डॉक्टर मनमोहन सिंह के पद चिन्हों पर चलते नरेंद्र मोदी

आखिरकार भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भी अंततः पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के पद चिन्हों पर चल पड़े हैं. जी हां! यह सच है और सारा देश देख रहा है कि किस तरह अफगानिस्तान के मसले पर नरेंद्र मोदी ने चुप्पी साध ली है.उनके कम बोलने पर कटाक्ष करने वाले अब बात बात पर स्वयं मौन हो जाते हैं जो देश में चर्चा का विषय है.

एक समय छोटी-छोटी बातों पर 56 इंच के सीना दिखाने वाले मोदी ने देश की आवाम को यह कह कर के आकर्षित किया था कि कांग्रेस गठबंधन की सरकार और उसके मुखिया डॉ मनमोहन सिंह तो सिर्फ मौन रहते हैं.उनके शांत स्वभाव का जैसा माखौल उड़ाया गया वह इतिहास में दर्ज है.

दरअसल डा मनमोहन सिंह की इतनी आलोचना की गई और नरेंद्र मोदी कि इतनी प्रशंसा इतनी बढ़ाई की देश की जनता ने उन्हें भारी बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बना दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को बड़े ख्वाब दिखाए और छोटी-छोटी बातों पर बड़ी-बड़ी गाथाएं सुनाते हुए आकर्षित कर लिया था. ऐसा मालूम होता था कि मानो कोई देश की तरफ आंख भी उठाएगा तो मोदी जी की सरकार उसकी आंखें निकाल डालेंगे.

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मगर धीरे-धीरे सच्चाई सामने आती चली जा रही है. जिसमें अफगानिस्तान का मामला आज सुर्खियों में है, भारत अफगानिस्तान की मित्रता सैकड़ों साल पुरानी है और आधुनिक समय में भी लंबे समय से दोनों साथ-साथ एक अच्छे पड़ोसी के रूप में जाने जाते हैं. ऐसे में जब तालिबान का दस्ता अफगानिस्तान की सरकार पर काबिज होता चला गया भारत और वर्तमान नेतृत्व मौन साध कर बैठ गया.और अब यह चर्चा है कि मोदी आखिरकार डॉ मनमोहन सिंह के पदचिन्ह पर क्यों चल रहें है.

हजारों करोड़ पानी में

नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के पश्चात 2015 में अफगानिस्तान में मित्रता का एक नया अध्याय शुरू किया और लगभग हजारों करोड़ रुपए का निवेश प्रारंभ हो गया. यही नहीं अफगानिस्तान की संसद को भी भारत में अपने पैसों से संवारा और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम एक बड़ा प्रखंड निर्माण कराया गया.

सामरिक दृष्टि से भी भारत ने यहां निर्माण कार्य शुरू कराएं, जिन पर अब पानी फिर गया दिखाई देता है. यही कारण है कि लोग आश्चर्यचकित हैं कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी चुप क्यों है. आखिर छोटी छोटी बातों पर देश और दुनिया को संबोधित करने वाले मोदी जी अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे पर क्यों नहीं बोल रहे हैं.

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लेकिन कुछ भी कहिए नरेंद्र दामोदरदास मोदी और उनके सरकार ने रूको और वॉच करो नीति अपनाई है जो कुटनीतिज्ञ दृष्टि से सही भी है. मगर लाख टके का सवाल है कि जब आप पहले छोटी-छोटी बातों पर अपना रूप में सामने रखे थे बड़ी-बड़ी बातें करते थे तो आज सवाल तो पूछा जाएगा.

गंभीरता एक बड़ी खूबी

अब लगभग साढ़े सात वर्ष पश्चात पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की खूबियां देश देख रहा है. जिस तरीके से उन्होंने देश को नेतृत्व दिया उचाई दी ऐतिहासिक हो गया है. मगर,एक समय में मनमोहन सिंह के 10 साल तक के समय में उनकी खूबियों को उनकी खामियां बताया गया.

अब सच्चाई लोगों को समझ में आ रही है कि राजनीतिक रूप से कूटनीति के तहत अनेक जगहों पर मौन रहा जाता है. हर जगह बात करना ऊंची हांकना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होता है. इस आलेख के माध्यम से हम यह सच आपको बताना चाहते हैं कि राजनीतिक दांव पेंच से ऊपर उठकर देश की आवाम के प्रति जवाबदेही देश के नेताओं को समझ होनी चाहिए .

गरीबों के लिए कौन अच्छा: मायावती, अखिलेश या प्रियंका?

कांग्रेस हमेशा से राजनीति में सभी जाति, धर्म और गरीब व कमजोर तबके को साथ ले कर चलती रही है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने बीसी, एससी  और कमजोर तबके की राजनीति की है.

भारतीय जनता पार्टी के हिंदू राष्ट्र में गरीब, बीसी तबके और औरतों के लिए जगह नहीं है. राजा के आदेश का  पालन कराने के लिए पुलिस जोरजुल्म करेगी. ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ की कहानियां इस की मिसाल हैं, जहां एससी और बीसी को कोई हक नहीं थे.

हिंदू राष्ट्र के सहारे पुलिस राज चलाने का काम किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश इस का मौडल बनता जा रहा है. भाजपा हमेशा से अगड़ी जातियों की पार्टी रही है. वहां जातीय आधार पर एकदूसरे का विरोध होता रहा है.

परेशानी की बात यह है कि कांग्रेस हो या सपा और बसपा, सभी दल अपनी विचारधारा को छोड़ चुके हैं. इन दलों के बड़े नेताओं को सलाह देने वाले लोग भाजपाई सोच के हैं, जिस वजह से वे सही सलाह नहीं दे रहे हैं. नतीजतन, कांग्रेस, सपा और बसपा जैसे दल अब हाशिए पर जा रहे हैं और इन के मुद्दे बेमकसद के लगने लगे हैं.

अमूमन राजनीतिक दलों की अपनी विचारधारा होती है. उस विचारधारा के आधार पर ही उन के नेता चुनावों में जनता के बीच जा कर वोट मांगते हैं, जिस के बाद उस दल की सरकार बनती है और फिर वह दल अपनी विचारधारा के कामों को पूरा करता है.

कांग्रेस की विचारधारा आजादी के पहले से ही सब को साथ ले कर चलने की थी. इसी वजह से जब देश हिंदूमुसलिम के बीच बंट कर भारत और पाकिस्तान बन रहा था, तब कांग्रेस इस पक्ष में थी कि भारत सभी जाति और धर्म के लोगों का देश रहेगा.

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देश में जब पहली सरकार बनी थी, उस समय कांग्रेस के घोर विरोधी दलों में से एक जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी मंत्रिमंडल में जगह दी गई थी.

भाजपा अब अपने राज में जवाहरलाल नेहरू को ले कर गंदेगंदे आरोप लगा रही है. ऐसी राजनीति कभी भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जवाहरलाल नेहरू ने सोची तक नहीं होगी.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश की तरक्की को अहमियत देने के साथसाथ गरीब और पिछड़ों की  तरक्की को भी अहमियत देने का काम किया था. उस समय ही ऐसे तमाम कमीशन बनाए गए थे, जिन को अपनी रिपोर्ट देनी थी.

जवाहरलाल नेहरू के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने थे, तो देश में रोजगार को बढ़ाने और नई टैक्नोलौजी को लाने का काम किया गया था. राजीव गांधी के जमाने में ही कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी.

इस के बाद कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपने कार्यकाल में आर्थिक सुधारों के लिए काफी काम किया था, जिस के बाद निजी सैक्टर में काफी तरक्की हुई थी.

10 साल की डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार ने मनरेगा योजना के तहत लोगों को ‘रोजगार की गारंटी’ दी. गरीबों की मदद के लिए ‘मिड डे मील’ योजना शुरू की. जब पूरी दुनिया में आर्थिक तंगी थी, उस समय भारत बेहतर हालत में था.

कांग्रेस सरकार में गरीबों को मदद करने की तमाम योजनाएं चली थीं, पर उस का बो झ टैक्स देने वाले पर इतना नहीं पड़ा था कि वह टूट जाए.

भ्रष्टाचार और काले धन के खात्मे के नाम पर सत्ता में आई मोदी सरकार नोटबंदी, जीएसटी और तालाबंदी की ऐसी योजनाएं ले कर आई कि गरीब की मदद तो दूर उन की रोजीरोटी तक चली गई. मोदी सरकार के ऐसे फैसलों से महंगाई और बेरोजगारी सब से ज्यादा बढ़ गई. देश का विकास सब से नीचे स्तर पर पहुंच गया.

सरकारी कंपनियों को विनिवेश के नाम पर बेचने का काम सब से ज्यादा किया जा रहा है. सरकार की पौलिसी में गरीब कहीं नजर नहीं आते हैं. केंद्र के स्तर पर देखें, तो कांग्रेस ने ही गरीबों और मध्यम तबके के लिए सब से ज्यादा काम किया. यही वजह थी कि उस दौर में महंगाई और बेरोजगारी सब से कम थी.

कांग्रेस में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की नीतियां गरीब और पिछड़ों की मदद करने वाली लग रही हैं. जिस तरह से राहुल गांधी ने एससी और गरीबों का आत्मबल बढ़ाने के लिए उन के घरों में साथ बैठ कर खाना खाने की शुरुआत की, उस से भाजपा के बड़े नेता भी उसी राह पर चलने को मजबूर हुए.

लाभकारी रही समाजवादी योजनाएं

अखिलेश सरकार ने अपने कार्यकाल  में समाजवादी विचारधारा की कई ऐसी योजनाएं शुरू की, जिन से गरीबों को लाभ हुआ. गांव के गरीब बच्चों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन को पढ़ने के लिए लैपटौप मिल सकेंगे. 12वीं जमात पास करने वाले बच्चों के हाथों में लैपटौप पहुंचना किसी चमत्कार से कम नहीं था.

