वह कौन थी

लेखक- शरोवन

अमरनाथ ने अपने हाथ में पकड़े पत्र को एक बार फिर से पढ़ लेना चाहा. उन की बूढ़ी आंखों से आंसुओं की 2 बूंदें अपनेआप टपक कर पत्र पर फैल गईं. पत्र में भेजे संदेश ने अमरनाथ को उन के भोगे हुए दिनों में बहुत पीछे तक ऐसा धकेल कर रख दिया था कि उन्हें लगा जैसे पत्र में लिखे हुए सारे के सारे अक्षर उन के जिस्म के चप्पेचप्पे से चिपक गए हों. अमरनाथ के लिए सब से अधिक तकलीफदेह जो बात थी वह यह कि पत्र लिखने वाली ने अपने जीवन में पत्र लिखा तो था, लेकिन उस को डाक में डालने का आदेश नर्सिंग होम की निदेशिका को अपने मरने के बाद ही दिया था. जब तक यह पत्र अमरनाथ को मिला इसे लिखने वाली इस संसार को अंतिम नमस्कार कर के जा चुकी थी.

खुद को किसी प्रकार संभालते हुए अमरनाथ ने एक बार फिर से पत्र को पढ़ा. पत्र के शुरू में उन का नाम लिखा था, ‘एमर.’

स्टैसी अमरनाथ को ‘अमर’ के स्थान पर ‘एमर’ नाम से ही संबोधित किया करती थी.

मैं जानती हूं कि मेरा यह अंतिम पत्र न केवल तुम्हारे लिए मेरा अंतिम नमस्कार होगा बल्कि शायद तुम को बहुत ज्यादा तकलीफ भी दे. जब चलते- चलते थक गई और दूर कब्रिस्तान की तनहाइयों में सोए लोगों की तरफ से मुझ को बुलाने की आवाजें सुनाई देने लगीं तो सोचा कि चलने से पहले तुम से भी एक बार मिल लूं. आमनेसामने न सही, पत्र के द्वारा ही.

तुम्हारे भारत लौट जाने के बाद मैं कितनी अधिक अकेली हो चुकी थी, यह शायद तुम नहीं समझ सकोगे. तुम क्या गए कि जैसे मेरा घर, मेरा बगीचा और घर की समस्त वस्तुएं तक वीरान हो गईं. ऐसा भी नहीं था कि मैं जैसे तुम्हारे वियोग में वैरागन हो गई थी अथवा तुम को प्यार करती थी. हां, तुम्हारी कमी अवश्य मुझ को परेशान कर देती थी. वह भी शायद इसलिए कि मैं ने तुम्हारे साथ अपने जीवन के पूरे 8 वर्ष एक ही छत के नीचे गुजारे थे.

जीवन के इतने ढेर सारे दिन हम दोनों ने किस रिश्ते से एकसाथ जिए थे? मैं आज तक इस रिश्ते को कोई भी नाम नहीं दे सकी हूं. अकसर सोचा करती थी कि हमारा आपस में कोई भी शारीरिक संबंध नहीं था. एक ही देश में जन्म लेने का भी कोई नाता नहीं था. मन और भावनाओं से भी प्रेमीयुगल की अनुभूति जैसा भी कोई रिश्ता हम नहीं बना सके थे. मैं कहां और तुम कहां, लेकिन फिर भी हम एकदूसरे के काम आए. आपस में साथसाथ बैठ कर हम ने अपनाअपना दुख बांटा, एक- दूसरे को जाना, समझा और परस्पर सहायता की. शायद इतना सबकुछ ही काफी होगा अपने परस्पर बनाए हुए उन बेनाम संबंधों के लिए, जिस के स्नेहबंधन की डोर का एक सिरा तुम थामे रहे और एक मैं पकड़े रही.

दुनिया का रिवाज है कि किसी एक को एक दिन डोर का एक सिरा छोड़ना ही पड़ता है. तुम अपनत्व की इस डोर का एक छोर पकड़े अपने वतन चले गए और मैं अपना सिरा थामे यहां बैठी रही. पर अब मैं इस स्नेह बंधन की डोर का एक छोर छोड़ कर जा रही हूं, इस विश्वास के साथ कि इनसान के स्नेहबंधन का सच्चा नाता तो उस डोर से जुड़ता है जो विश्वास, अपनत्व और निस्वार्थ इनसानियत के धागों से बुनी गई होती है.

कितनी अजीब बात है कि हम दोनों का जीवन एक सा लगता है. आपबीती भी एक जैसी है. हम दोनों के अपनेअपने खून के वे रिश्ते जो अपने कहलाते थे, वे भी अपने न बन सके और जिसे हम दोनों जानते भी न थे, जिस के बारे में कभी सोचा भी नहीं, उसी के साथ अपनी खोई और बिखरी हुई खुशियां बटोर कर हम ने अपना जीवन सहज कर लिया था.

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पत्र पढ़तेपढ़ते अमरनाथ की आंखें फिर से भर आईं. जीवन से थके शरीर की बूढ़ी और उदास आंखों को अमरनाथ ने अपने हाथ से साफ किया और फिर सोचने लगे अपने जीवन के उस पिछले सफर के बारे में, जिस में वह कभी हालात के मारे हुए एक दिन स्टैसी के साथसाथ कुछ कदम चले थे.

अमरनाथ उस दिन कितने खुश थे जब उन का सब से बड़ा लड़का नीतेश अमेरिका जाने के लिए हवाई जहाज में बैठा था. नीतेश ने इंजीनियरिंग की थी सो उस को केवल थोड़ी सी अतिरिक्त पढ़ाई अमेरिका में और करनी पड़ी थी. और एक दिन अमेरिका की मशहूर कोक कंपनी में इंजीनियर का पद पा कर वहां हमेशा रहने के लिए अपना स्थान पक्का कर लिया. 2 साल के बाद नीतेश भारत से शादी कर के अपनी पत्नी नीता को भी साथ ले गया.

नीतेश के अमेरिका में व्यवस्थित होतेहोते उस के दोनों छोटे भाई रितेश और मीतेश भी वहां आ गए. उन्होंने भी भारत में आ कर शादी की और फिर अमेरिका में अपनी- अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त हो गए.

अब अमरनाथ के पास केवल उन की एक लड़की रिनी बची थी. एक दिन उस का भी विवाह हुआ और वह भी अपने पति के घर चली गई. इस तरह घर में बच गए अमरनाथ और उन की पत्नी. वह किसी प्रकार जीवन की इस नाव की पतवार को संभाले हुए थे.

आराम और सहारे की तलाश करता अमरनाथ का बूढ़ा शरीर जब और भी अधिक थकने लगा तो उन्हें एक दिन एहसास हुआ कि लड़कों को विदेश भेज कर कहीं उन्होंने कोई भूल तो नहीं कर दी है.

एक दिन उन की पत्नी रात को सोने गईं और फिर कभी नहीं जाग सकीं. सोते हुए ही दिल का दौरा पड़ने से वह सदा के लिए चल बसी थीं. पत्नी के चले जाने के बाद अब अमरनाथ नितांत अकेले ही नहीं बल्कि पूरी तरह से असहाय भी हो चुके थे.

अपने अकेलेपन से तंग आ कर एक दिन अमरनाथ ने बच्चों को वापस भारत आने का आग्रह किया. तब आग्रह पर उन के लड़कों ने उन्हें जो जवाब दिया उस में विदेशी रहनसहन और पाश्चात्य रीति- रिवाजों की बू थी. जिस देश और समाज के वे अब बाशिंदे बन चुके थे उस में विवेक कम और झूठी प्रशंसा के तर्क अधिक थे. बच्चों की दलीलों को सुन कर अमरनाथ ने अपने किसी भी लड़के से दोबारा वापस भारत आने के लिए न तो कोई आग्रह किया और न ही कोई जिद.

अपने बच्चों की दलीलें और बातें सुन कर अमरनाथ ने चुप्पी साध लेना ही उचित समझा था. वह चुप हो गए थे और अपने तीनों लड़कों से बात तक करनी बंद कर दी. ऐसे में लड़कों का कोई पत्र आता तो वह उत्तर ही नहीं देते. फोन आता तो या तो उठाते ही नहीं और यदि कभी भूलेभटके उठा भी लिया तो ‘व्यस्त हूं, बाद में फोन करूंगा’ कह कर वह बात ही नहीं करते थे. अंत में उन के लड़कों को जब एहसास हो गया कि पिताजी उन के रवैए से नाराज हैं तो उन की कभीकभार आने वाली टेलीफोन की घंटियां भी सुनाई देनी बंद हो गईं.

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यह सिलसिला बंद हुआ तो अमरनाथ की जिंदगी के कटु अनुभवों के गुबारों में स्वार्थी संतान की यादों और स्मृतियों की कसक अपनेआप ही धूमिल पड़ने लगी. उन्होंने हालात से समझौता कर के स्वयं को अपने ही हाल पर छोड़ दिया.

एक दिन अचानक ही उन का सब से छोटा लड़का मीतेश बगैर अपने आने की सूचना दिए घर आया तो वर्षों बाद संतान का मुख देखते ही अमरनाथ का सारा गुस्सा पलक झपकते ही हवा हो गया. उन्होंने सारे गिलेशिकवे भूल कर मीतेश को अपने सीने से लगा लिया. फिर जब मीतेश ने अपना भारत आने का सबब बताते हुए यह कहा कि वह उन को अमेरिका ले जाने के लिए भारत आया है, उन्हें बाकी जीवन के दिन अपने बच्चों के साथ व्यतीत करने चाहिए तो अमरनाथ ने अपने स्वाभिमान और जिद के सारे हथियार डाल दिए. और एक दिन मीतेश की सलाह पर उन्होंने अपनी कपड़े की दुकान और पुश्तैनी मकान बेच दिया. इस से जो पैसा मिला उसे बैंक में जमा कर दिया. इस तरह अमरनाथ एक दिन विदेश की उस भूमि पर सदा के लिए बसने आ गए जिस का बखान उन्होंने अब तक किताबों और टेलीविजन में देखा और पढ़ा था.

अमरनाथ को अमेरिका में अपने लड़के के घर में रहते हुए 1 वर्ष होने को आया था और इस 1 वर्ष में उन्होंने क्या कुछ काम नहीं किया. वह व्यक्ति जिस ने कभी भारत में रहते हुए एक गिलास पानी खुद ले कर नहीं पिया अब वह अपनों के आदेश पर खाना बनाने और उन्हें पानी पिलाने पर विवश था. जिस ने अपने घर में रहते हुए कभी अपना एक रूमाल तक नहीं धोया था वह अमेरिका आ कर बेटे के घर में नौकरों की तरह सारे घर के कपड़े धोया करता. इस के अलावा मीतेश के दोनों बच्चों की देखभाल, उन का कमरा ठीक करना, उन्हें खानापानी देना, उन के स्कूल जाने के समय उन्हें स्कूल बस तक छोड़ने जाना और स्कूल से वापस आने के समय उन्हें घर लाने के लिए अपना अतिरिक्त समय देना, अब अमर के लिए हरेक दिन की साधारण सी बात हो चुकी थी.

इस बीच जरूरत से अधिक काम करने तथा बढ़ती हुई उम्र के हिसाब से शरीर पर अधिक भार पड़ने से अमरनाथ एक दिन बीमार हो गए. साधारण दवाओं से ठीक नहीं हुए तो मजबूर हो कर उन्हें डाक्टर को दिखाना पड़ा. डाक्टर की सलाह पर उन्हें अस्पताल मेें कुछ दिनों तक रखना पड़ा. इस से एक अतिरिक्त आर्थिक भार और अपना अतिरिक्त समय भी देने की परेशानी मीतेश व उस की पत्नी के ऊपर आ गई.

अमरनाथ का कोई अलग से चिकित्सा बीमा तो था नहीं, इसलिए उन की आर्थिक सहायता के लिए जब मीतेश ने अमेरिकी सरकार के सोशल सिक्यूरिटी कार्यालय में अर्जी दायर की तो वहां से भी यह कह कर मना कर दिया गया कि यह सुविधा अब केवल उन प्रवासियों को ही उपलब्ध है जिन्होंने अमेरिका में अपने सोशल सिक्यूरिटी नंबर के साथ बाकायदा लगभग 3 वर्ष तक कार्य किया होगा.

यह पता चलने के बाद मीतेश और उस की पत्नी दोनों के ही सोचे हुए मनसूबों पर पानी फिर गया क्योंकि उन्होंने सोचा था कि अमरनाथ को अपने पास बुला कर रखने पर 2 प्रकार की सुविधाएं उन्हें स्वत: ही मिल जाएंगी. एक तो उन के दोनों बच्चों को देखने के लिए निशुल्क बेबी सिटर का प्रबंध हो जाएगा, जिस से लगभग 400 डालर उन के प्रतिसप्ताह बचा करेंगे और साथ ही अमरनाथ को सरकार के द्वारा मिलने वाली प्रतिमाह कम से कम 500 डालर की सोशल सिक्यूरिटी की आर्थिक सहायता भी मिलती रहेगी. इस बात का पिता को तो कुछ पता नहीं चल पाएगा, सो एक पंथ दो काज वाली कहावत भी ठीक काम करती रहेगी.

अमरनाथ के लिए मीतेश जब सोशल सिक्यूरिटी का लाभ न ले सका और साथ ही उन के बीमार हो जाने पर उन की चिकित्सा का एक अतिरिक्त खर्च भी उस पर आ पड़ा तो उस के व उस की पत्नी के बदले स्वभाव को अमरनाथ की बूढ़ी अनुभवी आंखों ने पहचानने में देर नहीं लगाई. वह समझ गए कि अब उन का अपने बेटे और बहू के घर में रहना उन दोनों के लिए बोझ बन चुका है.

इस के साथ ही अमरनाथ को यह समझते देर नहीं लगी कि मीतेश का अचानक  से भारत आना और उन को अपने साथ अमेरिका ले जाना मात्र उस का उन के प्रति प्रेम और अपनत्व का एक झूठा लगाव ही था. सच तो यह था कि मीतेश और उस की पत्नी को केवल अपने दोनों बच्चों की देखभाल के लिए उन की जरूरत थी और अब उन के बच्चे बड़े हो गए हैं तो बूढ़ा लाचार बाप, बेटे व बहू के लिए बोझ हो चुका है.

एक दिन अमरनाथ ने मीतेश से कहा, ‘मेरा यहां रहने से कोई मतलब तो निकलता नहीं है, बेहतर होगा कि मुझे भारत भेजने का प्रबंध कर दो.’

यह सुनते ही मीतेश का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. वह चिल्ला कर बोला था, ‘क्या समझ रखा है आप ने हमें. कुबेर का खजाना तो नहीं मिल गया है कि जिसे जब चाहे जितना खर्च कर लो. पूरे 1,500 डालर से कम का हवाई जहाज का टिकट तो आएगा नहीं. कहां से आएगा इतना पैसा? हम अपने को बेच तो नहीं देंगे. यहां घर में आराम के साथ चुपचाप पड़ेपड़े रोटियां तोड़ने में भी कोई तकलीफ होने लगी है क्या?’

‘तो फिर मुझे नीतेश या रीतेश के पास ही भेज दो. कम से कम आबोहवा तो बदलेगी,’ अमरनाथ ने साहस कर के आगे कहा तो मीतेश पहले से भी अधिक झुंझलाता हुआ उन से बोला था, ‘मैं ने उन दोनों को फोन किया था. उन दोनों में से कोई भी आप को रखने के लिए तैयार नहीं है. उन का कहना है कि मैं ही आप को ले कर आया हूं, सो इस मुसीबत को केवल मैं ही जानूं और भुगतूं.’

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मीतेश के  मुंह से यह अनहोनी बात सुन कर अमरनाथ ने अपना माथा एक बार फिर से पीट लिया. वह समझ गए कि किसी से कुछ भी कहना और सुनना बेकार ही साबित होगा. वह उस घड़ी को कोसने लगे जब बेटे की बातों में आ कर उन्होंने अपना देश और अपनों का साथ छोड़ा था. एक आह भर कर उन्होंने अपने को पूरी तरह हालात के हवाले छोड़ दिया.

एक दिन बहू अमरनाथ को बड़े ही भोलेपन से अपने साथ स्टोर घुमाने यह कह कर ले गई कि उन का भी मन बहल जाएगा. वैसे भी घर में सदा बैठे रहने से इनसान का मन खराब होने लगता है. स्टोर में खरीदारी करते समय बहू उन से यह कह कर बाहर आ गई कि वह अपना मोबाइल फोन घर पर भूल आई है और उस को मीतेश को फोन कर के यह बताना है कि वह बच्चों को स्कूल से ले आएं.

इतना कह कर मीतेश की पत्नी स्टोर से बाहर निकल कर जो गई तो फिर वह कभी भी उन के पास वापस नहीं आई. बेचारे अमरनाथ अकेले स्टोर का एकएक कोना घूमघूम कर थक गए. फिर जब उन से कुछ भी नहीं बन सका तो थकहार कर स्टोर के बाहरी दरवाजे के पास पड़ी एक बैंच पर बैठ कर अपनी बहू के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगे.

इस प्रकार प्रतीक्षा करतेकरते, भूखे- प्यासे उन को शाम हो गई. अंगरेजी आती नहीं थी कि वह अपना दुख किसी को बताते और जो 1-2 भारतीय वहां दिख जाते तो वे केवल उन की ओर मुसकरा कर देखते और आगे बढ़ जाते. उन की जेब में मात्र 2 डालर पडे़ थे, सोचा कि फोन कर लें मगर उन्हें फोन नंबर भी याद नहीं था. कभी भूले से भी उन्होंने नहीं सोचा था कि एक दिन उन की यह नौबत आ जाएगी.

बैठेबैठे परेशान से जब रात घिर आई और स्टोर भी बंद होने को आया तो अमरनाथ की समझ में आया कि वह यहां संयोग से अकेले नहीं छूटे हैं बल्कि उन्हें जानबूझ कर छोड़ा गया है. सो इस प्रकार की मनोवृत्ति को अपनी ही संतान के रक्त में महसूस कर अमरनाथ फफकफफक कर रो पडे़. उन की दशा और उन को रोते हुए कुछेक लोगों ने देखा मगर किसी ने भी उन से रोने का कारण नहीं पूछा.

ऐसे समय में स्टैसी नामक महिला स्टोर से बाहर निकली और अमरनाथ को यों रोते, आंसू बहाते देख उन के पास आ गई. बड़ी देर तक वह एक अनजान, भारतीय बूढ़े की परेशानी जानने का प्रयत्न करती रही. जब उस से नहीं रहा गया तो वह अमरनाथ को संबोधित करते हुए बोली, ‘ऐ मैन, व्हाई आर यू क्राइंग?’

स्टैसी के यों हमदर्दी दिखाने पर अमरनाथ पहले से और भी अधिक जोरों के साथ रोने लगे. स्टैसी समझ गई कि इस आदमी को अंगरेजी नहीं आती है अत: वह तुरंत वापस स्टोर में गई और वहां से एक लड़की, जो भारतीय दिखती थी और उसी स्टोर में क्लर्क का काम कर रही थी, को अपने साथ बुला कर बाहर लाई. बाद में उस लड़की के द्वारा बातचीत से स्टैसी को अमरनाथ के सामने आई हुई समस्त परिस्थिति की जानकारी हो सकी. चूंकि अमरनाथ को अपने लड़के और बहू के घर का न तो कोई पता मालूम था औैर न ही कोई फोन नंबर याद था, इस कारण स्टैसी ने नियमानुसार पहले तो स्थानीय पुलिस को फोन किया, फिर बाद में आवश्यक पुलिस काररवाई के बाद वह अमरनाथ को अपनी निगरानी में अपने घर ले आई. घर आ कर सब से पहले उस ने दिन भर के भूखेप्यासे अमरनाथ को खाना खिलाया. इस के बाद उस ने उन से उन की टूटीफूटी अंगरेजी में अतिरिक्त जानकरी भी प्राप्त कर ली.

अब अमरनाथ अमेरिकी स्त्री स्टैसी के साथ रहने लगे. स्टैसी की भी कहानी कुछकुछ उन्हीं के समान थी. उस के भी बच्चे और पति सब थे मगर जैसे उन में से किसी को भी किसी से कुछ भी सरोकार नहीं था. स्टैसी का पति किसी दूसरी स्त्री के साथ रहता था और बच्चे भी अमेरिकी जीवन के तौरतरीकों के अनुसार रहते थे, जो अपनी मां से भूलेभटके किसी त्योहार आदि पर मिल गए तो ‘हैलो’ हो गई.

स्टैसी का घर काफी बड़ा था, सो उस ने एक कमरे में अमरनाथ के रहने का प्रबंध कर दिया था. अमरनाथ का मन अपने बच्चों की तरफ से न केवल उदास और दुखी हो चुका था बल्कि एक प्रकार से पूरी तरह से टूट भी गया था. एक दिन जब अमरनाथ ने स्टैसी से भारत जाने की बात कही तो उस ने भी हवाई जहाज के टिकट का खर्चा तथा अन्य खर्चों की बात उन के सामने रख दी.

अमेरिका आ कर यों भारत लौट जाना आसान नहीं था. स्टैसी खुद भी एक रिटायर महिला थी. किसी प्रकार सोशल सिक्यूरिटी के द्वारा मिलने वाली आर्थिक सहायता से अपने जीवन के दिन काट रही थी. उस ने एकदम अमरनाथ का दिल भी नहीं तोड़ा. भारत वापस जाने के लिए एक सुझाव उन के सामने रखा कि वह कहीं कोई छोटामोटा काम केवल हफ्ते में 2 या 3 दिन और वह भी 2 से 4 घंटों तक कर लिया करें. फिर इस प्रकार जो भी पैसा उन्हें मिलेगा उसे वह अपने भारत लौटने के लिए जमा करते रहें. स्टैसी का सुझाव अमरनाथ की समझ में आ गया और इस नई चुनौती के लिए उन्होंने सहमति दे दी.

स्टैसी की कोशिश से उन को एक स्टोर में काम मिल गया, जहां पसंद न आया हुआ सामान वापस करने वालों के सामान पर पहचान का एक स्टिकर लगाने जैसा हलका सा काम करना था. इस प्रकार से अमरनाथ अपनी मेहनत से जब चार पैसे खुद कमाने लगे तो उन के अंदर जीने और परेशानियों से लड़ने का साहस भी जाग गया. उन्होंने अपने काम के केवल उतने घंटे ही बढ़ाए जिस के अंतर्गत वह मेडिकल बीमा की सुविधा कम मासिक प्रीमियम पर प्राप्त कर लें. इस प्रकार से अब अमरनाथ के जीवन के दिन सहज ही व्यतीत होने लगे थे.

स्टैसी के मानवीय व्यवहार ने अमरनाथ का जैसे सारा दिल ही जीत लिया था. दोनों एक ही पथ के राही थे. मानवता को छोड़ कर उन के मध्य देश, समाज, शारीरिक और धार्मिकता जैसा संबंध नहीं था. दोनों एकदूसरे के हरेक दुखसुख में साथ दिया करते थे. जहां भी जाते, साथ ही जाते, घर में ऊब होती तो कहीं भी घूमने निकल जाते. जो कुछ भी वे करते थे, उस का ज्ञान एकदूसरे को रहता था. सो उन का जीवन सामान्य रूप से चल रहा था.

इसी बीच एक दिन पुलिस की सूचना उन को मिली कि पुलिस विभाग ने उन के लड़के के घर का भी पता लगा लिया है. यदि वह चाहें तो उन को अमेरिका लाने वाले उन के लड़के के विरोध में वह काररवाई कर सकते हैं और यदि वह उन के घर जाना चाहते हैं तो कभी भी जा सकते हैं. मगर पहले से ही चोट खाए हुए अमरनाथ ने यह सोच कर स्पष्ट इनकार कर दिया कि जिस बेटे ने अपने बूढे़ बाप को इस अनजान शहर में भीख मांगने के लिए सड़क पर छोड़ दिया उस के पास अब क्या जाना और उस से क्या रिश्ता रखना.

स्टैसी के सहयोग और सहारे के बल पर आखिर अमरनाथ का सपना पूरा हो गया. भारत वापसी के टिकट के पैसों के साथ उन्होेंने इतना पैसा और भी जमा कर लिया था कि जिस को वह भारतीय मुद्रा में जमा करा कर उस के हर माह मिलने वाले ब्याज से ही अपने जीवन के बचे दिन आराम से बसर कर सकते थे. यह और बात थी कि अमरनाथ को यह सब करने में पूरे 8 वर्ष लग गए थे. इन 8 वर्षों में कितने आश्चर्य की बात थी कि अमरनाथ के तीनों लड़कों में से किसी ने भी उन की सुधि नहीं ली थी. न ही किसी ने यह जानने की कोशिश की थी कि उन का बाप जीवित भी है या नहीं.

