपन और मूड से उसी तरह वाकिफ था, जिस तरह अपनी हथेली की लकीरों से. उसे किसी भी साहब या मेम साहब के लिए कोई दिली आदर न था और न ही उन से किसी तरह का डर लगता था. उस के कुछ उसूल थे, जिन का पालन वह पूरी ईमानदारी से करता था.

गोमा ने मन ही मन सोचा कि अगर उस की बीवी दूसरे आदमी के साथ इस तरह जाए, तो वह दोबारा उस का मुंह भी नहीं देखे. अगर उस का खुद का रिश्ता दूसरी औरत से हो जाए, तो उस की घरवाली भी उसे यों ही नहीं छोड़ देगी. गोमा के इसी स्वाभिमान ने तो उस के मुंह से वह कहलवाया, जो शिंदे साहब को बरदाश्त नहीं हुआ.

महीने का पहला हफ्ता था और हमेशा की तरह गोमा 3 दिन गायब रह कर चौथे दिन आया था. इस बीच रमेश को ले कर साहब और मेम साहब में तीखी नोकझोंक हुई. जब गोमा सामने आया, तो दोनों का बचाखुचा गुस्सा

उसी पर उतरा, वह भी ऐसा उतरा कि बिलकुल बेलगाम.

मेम साहब की जबान फिसलती गई, ‘‘फिर जा कर गिरा नाले में, तू नाले का कीड़ा ही बना रहेगा. किसी दिन यह शराब तुझे और तेरे घर को बरबाद कर देगी.

‘‘देखना, तेरी बीवी एक दिन तुझे छोड़ कर किसी और के साथ घर बसा लेगी. तुम्हारी जात में तो वैसे भी एक को छोड़ कर दूसरे के साथ बैठ जाना बुरा नहीं माना जाता.’’

इतना सुन कर गोमा मेम साहब के ठीक सामने आ गया और बोला, ‘‘हमारी जात? हमारी जात को कितना जानती

हैं आप? आप लोगों की ऊंची जात में होती होगी चीजों की तरह लुगाइयों की अदलाबदली. हम लोगों के घर बसाने में एक तमीज होती है. कोठे की बाई की तरह नहीं कि आज इस के साथ, कल उस के साथ और परसों तीसरे के साथ.’’

मेम साहब को तो जैसे सांप सूंघ गया. इसी बात का फायदा उठा कर गोमा फिर शुरू हो गया. लगा जैसे आज उस के मन में जो फोड़ा था, वह पक कर

फूट गया और सारा मवाद निकल रहा हो, ‘‘मैं तो महीने में 1-2 दिन ही पीता हूं. केवल इसलिए कि 2-3 दिन तक पैसे की तंगी, घर की चिंता से इतना दूर चला जाऊं कि अपनेआप को मैं खुशकिस्मत समझ सकूं.

‘‘पर, आप बड़े लोग तो रोज महंगी अंगरेजी शराब बहाते हैं अपनी खुशी, अपना फालतू पैसा दिखाने को. मैं तो शराब पी कर भी आप जैसे बड़े लोगों जैसी छोटी हरकत कभी नहीं करता…’’

तब से शिंदे साहब गोमा को पीटे जा रहे हैं, मानो बीवी का सारा गुस्सा उस पर उतार देंगे. उधर गोमा इतनी मार खा कर भी मन ही मन जीत की खुशी महसूस कर रहा था.

शादी के बाद: क्या विकास को अपना पाई रजनी

रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

ऊंच नीच की दीवार : दिनेश और सरिता की रिजर्व्ड लवस्टोरी

‘‘बाबूजी…’’

‘‘क्या बात है सुभाष?’’

‘‘दिनेश उस दलित लड़की से शादी कर रहा है,’’ सुभाष ने धीरे से कहा.

‘‘क्या कहा, दिनेश उसी दलित लड़की से शादी कर रहा है…’’ पिता भवानीराम गुस्से से आगबबूला हो उठे.

वे आगे बोले, ‘‘हमारे समाज में क्या लड़कियों की कमी है, जो वह एक दलित लड़की से शादी करने पर तुला है? अब मेरी समझ में आया कि उसे नौकरी वाली लड़की क्यों चाहिए थी.’’

‘‘यह भी सुना है कि वह दलित परिवार बहुत पैसे वाला है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम कुछ सोच कर बोले, ‘‘पैसे वाला हुआ तो क्या हुआ? क्या दिनेश उस के पैसे से शादी कर रहा है? कौन है वह लड़की?’’

‘‘उसी के स्कूल की कोई सरिता है?’’ सुभाष ने जवाब दिया.

‘‘देखो सुभाष, तुम अपने छोटे भाई दिनेश को समझाओ.’’

‘‘बाबूजी, मैं तो समझा चुका हूं, मगर वह तो उसी के साथ शादी करने का मन बना चुका है,’’ सुभाष ने जब यह बात कही, तब भवानीराम सोच में पड़ गए. वे दिनेश को शादी करने से कैसे रोकें? चूंकि उन के लिए यह जाति की लड़ाई है और इस लड़ाई में उन का अहं आड़े आ रहा है.

भवानीराम पिछड़े तबके के हैं और दिनेश जिस लड़की से शादी करने जा रहा है, वह दलित है, फिर चाहे वह कितनी ही अमीर क्यों न हो, मगर ऊंचनीच की यह दीवार अब भी समाज में है. सरकार द्वारा भले ही यह दीवार खत्म हो चुकी है, मगर फिर भी लोगों के दिलों में यह दीवार बनी हुई है.

दिनेश भवानीराम का छोटा बेटा है. वह सरकारी स्कूल में टीचर है. जब से उस की नौकरी लगी है, तब से उस के लिए लड़की की तलाश जारी थी. उस के लिए कई लड़कियां देखीं, मगर वह हर लड़की को खारिज करता रहा.

तब एक दिन भवानीराम ने चिल्ला कर उस से पूछा था, ‘तुझे कैसी लड़की चाहिए?’

‘मुझे नौकरी करने वाली लड़की चाहिए,’ दिनेश ने उस दिन जवाब दिया था. भवानीराम ने इस शर्त को सुन कर अपने हथियार डाल दिए थे. वे कुछ नहीं बोले थे.

जिस स्कूल में दिनेश है, वहीं पर सरिता नाम की लड़की भी काम करती है. सरिता जिस दिन इस स्कूल में आई थी, उसी दिन दिनेश से उस की आंखें चार हुई थीं. सरिता की नौकरी रिजर्व कोटे के तहत लगी थी.

सरिता उज्जैन की रहने वाली है. वहां उस के पिता का बहुत बड़ा जूतों का कारोबार है. इस के अलावा मैदा की फैक्टरी भी है. उन का लाखों रुपयों का कारोबार है.

फिर भी सरिता सरकारी नौकरी करने क्यों आई? इस ‘क्यों’ का जवाब स्टाफ के किसी शख्स ने नहीं पूछा.

सरिता को अपने पिता की जायदाद पर बहुत घमंड था. उस का रहनसहन दलित होते हुए भी ऊंचे तबके जैसा था. वह अपने स्टाफ में पिता के कारोबार की तारीफ दिल खोल कर किया करती थी. वह हरदम यह बताने की कोशिश करती थी कि नौकरी उस ने अपनी मरजी से की है. पिता तो नौकरी कराने के पक्ष में नहीं थे, मगर उस ने पिता की इच्छा के खिलाफ आवेदन भर कर यह नौकरी हासिल की.

स्टाफ में अगर कोई सरिता के पास आया, तो वह दिनेश था. ज्यादातर समय वे स्कूल में ही रहा करते थे. पहले उन में दोस्ती हुई, फिर वे एकदूसरे के ज्यादा पास आए. जब भी खाली पीरियड होता, उस समय वे दोनों स्टाफरूम में बैठ कर बातें करते रहते.

शुरूशुरू में तो वे दोस्त की तरह रहे, मगर उन की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला. स्टाफरूम के अलावा वे बगीचे और रैस्टोरैंट में भी मिलने लगे, भविष्य की योजनाएं बनाने लगे.

ऐसे ही रोमांस करते 2 साल गुजर गए. उन्होंने फैसला कर लिया कि अब वे शादी करेंगे, इसलिए सरिता ने पूछा था, ‘हम कब शादी करेंगे?’

‘तुम अपने पिताजी को मना लो, मैं अपने पिताजी को,’ दिनेश ने जवाब दिया.

‘मेरे पिताजी ने तो अपने समाज में लड़के देख लिए हैं और उन्होंने कहा भी है कि आ कर लड़का पसंद कर लो. मैं ने मना कर दिया कि मैं अपने ही स्टाफ में दिनेश से शादी करूंगी,’ सरिता बोली.

‘फिर पिताजी ने क्या कहा?’ दिनेश ने पूछा.

‘उन्होंने तो हां कर दी…’ सरिता ने कहा, ‘तुम्हारे पिताजी क्या कहते हैं?’

‘पहले मैं बड़े भैया से बात करता हूं,’ दिनेश ने कहा.

‘हां कर लो, ताकि मेरे पिताजी शादी की तैयारी कर लें,’ कह कर सरिता ने गेंद दिनेश के पाले में फेंक दी. मगर दिनेश कैसे अपने पिता से कहे. उस ने अपने बड़े भाई सुभाष से बात करनी चाही, तो सुभाष बोला, ‘तुम समझते हो कि बाबूजी इस शादी के लिए तैयार हो जाएंगे?’

‘आप को तैयार करना पड़ेगा,’ दिनेश ने जोर देते हुए कहा.

‘अगर बाबूजी नहीं माने, तब तुम अपना इरादा बदल लोगे?’

‘नहीं भैया, इरादा तो नहीं बदलूंगा. अगर वे नहीं मानते हैं, तो शादी करने का दूसरा तरीका भी है,’ कह कर दिनेश ने अपने इरादे साफ कर दिए.

मगर सुभाष ने जब पिताजी से बात की, तब उन्होंने मना कर दिया. अब सवाल यह है कि कैसे शादी हो? सुभाष भी इस बात से परेशान है. एक तरफ पिता?हैं, तो दूसरी तरफ छोटा भाई. इन दोनों के बीच में उस का मरना तय है.

बाबूजी का अहं इस शादी में आड़े आ रहा है. इन दोनों के बीच में सुभाष पिस रहा?है. ऐसा भी नहीं है कि दोनों नाबालिग हैं. शादी के लिए कानून भी उन पर लागू नहीं होता है.

एक बार फिर बाबूजी का मन टटोलते हुए सुभाष ने पूछा, ‘‘बाबूजी, आप ने क्या सोचा है?’’

भवानीराम के चेहरे पर गुस्से की रेखा उभरी. कुछ पल तक वे कोई जवाब नहीं दे पाए, फिर बोले, ‘‘अब क्या सोचना है… जब उस ने उस दलित लड़की से शादी करने का मन बना ही लिया है, तब उस के साथ शादी करने की इजाजत देता हूं? मगर मेरी एक शर्त है.’’

‘‘कौन सी शर्त बाबूजी?’’ कहते समय सुभाष की आंखें थोड़ी चमक उठीं.

‘‘न तो मैं उस की शादी में जाऊंगा और न ही उस दलित लड़की को बहू स्वीकार करूंगा और मेरे जीतेजी वह इस घर में कदम नहीं रखेगी. आज से मैं दिनेश को आजाद करता हूं,’’ कह कर बाबूजी की सांस फूल गई.

बाबूजी की यह शर्त भविष्य में क्या गुल खिलाएगी, यह तो बाद में पता चलेगा, मगर यह बात तय है कि परिवार में दरार जरूर पैदा होगी.

जब से अम्मां गुजरी हैं, तब से बाबूजी बहुत टूट चुके हैं. अब कितना और टूटेंगे, यह भविष्य बताएगा. उन की इच्छा थी कि दिनेश शादी कर ले तो एक और बहू आ जाए, ताकि बड़ी बहू को काम से राहत मिले, मगर दिनेश ने दलित लड़की से शादी करने का फैसला कर बाबूजी के गणित को गड़बड़ा दिया है.

उन्होंने अपनी शर्त के साथ दिनेश को खुला छोड़ दिया. उन की यह शर्त कब तक चल पाएगी, यह नहीं कहा जा सकता है.

मगर शादी की सारी जिम्मेदारी सरिता के बाबूजी ने उठा ली.

अनोखा रिश्ता : क्या रंग लाई एक अनजान से मुलाकात

जयशंकर से गले मिल कर जब मैं अपनी सीट पर जा कर बैठा तो देखा मनीषा दास आंचल से अपनी आंखें पोंछे जा रही थीं. उन के पांव छूते समय ही मेरी आंखें नम हो गई थीं. धीरेधीरे ट्रेन गुवाहाटी स्टेशन से सरकने लगी और मैं डबडबाई आंखों से उन्हें ओझल होता देखता रहा.

इस घटना को 25 वर्ष बीत चुके हैं. इन 25 वर्षों में जयशंकर की मां को मैं ने सैकड़ों पत्र डाले. अपने हर पत्र में मैं गिड़गिड़ाया, पर मुझे अपने एक पत्र का भी जवाब नहीं मिला. मुझे हर बार यही लगता कि श्रीमती दास ने मुझे माफ नहीं किया. बस, यही एक आशा रहरह कर मुझे सांत्वना देती रही कि जयशंकर अपनी मां की सेवा में जीजान से लगा होगा.

मेरे लिए मनीषा दास की निर्ममता न टूटी जिसे मैं ने स्वयं खोया, अपनी एक गलती और एक झूठ की वजह से. इस के बावजूद मैं नियमित रूप से पत्र डालता रहा और उन्हें अपने बारे में सबकुछ बताता रहा कि मैं कहां हूं और क्या कर रहा हूं.

एक जिद मैं ने भी पकड़ ली थी कि जीवन में एक बार मैं श्रीमती दास से जरूर मिल कर रहूंगा. असम छोड़ने के बाद कई शहर मेरे जीवन में आए, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, देहरादून फिर मास्को और अंत में बर्लिन. इन 25 वर्षों में मुझ से सैकड़ों लोग टकराए और इन में से कुछ तो मेरी आत्मा तक को छू गए लेकिन मनीषा दास को मैं भूल न सका. वह जब भी खयालों में आतीं  मेरी आंखें नम कर जातीं.

मां की तबीयत खराब चल रही थी. 6 सप्ताह की छुट्टी ले कर भारत आया था. मां को देखने के बाद एक दिन अनायास ही मनीषा दास का खयाल जेहन में आया तो मैं ने गुवाहाटी जाने का फैसला किया और अपने उसी फैसले के तहत आज मैं मां समान मनीषा दास से मिलने जा रहा हूं.

गुवाहाटी मेल अपनी रफ्तार से चल रही थी. मैं वातानुकूलित डब्बे में अपनी सीट पर बैठा सोच रहा था कि यदि श्रीमती दास ने मुझे अपने घर में घुसने नहीं दिया या फिर मुझे पहचानने से इनकार कर दिया तब? इस प्रश्न के साथ ही मैं ने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो पर मैं अपने मन की फांस को निकाल कर ही आऊंगा.

मेरे जेहन में 25 साल पहले की वह घटना साकार रूप लेने लगी जिस अपराधबोध की पीड़ा को मन में दबाए मैं अब तक जी रहा हूं.

मैं गुवाहाटी मेडिकल कालिज में अपना प्रवेश फार्म जमा करवाने गया था. रास्ते में मेरा बटुआ किसी ने निकाल लिया. उसी में मेरे सारे पैसे और रेलवे के क्लौक रूम की रसीद भी थी. इस घटना से मेरी तो टांगें ही कांपने लगीं. मैं सिर पकड़ कर प्लेटफार्म की एक बेंच पर बैठ गया.

इस परदेस में कौन मेरी बातों पर भरोसा करेगा. मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. तभी एक लड़का मेरे पास समय पूछने आया. मैं ने अपनी कलाई उस की ओर बढ़ा दी. वह स्टेशन पर किसी को लेने आया था. समय देख कर वह भी मेरे बगल में बैठ गया. थोड़ी देर तक तो वह चुप रहा फिर अपना परिचय दे कर मुझे कुरेदने लगा कि मैं कहां से हूं, गुवाहाटी में क्या कर रहा हूं? मैं ने थोड़े में उसे अपना संकट सुना डाला.

थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोला, ‘धनबाद का किराया भी तो काफी होगा.’

‘हां, 100 रुपए है.’ यह सुन कर वह बोला कि यह तो अधिक है. पर तुम अपना जी छोटा न करो. मां को आने दो उन से बात करेंगे.

तभी एक ट्रेन आने की घोषणा हुई और वह लड़का बिना मुझ से कुछ कहे उठ गया. उस की बेचैनी मुझ से छिपी न थी. ट्रेन के आते ही प्लेट-फार्म पर ऐसी रेलपेल मची कि वह लड़का मेरी आंखों से ओझल हो गया.

15 मिनट बाद जब प्लेटफार्म से थोड़ी भीड़ छंटी तो मैं ने देखा कि वह लड़का अपनी मां के साथ मेरे सामने खड़ा था. मैं ने उठ कर उन के पांव को छुआ तो उन्होंने धीरे से मेरा सिर सहलाया और बस, इतना ही कहा, ‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारा सूटकेस क्लौक रूम में है जिस की रसीद तुम गुम कर चुके हो. सूटकेस का रंग तो तुम्हें याद है न.’

मैं उन के साथ क्लौक रूम गया. अपना पता लिखवा कर वह सूटकेस निकलवा लाईं. जयशंकर ने अपनी साइकिल के कैरियर पर मेरा सूटकेस लाद लिया और मैं ने उस की मां का झोला अपने कंधे से लटका लिया. पैदल ही हम घर की तरफ चल पड़े.

आगेआगे जयशंकर एक हाथ से साइकिल का हैंडल और दूसरे से मेरा सूटकेस संभाले चल रहा था, पीछेपीछे मैं और उस की मां. जयशंकर का घर आने का नाम ही न ले रहा था. रास्ते भर उस की मां ने मुझ से एक शब्द तक न कहा, वैसे जयशंकर ने मुझे पहले ही बता दिया था कि मेरी मां सोचती बहुत हैं बोलती बहुत कम हैं. तुम इसे सहज लेना.