इस के साथसाथ बेरोजगारी भत्ता सब से ज्यादा मिला, जिस की शुरुआत समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकाल में की थी. उस समय जिस ने भी रोजगार दफ्तर में अपना रजिस्ट्रेशन करा लिया था, उसे 500 रुपए प्रतिमाह बेरोजगारी भत्ता मिलने लगा था.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के दौर में रोजगार दफ्तरों के सामने रजिस्ट्रेशन कराने के लिए लगी लंबीलंबी लाइनें बताती थीं कि योजना का लाभ किस तरह लोगों तक पहुंच  रहा है.

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अखिलेश सरकार ने गांवगांव एंबुलैंस सेवा और आशा बहुओं के जरीए गरीबों की मदद करने का काम किया. गांवगांव विधवा पैंशन पहुंचाने का काम किया गया. इस से गरीब और कमजोर लोगों की मदद होती रही. समाजवादी पार्टी ने प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर भी एससी तबके का साथ दिया.

युवा सलाहकारों की टीम

अखिलेश यादव के पास 5 युवा नेताओं की सलाहकार टीम है. इन में सुनील साजन, राजपाल कश्यप, सोनू यादव, अभिषेक मिश्रा और अनुराग भदौरिया प्रमुख हैं.

ये सभी मुलायम सिंह यादव की पुरानी समाजवादी विचारधारा के नहीं हैं. इन की खासीयत यह है कि ये सभी अखिलेश यादव के बेहद भरोसेमंद और हमउम्र हैं.

अखिलेश यादव सरकार में ये खास ओहदों पर रहे हैं. इस वजह से अखिलेश यादव इन पर पूरा भरोसा करते हैं. इन की सलाह पर वे काम भी करते हैं.

इन नेताओं की सलाह विचाराधारा से ज्यादा इस बात पर होती है कि चुनाव कैसे लड़ा जाए. किस तरह के लोगों को पार्टी में जोड़ा जाए. लोगों तक पहुंचने की रणनीति क्या हो.

इन सलाहकारों में से ज्यादातर लोग मायावती के साथ चुनावी गठबंधन नहीं करना चाहते थे. दरअसल, अखिलेश यादव के तमाम सलाहकार भाजपाई सोच के हैं, जहां समाजवादी विचारधारा का कोई मतलब नहीं रह गया है. यह बात केवल चुनावी भाषण बन कर रह गई है.

समाजवादी पार्टी में चाचाभतीजे की लड़ाई में भी सलाहकारों का अहम रोल था. अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव की पार्टी के साथ भी चुनावी तालमेल को ये लोग पसंद नहीं कर रहे हैं. पंचायत चुनावों में जिस तरह का काम समाजवादी पार्टी ने किया है, उस में इन युवा सलाहकारों का अहम रोल रहा है.

समाजवादी पार्टी की नेता विभा शुक्ला कहती हैं, ‘‘समाजवादी पार्टी ने हमेशा ही गरीब और कमजोर लोगों की मदद की है. तमाम सरकारी योजनाएं छोटे कारोबारियों को ले कर बनाई गई थीं. भाजपा सरकार ने जीएसटी, नोटबंदी और तालाबंदी के जरीए कारोबारियों को अलगअलग तरह से परेशान किया. लोग अपना कारोबार बंद कर घरों में बैठ गए. ऐसे लोग अब यह कहते हैं कि समाजवादी सरकार हर किसी का खयाल रखती थी.

‘‘भाजपा के बारे में कहा जाता था कि वह कारोबारियों की सरकार है, पर भाजपा के समय में ही कोराबारी सब से ज्यादा परेशान हैं. यही नहीं, समाजवादी सरकार ने गरीब और कमजोर तबके के लिए जो भी योजनाएं चलाई थीं, उन को बंद कर दिया गया, जिस में बेरोजगारी भत्ता सब से बड़ा उदाहरण है.

‘‘समाजवादी सरकार के समय चलाई गई तमाम योजनाओं के नाम बदल दिए गए. गरीब और कमजोर लोगों की मदद करने का जो सपना समाजवादी पार्टी ने देखा, वह किसी और ने नहीं देखा.’’

महिला नेता रजिया नवाज कहती हैं, ‘‘समाजवादी पार्टी केवल दिखावे के लिए नहीं कहती है कि वह गरीब और कमजोर लोगों के लिए काम करती है. वह जमीनी लैवल पर कर के दिखाती है.

‘‘पिछले 7 साल में मोदी सरकार की हर बात केवल सफेद  झूठ ही रही है. चाहे बात किसानों की कमाई दोगुनी करने की हो, खेती में लागत मूल्य का डेढ़ गुना देने की बात हो, फसल बीमा योजना की बात हो, सूखे और आपदा में किसानों और गरीबों की मदद की बात हो, खाद, बीज, डीजल, पैट्रोल के कीमत की बात हो, हर बात केवल दिखाने के लिए रही है. जिस बात का वादा नहीं किया था, वे कृषि बिल किसानों को बरबाद करने के लिए जरूर ला दिए गए.’’

मायावती ने दिलाया गरीबों और कमजोरों को सम्मान

बहुजन समाज पार्टी ने दलित चेतना जगाने और उन को एकजुट कर के राजनीतिक ताकत बनाने का काम शुरू किया था, जिस में पार्टी कामयाब भी रही. गरीब, कमजोर और मजलूम तबके की लड़ाई में उस के साथ खड़े होने के लिए राजनीतिक ताकत बनने के लिए बसपा ने सत्ता में भागीदारी की.

बसपा नेता मायावती साल 1995 से ले कर साल 2007 के बीच 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. मायावती ने दलित ऐक्ट को ले कर असरदार ढंग से काम किया, जिस से इस तबके की सुनवाई थाने और तहसील में होने लगी. एससी और कमजोर तबके के साथ भेदभाव कम हो गया और उसे इंसाफ भी मिलने लगा.

मायावती साल 1995 से ले कर साल 2003 तक जब भी मुख्यमंत्री रहीं, कभी पार्टी के सिद्धांतों ने कोई किनारा नहीं किया था. कांशीराम के बाद मायावती ने बसपा को अपने हिसाब से चलाया. उन्होंने साल 2007 के विधानसभा चुनाव के समय ही दलितब्राह्मण गठजोड़ को आगे किया.

अचानक बसपा में ब्राह्मणों का दबदबा ऐसे बढ़ गया कि बसपा का नाम लोगों ने ‘ब्राह्मण समाज पार्टी’ कहना शुरू कर दिया.

ब्राह्मणों के दबाव में बसपा के मूल नेता पार्टी से बाहर किए जाने लगे. बसपा के मूल कैडर के कार्यकर्ता अनदेखी का शिकार होने लगे. खुद मायावती ने बसपा मूल के नेताओं को पार्टी से बाहर करना शुरू कर दिया. इस के बाद उन को खुद अपनी ताकत पर भरोसा नहीं रह गया. नतीजतन, पहले मायावती ने अखिलेश यादव से सम झौता किया और अब बसपा भाजपा की ‘बी टीम’ कही जाने लगी है.

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पार्टी से ज्यादा अहम हो गया परिवार

मायावती की दिक्कत यह रही कि पार्टी में कांशीराम के समय से जुटे नेताओं को पार्टी से बाहर कर दिया गया. मायावती का अपने परिवार पर भरोसा बढ़ गया. वे अपने भाई आनंद कुमार के साथसाथ भतीजे आकाश आनंद की सलाह पर चलने लगीं.

परिवार से बाहर अभी भी मायावती का सब से ज्यादा भरोसा सतीश चंद्र मिश्रा पर है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि सतीश चंद्र मिश्रा पार्टी के नेता और पदाधिकारी से ज्यादा जिम्मेदारी मायावती के तमाम मुकदमों की उठा रहे हैं.

मायावती को पता है कि यह जिम्मेदारी दूसरा कोई नहीं उठा सकता है. ऐसे में वे सतीश चंद्र मिश्रा को अपने साथ रखने के लिए मजबूर हैं. वे उन की सलाह पर ही काम करती हैं. दलितों को ले कर बसपा की नीतियों में जो बदलाव दिख रहा है, उस के लिए सतीश चंद्र मिश्रा की सलाह बेहद अहम रही है.

भाजपा को यह पता था कि अगर एससी और बीसी एकसाथ खड़े होंगे तो उस का नुकसान होगा. ऐसे में भाजपा ने मायावती में महत्त्वाकांक्षा को पैदा कर इन तबकों में दूरी पैदा कर दी. ऐसे में भाजपा अपनी ताकत खत्म होने से बचा ले गई.

मायावती भाजपा के पक्ष में खड़ी दिखने भले ही लगी हों, पर जो चेतना उन्होंने एससी तबके में जगाई, वह अब भाजपा के लिए मुसीबत की वजह बन रही है. भाजपा इस का मुकाबला करने के लिए एससी और बीसी जातियों में दूरी पैदा करने के बाद इन की उपजातियों मे दरार डाल कर अपना उल्लू सीधा करना चाहती है.

विश्व शूद्र महासभा के अध्यक्ष चौधरी जगदीश पटेल कहते हैं, ‘‘मायावती ने अपने कार्यकाल में जिस तरह से भ्रष्टाचार किया, उस की वजह से वे भाजपा से दबने लगी हैं. इस के बाद भी दलित बिरादरी स्वाभिमान के लिए कांशीराम और मायावती ने बाबा साहब की नीतियों को जिस तरह से आगे बढ़ाने का काम किया था, वह बहुत अच्छा था.

