तृष्णा: भाग-1

पार्टी पूरे जोरशोर से चल रही थी. दीप्ति और दीपक की शादी की आज 16वीं सालगिरह थी. दोनों के चेहरे खुशी से दमक रहे थे. दोनों ही नोएडा में रहते हैं. वहां दीप्ति एक कंपनी में सीनियर मैनेजर की पोस्ट पर नियुक्त है तो दीपक बहुराष्ट्रीय कंपनी में वाइस चेयरमैन.

दीप्ति की आसमानी रंग की झिलमिल साड़ी सब पर कहर बरपा रही थी. दोनों ने अपने करीबी दोस्तों को बुला रखा था. जहां दीपक के दोस्त दीप्ति की खूबसूरती को देख कर ठंडी आहें भर रहे थे, वहीं दीपक का दीप्ति के प्रति दीवानापन देख कर उस की सहेलिया भले हंस रही हों पर मन ही मन जलभुन रही थीं.

केक काटने के बाद कुछ कपल गेम्स का आयोजन किया गया. उन में भी दीप्ति और दीपक ही छाए रहे. पार्टी खत्म हो गई. सब दोस्तों को बिदा करने के बाद दीप्ति और दीपक भी अपनेअपने कमरे रूपी उन ग्रहों में छिप गए

जहां पर बस वे ही थे. वे आज के उन युगलों के लिए उदाहरण हैं जो साथ हो कर भी साथ नहीं हैं. दोनों ही, जिंदगी की दौड़ में इतना तेज भाग रहे हैं कि उन के हाथ कब छूट गए, पता ही नहीं चला.

आज रात को बैंगलुरु से दीपक की दीदी आ रही थीं. दीप्ति ने पूरे दिन की छुट्टी ले ली. नौकरों की मदद से घर की सज्जा में थोड़ा परिवर्तन कर दिया. दीपक भी सीधे दफ्तर से दीदी को लेने एअरपोर्ट चला गया. शाम 7 बजे दरवाजे की घंटी बजी, तो दीप्ति ने दौड़ कर दरवाजा खोला. अपनी ससुराल में वह सब से करीब शिखा दीदी के ही थी. शिखा एक बिंदास 46 वर्षीय स्मार्ट महिला थी, जो दूध को दूध और पानी को पानी ही बोलती है. शिखा के साथ ही वह दीपक, अपने सासससुर की भी बिना हिचक के बुराई कर सकती है. शिखा के साथ उस का ननद का नहीं, बल्कि बड़ी दीदी का रिश्ता था.

शिखा मैरून सूट में बेहद दिलकश लग रही थी. दीप्ति भी सफेद गाउन में बहुत सुंदर लग रही थी. दीप्ति को बांहों में भरते हुए शिखा बोली, ‘‘दीप्ति तुम कब अधेड़ लगोगी, अभी भी बस 16 साल की लग रही हो.’’

‘‘जिस दिन तेरा मोटापा थोड़ा कम होगा मोटी,’’ पीछे से दीपक की हंसी सुनाई दी. रात के खाने में सबकुछ शिखा की पसंद का था. चिल्ली पनीर, फ्राइड राइस, मंचूरियन, रूमाली रोटी और गाजर का हलवा.

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‘‘ऐसा लगता ही नहीं कि भाभी के घर आई हूं. ऐसा लगता है कि मम्मीपापा के घर में हूं,’’ शिखा भर्राई आवाज में बोली. सुबह शिखा जब 9 बजे सो कर उठी तो दीप्ति नाश्ते की तैयारी में लगी हुई थी.

‘‘घर मेरी भतीजियों के बिना कितना सुनसान लग रहा है,’’ शिखा ने कहा तो दीप्ति और दीपक एकदूसरे की तरफ सूनी आंखों से देख रहे हैं,यह दीदी की अनुभवी आंखों से छिपा नहीं रहा.

जैसे एक आम शादी में होता है, ऐसी ही कुछ कहानी उन की शादी की भी थी. कुछ सालों तक वे भी एकदूसरे में प्यार के गोते लगाते रहे और समय बीततेबीतते उन का प्यार भी खत्म हो गया. फिर शुरू हुई एकदूसरे को अपने जैसा बनाने की खींचातानी. उस खींचातानी में रिश्ता कहां चला गया, किसी को नहीं पता चला. दोनों में फिर भी इतनी समझदारी थी कि अपने रिश्ते की कड़वाहट उन्होंने कभी अपने परिवार और बच्चों के आगे जाहिर नहीं करी. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों को बोर्डिंग में डाल दिया था ताकि वे उन के रिश्ते के बीच बढ़ती खाई को महसूस न कर पाएं.

‘‘दीदी, दीपक का कुछ ठीक नहीं है. वे अकसर रात का डिनर बाहर कर के आते हैं,’’ दीप्ति सपाट स्वर में बोली और फिर मोबाइल में व्यस्त हो गई. शिखा पूरे 4 वर्ष बाद भाईभाभी के पास आई थी पर उसे ऐसा लग रहा था जैसे 4 दशक बाद आई हो. शिखा मन ही मन मनन कर रही थी कि कहीं न कहीं ऐसा भी होता है जब जीवन में बहुत कुछ और बहुत जल्दी मिल जाता है तो पता ही नहीं चलता कब एक बोरियत भी रिश्ते में आ गई है. यह संघर्ष ही तो है जो हमें जिंदगी को जिंदादिली से जीने की राह दिखाता है.

दीपक अपने ही औफिस में एक तलाकशुदा महिला निधि के साथ अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताना पसंद करने लगा था, क्योंकि उस के साथ उसे ताजगी महसूस होती थी.

‘‘सुनो, आज रात बाहर डिनर करेंगे,’’ दीपक के बालों में हाथ फेरते हुए निधि ने कहा.

‘‘यार दीदी आई हुई हैं… बताया तो था मैं ने,’’ दीपक ने कहा.

निधि ने थोड़े तेज स्वर में कहा, ‘‘भूल गए, मंगलवार और शुक्रवार की शाम मेरी है,’’ और फिर झुक कर दीपक को चूम लिया.

दीपक का रोमरोम रोमांचित हो उठा. यही तो वह रोमांच है जिसे वह अपने विवाह में मिस करता है. उस रात आतेआते 12 बज गए. शिखा सोई नहीं थी, वह बाहर ड्राइंगरूम में ही बैठ कर काम कर रही थी. दीपक शिखा को देख कर ठिठक गया.

‘‘भाई, यह क्या समय है घर आने का? अभी तो मैं हूं पर वैसे दीप्ति क्या करती होगी,’’ शिखा ने चिंतित स्वर में कहा. दीपक सीधे अंदर बैडरूम में चला गया और दीप्ति को बांहों में उठा कर ले आया.

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‘‘मोटी प्यार तो मैं अब भी उतना ही करता हूं दीप्ति से, बस जिम्मेदारियां सिर उठाने ही नहीं देती,’’ दीपक बोला.

दीप्ति हंसते हुए दीपक के लिए कौफी बनाने चली गई, पर शिखा को इस प्यार में स्वांग अधिक और गरमाहट कम लग रही थी. पर उस ने अधिक तहकीकात करने की जरूरत इसलिए नहीं समझी, क्योंकि उसे खुद पता था कि वैवाहिक जीवन में ऐसे उतारचढ़ाव आते रहते हैं… उसे दोनों की समझदारी पर पूरा भरोसा था.

जब शिखा अपना सामान पैक कर रही थी तो अचानक दीप्ति उस के गले लग कर रोने लगी. उस रोने में एक खालीपन है, यह बात शिखा से छिपी न रह सकी.

‘‘क्या बात है दीप्ति, कुछ समस्या है तो बताओ… मैं उसे सुलझाने की कोशिश करूंगी.’’

‘‘नहीं, आप जा रही हैं तो मन भर आया,’’ दीप्ति ने खुद को काबू करते हुए कहा.

ऐसी ही एक ठंडी रात दीप्ति फेसबुक पर कुछ देख रही थी कि अचानक उस ने एक मैसेज देखा जो किसी संदीप ने भेजा था, ‘‘क्या आप शादीशुदा हैं?’’

भला ऐसी कौन सी महिला होगी जो इस बात से खुश न होगी? लिखा, ‘‘मैं पिछले 15 सालों से शादीशुदा हूं और 2 बेटियों की मां हूं.’’

संदीप ‘‘झूठ मत बोलो,’’ और कुछ दिल के इमोजी…

दीप्ति, ‘‘दिल हथेली पर रख कर चलते हो क्या?’’

संदीप, ‘‘सौरी पर आप खूबसूरत ही इतनी हैं.’’

ऐसे ही इधरउधर की बात करतेकरते 1 घंटा बीत गया और दीप्ति को पता भी नहीं चला. बहुत दिनों बाद उसे हलका महसूस हो रहा था.

अब दीप्ति भी संदीप के साथ चैटिंग में एक अनोखा आनंद का अनुभव करने लगी. अब उतना खालीपन नहीं लगता था.

संदीप दीप्ति से 8 वर्ष छोटा था और देखने में बेहद आकर्षक था. संदीप जैसा आकर्षक युवक दीप्ति के प्यार में पड़ गया है, यह बात दीप्ति को एक अनोखे नशे से भर देती थी. दीप्ति अपने रखरखाव को ले कर काफी सहज हो गई थी… कभीकभी तो युवा और आकर्षक दिखने के चक्कर में वह हास्यास्पद भी लगने लगती.

आज दीप्ति को संदीप से मिलने जाना था. वह जैसे ही औफिस में पहुंची, लोग उसे आश्चर्य से देखने लगे. काली स्कर्ट और सफेद शर्ट में वह थोड़ी अजीब लग रही थी. उस के शरीर का थुलथुलापन साफ नजर आ रहा था. जब वह संदीप के पास पहुंची तो संदीप भी कुछ देर तक तो चुप रहा, फिर बोला, ‘‘आप बहुत सैक्सी लग रही हो, एकदम कालेजगर्ल.’’

