भूपेश बघेल के ढाई साल बनाम बीस साल!

बहुत समय से लोगों को इस पल का इंतजार था क्यों और कैसे हम आगे बताएंगे. मगर यहां यह बताना जरूरी है कि भूपेश बघेल के ढाई साल की सरकार ने जो जमीनी कार्य किए हैं वह अपने आप में मील के पत्थर सिद्ध हुए  हैं, सबसे महत्वपूर्ण कार्य है गरवा नरवा और बाड़ी का, जिसकी प्रशंसा सिर्फ कांग्रेस और हाईकमान ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस के घोर विरोधी संघ अर्थात भारतीय जनता पार्टी की पितृ संस्था ने भूपेश बघेल से मुलाकात कर  की है.

भूपेश बघेल का मुख्यमंत्रित्व  काल इसलिए भी  रेखांकित करने योग्य है क्योंकि अल्प समय में ही उन्होंने जो विकास के कार्य किए हैं वे महत्वपूर्ण हैं यही नहीं उन्होंने आम लोगों से भिन्न लगातार आम जन से मुलाकात का सिलसिला बनाए रखा. भूपेश बघेल कोरोना कोविड 19 के समय काल में भी छत्तीसगढ़ की जनता से वर्चुअल ही सही लेकिन लगातार मुलाकात करते रहे और लोगों के दुख दर्द को समझ कर के दूर करने का निरंतर प्रयास किया. आमतौर पर जब कोई सत्ता के सिंहासन पर बैठ जाता है तो उसमें एक मद दिखाई देता है मगर छत्तीसगढ़ इस संदर्भ में आज सौभाग्यशाली है कि भूपेश बघेल आज भी अपने आप को एक सामान्य साधारण सादगीपूर्ण गांधी वादी जीवन शैली अपनाते हुए लोगों के साथ सीधे जुड़े हुए दिखाई देते हैं.

रही बात ढाई साल के कार्यकाल पर उठे सवाल की तो यह अपने आप में आज एक जवाब है …. आगे इस पर हम विस्तार से चर्चा कर रहे हैं.

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किसानों, गरीब आदमी,जन हितैषी सरकार

भूपेश बघेल सरकार ने इन ढाई वर्ष  में लगातार केंद्र की उपेक्षा सही है अगर  यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा. हर पल  हर रास्ते पर केंद्र ने रोड़ा अटकाने का ही प्रयास किया. यह भूपेश बघेल सरकार के लिए एक ऐसा अंधेरा पक्ष है जिसे छत्तीसगढ़ के लोग ने देखा है. किसानों के बोनस का  मामला हो या धान खरीदी का हो केंद्र सरकार को  जैसे जिम्मेदार तरीके से एक संघीय ढांचे के तहत राज्य सरकार को मुक्त हस्त मदद करनी चाहिए थी वह मदद भूपेश बघेल को नहीं मिली. इसके लिए बावजूद किसानों के लिए जो कल्याणकारी कार्य भूपेश बघेल सरकार ने किए हैं वह अपने आप में ऐतिहासिक कहे जा सकते हैं. 25 00 रूपए में प्रति कुंतल धान खरीदी ऐसा काम है जो देश में और कहीं नहीं हुआ, इस तरह भूपेश बघेल ने जहां किसानों को अपने पैरों पर खड़े करने के लिए काम किया है.

दरअसल, आज तक देश में कहीं भी ऐसा साहसिक कार्य नहीं हुआ है.इसके साथ ही सरकार में आते ही किसानों का सारा कर्ज माफ कर देना भी भूपेश बघेल सरकार का महत्वपूर्ण कार्य कहा जा सकता है. जबकि मध्य प्रदेश में ही कमलनाथ की कांग्रेस की सरकार ने बहुत कम राशि ही माफ की. जबकि भूपेश भगत सरकार ने सारी की सारी किसानों को दिये गए ऋण की राशि को माफ कर दिया. किसानों के लिए हृदय से जो काम छत्तीसगढ़ में हुआ है, वह देश के लिए एक नजीर है. यही नहीं आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हों या फिर शिक्षक हों, इस  सरकार ने अल्प समय में ही ठोस काम करके दिखाया है कि सरकार को किस तरीके से जनहितकारी होना चाहिए इसका सबसे बड़ा उदाहरण है हाल ही में कोरोना वायरस के कारण ड्यूटी पर काल कवलित हुए शिक्षकों के एक परिजन को शासकीय नौकरी की पहल.

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भूपेश बघेल की कुर्सी पर संकट!

