मजाक: सेवकराम की घरवाली और कामवाली

Writer- वीरेंद्र बहादुर सिंह

सेवकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.

सेवकराम ने नई कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?’’

‘‘मैं संतू हूं साहब.’’

‘‘तुम कब से काम करने आने लगी हो?’’ सेवकराम ने पूछा.

‘‘बस, कल से.’’

‘‘पर, मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.’’

‘‘साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही घर चली गई थी.

‘‘मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मु?ा से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,’’ संतू ने कहा.

‘‘मतलब…?’’

‘‘वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मु?ो लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.’’

‘‘ऐसा क्यों साहब?’’

‘‘संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं, तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं, तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.

‘‘एक दिन मैं ?ाठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मु?ो शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मु?ो भूखे ही सोना पड़ा था,’’ सेवकराम ने कहा.

संतू ने हाथ में ?ाड़ू लिए हुए ही पूछा, ‘‘आप कोई नेता हैं क्या साहब?’’

‘‘यह बात बाद में करेंगे, पहले मु?ो यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?’’

संतू ने कहा, ‘‘मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?’’

‘‘मस्त लगती हो.’’

‘‘थैंक्यू साहब.’’

‘‘तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?’’

‘‘हां साहब, मैं 12वीं तक पढ़ी हूं.’’

‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?’’

‘‘24 साल की हूं साहब.’’

‘‘पर, तुम 20 की ही लगती हो.’’

‘‘दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मु?ो 16 साल की ही कहते थे.’’

‘‘तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.’’

कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का नाम क्या है?’’

‘‘सेवकराम.’’

‘‘इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?’’

‘‘बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मु?ो भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.

‘‘पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों

रखा है?’’

संतू बोली, ‘‘साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मु?ो प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को

अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मु?ो बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था,

फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.’’

‘‘वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.’’

संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का कामकाज क्या है?’’

‘‘देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं, इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौयन करने वाला हूं.’’

‘‘तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.’’

‘‘संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.’’

‘‘तो फिर आप क्या करेंगे साहब?’’

‘‘मैं कांग्रेस पार्टी को जौयन

करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.’’

‘‘पर, वह ट्रेन न चली तो…?’’

‘‘मैं आशावादी हूं. एक जमाने में भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.’’

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संतू ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों साहब?’’

‘‘सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.’’

‘‘इस से आप को क्या फायदा होगा?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘देखो संतू, मु?ो टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?’’

‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.’’

‘‘अरे संतू, मु?ो तो पैसे का फायदा हो रहा है न.’’

‘‘आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मु?ो एडवांस में एक साड़ी दे दीजिए न.’’

‘‘अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढि़या साड़ी ला दूं.’’

‘‘थैंक्यू साहब, मु?ो अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.’’

‘‘मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?’’

‘‘अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मु?ो तो साड़ी आज ही चाहिए.’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.’’

‘‘हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी तब…?’’

‘‘मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब

कर दी.’’

‘‘इस का मतलब तो यह कि आप अपनी घरवाली से ?ाठ बोलेंगे?’’

‘‘तुम्हारे जैसी खूबसूरत कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, बल्कि सौ ?ाठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त

पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.’’

‘‘कौन सी शर्त?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.

‘‘पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मु?ो सोते से उठा कर चाय देनी होगी.

‘‘मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.’’

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‘‘ठीक है साहब, आप की शर्त

मंजूर है.’’

‘‘पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मु?ो चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मु?ो साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और भी खूबसूरत लगती हूं.’’

‘‘ठीक है, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे,

ले लो.’’

‘‘ठीक है साहब,’’ कह कर संतू अंदर गई और एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.

संतू के इंतजार में सेवकराम को उस रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा कि रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.

सेवकराम ने कहा, ‘‘आ गई डार्लिंग?’’

‘‘हां, लो यह चाय.’’

सेवकराम, को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.

चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.’’

घबराते हुए सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे तुम… तुम तो एक हफ्ते के लिए गई

थीं, दूसरे ही दिन कैसे आ गईं?’’

‘‘मु?ो तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मु?ो फोन कर देना.

‘‘कल रात को ही संतू ने फोन

कर के मु?ो सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढि़या साड़ी पहले ही दे दी

थी. सम?ो?’’

‘‘सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.’’

‘‘घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.’’

‘‘सच में…’’

सेवकराम की घरवाली ने कहा, ‘‘मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.’’

सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी.          द्य

वकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.

सेवकराम ने नई कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?’’

‘‘मैं संतू हूं साहब.’’

‘‘तुम कब से काम करने आने लगी हो?’’ सेवकराम ने पूछा.

‘‘बस, कल से.’’

‘‘पर, मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.’’

‘‘साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही घर चली गई थी.

‘‘मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मु?ा से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,’’ संतू ने कहा.

‘‘मतलब…?’’

‘‘वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मु?ो लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.’’

‘‘ऐसा क्यों साहब?’’

‘‘संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं, तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं, तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.

‘‘एक दिन मैं ?ाठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मु?ो शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मु?ो भूखे ही सोना पड़ा था,’’ सेवकराम ने कहा.

संतू ने हाथ में ?ाड़ू लिए हुए ही पूछा, ‘‘आप कोई नेता हैं क्या साहब?’’

‘‘यह बात बाद में करेंगे, पहले मु?ो यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?’’

संतू ने कहा, ‘‘मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?’’

‘‘मस्त लगती हो.’’

‘‘थैंक्यू साहब.’’

‘‘तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?’’

‘‘हां साहब, मैं 12वीं तक पढ़ी हूं.’’

‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?’’

‘‘24 साल की हूं साहब.’’

‘‘पर, तुम 20 की ही लगती हो.’’

‘‘दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मु?ो 16 साल की ही कहते थे.’’

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‘‘तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.’’

कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का नाम क्या है?’’

‘‘सेवकराम.’’

‘‘इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?’’

‘‘बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मु?ो भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.

‘‘पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों

रखा है?’’

संतू बोली, ‘‘साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मु?ो प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को

अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मु?ो बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था,

फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.’’

‘‘वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.’’

संतू ने पूछा, ‘‘साहब, आप का कामकाज क्या है?’’

‘‘देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं, इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौयन करने वाला हूं.’’

‘‘तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.’’

‘‘संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.’’

‘‘तो फिर आप क्या करेंगे साहब?’’

‘‘मैं कांग्रेस पार्टी को जौयन

करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.’’

‘‘पर, वह ट्रेन न चली तो…?’’

‘‘मैं आशावादी हूं. एक जमाने में भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.’’

संतू ने पूछा, ‘‘ऐसा क्यों साहब?’’

‘‘सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.’’

‘‘इस से आप को क्या फायदा होगा?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘देखो संतू, मु?ो टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?’’

‘‘आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.’’

‘‘अरे संतू, मु?ो तो पैसे का फायदा हो रहा है न.’’

‘‘आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मु?ो एडवांस में एक साड़ी दे दीजिए न.’’

‘‘अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढि़या साड़ी ला दूं.’’

‘‘थैंक्यू साहब, मु?ो अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.’’

‘‘मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?’’

‘‘अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मु?ो तो साड़ी आज ही चाहिए.’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.’’

‘‘हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी तब…?’’

‘‘मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब

कर दी.’’

‘‘इस का मतलब तो यह कि आप अपनी घरवाली से ?ाठ बोलेंगे?’’

‘‘तुम्हारे जैसी खूबसूरत कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, बल्कि सौ ?ाठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त

पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.’’

‘‘कौन सी शर्त?’’

सेवकराम ने कहा, ‘‘अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.

‘‘पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मु?ो सोते से उठा कर चाय देनी होगी.

‘‘मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.’’

‘‘ठीक है साहब, आप की शर्त

मंजूर है.’’

‘‘पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मु?ो चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मु?ो साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और भी खूबसूरत लगती हूं.’’

‘‘ठीक है, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे,

ले लो.’’

‘‘ठीक है साहब,’’ कह कर संतू अंदर गई और एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.

संतू के इंतजार में सेवकराम को उस रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा कि रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.

सेवकराम ने कहा, ‘‘आ गई डार्लिंग?’’

‘‘हां, लो यह चाय.’’

सेवकराम, को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.

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चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, ‘‘मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.’’

घबराते हुए सेवकराम ने कहा, ‘‘अरे तुम… तुम तो एक हफ्ते के लिए गई

थीं, दूसरे ही दिन कैसे आ गईं?’’

‘‘मु?ो तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मु?ो फोन कर देना.

‘‘कल रात को ही संतू ने फोन

कर के मु?ो सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढि़या साड़ी पहले ही दे दी

थी. सम?ो?’’

‘‘सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.’’

‘‘घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.’’

‘‘सच में…’’

सेवकराम की घरवाली ने कहा, ‘‘मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.’’

सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी.

बलिदान: खिलजी और रावल रत्न सिंह के बीच क्यों लड़ाई हुई?

चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मिनी खूबसूरती की एक मिसाल थीं. तभी तो उस समय दिल्ली की गद्दी पर विराजमान अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी को पाने की ठान ली. इस के लिए खिलजी और रावल रत्न सिंह की सेना के बीच 6 महीने से ज्यादा युद्ध चला. युद्ध जीतने के बाद भी उसे रानी पद्मिनी नहीं हासिल हो सकीं, क्योंकि…

इतिहास के पन्नों में बलिदान के अनगिनत किस्सेकहानियां दर्ज हैं. उन में कई कहानियां वैसी स्त्रियों के बलिदान की हैं, जिन्होंने राष्ट्र, मातृभूमि या फिर स्त्री जाति की अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान तक की कुरबानी दे दी. वैसी ही एक दास्तान चित्तौड़गढ़ की इस ऐतिहासिक कहानी में है. मुसलिम शासन के दौर में रानी पद्मिनी ने जो कुछ किया, वह अविस्मरणीय मिसाल बन गया.

बला की खूबसूरत रानी पद्मिनी की सुंदरता के किस्से दूरदूर तक फैल चुके थे. वह कितनी सुंदर थी? कैसी दिखती थी? चेहरा कितना चमकतादमकता था? नाकनक्श कैसे थे? होंठों, आंखों, गालों या बालों की सुंदरता में कितना अंतर था? कैसा तालमेल था? कैसे इतनी सुंदर दिखती थी? सुंदर काया की देखभाल के लिए कैसा सौंदर्य प्रसाधन इस्तेमाल करती थी? आदिआदि….

इन सवालों के जवाब लोगों ने तरहतरह के सुन रखे थे. उस समय भी कोई कहता कि रानी दिखने में बहुत ही गोरी हैं. उन का चेहरा दूधिया रोशनी की तरह चमकता रहता है… वह दूध और गुलाब जल से नहाती हैं… दुर्लभ जड़ीबूटियों का उबटन लगाती हैं… बेशकीमती सौंदर्य प्रसाधन के सामान, काजल, इत्र आदि सुदूर देशों से मंगवाए जाते हैं. काले बालों को संवारने के लिए अलग से दासियां रखी गई हैं… उन्हें सजनेसंवरने में काफी वक्त लगता है… महंगा पारंपरिक परिधान पहनती हैं… उन में सोने के महीन तारों की नक्काशी की होती है.

अधिकांश लोग यह भी चर्चा करते कि सजीधजी रानी हमेशा परदे में रहती हैं. चेहरा एक झीने परदे से ढंका रहता है. उन्हें सिर्फ राजा ही देख सकता है… उसे कोई और देखे यह राजा को कतई स्वीकार नहीं. यही कारण था कि राजमहल में आईना केवल 2 जगह ही लगे थे. एक राजा के शयन कक्ष में तो दूसरा रानी के निजी कक्ष में.

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भले ही लोग चर्चा चाहे जैसी भी करते थे, लेकिन एक सच्चाई यही थी कि महल में पूरी तरह से पाबंदी लगी हुई थी कि उन पर राजा के सिवाय किसी की नजर नहीं पड़े. किसी की परछाईं तो बहुत दूर की बात है. उन के कहीं भी आनेजाने से पहले कुछ दासियां महल के दूसरे दासदासियों और दूसरे कर्मचारियों को सतर्क कर देती थीं. तब सैनिक अपना मुंह दीवार की ओर फेर लेते थे.’

ऐसे कई किस्सेकहानियां किंवदंतियों की तरह चित्तौड़गढ़ की पूरी सियासत में फैली हुई थीं. चित्तौड़गढ़ भी हिंदुस्तान का किसी साधारण राज्य मेवाड़ का एक महत्त्वपूर्ण भाग नहीं था. प्राकृतिक धनसंपदा और कृषि उत्पादों से भरपूर. मेवाड़ में लोग सुखीसंपन्न थे. खाने के लिए सालों तक का अनाज बड़ेबड़े भवनों और उन की कोठियों में भरा रहता था.

बहुत ही अच्छी पैदावार वाली मिट्टी थी. न सूखे या बाढ़ की प्राकृतिक आपदा और न ही किसी बाहरी के घुसपैठ से उत्पन्न हुई विपदा की समस्या थी. राज्य में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं थी.