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दोनों काफी देर तक बातें करते रहे. कार में बैठ कर संदीप अपना संयम खोने लगा तो दीप्ति ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं करी. कब दीप्ति संदीप के साथ उस के फ्लैट पहुंच गई, उसे भी पता न चला. भावनाओं के ज्वारभाटा में सब बह गया. पर दीप्ति को कोई पछतावा न था, क्योंकि इस खुशी और शांति के लिए वह तरस गई थी.

कपड़े पहनती हुई दीप्ति से संदीप बोला, ‘‘अब सेवा का मौका कब मिलेगा.’’

दीप्ति मुसकराते हुए बोली, ‘‘तुम बहुत खराब हो.’’

शुरूशुरू में दीपक और दीप्ति दोनों ही आसमान में उड़ रहे थे पर उन के नए रिश्ते की नीव ही भ्रम पर थी. कुछ पल की खुशी फिर लंबी तनहाई और खामोशी.

आज संदीप का जन्मदिन था. दीप्ति उसे सरप्राइज देना चाहती थी. सुबह ही वह संदीप के फ्लैट की तरफ चल पड़ी. उपहार उस ने रात में ही ले लिया था.

5 मिनट तक घंटी बजती रही, फिर किसी अनजान युवक ने दरवाजा खोला, ‘‘जी कहिए, किस से मिलना है आंटी?’’

दीप्ति बहुत बार आई थी पर संदीप ने कभी नहीं बताया था कि वह फ्लैट और लोगों के साथ शेयर कर रहा है. बोली, ‘‘जी, संदीप से मिलना है,’’

तभी संदीप भी आंखें मलते हुए आ गया और कुछ रूखे स्वर में बोला, ‘‘जी मैडम बोलिए. क्या काम है… पहले भी बोला था बिना फोन किए मत आया कीजिए.’’

दीप्ति कुछ न बोल पाई. जन्मदिन की शुभकामना तक न दे पाई, गिफ्ट भी वहीं छोड़ कर बाहर निकल गई. जातेजाते उस के कानों में यह स्वर टकरा गया, ‘‘यार ये आंटी क्या पागल हैं, जो तुझ से मिलने सुबहसुबह आ गईं.’’

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कहानी के दूसरे और आखिरी भाग में पढ़िए क्या अपनी तृष्णा से बाहर निकल पाए दीपक और दीप्ति…

सौतेली: भाग 1

अब शेफाली को महसूस हो रहा था कि उस को 6 माह पहले एक योजना के तहत ही घर से बाहर भेजा गया था. दूसरे शब्दों में, उस के अपनों ने ही उसे धोखे में रखा था. धोखा भी ऐसा कि रिश्तों पर से भरोसा ही डगमगा जाए.

जब से जानकी बूआ ने शेफाली को यह बतलाया कि उस की गैरमौजूदगी में उस के पापा ने दूसरी शादी की है तब से उस का मन यह सोच कर बेचैन हो रहा था कि जब वह घर वापस जाएगी तो वहां एक ऐसी अजनबी औरत को देखेगी जो उस की मां की जगह ले चुकी होगी और जिसे उस को ‘मम्मी’ कह कर बुलाना होगा.

पापा की शादी की बात सुन शेफाली के अंदर विचारों के झंझावात से उठ रहे थे.

मम्मी की मौत के बाद शेफाली ने पापा को जितना गमगीन और उदास देखा था उस से ऐसा नहीं लगता था कि वह कभी दूसरी शादी की सोचेंगे. वैसे भी मम्मी जब जिंदा थीं तो शेफाली ने उन को कभी पापा से झगड़ते नहीं देखा था. दोनों में बेहद प्यार था.

मम्मी को कैंसर होने का पता जब पापा को चला तो उन्हें छिपछिप कर रोते हुए शेफाली ने देखा था.

यह जानते हुए भी कि मम्मी बस, कुछ ही दिनों की मेहमान हैं पापा ने दिनरात उन की सेवा की थी.

इन सब बातों को देख कर कौन कह सकता था कि वह मम्मी की बरसी का भी इंतजार नहीं करेंगे और दूसरी शादी कर लेंगे.

अब जब पापा की दूसरी शादी एक कठोर हकीकत बन चुकी थी तो शेफाली को अपने दोनों छोटे भाईबहन की चिंता होने लगी थी. बहन मानसी से कहीं अधिक चिंता शेफाली को अपने छोटे भाई अंकुर की थी जो 5वीं कक्षा में पढ़ रहा था.

मम्मी को कैंसर होने का जब पता चला था तो शेफाली बी.ए. फाइनल में थी और बी.ए. करने के बाद बी.एड. करने का सपना उस ने देखा था. लेकिन मम्मी की असमय मृत्यु से शेफाली का वह सपना एक तरह से बिखर गया था.

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शेफाली बड़ी थी. इसलिए मम्मी की मौत के बाद उस को लगा था कि छोटे भाईबहन के साथसाथ पापा की देखभाल की जिम्मेदारी भी उस के कंधों पर आ गई थी और उस ने भी अपने दिलोदिमाग से इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए खुद को तैयार कर लिया था.

मगर शेफाली को हैरानी उस समय हुई जब मम्मी की मौत के 3-4 महीने बाद ही पापा ने उस को खुद ही बी.एड. करने के लिए कह दिया.

शेफाली ने तब यह कहा था कि अगर वह भी पढ़ाई में लग गई तो घर को कौन देखेगा तो पापा ने कहा, ‘घर की चिंता तुम मत करो, यह देखना मेरा काम है. तुम अपने भविष्य की सोचो और अपनी आगे की पढ़ाई शुरू कर दो.’

‘मगर यहां बी.एड. के लिए सीट का मिलना मुश्किल है, पापा.’

‘तो क्या हुआ, तुम्हारी जानकी बूआ जम्मू में हैं. सुनने में आता है कि वहां आसानी से सीट मिल जाती है. मैं जानकी से फोन पर इस बारे में बात करूंगा. वह इस के लिए सारा प्रबंध कर देगी,’ पापा ने शेफाली से कहा था.

शेफाली तब असमंजस से पापा का मुख ताकती रह गई थी, क्योंकि ऐसा करना न तो घर के हालात को देखते हुए सही था और न ही दुनियादारी के लिहाज से. लेकिन पापा तो उस को जानकी बूआ के पास भेजने का मन बना ही चुके थे.

शेफाली की दलीलों और नानुकुर से पापा का इरादा बदला नहीं था और हमेशा दूसरों के घर की हर बात पर टीकाटिप्पणी करने वाली जानकी बूआ को भी पापा के फैसले पर कोई एतराज नहीं हुआ था. होता भी क्यों? शायद पापा जो भी कर रहे थे जानकी बूआ के इशारे पर ही तो कर रहे थे.

उसे लगा सबकुछ पहले से ही तय था. बी.एड. की पढ़ाई तो जैसे उस को घर से निकालने का बहाना भर था.

अब सारी तस्वीर शेफाली के सामने बिलकुल साफ हो चुकी थी. शायद मम्मी की मौत के तुरंत बाद ही गुपचुप तरीके से पापा की दूसरी शादी की कोशिशों का सिलसिला शुरू हो गया था. शेफाली को पक्का यकीन था कि इस में जानकी बूआ ने अहम भूमिका निभाई होगी.

मम्मी की मौत पर जानकी बूआ की आंखें सूखी ही रही थीं. फिर भी छाती पीटपीट कर विलाप करने का दिखावा करने के मामले में बूआ सब से आगे थीं.

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एक तो वैसे भी जानकी बूआ का रिश्ता दिखावे का था. दूसरे, मम्मी से बूआ की कभी बनी न थी. उन के रिश्ते में खटास रही थी. इस खटास की वजह अतीत की कोई घटना हो सकती थी. इस के बारे में शेफाली को कोई जानकारी न थी.

लगता तो ऐसा है कि मम्मी के कैंसर होने की बात जानते ही जानकी बूआ ने दोबारा भाई का घर बसाने की बात सोचनी शुरू कर दी थी. तभी तो जबतब इशारों ही इशारों में बूआ अपने अंदर की इच्छा यह कह कर जाहिर कर देती कि औरत के बगैर घर कोई घर नहीं होता. पापा ने भी शायद दोबारा शादी के लिए जानकी बूआ को मौन स्वीकृति दी होगी. तभी तो योजनाबद्ध तरीके से सारी बात महीनों में ही सिरे चढ़ गई थी.

चूंकि मैं बड़ी व समझदार हो गई थी. मुझ से बगावत का खतरा था इसलिए मुझे बी.एड. की पढ़ाई के बहाने बड़ी खूबसूरती से घर से बाहर निकाल दिया गया था.

पापा की दूसरी शादी करवा कर वापस आने के बाद जानकी बूआ शेफाली के साथ ठीक से आंख नहीं मिला पा रही थीं और तरहतरह से सफाई देने की कोशिश कर रही थीं.

किंतु अब शेफाली को बूआ की हर बात में केवल झूठ और मक्कारी नजर आने लगी थी इसलिए उस के मन में बूआ के प्रति नफरत की एक भावना बन गई थी.

फूफा शायद शेफाली के दिल के हाल को बूआ से ज्यादा बेहतर समझते थे इसलिए उन्होंने नपेतुले शब्दों में उस को समझाने की कोशिश की थी, ‘‘मैं तुम्हारे दिल की हालत को समझता हूं बेटी, मगर जो भी हकीकत है अब तुम्हें उस को स्वीकार करना ही होगा. नए रिश्तों से जुड़ना बड़ा मुश्किल होता है लेकिन उस से भी मुश्किल होता है पहले वाले रिश्तों को तोड़ना. इस सच को भी तुम्हें समझना होगा.’’

घर जाने के बारे में शेफाली जब भी सोचती नर्वस हो जाती. उस के हाथपांव शिथिल पड़ने लगते. कैसा अजीब लगेगा जब वह मम्मी की जगह पर एक अजनबी और अनजान औरत को देखेगी? वह औरत कैसी और किस उम्र की थी, शेफाली नहीं जानती मगर वह उस की सौतेली मां बन चुकी थी, यह एक हकीकत थी.

‘सौतेली मां’ का अर्थ शेफाली अच्छी तरह से जानती थी और ऐसी मांओं के बारे में बहुत सी बातें उस ने सुन भी रखी थीं. अपने से ज्यादा उसे छोटे भाईबहन की चिंता थी. वह नहीं जानती थी कि सौतेली मां उन के साथ कैसा व्यवहार कर रही होंगी.