अगर यह कहा जाए भूपेश बघेल सरकार  के ढाई साल बनाम 20 वर्ष तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. क्योंकि इतने अल्प समय में ही छत्तीसगढ़ के जमीन से जुड़े हुए जो काम भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री के रूप में किए हैं वह कभी भुलाया नहीं जा सकते और जिनकी जमीनी स्तर पर बहुत आवश्यकता थी.  डॉ रमन सिंह की 15 वर्ष की सरकार से तुलना करें तो साफ है पहले सिर्फ हवा हवाई बन कर रह गई  थी सरकारें.  जैसे  एक सरकार को आम गरीब लोगों का हितेषी होना चाहिए यह भावना भूपेश बघेल की सरकार में दिखाई दी है चाहे वह राजस्व के साधारण से मामले हों, डॉ रमन सरकार ने 5 डिसमिल तक की भूमि के रजिस्ट्री पर  प्रतिबंध लगा दिया था.मगर भूपेश बघेल सरकार ने शपथ के साथ ही यह प्रतिबंध उठा लिया. ग्राम पंचायतों पर टैक्स लादा जाने वाला था. इसी तरह छोटी-छोटी और महत्वपूर्ण चीजों को भूपेश बघेल सरकार ने लागू किया और लोगों को बड़ी राहत दी.

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सरकार की लोकप्रियता के साथ ही यह अफवाह भी बाजार गर्म कर रही थी कि भूपेश बघेल तो सिर्फ ढाई साल के मुख्यमंत्री हैं! क्योंकि इसके बाद ढाई साल का कार्यकाल की एस सिंह देव संभालेंगे, मगर ढाई साल होते होते इस अफवाह के गुब्बारे से भी हवा निकल गई और लोगों ने देखा कि ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है.

हकीकत: अब विदेशी इमदाद के भरोसे कोरोना का इलाज

विदेशी अखबारों ने भारत में कोरोना फैलने की वजहों को ले कर संपादकीय लेख छापे हैं व बदतर हालात का जिक्र कर के दुनिया को जानकारी दी है. इस के बाद दूसरे देशों ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं.

‘बीबीसी वर्ल्ड’ ने लिखा है कि भारत के अस्पताल घुटनों के बल पड़े हैं, मरीजों का रैला लगा हुआ है.

‘टाइम्स मैगजीन’ ने लिखा कि यह नरक है. मोदी की नाकामियों के चलते भारत में कोरोना संकट गहराया है.

‘द गार्जियन’ ने अपने संपादकीय में लिखा है कि मोदी की गलतियों के चलते भारत में कोरोना बेकाबू हो कर विकराल हालात में आया है.

‘न्यूयौर्क टाइम्स’ लिखता है कि मजाकिया (हलके में लेने) और गलत फैसले की वजह से भारत में संकट गहराया है.

सभी अखबारों ने कुंभ में जुटी लाखों की भीड़ व 5 राज्यों में चुनावों की रैलियों को कोरोना फैलने की सब से बड़ी वजह बताया है.

गौरतलब है कि जिस सिस्टम की चर्चा भारतीय मीडिया कर रहा है, उस सिस्टम के मुख्य पदों पर पिछले 7 सालों में भगवाई और स्वयंसेवक संघ की बैकग्राउंड के लोगों को बिठाया गया व सिस्टम का मालिक यानी प्रधानमंत्री खुद संघ से आता है.

धर्म विशेष की राजनीति कर के सत्ता में आए लोगों से आपदा के समय वैज्ञानिक मैनेजमैंट की उम्मीद करना ही बेमानी है. यही वजह है कि मोदी सरकार के मंत्री औक्सीजन व बिस्तर का इंतजाम करवाने के लिए नारियल चढ़ाने या रामचरितमानस का पाठ पढ़ने की सलाह दे रहे हैं.

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उत्तर प्रदेश सरकार कोरोना संकट के बीच अयोध्या जाने वाले हाईवे पर करोड़ों रुपए फूंकते हुए रामायणरूपी पौराणिक पात्रों की रंगोलियां बनवा रही है.

‘आस्ट्रेलियन फाइनैंशियल व्यू’ में एक कार्टून छपा है, जिस में मोदी को मरे हुए हाथी के ऊपर सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है, जिन के एक हाथ को रैली की भीड़ का अभिवादन स्वीकार करते हुए व दूसरे हाथ में भाषण को लालायित माइक थामे दिखाया गया है. मरा हुआ हाथी विशालकाय भारत का स्वरूप है.

देशी लश्कर ए मोदी मीडिया द्वारा अंधभक्तों की आंखों की पुतली पर विदेशों में डंका बजने वाला जो रंग चढ़ाया गया था, वह अब पूरी तरह से उतर चुका है. विदेशी अखबारों में जो छप रहा है, वह बेहद शर्मनाक है. 7 साल से सिस्टम पर कुंडली मार कर बैठे लोगों ने दिल्ली समेत 700 बड़ेबड़े पार्टी दफ्तर बनाने के लिए अरबों रुपए फूंक डाले हैं.

ये पैसे पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मनरेगा में काम कर के नहीं कमाए थे, बल्कि पीएम केयर फंड, टैक्स चोरी  व क्रोनीकैपिटलिज्म द्वारा हासिल किए गए थे.

आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फेसबुक के पेज का कमैंट बौक्स चैक कीजिए. औक्सीजन व बिस्तर मांगने वालों की प्रोफाइल चैक कीजिए. पता चलेगा कि ज्यादातर लोग ‘भूतपूर्व चौकीदार’ हैं. ये घर की चौकीदारी के बजाय देश की चौकीदारी करने निकले थे, लेकिन राष्ट्रीय चौकीदार ने इन को उस जगह पर ला खड़ा कर दिया है, जहां मदद के लिए कोई नहीं दिख रहा है.

गौरतलब है कि महाराष्ट्र, दिल्ली व मध्य प्रदेश में कोरोना का विकराल रूप चल रहा था, तब बेपरवाह लोग केंद्रीय चुनाव आयोग के सहयोग से पश्चिम बंगाल जीतने निकले थे. पूरे देश पर पाबंदियां थोपते रहे और खुद पश्चिम बंगाल में नंगा नाच करते रहे थे.

इन के द्वारा पैदा की गई भूलों के चलते जनता ने भी गंभीरता से नहीं लिया और नतीजतन आज लाशों के ढेर पर देश खड़ा है. पश्चिम बंगाल में अब टैस्ट करवा रहे लोगों में से हर दूसरा इनसान कोरोना पौजिटिव आ रहा है.

5 महीनों से किसान आंदोलन कर रहे हैं, दुनियाभर में चर्चा हुई, संयुक्त राष्ट्र संघ तक ने भारत सरकार को नसीहत दी, लेकिन निष्ठुर लोगों ने उस पर ध्यान देने के बजाय किसानों की मौतों का मजाक उड़ाया, संसद तक में खड़े हो कर ‘आंदोलनजीवी’ कहते हुए तंज कसते रहे.

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वहीं, सामाजिक चिंतक रामनारायण चौधरी कहते हैं, ‘‘जिन को कत्ल का हुनर देख कर चुना गया हो, उन से रहमदिल होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. मुझे यकीन है कि विदेशी मीडिया की इन खबरों से भी इन के दिलोदिमाग पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पश्चिम बंगाल में भयंकर रूप से फैले कोरोना व मरते लोगों की जिम्मेदारी भी ये नहीं लेंगे.

‘‘आपदा में अवसर का फायदा कालाबाजारी करने वाले उठा रहे हैं. भारत खुद को आत्मनिर्भर समझे और कोरोना से खुद लड़े, यह नसीहत पहले ही दे दी गई थी. जिस मिडिल क्लास ने पूंजीवाद की पूंछ पकड़ कर हरहर मोदी किया था, वह घरघर अर्थियां सजा रहा है. कुदरत उपहास उड़ाने वालों को उपहास का पात्र कब बना दे, कोई नहीं कह सकता.’’

कोरोना के कहर से कराह रहे गांव

आजकल वैश्विक महामारी कोरोना का कहर गांवदेहात के इलाकों में तेजी से बढ़ रहा है, फिर वह चाहे उत्तर प्रदेश हो, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश या फिर कोई दूसरा राज्य ही सही, जबकि राज्य सरकारों का दावा

है कि कोरोना महामारी का संक्रमण गांवों में बढ़ने से रोकने के लिए ट्रैकिंग, टैस्टिंग और ट्रीटमैंट के फार्मूले पर कई दिन से सर्वे किया जा रहा है यानी अभी तक सिर्फ सर्वे? इलाज कब शुरू होगा?

खबरों के मुताबिक, राजस्थान के जिले जयपुर के देहाती इलाके चाकसू में एक ही घर में 3 मौतें कोरोना के चलते हुई हैं.

यही हाल राजस्थान  के टोंक जिले का है. महज 2 दिनों में टोंक के अलगअलग गांवों में कई दर्जन लोगों की एक दिन  में मौत की कई खबरें थीं. इस के बाद शासनप्रशासन हरकत में आया.

जयपुर व टोंक के अलावा कई जिलों के गांवों में बुखार से मौतें होने की सूचनाएं आ रही हैं. राजस्थान के भीलवाड़ा में भी गांवों में बहुत ज्यादा मौतें हो रही हैं. इसी तरह दूसरे गांवों में भी कोरोना महामारी के बढ़ने की खबरें आ रही हैं. हालांकि सब से ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के गांवों में हो रही हैं, उस से कम गुजरात, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में मौतें हो रही हैं.

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कोरोना की पहली लहर में गांव  बच गए थे, लेकिन इस बार गांवों से बुखारखांसी जैसी समस्याएं ही नहीं, बल्कि मौतों की लगातार खबरें आ रही हैं. पिछली बार शहर से लोग भाग कर गांव गए थे, लेकिन इस बार गांव के हालात भी बदतर होते जा रहे हैं.

गौरतलब है कि पिछले साल कोरोना बड़े शहरों तक ही सीमित था, कसबों और गांवों के बीच कहींकहीं लोगों के बीमार होने की खबरें आती थीं. यहां तक कि पिछले साल लौकडाउन में तकरीबन डेढ़ करोड़ प्रवासियों के शहरों से देश के गांवों में पहुंचने के बीच कोरोना से मौतों की सुर्खियां बनने वाली खबरें नहीं आई थीं, लेकिन इस बार कई राज्यों में गांव के गांव बीमार पड़े हैं, लोगों की जानें जा रही हैं. हालांकि, इन में से ज्यादातर मौतें आंकड़ों में दर्ज नहीं हो रही हैं, क्योंकि टैस्टिंग नहीं है या लोग करा नहीं रहे हैं.

