एक इंजीनियर की मौत: कैसे हुआ ये हादसा

महज 70-80 घरों वाले उस छोटे से गांव के छोटे से घर में मातम पसरा हुआ था. गिनती के कुछ लोग मातमपुरसी के लिए आए हुए थे. 28 साल की जवान मौत के लिए दिलासा देने के लिए लोगों के पास शब्द नहीं थे. मां फूटफूट कर रो रही थी. जब वह थक जाती तो यही फूटना सिसकियों में बदल जाता. बाप के आंसू सूख चुके थे और वह आसमान में एकटक देखे जा रहा था. ज्यादा लोग नहीं थे. वैसे भी गरीब के यहां कौन जाता है.

‘‘पर, विजय ने खुदकुशी क्यों की?’’ एक आदमी ने पूछा.

‘‘पता नहीं… उस ने 3 साल पहले इंजीनियरिंग पास की थी. नौकरी नहीं मिली शायद इसीलिए,’’ पिता ने जैसेतैसे जवाब दिया.

‘‘सुरेश, तुम तो उस के बचपन के दोस्त हो. तुम से तो वह अपने दिल की हर बात कहता था. क्या तुम वजह जानते हो?’’ उस आदमी ने पास खड़े नौजवान से पूछा जो चुपचाप अपने दोस्त की मौत पर आंसू बहा रहा था.

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‘‘चाचा, इस सिस्टम, इन सरकारों ने जो सपने दिखाने के कारखाने खोले हैं यह मौत उसी का नतीजा है.

‘‘आप को याद होगा कि 10 साल पहले जब विजय ने इंटर पास की थी, तब वह इस गांव का पहला लड़का था जो 70 फीसदी अंक लाया था. सारा गांव कितना खुश था.

‘‘गांव के टीचरों ने भी अपनी मेहनत पर पहली बार फख्र महसूस करते हुए उसे इंजीनियरिंग करने की सलाह दी थी. तब क्या पता था कुकुरमुत्ते की तरह खुले ये कालेज भविष्य नहीं सपने बेच रहे हैं.

‘‘यह तो आप लोग भी जानते हैं कि विजय के परिवार के पास 8 एकड़ जमीन ही थी. दाखिले के समय विजय के पिताजी ने अपनी बरसों की जमापूंजी लगा दी. उस के अगले साल भी जैसेतैसे जुगाड़ हो ही गया. पर आखिरी 2 साल के लिए उन्हें अपनी 2 एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी.

‘‘सभी को यह उम्मीद थी कि इंजीनियरिंग होते ही 4-6 महीने में विजय की नौकरी लग जाएगी. कालेज भी नामीगिरामी है और कैंपस सिलैक्शन के लिए भी कई कंपनियां आती हैं. कहीं न कहीं जुगाड़ हो ही जाएगा.

‘‘यह किसे पता था कि आने वाली सभी कंपनियां प्रायोजित होती हैं और उन्हीं छात्रों को चुनती हैं जिन का नाम कालेज प्रशासन देता है.

‘‘कालेज प्रशासन भी उन्हीं छात्रों के नाम देता है जो उन के टीचरों से कालेज टाइम के बाद कोचिंग लेते हैं.

‘‘विजय अपने घर के हालात को बखूबी जानता था. वह फीस ही मुश्किल से भर पाता था, ऐसे में कोचिंग लेना उस के लिए मुमकिन नहीं था. ऊपर से दिक्कत यह कि उस के पास होने के एक साल पहले से उन प्रायोजित कंपनियों ने भी आना बंद कर दिया था. शायद दूसरे कालेज वालों ने ज्यादा पैसे दे कर उन्हें बुलवा लिया था.

‘‘इतने सारे इंजीनियरों के इम्तिहान पास करने के बाद सरकार के खुद के पास नौकरी के मौके नहीं थे. विजय को अपने लैवल की नौकरी मिलती कैसे?

‘‘पिछले 3 सालों से उस क्षेत्र की कोई कंपनी नहीं बची थी जहां पर विजय ने नौकरी के लिए अर्जी न दी हो. अब तो हालत यह हो गई थी कि उन कंपनियों के सिक्योरिटी गार्ड और चपरासी भी उसे पहचानने लगे थे. दूर से ही उसे देख कर वे हाथ जोड़ कर मना कर दिया करते थे.

‘‘एक दिन एक साधारण सी फैक्टरी का सिक्योरिटी गार्ड गेट पर नहीं था तो विजय मौका देख कर उस के औफिस में घुस गया और वहां बैठे उस के मालिक को अर्जी देते हुए नौकरी की गुजारिश करने लगा.

‘‘तब उस के मालिक ने कहा, ‘मेरी फैक्टरी में इंजीनियर, सुपरवाइजर, मैनेजर सबकुछ वर्कर ही है जो 50 किलो की बोरियां अपने कंधों पर उठता भी है, 200 किलो का बैरल धकाता भी है और प्रोडक्शन के लिए मशीनों को औपरेट भी करता है. शायद तुम अपनी डिगरी के चलते ये सब काम न कर पाओ.

मैं तो सरकार को सलाह दूंगा कि वह इंजीनियर बनाने के बजाय मल्टीपर्पज वर्कर बनाने के लिए इंस्टीट्यूट खोले. यह देश के फायदे में होगा.’

‘‘कारखानों, कंपनियों और सरकारी महकमों में चपरासी तक की नौकरी न मिलते देख विजय ने टीचर बनने की सोची. पर मुसीबतों ने उस का साथ यहां भी नहीं छोड़ा. सरकारी स्कूलों में उसे अर्जी देने की पात्रता नहीं थी. प्राइवेट स्कूलों में जब इंटरव्यू के लिए वह गया तो सभी इस बात से डरे हुए थे कि जब उसे अपनी फील्ड की नौकरी मिलेगी तो वह स्कूल की नौकरी बीच में ही छोड़ देगा और स्कूल के बच्चों का भविष्य अधर में लटक जाएगा.

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‘‘गांव के रीतिरिवाजों के मुताबिक, विजय की शादी भी उस के इंजीनियरिंग में दाखिला लेते ही तय कर दी गई थी. लड़की पास ही के गांव की थी. विजय जब भी गांव आता तो उस से मिलने जरूर जाता था.

‘‘विजय के इंजीनियर बनने के साथ ही उस ने भी अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर ली थी. पर पिछले 3 सालों से विजय का कुछ होता न देख कर लड़की के घर वालों ने कहीं और शादी करने का फैसला ले लिया.

‘‘उस लड़की ने भी विजय को यह कहते हुए छोड़ दिया था कि वह जानबूझ कर जद्दोजेहद की दुनिया में नहीं जा सकती.

‘‘उस लड़की ने कहा था, ‘याद करो विजय, हम ने सुखद भविष्य के जो भी सपने देखे हैं उन में कोई संघर्ष नहीं है तो मैं अब कैसे संघर्षों को चुन सकती हूं? मैं आंखों देखी मक्खी नहीं निगल सकती.’

‘‘विजय गांव वापस आ कर खेती इसलिए भी नहीं कर सकता था, क्योंकि 2 एकड़ खेती बिकने का कुसूरवार वह अपनेआप को मानता था. वैसे भी बची हुई 6 एकड़ खेती से 3 लोगों का खर्चा निकलना मुश्किल ही था. विजय चाहता था अगर वह परिवार की कुछ मदद न कर सके तो कोई बात नहीं, पर कम से कम परिवार के लिए बोझ न बने.

‘‘मैं उसे फोन लगा कर रोज बातें किया करता था ताकि उस की हिम्मत बनी रहे. पर पिछले 15 दिनों से हालात बहुत खराब हो गए थे. जिन लोगों के साथ वह रूम शेयर कर के रहता था उन्होंने 6 महीने से पैसा न दे पाने के चलते रूम से निकाल दिया था. मैं हजार 5 सौ रुपए की मदद जरूर करता था पर वह मदद पूरी नहीं पड़ती थी.

‘‘पेट भरने के लिए वह अकसर रात में सब्जी मंडी बंद होने के बाद चला जाता था और विक्रेताओं द्वारा फेंकी गई सड़ी हुई सब्जियों और फलों के अच्छे हिस्से निकाल कर खा लेता था.

‘‘लेकिन परसों हुई घटना ने न सिर्फ उस की उम्मीदों को तोड़ दिया था, बल्कि तथाकथित इनसानियत पर से भी उस का थोथा विश्वास हमेशा के लिए उठ गया था.

‘‘रूममेट्स द्वारा निकाले जाने के बाद विजय अलगअलग फुटपाथों पर अपनी रातें बिताया करता था. परसों वह ऐसे ही किसी फुटपाथ के किनारे बैठा था. पिछले 2 दिनों से सड़ी हुई सब्जियों के अलावा उस ने कुछ खाया भी नहीं था.

‘‘तभी एक बड़ी सी कार में से एक अमीर औरत उतरी. उस के हाथों में कुछ रोटियां थीं. वह अपनी पैनी निगाहों से कुछ खोज रही थी. उसे सामने कुछ ही दूरी पर एक काला कुत्ता दिखाई पड़ा. शायद वह उसी को खोज रही थी. उस औरत ने उस कुत्ते को अपनी तरफ बुलाने की बहुत कोशिश की. रोटियां शायद वह उस काले कुत्ते को खिलाना चाहती थी.

‘‘कुत्ते ने उस औरत की तरफ देखा जरूर, पर आया नहीं. शायद उस का पेट भरा हुआ था. हार कर वह औरत उन रोटियों को वहीं रख वापस अपनी गाड़ी की तरफ चली गई.

‘‘जब विजय ने देखा कि कुत्ता रोटी नहीं खा रहा?है तो उस ने वह रोटी खुद के खाने के लिए उठा ली. कार में बैठते समय उस औरत ने सारा कारनामा देखा तो वह तुरंत कार में से उतर कर आई और विजय से रोटी छीनते हुए बोली, ‘यह रोटी मैं ने शनि महाराज की पूजा के लिए बनाई है और इसे काले कुत्ते के खाने से ही मेरी शनि बाधा दूर होगी, तुम जैसे आवारा के खाने से नहीं.’

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‘‘भूखा विजय कब तक सिस्टम से, समाज से और अपनी भूख से इंजीनियरिंग की डिगरी के दम पर लड़ता? आखिरकार उस ने जिंदगी से हार मान ली और पानी में डूब कर खुदकुशी कर ली.’’

मातमपुरसी के लिए आए सब लोग चुप थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसे कुसूरवार समझें. बिना भविष्य की योजनाएं लिए चल रही सरकारों को या पकवानों के साथ पेट भर कर एयरकंडीशंड कमरों में बैठे सपने बेचने वाले अफसरों को या उन भोलेभाले लोगों को जो इन छलावों में आ कर अपना आज तो खराब कर ही रहे हैं, भविष्य के बुरे नतीजों से भी बेखबर हैं.

दूर की सोच: कैसे उतर गई पंडित जी की इज्जत

जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. कसबे में एक हलचल सी मची हुई थी. लोग समूह बना कर आपस में बातें कर रहे थे.

एक आदमी ने कहा, ‘‘भैया, धरमकरम तो अब रह नहीं गया है. क्या छूत, क्या अछूत, सभी एकसमान हो गए हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहते हो. कलियुग आ गया है भाई, कलियुग. जब धरम के जानकार ऐसा कदम उठाएंगे, तो हम नासमझ कहां जाएंगे?’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘मुझे तो लगता है कि पंडितजी सठिया गए हैं. लोग कहते हैं कि बुढ़ापे में आदमी की अक्ल मारी जाती है, तभी वह ऊलजलूल हरकतें करने लगता है. अब पंडितजी भांग के नशे में डगमगाते हुए जा पहुंचे दलित बस्ती में…’’ तीसरे आदमी ने कहा.

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दरअसल, एक दिन पंडित द्वारका प्रसाद घर से मुफ्त में भांग पीने निकले थे. पूजापाठ की तरह यह भी उन का रोज का काम था.

छत्री चौक पर भांग की दुकान का मालिक राधेश्याम जब तक पंडितजी को मुफ्त में 2 गिलास भांग नहीं पिलाता था, तब तक वह किसी दूसरे ग्राहक को भांग नहीं बेचता था. उस का भी यह रोज का नियम था और एक विश्वास था कि जिस दिन पंडितजी उस की भांग का भोग लगा लेते हैं, उस दिन उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती है.

कभी पंडितजी दूसरे गांव चले जाते या बीमार पड़ जाते, तो राधेश्याम पंडितजी के नाम की भांग दुकान के सामने मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बांट देता था.

कसबे में पंडितजी की इज्जत थी. उन का अच्छाखासा नाम था. लोग जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी पूजापाठ उन से ही कराना पसंद करते थे. वे जब भी किसी काम से घर से निकलते, तो राह में आतेजाते सब लोग उन्हें प्रणाम करते थे.

वे अपनी बढ़ी हुई तोंद पर एक हाथ फेरते हुए दूसरे हाथ को आशीर्वाद की मुद्रा में ला कर मंदमंद मुसकराते आगे बढ़ जाते थे.

आज पंडितजी को घर से निकलने में देर हो गई थी, इसलिए उन्हें बड़ी जोर से भांग की तलब सता रही थी. वे बड़ी तेजी से छत्री चौक की ओर बढ़े चले जा रहे थे. रास्ते में उन्हें कौन प्रणाम कर रहा था या नहीं, इस का उन्हें जरा भी एहसास नहीं था. उन्हें तो मुफ्त के 2 गिलास भांग नजर आ रही थी. देर होने के चलते उन्हें यह भी डर सता रहा था कि कहीं राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों में न बांट दे.

पंडितजी तेजी से चलते हुए अचानक एक आदमी से टकरा गए और गिरतेगिरते बचे. वे जैसेतैसे अपने  भारीभरकम शरीर का बैलैंस बना कर खड़े हुए, तो देखा कि सामने दोनों हाथ जोड़े कसबे का दलित भीखू खड़ा थरथर कांप रहा था.

पंडितजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वे गुस्से में आगबबूला हो कर चीखते हुए बोले, ‘‘अधर्मी, तू ने मुझे छू कर अपवित्र कर दिया.’’ भीखू कांपते हुए गिड़गिड़ा रहा था, ‘‘ब्राह्मण देवता माफ करें. मैं आप से नहीं, बल्कि आप मुझ से टकराए हैं.’’

‘‘चुप रह… एक तो चोरी, ऊपर से तेरी सीनाजोरी…’’ पंडितजी को चिल्लाता देख कर वहां भीड़ जमा हो गई.

तभी भीड़ का फायदा उठा कर भीखू वहां से चुपचाप निकल गया.