जानकी बूआ शेफाली से कह रही थीं कि वह एक बार घर हो आए और अपनी नई मम्मी को देख ले लेकिन शेफाली ने बूआ की बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया, क्योंकि अब उन की अच्छी बात भी उसे जहर लगती थी. इस बीच पापा का 2-3 बार फोन आया था पर शेफाली ने उन से बात करने से मना कर दिया था.

जानकी बूआ ने शेफाली पर घर जाने और पापा से फोन पर बात करने का दबाव बनाने की कोशिश की तो उस ने बूआ को सीधी धमकी दे डाली, ‘‘बूआ, अगर आप किसी बात के लिए मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो सच कहती हूं, मैं इस घर को भी छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी और फिर कभी किसी को नजर नहीं आऊंगी.’’

शेफाली की इस धमकी से बूआ थोड़ा डर गई थीं. इस के बाद उन्होंने शेफाली पर किसी बात के लिए जोर देना ही बंद कर दिया था.

शेफाली को यह भी पता था कि वह हमेशा के लिए बूआ के घर में नहीं रह सकती थी. 5-6 महीने के बाद जब उस की बी.एड. की पढ़ाई खत्म हो जाएगी तो उस के पास बूआ के यहां रहने का कोई बहाना नहीं रहेगा.

तब क्या होगा?

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आने वाले कल के बारे में जितना सोचती उतना ही अनिश्चितता के धुंधलके में घिर जाती. बगावत पर आमादा शेफाली का मन उस के काबू में नहीं रहा था.

फूफा से शेफाली कम ही बात करती थी. बूआ से तो उस का छत्तीस का आंकड़ा था लेकिन उस घर में शेफाली जिस से अपने दुखसुख की बात करती थी वह थी रंजना, जानकी बूआ की बेटी.

रंजना लगभग उसी की हमउम्र थी और एम.ए. कर रही थी.

रंजना उस के दिल के हाल को समझती थी और मानती थी कि उस के पापा ने उस की गैरमौजूदगी में शादी कर के गलत किया था. इस के साथ वह शेफाली को हालात के साथ समझौता करने की सलाह भी देती थी.

सौतेली मां के लिए शेफाली की नफरत को भी रंजना ठीक नहीं समझती थी.

वह कहती थी, ‘‘बहन, तुम ने अभी उस को देखा नहीं, जाना नहीं. फिर उस से इतनी नफरत क्यों? अगर किसी औरत ने तुम्हारी मां की जगह ले ली है तो इस में उस का क्या कुसूर है. कुसूर तो उस को उस जगह पर बिठाने वाले का है,’’ ऐसा कह कर रंजना एक तरह से सीधे शेफाली के पापा को कुसूरवार ठहराती थी.

कुसूर किसी का भी हो पर शेफाली किसी भी तरह न तो किसी अनजान औरत को मां के रूप में स्वीकार करने को तैयार थी और न ही पापा को माफ करने के लिए. वह तो यहां तक सोचने लगी थी कि पढ़ाई पूरी होने पर उस को जानकी बूआ का घर भले ही छोड़ना पडे़ लेकिन वह अपने घर नहीं जाएगी. नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होगी और अकेली किसी दूसरी जगह रह लेगी.

2 बार मना करने के बाद पापा ने फिर शेफाली से फोन पर बात करने की कोशिश नहीं की थी. हालांकि जानकी बूआ से पापा की बात होती रहती थी.

मानसी और अंकुर से शेफाली ने फोन पर जरूर 2-3 बार बात की थी, लेकिन जब भी मानसी ने उस से नई मम्मी के बारे में चर्चा करने की कोशिश की तो शेफाली ने उस को टोक दिया था, ‘‘मुझ से इस बारे में बात मत करो. बस, तुम अपना और अंकुर का खयाल रखना,’’ इतना कहतेकहते शेफाली की आवाज भीग जाती थी. अपना घर, अपने लोग एक दिन ऐसे बेगाने बन जाएंगे शेफाली ने कभी सोचा नहीं था.

पहले तो शेफाली सोचती थी कि शायद पापा खुद उस को मनाने जानकी बूआ के यहां आएंगे पर एकएक कर कई दिन बीत जाने के बाद शेफाली के अंदर की यह आशा धूमिल पड़ गई.

इस से शेफाली ने यह अनुमान लगाया कि उस की मम्मी की जगह लेने वाली औरत (सौतेली मां) ने पापा को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है. इस सोच में उस के अंदर की नफरत को और गहरा कर दिया.

अचानक एक दिन बूआ ने नौकरानी से कह कर ड्राइंगरूम के पिछले वाले हिस्से में खाली पड़े कमरे की सफाई करवा कर उस पर कीमती और नई चादर बिछवा दी थी तो शेफाली को लगा कि बूआ के घर कोई मेहमान आने वाला है.

‘सौतेली’ कहानी के दूसरे भाग में पढ़िए कौन था वो नया मेहमान?

इज्जत : भाभी ने दिए दोनों लड़कों को मजे

बात उन दिनों की है, जब मेरे बीटैक के फाइनल सैमैस्टर का इम्तिहान होने वाला था और मैं इसी की तैयारी में मसरूफ था. अपनी सुविधा और आजादी के लिए होस्टल में रहने के बजाय मैं ने शहर में एक कमरा किराए पर ले कर रहने का फैसला किया था. शहर में अकेला रहना बोरिंग हो सकता है. यही सोच कर मैं ने अपने साथी रंजीत को अपना रूममेट बना लिया था.

फाइनल सैमैस्टर का इम्तिहान सिर पर था, इसलिए मैं इसी में बिजी रहता था, पर रंजीत को इस की कोई परवाह नहीं थी. वह पिछले हफ्ते अपने घर से आया था और अब उसे फिर वहां जाने की धुन सवार हो गई थी.

जब रंजीत अपने घर जाने के लिए निकल गया, तो मैं भी अपनी पढ़ाई में मस्त हो गया.

अभी आधा घंटा भी नहीं बीता होगा कि रंजीत लौट कर मुझ से बोला, ‘‘भाई, यह बता कि अगर किसी को मदद की जरूरत हो, तो उस की मदद करनी चाहिए या नहीं?’’

रंजीत और मदद… मुझे हैरत हो रही थी, क्योंकि किसी की मदद करना उस के स्वभाव के बिलकुल उलट था, पर पहली बार उस के मुंह से मदद शब्द सुन कर अच्छा लगा.

मैं ने कहा, ‘‘बिलकुल. इनसान ही इनसान के काम आता है. जरूरतमंद की मदद करने से बेहतर और क्या हो सकता है. पर आज तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो? तुम्हारे घर जाने का क्या हुआ?’’

‘‘यार, बात यह है कि मैं घर जाने के लिए टिकट खरीद कर जब प्लेटफार्म पर पहुंचा, तो देखा कि एक औरत अपने 2 बच्चों के साथ बैठी रो रही थी. मुझ से रहा न गया और पूछ बैठा, ‘आप क्यों रो रही हैं?’

‘‘उस औरत ने जवाब दिया, ‘मुझे जहानाबाद जाना है. इस समय वहां जाने वाली कोई गाड़ी नहीं है. अगली गाड़ी के लिए मुझे कल सुबह तक यहां इंतजार करना होगा.’

‘‘मैं ने पूछा, ‘तो इस में रोने वाली क्या बात थी?’’’

रंजीत ने उस औरत की बात को और आगे बढ़ाया. वह बोली थी, ‘रात के 8 बज चुके हैं. मैं जानती हूं कि 9 बजे के बाद यह स्टेशन सुनसान हो जाता है. मेरे साथ 2 बच्चे भी हैं. कोई अनहोनी न हो जाए, यही सोचसोच कर मुझे रोना आ रहा है. मैं इस स्टेशन पर रात कैसे गुजारूंगी?’

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‘‘मैं सोच में पड़ गया कि मुझे उस औरत की मदद करनी चाहिए या नहीं. यही सोच कर तुम से पूछने आ गया,’’ रंजीत मेरी ओर देखते हुए बोला.

‘‘देखो भाई रंजीत, हम लोग यहां बैचलर हैं. किसी की मदद करना तो ठीक है, पर किसी अनजान औरत को अपने कमरे पर लाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है. मकान मालकिन पता नहीं हम लोगों के बारे में क्या सोचेगी?’’

मुझे उस समय पता नहीं क्यों उस अनजान औरत को कमरे पर लाने का खयाल अच्छा नहीं लग रहा था, इसलिए अपने मन की बात उसे बता दी.

‘‘मकान मालकिन पूछेगी, तो बता देंगे कि रामध्यान की भाभी है, यहां डाक्टर के पास आई है. वैसे भी हम लोगों के गांव से अकसर कोई न कोई मिलने तो आता ही रहता है,’’ रंजीत ने एक उपाय सुझाया.

आप को बताते चलें कि जिस बिल्डिंग में हम लोग रहते थे, उस की दूसरी मंजिल पर रामध्यान भी किराए पर रह रहा था. वह वैसे तो हमारे ही कालेज का एक शरीफ छात्र था, पर हम लोगों से जूनियर था, इसलिए न केवल हमारी बातें मानता था, बल्कि हमें इज्जत भी देता था.

‘‘ठीक है. अब अगर तुम उस औरत की मदद करना ही चाहते हो, तो मुझे क्या दिक्कत है. रामध्यान को सारी बातें समझा दो.’’

रंजीत तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ रामध्यान के पास गया और उसे सारी बातें बता दीं. उसे कोई दिक्कत नहीं थी, बल्कि उस औरत के रातभर रहने के लिए वह अपना कमरा देने को भी तैयार था. वह उसी समय अपनी कुछ किताबें ले कर हमारे कमरे में रहने चला आया.

‘‘अब तुम जाओ रंजीत. उसे ले आओ. और हां, उसे यह भी समझा देना कि अगर कोई पूछे, तो खुद को रामध्यान की भाभी बताए.’’

‘‘नहीं, तुम भी मेरे साथ चलो,’’ वह मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहता था.

