बदलाव : क्या था छपरा ढाणी का राज

‘‘मारकर आइए या मर कर आइए. मेरे दूध की लाज रखना. टीचरजी, मैं तो एक ही सीख दे कर भेजूं छोरे को,’’ छाती ठोंक कर मेजर जसवंत सिंह राठौड़ की मां सुनंदा देवी उसे बता रही थीं.

राजस्थान के सुदूर इलाके में बसा एक छोटा सा गांव ‘छपरा ढाणी’. अर्पिता की बहाली वहां के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में हुई थी.

कुल जमा 20 बच्चे और वह एकलौती टीचर. ऐसा ठेठ गांव उस ने कभी नहीं देखा था. आगे होने वाली असुविधाओं के बारे में सोच कर एक बार तो उस ने भी इस्तीफा देने की ठान ली थी, पर जल्दी ट्रांसफर का भरोसा पा कर वह मन मसोस कर आ गई थी.

स्कूल क्या था जी, एक टपरा था बस. कच्ची मिट्टी का, खपरैल वाला. एक ही कमरे में 5वीं तक की जमात चलती थी. पहलीदूसरी जमात में

5-5, तीसरीचौथी जमात में कुल 8 और 5वीं जमात में सिर्फ 2 बच्चे थे. आगे की पढ़ाई के लिए पास के ही किसी दूसरे गांव में जाना पड़ता था.

पहला दिन अर्पिता को बहुत नागवार गुजरा. अगले दिन सुबह ही एक बच्चा लोटा भर दूध रख गया. शाम को वह खाना ले कर फिर आया. दौड़ कर वह जाने ही वाला था कि अर्पिता ने उसे पकड़ लिया, ‘‘बच्चे, अपना नाम तो बता कर जाओ.’’

‘‘माधव सिंह.’’

‘‘अच्छा माधव, मुझे अपने गांव की सैर कराओगे?’’

वह पलभर के लिए ठिठका और फिर सिर हिला कर हामी भर दी.

माधव कूदताफांदता आगे बढ़ रहा था. पर, अर्पिता को उस बलुई रेत में चलने का अभ्यास नहीं था. बारबार उस के पैर रेत में धंस जाते थे.

‘‘टीचरजी, वह देखिए. वह रामसा पीर का मंदिर है और ये रहे ऊंचेऊंचे टीबे. यहां हम सब बच्चे राजामंत्री का खेल खेलते हैं.’’

‘‘टीबे…?’’ अर्पिता ने सवालिया नजरों से पूछा.

‘‘जी टीचरजी, जब रेत के ढेर ऊंचे से हो कर जम जाते हैं, उसे टीबा कहते हैं. वह हमारे गांव के राजा साहब की गढ़ी. चलिए, आप को उन का महल दिखाता हूं.’’

गढ़ी के द्वार पर ही राजा साहब मिल गए. इतिहास और फिल्में, टीवी सीरियल वगैरह देख कर अर्पिता के मन में राजा की एक अलग ही इमेज बन गई थी. रेशमी शेरवानी, सिर पर ताज और बगल में तलवार खोंसी हुई. पर ये राजाजी तो बिलकुल साधारण कपड़ों में थे.

‘‘आइए टीचरजी, कोई परेशानी तो नहीं हुई हमारे गांव में? कोई भी दिक्कत हो, तो हमें सेवा का मौका जरूर दें,’’ अधेड़ उम्र पार करते राजाजी की भाषा बड़ी अच्छी थी.

बातोंबातों में उन्होंने बताया कि उन की पढ़ाईलिखाई अमेरिका में ही हुई.

वे खुद अपने महल का कोनाकोना दिखा रहे थे, ‘‘यह अस्तबल कभी घोड़ों से भरा रहता था. अब तो बस एक अंबर घोड़ा बचा है, वह भी बूढ़ा और बीमार रहता है.’’

‘‘अरे भुवन सिंह, कुछ खाया या नहीं इस ने?’’

‘‘जी सरकार, अभीअभी वैद्यजी देख कर गए हैं,’’ हाथ जोड़े भुवन सिंह ने जवाब दिया.

‘‘और इधर की तरफ है पुस्तकालय यानी हमारी लाइब्रेरी.’’

देशविदेश के हर विषय से संबंधित करीने से सजी किताबें. अर्पिता के लिए बहुत अस्वाभाविक सा था. रंगीन  कांच के टुकड़ों की कारीगरी से पूरा महल सजा हुआ था. महीन नक्काशी का काम आज भी उस समय की शानोशौकत का परिचय देता था.

‘‘माधव बेटा, अब तुम टीचरजी को रनिवासे में ले जाओ.’’

परदा प्रथा थी. राजाजी वहीं रुक गए और उसे बच्चे के साथ भीतर भेज दिया.

‘‘रानी मां धोक,’’ बच्चा बोला. साथ ही, अर्पिता ने भी हाथ जोड़ दिए.

रानी साहिबा बेटी के सिर में तेल मलती उठ खड़ी हुईं. इस उम्र में भी उन की खूबसूरती और ओज बरकरार था. हंस कर पास बैठाया और अर्पिता के चेहरे पर हैरानी देख कर बोलीं, ‘‘अब सेवकसेविकाएं तो रहे नहीं,’’ और वे मुसकरा दीं.

‘‘बाई सा, टीचरजी के लिए चाय तो बना लाओ और कुंअर सा से भी कह दो कि टीचरजी के दर्शन कर जाएं.’’

‘‘जी मां सा, अभी कहती हूं.’’

अर्पिता को बड़ी हैरानी हुई. मांबेटी के बीच भी बोली में आज भी वही राजसीपन. रात को वह लेटी तो नींद कोसों दूर थी. गांव के बारे में और

ज्यादा जानने की इच्छा बलवती होती जा रही थी.

अगले दिन माधव फिर आया, तो अर्पिता पूछ बैठी, ‘‘एक बात तो बता कि तेरे पिताजी क्या करते हैं? और यह गांव कितना खालीखाली सा क्यों है? रास्ते में कोई दिखता ही नहीं.’’

‘‘बापू फौज में हैं और बाकी मैं नहीं जानता हूं. आप मेरी दादी सा से पूछ लेना,’’ रात के खाने का न्योता देते हुए माधव बोला और शाम को वह तय समय पर उन्हें लेने आ गया.

मौसम बड़ा सुहावना सा था. मोर ‘पीहूपीहू’ की मधुर आवाज करते पेड़ों पर उड़ रहे थे.

‘‘नमस्ते टीचरजी,’’ माधव की दादी सामने ही इंतजार कर रही थीं. गजभर का घूंघट निकाले माधो की मां ने दूर से ही अपनी ओढ़नी का पल्लू जमीन से छुआया और माथे से लगा कर बोलीं, ‘‘नमस्ते टीचरजी.’’

अर्पिता ने बाहर बनी बैठक की ओर रुख किया, तो दादी बोलीं, ‘‘आप भीतर चलिए टीचरजी. यह बैठक मर्दों के लिए है. बाहर का कोई आदमी भीतर घर में नहीं जाता.’’

अर्पिता को हैरानी हुई, पर वह कुछ न बोली. भीतर पीढ़ा लगा कर उसे बैठाया गया. रसोई में माधव की मां उसी घूंघट के साथ मिट्टी के चूल्हे पर बाजरे की गोलगोल फूलीफूली रोटियां बना रही थीं.

दादी ने थाल परोसा. काचरे की सब्जी, खीचड़ा, देशी घी में डूबी हुई रोटियां और लहसुन की चटनी.

‘‘शुरू करो टीचरजी,’’ उन्होंने खाने के लिए कहा और पास ही बैठ कर पंखा ?ालने लगीं.

‘‘इस गांव में बिजली आधी बार ही रहती है. वैसे, बेटा पिछली बार जब आया था, तब इनवर्टर लगा कर गया था, पर उस की भी बैटरी खत्म हो गई है.’’

आखिर अर्पिता के सब्र का बांध टूट ही गया. उस से रहा न गया, तो पूछ ही लिया, ‘‘कितने बेटे हैं आप के?’’

‘‘टीचरजी, एक तो लड़ाई में खेत रहा. दूसरा अभी बौर्डर पर है.’’

‘‘और आप के पति…?’’

‘‘जी, वे तो कब के शहीद हो गए,’’ दादी ने तसवीर की ओर इशारा किया,  ‘‘घबराओ नहीं, यह तो जवानों की शान है,’’ अर्पिता को दुखी देख कर वे बड़ी सधी आवाज में बोलीं.

‘‘एक बात तो बताइए कि पति और एक बेटा जाने के बावजूद भी आप ने दूसरे बेटे को फौज में भेज दिया… डर नहीं लगता?’’

अर्पिता की यह बात सुन कर दादी उस की नासम?ा पर हंसीं और बोलीं, ‘‘देखो टीचरजी, इस गांव में आप को बूढ़े, बच्चे और औरतों के सिवा कोई न मिलेगा. फौज तो राजपूतों की शान है. हमारे तो खून में ही देश की सेवा लिखी है. या तो दुश्मन की छाती चीर देनी है या खुद मर जाना है. अगर औरतें डरती रह गईं, तो देश की सेवा कौन करेगा…’’

‘‘वह देख रहे हो, मेरे बेटे जसवंत सिंह की पत्नी है. बकरियों के लिए चारापानी से ले कर घर का सारा काम करती है, पर उफ तक नहीं करती. मैं खेत संभालती हूं और साथ ही बाहर का काम. बहूबेटियां हमारे यहां परदे में ही रहती हैं.’’

अर्पिता ने देखा कि माधव की मां घूंघट निकाले अब भी दूधदही के बरतनों में लगी हुई थीं.

‘‘क्या मैं आप की बहू से कुछ देर बात कर सकती हूं?’’ अर्पिता ने पूछा.

‘‘अरे, आप तो हमारे गांव की मेहमान हो टीचरजी. हमारे बच्चों को पढ़ाने के लिए आई हो, शिक्षा देने आई हो. आराम से बात करो,’’ कह कर वे बैठकखाने को ठीक करने चल दीं.

माधव की मां का घूंघट अर्पिता को बेहद खटक रहा था. वह उन का चेहरा देखना चाहती थी.

‘‘मैं खुद एक औरत हूं बहन, मुझ से क्या परदा… आप घूंघट हटा दो.’’

थोड़ा सकुचाते हुए माधव की मां ने घूंघट हटा दिया. भीतर सचमुच की रूपकंवर थीं. अर्पिता उन से बड़े ही नपेतुले अंदाज में बात कर रही थी. लग रहा था कि इंगलिश का अगर कोई शब्द निकल गया, तो शायद वे सम?ा न पाएं.

बातोंबातों में अर्पिता ने पूछा, ‘‘आप थकती नहीं हैं, दिनभर यह चारापानी और घर के काम करतेकरते? पति कितने दिनों बाद घर आ पाते हैं?’’

‘‘टीचरजी, ये तो घर के काम हैं, इन से क्या थकना. हालांकि, सरकार सुविधाएं बहुत देती है, पर नौकरों को देने वाले पैसे अगर हम गरीबों को दे तो कुछ सेवा कर पाएंगे.’’

यह सुन कर अर्पिता को बड़ी हैरानी हुई. इतनी बड़ी सोच और वह भी एक अनपढ़ सी दिखने वाली औरत के मुंह से.

फिर माहौल को हलका करने के अंदाज से अर्पिता ने पूछा, ‘‘क्या आप पूरी जिंदगी ऐसे ही बिता दोगी?’’

और इस बार वाकई में हैरान करने वाला जवाब था, ‘‘मैं ने बीए पास किया है और अब बीऐड कर रही हूं. टीचरजी, सासू मां ने कहा है कि सरकारी नौकरी लगते ही वे मु?ो बाहर भेज देंगी.’’

अर्पिता फिर दादी की ओर मुखातिब हुई, ‘‘और यह परदा प्रथा?’’

‘‘जी, यह तो बस इसी गांव तक है. पुराने समय से चलती आई प्रथा है. बहू को पूरी जिंदगी ऐसे ही थोड़े बैठा कर रखेंगे. उस की अपनी जिंदगी है. आगे बढ़े और खूब तरक्की करे.’’

‘‘टीचरजी, आप को छोड़ आऊं?’’ माधव पूछ रहा था.

अर्पिता ने आदर से दादी को प्रणाम किया और रूपकंवर की ओर एक स्नेह भरी नजर डाल कर अपने घर को चल दी.

विधवा सास की तड़प : सलमान अपने होश कब खो बैठा

माहिरा को बच्चा होने वाला था. उस ने मदद के लिए अपनी मां राबिया को बुला लिया. राबिया को करीब देख कर माहिरा का शौहर सलमान अपने होश खो बैठा. एक रात राबिया और सलमान अकेले में मिले. आगे क्या हुआ?

सलमान की शादी को 7 महीने हो गए थे और वह अपनी बीवी माहिरा के साथ खुशीखुशी दिल्ली में रह रहा था. माहिरा पेट से थी और 3 महीने बाद उस की डिलीवरी होने वाली थी.

सलमान को माहिरा की बड़ी चिंता सता रही थी, क्योंकि उस ने माहिरा से लवमैरिज की थी, जिस वजह से उस के घर वाले उस से नाखुश थे, क्योंकि माहिरा एक अलग बिरादरी से थी. लिहाजा, उन्होंने सलमान और माहिरा से सारे रिश्ते तोड़ लिए थे.