पंडितजी का गुस्सा जैसेतैसे शांत हुआ, तो अपने साथ लाए लोटे में से पानी हथेली पर निकाल कर उसे अपने शरीर पर छिड़क कर उन्होंने पवित्र होने का ढोंग किया… फिर चल पड़े भांग की दुकान की ओर.

राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों को देने जा ही रहा था कि पंडितजी पहुंच गए. पंडितजी का मन भीखू से टकराने से पूरी तरह दुखी हो गया था. इधर, भांग की तलब में वे एकसाथ दोनों गिलास भांग गटागट पी गए.

कुछ देर शांत बैठने के बाद पंडितजी को महसूस हुआ कि भांग की तलब पूरी तरह मिटी नहीं है, तो उन्होंने राधेश्याम से एक गिलास और भांग की मांग की.

राधेश्याम को मसखरी सूझी, ‘‘क्या बात है पंडितजी, कल नहीं आओगे क्या?’’

‘‘नहीं भाई, आज मन अशांत है… कमबख्त भीखू मुझ से टकरा गया था.’’

राधेश्याम ने एक और गिलास भांग दी, जिसे पी कर लंबी डकार ले पंडितजी घर की ओर चल दिए, पर पूरे रास्ते भांग का नशा और भीखू उन के दिलोदिमाग से उतर नहीं रहा था, इसलिए वे दलित बस्ती में जा पहुंचे.

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पंडितजी को दलित बस्ती में आया देख दलितों में हलचल मच गई. भीखू और उस का परिवार हाथ जोड़े बारबार गिड़गिड़ाने लगा.

‘‘ब्राह्मण देवता, माफ करें. अनजाने में हम से भूल हो गई. आप जो सजा देंगे, वह हमें मंजूर है,’’ भीखू ने कहा.

पंडितजी ने भीखू और उस के परिवार से कहा, ‘‘घबराओ मत और डरो भी मत. मैं तुम्हें कोई सजा देने नहीं आया हूं.

‘‘दरअसल, गलती मेरी ही थी. मैं ही तेजी में था, इसलिए तुम से टकरा गया. खैर, उस बात को खत्म करो और मेरी आगे की बात…’’ फिर उन्होंने भीखू के पास खड़े बस्ती के दूसरे लोगों से भी कहा, ‘‘तुम लोग भी ध्यान से मेरी

बात सुनो. आज से 10 दिन बाद पूर्णिमा है. मैं तुम्हारी बस्ती में आऊंगा और पूजापाठ के साथ तुम्हारे कल्याण के लिए भागवत भी पढ़ूंगा.

‘‘तुम सभी लोग नहाधो कर तैयार रहना. रही पूजापाठ की सामग्री की बात, तो वह मैं ले आऊंगा. बाद में तुम लोग कीमत चुका देना.’’

पंडितजी दलित बस्ती में पूजापाठ की क्या कह कर गए, पूरे कसबे में चर्चा हो गई. पंडितजी को चुनाव लड़ना है, तभी वे बराबरी की बातें कर रहे हैं.

ब्राह्मणों का एक तबका पंडितजी के खिलाफ खुल कर खड़ा हो गया. दशहरा मैदान में एक सभा का आयोजन कर के उन का समाज से हुक्कापानी बंद करने का फैसला रख दिया गया.

तय किए गए दिन को कसबे के सभी ब्राह्मण दशहरा मैदान में पहुंच गए.

सभा शुरू होने से पहले एक आदमी ने सलाह दी, ‘‘पंडितजी का हुक्कापानी बंद करने से पहले उन के विचार जान लें, तो अच्छा होगा.’’

लोगों ने उस की सलाह मान ली. थोड़ी देर बाद पंडितजी मंच पर आए, तो लोगों ने नाराजगी की झड़ी लगा दी.

पंडितजी शांत मन से सब की बातें सुन कर बोले, ‘‘भाइयो, आप का आरोप सही नहीं है, पर जरा सोचो… हमारा समाज सदियों से मेहनतमजदूरी से दूर रहा है. हमारे पुरखों ने भी कभी मेहनतमजदूरी नहीं की और न हम ही कर रहे हैं.

‘‘हमारे पुरखों ने धार्मिक ग्रंथ लिखे. उन धार्मिक ग्रंथों में हम ने अपनी बिरादरी को मेहनतमजदूरी से दूर रखते हुए खुद को सब से बेहतर बताया और लोगों को धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर, स्वर्गनरक के नाम पर डरायाधमकाया, दानपुण्य के लिए उकसाया.

‘‘हमारे पुरखों की सोच की वजह से हम आज भी समाज में इज्जत पा रहे हैं. पेड़ वे लगा गए, फल हम और हमारी पीढि़यां बरसों से खा रही हैं.

‘‘पर आज समय बदल रहा है. हमारा धंधा मंदा होता जा रहा है. उस की वजह यह है कि आज देश में कई प्रवचन बाबा पैदा हो गए हैं, जो गांवशहरों, कसबों में प्रवचन देते रहते हैं.

‘‘वे लोगों के दिलों में ही नहीं, बल्कि घरों में टैलीविजन के जरीए घुसपैठ कर चुके हैं. लोग भारी तादाद में उन की ओर खिंचे चले जा रहे हैं.

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‘‘ऐसे में हमारे यजमानों की तादाद दिनोंदिन घटती जा रही है. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो एक दिन ऐसा आएगा कि हमें मेहनतमजदूरी करनी पड़ेगी और हमारे बच्चों को भयंकर  गरीबी में जीना पड़ेगा.

‘‘ऐसे हालात में हमें दलितों को भी गले लगाना चाहिए, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी ऐशोआराम के साथ मौजमजे से अपनी गुजरबसर कर सके.’’

लोगों ने जोश में आ कर तालियां बजाते हुए पंडितजी का समर्थन किया और बोले, ‘पंडितजी, आप तो धन्य हैं. आप की सोच बहुत अच्छी है.’’

कुछ लोग नारे लगाने लगे, ‘जब तक सूरजचांद रहेगा, पंडितजी का नाम रहेगा…’

सही रास्ते पर: कैसे सही रास्ते पर आया मांगीलाल

भूख के मारे लक्ष्मी की अंतडि़यां ऐंठी जा रही थीं. वह दिनभर मजदूरी के लिए इधरउधर भटकती रही, मगर उसे कहीं भी मजदूरी नहीं मिली.

आज शहर बंद था. वजह थी कि कल दिनदहाड़े भरे बाजार में सत्ता पक्ष के एक खास कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई थी.

इस हत्या के पीछे जो भी  वजह रही हो, मगर इस से शहर की राजनीति गरमा गई थी. हत्यारा खून कर के फरार हो चुका था. दिनभर पूरे शहर में पार्टी वाले पुलिस प्रशासन के खिलाफ नारे लगाते रहे.

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सुबह जब लक्ष्मी शासकीय भवन पर मजदूरी करने गई थी, तब ठेकेदार के अलावा वहां कोई नहीं था.

उसे देख कर ठेकेदार मुसकराते हुए बोला, ‘‘लक्ष्मी, आज काम बंद है… कल आना.’’

‘‘क्यों ठेकेदार साहब?’’ लक्ष्मी ने पूछा.

‘‘पूरा शहर बंद है न इसलिए,’’ ठेकेदार ने जवाब दिया.

‘‘पर, आप ने काम क्यों बंद कर दिया ठेकेदार साहब?’’ लक्ष्मी ने फिर पूछा.

‘‘मुझे नुकसान कराना है क्या? और फिर जिस नेता का खून हुआ है, उस ने मुझे यह ठेका दिलवाया था, इसलिए मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं उस की याद में एक दिन के लिए काम बंद कर दूं,’’ ठेकेदार ने बताया.

‘‘ठेकेदार साहब, बंद का असर आप पर तो नहीं पड़ेगा, मगर हमारे पेट पर जरूर पड़ेगा,’’ लक्ष्मी ने कहा.

‘‘तो मैं क्या करूं? मैं ने रोजरोज काम देने का ठेका नहीं लिया है. जा, कल टाइम पर आ जाना. आज जहां मजदूरी मिले, वहां जा कर कर ले,’’ ठेकेदार ने टका सा जवाब दे कर उसे वहां से भगा दिया.

लक्ष्मी निराश हो कर वहां से चल दी. फिर वह काम तलाशने उसी चौराहे पर आ गई, जहां रोज आ कर बैठती थी. वहां सारे मजदूर जमा होते थे और अपनी जरूरत के मुताबिक लोग वहां से उन्हें ले जाते थे. मगर लक्ष्मी को वहां पहुंचने में देर हो गई थी. सारा चौराहा मजदूरों से तकरीबन खाली हो चुका था.

कुछ बचेखुचे मजदूर ही वहां बैठे हुए थे. लक्ष्मी भी उन के बीच जा कर बैठ गई. मगर काफी देर बैठने के बाद भी उसे काम के लिए कोई नहीं ले गया.

थोड़ी देर बाद लक्ष्मी वहां से उठ कर काम की तलाश में काफी देर तक इधरउधर भटकती रही, मगर उसे कहीं काम नहीं मिला.

घर में लक्ष्मी के 2 बच्चों और सास के अलावा कोई नहीं था. समाज की नजरों में मांगीलाल उस का पति था, मगर उस ने एक दूसरी औरत रख ली थी. वह सारी कमाई

उसी पर उड़ाता था. उस औरत के बारे में लक्ष्मी कभी कुछ कहती तो वह उसे मारतापीटता था.

शुरूशुरू में तो मांगीलाल लक्ष्मी को कुछ खर्चा देता था, मगर बाद में उस

ने वह भी देना बंद कर दिया, इसलिए वह मजदूरी करने लगी. कभीकभी तो मांगीलाल उस की मजदूरी भी छीन कर ले जाता था और दारू में उड़ा देता था.

लक्ष्मी ने कुछ पैसे साड़ी के आंचल में छिपा कर रखे थे. उस ने सोचा था कि जिस दिन मजदूरी नहीं मिलेगी, उस दिन यह बचा हुआ पैसा काम आएगा, मगर मांगीलाल ने वे छिपे पैसे भी जबरन छीन लिए थे.

जब दोपहर हो गई, तो लक्ष्मी थकहार कर घर लौट आई. डब्बे में एक भी रोटी नहीं बची थी. सब रोटियां सास और उस के दोनों बच्चे खा चुके थे. घर में पकाने के लिए भी कुछ नहीं था.

लक्ष्मी दिनभर शहर के इस छोर से उस छोर तक भूखी ही काम के लिए भटकती रही. उसे शाम के राशन का इंतजाम जो करना था. मगर शाम तक भी उसे कोई काम नहीं मिला. तब वह एक होटल के पास आ कर बैठ गई.

यह वही होटल है, जहां शहर के रईस लोग आएदिन पार्टियां करते रहते हैं और उन्हें मजदूरों की जरूरत पड़ती रहती है. मगर वहां पर भी उसे बैठेबैठे रात हो गई.

‘‘क्या कोई ग्राहक नहीं मिला? चलेगी मेरे साथ?’’ पास खड़े एक आदमी ने लक्ष्मी से पूछा.

उस आदमी की आंखों में वासना झलक रही थी. वह लक्ष्मी को देह धंधा करने वाली औरत समझ रहा था.

लक्ष्मी बोली, ‘‘फोकट में ही ले जाएगा या पैसे भी देगा?’’

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‘‘हां दूंगा… कितने लेगी?’’ उस आदमी ने पूछा.

‘‘दिनभर काम करती हूं, तो मुझे 50 रुपए मिलते हैं,’’ लक्ष्मी ने बताया.

‘‘चल, मैं तुझे 50 रुपए ही दूंगा,’’ उस ने कहा, तो लक्ष्मी की इच्छा हुई कि उस के मुंह पर थूक दे, मगर उसे जोरों की भूख लग रही थी.

लक्ष्मी ने सोचा, ‘मांगीलाल भी तो मेरे जिस्म से खेल कर चला जाता है. और फिर मुझे अब मजदूरी भी कौन देगा?’

‘‘क्या सोच रही है?’’ उसे चुप देख उस आदमी ने पूछा.

‘‘लगता है, मेरी तरह तू भी बहुत भूखा है. तेरी घरवाली नहीं है क्या?’’ लक्ष्मी ने पूछा.

‘‘अभी तो कुंआरा हूं,’’ वह बोला.

‘‘तो शादी क्यों नहीं कर लेता है?’’ लक्ष्मी ने दोबारा पूछा.

‘‘खुद अपना पेट तो पूरी तरह भर नहीं पाता हूं, फिर उसे क्या खिलाऊंगा?’’ वह बोला.

‘‘सही बात है. जो आदमी अपनी घरवाली को खिला नहीं सकता, वह मरद नहीं होता है…’’ कह कर लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘कहां ले जाएगा मुझे?’’

‘‘शहर के बाहर एक खंडहर है, जहां अंधेरा रहता?है,’’ उस ने बताया.

‘‘ठीक है, मुझे तो पैसों से मतलब है,’’ लक्ष्मी ने कहा.

‘‘तो चल मेरे पीछेपीछे,’’ उस आदमी ने कहा और लक्ष्मी उस के पीछेपीछे चलने लगी.

वह आदमी पीछे मुड़ कर देख लेता कि वह औरत आ रही है या नहीं. मगर लक्ष्मी उस के पीछेपीछे साए की तरह चल रही थी.

अभी लक्ष्मी एक चौराहा पार कर ही रही थी कि सामने से मांगीलाल आता दिखाई दिया. वह डर के मारे कांप उठी.

मांगीलाल ने पास आ कर पूछा, ‘‘कहां जा रही हो?’’

‘‘तुम पूछने वाले कौन हो?’’ लक्ष्मी ने नफरत से कहा.

‘‘तुम्हारा पति…’’ मांगीलाल बोला.

‘‘खुद को पति कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती…’’ लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘जो आदमी अपने बीवीबच्चों और मां को भूखाप्यासा छोड़ कर दूसरी औरत पर कमाई लुटाए, वह किसी का पति कहलाने लायक नहीं होता.’’

मांगीलाल नीची गरदन कर के चुपचाप किसी मुजरिम की तरह सुनता रहा.

‘‘मगर, तुम जा कहां रही हो?’’ मांगीलाल ने फिर पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं… वैसे भी तुम ने तो मियांबीवी का रिश्ता उसी दिन तोड़ दिया था, जिस दिन तुम दूसरी औरत के साथ रहने लगे थे.’’

‘‘देखो लक्ष्मी, तुम अपनी हद से ज्यादा बढ़ कर बात कर रही हो. मैं तुम्हारा पति हूं. चलो, घर चलो,’’ मांगीलाल भड़क उठा.

