बड़ा जिन्न: क्या सकीना वाकई में जिन्न से मिली थी

सकीना बी.ए. पास थी और शक्ल ऐसी कि लाखों में एक. कई जगह से उस की शादी के पैगाम आए परंतु उस के मांबाप ने सब नामंजूर कर दिए. कारण यह था कि सभी लड़के साधारण घरानों के थे. कुछ नौकरी करते थे तो कुछ का छोटामोटा व्यापार था. उन का रहनसहन भी साधारण था.

सकीना के बाप कुरबान अली चाहते थे कि सकीना को ऊंचे खानदान, धनी लड़का और ऊंचा घर मिले. ऐसा लड़का उन्हें जल्दी ही मिल गया. हालांकि समाज की मंडियों में ऐसे लड़कों के ग्राहकों की कमी नहीं होती, मगर कुरबान अली की बोली इस नीलामी में सब से ऊंची थी.

कुरबान अली बेटी के लिए जो लड़का लाए, वह खरा सैयद था. लड़के के बाप ठेकेदार थे, लंबाचौड़ा मकान था और हजारों की आमदनी थी. लड़का कुछ भी नहीं करता था. बस, बाप के धन पर मौज उड़ाता था.

वह लड़का भी कुरबान अली को 80 हजार रुपए का पड़ा. स्कूटर, रंगीन टीवी, वी.सी.आर., फ्रिज सबकुछ ही देना पड़ा. कुरबान अली का दिवाला निकल गया. उन के होंठों पर से वर्षों के लिए मुसकराहट गायब हो गई. ऊंचे लड़के के लिए ऊंची कीमत देनी पड़ी थी. छोटू ठेकेदार का एक ही बेटा था. अच्छे पैसे बना लिए उस के. क्यों न बनाते? जब देने वाले हजार हों तो लेने वाले क्यों तकल्लुफ करें? बब्बन मियां एक बीवी के मालिक हो गए और 80 हजार रुपए के भी.

एक वर्ष बीत गया. स्कूटर भी पुराना हो गया और बीवी भी. पुरानी वस्तुओं पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना नई पर दिया जाता है. बब्बन मियां की दिलचस्पी सकीना में न होने के बराबर रह गई.

सकीना सबकुछ सह लेती परंतु उस की गोद खाली थी. सासननदों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. बच्चा होने के दूरदूर तक आसार नहीं थे. सकीना जानती थी कि औरत का पहला फर्ज बच्चा पैदा करना है.

आसपास की बूढ़ियों ने सकीना की सास से कहा, ‘‘बहू पर असर है. इसे जलालशाह के पास ले जाओ.’’

सकीना स्वयं पढ़ीलिखी थी और उस का घराना भी जाहिल नहीं था. ससुराल में तो अंधेरा ही अंधेरा था, जहालत और अंधविश्वास का.

उस ने बहुत सिर मारा. ससुराल वालों को समझाया, ‘‘जिन्नआसेब, भूतप्रेत, असर, जादूटोना ये सब जहालत की बातें हैं. जिस का जो काम है उसे ही करना चाहिए. घड़ी में खराबी हो जाए तो उसे घड़ीसाज ही ठीक करता है. टूटे हुए जूतों को मोची संभालते हैं. मोटरकार की मरम्मत मिस्तरी करता है परंतु मेरा इलाज डाक्टर की जगह पीर क्यों करेगा?’’

सास खीज कर बोलीं, ‘‘जबान बंद कर. क्या इसीलिए पढ़ालिखा है तू ने कि पीरफकीरों पर भी कीचड़ उछाले? जानती नहीं कि हजारों लोग पीर जलालशाह की खानकाह में हाजिरी दे कर अपनी खाली झोलियां मुरादों से भर कर लौटते हैं? क्या वे सब पागल हैं?’’

एक बूढ़ी ने सास के कान में कहा, ‘‘यह सकीना नहीं बोल रही है, यह तो इस पर सवार जिन्न की आवाज है. इस पर न बिगड़ो.’’

सकीना ने मजबूर हो कर बब्बन मियां से कहा, ‘‘यह क्या जहालत है? मुझे पीर साहब के पास खानकाह भेजा जा रहा है. वैसे तो औरतों से इतना सख्त परदा कराया जाता है, लेकिन पीर साहब भी तो गैर आदमी हैं. आप शायद नहीं जानते कि ये लोग खुद भी किसी जिन्न से कम नहीं होते. मुझे किसी डाक्टर को दिखा दीजिए या फिर मुझे घर भिजवा दीजिए.’’

बब्बन मियां ने साफसाफ कह दिया, ‘‘पीर साहब को खुदा ने खास ताकत दी है. उन्होंने सैकड़ों जिन्न उतारे हैं. वह किसी औरत के लिए भी गैरमर्द नहीं हैं क्योंकि उन की आंखें औरत के बदन को नहीं, उस की रूह को देखती हैं. तुम पर असर है, इसलिए तुम अपने घर भी नहीं जा सकतीं. कान खोल कर सुन लो, तुम्हें पीर साहब से इलाज कराना ही होगा. अगर तुम्हारे बच्चा न हुआ तो फिर मुझे इस खानदान के वारिस के लिए दूसरी शादी करनी पड़ेगी.’’

सकीना कांप उठी. जुमेरात के दिन वही औरतें खानकाह में जाती थीं जो बच्चे की मुराद मानती थीं. पीर साहब की यह पाबंदी थी कि उन के साथ कोई मर्द नहीं जा सकता था.

जब सकीना बुरका ओढ़ कर खानकाह पहुंची तो दिन छिप रहा था. रास्ते के दोनों तरफ मर्द और औरतें हाथों में सुलगते हुए पलीते लिए बैठे थे. एक ओर फकीरों की भीड़ थी. वहां हार, फूल और मिठाई की दुकानें भी थीं. हवा में लोबान और अगरबत्तियों की खुशबू बिखरी पड़ी थी.

खानकाह की बड़ी सी इमारत औरतों से भरी पड़ी थी. चौड़े मुंह वाले भारीभरकम पीर साहब कालीन पर बैठे थे. घनी दाढ़ी और लाललाल आंखें. वह औरतों को देखदेख कर उन्हें पलीते पकड़ा रहे थे.

सकीना की बारी आई तो उन की लाल आंखों में चमक आ गई.

‘‘बहुत बड़ा जिन्न है,’’ वह दाढ़ी पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘2 घंटे बाद सामने वाले दरवाजे से अंदर चली जाना. एक आदमी तुम्हें बता देगा.’’

सकीना यह सुन कर और भी परेशान हो गई.

‘न जाने क्या चक्कर है?’ वह सोच रही थी, ‘अगर कोई ऐसीवैसी बात हुई तो मैं अपनी जान तो दे ही सकती हूं.’ और उस ने गिरेबान में रखे चाकू को फिर टटोल कर देखा.

2 घंटे बीतने पर एक भयंकर शक्ल वाले आदमी ने सकीना के पास आ कर कहा, ‘‘उस दरवाजे में से अंदर चली जाओ. वहां अंधेरा है, जिस में पीर साहब जिन्न से लड़ेंगे. डरना नहीं.’’

सकीना कांपती हुई अंदर दाखिल हुई. घुप अंधेरा था.

उस के कानों में सरसराहट की सी आवाज आई और फिर घोड़े की टापों की सी धमक के बाद सन्नाटा छा गया.

उस के कानों के पास किसी ने कहा, ‘‘मैं जिन्न हूं और तुझे उस दिन से चाहता हूं जब तू छत पर खड़ी बाल सुखा रही थी. मैं ने ही तेरे बच्चे होने बंद कर रखे हैं. सुन, मैं तो हवा हूं. मुझ से डर कैसा?’’

सकीना पसीने में नहा गई. उसे किसी की सांसों की गरमी महसूस हो रही थी.

उस ने थरथर कांपते हुए गिरेबान से चाकू निकाल लिया.

किसी ने सकीना से लिपटना चाहा. मगर अगले ही पल उस का सीधा हाथ ऊपर उठा. चाकू ‘खचाक’ से किसी नरम वस्तु में धंस गया. उलटा हाथ बालों से टकराया. उस ने झटका दिया. बालों का गुच्छा मुट्ठी में आ गया. उसी के साथ एक करुणा भरी चीख कमरे में गूंज गई.

सकीना पागलों के समान उलटे पैरों भाग खड़ी हुई, भागती ही रही.

अगले दिन वह पुलिस थाने में अपना बयान लिखवा रही थी और पीर साहब अस्पताल में पड़े थे. उन के पेट में गहरा घाव था और दाढ़ी खुसटी हुई थी.

दर्द: क्यों आजर ने एक्सिडेंट का नाटक किया

‘‘तुम अभी तक गई नहीं हो…’’ छोटी बहन हया ने हैरान हो कर जोया से पूछा.

‘‘कहां…?’’ जोया ने भी हैरान होते हुए कहा.

‘‘आजर भाई को अस्पताल में देखने,’’ हया ने कहा.

‘‘मैं क्यों जाऊं…’’ जोया ने लापरवाही से कहा.

‘‘घर के सब लोग जा चुके हैं, लेकिन तुम हो कि अभी तक नहीं गईं… आखिर वे तुम्हारे मंगेतर हैं…’’

‘‘मंगेतर… मंगेतर था… लेकिन अब नहीं. एक अपाहिज मेरा मंगेतर नहीं हो सकता. मु झे उस की बैसाखी नहीं बनना,’’ जोया आईने के सामने खड़ी अपने बाल संवार रही थी और छोटी बहन हया के सवालों के जवाब लापरवाही से दे रही थी.

जब बाल सैट हो गए तो जोया ने खुद को आईने में नीचे से ऊपर तक देखा और पर्स नचाते हुए दरवाजे से बाहर निकल गई.

आजर के यहां का दस्तूर था कि रिश्ते आपस में ही हुआ करते थे और शायद इसी रिवाज को जिंदा रखने के लिए मांबाप ने बचपन में ही उस का रिश्ता उस के चाचा की बेटी जोया से तय कर दिया था.

आजर कम बोलने वाला सुलझा हुआ लड़का था और जोया को उसकी मां के बेजा लड़ाप्यार ने जिद्दी बना दिया था.

शायद यही वजह थी कि बचपन में दोनों साथ खेलतेखेलते  झगड़ने लगते थे. जो खिलौना आजर के हाथ में होता, जोया उसे लेने की जिद करती और जब तक आजर उसे दे नहीं देता, वह चुप न होती.

उस दिन तो हद ही हो गई थी. आजर पुरानी कौपी का कवर लिए हुए था. कवर पर कोई तसवीर बनी थी. शायद उसे पसंद थी.

जोया की नजर उस कवर पर पड़ गई. वह चिल्लाने लगी. ‘यह मेरा है… इसे मैं लूंगी…’’

आजर भी बच्चा था. बजाय उसे देने के दोनों हाथ पीछे कर के छिपा लिया. वह चीखती रही, चिल्लाती रही… यहां तक कि बड़े लोग भी वहां आ गए.

‘तोबा… कागज के टुकड़े के लिए जिद कर रही है… अभी अगर यह आजर के हाथ में न होता तो रद्दी होता… क्या लड़की है. कयामत बरपा कर दी इस ने तो…’ बड़ी अम्मी बड़बड़ाई थीं.

यों ही लड़ते झगड़ते दोनों बड़े हो गए और बचपन पीछे छूट गया. दोनों उम्र के उस मुकाम पर थे, जहां जागती आंखें ख्वाब देखने लगती हैं और जब आजर ने जोया की आंखों में देखा तो हया की लाली उतर आई… नजर अपनेआप  झुकती चली गई. शायद उसे मंगेतर का मतलब सम झ आ गया था. अब वह आजर की इज्जत करती… उस की बातों में शरीक होती… उस के नाम पर हंसती… घर वालों को इतमीनान हो गया था कि चलो, सबकुछ ठीक हो गया है.

बड़ी अम्मी इन दिनों मायके गई हुई थीं और जब लौटीं तो उन के साथ एक दुबलीपतली सी लड़की सना थी, जिस की मां बचपन में गुजर चुकी थी. बाप ने दूसरी शादी कर ली थी… अब उस के भी 4 बच्चे थे… बेचारी कोल्हू के बैल की तरह लगी रहती.

दादा से पोती की हालत देखी न जाती. दादा बड़ी अम्मी के रिश्ते के चाचा थे… जब बड़ी अम्मी उन से मिलने गईं तो पोती का दुखड़ा ले कर बैठ गए. ‘किसी की मां न मरे…’ बड़ी अम्मी ने ठंडी सांस ली, ‘पर, आप इसे हमारे साथ भेज दीजिए,’ बड़ी अम्मी ने कुछ सोच कर कहा था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें… वे खुशीखुशी राजी हो गए. लेकिन बहू का खयाल आते ही उन की सारी खुशी काफूर हो गई. वह न जाने देगी और जब नजर उठाई तो वह दरवाजे पर खड़ी थी. उस ने सारी बातें सुन ली थीं.

बड़ी अम्मी कब हारने वाली थीं. उन्होंने अपने तरकश से एक तीर छोड़ा… जो सही निशाने पर जा बैठा. उन्होंने हर महीने कुछ रकम भेजने का वादा किया और उसे ले आईं.

सना ने आते ही पूरा घर संभाल लिया था. इतना काम उस के लिए कुछ भी नहीं था. वह आंखें बंद कर के कर लेती और उसे सौतेली मां के जुल्मों से भी नजात मिल गई थी. वह यहां आ कर खुश थी.

अगर कभी घर में गैस खत्म हो जाती तो लकडि़यों के चूल्हे पर सेंकी हुई सुर्खसुर्ख रोटियां और धीमीधीमी आंच पर दम की हुई हांड़ी से निकलती खुशबू फैलती तो भूख अपनेआप लग जाती.

चाची की तरफ मातम बरपा होता, ‘अरे, गैस खत्म हो गई. अब क्या करें…  भाभी सिलैंडर वाला आया क्या…’ फिर बाजार से पार्सल आते, तब जा कर खाना मिलता.

और अगर कभी मिर्ची पाउडर खत्म हो जाता, तो सना खड़ी मिर्च निकाल लेती और उन्हें सिलबट्टे पर पीस कर खाना तैयार कर देती. सालन देख कर अम्मी को पता चलता था कि मिर्ची खत्म हो गई है.