पर, आज जब माहिरा पेट से हुई, तो उस की देखभाल के लिए किसी औरत का होना जरूरी था.

सलमान की कमाई भी कुछ खास न थी, जिस से वह माहिरा की देखभाल के लिए कोई नौकरानी रख लेता, ताकि उसे कुछ आराम मिल सके.

वैसे तो सलमान माहिरा के काम में उस की पूरी मदद करता था, पर ज्योंज्यों माहिरा की डिलीवरी के दिन करीब आ रहे थे, त्योंत्यों सलमान की चिंता भी बढ़ती जा रही थी.

माहिरा ने जब सलमान को परेशान देखा, तो उस ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है, आप कुछ परेशान से लग रहे हैं?’’

सलमान ने कहा, ‘‘हां, तुम्हारा ऐसा समय चल रहा है, जिस में तुम्हें आराम की सख्त जरूरत है और साथ ही तुम्हारे साथ किसी औरत का होना भी जरूरी है.

‘‘यही सोच कर मुझे चिंता हो रही है कि मेरे अम्मीअब्बू ने तो हम से नाता तोड़ लिया है, मैं किसे बुलाऊं, जो ऐसे मुश्किल  समय में तुम्हारा साथ दे सके.’’

माहिरा बोली, ‘‘आप टैंशन मत लो. मैं अपनी अम्मी से बात करती हूं, वे जरूर आ जाएंगी. वैसे भी मेरे भाईभाभी के अलावा वहां और कौन है, जिसे अम्मी की जरूरत हो…

‘‘भाभी अपना काम खुद कर लेती हैं. अम्मी दिनभर घर पर खाली ही रहती हैं. उन का भी यहां आ कर मन लग जाएगा और हवापानी भी बदल जाएगा.

‘‘वैसे भी अब्बा की मौत के बाद अम्मी अकेली हो गई थीं. उस  समय अम्मी की उम्र महज 24 साल थी. लोगों ने उन से बहुत कहा था कि दूसरी शादी कर लो, पर उन्होंने हम भाईबहन पर सौतेले बाप का साया न पड़े, इस डर से दूसरी शादी नहीं की.’’

सलमान बोला, ‘‘ठीक है, तुम अपनी अम्मी को कल ही यहां बुला लो, क्योंकि अब तुम्हारी डिलीवरी में भी एक हफ्ता ही बाकी बचा है.’’

माहिरा ने अगले ही दिन अपनी अम्मी को फोन कर दिया और जल्द आने को कहा. माहिरा की अम्मी राबिया अगले ही दिन दिल्ली के लिए रवाना हो गईं. सलमान उन्हें लेने रेलवे स्टेशन चला गया.

राबिया जैसे ही रेलवे स्टेशन पहुंचीं, तो सलमान उन्हें देख कर दंग रह गया.

जब से सलमान की शादी माहिरा से हुई थी, उस ने एकाध बार ही चलतीफिरती नजरों से उन्हें देखा था, क्योंकि शादी के फौरन बाद ही वह माहिरा को अपने साथ दिल्ली ले आया था.

राबिया का कसीला बदन और ऊंची उठी हुई छाती देख कर ऐसा लगता था, जैसे वे माहिरा की अम्मी नहीं, बल्कि बहन हैं. उन्हें देख कर कोई भी यह नहीं कह सकता था कि उन की उम्र 45 साल की होगी.

सलमान ने अपनी सास राबिया को आटोरिकशा में बैठाया और घर ले आया.

राबिया अपनी बेटी माहिरा से मिल कर बहुत खुश हुईं. वे दोनों आपस में बातें करने लगीं और सलमान नाश्ते का सामान लेने बाजार चला गया.

4 दिन बाद ही माहिरा को दर्द उठा, तो उसे जल्दी अस्पताल ले जाया गया. काफी कोशिश के बाद भी माहिरा की नौर्मल डिलीवरी नहीं हो पाई.

डाक्टर ने आपरेशन की तैयारी शुरू कर दी और तकरीबन 3 घंटे बाद माहिरा ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया, जिसे पा कर सलमान और माहिरा दोनों खुश हो गए.

3 दिन बाद ही माहिरा को डिस्चार्ज भी कर दिया. सलमान उसे ले कर घर आ गया.

अभी माहिरा को आए हुए एक हफ्ता ही गुजरा था कि एक दिन सलमान बाथरूम से नहा कर बाहर निकला. उस ने एक तौलिए से अपनेआप को ढांप रखा था.

सलमान की सास राबिया माहिरा के कमरे से निकल कर किचन में जा रही थीं कि उन की निगाह सलमान के गठीले बदन पर पड़ी. वे सलमान को एकटक निहारती रहीं और एक कातिल मुसकान बिखेरते हुए किचन में चली गईं.

सलमान अपनी सास राबिया की कातिल मुसकान को अच्छी तरह समझ चुका था.

राबिया और माहिरा एक ही जगह सोते थे, क्योंकि माहिरा को किसी भी चीज की जरूरत होती तो राबिया ही देती थीं, साथ ही बच्ची के रोने पर भी वे ही उसे अपनी गोद में उठा कर चुप कराती थीं.

सलमान अलग कमरे में सोता था, ताकि आराम से सुबह काम पर जा सके.

एक रात की बात है. सलमान अपने कमरे में लेटा हुआ था. उस की आंखों से नींद कोसों दूर थी. उसे रहरह कर अपनी सास की कातिल मुसकराहट सता रही थी. उधर राबिया भी सलमान को पाने की ललक में करवटें बदल रही थीं.

रात के 2 बज चुके थे. माहिरा और उस की बच्ची गहरी नींद में सो चुके थे, पर राबिया की आंखों से नींद गायब थी. वे पानी लेने के लिए उठीं और किचन की तरफ बढ़ी ही थीं कि अंधेरा होने की वजह से वे सलमान से जा टकराईं.

सलमान ने अपनी सास राबिया को सहारा देते हुए अपने हाथ आगे बढ़ाए, तो उस के हाथ राबिया की उठी हुई कसीली छाती से जा टकराए. राबिया छटपटा गईं और खुद को सलमान के हवाले कर दिया.

सलमान ने अपने कड़क हाथों से राबिया की उठी हुई छाती को सहलाना शुरू कर दिया. राबिया कई साल से मर्द की इस छुअन से काफी दूर थीं और इस से उन की जिस्मानी तड़प जाग उठी.

सलमान ने अपनी सास राबिया के होंठों पर अपने होंठ रख दिए, तो राबिया ने भी उस के होंठों को चूसना शुरू कर दिया. दोनों तरफ आग भड़क चुकी थी.

सलमान ने राबिया को अपनी बांहों में उठाया और अपने कमरे में ले गया.

राबिया भी सलमान की गोद में एक बच्चे की तरह उस से चिपक गईं. सलमान ने बिना समय गंवाए राबिया के कपड़े उतारने शुरू कर दिए.

राबिया का गोरा और कसा हुआ बदन देख सलमान हैरान रह गया. वह राबिया के बदन को चूमने लगा. राबिया भी पूरे जोश के साथ सलमान के बदन को चूमने लगीं. वे पूरी तरह बेकाबू होती नजर आ रही थीं.

वे दोनों एकदूसरे के बदन से खेलते रहे. कुछ ही देर में दोनों चरम सीमा पर पहुंच कर एकदूसरे से अलग हो गए.

एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही रहा. जब भी राबिया और सलमान को मौका मिलता, वे अपने जिस्म की आग को ठंडा कर लेते.

बंद गले का कोट: क्या हुआ था सुनील के साथ

मास्को में गरमी का मौसम था. इस का मतलब यह नहीं कि वहां सूरज अंगारे उगलने लगा था, बल्कि यह कहें कि सूरज अब उगने लगा था, वरना सर्दी में तो वह भी रजाई में दुबका बैठा रहता था. सूरज की गरमी से अब 6 महीने से जमी हुई बर्फ पिघलने लगी थी. कहींकहीं बर्फ के अवशेष अंतिम सांसें गिनते दिखाई देते थे. पेड़ भी अब हरेभरे हो कर झूमने लगे थे, वरना सर्दी में तो वे भी ज्यादातर बर्फ में डूबे रहते थे. कुल मिला कर एक भारतीय की नजर से मौसम सुहावना हो गया था. यानी ओवरकोट, मफलर, टोपी, दस्ताने वगैरा त्याग कर अब सर्दी के सामान्य कपड़ों में घूमाफिरा जा सकता था. रूसी लोग जरूर गरमी के कारण हायहाय करते नजर आते थे. उन के लिए तो 24 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पारा हुआ नहीं कि उन की हालत खराब होने लगती थी और वे पंखे के नीचे जगह ढूंढ़ने लगते थे. बड़े शोरूमों में एयर कंडीशनर भी चलने लगे थे.

सुनील दूतावास में तृतीय सचिव के पद पर आया था. तृतीय सचिव का अर्थ था कि चयन और प्रशिक्षण के बाद यह उस की पहली पोस्टिंग थी, जिस में उसे साल भर देश की भाषा और संस्कृति का औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त करना था और साथ ही दूतावास के कामकाज से भी परिचित होना था. वह आतेजाते मुझे मिल जाता और कहता, ‘‘कहिए, प्रोफेसर साहब, क्या चल रहा है?’’

‘‘सब ठीक है, आप सुनाइए, राजदूत महोदय,’’ मैं जवाब देता.

हम दोनों मुसकानों का आदानप्रदान करते और अपनीअपनी राह लेते. रूस में रहते हुए अपनी भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेमप्रदर्शन के लिए और भारतीयों की अलग पहचान दिखाने के लिए मैं बंद गले का सूट पहनता था. रूसी लोग मेरी पोशाक से बहुत आकर्षित होते थे. वे मुझे देख कर कुछ इशारे वगैरा करने लगते. कुछ लोग मुसकराते और ‘इंदीइंदी’ (भारतीयभारतीय) कहते. कुछ मुझे रोक कर मुझ से हाथ मिलाते. कुछ मेरे साथ खडे़ हो कर फोटो खिंचवाते. कुछ ‘हिंदीरूसी भाईभाई’ गाने लगते. सुनील को भी मेरा सूट पसंद था और वह अकसर उस की तारीफ करता था.

यों पोशाक के मामले में सुनील खुद स्वच्छंद किस्म का जीव था. वह अकसर जींस, स्वेटर वगैरा पहन कर चला आता था. कदकाठी भी उस की छोटी और इकहरी थी. बस, उस के व्यवहार में भारतीय विदेश सेवा का कर्मचारी होने का थोड़ा सा गरूर था.

मैं ने कभी उस की पोशाक वगैरा पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन एक दिन अचानक वह मुझे बंद गले का सूट पहने नजर आया. मुझे लगा कि मेरी पोशाक से प्रभावित हो कर उस ने भी सूट बनवाया है. मुझे खुशी हुई कि मैं ने उसे पोशाक के मामले में प्रेरित किया.

‘‘अरे, आज तो आप पूरे राजदूत नजर आ रहे हैं,’’ मैं ने कहा, ‘‘सूट आप पर बहुत फब रहा है.’’

उस ने पहले तो मुझे संदेह की नजरों से देखा, फिर हलके से ‘धन्यवाद’ कहा और ‘फिर मिलते हैं’ का जुमला हवा में उछाल कर चला गया. मुझे उस का यह व्यवहार बहुत अटपटा लगा. मैं सोचने लगा कि मैं ने ऐसा क्या कह दिया कि वह उखड़ गया. मुझे कुछ समझ नहीं आया. इस पर ज्यादा सोचविचार करना मैं ने व्यर्थ समझा और यह सोच कर संतोष कर लिया कि उसे कोई काम वगैरा होगा, इसलिए जल्दी चला गया.

तभी सामने से हीरा आता दिखाई दिया. वह कौंसुलेट में निजी सहायक के पद पर था.

‘‘क्या बात हो रही थी सुनील से?’’ उस ने शरारतपूर्ण ढंग से पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ मैं ने बताया, ‘‘पहली बार सूट में दिखा, तो मैं ने तारीफ कर दी और वह मुझे देखता चला गया, मानो मैं ने गाली दे दी हो.’’

‘‘तुम्हें पता नहीं?’’ हीरा ने शंकापूर्वक कहा.

‘‘क्या?’’ मुझे जिज्ञासा होना स्वाभाविक था.

‘‘इस सूट का राज?’’ उस ने कहा.

‘‘सूट का राज? सूट का क्या राज, भई?’’ मैं ने भंवें सिकोड़ते हुए पूछा.

‘‘असल में इसे पिछले हफ्ते मिलित्सिया वाले (पुलिस वाले) ने पकड़ लिया था,’’ उस ने बताया, ‘‘वह बैंक गया था पैसा निकलवाने. बैंक जा रहा था तो उस के 2 साथियों ने भी उसे अपने चेक दे दिए. वह बैंक से निकला तो उस की जेब में 3 हजार डालर थे.

‘‘वह बाहर आ कर टैक्सी पकड़ने ही वाला था कि मिलित्सिया का सिपाही आया और इसे सलाम कर के कहा कि ‘दाक्यूमेत पजालस्ता (कृपया दस्तावेज दिखाइए).’ इस ने फट से अपना राजनयिक पहचानपत्र निकाल कर उसे दिखा दिया. वह बड़ी देर तक पहचानपत्र की जांच करता रहा फिर फोटो से उस का चेहरा मिलाता रहा. इस के बाद इस की जींस और स्वेटर पर गौर करता रहा, और अंत में उस ने अपना निष्कर्ष उसे बताया कि यह पहचानपत्र नकली है.’’