और फिर एक दिन अमरनाथ अपने देश भारत वापस जाने के लिए तैयार हुए. स्टैसी ने उन के जाने के लिए संपूर्ण तैयारी में इस कदर रुचि ली कि जिस से लगता था कि वह उन के ही घर और परिवार की कोई सदस्य है.

हवाई जहाज में बैठने से पहले जब अमरनाथ स्टैसी से मिले तो वह विदा करते हुए उन के गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी. ठीक वैसे ही जैसे कि एक दिन वह खुद स्टोर के बाहर बैठे रो रहे थे.

हिंदुस्तान वापस आने के बाद भी अमरनाथ का संबंध स्टैसी से टेलीफोन और पत्रों के द्वारा काफी दिनों तक बना रहा था. मगर बाद में बढ़ती उम्र की थकान ने इस सिलसिले में भी थकावट भर दी थी. अब यदाकदा उन की स्टैसी से बात होती थी. पत्रों का सिलसिला भी अब केवल न के बराबर ही रह गया था. लेकिन फिर भी न तो अमरनाथ स्टैसी को भूले थे और न खुद स्टैसी ने उन को अपने मानसपटल से कभी ओझल होने दिया था.

विदेशी भूमि की रहने वाली स्टैसी अमरनाथ के जीवन में एक ऐसा मानवीय रिश्ता ले कर आई थी जिस ने उन के जीवन में न केवल उदास तनहाइयों को दूर किया था, बल्कि अपने मानवीय प्रेम की वह छाप भी उन के जीवन में स्थापित कर दी जिस का प्रभाव उन के जीवन की अंतिम सांसों तक सदैव बना रहेगा.

अपने अतीत को सोचतेसोचते अमरनाथ की बूढ़ी और जीवन से थकी धुंधली आंखों में जब फिर से आंसू भर आए तो उन्होंने स्टैसी के पत्र को अपने सीने से लगा लिया. थोड़ी देर तक वह इसी मुद्रा में बने रहे फिर उन्होंने पत्र को आगे पढ़ना शुरू किया. जहां पर स्टैसी ने आगे लिखा था, ‘मेरी मृत्यु की खबर सुन कर इतना दुखी मत होना कि खुद को भी इस उम्र में न संभाल सको. मृत्यु तो जीवन का ही एक हिस्सा है. कोई भी जन इस को पूरा किए बिना मानव जीवन की यात्रा का सफर पूरा नहीं कर सकता है. अपना ध्यान रखना. खुद को संभाले रखना. अपने बच्चों की अब ज्यादा चिंता कर के खुद को हर समय गलाने की कोशिश भी मत करना. सोच लेना कि जो मिल गया वह अपना था और जो खो गया वह अपना था ही नहीं. जीवन की यही अंतिम सीख दे कर मैं जा रही हूं. मेरा खयाल है कि इस से तुम को काफी संतोष प्राप्त हो सकेगा.’

अमरनाथ ने पत्र को समाप्त किया तो वह फिर से खयालों में डूब गए. सोचने लगे अपने जीवन के उन जिए हिस्सों के बारे में जिस में उन की पत्नी, संतान, रिश्तेदारों और तमाम मित्रों के साथसाथ एक विदेशी स्त्री के रूप में स्टैसी भी अपना वह रूप और व्यवहार ले कर आई थी जोकि विदेश में रहने के दौरान उन के कठिन दिनों में उन का एक रहनुमा साबित हुई थी. कितना बड़ा अंतर था उन की खुद की संतान और स्टैसी में. अपनी औलाद जिन को उन्होंने न केवल जन्म दिया था बल्कि उन के पालनपोषण में भी कभी कोई कमी नहीं होने दी थी, उन्हें इस काबिल बनाया था कि वे सिर उठा कर जी सकें.

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इतना सबकुछ होने पर भी कितने आश्चर्य की बात थी कि उन की अपनी संतान ने कैसे उन के शरीर पर यह लेबल लगा दिया कि उन का उन से कोई भी रिश्ता नहीं है? और वह कौन थी कि जिस ने कोई भी रिश्तानाता न होते हुए यह साबित कर दिया था कि उस का उन से कोई संबंध न होने पर भी एक ऐसा रिश्ता है जिस का केवल एक ही नाम है, ‘मानवता.’ ऐसी मानवता जिस में केवल एकदूसरे के दुखदर्द को समझने की क्षमता और मानवीय प्रेम के वे अंकुर होते हैं जिन्हें बढ़ने के लिए केवल अपनत्व, पे्रम और सहानुभूति जैसे पदार्थों की ही आवश्यकता होती है.      द्

रस्सी का सांप

लेखक- अरशद हाशमी

मैं तब 11वीं क्लास में था जब रिजर्वेशन के विरोध में पूरे देश में आंदोलन हो रहा था. उस दिन भी मैं क्लास में बैठा था. यों तो महेश सर फिजिक्स का कोई बोरिंग सा चैप्टर पढ़ा रहे थे लेकिन मेरा पूरा ध्यान अगले दिन होने वाले भारतपाकिस्तान मैच में लगा था.

मैं कपिल देव की घातक गेंदबाजी और नवजोत सिंह सिद्धू की ताबड़तोड़ बल्लेबाजी के सपने देख रहा था और पता भी नहीं चला कि कब कुछ रिजर्वेशन विरोधी छात्र मेरी क्लास में आ गए और सब से बाहर निकलने को बोलने लगे.

मेरे विचारों में कपिल देव अपनी अगली गेंद पर जावेद मियांदाद को बोल्ड करने ही वाले थे और मैं इस नजारे को मिस नहीं कर सकता था. इसलिए मैं ने उन छात्रों की बात सुनी ही नहीं.

मुझे होश तब आया जब उन में से एक छात्र हाथ में कुरसी उठाए मेरे सामने खड़ा था.

‘‘उठता है या फोड़ दूं तेरा सिर,’’ वह छात्र दहाड़ा तो मैं हकीकत के फर्श पर धड़ाम से आ कर गिरा और किसी तरह गिरतेपड़ते क्लास से बाहर भागा.

समझ नहीं आ रहा था कि स्कूल बंद होने की खुशी मनाऊं या सामने उस छात्र नेता का भाषण सुन कर दुखी होऊं जिस में वह रिजर्वेशन के चलते छात्रों का भविष्य अंधेरे से भरा होने की भविष्यवाणी कर रहा था. सारे छात्र एक जुलूस की शक्ल में स्कूल से बाहर निकले तो मैं भी अपने दोस्तों कलीम, नफीस और हेमेंद्र के साथ जुलूस के साथसाथ चलने लगा.

‘‘भाई, मैं तो रिजर्वेशन का विरोधी नहीं हूं, फिर हम इन के साथ कहां जा रहे हैं?’’ कलीम ने पूछा.

‘‘अरे, थोड़ा बाहर तो निकलो, फिर हम चुपके से अलग हो जाएंगे और

घर चले जाएंगे,’’ नफीस ने फुसफुसा कर कलीम को चुप कराया.

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‘‘यार, मैं ने तो कभी किसी जुलूस में हिस्सा नहीं लिया है. आज जरा देखूंगा क्या होता है इन में, इसलिए मैं तो घर नहीं जा रहा,’’ हेमेंद्र ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘वैसे, कोई जुलूस तो मैं ने भी कभी नहीं देखा. चलो, चल लेते हैं. थोड़ा घूमफिर ही लेंगे,’’ मैं ने अपनी राय रखी.

स्कूल से निकल कर जुलूस रेलवे स्टेशन की तरफ बढ़ रहा था कि मौका देख कर नफीस नौ दो ग्यारह हो गया. कलीम भी वहां से निकलना चाहता था लेकिन मैं ने रोक लिया.

रेलवे स्टेशन पहुंच कर कुछ छात्रों ने तोड़फोड़ शुरू कर दी तो हम दोनों ने वहां से खिसकने में ही भलाई समझी. मैं और कलीम बसअड्डे की तरफ चल दिए, गुप्ताजी के समोसे खाने.

अभी समोसे और चाय खत्म भी नहीं हुए थे कि छात्रों का जुलूस बसअड्डे की तरफ आता दिखाई दिया.

‘‘चलो निकलते हैं यहां से जल्दी,’’ कलीम ने मुझे चेताया लेकिन मैं समोसे और चाय का मोह त्याग नहीं पा रहा था इसलिए मैं ने हाथ पकड़ कर कलीम को अपने साथ ही बिठा लिया.

छात्रों ने बसअड्डे पर भी जम कर उत्पात मचाया और खूब तोड़फोड़ की. औफिस, बसों के शीशे, वहां लगे स्टौल सबकुछ तोड़ डाला और बसों के टायरों की हवा निकाल दी.

यह सब चल ही रहा था कि पुलिस की कुछ गाडि़यां वहां आ गईं और

बिना समय गंवाए पुलिस वालों ने छात्रों पर लाठियां बरसानी शुरू कर दीं. फिर क्या था, 5 मिनट में बसअड्डा खाली

हो गया.

तब तक मैं ने भी अपने समोसे खत्म कर लिए थे और डकार ले कर अपने घर की तरफ चल दिया.

मजे से टहलतेटहलते जब मैं अपने घर के पास पहुंचा तो देखा कि 2-3 लड़के इधरउधर भाग रहे थे और कुछ पुलिस वाले उन लड़कों के पीछे डंडे लिए दौड़ रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ समझ पाता, एक पुलिस वाले ने कलीम पर डंडा चलाया जो उस के कंधे को छू कर निकल गया.

कलीम ने दौड़ लगाई और मेरी गली में घुस गया, लेकिन में वहीं खड़ा रह गया और पलभर में ही एक पुलिस वाले ने एक डंडा हमारे घुटने पर और एक कूल्हे पर जमा दिया.

डंडा खाते ही मुझे सनी देओल की फिल्म ‘घायल’ वाला सीन याद आ गया लेकिन मैं सनी देओल तो था नहीं.

2 डंडे मुझे दिन में तारे दिखने के लिए काफी थे. भला हो एक दूसरे पुलिस वाले का जिस ने शायद मेरे भीतर के अमोल पालेकर को पहचान लिया और मुझे वहां से जाने के लिए बोला.

मेरे घर पहुंचने से पहले ही मेरी खातिरदारी की खबर घर वालों तक पहुंच चुकी थी. बड़े भाई ने मुझे जम

कर डांटा और शायद 2-4 हाथ भी लगा देता लेकिन डंडे खा कर हो रहे हमारे

दर्द को देख कर उस ने अपना इरादा बदल दिया.

अब यह अच्छी तरह समझ आ गया था कि पुलिस वालों से दोस्तीदुश्मनी तो दूर की बात है, उन के आसपास भी नहीं फटकना.

कई साल बाद मैं ने दिल्ली में अपना सैलून खोल लिया था, जो अच्छाखासा चल रहा था. अब इस को संयोग कहें या मेरी बदकिस्मती, एक पुलिस वाले को मेरे एक हेयर ड्रैसर का काम बड़ा पसंद आ गया. वह जब भी आता, उसी से अपने बाल कटवाता.

मैं पुलिस वालों से अपनी पिटाई भूला नहीं था इसलिए इन महाशय से ज्यादा क्या थोड़ी भी बात नहीं करता था. लेकिन ये इंस्पैक्टर साहब आम पुलिस वाले नहीं लगते थे. बड़ी तमीज से बात करते, हमेशा पैसे भी पूरे दे कर जाते और हर बार मेरा हालचाल पूछते.

पुलिस वालों को ले कर मेरी भी सोच थोड़ीथोड़ी बदलने लगी थी

और मैं भी उन से थोड़ीबहुत बातचीत करने लगा.

एक दिन इंस्पैक्टर साहब बाल कटा रहे थे और टैलीविजन पर कोई फिल्म चल रही थी. फिल्म में एक किरदार डायलौग बोल रहा था कि पुलिस वाले रस्सी का भी सांप बना देते हैं.

यह सुन कर मेरी हंसी निकल गई और पता नहीं किस तरह मैं ने इंस्पैक्टर साहब से पूछ ही लिया कि आखिर पुलिस वाले रस्सी का भी सांप कैसे बना देते हैं? मेरे इस सवाल के जवाब में इंस्पैक्टर साहब कुछ बोले नहीं, बस हंस कर रह गए.

फिर कुछ दिनों बाद वही इंस्पैक्टर साहब बाल कटा रहे थे कि अचानक कुछ पुलिस वाले धड़धड़ाते हुए मेरे सैलून में दाखिल हुए.

‘‘क्या बात है सर?’’ इतने सारे पुलिस वालों को देख कर मेरी घिग्घी बंध गई थी, फिर भी बड़ी हिम्मत से मैं ने एक पुलिस वाले से पूछा.

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‘‘हमें पक्की खबर मिली है कि

तुम गैरकानूनी हथियारों का धंधा करते हो,’’ एक पुलिस वाले ने कड़क आवाज में कहा.

‘‘अरे सर, गैरकानूनी तो क्या मैं ने तो आज तक किसी हथियार को देखा तक नहीं,’’ मैं मिमियाया.

‘‘वह तो हम पता कर ही लेंगे. तलाशी लो दुकान की,’’ उस पुलिस वाले ने सिपाहियों को आदेश दिया.

तलाशी लेतेलेते जब एक सिपाही ने एक दराज खोला तो उस में एक तमंचा रखा था. यह देख कर मेरी तो सांस ही अटक गई.

‘‘यह… यह मेरा नहीं है. मुझे तो

पता भी नहीं कि यह यहां कैसे आ गया,’’ बड़ी मुश्किल से मेरी आवाज निकली.

‘‘हर खूनी यही कहता है कि खून उस ने नहीं किया. बच्चू तू तो गया,’’ जीत की खुशी उस पुलिस वाले के चेहरे पर साफ चमक रही थी.

‘‘आप ही बताइए सर इन को कि मैं शरीफ आदमी हूं,’’ मुझे अपने पुराने ग्राहक इंस्पैक्टर साहब का ध्यान आया तो मैं ने उन से कहा.

‘‘अरे दारोगाजी, ये ऐसे आदमी नहीं हैं. लगता है, किसी ने फंसा दिया है इन को,’’ हमारे इंस्पैक्टर साहब ने उस पुलिस वाले से कहा.

फिर इंस्पैक्टर साहब उस पुलिस वाले से कुछ खुसुरफुसुर करने लगे.

‘‘ठीक है, मामला यहीं रफादफा कर देंगे. तुम शाम तक एक लाख रुपए

का इंतजाम कर लो,’’ दारोगाजी ने मुझ से कहा.

‘‘एक लाख रुपए. इतने पैसे तो नहीं हैं मेरे पास,’’ मैं ने फरियाद की.

‘‘पैसे नहीं हैं तो चल फिर थाने. गैरकानूनी हथियार बेचता है और पैसे नहीं हैं,’’ वह पुलिस वाला गुर्राया.

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. फिर भी हिम्मत कर के मैं ने शाम तक की मुहलत ले ली. दौड़ाभागा, घर गया, जो कुछ पैसे थे वे उठाए, बैंक का अकाउंट खाली कर दिया, दोस्तों से उधार लिया और किसी तरह एक लाख रुपए ले कर थाने पहुंचा.

सामने ही इंस्पैक्टर साहब और वे दारोगा बैठे थे. मैं ने पैसे उन दारोगा को दे दिए.

‘‘हम्म, चलो निकलो यहां से. और आज के बाद कभी कोई गैरकानूनी काम किया तो सीधा अंदर कर दूंगा,’’ दारोगा ने मुझे चेतावनी दी.

मैं नमस्ते कर के वापस मुड़ा ही था कि इंस्पैक्टर साहब मेरे पास आए और कान में बोले, ‘‘अब समझ आ गया कि पुलिस वाले रस्सी का सांप कैसे बना देते हैं. वह तमंचा मैं ने ही तुम्हारी दुकान में रखा था,’’ इंस्पैक्टर साहब के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान थी.

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अब मैं अच्छी तरह समझ चुका था कि पुलिस वालों से न दोस्ती रखो, न दुश्मनी, बल्कि हो सके तो दूर की नमस्ते भी नहीं.                              द्य

देवी की कृपा

लेखक- नीलिमा टिक्कू

‘‘रमियाजी, रुकिए,’’ कानों में मिश्री घोलता मधुर स्वर सुन कर कुछ देर के लिए रमिया ठिठक गई फिर अपने सिर को झटक कर तेज कदमों से चलते हुए सोचने लगी कि उस जैसी मामूली औरत को भला कोई इतनी इज्जत से कैसे बुला सकता है, जिस को पेट का जाया बेटा तक हर वक्त दुत्कारता रहता है और बहू भड़काती है तो बेटा उस पर हाथ भी उठा देता है. बाप की तरह बेटा भी शराबी निकला. इस शराब ने रमिया की जिंदगी की सुखशांति छीन ली थी. यह तो लाल बंगले वाली अम्मांजी की कृपा है जो तनख्वाह के अलावा भी अकसर उस की मदद करती रहती हैं. साथ ही दुखी रमिया को ढाढ़स भी बंधाती रहती हैं कि देवी मां ने चाहा तो कोई ऐसा चमत्कार होगा कि तेरे बेटाबहू सुधर जाएंगे और घर में भी सुखशांति छा जाएगी.

तभी किसी ने उस के कंधे पर हाथ स्वयं रखा, ‘‘रमिया, मैं आप से ही कह रही हूं.’’

हैरानपरेशान रमिया ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक युवती उसे देख कर मुसकरा रही थी.

हकबकाई रमिया बोल उठी, ‘‘आप कौन हैं? मैं तो आप को नहीं जानती… फिर आप मेरा नाम कैसे जानती हैं?’’

युवती ने अपने दोनों हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा, ‘‘सब देवी मां की कृपा है. मेरा नाम आशा है और हमारी अवतारी मां पर माता की सवारी आती है. देवी मां ने ही तुम्हारे लिए कृपा संदेश भेजा है.’’

रमिया अविश्वसनीय नजरों से आशा को देख रही थी. उस ने थोड़ी दूर खड़ी एक प्रौढ़ महिला की तरफ इशारा किया जोकि लाल रंग की साड़ी पहने थी और उस के माथे पर सिंदूर का टीका लगा हुआ था.

रमिया के पास आ कर अवतारी मां ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपना दायां हाथ उठाया. उन की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने रमिया को खींच कर अपने गले  लगा लिया और बड़बड़ाने लगीं :

‘‘मैं जानती हूं कि तू बहुत दुखी है. तुझे न पति से सुख मिला न बेटेबहू से मिलता है. शराब ने तेरी जिंदगी को कभी सुखमय नहीं बनने दिया. लेकिन तेरी भक्ति रंग ले आई है. माता का संदेशा आया है. वह तुझ से बहुत प्रसन्न हैं. अब तेरा बेटा सोहन व तेरी बहू कमली तुझे कभी तंग नहीं करेंगे.’’

रमिया हतप्रभ रह गई. देवी मां चमत्कारी हैं यह तो उस ने सुना था पर उन की ऐसी कृपा उस अभागी पर होगी ऐसा सपने में भी उस ने नहीं सोचा था.

अवतारी ने मिठाई का एक डब्बा उसे देते हुए कहा, ‘‘क्या सोचने लगी? तुझे तो खुश होना चाहिए कि मां की तुझ पर कृपा हो गई है. और हां, मैं केवल माता के भक्तों से ही मिलती हूं, नास्तिकों से नहीं. चल, पहले इस डब्बे में से प्रसाद निकाल कर खा ले और इस में कुछ रुपए भी रखे हैं. तू इन रुपयों से अपनी नातिन ऊषा की शादी के लिए जो सामान खरीदना चाहे खरीद लेना.’’

आश्चर्य में डूबी रमिया ने भक्तिभाव से ओतप्रोत हो डब्बे की डोरी खोली तो उस में तरहतरह की मिठाइयां थीं. एक लिफाफे में 100 रुपए के 10 नोट भी थे. रमिया ने एक टुकड़ा मिठाई का मुंह में डाला और भावावेश में अवतारी के पैर छूने चाहे लेकिन वह तो जाने कहां गायब हो चुकी थीं.

रमिया की नातिन ऊषा का ब्याह होने वाला था. लाल बंगले वाली अम्मांजी ने दया कर के उसे 200 रुपए दे दिए थे. उसी से वह नातिन के लिए साड़ीब्लाउज खरीदने बाजार आई थी. पर यहां देवी कृपा से मिले रुपयों से रमिया ने नातिन के लिए बढि़या सी साड़ी खरीदी, एक जोड़ी चांदी की पायल व बिछुए भी खरीदे. उस के पास 400 रुपए बच भी गए थे. इस भय से रमिया सीधे घर नहीं गई कि बेटेबहू पैसा व सामान ले लेंगे.

सारा सामान अम्मांजी के पास रखने का निश्चय कर रमिया रिकशा कर के लाल बंगले पहुंच गई. उस ने बंगले की घंटी बजाई तो उसे देख कर अम्मांजी हैरान रह गईं.

‘‘रमिया, तू बाजार से इतनी जल्दी आ गई?’’

‘‘हां, अम्मांजी,’’ कहती वह अंदर आ गई. रमिया के हाथ में शहर के मशहूर मिष्ठान भंडार का डब्बा देख कर अम्मांजी हैरान रह गईं.

‘‘क्या तू ने नातिन के लिए सामान लाने के बजाय मेरे दिए पैसों से मंदिर में इतना महंगा प्रसाद चढ़ा दिया?’’

रमिया चहकी, ‘‘अरे, नहीं अम्मांजी, अब आप से क्या छिपाना है. आप तो खुद ‘देवी मां’ की भक्त हैं…’’ और फिर रमिया ने सारी आपबीती अम्मांजी को ज्यों की त्यों सुना दी.

रमिया की बात सुन कर सावित्री देवी चकित रह गईं. रमिया जैसी गरीब और मामूली औरत को भला कोई बेवकूफ क्यों बनाएगा…फिर इतना सबकुछ दे कर वह औरत तो गायब हो गई थी. निश्चय ही रमिया पर देवी की कृपा हुई है. पल भर के लिए सावित्री देवी को रमिया से ईर्ष्या सी होने लगी. वह कितने सालों से देवी के मंदिर जा रही हैं पर मां ने उन पर ऐसी कृपा कभी नहीं की.

सावित्री देवी पुरानी यादों में खो गईं. उन का बेटा मनोज  7वीं कक्षा में पढ़ता था. गणित की परीक्षा से एक दिन पहले वह रोने लगा कि मां, मैं ने गणित की पढ़ाई ठीक से नहीं की है और मैं कल फेल हो जाऊंगा.

‘बेटा, मेरे पास एक मंत्र है’ उन्होंने पुचकारते हुए कहा, ‘तू इस को 108 बार कागज पर लिख ले. तेरा पेपर जरूर अच्छा हो जाएगा.’

मनोज मंत्र लिखने लगा. थोड़ी देर बाद मनोज के पिता कामता प्रसाद फैक्टरी से आ गए. बेटे को गणित के सवाल हल करने के बजाय मंत्र लिखते देख वह गुस्से से बौखला उठे और जोर से एक थप्पड़ मनोज के गाल पर दे मारा. साथ ही पत्नी सावित्री को जबरदस्त डांट पड़ी थी.

‘देखो, तुम अपने मंत्रतंत्र, चमत्कार के जाल में उलझे रहने के बेहूदा शौक पर लगाम लगाओ. अपने बच्चे के भविष्य के साथ मैं तुम्हें किसी तरह का खिलवाड़ नहीं करने दूंगा. दोबारा ऐसी हरकत की तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’

उस दिन के बाद सावित्री ने मनोज को अपनी चमत्कारी सलाह देनी बंद कर दी थी. मनोज पिता की देखरेख में रह कर मेहनतकश नौजवान बन गया था. वहीं सावित्री की सोच ने उसे नास्तिक मान लिया था.

मनोज का विवाह अंजना से हुआ था. अंजना एक पढ़ीलिखी सुशील लड़की थी. पति व ससुर के साथ उस ने भी फैक्टरी का कामकाज संभाल लिया था. अपने विनम्र व्यवहार से उस ने सास को कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया था लेकिन बहू के साथ रोज मंदिर जाने की उन की हसरत, अधूरी ही रह गई थी. अंजना पूजापाठ से पूरी तरह विरक्त एकएक पल कर्म में समर्पित रहने वाली युवती थी.

मनोज के विवाह को 5 साल हो गए थे. सावित्री एक पोती व पोते की दादी बन चुकी थीं. तभी अचानक हुए हृदयाघात में पति का देहांत हो गया. पिता के जाने के बाद मनोज और अंजना पर फैक्टरी का अतिरिक्त भार पड़ गया था. दोनों सुबह 10 बजे फैक्टरी जाते और रात 7-8 बजे तक घर आते. इसी तरह सालों निकल गए.