रास्ते भर मैं जयशंकर की मां के लिए एक नाम ढूंढ़ता रहा. उन के लिए मिसेज दास से उपयुक्त कोई दूसरा नाम न सूझा.

आखिरकार हम एक छोटी सी बस्ती में पहुंचे, जहां मिसेज दास का घर था, जिस की ईंटों पर प्लास्टर तक न था. देख कर लगता था कि सालों से घर की मरम्मत नहीं हुई है. छत पर दरारें पड़ी हुई थीं. कई जगहों से फर्श भी टूटा हुआ था पर कमरे बेहद साफसुथरे थे. दरवाजों और खिड़कियों पर भी हरे चारखाने के परदे लटक रहे थे. इन 2 कमरों के अलावा एक और छोटा सा कमरा था जिस में घर का राशन बड़े करीने से सजा कर रखा गया था.

मिसेज दास ने मुझे एक तौलिया पकड़ाते हुए हाथमुंह धोने को कहा. जब मैं बाथरूम से बाहर निकला तो संदूक पर एक थाली में कुछ लड्डू और मठरी देखते ही मेरी जान में जान आ गई.

मिसेज दास ने आदेश देते हुए कहा, ‘तुम जयशंकर के साथ थोड़ा नाश्ता कर लो फिर उस के साथ बाजार चले जाना. जो सब्जी तुम्हें अच्छी लगे ले आना. तब तक मैं खाने की तैयारी करती हूं.’

नाश्ता करने के बाद मैं जयशंकर के साथ सब्जी खरीदने के लिए बाजार चला गया. वापस लौटने तक मिसेज दास पूरे बरामदे की सफाई कर के पानी का छिड़काव कर चुकी थीं. दोनों चौकियों पर दरियां बिछी हुई थीं और वह एक गैस के स्टोव पर चावल बना रही थीं. घर वापस आते ही जयशंकर अपनी मां के साथ रसोई में मदद करने लगा और मैं वहीं बरामदे में बैठा अपनी वर्तमान दशा पर सोचता रहा. कब आंख लग गई पता ही न चला.

जयशंकर के बुलाने पर मैं बरामदे से कमरे में पहुंचा और दरी पर पालथी मार कर बैठ गया. मिसेज दास सारा खाना कमरे में ही ले आईं और मेरे सामने अपने पैर पीछे की तरफ मोड़ कर बैठ गईं. जहां हम बैठे थे उस के ऊपर बहुत पुराना एक पंखा घरघरा रहा था. खाने के दौरान ही मिसेज दास ने कहना शुरू किया, ‘बेटा, हम तो गुवाहाटी में बस, अपनी इज्जत ढके बैठे हैं. 100-200 रुपए की सामर्थ्य भी हमारे पास नहीं है. मुझे दीदी को लिखना होगा. पैसे आने में शायद 8-10 दिन लग जाएं. तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर अपने घर पर एक टेलीग्राम डाल दो वरना तुम्हारे मातापिता चिंतित होंगे.’

मेरा मन भर आया. सहज होते ही मैं ने उन से कहा, ‘इतने दिनों में तो मेरे घर से भी पैसे आ जाएंगे. आप अपनी दीदी को कुछ न लिखें. मैं तो यह सोच कर परेशान हूं कि 8-10 दिन तक आप पर बोझ बना रहूंगा…’

‘तुम ऐसा क्यों सोचते हो,’ मिसेज दास ने बीच में ही मुझे टोकते हुए कहा, ‘जो रूखासूखा हम खाते हैं तुम्हारे साथ खा लेंगे.’

दूसरे दिन सुबह मैं जयशंकर के साथ पोस्टआफिस गया. मैं ने घर पर एक टेलीग्राम डाल दिया. जब हम वापस आए, मिसेज दास बरामदे में खाना बना रही थीं. मैं ने उन के हाथ पर टेलीग्राम की रसीद और शेष पैसे रख दिए. मैं इस परिवार में कुल 6 दिन रहा था. इन 6 दिन में एक बार मिसेज दास ने मीट बनाया था और एक बार मछली.

एक दिन शाम को जयशंकर ने ही मुझे बताया कि बाबा के गुजरने के बाद मेरे चाचा एक बार मां के पास शादी का प्रस्ताव ले कर आए थे पर मां ने उसे यह कह कर ठुकरा दिया कि मेरे पास जयशंकर है जिसे मैं बस, उस के बाबा के साथ ही बांट सकती हूं और किसी के साथ नहीं. जयशंकर को अगर आप मार्गदर्शन दे सकते हैं तो दें वरना मुझे ही सबकुछ देखना होगा. मैं अपने पति की आड़ में उसे एक ऐसा मनुष्य बनाऊंगी कि उसे दुनिया याद करेगी.

मिसेज दास का असली नाम मनीषा मुखर्जी था और उन के पति का नाम प्रणव दास. जब मैं उन से मिला था तब मेरी उम्र 21 साल की थी और वह 42 वर्ष की थीं. उन के कमरे की मेज पर पति की एक मढ़ी तसवीर थी. मैं अकसर देखता था कि बातचीत के दौरान जबतब उन की नजर अपने पति की तसवीर पर टिक जाती थी, जैसे उन्हें हर बात की सहमति अपने पति से लेनी हो.

यह गुवाहाटी में मेरा तीसरा दिन था. मिसेज दास स्कूल जा चुकी थीं. जयशंकर भी कालिज जा चुका था. मैं घर पर अकेला था सो शहर घूमने निकल पड़ा. घूमतेघूमते स्टेशन तक पहुंच गया. अचानक मेरी नजर एक होटल पर पड़ी, जिस का नाम रायल होटल था. कभी  बचपन में अपने ममेरे भाइयों से सुन रखा था कि बगल वाले गांव के एक बाबू साहब का गुवाहाटी रेलवे स्टेशन के समीप एक होटल है. मैं बाबू साहब से न कभी मिला था और न उन्हें देखा था. मैं तो उन का नाम तक नहीं जानता था. पर मुझे यह पता था कि शाहाबाद जिले के बाबू साहब अपने नाम के पीछे राय लिखते हैं.

होटल वाकई बड़ा शानदार था. मैं ने एक बैरे को रोक कर पूछा, ‘इस होटल के मालिक राय साहब हैं क्या?’

‘हां, हैं तो पर भैया, यहां कोई जगह खाली नहीं है.’

‘मैं यहां कोई काम ढूंढ़ने नहीं आया हूं. तुम उन से जा कर इतना कह दो कि मैं चिलहरी के कौशल किशोर राय का नाती हूं और उन से मिलना चाहता हूं.’

थोड़ी देर बाद वह बैरा मुझे होटल के एक कमरे तक पहुंचा आया, जहां बाबू साहब अपने बेड पर एक सैंडो बनियान और हाफ पैंट पहने नाश्ता कर रहे थे. गले में सोने की एक मोटी चेन पड़ी थी. बड़े अनमने ढंग से उन्होंने मुझ से कुछ पीने को पूछा और उतने ही अनमने ढंग से मेरे नाना का हालचाल पूछा.

मुझे ऐसा लग रहा था कि जग बिहारी राय को बस, एक डर खाए जा रहा था कि कहीं मैं उन से कोई मदद न मांग लूं. अब उस कमरे में 2 मिनट भी बैठना मुझे पहाड़ सा लग रहा था. संक्षेप में मैं अपने ननिहाल का हालचाल बता कर उन्हें कोसता कमरे से बाहर निकल आया.

जयशंकर के पास बस, 2 जोड़ी कपड़े थे. बरामदे के सामने वाले कमरे की मेज उस के पढ़नेलिखने की थी पर उस की साफसफाई मिसेज दास खुद ही करती थीं. मैं उन्हें मां कह कर भी बुला सकता था पर मैं उन की ममता का एक अल्पांश तक न चुराना चाहता था. वैसे तो जयशंकर थोड़े लापरवाह तबीयत का लड़का था पर उसे यह पता था कि उस की मां के सारे सपने उसी से शुरू और उसी पर खत्म होते हैं. मिसेज दास हमारी मसहरी ठीक करने आईं. मैं अभी भी जाग रहा था तो कहने लगीं. ‘नींद नहीं आ रही है?’

‘नहीं, मां के बारे में सोच रहा था.’

‘भूख तो नहीं लगी है, तुम खाना बहुत कम खाते हो.’

मैं उठ कर बैठ गया और बोला, ‘मिसेज दास, मेरा मन घबरा रहा है. मैं आप के कमरे में आऊं?’

‘आओ, मैं अपने और तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं.’

फिर मैं उन्हें अपने और अपने परिवार के बारे में रात के एक बजे तक बताता रहा और बारबार उन्हें धनबाद आने का न्योता देता रहा.

अगले दिन गुवाहाटी के गांधी पार्क में मेरी मुलाकात एक बड़े ही रहस्यमय व्यक्ति से हुई. वह सज्जन एक बैंच पर बैठ कर अंगरेजी का कोई अखबार पढ़ रहे थे. मैं भी जा कर उन की बगल में बैठ गया. देखने में वह मुझे बड़े संपन्न से लगे. परिचय के बाद पता चला कि उन का पूरा नाम शिव कुमार शर्मा था. वह देहरादून के रहने वाले थे पर चाय का व्यवसाय दार्जिलिंग में करते थे. व्यापार के सिलसिले में उन का अकसर गुवाहाटी आनाजाना लगा रहता था.

2 दिन पहले जिस ट्रेन में सशस्त्र डकैती पड़ी थी, उस में वह भी आ रहे थे अत: उन्हें अपने सारे सामान से तो हाथ धोना ही पड़ा साथ ही उन के हजारों रुपए भी लूट लिए गए थे. उन्हें कुछ चोटें भी आईं, जिन्हें मैं देख चुका था. डकैतों का तो पता न चल पाया पर एक दक्षिण भारतीय के घर पर उन्हें शरण मिल गई जो गुवाहाटी में एक पेट्रोल पंप का मालिक था.

मैं ने उन की पूरी कहानी तन्मय हो कर सुनी. अब अपने बारे में कुछ बताने में मुझे बड़ी झिझक हुई. यह सोच कर कि जब मैं उन की बातों का विश्वास न कर पाया तो वह भला मेरी बातों का भरोसा क्यों करते? उन्हें बस, इतना ही बताया कि धनबाद से मैं यहां अपने एक दोस्त से मिलने आया हूं.

वह मुझे ले कर एक कैफे में गए जहां हम ने समोसे के साथ कौफी पी.  वहीं उन्होंने मुझे बताया कि जिस दक्षिण भारतीय के घर वह ठहरे हैं वह लखपति आदमी है. मैं घर से बाहर निकला नहीं कि जेब में 200 रुपए जबरन ठूंस देता है.

‘तुम अपने दोस्त से मिलने आए हो?’ उन्होंने पूछा तो मैं ने हां में अपनी गरदन हिला दी.

‘क्या करता है तुम्हारा दोस्त?’

‘बी.एससी. कर रहा है, सर.’

‘उस के मांबाप मालदार हैं?’

‘नहीं, वह विधवा मां का इकलौता बेटा है. मां एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. फिर मैं ने उन्हें मिसेज दास के बारे में थोड़ाबहुत संक्षेप में बताया. कैफे के बाहर अचानक शर्माजी ने मुझ से पूछा, ‘आज शाम को तुम क्या कर रहे हो?’

‘कुछ खास नहीं.’

‘तुम 9 बजे के आसपास मुझ से शहर में कहीं मिल सकते हो?’

‘पर कहां? यहां तो मैं पहली बार आया हूं.’

वह कुछ सोचते हुए बोले, ‘ऐसा करो, तुम आज मेरा इंतजार रात के 9 बजे गुवाहाटी स्टेशन के पुल पर करना जो सारे प्लेटफार्मों को जोड़ता है. तुम समय से वहां पहुंच जाना क्योंकि मेरे पास शायद तब उतना समय न होगा कि तुम्हारे  किसी सवाल का जवाब दे सकूं.’

आशंकाओं की धुंध लिए मैं घर वापस आया. मिसेज दास खाना बना रही थीं. जयशंकर उन की मदद कर रहा था. मुझे देखते ही जयशंकर कहने लगा, ‘अगर तुम आने में थोड़ा और देर करते तो मां मुझे तुम्हारी खोज में भेजने वाली थीं. दोपहर का खाना भी तुम ने नहीं खाया.’

मैं माफी मांग कर हाथमुंह धोने चला गया. मेरे दिमाग में बस, एक ही सवाल कुंडली मारे बैठा था कि मिसेज दास को कौन सी कहानी गढ़ के सुनाऊं ताकि वह निश्चिंत हो कर मुझे शर्माजी से मिलने की अनुमति दे दें.

हाथमुंह धो कर मैं बरामदे में आ गया और आ कर चौकी पर चुपचाप बैठ गया. इस शर्मा से मेरा कोई कल्याण होने वाला है, यह भनक तो मुझे थी पर मैं मिसेज दास को कौन सा बहाना गढ़ कर सुनाऊं, यह मेरे दिमाग में उमड़घुमड़ रहा था.

खाने के बाद मैं ने मिसेज दास को अपनी गढ़ी कहानी सुना दी कि आज अचानक शहर में मुझे मेरे ननिहाल का एक आदमी मिला. स्टेशन के पास ही उस का अपना एक निजी होटल है. मुझे उस से मिलने 9 बजे जाना है.

मिसेज दास चौंकीं, ‘इतनी रात में क्यों?’

इस सवाल का जवाब मेरे पास था…‘होटल के कामों में वह दिन भर व्यस्त रहते हैं. उन के पास समय नहीं होता.’

‘ठीक है, तुम जयशंकर को साथ ले कर जाना. वह यहां के बारे में ठीक से जानता है. गुवाहाटी इतना सुरक्षित नहीं है. मैं इतनी रात में तुम्हें अकेले कहीं भी जाने की अनुमति नहीं दे सकती.’

मैं ने इस बारे में पहले सोच लिया था अत: बोला, ‘मिसेज दास, मैं बच्चा थोड़े ही हूं जो आप इतना घबरा रही हैं. हो सकता है कि अगला कुछ खानेपीने को कहे, ऐसे में अच्छा नहीं लगता किसी को बिना आमंत्रण के साथ ले जाना.’

मेरी बात सुन कर मिसेज दास की पेशानी पर बल पड़े पर उन्हें सबकुछ युक्तिसंगत लगा.

‘ठीक है, समय से तैयार हो जाना. मैं एक रिकशा तुम्हारे लिए तय कर दूंगी. वह तुम्हें वापस भी ले आएगा.’

ठीक साढ़े 8 बजे मिसेज दास एक रिकशे वाले को बुला कर लाईं. मैं उस पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल पड़ा. स्टेशन के सामने वह मुझे उतार कर बोला, ‘मैं अपना रिकशा स्टैंड पर लगा कर स्टेशन के सामने आप का इंतजार करूंगा.’

9 बजने में अभी 5 मिनट बाकी थे. अंदर से मैं थोड़ा घबरा रहा था. प्लेटफार्मों को जोड़ने वाले पुल पर आधी गुवाहाटी अपने चिथड़ों में लिपटी सो रही थी. घुप अंधेरा था. यह शर्मा कहीं किसी षड्यंत्र में मुझे फंसाने तो नहीं जा रहा, सोचते ही मेरी रीढ़ की हड्डी तक सिहर गई थी. अचानक मुझे पुल पर एक आदमी लगभग भागता हुआ आता दिखा. इस घुप अंधेरे में भी शर्माजी की आंखें मुझे पहचानने में धोखा न खाईं… ‘ये हैं 600 रुपए. इन्हें संभालो और फटाफट अपना रास्ता नाप लो.’

मैं आननफानन में सारे रुपए अपनी जेब में ठूंस कर वहां से चल दिया. बाहर आते ही मेरा रिकशा वाला मुझे मिल गया. मैं ने एक घंटे का समय ले रखा था. हम घर की तरफ वापस लौट पड़े. रास्ते भर पुलिस की सीटियों और चोरचोर पकड़ो का स्वर मेरे कानों में गूंजता रहा.

घर पर मेरी असहजता कोई भी भांप न पाया. मिसेज दास और जयशंकर दोनों जागे हुए थे. बरामदे के सामने रिकशे के रुकते ही दोनों बरामदे में आ गए, ‘क्या हुआ, इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए?’

वह बिहारी होटल में था ही नहीं तो मैं उस के नाम एक परची पर यहां का पता लिख कर वापस आ गया. कब तक मैं उस का इंतजार करता. आप भी देर होने पर घबरातीं.

‘चाय पीओगे,’ बड़ी आत्मीयता से मिसेज दास बोलीं.

मैं यह भी नहीं चाहता था कि मिसेज दास मेरी असहजता भांप लें. थकावट का बहाना बना कर बरामदे में आ गया और अपनी चौैकी पर लेट कर एक पतली सी चादर अपने चेहरे तक तान ली. नींद तो मुझे आने से रही.

रात भर बुरेबुरे खयाल तसवीर बन कर मेरी आंखों के सामने आते रहे और एक अनजाने भय से मैं रात भर बस, करवटें ही बदलता रहा. रात में 2-3 बार मिसेज दास मेरी मच्छरदानी ठीक करने आईं. मैं झट अपनी आंखें मूंद लेता था. ये शर्माजी के 600 रुपए अभी तक मेरी दाईं जेब में ठुंसे पड़े थे जिन्हें सहेजने की मेरे पास हिम्मत न थी.

सुबह होते ही रात का भय जाता रहा. रोज की तरह अपनी दिनचर्या शुरू हुई. 10 बजे के बाद मैं अकेला था.

मैं बाहर निकला तो नुक्कड़ पर मुझे वही रिकशे वाला टकरा गया जो स्टेशन ले गया था. उस के रिकशे पर बैठ कर मैं पास के एक बाजार में गया. 2 घंटे की खरीदारी में मिसेज दास के लिए मैं ने एक ऊनी शाल खरीदी और एक जोड़ी ढंग की चप्पल भी.

