उपहार

कांती द्वारा इनकार किए जाने पर रविकांत ने जीवनभर शादी न करने का फैसला किया था. शायद वह अपने इस प्रण पर अडिग भी रहते, यदि क्षमा उन की जिंदगी में न आती. आखिर कौन थी क्षमा, जिस ने रविकांत के वीरान जीवन में बहार ला दी थी?

अपने पहले एकतरफा प्रेम का प्रतिकार रविकांत केवल ‘न’ मेें ही पा सका. उस की कांती तो मांबाप के ढूंढ़े हुए लड़के आशुतोष के साथ विवाह कर जरमनी चली गई. वह बिखर गया. विवाह न करने की ठान ली. मांबाप अपने बेटे को कहतेसमझाते 4 साल के अंदर दिवंगत हो गए.

कांती के साथ कालिज में बिताए हुए दिनों की यादें भुलाए नहीं भूलती थीं. यह जानते हुए भी कि वह निर्मोही किसी और की हो कर दूर चली गई है वह अपने मन को उस से दूर नहीं कर पा रहा था. कालिज की 4 सालों की दोस्ती मेें वह उसे अपना दिल दे बैठा था. कई बार कोशिश करने के बाद रविकांत ने बड़ी कठिनाई से सकुचातेझिझकते एक दिन कांती से कहा था, ‘मैं तुम से प्रेम करने लगा हूं और तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में पा कर अपने को धन्य समझूंगा.’

जवाब में कांती ने कहा था, ‘रवि, मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं और इसी नाते से मैं तुम से मिलतीजुलती रही. मैं तुम से उस तरह का प्रेम नहीं करती हूं कि मैं तुम्हारी जीवनसंगिनी बनूं. रही विवाह की बात, तो मैं तुम्हें यह भी बता देती हूं कि मैं शादी तो अपने मांबाप की मर्जी और उन के ढूंढ़े हुए लड़के से ही करूंगी. अब चूंकि तुम्हारे विचार मेरे प्रति दोस्ती से बढ़ कर दूसरा रुख ले रहे हैं, इसलिए मेरा अनुरोध है कि तुम भविष्य में मुझ से मिलनाजुलना छोड़ दो और हम दोनों की दोस्ती को यहीं खत्म समझो.’

उस के बाद कांती फिर कभी रविकांत से नहीं मिली. रविकांत भी यह साहस नहीं कर सका कि उस के मातापिता से मिल कर कांती का हाथ उन से मांगता क्योेंकि उस आखिरी मुलाकात  के दिन उसे कांती की आंखों में प्यार तो दूर सहानुभूति तक नजर नहीं आई थी.

रविकांत ने खुद को प्रेम में असफल समझ कर जिंदगी को बेमानी, बेकार और बेरौनक मान लिया. ऐसे में अधिकतर लोग कठिनाइयों और असफलताओं से घबरा कर खुद को कमजोर समझ अपना आत्मविश्वास और उत्साह खो बैठते हैं.

रविकांत अब 50 पार कर चुके हैं. उन के कनपटी के बाल सफेद हो चुके हैं. आंखों पर चश्मा लग गया  है. इतने सालों तक एक ही कंपनी की सेवा में पूरी निष्ठा से लगे रहे तो अब वह जनरल मैनेजर बन गए हैं.

कंपनी से मिले हुए उन के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में कुछ दिन पहले ही शोभना नाम की एक महिला अपनी 24 साल की बेटी क्षमा के साथ किराए पर रहने के लिए आई.

क्षमा अपनी मां की ही तरह अत्यंत सुंदर और हंसमुख लड़की थी. वह जब भी रविकांत के सामने पड़ती ‘अंकल नमस्ते’ कहना और उन्हें एक मुसकराहट देना कभी नहीं भूलती. रविकांत भी ‘हैलो, कैसी हो बेटी’ कहते और उस के उत्तर में वह ‘थैंक यू’ कहती. क्षमा एम.एससी. कर के 2 वर्ष का कंप्यूटर कोर्स कर रही थी. इधर कई दिनों से रविकांत को न देख कर उस ने उन के नौकर से पूछा तो पता चला कि वह तो कई दिनों से बीमार हैं और नर्सिंग होम में भरती हैं. नौकर से नर्सिंग होम का पता पूछ कर क्षमा उसी शाम उन से मिलने नर्सिंग होम पहुंची.

ये भी पढ़ें- उलझन

क्षमा को देख कर रविकांत बेहद खुश हुए पर क्षमा ने पहले तो इस बात का गुस्सा दिखाया कि इतने दिनों से बीमार होने पर भी उन्होंने उसे खबर क्यों नहीं दी. वह तो हमेशा की तरह यही सोचती रही कि आप कहीं ‘टूर’ पर गए होंगे. क्षमा की झिड़की वह चुपचाप सुनते रहे. मन में उन्हें अच्छा लगा. क्षमा काफी देर तक उन के पास बैठी उन का हालचाल पूछती रही.

रविकांत ने जब बताया कि अब वह ठीक हैं और कुछ ही दिनों में उन्हें नर्सिंग होम से छुट्टी मिल जाएगी तभी उस की प्रश्नावली रुकी. घर वापस लौटते समय वह उन्हें जल्दी से अच्छे होने की शुभकामना देना नहीं भूली.

क्षमा अब रोज शाम को रविकांत को देखने नर्सिंग होम जाती. रविकांत का भी मन बहल जाता था. वह बड़ी बेसब्री से उस के आने की प्रतीक्षा करते. उस के आने पर वे दोनों विभिन्न विषयों पर बहस करते और हंसते हुए बातचीत करते रहते. 2 घंटे कितनी जल्दी गुजर जाते पता ही नहीं लगता.

जिस दिन रविकांत को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली, क्षमा उन्हें अपने साथ ले कर उन के फ्लैट पर आई. अगले दिन रविकांत अपनी ड्यूटी पर जाने लगे तो क्षमा ने यह कह कर जाने नहीं दिया कि आप आज आराम करें और फिर कल तरोताजा हो कर काम पर जाएं.

अगले दिन शाम को जब रविकांत देर से वापस लौटे तो उन के आने की आहट सुन उस ने दरवाजा खोला. नमस्ते की. साथ ही देर करने का उलाहना भी दिया.

सप्ताह में 1-2 बार क्षमा उन के बुलाने पर या खुद ही उन के फ्लैट में जा कर घंटे डेढ़ घंटे गप लड़ाती, नौकर थोड़ी देर में चाय दे जाता. चाय की चुस्कियां लेते हुए वह अपनी बातें चालू रखते जो अकसर अन्य विषयों से सिमट कर अब कालिज, आफिस, घरेलू और निजी बातों पर आ जाती थीं.

क्षमा ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, आप अकेले क्यों हैं? आप ने शादी क्यों नहीं की? आप को साथी की कमी महसूस नहीं होती क्या? आप को अकेले घर काटने को नहीं दौड़ता? नौकर के हाथ का खाना खातेखाते आप का जी नहीं ऊबता?’’

रविकांत ने अपने पिछले प्रेम का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘क्षमा, हम सब नियति के हाथों की कठपुतली हैं जिसे वह जैसा चाहती है नचाती है. अकेलापन तो मुझे भी बहुत काटता है पर मैं अपने आप को आफिस के काम में व्यस्त रख उसे भगाए रहता हूं. मुझे खुशी है कि अब मेरा कुछ समय तुम्हारे साथ हंसतेबोलते कट जाता है. तुम्हारे साथ बिताए ये क्षण मुझे अब भाने लगे हैं.’’

रविकांत की बीमारी को धीरेधीरे

1 वर्ष हो गया. इस बीच क्षमा ने अपनी मां से पूछ रविकांत को करीबकरीब हर माह 1-2 बार खाने पर बुलाया. रविकांत शोभनाजी से मिलने पर क्षमा की बड़ी प्रशंसा करते. उन की थोड़ीबहुत औपचारिक बातें भी होतीं. जिस दिन रविकांत खाने पर आने को होते उस दिन क्षमा बड़े उत्साह से घर ठीक करने और खाना बनाने में मां के साथ लग जाती. वह अकसर मां से रविकांत के गुणों और विशेषताओं पर चर्चा करती रहती. वे हांहूं कर उस की बातें सुनती रहतीं.

बेटी और पड़ोसी रविकांत की बढ़ती दोस्ती और मिलनाजुलना कुछ महीनों से शोभना के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था. क्षमा से इस बारे में कुछ न कह उन्होंने उस के विवाह के लिए प्रयत्न जोरों से शुरू कर दिए. उन की सहेली रमा का बेटा रौनक इन दिनों आस्ट्रेलिया से कुछ दिनों के लिए भारत आया हुआ था. क्षमा भी उस से बपचन से परिचित थी. शोभना ने रमा को क्षमा और रौनक के विवाह का सुझाव दिया तो वह अगले दिन शाम को अपने पति देवनाथ और बेटे रौनक के साथ मिलने आ गईं. शोभना और रमा के बीच कोई औपचारिकता तो थी नहीं सो उस ने उन्हें खाने के लिए रोक लिया.

भोजन के समय रमा ने सब के सामने क्षमा से सीधा प्रश्न कर दिया, ‘‘क्षमा बेटी, मेरा बेटा रौनक तुम्हें बचपन से पसंद करता है. यदि तुम्हें भी रौनक पसंद है तो तुम दोनों के विवाह से तुम्हारी मां और हमें बहुत खुशी होगी.’’

क्षमा पहले तो चुप रही पर रमा के बारबार आग्रह पर उस ने कहा, ‘‘आंटी, आप लोग हमारे बड़े हैं. मां जैसा कहेंगी मुझे मान्य होगा.’’

शोभना ने कहा, ‘‘क्षमा, रौनक सब प्रकार से तुम्हारे लिए उपयुक्त वर है. हमारे परिवारों के बीच संबंध भी मधुर हैं, इसलिए मैं चाहूंगी कि तुम और रौनक दोनों खाना खत्म करने के बाद बाहर लान में एकसाथ बैठ कर आपस में सलाह कर लो.’’

आपस में बातें कर के जब वे लौटे तो दोनों को खुश देख कर शोभना ने क्षमा को अंदर कमरे में ले जा कर उस से कहा, ‘‘तो फिर मैं बात पक्की कर दूं?’’

क्षमा के सकुचाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाते ही उन्होंने उस के माथे को चूम कर उसे आशीर्वाद दिया. वे दोनों मांबेटी तब डाइंगरूम में आ गईं. शगुन के रूप में शोभना ने 1 हजार रुपए रौनक के हाथ में रख दोनों को आशीर्वाद दिया और रमा से लिपट उसे और उस के पति को बधाई दी. रौनक के आस्ट्रेलिया लौटने से पहले ही विवाह संपन्न करने की बात भी अभिभावकों के बीच हो गई.

क्षमा, शोभना और उस के पति का पासपोर्ट जापान, हांगकांग और आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए पहले से ही बना हुआ था पर 3 वर्ष पहले क्षमा के पिता की अचानक मृत्यु हो जाने से वह प्रोग्राम कैंसिल हो गया था. यदि इस बीच क्षमा का वीसा बन गया तो वह भी रौनक के साथ आस्ट्रेलिया चली जाएगी नहीं तो रौनक 6 महीने बाद आ कर उसे ले जाएगा.

अगली शाम रविकांत से मिलने पर क्षमा ने उन्हें अपनी शादी के बारे में जब बताया तो उन्हें चुप और गंभीर देख वह बोली, ‘‘ऐसा लगता है अंकल कि आप को मेरे विवाह की बात सुन कर खुशी नहीं हुई.’’

रविकांत बोले, ‘‘तुम चली जाओगी तो मैं फिर अकेला हो जाऊंगा. मैं तो इन कुछ महीनों में ही तुम्हें अपने बहुत नजदीक समझने लगा था. पर यह तो मेरा स्वार्थ ही होगा, यदि मैं तुम्हारे विवाह से खुश न होऊं. मैं तो वर्षों से अकेले रहने का आदी हो गया हूं. मेरी बधाई स्वीकार करो.’’

ये भी पढ़ें- एक कश्मीरी

क्षमा इठलाते हुए बोली, ‘‘ऐसे नहीं, मैं तो आप से बहुत बड़ा उपहार भी लूंगी, तभी आप की बधाई स्वीकार करूंगी.’’

रविकांत ने कहा, ‘‘तुम जो भी चाहोगी, मैं तुम्हें दूंगा. तुम कहो तो, तुम क्या लेना चाहोगी. अपनी इतनी अच्छी प्रिय दोस्त के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘पहले वादा कीजिए कि आप मना नहीं करेंगे.’’

‘‘अरे, मना क्योें करूंगा. लो, वादा भी करता हूं.’’

क्षमा बोली, ‘‘अंकल, मेरे सामने एक बड़ी समस्या है मेरी मां, जिन्होंने मेरे लिए इतना कुछ किया है, मैं उन्हें अकेली छोड़ विदेश चली जाऊं, ऐसा मेरा मन नहीं मानता. मैं चाहती हूं कि आप  और मेरी मां, जो खुद भी एकाकी जीवन जी रही हैं, विवाह कर लें. आप दोनों को साथी मिल जाएगा. मैं मां को मना लूंगी. बस, आप हां कर दें.’’