और चाची की तरफ ऐसा होता तो जोया कहती, ‘न बाबा न, मेरे हाथ में जलन होने लगती है. हया, तुम इसे पीस लो.’

हया भी साफ मना कर देती.

सना तुम कौन हो… कहां से आई हो… सादगी की मूरत… जिंदगी की आइडियल सना… तुम्हारी किन लफ्जों में तारीफ करूं…

यह सुन कर आजर का दिल बिछबिछ जाता… फिर उसे जोया का खयाल आता… वह तो उस का मंगतेर है. कल को उस की उस से शादी हो जाएगी, फिर यह कशिश क्यों? वह सना की तरफ क्यों खिंचा जा रहा है? अकसर तनहाई में वह उस के बारे में सोचता रहता.

एक दिन आजर गाड़ी से लौट रहा था कि रास्ते में उस का ऐक्सिडैंट हो गया. अस्पताल पहुंचने पर डाक्टर ने कहा, ‘अब ये अपने पैरों पर चल नहीं सकेंगे.’

सारा घर वहां जमा था. सब का रोरो कर बुरा हाल था.

जब से आजर का ऐक्सिडैंट हुआ था, जोया ने अपने कालेज के दोस्तों से मिलना शुरू कर दिया था. आज भी वह तैयार हो कर किसी से मिलने गई थी. हया के लाख सम झाने पर भी उस पर कोई असर नहीं हुआ था.

आजर अस्पताल के बैड पर दोनों पैरों से लाचार लेटा हुआ था… हर आहट पर देखता… शायद वह आ जाए… जिस से दिल का रिश्ता जुड़ा है… वफा के सिलसिले हैं…लेकिन दूर तक जोया का कहीं पता न था.

एक आहट पर उस के खयालात बिखर गए. अम्मी आ रही थीं. उन के पीछे सना थी. अम्मी ने इशारा किया तो वह सामने स्टूल पर बैठ गई.

अम्मी रात का खाना ले कर आई थीं. आजर खाना खा रहा था और कनखियों से सना को देख रहा था. फुल आस्तीन वाला कुरता, चूड़ीदार पाजामा, सिर पर चुन्नी डाले वह खामोश बैठी थी.

‘काश, इस की जगह जोया होती,’ आजर ने सोचा, फिर जल्दी से नजरें  झुका लीं. कहीं उस के चेहरे से अम्मी उस का दर्द न पढ़ लें… और मुंह में निवाला रख कर चबाने लगा.

जब आजर खाने से फारिग हो गया, तो अम्मी बरतन समेटने लगीं.

‘‘अम्मी, आप रहने दीजिए. मैं कर लूंगी,’’ सना की महीन सी आवाज आई. उस ने बरतन समेट कर थैले में रखे और खड़ी हो गई.

जब सना बरतन उठा रही थी तो खुशबू का  झोंका उस के पास से आया और आजर को महका गया. अम्मी उसे अपना खयाल रखने की हिदायत दे कर चली गईं.

आज आजर को डिस्चार्ज मिल गया था. बैसाखियों के सहारे जब वह घर के अंदर आया तो अम्मी का कलेजा मुंह को आने लगा. अब सना आजर का पहले से ज्यादा खयाल रखने लगी थी.

एक दिन देवरानीजेठानी बरामदे में बैठी हुई थीं. देवरानी शायद बात का सिरा ढूंढ़ रही थी, ‘‘भाभी, हम आप से कुछ कहना चाहते हैं…’’ कहते हुए उन्होंने उन की आंखों में देखा.

‘‘जोया ने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. वह आजर से निकाह नहीं करना चाहती, क्योंकि आजर तो…’’ उन्होंने जुमला अधूरा ही छोड़ दिया और उठ कर चली आईं.आजर ने नोटिस किया था कि अम्मी बहुत बु झीबु झी सी रहती हैं. आखिर आजर पूछ ही बैठा, ‘‘अम्मी, क्या बात है… आप बहुत उदास रहती हैं…

‘‘कुछ नहीं… बस ऐसे ही… जरा तबीयत ठीक नहीं है…’’‘‘मैं जानता हूं कि आप क्यों परेशान हैं… जोया ने इस रिश्ते से मना कर दिया है.’’

अम्मी ने चौंक कर आजर की तरफ देखा.

‘‘हां अम्मी, मु झे मालूम है… वह मु झे देखने तक नहीं आई… अगर रिश्ता नहीं करना था तो इनसानियत के नाते तो आ सकती थी. जिस का इनसानियत से दूरदूर तक वास्ता न हो, मु झे खुद उस से कोई रिश्ता नहीं रखना.’’

‘‘मेरे बच्चे,’’ अम्मी की आंखों से आंसू निकल पड़े. उन्होंने उसे गले से लगा लिया.

‘‘अम्मी, मेरी शादी होगी… उसी वक्त पर होगी…’’ अम्मी ने उस की आंखों में देखा, जिस का मतलब था, ‘अब तु झ से कौन शादी करेगा…’

‘‘अम्मी, मैं सना से शादी करूंगा. मैं ने सना से बात कर ली है.’’

यह सुन कर अम्मी ने फिर उसे गले से लगा लिया.

शादी की तैयारियां होने लगीं और जो वक्त जोया के साथ शादी के लिए तय था, उसी वक्त पर आजर और सना का निकाह हो गया.

आजर को कुछ याद आया. एक बार जोया ने बातोंबातों में कहा था कि शादी के बाद वह हनीमून के लिए स्विस्ट्जरलैंड जाएगी…

आजर ने स्विट्जरलैंड जाने की ख्वाहिश जाहिर की तो अम्मी ने उसे जाने की इजाजत दे दी.

आज आजर हनीमून से लौट रहा था. सना अंदर दाखिल हुई तो कितनी निखरीनिखरी और कितनी खुश लग रही थी. फिर उस ने दरवाजे की तरफ मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘आइए न…’’ इतने पर आजर अंदर दाखिल हुआ. उसे देख कर अम्मी की आंखें हैरत से फैलती चली गईं. वह अपने पैरों पर चल कर आ रहा था.

‘‘बेटे, यह सब क्या है?’’ उन्होंने आगे बढ़ कर उसे थाम लिया.

‘‘बताता हूं… पहले आप बैठिए तो सही…’’ आजर ने दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें बिठा दिया.

‘‘आप बड़े लोग अपने बच्चों के फैसले तो कर देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि बड़े हो कर उन की सोच कैसी होगी, उन के खयालात कैसे होंगे, उन का नजरिया कैसा होगा और मु झे सच्चे हमदर्द की तलाश थी, जिस के अंदर कुरबानी का जज्बा हो. एकदूसरे के लिए तड़प हो. और ये सारी खूबियां मुझे सना में नजर आईं… इसलिए मैं ने डाक्टर से मिल कर एक प्लान बनाया. वह ऐक्सिडैंट  झूठा था. मेरे पैर सहीसलामत थे. यह मेरा सिर्फ नाटक था… नतीजा आप के सामने है.

‘‘जोया ने खुद इस रिश्ते से इनकार कर दिया… सना ने मुझ अपाहिज को कुबूल किया… मैं सना का हूं…’’

दरवाजे पर खड़ी जोया ने सारी बातें सुन ली थीं. उस का जी चाह रहा था कि सबकुछ तोड़फोड़ डाले.

जरूरी सबक: हवस में लांघी रिश्तों की मर्यादा

नेहा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. दरवाजे की झिर्री से आंख सटा कर उस ने ध्यान से देखा तो जेठजी को अपनी ओर देखते उस के होश फाख्ता हो गए. अगले ही पल उस ने थोड़ी सी ओट ले कर दरवाजे को झटके से बंद किया, मगर थोड़ी देर बाद ही चर्ररर…की आवाज के साथ चरमराते दरवाजे की झिर्री फिर जस की तस हो गई. तनिक ओट में जल्दी से कपड़े पहन नेहा बाथरूम से बाहर निकली. सामने वाले कमरे में जेठजी जा चुके थे. नेहा का पूरा शरीर थर्रा रहा था. क्या उस ने जो देखा वह सच है. क्या जेठजी इतने निर्लज्ज भी हो सकते हैं. अपने छोटे भाई की पत्नी को नहाते हुए देखना, छि, उन्होंने तो मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ लीं…नेहा सोचती जा रही थी.

कितनी बार उस ने मयंक से इस दरवाजे को ठीक करवाने के लिए कहा था, लेकिन हर बार बात आई गई हो गई थी. एक तो पुराना दरवाजा, उस पर टूटी हुई कुंडी, बारबार कस कर लगाने के बाद भी अपनेआप खुल जाया करती थी. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि उस झिर्री से उसे कोई इस तरह देखने का यत्न कर सकता है. पहले भी जेठजी की कुछ हरकतें उसे नागवार लगती थीं, जैसे पैर छूने पर आशीर्वाद देने के बहाने अजीब तरह से उस की पीठ पर हाथ फिराना, बेशर्मों की तरह कई बार उस के सामने पैंट पहनते हुए उस की जिप लगाना, डेढ़ साल के नन्हें भतीजे को उस की गोद से लेते समय उस के हाथों को जबरन छूना और उसे अजीब सी निगाहों से देखना आदि.

नईनई शादी की सकुचाइट में वह मयंक को भी कुछ नहीं बता पाती. कई बार उसे खुद पर संशय होता कि क्या उस का शक सही है या फिर यह सब सिर्फ वहम है. जल्दबाजी में कोई निर्णय कर वह किसी गलत नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहती थी, क्योंकि यह एक बहुत ही करीबी रिश्ते पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने जैसा था. लेकिन आज की घटना ने उसे फिर से सोचने पर विवश कर दिया.

घर के आंगन से सटा एक कोने में बना यह कमरा यों तो अनाज की कोठी, भारी संदूक व पुराने कूलर आदि रखने के काम आता था, परंतु रेलवे में पदस्थ सरकारी कर्मचारी उस के जेठ अपनी नाइट ड्यूटी के बाद शांति से सोने के लिए अकसर उक्त कमरे का इस्तेमाल किया करते थे. हालांकि घर में 4-5 कमरे और थे, लेकिन जेठजी इसी कमरे में पड़े एक पुराने दीवान पर बिस्तर लगा कर जबतब सो जाया करते थे. इस कमरे से आंगन में बने बाथरूम का दरवाजा स्पष्ट दिखाई देता था. आज सुबह भी ड्यूटी से आए जेठजी इसी कमरे में सो गए थे. उन की बदनीयती से अनभिज्ञ नेहा सुबह के सभी कामों को निबटा कर बाथरूम में नहाने चली आई थी. नेहा के मन में भारी उथलपुथल मची थी, क्या इस बात की जानकारी उसे मयंक को देना चाहिए या अपनी जेठानी माला से इस बाबत चर्चा कर देखना चाहिए. लेकिन अगर किसी ने उस की बात पर विश्वास नहीं किया तो…

मयंक तो अपने बड़े भाई को आदर्श मानता है और भाभी…वे कितनी भली महिला हैं. अगर उन्होंने उस की बात पर विश्वास कर भी लिया तो बेचारी यह जान कर कितनी दुखी हो जाएंगी. दोनों बच्चे तो अभी कितने छोटे हैं. नहींनहीं, यह बात वह घर में किसी को नहीं बता सकती. अच्छाभला घर का माहौल खराब हो जाएगा. वैसे भी, सालछह महीने में मयंक की नौकरी पक्की होते ही वह यहां से दिल्ली उस के पास चली जाएगी. हां, इस बीच अगर जेठजी ने दोबारा कोई ऐसी हरकत दोहराई तो वह उन्हें मुंहतोड़ जवाब देगी, यह सोचते हुए नेहा अपने काम पर लग गई.

उत्तर प्रदेश के कानपुर में 2 वर्षों पहले ब्याह कर आई एमए पास नेहा बहुत समझदार व परिपक्व विचारों की लड़की थी. उस के पति मयंक दिल्ली में एक कंपनी में बतौर अकाउंट्स ट्रेनी काम करते थे. अभी फिलहाल कम सैलरी व नौकरी पक्की न होने के कारण नेहा ससुराल में ही रह रही थी. कुछ पुराना पर खुलाखुला बड़ा सा घर, किसी पुरानी हवेली की याद दिलाता सा लगता था. उस में जेठजेठानी और उन के 2 छोटे बच्चे, यही नेहा की ससुराल थी.

यहां उसे वैसे कोई तकलीफ नहीं थी. बस, अपने जेठ का दोगलापन नेहा को जरा खलता था. सब के सामने प्यार से बेटाबेटा कहने वाले जेठजी जरा सी ओट मिलते ही उस के सामने कुछ अधिक ही खुलने का प्रयास करने लगते, जिस से वह बड़ी ही असहज महसूस करती. स्त्रीसुलभ गुण होने के नाते अपनी देह पर पड़ती जेठजी की नजरों में छिपी कामुकता को उस की अंतर्दृष्टि जल्द ही भांप गई थी. एहतियातन जेठजी से सदा ही वह एक आवश्यक दूरी बनाए रखती थी.

होली आने को थी. माला और बच्चों के साथ मस्ती और खुशियां बिखेरती नेहा जेठजी के सामने आते ही एकदम सावधान हो जाती. उसे होली पर मयंक के घर आने का बेसब्री से इंतजार था. पिछले साल होली के वक्त वह भोपाल अपने मायके में थी. सो, मयंक के साथ उस की यह पहली होली थी. होली के 2 दिनों पहले मयंक के आ जाने से नेहा की खुशी दोगुनी हो गई. पति को रंगने के लिए उस ने बच्चों के साथ मिल कर बड़े जतन से एक योजना बनाई, जिस की भनक भी मयंक को नहीं पड़ने पाई.

होली वाले दिन महल्ले में सुबह से ही बच्चों की धमाचौकड़ी शुरू हो गई थी. नेहा भी सुबह जल्दी उठ कर भाभी के साथ घर के कामों में हाथ बंटाने लगी. ‘‘जल्दीजल्दी हाथ चला नेहा, 10-11 बजे से महल्ले की औरतें धावा बोल देंगी. कम से कम खाना बन जाएगा तो खानेपीने की चिंता नहीं रहेगी,’’ जेठानी की बात सुन नेहा दोगुनी फुरती से काम में लग गई. थोड़ी ही देर में पूड़ी, कचौड़ी, दही वाले आलू, मीठी सेवइयां और अरवी की सूखी सब्जी बना कर दोनों देवरानीजेठानी फारिग हो गईं. ‘‘भाभी, मैं जरा इन को देख कर आती हूं, उठे या नहीं.’’

