शराबखोरी : कौन आबाद कौन बरबाद?

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक तसवीर खूब वायरल हुई थी. इस में देशी व अंगरेजी शराब की दुकानों के बीच में मद्यनिषेध महकमे का बोर्ड टंगा था. यह तो ठीक वही बात हुई कि पहले चोर से कहो कि तुम चोरी करो और बाद में पुलिस से कहो कि इन्हें मत छोड़ना.

इस तरह के पाखंड व दिखावे तो हमारे समाज में कदमकदम पर देखने को मिलते हैं. मसलन, एक ओर सिगरेट धड़ल्ले से बनतीबिकती हैं, दूसरी ओर उन की डब्बी व इश्तिहारों में लिखते हैं कि ‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है.’ इसी तरह प्लास्टिक, औक्सीटोसिन के इंजैक्शन व फलों को पकाने वाले जहरीले कैमिकल वगैरह से परहेज व पाबंदियां हैं, लेकिन उन्हें बनाने व बेचने की पूरी छूट?है.

सिर्फ एक शराब के मामले में ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति, सरकार व धर्म के ठेकेदारों की उलटबांसियां भी कुछ कम नहीं हैं इसलिए कदमकदम पर बड़े ही अजब व गजब खेल दिखाई देते हैं. मसलन, एक ओर राज्य सरकारों के आबकारी महकमे नशीली चीजों की बिक्री से कमाई करने में जुटे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर समाज कल्याण व मद्यनिषेध जैसे महकमे करोड़ों रुपए इन से बचाव के प्रचार में खर्च करते हैं.

जहांतहां दीवारों पर नारे लिखे जाते हैं, होर्डिंग लगाए जाते?हैं और इश्तिहार दिए जाते हैं कि शराब जहर से भी ज्यादा खराब व नुकसानदायक है. इस तरह 2 नावों पर पैर रख कर करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा बड़ी ही दरियादिली के साथ पानी में बहाया जाता है. इन में कोई एक काम बंद होना जरूरी?है, लेकिन इस की फिक्र किसे है?

कहने को आबकारी महकमे नशीली चीजों की बिक्री पर नकेल कसते हैं, लेकिन असल में तो वे भांग, शराब वगैरह के ठेके नीलाम कर के रंगदारी वसूलते हैं. कहा यह जाता है कि वे लोगों को जहरीली शराब पीने से बचाते हैं. जायज व नाजायज शराब में फर्क बताते हैं. सरकारी कायदेकानून को लागू कराते हैं, लेकिन सब जानते हैं कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं, इसलिए भ्रष्टाचारी खूब खुल कर खेलते हैं.

इसी वजह से गुड़गांव, हरियाणा में रेयान स्कूल के पास अंगरेजी शराब की दुकान चल रही थी. हफ्तावूसली करने वालों की वजह से ज्यादातर ठेकों पर तयशुदा वक्त से पहले व बाद में और बंदी के दिन भी शराब की बिक्री चोरीछिपे बराबर चलती रहती है.

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शराब बेचने की दुकानों को लाइसैंस देने के नाम पर उन से भरपूर कीमत वसूली जाती है. मसलन, उत्तर प्रदेश में आबकारी महकमे का कुल सालाना बजट 122 करोड़, 78 लाख रुपए का है, जबकि साल 2017-18 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आबकारी से 8 अरब, 916 करोड़ रुपए कमाए. जाहिर है कि शराब का धंधा सरकारों के लिए सोने की खान है.

शराब की मनमानी कीमत तो शराब बनाने वाले खरीदारों से लेते ही हैं, इस के अलावा करों के नाम पर अरबोंखरबों रुपए जनता की जेब से निकल कर विकास के नाम पर सरकारी खजाने में चले जाते हैं. इस का एक बड़ा हिस्सा ओहदेदारों की हिफाजत, सहूलियतों, बैठकों, सैरसपाटों, मौजमस्ती वगैरह पर खर्च होता है.

शराब खराब है, यह बात जगजाहिर है. ज्यादातर लोग इसे जानते और मानते भी हैं, लेकिन कमाई के महालालच में फंसी ज्यादातर सरकारें शराबबंदी लागू ही नहीं करती हैं.

गौरतलब है कि गुजरात, नागालैंड, मणिपुर व बिहार समेत देश के 4 राज्यों में शराबबंदी होने से सरकारें कौन सी कंगाल हो गई हैं? उत्तर प्रदेश में सरकार को होने वाली कमाई का महज 17 फीसदी आबकारी से आता है.

इसे दूसरे तरीकों से भी तो पूरा किया जा सकता है. मसलन, तत्काल सेवाओं के जरीए, कानून तोड़ने वालों पर जुर्माना बढ़ा कर, हथियारों, महंगी गाडि़यों वगैरह पर बरसों पुरानी फीस की दरें बढ़ा कर, सरकारी इमारतों व रसीदों पर इश्तिहार लेने जैसे कई तरीके हैं, जिन से जनता पर बिना कर लगाए भी राज्यों की सरकारें अपनी कमाई बढ़ा सकती हैं, लेकिन ज्यादातर ओहदेदार तो खुद शराब पीने के शौकीन होते हैं, इसलिए वे शराबबंदी को लागू करने के हक में कभी नहीं रहते हैं.

यह है वजह

लोग नशेड़ी कैसे न हों क्योंकि हमारा धर्म तो खुद नाश करने की पैरवी करता है. शिवशंकर के नाम पर भांग, गांजा, सुलफा वगैरह पीने वाले साधुमहात्माओं व भक्तों की कमी नहीं है. कांवड़ यात्रा के दौरान तो ऐसे नशेड़ी खुलेआम सामने आ कर सारी हदें पार कर देते हैं. इस के अलावा धर्म की बहुत सी किताबों में सोमरस पीने का जिक्र आता है.

शराब का इतिहास सदियों पुराना है. अंगूर से अलकोहल तक, ताड़ी से कच्ची व जहरीली शराब पी कर बहुत से लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.

दरअसल, हमारा धर्म भी इस की इजाजत देता है. कई देवीदेवताओं की पूजा में शराब का भोग लगाया जाता?

है, फिर उसे प्रसाद के तौर पर भक्तों में बांटा जाता है. काली माई व भैरव के मंदिरों में शराब की बोतलें चढ़ाने जैसे नजारे देखे जा सकते हैं.

शादीब्याह के मौकों पर मौजमस्ती करने, खुशियां मनाने, गम भुलाने, तीजत्योहार या दावतों में मूड बनाने के नाम पर अकसर शराब के दौर चलते हैं. धीरेधीरे शराब पीने की यह लत रोज की आदत बन जाती है. शराब के नशे में इनसान का अपनी जबान, हाथपैर व दिमाग पर काबू नहीं रहता है.

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शराब पीने से शरीर कांपने लगता है. चिड़चिड़ापन, उदासी व बेचैनी बढ़ने लगती है. जिगर खराब होने लगता है. कई तरह की बीमारियां घेरने लगती हैं. इनसान इस का आदी हो जाता है. इस की लत लग जाने पर फिर शराब छोड़ना आसान नहीं रहता. आखिर में शराबी दूसरों की नजरों में भी गिरने लगता है.

फिर भी कई लोग दूसरों को बहलाफुसला कर अपना हमप्याला बनाने के लिए कहते हैं कि शराब पीना सेहत के लिए अच्छा रहता है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है.

नुकसान ही नुकसान

शराब इनसान, उस की जेब व उस के घरपरिवार को तबाह कर देती है, फिर भी इसे पीने वालों की गिनती बढ़ रही है. अब औरतें व बच्चे भी इस के शिकार हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 37 करोड़ से भी ज्यादा लोग शराब पीते हैं. इन में से आधे से ज्यादा लोग बहुत बड़े पियक्कड़ हैं.

शराब पीने से हर साल लाखों लोग बीमारियों व मौत के मुंह में चले जाते हैं. उन की माली हालत खराब हो जाती है. न जाने कितने लोग शराब के नशे में कानून तोड़ते हैं. दूसरों के साथ गालीगलौज, झगड़ाफसाद व दूसरे जुर्म करते हैं. अपने बीवीबच्चों को मारतेपीटते?हैं. लेकिन शराब की लत के शिकार लोगों व सरकारों की आंखें नहीं खुलती हैं.

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शराब पी कर गाड़ी चलाने की वजह से सड़कों पर हो रहे हादसों में लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, लोग फिर भी अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारते रहते हैं. कई बार बेगुनाह भी उन की गलती व लापरवाही के शिकार हो जाते हैं. राह चलते या सड़क किनारे सोने वाले गरीब लोग शराबियों की गाडि़यों की चपेट में आ कर अपनी जान तक गंवाते रहते हैं.

दरअसल, पूरे देश में शराबबंदी लागू होनी लाजिमी है, लेकिन ऐसा करना आसान काम नहीं?है. नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार में शराबबंदी कानून लागू की थी, लेकिन सरकार के इस फैसले को सब से तगड़ा झटका पटना हाईकोर्ट से उस वक्त लगा, जब जारी आदेश में कहा गया कि किसी भी सभ्य समाज में इतने कड़े कानून लागू नहीं किए जा सकते. यह जनता के हकों को छीनने जैसा है.

इस से पहले हरियाण, आंध्र प्रदेश, मिजोरम व तमिलनाडु राज्यों में भी शराबबंदी लागू की गई थी लेकिन भारी दबाब के चलते उसे वापस लेना पड़ा. दरअसल, शराब चाहे जायज तरीके से बनी हो या नाजायज तरीके से, वह सरकारों, नेताओं व पुलिस सब की कमाई का बड़ा जरीया है. राजकाज चलाने वाले ओहदेदार चाहते हैं कि शराब की खपत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहे. ऐसे में जरूरत खुद सोचसमझ कर कदम उठाने की है.