रविकांत चुप रहे. कुछ देर के बाद क्षमा ने फिर कहा, ‘‘ठीक है, यदि आप तैयार नहीं हैं तो मैं अपने विवाह के लिए मना कर देती हूं. देखिए, मेरा विवाह अभी तय हुआ है, हुआ तो नहीं. मैं ने गलत सोचा था कि आप मेरे बहुत निकट हैं और मेरी भलाई के लिए मेरी भावनाओं को समझते हुए आप अपना दिया हुआ वादा निभाएंगे,’’ कहतेकहते क्षमा का गला रुंध गया.

रविकांत अपनी जगह से उठे. उन्होंने क्षमा के सिर पर हाथ रखा और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी बेटी की खुशी के लिए सबकुछ करूंगा. मैं तुम्हारे सुझाव से सहमत हूं.’’

क्षमा खुशी से उछल पड़ी और उन के गले से लिपट गई. क्षमा ने अपनी शादी से पहले उन दोनों के विवाह कर लेने की जिद पकड़ ली ताकि वे दोनों संयुक्त रूप से उस का कन्यादान कर सकें.

अगले सप्ताह ही रविकांत और शोभना का विवाह बड़े सादे ढंग से संपन्न हुआ और उस के 5 दिन बाद रौनक और क्षमा की शादी बड़ी धूमधाम से हुई.

पद्मिनी सिंह

 सरहद पार से

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

ये भी पढ़ें- सहयात्री

‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

ये भी पढ़ें- बेकरी की यादें

‘‘तू होश में थी?’’

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

अनमोल उपहार

कहानी- डा. निरूपमा राय

दीवार का सहारा ले कर खड़ी दादीमां थरथर कांप रही थीं. उन का चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था. तभी वह बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘बस, यही दिन देखना बाकी रह गया था उफ, अब मैं क्या करूं? कैसे विश्वनाथ की नजरों का सामना करूं?’’

सहसा नेहा उठ कर उन के पास चली आई और बोली, ‘‘दादीमां, जो होना था हो गया. आप हिम्मत हार दोगी तो मेरा और विपुल का क्या होगा?’’

ये भी पढ़ें- सहयात्री

दादीमां ने अपने बेटे विश्वनाथ की ओर देखा. वह कुरसी पर चुपचाप बैठा एकटक सामने जमीन पर पड़ी अपनी पत्नी गायत्री के मृत शरीर को देख रहा था.

आज सुबह ही तो इस घर में जैसे भूचाल आ गया था. रात को अच्छीभली सोई गायत्री सुबह बिस्तर पर मृत पाई गई थी. डाक्टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा था जिस में उस की मौत हो गई. यह सुनने के बाद तो पूरे परिवार पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी.

दादीमां तो जैसे संज्ञाशून्य सी हो गईं. इस उम्र में भी वह स्वस्थ हैं और उन की बहू महज 40 साल की उम्र में इस दुनिया से नाता तोड़ गई? पीड़ा से उन का दिल टुकड़ेटुकड़े हो रहा था.

नेहा और विपुल को सीने से सटाए दादीमां सोच रही थीं कि काश, विश्वनाथ भी उन की गोद में सिर रख कर अपनी पीड़ा का भार कुछ कम कर लेता. आखिर, वह उस की मां हैं.

सुबह के 11 बज रहे थे. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था. वह साफ देख रही थीं कि गायत्री को देख कर हर आने वाले की नजर उन्हीं के चेहरे पर अटक कर रह जाती है. और उन्हें लगता है जैसे सैकड़ों तीर एकसाथ उन की छाती में उतर गए हों.

‘‘बेचारी अम्मां, जीवन भर तो दुख ही भोगती आई हैं. अब बेटी जैसी बहू भी सामने से उठ गई,’’ पड़ोस की विमला चाची ने कहा.

विपुल की मामी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘न जाने अम्मां कितनी उम्र ले कर आई हैं? इस उम्र में ऐसा स्वास्थ्य? एक हमारी दीदी थीं, ऐसे अचानक चली जाएंगी कभी सपने में भी हम ने नहीं सोचा था.’’

‘‘इतने दुख झेल कर भी अब तक अम्मां जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है,’’ नेहा की छोटी मौसी निर्मला ने कहा. वह पास के ही महल्ले में रहती थीं. बहन की मौत की खबर सुन कर भागी चली आई थीं.

दादीमां आंखें बंद किए सब खामोशी से सुनती रहीं पर पास बैठी नेहा यह सबकुछ सुन कर खिन्न हो उठी और अपनी मौसी को टोकते हुए बोली, ‘‘आप लोग यह क्या कह रही हैं? क्या हक है आप लोगों को दादीमां को बेचारी और अभागी कहने का? उन्हें इस समय जितनी पीड़ा है, आप में से किसी को नहीं होगी.’’

‘‘नेहा, अभी ऐसी बातें करने का समय नहीं है. चुप रहो…’’ तभी विश्वनाथ का भारी स्वर कमरे में गूंज उठा.

गायत्री के क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार चले गए तो सारा घर खाली हो गया. गायत्री थी तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे घर के सारे काम सही समय पर हो जाते हैं. उस के असमय चले जाने के बाद एक खालीपन का एहसास हर कोई मन में महसूस कर रहा था.

एक दिन सुबह नेहा चाय ले कर दादीमां के कमरे में आई तो देखा वे सो रही हैं.

‘‘दादीमां, उठिए, आज आप इतनी देर तक सोती रहीं?’’ नेहा ने उन के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘बस, उठ ही रही थी बिटिया,’’ और वह उठने का उपक्रम करने लगीं.

‘‘पर आप को तो तेज बुखार है. आप लेटे रहिए. मैं विपुल से दवा मंगवाती हूं,’’ कहती हुई नेहा कमरे से बाहर चली गई.

दादीमां यानी सरस्वती देवी की आंखें रहरह कर भर उठती थीं. बहू की मौत का सदमा उन्हें भीतर तक तोड़ गया था. गायत्री की वजह से ही तो उन्हें अपना बेटा, अपना परिवार वापस मिला था. जीवन भर अपनों से उपेक्षा की पीड़ा झेलने वाली सरस्वती देवी को आदर और प्रेम का स्नेहिल स्पर्श देने वाली उन की बहू गायत्री ही तो थी.

बिस्तर पर लेटी दादीमां अतीत की धुंध भरी गलियों में अनायास भागती चली गईं.

‘अम्मां, मनहूस किसे कहते हैं?’ 4 साल के विश्वनाथ ने पूछा तो सरस्वती चौंक पड़ी थी.

‘बूआ कहती हैं, तुम मनहूस हो, मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो मैं भी मर जाऊंगा,’ बेटे के मुंह से यह सब सुन कर सरस्वती जैसे संज्ञाशून्य सी हो गई और बेटे को सीने से लगा कर बोली, ‘बूआ झूठ बोलती हैं, विशू. तुम ही तो मेरा सबकुछ हो.’

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

तभी सरस्वती की ननद कमला तेजी से कमरे में आई और उस की गोद से विश्वनाथ को छीन कर बोली, ‘मैं ने कोई झूठ नहीं बोला. तुम वास्तव में मनहूस हो. शादी के साल भर बाद ही मेरा जवान भाई चल बसा. अब यह इस खानदान का अकेला वारिस है. मैं इस पर तुम्हारी मनहूस छाया नहीं पड़ने दूंगी.’

‘पर दीदी, मैं जो नीरस और बेरंग जीवन जी रही हूं, उस की पीड़ा खुद मैं ही समझ सकती हूं,’ सरस्वती फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘क्यों उस मनहूस से बहस कर रही है, बेटी?’ आंगन से विशू की दादी बोलीं, ‘विशू को ले कर बाहर आ जा. उस का दूध ठंडा हो रहा है.’

बूआ गोद में विशू को उठाए कमरे से बाहर चली गईं.

सरस्वती का मन पीड़ा से फटा जा रहा था कि जिस वेदना से मैं दोचार हुई हूं उसे ये लोग क्या समझेंगे? पिता की मौत के 5 महीने बाद विश्वनाथ पैदा हुआ था. बेटे को सीने से लगाते ही वह अपने पिछले सारे दुख क्षण भर के लिए भूल गई थी.

सरस्वती की सास उस वक्त भी ताना देने से नहीं चूकी थीं कि चलो अच्छा हुआ, जो बेटा हुआ, मैं तो डर रही थी कि कहीं यह मनहूस बेटी को जन्म दे कर खानदान का नामोनिशान न मिटा डाले.

सरस्वती के लिए वह क्षण जानलेवा था जब उस की छाती से दूध नहीं उतरा. बच्चा गाय के दूध पर पलने लगा. उसे यह सोच कर अपना वजूद बेकार लगता कि मैं अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिला सकती.

कभीकभी सरस्वती सोच के अथाह सागर में डूब जाती. हां, मैं सच में मनहूस हूं. तभी तो जन्म देते ही मां मर गई. थोड़ी बड़ी हुई तो बड़ा भाई एक दुर्घटना में मारा गया. शादी हुई तो साल भर बाद पति की मृत्यु हो गई. बेटा हुआ तो वह भी अपना नहीं रहा. ऐसे में वह विह्वल हो कर रो पड़ती.

समय गुजरता रहा. बूआ और दादी लाड़लड़ाती हुई विश्वनाथ को खिलातीं- पिलातीं, जी भर कर बातें करतीं और वह मां हो कर दरवाजे की ओट से चुपचाप, अपलक बेटे का मुखड़ा निहारती रहती. छोटेछोटे सपनों के टूटने की चुभन मन को पीड़ा से तारतार कर देती. एक विवशता का एहसास सरस्वती के वजूद को हिला कर रख देता.

विश्वनाथ की बूआ कमला अपने परिवार के साथ शादी के बाद से ही मायके में रहती थीं. उन के पति ठेकेदारी करते थे. बूआ की 3 बेटियां थीं. इसलिए भी अब विश्वनाथ ही सब की आशाओं का केंद्र था. तेज दिमाग विश्वनाथ ने जिस दिन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा पास की सारे घर में जैसे दीवाली का माहौल हो गया.

‘मैं जानती थी, मेरा विशू एक दिन सारे गांव का नाम रोशन करेगा. मां, तेरे पोते ने तो खानदान की इज्जत रख ली.’  विश्वनाथ की बूआ खुशी से बावली सी हो गई थीं. प्रसन्नता की उत्ताल तरंगों ने सरस्वती के मन को भी भावविभोर कर दिया था.

विश्वनाथ पहली पोस्टिंग पर जाने से पहले मां के पांव छूने आया था.

‘सुखी रहो, खुश रहो बेटा,’ सरस्वती ने कांपते स्वर में कहा था. बेटे के सिर पर हाथ फेरने की नाकाम कोशिश करते हुए उस ने मुट्ठी भींच ली थी. तभी बूआ की पुकार ‘जल्दी करो विशू, बस निकल जाएगी,’ सुन कर विश्वनाथ कमरे से बाहर निकल गया था.

समय अपनी गति से बीतता रहा. विशू की नौकरी लगे 2 वर्ष बीत चुके थे. उस की दादी का देहांत हो चुका था. अपनी तीनों फुफेरी बहनों की शादी उस ने खूब धूमधाम से अच्छे घरों में करवा दी थी. अब उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे.

एक शाम सरस्वती की ननद कमला एक लड़की की फोटो लिए उस के पास आई. उस ने हुलस कर बताया कि लड़की बहुत बड़े अफसर की इकलौती बेटी है. सुंदर, सुशील और बी.ए. पास है.

‘क्या यह विशू को पसंद है?’ सरस्वती ने पूछा.

‘विशू कहता है, बूआ तुम जिस लड़की को पसंद करोगी मैं उसी से शादी करूंगा,’ कमला ने गर्व के साथ सुनाया, तो सरस्वती के भीतर जैसे कुछ दरक सा गया.

धूमधाम से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सरस्वती का भी जी चाहता था कि वह बहू के लिए गहनेकपड़े का चुनाव करने ननद के साथ बाजार जाए. पड़ोस की औरतों के साथ बैठ कर विवाह के मंगल गीत गाए. पर मन की साध अधूरी ही रह गई.

धूमधाम से शादी हुई और गायत्री ने दुलहन के रूप में इस घर में प्रवेश किया.

ये भी पढ़ें- बेकरी की यादें

गायत्री एक सुलझे विचारों वाली लड़की थी. 2-3 दिन में ही उसे महसूस हो गया कि उस की विधवा सास अपने ही घर में उपेक्षित जीवन जी रही हैं. घर में बूआ का राज चलता है. और उस की सास एक मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखती रहती हैं.

उसे लगा कि उस का पति भी अपनी मां के साथ सहज व्यवहार नहीं करता. मांबेटे के बीच एक दूरी है, जो नहीं होनी चाहिए. एक शाम वह चाय ले कर सास के कमरे में गई तो देखा, वह बिस्तर पर बैठी न जाने किन खयालों में गुम थीं.

‘अम्मांजी, चाय पी लीजिए,’ गायत्री ने कहा तो सरस्वती चौंक पड़ी.

