ठूंठ से लिपटी बेल : रूपा का दर्द न जाने कोय

रूपा के आफिस में पांव रखते ही सब की नजरें एक बारगी उस की ओर उठ गईं और तुरंत सब फिर अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. सब की नजरों में छिपा कौतूहल दूर अपनी मेज पर बैठे मैं ने देख लिया था. मेरे पास से निकल कर अपनी मेज तक जाते रूपा ने मेरे कंधे पर हलके हाथ से दबाव दे कर कहा, ‘हैलो, स्वीटी.’ उस की इस शरारत पर मैं भी मुसकरा दी.

रूपा में आया परिवर्तन मुझे भी दिखाई पड़ रहा था पर मैं चाहती थी वह खुद ही खुले. मैं जानती थी वह अधिक दिनों तक अपना कोई भी सुखदुख मुझ से छिपा नहीं सकती. हमेशा बुझीबुझी और उदास रहने वाली रूपा को मैं वर्षों से जानती थी. उसे किसी ने हंसतेचहकते शायद ही कभी देखा हो. हंसने, खुश रहने के लिए उस के पास था ही क्या? छोटी उम्र में मां का साया उठ गया था. मां के रहने का दुख शायद कभी भुलाया भी जा सकता था, पर जिस हालात में मां मरी थीं वह भुलाना बहुत ही मुश्किल था.

शराबी बाप के अत्याचारों से मांबेटी हमेशा पीडि़त रहती थीं. मां स्कूल में पढ़ाती थीं और जो तनख्वाह मिलती उस से तो पिताजी की पूरे महीने की शराब भी मुश्किल से चलती थी. पैसे न मिलने पर रूपा के पिता रतनलाल घर का कोई भी सामान उठा कर बेच आते थे. जरा सा भी विरोध उन्हें आक्रामक बना देता. मांबेटी को रुई की तरह धुन कर रख देते.

धीरेधीरे रूपा की मां भूख, तनाव और मारपीट सहतेसहते एक दिन चुपचाप बिना चीखेचिल्लाए चल बसीं. उस वक्त रूपा 9वीं कक्षा में पढ़ती थी. बिना मां की किशोर होती बेटी को एक दिन मौसी आ कर उस को अपने साथ ले गईं. मौसी तो अच्छी थीं, पर उन के बच्चों को रूपा फूटी आंखों न भाई.

मौसी के घर की पूरी जिम्मेदारी धीरेधीरे रूपा पर आ गई. किसी तरह वहीं रह कर रूपा ने ग्रेजुएशन किया. ग्रेजुएशन करते ही रतनलाल आ धमके और सब के विरोध के बावजूद रूपा को अपने साथ ले गए. इतने दिनों बाद उन की ममता उमड़ने का कारण जल्दी ही रूपा की समझ में आ गया. उन्होंने उस के लिए एक नौकरी का प्रबंध कर रखा था.

रूपा की नौकरी लगने के बाद कुछ दिनों तक तो रतनलाल थोड़ेथोड़े कर के शराब के लिए पैसे ऐंठते रहे फिर धीरेधीरे उन की मांग बढ़ती गई. पैसे न मिलने पर चीखतेचिल्लाते और गालियां बकते थे. रूपा 2-3 साडि़यों को साफसुथरा रख कर किसी तरह अपना काम चलाती. चेहरे पर मेघ छाए रहते. सारे सहयोगी उस की जिंदगी से परिचित थे. सभी का व्यवहार उस से बहुत अच्छा था. लंच में चाय तक के लिए उस के पास पैसे न रहते. मैं कभीकभार ही चायनाश्ते  के लिए उसे राजी कर पाती. पूछने पर वह अपनी परेशानियां मुझे बता भी देती थी.

इधर करीब महीने भर से रूपा में एक खास परिवर्तन आया था, जो तुरंत सब की नजरों ने पकड़ लिया. 33 साल की नीरस जिंदगी में शायद पहली बार उस ने ढंग से बाल संवारे थे. उदास होंठों पर एक मदहोश करने वाली मुसकराहट थी. आंखें भी जैसे छलकता जाम हों.

मैं ने सोचा शायद आजकल रूपा के पिता सुधर रहे हों…यह सब इसी कारण हो. करीब 1 माह पहले ही तो रूपा ने एक दिन बताया था कि कैसे चीखतेचिल्लाते और गालियां बकते पिता को रवि भाई समझाबुझा कर बाहर ले गए थे. करीब 1 घंटे बाद पिताजी नशे में धुत्त खुशीखुशी लौटे थे और बिना शोर किए चुपचाप सो गए थे. रवि भाई उस के मौसेरे भाई के दोस्त हैं. पहले 1-2 बार मौसी के घर पर ही मुलाकात हुई थी. अब इसी शहर में बिजनेस कर रहे हैं.

ऐसे ही रूपा ने बातचीत के दौरान बताया था कि अब पिताजी चीखते-चिल्लाते नहीं, क्योंकि रवि भाई की दुकान पर बैठे रहते हैं. काफी रात गए वहीं से पी कर आते हैं और चुपचाप सो जाते हैं.

2 महीने बाद अचानक एक दिन सुबहसुबह रूपा मेरे घर आ पहुंची. बहुत खुश नजर आ रही थी. जैसे जल्दीजल्दी बहुत कुछ बता देना चाहती हो पर मुझे व्यस्त देख उस ने जल्दीजल्दी मेरे काम में मेरा हाथ बंटाना शुरू कर दिया. नाश्ता मेज पर सजा दिया. मुन्ने को नहला कर स्कूल के लिए तैयार कर दिया. पति व बच्चों को भेज कर जब हम दोनों नाश्ता करने बैठीं तो आफिस जाने में अभी डेढ़ घंटा बचा था. रूपा ने ऐलान कर दिया कि आज आफिस से छुट्टी करेंगे. मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘‘क्यों भई, छुट्टी किसलिए. डेढ़ घंटे में तो पूरा नावेल पढ़ा जा सकता है…सुना भी जा सकता है.’’

पर वह डेढ़ घंटे में सिर्फ एक लाइन ही बोल पाई, ‘‘मैं रवि से शादी कर लूं, रत्ना?’’ मैं जैसे आसमान से गिरी, ‘‘रवि से? पर वह तो…’’

‘‘शादीशुदा है, बच्चों वाला है, यही न?’’ मैं आगे सुनने के लिए चुप रही. रूपा ने अपनी छलकती आंखें उठाईं, ‘‘मेरी उम्र तो देख रत्ना, इस साल 34 की हो जाऊंगी. पिताजी मेरी शादी कभी नहीं करेंगे. उन्होंने तो आज तक एक बार भी नहीं कहा कि रूपा के हाथ पीले करने हैं. मुझे…एक घर…एक घर चाहिए, रत्ना. रवि मुझे बहुत चाहते हैं. मेरा बहुत खयाल रखते हैं. आजकल रवि के कारण पिताजी ऊधम भी नहीं करते. रवि के कारण ही मैं चैन की सांस ले पाई हूं. शादी के बाद मैं रवि के पास रहूंगी. पिताजी यहीं अकेले रहें और चीखेंचिल्लाएं.’’

मुझे उस की बुद्धि पर तरस आया. मैं ने कहा, ‘‘यहां तो अकेले पिताजी हैं, वहां सौत और उस के बच्चों के बीच रह कर किस सुख की कल्पना की है तू ने? जरा मैं भी तो सुनूं?’’

उस ने मेरे गले में बांहें डाल दीं, ‘‘ओह रत्ना, तुम समझती क्यों नहीं. वहां मेरे साथ रवि हैं फिर मुझे नौकरी करने की भी जरूरत नहीं. रवि की पत्नी बिलकुल बदसूरत और देहाती है. रवि मेरे बिना रह ही नहीं सकते.’’

इस के बाद की घटनाएं बड़ी तेजी से घटीं. रूपा से तो मुलाकात नहीं हुई, बस, उस की 1 महीने की छुट्टी की अर्जी आफिस में मैं ने देखी. एक दिन सुना दोनों ने कहीं दूसरी जगह जा कर कोर्ट मैरिज कर ली है. इस बीच मुझे दूसरी जगह अच्छी नौकरी मिल गई. जहां मेरा आफिस था वहां से बच्चों का स्कूल भी पास था. इसलिए मेरे पति ने भागदौड़ कर उसी इलाके में मकान का इंतजाम भी कर लिया. इस भागमभाग में मुझे रूपा के बारे में उठती छिटपुट खबरें ही मिलीं कि रूपा उसी आफिस में नौकरी कर रही है, फिर सुना रूपा 1 बेटी की मां बन गई है.

एक ही शहर में रहते हुए भी हमारी मुलाकात एक शादी में 10 साल बाद हुई. करीब 9 साल की बेटी भी उस के साथ थी. देखते ही आ कर लिपट गई. मैं ने पूछा, ‘‘रवि नहीं आए?’’

ठंडा सा जवाब था रूपा का, ‘‘उन्हें अपने काम से फुरसत ही कहां है.’’

रूपा का कुम्हलाया चेहरा यह कहते और बेजान हो गया. उस की बेटी का उदास चेहरा भी झुक गया. मैं ने पूछा, ‘‘रूपा, तुम्हारे पिताजी आजकल कैसे हैं?’’

‘‘वैसे ही जैसे थे,’’ वह बोली.

‘‘कहां रहते हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कभी मेरे पास, कभी गांव में जमीनजायदाद बेचते हैं. पीते रहते हैं, शहर आते हैं तो मैं हूं ही पैसे देने के लिए. महीने में 8-10 दिन यहीं मेरे पास रहते हैं. गांव में पिक्चर हाल जो नहीं है. वहां बोर हो जाते हैं.’’

‘‘पैसे देने से मना क्यों नहीं कर देतीं.’’

‘‘मना करती हूं तो ऐसी भद्दी और गंदी गालियां देते हैं कि सारा महल्ला सुनता है. मेरी बेटी डर कर रोती है. पढ़- लिख नहीं पाती.’’

‘‘घर के बाकी लोग कुछ नहीं कहते. रवि कुछ नहीं कहते?’’

‘‘बाकी कौन से लोग हैं? मैं तो अपने उसी घर में रहती हूं. रात को रवि 10 बजे आते हैं, 12-1 बजे चले जाते हैं. वह भी एक दिन छोड़ कर. बस, हमारा पतिपत्नी का नाता यही 2-3 घंटे का है. घर खर्च देना नहीं पड़ता, कारण, मैं कमाती हूं न.’’

‘‘भई, कुछ तो खर्चा देते ही होंगे. तुझे न सही अपनी बेटी को ही.’’

‘‘और क्या देंगे जब शाबाशी तक तो दे नहीं सकते. नीलूहर साल फर्स्ट आती है. कभी टौफी तक ला कर नहीं दी.’’

नीलू का चेहरा और बुझ गया था. उस का सिर झुक गया. मेरा मन भर आया. बोली, ‘‘पागल, मैं ने तो तुझे पहले ही समझाना चाहा था पर…’’

रूपा की आंखें छलक गईं, ‘‘क्या करती, रत्ना? मुझ जैसी बेसहारा बेल के लिए तो ठूंठ का सहारा भी बड़ी बात थी. फिर वह तो…’’

इतने में हमारे पास 2-3 महिलाएं और आ बैठीं. मैं ने बात बदल दी, ‘‘भई, तेरी बेटी 9 साल की हो गई, अब तो 1 बेटा हो जाना चाहिए था,’’ फिर धीरे से कहा, ‘‘1 बेटा हो जाए तो तुम दोनों का सहारा बने, और नीलू को भाई भी मिल जाए.’’

अचानक नीलू हिचकियां ले कर रोने लगी, ‘‘नहीं चाहिए मुझे भाई, नहीं चाहिए.’’

मैं सहम गई, ‘‘क्या हो गया नीलू बेटे…क्या बात है मुझे बताओ?’’ नीलू को मैं ने गोद में समेट लिया. उस ने हिचकियों के बीच जो कहा सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘मौसी, वह भी नाना और पापा की तरह मां को तंग करेगा. वह भी लड़का है.’’

मैं हैरान सी उसे गोद में समेटे बैठी उस के भविष्य के बारे में सोचती रह गई. इस नन्ही सी उम्र में उस ने 2 ही पुरुष देखे, एक नाना और दूसरा पापा. दोनों ने उस के कोमल मन पर पुरुष मात्र के लिए एक खौफ और नफरत पैदा कर दी थी.

हम चलने लगे तो रूपा भी चल दी. गेट के बाहर निकले तो रवि को एक महिला के साथ अंदर जाते देखा. समझते देर नहीं लगी कि यह उस की पहली पत्नी है. सेठानियों जैसी गर्वीली चाल, कमर से लटकता चाबियों का गुच्छा और जेवरों से लदी उस अनपढ़ सांवली के चेहरे की चमक के सामने रूपा का गोरा रंग, सुंदर देह, खूबसूरत नाकनक्श, कुम्हलाया सा चेहरा फीका पड़ गया. एक के चेहरे पर पत्नी के अधिकारों की चमक थी तो दूसरी का चेहरा, अपमान और अवहेलना से बुझा हुआ. मैं नहीं चाहती थी कि रूपा और नीलू की नजर भी उन पर पड़े, इसलिए मैं ने जल्दी से कार का दरवाजा खोला और उन्हें पहले अंदर बैठा दिया.

दूसरा भगवान : एक डाक्टर फंसा अंधविश्वास के चक्रव्यूह में

डाक्टर रंजन के छोटे से क्लिनिक के बाहर मरीजों की भीड़ थी. अचानक लाइन में लगा बुजुर्ग धरमू चक्कर खा कर गिर पड़ा. डाक्टर रंजन को पता चला. वे अपने दोनों सहायकों जगन और लीला के साथ भागे आए.

डाक्टर रंजन ने धरमू की नब्ज चैक की और बोले, ‘‘इन्हें तो बहुत तेज बुखार है. जगन, इन्हें बैंच पर लिटा कर माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखो,’’ समझा कर वे दूसरे मरीजों को देखने लगे.

वहां से गुजरते पंडित योगीनाथ और वैद्य शंकर दयाल ने यह सब देखा, तो वे जलभुन गए.

‘‘योगी, यह छोकरा गांव में रहा, तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा. हमारे पास दवा के लिए इक्कादुक्का लोग ही आते हैं. इस के यहां भीड़ लगी रहती है,’’ भड़ास निकालते हुए वैद्य शंकर दयाल बोला.

‘‘वैद्यजी, आप सही बोल रहे हैं. अब तो झाड़फूंक के लिए मेरे पास एकाध ही आता है,’’ पंडित योगीनाथ ने भी जहर उगला. उन के पीछेपीछे चल रहे पंडित योगीनाथ के बेटे शंभूनाथ ने उन की बातें सुनीं और बोला, ‘‘पिताजी, आप चिंता मत करो. यह जल्दी ही यहां से बोरियाबिस्तर समेट कर भागेगा. बस, देखते जाओ.’’

शंभूनाथ के मुंह से जलीकटी बातें सुन कर उन दोनों का चेहरा खिल गया.

हरिया अपने बापू किशना को साइकिल पर बिठाए पैदल ही भागा जा रहा था. किशना का चेहरा लहूलुहान था. वैद्य शंकर दयाल ने पुकारा, ‘‘हरिया, ओ हरिया. तू ने खांसी के काढ़े के उधार लिए 50 रुपए अब तक नहीं दिए. भूल गया क्या?’’

‘‘वैद्यजी, मैं भूला नहीं हूं. कई दिनों से मुझे दिहाड़ी नहीं मिली. काम मिलते ही पैसे लौटा दूंगा. अभी मुझे जाने दो,’’ गिड़गिड़ाते हुए हरिया ने रास्ता रोके वैद्य शंकर दयाल से कहा. किशना दर्द से तड़प रहा था.

‘‘शंभू, तू इस की जेब से रुपए निकाल ले.’

‘‘वैद्यजी, रहम करो. बापू को दिखाने के लिए सौ रुपए किसी से उधार लाया हूं,’’ हरिया के लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी पिता के कहते ही शंभूनाथ ने रुपए निकाल लिए.

डाक्टर रंजन आखिरी मरीज के बारे में दोनों सहायकों को समझा रहे थे. ‘‘डाक्टर साहब, मेरे बापू को देखिए. इन की आंख फूट गई है.’’

‘‘हरिया, घबरा मत. तेरे बापू ठीक हो जाएंगे,’’ हरिया की हिम्मत बढ़ा कर डाक्टर रंजन इलाज करने लगे. बेचैन हरिया इधरउधर टहल रहा था कि तभी वहां जगन आया, ‘‘हरिया, तेरे बापू की आंख ठीक है. चल कर देख ले.’’

इतना सुनते ही हरिया अंदर भागा गया.

‘‘आओ हरिया, दवाएं ले आओ. शुक्र है आंख बच गई,’’ डाक्टर रंजन बोले.

सबकुछ समझने के बाद हरिया ने डाक्टर रंजन को कम फीस दी, फिर हाथ जोड़ कर वैद्यजी वाली घटना सुनाई. डाक्टर रंजन भौचक्के रह गए.

‘‘डाक्टर साहब, काम मिलते ही मैं आप की पाईपाई चुका दूंगा,’’ हरिया ने कहा.

जगन और लीला लंच करने के लिए अपनेअपने घर चले गए. डाक्टर रंजन अकेले बैठे क्लिनिक में कुछ पढ़ रहे थे, तभी वहां दवाएं लिए हुए सैल्समैन डाक्टर रघुवीर आया, ‘‘डाक्टर साहब, मैं आप की सभी दवाएं ले आया हूं. कुछ दिनों के लिए मैं बाहर जा रहा हूं. जरूरत पड़ने पर आप किसी और से दवा मंगवा लेना,’’ बिल सौंप कर वह चला गया.

‘‘मैं जरा डाक्टर साहब के यहां जा रही हूं,’’ नेहा की बात सुन कर मां चौंक गईं.

‘‘क्या हुआ बेटी, तुम ठीक तो हो?’’

‘‘मां, मैं बिलकुल ठीक हूं. मेरा नर्सिंग का कोर्स पूरा हो गया है. घर में बोर होने से अच्छा है कि डाक्टर साहब के क्लिनिक पर चली जाया करूं. वहां सीखने के साथसाथ कुछ सेवा का मौका भी मिलेगा. पिताजी ने इजाजत दे दी है. तुम भी आशीर्वाद दे दो.’’ मां ने भी हामी भर दी. नेहा चली गई.

डाक्टर रंजन के साथ अजय और शंभू गपशप मार रहे थे.

‘‘आज हम दोनों बिना पार्टी लिए नहीं जाएंगे,’’ अजय बोला.

‘‘नोट छाप रहे हो. दोस्तों का हक तो बनता है,’’ शंभू की बात सुन कर डाक्टर रंजन गंभीर हो गए. चश्मा मेज पर रखा, फिर बोले, ‘‘मेरी हालत से तुम वाकिफ हो. मैं जिन गरीब, लाचारों का इलाज करता हूं, उन से दवा की भी भरपाई नहीं होती. मैं ने बचपन में अपने मांबाप को गरीबी और बीमारियों के चलते तिलतिल मरते देखा है, इसलिए मैं इन के दुखदर्द से वाकिफ हूं.’’

‘‘क्या रोनाधोना शुरू कर दिया? मैं पार्टी दूंगा. चलो शहर. मैं डाक्टर रंजन की तरह छोटे दिल वाला नहीं,’’ शंभू बोला.

डाक्टर रंजन चुप रहे. तभी वहां नेहा दाखिल हुई.