हालांकि शराब की लत छुड़ाने के तरीके व पुनर्वास केंद्र वगैरह हैं, लेकिन इन सब में वक्त व पैसा बहुत लगता?है. साथ ही, तब तक शराब दीमक की तरह अंदर ही अंदर खा कर इनसान को खोखला कर चुकी होती है, इसलिए पहले से ही पूरी सावधानी बरतें, वरना पछतावे के साथ यही करना पड़ेगा कि सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ.

बोल्ड अवतार कहां तक सही

लड़कियों का इंस्टाग्राम पर अपनी बोल्ड तसवीरें पोस्ट करना कोई नई बात नहीं है. सैलिब्रिटी हो या आम लड़कियां सभी खूबसूरत दिखने की दौड़ में शामिल हैं. कोई अपनी पहचान ‘टिकटाक’ से बना रही है, तो कोई ब्लौगिंग से, मगर उन के लिए सब से अलग दिखने का तरीका है बोल्ड तसवीरें पोस्ट करना, जिन में वे अपने पैर, पीठ, कमर, पेट, क्लीवेज आदि दिखाती नजर आती हैं.

कुछ लोग इन महिलाओं, लड़कियों की तसवीरों पर तारीफों के पुल बांधते हैं, तो कुछ उन की निंदा करते हैं. तारीफ करने वाले इस बात से परिचित होते हैं कि ये बोल्ड तसवीरें उन्होंने अपने महीनों की मेहनत से बनाई फिगर के बाद खींची हैं. वहीं दूसरी ओर वे लोग जो संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देते हैं, भारतीय महिलाओंलड़कियों के चरित्र को संजोकर रखना चाहते हैं या फिर वे जो ऐसी फिगर नहीं पा सकते उन के लिए ये तसवीरें किसी कलंक से कम नहीं.

महिलाओं का बोल्ड तसवीरें पोस्ट करना गलत है या फिर लोगों की सोच, यह एक गंभीर मुद्दा है. इस पर केवल 1-2 लोगों की राय ले कर फैसला करना गलत होगा.

हम ने अलगअलग उम्र की महिलाओं से इस सवाल का जवाब देने को कहा:

लड़की: उम्र 22 वर्ष, ‘‘मुझे नहीं लगता कि इस में कोई बुराई है किसी भी लड़की को यह अच्छी तरह पता होता है कि उसे कैसी तसवीरें पोस्ट करनी हैं. यहां लोगों की सोच ही गलत है. हां, लड़कियों को भी अपने आसपास के वातावरण का थोड़ा ध्यान रखना चाहिए. वे जैसी घर में हैं वैसी ही इमेज उन्हें सोशल मीडिया पर दिखनी चाहिए. फिर चाहे वह बोल्ड हो या नहीं.’’

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लड़की: उम्र 24 वर्ष, ‘‘मेरा मानना है कि अगर कोई लड़की अपनी बोल्ड तसवीर पोस्ट कर रही है तो वह कुछ सोचसमझ कर ही कर रही होगी. उसे अच्छे कमैंट भी मिलेंगे और बुरे भी. हर लड़की को बोल्ड और ब्यूटी में फर्क पता होना चाहिए. वैसे आजकल की लड़कियां बहुत समझदार हैं.’’

महिला: उम्र 40 वर्ष, ‘‘अगर महिलाएं अपनी टांगें या टौपलैस बैक दिखाना चाहती हैं

तो ठीक है, क्योंकि इतना तो चलता है. आजकल की जैनरेशन की सोच ठीक ही है. अगर वे इसे नहीं अपनाएंगी तो बैकवर्ड कहलाएंगी. समय के साथ इतना तो चेंज होना ही चाहिए. हां, अपना शरीर बहुत ज्यादा नहीं दिखाना चाहिए. पर थोड़ाबहुत दिखाना चलता है. स्कर्ट वाला फोटो हो या छोटे कपड़ों का सब लाइक करते ही हैं. इतना चलता है.’’

महिला: उम्र 44 वर्ष, ‘‘मुझे लगता है कि किसी भी लड़की को खास कर वह जो सैलिब्रिटी नहीं है, उसे अपनी अच्छी इमेज बनानी चाहिए. थोड़ीबहुत बोल्डनैस तो ठीक है, पर टौपलैस तसवीरें या बिकिनी वाली तसवीरें नहीं. मैं केवल उसी व्यक्ति को अपनी बोल्ड तसवीरें दिखाना पसंद करूंगी जिस से मैं तारीफ चाहती हूं, हर चलतेफिरते आदमी को मुझे अपनी बोल्ड तसवीरें दिखाने का कोई शौक नहीं है.’’

इन चारों के विचारों से साफ पता चलता है कि  बोल्डनैस एक हद तक ही होनी चाहिए. यदि बोल्डनैस हद से ज्यादा होगी तो उसे न्यूडिटी फैलाने से ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता.

क्या कहते हैं सैलिब्रिटीज

सैलिब्रिटीज और अभिनेत्रियों के विचार इन आम महिलाओं व लड़कियों से एकदम अलग हैं. टीवी अदाकारा श्रीजिता डे ने हाल ही में इंस्टाग्राम पर अपनी बिकिनी में तसवीरें पोस्ट कीं, जिन्हें देख कर कई फैंस ने उन्हें ट्रोल भी किया. इस ट्रोलिंग पर सवाल किए जाने पर श्रीजिता कहा कि किसी भी अभिनेत्री के लिए बोल्ड तसवीरें खिंचवाना आम बात है. मुझे कुछ अलग करना था तो मैं भी बिकिनी पहन कर बर्फ पर चली गई. मुझे इस में कोई बुराई नहीं लगी.

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बोल्ड तसवीरों की सूची में बौलीवुड अभिनेत्री ईशा गुप्ता और दिशा पटानी भी हैं. हालांकि लोगों की ट्रोलिंग से बचने के लिए ये दोनों अकसर अपनी तसवीरों से कमैंट का औपशन हटा देती हैं. एम टीवी के शो ‘गर्ल्स औन टौप’ की ईशा यानी सलोनी चोपड़ा अकसर अपनी बोल्ड तसवीरों के बारे में खुल कर अपने विचार रखती हैं. इंस्टाग्राम की एक कैप्शन में लिखती हैं, ‘‘मुझे तब यह बड़ा दिलचस्प लगता है कि जब मीडिया महिलाओं को सैक्सुलाइज करता है तो समाज को फर्क नहीं पड़ता, जब पुरुष महिलाओं को सैक्सुलाइज करते हैं, सरकार व स्कूल उन्हें सोक्सुलाइज करते हैं तो समाज को फर्क नहीं पड़ता, मगर जब एक महिला खुद की सेक्सुऐलिटी को कंट्रोल करती है तो समाज के लिए यह गलत व घृणित हो जाता है.’’

आखिर में बात वहीं आ कर रुक जाती है कि क्या बौल्डनैस गलत है? अगर नहीं तो किस हद तक वह सही है? मुझे लगता है कि किसी भी महिला के लिए अपनी स्थिति, समय और समाज को नजर में रखते हुए खुद को प्रदर्शित करना चाहिए और यदि उन्हें किसी चीज से फर्क नहीं पड़ता तो इस बात से भी वाकिफ होना चाहिए कि लोग तो कहेंगे, उन का काम है कहना.

जवान बेवा: नई जिंदगी की जद्दोजहद

उत्तर प्रदेश के एक गांव नरायनपुर का प्रताप दिल्ली में नौकरी करता था. उस का पूरा परिवार गांव में रहता था. जब से प्रताप दिल्ली में नौकरी कर रहा था, तब से घर के हालात अच्छे हो गए थे. वह हर तीसरे महीने 20,000 रुपए के आसपास घर भेजता था और हर 6 महीने में अपने गांव भी आता था.

एक बार प्रताप गांव आया था. उसी समय गांव में उस के परिवार में ही शादी थी. बरात पास के ही शहर में गई थी. प्रताप भी बरात में चला गया.

अगले दिन जब बरात वापस आ रही थी तो प्रताप की गाड़ी एक ट्रक से टकरा गई. कार और ट्रक की टक्कर इतनी जोरदार थी कि प्रताप और कार में सवार 2 दूसरे लोगों की उसी जगह पर मौत हो गई.

प्रताप की मौत की खबर जैसे ही उस के घर आई, पूरे घर में कुहराम मच गया. प्रताप की मौत ने उस के पूरे परिवार को तितरबितर कर दिया. सब से बुरा असर प्रताप की पत्नी नीलिमा पर पड़ा. 25 साल की नीलिमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस के सामने ऐसा समय भी आएगा.

2 बच्चों की मां नीलिमा के सामने एक तरफ प्रताप की मौत का गम था, तो वहीं दूसरी तरफ रीतिरिवाजों के नाम पर उस का शोषण हो रहा था.

प्रताप के मरते ही नीलिमा के बदन से सुहाग का हर सामान उतार दिया गया. उस को पहनने के लिए सफेद साड़ी दे दी गई. नातेरिश्तेदार और गांव के लोग जब शोक करने आते तो उसे सब के सामने रोना पड़ता. कोई उसे शुभ काम में अपने घर नहीं बुलाता. नीलिमा को लगने लगा कि प्रताप के साथ वह भी मर गई होती तो अच्छा रहता.

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न आएं बहकावे में

36 साल की गीता का पति प्रवेश सरकारी नौकरी करता था. उस को शराब पीने की बुरी आदत थी. इस के चलते प्रवेश का लिवर कब खराब हो गया, उसे पता ही नहीं चला. वह कमजोर रहने लगा. धीरेधीरे बीमारी ने उस के पूरे शरीर को जकड़ लिया.

