Short Story : आजादी – झंडा फहराना कैसे बन गया गले की फांस

शंकर बाबू आटोरिकशा से उतर कर कारखाने की ओर जा ही रहे थे कि 2 सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘थाने चलो, थानेदार ने बुलाया है.’’

दूसरा बोला, ‘‘अब तक कहां थे? 3 दिनों से हम तुम्हें ढूंढ़ रहे हैं.’’

हैरानपरेशान शंकर बाबू आसपास देखने लगे. तब तक कारखाने के कुछ मुलाजिम पास आ गए और वे उन्हें ऐसे देखने लगे, मानो वे शातिर अपराधी हों.

शंकर बाबू उस कारखाने के माने हुए मजदूर नेता थे. इस लिहाज से उन्होंने सिपाहियों पर रोब जमाना चाहा, ‘‘आखिर मेरा कुसूर क्या है?’’

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‘‘थाने पहुंच कर जान लेना.’’

‘‘नहीं, बिना कुसूर जाने मैं तुम लोगों के साथ नहीं चल सकता.’’

इस पर एक सिपाही ने खास पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘‘चलते हो या लगाऊं एक…’’

यह सुनते ही शंकर बाबू का दिमाग चकरा गया. वे तुरंत सिपाहियों के साथ चलने को तैयार हो गए.

थानेदार के आगे शंकर बाबू को पेश करते हुए एक सिपाही ने कहा, ‘‘‘साहब, यही हैं शंकर बाबू. बड़ी मुश्किल से पकड़ कर लाए हैं. ये आ ही नहीं रहे थे, संभालिए जनाब.’’

इतना कह कर सिपाही ने शंकर बाबू को बेजबान जानवर की तरह थानेदार की ओर धकेल दिया.

शंकर बाबू को बहुत गुस्सा आया, मगर वे गुस्से को दबाते हुए थोड़ी तीखी आवाज में थानेदार से बोले, ‘‘मुझे क्यों पकड़ा गया है? मेरा कुसूर क्या है? मैं शहर का एक इज्जतदार आदमी आदमी हूं. मैं…’’

‘‘अरे छोड़ो इज्जतदार और बेइज्जतदार की बातें. यह बताओ कि 15 अगस्त को झंडा फहरा कर तुम कहां गुम हो गए थे? जानते हो कि कितना बड़ा राष्ट्रीय अपराध किया है तुम ने?’’

शंकर बाबू का सिर चकराने लगा, ‘‘राष्ट्रीय अपराध? क्या झंडा फहराना राष्ट्रीय अपराध है? नहींनहीं, यह तो मेरा मौलिक अधिकार है. जरूर कहीं कुछ गलतफहमी हुई है…’’ शंकर बाबू ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘मैं कहीं भी किसी वजह से जाऊं, क्या मुझे आप को बता कर जाना पड़ेगा? पहले साफसाफ मेरा अपराध बताइए.’’

शंकर बाबू का गुस्सा खुद पर ही भारी पड़ रहा था. थानेदार ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘‘अपनी आवाज नीची कर, वरना… एक तो अपराध करता है ऊपर से गरजता भी है. यानी चोरी और सीनाजोरी, वह भी मुझ से… थानेदार जालिम सिंह से? जिस से बड़ेबड़े गुंडेबदमाश थरथर कांपते हैं.’’

शायद जिंदगी में आज पहली बार शंकर बाबू का पुलिस के साथ सामना हुआ था. वे इस पुलिसिया अंदाज से सकपका गए थे. उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिए, आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं तो एक पढ़ालिखा इनसान हूं, मजदूरों की अगुआई करता हूं. हो सकता है कि आप को किसी और शख्स की तलाश हो.’’

थानेदार थोड़ी नीची आवाज में बोला, ‘‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. मिस्टर शंकर, आप मजदूर नेता हैं न? आप ने 15 अगस्त को अपने यूनियन के दफ्तर में एक छोटा सा जलसा किया, झंडा फहराया और चल दिए. उस दिन से आप आज नजर आए हैं. इस समय… शाम के 7 बजे हैं, जबकि झंडा परसों से लगातार लहरा रहा है और आप कह रहे हैं कि अपराध नहीं किया?’’

इतना कह कर थानेदार ने सिपाहियों की ओर मुखातिब हो कर कहा, ‘‘डाल दो इस को लौकअप में.’’

तब तक शंकर बाबू की बीवी इलाके के नेताजी को ले कर थाने पहुंच गई थी. शंकर बाबू को काटो तो खून नहीं. सिपाही मुस्तैद हो गए थे. नेताजी को समय की नजाकत समझते देर नहीं लगी. उन्होंने हलकी मुसकान फैलाते हुए थानेदार से पूछा, ‘‘आखिर माजरा क्या है थानेदार साहब?’’

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थानेदार भावुक होता हुआ बोला, ‘‘अरे साहब, इस ने राष्ट्रीय झंडे का अपमान किया है. यानी देश का, राष्ट्र का अपमान किया है. इसे इतनी भी जानकारी नहीं कि राष्ट्रीय झंडा यदि सुबह फहराया जाता है, तो शाम तक उसे नीचे उतार लिया जाता है.

‘‘इस ने अपने यूनियन के दफ्तर के सामने 15 अगस्त को झंडा फहराया था, जो अभी तक लहरा रहा है. यह भारतीय संविधान के तहत जुर्म है. कानूनी अपराध है.’’

शंकर बाबू को यह जानकारी नहीं थी. उन्होंने विनती भरी आवाज में थानेदार और नेताजी से निवेदन किया, ‘‘साहब, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मुझ से बहुत बड़ी भूल हुई है. आइंदा कभी ऐसा नहीं होगा. मुझे बचा लीजिए.’’

थानेदार ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘हूं, रस्सी भी जल गई और ऐंठन भी चली गई.’’

नेताजी ने हालात को संभालते हुए कहा, ‘‘कानून तो अंधा होता है, मगर शंकर बाबू एक निहायत ही शरीफ आदमी हैं.’’

फिर नेताजी ने संकेत से शंकर बाबू को एक ओर ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘भाई, यह तो राष्ट्र के अपमान का मामला है. बहुत बुरा हुआ, तुम अगर राष्ट्र धर्म निभा नहीं सकते थे, तो झंडा फहराया ही क्यों? यह तो जुर्म नहीं, घोर जुर्म है, इसलिए शेर को शेर की मांद में ही सुलट लो. चांदी के जूते से थानेदार का मुंह सिल दो.’’

शंकर बाबू को लगा कि वे आसमान से गिरे, खजूर में अटके. संभलते हुए उन्होंने लाचारी में हामी भर दी. नेताजी ने इशारे से थानेदार को अपने पास बुला लिया.

थानेदार ने नेताजी का सुझाव मान लिया और शंकर बाबू को यूनियन के दफ्तर जा कर झंडा उतारने का आदेश देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप के यूनियन के दफ्तर के सामने फहराया गया झंडा 15 अगस्त की शाम को ही उतार लिया गया था. जैसा नेताजी कहेंगे, वैसा ही होगा. ये हमारे नेता हैं. हम वही करते हैं, जो ये कहते हैं.’’

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शंकर बाबू को लगा कि थानेदार की कुरसी के पीछे लगी महात्मा गांधी की तसवीर कांप रही है. शर्मिंदा हो रही है कि यह सब क्या है? कानून के रक्षक और राष्ट्र के खेवनहार दोनों ही मिलजुल कर आज झंडा उतारने की फीस वसूल कर के यह कैसा राष्ट्र प्रेम बांट रहे हैं? कैसी है इन की देशभक्ति?

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 1

लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

मौल में पहुंचे ही थे कि मिशिका को उस के फें्रड्स सामने दिख गए और वह मुझे तेजी से बायबाय कह कर उन के साथ हो ली. वह नोएडा के एमिटी कालिज से इंजीनियरिंग कर रही है. उस के सभी मित्रों को अच्छी कैंपस प्लेसमेंट मिल गई थी सो इसी खुशी में उस के ग्रुप के सभी साथी यहां पिज्जा हट में खुशियां मना रहे थे.

नोएडा का यह मशहूर जीआईपी यानी ‘गे्रट इंडिया प्लेस’ मौल युवाओं का पसंदीदा स्थान है. हम गाजियाबाद में रहते हैं. मिशिका अकेले ही रोज गाजियाबाद से कालिज आती है मगर इस तरह पार्टी आदि में जाना हो तो मैं या उस के पापा साथ आते हैं. यों अकेले तैयार हो कर बेटी को घूमनेफिरने जाने देने की हिम्मत नहीं होती. एक तो उस के पापा का जिला जज होना, पता नहीं कितने दुश्मन, कितने दोस्त, दूसरे आएदिन होने वाले हादसे, मैं तो डरी सी ही रहती हूं. क्या करूं? आखिर मां हूं न…

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बच्चे अपने मातापिता की भावनाओं को कहां समझ पाते हैं. उन्हें तो यही लगता है कि हम उन की आजादी पर रोक लगा रहे हैं. कई बार मिशिका भी बड़ी हाइपर हुई है इस बात को ले कर कि ममा, आप ने तो मुझे अभी तक बिलकुल बच्चा बना कर रखा है. अब मैं बड़ी हो गई हूं. अपना ध्यान रख सकती हूं. अब उस नादान को क्या समझाएं कि मातापिता के लिए तो बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. चाहे वे कितने भी बड़े क्यों न हो जाएं.

