एक रात की उजास

शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

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वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

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किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

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उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

मेरे घर के सामने

मेरे घर के सामने एक कम्युनिटी हाल है, या अगर यों कहें कि कम्युनिटी हाल के सामने मेरा घर है तो भी घर की भौगोलिक स्थिति में कोई अंतर नहीं आएगा. कम्युनिटी हाल के सामने मेरा घर होना ही मेरी सब से बड़ी मुसीबत है. इस कम्युनिटी हाल में आएदिन ब्याहशादी, अन्य समारोह और पार्टियां आयोजित होती रहती हैं.

पर एक मुसीबत और भी है, वह यह कि मेरे घर के आंगन में एक आम का पेड़ भी है. बस, यों ही समझिए कि करेला और नीम चढ़ा जैसी स्थिति है. शुभकार्य हो और उस में आम के पत्तों का तोरण न बांधा जाए ऐसा हो ही नहीं सकता. कम्युनिटी हाल के सामने घर के आंगन में प्रवेशद्वार पर ही आम का पेड़ हो, इस का दर्द सिर्फ वही भुक्तभोगी जान सकता है जिस का घर कम्युनिटी हाल के सामने हो.

जैसे ही मेजबान कम्युनिटी हाल किराए पर ले कर अपना मंगलकार्य शुरू करता है, उस के कुछ देर बाद ही प्रभात वेला में मेरे दरवाजे की घंटी बजती है. संपन्न घर के कोई सज्जन या सजनी विनम्रता से पूछते हैं, ‘‘आप को कष्ट दिया. कुछ आम के पत्ते मिल सकेंगे क्या? बेटी की शादी है, मंडप में तोरण बांधना है. और सब सामान तो ले आए, पर देखिए, कैसे भुलक्कड़ हैं हम कि आम के पत्ते तो मंगाना ही भूल गए.’’

शायद उन्हें आम का पेड़ देख कर ही आम के पत्तों का तोरण बांधने की सूझती है. इनकार कैसे करना चाहिए, यह कला मुझे आज तक नहीं आई. हर बार यही होता है कि जरूरत से ज्यादा पत्ते तोड़ लिए जाते हैं. इन में से कुछ पत्ते मेरे साफसुथरे आंगन में इधरउधर बिखर कर बेमौसमी पतझड़ का आनंद देते हैं और कुछ पत्ते मेरे घर से कम्युनिटी हाल तक ले जाने में सड़क पर लावारिस से गिरते जाते हैं. जिन के घर विवाह हो रहा है, उन को इस की कोई चिंता नहीं होती. पर मुझे तो ऐसा महसूस होता है जैसे कोई मेरा रोमरोम मुझ से खींच कर ले जा रहा है. पर अपना यह दर्द मैं किस से कहूं? कैसे कहूं?

और यह तो इस दर्द की शुरुआत है. उस के बाद बड़ी देर तक ‘‘हैलो, माइक टेस्टिंग, हैलो’’ की मधुर ध्वनि के बाद फिल्मी गीतों के रिकार्ड पूरे जोर से बजने शुरू हो जाते हैं. उस पर तुर्रा यह कि माइक्रोफोन के भोंपू का मुंह हमेशा मेरे घर की ओर ही रहता है. ऐसा लगता है जैसे कि यह बहरों की बस्ती है. अगर धीमी आवाज में रिकार्ड बजता रहे तो हमें कैसे मालूम पड़ेगा कि सामने कम्युनिटी हाल में आज विवाह समारोह है? इस के बाद हमें दिन भर घर के अंदर भी एकदूसरे से चीख- चिल्ला कर बातचीत करनी पड़ती है, तभी एकदूसरे को सुनाई पड़ेगा.

इन रिकार्डों ने मेरे बच्चों की पढ़ाई का रिकार्ड बिगाड़ कर रख दिया है. धूमधाम और दिखावे के लिए ये लोग खूब खर्च करते हैं. पर एक बचत वे अवश्य करते हैं. पता चला कि इन सब के बिजली वाले इतने चतुर हैं कि इन की बचत के लिए बिजली का कनेक्शन गली के खंभे से ही लेते हैं ताकि कम्युनिटी हाल के मीटर के अनुसार बिजली का खर्च उन्हें नाममात्र ही अदा करना पड़े.

फिर आती है नगरनिगम की पानी की गाड़ी, जो ठीक मेरे घर के सामने आ कर खड़ी हो जाती है. इस गाड़ी से पानी अंदर पंडाल में पहुंचाने के प्रयत्न में जो पानी बहता है, वह ढलान के कारण मेरे आंगन में इकट्ठा हो जाता है. बस, सावनभादों सा सुहावना कीचड़भरा वातावरण बन जाता है. और फिर इस कीचड़ से सने पैरों के घर में आने के कारण घर का हर सदस्य मेरे कोप का भाजन बनता है. अकसर गृहयुद्ध छिड़ने की नौबत आ जाती है.

सामने शामियाने में जब भट्ठियां सुलगाई जाती हैं तब उन का धुआं हवा के बहाव के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह सीधा मेरे ही घर का रुख करता है. हवा भी मुझ से ऐसे समय न जाने किस जनम का बैर निकालती है. वनस्पति घी की मिठाई की खुशबू और तरहतरह के मसालों की महक से घर के सारे सदस्यों के नथने फड़क उठते हैं. परिणामस्वरूप सब की पाचन प्रणाली में खलबली मच जाती है.

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आएदिन इस कम्युनिटी हाल में होने वाले ऐसे भव्य भोजों की खुशबू के कारण अब मेरे परिवार को मेरे हाथों की बनाई रूखीसूखी गले नहीं उतरती. रोज यही उलाहना सुनने को मिलता है, ‘‘क्या तुम ऐसा खाना नहीं बना सकतीं जैसा कम्युनिटी हाल में बनता है? कब तक ऐसा घासफूस जैसा खाना खिलाती रहोगी?’’ अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि सामने कम्युनिटी हाल में होने वाले समारोहों को बंद करा दूं या यह घर ही बदल लूं?

इस तरह सारा दिन तेज स्वर में बज रहे फूहड़ फिल्मी रिकार्डों से कान पकने लगते हैं और पकवानों की खुशबू से नाक फड़कती है. जैसेतैसे दिन गुजर जाता है. शाम को बरात आने का (यदि लड़की की शादी हो तो) या बरात विदा होने का (यदि लड़के की शादी हो तो) समय होता है, दिन भर में दिमाग की नसें तड़तड़ाने और कानों की फजीहत करने में जो कसर रह गई थी, उसे ये बैंडबाजे वाले पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. ऐन दरवाजे पर डटे हुए बैंडमास्टर अपनी सारी ताकत लगा कर बैंड बजा रहे हैं.

कुछ ही देर में कुछ नई उम्र की फसलें लहलहा कर डिस्को और भंगड़ा का मिलाजुला नृत्य करने लगती हैं. फिर तो ऐसा लगने लगता है जैसे बैंड वालों और नृत्य करने वालों के बीच कोई प्रतियोगिता चल रही है. नोट पर नोट न्योछावर होते हैं. यह क्रम बड़ी देर तक चलता है. मैं यही सोचती हूं कि कितना अच्छा होता अगर ये कान कहीं गिरवी रखे जा सकते. मैं अपने डाक्टर को कैसे बताऊं कि मेरे रक्तचाप बढ़ने का कारण मेरा मोटापा नहीं, बल्कि मेरे घर के सामने कम्युनिटी हाल का होना है. पर मैं जानती हूं कि इस तथ्य पर कोई विश्वास नहीं करेगा.

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बड़ी मुश्किल से बरात आगे रेंगती है. गाढ़े मेकअप में सजीसंवरी कुंआरियों और सुहागनों की फैशन परेड और उन के चमकीले और भड़कीले गहनों व कपड़ों की नुमाइश देख कर मेरी पत्नी के हृदय पर सांप तो क्या अजगर लोटने लगता है. हाय, कित्ती सुंदरसुंदर साडि़यां हैं सब के पास, नए से नए फैशन की. अब की बार पति से ऐसी साड़ी की फरमाइश जरूर करूंगी, चाहे जो भी हो जाए. और देखो तो सही सब की सब गहनों से कैसी लदी हुई हैं.

मेरी दूरबीन जैसी आंखें एकएक के गहनों और कपड़ों की बारीकियां परखने लगती हैं. उस कांजीवरम साड़ी पर मोतियों का सेट कितना अच्छा लग रहा है. उस राजस्थानी घाघरा चोली पर यह सतलड़ी सोने का हार कितना फब रहा है. और झीनीझीनी शिफान की साड़ी पर हीरों का सेट पहने वह महिला तो बिलकुल रजवाड़ों के परिवार की सी लग रही है. पर कौन जाने ये हीरे असली हैं या नकली.

इन बरातनियों के गहनों और कपड़ों में उलझी हुई मैं बड़ी देर तक अपने होश खोए रहती हूं. मेरे घर के सामने कम्युनिटी हाल होने का यह सब से हृदयविदारक पहलू है. जैसेजैसे बरात आगे बढ़ती है, देसीविदेशी परफ्यूम की झीनीझीनी लपटें आआ कर मेरी खिड़की से टकराने लगती हैं और इस खुशबू में रचबस कर मैं एकदूसरे ही लोक में पहुंच जाती हूं.

बरात आ जाने के बाद तो कम्युनिटी हाल में चहलपहल, दौड़भाग तथा चीखपुकार और बढ़ जाती है. उपहारों के पैकेट थामे, सजेसंवरे दंपती एक के बाद एक चले आते हैं. उन के स्कूटर, मोटर आदि मेरे घर के सामने ही खड़े किए जाते हैं. घर में आनेजाने के लिए मार्ग बंद हो जाता है. और मेरा घर किसी टापू सा लगने लगता है.

कुछ जोड़े ऐसे भी हैं जिन्हें मैं ने इस कम्युनिटी हाल में होने वाले हर समारोह में शामिल होते देखा है. वे इन समारोहों में आमंत्रित रहते हैं या नहीं, पर उन के हाथों में एक लिफाफा अवश्य रहता है. वे इस लिफाफे को वरवधू को थमाते हैं या नहीं, यह तो वे ही जानें. मैं तो बस, इतना जानती हूं कि वे हमेशा तृप्त हो कर डकार लेते हुए रूमाल से मुंह पोंछते बाहर निकलते हैं.

लिफाफे में 11 रुपए रख कर, सूट पहन कर, सजसंवर कर किसी भी विवाह समारोह में जा कर छक कर भोजन कर के आना तो किसी होटल में जा कर भोजन करने से काफी सस्ता पड़ता है. कन्या पक्ष वाला यह समझता है कि बरातियों में से कोई है और वर पक्ष समझता है कि यह कन्या पक्ष का आमंत्रित है. ऐसे में उन्हें कोई यह पूछने नहीं आता कि ‘‘श्रीमान आप यहां कैसे पधारे?’’