‘‘हां, जा, पर जरा जल्दी करना,’’ माला मुसकराते हुए बोली. कमरे में घुस कर नेहा ने सो रहे मयंक के चेहरे की खूब गत बनाई और मजे से चौके में आ कर अपना बचा हुआ काम निबटाने लगी.

इधर, मयंक की नींद खुलने पर सभी उस का चेहरा देख कर हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. हैरान मयंक ने बरामदे में लगे कांच में अपनी लिपीपुती शक्ल देखी तो नेहा की शरारत समझ गया. ‘‘भाभी, नेहा कहां है?’’ ‘‘भई, तुम्हारी बीवी है, तुम जानो. मुझे तो सुबह से नजर नहीं आई,’’ भाभी ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘बताता हूं उसे, जरा मिलने दो. अभी तो मुझे अंदर जाना है.’’ हाथ से फ्रैश होने का इशारा करते हुए वह टौयलेट में जा घुसा. इधर, नेहा भाभी के कमरे में जा छिपी थी.

फ्रैश हो कर मयंक ने ब्रश किया और होली खेलने के लिए बढि़या सफेद कुरतापजामा पहना. ‘‘भाभी, नाश्ते में क्या बनाया है, बहुत जोरों की भूख लगी है. फिर दोस्तों के यहां होली खेलने भी निकलना है,’’ मयंक ने भाभी से कहा, इस बीच उस की निगाहें नेहा को लगातार ढूंढ़ रही थीं. मयंक ने नाश्ता खत्म ही किया था कि भतीजी खुशी ने उस के कान में कुछ फुसफुसाया. ‘‘अच्छा…’’ मयंक उस की उंगली थामे उस की बताई जगह पर आंगन में आ खड़ा हुआ. ‘‘बताओ, कहां है चाची?’’ पूछने पर ‘‘एक मिनट चाचा,’’ कहती हुई खुशी उस का हाथ छोड़ कर फुरती से दूर भाग गई. इतने में पहले से ही छत पर खड़ी नेहा ने रंग से भरी पूरी की पूरी बालटी मयंक पर उड़ेल दी. ऊपर से अचानक होती रंगों की बरसात में बेचारा मयंक पूरी तरह नहा गया. उस की हालत देख कर एक बार फिर पूरा घर ठहाकों से गूंज उठा. थोड़ी ही देर पहले पहना गया सफेद कुरतापजामा अब गाढ़े गुलाबी रंग में तबदील हो चुका था.

‘‘ठहरो, अभी बताता हूं तुम्हें,’’ कहते हुए मयंक जब तक छत पर पहुंचा, नेहा गायब हो चुकी थी. इतने में बाहर से मयंक के दोस्तों का बुलावा आ गया. ‘‘ठीक है, मैं आ कर तुम्हें देखता हूं,’’ भनभनाता हुआ मयंक बाहर निकल गया. उधर, भाभी के कमरे में अलमारी के एक साइड में छिपी नेहा जैसे ही पलटने को हुई, किसी की बांहों ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया. उस ने तुरंत ही अपने को उन बांहों से मुक्त करते हुए जेठजी पर तीखी निगाह डाली.

‘‘आप,’’ उस के चहेरे पर आश्चर्य और घृणा के मिलेजुले भाव थे. ‘‘अरे तुम, मैं समझा माला है,’’ जेठजी ने चौंकने का अभिनय करते हुए कहा. बस, अब और नहीं, मन में यह विचार आते ही नेहा ने भरपूर ताकत से जेठजी के गाल पर तड़ाक से एक तमाचा जड़ दिया.

‘‘अरे, पागल हुई है क्या, मुझ पर हाथ उठाती है?’’ जेठजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था. ‘‘पागल नहीं हूं, बल्कि आप के पागलपन का इलाज कर रही हूं, क्योंकि सम्मान की भाषा आप को समझ नहीं आ रही. गलत थी मैं जो सोचती थी कि मेरे बदले हुए व्यवहार से आप को अपनी भूल का एहसास हो जाएगा. पर आप तो निर्लज्जता की सभी सीमाएं लांघ बैठे. अपने छोटे भाई की पत्नी पर बुरी नजर डालते हुए आप को शर्म नहीं आई, कैसे इंसान हैं आप? इस बार आप को इतने में ही छोड़ रही हूं. लेकिन आइंदा से अगर मुझ से जरा सी भी छेड़खानी करने की कोशिश की तो मैं आप का वह हाल करूंगी कि किसी को मुंह दिखाने लायक न रहेंगे. आज आप अपने छोटे भाई, पत्नी और बच्चों की वजह से बचे हो. मेरी नजरों में तो गिर ही चुके हो. आशा करती हूं सब की नजरों में गिरने से पहले संभल जाओगे,’’ कह कर तमतमाती हुई नेहा कमरे के बाहर चली गई.

कमरे के बाहर चुपचाप खड़ी माला नेहा को आते देख तुरंत दरवाजे की ओट में हो गई. वह अपने पति की दिलफेंक आदत और रंगीन तबीयत से अच्छी तरह वाकिफ थी. पर रूढि़वादी बेडि़यों में जकड़ी माला ने हमेशा ही पतिपरमेश्वर वाली परंपरा को शिरोधार्य किया था. वह कभीकभी अपने पति की गलत आदतों के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत न कर पाई थी. लेकिन आज नेहा ने जो बहादुरी और हिम्मत दिखाई, उस के लिए माला ने मन ही मन उस की बहुत सराहना की. नेहा ने उस के पति को जरूरी सबक सिखाने के साथसाथ उस घर की इज्जत पर भी आंच न आने दी. माला नेहा की शुक्रगुजार थी.

उधर, कुछ देर बाद नहा कर निकली नेहा अपने गीले बालों को आंगन में सुखा रही थी. तभी पीछे से मयंक ने उसे अपने बाजुओं में भर कर दोनों मुट्ठियों में भरा रंग उस के गालों पर मल दिया. पति के हाथों प्रेम का रंग चढ़ते ही नेहा के गुलाबी गालों की रंगत और सुर्ख हो चली और वह शरमा कर अपने प्रियतम के गले लग गई. यह देख कर सामने से आ रही माला ने मुसकराते हुए अपनी निगाहें फेर लीं.

शौक : अखिलेश क्या अपना शौक पूरा कर पाया

‘‘यह नया पंछी कहां से आया है?’’ जैम की शीशियां गत्ते के बड़े डब्बे में पैक करते हुए सुरेश ने सामने कुरसी पर बैठे अखिलेश की तरफ देखते हुए अपने साथी रमेश से पूछा.

‘‘उत्तर प्रदेश का है,’’ रमेश ने कहा.

‘‘शहर?’’ सुरेश ने फिर पूछा.

‘‘पता नहीं,’’ रमेश ने जवाब दिया.

‘‘शक्ल से तो मास्टरजी लगता है,’’ अखिलेश की आंखों पर चश्मे को देख हलकी हंसी हंसते हुए सुरेश ने कहा.

‘‘खाताबही बनाना मास्टरजी का ही काम होता है,’’ रमेश बोला.

फलोें और सब्जियों को प्रोसैस कर के जूस, अचारमुरब्बा और जैम बनाने की इस फैक्टरी में दर्जनों मुलाजिम काम करते थे.

सुरेश, रमेश और कई दूसरे पुराने लोग धीरेधीरे काम सीखतेसीखते अब ट्रेंड लेबर में गिने जाते थे. फैक्टरी में सामान्य शिफ्ट के साथ दोहरी शिफ्ट में भी काम होता था, जिस के लिए ओवर टाइम मिलता था. इस का लेखाजोखा अकाउंटैंट रखता था.

अखिलेश एमए पास था. वह इस फैक्टरी में अकाउंटैंट और क्लर्क भरती हुआ था. मुलाजिमों के कामकाज के घंटे और दूसरे मामलों का हिसाबकिताब दर्ज करना और बिल पास करना इस के हाथ में था.

अपने फायदे के लिए फैक्टरी के सभी मुलाजिम अकाउंटैंट से मेलजोल बना कर रखते थे.

‘‘पहले वाला बाबू कहां गया?’’ रामचरण ने पूछा.

‘‘उस का तबादला कंपनी की दूसरी ब्रांच में हो गया है.’’

‘‘ये सब बाबू लोग ऊपर से सीधेसादे होते हैं, पर अंदर से पूरे चसकेबाज होते हैं,’’ रमेश ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘इन का चसकेबाज होने में अपना फायदा है. सारे बिल फटाफट पास हो जाते हैं.’’

शाम को शिफ्ट खत्म हुई. दूसरे सब चले गए, पर सुरेश, रमेश और रामचरण एक तरफ खड़े हो गए.

अखिलेश उन को देख कर चौंका.

‘‘सलाम बाबूजी,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘सलाम, क्या बात है?’’ अखिलेश ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, आप से दुआसलाम करनी थी. आप कहां से हो?’’

अखिलेश ने गांव के बारे में बताया.

‘‘साहब, एकएक कप चाय हो जाए?’’ रमेश ने जोर दिया.

अखिलेश उन के साथ फैक्टरी की कैंटीन में चला आया. चाय के दौरान हलकीफुलकी बातें हुईं. कुछ दिनों तक यह सिलसिला चला, फिर धीरेधीरे मेलजोल बढ़ता गया.

‘‘साहब, आज कुछ अलग हो जाए…’’ एक शाम सुरेश ने मुसकराते हुए अखिलेश से कहा.

‘‘अलग… मतलब?’’ अखिलेश ने हैरानी से पूछा.

सुरेश ने अंगूठा मोड़ कर मुंह की तरफ शराब पीने का इशारा किया.

‘‘नहीं भाई, मैं शराब नहीं पीता,’’ अखिलेश ने कहा.

‘‘साहब, थोड़ी चख कर तो देखो.’’

उस शाम सुरेश के कमरे में शराब का दौर चला. नया पंछी धीरेधीरे लाइन पर आ रहा था.

कुछ दिन के बाद सुरेश ने अखिलेश से पूछा, ‘‘साहब, आप ने सवारी की है?’’

‘‘सवारी…?’’

‘‘मतलब, कभी सैक्स किया है?’’

‘‘नहीं भाई, अभी तो मैं कुंआरा हूं. मेरी पिछले महीने ही मंगनी हुई है,’’ अखिलेश ने कहा.

‘‘सुहागरात को अगर आप चुक गए, तो सारी उम्र आप की बीवी आप का रोब नहीं मानेगी,’’ रामचरण बोला.

इस पर अखिलेश सोच में पड़ गया. वह 25 साल का था, लेकिन अभी तक किसी लड़की से सैक्स नहीं किया था.

‘‘साहब, आज आप को जन्नत की सैर कराते हैं,’’ सुरेश ने कहा.

इस सोच के साथ कि सुहागरात को वह ‘अनाड़ी’ या ‘नामर्द’ साबित न हो जाए, अखिलेश सहमत हो कर उन के साथ चल पड़ा.

वे चारों एक सुनसान दिखती गली में पहुंचे. गली के मुहाने पर ही एक पान वाले की दुकान थी.

‘‘4 पलंगतोड़ पान बनाना,’’ एक सौ रुपए का नोट थमाते हुए सुरेश ने कहा. पान बंधवा कर वे सब आगे चले.

‘‘यह पलंगतोड़ पान क्या होता है?’’ अखिलेश ने पूछा.

‘‘साहब, यह बदन में जोश भर देता है. औरत भी ‘हायहाय’ करने लगती है. अभी आप भी आजमाना,’’ रामशरण ने समझाते हुए कहा.

एक दोमंजिला मकान के बाहर रुक कर सुरेश ने कालबैल बजाई. एक औरत ने खिड़की से बाहर झांका. अपने पक्के ग्राहकों को देख कर उस औरत ने राहत की सांस ली.

दरवाजा खुला. सभी अंदर चले गए. एक बड़े से कमरे में 3-4 पलंग बिछे थे. कई छोटीबड़ी उम्र की लड़कियां, जिन में से कई नेपाली लगती थीं, मुंह पर पाउडर पोते, होंठों पर लिपस्टिक लगाए बैठी थीं.

‘‘सोफिया नजर नहीं आ रही?’’ अपनी पसंदीदा लड़की को न देख सुरेश कोठे की आंटी से पूछ बैठा.

‘‘बाहर गई है वह.’’

‘‘इस को सब से ज्यादा ‘मस्त’ वही नजर आती है,’’ रामचरण बोला.

‘‘नए साहब आए हैं. इन को खुश करो,’’ आंटी ने लड़कियों की तरफ देखते हुए कहा.

सभी लड़कियां एक कतार में खड़ी हो गईं. कइयों ने अपनेअपने उभारों को यों तान दिया, जैसे फौज में आया जवान अपनी छाती फुला कर दिखाता है.

‘‘साहब, आप को कौन सी जंच रही है?’’ रामचरण ने अखिलेश से पूछा.

अखिलेश के लिए यह नया तजरबा था. सैक्स के लिए उस को एक लड़की छांटनी थी, जबकि उस को तो ठेले पर सब्जी छांटनी नहीं आती थी. आंटी तजरबेकार थी. वह समझ गई थी कि नया चश्माधारी बाबू अनाड़ी है. उस ने लड़कियों की कतार में खड़ी मीनाक्षी की तरफ इशारा किया.

मीनाक्षी अखिलेश की कमर में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आओ, अंदर चलें.’’

इस के बाद वह अखिलेश को एक छोटे केबिननुमा कमरे में ले गई.

बाकी तीनों भी अपनीअपनी पसंद की लड़की के साथ अलगअलग केबिनों में चले गए. कमरे की सिटकिनी बंद कर लड़की ने अपने नए ग्राहक की तरफ देखा. अखिलेश ने भी उसे देखा. नेपाली मूल की उस लड़की का कद औसत से छोटा था. उस के मुंह पर ढेरों पाउडर पुता था. होंठों पर गहरे रंग की लिपस्टिक थी.

लड़की ने एकएक कर के सारे कपड़े उतार दिए, फिर अखिलेश के पास आ कर खड़ी हो गई.