‘‘मुझे पढ़ने दो यार, इम्तिहान सिर पर हैं. मैं अपना समय बरबाद नहीं करना चाहता,’’ मैं बहाना करते हुए बोला.

‘‘अच्छा, किसी की मदद करना समय बरबाद करना होता है. तुम्हारा अगर नहीं जाने का मन है, तो साफसाफ कहो. वैसे भी एक दिन में तुम्हारी कितनी तैयारी हो जाएगी? एक दिन किसी की मदद के लिए तो कुरबान किया ही जा सकता है,’’ रंजीत किसी तरह मुझे ले ही जाना चाहता था.

‘‘ठीक है भाई, जैसी तुम्हारी मरजी. आज की शाम किसी की मदद के नाम,’’ मैं मजबूर हो कर बोला. थोड़ी देर में मैं भी तैयार हो कर उस के साथ निकल पड़ा.

रंजीत आगेआगे और मैं पीछेपीछे. वह मुझे स्टेशन के सब से आखिरी प्लेटफार्म के एक छोर पर ले गया, जहां वह औरत अपने दोनों बच्चों के साथ बैठी थी. वह हमें देख कर मुसकराने लगी. न जाने क्यों, उस का इस तरह मुसकराना मुझे अच्छा नहीं लगा.

मैं सोचने लगा कि न जाने कैसी औरत है, पर उस समय मुझ से कुछ बोलते नहीं बना.

स्टेशन से बाहर आ कर मैं ने 2 रिकशे वाले बुलाए. मुझे टोकते हुए वह औरत बोली, ‘‘2 रिकशों की क्या जरूरत है. एक ही में एडजस्ट कर चलेंगे न. बेकार में ज्यादा पैसे खर्च कर रहे हैं.’’

‘‘पर हम एक ही रिकशे में कैसे चलेंगे?’’ मैं ने सवाल किया.

वह बोली, ‘‘देखिए, ऐसे चलेंगे…’’ कह कर वह रिकशे की सीट पर ठीक बीच में बैठ गई और दोनों बच्चों को अपनी गोद में बिठा लिया, ‘‘आप दोनों मेरे दोनों ओर बैठ जाइए,’’ वह हम दोनों को देख कर मुसकराते हुए बोली.

मुझे इस तरह बैठना अच्छा नहीं लग रहा था, पर उस दौर में पैसों की बड़ी किल्लत थी. अगर उस समय इस तरह से कुछ पैसे बच रहे थे, तो क्या बुरा था. आखिरकार हम दोनों उस के दोनों ओर बैठ गए.

हमारे बैठते ही अपने एकएक बच्चे को उस ने हम दोनों को थमा दिया. मैं अब भीतर ही भीतर कुढ़ने लगा था. हमारी अजीब हालत थी. हम उस की मदद कर रहे थे या वह हम से जबरदस्ती मदद ले रही थी.

रिकशे की रफ्तार तेज होती जा रही थी और मेरे सोचने की रफ्तार भी तेज होने लगी थी. मैं कहां हूं, किस हालत में हूं, यह भूल कर मैं अपनी सोच में ही डूबने लगा था. न जाने क्यों मुझे बारबार यह खयाल आ रहा था कि कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं.

कमरे पर पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज चुके थे. रंजीत ने उसे सारी बात समझा कर रामध्यान के कमरे में ठहरा दिया.

मैं ने रंजीत से कहा, ‘‘भाई, जब यह हमारे यहां आ गई है, तो इस के खानेपीने का इंतजाम भी तो हमें ही करना पड़ेगा. जाओ, होटल से कुछ ले आओ.’’

रंजीत खुशीखुशी होटल की ओर चल पड़ा. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि रंजीत को आज क्या हो गया है, पर मैं चुप था. वह जितनी तेजी से गया था, उतनी ही तेजी से और बहुत जल्दी खानेपीने का सामान ले कर लौटा था.

‘‘जाओ, उसे खाना दे आओ. हम दोनों रामध्यान के साथ यहीं खा लेंगे,’’ मैं ने रंजीत से कहा.

रंजीत खाना देने ऊपर के कमरे  गया और तकरीबन आधा घंटे बाद लौटा. मुझे भूख लगी थी, लेकिन मैं उस का इंतजार कर रहा था. सोच रहा था कि उस के आने के बाद साथ बैठ कर खाएंगे.

मैं ने पूछा, ‘‘तुम ने इतनी देर क्यों लगा दी?’’

‘‘भाई, उस के कहने पर मैं ने भी उसी के साथ खाना खा लिया,’’ रंजीत धीरे से बोला.

‘‘कोई बात नहीं… आओ रामध्यान, हम दोनों खाना खा लें. हम तो इसी का इंतजार कर रहे थे और यह तुम्हारी भाभी के साथ खाना खा आया,’’ मैं ने मजाक करते हुए कहा.

रामध्यान को भी हंसी आ गई. वह हंसते हुए खाने की थाली सजाने लगा.

रात को खाना खाने के बाद अकसर हम लोग बाहर टहलने के लिए निकला करते थे, इसलिए खाने के बाद मैं बाहर जाने के लिए तैयार हो गया और रंजीत को भी तैयार होने के लिए कहा.

‘‘आज मेरा जाने का मन नहीं है,’’ रंजीत टालमटोल करने लगा.

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आखिरकार मैं और रामध्यान टहलने के लिए निकले. तकरीबन आधा घंटे के बाद लौटे. वापस आने पर देखा कि हमारे कमरे पर ताला लगा हुआ था.

रामध्यान ने हंसते हुए कहा, ‘‘भैया, हो सकता है रंजीत भैया भाभी के पास गए हों.’’

‘‘हो सकता है. जा कर दे,’’ मैं ने रामध्यान से कहा.

‘‘थोड़ी देर बाद रामध्यान और रंजीत हंसतेमुसकराते सीढि़यों से नीचे आ रहे थे.

‘‘भाभीजी तो बहुत मजाकिया हैं भाई. सच में मजा आ गया,’’ उतरते ही रंजीत ने कहा.

‘‘अब हंसना छोड़ो और जल्दी कमरा खोलो,’’ वे दोनों हंस रहे थे, पर मुझे गुस्सा आ रहा था.

मैं ने चुपचाप कमरे में जा कर अपने कपड़े बदले और बैड पर सोने चला गया. थोड़ी देर तक बैड पर लेटेलेटे मैं ने पढ़ाई की और उस के बाद मुझे नींद आ गई.

देर रात को रंजीत और रामध्यान की बातों से मेरी नींद टूटी. उन दोनों को देख कर लग रहा था कि वे दोनों अभीअभी कहीं से लौटे हैं.

मैं ने उन से पूछा, ‘‘तुम दोनों कहां गए थे और अभी तक सोए क्यों नहीं?’’

‘कहीं… कहीं नहीं. बस अभी सोने ही वाले हैं,’ दोनों ने एकसुर में कहा.

थोड़ी देर बाद रंजीत ने मुझे जगाते हुए कहा, ‘‘भाई, तुम्हें एक बात कहनी है.’’

‘‘इतनी रात को… बोलो, क्या बात कहनी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगे?’’ उस ने पूछा.

‘‘अगर बुरा मानने वाली बात नहीं होगी, तो बुरा क्यों मानूंगा?’’ मैं ने कहा.

‘‘तुम चाहो तो भाभीजी के मजे ले सकते हो,’’ रंजीत थोड़ा संकोच करते हुए बोला.

‘‘क्या बक रहे हो रंजीत? तुम्हें क्या हो गया है?’’ मैं ने हैरानी और गुस्से में उस से पूछा.

‘‘भाई, अच्छा मौका है. चाहो तो हाथ साफ कर लो,’’ रंजीत के चेहरे पर इस समय एक कुटिल मुसकान थी. वह अपनी इसी मुसकान से मुझे कुछ समझाने की कोशिश कर रहा था.

‘‘हम ने उसे सहारा दिया है. वह हमारी मेहमान है. तुम ऐसा कैसे

सोच सकते हो?’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘इस तरह भी हम उस की मदद कर सकते हैं. मैं ने उस से बात कर ली है. एक बार के लिए 2 सौ रुपए में सौदा पक्का हुआ है,’’ वह मुझे ऐसे बता रहा था, जैसे कोई बड़ा उपहार भेंट करने जा रहा हो.

‘‘मुझे तुम्हारी सोच से घिन आती है रंजीत. आखिर तुम अपने असली रूप में आ ही गए. मुझे हैरत हो रही थी कि तुम भला किसी की मदद कैसे कर सकते हो. अब तुम्हारी असलियत सामने आई.

‘‘मुझे पहले से ही शक हो रहा था, पर मैं यह सोच कर चुप था कि चलो, एक अच्छा काम कर रहे हैं. अच्छा क्या खाक कर रहे हैं,’’ मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था, पर इस समय उसे समझाने के अलावा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था.

रंजीत कुछ नहीं बोला. वह सिर झुकाए बैठा था.थोड़ी देर तक हम दोनों ऐसे ही चुपचाप बैठे रहे. रामध्यान अब तक सो चुका था. थोड़ी देर बाद रंजीत बोला, ‘‘ठीक है भाई, सो जाओ. मैं भी सोता हूं.’’ सुबह जब मैं उठा, तब तक 7 बज चुके थे. रामध्यान की तथाकथित भाभी इस समय हमारे कमरे में बैठी थी. रामध्यान और रंजीत भी उस के पास ही बैठे थे.

‘‘मैं आप के ही उठने का इंतजार कर रही थी,’’ मुझे देखते हुए वह बोली.

‘‘क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हुआ कुछ नहीं. मैं जा रही हूं. कुछ बख्शीश तो दे दीजिए,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

‘‘बख्शीश किस बात की?’’ मुझे हैरानी हुई.

‘‘देखो मिस्टर, आप के इस दोस्त ने 2 सौ रुपए में एक बार की बात कर मेरी इज्जत का सौदा किया था. इन दोनों ने 2-2 बार मेरी इज्जत को तारतार किया. इस तरह पूरे 8 सौ रुपए बनते हैं. और ये हैं कि मुझे केवल 4 सौ रुपए दे कर टरकाना चाहते हैं. मैं भी अड़ चुकी हूं. बंद कमरे में मेरी इज्जत जाते हुए किसी ने नहीं देखा. अब अगर मैं यहां चिल्ला कर बताने लगी कि तुम लोग मुझे यहां क्यों लाए थे, तो तुम लोगों की इज्जत गई समझो,’’ वह बड़े ही तीखे अंदाज में बोले जा रही थी.