मेरे घर की ऊपरी मंजिल से इस कम्युनिटी हाल का पिछला दरवाजा बहुत अच्छी तरह दिखाई देता है. वहां का आलम कुछ निराला ही रहता है. जैसे मिठाई देखते ही उस पर मक्खियां भिनभिनाने लगती हैं, वैसे ही कहीं शादीब्याह के समारोह होते देख मांगने वाले, परोसा लेने वाले पहले से ही इकट्ठे हो जाते हैं. इन के साथ ही गाय, सूअर, कुत्ते आदि भी अपनी क्षुधा शांति के लिए पिछले दरवाजे पर ऐसे इकट्ठे होते हैं मानो उन सब का सम्मेलन हो रहा हो.

हर पंगत के उठने के बाद जब पत्तलदोनों का ढेर पिछवाड़े फेंका जाता है, उस के बाद वहां इनसान और जानवर के बीच जूठी पत्तलों के लिए हाथापाई और छीनाझपटी का जो दृश्य सामने आता है उसे देख कर इनसानियत और न्याय पर से विश्वास उठ जाता है.

यह दृश्य देखे बगैर कोई विश्वास नहीं कर सकता कि लोग जूठन पर भी कितनी बुरी तरह टूट सकते हैं. उस के लिए मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं. गाय की पूंछ मरोड़ कर या उसे सींगों से धकिया कर और कुत्तों को लतिया कर उन के मुंहमारी हुई जूठी पत्तलों में से खाना बटोर कर अपनी टोकरी में रखने में इनसान को कोई हिचक नहीं, कोई शर्म नहीं. घर ले जा कर शायद वह इसी जूठन को अपने परिवारजनों के साथ बैठ कर चटखारे ले कर खाएगा.

गृहस्वामी या ब्याहघर का प्रमुख केवल 2 ही जगह मिल सकता है, या तो प्रमुख द्वार पर, जहां वह सजधज कर हर आमंत्रित का स्वागत करता है या पिछवाड़े के दरवाजे पर जहां वह हाथों में मोटा डंडा लिए जूठन पर मंडराते जानवरों और इनसानों को एकसाथ धकेलता है. साथ ही जूते, हलवाई व उस के साथ आए कारीगरों पर निगाह रखता है.

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जैसेजैसे विवाह समारोह यौवन पर आता है कुछ बराती सुरा की बोतलें खोलने के लिए लालायित हो जाते हैं. बरातों में जाना और पीना तो आजकल एक तरह से विवाह का आवश्यक अंग माना जाने लगा है. कुछ ब्याहघरों में, जहां सुरापान की अनुमति नहीं मिलती है, उन के बराती अंदर कम्युनिटी हाल में बोतलें ले कर मेरे ही घर की ओट ले कर नीम अंधेरे में बैठ कर यह शुभकार्य संपन्न करते हैं.

मैं जानती हूं कि जैसेजैसे यह सुरा अपना रंग दिखाएगी, वैसेवैसे उन की वाणी मुखर होती जाएगी. उन की वाणी मुखर हो उस के पहले ही मुझे अपनी खिड़कियां और दरवाजे सब बंद कर के अंदर दुबक जाना पड़ता है.

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वह जमाना गया, जब बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना हुआ करता था. परंतु मेरे घर की तरह ही जिस का घर कम्युनिटी हाल के सामने हो, वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला कैसे बन सकता है? वैसे विवाह संपन्न होने के बाद जब घरबाहर के सब लोग विदा हो जाते हैं, तो वे कभी सफाई करवाने का कष्ट नहीं करते. उस से जो सड़ांध उठती है, उस से अब्दुल्ला तो क्या हर अड़ोसीपड़ोसी दीवाना हो जाता है.

दूसरे दिन ब्याह निबटा कर जब सारा कारवां गुजर जाता है, तब मैं भी ऐसी ही शांति की सांस लेती हूं जैसे कि मैं अपनी ही बेटी का ब्याह कर के निवृत्त हुई हूं.

सारे जहां से अच्छा

पहला भाग, दृश्य-1

सुबह  के 9 बजे थे. टोक्यो स्थित एक जापानी बैंक की शानदार  इमारत में कुछ अमेरिकी डालर खरीदने की नीयत से मैं ने प्रवेश किया. उस बैंक की अंदरूनी भव्य साजसज्जा देख कर मैं एक पल को चकरा गया. ऐसा लगा मानो मैं किसी गलत जगह पर आ गया हूं लेकिन जब काउंटरों के पीछे दमकते चेहरों ने एक स्वर में ‘स्वागत है इस बैंक में आप का स्वागत है’ की मधुर स्वर लहरियां छेड़ीं तो लगा कि जगह सही है.

लगभग 2 दर्जन से कम लोगों का स्टाफ था. शायद सभी ने अपनीअपनी कुरसी पर बैठेबैठे ही मेरा स्वागत कर दिया था. तभी एक सज्जन बेहद शालीनता से मेरे पास आए और अपनी कमर व सिर को 900 का कोण बनाने के बाद कुछ बोले.

उन की ओर देख कर मैं ने कहा कि जापान में मैं बिलकुल नया हूं अत: जापानी भाषा का ज्ञान न के बराबर है. मैं ने अंगरेजी में कहा कि मुझे कुछ डालर खरीदने हैं.

मुझे अंगरेजी में बोलता देख कर वह कुछ शर्मिंदा हुए और उन्होंने काउंटर पर बैठी लड़की को कुछ इशारा किया. फिर उस लड़की ने आगे वाले को इशारा किया और इस तरह वह इशारा एक मेज से दूसरी मेज तक सरकता हुआ अपनी मंजिल यानी बिलकुल कोने वाली मेज तक पहुंचा.

मैं ने गौर किया, वह एक खूबसूरत लड़की थी. उस ने तुरंत अपने कंप्यूटर की फाइल बंद की और तेज कदमों से चलती हुई मेरे पास आई और स्वर में मधुरता घोलते हुए बोली, ‘‘व्हाट कैन आई डू फार यू, सर?’’

उसे अंगरेजी बोलता देख मुझे अपनी मुश्किल आसान लगी. मेरी समस्या सुन कर वह मुझे सामने लगी ‘करेंसी एक्सचेंज मशीन’ के पास ले गई. फिर उस के डायरेक्शन में मैं ने अपनी जरूरत के मुताबिक जापानी येन मशीन में डाले, जो चंद लम्हों में ही उस दिन के एक्सचेंज रेट के हिसाब से डालर में बदल कर मशीन ने बाहर निकाल दिए.

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लड़की ने पुन: पूरे आदर के साथ मेरे आने का आभार प्रकट किया. जापानी एटीकेट में पूरी दुनिया में अव्वल नंबर पर हैं, यह सुना तो था, किंतु आज रूबरू हो कर मंत्रमुग्ध हो मैं ने विदा ली.

पहला भाग, दृश्य-2

सुबह के 10 बजे थे. अपने भारत महान के एक कसबे में स्थित बैंक के भग्नावशेष में अपने काम के सिलसिले में मैं प्रवेश करता हूं. गेट पर स्टूल डाल कर 12 बोर की पिछली सदी की दोनाली बंदूक लिए बैठे घनी मूंछों वाले गार्ड ने मुझे घूर कर देखा. शायद उस को मेरा इतनी सुबह आना नागवार गुजरा था.

लोहे के जंग लगे चैनल गेट से थोड़ा तिरछा हो कर मैं अंदर घुसा तो देखा, सफाई वाला झाड़ू लिए कूड़ेकरकट के ढेर पर पिला पड़ा है. हालांकि उस ने कनखियों से मुझे देख लिया था मगर अनदेखा करते हुए ऐसी झाड़ू मारी कि तमाम जहां की गर्द मेरे पूरे वजूद में समा गई. उस पर भी बगैर पश्चात्ताप के वह निर्विकार भाव से अपना काम करता रहा.

मैं ने हाल में नजर दौड़ाई तो देखा, सभी बाबू अपनीअपनी कुरसियां घुमा कर उस दिन की खास खबर पर जम कर चर्चा कर रहे थे. (मैं तब तक जापान नहीं गया था इसलिए मुझे सबकुछ सामान्य लगा था.)

धीरेधीरे उन के बीच की बहस ज्यादा ही गरम हो चली और शोरगुल ने जब भद्दा रूप ले लिया तब बगल के कमरे से एक भद्र पुरुष अवतरित हुए और विनम्र स्वर में सब को शांत करा कर अपनीअपनी मेजों पर भेज दिया.

मैं ने अपना काम करा लेने की नीयत से अपनी काम वाली मेज पर निगाह मारी तो वह खाली थी, यानी मेरे परिचित केशव बाबू हमेशा की तरह आज भी लेट थे. मैं ने उन के बगल वाले बाबू से बेहद नरमी से पूछा, ‘‘केशव बाबू नहीं आए हैं क्या?’’

वह पूरा भन्नाया हुआ लग रहा था. एक पल के लिए मुझे घूरा फिर जोर से फाइल पर हाथ पटकते हुए बोला, ‘‘आए होते तो दिखाई नहीं देते क्या?’’

मुझे लगा, रात को बीवी से हुए झगड़े की पूरी खुन्नस वह मुझ पर निकाल रहा है. बहरहाल, उस का जवाब तर्कपूर्ण था सो मुझे भी अपने प्रश्न पर खीज हुई.

शर्मिंदगी से जब मेरा दम घुटा तो ताजा हवा के चक्कर में मैं बैंक से बाहर निकल आया. तभी दूर से केशव बाबू लुढ़कतेपढ़कते आते दिखाई पड़े. मुझे देख कर मुसकराए और चेहरे को  आसमान की ओर उठा कर गुड़गुड़ाते हुए बोले, ‘‘क्या हाल है?’’

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मैं समझ गया कि मुंह पान की पीक से भरा हुआ है सो सामान्य स्वर निकलना मुश्किल है.

कुशलक्षेम के बाद हम अंदर की ओर बढ़े, तो स्टूल पर बैठ कर ऊंघते हुए गार्ड के बगल में रखे हुए गमले पर केशव बाबू ने भच्च से पान की पीक उगल दी और हलके हो लिए.

अब आगे क्या था, केशव बाबू से समीपता के चलते मेरा काम घंटे भर में ही निबट गया. चूंकि 11 बज चुके थे सो बैंक का काम भी कहां तक न शुरू होता. कर्मचारी खिंचे हुए चेहरों के साथ अपनीअपनी फाइलों में व्यस्त हो गए.