हां, मेरी तरह शायद जज साहब से वह इतना कुछ नहीं कह पाती. उन की लाडली, सिर चढ़ी जो है. जो बात मनवानी होती है, मनवा ही लेती है. बात तो शायद मैं भी उस की मान ही लेती हूं लेकिन उसे बहुत कुछ समझाबुझा कर, जिस से वह मुझ से खीझ सी जाती है.

अब क्या करूं, जब मुझे इस तरह के आधुनिक तौरतरीके पसंद नहीं आते तो. मैं तो हर बार इसे ही तरजीह देती हूं कि वह अपने पापा के संग ही आए. दोनों बापबेटी के शौकमिजाज एक से हैं. कितनी ही देर मौल में घुमवा लो, दोनों में से कोई पहल नहीं करता घर चलने की. मैं भी कभीकभी बस फंस ही जाती हूं. जैसे आज वह नहीं वक्त निकाल पाए. कोर्ट में कुछ जरूरी काम था.

मैं थोड़ी देर तक यों ही एक दुकान से दूसरी दुकान में टहलती रही. खरीदारी तो वैसे भी मुझे कुछ यहां करनी नहीं होती है. वह तो मैं हमेशा अपने शहर की कुछ चुनिंदा दुकानों से ही करती हूं. सरकारी गाड़ी में अर्दलियों और सिपाहियों के संग रौब से जाओ और बस, रौब से वापस आ जाओ. सामान में कोई कमी हो तो चाहे महीने भर बाद दुकान पर पटक आओ. यहां मौल में, इतनी भीड़ में किस को किस की परवा है, कौन पहचान रहा है कि जज की बीवी शौपिंग कर रही है या कोई और. शायद इतने सालों से इसी माहौल की आदी हो गई हूं और कुछ अच्छा ही नहीं लगता.

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खैर समय तो गुजारना ही था. यों ही बेमतलब घूमते रहने से थकान सी भी होने लगी थी. घड़ी पर नजर डाली तो बस, आधा घंटा ही बीता था. सोचतेविचरते मैं मैकडोनाल्ड की तरफ आ गई. कार्य दिवस होने के बावजूद वहां इतनी भीड़ थी कि बस, लगा कालिज बंक कर के सब बच्चे यहीं आ गए हों. माहौल को देख कर मिशिका का खयाल फिर दिलोदिमाग पर छा गया कि पता नहीं, यह क्या मौलवौल में पार्टी करने का प्रचलन हो गया है. अरे, तसल्ली से घर में मित्रों को बुलाओ, खूब खिलाओपिलाओ, मौजमस्ती करो, कोई मनाही थोड़े ही है.

थोड़ी देर में ही सही, मेरा भी कौफी का नंबर आ ही गया था. कौफी और फ्रेंचफ्राइज ले कर भीड़ से बचतेबचाते मैं एक खाली सीट पर जा कर बैठ गई और अपने चारों तरफ देखती कौफी का सिप भरती जा रही थी.

तभी मेरे पास एक बड़ी स्मार्ट सी महिला आईं और खाली पड़ी सीट की ओर इशारा कर बोलीं, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकती हूं?’’

‘‘हांहां. क्यों नहीं…आप चाहें तो यहां बैठ सकती हैं,’’ इतना कहने के साथ ही मेरी इधरउधर की सोच पर वर्तमान ने बे्रक लगा दिया.

मैं उस संभ्रांत महिला को कौफी पीतेपीते देखती रही. उस ने कांजीवरम की भारी सी साड़ी पहन रखी थी. उसी से मेल खाता खूबसूरत सा कोई नैकलेस डाल रखा था. पर्स भी उस के हाथ में बहुत सुंदर सा था. कुल मिला कर वह हाइसोसाइटी की दिख रही थी.

मुझ से रहा नहीं गया. अटपटा सा लग रहा था कि उस के सामने मैं फे्रंचफ्राइज का मजा अकेले ही ले रही थी और वह सिर्फ कौफी ले कर बैठी थी. संकोच छोड़ मैं ने अपने चिप्स उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अकेले ही शौपिंग हो रही है…’’

अपने होंठों पर हलकी सी हंसी ला कर वह बोलीं, ‘‘शौपिंग नहीं, आज तो अपने बेटे के संग आई हूं. दरअसल, आज बच्चों की गेटटूगेदर है. मेरे पति रिटायर्ड आई.ए.एस. हैं. यहीं सेक्टर 30 में हमारा छोटा सा घर है. पति तो अपनी ताशमंडली में व्यस्त रहते हैं और मैं बस, कभी क्लब, कभी किटी और कभी समाज- सेवा…रिटायर होने के बाद कहीं न कहीं तो अपने को व्यस्त रखना ही पड़ता है न.’’

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‘‘आज मेरा छोटा बेटा समर्थ बोला कि ममा, मेरे संग मौल चलिए, आप को अच्छा लगेगा. सो आज यहां का कार्यक्रम बना लिया,’’ उस ने दोचार फ्रेंचफ्राइज बिना किसी झिझक के उठाते हुए बताया.

हम समझ गए थे कि हमारे बच्चे एक ही ग्रुप में हैं. थोड़ी देर में ही हम सहज हो क र बातें करने लगे. कुछ अपने परिवार के बारे में वह बता रही थीं और कुछ मैं. बीचबीच में हम खानेपीने की चीजें भी मंगाते जा रहे थे. अब किसी के संग रहने से अच्छा लगने लगा था. बातोंबातों में ही पता चला कि उन के 2 बेटे थे. छोटा समर्थ, मिशिका के संग पढ़ रहा था और बड़ा पार्थ इंजीनियरिंग के बाद पिछले साल सिविल सर्विस में सिलेक्ट हो गया था. इस समय लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी, मसूरी में उस की टे्रनिंग चल रही थी.

मैं ने सोचा कि बापबेटा दोनों आईएएस. शुरू में ही मुझे लग गया था कि मेरी तरह यह महिला कोई ऊंची हस्ती है.

उन का बेटा आईएएस है और जल्दी ही वह उस की शादी करने की इच्छुक हैं, यह जान कर तो मेरी रुचि उन में और भी बढ़ गई. मैं तो खुद मिशिका के लिए अच्छा वर ढूंढ़ने की कोशिश में थी और एक आईएएस लड़के को अपना दामाद बनाना तो जैसे मेरे ख्वाबों में ही था.

पार्थ के बारे में जान कर मुझे सबकुछ अच्छा लगा था, लेकिन एक अड़चन थी कि वे कायस्थ थे, हमारी तरह ब्राह्मण नहीं थे जो मेरे लिए तो जमीं और आसमान को मिलाने वाली बात थी. अपनी इकलौती बेटी की गैर जाति में शादी करना मेरी सोच में कहीं दूरदूर तक नहीं था. एक तरह से तो मैं इस तरह के विवाह के बिलकुल खिलाफ थी.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 3

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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

देखते ही देखते हफ्ता निकल गया. पार्टी का दिन भी आ गया. लौन में ही पार्टी का इंतजाम किया था. पहली बार मिशिका ने पार्टी का जिम्मा अपने सिर पर लिया था. बोली, ‘‘ममा, अभी परीक्षा की कोई टेंशन नहीं है, इस बार मैं देखूंगी सारा इंतजाम.’’

सुन कर पहली बार एहसास हुआ कि बेटी बड़ी हो गई है. पार्थ का खयाल एक बार फिर दिमाग में आ गया. मगर मेरी मजबूरी थी कि मैं चाह कर भी यह रिश्ता नहीं कर सकती थी. मुझे इस समय अपनी भतीजी के गुस्से में कहे शब्द याद आ रहे थे.

घर में मेहमान आने शुरू हो गए थे. मैं ने अपनी सोच को दरकिनार करने की कोशिश की और मेहमानों की आवभगत में लग गई. जज साहब के कुछ करीबी जल्दी ही आ गए थे. अत: वह उन्हें पीने व पिलाने में व्यस्त हो गए. मैं और मिशिका मेहमानों के स्वागत में लगे थे. बेटी पर बारबार नजरें जा कर ठहर जातीं क्योंकि आज वाकई वह बहुत सुंदर लग रही थी. अचानक दिल में खयाल आया कि अगर आज की पार्टी में पार्थ उसे देख ले और पसंद कर ले या उस की मम्मी ही मिशिका को अपने बेटे के लिए मांग लें तो…

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अचानक ही वह परिवार आंखों के सामने आ गया. श्रीमती सक्सेना अपने पति व दोनों बेटों के साथ चेहरे पर मुसकान लिए आती दिखाई दीं. समर्थ को तो उस दिन मौल में ही देख लिया था पर पार्थ तो उस से भी चार कदम आगे था. यह लड़का इतना हैंडसम होगा यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. उस पर आईएएस भी. मुझे फिर लगा कि मेरी चाहत मेरी सोच पर हावी हो गई है. फिर से मेरी चाहत जोर पकड़ने लगी कि यह लड़का तो बस, मेरा दामाद हो जाए. तभी नजदीक आ कर दोनों भाइयों ने मेरे और जज साहब के पैर छुए. मन कहीं अंदर तक उन्हें अपना मान गया.

सक्सेना दंपती तो हम बड़ों के ग्रुप में शामिल हो गए और दोनों भाई, मिशिका के फ्रेंड्स ग्रुप में.

पार्टी खूब मजेदार चली. खाना खाने के बाद सभी लोग एकएक कर जाने लगे थे. मगर सक्सेना परिवार अभी जमा हुआ था. मुझे भी उन के जाने की कहां जल्दी थी. मिशिका पार्थ के संग खड़ी कितनी अच्छी लग रही थी. मन में सचमुच ही बहुत मलाल था कि वे कायस्थ हैं.