राजस्थान में जयपुर जिले की चाकसू तहसील की ‘भावी निर्माण सोसाइटी’ के गिर्राज प्रसाद बताते हैं, ‘‘पिछले साल मुश्किल से किसी गांव से किसी आदमी की मौत की खबर आती थी, लेकिन इस बार हालात बहुत बुरे हैं. मैं आसपास के 30 किलोमीटर के गांवों में काम करता हूं. गांवों में ज्यादातर घरों में कोई न कोई बीमार है.’’

गिर्राज प्रसाद की बात इसलिए खास हो जाती है, क्योंकि वे और उन की संस्था के साथी पिछले 6 महीने से कोरोना वारियर का रोल निभा रहे हैं.

राजस्थान के जयपुर जिले में कोथून गांव है. इस गांव के एक किसान  44 साला राजाराम, जो खुद घर में आइसोलेट हो कर अपना इलाज करा रहे हैं, के मुताबिक, गांव में 30 फीसदी लोग कोविड पौजिटिव हैं.

राजाराम फोन पर बताते हैं, ‘‘मैं खुद कोरोना पौजिटिव हूं. गांव में ज्यादातर घरों में लोगों को बुखारखांसी की दिक्कत है. पहले गांव में छिटपुट केस थे, फिर जब 5-6 लोग पौजिटिव निकले तो सरकार की तरफ से एक वैन आई और उस ने जांच की तो कई लोग पौजिटिव मिले हैं.’’

जयपुरकोटा एनएच 12 के किनारे बसे इस गांव की जयपुर शहर से दूरी महज 50 किलोमीटर है और यहां की आबादी राजाराम के मुताबिक तकरीबन 4,000 है.

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गांव में ऐसा क्या हुआ कि इतने लोग बीमार हो गए? इस सवाल के जवाब में राजाराम बताते हैं, ‘‘सब से पहले तो गांव में 1-2 बरातें आईं, फिर 23-24 अप्रैल, 2021 को यहां बारिश आई थी, जिस के बाद लोग ज्यादा बीमार हुए.

‘‘शुरू में लोगों को लगा कि मौसमी बुखार है, लेकिन लोगों को दिक्कत होने पर जांच हुई तो पता चला कि कोरोना  है. ज्यादातर लोग घर में ही इलाज करा रहे हैं.’’

जयपुर में रहने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता और जनस्वास्थ्य अभियान से जुड़े आरके चिरानियां फोन पर बताते हैं, ‘‘कोरोना का जो डाटा है, वह ज्यादातर शहरों का ही होता है. गांव में तो पब्लिक हैल्थ सिस्टम बदतर है. जांच की सुविधाएं नहीं हैं. लोगों की मौत हो भी रही है, तो पता नहीं चल रहा. ये मौतें कहीं दर्ज भी नहीं हो रही हैं.

‘‘अगर आप शहरों के हालात देखिए, तो जो डाटा हम लोगों तक आ रहा है, वह बता रहा है कि शहरों में ही मौतें आंकड़ों से कई गुना ज्यादा हैं. अगर ग्रामीण भारत में सही से जांच हो, आंकड़े दर्ज किए जाएं तो यह नंबर कहीं ज्यादा होगा.’’

ग्रामीण भारत में हालात कैसे हैं, इस का अंदाजा छोटेछोटे कसबों के मैडिकल स्टोर और इन जगहों पर इलाज करने वाले डाक्टरों (जिन्हें बोलचाल की भाषा में झोलाछाप कहा जाता है) के यहां जमा भीड़ से लगाया जा सकता है.

गांवकसबों के लोग मैडिकल स्टोर पर इस समय सब से ज्यादा खांसीबुखार की दवाएं लेने आ रहे हैं. एक मैडिकल स्टोर के संचालक दीपक शर्मा बताते हैं, ‘‘रोज के 100 लोग बुखार और बदन दर्द की दवा लेने आ रहे हैं. पिछले साल इन दिनों के मुकाबले ये आंकड़े काफी ज्यादा हैं.’’

कोविड 19 से जुड़ी दवाएं तो अलग बात है, बुखार की गोली, विटामिन सी की टैबलेट और यहां तक कि खांसी के अच्छी कंपनियों के सिरप तक नहीं मिल रहे हैं. ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि खांसी और बुखार को लोग सामान्य फ्लू मान कर चल रहे हैं.

जयपुर जिले के चाकसू उपखंड से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर छांदेल कलां गांव है. इस गांव में तकरीबन 200 घर हैं और हर घर में कोई न कोई बीमार है. पिछले दिनों यहां एक बुजुर्ग की बुखार के बाद मौत भी हो गई थी, जो कोरोना पौजिटिव भी थे.