एक बार प्रवेश को तेज बुखार आया. बुखार ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. ऐसे में प्रवेश को मैडिकल कालेज लाया गया, जहां डाक्टरों ने जांच के बाद पाया कि प्रवेश का लिवर काम नहीं कर रहा है और वह ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाएगा.

प्रवेश की बीमारी की जानकारी उस की पत्नी को लगी तो वह बेहद परेशान हो गई. उसे सम झ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? प्रवेश इस बात की जानकारी अपने परिवार को देना चाहता था, पर गीता ऐसा नहीं चाहती थी.

गीता ने प्रवेश की बीमारी की सूचना अपने मायके वालों को दी. मायके वालों ने गीता को सम झाया कि वह इस बारे में किसी को कुछ न बताए.

एक दिन अचानक प्रवेश की मौत हो गई. गीता ने अपने मायके वालों के कहने पर प्रवेश के परिवार को दूर ही रखा.

गीता के मायके वालों ने सोचा था कि प्रवेश के नाम बैंक में ढेर सारा पैसा होगा और गीता को सरकारी नौकरी मिल जाएगी. सबकुछ उन के कब्जे में आ जाएगा.

जब प्रवेश के औफिस में संपर्क किया गया तो पता चला कि उस के पास बैंक में पैसे के नाम पर कुछ नहीं था. प्रोविडैंट फंड जैसी रकम भी प्रवेश ने निकाल कर नशे में खर्च कर डाली थी. औफिस वालों ने यह भी बताया कि उस के परिवार में किसी को नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि उन के यहां मरने वाले के परिवार के लोगों को नौकरी देने का नियम नहीं है.

गीता के मायके वालों और उस के रिश्तेदारों को जब इस बात का पता चला तो वे उस से दूर होने लगे. पति की असमय मौत ने गीता के सामने मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया था. उस के बच्चे भी अभी इस लायक नहीं थे कि कुछ काम कर सकें.

गीता ने ससुराल वालों को पहले से ही अपने से दूर कर दिया था. उन की नाराजगी यह थी कि उन्हें प्रवेश की मौत के बारे में बताया ही नहीं गया. गीता अपने मायके वालों के बहकावे में आ गई. अब वह पूरी तरह से अकेली हो गई है.

गीता जैसी गलती रूपा ने भी की. रूपा के पति विशाल की मौत भी हादसे में हुई थी. रूपा के 2 साल की बेटी थी. जब पति की मौत हुई उस समय रूपा की उम्र 26 साल थी. उस की 2 बहनें और एक भाई हैं.पति की मौत के बाद रूपा को बीमा और औफिस से कुलमिला कर 8 लाख रुपए मिले थे. मायके वालों ने रूपा को ससुराल में रहने नहीं दिया. उन लोगों ने रूपा से कहा कि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, तुम्हारी दूसरी शादी कर देंगे.

रूपा मायके वालों की बातों में आ कर उन के साथ रहने लगी. ससुराल न जाने से वहां से उस की दूरी बढ़ती गई.

मायके में कुछ दिन बाद सबकुछ नौर्मल हो गया. रूपा की शादी की बात मायके वाले भूल गए. उन के सामने 2 छोटी बहनों की शादी न हो पाने की समस्या थी. वे लोग चाहते थे कि रूपा अपना पैसा बहनों की शादी पर खर्च करे. इस बात को ले कर आपस में मनमुटाव भी बना है.

अब रूपा उन्हीं पैसों से मिलने वाले ब्याज से अपना गुजारा कर रही है. वह अपनी बेटी को पढ़ा भी रही है. अब वह ससुराल भी जाने लगी है, पर उसे इस बात का अफसोस है कि उस ने मायके वालों की बात मानी थी.

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हिम्मत से निभाएं जिम्मेदारी

30 साल की रुचि की शादी को 4 साल बीत गए थे. उस का पति फाइनैंस ले कर ठेकेदारी का काम करता था. ठेकेदारी में सतीश को कभी ज्यादा पैसा मिल जाता था तो कभी नुकसान भी उठाना पड़ जाता था. तनाव में फंस कर सतीश ने एक दिन गोली मार कर जान दे दी.

रुचि के सामने 2 रास्ते थे कि या तो वह ससुराल में सतीश की बेवा के रूप में रहे या फिर मायके चली जाए. रुचि ने अपनेआप को हालात से लड़ने के लिए तैयार किया. उस ने ससुराल वालों से अपने पैसे मांगे. ससुराल वालों ने उसे 3 लाख रुपए दिए.

रुचि अपने मायके आई. उस को डिजाइनर कपड़ों की सिलाई करने का शौक पहले से था. मायके में एक दुकान किराए पर ले कर रुचि ने बुटीक खोला. कुछ दिनों की मेहनत के बाद रुचि का बुटीक चल निकला. अब उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं थी.

रुचि कहती है, ‘‘दोबारा शादी करने में कोई बुराई नहीं है. अगर कोई मनपसंद साथी मिल गया तो शादी कर लूंगी. जब ऐसी मुसीबत आए तो कभी घबराना नहीं चाहिए.

‘‘पत्नी की मौत के बाद पति भी तो घर की सारी जिम्मेदारी संभाल लेता है. उसी तरह पत्नी को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए. इस के लिए पूरी हिम्मत, मेहनत और लगन से काम करना चाहिए. समाज में छुईमुई बनने से काम नहीं होता, उलटे ऐसे लोगों का शोषण ज्यादा होता है.’’

38 साल की देविका की शादी उम्र में 20 साल बड़े प्रभाकर के साथ हुई थी. प्रभाकर को दिल की बीमारी थी. देविका के 2 बेटियां और 2 बेटे थे. एक दिन अचानक प्रभाकर की हार्ट अटैक से मौत हो गई. देविका ने अपने साथसाथ बच्चों को भी संभाला. उन को पढ़नेलिखने की सुविधाएं उपलब्ध कराईं. कभी यह नहीं महसूस होने दिया कि वे बिना बाप के बच्चे हैं.

देविका कहती है, ‘‘पति की असमय मौत तमाम मुसीबत में डाल देती है. मौत ऐसा कड़वा सच है, जिस का सामना किसी को भी करना पड़ जाता है. ऐसे में आप की हिम्मत और सम झदारी ही साथ देती है. कमजोरी का फायदा उठाने वाले हर जगह होते हैं.

‘‘पति की मौत हो जाने पर अपनेआप को पूरी दुनिया से अलग नहीं कर लेना चाहिए. हालात से डट कर मुकाबला करना चाहिए.’’

दूसरी शादी अच्छी बात

नेहा का पति विनय सेना में था. दुश्मनों से लड़ाई के दौरान वह शहीद हो गया. उस समय नेहा की शादी को 8 महीने ही हुए थे. सेना की ओर से पैसा और दूसरी सुविधाएं मिलती देख विनय के घर वालों के मन में मैल आ गया.

वे यह साबित करने में जुट गए कि नेहा और विनय की शादी नहीं हुई थी.

नेहा के घर वाले यह तो चाहते थे कि उस की दूसरी शादी हो जाए, पर वे विनय की जायदाद में हक भी चाहते थे.

इस बात को ले कर दोनों परिवारों के बीच मुकदमेबाजी शुरू हुई. कुछ ही दिनों में दोनों परिवारों को यह समझ आ गया कि मुकदमेबाजी से कुछ नहीं होगा. तब दोनों परिवारों के बीच सम झौता हुआ. नेहा अपना हिस्सा ले कर चली गई.

अब नेहा ने दूसरी शादी कर ली है. वह अपने नए जीवनसाथी के साथ खुश है. वह कहती है, ‘‘पहले समाज में विधवा विवाह को सही नहीं माना जाता था, पर अब लोग इस को बुरा नहीं मानते. इस में कोई बुराई भी नहीं है. समाज का जो ढांचा बना है, उस में किसी कम उम्र की औरत को सारी जिंदगी बिना किसी साथी के गुजार पाना आसान नहीं है. ऐसे में दूसरी शादी करना अच्छा रहता है.’’

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हिम्मत और समझदारी से संवारें भविष्य

* आप के पति के नाम जो भी जायदाद है उसे बिना आप की मरजी के कोई नहीं ले सकता. किसी के बहकावे में आ कर परिवार में  झगड़ा न करें.

* ससुराल और मायके दोनों के बीच सम झदारी से बेहतर तालमेल बिठाएं.

* पैसों का हिसाब अपने पास रखें. बैंक में पैसे रखें या फिर एफडी करा दें. इस के ब्याज का इस्तेमाल अपने खर्चों में करें. भविष्य के लिए पैसे जरूर बचा कर रखें.

* सच कहा जाता है कि रखा पैसा काम नहीं देता, इसलिए अपनी दिलचस्पी और काबिलीयत के हिसाब से काम करने में संकोच न करें. इस से पैसे भी मिलेंगे और आप का मन भी लगा रहेगा.

* अगर उम्र कम हो तो दूसरी शादी करने में परहेज न करें. रूढि़यों में न फंसें. कुछ दिन बाद कोई कुछ नहीं कहता है.

* बेवा होना आप का दुर्भाग्य नहीं हादसा भर है. इस को ले कर परेशान न हों. पत्नी के मरने पर पति को तो लोग कुछ नहीं कहते, फिर औरतों के साथ ही यह बरताव क्यों?

* अपने बच्चों का खयाल रखें. पिता के न रहने पर वह अनुशासन से बाहर हो जाते हैं. ऐसे में मुसीबतें आएंगी, जिन का मुकाबला आप को ही करना पड़ेगा. इस में पैसा और सुकून दोनों जाएंगे.

* पति की मौत के बाद होने वाले कर्मकांड न करें. इस में पैसा भी खर्च होता है. इस के अलावा शारीरिक और मानसिक कष्ट अलग से होता है.