मैं ने रंजीत और रामध्यान की ओर देखा. वे दोनों सिर झुकाए चुपचाप बैठे थे. मुझ से कोई भी नजरें नहीं मिला रहा था. मैं सारी बात समझ चुका था. यह भी जानता था कि रंजीत और रामध्यान के पास और पैसे नहीं होंगे. ऐसे में मुझे ही अपनी जेब ढीली करनी होगी. मैं ने अपना पर्स निकाला और उसे 4 सौ रुपए देते हुए बोला, ‘‘लीजिए अपने पैसे.’’

पैसे मिलते ही वह खुश हो गई और अपने रास्ते चल पड़ी. मैं सोच रहा था कि इज्जत आखिर है क्या? कल उस की इज्जत बचाने के लिए हम ने उसे सहारा दिया था और आज अपनी इज्जत बचाने के लिए हमें उसे पैसे देने पड़े.

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इस तरह कहने को तो दुनिया की नजरों में हम सभी की इज्जत जातेजाते बची है. वह औरत बाइज्जत अपने रास्ते गई और हम अपने घर में. आज भी जब मैं उस घटना को याद करता हूं, तो सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि क्या वाकई उस औरत के साथसाथ हम सभी ने अपनीअपनी इज्जत बचा ली थी? ‘इज्जत’ हमारे हैवानियत से भरे कामों के ऊपर पड़ा परदा है. इसी परदे को तारतार होने से बचाने के लिए हम ने उस औरत को पैसे दिए. यह परदा दुनिया से तो हमारी हिफाजत करता नजर आ रहा है, पर हम सभी ने एकदूसरे को बिना इस परदे के देख लिया है. दुनियाभर के लिए हम भले ही इज्जतदार हों, पर अपनी सचाई का हमें पता है.

तृष्णा: भाग 2

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संदीप ने पता नहीं क्या कहा पर एक सम्मिलित ठहाका उसे अवश्य सुनाई दे रहा था जो दूर तक उस का पीछा करता रहा. वह दफ्तर जाने के बजाय घर आ गई और बहुत देर तक अपने को आईने में देखती रही. हां, वह आंटी ही तो है पर सब से अधिक दुख उसे इस बात का था कि संदीप ने उसे अपने दोस्तों के आगे पूरी तरह नकार दिया था.

1 हफ्ते तक दीप्ति और संदीप के बीच मौन पसरा रहा पर फिर अचानक एक दिन एक मैसेज आया, ‘‘जान, आज मौसम बहुत बेईमान है. आ जाओ फ्लैट पर.’’

दीप्ति ने मैसेज अनदेखा कर दिया. चंद मुलाकातों के बाद ही अब संदीप उसे बस ऐसे ही याद करता था. औफिस पहुंची ही थी कि फिर से मैसेज आया, ‘‘जानू आई एम सौरी,

प्लीज एक बार आ जाओ. मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’ दीप्ति जानती थी वह झूठ बोल रहा है पर फिर भी दफ्तर के बाद संदीप के फ्लैट पर चली गई. शायद सबकुछ हमेशा के लिए खत्म करने के लिए पर फिर से वही कहानी दोहराई गई.

दीप्ति, ‘‘संदीप, तुम्हें मेरी याद बस इसीलिए आती है. उस रोज तो तुम मुझे मैडम बुला रहे थे.’’ ‘‘तुम क्या बुलाओगी दीपक के सामने मुझे और ये जो हम करते हैं उस में तुम्हें भी उतना ही मजा आता है दीप्ति. हम दोनों जरूरतों के लिए बंधे हुए हैं,’’ संदीप ने उसे आईना दिखाया.

दीप्ति को बुरा लगा पर यह वो कड़वी सचाई थी, जिसे वह सुनना नहीं चाहती थी. संदीप ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘ज्यादा सोचो मत. जो है उसे ऐसे ही रहने दो. भावनाओं को बीच में मत लाओ.’’ दीप्ति थके कदमों से अपने घररूपी सराय में चली गई. क्यों वह सबकुछ जान कर भी बारबार संदीप की तरफ खिंची जाती है, यह रहस्य उसे समझ नहीं आता.

काश, वह लौट पाए पुराने समय में, पर यह एक खालीपन था जिसे वह चाह कर भी नहीं भर पा रही थी. अपने को औरत महसूस करने के लिए उसे चाहेअनचाहे संदीप की जरूरत महसूस होती थी.

घर जा कर बैठी ही थी कि दीपक गुनगुनाता हुआ घर में घुसा. दीप्ति से बोला, ‘‘3 दिन की मीटिंग के लिए कोलकाता जा रहा हूं… पैकिंग कर देना.’’

‘‘तुम्हारी खुशी देख कर तो नहीं लग रहा तुम मीटिंग के लिए जा रहे हो.’’

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‘‘यार तो रोते हुए जाऊं क्या?’’

दीप्ति को खुद समझ नहीं आ रहा था कि उसे ईर्ष्या क्यों हो रही है. वह खुद भी तो यही सब कर रही है.

दीपक के जाने के बाद एक बार मन करा कि संदीप को बुला ले पर फिर उस ने अपने को रोक लिया. संदीप को भावनाओं से ज्यादा शरीर की दरकार थी. आज उसे अपना मन बांटना था पर समझ नहीं आ रहा था क्या करे. मन किया दीपक को फोन कर ले और बोले लौट आओ उन्हीं राहों पर जहां सफर की शुरुआत करी थी पर अहम होता है न वह बड़ेबड़े रिश्तों को घुन की तरह खा जाता है.

न जाने क्या सोचते हुए उस ने शिखा को फोन लगा लिया और बिना रुके अपने मन की बात कह दी, पर संदीप की बात वह जानबूझ कर छिपा गई. शिखा ने शांति से सब सुना और बस कहा कि जो तुम्हें खुशी दे वह करो. मैं तुम्हारे साथ हूं.

उधर होटल में चैक इन करते हुए दीपक बहुत तरोताजा महसूस कर रहा था. निधि भी आई थी. दोनों ने अगलबगल के कमरे लिए थे. दीपक को काम और सुविधा का यह समागम बहुत अच्छा लगता था.

‘‘निधि, जल्दी से तैयार हो जाओ, थोड़ा कोलकाता को महसूस कर लें आज,’’ दीपक ने फोन पर कहा.

‘‘जी जनाब,’’ उधर से खनकती हंसी सुनाई दी निधि की.

केले के पत्ते के रंग की साड़ी, नारंगी प्रिंटेड ब्लाउज साथ में लाल बिंदी और चांदी के झुमके, दीपक उसे एकटक देखता रह गया. फिर बोला, ‘‘निधि यों ही नहीं तुम पर मरता हूं मैं… कुछ तो बात है जो तुम्हें औरों से जुदा कर देती है.’’

शौपिंग करते हुए दीपक ने दीप्ति के लिए 3 महंगी साडि़यां खरीदीं, यह बात निधि की आंखों से छिपी न रही. वह उदास हो गई.

‘‘निधि क्या बात है, तुम्हें भी तो मैं ने दिलाई हैं तुम्हारी पसंद की साडि़यां.’’

‘‘हां, दोयम दर्जे का स्थान है मेरा तुम्हारे जीवन में.’’

‘‘दिमाग खराब मत करो तुम पत्नियों की तरह,’’ दीपक चिढ़े स्वर में बोला.

‘‘हां, वह हक भी तो दीप्ति के पास ही है,’’ निधि ने संयत स्वर में हा.

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वह रात ऐसे ही बीत गई. जाने यह कैसा नशा है जो न चढ़ता है न ही उतरता है बस चंद लम्हों की खुशी के बदले तिलतिल तड़पना है.

सुबह की मीटिंग निबटाने के बाद जब दीपक निधि के रूम में गया तो उसे तैयार होते पाया.

‘‘क्या बात है, आज मेरे कहे बिना ही तैयार हो गई हो?’’ पीले कुरते और केसरी पाजामी में वह एकदम सुरमई शाम लग रही थी.

‘‘मैं आज की शाम संजय के साथ जा रही हूं. तुम्हें भी चलना है तो चलो. वह मेरा सहपाठी था, फिर पता नहीं कब मिले,’’ निधि बोली.

दीपक बोला, ‘‘जब बिना पूछे तय ही कर लिया तो अब यह नाटक क्यों कर रही हो?’’

निधि ने अपनी काजल भरी आंखों को और बड़ा करते हुए कहा, ‘‘क्यों पति की तरह बोर कर रहे हो,’’ और फिर मुसकराते हुए वह तीर की तरह निकल गई.

दीपक सारी शाम उदास बैठा रहा. मन करा दीप्ति को फोन लगाए और बोले कि दीप्ति मुझे वैसा ही ध्यान और प्यार चाहिए जैसा तुम पहले देती थी.

‘‘दीप्ति बहुत याद आ रही है तुम्हारी,’’ उस ने मैसेज किया.

‘‘क्यों क्या काम है, बिना किसी चापलूसी के भी कर दूंगी,’’ उधर से रूखा जवाब आया.

दीपक ने फोन ही बंद कर दिया.

जहां दीप्ति को संदीप के साथ जिस रिश्ते में पहले ताजगी महसूस होती थी वह भी अब बासी होने लगा था. उधर जब से निधि अपने सहपाठी संजय से मिली थी उस का मन उड़ा रहता था. संजय ने अब तक विवाह नहीं किया था और निधि को उस के साथ अपना भविष्य दिख रहा था जबकि दीपक के लिए वह बस एक समय काटने का जरीया थी. वह उस की प्राथमिकता कभी नहीं बन सकती थी.

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आज दीप्ति घर जल्दी आ गई थी. घर हमेशा की तरह सांयसांय कर रहा था. उस ने अपने लिए 1 कप चाय बनाई और बालकनी में बैठ गई. 2 घंटे बीत गए, विचारों के जंगल में घूमते हुए. तभी उस ने देखा कि दीपक की कार आ रही है. उसे आश्चर्य हुआ कि दीपक आज इतनी जल्दी कैसे आ गया.

उस ने दीपक से पूछा, ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे?’’

दीपक बोला, ‘‘कहो तो वापस चला जाऊं?’’

दीप्ति हंस कर बोली, ‘‘नहीं, ऐसे ही पूछ रही थी.’’

उस की बात का कोई जवाब दिए बिना दीपक सीधा अपने कमरे में चला गया और अपनी शादी की सीडी लगा कर बैठ गया. दीप्ति भी आ कर बैठ गई.

दोनों अकेले भावनाओं के बियाबान के जंगल में घूमने लगे. मन भीग रहे थे पर लौट कर आने का साहस कौन पहले करेगा.

बिस्तर पर करवट बदलते हुए दीप्ति पुराने दिनों की यादों में चली गई. जब वह और दीपक हंसों के जोड़े के रूप में मशहूर थे. दोनों हर टाइम एकदूसरे के साथ रहने का बहाना ढूंढ़ते थे. फिर एक के बाद एक जिम्मेदारियां बढ़ीं और न जाने कब और कैसे एक अजीब सी चिड़चिड़ाहट दोनों के स्वभाव में आ गई. फलस्वरूप दोनों की नजदीकियां शादी से बाहर बढ़ने लगीं. यही सोचते हुए कब सुबह हो गई दीप्ति को पता ही नहीं चला.

औफिस में जा कर दीप्ति अपने काम में डूब गई. उस ने अपनेआप को काम में पूरी तरह डुबो दिया. अब वह इस मृगतृष्णा से बाहर जाना चाहती थी और उस के लिए हौबी क्लासेज जौइन कर लीं ताकि उस का अकेलापन उसे संदीप की तरफ न ले जाए.

दीपक दफ्तर में मन ही मन कुढ़ रहा था. उस ने निधि को मैसेज भी किया था, पर निधि का मैसेज आया था कि वह बिजी है. दीपक भी अब निधि के नखरों और बेरुखी से परेशान आ चुका था.

उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब वह शिखा के कहे अनुसार अपनी बेटियों को वापस ले आएगा. पिछले 1 महीने से वह दफ्तर से घर समय पर आ रहा था. उधर दीप्ति भी धीरेधीरे आगे बढ़ने की कोशिश कर रही थी.

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वह सुबह भी आम सी ही थी जब दीपक ने जिम के जानेपहचाने चेहरों के बीच एक ताजा चेहरा देखा. प्रिया नाम था उस का. बेहद चंचल और खूबसूरत.

न जाने क्यों दीपक बारबार उस की ओर ही देखे जा रहा था. प्रिया भी कनखियों से उसे देख लेती थी. उधर दीप्ति के मोबाइल पर फिर से संदीप का मैसेज था जिसे दीप्ति पढ़ते हुए मुसकरा रही थी. फिर से दोनों के दिमाग और दिल पर एक बेलगाम नशा हावी हो रहा था. एक जाल, एक रहस्य ही तो हैं ये रिश्ते. ये तृष्णा अब उन्हें किस मोड़ पर ले कर जाएगी, यह शायद वे नहीं जानते थे.

सौतेली: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें… सौतेली: भाग 1

शेफाली ने जब नए मेहमान के बारे में रंजना से पूछा तो वह बोली, ‘‘मम्मी की एक पुरानी सहेली की लड़की कुछ दिनों के लिए इस शहर में घूमने आ रही है. वह हमारे घर में ही ठहरेगी.’’

‘‘क्या तुम ने उस को पहले देखा है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ रंजना का जवाब था.

शेफाली को घर में आने वाले मेहमान में कोई दिलचस्पी नहीं थी और न ही उस से कुछ लेनादेना ही था. फिर भी वह जिन हालात में बूआ के यहां रह रही थी उस के मद्देनजर किसी अजनबी के आने के खयाल से उस को बेचैनी महसूस हो रही थी.

वह न तो किसी सवाल का सामना करना चाहती थी और न ही सवालिया नजरों का.

जानकी बूआ की मेहमान जब आई तो शेफाली उसे देख कर ठगी सी रह गई.

चेहरा दमदमाता हुआ सौम्य, शांत और ऐसा मोहक कि नजर हटाने को दिल न करे. होंठों पर ऐसी मुसकान जो बरबस अपनी तरफ सामने वाले को खींचे. आंखें झील की मानिंद गहरी और खामोश. उम्र का ठीक से अनुमान लगाना मुश्किल था फिर भी 30 और 35 के बीच की रही होगी. देखने से शादीशुदा लगती थी मगर अकेली आई थी.

जानकी बूआ ने अपनी सहेली की बेटी को वंदना कह कर बुलाया था इसलिए उस के नाम को जानने के लिए किसी को कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी थी.

मेहमान को घर के लोगों से मिलवाने की औपचारिकता पूरी करते हुए जानकी बूआ ने अपनी भतीजी के रूप में शेफाली का परिचय वंदना से करवाया था तो उस ने एक मधुर मुसकान लिए बड़ी गहरी नजरों से उस को देखा था. वह नजरें बडे़ गहरे तक शेफाली के अंदर उतर गई थीं.

शेफाली समझ नहीं सकी थी कि उस के अंदर गहरे में उतर जाने वाली नजरों में कुछ अलग क्या था.

‘‘तुम सचमुच एक बहुत ही प्यारी लड़की हो,’’ हाथ से शेफाली के गाल को हलके से थपथपाते हुए वंदना ने कहा था.

उस के व्यवहार के अपनत्व और स्पर्श की कोमलता ने शेफाली को रोमांच से भर दिया था.

शेफाली तब कुछ बोल नहीं सकी थी.

जानकी बूआ वंदना की जिस प्रकार से आवभगत कर रही थीं वह भी कोई कम हैरानी की बात नहीं थी.

एक ही घर में रहते हुए कोई कितना भी अलगअलग और अकेला रहने की कोशिश करे मगर ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि कहीं न कहीं एकदूसरे का सामना हो ही जाता है.

शेफाली और वंदना के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दोनों अकेले में कई बार आमनेसामने पड़ जाती थीं. वंदना शायद उस से बात करना चाहती थी लेकिन शेफाली ही उस को इस का मौका नहीं देती थी और केवल एक हलकी सी मुसकान अधरों पर बिखेरती हुई वह तेजी से कतरा कर निकल जाती थी.

एक दिन शेफाली को चौंकाते हुए वंदना रात को अचानक उस के कमरे में आ गई.

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शेफाली को रात देर तक पढ़ने की आदत थी.

वंदना को अपने कमरे में देख चौंकी थी शेफाली, ‘‘आप,’’ उस के मुख से निकला था.

‘‘बाथरूम जाने के लिए उठी थी. तुम्हारे कमरे की बत्ती को जलते देखा तो इधर आ गई. मेरे इस तरह आने से तुम डिस्टर्ब तो नहीं हुईं?’’

‘‘जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘रात की शांति में पढ़ना काफी अच्छा होता है. मैं भी अपने कालिज के दिनों में अकसर रात को ही पढ़ती थी. मगर बहुत देर रात जागना भी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता. अब 1 बजने को है. मेरे खयाल में तुम को सो जाना चाहिए.’’

वंदना ने अपनी बात इतने अधिकार और अपनत्व से कही थी कि शेफाली ने हाथ में पकड़ी हुई किताब बंद कर दी.

‘‘मेरा यह सब कहना तुम को बुरा तो नहीं लग रहा?’’ उस को किताब बंद करते हुए देख वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, बल्कि अच्छा लग रहा है. बहुत दिनों बाद किसी ने इस अधिकार के साथ मुझ से कुछ कहा है. आज मम्मी की याद आ रही है. वह भी मुझ को बहुत देर रात तक जागने से मना किया करती थीं,’’ शेफाली ने कहा. उस की आंखें अनायास आंसुओं से झिलमिला उठी थीं.

शेफाली की आंखों में झिलमिलाते आंसू वंदना की नजरों से छिपे न रह सके थे. इस से वह थोड़ी व्याकुल सी दिखने लगी. उस ने प्यार से शेफाली के गाल को सहलाया और बोली, ‘‘जो बीत गया हो उस को याद कर के बारबार खुद को दुखी नहीं करते. अब सो जाओ, सुबह बहुत सारी बातें करेंगे,’’ इतना कहने के बाद वंदना मुड़ कर कमरे से बाहर निकल गई.

इस के बाद तो शेफाली और वंदना के बीच की दूरी जैसे सिमट गई और दोनों के बीच की झिझक भी खत्म हो गई.

एकाएक ही शेफाली को वंदना बहुत अपनी सी लगने लगी थी. जाहिर है अपने व्यवहार से शेफाली के विश्वास को जीतने में वंदना सफल हुई थी. अब दोनों में काफी खुल कर बातें होने लगी थीं.

शेफाली के शब्दों में सौतेली मां के प्रति आक्रोश को महसूस करते हुए एक दिन वंदना ने कहा, ‘‘आखिर तुम दूसरों के साथसाथ अपने से भी इतनी नाराज क्यों हो?’’

‘‘क्या जानकी बूआ ने मेरे बारे में आप को कुछ नहीं बतलाया?’’

‘‘बतलाया है,’’ गंभीर और शांत नजरों से शेफाली को देखती हुई वंदना बोली.

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हारे पापा ने किसी और औरत से दूसरी शादी कर ली है. वह भी तुम्हारी गैरमौजूदगी में…और तुम को बतलाए बगैर,’’ शेफाली की आंखों में झांकती हुई वंदना ने शांत स्वर में कहा.

‘‘इतना सब जानने के बाद भी आप मुझ से पूछ रही हैं कि मैं नाराज क्यों हूं,’’ शेफाली के स्वर में कड़वाहट थी.

‘‘अधिक नाराजगी किस से है? अपने पापा से या सौतेली मां से?’’

‘‘नाराजगी सिर्फ पापा से है.’’

‘‘सौतेली मां से नहीं?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, उन से मैं नफरत करती हूं.’’