‘‘आओ नेहा, सब ठीक तो है?’’ डाक्टर रंजन के पूछने पर नेहा ने आने की वजह बताई.

‘‘कल से आ जाना,’’ डाक्टर रंजन बोले.

‘‘ठीक है सर,’’ कह कर नेहा वहां से चल दी.

‘‘नेहा, ठहरो. डाक्टर साहब पार्टी दे रहे हैं,’’ शंभू ने टोका.

‘‘आप एंजौय करो. मैं चलती हूं,’’ कह कर नेहा चल दी.

‘‘शंभू, जलीकटी बातें मत करो,’’ अजय ने समझाया. ‘‘डाक्टर क्या पार्टी देगा? चलो, मैं देता हूं,’’ शंभू की बात रंजन को बुरी लगी. वे बोले, ‘‘तेरी अमीरी का जिक्र हरिया भी कर रहा था.’’

इतना सुनते ही शंभू के तनबदन में आग लग गई, ‘‘डाक्टर हद में रह, नहीं तो…’’ कह कर शंभू वहां से चला गया. अजय हैरान होते हुए बोला, ‘‘तुम दोनों क्या बक रहे हो? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

वैद्य शंकर दयाल भागाभागा पंडित योगीनाथ के पास गया. पुराने मंदिर का पुजारी त्रिलोकीनाथ भी वहीं था.

‘‘मुझे अभीअभी पता चला है कि डाक्टर की दुकान ग्राम सभा की जमीन पर बनी है और खुद सरपंच ने जमीन दी है.’’

वैद्य शंकर दयाल की बात सुन कर वे दोनों उछल पड़े.  पंडित योगीनाथ बोला, ‘‘इस में हमारा क्या फायदा है?’’

‘‘डाक्टर को भगाने की तरकीब मैं बताता हूं… वहां देवी का मंदिर बनवा दो.’’

‘‘सुनहरा मौका है. नवरात्र आने वाले हैं,’’ वैद्य शंकर दयाल की हां में हां मिलाते हुए त्रिलोकीनाथ बोला.

‘‘वैद्यजी, तुम्हारा भी जवाब नहीं.’’

‘‘सब सोहबत का असर है,’’ पंडित योगीनाथ से तारीफ सुन कर वैद्य शंकर दयाल ने कहा.

‘‘नेहा डाक्टर के साथ कहां जा रही है. अच्छा, यह तो सरपंच की बेटी के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगा है,’’ बड़बड़ाते हुए शंभू दयाल ने शौर्टकट लिया.

‘‘चाची, नेहा कहां है?’’ घर में घुसते ही शंभू ने पूछा.

‘‘क्या हुआ शंभू?’’ सुनते ही नेहा की मां ने पूछा.

शंभू ने आंखों देखी मिर्चमसाला लगा कर बात बता दी. मां को बहुत बुरा लगा. उन्होंने नेहा को पुकारा, ‘‘नेहा बेटी, यहां आओ.’’

नेहा को देख कर शंभू के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘मेरी बेटी पर लांछने लगाते हुए तुझे शर्म नहीं आई,’’ मां ने शंभू को फटकार कर भगा दिया.

‘तो वह कौन थी?’ सोचता हुआ शंभू वहां से चल दिया.

पंडित योगीनाथ, त्रिलोकीनाथ और वैद्य शंकर दयाल सरपंच उदय प्रताप से मिलने गए.

‘‘श्रीमानजी, आप इजाजत दें, तो हम वहां देवी का मंदिर बनवाना चाहते हैं. बस, आप जमीन का इंतजाम कर दें,’’ त्रिलोकीनाथ बोले.

सरपंच बोले, ‘‘हमारी सारी जमीन गांव से दूर है और ग्राम सभा की जमीन का टुकड़ा गांव के आसपास है नहीं,’’ झट से पंडित योगीनाथ ने डाक्टर वाली जमीन की याद दिलाई. त्रिलोकीनाथ ने भी समर्थन किया.

‘‘उस जमीन के बारे में पटवारी से मिलने के बाद बताऊंगा,’’ सरपंच उदय प्रताप की बात सुन कर वे सभी मुसकराने लगे. डाक्टर रंजन, नेहा, जगन और लीला एक सीरियस केस में बिजी थे, तभी वहां अजय आया, ‘‘रंजन, गांव में बातें हो रही हैं कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा और तुम्हारा क्लिनिक यहां से हटेगा.’’

‘‘तुम जरा बैठो. मैं अभी आता हूं,’’ कह कर डाक्टर रंजन मरीजों को देखने में बिजी हो गए.

फारिग हो कर वे अजय के पास आए. नेहा, जगन और लीला भी वहीं आ गए. ‘‘रंजन, मुझे थोड़ी सी जानकारी है कि इस जगह पर देवी का मंदिर बनेगा. कुछ दान देने वालों ने सीमेंटईंट वगैरह का इंतजाम भी कर दिया है. 1-2 दिन बाद ही काम शुरू हो जाएगा.’’

अजय की बात सुन कर नेहा बोली, ‘‘मैं ने तो ऐसी कोई बात घर पर नहीं सुनी.’’ ‘‘तुम जानते हो, मैं दूसरे गांव से यहां आ कर अपनी दुकान में बिजी हो जाता हूं. तुम अपने मरीजों में बिजी रहते हो. न तुम्हारे पास समय है, न मेरे पास,’’ कह कर अजय डाक्टर रंजन को देखने लगे.

तभी वहां दनदनाता हुआ शंभूनाथ आया, ‘‘डाक्टर, तुम गांव के भोलेभाले लोगों को बहुत लूट चुके हो. अब अपना तामझाम समेट कर यह जगह खाली करो. यहां मंदिर बनेगा,’’ जिस रफ्तार से वह आया था, उसी रफ्तार से जहर उगल कर चला गया. सभी हक्केबक्के रह गए.

कुछ देर बाद डाक्टर रंजन बोले, ‘‘नेहा, तुम मरीजों को देखो. मैं सरपंचजी से मिलने जाता हूं. आओ अजय,’’ वे दोनों वहां से चले गए.

‘‘पिताजी, समय खराब मत करो. मंदिर बनवाना जल्दी शुरू करवा दो. मैं डाक्टर को हड़का कर आया हूं. सरपंच के भी सारे रास्ते बंद कर देता हूं,’’ शंभूनाथ ने पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ को समझाया.

‘‘सरपंच को तुम कैसे रोकोगे,’’ वैद्य शंकर दयाल ने पूछा.

‘‘वह सब आप मुझ पर छोड़ दो. जल्दी से मंदिर बनवाना शुरू करवा दो,’’ तीनों को समझाने के बाद शंभूनाथ वहां से चला गया.

‘‘सरपंचजी, आप किसी तरह हमारे क्लिनिक को बचा लो.’’

‘‘रंजन, मैं पूरी कोशिश करूंगा, क्योंकि उस जमीन के कागजात अभी तैयार नहीं हुए हैं. मैं कल कागजात पूरे करवा देता हूं,’’ डाक्टर रंजन को सरपंच उदय प्रताप ने भरोसा दिलाते हुए कहा.

रात में मंदिर बनाने का सामान आया. ट्रक और ट्रैक्टरों ने उलटासीधा लोहा, ईंट वगैरह सामान उतारा. जगह कम थी. टक्कर लगने से क्लिनिक की बाहरी दीवार ढह गई. सुबह डाक्टर रंजन ने यह सब देखा, तो वे दंग रह गए. नेहा, जगन, लीला शांत थे. तभी पीछे से अजय ने डाक्टर रंजन के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘इस समय हम सिर्फ चुपचाप देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते हैं.

‘‘मैं ने इस सिलसिले में शंभूनाथ से बात की, तो वह बोला कि मैं कुछ नहीं कर सकता,’’ कह कर अजय चुप हो गया. जेसीबी, ट्रैक्टर वगैरह मैदान को समतल कर रहे थे. जेसीबी वाले ने जानबूझ कर क्लिनिक की थोड़ी सी दीवार और ढहा दी. ‘धड़ाम’ की आवाज सुन कर सभी बाहर आए.

‘‘डाक्टर साहब, गलती से टक्कर लग गई. आज नहीं तो कल यह टूटनी है,’’ बड़ी बेशर्मी से जेसीबी ड्राइवर ने कहा. सभी जहर का घूंट पी कर रह गए.

शंभूनाथ ने पुजारी त्रिलोकीनाथ से कहा, ‘‘पुजारीजी, सब तैयारी हो चुकी है. आप बेफिक्र हो कर मंदिर बनवाना शुरू कर दो. मेरे एक दोस्त ने, जो विधायक का सब से करीबी है, विधायक से थाने, तहसील, कानूनगो को फोन कर के निर्देश दिया है. उस जमीन पर सिर्फ मंदिर ही बने. अब हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है.’’

सारी बातें सुनने के बाद पुजारी त्रिलोकीनाथ खुश हो गए.

डाक्टर रंजन और अजय बहुत सोचविचार के बाद थाने गए. थानेदार ने जमीन के कागजात मांगे. कागजात न होने के चलते रिपोर्ट दर्ज न हो सकी. दोनों बुझे मन से थाने से निकल आए.

सरपंच उदय प्रताप पटवारी और कानूनगो से मिले, ‘‘आप किसी तरह से डाक्टर के क्लिनिक के कागजात आज ही तैयार कर दो. बड़ी लगन और मेहनत से डाक्टर रंजन गांव वालों की सेवा कर रहे हैं. कृपया, आप मेरा यह काम कर दो,’’ सरपंच की सुनने के बाद उन दोनों ने असहमति जताई. सरपंच उदय प्रताप को बड़ा दुख हुआ.

दोनों की नजर तहसील से बाहर आते उदय प्रताप पर पड़ी. उन की चाल देख डाक्टर रंजन और अजय समझ गए कि काम नहीं हुआ. ‘‘काम नहीं हुआ क्या सरपंचजी,’’ डाक्टर रंजन ने पूछा.

‘‘नहीं. बस एक उम्मीद बची है. विधायक साहब से मिले लें,’’ सरपंच उदय प्रताप का सुझाव दोनों को सही लगा. तीनों उन से मिलने चल दिए. नेहा, जगन, लीला वगैरह बड़ी बेचैनी से तीनों के आने का इंतजार कर रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, हम आखिरी बार कह रहे हैं कि क्लिनिक खाली कर दो, नहीं तो सब इसी में दब जाएगा,’’ शंभूनाथ की चेतावनी सुन कर वे तीनों बाहर आए. शंभूनाथ वहां से जा चुका था. विधायक का दफ्तर बंद था. घर पहुंचे, तो गेट पर तैनात पुलिस ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया. थकहार कर उदय प्रताप, अजय और डाक्टर रंजन गांव आ गए.

मंदिर की नींव रख दी गई थी. प्रसाद बांटा जा रहा था. जयकारे गूंज रहे थे.

‘‘पंडितजी ने मंदिर के लिए सही जगह चुनी है. उन्होंने गांव के लिए सही सोचा,’’ एक बुजुर्ग ने योगीनाथ की तारीफ करते हुए कहा. तीनों के जानपहचान वाले डाक्टर रंजन को कोस रहे थे. कुछ गालियां दे रहे थे.

‘‘चोर है, गरीबों को लूट रहा है, नकली दवाएं देता है, पानी का इंजैक्शन लगा कर पैसे बना रहा है, पंडितजी इस को सही भगा रहे हैं,’’ एक आदमी बोला. एक आदमी सरपंच को भी बुराभला कह रहा था, ‘‘अब की इसे वोट नहीं देंगे, यह डाक्टर के साथ मिल कर गांव को लूट रहा है.’’

कुछ ही लोग सरपंच और डाक्टर रंजन के काम को अच्छा कह रहे थे. सरपंच उदय प्रताप डाक्टर रंजन के क्लिनिक के बाहर खड़े थे. नेहा, जगन, लीला और अजय भी वहीं मौजूद थे.

‘‘बेटे, जगह खाली करने के सिवा अब और कोई चारा नहीं है. गांव के भोलेभाले लोग पंडित योगीनाथ, वैद्य शंकर दयाल और पुजारी त्रिलोकीनाथ के मकड़जाल में फंस चुके हैं. हमारी सुनने वाला कोई नहीं. कोर्ट के चक्कर में फंसने से भी कोई हल नहीं निकलेगा,’’ सरपंच की बात सुन कर डाक्टर रंजन मायूस हो गए.

बहुत देर बाद डाक्टर रंजन ने पूछा, ‘‘फिर, मैंक्या करूं?’’

सरपंच उदय प्रताप बोले, ‘‘बेटे, गांव के नासमझ लोगों पर मंदिर बनवाने का भूत सवार है. इन्हें डाक्टररूपी दूसरे भगवान से ज्यादा जरूरत पत्थररूपी भगवान की चाह है. इन लोगों को हम जागरूक नहीं कर सकते. इन्हें सिर्फ इन का जमीर, इन की अक्ल ही जागरूक कर सकती है. हम हार चुके हैं रंजन, हम हार चुके हैं.’’ मायूस हो कर सरपंच उदय प्रताप वहां से चले गए. सभी मिल कर क्लिनिक खाली करने लगे. डाक्टर रंजन शांत खड़े थे.

उपहार: क्या मोहिनी का दिल जीत पाया सत्या

लेकिन मोहिनी थी कि उसे एक भी तोहफा न पसंद आता. आखिर में जब सत्या की मेहनत की कमाई से खरीदे छाते को भी नापसंद कर के मोहिनी ने फेंका तो…

‘‘सिर्फ एक बार, प्लीज…’’

‘‘ऊं…हूं…’’

‘‘मोहिनी, जानती हो मेरे दिल की धड़कनें क्या कहती हैं? लव…लव… लेकिन तुम, लगता है मुझे जीतेजी ही मार डालोगी. मेरे साथ समुद्र किनारे चलते हुए या फिर म्यूजियम देखते समय एकांत के किसी कोने में तुम्हारा स्पर्श करते ही तुम सिहर कर धीमे से मेरा हाथ हटा देती हो. एक बार थिएटर में…’’

‘‘सत्या प्लीज…’’

‘‘मैं ने ऐसी कौन सी अनहोनी बात कह दी. मैं तो केवल इतना चाहता हूं कि तुम एक बार, सिर्फ एक बार ‘आई लव यू’ कह दो. अच्छा यह बताओ कि तुम मुझे प्यार करती हो या नहीं?’’

‘‘नहीं जानती.’’

‘‘यह भी क्या जवाब हुआ भला? हम दोनों एक ही बिरादरी के हैं. हैसियत भी एक जैसी ही है. तुम्हारी और मेरी मां इस रिश्ते के लिए मना भी नहीं करेंगी. हां, तुम मना कर दोगी, दिल तोड़ दोगी, तो मैं…तो मर जाऊंगा, मोहिनी.’’

‘‘मुझे एक छाता चाहिए सत्या. धूप में, बारिश में, बाहर जाते समय काफी तकलीफ होती है. ला दोगे न?’’

‘‘बातों का रुख मत बदलो. छाता दिला दूं तो ‘आई लव यू’ कह दोगी न?’’

मोहिनी के जिद्दी स्वभाव के बारे में सोच कर सत्या तिलमिला उठा पर वह दिल के हाथों मजबूर था. मोहिनी के बिना वह अपनी जिंदगी सोच ही नहीं सकता था. लगा, मोहिनी न मिली तो दिल के टुकड़ेटुकड़े हो जाएंगे.

सत्या ने पहली बार जब मोहिनी को देखा तो उसे दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट महसूस हुई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखें, सीधी नाक, ठुड्डी पर छोटा सा तिल, नमी लिए सुर्ख गुलाबी होंठ, लगा मोहिनी की खूबसूरती का बयान करने के लिए उस के पास शब्दों की कमी है.

मोहिनी से पहली मुलाकात सत्या की किसी इंटरव्यू देने के दौरान हुई थी. मिक्सी कंपनी में सेल्समैन व सेल्स गर्ल की आवश्यकता थी. वहां दोनों को नौकरी नहीं मिली थी.

कुछ दिनों बाद ही एक दूसरी कंपनी के साक्षात्कार के समय उस ने दोबारा मोहिनी को देखा था. गुलाबी सलवार कमीज में वह गजब की लग रही थी. कहीं यह वो तो नहीं? ओफ…वही तो है. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं.

मोहिनी ने भी उसे देखा.

‘बेस्ट आफ लक,’ सत्या ने कहा.

उस की आंखें चमक उठीं. गाल सुर्ख गुलाबी हो उठे.

‘थैंक यू,’ मोहिनी के होंठों से ये दो शब्द फूल बन कर गिरे थे.

यद्यपि वहां की नौैकरी को वह खुद न पा सका पर मोहिनी पा गई. माइक्रोओवन बेचने वाली कंपनी… प्रदर्शनी में जा कर लोगों को ओवन की खूबियों से परिचित करवा कर उन्हें ओवन खरीदने के लिए प्रेरित करने का काम था.

सत्या ने नौकरी मिलने की खुशी में मोहिनी को आइसक्रीम पार्टी दे डाली. मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. छुट्टी के दिन व काम पूरा करने के बाद मोहिनी की शाम सत्या के साथ गुजरती. सत्या का हंसमुख चेहरा, मजाकिया बातें, दिल खोल कर हंसने का अंदाज मोहिनी को भा गया था. वह उस से सट कर चलती, उस की बातों में रस लेती. एक बार सिनेमाहाल में परदे पर रोमांस दृश्य देख विचलित हो कर अंधेरे में सत्या ने झट मोहिनी का चेहरा अपने हाथों में ले कर उस के होंठों पर अपने जलतेतड़पते होंठ रख दिए थे.

यह प्यार नहीं तो और क्या है? हां, यही प्यार है. सत्या के दिल ने कहा तो फिर ‘आई लव यू’ कहने में क्या हर्ज है?

पिछली बार मोहिनी के जन्म-दिन पर सत्या चाहता था कि वह अपने प्यार का इजहार करे. जन्मदिन पर मोहिनी ने उस से सूट मांगा. 500 रुपए का एक सूट उस ने दस दुकानों पर देखने के बाद पसंद किया था पर खरीदने के लिए उस के पास रुपए नहीं थे क्योंकि प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के बाद भी वह बेरोजगार था.

घर के बड़े ट्रंक में एक पान डब्बी पड़ी थी. पिताजी की चांदी की… पुरानी…भीतर रह कर काली पड़ गई थी. मां को भनक तक लगे बिना सत्या ने चालाकी से उसे बेच दिया और मोहिनी के लिए सूट खरीदा.

आसमानी रंग के शिफान कपड़े पर कढ़ाई की गई थी. सुंदर बेलबूटे के साथ आगे की तरफ पंख फैलाया मोर. सत्या को भरोसा था कि इस उपहार को देख कर मोर की तरह मोहिनी का मन मयूर भी नाच उठेगा. उस से लिपट कर वह थैंक्यू कहेगी और ‘आई लव यू’ कह देगी. इन शब्दों को सुनने के लिए उस के कान कितने बेकरार थे पर उस के उपहार को देख कर मोहिनी के चेहरे पर कड़वाहट व झुंझलाहट के भाव उभरे थे.

‘यह क्या सत्या? इतना घटिया कपड़ा. और देखो तो…कितना पतला है, नाखून लगते ही फट जाएगा. यह देखो,’ कहते हुए उस ने अपने नाखून उस में गड़ाए और जोर दे कर खींचा तो कपड़ा फट गया. सत्या को लगा था यह कपड़ा नहीं, उस के पिताजी की पान डब्बी व मां के सेंटिमेंट दोनों तारतार हो गए हैं.

‘कितने का है?’ मोहिनी ने पूछा.