दूसरा भाग, दृश्य-1

तकरीबन दोपहर के 12 बजे थे. टोक्यो स्थित एक पुलिस चौकी पर मैं सशरीर बैठा था. हुआ यह था कि आज सुबह एक टेलीफोन बूथ से फोन करने के बाद मैं अपना पर्स वहीं भूल गया. कुछ देर बाद जब वहां गया तो पर्स नहीं था. भारतीय व्यवस्था के अनुसार मुझे उस पर्स का मोह त्याग देना चाहिए था, किंतु एक दोस्त के जोर देने पर मैं ने कुछ कर गुजरने की ठानी और पुलिस के पास पहुंच गया.

ड्यूटी पर तैनात आफिसर ने मुझे बड़े ही आदर के साथ कुरसी पर बैठने को कहा और घटना की बाबत सवालात पूछे. (चूंकि अब मुझे जापान में कई साल हो गए हैं इसलिए भाषा की कोई समस्या नहीं है) उस ने पर्स का रंग, गायब होने का स्थान व समय, पर्स में क्याक्या रखा था आदि बातें विस्तार के साथ अपने पास नोट कर लीं. इस पूरी बातचीत के दौरान उस के शालीन व्यवहार से मैं बेहद प्रभावित हुआ. अंत में उस ने मेरा पता व फोन नंबर नोट कर के मुझे इस हिदायत के साथ विदा किया कि मैं आगे से अपने सामान का खयाल रखूं.

अगले दिन अप्रत्याशित रूप से उस ने फोन कर के मुझे बुलाया. थोड़ी ही देर में मैं वहां पहुंचा तो उस ने मेरा पर्स दराज से निकाल कर मेज पर रख दिया. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने बताया कि एक व्यक्ति को यह पर्स वहां पर मिला जिसे उस ने पास के पुलिस स्टेशन में जमा करा दिया था. आप की रिपोर्ट दर्ज होने के बाद यह पर्स यहां ट्रांसफर कर दिया गया है. अब आप इसे देख कर सुनिश्चित कर लें कि इस में सबकुछ सहीसलामत है या नहीं.

मैं ने पर्स खोल कर देखा तो मेरे तमाम कार्ड के अलावा करीब 22 हजार येन अनछुए पड़े हुए थे.

हद तो तब हो गई जब मेरे शुक्रिया अदा करने से पहले उस ने सिर झुका कर नम्र स्वर में कहा कि हम आप के किसी काम आ सके इस के लिए हम आप के आभारी हैं.

मैं ने चकित मन से विदा ली.

दूसरा भाग, दृश्य-2

शाम के 4 बजे का समय था. भारत महान के एक कसबे के पुलिस स्टेशन पर रिपोर्ट लिखाने पहुंचता हूं. क्योंकि कुछ देर पहले बाजार में मेरा पर्स कहीं गिर गया था. एक दोस्त के लाख मना करने के बाद भी मैं ने जापान के अनुभव का लाभ उठाने की ठानी और सीधा थाने पहुंच गया.

थाने में घुसते ही मुझे किसी की कातर चीखें सुनाई दीं. मैं ने देखा कि एक गरीब से दिखने वाले को 2 पुलिस वालों ने कस कर जकड़ रखा है और एक 6 फुट का खूब मोटा पुलिस वाला मोटी बेंत से उस की धुनाई कर रहा है. मैं ने इधरउधर निगाह दौड़ाई तो देखा 2 पुलिस वाले लुंगी और बनियान पहने खैनी ठोंक रहे थे और उस गरीब की चीखों का भरपूर आनंद ले रहे थे.

मैं ने संतरी से अपनी समस्या बताई तो उस ने पास पड़ी बेंच की ओर इशारा कर दिया और बोला कि बड़े साहब उस की तफ्तीश निबटा लें फिर आप का बयान लेंगे. चूंकि मैं भी अपना कुछ रुआब कायम करने के लिए ‘ले विस्ले’ का महंगा सूट और गुच्ची की नेकटाई पहन कर गया था सो टूटी बेंच पर बैठना उचित न समझा. संतरी को मेरी अवज्ञा रास न आई तो जरा तल्ख आवाज में बोला, ‘‘अरे, बैठ जाइए न, काहे सिर पर खड़े हैं?’’

मैं बैठ गया और सामान्य दिखने की कोशिश की मगर वहां का माहौल और बड़े साहब का भूगोल मुझे भीतर से भयभीत कर रहा था.

बहरहाल, अपनी कसरत से फारिग होने के बाद बड़े साहब उखड़ी सांसों के साथ कुरसी पर विराजे. मैं ने नजदीक जा कर नमस्कार किया और पास की खाली कुरसी पर बैठ गया.

बड़े साहब ने उल्लू जैसी आंखों से मुझे घूरा मगर गनीमत यह रही कि चुप रहे. मैं ने बात शुरू की, ‘‘देखिए, मैं एन.आर.आई. हूं और जापान से आया हूं. आज मेरा पर्स गायब हो गया है जिस की रिपोर्ट दर्ज करवाना चाहता हूं.’’

दर्द भरी मेरी छोटी सी दास्तान सुनने के बाद बड़े साहब ने मुझे घूरा, (मानो कहना चाहते हों कि जब पर्स ही नहीं है तो यहां आने की क्या जरूरत थी) फिर जोर से गुहार लगाई, ‘‘अरे, दीवानजी, यह बाबू साहब एन.आर.आई. हैं भाई, इन की रिपोर्ट लिख लीजिए.’’

दीवानजी अपने बस्ते के साथ तशरीफ लाए और मेरा बयान लेने लगे. इस दौरान बड़े साहब की नजरें मेरे सूट व नेकटाई पर पड़ीं और वह मुझ में कुछ दिलचस्पी लेते प्रतीत हो रहे थे. उन्होंने थोड़ा दोस्ताना लहजा अपनाते हुए कहा, ‘‘तो बाबू साहेब, आप जापान में बड़ा माल काटते होंगे?’’

उन के इस सवाल पर मैं ने मुसकरा भर दिया. इस के बाद बहुत देर तक जापान की बातें होती रहीं, चायसमोसे का भी दौर चल गया. वह भी काफी घुलमिल गए थे सो मैं भी काफी सामान्य महसूस कर रहा था.

अचानक बड़े साहब ने कहा, ‘‘आप की टाई खूबसूरत है, वहीं की होगी.’’ मैं ने हां में जवाब दिया. फिर बड़े साहब ने दीवानजी को कुछ इशारा किया और पुन: गरीब की तफ्तीश के लिए बेंत उठा कर खड़े हो गए. मैं ने भी उठ कर विदा लेनी चाही तो बोले, ‘‘अरे, आप तो बैठिए, दीवानजी से गपशप कीजिए, क्या जल्दी है.’’

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दीवानजी सुलझे हुए आदमी थे. तुरंत लाइन पर आ गए. बोले, ‘‘वो क्या है बाबू साहब कि आज विधायकजी के लड़के की शादी है. बड़े साहब भी इनवाइट हैं. अब देखिए न, उन के सूट के मैच की टाई हम ने पूरे बाजार में ढूंढ़ी मगर मिली नहीं. संयोगवश आप की टाई पूरी तरह से मैच कर रही है और वैसे भी आज पार्टी निबट जाए तो कल आ कर लेते जाइएगा. अब देखिए, बड़े साहब इतनी छोटी बात आप से तो कहेंगे नहीं, और अगर कहेंगे तो आप टाल थोड़ी पाएंगे.’’

दीवानजी के स्वर में अनुग्रह कम धमकी का पुट ज्यादा था. यह टाई मुझे बहुत अजीज थी. उधर गरीब की चीखों से पूरा अहाता गूंज रहा था.

मेरा दम घुटने लगा. मैं ने बगैर कुछ बोले टाई उतार कर मेज पर रख दी और बाहर निकल गया. बाहर नुक्कड़ पर पान वाले की दुकान पर रेडियो अपनी पूरी आवाज के साथ बज रहा था, ‘सारे जहां से अच्छा…’

उपहार

कांती द्वारा इनकार किए जाने पर रविकांत ने जीवनभर शादी न करने का फैसला किया था. शायद वह अपने इस प्रण पर अडिग भी रहते, यदि क्षमा उन की जिंदगी में न आती. आखिर कौन थी क्षमा, जिस ने रविकांत के वीरान जीवन में बहार ला दी थी?

अपने पहले एकतरफा प्रेम का प्रतिकार रविकांत केवल ‘न’ मेें ही पा सका. उस की कांती तो मांबाप के ढूंढ़े हुए लड़के आशुतोष के साथ विवाह कर जरमनी चली गई. वह बिखर गया. विवाह न करने की ठान ली. मांबाप अपने बेटे को कहतेसमझाते 4 साल के अंदर दिवंगत हो गए.

कांती के साथ कालिज में बिताए हुए दिनों की यादें भुलाए नहीं भूलती थीं. यह जानते हुए भी कि वह निर्मोही किसी और की हो कर दूर चली गई है वह अपने मन को उस से दूर नहीं कर पा रहा था. कालिज की 4 सालों की दोस्ती मेें वह उसे अपना दिल दे बैठा था. कई बार कोशिश करने के बाद रविकांत ने बड़ी कठिनाई से सकुचातेझिझकते एक दिन कांती से कहा था, ‘मैं तुम से प्रेम करने लगा हूं और तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में पा कर अपने को धन्य समझूंगा.’

जवाब में कांती ने कहा था, ‘रवि, मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं और इसी नाते से मैं तुम से मिलतीजुलती रही. मैं तुम से उस तरह का प्रेम नहीं करती हूं कि मैं तुम्हारी जीवनसंगिनी बनूं. रही विवाह की बात, तो मैं तुम्हें यह भी बता देती हूं कि मैं शादी तो अपने मांबाप की मर्जी और उन के ढूंढ़े हुए लड़के से ही करूंगी. अब चूंकि तुम्हारे विचार मेरे प्रति दोस्ती से बढ़ कर दूसरा रुख ले रहे हैं, इसलिए मेरा अनुरोध है कि तुम भविष्य में मुझ से मिलनाजुलना छोड़ दो और हम दोनों की दोस्ती को यहीं खत्म समझो.’

उस के बाद कांती फिर कभी रविकांत से नहीं मिली. रविकांत भी यह साहस नहीं कर सका कि उस के मातापिता से मिल कर कांती का हाथ उन से मांगता क्योेंकि उस आखिरी मुलाकात  के दिन उसे कांती की आंखों में प्यार तो दूर सहानुभूति तक नजर नहीं आई थी.