जयशंकर के लिए एक रेडीमेड पैंट और कमीज खरीदी. इस के अलावा मैं ने तरहतरह की मौसमी सब्जियां, सेब, नारंगी, मिठाइयां और एक किलो रोहू मछली भी खरीदी. इस खरीदारी में 300 रुपए खर्च हो गए पर रास्ते भर मैं बस, यही सोच कर खुश होता रहा कि इतने सारे सामानों को देख कर मिसेज दास और जयशंकर कितने खुश होंगे.

जयशंकर कालिज से वापस घर आया तो सामान का ढेर देखते ही पूछा, ‘बाबा, का पैसा आ गया क्या?’

मैं ने उसे बताया कि मेरे ननिहाल वाला आदमी आया था. जबरदस्ती मेरे हाथ पर 600 रुपए रख गया. मेरे नाना से वापस ले लेगा. तुम मिठाई खाओ न.

जयशंकर बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए अपने कपड़े बदल कर दोपहर का खाना लगाने लगा. मैं उसे कुरेदता रहा पर वह बिना एक शब्द बोले सिर झुकाए खाना खाता रहा.

जब मैं थोड़ा सख्त हुआ तो वह कहने लगा. बस, तुम ने हमारा स्वाभिमान आहत किया है. इतने पैसे खर्च करने से पहले तुम्हें मां से बात कर लेनी चाहिए थी. मां को उपहारों से बड़ी घबराहट होती है.’

मिसेज दास के आने तक घर में एक अजीब सन्नाटा छाया रहा. जयशंकर चुपचाप उदास अपनी पढ़ाईलिखाई की मेज पर जा बैठा और मैं अपना अपराधबोध लिए बरामदे में आ कर चुपचाप तखत पर लेट गया.

करीब साढ़े 4 बजे मिसेज दास आईं और मुझे बरामदे में लेटा देख कर बोलीं, ‘इस गरमी में तुम बरामदे में क्यों लेटे हो? जयशंकर वापस नहीं आया है क्या?’

कमरे से अब सिर्फ जयशंकर की आवाज आ रही थी. वह असमी भाषा में पता नहीं क्याक्या अपनी मां को बताए जा रहा था. मैं अपनेआप को बड़ा उपेक्षित महसूस कर रहा था.

मिसेज दास कमरे से बाहर निकलीं. मैं अपना सिर नीचा किए रोए जा रहा था. उन्होंने बढ़ कर मेरा चेहरा अपने दोनों हाथों में ले कर पेट से लगा लिया और पीठ सहलाने लगीं. फिर अपने आंचल से मेरी आंखें पोंछ कर मुझे कमरे में ले गईं और पीने को एक गिलास पानी दिया. उस के बाद वह सारे सामान को खोल कर देखने लगीं. उन के इशारे पर जयशंकर भी अपने कपड़े नापने उठा. पैंट और कमीज दोनों उस के नाप के थे. शाल और चप्पल भी मिसेज दास को बड़े पसंद आए. वह सब्जियां और मिठाइयां सजासजा कर रखने लगीं. बारबार मुझे बस इतना ही सुनने को मिलता था, ‘इतना क्यों खरीदा? गुवाहाटी के सारे बाजार कल से उठने वाले थे क्या?’

मैं खुश था कि कम से कम घर का तनाव थोड़ा कम तो हुआ.

उस रात खाना खाने के बाद मुझे मिसेज दास ने अपने कमरे में बुलाया. वह चारपाई पर बैठी अपनी चप्पलों को पैर से इधरउधर सरका रही थीं. पास  ही जयशंकर एक कुरसी पर चुपचाप बैठा छत के पंखे को देखे जा रहा था. मिसेज दास ने इशारे से अपने पास बुलाया और मुझे अपने बगल में बैठने को कहा. बड़ा समय लिया उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ने में.

‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारे परिचित ने तुम्हें आज 600 रुपए दिए थे, यह बताओ कि हम पर तुम ने कितने पैसे खर्च कर डाले?’

‘करीब 300 रुपए.’

‘बाकी के 300 रुपए तो तुम्हारे पास हैं न?’

मैं ने शेष 300 रुपए जेब से निकाल कर उन के सामने रख दिए.

अब मिसेज दास ने अपना फैसला चंद शब्दों में मुझे सुना दिया कि तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर धनबाद के लिए किसी भी ट्रेन में अपना आरक्षण करवा लो. तुम्हारी मां घबरा रही होंगी. अपने परिचित का पता मुझे लिखवा दो. जब तुम्हारे बाबा का पैसा आ जाएगा तब मैं जयशंकर के हाथ यह 600 रुपए वापस करवा कर शेष रुपए तुम्हारे बाबा के नाम मनीआर्डर कर दूंगी. तुम्हें हम पर भरोसा तो है न?’

मुझे पता था कि यह मिसेज दास का अंतिम फैसला है और उसे बदला नहीं जा सकता. अपने एक झूठ को छिपाने के लिए मुझे मिसेज दास को एक मनगढ़ंत पता देना ही पड़ा.

दूसरे दिन मुझे एक टे्रन में आरक्षण मिल गया. मेरी टे्रन शाम को 7 बजे थी. मैं बुझे मन से घर वापस लौटा. खाना खाने के बाद मैं मिसेज दास की चारपाई पर लेट गया और मिसेज दास जयशंकर को साथ ले कर मेरी विदाई की तैयारी में लग गईं. वह मेरे रास्ते के लिए जाने क्याक्या पकाती और बांधती रहीं. हर 10 मिनट पर जयशंकर मुझ से चाय के लिए पूछने आता था पर मेरे मन में एक ऐसा शूल फंस गया था जो निकाले न निकल रहा था.

ट्रेन अपने नियत समय पर आई. मैं मिसेज दास के पांव छू कर और जयशंकर के गले मिल कर अपनी सीट पर जा बैठा.

कुछ दिनों के बाद बाबूजी का भेजा रुपया धनबाद के पते पर वापस आ गया. मनीआर्डर पर मात्र मिसेज दास का पता भर लिखा था.

मेरा यह अक्षम्य झूठ 25 वर्षों तक एक नासूर की तरह आएदिन पकता, फूटता और रिसता रहा था.

सोच के इस सिलसिले के बीच जागतेसोते मैं गुवाहाटी आ गया. रिकशा पकड़ कर मैं मिसेज दास के घर की ओर चल दिया. घर के सामने पहुंचा तो उस का नक्शा ही बदला हुआ था. कच्चे बरामदे के आगे एक दीवार और एक लोहे का फाटक लग गया था. छोटे से अहाते में यहांवहां गमले, बरामदे की छत तक फैली बोगनबेलिया की लताएं, एक लिपापुता आकर्षक घर.

मुझे पता था कि मिस्टर दास का अधूरा सपना बस, जयशंकर ही पूरा कर सकता है और उस ने पूरा कर के दिखा भी दिया.

फाटक की कुंडी खटखटाने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं हुआ. मैं यहां किसी तरह की कोई उम्मीद ले कर नहीं आया था. बस, मुझे मिसेज दास से एक बार मिलना था. खटका सुन कर वह कमरे से बाहर निकलीं. शायद इन 25 सालों के बाद भी मुझ में कोई बदलाव न आया था.

उन्होंने मुझे देखते ही पहचान लिया. बिना किसी प्रतिक्रिया केझट से फाटक खोला और मुझे गले से लगा कर रोने लग पड़ीं. फिर मेरा चेहरा अपनी आंखों के सामने कर के बोलीं, ‘‘तुम तो बिलकुल अंगरेजों की तरह गोेरे लगते हो.’’

मैं उन के पांव तक न छू पाया. वह मेरा हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. कमरों की साजसज्जा तो साधारण ही थी पर घर की दीवारें, फर्श और छतें सब की मरम्मत हुई पड़ी थी. मिसेज दास रत्ती भर न बदली थीं. न तो उन की ममता में और न उन की सौम्यता में कोई बदलाव आया था. बस, एक बदलाव मैं उन में देख रहा था कि उन के स्वर अब आदेशात्मक न रहे.

मेरे लिए यह बिलकुल अविश्वसनीय था. एम.एससी. करने के बाद जयशंकर अपनी इच्छा से एक करोड़पति की लड़की से शादी कर के डिब्रूगढ़ चला गया था. उस ने मां के साथ अपने सभी संबंध तोड़ डाले, जिस की मुझे सपनों में भी कभी आहट न हुई.

मिसेज दास की बड़ी बहन अब दुनिया में न रहीं. वह अपनी चल और अचल संपत्ति अपनी छोटी बहन के नाम कर गई थीं जो तकरीबन डेढ़ लाख रुपए की थी. जिस का एक भाग उन्होंने अपने घर की मरम्मत में लगाया और बाकी के सूद और अपनी सीमित पेंशन से अपना जीवन निर्वाह एक तरह से सम्मानित ढंग से कर रही थीं.

अब वह मेरे लिए मिसेज दास न थीं. मैं उन्हें खुश करने के लिए बोला, ‘‘मां, आप के हाथ की बनी रोहू मछली खाने का मन कर रहा है.’’

यह सुनते ही उन की आंखों से सावनभादों की बरसात शुरू हो गई. वह एक अलमारी में से मेरी चिट्ठियों का पूरा पुलिंदा ही उठा लाईं और बोलीं, ‘‘तुम्हारी एकएक चिट्ठी मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं. कई बार सोचा कि तुम्हें जवाब लिखूं पर शंकर मुझे बिलकुल तोड़ गया, बेटा. जब मेरी अपनी कोख का जन्मा बेटा मेरा सगा न रहा तो तुम पर मैं कौन सी आस रखती? फिर भी एक प्रश्न मैं तुम से हमेशा ही पूछना चाहती थी.’’

‘‘कौन सा प्रश्न, मां?’’

‘‘तुम्हें वह 600 रुपए मिले कहां से थे?’’

अब मुझे उन्हें सबकुछ साफसाफ बताना पड़ा.

सबकुछ सुनने के बाद उन्होंने मुझ से पूछा, ‘‘और एक बार भी तुम्हारा मन तुम्हें पैसे पकड़ने से पहले न धिक्कारा?’’

‘‘नहीं, क्योंकि मुझेअपने मन की चिंता न थी. मुझे आप के अभाव खलते थे पर अगर मुझे उन दिनों यह पता होता कि मैं अपने उपहारों के बदले आप को खो दूंगा तो मैं उन पैसों को कभी न पकड़ता. आप से कभी झूठ न बोलता. आप का अभाव मुझे अपने जीवन में अपनी मां से भी अधिक खला.’’

मिसेज दास चुपचाप उठीं और अपने संदूक से एक खुद का बुना शाल अपने कंधे पर डाल कर वापस आईं.

‘‘आओ, बाजार चलते हैं. तुम्हें मछली खानी है न. मेरे साथ 1-2 दिन तो रहोगे न, कितने दिन की छुट्टी है?’’

मैं उन के साथ 4 दिन तक रहा और उन की ममता की बौछार में अकेला नहाता रहा.

5वें दिन सुबह से शाम तक वह अपने चौके में मेरे रास्ते के लिए खाना बनाती रहीं और मुझे स्टेशन भी छोड़ने आईं. पूरे दिन उन से एक शब्द भी न बोला गया. बात शुरू करने से पहले ही उन का गला रुंध जाता था.

अब जब भी बर्लिन में मुझे उन की चिट्ठी मिलती है तो मैं अपना सारा घर सिर पर उठा लेता हूं. कई दिनों तक उन के पत्र का एकएक शब्द मेरे दिमाग में गूंजता रहता है, विशेषकर पत्र के अंत में लिखा उन का यह शब्द ‘तुम्हारी मां मनीषा.’

मैं उन्हें जब पत्र लिखने बैठता हूं अनायास मेरी भाषा बच्चों जैसी नटखट  हो जाती है. मेरी उम्र घट जाती है. मुझे अपने आसपास कोहरे या बादल नजर नहीं आते. बस, उन का सौम्य चेहरा ही मुझे हर तरफ नजर आता है.

वह लड़की: आखिर गुमसुम क्यों थी दीपाली

दीपाली की याद आते ही आंखों के सामने एक सुंदर और हंसमुख चेहरा आ जाता है. गोल सा गोरा चेहरा, सुंदर नैननक्श, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और होंठों पर सदा रहने वाली हंसी.

असम आए कुछ ही दिन हुए थे. शहर से बाहर बनी हुई उस सरकारी कालोनी में मेरा मन नहीं लगता था. अभी आसपड़ोस में भी किसी से इतना परिचय नहीं हुआ था कि उन के यहां जा कर बैठा जा सके.

एक दोपहर आंख लगी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने कुछ खिन्न हो कर दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर और स्मार्ट सी असमी युवती खड़ी थी. हाथ में बड़ा सा बैग, आंखों पर चढ़ा धूप का चश्मा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती, वह बड़े ही अपनेपन से मुसकराती हुई भीतर की ओर बढ़ी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप नया आया है न?’’ तो मैं चौंकी फिर उस के बाद जो भी हिंदीअसमी मिश्रित वाक्य उस ने कहे वह बिलकुल भी मेरे पल्ले नहीं पड़े. लेकिन उस का व्यक्तित्व इतना मोहक था कि उस से बातें करना हमेशा अच्छा लगता था. उस की बातें सुन कर मैं ने पूछा, ‘‘आप सूट सिलती हैं?’’

‘‘हां, हां,’’ वह उत्साह से बोली तो एक सूट का कपड़ा मैं ने ला कर उसे दे दिया.

‘‘अगला वीक में देगा,’’ कह कर वह चली गई.

यही थी दीपाली से मेरी पहली मुलाकात. पहली ही मुलाकात में उस से एक अपनेपन का रिश्ता जुड़ गया. उस से मिल कर लगा कि पता नहीं कब से उसे जानती थी. यह दीपाली के व्यवहार, व्यक्तित्व का ही असर था कि पहली मुलाकात में बिना उस का नामपता पूछे और बिना रसीद मांगे हुए ही मैं ने अपना महंगा सूट उसे थमा दिया था. आज तक किसी अजनबी पर इतना विश्वास पहले नहीं किया था.

वह तो मीरा ने बाद में बताया कि उस का नाम दीपाली है और वह एक सेल्सगर्ल है. कितना सजधज कर आती है न. कालोनी की औरतों को दोगुने दाम में सामान बेच कर जाती है. मैं तो उसे दरवाजे से ही विदा कर देती हूं. दीपाली के बारे में ज्यादातर औरतों की यही राय थी.

मैं ने कभी दीपाली को मेकअप किए हुए नहीं देखा. सिर्फ एक लाल बिंदी लगाने पर भी उस का चेहरा दमकता रहता था. उस का हर वक्त खिल- खिलाना, हर किसी से बेझिझक बातें करना और व्यवहार में खुलापन कई लोगों को शायद खलता था. पर मस्तमौला सी दीपाली मुझे भा गई और जल्द ही वह भी मुझ से घुलमिल गई.

उस के स्वभाव में एक साफगोई थी. उस का मन साफ था. जितना अपनापन उस ने मुझ से पाया उस से कई गुना प्यार व स्नेह उस ने मुझे दिया भी.

‘आप इतना सिंपल क्यों रहता है?’ दीपाली अकसर मुझ से पूछती. काफी कोशिश करने पर भी मैं स्त्रीलिंगपुल्ंिलग का भेद उसे नहीं समझा पाई थी, ‘कालोनी में सब लेडीज लोग कितना मेकअप करता है, रोज क्लब में जाता है. मेरे से कितना मेकअप का सामान खरीदता है.’

अकसर लेडीज क्लब की ओर जाती महिलाओं के काफिले को अपनी बालकनी से मैं भी देखती थी. मेकअप से लिपीपुती, खुशबू के भभके छोड़ती उन औरतों को देख कर मैं सोचती कि कैसे सुबह 10 बजे तक इन का काम निबट गया होगा, खाना बन गया होगा और ये खुद कैसे तैयार हो गई होंगी.

दीपाली ने एक बार बताया था, ‘आप नहीं जानता. ये लेडीज लोग सब अच्छाअच्छा साड़ी पहन कर, मेकअप कर के क्लब चला जाता है और पीछे सारा घर गंदा पड़ा रहता है. 1 बजे आ कर जैसेतैसे खाना बना कर अपने मिस्टर लोगोें को खिलाता है. 4 नंबर वाली का बेटाबेटी मम्मी के जाने के बाद गंदी पिक्चर देखता है.’

मुझे दीपाली का इंतजार रहता था. मैं उस से बहुत ही कम सामान खरीदती फिर भी वह हमेशा आती. उसे हमारा खाना पसंद आता था और जबतब वह भी कुछ न कुछ असमी व्यंजन मेरे लिए लाती, जिस में से चावल की बनी मिठाई ‘पीठा’  मुझे खासतौर पर पसंद थी. मैं उसे कुछ हिंदी वाक्य सिखाती और कुछ असमी शब्द मैं ने भी उस से सीखे थे. अपनी मीठी आवाज में वह कभी कोई असमी गीत सुनाती तो मैं मंत्रमुग्ध हो सुनती रह जाती.

हमेशा हंसतीमुसकराती दीपाली उस दिन गुमसुम सी लगी. पूछा तो बोली, ‘जानू का तबीयत ठीक नहीं है, वह देख नहीं सकता,’ और कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए. जानू उस के बेटे का नाम था. मैं अवाक् रह गई. उस के ठहाकों के पीछे कितने आंसू छिपे थे. मेरे बच्चों को मामूली बुखार भी हो जाए तो मैं अधमरी सी हो जाती थी. बेटे की आंखों का अंधेरा जिस मां के कलेजे को हरदम कचोटता हो वह कैसे हरदम हंस सकती है.

मेरी आंखों से चुपचाप ढलक कर जब बूंदें मेरे हाथों पर गिरीं तो मैं चौंक पड़ी. मैं देर तक उस का हाथ पकड़े बैठी रही. रो कर कुछ मन हलका हुआ तो दीपाली संभली, ‘मैं कभी किसी के आगे रोता नहीं है पर आप तो मेरा अपना है न.’