‘आओ, बहू, यहां बैठो मेरे पास,’ बहू को स्नेह से अपने पास बिठा कर सरस्वती ने पलंग के नीचे रखा संदूक खोला. लाल मखमल के डब्बे से एक जड़ाऊ हार निकाल कर बहू के हाथ में देते हुए बोली, ‘यह हार मेरे पिता ने मुझे दिया था. मुंह दिखाई के दिन नहीं दे पाई. आज रख लो बेटी.’

गायत्री ने सास के हाथ से हार ले कर गले में पहनना चाहा. तभी बूआ कमरे में चली आईं. बहू के हाथ से हार ले कर उसे वापस डब्बे में रखते हुए बोलीं, ‘तुम्हारी मत मारी गई है क्या भाभी? जिस हार को साल भर भी तुम पहन नहीं पाईं, उसे बहू को दे रही हो? इसे क्या गहनों की कमी है?’

सरस्वती जड़वत बैठी रह गई, पर गायत्री से रहा नहीं गया. उस ने टोकते हुए कहा, ‘बूआजी, अम्मां ने कितने प्यार से मुझे यह हार दिया है. मैं इसे जरूर पहनूंगी.’

सामने रखे डब्बे से हार निकाल कर गायत्री ने पहन लिया और सास के पांव छूते हुए बोली, ‘मैं कैसी लगती हूं, अम्मां?’

‘बहुत सुंदर बहू, जुगजुग जीयो, सदा खुश रहो,’ सरस्वती का कंठ भावातिरेक से भर आया था. पहली बार वह ननद के सामने सिर उठा पाई थी.

गायत्री ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी सास को पूरा आदर और प्रेम देगी. इसीलिए वह साए की तरह उन के साथ लगी रहती थी. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया, विश्वनाथ की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. जिस दिन दोनों को रामनगर लौटना था उस सुबह गायत्री ने पति से कहा, ‘अम्मां भी हमारे साथ चलेंगी.’

‘क्या तुम ने अम्मां से पूछा है?’ विश्वनाथ ने पूछा तो गायत्री दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ‘पूछना क्या है. क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम अम्मां की सेवा करें?’

‘अभी तुम्हारे खेलनेखाने के दिन हैं, बहू. हमारी चिंता छोड़ो. हम यहीं ठीक हैं. बाद में कभी अम्मां को ले जाना,’ बूआ ने टोका था.

‘बूआजी, मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है,’ गायत्री बोली, ‘अम्मां की सेवा करूंगी, तो मन को अच्छा लगेगा.’

आखिर गायत्री के आगे बूआ की एक न चली और सरस्वती बेटेबहू के साथ रामनगर आ गई थी.

कुछ दिन बेहद ऊहापोह में बीते. जिस बेटे को बचपन से अपनी आंखों से दूर पाया था, उसे हर पल नजरों के सामने पा कर सरस्वती की ममता उद्वेलित हो उठती, पर मांबेटे के बीच बात नाममात्र को होती.

गायत्री मांबेटे के बीच फैली लंबी दूरी को कम करने का भरपूर प्रयास कर रही थी. एक सुबह नाश्ते की मेज पर अपनी मनपसंद भरवां कचौडि़यां देख कर विश्वनाथ खुश हो गया. एक टुकड़ा खा कर बोला, ‘सच, तुम्हारे हाथों में तो जादू है, गायत्री.’

‘यह जादू मां के हाथों का है. उन्होंने बड़े प्यार से आप के लिए बनाई है. जानते हैं, मैं तो मां के गुणों की कायल हो गई हूं. जितना शांत स्वभाव, उतने ही अच्छे विचार. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मेरी सगी मां लौट आई हों.’

धीरेधीरे विश्वनाथ का मौन टूटने लगा  अब वह यदाकदा मां और पत्नी के साथ बातचीत में भी शामिल होने लगा था. सरस्वती को लगने लगा कि जैसे उस की दुनिया वापस उस की मुट्ठी में लौटने लगी है.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. वैसे भी जब खुशियों के मधुर एहसास से मन भरा हुआ होता है तो समय हथेली पर रखी कपूर की टिकिया की तरह तेजी से उड़ जाता है. जिस दिन गायत्री ने लजाते हुए एक नए मेहमान के आने की सूचना दी, उस दिन सरस्वती की खुशी की इंतहा नहीं थी.

‘बेटी, तू ने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’

‘अभी कहां, अम्मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन वास्तव में आप की मुराद पूरी होगी.’

गायत्री ने स्नेह से सास का हाथ दबाते हुए कहा तो सरस्वती की आंखें छलक आईं.

गायत्री ने कहा, ‘मन के बुरे नहीं हैं. न ही आप के प्रति गलत धारणा रखते हैं. पर बचपन से जो बातें कूटकूट कर उन के दिमाग में भर दी गई हैं उन का असर धीरेधीरे ही खत्म होगा न? बूआ का प्रभाव उन के मन पर बचपन से हावी रहा है. आज उन्हें इस बात का एहसास है कि उन्होंने आप का दिल दुखाया है.’

गायत्री के मुंह से यह सुन कर सरस्वती का चेहरा एक अनोखी आभा से चमक उठा था.

गायत्री की गोदभराई के दिन घर सारे नातेरिश्तेदारों से भरा हुआ था. गहनों और बनारसी साड़ी में सजी गायत्री बहुत सुंदर लग रही थी.

‘चलो, बहू, अपना आंचल फैलाओ. मैं तुम्हारी गोद भर दूं,’ बूआ ने मिठाई और फलों से भरा थाल संभालते हुए कहा.

‘रुकिए, बूआजी, बुरा मत मानिएगा. पर मेरी गोद सब से पहले अम्मां ही भरेंगी.’

‘यह तुम क्या कह रही हो, बहू? ये काम सुहागन औरतों को ही शोभा देता है और तुम्हारी सास तो…’ पड़ोस की विमला चाची ने टोका, तो कमला बूआ जोर से बोलीं, ‘रहने दो बहन, 4 अक्षर पढ़ कर आज की बहुएं ज्यादा बुद्धिमान हो गई हैं. अब शास्त्र व पुराण की बातें कौन मानता है?’

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

‘जो शास्त्र व पुराण यह सिखाते हों कि एक स्त्री की अस्मिता कुछ भी नहीं और एक विधवा स्त्री मिट्टी के ढेले से ज्यादा अहमियत नहीं रखती, मैं ऐसे शास्त्रों और पुराणों को नहीं मानती. आइए, अम्मांजी, मेरी गोद भरिए.’

गायत्री का आत्मविश्वास से भरा स्वर कमरे में गूंज उठा. सरस्वती जैसे नींद से जागी. मन में एक अनजाना भय फिर दस्तक देने लगा.

‘नहीं बहू, बूआ ठीक कहती हैं,’ उस का कमजोर स्वर उभरा.

‘आइए, अम्मां, मेरी गोद पहले आप भरेंगी फिर कोई और.’

बहू की गोद भरते हुए सरस्वती की आंखें मानो पहाड़ से फूटते झरने का पर्याय बन गई थीं. रोमरोम से बहू के लिए आसीस का एहसास फूट रहा था.

निर्धारित समय पर विपुल का जन्म हुआ तो सरस्वती उसे गोद में समेट अतीत के सारे दुखों को भूल गई. विपुल में नन्हे विश्वनाथ की छवि देख कर वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाती थी.

अपने बेटे के लिए जोजो अरमान संजोए थे, वह सारे अरमान पोते के लालनपालन में फलनेफूलने लगे. फिर 2 साल के बाद नेहा गायत्री की गोद में आ गई. सरस्वती की झोली खुशियों की असीम सौगात से भर उठी थी. गायत्री जैसी बहू पा कर वह निहाल हो उठी थी. विश्वनाथ और उस के बीच में तनी अदृश्य दीवार गायत्री के प्रयास से टूटने लगी थी. बेटे और मां के बीच का संकोच मिटने लगा था.

अब विश्वनाथ खुल कर मां के बनाए खाने की प्रशंसा करता. कभीकभी मनुहारपूर्वक कोई पकवान बनाने की जिद भी कर बैठता, तो सरस्वती की आंखें गायत्री को स्नेह से निहार, बरस पड़तीं. कौन से पुण्य किए थे जो ऐसी सुघड़ बहू मिली. अगर इस ने मेरा साथ नहीं दिया होता तो गांव के उसी अकेले कमरे में बेहद कष्टमय बुढ़ापा गुजारने पर मैं विवश हो जाती.

समय अपनी गति से बीतता रहा. 3 वर्ष पहले कमला बूआ की मृत्यु हो गई. विपुल ने इसी साल मैट्रिक की परीक्षा दी थी. और नेहा 8वीं कक्षा की होनहार छात्रा थी. दोनों बच्चों के प्राण तो बस, अपनी दादी में ही बसते थे.

गायत्री ने उन का दामन जमाने भर की खुशियों से भर दिया था और वही गायत्री इस तरह, अचानक उन्हें छोड़ गई? उन की सोच को एक झटका सा लगा.

‘‘दादीमां, दवा ले लीजिए,’’ पोती नेहा की आवाज से वह वर्तमान में लौटीं. उठने की कोशिश की पर बेहोशी की गर्त में समाती चली गईं.

नेहा की चीख सुन कर सब कमरे में भागे चले आए. विपुल दौड़ कर डाक्टर को बुला लाया. मां के सिरहाने बैठे विश्वनाथ की आंखें रहरह कर भीग उठती थीं.

‘‘इन्हें बहुत गहरा सदमा पहुंचा है, विश्वनाथ बाबू. इस उम्र में ऐसे सदमे से उबरना बहुत मुश्किल होता है. मैं कुछ दवाएं दे रहा हूं. देखिए, क्या होता है?’’

डाक्टर ने कहा तो विपुल और नेहा जोरजोर से रोने लगे.

‘‘दादीमां, तुम हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं. मां तुम्हारे ही भरोसे हमें छोड़ कर गई हैं,’’ नेहा के रुदन से सब की आंखें नम हो गई थीं.

4 दिन तक दादीमां नीम बेहोशी की हालत में पड़ी रहीं. 5वें दिन सुबह अचानक उन्हें होश आया. आंखें खोलीं और करवट बदलने का प्रयास किया तो हाथ किसी के सिर को छू गया. दादीमां ने चौंक कर देखा. उन के पलंग की पाटी से सिर टिकाए उन का बेटा गहरी नींद में सो रहा था. कुरसी पर अधलेटे विश्वनाथ का सिर मां के पैरों के पास था.

तभी नेहा कमरे में आ गई. दादी की आंखें खुली देख वह खुशी से चीख पड़ी, ‘‘पापा, दादीमां को होश आ गया.’’ विश्वनाथ चौंक कर उठ बैठे.

बेटे से नजर मिलते ही दादीमां का दिल फिर से धकधक करने लगा. मन की पीड़ा अधरों से फूट पड़ी.

‘‘मैं सच में आभागी हूं, बेटा. मनहूस हूं, तभी तो सोने जैसी बहू सामने से चली गई और मुझे देख, मैं फिर भी जिंदा बच गई. मेरे जैसे मनहूस लोगों को तो मौत भी नहीं आती.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा मत कहो. तुम ऐसा कहोगी तो गायत्री की आत्मा को तकलीफ होगी. कोई इनसान मनहूस नहीं होता. मनहूस तो होती हैं वे रूढि़यां, सड़ीगली परंपराएं और शास्त्रपुराणों की थोथी अवधारणाएं जो स्त्री और पुरुष में भेद पैदा कर समाज में विष का पौधा बोती हैं. अब मुझे ही देख लो, गायत्री की मृत्यु के बाद किसी ने मुझे अभागा या बेचारा नहीं कहा.

‘‘अगर गायत्री की जगह मेरी मृत्यु हुई होती तो समाज उसे अभागी और बेचारी कह कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता.’’

दादीमां आंखें फाड़े अपने बेटे का यह नया रूप देख रही थीं. गायत्री जैसे पारस के स्पर्श से उन के बेटे की सोच भी कुंदन हो उठी थी.

विश्वनाथ अपनी रौ में कहे जा रहा था, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां. बचपन से ही मैं तुम्हारा प्यार पाने में असमर्थ रहा. अब तुम्हें हमारे लिए जीना होगा. मेरे लिए, विपुल के लिए और नेहा के लिए.’’

‘‘बेटा, आज मैं बहुत खुश हूं. अब अगर मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.’’

‘‘नहीं मां, अभी तुम्हें बहुत से काम करने हैं. विपुल और नेहा को बड़ा करना है, उन की शादियां करनी हैं और मुझे वह सारा प्यार देना है जिस से मैं वंचित रहा हूं,’’ विश्वनाथ बच्चे की तरह मां की गोद में सिर रख कर बोला.

सरस्वती देवी के कानों में बहू के कहे शब्द गूंज उठे थे.

ये भी पढ़ें- दरगाह का खादिम

‘मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन आप के मन की मुराद पूरी होगी. आप के प्रति उन का पछतावे से भरा एहसास जल्दी ही असीम स्नेह और आदर में बदल जाएगा, देखिएगा.’