रविकांत ने खुद को प्रेम में असफल समझ कर जिंदगी को बेमानी, बेकार और बेरौनक मान लिया. ऐसे में अधिकतर लोग कठिनाइयों और असफलताओं से घबरा कर खुद को कमजोर समझ अपना आत्मविश्वास और उत्साह खो बैठते हैं.

रविकांत अब 50 पार कर चुके हैं. उन के कनपटी के बाल सफेद हो चुके हैं. आंखों पर चश्मा लग गया  है. इतने सालों तक एक ही कंपनी की सेवा में पूरी निष्ठा से लगे रहे तो अब वह जनरल मैनेजर बन गए हैं.

कंपनी से मिले हुए उन के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में कुछ दिन पहले ही शोभना नाम की एक महिला अपनी 24 साल की बेटी क्षमा के साथ किराए पर रहने के लिए आई.

क्षमा अपनी मां की ही तरह अत्यंत सुंदर और हंसमुख लड़की थी. वह जब भी रविकांत के सामने पड़ती ‘अंकल नमस्ते’ कहना और उन्हें एक मुसकराहट देना कभी नहीं भूलती. रविकांत भी ‘हैलो, कैसी हो बेटी’ कहते और उस के उत्तर में वह ‘थैंक यू’ कहती. क्षमा एम.एससी. कर के 2 वर्ष का कंप्यूटर कोर्स कर रही थी. इधर कई दिनों से रविकांत को न देख कर उस ने उन के नौकर से पूछा तो पता चला कि वह तो कई दिनों से बीमार हैं और नर्सिंग होम में भरती हैं. नौकर से नर्सिंग होम का पता पूछ कर क्षमा उसी शाम उन से मिलने नर्सिंग होम पहुंची.

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क्षमा को देख कर रविकांत बेहद खुश हुए पर क्षमा ने पहले तो इस बात का गुस्सा दिखाया कि इतने दिनों से बीमार होने पर भी उन्होंने उसे खबर क्यों नहीं दी. वह तो हमेशा की तरह यही सोचती रही कि आप कहीं ‘टूर’ पर गए होंगे. क्षमा की झिड़की वह चुपचाप सुनते रहे. मन में उन्हें अच्छा लगा. क्षमा काफी देर तक उन के पास बैठी उन का हालचाल पूछती रही.

रविकांत ने जब बताया कि अब वह ठीक हैं और कुछ ही दिनों में उन्हें नर्सिंग होम से छुट्टी मिल जाएगी तभी उस की प्रश्नावली रुकी. घर वापस लौटते समय वह उन्हें जल्दी से अच्छे होने की शुभकामना देना नहीं भूली.

क्षमा अब रोज शाम को रविकांत को देखने नर्सिंग होम जाती. रविकांत का भी मन बहल जाता था. वह बड़ी बेसब्री से उस के आने की प्रतीक्षा करते. उस के आने पर वे दोनों विभिन्न विषयों पर बहस करते और हंसते हुए बातचीत करते रहते. 2 घंटे कितनी जल्दी गुजर जाते पता ही नहीं लगता.

जिस दिन रविकांत को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली, क्षमा उन्हें अपने साथ ले कर उन के फ्लैट पर आई. अगले दिन रविकांत अपनी ड्यूटी पर जाने लगे तो क्षमा ने यह कह कर जाने नहीं दिया कि आप आज आराम करें और फिर कल तरोताजा हो कर काम पर जाएं.

अगले दिन शाम को जब रविकांत देर से वापस लौटे तो उन के आने की आहट सुन उस ने दरवाजा खोला. नमस्ते की. साथ ही देर करने का उलाहना भी दिया.

सप्ताह में 1-2 बार क्षमा उन के बुलाने पर या खुद ही उन के फ्लैट में जा कर घंटे डेढ़ घंटे गप लड़ाती, नौकर थोड़ी देर में चाय दे जाता. चाय की चुस्कियां लेते हुए वह अपनी बातें चालू रखते जो अकसर अन्य विषयों से सिमट कर अब कालिज, आफिस, घरेलू और निजी बातों पर आ जाती थीं.

क्षमा ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, आप अकेले क्यों हैं? आप ने शादी क्यों नहीं की? आप को साथी की कमी महसूस नहीं होती क्या? आप को अकेले घर काटने को नहीं दौड़ता? नौकर के हाथ का खाना खातेखाते आप का जी नहीं ऊबता?’’

रविकांत ने अपने पिछले प्रेम का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘क्षमा, हम सब नियति के हाथों की कठपुतली हैं जिसे वह जैसा चाहती है नचाती है. अकेलापन तो मुझे भी बहुत काटता है पर मैं अपने आप को आफिस के काम में व्यस्त रख उसे भगाए रहता हूं. मुझे खुशी है कि अब मेरा कुछ समय तुम्हारे साथ हंसतेबोलते कट जाता है. तुम्हारे साथ बिताए ये क्षण मुझे अब भाने लगे हैं.’’

रविकांत की बीमारी को धीरेधीरे

1 वर्ष हो गया. इस बीच क्षमा ने अपनी मां से पूछ रविकांत को करीबकरीब हर माह 1-2 बार खाने पर बुलाया. रविकांत शोभनाजी से मिलने पर क्षमा की बड़ी प्रशंसा करते. उन की थोड़ीबहुत औपचारिक बातें भी होतीं. जिस दिन रविकांत खाने पर आने को होते उस दिन क्षमा बड़े उत्साह से घर ठीक करने और खाना बनाने में मां के साथ लग जाती. वह अकसर मां से रविकांत के गुणों और विशेषताओं पर चर्चा करती रहती. वे हांहूं कर उस की बातें सुनती रहतीं.

बेटी और पड़ोसी रविकांत की बढ़ती दोस्ती और मिलनाजुलना कुछ महीनों से शोभना के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था. क्षमा से इस बारे में कुछ न कह उन्होंने उस के विवाह के लिए प्रयत्न जोरों से शुरू कर दिए. उन की सहेली रमा का बेटा रौनक इन दिनों आस्ट्रेलिया से कुछ दिनों के लिए भारत आया हुआ था. क्षमा भी उस से बपचन से परिचित थी. शोभना ने रमा को क्षमा और रौनक के विवाह का सुझाव दिया तो वह अगले दिन शाम को अपने पति देवनाथ और बेटे रौनक के साथ मिलने आ गईं. शोभना और रमा के बीच कोई औपचारिकता तो थी नहीं सो उस ने उन्हें खाने के लिए रोक लिया.

भोजन के समय रमा ने सब के सामने क्षमा से सीधा प्रश्न कर दिया, ‘‘क्षमा बेटी, मेरा बेटा रौनक तुम्हें बचपन से पसंद करता है. यदि तुम्हें भी रौनक पसंद है तो तुम दोनों के विवाह से तुम्हारी मां और हमें बहुत खुशी होगी.’’

क्षमा पहले तो चुप रही पर रमा के बारबार आग्रह पर उस ने कहा, ‘‘आंटी, आप लोग हमारे बड़े हैं. मां जैसा कहेंगी मुझे मान्य होगा.’’

शोभना ने कहा, ‘‘क्षमा, रौनक सब प्रकार से तुम्हारे लिए उपयुक्त वर है. हमारे परिवारों के बीच संबंध भी मधुर हैं, इसलिए मैं चाहूंगी कि तुम और रौनक दोनों खाना खत्म करने के बाद बाहर लान में एकसाथ बैठ कर आपस में सलाह कर लो.’’

आपस में बातें कर के जब वे लौटे तो दोनों को खुश देख कर शोभना ने क्षमा को अंदर कमरे में ले जा कर उस से कहा, ‘‘तो फिर मैं बात पक्की कर दूं?’’

क्षमा के सकुचाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाते ही उन्होंने उस के माथे को चूम कर उसे आशीर्वाद दिया. वे दोनों मांबेटी तब डाइंगरूम में आ गईं. शगुन के रूप में शोभना ने 1 हजार रुपए रौनक के हाथ में रख दोनों को आशीर्वाद दिया और रमा से लिपट उसे और उस के पति को बधाई दी. रौनक के आस्ट्रेलिया लौटने से पहले ही विवाह संपन्न करने की बात भी अभिभावकों के बीच हो गई.

क्षमा, शोभना और उस के पति का पासपोर्ट जापान, हांगकांग और आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए पहले से ही बना हुआ था पर 3 वर्ष पहले क्षमा के पिता की अचानक मृत्यु हो जाने से वह प्रोग्राम कैंसिल हो गया था. यदि इस बीच क्षमा का वीसा बन गया तो वह भी रौनक के साथ आस्ट्रेलिया चली जाएगी नहीं तो रौनक 6 महीने बाद आ कर उसे ले जाएगा.

अगली शाम रविकांत से मिलने पर क्षमा ने उन्हें अपनी शादी के बारे में जब बताया तो उन्हें चुप और गंभीर देख वह बोली, ‘‘ऐसा लगता है अंकल कि आप को मेरे विवाह की बात सुन कर खुशी नहीं हुई.’’

रविकांत बोले, ‘‘तुम चली जाओगी तो मैं फिर अकेला हो जाऊंगा. मैं तो इन कुछ महीनों में ही तुम्हें अपने बहुत नजदीक समझने लगा था. पर यह तो मेरा स्वार्थ ही होगा, यदि मैं तुम्हारे विवाह से खुश न होऊं. मैं तो वर्षों से अकेले रहने का आदी हो गया हूं. मेरी बधाई स्वीकार करो.’’

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क्षमा इठलाते हुए बोली, ‘‘ऐसे नहीं, मैं तो आप से बहुत बड़ा उपहार भी लूंगी, तभी आप की बधाई स्वीकार करूंगी.’’

रविकांत ने कहा, ‘‘तुम जो भी चाहोगी, मैं तुम्हें दूंगा. तुम कहो तो, तुम क्या लेना चाहोगी. अपनी इतनी अच्छी प्रिय दोस्त के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘पहले वादा कीजिए कि आप मना नहीं करेंगे.’’

‘‘अरे, मना क्योें करूंगा. लो, वादा भी करता हूं.’’

क्षमा बोली, ‘‘अंकल, मेरे सामने एक बड़ी समस्या है मेरी मां, जिन्होंने मेरे लिए इतना कुछ किया है, मैं उन्हें अकेली छोड़ विदेश चली जाऊं, ऐसा मेरा मन नहीं मानता. मैं चाहती हूं कि आप  और मेरी मां, जो खुद भी एकाकी जीवन जी रही हैं, विवाह कर लें. आप दोनों को साथी मिल जाएगा. मैं मां को मना लूंगी. बस, आप हां कर दें.’’