मेरे बहुत आग्रह पर दीपाली एक दिन जानू को मेरे घर लाई थी. दीपाली की स्कूटी की आवाज सुन मैं बालकनी में आ गई. देखा तो दीपाली की पीठ से चिपका एक गोरा सुंदर सा लगभग 8 साल का लड़का बैठा था.

‘दीपाली, उस का हाथ पकड़ो,’ मैं चिल्लाई पर दीपाली मुसकराती हुई सीढि़यों की ओर बढ़ी. जानू रेलिंग थामे ऐसे फटाफट ऊपर चला आया जैसे सबकुछ दिख रहा हो.

‘यह कपड़ा भी अपनी पसंद का पहनता है, छू कर पहचान जाता है,’ दीपाली ने बताया.

‘जानू,’ मैं ने हाथ थाम कर पुकारा.

‘यह सुन भी नहीं पाता है ठीक से और बोल भी नहीं पाता है,’ दीपाली ने बताया.

वह बहुत प्यारा बच्चा था. देख कर कोई कह ही नहीं सकता कि उसमें इतनी कमियां हैं. जानू सोफा टटोल कर बैठ गया. वह कभी सोफे पर खड़ा हो जाता तो कभी पैर ऊपर कर के लेट जाता.

‘आप डरो मत, वह गिरेगा नहीं,’ दीपाली मुझे चिंतित देख हंसी. सचमुच सारे घर में घूमने के बाद भी जानू न गिरा न किसी चीज से टकराया.

जाते समय जानू को मैं ने गले लगाया तो वह उछल कर गोद में चढ़ गया. उस बेजबान ने मेरे प्यार को जैसे मेरे स्पर्श से महसूस कर लिया था. मेरी आंखें भर आईं. दीपाली ने उसे मेरी गोद से उतारा तो वह वैसे ही रेलिंग थामे सहजता से सीढि़यां उतर कर नीचे चला गया. दीपाली ने स्कूटी स्टार्ट की तो जा कर उस पर चढ़ गया और दोनों हाथों से मां की कमर जकड़ कर बैठ गया.

‘अब घर जा कर ही मुझे छोड़ेगा,’ दीपाली हंस कर बोली और चली गई.

मैं दीपाली के बारे में सोचने लगी. घंटे भर तक उस बच्चे को देख कर मेरा तो जैसे कलेजा ही फट गया था. हरदम उसे पास पा कर उस मां पर क्या गुजरती होगी, जिस के सीने पर इतना बोझ धरा हो. वह इतना हंस कैसे सकती है. जब दर्द लाइलाज हो तो फिर उसे चाहे हंस कर या रो कर सहना तो पड़ता ही है. दीपाली हंस कर इसे झेल रही थी. अचानक दीपाली का कद मेरी नजरों में ऊपर उठ गया.

एक दिन सुबहसुबह दीपाली आई. मेखला चादर में बहुत जंच रही थी. ‘आप हमेशा ऐसे ही अच्छी तरह तैयार हो कर क्यों नहीं आती हो?’ मैं ने प्रशंसा करते हुए कहा. इस पर दीपाली ने खुल कर ठहाका लगाया और बोली, ‘सजधज कर आएगा तो लेडीज लोग घर में नहीं घुसने देगा. उन का मिस्टर लोग मेरे को देखेगी न.’

मुझे तब मीरा की कही बात याद आई कि दीपाली के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो औरतों में ईर्ष्या जगाता था.

‘मैं भाग कर शादी किया था. मैं ऊंचा जात का था न अपना आदमी से. घर वाला लोग मानता नहीं था,’ दीपाली कभीकभी अपनी प्रेम कथा सुनाती थी.

जहां कालोनी में मेरी एकदो महिलाओं से ही मित्रता थी वहां दीपाली के साथ मेरी घनिष्ठता सब की हैरानी का सबब थी. जानू हमारे घर आता तो पड़ोसियों के लिए कौतूहल का विषय होता. एक स्थानीय असमी महिला से प्रगाढ़ता मेरे परिचितों के लिए आश्चर्यजनक बात थी.

जब दीपाली को पता चला कि हमारा ट्रांसफर हो गया है तो कई दिनों पहले से ही उस का रोना शुरू हो गया था, ‘आप चला जाएगा तो मैं क्या करेगा. आप जैसा कोई कहां मिलेगा,’ कहतेकहते वह रोने लगती. दीपाली जैसी सहृदय महिला के लिए हंसना जितना सरल था रोना भी उतना ही सहज था. दुख मुझे भी बहुत होता पर अपनी भावनाएं खुल कर जताना मेरा स्वभाव नहीं था.

आते समय दीपाली से न मिल पाने का अफसोस मुझे जिंदगी भर रहेगा. हमें सोमवार को आना था पर किन्हीं कारणवश हमें एक दिन पहले आना पड़ा. अचानक कार्यक्रम बदला. दोपहर में हमारी फ्लाइट थी. मैं सुबह से दीपाली के घर फोन करती रही. घंटी बजती  रही पर किसी ने फोन उठाया नहीं, शायद फोन खराब था. मैं जाने तक उस का इंतजार करती रही पर वह नहीं आई. भरे मन से मैं एअरपोर्ट की ओर रवाना हुई थी.

बाद में मीरा ने फोन पर बताया था कि दीपाली सोमवार को आई थी और हमारे जाने की बात सुन कर फूटफूट कर रोती रही थी. वह मुझे देने के लिए बहुत सी चीजें लाई थी, जिस में मेरा मनपसंद ‘पीठा’ भी था.

मैं ने कई बार फोन किया पर वह फोन शायद अब तक खराब पड़ा है. पत्र वह भेज नहीं सकती थी क्योंकि उसे न हिंदी लिखनी आती है न अंगरेजी और असमी भाषा मैं नहीं समझ पाती.

दीपाली का मेरी जिंदगी में एक खास मुकाम है क्योंकि उस से मैं ने हमेशा जीने की, मुसकराने की प्रेरणा पाई है. हमारे शहरों में बहुत ज्यादा दूरियां हैं पर अब भी वह मेरे दिल के बहुत करीब है और हमेशा रहेगी.

यक्ष प्रश्न : निमी को क्यों बचाना चाहती थी अनुभा

अनुभा ने अस्पताल की पार्किंग में बमुश्किल गाड़ी पार्क की. ‘उफ, इतनी सारी गाडि़यां… न सड़क में जगह, न पार्किंग स्पेस में. गाड़ी रखना भी एक मुसीबत हो गई है. कहीं भी जगह नहीं है. अब तो लोग फुटपाथों पर भी गाडि़यां पार्क करने लगे हैं. सरकारी परिसर हो या निजी आवासीय क्षेत्र, हर जगह एकजैसा हाल. इस के बावजूद लोग गाडि़यां खरीदना बंद नहीं कर रहे हैं,’ यही सब सोचती वह अस्पताल की सीढ़ियां चढ़ रही थी.

दूसरी मंजिल पर सेमीप्राइवेट वार्ड में अनुभा की सहेली कम सहकर्मी भरती थी. उसे किडनी में पथरी थी. उसी के औपरेशन के लिए भरती थी. कल उस का औपरेशन हुआ था. अनुभा आज उसे देखने जा रही थी.

सहेली से मिलने और उस का हालचाल पूछने के बाद जब अनुभा उस के बिस्तर पर बैठी तो उस ने कमरे में इधरउधर निगाह डाली. सेमीप्राइवेट वार्ड होने के कारण उस में 2 मरीज थे. दूसरी मरीज भी महिला ही थी. उस ने गौर से दूसरी मरीज को देखा, तो उसे वह कुछ जानीपहचानी लगी. उस ने दिमाग पर जोर दे कर सोचा. वह मरीज भी उसे गौर से देख रही थी. उस की बुझी आंखों में एक चमक सी आ गई जैसे कई बरसों बाद वह अपने किसी आत्मीय को देख रही हो.

दोनों की आंखें एकदूसरे के मनोभावों को पढ़ रही थीं और फिर जैसे अचानक  एकसाथ दोनों के मन से दुविधा और संकोच की बेडि़यां टूट गई हों अनुभा चौंकती सी उस की तरफ लपकी, ‘‘निमी…’’

मरीज के सूखे होंठों पर फीकी सी मुसकराहट फैल गई, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया?’’

निम्मी के स्वर से ऐसा लग रहा था जैसे इस दुनिया में उस का कोई जानपहचान वाला नहीं है. अनुभा अचानक आसमान से आ टपकी थी, वरना वह इस संसार में असहाय और अनाथ जीवन व्यतीत कर रही थी.

‘‘निमी, तुम यहां और इस हालत में?’’ अनुभा ने उस के हाथों को पकड़ कर कहा.

निमी का नाम निमीषा था, परंतु उस के दोस्त और सहेलियां उसे निमी कह कर बुलाते थे.

अनुभा एक पल को चुप रही, फिर बोली,  ‘‘तुम्हें क्या हुआ है? मैं ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन तुम्हें इस हालत में देखूंगी. तुम्हारी सुंदर काया को क्या हुआ… चेहरे की कांति कहां चली गई?  ऐसा कैसे हुआ?’’

निमी ने पलंग से उठ कर बैठने का प्रयास किया, परंतु उस की सांस फूलने लगी. अनुभा ने उसे सहारा दिया. पलंग को पीछे से उठा दिया, जिस से निमी अधलेटी सी हो गई.

‘‘तुम ने इतने सारे सवाल कर दिए… समझ में नहीं आता कैसे इन के जवाब दूं. एक दिन में सबकुछ बयां नहीं किया जा सकता… मैं ज्यादा नहीं बोल सकती… हांफ जाती हूं… फेफड़े कमजोर हैं न. ’’

‘‘तुम्हें हुआ क्या है?’’ अनुभा ने पूछा.

‘‘एक रोग हो तो बताऊं… अब तुम मिली हो, तो धीरेधीरे सब जान जाओगी. क्या तुम्हारे पास इतना समय है कि रोज आ कर मेरी बातें सुन सको.’’

‘‘हां, मैं रोज आऊंगी और सुनूंगी,’’ अनुभा को निमी की हालत देख कर तरस नहीं, रोना आ रहा था जैसे वह उस की जान हो, जो उसे छोड़ कर जा रही थी. उस ने कस कर निमी का हाथ पकड़ लिया.

निमी के बदन में एक सुरसुरी सी दौड़ गई. उस के अंदर एक सुखद एहसास ने अंगड़ाई ली. वह तो जीने की आस ही छोड़ चुकी थी, परंतु अनुभा को देख कर उसे लगा कि उसे देखनेसमझने वाला कोई है अभी इस दुनिया में. फिर कोई जब चाहने वाला पास हो, तो जीने की लालसा स्वत: बढ़ जाती है.

‘‘तुम्हारे साथ कोई नहीं है?’’ अनुभा ने आंखें झपकाते हुए पूछा, ‘‘कोई देखभाल करने वाला… तुम्हारे घर का कोई?’’

निमी ने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा,  ‘‘नहीं, कोई नहीं.’’

‘‘क्यों, घर में कोई नहीं है क्या?’’

‘‘जो मेरे अपने थे उन्हें मैं ने बहुत पहले छोड़ दिया था और जीवन के पथ पर चलते हुए जिन्हें मैं ने अपना बनाया वे बीच रास्ते छोड़ कर चलते बने. अब मैं नितांत अकेली हूं. कोई नहीं है मेरा अपना. आज वर्षों बाद तुम मिली हो, तो ऐसा लग रहा है जैसे मेरा पुराना जीवन फिर से लौट आया हो. मेरे जीवन में भी खुशी के 2 फूल खिल गए हैं, जिन की सुगंध से मैं महक रही हूं. काश, यह सपना न हो… तुम दोबारा आओगी न?’’

‘‘हांहां, निमी, मैं आऊंगी. तुम से मिलने ही नहीं, तुम्हारी देखभाल करने के लिए भी… तुम्हारा अस्पताल का खर्चा कौन उठा रहा है?’’

निमी ने फिर एक गहरी सांस ली, ‘‘है एक चाहने वाला, परंतु उस ने मेरी बीमारियों के कारण मुझ से इतनी दूरी बना ली है कि वह मुझे देखने भी नहीं आता. कभीकभी उस का नौकर आ जाता है और अस्पताल का पिछला बिल भर कर कुछ ऐडवांस दे जाता है ताकि मेरा इलाज चलता रहे. बस मेरे प्यार के बदले में इतनी मेहरबानी वह कर रहा है.’’

उस दिन अनुभा निमी के पास बहुत देर नहीं रुक पाई, क्योंकि वह औफिस से आई थी. शाम को आने का वादा कर के वह औफिस आ गई, परंतु वहां भी उस का मन नहीं लगा. निमी की दुर्दशा देख कर उसे अफसोस के साथसाथ दुख भी हो रहा था. उसे कालेज के दिन याद आने लगे जब वे दोनों साथसाथ पढ़ती थीं…

निमीषा और अनुभा दोनों ही शिक्षित परिवारों से थीं. अनुभा के पिता आईएएस अफसर थे, तो निमी के पिता वरिष्ठ आर्मी औफिसर. दोनों एक ही क्लास में थीं, दोस्त थीं, परंतु दोनों के विचारों में जमीनआसमान का अंतर था. अनुभा पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों व मान्यताओं को मानने वाली लड़की थी, तो निमी को स्थापित मूल्य तोड़ने में मजा आता था. परंपराओं का पालन करना उसे नहीं भाता था. नैतिकता उस के सामने पानी भरती थी, तो मूल्य धूल चाटते नजर आते थे. संभवतया सैनिक जीवन की अति स्वछंदता और खुलेपन के माहौल में जीने के कारण उस के स्वभाव में ऐसा परिवर्तन आया हो.

निमीषा बहुत बड़ी अफसर बनना चाहती थी, परंतु अनुभा को पता नहीं था कि वह क्या बन गई? हां, वह शादी भी नहीं करना चाहती थी. उस का मानना था शादी का बंधन स्त्री के लिए एक लिखित आजीवन कारावास का अनुबंध होता है. तब युवाओं के बीच लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ने लगा था. निमी ऐसे संबंधों की हिमायती थी. कालेज के दौरान ही उस ने लड़कों के साथ शारीरिक संबंध बना लिए थे.

इस का पता चलने पर अनुभा ने उसे समझाया था, ‘‘ये सब ठीक नहीं है. दोस्ती तक तो ठीक है, परंतु शारीरिक संबंध बनाना और वह भी शादी के पहले व कई लड़कों के साथ को मैं उचित नहीं समझती.’’

निमी ने उस का उपहास उड़ाते हुए कहा,  ‘‘अनुभा, तुम कौन से युग में जी रही हो? यह मौडर्न जमाना है, स्वछंद जीवन जीने का. यहां व्यक्तिगत पसंद से रिश्ते बनतेबिगड़ते हैं, मांबाप की पसंद से नहीं. इट्स माई लाइफ… मैं जैसे चाहूंगी जीऊंगी.’’

अनुभा के पास तर्क थे, परंतु निमी के ऊपर उन का कोई असर न होता. कालेज के बाद दोनों सहेलियां अलग हो गईं. अनुभा के पिता केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति से वापस लखनऊ चले गए. अनुभा ने वहां से सिविल सर्विसेज की तैयारी की और यूपीएससी की ग्रुप बी सेवा में चुन ली गई. कई साल लखनऊ, इलाहाबाद और बनारस में पोस्टिंग के बाद अब उस का दिल्ली आना हुआ था. इस बीच उस की शादी भी हो गई. पति केंद्र सरकार में ग्रुप ए अफसर थे. दोनों ही दिल्ली में तैनात थे. उस की 10 वर्ष की 1 बेटी थी.

अनुभा को निमी के जीवन के पिछले 15 वर्षों के बारे में कुछ पता नहीं था. उसे उत्सुकता थी, जल्दी से जल्दी उस के बारे में जानने की. आखिर उस के साथ ऐसा क्या हुआ था कि उस ने अपने शरीर का सत्यानाश कर लिया… तमाम रोगों ने उस के शरीर को जकड़ लिया. वह शाम होने का इंतजार कर रही थी. प्रतीक्षा में समय भी लंबा लगने लगता है. वह बारबार घड़ी देखती, परंतु घड़ी की सूइयां जैसे आगे बढ़ ही नहीं रही थीं.

किसी तरह शाम के 5 बजे. अभी भी 1 घंटा बाकी था, परंतु वह अपने सीनियर को अस्पताल जाने की बात कह कर बाहर निकल आई. गाड़ी में बैठने से पहले उस ने अपने पति को फोन कर के बता दिया कि वह अस्पताल जा रही है. घर देर से लौटेगी.

अनुभा को देखते ही निमी के चेहरे पर खुशी फैल गई जैसे उस के अंदर असीम ऊर्जा और शक्ति का संचार होने लगा हो.

अनुभा उस के लिए फल लाई थी. उन्हें सिरहाने के पास रखी मेज पर रख कर वह निमी के पलंग पर बैठ गई. फिर उस का हाथ पकड़ कर पूछा, ‘‘अब कैसा महसूस हो रहा है?’’

निमी के होंठों पर खुशी की मुसकान थी, तो आंखों में एक आत्मीय चमक… चेहरा थोड़ा सा खिल गया था. बोली, ‘‘लगता है अब मैं बच जाऊंगी.’’

रात में अनुभा ने अपने पति हिमांशु को निमी के बारे में सबकुछ बता दिया. सुन कर उन्हें भी दुख हुआ. अगले दिन सुबह औफिस जाते हुए वे दोनों ही निमी से मिलने गए. हिमांशु ने डाक्टर से मिल कर निमी की बीमारियों की जानकारी ली. डाक्टर ने जो कुछ बताया, वह बहुत दर्दनाक था. निमी के फेफड़े ही नहीं, लिवर और किडनियां भी खराब थीं. वह शराब और सिगरेट के अति सेवन से हुआ था. अनुभा को पता नहीं था कि वह इन सब का सेवन करती थी. हिमांशु ने जब उसे बताया, तो वह हैरान रह गई. पता नहीं किस दुष्चक्र में फंस गई थी वह?