‘‘नहीं जाना मुझे तुम्हारे साथ. देखो, मैं उस आदमी के साथ जा रही हूं. वह मुझे 50 रुपए दे रहा है,’’ कह कर लक्ष्मी ने मुड़ कर देखा, मगर वह आदमी तो उन का झगड़ा देख कर वहां से भाग चुका था.

यह देख कर लक्ष्मी बोली, ‘‘आखिर भगा दिया न उसे…’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम धंधा करने लगी हो,’’ मांगीलाल गुस्से से बोला.

‘‘हमें अपने पेट की भूख मिटाने के लिए यही करना पड़ेगा. तुम तो दूसरी औरत के साथ मस्त रहते हो. मुझे तुम्हारी मां और दोनों बच्चों को देखना पड़ता है.

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‘‘आज दिनभर काम नहीं मिला. आखिर क्या करती? घर में न आटा?है, न चावल,’’ कहते हुए लक्ष्मी ने दिनभर की भड़ास निकाल दी.

वह आगे बोली, ‘‘अब कहां से उन लोगों के खाने का इंतजाम करूं?’’

‘‘लक्ष्मी, मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं. मुझे माफ कर दो. अब मैं तुम्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगा,’’ माफी मांगते हुए मांगीलाल बोला.

‘‘रहने दो. तुम्हारा क्या भरोसा? यह बात तो तुम कई बार कह चुके हो. फिर भी तुम से वह औरत नहीं छूटती है. उस के पीछे तुम ने मुझे कितना मारापीटा है…’’ लक्ष्मी ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं कोई दूसरा ग्राहक ढूंढ़ती हूं. पेट की आग तो बुझानी ही पड़ेगी न.’’

‘‘नहीं लक्ष्मी, अब तुम कहीं नहीं जाओगी और न ही मजदूरी करोगी,’’ मांगीलाल ने लक्ष्मी को रोकते हुए कहा.

‘‘अगर मजदूरी नहीं करूंगी तो मेरा, तुम्हारे बच्चों का और तुम्हारी मां का पेट कैसे भरेगा?’’ लक्ष्मी चिढ़ कर बोली.

‘‘मैं कमा कर खिलाऊंगा सब को,’’ मांगीलाल बोला.

‘‘तुम कमा कर खिलाओगे… कभी आईने में अपना चेहरा देखा है?’’

‘‘हां लक्ष्मी, तुम्हें जितना ताना देना हो दो, जो कहना है कह लो, मगर मैं बहुत शर्मिंदा हूं. क्या तुम मुझे माफ नहीं करोगी?’’ मांगीलाल गिड़गिड़ाया.

‘‘माफ उसे किया जाता?है, जिस की आंखों में शर्म हो. मैं तुम पर कैसे यकीन कर लूं कि तुम सही रास्ते पर आ जाओगे?’’ लक्ष्मी ने सवाल दागा.

‘‘हां, तुम्हें यकीन आएगा भी कैसे? मैं ने तुम्हारे साथ काम ही ऐसा किया है, मगर मैं अब पिछली जिंदगी छोड़ कर तुम्हारे साथ पूरी तरह रहना चाहता हूं. यकीन न हो तो मुझे एक महीने की मुहलत दे दो,’’ मांगीलाल बोला.

‘‘मगर, मेरी भी 2 शर्तें हैं?’’ लक्ष्मी ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारी हर शर्त मानने को तैयार हूं,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘सब से पहले तो उस औरत को छोड़ना होगा. दूसरा, दारू पीना भी छोड़ना होगा,’’ लक्ष्मी बोली.

‘‘मुझे तुम्हारी ये दोनों शर्तें मंजूर हैं,’’ मांगीलाल बोला.

‘‘तो फिर चलो घर, पहले राशन ले लो. सभी भूखे होंगे,’’ लक्ष्मी बोली.

‘‘हां लक्ष्मी, अब तो तुम जो कहोगी, वही मैं करूंगा,’’ कह कर मांगीलाल मुसकरा दिया. बदले में लक्ष्मी भी भूखे पेट मुसकरा दी. मगर आज तो उस की मुसकान में सुख छिपा था.

मांगीलाल चलतेचलते बोला, ‘‘आज मैं बहुत राहत महसूस कर रहा हूं लक्ष्मी. मैं अपने रास्ते से भटक गया था. तुम मुझे सही रास्ते पर ले आई हो.’’

मांगीलाल सोच रहा था कि लक्ष्मी कुछ बोलेगी, पर जवाब देने के बजाय वह मुसकरा दी.

Short Story- बेईमानी का नतीजा

आधी रात का समय था. घना अंधेरा था. चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था. ऐसे में रामा शास्त्री के घर का दरवाजा धीरे से खुला. वे दबे पैर बाहर आए. उन का बेटा कृष्ण भी पीछेपीछे चला आया. उस के हाथ में कुदाली थी. रामा शास्त्री ने एक बार अंधेरे में चारों ओर देखा. लालटेन की रोशनी जहां तक जा रही थी, वहां तक उन की नजर भी गई थी. उस के आगे कुछ भी नहीं दिख रहा था.

रामा शास्त्री ने थोड़ी देर रुक कर कुछ सुनने की कोशिश की. कुत्तों के भूंकने की आवाज के सिवा कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था. रामा शास्त्री ने अपने घर से सटे हुए दूसरे घर का दरवाजा खटखटाया और पुकारा, ‘‘नारायण.’’

नारायण इसी इंतजार में था. आवाज सुनते ही वह फौरन बाहर आ गया. ‘‘सबकुछ तैयार है. चलें क्या?’’ रामा शास्त्री बोले.

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‘‘हां चलो,’’ कह कर नारायण ने घर में ताला लगा दिया और उन के पीछे हो लिया. उस के हाथ में टोकरी थी. उस की बीवी और बच्चे मायके गए थे. रामा शास्त्री लालटेन ले कर आगेआगे चलने लगे और कृष्ण व नारायण उन के पीछे चल पड़े.

रामा शास्त्री और उन का छोटा भाई नारायण पहले एक ही घर में रहते थे. छोटे भाई की 2 बेटियां थीं. रामा शास्त्री का बेटा कृष्ण 25 साल का था. उस की शादी अभी नहीं हुई थी. नारायण की बेटियां अभी छोटी थीं. घर में जेठानी और देवरानी में पटती नहीं थी. उन दोनों में हमेशा किसी

न किसी बात को ले कर झगड़ा होता रहता था. अपने मातापिता के जीतेजी नारायण व रामा शास्त्री बंटवारा नहीं करना चाहते थे. मातापिता की मौत के बाद दोनों भाइयों और उन की बीवियों के बीच मनमुटाव बढ़ गया. अंदर सुलगती आग अब भड़क उठी थी.

नारायण का मिजाज कुछ नरम था पर रामा शास्त्री चालबाज थे. भाई और भाभी की बातों में आ कर नारायण अपनी बीवी को अकसर पीटता रहता था. उस की नासमझी का फायदा उठा कर रामा शास्त्री ने चोरीछिपे कुछ रुपए भी जमा कर रखे थे. नारायण के साथ जो नाइंसाफी हो रही थी, उसे देख कर गांव के कुछ लोगों को बुरा लगता था. उन्होंने नारायण को बड़े भाई के खिलाफ भड़का दिया.

नतीजतन एक दिन दोनों के बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ और घर व जमीनजायदाद का बंटवारा हो गया. मातापिता की मौत के बाद 3 महीने के अंदर ही वे अलग हो गए. सब बंटवारा तो ठीक से हो गया, मगर बाग को ले कर फिर झगड़ा शुरू हो गया. रामा शास्त्री बाग को अपने लिए रखना चाहते थे. इस के बदले में वे सारी जायदाद छोड़ने के लिए तैयार थे. लेकिन 6 एकड़ के बाग में नारायण अपना हिस्सा छोड़ने को तैयार नहीं था.

बाग में 3 सौ नारियल के पेड़ और सौ से ज्यादा सुपारी के पेड़ थे. उस से सटी हुई 6 एकड़ खाली जमीन भी थी. बाकी जमीन भी बहुत उपजाऊ थी. बाग से जितनी आमदनी होती थी, उतनी बाकी जमीन में भी होती थी. लेकिन नारायण की जिद की वजह से बाग का भी 2 हिस्सों में बंटवारा हो गया.

रामा शास्त्री ने अपने हिस्से के बाग में जो खाली जगह थी, वहां रहने के लिए मकान बनवाना शुरू कर दिया. इसी चक्कर में एक दिन शाम को मजदूरों के जाने के बाद कृष्ण नींव के लिए खोदी गई जगह का मुआयना कर रहा था. वह एक जगह पर कुदाली से मिट्टी हटाने लगा, क्योंकि वहां मिट्टी अंदर से खिसक रही थी.

कृष्ण ने 2 फुट गहराई का गड्ढा खोद डाला. नीचे एक बड़ा चौकोर पत्थर था. उस के नीचे एक लोहे का जंग लगा ढक्कन था, मगर वह उसे खोल नहीं सका. उस ने सोचा कि वहां कोई राज छिपा हुआ होगा. वह मिट्टी से गड्ढा भर कर वापस घर लौट गया. उस ने अपने पिता को सबकुछ बताया. रामा शास्त्री ने बेटे के साथ आ कर अच्छी तरह से गड्ढे की जांच की. देखते ही देखते उन का चेहरा खिल उठा. उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे कुछ पलों तक सुधबुध खो कर बैठ गए.

कुछ देर बाद रामा शास्त्री ने इधरउधर देखा और कहा, ‘‘कृष्ण, मिल गया… मिल गया.’’ 4-5 पीढि़यों पहले रामा शास्त्री का कोई पुरखा किसी राजा का खजांची रह चुका था. वह अपने एक साथी के साथ राजा के खजाने का बहुत सा धन चुरा कर भाग गया था. राजा को इस बात का पता चल गया था.

राजा ने सैनिकों को चारों ओर भेजा, लेकिन वे चोर तलाशने में नाकाम रहे. राजा ने चोरों के घर वालों को तमाम तकलीफें दीं, मगर कुछ भी नतीजा नहीं निकला. इस के बाद सभी पीढ़ी के लोग मरते समय अपने बेटों को यह बात बता कर जाते. लेकिन किसी को भी वह छिपाया गया खजाना नहीं मिला था.

रामा शास्त्री ने तय किया था कि अगर उन्हें खजाना मिल गया तो वे एक मंदिर बनवाएंगे. उन का सपना अब पूरा होने वाला था. बापबेटा दोनों लोहे का ढक्कन हटाने की कोशिश कर रहे थे कि उसी समय नारायण भी वहां आ गया. उस का आना रामा शास्त्री व कृष्ण दोनों को अच्छा नहीं लगा.

उन की बेचैनी देख कर नारायण को कुछ शक हुआ और इस काम में वह भी शामिल हो गया. तीनों ने मिल कर उस ढक्कन को हटा दिया. उस के नीचे भी मिट्टी ही थी. लेकिन वहां कुछ खोखला था. लकड़ी के तख्त पर मिट्टी बिछी हुई थी. उन को यकीन हो गया कि अंदर कोई खजाना है.

इतने में दूर से किसी की बातचीत सुनाई पड़ी, इसलिए उन्होंने गड्ढे पर पत्थर रख दिया. फिर रात को दोबारा आ कर खजाना निकालने की योजना बनाई गई.

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आधी रात को कुदाली ले कर तीनों चल पड़े. वे गांव के मंदिर के पास वाली पगडंडी से होते हुए बाग की ओर चल पड़े. वे चारों ओर सावधानी से देखते हुए चल रहे थे. दूर से किसी की आहट सुन कर वे लालटेन बुझा कर पास के इमली के पेड़ की आड़ में छिप गए.

पड़ोस के गांव गए 2 लोग बातें करते हुए वापस आ रहे थे. नजदीक आतेआते उन की बातें साफ सुनाई दे रही थीं. एक ने कहा, ‘‘इधर कहीं आग की लपट दिखाई दी थी न?’’

दूसरे ने कहा, ‘‘हां, मैं ने भी देखी थी… आग का भूत होगा.’’ पहला आदमी बोला, ‘‘सचमुच भूत ही होगा. उसे परसों रंगप्पा ने यहीं देखा था. इस इमली के पेड़ में मोहिनी भूत है.

‘‘रंगप्पा अकेला आ रहा था. पेड़ के पास कोई औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी. उसे देख कर रंगप्पा डर कर घर भाग गया था. उस के बाद वह 3 दिनों तक बीमार पड़ा रहा.’’ तभी इमली के पेड़ से सरसराहट की आवाज सुनाई दी.

‘भूत… भूत…’ चिल्ला कर वे दोनों तेजी से भागे. कुछ देर बाद रामा शास्त्री, नारायण और कृष्ण पेड़ की आड़ से बाहर निकल कर बाग की ओर चल पड़े. बाग के पास पहुंच कर उन्होंने कुछ देर तक आसपास का जायजा लिया. वहां कोई न था. दूर से सियारों की आवाज आ रही थी. फिर तीनों वहां खड़े हो गए, जहां खजाना गड़ा होने की उम्मीद थी.

कृष्ण कुदाली से मिट्टी खोदने लगा, तो नारायण टोकरी में भर कर मिट्टी एक तरफ डालता रहा. रामा शास्त्री आसपास के इलाके पर नजर रखे हुए थे. लोहे का ढक्कन हटा कर नीचे की मिट्टी निकाल कर एक ओर फेंक दी गई. उस के नीचे मौजूद लकड़ी के तख्त को भी हटा दिया गया, तख्त के नीचे एक गोलाकार मुंह वाला गहरा गड्ढा नजर आया. उस की गहराई करीब

6 फुट थी. लालटेन की रोशनी में अंदर कुछ कड़ाहियां दिखाई पड़ीं. नारायण गड्ढे के अंदर झांक कर देख रहा था तभी रामा शास्त्री ने कृष्ण को कुछ इशारा किया. अचानक नारायण के सिर पर एक बड़े पत्थर की मार पड़ी. वह बिना आवाज किए वहीं लुढ़क गया.

दोबारा पत्थर की मार से उस का काम तमाम हो गया. उस की लाश को बापबेटे ने घसीट कर एक ओर फेंक दिया. रामा शास्त्री लालटेन हाथ में ले कर खड़े हो गए. कृष्ण गड्ढे में कूद पड़ा. गड्ढे में जहरीली गैस की बदबू भरी थी. कृष्ण को सांस लेने में मुश्किल हो रही थी. उस ने लालटेन की रोशनी में अंदर चारों ओर देखा.