‘तुम्हें इस से क्या?’

‘रुपए कहां से मिले?’

‘बैंक से निकाले,’ सत्या ने सफाई से झूठ बोल दिया.

और इस बार छाता…उस ने मोलभाव किया. अपनेआप खुलने व बंद होने वाला छाता 2 सौ रुपए का था. दोस्तों से रुपए मिले नहीं. घर में जो कुछ ढंग की चीज नजर आई मां की आंखें बचा कर उसे बेच कर सिनेमा, ड्रामा, होटल के खर्चे में वह पहले से पैसे फूंक चुका था.

काश, एक नौकरी मिल गई होती. इस समय वह कितना खुश होता. मोहिनी के मांगने के पहले उस की आवश्यकताओं की वस्तुओं का अंबार लगा देता. चमचमाते जूते पर धूल न जमे, कपड़ों की क्रीज न बिगड़े, एक अदद सी नौकरी, बस, उसे और क्या चाहिए. पर वह तो मिल नहीं रही थी.

नौकरी तो दूर की बात, अब उस की प्रेमिका, उस की जिंदगी मोहिनी एक छाता मांग रही है. क्या करे? अचानक उसे रवींद्र का ध्यान आया जो बचपन में उस का सहपाठी था. बड़ा होने पर वह अपने पिता के साथ उन के प्रेस में काम करने लगा. बाद में पिता के सहयोग से उस ने प्रिंटिंग इंक बनाने की फैक्टरी लगा ली थी. बस, दिनरात उसी फैक्टरी में कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता था.

एक दोस्त से पैसा मांगना सत्या को बुरा तो लग रहा था पर क्या करे दिल के हाथों मजबूर जो था.

‘‘उधार पैसे मांग रहे हो पर कैसे चुकाओगे? एक काम करो. ग्राइंडिंग मशीन के लिए आजकल मेरे पास कारीगर नहीं है. 10 दिन काम कर लो, 200 रुपए मिलेंगे. साथ ही कुछ सीख भी लोगे.’’

इंक बनाने के कारखाने में ग्राइंडिंग मशीन पर काम करने की बात सोच कर ही सत्या को घिन आने लगी थी. पर क्या करे? 200 रुपए तो चाहिए. किसी भी हाल में…और कोई चारा भी तो नहीं.

10 दिन के लिए वह जीजान से जुट गया. मशीनों की गड़गड़ाहट… पसीने से तरबतर…मैलेकुचैले कपड़े… थका देने वाली मेहनत, उस ने सबकुछ बरदाश्त किया. 10वें दिन उस ने छाता खरीदा. मोलभाव कर के उस ने 150 रुपए में ही उसे खरीद लिया. 50 रुपए बचे हैं, मोहिनी को ट्रीट भी दूंगा, उस की मनपसंद आइसक्रीम…उस ने सोचा.

तालाब के किनारे बना रेस्तरां. खुले में बैठे थे मोहिनी और सत्या. वह अपलक अपने प्यार को देख रहा था. हवा के झोंके मोहिनी की लटों को उलझा देते और वह उंगलियों से उन्हें संवार लेती. मोहिनी के चेहरे की खुशी, उस की सुंदरता का जादू, वातावरण की मादकता को बढ़ाए जा रही थी. सत्या का मन उसे भींच कर अपनी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त कर लेने का था, किंतु बरबस उस ने अपनी कामनाओं को काबू में कर रखा था.

कटलेट…फिर मोहिनी की मनपसंद आइसक्रीम…सत्या ने बैग से छाता निकाला. वह मोहिनी की आंखों में चमक व चेहरे पर खुशी देखने के लिए लालायित था.

‘‘सत्या, यह क्या है?’’ मोहिनी ने पूछा.

‘‘तुम ने एक छाता मांगा था न…यह कंचन काया धूप में सांवली न पड़ जाए, बारिश में न भीगे, इसीलिए लाया हूं.’’ मोहिनी ने बटन दबाया. छाता खुला तो उस का चेहरा ढक गया. छाते के बारीक कपड़े से रोशनी छन कर भीतर आई.

‘‘छी…तुम्हें तो कुछ खरीदने की तमीज ही नहीं सत्या. देखो तो कितनी घटिया क्वालिटी का छाता है. इसे ले कर मैं कहीं जाऊं तो चार लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? छाते को झल्लाहट के साथ बंद कर के पूरे वेग से उस ने तालाब की ओर उसे फेंका. छाता नाव से टकरा कर पानी में डूब गया.’’

सत्या उसे भौंचक हो कर देखता रहा. क्षण भर…वह खड़ा हुआ, कुरसी ढकेल कर दौड़ पड़ा. सीढि़यां उतर कर नाव के समीप गया. नाव को हटा कर उस ने पानी में हाथ डाल कर टटोला. छाता पूरी तरह डूब गया था. हाथपैर से टटोल कर थोड़ी देर की मशक्कत के बाद वह उसे ले आया. उस के चेहरे पर क्रोध व निराशा पसरी हुई थी.

‘‘मोहिनी, इस छाते को खरीदने के लिए 10 दिन…पूरे 10 दिन मैं ने खूनपसीना एक किया है, हाथपैर गंदे किए हैं, इंक फैक्टरी में काम सीखा है. सोच रहा था कुछ दिनों में रुपए का जुगाड़ कर के क्यों न एक छोटी सी इंक फैक्टरी मैं भी खोल लूं. कितने अरमानों से इसे खरीद कर लाया था. तुम ने मेरी मेहनत को, मेरे अरमानों को बेकार समझ कर फेंक दिया. आई एम सौरी…वेरीवेरी सौरी मोहिनी…जिसे पैसों का महत्त्व नहीं मालूम ऐसी मूर्ख लड़की को मैं ने चाहा. लानत है मुझ पर…गुड बाय…’’

‘‘एक मिनट सत्या,’’ मोहिनी ने कहा.

‘‘क्या है?’’ सत्या ने मुड़ कर पूछा तो उस की आवाज में कड़वाहट थी.

‘‘तुम ने सूट खरीद कर दिया था, उसे भी मैं ने फाड़ दिया था, तब तो तुम ने कुछ कहा नहीं. क्यों?’’

‘‘बात यह है कि…’’

‘‘…कि वह तुम्हारी मेहनत के पैसों से खरीदा हुआ नहीं था. मैं तुम्हारी मां से मिली थी. तुम मेहनत से डरते हो, यह मैं ने उन की बातों से जाना. 500 रुपए के सूट को मैं ने फाड़ा तब तो तुम ने कुछ नहीं कहा और अब इस छाते के लिए कीचड़ में भी उतर गए, जानते हो क्यों? क्योंकि यह तुम्हारी मेहनत की कमाई का है.’’

‘‘मैं इसी सत्या को देखना चाहती थी कि जो मेहनत से जी न चुराए, किसी भी काम को घटिया न समझे, मेहनत कर के कमाए और मेहनत की खाए?’’

मोहिनी उस के समीप गई. उस के हाथों से उस छाते को लिया और बोली, ‘‘सत्या, यह मेरे जीवन का एक कीमती तोहफा है. इस के सामने बाकी सब फीके हैं. अब तुम मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘उस के समीप जा कर मोहिनी ने उसे गले लगाया.’’

‘‘उफ्, मेरे हाथपैर कीचड़ से सने हैं, मोहिनी.’’

‘‘कोई बात नहीं. एक चुंबन दोगे?’’

‘‘क्या?’’

‘‘आई लव यू सत्या.’’

सत्या के दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट का एहसास उसी तरह से हो रहा था जैसे उस ने पहली बार मोहिनी को देखने पर अपने दिल में महसूस किया था.

प्यार के फूल : धर्म की दीवार के बीच

हलकीहलकी बारिश होने लगी थी और उस के साथ अंधेरा भी. मम्मी ने कहा, ‘अब हमें घर चलना चाहिए’. मैं ने ‘हां’ कहते हुए एक कैब को रुकने का इशारा किया और न्यू टाउन चलने को कहा. टैक्सी ड्राइवर 23-24 वर्ष का हिंदीभाषी लड़का था. मम्मी ने पूछ लिया, ‘आप भी भारतीय हैं?’ वह कहने लगा, ‘नहीं, मैं पाकिस्तानी मुसलिम हूं?’ और बस, अभी कुछ दूरी तक पहुंचे थे कि देखा आगे पुलिस ने ट्रैफिक डाइवर्ट किया हुआ था, पूछने पर मालूम हुआ शहर में दंगा हो गया है. सो, पूरे शहर में कर्फ्यू लगा है. सभी को अपनेअपने घरों में पहुंचने के लिए कहा जा रहा था. यह बात सुन कर मेरे और मम्मी के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आई थीं. मम्मी ने टैक्सी ड्राइवर से पूछा, ‘कोई और रास्ता नहीं है क्या न्यू टाउन पहुंचने का?’ उस ने कहा, ‘नहीं, पर आप चिंता मत कीजिए. मैं आप को अपने घर ले चलता हूं. यहीं पास में ही है मेरा घर. जैसे ही कर्फ्यू खुलेगा, मैं आप को न्यू टाउन पहुंचादूंगा.’

मम्मी और मैं दोनों एकदूसरे के चेहरे को देख रहे थे और टैक्सी ड्राइवर ने हमारे चेहरों को पढ़ते हुए कहा, ‘चिंता न कीजिए, आप वहां बिलकुल सुरक्षित रहेंगी, मेरे अब्बाअम्मी भी हैं वहां.’ खैर, परदेस में हमारे पास और कोई चारा भी न था. 5 मिनट में ही हम उस के घर पहुंच गए. वहां उस ने हमें अपने अब्बाअम्मी से मिलवाया और उन्हें हमारी परेशानी के बारे में बताया. उस की अम्मी ने हमें चाय देते हुए कहा, ‘इसे अपना ही घर समझिए, कोई जरूरत हो तो जरूर बताइए. और आप किसी तरह की फिक्र न कीजिए. यहां आप बिलकुल सुरक्षित हैं.’ मैं ने सोचा मैं पापा को फोन कर बता दूं कि हम कहां हैं लेकिन फोनलाइन भी ठप हो चुकी थी. सो, बता न सकी. बातबात में मालूम हुआ वह ड्राइवर वहां अपनी मास्टर्स डिगरी कर रहा है. उस के अब्बा टैक्सी ड्राइवर हैं और आज किसी निजी कारण से वह टैक्सी ले कर गया था और यह हादसा हो गया. खैर, 2 दिन उस की अम्मी ने हमारी बहुत खातिरदारी की. खास बात यह कि मुसलिम होते हुए भी उन्होंने 2 दिनों में कुछ भी मांसाहारी खाना नहीं बनाया क्योंकि हम शाकाहारी थे. जब उन्हें मालूम हुआ कि मुझे सनबर्न हुआ है तो वे मुझे दिन में 4 बार ठंडा दूध देतीं और कहतीं, ‘कंधों पर लगा लो, थोड़ी राहत मिलेगी.’ मैं उस परिवार से बहुत प्रभावित हुई और स्वयं उस से भी जो मास्टर्स करते हुए भी टैक्सी चलाने में कोई झिझक नहीं करता. जैसे ही फोनलाइन खुली, मैं ने पापा को फोन कर कहा, ‘पापा हम सुरक्षित हैं.’ और कर्फ्यू हटते ही वह टैक्सी ड्राइवर हमें न्यू टाउन छोड़ने आया.

पापा ने उस से कहा, ‘बेटा, परदेस में तुम ने जो मदद की है उस का मैं शुक्रगुजार हूं. तुम्हारे कारण ही आज मेरा परिवार सुरक्षित है. न जाने कभी मैं तुम्हारा यह कर्ज उतार पाऊंगा भी या नहीं.’ वह बोला, ‘मैं इमरान हूं और यह तो इंसानियत का तकाजा है, इस में कर्ज की क्या बात?’ और इतना कह वह टैक्सी की तरफ बढ़ गया. मैं पीछे से उसे देखती रह गई और अनायास ही मेरा मन बस इमरान और उस की बातों में ही खोया रहा. मुझ से रहा न गया और मैं ने उसे फेसबुक पर ढूंढ़ कर फ्रैंड बना लिया. अब हम कभीकभी चैट करते. उस से बातें कर मुझे बड़ा सुकून मिलता. शायद, मेरे मन में उस के लिए प्यार के फूल खिलने लगे थे. खैर, 3 वर्ष इसी तरह बीत गए. मैं इमरान से चैट के दौरान अपनी हर अच्छी और बुरी बात साझा करती. मैं समझ गई थी कि वह एक नेक और खुले विचारों का लड़का है. वक्त का तकाजा देखिए, 3 साल बाद मैं मास्टर्स करने सिडनी गई और एअरपोर्ट पर मुझे लेने इमरान आ गया. उसे देख मैं उस के गले लग गई. मुझ से रहा न गया और मैं ने कह दिया, ‘आई लव यू, इमरान’ वह कहने लगा, ‘आई नो डार्लिंग, ऐंड आई लव यू टू.’ इमरान ने मुझे बांहों में कसा हुआ था और वह कसाव धीरेधीरे बढ़ता जा रहा था.

मैं तो सदा के लिए उसी घेरे में कैद हो जाना चाहती थी. सो, मैं ने पापा को फोन कर कहा, ‘पापा, मैं सुरक्षित पहुंच गई हूं और इमरान लेने आया है मुझे और एक खास बात यह कि आप मेरे लिए शादी के लिए लड़का मत ढूंढि़ए. मेरा रिश्ता तय हो गया है इमरान के साथ.’ मेरी पसंद भी पापा की पसंद थी, इसलिए उन्होंने भी कहा, ‘हां, मैं इमरान के मातापिता से बात करता हूं.’ और बस कुछ महीनों में हमारी सगाई कर दी गई और फिर शादी. एक बार तो रिश्तेदारों को बहुत बुरा लगा कि मैं एक हिंदू और मुसलिम से विवाह? लेकिन पापा ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया था कि वे अपनी बेटी का भलाबुरा खूब समझते हैं. आज मुझे इमरान से विवाह किए पूरे 5 वर्ष बीत गए हैं, मैं हिंदू और वह मुसलिम लेकिन आज तक धर्म की दीवार की एक भी ईंट हम दोनों के बीच नहीं आई. हम दोनों तो जियो और जीने दो की डोर से बंधे अपना जीवन जी रहे हैं. सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते हैं, रिश्तेदारों के साथ. दोनों परिवार एकदूसरे की भावनाओं का खयाल रखते हुए एक हो गए हैं. मुझे कभी एहसास ही नहीं हुआ कि मैं एक मुसलिम परिवार में रह रही हूं. अपनी बेटी को भी हम ने धर्म के नाम पर नहीं बांटा.

मैं ने तो अपना प्यार पा लिया था. हमारे भारत के जब से 2 हिस्से क्या हुए, धर्म के नाम पर लोग मारनेकाटने को तैयार हैं. आएदिन दंगे होते हैं. कितने प्रेमी इस धर्म की बलि चढ़ा दिए जाते हैं. लोगों को अपने बच्चों से ज्यादा शायद धर्म ही प्यारा है या शायद एक खौफ भरा है मन में कि गैरधर्म से रिश्ता रखा तो अपने धर्म के लोग उन से किनारा कर लेंगे. धर्म के नाम पर दंगों में लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार होते हैं, उन्हें घरों से उठा लिया जाता है. मैं सोच रही थी, कैसा धर्मयुद्ध है ये, जो इंसान को इंसान से नफरत करना सिखाता है या फिर धर्म के ठेकेदार इस युद्ध का अंत होने ही नहीं देना चाहते और धर्म की आड़ में नफरत के बीज बोए जाते हैं, जिन में सिर्फ नश्तर ही उगते हैं. न जाने कब रुकेगी यह धर्म की खेती और बोए जाएंगे भाईचारे के बीज और फिर खिलेंगे प्यार का फूल.

मारिया: भारतीय परंपराओं में जकड़ा राहुल क्या कशमकश से निकल पाया

दिल्ली का इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा. जहाज से बाहर निकल कर इस धरती पर पांव रखते ही सारे बदन में एक सिहरन सी दौड़ गई. लगा यहां कुछ तो ऐसा है जो अपना है और बरबस अपनी तरफ खींच रहा है. यहां की माटी की सौंधीसौंधी खुशबू के लिए तो पूरे 2 साल तक तरसता रहा है.

ट्राली पर सामान लादे एअरपोर्ट से बाहर निकला. दर्शक दीर्घा में मेरी नजर चारों तरफ घूमने लगी. लंबी कतारों में खड़ी भीड़ में मैं अपनों को तलाश रहा था. मेरे पांव ट्राली के साथसाथ धीरेधीरे आगे बढ़ रहे थे कि पास से ही चाचू की आवाज आई.

मेरी नजर आवाज की ओर घूम गई.

‘‘अरे, नेहा तू?’’ मैं ने हैरानी से उस की ओर देखा.

‘‘हां, चाचू, इधर से आ जाइए. सभी लोग आए हुए हैं,’’ नेहा बोली.

‘‘सब लोग?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी. अपनों से मिलने के लिए मन एकदम बेचैन हो उठा. सामने दीदी, मांबाबूजी को देखा तो मन एकदम भावुक हो गया. मेरी आंखें छलछला आईं. मां ने कस कर मुझे अपने सीने में भींच लिया. भाभी के हाथ में आरती की थाली थी.

‘‘मारिया कहां है,’’ भाभी ने इधरउधर झांकते हुए पूछा.

‘‘भाभी, अचानक उस की तबीयत खराब हो गई इसलिए वह नहीं आ सकी. वैसे आखिरी समय तक वह एकदम आने को तैयार थी.’’

मेरा इतना कहना था कि भाभी का चेहरा उतर गया जिसे मैं ने बड़े करीब से महसूस किया.

‘‘हम लोग तो यह सोच कर यहां आए थे कि बहू को सबकुछ अटपटा न लगे. पर चलो…’’ कहतेकहते मां चुप हो गईं.

‘‘चलो, मारिया न सही तुम ही तिलक करा लो,’’ भाभी ने कहा तो मैं झेंप गया.

‘‘नहीं भाभी, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता. सब लोग क्या सोचेंगे.’’

‘‘यही सोचेंगे न कि कितने प्यार से भाभी देवर का स्वागत कर रही है. आखिर हमारा भरापूरा परिवार है. भारतीय परंपराएं हैं…’’ बाबूजी बोले.

सच, ऐसे घर को तो मैं तरस गया था. सभी घर आ गए.

‘‘मारिया नहीं आई कोई बात नहीं, तू तो आ गया न,’’ मां ने कहा.

‘‘राहुल क्यों नहीं आता? आखिर अपना खून है, फिर बहन की शादी है. तब तक तो मारिया भी आ जाएगी क्यों बाबू…’’ भाभी ने चुहल की.

‘‘हां भाभी,’’ मैं ने यों ही टालने के लिए कह दिया. बातों का सिलसिला मारिया से आगे बढ़ ही नहीं रहा था फिर उठ कर अनमने मन से सोफे पर लेट गया और सोने का प्रयास करने लगा. तब तक भाभी चाय बना कर ले आईं.

मुझे ऐसे लेटा देख कर बोलीं, ‘‘भैया, आप बहुत थक गए होंगे. भीतर कमरे में चल कर लेट जाइए. बातें तो सुबह भी हो जाएंगी.’’

मेरी आंखों में नींद कहां. परिवारजनों का इतना स्नेह उस विदेशी लड़की के लिए जिस को मैं ने चुना था. मांबाबूजी कितने दिन मुझ से नाराज रहे थे. महीनों तक फोन भी नहीं किया था. आखिर मां ने ही चुप्पी तोड़ी और बेमन से ही सही सबकुछ स्वीकार कर लिया था. स्नेह को बटोरने के लिए वह नहीं थी जिस के लिए यह सबकुछ हुआ था. मुझे रहरह कर बीते दिन याद आने लगे.