खैर, हिमांशु और अनुभा ने यह किया कि रात में निमी के पास अपनी नौकरानी को देखभाल के लिए रख दिया. हिमांशु नियमित रूप से उस के इलाज की जानकारी लेते. उन के कारण ही अब डाक्टर विशेषरूप से निमी का ध्यान रखने लगे थे. वह बेहतर से बेहतर इलाज उसे मुहैया करा रहे थे.

इस सब का परिणाम यह हुआ कि निमी 1 महीने के अंदर ही इतनी ठीक हो गई कि अपने घर जा सकती थी. हालांकि दवा नियमित लेनी थी.

जिस दिन उसे अस्पताल से डिस्चार्ज होना था वह कुछ उदास थी. उस का सौंदर्य पूर्णरूप से तो नहीं, परंतु इतना अवश्य लौट आया था कि वह बीमार नहीं लगती थी.

अनुभा ने पूछा, ‘‘तुम खुश नहीं लग रही हो… क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि ठीक हो कर घर जा रही हो?’’

निमी ने खाली आंखों से अनुभा को देखा और फिर फीकी आवाज में कहा, ‘‘कौन सा घर? मेरा कोई घर नहीं है.’’

‘‘अपने दोस्त के यहां, जो तुम्हारा इलाज करवा रहा था…’’

एक फीकी उदास हंसी निमी के होंठों पर तैर गई, ‘‘जो व्यक्ति मुझ से मिलने अस्पताल में कभी नहीं आया, जिसे पता है कि मेरे शरीर के महत्त्वपूर्ण अंग बेकार हो चुके हैं. वह मुझे अपने घर रखेगा?’’

‘‘फिर वह तुम्हारा इलाज क्यों करवा रहा था?’’

‘‘बस एक यही एहसान उस ने मेरे ऊपर किया है. मेरे प्यार का कुछ कर्ज उसे अदा करना ही था. वह बहुत पैसे वाला है, परंतु एक बीमार औरत को घर में रखने का फैसला उस के पास नहीं है. उसे रोज अनगिनत सुंदर और कुंआरी लड़कियां मिल सकती हैं, तो वह मेरी परवाह क्यों करेगा. वैसे मैं स्वयं उस के पास नहीं जाना चाहती हूं. मैं किसी भी मर्द के पास नहीं जाना चाहती. मर्दों ने ही मुझे प्यार की इंद्रधनुषी दुनिया में भरमा कर मेरी यह दुर्गति की है… मैं किसी महिला आश्रम में जाना चाहूंगी,’’ उस के स्वर में आत्मविश्वास सा आ गया था.

अनुभा सोच में पड़ गई. उस ने हिमांशु से सलाह ली. फिर निमी से बोली, ‘‘तुम कहीं और नहीं जाओगी, मेरे घर चलोगी.’’

‘‘तुम्हारे घर?’’ निमी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘हां, और अब इस के बाद कोई सवाल नहीं, चलो.’’

अनुभा और हिमांशु को मोतीबाग में टाइप-5 का फ्लैट मिला था. उस में पर्याप्त कमरे थे. 1 कमरा उन्होंने निमी को दे दिया. निमी अनुभा और हिमांशु की दरियादिली, प्रेम और स्नेह से अभिभूत थी. उस के पास धन्यवाद करने के लिए शब्द नहीं थे.

निमी के पिता आर्मी औफिसर थे. मां भी उच्च शिक्षित थीं. आर्मी में रहने के कारण उन्हें तमाम सुविधाएं प्राप्त थीं. पिता रोज क्लब जाते थे और शराब पी कर लौटते थे. मां भी कभीकभार क्लब जातीं और शराब का सेवन करतीं. उन के घर में शराब की बोतलें रखी ही रहतीं. कभीकभार घर में भी महफिल जम जाती. निमी के पिता के यारदोस्त अपनी बीवियों के साथ आते या कोई रिश्तेदार आ जाता, तो महफिल कुछ ज्यादा ही रंगीन हो जाती.

निमी बचपन से ही ये सब देखती आ रही थी. उस के कच्चे मन में वैसी ही संस्कृति और संस्कार घर कर गए. उसे यही वास्तविक जीवन लगता. 15 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते उस ने शराब का स्वाद चोरीछिपे चख लिया था और सिगरेट के सूट्टे भी लगा लिए थे.

ग्रैजुएशन करने के बाद निमी ने मम्मीपापा से कहा, ‘‘मैं यूपीएसी का ऐग्जाम देना चाहती हूं.’’

‘‘तो तैयारी करो.’’

‘‘कोचिंग करनी पड़ेगी. अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट डीयू के आसपास मुखर्जी नगर में हैं.’’

‘‘क्या दिक्कत है? जौइन कर लो.’’

‘‘परंतु इतनी दूर आनेजाने में बहुत समय बरबाद हो जाएगा. मैं चाहती हूं कि यहीं आसपास बतौर पीजी रह लूं और सीरियसली कंपीटिशन की तैयारी करूं… तभी कुछ हो पाएगा,’’ निमी ने कहा.

मम्मीपापा ने एकदूसरे की आंखों में एक पल के लिए देखा, फिर पापा ने उत्साह से कहा,  ‘‘ओके माई गर्ल. डू व्हाटएवर यू वांट.’’

‘‘किंतु यह अकेले कैसे रहेगी?’’ मम्मी ने शंका व्यक्त की.

‘‘क्या दकियानूसी बातें कर रही हो. शी इज ए बोल्ड गर्ल. आजकल लड़कियां विदेश जा रही हैं पढ़ने के लिए. यह तो दिल्ली शहर में ही रहेगी. जब मरजी हो जा कर मिल आया करना. यह भी आतीजाती रहेगी.’’

‘‘यस मौम,’’ निमी ने दुलार से कहा. जब बापबेटी राजी हों, तो मां की कहां चलती है. उसे परमीशन मिल गई. उस ने 1 साल का कन्सौलिडेटेड कोर्स जौइन कर लिया और मुखर्जी नगर में ही रहने लगी.

जैसाकि निमी का स्वभाव था, वह जल्दी लड़कों में लोकप्रिय हो गई. कोचिंग में पढ़ने वाले कई लड़के उस के दोस्त बन गए. सभी धनाढ्य घरों के थे. उन के पास अनापशनाप पैसे आते थे. आएदिन पार्टियां होतीं. निमी उन पार्टियों की शान समझी जाती थी.

लड़के उस के सामीप्य के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देते. दिन, महीनों में नहीं बदले, उस के पहले ही निमी कई लड़कों के गले का हार बन गई. उस के बदन के फूल लड़कों के बिस्तर पर महकने लगे.

बहुत जल्दी उस के मम्मीपापा को उस की हरकतों के बारे में पता चल गया. मम्मी ने समझाया, ‘‘बेटा, यह क्या है? इस तरह का जीवन तुम्हें कहां ले जा कर छोड़ेगा, कुछ सोचा है? हम ने तुम्हें कुछ ज्यादा ही छूट दे दी थी. इतनी छूट तो विदेशों में भी मांबाप अपने बच्चों को नहीं देते. चलो, अब तुम पीजी में नहीं रहोगी… जो कुछ करना है हमारी निगाहों के सामने घर पर रह कर करोगी.’’

‘‘मम्मी, मेरी कोचिंग तो पूरी हो जाने दो,’’  निमी ने प्रतिरोध किया.

‘‘जो तुम्हारे आचरण हैं, उन से क्या तुम्हें लगता है कि तुम कोचिंग की पढ़ाई कर पाओगी… कोचिंग पूरी भी कर ली, तो कंपीटिशन की तैयारी कर पाओगी? पढ़ाई करने के लिए किताबें ले कर बैठना पड़ता है, लड़कों के हाथ में हाथ डाल कर पढ़ाई नहीं होती,’’ मां ने कड़ाई से कहा.

‘‘मम्मी, प्लीज. आप पापा को एक बार समझाओ न,’’ निमी ने फिर प्रतिरोध किया.

‘‘नहीं, निमी. तुम्हारे पापा बहुत दुखी और आहत हैं. मैं उन से कुछ नहीं कह सकती. तुम अपने मन की करोगी, तो हम तुम्हें रुपयापैसा देना बंद कर देंगे. फिर तुम्हें जो अच्छा लगे करना.’’

निमी अपने घर आ तो गई, परंतु अंदर से बहुत अशांत थी. घर पर ढेर सारे प्रतिबंध थे. अब हर क्षण मां की उस पर नजर रहती.

शराब, सिगरेट और लड़कों से वह भले ही दूर हो गई थी, परंतु मोबाइल फोन के माध्यम से उस के दोस्तों से उस का संपर्क बना हुआ था.

जब फोन करना संभव न होता, फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप के माध्यम से संपर्क हो जाता. लड़के इतनी आसानी से सुंदर मछली को फिसल कर पानी में जाने देना नहीं चाहते.

लड़कों ने उसे तरहतरह से समझाया. वे सभी उस का खर्चा उठाने के लिए तैयार थे. रहनेखाने से ले कर कपड़ेलत्ते और शौक तक… सब कुछ… बस वह वापस आ जाए. प्रलोभन इतने सुंदर थे कि वह लोभ संवरण न कर सकी. मांबाप के प्यार, संरक्षण और सलाहों के बंधन टूटने लगे.

निमी ने बुद्धि के सारे द्वार बंद कर दिए. विवेक को तिलांजलि दे दी और एक दिन घर से कुछ रुपएपैसे और कपड़े ले कर फरार हो गई. दोस्तों ने उस के खाने व रहने के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर रखा था. काफी दिनों तक वह बाहरी दुनिया से दूर अपने घर में बंद रही.

पता नहीं उस के मांबाप ने उसे ढूंढ़ने का प्रयत्न किया था या नहीं. उस ने अपना फोन नंबर ही नहीं, फोन सैट भी बदल लिया था. मांबाप अगर पुलिस में रिपोर्ट लिखाते तो उस का पता चलना मुश्किल नहीं था. उस के पुराने फोन की काल डिटेल्स से उस के दोस्तों और फिर उस तक पुलिस पहुंच सकती थी, परंतु संभवतया उस के मांबाप ने पुलिस में उस के गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखाई थी.

निमी का जीवन एक दायरे में बंध कर रह गया था. खानापीना और ऐयाशी, जब तक वह नशे में रहती, उसे कुछ महसूस न होता, परंतु जबजब एकांत के साए घेरते उस के दिमाग में तमाम तरह के विचार उमड़ते, मांबाप की याद आती.

न तो समय एकजैसा रहता है, न कोई वस्तु अक्षुण्ण रहती है. निमी ने धीरेधीरे महसूस किया, उस के जो मित्र पहले रोज उस के पास आते थे, अब हफ्ते में 2-3 बार ही आते थे. पूछने पर बताते व्यस्तता बढ़ रही है. दूसरे काम आ गए हैं. मगर सत्य तो यह था उन के जीवन में एकरसता आ गई थी. अनापशनाप पैसा खर्च हो रहा था. मांबाप सवाल उठाने लगे थे. निमी की तरह बेवकूफ तो थे नहीं, उन्हें अपना कैरियर बनाना था. कुछ की कोचिंग समाप्त हो गई, तो वे अपने घर चल गए. जो दिल्ली के थे, वे कभीकभार आते थे, परंतु अब उन के लिए भी निमी का खर्चा उठाना भारी पड़ने लगा था.

निमी वरुण को अपना सर्वश्रेष्ठ हितैषी समझती थी. एक दिन उसी से पूछा, ‘‘वरुण, एक बात बताओ, मैं ने तुम लोगों की दोस्ती के लिए अपना घरपरिवार और मांबाप छोड़ दिए, अब तुम लोग मुझे 1-1 कर छोड़ कर जाने लगे हो. मैं तो कहीं की न रही… मेरा क्या होगा?’’

वरुण कुछ पल सोचता रहा, फिर बोला, ‘‘निमी, मेरी बात तुम्हें कड़वी लगेगी, परंतु सचाई यही है कि तुम ने हमारी दोस्ती नहीं अपने स्वार्थ और सुख के लिए घर छोड़ा था. यहां कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता, सब अपने लिए करते हैं. अपनी स्वार्थ सिद्धि के बाद सब अलग हो जाते हैं, जैसा अब तुम्हारे साथ हो रहा है.

यह कड़वी सचाई तुम्हें बहुत पहले समझ जानी चाहिए थी. हम सभी अभी बेरोजगार हैं, मांबाप के ऊपर निर्भर हैं, कैरियर बनाना है. ऐसे में रातदिन हम  भोगविलास में लिप्त रहेंगे, तो हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा.’’

अपनी स्थिति पर उसे रोना आ रहा था, परंतु वह रो नहीं सकती थी. आगे आने वाले दिनों के बारे में सोच कर उस का मन बैठा जा रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे?

‘‘मैं क्या करूं, वरुण?’’ वह लगभग रोंआसी हो गई थी, ‘‘नासमझी में मैं ने क्या कर डाला?’’

‘‘बहुत सारी लड़कियां जवानी में ऐसा कर गुजरती हैं और बाद में पछताती हैं.’’

‘‘तुम ने भी मुझे कभी नहीं समझाया, मैं तो तुम्हें सब से अच्छा दोस्त समझती थी.’’

वरुण हंसा, ‘‘कैसी बेवकूफी वाली बातें कर रही हो. तुम कभी एक लड़के के प्रति वफादार नहीं रही. तुम्हारी नशे की आदत और तुम्हारी सैक्स की भूख ने तुम्हारी अक्ल पर परदा डाल दिया था. तुम एक ही समय में कई लड़कों के साथ प्रेमव्यवहार करोगी, तो कौन तुम्हारे साथ निष्ठा से प्रेमसंबंध निभाएगा… सभी लड़के तुम्हारे तन के भूखे थे और तुम उन्हें बहुत आसान शिकार नजर आई. बिना किसी प्रतिरोध के तुम किसी के भी साथ सोने के लिए तैयार हो जाती थी. ऐसे में तुम किसी एक लड़के से सच्चे और अटूट प्रेम की कामना कैसे कर सकती हो?’’

वरुण की बातों में कड़वी सचाई थी. निमी ने कहा, ‘‘मैं ने जोश में आ कर अपना सब कुछ गंवा दिया. दोस्त भी 1-1 कर चले गए. तुम तो मेरा साथ दे सकते हो.’’

वरुण ने हैरान भरी निगाहों से उसे देखा, ‘‘तुम्हारा साथ कैसे दे सकता हूं? मैं तो स्वयं तुम से दूर जाने वाला था. 1 साल मेरा बरबाद हो गया. इस बार प्री ऐग्जाम भी क्वालिफाई नहीं कर पाया. तुम्हारे चक्कर में पढ़ाईलिखाई हो ही नहीं पाई. घर में मम्मीपापा सभी नाराज हैं. ऐयाशी और मौजमस्ती छोड़ कर मैं ईमानदारी से तैयारी करना चाहता हूं. मैं तुम से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता. वरना मेरा जीवन चौपट हो जाएगा.’’

निमी ने उस के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सीने पर रख लिया, ‘‘वरुण, मैं जानती हूं मैं ने गलती की है. मछली की तरह एक से दूसरे हाथ में फिसलती रही, परंतु सच मानो मैं ने तुम्हें सच्चे मन से प्यार किया है. जब कभी मन में अवसाद के बादल उमड़े मैं ने केवल तुम्हें याद किया. मुझे इस तरह छोड़ कर न जाओ.’’

‘‘निमी, तुम समझने का प्रयास करो, मैं ने अगर तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा, तो मेरा भविष्य मेरे रास्ते से गायब हो जाएगा. मुझे कुछ बन जाने दो.’’

‘‘मैं तुम से प्यार की भीख नहीं मांगती. प्यार और सैक्स को पूरी तरह से भोग लिया है मैं ने परंतु पेट की भूख के आगे मनुष्य सदा लाचार रहता है. मेरे पास जीविका का कोई साधन नहीं है. जहां इतना सब कुछ किया, मेरे प्यार के बदले इतना सा उपकार और कर दो. रहने के लिए 1 कमरा और पेट की रोटी के लिए दो पैसे का इंतजाम कर दो. मैं वेश्यावृत्ति नहीं अपनाना चाहती,’’ निमी की आवाज दुनियाभर की बेचारगी और दीनता से भर गयी थी.

वरुण अपने दोस्तों की तरह कठोर नहीं था. उस के अंदर सहज मानवीय भाव थे. वह काफी संवेदनशील था और निमी के प्रति दयाभाव भी रखता था, परंतु उस के लिए वह अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकता था. अत. कुछ सोच कर बोला, ‘‘तुम प्राइवेट नौकरी कर सकती हो?’’

‘‘हां, मेरे पास और चारा भी क्या है?’’

‘‘तो फिर ठीक है, तुम इसी फ्लैट में रहो. इस का किराया मैं दे दिया करूंगा. मैं अपने पिता से बात कर के तुम्हें किसी कंपनी में काम दिलवा दूंगा, जिस से तुम्हारा गुजारा चल सके.’’

‘‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी.’’

वरुण ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘या तुम अपने घर चली जाओ.’’

निमी ने आश्चर्य से उसे देखा. फिर बोली, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? क्या बताऊंगी उन्हें कि मैं ने इतने दिन क्या किया है? नहीं वरुण, मैं उन के पास जा कर उन्हें और परेशान नहीं करना चाहती.’’

वरुण के पिता सरकारी विभाग में अच्छे पद थे. उस ने पिता से कह कर निमी को एक प्राइवेट कंपनी में लगवा दिया. क्व20 हजार महीने पर. निमी का जो लाइफस्टाइल था, उस के हिसाब से उस की यह सैलरी ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर थी, परंतु मुसीबत की घड़ी में मनुष्य को तिनके का सहारा भी बहुत होता है.

निमी ने उन्मुक्त यौन संबंधों से तो छुटकारा पा लिया, परंतु वह शराब और सिगरेट से छुटकारा नहीं पा सकी. एकांत उसे परेशान करता, पुरानी यादें उसे कचोटतीं, मांबाप की याद आती, तो वह पीने बैठ जाती.

वरुण जब भी उस से मिलने आता, वह उस की बांहों में गिर कर रोने लगती. वह समझाता, ‘‘मत पीया करो इतना, बीमार हो जाओगी.’’

‘‘वरुण, एकाकी जीवन मुझे बहुत डराता है,’’ वह उस से चिपक जाती.

‘‘मातापिता के पास वापस चली जाओ. वे तुम्हें माफ कर देंगे,’’

वह कई बार निमी से यह बात कह चुका था, पर हर बार निमी का यही जवाब होता, ‘‘कौन सा मुंह ले कर जाऊं उन के पास? वे मुझे क्या बनाना चाहते थे और मैं क्या बन बैठी… माफ तो कर देंगे, परंतु समाज को क्या जवाब देंगे.’’

‘‘वही, जो अभी दे रहे होंगे.’’

‘‘अभी वे मुझे मरा समझ कर माफ कर देंगे, परंतु उन के पास रह कर मैं उन्हें बहुत दुख दूंगी.’’

‘‘एक बार जा कर तो देखो.’’

‘‘नहीं वरुण, तुम मेरे मांबाप को नहीं जानते. वे मुझे माफ नहीं करेंगे. अगर उन्हें माफ करना होता, तो अब तक मुझे ढूंढ़ लिया होता. यह बहुत मुश्किल नहीं था. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं की होगी,’’ वरुण के समझाने का उस पर कोई प्रभाव न पड़ता.

यथास्थिति बनी रही. बस वरुण सिविल सर्विसेज की तैयारी में निरंतर जुटा रहा. इस का परिणाम यह रहा कि वह यूपीएससी परीक्षा पास कर गया.

जब वरुण ट्रेनिंग के लिए जाने लगा तो निमी ने कहा, ‘‘अब तुम पूरी तरह से मुझ से दूर चले जाओगे.’’

‘‘वह तो जाना ही था,’’ वरुण ने उसे समझाते हुए कहा. निमी के मन में बहुत कुछ टूट गया. वह जानती थी, वरुण उस का नहीं हो सकता है,

फिर भी उस के दिल में कसक सी उठी. वह खोईखोई आंखों से वरुण को देख रही थी. वरुण ने उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘देखो, निमी, मेरा कहना मानो, अब भटकने से कोई फायदा नहीं. तुम ने अपने जीवन को जितना गिराना था, गिरा लिया. अब सावधानी से उठने की कोशिश करो. तुम्हारी तनख्वाह बढ़ गई है. कुछ बचा कर पैसे जोड़ लो और किसी लड़के से शादी कर के घर बसा लो. मेरी तरफ से जो हो सकेगा मैं मदद करूंगा.’’

निमी ने जवाब नहीं दिया. अगले कुछ दिनों में वरुण मसूरी चला गया. निमी पूरी तरह टूट गई. उस ने अपनी सोच पर ताले लगा लिए. जैसे वह सुधरना ही नहीं चाहती थी.

1 साल की ट्रेनिंग के दौरान वरुण उस से मिलने केवल एक बार आया और रातभर उस के साथ रुका. तब भी उस ने निमी को घर बसाने की सलाह दी. परंतु वह चुप ही रही.

कई साल बीत गए. वरुण की पोस्टिंग हो गई थी. वह एक जिले का कलैक्टर बन गया था. उसे छुट्टी नहीं मिलती थी या दिल्ली आ कर भी वह उस से मिलना नहीं चाहता था, परंतु हर माह वह एक अच्छी राशि निमी के खाते में जमा करा देता था.

निमी ने तय कर लिया था कि वह शादी नहीं करेगी. वरुण उस का नहीं है, फिर भी उस का इंतजार करती थी. इंतजार जितना लंबा हो रहा था, उस के शराब पीने की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जा रही थी. फिर पता चला कि वरुण की शादी किसी चीफ सैक्रेटरी की आईएएस बेटी से हो गई है. निमी के अंदर जो थोड़ी सी आस बची थी, वह पूर्णरूप से टूट गई. उस की शराब की मात्रा इतनी ज्यादा हो गई कि अब वह दफ्तर भी नहीं जा पाती थी.

वरुण से उस का कोई सीधा संपर्क नहीं था. कभीकभी वरुण के पिता का नौकर उस के हालचाल पूछ जाता था. वही वरुण के बारे में बताता था और उस के बारे में वही वरुण को खबर करता होगा.

अत्यधिक शराब के सेवन से उस की तबीयत खराब रहने लगी. वरुण के पिता का नौकर लगभग रोज उस के पास आने लगा था. एक दिन उसी के सामने निमी को खून की उलटी हुई. उसे आननफानन में अस्पताल में भरती करवाया गया.

मैडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो गया था कि अत्यधिक शराब के सेवन से उस के सारे अंदरूनी अंग खराब हो गए हैं. वरुण ने अपने नौकर के माध्यम से उसे सेमी प्राइवेट वार्ड में भरती करवा दिया था. इलाज का सारा खर्च वह भेज रहा था, परंतु कभी मिलने नहीं आया.

उस के इलाज में कोई कमी नहीं थी, परंतु उस का दुख उसे खाए जा रहा था जैसे वह किसी बीमारी से नहीं, अपने दुख से ही मरेगी, परंतु इसी बीच संयोग से अस्पताल में अनुभा प्रकट हुई और उस के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आ गया. अब वह ठीक हो कर घर आ गई थी. घर तो आ गई थी, परंतु किस के  घर? उस का अपना घर, संसार कहां था?

यक्ष प्रश्न अभी भी उस के सामने खड़ा था. अब आगे क्या? 35 वर्ष की अवस्था में अब वह कोई युवती नहीं थी. बीमारी ने उस की सुंदरता को काफी हद तक क्षीण कर दिया था. नौकरी हाथ से जा चुकी थी, वरुण से भी व्यक्तिगत संपर्क टूट चुका था.

हिमांशु केंद्र सरकार में उच्च अधिकारी थे. उन्होंने अपने प्रयासों से निमी को एक संस्था से जोड़ दिया. यह संस्था अनाथ बच्चों की देखभाल और उन्हें शिक्षा प्रदान करती थी. कुछ दिन तक निमी अनुभा के घर पर रही. फिर उस की संस्था ने उसे एक घर लीज पर दिलवा दिया. साफसफाई के बाद जिस दिन निमी ने अपने घर में प्रवेश किया, तब अनुभा और उस के पति के कुछ दोस्त मौजूद थे. छोटी सी पार्टी रखी गई थी.

शाम को पार्टी के बाद जब अनुभा निमी को छोड़ कर जाने लगी, तो निमी ने कहा, ‘‘मैं फिर अकेली हो जाऊंगी.’’

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं हो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. पहले जो लोग तुम से जुड़े थे, वे स्वार्थवश जुड़े थे. इसीलिए तुम पतन की राह पर चल पड़ी थी. अब तुम्हारे सामने एक लक्ष्य है, बच्चों का भविष्य सुधारने का. इस लक्ष्य को ध्यान में रखोगी और अपनी पिछली जिंदगी के बारे में विचार करोगी, तो तुम एकाकी जीवन जीते हुए भी कभी गलत रास्ते पर नहीं चलोगी.’’

निमी ने शरमा कर सिर झुका लिया. अनुभा ने उस का चेहरा ऊपर उठाया. उस की आंखों में आंसू थे. कई वर्षों बाद उस की आंखों में खुशी के आंसू आए थे.

गिरफ्त : क्या सुशांत को आजाद करा पाई मनीषा

मनीषा को सामान रखते देख कर प्रिया ने पूछ ही लिया, ‘‘तो क्या, कर ली अजमेर जाने की पूरी तैयारी?’’

‘‘अरे नहीं, पूरी कहां, बस जो सामान बिखरा पड़ा है उसे ही समेट रही हूं. अभी तो एक बैग ले कर ही जाऊंगी, जल्दी वापस भी तो आना है.’’

‘‘वापस,’’ प्रिया यह सुन कर चौंकी थी, ‘‘तो क्या अभी रिजाइन नहीं कर रही हो?’’

‘‘नहीं.’’

मनीषा ने जोर से सूटकेस बंद किया और सुस्ताने के लिए बैड पर आ कर बैठ गई थी.

‘‘बहुत थक गई हूं यार, छोटेछोटे सामान समेटने में ही बहुत टाइम लग जाता है. हां, तो तू क्या कह रही थी. रिजाइन तो मैं बाद में करूंगी, पहले पुणे में जौब तो मिल जाए.’’

‘‘अरे, मिलेगी क्यों नहीं, सुशांत जीजान से कोशिश में लग जाएगा, अब तुझे वह यहां थोड़े ही रहने देगा,’’ प्रिया ने उसे छेड़ा था और मनीषा मुसकरा कर रह गई.

मनीषा और प्रिया इस महिला हौस्टल में रूममेट थीं और दोनों यहां गुरुग्राम में जौब कर रही थीं. मनीषा की शादी अगले महीने होनी तय हुई थी, इसलिए वह छुट्टी ले कर जाने की तैयारी में थी.

‘‘बाय द वे,’’ प्रिया ने उसे फिर छेड़ा था, ‘‘तू अब सुशांत के खयालों में उलझी रह और अपनी पैकिंग भी करती रह, मैं नीचे जा रही हूं. क्या तेरे लिए कौफी ऊपर ही भिजवा दूं? अरे मैडम, मैं आप ही से कह रही हूं.’’ प्रिया ने उसे झकझोरा था.

‘‘हां…हां, सुन रही हूं न, कौफी के साथ कुछ खाने के लिए भी भेज देना, मुझे तो अभी पैकिंग में और समय लगेगा,’’ मनीषा बोली.

‘‘मैं सोच रही हूं कि आज रीना के कमरे में ही डेरा जमाऊं, कुछ काम भी करना है लैपटौप पर,’’ प्रिया बोली.

‘‘हां…हां…जरूर,’’ मनीषा के मुंह से निकल ही गया था.

‘‘वह तो तू कहेगी ही, अच्छा है रात को सुशांत से अकेले में आराम से चैट करती रहना.’’ मैं चली. हां, यह जरूर कह देना कि यह सब प्रिया की मेहरबानी से संभव हुआ है.’’

‘‘अरे हां, सब कहूंगी,’’ मनीषा हंस पड़ी थी. प्रिया के जाने के बाद उस ने बचा हुआ सामान समेटा और सोचने लगी, ‘चलो, अब ठीक है. छुट्टी के बाद ही लौटेंगे तो कम से कम सामान तो पैक ही मिलेगा.’

हाथमुंह धो कर उस ने कपड़े बदले. तब तक प्रिया ने कौफी के साथ कुछ सैंडविच भी भिजवा दिए थे. कौफी पी कर वह कमरे के बाहर बनी छोटी सी बालकनी में आ गई थी.

शाम को अंधेरा बढ़ने लगा था पर नीचे बगीचे में लाइट्स जल रही थीं जिस से वातावरण काफी सुखद लग रहा था. झिलमिलाती रोशनी को देखते हुए वह बालकनी में ही कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

तो आखिर शादी तय हो ही गई थी उस की. सुशांत को याद करते ही पता नहीं कितनी यादें दिलोदिमाग पर छाने लगी थीं.

पता नहीं उस के साथ लंबे समय तक क्या होता रहा. पापा ने कई लड़के देखे, कहीं लड़का पसंद नहीं आया तो कहीं दहेज की मांग, तो किसी को लड़की सांवली लगती.

चलचित्र की तरह सबकुछ आंखों के सामने घूमने लगा था. हां, रंग थोड़ा दबा हुआ जरूर था उस का पर पढ़ाई में तो वह शुरू से ही अव्वल रही. इंजीनियरिंग कर के एमबीए भी कर लिया. अच्छी नौकरी मिल गई. फिर आत्मनिर्भर होते ही व्यक्तित्व में भी तो निखार आ ही जाता है.

अब तो हौस्टल की दूसरी लड़कियां भी कहती हैं, ‘अरे, रंग कुछ दबा हुआ है तो क्या, पूरी ब्यूटी क्वीन है हमारी मनीषा.’

एकाएक उस के होंठों पर मुसकान खिल गई थी. सुशांत ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था. फिर उस की मां और मौसी दोनों आईं और शगुन कर गईं.

अब तो 15 दिनों बाद सगाई और शादी दोनों एकसाथ ही करने का विचार था.

तय यह हुआ कि सुशांत का परिवार और रिश्तेदार 2 दिन पहले ही अजमेर पहुंच जाएं. पापा ने उन के लिए एक पूरा रिसौर्ट बुक करा दिया था. घर के रिश्तेदारों के लिए पास के एक दूसरे बंगले में ठहरने का इंतजाम था.

कल ही मां ने फोन पर सूचना दी थी, ‘मनी, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बस, अब तू छुट्टी ले कर आजा. घर पर तेरा ही इंतजार है.’

‘हां मां, आ तो रही हूं, परसों पहुंच जाऊंगी आप के पास,’ मां तो पता नहीं कब से पीछे पड़ी थीं.

‘बहुत कर ली नौकरी, अब घर आ कर कुछ दिन हमारे पास रह. शादी के बाद तो ससुराल चली ही जाएगी. और हां, लड़कियां शादी से पहले हलदीउबटन सब करवाती हैं. तू भी ब्यूटी पार्लर जा कर यह सब करवाना.’

‘चली जाऊंगी मां, 15 दिन बहुत होते हैं अपना हुलिया संवारने को,’ मनीषा बोली.

उस ने बात टाली थी. पर मां की याद आते ही बहुत कुछ घूम गया था दिमाग में. एक माने में मां की बात सही भी थी, अपनी पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में वह काफी समय घर से बाहर ही रही. और अब शादी कर के घर से दूर हो जाएगी तो वे भी चाहती हैं कि बेटी कुछ दिन उन के पास भी रह ले. चलो, अब मां भी खुश हो जाएंगी. कह भी रही थीं कि मेरी पसंद के सारे व्यंजन बना कर खिलाएंगी मुझे.

‘अरे मां, अब तो मैं ज्यादा तलाभुना खाना भी नहीं खाती हूं.’

‘हां…हां, पता है. पर यहां तेरी मनमानी नहीं चलेगी, समझी,’ मां ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘अरे, फोन बज रहा है,’ कमरे में रखा उस का मोबाइल बज रहा था. लो, मां को याद किया तो उन का फोन भी आ गया. इसी को शायद टैलीपैथी कहते हैं. वह तेजी से अंदर गई. अरे, यह तो सुशांत का फोन है, पर इस समय कैसे. अकसर उस का फोन तो रात 10 बजे के बाद ही आता था और अगर पास में प्रिया सो रही हो तो वह बाहर बालकनी में बैठ कर आराम से घंटे भर बातें करती थी पर इस समय, वह चौंकी थी.

‘‘हां सुशांत, बस, मैं कल निकल रही हूं अजमेर के लिए, थोड़ाबहुत सामान पैक किया है,’’ मोबाइल उठाते ही उस ने कहा था.

‘‘मनीषा, मैं ने इसीलिए तुम्हें फोन किया था कि तुम अब अपना प्रोग्राम बदल देना, देखो, अदरवाइज मत लेना पर मैं ने बहुत सोचा है और आखिर इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि मैं अभी शादी नहीं कर पाऊंगा इसलिए…’’

‘‘क्या कह रहे हो सुशांत? मजाक कर रहे हो क्या?’’ मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि सुशांत कहना क्या चाह रहा है.

‘‘यह मजाक नहीं है मनीषा, मैं जो कुछ कह रहा हूं, बहुत सोचसमझ कर कह रहा हूं. अभी मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि शादी कर सकूं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो सुशांत, हम लोग सारी बातें पहले ही तय कर चुके हैं और अच्छीखासी जौब है तुम्हारी. फिर मैं भी जौब करूंगी ही. हम लोग मैनेज कर ही लेंगे और हां, यह तो सोचो कि शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं. पापा ने वहां सारी बुकिंग करा दी है. कैटरिंग, हलवाई सब को एडवांस दिया जा चुका है.’’

‘‘तभी तो मैं कह रहा हूं…’’ सुशांत ने फिर बात काटी थी, ‘‘देखो मनीषा, अभी तो टाइम है, चीजें कैंसिल भी हो सकती हैं और फिर शादी के बाद तंगी में रहना कितना मुश्किल होगा. इच्छा होती है कि हनीमून के लिए बाहर जाएं. बढि़या फ्लैट, गाड़ी सब हों, मैं ने तुम्हें बताया था न कि मेरी एक फ्रैंड है शोभा, उस से मैं अकसर राय लेता रहता हूं. उस का भी यही कहना है, चलो, तुम्हारी उस से भी बात करा दूं. वह यहीं बैठी है.’’

शोभा, कौन शोभा. क्या सुशांत की कोई गर्लफ्रैंड भी है. उस ने तो कभी बताया नहीं… मनीषा के हाथ कांपने लगे. तब तक उधर से आवाज आई. ‘‘हां, कौन, मनीषा बोल रही हैं, हां, मैं शोभा, असल में सुशांत यहीं हमारे घर में पेइंगगैस्ट की तरह रह रहे हैं, तुम्हारा अकसर जिक्र करते रहते हैं. फोटो भी दिखाया था तुम्हारा. बस, शादी के नाम पर थोड़े परेशान हैं कि अभी मैनेज नहीं हो पाएगा. अपने घरवालों से तो कहने में हिचक रहे थे तो मैं ने ही कहा कि तुम मनीषा से ही बात कर लो. वह समझदार है, तुम्हारी तकलीफ समझेगी.’’

मनीषा तो जैसे आगे कुछ सुन ही नहीं पा रही थी. कौन है यह शोभा और सुशांत क्यों इसे सारी बातें बताता रहा है. उस का माथा भन्नाने लगा. ‘‘देखिए, आप सुशांत को फोन दें.’’

‘‘हां सुशांत, तुम अपने घरवालों से बात कर लो.’’

‘‘पर मनीषा…’’ सुशांत कह रहा था, पर मनीषा ने तब तक मोबाइल बंद कर दिया था. 2 बार घंटी बजी थी, पर उस ने फोन उठाया ही नहीं.

‘ओफ, क्या सोचा था और क्या हो गया. अब वह क्या करे. सुहावने सपनों का महल जैसे भरभरा कर गिर गया. अब अजमेर जा कर मांपापा से क्या कहेगी,’ उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था.

मोबाइल की घंटी लगातार घनघना रही थी. नहीं, उसे अब सुशांत से कोई बात नहीं करनी और वह गर्लफैंड. वह खुद को बुरी तरफ अपमानित अनुभव कर रही थी. कहां तो अभी इतनी तेज भूख लग रही थी, लेकिन अब भूखप्यास सब गायब हो गई थी. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था कि अब क्या करे? मांपापा को फोन पर तो यह सब बताना ठीक नहीं रहेगा, वे लोग घबरा जाएंगे. मां तो वैसे ही ब्लडप्रैशर की मरीज हैं.

और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर वह शोभा है कौन? सुशांत उस के कहने भर से शादी स्थगित कर रहा है या फिर शादी के लिए मना ही कर रहा है.

ठीक है, उसे भी ऐसे आदमी के साथ जिंदगी नहीं बितानी है, अच्छा हुआ अभी सारी बातें सामने आ गईं और उस ने नौकरी से अभी रिजाइन नहीं दिया वरना मुश्किल हो जाती.

पर चारों तरफ सवाल ही सवाल थे और वह कोईर् उत्तर नहीं खोज पा रही थी.

रोतेरोते उस की आंखें सूज गई थीं.

‘नहीं, उसे कमजोर नहीं पड़ना है, जब उस की कोई गलती ही नहीं है तो वह क्यों हर्ट हो,’ यह सोच कर वह उठी ही थी कि मोबाइल की घंटी फिर बजने लगी थी. सुशांत का ही फोन होगा. अब फोन मुझे स्विचऔफ करना होगा, यह सोच कर उस ने मोबाइल उठाया. पर यह तो सरलाजी थीं, सुशांत की मां. अब ये क्या कह रही हैं.

उधर से आवाज आ रही थी, ‘‘हां, मनीषा बेटी, मैं हूं सरला.’’

‘‘हां, आंटी,’’ बड़ी मुश्किल से उस ने अपनी रुंधि हुई आवाज को रोका.

‘‘बेटी, यह मैं क्या सुन रही हूं, अभीअभी सुशांत का फोन आया था. अरे बेटे, शादी क्या कोई मजाक है. क्यों मना कर रहा है वह. उस के पापा तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने उस का फोन ही काट दिया. अब पता नहीं यह शोभा कौन है और क्यों वह इस के बहकावे में आ रहा है, पर बेटी, मेरी तुम से विनती है, तुम एक बार बात कर के उसे समझाओ.’’

‘‘आंटी, अब मैं क्या कर सकती हूं,’’ मनीषा ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘बेटा, तू तो बहुत कुछ कर सकती है, तू इतनी समझदार है, एक बार बात कर उस से. अब हम तो तुझे अपनी बहू मान ही चुके हैं.’’

‘‘ठीक है आंटी, मैं देखूंगी,’’ कह कर मनीषा ने मोबाइल स्विचऔफ कर दिया था. अब नहीं करनी उसे किसी से भी बात. अरे, क्या मजाक समझ रखा है. बेटा कुछ कहता है तो मां कुछ और, और मैं क्यों समझाऊं किसी को. मैं ने क्या कोई ठेका ले रखा सब को सुधारने का, मनीषा का सिरदर्द फिर से शुरू हो गया था, रातभर वह सो भी नहीं पाई.

फिर सुबहसुबह उठ कर बालकनी में आ गई. अभी सूर्योदय हो ही रहा था. ‘नहीं, कुछ भी हो उसे उस शोभा को तो मजा चखाना ही है, भले ही यह शादी हो या नहीं, पर यह शोभा कौन होती है अड़ंगे लगाने वाली. वह एक बार तो बेंगलुरु जाएगी ही,’ सोचते हुए उस ने मोबाइल से ही बेंगलुरु की फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया था. फिर तैयार हो कर उस ने सुशांत को फोन कर दिया, वह अब औफिस आ चुका था.

‘‘मैं बेंगलुरु आ रही हूं, तुम से तुम्हारे औफिस में ही मिलूंगी.’’

‘‘अच्छा, पर…’’

‘‘पहुंच कर बात करते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया था.

एकाएक यह कदम उठा कर उस ने ठीक भी किया है या नहीं, यह वह अब तक समझ नहीं, पा रही थी, पर जो भी हो फ्लाइट का टिकट तो बुक हो ही चुका है, पर बेंगलुरु में ठहरेगी कहां. एकाएक उसे अपनी सहेली विशु याद आ गई. हां, विशु बेंगलुरु में ही तो जौब कर रही है. उसे फोन लगाया, ‘‘अरे मनीषा, व्हाट्स सरप्राइज…पर तू अचानक…’’ विशु भी चौंक गई थी.

‘‘बस, ऐसे ही, औफिस का एक काम था, तो सोचा कि तेरे ही पास ठहर जाऊंगी, तुम वहीं हो न.’’

‘‘हां, हूं तो बेंगलुरु में, पर अभी किसी काम से मुंबई आई हुई हूं, कोई बात नहीं, मां है वहां, तू घर पर ही रुकना. तू पहले भी तो मां से मिल चुकी है, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. मुझे तो अभी हफ्ताभर मुंबई में ही रुकना है.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं, वहां पहुंच कर तुझे फोन करूंगी.’’

फिर उस ने मां को अजमेर फोन कर के कह दिया कि अभी छुट्टी मिल नहीं पा रही है, 2 दिनों बाद आ पाऊंगी.

बेंगलुरु पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई थी. सुशांत औफिस में ही उस का इंतजार कर रहा था.

‘‘अचानक कैसे प्रोग्राम बन गया,’’ उसे देखते ही सुशांत बोला था.

मनीषा ने किसी प्रकार अपने गुस्से पर काबू रखा और कहा, ‘‘बस…शादी नहीं हो रही तो क्या, दोस्त तो हम हैं ही, सोचा कि मिल कर बात कर लेती हूं कि आखिर वजह क्या है शादी टालने की, फिर मुझे कुछ काम भी था बेंगलुरु में तो वह भी हो जाएगा.’’ आधा सच, आधा झूठ बोल कर उस ने बात खत्म की.

‘‘हांहां, चलो, पहले कहीं चल कर चायकौफी पीते हैं, तुम थकी हुई होगी.’’ कौफी शौप में कौफी पी कर बाहर निकले तो सुशांत ने कहा, ‘‘मैं ने शोभा को भी फोन कर दिया था तो वह घर पर हमारा इंतजार कर रही है, पहले घर चलें.’’

‘शोभा…पहले इस शोभा को ही देखा जाए,’ वह मन ही मन सोचते हुए मनीषा ने कहा, ‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कहते हुए मनीषा के शब्द भी लड़खड़ा गए थे.

औफिस घर के पास ही था, घर के बाहर लौन में शोभा इंतजार करती मिली उन दोनों का.

‘‘आइए, आइए,’’ गेट पर खड़ी महिला को देख कर मनीषा चौंकी, तो यह है शोभा, यह तो

40-45 साल की होगी, हां, बनावशृंगार कर के खुद को चुस्त बना रखा है, पर यह सुशांत की फ्रैंड कैसे बनी, उस का दिमाग फिर चकराने लगा था.

‘‘मनीषा, यह है शोभा, बहुत खयाल रखती है मेरा, बेंगलुरु जैसे शहर में एक तरह से इस पर ही निर्भर हो गया हूं मैं.’’

‘‘हांहां, अंदर तो चलो,’’ शोभा कह रही थी. अंदर सीधे वह डाइनिंग टेबल पर ही ले गई. कौफीनाश्ता तैयार था. शोभा ने बातचीत भी शुरू की, ‘‘मनीषा, असल में सुशांत काफी परेशान थे कि तुम्हें कैसे मना करें शादी के लिए, क्योंकि तैयारी तो सब हो चुकी होगी, पर अभी शादी के लिए सुशांत खुद को तैयार नहीं कर पा रहे थे. तो मैं ने ही इन से कहा कि तुम मनीषा से बात कर लो, वह सुलझी हुई लड़की है. तुम्हारी प्रौब्लम जरूर समझेगी. असल में ये तुम्हारी सारी बातें मुझे बताते रहते थे तो मैं भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जान गई थी,’’ कह कर शोभा थोड़ी मुसकराई.

मनीषा समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे, बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला और फिर बोली, ‘‘शोभाजी, मैं बस 2 दिनों के लिए आई हूं और अपनी एक फ्रैंड के यहां रुकी हूं. मैं चाहती हूं कि मैं और सुशांत बाहर जा कर कुछ बात कर लें, अगर आप चाहें तो.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, खाना खा कर जाना, खाना तैयार है.’’ फिर शोभा ने सुशांत की तरफ देखा था, ‘‘तुम्हारी पसंद की चिकनबिरयानी बनाई है, अगर मनीषा को नौनवेज से परहेज हो तो कुछ और…’’

‘‘नहींनहीं, हम लोग बाहर ही खा लेंगे, चलते हैं,’’ कह कर मनीषा उठ गई तो सुशांत को भी खड़ा होना पड़ा. उधर, मनीषा सोच रही थी कि सुशांत तो कहता था कि वह तो नौनवेज खाता ही नहीं है, फिर… पर हां, यह तो समझ में आ ही गया कि अच्छा खाना खिला कर सुशांत को फुसलाया जा रहा है.

शोभा का मुंह उतर गया था, पर मनीषा सुशांत को ले कर बाहर आ गई. ‘‘कहां चलें?’’ सुशांत ने मनीषा से पूछा.

‘‘कहीं भी, तुम तो इतने समय से बेंगलुरु में रह रहे हो, तुम्हें तो पता ही होगा कि कहां अच्छे रैस्तरां हैं. वैसे, अभी मुझे खाने की कोई इच्छा नहीं है, इसलिए पहले कहीं गार्डन में बैठते हैं.’’

कुछ देर पास में बगीचे में पड़ी बैंच पर ही दोनों बैठ गए.

मनीषा ने ही बात शुरू की, ‘‘हां, अब बताओ, क्या कह रहे थे तुम शोभाजी के बारे में.’’

फिर सुशांत ने जो कुछ बताया, मनीषा चुपचाप सुनती रही. पता चला कि शोभा के पति विदेश में हैं. यहां वह अपने 2 बच्चों के साथ रह रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं. सुशांत से शोभाजी को बहुत सहारा है. सुशांत उस की आर्थिक मदद भी कर रहा है. बातों ही बातों में मनीषा समझ गई थी कि सुशांत से काफी पैसा शोभाजी ने उधार भी ले

रखा है. इसलिए सोच रही होगी कि ऐसे मुरगे को आसानी से कैसे जाने दें.

‘‘बहुत खयाल रखती है शोभा मेरा,’’ सुशांत बारबार यही कह रहा था.

‘‘देखो सुशांत, हो सकता कि शोभाजी जैसा बढि़या खाना मैं तुम्हें बना कर न खिला सकूं, पर फिर भी कोशिश करूंगी.’’  मनीषा ने मजाक किया तो सुशांत चौंक गया, ‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सुशांत ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘पुणे वाली जौब के लिए अप्लाई कर दिया था न तुम ने?’’

‘‘वह…मैं कर ही रहा था पर शोभा ने मना कर दिया कि अभी रहने दो.’’

‘‘हां, क्योंकि अभी शोभाजी को तुम्हारी जरूरत है,’’ न चाहते हुए भी मनीषा के मुंह से निकल ही गया. सुशांत अवाक था.

उधर, मनीषा कहे जा रही थी, ‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा, पर एक बात जरूर कहूंगी कि शोभाजी कभी भी तुम्हें बेंगलुरु से बाहर नहीं जाने देंगी, क्योंकि तुम जरूरत हो उन की. तुम्हारा इतना पैसा उन के बच्चों की पढ़ाई पर लगा है. अब तुम्हें जो करना है करो. अगर सोच सको तो शोभाजी के बारे में न सोच कर अपना हित सोचो. शोभाजी का क्या, उन्हें और पेइंगगैस्ट मिल जाएंगे. बेंगलुरु में तो ऐसे बहुत लोग होंगे.’’

सुशांत एकदम चुप था.

‘‘चलो, अब खाना खाते हैं, फिर मुझे मेरी फ्रैंड के यहां छोड़ देना,’’ मनीषा ने बात खत्म की.

‘‘अभी तो तुम रुकोगी?’’

‘‘हां, कल शाम को मिलते हैं, फिर रात को मेरी फ्लाइट है, बस जो कुछ मैं ने कहा है, उस पर विचार करना. अब तक मनीषा ने अपनेआप को काफी संयत कर लिया था. उसे जो कहना था कह दिया. अब सुशांत जो चाहे करे पर वह इतना कमजोर इंसान होगा, इस की उस ने कल्पना नहीं की थी.’’

दूसरे दिन सुशांत सुबह ही उसे लेने आ गया था, ‘‘मैं तो रातभर सो ही नहीं पाया मनीषा, और आज औफिस से मैं ने छुट्टी ले ली है. आज पूरा दिन मैं तुम्हारे साथ ही बिताऊंगा और हां, रात को ही पुणे की पोस्ट के लिए भी मैं ने अप्लाई कर दिया है.’’

उस की बातें सुन कर मनीषा भी आश्चर्यचकित थी.

फिर रास्ते में ही सुशांत ने कहा, ‘‘मैं रातभर तुम्हारी बातों पर ही विचार करता रहा. शायद तुम ठीक ही कह रही हो. मैं आज मां से भी बात करता हूं. शादी की तारीख वही रहने दो…’’

‘‘नहीं सुशांत,’’ मनीषा ने उसे रोक दिया.

‘‘इतनी जल्दी भी नहीं है. तुम खूब सोचो और पुणे जा कर फिर मुझ से बात करना, अभी तो मैं भी शादी की डेट आगे बढ़ा रही हूं. जब तुम अपने भविष्य के बारे में सुनिश्चित हो जाओ, तभी हम बात करेंगे शादी की.’’

‘‘पर मनीषा…मैं…’’

‘‘हां, हम बात तो करते रहेंगे न, आखिर दोस्त तो हम हैं ही. कुछ जरूरत हो तो पूछ लेना मुझ से.’’

पूरा दिन सुशांत के साथ ही गुजरा, एअरपोर्ट पहुंच कर फिर उस ने कहा था, ‘‘तुम मेरा इंतजार तो करोगी न…’’

‘‘हां, क्यों नहीं…’’ कह कर मनीषा हंस पड़ी थी.

प्लेन के टेकऔफ करते ही वह अपनेआप को हलका महसूस कर रही थी. भविष्य में जो भी हो, पर फिलहाल शोभाजी की गिरफ्त से तो उस ने सुशांत को आजाद करा ही दिया.

अपना घर : क्या विजय को हुआ गलती का एहसास  

विजय ने अपना स्कूटर खड़ा किया और कमरे में घुसा. कमरे में शाम का अंधेरा फैला हुआ था. उस ने लाइट औन की. सोफे पर उदास सी बैठी हुई सुरेखा को देखते ही वह चिल्ला कर बोला, ‘‘कौन मर गया है जो अंधेरे में बैठी रो रही हो?’’

विजय की गुस्से भरी आवाज सुनते ही सुरेखा चौंक उठी. उस का मूड खराब था. वह तो विजय के आने का इंतजार कर रही थी कि कब विजय आए और वह अपना गुस्सा उस पर बरसाए क्योंकि आज सुबह औफिस जाते समय विजय ने वादा किया था कि शाम को कहीं घूमने चलेंगे. उस के बाद खरीदारी करेंगे. खाना भी आज होटल में खाएंगे. शाम को 6 बजे से पहले घर पहुंचने का वादा किया था.

4 बजे के बाद सुरेखा ने कई बार विजय के मोबाइल फोन पर बात करनी चाही तो उस का फोन नहीं सुना था. हर बार उस का फोन काट दिया गया था. वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर क्या बात है? जल्दी नहीं आना था तो मना कर देते. बारबार फोन काटने का क्या मतलब?

सुरेखा तो शाम के 5 बजे से ही जाने के लिए तैयार हो गई थी. पता नहीं, औफिस में देर हो रही है या यारदोस्तों के साथ सैरसपाटा हो रहा है. बस, उस का मूड खराब होने लगा था. उसे कमरे की लाइट औन करना भी ध्यान नहीं रहा.

सुरेखा ने विजय की ओर देखा. विजय का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी में आज वह पहली बार विजय को इतने गुस्से में देख रही थी.

सुरेखा अपना गुस्सा भूल कर हैरान सी बोल उठी, ‘‘यह क्या कह रहे हो? मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हूं. तुम्हारा फोन मिलाया तो हर बार तुम ने फोन काट दिया. आखिर बात क्या है?’’

‘‘बात तो बहुत बड़ी है. तुम ने मुझे धोखा दिया है. तुम्हारे मातापिता ने मुझे धोखा दिया है.’’

‘‘धोखा… कैसा धोखा?’’ सुरेखा के दिल की धड़कन बढ़ती चली गई.

‘‘तुम्हारे धोखे का मुझे आज पता चल गया है कि तुम शादी से पहले विकास की थी,’’ विजय ने कहा.

यह सुन कर सुरेखा चौंक गई. वह विजय से आंख न मिला पाई और इधरउधर देखने लगी.

‘‘अब तुम चुप क्यों हो गई? शादी को 2 साल होने वाले हैं. इतने दिनों से मैं धोखा खा रहा था. मुझे क्या पता था कि जिस शरीर पर मैं अपना हक समझता था, वह पहले ही कोई पा चुका था और मुझे दी गई उस की जूठन.’’

