तलाश आदमी को बंजारे की सी जिंदगी जीने पर मजबूर कर देती है. यह बात राजस्थान और मध्य प्रदेश के घुमंतू  लुहारों और उन की लुहारगीरी को देखने के बाद पता चलती है.

घुमंतू लुहार जाति के इतिहास के बारे में बताया जाता है कि 500 साल पहले जब महाराणा प्रताप का राज छिन गया था तब उन के साथ ही उन की सेना में शामिल रहे लुहार जाति के लोगों ने भी अपने घर छोड़ दिए थे. उन्होंने कसम खाई थी कि चितौड़ जीतने तक वे कभी स्थायी घर बना कर नहीं रहेंगे.

आज 500 साल बाद भी ये लुहार घूमघूम कर लोहे के सामान और खेतीकिसानी में काम आने वाले औजार बना कर अपनी जिंदगी बिताने को मजबूर हैं. जमाना जितना मौडर्न होता जा रहा है, इन घुमंतू लुहारों के सामने खानेपीने के उतने ही लाले पड़ते जा रहे हैं.

सब से ज्यादा परेशानी की बात है रोटी की चिंता. इन के बनाए औजार अब मशीनों से बने सामानों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं. इस की वजह से इन लोगों के लिए रोजीरोटी कमाना मुश्किल हो गया है. सरकार की योजनाओं के बारे में इन्हें जानकारी नहीं है. इस वजह से ये लोग सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं उठा पाते हैं.

लुहार जाति से जुड़े सुरमा ने कहा कि हमारी जाति के लोग सड़क किनारे डेरा डाले रहते हैं. कब्जा करने के नाम पर हमें खदेड़ा जाता है. एक ओर जहां दूसरी जातियों को घर बनाने के लिए जमीनें दी जा रही हैं, वहीं हमारे लिए न तो पानी का इंतजाम है, न ही शौचालय का. हमारे समाज की बहूबेटियों को असामाजिक तत्त्वों का डर बना रहता है.

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