अब तक करीब सभी मेहमान जा चुके थे. रात के 11 बज चुके थे. 30 अक्तूबर की रात, शरीर में ठंडीठंडी हवा की सिहरन सी हो उठी थी कि मिसेज सक्सेना ने, ‘‘एक कप कौफी हो जाए फिर हम भी चलेंगे,’’ कह कर अभी थोड़ा और रुकने का संकेत दिया.

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‘‘अरे, क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ कहते हुए वेटर को 4 कप कौफी लाने का आर्डर दे दिया.

मिशिका दोनों भाइयों को अभीअभी अंदर ले गई थी. शायद अपना शानदार कमरा दिखा रही हो. लड़कियों को अपना कमरा दिखाने का बहुत क्रेज होता है.

कौफी आ गई थी. हम चारों हंसी मजाक के साथ कौफी का मजा ले रहे थे कि वह हो गया, जो मेरी सोच में तो निरंतर चल रहा था मगर हकीकत में उस का कोई अनुमान नहीं था.

सक्सेना साहब ने विनम्रता से अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘अगर आप लोग हमें दे सकें तो अपनी मिशिका को हमारे पार्थ के लिए दे दीजिए.’’ उन के कहने के साथ ही मिसेज सक्सेना ने भी अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.

मैं तो स्तब्ध, भौचक्की, किंकर्तव्य- विमूढ़ सी रह गई. जज साहब ने मेरी तरफ देखा. दोचार पल यों ही खामोशी में निकल गए फिर जज साहब ने कहा, ‘‘हमें यह रिश्ता मंजूर है. पार्थ हमें भी बहुत पसंद आया है और फिर आप से अच्छा और कौन मिलेगा हमें.’’

जज साहब की हां सुन कर मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस स्थिति में अब मैं क्या करूं? न हां करने की स्थिति में थी और न ही ना करने की. फिर कुछ सोचती सी बोली, ‘‘अरे, मिशिका से भी तो पूछना होगा न…उस की भी राय जानना जरूरी है. आप को तो पता ही है कि आजकल के बच्चे…’’

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मुझे लगा कि चलो, इस बहाने कुछ तो वक्त मिलेगा सोचने का. फिर कुछ सोच कर मना कर देंगे. सही बताऊं तो भैयाभाभी, अंतरा किसी का भी सामना करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी.

मेरी इस बात को सुन कर मिसेज सक्सेना के साथ जज साहब और सक्सेना साहब दोनों हंस पड़े. इस के पहले कि मैं कुछ कह पाती, मिसेज सक्सेना अपनी हंसी रोकती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा, पहले यह तो बताइए, आप तो राजी हैं न…’’

‘‘मैं…मैं तो…हां, और क्या. मुझे तो बहुत खुशी होगी आप से जुड़ कर,’’ मैं इस के अलावा और क्या कह सकती थी. जब जज साहब ने इस की स्वीकृति दे दी. ‘‘मगर मिशिका…’’ मैं ने फिर इस से बचने की कोशिश की.

‘‘अरे, निशिजी, मुझे तो बस, आप की ही इजाजत चाहिए थी. बाकी सब की इजाजत तो पहले से ही है,’’ इस बार सक्सेना साहब ने जिस अंदाज में कहा, मेरा चौंकना लाजिमी था. असमंजस में पड़ी बोली, ‘‘मतलब?’’

‘‘अरे, निशि, तुम्हारी और मिसेज सक्सेना की मुलाकात मौल में इसीलिए तो कराई थी कि आप दोनों में दोस्ती हो जाए, वरना तो मैं भी जा सकता था उस दिन. मैं ने तो कोर्ट में व्यस्त होने का बहाना किया था. हम लोग काफी दिनों से योजना बना रहे थे कि तुम दोनों को कैसे मिलाया जाए. सो इत्तफाक से मिशिका की गेटटूगेदर निकल आई. हालांकि मौल में मिलवाना मुश्किल था, लेकिन बच्चों ने सब मैनेज कर लिया.’’

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जज साहब बोलते जा रहे थे और मैं आंखें फाड़े उन्हें सुने जा रही थी.

‘‘निशि, जब मौल से लौट कर तुम ने पार्थ के बारे में अपनी चाहत बताई तो मुझे लगा कि हमारा तीर निशाने पर लगा है. प्रकट में मैं ने तुम्हारी बात को तूल नहीं दिया था.

‘‘निशि, तुम्हें याद होगा कि 4 साल पहले मैं जब एक सेमिनार में अमेरिका गया था तो वहां उस में सक्सेना साहब भी मिले थे. भारत से जो खास लोग उस सेमिनार में भेजे गए थे, उन को एक ही होटल में ठहराया गया था और सक्सेना साहब का कमरा मेरे बगल में ही था.’’

दोस्ती होना तो लाजिमी ही था न. देखो, तुम्हारी और मिसेज सक्सेना की दोस्ती तो चंद घंटों में ही हो गई, जबकि हम तो पूरे 15 दिन साथ रहे थे. इसी दौरान एक बार मेरी तबीयत भी बिगड़ गई थी तो सक्सेना साहब ने ही मुझे संभाला था और वे सारी बातें यहां आने पर मैं ने तुम को बताई थीं.

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‘‘हांहां, मुझे सब याद है,’’ मैं कुछ खोईखोई सी बोली.

‘‘उन्हीं दिनों हम दोनों, एकदूसरे के बेहद करीब आ गए थे. दोस्ती के उन्हीं लम्हों में हम ने आपस में एक वचन लिया कि समय आने पर मिशिका और पार्थ की शादी कर देंगे. आज पार्थ आई.ए.एस. हो गया है. मगर दोस्ती में किए गए वादे में कहीं कोई कमी नहीं आई है. सक्सेनाजी के पास तो अब कितने अच्छेअच्छे आफर आ रहे होंगे जबकि यह जानते हैं कि मैं ने तो जिंदगी भर शोहरत और इज्जत के अलावा कुछ नहीं कमाया. मेरे पास अपनी मिशिका को उन्हें सौंपने के अलावा और कुछ देने को नहीं है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 2

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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

मुझे हमेशा से ही यह अनुभव होता था कि इस के विपरीत शादियां कभी सुखद और सफल नहीं होतीं. शुरूशुरू में तो सब ठीकठाक चलता है, पर कुछ समय बाद कहीं तलाक होता है, तो कहीं जबरदस्ती रिश्तों को ढोया जाता है. यहां तक कि अपने परिवारों में होने वाली कई इस तरह की शादियों में मैं ने अपना पूरा विरोध जाहिर किया था.

ऐसा नहीं है कि जातिबिरादरी में शादियां कर के किसी तरह की टेंशन नहीं होती है या इस तरह की शादियां टूटती नहीं हैं, फिर भी काफी हद तक इन झमेलों से बचा जा सकता है और मेरे अनुभवों ने मुझे यही सिखाया है कि जब एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं तो यह तो समाज की सोच है जो न कभी एक हुई है और न ही होगी.

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इन सभी बातों में जज साहब और मेरे विचार एक से नहीं हैं तो औरों की क्या कहूं. कई बार उन्होंने अपनी बातों से मुझे भी समझाने की कोशिश की है, मगर मैं कभी इतने बड़े दिल की हो नहीं पाई.

पिछले साल मैं ने अपना यह विरोध अपने भैया पर थोप दिया था. जब उन्होंने बताया कि वह अंतरा यानी मेरी भतीजी की शादी एक ईसाई लड़के से तय कर रहे हैं. दोनों एकदूसरे को जहां बहुत चाहते हैं, वहीं लड़का और उस का परिवार सबकुछ बहुत बढि़या है. हम लोगों को बच्चों की खुशी के अलावा और क्या चाहिए.

तब भैया की बात सुन कर मैं ने बवंडर मचा दिया था. ‘आप ने तो भैया हद ही कर दी. बच्चों की जिदें क्या यों ही आंखें मूंद कर पूरी की जाती हैं? ईसाई लड़के से विवाह करोगे अपनी अंतरा का? चार दिन भी नहीं निभा पाएगी वह इस अलग जाति और धर्म के लड़के के संग… और फिर कर लो जो आप की मर्जी हो, मैं तो इस गलत शादी में आने से रही.’ मेरी बातों के आक्रोश ने भैया को भयभीत कर दिया और उन्होंने यह कह कर उस रिश्ते को टाल दिया कि इकलौती छोटी बहन ही शादी में शरीक नहीं होगी तो दुनिया क्या कहेगी?

उस दिन के बाद से अंतरा न अपने पापा से बात कर रही है और न मुझ से. एक दिन गुस्से में आ कर वह अपनी भड़ास निकाल गई थी, ‘‘बूआ, आप ने मेरा प्यार, मेरी जिंदगी मुझ से छीन ली. हम सब ने हमेशा आप को इतना प्यारसम्मान और स्नेह दिया, उस का यह सिला दिया आप ने. कल को आप को अपनी मिशिका की ऐसे ही किसी लड़के से शादी करनी पड़ी तब मैं देखूंगी कि कैसे आप जाति और धर्म का भेदभाव कर उस का दिल तोड़ पाती हैं.’’

