जब भाई का दोस्त छेड़ रहा हो  

दीपक अपनी बहन गीता से 3 साल बड़ा था. वह कालेज के पहले साल में पढ़ रहा था. उस के दोस्त कभीकभार घर भी आ जाते थे. उन में से एक दोस्त का नाम मोहन था जो घर आ कर गीता पर डोरे डालने लगा था.

पहले तो गीता ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन एक दिन जब मौका पा कर मोहन ने गीता का हाथ पकड़ लिया तो वह सावधान हो गई, क्योंकि मोहन की हरकतें उसे पहले से ही अच्छी नहीं लगती थीं, पर गांव के माहौल में वह चुप्पी साध कर बैठ गई.

मोहन को लगा कि गीता की तरफ से हरी झंडी मिल गई है और एक दिन खेत के कच्चे रास्ते पर उस ने गीता को दबोच कर अपनी मनमानी कर दी.

गीता इस कांड से इतनी दुखी हुई कि उस ने गले में चुन्नी लपेट कर खुदकुशी कर ली.

यह कोई एक वारदात नहीं है जब किसी लड़के के दोस्त ने उसी की घर की इज्जत पर डाका डाला हो. हिंदी फिल्मों में तो अकसर अपनी बहन को छेड़ने वाले से लड़ाई दिखाई जाती है, चाहे वह उस का दोस्त ही क्यों न हो.

हां, भाई के दोस्त से प्यार करने में कोई बुराई नहीं है पर असली मुसीबत तो तब होती है जब वह दोस्त छिछोरा निकलता है और उसे लड़की के प्यार से कोई मतलब नहीं होता है.

गीता के मामले में प्यार की कोई गुंजाइश नहीं थी. मोहन के इरादे साफ थे जिन्हें गीता समय रहते नहीं समझ पाई.

तो क्या इस में गीता की गलती थी? नहीं, क्योंकि उसे कुछ कहने या समझने का मौका नहीं मिला था. हां, उस ने इस बारे में अपने भाई को नहीं बताया, जो उस की नादानी या चूक कही जाएगी, जो उस की जिंदगी की सब से बड़ी गलती बन गई.

क्या करें ऐसे छिछोरों का

बहुत से दोस्त अपनी दोस्ती की आड़ में ऐसे गुल खिलाते हैं. ऐसे में भाइयों को भी ध्यान रखना चाहिए कि वे किस तरह के दोस्त बना रहे हैं. मनचले दोस्त पीठ पीछे अपने खास दोस्तों की बहनों को भी नहीं छोड़ते हैं.

अगर कोई लड़का आप के सामने किसी की बहन के बारे में उलटासीधा बोलता है तो वह आप की बहन के बारे में भी ऐसी ही घटिया सोच रखता होगा.

गांवदेहात और छोटे कसबों में तो यह सब करना और भी आसान हो जाता?है, जबकि लड़कियां भाई की इज्जत की खातिर या समाज क्या कहेगा, यह सोच कर चुप रह जाती हैं. पर जब बात बहुत आगे बढ़ जाती है तो वे गीता जैसे बचकाने फैसले ले लेती हैं.

अपनी आवाज उठाएं

इस तरह के मामलों में लड़कियों को खुद आवाज उठानी चाहिए. पहले भाई के दोस्त को समझाएं कि आप को उस की ऐसी बेहूदा हरकतें पसंद नहीं हैं. अगर वह मान जाए तो अच्छा नहीं तो अगली बार भाई को ही बता दें कि तुम्हारा दोस्त कैसी गिरी हुई हरकत कर रहा?है.

बहुत बार तो खुद के धमकाने से ही बात बन जाती है क्योंकि ऐसे मनचले दिल के कमजोर होते हैं. पर कुछ ढीठ भी होते हैं जिन्हें पुलिस की धमकी दे कर शांत कराने की जरूरत पड़ जाती है.

इन बातों का रखें ध्यान

* अगर भाई का दोस्त तंग करता है तो कड़े शब्दों में उस को मना कर दें.

* डरें तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि ऐसे ज्यादातर लड़के बुजदिल होते हैं.

* वह नहीं माने तो सब से पहले अपने भाई को बताएं और उस के बाद उस लड़के के घर में भी यह खबर भिजवा दें.

* अपनी सहेलियों को भी इस बात की जानकारी दें ताकि वे सावधान हो जाएं.

* पुलिस के पास जाने में न झिझकें.

* डर के मारे कोई गलत कदम न उठाएं.

कानून क्या बोले

लड़कियों या औरतों के साथ होने वाली छेड़छाड़ के मामले जब भी कानूनी तौर पर दर्ज होते हैं तो पुलिस अकसर आरोपी के खिलाफ धारा 354 के तहत मुकदमा दर्ज करती है. भारतीय दंड संहिता की धारा 354 का इस्तेमाल ऐसे मामलों में किया जाता है जहां लड़की या औरत की इज्जत को नुकसान पहुंचाने के लिए उस पर हमला किया गया हो या उस के साथ गलत सोच के साथ जोरजबरदस्ती की गई हो.

भारतीय दंड संहिता के मुताबिक, अगर कोई शख्स ऐसा करने का कुसूरवार पाया जाता है तो उसे2 साल तक की कैद या जुर्माना या फिर दोनों की सजा हो सकती है.