सरस्वती देवी ने स्नेह से बेटे को अपने अंक में समेट लिया. बहू द्वारा दिए गए इस अनमोल उपहार ने उन की शेष जिंदगी को प्राणवान कर दिया था.

शर्मनाक दलितों को सताने का जारी है सिलसिला

लेखक- शंभू शरण सत्यार्थी

जितेंद्र ऊंची जाति वालों के सामने कुरसी पर बैठ कर खाना खा रहा था. यह बात उन लोगों को पसंद नहीं आई और उस की कुरसी पर लात मार दी. इस दौरान जितेंद्र की थाली का भोजन उन लोगों के कपड़ों पर जा गिरा. इस बात पर उस की जम कर पिटाई कर दी गई जिस से उस की मौत हो गई.

मध्य प्रदेश के भिंड जिले के एंडोरी थाने के लोहरी गांव के 60 साला दलित कप्तान की मौत के बाद उस के परिवार वाले जब श्मशान घाट ले गए तो गांव के दबंगों ने उन्हें वहां से भगा दिया. मजबूर हो कर इन लोगों ने अपने घर के सामने कप्तान का दाह संस्कार किया.

उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के कोतवाली इलाके में एक शादी समारोह में फिल्टर जार वाला पानी मंगवाया गया. जब पानी का जार देने वाला आदमी वहां पहुंचा तो मालूम हुआ कि वह तो दलित है. इस से अगड़ों में पानी के अछूत होने का भयानक डर पैदा हो गया और उस जार वाले को काफी फजीहत झेलनी पड़ी.

इसी तरह जालौन जिले के तहत गिरथान गांव में चंदा इकट्ठा कर के भंडारे का आयोजन किया गया था, जिस में सभी जाति के लोगों ने सहयोग दिया था. भोज चल रहा था कि कुछ दलित नौजवान पूरी और खाने की दूसरी चीजें बांटने लगे. ऊंची जाति वालों ने इस का विरोध किया और खाना खाने से इनकार करते हुए दलितों को अलग बिठाने की मांग करने लगे.

दलितों ने इस का विरोध किया तो उन में झगड़ा हो गया. बाद में दबंगों ने फरमान जारी कर दिया कि दलितों का बहिष्कार किया जाए. इस फरमान को तोड़ने वाले पर 1,000 रुपए जुर्माने के साथ ही सरेआम 5 जूते भी मारे जाएंगे.

ये चंद उदाहरण हैं. देशभर में दलितों के साथ आज भी तरहतरह की सताने वाली घटनाएं घटती रहती हैं. देश के नेता जब बुलंद आवाज में दलितों की बात करते हैं तो लगता है कि समाज में बदलाव की बयार चल रही?है.

तसवीर कुछ इस अंदाज में पेश की जाती?है कि लगता है कि देश में जातिगत बराबरी आ रही है, पर सच तो यह है कि जातिवाद और छुआछूत ने 21वीं सदी में भी अपने पैर पसार रखे?हैं.

मध्य प्रदेश के मालवा जिले के माना गांव के चंदेर की बेटी की शादी थी. चंदेर ने बैंड पार्टी बुलवा ली थी. यह बात ऊंची जाति के लोगों को नागवार गुजरी. उन्होंने सामाजिक बहिष्कार करने की धमकी दी, फिर भी उन लोगों ने बैंडबाजा बजवाया और खुशियां मनाईं.

इस बात से नाराज हो कर ऊंची जाति के लोगों ने दलितों के कुएं में मिट्टी का तेल डाल दिया.

दलितों की जरूरत

ऊंची जाति के लोगों को बेगारी करने के लिए, बोझा ढोने के लिए, घर की साफसफाई करने के लिए, घर बनाने के लिए इन्हीं दलितों की जरूरत पड़ती है. लेकिन जब काम निकल जाता है तो वे लोग उन्हें भूल जाते हैं. वे कभी नहीं चाहते हैं कि दलितों की जिंदगी में भी सुधार हो.

उन्हें यह डर सताता रहता है कि अगर दलित उन की बराबरी में खड़े हो गए तो फिर जीहुजूरी और चाकरी कौन करेगा? लेकिन जब काम निकल जाता है तो ऊंची जाति वाले दलितों को दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देते हैं.

शोषण और गैरबराबरी की वजह से बहुत से दलित ईसाई और बौद्ध धर्म अपना चुके हैं. दलितों का दूसरा धर्म स्वीकार करना भी इन ऊंची जाति वालों को काफी खलता है.

इज्जत से जीने का हक नहीं

हमारे देश में एक तरफ तो दलितों में चेतना बढ़ी है तो वहीं दूसरी तरफ दलितों पर जोरजुल्म की वारदातें भी लगातार जारी हैं. दलित भी पोंगापंथ से बाहर

नहीं निकल पा रहे हैं. इस देश में आज भी 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं. 57 फीसदी दलित कुपोषण के शिकार हैं. हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध होता है.

दुख की बात तो यह है कि आज भी 21वीं सदी में दलितों को इज्जत से जीने का हक नहीं मिल पाता है जिस के वे हकदार हैं.

इन की भूल क्या है

दलित लोगों में से कुछ निरंकारी, राधास्वामी, ईसाई, आर्य समाजी, कुछ कट्टर हिंदू, नकली शर्मा, चौहान, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी हैं. वे तकरीबन 1,108 जातियों में बंटे हुए हैं. ज्यादातर मामलों में दलित एकजुट हो कर आवाज नहीं उठाते हैं.

दलित भी इंसाफ मिलने की आस देवताओं से करते हैं. उन्हें पता नहीं है कि देवता खुद रिश्वतखोर हैं और ऊंची जाति वालों का यह शोषण करने का बहुत बड़ा हथियार हैं. दलित समाज अलगअलग खेमों में बंटा हुआ है और ये लोग अपनेअपने संगठन का झंडाडंडा उठा कर खुश हैं.

दलितों में भी जिन की हालत सुधर गई है, उन में से कुछ लोग अपनेआप को ऊंची जाति के बराबर का समझने की भूल कर बैठे हैं. बहुत से मामलों में ये दलित भी ऊंची जाति वालों का साथ देने लगते हैं. इन की हालत जितनी भी सुधर जाए, लेकिन ऊंची जाति के लोग उन्हें दलित और निचला ही समझते हैं.

दलितों पर हो रहे शोषण का विरोध एकजुट हो कर पूरी मुस्तैदी के साथ करना पड़ेगा, तभी उन पर हो रहा जोरजुल्म रुक पाएगा.

हैरानी की बात यह है कि अपनेआप को दलितों का नेता मानने वाले रामविलास पासवान और देश के दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी इस मसले पर चुप दिखाई देते हैं.               द्य

पहला-पहला प्यार भाग-2

लेखक-  शन्नो श्रीवास्तव

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

ये भी पढे़ं- मूव औन माई फुट

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

ये भी पढे़ं- भोर की एक नई किरण

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

ये भी पढे़ंडर : क्यों मंजू के मन में नफरत जाग गई

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

ये भी पढे़ं- चुनाव प्रचार

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

 

पहला-पहला प्यार

लेखक- शन्नो श्रीवास्तव

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

ये भी पढ़ें- विरासत

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

ये भी पढ़ेंआईना

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

ये भी पढ़ें- एक कश्मीरी

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

ये भी पढ़ें- उलझन

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

महाभोज

लेखक-  संजय अइया

सुबह उठते ही गरमागरम चाय का अभी पहला घूंट ही गटका था कि अंदर काफरमान कानों के रास्ते अंदर उतर गया, ‘‘आज नाश्ता तभी बनेगा जब बाजार से सब्जी आ जाएगी.’’

हुआ यह था कि पिछले एक सप्ताह से दफ्तर के कामों में इतना उलझा रहा कि लौटते समय बाजार बंद हो जाता था और सब्जी का थैला बैग में पड़ा रह जाता. इन दिनों में पत्नी ने छोले व राजमा के साथ बेसन का कई तरह से इस्तेमाल कर एक तो अपनी पाक कला ज्ञान का भरपूर परिचय कराया, दूसरे, सब्जी की कमी को पूरा कर हमारी इज्जत ढकी थी.

पत्नी के आदेश को सिरमाथे मान कर मैं शार्टकट के रास्ते तेज कदमों से सब्जी बाजार की ओर जा रहा था. अभी थोड़ी दूर ही पहुंचा था कि नाक में तेज बदबू ने प्रवेश किया. मैं ने अपनी उल्लू जैसी आंखों को मटका कर चारों ओर देखा पर कुछ दिखलाई नहीं दिया. अभी वहां से कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि फिर जोरदार बदबू का झोंका आया. अब की बार मैं ने कुत्ते जैसी नाक से मजबूरी में बदबू को सूंघा और उस जगह पर नजर डाली जहां से वातावरण प्रदूषित हो रहा था. देखा, एक मरा हुआ ढोर नगरनिगम के कचरे के डब्बे में पड़ा था और कौए उस को नोंचनोंच कर खा रहे थे.

नाक पर रूमाल रखा और स्कूली दिनों को याद कर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ लगा दी. सामने से तिवारीजी आते दिखाई दिए और मुझे इस तरह इतना फर्राटे से भागते देखा तो रोक कर पूछने लगे, ‘‘क्यों भाई, सब ठीकठाक तो है?’’

मैं ने अपनी सांसों को नियंत्रित किया और तिवारीजी के चेहरे को देखा तो वह किसी हौरर फिल्म के डे्रकुला जैसे लग रहे थे. बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे हुए बाल, नंगे पांव, गंदे से कपड़े. ‘‘बात क्या है, तिवारीजी, आप ठीकठाक तो हैं न?’’

ये भी पढ़ें- अम्मां

‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ?’’

‘‘अरे भाई, ये बढ़ी हुई दाढ़ी, नंगे पांव, बिखरे हुए बेतरतीब केश, और ये बढ़े हुए नाखून…आखिर माजरा क्या है?’’

तिवारीजी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा और बोले, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम.’’

‘‘यार, तुम कैसे हिंदू हो?’’

‘‘क्या मतलब? आप की दाढ़ीनाखून बढ़ने से मेरे हिंदू होने का क्या संबंध है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘यार, हिंदू होने के नाते तुम्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि इन दिनों पितृपक्ष (श्राद्ध) के दिन चल रहे हैं और इन दिनों में न तो कोई शुभ काम किया जाता है और न ही दाढ़ीनाखून कटवाते हैं.’’

‘‘लेकिन तिवारीजी, हिंदू धर्म में इस तरह का कोई नियम है, ऐसा कुछ मैं ने आज तक किसी भी हिंदू धार्मिक पुस्तक में नहीं पढ़ा.’’

‘‘यार, वेदपुराणों में लिखा है, ऐसा हमें हमारे बापदादा ने बताया था.’’

‘‘आप ने पढ़ा है?’’ मैं ने नास्तिकों की तरह पूछा.

‘‘इस में पढ़ना क्या है? बुजुर्गों ने कहा है सो है, यही तो हमारी हिंदू संस्कृति, धर्म और सभ्यता है.’’

‘‘जहां पर प्रश्न करने की, शक करने की कोई गुंजाइश नहीं होती,’’ मैं ने कहा.

‘‘चुप रहो यार, ऐसा कर के पुरखों की आत्मा को शांति मिलती है.’’

‘‘क्या तुम्हारे पूर्वज तुम्हें ऐसा गंदा देख कर खुश हो रहे होंगे,’’ मैं ने उन का मजाक बनाते हुए कहा, ‘‘अजीब तुम्हारे पुरखे हैं.’’

‘‘लगता है, तुम पर किसी अधर्मी की छाया पड़ गई है.’’

‘‘बिलकुल नहीं मित्र, जो धर्म में है ही नहीं उसे प्रचारित करने वालों के खिलाफ मैं बोल रहा हूं. इसी कारण आज हिंदू धर्म मजाक बन गया है,’’ मैं ने एक संक्षिप्त सा भाषण ही दे डाला.

‘‘देखो यार, तुम्हारे भाषण देने से मुझ पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं भगवाधारी कट्टर पार्टी से हूं और पार्टी का आदेश सिरमाथे पर,’’ तिवारीजी बोले, ‘‘पुरखे ऐसा करने से खुश होते हैं तो मैं ने ऐसा कर दिया. मैं तो वही करूंगा जो पार्टी के लोग चाहते हैं. फिर मुझे अपनी जाति से बाहर तो कोई नहीं करेगा,’’ ऐसा कह कर तिवारीजी हीही कर के हंस पड़े.

मैं ने तिवारीजी से कहा, ‘‘गजब का स्टेमना है आप का.’’

प्रशंसा सुन कर वह खुश हो गए और कहने लगे, ‘‘क्या बताएं यार, अकेले मैं ने नहीं मेरे पूरे परिवार ने आज अभी तक भोजन ग्रहण नहीं किया है.’’

‘‘क्यों? क्या मिला नहीं?’’

‘‘कैसी बातें करते हो तुम, सातों पकवान बना कर रख छोड़े हैं लेकिन खा नहीं सकते.’’

‘‘क्यों, क्या बात हो गई?’’