‘‘नफरत? क्या तुम ने अपनी सौतेली मां को देखा है या उन से कभी मिली हो?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर सौतेली मां से नफरत क्यों? नफरत तो हमेशा बुरे इनसानों से की जाती है न,’’ वंदना ने कहा.

‘‘सौतेली मांएं बुरी ही होती हैं, अच्छी नहीं.’’

‘‘ओह हां, मैं तो इस बात को जानती ही नहीं थी. तुम कह रही हो तो यह ठीक ही होगा. बुरी ही नहीं, हो सकता है सौतेली मां देखने में डरावनी भी हो,’’ हलका सा मुसकराते हुए वंदना ने कहा.

शेफाली को इस बात से भी हैरानी थी कि जानकी बूआ ने अपने घर की बातें अपनी सहेली की बेटी से कैसे कर दीं?

वंदना अपने मधुर और आत्मीय व्यवहार से शेफाली के बहुत करीब तो आ गई मगर वह उस के बारे में ज्यादा जानती न थी, सिवा इस के कि वह जानकी बूआ की किसी सहेली की लड़की थी.

फिर एक दिन शेफाली ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘आप की शादी हो चुकी है?’’

‘‘हां,’’ वंदना ने कहा.

‘‘फिर आप अकेली यहां क्यों आई हैं? अपने पति को भी साथ में लाना चाहिए था.’’

‘‘वह साथ नहीं आ सकते थे.’’

‘‘क्यों?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘क्योंकि कोई ऐसा काम था जो उन के साथ रहने से मैं नहीं कर सकती थी,’’ बड़ी गहरी और भेदपूर्ण मुसकान के साथ वंदना ने कहा.

‘‘ऐसा कौन सा काम है?’’ शेफाली ने पूछा भी लेकिन वंदना जवाब में केवल मुसकराती रही. बोली कुछ नहीं.

अब पढ़ाई के लिए शेफाली जब भी ज्यादा रात तक जागती तो वंदना उस के कमरे में आ जाती और अधिकारपूर्वक उस के हाथ से किताब पकड़ कर एक तरफ रख देती व उस को सोने के लिए कहती.

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शेफाली भी छोटे बच्चे की तरह चुपचाप बिस्तर पर लेट जाती.

‘‘गुड गर्ल,’’ कहते हुए वंदना अपना कोमल हाथ उस के ललाट पर फेरती और बत्ती बुझा कर कमरे से बाहर निकल जाती.

वंदना शेफाली की कुछ नहीं लगती थी फिर भी कुछ दिनों में वह शेफाली को इतनी अपनी लगने लगी कि उस को बारबार ‘मम्मी’ की याद आने लगी थी. ऐसा क्यों हो रहा था वह स्वयं नहीं जानती थी.

एक दिन रंजना ने शेफाली को यह बतलाया कि वंदना अगले दिन सुबह की ट्रेन से वापस अपने घर जा रही हैं तो उस को एक धक्का सा लगा था.

‘‘आप ने मुझ को बतलाया नहीं कि आप कल जा रही हैं?’’ मिलने पर शेफाली ने वंदना से पूछा.

‘‘मेहमान कहीं हमेशा नहीं रह सकते, उन को एक न एक दिन अपने घर जाना ही पड़ता है.’’

शेफाली का मुखड़ा उदासी की बदलियों में घिर गया.

‘‘आप जिस काम से आई थीं क्या वह पूरा हो गया?’’ शेफाली ने पूछा तो उस की आवाज में उदासी थी.

‘‘ठीक से बता नहीं सकती. वैसे मैं ने कोशिश की है. नतीजा क्या निकलेगा मुझ को मालूम नहीं,’’ वंदना ने कहा.

‘‘आप कितनी अच्छी हैं. मैं आप को भूल नहीं सकूंगी,’’ वंदना के हाथों को अपने हाथ में लेते शेफाली ने उदास स्वर में कहा.

‘‘शायद मैं भी नहीं,’’ वंदना ने जवाब में कहा.

‘‘क्या हम दोबारा कभी मिलेंगे?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘भविष्य के बारे में कुछ बतलाना मुश्किल है और दुनिया में संयोगों की कमी भी नहीं है,’’ शेफाली के हाथों को दबाते हुए वंदना ने कहा.

‘सौतेली’ कहानी के तीसरे और आखिरी भाग में पढ़िए क्या सौतेली मां को अपना पाई शेफाली?

लौकडाउन स्पेशल : अगला मुरगा

लेखक- उदय नारायण सिंह ‘निर्झर’

सुरक्षित सीट से चुनाव जीत कर राजबली विधायक क्या बन गया, उस की तो मानो लौटरी ही खुल गई. खेतों में मजदूरी कर के अपने परिवार को पालता हुआ वह पहले गांव की राजनीति में लगा रहता था.

ग्राम प्रधानी का चुनाव लड़तेलड़ते राजबली विधायक बंसीधर का चुनाव में प्रचार कर के जब उन का चहेता बन गया तो राजनीति के सारे हथकंडे समझने लगा.

चुनाव लड़ रहे बंसीधर को जब अपना पलड़ा हलका लगने लगा तो उन्होंने अपनी जीत के लिए राजबली को ही उस की बिरादरी के वोट काटने के लिए अपने खर्चे से टिकट दिलवा कर मैदान में उतार दिया.

अपनी मेहनत, अच्छे बरताव और बंसीधर की जीत के लिए बिरादरी के वोट काटता राजबली जब खुद चुनाव जीत गया तो मानो उसे राजगद्दी मिल गई. उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. जहां पहले वह खुद नेताओं के आगेपीछे आस लिए घूमता रहता था, वहीं अब उस के आगेपीछे तमाम लोग जीहुजूरी कर लाइन में आस लगाए खड़े रहते थे.

राजबली के चुनाव की बागडोर संभाल चुका हरीलाल उस का बहुत नजदीकी बन कर अब उस के नुमाइंदे के रूप में काम करने लगा था.

जब राजबली को तमाम सरकारी योजनाओं में कमीशन मिलने लगा, तो उस का समाजसेवा का भाव बदल गया. विधायक निधि से भी अगर वह किसी को पैसे देता तो 40 फीसदी पहले ही ले लेता.

गांव के छप्पर में रहने वाला राजबली जब लखनऊ के शानदार इलाके में जमीन खरीद कर आलीशान मकान बनवाने लगा तो उस के गांव वाले हैरान रह गए. वे उस की और ज्यादा इज्जत करने लगे.

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4 सहयोगियों और 2 पुलिस वालों के साथ जब राजबली अपने इलाके में घूमते हुए किसी गांव में जाता तो पूरे गांव के लोग उस के स्वागत में इकट्ठा हो कर अपनीअपनी समस्याएं सुनाने लगते.

एक दिन श्रीधर नाम के एक शिक्षक राजबली के करीब जा कर बोले, ‘‘विधायकजी, आप को जिताने में हम ने बड़ी मेहनत की है. मेरी एक समस्या है. इसे आप ही दूर कर सकते हैं.’’

‘‘बताओ गुरुजी, हमारे लायक क्या सेवा है. आप सभी के आशीर्वाद से ही तो मुझे विधायिकी मिली है,’’ जब राजबली ने हाथ जोड़ कर कहा तो श्रीधर बोले, ‘‘इतनी पढ़ाई करने के बाद भी मेरा बेटा दिलीप बेकार घूम रहा है. उसे अगर कोई नौकरी मिल जाती तो उस के साथ मेरा भी भला हो जाता.’’

‘‘नौकरी के लिए उस ने कहीं फार्म भरा है कि नहीं?’’

‘‘भरा है साहब, लोक निर्माण महकमे में.’’

श्रीधर की बात सुन कर राजबली ने हरीलाल को बुला कर कहा, ‘‘गुरुजी से पूरी जानकारी ले लो और सारी बातें समझा दो.’’

‘‘जी विधायकजी…’’ कह कर हरीलाल श्रीधर से बोला, ‘‘गुरुजी, 2-4 दिन में जब आप को समय मिले तब आप अपने बेटे को ले कर लखनऊ आ जाना, तब तक हम महकमे से बात कर लेंगे.’’

दिलीप को ले कर जब श्रीधर लखनऊ विधायक निवास पहुंचे तो हरीलाल ने उन से कहा, ‘‘लोक निर्माण महकमे से विधायकजी की बात हो गई है. आप का काम हो जाएगा, लेकिन एक समस्या है.’’

‘‘वह क्या है…?’’ जब श्रीधर ने पूछा तो हरीलाल बोला, ‘‘वहां का डायरैक्टर बिना रुपए लिए अपौइंटमैंट लैटर पर दस्तखत नहीं करेगा.’’

‘‘कितने पैसे मांग रहा?है?’’

‘‘उस की मांग तो 10 लाख रुपए की है, पर विधायकजी के कहने पर वह 5 लाख रुपए में मान गया है. 2 पद खाली हैं. लिस्ट में 10 लोग हैं.

एक हफ्ते का समय है. अब आप जैसा कहें.’’

‘‘ठीक है, मैं पैसों का इंतजाम कर के आऊंगा.’’

5 लाख रुपए घूस देने के बाद जब दिलीप को नौकरी मिल गई तो हरीलाल पर लोगों का पूरा विश्वास जम गया. ईमानदार समाजसेवक, जनता का शुभचिंतक और अपनी बिरादरी का मसीहा का तमगा लिए विधायक राजबली हरीलाल के जरीए पैसा और नाम दोनों कमाने लगा.

जब गलत ढंग से पैसा आने लगता है तब बुद्धि और विचार दोनों गंदे हो जाते हैं. राजबली न तो खानदानी रईस था और न ही नेता. जब आमदनी बढ़ी तो इच्छाएं बढ़ने लगीं. उपहार के साथसाथ जब पार्टियों में सुरा का दौर चला तो सुंदरी की भी कमी खलने लगी.

राजबली सोचता था कि अगली बार विधायकी मिलेगी भी या नहीं, क्या भरोसा, इसलिए जितना कमा सको, कमा लो.

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एक दिन दूर गांव का मनेश हरीलाल के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, मैं बहुत गरीब हूं. मेरी बेटी ग्रेजुएशन कर के घर बैठी है. बेसिक शिक्षा महकमे में फार्म भी भरा है. विधायकजी से सिफारिश लगवा कर उसे नौकरी दिलवा देते तो उस की जिंदगी सुधर जाती और मैं उस की शादी किसी अच्छे घर में कर देता.’’

‘‘लड़की का क्या नाम है?’’

‘‘संगीता.’’

‘‘किस विषय में ग्रेजुएट है?’’

‘‘यह तो मुझे नहीं मालूम. कल उसे साथ ले आऊंगा, तो उसी से पूछ लेना.’’

‘‘ठीक है, कल उसे ले आना. पर पहले यह तो बताओ कि तुम कितना खर्च कर सकते हो? विधायकजी तो कुछ लेते नहीं, पर अफसरों को तो देना पड़ता है. तुम तो जानते ही हो कि आजकल बिना घूस दिए कोई काम नहीं होता है.’’

‘‘हां भैया, जानता तो हूं, लेकिन विधायकजी के जरीए काम होगा तो कम से कम पैसा देना होगा न. वैसे, कम से कम कितने में काम हो जाएगा?’’ जब मनेश ने पूछा तो हरीलाल ने कहा, ‘‘8-10 लाख रुपए से कम तो कोई लेता नहीं. लेकिन तुम गरीब हो, करीबी भी हो और तुम्हारी बेटी की बात है तो कम से कम 5 लाख रुपए का इंतजाम कर देना. रुपए का इंतजाम कर के जब लखनऊ आओगे तब संगीता को साथ जरूर लाना. लेकिन जरा मुझे उस से मिला तो दो.’’

‘‘हां भैया, जरूर. आप आज शाम को मेरी कुटिया पर आ जाते तो मुझे आप की सेवा का मौका मिल जाता,’’ मनेश ने कहा.

‘‘हां, मैं जरूर आऊंगा.’’

शाम को हरीलाल जब मनेश के घर गया तो उस की बड़ी खातिरदारी हुई. संगीता ने उसे अपने हाथ से मिठाई, चायनमकीन परोस कर उस को प्रभावित करने की कोशिश की.

संगीता का पतला व सुडौल बदन, हलका सांवला रंगरूप देख कर हरीलाल खुश हो गया. वह यही तो करता था. वह अपने भगवान राजबली विधायक को मिठाई अर्पित कर प्रसाद खुद खाता था. वह विधायक के मंदिर का पुजारी जो था.

जलपान करने के बाद हरीलाल ने संगीता से पूछा, ‘‘कितना पढ़ी हो?’’

‘‘एमए कर चुकी हूं सर.’’

‘‘किस विषय में?’’

‘‘शिक्षा शास्त्र में.’’

‘‘बहुत अच्छा. शिक्षा भी सुंदर, रूपरंग भी सुंदर…’’ संगीता की आंखों में झांकते हुए हरीलाल ने कहा, ‘‘अपने सारे प्रमाणपत्र ले कर पिता के साथ लखनऊ आ जाना. तुम्हारा काम हो जाएगा.’’

हरीलाल के आश्वासन से संगीता के भीतर खुशी की लहर दौड़ गई. तय समय पर वह मनेश के साथ लखनऊ गई. बंद कमरे में हरीलाल ने उसे विधायक राजबली से मिलाया, बात कराई और पक्का आश्वासन दे कर संगीता को विश्वास में ले लिया.

नौकरी पाने के लालच में संगीता उन दोनों को अपना सबकुछ सौंपती रही. उस की मजबूरी का वे दोनों जम कर फायदा उठाते रहे. यह कोई बलात्कार तो था नहीं इसलिए संगीता यह बात किसी से कह भी नहीं सकती थी.

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अपना सबकुछ लुटाने के बाद भी संगीता को नौकरी नहीं मिली, क्योंकि

5 लाख रुपए का इंतजाम नहीं हो पाया था. जब निराश संगीता ने हरीलाल से नाता तोड़ लिया, तो वह अगले मुरगे की तलाश करने लगा.

बेवफा : भाग 2

पहले भाग पढ़ें- बेवफा भाग 1: आखिर क्यों सरिता ने छोड़ा दीपक का साथ?

भाग 2

उस व्यक्ति के मुंह से अपना नाम सुन कर मैं जैसे आसमान से गिरी… आवाज गले में ही अटक कर रह गई.

‘‘मेरा नाम सुमित है. मांजी और दीपक कैसे हैं? आप का इस शहर में कैसे आना हुआ? आप की शादी तो मुंबई में होने वाली थी न?’’

सवाल तो मैं पूछने आई थी, मगर मुझे नहीं मालूम था कि मुझे ऐसे सवाल सुनने पड़ेंगे… तो क्या सरिता ने अपने पति को सबकुछ बता दिया है?

‘‘आप इतना सबकुछ मेरे बारे में…’’ मेरे हलक से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी और फिर मैं बिना कुछ और कहे वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई.

तभी सामने दिखी वह तसवीर, जो हम ने अपने फेयरवैल वाले दिन खिंचवाई थी. मैं दीपक भैया और सरिता… एक क्षण में मैं समझ गई कि मैं इस घर के लिए अपरिचित नहीं हूं. मगर यह नहीं समझ में आया कि ‘प्यार दोस्ती है,’ कहने वाली सरिता ने अपने प्यार और दोस्ती दोनों के साथ विश्वासघात क्यों किया? वादे को क्यों तोड़ा उस ने?

‘‘अभी 1 घंटा पहले ही सरिता ने आ कर मुझे बताया कि तुम उस के पार्लर में आई हो… वह समझ गईर् थी कि तुम यहां आओगी जरूर. तभी वह यहां से चली गई है.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. आखिर वह कौन सा मुंह ले कर मेरा सामना कर पाएगी,’’ मेरे मन की कड़वाहट शब्दों में स्पष्ट घुल गई थी.

‘‘सरिता ने जैसा बताया था आप बिलकुल वैसी ही हैं. इतने वर्षों में न तो आप बदलीं और न ही आप की सहेली,’’ सुमित ने कहा तो मैं ने अपनी नजरें उस पर टिका दीं. आखिर कौन सी खूबी है इस में जिस के लिए सरिता ने दीपक भैया के प्यार को ठुकरा दिया?

‘‘सरिता तो आज भी 20 साल पुरानी उन्हीं गलियों में भटक रही है, जहां दीपक की यादें बसती हैं. हर दिन, हर पल वह उन्हीं यादों के सहारे जीती है. दुनिया के लिए तो वह मेरी सरिता है, मगर सही माने में वह आज भी दीपक की ही सरिता है.

‘‘मैं एक दुर्घटना में अपाहिज हो गया था. तब एक केयर टेकर के लिए दिया गया मेरा इश्तिहार पढ़ कर सरिता मेरे पास आई और मुझ से शादी करने की विनती करने लगी. अंधा क्या चाहे दो आंखें… बस मैं ने हां कर दी… सच कहूं तो सरिता जैसी केयरटेकर पा कर मैं धन्य हो गया… मेरे जीवन की खुशियां उस की ही देन हैं.’’

‘‘हमारे घर की खुशियों में आग लगा कर उस ने आप के जीवन में रोशन की है… चमक तो होगी ही,’’ पता नहीं क्यों मैं सीधेसीधे सरिता को बेवफा नहीं कह पा रही थी.

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‘‘आप थोड़ा रुकिए मैं अभी आप की गलतफहमी दूर किए देता हूं,’’ कह कर सुमित अंदर से एक डायरी ले आए.

‘‘यह डायरी तो सरिता की है. भैया ने ही उसे उस के जन्मदिन पर उपहारस्वरूप दी थी,’’ कह मैं ने जैसे ही डायरी खोली मेरी नजर एक पत्र पर पड़ी. उस की लिखावट बिलकुल मेरी मां की लिखावट से मिलती थी. अरे, यह तो सचमुच मेरी मां का ही लिखा पत्र है जो उन्होंने सरिता के लिए लिखा था आज से 20 साल पहले-

‘‘सरिता बेटी,

‘‘मैं जानती हूं कि तुम दीपक से बेहद प्यार करती हो और रागिनी तुम्हारी प्यारी सहेली है. मेरी बहन ने दीपक की शादी के लिए एक लड़की देखी है. उस के मातापिता दीपक को बहुत अधिक दहेज दे रहे हैं. तुम तो जानती हो कि दीपक की डाक्टरी की पढ़ाई में मेरे सारे जेवर बिक गए हैं. ऐसे में रागिनी की शादी और दीपक के अच्छे भविष्य के लिए मुझे उस लड़की को ही घर की बहू बनाना पड़ेगा. दीपक तो मेरी बात मानेगा नहीं. ऐसे में उस का भविष्य और रागिनी की जिंदगी अब तुम्हारे हाथों में है. मैं जिंदगी भर तुम्हारा एहसान मानूंगी.

‘‘तुम्हारी मजबूर आंटी.’’

पत्र पढ़ते ही मैं सुबक उठी… ‘‘यह तुम ने क्या कर दिया सरिता? हमारी खुशियों के लिए अपनी जिंदगी में आग लगा ली? आखिर क्यों सरिता? क्या कोई दूसरा रास्ता नहीं था? आज तुम से पूछे बिना मैं यहां से नहीं जाऊंगी. इतने वर्षों तक मैं और दीपक भैया तुम्हें बेवफा समझ कर तुम से नफरत करते रहे और तुम…’’

‘‘दीपक की नफरत ही तो उस के जीने का साधन है. एक ही क्षेत्र में रह कर शायद कहीं किसी मोड़ पर दीपक से मुलाकात न हो जाए, इसीलिए उस ने वह रास्ता ही छोड़ दिया. सरिता कभी नहीं चाहती थी कि तुम लोग उस की हकीकत जानो. इसलिए अगर तुम सच में सरिता को खुश देखना चाहती हो तो उस से बिना मिले ही चली जाओ वरना वह चैन से जी नहीं पाएगी…’’ सुमित ने कहा.

मुझे सुमित की बात सही लगी. मैं एक बार फिर दीपक भैया के प्रति सरिता के प्यार को देख कर नतमस्तक हो गई. सरिता ने तो प्यार और दोस्ती दोनों शब्दों को सार्थक कर दिया था. बस हम ही उसे नहीं समझ पाए.

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