‘‘सुनील को जितनी भी रूसी आती थी, उस का प्रयोग कर के उस ने सिपाही को समझाने की कोशिश की कि पहचानपत्र असली है और वह सचमुच भारतीय दूतावास में तृतीय सचिव है. लेकिन सिपाही मानने के लिए तैयार नहीं था. फिर उस ने कहा कि ‘दिखाओ, जेब में क्या है?’ और जेबें खाली करवा कर 3 हजार डालर अपने कब्जे में ले लिए. अब सुनील घबराया, क्योंकि उसे मालूम था कि मिलित्सिया वाले इस तरह से एशियाई लोगों को लूट कर चल देते हैं और फिर उस की कोई सुनवाई नहीं होती. अगर कोई काररवाई होती भी है तो वह न के बराबर होती है. मिलित्सिया वाले तो 100-50 रूबल तक के लिए यह काम करते हैं, जबकि यहां तो मसला 3 हजार डालर यानी 75 हजार रूबल का था.’’

‘‘उस ने फिर से रूसी में कुछ कहने की कोशिश की लेकिन मिलित्सिया वाला भला अब क्यों सुनता. वह तो इस फिराक में था कि पैसा और पहचानपत्र दोनों ले कर चंपत हो जाए, लेकिन सुनील के भाग्य से तभी वहां मिलित्सिया की गाड़ी आ गई. उस में से 4 सिपाही निकले, जिन में से 2 के हाथों में स्वचालित गन थीं. उन्हें देख कर सुनील को लगा कि शायद अब वह और उस के पैसे बच जाएं.

‘‘वे सिपाही वरिष्ठ थे, इसलिए पहले सिपाही ने उन्हें सैल्यूट कर के उन्हें सारा माजरा बताया और फिर मन मार कर पहचानपत्र और राशि उन के हवाले कर दी और कहा कि उसे शक है कि यह कोई चोरउचक्का है. उन सिपाहियों ने सुनील को ऊपर से नीचे तक 2 बार देखा. मौका देख कर सुनील ने फिर से अपने रूसी ज्ञान का प्रयोग करना चाहा, लेकिन उन्होंने कुछ सुनने में रुचि नहीं ली और आपस में कुछ जोड़तोड़ जैसा करने लगे. इस पर सुनील की अक्ल ने काम किया और उस ने उन्हें अंगरेजी में जोरों से डांटा और कहा कि वह विदेश मंत्रालय में इस बात की सख्त शिकायत करेगा.

‘‘उन्हें अंगरेजी कितनी समझ में आई, यह तो पता नहीं, लेकिन वे कुछ प्रभावित से हुए और उन्होंने सुनील को कार में धकेला और कार चला दी. पहला सिपाही हाथ मलता और वरिष्ठों को गालियां देता वहीं रह गया. अब तो सुनील और भी घबरा गया, क्योंकि अब तक तो सिर्फ पैसा लुटने का डर था, लेकिन अब तो ये सिपाही न जाने कहां ले जाएं और गोली मार कर मास्कवा नदी में फेंक दें. उस का मुंह रोने जैसा हो गया और उस ने कहा कि वह दूतावास में फोन करना चाहता है. इस पर एक सिपाही ने उसे डांट दिया कि चुप बैठे रहो.

‘‘सिपाही उसे ले कर पुलिस स्टेशन आ गए और वहां उन्होंने थाना प्रभारी से कुछ बात की. उस ने भी सुनील का मुआयना किया और शंका से पूछा, ‘आप राजनयिक हैं?’

‘‘सुनील ने अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि कैसे उसे परेशान किया गया है, उस के पैसे छीने गए हैं. बेमतलब उसे यहां लाया गया है और वह दूतावास में फोन करना चाहता है.

‘‘प्रभारी ने सामने पड़े फोन की ओर इशारा किया. सुनील ने झट से कौंसुलर को फोन मिलाया. कौंसुलर ने मुझे बुलाया और फिर मैं और कौंसुलर दोनों कार ले कर थाने पहुंचे. हमें देख कर सुनील लगभग रो ही दिया. कौंसुलर ने सिपाहियों को डांटा और कहा कि एक राजनयिक के साथ इस तरह का व्यवहार आप लोगों को शोभा नहीं देता.’’

‘‘इस पर वह अधिकारी काफी देर तक रूसी में बोलता रहा, जिस का मतलब यह था कि अगर यह राजनयिक है तो इसे राजनयिक के ढंग से रहना भी चाहिए और यह कि इस बार तो संयोग से हमारी पैट्रोल वहां पहुंच गई, लेकिन आगे से हम इस तरह के मामले में कोई जिम्मेदारी नहीं ले सकते?

‘‘अब कौंसुलर की नजर सुनील की पोशाक पर गई. उस ने वहीं सब के सामने उसे लताड़ लगाई कि खबरदार जो आगे से जींस में दिखाई दिए. क्या अब मेरे पास यही काम रह गया है कि थाने में आ कर इन लोगों की उलटीसीधी बातें सुनूं और तुम्हें छुड़वाऊं.’’

‘‘हम लोग सुनील को ले कर आ गए. अगले 2 दिन सुनील ने छुट्टी ली और बंद गले का सूट सिलवाया और उसे पहन कर ही दूतावास में आया. मैं ने तो खैर उस का स्टेटमेंट टाइप किया था, इसलिए इतने विस्तार से सब पता है, लेकिन यह बात तो दूतावास के सब लोग जानते हैं,’’ हीरा ने अपनी बात खत्म की.

‘‘तभी…’’ मेरे मुंह से निकला, ‘‘उसे लगा होगा कि मैं भी यह किस्सा जानता हूं और उस का मजाक उड़ा रहा हूं.’’

‘‘अब तो जान गए न,’’ हीरा हंसा और अपने विभाग की ओर बढ़ गया.

मुझे अफसोस हुआ कि सुनील को सूट सिलवाने की प्रेरणा मैं ने नहीं, बल्कि पुलिस वालों ने दी थी.