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उस की आंखों में भरे हुए आंसू और अपने लिए नफरत, आज भी मुझे विचलित कर देते हैं. मुझे इस बात का एहसास बाद में हुआ कि वह उस लड़के के प्यार में इतनी दीवानी है कि उस के बिना किसी और से शादी नहीं करेगी. कभीकभी खुद पर भी बहुत गुस्सा आता है कि मैं ने इस कदर क्यों अपनी इच्छा, अपने विचार भैया पर थोपे, फिर सोचती हूं तो लगता है कि आखिर मैं ने गलत ही क्या किया. वह मेरे अपने थे, अगर अपनों को उन की गलती का एहसास करा दिया तो क्या गलत किया? अंतरा मेरी कोई दुश्मन थोड़े ही थी. खुद भैया को भी पता था कि मैं अंतरा से कितना प्यार करती हूं, पर मुझे उस समय जो सही लगा मैं ने वही किया. अब वही बातें मेरे जेहन में आ रही थीं.

मैकडोनाल्ड की उस मुलाकात ने थोड़े ही समय में दोनों मांओं के बीच एक दोस्ती का सा रिश्ता बना दिया था. अपने- अपने मोबाइल नंबर और अतेपते दे कर हम ने विदा ली थी.

रास्ते भर मैं मिशिका से अपनी इस नई बनी दोस्त की बातें करती रही और वह भी अपनी तरहतरह की बातें मुझे बताती रही. उस के दोस्त की मम्मी के संग मैं आज सारे दिन रही और बोर नहीं हुई, इस से मेरी बेटी बहुत संतुष्ट थी. बोली, ‘‘ममा, आज आप बोर नहीं हुईं. नहीं तो पिछली बार की तरह मुझे सारे रास्ते आप के भाषण सुनने पड़ते. चलो, आगे से जब भी ऐसी कोई पार्टी होगी तो मैं आंटी से कहूंगी कि वह भी आप को कंपनी देने आ जाएं. तब तो ठीक रहेगा न मम्मी. मुझे भी टेंशन नहीं रहेगी कि ममा इतनी देर क्या करेंगी.’’ उस की बात सुन कर मैं मुसकरा पड़ी थी.

घर आने के बाद तरोताजा हो कर मैं बैठी ही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा. नंबर देखा तो आज की बनी फें्रड मिसेज सक्सेना का ही था. तुरंत रिसीव किया. ‘‘आप घर पहुंच गईं क्या, मुझे तो आप की बड़ी याद आ रही है. सोच रही हूं कि जल्दी ही किसी रोज गाजियाबाद आ कर आप से मिलूं. आप से मिल कर बातें कर के बहुत अच्छा लगा.’’

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‘‘हां, मैं भी बस, आप के बारे में ही सोच रही थी. कभीकभी किसी से अचानक मिलने पर भी ऐसा नहीं लगता कि हम जिंदगी में पहली बार मिले हैं.’’ मैं ने भी उन की बात का जवाब उन्हीं के अंदाज में दे दिया.

थोड़ी देर तक इसी तरह इधरउधर की बातें होती रहीं. फिर पता नहीं मुझे क्या हुआ कि उन्हें अपने घर अगले सप्ताह होने वाली पार्टी के लिए आमंत्रित कर दिया. मौल में श्रीमती सक्सेना से इसीलिए पार्टी में आने को नहीं कहा था कि जज साहब से पूछ कर कहूंगी पर अब जब उन्होंने यह बताया कि मसूरी से इस रविवार को 5 दिन के लिए पार्थ भी आ रहा है, तो बस, उसे देखने की इच्छा दिल में जाग उठी और बोल बैठी, ‘‘अरे, तो आप सब लोग इस रविवार को हमारे घर आइए न. एक छोटी सी पार्टी रखी है. जज साहब को अच्छा लगेगा.’’

वह भी तुरंत तैयार हो गईं. जैसे आने के लिए बिलकुल तैयार बैठी हों.

शाम को जज साहब कोर्ट से लौटे तो चाय के दौरान मैं ने सबकुछ उन्हें बता दिया और अपने दिल की चाहत भी कह बैठी, ‘‘इतना अच्छा लड़का है. आईएएस है. परिवार भी समझदार और हैसियत वाला है. कायस्थ हैं, क्या ही अच्छा होता कि हमारी तरह वह भी ब्राह्मण होते तो हाथ जोड़ कर उन से मिशिका के लिए उन का पार्थ मांग लेती.’’

मेरे स्वभाव से परिचित जज साहब ने इस बात को जरा भी तूल नहीं दिया. सामान्य भाव से बोले, ‘‘अरे, निशि, जिस रास्ते जाना नहीं, उस बारे में क्या सोचना. जब हम मिशिका के लिए लड़का ढूंढ़ने निकलेंगे तो देखना लड़कों की कोई कमी नहीं आएगी. अभी तो हमारी बेटी का इंजीनियरिंग का ही एक साल बचा है फिर उसे एमबीए भी करना है. अभी कई साल हैं उस की शादी में.’’

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मैं ने भी सोचा कि जज साहब सही तो कह रहे हैं. अपनी जाति में भी लड़कों की कोई कमी थोड़े ही है. अभी ऐसी जल्दी भी क्या है. अंतरा की तरह मिशिका का किसी गैर जाति में अफेयर थोड़े ही है, जो मैं इस विषय में सोचूं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 4

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लेखिका- रेनू ‘अंशुल’

सक्सेना साहब ने जज साहब का हाथ अपने हाथों में ले लिया था और भावविह्वल हो कर बोले, ‘‘ऐसीवैसी कोई बात मत कीजिए जज साहब, नहीं तो मैं उठ कर चला जाऊंगा. जिंदगी में सबकुछ मिल जाता है, मगर दोस्ती, अच्छे लोग, अच्छा परिवार बहुत कम लोगों को मिल पाता है और हम लोग उन्हीं में से एक हैं कि हमें आप मिले हैं.’’

‘‘सुन रही हो निशि. तुम जाति- बिरादरी की बातें करती रहती हो, क्या इन से अच्छा तुम्हें मिशिका के लिए कुछ मिल पाएगा. अच्छे लोग, अच्छे रिश्ते, अच्छे परिवार इन सब से बढ़ कर न धर्म है न जाति है और न ही कुछ और. आज मैं ने बिना तुम्हारी इच्छा जाने इस रिश्ते को हां कर दी है क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं सही काम कर रहा हूं और अदालत में आएदिन परिवारों के टूटनेबिखरने के मामले मैं ने सुने और निबटाए हैं, उन में रिश्ते टूटने की वजह यह शायद ही हो कि उन की जाति अलग थी या धर्म.

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मुझे माफ करना निशि, तुम्हारी बेसिरपैर की बातों के लिए मैं इतना अच्छा रिश्ता नहीं ठुकरा सकता. अच्छा लड़का सोच कर ही पार्थ से मिशिका की शादी की बात खुद तुम्हारे दिमाग में आए इस के लिए ही वह मुलाकात करवाई गई और अब यह पार्टी भी रखी गई ताकि इस ड्रामे का सुखद अंत कर दिया जाए.’’

पत्नी को काफी कुछ कह कर अंत में जज साहब ने उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मेरे खयाल से अब तुम्हें भी समझ जाना चाहिए कि तुम्हारी सोच बहुत संकीर्ण थी. वक्त और जमाने से हट कर थी. तुम्हारे भैया तुम्हारी बात सुन कर अपनी बेटी का जीवन बिगाड़ सकते हैं, पर मैं नहीं.’’

सभी अपनीअपनी बात कह चुके थे. मिशिका और पार्थ भी अपनी स्वीकृति दे चुके थे. अब मेरी बारी थी सो मैं ने भी हाथ जोड़ कर इस रिश्ते को अपनी स्वीकृति दे दी. मिसेज सक्सेना ने उठ कर मुझे गले लगाते हुए कहा, ‘‘बधाई हो निशिजी. सबकुछ कितनी जल्दी हो गया न. अभीअभी तो हम दोस्त बने थे और अभीअभी समधिनें. उन्होंने अपने गले में पहना एक जड़ाऊ हार उतार कर तुरंत मिशिका को पहनाते हुए कहा, ‘‘आज से तुम्हारी एक नहीं, दोदो मांएं हैं.’’

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सबकुछ बहुत अच्छा लग रहा था मगर दिल में कहीं एक डर और चिंता थी, जो मुझे खुल कर खुश नहीं होने दे रही थी. क्या करूंगी, कैसे जाऊंगी भैयाभाभी के सामने. यह सोचसोच कर ही मेरी जान सूखी जा रही थी. सभी थक कर सो गए थे, मगर मेरे मन का डर और अपराधभाव मुझे सोने ही नहीं दे रहा था.

अगली सुबह काफी देर से आंखें खुल पाईं. पता नहीं कितने बजे नींद आई थी. घड़ी पर नजर पड़ी तो पूरे 10 बज रहे थे. जज साहब के कोर्ट जाने की बात दिमाग में आते ही मैं तेजी से उठी कि भाभी ने चाय के प्याले के साथ कमरे में प्रवेश किया और हंसती हुई बोलीं, ‘‘क्या निशि, इतनी बड़ी खुशखबरी है और तुम सो रही हो अब तक?’’

जिस बात के लिए मैं अब तक इतनी परेशान थी, वह इतनी आसानी से सुलझ जाएगी, मैं ने सोचा भी न था. मुझे तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.