सावित्री की पोती अब एम.बी.ए. करने अहमदाबाद गई थी और पोता आई.आई.टी. की कोचिंग के लिए कोटा चला गया था. वह दिन भर घर में अकेली रहती थीं. ऐेसे में रमिया का साथ उन को राहत पहुंचाता था. वह रोज रमिया को ले कर ड्राइवर के साथ मंदिर जाती थीं. मंदिर से उन्हें घर छोड़ने के बाद ड्राइवर दोबारा फैक्टरी चला जाता था. रमिया सब को रात का खाना खिला कर अपने घर जाती थी.

‘‘अम्मांजी, क्या सोचने लगीं’’ रमिया का स्वर सुन कर सावित्री देवी की तंद्रा भंग हुई, ‘‘यह देखो, मैं ने कितनी सुंदर साड़ी, पायल व बिछुए खरीदे हैं लेकिन ये सबकुछ आप अपने पास ही रखना. जब विवाह में जाऊंगी तब यहीं से ले जाऊंगी.’’

रमिया खुशीखुशी घर के कामों में लग गई. सावित्री कुछ देर तक टेलीविजन देखती रही फिर जाने कब आंखें बंद हुईं और वह सो गईं.

उस दिन रात को जब रमिया अपने घर पहुंची तो यह देख कर हैरान रह गई कि घर में अजीब सी शांति थी. उसे देख कर बहू ने रोज की तरह नाकभौं नहीं सिकोड़ी बल्कि मुसकान बिखेरती उस के पास आ कर बड़े अपनेपन से बोली, ‘‘अम्मां, दिनभर काम कर के आप कितना थक जाती होंगी. मैं ने आज तक कभी आप का खयाल नहीं रखा. मुझे माफ कर दो.’’

आज बेटे ने भी शराब नहीं पी थी. वह भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘मां, तू इतना काम मत किया कर. हम दोनों कमाते हैं. क्या तुझे खाना भी नहीं खिला सकते? क्या जरूरत है तुझे सुबह से रात तक काम करने की?’’

रमिया को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था. सचमुच आज सुबह से चमत्कार पर चमत्कार हो रहा था. यह सोच कर उस की आंखें भर आईं कि बेटेबहू ने आज उस की सुध ली है. स्नेह व अपनेपन की भूखी रमिया बेटेबहू का माथा सहलाते हएु बोली, ‘‘तुम्हें मेरी इतनी चिंता है, देख कर अच्छा लगा. सारा दिन घर में पड़ीपड़ी क्या करूं. काम पर जाने से मेरा मन लग जाता है.’’

दूसरे दिन सुबह जब रमिया ने अपने बेटेबहू के सुधरते व्यवहार के बारे में अम्मांजी को बताया तो वह भी हैरान रह गईं.

रमिया बोली, ‘‘अम्मांजी, मुझे लगता है देवी मां खुद ही इनसान का रूप धारण कर मुझ से मिलने आई थीं.’’

सावित्री के मुख से न चाहते हुए भी निकल गया, ‘‘काश, वह मुझ से भी मिलने आतीं.’’

रमिया के जीवन में खुशियां भर गई थीं. बेटाबहू पूरी तरह से सुधर गए थे. उस का पूरा ध्यान रखने लगे थे. एक दिन वह शाम को डेयरी से दूध ले कर लौट रही थी कि अचानक ही अपने सामने आशा व अवतारी मां को देख कर वह हैरान रह गई. अवतारी मां ने दायां हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिया.

रमिया ने भावावेश में उन के पैर पकड़ लिए और बोली, ‘‘आप उस दिन कहां गायब हो गई थीं?’’

अवतारी मां बोलीं, ‘‘अब तुझे कभी कोई कष्ट नहीं होगा. अच्छा, बता तेरी लाल बंगले वाली सावित्री कैसी हैं? माता उन से भी बहुत प्रसन्न हैं.’’

यह सुनते ही हैरान रमिया बोली, ‘‘आप उन के बारे में भी जानती हैं?’’

अवतारी ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें फैलाते हुए कहा, ‘‘भला, देवी से उस के भक्त कभी छिप सकते हैं? मैं भी सावत्री से मिलना चाहती हूं लेकिन उन के बेटे व बहू नास्तिक हैं. इसीलिए मैं उन के घर नहीं जाना चाहती.’’

रमिया तुरंत बोली, ‘‘आप अभी चलो. इस समय अम्मांजी अकेली ही हैं. बेटेबहू तो रात 8 बजे से पहले नहीं आते.’’

अवतारी मां ने कहा, ‘‘देख, आज रात मुझे तीर्थयात्रा पर जाना है लेकिन तू भक्त है और मैं अपने भक्तों की बात नहीं टाल सकती इसलिए तेरे साथ चल कर मैं थोड़ी देर के लिए उन से मिल लेती हूं.’’

अवतारी मां से मिल कर सावित्री की खुशी का ठिकाना न रहा. उन्होंने कुछ रुपए देने चाहे लेकिन अवतारी मां नाराज हो उठीं.

सावित्री ने अवतारी मां से खाना खा कर जाने की विनती की तो फिर किसी दिन आने का वादा कर के वह विदा हो गईं.

इस घटना को कई दिन बीत गए थे. एक दिन दोपहर के समय लाल बंगले की घंटी बज उठी. सावित्री ने झुंझलाते हुए बाहर लगे कैमरे में देखा तो बाहर आशा व अवतारी मां को खड़े पाया. उन की झुंझलाहट पलभर में खुशी में बदल गई. उन्होंने बड़ी तत्परता से दरवाजा खोला.

‘‘आप के लिए मां का प्रसाद लाई हूं. मां तुम से बहुत खुश हैं,’’ फिर इधरउधर देखते हुए अवतारी मां बोलीं, ‘‘रमिया दिखाई नहीं दे रही?’’

अम्मांजी चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘अभी कुछ देर पहले उस का बेटा आया था और बता गया है कि रात भर दस्त होने की वजह से उसे बहुत कमजोरी है. आज काम पर नहीं आ पाएगी.’’

अवतारी मां ने कहा, ‘‘चिंता मत करो. वह जल्दी ही ठीक हो जाएगी.’’

सावित्री के पूछने पर कि आप की तीर्थयात्रा कैसी रही, अवतारी मां कुछ जवाब देतीं इस से पहले ही फोन की घंटी घनघना उठी. सावित्री ने ड्राइंगरूम का फोन न उठा कर अपने बेडरूम में जा कर फोन उठाया. उन के बेटे का फोन था. वह कह रही थीं कि बेटा, तू चिंता मत कर, रमिया नहीं आई तो क्या हुआ, मैं कोई छोटी बच्ची तो हूं नहीं जो अकेली डर जाऊंगी.

फिर अपने स्वर को धीमा करते हुए वह बोलीं, ‘‘आनंदजी आए थे और 90 हजार रुपए दे गए हैं. मैं ने उन्हें तेरी अलमारी में रख दिया है.’’

बेटे से बात करते समय सावित्री को लगा कि ड्राइंगरूम का फोन किसी ने उठा रखा है. उन्होंने खिड़की के परदे से झांक कर देखा तो उन का शक सही निकला. फोन आशा ने उठा रखा था और इशारे से वह अवतारी को कुछ कह रही थी. सावित्री देवी तब और स्तब्ध रह गईं. जब उन्होंने अवतारी के पास मोबाइल फोन देखा, जिस से वह किसी को कुछ कह रही थी.

एसी से ठंडे हुए कमरे में भी सावित्री को पसीने आ गए. उन्होंने जल्दीजल्दी बेटे को दोबारा फोन मिलाया. उधर से हैलो की आवाज सुनते ही वह कुछ बोलतीं, इस से पहले ही अपनी कनपटी पर लगी पिस्तौल का एहसास उन की रूह कंपा गया. आशा ने लपक कर फोन काट दिया था.

दुर्गा मां का अवतार लगने वाली अवतारी अब सावित्री को साक्षात यमराज की दूत दिखाई दे रही थी.

‘‘बुढि़या, ज्यादा होशियारी दिखाई तो पिस्तौल की सारी गोलियां तेरे सिर में उतार दूंगी. चल, अपने बेटे को वापस फोन लगा कर बोल कि तू किसी और को फोन कर रही थी, गलती से उस का नंबर लग गया वरना उस का फोन आ जाएगा.’’

सावित्री कुछ कहतीं इस से पहले ही बेटे का फोन आ गया.

‘‘क्या बात है, अम्मां? फोन कैसे किया था?’’

‘‘काट क्यों दिया…’’ सावित्री देवी मिमियाईं, ‘‘मैं तुम्हारी नीरजा बूआ से बात करना चाह रही थी लेकिन गलती से तेरा नंबर मिल गया.’’

‘‘मुझे तो चिंता हो गई थी. सब ठीक तो है न?’’

‘‘हांहां, सब ठीक है,’’ कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया.

अवतारी गुर्राई, ‘‘बुढि़या, झटपट सभी अलमारियों की चाबी पकड़ा दे. जेवर व कैश कहांकहां रखा है बता दे. मैं ने कई खून किए हैं. तुझे भी तेरी दुर्गा मां के पास पहुंचाते हुए मुझे देर नहीं लगेगी.’’

उसी समय उन के 2 साथी युवक भी आ धमके. सावित्री को उन लड़कों की शक्ल कुछ जानीपहचानी लगी.

तभी एक युवक गुर्राकर बोला, ‘‘ए… घूरघूर कर क्या देख रही है बुढि़या? तेरे चक्कर में मैं ने भी तेरी देवी मां के मंदिर में खूब चक्कर लगाए. तू जो अपनी नौकरानी के साथ घंटों मंदिर में बैठ कर बतियाती रहती थी तब तेरे बारे में जानकारी हासिल करने के लिए हम दोनों भी वहीं तेरे आसपास मंडराते रहते थे. तेरी बड़ी गाड़ी देख कर ही हम समझ गए थे कि तू हमारे काम की मोटी आसामी है और हमारे इस विश्वास को तू ने मंदिर के बाहर हट्टेकट्टे भिखारियों को भीख में हर रोज सैकड़ों रुपए दान दे कर और भी पुख्ता कर दिया.’’

सावित्री के बताने पर आननफानन में उन्होंने घर में रखे सारे जेवरात व नकदी समेट लिए. तभी अवतारी जोर से खिलखिलाई, ‘‘बुढि़या, मैं आज तक किसी मंदिर में नहीं गई फिर भी तेरी देवी मां ने तेरी जगह मुझ पर कृपा कर दी. तेरी नौकरानी रमिया के बारे में पता चला कि वह तेरे यहां 20 साल से काम कर रही है. बड़ी नमकहलाल औरत है. उस को भरोसे में ले कर तो तुझे लूट नहीं सकते थे. इसीलिए तुम्हारी धार्मिक अंधता को भुनाने की सोची.

‘‘सच कहती हूं तुम्हारे जैसी धर्म में डूबी भारतीय नारियों की वजह से ही हम जैसे लोगों का धंधा जिंदा है. रमिया के बेटेबहू को भी पिस्तौल की नोक पर मेरे ही साथियों ने कई बार धमकाया था और रमिया समझी कि मां की कृपा से उस के बेटेबहू सुधर गए. कल रात को रास्ते में मैं ने रमिया को जमालघोटा डला प्रसाद दिया था ताकि वह आज काम पर न आ सके.’’

‘‘फालतू समय खराब मत करो,’’ एक युवक चिल्लाया, ‘‘अब इस बुढि़या का काम तमाम कर दो.’’

घबराहट से सावित्री के सीने में जोर का दर्द उठा और वह अपनी छाती पकड़ कर जमीन पर लुढ़क गईं.

पसीने से तरबतर सावित्री को देख अवतारी चहकी, ‘‘इसे मारने की जरूरत नहीं पड़ेगी. लगता है इसे दिल का दौरा पड़ा है. तुरंत भाग चलो.’’

उधर फैक्टरी में अपनी आवश्यक मीटिंग खत्म होने के बाद मनोज ने दोबारा घर फोन किया.

फोन की घंटी लगातार बज रही थी. जवाब न मिलने पर चिंतित मनोज ने पड़ोसी शर्माजी के घर फोन कर के अम्मां के बारे में पता करने को कहा.

पड़ोसिन अपनी बेटी के साथ जब उन के घर पहुंची तो घर के दरवाजे खुले थे और अम्मांजी जमीन पर बेसुध गिरी पड़ी थीं. यह देख कर वह घबरा गई. डरतेडरते वह अम्मांजी के पास पहुंची और देखा तो उन की सांस धीमेधीमे चल रही थी. उन्होंने तुरंत मनोज को फोन किया.

सावित्री को जबरदस्त हृदयाघात हुआ था. उन्हें आई.सी.यू. में भरती कराया गया. गैराज में खड़ी दूसरी गाड़ी गायब थी. 2 दिन बाद उन को होश आया. बेटे को देखते ही उन की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी. बेटे ने उन के सिर पर तसल्ली भरा हाथ रखा. सावित्री को पेसमेकर लगाया गया था. धीरेधीरे उन की हालत में सुधार हो रहा था.

रमिया व उन के बयान से पता चला कि लुटेरों के गिरोह ने योजना बना कर कई दिन तक सारी बातें मालूम कर के ही उन की धार्मिकता को भुनाते हुए अपनी लूट की योजना को अंजाम दिया और लाखों रुपए के जेवरात व नकदी लूट ले गए.

उन की कार शहर के एक चौराहे पर लावारिस खड़ी मिली थी लेकिन लुटेरों का कहीं पता न चला.

दहशत व ग्लानि से भरी सावित्री को आज अपने पति की रहरह कर याद आ रही थी जो हरदम उन्हें तथाकथित साधुओं और उन के चमत्कारों से सावधान रहने को कहते थे. वह सोच रही थीं, ‘सच ही तो कहते थे मनोज के पिताजी कि अंधभक्ति का यह चक्कर किसी दिन उन की जान को सांसत में डाल देगा. अगर पड़ोसिन समय पर आ कर उन की जान न बचाती तो…और अगर वे लुटेरे उन्हें गोली मार देते तो?’

दहशत से उन के सारे शरीर में झुरझुरी आ गई. आगे से वह न तो किसी मंदिर में जाएंगी और न ही किसी देवी मां का पूजापाठ करेंगी.

एक दामाद और

लेखक-अश्विनी कुमार भटनागर

नरेश को दहेज में घरगृहस्थी के आवश्यक सामान के अतिरिक्त 4 सालियां भी मिली थीं. ससुर के पास न केवल जायदाद थी बल्कि एक सफल व्यवसाय भी था. इस कारण जब एक के बाद एक 5 पुत्रियों ने जन्म लिया तो उन के माथे पर एक भी शिकन न पड़ी. उन्होंने आरंभ से ही हर पुत्री के नाम काफी रुपया जमा कर दिया था जो प्रतिवर्ष ब्याज कमा कर पुत्रियों की आयु के साथसाथ बढ़ता जाता था.

नरेश एक सरकारी संस्थान में सहायक निदेशक था. समय के साथ तरक्की कर के उस का उपनिदेशक और फिर निदेशक होना निश्चित था. हो सकता है कि वह बीच में ही नौकरी छोड़ कर कोई दूसरी नौकरी पकड़ ले. इस तरह वह और जल्दी तरक्की पा लेगा. युवा, कुशल व होनहार तो वह था ही. इन्हीं सब बातों को देखते हुए उसे बड़ी पुत्री उर्मिला के लिए पसंद किया गया था.

उर्मिला को अपने पति पर गर्व था. वह एक बार उस के दफ्तर गई थी और बड़ी प्रभावित हुई थी. अलग सुसज्जित कमरा था. शानदार मेजकुरसी थी. मेज पर फाइलों का ढेर लगा था. पास ही टेलीफोन था, जो घड़ीघड़ी बज उठता था. घंटी बजाने से चपरासी उपस्थित हुआ और केवल नरेश के सिर हिलाने से ही तुरंत जा कर एक ट्रे में 2 प्याले कौफी और बिस्कुट ले आया था. यह बात अलग थी कि वह जो वेतन कटकटा कर घर लाता था उस से बड़ी कठिनाई से पूरा महीना खिंच पाता था. शादी से पहले तो उसे यह चिंता लगी रहती थी कि रुपया कैसे खर्च करे, परंतु शादी के बाद मामला उलटा हो गया. अब हर घड़ी वह यही सोचता रहता था कि अतिरिक्त रुपया कहां से लाए.

उर्मिला का हाथ खुला था, जवानी का जोश था और नईनई शादी का नशा था. अकसर नरेश को हाथ रोकता देख कर बिना सोचेसमझे झिड़क देती थी. खर्चा करने की जो आदत पिता के यहां थी, वही अब भी बदस्तूर कायम थी.

महीने का आरंभ था. घर का खानेपीने का सामान आ चुका था और मन में एक हलकापन था. शाम को फिल्म देखने का कार्यक्रम बना लिया था. फिल्म का नाम ही इतना मजेदार था कि सोचसोच कर गुदगुदी सी होने लगती थी. फिल्म थी ‘दिल धड़के, शोला भड़के.’

दिन के 11 बजे थे. नरेश अपने दफ्तर के कार्य में व्यस्त थे. निदेशक बाहर दौरे पर जाने वाले थे. उन के लिए आवश्यक मसौदे व कागजों की फाइल तैयार कर के 4 बजे तक उन के सुपुर्द करनी थी. इसी समय टेलीफोन बज उठा. निदेशक का निजी सचिव सुबह से 4 बार फोन कर चुका था. फिर उसी का होगा. होंठ चबाते हुए उस ने फोन उठाया.

‘‘नरेश.’’

फोन पर उर्मिला के खिलखिलाने की आवाज सुनाई दी.

‘‘बोलो, मैं कौन हूं?’’

‘‘तुम्हारा भूत लगता है. सुनो, अभी मैं बहुत व्यस्त हूं. तुम 1 बजे के बाद फोन करना.’’

‘‘सुनो, सिनेमा के टिकट खरीद लिए?’’

‘‘नहीं, अभी समय नहीं मिला. चपरासी बिना बोले बैंक चला गया है. आने पर भेजूंगा.’’

‘‘इसीलिए फोन किया था. 4 टिकट और ले लेना.’’

‘‘क्यों?’’ नरेश ने चौंक कर कहा.

दूसरी तरफ से कई लोगों के खिल- खिलाने की आवाजें आईं, ‘‘जीजाजी… जीजाजी.’’

नरेश ने माथा पीट लिया. उर्मिला फोन करने पास की एक दुकान पर जाती थी. वह प्रति फोन 1 रुपया लेता था. सड़क पर आवाजें काफी आती थीं, इसलिए जोरजोर से बोलना पड़ता था. नरेश ने कह रखा था कि जब तक एकदम आवश्यक न हो यहां से फोन न करे. सब लोग दूरदूर तक सुनते हैं और मुसकराते हैं. उसे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता था और उस समय तो वहां पूरी बरात ही खड़ी थी. वह सोचने लगा, दुनिया भर को मालूम हो जाएगा कि वह पलटन के साथ फिल्म देखने जा रहा है. और तो और, ये सालियां क्या हैं एक से एक बढ़ कर पटाखा हैं, इन्हें फुलझडि़यां कहना तो इन का अपमान होगा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर उस ने फोन पटक दिया. आगे बात करने का अवसर ही नहीं दिया. रूमाल निकाल कर माथे का पसीना पोंछने लगा. उसे याद था कि कैसे बड़ी कठिनाई से उस ने उर्मिला को टरकाया था, जब वह सब सालियों समेत दफ्तर आने की धमकी दे रही थी.

2 जने जाते तो 14 रुपए के टिकट आते. अब पूरे 42 रुपए के टिकट आएंगे. सालियां आइसक्रीम और पापकार्न खाए बिना नहीं मानेंगी. वैसे तो वह स्कूटर पर ही जाता, पर अब पूरी टैक्सी करनी पड़ेगी. उस का भी ड्योढ़ा किराया लगेगा. उस ने मन ही मन ससुर को गाली दी. घर में अच्छीखासी मोटर है. यह नहीं कि अपनी रेजगारी को आ कर ले जाएं. उसे स्वयं ही टैक्सी कर के घर छोड़ने भी जाना होगा. अभी तो महीना खत्म होने में पूरे 3 सप्ताह बाकी थे.

सालियां तो सालियां ठहरीं, पूरी फिल्म में एकदूसरी को कुहनी मारते हुए खिलखिला कर हंसती रहीं. आसपास वालों ने कई बार टोका. नरेश शर्म के मारे और कभी क्रोध से मुंह सी कर बैठा रहा. उस का एक क्षण भी जी न लगा. जैसेतैसे फिल्म समाप्त हुई तो वह बाहर आ कर टैक्सी ढूंढ़ने लगा.

‘‘सुनो,’’ उर्मिला ने कहा.

‘‘अब क्या हुआ?’’

‘‘देर हो गई है. इन्हें खाना खिला कर भेजूंगी. घर में तो 2 ही जनों का खाना है. होटल से कुछ खरीद कर घर ले चलें.’’

बड़ी साली ने इठला कर कहा, ‘‘जीजाजी, आप ने कभी होटल में खाना नहीं खिलाया. आज तो हम लोग होटल में ही खाएंगे. दीदी घर में कहां खाना बनाती फिरेंगी?’’

बाकी की सालियों ने राग पकड़ लिया, ‘‘होटल में खाएंगे. जीजाजी, आज होटल में खाना खिलाएंगे.’’

नरेश सुन्न सा खड़ा रहा.

उर्मिला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘हांहां, क्यों नहीं, शोर क्यों मचाती हो?’’ और फिर नरेश की ओर मुंह कर के बोली, ‘‘सुनो, आज इन का मन रख लो.’’

नरेश ने जेब की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘रुपए हैं पास में? मेरे पास तो कुछ नहीं है.’’

उर्मिला ने पर्स थपथपाते हुए कहा, ‘‘काम चल जाएगा. यहीं ‘चाचे दा होटल’ में चले चलेंगे.’’

जब तक खाना खाते रहे पूरी फिल्म के संवाद दोहरादोहरा कर सब हंसी के मारे लोटपोट होते रहे. और जो लोग वहां खाना खा रहे थे वे खाना छोड़ कर इन्हें ही विचित्र नजरों से देख रहे थे. नरेश अंदर ही अंदर झुंझला रहा था.

टैक्सी में बिठा कर जब वह उन्हें घर छोड़ कर वापस आया तो उस ने उर्मिला से पूरा युद्ध करने की ठान ली थी. परंतु उस के खिलखिलाते संतुष्ट चेहरे को देख कर उस ने फिलहाल युद्ध को स्थगित रखने का ही निश्चय किया.

अगले सप्ताह रूमा की वर्षगांठ थी. जाहिर था उस के लिए अच्छा सा तोहफा खरीदना होगा. सस्ते तोहफे से काम नहीं चलेगा. उस का अपमान हो जाएगा. बहन के आगे उस का सिर झुक जाए, यह वह कभी सहन नहीं करेगी.

‘‘मैं सोच रही थी कि उसे सलवार- कुरते का सूट खरीद दूं. उस दिन देखा था न काशीनाथ के यहां,’’ उर्मिला बोली.

‘‘क्या?’’ नरेश ने चौंक कर कहा, ‘‘मैं ने तो सोचा था कि तुम अपने लिए देख रही थीं. वह तो 150 रुपए का था.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ उर्मिला ने नरेश के गले में हाथ डालते हुए कहा, ‘‘मेरा पति कोई छोटामोटा आदमी थोड़े ही है. अरे, सहायक निदेशक है. पूरे दफ्तर में रोब मारता है.’’

‘‘छोड़ो भी. जरा खर्चा तो देखो. सब काम अपनी हैसियत के अनुसार करना चाहिए.’’

‘‘तो क्या मेरे मियां की इतनी भी हैसियत नहीं है?’’ उर्मिला ने रूठ कर कहा, ‘‘मैं पिताजी से उधार ले लूंगी.’’

नरेश को यह बात अच्छी नहीं लगती. पहले भी इस बात पर लड़ाई हो चुकी थी.

‘‘उधार लेने से तो यह फर्नीचर बेचना ठीक होगा,’’ उस ने गुस्से में आ कर कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उर्मिला ने नाराज हो कर कहा, ‘‘मेरे पिता का दिया फर्नीचर फालतू है न.’’

‘‘तो मैं ही फालतू हूं. मुझे बेच दो.’’

‘‘जाओ, मैं नहीं बोलती. बहन को एक अच्छी सी भेंट भी नहीं दे सकती.’’

‘‘भेंट देने को कौन मना करता है, पर इतनी महंगी देने की क्या आवश्यकता है? वर्षगांठ तो हर साल ही आएगी. और फिर एक थोड़े ही है, 4-4 हैं. अभी तो औरों की वर्षगांठ भी आने वाली होगी,’’ नरेश ने कहा.