‘‘आज दलित भेदभाव का पहले जैसा शिकार नहीं रह गया है. वह अपने रीतिरिवाज से सम झौते नहीं कर रहा. ग्राउंड लैवल पर भले ही एकदम बदलाव न आया हो, पर अब पहले जैसी छुआछूत की भावना नहीं रह गई है. ऐसे मे दलित और गरीबों की आवाज उठाने में बसपा का प्रमुख रोल है.

‘‘मायावती के काम आज कैसे भी हों, पर पहले जैसा सुलूक करना अब मुमकिन नहीं है. दलितों के तमाम तबकों में अपनी आवाज उठाने वाले लोग उठ खड़े हुए हैं, जिस का श्रेय बसपा को ही जाता है.’’

हिंदू राष्ट्र बन जाएगा पुलिस राष्ट्र

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा इस काम में कामयाब रही है. उस ने अपने हिंदुत्व के कार्ड को आगे कर दिया, जिस की वजह से उसे भारी वोटों से जीत मिली. 7 सालों में देश के लोग यह सम झ रहे हैं कि गरीबों के लिए कौन अच्छा काम कर रहा था?

जनता के सामने हिंदुत्व का कार्ड और विकास का गुजरात मौडल फेल होता दिख रहा है. ऐसे में जनता विचार कर रही है कि गरीबों के लिए कौन सब से ज्यादा अच्छा है?

साल 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने कई राज्यों का चुनाव जीता और साल 2019 में दोबारा लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा मोदीमय हो गई. अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने हिंदू राष्ट्र के सपने को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. उत्तर प्रदेश इस के मौडल के रूप में विकसित होता जा रहा है.

साल 2021 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के मुकाबले हार का मुंह देखने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भाजपा पर हावी होने का मौका मिल गया.

भाजपा में अंदरूनी कलह के बहाने संघ ने अपने तमाम पदाधिकारियों को भाजपा में स्थापित कर दिया. अब संघ के लोग भाजपा में सलाहकार की भूमिका निभाने लगे हैं.

उत्तर प्रदेश में भाजपा में मोदी और योगी के गुट को सलाह देने के नाम पर संघ ने एक अपनी पूरी टीम यहां लगा दी है. संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रय होसबले को लखनऊ में बैठने के लिए कह दिया गया. संघ में ऐसे लोगों को जिम्मेदारी वाले पद दिए गए, जो उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले हैं. इन में आलोक कुमार, महेंद्र कुमार, धनीराम, धर्मेंद्र और विनोद प्रमुख हैं.

संघ का यह दावा पूरी तरह से  झूठ है कि वह राजनीति नहीं करता है. संघ अभी तक भाजपा की आड़ में राजनीति करता था, पर पश्चिम बंगाल चुनाव में हार के बाद वह खुल कर भाजपा के सहारे राजनीति करने लगा है. संघ को लगता है कि अगर इस समय भाजपा पर कब्जा नहीं किया गया, तो मोदीशाह की जोड़ी के कब्जे से भाजपा को मुक्त कराना आसान नहीं होगा.

आने वाले विधानसभा चुनाव और साल 2024 के लोकसभा चुनाव तक संघ अपना प्रभाव भाजपा में इस तरह बढ़ा लेना चाहता है कि फिर भाजपा संघ के किसी आदेश को मानने से इनकार न कर सके. संघ यह सोच रहा है कि जब तक भाजपा संघ के पूरी तरह कब्जे में नहीं आएगी, तब तक देश को हिंदू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता है.

संघ के हिंदू राष्ट्र में गरीबों और महिलाओं की हालत कैसी होगी, यह सभी को सम झ आ रहा है. महिलाओं को ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के सिद्धांतों पर चलने को मजबूर किया जाएगा. लव जिहाद के नाम पर ऐसा किया जा रहा है. एक तरह से यह कहा जा रहा है कि अपने मनपसंद जीवनसाथी का चुनाव महिलाएं नहीं कर पाएंगी.

इस के अलावा जनसंख्या कानून, नागरिकता कानून बनाने से जनता के अधिकार सीमित किए जा रहे हैं. सरकारी नीतियों का विरोध करने वालों की जबान को पुलिस के सहारे बंद करने की कोशिश की जा रही है. हिंदू राष्ट्र एक तरह से पुलिस राष्ट्र की तरह बनता जा रहा है, जहां राजा का आदेश ही लोकतंत्र माना जाएगा.

“सुशासन बाबू” नीतीश के रंग!

यही कारण है कि लोकतंत्र में हमारे देश में अनेक राजनीतिक पार्टियां हैं और उनके नेता रंग रंग की राजनीतिक उछल कूद से जहां अनायास देश का भला करते हैं, वहीं देशवासियों का मनोरंजन भी.

बात अगर हम आज बिहार की करें, तो आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार “सुशासन बाबू” के रूप में अपनी ही पीठ थपथपाते जाते हैं. यह सारा देश जानता है कि बिहार में सुशासन नाम की चीज आपको कहीं नहीं मिलेगी. अब उन्होंने एक नया अंदाज बयां दिखाया है जिसे राजनीति के बड़े पर्दे पर बड़े ही उत्सुकता के साथ देखा जा रहा है . यह है अपने ही एनडीए गठबंधन के खिलाफ सुर बुलंद करना.

नीतीश कुमार ने इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की दुखती हुई रग को पकड़ लिया है और कहा है कि पेगासस मुद्दे पर तो जांच होनी ही चाहिए.

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राजनीति के जानकार हर आम-ओ-खास जानता है कि पेगासस जासूसी कांड पर नरेंद्र दामोदरदास मोदी और उनके दाएं बाएं रहस्यमय रूप से खामोश हैं. कोई कुछ कहता और न ही जांच की बात पर सहमति है. ऐसे में अपने ही गठबंधन के एक शीर्षस्थ नेता नीतीश कुमार द्वारा पेगासस जासूसी कांड के चीथड़े को खींचकर पूरी चलती संसद के बीच उधाड़ देना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके दाएं बाएं को नागवार गुजर सकता है.

सबसे अहम सवाल यह है कि जिस एनडीए गठबंधन के संरक्षण में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनकर कुर्सी पर बैठे हुए हैं यहां उन्हें ऐसी कोई बात करनी चाहिए जो गठबंधन के नीति और सिद्धांतों के खिलाफ है? क्या एनडीए गठबंधन का कोई माई बाप नहीं है जो उसे अपने हिसाब से देश के हित में और पार्टियों के हित में संचालित कर सके?

आखिरकार नीतीश कुमार के इन रंग बदलते बोलो के पीछे की राजनीति क्या है?
आइए! आज हम इस पर दृष्टिपात करते हैं.

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नीतीश कुमार की निगाह!

आपको हम बताते चलें कि नीतीश कुमार देश के एक बड़े कद के नेता माने जाते रहे हैं. और उन्हें प्रधानमंत्री पद का एक महत्वपूर्ण दावेदार भी लंबे समय से माना गया है. ऐसे में नीतीश कुमार ने सोची समझी राजनीतिक चाल चलनी शुरू कर दी है. पहले भी चल रहे किसान आंदोलन का आप समर्थन कर चुके हैं. यही नहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का मुख्य घटक दल जनता दल (यूनाइटेड) केंद्र सरकार की राय के विपरीत जाति जनगणना कराने पर भी जोर दे रहा है. नीतीश कुमार ने पेगासस जासूसी कांड की भी जांच की मांग कर दी है है ऐसे में सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार केंद्र सरकार की नीतियों का इस तरह विरोध क्यों कर रहे हैं.

नीतीश कुमार, जैसा कि सभी जानते हैं एक के वरिष्ठ राजनेता हैं वह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार रहे हैं. और मोदी को कई दफा घात प्रतिघात दे चुके हैं.

यही कारण है कि जब प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने देश की बागडोर संभाली तो उन्होंने नीतीश कुमार को दबाने का प्रयास शुरू कर दिया और लालू नीतीश कुमार के गठबंधन को अपने अदृश्य हाथों से छिन्न-भिन्न करके भाजपा के साथ नीतीश कुमार को लाने में सफलता प्राप्त की. जब नीतीश कुमार ने लालू के साथ को छोड़ा तो उनकी बड़ी आलोचना हुई थी. मगर नीतीश कुमार मौन हो आंखें बंद कर मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर विराजमान हो गए और एनडीए के साथ गलबहियों में खोये रहे. इधर नरेंद्र दामोदरदास मोदी उन्हें झटके पे झटका देते रहे 2019 में जब केंद्र सरकार में उन्होंने नीतीश कुमार के चार मंत्रियों के कोटे को कटौती करके एक मंत्री पद देने की बात कही तो नीतीश कुमार ने गुस्से में एक भी मंत्री पद लेने से इनकार कर दिया था. मगर उनकी नाराजगी पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया .

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नीतीश कुमार एक बेचारे मुख्यमंत्री बन करके रह गए. मगर जैसा कि होता है राजनीति में घाट घाट का पानी तो पीना ही पड़ता है ऐसे में नीतीश कुमार ने जैसे ही तीन विधेयकों का मामला जोर पकड़ने लगा वे किसानों के पक्ष में खड़े होकर के उन्होंने यह बता दिया कि वे मोदी की नीति के कितने खिलाफ हैं और अब पेगासस जासूसी मामले में उन्होंने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को जिस तरह से घेर दिया है वह विपक्ष को एक ताकत दे गया है.

शर्मनाक: Bihar में अफसरशाही और भ्रष्टाचार

लेखक- धीरज कुमार

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और बिहार सरकार के समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी ने अफसरशाही से तंग आ कर मंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा की.

मदन साहनी ने यह आरोप लगाया, ‘‘मंत्री पद पर रहते हुए मैं आम लोगों के काम नहीं कर पा रहा हूं. जब भी मैं अपने अफसरों को निर्देश देता हूं, तो वे बात मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं.