कोरोना से मां को खो चुके और पिता का इलाज करा रहे बेटे ने बताया, ‘‘मैं  2 लाख रुपए से ज्यादा का उधार ले चुका हूं. अब तो रिश्तेदार भी फोन नहीं उठाते.’’

उस बेटे की आवाज और चेहरे की मायूसी बता रही थी कि वह हताश है. हो भी क्यों न, उस के घर से एक घर छोड़ कर एक बुजुर्ग की मौत हुई थी.

रमेश और उन की पत्नी 15 दिनों से बीमार हैं. जिन के यहां मौत हुई, वे  इन के परिवार के ही थे. हाल पूछने पर रमेश कहते हैं, ‘‘

15 दिन से दवा चल रही है. कोई फायदा ही नहीं हो रहा, अब क्या कहें…’’

रमेश की बात खत्म होने से पहले उन से तकरीबन 15 फुट की दूरी पर खड़े 57 साल के लोकेश कुमावत बीच में ही बोल पड़ते हैं, ‘अरे, बीमार तो सब हैं, लेकिन भैया यहां किसी को भी कोरोना नहीं है और जांच कराना भी चाहो तो कहां जाएं, अस्पताल में न दवा है और न ही औक्सीजन. घर में रोज काढ़ा और भाप ले रहे हैं, बुखार की दवा खाई है, अब सब लोग ठीक हैं. और मौत आती है तो आने दो, एक बार मरना तो सभी को है.’’

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गांवों के हालात कैसे हैं? लोग जांच क्यों नहीं करवा रहे हैं? क्या जांच आसानी से हो रही है? इन सवालों पर सब के अलगअलग जवाब हैं, लेकिन कुछ चीजें बहुत सारे लोगों में बात करने पर सामान्य नजर आती हैं.

‘‘गांवदेहातों में मृत्युभोजों और शादीबरातों ने काम खराब किया है. लोग देख रहे हैं कि सिर पर मौत नाच रही है, लेकिन फिर भी वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं,’’ ग्रामीण इलाके के एक मैडिकल स्टोर संचालक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया.

एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा प्रभारी गांव में बुखार और कोविड 19 के बारे में पूछने पर कहते हैं, ‘‘कोविड के मामलों से जुड़े सवालों के जवाब सीएमओ (जिला मुख्य चिकित्सा अधिकारी) साहब ही दे पाएंगे, बाकी बुखारखांसी का मामला है कि इस  बार के बजाय पिछली बार कुछ नहीं था.

कई गांवों से लोग दवा लेने आते  हैं. फिलहाल तो हमारे यहां तकरीबन 600 ऐक्टिव केस हैं.’’

इस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीन 42 ग्राम पंचायतें आती हैं यानी तकरीबन 250 गांव शामिल हैं. चिकित्सा प्रभारी आखिर में कहते हैं, ‘‘अगर सब की जांच हो जाए, तो 40 फीसदी लोग कोरोना पौजिटिव निकलेंगे. गांवों के तकरीबन हर घर में कोई न कोई बीमार है, लक्षण सारे कोरोना जैसे, लेकिन न कोई जांच करवा रहा है और न सरकारों को चिंता है.’’

यह महामारी बेकाबू रफ्तार से ग्रामीण इलाकों पर अपना शिकंजा कसती जा रही है. हालात ये हैं कि ग्रामीण इलाकों के कमोबेश हर घर को संक्रमण अपने दायरे में ले चुका है. लगातार हो रही मौतों से गांव वाले दहशत में हैं. इस के बावजूद प्रशासन संक्रमण की रफ्तार थाम नहीं पा रहा है. यहां तक कि कोरोना जांच की रफ्तार भी बेहद धीमी है.

कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण इलाके महफूज रहे थे, लेकिन दूसरी लहर ने शहर की पौश कालोनियों से ले कर गांव की पगडंडियों तक का सफर बेकाबू रफ्तार के साथ तय कर लिया है.

दूसरी लहर में ग्रामीण इलाकों में कोरोना वायरस के संक्रमितों की तादाद में बेतहाशा रूप से बढ़ोतरी हुई है. हालात ये हैं कि कमोबेश हर घर में यह महामारी अपनी जड़ें जमा चुकी है. संक्रमितों की मौत के बाद मची चीखपुकार गांव की शांति में दहशत घोल देती है.

ग्रामीण इलाकों में हाल ही में सैकड़ों लोगों को यह महामारी मौत के आगोश में ले चुकी है. ग्रामीणों के घर मरीजों की मौजूदगी की वजह से ‘क्वारंटीन सैंटरों’ में तबदील होते जा रहे हैं. गलियों में सन्नाटा पसरा रहता है और चौपालें दिनभर सूनी पड़ी रहती हैं.

ज्यादातर ग्रामीण सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं. ऐसे में मजबूरी में उन्हें अपना इलाज खुद करना पड़ रहा है. मैडिकल स्टोरों से दवा खरीद कर वे कोरोना से जंग लड़ रहे हैं, जो सरकार के लिए शर्मनाक बात है.