अखिलेश ने चश्मे में से ही उस की तरफ देखा. उस के उभार ब्लाउज उतर जाने के बाद ढीलेढाले से लटके थे. उभारों, बांहों, जांघों पर दांतों के काटने के निशान थे.

उसे देख कर अखिलेश को जोश की जगह तरस आने लगा था.

‘‘अरे बाबू, क्या हुआ? सैक्स नहीं करोगे?’’ उस लड़की ने पूछा.

‘‘नहीं, मुझे जोश नहीं आ रहा,’’ अखिलेश ने कहा.

‘‘कपड़े उतार दो, जोश अपनेआप आ जाएगा,’’ वह लड़की बोली.

‘‘मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘पनवाड़ी से पान तो लाए होगे?’’

‘‘हां है. तुम खा लो,’’ पान की पुड़िया उसे थमाते हुए अखिलेश ने कहा.

‘‘आप खा लो… गरमी आ जाएगी.’’

‘‘तुम खा लो.’’

लड़की ने पान चबाया. अखिलेश पछता रहा था कि वह यहां क्यों आया.

‘‘तुम्हें कितने पैसे मिलते हैं?’’

‘‘यह आंटी को पता है.’’

‘‘मुझ से क्या लोगी?’’

‘‘यह भी आंटी बताएगी. तुम कुछ करोगे?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मैं कपड़े पहन लूं?’’

अखिलेश चुप रहा. लड़की ने कपड़े पहने और बाहर चली गई. अखिलेश भी बाहर चला आया.

इतनी जल्दी ग्राहक निबट गया था. आंटी ने टेढ़ी नजरों से उस की तरफ देखा. मीनाक्षी ने भद्दा इशारा किया. पलंग पर बैठी सभी लड़कियां हंस पड़ीं.

आधेपौने घंटे बाद बाकी तीनों भी बाहर आ गए.

अखिलेश को बाहर आया देख वे सभी चौंके.

‘‘क्या बात है साहब?’’ सुरेश बोला.

‘‘मुझ से नहीं हुआ,’’ अखिलेश ने बताया.

‘‘पहली बार आए हो न साहब. धीरेधीरे सीख जाओगे.’’

आंटी को पैसे थमा कर वे सब बाहर चले आए.

अगले कई दिनों तक उन तीनों ने अखिलेश को उकसाने की कोशिश की, मगर उस ने वहां जाने से मना कर दिया. एक शाम मौसम सुहावना था. शराब के 2 पैग पीने के बाद अखिलेश घूमने निकल पड़ा.

अचानक ही अखिलेश के कदम उस गली की तरफ मुड़ गए. चश्माधारी बाबूजी को देख आंटी पहले चौंकी, फिर हंसते हुए बोली, ‘‘आओ बाबूजी.’’

मीनाक्षी भी मुसकराई. वह उस को अपने केबिन में ले गई.

‘‘आप फिर आ गए?’’

‘‘मौसम ले आया.’’

‘‘अकेले?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं अपने कपड़े उतारूं?’’

अखिलेश खामोश रहा. लड़की ने कपड़े उतार दिए. पहले की तरह अखिलेश ने उस के बदन को देखा.

‘‘अब आप भी अपने कपड़े उतारो,’’ लड़की बोली.

अखिलेश ने भी अपने कपड़े उतारे और उस के करीब आया. उसे अपनी बांहों भरा और चूमा, फिर बिस्तर पर खींच लिया. लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी अखिलेश में जोश नहीं आया.

आखिरकार तंग आ कर मीनाक्षी ने पूछा, ‘‘क्या तुम ने पहले कभी सैक्स किया है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर तुम यहां क्यों आए हो?’’

‘‘अगले महीने मेरी शादी है. वहां खिलाड़ी साबित करने के लिए मैं यहां आया हूं.’’

यह सुन कर मीनाक्षी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘तुम से कुछ नहीं हो सकता. तुम चले जाओ.’’

कपड़े पहन कर अखिलेश बाहर जाने को हुआ, तभी मीनाक्षी बोली, ‘‘अपना पर्स, घड़ी और अंगूठी उतार कर मुझे दे दो,’’

‘‘क्यों?’’ अखिलेश ने पूछा.

तभी एक कद्दावर गुंडे ने वहां आ कर चाकू तान दिया.

अखिलेश ने अपने पर्स की सारी नकदी, अंगूठी और घड़ी उतार कर पलंग पर रख दी और चुपचाप बाहर चला आया. आते वक्त भी मौसम खुशगवार था, लौटते वक्त भी. मगर आते समय अखिलेश शराब के नशे में था, लौटते समय उस का नशा उतर चुका था.

कारवां : लोगों के साथ भी, लोगों के बाद भी

अतीत के ढेर में दफन दम तोड़ती, मुड़ीतुड़ी न जाने कैसीकैसी यादों को वह खींच लाती है…घटनाएं चाहे जब की हों पर उन्हें आज के परिवेश में उतारना उसे हमेशा से बखूबी आता है…कुछ भी तो नहीं भूलता उसे. छोटी से छोटी बातें भी ज्यों की त्यों याद रहती हैं.

आज अपना असली रंग खो चुके पुराने स्वेटर के बहाने स्मृतियों को बटोरने चली है…अब स्वेटर क्या अतीत को ही उधेड़ने बैठ जाएगी…उधेड़ती जाएगी…उस में पड़ आई हर सिकुड़न को बारबार छुएगी, सहलाएगी…ऐसे निहारेगी कि बस, पूछो मत…फिर गोले की शक्ल में ढालने बैठ जाएगी.

‘‘तुम्हें कुछ याद भी है नरेंद्र या नहीं, यह स्वेटर मैं ने कब बुना था तुम्हारे लिए? तब बुना था जब तुम टूर पर गए थे कहीं. हां, याद आया हैदराबाद. मालूम है नरेंद्र, अंकिता तब गोद में थी और मयंक मात्र 4 साल का था. तुम लौटे तो मैं ने कहा था कि नाप कर देखो तो इसे…हैरान रह गए थे न तुम, तुम ने मेरे हाथ से स्वेटर ले कर देखते हुए पता है क्या कहा था…’’ उस की नजरें मेरे चेहरे पर आ टिकीं, उस के होंठ मुसकराने लगे.

‘‘क्या कहा था, यही न कि भई वाह, कमाल करती हो तुम भी…तुम्हारा हाथ है या मशीन, कब बनाया? बहुत मेहनत, बहुत लगन चाहिए ऐसे कामों के लिए. यही कहा था न मैं ने…’’ उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा मैं ने…नहीं कहता तो कहती कि तुम तो ध्यान से मेरी कोई बात सुनते ही नहीं…जैसे कि तुम्हारा  कोई मतलब ही नहीं हो इन बातों से…इस घर में किस से बातें करूं मैं, दीवारों से…

गला रुंध आएगा उस का…आंखें नम पड़ जाएंगी…गलत क्या कहेगी शोभना…उस के और मेरे सिवा इस घर में कौन है, ऊपर से मैं भी चुप लगा जाऊं तो…मेरा क्या है…मैं अगर चुप भी रहूं, वक्त तो तब भी कट ही जाया करता है मेरा. शोभना की तरह बोलने की आदत भी तो नहीं है मेरी. मुझे तो बस, उस को सुनना अच्छा लगता है…अच्छा भी क्या लगता है, न सुनूं तो करूं क्या? 2 दिन भी उस की बकबक सुनने को अगर मैं न होऊं न तो वह बीमार पड़ जाती है बेचारी, सच कहूं तो उस के चेहरे पर मायूसी मुझे जरा भी नहीं भाती…वह तो गुनगुनाती, मुसकराती मेरे इर्दगिर्द डोलती हुई ही अच्छी लगती है. आज तो कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही थी वह…अब अपने मुंह से कुछ कहे या न कहे मगर मैं तो इस खुशी का राज जानता था…उस के चेहरे की मुसकराहट…होंठों पर गुनगुनाहट मुझे इस बात का एहसास करा जाती है कि अब कोई त्योहार आने वाला है या फिर छुट्टियां…हो सकता है बच्चे आ ही जाएं, घरआंगन चहक उठेगा…बागबगीचा महक उठेगा. असमय अपने चमन में आ जाने वाली बहार की कल्पना मात्र से ही उस का चेहरा खिल उठा है…कोई भी छुट्टियां आने से पहले यही हाल होता है उस का…समय बे समय उठ जाने वाला गांठों का दर्द कुछ दिनों के लिए तो जैसे कहीं गायब ही हो जाता है…और सिरदर्द, कुछ दिन के लिए उस की भी शिकायत से मुक्ति मिल जाती है मेरे कानों को. वरना जब देखो तब…सिर पर पट्टा बंधा हुआ है और होंठ दर्द से कराह रहे होते हैं… ‘उफ् सिर दर्द से फटा जा रहा है…जाने क्या हो गया है….’

शोभना कई दिन से एक ही रट लगाए हुए है. पीछे का स्टोर रूम साफ करवा लूं…कहती है कि ऊनीसूती कपड़ों का जाने क्या हाल होगा, काफी समय से एक ही जगह तह किए पड़े हैं. पिछले दस दिन से हर छुट्टी के दिन काम वाली के लड़के रामधारी को भी बुलवा लेती है मदद के लिए…मैं अकसर चिढ़ जाया करता हूं, ‘एक ही दिन तो चैन से घर में बैठने को मिलता है और तुम हो कि…’

‘काहे की छुट्टी…तुम्हारा तो हर दिन संडे है…नहीं करवाना है कुछ तो वह बोलो…’

कैसे कहूं कि काम जैसा काम हो तब तो करवाऊं भी…कपड़ों को निकालेगी… छोटेछोटे ऊनीसूती फ्राक्स…टोपीमोजे… दस्ताने…एकएक को खोलखोल कर निहारेगी…सहलाएगी और फिर ज्यों की त्यों सहेज कर रख देगी. मजाल है जो किसी चीज को हाथ भी लगाने दे…सब की धूल झाड़ कर जब वापस रखना ही है तो काहे की सफाई…कुछ कह दो तो इस उम्र में कहासुनी और हो जाएगी.

मेरी सोच से बेखबर शोभना बड़ी ही तन्मयता से गोले पर गोले बनाए जा रही थी, ‘‘क्या करोगी अब इस का?’’ मैं ने यों ही पूछ लिया. ‘‘अब…धोऊंगी… सुखाऊंगी…फिर लच्छी करूंगी…फिर गोले बनाऊंगी…’’

‘‘फिर…’’

‘‘…फिर…एक स्वेटर बनाऊंगी… अपने लिए…’’

‘‘स्वेटर…अपने लिए…इस गरमी में…’’ मैं चौंका.

‘‘ए.सी. रूम में पड़ेपड़े कहां पता चलता है कि सर्दी है या गरमी…कुछ हाथ में रहता है तो समय सरलता से कट जाता है.’’

‘‘…समय काटने के और भी बहुत से साधन हैं या आंखें फोड़ना जरूरी है, देखता हूं कभी ऊन ले कर बैठ जाओगी तो कभी सिलाई की मशीन…’’

‘‘तो क्या करूं, तुम्हारी तरह किताब या पेपर ले कर बैठी रहूं…’’

‘‘नहीं बाबा, कुछ भी करो मगर मुझ से मत उलझो…लेकिन एक बात बताओ, तुम क्या करोगी इस का? तुम तो कभी कुछ गरम कपड़े पहनती ही नहीं थीं…दिसंबरजनवरी में भी सुबहसुबह बिना शाल के घूमा करती थीं…कहा करती थीं कि तुम्हें ऊनी कपड़े चुभते हैं…फिर…’’

‘‘अरे बाबा, वो तब की बात थी… अब तो बहुत ठंड लगती है, पहले सौ काम होते थे तब ठंड की कौन परवा किया करता था.’’

‘‘अच्छा, तो ये क्यों नहीं कहतीं कि अब बूढ़ी हो गई हो तुम…उम्र ढलने के साथ अब ठंड ज्यादा लगती है तुम्हें…’’

‘‘हां, और तुम तो जैसे…’’ बात बीच में ही छोड़ कर खामोश हो गई पर कितनी देर, ‘‘नरेंद्र, कभी सुबह से शाम कब हो जाती थी पता ही नहीं चलता था न…घड़ी की सृई के पीछे भागतेभागते थक जाया करती थी मैं…पूरी तरह नींद भी नहीं खुलती और अंकिता के रोने की आवाज कानों में पड़ रही होती…तुम चिढ़ कर कुछ भुनभुनाते और तकिया कान पर धर कर सो जाया करते…फिर शुरू होता काम का शाम तक न थमने वाला सिलसिला…घड़ी पर नजर जाती… ‘बाप रे, 7 बजने वाले हैं…’ जरूर काम वाली खटखटा कर लौट गई होगी…अब क्या? अब तो 10 बजे से पहले आएगी नहीं… गंदे बरतन सिंक में पड़े मुझे मुंह चिढ़ा रहे होते…बच्चों का टिफिन…तुम्हारा लंच… उफ्…फटे दूध में सनी तीनों बोतलें… झुंझलाहट आती अपनेआप पर ही…फिर कितनी भी जल्दी करती, नाश्ते में देर हो ही जाती…लंच बाक्स तुम्हारे पीछे भागभाग कर सीढि़यों पर पकड़ाया करती थी.’’

अकसर वह इस टापिक को इसी मोड़ पर ला कर…एक गहरी सांस छोड़ कर खत्म किया करती… उसे एकटक देखता रह जाता मैं…बात की शुरुआत में कितनी उत्तेजित रहती…और अंत आतेआते…मानो रेत से भरी अंजुरी खाली हो रही हो…मेरे भी होंठ मुसकराने के अंदाज में फैलतेफैलाते मानो ठिठक जाते हैं…कितनी बार तो सुन चुका हूं यही सब.

‘‘नरेंद्र, वक्त कैसे गुजर जाता है…है न, पता ही नहीं चलता…सब से बड़ी मीता की शादी को आज 20 साल पूरे हो जाएंगे. सब से छोटी अंकिता भी 2 बच्चों की मां बन चुकी है. बीच के दोनों मोहित और मयंक अपनेअपने गृहस्थ जीवन का सुखपूर्वक आनंद ले रहे होंगे. सुखी हों भी क्यों न, उन की सुखसुविधा का सदैव ही तो ध्यान रखा है हम ने…उन की जरूरतें पूरी करने के लिए हम क्या कुछ नहीं किया करते थे…मांबाप नहीं एक दोस्त बन कर पाला था हम ने उन्हें…तभी तो अपने प्यार के बारे में मोहित ने सब से पहले मुझे बताया था.