मेरी कंपनी ने मुझे अनुभव और योग्यता के आधार पर यूनान भेजने का निर्णय लिया था. मैं भरसक प्रयास करता रहा कि मुझे वहां न जाना पड़े क्योंकि एक तो मुझे विदेशी भाषा नहीं आती थी दूसरे वहां भारतीय मूल के लोगों की संख्या नहीं के बराबर थी. अत: शाकाहारी भोजन मिलने की कोई संभावना न थी. मेरे स्थान पर कोई  और व्यक्ति न मिल पाने के कारण वहां जाना मेरी मजबूरी बन गई थी.

मुझे एथेंस आए 15 दिन हो चुके थे. खाने के नाम पर उबले हुए चावल, ग्रीक सलाद, फ्राई किए टमाटर और गोल सख्त डबलरोटी थी जिन को 15 दिनों से लगातार खा कर मैं पूरी तरह से ऊब चुका था.

भारतीय रेस्तरां मेरे आफिस से 20 किलोमीटर दूर एअरपोर्ट के पास था जहां हर रोज खाने के लिए जाना आसान नहीं था. मेरे आफिस वाले भी इस मामले में मेरी कोई ज्यादा मदद नहीं कर पाए क्योंकि मैं उन्हें ठीक से यह समझा नहीं पाया कि मैं शाकाहारी क्यों हूं.

एथेंस यूरोप का प्रसिद्घ टूरिस्ट स्थान होने के कारण लोग यहां अकसर छुट्टियां मनाने आते हैं. यही वजह है कि यहां के हर चौराहे पर, सड़क के किनारे रेस्तरां तथा फास्टफूड का काफी प्रचलन है. घंटों बैठ कर ठंडी ग्रीक कौफी पीना तथा भीड़ को आतेजाते देखना भी यहां का एक फैशन और लोगों का शौक है.

उस दिन मैं यहां के मशहूर फास्टफूड चेन ‘एवरेस्ट’ के बाहर बिछी कुरसियों पर बैठा वेटर के आने का इंतजार कर ही रहा था कि लालसफेद ड्रेस में लिपटी एक महिला वेटर ने आ कर मुझे मीनू कार्ड पकड़ाना चाहा.

मैं ने उसे देखते ही कहा, ‘मुझे यह कार्र्ड नहीं, बस, एक वेज पिज्जा और कोक चाहिए.’

‘आप कुछ नया खाना नहीं खाना चाहेंगे. कल भी आप ने खाने के लिए यही मंगाया था. यहां का चिकन सूप, क्लब सैंडविच…’

उस महिला वेटर की बात को काटते हुए मैं ने कहा, ‘माफ कीजिए, मैं सिर्फ शाकाहारी हूं.’

‘तो शाकाहारी में वेजचीज सैंडविच, नूडल्स, मैश पोटेटो, फ्रेंच फाइज क्यों नहीं खाने की कोशिश करते?’ वह मुसकरा कर बोलती रही और मैं उस का मुंह देखता रहा कि कब वह चुप हो और मैं ‘नो थैंक्स’ कह कर उस को धन्यवाद दूं्.

मेरे चेहरे को देख कर शायद उस ने मेरे दिल की बात जान ली थी. इसलिए और भीतर आर्डर दे कर मेरे पास आ कर खड़ी हो गई.

‘आप कहां से आए हैं?’

‘इंडिया से,’ मैं ने छोटा सा उत्तर दिया.

‘पर्यटक हैं? ग्रीस घूमने अकेले

ही आए हैं.’

‘नहीं, मैं यहां वास निकोलस में काम करता हूं और कुछ दिन पहले ही यहां आया हूं…और आप?’

‘मैं पढ़ती हूं. यहां पार्र्ट टाइम वेटर  का काम करती हूं, शाम को 4 से 10 तक.’

तब तक भीतर के बोर्ड पर मेरे आर्डर का नंबर उभरा और वह बातों का सिलसिला बीच में ही छोड़ कर चली गई. मैं ने महसूस किया कि यूरोप के बाकी देशों से यूनान के लोग ज्यादा सुंदर, हंसमुख और मिलनसार होते हैं. खाने के साथ यहां भी भारत की तरह पीने को पानी मिल जाता है जिस की कोई कीमत नहीं ली जाती.

उस ने बड़ी तरतीब से मेरी मेज पर कांटे, छुरियों और पेपर नेपकिन के साथ पिज्जा सजा दिया, जिसे देखते ही मेरा मन फिर से कसैला सा हो गया. न जाने क्यों मैं यहां की चीज की गंध को बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.

‘क्या हुआ, ठीक नहीं है क्या?’ मेरे चेहरे के भावों को पढ़ते हुए वह बोली.

‘नहीं यह बात नहीं है. 5 दिन से लगातार जंक फूड खातेखाते मैं बोर हो गया हूं. यहां आसपास कोई भारतीय रेस्तरां नहीं है क्या?’

‘नहीं, पर एक और शाकाहारी भोजनालय है, हरे रामा हरे कृष्णा वालों का, एकदम शुद्घ शाकाहारी. अंडा और चाय भी नहीं मिलती वहां.’

‘वह कहां है?’ मैं ने बड़ी उत्कंठा से पूछा.

‘मुझे उस का पता तो नहीं पर जगह मालूम है. आज मेरी ड्यूटी के बाद तक रुको तो मैं तुम को ले चलूंगी या फिर कल 4 बजे से पहले आना.’

‘मैं कल आऊंगा. क्या नाम है तुम्हारा?’ मैं ने पूछा.

‘मारिया.’

‘और मेरा राहुल.’

इस तरह हमारे मिलने का सिलसिला शुरू हुआ. अब हर शनिवार को हम साथ घूमते और खाते. वह सालोनीकी की रहने वाली थी जो एथेंस से 500 किलोमीटर दूर था. उस के पिता का वहां सिलेसिलाए वस्त्रों का स्टोर था. वह वहां पर अपनी एक सहेली के साथ किराए पर कमरा ले कर रहती थी जिस का खर्च दोनों ही मिलजुल कर वहन करती थीं.

एक दिन बातोंबातों में मारिया ने बताया कि उस के पिता भी मूलत: भारतीय हैं जो बरसों पहले यहां आ कर बस गए थे. परिवार में मातापिता के अलावा एक भाई क्रिस्टोस भी है जो उन के पास ही रहता है. अपने पिता से उस ने भारत के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. उस की मां उस के पिता की भरपूर प्रशंसा करती हैं और कहा करती हैं कि भारतीय व्यक्ति से विवाह कर के मैं ने कोई भूल नहीं की. परिवार के प्रति संजीदा, व्यवहारकुशल, बेहद केयरिंग पति कम से कम यूनानी लोगों में तो कम ही होते हैं.

इस बार एकसाथ 4 छुट्टियां मिलीं तो मारिया बेहद खुश हुई और कहने लगी, ‘चलो, तुम को सैंतारीनी द्वीप ले चलती हूं. यहां के सब से खूबसूरत द्वीपों में से एक

है. वहां का सनसेट और

सन राईज देखने दुनिया भर से लोग आते हैं.’

मेरे तो मन में लाखों घंटियां एकसाथ बजने लगीं कि अब कई दिन एकसाथ रहने और घूमनेफिरने को मिलेगा. चूंकि साथ रहतेरहते वह अब मेरे बारे में बहुत कुछ जान चुकी थी इसलिए रेस्तरां में खुद ही आर्र्डर कर के सामान बनवाती और मुझे उस व्यंजन के बारे में विस्तार से समझाती. मेरी तो जैसे दुनिया ही बदल गई थी. हर चीज इतनी आसान हो गई थी कि मुझे अब एथेंस में रहना अच्छा लगने लगा था.

मारिया के साथ गुजारी गई उन छुट्टियों को मैं कभी नहीं भूल सकता. मैं ने यह भी महसूस किया कि उस को भी मेरा साथ अच्छा लगने लगा था. होटल में हम ने अलगअलग कमरे लिए थे पर उस शाम मारिया मेरे कमरे में आ कर मुझ से बुरी तरह लिपट गई और चुंबनों की बौछार कर दी. मैं भी उसे चाहने लगा था इसलिए सारा संकोच त्याग कर उसे कस कर पकड़ लिया और वह सबकुछ हो गया जो नहीं होना चाहिए था. हम एकदूसरे के और करीब आ गए.

दिन बीतते गए. एक दिन मारिया ने बताया कि उस की रूमपार्टनर वापस अपने शहर जा रही है. मारिया अकेली उस फ्लैट का किराया नहीं दे सकती थी और मुझे भी एक रूम की तलाश थी सो मैं होटल से सामान ले कर उस के साथ रहने लगा.

एक दिन मारिया ने कहा कि वह मुझ से शादी करना चाहती है. नैतिक तौर पर यह मेरी जिम्मेदारी थी क्योंकि मैं भी उसे अब उतना ही चाहने लगा था जितना कि वह. पर तुरंत मैं कोई फैसला नहीं कर सका.

मैं ने कहा, ‘मारिया, मैं तुम्हें चाहता हूं फिर भी एक बार अपने घर वालों से इजाजत ले लूं तो…’

‘इजाजत,’ वह थोड़ा माथे पर त्योरियां चढ़ाते हुए बोली, ‘तुम सब काम उन की इजाजत ले कर करते हो. मेरे साथ घूमने और रहने के लिए भी इजाजत ली थी क्या? खाना खाने, रहने, सोने के लिए भी उन की इजाजत लेते हो क्या?’

‘ऐसी बात नहीं है मारिया, मैं भारतीय हूं. इजाजत न भी सही पर उन को बताना और आशीर्वाद लेना मेरा कर्तव्य है.’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, ‘यह हमारी परंपराएं हैं.’

‘ये परंपराएं तुम्ही निभाओ,’ मारिया बोली, ‘मेरी बात का सीधा उत्तर दो क्योंकि मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनना चाहती हूं.’

एकदम सीधासीधा वाक्य उस ने मेरे ऊपर थोप दिया. मुझे उस से इस तरह के उत्तर की अपेक्षा नहीं थी.

‘मैं ने मम्मीपापा को यह सब बताया तो वे नाराज हो गए और मैं कितने ही दिन तक उन के रूठनेमनाने में लगा रहा. फिर जब मैं ने बताया कि लड़की के पिता भारतीय मूल के हैं तो उन्होंने बड़े अनमने मन से इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया.

कुछ ही दिनों बाद पता चला कि मेरी छोटी बहन की शादी तय हो गई है. मेरा मन भारत जाने के लिए एकदम विचलित हो गया. इसी बहाने मुझे छुट्टी भी मिल गई और भारत जाने को टिकट भी.

मैं ने यह सब मारिया को बताया तो वह भी साथ चलने की तैयारी करने लगी लेकिन जाने से ठीक एक दिन पहले मारिया को न जाने क्या सूझा कि उस ने मेरे साथ जाने से मना कर दिया. मैं ने नाराज हो कर मारिया को कहा कि ऐसे कैसे तुम मना कर रही हो.

‘राहुल मैं अब भारत नहीं जाना चाहती, बस…’

‘परंतु मारिया, मैं ने वहां सब को बता दिया है कि तुम मेरे साथ आ रही हो. सब लोग तुम से मिलने की राह देख रहे हैं. सच तुम भी वहां चल कर बहुत खुश होगी.’

‘मुझे नहीं जाना तो जबरदस्ती क्यों कर रहे हो,’ वह उत्तेजित हो कर बोली.

मैं मायूस हो कर रह गया. मैं यह बात अच्छी तरह जानता था कि मारिया अब मेरे साथ नहीं जाएगी क्योंकि जिस बात को वह एक बार मन में बैठा ले उस पर फिर से विचार करना उस ने सीखा नहीं था.

सुबह काम करने वालों के शोर के साथ ही मेरी निद्रा टूटी. बहन की शादी की घर पर चहलपहल तो थी ही.

बहन को विदा करने के साथसाथ मैं भी पूरा थक चुका था. जब से यहां आया ठीक से मांबाबूजी के पास बैठ भी नहीं सका. मां का पुराना कमर दर्द फिर से उभर कर सामने आ गया और मां बिस्तर पर पड़ गईं.

जैसेजैसे मेरे जाने के दिन करीब आते गए मांबाबूजी की उदासी बढ़ती गई. मेरा भी मन भारी हो आया और मैं ने छुट्टी बढ़वा ली. सभी लोग मेरे इस कुछ दिन और रहने से बहुत खुश हो गए परंतु मारिया नाराज हो गई.

‘‘राहुल तुम वापस आ जाओ. मेरा मन अकेले नहीं लग रहा है.’’

‘‘मारिया, अभी तो सब से मैं ठीक से मिला भी नहीं हूं. शादी की भागदौड़ में इतना व्यस्त रहा कि…फिर अचानक मां की तबीयत खराब हो गई. मैं ने छुट्टी 15 दिन के लिए बढ़वा ली है फिर न जाने कब यहां आना हो सके…’’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया.

कुछ दिनों बाद मारिया का फिर फोन आया. वह थोड़ा गुस्से में थी.

‘‘अब क्या हुआ?’’ मैं ने थोड़ा खीज कर पूछा.

‘‘पापा ने रविवार को मेरे और तुम्हारे लिए एक पार्टी रखी है और उस में तुम को आना ही पड़ेगा,’’ वह निर्णायक से स्वर में बोली.

‘‘मारिया, तुम समझती क्यों नहीं हो,’’ मैं ने थोड़ा गुस्से से कहा, ‘‘यह सब हठ छोड़ दो. मैं जल्दी ही वहां पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘नहीं राहुल, जब पापा को पता चलेगा कि तुम नहीं आ रहे हो तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. मैं ने ही जिद की थी कि आप पार्टी रख लो, राहुल तब तक आ जाएगा. उन के मन में तुम्हारे प्रति कितनी इज्जत है…’’

‘‘यही बात जब मैं ने तुम से कही थी कि मेरे घर वाले…’’

‘‘वह बात और थी डार्ल्ंिग…’’ मारिया बात को टालने की कोशिश करती रही.’’

‘‘नहीं, वह भी यही बात थी. सिर्फ सोच का फर्क है. हमारी परंपराएं इसीलिए तुम से अलग हैं. संयुक्त परिवारों की परंपराएं और एकदूसरे की भावनाओं का आदर करना ही हमारी सब से बड़ी धरोहर है.’’

‘‘देखो राहुल, तुम जानते हो कि यह सब मुझे बरदाश्त नहीं है. एक बार फिर सोच लो कि रविवार तक यहां आ रहे हो या नहीं.’’

‘‘मैं नहीं आ रहा हूं,’’ मैं ने स्पष्ट कहा.

‘‘फिर इस ढंग से तो यह रिश्ता नहीं निभ सकता. मुझे अब तुम्हारी जरूरत नहीं है,’’ मारिया तेज स्वर में बोली.

‘‘मैं भी यही सोच रहा हूं मारिया कि जो लड़की परिवार में घुलमिल नहीं सकती, मुझे भी उस की जरूरत नहीं है. मैं उन में से नहीं हूं कि विदेशी नागरिकता लेने के लिए अपनी आजादी खो दूं. अच्छा है मेरी तुम से शादी नहीं हुई.’’

मुझे आज लग रहा है कि उस से अलग हो कर मैं ने कोई गलती नहीं की है. मांबाबूजी की आंखों में मैं ने अजीब सी चमक देखी है. अपनी कंपनी से मैं ने अपने देश में ही ट्रांसफर करा लिया है.

हैवान: आखिर लोग प्रतीक को क्यों हैवान समझते थे?

‘‘माली, यह तुम ने क्या किया? छाया में कहीं आलू होता है? इस से तो हलदी बो दी जाती तो कुछ हो भी जाती.’’

‘‘साहब का यही हुक्म था.’’

‘‘तुम्हारे साहब ठहरे शहरी आदमी. वह यह सब क्या जानें?’’

‘‘हम छोटे लोगों का बड़े लोगों के मुंह लगने से क्या फायदा, साहब? कहीं नौकरी पर ही बन आए तो…’’

‘‘फिर भी सही बात तो बतानी ही चाहिए थी.’’

‘‘आप ने साहब का गुस्सा नहीं देखा. बंगला क्या सारा जिला थर्राता है.’’

मैं ने सुबह बंगले के पीछे काम करते माली को टहलते हुए टोक दिया था. प्रतीक तो नाश्ते के बाद दफ्तर के कमरे में अपने मुलाकातियों से निबट रहा था.

मैं और प्रतीक बचपन के सहपाठी रहे थे. पढ़ाई के बाद वह प्रशासनिक सेवा में चला गया था. उस के गुस्से के आतंक की बात सुन कर मुझे कुछ अजीब सा लगा क्योंकि स्कूलकालिज के दिनों में उस की गणना बहुत शांत स्वभाव के लड़कों में की जाती थी.

कालिज की पढ़ाई के अंतिम वर्ष में ही मुझे असम के एक चायबागान में नौकरी मिल गई थी और उस के बाद से प्रतीक से मेरा संपर्क लगभग टूट सा गया था. 9 साल बाद मैं इस नौकरी से त्यागपत्र दे कर वापस आ गया और अपने गांव में ही खेती के अलावा कृषि से संबंधित व्यवसाय करने लगा.

जब मुझे प्रतीक का पता लगा तो मैं उसे पत्र लिखने से अपने को न रोक सका. उत्तर में उस ने पुरानी घनिष्ठता की भावना से याद करते हुए आग्रह किया कि मैं कुछ दिनों के लिए उस के पास आ कर अवश्य रहूं, लेकिन प्रतीक के पास आ कर तो मैं फंस सा गया हूं. आया था यह सोच कर कि मिल कर 2 दिन में लौट जाऊंगा. लेकिन आजकल करते- करते एक हफ्ते से अधिक हो चुका है. जब भी लौटने की चर्चा चलाता हूं तो प्रतीक कह उठता है, ‘‘अरे, अभी तो पूरी बातें भी नहीं हो पाई हैं तुझ से. तू तो देखता है कि काम के मारे दम मारने की

भी फुरसत नहीं मिलती. फिर तेरी कौन सी नौकरी है जो छुट्टी खत्म होने की तलवार लटक रही हो सिर पर. अभी कुछ ठहर. यहां तुझे क्या तकलीफ है?’’

तकलीफ तो मुझे वास्तव में यहां कोई नहीं है. हर प्रकार का आराम ही है. बड़ा बंगला है. बंगले में दफ्तर के कमरे से सटे एक अलग मेहमान वाले कमरे में मुझे टिकाया गया है. प्रतीक की पत्नी ललिता भी बड़ी शालीन स्वभाव की है. प्रतीक के आग्रह पर वह भी यदाकदा इसी बात पर जोर देती है, ‘‘भाई साहब, इन के साथ तो आप बचपन से रहे हैं लेकिन मैं ने तो आप को अभी देखा है. कुछ मेरा अधिकार भी तो बनता है. इस छोटी जगह में कौन आता है हमारे यहां रहने? जब आप आए हैं तो इतनी जल्दी जाने की बात मत कीजिए. आप की वजह से कुछ ढर्रा बदला है वरना रोज ही वही क्रम चलता रहता है.’’