मुझे हैरान देख भाभी बोलीं, ‘‘सुबहसुबह ही ननदोईजी का फोन आ गया और फोन पर उन्होंने जब रिश्ता तय होने की बात बताई तो हम से रहा नहीं गया और आप की खुशी में खुशी मनाने चले आए. अपने जीजाजी को देखने के लिए अंतरा भी बेचैन हो रही है, शाम को वह भी यहीं आएगी. सक्सेना परिवार को भी बुला लिया है, आज का डिनर मामामामी की तरफ से शहर के सब से अच्छे होटल में…’’ भाभी बोले जा रही थीं.

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मैं हैरत में पड़ी भाभी का चेहरा पढ़ने में लगी थी. मगर वहां स्नेह व प्यार के अलावा और कुछ भी नहीं था. मेरे इतना बड़ा दुख देने के बावजूद भाभी का यह व्यवहार…कुछ समझ में नहीं आया तो मैं भाभी से लिपट कर जोरजोर से रो पड़ी.

‘‘भाभी, मैं इस लायक कहां कि आप मुझे इतना प्यार दें. मैं ने आप लोगों को अपनी गलत सोच की वजह से इतना दुख पहुंचाया, मैं तो आप को अपना मुंह भी दिखाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी. मैं कितनी बुरी हूं भाभी, कितनी बुरी…’’ मेरा रुदन तेज हुआ जा रहा था और भाभी मेरी पीठ सहलाए जा रही थीं.

‘‘मत रो निशि, मत रो. अब वह भी तुम्हारा हम से अगाध प्रेम ही तो था, वरना किसी को क्या पड़ी है, अच्छा हो या बुरा हो. तुम्हें गलत लगा, इसीलिए तुम ने रोका और हमें तुम्हारी बात सही लगी इसीलिए हम ने उसे मान लिया.’’

‘‘तुम्हारी भाभी बिलकुल सही कह रही हैं निशि. जो हो गया उसे भूल जा, और दिल खोल कर आने वाली खुशियों का इंतजार कर.’’ तभी कमरे में जज साहब के संग भैया आतेआते बोले, ‘‘मेरे मन का बोझ इतनी सहजता से उतर जाएगा, सोचा नहीं था,’’ मैं ने कृतज्ञता से जज साहब को देखा जिन्होंने अपनी समझदारी से इतनी बड़ी खुशी मुझे दे दी थी. उन्होंने मेरी आंखें पढ़ लीं और मुसकरा दिए.

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‘‘मगर अभी तो अंतरा का दुख है मेरे सामने. वह तो बहुत नाराज है अपनी बूआ से. उसे कैसे वापस पा सकूंगी मैं?’’

‘‘अरे, अपने बच्चे छोटेछोटे हैं. ज्यादा देर तक अपने बड़ों से नाराज नहीं रहते. मैं ने उसे समझाया है निशि, उस के मन में तुम्हारे लिए कोई गुस्सा नहीं है.’’ भैया बोले तो साथसाथ भाभी भी बोल पड़ीं, ‘‘और अभी सुबहसुबह ही तो फूफाजी से उस की ढेरों बातें हुई हैं और फूफाजी ने उस से वादा किया है कि अब चाहे उस की बूआ कुछ भी कहें, वह अपनी अंतरा की शादी उसी के संग कराएंगे जिसे वह पसंद करती है. पहले चर्च में अंतरा की उस ईसाई लड़के से शादी होगी, फिर मिशिका की मंडप के नीचे. बच्चे जितनी जल्दी गुस्सा हो जाते हैं, उतनी ही जल्दी मान भी जाते हैं निशि.’’

भाभी अपनी बात कह चुकीं तो मैं ने खुश हो कर तुरंत कहा, ‘‘और अब सब से पहले तैयार हो कर हम लोग वहां चलेंगे. मुझे भी तो अपने दूसरे दामाद को शाम के डिनर के लिए आमंत्रित करना है. उन से भी तो माफी मांगनी है, इस बुरी बूआ को.’’

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तुम्हारा इंतजार था

अभय अपनी यूरोप यात्रा के दौरान वेनिस गया हुआ था. वेनिस में सड़कें पानी की होती हैं, मतलब एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए कार नहीं, लांच नावों से जाना पड़ता है. वह मुरानो ग्लास फैक्टरी देखने गया था. वे लोग लाइव शो दिखाते हैं यानी ग्लास को पिघला कर कैसे उसे विभिन्न शक्लों में ढाला जाता है. अभी शो शुरू होने में कुछ वक्त बाकी था, सो, वह बाहर एक पेड़ की छाया में बैठ कर वेनिस की सुंदरता देख रहा था. ग्रैंड कैनाल में सैलानी वेनिस की विशेष नाव ‘गोंडोला’ और अभय मन ही मन सोच रहा था कि वेनिस बनाने वाले के दिमाग की दाद देनी होगी.

जुलाई का महीना था, काफी गरमी थी. तभी एक इंडियन लड़की आ कर उस के बगल में बैठ गई.

उस ने अभय से कहा, ‘‘हाय, मुझे लग रहा है कि आप इंडिया से हैं?’’

‘‘हां, मैं इंडियन हूं,’’ बोल कर अभय ने उस लड़की को एक बार गौर से ऊपर से नीचे तक देखा. मन ही मन सोच रहा था श्यामल वर्ण में भी इतना आकर्षण.

‘‘मैं, एल्मा. मैं केरल से हूं. वेनिस घूमने आई हूं,’’ लड़की बोली.

‘‘और मैं, अभय. बनारस से हूं. मैं भी एक टूर पैकेज पर आया हूं.’’

फिर एल्मा ही ने हाथ बढ़ाया और हैंड शेक कर कहा, ‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई.’’

‘‘मुझे भी. पर न जाने क्यों लग रहा है कि आप को पहले भी कहीं देखा है.’’

तब तक शो का समय हो गया था और दोनों फैक्टरी के अंदर चले गए. इस के बाद दोनों साथसाथ ही फैक्टरी घूमे. फैक्टरी से निकल कर दोनों ने फैक्टरी से जुड़ा भव्य शोरूम देखा. एक से बढ़ कर एक शीशे की कलाकृतियां और घरेलू उपयोग के सामान थे. उन्हें वहां खरीदा जा सकता था या और्डर देने पर वे लोग दिए पते पर इंश्योर्ड पार्सल कर देते थे. पर दोनों में किसी ने भी कुछ नहीं खरीदा था.

अभय ने पूछा, ‘‘क्या तुम अकेले यहां आई हो?’’

‘‘नहीं, मेरी सहेली भी साथ में है. हम तो यहां 3 दिनों से हैं. आज उस की तबीयत ठीक नहीं है तो वह नहीं निकल सकी. अब मैं यहां से सीधे होटल जाऊंगी उसी के पास.’’  एल्मा ने जवाब दिया और ‘‘ओके, बाय’’ बोल कर चली गई.

अगले दिन को वह वैटिकन सिटी में था. यह अत्यंत छोटा सा शहर जिसे एक स्वतंत्र देश का दरजा प्राप्त है और विश्वविख्यात है. यह विश्व का सब से छोटा देश है. यहीं पोप का मुख्यालय भी है. यह रोम शहर के अंदर ही दीवारों से घिरा एन्क्लेव (अंत:क्षेत्र) है. एक आइसक्रीम की दुकान पर खड़ेखड़े आइसक्रीम खा रहा था, तभी एल्मा भी वहां आ गई थी.

अभय ने कहा, ‘‘हाय एल्मा, क्या सुखद आश्चर्य है. आज फिर हम मिल गए. पर तुम आज भी अकेली हो? तुम्हारी सहेली कहां रह गई?’’

‘‘तुम ने इंडिया की न्यूज सुनी? कल मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट हुए हैं.

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2 सौ से ज्यादा लोग मरे हैं और सैकड़ों घायल हैं. घायलों में मेरी सहेली का भाई भी था. वह रोम चली गई है. वहां से सीधे मुंबई जाएगी.’’

‘‘ओह, हाउ सैड. पता नहीं हमारे देश को किस की नजर लग गई है. खैर, तुम वैटिकन घूम चुकी हो?’’

‘‘नहीं, अभी सेंट पीटर बैसिलिक बाकी है.’’

‘‘ओह, तुम क्रिश्चियन हो?’’ अभय ने पूछा.

‘‘हां,’’ बोली एल्मा.

‘‘पर एल्मा, मुझे क्यों बारबार लग रहा है कि पहले भी तुम्हें देख चुका हूं. एक बार से ज्यादा ही. तुम केरल में कहां रहती हो?’’

‘‘केरल मेरा नेटिव स्टेट है. पर स्कूलिंग के बाद वहां नहीं रही. मैं हैदराबाद चली आई.’’

अभय चौंक कर बोला ‘‘हैदराबाद.’’

‘‘क्यों? इस में चौंकने वाली क्या बात है? मैं ने वहीं माधापुर के नैशनल फैशन इंस्टिट्यूट से फैशन टैक्नोलौजी का कोर्स किया है और वहीं रेडीमेड कपड़े बनाने वाली कंपनी में काम भी करती हूं.’’

‘‘तभी मुझे बारबार लग रहा है कि मैं ने तुम्हें देखा है. मैं भी वहीं माधापुर के साइबर टावर्स में स्थित ओरेकल कंपनी में काम करता हूं.’’

‘‘चलो, अच्छा है, कोई परदेस में बिलकुल अपने शहर का आदमी मिलता है तो बहुत खुशी होती है.’’

अभय को तब तक कुछ याद आया तो कहा, ‘‘अब मैं बता सकता हूं कि तुम्हें मैं ने पहले कहां देखा है. वहां कोंडापुर के एक रैस्टोरैंट में जो हर संडे को 99 रुपए में बुफे ब्रेकफास्ट देता है.’’