अंधविश्वास : पंडों की गिरफ्त में देहात

6 फरवरी, 2018 को मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के गांव गूजरीपुरा में आसपास के तकरीबन 2 दर्जन गांवों के पंच मौजूद थे. खास बात यह थी कि वे सभी कुशवाहा जाति के थे.

मुद्दा बड़ा अजीब था. पिछले साल 28 दिसंबर को शिवनंदन कुशवाहा नाम के एक नौजवान के हाथों एक ठेकेदार महेश शर्मा की हत्या हो गई थी. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. पर इधर आफत उस के घर वालों पर आ पड़ी थी.

शिवनंदन कुशवाहा के मामले में कहा यह गया कि अब शिवनंदन के घर वालों को समाज में रहने और सामाजिक जलसों में शिरकत करने का हक नहीं. लिहाजा, उन का हुक्कापानी बंद कर दिया जाए. मानो कत्ल शिवनंदन ने नहीं बल्कि पूरे घर ने किया हो. 6 फरवरी के जमावड़े में इसी बात का हल निकाला गया कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

ऐसे धुले पाप

शिवनंदन के पिता नकटूराम और मां गोमतीबाई को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन का क्या कुसूर है. यही हालत उन के दूसरे बेटे बालकिशन की थी. वह भी अपने मांबाप की तरह इस बात से डर रहा था कि पंच कोई सख्त फैसला न सुना दें.

दिनभर की कवायद के बाद आखिरकार पंचों ने एकमत हो कर फैसला दिया कि नकटूराम और गोमतीबाई को गंगा स्नान कर रामायण का पाठ करना पड़ेगा. यह कोई तुक की बात नहीं थी इसलिए दबी आवाज में ही सही बालकिशन ने एतराज जताना चाहा लेकिन पंचों के सिर पर तो पंडा बन कर फैसला सुनाने का भूत सवार था इसलिए उन्होंने एक न सुनी. आखिरकार बूढे़ पतिपत्नी ने गंगा स्नान किया और रामायण भी पढ़ी, तब कहीं जा कर उन का पिंड छूटा.

यह पूछने वाला और बताने वाला कोई नहीं था कि अगर बेटे ने हत्या की है तो पूरे घर वाले कैसे अशुद्ध हो गए और गंगा स्नान और रामायण के पाठ से वापस कैसे शुद्ध हो गए? सच तो यह है कि वे अशुद्ध हुए ही नहीं थे, फिर शुद्धि का तो कोई सवाल ही नहीं उठता. दिलचस्प बात यह भी है कि मुकदमा चल रहा था और अदालती फैसला नहीं आया था.

यह था असली मकसद

गांवदेहातों में असल राज कानून का नहीं बल्कि धर्म और पंडों का चलता है, यह इस मामले से एक बार फिर उजागर हुआ. पंचायतें गांवों की तरक्की के लिए सड़कों और अस्पतालों के लिए बैठें तो बात समझ आती है लेकिन पंचायतें अदालत में चल रहे किसी मुकदमे पर बेगुनाह लोगों को पापी कहते हुए मुजरिम करार देने बैठें तो शक होना कुदरती बात है.

असल ड्रामा धर्म का धंधा बनाए रखने का है जिस से गांवों का माहौल बदले नहीं और पंडों का दबदबा कायम रहे. गंगा नहाने और रामायण पढ़ने से शुद्धि आती है, यह बात पिछड़ी कही जाने वाली कुशवाहा जाति को कैसे मालूम?

इस पर कुशवाहा समाज के एक पढ़ेलिखे और सरकारी मुलाजिम रह चुके जीएस सूर्यवंशी का कहना है कि इस के पीछे साजिश पंडों की ही नजर आती है. गांवदेहातों से धर्म का धंधा फैलाने के लिए ही यह नया टोटका रचा गया है.

मुमकिन है, कल को यह रिवाज बन जाए कि अगर किसी पिछड़े दलित ने कोई जुर्म किया है तो उस के घर वालों से भोज भी कराया जाने लगे. ऐसा अभी भी होता है कि पाप मुक्ति के लिए पूजापाठ और भोज के जलसे कराए जाते हैं नहीं तो नकटूराम जैसे बेगुनाहों को समाज और गांव से निकालने की धमकी दी जाती है जिस से वे घबरा उठते हैं.

गांवों में अगर इस तरह के धार्मिक पाखंडों से ही इंसाफ होना है तो कानून और अदालतों की कोई जरूरत नहीं रह जाती. इस से बेहतर तो यह होता कि शिवनंदन को ही 10-20 बार गंगा नहाने और रामायण पढ़ने के लिए कहा जाता जिस से बेचारा जेल जाने से बच जाता और उस का जुर्म भी माफ हो जाता.

कुशवाहा समाज पीढि़यों से दबंगों के खेतों में सागभाजी उगाता रहा है. आजादी के 70 साल बाद इस जाति के कुछ नौजवान पढ़ाईलिखाई कर के नौकरियों में आ रहे हैं. कहने भर के मेहनताने पर दबंगों की मजदूरी करती रही इस जाति में जागरूकता उम्मीद के मुताबिक नहीं आ पा रही है तो गूजरीपुरा जैसे गांवों के ये मामले इस की बड़ी वजह हैं जिस की मार एक कुशवाहा ही नहीं बल्कि तमाम पिछड़ी जातियों पर बराबरी से पड़ रही है.