रोज का एक जैसा क्रम तो मैं एक सप्ताह से बराबर देख रहा हूं. प्रात: 8 बजने से पहले नाश्ता. फिर घर पर आए मुलाकातियों से जूझना, तब कचहरी की दौड़. दोपहर 2 बजे भागादौड़ी में खाना, फिर कोई न कोई बैठक, जो शाम ढले ही निबटती है. फिर किसी समारोह में भाग लेने के लिए निकल जाना या किसी मिलने वाले का आ टपकना. रात को अवश्य आराम से बैठ कर भोजन किया जाता है. दूसरे दिन पुन: यही सिलसिला शुरू हो जाता है.

बंगले का स्तब्ध वातावरण भी किसी फौजी कैंप जैसा लगता है. हर वस्तु अपने स्थान पर व्यवस्थित. ‘जीहजूर’ या ‘जी सरकार’ की उबाऊ गूंज ही निरंतर कान छेदती रहती है. सारे चेहरे या तो कसे हुए हैं या सहमे हुए. यहां तक कि ललिता को भी मैं ने प्रतीक का मूड देख कर ही बात करते पाया. एक दिन मैं ने उस से कहा भी, ‘‘भाभीजी, आप अपनेआप को प्रतीक का अमला क्यों समझने लगी हैं?’’

‘‘क्या करूं, भाई साहब, इन का मूड देख कर ही बात करनी पड़ती है. भय लगा रहता है कि कहीं नौकरचाकरों या बच्चों के सामने ही लोई न उतार बैठें. इन का भी कुसूर नहीं है. हर वक्त ही तो कोई न कोई चिंता या जंजाल सिर पर सवार रहता है.’’

‘‘लेकिन यह तो अच्छी बात नहीं. आप का अपना अलग स्थान है. एकदम निजी और निराला.’’

‘‘आप नहीं समझेंगे, भाई साहब. दिन भर के थकेमांदे जब रात को ये बिस्तर पर गिरते हैं और पलक झपकते ही सो जाते हैं तो सचमुच ही बड़ी करुणा आती है मुझे. उस समय अपनी किसी परेशानी का रोना छेड़ना एक सोते बच्चे को जगाने जैसा अत्याचार लगता है.’’

करुणा तो मुझे मन ही मन इस महिला पर आ रही थी. लेकिन ललिता पुन: बोल पड़ी, ‘‘संसार में मुफ्त कुछ नहीं मिलता, भाई साहब. उच्च पद के लिए भी शायद कीमत चुकानी पड़ती है. कहीं न कहीं त्याग करना होता है.’’

‘‘क्षमा करें, लेकिन यह सब कर के आप प्रतीक की आदतें बिगाड़ रही हैं,’’ मुझे कहना ही पड़ा.

‘‘नहीं भाई साहब, मुझे बजाय संघर्ष के सामंजस्य का मार्ग सिखाया गया है. मेरी समझ में यही उपयुक्त है.’’

इस पूर्णविराम का मैं क्या उत्तर देता?

सुबह के नाश्ते के बाद मैं अपने कमरे में आ कर समाचारपत्र या कोई पुस्तक पढ़ने लगता और प्रतीक की मुलाकातें चालू हो जातीं. दोनों कमरों के बीच केवल एक परदे का अंतर होने के कारण मुझे अधिकांश बातचीत सुनने में कोई बाधा नहीं होती. विविध प्रकार की समस्याएं सुनने को मिलतीं. एक दिन शायद प्रतीक के दफ्तर का नाजिर कुछ रंगों के नमूने ले कर आया और उन्हें प्रतीक को दिखाते हुए बोला, ‘‘मेरी समझ में तो आप के कमरे के लिए हलका नीला रंग ही सब से अच्छा रहेगा.’’

‘‘तुम्हारी भी क्या गंवारू पसंद है. रिटायरिंग रूम में नीला रंग कितना वाहियात लगेगा. हलका पीला ठीक रहेगा.’’

‘‘जी, जो हुक्म. पीला तो और भी जंचेगा,’’ नाजिर हां में हां मिला कर चला गया.

इसी प्रकार एक दिन किसी गांव से आए मुलाकाती ने अपनी समस्या प्रस्तुत की, ‘‘साहब, लड़की का ब्याह है. चीनी मिल जाती तो कुछ मदद हो जाती.’’

‘‘जिला आपूर्ति अधिकारी के पास क्यों नहीं गए?’’

‘‘गया था, हुजूर. वह बोले कि 40 किलो से ज्यादा का परमिट वह नहीं दे सकते. लड़की की शादी में इतने से क्या होगा? उन्होंने बताया है कि ज्यादा का परमिट आप ही दे सकते हैं.’’

‘‘तब कितनी चाहिए?’’

‘‘एक बोरा भी मिल जाती तो कुछ काम चल जाता.’’

‘‘नहीं, एक बोरा तो नहीं, मैं 80 किलो लिख देता हूं. परमिट उसी दफ्तर से बनवा लेना.’’

‘‘जैसी सरकार की मर्जी,’’ अंतिम आदेश की आंच से अपनी मांग को सेंकता वह बिना कान खटकाए चला गया.

एक अन्य दिन कार्यालय के बड़े बाबू ने आ कर बताया, ‘‘साहब, कल रात त्रिलोकी बाबू गुजर गए.’’

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ. आज जब मैं दफ्तर पहुंचूं तो एक शोक सभा कर लेना और आधे दिन को दफ्तर बंद करने की घोषणा भी उसी वक्त कर दी जाएगी.’’

‘‘ठीक है, हुजूर,’’ और बड़े बाबू सलाम झुकाते चले गए.

शायद उस शाम प्रतीक को कहीं जाना भी नहीं था. रात को भोजन के समय मैं ने उसे कुरेदा, ‘‘आज सुबह तुम से कोई कह रहा था कि रात तुम्हारे दफ्तर के किसी बाबू की मृत्यु हो गई. मैं तो सोच रहा था कि शाम को तुम उस के घर संवेदना प्रकट करने जाओगे.’’

‘‘ऐसे मैं किसकिस के घर जाता फिरूंगा?’’ प्रतीक ने लापरवाही से उत्तर दिया.

‘‘खुशी के मौके पर एक बार न भी जाओ तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन शोक के अवसर पर जाने से तुम्हारी सहृदयता की छाप ही पड़ती. लोगों में तुम्हारे प्रति सुभावना ही उत्पन्न होती.’’

‘‘मैं इस सब की चिंता नहीं करता. दिन भर वैसे ही क्या कम झंझट रहते हैं.’’

‘‘मुझे तो लगता है कि तुम एक मशीनी मानव बनते जा रहे हो. हर व्यक्ति इनसान से इनसानियत की आशा करता है. संवेदना प्रकट करना उसी का तो एक रूप है.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे मैं हर किसी को देखते ही दबोच कर कच्चा चबा जाता हूं.’’

‘‘चबाओ चाहे नहीं, लेकिन अपने मिलने वालों से व्यवहार तो तुम्हारा एकदम रूखा होता है, यह तो इतने दिनों से तुम्हारे मुलाकाती लोगों से हुई बातचीत को सुन कर मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं. तुम्हारे माली तक की इतनी हिम्मत नहीं कि तुम्हें बता सके कि छाया में आलू पैदा नहीं होता.’’

मैं ने गौर किया कि इस बीच ललिता 2 बार अपनी प्लेट से सिर उठा कर हम लोगों की ओर सशंकित दृष्टि उठा चुकी थी. प्रतीक अपना मोर्चा संभाले ही रहा, ‘‘हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो लेकिन मैं अपने को बदल नहीं सकता.’’

‘‘यह कैसी जिद हुई? अगर तुम्हें लगता है कि कोई आदत सही नहीं है तो उसे छोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है.’’

कुछ देर सभी चुपचाप खाना खाते रहे और केवल प्लेटों पर चम्मचों के टकराने की ध्वनि ही होती रही.

मैं ने ही उसे पुन: छेड़ा, ‘‘अच्छा यह बता कि तुम लोग सिनेमा देखने कितने दिनों से नहीं गए?’’

‘‘याद नहीं कितने दिन हो गए. ललिता, तुम बताओ कब गए थे?’’

ललिता का जैसे साहस जाग्रत हो गया था. फौरन बोली, ‘‘आप दिनों की बात करते हो? यहां तो महीनों हो गए,’’ फिर वह मेरी ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘एक तो इस छोटे शहर में लेदे कर कुल जमा 2 सिनेमाघर हैं और उन में भी एकदम पुरानी और सड़ी फिल्में आती हैं. लेकिन कभी जाने की सोचो तो भी प्रोग्राम तो बन जाएगा, टिकट भी आ जाएंगे. सिनेमा के मैनेजर का फोन भी आ जाएगा कि जल्दी आ जाइए फिल्म शुरू होने वाली है. लेकिन तभी इन का कोई जरूरी काम आ टपकेगा. कभी जरूरी मीटिंग होने वाली होगी, तो कभी मंत्रीजी आ टपकेंगे. बस, सिनेमा जाना मुल्तवी. हार कर मुझे ही मैनेजर से कहना पड़ता है कि नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘आप बच्चों को ले कर अकेली क्यों नहीं चली जातीं?’’ मैं ने ललिता से कहा.

‘‘यह मुझे अच्छा नहीं लगता. फिर, भाई साहब, यह छोटी जगह है. लोग कई तरह की बातें करने लगेंगे. व्यर्थ में बदनामी मोल लेने से क्या फायदा?’’

‘‘अच्छा, भाभीजी, तो इस बात पर आप कल ही सिनेमा चलने का प्रोग्राम बनाइए. मैं भी चलूंगा. क्यों, प्रतीक, फिर रहा पक्का?’’

‘‘भाई, कल शाम तो क्लब की मीटिंग है. उस में जाना ही पड़ेगा वरना लोग कहेंगे कि मीटिंग छोड़ कर मौज उड़ाने सिनेमा चल दिए.’’

‘‘सुन, क्लब की मीटिंग तो तेरे बिना भी हो सकती है, फिर उस में गप्पें मारने और खानेपीने के सिवा और होता ही क्या है? अव्वल तो कोई तुम से पूछेगा नहीं और अगर पूछे भी तो कह देना कि एक जबरदस्त दोस्त जबरन सिनेमा घसीट ले गया.’’

अगले दिन वाकई सब लोग सिनेमा देख ही आए. कोई खास अच्छी फिल्म नहीं थी. लेकिन मैं ने देखा कि ललिता से ले कर बच्चों तक के चेहरों में नई चमक थी. और उस की हलकी परछाईं प्रतीक पर भी थी.

इसी के बाद दीवाली का त्योहार पड़ा. उस दिन ललिता ने रात के भोजन के लिए कई विशेष व्यंजन बनाए. नित्य की भांति हम सभी साथसाथ बैठे भोजन कर रहे थे. मुझे 1-2 वस्तुएं विशेष स्वादिष्ठ लगीं और मैं बोल पड़ा, ‘‘दही की पकौडि़यां बहुत बढि़या बनी हैं. बहुत ही मुलायम हैं. प्रतीक, तुझे अच्छी नहीं लगीं?’’

‘‘नहीं, बनी तो अच्छी हैं,’’ प्रतीक का उत्तर था.

‘‘तो फिर अभी तक तेरे मुंह से कुछ फूटा क्यों नहीं? क्या तेरे स्वादतंतु भी सूख गए हैं?’’

‘‘ललिता के हाथ की बनी हर चीज जायकेदार होती है. किसकिस चीज की तारीफ करता फिरूं?’’

‘‘लेकिन इस में तेरी गांठ का क्या निकल जाएगा, जो इतनी कंजूसी दिखाता है?’’

‘‘भाई, घर में यह चोंचलेबाजी मुझे पसंद नहीं.’’

‘‘वाह, क्या अच्छी चीज को अच्छा कहने पर भी कर्फ्यू लगा रखा है?’’

दोनों छोटे बच्चे मुसकराने लगे और ललिता भी कुछ सकुचा गई.

तभी चपरासी ने एक तार ला कर प्रतीक को देते हुए कहा, ‘‘हुजूर, सरकारी नहीं है. साहब के नाम से है.’’

प्रतीक ने बिना खोले ही लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘देख तो क्या है?’’

तार पढ़ने के बाद उसे प्रतीक को थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुरंत चल दूं. आपरेशन से पहले तो हर हालत में पहुंचना ही होगा.’’

सभी शंकित दृष्टि से मेरे मुख की ओर देखने लगे और भोजन कुछ ही क्षणों में समाप्त हो गया.

प्रतीक मुझे स्टेशन छोड़ने आया. गाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर टहलते हुए वह मुझ से बोला, ‘‘उस रात तुम ने जो कहा था वह बराबर मेरे दिमाग में घुमड़ रहा है. मुझे तो ऐसा लगता है कि निरंतर ‘जी हुजूर’ और ‘जी सरकार’ के चापलूसी माहौल से घिरा मैं सचमुच ही इनसान से हैवान बनता जा रहा हूं. किसी कोने से भी तो इनकार की आवाज नहीं सुनता. सच, तेरा आना ऐसा लगा जैसे किसी ताजा हवा का झोंका जी को लहरा गया हो. सुन, वहां पहुंचते ही पिताजी की हालत के बारे में मुझे लिखना.’’

हम लोगों ने एकदूसरे के हाथ थाम लिए थे और 10 वर्ष पूर्व की स्नेहसिक्त भावनाओं से सराबोर हो रहे थे.

इंटरनैट: क्या कावेरी अपने फैसले से खुश थी?

लैंडलाइनपर जय के फोन से शाम 4 बजे नितिन और कावेरी की नींद खुली. फोन और लैंडलाइन पर, वे हैरान हुए. आजकल तो लैंडलाइन पर कभीकभार ही भूलेभटके किसी का फोन आता था. आज शनिवार था, दोनों की औफिस की छुट्टी थी तो लंच कर के गहरी नींद में सोए थे. घंटी बजती जा रही थी, दोनों ने एकदूसरे को शरारती नजरों से देखा और उठने का इशारा किया.

कावेरी ने न में सिर हिलाया तो नितिन ही उठा, ‘‘हैलो,’’ कहते ही उस की आवाज में जोश भर आया. कावेरी को उस की बातें सुनाई दे रही थीं.

कब? बहुत बढि़या आ जा.

‘‘हां, बिलकुल, बहुत मजा आएगा, यार. कितने साल हो गए. पता व्हाट्सऐप कर दूं? उफ, फिर लिख ले.’’

नितिन फोन पर पता लिखवा कर फोन रख कर कावेरी के पास आ कर लेट गया और कहने लगा, ‘‘गेस करो डियर, कौन आ रहा है?’’

‘‘तुम्हीं बता दो.’’

‘‘अरे थोड़ा तो गेस करो.’’

‘‘कोई पुरानी जानपहचान लग रही है जिस के पास हमारा लैंडलाइन नंबर भी है.’’

‘‘जय मुंबई आया है अभी, एक मीटिंग है उस की, डिनर पर आएगा, फिर वापस आज ही चला जाएगा, रात की ही फ्लाइट से.’’

कावेरी भी उत्साह से भर कर खुश हो गई. बोली, ‘‘अरे वाह, करीब 5 साल तो हो ही गए होंगे मिले हुए. आज तो खूब मजा आएगा जब बैठेंगे 3 यार, तुम वो और मैं. चलो बताओ, क्याबनाएं डिनर में? वैसे तो मेड आजकल छुट्टी पर है, घर में सब्जी वगैरह भी नहीं है, मैं सारा सामान शनिवार को ही तो लाती हूं. अब पहले कुछ सामान ले आएं?’’

‘‘पर तुम तो कह रही थी आज तुम्हें चाइना बिस्ट्रो का खाना खाना है, तुम्हारा बहुत दिन से मन था, वहीं से खाना और्डर कर लें? जय को भी वहां का चाइनीज खाना बहुत पसंद आएगा. तुम कहां इस समय किचन में घुसोगी. आराम करो, खाना और्डर कर लेंगे.’’

‘‘वाह, क्या आइडिया है. ऐसा पति सब को मिले.’’

नितिन ने शरारत से पूछा, ‘‘इस आइडिया की फीस पता है न?’’

कावेरी हंस पड़ी, ‘‘नहीं, जाननी भी नहीं है.’’

‘‘पर मैं तो बता कर रहूंगा,’’ कहतेकहते नितिन ने कावेरी को अपनी तरफ खींच लिया.

सहारनपुर की एक गली में ही नितिन, कावेरी और जय के घर थे. बचपन से ही तीनों की दोस्ती बहुत पक्की थी. बड़े होने पर कावेरी और नितिन की दोस्ती प्यार में बदल गई थी जिस पर दोनों के परिवार वालों ने खुशीखुशी मुहर लगा दी थी. जय दिल्ली में कार्यरत था. अपनी फैमिली के साथ वहीं रहता था तो 5 सालों से मिलना ही नहीं हो पाया था.

अचानक कावेरी को याद आया. पूछा, ‘‘अरे, यह बताओ जय ने लैंडलाइन पर फोन क्यों किया? उस के पास तो हमारे मोबाइल नंबर भी हैं. बात होती तो रहती है.’’

‘‘वह बहुत देर से मोबाइल फोन ही ट्राई कर रहा था. इंटरनैट ही नहीं था शायद और ज्यादा सब्र उस में है भी नहीं, जानती हो न?’’

कावेरी हंस पड़ी, ‘‘हां, यह तो है. सब्र नहीं उस में.’’

दोनों पुरानी बातें याद कर हंसते रहे. दोनों ही उस के आने से बहुत खुश थे. दोनों नहा धो कर अच्छी तरह तैयार हो गए. पूरा हफ्ता बिजी रहने के बाद दोनों ही वीकैंड में पूरी तरह से रिलैक्स करते. कावेरी सुंदर साड़ी पहन कर सजसंवर गई. सुंदर वह थी ही, इस समय और खूबसूरत लग रही थी. दोनों ने यह नियम बना रखा था कि जब साथ होंगे, फोन कम ही देखेंगे.

अब 7 बजे दोनों ने अपनाअपना फोन उठाया. कावेरी ने कहा, ‘‘चलो, बढि़या डिनर और्डर करते हैं.’’

जैसे ही दोनों ने अपनाअपना फोन देखा, इंटरनैट गायब था. थोड़ी देर तक बारबार वाईफाई रीस्टार्ट किया. फिर चिंता होने लगी. नितिन ने कहा, ‘‘लैंडलाइन से और्डर कर देते हैं, आओ.’’

लैंडलाइन से फोन करने पर उधर घंटी जाती रही, पर फोन नहीं उठाया गया. अब तक 8 बज गए थे. अब दोनों को चिंता होने लगी.

नितिन ने कहा, ‘‘कार भी सर्विसिंग के लिए दे रखी है. कोरोना के केसेज फिर दोबारा बहुत बढ़ गए हैं. औटो से जा कर खाना लाना भी सेफ नहीं है. औटो में तो बैठने का मन भी नहीं करता है आजकल. क्या करें यार.’’

कावेरी के चेहरे पर अब पसीने की बूंदें झलकने लगीं. बोली, ‘‘अब तो यही समझ आ रहा है कि जो भी घर में है जल्दी से बना लूं. हमारा दोस्त इतने टाइम बाद हम से मिलने आ रहा है. उस से बैठ कर बातें भी तो करनी हैं,’’ कह कर कावेरी ने साड़ी का पल्ला अपनी कमर में खोंसा और किचन की तरफ चल दी.

नितिन भी उस के पीछेपीछे चलते हुए बोला, ‘‘मैं भी हैल्प करता हूं. मिल कर बनाते हैं यार के लिए कुछ.’’