* पुनर्जन्म और भाग्य जैसा कुछ नहीं होता है. इस को संवारने के नाम पर ब्राह्मण केवल पैसा कमाने का काम करते हैं.

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* बेवा के कपड़ों में न रहें. ऐसा करने से मन में हीनभावना आती है.

* अगर कोई मर्द थोड़ा इंट्रैस्ट दिखाए तो उसे दुत्कारें नहीं. चाहे उस की चाहत केवल बदन तक हो. बेवाओं के लिए वे काम के हो सकते हैं. थोथी शराफत पर जिंदगी खराब न करें.

कुंआरियों की शादीशुदा मर्दों के लिए चाहत

जहां तक हम, आप और सब जानते हैं कि कोई भी लड़की चाहे सबकुछ बरदाश्त कर ले, पर सौत तो हरगिज बरदाश्त नहीं कर सकती, पर यह एक अजीब बात है कि कुंआरी लड़कियां, जिन्हें शादी कर के अपना घर बसाना होता है, किसी कुंआरे के बजाय शादीशुदा के प्यार के जाल में फंस जाती हैं.

हालांकि बहुत से ऐसे मर्द किसी कुंआरी का प्यार पाने के लिए इस हकीकत को बड़ी बेशर्मी से छुपा भी जाते हैं कि वे शादीशुदा हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता कि इन कुंआरियों को अपने प्रेमी की शादी की बात पता नहीं होती. उन्हें इस बात का बहुत अच्छी तरह पता होता है कि उन का प्रेमी न सिर्फ शादीशुदा है, बल्कि बालबच्चों वाला भी है.

दरअसल, सैक्स संबंधी इस खिंचाव में जो बात काम करती है, उस का उम्र, पढ़ाईलिखाई, पद, इज्जत, पैसा या शादी होना जैसी बातों से कोई खास मतलब नहीं होता. यों कहिए कि मतलब होता ही नहीं.

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अकसर ऐसा होता है कि कोई कुंआरा लड़का किसी हसीन कुंआरी लड़की को देखदेख कर बस आहें भर रहा होता है, वह जुगाड़ भिड़ा रहा होता है कि कैसे उस के साथ अपने प्यार की पेंगें बढ़ाई जाएं और तभी कोई बड़ी उम्र का शादीशुदा, पर सुल झा हुआ आदमी उस सुंदरी को अपनी बांहों की गिरफ्त में ले लेता है. अब वह कुंआरा मन ही मन उस बड़ी उम्र के शादीशुदा आदमी पर चाहे जितनी खी झ उतारता रहे, बाजी तो उस के हाथ से जाती ही रही है और लड़की भी अपने शादीशुदा प्रेमी की बांहों में बड़े मजे से  झूला  झूलती रहती है.

ऐसा क्यों होता है

ऐसे मर्दों में कई खास गुण होते हैं, जो आमतौर पर कुंआरे लड़कों में नहीं होते. सब से पहले तो आप इस बात पर गौर कीजिए कि लड़कियां मर्दों से चाहती क्या हैं? जहां तक मेरा खयाल है, कोई भी लड़की प्रेम की गंभीरता पसंद करती है. प्रेम की यह गंभीरता ज्यादातर कुंआरे लड़कों में नहीं होती है.

ज्यादातर कुंआरे लड़के छिछोरे टाइप होते हैं और फिल्म स्टाइल में कपड़े पहन कर, बाल  झाड़ कर, गाने गा कर, फिकरे कस कर या फिर उलटीसीधी हरकतें कर के लड़कियों को रि झाना चाहते हैं, पर होता इस का बिलकुल उलटा ही है. ऐेसे सड़कछाप मजनू लड़कियों के प्रेम का तो नहीं, पर उन के सैंडलों का स्वाद बहुत जल्द चख लेते हैं.

कुछ दूसरी तरह के कुंआरे लड़के होते हैं, जिन में अपने प्यार को जाहिर करने की न तो हिम्मत होती है, न कोई उचित तरीका ही उन्हें पता होता है और ऐसे कुंआरे लड़के जब किसी लड़की का प्यार पाने के लिए उलटीसीधी कोशिश करते हैं, तो लड़की की नजर में मजाक ही बनते हैं, उस के प्रेमी नहीं.

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होते हैं सलीकेदार

हालांकि ऐसा बिलकुल नहीं है कि हर शादीशुदा मर्द कुंआरी लड़की का प्रेम पाने में कामयाब हो ही जाता है और हर कुंआरा लड़का किसी लड़की का प्रेम पाने में नाकाम ही रहता है.

हमारा कहना तो सिर्फ यह है कि शादीशुदा मर्दों में कुछ ऐसे खास गुण होते हैं, जिन की ओर लड़कियां आसानी से खिंच जाती हैं, जैसे सुल झी शख्सीयत का होना, लड़की के बारे में हर छोटीछोटी बात की बेहतर सम झ होना वगैरह. ये गुण शादी होने के बाद मर्द के अंदर आ जाते हैं, जबकि कुंआरे लड़कों में इन की कमी ही रहती है.

फिर कुंआरा लड़का अपनी हमउम्र प्रेमिका से जलन की भावना भी रख सकता है और उन की भावनाओं को चोट भी पहुंचा सकता है, जबकि बड़ी उम्र का बालबच्चों वाला शादीशुदा मर्द अपनी कुंआरी प्रेमिका के आंसू पूरी हमदर्दी और सम झदारी के साथ पोंछने की ताकत रखता है. वह अपनी प्रेमिका को पूरी सिक्योरिटी और पूरा प्यार दे सकता है. वह कुंआरे लड़कों की तरह बेवकूफी वाली हरकतें नहीं करता. उस का बरताव इतना सलीकेदार होता है कि ऐसी खासीयतें किसी कुंआरे लड़के में मुश्किल से ही मिलती हैं.

मुसीबतें नहीं खड़ी करते

हां, इस सब के अलावा शादीशुदा मर्दों की एक खास बात यह भी होती है कि जब कोई लड़की अपने शादीशुदा प्रेमी को प्रेम करने के बाद किसी तरह से उस का दिल तोड़ देती है, तो वह प्रेमी बड़ी आसानी से ऐसी बेवफा प्रेमिका को भूल जाता है और उस के लिए कोई परेशानी नहीं खड़ी करता. उस के आंसू पोंछने के लिए बेचारी बीवी होती है, जबकि ऐसे हालात में कुंआरे लड़के अपनी प्रेमिका के लिए भारी मुसीबतें खड़ी कर देते हैं, क्योंकि उन की भावनाओं को कंट्रोल करने के लिए कोई नहीं होता है.

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इसलिए यह कहा जा सकता है कि जो खासीयतें शादीशुदा मर्दों में आ जाती हैं, वे ही अगर कुंआरे लड़कों में आ जाएं तो कोई वजह नहीं कि कोई हसीना उन की बांहों में न जाए, आखिर कोई लड़की अपनी सौत तो नहीं चाहती है न.

संभल कर खाओ ओ दिल्ली वालो

बचपन में जब कभी मैं अपने गांव जाता था तो वहां के मेरे दोस्त मुझे अकसर ही छेड़ते रहते थे कि ‘दिल्ली के दलाली, मुंह चिकना पेट खाली’. तब मुझे बड़ी चिढ़ मचती थी कि मैं इन से बेहतर जिंदगी जीता हूं, फिर भी ये ऐसा क्यों कहते हैं?

यह बात याद आने के पीछे आज की एक बड़ी वजह है और वह यह कि दिल्ली और केंद्र सरकार में दिल्ली की कच्ची कालोनियों को पक्का करने की होड़ सी मची है. वे उन लोगों को सब्जबाग दिखा रहे हैं, जो देश की ज्यादातर उस पिछड़ी आबादी की नुमाइंदगी करते हैं जो यहां अपनी गरीबी से जू झ रहे हैं, क्योंकि उन के गांव में तो रोटी मिले न मिले, अगड़ों की लात जरूर मिलती है.

पर, अब तो दिल्ली शहर भी सब से छल करने लगा है. यहां के लोगों को रोजीरोटी तो मिल रही है पर जानलेवा, फिर चाहे वे पैसे वाले हों या फटेहाल. बाजार में खाने का घटिया सामान बिक रहा है.

दिल्ली के खाद्य संरक्षा विभाग ने इस मिलावट के बारे में बताते हुए कहा कि साल 2019 की 15 नवंबर की तारीख तक 1,303 नमूने लिए गए थे. उन में से 8.8 फीसदी नमूने मिस ब्रांड, 5.4 फीसदी नमूने घटिया और 5.4 फीसदी ही नमूने असुरक्षित पाए गए. ये नमूने साल 2013 से अभी तक सब से ज्यादा हैं.

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यहां एक बात और गौर करने वाली है कि जिन व्यापारियों के खाद्य सामान के नमूने फेल हुए हैं, उन के खिलाफ अलगअलग अदालतों में मुकदमे दर्ज मिले हैं. पर यह तो वह लिस्ट है, जहां के नमूने लिए गए, लेकिन दिल्ली की ज्यादातर आबादी ऐसी कच्ची कालोनियों में रहती है, जहां ऐसे मानकों के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता होगा.

साफ पानी के हालात तो और भी बुरे हैं. साफ पानी की लाइन में सीवर के गंदे पानी की लाइन मिलने की खबरें आती रहती हैं.

ऐसी बस्तियों में ब्रांड नाम की कोई चीज नहीं होती है. हां, किसी बड़े ब्रांड के नकली नाम से बने सामान यहां धड़ल्ले से बिकते हैं. पंसारी की खुली बोरियों में क्याक्या भरा है, किसे पता?