दीवार से सटी हुई 6 ढकी हुई कड़ाहियां रखी हुई थीं. कृष्ण ने कुदाली से एक कड़ाही के मुंह पर जोर से मारा, तो उस का ढक्कन खुल गया. उस में चांदी के सिक्के भरे थे. दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे उस सारे खजाने के मालिक थे. तभी कृष्ण की नजर वहां एक कोने में पड़ी हुई किसी चीज पर पड़ी. वह जोर से चीख उठा. डर से उस का जिस्म कांपने लगा.

रामा शास्त्री ने परेशान हो कर भीतर झांक कर देखा तो वे भी थरथर कांपने लगे. वहां 2 कंकाल पड़े थे. वे शायद खजांची और उस के साथी के रहे होंगे. रामा शास्त्री ने किसी तरह खुद को संभाला और बेटे को हौसला बंधाते हुए एकएक कर सभी कड़ाहियां ऊपर देने को कहा.

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कड़ाहियां भारी होने की वजह से उन्हें उठाना कृष्ण के लिए मुश्किल हो रहा था. जहरीली गैस की वजह से उसे सांस लेने में भी तकलीफ हो रही थी. कृष्ण ने बहुत कोशिश कर के एक कड़ाही को कमर तक उठाया ही था कि उस का सिर चकरा गया और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह कड़ाही लिए हुए नीचे गिर गया.

रामा शास्त्री घबरा कर कृष्ण को पुकारने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. परेशान हो कर वह भी गड्ढे में कूद पड़े. जहरीली गैस की वजह से उन से भी वहां सांस लेना मुश्किल हो गया. उन्होंने कृष्ण को उठाने की कोशिश की, लेकिन उठा न सके. वह भी बेदम हो कर नीचे गिर पड़े. बाप और बेटे फिर कभी नहीं उठे. वे मर चुके थे.

खुद को खोजती मैं: बड़की अम्मां ने क्या किया

उस दिन पूरे तकियागंज में खुसुरफुसुर हो रही थी. कभी बशीरा ताई जानने के लिए चली आती थीं, तो कभी रजिया बूआ. सकीना की अम्मी के कान भी खुसुरफुसुर में ही लगे रहते थे. रेहाना के अब्बा कभी थूकने के बहाने, तो कभी नीम की पत्तियां तोड़ने के बहाने औरतों की बातें सुनने के लिए बाहर आ जाते थे.

सभी को बड़की अम्मां से बड़ी उम्मीद थी. उन की इस हरकत से सब को चिंता हो गई थी कि अब बड़का अब्बा का बुढ़ापा कैसे कटेगा? कौन उन्हें रोटीपानी देगा? जब बड़का अब्बा का टीबी की गांठ का इलाज चल रहा था, रिकशे के पैसे बचाने के लिए बड़की अम्मां मीलों पैदल चल लिया करती थीं और बचे पैसों से उन के लिए फल ले लिया करती थीं.

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जब बड़का अब्बा को डेंगू हुआ था, तब खुद बीमारी से जूझने के बावजूद सिलाई कर के उन का इलाज कराया था. इस बुढ़ापे में बड़का अब्बा तो कुछ ही कदम चलने पर हांफने लगते थे, पर यह औरत 72 साल की उम्र में भी मीलों पैदल चल लिया करती थी. पता नहीं, उस दिन उन्हें क्या सूझी कि इस उम्र में अलग जिंदगी गुजारने का फैसला ले डाला.

अब तो 2 साल गुजर गए… गहमागहमी भी नरम पड़ गई थी. उस वक्त तो सब ने यही सोचा था कि बड़की अम्मां इस उम्र में अकेली कैसे रह पाएंगी. ज्यादा नहीं, तो कुछ दिन में ही लौट कर वापस आ जाएंगी.

बड़की अम्मां की 55 साल की गृहस्थी थी… कोई मजाक है क्या? बड़ा वाला बक्सा, तखत, कूलर सब बड़की अम्मां ने सिलाई करकर के जोड़े थे. खैर… जो भी हो… अब तो बड़की अम्मां की जिंदगी बेहद बेढंगी हो चुकी है. आराम से दोपहर तक उठ कर साग खोेंटने चली जाती हैं, कोई चिंता नहीं रहती कि वापस भी लौटना है.

अगर वे सूरज ढले वापस आ गईं, तो घर और दुकान के नसीब. गलीगली, महल्लेमहल्ले वे डोलतीफिरती हैं. भले घरों में तो लोगों की नजरें जरा अलग ही रहती थीं, लेकिन गलीनुक्कड़ पर उन के दोस्तों की कमी न थी. सर्दी की कंपकंपाती रात में बड़की अम्मां बैठ कर कभी चाय वाले, कभी समोसे वाले, कभी सब्जी वाली के दुखसुख सुनतीं, उन की जिंदगी के बारे में जानतीं और अपने बारे में भी शायद ही कुछ गोपनीय रख पातीं. खुलतीं तो वे खुल ही जातीं.

मुझे भी यह देखने का कम कुतूहल नहीं था कि इस बुढ़ापे में उन के दिन कैसे कट रहे हैं. इसी कुतूहल में अकसर मैं उन के घर पहुंच जाती थी. मुझे उन की जिंदगी के बारे में काफी बातें पता चल गई थीं.

मिट्टी और छप्पर से बने उन के घर में बारिश के दिनों में अंदर तक पानी आ जाता था. गरमी में तो वे बाहर सो लिया करती थीं, पर सर्दी में दिनभर बटोरी लकडि़यों से अपनी कोठरी और खुद को सेंक लिया करती थीं. घर से बाहर निकलते ही बांस में कुछ 5-5 रुपए वाले साबुन, बिसकुट, चिप्स, बीड़ी, तंबाकू, पानमसाले के पैकेट लटका कर दुकान का नाम भी दे रखा था.

अफसोस कि खाना भी सुबह एक बार जो बना तो रात तक वही चल जाता था. बड़का अब्बा का साथ जो छोड़ा, अम्मां तो जैसे शाकाहारी हो गई थीं. उस दिन वे मुझे अंदर अंधेरी कोठरी में ले गईं, जिस में बदरंग व मैलीकुचैली रजाई व कथरी पड़ी हुई थी. एक कोने में एक छोटा सा संदूक रखा था, जो बहुत ही चमकीली चादर से ढका हुआ था. उस छोटे से संदूक में से उन्होंने एक फटीपुरानी, गर्द लगी अलबम निकाली और बड़े जोश से दिखाने लगीं.

पोपले मुंह से कहते हुए बड़की अम्मां के चेहरे पर खुशी उभर आती थी, ‘‘वे आज भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं, जितना 55 साल पहले किया करते थे.’’

शायद बड़की अम्मां को भी नहीं मालूम था कि उन्होंने जो 55 साल पहले नहीं किया, वे अब क्यों, कैसे कर सकीं और क्या अब उन्होंने जो चाहा, वह पा लिया है? बड़की अम्मां ने ऐसा करते समय बहुत सोचा होगा या एक झटके में हो गया होगा. वह बुढि़या इस फलसफे पर बहुत बात नहीं करना चाहती थी? क्यों लोग उस से जानने को इच्छुक थे? क्यों? बड़ी उलझन थी.

बड़की अम्मां खुश भी थीं और दुखी भी. आजादी चाहती थीं और गुलामी भी. चारों बातें सच थीं. कई सच जी रही थीं बड़की अम्मां. उन्होंने बताया, ‘‘बड़का अब्बा ने सारासारा दिन लूम चला कर मुझे गुलाबी रंग का सूट दिलाया था ईद में. शाम को आते थे तो चेहरे पर सूखापन… बहुत काम लेता था न मालिक, इसलिए… पर मेरे हाथों की मेहंदी देख कर खुश हो जाया करते थे. मुझे सजासंवरा देखना उन्हें बहुत पसंद था. वे अभी तक ऐसे बोलते थे कि अभी तो तुम जवान हो.’’

यह कहते ही वे शरमा गईं. कहां की बात कहांकहां से जोड़ रही थी वह बूढ़ी औरत. ‘‘जब तेरे बड़का अब्बा की लूम की नौकरी छूट गई थी और मिस्त्रीगीरी करने लगे थे, उस में उतनी आमदनी नहीं होती थी. तब घर पर रह कर मैं सिलाई कर बच्चों को अच्छे से अच्छा पहनाती थी.’’

‘‘आप ने फरहान भाई को कितने जतन से पाला है, मुझे सब पता है. यास्मीन आपा ठीक हैं न? अब तो कोई दिक्कत नहीं है न फरहान की दुलहन को?’’

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‘‘हां, अभी तो ठीक ही है. फरहान तो मेरा बहुत खयाल रखता है. सुना है, अभी कुछ होने को है… वह उसे कोई भारी काम नहीं करने देता. हर रोज वह कभी अनार, तो कभी मौसमी, बादाम खिलाता है. ‘‘मजीद कहता था कि आप की लड़की बांझ है. कीड़े पड़ेंगे उसे. मैं ने आखिर तक सोचा, यास्मीन अपने घर वापस चली जाए, मेरी बच्ची का घर बना रहे. उस के अब्बा ने कहा था, ‘अब क्या सुख उठा पाएगी, जब मजीद के मन में मैल आ घुसा है.’

‘‘सोचा, लगता है कि उस के नसीब में सुख नहीं है. सिलाई कर के मैं ने तरन्नुम को भी 7 साल का किया. ‘‘फरहान के अब्बा ने तो कई लोगों से बात भी की कि बात बन जाए, मगर मुझे पता चल गया था कि अब बात नहीं बननी है, तभी तो मैं ने फिर से इतनी बड़ी जिंदगी अकेले काटने की सलाह दे डाली थी. मगर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था… अभी कुछ उम्मीद है. चुपके से आती है कभीकभी मिलने. बुरा लगता है दामाद साहब को न.

‘‘फरहान को पढ़ने का खूब जोश था. वह 9वीं जमात में था. तेरे बड़का अब्बा को उसी समय डेंगू हो गया था. तब मैं भी बीमारी से जूझ रही थी. इलाज में हजारों रुपया खर्च हुआ. रातरातभर अस्पताल में बैठी मैं रोती रहती थी. ‘‘उस दिन बहुत तेज पानी बरस रहा था. शाम 6 बजे ही लगता था कि आधी रात हो गई है. बड़ी वाली साइकिल भी बिक चुकी थी. पैदल ही सारे काम करने पड़ते थे.

‘‘स्कूल से फरहान लौटा, फिर टूटीफूटी छतरी ले कर आया था अब्बा को खाना देने. खाना रख कर वह मेरी बगल आ कर बैठ गया. रोतेरोते आंखें सूज गई थीं उस की और मेरी भी. ‘‘फरहान धीरे से बोला, ‘अम्मां, स्कूल वाले फीस जमा करने को बोल रहे हैं. अंगरेजी की किताब के लिए भी रोज ही सजा देते हैं.’

‘‘मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया, ‘यह कोई समय है इस तरह की बात करने का. दिखता नहीं कि बाप ने खटिया पकड़ रखी है. मां बीमार है, फिर भी दिनभर काम कर के दवा जुटा रही है. रातरातभर रोती रहती है, सोती नहीं है. तुझे अपनी पड़ी है.’ ‘‘हाथ उठ गया था अनजाने ही. गाल पर पांचों उंगलियां छप गई थीं. हाथ पकड़ कर खींचते हुए बरसते पानी में अस्पताल से बाहर कर आई थी मैं.

‘‘वह रोता हुआ गया था और एक घंटे बाद फिर वापस आ गया. ‘‘अब्बा का हाथ पकड़ कर वह बहुत रोया. तब से जो ट्रक पर गया, तो फिर कोई बीएएमए न कर सका,’’ बड़की अम्मां की सूखी आंखों में दर्द था, तड़प थी, मगर आंसू नहीं थे.

ऐसी हिम्मती औरत भला कहीं होती है क्या. सब को पालापोसा, बड़का अब्बा का कितना खयाल रखा, मेहनतमजदूरी भी की. ऐसी हिम्मत सब को मिले. ‘‘नहीं पढ़ पाए तो क्या, फरहान भाई आज अपने बच्चों को तो अच्छे से पढ़ा रहे हैं. देखा है मैं ने गुलफिशां और साबिर के गाल टमाटर से लाल हुए जा रहे हैं,’’ मैं ने कहा, तो वे धीरे से मुसकराईं, ‘‘बकरीद वाले दिन वह आया था. मुझे सलवारकमीज दी और हाथ में सौ रुपए भी रख गया था. वह गुस्सा हो रहा था. कह रहा था कि अम्मां, कुछ तो लिहाज किया होता. क्या हो गया है आप को? जैसे अब तक आप निभा आई

थीं, वैसे ही कुछ साल और सही. मरते समय तो अकेला न छोड़तीं. जगहंसाई हो रही है.’’ एक दिन तो वे अपने बचपन की बातें ले कर बैठी थीं, ‘‘पता है, मैं बचपन में बहुत शरारती थी. जब मैं

3 साल की थी, तब साकिरा फूफी की छत से अचार चुरा कर खाया करती थी. दिनभर धूप में मैं अकेले ही खेला करती थी.

‘‘रजिया और अनवर के साथ मिल कर मैं ने बहुत शैतानी की है. सब को पता था कि महल्ले में कौन सब से शरारती है. पूरे दिन मैं पतंग उड़ाती थी. ‘‘अब्बा गुस्साते थे, ‘लड़का बनी फिरती है ये लड़की, न जाने किस के घर में गुजर होगी.’

‘‘जब मैं 7वीं जमात में थी कि अब्बा ने पढ़ाई छुड़वा कर मेरा निकाह करा दिया. रामेश्वर सर ने अब्बा से बहुत लड़ाई की, जेल भिजवाने की धमकी तक दी, मगर वे नहीं माने.’’ रात 8 बज गए, सर्दी में हाथ कंपकंपाने लग गए. बड़की अम्मां ने चूल्हे से आग निकाल कर एक तसले में रखी और मेरे आगे कर दी.

मेरा मन ललचाया तो जरूर आग देख कर, लेकिन घड़ी इजाजत नहीं देती थी कि मैं और देर ठहरूं. अगले दिन दोपहर के 2 बज रहे थे. बहुत तेज धूप खिली हुई थी. मुझे इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि मौसम गिरगिट की तरह रंग बदलेगा और देखते ही देखते बारिश हो जाएगी.

मैं आटोरिकशा से हाथ निकाल कर झमझमाती बूंदों का मजा लेने लग गई. घर के लिए आटोस्टैंड से थोड़ी दूर पैदल चलना पड़ता था. थोड़ी देर तो मैं ने एक टिन के नीचे बारिश के थमने का इंतजार किया.