‘‘अफसर क्या विभाग के चपरासी तक मंत्रियों की बात नहीं सुनते हैं. किसी को काम करने के लिए भेजा जाता है, तो उस से पूछा जाता है कि आप मंत्री के पास क्यों चले गए? क्या मंत्रीजी को ही काम करना है?

‘‘मंत्री बनने के बाद बंगला और गाड़ी तो मिल गया है, पर क्या मंत्री इसीलिए बने थे कि मंत्री बन जाने के बाद मेरे आगेपीछे कई गाडि़यां चलेंगी और मुझे रहने के लिए बड़ा सा बंगला मिल जाएगा? इस से आम लोगों को फायदा हो जाएगा?

‘‘मैं 15 सालों से अफसरशाही से पीडि़त हूं. मैं ही क्यों, मेरी तरह और भी कई मंत्री परेशान हैं, लेकिन वे सब बोल नहीं पा रहे हैं.

‘‘मैं सिर्फ सुविधा भोगने के लिए मंत्री नहीं बना हूं. मेरी आत्मा इस के लिए गवाही नहीं दे रही है, इसलिए मैं अपना इस्तीफा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास भेज रहा हूं. वैसे, मैं अपने क्षेत्र में रह कर पार्टी के काम करता रहूंगा.’’

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दरअसल, समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी के खफा होने की वजह यह है  कि उन्होंने 134 बाल विकास परियोजना पदाधिकारियों (सीडीपीओ) के तबादले के लिए फाइल विभाग के अपर मुख्य सचिव के पास भेजी थी. जिन पदाधिकारियों को तबादले के लिए लिस्ट भेजी गई थी, वे 3 साल से ज्यादा समय से एक ही जगह पर जमे हुए थे. वे सभी पदाधिकारी ठीक से काम नहीं कर रहे थे. इस की उन्हें लगातार शिकायतें मिल रही थीं.

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लेकिन मुख्य सचिव ने लिस्ट में से सिर्फ 18 लोगों का ही ट्रांसफर किया, बाकी लोगों के ट्रांसफर पर रोक लगा दी.

इस विवाद के बाद समाज कल्याण विभाग के अपर मुख्य सचिव त्रिपुरारी शरण ने अपने सफाई में कहा, ‘‘उन की भेजी गई फाइल अध्ययन के लिए रखी गई है. अध्ययन के बाद उस आदेश पर  कार्यवाही की जाएगी.’’

बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और ‘हम’ पार्टी के अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने भी समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी की बातों का समर्थन किया. उन्होंने मीडिया वालों से कहा, ‘‘यह सही बात  है कि बिहार में विधायकों और कई मंत्रियों की बातों को अफसर तरजीह नहीं देते हैं.

‘‘मैं एनडीए विधानमंडल दल की बैठक में भी इस मसले को उठा चुका हूं. मैं माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  को भी इस संबंध में बोल चुका हूं.  सभी विधायकों की इज्जत तभी बढ़ेगी, जब इन की बातों को विभागीय अफसर सुनेंगे. यह बात हम पहले भी कह चुके हैं. मंत्री मदन साहनी की बात बिलकुल सही है.

‘‘इस्तीफा देने से पहले हम ने मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं बताया कि लोग समझने लगेंगे कि मैं मुख्यमंत्री को अपनी बात मनवाने के लिए ब्लैकमेल कर रहा हूं.

‘‘हम मंत्री हैं, गुलाम नहीं. अब बरदाश्त से बाहर हो रहा है. हम 6 साल से मंत्री हैं. इस के पहले खाद और आपूर्ति विभाग में सचिव पंकज कुमार हुआ करते थे. वे भी हमारी बात नहीं सुनते थे. समाज कल्याण विभाग में एसीएस अतुल प्रसाद 4 साल से बने हैं. उन का भी वही हाल है. उन से 3 साल से एक ही जगह जमे अफसरों को हटाने की बात हुई थी.

‘‘मैं ने उन के पास 22 डीपीओ और 134 सीडीपीओ की सूची बना कर भेजी थी. मंत्री को जून में तबादला करने का अधिकार होता है. लेकिन मेरी फाइलों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.’’

पटना के बाढ़ क्षेत्र के भाजपा के सीनियर विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू ने राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर ही सवाल उठाया है और उन का कहना है, ‘‘इस बार जून में जो भी सरकार के द्वारा तबादले किए गए हैं, उस में मोटी रकम ली गई है. इस में 80 फीसदी भाजपा के मंत्रियों ने खूब माल बटोरा है.

‘‘दरअसल, मोटी रकम ले कर ही पदाधिकारियों की मनचाही जगह पर पोस्टिंग की गई है. लोगों को मनचाही जगह पर जाने के लिए पैसे की बोली लगाई गई है. इस में जद (यू) के मंत्रियों की संख्या थोड़ी कम है, क्योंकि उन्हें नीतीश कुमार से थोड़ाबहुत डर रहता  है. लेकिन भाजपा के मंत्रियों ने सारे  रिकौर्ड तोड़ दिए हैं.

‘‘मनचाही पोस्टिंग पाने के लिए अधिकारियों, इंजीनियरों को लालच भी दिया गया था. इस के एवज में उन से खूब माल बटोरा गया है. कई जगह पर पोस्टिंग के लिए भारीभरकम राशि  की बोलियां लगाई हैं. जिस ने ज्यादा  पैसे दिए, उसे मनचाही जगह पोस्टिंग मिल गई.’’

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वहीं बिसफी, मधुबनी के भाजपा विधायक हरिभूषण ठाकुर बचौल विधायकों की हैसियत को ले कर सरकार पर खूब भड़के. उन का कहना है, ‘‘विधायकों की हालत चपरासी से भी बदतर हो गई है. ब्लौक में इतना भ्रष्टाचार बढ़ गया है कि शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं होती है. हम विधायक जब अपने क्षेत्र की समस्याओं को ले कर जाते हैं, तो ब्लौक के अफसर नहीं सुनते हैं.

‘‘आखिर हम लोग अपने क्षेत्र की समस्याओं को ले कर किस के पास जाएंगे? विधायक अपने क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होता है. इस नाते अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं को ले कर ब्लौक में जाते हैं, तो कोई भी अफसर सुनने को तैयार नहीं होता है. इस तरह हमारी इज्जत दांव पर लगी हुई है.’’

पीएचईडी मंत्री और भाजपा विधायक डाक्टर रामप्रीत पासवान ने कहा, ‘‘कुछ पदाधिकारी मनमानी करते हैं. इस से इनकार नहीं किया जा सकता है. हम शुरू से ही कहते रहे हैं कि मंत्री बड़ा होता है, न कि सचिव.’’

सीतामढ़ी जिले के भाजपा विधायक डाक्टर मिथिलेश का कहना है, ‘‘पद से बड़ा सिद्धांत होता है. मदन साहनी के त्याग की भावना को मैं सलाम करता हूं. मंत्री ने जो मुद्दा उठाया है, उस की जांच होनी चाहिए.’’

मधुबनी जिले के भाजपा के ही एक और विधायक अरुण शंकर प्रसाद ने भी कहा, ‘‘विधायिका के सम्मान में कुछ अफसरों का अंहकार आड़े आ रहा है. अगर मदन साहनी की बातें सही हैं, तो यह बहुत दुखद और वर्तमान सरकार के लिए हास्यास्पद भी है.’’

रोहतास जिले के एक शिक्षक संघ के नेता का कहना है, ‘‘बिहार सरकार के कार्यालय में इतनी अफसरशाही बढ़ गई है कि अफसर नाजायज उगाही के लिए एक नैटवर्क तैयार कर रखे हैं. कई बार तो जानबूझ कर मामले को उलझा देते हैं, ताकि शिक्षकों या आमजनों से पैसे की वसूली की जाए.

‘‘छोटेमोटे कामों के लिए अफसरों को पैसा देना पड़ता है, तब जा कर काम होता है. यही हाल बिहार के तकरीबन सभी विभागों का हो चुका है.

‘‘अफसर काफी मनमानी करने लगे हैं. उन्हें आम लोगों की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. आप अगर पैसे देंगे तो आप का काम हो जाएगा, वरना आप दफ्तर में दौड़ते रह जाएंगे.’’

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अगर यही बात विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव सदन में खड़े हो कर बोलते हैं, तो सत्ता पक्ष वालों की तरफ से मजाक उड़ाया जाता है या फिर बहुत हलके में लिया जाता है.

आज जब सत्ता पक्ष के लोगों ने भ्रष्टाचार और अफसरशाही पर खुल कर बोलना शुरू कर दिया है, तो समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी के बयान पर कई नेताओं की प्रतिक्रिया उन के पक्ष में आती दिख रही है और साथ ही उन के सरकार के आरोपों पर सत्ता पक्ष के दूसरे नेता गोलबंद होने लगे हैं तो यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री और वर्तमान सरकार इस संबंध में क्या कदम उठाती है.

समस्या: लोकतंत्र का माफियाकरण

लेखक- देवेंद्र गौतम

साल 2022 के 15 अगस्त को आजादी की 75वीं सालगिरह मनाई जाएगी. इस के लिए ‘अमृत महोत्सव’ की बड़े पैमाने पर तैयारी चल रही है. 26 जनवरी, 2022 को हमारा लोकतंत्र भी 72वें साल में दाखिल हो जाएगा.

आजाद भारत के इतने लंबे सफर के बाद राजनीति के अपराधीकरण के बाद अब राजनीति के माफियाकरण का खतरा पैदा हो गया है.

इस की एक जीतीजागती मिसाल महाराष्ट्र के सत्ता संरक्षित वसूली गैंग के रूप में सामने आई है. अब चुनाव भी सत्ता पर कब्जे की होड़ में तबदील हो चले हैं, जिस में प्यार और जंग में सबकुछ जायज है की तर्ज पर कानूनी और गैरकानूनी सभी साधनों का इस्तेमाल किया जाता है.