गहरा रिश्ता: रोहित के साथ कौन सा हुआ हादसा

रोहित सड़क पर बेहोशी की हालत में पड़ा हुआ तड़प रहा था. सिर से खून की धार बह रही थी. उस का स्कूटर नजदीक ही गिरा पड़ा था.
कानूनी पचड़े में फंसने के चलते कोई भी आदमी उस की मदद के लिए आगे नहीं आया. लोग एक नजर उस पर डालते और फिर आगे बढ़ जाते.
गायत्री का रिकशा जैसे ही उधर से गुजरने लगा, उस की नजर तड़पते हुए रोहित पर पड़ी. उसे देखते ही उस के चेहरे पर घबराहट छा गई. अगले ही पल उस ने रिकशे वाले को रुकने के लिए कहा. रिकशा रुकते ही उतर कर उस ने रोहित को टटोल कर देखा. उस की सांस चल रही थी.
‘‘बहनजी, छोडि़ए. क्यों इस लफड़े में पड़ती हैं आप? पुलिस आ कर अपनेआप संभाल लेगी,’’ रिकशे वाले ने बला टालने के लिए कहा. वह बुरी तरह डरा हुआ था.
‘‘चुप करो. शर्म नहीं आती तुम्हें… एक आदमी तड़पतड़प कर अपनी जान दे रहा है और तुम्हें यह लफड़ा लग रहा है,’’ कहते हुए गायत्री ने अपना रूमाल बेहोश रोहित के सिर पर बांध दिया.
‘‘इधर आओ, थोड़ी मदद करो,’’ रिकशे वाले से कहते हुए गायत्री ने रोहित को उठाने की कोशिश की.
गायत्री को यह सब करते देख डर की वजह से दूर खड़े लोग भी पास आ गए थे. गायत्री ने उन की मदद से रोहित को रिकशे में डाला. उस के बाद वह अस्पताल की ओर चल दी.
जल्दी ही वे अस्पताल पहुंच गए. ज्यों ही रिकशा गेट के अंदर पहुंचा, वैसे ही अस्पताल से बाहर निकल रहे एक नौजवान की नजर रोहित पर पड़ी.
‘‘अरे, यह तो हमारे रोहित साहब हैं,’’ कहते हुए वह रिकशे के साथ हो लिया.
‘‘आप इन्हें जानते हैं?’’ गायत्री ने उस से पूछा.
‘‘जी हां. यह हमारे इंजीनियर साहब हैं. मैं इन्हीं के दफ्तर में काम करता हूं,’’ नौजवान ने जल्दी से कहा.
डाक्टरों ने रोहित की हालत को देखते हुए तुरंत ही उस के इलाज का इंतजाम किया.
गायत्री बाहर बरामदे में बैठ गई. उस ने उस नौजवान को रोहित के घर खबर देने के लिए भेज दिया.
थोड़ी देर बाद एक डाक्टर बाहर आया, तो गायत्री ने उस से रोहित के बारे में पूछा.
‘‘वह अब ठीक है. अच्छा हुआ, आप उन्हें वक्त पर ले आई. अगर देर हो जाती, तो बचना मुश्किल था,’’ डाक्टर ने उसे बताया.
इस के बाद यह सोच कर कि अब रोहित के घर वाले आ ही जाएंगे, गायत्री अपने घर की ओर चल दी.
‘‘क्या हुआ बेटी?’’ गायत्री की खून से सनी साड़ी देख कर मां ने घबराई हुई आवाज में पूछा और लपक कर उसे दोनों हाथों से थाम लिया.
‘‘कुछ नहीं मां,’’ गायत्री ने सोफे पर बैठते हुए कहा.
‘‘पर बेटी, यह खून?’’ मां ने उस की साड़ी की ओर इशारा करते हुए पूछा.
मां जल्दी से पानी का गिलास ले आई. पानी पीने के बाद गायत्री ने उन को सारी बात बता दी. तब कहीं जा कर मां को चैन मिला.
वक्त के साथ हर वारदात कहीं दफन सी हो जाती है. इस वारदात को घटे भी 15-20 दिन गुजर गए थे. गायत्री भी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में खो सी गई थी. पिता की मौत के बाद उस ने मेहनत से पढ़ाई कर अच्छे नंबरों से एमए पास किया था. इस वजह से सीधे ही उसे कालेज में नौकरी मिल गई थी.
नौकरी मिलने के बाद उन की माली हालत भी सुधर गई थी. दोनों मांबेटी अपनी छोटी सी दुनिया में खुश भी थीं. लेकिन मां को गायत्री की शादी की चिंता अंदर ही अंदर परेशान किए रहती थी. कितने ही मिलने वालों व रिश्तेदारों से इस बारे में कह रखा था, मगर अभी तक कहीं बात नहीं बनी थी.
एक दिन शाम के वक्त गायत्री बाजार जाने की तैयारी कर रही थी कि किसी ने घंटी बजाई. उस ने जा कर दरवाजा खोला तो सामने रोहित को खड़ा पाया. वह एक ही नजर में उसे पहचान गई.
रोहित दोनों हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘नमस्ते.’’
‘‘नमस्ते,’’ गायत्री ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘मुझे गायत्रीजी से मिलना है,’’ रोहित ने कुछ झिझक के साथ कहा.
‘‘जी, मैं ही गायत्री हूं. अंदर आइए,’’ गायत्री ने अंदर की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अब आप कैसे हैं?’’
‘‘बिलकुल ठीक हूं… वह भी आप की वजह से,’’ रोहित ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘उस दिन अगर आप ने मुझे वक्त पर अस्पताल न पहुंचाया होता तो आज…’’
‘‘छोडि़ए भी… बीती बातों को याद करने से क्या फायदा?’’
इसी बीच मां भी कमरे में चली आईं.
‘‘ये मेरी मां हैं,’’ गायत्री ने मां का परिचय कराते हुए कहा.
‘‘नमस्ते माताजी,’’ रोहित ने तुरंत दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा.
‘‘मां, ये वही हैं, जिन का कुछ दिन पहले ऐक्सीडैंट हुआ था और जिन्हें मैं अस्पताल ले कर गई थी,’’ गायत्री ने मां को बताया.
‘‘अच्छाअच्छा, जीते रहो बेटा, मैं तो उस दिन घबरा ही गई थी, जब यह खून से सने कपड़ों में घर आई.’’
इसी बीच गायत्री उठ कर रसोई में चली गई और जल्दी से शरबत बना कर ले आई. फिर बोली, ‘‘घर का पता ढूंढ़ने में तो परेशानी नहीं हुई आप को?’’
‘‘बिलकुल नहीं, आप का पता अस्पताल के रजिस्टर में लिखा हुआ था. जब मुझे मेरे दफ्तर के एक नौजवान ने बताया कि एक लड़की मुझे अस्पताल पहुंचा कर गई थी, तो मैं ने उसी वक्त सोच लिया था आप से तो मैं जरूर मिलूंगा.
‘‘देखिए, ज्यादा तो मैं क्या कहूं… बस इतना ही कहूंगा कि आप का यह कर्ज मैं कभी नहीं उतार सकूंगा. मेरी यह जिंदगी आप की ही अमानत है,’’ रोहित ने भरी आंखों से कहा.
‘‘अब आप मेरी कुछ ज्यादा ही तारीफ कर रहे हैं.’’
यह सुन कर रोहित मुसकरा दिया. फिर उस ने ब्रीफकेस से शादी का कार्ड निकाल कर गायत्री की मां की तरफ बढ़ा दिया, ‘‘यह मेरी बहन की शादी का कार्ड है. आप को इस शादी में हर हालत में शामिल होना है.’’
‘‘क्यों नहीं, हम जरूर आएंगे. इस बहाने भाभीजी से भी मुलाकात हो जाएगी,’’ गायत्री ने कहा.
‘‘भाभीजी? भई, कौन सी भाभी?’’ रोहित चौंकते हुए बोला.
‘‘अरे, तुम्हारी पत्नी के लिए बोल रही है,’’ मां ने हंसते हुए कहा.
‘‘पर, मैं तो अभी कुंआरा हूं.’’
यह सुन कर गायत्री एकदम झेंप गई. उस ने शर्म से चेहरा झुका लिया. पूरे शरीर में एक झुरझुरी सी दौड़ गई थी. अचानक ऐसा क्यों हो रहा था कि वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी.
‘‘अच्छा माताजी, अब मैं चलता हूं,’’ रोहित ने उठते हुए हाथ जोड़ कर कहा.
‘‘ठीक है, बेटा,’’ मां ने कहा.
गायत्री बाहर दरवाजे तक रोहित को छोड़ने आई. वह जाते हुए रोहित को एकदम देखे जा रही थी. उसे ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे इन 15-20 मिनटों में ही रोहित ने उस का सबकुछ चुरा लिया हो.
उधर गायत्री से मिलने के बाद रोहित भी बेचैन रहने लगा था. उसे ऐसा महसूस हो रहा था, मानो उस के सीने में से कुछ निकल कर खो गया है. बारबार गायत्री का मासूम चेहरा उस की आंखों के सामने आ जाता. उस की आवाज उस के कानों में गूंजती हुई सुनाई देती.
इस तरह दोनों ही तरफ चाहत की चिनगारी सुलग चुकी थी. गायत्री जानेअनजाने रोहित के प्यार में डूब तो गई, मगर अंदर ही अंदर वह एक बात को ले कर परेशान भी थी. वह छोटी जाति की थी और रोहित ऊंची जाति का था. उसे डर था कि रोहित उस की जाति से अनजान है और जिस दिन उसे मालूम पड़ेगा, तो वह उस से प्यार की जगह नफरत करने लगेगा.
अगर रोहित को प्यार में किसी तरह मना भी लिया, तो उस के घर वाले इस रिश्ते को कभी मंजूर नहीं करेंगे.
कई बार गायत्री ने चाहा कि वह रोहित से इस बारे में खुल कर बात कर ले. लेकिन इस के लिए वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. बस, सोच कर ही रह जाती.
उधर गायत्री का प्यार पा कर रोहित फूला नहीं समा रहा था. उसे गायत्री
की परेशानी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था.
गायत्री की मां से दोनों का प्यार छिपा नहीं था. गायत्री ने भी एक दिन झिझकते हुए मां को बता दिया था कि वह रोहित को पसंद करती है और वह भी उसे चाहता है.
मां ने बेटी का दिल न तोड़ने के लिए कुछ कहा तो नहीं, पर वह भी अंदर ही अंदर उसी डर से परेशान थीं, जिस से गायत्री थी. उन्होंने एक दिन गायत्री को इस बारे में बोल भी दिया कि वह रोहित से इस बारे में खुल कर बात क्यों नहीं कर लेती.
मां के समझाने पर गायत्री में थोड़ी हिम्मत आ गई. उस ने पक्का फैसला कर लिया कि अब जब भी रोहित मिलेगा, उस से साफ बात करेगी.
वह छुट्टी का दिन था. मां किसी रिश्तेदार के यहां गई हुई थी… इधर रोहित से कई दिनों से मुलाकात नहीं हो पाई थी. इस वजह से गायत्री परेशान थी. समय काटने के लिए सोफे पर लेटे हुए ही वह किताब के पन्ने पलट रही थी, तभी किसी ने घंटी बजाई.
गायत्री ने जा कर दरवाजा खोला, तो सामने रोहित को खड़े पाया, जो हलकी मुसकान लिए हुए बाहर खड़ा था.
रोहित को देखते ही उस का रोमरोम खिल उठा. वह धीरे से बोली, ‘‘अब अंदर भी आएंगे या जनाब यहीं खड़े रहेंगे,’’ गायत्री ने कुछ अदा के साथ रोहित को देखते हुए कहा.
‘‘लीजिए… आप का हुक्म सिरआंखों पर,’’ कहते हुए रोहित भी शान के साथ अंदर चला आया.
‘‘आज हुजूर अचानक यहां कैसे टपक पड़े?’’ गायत्री ने रोहित को बैठने का इशारा करते हुए कहा.
‘‘लो, आप को यहां आना अच्छा नहीं लगा तो अभी चले जाते हैं,’’ रोहित ने उठने का नाटक करते हुए कहा.
‘‘खैर, छोडि़ए… यह बताइए कि क्या लेंगे, ठंडा या गरम?’’ गायत्री ने बात के रुख को मोड़ते हुए कहा.
‘‘जो आप पिलाएंगी.’’
गायत्री लजाती हुई उठ कर चली गई और जल्दी ही शरबत के 2 गिलास बना कर ले आई.
‘‘अरे, आज माताजी दिखाई नहीं दे रही हैं,’’ रोहित ने ट्रे से गिलास उठाते हुए पूछा.
‘‘आज वह एक रिश्तेदार के यहां गई हुई हैं.’’
‘‘तुम नहीं गए?’’
‘‘जी नहीं, मेरा मन नहीं था.’’
‘‘क्या हुआ तुम्हारे मन को?’’ रोहित ने उसे छेड़ते हुए कहा.
‘‘बता दूं…?’’ गायत्री ने मौका देख कर अपनी बात पर आते हुए कहा.
‘‘हांहां, जरा हम भी तो सुनें कि हमारी महारानीजी का इरादा क्या है?’’
‘‘रोहित, आज मेरा मूड सचमुच हंसीमजाक का नहीं है. मैं आप से एक खास बात करना चाहती हूं,’’ गायत्री ने कुछ झिझकते हुए कहा.
‘‘खास बात?’’ रोहित कुछ चौंकते हुए बोला.
‘‘हां, इस बात को ले कर मैं कुछ दिनों से परेशान हूं. पहले भी कई बार मैं ने इस बारे में आप से बात करने की कोशिश की थी, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाई.’’
‘‘चलो, आज तो तुम ने हिम्मत जुटा ली है. अब अपनी बात कह भी डालो, जिसे ले कर तुम इतनी परेशान दिखाई दे रही हो.’’
‘‘रोहित, तुम जानते हो कि मैं कौन हूं?’’
‘‘लो, यह भी कोई पूछने की बात है. भला मुझ से ज्यादा तुम्हें और कौन जानेगा?’’ रोहित ने धीरे से कहा.
‘‘बात को टालो मत.’’
‘‘ठीक है, तो फिर सुनो. तुम एक प्यारी सी सुंदर लड़की हो. कालेज में पढ़ाती हो और अपने सामने बैठे इस नालायक आदमी से बेपनाह मुहब्बत करती हो,’’ रोहित ने गायत्री को छेड़ते हुए कहा.
‘‘रोहित, मेरा यह मतलब नहीं है. मेरा मतलब मेरे परिवार से है, जिस में मैं ने जन्म लिया है,’’ गायत्री ने असली बात पर आते हुए कहा.
‘‘ओह… आखिर वही बात सामने आ गई, जिस का मुझे डर था. मैं ने बहुत दिन पहले ही सोच लिया था कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है.’’
‘‘कौन सी बात?’’ गायत्री ने हैरानी से पूछा.
‘‘हूं… तो सुनिए जनाब, तुम यही कहना चाहती हो न कि देखो रोहित तुम एक ऊंची जाति के हो और मैं छोटी जाति की हूं, इसलिए हमारा रिश्ता समाज और तुम्हारे घर वालों को कभी पसंद नहीं होगा. इसलिए बेहतर यही है कि हम अपने कदम वापस खींच लें और एक सपना समझ कर सबकुछ भूल जाएं. क्यों ठीक है न?’’ कह कर रोहित चुप हो गया और गायत्री की आंखों में देखने लगा, जहां से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.
‘‘रोहित,’’ गायत्री सुबक पड़ी और अपना चेहरा रोहित की गोद में छिपा लिया.
‘‘अरे पगली, एक बेतुकी बात के लिए अपने सीने पर इतना भारी बोझ ले कर बैठी थीं. मैं ने तुम से मुहब्बत अपना दिल बहलाने या ऐयाशी के लिए नहीं की है, बल्कि अपना जीवनसाथी बनाने के लिए तुम से यह रिश्ता जोड़ा है. मुझे तुम से बेपनाह मुहब्बत है. फिर हमारे बीच यह जाति वाली बात कहां से आ गई?’’
रोहित की बात सुन कर गायत्री उसे ऐसे देखने लगी, जैसे कोई सपना देख रही हो.
‘‘देखो गायत्री, आज मुझे बहुत अफसोस हो रहा है कि इतने दिन मेरे साथ रह कर भी तुम मुझे पहचान नहीं पाई. तुम नहीं जानतीं, मेरे घर वाले कितने खुले विचारों के हैं. वह इस जातबिरादरी को बिलकुल नहीं मानते.
‘‘अपने घर वालों को मैं ने शुरू में ही तुम्हारे बारे में सबकुछ बता दिया था. तुम्हारे ही महल्ले के एक आदमी से, जो हमारे ही दफ्तर में काम करता है, तुम्हारे बारे में मुझे सारी जानकारी मिल गई थी. मेरे घर वालों को सिर्फ एक गुणी
और सुशील बहू चाहिए, जो उन के परिवार की शोभा बढ़ा सके. ये सब गुण तुम्हारे अंदर हैं, इसलिए मैं ने तुम्हें चुन कर कोई गलती नहीं की है.
‘‘मैं तो खुद ही ऐसा मौका तलाश रहा था, ताकि तुम से शादी की बात कर सकूं… आज वह मौका तुम ने खुद ही दे दिया.’’
‘‘रोहित, मैं यह सब क्या सुन रही हूं?’’ गायत्री ने उस के कंधे पर अपना सिर टिकाते हुए कहा.
‘‘रानीजी, आप जो सुन रही हैं, वही सच है. अब तो आप अपना फैसला सुनाइए,’’ रोहित ने उस का चेहरा अपने सामने करते हुए कहा.
‘‘मैं ने तो कभी सोचा ही नहीं था कि मुझे तुम्हारे जैसा सच्चा इनसान इस तरह मिल जाएगा. क्या तुम्हारा वह ऐक्सीडैंट कुदरत ने इसीलिए करवाया था कि हमें मिलना था?’’
‘‘शायद, अगर वह सब नहीं होता, तो हम मिलते कैसे? खैर, बाकी सब बातें छोड़ो और यह बताओ कि मेरे मांबाप की बहू बन कर मेरा और उन का सपना कब पूरा करोगी?’’
‘‘जब आप का हुक्म होगा मेरे साजन,’’ कह कर गायत्री अदा से उठी और उस ने सिर पर चुन्नी रख कर रोहित के पैर छू लिए.
रोहित जोर से हंस पड़ा. उस ने गायत्री को उठा कर अपने सीने से लगा लिया. दोनों ने अपनेआप को एक गहरे रिश्ते में बांध लिया था.

जरूरत : जातपांत का भेदभाव

गांव में जैसे भूचाल सा आ गया था. एक ऐसा भूचाल, जो सामने से भले ही दिखाई न दे, मगर जिस ने कुछ परिवारों में उथलपुथल जरूर मचा दी थी. कुछ परिवार फनफना रहे थे, तो कुछ परिवार सहमे हुए थे कि पता नहीं, अब क्या अनहोनी घट जाए.

गांव के घरघर में सुगबुगाहट के साथ चर्चा हो रही थी. अब गीता और उस के पति शंकर की खैर नहीं. हो सकता है कि दोनों को गांव से भगा दिया जाए, किसी से भी रिश्ता न रखने दिया जाए या दोनों की बुरी तरह पिटाई की जाए. ऐसा डर लाजिमी था.

हो भी क्यों न. आखिर इतने दिनों बाद जब यह पता चले कि शंकर नीची जाति का है, तो कुछ भी अनहोनी हो सकती है. लड़की ने भी झूठ बोल कर परिवार और खानदान की नाक कटवा दी, तो शंकर की भी इतनी हिम्मत कैसे हुई कि पूरे गांव वालों की आंख में वह धूल झोंके.

हैरानी तो यह है कि आखिर इतने दिनों तक इस बात की भनक किसी को मिली क्यों नहीं, अब तो दोनों का एकलौता बेटा सुरेश कालेज में पढ़ रहा है. पता नहीं तीनों की क्या दुर्गति हो. तीनों को एक घर में बंद कर के पहरा लगा दिया गया है.

जब सूरजदेव आएगा, तभी फैसला होगा कि उन्हें क्या सजा दी जाए. इस घटना को ले कर गांव की सभी जातियों के लोगों में अपनेअपने तरीके और सोच के मुताबिक चर्चा हो रही थी.

‘‘भैया, शंकर की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी. छोटी जाति का हो कर बड़ी जाति की लड़की से शादी कर के वह इतने दिनों तक झूठ बोल कर कितनी शान से गांव में रह रहा था.