बेदर्द सरकार पेट पर पड़ी मार

आज भी बहुत से कामधंधे और कारोबार ऐसे हैं, जो सालभर न चल कर एक खास सीजन में ही चलते हैं और इन कारोबारों से जुड़े लोग इसी सीजन में कमाई कर अपने परिवार के लिए सालभर का राशनपानी जमा कर लोगों का पेट पाल लेते हैं. पर लगातार दूसरे साल कोरोना महामारी ने इन कारोबारियों पर रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है.

हमारे देश में सब से ज्यादा शादीब्याह अप्रैल से जुलाई महीने तक होते हैं. इस वैवाहिक सीजन में कोरोना की मार से टैंट हाउस, डीजे, बैंडबाजा, खाना बनाने और परोसने वाले, दोनापत्तल बनाने वाले लोग सब से ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

सरकारी ढुलमुल नीतियां भी इस के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. पूरे मध्य प्रदेश में अप्रैल महीने में लौकडाउन लागू कर दिया, जबकि दमोह जिले में विधानसभा उपचुनाव के चलते सरकार बड़ी सभाओं और रैलियों में मस्त रही. सरकार की इन ढुलमुल नीतियों की वजह से लोगों का गुस्सा आखिरकार फूट ही पड़ा.

दमोह में उमा मिस्त्री की तलैया पर  चुनावी सभा संबोधित करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का  डीजे और टैंट हाउस वालों ने खुला विरोध कर दिया. मुख्यमंत्री को इन लोगों ने जो तख्तियां दिखाईं, उन पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था :

‘चुनाव में नहीं है कोरोना,

शादीविवाह में है रोना.

चुनाव का बहिष्कार,

पेट पर पड़ रही मार.’

आंखों पर सियासी चश्मा चढ़ाए मुख्यमंत्री को इन लोगों का दर्द समझ नहीं आया. लोगों के गुस्से की यही वजह भाजपा उम्मीदवार राहुल लोधी की हार का सबब बनी.

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पिछले साल के लौकडाउन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और न ही कोरोना से लड़ने के लिए कोई माकूल इंतजाम किए. मध्य प्रदेश के गाडरवारा तहसील के सालीचौका रोड के बाशिंदे दिनेश मलैया अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा टैंट डैकोरेशन का काम है, जिसे मैं घर से ही चलाता हूं, लेकिन इस कोरोना बीमारी के चलते पिछले साल सरकार के लगाए हुए लौकडाउन में पूरा धंधा चौपट हो गया.

‘‘पिछले साल का नुकसान तो जैसेतैसे सहन कर लिया, लेकिन इस साल फिर वही बीमारी और लौकडाउन ने तंगहाली ला दी है. इस साल शादियों के सीजन को देखते हुए कर्ज ले कर टैंट डैकोरेशन का सामान खरीद लिया था, पर लौकडाउन की वजह से धंधा चौपट हो गया.’’

साईंखेड़ा के रघुवीर और अशोक वंशकार का बैंड और ढोल आसपास के इलाकों में जाना जाता है, लेकिन पिछले 2 साल से शादियों में बैंडबाजा की इजाजत न होने से उन के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा हो गया है.

वे कहते हैं कि सरकार और उन के मंत्री व विधायक सभाओं और रैलियों में तो हजारों की भीड़ जमा कर सकते हैं, पर 10-15 लोगों की बैंड और ढोल बजाने वाली टीम से उन्हें कोरोना फैलने का खतरा नजर आता है.

दोनापत्तल का कारोबार करने वाले नरसिंहपुर के ओम श्रीवास बताते हैं, ‘‘मार्च के महीने में ही बड़ी तादाद में दोनापत्तल बनवा कर रख लिए थे, पर अप्रैल महीने में लौकडाउन के चलते शादियों में 20 लोगों के शामिल होने की इजाजत मिलने से दोनापत्तल का कारोबार ठप हो गया.’’

शादीब्याह में भोजन बनाने का काम करने वाले राकेश अग्रवाल बताते हैं कि उन के साथ 50 से 60 लोगों की टीम रहती है, जो खाना बनाने और परोसने का काम करती है, लेकिन इस बार इन लोगों को खुद का पेट भरने का कोई काम नहीं मिल रहा है.

शादियों में मंडप की फूलों से डैकोरेशन करने वाले चंदन कुशवाहा ने तो कर्ज ले कर फूलों की खेती शुरू की थी. चंदन को उम्मीद थी कि उन के खेतों से निकले फूलों से वे शादियों में डैकोरेशन कर खूब पैसा कमा लेंगे, पर कोरोना महामारी के चलते सरकार ने जनता कर्फ्यू लगा कर उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

हाथ ठेला पर सब्जी और फल बेचने वालों का बुरा हाल है. लौकडाउन में वे अपने परिवार के लिए भोजनपानी की तलाश में कुछ करना चाहते हैं, तो पुलिस की सख्ती उन्हे रोक देती है. हाथ ठेला लगाने वाले ये विक्रेता गांव से सब्जी खरीद कर लाते हैं और दिनभर की मेहनत से उन्हें सिर्फ 200-300 रुपए ही मिल पाते हैं.