पिछले दिनों भारत के जानेमाने उद्योगपति मुकेश अंबानी के बंगले के पास लावारिस स्कौर्पियो गाड़ी में बरामद जिलेटिन की छड़ों ने बगैर डैटोनेटर इतना बड़ा धमाका कर दिया कि इस की आंच महागठबंधन सरकार तक पहुंच गई है.

मुंबई के पुलिस कमिश्नर रह चुके परमवीर सिंह और गृह मंत्री रह चुके अनिल देशमुख से होती हुई इस की लपटें राकांपा प्रमुख शरद पवार तक पहुंच चुकी हैं. धीरेधीरे चेहरे बेनकाब हो रहे हैं. अभी और कितने लोग इस की चपेट में आएंगे, पता नहीं.

एनआईए मामले की जांच कर रही है. इस में रोज नएनए हैरतअंगेज खुलासे हो रहे हैं. जांच का आखिरी फैसला सामने आने में अभी समय है, लेकिन अभी तक जो तथ्य सामने आए हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि अब सत्ता की राजनीति काले धन का खेल बन चुकी है और लोकतंत्र का माफियातंत्र में बदलाव हो चुका है.

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अभी तक एनआईए की जांच में जो तथ्य सामने आए हैं, उन से यह कहने में झिझक नहीं होनी चाहिए कि महाराष्ट्र में सत्ता की आड़ में एक खूंख्वार माफिया गैंग काम कर रहा था. यह गैंग अंडरवर्ल्ड के गिरोहों की तर्ज पर कारपोरेट घरानों  से भारीभरकम वसूली का जाल बिछा चुका था.

जांच आगे बढ़ेगी, तो पता चलेगा कि इस गिरोह में सीधे और गैरसीधे तौर पर कौनकौन से सफेदपोश नेता और नौकरशाह शामिल थे. कितने की वसूली हो चुकी है और दूसरे अपराधी गिरोहों से इन के क्या संबंध थे.

इस गैंग के मेन किरदार परदे के  पीछे हैं. परदे पर मौजूद किरदार सचिन वाझे थे. महाराष्ट्र पुलिस के अदना से असिस्टैंट पुलिस इंस्पैक्टर जो ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट रह चुके हैं और एक हत्या के आरोप में साल 2004 से ही निलंबित थे.

सचिन वाझे का काम करने का तरीका पूरी तरह जासूसी उपन्यासों के अपराधी सरगनाओं की तरह रहा है. ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट रहने के नाते जाहिर है कि उन के अंडरवर्ल्ड से संबंध रहे होंगे.

कुछ ऐसी ऐक्स्ट्रा खूबियां सचिन वाझे के अंदर रही होंगी कि 16 साल के वनवास के बाद उन्हें वापस बुला कर नौकरी पर रखा गया, जबकि वे हत्या के मामले से बरी भी नहीं हुए थे. कुछ तो उन की ऐसी उपयोगिता थी, जो वर्तमान पुलिस बल से अलग और अहम थी.

सचिन वाझे निलंबित रहते हुए भी फाइव स्टार जिंदगी जी रहे थे, तो इस का सीधा सा मतलब है कि उन की जिंदगी पुलिस महकमे की तनख्वाह से नहीं चल रही थी. उन की आमदनी के दूसरे कई अज्ञात स्रोत थे. पुलिस की वरदी सिर्फ अपनी करतूतों को सरकारी जामा पहनाने का साधन थी.

ऐनकाउंटर स्पैशलिस्ट होने के नाते सचिन वाझे को सत्ता में बैठे लोग भी जानते थे. किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि निलंबित रहने के बावजूद वे आधा दर्जन से ज्यादा लग्जरी कारों में कैसे घूमते थे? शाही जिंदगी कैसे जीते थे? इस बीच वे शिव सेना के सक्रिय सदस्य बन गए थे.

महागठबंधन सरकार बनने के बाद सरकार और महाराष्ट्र पुलिस को सचिन वाझे की सेवाओं की खास जरूरत पड़ गई, इसीलिए उन्हें विशेष प्रावधान के तहत सेवा में वापस लिया गया और उन्हें क्राइम ब्रांच में विशेष जिम्मेदारी दी गई. उन्हें सीधे पुलिस कमिश्नर को रिपोर्ट करना होता था. वे उन्हीं के निर्देश पर काम करते थे. 9 महीने के अंदर ही उन्हें तकरीबन 2 दर्जन खास मामलों का जांच अधिकारी बना दिया गया था.

जाहिर है कि भांड़ा फूट जाने के बाद सचिन वाझे अकेले बलि का बकरा बनना पसंद नहीं करते, इसलिए धीरेधीरे अपने आकाओं के नाम जाहिर करते जा रहे हैं. हम तो डूबेंगे सनम तुम को भी ले डूबेंगे की तर्ज पर.

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मायानगरी मुंबई में धन उगाही पहले भी होती रही है, लेकिन पहले दुबई और मलयेशिया में बैठे डौन बड़ी रकमों की उगाही करते थे. उन के निशाने पर बौलीवुड के सितारे भी होते थे और बड़े कारोबारी भी, खासतौर पर काले धंधे से जुड़े हुए लोग. लोकल इलाकाई गुंडे छोटे दुकानदारों से हफ्तावसूली करते थे.

यह मुंबई तक ही सीमित नहीं है. देश के तकरीबन हर राज्य में सरकार संरक्षित वसूली गैंग हैं, जो राजनीति के लिए खादपानी का जुगाड़ करते रहे हैं, लेकिन मुंबई की सरकार संरक्षित माफिया की वसूली का लक्ष्य बड़ा था.

अभी 100 करोड़ रुपए हर महीने वसूली का टारगेट सामने आया है, लेकिन बात यहीं तक नहीं होगी. अभी बहुतकुछ उजागर होना बाकी है. इतनी बड़ी रकम किसी खास मकसद से ही वसूली जा सकती है.

यह मकसद सत्ता पर कब्जा बनाए रखने या कब्जा करने का हो सकता है. केंद्र सरकार में बैठे लोग इसे बेहतर समझ रहे होंगे, इसीलिए राज्य के क्राइम ब्रांच से मामले की जांच एनआईए को सौंप दी गई.

क्या यह आम लोगों के लिए बेहद चिंता की बात नहीं होनी चाहिए? औपनिवेशिक सत्ता से आजादी के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने कितना संघर्ष किया, कितनी कुरबानियां दीं, उस का नतीजा इस रूप में सामने आ रहा है. हम जिस तरह का देश बनाना चाहते थे, वह यह तो कतई नहीं है. यकीनन, किसी नई व्यवस्था को स्थापित होने में समय लगता है.

फ्रांस की क्रांति 1779 में हुई थी. इस का लक्ष्य लोकतंत्र की स्थापना था, लेकिन इस क्रांति ने नैपोलियन बोनापार्ट को पैदा किया, जिन्होंने सत्ता हाथ में आने के बाद खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया और राजशाही की वापसी हो गई. फिर राजा बदलता रहा, राजशाही चलती रही और लोकतंत्र की दोबारा बहाली 1848 के बाद ही हो सकी यानी 69 साल बाद.

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भारतीय लोकतंत्र भी अभी संक्रमण काल से ही गुजर रहा है. लोकतंत्र की आड़ में परिवारवाद, व्यक्तिवाद का दौर चलता रहा. अब माफियावाद का दौर दस्तक दे रहा है. जब तक आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जरूरी नागरिक गुणों से लैस नहीं होगी, इस तरह की विकृतियां जारी रहेंगी.

ये विकृतियां धीरेधीरे देश और समाज को खोखला कर देंगी और हम कुछ नहीं कर पाएंगे.

क्या ‘नरेंद्र मोदी’ नाम का जहाज डूब रहा है!

कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र दामोदरदास मोदी की “सत्ता- सरकार” का जहाज जब डूबने डूबने को हो रहा था तो मोदी अपने सिद्धांतों और कही हुई बातों से मुकर गए और मोदी नाम का जहाज़ डूब गया.

नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जब 2014 में देश के प्रधानमंत्री की शपथ ली थी तो उन्होंने अपने मुंह से और आचरण से जो जो बातें कहीं, क्या वह आपको याद है. हमारे देश की यही फितरत है- “आगे पाठ पीछे सपाट” यही कारण है कि मोदी ने जो जो आशा आकांक्षाएं देश की जन जन के बीच जागृत की थी और लोग उनके मुरीद होते चले गए थे. आज लगभग 7 साल बीत जाने के बाद मोदी को एहसास हो चला है कि उनका बनाया हुआ “मायाजाल” अब बिखर रहा है. देश की आवाम इस जादुई “भ्रम जाल” से बाहर निकल रहा हैं, ऐसे में मोदी के आचरण में वही घबराहट दिख रही है जो नाव या जहाज डूबने के समय नाविक और कैप्टन के चेहरे पर नजर आती है.

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नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यह एहसास हो चला है कि आने वाले समय में लोकतंत्र की दुहाई देकर, देश प्रेम की अग्नि जलाकर, देश को विकास के एक नए मॉडल के सपने दिखाकर उन्होंने जो सत्ता हासिल की है वह अब उनकी हाथों से निकल रही है. यही कारण है कि उन्होंने बीते दिनों जो केंद्रीय मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया वह स्वयं उनके लिए आइना बन गया है, जो बता रहा है कि आपने जो जो कहा था, उससे आप मुकर गए हैं. सत्ता के लिए आप भी वही सब कुछ कर रहे हैं जो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया था.

मोदी के इस संपूर्ण व्यवहार और सिद्धांत पर आइए हम दृष्टिपात करते हैं.

दिग्गज मंत्रियों को हटाने का “लक्ष्य”!

लोगों के एक आदर्श बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की कथनी और करनी में अंतर साफ साफ दिखाई देता है. वो जो कहते हैं के पीछे का सच कुछ और होता है और जो कुछ नहीं कहते हैं उसके आगे का सच कुछ और होता है. बिलकुल वैसे ही जैसे तीतर के दो आगे तीतर तीतर के दो  पीछे तीतर बताओ कितने तीतर!

देशभर में नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल की चर्चा हो रही है कि किस तरह उन्होंने डॉ हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर जैसे दिग्गज मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. और किस तरह महिलाओं को, पिछड़ों को और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु को उन्होंने प्रतिनिधित्व दिया है. महिलाओं का कोटा बढ़ा दिया है ऐसी बातें पढ़ कर के और देख कर के हमें यह समझना होगा कि आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कि इसके पीछे रणनीति क्या है?

नरेंद्र मोदी के बारे में सारा देश और दुनिया जानती है कि वही प्रधानमंत्री हैं और वही कैबिनेट और राज्यमंत्री भी! उनकी बिना सहमति और निगाह के किसी मंत्री की कोई बखत नहीं है. देश को एकमात्र वही अपनी उंगलियों पर चला रहे हैं या कहें नचा रहे हैं ऐसे में इन बड़े-बड़े दिग्गज मंत्रियों को अचानक हटाने के पीछे की मंशा क्या है.

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दरअसल इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपनी छवि को निखारना है. आप याद करिए जब  कोरोना कोविड-19 का देश में आगमन हुआ था तो किस तरह  “नमस्ते ट्रंप” का  आयोजन प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हुआ था. कोरोना जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ता गया, दीप जलाओ ताली बजाओ और लॉकडाउन का खेल चला और यह कहा गया कि अब कोरोनावायरस देश से खत्म हो जाएगा.मगर जब दांव उल्टा पड़ने लगा तो अपनी छवि बनाने के लिए नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने मंत्रिमंडल के दिग्गज मंत्रियों की छुट्टी करके यह संदेश देने का प्रयास किया है कि देखिए! किस तरह हम एक्शन लेते हैं.

यह भी सच है कि जिन जिन मंत्रियों को कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखाया गया है आने वाले समय में आप देखेंगे कि देश के अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर यही लोग विराजमान दिखेंगे. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अभी लोगों को ध्यान बटाने के लिए यह एक सीधी सी ट्रिक चली गई है जो कामयाब होती भी दिख रही है. क्योंकि हमारे देश में लोगों के जल्द भूल जाने की फितरत है. उसी का लाभ हमारे नेताओं को गाहे-बगाहे मिल जाता है.

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जितिन प्रसाद: माहिर या मौकापरस्त

लेखक- राधेश्याम त्रिपाठी

शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश  के जितिन प्रसाद का कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना यकीनन कांग्रेस के लिए एक  झटका है. इस बात में कोई दोराय नहीं है, लेकिन यह प्रचारित करना कि कांग्रेस में उन की अनदेखी हो रही थी, सम झ से परे है.

जितिन प्रसाद कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे शाहजहांपुर के जितेंद्र प्रसाद उर्फ ‘बाबा साहब’ के बेटे और ज्योति प्रसाद जैसी शख्सीयत के पोते हैं.

जितिन प्रसाद साल 2004 में शाहजहांपुर क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव जीते थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह  के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में उन्हें इस्पात मंत्री का कार्यभार भी सौंपा गया था.  साल 2009 में लखीमपुर की धौरहरा लोकसभा सीट से जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया गया था और उन्होंने फिर से जीत दर्ज की थी. तब उन्हें पैट्रोलियम व प्राकृतिक गैस, सड़क परिवहन और राजमार्ग व मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री बनाया गया था.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जितिन प्रसाद धौरहरा क्षेत्र से हार गए थे. लिहाजा, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने लखीमपुर के मोहम्मदी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनना चाहा था, लेकिन बरबर नगर पंचायत के चेयरमैन संजय शर्मा को यहां से उम्मीदवार बनाया जा चुका था.

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संजय शर्मा मोहम्मदी क्षेत्र के कांग्रेस विधायक और नगर पंचायत बरबर के चेयरमैन रहते आए राम भजन शर्मा के बेटे थे.

संजय शर्मा की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद ही जितिन प्रसाद ने बगावत का  झंडा उठाया था और भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए काफिले समेत लखनऊशाहजहांपुर मार्ग पर महोली तक पहुंच भी गए थे, पर कहा जाता है कि महोली पहुंचते ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने उन से फोन पर बात की और वे वापस लौट आए थे.

वापसी पर जितिन प्रसाद को उन के गृह जनपद या यों कहें ‘बाबा साहब’ के गढ़ जनपद शाहजहांपुर के निकट तिलहर विधानसभा से कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित किया गया था.

गृह जनपद और प्रभावशाली नेतृत्व के वजूद के साथ 2-2 बार केंद्र में मंत्रिमंडल में सम्मिलित रहने वाले जितिन प्रसाद विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारे थे.

इस हार को वैसे तो भाजपा की लहर में डूबने की हालत मानी जाती है, लेकिन जितिन प्रसाद जैसे नेता के लिए अपने गढ़ में ही बुरी तरह हारना बहुत ही शर्मनाक बात कही जा सकती है.

साल 2019 में भी जितिन प्रसाद को लोकसभा धौरहरा से उम्मीदवार बनाया गया था, लेकिन उस में भी उन का स्थान सम्मानजनक तक नहीं रहा था.

कुछ भी हो, जितिन प्रसाद के पार्टी छोड़ने व भाजपा में सम्मिलित होने को कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता, लेकिन जिस तौरतरीके के लिए कांग्रेस की लानतमलामत की जा रही है, वह कांग्रेस पर लागू नहीं होता.

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साल 2004 में शाहजहांपुर से व साल 2009 में धौरहरा लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर जीतना जितिन प्रसाद का कोई करिश्मा भी नहीं माना जा सकता. करिश्मा तो तब माना जाता, जब वे साल 2017 में अपने गृह जनपद के तिलहर विधानसभा क्षेत्र से ही विधायक बन कर दिखाते.

साल 2014 और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जितिन प्रसाद को धौरहरा से उम्मीदवार बनाया गया था और उन का हार जाना कोई अप्रत्याशित नहीं माना जा सकता, लेकिन तिलहर विधानसभा चुनाव में हार जाना जितिन प्रसाद की कदकाठी के मुताबिक नहीं था. साल 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव या 2017 के विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस भी हारी थी, कांग्रेस की  झोली में तब क्या था?

युवा जितिन प्रसाद जैसा ‘महान’ नेता, जो 2 बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहा हो, अपने गढ़ तिलहर से हार कर निचली पायदान पर पहुंचा हो, उसे कांग्रेस दे ही क्या सकती थी?

भले ही कांग्रेस की गलतियां रही होंगी, लेकिन कांग्रेस कर भी क्या सकती थी, उस इनसान के लिए, जिस के सिर पर 2004 व 2009 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह दे कर मंत्री पद का ताज रखा गया और वह मोहम्मदी क्षेत्र से विधानसभा टिकट संजय शर्मा को मिल जाने के गम में कांग्रेस छोड़ कर साल 2017 में ही भाजपा में जाने के लिए धूमधाम से घोषणा कर के पलायन कर रहा था.

निश्चित ब्राह्मण होने के नाते जितिन प्रसाद को पार्टी में अहम जगह दी जा सकती थी, लेकिन प्रमोद तिवारी वगैरह जैसे कई ब्राह्मण नेताओं ने भले ही केंद्र में मंत्रिमंडल में जगह न पाई हो, लेकिन उन की हालत व जन महत्त्व तो इसी से साबित होता है कि वे लगातार 7 बार अपने क्षेत्र से विधायक चुने जाते रहे और खुद राज्यसभा सदस्य बन जाने के बाद जब साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 7 विधायक ही जीत सके थे, तब भी प्रमोद तिवारी की बेटी मोना उस चुनाव में विधायक बन कर विधानसभा में नेता कांग्रेस हैं.

भले ही अजय कुमार लल्लू को विधानसभा में कांग्रेस के नेता पद से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त कर दिया हो, यह पार्टीगत नीति और सोच रही हो, लेकिन 2 बार कांग्रेस सांसद रह कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पाने के बाद भी विधानसभा चुनाव हार जाने वाले नेता जितिन प्रसाद को क्या अहमियत दी जा सकती थी, सम झ से परे है. उन्हें ब्राह्मणों को प्रदेश में एकत्र करने, संगठित करने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन क्या हो सका है अभी तक वे क्या कर सके?

यह तय है कि 2 बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहने वाला आदमी बड़ा नेता होना चाहिए, बड़ी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए, लेकिन कौन सी सीट पर विधानसभा में कौन सी जिम्मेदारी दे दी जाती, विधानपरिषद या राज्यसभा में किस क्षेत्र से भेजा जा सकता था और कांग्रेस की औकात भी थी भेजने की? और यह औकात तो तब बनती, जब ऐसे लोग अपनेअपने गृह क्षेत्र तक से विधानसभा चुनाव जीतने की हैसियत में होते.

कांग्रेस की वर्तमान हालत न तो सोनिया गांधी की वजह से है और न ही इस के लिए राहुल गांधी जिम्मेदार हैं. आखिर एक आदमी कितने दिनों तक अकेले रेत में खड़ी नाव पर सवार ‘जोर लगा कर हईशा’ भी नहीं कह सकते, चिल्लाना नहीं चाहते, तो न तो नाव रेत से निकलेगी और न ही नदी के उस पार जा पाएगी. एक अकेला कब तक मुरदा लाशों को ढो कर उन के सिर पर ताज पहनाने का काम करता रह सकता है. यही वजह है कि राहुल गांधी अपने साथियों से हताशनिराश हो कर नाव की पतवार संभालने की इच्छा ही नहीं रख पा रहे हैं.

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‘राहुल सक्रिय नहीं हैं’ का जुमला उछालने वाले कितने सक्रिय हैं, यह उन्हें खुद सोचना चाहिए और नाव की सवारी कर रहे ‘जोर लगा कर हईशा’ तक न कर पाने वाले स्वार्थ के लिए उस दल को छोड़ कर भागे, जिस ने उन को राजनीति में आने के साथ ही 2 बार सांसद ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का सुख दिया, केवल मोहम्मदी  विधानसभा क्षेत्र से किसी दूसरे को उम्मीदवार बना देने के चलते जिस ने अपना काफिला भाजपा की ओर बढ़ा दिया और तिलहर से टिकट दिए जाने के बावजूद बुरी तरह से हारा.

अच्छा है कि अब जितिन प्रसाद भाजपा में करिश्मा दिखाएं, लेकिन जलती आग तापने वाले अपनी भी गतिविधियों का आकलन करते तो अच्छा होता.

शर्मनाक! सरकार मस्त, मजदूर त्रस्त

लेखक- रोहित और शाहनवाज

कोरोना की दूसरी लहर ने देश में हाहाकार मचा दिया है. इस की गवाही श्मशान से ले कर कब्रिस्तान ने चीखचीख के दे दी है. इस समय जिन्होंने अपने कानों को बंद कर लिया है, उन के लिए अस्पतालों में तड़पते लोग, गंगा में बहती लाशें किसी सुबूत से कम नहीं हैं. सैकड़ों मौतें सरकारी पन्नों में दर्ज हुईं, तो कई अनाम मौतें सरकार की लिस्ट में अपना नाम तक दर्ज नहीं कर पाईं.

कोरोना की पड़ती इस दूसरी मार से बचने के लिए देश की तमाम सरकारों ने अपनेअपने राज्यों में लौकडाउन लगाया, जिस से दिल्ली व एनसीआर का इलाका भी अछूता नहीं रहा.

कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिल्ली सरकार ने लौकडाउन को सिलसिलेवार तरीके से लागू किया. पहले नाइट कर्फ्यू लगाया गया, जिसे कुछ दिनों बाद वीकैंड कर्फ्यू में बदला गया और आखिर में हफ्ते दर हफ्ते पूरे लौकडाउन में तबदील किया गया.

जाहिर है, यह इसलिए हुआ, क्योंकि सभी सरकारों खासकर मोदी सरकार ने पिछले एक साल से कोई खास तैयारी नहीं की थी. अगर उन की पिछले एक साल की कोरोना प्रबंधन की रिपोर्ट मांगी जाए, तो सारी सरकारें बगलें ?ांकतीं और एकदूसरे पर छींटाकशी करती नजर आएंगी.

इस सब ने समाज के कौन से हिस्से पर गहरी चोट की है, उस पर आज कोई भी सरकार बात करने को तैयार नहीं है.

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पिछले साल जब देश में लौकडाउन लगा था, तब लाखों मजदूर शहरों से पैदल सैकड़ों मील चलने को मजबूर हुए थे. वे चले थे, क्योंकि लौकडाउन के चलते उन की नौकरियां, रहने और खानेपीने के लाले पड़ गए थे, क्योंकि सरकार ने बिना इंतजाम किए सख्त लौकडाउन लगा दिया था.

सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में लौकडाउन के चलते अप्रैल महीने में 12.2 करोड़ भारतीयों ने अपनी नौकरियां गंवा दी थीं. वहीं 60 लाख डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अकाउंटैंट ने मई से अगस्त 2020 में अपनी नौकरियां गंवाईं. उस दौरान सरकार ने लौकडाउन में यातायात के सारे साधनों को बंद कर दिया था और मजदूर तबके को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया था.

इस साल भी सरकार ने मजदूरों के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किए हैं. जो मजदूर शहरों में फिर से नई उम्मीद ले कर आए थे, उन्हें खाली हाथ निराश हो कर अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा है. लौकडाउन से पहले बसअड्डों की भारी भीड़ ने इस बात की गवाही दी.

पिछले साल इन मजदूरों की आवाज सरकार तक पहुंची भी थी, पर इस साल उन की समस्याओं को उठाने वाला कोई नहीं है. जो मजदूर अभी भी शहरों में रुक गए हैं, उन का या तो गांव में कुछ भी नहीं है या वे घर का सामान गिरवी रख कर अपना घर चला रहे हैं. कई मजदूर ऐसे भी हैं, जिन के पास घर जाने तक का किराया भी नहीं है और वे यहांवहां से उधार मांग कर अपने खानेपीने का इंतजाम ही कर पा रहे हैं.

इस साल सीएमआईई के आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल, 2021 में कम से कम 73 लाख कामगारों ने अपनी नौकरियां गंवाई हैं.

इन मजदूरों की हालत खस्ता है, काम नहीं है. गांव की जमीन गिरवी रख कर, घरों के गहने गिरवी रख कर ये जैसेतैसे अपना गुजारा चला रहे हैं. आखिर इन शहरों ने इन्हें दिया क्या है?

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एक समय था, जब गांव से कोई शहर अपनी माली हालत ठीक करने के लिए आता था, लेकिन आज ये शहर मानो काटने के लिए दौड़ रहे हैं. शहरों में बैठे हुक्मरान वादे और दावे दोनों करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन्हें सामाजिक सिक्योरिटी तक मुहैया नहीं है.

दिल्ली के बलजीत नगर के पंजाबी बस्ती इलाके में रहने वाले 19 साला ललित पेशे से मोची हैं. ललित समाज की दबाई गई उस जाति से संबंध रखते हैं, जिसे आमतौर पर गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है. आज भी वे इस काम को पारंपरिक तरीके से ढो रहे हैं.

ललित बताते हैं कि वे रोज ही सुबह 7 बजे से ले कर रात के 9 बजे तक अपने इलाके में तकरीबन 12-14 किलोमीटर तक चलते हैं. लौकडाउन के समय में बचबचा कर वे यह काम कर रहे हैं. कोई राहगीर उन से अपने जूतेचप्पल ठीक कराते हैं, तो वे दिन का 200 रुपए तक बना लेते हैं. लौकडाउन से पहले यह कमाई 400 रुपए तक हो जाती थी.

ललित के कंधे पर लकड़ी का छोटा संदूक रहता है, जिस के अंदर वे अपने पेशे से जुड़े औजार रखते हैं. वहीं उन के दूसरे हाथ में फटापुराना काला बस्ता रहता है, जिस में जूतेचप्पल की पौलिश करने का सामान होता है. संदूक का बो?ा इतना है कि लगातार उसे बाएं कंधे पर टांगे रखने की वजह से उन का कंधा ?ाक गया है.

ललित बताते हैं कि उन्होंने 7वीं जमात तक ही पढ़ाई की और घर में माली तंगी होने के चलते उन्हें पढ़ाई छोड़ कर अपने पिताजी के इस परंपरागत काम को सीखना पड़ा.

ललित की शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी. उन के परिवार में पत्नी,  बच्चे और मातापिता हैं. वे सभी अपने गांव वापस जाना चाहते हैं, लेकिन पैसा न होने के चलते वे यहां बुरी तरह फंस चुके हैं. ललित जिस कालोनी में रहते हैं, वहां इसी पेशे से जुड़े और भी मोची हैं और सभी इस समय त्रस्त हैं.

यह सिर्फ ललित का हाल नहीं है, बल्कि पूरे देश में मजदूर तबके का हाल है. वे इस समय जिंदगी और मौत से जू?ा रहे हैं. उन्हें कोरोना से ज्यादा इस बात का डर लग रहा है कि कोरोना से पहले उन्हें भूख मार देगी. सरकार का हाल यह तबका पिछले साल ही देख चुका था, इसलिए इस साल इसे सरकार से कोई उम्मीद भी नहीं बची.

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ये लोग उस सरकार से उम्मीद भी  लगाएं कैसे, जो इस समय प्राथमिकताएं ही नहीं तय कर पा रही है? ऐसे त्रस्त हालात में भी यह सरकार लोगों को माली और सामाजिक मदद पहुंचाने के बजाय अपनी शानोशौकत के लिए हजारों करोड़ रुपए का सैंट्रल विस्टा तैयार कर रही है.

राहुल गांधी के समक्ष “प्रधानमंत्री” पद!

राहुल गांधी के जन्मदिवस पर यह पहली बार हुआ कि देशव्यापी स्तर पर उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली पर चर्चा हुई यह अपने आप में एक अनोखी और महत्वपूर्ण बात है कि राहुल गांधी को जन्मदिवस पर इस दफा जिस तरीके से उन्हें नोटिस में लिया गया वह यह बता गया कि आगामी समय में राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार हैं.

जैसा कि हम सभी जानते हैं राहुल गांधी ने 19 जून को 51 वर्ष पूरे किए और बावनवें वर्ष की देहरी पर पांव रखा है. सुबह से ही राहुल गांधी के जन्मदिन पर सोशल मीडिया में चर्चा का दौर शुरू हो गया, लोगों ने यह खुलकर कहना शुरू कर दिया कि जिस तरीके से वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी असफलताओं से गिर गए हैं और एक ऐसे चक्र व्यूह में फंस गए हैं उससे निकल पाना अब मुश्किल जान पड़ता है. ऐसे में आखिर देश का नेतृत्व कौन सा व्यक्ति कर सकता है. इसमें लगभग लोगों की यही राय थी कि राहुल गांधी की चाहे विपक्ष के लोग कितने ही मजाक उड़ा कर उनकी छवि खराब करने का प्रयास करें मगर उन में बहुत सारी खुशियां भी है. जिस तरीके से उन्होंने सादगी और मानवता का बार-बार परिचय दिया है वह यह बताता है कि वह  दिल के साफ है, यही कारण है कि लोगों दिलों में राहुल गांधी अब राज करने लगे हैं.