रविकांत चुप रहे. कुछ देर के बाद क्षमा ने फिर कहा, ‘‘ठीक है, यदि आप तैयार नहीं हैं तो मैं अपने विवाह के लिए मना कर देती हूं. देखिए, मेरा विवाह अभी तय हुआ है, हुआ तो नहीं. मैं ने गलत सोचा था कि आप मेरे बहुत निकट हैं और मेरी भलाई के लिए मेरी भावनाओं को समझते हुए आप अपना दिया हुआ वादा निभाएंगे,’’ कहतेकहते क्षमा का गला रुंध गया.

रविकांत अपनी जगह से उठे. उन्होंने क्षमा के सिर पर हाथ रखा और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी बेटी की खुशी के लिए सबकुछ करूंगा. मैं तुम्हारे सुझाव से सहमत हूं.’’

क्षमा खुशी से उछल पड़ी और उन के गले से लिपट गई. क्षमा ने अपनी शादी से पहले उन दोनों के विवाह कर लेने की जिद पकड़ ली ताकि वे दोनों संयुक्त रूप से उस का कन्यादान कर सकें.

अगले सप्ताह ही रविकांत और शोभना का विवाह बड़े सादे ढंग से संपन्न हुआ और उस के 5 दिन बाद रौनक और क्षमा की शादी बड़ी धूमधाम से हुई.

पद्मिनी सिंह

 सरहद पार से

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

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‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

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डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

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‘‘तू होश में थी?’’

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

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अनमोल उपहार

कहानी- डा. निरूपमा राय

दीवार का सहारा ले कर खड़ी दादीमां थरथर कांप रही थीं. उन का चेहरा आंसुओं से भीगता जा रहा था. तभी वह बिलखबिलख कर रोने लगीं, ‘‘बस, यही दिन देखना बाकी रह गया था उफ, अब मैं क्या करूं? कैसे विश्वनाथ की नजरों का सामना करूं?’’

सहसा नेहा उठ कर उन के पास चली आई और बोली, ‘‘दादीमां, जो होना था हो गया. आप हिम्मत हार दोगी तो मेरा और विपुल का क्या होगा?’’

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दादीमां ने अपने बेटे विश्वनाथ की ओर देखा. वह कुरसी पर चुपचाप बैठा एकटक सामने जमीन पर पड़ी अपनी पत्नी गायत्री के मृत शरीर को देख रहा था.

आज सुबह ही तो इस घर में जैसे भूचाल आ गया था. रात को अच्छीभली सोई गायत्री सुबह बिस्तर पर मृत पाई गई थी. डाक्टर ने बताया कि दिल का दौरा पड़ा था जिस में उस की मौत हो गई. यह सुनने के बाद तो पूरे परिवार पर जैसे बिजली सी गिर पड़ी.

दादीमां तो जैसे संज्ञाशून्य सी हो गईं. इस उम्र में भी वह स्वस्थ हैं और उन की बहू महज 40 साल की उम्र में इस दुनिया से नाता तोड़ गई? पीड़ा से उन का दिल टुकड़ेटुकड़े हो रहा था.

नेहा और विपुल को सीने से सटाए दादीमां सोच रही थीं कि काश, विश्वनाथ भी उन की गोद में सिर रख कर अपनी पीड़ा का भार कुछ कम कर लेता. आखिर, वह उस की मां हैं.

सुबह के 11 बज रहे थे. पूरा घर लोगों से खचाखच भरा था. वह साफ देख रही थीं कि गायत्री को देख कर हर आने वाले की नजर उन्हीं के चेहरे पर अटक कर रह जाती है. और उन्हें लगता है जैसे सैकड़ों तीर एकसाथ उन की छाती में उतर गए हों.

‘‘बेचारी अम्मां, जीवन भर तो दुख ही भोगती आई हैं. अब बेटी जैसी बहू भी सामने से उठ गई,’’ पड़ोस की विमला चाची ने कहा.

विपुल की मामी दबे स्वर में बोलीं, ‘‘न जाने अम्मां कितनी उम्र ले कर आई हैं? इस उम्र में ऐसा स्वास्थ्य? एक हमारी दीदी थीं, ऐसे अचानक चली जाएंगी कभी सपने में भी हम ने नहीं सोचा था.’’

‘‘इतने दुख झेल कर भी अब तक अम्मां जीवित कैसे हैं, यही आश्चर्य है,’’ नेहा की छोटी मौसी निर्मला ने कहा. वह पास के ही महल्ले में रहती थीं. बहन की मौत की खबर सुन कर भागी चली आई थीं.

दादीमां आंखें बंद किए सब खामोशी से सुनती रहीं पर पास बैठी नेहा यह सबकुछ सुन कर खिन्न हो उठी और अपनी मौसी को टोकते हुए बोली, ‘‘आप लोग यह क्या कह रही हैं? क्या हक है आप लोगों को दादीमां को बेचारी और अभागी कहने का? उन्हें इस समय जितनी पीड़ा है, आप में से किसी को नहीं होगी.’’

‘‘नेहा, अभी ऐसी बातें करने का समय नहीं है. चुप रहो…’’ तभी विश्वनाथ का भारी स्वर कमरे में गूंज उठा.

गायत्री के क्रियाकर्म के बाद रिश्तेदार चले गए तो सारा घर खाली हो गया. गायत्री थी तो पता ही नहीं चलता था कि कैसे घर के सारे काम सही समय पर हो जाते हैं. उस के असमय चले जाने के बाद एक खालीपन का एहसास हर कोई मन में महसूस कर रहा था.

एक दिन सुबह नेहा चाय ले कर दादीमां के कमरे में आई तो देखा वे सो रही हैं.

‘‘दादीमां, उठिए, आज आप इतनी देर तक सोती रहीं?’’ नेहा ने उन के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘बस, उठ ही रही थी बिटिया,’’ और वह उठने का उपक्रम करने लगीं.

‘‘पर आप को तो तेज बुखार है. आप लेटे रहिए. मैं विपुल से दवा मंगवाती हूं,’’ कहती हुई नेहा कमरे से बाहर चली गई.

दादीमां यानी सरस्वती देवी की आंखें रहरह कर भर उठती थीं. बहू की मौत का सदमा उन्हें भीतर तक तोड़ गया था. गायत्री की वजह से ही तो उन्हें अपना बेटा, अपना परिवार वापस मिला था. जीवन भर अपनों से उपेक्षा की पीड़ा झेलने वाली सरस्वती देवी को आदर और प्रेम का स्नेहिल स्पर्श देने वाली उन की बहू गायत्री ही तो थी.

बिस्तर पर लेटी दादीमां अतीत की धुंध भरी गलियों में अनायास भागती चली गईं.

‘अम्मां, मनहूस किसे कहते हैं?’ 4 साल के विश्वनाथ ने पूछा तो सरस्वती चौंक पड़ी थी.

‘बूआ कहती हैं, तुम मनहूस हो, मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो मैं भी मर जाऊंगा,’ बेटे के मुंह से यह सब सुन कर सरस्वती जैसे संज्ञाशून्य सी हो गई और बेटे को सीने से लगा कर बोली, ‘बूआ झूठ बोलती हैं, विशू. तुम ही तो मेरा सबकुछ हो.’

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तभी सरस्वती की ननद कमला तेजी से कमरे में आई और उस की गोद से विश्वनाथ को छीन कर बोली, ‘मैं ने कोई झूठ नहीं बोला. तुम वास्तव में मनहूस हो. शादी के साल भर बाद ही मेरा जवान भाई चल बसा. अब यह इस खानदान का अकेला वारिस है. मैं इस पर तुम्हारी मनहूस छाया नहीं पड़ने दूंगी.’

‘पर दीदी, मैं जो नीरस और बेरंग जीवन जी रही हूं, उस की पीड़ा खुद मैं ही समझ सकती हूं,’ सरस्वती फूटफूट कर रो पड़ी थी.

‘क्यों उस मनहूस से बहस कर रही है, बेटी?’ आंगन से विशू की दादी बोलीं, ‘विशू को ले कर बाहर आ जा. उस का दूध ठंडा हो रहा है.’

बूआ गोद में विशू को उठाए कमरे से बाहर चली गईं.

सरस्वती का मन पीड़ा से फटा जा रहा था कि जिस वेदना से मैं दोचार हुई हूं उसे ये लोग क्या समझेंगे? पिता की मौत के 5 महीने बाद विश्वनाथ पैदा हुआ था. बेटे को सीने से लगाते ही वह अपने पिछले सारे दुख क्षण भर के लिए भूल गई थी.

सरस्वती की सास उस वक्त भी ताना देने से नहीं चूकी थीं कि चलो अच्छा हुआ, जो बेटा हुआ, मैं तो डर रही थी कि कहीं यह मनहूस बेटी को जन्म दे कर खानदान का नामोनिशान न मिटा डाले.

सरस्वती के लिए वह क्षण जानलेवा था जब उस की छाती से दूध नहीं उतरा. बच्चा गाय के दूध पर पलने लगा. उसे यह सोच कर अपना वजूद बेकार लगता कि मैं अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिला सकती.

कभीकभी सरस्वती सोच के अथाह सागर में डूब जाती. हां, मैं सच में मनहूस हूं. तभी तो जन्म देते ही मां मर गई. थोड़ी बड़ी हुई तो बड़ा भाई एक दुर्घटना में मारा गया. शादी हुई तो साल भर बाद पति की मृत्यु हो गई. बेटा हुआ तो वह भी अपना नहीं रहा. ऐसे में वह विह्वल हो कर रो पड़ती.

समय गुजरता रहा. बूआ और दादी लाड़लड़ाती हुई विश्वनाथ को खिलातीं- पिलातीं, जी भर कर बातें करतीं और वह मां हो कर दरवाजे की ओट से चुपचाप, अपलक बेटे का मुखड़ा निहारती रहती. छोटेछोटे सपनों के टूटने की चुभन मन को पीड़ा से तारतार कर देती. एक विवशता का एहसास सरस्वती के वजूद को हिला कर रख देता.

विश्वनाथ की बूआ कमला अपने परिवार के साथ शादी के बाद से ही मायके में रहती थीं. उन के पति ठेकेदारी करते थे. बूआ की 3 बेटियां थीं. इसलिए भी अब विश्वनाथ ही सब की आशाओं का केंद्र था. तेज दिमाग विश्वनाथ ने जिस दिन पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा पास की सारे घर में जैसे दीवाली का माहौल हो गया.

‘मैं जानती थी, मेरा विशू एक दिन सारे गांव का नाम रोशन करेगा. मां, तेरे पोते ने तो खानदान की इज्जत रख ली.’  विश्वनाथ की बूआ खुशी से बावली सी हो गई थीं. प्रसन्नता की उत्ताल तरंगों ने सरस्वती के मन को भी भावविभोर कर दिया था.