‘‘यार, सुबह से हम पूर्वजों को यानी कि कौओं को खाने का निमंत्रण दे रहे हैं लेकिन अभी तक वह नहीं पहुंचे. लगता है यह प्रजाति भी लुप्त हो रही है,’’ कह कर उन्होंने अपनी काली गरदन के पास उंगली रगड़ कर मैल की गोली बनाई और क्रिकेटर की तरह निशाना साध कर फेंक दी और उदास हो गए.

ये भी पढ़ें- गर्भपात

उन की उदासी मुझ से देखी नहीं गई. पूरे परिवार को भूख से परेशान होने की बात सुन कर मेरा मन द्रवित हो उठा. मैं ने कहा, ‘‘यार, तिवारीजी, मैं कुछ कहूं?’’

मरी हुई आवाज उन के मुंह से निकली, ‘‘बोलो.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि कौए तुम्हारे यहां लंच लेने आएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ हैरत से मेरी ओर देखते हुए उन्होंने पूछा.

‘‘यार, जिन्हें तुम न्योता दे रहे हो वे सब तो महाभोज करने में लगे हैं.’’

‘‘कौए, महाभोज, क्या मतलब?’’ तिवारीजी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यार, अभी जिस रास्ते से मैं भागता हुआ  आ रहा था उस पर एक मरे हुए जानवर को कौए खा रहे थे, तुम ही कहो, आज के दिन इतनी अच्छी नानवेज डिश छोड़ कर वह घासफूस खाने तुम्हारे घर की छत पर क्यों आएंगे?’’

‘‘इस का अर्थ तो यह हुआ कि आज मेरा पूरा परिवार भूखा ही रहेगा.’’

‘‘शायद,’’ मैं ने भी गंभीरता से कहा.

‘‘फिर क्या उपाय हो सकता है?’’ तिवारीजी ने किसी क्लाइंट की तरह मुझ से सलाह मांगी.

‘‘एक उपाय है.’’

‘‘कहो दोस्त, जल्दी कहो, पूरे परिवार को जोरों से भूख लगी है.’’

ये भी पढ़ें- क्योंकि वह अमृत है…

मैं ने पहले तो अपने दाएंबाएं देखा ताकि मौका मिले तो भाग सकूं. फिर कहा, ‘‘यार, एक भोजन की थाली परोस कर उस मरे हुए जानवर के पास रख आओ. हो सकता है टेस्ट चेंज करने के लिए कौए कुछ खा लें.’’

‘‘आइडिया तो बहुत बढि़या है,’’ कह कर तिवारीजी ने मुझे अपने गले से चिपटा लिया और अपने घर की ओर तेज कदमों से चल दिए ताकि जल्दी से थाली परोस कर मरे ढोर के पास रख सकें, जहां उन के पुरखे उसे ग्रहण कर सकें.    द्य

हड़ताली

बिस्तर पर लेटेलेटे सोम प्रकाश ने दीवार घड़ी की ओर देखा. सुबह के साढ़े 8 बज रहे थे. वह अलसाया सा लेटा रहा. उस का बिस्तर छोड़ने का मन बिलकुल नहीं कर रहा था.

सोम प्रकाश की उम्र तकरीबन 50 साल थी. रंग सांवला, भरा हुआ शरीर, सिर पर छोटेछोटे बाल. परिवार में पत्नी गायत्री और एक बेटा राजीव था जो 12वीं जमात में पढ़ रहा था.बेटी अनीता की शादी 5 साल पहले कर दी गई थी. इतने सालों के बाद बेटी अनीता मां बनने वाली थी यानी वह नाना बनने वाला था.

गायत्री ने अनीता की ससुराल वालों से कह दिया था कि बेटी का पहला बच्चा यहीं पर उस के मायके में होगा. 2 महीने से बेटी यहां आई हुई थी.

सोम प्रकाश रोडवेज की बस में ड्राइवर था. 2 दिन से रोडवेज की चक्का जाम हड़ताल चल रही थी. सरकार महंगाई तो बढ़ा देती है, पर तनख्वाह बिना बढ़ाए देना चाहती है. जब से वह नौकरी पर है, कई बार हड़ताल हो चुकी है. हर बार उस ने हड़ताल को कामयाब बनाने में पूरा साथ दिया है.

ये भी पढ़ें- एक बार तो पूछा होता

सोम प्रकाश उठ कर बैठ गया. आज के अखबार में रोडवेज की हड़ताल की खबर पढ़ने लगा. हड़ताल के चलते प्रदेश में करोड़ों रुपए का रोजाना का नुकसान हो रहा था. मुसाफिरों को बस न मिलने से बहुत परेशानी हो रही थी. कुछ डग्गेमार बसें पुलिस से मिल कर चल रही थीं. रोडवेज कर्मचारी यूनियन के नेताओं की सरकार से बातचीत नाकाम हो रही थी.

सोम प्रकाश मन ही मन खुश हो रहा था कि हड़ताल कामयाब हो रही है, तभी उस के मोबाइल की घंटी बजी. उस ने मोबाइल कान से लगा कर कहा, ‘‘हैलो.’’

‘10 बजे तक तुम बसस्टैंड पहुंच जाना. जलसा है. हमें सरकार को अपनी ताकत दिखानी है कि हमारी एकता के चलते हड़ताल कितनी कामयाब है. जिस हड़ताल में जनता जितनी परेशान होती है, वह हड़ताल उतनी ही कामयाब मानी जाती है,’ उधर से एक साथी की आवाज सुनाई दी.

‘‘ठीक है, मैं वहां पहुंच जाऊंगा. जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता है तो मजबूर हो कर उंगली टेढ़ी मतलब हड़ताल करनी पड़ती है,’’ सोम प्रकाश ने कहा और फोन बंद कर दिया.

तभी गायत्री ने आ कर कहा, ‘‘उठो जल्दी, अब ज्यादा देर नहीं है. तुम शांति दाई को जल्दी बुला लाओ.’’

‘‘दाई को रहने दो. अनीता को कसबे के बड़े अस्पताल में ले चलते हैं.’’

‘‘नहीं, नहीं. वहां कभी डाक्टर नहीं मिलता तो कभी नर्स नहीं मिलती. शांति दाई पुरानी और समझदार हैं. तुम जल्दी जाओ,’’ गायत्री ने कहा.

शांति दाई का मकान ज्यादा दूर नहीं था. सोम प्रकाश उठा और लौटा तो दाई उस के साथ थी.

कुछ ही देर बाद दाई ने कमरे से बाहर निकल कर कहा, ‘‘बेटी को शहर के अस्पताल में ही ले जाना होगा. बिना आपरेशन के बच्चा नहीं होगा.’’

यह सुनते ही सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. जल्दी ही उस ने अपने एक दोस्त से कह कर कार मंगा ली. अनीता को पिछली सीट पर गायत्री के साथ बिठा दिया गया. कसबे से शहर तकरीबन 40 किलोमीटर दूर था.

सोम प्रकाश कार चलाने लगा. बेटी की दर्द भरी कराहट सुन कर उस के दिल में कुछ चुभता चला जाता.

‘‘बस बेटी, बस. शहर आने ही वाला है. 15-20 मिनट का रास्ता और रह गया है,’’ सोम प्रकाश ने कहा.

सामने रेलवे फाटक का नजारा देख कर सोम प्रकाश बुरी तरह चौंक उठा. रेलवे फाटक बंद था. ट्रक, प्राइवेट बसें, कारें, स्कूटर, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टरट्रौली वगैरह के चलते लंबा जमा लगा था. एक ट्रेन खड़ी थी. उस पर हजारों छात्र लदे हुए थे. वे खूब जोरशोर से चीखचिल्ला कर नारे लगा रहे थे.

कल तक जिन नारों को सुन कर सोम प्रकाश की ताकत बढ़ जाती थी, आज वे नारे उस के कानों में चुभते चले जा रहे थे.

गायत्री ने पूछा, ‘‘यहां क्या हो गया अब?’’

‘‘पता नहीं, क्या चक्कर है. मैं देख कर आता हूं,’’ कहता हुआ सोम प्रकाश कार से उतरा और फाटक की तरफ चल दिया.

वहां जा कर वह कुछ लोगों की बातें सुनने लगा. एक आदमी कह रहा था, ‘‘कल से इन छात्रों ने हड़ताल के नाम पर खूब कहर बरपा रखा है. एक ट्रेन सुबह 10 बजे सुंदरपुर पहुंचती थी. रेलवे ने उस का टाइम बदल कर 11 बजे कर दिया. अब इन छात्रों की मांग है कि ट्रेन का टाइम 10 बजे का ही किया जाए ताकि वे समय पर स्कूलकालेज पहुंच सकें. कल भी दिनभर ये गाडि़यां रोकते और लेट करते रहे. इस में तो सारी गलती रेलवे की है. भला क्या जरूरत थी टाइम बदलने की? यह सरकार भी है न बिना हड़ताल कराए मानती ही नहीं.’’

‘‘भला इस में सरकार का क्या जा रहा है, परेशान तो आम जनता है न,’’ दूसरे आदमी ने कहा.

‘‘आम जनता को परेशान करने के लिए ही तो यह हड़ताल की जाती है. अब देखो, 3 दिन से रोडवेज वालों की हड़ताल चल रही है और जनता परेशान है.’’

ये भी पढ़ें-  मंदिर: परमहंस धर्म की चाल

‘‘इन रोडवेज वालों के बारे में कुछ न पूछो. ये रास्ते में अपनी मरजी से सवारी बिठाते हैं. सवारी भले ही हाथ देती रहे, पर मरजी होगी तो बस रोक देंगे. इन की हड़ताल से जनता कितनी परेशान है. लोग गधों की तरह टैंपो, ट्रक या डग्गेमार बसों में भर कर आ रहे हैं, जा रहे हैं. क्या करें, मजबूरी है,’’ उस आदमी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

सोम प्रकाश ने अपने महकमे की बुराई सुनी तो तिलमिला कर रह गया, पर वह चुपचाप आगे बढ़ गया.

फाटक के पास ट्रेन का गार्ड और ड्राइवर खड़े थे. कुछ छात्र उन को घेर कर खड़े हुए नारे लगा रहे थे. कुछ लोग ट्रेन से उतर कर इधरउधर खड़े थे. ट्रेन में बैठे परेशान से लोग खिड़की से इधरउधर झांक रहे थे.

सोम प्रकाश के दिल की धड़कनें बढ़ती चली गईं कि अब क्या होगा. इन कमबख्तों को भी आज ही हड़ताल करनी थी. सुंदरपुर पहुंचने का कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है. इन लड़कों ने ट्रेन फाटक के सामने जानबूझ कर रोकी है, ताकि जनता परेशान हो.

3 दिन पहले जब उन की हड़ताल शुरू हुई तो एक रोडवेज की बस को उस ने व उस के साथियों ने जबरदस्ती रोका था. बस से सभी सवारियों को उतर जाने को मजबूर किया था. उसी बस में एक आदमी के साथ उस का 6-7 साल का बीमार बेटा भी था. वह आदमी अपने बेटे को डाक्टर को दिखाने शहर ले जा रहा था. तब उस आदमी ने उन लोगों के सामने हाथ जोड़ कर दया की भीख मांगी थी, पर किसी भी हड़ताली का दिल नहीं पिघला था. उस का भी नहीं. वे सब हड़ताल को कामयाब बनाने के नशे में चूर थे.

सोम प्रकाश ट्रेन के गार्ड के पास जा कर चिंतित आवाज में बोला, ‘‘साहब और कितनी देर लगेगी यहां? टै्रफिक बहुत पीछे तक लगा है. हमें सुंदरपुर जाना है. गाड़ी को थोड़ा आगे करा कर फाटक खुलवा दो बस.’’

‘‘मैं क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है. पिछले स्टेशन से यहां तक 5-6 बार जंजीर खींच ली. गाड़ी आधा किलोमीटर भी नहीं चलती कि ये लड़के जंजीर खींच कर गाड़ी रोक देते हैं. यहां जब ड्राइवर गाड़ी आगे बढ़ाने लगा तो लड़के इंजन में ही घुस गए और ड्राइवर को नीचे उतार दिया,’’ गार्ड ने जवाब दिया.

तभी ट्रेन का ड्राइवर बोल उठा, ‘‘ऐसे हालात में गाड़ी चलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. मैं ने भी यह सोच लिया है कि इन को अपनी मनमानी कर लेने दो. मैं भी अब ट्रेन ले कर आगे नहीं जाऊंगा.’’

सोम प्रकाश ने हाथ जोड़ कर गार्ड से कहा, ‘‘मेरी बेटी की हालत बहुत खराब है साहब. आप गाड़ी आगे करा कर यह फाटक खुलवा दो.’’

‘‘कैसे खुलवा दें फाटक? इंजन की हालत देख रहे हो न, कितने छात्र उस पर लदे हुए हैं. अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है. मैं आप सभी का दुख समझ रहा हूं. ट्रेन में बैठे लोगों की अपनीअपनी परेशानी है. किसी को कोर्ट जाना है, किसी को औफिस जाना है, तो किसी को डाक्टर के पास पहुंचना है.