‘‘सही कहा है तुम ने. मैं तो कोशिश करती हूं हर संडे वहां जाने की और 99 रुपए में ब्रंच (नाश्ता और दोपहर का मिलाजुला भोजन) कर लेती हूं. नाश्ते के नाम पर जीभर के जितना खानापीना हो सिर्फ 99 रुपए में हो जाता है,’’ एल्मा बोली, और हंस कर आगे कहा, ‘‘लड़कों का काम ही यही है. जहां मौका मिला, नजरें चुरा कर लड़कियों को देखने लगते हैं. डोंट माइंड, मजाक कर रही थी.’’

‘‘वैटिकन के बाद तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘मैं तो यहां से इंगलैंड होते हुए इंडिया जा रही हूं. और तुम?’’

‘‘मैं तो यहां से सीधे वापस इंडिया जाऊंगा.’’

लेकिन एल्मा को अब बैसिलिक रोमन विशेषाधिकार प्राप्त चर्च देखने जाना था. वह जातेजाते बोली, ‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. जब दोनों हैदराबाद में ही हैं तो कभी मिल भी सकते हैं. अपना खयाल रखना.’’

‘‘एक मिनट रुको, हैदराबाद में मिलने के लिए यह रख लो,’’ बोलते हुए उस ने अपना कार्ड एल्मा को दे दिया. एल्मा ने भी पर्स से अपना एक कार्ड निकाल कर अभय को दे दिया. इस के बाद दोनों ने एकदूसरे को बाय किया.

कुछ दिनों के बाद दोनों हैदराबाद में थे. एक दिन अभय ने एल्मा से फोन कर के पूछा, ‘‘संडे को क्या प्रोग्राम है? रैस्टोरैंट में ब्रंच के लिए आ रही हो?’’

‘‘वह तो आना ही है. वरना 99 रुपए में भरपेट नाश्ता और खाना दोनों कहीं नहीं मिलेगा. वह भी क्वालिटी फूड.’’

‘‘चलो, तो फिर वहीं मिलते हैं.’’

संडे को दोनों उसी रैस्टोरैंट में मिले. दोनों अपनेअपने दोस्त व रूममेट के साथ गए थे. एल्मा ने अपनी सहेली निशा से दोनों का परिचय कराया. अभय ने भी अपने दोस्त का दोनों लड़कियों से परिचय कराया. चारों एक ही टेबल पर बैठे थे. बुफे था, चारों जम के पेटपूजा कर रहे थे, साथ में बातें भी हो रही थीं.

अपने दोस्त को इंगित करते हुए अभय बोला, ‘‘मैं कोंडापुर में इस के साथ अपार्टमैंट शेयर कर रहा हूं.  और तुम?’’

‘‘मैं भी निशा के साथ माधापुर में ही एक दोरूम का अपार्टमैंट शेयर करती हूं.’’

‘‘और आज क्या कर रही हो? मूवी चलोगी? बोलो तो मैं अपने मोबाइल से 4 टिकटें यहीं से बुक कर देता हूं.’’

एल्मा ने अपनी सहेली की ओर देखा तो उस ने कहा, ‘‘चलेगा.’’

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फिर अभय ने वहीं से दोपहर 2 बजे शो की टिकटें बुक कर दीं. इस के बाद चारों अपने अपार्टमैंट गए और फिर सही समय पर सिनेमाहौल पहुंच गए थे. मूवी देखने के बाद चारों ने कैफे में कौफी पी और फिर वे अपनेअपने अपार्टमैंट के लिए चल दिए.

इस के बाद अभय और एल्मा दोनों अब अकेले भी मिलने लगे थे. उन के साथ अब उन के रूममेट नहीं होते थे. छुट्टी के दिन वे दिनभर साथ रहते, घूमतेफिरते, होटलों में जाते और मूवी देखते थे. देखतेदेखते दोनों एकदूसरे को प्यार करने लगे थे. दोनों इस स्थिति को भी समझ रहे थे कि वे अलगअलग धर्मों के मानने वाले थे.

एक दिन अभय ने एल्मा को शादी के लिए प्रोपोज भी कर दिया था. एल्मा ने कहा, ‘‘मुझे तो तुम से बेहद प्यार है और मैं पर्सनली तो इस के लिए तैयार हूं. पर हम लोगों को एकबार अपने मातापिता को भी बताना चाहिए. संभव हो वे हमारी शादी से खुश भी हों.’’

अभय बोला, ‘‘ठीक है, हम दोनों अगले संडे को उन लोगों को यहां बुला लेते हैं.’’

अगले रविवार दोनों के मातापिता हैदराबाद पहुंच गए थे. उसी दिन शाम को वे 6 लोग, अभय, एल्मा और उन के मातापिता शाम को हैदराबाद के केबीआर पार्क में मिले. दोनों के मातापिता के बीच बहस चल रही थी.

अभय के पिता ने कहा ‘‘ये अंगरेज सब से पहले केरल में ही आए थे. फिर वहां के गरीब, असहाय या पिछड़े लोगों को प्रलोभन दे कर या बहका कर धर्मपरिवर्तन करवाते थे. उन के आने के पहले तो वहां क्रिश्चियन नहीं थे. हम लोग तो सदियों से हिंदू हैं. हम को यह शादी स्वीकार है बशर्ते कि आप लोग हिंदू धर्म अपना लें. वरना हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं है.’’

एल्मा के पिता ने अपना तर्क देते हुए कहा, ‘‘हम तो दादा, परदादा के समय से ही क्रिश्चियन हैं. हम भी यही चाहते हैं कि अभय हमारा धर्म अपना ले. वैसे भी हिंदू धर्म तो बस इंडिया और नेपाल में ही है जबकि हमारा धर्म दुनिया के अनेक देशों में प्रचलित है. अभय के क्रिश्चियन बनने के बाद ही हम एल्मा की शादी की इजाजत दे सकते हैं. वरना हमें यह शादी मंजूर नहीं है.’’

अभय और एल्मा दोनों के मातापिता अपनीअपनी बात पर अड़े थे, कोई भी झुकने को तैयार न था. बल्कि बहस अब गरम हो चली थी. दोनों अपनेअपने धर्म को अच्छा साबित करने में लगे थे.

तभी अभय ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘आप लोग बहुत बोल चुके हैं. अब कृपया शांत रहे. कुछ हम दोनों पर भी छोड़ दीजिए. आखिरी फैसला हम दोनों मिल कर करेंगे.’’

एल्मा बिलकुल खामोश थी बल्कि थोड़ी सहमी थी. सब लोग पार्क से निकल अपनेअपने घर चले गए. अगले दिन ही दोनों के मातापिता हैदराबाद से लौट गए थे.

इधर, अभय ने एल्मा से पूछा ‘‘हम दोनों के मातापिता को बिना धर्मपरिवर्तन किए यह शादी मंजूर नहीं है. मैं तो कोर्टमैरिज करने को तैयार हूं. तुम मेरा साथ दोगी?’’

‘‘मुझे तुम से प्यार है और शादी से कोई एतराज नहीं. पर बड़ी समस्या यह है कि मेरे मातापिता और मेरी छोटी बहन सभी मुझ पर आश्रित हैं. पिताजी ने काफी ख्ेत बंधक रखे हैं मेरी पढ़ाई के लिए. पिताजी ने कहा है कि अगर मैं ने अपनी मरजी से शादी की तो मुझ से उन का कोई रिश्ता नहीं रहेगा. अब मैं उन लोगों को कैसे छोड़ दूं? मेरी स्थिति समझ रहे हो न तुम?’’

‘‘तब मैं क्या समझूं? तुम्हारा फैसला?’’

‘‘मैं मजबूर हूं, मैं फिलहाल शादी नहीं कर सकती.’’

‘‘तो क्या मैं तुम्हारा इंतजार करूं?’’

एल्मा बोली, ‘‘मैं तो यह भी नहीं कहूंगी कि तुम मेरे लिए अनिश्चितता की स्थिति में रहो. तुम अपना फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हो.’’

इस के बाद दोनों जुदा हो गए. मिलनाजुलना जानेअनजाने ही कभी हो पाता था, पर फोन पर संपर्क बना हुआ था. कुछ दिनों बाद अभय ने चंडीगढ़ के पास मोहाली में एक आईटी कंपनी जौइन कर ली थी. अब एल्मा से फोन पर भी संपर्क नहीं रहा था.

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इस बीच 3 साल बीत चुके थे. अभय शिमला घूमने गया था. दिसंबर का महीना था, बर्फ तो गिर ही रही थी ऊपर से मौसम भी खराब था. जोरों की बारिश हो रही थी. वह अपने होटल के कमरे में बैठा था. रात हो चुकी थी. तभी कौलबैल बजी, तो उस ने सोचा कि वेटर होगा और कहा, ‘‘खुला है, आ जाओ.’’

दरवाजा खुलने पर जो आकृति उसे नजर आई तो कुछ पल के लिए उसे लगा कि सपना देख रहा है. पर जब वह उस के और निकट आई तो वह आश्चर्य से कुछ देर तक उसे देखता ही रहा था. भीगे कपड़ों में एल्मा सामने खड़ी थी सूटकेस लिए.

अभय बोला ‘‘तुम अचानक यहां कैसे? यहां का पता तुम्हें किस ने दिया?’’

‘‘सब बताऊंगी. मैं भीग गई हूं. पहले मुझे चेंज करने दोगे?’’