विश्वनाथ पहली पोस्टिंग पर जाने से पहले मां के पांव छूने आया था.

‘सुखी रहो, खुश रहो बेटा,’ सरस्वती ने कांपते स्वर में कहा था. बेटे के सिर पर हाथ फेरने की नाकाम कोशिश करते हुए उस ने मुट्ठी भींच ली थी. तभी बूआ की पुकार ‘जल्दी करो विशू, बस निकल जाएगी,’ सुन कर विश्वनाथ कमरे से बाहर निकल गया था.

समय अपनी गति से बीतता रहा. विशू की नौकरी लगे 2 वर्ष बीत चुके थे. उस की दादी का देहांत हो चुका था. अपनी तीनों फुफेरी बहनों की शादी उस ने खूब धूमधाम से अच्छे घरों में करवा दी थी. अब उस के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आ रहे थे.

एक शाम सरस्वती की ननद कमला एक लड़की की फोटो लिए उस के पास आई. उस ने हुलस कर बताया कि लड़की बहुत बड़े अफसर की इकलौती बेटी है. सुंदर, सुशील और बी.ए. पास है.

‘क्या यह विशू को पसंद है?’ सरस्वती ने पूछा.

‘विशू कहता है, बूआ तुम जिस लड़की को पसंद करोगी मैं उसी से शादी करूंगा,’ कमला ने गर्व के साथ सुनाया, तो सरस्वती के भीतर जैसे कुछ दरक सा गया.

धूमधाम से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. सरस्वती का भी जी चाहता था कि वह बहू के लिए गहनेकपड़े का चुनाव करने ननद के साथ बाजार जाए. पड़ोस की औरतों के साथ बैठ कर विवाह के मंगल गीत गाए. पर मन की साध अधूरी ही रह गई.

धूमधाम से शादी हुई और गायत्री ने दुलहन के रूप में इस घर में प्रवेश किया.

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गायत्री एक सुलझे विचारों वाली लड़की थी. 2-3 दिन में ही उसे महसूस हो गया कि उस की विधवा सास अपने ही घर में उपेक्षित जीवन जी रही हैं. घर में बूआ का राज चलता है. और उस की सास एक मूकदर्शक की तरह सबकुछ देखती रहती हैं.

उसे लगा कि उस का पति भी अपनी मां के साथ सहज व्यवहार नहीं करता. मांबेटे के बीच एक दूरी है, जो नहीं होनी चाहिए. एक शाम वह चाय ले कर सास के कमरे में गई तो देखा, वह बिस्तर पर बैठी न जाने किन खयालों में गुम थीं.

‘अम्मांजी, चाय पी लीजिए,’ गायत्री ने कहा तो सरस्वती चौंक पड़ी.

‘आओ, बहू, यहां बैठो मेरे पास,’ बहू को स्नेह से अपने पास बिठा कर सरस्वती ने पलंग के नीचे रखा संदूक खोला. लाल मखमल के डब्बे से एक जड़ाऊ हार निकाल कर बहू के हाथ में देते हुए बोली, ‘यह हार मेरे पिता ने मुझे दिया था. मुंह दिखाई के दिन नहीं दे पाई. आज रख लो बेटी.’

गायत्री ने सास के हाथ से हार ले कर गले में पहनना चाहा. तभी बूआ कमरे में चली आईं. बहू के हाथ से हार ले कर उसे वापस डब्बे में रखते हुए बोलीं, ‘तुम्हारी मत मारी गई है क्या भाभी? जिस हार को साल भर भी तुम पहन नहीं पाईं, उसे बहू को दे रही हो? इसे क्या गहनों की कमी है?’

सरस्वती जड़वत बैठी रह गई, पर गायत्री से रहा नहीं गया. उस ने टोकते हुए कहा, ‘बूआजी, अम्मां ने कितने प्यार से मुझे यह हार दिया है. मैं इसे जरूर पहनूंगी.’

सामने रखे डब्बे से हार निकाल कर गायत्री ने पहन लिया और सास के पांव छूते हुए बोली, ‘मैं कैसी लगती हूं, अम्मां?’

‘बहुत सुंदर बहू, जुगजुग जीयो, सदा खुश रहो,’ सरस्वती का कंठ भावातिरेक से भर आया था. पहली बार वह ननद के सामने सिर उठा पाई थी.

गायत्री ने मन ही मन ठान लिया था कि वह अपनी सास को पूरा आदर और प्रेम देगी. इसीलिए वह साए की तरह उन के साथ लगी रहती थी. धीरेधीरे 1 महीना गुजर गया, विश्वनाथ की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. जिस दिन दोनों को रामनगर लौटना था उस सुबह गायत्री ने पति से कहा, ‘अम्मां भी हमारे साथ चलेंगी.’

‘क्या तुम ने अम्मां से पूछा है?’ विश्वनाथ ने पूछा तो गायत्री दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ‘पूछना क्या है. क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम अम्मां की सेवा करें?’

‘अभी तुम्हारे खेलनेखाने के दिन हैं, बहू. हमारी चिंता छोड़ो. हम यहीं ठीक हैं. बाद में कभी अम्मां को ले जाना,’ बूआ ने टोका था.

‘बूआजी, मैं ने अपनी मां को नहीं देखा है,’ गायत्री बोली, ‘अम्मां की सेवा करूंगी, तो मन को अच्छा लगेगा.’

आखिर गायत्री के आगे बूआ की एक न चली और सरस्वती बेटेबहू के साथ रामनगर आ गई थी.

कुछ दिन बेहद ऊहापोह में बीते. जिस बेटे को बचपन से अपनी आंखों से दूर पाया था, उसे हर पल नजरों के सामने पा कर सरस्वती की ममता उद्वेलित हो उठती, पर मांबेटे के बीच बात नाममात्र को होती.

गायत्री मांबेटे के बीच फैली लंबी दूरी को कम करने का भरपूर प्रयास कर रही थी. एक सुबह नाश्ते की मेज पर अपनी मनपसंद भरवां कचौडि़यां देख कर विश्वनाथ खुश हो गया. एक टुकड़ा खा कर बोला, ‘सच, तुम्हारे हाथों में तो जादू है, गायत्री.’

‘यह जादू मां के हाथों का है. उन्होंने बड़े प्यार से आप के लिए बनाई है. जानते हैं, मैं तो मां के गुणों की कायल हो गई हूं. जितना शांत स्वभाव, उतने ही अच्छे विचार. मुझे तो ऐसा लगता है जैसे मेरी सगी मां लौट आई हों.’

धीरेधीरे विश्वनाथ का मौन टूटने लगा  अब वह यदाकदा मां और पत्नी के साथ बातचीत में भी शामिल होने लगा था. सरस्वती को लगने लगा कि जैसे उस की दुनिया वापस उस की मुट्ठी में लौटने लगी है.

समय पंख लगा कर उड़ने लगा. वैसे भी जब खुशियों के मधुर एहसास से मन भरा हुआ होता है तो समय हथेली पर रखी कपूर की टिकिया की तरह तेजी से उड़ जाता है. जिस दिन गायत्री ने लजाते हुए एक नए मेहमान के आने की सूचना दी, उस दिन सरस्वती की खुशी की इंतहा नहीं थी.

‘बेटी, तू ने तो मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’

‘अभी कहां, अम्मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन वास्तव में आप की मुराद पूरी होगी.’

गायत्री ने स्नेह से सास का हाथ दबाते हुए कहा तो सरस्वती की आंखें छलक आईं.

गायत्री ने कहा, ‘मन के बुरे नहीं हैं. न ही आप के प्रति गलत धारणा रखते हैं. पर बचपन से जो बातें कूटकूट कर उन के दिमाग में भर दी गई हैं उन का असर धीरेधीरे ही खत्म होगा न? बूआ का प्रभाव उन के मन पर बचपन से हावी रहा है. आज उन्हें इस बात का एहसास है कि उन्होंने आप का दिल दुखाया है.’

गायत्री के मुंह से यह सुन कर सरस्वती का चेहरा एक अनोखी आभा से चमक उठा था.

गायत्री की गोदभराई के दिन घर सारे नातेरिश्तेदारों से भरा हुआ था. गहनों और बनारसी साड़ी में सजी गायत्री बहुत सुंदर लग रही थी.

‘चलो, बहू, अपना आंचल फैलाओ. मैं तुम्हारी गोद भर दूं,’ बूआ ने मिठाई और फलों से भरा थाल संभालते हुए कहा.

‘रुकिए, बूआजी, बुरा मत मानिएगा. पर मेरी गोद सब से पहले अम्मां ही भरेंगी.’

‘यह तुम क्या कह रही हो, बहू? ये काम सुहागन औरतों को ही शोभा देता है और तुम्हारी सास तो…’ पड़ोस की विमला चाची ने टोका, तो कमला बूआ जोर से बोलीं, ‘रहने दो बहन, 4 अक्षर पढ़ कर आज की बहुएं ज्यादा बुद्धिमान हो गई हैं. अब शास्त्र व पुराण की बातें कौन मानता है?’

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‘जो शास्त्र व पुराण यह सिखाते हों कि एक स्त्री की अस्मिता कुछ भी नहीं और एक विधवा स्त्री मिट्टी के ढेले से ज्यादा अहमियत नहीं रखती, मैं ऐसे शास्त्रों और पुराणों को नहीं मानती. आइए, अम्मांजी, मेरी गोद भरिए.’

गायत्री का आत्मविश्वास से भरा स्वर कमरे में गूंज उठा. सरस्वती जैसे नींद से जागी. मन में एक अनजाना भय फिर दस्तक देने लगा.

‘नहीं बहू, बूआ ठीक कहती हैं,’ उस का कमजोर स्वर उभरा.

‘आइए, अम्मां, मेरी गोद पहले आप भरेंगी फिर कोई और.’

बहू की गोद भरते हुए सरस्वती की आंखें मानो पहाड़ से फूटते झरने का पर्याय बन गई थीं. रोमरोम से बहू के लिए आसीस का एहसास फूट रहा था.

निर्धारित समय पर विपुल का जन्म हुआ तो सरस्वती उसे गोद में समेट अतीत के सारे दुखों को भूल गई. विपुल में नन्हे विश्वनाथ की छवि देख कर वह प्रसन्नता से फूली नहीं समाती थी.