बाबू साहब भले आदमी हैं. शंकर को अपनी जाति का लड़का मान कर बेटी के प्रेम विवाह को स्वीकार कर लिया था, लेकिन झूठ तो बरदाश्त नहीं किया जा सकता है न.’’

‘‘गीता ने भी तो खानदान की नाक कटवा दी है. दूर के कालेज में पढ़ने क्या गई, छोटी जाति के लड़के से ब्याह कर लिया. उसी ने झूठ बोला है कि उस का पति उसी की जाति का है.

‘‘पास के गांव के एक स्कूल में एक मास्टर बदली हो कर आया है रघुवीर प्रसाद. उसी ने किसी को बता दिया कि शंकर उसी का दूर का रिश्तेदार है. बस, यह बात एक घर से दूसरे घर होती हुई गांवभर में पहुंच गई. भांडा फूट गया. भला सचाई को कितने दिनों तक छिपाया जा सकता है. वैसे, शंकर है अच्छा आदमी.’’

‘‘हां, शंकर अच्छा आदमी तो है ही. शेर सिंह की मां की जान उसी के चलते बची है. पंडित महेंद्र शर्मा की बेटी को उस की ससुराल वाले बहुत परेशान करते थे. उसी ने पंडितजी के साथ जा कर मामले को शांत करवाया. आज लड़की अपनी ससुराल में सुख से है.

‘‘पता नहीं, कितने लोग उस के एहसान तले दबे हैं. अब जातपांत का भेदभाव खत्म होना चाहिए. शंकर को माफ कर के अपनी जाति में शामिल कर लेना चाहिए.’’

‘‘अबे चुप कर. उस ने हम लोगों की जाति के साथ धोखा किया है. अच्छा आदमी है तो क्या हुआ, काम तो गलत किया है. बाबू साहब ने ठीक किया है. उन के बेटे तो शंकर के हाथपैर तोड़ कर उसे कहीं फेंक देते, मगर बहन का मुंह देख कर अभी कुछ नहीं कहा है.

‘‘इस गांव का शेर सूरजदेव सिंह है, वहीं यहां की सामाजिक समस्याओं का फैसला करता है. वह आज शाम तक आ जाएगा. किसी काम से दिल्ली गया है.

‘‘चोरडकैत, आसपास के गांव के लोग, पुलिस, सरकारी अफसर, सब उस के फैसले को मानते हैं. उस के नाम से लोग थरथर कांपते हैं. आने दो उसे. फैसला हो जाएगा.’’

जितने लोग उतनी तरह की बातें. बात घूमफिर कर एक ही जगह पहुंचती कि इस अपराध में गीता भी बराबर की साझेदार है. उसे शंकर अच्छा लगा था और उस से शादी कर ली. उसी ने शंकर से ?ाठ बुलवाया था कि वह उसी जाति का है. अब सूरजदेव सिंह के आने पर पता नहीं क्या फैसला हो. गीता को भी कड़ी सजा मिल सकती है.

शाम को गांव की चौपाल में पंचायत लगी. पंचायत में शंकर, गीता और उस के बेटे सुरेश के हाथपैर बांध कर खड़ा किया गया था. पंचायत में प्लास्टिक की कुछ कुरसियों पर गीता के पिता, दोनों भाई, कई रिश्तेदार, सूरजदेव सिंह और उन के लठैत, गांव की दूसरी कई जातियों के लोग जमा थे. सब की सांसें मानो थमी हुई थीं.

सूरजदेव सिंह के इशारे पर गीता के पीहर वालों ने उन के अपराध का ब्योरा देना शुरू किया. गीता, शंकर और उन का बेटा चुपचाप सिर झुकाए खड़े थे.

सारी बातें सुन लेने के बाद सूरजदेव की आंखों में एक खतरनाक चमक उभरी. उस ने तीनों को गौर से देखने के बाद आसपास घेरा बना कर खड़े गांव वालों की ओर भी देखा. ज्यादातर लोगों की आंखों में गीता, शंकर और उस के बेटे को ले कर हमदर्दी की झलक थी.

सभी एकदूसरे का मुंह देख रहे थे, मगर कोई किसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. पंचायत में सन्नाटा पसरा था.

थोड़ी देर बाद सूरजदेव की गंभीर आवाज गूंजी, ‘‘मैं ने सारा कुछ सुन लिया है. सारा कुछ पता लगा लिया है. गीता और शंकर को तो हमारे समाज ने अपना लिया था, लेकिन जाति को ले कर झूठ बोलना बहुत बड़ा अपराध है.

‘‘अब शंकर कहता है कि वह कोई जातपांत नहीं मानता है. यह उस की मरजी है. उसे गीता ने बोलने को मजबूर किया था कि वह अपनी ही जाति का है. अब सचाई सामने आ गई है. अब आप लोग ही बताएं कि इन के लिए कैसी सजा ठीक रहेगी?’’

सजा के नाम पर पंचायत में आए ज्यादातर लोगों के शरीर में सिहरन दौड़ गई. सभी फिर एकदूसरे का मुंह देखने लगे. कुछ देर बाद ही गीता के दोनों भाइयों में से एक ने धीरे से कहा, ‘‘इन लोगों की अच्छी तरह पिटाई कर के यहां से दूर भगा दिया जाना चाहिए. वैसे, आप की मरजी. आप अपनी तरफ से जो भी सजा तय करते हैं, ठीक ही होगा. हम लोगों ने आप के फैसले को हमेशा ही इज्जत दी है, उसे माना है.’’

फिर सन्नाटा पसर गया. सभी के दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं. ‘‘तो ठीक है…’’ सूरजदेव सिंह की रोबीली आवाज गूंजी, ‘‘मेरा मानना है कि गीता और शंकर को माफ किया जाए. मैं इन्हें हंसीखुशी गांव में रहने की इजाजत देता हूं. आप लोगों को कुछ कहना है तो बताएं. उस पर सोचविचार किया जाएगा.’’

सूरजदेव सिंह की इस बात से सभी के चेहरे पर घोर आश्चर्य उमड़ आया. सभी में कानाफूसी होने लगी, मगर किसी से कुछ कहते नहीं बन पड़ा. इसी में चंद मिनट गुजर गए. ऐसा लगा, जैसे सभी सोच रहे हों कि जब सूरजदेव सिंह ने कोई फैसला ले लिया है, तो अब कुछ कहने को नहीं रहा. जरूर इस में भी कोई बात है. सभी उसे देखने लगे.

सूरजदेव उठ खड़ा हुआ था. एक बार सभी के चेहरे को देखते हुए वह धीरे से मुसकरा कर गंभीरता से बोला, ‘‘मैं ने इस मामले पर काफी सोचविचार किया है. इस ने मुझे नई दिशा दी है. हमें ऐसे लोगों की उन गलतियों को माफ कर देना चाहिए, जो माफी के लायक हों, क्योंकि आज समाज को अच्छे लोगों की बहुत जरूरत है.

‘‘हमें अच्छे लोगों की जाति का समाज बनाना होगा, जहां कोई भेदभाव नहीं हो, छुआछूत न हो, तभी यह दुनिया कायम रह सकेगी.

‘‘शंकर और गीता ने जो किया, वह उन की मजबूरी थी, क्योंकि यह मजबूरी हमारे रूढि़वादी समाज ने उन्हें सौंपी है. ये लोग गांव में पहले की तरह रहेंगे. यही मेरा फैसला है.’’

पंचायत में सभी एकदूसरे का मुंह देखने लगे. सूरजदेव सिंह के इशारे पर शंकर, गीता और उन के बेटे सुरेश के हाथपैर के बंधन खोल दिए गए.

हालांकि, कुछ लोगों के चेहरे पर थोड़ी नाराजगी और हार की हलकी झलक थी, मगर ऐसा लगा कि कहीं उन के अंदर भी सूरजदेव सिंह के फैसले का समर्थन हो.

सभी के चेहरे पर इस फैसले से एक अजीब खुशी थिरक उठी थी. शंकर और गीता ने सभी की ओर देखते हुए हाथ जोड़ दिए थे. गीता के पिता बाबू साहब ने आगे बढ़ कर उन दोनों को गले से लगा लिया था.

नेपाली लड़की : कहानी जानकी बहादुर की

प्रमोद ने अपने घर में झाड़ूपोंछा करने वाली लड़की संजू से कहा था कि अगर वह अंगरेजी कंप्यूटर टाइपिंग करने वाली किसी स्टूडैंट को जानती है

और जिसे पार्टटाइम नौकरी की जरूरत है, तो उसे ले आए.

संजू 3 दिन बाद जिस लड़की को लाई, वह कद में कुछ कम ऊंची, पर गठा हुआ बदन, गोल चेहरा, रंग साफ, बाल बौबकट थे, जो उस के गोल चेहरे को खूबसूरत बना रहे थे. पहनावे से वह आम लड़की दिखती

थी. उस की उम्र का अंदाजा लगाना भी मुश्किल था.

जो भी हो, प्रमोद को अंगरेजी कंप्यूटर टाइपिंग जानने वाले की जरूरत थी, इसलिए उस ने ज्यादा पूछताछ किए बिना ही उस लड़की को अपने दफ्तर में टाइपिस्ट का काम दे दिया.

उस लड़की ने अपना नाम जानकी बहादुर बताया था. शक्ल से वह किसी उत्तरपूर्वी प्रदेश की लगती थी.

बाद में प्रमोद ने नाम से अंदाजा लगाया कि जानकी बहादुर नेपाल से आए किसी परिवार की लड़की है. उसे उस लड़की की राष्ट्रीयता से कुछ लेनादेना नहीं था, इसलिए इस ओर ध्यान भी नहीं दिया.

शुरूशुरू में प्रमोद जानकी को डिक्टेशन देता था, ज्यादातर ईमेल, बिजनैस लैटर लिखवाता था. चूंकि वह कौमर्स की छात्रा थी, तो लैटर का कंटैंट सम?ाने में उसे मुश्किल नहीं हुई, लेकिन टाइपिंग में स्पैलिंग की गलतियां होती थीं. हो सकता है कि वह प्रमोद का अंगरेजी उच्चारण सम?ा न पाती हो या फिर हिंदी मीडियम से कौमर्स करने के चलते कौमर्स के तकनीकी अंगरेजी शब्द उस के लिए अजनबी थे, इसलिए प्रमोद उस को डिक्टेशन न दे कर खुद चिट्ठियां लिख कर

देने लगा.

1-2 महीने में ही प्रमोद को यह देख कर बेहद हैरानी हुई कि अब उस लड़की द्वारा टाइप की गई चिट्ठियों में से गलतियां नदारद थीं.

एक दिन जानकी ने प्रमोद से कहा, ‘‘सर, क्या आप मु?ो फुलटाइम के लिए दफ्तर में रख सकते हैं?’’

‘‘तुम दफ्तर का और क्या काम कर सकती हो?’’

‘‘आप जो भी करने को कहेंगे?’’

‘‘और कालेज?’’

‘‘मैं प्राइवेट पढ़ाई कर रही हूं.’’

‘‘ठीक है…’’ फिर प्रमोद ने उस से पूछा, ‘‘हिंदी की टाइपिंग कर सकोगी?’’

‘‘10-15 दिन में सीख लूंगी,’’ जानकी ने बड़े यकीन के साथ कहा.

प्रमोद के पास इस बात पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं थी, क्योंकि 2-3 महीनों में वह काम के प्रति उस की लगन देख कर हैरान था.

जानकी न तो दफ्तर बंद होते ही घर भागती थी और न ही उस ने कभी बहाना किया कि सर, मेरे पास काम बहुत है, या फिर 5 बज गए हैं.

बौस को और क्या चाहिए? बस, ज्यादा से ज्यादा काम और अच्छे ढंग से किया गया काम.

देखते ही देखते प्रमोद जानकी पर पूरी तरह निर्भर हो गया. वह न केवल दफ्तर के कामों में माहिर हो गई, बल्कि प्रमोद ने दफ्तर के बाहर का काम भी उसे सौंप दिया. स्टेशनरी खरीदना, और्डर भेजना, रिसीव करना, हिसाबकिताब रखना वगैरह. वह एकएक पैसे का हिसाब रखती थी और सच पूछो तो उस से हिसाब मांगने की प्रमोद को कभी जरूरत नहीं पड़ी.

एक बार प्रमोद गंभीर रूप से बीमार पड़ गया था. जानकी जानती थी कि

उस का शहर में अपना कोई नहीं है, तो वह एक हफ्ते तक अस्पताल में रातदिन एक नर्स की तरह उस की देखभाल करती रही.

प्रमोद ने इस दौरान दफ्तर में अपना काम जानकी को करने को कहा, तो उस ने बड़ी खुशी से उसे स्वीकारा और निभाया.

अस्पताल में प्रमोद ने जानकी से पूछा था, ‘‘मेरे लिए जो तुम इतना कर रही हो, क्या

इस के लिए तुम ने अपने मम्मीपापा से पूछा था?’’

‘‘हां सर, रात में अस्पताल में रहने के लिए जरूर पूछा था.’’

अस्पताल से छुट्टी देते हुए डाक्टर ने प्रमोद से कहा था, ‘‘उम्र ज्यादा होने के चलते आप का शरीर पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है, इसलिए अभी कुछ समय और आराम की जरूरत है. कुछ दिन आप दफ्तर के कामों में मत पडि़ए.’’

डाक्टर की सलाह मान कर प्रमोद ने दफ्तर से 3-4 महीने की छुट्टी लेने का निश्चय किया. वह अपने बेटे के पास बेंगलुरु जाना चाहता था. पर इतने लंबे समय तक दफ्तर कौन संभालेगा?