कावेरी को नितिन पर प्यार आ गया. रुक कर उस के गाल चूम लिए. दोनों ने एकदूसरे को प्यार किया और ‘साथी हाथ बढ़ाना…’ गाते हुए  खाना बनाने में जुट गए. दोनों ने बड़े मन से खाना बनाया. घर में रखे आलू, फ्रोजन मटर और पनीर की स्टफिंग तैयार कर कावेरी ने मिक्स्ड वैज परांठे बनाए. दही तो था ही. नितिन लगातार इंटरनैट भी चैक करता रहा और आलू छीलने में, बाकी चीजों में उस ने पूरी हैल्प की. बीच में कहा, ‘‘यार, बड़ी प्यारी लग रही हो, कमर में साड़ी का पल्ला खोंसे. मेरी मां तो बहू के इस रूप पर फिदा हो जाएंगी. रुको, तुम्हारा वीडियो बना कर उन्हें भेजता हूं.’’

कावेरी जोर से हंस पड़ी और फिर सचमुच अपना वीडियो बनाने में नितिन को पूरा सहयोग करने लगी. साथसाथ कमैंट्री भी करती जा रही थी, ‘‘अब आप कभी भी इन परांठों को अपनी सासूमां को बना कर खिला सकते हैं. वे खुश होंगी तो आप भी चैन से जीएंगी. मैं अपना यह पहला वीडियो अपनी प्यारी सासूमां को समर्पित करता हूं.’’

यों ही हंसतेखेलते काम निबटा लिया गया. 9 बज रहे थे. नितिन ने कहा, ‘‘वह कहां रह गया? आया नहीं अभी तक,’’ कह उस ने फोन उठाया और अपना सिर पकड़ लिया, ‘‘यार, नैट नहीं है, तुम देखना.’’

‘‘हां, नो नैटवर्क.’’

‘‘मैं तो उस का कोई कौंटैक्ट नंबर भी लेना भूल गया, अब कैसे पता करें?’’

थोड़ी देर होटल के ही लैंडलाइन से जय ने फोन किया, ‘‘यार, यह तुम्हारा कैसा शहर है… यहां नेटवर्क ही नहीं है. क्या मुसीबत हुई है आज. कितने जरूरी काम थे. इतनी देर से उबेर या ओला बुक करने की कोशिश कर रहा हूं. कुछ भी नहीं हो रहा है. मैं नहीं आने वाला अब जल्दी तुम्हारे शहर में.’’

‘‘कल्पना बंद करो और आने की कोशिश करो, यार. मेरी कार भी सर्विसिंग के लिए गई हुई है वरना कोई प्रौब्लम ही नहीं थी.’’

‘‘देख, मैं यहां इस ट्रैफिक टाइम में औटो से तो बिलकुल नहीं आने वाला. अब मैं आ ही नहीं रहा हूं. बहुत लेट हो गया हूं. मैं यहीं से वापस चला जाऊंगा. शायद अगली बार मिल पाएं. क्या बकवास शहर है.’’

‘‘हां, जैसे तुम्हारे शहर में तो कभी नैट जाता ही नहीं.’’

अब फोन स्पीकर पर था. कावेरी भी शामिल हो गई थी. थोड़ीबहुत बातें हुईं, फिर  यह समझ आ गया कि इस बार मिलना हो नहीं पाएगा. फिर फोन रख कर नितिन ने कहा, ‘‘यार, खाना तो बहुत बढि़या तैयार हो गया था. बना भी कुछ ज्यादा ही है…’’

नितिन की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि उन के फ्लैट की डोरबैल बजी.

सामने वाले फ्लैट में रहने वाले दंपती सुमित और रेखा थे. इन दोनों से कभी नितिन और कावेरी की ज्यादा बातचीत नहीं हुई थी. वे दोनों भी वर्किंग थे. सालभर पहले ही इस फ्लैट में आए थे. यों ही आतेजाते लिफ्ट में बस एक स्माइल और हैलो का आदानप्रदान ही हुआ था.

नितिन ने जैसे ही दरवाजा खोला, सुमित ने झेंपते हुए कहा, ‘‘हम लोग कई दिनों से बाहर गए हुए थे. अभी आए हैं. इंटरनैट ही नहीं चल रहा है. फोन काम ही नहीं कर रहा है. एक कप दूध मिलेगा?’’

‘‘अरे, क्यों नहीं. ऐसे क्यों नहीं करते कि आप फ्रैश हो कर यहीं आ जाओ. चाय भी पी लें और कुछ खाना भी खा लें.’’

सुमित और उस के पीछे खड़ी रेखा संकोच से भर उठी. कहा, ‘‘नहींनहीं, बस आप एक कप दूध दे दीजिए.’’

‘‘अरे, सिर्फ दूध से कैसे काम चलेगा? आज कुछ भी और्डर नहीं कर पाएंगे.’’

नितिन और कावेरी के स्वर में इतना अपनापन और सरलता थी कि दोनों फिर तैयार हो ही गए. बोले, ‘‘ठीक है, हम फ्रैश हो कर आते हैं.’’

नितिन ने दरवाजा बंद कर कावेरी से कहा, ‘‘ठीक किया, इन के साथ ही आज डिनर करते  हैं. ये दोनों हमेशा मुझे अच्छे लगे हैं. वैसे भी यहां किसी को भी कभी इतनी फुरसत नहीं होती कि मिल कर कभी किसी के साथ बैठ पाएं. आज खाना तो है ही. चलो, फिर एक बार साबित हो गया कि दानेदाने पर खाने वाला का नाम लिखा होता है.’’

‘‘हां, मुझे भी खुशी हो रही है. आज पहली बार कोई पड़ोसी हमारे घर आएगा.’’

20 मिनट बाद ही सुमित और रेखा आ गए. पहली बार आए थे. थोड़ा तो संकोच स्वाभाविक था, पर नितिन और कावेरी खुले दिल के सरल स्वभाव के इंसान थे तो थोड़ी देर में ही सुमित और रेखा खुलने लगे. उन्होंने घर के इंटीरियर की खुले दिल से तारीफ की. फिर अपने हाथ में पकड़ा पैकेट कावेरी को देते हुए रेखा ने कहा, ‘‘हम दोनों मेरे मम्मीपापा से मिलने गए हुए थे.  मम्मी ने आते हुए यह पूरनपोली बना कर दी है. आप के लिए भी ले आई. यह महाराष्ट्र की फेमस चीज है.’’

‘‘अरे, वाह. हां, औफिस में कोई लाता है तो मैं जरूर खाती हूं. मुझे बहुत पसंद है, थैंक्स,’’ कहते हए कावेरी ने खुशी से वह पैकेट ले लिया. फिर उन लोगों के लिए चाय ले आई. अब तक सब सहज रूप से बातें करने लगे थे.

खाना जब लगा तो रेखा ने बहुत तारीफ करते हुए खाया. हंस कर कहा, ‘‘औफिस में भी नौर्थ इंडियंस अकसर परांठे लाते हैं तो मैं अपनी रोटी उन्हें दे कर उन के परांठे ले लेती हूं.’’

आजकल सब के दिल में अपने काम में व्यस्त रहने के चलने एक खालीपन भरता ही जा रहा है. मशीनी जीवन से दूर यह आज की शाम चारों को एक नया अपनापन दे रही थी. अब यह लग ही नहीं रहा था कि चारों आज पहली बार ही मिले हैं. हंसीमजाक शुरू हो गया था जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.

सुमित ने कहा, ‘‘आज तो दिल खुश हो गया. अब तो हर वीकैंड का कोई प्रोग्राम रहना ही चाहिए. हर वीकैंड पर मूवी देख लो, बाहर खाना खा आओ बस यही करते हैं. ऐसी शाम बारबार आती रहनी चाहिए नितिन.’’

चारों हमउम्र ही थे. अब सब एकदूसरे का नाम ही ले रहे थे.

एक बात सुनो, ‘‘हमारी एक आंटी का अलीबाग में फार्महाउस है. कोरोना टाइम में कहीं और आनाजाना तो हो नहीं रहा, वहां कोई नहीं रहता है. एक हाउस हैल्प है बस. क्यों न वहां 1-2 रातें घूमने चला जाए?’’ सुमित बोला,

जवाब कावेरी ने दिया, ‘‘हम तैयार हैं.’’

‘‘यार, आज तो मन खुश हो गया. तुम लोगों के साथ तो सफर की थकान भी उतर गई. यह तो कभी सोचा नहीं था कि हमारे पड़ोसी इतने अच्छे हैं. एक दिन अचानक हम एक शाम में ही इतने अच्छे दोस्त बन जाएंगे,’’ रेखा ने बहुत प्यार से कहा तो कावेरी मुसकरा दी.

सब बैठ कर अपने घर, परिवार, औफिस की बातें करते रहे. 12 कब बज गए, पता ही नहीं चला.फिर सुमित ने कहा, ‘‘चलो, अब सोया जाए, अब तो मिलते ही रहेंगे. थैंक यू, दोस्तो.’’

नितिन ने कहा, ‘‘हमें थैंक्स मत कहो, इंटरनैट को कहो कि थैंक यू, इंटरनैट. अच्छा हुआ तुम चले गए. तभी तो हम मिले वरना तो तुम लोगों ने फोन कर के दूध और खाना मंगा लिया होता.’’

‘‘हां, फिर हमें इतने अच्छे परांठे न मिलते.’’

‘‘और मुझे पूरनपोली, नहीं तो तुम ने अकेले खा ली होती,’’ कहतेकहते कावेरी ने मुंह बनाया तो सब जोर से हंस पड़े.

उन के जाने के बाद नितिन और कावेरी ने खुशी से कहा, ‘‘कितना अच्छा लगा, यार. कितना जरूरी होता है दोस्तयारों का साथ. आज तो इंटरनैट के जमाने ने कमाल कर दिया. भाई साहब गए तो अच्छे दोस्तों से मिलना हो गया. एक दोस्त से नहीं मिल पाए तो 2 दोस्त और मिल गए, जय से तो अब अगली बार मिल ही लेंगे पर आज दिल खुश हो गया.’’

नितिन ने सहमति में सिर हिला दिया. दोनों सारा सामान समेटते हुए फिर गा रहे थे, ‘‘जहां चार यार मिल जाएं, वहीं रात हो गुलजार…’’

कोठे से वापसी: शमा की उम्मीद

उस कोठे पर जो भी आता, शमा उस से यही उम्मीद लगाए रखती कि वह उस की मदद करेगा और उसे वहां से निकाल कर ले जाएगा. मगर कोई उस की फिक्र नहीं करता था और अपना मतलब निकाल कर चला जाता था. एक दिन शमा की कोठेदारनी चंद्रा को उस के भाग निकलने की योजना का पता चल गया.

‘‘अगर तू ने यहां से निकल भागने की कोशिश की, तो मैं तुझे काट डालूंगी. अरी, एक बार जो धंधे वाली बन जाती है, उसे तो उस के घर वाले भी वापस नहीं लेते हैं,’’ चंद्रा ने गुस्से में उबलते हुए कहा. शमा के कमरे से थोड़ी दूरी पर एक पान की दुकान थी. वह उस दुकान पर अकसर जाती थी.

एक दिन शमा ने पान वाले से कहा, ‘‘भैया, आप ही मुझे यहां से निकलवा दीजिए. मैं तवायफ नहीं हूं, मजबूरी में फंस कर यह सब…’’ पान वाले ने कहा, ‘‘मेरी इतनी ताकत नहीं है कि मैं तुम्हें यहां से निकलवा सकूं. हां, मेरे पास कमल और आरिफ आते हैं, वे तुम्हारी मदद जरूर कर सकते हैं.’’

शमा ने जब आरिफ और कमल का नाम सुना, तो उसे कुछ उम्मीद नजर आई. अब उस की आंखें हर पल आरिफ और कमल का इंतजार करने लगीं. एक शाम को आरिफ और कमल पान की दुकान पर आए, तो शमा भी दुकान पर पहुंच गई.

शमा बगैर किसी हिचक के उन से फरियाद करने लगी, ‘‘भैया, मैं तवायफ नहीं हूं. मैं यहां से निकलना चाहती हूं. आप ही मुझ बेसहारा, मजबूर लड़की की मदद कर सकते हैं. मैं आप के पास बहुत उम्मीद ले कर आई हूं.’’ ‘‘हम इस बारे में सोच कर बताएंगे,’’ कमल ने शमा को तसल्ली देते हुए कहा.

वहां से लौट कर उन दोनों ने आपस में बातचीत की और एक योजना बनाई. फिर कमल ने कोठे के एक दलाल से शमा को एक रात के लिए अपने पास रखने की बात की. दलाल ने जितनी रकम बताई, कमल ने फौरन अदा कर दी और उसे जगह बता दी.

वह आदमी उस महल्ले का काफी पुराना और भरोसेमंद दलाल था. हर कोठेदारनी उस पर भरोसा कर के उस के साथ लड़कियों को महल्ले से बाहर भेज देती थी. चंद्रा भी इनकार न कर सकी और रकम रखते हुए बोली, ‘‘तड़के ही शमा को वापस ले आना.’’

‘‘ठीक है,’’ दलाल ने अपनी मोटी गरदन हिलाते हुए कहा. रात को वादे के मुताबिक वह दलाल शमा को ले कर कमल के बताए पते पर पहुंच गया.

शमा ने जब वहां आरिफ और कमल को देखा, तो वह अपने बुलाए जाने का मकसद समझ गई और मन ही मन खुश हो गई. शमा को वहां छोड़ कर जब वह दलाल चला गया, तब आरिफ और कमल ने उस से अपने बारे में सबकुछ बताने को कहा.

शमा ने आराम से बैठते हुए बोलना शुरू किया, ‘‘साहब, मैं पश्चिम बंगाल की रहने वाली हूं. वहां मेरे पिता का अच्छा कारोबार है. मेरे 3 भाई और एक बहन है. भाइयों के भी अच्छे कारोबार हैं. बहन की शादी हो चुकी है. ‘‘कुछ महीने पहले हमारे घर में शीला नाम की एक औरत किराए पर रहने आई थी. कुछ ही दिनों में वह हमारे परिवार से घुलमिल गई थी. हम सब बच्चे उसे आंटी कह कर बुलाते थे.

‘‘एक शाम को मैं स्कूल से आ रही थी. एक सुनसान जगह पर एक गाड़ी आ कर मेरे पास रुकी. कुछ गुंडों ने मुझे उस गाड़ी के अंदर खींच लिया. इस से पहले कि मैं कुछ बोल पाती, मेरे मुंह पर कपड़ा बांध दिया गया. इस के बाद मैं बेहोश हो गई. ‘‘जब मुझे होश आया, तो मैं ने वहां शीला आंटी को देखा. उसे देख कर मैं हैरान रह गई.

‘‘मुझे यह समझते देर न लगी कि इसी औरत ने मुझे अगवा कराया है. रात को शीला और उस के एक साथी ने मुझे जिस्मफरोशी के लिए मजबूर किया. ‘‘अगर मैं उन की किसी बात से इनकार करती थी, तो वे चाकू से मेरे जिस्म को हलका सा काट कर उस में मिर्च भर देते थे, ताकि मैं इस धंधे में उतर आऊं.

‘‘साहब, वहां मेरी चीखें सुनने वाला भी कोई नहीं था. वे मुझे बहुत मारते थे,’’ कहतेकहते शमा रो पड़ी. शमा की दर्दभरी कहानी सुन कर कमल और आरिफ ने उस की हिम्मत की दाद दी.

‘‘शमा, हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे, लेकिन तुम इस राज को अपने तक ही रखना,’’ आरिफ ने कहा. सुबह होते ही वह दलाल वहां आ गया और शमा को ले गया.

कमल और आरिफ कुछ लोगों की मदद से एक पुलिस अफसर से मिले और उन को शमा के बारे में पूरी जानकारी दी. उन की बातें सुन कर पुलिस अफसर ने कहा, ‘‘ठीक है, हम छापा मार कर लड़की को वहां से निकालते हैं.’’

पुलिस कोठे पर छापा मार कर शमा के साथ चंद्रा और कई दलालों को पकड़ लाई. थाने में आ कर पुलिस अफसर ने शमा से पूछताछ शुरू की. इस पर शमा ने पुलिस अफसर को जो बताया, उसे सुन कर आरिफ और कमल के होश उड़ गए. उस ने बयान दिया, ‘‘साहब, मैं एक तवायफ हूं और अपने मरजी से यह धंधा करती हूं.’’

शमा का बयान सुनने के बाद पुलिस अफसर ने कमल और आरिफ को डांटते हुए कहा कि दोबारा इस तरह पुलिस को परेशान करने की कोशिश की, तो बहुत बुरा होगा. उन्होंने शमा को चंद्रा के साथ भेज दिया. कई दिन बाद कमल जब उसी गली से गुजर रहा था, तब शमा उसे रोक कर रोने लगी. वह बोली, ‘‘चंद्रा को हमारी योजना पता लग गई थी. उस ने अपने कुछ आदमियों से मुझे बहुत पिटवाया था, इसलिए मैं डर गई थी. लेकिन साहब, मैं अब भी यहां से किसी भी तरह निकलना चाहती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हें एक मौका और दूंगा. अगर निकल सकती हो, तो निकल जाना, वरना जिंदगीभर यहीं जिस्मफरोशी करती रहना,’’ कमल ने गुस्से में कहा. ‘‘इस बार आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूंगी,’’ शमा ने हाथ जोड़ते हुए कहा. जब कमल ने आरिफ से कहा, तो वह बोला, ‘‘कमल, हमें यह काम अब अकेले नहीं करना चाहिए. हमें अपने कुछ और दोस्तों की मदद लेनी चाहिए. मामला कुछ पेचीदा नजर आ रहा है.’’

कमल और आरिफ अपने एक दोस्त असद खां से मिले. असद खां का उस इलाके में काफी दबदबा था. वह जब उस गली से गुजरता था, तो सारी तवायफें उस के खौफ से अपने दरवाजे बंद कर लेती थीं. कमल ने असद खां को शमा के बारे में बताया. उस की सारी बातें सुन कर वह भी संजीदा हो गया और बोला, ‘‘पहले मैं उस लड़की से बात करूंगा, उस के बाद कोई फैसला लूंगा.’’

अगले दिन असद खां अपने कुछ साथियों के साथ उस कोठे पर पहुंच गया. असद खां को देखते ही महल्ले में भगदड़ सी मच गई. सारी तवायफें अपनेअपने कोठे के दरवाजे बंद करने लगीं.

असद खां ने शमा का कमरा खुलवाया. शमा ने उसे बैठने को कहा, लेकिन असद खां ने रोबीली आवाज में कहा, ‘‘मैं यहां बैठने नहीं आया हूं. मुझे कमल ने भेजा है.’’ असद खां के मुंह से कमल का नाम सुनते ही शमा सबकुछ समझ गई.

‘‘क्या तुम यहां से जाना चाहती हो?’’ असद खां ने उस से पूछा. ‘‘हां, मैं यहां से निकलना चाहती हूं, लेकिन आप लोगों ने देर कर दी, तो मुझे 1-2 दिन में कहीं दूर भेज दिया जाएगा,’’ शमा ने रोते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हें यहां से निकाल दूंगा, मगर याद रखना कि इस बार तुम पुलिस के सामने अपना बयान मत बदलना. अगर तुम ने ऐसा किया, तो मैं तुम्हें पुलिस थाने में ही गोली मार दूंगा,’’ असद खां ने कहा. ‘‘मैं थाने नहीं जाऊंगी. मुझे पुलिस से डर लगता है,’’ शमा ने सिसकते हुए कहा.

‘‘अच्छा, मैं तुम्हें थाने नहीं ले जाऊंगा. लेकिन तुम्हें अदालत में बयान देना होगा.’’ शमा ने ‘हां’ में अपना सिर हिला दिया.