‘‘ठीक है, बाथरूम में धुला टौवेल है. जाओ, चेंज कर लो.’’

थोड़ी देर में एल्मा चेंज कर निकली, तब तक अभय ने उस के लिए कौफी मंगा दी थी. उस ने कहा ‘‘कौफी गरम है, पी लो.’’

कौफी पीते हुए एल्मा ने कहा, ‘‘मैं ने हैदराबाद के तुम्हारे रूममेट से मोहाली का पता लिया. मोहाली गई तो वहां से तुम्हारे रूममेट ने मुझे यहां का पता दिया. मैं सब छोड़ तुम्हारे पास आई हूं. मुझे पता है तुम ने अभी तक शादी नहीं की है. क्या तुम मुझे अपनाने को तैयार हो? ’’

अभय बोला, ‘‘मैं तो पहले भी तैयार था, आज भी तैयार हूं, पर तुम्हारा धर्म, तुम्हारे मातापिता और बहन?’’

‘‘मैं तो प्यार को धर्म से बड़ा मानती हूं. हम दोनों धर्म बदले बिना भी अपना रिश्ता निभा सकते हैं.’’

‘‘मैं तो तैयार हूं पर तुम्हारा परिवार?’’ अभय बोला.

एल्मा बोली, ‘‘मेरी बहन नर्सिंग कर के दुबई में नर्स है. उस ने वहीं पर लवमैरिज कर ली है. उसी ने मुझे तुम्हारे पास आने की हिम्मत दी है. मातापिता को हम दोनों बहनें पैसे भेजती रहेंगी जिस से वे अपने खेत छुड़ा लेंगे. मैं भी चंडीगढ़ की गारमैंट कंपनी में जौब कर लूंगी.’’ थोड़ी देर की खामोशी के बाद एल्मा आगे बोली, ‘‘पर पहले यह बताओ, तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘शादी कैसे करता? तुम्हारा इंतजार था,’’  अभय बोला.

‘‘वह तो ठीक है, पर तुम्हें यकीन था कि मैं वापस तुम्हारे पास आऊंगी.’’

‘‘मुझे अपने प्यार पर यकीन था,’’ बोल कर अभय ने एल्मा को अपनी आगोश में ले लिया.

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मुट्ठी भर राख

मुट्ठी में जो था वह राख थी, दूसरों के लिए चमकते सितारे थे, झिलमिलाते, दमकते. पहले मन में कितनी साध थी कि दूर गगन में दमकते इन सितारों को झट से झपट कर मुट्ठी में भर लें. ज्यादा कोशिश न करनी पड़ी, न ही पंजों के बल ज्यादा उचकना पड़ा. आसमान ही इतना झुक आया कि हाथ भी न बढ़ाने पड़े और झोली सितारों से भर गई.

आंचल में आने को सितारे तैयार थे. बस, अपने ही पग मैं ने पीछे हटा लिए. एक उम्र होती है जिस में सितारों के सपने आते हैं. फूलों से लदी डालियां लचक- लचक कर हवाओं को खुशबू से भर देती हैं. ठीक इसी वक्त मुंहमांगी मुराद कुबूल होने के समय पांव अपनेआप पीछे हो गए.

बेटी के लिए वर तलाश करें तो गुणों की एक अदृश्य लंबी सूची साथ रहती है. पढ़ालिखा, बारोजगार, सुंदर, सुदर्शन, सुशील, अच्छे कुलखानदान का सभ्य, संभ्रांत. अपना मकान, छोटा परिवार. छोटा भी इतना कि न सास न ननद. लड़के की बहन कोई है ही नहीं और मां का 4 साल पहले इंतकाल हो गया. यह आखिरी वाक्य इस ठसक के साथ मुंह से बाहर आया कि यह गुणों का कोई बोनस है, सोने पर सुहागा है.

बापबेटे 2 जन ही हैं. दोनों कामकाजी हैं. मां की तसवीर पर माला लटक रही है, ड्राइंगरूम में ही. बस, लड़की तो पहले ही दिन से राज करेगी, राज. सासननदों की झिकझिक उस परिवार में नहीं है.

बताने वाली चहक रही थी, ‘‘क्या राजकुमार सा वर मिला है. लड़की तकदीर वाली है.’’

मां ने बेटी की आंखों में चमक देखी, ‘यही ठीक है.’

‘‘लड़का सुंदर है. दोनों ही परिवारों ने एकदूसरे को देख लिया है, पसंद कर लिया है. ऐसे लड़के को तो झट से घेर लेना चाहिए. देर करोगी तो रिश्ता हाथ से निकल जाएगा. अब सोच क्या रही हो?’’

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‘‘मैं सोच रही हूं कि लड़के की मां नहीं है…’’

‘‘यह तो और अच्छी बात है. फसाद की जड़ ही नहीं है,’’ बताने वाली को लड़के के गुण को कम कर के आंकने की जरूरत न समझ आई. बेटी की मां है, बेटी का हित नहीं देख पा रही. अरे, सास नहीं है. लड़की पहले ही दिन से राज करेगी. अपने घर को अपने हिसाब से चलाएगी. बापबेटे दोनों चाहते हैं कि जल्दी से रिश्ता पक्का हो, घर में रौनक आए.

मां की आंखों में रौनक की जगह उदासी का सागर दिखा. पहले दिन से होने वाला राज दिखा कि लाड़चाव करने, बोलनेबतियाने के लिए परिवार में कोई नहीं. लड़की जाते ही गृहस्थी का बोझ संभालेगी और बापबेटे हर घड़ी उस की तुलना अपनी पत्नी व मां से करेंगे. जिंदा मां धूरि बराबर और मरी मां देवी समान. हर घड़ी पूजित. मां ऐसा करती थीं, वैसा करती थीं. होतीं तो उन के साथ देखसुन कर लड़की गृहस्थी सीखसमझ लेती कि क्या करना है, कैसे करना है. अब ऐसे में तो तुलना मात्र ही शेष रहती है.

काम की तुलना, उठनेबैठने, चलने- फिरने की तुलना. बेटेबहू का सुख बाप से न सहा जाएगा. न हंसना न बोलना, न घूमना न फिरना. बेटे को पापा…पापा का राग रहेगा. पापा घर में अकेले हैं, पापा उदास हैं…पापा के दुख के सागर में गोते लगाता रहेगा.

जमाना जालिम होता रहेगा और ध्यानाकर्षण के लिए तरहतरह की बीमारियां, पापाजी को सिरदर्द, पापाजी को ब्लड प्रेशर…मां होती तो पापाजी की देखभाल करती रहती और बेटेबहू अपने में मगन रहते. दुखी आदमी के सामने सुखी होना भी तो मुसीबत ही है. ऐसे में परपीड़न का आनंद लेने वाला कैसे उसे बेटी समझेगा? मां होती तो यह आशंका शायद न होती.

मां का न होना कोई गुण नहीं बल्कि कमी है, ऐसा बेटी की मां को लग रहा था. परिवार एक ऐसे शीशे का सामान था जिस पर ‘हैंडिल विद केअर’ तो लगा ही होता है. यहां तो यह न केवल शीशे का था बल्कि चटका भी हुआ था. हाथ में लग जाए तो खून निकल आए.

सास नहीं है, यानी कि वर की मां नहीं है. इस बात पर हाथ आया रिश्ता छोड़ने वाली कन्या की मां को जिस ने कहा, मूर्ख ही कहा. बताइए सास नहीं है लड़ने को, इस बात पर प्रसन्न नहीं हो सकती. ज्यादा सोचनेसमझने की जरूरत नहीं होती, इस को कहते हैं भाग्य को ठोकर मारना.

कब से बेटी हंसीहंसी में कहती कि कितना अच्छा है. मांबाप फोटो वाले हों. मतलब फोटो माला पहन कर दीवार पर लटकी हो. सास की ‘नो किचकिच.’

किचकिच, झिकझिक नहीं किंतु इस का अर्थ स्नेह की कमी, नियंत्रण का अभाव. ननद नहीं है, लड़का अकेला है. मान लें कि वह शेयर करना जानता ही न होगा. स्वकेंद्रित होगा. बिना नियंत्रण के या तो उच्छृंखल होगा या दब्बू. पिता के स्नेह में सहानुभूति का अनुपात अधिक. जो कहो, सो मान लो. बच्चा कहीं उदास न हो. उस की आदत अपनी बात मनवाने की होगी बजाय मानने की.

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सास का न होना कोई बोनस नहीं हो सकता. न ही सोने पर सुहागा. दुख की छाया यों कि लड़की के तन पर गहने तक सास के पुराने होंगे. मोह के मारे तुड़वा कर फिर न गढ़वाए जाएंगे. मां होती तो यह फैसला मां का होता कि नए गढ़वाए जाएंगे कि पुरानों को बदला जाएगा. अब चूंकि है नहीं इसलिए मां को तो उन्हें पहनना नहीं है. सब बहू पहनेगी. वैसे के वैसे ही पहने तो अच्छा. अनुपस्थित होते हुए भी वह सदा उपस्थित रहेगी. इस में सुलहसंवाद की संभावना नहीं है.

बेटी की मां की रात करवटें बदलते बीती. ऐसे झंझटों में क्यों डालें बेटी को. परिवार ठीक है, अच्छा है लेकिन सामान्य नहीं है. खोज के पैरामीटर में एक शब्द और जुड़ा. परिवार छोटा और सामान्य और बेटा पढ़ालिखा, बारोजगार, सुंदर, सुदर्शन, सुशील, अच्छे कुलखानदान का, सभ्य, संभ्रांत. सास का न होना मुट्ठी की राख भर है, आसमान के चमकते सितारे नहीं, जिस की कोई साध करे.