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रायसेन जिले के सिलवानी में नगरपरिषद के सीएमओ ने जब एक फलसब्जी बेचने वाले का हाथ ठेला पलट दिया, तो उस का गुस्सा फूट पड़ा और मजबूरन उसे सीएमओ से गलत बरताव करना पड़ा.

यही समस्या दिहाड़ी मजदूरों की भी है, जिन्हें लौकडाउन की वजह से काम नहीं मिल पा रहा है और उन के बीवीबच्चे भूख से परेशान हैं. दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और रोज राशन दुकान से सामान खरीदते हैं, पर राशन दुकान भी बंद हैं.

राजमिस्त्री का काम करने वाले रामजी ठेकेदार का कहना है कि सरकारी ढुलमुल नीतियों की वजह से गरीब मजदूर ही परेशान होता है.

सरकार अभी तक यह नहीं समझ पाई है कि कोरोना वायरस का इलाज लौकडाउन नहीं है, बल्कि सतर्क और जागरूक रह कर उस से मुकाबला किया जा सकता है. पिछले साल से अब तक सरकार अस्पतालों में कोई खास इंतजाम नहीं कर पाई है. जैसे ही अप्रैल महीने  में संक्रमण बढ़ा, तो सरकार ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौकडाउन  लगा दिया.

सरकार की इस नीति से लाखों की तादाद में छोटामोटा कामधंधा करने वाले लोगों की रोजीरोटी पर जो बुरा असर पड़ा है, उस की भरपाई सालों तक पूरी नहीं हो सकती.

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क्या इस खुलासे के बाद केजरीवाल की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं?

विरोधियों के निशाने पर रहने वाले केजरीवाल ने यों तो दिल्ली में कई साहसिक घोषणाएं की हैं और उसे लागू भी कराया है. स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और पानी की मुफ्त योजनाओं को लागू कर वाहवाही बटोरने वाली केजरीवाल सरकार अब अपने ही स्वास्थ्य मंत्री द्वारा जारी एक रिपोर्ट में घिरती नजर आ रही है.
दरअसल, मुख्य विपक्षी पार्टी के एक विधायक ने केजरीवाल सरकार के स्वास्थ्य मंत्री से एक रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की थी. इस रिपोर्ट के अनुसार जो हकीकत सामने आया है वह काफी चौंकाने वाला है.

सिर्फ घोषणा ही बन कर रह गई

दरअसल, 2015 में दिल्ली की सत्ता में आने के वाद केजरीवाल ने घोषणा की थी कि दिल्ली के अस्पतालों में बेड की क्षमता 10 हजार से बढा कर 20 हजार करेंगे. मगर रिपोर्ट के अनुसार केजरीवाल सरकार इस लक्ष्य को पूरा करने में बुरी तरह नाकाम रही है.
दिल्ली विधानसभा में दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि सत्ता में आने से पहले दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में 10,969 स्वीकृत बेड थे जबकि 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट में 11,353 बेड ही सरकारी अस्पतालों में हैं. यानी इस दौरान महज 394 बेड ही सरकार बढा पाई.

वैंटिलेटर्स भी पर्याप्त नहीं

एक सवाल का जवाब देते हुए स्वास्थ्य मंत्री ने दिल्ली में वैंटिलेटर की वर्तमान स्थिति पर भी स्थिति साफ की और कहा कि दिल्ली के अस्पतालों में 440 वैंटिलेटर्स हैं जिन में से मात्र 396 वैंटिलेटर्स ही ऐक्टिव हैं. आश्चर्य की बात तो यह कि पूरी दिल्ली में सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में ही एमआरआई की सुविधा है.

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घिरती नजर आ रही है सरकार

दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री के इस खुलासे से दिल्ली सरकार खुद ही घिरती नजर आ रही है.
प्रमुख विपक्षी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी की स्वास्थ्य योजनाओं को जनता के साथ छलावा बताया और कहा कि जिस सरकार की महात्वाकांक्षी योजना स्वास्थ्य सेवाओं को ले कर थी और जिन्होंने स्वास्थ्य सेवा को ले कर बङीबङी घोषणाएं की थीं, उस का पोल खुद सरकार के मंत्री ने खोल दी हैं.

नए प्रोजैक्ट की रफ्तार भी बेहद धीमी

उधर, दिल्ली सरकार द्वारा 3 नए सरकारी अस्पतालों के निर्माण की वर्तमान स्थिति पर भी सरकार ने जो रिपोर्ट दी है वह भी काफी निराशाजनक है. दिल्ली सरकार ने जानकारी दी कि दिल्ली में 3 नए सरकारी अस्पतालों के प्रोजैक्ट पर काम चल रहा है.
जबकि हकीकत तो यह है कि अंबेडकर नगर अस्पताल का निर्माण कार्य फरवरी, 2019 में होना था, जिस का लक्ष्य अब नवंबर, 2019 रखा गया है.
बुराङी अस्पताल प्रोजैक्ट पूरा होने का समय मार्च, 2019 था जो नवंबर, 2019 कर दिया गया है.
इंदिरा गांधी अस्पताल का प्रोजैक्ट तो इतना सुस्त है कि इसे मार्च 2019 में ही पूरा होना था, जिसे बढा कर मार्च, 2020 कर दिया गया है.
जाहिर है, इस मुद्दे को ले कर अब विपक्षी पार्टियां केजरीवाल सरकार को घेरने का काम करेगी जिस का जवाब खुद दिल्ली सरकार को देना भी भारी पङेगा.