प्रमोद ने कुछ सोच कर स्टाफ की मीटिंग बुलाई और बात की.

प्रमोद जानकी को जिम्मेदारी सौंपना चाहता था, पर उस ने जैसे ही उस का नाम लिया, स्टाफ की दूसरी लड़कियां भड़क गईं.

‘‘सर, वह जूनियर है,’’ एक लड़की बोली,

‘‘आप को यह जिम्मेदारी मिसेज दीक्षित को देनी चाहिए, जो पिछले

10 साल से इस दफ्तर में काम कर रही हैं,’’ दूसरी लड़की बोली.

‘‘सर, जानकी को दफ्तर में आए डेढ़ साल ही हुआ है और आप उस को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपना चाहते हैं?’’ तीसरी लड़की ने कहा.

‘‘वह नेपाली है…’’ एक और लड़की बोली.

अब प्रमोद से सहन नहीं हुआ. डाक्टर ने कहा था कि तनाव से बचना, ब्लडप्रैशर बढ़ सकता है. पर यह आखिरी वाक्य उसे गाली जैसा लगा, तो उसे कहना पड़ा, ‘‘तो क्या हुआ? हमारी संस्था के प्रति उस की निष्ठा आप सब से कहीं ज्यादा है. वह संस्था को अपना समझ कर काम करती है, केवल तनख्वाह के लिए नहीं…’’

प्रमोद लैक्चर दे रहा था और स्टाफ सिर ?ाकाए सुन रहा था.

5 बजे दफ्तर बंद हुआ, तो मिसेज दीक्षित प्रमोद के पास आईं.

‘‘सर, मु?ो आप से एक बात कहनी है,’’ मिसेज दीक्षित बोलीं.

‘‘उम्मीद है, तुम्हारी परेशानी सुन कर मेरा ब्लडप्रैशर नहीं बढ़ेगा,’’ प्रमोद ने कहा.

‘‘सर, आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं,’’ मिसेज दीक्षित ने कहा.

‘‘नहीं, बोलो,’’ प्रमोद बोला.

वे थोड़ी देर तक चुप रहीं. शायद सोचती रहीं कि बोलें कि न बोलें. फिर उन्होंने लंबी सांस ली और कहा, ‘‘सर, यह किसी के खिलाफ शिकायत नहीं है, पर आप को बताना जरूरी है. सर, जानकी जिस रेलवे कालोनी में रहती है, मैं भी वहीं रहती हूं. उस का और मेरा क्वार्टर दूर नहीं है.

‘‘सर, आप बुरा मत मानना. जानकी के पिता शराबी हैं. उन के घर में आएदिन लड़ाई होती रहती है. उधार की शराब पीपी कर उन पर इतना कर्ज हो गया है कि कर्ज देने वाले हर दिन उन के दरवाजे पर खड़े रहते हैं, गालीगलौज करते हैं. कालोनी वाले इस बात की शिकायत रेलवे मंडल अधिकारी से भी कर चुके हैं…’’

प्रमोद ने मिसेज दीक्षित की बात काट कर कहा, ‘‘तो इन बातों का हमारे दफ्तर से क्या संबंध है? या फिर जानकी का क्या संबंध है? ये बातें तो मैं भी जानता हूं.’’

‘‘जी…?’’ मिसेज दीक्षित की आंखें हैरानी से फैल गईं.

प्रमोद ने उन से कहा, ‘‘वह कुरसी खींच लीजिए और बैठ जाइए.’’

प्रमोद का दफ्तर एक अमेरिकी मिशनरी के पुराने बंगले में था. उस मिशनरी के लौट जाने के बाद प्रमोद की संस्था ने उस को खरीद लिया था. आधे में दफ्तर और आधे में उस का घर.

पत्नी की मौत के बाद प्रमोद अकेला ही कोठी में रहता था और संस्था चलाता था. संस्था प्रकाशन का काम करती थी और प्रमोद उस का संपादक था. सारे प्रकाशन की जिम्मेदारी उस पर ही थी.

प्रमोद ने मिसेज दीक्षित से कहा, ‘‘जानकी ने खुद मुझे अपने परिवार के बारे में बताया है. आज से 40 साल पहले जानकी के पिता उस की मां को भगा कर भारत में लाए थे.

‘‘वे नेपाल से सीधे जबलपुर कैसे पहुंच गए, यह वह भी अपनेआप में एक दिलचस्प कहानी है. पहले वे रेलवे के किसी अफसर के यहां खाना बनाते थे और उसी के गैस्ट हाउस में रहते थे.

‘‘परिवार में लड़ाई?ागड़े तो तब शुरू हुए, जब जानकी की मां ने हर साल लड़कियों को जन्म देना शुरू किया. यह सिलसिला तभी रुका, जब एक दिन जानकी के पिता अचानक नेपाल भाग गए. उन की पत्नी अपनी 3 छोटीछोटी बेटियों के साथ जबलपुर में रह गईं.

‘‘वैसे, जबलपुर में नेपालियों की आबादी कम नहीं है. इन की वफादारी और ईमानदारी के चलते जहां भी चौकीदार की जरूरत पड़ती है, वहां ये लोग ही आप को मिलेंगे.

‘‘हां, अब होटलों में चाइनीज फूड बनाने वाले भी नेपाली मिलने लगे हैं. ऐसे ही दूर के एक रिश्तेदार ने 3 बच्चियों की मां को सहारा दिया. उस का अपना छोटा सा ढाबा था. बच्चियों को सिखाया गया कि उसे ‘मामा’ कहो.

‘‘बच्चियों के वे मामा समझदार थे. उन्होंने बिना देर किए तीनों लड़कियों को सरकारी स्कूल में भरती कर दिया.

‘‘मामा के साथ यह परिवार खुशीखुशी दिन बिता रहा था कि कुछ सालों बाद जानकी के पिता एक और नेपाली लड़की को ले कर जबलपुर आ टपके.

‘‘उन्होंने एक रेलवे अफसर को खुश कर उन के रिटायरमैंट के पहले रेलवे अस्पताल में मरीजों को खाना खिलाने  की नौकरी पा ली. इतना ही नहीं, नौकरी के साथ रेलवे क्वार्टर भी मिल गया. उधर जानकी अपनी मां और बहनों के साथ अपने दूर के रिश्तेदार के साथ रह कर बड़ी हो रही थी.

‘‘जानकी की मां को खबर मिली कि जिस लड़की को उस के पति नेपाल से लाए थे, वह उन्हें छोड़ कर वापस नेपाल चली गई है. ढलती उम्र और अकेलेपन ने जानकी के पिता को अपने परिवार में लौटने के लिए मजबूर कर दिया.

‘‘लेकिन अब जबलपुर के हवापानी ने जानकी की मां को काफी सम?ादार बना दिया था. उन में सम्मान की भावना जाग चुकी थी और वे जान चुकी थीं कि उन का और उन की लड़कियों का फायदा किस के साथ रहने में है. लिहाजा, उन्होंने घर जाने से इनकार कर दिया.

‘‘इस से उन के पति की मर्दानगी को गहरी ठेस लगी और वे अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए शराबी बन गए और रेलवे अस्पताल के एक सूदखोर काले खां से उधार पैसा ले कर वे शराब पीने लगे.

‘‘यह सब जानकी की मां से देखा न गया. पति की घर वापसी हुई, पर वे उन की लत न छुड़ा सकीं.

‘‘नशे की हालत में जानकी के पिता अपनी पत्नी को कोसते हैं, तो वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देती हैं. बेटियां अपने मांबाप में बीचबचाव करती हैं. कालोनी वाले तमाशे का मुफ्त मजा लेते हैं.

‘‘ऐसे माहौल में जानकी की मां का जिंदगी बिताना क्या आप के दिल में हमदर्दी पैदा नहीं करता मिसेज दीक्षित? अगर कोई कीचड़ से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है, तो क्या हमें अपना हाथ बढ़ा कर उसे बाहर नहीं निकालना चाहिए?’’

मिसेज दीक्षित भरे गले से बोलीं, ‘‘सौरी सर.’’

हकीकत: खूनी जग्गा

‘‘बा बूजी, हमारे भाई की शादी में जरूर आना,’’ खुशी से चहकती लक्ष्मी शादी का कार्ड मुझे देते हुए कह रही थी.

‘‘जरूर आऊंगा लक्ष्मी. तुम्हारे यहां न आऊं, ऐसा कैसे हो सकता है…’’ मैं भी उसे दिलासा देते हुए बोला था.

लक्ष्मी के मांबाप उसी समय गुजर गए थे, जब वह मुश्किल से 15 साल की रही होगी. उस की गोद में डेढ़ साल का छोटा भाई और साथ में 5 साल की बहन रानी थी.

आज इस बात को कई साल हो गए हैं. डेढ़ साल का वह छोटा भाई आज खूबसूरत नौजवान है, जिस की शादी लक्ष्मी करा रही है.

मैं लक्ष्मी के जाते ही पुरानी यादों में खो गया. उस के पिता आंध्र प्रदेश से यहां मजदूरी करने आए थे, जो साइकिल मरम्मत की दुकान द्वारा अपना परिवार चलाते थे. वे किराए की ?ाग्गी में पत्नी व बच्चों के साथ रहते थे.

उसी महल्ले में जग्गा बदमाश भी रहता था, जिस की निगाह 14 साल की लक्ष्मी पर जा टिकी थी. सांवले रंग की लक्ष्मी तब भी भरे बदन वाली दिखती थी.

एक दिन जग्गा ने मौका पा कर लक्ष्मी को रौंद डाला. कली फूल बनने से पहले ही मसल दी गई थी.

जग्गा की इस करनी से लक्ष्मी का सीधासादा बाप इतना गुस्साया कि उस ने सो रहे जग्गा की कुदाल से काट कर हत्या कर दी.

खून के केस में लक्ष्मी का बाप जेल चला गया और मां दाई का काम कर के अपने बच्चे पालने लगी.

इधर लक्ष्मी पेट से हो गई, तो उस की मां लोकलाज के डर से महल्ला बदल कर इधर आ गई. फिर तो सरकारी अस्पताल में बच्चे का जन्म और उस की जल्दी मौत. लक्ष्मी की मां द्वारा इस तनाव को ?ोल न पाना और अचानक मर जाना, सब एकसाथ हुआ.

एक चैरिटेबल स्कूल में दाई की जरूरत थी, सो लक्ष्मी को रख लिया गया. सुबह नियमित समय पर आना, अपना काम मन से करना, सब से मीठा बोलना, लक्ष्मी के ऐसे गुण थे कि वह सभी का सम्मान पाने लगी.

आज इस बात को तकरीबन 25 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब लक्ष्मी एक अधेड़ औरत दिखती है.

‘‘क्यों लक्ष्मी, इन सब झमेलों के बीच तुम अपनी शादी भूल गईं?’’ मैं ने मजाक में पूछा था.

‘‘भूली कहां सर. शादी के बाद भी तो बच्चे ही होते न, सो 2 बच्चे मेरी गोद में हैं. मैं ने जन्म नहीं दिया है तो

क्या हुआ, अपना दूध पिला कर पाला तो है,’’ लक्ष्मी का यह जवाब मुझे अंदर तक हिला गया.

‘‘तुम ने दूध पिलाया है?’’ मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘हां साहब, मैं उस जग्गा बदमाश के चलते बदनाम हो गई थी. कौन शादी करता मुझसे? बच्चा पैदा करने के चलते मैं ने एक बार अपने रोते भाई को मजाक में दूध पिलाया था. वह चुप हो गया और मुझे मजा आया, फिर तो मैं ने 2 साल तक उसे दूध पिलाया.’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया.

‘‘क्या सोचने लगे बाबूजी?’’

‘‘यही कि तुम्हारी जितनी तारीफ करूं, कम है,’’ मेरे मुंह से निकला.

लक्ष्मी के दोनों भाईबहनों का स्कूल में दाखिला मैं ने ही कराया था. वहीं वे दोनों 12वीं जमात में फर्स्ट डिवीजन में पास कर चुके थे.

बहन जहां नर्स की ट्रेनिंग ले कर सरकारी अस्पताल में नर्स थी, वहीं भाई ने बीकौम किया और बैंक में क्लर्क हो गया था. उसी की शादी का कार्ड ले कर लक्ष्मी मेरे पास आई थी.

‘‘लक्ष्मी, तुम ने इतना कुछ कैसे कर लिया?’’ मैं ने एक दिन उस से पूछा था.

‘‘यह सोचने का समय कहां था साहब. बाप जेल में, मां मर गई. रिश्तेदारों में से कोई झांकने तक नहीं आया, इसलिए जैसेतैसे कर के जो भी काम मिला करती गई.

‘‘स्कूल का काम करते हुए 1-2 घर का काम करतेकरते जैसेतैसे कर के पैसा कमा कर भाईबहन और खुद का पेट भरना था. फीस के अलावा सारे खर्च थे, जो पूरा करतेकरते जिंदगी निकल गई. आज सब अपने पैरों पर खड़े हैं, तो उन की शादी करनी है.’’

लक्ष्मी ने जब ईडब्लूएस मकान के लिए कहा, तो मैं चौंक गया था. मैं ने उसे बैंक से लोन दिलवाया था. गारंटी भी मैं ने ही दी थी. मजे की बात यह कि उस ने पूरी किस्त समय से भर कर मकान अपना कर लिया. इसी तरह दूसरी सारी समस्याओं का सामना भी वह मजे में करती गई.

एक दिन एक अखबार में किसी के खुदकुशी करने की खबर को सुन कर लक्ष्मी परेशान हो गई और पूछ बैठी, ‘‘साहब, लोग खुदकुशी क्यों करते हैं?’’

‘‘जो जिंदगी से नाराज होते हैं या जिन्हें मनचाहा नहीं मिलता, वे खुदकुशी कर लेते हैं,’’ मेरा जवाब था.

‘‘साहब, मेरी पूरी जिंदगी में संघर्ष ही रहा. मांबाप को खोया, बच्चा

खोया, मगर लड़ती रही. अगर नहीं लड़ती, तो आज ये दोनों अनाथ होते. भटकभटक कर जान दे चुके होते, इसलिए इन की खातिर जीना पड़ा. अब तो आदत हो चुकी है. लेकिन मेरे मन में एक बार भी खुदकुशी करने का विचार नहीं आया.’’ लक्ष्मी की इस बात ने मुझे बिलकुल चुप करा दिया था.

गड़ा धन: एक गुस्सैल बाप की सीख

‘‘चल बे उठ… बहुत सो लिया… सिर पर सूरज चढ़ आया, पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही नहीं लेती,’’ राजू का बाप रमेश को झकझोरते हुए बोला.

‘‘अरे, अभी सोने दो. बेचारा कितना थकाहारा आता है. खड़ेखड़े पैर दुखने लगते हैं… और करता भी किस के लिए है… घर के लिए ही न… कुछ देर और सो लेने दो…’’ राजू की मां लक्ष्मी ने कहा.

‘‘अरे, करता है तो कौन सा एहसान करता है. खुद भी तो रोटी तोड़ता है चार टाइम,’’ कह कर बाप रमेश फिर से राजू को लतियाता है, ‘‘उठ बे… देर हो जाएगी, तो सेठ अलग से मारेगा…’’

लात लगने और चिल्लाने की आवाज से राजू की नींद तो खुल ही गई थी. आंखें मलता, दारूबाज बाप को घूरता हुआ वह गुसलखाने की ओर जाने लगा.

‘‘देखो तो कैसे आंखें निकाल रहा है, जैसे काट कर खा जाएगा मु?ो.’’

‘‘अरे, क्यों सुबहसुबह जलीकटी बक रहे हो,’’ राजू की मां बोली.

‘‘अच्छा, मैं बक रहा हूं और जो तेरा लाड़ला घूर रहा है मुझे…’’ और एक लात राजू की मां को भी मिल गई.

राजू जल्दीजल्दी इस नरक से निकल जाने की फिराक में है और बाप रमेश सब को काम पर लगा कर बोतल में मुंह धोने की फिराक में. छोटी गलती पर सेठ की गालियां और कभीकभार मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को.

यहां राजू की मां लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई. वह भी घर का खर्च चलाने के लिए दूसरों के घरों में झाड़ूबरतन करती थी.

‘‘लक्ष्मी, तू उस बाबा के मजार पर गई थी क्या धागा बांधने?’’ मालकिन के घर कपड़े धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी.

माला अधेड़ उम्र की थी और लक्ष्मी की परेशानियों को जानती भी थी, इसलिए वह कुछ न कुछ उस की मदद करने को तैयार रहती.

‘‘हां गई थी उसे ले कर… नशे में धुत्त रहता है दिनरात… बड़ी मुश्किल से साथ चलने को राजी हुआ…’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया, ‘‘पर होगा क्या इस सब से… इतने साल तो हो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा का मजार… ये मंदिर… उस बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो कर के देख लिया, पर न ही कोख फलती है और न ही घर पनपता है. बस, आस के सहारे दिन कट रहे हैं,’’ कहतेकहते लक्ष्मी की आंखों से आंसू आ गए.

माला उसे हिम्मत बंधाते हुए बोली, ‘‘सब कर्मों के फल हैं री… और जो भोगना लिखा है, वह तो किसी न किसी तरह भोगना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…’’ बोलते हुए लक्ष्मी ने अपने  आंसुओं को पीने की कोशिश की.

‘‘सुन, एक बाबा और है. उसी के कहे अनुसार पूजा करने से बिगड़े काम बन जाते हैं,’’ माला ने बताया.

‘‘अच्छा, तुझे कैसे पता?’’ लक्ष्मी ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उस की लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई. मुझे तभी तेरा खयाल आया और उस बाबा का पताठिकाना पूछ कर ले आई. अब तू बोल कि कब चलना है?’’

‘‘उस से पूछ कर बताऊंगी… पता नहीं किस दिन होश में रहेगा.’’

‘‘हां, ठीक है. वह बाबा सिर्फ इतवार और बुधवार को ही बताता है. और कल बुधवार है, अगर तैयार हो जाए, तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही, फिर हम साथ चलेंगे… मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है,’’ माला बोली.

लक्ष्मी ने हां भरी और दोनों काम निबटा कर अपनेअपने रास्ते हो लीं.

लक्ष्मी माला की बात सुन कर खुश थी कि अगर सबकुछ सही रहा, तो उस के घर की भी मनहूसियत दूर हो जाएगी. पर कहीं राजू का बाप न सुधरा तो? आने वाली औलाद के साथ भी उस ने यही किया तो? जैसे सवालों ने उस की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की, पर उस ने खुद को संभाल लिया.

सामने आम का ठेला देख कर लक्ष्मी को राजू की याद आ गई.

‘राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है. सुबहसुबह बेचारा राजू उदास हो कर घर से निकला था, आम के रस से रोटी खाएगा, तो खुश हो जाएगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूंगी,’ मन में ही सारे तानेबाने बुन कर लक्ष्मी रुकी और एक आम ले कर जल्दीजल्दी घर की ओर चल दी.

घर पहुंच कर दोनों को खाना खिला कर सारे कामों से फारिग हो लक्ष्मी राजू के बाप से बात करने लगी. शराब का नशा कम था शायद या आम के रस का नशा हो आया था, वह अगले ही दिन जाने को मान गया.

अगले दिन राजू, उस का बाप और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ ले कर बाबा के ठिकाने पर चल दिए.

बाबा के दरवाजे पर 8-10 लोग पहले से ही अपनीअपनी परेशानी को दूर कर सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे. एकएक कर के सब को अंदर बुलाया जाता. वे लोग भी जा कर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए.

सभी लोग अपनीअपनी परेशानी में खोए थे. यहां माला लक्ष्मी को बीचबीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा बरताव करना है और इतनी जोर से समझाती कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुंच जाती. एकदो बार तो रमेश को गुस्सा आया, पर लक्ष्मी ने उसे हाथ पकड़ कर बैठाए रखा.

तकरीबन 2 घंटे के इंतजार के बाद उन की बारी आई, तब तक 5-6 परेशान लोग और आ चुके थे. खैर, अपनी बारी आने की खुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ झलक रही थी. यों लग रहा था, मानो यहां से वह बच्चा ले कर और घर की गरीबी यहीं छोड़ कर जाएगी.

चारों अंदर गए. बाबा ने उन की समस्या सुनी. फिर थोड़ी देर ध्यान लगा कर बैठ गया.

कुछ देर बाद बाबा ने जब आंखें खोलीं, तो आंखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं. अब लक्ष्मी को भरोसा हो गया था कि उस की समस्या का खात्मा हो ही जाएगा.

बाबा ने कहा, ‘‘कोई है, जिस की काली छाया तुम लोगों के घर पर पड़ रही है. वही तुम्हारे बच्चा न होने की वजह है. जहां तुम रहते हो, वहां गड़ा धन भी है, चाहो तो उसे निकलवा कर रातोंरात सेठ बन सकते हो…’’

रमेश और लक्ष्मी की आंखें चमक उठीं. उन दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर रमेश बाबा से बोला, ‘‘हम लोग खुद ही खुदाई कर के धन निकाल लेंगे और आप को चढ़ावा भी चढ़ा देंगे. आप तो जगह बता दो बस…’’

बाबा ने जोर का ठहाका लगाया और बोले, ‘‘यह सब इतना आसान नहीं…’’

‘‘तो फिर… क्या करना होगा,’’ रमेश उतावला हो उठा.

‘‘कर सकोगे?’’

‘‘आप बोलिए तो… इतने दुख सहे हैं, अब तो थोड़े से सुख के बदले कुछ भी कर जाऊंगा.’’

‘‘बलि लगेगी.’’

‘‘बस, इतनी सी बात. मैं बकरे का इंतजाम कर लूंगा.’’

‘‘बकरे की नहीं.’’

‘‘तो फिर…’’

‘‘नरबलि.’’

रमेश को काटो तो खून नहीं. लक्ष्मी और राजू भी सहम गए.

‘‘मतलब, किसी इनसान की हत्या?’’ रमेश बोला.

‘‘तो क्या गड़ा धन और औलाद पाना मजाक लग रहा था तुम लोगों को? जाओ, तुम लोगों से नहीं हो पाएगा,’’ बाबा तकरीबन चिल्ला उठा.

माला बीच में ही बोल उठी, ‘‘नहीं बाबा, नाराज मत हो. मैं सम?ाती हूं दोनों को,’’ और लक्ष्मी को अलग ले जा कर माला बोलने लगी, ‘‘एक जान की ही तो बात है. सोच, उस के बाद घर में खुशियां ही खुशियां होंगी. बच्चापैसा सब… देदे बलि.’’

लक्ष्मी तो जैसे होश ही खो बैठी थी. तब तक रमेश भी उन दोनों के पास आ गया और माला की बात बीच में ही काटते हुए बोला, ‘‘किस की बलि दे दें?’’

‘‘जिस का कोई नहीं उसी की. अपना खून अपना ही होता है. पराए और अपने में फर्क जानो,’’ माला बोली.

यह बात सुन कर रमेश का जमा हुआ खून अचानक खौल उठा और माला पर तकरीबन ?झपटते हुए बोला, ‘‘किस की बात कर रही है बुढि़या… जबान संभाल… वह मेरा बेटा है. 2 साल का था, जब वह मुझे बिलखते हुए रेलवे स्टेशन पर मिला था. कलेजे का टुकड़ा है वह मेरा,’’ राजू कोने में खड़ा सब सुनता रहा और आंखें फाड़फाड़ कर देखता रहा.

बाबा सब तमाशा देखसम?ा चुका था कि ये लोग जाल में नहीं फंसेंगे और न ही कोई मोटी दक्षिणा का इंतजाम होगा, इसलिए शिष्य से कह कर उन चारों को वहां से बाहर निकलवा दिया.

राजू हैरान था. बाहर निकल कर राजू के मुंह से बस यही शब्द निकले, ‘‘बाबा, मैं तेरा गड़ा धन बनूंगा.’’

यह सुन कर रमेश ने राजू को अपने सीने से लगा लिया. उस ने कसम खाई कि आज के बाद वह कभी शराब को हाथ नहीं लगाएगा.

दर्द : जिंदगी के उतार चढ़ावों को झेलती कनीजा

कनीजा बी करीब 1 घंटे से परेशान थीं. उन का पोता नदीम बाहर कहीं खेलने चला गया था. उसे 15 मिनट की खेलने की मुहलत दी गई थी, लेकिन अब 1 घंटे से भी ऊपर वक्त गुजर गया था. वह घर आने का नाम ही नहीं ले रहा था.

कनीजा बी को आशंका थी कि वह महल्ले के आवारा बच्चों के साथ खेलने के लिए जरूर कहीं दूर चला गया होगा.

वह नदीम को जीजान से चाहतीं. उन्हें उस का आवारा बच्चों के साथ घर से जाना कतई नहीं सुहाता था.

अत: वह चिंताग्रस्त हो कर भुनभुनाने लगी थीं, ‘‘कितना ही समझाओ, लेकिन ढीठ मानता ही नहीं. लाख बार कहा कि गली के आवारा बच्चों के साथ मत खेला कर, बिगड़ जाएगा, पर उस के कान पर जूं तक नहीं रेंगी. आने दो ढीठ को. इस बार वह मरम्मत करूंगी कि तौबा पुकार उठेगा. 7 साल का होने को आया है, पर जरा अक्ल नहीं आई. कोई दुर्घटना हो सकती है, कोई धोखा हो सकता है…’’

कनीजा बी का भुनभुनाना खत्म हुआ ही था कि नदीम दौड़ता हुआ घर में आ गया और कनीजा की खुशामद करता हुआ बोला, ‘‘दादीजान, कुलफी वाला आया है. कुलफी ले दीजिए न. हम ने बहुत दिनों से कुलफी नहीं खाई. आज हम कुलफी खाएंगे.’’

‘‘इधर आ, तुझे अच्छी तरह कुलफी खिलाती हूं,’’ कहते हुए कनीजा बी नदीम पर अपना गुस्सा उतारने लगीं. उन्होंने उस के गाल पर जोर से 3-4 तमाचे जड़ दिए.

नदीम सुबकसुबक कर रोने लगा. वह रोतेरोते कहता जाता, ‘‘पड़ोस वाली चचीजान सच कहती हैं. आप मेरी सगी दादीजान नहीं हैं, तभी तो मुझे इस बेदर्दी से मारती हैं.

‘‘आप मेरी सगी दादीजान होतीं तो मुझ पर ऐसे हाथ न उठातीं. तब्बो की दादीजान उसे कितना प्यार करती हैं. वह उस की सगी दादीजान हैं न. वह उसे उंगली भी नहीं छुआतीं.

‘‘अब मैं इस घर में नहीं रहूंगा. मैं भी अपने अम्मीअब्बू के पास चला जाऊंगा. दूर…बहुत दूर…फिर मारना किसे मारेंगी. ऊं…ऊं…ऊं…’’ वह और जोरजोर से सुबकसुबक कर रोने लगा.

नदीम की हृदयस्पर्शी बातों से कनीजा बी को लगा, जैसे किसी ने उन के दिल पर नश्तर चला दिया हो. अनायास ही उन की आंखें छलक आईं. वह कुछ क्षणों के लिए कहीं खो गईं. उन की आंखों के सामने उन का अतीत एक चलचित्र की तरह आने लगा.

जब वह 3 साल की मासूम बच्ची थीं, तभी उन के सिर से बाप का साया उठ गया था. सभी रिश्तेदारों ने किनारा कर लिया था. किसी ने भी उन्हें अंग नहीं लगाया था.

मां अनपढ़ थीं और कमाई का कोई साधन नहीं था, लेकिन मां ने कमर कस ली थी. वह मेहनतमजदूरी कर के अपना और अपनी बेटी का पेट पालने लगी थीं. अत: कनीजा बी के बचपन से ले कर जवानी तक के दिन तंगदस्ती में ही गुजरे थे.

तंगदस्ती के बावजूद मां ने कनीजा बी की पढ़ाईलिखाई की ओर खासा ध्यान दिया था. कनीजा बी ने भी अपनी बेवा, बेसहारा मां के सपनों को साकार करने के लिए पूरी लगन व मेहनत से प्रथम श्रेणी में 10वीं पास की थी और यों अपनी तेज बुद्धि का परिचय दिया था.

मैट्रिक पास करते ही कनीजा बी को एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. अत: जल्दी ही उन के घर की तंगदस्ती खुशहाली में बदलने लगी थी.

कनीजा बी एक सांवलीसलोनी एवं सुशील लड़की थीं. उन की नौकरी लगने के बाद जब उन के घर में खुशहाली आने लगी थी तो लोगों का ध्यान उन की ओर जाने लगा था. देखते ही देखते शादी के पैगाम आने लगे थे.

मुसीबत यह थी कि इतने पैगाम आने के बावजूद, रिश्ता कहीं तय नहीं हो रहा था. ज्यादातर लड़कों के अभिभावकों को कनीजा बी की नौकरी पर आपत्ति थी.

वे यह भूल जाते थे कि कनीजा बी के घर की खुशहाली का राज उन की नौकरी में ही तो छिपा है. उन की एक खास शर्त यह होती कि शादी के बाद नौकरी छोड़नी पड़ेगी, लेकिन कनीजा बी किसी भी कीमत पर लगीलगाई अपनी सरकारी नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थीं.

कनीजा बी पिता की असमय मृत्यु से बहुत बड़ा सबक सीख चुकी थीं. अर्थोपार्जन की समस्या ने उन की मां को कम परेशान नहीं किया था. रूखेसूखे में ही बचपन से जवानी तक के दिन बीते थे. अत: वह नौकरी छोड़ कर किसी किस्म का जोखिम मोल नहीं लेना चाहती थीं.

कनीजा बी का खयाल था कि अगर शादी के बाद उन के पति को कुछ हो गया तो उन की नौकरी एक बहुत बड़े सहारे के रूप में काम आ सकती थी.

वैसे भी पतिपत्नी दोनों के द्वारा अर्थोपार्जन से घर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकती थी, जिंदगी मजे में गुजर सकती थी.

देखते ही देखते 4-5 साल का अरसा गुजर गया था और कनीजा बी की शादी की बात कहीं पक्की नहीं हो सकी थी. उन की उम्र भी दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. अत: शादी की बात को ले कर मांबेटी परेशान रहने लगी थीं.

एक दिन पड़ोस के ही प्यारे मियां आए थे. वह उसी शहर के दूसरे महल्ले के रशीद का रिश्ता कनीजा बी के लिए लाए थे. उन के साथ एक महिला?भी थीं, जो स्वयं को रशीद की?भाभी बताती थीं.

रशीद एक छोटे से निजी प्रतिष्ठान में लेखाकार था और खातेपीते घर का था. कनीजा बी की नौकरी पर उसे कोई आपत्ति नहीं थी.

महल्लेपड़ोस वालों ने कनीजा बी की मां पर दबाव डाला था कि उस रिश्ते को हाथ से न जाने दें क्योंकि रिश्ता अच्छा है. वैसे भी लड़कियों के लिए अच्छे रिश्ते मुश्किल से आते हैं. फिर यह रिश्ता तो प्यारे मियां ले कर आए थे.

कनीजा बी की मां ने महल्लेपड़ोस के बुजुर्गों की सलाह मान कर कनीजा बी के लिए रशीद से रिश्ते की हामी भर दी थी.

कनीजा बी अपनी शादी की खबर सुन कर मारे खुशी के झूम उठी थीं. वह दिनरात अपने सुखी गृहस्थ जीवन की कल्पना करती रहती थीं.

और एक दिन वह घड़ी भी आ गई, जब कनीजा बी की शादी रशीद के साथ हो गई और वह मायके से विदा हो गईं. लेकिन ससुराल पहुंचते ही इस बात ने उन के होश उड़ा दिए कि जो महिला स्वयं को रशीद की भाभी बता रही थी, वह वास्तव में रशीद की पहली बीवी थी.

असलियत सामने आते ही कनीजा बी का सिर चकराने लगा. उन्हें लगा कि उन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है और उन्हें फंसाया गया है. प्यारे मियां ने उन के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया था. वह मन ही मन तड़प कर रह गईं.

लेकिन जल्दी ही रशीद ने कनीजा बी के समक्ष वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी, ‘‘बेगम, दरअसल बात यह थी कि शादी के 7 साल बाद भी जब हलीमा बी मुझे कोई औलाद नहीं दे सकी तो मैं औलाद के लिए तरसने लगा.

‘हम दोनों पतिपत्नी ने किसकिस डाक्टर से इलाज नहीं कराया, क्याक्या कोशिशें नहीं कीं, लेकिन नतीजा शून्य रहा. आखिर, हलीमा बी मुझ पर जोर देने लगी कि मैं दूसरी शादी कर लूं. औलाद और मेरी खुशी की खातिर उस ने घर में सौत लाना मंजूर कर लिया. बड़ी ही अनिच्छा से मुझे संतान सुख की खातिर दूसरी शादी का निर्णय लेना पड़ा.

‘मैं अपनी तनख्वाह में 2 बीवियों का बोझ उठाने के काबिल नहीं था. अत: दूसरी बीवी का चुनाव करते वक्त मैं इस बात पर जोर दे रहा था कि अगर वह नौकरी वाली हो तो बात बन सकती है. जब हमें, प्यारे मियां के जरिए तुम्हारा पता चला तो बात बनाने के लिए इस सचाई को छिपाना पड़ा कि मैं शादीशुदा हूं.

‘मैं झूठ नहीं बोलता. मैं संतान सुख की प्राप्ति की उत्कट इच्छा में इतना अंधा हो चुका था कि मुझे तुम लोगों से अपने विवाहित होने की सचाई छिपाने में कोई संकोच नहीं हुआ.

‘मैं अब महसूस कर रहा हूं कि यह अच्छा नहीं हुआ. सचाई तुम्हें पहले ही बता देनी चाहिए थी. लेकिन अब जो हो गया, सो हो गया.

‘वैसे देखा जाए तो एक तरह से मैं तुम्हारा गुनाहगार हुआ. बेगम, मेरे इस गुनाह को बख्श दो. मेरी तुम से गुजारिश है.’

कनीजा बी ने बहुत सोचविचार के बाद परिस्थिति से समझौता करना ही उचित समझा था, और वह अपनी गृहस्थी के प्रति समर्पित होती चली गई थीं.

कनीजा बी की शादी के बाद डेढ़ साल का अरसा गुजर गया था, लेकिन उन के भी मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. उस के विपरीत हलीमा बी में ही मां बनने के लक्षण दिखाई दे रहे थे. डाक्टरी परीक्षण से भी यह बात निश्चित हो गई थी कि हलीमा बी सचमुच मां बनने वाली हैं.

हलीमा बी के दिन पूरे होते ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई, लेकिन बच्चा था कि बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहा था. आखिर, आपरेशन द्वारा हलीमा बी के बेटे का जन्म हुआ. लेकिन हलीमा बी की हालत नाजुक हो गई. डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद वह बच नहीं सकी.

हलीमा बी की अकाल मौत से उस के बेटे गनी के लालनपालन की संपूर्ण जिम्मेदारी कनीजा बी पर आन पड़ी. अपनी कोख से बच्चा जने बगैर ही मातृत्व का बोझ ढोने के लिए कनीजा बी को विवश हो जाना पड़ा. उन्होंने उस जिम्मेदारी से दूर भागना उचित नहीं समझा. आखिर, गनी उन के पति की ही औलाद था.

रशीद इस बात का हमेशा खयाल रखा करता था कि उस के व्यवहार से कनीजा बी को किसी किस्म का दुख या तकलीफ न पहुंचे, वह हमेशा खुश रहें, गनी को मां का प्यार देती रहें और उसे किसी किस्म की कमी महसूस न होने दें.

कनीजा बी भी गनी को एक सगे बेटे की तरह चाहने लगीं. वह गनी पर अपना पूरा प्यार उड़ेल देतीं और गनी भी ‘अम्मीअम्मी’ कहता हुआ उन के आंचल से लिपट जाता.

अब गनी 5 साल का हो गया था और स्कूल जाने लगा था. मांबाप बेटे के उज्ज्वल भविष्य को ले कर सपना बुनने लगे थे.

इसी बीच एक हादसे ने कनीजा बी को अंदर तक तोड़ कर रख दिया.

वह मकर संक्रांति का दिन था. रशीद अपने चंद हिंदू दोस्तों के विशेष आग्रह पर उन के साथ नदी पर स्नान करने चला गया. लेकिन रशीद तैरतेतैरते एक भंवर की चपेट में आ कर अपनी जान गंवा बैठा.

रशीद की असमय मौत से कनीजा बी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन उन्होंने साहस का दामन नहीं छोड़ा.

उन्होंने अपने मन में एक गांठ बांध ली, ‘अब मुझे अकेले ही जिंदगी का यह रेगिस्तानी सफर तय करना है. अब और किसी पुरुष के संग की कामना न करते हुए मुझे अकेले ही वक्त के थपेड़ों से जूझना है.

‘पहला ही शौहर जिंदगी की नाव पार नहीं लगा सका तो दूसरा क्या पार लगा देगा. नहीं, मैं दूसरे खाविंद के बारे में सोच भी नहीं सकती.

‘फिर रशीद की एक निशानी गनी के रूप में है. इस का क्या होगा? इसे कौन गले लगाएगा? यह यतीम बच्चे की तरह दरदर भटकता फिरेगा. इस का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. मेरे अलावा इस का भार उठाने वाला भी तो कोई नहीं.

‘इस के नानानानी, मामामामी कोई भी तो दिल खोल कर नहीं कहता कि गनी का बोझ हम उठाएंगे. सब सुख के साथी?हैं.

‘मैं गनी को लावारिस नहीं बनने दूंगी. मैं भी तो इस की कुछ लगती हूं. मैं सौतेली ही सही, मगर इस की मां हूं. जब यह मुझे प्यार से अम्मी कह कर पुकारता है तब मेरे दिल में ममता कैसे उमड़ आती है.

‘नहींनहीं, गनी को मेरी सख्त जरूरत है. मैं गनी को अपने से जुदा नहीं कर सकती. मेरी तो कोई संतान है ही नहीं. मैं इसे ही देख कर जी लूंगी.

‘मैं गनी को पढ़ालिखा कर एक नेक इनसान बनाऊंगी. इस की जिंदगी को संवारूंगी. यही अब जिंदगी का मकसद है.’

और कनीजा बी ने गनी की खातिर अपना सुखचैन लुटा दिया, अपना सर्वस्व त्याग दिया. फिर उसे एक काबिल और नेक इनसान बना कर ही दम लिया.

गनी पढ़लिख कर इंजीनियर बन गया.

उस दिन कनीजा बी कितनी खुश थीं जब गनी ने अपनी पहली तनख्वाह ला कर उन के हाथ पर रख दी. उन्हें लगा कि उन का सपना साकार हो गया, उन की कुरबानी रंग लाई. अब उन्हें मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.

फिर गनी की शादी हो गई. वह नदीम जैसे एक प्यारे से बेटे का पिता भी बन गया और कनीजा बी दादी बन गईं.

कनीजा बी नदीम के साथ स्वयं भी खेलने लगतीं. वह बच्चे के साथ बच्चा बन जातीं. उन्हें नदीम के साथ खेलने में बड़ा आनंद आता. नदीम भी मां से ज्यादा दादी को चाहने लगा था.

उस दिन ईद थी. कनीजा बी का घर खुशियों से गूंज रहा था. ईद मिलने आने वालों का तांता लगा हुआ था.

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था.

उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था.

गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था.

वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं.

रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया.

कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा.

‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं.

‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’

‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’

कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था. उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था. गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था. वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं. रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया. कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा. ‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं. ‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’ ‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’ कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’

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