मैं जरा सा ही चली थी कि मेरी आंखें अचानक फटी की फटी रह गईं. उस चबूतरे पर जहां पर लवली चाची रोज सब्जी लगाती हैं, उस चबूतरे पर खड़े हो कर कोई मजे से और जम कर भीग रहा है. पहले तो मैं ठिठकी. कुछ सोच कर मैं धीरेधीरे आगे बढ़ी, वहां जा कर देखा, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

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मैं खुशी और हैरानी से चीख पड़ी, ‘‘बड़की अम्मां… आप? इतनी तेज बारिश में.’’ पानी की आवाज में मेरी आवाज दब रही थी, सो मुझे तेजतेज चीखना पड़ रहा था.

‘‘तबीयत खराब हो जाएगी,’’ मैं ने मुसकरा कर कहा. वे खिलखिला कर हंसने लगीं. एक दिन वे सरसों का साग खोंटने चली गई थीं. बरैया ने छेद दिया. हायतोबा मच गई थी, ‘इतनी धूप में न जाया करो. वहां सांप का एक बिल भी है.’

‘‘मुझे कहीं भी अकेले नहीं जाने देते थे. जितना बन सकता था, साथ ही जाते थे,’’ यही सब तो बताया था बड़की अम्मां ने एक दिन. ‘‘अरे, वहां पानी भी पीना हराम है. रजिया बूआ ने हायतोबा मचाई. सायरा और रजिया बूआ एकदूसरे से खुसुरफुसुर में थीं.

‘‘अरे बताओ, क्या जमाना आ गया है,’’ अफसाना चाची बोल रही थीं. इस तरह की आवाजें सुन कर मुझे जानने का कुतूहल हो रहा था कि आखिर बात क्या हो गई. मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘खैर, उन की अपनी जिंदगी है, वे जानें,’’ सायरा बूआ ने लंबी सांस लेते हुए कहा. ‘‘दरवाजा बंद था. बुढ़वा निकला था घर से, बादामी रंग के कुरते में, गोश्त की महक आ रही थी अंदर से. चल ऐसे रहा था, जैसे कोई चोर हो,’’ रजिया बूआ फुसफुसा रही थीं. पूरे महल्ले में बात फैल गई थी.

बड़की अम्मां उन दिनों हमारे घर की तरफ गुजरी तक नहीं. महल्ले में किसी के घर देखी नहीं गईं, न चाय वाले ठेले वाले के पास, न सब्जी वाली के पास. सुना, फरहान की दुलहन ने फिर एक दिन तो तीनों जून खाना नहीं दिया था बुड्ढे को, सारी रात खांसता रहा, लेकिन फरहान अस्पताल नहीं ले गया. आखिर उस को भी अपनी इज्जत का कुछ तो खयाल रखना ही पड़ेगा, कल को जगहंसाई हो, दुनिया थूथू करे, उन पर कीचड़ उछाले, तो फरहान क्या उन छींटों से बच पाएगा?

गुलफिशां 15 साल की हो गई है. 2-3 साल में उस के लिए रिश्ता तलाशना पड़ेगा. हंसी की हंसारत हो चुकी थी. बड़का अब्बा को किसी चौराहे पर खड़े होना मुनासिब नहीं था. यों लगता था कि सब की नजरें उन्हें बेध रही हों. पहले गलीमहल्ले में बुढि़या पंचायत लगाया करती थी, अब कम ही लोग उसे फटकने देते थे. 2 साल बाद आखिर उन दोनों की यह हरकत महल्ले वालों को कैसे गवारा होती.

अब तो मैं भी धड़ल्ले से उन के घर नहीं जा सकती थी. कुछ पता नहीं कि बड़की अम्मां का क्या हाल था. अब तो फरहान को बड़का अब्बा को सजा दे कर ही सुधारना पड़ता था. यासमीन ने एकदम ही जाना बंद कर दिया था. वहां जाने पर उस का पति गुस्साता जो था.

इस तनहाई में तो बीमारी और घर करती है, कमजोर जिस्म तो था ही. एक जून पका के चार जून तक वही खाती जो थीं. सिर पर तेल रखने वाला भी कोई नहीं था. बस कोई अनहोनी मौका तलाश रही थी, टूटती दीवार के टुकड़े भी उठा ले जाते हैं लोग. दीवार टूट चुकी थी. शहर में स्वाइन फ्लू फैला हुआ था. बुढि़या ने खटिया पकड़ ली. खबर फैल गई. लगने लगा था कि बुढि़या बचेगी नहीं. कोई खैरखबर लेने वाला भी नहीं था. कौन देखभाल करता?

चैन नहीं आया और एक बार चला गया बुड्ढा. डाक्टर को दिखाया, दवा लाया, खुद बना कर खाना खिलाया. दवा पिलाई, सारी रात जागता रहा. बुढि़या कराहती रही, आंखों की पुतली सफेद होती चली जा रही थी. ‘‘नाजिया की अम्मी, हो गई तसल्ली?’’ बुड्ढे ने धीरे से पूछा, पर वह कुछ जवाब न दे सकी.

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क्वार्टर: धीमा को क्या मिल पाया मकान

कुंजू प्रधान को घर आया देख कर धीमा की खुशी का ठिकाना न रहा. धीमा की पत्नी रज्जो ने फौरन बक्से में से नई चादर निकाल कर चारपाई पर बिछा दी.

कुंजू प्रधान पालथी मार कर चारपाई पर बैठ गया.

‘‘अरे धीमा, मैं तो तुझे एक खुशखबरी देने चला आया…’’ कुंजू प्रधान ने कहा, ‘‘तेरा सरकारी क्वार्टर निकल आया है, लेकिन उस के बदले में बड़े साहब को कुछ रकम देनी होगी.’’

‘‘रकम… कितनी रकम देनी होगी?’’ धीमा ने पूछा.

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‘‘अरे धीमा… बड़े साहब ने तो बहुत पैसा मांगा था, लेकिन मैं ने तुम्हारी गरीबी और अपना खास आदमी बता कर रकम में कटौती करा ली थी,’’ कुंजू प्रधान ने कहा.

‘‘पर कितनी रकम देनी होगी?’’ धीमा ने दोबारा पूछा.

‘‘यही कोई 5 हजार रुपए,’’ कुंजू प्रधान ने बताया.

‘‘5 हजार रुपए…’’ धीमा ने हैरानी से पूछा, ‘‘इतनी बड़ी रकम मैं कहां से लाऊंगा?’’

‘‘अरे भाई धीमा, तू मेरा खास आदमी है. मुझे प्रधान बनाने के लिए तू ने बहुत दौड़धूप की थी. मैं ने किसी दूसरे का नाम कटवा कर तेरा नाम लिस्ट में डलवा दिया था, ताकि तुझे सरकारी क्वार्टर मिल सके. आगे तेरी मरजी. फिर मत कहना कि कुंजू भाई ने क्वार्टर नहीं दिलाया,’’ कुंजू प्रधान ने कहा.

‘‘लेकिन मैं इतनी बड़ी रकम कहां से लाऊंगा?’’ धीमा ने अपनी बात रखी.

‘‘यह गाय तेरी है…’’ सामने खड़ी गाय को देखते हुए कुंजू ने कहा, ‘‘क्या यह दूध देती है?’’

‘‘हां, कुंजू भाई, यह मेरी गाय है और दूध भी देती है.’’

‘‘अरे पगले, यह गाय मुझे दे दे. इसे मैं बड़े साहब की कोठी पर भेज दूंगा. बड़े साहब गायभैंस पालने के बहुत शौकीन हैं. तेरा काम भी हो जाएगा.’’

कुंजू प्रधान की बात सुन कर धीमा ने रज्जो की तरफ देखा, मानो पूछ रहा हो कि क्या गाय दे दूं?

रज्जो ने हलका सा सिर हिला कर रजामंदी दे दी.

रज्जो की रजामंदी का इशारा पाते ही कुंजू प्रधान के साथ आए उस के एक चमचे ने फौरन गाय खोल ली.

रास्ते में उस चमचे ने कुंजू प्रधान से पूछा, ‘‘यह गाय बड़े साहब की कोठी पर कौन पहुंचाएगा?’’

‘‘अरे बेवकूफ, गाय मेरे घर ले चल. सुबह ही बीवी कह रही थी कि घर में दूध नहीं है. बच्चे परेशान करते हैं. अब घर का दूध हो जाएगा… समझा?’’ कुंजू प्रधान बोला.

‘‘लेकिन बड़े साहब और क्वार्टर?’’ उस चमचे ने सवाल किया.

‘‘मुझे न तो बड़े साहब से मतलब है और न ही क्वार्टर से. क्वार्टर तो धीमा का पहली लिस्ट में ही आ गया था. यह सब तो ड्रामा था.’’

कुंजू प्रधान दलित था. जब गांव में दलित कोटे की सीट आई, तो उस ने फौरन प्रधानी की दावेदारी ठोंक दी थी, क्योंकि अपनी बिरादरी में वही तो एक था, जो हिंदी में दस्तखत कर लेता था.

उधर गांव के पहले प्रधान भगौती ने भी अपने पुराने नौकर लालू, जो दलित था, का परचा भर दिया था, क्योंकि भगौती के कब्जे में काफी गैरकानूनी जमीन थी. उसे डर था, कहीं नया प्रधान उस जमीन के पट्टे आवंटित न करा दे.

इस जमीन के बारे में कुंजू भी अच्छी तरह जानता था, तभी तो उस ने चुनाव प्रचार में यह खबर फैला दी थी कि अगर वह प्रधान बन गया, तो गांव वालों के जमीन के पट्टे बनवा देगा.

जब यह खबर भगौती के कानों में पड़ी, तो उस ने फौरन कुंजू को हवेली में बुलवा लिया था, क्योंकि भगौती अच्छी तरह जानता था कि अगला प्रधान कुंजू ही होगा.

कुंजू और भगौती में समझौता हो गया था. बदले में भगौती ने कुंजू को 50 हजार रुपए नकद व लालू की दावेदारी वापस ले ली थी. लिहाजा, कुंजू प्रधान बन गया था.

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आज धीमा के क्वार्टर के लिए नींव की खुदाई होनी थी. रज्जो ने अगरबत्ती जलाई, पूजा की. धीमा ने लड्डू बांट कर खुदाई शुरू करा दी थी.

नकेलु फावड़े से खुदाई कर रहा था, तभी ‘खट’ की आवाज हुई. नकेलु ने फौरन फावड़ा रोक दिया. फिर अगले पल कुछ सोच कर उस ने दोबारा उसी जगह पर फावड़ा मारा, तो फिर वही ‘खट’ की आवाज आई.

‘‘कुछ है धीमा भाई…’’ नकेलु फुसफुसाया, ‘‘शायद खजाना है.’’

नकेलु की आंखों में चमक देख कर धीमा मुसकराया और बोला, ‘‘कुछ होगा तो देखा जाएगा. तू खोद.’’

‘‘नहीं धीमा भाई, शायद खजाना है. रात में खोदेंगे, किसी को पता नहीं चलेगा. अपनी सारी गरीबी खत्म हो जाएगी,’’ नकेलु ने कहा.

‘‘कुछ नहीं है नकेलु, तू नींव खोद. जो होगा देखा जाएगा.’’

नकेलु ने फिर फावड़ा मारा. जमीन के अंदर से एक बड़ा सा पत्थर निकला. पत्थर पर एक आकृति उभरी हुई थी.

‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति लगती है,’’ सड़क से गुजरते नन्हे ने कहा.

फिर क्या था. मूर्ति वाली खबर गांव में जंगल की आग की तरह फैल गई और वहां पर अच्छीखासी भीड़ जुट गई.

‘‘अरे, यह तो किसी देवी की मूर्ति है…’’ नदंन पंडित ने कहा, ‘‘देवी की मूर्ति धोने के लिए कुछ ले आओ.’’

नदंन पंडित की बात का फौरन पालन हुआ. जुगनू पानी की बालटी ले आया.

बालटी में पानी देख कर नदंन पंडित चिल्लाया, ‘‘अरे बेवकूफ, पानी नहीं गाय का दूध ले कर आ.’’

नदंन पंडित का इतना कहना था कि जिस के घर पर जितना गाय का दूध था, फौरन उतना ही ले आया.

गांव में नदंन पंडित की बहुत बुरी हालत थी. उस की धर्म की दुकान बिलकुल नहीं चलती थी. आज से उन्हें अपना भविष्य संवरता लग रहा था.

नंदन पंडित ने मूर्ति को दूध से अच्छी तरह से धोया, फिर मूर्ति को जमीन पर गमछा बिछा कर 2 ईंटों की टेक लगा कर रख दिया. उस के बाद 10 रुपए का एक नोट रख कर माथा टेक दिया.

इस के बाद नंदन पंडित मुुंह में कोई मंत्र बुदबुदाने लग गया था. लेकिन उस की नजर गमछे पर रखे नोटों पर टिकी थी. गांव वाले बारीबारी से वहां माथा टेक रहे थे.

धीमा और रज्जो यह सब बड़ी हैरानी से देख रहे थे. उन की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा.

‘‘यह देवी की जगह है, यहां पर मंदिर बनना चाहिए,’’ भीड़ में से कोई बोला.

‘हांहां, मंदिर बनना चाहिए,’ समर्थन में कई आवाजें एकसाथ उभरीं.

दूसरे दिन कुंजू प्रधान के यहां सभा हुई. सभा में पूरे गांव वालों ने मंदिर बनाने का प्रस्ताव रखा और आखिर में यही तय हुआ कि मंदिर वहीं बनेगा, जहां मूर्ति निकली है और धीमा को कोई दूसरी जगह दे दी जाएगी.

धीमा को गांव के बाहर थोड़ी सी जमीन दे दी गई, जहां वह फूंस की झोंपड़ी डाल कर रहने लगा था.

धीमा अब तक अच्छी तरह समझ चुका था कि सरकारी क्वार्टर के चक्कर में उस की पुश्तैनी जमीन भी हाथ से निकल चुकी है.

मंदिर बनने का काम इतनी तेजी से चला कि जल्दी ही मंदिर बन गया. गांव वालों ने बढ़चढ़ कर चंदा दिया था.

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आज मंदिर में भंडारा था. कई दिनों से पूजापाठ हो रहा था. नंदन पंडित अच्छी तरह से मंदिर पर काबिज हो चुका था.

खुले आसमान के नीचे फूंस की झोंपड़ी के नीचे बैठा धीमा अपने बच्चों को सीने से लगाए बुदबुदाए जा रहा था, ‘‘वाह रे ऊपर वाले, इनसान की जमीन पर इनसान का कब्जा तो सुना था, मगर कोई यह तो बताए कि जब ऊपर वाला ही इनसान की जमीन पर कब्जा कर ले, तो फरियाद किस से करें?’’