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वाहवाही बटोर चुकी है सरकार

मगर सचाई यह भी है कि कुछ योजनाओं को लागू कर दिल्ली सरकार ने न सिर्फ दिल्ली में बल्कि विदेशों में भी वाहवाही बटोर चुकी है. सरकार की महात्वाकांक्षी योजनाएं मोहल्ला क्लीनिक और महिलाओं को मुफ्त मैट्रो में यात्रा कराने को ले कर सरकार की प्रशंसा पहले ही की जा चुकी है.

 

केजरीवाल को अब याद आया औटो वाला, बढ़ाया किराया

दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने औटो किराया में वृद्धि को ले कर अधिसूचना जारी कर दी है. इस से मौजूदा किराए दरों में 18.75% की वृद्धि हो जाएगी.
अगले कुछ महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले यह कदम उठाने से राजनीतिक सरगर्मियां बढ जाएंगी यह तय है, क्योंकि अभी हाल ही में दिल्ली सरकार ने बसों और मैट्रो में महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने की घोषणा की थी.
पिछले चुनावों में यह माना जाता है कि आम आदमी पार्टी को आगे बढ़ाने में इन आटो वालों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी.

सरकार ने वादा पूरा किया

आटो किराए में वृद्धि की पुष्टि करते हुए दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत ने ट्विटर पर लिखा है, “अरविंद केजरीवाल सरकार ने अपना एक और वादा पूरा किया. परिवहन विभाग ने औटो रिक्शा किराया संशोधन को अधिसूचित कर दिया है. संशोधन के बाद भी दिल्ली में औटो किराया अन्य महानगरों की तुलना में कम होगा.”

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परिवहन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मीडिया से बातचीत में कहा, “औटो रिक्शा चालक मीटर में जरूरी बदलाव कर संशोधित दरें ले सकेंगे. हालांकि इस में दिल्ली में पंजीकृत 90,000 औटो के मीटरों में जरूरी बदलाव के लिए करीब डेढ महीने का समय लगेगा.”

संशोधित दरें क्या हैं

पहले 1.5 किलोमीटर के लिए 25 रुपए लगेंगे. फिलहाल पहले 2 किलोमीटर के लिए 25 रुपए लगते हैं. प्रति किलोमीटर शुल्क मौजूदा 8 रुपए से बढ़ा कर 9.5 रूपए कर दिया गया है. यह करीब 18.75% है.”

वहीं प्रतीक्षा शुल्क 0.75 रुपया प्रति मिनट लगाए जाने की बात भी कही गई है. वहां सामान्य शुल्क 7.50 रूपए होगा.

घटती लोकप्रियता से परेशान है आप

पहले निगम चुनाव में फिर लोकसभा चुनाव में करारी हार और वोट प्रतिशत में भारी गिरावट से परेशान आम आदमी पार्टी सरकार अब हर वर्ग के लोगों को लुभाने में लगी है.
इस से पहले दिल्ली मैट्रो में महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने की बात पर कई लोगों की प्रतिक्रियाएं आई थीं पर किसी राजनीतिक दल ने सीधे तौर पर इस की आलोचना नहीं की है.

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मुफ्त का दांव

दिल्ली सरकार फिलहाल बिजली पर सब्सिडी और एक मात्रा तक पानी के इस्तेमाल को मुफ्त किया हुआ है. मगर औटो किराए में वृद्धि कर आप सरकार चाहती है कि इस से 90 हजार औटो वाले व उन के परिवार को खुश कर वोट हासिल किया जाए.
वहीं, बढे किराए से छात्रों, कामकाजी लाखों लोगों को अपनी जेब ढीली करनी पङेगी और जाहिर है इस से उन में सरकार के खिलाफ नाराजगी ही होगी.

कहीं आलोचना कहीं प्रशंसा

दिल्ली सरकार की इस घोषणा के बाद सोशल मीडिया पर लोगों की तीखी प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं.
कोई सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहा है तो कोई प्रशंसा. कईयों का यह मानना है कि आम आदमी पार्टी खो चुकी अपनी जमीन को फिर से पाना चाहती है और इसलिए चुनाव से पहले घोषणाओं की झड़ी और जनता को लुभाने में लगी है.

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अगले साल होने हैं चुनाव

दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभी 6-7 महीने बाकी है. देखना है इस बार आम आदमी पार्टी पर दिल्ली की जनता कितना भरोसा करती है.

Edited By- Neelesh singh Siodia 

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