अपने बेटे के लिए जोजो अरमान संजोए थे, वह सारे अरमान पोते के लालनपालन में फलनेफूलने लगे. फिर 2 साल के बाद नेहा गायत्री की गोद में आ गई. सरस्वती की झोली खुशियों की असीम सौगात से भर उठी थी. गायत्री जैसी बहू पा कर वह निहाल हो उठी थी. विश्वनाथ और उस के बीच में तनी अदृश्य दीवार गायत्री के प्रयास से टूटने लगी थी. बेटे और मां के बीच का संकोच मिटने लगा था.

अब विश्वनाथ खुल कर मां के बनाए खाने की प्रशंसा करता. कभीकभी मनुहारपूर्वक कोई पकवान बनाने की जिद भी कर बैठता, तो सरस्वती की आंखें गायत्री को स्नेह से निहार, बरस पड़तीं. कौन से पुण्य किए थे जो ऐसी सुघड़ बहू मिली. अगर इस ने मेरा साथ नहीं दिया होता तो गांव के उसी अकेले कमरे में बेहद कष्टमय बुढ़ापा गुजारने पर मैं विवश हो जाती.

समय अपनी गति से बीतता रहा. 3 वर्ष पहले कमला बूआ की मृत्यु हो गई. विपुल ने इसी साल मैट्रिक की परीक्षा दी थी. और नेहा 8वीं कक्षा की होनहार छात्रा थी. दोनों बच्चों के प्राण तो बस, अपनी दादी में ही बसते थे.

गायत्री ने उन का दामन जमाने भर की खुशियों से भर दिया था और वही गायत्री इस तरह, अचानक उन्हें छोड़ गई? उन की सोच को एक झटका सा लगा.

‘‘दादीमां, दवा ले लीजिए,’’ पोती नेहा की आवाज से वह वर्तमान में लौटीं. उठने की कोशिश की पर बेहोशी की गर्त में समाती चली गईं.

नेहा की चीख सुन कर सब कमरे में भागे चले आए. विपुल दौड़ कर डाक्टर को बुला लाया. मां के सिरहाने बैठे विश्वनाथ की आंखें रहरह कर भीग उठती थीं.

‘‘इन्हें बहुत गहरा सदमा पहुंचा है, विश्वनाथ बाबू. इस उम्र में ऐसे सदमे से उबरना बहुत मुश्किल होता है. मैं कुछ दवाएं दे रहा हूं. देखिए, क्या होता है?’’

डाक्टर ने कहा तो विपुल और नेहा जोरजोर से रोने लगे.

‘‘दादीमां, तुम हमें छोड़ कर नहीं जा सकतीं. मां तुम्हारे ही भरोसे हमें छोड़ कर गई हैं,’’ नेहा के रुदन से सब की आंखें नम हो गई थीं.

4 दिन तक दादीमां नीम बेहोशी की हालत में पड़ी रहीं. 5वें दिन सुबह अचानक उन्हें होश आया. आंखें खोलीं और करवट बदलने का प्रयास किया तो हाथ किसी के सिर को छू गया. दादीमां ने चौंक कर देखा. उन के पलंग की पाटी से सिर टिकाए उन का बेटा गहरी नींद में सो रहा था. कुरसी पर अधलेटे विश्वनाथ का सिर मां के पैरों के पास था.

तभी नेहा कमरे में आ गई. दादी की आंखें खुली देख वह खुशी से चीख पड़ी, ‘‘पापा, दादीमां को होश आ गया.’’ विश्वनाथ चौंक कर उठ बैठे.

बेटे से नजर मिलते ही दादीमां का दिल फिर से धकधक करने लगा. मन की पीड़ा अधरों से फूट पड़ी.

‘‘मैं सच में आभागी हूं, बेटा. मनहूस हूं, तभी तो सोने जैसी बहू सामने से चली गई और मुझे देख, मैं फिर भी जिंदा बच गई. मेरे जैसे मनहूस लोगों को तो मौत भी नहीं आती.’’

‘‘नहीं मां, ऐसा मत कहो. तुम ऐसा कहोगी तो गायत्री की आत्मा को तकलीफ होगी. कोई इनसान मनहूस नहीं होता. मनहूस तो होती हैं वे रूढि़यां, सड़ीगली परंपराएं और शास्त्रपुराणों की थोथी अवधारणाएं जो स्त्री और पुरुष में भेद पैदा कर समाज में विष का पौधा बोती हैं. अब मुझे ही देख लो, गायत्री की मृत्यु के बाद किसी ने मुझे अभागा या बेचारा नहीं कहा.

‘‘अगर गायत्री की जगह मेरी मृत्यु हुई होती तो समाज उसे अभागी और बेचारी कह कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता.’’

दादीमां आंखें फाड़े अपने बेटे का यह नया रूप देख रही थीं. गायत्री जैसे पारस के स्पर्श से उन के बेटे की सोच भी कुंदन हो उठी थी.

विश्वनाथ अपनी रौ में कहे जा रहा था, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां. बचपन से ही मैं तुम्हारा प्यार पाने में असमर्थ रहा. अब तुम्हें हमारे लिए जीना होगा. मेरे लिए, विपुल के लिए और नेहा के लिए.’’

‘‘बेटा, आज मैं बहुत खुश हूं. अब अगर मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.’’

‘‘नहीं मां, अभी तुम्हें बहुत से काम करने हैं. विपुल और नेहा को बड़ा करना है, उन की शादियां करनी हैं और मुझे वह सारा प्यार देना है जिस से मैं वंचित रहा हूं,’’ विश्वनाथ बच्चे की तरह मां की गोद में सिर रख कर बोला.

सरस्वती देवी के कानों में बहू के कहे शब्द गूंज उठे थे.

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‘मां, जिस दिन आप का बेटा आप को वापस लौटा दूंगी, उस दिन आप के मन की मुराद पूरी होगी. आप के प्रति उन का पछतावे से भरा एहसास जल्दी ही असीम स्नेह और आदर में बदल जाएगा, देखिएगा.’

सरस्वती देवी ने स्नेह से बेटे को अपने अंक में समेट लिया. बहू द्वारा दिए गए इस अनमोल उपहार ने उन की शेष जिंदगी को प्राणवान कर दिया था.

शर्मनाक दलितों को सताने का जारी है सिलसिला

लेखक- शंभू शरण सत्यार्थी

जितेंद्र ऊंची जाति वालों के सामने कुरसी पर बैठ कर खाना खा रहा था. यह बात उन लोगों को पसंद नहीं आई और उस की कुरसी पर लात मार दी. इस दौरान जितेंद्र की थाली का भोजन उन लोगों के कपड़ों पर जा गिरा. इस बात पर उस की जम कर पिटाई कर दी गई जिस से उस की मौत हो गई.

मध्य प्रदेश के भिंड जिले के एंडोरी थाने के लोहरी गांव के 60 साला दलित कप्तान की मौत के बाद उस के परिवार वाले जब श्मशान घाट ले गए तो गांव के दबंगों ने उन्हें वहां से भगा दिया. मजबूर हो कर इन लोगों ने अपने घर के सामने कप्तान का दाह संस्कार किया.

उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के कोतवाली इलाके में एक शादी समारोह में फिल्टर जार वाला पानी मंगवाया गया. जब पानी का जार देने वाला आदमी वहां पहुंचा तो मालूम हुआ कि वह तो दलित है. इस से अगड़ों में पानी के अछूत होने का भयानक डर पैदा हो गया और उस जार वाले को काफी फजीहत झेलनी पड़ी.

इसी तरह जालौन जिले के तहत गिरथान गांव में चंदा इकट्ठा कर के भंडारे का आयोजन किया गया था, जिस में सभी जाति के लोगों ने सहयोग दिया था. भोज चल रहा था कि कुछ दलित नौजवान पूरी और खाने की दूसरी चीजें बांटने लगे. ऊंची जाति वालों ने इस का विरोध किया और खाना खाने से इनकार करते हुए दलितों को अलग बिठाने की मांग करने लगे.

दलितों ने इस का विरोध किया तो उन में झगड़ा हो गया. बाद में दबंगों ने फरमान जारी कर दिया कि दलितों का बहिष्कार किया जाए. इस फरमान को तोड़ने वाले पर 1,000 रुपए जुर्माने के साथ ही सरेआम 5 जूते भी मारे जाएंगे.

ये चंद उदाहरण हैं. देशभर में दलितों के साथ आज भी तरहतरह की सताने वाली घटनाएं घटती रहती हैं. देश के नेता जब बुलंद आवाज में दलितों की बात करते हैं तो लगता है कि समाज में बदलाव की बयार चल रही?है.

तसवीर कुछ इस अंदाज में पेश की जाती?है कि लगता है कि देश में जातिगत बराबरी आ रही है, पर सच तो यह है कि जातिवाद और छुआछूत ने 21वीं सदी में भी अपने पैर पसार रखे?हैं.

मध्य प्रदेश के मालवा जिले के माना गांव के चंदेर की बेटी की शादी थी. चंदेर ने बैंड पार्टी बुलवा ली थी. यह बात ऊंची जाति के लोगों को नागवार गुजरी. उन्होंने सामाजिक बहिष्कार करने की धमकी दी, फिर भी उन लोगों ने बैंडबाजा बजवाया और खुशियां मनाईं.

इस बात से नाराज हो कर ऊंची जाति के लोगों ने दलितों के कुएं में मिट्टी का तेल डाल दिया.

दलितों की जरूरत

ऊंची जाति के लोगों को बेगारी करने के लिए, बोझा ढोने के लिए, घर की साफसफाई करने के लिए, घर बनाने के लिए इन्हीं दलितों की जरूरत पड़ती है. लेकिन जब काम निकल जाता है तो वे लोग उन्हें भूल जाते हैं. वे कभी नहीं चाहते हैं कि दलितों की जिंदगी में भी सुधार हो.

उन्हें यह डर सताता रहता है कि अगर दलित उन की बराबरी में खड़े हो गए तो फिर जीहुजूरी और चाकरी कौन करेगा? लेकिन जब काम निकल जाता है तो ऊंची जाति वाले दलितों को दूध में गिरी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देते हैं.

शोषण और गैरबराबरी की वजह से बहुत से दलित ईसाई और बौद्ध धर्म अपना चुके हैं. दलितों का दूसरा धर्म स्वीकार करना भी इन ऊंची जाति वालों को काफी खलता है.

इज्जत से जीने का हक नहीं

हमारे देश में एक तरफ तो दलितों में चेतना बढ़ी है तो वहीं दूसरी तरफ दलितों पर जोरजुल्म की वारदातें भी लगातार जारी हैं. दलित भी पोंगापंथ से बाहर

नहीं निकल पा रहे हैं. इस देश में आज भी 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं. 57 फीसदी दलित कुपोषण के शिकार हैं. हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध होता है.