सिपहिया: सरला और राघव की कहानी    

‘‘अरी ओ लल्लन की बहू, देख तेरी चिट्ठी आई है…’’

यह सुन कर कुएं से पानी भर रही खूबसूरत सी लड़की ने अपनी कजरारी आंखों से पीछे मुड़ कर देखा कि किस में इतनी हिम्मत आ गई जो उस के ससुर का नाम इस तरह पुकार रहा है. यों तो उस की शादी के कुछ ही महीने बीते थे, पर यह वह अच्छी तरह जानती थी कि उस के ससुर की घर और गांव में बड़ी इज्जत थी.

उस के ससुर 2 जवान बेटों के बाप हैं और दोनों बेटे फौज में हवलदार हैं. वह यानी सरला बड़े बेटे की बहू है और छोटे बेटे की अभी शादी नहीं हुई है. बेटों की मां की मौत दोनों के बचपन में ही हो गई थी.

सरला बोली, ‘‘हां, बोलो डाकिया काका, क्यों पुकार रहे हो?’’

‘‘अरी बहू, बात ही ऐसी है कि हम तेरे घर जाने का इंतजार न कर सके. तू मुझे यहां पानी भरती दिखाई दी तो मैं यहीं आ गया. तेरे पति की चिट्ठी आई है और वह भी तेरे नाम से.’’

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इतना सुनते ही सरला शरमा गई और चिट्ठी को उन के हाथ से ले कर बड़े प्यार से पलटपलट कर देखने लगी और चिट्ठी को छाती में ऐसे भींच लिया जैसे राघव ही आ गया हो.

सरला मुश्किल से राघव के साथ एक महीना रह पाई थी. इस के बाद राघव को सरहद से बुलावा आ गया. बस एक बार गांव के पंचायत औफिस से फोन से बात हुई थी. पर वहां साथ में बाबा थे तो सरला बस सुनती रही, कुछ कह न पाई.

आज अचानक आई चिट्ठी ने सरला की सूखी जिंदगी में बहार ला दी थी.

सरला चिट्ठी खोल कर पढ़ने लगी. अरे, यह क्या… चिट्ठी तो इंगलिश में है. राघव ने शायद चिट्ठी जानबूझ कर इंगलिश में लिखी, जिस से उसे लगे कि उस के पति को अच्छी इंगलिश आती है.

सरला के चेहरे पर आए भावों को डाकिया काका ने तुरंत पढ़ लिया और बोले ‘‘लाओ… मैं पढ़ देता हूं.’’

काका वहीं घास पर आराम से बैठ गए और चिट्ठी पढ़ने लगे. जैसेजैसे वे चिट्ठी को हिंदी में पढ़ते गए, सरला की आंखों से आंसू गिरते गए. पर आखिरी लाइन सुनते ही सरला का मन नाचने लगा.

डाकिया काका ने चिट्ठी पढ़ते हुए कहा, ‘‘सरला, मैं गांव जा रहा हूं. मेरी छुट्टियां मंजूर हो गई हैं.’’

‘‘काका, वे कब आ रहे हैं?’’

‘‘बेटी, यह चिट्ठी तुम्हें देर से मिली है. 22 तारीख को आने को लिखा है. इस का मतलब… कल ही तो 22 तारीख है.’’

‘‘अरे वाह, राघव कल आ रहे हैं. हाथों का सामान जमीन पर पटक कर मारे खुशी के सरला वहीं नाचने लगी और अपने साथ आई पड़ोसन से बोली, ‘‘मैं जा रही हूं. ये कल आने वाले हैं. मैं ने कोई तैयारी नहीं की है. बाबा भी शहर गए हैं. अब सारी तैयारियां मुझे ही करनी हैं.’’

सुबह जल्दी उठ कर सरला ने सब से पहले आंगन धोया, चावल के मंडन बनाए, घर की देहरी पर उसी चावल के आटे से लकीरें खींचीं, उन पर अक्षत रख दरवाजे को भी फूलों से सजा दिया. इस के बाद अपना कमरा साफ किया. नई चादर बिछाई, बगीचे से फूल तोड़ कर गुलदस्ते में लगाए.

कमरे में एक पुराना बक्सा रखा था. बस, वही कमरे की खूबसूरती खराब कर रहा था. सोचा कि इसे बाहर कर दे, मगर तभी सरला को याद आया कि शादी की रात राघव ने उसे बताया था कि इस में उस की मां का सामान रखा है और उसे वह साथ रखता है. इस से उसे लगता कि मां अब भी उस के साथ है. राघव मां के बेहद करीब था. सरला ने सोचा कि वह इस पर नई चादर डाल कर फूलों का गुलदस्ता रख देगी तो अच्छा लगेगा.

थोड़ी ही देर में सरला सारा कमरा सजा कर एक कोने में खड़ी हो कर कमरे को निहारने लगी कि कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई. जब पूरी तरह तसल्ली कर ली कि सबकुछ सज गया तो चौके में जा कर उस की पसंद के पकवान बनाने लगी.

यह सब करतेकरते रात हो गई, मगर राघव से मिलने की तड़प में उसे रात को नींद भी नहीं आ रही थी. कई तरह की बातें, कई तरह के खयाल, कई तरह की गुदगुदियां. वह अपनेआप ही शरमाती, अपनेआप ही हंसती.

सरला ने सोच लिया था कि उसे राघव से क्याक्या बातें करनी हैं, क्योंकि शादी के समय इतने मेहमान थे कि राघव को न तो ठीक से वक्त दे पाई थी और न ही उस की प्यारभरी शरारतों का साथ क्योंकि जब भी राघव उसे छेड़ता, परेशान करता, कमरे में आने को कहता तभी कोई न कोई चाची, नानी, काकी टपक आती और बेचारे 2 प्यार करने वाले मन मार कर रह जाते. एक दिन तो हद ही हो गई थी.

2 दिन बाद राघव को जाना था और उस का मन था कि वह हर समय उस की बांहों में रहे. राघव उसे एक मिनट भी नहीं छोड़ना चाहता था. मगर तभी उस की चचिया सास ने महल्ले की औरतों को बुला लिया और ढोलक पर नाचगाना शुरू हो गया.

बेचारी सरला को न चाहते हुए भी वहीं बैठना पड़ा और जब शाम को कमरे में गई तो देखा, राघव बीयर की बोतल खोले पी रहा था.

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‘यह क्या… आप शराब पी रहे हैं,’ सरला ने पूछा था.

राघव ने कहा था, ‘जब तुम प्यार का नशा नहीं करने दोगी तो इस नशे का सहारा लेना पड़ेगा. तुम्हें तो इन औरतों के लिए वक्त है, मेरे लिए नहीं. अगर कहीं मैं लौट कर नहीं आ…’

सरला ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया था और बिलखते हुए राघव के सीने पर अपना सिर रख कर बोली थी, ‘आज के बाद इसे हाथ लगाया तो समझ लेना.’

राघव अपनी पत्नी सरला की प्यारभरी धमकी सुन कर मुसकराने लगा था. उस का सारा गुस्सा काफूर हो गया था और वे दोनों प्यार की गहराइयों में खो गए थे.

तभी तेज हवा के झोंके से खिड़कियां खुल गईं और सरला अपने विचारों से बाहर आ गई. उस ने सोचा कि क्यों न बीयर भी राघव के लिए सजा दे. फिर याद आया कि बीयर लाएगा कौन? तभी उसे याद आया कि उस दिन राघव से बोतल ले कर छिपा कर रख दी थी, उस ने तुरंत भाग कर अलमारी खोली और बोतल ला कर कमरे में उसी बक्से के ऊपर रख दी. 2 गिलास भी रख दिए.

तभी घड़ी में देखा कि राघव के आने का समय हो रहा है. नहाधो कर सुंदर सी साड़ी, हाथों में चूडि़यां, बालों में गजरा और आंखों में मोटा सा काजल लगा कर वह तैयार हो गई.

ये पल कटने का नाम ही नहीं ले रहे थे. उस ने दरवाजा खोला और तभी याद आया कि घर में कुछ नमकीन न थी. वह नमकीन लेने चली गई.

इसी बीच अचानक उस का देवर भी कई महीनों बाद घर वापस आया. उस ने देखा कि कमरे में बड़े करीने से 2 गिलास और बीयर की एक बोतल रखी थी. सोचा कि भाभी ने बड़ा शानदार इंतजाम कर रखा है. फिर इधरउधर देखा और सोचा कि अच्छा मौका है. क्यों न मैं भी थोड़ी सी पी लूं.

उस ने गिलास में बीयर डाली ही थी कि तभी वह हुआ जो न होना चाहिए था. अचानक राघव आ गया. उसे इस तरह कमरे में पलंग पर बैठा देख वह भी उस की गैरमौजूदगी में… राघव गुस्से से तिलमिला गया.

तभी सामने से सरला नमकीन का पैकेट लाती दिखी तो राघव को लगा कि वह देवर के लिए नमकीन लेने गई थी.

राघव को सामने देख सरला के सारे अंग में बिजली की धाराएं दौड़ने लगीं. वह इस बात का इंतजार न कर सकी कि पति की खुली हुई बांहें उसे समेट कर सीने से लगा लें, पर जैसे ही वह राघव की तरफ बढ़ी तभी राघव की गुस्से भरी आवाज से सहम गई.

सरला ने कुछ कहने के लिए होंठ खोले ही थे कि राघव तेजी से चिल्ला कर बोला, ‘‘बदचलन औरत… मैं ने तुझे क्या समझा था और तू क्या निकली.’’

इस अचानक आए शब्दों के तूफान से सरला चौंक गई. राघव के इस रूप को देख कर वह डर गई. तभी देवर के हाथ में गिलास देख कर वह सबकुछ समझ गई.

राघव बोला, ‘‘सरला, मैं तुझ से मिलने के लिए कितनी मिन्नतें कर के छुट्टी ले कर आया था.’’

सरला उस का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है. मुझे नहीं पता कि देवरजी कब आए.’’

राघव ने कस कर अपना हाथ झटका और जिन कदमों से आया था, उन्हीं कदमों से वापस जाने लगा.

सरला जब तक कुछ समझ पाती या समझा पाती तब तक राघव गुस्से में कहीं चला गया. उस के जाते कदमों के निशान को सरला अपने आंसुओं से भिगोने लगी.

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तभी तेज तूफान आ गया. आंगन बड़ेबड़े ओलों से पट गया. मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. ऐसा लग रहा था कि सरला के दुख से आसमान भी रो पड़ा हो. कभी नहीं भूलेगी वह शाम. शाम तो मौसम ने कर दी थी, वरना थी तो दोपहर. वह वहीं आंगन में बैठ कर बिलखबिलख कर रोने लगी.

बहुत तेज बारिश हो रही थी. सरला मन ही मन सोचने लगी कि इन तेज आती बारिश की बूंदों को रस्सी की तरह पकड़ कर राघव के पास पहुंच जाए. मगर बारिश और पड़ते ओलों की मार से पता नहीं कब वह बेहोश हो गई.

तभी बाबा शहर से लौट आए. बहू की ऐसी हालत देख कर वे परेशान हो गए. बाबा की आवाज सुन कर पड़ोस की चाची भी बाहर आ गई.

देवर रोहित और चाची ने मिल कर सरला को कमरे तक पहुंचाया. चाची ने कहा, ‘‘तुम बाहर जाओ. मैं सरला के कपड़े बदल देती हूं.’’

रोहित जैसे ही बाहर आया तो बाबा बोले, ‘‘अब तू बता कि बहू इस तरह आंगन में क्यों पड़ी थी?’’

रोहित ने बाबा को सारा मामला बताया. रोहित ने कहा, ‘‘भैया को गलतफहमी हो गई. मैं ने और भाभी

ने बहुत समझाने की कोशिश की, पर उन्होंने कुछ नहीं सुना और उलटे कदमों से वापस चले गए.’’

बाबा चुपचाप बैठे सारी बातें सुनते रहे और फिर भारी कदमों से उठे और बोले, ‘‘तू चाची के साथ भाभी का ध्यान रख, मैं उस बेवकूफ को ढूंढ़ने जाता हूं. वह स्टेशन पर बैठा होगा क्योंकि ट्रेन तो अब कल सुबह ही है.’’

यह कहते हुए वे छाता ले कर बाहर निकल गए और मन ही मन सोचने लगे कि इतनी समझदार बहू के बारे में इतना गलत राघव ने कैसे सोच लिया.

सरला को होश आया तो उसे लगा कि उस के पैरों के पंजों में तेजी से कोई तेल मल रहा है. तभी उसे याद आया कि वह तो आंगन में बेहोश हो गई थी, आंखें खोल कर देखा कि सामने ससुर खड़े थे.

उस को होश में आते देख ससुर बोले, ‘‘कैसी हो बहू… और यह रहा तुम्हारा मुजरिम, जो सजा देना चाहो दो.’’

सरला ने आंख खोल कर धीरे से देखा कि राघव उस के पैरों की मालिश कर रहे थे.

‘‘अरे… मेरे पैर छोडि़ए.’’

राघव कान पकड़ कर बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो सरला.’’

सभी लोग कमरे से बाहर आ गए.

‘‘आप ऐसे माफी मत मांगिए. रिश्तों की गीली जमीन पर अकसर लोग फिसल जाते हैं.’’

राघव बोला, ‘‘तुम संभाल भी तो सकती थी.’’

सरला बोली, ‘‘आप ने मौका ही कहां दिया.’’

राघव चुपचाप एकटक उसे देखने लगा. उस के चेहरे से पश्चात्ताप के शब्द बिना बोले साफ समझ में आ रहे थे. उस का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर सरला बोली, ‘‘क्या सोच रहे हो जी?’’

राघव बोला, ‘‘बस यही सोच रहा हूं कि कुछ जख्मों के कर्ज लफ्जों से अदा नहीं होते.’’

सरला धीरे से बोली, ‘‘बस, सीने से लगा लो, सारे कर्ज अदा हो जाएंगे.’’

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राघव ने सरला को अपनी बांहों में समेट लिया और अभीअभी बिखरने से बची अपनी प्यार की दुनिया में वे दोनों खो गए.

Short Story: तितली… रंगबिरंगी

लेखक-  नीरज कुमार मिश्रा

रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मी और पापा के आपसी झगड़ों की कड़वी आवाज़ों से हुई . सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी ,चिकचिक सुनकर उसने चादर सर से ओढ़ ली ,आवाज़ पहले से कम तो हुई पर अब भी कानो से टकरा रही थी .

सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गयी थी पास में पड़े मोबाइल को टटोलकर उसमें एयरफोन लगाकर बड्स को कानो में कसकर ठूंस लिया और वॉल्यूम को फुल कर दिया .