‘‘‘मां, बस, एक बार तुम ममता से मिल तो लो. दाद दोगी मेरी पसंद की… हीरा चुना है हीरा आप के लिए.’ मैं ने उस के लिए कौन सा रत्न चुना था, कहां बता पाई थी उसे…आज भी जब कभी शर्माजी की बेटी हिना मेरे सामने होती है तो मेरे दिल में एक कसक सी उठती है…काश… हिना मेरी बहू होती…’’ वैसे वह अच्छी तरह जानती है कि उस का यों अतीत में भटकना मुझे जरा भी नहीं अच्छा लगता, तभी तो आहिस्ताआहिस्ता खामोश होती चली गई, ‘‘मैं भी, न जाने कबकब की बातें याद करती हूं…है न…’’ मेरे खीझने से पहले ही वह सतर्क हो गई.

मैं आज में जीता हूं…पेपर पढ़ने से फुरसत मिलती है तो घर के आगेपीछे की खाली पड़ी, थोड़ी सी कच्ची जमीन के चक्कर काटने लग जाता हूं…और शोभना, उस की सूई तो जब देखो तब एक ही परिधि में घूमती रहती है. वही मोहित…मयंक…उन के बच्चे…मीता… अंकिता…उन के बच्चे…कुछ नहीं भूलती वह…

‘‘याद आ रही है बच्चों की…’’ मैं उस के करीब खिसक आया, ‘‘नातीपोतों के लिए इतना तरसती हो तो हो क्यों नहीं जातीं किसी के पास…सभी तो बुलाते रहते हैं तुम्हें.’’

हमेशा की तरह भड़क गई वह मेरे ऐसा कहने पर, ‘‘कहीं नहीं जाना मुझे… तुम तो यही चाहते हो कि मैं कहीं चली जाऊं और तुम्हें मेरी बकबक से छुट्टी मिल जाए…न कहीं जानेआने की बंदिश… न खानेपीने की रोकटोक…’’ बात अधूरी छोड़ चली गई वह…

पिछले कुछ वर्षों से वह कहीं जाना ही नहीं चाहती…माना मोहित के पास नहीं जाना चाहती…बड़ी बहू के स्वभाव में अजीब सा रूखापन है…बहुत अपनापन तो छोटी बहू में भी नजर नहीं आता…घर 2 पाली में बंटाबंटा सा लगता है…एक में पतिपत्नी और बच्चे…दूसरे में मांबाप और बेटा…बेटे का डबल रोल देखतेदेखते किसी का भी मन उचट जाए…वह उन सासों में से है भी नहीं जो बहू को दोषी और बेटे को निर्दोष समझें…शायद यही कारण था कि उस का मन सब से उचट गया था…

कभी कुछ कुरेद कर पूछना चाहो तो कुछ कहती भी नहीं…जो भी हो, बड़ी सफाई से अपना दर्द छिपा लिया करती है वह, कहती है, ‘अपना घर अपना ही होता है नरेंद्र…वैसे भी मैं उम्र के इस पड़ाव पर तुम से अलग रहना नहीं चाहती…तुम्हारा साथ बना रहे बस, और कुछ नहीं चाहिए मुझे…’ पहले तो ऐसी नहीं थी वह…जरा सा किसी बच्चे का जन्मदिन भी पड़ता था तो छटपटाने लगती वह…ज्यादा नहीं साल 2 साल पहले की बात है, मोहित के बेटे मयूर का जन्मदिन आने वाला था…बस, क्या था…बेसन के  लड्डू बंधने लगे… मठरियां बनने लगीं…रोजरोज की खरीदारी…कभी बहू के लिए साडि़यां लाई जा रही थीं तो कभी सलवार सूट… बच्चों के लिए ढेरों कपड़े…दुनिया भर की तैयारियां देख कर दंग रह गया था मैं… ‘ये क्या…जन्मदिन तो बस, मयूर का ही है न….’

‘तो क्या हुआ? मोहित हो या मयूर…मेरे लिए तो ऐसे अवसर पर सभी बराबर हैं,’ इतराती हुई सी बोली थी वह.

‘हमें रिजर्वेशन करवाने से पहले एक बार मोहित से बात नहीं कर लेनी चाहिए?’

‘अरे…इस में बात क्या करनी है? हर बार ही तो जाते हैं हम…खैर, तुम्हारी मरजी…कर लो…’ फोन सेट आगे खींच कर रिसीवर मेरी ओर बढ़ा दिया था शोभना ने….

‘नहीं डैड, ममा को कहिए, इस बार हम लोग नहीं मना रहे मयूर का जन्मदिन, वैसे भी उस का क्लास टैस्ट चल रहा है. हम नहीं चाहते कि उस का माइंड डिस्टर्ब हो.’

बस, सारी की सारी तैयारियां धरी रह गईं…लाख समझाया था मैं ने उसे कि तुम्हें आने से कहां मना किया है उस ने…

‘बुलाया भी कहां है…एक बार ये भी तो नहीं कहा न कि आप लोग तो आ जाइए.’

कभीकभी क्यों…अकसर ही सोचता हूं मैं कि शोभना, मेरी पत्नी, मेरी तरह क्यों नहीं सोचती. सोचती तो शायद आज वह भी सुखी रहती…हैरानी होती है.

चोट: शिवेंद्र अपनी टीस को झेलते हुए कैसे कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया

दिल्ली से सटे तकरीबन 40 किलोमीटर दूर रावतपुर नाम के एक छोटे से कसबे में अमरनाथ नाम का एक किसान रहता था. उस के पास तकरीबन डेढ़ एकड़ जमीन थी, जिस में फसल उगा कर वह अपने परिवार को पाल रहा था. पत्नी, एक बेटा और एक बेटी यही छोटा सा परिवार था उस का, इसलिए आराम से गुजारा हो रहा था.

अमरनाथ का बड़ा बेटा शिवेंद्र पढ़नेलिखने में बहुत तेज तो नहीं था, पर इंटरमीडिएट तक सभी इम्तिहान ठीकठाक अंकों से पास करता गया था.

अमरनाथ को उम्मीद थी कि ग्रेजुएशन करने के बाद उसे कहीं अच्छी सी नौकरी मिल ही जाएगी और वह खेतीकिसानी के मुश्किल काम से छुटकारा पा जाएगा.

रावतपुर कसबे में कोई डिगरी कालेज न होने के चलते अमरनाथ के सामने शिवेंद्र को आगे पढ़ाने की समस्या खड़ी हो गई. उस ने काफी सोचविचार कर बच्चों को ऊंची तालीम दिलाने के लिए दिल्ली में टैंपरेरी ठिकाना बनाने का फैसला लिया और रावतपुर में अपने खेत बंटाई पर दे कर सपरिवार दिल्ली के सोनपुरा महल्ले में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगा.

अमरनाथ ने शिवेंद्र को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए ज्ञान कोचिंग सैंटर में दाखिला करा दिया और बेटी सुमन को पास के ही महात्मा गांधी बालिका विद्यालय में दाखिला दिला दिया. उस ने अपना ड्राइविंग लाइसैंस बनवाया और आटोरिकशा किराए पर ले कर चलाना शुरू कर दिया.

आटोरिकशा के मालिक को रोजाना 400 रुपए किराया देने के बाद भी शाम तक अमरनाथ की जेब में 3-4 सौ रुपए बच जाते थे जिस से उस का घरखर्च चल जाता था.

अमरनाथ सुबह 8 बजे आटोरिकशा ले कर निकालता और शिवेंद्र को कोचिंग सैंटर छोड़ता हुआ अपने काम पर निकल जाता. शिवेंद्र की छुट्टी शाम को 4 बजे होती थी.

अमरनाथ इस से पहले ही कोचिंग सैंटर के पास के चौराहे पर आटोरिकशा ले कर पहुंच जाता और शिवेंद्र को घर छोड़ कर दोबारा सवारियां ढोने के काम में लग जाता.

अमरनाथ सुबहशाम बड़ी चालाकी से उसी रूट पर सवारियां ढोता जिस रूट पर शिवेंद्र का कोचिंग सैंटर था और जब शिवेंद्र को लाते और ले जाते समय कोई सवारी उसी रूट की मिल जाती तो अमरनाथ की खुशी का ठिकाना न रहता.

एक दिन शाम को साढ़े 4 बजे के आसपास अमरनाथ चौराहे पर शिवेंद्र का इंतजार कर रहा था कि तभी ट्रैफिक पुलिस का दारोगा डंडा फटकारता हुआ वहां आ गया और उस से तुरंत अमरनाथ को वहां से आटोरिकशा ले जाने को कहा.

अमरनाथ ने दारोगा को बताया कि उस का बेटा कोचिंग पढ़ कर आने वाला है. वह उसी के इंतजार में चौराहे पर खड़ा है. बेटे के आते ही वह चला जाएगा.

‘‘अच्छा, मुझे कानून बताता है. भाग यहां से वरना मारमार कर हड्डीपसली एक कर दूंगा.’’ दारोगा गुर्राया.

‘‘साहब, अगर मैं यहां से चला गया तो मेरा बेटा…’’

अमरनाथ अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि दारोगा ने ताबड़तोड़ उस पर डंडा बरसाना शुरू कर दिया. उसी समय शिवेंद्र वहां पहुंच गया. अपने पिता को लहूलुहान देख उस की आंखों में खून उतर आया. उस ने लपक कर दारोगा का डंडा पकड़ लिया.

शिवेंद्र को देख अमरनाथ कराहते हुए बोला, ‘‘साहब, मैं इसी का इंतजार कर रहा था. अब मैं जा रहा हूं.’’

अमरनाथ ने शिवेंद्र की ओर हाथ बढ़ाते हुए उठने की कोशिश की तो शिवेंद्र ने दारोगा का डंडा छोड़ अपने पिता को उठा लिया और आटोरिकशा में बिठा कर आटो स्टार्ट कर दिया.

शिवेंद्र ने दारोगा को घूरते हुए आटोरिकशा चलाना शुरू किया तो दारोगा ने एक भद्दी सी गाली दे कर आटोरिकशा पर अपना डंडा पटक दिया.

इस घटना के 3-4 दिन बाद तक शिवेंद्र कोचिंग पढ़ने नहीं गया. हथेली जख्मी हो जाने के चलते अमरनाथ आटोरिकशा चलाने में नाकाम था, इसलिए वह घर पर ही पड़ा रहा और घरेलू उपचार करता रहा.

घरखर्च के लिए शिवेंद्र ने बैटरी से चलने वाला आटोरिकशा किराए पर उसी आटो मालिक से ले लिया जिस से उस के पिता किराए पर आटोरिकशा लेते थे, ताकि ड्राइविंग लाइसैंस का झंझट न पड़े. वह पूरे दिल से आटोरिकशा चलाता और फिर देर रात तक पढ़ाई करता.

एक दिन रात को शिवेंद्र पढ़तेपढ़ते सो गया. उस की मां की नींद जब खुली तो उस ने शिवेंद्र की किताब उठा कर रख दी. तभी उस की निगाह तकिए के पास रखे बड़े से चाकू पर गई.

सुबह उठ कर शिवेंद्र की मां ने उस से पूछा, ‘‘तू यह चाकू क्यों लाया है और इसे तकिए के नीचे रख कर क्यों सोता है?’’

अपनी मां का सवाल सुन कर शिवेंद्र सकपका गया. उस ने कोई जवाब देने के बजाय चुप रहना ही ठीक समझा. उस की मां ने जब बारबार यही सवाल दोहराया तो वह दांत पीसते हुए बोला, ‘‘उस दारोगा के बच्चे का पेट फाड़ने के लिए लाया हूं जिस ने मेरे पापा की बेरहमी से पिटाई की है.’’

शिवेंद्र का जवाब सुन कर उस की मां सन्न रह गई.

शिवेंद्र के जाने के बाद मां ने यह बात अमरनाथ को बताई. अमरनाथ ने जब यह सुना तो उस के होश उड़ गए. कुछ पलों तक वह बेचैनी से शून्य में देखता रहा, फिर अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तू ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? उसे घर के बाहर क्यों जाने दिया? अगर वह कुछ ऐसावैसा कर बैठा तो…?’’

रात को 8 बजे जब आटोरिकशा वापस जमा कर के शिवेंद्र घर लौटा और दिनभर की कमाई पिता को दी तो अमरनाथ ने उसे अपने पास बैठा कर बहुत प्यार से समझाया, ‘‘बेटा, दारोगा ने सही किया या गलत, यह अलग बात है, मगर जो तू कर रहा है, उस से न केवल तेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी, बल्कि पूरा परिवार ही तबाह हो जाएगा.

‘‘हम सब के सपनों का आधार तू ही है बेटा, इसलिए दारोगा से बदला लेने की बात तू अपने दिमाग से बिलकुल निकाल ही दे, इसी में हम सब की भलाई है.’’

शिवेंद्र चुपचाप सिर झुकाए अपने पिता की बातें सुनता रहा. दुख और मजबूरी से उस की आंखें डबडबा आईं. बहुत समझाने पर उस ने अपनी कमर में खुंसा चाकू निकाल कर अमरनाथ के सामने फेंक दिया और उस के पास से हट गया.

अमरनाथ ने चुपचाप चाकू उठा कर अपने बौक्स में रख कर ताला लगा दिया.

अगले दिन अमरनाथ ने चोट के बावजूद खुद आटोरिकशा संभाल लिया और शिवेंद्र को ले कर कोचिंग सैंटर गया.

शिवेंद्र जब आटो से उतर कर कोचिंग सैंटर चला गया तो कुछ देर तक अमरनाथ बाहर ही खड़ा रहा. फिर कोचिंग सैंटर के हैड टीचर जिन्हें सब अमित सर कहते थे, के पास गया और उन्हें दारोगा वाली पूरी बात बताई.

अमित सर ने अमरनाथ की पूरी बात सुनी और उसे भरोसा दिलाया कि वे शिवेंद्र की काउंसलिंग कर के जल्दी ही उसे सही रास्ते पर ले आएंगे.