‘‘देखो लड़की, मैं तुम्हें इस कोठे से खुलेआम निकाल कर ले जाऊंगा. किसी माई के लाल में इतनी हिम्मत नहीं, जो मुझे रोक सके,’’ असद खां ने आंखें फाड़ते हुए कहा. असद खां की बातों से शमा को यकीन हो गया कि वह उसे यहां से जरूर निकाल ले जाएगा.

असद खां जब शमा का हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर ले आया, तो पूरे कोठे में सन्नाटा छा गया. किसी बदमाश या दलाल की उस से बात करने की हिम्मत न हो सकी. असद खां शमा को एक वकील के साथ अदालत में ले गया.

शमा मजिस्ट्रेट के सामने फूटफूट कर रोने लगी. उस ने उन्हें अपनी सारी कहानी सुना दी और अपने जिस्म के जख्मों के निशान भी दिखाए. शमा की दर्दभरी कहानी सुन कर मजिस्ट्रेट ने फौरन पुलिस को हुक्म दिया कि चंद्रा और उन लोगों को गिरफ्तार किया जाए, जिन्होंने इस लड़की पर जुल्म किया है.

मजिस्ट्रेट के हुक्म पर पुलिस ने फौरन गिरफ्तारी शुरू कर दी. बाद मैं मजिस्ट्रेट ने हुक्म दिया कि पुलिस की निगरानी में शमा को उस के घर भेज दिया जाए. कुछ दिनों के बाद शमा को हिफाजत के साथ उस के घर भेज दिया गया.

फैसला : कैसा था शादीशुदा रवि और तलाकशुदा सविता का प्यार

मैं अपने सहयोगियों के साथ औफिस की कैंटीन में बैठा था कि अचानक सविता दरवाजे पर नजर आई. खूबसूरती के साथसाथ उस में गजब की सैक्स अपील भी है. जिस की भी नजर उस पर पड़ी, उस की जबान को झटके से ताला लग गया.

‘‘रवि, लंच के बाद मुझ से मिल लेना,’’ यह मुझ से दूर से ही कह कर वह अपने रूम की तरफ चली गई.

मेरे सहयोगियों को मुझे छेड़ने का मसाला मिल गया. ‘तेरी तो लौटरी निकल आई है, रवि… भाभी तो मायके में हैं. उन्हें क्या पता कि पतिदेव किस खूबसूरत बला के चक्कर में फंसने जा रहे हैं… ऐश कर ले सविता के साथ. हम अंजू भाभी को कुछ नहीं बताएंगे…’ उन सब के ऐसे हंसीमजाक का निशाना मैं देर तक बना रहा.हमारे औफिस में तलाकशुदा सविता की रैपुटेशन बड़ी अजीब सी है. कुछ लोग उसे जबरदस्त फ्लर्ट स्त्री मानते हैं और उन की इस बात में मैं ने उस का नाम 5-6 ऐसे पुरुषों से जुड़ते देखा है, जिन्हें सीमित समय के लिए ही उस के प्रेमियों की श्रेणी में रखा  जा सकता है. उन में से 2 उस के आज भी अच्छे दोस्त हैं. बाकियों से अब उस की साधारण दुआसलाम ही है.

सविता के करीब आने की इच्छा रखने वालों की सूची तो बहुत लंबी होगी, पर वह इन दिलफेंक आशिकों को बिलकुल घास नहीं डालती. उस ने सदा अपने प्रेमियों को खुद चुना है और वे हमेशा विवाहित ही रहे हैं. मैं तो पिछले 2 महीनों से अपनी विवाहित जिंदगी में आई टैंशन व परेशानियों का शिकार बना हुआ था. अंजू 2 महीने से नाराज हो कर मायके में जमी हुई थी. अपने गुस्से के चलते मैं ने न उसे आने को कहा और न ही लेने गया. समस्या ऐसी उलझी थी कि उसे सुलझाने का कोई सिरा नजर नहीं आ रहा था. मेरा अंदाजा था कि सविता ने मुझे पिछले दिनों जरूरत से ज्यादा छुट्टियां लेने की सफाई देने को बुलाया है. तनाव के कारण ज्यादा शराब पी लेने से सुबह टाइम से औफिस आने की स्थिति में मैं कई बार नहीं रहा था. लंच के बाद मैं ने सविता के कक्ष में कदम रखा, तो उस ने बड़ी प्यारी, दिलकश मुसकान होंठों पर ला कर मेरा स्वागत किया.

‘‘हैलो, रवि, कैसे हो?’’ कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए उस ने दोस्ताना लहजे में वार्त्तालाप आरंभ किया.

‘‘अच्छा हूं, तुम सुनाओ,’’ आगे झूठ बोलने के लिए खुद को तैयार करने के चक्कर में मैं कुछ बेचैन हो गया था.

‘‘तुम से एक सहायता चाहिए.’’

अपनी हैरानी को काबू में रखते हुए मैं ने पूछा, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं तुम्हारे लिए?’’

‘‘कुछ दिन पहले एक पार्टी में मैं तुम्हारे एक अच्छे दोस्त अरुण से मिली थी. वह तुम्हारे साथ कालेज में पढ़ता था.’’

‘‘वह जो बैंक में सर्विस करता है?’’

‘‘हां, वही. उस ने बताया कि तुम बहुत अच्छा गिटार बजाते हो.’’

‘‘अब उतना अच्छा अभ्यास नहीं रहा है,’’ अपने इकलौते शौक की चर्चा छिड़ जाने पर मैं मुसकरा पड़ा.

‘‘मेरे दिल में भी गिटार सीखने की तीव्र इच्छा पैदा हुई है, रवि. प्लीज कल शनिवार को मुझे एक अच्छा सा गिटार खरीदवा दो.’’

बड़े अपनेपन से किए गए सविता के आग्रह को टालने का सवाल ही नहीं उठता था. मैं ने उस के साथ बाजार जाना स्वीकार किया, तो वह किसी बच्चे की तरह खुश हो गई.

‘‘अंजू मायके गई हुई है न?’’

‘‘हां,’’ अपनी पत्नी के बारे में सवाल पूछे जाने पर मेरे होंठों से मुसकराहट गायब हो गई.

‘‘तब तो तुम कल सुबह नाश्ता भी मेरे साथ करोगे. मैं तुम्हें गोभी के परांठे खिलाऊंगी.’’

‘‘अरे, वाह. तुम्हें कैसे मालूम कि मैं उन का बड़ा शौकीन हूं?’’

‘‘तुम्हारे दोस्त अरुण ने बताया था.’’

‘‘मैं कल सुबह 9 बजे तक पहुंचूं?’’

‘‘हां, चलेगा.’’

सविता ने दोस्ताना अंदाज में मुसकराते हुए मुझे विदा किया. मेरे आए दिन छुट्टी लेने के विषय पर चर्चा ही नहीं छिड़ी थी, लेकिन अपने सहयोगियों को मैं सच्ची बात बता देता, तो वे मेरा जीना मुश्किल कर देते. इसलिए उन से बोला, ‘‘ज्यादा छुट्टियां न लेने के लिए लैक्चर सुन कर आ रहा हूं.’’ यह झूठ बोल कर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया. पिछले 2 महीनों में वह पहली शुक्रवार की रात थी जब मैं शराब पी कर नहीं सोया. कारण यही था कि मैं सोते रह जाने का खतरा नहीं उठाना चाहता था. सविता के साथ पूरा दिन गुजारने का कार्यक्रम मुझे एकाएक जोश और उत्साह से भर गया था. पिछले 2 महीनों से दिलोदिमाग पर छाए तनाव और गुस्से के बादल फट गए थे. कालेज के दिनों में जब मैं अपनी गर्लफ्रैंड से मिलने जाता था, तब बड़े सलीके से तैयार होता था. अगले दिन सुबह भी मैं ढंग से तैयार हुआ. ऐसा उत्साह और खुशी दिलोदिमाग पर छाई थी, मानो पहली डेट पर जा रहा हूं. सविता पर पहली नजर पड़ी तो उस के रंगरूप ने मेरी आंखें ही चौंधिया दीं. नीली जींस और काले टौप में वह बहुत आकर्षक लग रही थी. उस पल से ही उस जादूगरनी का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगा. दिल की धड़कनें बेकाबू हो चलीं. मैं उस के इशारे पर नाचने को एकदम तैयार था. फिर हंसीखुशी के साथ बीतते समय को जैसे पंख लग गए. कब सुबह से रात हुई, पता ही नहीं चला.

सविता जैसी फैशनेबल, आधुनिक स्त्री से खाना बनाने की कला में पारंगत होने की उम्मीद कम होती है, लेकिन उस सुबह उस के बनाए गोभी के परांठे खा कर मन पूरी तरह तृप्त हो गया. प्यारी और मीठीमीठी बातें करना उसे खूब आता था. कई बार तो मैं उस का चेहरा मंत्रमुग्ध सा देखता रह जाता और उस की बात बिलकुल भी समझ में नहीं आती.

‘‘कहां हो, रवि? मेरी बात सुन नहीं रहे हो न?’’ वह नकली नाराजगी दर्शाते हुए शिकायत करती और मैं बुरी तरह झेंप उठता.

मैं ने उसे स्वादिष्ठ परांठे खिलाने के लिए धन्यवाद दिया तो उस ने सहजता से मुसकराते हुए कहा, ‘‘किसी अच्छे दोस्त के लिए कुकिंग करना मुझे पसंद है. मुझे भी बड़ा मजा आया है.’’

‘‘मुझे तुम अपना अच्छा दोस्त मानती हो?’’

‘‘बिलकुल,’’ उस ने तुरंत जवाब दिया.

‘‘कब से?’’

‘‘इस सवाल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण एक दूसरा सवाल है, रवि.’’

‘‘कौन सा?’’

‘‘क्या तुम आगे भी मेरे अच्छे दोस्त बने रहना चाहोगे?’’ उस ने मेरी आंखों में गहराई से झांका.

‘‘बिलकुल बना रहना चाहूंगा, पर क्या मुझे कुछ खास करना पड़ेगा तुम्हारी दोस्ती पाने के लिए?’’

‘‘शायद… लेकिन इस विषय पर हम बाद में बातें करेंगे. अब गिटार खरीदने चलें?’’ सवाल का जवाब देना टाल कर सविता ने मेरी उत्सुकता को बढ़ावा ही दिया.

हमारे बीच बातचीत बड़ी सहजता से हो रही थी. हमें एकदूसरे का साथ इतना भा रहा था कि कहीं भी असहज खामोशी का सामना नहीं करना पड़ा. हमारे बीच औफिस से जुड़ी बातें बिलकुल नहीं हुईं. टीवी सीरियल, फिल्म, खेल, राजनीति, फैशन, खानपान जैसे विषयों पर हमारे बीच दिलचस्प चर्चा खूब चली. उस ने अंजू से जुड़ा कोई सवाल मुझ से पूछ कर बड़ी कृपा की. हां, उस ने अपने भूतपूर्व पति संजीव से अपने संबंधों के बारे में, मेरे बिना पूछे ही जानकारी दे दी.

‘‘संजीव से मेरा तलाक उस की जिंदगी में आई एक दूसरी औरतके कारण हुआ था, रवि. वह औरत मेरी भी अच्छी सहेली थी,’’ अपने बारे में बताते हुए सविता दुखी या परेशान बिलकुल नजर नहीं आ रही थी.

‘‘तो पति ने तुम्हारी सहेली के साथ मिल कर तुम्हें धोखा दिया था?’’ मैं ने सहानुभूतिपूर्ण लहजे में टिप्पणी की.

‘‘हां, पर एक कमाल की बात बताऊं?’’

‘‘हांहां.’’

‘‘मुझे पति से खूब नाराजगी व शिकायत रही. पर वंदना नाम की उस दूसरी औरत के प्रति मेरे दिल में कभी वैरभाव नहीं रहा.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘वंदना का दिल सोने का था, रवि. उस के साथ मैं ने बहुत सारा समय हंसतेमुसकराते गुजारा था. यदि उस ने वह गलत कदम न उठाया होता तो वह मेरी सब से अच्छी दोस्त होती.’’

‘‘लगता है तुम्हें पति से ज्यादा अपनी जिंदगी में वंदना की कमी खलती है?’’

‘‘अच्छे दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, रवि. शादी कर के एक पति या पत्नी तो हर कोई पा लेता है.’’

‘‘यह तो बड़े पते की बात कही है तुम ने.’’

‘‘कोई बात पते की तभी होती है जब उस का सही महत्त्व भी इंसान समझ ले. बोलबोल कर मेरा गला सूख गया है. अब कुछ पिलवा तो दो, जनाब,’’ बड़ी कुशलता से उस ने बातचीत का विषय बदला और मेरी बांह पकड़ कर एक रेस्तरां की दिशा में बढ़ चली.

उस के स्पर्श का एहसास देर तक मेरी नसों में सनसनाहट पैदा करता रहा. सविता की फरमाइश पर हम ने एक फिल्म भी देख डाली. हौल में उस ने मेरा हाथ भी पकड़े रखा. मैं ने एक बार हिम्मत कर उस के बदन के साथ शरारत करनी चाही, तो उस ने मुझे प्यार से घूर कर रोक दिया. ‘‘शांति से बैठो और मूवी का मजा लो रवि,’’ उस की फुसफुसाहट में कुछ ऐसी अदा थी कि मेरा मन जरा भी मायूसी और चिढ़ का शिकार नहीं बना.

लंच हम ने एक बढि़या होटल में किया. फिर अच्छी देखपरख के बाद गिटार खरीदने में मैं ने उस की मदद की. उस के दिल में अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए वह गिटार मैं उसे अपनी तरफ से उपहार में देना चाहता था, पर वह राजी नहीं हुई.

‘‘तुम चाहो तो मुझे गिटार सिखाने की जिम्मेदारी ले सकते हो,’’ वह बोली तो उस के इस प्रस्ताव को सुन कर मैं फिर से खुश हो गया.

जब हम सविता के घर वापस लौटे, तो रात के 8 बजने वाले थे. उस ने कौफी पिलाने की बात कह कर मेरी और ज्यादा समय उस के साथ गुजारने की इच्छा पूरी कर दी. वह कौफी बनाने किचन में गई तो मैं भी उस के पीछेपीछे किचन में पहुंच गया. उस के नजदीक खड़ा हो कर मैं ऊपर से हलकीफुलकी बातें करने लगा, पर मेरे मन में अजीब सी उत्तेजना लगातार बढ़ती जा रही थी. अंजू के प्यार से लंबे समय तक वंचित रहा मेरा मन सविता के सामीप्य की गरमाहट को महसूस करते हुए दोस्ती की सीमा को तोड़ने के लिए लगभग तैयार हो चुका था. तभी सविता ने मेरी तरफ घूम कर मुझे देखा. उस ने जरूर मेरी प्यासी नजरों को पढ़ लिया होगा, क्योंकि अचानक मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे ड्राइंगरूम की तरफ ले चली.

मैं ने रास्ते में उसे बांहों में भरने की कोशिश की, तो उस ने बिना घबराए मुझ से कहा, ‘‘रवि, मैं तुम से कुछ खास बातें करना चाहती हूं. उन बातों को किए बिना तुम को मैं दोस्त से प्रेमी नहीं बना सकती हूं.’’ उसे नाराज कर के कुछ करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी भावनाओं को नियंत्रण में कर के ड्राइंगरूम में आ बैठा और सविता बेहिचक मेरी बगल में बैठ गई.

मेरा हाथ पकड़ कर उस ने हलकेफुलके अंदाज में पूछा, ‘‘मेरे साथ आज का दिन कैसा गुजरा है, रवि?’’

‘‘मेरी जिंदगी के सब से खूबसूरत दिनों में से एक होगा आज का दिन,’’ मैं ने सचाई बता दी.

‘‘तुम आगे भी मुझ से जुड़े रहना चाहोगे?’’

‘‘हां… और तुम?’’ मैं ने उस की आंखों में गहराई तक झांका.

‘‘मैं भी,’’ उस ने नजरें हटाए बिना जवाब दिया, ‘‘लेकिन अंजू के विषय में सोचे बिना हम अपने संबंधों को मजबूत आधार नहीं दे सकते.’’

‘‘अंजू को बीच में लाना जरूरी है क्या?’’ मेरा स्वर बेचैनी से भर उठा.

‘‘तुम उसे दूर रखना चाहोगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वह तुम्हें मेरी प्रेमिका के रूप में स्वीकार नहीं करेगी.’’

‘‘और तुम मुझे अपनी प्रेमिका बनाना चाहते हो?’’

‘‘क्या तुम ऐसा नहीं चाहती हो?’’ मेरी चिढ़ बढ़ रही थी.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने गंभीर लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘रवि, लोग मुझे फ्लर्ट मानते हैं और तुम्हें भी जरूर लगा होगा कि मैं तुम्हें अपने नजदीक आने का खुला निमंत्रण दे रही हूं. इस बात में सचाई है क्योंकि मैं चाहती थी कि तुम मेरा आकर्षण गहराई से महसूस करो. ऐसा करने के पीछे मेरी क्या मंशा है, मैं तुम्हें बताऊंगी. पर पहले तुम मेरे एक सवाल का जवाब दो, प्लीज.’’

‘‘पूछो,’’ उस को भावुक होता देख मैं भी संजीदा हो उठा.

‘‘क्या तुम अंजू को तलाक देने का फैसला कर चुके हो?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने चौंकते हुए जवाब दिया.

‘‘मुझे तुम्हारे दोस्त अरुण से मालूम पड़ा कि अंजू तुम से नाराज हो कर पिछले 2 महीने से मायके में रह रही है. तुम उसे वापस क्यों नहीं ला रहे हो?’’

‘‘हमारे बीच गंभीर मनमुटाव चल रहा है. उस को अपनी जबान…’’

‘‘मुझे पूरा ब्योरा बाद में बताना रवि, पर क्या तुम्हें उस की याद नहीं आती है?’’ सविता ने मुझे कोमल लहजे में टोक कर सवाल पूछा.

‘‘आती है… जरूर आती है, पर ताली एक हाथ से तो नहीं बज सकती है, सविता.’’

‘‘तुम्हारी बात ठीक है, पर मिल कर साथ रहने का आनंद तो तुम दोनों ही खो रहे हो न?’’

‘‘हां, पर…’’

‘‘देखो, कुसूरवार तो तुम दोनों ही होंगे… कम या ज्यादा की बात महत्त्वपूर्ण नहीं है, रवि. इस मनमुटाव के चलते जिंदगी के कीमती पल तो तुम दोनों ही बेकार गवां रहे हो या नहीं?’’

‘‘तुम मुझे क्या समझाना चाह रही हो?’’ मेरा मूड खराब होता जा रहा था.

‘‘रवि, मेरी बात ध्यान से सुनो,’’ सविता का स्वर अपनेपन से भर उठा, ‘‘आज तुम्हारे साथ सारा दिन मौजमस्ती के साथ गुजार कर मैं ने तुम्हें अंजू की याद दिलाने की कोशिश की है. उस से दूर रह कर तुम उन सब सुखसुविधाओं से खुद को वंचित रख रहे हो जिन्हें एक अपना समझने वाली स्त्री ही तुम्हें दे सकती है.

‘‘मेरा आए दिन ऐसे पुरुषों से सामना होता है, जो अपनी अच्छीखासी पत्नी से नहीं, बल्कि मुझ से संबंध बनाने को उतावले नजर आते हैं

‘‘मेरे साथ उन का जैसा रोमांटिक और हंसीखुशी भरा व्यवहार होता है, अगर वैसा ही अच्छा व्यवहार वे अपनी पत्नियों के साथ करें, तो वे भी उन्हें किसी प्रेमिका सी प्रिय और आकर्षक लगने लगेंगी.