‘‘क्यों, 5वीं को भूल गए?’’ उर्मिला ने व्यंग्य कसा. तभी नरेश को याद आया, 25 तारीख को तो उर्मिला की भी वर्षगांठ है.

‘‘जब मेरी वर्षगांठ मनाओगे तो मेरे लिए भी तो भेंट आएगी. पिताजी बंगलौर गए थे. जरूर मेरे लिए बढि़या साड़ी लाए होंगे. और सुनो,’’ उर्मिला ने आंख नचाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वर्षगांठ पर मैं सूट का कपड़ा दिलवा दूंगी.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए सूटवूट. तुम अपने तक ही रखो,’’ नरेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘एक तुम ही इतनी भारी भेंट पड़ रही हो.’’

‘‘ऐसी बात कह कर मेरा दिल मत दुखाओ,’’ उर्मिला ने नरेश का हाथ अपने दिल पर रखते हुए कहा, ‘‘देखो, कितना छोटा सा है और कैसा धड़क रहा है.’’

और नरेश फिर भूल गया.

दूसरे दिन जब उर्मिला सलवारकुरते का सूट ले आई तो नरेश ने आह भर कर कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी भी बड़े योजना- बद्ध हैं.’’

‘‘कैसे?’’ उर्मिला ने शंका से पूछा. उसे लगा कि नरेश कुछ कड़वी बात कहने जा रहा है.

‘‘तुम सारी बहनों की वर्षगांठें एकएक दोदो सप्ताह के अंतर पर हैं. उन्होंने जरा सा यह भी नहीं सोचा कि दामाद को कुछ तो सांस लेने का अवसर दें.’’

‘‘चलो हटो, ऐसा कहते शर्म नहीं आती?’’

‘‘नहीं. बिलकुल नहीं आती.’’

अब आ गई 25 तारीख, उर्मिला की वर्षगांठ. कई दिनों से तैयारी चल रही थी. शादी के बाद पहली वर्षगांठ थी. माता- पिता ने कहा था कि उन के यहां मनाना. परंतु उर्मिला ने न माना. उसे सब को अपने यहां बुलाने का बड़ा चाव था. अपना ऐश्वर्य व ठाटबाट जो दिखाना था. नरेश 400-500 के खर्च के नीचे आ गया. साड़ी मिलेगी उर्मिला को. हो सकता है बहनें भी कुछ थोड़ाबहुत भेंट के नाम पर दे दें. परंतु उस का खर्चा कैसे पूरा होगा? बैंक में रुपया शून्य तक पहुंच रहा था. वह बारबार उर्मिला को समझा रहा था. परंतु उसे वर्षगांठ मनाने का इतना शौक न था जितना दिखावा करने का. उत्साह न दिखाना नरेश के लिए शायद एक भद्दी बात होती. काफी नाजुक मामला था. नरेश ने सोचा कि पहला साल है. इस बार तो किसी तरह संभालना होगा, बाद में देखा जाएगा.

दावत तो रात की थी, पर बहनें सुबह से ही आ धमकीं. दीदी का हाथ जो बंटाना था. अकेली क्याक्या करेगी? दिन भर होहल्ला मचाती रहीं. फ्रिज में रखा सारा सामान चाट गईं. एक की जगह 2 केक बनाने पड़े. दिन में खाने के लिए गोश्त और मंगाना पड़ा. मिठाई भी और आई. एक दावत की जगह 2 दावतें हो गईं.

संध्या होते ही मातापिता भी आ गए. ‘मुबारक हो, मुबारक हो’ के नारे लग गए. सब के मुंह ऐसे खिले हुए थे जैसे आतशी अनार. उधर नरेश सोच रहा था कि वह अपने घर में है या ससुराल में. काश, यह जश्न एक निजी जश्न होता, केवल वह और उर्मिला ही उस में भाग लेते. अंतरंग क्षणों में यह दिन बीतता और शायद सदा के लिए एक सुखद यादगार होता. तब अगर 1,000 रुपए भी खर्च हो जाते तो वह परवा न करता. सब लोग उसे भूल कर एकदूसरे में इतने मगन थे कि किसी ने यह भी न सोचा कि वहां दामाद भी है या नहीं.

रात के 12 बजतेबजते न जाने कब यह तय हो गया कि 30 तारीख शनिवार को, जिस दिन नरेश की छुट्टी रहती है, सब लोग बहुत दूर एक लंबी पिकनिक पर चलेंगे और इतवार को ही लौटेंगे. रहने और खाने का प्रबंध ससुर की ओर से रहेगा. तब ही यह रहस्य भी खुला कि उर्मिला को 2 महीने का गर्भ है.

‘मुबारक हो, मुबारक हो,’ का शोर गूंज उठा.

‘‘दावत लिए बिना नहीं छोड़ेंगे, जीजाजी,’’ एक साली ने कहा और फिर तो बाकी सालियां भी चिपट गईं.

नरेश का तो भुरता ही बन गया. एकएक साली को चींटियों की तरह झाड़ रहा था और फिर से वे चिपट जाती थीं. उर्मिला मुसकरा रही थी और मां व्यर्थ ही उसे बताने का प्रयत्न कर रही थीं कि उसे क्याक्या सावधानी बरतनी चाहिए.

‘‘मां, मैं कल आ कर समझ लूंगी. अभी तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है,’’ उर्मिला ने शरमा कर कहा.

‘‘बेटी, कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए. मेरे विचार में तो तुझे अब हमारे पास ही आ कर रहना चाहिए. वहां तेरी देखभाल अच्छी तरह हो जाएगी.’’

‘‘अरे मां, अभी तो बहुत जल्दी है, मैं आ गई तो फिर इन के खाने का क्या होगा?’’

‘‘ओ हो, कितनी पगली है. अरे नरेश भी आ कर हमारे साथ रहेगा.’’

सालियों ने ताली बजा कर इस सुझाव का स्वागत किया, ‘‘जीजाजी हमारे साथ रहेंगे तो कितना मजा आएगा. जीजाजी, सच, अभी चलिए. हम सब सामान बांध देते हैं. बताइए, क्या ले चलना है?’’

नरेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘यह तो संभव नहीं है. अभी बहुत समय है. वैसे देखभाल तो मां को ही करनी है. बीचबीच में आ कर देखती रहेंगी.’’

‘‘जीजाजी, आप बहुत खराब हैं. पर दावत से नहीं बच सकते. क्यों दीदी?’’

‘‘हांहां,’’ उर्मिला ने कहा, ‘‘यह भी कोई बात हुई? क्या खाओगी, बोलो?’’

न सिर्फ फरमाइशों का ढेर लग गया बल्कि यह भी निर्णय ले लिया गया कि सारी सालियां शुक्रवार को ही आ जाएंगी. दिन में घर रहेंगी. दोनों समय का पौष्टिक भोजन करेंगी. रात में रहेंगी और फिर यहीं से शनिवार को पिकनिक के लिए प्रस्थान करेंगी. पिताजी कार ले कर आ जाएंगे.

नरेश की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी. सारे दिन इन छोकरियों के नखरे कौन उठाएगा?

सब लोग इतना पीछे पड़े कि नरेश को शुक्रवार की छुट्टी लेने के लिए राजी होना पड़ा. फिर एक बार हर्षध्वनि के साथ तालियां बज उठीं. उस ध्वनि में नरेश को ऐसा लगा कि वह एक ऐसा गुब्बारा है जिस में किसी ने सूई चुभो दी है और हवा धीरेधीरे निकल रही है.

रात में भिगोए हुए काले चनों का जब सुबह नरेश नाश्ता कर रहा था तो उर्मिला ने याद दिलाया कि आज शुक्रवार है और छोकरियां आती ही होंगी. अंडे, आइसक्रीम, मुर्गा, बेकन, केक, काजू की बर्फी इत्यादि का प्रबंध करना होगा, तो नरेश ने अपनी पासबुक खोल कर उर्मिला के आगे कर दी.

‘‘क्या मेरी नाक कटवाओगे?’’

‘‘तो फिर पहले सोचना था न?’’

‘‘क्या हम इतने गएगुजरे हो गए कि उन्हें खाना भी नहीं खिला सकते?’’

‘‘खाना खिलाने को कौन मना करता है. पर जश्न मनाने के लिए पास में पैसा भी तो होना चाहिए.’’

‘‘अब इस बार तो कुछ करना ही होगा.’’

‘‘तुम ही बताओ, क्या करूं? उधार लेने की मेरी आदत नहीं. ऐसे कब तक जिंदगी चलेगी?’’

‘‘देखो, कल पिकनिक पर जाना है. कुछ न कुछ तो खर्च होगा ही. अब ऐसे झाड़ कर खड़े हो गए तो मेरी तो बड़ी बदनामी होगी,’’ उर्मिला ने नरेश को अपनी बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘मेरी खातिर. सच तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘सुनो, अपना हार दे दो. बेच कर कुछ रुपए लाता हूं.’’

‘‘क्या कह रहे हो? क्या मैं अपना हार बेच दूं?’’

‘‘तो फिर रुपए कहां से लाऊं?’’

‘‘क्या अपने दोस्तों से उधार नहीं ले सकते?’’

‘‘वे सब तो मेरे ऊपर हंसते हैं. और वैसे वे लोग तो दफ्तर में होंगे. मैं कहां जाता फिरूंगा?’’

तभी घंटी बज उठी. दरवाजा खुलने में देर हुई इसलिए बजती रही, बजती रही. सालियां जो ठहरीं.

‘‘लो, आ गईं.’’

फिर वही खिलखिलाहट.

‘‘जीजाजी, आज तो फिल्म देखने चलेंगे. ऐसे नहीं मानेंगे.’’

‘‘क्यों नहीं, फिल्म जरूर देखेंगे.’’

‘‘ठीक है, तो आप फिल्म का टिकट ले कर आइए और हम लोग दीदी को ले कर बाजार जा रहे हैं.’’

चायपानी के बाद जब नरेश जाने लगा तो अकेले में उर्मिला ने कहा, ‘‘सुनो, रुपए जरूर ले आना. मेरे पास मुश्किल से 40 रुपए होंगे, और वे भी मां के दिए हुए. वापस जल्दी आ जाना.’’

‘‘हां, जल्दी आऊंगा,’’ नरेश ने कहा, ‘‘मेरे पास रुपए कहां हैं? टिकट के पैसे भी तो जेब में नहीं हैं, और फिर पिकनिक का खर्चा अलग.’’

‘‘कहा न, इतने बड़े अफसर होते हुए भी ऐसी बात करते हो,’’ उर्मिला ने कहा.

‘‘ठीक है, जाता हूं, पर संन्यास ले कर लौटूंगा.’’

नरेश चला तो गया, पर सोचने लगा कि इस ‘चंद्रकांता संतति’ पर कहीं न कहीं पूर्णविराम लगाना ही होगा.

कुछ देर भटक कर वह वापस आ गया. देखा तो चौकड़ी पहले से ही घर में बैठी हुई थी और सब का मुंह लटका हुआ था. उन को देखते ही नरेश ने भी अपना मुंह और लटका लिया.

‘‘क्या हुआ, जीजाजी? आप को क्या हुआ?’’

‘‘बहुत बुरा हुआ. कुछ कहने योग्य बात नहीं है. पर तुम लोगों का मुंह क्यों लटका हुआ है? तुम लोग तो खानेपीने का सामान लेने गई थीं न?’’

‘‘हां, गए तो थे, पर दीदी के पर्स में रुपए ही नहीं थे. सारा सामान खरीदा हुआ दुकान पर ही छोड़ कर आना पड़ा. आप कैसे हैं, जीजाजी? पत्नी को घरखर्च का रुपया भी नहीं देते?’’

‘‘लो, यह तो ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली बात हो गई. अरे, मैं तो सारा वेतन तुम्हारी दीदी के हाथ में रख देता हूं. मेरे पास तो सिनेमा के टिकट खरीदने के भी पैसे नहीं थे. जल्दीजल्दी में मांगना भूल गया था, सो रास्ते से ही लौट आया.’’

‘‘तो क्या आप टिकट नहीं लाए?’’

‘‘क्या करूं, उधार टिकट मांगने की हिम्मत नहीं हुई, पर मैं ने तसल्ली के लिए एक काम किया है.’’

‘‘हाय जीजाजी, हम आप से नहीं बोलते.’’

उर्मिला ने कहा, ‘‘पर पूछो तो सही क्या लाए हैं?’’

औपचारिकता के लिए छोटी ने पूछा, ‘‘आप क्या लाए हैं, जीजाजी?’’

जेब में से 4 पुस्तिकाएं निकालते हुए नरेश ने कहा, ‘‘सिनेमा के बाहर 50 पैसे में फिल्म के गानों की यह किताब बिक रही थी. मैं ने सोचा कि फिल्म न सही, उस की किताब ही सही. लो, आपस में एकएक बांट लो.’’

जब किसी ने भी किताब न ली तो नरेश आराम से सोफे पर पैर फैला कर बैठ गया और हंसहंस कर किताब जोरजोर से पढ़ कर सुनाने लगा और जहां गाने आए वहां अपनी खरखरी आवाज में गा कर पढ़ने लगा. एक समय आया जब सालियों से भी हंसे बिना नहीं रहा गया.

उर्मिला ने किताब हाथ से छीनते हुए कहा, ‘‘अब बंद भी करो यह गर्दभ राग. कुछ खाने का ही बंदोबस्त करो.’’

‘‘बोलो, हुक्म करो. बंदा हाजिर है. बिरयानी, चिकनपुलाव, कोरमा, पनीर, कोफ्ते, शामी कबाब, सींक कबाब, मुगलई परांठे, मखनी तंदूरी मुर्गा?’’

‘‘बस भी करो, जीजाजी, पता लग गया कि आप वही हैं कि थोथा चना बाजे घना. मैं तो 2 दिन से उपवास किए बैठी थी. लगता है सूखा चना भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘भई, सूखा चना तो जरूर मिलेगा.  क्यों, उर्मिला? बस, तो फिर आज चना पार्टी ही हो जाए. जरा टटोलो बटुआ अपना, कहीं उस के लिए भी चंदा इकट्ठा न करना पड़ जाए.’’

बड़ी साली ने कहा, ‘‘अच्छा, दीदी, हम चलते हैं. कल ही आएंगे. तैयार रहना.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसे कैसे जाओगी. कुछ तो खा के जाओ. जरा बैठो, कुछ न कुछ तो खाना बन ही जाएगा. बात यह है कि सारी गलती मेरी है. वेतन तो तुम्हारे जीजाजी सब मेरे हाथ में देते हैं, पर मैं झूठी शान में सारा एक ही सप्ताह में खर्च कर देती हूं. अब कब तक तुम से छिपाऊंगी.’’

‘‘नहीं, दीदी, थोड़ी गलती तो हमारी भी है. हमें भी तुम्हारे साथ मिलबैठ कर आनंद लेना चाहिए. तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहिए,’’ बड़ी ने कहा.

छोटी ने शैतानी से कहा, ‘‘देखा, दीदी, नंबर 2 कितनी चालाक हैं. अपना रास्ता पहले ही साफ कर लिया कि कोई हम में से जा कर उस के ऊपर बोझ न बने.’’

नरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘तो फिर अब जब पोल खुल गई है तो सिनेमा देखने के लिए तैयार हो जाओ.’’

और फिर जो चीखपुकार मची तो लगा सारा महल्ला सिर पर उठा लिया है. टिकट बालकनी के नहीं, पहले दरजे के थे, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हुई. फिल्म देखने के बाद नरेश उन्हें ढाबे में तंदूरी रोटी और दाल खिलाने ले गया. वह भी सब ने बहुत मजे से पेट भर कर खाया.

इस तरह एक दामाद और बच गया.द्य

फ्लर्ट

अंतिम भाग

लेखक- शन्नो श्रीवास्तव

पूर्व कथा

सोनी अपने ममेरे भाई राजू भैया की लड़कियों से छेड़छाड़ करने की आदत से परेशान थी. लड़कियां भी न जाने क्यों उस की लच्छेदार बातों में फंस जाती थीं. जबकि इस के पीछे उस का मकसद सिर्फ टाइमपास होता था, उन्हें ले कर वह भावुक हो ऐसा कभी नहीं हुआ.

सोनी राजू भैया की दीदी की ननद की शादी में जाती है. जहां राजू दीदी की चचेरी ननद रेशमी को प्यार भरी बातों से काफी बेवकूफ बनाता है.

विवाह के बाद राजू सोनी के सामने शेखी बघारता है कि कैसे रेशमी उस की बातों में आ गई और अच्छी बेवकूफ बनी. सोनी राजू को समझाने की कोशिश करती है कि वह अपनी यह आदत छोड़ दें वरना मामाजी से शिकायत कर देगी. राजू के घर पर सोनी मामी से मिलती है और कहती है कि राजू भैया की शादी जल्दी करवा दे क्योंकि वह लड़कियों के पीछे लगे रहते हैं. राजू भैया की मां भी सोनी की बात पर ज्यादा गौर नहीं करती. अब आगे…

कुछ दिनों बाद मेरी बूआ की लड़की की शादी पड़ी. लड़के वाले गोरखपुर के थे इसलिए बूआ का परिवार कानपुर से 5 दिन पहले ही गोरखपुर आ कर होटल सत्कार में ठहर गया और शादी की तैयारियां होने लगीं. शादी का कार्ड मामा के यहां भी गया था और राजू भैया को खासकर शादी की व्यवस्था संभालने के लिए फूफाजी ने बुलाया था.

बूआ के जेठजी का भी पूरा परिवार साथ में आ गया था. उन की इकलौती लड़की गौरी भी आई थी. कामधाम से खाली हो कर रात में जब हम सब गाने या बातचीत के लिए बैठते तो उस समय राजू भैया का जगह ढूंढ़ कर गौरी के बगल में जा कर बैठना मेरी नजर से बच नहीं पाया. और एक दिन जब शाम तक राजू भैया होटल में नहीं आए तो गौरी ने मुझ से पूछा, ‘‘सोनी, आज तेरे राजू भैया नहीं आएंगे क्या?’’

‘‘क्यों, कोई काम था?’’ मैं ने पैनी निगाह उस पर गड़ाते हुए पूछा.

‘‘नहीं, काम नहीं था, वह रोज आते थे, आज नहीं दिखे तो पूछ लिया.’’

‘‘बैठे होंगे किसी गर्लफ्रेंड के पास, यहां की याद नहीं आई होगी,’’ मैं ने लापरवाही से कहा. मकसद था, बस गौरी को उन की आदत से अवगत कराना.

‘‘उन की बहुत सारी गर्लफे्रंड हैं क्या?’’ कुछ देर की खामोशी के बाद सर्द आवाज में गौरी ने पूछा.

‘‘हां, गर्ल तो बहुत सी हैं पर वे फें्रड भी हैं या नहीं मैं नहीं जानती.’’

इस के बाद गौरी की आंखों में मैं ने जो कुछ देखा उस से एक अनजाना सा भय लगा मुझे.

उस के बाद मैं शालू दीदी के साथ खरीदारी और ब्यूटी पार्लर के चक्कर लगाने में इतनी व्यस्त हो गई कि उधर मेरा ध्यान ही नहीं गया. एक बार बीच में फिर राजू भैया से झगड़ने का अवसर पा गई तो मैं ने उन्हें आडे़ हाथों लिया.

‘‘आप उस के पीछे क्यों पड़े हैं?’’

‘‘किस के पीछे?’’

‘‘गौरी के.’’

‘‘अच्छा, वह पगली? गौरी नाम है उस का, पूरी बेवकूफ दिखती है.’’

‘‘बेवकूफ है, पगली है, फिर भी उस के पीछे हाथ धो कर पडे़ हैं.’’

‘‘बेवकूफ है तो क्या, है तो सुंदर. कौन सा मुझे उस के साथ शादी कर के घर बसाना है. वैसे वह है कहां? उसे बातों के छल्ले में घुमाने में मुझे बहुत मजा आता है,’’ कहते हुए राजू भैया उस की ही तलाश में निकल पडे़.

शालू दीदी की शादी हो गई. सभी लोग अपनेअपने घर चले गए. मेरी परीक्षाएं नजदीक आ गई थीं इसलिए मैं भी सबकुछ भूल कर पढ़ाई में लग गई. मामा के यहां आनाजाना भी बंद था इसलिए राजू भैया से भी मुलाकात बहुत कम हो पाती थी.

तभी अचानक एक दिन कानपुर से बूआ का फोन आया. उन्होंने कहा, ‘‘भैया, गौरी की तबीयत बहुत खराब है, आप लोग यहां आ जाइए. साथ में सोनी को भी लेते आइएगा तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘गौरी की तबीयत खराब है तो मुझे क्यों इस तरह अचानक बुला रहे हैं और साथ में सोनी को भी,’’ मम्मीपापा को बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी. बारबार पूछने पर भी बूआ फोन पर कुछ नहीं बता पा रही थीं और हमें कानपुर ही बुला रही थीं.

मम्मीपापा कुछ समझ नहीं पा रहे थे, पर गौरी बीमार है और मुझे बुलाया है यह सुन कर लगा था कि तार कहीं न  कहीं राजू भैया से जुड़े हैं.

मेरा शक सही निकला. हम वहां पहुंचे तो गौरी बिस्तर पर पड़ी थी. बूआ ने बताया, ‘‘शालू की शादी से वापस आने के बाद से ही इस का यह हाल है. पहले तो हम लोगों ने सोचा कि शालू की याद आती होगी, बाद में डाक्टर को दिखाना पड़ा तो उन्होंने डिप्रेशन बताया. एक दिन तो डिप्रेशन इतना बढ़ गया कि इस ने आत्महत्या करने की भी कोशिश की थी.’’

‘‘आखिर बात क्या है?’’ मम्मी ने पूछा, ‘‘कुछ तो कारण पता चला होगा और फिर हम लोगों को यों अचानक क्यों बुलाया है?’’

‘‘भाभी, गौरी राजू के लिए पागल हो गई है. इस की बस, एक ही रट है कि राजू नहीं मिला तो जान दे दूंगी. इतने दिनों तक तो हम इसे समझाते रहे पर जब पानी सिर से ऊपर हो गया और गौरी ने जान देने की कोशिश की तो मजबूर हो कर हमें आप को बुलाना पड़ा. जेठजी की यह इकलौती संतान है. इस की इस हालत से वह अपना धैर्य खो चुके हैं. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है, अब आप लोग ही कुछ कर सकते हैं वरना कहीं अनर्थ न हो जाए.’’

मम्मी जानती थीं कि राजू भैया की हर हकीकत मुझे पता होती है इसलिए वह मुझे एक किनारे ले जा कर धीरे से पूछने लगीं, ‘‘यह क्या चक्कर है, सोनी? क्या सचमुच राजू और गौरी के बीच कुछ बात है? क्या राजू भी चाहता है इसे? तुझे तो सचाई मालूम होगी?’’

दूसरे दिन मैं ने गौरी को टटोलते हुए पूछा, ‘‘यहां आने के बाद तुम ने राजू भैया से कभी फोन पर बात की थी?’’

‘‘हां, मैं ने फोन कई बार किया. शुरू में तो उन्होंने बात की पर बाद में ‘रांग नंबर’ कह कर फोन रख देते हैं. मैं ने उन्हें कई पत्र भी लिखे पर एक का भी उन्होंने जवाब नहीं दिया. पता नहीं पत्र उन्हें मिले ही नहीं या वह जवाब ही नहीं देना चाहते,’’ कहतेकहते गौरी की आंखों से झरझर आंसू गिरने लगे.

‘‘देखो गौरी, मैं ने तो तुम्हें पहले ही बताया था कि राजू भैया की बहुत सारी गर्लफ्रेंड हैं, फिर भी तुम उन्हें कैसे चाहने लगीं. तुम इतनी अच्छी लड़की हो, तुम्हें एक से बढ़ कर एक लड़के मिलेंगे, उन के बारे में सोचना छोड़ दो. उन के जैसे लड़के किसी से प्यार नहीं करते, बस, अपना टाइमपास करते हैं लड़कियों के साथ.’’

‘‘अगर वे मुझ से प्यार नहीं करते थे तो क्यों बारबार मेरी तारीफ करते थे, मेरे पास आने का बहाना ढूंढ़ते थे, मुझ से घंटों बातें करते थे, अपना फोन नंबर दिया और पत्र लिखने को कहा. क्या यह सब उन के लिए टाइमपास था?’’

‘‘हां, गौरी, हां, मैं राजू भैया को बहुत अच्छी तरह जानती हूं. वह तुझे प्यार नहीं करते,’’ मैं ने दिल कड़ा कर के सचाई उस से कह ही डाली.

‘‘प्यार नहीं करते हैं तो जा कर अपने राजू भैया से कह देना कि मैं उन्हें प्यार करती हूं और करती रहूंगी वे चाहे करें या न करें. साथ में यह भी कह देना कि गौरी ने उन के साथ टाइमपास नहीं किया है बल्कि दिल से प्यार किया है और अब जीवन भर उन का इंतजार करूंगी. हां, यदि जुदाई बरदाश्त न कर पाई तो जहर पी लूंगी.’’

गौरी के तेवर और हालत मम्मी को बताई तो उन का चेहरा ही उतर गया. ‘‘क्या करेंगे अब? एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं राजू के लिए. यह गौरी तो केवल देखने में ही सुंदर है, दिमाग कितना कम है यह हम से छिपा है क्या. किसी तरह इंटर तक पढ़ाई की और अब घर बैठी है. शादी करवा दी तो मेरे राजू की जिंदगी बरबाद हुई और न करवाई तो लड़की ने कुछ कर लिया तो हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएंगे.’’

मम्मीपापा की हालत देखने लायक थी और जब गौरी के मम्मीपापा ने उन के सामने हाथ जोड़ कर बेटी के प्राणों की भीख मांगी तो पापा शरम से गड़ गए. गौरी के पापा को गले से लगाते हुए उन्होंने राजू भैया के पापा से बात करने  और उन्हें शादी  के लिए मनाने का पक्का वादा कर दिया.

सारी बातें सुनने के बाद मामामामी को तो सांप सूघ गया. इकलौते बेटे की शादी के सारे सपने बिखरते दिखने लगे. कोई और लड़की होती तो बात आईगई करने की भी कोशिश करते पर मामा के सामने बहनबहनोई के मानसम्मान का प्रश्न था और पापा के सामने छोटी बहन की ससुराल का मामला था.

आखिर मामामामी तैयार हो गए. राजू भैया को जब सारी बातें पता चलीं तो बौखला गए, ‘‘ऐसे कोई भी लड़की मेरे पीछे पागल हो जाए तो मैं कैसे उस से शादी कर लूं. मेरी पूरी जिंदगी का सवाल है, मैं नहीं करूंगा उस बेवकूफ लड़की से शादी.’’

‘‘बेटे, मैं चुप रहता हूं तो इस का मतलब यह नहीं है कि कुछ देखता भी नहीं हूं. आप की आदतें मेरी नजरों से छिपी नहीं हैं. मैं ने कभी कुछ कहा नहीं आप से इस का मतलब यह नहीं है कि आप की हरकतों से मैं अनजान हूं,’’ पापा के इस गंभीर वाक्य से राजू भैया की नजरें जमीन में गड़ गईं.

मामी ने समझाया, ‘‘देखो बेटा, अब परिस्थिति के साथ समझौता तो  करना ही पडे़गा. कहीं सचमुच उस ने फिर से जहर खा लिया तो हम सब पुलिस और कोर्टकचहरी के चक्कर में फंस जाएंगे और बदनामी भी कितनी होगी. देखने में तो गौरी ठीकठाक ही है, शादी के बाद पढ़ा लेंगे उसे आगे.’’

‘‘दिमाग होगा तब न पढ़ेगी आगे,’’ राजू भैया चीख पडे़.

‘‘दिमाग है या नहीं यह सब तब नहीं दिखा था क्या जब उस की तारीफों के पुल बांधा करते थे. कान खोल कर सुन लो, न चाहते हुए भी अब उस लड़की से तुम्हारी शादी कर देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता है मेरे सामने,’’ मामा बुरी तरह झल्लाते हुए उठ गए वहां से.

शादी से बचने का कोई और रास्ता न देख कर एक रात राजू भैया घर ही छोड़ कर चले गए. उन के इस तरह चले जाने का गम मामामामी की बरदाश्त के काबिल न था. पथराई आंखों से वे रोज बेटे के वापस आने या उस की कुशलता का समाचार पाने के इंतजार में रास्ता निहारते.

लाख छिपातेछिपाते भी राजू के घर छोड़ कर चले जाने की खबर एक दिन गौरी ने सुन ली और उसी रात उस ने अपनी धमकी को सच में तबदील कर दिया. फांसी के फंदे से झूलती गौरी के हाथों से पुलिस को जो ‘सुसाइड नोट’ मिला उस में उस ने साफसाफ शब्दों में राजू भैया को अपनी मौत के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया था. उस के बाद से पुलिस राजू भैया की तलाश में लग गई थी.

मामामामी अब यह सोचने लगे थे कि राजू घर वापस न ही आए तो अच्छा हो वरना पुलिस के हाथ लग गया तो न जाने क्या हाल होगा उस का.

गौरी की मौत ने मेरे परिवार के रिश्तों को भी बिखेर दिया. फूफाजी और उन के परिवार वालों ने मम्मीपापा को दोषी ठहराते हुए कहा कि यदि आप लोग चाहते तो हमारी बेटी की जान बच सकती थी. फूफाजी ने बूआ से साफ कह दिया कि हमारी भतीजी की मौत के जिम्मेदार तुम्हारे भैयाभाभी व उन के रिश्तेदार हैं. उन से तुम चाहो तो रिश्ता रखो पर मेरा अब उन से कोई संबंध नहीं है.

गौरी की मौत जैसे दर्दनाक हादसे के बाद सभी बड़ेबुजुर्गों ने अपनाअपना गुस्सा एकदूसरे पर उतार दिया और मैं सोचने लगी, ‘काश, किसी भी एक बुजुर्ग ने किसी भी एक अभिभावक ने, राजू भैया को उन की ऐसी आदतों के लिए रोकाटोका या समझाया होता तो न यों गौरी ने असमय मौत को गले लगाया होता और न यों हमारा परिवार बिखरता.’     द्य

फ्लर्ट

लेखक- शन्नो श्रीवास्तव

भाग-1

‘‘क्या करूं. तुम ने तो अपनी सहेलियों से मेरा परिचय करवाया नहीं तो सोचा मैं खुद ही परिचय कर लूं,’’ राजू भैया ने अपनी चिरपरिचित आवाज में कहा तो मैं उन्हें घूरते हुए बोली, ‘‘जरूरी है क्या, जो मैं अपनी हर सहेली का आप से परिचय कराऊं.’’

मेरे चिढ़ने का उन पर कुछ खास असर तो नहीं हुआ लेकिन वहां से वह उठ गए और जातेजाते मेरी सहेलियों से कहते गए, ‘‘भई, आप लोगों ने कुछ नाश्तापानी किया या नहीं. रुकिए, मैं ही कुछ आप लोगों के लिए भिजवाता हूं. इस ने तो अब तक आप लोगों को कुछ खिलाया नहीं होगा.’’

मुझे पता था कि भिजवाना क्या वह नाश्ते की 2-4 प्लेटें ले कर खुद हाजिर हो जाएंगे. इसी बहाने इन चंचल तितलियों के पास पहुंचने का उन्हें एक और मौका जो मिल जाएगा.

राजू भैया के वहां से उठते ही मैं ने अपनी सहेलियों से कहा, ‘‘देखो, तुम सब इन की बातों में मत आना. यह बस, ऐसे ही हैं, जहां लड़कियों को देखते हैं, आगेपीछे मंडराने लगते हैं.’’

‘‘कैसी बहन है तू जो अपने भाई के बारे में ऐसी बातें कह रही है,’’ मेरी सहेली सारिका ने कहा तो मैं ने कहा, ‘‘वे बडे़ भाई हैं तो तुम लोग भी मेरी सहेलियां हो. किसी फालतू चक्कर में न पड़ जाओ इसलिए तुम्हें आगाह करे दे रही हूं.’’

मैं उन सब को ले कर बाहर लान में आ गई ताकि राजू भैया नाश्ते की प्लेट के साथ आ कर फिर न जम जाएं.

हम लान में खडे़ बातें कर रहे थे कि तभी एक चाबी का गुच्छा हमारे पास आ कर गिरा.

‘‘किस की चाबी है यह? यहां कहां से आ गई?’’

वंदना ने चाबी का गुच्छा उठाया तो हम आश्चर्य से चारों तरफ देखने लगे.

‘‘अरे, यह गुच्छा तो मेरा है. अच्छा हुआ आप को मिल गया वरना तो मैं ढूंढ़ता ही रह जाता,’’ कहते हुए राजू भैया ने चाबी का गुच्छा वंदना के हाथ से लिया और झुक कर उस का शुक्रिया अदा किया मानो उस ने घास में से सूई ढूंढ़ कर उन्हें दी हो.

राजू भैया हम से कम से कम 3 मीटर की दूरी पर खडे़ थे. वहां से  चाबी हम तक गिर कर आई थी या फेंकने से आई होगी, यह समझने में हमें देर नहीं लगी. मेरी सहेलियों तक पहुंचने की उन की इस कोशिश पर मैं चिढ़ी तो बहुत पर मन ही मन मुसकरा पड़ी. वंदना को जब मैं ने चोरीचोरी राजू भैया की ओर देखते पाया तो बोल ही पड़ी, ‘‘ए वंदना, देख तू बाद में रोते हुए मेरे पास मत आना. उन की आदत मैं पहले ही तुम्हें बता चुकी हूं कि हर एक लड़की के पीछे वह ऐसे ही पडे़ रहते हैं.’’

वंदना ने अपनी खिसियाहट छिपाते हुए कहा, ‘‘धत पगली, ऐसा कुछ थोडे़ ही है.’’

राजू भैया को मैं बहुत पसंद करती थी पर उन की इसी टाइमपास आदत की वजह से हमेशा उन से मेरा झगड़ा हुआ करता था. लड़कियां उन की कमजोरी बनती जा रही थीं. लड़कियों पर अपना प्रभाव डालना उन्हें अच्छा लगता और जब देखते कि कोई लड़की उन की ओर आकर्षित हो गई है या उन से सचमुच प्यार करने लगी है तो फिर उस से कन्नी काटना शुरू कर देते और ऐसा व्यवहार करने लगते जैसे उस में उन की कोई रुचि ही नहीं है.

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अभी पिछले माह हम राजू भैया की दीदी की ननद की शादी में गए थे. वहां चारों तरफ राजू भैया ही छाए हुए थे. एक तो भाभी के भाई होने का रिश्ता, दूसरे, इतने हैंडसम और वाक्पटु. शादी की जिम्मेदारियां भी उन्होंने खूब संभाली थीं. इन सब के बीच भी राजू भैया की निगाहें लगातार तलाश में थीं कि अपने फुरसत के पल किन जुल्फों के साए में बैठ कर बिताएं कि सारी थकान मिट जाए. उन की यह तलाश जल्दी ही दीदी की चेचेरी ननद रेशमी ने पूरी कर दी.

मैं ने जब बारबार रेशमी और राजू भैया को एकसाथ उठतेबैठते देखा तो समझ गई कि जब हम यहां से जाएंगे तो रेशमी की आंखें तो आंसुओं से भीगी रहेंगी पर राजू भैया यहां से निकलते ही रेशमी का नाम भी भूल जाएंगे.

लड़की होने के कारण मैं लड़कियों की भावुकता से अच्छी तरह परिचित थी इसलिए अनजाने में ही हर लड़की को राजू भैया के इस ‘टाइमपास’ से मिलने वाली काल्पनिक पीड़ा से बचाने का मैं ने बीड़ा सा उठा लिया था. और इसी सचाई को जब मैं ने रेशमी को बताने की कोशिश की तब तक उस की आंखों में राजू भैया के सपने तैरने लगे थे.

‘‘कल कौन से रंग का सूट पहनेंगी आप?’’ राजू भैया ने जब धीरे से रेशमी से पूछा तो उस का पूरा चेहरा ही लाल हो गया. रेशमी कुछ कहती उस से पहले मैं बोल पड़ी, ‘‘रेशमी, प्लीज, ये जो रंग पहनने की सलाह दे रहे हैं तुम उसे हरगिज मत पहनना.’’

‘‘क्यों? क्या इन की पसंद इतनी खराब है?’’ खा जाने वाली नजरों से रेशमी ने मुझे देखा. शायद उसे लगा कि राजू भैया की उस में दिलचस्पी मुझे पसंद नहीं आ रही.

अब मैं उसे कैसे बताती कि वह तो यहां से जाते ही तुझे भूल जाएंगे और तू उन की च्वायस पर आंसू बहाती रह जाएगी.

पूरी शादी राजू भैया और रेशमी जहां भी दिखते साथ ही दिखते. एक बार फिर जी में आया कि रेशमी को राजू भैया के बारे में बता दूं कि वह उसे ले कर गंभीर नहीं हो सकते हैं पर रेशमी की कही बात याद आई तो उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

और वही हुआ. वापसी के लिए हम प्लेटफार्म पर बैठे टे्रन का इंतजार कर रहे थे कि तभी राजू भैया बोले, ‘‘सोनी, शादी वाले दिन रेशमी अपनेआप को ऐश्वर्या राय से कम नहीं समझ रही थी. मैं ने तो उसे हंसी में पीले रंग का सूट पहनने को कह दिया था और जब वह पहन कर मुझ से पूछने आई कि कैसी लग रही हूं तो मेरी तो हंसी ही नहीं रुकी. मन में तो आया कह दूं कि बिलकुल वैसी जैसी सरसों के खेत में भैंस, पर बड़ी मुश्किल से मन मार कर उस की तारीफ में कुछ कहना पड़ा.’’

‘‘क्यों करते हैं आप ऐसा, राजू भैया? उस को कितना दुख हो रहा होगा यह कभी सोचा है आप ने? देखा था कैसी लाल आंखें हो गई थीं उस की रोरो कर. वह तो सोच रही होगी कि आप उसे दिलोजान से चाहते हैं और आप…’’

‘‘मैं ने तो एक बार भी नहीं कहा उस से कि मैं उसे चाहता हूं. अब कोई जबरदस्ती समझ बैठे तो इस में मेरी तो कोई गलती नहीं है. देख सोनी, लड़कियां तो चाहती ही यही हैं.’’

‘‘देखिए, सभी लड़कियों को तराजू के एक पलड़े पर रख कर मत तोलिए और न

ही सब लड़कियां रेशमी

जैसी बेवकूफ होतीहैं,’’ मैं गुस्से में भनभना कर बोली, ‘‘भैया, यदि आप ने अपनी आदत नहीं सुधारी तो मैं मामाजी से आप की शिकायत कर दूंगी.’’

‘‘अच्छा, पापा से तो घर पहुंच कर तू मेरी बात बताएगी पर मुझे तो यहीं बता कि वह सामने वाली लड़की अच्छी लग रही है न?’’

मैं ने नजर उठा कर देखा तो सामने से सचमुच एक सुंदर सी लड़की कंधे पर ट्रैवलिंग बैग लटकाए हमारी ओर ही बढ़ी आ रही थी. मैं फिर राजू भैया पर बरसती कि तभी हमारी टे्रन प्लेटफार्म पर आ गई और हम अपना सामान ले कर चढ़ गए.

अपना सामान ठीक से रखने के बाद जब मैं ने सहयात्रियों पर नजर डाली तो मुंह से निकल पड़ा, ‘हो गया कल्याण.’ वह लड़की हमारे सामने वाली बर्थ पर बैठी थी.

‘‘अब आप का रास्ता बहुत अच्छी तरह कटेगा,’’ मैं ने राजू भैया से जब यह कहा तो वह जोर से हंस पड़े.

‘‘लगता है, आप को पहले कहीं देखा है? आप गोरखपुर में तो नहीं रहतीं?’’ राजू भैया ने इस तरह बातों का सिलसिला चलाने के लिए तुक्का फेंका.

‘‘हां, रहती तो वहीं हूं पर मैं आप को नहीं पहचान पा रही हूं,’’ उस ने बड़ी शालीनता से कहा.

‘‘तुक्का लग गया. गोरखपुर की टे्रन में 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग तो वहीं जाने वाले होंगे न,’’ मुझ से नहीं रहा गया तो मैं बोल पड़ी.

‘‘क्या तुक्का लग गया?’’ वह लड़की झट से पूछ बैठी.

‘‘यह मेरी छोटी बहन है. बड़ों की बातों में बंदरिया जैसे कूद पड़ने की इस की आदत है,’’ बिलकुल शांत मुद्रा में उन्होंने कहा तो वह लड़की भी हंस पड़ी.

‘‘बंदर की बहन बंदरिया ही तो होगी,’’ कह कर, फिर लेट गई.

रास्ते भर राजू भैया के तुक्के लगते रहे और उन का प्रभाव उस लड़की पर पड़ता गया. गोरखपुर में टे्रन से उतरते समय उस ने अपना पता और फोन नंबर भी राजू भैया को पकड़ा दिया जिसे प्लेटफार्म से बाहर आते ही उन्होंने फाड़ कर फेंक दिया.

घर पहुंचने पर मैं जब मामी से मिली तो बोली, ‘‘मामी, आप राजू भैया की शादी क्यों नहीं कर रही हैं. जहां लड़की देखते हैं बस, पीछे ही लग जाते हैं. भाभी आएंगी तो लगाम खींच कर रखेंगी.’’

‘‘हां बेटा, कोई अच्छी लड़की हो तो बताओ, अब तो हम भी उस की शादी करना चाहते हैं.’’

‘‘उन्हें तो हर लड़की अच्छी लग जाती है, किसी से भी कर दीजिए…’’ मेरा वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि पीछे से मेरी चोटी खींच कर राजू भैया बोले, ‘‘चुगलखोर, चुगली कर रही है मेरी?’’

‘‘मामी, सच कहती हूं अभी तो भैया लड़की के पीछे लगते हैं, कभी कोई लड़की इन के पीछे पड़ गई न तो गले में बांधे घूमना पड़ेगा.’’

‘‘मेरे पीछे पड़ कर कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा?’’ कहता हुआ राजू मां की नजरों से बच कर जाने लगा लेकिन सोनी तपाक से बोली, ‘‘वह तो तभी पता चलेगा.’’

हमारा झगड़ा बढ़ता देख मामी बीच में बोल पड़ीं, ‘‘अरे बेटा, यह सब तो आजकल लड़कों का टाइमपास होता है, इस के लिए इतना होहल्ला क्यों कर रही हो.’’

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‘‘हां मामी, लड़कियों का दिल टूटता है तो टूटे, भैया का टाइमपास तो अच्छा हो जाता है न,’’ मैं गुस्से में पैर पटकते वहां से उठ गई. पीछे से राजू भैया के जोरजोर से हंसने की आवाज मुझे सुनाई देती रही.   -क्रमश:

दुनियादारी

लेखक- ज्योति मिश्रा

जब यह 12वीं पास हुई थी तब कितना कहा था उन से कि शहर में पढ़ा दो इस को. तब तो चुप लगा गए और अब जब लड़की के ब्याह का समय आया तो कहते हैं कि इसे शहर भेज दूं नौकरी करने. कोई जरूरत नहीं है, इस के भाग्य में जो लड़का होगा, वही इसे मिलेगा.’’

पापा ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने ही उन को लिखा था कि शेफाली के लिए कोई अच्छा लड़का हो तो बताएं. उन्होंने यही तो लिखा है कि आजकल सब नौकरीशुदा लड़की को ही तरजीह देते हैं. इसलिए इसे सुनंदा के पास भेज दो. जब तक लड़का नहीं मिलता, कहीं कोई नौकरी कर लेगी.’’

‘‘तो क्या बेटी के ब्याह का दहेज बेटी की कमाई से ही जोड़ोगे? हमें नहीं भेजना है इसे शहर. अब तक जैसे निबाहा है, आगे भी निभ जाएगी. लेकिन जवान बेटी को इतनी दूर नहीं भेजूंगी. आएदिन कैसीकैसी खबरें आती रहती हैं. दिल्ली भेजने को मन नहीं मानता.’’

‘‘अरे, अकेले थोडे़ रहेगी. सुनंदा के यहां रहेगी.’’

‘‘बेटी दामाद पर बोझ बनेगी. क्या कहेंगे दामादजी.’’

‘‘अरे, तो मैं ने थोड़ी उन से कहा था. यह भाई साहब का सुझाव है. कोई अच्छा लड़का मिल जाएगा तो इस के हाथ पीले कर देंगे. नहीं जंचा तो हाथ जोड़ कर माफी मांग लेंगे. अब इस मामले में ज्यादा बहस मत करो.’’

दूसरी तरफ उस पत्र ने शेफाली के युवा मन को स्वप्निल पंख दे दिए थे. उस ने भी मां को मनाना शुरू कर दिया, ‘‘मां, मुझे एक बार जाने दो न. कौन सा मैं नौकरी करने की सोच रही थी. लेकिन अगर मौका मिल रहा है तो हर्ज क्या है? अगर काम जंच गया तो तुम आ कर मेरे साथ रहना. हम अलग घर ले लेंगे. सोचो न मां, आगे छोटूबंटू के लिए भी नए रास्ते खुल जाएंगे.’’

रोतीबिसूरती मां मान गईं. शेफाली के जाने की तैयारी शुरू हो गई. आंसू भरी आंखों से विदाई देते हुए मां ने सावधानी से रहने की ढेरों हिदायतें दे डाली थीं.

ट्रेन की खिड़की से ‘नई दिल्ली रेलवे स्टेशन’ का बोर्ड पढ़ते ही शेफाली के दिल की धड़कनें एक नई ताल में धड़क उठी थीं. उसे लेने सुनंदा दीदी के पति संदीप जीजाजी स्टेशन आए थे. बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व था उन का. उस ने बढ़ कर पैर छूने चाहे तो उन्होंने बीच में ही रोक दिया. वह भी झिझक उठी. जब दीदी का विवाह हुआ था तब वह 8वीं में पढ़ती थी. लेकिन अब ग्रेजुएट हो गई थी.

स्टेशन से दीदी के घर तक का उस का सफर कितना रोमांचक और उत्सुकता से भरा था. वह अपने जीवन के इन सुखद क्षणों को सराहे बिना नहीं रह सकी, जिस ने उसे इतनी बड़ी कार में बैठने का मौका दिया था, अचानक एहसास हुआ कि इसी दुनिया में लोग इस तरह भी शान से जीते हैं.

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खिड़की से बाहर झांकती शेफाली अपने देश की राजधानी के एकएक कोने के परिचय को आत्मसात करती जा रही थी. चौड़ी सड़कें, बडे़छोटे हर आकार के घर. बच्चों के खेलने के लिए जहांतहां बने पार्क. बढि़या होटल, सजीधजी दुकानें देख उस का मनमयूर नाच उठा. वह सोचने लगी कि यहां लड़कियां कितनी आजाद हैं. आराम से जींसपैंट, स्कर्ट और झलकता हुआ टौप पहन कर घूमती हैं. अपनेआप आटो रोक कर चढ़ जाती हैं. सब अपने में निश्ंिचत, बेधड़क घूम रही हैं. उसे आजादी का यह माहौल देख कर बहुत अच्छा लगा.

उस की सोच को विराम तब लगा जब जीजाजी ने जोर से हौर्न बजाया. गाड़ी एक बडे़ से फाटक के सामने रुकी थी. वरदी पहने एक चुस्त आदमी ने आ कर गेट खोला. पार्किंग में एकसाथ कई तरह की गाडि़यां खड़ी थीं. रंगबिरंगे कपड़ों में सजेसंवरे, दौड़ते बच्चों को खेलते देख कर उस ने अंदाजा लगाया कि यहां सब अमीर लोग रहते हैं.

जीजाजी का घर छठी मंजिल पर था. लिफ्ट से निकलते हुए पापा हड़बड़ा गए, ‘कहीं फंस गए तो इसी में रह जाएंगे,’ कह कर उन्होंने अपनी झेंप मिटाई थी. आमनेसामने कुल मिला कर 4 मकान थे. जीजाजी ने आगे बढ़ कर घंटी दबाई. घंटी दबाते ही एक मीठी फिल्मी धुन हवा में तैर गई.

हर घर के बाहर की सजावट वहां रहने वालों के कलात्मक शौक को दर्शा रही थी. दीदी के यहां दरवाजे के दोनों तरफ मिट्टी के बडे़बडे़ छेद वाले घडे़ रखे थे. मोटा मखमली पायदान, कतारों में लगे पौधे.

अंदर से किसी के आने की आहट हुई तो वह सहज हो गई. थोड़ी देर में दरवाजा खुला और एक अजनबी चेहरा नजर आया.

‘‘निर्मला, सामान उठाना,’’ कह कर जीजाजी भीतर चले गए थे.

‘‘मेमसाब बाथरूम में हैं,’’ कह कर निर्मला भी परदे के पीछे चली गई.

दोनों बापबेटी, सामने बिछे कालीन को पार कर, सोफे में धंस गए. घर किसी फिल्मी सेट की तरह सजा हुआ था. हर चीज इतनी कीमती कि दोनों कीमत का अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे. बड़ा सा टीवी, लेदर का सोफा, शीशे की गोल सेंटर टेबल, बढि़या कालीन, चमकदार भारी परदे. सजावट की अलमारी में रखी महंगीमहंगी चीजें, सुंदरसुंदर बरतन, अनेक प्रकार के कप और ग्लास, रंगबिरंगी मूर्तियां और सुनहरे फ्रेम में जड़ी बड़ीबड़ी पेंटिंग.

अपने 2 कमरे वाले सरकारी घर को याद कर शेफाली सकुचा उठी थी. आंखों के सामने अपने घर की बेतरतीबी पसर गई. यहां आने से पहले वही घर शेफाली को कितना अच्छा लगता था. गृहप्रवेश वाले दिन सब की बधाइयां लेते हुए मां का कलेजा गर्व से कितना चौड़ा हो गया था. लेकिन कितना फर्क था इन 2 घरों की हैसियत में. ताऊजी के शहर आने से उन के परिवार के सदस्यों के रहनसहन के स्तर में कितना परिवर्तन आ गया था.

पल भर में ही निर्मला ट्रे में शीशे के चमचमाते गिलास में ठंडा पानी डाल कर ले आई. उस के बाद चाय और मिठाईनमकीन से सजी प्लेट रख गई. वह अपने काम में कुशल थी. अभी तक दीदी नहीं आईं. वक्त जैसे उन के इंतजार में रुक गया था. कितनी देर हो गई. वह तो जानती थीं कि आज हम आ रहे हैं फिर भी…जीजाजी भी अंदर जा कर गायब हो गए. ये भी कोई बात है. उस ने उकता कर पापा की तरफ देखा.

भतीजी के घर की शानोशौकत ने उन की आंखें फैला दी थीं. उन के चेहरे की खुशी और उत्कंठा के भाव बता रहे थे कि वह मां को सब बताने के लिए बेचैन हो रहे थे.

सच है, जिस लक्ष्मी को शेफाली के पापा ने सदा ज्ञान के आगे तुच्छ समझा था वही आज अपने भव्य रूप में उन्हें लुभा रही थी. सदा के संतोषीसुखी, पितापुत्री अपनी गरीबी को सोच कर आपस में ही संकुचित हो रहे थे.

‘‘अरे, चाय ठंडी हो रही है, लीजिए न चाचाजी.’’

मुसकुराती हुई, खुशबू बिखेरती हुई सुनंदा दीदी की मीठी आवाज गूंजी. कितनी गोरी, कितनी सुंदर, कितनी स्मार्ट लग रही थीं. उन्होंने आगे बढ़ कर पापा के पैर छुए.

पापा ने गद्गद कंठ से आशीर्वाद दिया.

शेफाली जैसे ही दीदी के पैर छूने को झुकी, उन्होंने उसे गले लगा लिया. उस के मन की सारी आशंकाएं खत्म हो गईं. वह सोच रही थी कि पहले से ही दर्पभरी दीदी इस वैभवऐश्वर्य को पा कर और घमंडी हो गई होंगी, लेकिन वह बदल गई हैं…यह भी नहीं सोचा कि रास्ते की गर्दधूल से सनी है मेरी देह. चाय पीते हुए दीदी ने सब का हाल पूछा. फिर उस का कमरा दिखाया.

‘‘बेटा, इतने प्यार से सुनंदा तुम को रख रही है, तुम भी उसे पूरा मानसम्मान देना. अच्छे से रहना. तुम्हारी मां सुनेगी तो खुश हो जाएगी. मुझे भी तसल्ली हुई कि तुम्हें यहां कोई कष्ट नहीं होगा.’’

भीतर से जीजाजी तैयार हो कर निकले. उन्हें आफिस जाना था. वह नाश्ता कर के विदा ले कर चले गए.

‘‘आप लोग भी नहाधो लीजिए और नाश्ता कर के आराम कीजिए,’’ कह कर दीदी फोन पर व्यस्त हो गईं.

खाना खा कर पापा जा कर लेट गए. उन्हें शाम की गाड़ी से लौटना था. उसे भी आराम करने को कह कर दीदी अपने कमरे में चली गईं.

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शाम को दीदी ने पापा से कहा, ‘‘चाचाजी, मैं कुछ कपडे़ लाई थी, छोटूबंटू के लिए और चाचीजी के लिए साडि़यां. इन्हें रख लीजिए. मैं थोड़ा बाजार से आती हूं, फिर आप को स्टेशन छोड़ कर आफिस निकल जाऊंगी.’’

‘‘अभी शाम को आफिस, बिटिया,’’ पापा कहते हुए हिचके.

‘‘हां, चाचाजी, मैं एक काल सेंटर में नौकरी करती हूं. मेरे सारे क्लाइंट्स अमेरिकन हैं. अब भारत और अमेरिका में तो दिनरात का अंतर होता ही है. इसीलिए रात को नौकरी करनी पड़ती है. वैसे शिफ्ट बदलती रहती हैं. कंपनी सारी सुविधाएं देती है. आनेजाने के लिए कार पिकअप, खानापीना सब. सुबह 12 बजे मैं घर आ जाती हूं,’’ दीदी ने सहज हो कर जवाब दिया.

‘‘और दामादजी?’’

‘‘वह कंप्यूटर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सिस्टम एनालिस्ट हैं. उन की ड्यूटी सुबह 10 से शाम 7 बजे तक होती है. वह 8 बजे शाम तक आएंगे. आप से भेंट नहीं हो पाएगी.’’

‘‘दीदी, आप अमेरिकियों से किस भाषा में बात करती हैं?’’ शेफाली ने जिज्ञासा जाहिर की.

‘‘अमेरिकन इंग्लिश में, जिस की कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी जाती है,’’ दीदी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘तुम भी सब सीख जाओगी. निर्मला, खाना जल्दी बना लेना. चाचाजी को जाना है.’’

‘‘घर की सारी व्यवस्था नौकरानी के हाथों में है. ऐसी नौकरी का क्या फायदा,’’ पापा बोले, ‘‘शेफाली, तुम ऐसी नौकरी मत करना, चाहे कितना भी पैसा मिले. हम लोग तो शहर के रहने वाले नहीं हैं. तुम्हारा ब्याहशादी सब बाकी है अभी, समझी न.’’

शेफाली ने हामी भरी, ‘‘आप बेफिक्र रहें, पापा.’’

पापा के जाने के बाद शेफाली ने निर्मला से पूछा, ‘‘मिंटी नजर नहीं आ रही है.’’

‘‘आज देर से आई है और तब आप सो रही थीं. अभी वह सो रही है.’’

निर्मला ने खाना बना कर टेबल पर रखा, फटाफट रसोई साफ की और बोली, ‘‘साहब आएंगे तो आप लोग खा लेना.’’

जीजाजी आते ही अपने कमरे में चले गए. वहां से टीवी चलने की आवाज आती रही. उस से उन्होंने बात भी नहीं की. वह अपनेआप को उपेक्षित महसूस करने लगी. रात को बिना खाए ही सो गई.

सुबह निर्मला के आने पर शेफाली की नींद टूटी. उस ने आते ही मिंटी का नाश्ता बनाया. फिर उसे उठाया, तैयार किया और 8 बजे स्कूल बस में चढ़ा आई. फिर जीजाजी के नाश्ते की तैयारी में लग गई. 10 बजे तक जीजाजी भी चले गए.

बेहद जल्दीजल्दी निर्मला काम निबटा रही थी. झाड़ ूपोंछा, बिस्तर झाड़ना, सोफे, परदे, खिड़की, दरवाजे, शोकेस सब की डस्ंिटग की. फिर फटाफट खाना बनाया. मशीन में कपड़े डाले. 12 बजे तक उस ने तमाम काम निबटा लिए, नहाधोकर शैंपू किए हुए बालों को फहराते हुए वह कपडे़ सुखाने लगी.

एकदम घड़ी की सुईयों से बंधा था निर्मला का एकएक काम. इतने काम में तो मां का सारा दिन निकल जाता है और फिर भी वह अस्तव्यस्त सी घूमती रहती हैं. मां ही क्या ज्यादातर औरतों का यही हाल है.

निर्मला का पति एक पब्लिक स्कूल में चौकीदार है. 7 साल की एक बेटी भी है, जो उसी स्कूल में पढ़ती है. घर में कूलर है, रंगीन टीवी है, टेप है. ये दीदी का घर संभालती है और इस का घर इस की सास संभालती है. आखिर निर्मला भी काम- काजी बहू है.

दरवाजे की घंटी ने मधुर स्वर छेड़ा, दीदी आ गईं. नींद से उन की आंखें लाल थीं. उन्होंने किसी तरह चाय के साथ एक टोस्ट निगला. ठंडे स्वर में उस का हाल पूछा और निर्मला को डिस्टर्ब न करने का निर्देश दे कर बेडरूम में चली गईं.

थोड़ी ही देर में मिंटी आ गई. जैसेतैसे निर्मला ने उस के कपडे़ बदले, खाना खिलाया, फिर मिंटी टीवी पर कार्टून देखने बैठ गई. निर्मला बीचबीच में उसे आवाज कम करने को कहती रहती. 4 बजे निर्मला उठी, चाय बनाई, खुद पी, शेफाली को दी, फिर मिंटी को घुमाने पार्क में ले गई. वहां से आ कर दूध पिलाया, खाना खिलाया और 6 बजे उसे सुला दिया.

शेफाली ने निर्मला से पूछा, ‘‘दीदी कब उठेंगी?’’

‘‘नींद टूटेगी तो उठ जाएंगी. इसीलिए बेबी को सुला दिया है, नहीं तो तंग करती है और मेमसाब गुस्सा हो जाती हैं.’’

वह यह देख कर हैरान रह गई कि 4 साल की बच्ची पूरी तरह आया के भरोसे परवरिश पा रही थी. मां बेखबर सो रही थी. पापा का फोन आया, बातें कीं, फिर वह बोर होने लगी. एक ही दिन में नीरसता सताने लगी. आ कर अपने कमरे में लेट गई. कैसी शांति है यहां, 4 कमरे, 4 आदमी. न कोई बातचीत, न ठहाके. उसे अपने घर की याद आ गई और रुलाई फूट पड़ी. जाने कब आंख लग गई.

घंटी बजी तो वह जागी. जीजाजी आए थे. वह बाथरूम से हाथमुंह धो कर बाहर निकली और ठिठक कर वापस अपने कमरे में चली गई. दीदीजीजाजी ड्राइंगरूम में ही टीवी के सामने एकदूसरे से लिपटे, एकदूसरे के होंठों को बेतहाशा चूम रहे थे, जैसे फिल्मों में देखती है. जीजाजी के हाथ दीदी के उभारों पर… शेफाली की कनपटी गरम हो गई.

दीदी ने थोड़ी देर बाद निर्मला को आवाज दे कर चाय लाने को कहा. वह शर्म से पानीपानी हो गई. निर्मला सब जानतीदेखती होगी. वह थरथरा गई.

दीदी ने उस के बारे में पूछा, निर्मला बोली, ‘‘सो रही हैं.’’

शेफाली ने सुकून महसूस किया कि चलो, सामने नहीं जाना पड़ेगा. निर्मला चली गई. थोड़ी देर बाद दीदी भी. जीजाजी दरवाजे तक छोड़ने गए थे. उस ने परदे के पीछे से साफ उन का आलिंगन और चूमना देखा. अब रह गए जीजाजी और शेफाली. डर और संकोच से सराबोर वह सामने पड़ने से कतराती रही.

वह और जीजाजी रात को अकेले…आगे शेफाली सोच नहीं पाई. अब यहां रहना है तो निर्मला की तरह अनजान बन कर रहना होगा. इन के घर की निजता का खयाल रखना होगा.

कुछ ही दिनों में शेफाली यहां के माहौल में रम गई. अब स्कूल से आते ही मिंटी मौसीमौसी करने लगती. कहानियां सुनतेसुनते वह कब खा लेती पता ही नहीं चलता. दीदीजीजाजी भी निश्ंिचत हो कर मिंटी की प्यारी गप्पें सुनते. अब उसे सुलाने की जल्दी किसी को नहीं रहती.  शेफाली के पास छोड़ दोनों एकांत में वक्त बिताते. निर्मला भी निश्ंिचत हो काम निबटाती. घर के औपचारिक माहौल में एक स्वाभाविकता आ गई थी.

एक दिन दीदी ने सलाह दी, ‘‘शेफाली, तुम संदीप से कंप्यूटर सीख लो.’’ तो उस ने हिचक के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकारा था. दीदी और निर्मला के जाने के बाद जब मिंटी सो जाती तो दोनों बैठ कर कंप्यूटर पर नया साफ्टवेयर सीखते. जीजाजी के बदन से उठती परफ्यूम की खुशबू उस को उस दृश्य की याद दिला देती थी.

कंप्यूटर के नामी इंस्टीट्यूट जो कोर्स 6 महीने में सिखाते हैं वह जीजाजी से कुछ ही दिनों में शेफाली सीख गई. कंप्यूटर टाइपिंग, ई-मेल करना, इंटरनेट पर काम करना, सर्च करना आदि.

फोन पर ये सब सुन कर मां भावुक हो उठीं, ‘‘तुम्हारे पापा कह रहे थे कि क्या हुआ जो उसे सुनंदा की तरह कानवेंट में नहीं पढ़ा पाए. समझदारी और दुनियादारी तो कोई भी शिक्षा सिखा देती है. शेफाली अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी तो भैया जैसा अच्छा दामाद हमें भी मिल जाएगा. दामादजी को भी तुम्हारा व्यवहार अच्छा लगा तो वह भी बढ़ कर मदद कर देंगे?’’

जल्द ही शेफाली की मर्केंडाइजर की नौकरी लग गई. अब वह भी व्यस्त हो गई. अकसर जीजाजी उसे साथ ले आते.

फ्रेश हो कर वह अपने और जीजाजी के लिए कौफी बनाती. दिन भर के काम के बाद घर आ कर जीजाजी का साथ उसे भाने लगा था. दोनों साथ टीवी देखते. अब अटपटे दृश्यों पर चैनल नहीं बदले जाते थे. न ही कोई उस समय उठ कर जाता. सब कितना सामान्य लगने लगा था. शेफाली इसे मैच्योर होना कहती. फिर जहां ऐसा खुलापन चलता है तो क्या हर्ज है. दीदी तो उस के सामने सिगरेट भी पीने लगी थीं.

उस ने दीदी को कुछ दिन पहले एक लेख पढ़ने को दिया था, ‘धूम्रपान का गर्भ पर असर.’ दीदी हंस दी थीं, ‘‘अब कौन सा बच्चा पैदा करना है मुझे, एक हो गया न, और कौन सा मैं मिंटी के सामने पीती हूं्. देख न, इसीलिए रात की नौकरी  करती हूं. रात में तो सब सोते ही हैं. घर में रहो न रहो, क्या फर्क पड़ता है. दिन में मैं घर में ही रहती हूं ताकि मिंटी मां को मिस न करे.’’

साहस कर शेफाली बोल पड़ी, ‘‘लेकिन दीदी, जीजाजी…’’

दीदी हंसीं, ‘‘देख, मर्दों को दिन में एक बार या हफ्ते में औसतन 2-3 बार काफी होता है. मैं अपने पति को पूरा मजा देती हूं. संदीप ने कुछ कहा क्या? क्यों नहीं साली आधी घरवाली होती है.’’

यह कह कर दीदी ने आंख दबाई तो वह तिलमिला गई थी. छोटी बहन से इतना गंदा मजाक, ‘‘छी: दीदी, आप कैसी भाषा का इस्तेमाल करती हैं. जीजाजी बहुत अच्छे हैं. आप इस तरह बोलेंगी तो फिर मैं यहां नहीं रहूंगी…’’

वह खिलखिला पड़ीं, ‘‘यू विलेज गर्ल…जानती है, हमारे यहां क्या होता है…’’

और उन्होंने अपने आफिस के माहौल और वहां इस्तेमाल होने वाली भाषा का जो वर्णन किया, उसे वह सुन नहीं पाई.

‘‘दीदी, आप छोड़ दो ऐसी नौकरी.’’

वह हंसीं, ‘‘लाइफ इज मस्त आउट देअर. आजकल सब चलता है. आज का फंडा है, जिंदगी एक बार ही मिलती है, इसे भरपूर जीओ और ज्यादा अगरमगर की मत सोचो.’’

तभी जीजाजी आए. अब दोनों उस के सामने ही ‘किस’ कर लेते. दीदी हंसहंस कर बोलीं, ‘‘शेफाली को तुम्हारी बहुत चिंता है. कह रही थी कि मैं रात की नौकरी छोड़ दूं. तुम अकेले हो जाते हो, क्यों?’’

शेफाली उठ कर भीतर चली गई. छी:, जरा भी लाजलिहाज नहीं है दीदी में. यह बात उन्हें कहनी चाहिए थी. या तो उन दोनों का आपस में बहुत विश्वास और खुलापन था या फिर दीदी की नजर में मेरी कोई अहमियत ही नहीं. जीजाजी की नजरें कितनी अजीब हो गई थीं.

उस रात मिंटी को बुखार आ गया लेकिन क्लाइंटविजिट की वजह से दीदी को जाना पड़ा. मिंटी के सोने के बाद जैसे ही वह उठी, जीजाजी बोले, ‘‘शेफाली, कौफी बनाओगी.’’

वह काफी बना लाई. जीजाजी एकाएक बोले, ‘‘तुम्हारे आने के बाद घर घर लगने लगा है. तुम्हारे आने से मिंटी को मां मिल गई. अब काम खत्म कर के मन करता है, सीधा तुम्हारे पास आऊं. काश, सुनंदा में भी तुम्हारे जैसी संवेदनशीलता होती, तो मेरी जिंदगी यों तन्हा नहीं होती. देखा, तुम तो समझ गईं वह जान कर भी नहीं समझना चाहती मेरा अकेलापन, मेरी तनहाई. दिन भर का थकाहारा घर आता हूं तो न पत्नी मिलती है और न बच्ची का साथ. तुम ने आ कर मेरी जिंदगी के बिखराव को संभाल लिया.’’

‘‘आप दीदी से कहिए न कि वह दूसरी नौकरी ढूंढ़ लें.’’

‘‘अब सिंपल ग्रेजुएट और 12वीं पास लोगों को इतने पैसे वाली नौकरी कौन देता है. बड़ीबड़ी डिगरी वाले तो मार्केट में घूमते हैं. यहां क्या योग्यता चाहिए, बस अच्छी अंगरेजी का ज्ञान और प्रकृति के नियमों के खिलाफ जीने की आदत. और बदले में मिलता है पैसा, कमीशन, पार्टियां, पिज्जाबर्गर और कोल्डड्रिंक्स. उसे जिंदगी की रंगीनियां चाहिए. और मैं ठहरा पार्टीपिकनिक से परहेज करने वाला.’’

शेफाली खामोश उन्हें निहार रही थी. मन मचलने लगा था. कैसी संवेदनशील थीं वे आंखें. अंदर तक कुछ शून्य सा पसर गया था. क्या वह मेरी तरफ आकर्षित हैं. मैं उन्हें अच्छी लगती हूं. वह मुझ से प्रेम करते हैं. रोमरोम में उठती ये कैसी सिहरन थी. आंखें मूंदे शेफाली अपनी देह की कंपन पर काबू पाने की चेष्टा करने लगी. जीजाजी ने उस के हाथों पर अपना हाथ धर दिया.

कप उठा कर वह किचन में चली गई. ये क्या हो रहा है उसे. जो बात कुंआरी हो कर वह समझ पाई क्या दीदी नहीं समझ पाती होंगी? दीदी ने तो कहा था कि वह हफ्ते के एवरेज का खयाल रखती हैं…तो…फिर…जीजाजी को मुझ से यह सब कहने की क्या जरूरत है…वह मेरी प्रशंसा कर क्या चाहते हैं…मुझ से यह सब क्यों कह रहे हैं…मुझे पाने के लिए…इतनी शिकायत है दीदी से तो फिर प्रेम प्रदर्शन क्यों करते हैं. दीदी का विरोध क्यों नहीं करते?

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दीदी के व्यवहार में तो उस ने कभी जीजाजी के प्रति उपेक्षा महसूस नहीं की. अंदर दोनों में क्या बातें होती हैं वह नहीं जानती पर उस दिन जो ड्राइंगरूम में उस ने देखा था वह तो झूठ नहीं था. बिना चाहत, बिना प्रेम भी ऐसी उत्तेजना जगती है भला.

थोड़ी आहट के बाद किचन की बत्ती बंद हो गई. जीजाजी ने आ कर उसे बांहों में भर लिया. ये खुशबू, ये आलिंगन, ये स्पर्श, संदीप उसे पागलों की तरह चूमने लगे. उस का रोमरोम सिहर उठा. वह खुद को छुड़ाना नहीं चाहती थी. उस के बदन में चींटियां रेंगने लगीं. कितना अच्छा लग रहा है…

तभी फोन की घंटी बजी. दीदी का फोन था. मिंटी का हाल पूछ रही थीं. वह जैसे सोते से जागी. ये क्या करने जा रही थी वह? अपने ही हाथों अपना सर्वनाश. इस क्षणिक भावुकता का अंत क्या होने वाला था. उस के हाथ क्या लगता? कल को कुछ हो गया तो आरोप तो उस के ही सर आएगा. बढ़ावा भी तो उसी ने दिया था. वही दीदी से बात करने गई थी, उन के दांपत्य जीवन पर.

दीदी के सामने शराफत का ढोंग करने वाले जीजाजी तो अपना मुंह तक नहीं खोलेंगे. उस की बात उसी के खिलाफ इस्तेमाल की जाएगी. क्या वह जानती थी कि ये फांस उसी के गले में अटकेगी. कितने चालाक निकले जीजाजी. मेरी कोमल भावनाओं को उकसा कर, मात्र मेरा उपयोग करना चाहते थे. आज अपने ही घर में अपनों के हाथ छली जाती. ऐसे ही अनचाहे तो हादसे हो जाते हैं.

अपनी उखड़ी सांसों को संयत करते हुए वह मिंटी के पास आ गई. दीदी को मिंटी की चिंता है और वह कैसे उन पर लापरवाही का आरोप लगा रहे थे.

फोन रखने के बाद जीजाजी ने उसे कमरे में आने का इशारा किया. उसे खुद से घृणा होने लगी. शेफाली ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और मिंटी के पास ही सो गई. सुबह निर्मला के आने पर ही दरवाजा खोला.

मिंटी का बुखार और बढ़ गया था. दीदी ने आफिस से हफ्ते भर की छुट्टी ले ली. दिनरात बच्ची के पास ही बैठी रहतीं. अपने हाथों से उसे खिलातीं. उस के साथ बातें करतीं. उस के सामने दीदी का नया रूप उजागर हुआ था. सच कहते हैं, मां आखिर मां ही होती है और पुरुष, सिर्फ पुरुष.

शेफाली ने आननफानन में फैसला लिया और आफिस के एक सहयोगी की मदद से अलग घर ढूंढ़ लिया. सुनंदा दीदी हैरान रह गईं, ‘‘अचानक क्या हो गया, शेफाली? तुम्हारे आने से हम लोगों को कितना अच्छा लगने लगा है, मिंटी कितनी खुश रहने लगी है. मेरी लाइफ भी स्मूथ हो गई है. अब चाचाचाची क्या कहेंगे?’’

शेफाली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘दीदी, आफिस दूर पड़ता है. फिर कितने दिन आप पर बोझ रहूंगी. इतने महीनों से तो आप ही के पास रह रही हूं. अब तो नौकरी भी कर रही हूं…’’

‘‘आई नो…पर तुम्हारी शादी तक चाचाजी ने कहा था, तुम यहीं रहोगी.’’

‘‘दीदी, शादी कब होगी, पता नहीं. कोई अच्छा लड़का मिलेगा तो जरूर करूंगी. पर अब कुछ साल नौकरी कर लूं. आप की तरह आत्मनिर्भर बन जिंदगी का मजा ले लूं. इस दिशा में कुछ होगा तो कहना. मैं आती रहूंगी…संपर्क में रहूंगी.’’

उस के होंठों पर मुसकराहट थी पर स्वर काफी सपाट था.

दीदी ने उलझे स्वर में ही जवाब दिया, ‘‘अब तुम ने सोच ही लिया है तो मैं क्या कहूं. पर मुझे अचानक इस फैसले का कारण समझ में नहीं आया. जीजाजी भी यहां नहीं हैं. उन से आ कर मिल लेना या फिर फोन कर देना.’’

दीदी कभी जानें या न जानें पर उस रात कहां ले जातीं उस की ये भावनाएं… निश्चित ही पतन की ओर…मांबाप का गर्व भंग होता, भाई का उपहास, समाज में अनादर…सब से उबर गई. अपनों के बीच हुए किसी हादसे का शिकार होने से बच गई.