दलितों को पाप मुक्ति के नाम पर कभी गंगा स्नान और रामायण पढ़ने की सजा नहीं दी जाती क्योंकि उन्हें तो यह हक ही धर्म ने नहीं दिए हैं और अब जिन्हें दिए जा रहे हैं, उन से कीमत भी वसूली जा रही है.

अंधविश्वासों के गुलाम

ज्यादातर गांवों में बिजली पहुंच गई है, सड़कें बन गई हैं, पर जागरूकता किसी कोने से नहीं आ रही तो इस की वजह गांवदेहातों में पसरे तरहतरह के अंधविश्वास हैं जिन्हें पंडेपुजारी और बढ़ाते रहते हैं.

गांव वालों का दिमागी दिवालियापन और पिछड़ापन इसी बात से समझा जा सकता है कि वे गेहूं की उन्नत किस्म बोते हैं लेकिन उस की बोआई का मुहूर्त पूछने पंडित के पास भागते हैं और इस बाबत उसे दक्षिणा भी देते हैं.

शादीब्याह और तेरहवीं में तो पंडों की हाजिरी जरूरी होती ही है लेकिन हैरानी तब होती है जब ये लोग गाय के गुम जाने पर उसे ढूंढ़ते नहीं बल्कि पंडे, तांत्रिक या गुनिया के पास जाते हैं. उस के बताए मुताबिक मवेशी मिल जाए तो उस की पूछपरख बढ़ जाती है नहीं तो किस्मत को कोस कर लोग चुप रह जाते हैं.

इस में चित और पट दोनों पंडों की होती है और हर मामले में रहती है. ये चालाक लोग जो गांवों के पिछड़ेपन के असली गुनाहगार हैं, झाड़फूंक के जरीए और पूजापाठ से बीमारियां ठीक करने का भी दम भरते हैं. भूतप्रेत, पिशाच और ऊपरी बाधा भगाने का काम भी करते हैं जो हकीकत में बड़े पैमाने पर पसरा वहम है. यह वहम भी हर कोई जानता है कि धार्मिक किताबों की देन है.

हर गांव में सालभर कोई न कोई धार्मिक जलसा होता रहता है. रामायण का पाठ तो अब आम बात हो चली है. इस बाबत शहरों की रामायण मंडलियां लाने का ठेका पंडे के पास ही होता है जो तयशुदा दक्षिणा में से अपनी दलाली दोनों तरफ से लेता है.

भागवत कथाएं भी इफरात से होने लगी हैं जिन में भारीभरकम खर्च बैठता है. भागवत कथाएं लोकल पंडा या मंडली नहीं कराती, बल्कि बाहर से नामीगिरामी महाराज बुलाए जाते हैं जिन की फीस भी लाखों रुपए में होती है.

जिस गांव में भागवत कथा होती है वहां आसपास के गांवों के लोग मधुक्खियों की तरह टूट पड़ते हैं और बगैर सोचेसमझे दक्षिणा की शक्ल में पैसा चढ़ा देते हैं. उन्हें लगता है कि भागवत कथा सुनने से उन के पाप धुल जाएंगे और अगले जन्म में उन्हें छोटी जाति में पैदा नहीं होना पड़ेगा.

अब नई चाल मुजरिम के घर वालों को फंसाने की चली जा रही है कि अगर उसे गांव में रहना है तो वह धर्मकर्म करे नहीं तो उसे भगा दिया जाएगा.

इस तरह के फैसलों से फायदा उन पंडों का ही होता है जो पहले ब्रह्म हत्या के बुरे नतीजे गिनाते हैं, फिर उन से बचाने के लिए धार्मिक टोटके बता कर अपनी बादशाहत कायम रखते हैं.

ऐसे फैसलों से गांवों की दशा सुधरने की उम्मीद रखना बेमानी है. गांवों की असली तरक्की तो तभी होगी जब धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों की जकड़न से लोग आजाद हो पाएंगे. ऐसा हो न जाए, इस बाबत क्याक्या छलप्रपंच रचे जाते हैं, इस के लिए एक गूजरीपुरा से नहीं बल्कि लाखों गांवों से मिसालें मिल जाएंगी.

शादियों को मातम में बदलती बेहूदगियां 

साल 2008 की बात है. गरमी का मौसम था. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रामपुर में एक लड़की का शादी समारोह चल रहा था. लड़की को ब्याहने हाजीपुर गांव से बरात आई थी. विवाह का संगीत बज रहा था और बरात के साथ चल रहे लोग फायरिंग कर खुशी का इजहार कर रहे थे.

द्वाराचार के बाद सजाधजा दूल्हा सुनील वर्मा जयमाला कार्यक्रम में जाने की तैयारी में था कि शादी समारोह में फायरिंग कर रहे एक लड़के की लापरवाही से एक गोली दूल्हे के सीने में लग गई. दूल्हे को आननफानन अस्पताल ले जाया गया जहां उस की मौत हो गई.

इसी तरह की एक घटना मध्य प्रदेश के गाडरवारा इलाके में भी हुई थी. इस में जयमाला स्टेज पर दूल्हादुलहन की मौजूदगी में नशे में धुत्त रिश्तेदारों द्वारा पिस्टल से हवाई फायर किए जा रहे थे. इसी हवाई फायर से जयमाला स्टेज पर मौजूद दूल्हे की एक रिश्तेदार आयुषी की गोली लगने से मौत हो गई. 21 साला आयुषी जबलपुर में इंजीनियरिंग की छात्रा थी.