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यह माना जा रहा है कि 2024 के लोकसभा  चुनाव में जब भाजपा चारों खाने चित हो जाएगी तो राहुल गांधी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनेगी और प्रधानमंत्री बन कर राहुल गांधी देश को एक सशक्त नेतृत्व दे सकते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी ने बारंबार यह जाहिर किया है कि वे देश और देश की माटी यहां के जन-जन से इस तरीके से वाकिफ हो चुके हैं यहां के माहौल को जिस नवाचार के साथ उन्होंने आत्मसात किया है वैसा नेतृत्व दूसरी राजनीतिक दल में कहीं दिखाई नहीं देता.

विरोध और लोगों के दिलों में जगह!

धीरे-धीरे इस बात का भी खुलासा हो चुका है कि विपक्ष अर्थात भारतीय जनता पार्टी और उसकी अनेक संस्थाओं के सोशल मीडिया कर्मियों ने राहुल गांधी के खिलाफ सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें बार-बार पप्पू का कहकर देश के जनमानस में उन्हें एक बेचारा शख्स बना करके यह जताया कि देश को एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है.

देश को नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसे 56 इंच के व्यक्ति की आवश्यकता है जो देश के भीतर और देश के बाहर दोनों जगह पर देश के आत्म सम्मान को ऊंचाई देकर  देश  को समझ सके और अच्छा कर सके.

लोग सोशल मीडिया के  प्रपंच में फंस करके राहुल गांधी के अच्छाइयों को न देखते हुए सिर्फ बताई गई बिना तथ्य की बातों के आधार पर मन, भावना बना कर कांग्रेस और राहुल को हाशिए पर डालते चले गए.

धीरे धीरे नरेंद्र मोदी विफलताओं के शिखर की ओर बढ़ रहे हैं तो लोगों को सच्चाई का एहसास हो रहा है कि किस तरीके से सोशल मीडिया में  सफेद झूठ बता करके उन्हें भ्रमित किया गया था. परिणाम स्वरूप अब राहुल गांधी के प्रति लोगों की संवेदना जाग रही है. लोगों को उनकी अच्छाइयां दिख रही हैं. उनके जन्मदिवस पर जिस तरीके से लोगों ने उनके प्रधानमंत्री पद संभालने की अपेक्षा के साथ स्नेह पूर्वक याद किया वह अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. और यह बात आने वाले समय में सच भी सिद्ध हो सकती है.

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चुनौतियां ही चुनौतियां हैं!

मगर, इसके बावजूद राहुल गांधी के सामने चुनौतियां कम नहीं है. एक तरफ कांग्रेस के भीतर वे चुनौतियों से घिरे हुए हैं तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व किस तरीके से इन दिनों राजनीति की एक नई एबीसीडी लिख रहा है उसमें एक सीधे सरल सादगी पसंद राहुल गांधी को चक्रव्यू भेद पाना मुश्किल दिखाई देता है. क्योंकि आज की राजनीति इतनी गंदली हो चुकी है उसमें साम, दाम, दंड, भेद से आगे का खेल खेला जाता है.

कांग्रेस अपने सिद्धांतों के साथ राजनीति के मैदान में लोगों से वोट मांगती है मगर आज की राजनीति उससे आगे निकल कर के एक ऐसे खतरनाक और भयावह रास्ते पर बढ़ गई है जिसमें कोई नैतिकता, कोई धर्म नहीं बचता. इसके अलावा भी राहुल के समक्ष बहुत सारी चुनौतियां हैं जिसमें महत्वपूर्ण है उनका आत्मविश्वास के साथ भाजपा के साथ चुनाव में उतरना, कांग्रेस का नेतृत्व का मामला भी एक बड़ा प्रश्न है जिसे सबसे पहले सुलझाना होगा, इसके साथ ही जिस तरीके से कांग्रेस के नेता पार्टी को छोड़कर जा रहे हैं या फिर उन्हें लालच देकर के आकर्षित किया जा रहा है यह भी राहुल गांधी के लिए एक अनसुलझा सवाल है.

इन सब के बावजूद जिस तरीके से सोशल मीडिया में राहुल गांधी को उनके जन्मदिवस पर लोगों ने इसमें पूर्वक और एक सम्मान के भाव के साथ याद किया वह बताता है कि आने वाला समय राहुल गांधी का है.

जम्मू-कश्मीर: नरेंद्र दामोदरदास मोदी का अवैध खेला!

कश्मीर राज्य के 14 प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को संवाद के लिए 24 जून को शाम 3 बजे आमंत्रित किया गया है. और इसके साथ ही देशभर में  कश्मीर और लद्दाख में राजनीतिक हालात सामान्य करने और चुनाव के मसले पर चर्चा प्रारंभ हो गई है.

यह माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की सरकार पश्चिम बंगाल में चुनाव पूरी तरह से हार जाने के पश्चात अब जम्मू कश्मीर में चुनाव करवाकर किसी तरह सत्ता हासिल करने के साथ, देश में यह संदेश देना चाहती है कि भाजपा अभी भी अपनी पूरी ताकत के साथ देश को नेतृत्व देने में सक्षम है.

जम्मू कश्मीर और लद्दाख को लेकर के जिस तरीके से भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार की एक रणनीति है, जिस पर हम इस रिपोर्ट में आगे चर्चा करेंगे. मगर यह समझ लें की भाजपा और केंद्र सरकार ने कदम दर कदम यहां काम किया है. अपनी गहरी घुसपैठ  जनाधार बनाने का प्रयास किया है. इससे उसे आत्मविश्वास है कि अब वह समय आ गया है जब चुनाव में भाजपा को आसानी से विजय मिलने की उम्मीद है.

और दोनों हाथों में लड्डू!

जम्मू कश्मीर और लद्दाख को तीन भागों में विभाजित करने के बाद लगभग 2 वर्ष तक जम्मू कश्मीर से लेकर देश और अंतरराष्ट्रीय मंच पर  केंद्र सरकार ने लगातार यह चर्चा बनाए रखने में कामयाबी प्राप्त की कि भारत सरकार का यह कदम उसके संवैधानिक अधिकारों में आता है. यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ हो या अमेरिका अथवा चीन सभी इस मसले पर लगभग खामोश रहे. एक समय जम्मू कश्मीर में हालात अवश्य चिंता जनक बन गए मगर केंद्र ने उस पर इस तरह काबू किया कि वह भी अपने आप में आश्चर्यजनक रूप से सफलीभूत हुआ है. नरेंद्र दामोदरदास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह लगातार जम्मू कश्मीर और लद्दाख के मसले पर आगे बढ़ते ही चले गए हैं जहां तक वह जमीनी स्तर पर आम लोगों को और निचले स्तर के जनप्रतिनिधियों को विश्वास दिला करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास हुआ है. त्रिस्तरीय चुनाव संपन्न हुए हैं सरपंचों से गृह मंत्री ने सीधे बात की है.

यह सब बातें केंद्र और भाजपा की सरकार की, एक रणनीति रही है और सफल हुई है. ऐसे में अब वह समय आ गया है जब सरकार वहां चुनाव करवा करके भाजपा को एक मजबूत अमलीजामा पहनाना चाहती है, यही कारण है कि चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ करने की शुरुआत के रूप में जून की 24 तारीख को सभी राजनीतिक दलों के साथ प्रधानमंत्री और कुछ महत्वपूर्ण मंत्री आमने-सामने बातचीत करके यह संदेश देना चाहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव होने जा रहे हैं.

अब हालात ऐसे हैं कि अगर 14 दलों का गुपकार संगठन चुनाव में शिरकत करता है प्रधानमंत्री की बैठकों में बातचीत करता है अथवा नहीं करता है दोनों ही स्थितियों में बाजी भाजपा और केंद्र सरकार के हाथों में होगी.

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लोकतंत्र और देश दुनिया में संदेश

केंद्र सरकार देश और दुनिया में यह संदेश देने जा रही है कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख में शांति व्यवस्था काबू में है.  देश के लोकतांत्रिक  संवैधानिक अधिकारों के बहाली के साथ चुनाव संपन्न करवाए जा रहे हैं. वर्तमान समय में जिस तरीके से जम्मू कश्मीर के स्थानीय नेता फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती आदि नाराज बैठे हुए हैं अगर यह चुनाव में शिरकत करते हैं तो धीरे-धीरे माहौल बदलने लगेगा. दरअसल, अगरचे  कश्मीर में भाजपा सत्तासीन नहीं भी होती है तो बाजी उसके ही हाथों में ही होगी चुंकि पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म होने के पश्चात केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में उपराज्यपाल सत्ता के संवैधानिक प्रमुख होते हैं और चुनी हुई सरकार ऐसा कुछ भी नहीं कर सकती जो उसके अपने मन का एकतरफा हो.

इस तरह कुल मिलाकर  केंद्र सरकार की यह राजनीतिक चौपड़ बिछी हुई बिसात, जम्मू कश्मीर के नेताओं के लिए ना उगलते बनेगी ना निगलते.

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ऐसे में पाकिस्तान के पेट में यह मरोड़ उठनी शुरू हो गई है कि जम्मू कश्मीर में चुनाव का यह आगाज मोदी सरकार की कुछ ऐसी अवैध परियोजना है जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ को रोकना चाहिए?

पाठकों! क्या आपको लगता है कि जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार कुछ ऐसा अवैध करने जा रही है, जो नहीं होना चाहिए. क्या राजनीतिक खेला और दांव-पेंच है यह हम आपके चिंतन के लिए छोड़ते हैं.

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