‘‘ये हड़ताली किसी का दुख नहीं समझते. इन्हें जनता को परेशान और दुखी करने में ही मजा आता है. जब कोई हड़ताली खुद किसी हड़ताल में फंसता है तब उसे पता चलता है कि हड़ताल कितनी खतरनाक है,’’ गार्ड ने कहा.सोम प्रकाश की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? वह खुद हड़ताल पर था. उन की हड़ताल से लोग कितने परेशान थे, इस के बारे में सोच कर वह खुश था. छात्रों की इस तरह की हड़ताल से जब सामना हुआ तो वह बुरी तरह घबरा गया.

दुखी और परेशान सा सोम प्रकाश कार के पास पहुंच गया. उसे देखते ही गायत्री ने पूछा, ‘‘कितनी देर और लगेगी यहां? अनीता की हालत ज्यादा खराब हो रही है.’’

सोम प्रकाश ने अनीता की ओर देखा. वह आंखें बंद कर निढाल हो चुकी थी.

सोम प्रकाश चुप रहा. वह कुछ भी कहने की हालत में नहीं था. उसे एकएक मिनट भारी लग रहा था.

गायत्री दुखी आवाज में बोली, ‘‘अब क्या होगा? अगर अनीता को कुछ हो गया तो मैं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगी.’’

‘‘तू ने ही अनीता को जबरदस्ती यहां बुलाया था कि पहला बच्चा है, यहां मायके में ही होना चाहिए. उस की ससुराल वाले तो मना कर रहे थे. अब भुगत अपनी जिद,’’ सोम प्रकाश ने गुस्से में कहा.

गायत्री की आंखों से आंसू बहने लगे. वह बोली, ‘‘मैं जाती हूं. इन लड़कों के आगे हाथपैर जोड़ कर ट्रेन आगे करा दूंगी. यह फाटक खुल जाएगा.’’

‘‘नहीं गायत्री, वहां जाना बेकार है. हड़ताल, जाम, धरनाप्रदर्शन करने वालों के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं. न कोई सुनेगा और न कोई मानेगा.’’

तकरीबन एक घंटे बाद ट्रेन आगे की ओर सरकी. फाटक खुला. ट्रैफिक चलने लगा.

सोम प्रकाश ने देखा, अनीता निढाल सी बैठी थी. गायत्री उसे पुकार रही थी, पर वह कोई जवाब नहीं दे रही थी.

ये भी पढ़ें-  मेरी बेटी का व्यंजन परीक्षण

सोम प्रकाश ने कार की रफ्तार बढ़ा दी. वह जल्द ही शहर के किसी भी नर्सिंगहोम में पहुंचना चाहता था.

नर्सिंगहोम तक पहुंचने में आधा घंटा लग गया. वह तेजी से डाक्टर के चैंबर में पहुंचा और बोला, ‘‘मेरी बेटी बहुत सीरियस है. डिलीवरी होनी है उस की.’’

‘‘मैं देखती हूं अभी,’’ कहते हुए डाक्टर आरती फोन पर कुछ जरूरी बात करने लगी.

‘‘मैं नंदनपुर कसबे से आ रहा हूं. रास्ते में कुछ छात्र फाटक पर ट्रेन को रोक कर प्रदर्शन कर रहे थे. फाटक बंद होने से टै्रफिक जाम होता चला गया. वहां डेढ़ घंटा बरबाद हो गया.’’

डाक्टर आरती उठते हुए बोलीं, ‘‘पता नहीं, क्या हो रहा है इस देश में, जहां देखो हड़ताल, धरना, प्रदर्शन व जाम. ट्रेन रोको, सड़क रोको, कामकाज ठप करो. हड़ताल से जनता को कितनी परेशानी होती है, यह हड़ताली नहीं सोचते. देश को नुकसान पहुंचा कर और आम जनता को परेशान कर अपना मतलब निकालना ही हड़ताल का मकसद है क्या?

‘‘जिस नेता या मंत्री से कोई शिकायत या मांग है तो उस का घेराव करें. उस के सामने धरनाप्रदर्शन करें. आम जनता को क्यों परेशान करते हो जिस का उस हड़ताल से कोई लेनादेना नहीं है. अदालतों का सहारा लें. आप क्या काम करते हैं?’’

‘‘मैं रोडवेज बस में ड्राइवर हूं,’’ सोम प्रकाश के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे.

‘‘कमाल है, आप भी तो हड़ताल पर हैं. अब आप को पता चल गया होगा कि हड़ताल के कितने भयंकर रूप हैं. सरकार को भी चाहिए कि हड़ताल, चक्काजाम, बंद वगैरह पर पूरी तरह रोक लगा दे,’’ कहते हुए डाक्टर आरती जच्चाघर में पहुंच गईं.

अनीता को स्ट्रैचर पर लिटा कर जच्चाघर ले जाया जा चुका था.

सोम प्रकाश व गायत्री धड़कते दिल से बैठे इंतजार कर रहे थे.

कुछ देर बाद डाक्टर आरती बाहर निकलीं और गंभीर आवाज में बोलीं, ‘‘मुझे बहुत दुख है कि आप की बेटी व बच्चा बच नहीं पाए. आप ने आने में देर कर दी. अगर आप सही समय पर आ जाते तो दोनों की जान बच जाती.’’

यह सुनते ही गायत्री दहाड़ मार कर रोने लगी. सोम प्रकाश का दिल भी बैठता चला गया. अब उस की बेटी व होने वाले नाती की बलि हड़ताल पर चढ़ गई थी. वह खुद भी तो हड़ताली है. उसे लग रहा था मानो वह हड़ताली नहीं, एक अपराधी है देश का.

ये भी पढ़ें-  प्रश्नों के घेरे में

सोम प्रकाश चुपचाप अनीता की लाश कार में रखवा कर गायत्री के साथ वापस घर की ओर चल दिया.

एक नंबर की बदचलन

लेखक- सुभाष चंदर

जुम्मन शेख की बीवी शकीना बेगम कभी दिन में, तो कभी रात में अपने एक आशिक से मिलने चली जाती और उस के साथ खूब गुलछर्रे उड़ाती. यह खबर बहुतों को मालूम थी. अगर किसी को नहीं पता थी तो वह था जुम्मन शेख, जिस का इस केस से सीधासीधा ताल्लुक था. पर यह बात उस तक पहुंचाने की हिम्मत कोई नहीं कर पा रहा था, क्योंकि जुम्मन शेख बड़े ही अक्खड़ दिमाग का आदमी था. यह भी पक्का था कि यह खबर मिलने के बाद जुम्मन शेख अपनी बीवी सकीना बेगम के आशिक को पाताल में से भी ढूंढ़ निकालेगा.

इसकी एक बड़ी वजह उन जवान या फिर रंगीनमिजाज मर्दों से ही जुड़ी थी जो खुद सकीना बेगम के चक्कर में थे और उन्हें इस बात का बेहद अफसोस था कि उन के होते हुए कोई और उस हसीन औरत को ले उड़ा था. उस औरत ने पराए महल्ले के मर्द पर नजर डाली थी, जो उन की खासी बेइज्जती थी.

यह मामला औरतों के डिपार्टमैंट ने संभाला. फातिमा बी तैयार हो गईं. वे दूर के रिश्ते में जुम्मन शेख की मौसी लगती थीं. उम्रदराज थीं. दमे की मरीज थीं. उन की जबान के चलने और खांसने की रफ्तार एकजैसी तेज थी. घर वाले उन से और वे घर वालों से तंग आ चुकी थीं. वे ऐसे नेक काम के लिए बिलकुल ठीक थीं.

फातिमा बी जुम्मन शेख की लकड़ी की दुकान पर जा पहुंचीं. जुम्मन शेख ने दुआसलाम की. फातिमा बी ने उस की बीवी सकीना बेगम के बांझ रह जाने पर अफसोस किया. कुछ डाक्टरों के पते भी बताए जिन के इलाज से शर्तिया बच्चे पैदा होते हैं. उस के बाद फातिमा बी जुम्मन शेख के कान के नजदीक गईं और कुछ फुसफुसाईं. वे कुछ देर तक फुसफुसाती ही रहीं. फुसफुस खत्म करने के बाद उन्होंने जुम्मन शेख के चेहरे के भावों की ओर गौर से देखा.

जुम्मन शेख की आंखों में लाली उतर आई थी. कुछ देर ऐसा ही रहा, फिर उस के मुंह से बोल फूटे, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. सकीना ऐसा नहीं कर सकती.’’

फातिमा बी भौंचक्की रह गईं. उन्होंने फिर भी बुझती आंच में घी डालने की कोशिश की. वे बोलीं, ‘‘न बेटा, ज्यादा टाइम तक औलाद न होए तो कई बार औरत ऐसा कदम उठा लेती है.’’

‘‘बस खालाजान, आप आगे मत बोलना…’’ जुम्मन शेख भड़क उठा, फिर जाने क्या सोच कर शांत हुआ और बोला, ‘‘पहले यह बताओ कि यह बात आप को किस ने बताई?’’

‘‘रेहाना की अम्मी ने.’’

‘‘उन्हें?’’

‘‘उस के खसम यासीन ने…

पर क्यों?’’

‘‘कुछ नहीं, आप जाओ… मैं यासीन से बात करता हूं.’’

फातिमा बी के जाते ही जुम्मन शेख कुछ देर सोचता रहा, फिर यासीन की दुकान की ओर चला गया.

जुम्मन शेख ने मामले की पूछताछ की. यासीन ने डरते हुए बताया, ‘‘यह खबर मुझे शकील ने दी.’’

जुम्मन शेख शकील के पास

गया. उस ने रमजानी का नाम लिया. रमजानी ने बशीर का और बशीर ने बिंदा बनिए का.

बिंदा बनिए ने खास जानकारी दी कि उसे यह बात कल्लू रिकशे वाले ने बताई है. उसी ने अपनी आंखों से सकीना बेगम को रात को कहीं जाते देखा है.

जुम्मन शेख ने बिंदा बनिए को आंखें तरेर कर देखा. उस के बाद वह अपनी दुकान पर आया. वहां बोरों के ढेर के नीचे से बड़ा वाला छुरा निकाला. उंगली पर लगा कर उस की धार चैक की. धार कुंद हो रही थी. फिर उस ने पत्थर से घिसघिस कर धार पैनी की. इस के बाद वह कल्लू रिकशे वाले की तलाश में निकल गया.

रात हो चुकी थी. कल्लू अपने रिकशे पर ही बार सजाए बैठा था. रिकशे की सीट पर वह खुद जमा था. देशी

दारू की बोतल, पानी का जग और प्लेट में चखने के नाम पर नमक और मिर्च सजी थी.

कल्लू को नशा चढ़ रहा था, पर जुम्मन शेख को देखते ही कल्लू के नशे के झाग झटके से नीचे बैठ गए. उस ने भाग निकलने के लिए रास्ता खोजना चाहा, पर जुम्मन शेख ने इस का

मौका नहीं दिया. उस ने छुरा निकाला और कल्लू रिकशे वाले की गरदन पर रख दिया और सर्द आवाज में बोला, ‘‘सच्चीसच्ची बता कि बात क्या है, वरना इस छुरे से अभी तेरी गरदन रेत दूंगा, समझ गया न…’’

गरदन पर छुरा रखा हो तो किसी को भी बात समझ में आ सकती है. कल्लू को भी आ गई. वह मिमियाते हुए बोला, ‘‘हुजूर, मेरी कुछ गलती नहीं है. मैं ने कुछ नहीं किया.’’

जुम्मन शेख गरजा, ‘‘कहता है, तू ने कुछ नहीं किया. मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी. बता, ऐसा झूठ बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई, वरना यहीं काट दूंगा,’’ कह कर छुरे का दबाव उस की गरदन पर बढ़ा दिया.

डर के मारे कल्लू के पाजामे से दोनों पैग बाहर निकल आए. माहौल में शराब की बदबू फैल गई.

‘‘हुजूर, मैं ने भाभी को परसों रात कब्रिस्तान की तरफ जाते देखा था. सच बोल रहा हूं,’’ कल्लू ने एक सांस में सबकुछ बक दिया.

इतना सुनते ही जुम्मन शेख ने छुरा कल्लू के गले से हटाया और बोला, ‘‘सुन बे, अगर यह बात झूठ निकली तो तू कल का सूरज नहीं देखेगा.’’

घर आ कर सकीना बेगम ने खाने के लिए पूछा. जुम्मन शेख ने उस की ओर ऐसी नजरों से देखा कि उस की आगे पूछने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. कुछ देर बाद ही जुम्मन शेख को नींद आ गई.

लेकिन महल्ले वाले नहीं सोए थे.

वे रातभर शोरशराबे का, सकीना बेगम के रोनेचीखने वगैरह का इंतजार करते रहे, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी.

पर तमाशा कहां से होता… जुम्मन शेख तो मुंह अंधेरे ही घर से निकल गया था. पहले वह पास के गांव में रहने वाले अपने बड़े भाई से मिल कर आया. उस के बाद शहर में रहने वाले अपने छोटे भाई के पास चला गया. उसी के साथ अम्मी भी रहती थीं, जबकि अब्बू अब नहीं रहे थे.

जुम्मन शेख अम्मी से मिला और जाते ही उन से लिपट गया. फिर वह बहुत देर तक रोता रहा. अम्मी हैरान सी उसे देखती रहीं.

रोने का कार्यक्रम खत्म करने के बाद अम्मी को सलाम कर के जुम्मन शेख तेज कदमों से बाहर निकल आया.

इस के बाद जुम्मन शेख अब्दुल कय्यूम एडवोकेट के दरबार में हाजिरी देने गया. उन के कान में जाने क्याक्या फुसफुसाया, फिर उस की जेब ने इस सारी कार्यवाही का जुर्माना भरा जो पूरे 2,000 रुपए था.

इस के बाद जुम्मन शेख अपने गांव की ओर बढ़ गया. अब तक रात हो चुकी थी. 11 बजे होंगे. कायदे से उसे घर जाना चाहिए था, पर वह घर नहीं गया. फैसला लिया कि वह आज रात दुकान में ही रहेगा.

दुकान से उस का घर ज्यादा दूरी पर भी नहीं था. वैसे भी उस के घर से जिसे भी कब्रिस्तान की ओर जाना होता, उसे दुकान के सामने से ही हो कर जाना पड़ा. सो, उस ने दुकान में एक ऐसी जगह तलाशी जहां से वह अपने घर पर नजर रख सकता था. दुकान की बाहरी तरफ लकडि़यों का ढेर था. वह उस में कहीं छिप कर बैठ गया.

जुम्मन शेख ने सोचना शुरू किया कि अगर कल्लू की बात सच निकली तो आज उसे किस का बैंड बजाना पड़ेगा. सकीना बेगम का तो नंबर पहला था

ही, पर पहेली यह थी कि उस का

वह आशिक कौन होगा जो उस के

हाथों मरेगा?

सवाल यह भी था कि सकीना बेगम कब आएगी, आएगी भी या नहीं? इंतजार करतेकरते 2 घंटे हो गए.

तभी कुत्तों के भूंकने की आवाज आई. जुम्मन शेख ने उस दिशा में नजर दौड़ाई तो देखा कि एक साया उस के घर से निकल कर इधरउधर देख रहा है. वह समझ गया कि सकीना बेगम ही होगी.

जब वह साया दुकान के सामने से गुजरा तो कुल्हाड़ी पर जुम्मन शेख के हाथ इतनी बुरी तरह कस गए कि उस की हथेली की हड्डी तक चसक उठी.

सकीना बेगम दुकान के पास आ कर ठिठकी, फिर आगे बढ़ गई. उस की मंजिल कब्रिस्तान की तरफ थी. वह इधरउधर देखते हुए आगे बढ़ रही थी. जैसेजैसे वह आगे बढ़ रही थी, उसी हिसाब से जुम्मन शेख का गुस्सा भी अपने कदम आगे बढ़ा रहा था.

न जाने किस तरह जुम्मन शेख अपनेआप पर काबू रख पाया था, वरना उस का कम से कम 4-5 बार मन किया कि वह इस बेवफा औरत के अपनी कुल्हाड़ी से वैसे ही 2 टुकड़े कर दे जैसे भारी लकडि़यों के करता है. उस के दांत कसमसा रहे थे, उसे इंतजार था तो बस सकीना बेगम के किसी घर में घुसने का.

जुम्मन शेख छिपताछिपाता उस का पीछा कर रहा था. वह हर तरफ से चाकचौबंद था. उस के हाथ में कुल्हाड़ी थी, पाजामे की अंटी में चाकू भी था. बस, दुश्मन की पहचान होने भर की देर थी, हलाल करने की तैयारी पूरी थी.

सकीना बेगम आगे बढ़ रही थी. चलतेचलते वह ठिठकी. जुम्मन शेख ने देखा कि मकान बशीरे का था. ‘हुम्म… तो यह बशीरे का कियाधरा है…’ उस ने सोचा. वह उस को मारने के तरीके पर विचार कर ही रहा था कि सकीना बेगम आगे चल दी.

अगला घर नवाजू का था. वह वहां भी ठिठकी.

जुम्मन शेख ने मन में कुछ हिसाब लगाया. नवाजू पर तो कुल्हाड़ी ही इस्तेमाल करनी पड़गी, वह मोटा भैंसा चाकूवाकू से कहां मरेगा, लेकिन सकीना बेगम आगे बढ़ गई.

अब तो जुम्मन शेख को पक्का यकीन हो गया कि हो न हो, सकीना बेगम ने जिस से टांका भिड़ाया है,

वह रियाजू ही है. कमबख्त… इतनी खूबसूरत बीवी के होते हुए, अपने से बड़ी उम्र की औरत पर फिसला. उस ने अंटी के चाकू को सहलाया ही था कि सकीना बेगम आगे बढ़ गई. वह थोड़ा रुकी, इधरउधर देखा, फिर सीधे कब्रिस्तान के खुले गेट में घुस गई.

सकीना बेगम गेट के अंदर जा चुकी थी. जुम्मन शेख लोहे के गेट के पीछे छिप कर खड़ा हो गया. उसे इंतजार था कि कब वह नसीमू आए और वह उस को खुदागंज पहुंचा दे.

पर वहां कोई नहीं दिखाई दिया. वहां कब्रें थीं, उन में शांति से सोए मुरदे थे, कुछ झाड़झंखाड़ भी थे, पर आदम जात कहीं नहीं दिखा.

‘फिर सकीना बेगम इतनी रात में कब्रिस्तान में क्या करने आई है? क्या वह बेवफा नहीं है? क्या वह किसी आशिक से मिलने नहीं आई है? फिर वह यहां क्यों आई है?’ जुम्मन शेख का दिल धक से रह गया. तो इस का मतलब सकीना बेगम डायन… चुड़ैल… आगे वह सोच नहीं पाया.

तभी खटखट की आवाजें आईं. उस ने गौर से देखा कि सकीना बेगम जमीन पर उकड़ूं बैठ कर कुछ खोद रही है. अब तो उस का कलेजा मुंह को आ गया, ‘इस का मतलब उस का शक सही है… वह पक्की चुड़ैल है. कब्रिस्तान से मुरदे उखाड़ कर उन को खाती है. डर के मारे उस की धड़कनें बंद होतेहोते बचीं. झुरझुरी सी हो आई, पर उस ने किसी तरह मन कड़ा किया और सकीना ‘चुड़ैल’ की आगे की कार्यवाही देखने लगा. लगा कि कुछ ही देर में सकीना

के हाथों में मुरदा होगा, पर निराशा ही हाथ लगी.

सकीना ने कुछ मिट्टी खोदी और हाथ में रखे रूमाल में बांधी. उस के बाद दियासलाई जलाई. अगरबत्ती सुलगाई और फिर वह अगरबत्ती उस कब्र पर रख दी. जुम्मन शेख पहचान गया कि यह मजार तो पीर बाबा का था.

जुम्मन शेख की समझ में कुछ नहीं आया. यह कैसी चुड़ैल है जो कब्र खोदती है, पर मुरदे नहीं खाती. उस की मिट्टी रूमाल में भरती है. खोदी हुई कब्र पर अगरबत्ती जलाती है. चुड़ैल भला अगरबत्ती क्यों जलाएगी?

तभी सकीना बेगम खड़ी हो गई और मजार पर सिर झुकाने के बाद वापस जाने लगी. जुम्मन शेख चौकन्ना हो गया. डर था कि कहीं वह देख न ले.

जब सकीना बेगम उस के पास से गुजरी तो उस का दिल धड़धड़ बज

रहा था. जब वह और नजदीक आई तो उस ने जोर से आवाज दी, ‘‘सकीना… सुनो तो…’’

सकीना बेगम डर के मारे ठिठक गई. उस ने सोचा कि कब्रिस्तान का कोई जिन जाग गया है. वह थरथर कांपने लगी.

जुम्मन शेख उस की हालत समझ गया. वह बोला, ‘‘सकीना, डरो मत, मैं… हूं… जुम्मन, तुम्हारा शौहर.’’

सकीना बेगम ने शौहर की आवाज पहचानी, पर शक फिर भी था. उस ने मुड़ कर देखा तो सच में जुम्मन शेख ही था. उस की जान में जान आई.

कुछ कहने से पहले ही जुम्मन शेख ने अपनी बेगम के हाथ थाम लिए. आंखों में प्यार भर कर वह बोला, ‘‘सच बताऊं बेगम, मैं तुम्हें मारने आया था,’’ कह कर उस ने दूर पड़ी कुल्हाड़ी दिखाई, अंटी में लगा चाकू दिखाया.

‘‘पर, मेरा कुसूर क्या है?’’ सकीना बेगम की आंखें हैरानी और दुख से फैल गईं. जुम्मन शेख ने कल्लू रिकशे वाले से ले कर महल्ले में फैली सारी बात बताई.

सकीना बेगम ने नाराजगी दिखाई लेकिन जुम्मन शेख के माफी मांगने पर वह मान गई.

उस के बाद जुम्मन शेख को कुछ याद आया. वह बोला, ‘‘तुम रात को कब्रिस्तान में क्यों आती हो? और यह मिट्टी खोदने और मजार पर अगरबत्ती जलाने का क्या चक्कर है?’’

अब सकीना बेगम ने जो बताया, उस से जुम्मन शेख का तो माथा ही घूम गया. वह बोली, ‘‘मैं मुल्ला बदरूद्दीन के पास गई थी. वह झाड़फूंक करता है. मैं ने उस से पूछा कि हमारे घर आलौद क्यों नहीं हो रही है?’’

जुम्मन शेख तुनक कर बोला, ‘‘हम्म, तो यह सारा खेल उस मरदूद का शुरू किया हुआ है. खैर, तुम आगे बताओ. उस से तो मैं बाद में निबटूंगा.’’

सकीना बेगम आगे बोली, ‘‘मुल्ला ने बताया था कि मेरे ऊपर किसी जिन का साया है. वही मेरे मां बनने में रोड़े अटका रहा है. उस के लिए उस ने मुझ से 5,000 रुपए लिए. एक तावीज दिया और कहा था कि मैं हफ्ते में 2 दिन आधी रात को कब्रिस्तान जाऊं. पीर बाबा की कब्र से मिट्टी खोद कर उस में तावीज गाड़ दूं. अगली बार आऊं तो निकाल लूं.

‘‘3 दिन पहले मैं ने तावीज गाड़ा था और आज निकाल लिया. यह देखो,’’ कह कर उस ने रूमाल में बंधी मिट्टी और उस में पड़ा तावीज दिखा दिया.

यह सुन कर और तावीज को देख कर जुम्मन के तनबदन में आग लग गई. वह भनभना कर बोला, ‘‘उस मौलवी ने तो मेरा घर बरबाद कर देना था. या तो मैं तुम्हें तलाक दे देता या फिर तुम्हारा कत्ल करता. उस के बाद फांसी चढ़ जाता. अब मैं उसे छोड़ूंगा नहीं.’’

‘‘अरे… अरे… पर, क्या करोगे उस का?’’

‘‘मैं उस को तावीज की तरह जमीन में गाड़ दूंगा और फिर निकालूंगा भी नहीं. बस सुबह हो जाने दो,’’ कह कर जुम्मन शेख सकीना बेगम के साथ घर को चल दिया.

अगले दिन सुबहसवेरे जुम्मन शेख लाठी ले कर मुल्ला बदरूद्दीन के घर पहुंच गया.

मुल्लाजी अपनी बैठक में मजमा लगाए बैठे थे. किसी को भूत भगाने का नुसखा बता रहे थे. जुम्मन को देखते ही वे चौंके, फिर घबराए. उठने की कोशिश की, पर जुम्मन के लट्ठ ने उन्हें उठने न दिया. पहले लट्ठ ने ‘आह’ निकाली, दूसरे ने ‘हाय मर गया’ की आवाज निकाली, तीसरे में वे ‘बचाओबचाओ’ की गुहार करने लगे.

महल्ले में भीड़ जमा हो गई. जुम्मन शेख ने गरज कर कहा, ‘‘बदरूद्दीन, अब भी वक्त है, बता दे कि तू ने मेरे खिलाफ यह साजिश क्यों की, वरना तुझे जिंदा नहीं छोडं़ूगा,’’ कह कर उस ने लट्ठ उठाया ही था कि बदरूद्दीन मिमियाता हुआ बोला, ‘‘मेरी जान बख्श दो. मैं ने कुछ नहीं किया. यह सब हकीमजी का कियाधरा है. उन्होंने ही मुझ से यह सब खेल करने को कहा था. इस के लिए मुझे 5,000 रुपए भी दिए थे,’’ कह कर वे रोने लगे.

यह सब सुनते ही जुम्मन शेख का माथा ठनक गया. इस का मतलब असली गुनाहगार हकीम है. उसे तो सबक ही सिखाना पड़ेगा. वह हकीम के दवाखाने की ओर बढ़ा. कहना न होगा कि महल्ले की भीड़ उस के पीछे थी.

हकीम ने पहले जुम्मन शेख को देखा, फिर भीड़ देखी. वह अंदर की ओर भाग लिए. पर जुम्मन उन से ज्यादा फुर्तीला था, उन्हें वहीं थाम लिया. पहले उन का थप्पड़ों से स्वागत किया, फिर लातों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें बाहर ले आया. हकीम ने ‘बचाओबचाओ’ का शोर मचाना शुरू किया, पर किसी ने उसे नहीं बचाया.

जब मारतेमारते जुम्मन शेख के हाथपैर थक गए तो उस ने लाठी उठाई और दहाड़ कर बोला, ‘‘हकीम के बच्चे, अगर जिंदा रहना चाहता है तो सब के सामने बता कि तू ने यह साजिश क्यों रची थी, वरना तुझे तेरे तावीज के साथ यहीं गाड़ दूंगा.’’

हकीम साहब समझ गए कि खेल खत्म हो गया. उन्होंने कराहतेकराहते

जो बताया, वह सुन कर भीड़ भी हैरान रह गई.

हकीम साहब रोतेरोते बोले, ‘‘सकीना मेरे पास दवा लेने आती थी. उसे देख कर मेरी नीयत खराब हो गई थी. मैं ने उसे छेड़ने की कोशिश की तो सकीना मेरे मुंह पर थप्पड़ मार कर चली गई. यह सब देख कर मैं गमक गया. फिर मैं ने बेइज्जती का बदला लेने के लिए यह साजिश रची.’’

हकीम साहब चुप हुए ही थे कि जुम्मन शेख दहाड़ उठा, ‘‘पूरी बात बता, क्या साजिश रची थी? जल्दी बोल वरना…’’

हकीम साहब घबरा गए. वे बोले, ‘‘मैं ने… मैं ने मुल्ला बदरूद्दीन को पटाया. उसे समझाया कि वह सकीना बेगम को रात को कब्रिस्तान में जाने को कहे, ताकि जब यह बात तुम्हें पता चले तो तुम उसे मार दोगे या तलाक दे दोगे. मेरा बदला पूरा हो जाएगा.’’

हकीम साहब की बातें सुन कर भीड़ भड़क उठी. बशीरन बूआ चिल्लाईं, ‘‘इतनी बड़ी साजिश. कीड़े पड़ेंगे तेरे बदन में.’’

फिर वे भीड़ की ओर देख कर बोलीं, ‘‘देखते क्या हो रे, मारो इस मरदूद को.’’

फिर क्या था, जुम्मन शेख एक तरफ हो गया, भीड़ ने उस का अधूरा काम संभाल लिया. पहले मर्दों ने हाथ सेंके, फिर औरतों ने चप्पलों से सुताई की.

सब से ज्यादा मजा आखिर में आया. बुंदू कहीं से हज्जाम को पकड़ लाया. उस ने हकीम साहब के सिर पर उस्तरा फिरा दिया. शकील ने उन का मुंह काला किया. इस के बाद उन्हें गधे पर बिठा कर सारे महल्ले का चक्कर लगवाया गया. जुम्मन शेख अब संतुष्ट था.

उसी रात को जुम्मन शेख अपनी बीवी सकीना बेगम के साथ पलंग पर बैठा था. जुम्मन शेख भावुक होते हुए बोला, ‘‘सकीना, अगर मैं शक में पड़ कर तुम्हें मार देता तो…

सकीना बेगम बोली, ‘‘तो क्या हुआ, मैं चुड़ैल बन जाती और तुम्हारा खून चूसती?’’ कह कर वह हंस पड़ी.

उस के हंसते ही जुम्मन शेख घबरा कर उठा और पलंग से लटके पैरों को उलटपलट कर देखने लगा.

सकीना चौंक कर बोली, ‘‘क्या… क्या देख रहे हो जी?’’

जुम्मन बोला, ‘‘देख रहा हूं, कहीं तुम्हारे पैर उलटे तो नहीं हैं.’’

यह सुनते ही सकीना बेगम ने बड़ी जोर का ठहाका लगाया.

कल हमेशा रहेगा- अंतिम भाग

लेखिका- सुजाता वाई ओवरसियर

मम्मीपापा के दबाव में आ कर वेदश्री ने डा. साकेत से शादी करने का फैसला ले लिया. वह इस बात से दुखी थी कि अभि को यह बात कैसे समझाएगी. लेकिन बहते हुए आंसुओं को रोक कर उस ने एक निर्णय ले ही लिया कि वह अभि से मिलने आखिरी बार जरूर जाएगी.

वेदश्री की बातें सुनने के बाद अभि तय नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाए. वह श्री को दिल से चाहता था और अपनी जिंदगी उस के साथ हंसीखुशी बिताने का मनसूबा बना रहा था. उस का सपना आज हकीकत के कठोर धरातल से टकरा कर चकनाचूर हो गया था और वह कुछ भी करने में असमर्थ था.

उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की अपनी गरीबी और लाचारी उस की जिंदगी से इस कदर खिलवाड़ करेगी. यदि वह अमीर होता तो क्या मानव के इलाज के लिए अपनी तरफ से योगदान नहीं देता? श्री उस के लिए सबकुछ थी तो उस के परिवार का हर सदस्य भी तो उस का सबकुछ था.

अब समय मुट्ठी से रेत की तरह सरक गया था. समय पर अब उस का कोई नियंत्रण नहीं रहा था. अब तो वह सिर्फ श्री और साकेत के सफल सहजीवन के लिए दुआ ही कर सकता था.

ये भी पढ़ें- कल हमेशा रहेगा

अपना हृदय कड़ा कर और आवाज में संतुलन बना कर अभिजीत बोला, ‘‘श्री, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूं पर तुम से तो मैं यही कहूंगा कि हमें समझदार प्रेमियों की तरह हंसीखुशी एकदूसरे से अलग होना चाहिए. प्यार कोई ऐसी शै तो है नहीं कि दूरियां पैदा होने पर दम तोड़ दे. प्यार किया है तो उसे निभाने के लिए शादी करना कतई जरूरी नहीं. प्लीज, तुम मेरी चिंता न करना. मैं अपनेआप को संभाल लूंगा पर तुम वचन दो कि आज के बाद मुझे भुला कर सिर्फ साकेत के लिए ही जिओगी.’’

आंखों में आंसू लिए भारी मन से दोनों ने एकदूसरे से विदा ली.

‘‘श्री, आज का दिन यहां खत्म हुआ तो क्या हुआ? याद रखना, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा… और हर आने वाला कल तुम्हारी जिंदगी को और कामयाब बनाए, यही मेरी दुआ है.’’

मंगलसूत्र पहनाते समय साकेत की उंगलियों ने ज्यों ही वेदश्री की गरदन को छुआ, उस के सारे शरीर में सिहरन सी भर गई. सप्तपदी की घोषणा के साथसाथ शहनाई का उभरता संगीत हवा में घुल कर वातावरण को और भी मंगलमय बनाता गया. एकएक फेरे की समाप्ति के साथ उसे लगता गया कि वह अपने अभिजीत से एकएक कदम दूर होती जा रही है. आज से अभि उस से इस एक जन्म के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले सात जन्मों के लिए दूर हो गया है. अब उस का आज और कल साकेत के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया है.

फेरों के खत्म होते ही मंडप में मौजूद लोगों ने अपनेअपने हाथों के सारे फूल एक ही साथ नवदंपती पर निछावर कर दिए. तब वेदश्री ने अपने दिल में उमड़ते हुए भावनाओं के तूफान को एक दृढ़ निश्चय से दबा दिया और सप्तपदी के एकएक शब्द को, उस से गर्भित हर अर्थ हर सीख को अपने पल्लू में बांध लिया. उस ने मन ही मन संकल्प किया कि वह अपने विवाहित जीवन को आदर्श बनाने का हरसंभव प्रयास करेगी क्योंकि वह इस सच को जानती थी कि औरत की सार्थकता कार्येषु दासी, कर्मेषु मंत्री, भोज्येशु माता और शयनेशु रंभा के 4 सूत्रों के साथ जुड़े हर कर्तव्यबोध में समाई हुई है.

सुहाग सेज पर सिकुड़ी बैठी वेदश्री के पास बैठ कर साकेत ने कोमलता से उस का चेहरा ऊपर की ओर इस तरह उठाया कि साकेत का चेहरा उस की आंखों के बिलकुल सामने था. वह धड़कते हृदय से अपने पति को देखती रही, लेकिन उसे साकेत के चेहरे पर अभि का चेहरा क्यों नजर आ रहा है? उसे लगा जैसे अभि कह रहा हो, ‘श्री, आखिर दिखा दिया न अपना स्त्रीचरित्र. धोखेबाज, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगा.’ और घबराहट के मारे वेदश्री ने अपनी पलकें भींच कर बंद कर लीं.

ये भी पढ़ें- देवी की कृपा…

‘‘क्या हुआ, श्री. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ साकेत उस की हालत देख कर घबरा गया.

‘‘नहींनहीं…बिलकुल ठीक हूं…आप चिंता न करें…पहली बार आज आप ने मुझे इस तरह छुआ न इसलिए पलकें स्वत: शरमा कर झुक गईं,’’ कह कर वह अपनी घबराहट पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगी.

मन में एक निश्चय के साथ श्री ने अपनी आंखें खोल दीं और चेहरा उठा कर साकेत को देखने लगी.

‘‘अब मैं ठीक हूं, साकेत. पर आप से कुछ कहना चाहती हूं…प्लीज, मुझे एक मौका दीजिए. मैं अपने मन और दिल पर एक बोझ महसूस कर रही हूं, जो आप को हकीकत से वाकिफ कराने के बाद ही हलका हो सकता है.’’

‘‘किस बोझ की बात कर रही हो तुम? देखो, तुम अपनेआप को संभालो, और जो कुछ भी कहना चाहती हो, खुल कर कहो. आज से हम नया जीवन शुरू करने जा रहे हैं और ऐसे में यदि तुम किसी भी बात को मन में रख कर दुखी होती रहोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘साकेत, मैं ने आप से अपनी जिंदगी से जुड़ा एक गहरा राज छिपा कर रखा है और यह छल नहीं तो और क्या है?’’ फिर वह अभिजीत और अपने रिश्ते से जुड़ी हर बात साकेत को बताती चली गई.

‘‘साकेत, मैं आप को वचन देती हूं कि मैं अपनी ओर से आप को शिकायत का कोई भी मौका नहीं दूंगी,’’ अपनी बात खत्म करने के बाद भी वह रो रही थी.

‘‘गलत बात है श्री, आज का यह विशेष अवसर और उस का हर पल, हमारी जिंदगी में पहली और आखिरी बार आया है. क्या इन अद्भुत पलों का स्वागत आंसुओं से करोगी?’’ साकेत ने प्यार से उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘रही बात तुम्हारे और अभिजीत के प्रेम की तो वह तुम्हारा अतीत था और अतीत की धूल को उड़ा कर अपने वर्तमान को मैला करने में मैं विश्वास नहीं रखता…भूल जाओ सबकुछ…’’

ये भी पढ़ें- चौथापन

वह रात उन की जिंदगी में अपने साथ ढेर सारा प्यार और खुशियां लिए आई. साकेत ने उसे इतना प्यार दिया कि उस का सारा डर, घबराहट, कमजोर पड़ता हुआ आत्मविश्वास…उस प्यार की बाढ़ में तिनकातिनका बन कर बह गया.

वसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त वेदश्री के जीवन में एक कभी न खत्म होने वाली वसंत को साथ ले आया जिस ने उस के जीवन को भी फूलों की तरह रंगीन बना दिया क्योंकि साकेत एक अच्छे पति होने के साथ ही एक आदर्श जीवनसाथी भी साबित हुए.

पहले दिन से ही श्री ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा घर के सभी सदस्यों को अपना बना लिया. समय के पंखों पर सवार दिन महीनों में और महीने सालों में तबदील होते गए. 5 साल यों गुजर गए मानो 5 दिन हुए हों. इन 5 सालों में वेदश्री ने जुड़वां बेटियां ऋचा एवं तान्या तथा उस के बाद रोहन को जन्म दिया. ऋचा व तान्या 4 वर्ष की हो चली थीं और रोहन अभी 3 महीने का ही था. साकेत का प्यार, 3 बच्चों का स्नेह और परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा, यही उस के जीवन की सार्थकता के प्रतीक थे.

साकेत की दादी दुर्गा मां सुबह जल्दी उठ जातीं. उन के स्नान से ले कर पूजाघर में जाने तक सभी तैयारियों में श्री का सुबह का वक्त कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता. उस के बाद मांबाबूजी, साकेत तथा भैयाभाभी बारीबारी उठ कर तैयार होते. फिर अनिकेत और आस्था की बारी आती. सभी के नहाधो कर अपनेअपने कामों में लग जाने के बाद श्री अपना भी काम पूरा कर के दुर्गा मां की सेवा में लग जाती.

अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’

आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.

ये भी पढ़ेंइक विश्वास था

वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.

बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’

सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.

‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.

‘‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.

‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.

‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’

‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.

‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.

‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.

ये भी पढ़ें-

घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.

उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.

अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.

अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.

श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.

साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’

‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.

‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’

‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.

‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’

ये भी पढ़ें- विश्वासघात

श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.

साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.

‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’

आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.

‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.

‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’

‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’

श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.

सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…

‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें