Writer- रेणु गुप्ता

अपने पति त्रिलोकी की गालियों से बेहाल और आंसू बहाती गुलाबो के कानों में उस के दिल छीलने वाले शब्द गूंज रहे थे, 'किस यार के दम पर इतने दिनों से अपनी चौखट छोड़ कर यहां मामा के घर बैठी है? जरूर यहां भी तेरा वह छैलछबीला आशिक आता होगा, तेरे साथ मुंह काला करने. तभी पेट जाए बच्चों की भी चिंता नहीं है कि वे जिएं या मरें. भली घरगृहस्थीदार औरतों के कहीं ऐसे लक्षण होते हैं...'

त्रिलोकी के कहे हुए ये शब्द जैसे गुलाबो के कलेजे को चीर डाल रहे थे, ऊपर से पेट की आग... कल रात से दोपहर होने आई थी, अन्न का एक दाना तक उस के पेट में नहीं गया था. आंतें ऐंठ रही थीं बुरी तरह भूख से.

'दोपहर तक कुछ पैसों का जुगाड़ कर लाऊंगा,' मामा सुबह कह कर गए थे, लेकिन वे भी अभी तक नहीं आए. घर में कुछ भी नहीं था, जिसे खा कर गुलाबो अपनी भूख मिटा सके.

‘क्या करूं, कहां जाऊं जो इस पेट के गड्ढे को भरने का कुछ जतन हो सके... गुलाबो सोच ही रही थी कि तभी दरवाजे पर खटखट हुई.

शिद्दत की भूख और दिमागी तनाव से बेहाल गुलाबो ने दरवाजा खोला. उस के सामने मामा के घर से सटे हुए घर में रहने वाला अधेड़ उम्र का पड़ोसी कालीचरण था. पान से रंगे हुए दांतों को झलकाते हुए वह उसे देख कर मुसकराया और बोला, "क्या बात है गुलाबो रानी, तू रो रही है? अरे, क्या हो गया? मैं ने खिड़की से देखा कि सुबह दामादजी आए थे. कुछ कहासुनी हो गई क्या?

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