पिछले साल के आखिर में दिल्ली की बवाना पुलिस ने जीरा बनाने की एक ऐसी फैक्टरी पकड़ी थी, जहां फूल  झाड़ू बनाने वाली जंगली घास, गुड़ का शीरा और स्टोन पाउडर से जीरा बनाया जा रहा था. इस जीरे को दिल्ली के अलावा गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व दूसरी कई जगह बड़ी मात्रा में सप्लाई किया जाता था. इस नकली जीरे को असली जीरे में 80:20 के अनुपात में मिला कर लाखों रुपए में बेच दिया जाता था.

यह तो वह मिलावट है जो पकड़ी गई है, बाकी का तो कोई हिसाबकिताब ही नहीं है. दिल्ली के असली दलाल तो ये मिलावटखोर हैं, जो एक बड़ी आबादी को शरीर और मन से इस कदर बीमार कर रहे हैं कि उस का मुंह भी चिकना नहीं रहा है. कच्ची कालोनियों को पक्का करने से पहले ऐसे मिलावटखोरों का पक्का इंतजाम करना जरूरी है.

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बढ़ते धार्मिक स्थल कितने जरूरी?

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

जब अंगरेज पहली बार भारत आए थे, तब वे यहां का गौरव देख कर दंग रह गए थे. चालाक अंगरेजों ने यह भी देखा था कि भारत के लोगों की धर्म में अटूट आस्था है. हर गांव में एक मंदिर और वह भी एकदम भव्य. उसी गांव के एक छोर पर उन्होंने मसजिद देखी और तब अंगरेजों को सम झते देर न लगी कि भारत में कई धर्मों के मानने वाले लोग रहते हैं.

अब हम आजाद हैं और बहुत तेजी से तरक्की भी कर रहे हैं, पर सवाल यह है कि क्या एक शहर में इतने ज्यादा मंदिर या मसजिद, गुरुद्वारा या चर्च की जरूरत है या हम महज एक दिखावे के लिए या सिर्फ अपने अहंकार को पालने के लिए इन्हें बनाए जा रहे हैं?

सिर्फ एक धर्म के लोग ही ऐसा कर रहे हों, ऐसा नहीं है, बल्कि यह होड़ हर धर्म के लोगों में मची हुई है. शहर के किसी हिस्से में जब एक धर्मस्थल बन कर तैयार हो जाता है तो तुरंत ही उसी शहर के किसी दूसरे हिस्से में दूसरे धर्म का धर्मस्थल बनना शुरू हो जाता है और दूसरा वाला पहले से भी बेहतर और भव्य होता है.

धर्मस्थल बनने के बाद कुछ दिन तो उस में बहुत सारी भीड़ आती है, फिर कुछ कम, फिर और कम और फिर बिलकुल सामान्य ढंग से लोग आतेजाते हैं.

मैं अगर अपने एक छोटे से कसबे ‘पलिया कला’ की बात करूं तो यहां पर ही 17 मंदिर, 12 मसजिद और एक गुरुद्वारा है. अभी तक यहां किसी चर्च को नहीं बनाया गया है.

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इन मंदिरों की देखरेख पुजारियों के हाथ में है. ऐसा भी नहीं कि सारे के सारे पुजारी मजे करते हैं, बल्कि कुछ मंदिरों के पुजारी तो गरीब हैं.

हिंदू धर्म कई भागों में बंटा हुआ है. मसलन, वैश्य खाटू श्याम मंदिर में जाते हैं तो कुछ नई पीढ़ी के लोग सांईं बाबा पर मेहरबान हो रहे हैं, इसलिए खाटू श्याम मंदिर और सांईं बाबा मंदिर के पंडों की जेब और तोंद रोज फूलती जा रही हैं.

चूंकि सांईं बाबा का मंदिर शहर से अलग जंगल की तरफ पड़ता है, इसलिए वहां पर जाने वाले लड़केलड़कियों के एक पंथ दो काज भी हो जाते हैं. वे सांईं के दर्शन तो करते ही हैं, साथ ही इश्क की पेंगें भी बढ़ा लेते हैं.

यहां पर दरगाहमंदिर नाम से एक हिंदू मंदिर भी है, जो एक सिंधी फकीर शाह बाबा के चेलों ने बनवाया है. यहां की मान्यता है कि जो भी आदमी या औरत कोई भी मन्नत मांगता है तो उसे लगातार 40 दिन आ कर मंदिर में  झाड़ूपोंछा करना पड़ता है, जिसे ‘चलिया’ करना’ कहते हैं.

लोगों की लाइन तो ‘चलिया करने’ के लिए लगी ही रहती है. अब भक्तों की मुराद पूरी हो या न हो, पर बाबाजी का उल्लू तो सीधा हो ही रहा है न.

पंचमुखी हनुमानजी के मंदिर में एक बाबा हैं, जो मुख्य पुजारी हैं. वे बड़ी सी लंबी दाढ़ी बढ़ा कर, गेरुए कपड़े पहन कर बड़े आकर्षक तो नजर आते हैं, पर असलियत में उन पर एक हत्या का केस चल रहा है. पर वे बजरंग बली की सेवा में आ गए तो सफेदपोश बन गए हैं.

शहर के हर कोने में बहुत सारे धर्मस्थल बनाने से अच्छा है कि हर छोटेबड़े शहर में हर धर्म का एक ही धर्मस्थल हो और उस शहर के सारे लोग एक ही जगह पूजापाठ, प्रार्थना, नमाज वगैरह कर सकें. हां, इस में उमड़ी हुई भीड़ को संभालना एक बड़ी बाधा हो सकती है, पर उस के लिए प्रशासन की मदद ली जा सकती है.

किस शहर में कितने धर्मों के कितनेकितने धर्मस्थल हों, यह वहां की आबादी के मुताबिक भी तय किया जा सकता है. जो धर्मस्थल बन चुके हैं, उन को वैसे ही रहने दिया जाए. पर नए बनाने या न बनाने के बारे में सरकार को एक बार जरूर सोचना चाहिए.

अर्थशास्त्र का एक नियम यह भी है कि ‘इस दुनिया में आबादी तो बढ़ेगी, पर जमीन उतनी ही रहेगी’. अब वे धर्मस्थल तो जहां बन गए वहां बन गए, चूंकि धर्मस्थलों से हर एक की आस्था जुड़ी होती है, इसलिए उन को किसी भी तरह से छेड़ना सिर्फ  झगड़े को ही जन्म देगा.

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आज हमारे देश की सब से बड़ी जरूरत है चिकित्सा और भूखे को भरपेट भोजन. हमारे देश में बहुत गरीबी है, पर भव्य धर्मस्थलों को बनाने के लिए बहुत सा पैसा इकट्ठा हो जाता है, शायद किसी गरीब की लड़की की शादी के लिए कोई भी पैसा न दे, पर धर्मस्थल बनाने के लिए हर कोई बढ़चढ़ कर सहयोग करता है.

नेता ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवा कर जनता के एक बड़े तबके को आकर्षित करने में तो कामयाब हो जाते हैं और अपना वोट बैंक पक्का कर लेते हैं, पर आम जनता को इस से कोई फायदा नहीं होता है.

हां, धर्मस्थलों के बनने से एक फायदा तो जरूर होता है और वह यह कि मुल्ला, पुजारियों और पादरी को नौकरी का सहारा जरूर मिल जाता है. सब से ज्यादा चंदा देने वाले सेठ की तख्ती भी लगा दी जाती है. सेठ का पैसा भी काम आ जाता है और उस की पब्लिसिटी भी हो जाती है.

आज समाज में बहुत सी ऐसी भयावह समस्याएं हैं, जिन के लिए गंभीरता से कोशिश करनी होगी, जैसे कैंसर की बीमारी तेजी से फैल रही है. हमें कैंसर की रोकथाम के लिए बेहतर से बेहतर अस्पताल चाहिए, ज्यादा से ज्यादा डाक्टर चाहिए.

इसी तरह अच्छे और सस्ते स्कूलों की कमी है. ऐसे अनाथालयों की भी बेहद कमी है, जो बिना किसी फायदे के अनाथों की सेवा कर सकें. ज्यादा धार्मिक स्थल अपने साथ ज्यादा पाखंड लाते हैं. इन पाखंडों और अंधविश्वासों से बचने का तरीका है कि इन की तादाद सीमित की जाए.

देश में उद्योगों को लगाने के लिए जमीन नहीं मिलती. लोग अपने घरों में कारखाने लगाते हैं और उन पर छापामारी होती रहती है. खुदरा बिक्री करने वालों को दुकानें नहीं मिलतीं और वे पटरियों, सड़कों, खुले मैदानों, बागों, यहां तक कि नालों पर दुकानें लगाते हैं, जहां सरकारी आदमी वसूली करने आते हैं, पर मंदिरों को हर थोड़ी दूर पर जगह मिल रही है.

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मंदिरों में नौकरियां पंडों को मिलती हैं या फूलप्रसाद वगैरह बेचने वालों को. कारखानों और दुकानों में सैकड़ों को नौकरियां मिल सकती हैं, पर उन के लिए पैसों की कमी है.

भारत में जिस तरह से आज धार्मिक नफरत फैल रही है, उस पर लगाम लगाने का भी यह एक अच्छा तरीका है, क्योंकि धार्मिक स्थल जितने कम होंगे, आपसी  झगड़े उतने ही कम होंगे.

ऐसे मुद्दे पर निदा फाजली का एक शेर याद आता है:

घर से मसजिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.

अमीर परिवारों की बहूबेटियों को सौगात

लेखक- रामकिशोर दयाराम पंवार

केंद्र की सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान को बढ़ावा देने के लिए साल 2006-07 में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना के निर्देशन में देशभर में 750 आवासीय स्कूलों को खोलना शुरू किया था. इन विद्यालयों में कम से कम 75 फीसदी सीटें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक वर्गों की बालिकाओं के लिए आरक्षित हैं. अन्य में 25 फीसदी सीटें गरीबी रेखा के नीचे गुजरबसर करने वाले परिवार की बालिकाओं के लिए आरक्षित की गई हैं.