मां की कही बात याद आ गई, ‘‘समझदारी और दुनियादारी तो कोई भी शिक्षा सिखा देती है.’’    द

सत्यमेव जयते

लेखक- सत्य स्वरूप दत्त

एकाएक मुझे अपने शरीर में ढेरों कांच के पैने टुकड़ों की चुभन की पीड़ा महसूस हुई. लड़कों ने क्या पड़ोसी धर्म निभाया है. मेरे मुंह से हठात निकला, ‘‘लगता है क्रिकेटर लक्ष्मण बनने की शुरुआत ऐसे ही होती है.’’

तभी पड़ोसी ने सांत्वना दी, ‘‘अच्छा हुआ कि आप कार में नहीं बैठे थे. अब छोडि़ए, अड़ोसपड़ोस के बच्चे हैं. उन्हें हम लोग प्रोत्साहन नहीं देंगे तो कौन देगा और बच्चे खेलें भी तो कहां खेलें.’’

प्रोत्साहन? मैं खून का घूंट पी कर रह गया और सोचा, जब तक अपने पर नहीं बीतती, स्थिति की गंभीरता का अनुभव नहीं होता, दूसरे की चुभन का एहसास नहीं होता.

‘‘गाड़ी का दुर्घटना बीमा है न?’’

‘बीमा,’ यह शब्द सुनते ही मुझे अचानक डूबते को तिनके का सहारा जैसा एहसास हुआ.

‘‘हां है. 5 साल से है. अभी एक सप्ताह पहले ही पालिसी का नवीनीकरण कराया है.’’

‘‘फिर क्या चिंता है?’’

क्या चिंता है, सुन कर मैं चौंका. पैसा किसी का भी जाए, नुकसान तो नुकसान है और कोई भी नुकसान चिंता का विषय होना ही चाहिए.

देखते ही देखते अड़ोसपड़ोस के बच्चे मेरे आसपास जमा हो गए.

‘‘क्या हुआ अंकल?’’

‘‘ओह शिट.’’

बच्चे मेरे मुंह से निकले शब्दों की अनसुनी कर बोले, ‘‘आप एक किनारे हो जाइए अंकल, हम कांच साफ कर देते हैं. आप ऐसे में बैठेंगे कैसे?’’

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आननफानन में बच्चों ने कांच के टुकड़े साफ कर दिए. शायद वे प्रायश्चित्त कर रहे थे या फिर अपने अच्छा नागरिक होने का परिचय दे रहे थे.

लगभग 10 बज रहा था. सोचा, बीमा कंपनी का आफिस खुल गया होगा, वहां चल कर दुर्घटना की सूचना दे दूं. उन्हें दुर्घटना हुई कार को देखने का अवसर भी मिल जाएगा. यदि बिना दिखाए ‘विंड स्क्रीन’ बदलवा लूंगा तो वह विश्वास नहीं करेंगे. फिर कुछ कागजी काररवाई भी करनी होगी.

आफिस खुल चुका था पर संबंधित अधिकारी नहीं आया था. वहां अधिकारी के इंतजार में मैं साढ़े 12 बजे तक बैठा रहा. वह आया, आते ही कुछ फाइलों में खो गया और 15-20 मिनट तक खोया ही रहा.

फिर मेरी ओर देख कर बोला, ‘‘कहिए, आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

मैंने अपनी समस्या उसे बताते हुए कहा, ‘‘मैं दुर्घटनाग्रस्त कार लाया हूं. आप देख लीजिए…’’

‘‘कार देखने का काम तो सर्वेयर करता है,’’ वह अधिकारी बोला, ‘‘वह अभीअभी कहीं सर्वे करने निकल गया है. वैसे मैं भी देख सकता हूं किंतु गाड़ी को सीधे देखने का नियम नहीं है. ऐसा कीजिए, किसी गैराज से खर्चे का एस्टीमेट (अनुमान) ले कर आइए. उस के बाद ही हम कार देखेंगे.’’

मेरी समझ में नहीं आया कि एस्टीमेट जब गैराज वाला देगा तो सर्वेयर क्या देखेगा? और एस्टीमेट से पहले कार देखने व उस का फोटो लेने में क्या हर्ज है.

‘‘देखिए, टूटे हुए विंड स्क्रीन के साथ गाड़ी चलाना खासा मुश्किल होता है ऐसे में आप कह रहे हैं कि पहले गाड़ी ले कर मैं गैराज जाऊं फिर वहां से एस्टीमेट ले कर आप के पास आऊं.’’ मैं ने उस अधिकारी को समझाने का प्रयास किया.

‘‘क्या किया जाए. नियमों से हम सब बंधे हैं. ‘क्लेम’ लेना है तो कष्ट तो उठाना ही होगा. घर बैठेबैठे तो क्लेम मिलने से रहा.’’

‘‘यह तो मैं भी देख रहा हूं कि आप के नियम दौड़ाने के नियम हैं. अगले को इतना दौड़ाया जाए, इतना दौड़ाया जाए कि वह ‘क्लेम’ के विचार से ही तौबा कर ले. जो हो आप रिपोर्ट तो लिख लीजिए.’’

‘‘जी हां. आप फार्म भर दीजिए.’’

फार्म भर कर मैं गैराज गया. फिर अगले दिन एस्टीमेट बना. चूंकि उस दिन शनिवार था इसलिए बीमा कंपनी का आफिस बंद था. बात सोमवार तक टल गई.

सोमवार का दिन आया. वह महाशय भी ड्यूटी पर आए थे किंतु कैमरा खराब हो गया. मंगल को कैमरा ठीक हुआ. कार का फोटोग्राफ खींचा गया किंतु आपत्ति के साथ.

‘‘आप ने टूटा हुआ कांच तो साफ कर दिया. फोटो में अब टूटा हुआ कांच कैसे आएगा?’’ अधिकारी ने कहा.

‘‘टूटे कांच के साथ कोई कार कैसे चला सकता है?’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘आप अपनी परेशानी बता रहे हैं पर मेरी परेशानी नहीं समझ रहे?’’ अधिकारी बोला, ‘‘फोटो में टूटा हुआ विंड स्क्रीन दिखना जरूरी है अन्यथा विंड स्क्रीन निकलवा कर कोई भी डैमेज क्लेम कर सकता है.’’

‘‘देखिए, अब आप हद से बाहर जा रहे हैं. पहले दिन जब मैं कार में आया था तो विंड स्क्रीन टूटा हुआ था किंतु तब आप ने विंड स्क्रीन देखा नहीं और अब…’’

मेरी बात को बीच में काट कर अधिकारी बोला, ‘‘मेरे देखने से कुछ नहीं होगा. टूटा हुआ विंड स्क्रीन कैमरे को दिखना चाहिए. इस के बिना आप का केस थोड़ा कमजोर पड़ जाएगा. खैर चलिए, आवश्यक फार्म भर दीजिए. कार को रिपेयर करा कर बिल आफिस में जमा कर दीजिए.’’

मैं आफिस से बाहर आया और गैराज में जा कर विंड स्क्रीन लगवाया. लगभग एक सप्ताह बाद कार चलाने लायक हुई थी अन्यथा बिना विंड स्क्रीन की कार लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. लोग समझ रहे थे कि मैं बिना ‘विंड स्क्रीन’ के कार चलाने का रेकार्ड बनाने की कोेशिश कर रहा हूं.

मैं किसकिस के आगे रोना रोता और किसकिस को समझाता कि जब तक बीमा कंपनी वाले फोटो नहीं खींच लेते तब तक नया विंड स्क्रीन लगवाना संभव नहीं है. यदि कोई रेकार्ड स्थापित कर रहा है तो वह है बीमा कंपनी. ‘क्लेम’ के भुगतान में अधिकतम रुकावट एवं देरी का रेकार्ड.

मैं ने समझा कि अब क्लेम मिल जाएगा. बीमा कंपनी की सभी शर्तें पूरी हो गई हैं किंतु मुझे यह पता नहीं था कि ये शर्तें तो द्रौपदी का न खत्म होने वाला चीर हैं.

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‘‘एक समस्या है,’’ अधिकारी ने धीमे स्वर में कहा.

मैं चौंक गया कि अब क्या हुआ.

‘‘पालिसी के नवीनीकरण के एक सप्ताह के भीतर दुर्घटना हो गई है. पुरानी पालिसी के समाप्त होने एवं नई पालिसी जारी होने के बीच एक दिन का अंतर है.’’

‘‘किंतु आप का एजेंट तो मुझ से एक सप्ताह पहले ही चैक ले गया था. आप चैक की तारीख देख सकते हैं. फिर यह पालिसी 5 सालों से लगातार चल रही है.’’

‘‘मैं आप की बात समझ रहा हूं. यह इनसानी शरीर का मामला है. वह एजेंट बीमार पड़ गया. खैर, जो भी हो, यह भुगतान का सीधा सपाट मामला नहीं है. इस पर जांच होगी. आप को जो कुछ कहना है जांच अधिकारी से कहिएगा,’’ उस ने अपना रुख साफ किया.

झुंझलाहट का करेंट मेरे शरीर में ऊपर से नीचे तक दौड़ गया. बीमा कंपनी का यह चेहरा पालिसी देते समय के आत्मीय चेहरे से एकदम अलग था. इच्छा हो रही थी कि यह 3 हजार की धन राशि मैं इस करोड़पति बीमा कंपनी को दान में दे दूं.

मुझे लगा कि इस चेहरे को और झेल पाना मेरे लिए संभव नहीं. दोनों की भलाई इसी में है कि एकदूसरे की नजरों से दूर हो जाएं, अभी, इसी वक्त.

मैं तेजी से आफिस से बाहर आया.

सर्विस इंडस्ट्री, हुंह, नहीं चाहिए ऐसी सर्विस. सर्विस ‘फील गुड.’ एक दिन बीता, एक सप्ताह गुजरा, एक महीना बीता, 2 महीने बीते.

फोन की घंटी बजती है.

‘‘आप के क्लेम के मामले में मुझे बीमा कंपनी ने जांच अधिकारी नियुक्त किया है. मैं एडवोकेट त्रिपाठी हूं. सचाई की तह में जाना अपने जीवन का लक्ष्य है. ‘सत्यमेव जयते’ अपना धर्म है. आप मुझ से मिलें.’’

अगले दिन काले कोट में त्रिपाठीजी सामने थे.

‘‘आप जो घटना है सचसच बताएं और निसंकोच बताएं.’’

मैं ने फिर टेप रेकार्ड की तरह घटनाक्रम को दोहरा दिया.

‘‘इस में नया क्या है? यह तो आप ने रिपोर्ट में लिखा है. मुझे सचाई का पता लगाने के लिए तैनात किया गया है.’’

‘‘रिपोर्ट का एकएक शब्द सच है. आप अड़ोसपड़ोस से पूछ सकते हैं,’’ मैं ने उन्हें समझाने का प्रयास किया.

‘‘मैं ने सचाई का पता लगा लिया है. आप शायद सचाई मेरे मुंह से सुनना चाहते हैं. हजरत, मेरी निगाहों में कोने वाले मकान के हैं, मुझ से बच के जाएंगे कहां ,’’ त्रिपाठीजी के स्वर में तीखा व्यंग्य था.

मैं ने त्रिपाठीजी का चेहरा ध्यान से देखा. वह एक वकील की भूमिका बखूबी निभा रहे थे. वह सच के सिवा और कुछ कहने वाले नहीं थे.

‘‘आप सच सुनना चाहते हैं न?’’ त्रिपाठीजी तल्ख शब्दों में बोले, ‘‘सच तो यह है कि आप कार चला ही नहीं रहे थे. कार आप का लड़का चला रहा था जिस का ड्राइविंग लाइसेंस तक नहीं है. ऊपर से वह शराब पीए था. उसे आगे जाता ट्रक नहीं दिखा जो लोहे की छड़ों को ले कर जा रहा था. छड़ें बाहर झूल रही थीं. गनीमत समझिए कि दुर्घटना विंड स्क्रीन तक सीमित रह गई अन्यथा लोहे की छड़ें सीने के पार हो जातीं. कार की किसे चिंता है, चिंता करने के लिए, माथा पकड़ने के लिए बीमा कंपनी तो है ही. लेकिन आखिरी सांस तक मैं बीमा कंपनी के साथ हूं.’’

मैं ठगा सा त्रिपाठीजी का सच सुन रहा था. उन की गंभीर छानबीन का नतीजा सुन रहा था. कहने को कुछ था भी नहीं. हां, जांच अधिकारी की यह भूमिका नए तर्ज की जरूर थी.

‘‘बोलती बंद हो गई न. अच्छाई इसी में है कि आप यह मामला वापस ले लें. नहीं तो मैं सचाई को अदालत में उजागर करूंगा और ट्रक के खलासी को गवाह के रूप में पेश करूंगा.’’

मैं ने अपने गुस्से को काबू में रखने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘त्रिपाठीजी यह मामला वापस नहीं होगा. अब परिणाम चाहे जो हो.’’

‘‘देखिए, मैं आप को फिर समझा रहा हूं. आप शायद कोर्ट में जाने का अर्थ नहीं समझ रहे. ढाई हजार तो आप को नहीं मिलेंगे ऊपर से 4-5 हजार खर्च हो जाएंगे. आगे आप समझदार हैं. समझदार को इशारा काफी होता है,’’ त्रिपाठीजी ने उठते हुए कहा.

पत्नी भी उन की बातें सुन कर घबरा गईं.

‘‘जाने भी दीजिए, झूठ ही सही. अदालत में लड़के का नाम आएगा, उस पर शराब पी कर गाड़ी चलाने का आरोप लगेगा. छी, जाने दीजिए. ऐसे ढाई हजार मुझे नहीं चाहिए.’’

किंतु यह सब मेरे लिए एक चुनौती थी. इस से पहले कि कंपनी अदालत में जाती मैं उपभोक्ता अदालत में चला गया और कंपनी के नाम नोटिस जारी हो गया. मैं ने संघर्ष करने का मन बना लिया था. खर्च जो हो, परिणाम जो हो.

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नियत तारीख पर कंपनी अदालत में उपस्थित नहीं हुई. उस ने समय मांगा.

एक सप्ताह के भीतर कंपनी से फोन आया, ‘‘आप का चैक बन कर तैयार है, इसे ले लें. कुछ देर अवश्य हो गई है, कृपया अन्यथा न लें. आप नहीं आ सकते तो हम चैक आप के घर पर पहुंचा देंगे. जांच का परिणाम कुछ भी हो, कंपनी अपने ग्राहक को सही मानती है.’’     द्य

कुछ ऐसा हो ही जाए

लेखक-सुधा गुप्ता

अंतिम भाग…

पूर्व कथा

पत्नी की मृत्यु के बाद प्रोफेसर साहब तनहा रह गए थे. बेटाबेटी की उन के प्रति इतनी आत्मीयता नहीं थी कि वह उन से पूछते कि वे कैसे दिन काट रहे हैं, क्या खातेपीते हैं. बेटी अन्नू विवाहित थी. जब भी मायके आती तो उन्हें खाना बना कर खिलाने घर की साफसफाई करने के बजाय मेहमानों की तरह व्यवहार करती. ऐसे में उन की विद्यार्थी पल्लवी का उन से खानेपीने के लिए पूछना, उन का ध्यान रखना, उन्हें भीतर तक छू गया. उसे बहू के रूप में पा कर उन का घर फिर से संवर सकता था अत: वह पल्लवी के मातापिता के पास अपने बेटे आदित्य के लिए पल्लवी का हाथ मांगने गए. बेटी अन्नू को उन्होंने एक दिन पहले बुला लिया ताकि वे भी पल्लवी के मातापिता से मिल लें. आदित्य को पता चलता है तो वह अपने पिता से खफा होता है कि उस से पहले पूछा क्यों नहीं. अन्नू भाई को समझाने के बजाय उलटा उस का साथ देती है. प्रोफेसर साहब अन्नू से कहते हैं कि आदित्य कहीं और शादी करना चाहता था तो तब क्यों नहीं कहा जब मैं ने उस से पूछा था. अब आगे…

सांस रुकने लगी मेरी. दिल भी रुकता सा लगने लगा. सुनता रहता हूं न कि लोग सदमे से मर जाते हैं, इसी तरह मर जाते होंगे. मेरा उजड़ा घर जो बरसों से सराय जैसा है, जहां अन्नू केवल अपनी सुविधा के अनुसार आती है, क्या यह नजर नहीं आता कि उस का पिता देखभाल के अभाव में मौत के कगार पर पहुंच चुका है और भाई भी मां के अभाव में न समय पर खाता है न पीता है. क्या वह नहीं चाहती कि कोई आ कर हम दोनों को संभाल ले या वह डरती है कि भाभी के आने से इस घर पर उस का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा.

‘‘मुझे क्या पता था कि आप किसी से आदित्य की शादी की बात चला रहे हैं?’’

‘‘बता तो दिया है, और कैसे बताऊं. कह तो रहा हूं कि कल सुबह 12 बजे वे पतिपत्नी हम से मिलने, हमारा घर देखने आ रहे हैं. उस के बाद हम तीनों के साथ वे होटल शरमन में जाएंगे, जहां पल्लवी अपने भाई के साथ आ जाएगी.’’

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‘‘उसे यहां शादी नहीं करनी.’’

‘‘क्यों, यहां क्या बुराई है? पढ़ीलिखी घरेलू लड़की है, घर संभाल लेगी.’’

‘‘घर तो नौकर भी संभाल लेते हैं. घर का क्या है.’’

‘‘आज तक हम नौकरों के सहारे किस तरह जी रहे हैं, क्या तुम्हें नजर नहीं…’’ इतना कहतेकहते मेरा स्वर घुट गया था.

दोनों बहनभाई इस तरह पलटी मार गए कि मैं समझ ही न पाया क्या करूं. दनदनाती अन्नू अपना सामान उठा कर बाजार चली गई और आदित्य मानो हम दोनों के बीच पिसता सा लगा मुझे.

एक अंतिम विश्वास था कि मेरे बच्चे मुझ से बगावत नहीं कर सकते. सुबह मेहमान आएंगे तो कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो अशोभनीय होगा.

रात को खाना सदा की तरह बाजार से ही आया. अन्नू सुबह 10 बजे तक सोई रही. इतवार की वजह से आदित्य भी देर तक सोया रहा. दोनों में से किसी ने घर को व्यवस्थित नहीं किया. बाई आ कर सफाई भर कर गई. वह भला घर का इधरउधर पड़ा सामान क्यों संभालती.

12 बजे जब पल्लवी के मातापिता आए तब अन्नू ने यह कह कर उन्हें बाहर बरामदे में ही बैठा दिया कि यहां धूप है. मेरे कहने पर उन्हें पानी पिलाया और मेरे ही कहने पर कुछ फल काट कर उन के सामने धूल से सनी छोटी सी मेज पर सजा दिए. एक ठंडा सा व्यवहार था दोनों बच्चों का. शरम आ रही थी मुझे कि मेरी एम.ए. पास बेटी इतनी तमीज भी नहीं निभा पाई कि घर आए मेहमान को कहां बिठाते हैं और कैसे आवभगत करते हैं. रिश्ता हो न हो यह तो बाद की बात है लेकिन एक औपचारिक तहजीब तो मेरे बच्चे निभा देते.

‘‘पल्लवी और सोमेश होटल शरमन में हमारा इंतजार कर रहे हैं, चलें?’’ पल्लवी के पिता ने कहा.

काफी नानुकर के बाद दोनों बहनभाई उन के साथ गए और मात्र 5 मिनट वहां बैठ कर साथ ही लौट आए.

‘‘मुझे वापस जाना है, पापा,’’ मैं निकलती हूं. अच्छा आदित्य…’’ इतना कह कर अन्नू अपना बैग उठा कर चली गई और आदित्य अपनी मोटरसाइकिल उठा कर पता नहीं कहां चला गया. एक प्रश्न लिए रह गया मैं. क्या हुआ होगा होटल में? पल्लवी से आदित्य की क्या बात हुई होगी? किस से पूछता मैं कि वहां क्या हुआ, क्या बात हुई.

‘‘कैसी लगी तुम्हें पल्लवी? वे कल पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगा,’’ रात को सोते समय मैं ने आदित्य से पूछा.

‘‘आप के कहने पर मैं चला गया था,’’ आदित्य के मुंह से शब्द फूटे, ‘‘लेकिन मैं ने पल्लवी को देखा तक नहीं.’’

‘‘क्यों नहीं देखा? तुम्हें जो पसंद है कम से कम उसी के बारे में मुझे बता देते तो मैं उन के घर रिश्ता ले कर तो न जाता.’’

चुप रहा आदित्य. मुझे झंझावात में छोड़ सो गया. मैं इसी शरम में डूबा जागता

रहा कि पल्लवी के मातापिता क्या सोचते होंगे मेरे बारे में.

सुबह सवेरे पल्लवी के पिता का फोन आ गया. आदित्य ने ही फोन उठाया था. परेशान हो गया मैं, क्या जवाब दूंगा पल्लवी के पिता को?

‘‘प्रोफेसर साहब, मुझे क्षमा कीजिएगा. मैं ने सुबहसुबह ही आप को परेशान किया. वास्तव में मैं अपने बेटे की वजह से घबरा गया हूं इसीलिए फोन करना पड़ा. मेरा बेटा आप के व्यवहार से बहुत नाराज है.

‘‘कल होटल में आप के बच्चों का आना और उठ कर चले जाना एक तमाशा सा ही लगा मुझे भी. समझ में ही नहीं आया कि अगर आप के बच्चे राजी नहीं थे तो आप ने हमारे बच्चों का मजाक क्यों बना दिया? क्षमा कीजिएगा, मुझे आप का रिश्ता मंजूर नहीं है, बस, इसीलिए फोन किया था.’’

आदित्य मेरा चेहरा देखने लगा. कड़वी सी हंसी चली आई मेरे होंठों पर. कंधा थपथपा दिया मैं ने आदित्य का.

‘‘बहुत अभागा है तू आदित्य. सच कहूं तो मैं खुश हूं पल्लवी के लिए. वह प्यारी सी बच्ची इतनी अच्छी है कि यह घर ही उस के लायक नहीं है. अब तुम जो चाहो करो, जैसे चाहो जिओ, आज के बाद मैं कभी कुछ नहीं कहूंगा.’’

उठ कर मैं बाहर बरामदे में चला आया और उसी सोफे पर बैठ गया जहां एक दिन पहले पल्लवी के मातापिता बैठे थे. सौभाग्य मेरे घर आया और बाहर से ही लौट गया. मेरी बेटी ने यह कह कर उन्हें घर दिखाया ही नहीं कि घर व्यवस्थित नहीं है. 10 साल से अपना घर संभालती मेरी बेटी मेरा घर इतना भी सजासंवार नहीं पाई कि मेहमान को दिखा सकते.

यह लड़की अपने भाई का कितना हित करेगी इस का अंदाजा मुझे आज हो रहा है. आज मैं जिंदा हूं, कल न रहा तो कौन आदित्य की चिंता करेगा?

इस घटना के 2 दिन बाद भी मैं कालिज नहीं जा पाया. सोचता हूं, जाऊंगा तो पल्लवी का सामना कैसे कर पाऊंगा. उस बच्ची का मन मेरी वजह से दुखी होगा. आदित्य भी गुमसुम था. न जाने क्यों मुझे पीड़ा नहीं हो रही थी. यह पहला अवसर है जब मैं आदित्य की चुप्पी से परेशान नहीं हूं.

‘‘पापा, आप मुझ से नाराज हैं?’’

‘‘नहीं तो बेटा, मैं नाराज क्यों होने लगा. मेरा क्या है, मैं आज हूं कल नहीं. मुझे क्या हक है जो अपनी पसंद तुम पर थोप दूं. पल्लवी के साथ जीवन तुम्हें काटना था, मुझे तो नहीं. तुम नहीं चाहते तो ठीक है. कल को वह आ जाती और तुम उसे थोपा हुआ मान कर स्वीकार ही न कर पाते तब भी दोष मेरे ही सिर पर आता.

‘‘तुम अपनी पसंद भी बता दो, कम से कम मेरा दायित्व तो पूरा हो. कौन है वह?’’

चुप रहा आदित्य, कुछ बोला ही नहीं. बहन के सामने जिस ने अपने परों पर पानी नहीं पड़ने दिया, अब चुप था.

‘‘मुझे नहीं तो अपनी बहन को बता देते. वह तो तुम्हारी शुभचिंतक है. उसे बता देना, फिर जैसा चाहो कर लेना.’’

‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? दीदी मेरी बहन है तो मेरा भलाबुरा तो सोचेगी न.’’