‘‘नहीं, आप यह गलत कह रहे हो.’’

‘‘क्या तुम विकास से प्यार नहीं करती थी? तुम उस के साथ पता नहीं कहांकहां आतीजाती थी. तुम दोनों को शादी की मंजूरी भी मिल गई थी कि अचानक वह कमबख्त विकास एक हादसे में मर गया. यह सब तो मुझे आज पता चल गया नहीं तो मैं हमेशा धोखे में रहता.’’

यह सुन कर सुरेखा की आंखें भर आईं. वह बोली, ‘‘तुम्हें किसी ने धोखा नहीं दिया है, मेरी किस्मत ने ही मुझे धोखा दिया है जो विकास के साथ ऐसा हो गया था.’’

‘‘तुम ने मुझे अब तक बताया क्यों नहीं?’’

सुरेखा चुप रही.

‘‘अब तुम यहां नहीं रहोगी. मैं तुम जैसी चरित्रहीन और धोखेबाज को अपने घर में नहीं रखूंगा.’’

‘‘विजय, मैं चरित्रहीन नहीं हूं. मेरा यकीन करो.’’

‘‘प्रेमी ही तो मरा है, तुम्हारे मांबाप तो अभी जिंदा हैं. जाओ, वहां दफा हो जाओ. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता. अपने धोखेबाज मांबाप से कह देना कि अपना सामान ले जाएं.’’

सुरेखा सब सहन कर सकती थी, पर अपने मातापिता की बेइज्जती सहना उस के वश से बाहर था. वह एकदम बोल उठी, ‘‘तुम मेरे मम्मीपापा को क्यों गाली देते हो?’’

‘‘वे धोखेबाज नहीं हैं तो उन्होंने क्यों नहीं बताया?’’ कहते हुए विजय ने गालियां दे डालीं.

‘‘ठीक है, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रहूंगी,’’ कहते हुए सुरेखा ने एक बैग में कुछ कपड़े भरे और चुपचाप कमरे से बाहर निकल गई.

सुरेखा रेलवे स्टेशन पर जा पहुंची. रात साढ़े 10 बजे ट्रेन आई.

3 साल पहले एक दिन सुरेखा बाजार में कुछ जरूरी सामान लेने जा रही थी. उस के हाथ में मोबाइल फोन था. तभी एक लड़का उस के हाथ से फोन छीन कर भागने लगा. वह एकदम चिल्लाई ‘पकड़ो… चोरचोर, मेरा मोबाइल…’

बराबर से जाते हुए एक नौजवान ने दौड़ लगाई. वह लड़का मोबाइल फेंक कर भाग गया था. जब उस नौजवान ने मोबाइल लौटाया, तो सुरेखा ने मुसकरा कर धन्यवाद कहा था.

वह युवक विकास ही था जिस के साथ पता नहीं कब सुरेखा प्यार के रास्ते पर चल दी थी.

एक दिन सुरेखा ने मम्मी से कह दिया था कि विकास उस से शादी करने को तैयार है. विकास के मम्मीपापा भी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए हैं.

पर उस दिन अचानक सुरेखा के सपनों का महल रेत के घरौंदे की तरह ढह गया जब उसे यह पता चला कि मोटरसाइकिल पर जाते समय एक ट्रक से कुचल जाने पर विकास की मौत हो गई है.

सुरेखा कई महीने तक दुख के सागर में डूबी रही. उस दिन पापा ने बताया था कि एक बहुत अच्छा लड़का विजय मिल गया है. वह प्राइवेट नौकरी करता है.

सुरेखा की विजय से शादी हो गई. एक रात विजय ने कहा था, ‘तुम बहुत खूबसूरत हो सुरेखा. मुझे तुम जैसी ही घरेलू व खूबसूरत पत्नी चाहिए थी. मेरे सपने सच हुए.’

जब कभी सुरेखा विजय की बांहों में होती तो अचानक ही एक विचार से कांप उठती थी कि अगर किसी दिन विजय को विकास के बारे में पता चल गया तो क्या होगा? क्या विजय उसे माफ कर देगा. नहीं, विजय कभी उसे माफ नहीं करेगा क्योंकि सभी मर्द इस मामले में एकजैसे होते हैं. तब क्या उसे बता देना चाहिए? नहीं, वह खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारे?

आज विजय को पता चल गया और जिस बात का उसे डर था, वही हुआ. पर वह शक, नफरत और अनदेखी के बीच कैसे रह सकती थी?

सुबह सुरेखा मम्मीपापा के पास जा पहुंची थी.

सुरेखा के कमरे से निकल जाने के बाद भी विजय का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था. वह सोफे पर पसर गया. धोखेबाज… न जाने खुद को क्या समझती है वह? अच्छा हुआ आज पता चल गया, नहीं तो पता नहीं कब तक उसे धोखे में ही रखा जाता?

2-3 दिन में ही पासपड़ोस में सभी को पता चल गया. काम वाली बाई कमला ने साफसाफ कह दिया, ‘‘देखो बाबूजी, अब मैं काम नहीं करूंगी. जिस घर में औरत नहीं होती, वहां मैं काम नहीं करती. आप मेरा हिसाब कर दो.’’

विजय ने कमला को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, काम न छोड़ो, 100-200 रुपए और बढ़ा लेना.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मेरी भी मजबूरी है. मैं यहां काम नहीं करूंगी.’’

‘‘जब तक दूसरी काम वाली न मिले, तब तक तो काम कर लेना कमला.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं एक दिन भी काम नहीं करूंगी,’’ कह कर कमला चली गई.

4-5 दिन तक कोई भी काम वाली बाई न मिली तो विजय के सामने बहुत बड़ी परेशानी खड़ी हो गई. सुबह घर व बरतनों की सफाई, शाम को औफिस से थका सा वापस लौटता तो पलंग पर लेट जाता. उसे खाना बनाना नहीं आता था. कभी बाजार में खा लेता. दिन तो जैसेतैसे कट जाता, पर बिस्तर पर लेट कर जब सोने की कोशिश करता तो नींद आंखों से बहुत दूर हो जाती. सुरेखा की याद आते ही गुस्सा व नफरत बढ़ जाती.

रात को देर तक नींद न आने के चलते विजय ने शराब के नशे में डूब

कर सुरेखा को भुलाना चाहा. वह जितना सुरेखा को भुलाना चाहता, वह उतनी ज्यादा याद आती.

एक रात विजय ने शराब के नशे में मदहोश हो कर सुरेखा का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, ‘‘तुम ने मुझे जो धोखा दिया है, उस की सजा जल्दी ही मिलेगी. मुझे तुम से और तुम्हारे परिवार से नफरत है. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा. मुझे नहीं चाहिए एक चरित्रहीन और धोखेबाज पत्नी. अब तुम सारी उम्र विकास के गम में रोती रहना.’’

उधर से कोई जवाब नहीं मिला.

‘‘सुन रही हो या बहरी हो गई हो?’’ विजय ने नशे में बहकते हुए कहा.

‘यह क्या आप ने शराब पी रखी है?’ वहां से आवाज आई.

‘‘हां, पी रखी है. मैं रोज पीता हूं. मेरी मरजी है. तू कौन होती है मुझ से पूछने वाली? धोखेबाज कहीं की.’’

उधर से फोन बंद हो गया.

विजय ने फोन एक तरफ फेंक दिया और देर तक बड़बड़ाता रहा.

औफिस और पासपड़ोस के कुछ साथियों ने विजय को समझाया कि शराब के नशे में डूब कर अपनी जिंदगी बरबाद मत करो. इस परेशानी का हल शराब नहीं है, पर विजय पर कोई असर नहीं पड़ा. वह शराब के नशे में डूबता चला गया.

एक शाम विजय घर पर ही शराब पीने की तैयारी कर रहा था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. विजय ने बुरा सा मुंह बना कर कहा, ‘‘इस समय कौन आ गया मेरा मूड खराब करने को?’’

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विजय ने उठ कर दरवाजा खोला तो चौंक उठा. सामने उस का पुराना दोस्त अनिल अपनी पत्नी सीमा के साथ था.

‘‘आओ अनिल, अरे यार, आज इधर का रास्ता कैसे भूल गए? सीधे दिल्ली से आ रहे हो क्या?’’ विजय न%

भागी हुई लड़की : छबीली के साथ क्या हुआ

सुबह का समय था. राजू सोया पड़ा था कि तभी किसी ने उसे झकझोर कर उठाया. सामने उस की मामी खड़ी थीं. मामी ने हांफते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है कि रात को छबीली घूरे के साले के साथ भाग गई.’’

राजू ने आंखें मिचमिचा कर देखा कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रहा है. उस ने मामी से पूछा, ‘‘आप को किस ने बताया?’’ मामी बोलीं, ‘‘कौन बताएगा… पूरे गांव को पता चल गया है.’’

राजू को हैरानी हो रही थी. जब रात को वह अपनी मौसी के देवर के छत वाले कमरे में था, तो छबीली घूरे के साले कलुआ के साथ इधर से उधर भाग रही थी. तब उस ने सोचा था कि कोई काम होगा, क्योंकि गांव में रामलीला चल रही थी. उस में छबीली के पिता रावण का रोल करते थे और भाई मेघनाद का. सारा घर रामलीला देख रहा था. इतने में छबीली कलुआ के साथ नौ दो ग्यारह हो गई. लेकिन राजू की समझ में एक बात नहीं आ रही थी कि छबीली ने कलुआ में ऐसा क्या देखा, जो उस कालेकलूटे के साथ भाग गई.

छबीली गोरीचिट्टी, भरे बदन की थी. उसे देख कर कोई भी लड़का दिल दे बैठे. गोरे मुखड़े पर काली आंखें, गालों पर काला तिल, लंबी नाक उस पर गोल नथुनी. सुनहरे से बाल, जो कमर को छूते थे. फिर छबीली कलुआ के साथ क्यों भागी? राजू फटाफट बिस्तर से उठा. छबीली और कलुआ के घर गली

में थोड़ी दूरी पर थे, जो जहां हिंदुस्तानपाकिस्तान के बौर्डर जैसे हालात थे. कलुआ की बहन काली और छबीली की मां रामजनी के बीच शब्दों के गोले दागे जा रहे थे. काली कह रही थी, ‘‘अपनी बेटी को संभालो, तब मेरे भाई से कुछ कहना. जब लड़की दावत बांटती फिरे, तो लड़के खाएंगे ही. बड़ी आई कलुआ को बदनाम करने वाली.’’

इधर रामजनी का कहना था, ‘‘मेरी लड़की सीधीसादी है. उसे तो कलुआ ने बहका दिया होगा, वरना इतनी संस्कारी लड़की भाग क्यों जाती?’’ राजू को रामजनी की बात में दम लगा, क्योंकि छबीली को देख कर नहीं लगता था कि वह ऐसा कुछ कर डालेगी.

राजू तो पहले से ही गुस्सा था, ऊपर से छबीली रिश्ते में उस की मौसी लगती थी. राजू को कलुआ पर ज्यादा गुस्सा था, इस वजह से वह छबीली के घर वालों के गुट में जा मिला.

राजू ने छबीली के पिता को बताया कि रात को उस ने छबीली मौसी को कलुआ के साथ छत पर इधरउधर भागते हुए देखा था. छबीली का बाप मलूका पहले तो राजू पर गुस्सा हुआ, फिर बोला, ‘‘तू रात में नहीं बता सकता था? अगर रात में बता देता, तो इतनी नौबत ही न आती.’’

राजू बोला, ‘‘मुझे क्या पता था कि छबीली मौसी यह धमाका कर जाएंगी.’’ राजू को पता था कि कलुआ उस को उलटा पीट डालता, लेकिन मलूका की नजरों में इज्जत पाने के लिए उस ने ऐसा कहा था और ऐसा हुआ भी.

मलूका नरम पड़ कर राजू से बोला, ‘‘अच्छा, जो हुआ उसे छोड़. अब यह बता कि कलुआ छबीली को ले कर कहां गया होगा?’’ राजू ने तुक्का लगाते हुए कहा, ‘‘मैं ने सुना था कि वह किसी दोस्त के यहां जाने की बात कर रहा था.’’

लेकिन एक बात फिर भी आ लटकी कि कलुआ कौन से दोस्त के यहां गया होगा और दोस्त रहता कहां होगा? अब राजू इस बात पर अपना तुक्का नहीं लगा सकता था. इस वजह से वह चुप रहा.

सब लोग गाड़ी में बैठ कर कलुआ के गांव पहुंचे. वहां से कलुआ के एक दोस्त को पकड़ा, उसे दारू पिलाई, डरायाधमकाया, तब जा कर उस ने दोस्तों की डायरैक्टरी बता दी और घुमाने लगा दोस्तों के ठिकाने पर. एक जगह जा कर कलुआ का पता चला. एक दोस्त के कमरे में कलुआ छिपा बैठा था. छबीली उस की गोद में सिर रखे लेटी थी. दोनों अपनेअपने घर के लोगों की हालत पर सोच के घोड़े दौड़ा रहे थे. छबीली कह रही थी, ‘‘मेरी अम्मां तो मुझे सामने पा कर दो हिस्से कर डालेंगी.’’

वहीं उस की बात सुन कर कलुआ बोला, ‘‘मेरा जीजा मुझे देखे तो मेरा मुंह काले से लाल कर डालेगा.’’ तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई. दोनों बिजली के करंट लगे आदमी की तरह उठ खड़े हुए.

बाहर से आवाज आई, ‘‘दरवाजा खोलो.’’ आवाज मलूका की थी, जिसे दोनों प्यार के पंछी अच्छे से समझ गए थे.

मलूका फिर बोला, ‘‘दरवाजा खोल दो, नहीं तो तोड़ डालूंगा.’’ यह सुन कर दोनों प्रेमियों के दिल कांप उठे और फिर तभी छबीली की आंखों में गुस्से की आग जल उठी. उस ने कलुआ के दोस्त का रखा देशी कट्टा निकाल लिया और कलुआ को अपने पीछे कर दरवाजा

खोल दिया. लोग कमरे में घुसने ही वाले थे कि छबीली कट्टा तान कर बोली, ‘‘सब के सब भाग जाओ, नहीं तो जान से हाथ धो बैठोगे.’’

लोगों ने यह बात सुन कर अपने कदम पीछे खींच लिए, तभी छबीली का भाई गोबर आगे बढ़ा. उस ने सोचा कि इज्जत जाने से अच्छा है जान चली जाए. वह छबीली के सामने आ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘चला गोली…’’ छबीली पर आज इश्क का भूत सवार था. उस ने कट्टे का निशाना गोबर के सीने पर लगाया और ट्रिगर दबा दिया. जैसे ही ट्रिगर दबा, लोगों ने आंखें बंद कर लीं. लेकिन यह क्या… कट्टे से गोली चली ही नहीं. होती जो चलती.

मलूका ने आगे बढ़ कर छबीली के बाल पकड़ लिए और कमरे से घसीटते हुए बाहर ले आया. कलुआ की हालत पतली हुई. गोबर ने गुस्से में आ कर कलुआ के लातें बजा दीं. लोगों ने गोबर को समझाया कि यह मर गया, तो केस हो जाएगा. लड़की मिल गई, चलो अपने घर.

सभी लोग छबीली को ले घर आ गए. छबीली को देख उस की मां रामजनी उसे चप्पल से पीटने लगीं. महल्ले की औरतों ने जैसेतैसे छबीली को छुड़ाया. सब के शांत हो जाने के बाद तय हुआ कि छबीली की शादी तुरंत कर दी जाए. सारे रिश्तेदारों को खबर कर दी गई. लेकिन मुसीबत कहां थमने वाली थी. कोई भी अच्छा लड़का उस से शादी करने को तैयार नहीं होता था.

लेकिन तभी एक रिश्तेदार ने खबर दी कि उन के महल्ले में एक लड़का है, जो छबीली से शादी कर सकता है. लेकिन लड़का मोटा था, साथ ही छबीली से ज्यादा उम्र का था. पर शादी तो करनी ही थी, दामन पर लगा दाग जो छुड़ाना था. बात पक्की हो गई. बड़ी मुश्किल से छबीली की शादी की रस्में पूरी हुईं. वह चुपचाप मंडप में बैठी रही. उसे शादी में मजा नहीं आ रहा था. उस की आंखें तो सिर्फ कलुआ की सूरत देखना चाहती थीं.

शादी निबट चुकी थी. छबीली विदा होने को हुई, मां रामजनी का दिल भर आया. दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं. मां रामजनी ने कसम दी और बोलीं, ‘‘बेटी, अब जैसा भी है, मंजूर करो. पुरानी बातें गलती समझ कर भुला डालो. शायद तुम्हारी शादी अच्छी जगह करते, लेकिन तुम्हें जमाने का हाल तो पता ही है. हम मजबूर हैं. हमें माफ करना. अब किसी को शिकायत का मौका न देना.’’

छबीली बोली, ‘‘मां, तुम्हें कभी दुख न दूंगी. अब ससुराल से केवल मर के ही वापस आऊंगी. तुम मेरी चिंता मत करना. भूल जाओ और मेरा कहासुना भी माफ करना.’’ मन के सारे दाग धुल चुके थे. राजू की आंखें भी नम थीं. सोचता था कि प्यार इनसान को कितना सुधार देता है और बिगाड़ भी सकता है. छबीली के बाप मलूका की आंखें भी बेटी को विदा होते देख नम थीं.

छबीली अपनी ससुराल चली गई. कलुआ फिर कभी उस गांव में नहीं आया. छबीली भी शायद उसे भूलती जा रही थी. आज वह एक बच्चे की मां थी. आज सबकुछ शांत सा है, जैसे कुछ हुआ ही न हो. लेकिन इतिहास की कई परतें, कई कहानियां लिए मौजूद हैं, लेकिन उन्हें कुरेदे कौन. सब अपने में मसरूफ हैं. परंतु राजू के दिमाग में यह अभी भी वैसा ही है, जैसा तब था.

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