गांठ खुल गई: भाग 2

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‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे समझाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मुझ से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

3 दिनों बाद इषिता आ भी गई. गौतम के घर गई तो वह गहरी सोच में था.

उस ने आवाज दी. पर उस की तंद्रा भंग नहीं हुई. तब उसे झंझोड़ा और कहा, ‘‘किस सोच में डूबे हुए हो?’’

‘‘श्रेया की यादों से अपनेआप को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं,’’ गौतम ने सच बता दिया.

इषिता गुस्से से उफन उठी, ‘‘इतना सबकुछ होने के बाद भी उसे याद करते हो? सचमुच तुम पागल हो गए हो?’’

‘‘तुम ने कभी किसी को प्यार नहीं किया है इषिता, मेरा दर्द कैसे समझ सकती हो.’’

‘‘कुछ घाव किसी को दिखते नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि उस शख्स ने चोट नहीं खाई होगी,’’ इषिता ने कहा.

गौतम ने इषिता को देखा तो पाया कि उस की आंखें नम थीं. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी आंखों में आंसू हैं. इस का मतलब यह है कि तुम ने भी प्यार में धोखा खाया है?’’

‘‘इसे तुम धोखा नहीं कह सकते. जिसे मैं प्यार करती थी उसे पता नहीं था.’’

‘‘यानी वन साइड लव था?’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझो.’’

‘‘लड़का कौन था. निश्चय ही वह कालेज का रहा होगा?’’

इषिता उसे उलझन में नहीं रखना चाहती थी, रहस्य पर से परदा हटाते हुए कह दिया, ‘‘वह कोई और नहीं, तुम हो.’’

गौतम ने चौंक कर उसे देखा तो वह बोली, ‘‘कालेज में पहली बार जिस दिन तुम से मिली थी उसी दिन तुम मेरे दिल में घर कर गए थे. दिल का हाल बताती, उस से पहले पता चला कि तुम श्रेया के दीवाने हो. फिर चुप रह जाने के सिवा मेरे पास रास्ता नहीं था.

‘‘जानती थी कि श्रेया अच्छी लड़की नहीं है. तुम से दिल भर जाएगा, तो झट से किसी दूसरे का दामन थाम लेगी. आगाह करती, तो तुम्हें लगता कि अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए उस पर इलजाम लगा रही हूं. इसलिए तुम से दोस्ती कर ली पर दिल का हाल कभी नहीं बताया.

‘‘श्रेया के साथ तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, तो सोचा कि मौका देख कर अपनी मोहब्बत का इजहार करूंगी और तुम से शादी कर लूंगी. पर देख रही हूं कि आज भी तुम्हारे दिल में वह ही है.’’

दोनों के बीच कुछ देर तक खामोशी पसर गई. गौतम ने ही थोड़ी देर बार खामोशी दूर की, ‘‘उसे दिल से निकाल नहीं पा रहा हूं, इसीलिए कभी शादी न करने का फैसला किया है.’’

‘‘तुम्हें पाने के लिए मैं ने जो तपस्या की है उस का फल मुझे नहीं दोगे?’’ इषिता का स्वर वेदना से कांपने लगा था. आंखें भी डबडबा आई थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो इषिता. तुम बहुत अच्छी लड़की हो. तुम से विवाह करता तो मेरा जीवन सफल हो जाता. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. किसी से भी शादी नहीं कर सकता.’’

इषिता चली गई. उस की आंखों में उमड़ा वेदना का समंदर देख कर भी वह उसे रोक नहीं पाया. वह उसे कैसे समझाता कि श्रेया ने उस के साथ जो कुछ भी किया है, उस से समस्त औरत जाति से उसे नफरत हो गई है.

3 दिन बीत गए. इषिता ने न फोन किया न आई. गौतम सोचने लगा, ‘कहीं नाराज हो कर उस ने दोस्ती तोड़ने का मन तो नहीं बना लिया है?’

उसे फोन करने को सोच ही रहा था कि अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस समय शाम के 6 बज रहे थे. फोन किसी अनजान का था.

उस ने ‘‘हैलो’’ कहा तो उधर से किसी ने कहा, ‘‘इषिता का पापा बोल रहा हूं. तुम से मिलना चाहता हूं. क्या हमारी मुलाकात हो सकती है?’’

उस ने झट से कहा, ‘‘क्यों नहीं अंकल. कहिए, कहां आ जाऊं?’’

‘‘तुम्हें आने की जरूरत नहीं है बेटे. 7 बजे तक मैं ही तुम्हारे घर आ जाता हूं.’’

इषिता उसे 3-4 बार अपने घर ले गई थी. वह उस के मातापिता से मिल चुका था.

उस के पिता रेलवे में उच्च पद पर थे. बहुत सुलझे हुए इंसान थे. वह उन की इकलौती संतान थी. मां कालेज में अध्यापिका थीं. बहुत समझदार थीं. कभी भी उस के और इषिता के रिश्ते पर शक नहीं किया था.

इषिता के पापा समय से पहले ही आ गए. गौतम के साथसाथ उस की मां और बहन ने भी उन का भरपूर स्वागत किया.

उन्होंने मुद्दे पर आने में बहुत देर नहीं लगाई. पर उन चंद लमहों में ही अपने शालीन व्यक्तित्व की खुशबू से पूरे घर को महका दिया था. इतनी आत्मीयता उड़ेल दी थी वातावरण में कि उसे लगने लगा कि उन से जनमजनम का रिश्ता है.

कुछ देर बाद इषिता के पापा को गौतम के साथ कमरे में छोड़ कर मां और बहन चली गईं तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इषिता तुम्हें प्यार करती है और शादी करना चाहती है. उस ने श्रेया के बारे में भी सबकुछ बता दिया है.

‘‘श्रेया से तुम्हारा रिश्ता टूट चुका है तो इषिता से शादी क्यों नहीं करना चाहते? वैसे तो बिना कारण भी कोई किसी को नापसंद कर सकता है. यदि तुम्हारे पास इषिता से विवाह न करने का कारण है तो बताओ. मिलबैठ कर कारण को दूर करने की कोशिश करें.’’

उसे लगा जैसे अचानक उस के मन में कोई बड़ी सी शिला पिघलने लगी है. उस ने मन की बात बता देना ही उचित समझा.

‘‘इषिता में कोई कमी नहीं है अंकल. उस से जो भी शादी करेगा उस का जीवन सार्थक हो जाएगा. कमी मुझ में है. श्रेया से धोखा खाने के बाद लड़कियों से मेरा विश्वास उठ गया है.

‘‘लगता है कि जिस से भी शादी करूंगा वह भी मेरे साथ बेवफाई करेगी. ऐसा भी लगता है कि श्रेया को कभी भूल नहीं पाऊंगा और पत्नी को प्यार नहीं कर पाऊंगा,’’ गौतम ने दिल की बात रखते हुए बताया.

‘‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो? तुम मेरी परवरिश पर विश्वास रखो बेटा. तुम्हारी पत्नी बन कर इषिता तुम्हें इतना प्यार करेगी कि तुम्हारे मन में लड़कियों के प्रति जो गांठ पड़ गई है वह स्वयं खुल जाएगी.’’

वे बिना रुके कहते रहे, ‘‘प्यार या शादी के रिश्ते में मिलने वाली बेवफाई से हर इंसान दुखी होता है, पर यह दुख इतना बड़ा भी नहीं है कि जिंदगी एकदम से थम जाए.

‘‘किसी एक औरतमर्द या लड़कालड़की से धोखा खाने के बाद दुनिया के तमाम औरतमर्द या लड़केलड़की को एकजैसा समझना सही नहीं है.

‘‘यह जीवन का सब से बड़ा सच है कि कोई भी रिश्ता जिंदगी से बड़ा नहीं होता. यह भी सच है कि हर प्रेम संबंध का अंजाम शादी नहीं होता.

‘‘जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनने का अधिकार है. यह अलग बात है कि कोई सही रास्ता चुनता है कोई गलत.

‘‘श्रेया के मन में गलत विचार भरे पड़े थे. इसलिए चंद कदम तुम्हारे साथ चल कर अपना रास्ता बदल लिया. अब तुम भी उसे भूल कर जीने की सही राह पर आ जाओ. गिरते सब हैं पर जो उठ कर तुरंत अपनेआप को संभाल लेता है, सही माने में वही साहसी है.’’

थोड़ी देर बाद इषिता के पापा चले गए. गौतम ने मंत्रमुग्ध हो कर उन की बातें सुनी थीं.

श्रेया के कारण लड़कियों के प्रति मन में जो गांठ पड़ गई थी वह खुल गई.

अब देर करना उस ने मुनासिब नहीं समझा. इषिता के पापा को फोन किया, ‘‘अंकल, कल अपने घर वालों के साथ इषिता का हाथ मांगने आप के घर आना चाहता हूं.’’

उधर से इषिता के पापा ने कहा, ‘‘वैलकम बेटे. देर आए दुरुस्त आए. अब तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. तुम ने अपने भीतर के डर पर विजय जो प्राप्त कर ली है.’’

गांठ खुल गई: भाग 1

श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मुझ से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

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श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझाने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मुझ से विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झूठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

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अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन वह फैसले से टस से मस नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

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लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झूठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

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‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी.

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

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