‘‘हां, सोचेगी, तभी तो कल घर आए मेहमानों का बड़ा अच्छा सत्कार किया. क्या दोष था उन का जो उन्हें अन्नू ने पानी तक नहीं पूछा. बाहर बिठा दिया जहां हम किसी भी ऐरेगैरे को बिठा कर वापस भेज देते हैं. क्या तुम अपने दोस्तों को भिखारी की तरह बाहर से ही लौटा देते हो? पता नहीं मेरी शिक्षा में क्या खोट रह गया जो घर आए का सम्मान भी करना नहीं आया तुम्हें.’’

‘‘पापा, ऐसा नहीं है. मैं समझ ही नहीं पाया कि क्या करूं.’’

‘‘बस, आदित्य, मेरा जो अपमान तुम दोनों ने किया है उसे मैं मरते दम तक याद रखूंगा.’’

मैं ने हाथ जोड़ कर पल्लवी के परिवार से क्षमा मांग ली.

इस सारी कहानी को बीते 2 साल हो गए. पल्लवी आज भी मेरी नन्ही सी, प्यारी सी मित्र है. उस की शादी एक बहुत अच्छे घर में हो चुकी है. संयोग से अब उस का चयन मेरे ही कालिज में हो गया है, जिस वजह से हमारा साथ आज भी है.

एक कांटा सा जरूर चुभता है जब मुझे वह हादसा याद आता है. हादसा ही तो कहूंगा न मैं क्योंकि उस में मेरा विश्वास जो चकनाचूर हो गया था.

अब मैं रिटायर तो हो गया हूं लेकिन  2-4 साल का एक्सटेंशन मिल गया है. घर पर मन नहीं लगता क्योंकि मेरा घर आज भी वैसा ही सराय सा है. आदित्य की शादी नहीं हुई अभी. शायद उस की पसंद उसे आज तक नहीं मिली. अन्नू आज भी मेरे घर पर अपना उतना ही अधिकार जताती है जितना सदा था लेकिन यह भी सच है कि ममत्व और विश्वास का झीना सा आवरण भी अब हमारे बीच नहीं रहा.

मुझे मेरी बेटी अच्छी नहीं लगती. बड़ी अभागन है मेरी संतान जिसे अच्छाबुरा परखना ही नहीं आया. पारस हाथ आया था जिसे वह अनजाने ही खो बैठे और अब लोहे के टुकड़ों में सिर फोड़ रहे हैं. अच्छी घरेलू लड़की मिल ही नहीं रही जिसे हमारा सराय सा घर पसंद आ जाए. आज पिज्जा और बर्गर का युग है न.

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‘‘सर, आप के बिस्कुट.’’

सदा की तरह पल्लवी ने मुझे अपने हाथ के बने बिस्कुट थमाए. मैं नहीं जानता, न जाने कब का कोई छूटा रिश्ता है मेरा पल्लवी के साथ जो पुन: बना तो टूटा ही नहीं, उस प्रसंग के बाद भी.

‘‘जीती रहो,’’ पल्लवी का माथा सहला दिया मैं ने, जिस पर बड़ा सा सिंदूरी टीका दमकता है अब. हाथ उठा कर प्रकृति से मैं दुआ मांगता हूं कि मेरी बच्ची पल्लवी सदा सुखी रहे, सुहागन रहे, और ऐसी ही कोई बच्ची मेरे आदित्य के जीवन में भी आ जाए. काश, ऐसा कुछ हो जाए. काश, कुछ ऐसा हो

ही जाए. द्य

इंसाफ

लेखक- युगेश शर्मा

नंदिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस छोटे भाई को पढ़ा- लिखा कर उस ने अफसर की कुरसी तक पहुंचाया है, एक अच्छे परिवार में शादी करवा कर जिस की गृहस्थी बसाई है वही भाई उस के साथ ऐसा बरताव करेगा. उस ने नया फ्लैट खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए देने से इनकार ही तो किया था. उस ने तब उस को समझाया भी था कि हमारा यह पुश्तैनी मकान है. अच्छे इलाके में है. 2 परिवार आराम से रह सकें, इतनी जगह इस में है.

तब नवीन ने बड़ी बहन के प्रति आदरभाव को तारतार करते हुए कह डाला, ‘दीदी, मां और बाबूजी के साथ ही इस पुराने मकान की रौनक भी चली गई है. अब यह पलस्तर उखड़ा मकान हमें काटने को दौड़ता है. मोनिका तो यहां एक दिन भी रहना नहीं चाहती. मायके में वह शानदार मकान में रहती थी. कहती है कि इस खंडहर में रहना पड़ेगा, उस को यह शादी के पहले मालूम होता तो वह मुझ से शादी भी नहीं करती. वह सोतेजागते नया फ्लैट खरीदने की रट लगाए रहती है. आखिर, मैं उस के तकाजे को कब तक अनसुना करूं.’

नंदिता ने बहुतेरा समझाया था कि छोटी बहन नमिता की शादी महीने दो महीने में करनी है. अगर जमापूंजी फ्लैट खरीदने में निकल गई तो उस की शादी के लिए पैसे कहां से आएंगे. उस का तो जी.पी.एफ. अकाउंट भी खाली हो चुका है.

नवीन उस दिन बहुत उखड़ा हुआ था. आव देखा न ताव, बोल पड़ा, ‘यह आप की चिंता है, दीदी. मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. नमिता की शादी करना आप की जिम्मेदारी है. उस को आप कैसे निभाएंगी, आप जानें.’

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नंदिता आश्चर्य से छोटे भाई का मुंह देखने लगी. नवीन इस तरह की बातें कहेगा, उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था. वह भी बिफर उठी थी, ‘तुम नमिता के बड़े भाई हो, इस परिवार के एकमात्र पुरुष. इस तरह अपनी जिम्मेदारी से पिंड कैसे छुड़ा सकते हो तुम.’

‘देखो, दीदी, अब मैं कोई दूधपीता बच्चा नहीं हूं. सच बात तो यह है कि जिम्मेदारी जिस को सौंपी जाती है वही उस को निभाने के लिए पाबंद होता है. आप परिवार में सब से बड़ी हैं,’ नवीन ने आज अपने मन की सारी भड़ास निकालने का फैसला ही कर लिया था. बोला, ‘बाबूजी ने अंतिम समय हम लोगों की सारसंभाल की जिम्मेदारी आप को सौंपी थी और आप ने तब भी उन से वादा किया था कि आप अपनी इस जिम्मेदारी को निभाएंगी.’

यह कह कर तो नवीन ने नंदिता के मुंह पर ताला ही लगा दिया था. कुछ कहने, समझाने की उस ने गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी. वह चुपचाप ड्राइंगरूम से उठ कर अपने कमरे में जा कर बिस्तर पर पड़ गई. उस

का दिमाग पुरानी स्मृतियों के झंझा-वातों से भर उठा. बीती घटनाएं फिल्म के दृश्यों की तरह एक के बाद एक उस के स्मृतिपटल पर उभरने लगीं :

जब थोड़ी सी बीमारी के बाद मां की मृत्यु हुई वह बी.ए. फाइनल में थी. मेरिट में आने का मनसूबा बांधे बैठी थी वह. परिवार की सब से बड़ी संतान और लड़की होने से घर की देखभाल का जिम्मा न जाने कब उस के कमजोर कंधों पर आ पड़ा, वह समझ ही नहीं पाई. घर की गाड़ी के पहिए उस को धुरी मान कर घूमने लगे.

‘मेरी समझदार बेटी नंदिता सब संभाल लेगी,’ बाहरभीतर सब तरफ यह घोषणा कर के पिताजी ने तो घर की सारी जिम्मेदारियों से खुद को जैसे बरी कर लिया था.

नंदिता 3 भाईबहन हैं. नंदिता से छोटा नवीन है और नवीन से छोटी नमिता. नवीन को पढ़ने, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने और बाकी समय में क्रिकेट खेलने से फुरसत ही नहीं मिलती थी. नमिता तो परिवार की लाड़ली होने का पूरापूरा फायदा उठाती रही. कभी मूड होता तो घर के काम में नंदिता का हाथ बंटाती वरना सहेलियों और कालिज की पढ़ाई में ही अपने को व्यस्त रखती.

नंदिता जानती थी कि नमिता को आखिर एक दिन पराए घर जाना है. घर के रोजमर्रा के काम में भी वह रुचि ले, ऐसी कोशिश नंदिता करती रहती थी पर नमिता यह कह कर उस पर पानी फेर देती कि अभी तो मुझे आप अपने राज में आजाद पंछी की जिंदगी जी लेने

दो, जब ससुराल पहुंचूंगी तो सब सीख लूंगी. समय अपनेआप सब सिखा देता है. आप आज घर को जिस कुशलता से संभाल रही हैं वह भी तो समय की जरूरत

ने ही आप को सिखाया है, दीदी.

नंदिता ने इस के बाद तो किसी से शिकवाशिकायत करना छोड़ ही दिया था. प्रथम श्रेणी में बी.ए. करने के बाद वह समाजशास्त्र में एम.ए. कर के पीएच.डी. करना चाहती थी. पर सोचा हुआ सब कहां हो पाता है. पिताजी ने घर की जिम्मेदारियों का वास्ता दे कर बी.ए. करने के बाद उस को घर बैठा लिया था. बेचारी मन मसोस कर रह गई थी.

एक दिन भयानक हादसा हुआ. दौरे से लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में उस के पिता इन तीनों भाईबहनों को अनाथ कर के संसार से विदा हो गए. नंदिता पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. तब कुल 25 वर्ष की उम्र थी उस की. पिता के दफ्तर वालों ने बड़ी मदद की. उस को पिता के दफ्तर में ही क्लर्क की नौकरी दे दी.

जैसेतैसे परिवार की गाड़ी चलने लगी. कई बार पैसे की तंगी उस का रास्ता रोक कर खड़ी हुई पर नंदिता ने नवीन और नमिता को यह एहसास नहीं होने दिया कि वे अनाथ हैं. उन की पढ़ाई बदस्तूर चलती रही.

नवीन पढ़ने में होशियार था. उस ने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा पास की और खंड विकास अधिकारी के पद पर नौकरी पाने में सफल रहा.

एक दिन नंदिता के मन में आया कि अब नवीन की शादी कर दे. बहू के आने पर घर के काम में दिनरात खटने से उस को भी कुछ राहत मिल जाएगी. उस ने लड़की तलाशनी शुरू की. छोटे मामाजी की मदद से नवीन की शादी बड़े अफसर की बेटी मोनिका के साथ हो गई.

नंदिता ने मोनिका को ले कर जो आशाएं मन में पाल रखी थीं वे कुछ महीने बीततेबीतते मिट्टी में मिल गईं. बड़े बाप की बेटी ने ससुराल में ऐसे रंग दिखाए कि नंदिता को घर के काम में उस की तरफ से किसी भी तरह की मदद की उम्मीद छोड़नी पड़ी.

नंदिता को हालांकि सकारात्मक उत्तर की जरा भी आस नहीं थी, फिर भी हिम्मत बटोर कर एक दिन उस ने मोनिका से कह डाला, ‘मोनिका, मुझे भी 10 बजे दफ्तर जाना पड़ता है. मैं चाहती हूं कि रोटियां तुम सेंक लिया करो. किचन का बाकी काम तो मैं निबटा ही लूंगी. तुम से इतनी मदद मिलने पर दफ्तर जाने के लिए मैं अपनी तैयारी भी सहूलियत से कर सकूंगी.’

‘नहीं, दीदी,’ मोनिका ने रूखा सा जवाब दिया, ‘यह मुझ से नहीं होगा. मैं तो सो कर ही सुबह 9 बजे उठती हूं. नवीन के भी बहुत सारे काम मुझे करने पड़ते हैं. रोज रोटियां सेंकने का जिम्मा मैं नहीं ले सकती. वैसे भी किचन के गोरखधंधे में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. हमारे यहां तो नौकर ही यह सब करते थे. मुझे तो आप बख्श ही दीजिए.’

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इस के बाद तो नंदिता ने घर के कामकाज को ले कर चुप्पी ही साध ली. खुद ही गृहस्थी की गाड़ी को एक मशीन की तरह ढोती चली गई. परिवार के बाकी सदस्य तो सब देख कर भी अनजान बन बैठे. इस बीच मौसाजी की एक बात को ले कर घर में भूचाल ही आ गया और कई दिन उस का कंपन थमा ही नहीं. उस दिन मौसाजी ने सहज भाव से इतना ही तो कहा था कि उन्होंने भी नंदिता के लिए एक अच्छा सा लड़का देखा है. लड़का क्लास टू आफिसर है. परिवार भी खानदानी है, आदर्श विचारों के लोग हैं. दहेज की मांग भी नहीं है. नंदिता वहां बहुत सुखी रहेगी.

मौसाजी की बात सुन कर एक मिनट के लिए तो जैसे सन्नाटा ही छा गया. नवीन और मोनिका एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. दोनों के चेहरों पर हैरानी और परेशानी की गहरी रेखाएं खिंचती चली गईं.

‘यह क्या बात ले बैठे आप भी, मौसाजी,’ नवीन ने सकुचाते हुए अपनी बात रखी, ‘दीदी तो इस घर की सबकुछ हैं. वह तो आत्मा हैं हमारे परिवार की. बाबूजी उन्हीं को तो घर की सारी जिम्मेदारियां सौंप गए थे. अभी नमिता की शादी होनी है. हम पतिपत्नी भी अभी ठीक से सैटिल नहीं हो पाए हैं. दुनियादारी की हम लोगों को समझ ही कहां है. दीदी दूसरे घर चली गईं तो इस घर का क्या होगा. हम तो कहीं के नहीं रहेंगे.’

मौसाजी हक्केबक्के थे. मोनिका के शब्दों ने तो उन्हें आहत ही कर डाला था. वह तैश में आ कर बोली थी, ‘दीदी यों ही सब संभालती रहेंगी, यह विश्वास कर के ही तो मैं नवीन के साथ शादी करने के लिए राजी हुई थी. वह हमें अधबीच में छोड़ कर इस घर से नहीं जाएंगी, यह आप साफसाफ सुन लीजिए, मौसाजी.’

नंदिता को लगा जैसे कई बिच्छुओं ने एकसाथ उस के शरीर में अपने जहरीले पैने डंक घुसेड़ दिए हैं और वह चीख भी नहीं पा रही है.

मोनिका की बात ने बुजुर्ग मौसाजी के दिल को छलनी कर डाला. एक लंबी जिंदगी देखी है उन्होंने, समझ गए कि माटी के पक्के बरतनों पर कोई रंग नहीं चढ़ता. बिना कुछ कहेसुने वह तुरंत घर से बाहर हो गए. वह जानते थे कि जिन की आंखों की शरम मर जाती है, जिन के मन में मानवीय रिश्तों की कोई कीमत नहीं रहती, ऐसे लोगों को अच्छी नसीहतें देना रेत का घरौंदा बनाने जैसा है. नंदिता भी वहां ज्यादा देर बैठी न रह सकी.

उस दिन के बाद घर में रोज की जिंदगी तो पिछली रफ्तार से ही चलती रही पर जैसे उस में जगहजगह स्पीड ब्रेकर खडे़ हो गए थे. इन स्थितियों ने नंदिता को काफी दुखी कर दिया. वह चुपचुप रहने लगी. सिर्फ नमिता के साथ ही वह खुल कर बात करती थी, नवीन और मोनिका के साथ उस के संवाद का दायरा काफी सिकुड़ता चला गया था. ज्यादातर वह अपने कमरे में कैदी सी पड़ी रहने लगी थी. कोई कुछ पूछता तो ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब दे कर चुप हो जाती थी. जब अकेली होती तो खुद से पूछने लगती कि उस के स्नेह, परिश्रम और त्याग का उस को क्या यही प्रतिफल मिलना चाहिए था.

नवीन और मोनिका की निष्ठुरता से जूझते हुए भी नंदिता छोटी बहन के लिए अपनी जिम्मेदारी के बारे में बराबर सचेत रही. वह चुपचाप उस के लिए लड़के की तलाश में लगी रहती. एक अच्छा लड़का उस को पसंद आया. प्राइवेट कंपनी में एक्जीक्यूटिव था. अच्छी तनख्वाह थी. देखने में भी ठीक ही था. परिवार में पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला था. उम्र में 7 साल का अंतर नंदिता की नजर में ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं था. अमूमन लड़के और लड़की की उम्र में 5-6 साल का अंतर तो आजकल आम बात है.

लड़के का नाम था, कपिल. एक दिन रविवार को नंदिता ने कपिल को अपने घर चाय पर बुला लिया. उद्देश्य था वह नमिता को ठीक से देख ले, आपस में जो भी पूछताछ करनी हो, कर ले. बाकी बातें तो कपिल के मातापिता से मिल कर उस को स्वयं ही तय करनी हैं. मौसाजी और मामाजी को भी अपने साथ ले लेगी. नवीन और मोनिका को इस बात की भनक लग चुकी थी पर नंदिता ने इस काम में उन की कोई भूमिका तय नहीं की थी इसलिए दोनों चुप थे.

कपिल वक्त का पाबंद निकला. शाम के 5 बजतेबजते पहुंच गया. एक सलोना सा युवक भी उस के साथ था.

‘कपिलजी, एक बात पूछूं?’ नंदिता ने शुरुआत की, ‘आप पिछले कुछ दिनों से मेरे दफ्तर में खूब आजा रहे हैं. कोई काम तो वहां नहीं अटका है आप का?’

‘जी नहीं, कोई काम नहीं अटका. यों ही आया होऊंगा.’

‘आप सरीखा समझदार आदमी किसी सरकारी दफ्तर में यों ही चक्कर काटेगा, यह बात मेरे गले नहीं उतर रही.’

‘समझ आने पर बात आप के गले उतर जाएगी…आप बिलकुल चिंता न करें. अभी तो बस, इतना ही बताइए कि मेरे लिए क्या आज्ञा है?’

नंदिता ने जांच लिया कि लड़का सचमुच तेज है. उस को बातों में भरमाया नहीं जा सकता. सो बिना भूमिका के उस ने काम की बात शुरू कर दी, ‘आजकल शादीब्याह के मामले में आगे बढ़ने के लिए पहली और सब से जरूरी औपचारिकता है लड़कालड़की के बीच सीधा संवाद. मैं चाहती हूं कि आप कमरे में जा कर नमिता से बात करें. जो पूछना हो पूछ लें और जो बताना हो वह बताएं.’

‘मैं भला क्यों करूं यह सब पूछताछ नमिता से,’ कपिल ने शरारती लहजे में कहा.

‘आप को नमिता को अपने लिए चुनना है. इसलिए नमिता से पूछताछ आप नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा,’ नंदिता पसोपेश में पड़ गई. सच बात तो यह थी कि कपिल की पहेली को वह समझ ही नहीं पा रही थी.

‘आप से यह किस ने कह दिया कि नमिता को मुझे अपने लिए चुनना है?’

‘कपिलजी, आप को आज यह हो क्या गया है. कैसी उलटीपुलटी बातें कर रहे हैं आप.’

‘मेरी बात तो एकदम सीधीसीधी है, नंदिताजी.’

‘सीधी किस तरह है. मैं ने नमिता के बारे में ही तो आज आप को यहां बुलाया है. आप यह बेकार का कन्फ्यूजन क्यों पैदा कर रहे हैं?’

‘कन्फ्यूजन वाली कोई बात नहीं है, मैं तो बस, आप से बात करने आया हूं.’

‘मतलब.’

‘यही कि मुझे तो जिंदगी में एक का चुनाव करना था, सो मैं ने कर लिया है.’

‘किस का?’

‘नंदिताजी का, नमिताजी की बड़ी बहन का.’

नंदिता को लगा जैसे वह आसमान से गिर पड़ी है. एक बार तो उसे महसूस हुआ कि कपिल उस के साथ ठिठोली कर रहा है. पर उस के हावभाव से तो ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था.

वह बोली, ‘यह क्या गजब कर रहे हैं आप. मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं कि अपनी लाड़ली बहन के सौभाग्य का सिंदूर झपट कर अपनी मांग में सजा लूं. नमिता मेरी छोटी बहन ही नहीं मेरी प्यारी बेटी भी है. मां के देहांत के बाद मैं ने प्यारदुलार दे कर उसे बड़े जतन से पाला है. मैं उस के साथ ऐसा अनर्थ तो सपने में भी नहीं कर सकती.’

नंदिता की आंखों में आंसू छलछला आए. सारा वातावरण संजीदगी से भर गया.

कपिल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘नंदिताजी, आप सच मानिए, पिछले एक महीने से मैं आप के बारे में ही सारी जानकारी इकट्ठी करने में लगा था. उसी की खातिर आप के दफ्तर भी जाया करता था. आप के साथ घोर अन्याय हुआ है, फिर चाहे वह हालात ने किया हो, आप के पिता ने या फिर आप के भाई ने. आप ने अपने परिवार के लिए जो तपस्या की है उस के एवज में तो आप को वरदान मिलना चाहिए था. पर सब जानते हैं कि अब तक अभिशाप ही आप के पल्ले पड़ा है. क्या अपनी गृहस्थी बसाने का आप का कोई सपना नहीं है? सचसच बताइए?’

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नंदिता ने संयत होते हुए कहा, ‘वह सब तो ठीक है पर नमिता के सौभाग्य को अपने सपने पर कुर्बान करने के लिए मैं न तो कल तैयार थी और न आज तैयार हूं. उसे मैं जिंदगी भर कुछ न कुछ देती ही रहना चाहती हूं. उस के अधिकार की कोई वस्तु छीनना मुझे कतई गवारा नहीं है. यह मुझ से कभी नहीं होगा. आप जा सकते हैं. आप का प्रस्ताव मुझे कतई मंजूर नहीं है.’

‘आप को मेरा प्रस्ताव मंजूर हो या न हो पर हम तो इस घर से जल्दी ही दुलहनियां ले कर जाएंगे,’ कपिल ने वातावरण को हलका बनाने की गरज से कहा.

‘मेरे जीते जी तो यह कभी नहीं होगा.’

‘जरूर होगा. इस घर से एक दिन 2 दूल्हे 2 दुलहनियां ले कर ही विदा होंगे.’

नंदिता जैसे सोते से जाग उठी. पूछा, ‘और वह दूसरा लड़का?’

‘यह रहा,’ साथ में बैठे सलोने युवक की ओर इशारा करते हुए कपिल ने जवाब दिया, ‘और इन दोनों को किसी कमरे में जा कर आपस में पूछपरख करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी.’

‘क्यों?’

‘क्योंकि ये दोनों कालिज के सहपाठी हैं. एकदूसरे को खूब जानते हैं. साथसाथ जीनेमरने की कसमें भी खा चुके हैं, बहुत पहले.’

‘पर ये हैं कौन? परिचय तो दीजिए इन का.’

अचानक नमिता ड्राइंगरूम में आई. वह पास के कमरे में नंदिता और कपिल की बातें कान लगाए सुन रही थी.

‘मैं देती हूं इन का परिचय,’ नमिता बोली, ‘दीदी, इन का नाम विकास है और यह कपिलजी के चचेरे भाई हैं. डिगरी कालिज में 3 साल हम क्लासमेट रहे हैं. मेलजोल अब भी है. दोनों ने साथसाथ जीवन का सफर तय करने का फैसला बहुत पहले कर लिया था.’

‘लेकिन पगली, इस बारे में मुझे तो बताती. मैं तेरी दुश्मन थोड़े ही हूं,’ नंदिता ने नमिता को अपने पास सोफे पर बिठाते हुए कहा.

‘आप वैसे भी इन दिनों काफी परेशान रहती हैं, दीदी. मैं विकास और अपने बारे में आप को बता कर आप की परेशानियों को बढ़ाना नहीं चाहती थी. मैं ने आप से यह बात छिपाने की गलती की है. मुझे माफ कर दो, दीदी.’

‘इस में माफी जैसी कोई बात नहीं है मेरी प्यारी बहना. तू ने जो भी किया अपनी समझ से अच्छा ही किया है. विकासजी, इस बारे में आप को कुछ कहना है या फिर फैसला सुना दिया जाए?’

‘मुझे कुछ नहीं कहना. जो कहना था वह नमिता कह चुकी है. नंदिताजी, आप तो बस, फैसला सुना दीजिए,’ विकास बोला.

‘कपिलजी ने ठीक ही कहा है, इस घर से जल्दी ही 2 दूल्हे, 2 दुलहनियां ले कर विदा होंगे,’ इतना कह कर नंदिता ने नमिता को गले लगा लिया.

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आज बरसों बाद नंदिता की सूखी आंखों में खुशी के आंसू छलछला आए. उसे लगा आज पहली बार कुदरत ने उस के साथ इंसाफ किया है. इस तरह अचानक मिले इंसाफ से कितनी खुशी होती है, इस का एहसास भी उसे पहली बार हुआ.

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