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना को हकीकत में बदलने के लिए कस्तूरबा गांधी बालिका आवासीय विद्यालय में अब 12वीं तक की पढ़ाई होती है. इस में केंद्र सरकार 75 फीसदी और राज्य सरकार 25 फीसदी राशि का योगदान कर रही है.

मध्य प्रदेश के 47 जिलों के तकरीबन 207 विकास खंडों में 100, 150, 200 सीट वाले बालिका छात्रावासों को चलाया जा रहा है. इन सभी छात्रावासों में सहायक राज्य शिक्षा मिशन द्वारा वार्डन, लेखपाल की जिला स्तर पर नियुक्ति की गई, जो जिला स्तरीय नियुक्ति समिति द्वारा की जानी है, पर प्रदेश में कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद 3 साल से ज्यादा कार्यकाल पूरा कर लेने वाली वार्डनों को हटा कर उन की जगह समाचारपत्रों में विज्ञापन जारी कर नई नियुक्ति के आवेदन मंगा कर उन का योग्यता के आधार पर चयन किया जाना था, लेकिन मध्य प्रदेश के अकेले बैतूल जिले में 4 कस्तूरबा गांधी बालिका छात्रावासों की वार्डनों की नियुक्ति के लिए की गई विधायकों की सिफारिश गोरखधंधे का रूप ले गई.

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बैतूल जिले में 4 कस्तूरबा गांधी बालिका छात्रावास हैं. ये भीमपुर में चिल्लौर, आठनेर में मांडवी, घोड़ाडोंगरी में चोपना और शाहपुर में बीजादेही में बने हैं. चिल्लौर बालिका छात्रावास में सब से ज्यादा समय तक वार्डन पद पर रही भाजपा अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ के जिलाध्यक्ष व जिला भाजपा महामंत्री राम भलावी की बेटी किरण भलावी भीमपुर जनपद शिक्षा केंद्र में नौकरी करने के साथसाथ बालिका छात्रावास की वार्डन रहीं.

गंभीर शिकायतों और माली अनियमितताओं के चलते उसी कुरसी पर किरण भलावी की नियुक्ति हो जाना सम झ से परे की बात रही है. उन की नियुक्ति में विधायक से ले कर जिले के मंत्री तक कूद पड़े. वार्डन के पिता को भाजपा जिला महामंत्री का पद छोड़ कर कांग्रेस में आना पड़ा. यही पिता कल भाजपा के सत्ता में आने के बाद एक बार फिर बेटी के लिए कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जा सकता है.

बैतूल जिले में बालिका छात्रावासों में साल 2015 से काम कर रही सभी वार्डनों को हटा कर उन की जगह पर आवेदन मंगा कर वार्डनों का चयन किया जाना था, लेकिन जिला पंचायत उपाध्यक्ष नरेश फाटे की बहू प्रीति फाटे को बालिका छात्रावास सदर की कुरसी से नहीं हटाया गया, क्योंकि प्रीति फाटे प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री सुखदेव पांसे की सगी मौसी सास हैं.

इसी तरह सुनीता नरवरे को मांडवी वार्डन के पद से हटाया जाना था, लेकिन बैतूल विधायक निलय विनोद डागा ने उन का कार्यकाल बढ़ाने और उन्हें न हटाने पर जोर दिया. चिल्कापुर बालिका छात्रावास की वार्डन गीता सेलकरी को न हटाने की चिट्ठी लिख दी गई. लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री सुखदेव पांसे ने भी किरण भलावी को पहले चिल्लौर, बाद में जंबाड़ा, उस के बाद कुनखेड़ी बालिका छात्रावास की वार्डन बनाने के लिए चिट्ठी लिख डाली.

घोड़ाडोंगरी के विधायक ब्रह्मा भलावी ने किरण भलावी को चिल्लौर, सलामे को बीजादेही बालिका छात्रावास की वार्डन बनाने व बीजादेही की वार्डन आशा कांवरे को हटाने की चिट्ठी लिख दी.

सर्वशिक्षा अभियान के तहत केंद्र व राज्य सरकार से मिलने वाली मोटी अनुदान रकम इस समय हर जिले के छात्रावासों में चूहेबिल्ली की लड़ाई का केंद्र बनी है.

कस्तूरबा गांधी बालिका छात्रावास को हर साल 40 लाख रुपए से 60 लाख रुपए और बालिका छात्रावास को 20 लाख रुपए से ले कर 32 लाख रुपए का अनुदान मिलता है.

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इन छात्रावासों में महिला रसोइया, चौकीदार, अंशकालिक स्वीपर, लेखपाल की कहने को तो शाला प्रबंधन समिति द्वारा नियुक्ति की जाती है, लेकिन होता ऐसा कुछ भी नहीं है. स्थानीय छुटभैए नेता रसोइया से ले कर चौकीदार तक की नियुक्तियां करा कर पूरे बालिका आवासीय विद्यालय को अपनी मुट्ठी में रख कर उस का सालभर दोहन करने का काम करते हैं.

हर जिले में व्यावसायिक शिक्षा के लिए अंशकालिक टीचरों की नियुक्ति शाला प्रबंधन समिति द्वारा की जानी थी, लेकिन ब्लौक परियोजना समन्वयक और जिला परियोजना समन्वयक द्वारा बारबार की जाने वाली दखलअंदाजी की कार्यवाही के चलते पुराने कर्मचारियों को हटा कर नई नियुक्तियां नहीं की जा सकी हैं, जबकि पद खाली हो चुके हैं.

यह सच भी अपनेआप में अटल है कि माली अपराधों से जुड़े लोग ही ऐसी मलाईदार कुरसी पर बैठने के लिए हर तरह के गलत काम करने की ताकत रखते हैं.

रिलेशनशिप्स पर टिक-टोक का इंफ्लुएंस

युवाओं का रिलेशनशिप में आना आम है. कक्षा छठी या सांतवी में आते ही इन रिलेशनशिप्स का सिलसिला शुरू होता है और लगभग उम्रभर चलता ही रहता है. यह आज की बात नहीं है बल्कि हमेशा से ही लोग प्रेम में पड़ते रहे हैं और रिलेशनशिप में भी आते ही रहे हैं, लेकिन रिलेशनशिप के मायने अब बदल चुके हैं.

आज सोशल मीडिया का इंफ्लुएंस युवाओं पर इतना ज्यादा है कि उन्हें अपने रिलेशनशिप से कभी संतुष्टि मिलती ही नहीं है. इस असंतुष्टि का ही परिणाम है कि वर्तमान में बच्चे 15 साल की उम्र में खुद को हार्टब्रोकेन बता घूमते हैं. सोश्ल मीडिया खासकर टिकटोक पर 20 करोड़ से ज्यादा यूजर्स हैं जिन में 12 करोड़ एक्टिव हैं.

टिकटोक पर जिस तरह का कंटैंट इन युवाओं को परोसा जा रहा है वह न केवल अव्यव्हारिक है बल्कि अनैतिक व आपत्तिजनक भी है. टिकटोक पर वैसे तो कई अलग-अलग तरह की वीडियोज पोस्ट होते हैं, किसी में कोई डांस करता हुआ नजर आता है, किसी में लिप सिंक करता हुआ तो किसी में फिल्मी सीन जैसा दृश्य दिखाया जाता है. युवाओं व किशोरों के लिए रिलेशनशिप के मायने बदलने में टिकटोक का इंफ्लुएंस लगातार बढ़ रहा है.

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हालांकि, टिकटोक के रिलेशनशिप पर असर को ले कर अभी कोई स्टडी या रिसर्च सामने नहीं आई है लेकिन रिलेशनशिप को वैचारिक तौर पर बदलने में इस की भूमिका दिन ब दिन पैठ जमा रही है. कैसे? आइए नजर डालते हैं.

बड़ा पछताओगे’

इस फिल्मी गाने को टिकटोक पर अलगअलग कोन्सेप्ट्स में यूज किया गया है. ज्यादातर विडियोज में या तो लड़की इस गाने को गाते हुए लड़के को कह रही है कि बड़ा पछताओगे या लड़का लड़की को. ऐसी ही एक विडियो में लड़का किसी लड़की से बातें कर रहा है, फिर वह अपनी गर्लफ्रेंड को देखता है और उस के पास आने लगता है तो उस की गर्लफ्रेंड उस के सामने से दूसरे लड़के को ला निकलने लगती है. बैक्ग्राउंड में ‘मुझे छोड़ के जो तुम जाओगे बड़ा पछताओगे, बड़ा पछताओगे…’ चलता रहता है.

आई केन टेक यौर मैन

इस साउंड पर बनी विडियो में लड़कियां दूसरी लड़कियों को कहती हैं, ‘आई केन टेक यौर मैन इफ आई वांट टू, बट गुड फोर यू आई डोंट वांट टू’ यानी मैं चाहूं तो तुम्हारे बौयफ्रेंड या पति को जब चाहे पा सकती हूं पर तुम्हारे लिए अच्छा है कि मैं पाना नहीं चाहती. इस हैशटैग से टिकटोक पर 16 करोड़ से ज्यादा विडियोज मौजूद हैं.

द एक्स फैक्टर

अब लोग रिलेशनशिप में आएंगे तो ब्रेकअप तो होगा ही फिर चाहे परमानेंट हो या टेम्पोररी. अब टिकटोक पर एक्सेस को ले कर अनगिनत विडियोज हैं जिन का न कोई सिर है न पैर. जैसे, कहीं कोई अपने एक्स के लिए रो रहा है, कोई शीशे पर एक्स लिख कर उस पर मुंह से पानी उगल रहा है, कोई उसे उलाहनाएं दे रहा है तो पैरों पर गिर रहा है.

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रुला के गया इश्क तेरा

रिलेशनशिप का एक और ड्रामा जिस में अधिकतर तीन तरफा प्यार दिखाने की कोशिश की जाती है. इतना शायद असल जीवन में कोई सोचता नहीं होगा पहले जितना अब इन विडियोज के बाद लोगों ने अपनी बेस्टफ्रेंड के साथ अपने बौयफ्रेंड के अफेयर के बारे में सोचना शुरू कर दिया है. कभी पीठ के पीछे कोई बेवफाई कर रहा होता है तो कभी आंख के आगे जिसे देख लड़की कुछ कहती भी तो नहीं क्योंकि प्यार जो करती है. कैसी विकृत मानसिकता है ये.

इंफ्लुएंस्ड होना रोकें

ऊपर जिन चंद विडियोज के उदाहरण दिए गए हैं उन के कौंसेप्ट कोई बड़े राइटर तैयार नहीं करते बल्कि आम लोग करते हैं जो अपनी अजीबो-गरीब सोच को अच्छी एक्टिंग के साथ लोगों के सामने परोसते हैं और लोग उन्हें वाहवाही तक देते हैं. इस में दोराय नहीं कि यह सोच न केवल उन के अपने जीवन में वे उतारते हैं बल्कि जाने-अनजाने उनके रिलेशनशिप्स भी प्रभावित होते हैं.

जलन, बेवफाई, तीन तरफा प्यार को बढ़ावा, एक्स को गालियां देते फिरना आदि को ले कर टिकटोक को दोष दिया जाना गलत नहीं होगा. धोखा दिया किसी ने तो उस को जान से मार देने जैसी विडियोज की भरमार भी कम नहीं है. खुद रो रो कर भी रिलेशनशिप निभाना भी इन विडियोज में भरा पड़ा है. टिकटोक से इंफ्लुएंस हो लोग अपनी लवलाइफ को भी कोई कहानी समझने लगे हैं. यह गलत है, सरासर गलत है.

बौलीवुड और हिंदी सीरियल्स के इंफ्लुएंस से लोगों की सोच पहले ही संकुचित थी और अब तो संकुचित सोच छोटी उम्र में ही बच्चों के अंदर पैठ जमाने लगी है. जरूरी है कि टिकटोक को मनोरंजन की ही तरह देखें पर जरूरत से ज्यादा नहीं.

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उन्नाव कांड: पिछड़ी जाति की लड़की की प्रेम कहानी का दुखद अंत

उन्नाव कांड

उन्नाव में पिछड़ी जाति की लड़की का दुखद अंत गांव में लड़कियों की प्रेम कहानी के दर्द को बताता है, जहां लड़के किशोरावस्था में बिना जातबिरादरी को देखे प्यार कर लेते हैं. प्यार कर लेने के बाद दोनों के जिस्मानी संबंध भी बन जाते हैं. ऐसे में जब लड़की शादी के लिए कहती है, तो जाति और धर्म की दीवार खड़ी हो जाती है.

आज भी गांव की शादियों में जाति और धर्म सब से प्रमुख हो जाता है. सब से बड़ी बात तो यह है कि लड़कियां नोटरी शपथपत्र को ही कोर्ट मैरिज मानने की गलती कर लेती हैं, जिस को पुलिस कभी शादी का प्रमाणपत्र मान कर लड़की की मदद नहीं करती है.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 60 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के हिंदूपुर गांव की रहने वाली नंदिनी (बदला नाम) पढ़ाई में बहुत अच्छी थी. वह 5 बहनों और 2 भाइयों में सब से छोटी थी. गांव के बाहरी हिस्से में उस का मकान था.

नंदिनी का घर गांव के गरीब परिवारों में पिछड़ी जाति की विश्वकर्मा बिरादरी में आता था. कच्ची दीवारें और धान के पुआल से बना छप्पर था. उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार द्वारा नंदिनी को मेधावी छात्रा के रूप में 12वीं जमात पास करने के बाद लैपटौप उपहार में दिया गया था.

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गरीब परिवार होने के चलते नंदिनी का गांव के प्रधान के घर आनाजाना था. उसे प्रधान के जरीए सरकारी योजना का फायदा मिल जाता था. गांव में नंदिनी के घर से कुछ ही दूरी पर शिवम द्विवेदी का परिवार रहता था. वह नंदिनी से उम्र में 2 साल बड़ा था.

प्रेम, छल और गुनाह

नंदिनी और शिवम के बीच प्रेम संबंध बन गए. कुछ समय बाद दोनों ने शादी करने की योजना बनाई. शिवम ने 19 जनवरी, 2018 में नंदिनी के साथ नोटरी शपथपत्र के जरीए शादी कर ली. नंदिनी अब घर से दूर रायबरेली जिले में रहने लगी.

कुछ समय बाद नंदिनी ने सार्वजनिक रूप से शादी करने का दबाव बनाना शुरू किया, तो शिवम ने खुद को बचाने का काम शुरू कर दिया. नंदिनी और शिवम के बीच संबंधों की जानकारी गांव में भी इन के परिवारों वालों को होने लगी, तो शिवम के घर वालों ने उस की अलग शादी का दबाव बनाना शुरू किया.

शिवम नंदिनी से बचने के लिए उस से दूर जाने लगा, तो नंदिनी ने उस को घेरने के उपाय शुरू कर दिए.

जब नंदिनी को लगा कि शिवम उस से दूर जाने की कोशिश कर रहा है, तो उस का प्रेम बदला लेने पर उतर आया.

नंदिनी को यह पता था कि गांव में उस का परिवार शिवम के घर वालों से मुकाबला नहीं कर पाएगा. शिवम का परिवार दबदबे वाला था. पुलिस और प्रशासन पर उस के परिवार का दबाव था. शिवम के परिवार का राजनीतिक असर था. ऐसे में नंदिनी ने कानून का सहारा लिया और अपने खिलाफ बलात्कार का मुकदमा लिखा दिया.

12 दिसंबर, 2018 को नंदिनी ने शिवम और अन्य के खिलाफ गैंगरेप करने का आरोप लगाया.

पुलिस ने इस आरोप को खारिज कर दिया. नंदिनी ने राज्य महिला आयोग और कोर्ट का सहारा लिया. कोर्ट और महिला आयोग की सिफारिश पर 5 मार्च, 2019 को गैंगरेप का मामला दर्ज हुआ. इस के बाद लंबे समय तक पुलिस जांच का बहाना बनाती रही. आखिर में 19 सितंबर, 2019 को पुलिस ने शिवम को जेल भेजदिया.

30 नवंबर, 2019 को शिवम जेल से जमानत पर छूट कर आ गया. नंदिनी को इस बात की हैरानी थी कि इतनी जल्दी शिवम जमानत पर कैसे जेल से बाहर आ गया. उस ने अपने परिवार से यह बात बताई और कहा कि कल वह रायबरेली जा कर अपने वकील से मिल कर पता करेगी कि वह कैसे छूट हो गया है? रायबरेली जाने के लिए नंदिनी को कानपुर से रायबरेली जाने वाली ट्रेन सुबह 5 बजे मिलनी थी.

रेप के मुकदमे का बदला

3 दिसंबर, 2019 की सुबह नंदिनी ट्रेन पकड़ने के लिए घर से निकली. घर से रेलवे स्टेशन तकरीबन 2 किलोमीटर दूर था. नंदिनी सुबह 4 बजे घर से निकली. जाड़े का समय था. रास्ते में घना अंधेरा भी था.

नंदिनी के पिता ने उस को स्टेशन छोड़ने के लिए कहा, तो उस ने बूढ़े पिता की परेशानी को देखते हुए मना कर दिया. वह खुद ही घर से निकल गई.

गांव से रेलवे स्टेशन के रास्ते में कुछ रास्ता ऐसा था, जहां कोई नहीं रहता था. इसी जगह पर नंदिनी पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी गई. वह खुद को बचाने के लिए मदद की तलाश में दौड़ी, तो आग और भड़क गई और उस के कपड़े जल कर जिस्म से चिपक गए.

रास्ते में एक जगह कुछ लोग दिखे तो नंदिनी वहीं गिर पड़ी. लड़की के कहने पर रास्ते में रहने वालों ने डायल 112 को जानकारी दी.

शिकायत पर पहुंची पुलिस को लड़की ने जली हालत में पुलिस और प्रशासन को अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल कर जलाने वालों के नाम बताए.

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90 फीसदी जली हालत में नंदिनी को पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और फिर देश की राजधानी नई दिल्ली इलाज के लिए ले जाया गया. जिंदगी और मौत के बीच 3 दिन तक जद्दोजेहद करने के बाद नंदिनी ने दम तोड़ दिया.

नंदिनी के पिता को दुख है कि घटना के दिन वे उसे रेलवे स्टेशन तक छोड़ने नहीं गए. वह अपनी लड़ाई खुद लड़ रही थी. इस वजह से वे आत्मविश्वास में थे. इस के पहले वे लड़की को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने जाते थे.

नंदिनी की मौत हो जाने के बाद उस के परिवार वालों ने उस की लाश को दफनाने की सोची. उन का मानना था कि बेटी एक बार तो जल चुकी है, फिर उसे श्मशान घाट ले जा कर क्यों दोबारा जलाया जाए.

चरित्र हनन का आरोप

शिवम द्विवेदी और दूसरे आरोपियों के परिवार वाले इस घटना का तर्क देते हुए कहते हैं कि गुनाह उन के घर वालों ने नहीं किया, उन को साजिश के तहत फंसाया जा रहा है. वे कहते हैं कि लड़की को जलाने की घटना जिस समय की है, उस समय उन के लड़के घरों में सो रहे थे. पुलिस ने उन को सोते समय घर से पकड़ा है. अगर उन्होंने अपराध किया होता तो आराम से घर में सो नहीं रहे होते.