अट्ठारह वर्षीय सियाली के लिए ये कोई नयी बात नहीं थी ,उसके माँबाप आये दिन ही झगड़ते रहते थे जिसका सीधा कारण था  उन दोनों के संबंधों में खटास का होना  …..ऐसी खटास जो एक बार जीवन में आ जाये तो आपसी रिश्तों की परिणिति उनका खात्मा ही होती है .

सियाली के माँबाप प्रकाश यादव और निहारिका यादव के संबंधों में ये खटास कोई एक दिन में नहीं आई बल्कि ये तो एक मध्यमवर्गीय परिवार के कामकाजी दम्पत्ति के आपसी सामंजस्य  बिगड़ने के कारण धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी   .

सियाली का पिता अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करता था उसका शक करना भी एकदम जायज था क्योंकि निहारिका का अपने आफिसकर्मी के साथ संबंध चल रहा था ,पतिपत्नी के हिंसा और शक समानुपाती थे ,जितना शक गहरा हुआ उतना ही प्रकाश की हिंसा बढ़ती गई और जिसका परिणाम परपुरुष के साथ निहारिका का प्रेम बढ़ता गया .

“जब दोनो साथ नहीं रह सकते तो तलाक क्यों नहीं दे देते … एक दूसरे को ”सियाली बिस्तर से उठते हुए झुंझुलाते हुए बोली

सियाली जब अपने कमरे से बाहर आई तो  दोनो काफी हद तक शांत हो चुके थे, शायद वे किसी निर्णय तक पहुच गए थे.

“तो ठीक है मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूँ …..पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?” प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए कहा

“मैं समझती हूं ….सियाली को तुम मुझसे बेहतर सम्भाल सकते हो” निहारिका ने कहा ,उसकी इस बात पर प्रकाश भड़क सा गया

“हाँ …तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना ही चाहती हो ताकि तुम अपने उस ऑफिस वाले के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं एक जवान लड़की के चारो तरफ एक गार्ड बनकर घूमता रहूँ ”

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प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा कि “मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक माँ की ही होती है ?”

निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली

“हाँ …वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है ….एकदो दिन मेरे साथ रहेगी तो मुझे भी ऐतराज़ नहीं होगा ”निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था

सियाली कभी माँ की तरफ देख रही थी तो कभी अपनी पिता की तरफ ,उससे कुछ कहते न बना पर इतना समझ गयी थी कि माँबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उसका अस्तित्व एक पेंडुलम से अधिक नहीं है  जो दोनो के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है  .

माँबाप के बीच इस रोज़रोज़ के झगड़े ने एक अजीब से विषाद से भर दिया था सियाली को  और इस विषाद का अंत शायद तलाक जैसी चीज से ही सम्भव था इसलिए सियाली के मन में कहीं न कहीं चैन की सांस ने प्रवेश किया कि चलो आपस की कहा सुनी अब खत्म हुई और अब सबके रास्ते अलगअलग है .

शाम को कॉलेज से लौटी तो घर में एक अलग सी शांति थी ,पापा भी सोफे में धंसे हुए चाय पी रहे थे ,चाय जो उन्होंने खुद ही बनाई थी ,उनके चेहरे पर कई महीनों से बनी रहने वाली तनाव की वो शिकन गायब थी ,सियाली को देखकर उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश भी करी

“देख ले…. तेरे लिए चाय बची होगी ….ले ले मेरे पास आकर बैठकर पी ”

सियाली पापा के पास आकर बैठी तो पापा ने अपनी सफाई में काफी कुछ कहना शुरू किया. “मैं बुरा आदमी नहीं हूँ पर तेरी मम्मी ने भी तो गलत किया था उसके कर्म  ही ऐसे थे कि मुझे उसे देखकर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी माँ ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी  ”

पापा की बातें सुनकर सियाली से भी नहीं रहा गया. “मैं नहीं जानती कि आप दोनो में से कौन सही है और कौन गलत पर इतना ज़रूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाये तो आपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है ” दोनो बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुलकर बात करी थी ,पापा की बातों में माँ के प्रति नफरत और द्वेष ही छलक रहा था जिसे चुपचाप सुनती रही थी सियाली .

अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर माँ का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना एड्रेस देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को माँ के पास जाने की सूचना भी उसने अपने पापा को दे दी जिस पर पापा को भी कोई ऐतराज नहीं हुआ .

शाम को “शालीमार अपार्टमेंट” में पहुच गई थी सियाली ,पता नहीं क्या सोचकर उसने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था ,फ्लैट नंबर एक सौ ग्यारह में सियाली पहुच गई थी.

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कॉलबेल बजाई ,दरवाज़ा माँ ने  खोला था , अब चौकने की बारी सियाली की थी माँ गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थी ,माँग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर तिलक की शक्ल में लगाई हुई बिंदी ,सियाली को याद नहीं कि उसने माँ को कब इतनी अच्छी तरह से श्रंगार किये हुए देखा था ,हमेशा सादे वेश में ही रहती थी माँ और टोकने पर दलील देती

“अरे हम कोई ब्राह्मणठाकुर तो है नहीं जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें ….हम पिछड़ी जाति वालों के लिए सिंपल रहना ही अच्छा है ”

तो फिर आज माँ को ये क्या हो गया ?

उनकी सिम्पलीसिटी आज श्रंगार में कैसे परिवर्तित हो गई थी और क्यों वो जाति की दलीलें देकर सही बात को छुपाना चाह रही थी .

सियाली ने बुके माँ को दे दिये ,माँ ने बहुत उत्साह से बुके ले लिए और कोने की मेज पर सज़ा दिए .

“अरे अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से “माँ के पीछे से आवाज़ आई ,आवाज़ की दिशा में नज़र उठाई तो देखा कि सफेद कुर्ता और पाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा था ,सियाली उसे पहचान गई ये माँ का सहकर्मी देशवीर था ,माँ इसे पहले भी घर भी ला चुकी थी .

माँ ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया जिसपर सियाली ने कहा, “जानती हूँ माँ ….पहले भी तुम इनसे मिला चुकी हो मुझे ”

“पर पहले जब मिलवाया था तब ये सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे  पर आज मेरे सब कुछ हैं….हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक का फैसला होते ही शादी भी कर लेंगे  ”

मुस्कुराकर रह गयी थी सियाली

सबने एक साथ खाना खाया , डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था ,माँ के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और ये चमक कृत्रिम या किसी फेशियल की नहीं थी ,उनके मन की खुशी उनके चेहरे पर झलक रही थी .

सियाली रात में माँ के साथ ही सो गई और सुबह वहीँ से कॉलेज के लिए निकल गयी ,चलते समय माँ ने उसे दो हज़ार रुपये देते हुए कहा

“रख ले…घर जाकर पिज़्ज़ा आर्डर कर देना  ”

कल से लेकर आज तक माँ ने सियाली के सामने एक आदर्श माँ होने के कई उदाहरण प्रस्तुत किये थे पर सियाली को ये सब नहीं भा रहा था और न ही उसे समझ में आ रहा था कि ये माँ का कैसा प्यार है जो उसके पिता से अलग होने के बाद और भी अधिक छलक रहा है.

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फिलहाल तो वो अपनी ज़िंदगी खुलकर जीना चाहती थी इसलिए माँ के दिए गए पैसों से सियाली  उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गयी .

“पर सियाली आज तू ये किस खुशी में पार्टी दे रही है ?”महक ने पूछा

“बस यूँ समझो …आज़ादी की ”मुस्कुरा दी थी सियाली.

सच तो ये था कि माँबाप के अलगाव के बाद सियाली भी बहुत रिलेक्स महसूस कर रही थी ,रोज़रोज़ की टोकाटाकी से अब उसे मुक्ति मिल चुकी थी और सियाली अब अपनी ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी इसीलिए उसने अपने दोस्तों से  अपनी एक इच्छा बताई .

“यार मैं एक डांस ट्रूप (नृत्य मंडली ) जॉइन करना चाहती हूं ताकि मैं अपने जज़्बातों को डांस के द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं ”सियाली ने कहा जिसपर उसके दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए जिनसे वो अपने आपको व्यक्त कर सकती थी जैसे ड्राइंग,सिंगिंग,मिट्टी के बर्तन बनाना पर सियाली तो मज़े और मौजमस्ती के लिए डांस ट्रूप जॉइन करना चाहती थी इसलिए उसे  बाकी के ऑप्शन नहीं अच्छे लगे .

अपने शहर के डांस ट्रूप “गूगल” पर खंगाले तो  “डिवाइन डांसर” नामक एक डांस ट्रूप ठीक लगा जिसमे चार मेंबर लड़के  थे और एक लड़की थी  ,सियाली ने तुरंत ही वह ट्रूप जॉइन कर लिया और अगले दिन से ही डांस प्रेक्टिस के लिए जाने लगी ,सियाली अपना सारा तनाव अब डांस के द्वारा भूलने लगी और इस नई चीज का मज़ा भी लेने लगी .

डिवाइन डांसर नाम के इस ट्रूप को परफॉर्म करने का मौका भी मिलता तो सियाली भी साथ में जाती और स्टेज पर सभी परफॉर्मेंस देते जिसके  बदले सियाली को भी ठीकठाक पैसे मिलने लगे ,इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था ,वह निरंकुश हो चुकी थी न माँबाप का डर और न ही कोई टोकाटोकी करने वाला ,जब चाहती घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला नहीं था उसके माँबाप  का तलाक क्या हुआ सियाली तो एक आज़ाद चिड़िया हो गई जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आज़ाद थी .

सियाली का फोन बज उठा था ,ये पापा का फोन था .

“सियाली….कई दिन से घर नहीं आई तुम…क्या बात है?…..हो कहां तुम?”

“पापा मैं ठीक हूँ…..और डांस सीख रही हूँ”

“पर तुमने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो ”

“ज़रूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं …..आप लोग अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं इसलिए मैं भी अब अपने हिसांब से ही जियूंगी”

फोन काट दिया था सियाली ने,पर उसका मन एक अजीब सी खटास से भर गया था .

डांस ट्रूप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी पर पराग नाम के लड़के से उसकी कुछ ज्यादा ही पटने लगी .

पराग स्मार्ट भी था और पैसे वाला भी ,वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और ख़िलातापिलाता ,उसकी संगत में सिहाली को भी सुरक्षा का अहसास होता था.

एक दिन पराग और सियाली एक रेस्तराँ में गए ,पराग ने अपने लिए एक बियर मंगाई

“तुम तो सॉफ्ट ड्रिंक लोगी सियाली ”पराग ने पूछा

“खुद तो बियर पियोगे और मुझे बच्चों वाली ड्रिंक …..मैं भी बियर पियूंगी ”एक अजीब सी शोखी सियाली के चेहरे पर उतर आई थी .

सियाली की इस अदा पर पराग भी बिना मुस्कुराए न रह सका और उसने एक और बियर आर्डर कर दी .

सियाली ने बियर से शुरुआत जरूर करी थी पर उसका ये शौक धीरेधीरे व्हिस्की तक पहुच गया था .

अगले दिन डांस क्लास में जब दोनो मिले तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया

“सियाली मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ”घुटनो को मोड़कर ज़मीन पर बैठते हुए पराग ने कहा  सभी लड़के लड़कियाँ इस बात पर तालियाँ बजाने लगे.

सियाली ने भी मुस्कुराकर गुलाब पराग के हाथों से ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, “लेकिन मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज़ के बंधन में नहीं बढ़ना चाहती …..शादी एक सामाजिक तरीका है दो लोगों को एक दूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए  जीवन बिताने का पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं ?”सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुनकर डांस ट्रूप के लड़केलड़कियाँ शांत से दिख रहे थे.

सियाली ने रुककर कहना शुरू किया, “मैने अपनी माँबाप को उसके  शादीशुदा जीवन में हमेशा ही लड़ते हुए देखा है जिसकी परिणिति तलाक के रूप में हुई और अब मेरी माँ अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रहीं है और पहले से कहीं अधिक खुश है  ”

पराग ये बात सुनकर तपाक से बोला कि वो भी सियाली के साथ लिवइन में रहने को तैयार है अगर सियाली को मंज़ूर हो तो,पराग की बात सुनकर उसके साथ लिवइन के रिश्ते को झट से स्वीकार कर लिया था सियाली ने.

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और कुछ दिनों बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे ,जहां पर दोनो जी भरकर अपने जीवन का आनंद ले रहे थे ,पराग के पास आय के स्रोत के रूप में एक बड़ा जिम था, जिससे पैसे की कोई समस्या नहीं आई

पराग और सियाली ने अब भी डांस ट्रूप को जॉइन कर रखा था और लगभग हर दूसरे दिन ही दोनो क्लासेज के लिए जाते और जी भरकर नाचते .

इसी डांस ट्रूप में गायत्री नाम की लड़की थी उसने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया

“सियाली ….तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है ….और इतनी जल्दी किसी के साथ …..आई मीन….लिवइन में रहना ….कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हे ?”

सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुस्कुराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए फिर सियाली ने अपने आपको संयत करते हुए कहा

“जब मेरे माँबाप ने सिर्फ अपनी ज़िंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवाह नहीं करी तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूँ……और…गायत्री  ….ज़िन्दगी मस्ती करने के लिए बनी है इसे न किसी रिश्ते में बांधने की ज़रूरत है और न ही रोरोकर गुज़ारने की ….और मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूँ ….और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ…..  उम्र का तो सोचो ही मत ….इनजॉय योर लाइफ यार…”

सियाली ये कहते हुए वहां से चली गयी थी जबकि गायत्री  अवाक सी खड़ी हुई थी .

तितलियाँ कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठी ,वे कभी एक फूल के पराग पर बैठती है तो कभी दूसरे फूल के पराग पर….और तभी तो इतनी चंचल होती है और इतनी खुश रहती है तितली …रंगबिरंगी तितली ….जीवन से भरपूर तितली.

अपाहिज सोच: क्या जमुना ताई अपनी बेटी की भविष्य के लिए समाज से लड़ पाई

लेखिका- पारुल बंसल
एक ओर हमारा समाज पुराने रीतिरिवाज छोड़ नहीं पा रहा, वहीं दूसरी ओर इस वजह से हमारी सोच भी संकीर्ण  होती रही है. बेटी की पढ़ाई को ले कर हमारा समाज आज भी दोहरी सोच रखता है. क्या जमुना ताई अपनी बेटी कजरी की पढ़ाई को ले कर अपने पति भवानी सिंह और समाज से पंगा ले पाईं? क्या वह अपनी बेटी को ऊंची तालीम दिला पाईं?
मुरगे के बांग देते ही मानो गांवदेहात की अलार्म घड़ी बज जाती है. सभी लोग लोटे के साथ चल पड़ते हैं, खुले में शौच करने, जो उन का जन्मसिद्ध अधिकार है. भारत में न जाने कितने ही शौचालय बन चुके हैं, फिर भी उतने ही बनने अभी बाकी है. अरे, कुछ जगह तो यह आलम है कि उन्हें बंद किवाड़ के पीछे उतरती ही नहीं है. अब इन शौचालयों के बनने से औरतों और लड़कियों को तो जैसे जीवनदान ही मिल गया है. जमुना की तो जान में जान आ गई है, क्योंकि उस की बेटी कजरी अब बड़ी जो हो रही है.
वह नहीं चाहती थी कि जो समस्याएं गांव की कठोर जिंदगी में उस ने भुगती हैं, उन का सामना कजरी भी करे.
एक दिन सुबहसुबह कजरी अपने बिस्तर पर बैठी खूब रोए जा रही थी. उस का बापू भवानी सिंह घर के बाहर चबूतरे पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. यह उस का खानदानी शौक रहा है और ऐसा शौक हरियाणा के हर गांव के मर्द की फितरत में शामिल है.
यह शौक वहां के मर्दों की शान को बढ़ा देता है. वहां के मर्दों को न तो कभी कोई काम करना होता है, सारा दिन यों ही चौपाल पर आदमी इकट्ठे करना और फालतू की चर्चाएं करना. जैसे देश के सारे बड़े कर्णधार यहीं पैदा हुए हैं. न खेती करना, न गायभैंस की देखभाल करना और न ही खेतखलिहानों को संभालना. बस, सारा दिन मुंह से मुंह जोड़ कर गपें हांकना.

कजरी की आवाज जैसे ही भवानी सिंह के कानों में पड़ी, उतनी ही तेज आवाज में वह जमुना को कोसने लगा, “अरे कहां मर गई… अपने साथ इसे भी ले जाती… यह क्यों मेरे कान पर भनभना रही है…”

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भवानी सिंह की नाराजगी जमुना के लड़का न जन पाने के चलते बनी हुई थी. जमुना के अंदर इन जलीकटी बातों से खून उबाल मार रहा था.
हालांकि ऐसी बातें उस के लिए कोई नया किस्सा नहीं थीं, मानो भवानी सिंह पति की जगह सास का किरदार निभा रहा हो. हमेशा बैठेबैठे मूंछों पर ताव देता रहता और जीभ से जहर उगलता रहता.
जमुना के दिल की सुनें, तो उस के हिसाब से भवानी सिंह उस की जिंदगी में सांप की तरह कुंडली मार बैठा था, जिसे छेड़े बिना ही डसने को तैयार रहता.
जमुना मन मसोस कर और जबान पर ताला डाल कर भवानी सिंह की पुकार की वजह जानने के लिए हाजिर हुई.
“अरे, आज तुम्हारी छोरी क्यों सुबक रही है?” भवानी सिंह ने पूछा.
यह सुन कर जमुना कजरी की ओर लंबेलंबे डग भरते हुए पहुंची.
कजरी एक कोने में खुद में सिमटी हुई सी पड़ी थी. उस ने अपने मुंह को घुटनों में ऐसे छिपा रखा था मानो कोई अपराध किया हो.
“ऐसे में रोते नहीं हैं… यह तो हर जनानी के साथ होता है.”
“पर मां, यह सब… गंदा…”
हांहां, ऐसा ही होता है. जब लड़की बड़ी होती है…”
“मैं समझी नहीं…”
“मतलब यह कि अब तुम सयानी हो गई हो. अब ये सब बातें बाद में, पहले तुम स्नानघर में जा कर नहा लो और यह कपड़ा इस्तेमाल करो.”
“अच्छा मां… पर एक दिन मैं ने चंपा को घासफूस और कुछ सूखे पत्ते इकट्ठे करते हुए देखा था. मैं ने उस से पूछा तो वह बोली थी कि तुझे भी समय आने पर सब पता चल जाएगा.
“बेटी, गरीब लोगों के पास इतना कपड़ा नहीं होता, जो माहवारी के मुश्किल दिनों में इस्तेमाल कर सकें, इसीलिए वे घासफूस, सूखे पत्ते का सहारा ही बहते हुए खून को रोकने के लिए करते हैं और यही बीमारी की वजह बनता है.”
“अरे, दोनों मांबेटी खुसुरफुसुर ही करती रहोगी या मेरे हुक्के में कोई कोयला भी डालेगा?” भवानी सिंह चिल्लाया.
“मेरा बस चले तो कोयला सीधे इन की चिता में ही डालूं. काम के न काज के दुश्मन अनाज के…”
“कहां है कजरी… ऐ छोरी… क्या मेहंदी लगी है?”
“वह आराम करेगी 2 दिन…”
“क्या हुआ…?”
“अरे वही… अब छोरी सयानी हो रही है.”
“अच्छा.”
“कजरी के बापू एक बात कहूं…”
“हां… हां, कहो, क्या कहना चाहती हो?”

“हमारी छोरी बड़ी होशियार है. अब उसे बड़े स्कूल जाना होगा. मास्टर साहब आए थे कल. कह रहे थे कि यह छोरी तुम्हारा नाम रोशन कर सकती है.”

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“भेजे में अक्ल नहीं है तेरे क्या… हमारे घर की छोरियां चूल्हाचौका सीखती हैं, काले अक्षर नहीं… अब बस  कोई अच्छा सा लड़का देख कर इस का ब्याह कर दूंगा,” भवानी सिंह बोला.
इतने में मास्टर साहब वहां आ गए और बोले, “मैं ने कजरी का फार्म मंगा लिया है.”
“अरे मास्टर साहब, आप तो सब जानते हैं, फिर भी… औरतें हमारे पैर की जूती हैं और जूती को कभी सिर पर नहीं रखा जाता. आज हमारा छोरा होता, तो हम उसे पढ़ने विदेश भी भेज देते.”
जमुना का मन अपने पति को जी भर कर गाली देने को हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘इस गांव के किसी मर्द ने कभी एक फली के दो टूक भी किए हैं… सब अपनी जनानियों के कामकाज पर निर्भर हैं. इन की मर्दानगी तो बस धोती में ही है. मूंछें तो इन को मुंड़वा ही देनी चाहिए. मर्द कहलाने के लायक ही नहीं हैं.
‘बेटा न हो पाने का सारा इलजाम मुझ पर मढ़ते रहते हैं. अब इन्हें कौन समझाए कि बेटा या बेटी पैदा होने में औरत और मर्द दोनों ही बराबर के हिस्सेदार होते हैं, पर कुसूर हम जनानियों का ही ठहराया जाता है.’
अपनी बेटी को बाहर पढ़ाने की जिद पूरी कराने को जमुना गांव की कई औरतों को इकट्ठा कर लाई और धरने पर बैठ गई. गांव के प्रधान तक खबर पहुंच गई. आज भवानी सिंह के घर पर पंचायत बैठेगी.
औरतों ने गांव की छोरियों को पाठशाला से बड़े स्कूल भेजने की बात रखी. बड़ा ही वादविवाद हुआ.
प्रधान जमुना से बोले, “यह नई रीति क्यों? हमारे गांव के बस छोरे पढ़े हैं, न कि छोरी.”
जमुना बोली, “यहां के छोरों ने आज तक एक चूहा भी मारा है? अब बारी छोरियों की है. ये अपने करतब दिखाएंगी. आप इन्हें एक मौका दे कर तो देखिए.”
भवानी सिंह को प्रधान की मरजी के साथ अपनी रजामंदी भी देनी पड़ी. अब जमुना दिन दूनी रात चौगुनी काम करने लगी, जिस से पढ़ाई के लिए पैसा इकट्ठा हो सके.
लेकिन भवानी सिंह को हुक्का गुड़गुड़ाने से ही फुरसत न थी. जमुना उस समय 8वीं पास थी. अंगूठाटेक जनानियों के बीच जब वह बैठती, तो वे उसे अध्यापिका का दर्जा देतीं, पर भवानी सिंह को इस की कोई कदर न थी.
इधर कजरी अपने नाम की तरह रूपरंग में सांवलीसलोनी थी, पर कजरी की पढ़ाईलिखाई ने उस के रंगरूप को बहुत पीछे कर दिया था.
कुछ सालों बाद एक गाड़ी भवानी सिंह के गांव में आ कर रुकी, जिस में से एक महिला अफसर उतरी.
यह देख कर भवानी सिंह भौचक्का रह गया कि एक औरत की इतनी इज्जत कैसे…?

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वह कजरी थी और आज जिला अधिकारी के पद पर कार्यरत थी.
यह देख कर भवानी सिंह ने अपनी मूंछों पर ताव दिया और बोला, “यह मेरी छोरी है. इस ने मेरा नाम रोशन कर दिया है…”
लेकिन भवानी सिंह की आंखें जमुना के आगे झुक जाती हैं, जिसे उस ने कभी सही माने में औरत का दर्जा ही नहीं दिया. हमेशा उसे कोल्हू का बैल ही समझा. पर, औरत में समाज को बदलने की ताकत होती जिसे भवानी सिंह जैसे निठल्ले, अनपढ़, जाहिल को समझने में शायद सदियां बीत जाएंगी.

Serial Story- ईद का चांद: भाग 1

उस दिन रमजान की 29वीं तारीख थी. घर में अजीब सी खुशी और चहलपहल छाई हुई थी. लोगों को उम्मीद थी कि शाम को ईद का चांद जरूर आसमान में दिखाई दे जाएगा. 29 तारीख के चांद की रोजेदारों को कुछ ज्यादा ही खुशी होती है क्योंकि एक रोजा कम हो जाता है. समझ में नहीं आता, जब रोजा न रखने से इतनी खुशी होती है तो लोग रोजे रखते ही क्यों हैं? बहरहाल, उस दिन घर का हर आदमी किसी न किसी काम में उलझा हुआ था. उन सब के खिलाफ हिना सुबह ही कुरान की तिलावत कर के पिछले बरामदे की आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई थी, थकीथकी, निढाल सी. उस के दिलदिमाग सुन्न से थे, न उन में कोई सोच थी, न ही भावना. वह खालीखाली नजरों से शून्य में ताके जा रही थी.

तभी ‘भाभी, भाभी’ पुकारती और उसे ढूंढ़ती हुई उस की ननद नगमा आ पहुंची, ‘‘तौबा भाभी, आप यहां हैं. मैं आप को पूरे घर में तलाश कर आई.’’ ‘‘क्यों, कोई खास बात है क्या?’’ हिना ने उदास सी आवाज में पूछा.

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‘‘खास बात,’’ नगमा को आश्चर्य हुआ, ‘‘क्या कह रही हैं आप? कल ईद है. कितने काम पड़े हैं. पूरे घर को सजानासंवारना है. फिर बाजार भी तो जाना है खरीदारी के लिए.’’ ‘‘नगमा, तुम्हें जो भी करना है नौकरों की मदद से कर लो और अपनी सहेली शहला के साथ खरीदारी के लिए बाजार चली जाना. मुझे यों ही तनहा मेरे हाल पर छोड़ दो, मेरी बहना.’’

‘‘भाभी?’’ नगमा रूठ सी गई. ‘‘तुम मेरी प्यारी ननद हो न,’’ हिना ने उसे फुसलाने की कोशिश की.

‘‘जाइए, हम आप से नहीं बोलते,’’ नगमा रूठ कर चली गई. हिना सोचने लगी, ‘ईद की कैसी खुशी है नगमा को. कितना जोश है उस में.’

7 साल पहले वह भी तो कुछ ऐसी ही खुशियां मनाया करती थी. तब उस की शादी नहीं हुई थी. ईद पर वह अपनी दोनों शादीशुदा बहनों को बहुत आग्रह से मायके आने को लिखती थी. दोनों बहनोई अपनी लाड़ली साली को नाराज नहीं करना चाहते थे. ईद पर वे सपरिवार जरूर आ जाते थे. हिना के भाईजान भी ईद की छुट्टी पर घर आ जाते थे. घर में एक हंगामा, एक चहलपहल रहती थी. ईद से पहले ही ईद की खुशियां मिल जाती थीं.

हिना यों तो सभी त्योहारों को बड़ी धूमधाम से मनाती थी मगर ईद की तो बात ही कुछ और होती थी. रमजान की विदाई वाले आखिरी जुम्मे से ही वह अपनी छोटी बहन हुमा के साथ मिल कर घर को संवारना शुरू कर देती थी. फरनीचर की व्यवस्था बदलती. हिना के हाथ लगते ही सबकुछ बदलाबदला और निखरानिखरा सा लगता. ड्राइंगरूम जैसे फिर से सजीव हो उठता. हिना की कोशिश होती कि ईद के रोज घर का ड्राइंगरूम अंगरेजी ढंग से सजा न हो कर, बिलकुल इसलामी अंदाज में संवरा हुआ हो. कमरे से सोफे वगैरह निकाल कर अलगअलग कोने में गद्दे लगाए जाते. उस पर रंगबिरंगे कुशनों की जगह हरेहरे मसनद रखती. एक तरफ छोटी तिपाई पर चांदी के गुलदान और इत्रदान सजाती. खिड़की के भारीभरकम परदे हटा कर नर्मनर्म रेशमी परदे डालती. अपने हाथों से तैयार किया हुआ बड़ा सा बेंत का फानूस छत से लटकाती.

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अम्मी के दहेज के सामान से पीतल का पीकदान निकाला जाता. दूसरी तरफ की छोटी तिपाई पर चांदी की ट्रे में चांदी के वर्क में लिपटे पान के बीड़े और सूखे मेवे रखे जाते.

हिना यों तो अपने कपड़ों के मामले में सादगीपसंद थी, मगर ईद के दिन अपनी पसंद और मिजाज के खिलाफ वह खूब चटकीले रंग के कपड़े पहनती. वह अम्मी के जिद करने पर इस मौके पर जेवर वगैरह भी पहन लेती. इस तरह ईद के दिन हिना बिलकुल नईनवेली दुलहन सी लगती. दोनों बहनोई उसे छेड़ने के लिए उसे ‘छोटी दुलहन, छोटी दुलहन’ कह कर संबोधित करते. वह उन्हें झूठमूठ मारने के लिए दौड़ती और वे किसी शैतान बच्चे की तरह डरेडरे उस से बचते फिरते. पूरा घर हंसी की कलियों और कहकहों के फूलों से गुलजार बन जाता. कितना रंगीन और खुशगवार माहौल होता ईद के दिन उस घर का. ऐसी ही खुशियों से खिलखिलाती एक ईद के दिन करीम साहब ने अपने दोस्त रशीद की चुलबुली और ठठाती बेटी हिना को देखा तो बस, देखते ही रह गए. उन्हें लगा कि उस नवेली कली को तो उन के आंगन में खिलना चाहिए, महकना चाहिए.

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