‘‘तुम मुझे बहुत पसंद हो, पर मैं तुम्हें और अंजू दोनों को ही अपना अच्छा दोस्त बनाना चाहूंगी. हमारे बीच इसी तरह का संबंध हम तीनों के लिए हितकारी होगा.

‘‘तुम चाहो तो मेरे प्रेमी बन कर सिर्फ आज रात मेरे साथ सो सकते हो. लेकिन तुम ने ऐसा किया, तो वह मेरी हार होगी. कल से हम सिर्फ सहयोगी रह जाएंगे.

‘‘तुम ने दोस्त बनने का निर्णय लिया, तो मेरी जीत होगी. यह दोस्ती का रिश्ता हम तीनों के बीच आजीवन चलेगा, मुझे इस का पक्का विश्वास है.’’

‘‘बोलो, क्या फैसला करते हो, रवि? अंजू और अपने लिए मेरी आजीवन दोस्ती चाहोगे या सिर्फ 1 रात के लिए मेरी देह का सुख?’’

मुझे फैसला करने में जरा भी वक्त नहीं लगा. सविता के समझाने ने मेरी आंखें खोल दी थीं. मुझे अंजू एकदम से बहुत याद आई और मन उस से मिलने को तड़प उठा.

‘‘मैं अभी अंजू से मिलने और उसे वापस लाने को जा रहा हूं, मेरी अच्छी दोस्त.’’ मेरा फैसला सुन कर सविता का चेहरा फूल सा खिल उठा और मैं मुसकराता हुआ विदा लेने को उठ खड़ा हुआ

प्यार झुकता नहीं: कैसे कोरोना ने जोड़ी टूटती शादी

“एक जरूरी बात बतानी थी सुजाता” पटना से उसकी सहेली श्वेता बोल रही थी- “अरूण को कोरोना हुआ है. बहुत सताया था न तुम्हें. अब भुगत रहा है.”
“पर मुझे क्या” वह लापरवाही से बोली- “अब तो तलाक की औपचारिकता भर रह गई है. उसे मुझे भरण-पोषण का खर्च देना ही होगा.”
“और क्या! वह पीएमसीएच में भर्ती है. अब उसकी अकल ठिकाने लग जाएगी. अस्पताल में अपनी साँसें गिन रहा है वो. ऑक्सीजन दिया जा रहा है उसे.”
“क्या बोली, अस्पताल में भर्ती है! होम कोरेन्टाइन में नहीं है वो?”
“नहीं, सिरियस कंडीशन थी. तभी तो हॉस्पीटल जाना पड़ गया.”

हाथ का काम छोड़ वह एकदम धम्म से बैठ गई. मोबाइल फोन गिरते-गिरते बचा. अरे, ये क्या हुआ! उसने तो ऐसी उम्मीद नहीं की थी. वह तो बस इतना चाहती थी कि वह अपने पुराने घर का मोह छोड़ किसी फ्लैट में शिफ्ट करे. वहाँ वह स्वतंत्रतापुर्वक रहेगी और घूमे- फिरेगी. मगर अरूण ने बात का बतंगण बना दिया था. और उससे साफ-साफ कह दिया कि उसको रहना है, तो रहे. अन्यथा कहीं और जाए. मैं अपनी माँ और छोटे भाई को छोड़ कहीं नहीं जाने वाला. बाद में वह उसपर संदेह करने और बात-बात में उल्टे-सीधे आरोप लगाने लगा था.
यह विवाद इतना बढ़ गया कि उसका घर में रहना दूभर हो गया था. इसलिए वह तीन साल के
मुन्ने को ले अपने मायके सासाराम चली आई थी.

अरूण ने साफ-साफ कह दिया कि जब वह गई है, तो उसे बुलाने वाला भी नहीं. भैया उससे बात करने गये, तो वह बोला- “ऐसी भी क्या जिद, जो घर छोड़ चली गई! माँ ने मुझे किस तकलीफ से बड़ा किया है, यह मैं ही जानता हूँ. मैं उसे छोड़ नहीं सकता. हाँ, उसे छोड़ सकता हूँ. आप कह दीजिए कि वह तलाक के पेपर भेज दे. मैं साइन कर दूँगा.”
भैया भी उसे उल्टा-पुल्टा बोल वापस हो गये थे. और वकील से मिलकर उसके तलाक के दस्तावेज तैयार करने लग गये थे.
साल भर से उसके तलाक का केस चल रहा है. वह उससे भरण-पोषण का खर्च भी चाहती थी. और इसलिये अभी तक फैसला नहीं हुआ है. मगर ये क्या हो रहा है. अरूण के न रहने से तो मुन्ना अनाथ हो जाएगा. और वह भी क्या कर लेगी? सोचा था कि कहीं कोई नौकरी पकड़ लेगी. मगर नौकरी मिलना इतना आसान है क्या! और तलाकशुदा, परित्यक्ता औरत को समाज किस नजर से देखता है, यह इतने दिनों में ही जान चुकी है.
वैसे सच तो यही है कि अरूण उसका काफी ख्याल रखता था. उसकी हर इच्छाओं को मान दिया. मगर बाद में कभी विवाद होने पर खरी-खोटी भी सुनाने लगता था. मुन्ने के जन्म
के समय के बाद तो उसमें और परिवर्तन आने लगे थे. पता नहीं क्यों उसे शंका होने लगी थी
कि वह उसे अपनी माँ से अलग करना चाहती है. उस समय उसे भी तो इतना आभास नहीं था
कि बात बढ़ भी सकती है. और वह पलट कर जवाब देने से चूकती नहीं थी.

जिस सुख की तलाश में वह अपने घर आई थी, उसे कहाँ मिल पाया था. घर के सारे दायित्वों को जैसे उसी पर मढ़ दिया गया है. और वह किचन की महाराजिन बन कर रह गई है. भाभी तो जैसे उसे पाकर और निश्चिंत हो अपनी नौकरी करती और आराम फरमाती हैं. उधर भैया भी कठोर हो गये हैं. किसी ने उनके कान भर दिये कि अब तो पैतृक संपत्ति में हिस्सा बँटाने वाली आ गई है.

पहले शाम को जब वह आते, तो मुन्ने के लिए कोई खिलौना या चॉकलेट लाना नहीं भूलते थे. मगर अब वह खाली हाथ घर में घुसते और मुन्ने को घूरते हुए अपने कमरे में चले जाते थे. एकाध बार उसने ‘मामा-मामा’ कहते उनके पीछे लगने की कोशिश की, तो उसे बुरी तरह झिड़क दिया था. और तब से मुन्ना उनसे दूर ही रहता है. उसका बालपन और चंचलता जैसे लुप्त हो गई है.
अब समय बीतने के साथ महसूस होता था कि कहीं कुछ गलत हो गया है. मगर अहं किसी को झुकने देने को तैयार नहीं था. संवादहीनता तो थी ही. और बात जब तलाक के केस- मुकदमों की हो गई, तो रही-सही आस की डोर भी टूट गई थी. जिस सुख की तलाश में वह यहाँ आई थी, वह तो वक्त के कठोर मार से न जाने कहाँ गुम हो गया था.
मगर जब से उसने सुना है कि अरूण कोरोनाग्रस्त हो अस्पताल में भर्ती है, उसकी बेचैनी बढ़ गई है. नहीं, वह उसे ऐसे कैसे छोड़ सकती है. वृद्धा सासू-माँ से अपना ही काम नहीं सम्हलता, उसे कहाँ सम्हालेगी. छोटा भाई अभी किशोर ही है. ऐसे में उसे करना क्या चाहिए, यह उसे असमंजस में डाले हुए था. उसकी आँखों में नींद नहीं थी. ऐसे समय में उसे कुछ करना चाहिए कि नहीं.
यहाँ तो इस महामारी में लोग अनदेखे, अनजाने लोगों के लिए समाज-सेवा कर रहे हैं. तो क्या वह अपने अकेले, असहाय परिचित की, अपने पति की सेवा नहीं कर सकती! वह तो उसकी पत्नी रह चुकी है. क्या हुआ, यदि वह अपने अहं को थोड़ा झुका ही ले. मुन्ने के जन्म के वक्त उसने कितनी दौड़-धूप की थी और रात-दिन एक कर दिया था.

मुन्ने के जन्म के वक्त उसका कहा उसे अभी तक याद है कि ‘डिलिवरी के बाद तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी पुनर्जन्म हुआ है सुजाता. तुम्हारे बिना तो मैं अकेले रहने की सोच भी नहीं सकता.’ और आज वह अस्पताल में अकेले पड़ा है, तो क्या उसके बारे में उसे विचार नहीं करनी चाहिए. नहीं, उसे देखने-सम्हालने के लिए उसे जाना ही चाहिए. इसी से वह मुक्ति पायेगी. उसके ठीक होने तक वहीं रह ले, तो क्या बुरा है. इसमें किसी को कुछ कहने-सुनने का अवसर भी नहीं मिलेगा. आखिर वह किसी अशक्त, बीमार की सेवा ही तो करना चाह रही है.
उसने सुबह-सुबह उठकर चुपचाप तैयारी कर ली और माँ से कहा- “अरूण बीमार है. उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है. यह सुनकर मेरा मन घबरा रहा है. मैं उसे देखने जा रही हूँ.”

“तुम होश में तो हो! वहाँ तुम्हें कौन पूछेगा?” माँ बोली- “बात इतनी आगे बढ़ चुकी है और तुम अपनी बेइज्जती कराने जा रही हो. इस समय लॉकडाउन है. गाड़ी-वाड़ी भी नहीं चल रही है. जाओगी कैसे?”
“मैंने स्पेशल पास के लिये ऑनलाइन आवेदन किया था. और वह बनकर आ गया है. और मैंने एक कार को भाड़े पर बुलाया है.”
अचानक बाहर कार के हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ी, तो वह मुन्ने के साथ बाहर निकल कार में बैठ कर माँ से बोली- “माँ, चिंता नहीं करना. एक पवित्र काम से जा रही हूँ. इसके लिए मना नहीं करना.”
सासाराम से पटना की दो सौ मील की दूरी चार घंटे में पूरी कर जब वह शाम को
अरूण के कंकड़बाग स्थित निवास पर पहुँची, तो वहाँ सन्नाटा सा छाया था. उसकी सास उसे देखते ही रो पड़ी और मुन्ने को गोद में लपककर उठा कलेजे से लगा लिया.
“भैया तो पीएमसीएच में तीन दिन से ऐडमिट हैं” देवर रघु बोला- “उनकी हालत ठीक नहीं है.”
“मुझे अभी उन्हें देखने जाना है” वह बोली- “तुम मेरे साथ चलो.”
“अरे, कुछ खा-पी लो” सासू माँ बोली- “लंबी यात्रा कर आई हो. थकी होगी.”
“नहीं माँ, मुझे अभी देखने जाना होगा. मेरा मन बेचैन हो रहा है.” वह अधीर होती हुई बोली- “आप मुन्ने को देख लेंगी. मैं मुन्ने को अस्पताल नहीं ले जाने वाली.”
“मुन्ने की चिंता मत करो. उसे मैं सम्हाल लूँगी.” वह बोलीं- “ठीक है, चली जाना. मगर हाथ-मुँह धो कपड़े तो बदल लो. तबतक मैं चाय बना लाती हूँ.”
चाय पीकर वह देवर रघु के साथ बाहर निकली और ऑटो को भाड़े पर कर उसमें बैठ गई. तबतक रघु ने अरूण को उसके आने की सूचना दे दी थी.
अरूण पीएमसीएच के कोरोना वार्ड में भर्ती था. डॉक्टर से मिलकर उसने उससे मिलने की इच्छा व्यक्त की. डॉक्टर बोला- “अभी वह थोड़े बेहतर हैं. आप उनसे मिल सकती हैं. मगर कोरोना वार्ड में पीपीई-किट्स पहनकर जाना होगा.”
उसने तुरंत पीपीई-किट्स पहना और नर्स द्वारा इंगित बेड के पास पहुँच गई. अरूण काफी कमजोर हो चुका था. उसे ऑक्सीजन दिया गया था, जिससे उसका ऑक्सीजन लेवल सामान्य पर आ गया था. मगर कोरोना बीमारी से संबंधित दूसरी जटिलताएँ तो थी ही. उसे देखते ही अरूण के आँसू निकलने लगे थे.
“अब मैं आ गई हूँ.” वह उसे आश्वस्त करती बोली- “निश्चिंत रहो. तुम्हें कुछ नहीं होगा”
“मैं यहाँ मर जाऊँगा सुजाता” अरूण कराहते हुए बोला- “रोज मैं मरते हुए लोगों को यहाँ से बाहर जाते देखता हूँ. मैं मरना नहीं चाहता. मुझे इस नर्क से बाहर निकालो. मैं घर जाना चाहता हूँ.”

“मैं डॉक्टर से बात कर उनसे निवेदन करूँगी कि वह तुम्हें घर जाने की इजाजत दे दें. अब मैं आ गई हूँ. और घर पर भी इलाज संभव है.”
डॉक्टर से बात करने पर वह बोले- “हाँ, खतरा तो टल गया है. होम आइसोलेशन कर भी इनका इलाज किया जा सकता है. अगर घर में रखकर इनकी बेहतर देखभाल की जाए, तो जल्दी स्वस्थ हो जाएँगे. आप चाहती हैं इन्हें ले जाना, तो मुझे इन्हें रिलिज करने में कोई आपत्ति नहीं होगी.”
उसने पहले अपनी सास को फोन किया- “माँ जी, आप अरूण का कमरा तैयार रखिये. मैं इन्हें लेकर घर आ रही हूँ.” इसके बाद रघु को फोन कर कहा कि वह तैयार रहे. उसके भैया को घर ले जाने के लिए वह अस्पताल से बाहर निकल रही है.
“अरे, भैया ठीक हो गये!” रघु चकित होते पूछ बैठा- “देखा आपने. आपके आते ही वह ठीक हो गये ना!”
“अभी ठीक नहीं हुए, बस खतरे से बाहर हुए हैं. ” वह गंभीर हो बोली- “पूरी तरह ठीक तो वह घर पर ‘होम आइसोलेशन’ से होंगे.”
सुजाता ने रघु का सहयोग ले अरूण को सहारा दे एम्बुलेंस में सावधानी से बैठाया और ड्राईवर को चलने का इशारा कर खुद बैठ गई.
घर पहुँचते ही अरूण को देख उसकी सास की रूलाई फूट पड़ी, तो वह उन्हें समझाते हुए बोली- “अभी रोने का समय नहीं, उनके देखभाल का समय है. अब मैं आ गई हूँ, तो इन्हें ठीक होना ही है. मैं इन्हें पूरी तरह स्वस्थ करूँगी.”
“तुम इसे अस्पताल से वापस ले आई, यही क्या कम है” वह बोलीं- “मैं तुम्हें क्या
आशीष दूँ बहू, जो तुम मेरे बेटे के साथ हो. अब यह ठीक हो जायेगा.”
अरूण को उसके कमरे में शिफ्ट करने के बाद वह बोली- “इनके कमरे में आने-जाने से आपलोग परहेज रखेंगे. बात करनी हो, तो मास्क लगाकर दूर से ही बात कर लिया करें. और जैसा कि डॉक्टर ने कहा है, आपलोग इनसे संबंधित कोई भी काम करने के उपरांत हाथों को सैनिटाइज करें और साबुन से हाथ धो ले लिया करें. और हाँ, अब आप मुन्ने का ख्याल रखिये.
मैं उनके ठीक होने तक डॉक्टर के निर्देशानुसार उन्हीं का काम और देखभाल किया करूँगी. और इसलिये आपलोग मुझसे भी सुरक्षित दूरी बनाकर रहिये.”
सुबह उठते ही अरूण के ध्यान-प्राणायम-योग से लेकर उसके पीने के गर्म पानी, काढ़ा और भाप लेने की वह व्यवस्था करती. इसके बाद उसके स्नान-पौष्टिक भोजन आदि की व्यवस्था कर उसे निश्चिंत कर ही वह अपने पर ध्यान देती थी. उसके उपयोग में आने वाले कपड़ों चादर-तौलिया आदि तक को अच्छी तरह साबुन और गर्म पानी से धुलाई कर उसे सूखने को देती. इसके उपरांत वह खुद के नहाने-धोने की व्यवस्था में लग जाती थी. अरूण के प्रति निश्चिंत होने के बाद ही वह किचन का रूख करती थी.

पंद्रह दिनों की निरंतर सेवा-सुश्रुशा से अरूण के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हुआ था.
सोलहवें दिन उसने स्वयं के साथ उसका भी कोरोना-चेक करवाया था. अरूण कोरोना पोजिटिव से निगेटिव हो चुका था. मगर अब सुजाता स्वयं संक्रमित हो कोरोना के चक्कर में आ चुकी थी.
“तुम घबराना नहीं सुजाता” अरूण उसे दिलासा देते हुए कहने लगा- “जैसे तुमने मेरी सेवा की. उसी प्रकार मैं तुम्हारी देखभाल करूँगा. तुमने मुझे सेवा का अर्थ बताया. अब मैं उसे पूरा करूँगा.”
और अब सुजाता होम आइसोलेशन में थी. मुन्ना हरदम अरूण की गोद में चढ़ा रहता था. सुजाता की जरूरतों का सभी ख्याल रखते और उसके ठीक होने में हर संभव मदद पहुँचा रहे थे. घर का सारा काम सभी मिल-जुलकर ऐसा निबटाते कि समय का पता ही नहीं चला कि कब बीत गया.
अगले पखवाड़े जब उसकी जाँच हुई, तो वह निगेटिव हो चुकी थी.
“तुमने मुझे बचा लिया अरूण” वह मुस्कुराकर बोली, तो अरूण निश्चिंत भाव से बोला- “मैंने तो सिर्फ अपने कर्तव्य का पालन किया है सुजाता. सच तो यही है कि तुम मुझे मृत्यु के मुँह से वापस खींच लाई हो. तुम्हारे प्यार के वजह से मैं जिंदा बच गया.”
तभी अप्रत्याशित ढंग से अरूण के वकील का फोन आ गया- “आप स्वस्थ होकर घर लौट आए, यह जानकर खुशी हुई है. इतने दिन आपको जानकारी नहीं दी थी. दरअसल आपका केस जटिल हो गया है. अभी तो लॉकडाउन चल रहा है. लॉकडाउन खत्म होने पर संभवतः इसकी सुनवाई अगले महीने की किसी तारिख को हो.”
“अब उसकी कोई जरूरत नहीं वकील साहब” अरूण हँसते हुए मुन्ने को प्यार करते, उसे देखते हुए बोला- “अब हमें अपनी गलतफहमियों का अहसास हो गया है. अब हमें तलाक नहीं चाहिए. मेरी जिंदगी मुझे वापस मिल गई है. इस कोरोना ने अहसास दिलाया कि अंततः हमें अपना परिवार ही सुरक्षा प्रदान करता है. आप तलाक को कैंसिल कराने के लिए आवेदन कर दें.”
सुजाता का मौन जैसे उसे सहमति प्रदान कर रहा था. और अब वह सुजाता से मुखातिब हो कह रहा था- “प्यार को झुकना ही होता है. अपनों की खातिर, अपने परिवार के खातिर यह प्यार झुकना सिखाता है. इस कोरोना ने मुझे यही सीख दी है कि अपना परिवार कितना महत्वपूर्ण है. अंत में वही काम आता है.”
सभी की आँखों में खुशी के आँसू थे.

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