इन के समर्थक बताते हैं कि जेल से शिवम के छूटने के बाद लड़की ने उस को फिर से जेल भिजवाने की धमकी दी थी. इस के बाद खुद ही मिट्टी का तेल डाल कर खुद को जलाने का काम किया. ये लोग सोशल मीडिया पर इस बात का प्रचार भी कर रहे हैं कि शिवम को फंसाने और जेल भिजवाने के नाम पर 15 लाख रुपए लड़की मांग रही थी. इस में से 7 लाख रुपए शिवम के परिवार वाले दे भी चुके थे.

नंदिनी के भाई ने कहा कि उस की बहन पढ़लिख कर परिवार की मदद करना चाहती थी. शिवम के संपर्क में आ कर उसे इस हालत का सामना करना पड़ा. कानून मानता है कि मरते समय का दिया गया बयान सच माना जाता है.

सवाल उठता है कि उन्नाव कांड में लड़की जली हालत में लड़कों के नाम गलत क्यों बताएगी? उस समय तक लड़की यह सम झ चुकी थी कि उस की मौत तय है. वह सब से पहले अपने साथ हुई घटना की गवाही देना चाहती थी, जिस की वजह से उस ने पुलिस और प्रशासन के लोगों को बयान दिया. लड़की और लड़के के बीच शादी का नोटरी शपथपत्र हर बात को साफ करता है.

समाज और राजनीति आमनेसामने

उत्तर प्रदेश का उन्नाव जिला रेप और बलात्कार को ले कर पहले भी चर्चा में रहा है. भाजपा के विधायक कुलदीप सेंगर के समय मामला राजनीतिक था. अब दूसरी घटना में लड़की को जलाने के बाद मामला राजनीतिक कम सामाजिक ज्यादा बन गया है.

हालांकि कोर्ट ने कुलदीप सेंगर को इस रेप कांड का कुसूरवार मान लिया है. उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई है.

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एक तरफ समाज के लोग लड़की और उस को दिए गए संस्कारों को जिम्मेदार मान रहे हैं. उन्नाव में रेप की दूसरी घटना के चर्चा में आने के बाद विपक्ष को सत्ता पक्ष को घेरने का पूरा मौका मिल गया.

लोकसभा में बहस और हंगामा कर के मांग की जा रही है कि ‘महिला सुरक्षा दिवस’ मनाया जाए. उत्तर प्रदेश में विधानसभा के बाहर प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव धरने पर बैठ गए. उन की पार्टी ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया और उत्तर प्रदेश सरकार को घेरने का काम किया.

कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी लखनऊ के 2 दिन के दौरे से समय निकाल कर उन्नाव में लड़की के घर वालों से मिलने गईं.

उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले को हलका करने के लिए लड़की के घर वालों को मुआवजा देने का काम किया. लड़की के परिवार वालों को 25 लाख रुपए की माली मदद, गांव में 2 मकान और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया. उन्नाव के मामले के बाद तमाम ऐसी घटनाएं सामने आने लगीं. इन घटनाओं से समाज की हकीकत का पता चलता है. इस बार रेप कांड सामाजिक है. समाज उन्नाव जिले की घटना को प्रेमप्रसंग मान कर दरकिनार कर रहा है.

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. यहां प्रेमप्रसंगों को रोकने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शपथ ग्रहण करते ही ‘एंटी रोमियो दल’ बनाया था. मामला एक ही धर्म के लोगों का था. ऐसे में ‘एंटी रोमियो दल’ और पुलिस के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी.

धर्म आधारित सत्ता तो रामायण और महाभारत काल से ही छले जाने पर औरत को ही दोषी मानती थी. अहल्या का पत्थर बना दिया जाना, सीता का घर से निकाला जाना और कुंती का बेटे को छोड़ने जैसी बहुत सी घटनाएं इस के उदाहरण हैं. ऐसे में उन्नाव के हिंदूपुर गांव की लड़की को भी ऐसे लोग गलत ही मान सकते हैं.

इसी बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने एसएचओ अजय कुमार त्रिपाठी को  सस्पैंड कर दिया.

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रेप की बढ़ती घटनाएं और धर्म में उलझे लोग

बिहार के भोजपुर इलाके के संदेश थाना क्षेत्र में इनसानियत को शर्मसार करने वाली एक घटना घटी. 65 साल के एक बुजुर्ग ने 7 साला बच्ची के साथ मंदिर में रेप किया. एक नौजवान ने उस का वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया. वह बुजुर्ग घर के ओसारे में खेल रही बच्ची को टौफी का लालच दे कर मंदिर के एक कमरे में ले गया और उस के साथ रेप किया.

संदेश के थाना प्रभारी सुदेह कुमार के मुताबिक, आरोपी और वीडियो बनाने वाले को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. इधर हाल के दिनों में रेप की घटनाएं पूरे देश में तेजी से बढ़ी हैं. सजा और कानून की बातें अपनी जगह पर हैं और इस तरह की घटनाएं अपनी जगह पर. मंदिर में तो लोग मन्नत मानते हैं, तरहतरह की उम्मीद रखते हैं और जब इन मंदिरों में देवीदेवताओं के सामने किसी बच्ची के साथ इस तरह का कुकर्म हो और ये कुछ नहीं कर पाएं तो इन पर यकीन करने वाले लोगों पर भी सवालिया निशान लग जाता है.

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आज तो धर्म का खूब महिमा मंडन किया जा रहा है और गांवगांव में मंदिर बनाने, अखंड कीर्तन, यज्ञ, हवन और तरहतरह के पूजापाठ में लोग लीन हैं और इस तरह की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है. हम किस तरह का समाज और देश बनाना चाहते हैं, इस पर भी इस देश के नागरिकों को सोचने और सम झने की जरूरत है. कौन करते हैं रेप 94 फीसदी रेप सगेसंबंधी, रिश्तेदार, पारिवारिक दोस्त और पड़ोसी द्वारा किए जाते हैं. ऐसी लिस्ट में पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बल के वे लोग भी शामिल हैं, जिन के ऊपर सुरक्षा की गारंटी है. 3 सांसदों और 48 विधायकों ने कबूल किया है कि उन के ऊपर औरतों के साथ हिंसा करने के आरोप हैं, जिस में रेप भी शामिल है.

इतना ही नहीं, बलात्कारियों का दूसरे समुदाय, जाति, धर्म के नाम पर बदले की भावना से दलित और अल्पसंख्यक औरतों के साथ सामूहिक रेप की भी घटनाएं घटती रहती हैं. इस तरह के हालात पैदा हो गए हैं कि घर और घर के बाहर कहीं भी लड़कियां और औरतें महफूज नहीं हैं. दुधमुंही बच्ची से ले कर 80 साल की औरतें तक रेप की शिकार हो रही हैं. झारखंड राज्य साइंस फौर सोसाइटी के राज्य सचिव देवनंदन शर्मा आनंद ने रेप की घटनाओं पर कहा कि देश के नागरिकों में वैज्ञानिक सोच और नजरिया पैदा करने का टारगेट संविधान के पन्नों में ही सिमट कर रह गया और समाज की हालत लगातार बदतर होती चली गई.

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धर्म के धंधेबाजों ने लोगों में मौजूद डर व असुरक्षा का फायदा उठाते हुए आस्था व विश्वास की भावनाओं का जम कर दोहन किया. नतीजतन, आज बाबा के आश्रमों समेत मंदिरों और मदरसों से रेप की खबरें सामने आ रही हैं. देश में स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी, तकनीकी शिक्षण संस्थान, कलकारखाने व अस्पताल की भले ही कमी हो, पर रोज नए मंदिरों, धार्मिक स्थलों के बनने में कहीं कोई कमी नहीं है. राजनीतिक व चुनावी फायदे के लिए नेता इसे संरक्षण देते हैं. इस से जमीन के कब्जे व कमाई का रास्ता खुल जाता है.

इस के अलावा अंधभक्त बाबा की कृपा, लोकपरलोक सुधारने, पुण्य हासिल कर के स्वर्ग तक पहुंचने का रास्ता तय करने के लिए घर की बहूबेटियों को आश्रम पहुंचाने में कोई संकोच नहीं करते. मंदिरों को दान में भारी चढ़ावा देते हैं. नतीजतन, लोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, बदहाली, बेरोजगारी की पीड़ा झेलने को मजबूर हैं, पर मंदिरों, धार्मिक स्थलों का फायदा मुट्ठीभर लोग ही उठाते हैं. हालत यह है कि उपग्रहों के प्रक्षेपण व ऐसे ही तकनीकी मामलों में भी धार्मिक कर्मकांड कर ऊपर वाले की कृपा की व्यवस्था कर ली जाती है.

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आधुनिक ज्ञानविज्ञान के विकास के बावजूद धर्म के धंधेबाजों की अंधेरगर्दी जारी है. लुटेरी ताकतों, नेताओं की मदद और संरक्षण उन्हें हासिल होता है. इन्हीं नेताओं, अफसरों पर देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी है, पर मौजूदा हालात देश को कहां ले जाएंगे, इसे सम झना मुश्किल नहीं है. द्य सुलग रहा है तनबदन जो छोड़ा था राह में निभाने के लिए आ, मु झ को मेरी खामियां बताने के लिए आ. थोड़ाबहुत जो प्यार था मेरे लिए दिल में, गर थी जरा नफरत तो जताने के लिए आ. अब घुट रहा है दम मेरा चैन ओ सुकून से, देने खुराक ए गम तू सताने के लिए आ. सुलग रहा है तनबदन तनहाई की तपिश में, बस मिल के फिर से भूल जाने के लिए आ. थोड़ाबहुत लिहाज कर उलफत का मेरी तू, इक बार अपना चेहरा दिखाने के लिए आ. -पुखराज सोलंकी

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