राजमहल काफी बड़ा बना था, जिस की सुरक्षा 7 घेरे में की गई थी. महल में कोई परिंदा भी बगैर सुरक्षाकर्मियों की जांचपरख और अनुमति के पर नहीं मार सकता था. रानी की सुरक्षा के भी काफी कड़े इंतजाम किए गए थे.

क्या मजाल थी कि बगैर राजा रावल रत्न सिंह की अनुमति और आदेश के राजमहल का कुछ भी बाहर निकलने पाए या भीतर प्रवेश हो जाए. न कोई तिनका और न ही किसी तरह की सूचना संदेश! किंतु राज्य के लोगों को उन की कल्पनाओं और निजी सोचविचार से कैसे रोका जा सकता था.

यही कारण था कि रानी पद्मिनी की खूबसूरती की चर्चाएं दबी जुबान पर होती रहती थीं. वही हवा में तेजी से फैलने वाली खुशबू की तरह हजारों मील दूर हिंदुस्तान की दिल्ली की गद्दी पर बैठे सुलतान अलाउद्दीन खिलजी तक जा पहुंची थी.

खिलजी एक सनकी किस्म का शासक था. वह जिसे हासिल करने के लिए मन में ठान लेता था, उसे हासिल कर के ही छोड़ता था.

उसे राजा रत्न सिंह के राजदरबार से निष्कासित ज्योतिष के द्वारा रानी की अपूर्व सुंदरता का बखान सुनने को मिला था. वह उसे पाने के लिए लालायित हो उठा. किंतु खिलजी को नहीं मालूम था कि रानी को पाना तो दूर, वह उस का दीदार तक नहीं कर सकता था. फिर भी वह एक बड़ी सेना ले कर चित्तौड़गढ़ के मुहाने पर जा पहुंचा. उस ने सभी कुछ जंग जीत कर ही हासिल किया था, हीरेजवाहरात और खानेपीने का शौकीन खिलजी एक विक्षिप्त किस्म का इंसान था. उस का मानना था कि दुनिया की हर दुर्लभ वस्तु सिर्फ उस के पास ही हो. रानी पद्मिनी और उन की असाधारण सुंदरता को भी वह दुर्लभ वस्तु की तरह ही मानता था.

पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर विशाल सेना के साथ चढ़ाई तो कर दी. किंतु दुर्ग की सुरक्षा को भेद तक नहीं पाया.  राजपूत सैनिकों की अद्भुत वीरता के आगे खिलजी के सैनिकों की एक नहीं चली, जबकि वह सैनिकों के साथ महीनों तक चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी किए जमा रहा.

उस दौरान दुर्ग के बाहर युद्ध चलता रहा, लेकिन भीतर सारे पर्वत्यौहार और दूसरे तरह के आयोजन पूरे जोश और उत्साह, उमंग के साथ मनाए जाते रहे.

युद्ध की रणनीति और कौशल के बावजूद जब खिलजी दुर्ग में घुस नहीं पाया, तब उस ने कूटनीति की योजना बनाई. उस ने युद्ध समाप्ति और मित्रता के संदेश के साथ अपने एक दूत को रावल रत्न सिंह के पास भेजा.

खिलजी ने अपने संदेश में लिखा, ‘हम आप से मित्रता करना चाहते हैं. रानी की सुंदरता के बारे में बहुत सुना है, इसलिए हमें सिर्फ रानी का चेहरा दिखा दीजिए, हम सैनिकों का घेरा उठा कर दिल्ली लौट जाएंगे.’

यह संदेश सुनते ही रत्न सिंह आगबबूला हो गए. मगर रानी ने इस पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए पति को समझाया, ‘‘मेरे कारण व्यर्थ ही मेवाड़ के सैनिकों का खून बहाना बुद्धिमानी नहीं है.’’ यह कहते हुए रानी ने अपनी नहीं, बल्कि पूरे मेवाड़ की चिंता जताई.

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उन्होंने राजा से कहा कि उन के कारण पूरा मेवाड़ तबाह हो जाएगा. प्रजा को काफी नुकसान होगा. उन्हें भारी दुख उठाना पड़ेगा. उन की छोटी सेना खिलजी की विशाल सेना के आगे बहुत दिनों तक और नहीं टिक पाएंगी. 2 राज्यों के बीच दुश्मनी हो जाएगी सो अलग. उस का भी भविष्य में किसी न किसी रूप में नुकसान उठा पड़ सकता है.

इसलिए रानी बीच का रास्ता निकालते हुए राजा से बोली कि उन्हें राजधर्म का निर्वाह करते हुए खिलजी की बात मान लेनी चाहिए. वह चाहे तो आईने में अपना चेहरा उसे दिखा सकती हैं.

राजा को पद्मिनी की यह सलाह पसंद आई और उन्होंने शर्त मानते हुए खिलजी को अपना अतिथि बनाने का संदेश भेज दिया, साथ ही रानी द्वारा आईने में चेहरा दिखाने के सुझाव की शर्त बता दी.

दूसरी तरफ खिलजी को भी महीनों तक युद्ध करते हुए यह एहसास हो गया था कि चित्तौड़गढ़ की सेना को हराना आसान नहीं था. उन का राशन भी खत्म होने वाला था और 4 महीने की जंग में उस के हजारों सैनिकों की जान चली गई थी. यह वजह रही कि उस ने भी रत्न सिंह की शर्त मानते हुए उन के प्रस्ताव के साथ आतिथ्य स्वीकार कर लिया.

दुर्ग में खिलजी के अतिथि सत्कार के लिए महल में सरोवर के बीचोबीच भव्य आयोजन की तैयारी की गई थी. स्वादिष्ट भोजन का उत्तम प्रबंध किया गया. मनोरंजन के लिए लोक कलाकारों को विशेष तौर पर बुलाया गया था.

इन में सब से महत्त्वपूर्ण शर्त के मुताबिक महल की दीवार पर आईना इस तरह से लगवाया गया, ताकि रानी अपने कमरे में खिड़की के पास बैठने पर उन का चेहरा आईने में नजर आए. आईने की परछाईं को सरोवर के साफ और स्थिर पानी में दिखने के इंतजाम किए गए थे.

यहां तक तो सब कुछ ठीक था. निर्धारित समय के अनुसार खिलजी और राजा रत्न सिंह आतिथ्य आयोजन के लिए आमनेसामने बैठ गए थे. उन के आगे किस्मकिस्म के पेय परोसे जाने लगे. थोड़ी दूरी पर नृत्य गीतसंगीत का कार्यक्रम भी शुरू हो गया.

आखिरकार वह घड़ी भी आ गई, जब खिलजी ने सरोवर के पानी में रानी का खूबसूरत चेहरा देखा. रानी की पानी में अप्रतिम सुंदरता को देख कर वह दंग रह गया. उस ने जो कुछ सुना था और उस के मन में किसी स्त्री के अपूर्व सुंदरता की जो कल्पना थी, रानी पद्मिनी उस से भी कई गुणा अत्यधिक सुंदर दिख रही थी.

फिर क्या था. एक पल के लिए उस के मन में विचार आया, ‘जो पानी में इतनी सुंदर दिख रही है, सामने से और न जाने कितनी सुंदर होगी?’

खिलजी ने अपना आपा खो दिया और दूर खड़े अपने सैनिकों को इशारा कर रावल रत्न सिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया.

रत्न सिंह को कैद कर वह अपने साथ दिल्ली ले आया और उन्हें जंजीरों में जकड़ कर कैदखाने में डाल दिया. उन के सामने प्रस्ताव रखा कि रानी पद्मिनी को सौंपने के बाद ही उन्हें मुक्त किया जाएगा. यह संदेशा उस ने दुर्ग में रानी के पास भिजवा दिया.

दुर्ग में राजा के कैद किए जाने की खबर से खलबली मच गई, लेकिन रानी ने धैर्य का परिचय देते हुए कूटनीतिक जवाब भेजा.

संदेश में लिखवाया, ‘मैं मेवाड़ की महारानी अपनी 700 दासियों के साथ आप के सम्मुख उपस्थित होने से पहले अपने पति राजा रत्न सिंह के दर्शन करना चाहूंगी. मुझे पहले उन की सलामती का प्रमाण देना होगा.’

रानी का यह संदेशा पा कर खिलजी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और अद्भुत सुंदर रानी को पाने के लिए बेताब हो गया. उस ने रानी की शर्त तुरंत स्वीकार ली.

उस के संदेश को पाते ही रानी ने अपने सेनापति गोरा और उन के भतीजे बादल से रत्न सिंह को छुड़वाने की योजना बनाई. दोनों रियासत के अत्यंत ही वीर और पराक्रमी योद्धा थे. उन के साहस, बल और पुरुषार्थ से सारे शत्रु कांपते थे. वे ताकवर ही नहीं, कुशाग्र बुद्धि के भी थे. रानी गोरा के पास गई. तब उस ने रानी को वचन दिया कि जब तक गोरा का शीश रहेगा, तब तक राजा रत्न सिंह का मस्तक नहीं कटेगा.

रानी गोरा की बात सुन कर गदगद हो गईं. उस के बाद गोरा और बादल योजना बना कर दिल्ली की ओर कूच कर गए. योजना के मुताबिक गोरा ने 700 सशस्त्र सैनिकों को पालकियों में बिठा दिया था. जबकि खिलजी को बताया कि पालकियों में रानी पद्मिनी की 700 दासियां हैं. उन्हीं में से एक पालकी में रानी होगी. उन के इशारे पर वे बाहर निकल आएंगी. उन पालकियों को कंधा देने वाले सैनिक ही थे. इस तरह से गोरा और बादल करीब 3 हजार से अधिक सैनिकों के साथ दिल्ली पहुंचे थे.

दूत से इस की जानकारी मिलने पर खिलजी खुशी से उछल पड़ा और उस ने तुरंत रत्न सिंह को पद्मिनी से मिलवाने का हुक्म दे दिया. आदेश की सूचना पा कर गोरा ने बादल को आगे की रणनीति समझाई.

उस से कहा कि रानी के वेश में लोहार जाएगा. उस के पीछे की पालकी में वह स्वयं रहेगा. साथ में दासियों की 10 पालकियां भी होंगी, जिन में दासियों के वेश में सैनिक होंगे.

लोहार रत्न सिंह को लोहे की जंजीरों से मुक्त कर देगा. बाहर धुड़सवार आड़ लिए तैयार रहेंगे. रत्न सिंह के आते ही वे उन्हें ले कर आंधी की तरह उड़ जाएंगे. उस के बाद गोरा योजना के मुताबिक रत्न सिंह के कैदखाने की तरफ बढ़ गए.

राजा रत्न सिंह ने वेश बदले गोरा को पहचान लिया. वह उस के गले लग गए. उन्होंने उस के साथ राजदरबार में की गई बीते समय की बेइज्जती की माफी मांगी. यहीं उन से एक भूल हो गई और खिलजी के सेनापति को उस पर संदेह हो गया.

देर नहीं करते हुए उस ने खिलजी तक इस की तत्काल सूचना भेज दी. यह सुन कर खिलजी बौखला उठा. खिलजी की सेना आने तक रत्न सिंह को ले कर गोरा और बादल फरार हो चुके थे. हालांकि वे जल्द ही खिलजी के सैनिकों से घिर गए. उस के सेनापति जफर ने ललकारते हुए उन पर हमला कर दिया था.

दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया. एक तरफ खिलजी के हजारों सैनिक थे, जबकि गोरा और बादल राजा रत्न सिंह को बचाते हुए कुछ सैनिकों के साथ ही जंग जीतने के प्रयास में थे.

अंतत: उन के बीच खूब तलवारें चलीं. एकदूसरे पर भाले फेंके गए.  गोरा और बादल जख्मी होने के बावजूद लड़ते रहे. एक मौका ऐसा भी आया जब गोरा ने अपनी तलवार खिलजी की गरदन पर रख दी, लेकिन उस ने चपलता के साथ अपनी बेगम की आड़ ले ली. उस की बेगम ने अपने पति को छोड़ देने की भीख मांगी. गोरा एक पत्नी द्वारा पति के रहम की भीख मांगने पर पसीज गया. तब तक मौका पा कर उस के सेनापति ने गोरा पर हमला बोल दिया.

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खिलजी बच निकलने में सफल हो गया, जबकि जफर ने गोरा का सिर काट डाला. तभी गुस्से में बादल ने जफर का भी शीश काट दिया. इस भयंकर युद्ध में गोरा और बादल की मौत हो गई, लेकिन राजा रत्न सिंह वहां से निकल भागने में सफल हो गए.

उन्होंने चितौड़गढ़ पहुंच कर सारा वाकया रानी पद्मिनी को सुनाया. पद्मिनी गोरा और बादल की शहादत से काफी आहत हुईं. उन की याद में रत्न सिंह और रानी ने चित्तौड़गढ़ किले में रानी पद्मिनी के महल के दक्षिण में 2 गुंबद बनवाए. उन्हें गोरा और बादल का नाम दिया गया.

उधर अलाउद्दीन खिलजी अपनी हार से काफी आहत हो गया था. वह बदले की आग में जल रहा था. वह रानी को पाने के लिए भी व्याकुल था. उस की स्थिति एकदम से विक्षिप्तावस्था जैसी हो गई थी.

हार से खुद पर लज्जित था. बदले की आग में जलते हुए खिलजी ने एक बार फिर चित्तौड़गढ़ पर हमला करने की ठान ली. इस बार उस ने पूरी तैयारी के साथ हजारों सैनिकों को ले कर चित्तौड़गढ़ दुर्ग के चारों तरफ डेरा डाल दिया.

यह लड़ाई पहले की लड़ाइयों से ज्यादा खतरनाक थी. एक बार फिर रानी पद्मिनी ने अपनी सूझबूझ से मुगल सेना की बड़ी फौज को हटवाने की पहल की, लेकिन तब तक खिलजी काफी आक्रामक बन चुका था.

वह चोट खाए नाग की तरह बन चुका था. रानी ने खिलजी को राजा के साथ संधि करने की सूचना भेज कर उस के गुस्से को शांत करने की कोशिश की, किंतु उस में सफलता नहीं मिली.

उधर 6 महीने से दुर्ग के घेरे और युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री की किल्लत होने लगी. दोनों मौसमी फसलों की बुआई तक नहीं हो पाई. हजारों सैनिकों की जानें चली गईं. राजा रत्न सिंह भी परेशान और चिंतित रहने लगे.

मुगल सेना का दबदबा दुर्ग पर बढ़ता ही जा रहा था. रानी को दुर्ग में रहने वाली औरतों और लड़कियों की अस्मिता की चिंता सताने लगी. रानी ने एक बड़ा फैसला लिया. वह फैसला जौहर की चिता का था. उस के लिए सैनिकों ने केसरिया परिधान में इस की तैयारी शुरू कर दी.

गोमुख के उत्तरी भाग वाले मैदान में एक विशाल चिता बनाई गई. रानी पद्मिनी ने अपनी हजारों रमणियों के साथ गोमुख में स्नान किया और सभी एक साथ भयंकर आग की उठती लपटों वाली चिता में प्रवेश कर गईं. उन्होंने सामूहिक जौहर को जिस तरह से अपनाया, उस से उन का अप्रतिम सौंदर्य अग्नि में जल कर कुंदन बन गया.

आसमान में आग की लपटें छू रही थीं. बाहर खिलजी कुछ समझ नहीं पा रहा था कि दुर्ग में आखिर क्या हो रहा था. इस जौहर से राजा रत्न सिंह भी आहत हो गए. उन्होंने दुर्ग में मौजूद 30 हजार से अधिक सैनिकों के लिए किले के द्वार खुलवा दिए.

द्वार खुलते ही सभी सैनिक भूखे शेर की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े. इस तरह से 6 महीने और 7 दिनों के खूनी संघर्ष के बाद 18 अप्रैल, 1303 को खिलजी को जीत मिली. लेकिन दुर्ग में चारों ओर शव ही शव थे. न कोई स्त्री और न ही कोई बच्चे और जवान व्यक्ति. यहां तक कि राजा रत्न सिंह भी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे.

रानी पद्मिनी ने राजपूत नारियों की कुल परंपरा, मर्यादा और गौरव को बचाने का जो बलिदान दिया, वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया.

मजाक: फ्रेम में सजे महापुरुष की दुविधा

मैंने औफिस की अपने पीछे वाली दीवार पर महापुरुषों की तसवीरें इसलिए नहीं लगाई हैं कि मैं उन की तरह हूं या होना चाहता हूं या कि मैं उन के पदचिह्नों पर चलने वाला सरकारी मुलाजिम हूं. होना बहुत मुश्किल होता है, दिखाना बहुत आसान.

होने का जोखिम मैं ही क्या, आज कोई भी नहीं उठाना चाहता. दिखने का सब आसानी से उठा लेते हैं, उठा रहे हैं. देश की मिट्टी तक बेच कर उस मिट्टी से सोना कमा रहे हैं.

मैं सरकार बदलते ही कई महापुरुषों की तसवीरें एकदम हटा कर रातोंरात उन की जगह नई सरकार के महापुरुषों की तसवीरें अपने औफिस की दीवार पर लटकाता रहने वाला महापुरुष हूं. और तब तक यह काम सारे काम छोड़ करता रहूंगा, जब तक सरकारी नौकरी में हूं, ताकि हर नई सरकार को मैं अपना बंदा लगूं.

तब मुझ से काम करवाने कोई आए, तो उस में यही इंप्रैशन जाए कि मैं टुच्चेपुच्चे टाइप का पिछली सरकार का अफसर नहीं, वर्तमान सरकार का खांटी पार्टी वर्कर हूं, नई सरकार का कोई महापुरुष टाइप का पुरुष हूं कि इन के उन के नीचे मुझे लेटेबैठे देख सब मुझे भी महापुरुष समझें, क्योंकि इन दिनों इसी तरह के महापुरुष होने का प्रचलन चलन में है.

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अब औफिसों में कुछ बदलें या न, पर सरकार के बदलने के साथ सरकारी औफिसों के फ्रेम में बंद दीवारों पर टंगने वाले महापुरुष भी बदलते रहते हैं. सरकारों की कोई विचारधारा हो या न, पर अपनेअपने मार्क्ड महापुरुष जरूर होते हैं, जिन की पीठ पर सवार हो कर ये भी महापुरुष बने फिरते हैं. आज के समय का कोई ऐवरग्रीन महापुरुष नहीं, सत्ता समय महापुरुष हैं.

सरकार के साथ बदलते अपने औफिस की दीवार पर बदलते इन फ्रेमों में जबरदस्ती हंसते महापुरुषों को नजर न होने के बाद भी अकसर मैं ने देखा है कि वे वैसे तो सारा साल अपनीअपनी फ्रेम में बंद अपने गले के बदले अपनी फ्रेम पर कागजी फूलों की माला डलवाए, अपनी सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए फ्रेम में बंद होने के बाद भी फ्रेम से बाहर आने को न दिखने वाली छटपटाहट लिए छटपटाते ही रहते हैं, पर जबजब इन की कोई जयंतीवयंती, पुण्यतिथि आती है, तब इन की फ्रेम से बाहर आने की छटपटाहट कुछ और ही बढ़ जाती है.

मतलब, तब फे्रम में बंद होने के बाद भी इन की बाहर आने की छटपटाहट साफ महसूस करने की ताकत न होने के बाद भी साफ महसूस की जा सकती है.

तब मैं ने फ्रेम में जबरदस्ती मुसकराते बंद उस हंसते महापुरुष को फ्रेम से बाहर निकलने की पूरी कोशिश करते देखा तो जान गया कि या तो बंधु की पुण्यतिथि नजदीक है या फिर जयंती. इन महापुरुषों को अकसर इन्हीं 2 दिनों में फ्रेम से बाहर आने की इजाजत होती है.

वे महापुरुष आधे फ्रेम से बाहर निकल जाने के बाद बाकी बहुत मशक्कत के बाद भी न निकल पाए तो वे फ्रेम से बाहर निकलने को आड़ेतिरछे होते जोर मारते मदद को पुकारे तो मैं ने उन की मदद करने पर उन्हें बहुत गुस्सा होते देखा.

हद है यार, फ्रेम में बंद हो जाने के बाद भी चैन से नहीं रह सकते क्या? अब बाहर आ कर क्या नया करने का इरादा है?

फ्रेम में बंद मुसकराते दीवार पर टंगे महापुरुषों पर जब जरा गौर से नजर दौड़ाई, तो फ्रेम में बंद महात्मा गांधी वाले फोटो में छटपटाहट थी.

सच कहूं, तो उन्हें मैं ने जब से देखा है, फ्रेम में बंद ही देखा है या फिर खुले में उन का रोल करते फिल्मों में किसी और कलाकार को.

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जब वे फ्रेम से बाहर निकलने को बहुत ही कराहने लगे, तो मैं ने उन के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या है गांधी? छटपटा क्यों रहे हो? अब तो यहां ऐसे ही चलेगा. महापुरुष फ्रेम में बंद ही मुसकराते हुए अच्छे लगते हैं. अब तुम फ्रेम में ही बंद रहो, तो तुम्हारी भी इज्जत बनी रहे और हमारी भी.’’

‘‘अपने सपनों के भारत को देखना चाहता हूं कि वह इस साल कितना और गिरा? साल में 1-2 दिन तो हमारा भी बाहर निकलना बनता है कि नहीं?’’

‘‘तुम बाहर निकलोगे तो दिवंगत होने के बाद भी तुम्हारा मन आत्महत्या करने को हो जाएगा,’’ पता नहीं क्यों कह मैं ने दिया.

‘‘मतलब? मरने के बाद भी क्या आदमी आत्महत्या करने की सोच सकता है?’’ गांधी ने जैसेतैसे फ्रेम में से पूरा निकलने की कोशिश करते हुए मेरी बाजू पकड़ कर पूछा, तो मैं ने कहा, ‘‘गांधी, फ्रेम में रहो तो हंसने को न चाहते हुए भी मन कर ही जाया करेगा. अब वह समय नहीं, जो तुम्हारे टाइम में था, क्योंकि वह कुछ बना ही नहीं जो तुम बनाना चाहते थे, तो ऐसे में फ्रेम से बाहर निकल क्यों परेशान होना?’’

‘‘तो फ्रेम से बाहर निकल कर अपने सपनों को बचाने के लिए सत्याग्रह करूंगा, उस के लिए असहयोग आंदोलन छेड़ूंगा,’’ फादर औफ नेशन ने कहा, तो सुन कर मैं हंसा और बोला, ‘‘अरे माई डियर, कहने के लिए फादर औफ नेशन, अब तुम्हें अपनाने के लिए नहीं, दिखाने, खाने, सत्ता पाने, लोगों को बरगलाने मात्र के लिए फादर रह गए हो.

‘‘अब तो यहां कदमकदम पर असत्याग्रह हो रहे हैं. देश को तोड़ने को एकदूसरे के लिए सहयोग हो रहे हैं. अब न कहीं विचार है, न कहीं आचार. सब मौके की देशभक्ति में रमे हैं.

‘‘अब समय पहले से ज्यादा नाजुक चल रहा है, इसलिए प्लीज, सबकुछ किया करो, पर फ्रेम के भीतर रह कर ही,’’ मैं ने कहा, तो उन की एक टांग फ्रेम के बाहर तो एक भीतर. उन का एक बाजू फ्रेम के बाहर तो दूसरा भीतर. मतलब, वे न फ्रेम के बाहर, न फ्रेम के भीतर.

मजाक: लोकसेवक सेवकराम की घरवाली और कामवाली

सेवकराम अपनी कोठी में बाहर बने बरामदे में पड़े एक सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अखबार पढ़तेपढ़ते उन का ध्यान घर का काम करने के लिए रखी गई नई कामवाली पर चला गया.

सेवकराम ने नईनकोर कामवाली को देख कर अखबार पढ़ना बंद कर दिया और उसे गौर से देखते हुए पूछा, “तुम कौन हो? आज से पहले तो तुम्हें मैं ने नहीं देखा?”

“मैं संतू हूं साहब.”

“तुम कब से काम करने आने लगी?” सेवकराम ने पूछा.

“बस, कल से.”

“पर मैं ने तो तुम्हें कल नहीं देखा.”

“साहब, आप कल बाहर गए थे. रात को आए होंगे. मैं तो काम खत्म कर के अंधेरा होने से पहले ही चली गई थी.

“मालकिन मायके गई हैं. एक हफ्ते बाद आएंगी. मुझ से कह गई हैं कि घर का खयाल रखना, साहब का नहीं,” संतू ने कहा.

“मतलब?”

“वह तो आप को पता होना चाहिए साहब. मालकिन घर में नहीं हैं, इसलिए आप को अकेलाअकेला लगता होगा न?”

सेवकराम ने कहा, “अरे संतू, तुम्हारी मालकिन मायके गई हैं, इसलिए मुझे लग रहा है कि हिंदुस्तान आज ही आजाद हुआ है. अकेले रहने में ऐसा मजा आता है कि पूछो मत.”

“ऐसा क्यों साहब?”

“संतू, तुम्हारी मालकिन घर में होती हैं तो मैं अखबार में क्या पढ़़ रहा हूं, इस पर भी नजर रखती हैं. सिनेमा वाला पेज तो देखने भी नहीं देती हैं. मैं किसी हीरोइन का फोटो देख रहा होता हूं तो अखबार खींच लेती हैं. मैं फोन पर बात कर रहा होता हूं तो दरवाजे पर खड़ी हो कर सुन रही होती हैं.

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“एक दिन मैं झूठ बोल कर बाहर चला गया कि शहर में दंगा हो गया है, तो मुझे शांति समिति की मीटिंग में जाना है. उस ने पुलिस को फोन कर के पता कर लिया कि शहर में दंगा कहां हो रहा है. दंगा हुआ ही नहीं था. उस रात मुझे भूखे ही सोना पड़ा था,” सेवकराम ने कहा.

संतू ने हाथ में झाड़ू लिए हुए ही पूछा, “आप कोई नेता हैं क्या साहब?”

“यह बात बाद में करेंगे, पहले मुझे यह बताओ कि तुम कहां रहती हो?”

संतू ने कहा, “मैं कहां रहती हूं साहब, इस बात को छोड़ो, पहले यह बताओ कि मैं कैसी लगती हूं?”

“मस्त लगती हो.”

“थैंक्यू साहब.”

“तुम इंगलिश बोलना भी जानती हो?”

“हां साहब, मैं 12वीं जमात तक पढ़ी हूं.”

“तुम्हारी उम्र कितनी है संतू?”

“24 साल की हूं साहब.”

“पर अभी तो तुम 20 की ही लगती हो.”

“दूसरे एक घर में काम करती थी न, वहां के साहब तो मुझे 16 साल की ही कहते थे.”

“तुम्हारी बात सच है. तुम सचमुच बहुत सुंदर हो संतू.”

कचरा निकालते हुए संतू ने पूछा, “साहब, आप का नाम क्या है?”

“सेवकराम.”

“इस तरह का गंवारू नाम क्यों रखा है साहब आप ने?”

“बात यह है संतू कि मेरा असली नाम तो विकास है, पर ‘विकास तो पागल हो गया है’. बस, मुझे भी लोग पागल कहने लगे, इसलिए 4 साल पहले मैं ने अपना नाम बदल दिया था.

“पर संतू, तुम भी तो इतनी सुंदर हो, तुम ने अपना यह गंवारू नाम क्यों रखा है?”

संतू बोली, “साहब मेरा असली नाम संतू नहीं है. मेरा असली नाम तो प्रियतमा है. मैं जहां भी काम करने जाती थी, उस घर के साहब मुझे प्रियतमा कह कर बुलाते थे. यह मालकिन लोगों को अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मुझे बारबार काम की तलाश करनी पड़ती थी, बारबार घर बदलना पड़ता था, फिर मैं ने भी अपना नाम बदल कर संतू रख लिया.”

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“वाह संतू, तुम सुंदर ही नहीं, बल्कि होशियार भी हो.”

संतू ने पूछा, “साहब, आप का कामकाज क्या है?”

“देखो संतू, मैं नेता बनने की फिराक में हूं,” इसीलिए मैं ने अपना नाम सेवकराम रखा है. मैं पौलिटिक्स जौइन करने वाला हूं.”

“तो आप भाजपा से जुड़ जाइए.”

“संतू, तुम सचमुच मेरी घरवाली से बहुत ज्यादा होशियार लगती हो. तुम्हारी बात सच है. आजकल भाजपा का ही जमाना है, पर भाजपा की ट्रेन के डब्बे में जगह ही नहीं है. कितने लोग तो खिड़कियों में लटके हैं, कितने छत पर बैठे हैं, कितने ट्रेन के पीछे भाग रहे हैं.”

“तो फिर आप क्या करेंगे साहब?”

मैं कांग्रेस पार्टी में जौइन करूंगा. उस की ट्रेन के डब्बे में जगह ही जगह है.”

“पर वह ट्रेन न चली तो?”

“मैं आशावादी हूं. एक जमाने मेे भाजपा की लोकसभा में महज 2 सीटें थीं, पर आज 300 सौ भी ज्यादा सीटें हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के ‘चाणक्य’ माने जाने वाले अमित शाह जब तक हैं, तब तक कांग्रेस का चांस नहीं दिखाई दे रहा है, फिर भी मैं कांग्रेस में ही जाऊंगा.”

संतू ने पूछा, “ऐसा क्यों साहब?”

“सीधी सी बात है. चुनाव में कांग्रेस पार्टी से मैं टिकट मांगूंगा, भले ही हार जाऊं.”

“इस से आप को क्या फायदा होगा?”

सेवकराम ने कहा, “देखो संतू, मुझे टिकट मिलेगा तो चुनाव लड़ने के लिए चुनाव फंड भी मिलेगा. उस में से मैं आधा पैसा ही खर्च करूंगा, बाकी का आधा पैसा बचा लूंगा. बोलो, है न फायदे का सौदा?”

“आप जैसे लोगों की वजह से ही कांग्रेस हार रही है.”

“अरे संतू, मुझे तो पैसे का फायदा हो रहा है न.”

“आप की यह बात तो सही है. आप का सचमुच में फायदा होगा. ऐसा कीजिए साहब, जब आप का इतना फायदा होने वाला है तो आप मुझे एडवांस में एक बढ़िया साड़ी दे दीजिए न.”

“अरे, तुम कहो तो तुम्हारे लिए आज ही बढ़िया साड़ी ला दूं.”

“थैंक्यू साहब, मुझे अब कांग्रेस पार्टी अच्छी लगने लगी है.”

“मैं नहीं अच्छा लग रहा हूं?”

“अच्छे लग रहे हैं न साहब आप भी, पर मुझे तो साड़ी आज ही चाहिए.”

सेवकराम ने कहा, “एक काम करो संतू, मेरी घरवाली की अलमारी खोल कर तुम्हें जो साड़ी अच्छी लगे, तुम अभी ले लो.”

“हफ्तेभर बाद मालकिन आएंगी और एक साड़ी गायब पाएंगी, तब?”

“मैं कह दूंगा कि लौंड्री वाले को धोने के लिए दी थी, उस ने गायब कर दी.”

“इस का मतलब आप अपनी घरवाली से झूठ बोलेंगे?”

“तुम्हारे जैसी सुंदर कामवाली के लिए तो मैं एक नहीं, सौ झूठ बोल सकता हूं. मैं तुम्हें एक शर्त पर अभी अपनी घरवाली की साड़ी दे सकता हूं.”

“कौन सी शर्त?”

सेवकराम ने कहा, “अलमारी से कोई भी एक साड़ी तुम ले लो, पर कल सुबह तुम मेरे घर काम करने आना तो वही साड़ी पहन कर आना. तुम्हारा चेहरा न दिखाई दे, इस तरह मुंह ढक कर रखना. पड़ोसियों को लगे कि मेरी घरवाली आ रही है.

“पूरे दिन तुम्हें मेरी घरवाली की साड़ी पहन कर काम करना होगा. कल सुबह की चाय भी तुम्हें वही साड़ी पहन कर बनानी होगी. चाय बना कर मुंह ढके हुए ही शरमाते हुए मुझे सोते से उठा कर मुझे चाय देनी होगी.

“मैं तुम्हें घर की चाबी दे दूंगा. तुम खुद ही दरवाजा खोल कर अंदर आ जाना. घर की एक चाबी मालकिन के पास है और एक मेरे पास. अपनी चाबी मैं तुम्हें दे दूंगा.”

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ठीक है साहब, आप की शर्त मंजूर है.”

“पर मुंह ढक कर आना. तुम्हारा चेहरा दिखाई नहीं देना चाहिए. मुझे चेहरा ढके हुए घूंघट वाली औरतें बहुत अच्छी लगती हैं.”

“साहब, मैं तो गांव की हूं. हमारे गांव में तो साड़ी सिर से ओढ़ने का रिवाज है, इसलिए मुझे साड़ी सिर से ओढ़ना खूब अच्छी तरह आता है. सिर से साड़ी ओढ़ने के बाद तो मैं और सुंदर लगती हूं.”

“ठीक हे, तुम अंदर जाओ और अलमारी से जो साड़ी अच्छी लगे, ले लो.”

“ठीक है साहब,” कह कर संतू अंदर गई और काम खत्म कर के एक सुंदर और कीमती साड़ी ले कर चली गई.

संतू के इंतजार में सेवकराम को उस पूरी रात नींद नहीं आई. सुबह हुई. सेवकराम की आंखें लग ही रही थीं कि तभी उन्हें लगा रसोई में चाय बन रही है. जागते हुए भी उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

थोड़ी देर बाद साड़ी बांधे शरमाते हुए एक नईनवेली की तरह हाथ में चाय की ट्रे लिए वह आई.

सेवकराम ने कहा, “आ गई डार्लिंग?”

“हां, लो यह चाय.”

सेवकराम को लगा यह आवाज तो संतू की नहीं है. वे उठ कर बैठ गए.

चाय ले कर आई औरत ने सिर से पल्लू हटाया, उस के बाद आंखें निकाल कर बोली, “मैं तुम्हारी कामवाली नहीं, घरवाली हूं. एक ही दिन में कामवाली को डार्लिंग बना लिया.”

घबराते हुए सेवकराम ने कहा, “अरे तुम, तुम तो एक हफ्ते के लिए गई थी, दूसरे ही दिन कैसे आ गई?”

“मुझे तुम्हारे लक्षण पता थे, इसलिए मैं संतू को अपना मोबाइल नंबर दे कर गई थी. मैं ने उस से कहा था कि मेरा घरवाला कोई उलटीसीधी हरकत करे तो मुझे फोन कर देना.

“कल रात को ही संतू ने फोन कर के मुझे सारी बात बता दी थी, इसलिए मैं सुबह ही आ गई और मैं ने तुम्हें रंगे हाथ पकड़ लिया. तुम्हारी जासूसी करने के लिए मैं ने संतू को एक बढ़िया साड़ी पहले ही दे दी थी. समझे?”

“सौरी, मैं तो मजाक कर रहा था.”

“घरवाली को छोड़ कर कामवाली से मजाक? तुम्हेें पता होना चाहिए कि संतू जिस वार्ड में रहती है, उस वार्ड की वह भाजपा की महिला मोरचा की अध्यक्ष है.”

“सच में…”

सेवकराम की घरवाली ने कहा, “मैं अभी फोन कर के कांग्रेस और भाजपा के जिला अध्यक्षों से कह देती हूं कि वे दोनों तुम्हें अपनी पार्टी में कतई न लें.”

“ऐसा क्यों?”

“जो आदमी अपनी घरवाली का नहीं हो सकता, वह जनता का क्या होगा.”

सेवकराम ने देखा कि संतू बाहर बरामदे में खड़ी हंस रही थी.

व्यंग्य: मेरा उधार लौटा दो

लेखक-  अशोक गौतम 

मैं थोड़ाबहुत लिखलाख लेता हूं, इधरउधर से मारमूर कर. इसी के बूते आज अपने देश का मूर्धन्य हो धन्य हो गया हूं. मुझे लिखना आता हो या न पर चुराने की कला में मैं सिद्धहस्त हूं. दो लाइनें इस की उठाईं तो दो उस की और हो गई धांसू रचना तैयार. नहृदयी उसे सुनते हैं तो आहआह कर उठते हैं. उन की इसी आहआह का परिणाम है कि न चाहते हुए भी मेरे हाथ औरों के संग्रह को खंगालने के लिए अपनेआप ही उठ जाते हैं.

लाइनें चुराने की कला में निपुण हूं भी क्यों न? इत्ते साल जो हो गए हैं यह काम करतेकरते. अब तो इस काम में लगे सिर के बाल भी सफेद होने लग गए हैं. कई बार सोचता हूं कि यह चोरीचकारी का काम छोड़ दूं और जिंदगी में कम से कम तो दोचार लाइनें अपनेआप लिखूं. पर जब सामने ढेर सारा मित्रों का लिखा हुआ आता है तो मेरी सृजनात्मकता जवाब दे जाती है.

पीने वाला जैसे पिए बिना नहीं रह सकता, नेता जैसे अंटशंट कहे बिना नहीं रह सकता, हमारी गली का लाला जैसे किलो के बदले 900 ग्राम दिए बिना नहीं रह सकता, वैसे ही मैं किसी के भी साहित्य पर हाथ साफ किए बिना नहीं रह सकता. अब तो यह चोरनेचुराने की लत ऐसी लग गई है कि बिन कुछ चुरा कर लिखे बिना रोटी ही नहीं पचती. लाख गोलियां हाजमोला खा लूं तो खा लूं, पर क्या मजाल जो खट्टे डकार रुक जाएं.

मुझ में दूसरी अच्छी आदत है मैं किसी से उधार ले कर लौटाता नहीं. मैं किसी से उधार ले कर वैसे ही भूल जाता हूं जैसे नेता चुनाव के वक्त जनता से वादे  कर चुनाव जीतने के बाद भूल जाते हैं. वैसे भी उधार लेने की चीज है, ले कर देने की नहीं. जो लोग इस सत्य को जान लेते हैं वे सात जनम तक लिया उधार नहीं लौटाते.

उन के लिए बेचारे उधार देने वाले उन के साथ न चाहते हुए भी जन्म लेते रहते हैं कि हो सकता है वे इस जन्म में उन से लिया उधार लौटा दें. सब में शर्म हो सकती है पर मैं ने जो नोट किया है कि उधार ले कर देने के मामले में बहुत कम लोगों में शर्म होती है. और जो उधार ले कर देने के मामले में शर्म फील करें, ऐसी आत्माएं नीच होती हैं. गधे हैं वे जो उधार ले कर लौटाते हैं.

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वे आज फिर अपना दिया उधार मांगने आए थोबड़ा लटकाए, ठिठकते हुए. जैसे उन्होंने मुझे उधार दे कर मुझ पर बड़ा भारी एहसान किया हो. असल में आज की डेट में उधार लेने वाला उधार देने वाले का एहसानमंद नहीं होता. उधार लेने वाला उधार देने वाले पर एहसान करता है. उधार देने वाला उधार लेने वाले की नजरों में भले ही गधा हो, पर वह किसी को उधार देते हुए अपनी नजरों में खुद को गोल्डन जुबली फिल्म के हीरो से कम नहीं समझता. उधार दे कर दिए उधार के वापस आने की चिंता उधार देने वाले की व्यक्तिगत होती है, लेने वाले की नहीं. एक आदर्श कर्जदार वही है जो लिए उधार को देने की रंच भर भी चिंता नहीं करता. मित्रो, उधार ले कर फिर देने की चिंता में घुलते रहे तो उधार ले कर भी जिए तो क्या जिए? मेरी तरह के उधार लेने वालों की इसी प्रवृत्ति का मैं कायल हूं.

सच कहूं, उधार लेने वाले को जितना उधार दिया उस को वापस लेने की उतनी चिंता नहीं होती है जितनी देने वाले को होती है. उधार ले कर भी चिंता में जिए तो क्या जिए? उधार देने वालों की इसी प्रवृत्ति का मैं कायल हूं. उधार देने वाले अभी फिर आते ही मेरे आगे दोनों हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते बोले, ‘यार, अब की मेरा दिया लौटा दे. बड़े साल हो गए. सोच रहा था तुम मेरा दिया लौटा देते तो अब के दीवाली पर कमरे में सफेदी ही करवा लेता. कैसे कमीने साहित्यकार हो तुम भी. देखो उन को जिन्होंने सामाजिक असहिष्णुता के विरोध में अपने सम्मान तक लौटा दिए और एक तुम हो मेरा उधार तक नहीं लौटा रहे?

‘हे मेरी आस्तीन के साहित्यकार दोस्त, जानता हूं, सम्मान के नाम पर तुम्हारे पास भूजी भांग भी नहीं पर कम से कम इस परंपरा का निर्वाह करते मेरा उधार ही लौटा देते तो मुझे भी लगता कि…’

‘हद है यार, जब भी मिलते हो बस उधार लिए को देने की ही परोक्षअपरोक्ष अपील करते हो. दोस्तों को उधार देने के बाद क्या ऐसे पेश आते हैं? तुम मरे जा रहे हो क्या? हम मरे जा रहे हैं क्या?

‘जब कोई नहीं मर रहा तो चिंता काहे की? सच कहूं, ऐसा उधार दे कर मांगने वाला बेशर्म मैं ने आज तक नहीं देखा. रही बात लौटाने की, तो यह व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है. वे सम्मान लौटा रहे हैं, उन की मरजी.

‘मैं तुम से उधार लिया लौटाऊं या न, यह मेरी मरजी,’ इतना कहने के बाद कोई गधा ही आगे कहने की हिम्मत करेगा. वे भी नहीं कर पाए. उधार देने वाले की यही तो एक सब से बड़ी खासियत होती है भाई साहब कि वह उधार देने के बाद गुर्राता नहीं, गिड़गिड़ाता है.  द्य

जीवन की मुसकान

मातापिता उंगली थाम अपने बच्चों को कदम उठाना सिखाते हैं, पर वृद्धावस्था में वे अपना कदम उठाने के लिए बच्चों की ओर ताकते रह जाते हैं. धुंधलाई दृष्टि, बच्चों का सहारा ढूंढ़ती है और सहारा न मिलने पर निराश हो उठती है, एक ऐसा ही अनुभव मैं ने महसूस किया.

रिश्ते की 85 वर्षीय बूआजी अपने इकलौते पोते आशीष की शादी का बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थीं. उन का कहना था कि दुनिया से जाने से पहले अपने आशीष की दुलहन देख जाऊं. बस अब और कोई इच्छा नहीं है. फूफाजी को गुजरे 4 वर्ष हो गए थे. अब बूआजी पिछले 2 वर्षों से बिस्तर पर ही थीं, पर वे एक ही रट लगाए थीं कि मैं भी शादी में जाऊंगी, फेरे देखूंगी. कहते हैं न मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है. पोता उन का बचपन से लाडला रहा. बस उस की शादी देखने की और पोता और उस की नईनवेली दुलहन को अपने हाथों से आशीष देने की अपनी इच्छा पूरी करना चाहती थीं.

बूआजी की बहू यानी मेरी भाभी इस बात पर चिढ़ रही थीं कि भला इन को कौन ले जाए और कैसे, कहतीं, ‘मोहमाया ही नहीं छूटती इन की.’ तब मैं ने बूआ की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. भाभी को आश्वस्त कर दिया कि वे बेफिक्री से शादी संभालें. बूआ की इतनी इच्छा है तो उसे मैं पूरा करने की पूरीपूरी कोशिश करूंगी. मेरी बूआ हैं मेरा भी तो इन के प्रति कुछ करने का फर्ज बनता है.

एडल्ट डाइपर पहना कर बूआजी को अपनी गाड़ी की पिछली सीट पर लिटा दिया और ह्वीलचेयर फोल्ड कर के साथ रख ली. उन्होंने मजे से फेरे देखे, अपने कांपते हाथों से दूल्हादुलहन को आशीष दिया.

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शादी की जब सारी रस्में पूरी हो गईं तो मेरे दोनों हाथ थामे और स्नेह से चूम लिया. उस समय उन की आंखें खुशी से बरस रही थीं. आसपास के सभी लोगों ने मेरी तारीफ की और तालियां भी बजाईं.

सही बात तो यह है कि जितनी बूआजी को खुशी हुई उस से ज्यादा मुझे हुई कि मैं उन को एक मनचाही संतुष्टि दे सकी. ऐसा लगा मानो जिंदगी की बहुत बड़ी खुशी पा ली है. विवाह के एक हफ्ते बाद ही बूआ जो  रात को सोईं तो फिर उठी ही नहीं. उन के चेहरे पर शांति की आभा थी.

वृद्धजनों को थोड़ी सी तरकीब से खुशी दे पाना, अधिक कठिन नहीं होता. बस, थोड़ा धैर्य और इच्छा का साथ चाहिए होता है.

मजाक: म से मछली म से मगरमच्छ

लेखक- अशोक गौतम

होरी पंचम के खेत अब के फिर ज्यों बाढ़ की भेंट चढ़े तो उस ने तनिक दिमाग लगा कर तय किया कि क्यों न इन तालाब बने खेतों में मछलीपालन कर इनकम बढा़ई जाए, आपदा को अवसर में ही नहीं, सुनहरे अवसर में बदला जाए. इस का फायदा यह भी रहेगा कि वह सरकार के साथ भी चलेगा और इनकम भी हो जाएगी. मतलब, एक पंथ दो लाभ.

यह सोच कर होरी पंचम मछली बाबू के दफ्तर जा पहुंचा. उसे अपने औफिस में आया देख कर मछलीखालन विभाग माफ कीजिएगा मछलीपालन विभाग के हैड ने उस से पूछा, “कौन? मत्स्य कन्या?”

“नहीं साहब, होरी पंचम. गांव लमही, जिला कोई भी रख लो.”

“तो मछली बाबू को क्यों डिस्टर्ब किया भरी दोपहर में? मछली बाबू से क्या चाहते हो?”

“साहब, गाय पाल कर गोबर तो बढ़ा पर इनकम न बढ़ी, सो अब मछली पाल कर इनकम बढ़ाना चाहता हूं.”

“गुड… वैरी गुड. आदमी को समयसमय पर धंधा और सरकार बदलते रहना चाहिए. इस से धंधे और लीडरों में गतिशीलता बनी रहती है… तो क्या हुक्म है?”

“साहब, वैसे भी बाढ़ ने खेतों का तालाब बना दिया है, तो सोच रहा हूं कि जब तक खेतों का पानी उतरे, क्यों न तब तक खेतों में मछली की खेती ही कर ली जाए. मछलियों से इनकम के लिए क्या करना होगा साहब?”

“करना क्या… हम से मछलियों का बीज ले जाओ और जब तक बाढ़ जाए उस से पहले ही जन से जनप्रतिनिधि हुओं की तरह हाथ पर हाथ धरे सौ गुना कमाओ, वह भी लेटेबैठे.”

“पर मछली का बीज तो असली ही होगा न मछली साहब?” होरी पंचम ने मछली बाबू के आगे सवाल खड़ा किया तो मछली बाबू यों उछलते हुए बोले ज्यों पानी से बाहर मछली निकाले जाने पर उछलती है, “क्या मतलब है तुम्हारा? सरकार पर तो आएदिन सवाल खड़े करते ही रहते हो, अब सरकारी बीज पर भी सवाल खड़ा करते हो?”

“नहीं साहब… माफ करना… मेरा मतलब वह नहीं था जो आपजी सोच रहे हो, पर पिछली दफा भी मैं आम के पौधे ले गया था सरकार की नर्सरी से, बड़े हुए तो बबूल निकले. लोन पर गाय ले गया था सरकार के फार्म से. सोचा था कि देश में दूध की नदियां बहा दूंगा, पर घर जाते ही वह गाय सांड़ निकली. बस, इसीलिए जरा तसदीक करना चाहता था कि…” होरी पंचम ने मछली साहब के आगे हाथ जोड़ते हुए सच कहा तो मछली साहब बोले, “देखो, ये ऐसीवैसी मछलियां नहीं हैं, बल्कि हजार सरकारी टैस्टों से गुजरी हैं. ये साधारण किस्म की नहीं, असाधारण ब्रीड की मछलियां हैं होरी पंचम. जो बाढ़ का पानी उतरने से पहले ही मछली का हर बच्चा 30-30 किलो का न हो जाए तो कहना…”

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होरी पंचम ने मछली बाबू से 10 किलो मछली का बीज उधार के पैसों से लिया और घर जा कर खेत बने तालाबों में डाल दिया. पलक्षण मछलियों के बच्चे बढ़ने लगे. होरी पंचम उन के चारे के लिए साहूकार से उधार पर उधार लेने लगा कि ज्यों ही मछलियों की फसल तैयार होगी, वह साहूकार की पाईपाई चुका देगा.

पर हफ्ते बाद ही होरी पंचम ने देखा कि मछलियों के बच्चों की शक्ल मगरमच्छ के बच्चों में बदलने लगी है, तो उसे अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ. पर फिर उस ने सोचा, ‘हो सकता है कि खास किस्म की मछलियां हों…’ पर फिर उस ने नोट किया कि जब वह उन्हें चारा देने जाता है तो वे उसे खाने को दौड़ पड़ती हैं सरकारी मच्छों की तरह.

आखिरकार होरी पंचम ने जब धनिया पंचम को यह बात बताई तो वह अपना सिर पीटतीपीटती खेत बने तालाब के पास आई. उस ने देखा तो उस के भी होश उड़ गए. मछलियों के बच्चे वाकई मगरमच्छ के बच्चों की शक्ल ले रहे थे.

यह देख कर होरी पंचम जल्दीजल्दी में धनिया के जूते पहने दौड़ादौड़ा फिर मछली बाबू के औफिस गया और जाते ही मछली बाबू के पैर पड़ फरियाद की. मछली बाबू उस समय कुरसी पर मच्छ की तरह पसरे थे.

होरी पंचम बोला, “मछली बाबू… मछली बाबू…”

“अब क्या हो गया? फसल तैयार हो गई क्या? मछली बाबू को नई फसल का पहला कटान चढ़ाने आए हो? और इनकम बढ़ाने का बीज चाहिए क्या?”

“नहीं मछली बाबू साहब, जो ले गया था अभी तो वही नहीं संभाला जा रहा,” कहतेकहते होरी पंचम रोने सा लगा.

“क्या मतलब है तुम्हारा?” मछली महकमे की कुरसी पर पसरे मछली बाबू मगरमच्छ से मगरमच्छियाए.

“मछली बाबू, जो असली मछलियों का बीज आप से इनकम बढ़ाने के चक्कर में ले गया था, वह बीज तो मछलियों से मगरमच्छ हुआ जा रहा है.”

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“तो क्या हो गया… म से मछली तो म से मगरमच्छ. हैं तो दोनों की सिंह राशि वाली ही न. शुक्र करो, जो दोनों की अलगअलग राशि न निकली. ऊपर से दोनों जल में रहने वाले. जो बीज आकाश में रहने वाले का और देह जमीन पर चलने वाले की निकलती तो बता क्या होता?

“बड़े लकी हो यार होरी पंचम, वरना यहां तो कई बार मछली बाबू से किसान ले मछलियों का बीज जाता है और बाद में वह बीज निकलता दरियाई घोड़ों का है.”

“तो साहब, अब…” होरी ने धीरे से पूछा.

पर मछली बाबू चुप रहा, कुरसी पर मगरमच्छ सा पसरा हुआ.

कोरोनावायरस: डराने वाली चिट्ठी

लौकडाउन के दौरान चिट्ठी ने मुझे बहुत डराया. आप शायद मुझे पागल समझ रहे होंगे, लेकिन मेरा फलसफा समझने की कोशिश करेंगे तो आप को लगेगा कि मैं गलत नहीं कह रहा. इस चिट्ठी को पढ़ते हुए मैं जिस भय से गुजर रहा हूं, आप शायद न समझें.

‘आदरणीय अंकल जी,

‘प्रणाम.

‘पिछले 5 दिनों से पुणे के अपने फ्लैट में अकेले पड़ेपड़े मैं ने काफी कुछ सोचा है. सोचा, आप को बता दूं. उम्मीद है पत्र पूरा पढ़ने के बाद आप मुझे पागल नहीं समझेंगे. लौकडाउन के चलते कंपनी में कामकाज ठप  पड़ा है. मैं घर से ही प्रोजैक्ट पूरा कर रहा हूं, लेकिन माहौल देखते काम में मन नहीं लग रहा है.

‘न जाने क्यों मुझे लग रहा है कि सबकुछ खत्म होने वाला है. अपनी 28 साल की छोटी सी जिंदगी में मैं ने ऐसी दहशत कभी नहीं देखी. हमारे अपार्टमैंट के सभी दरवाजे बंद हैं. लोग सन्नाटे में हैं. अधिकतर फैमिली वाले हैं लेकिन कोई गाने नहीं सुन रहा, फिल्में नहीं देख रहा. कभीकभी सामने वाले मालेगांवकर अंकल के फ्लैट से टीवी की आवाज कानों में पड़ जाती है. मुझे एक ही शब्द समझ आता है वह है कोरोना.

‘मैं मानता हूं कि पूरी दुनिया एक अजीब से संकट से घिर गई है जिस से उबरने की तमाम कोशिशें मुझे बेकार लगती हैं. यहां नौकरी जौइन करने के बाद मैं ने आप से और दूसरे रिश्तेदारों से कोई वास्ता नहीं रखा लेकिन जाने क्यों आज आप लोगों की याद बहुत आ रही है. मम्मीपापा भी खूब याद आ रहे हैं. मैं यह मानने में कतई नहीं हिचकिचा रहा कि मैं अव्वल दरजे का खुदगर्ज आदमी हूं. मम्मीपापा की रोड ऐक्सिडैंट में मौत होने के बाद से ही मुझे लगने लगा था कि अब मुझे अकेले ही जीना है.

‘जी तो लिया लेकिन अब सोच रहा हूं कि क्या इसी दिन के लिए जिया था. मेरे कोई खास दोस्त भी नहीं हैं. हकीकत में मेरा इस शब्द पर कभी भरोसा ही नहीं रहा. अब जब मेरे चारों तरफ तनहाई है तब मुझे लग रहा है कि मुझे मर जाना चाहिए.

इन डरेसहमे हुए लोगों के बीच जिंदा

रहने से तो बेहतर है शांति से मर

जाया जाए.

‘थोड़ीथोड़ी देर बाद मुझे महसूस होता है कि कोरोना ने मुझे और मेरे फ्लैट को घेर लिया है. करोड़ों की तादाद में ये वायरस मेरी तरफ बढ़ रहे हैं. कई तो वाशबेसिन पर रखा सैनिटाइजर पीते जोरजोर से हंस रहे हैं. मेरा मास्क उन्होंने कुतर डाला है और बहुत से पिंडली से रेंगते हुए मेरे मुंह की तरफ बढ़ रहे हैं.

‘मैं उन्हें झटकता हूं, फिर घबराहट में अपार्टमैंट के मेन गेट पर आ कर केबिन में सिक्योरिटी गार्ड के पास जा कर बैठ जाता हूं. उस का असली नामपता नहीं मालूम. लेकिन सभी उसे पांडूपांडू कहते हैं. वह भी डरा हुआ है, मेरी तरफ देखता है, फिर हथेली पर तंबाकू रगड़ने लगता है. मुझे लगता है इसे भी इन्फैक्शन है, इसलिए वह मुझ से दूर भागता है. मुझे उस पर दया आती है कि इस बेचारे को इलाज नहीं मिला, तो यह भी मर जाएगा और एकएक कर सारे लोग मर जाएंगे.

‘मैं फिर फ्लैट पर आ जाता हूं लेकिन लिफ्ट से नहीं बल्कि सीढि़यों से क्योंकि लिफ्ट में वायरस मुझे गिरफ्त में ले सकते हैं. 8वें माले पर हांफते हुए चढ़ता हूं, तो लगता है वायरस मेरा पीछा कर रहे हैं. वे कभी भी मुझे जकड़ सकते हैं.

‘आप को याद है पापा एक गाना अकसर गाते थे – ‘जीवन में तू डरना नहीं, सिर नीचा कभी करना नहीं, हिम्मत वाले हो मरना नहीं…

‘लेकिन मुझे लगता है डर से ज्यादा यह अकेलापन मुझे मार रहा है. इसी डर के चलते मैं लैपटौप और टीवी भी नहीं चला रहा क्योंकि उन में से कोरोना निकल कर घर में फैल जाएंगे. खानेपीने का बहुत सा सामान रखा है जो बाजू वाली सिंह आंटी दे गई थीं, लेकिन दूर से मानो मैं संक्रमित होऊं. वे, हालांकि, अच्छी महिला हैं लेकिन सनकी सी भी हैं. पड़ोसी होने के नाते उन का फर्ज बनता है कि वे मेरी खबर लेती रहें पर वे भी स्वार्थी हैं, सब स्वार्थी हैं और आप भी स्वार्थी हैं.

कोरोना ने मुझे सिखाया है कि इस दुनिया में कोई किसी का सगा नहीं है. सारे रिश्तेनाते, यारीदोस्ती खुदगर्जी पर टिकी है जिस का इम्तिहान अब हो रहा है और नतीजे भी सामने आ रहे हैं. सब के सब सभी के होते हुए अकेले हैं, जो कोरोना और डर दोनों से मरेंगे, मैं भी.

‘चारों तरफ सन्नाटा है, कोई हलचल नहीं है. सब बुजदिलों की तरह घरों में दुबके आहिस्ताआहिस्ता आती मौत का इंतजार कर रहे हैं. वे कितने भी हाथ धो लें, बचेंगे नहीं. मैं तो नहा भी नहीं रहा क्या पता शौवर से ही कोरोना बरसने लगें.

‘आप मेरी इन बातों को पागलपन समझ रहे होंगे लेकिन मेरा फलसफा समझने की कोशिश करें तो आप को लगेगा कि मैं गलत नहीं कह रहा था. मैं भगवानवगवान को नहीं मानता, मैं राजनीति के पचड़े में भी नहीं पड़ता. बीटैक और एमबीए करने के बाद से मैं नौकरी कर रहा हूं. औफिस जाता हूं. 12 घंटे मन लगा कर काम करता हूं, खाना खाता हूं, फिर सो जाता हूं.

‘फैमिली सिस्टम में रहने वाले भी इसी तरह रहते हैं लेकिन दिखावा ज्यादा करते हैं वे. बहुत शातिर और धूर्त होते हैं. जिंदगीभर एकदूसरे का शोषण करते हैं, एकदूसरे का इस्तेमाल करते हैं और इसी की कीमत का भी लेनदेन करते हैं. कोरोना इस की पोल खोल रहा है. अगर आज घर में वह किसी को लग जाए तो सभी संक्रमित से दूर भागेंगे जैसे कोढ़ के मरीज से भागते हैं.

‘आइसोलेशन के नाम पर उसे अलग पटक देंगे, छूना तो दूर की बात है, उस की तरफ देखने से भी सहमेंगे. मेरी भी हालत ऐसी ही है. मैं अपने इस फ्लैट में पड़ापड़ा यों ही मर भी जाऊं तो मेरी लाश से उठती दुर्गंध से लोगों को पता चलेगा.

फिर लोग डरेंगे, अपार्टमैंट छोड़ कर भागेंगे. सरकारी अमला पूरी बिल्ंिडग सैनिटाइज करेगा, टीवी वाले आएंगे सनसनी फैलाएंगे. मेरी जन्मपत्री खंगालेंगे. जब कुछ खास जानकारी हाथ नहीं लगेगी तो मुझे लावारिस घोषित कर किसी नई खबर की तरफ दौड़ पड़ेंगे. आप देखना, ये भी मरेंगे जो नाम और पेशे के लिए जान हथेली पर लिए घूम रहे हैं, बल्कि कहना चाहिए कि भटक रहे हैं.

‘खैर मुद्दे की बात यह कि मैं गंभीरतापूर्वक खुदकुशी करने की सोच रहा हूं. मुझ से पलपल की यह मौत सहन नहीं हो रही है. मुझे मालूम है आप मेरा मरा मुंह देखने या मिट्टी ठिकाने लगाने नहीं आएंगे. सही भी है, कोई क्यों यह सिरदर्दी मुफ्त में मोल ले.

‘हां, मैं अगर यह वसीयत कर जाऊं कि मेरे मरने के बाद एक करोड़ का यह फ्लैट और 20-25 लाख रुपए की सेविंग आप की होगी तो यकीन मानें आप सिर के बल दौड़ कर आएंगे. पुणे तक आने का कर्फ्यू पास हाथोंहाथ बनवा लेंगे, सरकारी अफसरों और पुलिस वालों के सामने घडि़याली आंसू बहाएंगे कि भतीजा मर गया है, आखिरी बार देखने और क्रियाकर्म करने जाने दीजिए.

‘आप सोच रहे होंगे, बल्कि तय ही कर चुके होंगे, कि मैं वाकई डिप्रैशन बरदाश्त न कर पाने के कारण पागल हो गया हूं, तो आप गलत सोच रहे हैं. दरअसल, मेरी चिंता असहाय मानव जीवन है. आदमी खुद को ताकतवर कहते गर्व से फूला नहीं समाता लेकिन आज एक मामूली से वायरस के सामने कितना असहाय नजर आ रहा है. सारी साइंस और टैक्नोलौजी महत्त्वहीन हो गई है. कहा यह जा रहा कि सब्र रखो, सब ठीक हो जाएगा. रिसर्च चल रही है.

‘मैं कहता हूं कुछ नहीं हो रहा. आदमी न दिखने वाले इन कीड़ेमकोड़ों की ताकत के सामने कुछ नहीं है. वह प्रकृति की सब से कमजोर कृति है. एक कोरोना नाम के वायरस ने हजारों मार दिए और भी मरेंगे, फिर जब कोरोना का प्रकोप खत्म हो जाएगा तो लैब से कोई दाढ़ी वाला वैज्ञानिक बाहर आएगा, उस के हाथ में कोरोना की एक दवा होगी. लेकिन यह अंत नहीं होगा, जल्द ही कोई नया वायरस पैदा होगा, फिर हाहाकार मचेगा, लौकडाउन होगा और मैं फिर कैद हो कर रह जाऊंगा.

‘जबकि मैं काम करना चाहता हूं, जिंदा रहना चाहता हूं, खिलते हुए फूल देखना चाहता हूं, चहकतेखेलते हुए बच्चे देखना चाहता हूं, खूबसूरत युवतियों का अल्हड़पन देखना चाहता हूं, खूब सी बियर पीना चाहता हूं, सिगरेट के धुएं के छल्ले बनाना चाहता हूं, व्हाइट सौस के साथ पिज्जा खाना चाहता हूं, हिल स्टेशन जा कर छुट्टियां मनाना चाहता हूं, नएनए ब्रैंड के आफ्टर शेव ट्राई करना चाहता हूं, और तो और, मैं रेल की पटरियों के किनारे शौच करते हुए लोगों को भी देखना चाहता हूं.

‘मैं और भी बहुतकुछ करना चाहता हूं लेकिन यों कैद नहीं रहना चाहता, इसलिए मर जाने का यह बहादुरीभरा फैसला ले रहा हूं जिसे शातिर लोग बुजदिली कहते हैं. कोरोना मेरे दिमाग में आ गया है. मैं मजबूर हूं क्योंकि आधुनिकता की हकीकत मुझे समझ आ गई है.

‘इन क्षणों में मुझे उपदेशकों और आशावादियों पर तरस आ रहा है. ये लोग बहुत चालाक हैं जो चाहते हैं कि लोग जिंदा रहें, दुनिया चलती रहे और ये अपना भोंथरा ज्ञान बघारते रहें. ये खुद मरने से डरते हैं, इसलिए दूसरों को जिंदा रखना चाहते हैं. मेरी खुदकुशी इन के मुंह पर थप्पड़ मारेगी. यह जरूर आप दुनिया को बताएं, बाकी जिसे जो सोचना हो, सोचे. मुझे लग रहा है कोरोना दरवाजे के नीचे से दाखिल हो गया है और इस बार यह मन का वहम नहीं है.

‘चाची को प्रणाम और बच्चों को प्यार,

‘आप का भतीजा.’

मजाक: जो न समझो सो वायरस

 लेखिका- दीपान्विता राय बनर्जी

‘‘अरे साधना, अब गुस्सा थूक भी दो, बहूबेटी में भेद क्या, दोनों ही हमारे भले के लिए कहती हैं. देख नहीं रही हो क्या, इस कोरोनामरोना के चक्कर में हमारी खानदानी जमींदारी तोंद मरियल होती जा रही है, तुम भी थोड़ा सब्र कर लो.’’

‘‘कैसे सब्र कर लूंगी, जिंदगीभर हम ने घीदूध में अपने बच्चों को पाला, अब कल की आई बहू हमें सिखाती है कि हमें क्या और कैसे खाना है. चलो जी, हम अपने घर चलते हैं, यहां बेकार आए थे. अब देखो, कैसे इस वायरस

के चक्कर में फंस गए. कहती है, सामान खर्च करने में काफी सोचविचार करना होगा.

पहले दोपहर के खाने में 2 सब्जियां, दाल, चावल, रोटी, दही, रायता या दहीबडे़ के साथ पापड़, सलाद सबकुछ होता था. दोनों बेटों और तुम्हें हमेशा नौनवेज भी बना कर दिया. रात को फिर अलग सब्जी बनाई, घी में चुपड़ी रोटी के साथ कोई एक हलवा भी होता था या फिर मखाने की खीर. यहां आने के बाद कुछ दिन ठीक बीते, लेकिन अब हम इन पर भारी पड़ गए. कोरोना वायरस के नाम पर खानापीना सब बंद करने पर तुली है यह.’’

‘‘अरे क्या कहा, यही न, कि अब दाल, चावल, सब्जी, दही में ही दोपहर का खाना खत्म करना होगा, तो चलो, यही सही. महीनाभर ही तो हैं यहां.’’

‘‘नहींनहीं, महीनाभर कहां. बेटा तो कह रहा था कि इस चौपट दुनिया में अब मांबाबूजी अकेले क्या रहेंगे. अब हमें इन के साथ ही रहना होगा और इस कलमुंही का और्डर मानना पड़ेगा. देखना, रात को घी वाली रोटी की जगह सूखी रोटी ही मिलेगी. फरमान सुना दिया है महारानी ने.’’

बहू अंजना से रहा नहीं जा रहा था. अभी यह उस की मां होती तो हाथ में बेलनकलछी पकड़े ही वह रसोई से दौड़ी आती और मां पर बरस पड़ती. लेकिन ठहरी सास, सांस ऊपरनीचे हो कर रह गई लेकिन जबान को काबू करते हुए इतना ही कहा, ‘‘मांजी, घर का राशन हमें ज्यादा दिनों तक चलाने लायक खर्चना है, तभी हम ज्यादा से ज्यादा घर में रह पाएंगे

और कम लोगों के संपर्क में आएंगे. घी बनाने लायक मलाईदार दूध नहीं है, तो संकटकाल में इतना सब्र तो कर सकते हैं.’’

‘‘आई बड़ी सब्र सिखाने वाली.’’

‘‘अरे मांजी, सारा देश लौकडाउन है, कर्फ्यू लगा है, कोई निकले तो संक्रमित हो सकता है, समझो न.’’

‘‘फिर झूठ, कोरोना का नाम लेले कर हमारा खानापीना बंद करने पर तुले हैं. क्यों हमारा बेटा नहीं जा रहा है औफिस?’’

‘‘वे रेलवे में हैं न, यहां मेल ट्रेन बंद हैं, सिर्फ गुड्स ट्रेनें चल रही हैं. जरूरत के सामानों की आवाजाही चलाने के लिए यह काम घर से नहीं हो सकता, मां.

‘‘लेकिन आगे आने वाले दिनों में सामानों और खानेपीने की वस्तुओं की भारी किल्लतों का सामना करना पड़ सकता है, इसलिए बचत और कम में गुजारा हमें अभी से सीखना होगा.’’

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‘‘हां, अब हमारा खानापीना बंद कर सब का पेट भरेगा. सुबह कहा था, ससुरजी के पसंद की मछली बना लो. बहाना निकल आया, अब रात को कहूंगी कस्टर्ड, तो वह भी नहीं बनेगा.’’

‘‘अरे मांजी, आप को कैसे समझाएं, अब पसंदनापसंद का समय गया. लाखों दिहाड़ी मजदूर अपने घर जाने को तरस गए, सड़कों पर लोगों का रोना लगा है, एक वक्त के लिए दो सूखी रोटी भी नसीब नहीं उन्हें.

‘‘अब घर में रखे सामानों को कटौती से ही खर्चना है. बाहर निकलने की मनाही है, सब को थोड़ाथोड़ा सुधरना ही होगा.’’

‘‘अच्छा हम बिगड़े हैं, जो सुधरेंगे?’’

अंजना को लगा हाथ का बेलन वह अपने ही सिर पर दे मारे, लेकिन तुरंत ‘‘मरजी है आप की,’’ जुमला याद आने से उस ने खुद को जज्ब कर लिया.

अंजना के वहां से जाते ही साधनाजी ने अपनी पुरानी सहेली और कालेज के रिटायर्ड लैक्चचर नन्दाजी को फोन लगाया.

‘‘नन्दा, यहां बेटे के घर कैद हो गई हूं, तुम्हारे घर आ कर कुछ दिन रहना चाहती हूं. यहां न अपनी मरजी से खापी सकती हूं, न आसपास किसी से मिल सकती हूं.

‘‘अरे कोरोना है तो है, हमारे आसपास थोड़े ही है. घर में न पैसे की कमी है, न बाजार दूर है, फिर भी बहू ने बचत के नाम पर हमारी नकेल कसी हुई है. पता नहीं क्यों रातदिन कोरोना का रोना ले कर बैठी है. एक तो घर में कैद, ऊपर से पसंद का खाना भी नहीं. जो भी कहती हूं बनाने को, कहती है कोरोना है.’’

‘‘ठीक ही तो कहती है तुम्हारी बहू्. पढ़ीलिखी सास हो कर भी तुम बहू का नजरिया नहीं समझ रही हो. देश जब भयंकर महामारी की चपेट में है, रोज हजारों मजदूर भूखे बिलख रहे हैं, छोटेछोटे बच्चे भूख से बेहाल सड़क पर आ गए हैं, न ठौर न ठिकाना. ऐसे में कुछ कम में चलेंगे, बचत करेंगे तो आगे यह काम आएंगे. बचत ही तो कमाई है. इस आड़े वक्त में खबरों पर नजर रखो और बहू पर भरोसा.’’

डांवांडोल मन से साधनाजी ने अभी फोन रखा ही था कि बेंगलुरु से उन के बड़े बेटे के लड़के यानी उन के बड़े पोते का फोन आ गया.

पोते से पता चला कि हफ्तेभर से वह अपने किराए के फ्लैट में कैद है.

घर से औफिस का काम तो कर रहा है, लेकिन खानेपीने के सामानों की और घर के सारे काम खुद करने की दिक्कतें बहुत हैं. औनलाइन सारे सामान नहीं पहुंच रहे हैं. काफी कटौती में गुजारा हो रहा है.

पोते पर गहरी आस्था की वजह से दादी के दिमाग का एंटिना अब कुछ सीधा हो चुका था.

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फोन रख कर वह चुपचाप मुंह फुला कर बैठ गईं.

दादा ने कहा, ‘‘तसल्ली हुई? अब मुंह फुला कर बैठे अपना गाल न बजाओ. कमरे से बाहर जा कर बहू

की काम में मदद करो, घर

के बाहर कर्फ्यू है, घर के अंदर नहीं.’’

साधनाजी जराजरा सी रोष वाली नजर पति पर डाल बहू के पास चली आईं.

कमरे में ससुरजी को सुनाई पड़ा, ‘‘लाओ दो, जो भी बना रही हो उस में हाथ बंटा दूं, तुम्हारे ससुरजी की यही इच्छा है.’’

ससुरजी को इस साधना वायरस पर हंसी आ गई, सुधरेगी नहीं. द्य

जीवन की मुसकान

मैंवाईडब्लूसीए से बिजनैस मैनेजमैंट का डिप्लोमा कर रही थी. साल समाप्त होने जा रहा था. अंत में हमें अपनी प्रोजैक्ट रिपोर्ट जमा करानी थी. आखिरी दिन हमारी एक साथी बहुत परेशान थी. किसी व्यक्तिगत समस्या के कारण उस का प्रोजैक्ट तैयार नहीं हो पाया था. वह सब से उन की प्रोजैक्ट रिपोर्ट मांग रही थी कि अगर वे उसे दे दें, तो वह भी उसी तरीके से उसे प्रिंटिंग प्रैस में ले जा कर अपनी भी रिपोर्ट तैयार कर ले. लेकिन कोई भी लड़की उसे देना तो दूर, ठीक से दिखा भी नहीं रही थी.

रोंआसी सी वह मेरे पास आ कर गिड़गिड़ाने लगी. मैं ने अपनी सालभर की मेहनत उस के हाथों में दे दी. वह भागती हुई चली गई. सारी लड़कियों ने मुझे डांटना शुरू कर दिया.

क्लास खत्म हो गई. मैं गेट पर जा कर खड़ी हो गई. धीरेधीरे पूरा कालेज खाली हो गया. आधा घंटा मेरी एक सहेली साथ में खड़ी रही, फिर बाद में मुझे नसीहतें देते हुए वह भी चली गई. अब रोंआसी होने की बारी मेरी थी. करीब और

20-25 मिनट बाद एक औटो तेजी से आ कर मेरे पास रुका. वह लड़की नीचे उतरी और मुझे प्रोजैक्ट रिपोर्ट वापस की. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट तैयार हो रही है और वह वापस वहीं पर जा रही है.

अब मेरी मुसकराहट वापस लौट आई थी. अच्छाई पर अतिविश्वास और अधिक गहरा हो गया था.

मैंऔर मेरे पति हनीमून पर कुल्लू गए. शाम को घूमने निकल गए. ऊंची पहाड़ी पर एक स्मारक बना था, उसे देखने के लिए दोनों पैदल चल पड़े.

मैं ने साड़ी पहनी थी. पहाड़ी पर चलना मुश्किल हो रहा था. तभी एक जीप आ रही थी. उस में बैठे सज्जन ने हमें स्मारक तक लिफ्ट दे दी. वापसी पर भी उन्होंने हमें वापस बाजार तक छोड़ दिया.

जीप से उतरते हुए हमारा कैमरा उसी जीप में छूट गया. जीप वालों का कोई पता नहीं मालूम था. फिर भी उम्मीद में बाजार में वहां वापस गए जहां उन्होंने हमें जीप से उतारा था. अभी हमें वहां पहुंचे 5 मिनट ही हुए थे कि हमें दूर से जीप आती दिखाई दी. जीप हमारे पास रुकी और वे सज्जन बोले, ‘‘बेटे की नजर आप के कैमरे पर पड़ गई थी. आप ने अपने होटल का नाम बताया था, वहीं जा रहे थे.’’

हम ने तहे दिल से उन्हें धन्यवाद दिया.

मजाक: मिलावटी खाओ, एंटीबॉडी बढ़ाओ

लेखक- अशोक गौतम

इधर अखबार में जब से आईसीएमआर की स्टडी की यह रिपोर्ट हिलोरें मार रही है कि कोवैक्सीन और कोविशिल्ड को अगर एकसाथ मिला दिया जाए, तो इस का असर ज्यादा हो जाता है, तब से अपने शहर के नामीगिरामी मिलावट करने वालों की मूंछों की बिना तेल लगाए ही चमक देखने लायक है. भले की कानून के साथ मिलबैठ कर वे मिलावट का धंधा करते रहे हों, पर जनता की नजरों से छिपे रहते थे.

कल वही मिलावटी लाल सरजी मूंछों पर ताव देते सीना चौड़ा कर मेरे सामने पहाड़ से तन कर खड़े हो गए और मेरा रास्ता रोक दिया. उन्होंने सारे बदन पर गजब का इत्र लगाया हुआ था. उन का पूरा बदन उस समय किस्मकिस्म के असलीनकली मिलावटी इत्रों से महक रहा था.

मिलावटी लाल सरजी बोले, “देखो बबुआ, मिक्सिंग का कमाल. तुम लोग नाहक ही हमें तीसरे दर्जे का व्यापारी समझते हो तो समझते रहो, पर आज तो आईसीएमआर की स्टडी में ने भी मिक्सिंग पर अपनी मुहर लगा दी.

“बबुआ, जो सच है, वह सच है. जो सच था, वह सच था. जो सच है, वह सच ही रहेगा. उसे न तुम बदल सकते, न मैं, न कानून. कानून का डर दिखा कर झूठ को सच तो बनाया जा सकता है, पर सच को झूठ नहीं बनाया जा सकता. और सच यही है कि मिलावट के बिना जिंदगी जिंदगी नहीं, मिलावट के बिना इम्यूनिटी इम्यूनिटी नहीं.

Raksha Bandhan Special: सत्य असत्य- भाग 1: क्या निशा ने कर्ण को माफ किया?

 

“हम मानें या न मानें, पर सच तो यही है कि है कि हम लोगों को बिना कौकटेल के कुछ भी पच नहीं सकता. शुद्ध खाने से हम सदियों से बीमार पड़ते रहे हैं. आज भी हम अपनी वही गलती दोहराने की वजह से बीमार पड़ रहे हैं और भविष्य में भी हम ने जो शुद्ध खाने की अपनी गलती नहीं सुधारी तो बीमार पड़ते रहेंगे. हमारी सारी इम्यूनिटी खत्म हो जाएगी, इसीलिए हमें न चाहते हुए भी जनहित में अपनी जान दिखाने को जोखिम में डाल आंखें मूंद जनता की जान बचाने के लिए, जनता की इम्यूनिटी का ग्राफ ऊपर की ओर बढ़ाए रखने के लिए शुद्ध देशी गाय के घी में चरबी मिलानी पड़ती है, असली दूध में नकली दूध मिलाना पड़ता है, चावल में जनता के हित के लिए कंकड़ मिलाने पड़ते हैं, इंगलिश शराब में देशी दारू मिलानी पड़ती है. दक्षिणपंथियों में वामपंथी मिलाने पड़ते हैं.

“किसलिए? इसलिए कि देश की इम्यूनिटी बढ़े, सरकार की इम्यूनिटी बढ़े. हम यह सब इसलिए नहीं करते कि ऐसा करने से हमारा मुनाफा बढ़ता है, बल्कि यह तो हम देश की रोग गतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए करते हैं. और हमारी कोशिशों के नतीजे तुम्हारे सामने हैं.

“कोई हमें चाहे कितना ही देशद्रोही क्यों न कहे, पर हमारे लिए जनता की इम्यूनिटी पहले है, अपना मुनाफा बाद में. पर तुम घटिया सोच वाले हमेशा सोचते उलटा ही हो.

“देशभक्तों को आज देश की चिंता भले ही न हो, पर हमें अपने मुनाफे से ज्यादा जनता की इम्यूनिटी की चिंता है. और ऊपर से एक तुम हो कि रोज सुबह उठ कर सब से पहले मिलावटी दूध की चाय की स्वाद लगा चुसकियां लेते हुए हम मिक्सिंग करने वालों को ही कोसते हो.

“भाई साहब, जो हम दूध में पानी न मिलाते, मसालों में लीद न मिलाते, हलदी में पीला रंग न मिलाते, सच में झूठ न मिलाते, धर्म में लूट न मिलाते, आटे में फाइबर के नाम पर लकड़ी का बुरादा न मिलाते, राग मल्हार में राग गंवार न मिलाते तो बुरा मत मानना भाई साहब, देश में एक भी केवल थाली बजाता, दिन में दीए जलाता कोरोना से कतई भी लड़ नहीं पाता. यह तो हमारी उस मिक्सिंग का ही चमत्कार है, जिस की वजह से इस समय भी देश की इम्यूनिटी सातवें आसमान पर है.

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“वैसे गलती से लाख ढूंढ़ने के बाद भी एक तो हमें आज शुद्ध मिलता ही नहीं, पर गलती से जो हम धोखे से शुद्ध खा ही जाते तो इस समय स्वर्ग की हवा खाते होते, क्योंकि शुद्ध खाने वालों में एंटीबौडीज उतने नहीं होते जितने मिक्सिंग किया खानेपीने वालों में होते हैं. यह बात हम बरसों से कह रहे थे, यह बात हम बरसों से जानते थे, पर कोई हमारी बात मानने को तैयार ही न था, घर का एमडी नीम हकीम जो ठहरा. अब आईसीएमआर कह रहा है तो मानना ही पड़ेगा.

“भाई साहब, गए वे दिन जब लापरवाही बढ़ती थी तो दुर्घटना के चांस बढ़ते थे. अब तो लापरवाही में ही सुरक्षा है.”

Short Story: कोरोना का खौफ

मैं पिछले 2 साल से दिल्ली में अपनी चाची के यहां रह कर पढ़ाई कर रही हूं. चाची का घर इसलिए कहा क्योंकि घर में चाचू की नहीं बल्कि चाची की चलती है.

मेरे अलावा घर में 7 साल का गोलू, 14 साल का मोनू और 47 साल के चाचू हैं. गोलू और मोनू चाचू के बेटे यानी मेरे चचेरे भाई हैं.

मार्च 2020 की शुरुआत में जब कोरोना का खौफ समाचारों की हेडलाइन बनने लगा तो हमारी चाचीजी के भी कान खड़े हो गए. वे ध्यान से समाचार पड़तीं और सुनतीं थीं. कोरोना नाम का वायरस जल्दी ही उन का जानी दुश्मन बन गया जो कभी भी चुपके से उन के हंसतेखेलते घर की चहारदीवारी पार कर हमला बोल सकता था. इस अदृश्य मगर खौफनाक दुश्मन से जंग के लिए चाची धीरेधीरे तैयार होने लगी थीं.

“दुश्मन को कभी भी कमजोर मत समझो. पूरी तैयारी से उस का सामना करो.” अखबार पढ़ती चाची ने अपना ज्ञान बघाड़ना शुरू किया तो चाचू ने टोका, “कौन दुश्मन? कैसा दुश्मन?”

“अजी अदृश्य दुश्मन जो पूरी फौज ले कर भारत में प्रवेश कर चुका है. हमले की तैयारी में है. चौकन्ने हो जाओ. हमें डट कर सामना करना है. उसे एक भी मौका नहीं देना है. कुछ समझे.”

नहीं श्रीमतीजी. मैं कुछ नहीं समझा. स्पष्ट शब्दों में समझाओगी.”

“चाचू कोरोना. कोरोना हमारा दुश्मन है. चाची उसी के साथ युद्ध की बात कर रही हैं.” मुस्कुराते हुए मैं ने कहा तो चाची ने हामी भरी, “देखो जी सब से पहला काम, रसद की आपूर्ति करनी जरूरी है. मैं लिस्ट बना:कर दे रही हूं. सारी चीजें ले आओ.”

“तुम्हारे कहने का मतलब राशन है?”

“हां राशन भी है और उस के अलावा भी कुछ जरूरी चीजें ताकि हम खुद को लंबे समय तक मजबूत और सुरक्षित रख सकें.”

इस के कुछ दिन बाद ही अचानक लौकडाउन हो गया. अब तक कोरोना वायरस का खौफ चाची से दिमाग तक चढ़ चुका था. अखबार, पत्रिकाएं, न्यूज़ चैनल और दूसरे स्रोतों से जानकारियां इकट्ठी कर चाची एक बड़े युद्ध की तैयारी में लग गई थीं.

वे दुश्मन को घुसपैठ का एक भी मौका देना नहीं चाहती थीं. इस के लिए उन्होंने बहुत से रास्ते अपनाए थे. आइए आप को भी बताते हैं कि कितनी तैयारी के साथ वे किसी सदस्य को घर से बाहर भेजती और कितनी आफतों के बाद किसी सदस्य को या बाहरी सामान को घर में प्रवेश करने की इजाजत देती थीं.

सुबहसुबह चाचू को टहलने की आदत थी जिस पर चाची ने बहुत पहले ही कर्फ्यू लगा दिया था. मगर चाचू को सुबह में मदर डेयरी से गोलू के लिए गाय का खुला दूध लेने जरूर जाना पड़ता है.

चाचू दूध दूध लाने के लिए सुबह में निकलते तो चाची उन्हें कुछ ऐसे तैयार होने की ताकीद करती,” पजामे के ऊपर एक और पाजामा पहनो. टीशर्ट के ऊपर कुरता डालो. पैरों में मौजा और चेहरे पर चश्मा लगाना मत भूलना. नाक पर मास्क और बालों को सफेद दुपट्टे से ढको. इस दुपट्टे के दूसरे छोर को मास्क के ऊपर कवर करते हुए ले जाओ.”

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चाची को डर था कि कहीं मास्क के बाद भी चेहरे का जो हिस्सा खुला रह गया है वहां से कोरोना नाम का दुश्मन न घुस जाए. इसलिए डाकू की तरह पूरा चेहरा ढक कर उन्हें बाहर भेजती.

जब चाचू लौटते तो उन्हें सीधा घर में घुसने की अनुमति कतई नहीं थी. पहले चाचू का चीरहरण चाची के हाथों होता. ऊपर पहनाए गए कुरते पजामे और दुपट्टे को उतार कर बरामदे की धरती पर एक कोने में फेंक दिया जाता. अब मोजे को भी उतरवा कर कोने में रखवाए जाते. फिर सर्फ का झाग वाला पानी ले कर उन के पैरों को 20 सेकंड तक धोया जाता. फिर चप्पल उतरवा कर अंदर बुलाया जाता.

इस बीच अगर उन्होंने गलती से परदा टच भी कर दिया तो चाची तुरंत परदा उतार कर उसी कोने में पटक देतीं. अब चाचू के हाथ धुलाए जाते. पहले 20 सेकंड साबुन से रगड़रगड़ कर. फिर 20 सेकंड डिटॉल हैंडवॉश से ताकि कहीं किसी भी कोने में वायरस के छिपे रह जाने की गुंजाइश भी न रह जाए. इस के बाद उन्हें सीधे गुसलखाने में नहाने के लिए भेज दिया जाता.

अगर चाचू बिना पूछे कुछ ला कर कमरे या फ्रिज में रख देते तो वह हल्ला करकर के पूरा घर सिर पर उठा लेतीं.

चाचू जब दुकान से दूध और दही के पैकेट खरीद कर लाते तो चाची उन्हें भी कम से कम दोदो बार 20 -20 सेकंड तक साबुन से रगड़रगड़ कर धोतीं.

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एक बात और बता दूं, घर के सभी सदस्यों के लिए बाहर जाने के चप्पल अलग और घर के अंदर घूमने के लिए अलग चप्पल रखवा दी गई थी. मजाल है कि कोई इस बात को नजरअंदाज कर दे.

सब्जी वाले भैया हमारी गली के छोर पर आ कर सब्जियां दे जाते थे. सब्जी खरीदने का काम चाची ने खुद संभाला था. इस के लिए पूरी तैयारी कर के वह खुद को दुपट्टे से ढक कर निकलतीं.

कुछ समय पहले ही उन्होंने प्लास्टिक के थैलों के 2-3 पैकेट खरीद लिए थे. एक पैकेट में 40- 50 तक प्लास्टिक के थैले होते थे. आजकल यही थैले चाची सब्जियां लाने के काम में ला रही थी.

सब्जी खरीदने जाते वक्त वह प्लास्टिक का एक बड़ा थैला लेती और एक छोटा थैला रखतीं. छोटे थैले में रुपएपैसे होते थे जिन्हें वह टच भी नहीं करती थीं. सब्जी वाले के आगे थैला बढ़ा कर कहतीं कि रुपए निकाल लो और चेंज रख दो.

अब बात करते हैं बड़े थैले की. दरअसल चाची सब्जियों को खुद टच नहीं करती थीं. पहले जहां वह एकएक टमाटर देख कर खरीदा करती थीं अब कोरोना के डर से सब्जी वाले को ही चुन कर देने को कहती और खुद दूर खड़ी रहतीं. सब्जीवाला अपनी प्लास्टिक की पन्नी में भर कर सब्जी पकड़ाता तो वह उस के आगे अपना अपना बड़ा थैला कर देती थीं जिस में सब्जी वाले को बिना छुए सब्जी डालनी होती थी.

सब्जी घर ला कर चाची उसे बरामदे में एक कोने में अछूतों की तरह पटक देतीं. 12 घंटे बाद उसे अंदर लातीं और वाशबेसिन में एक चलनी में डाल कर बारबार धोतीं. यहां तक कि सर्फ का झाग वाला पानी 20 सेकंड से ज्यादा समय तक उन पर उड़ेलतीं रहतीं. काफी मशक्कत के बाद जब उन्हें लगता कि अब कोरोना इन में सटा हुआ नहीं रह गया और ये सब्जियां फ्रिज में रखी जा सकती हैं तो धोना बंद करतीं. सब्जी बनाने से पहले भी हल्के गर्म पानी में नमक डाल कर उन्हें भिगोतीं.

दिन में कम से कम 50 बार वह अपना हाथ धोतीं. अखबार छुआ तो हाथ धोतीं सब्जी छू ली तो हाथ धोतीं. दरवाजे का कुंडा या फ्रिज का हैंडल छुआ तो भी हाथ धोतीं. हाथ धोने के बाद भी कोई वायरस रह न जाए इस के लिए सैनिटाइजर भी लगातीं.

नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों में उन के हाथों की त्वचा ड्राई और सफेद जैसी हो गई. उन्हें चर्म रोग हो गया था. इधर पूरे दिन कपड़ों और बर्तनों की बरात धोतेधोते उन्हें सर्दी लग गई. नाक बहने लगी छींकें भी आ गईं.

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अब तो चाची ने घर सर पर उठा लिया. कोरोना के खौफ से वह एक कमरे में बंद हो गईं और खुद को ही क्वॉरेंटाइन कर लिया. डर इतना बढ़ गया कि बैठीबैठी रोने लगतीं. 2 दिन वह इसी तरह कमरे में बंद रहीं.

तब मैं ने समझाया कि हर सर्दी-जुकाम कोरोना नहीं होता. मैं ने उन्हें कुछ दवाइयां दीं और चौथे दिन वह बिल्कुल स्वस्थ हो गईं. मगर कोरोना के खौफ की बीमारी से अभी भी वह आजाद नहीं हो पाईं हैं.

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