अमरनाथ के जाने के बाद अमित सर ने शिवेंद्र को अपने कमरे में बुलाया और उस से पुलिस द्वारा की गई ज्यादती के बारे में पूछा, तो शिवेंद्र फफक कर रो पड़ा.

जब शिवेंद्र 5-7 मिनट तक रो चुका तो अमित सर ने उसे चुप कराते हुए सवाल किया, ‘‘क्या तुम जानते हो कि पुलिस वाले ने तुम्हारे पिता पर हाथ क्यों उठाया?’’

‘‘सर, उन की कोई गलती नहीं थी. वे चौराहे पर मेरा इंतजार कर रहे थे. यह बात उन्होंने उस पुलिस वाले को बताई भी थी.’’

‘‘मतलब, उन की कोई गलती नहीं थी. अब यह बताओ कि अगर तुम्हारे पिता की जगह पर कोई अमीर आदमी बड़ी सी महंगी कार लिए अपने बेटे का वहां इंतजार कर रहा होता तो क्या पुलिस वाला उस आदमी पर हाथ उठाता?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि गरीब होने के चलते तुम्हारे पिता के ऊपर हाथ उठाने की हिम्मत उस दारोगा ने की.’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तो बेटा, तुम्हें उस दारोगा से बदला लेने के बजाय उस गरीबी से लड़ना चाहिए जिस के चलते तुम्हारे पिता की बेइज्जती हुई. होशियारी इनसान से लड़ने में नहीं, हालात से लड़ने में है.

‘‘अगर तुम लड़ना ही चाहते हो तो गरीबी से लड़ो और इस का एक ही उपाय है ऊंची तालीम. अपनी गरीबी से संघर्ष करते हुए खुद को इस काबिल बनाओ कि उस जैसे पुलिस वाले को अपने घर में गार्ड रख सको.

‘‘तुम मेहनत कर के आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कामयाबी पाओ. फिर इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल कर के कोई बड़ी नौकरी हासिल करो. फिर तुम देखना कि वह दारोगा ही क्या, उस के जैसे कितने ही लोग तुम्हारे सामने हाथ जोड़ेंगे और आईएएस बन गए तो यही दारोगा तुम्हें सैल्यूट मारेगा.

‘‘तुम्हारे इस संघर्ष में मैं तुम्हारा साथ दूंगा. बोलो, मंजूर है तुम्हें यह संघर्ष?’’

अमित सर की बात सुन कर शिवेंद्र का चेहरा सख्त होता चला गया, मानो उस की चोट फूट कर बह जाने के लिए उसे बेताब कर रही हो.

शिवेंद्र ने दोनों हाथ उठा कर कहा, ‘‘हां सर, मैं लडूंगा. पूरी ताकत से लड़ूंगा और इस लड़ाई को जीतने के लिए जमीनआसमान एक कर दूंगा.’’

दारोगा के गलत बरताव से शिवेंद्र के मन पर जो चोट लगी थी उस की टीस को झेलते हुए वह कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया और आईआईटी मुंबई से जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के लौटा तो 35 लाख रुपए सालाना तनख्वाह का प्रस्ताव भी जेब में ले कर आया. शिवेंद्र ने अपनी तनख्वाह के बारे में जब अमरनाथ को बताया तो उस का मुंह खुला का खुला रह गया, फिर वह तकरीबन चीखते हुए बोला, ‘‘अरे शिवेंद्र की मां, इधर आ. देख तो अपना शिवेंद्र कितना बड़ा आदमी हो गया है.’’

पूरे परिवार के लिए वह दिन त्योहार की तरह बीता. शाम को काजू की बरफी ले कर शिवेंद्र अमित सर के घर पहुंचा तो उन्होंने उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाई और बोले, ‘‘मुझे खुशी है कि वक्त ने तुम्हारे दिल को जो चोट दी, उसे तुम ने सहेज कर रखा और उस का इस्तेमाल सीढ़ी के रूप में कर के तरक्की की चोटी तक पहुंचे.

‘‘अब तुम्हें पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नहीं है. बस, यह ध्यान रखना कि किसी को तुम्हारे चलते बेइज्जत न होना पड़े, किसी गरीब को तुम से चोट न पहुंचे, यही तुम्हारा असली बदला होगा.’’

परिचय: कौन पराया, कौन अपना

मैं अपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

मोहरा: क्या चाहती थी सुहानिका?

सुहानिका आज कुछ ज्यादा ही खुश थी. अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने एक असिस्टैंट के रूप में यह औफिस जौइन किया था. शुरुआत में उस की तनख्वाह 20 हजार रुपए महीना थी और इन 2 महीने में ही उस की तनख्वाह 40 हजार रुपए महीना हो गई.

सुहानिका को बखूबी मालूम है कि उस के औफिस की बहनजी टाइप लड़कियां उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती हैं, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

एक दिन रुचिका सुहानिका को देखते हुए बोली, ‘‘तुम कब तक खूबसूरती की बैसाखी के सहारे नौकरी करोगी. तुम से तो एक पावर पौइंट भी ठीक से नहीं बन पाता है.’’

सुहानिका अपनी आंखों को और बड़ा कर के बोली, ‘‘रुचिका, मेरे पास जो है, मैं उस के सहारे ही तो आगे बढ़ूंगी न.’’

रुचिका ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘बेशर्म हो तुम.’’

सुहानिका ने जवाब दिया, ‘‘हां, पर सच्ची हूं.’’

23 साल की सुहानिका का बचपन गरीबी में गुजरा था. उस की मम्मी कैसी थीं, उसे नहीं मालूम, बस तसवीरों में ही उन की यादें उस के साथ थीं.

सुहानिका के पापा बिजली महकमे में क्लर्क थे. वे अपनी छोटी सी तनख्वाह से ही घर चलाते थे. सुहानिका की दादी हर समय उसे ताने मारती रहती थीं, ‘‘तेरे चलते मेरे बेटे ने दूसरी शादी नहीं की. अगर दूसरी मां आ जाती न, तो तेरी जो कैंची की तरह जबान चल रही है न, उसे काट देती.’’

सुहानिका भी कहां चुप रहने वालों में से थी. वह खटाक से जवाब देती, ‘‘दादी, तुम अपने मन को बहला रही हो. कर दो न दूसरी शादी तुम पापा की. दरअसल, सचाई यह है एक बुढ़ाते क्लर्क, जिस के साथ उस की बूढ़ी मां और जवान बेटी रहती हो, का शादी के बाजार में कोई मोल नहीं है.’’

ऐसे ही लड़तेझगड़ते सुहानिका ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा था. खुलता गेहुआं, भूरी आंखें, सुतवा नाक, लाल सुर्ख होंठ, घने घुंघराले बाल, जो उस के चेहरे के चारों ओर बिखरे रहते थे.

दादी गुस्से में सुहानिका के बालों को मधुमक्खी का छत्ता बोलती थीं, पर वही दादी हर शनिवार की रात सरसों और नारियल का तेल उस के बालों में बड़े प्यार से मलती थीं.

सुहानिका के पिता सतीश तोमर अदना से इनसान थे. मझोला कद, मझोली कदकाठी. उन की जिंदगी में सबकुछ ही मझोला था. वे दब्बू किस्म के इनसान थे.

सुहानिका ने कितनी बार अपने पापा को चिंतित देखा था. वे हर समय दफ्तर के काम में बिजी रहते थे, पर फिर भी कभी कोई तरक्की नहीं कर पाए. इस बात ने उन्हें अंदर ही अंदर चिड़चिड़ा कर दिया था.

उधर अपने बेटे की चिड़चिड़ाहट का असर सुहानिका की दादी पर भी होता था और कुलमिला कर यह नतीजा था कि सुहानिका का अपने ही घर में दम घुटता था.

सुहानिका की जिंदगी में हर चीज की कमी थी, जैसे प्यार, पैसा, विश्वास और आजादी. वह बस रूपरंग के मामले में अच्छी थी.

जब सुहानिका 15 साल की थी, तब उस के स्कूल के एक सीनियर लड़के ने उस के सामने दोस्ती का प्रस्ताव रखा था. सुहानिका ने बिना सोचे हां कर दी थी. वह सिलसिला आज तक जारी है. सुहानिका को सबकुछ मिल रहा था. पैसा, उपहार और वह सबकुछ, जो एक आरामदायक जिंदगी के लिए चाहिए.

पापा और दादी की नेक सलाह सुहानिका के कानों से टकरा कर वापस चली जाती थी. उस की क्या गलती है. उसे भी तो खुश रहने का हक है.

कालेज में भी सुहानिका हर हफ्ते किसी नए लड़के के साथ देखी जाती थी. उस के बारे में यह बात मशहूर थी कि 2 डेट के बाद सुहानिका का मन भर जाता है.

सुहानिका को शतरंज के शह और मात के इस खेल में अब एक अलग सा रोमांच होने लगा था. यह उस के चरित्र का एक हिस्सा बन चुका था.

अपनी खूबसूरती व नखरों के बल पर ही सुहानिका ने इस टूर ऐंड ट्रैवल कंपनी में असिस्टैंट की नौकरी हासिल की थी. उस का बौस अजय रावत अव्वल दर्जे का घटिया इनसान था. उसे खूबसूरत लड़कियों का साथ बेहद पसंद था. वह उन पर जीभर कर पैसे लुटाता था और बदले में लड़कियां उस के अहम को सहलाती थीं और उस की मर्दाना कमजोरी को वे बड़े आराम से ढक लेती थीं.

ऐसे ही सुहानिका ने भी किया, पर एक दिन जब वह अजय के साथ दफ्तर में ही रासलीला खेल रही थी, तभी उस कंपनी के मालिक का बेटा रोहित शर्मा वहां आ गया. सुहानिका और अजय के अस्तव्यस्त कपड़े देख रोहित को कुछ पूछने की जरूरत नहीं लगी.

अजय को तुरंत इस्तीफा लिखने के लिए कह दिया गया, पर सुहानिका को रोहित ने अंदर बुलाया. सुहानिका ने भी मौके का पूरा फायदा उठाया और सारी बात अजय के सिर पर डाल दी.

सुहानिका रोतेरोते बोल रही थी, ‘‘सर, मुझे एक मौका और दीजिए. यह मेरी मजबूरी थी.’’

न जाने क्या ऐसा जादू किया था कि सबकुछ जानते हुए भी रोहित ने सुहानिका को न सिर्फ मौका दिया, बल्कि कुछ महीने में अपने लिए भी वहीं इंदौर में एक फ्लैट किराए पर ले लिया.

सुहानिका को अच्छी तरह पता था कि रोहित ने ऐसा क्यों किया है. अब सुहानिका उस कंपनी की ब्रांच हैड बन गई थी.

रोहित के हफ्ते में 3 दिन अब इंदौर में ही बीतते थे. उस ने अपने परिवार को बताया था कि उस को रात में भी काम करना पड़ता है, क्योंकि ब्रांच बहुत ज्यादा नुकसान में चल रही है.

रोहित के पिता सुरेंद्र शर्मा बहुत खुश थे कि आखिरकार बेटे को अक्ल आ ही गई. पर जब सालाना रिपोर्ट आई तो सुरेंद्र का माथा ठनका, क्योंकि इंदौर की ब्रांच बिलकुल गड्ढे में चली गई थी.

उधर हफ्ते में 3 दिन रोहित का हवाई यात्रा से इंदौर जाना वैसे सुरेंद्र शर्मा की जेब पर भारी पड़ रहा था. जब उन्होंने रोहित से इस बारे में बात की तो वह गुस्से में बोला, ‘‘पापा, मैं रातदिन मेहनत कर रहा हूं, आप थोड़ा सब्र तो कीजिए.’’

सुरेंद्र ज्यादा दिनों तक सब्र नहीं रख पाए. एक दिन जब रोहित इंदौर गया हुआ था, तो वे भी पीछेपीछे पहुंच गए. वहां जा कर उन्हें सारा माजरा समझ आ गया था कि क्यों रोहित इंदौर के इतने चक्कर काट रहा है. उन्होंने फौरन इंदौर की ब्रांच बंद करने का फैसला ले लिया.

सुरेंद्र शर्मा जब इंदौर की ब्रांच बंद कर के लौटे तो सुहानिका भी उन के साथ थी. सुहानिका ने उन्हें बड़े आराम से इस बात का विश्वास दिला दिया था कि उसे रोहित ने यह सब करने पर मजबूर किया था.

दिल्ली पहुंच कर सुरेंद्र ने सुहानिका के लिए एक नौकरी के इंतजाम के साथसाथ एक छोटे फ्लैट का बंदोबस्त भी कर दिया.

सुहानिका का बहुत पहले ही अपने घर वालों से नाममात्र का मतलब रह गया था. वैसे, सुरेंद्र जब सुहानिका को दिल्ली लाए, तो उन के मन में सुहानिका के प्रति कोई बुरा भाव नहीं था.

पर सुहानिका को अपनी जिंदगी बहुत रूखी लग रही थी. सुरेंद्र ने जो नौकरी लगवाई थी, उस में उसे मेहनत करनी पड़ रही थी, जिस की उसे आदत नहीं थी.

फिर सुहानिका ने सुरेंद्र शर्मा को मोहरा बनाने की सोची. अब वह किसी न किसी बहाने से उन्हें फोन करने लगी और उन से मिलने भी लगी. ऐसी ही एक मुलाकात में उस ने अपनेआप को सुरेंद्र को सौंप दिया. सुरेंद्र शर्मा जानते थे कि यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुहानिका महज 25 साल की थी और वे 55 साल के थे.

एक तो सुरेंद्र शर्मा अपनी पत्नी की मौत के बाद पिछले 10 साल से अकेलेपन का दर्द झेल रहे थे और दूसरे कौन ऐसा मर्द होगा, जो किसी खूबसूरत और जवान लड़की का मोह छोड़ सके.

सुरेंद्र शर्मा पर सुहानिका के रूप का ऐसा सिक्का चला कि वे समाज और परिवार की परवाह करे बिना सुहानिका के साथ शादी के बंधन में बंध गए. सब नातेरिश्तेदारों ने जम कर शिकायत की, पर दोनों ने किसी की नहीं सुनी.

धीरे-धीरे एक साल और बीत गया. सुहानिका को धनदौलत, ऐशोआराम की कमी नहीं थी, पर अब उसे एक साथी की कमी महसूस होने लगी थी. सुरेंद्र से सुहानिका को प्यार तो नहीं था, पर एक लगाव सा हो गया था. लेकिन वह फिर से बोर हो गई थी.