खुशी मनाने के चक्कर में फायरिंग से होने वाली ये घटनाएं बताती हैं कि आज भी हम दिखावे के नाम पर कैसीकैसी बेहूदा परंपराओं को निभा रहे हैं. समाज के हर क्षेत्र में फायरिंग की ऐसी खूनी परंपराएं बंद होने का नाम नहीं ले रही हैं.

मौजूदा दौर में शादीब्याह, लग्न, फलदान, सगाई, जन्मदिन और दूसरे तमाम समारोहों में फायरिंग कर के खुशी का इजहार किया जाता है. इन कार्यक्रमों में नशे में धुत्त रहने वाले लोग जोश में होश खो कर खुशियों के पलों को मातम में बदल देते हैं.

शादीब्याह में फायरिंग का किसी खास धर्म से कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह एक सामंती तबके के रीतिरिवाज की तरह है. राजामहाराजाओं के शासनकाल में राज्याभिषेक और स्वयंवर के समय तोप या बंदूक चला कर राजा की खुशामद की जाती थी.

राजामहाराजाओं की शान में किया जाने वाला यह शक्ति प्रदर्शन उन के वंशजों की अगड़ी जातियों में आज के दौर में भी प्रचलित है. आज भी शादीब्याह में दूल्हे को किसी राजा की तरह सजाया जाता है और एक दिन के इस राजा के सम्मान में गए बराती खुशी का इजहार करने के लिए फायरिंग करते हैं.

पत्रकार और साहित्यकार कुशलेंद्र श्रीवास्तव का कहना है कि पहले जब आतिशबाजी का चलन नहीं था तब से बरात में बंदूक से हवाई फायर किए जाते हैं. उसी परंपरा को आज भी कुछ अगड़ी जाति के लोग समाज में अपना रोब गांठने की गरज से अपनाए हुए हैं. फायरिंग के इस खूनी खेल को आज पिस्टल में कारतूस भर कर खेला जाने लगा है. अगड़ी कही जाने वाली कुछ जातियों में तो बाकायदा गन रखने वाले दलित जाति के नौकरचाकर बरात में साथ चलते हैं.

गन चलाने वाले ये सेवक पेशेवर निशानेबाज नहीं होते, बल्कि घरेलू नौकर होते हैं जो अपने कंधे पर बंदूक टांग कर चलते हैं और बरात में अपने मालिक की सेवाखुशामद करने का काम करते हैं.

शादी समारोहों में वीडियोग्राफी का काम करने वाले अश्विनी चौहान बताते हैं कि विवाह मंडप में सजीसंवरी लड़कियों को प्रभावित करने के लिए यही नौजवान डीजे के कानफोड़ू संगीत में डांस करने के साथ फायरिंग कर के खुद को हीरो साबित करने की होड़ में लग जाते हैं.

शादीब्याह के अलावा दशहरा पर्व पर भी शस्त्र पूजन के नाम पर घातक और खूनी हथियारों का सार्वजनिक तौर पर दिखावा किया जाता है और फायरिंग कर गांवनगरों की शांति को भंग किया जाता है. विभिन्न जाति व समुदायों द्वारा निकाली जाने वाली शोभायात्राओं, चल समारोहों के अलावा धार्मिक पर्वों में भी जश्न के नाम पर की जाने वाली यह फायरिंग जानलेवा साबित हो रही है.

ऐसी फायरिंग करने के मामले में राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं. देश के सभी राज्यों में राजनीतिक दल किसी न किसी बहाने फायरिंग कर लोगों को उकसाने का काम करते हैं. सितंबर, 2018 में जबलपुर में भारतीय जनता युवा मोरचा के एक कार्यक्रम में की गई ऐसी फायरिंग की काफी चर्चा रही थी.

मैरिज पैलेसों पर सख्ती

राज्य सरकारों द्वारा समारोहों में फायरिंग रोकने के लिए नियम तो बनाए गए हैं, पर इन पर अमल होता नहीं दिख रहा. पंजाब सरकार ने नियमों में बदलाव करते हुए प्रावधान किया है कि हथियारों के लाइसैंस बनवाने वाले लोगों को अर्जी में लिखित में देना होगा कि वे किसी भी शादी समारोह या सामाजिक कार्यक्रम में हथियारों का गलत इस्तेमाल नहीं करेंगे.

इस के साथ ही हथियार ले कर मैरिज पैलेस या सामाजिक समारोह में प्रवेश रोकने के लिए मैरिज पैलेसों के प्रवेश द्वार पर मैटल डिटैक्टर लगाने को कहा गया है. इस के लिए मैरिज पैलेसों में कड़े नियम लागू किए हैं.

राज्य सरकार की ओर से कहा गया है कि मैरिज पैलेस में अगर हथियार ले कर किसी शख्स को प्रवेश करने दिया गया तो पैलेस मालिक के खिलाफ केस दर्ज कर उसे गिरफ्तार किया जा सकता है. इस के साथ ही मैरिज पैलेसों के मुख्य परिसरों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश भी दिए गए हैं.