दुख की बात तो यह है कि आज भी 21वीं सदी में दलितों को इज्जत से जीने का हक नहीं मिल पाता है जिस के वे हकदार हैं.

इन की भूल क्या है

दलित लोगों में से कुछ निरंकारी, राधास्वामी, ईसाई, आर्य समाजी, कुछ कट्टर हिंदू, नकली शर्मा, चौहान, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी हैं. वे तकरीबन 1,108 जातियों में बंटे हुए हैं. ज्यादातर मामलों में दलित एकजुट हो कर आवाज नहीं उठाते हैं.

दलित भी इंसाफ मिलने की आस देवताओं से करते हैं. उन्हें पता नहीं है कि देवता खुद रिश्वतखोर हैं और ऊंची जाति वालों का यह शोषण करने का बहुत बड़ा हथियार हैं. दलित समाज अलगअलग खेमों में बंटा हुआ है और ये लोग अपनेअपने संगठन का झंडाडंडा उठा कर खुश हैं.

दलितों में भी जिन की हालत सुधर गई है, उन में से कुछ लोग अपनेआप को ऊंची जाति के बराबर का समझने की भूल कर बैठे हैं. बहुत से मामलों में ये दलित भी ऊंची जाति वालों का साथ देने लगते हैं. इन की हालत जितनी भी सुधर जाए, लेकिन ऊंची जाति के लोग उन्हें दलित और निचला ही समझते हैं.

दलितों पर हो रहे शोषण का विरोध एकजुट हो कर पूरी मुस्तैदी के साथ करना पड़ेगा, तभी उन पर हो रहा जोरजुल्म रुक पाएगा.

हैरानी की बात यह है कि अपनेआप को दलितों का नेता मानने वाले रामविलास पासवान और देश के दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी इस मसले पर चुप दिखाई देते हैं.               द्य

पहला-पहला प्यार भाग-2

लेखक-  शन्नो श्रीवास्तव

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

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जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

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कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

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बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

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मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

 

पहला-पहला प्यार

लेखक- शन्नो श्रीवास्तव

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

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बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

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‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

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मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

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मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

महाभोज

लेखक-  संजय अइया

सुबह उठते ही गरमागरम चाय का अभी पहला घूंट ही गटका था कि अंदर काफरमान कानों के रास्ते अंदर उतर गया, ‘‘आज नाश्ता तभी बनेगा जब बाजार से सब्जी आ जाएगी.’’

हुआ यह था कि पिछले एक सप्ताह से दफ्तर के कामों में इतना उलझा रहा कि लौटते समय बाजार बंद हो जाता था और सब्जी का थैला बैग में पड़ा रह जाता. इन दिनों में पत्नी ने छोले व राजमा के साथ बेसन का कई तरह से इस्तेमाल कर एक तो अपनी पाक कला ज्ञान का भरपूर परिचय कराया, दूसरे, सब्जी की कमी को पूरा कर हमारी इज्जत ढकी थी.

पत्नी के आदेश को सिरमाथे मान कर मैं शार्टकट के रास्ते तेज कदमों से सब्जी बाजार की ओर जा रहा था. अभी थोड़ी दूर ही पहुंचा था कि नाक में तेज बदबू ने प्रवेश किया. मैं ने अपनी उल्लू जैसी आंखों को मटका कर चारों ओर देखा पर कुछ दिखलाई नहीं दिया. अभी वहां से कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि फिर जोरदार बदबू का झोंका आया. अब की बार मैं ने कुत्ते जैसी नाक से मजबूरी में बदबू को सूंघा और उस जगह पर नजर डाली जहां से वातावरण प्रदूषित हो रहा था. देखा, एक मरा हुआ ढोर नगरनिगम के कचरे के डब्बे में पड़ा था और कौए उस को नोंचनोंच कर खा रहे थे.

नाक पर रूमाल रखा और स्कूली दिनों को याद कर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ लगा दी. सामने से तिवारीजी आते दिखाई दिए और मुझे इस तरह इतना फर्राटे से भागते देखा तो रोक कर पूछने लगे, ‘‘क्यों भाई, सब ठीकठाक तो है?’’

मैं ने अपनी सांसों को नियंत्रित किया और तिवारीजी के चेहरे को देखा तो वह किसी हौरर फिल्म के डे्रकुला जैसे लग रहे थे. बढ़ी हुई दाढ़ी, बिखरे हुए बाल, नंगे पांव, गंदे से कपड़े. ‘‘बात क्या है, तिवारीजी, आप ठीकठाक तो हैं न?’’

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‘‘क्यों, मुझे क्या हुआ?’’

‘‘अरे भाई, ये बढ़ी हुई दाढ़ी, नंगे पांव, बिखरे हुए बेतरतीब केश, और ये बढ़े हुए नाखून…आखिर माजरा क्या है?’’

तिवारीजी ने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा और बोले, ‘‘तुम्हें नहीं मालूम?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं मालूम.’’

‘‘यार, तुम कैसे हिंदू हो?’’

‘‘क्या मतलब? आप की दाढ़ीनाखून बढ़ने से मेरे हिंदू होने का क्या संबंध है?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘यार, हिंदू होने के नाते तुम्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि इन दिनों पितृपक्ष (श्राद्ध) के दिन चल रहे हैं और इन दिनों में न तो कोई शुभ काम किया जाता है और न ही दाढ़ीनाखून कटवाते हैं.’’

‘‘लेकिन तिवारीजी, हिंदू धर्म में इस तरह का कोई नियम है, ऐसा कुछ मैं ने आज तक किसी भी हिंदू धार्मिक पुस्तक में नहीं पढ़ा.’’

‘‘यार, वेदपुराणों में लिखा है, ऐसा हमें हमारे बापदादा ने बताया था.’’

‘‘आप ने पढ़ा है?’’ मैं ने नास्तिकों की तरह पूछा.

‘‘इस में पढ़ना क्या है? बुजुर्गों ने कहा है सो है, यही तो हमारी हिंदू संस्कृति, धर्म और सभ्यता है.’’

‘‘जहां पर प्रश्न करने की, शक करने की कोई गुंजाइश नहीं होती,’’ मैं ने कहा.

‘‘चुप रहो यार, ऐसा कर के पुरखों की आत्मा को शांति मिलती है.’’

‘‘क्या तुम्हारे पूर्वज तुम्हें ऐसा गंदा देख कर खुश हो रहे होंगे,’’ मैं ने उन का मजाक बनाते हुए कहा, ‘‘अजीब तुम्हारे पुरखे हैं.’’

‘‘लगता है, तुम पर किसी अधर्मी की छाया पड़ गई है.’’

‘‘बिलकुल नहीं मित्र, जो धर्म में है ही नहीं उसे प्रचारित करने वालों के खिलाफ मैं बोल रहा हूं. इसी कारण आज हिंदू धर्म मजाक बन गया है,’’ मैं ने एक संक्षिप्त सा भाषण ही दे डाला.

‘‘देखो यार, तुम्हारे भाषण देने से मुझ पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं भगवाधारी कट्टर पार्टी से हूं और पार्टी का आदेश सिरमाथे पर,’’ तिवारीजी बोले, ‘‘पुरखे ऐसा करने से खुश होते हैं तो मैं ने ऐसा कर दिया. मैं तो वही करूंगा जो पार्टी के लोग चाहते हैं. फिर मुझे अपनी जाति से बाहर तो कोई नहीं करेगा,’’ ऐसा कह कर तिवारीजी हीही कर के हंस पड़े.

मैं ने तिवारीजी से कहा, ‘‘गजब का स्टेमना है आप का.’’

प्रशंसा सुन कर वह खुश हो गए और कहने लगे, ‘‘क्या बताएं यार, अकेले मैं ने नहीं मेरे पूरे परिवार ने आज अभी तक भोजन ग्रहण नहीं किया है.’’

‘‘क्यों? क्या मिला नहीं?’’

‘‘कैसी बातें करते हो तुम, सातों पकवान बना कर रख छोड़े हैं लेकिन खा नहीं सकते.’’

‘‘क्यों, क्या बात हो गई?’’

‘‘यार, सुबह से हम पूर्वजों को यानी कि कौओं को खाने का निमंत्रण दे रहे हैं लेकिन अभी तक वह नहीं पहुंचे. लगता है यह प्रजाति भी लुप्त हो रही है,’’ कह कर उन्होंने अपनी काली गरदन के पास उंगली रगड़ कर मैल की गोली बनाई और क्रिकेटर की तरह निशाना साध कर फेंक दी और उदास हो गए.

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उन की उदासी मुझ से देखी नहीं गई. पूरे परिवार को भूख से परेशान होने की बात सुन कर मेरा मन द्रवित हो उठा. मैं ने कहा, ‘‘यार, तिवारीजी, मैं कुछ कहूं?’’

मरी हुई आवाज उन के मुंह से निकली, ‘‘बोलो.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि कौए तुम्हारे यहां लंच लेने आएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ हैरत से मेरी ओर देखते हुए उन्होंने पूछा.

‘‘यार, जिन्हें तुम न्योता दे रहे हो वे सब तो महाभोज करने में लगे हैं.’’

‘‘कौए, महाभोज, क्या मतलब?’’ तिवारीजी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘यार, अभी जिस रास्ते से मैं भागता हुआ  आ रहा था उस पर एक मरे हुए जानवर को कौए खा रहे थे, तुम ही कहो, आज के दिन इतनी अच्छी नानवेज डिश छोड़ कर वह घासफूस खाने तुम्हारे घर की छत पर क्यों आएंगे?’’

‘‘इस का अर्थ तो यह हुआ कि आज मेरा पूरा परिवार भूखा ही रहेगा.’’

‘‘शायद,’’ मैं ने भी गंभीरता से कहा.

‘‘फिर क्या उपाय हो सकता है?’’ तिवारीजी ने किसी क्लाइंट की तरह मुझ से सलाह मांगी.

‘‘एक उपाय है.’’

‘‘कहो दोस्त, जल्दी कहो, पूरे परिवार को जोरों से भूख लगी है.’’

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मैं ने पहले तो अपने दाएंबाएं देखा ताकि मौका मिले तो भाग सकूं. फिर कहा, ‘‘यार, एक भोजन की थाली परोस कर उस मरे हुए जानवर के पास रख आओ. हो सकता है टेस्ट चेंज करने के लिए कौए कुछ खा लें.’’

‘‘आइडिया तो बहुत बढि़या है,’’ कह कर तिवारीजी ने मुझे अपने गले से चिपटा लिया और अपने घर की ओर तेज कदमों से चल दिए ताकि जल्दी से थाली परोस कर मरे ढोर के पास रख सकें, जहां उन के पुरखे उसे ग्रहण कर सकें.    द्य

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