तभी सुहानिका की जिंदगी में पवन नामक लड़का आया, जो रिश्ते में सुरेंद्र शर्मा का भतीजा लगता था और दिल्ली में नौकरी करने के लिए आया हुआ था.

सुहानिका अपनेआप को रोक नहीं पाई और उस ने फिर से एक नया मोहरा ढूंढ़ लिया.

उधर पवन को सुहानिका के लिए बहुत हमदर्दी हो रही थी. उसे लग रहा था, बेचारी सुहानिका को कितने मर्दों ने अपने फायदे के लिए मोहरा बनाया होगा और फिर भी उस का दिल कितना बड़ा है कि वह सुरेंद्र चाचा के प्रति पत्नी के सारे फर्ज निभा रही है. उन की उम्र के चलते सुहानिका ने अपनी मां बनने की इच्छा का भी बहुत पहले गला घोंट दिया था. ऐसी लड़की का अगर मैं दोस्त बन जाऊं तो इस में क्या खराबी है

उधर चांदनी रात में सुहानिका सुरेंद्र के साथ शतरंज के खेल में मोहरे चल रही थी और उस का दिमाग बहुत तेजी के साथ इस बात पर विचार कर रहा था कि वह कब और कैसे इस नए मोहरे को मात देगी. आखिर उस की गलती क्या है? उसे भी तो खुश रहने का हक है?

यह सोचते हुए सुहानिका के होंठों पर एक कुटिल मुसकान थिरक उठी और उस ने एक झटके से अपनी एक बहुत ही बोल्ड सैल्फी पवन को पोस्ट कर दी. वह खुला निमंत्रण था, अगले शिकार का.

हास्य कहानी: पत्र बम, क्या लिखा था उस चिट्ठी में

शहर का एक दूसरा बड़ा वर्ग धनिक होने की दौड़ में लगा मध्यवर्ग है. जिसके हाथों में अनायास ही शहर की नब्ज है. क्योंकि इसके पास वक्त है. काम है दो, पहला परिवार की पोषण और शहर की… नेता, व्यापारी, छोटे ठेकेदार इस वर्ग में परीगणित किए जा सकते हैं. पार्टियों के प्रमुख ओहदे इन्हीं की जेब में है क्योंकि मंत्री बड़े नेताओं के मुंह लगे हुए चारण हैं .

मुंह इसलिए की चुनाव के दरम्यान संचालक बन कर नेताजी के लिए वैतरणी तैयार करते हैं. शहर का तीसरा तबका बुद्धिजीवियों का है. एक समय तो शहर की धड़कन पर हाथ रखा करता था. छोटा शहर, गांव सदृश्य कस्बा,अभी शहर नहीं बना था. उद्योग कोयला खदानें खुल रही थी. ऐसे समय में बुद्धिजीवी अवतीर्ण हुए और शहर की दिशा देने लगे. इस बीच द्वितीय वर्ग तेजी से उभरा और राजनीति और अर्थतंत्र पर काबिज हो गया. बुद्धिजीवियों की बखत बढ़ती चली गई.

हमारे शहर की ऐसी ही परिस्थितियां है. इन झंझावात में प्रौढ होते शहर को मैंने नजदीक से देखा है .घात प्रतिघात, द्वेष, ईष्या के साथ धड़कता मेरा औद्योगिक शहर या कहें उद्योगपुरी. हां यहाँ बात बे बात एक अनाम पत्र जारी होते है, जो उभरती शक्ति को पटखनी देने की कोशिश में रहते हैं. अकस्मात शुरू होता है शहर के स्वनाम धन्य लोगों की छवि पर प्रश्नचिन्ह लगाने का काम! वह कभी झूठ का पुलिंदा होता है तो कभी सच का आईना भी. तो मैंने देखा,वर्षो पूर्व पत्र जारी होते थे. सुबह देखा! एक चिट्ठी पड़ी है .

एक बड़ा खुलासा करती हुई. मगर किसी लिखने वाले का नाम नहीं है. किसी का मान मर्दन करने का अच्छा तरीका इख्तियार किया है. थोड़ा सा विवाद या द्वेष और जारी हो गया पत्रबम! मजे की बात यह है की यह पत्र शहर के कुछ नामचीन लोगों को ही जारी होता है. कुछ प्रतियो में, फिर एक शख्स दूसरे और दूसरा तीसरे को फोटो कापियां करवा करवा कर देता जाता है.

मैंने देखा है इस काम में बड़ा रस आता है. जो शख्सियत पत्र पाती है, बिल्कुल सरल बन जाती है. सहजता भोलापन मुंह से टपकने लगता है. मन ही मन प्रसन्न होता है. स्वयं में गौरवान्वित. आह ! शहर में कुछ लोगों को मिला है, यह गौरव गान करता पंपलेट, मैं उनमें एक हूं. आस-पास वालों को दानवीर की भांति देखता है. हाय… निरीह प्राणी ! तुम्हें तो कोई गिनता भी नहीं है ! मुझे देखो पत्र मेरे पास आया है. फिर बड़ा दानवीर बन उसकी छाया प्रतियां बांटता है.

हाय… अगर बुद्धिजीवी उस कथित पत्र को वहीं रोक ले तो कितना भला हो… मगर फिर रस कैसे प्रसारित होगा ! इतने दिनों बाद मौका आया है सगर्व छोटे बुद्धिजीवी से पूछता है-‘ क्यों, पर्चा आया है क्या ?’
छोटा बुद्धिजीवी- ‘पत्र ? कैसा पत्र .’
बुद्धिजीवी-‘वही जो डाक से कल आया है ?’
छोटे बुद्धिजीवी का चेहरा उतर जाता है-“अरे! हमारी कोई बखत नहीं.” फिर एक प्रति, छाया प्रति करवा कर उस पाकिट में ऐसे रखता है जैसे कोई बड़ा मैदान मार लिया हो. खुद तीसमार खां हो.

मैं सोचता हूं- चिट्ठी बंटी होगी सिर्फ दस. देखते देखते छाया प्रतिया होकर सैकड़ों में तब्दील हो जाती है. हर आदमी पत्र में प्रस्तुत नायक! के प्रति या तो सम्मान का भाव रखता है या फिर दुराव का .सीधी सी बात है जिस शख्स को अपनी पत्र बम विद्या से ओपन करने का प्रयास किया गया है वह कोई आम आदमी तो होता नहीं .वह या तो शहर की प्रतिष्ठित शख्सियत होता है या शक्ति केंद्र या फिर नया-नया विकसित होता एक शक्ति ध्रुव.

ऐसी विभूति से लोग संबंध बिगाड़ नही चाहते हैं. सामने सिंपैथी के दो शब्द-‘भाई साहब! बड़ा नीच आदमी है वह, जिसने आपके प्रति ऐसा दुष्प्रचार किया.’
‘अब क्या करें? कौन कर सकता है?’ वाह भाव हीन स्वर में कहता है.
“अगर हिम्मत थी, मर्द है तो सामने आता .पीठ पीछे लुकाछिपी कर घात, नामर्द कही का!”

मैं देखता हूं, अधिसंख्य लोग पत्र कांड का आनंद लेते हैं. पत्र को ऐसे सहेज कर रखते हैं, मानो जमीन नामजद खरीदी का रजिस्ट्री विलेख हो या फिर प्रेम पत्र. शहर में आज तलक दर्जनों पत्र कांड हुए हैं. वर्षों पूर्व नगर के वरिष्ठतम पत्रकारों के खिलाफ एक पत्र जारी हुआ था.

रोहरानंद उन दिनों उदयीमान था .सोचा, कभी मेरे खिलाफ भी ऐसा होगा क्या ? और एक दिन हुआ… समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ… “भेड़िए की शक्ल में, पूरा ब्लैकमेलर!” पढ़कर कर मैं बहुत खुश हुआ. लगा अब मैं भी प्रतिष्ठित पत्रकार बन गया. उसे मैंने सहेज कर वर्षों तक रखा. अक्सर मन बहलाने के लिए यानी अवासादपूर्ण क्षणों में उसे पढ़ता और मन प्रसन्न हो जाता. सच! इसको भी वर्षो हो गए… इंतजार है कब दूसरा पत्रबम जारी हो और सनसनी रस वर्षा हो…आह…!

काबुल से कैलिफोर्निया : क्या था मेरा उससे रिश्ता

हम दिल्ली में रहते थे. मेरे पति केंद्रीय संस्थान में वरीय अधिकारी थे. हमारे 2 बच्चे हैं, एक बेटा और एक बेटी. मेरी बेटी अनीता छोटी है. उन दिनों अफगानिस्तान के पठान दिल्ली में अकसर आते थे. दिल्ली की कालोनियों और गलियों में घूमघूम कर ड्राईफूट्स, बादाम, अखरोट, अंजीर बेचा करते थे. साथ में अकसर शुद्ध प्राकृतिक हींग भी रखते थे. कभी महीने में एक बार तो कभी 2 महीने में एक बार आते थे. मैं एक पठान से ड्राईफूट्स और हींग लिया करती थी. अकसर खरीदते समय मेरे बेटी अनीता भी साथ होती. करीब 4 साल की थी वह उस समय. वह पठान कुछ ड्राईफू्रट्स मेरी बेटी के हाथ में जरूर रख देता था. वह पिछले 5 सालों से लगातार आ रहा था. अनीता को बहुत प्यार करता था. बीचबीच में वह काबुल भी जाया करता.

अनीता ने हाल ही में हम लोगों के साथ हिंदी फिल्म ‘काबुलीवाला’ देखी थी, इसलिए वह उस पठान को काबुलीवाले अंकल ही बोला करती थी. जब दूर से ही उस की आवाज सुनती, दौड़ कर ‘काबुलीवाला आया’ बोल कर दरवाजे पर जा कर खड़ी हो जाती और मुझे जोरजोर से आवाज दे कर बुलाती.

हालांकि उस ने अपना नाम अजहर बताया था, पर हम सब उसे काबुलीवाला या पठानभाई ही कहते थे. वह बोला करता कि काबुल में हिंदी फिल्में और हिंदी गाने काफी लोकप्रिय हैं. कुछ हिंदी फिल्मों के नाम भी बताए थे. ‘कुर्बानी’, ‘धर्मात्मा’, ‘धर्मवीर’, ‘शोले’ आदि जो फिल्में उस ने देखी थीं. उसे दिल्ली शहर भी बहुत पसंद था. 80 के दशक की शुरुआत तक तो काबुलीवाला आया करता था. उस के बाद उस का आना अचानक बंद हो गया.

फिर अचानक एक दिन 1984 के मध्य में हमारे घर पर वह आया. उस के साथ उस की 10 साल की बेटी जाहिरा भी थी. जाहिरा बहुत ही सुंदर लड़की थी. वह साथ में कुछ ड्राईफ्रूट्स भी लाया था. उस ने अनीता के बारे में पूछा, तो मैं ने उसे आवाज दे कर बुलाया. अनीता और जाहिरा दोनों लगभग हमउम्र ही थीं.

अनीता ने आ कर कहा, ‘काबुलीवाले अंकल, इतने दिन आप कहां रह गए थे? आप काफी दिनों के बाद आ रहे हैं?’

मैं ने भी अनीता की बात दोहराई. पहले उस ने ड्राईफ्रूट्स अनीता को दिए. फिर कुछ ड्राईफ्रूट्स के पैकेट मुझे दिए. मैं ने कहा, ‘आजकल क्या रेट चल रहा है, मुझे पता नहीं, तुम बताओ कितने रुपए दे दूं, पठानभाई?’

तब वह बोला, ‘मुझे आप पुराने रेट से ही दे दो. आजकल तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है हम लोगों पर. हम आप के वतन में रिफ्यूजी बन कर आए हैं.’

मेरे, ऐसा क्या हो गया, पूछने पर उस ने कहा, ‘हमारे वतन में तो काफी दिनों से जंग चल रही है. जब से रूसी आए हैं, अमन छिन गया है. रोज गोलाबारूद, बम से न जाने कितनी जानें जा रही हैं. मुजाहिदीनों और रूसियों के बीच पिस कर रह गए हम लोग. हजारों लोग वतन छोड़ कर पाकिस्तान, ईरान, हिंदुस्तान भाग कर रिफ्यूजी कैंप में बसर कर रहे हैं. मैं तो आप के मुल्क से वाकिफ हूं, इसीलिए दिल्ली आ गया अपनी बीवी और बच्ची के साथ.’

इतना कहतेकहते वह बच्ची का हाथ पकड़ कर रोने लगा. मैं ने अनीता को कुछ स्नैक्स और मिठाई लाने को कहा और पूछा, ‘पठानभाई, बोलो क्या पिओगे ठंडा या गरम? तुम्हारी बेटी पहली बार आई है.’

इतना बोल कर मैं ने जाहिरा का हाथ पकड़ कर अपने पास खींचते हुए कहा, ‘बेटा, दिल्ली की लस्सी मशहूर है, पिओगी?’

उस ने कहा ‘हां, पिऊंगी. अब्बू भी बोलते हैं यहां की लस्सी बहुत उम्दा होती है.’

मैं पठान की ओर देख कर बोली, ‘अरे, यह तो हिंदी बोल लेती है.’

पठान बोला, ‘हम लोगों ने हिंदी सिनेमा देख कर हिंदी बोलना सीख लिया है.’

अनीता मिठाई, स्नैक्स और लस्सी ले कर आई. पठान और जाहिरा ने निसंकोच खाया भी. मैं ने उस से जब पूछा कि क्या अब वह दिल्ली में ही रहेगा तो उस ने कहा, ‘मेरा बड़ा भाई अमेरिका में है. वह मुझे, मेरी पत्नी और जाहिरा को स्पौंसर कर अमेरिका बुला रहा है.’

मैं ने जब कहा कि क्या इंडिया उसे अच्छा नहीं लगता कि इतनी दूर जा रहा है तो वह बोला, ‘आप का वतन तो बहुत प्यारा है. पर सुना था कि यहां सिर्फ 1 साल का ही वीजा मिलता है. फिर हर साल वीजा 1 साल और आगे बढ़ाना होगा. अमेरिका जा कर वहां मैं रिफ्यूजी होते हुए ग्रीनकार्ड की अर्जी दूंगा और जल्द ही ग्रीनकार्ड मिल भी जाएगा. हमारे वतन के बहुत लोग वहां पहले से ही गए हैं. हम लोग दिल्ली में अंगरेजी बोलना सीख रहे हैं.’