मध्य प्रदेश में भी किसी शादी, पार्टी या समारोह में फायरिंग की कोई भी घटना होने पर संबंधित क्षेत्र के थाना प्रभारी के खिलाफ कार्यवाही करने का ऐलान किया गया है.

चंबल जोन के आईजी संतोष कुमार सिंह ने यह आदेश जारी करते हुए सभी थाना प्रभारियों से कहा है कि वे सख्ती के साथ ऐसी फायरिंग पर रोक लगाने के लिए हथियारों का प्रदर्शन करने वालों पर कार्यवाही करें. ऐसी फायरिंग और सार्वजनिक जगह पर हथियारों के प्रदर्शन को रोकने के लिए कलक्टर ने धारा 144 लागू की है.

कलक्टर के आदेश में कहा गया है कि जिले में कहीं पर भी कोई भी शख्स समारोह में फायरिंग नहीं करेगा, साथ ही शादी, पार्टी या दूसरे किसी समारोह में कोई भी हथियारों का प्रदर्शन नहीं करेगा.

जागरूकता की जरूरत

मुरैना जिले की एक महिला पार्षद रजनी बबुआ जादौन ने अपने बेटे की शादी के कार्ड पर मेहमानों से किसी भी तरह का नशा, शराब का सेवन न करने के साथ ही फायर न करने का संदेश दे कर समाज में एक अच्छी शुरुआत की है. उन्होंने अपने लड़के मानवेंद्र की शादी के कार्ड के कवर पेज पर ऐसा संदेश दिया.

देश में आज भी सामंती व्यवस्था को पालने वाली सामाजिक बुराइयां वजूद में हैं, जो गरीब और दलितों पर रोब जमाने के साथ उन का शोषण करने का काम कर रही हैं. केवल नकल करने के नाम पर किसी जलसे में अपनी झूठी शान को दिखाने वाली इस तरह की परंपराओं का समाज में विरोध होना चाहिए.

ऐसी फायरिंग जानमाल का नुकसान तो करती ही हैं, साथ ही समाज को मालीतौर पर भी खोखला बनाती हैं.

पेट की भूख और रोजगार की तलाश

तलाश आदमी को बंजारे की सी जिंदगी जीने पर मजबूर कर देती है. यह बात राजस्थान और मध्य प्रदेश के घुमंतू  लुहारों और उन की लुहारगीरी को देखने के बाद पता चलती है.

घुमंतू लुहार जाति के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि 500 साल पहले जब महाराणा प्रताप का राज छिन गया था तब उन के साथ ही उन की सेना में शामिल रहे लुहार जाति के लोगों ने भी अपने घर छोड़ दिए थे. उन्होंने कसम खाई थी कि चितौड़ जीतने तक वे कभी स्थायी घर बना कर नहीं रहेंगे.

आज 500 साल बाद भी ये लुहार घूमघूम कर लोहे के सामान और खेतीकिसानी में काम आने वाले औजार बना कर अपनी जिंदगी बिताने को मजबूर हैं. जमाना जितना मौडर्न होता जा रहा है, इन घुमंतू लुहारों के सामने खानेपीने के उतने ही लाले पड़ते जा रहे हैं.

सब से ज्यादा परेशानी की बात है रोटी की चिंता. इन के बनाए औजार अब मशीनों से बने सामानों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं. इस की वजह से इन लोगों के लिए रोजीरोटी कमाना मुश्किल हो गया है. सरकार की योजनाओं के बारे में इन्हें जानकारी नहीं है. इस वजह से ये लोग सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं उठा पाते हैं.

लुहार जाति से जुड़े सुरमा ने कहा कि हमारी जाति के लोग सड़क किनारे डेरा डाले रहते हैं. कब्जा करने के नाम पर हमें खदेड़ा जाता है. एक ओर जहां दूसरी जातियों को घर बनाने के लिए जमीनें दी जा रही हैं, वहीं हमारे लिए न तो पानी का इंतजाम है, न ही शौचालय का. हमारे समाज की बहूबेटियों को असामाजिक तत्त्वों का डर बना रहता है.

इसी समाज की पानपति बताती हैं, ‘‘हम लोगों ने अपने बापदादा से मेहनत की कमाई से ही खाना सीखा है. हमारे पुरखों ने यही काम किया था और हम अब भी यही कर काम रहे हैं.’’

25 साला पप्पू लुहार, जो राजस्थान के माधोपुर का रहने वाला है, ने बताया, ‘‘हम लोग पूरे देश में घूमघूम कर यही काम करते हैं. आम लोगों की जरूरत की चीजें खासकर किसानों, मजदूरों के लिए सामान बनाते और बेचते हैं. हम लोगों का यही खानदानी काम है. हमारे पुरखे सदियों से यही काम करते आए हैं. हम दूसरा काम नहीं कर सकते क्योंकि हम पढ़ेलिखे नहीं हैं. हम लोगों को सरकार से कोई फायदा नहीं मिलता है.’’

मध्य प्रदेश के शिवपुरी से आए सूरज लुहार ने बताया, ‘‘हमारे परिवार में कोई पढ़ालिखा नहीं है. हम ने यही काम सीखा है. हमारे बच्चे हम से सीख रहे हैं. सालभर में 2 महीने बरसात के दिनों में हम अपने गांव में तंबू तान कर रहते हैं. हम लोग जहां भी जाते हैं, फुटपाथ पर ही सोते हैं.

‘‘हमें चोर, सांप, बिच्छू और मच्छर जैसी समस्याओं को झेलना पड़ता है. अनजान जगह पर खुले आसमान के नीचे औरतों के लिए सोना कितना मुश्किल काम है, इसे तो वही समझ सकता है जो उस जिंदगी को जी रहा है.’’

25 साला मदन लुहार की इसी साल शादी हुई है. उसे इस बात का अफसोस है कि वह जब चाहे तब अपनी पत्नी के साथ जिस्मानी संबंध नहीं बना सकता क्योंकि खुले आसमान में वह फुटपाथ पर ही सोता है. अगलबगल में उस के मातापिता व परिवार के दूसरे सदस्य भी सोते हैं ताकि रात में कोई औरतों के साथ गलत काम नहीं कर सके. आपस में जिस्मानी संबंध बनाने के लिए अमावस्या या जिस रात को चांद नहीं दिखाई पड़ता, वे दोनों उस रात का इंतजार करते हैं.

इन लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है. औरतें एनीमिया और बच्चे कुपोषण से पीडि़त दिखाई देते हैं. छोटे बच्चे तो जहां रहते हैं वहां पल्स पोलियो की दवा पी लेते हैं, लेकिन दूसरे टीके इन के बच्चों को नहीं लग पाते. इस की मूल वजह यह है कि ये लोग एक जगह रहते नहीं हैं और न ही टीकाकरण के बारे में इन्हें कोई जानकारी है.

आज इन घुमंतू लुहार जाति के लोगों को सरकारी सुविधाए देने की जरूरत है ताकि इन्हें भी घर, कपड़े, पढ़ाईलिखाई और सेहत जैसी दुनिया की सभी सहूलियतें मिल सकें.

अंधविश्वास की चक्की में पिसती जनता

17वीं सदी तक वैज्ञानिक नजरिए न होने से लोग कई तरह की घटनाओं को ले कर अंधविश्वास के शिकार हो जाया करते थे और इस के  पोषक ओझा, गुनी, पांजियार, पंडेपुरोहित आदि का धंधा बड़ी आसानी से चल निकलता था. तकरीबन 18वीं से 19वीं सदी के अंत तक वैज्ञानिक नजरिया खूब फलाफूला और अंधविश्वास को काफी हद तक नुकसान उठाना पड़ा. 20वीं सदी अंधविश्वास के पोषकों के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी हो गई. इस सदी के अंतिम 4-5 दशकों में बुद्धिजीवी वर्ग ने अनुभव किया कि जो लोग अंधविश्वास के समर्थन में खड़े हैं वे काफी हद तक विचलित हैं. वैज्ञानिक सूझबूझ ने जितनी बड़ी चुनौती इन प्रतिक्रियावादियों के सामने खड़ी की उतने बड़े पैमाने पर ये तत्त्व तर्क, विवेक और वैज्ञानिक धारणाओं पर प्रहार कर रहे हैं.

अंधविश्वास की पोषक शक्तियों (पंडेपुरोहित, ओझा, गुनी, जोगी आदि) के बेतुके तर्कों और हरकतों के पीछे एक अनपढ़ ही नहीं बल्कि अच्छेखासे पढ़ेलिखे लोग खासकर मध्य और उच्चवर्ग के वैज्ञानिक तक भी पड़े हैं. 21वीं सदी के वैज्ञानिक युग में यह बात अच्छेखासे पढ़ेलिखे को भी गुमराह करती है कि आखिर क्यों एक वैज्ञानिक भी अलौकिक घटनाओं और अंधविश्वास की हरकतों का पक्ष लेता है? बस, यहीं पर एक आम आदमी गुमराह हो कर अंधविश्वास को हवा दे रहा है.

अंधविश्वास से जुड़े मूर्खतापूर्ण विचारों और तर्कहीन कामों को एक भरमाने वाला नाम दे दिया गया है, आस्था.

इस से जुड़ी एक घटना याद आती है. पटना में ओझागुनी सम्मेलन हुआ था जिस में अंधविश्वास को बढ़ावा देने वालों को सम्मान दे कर खुलेआम अंधविश्वास को हवा दी गई थी. देखा जाए तो यह एक तरह से विज्ञान की अति सूक्ष्म खोजों को ठेंगा दिखाने का असफल प्रयास है. 21वीं सदी में अंधविश्वास को बढ़ावा देती यह सामाजिक घटनाएं यही सोचने पर मजबूर करती हैं कि कितनी मानव शक्ति, पैसा और समय जैसे संसाधन ऊलजलूल बातों और धारणाओं पर बरबाद हो रहे हैं.

अंधविश्वास के बलबूते  कमानेखाने वालों की चांदी है तो यह आज के वैज्ञानिक युग में हताशा का ही नतीजा है ताकि नेताओं, मंत्रियों और तथाकथित वैज्ञानिकों को साजिशवश शामिल कर आम लोगों को गुमराह किया जाए. कारण यह कि आम जन की भेड़चाल की बैसाखियों के बिना अंधविश्वास का धंधा फलफूल ही नहीं पाता.

कमाई के जरिए को सूखता देख कर ही धर्म के नाम पर दानपुण्य और चढ़ावे आदि का प्रचारप्रसार पिछले 2-3 दशकों से काफी हद तक फलफूल रहा है.

आम जनता को धन के मोह से दूर रहने का उपदेश देने वाले वैभव और सुखसुविधाओं के सागर में आकंठ डूबे हुए हैं. धर्म के नाम पर ठगी के अनेक अड्डे जगहजगह खुल रहे हैं.

मनोवैज्ञानिक भूमिका

अंधविश्वास की जड़ में 2 बातें खासकर देखी जाती हैं. एक तो डर और दूसरा लालच. इनसान के जीवन में अचानक ही कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जिन को वैज्ञानिक तर्कों पर आसानी से साबित कर पाना कठिन होता है और यहीं से अंधविश्वास की शुरुआत होती है. प्राकृतिक प्रकोप जैसे सूखा, तूफान, आकाशीय बिजली का गिरना, भूचाल आदि के डर ने इंसान को शुरू से ही अंधविश्वास की ओर धकेला है.

इनसान ने कभी इन कुदरती घटनाओं पर मगजखपाई नहीं की है और उस की इन्हीं मनोवैज्ञानिक कमजोरियों का फायदा आस्था का सहारा ले कर धर्म, तंत्रमंत्र, जादूटोना से जुड़े लोग अकसर उठाते रहे हैं. कुदरती घटनाओं को दैवीय प्रकोप का नाम व डर दे कर इस से जुड़े लालची लोगों के बहकावे में आम लोग आ जाते हैं.

कई बार पढ़ेलिखे लोग अंधविश्वास से जुड़ी बातों की खोजबीन करने की कोशिश भी करते हैं और इस बारे में सवाल भी उठाते हैं मगर धर्मशास्त्र के  नाम पर बेतुके तर्क दे कर धर्म और तंत्रमंत्र से जुड़े लोग उन्हें ऐसा मूर्ख बनाते हैं कि लोग आसानी से उन की बातों के जाल में फंसते चले जाते हैं. जैसे अगर कोई पूछे कि दिव्यदृष्टि नामक भ्रामक अवधारणा की क्या परिभाषा है? इस के उत्तर में कह दिया जाता है कि दिव्यदृष्टि आज की दूरबीन से भी उत्कृष्ट दरजे की वैज्ञानिक खोज थी और यह कि आज का विज्ञान, पुराने समय के विज्ञान से बहुत पीछे है.

राजनीतिक भूमिका

स्वार्थ से भरी राजनीति, धार्मिक अनुष्ठान और इस से जुड़ा अंधविश्वास आज के समय में गिरते नैतिक मूल्यों के साथ इतने घुलेमिले हैं कि एक के अभाव में दूसरा अधूरा लगता है. हम कह सकते हैं कि जिस तरह धार्मिक अनुष्ठानों से अंधविश्वास का चोलीदामन का साथ है उसी तरह आज की शोषक राजनीति धर्म के बिना अधूरी है. यह स्थिति चिंताजनक है लेकिन समस्या यह है कि आज की गंदी राजनीति अंधश्रद्धा के बगैर चल भी तो नहीं पा रही है. धर्म के  शोरशराबे को सत्ता के गलियारों से भी खादपानी मिलता है.

स्वार्थ से भरी राजनीति करने वाले जनता का ध्यान मूल समस्याओं से हटाने के लिए धर्म को एक कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. आज की घोटालेबाज राजनीति के लिए धर्म और अंधविश्वास का शोर एक अनिवार्यता बनता जा रहा है. आवाम के तर्क और विवेक को मारने के लिए अंधविश्वास एक ताकतवर हथियार का काम करता है.

लालच से जुड़ी वोटबटोरू नीति हमारे राजनीतिबाजों को अंधविश्वास फैलाने वाले साधुसंतों की शरण लेने को बाध्य करती है ताकि उन के पिछलग्गुओं के वोट संत के माध्यम से उन की झोली में पड़ते रहें. इसीलिए अंधविश्वास के प्रदर्शनों में राजनीतिबाज हिस्सा लेते देखे जाते हैं.

आर्थिक भूमिका

अनुचित लाभ अंधविश्वास की आर्थिक भूमिका है. जैसेजैसे भेड़चाल के चलते तर्र्कविहीन लोग अंधविश्वास के शिकार हो रहे हैं वैसेवैसे अंधविश्वास के धंधेबाजों की कमाई बढ़ती जा रही है.

दैवीय प्रकोप जैसी डरावनी बातों के चलते हमेशा ही अंधविश्वास फैलाने वालों की चारों उंगलियां घी में रही हैं. आज के समय की स्थिति यही है कि ईमानदारी की दुकानदारी से शायद ही इतना धन जमा हो सके जितना कि धर्म के नाम पर जमा होता है.

अंधविश्वास के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण कैसे विकसित होगा? यह सवाल ही मुख्य समस्या है. इस का एकमात्र हल शिक्षा ही हो सकती है. अंधविश्वास के पीछे भी कई वैज्ञानिक तथ्य छिपे होते हैं. जरूरत है उन्हें खोजने की और अंधविश्वास के विरोध में एक विश्वव्यापी आंदोलन चलाने की.

शराब पीने का बहाना चाहिए

कहते हैं कि पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए. चाहे सुख हो या दुख, शादीब्याह हो या जन्मदिन की दावत, शराब पीने वालों को पीने का बहाना मिल ही जाता है.

आजकल तो यह अकसर ही देखने को मिलता है कि होलीदीवाली जैसे तीजत्योहारों या दूसरी तरह के उत्सवों में कुछ लोग शराब पी कर नशे में धुत्त हो जाते हैं.

यहां आदतन शराब पीने वालों की चर्चा नहीं की जा रही है, बल्कि उन नौसिखियों या बहानेबाजों की बात हो रही है जो हर तरह के मौकों को शराब से जोड़ देते हैं.

हमारे समाज में आजकल किसी न किसी बहाने शराब पीनेपिलाने का चलन जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह ठीक नहीं है.

पुराने समय से है चलन

हमारे समाज में एक दंतकथा सुनीसुनाई जाती है कि शराब (मदिरा) समुद्र मंथन से देवों और असुरों द्वारा निकाली गई थी और उस समय इस का नाम ‘सुरा’ रखा गया था. तब से लोग इस का सेवन करते आ रहे हैं.

कुछ प्राचीन ग्रंथों में देवों द्वारा ‘सोम’ नामक नशीले पेय का सेवन करने और असुरों द्वारा ‘सुरा’ का सेवन किए जाने की बात लिखी हुई है यानी शराब दोनों वर्गों में अलगअलग नाम से पसंदीदा रही है.

सचाई क्या है, यह अलग बात है, पर इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ‘सुरा’ या ‘सोम’ के नाम से शराब का सेवन पुराने समय में भी होता था, लेकिन उस समय भी इस का सेवन अच्छा नहीं माना जाता था. प्राचीन ग्रंथों में इन के सेवन से बचने की बातों के जिक्र से इस बात की तसदीक होती है.

स्टेटस सिंबल है पीना

वर्तमान समय में शराब एक फैशन की तरह समाज में अपनी हैसियत बना चुकी है. बस, इस हैसियत को और हवा देने के लिए कोई बहाना मिलना चाहिए. बात तो यहां तक आ पहुंची है कि कुछ लोगों को कोई महफिल, जश्न या गम शराब के बिना अधूरा या फीकाफीका सा महसूस होता है.

अब तो ‘कौकटेल पार्टी’ भी हमारे समाज में अपनी अच्छीखासी जगह बना चुकी है. इस पार्टी की अपनी एक अलग खासीयत है. यह अमीरी की निशानी मानी जा रही है.

क्या शराब का इस तरह समाज पर हावी होना इनसान और समाज के लिए अच्छा है? यकीनन, इस सोच को अच्छा नहीं माना जा सकता.

लोग शादीब्याह में शराब पीते हैं. दावतों व त्योहारों पर शराब पीते हैं. यहां तक कि बहुत से अपने बड़ेबुजुर्गों व मातापिता का भी लिहाज नहीं करते हैं.

शराब अपने शबाब पर आते ही माहौल को बड़ा दुखद या मजेदार बना देती है. पीने वालों की हरकतों को देख कर हंसी के साथ गुस्सा भी आता है, वे कैसीकैसी गैरवाजिब हरकतें करते हैं और नशा हिरन होते ही दो लफ्जों में बड़ी बेशर्मी से ‘सौरी’ या ‘ज्यादा हो गई’ कह कर अपनी घटिया हरकतों से नजात पा लेते हैं.

लेकिन क्या चंद लोगों की बुरी आदत की वजह से औरों का भी मजा किरकिरा कर दिया जाए? अगर ‘अंगूर की बेटी’ की चाहत वालों का यह मानना है कि शराब के बिना कोई जश्न या त्योहार फीका है, तो उन्हें चाहिए कि वे किसी शराबखाने में बैठें और जी भर कर शराब पीएं.

होती हैं बीमारियां

आज पहले के बजाय लोग ज्यादा पढ़ेलिखे और समझदार हो गए हैं. उन्हें मालूम है कि शराब जहां हमारा माली नुकसान करती है, वहीं इस के सेवन से अनेक घातक रोग भी होते हैं.

शराब पीने से इनसान का नैतिक पतन तो होता ही है, साथ ही आने वाली पीढ़ी उन से अच्छी प्रेरणा के बजाय गलत आदतें सीखती है.

आज की नौजवान पीढ़ी व किशोरों में शराब फैशन की तरह अपनाई जा रही है. शादीब्याह में तो लोग शराब के नशे में घंटों नाचते देखे जा सकते हैं.

यह ठीक है कि शादीब्याह खुशी के मौके होते हैं. उन में नाचनागाना और खुशी का इजहार करना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन बिना शराब के यह मुमकिन है क्या?

शौकिया पीने वालों में एक अफवाह और प्रचलित है कि शराब भूख अच्छी लगाती है, सेहत बनाती है, इस से सर्दीजुकाम दूर होता है. ये सब तर्कसंगत बातें नहीं हैं, बल्कि शेखचिल्ली वाली बातों से मिलतीजुलती भ्रांतियां हैं.

त्योहार या उत्सव ऐसे मौके होते हैं, जब हर आदमी अपने परिचितों से मिलताजुलता है. ऐसे में कोई शराब जैसी घटिया चीज पी कर ‘कार्टून’ बन कर ऊधम मचाए, क्या यह अच्छा लगेगा? कभी नहीं.

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