मैं ने जाहिरा के हाथ में 500 रुपए अलग से दे कर कहा कि इस से तुम एक इंडियन ड्रैस ले लेना.

उस के बाद वह फिर 1985 के आरंभ में हमलोगों से मिलने आया. इस बार उस की पत्नी और बेटी भी साथ थी. उस ने बताया कि वे एक सप्ताह में अमेरिका जा रहे हैं. यह इंडिया में हमारी आखिरी मुलाकात थी.

इस के बाद वर्षों बीत गए, लगभग 20 वर्ष. इस बीच दुनिया काफी बदल गई. कितनी जंगें हुईं-इराक, अफगानिस्तान, कारगिल न जाने कितने खूनखराबे, आतंकी घटनाएं हुईं. मैं कैलिफोर्निया की सिलिकौन वैली के एक शहर फ्रेमौंट में आई हूं. मेरे बच्चे यहीं सैटल्ड हैं. यहां अकसर आनाजाना लगा रहता है.

एक दिन मैं वालमार्ट गई थी शौपिंग के लिए. वहां पेमैंट लेन में मेरे आगे एक लड़की थी, उस के साथ एक बुजुर्ग महिला भी थी. लड़की तो रंगरूप, पहनावे से अमेरिकन लग रही थी. पर उस के साथ वाली महिला अपने सिर और गले में स्कार्फ बांधे थी, जैसा कि अकसर मुसलिम महिलाएं यहां बांधा करती हैं. लड़की का चेहरा जानापहचाना लगा, पर मैं ने संकोचवश उस से कुछ नहीं पूछा था. वह मेरे आगे लाइन में खड़ी थी. उस ने मुझे देखा था. अपने देश में होती तो जरूर पूछ लेती.

इस के एक सप्ताह बाद मेरी बेटी ने पार्टटाइम ड्राइवर और डोमैस्टिक हैल्प के लिए विज्ञापन दिया था अपने मोबाइल नंबर के साथ. मेरी बेटी को एक लड़की ने फोन कर कहा कि वह काम के सिलसिले में मिलना चाहती है. बेटी उस समय औफिस में थी. बेटी ने उसे बताया कि मम्मी घर पर हैं, जा कर काम समझ कर बात कर ले. थोड़ी देर में घर की कौलबैल बजी. मैं ने दरवाजा खोला तो देखा कि वही लड़की सामने थी. कुछ पल के लिए दोनों एकदूसरे को देखते रहे थे.

फिर मैं ने पूछा, ‘‘कहीं तुम जाहिरा तो नहीं?’’

वह बोली, ‘‘और आप दिल्लीवाली आंटी?’’

मैं ने उसे अंदर आने को कहा और पूछा, ‘‘क्या कल तुम वालमार्ट में थी?’’ जाहिरा ने कहा, ‘‘हां, मैं और मम्मी दोनों थे. आप ने देखा था क्या?’’

मेरे हां कहते ही वह बोली, ‘‘अगर देखा तो आप ने बात क्यों नहीं की?’’

मैं ने कहा कि तुम तो बिलकुल अमेरिकन दिख रही थी और वैसे भी अमेरिका में बेवजह और बिना जानेपहचाने टोकना मुझे ठीक नहीं लगा था.

इस पर वह बोली, ‘‘यहां तो सभी एकदूसरे के नाम से ही पुकारते हैं, पर मैं तो उसी पुराने रिश्ते से आप को आंटी ही पुकारूंगी. आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’

जाहिरा बोली, ‘‘मैं तो आप की बेटी के कहने पर यहां काम के लिए आई हूं.’’

वैसे तो मैं मुसलिम लड़की रखने में डरती थी, फिर भी उस के प्रति ऐसी भावना मेरे मन में नहीं आई. मैं बोली, ‘‘काम तुम्हें बाद में बताऊंगी, पहले तुम यह बताओ कि काबुल से कैलिफोर्निया तक कैसे आई और यहां तुम्हारे मम्मीपापा सब कैसे हैं? तुम अभी तक हिंदी अच्छी तरह बोल लेती हो.’’

वह बोली, ‘‘थैंक्स टू बौलीवुड, और हिंदी टीवी सीरियल्स हिंदी सिखाने के लिए. यहां घर में हमलोग फारसी में बात करते हैं और बाहर दूसरे लोगों से अंगरेजी में.’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि तुम 3 भाषाएं जानती हो.’’

फिर उस ने बोलना शुरू किया, ‘‘मेरे बड़े चाचा काबुल में अमेरिकी एंबैसी में काम करते थे. वे बहुत पहले ही अमेरिका आ गए  थे. उन्होंने हम लोगों को स्पौंसर कर यहां का वीजा दिलाया. बाद में हम ने रिफ्यूजी होने के आधार पर ग्रीनकार्ड के लिए अप्लाई किया जो 6 महीने में ही मिल गया. फिर लगभग 5 साल के अंदर ही यहां की नागरिकता भी मिल गई.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘और कितने लोग अफगानिस्तान से यहां आ कर शरण लिए हुए हैं?’’ उस ने बताया, ‘‘अफगान युद्ध के पहले बहुत ही कम अफगानी लोग अमेरिका में थे. लेकिन रूसी और मुजाहिदीनों के बीच लड़ाई के चलते बड़ी बरबादी हुई और लोग देश छोड़ कर भागने लगे थे. फिलहाल 1 लाख से थोड़े ही कम अफगानी लोग अमेरिका में हैं. इन में ज्यादातर लोग कैलिफोर्निया में हैं. उस में भी फ्रेमौंट शहर में सब से ज्यादा अफगानी शरणार्थी बसे हैं. इस के बाद दूसरे नंबर पर उत्तर वर्जीनिया है. अमेरिकी सरकार ने उन की काफी सहायता की है. सस्ते रैंट पर घर दिलवाए हैं?’’

फिर मैं ने पूछा, ‘‘उस का परिवार यहां क्या कर रहा है?’’ वह बोली, ‘‘मेरे चाचा तो अब बहुत बीमार रहते हैं. इस के अलावा उन की दिमागी हालत भी ठीक नहीं है जिस के चलते उन्हें हर वक्त किसी की देखरेख की जरूरत होती है. यह काम उस के पिता करते हैं और इस के लिए सरकार लगभग 2 हजार डौलर देती है. मम्मी एक स्टोर्स में पार्टटाइम काम करती हैं. मेरे पति एक कार शोरूम में काम करते हैं. मैं ने स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली है. आगे की पढ़ाई औनलाइन घर से ही कर रही हूं. फुलटाइम जौब तो कहीं नहीं मिली है, पार्टटाइम जो भी काम मिलता है, कर लेती हूं. अमेरिका में किसी भी काम को हेय दृष्टि से नहीं देखते हैं और यहां आप के पास भी काम के लिए ही आई हूं.’’

मैं ने एक दीर्घ सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे अच्छा नहीं लग रहा तुम से घर के काम कराना.’’

‘‘आप के बच्चे इतने दिनों से अमेरिका में हैं और आप भी काफी दिनों से अमेरिका आतीजाती रही हैं, फिर आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं. यहां कर्म ही धर्म है और हर काम करने वाले की समाज में उतनी ही प्रतिष्ठा है. आप बेझिझक कहें, मैं भी निसंकोच खुशीखुशी अपना काम निभाऊंगी.’’

फिर उसे काम बताया कि दोपहर 4 घंटे सोमवार से शुक्रवार तुम्हें टाइम देना होगा. ढाई बजे बच्चों को स्कूल से पिक कर घर लाना है, उन्हें लंच करा कर थोड़ा आराम करने देना. इस बीच किचन के कुछ काम जैसे सब्जियां काटना, साफ बरतनों को डिशवाशर से निकाल उन की जगह पर लगाना, फिर बच्चों को अलगअलग क्लासेज में ले जाना. शाम को जब बच्चों को ले कर आना तो उन के रूम और कपड़े आदि ठीक करना. किसी दिन ज्यादा काम भी हो सकता है और कभी शनिवार या रविवार को भी काम पड़ सकता है.

जाहिरा बोली, ‘‘बस, अब आप निश्चिंत हो जाएं, सभी काम आप के मन लायक करूंगी.’’

मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या वह इंडियन डिशेज पकाना जानती है?’’ तो उस ने कहा, ‘‘सभी तो नहीं, पर कुछकुछ बना लेती हूं. हां, मेरी मां सबकुछ बना लेती हैं. पर आंटी, आप क्या मेरा बनाया खाएंगी? मुझे याद है कि जब हम दिल्ली में थे, ईद की सेवइयां देने अब्बू के साथ आई थी आप के घर. अब्बू ने आप को कच्ची सेवइयां दी थीं. मैं ने उन से वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि हमारे घर का पका खाना आप नहीं खाती हैं.’’

‘‘उस समय की बात और थी. अब तो अमेरिका में थोड़ा ऐडजस्ट नहीं करूंगी तो रहना मुश्किल हो जाएगा. ठीक है, कभी घर में पार्टी देनी होगी तो कुछ खास पकवान बिरयानी आदि घर पर ही बनवाना चाहती हूं. इसीलिए ऐसे मौकों के लिए पार्टटाइम इंडियन कुक खोज रही हूं. वैसे ज्यादा कुछ तो होटल से ही मंगवा लेते हैं. पर सुना है तुम लोग लाजवाब बिरयानी बनाते हो.’’

‘‘डोंट वरी, आंटी, ऐसी जरूरत हो तो एक दिन पहले बता देना, अम्मी आ कर बना देंगी. पर आप तो बिलकुल नहीं बदली हैं, वही साड़ी, सिंदूर और बिंदिया. आप को पता है, हमलोग भी अपनी पार्टी में लहंगेसाड़ी पहन कर इंडियन फिल्मी गानों पर डांस करते हैं. मुझे तो सुर्ख लाल रंग की सितारों वाली साड़ी बहुत अच्छी लगती है.’’

मैं ने कहा, ‘‘उसे 20 डौलर प्रति घंटे के रेट से पे करूंगी’’ इस बात पर वह जोर से हंसने लगी और बोली, ‘‘आप अगर 10 डौलर्स भी देंगी तो हम खुशी से कुबूल करेंगे.’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘कल से ही काम पर आ जाए.’’

अगले दिन से जाहिरा काम पर आने लगी. सभी काम पूरे मन लगा कर हंसतेहंसते करती और मैं भी संतुष्ट थी. हर शुक्रवार की शाम को उस को वीकली पेमैंट कर देती जैसा कि यहां का पार्टटाइम वर्क पेमैंट का नौर्मल तरीका है.

एक दिन जाहिरा अपनी मां को ले कर आई. दुआसलाम के बाद उसकी मां ने कहा, ‘‘बहनजी, अगले सप्ताह से मैं ही काम किया करूंगी. बेटी को फुलटाइम काम मिल गया है. अभी सीजन है. अमेरिका में मौल्स और स्टोर्स में फैस्टिवल सीजन में बिक्री बहुत बढ़ जाती है, इसलिए 3-4 महीने अक्तूबर से दिसंबर या जनवरी तक उन्हें एक्स्ट्रा स्टाफ चाहिए होता है. जाहिरा ने मुझे सारे काम और जगहें, जहां जाना होता है, बता दिया है. आप को कोई एतराज तो नहीं?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे कोई एतराज नहीं है. मगर तुम भी तो कहीं काम करती हो?’’

‘‘हां, वह पार्टटाइम जौब है, सुबह 9 से 12 बजे तक का.’’

मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने कहा, ‘‘आबिदा.’’

अगले सप्ताह से आबिदा ही काम पर आती. मेरी बेटी अनीता तो उस के आने से ज्यादा ही खुश थी. कभीकभी किचन में एक्स्ट्रा हैल्प भी कर दिया करती थी. कुछ दिनों के बाद मेरे नाती का जन्मदिन था. जैसा कि अमेरिका में होता है, पार्टी छुट्टी के दिन इतवार को ही रखी गई थी. हालांकि घर पर उस का सही जन्मदिन 2 दिनों पहले ही मना लिया गया था. मैं ने आबिदा को इतवार को सपरिवार आने का निमंत्रण दिया. पार्टी तो शाम को थी पर मैं ने उसे जल्द ही आने को कहा क्योंकि किचन में उस की मदद की जरूरत थी.

संडे को पार्टी में आबिदा और पठानभाई दोनों आए थे. मैं ने जाहिरा के नहीं आने का कारण पूछा तो उस ने कहा कि जाहिरा घर पर अपने बीमार चाचू की देखभाल कर रही है.

आबिदा की बनाई बिरयानी और वेज कोरमे की सभी तारीफ कर रहे थे. उस दिन मेरा बेटा भी आया था. वह फ्रेमौंट के पास सैन होजे शहर में रहता है. उस का परिवार भी पठान परिवार से मिला.

अनीता पठानभाई से अलग से भी मिली और आदर के साथ दोनों हाथ जोड़ कर ‘नमस्ते काबुलीवाले अंकल’ भी कहा. फिर मैं ने नाती को बुला कर उसे नमस्कार करने को कहा. मेरा नाती झुक कर उस के पैर छूने जा रहा था तो उस ने नाती को बीच में ही रोक कर ढेर सारे आशीष दिए और गिफ्ट दे कर कहा, ‘‘यही तो खासीयत है हिंदुस्तान की तहजीब में, मेहमानों की इज्जत करना और बड़ों का आदर करना. आप का वतन और हिंदुस्तानी लोग बहुत अच्छे हैं, बहनजी.’’

जब आबिदा और पठानभाई जाने लगे तो हम सभी परिवार के लोग उन्हें दरवाजे तक विदा करने आए. उन्हें रिटर्न गिफ्ट दिए. जाहिरा के लिए अलग से 2 पैकेट दिए. एक में उस के लिए खाना था और दूसरे में जाहिरा के लिए लाल रंग की साड़ी. साड़ी देख कर दोनों बहुत खुश हुए और कहा, ‘‘आप ने जो इज्जत दी, उस के लिए शुक्रिया. आप की तहजीब को सलाम.’’

वे दोनों अपनी आंखों में खुशी के आंसू लिए भारतीय तरीके से हाथ जोड़ कर विदा हुए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें