लाइसेंस

रोहित तुरंत मिस्टर सूद के केबिन में पहुंच गया. सूद साहब कुछ परेशान लग रहे थे. रोहित भांप गया कि कोई गंभीर बात है.

‘‘बैठो,’’ कुरसी की तरफ इशारा करते हुए सूद साहब ने रोहित से कहा.

‘‘मिस्टर रोहित, मेरी पोजीशन बहुत खराब हो रही है,’’ सूद साहब ने धीमी और कांपती आवाज में कहना शुरू किया, ‘‘पहली तारीख को बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स की मीटिंग है. फैक्टरी तैयार हो चुकी है, ट्रायल उत्पादन कल से शुरू होना है, लेकिन फैक्टरी शुरू करने का लाइसेंस अभी तक नहीं मिला है. अभीअभी दत्ता से खबर मिली है कि विस्फोटक विभाग में हमारी फाइल अटक गई है और वहां से कारण बताओ नोटिस जारी होने वाला है.’’

एक पल रुक कर सूद साहब ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘रोहित, यदि लाइसेंस मिलने में देर हो गई तो हम किसी को अपना मुंह नहीं दिखा सकते हैं. बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स द्वारा मीटिंग के फौरन बाद प्रेस कान्फ्रेंस में फैक्टरी में उत्पादन शुरू होने की घोषणा की जानी है और बिना लाइसेंस के उत्पादन शुरू नहीं कर सकते. जबकि उत्पादन हमें हर हालत में शुरू करना है, क्योंकि अगले महीने हमारा प्रतिद्वंद्वी अपना उत्पादन शुरू कर के बाजार पर कब्जा करना चाहता है.

‘‘दत्ता ने खबर दी है कि उन्होंने हमारी कंपनी के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज की है ताकि कंपनी को वर्क लाइसेंस मिलने में देर हो जाए और बाजी वह मार ले. मैं ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं होने दूंगा. यदि हमारा उत्पादन शुरू नहीं हुआ तो कंपनी के शेयर डूब सकते हैं और हम कहीं के नहीं रहेंगे,’’ कह कर सूद साहब चुप हो गए.

‘‘यह सब अचानक कैसे हो गया, सर?’’ रोहित ने पूछा.

‘‘यह सबकुछ मुझे विपिन का कियाधरा लगता है. बहुत ही शातिर निकला. मुझ से एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गया था कि लखनऊ शादी में जाना है और आज सुबह ईमेल से इस्तीफा भेज दिया. वह लखनऊ गया ही नहीं बल्कि उस ने दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली है और यहां की तमाम गोपनीय बातें दूसरी कंपनी को बता कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया.’’

‘‘मैं उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘दूसरी कंपनी ने हमारी कंपनी के खिलाफ शिकायत की है, जिस के आधार पर लाइसेंस रोक लिया गया है. दत्ता को मैं ने नवयुग सिटी में रोक रखा है. तुम फौरन वहां चले जाओ. दत्ता अकेले काम संभाल नहीं पा रहा है. उस के साथ मिल कर तुम्हें किसी भी कीमत पर लाइसेंस लेना है. साम, दाम, दंड, भेद किसी भी नीति से मुझे फैक्टरी शुरू करने का लाइसेंस चाहिए. पैसा पानी की तरह बहता है तो बहा दो पर बिना लाइसेंस के आफिस में मत घुसना. मेरे कहने का मतलब तुम अच्छी तरह से समझ गए होगे…अब तुम जा सकते हो.’’

मिस्टर सूद की बात सुन कर रोहित परेशान हो गया. खासतौर पर आखिरी शब्द तीर की तरह उस के सीने के पार चले गए कि किसी भी कीमत पर लाइसेंस लेना है और बिना लाइसेंस के आफिस में मत घुसना.

सूद के आदेश के अनुसार उसे फौरन नवयुग सिटी के लिए रवाना होना था, इसीलिए वह फटाफट ब्रीफकेस उठा कर घर चला गया.

घर आ कर रोहित ने अपने कपडे़ सूटकेस में डालते हुए पत्नी श्वेता को चाय बनाने को कहा.

‘‘क्या बात है, आफिस से जल्दी आ कर सूटकेस तैयार कर रहे हो?’’ श्वेता ने चाय बनाते हुए पूछा.

‘‘आफिस के काम से आज और अभी नवयुग सिटी जाना है. काम इतना जरूरी है कि वहां 2-3 दिन भी लग सकते हैं,’’

‘‘रोहित, तुम जहां जा रहे हो उस के पास ही न्यू समरहिल है. एक दिन के लिए वहां चले चलो,’’ श्वेता बोली.

‘‘मुश्किल है,’’ रोहित बोला.

‘‘काम खत्म होने पर एक दिन की छुट्टी ले लेना. काम के साथ आराम और मौजमस्ती भी हो जाएगी,’’ कहतेकहते श्वेता चाय के साथ कमरे में आ गई.

‘‘श्वेता, यदि काम हो गया तो एक दिन क्या एक सप्ताह न्यू समरहिल के नाम,’’ रोहित ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.

चाय पी कर रोहित ने सूटकेस उठाया और नवयुग सिटी के लिए रवाना हो गया.

रोहित पिछले 5 सालों से सूद की कंपनी में जरनल मैनेजर है और अपने 20 साल के कैरियर में उस ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. सफलता की जिन ऊंचाइयों को आज रोहित छू रहा है उस की एक वजह यह भी है कि उस ने कभी असफलता का स्वाद नहीं चखा था.

नवयुग सिटी, जहां विस्फोटक विभाग का मुख्यालय है, रात के 9 बजे रोहित ब्रिस्टल होटल में पहुंचा तो दत्ता ने उस का जोरदार स्वागत इन शब्दों से किया, ‘‘आइए, रोहित साहब, आप को देख कर तो इस मुरदे में भी जान आ गई है.’’

रोहित अपना सूटकेस एक तरफ रख कर बाथरूम में घुस गया.

नहाने के बाद अपने को तरोताजा महसूस करता रोहित कुरसी खींचते हुए दत्ता से बोला, ‘‘यहां नवयुग सिटी में अकेले खूब मौज मना रहे हो.’’

‘‘प्यारे रोहित,’’ दत्ता मायूस हो कर बोला, ‘‘मैं कितना मौज मना रहा हूं यह मेरे दिल से पूछो.’’

‘‘पूछ तो रहा हूं दत्ता साहब कि वह ऐसा कौन सा गम है जिसे आप शराब के हर घूंट के साथ पीए जा रहे हैं.’’

‘‘वही लाइसेंस का गम. क्योंकि लाइसेंस तो मिलना नहीं फिर तो नौकरी के हाथ से निकलने का गम,’’ दत्ता की आवाज में गंभीरता थी.

‘‘मजाक छोड़ कर सीरियस बात करो, दत्ता,’’ रोहित ने गंभीरता से कहा.

‘‘रोहित, आज दोपहर को मिस्टर सूद से मैं ने बात की थी कि लाइसेंस नहीं मिल रहा है. यह सुन कर उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि अगर लाइसेंस नहीं मिला तो आफिस मत आना. मैं ने सारे पापड़ बेल कर देख लिए, रोहित, कल फाइल पर साइन हो जाएंगे. सहायक कंट्रोलर मोहन तो आज ही हमारी कंपनी की फाइल पर साइन कर के आवेदनपत्र को निरस्त कर रहे थे, बहुत मिन्नतों के बाद एक दिन के लिए फाइल को पेंडिंग किया है. तभी तो मिस्टर सूद ने आप को यहां भेजा है,’’ दत्ता कहतेकहते रुक गया.

‘‘सूद साहब ने खुला आफर दिया है कि जितना पैसा खर्च हो, लाइसेंस हर हालत में चाहिए,’’ रोहित ने दत्ता से कहा, ‘‘मेरी पूरी अटैची नोटों से भरी हुई है.’’

ये भी पढ़ें- सारे जहां से अच्छा

‘‘देखो रोहित, हमारी कंपनी की फाइल असिस्टेंट कंट्रोलर मोहन के पास है और वह रिश्वत नहीं लेता है.’’

‘‘दत्ता, मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि आज के समय में कोई रिश्वत नहीं लेता है,’’ रोहित ने आश्चर्य से कहा.

‘‘सच यही है कि आज के इस भ्रष्ट दौर में मोहन जैसा ईमानदार व्यक्ति भी है.’’

‘‘उस की कोई तो कमजोरी होगी, जिस का हम फायदा उठा सकते हैं,’’ रोहित ने समय की नजाकत को भांपते हुए पूछा.

‘‘शरीफ आदमी की कोई कमजोरी नहीं होती है. शराफत ही उस की कमजोरी समझो या ताकत, मुझे मालूम नहीं, लेकिन एक बात साफ है कि उस का भ्रष्ट न होना हमें भारी मुसीबत में डाल सकता है. मुझे पता है कि तुम ने जिंदगी में कभी असफलता का मुंह नहीं देखा है, लेकिन इस बार सावधान रहना.’’

‘‘दत्ता, मोहन तो असिस्टेंट कंट्रोलर है, हम चीफ कंट्रोलर से मिल सकते हैं.’’

‘‘रोहित, कोई फायदा नहीं होने वाला है. फाइल पर मोहन की लिखी टिप्पणी को चीफ कंट्रोलर भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘लगता है मिस्टर सूद ने तुम्हें पूरी बात बताई नहीं है, तभी तुम ज्यादा उत्साहित लग रहे हो,’’ दत्ता ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘रोहित, विस्फोटक नियमों के अनुसार हमें कंपनी में जितना खुला क्षेत्र रखना था उस का आधा भी नहीं रखा है, जिस की लिखित शिकायत हमारी प्रतिद्वंद्वी कंपनी ने की है, जिस के आधार पर अब हमारी फैक्टरी को ‘शो काज’ नोटिस दिया जाएगा और हम बिना लाइसेंस के प्रोडक्शन शुरू नहीं कर सकते. नियमों का पालन करने का मतलब है, फैक्टरी में तोड़फोड़ और पैसे व समय की बरबादी, जिसे सूद साहब बरदाश्त नहीं कर सकते हैं.’’

‘‘क्या हमें नियम मालूम नहीं थे?’’

‘‘मालूम थे, लेकिन एक तो सूद साहब का लालच और दूसरे कुछ लोगों की गलत राय. फैक्टरी पहले नियमों के अनुसार बन रही थी, खुला क्षेत्र भी नियमों के अनुसार ही छोड़ा जा रहा था लेकिन बाद में नक्शे में परिवर्तन कर के खुला क्षेत्र कम कर दिया गया.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘ज्यादा प्रोडक्शन के लिए और अधिक मशीनें लगाई गई हैं.’’

दत्ता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें शायद विपिन की कहानी का पता नहीं है. दरअसल, विपिन ने मिस्टर सूद को सलाह दी थी कि लाइसेंस लेने के बाद ओपन एरिया कवर करना चाहिए, लेकिन कुछ दूसरे लोगों के कहने पर और पैसे के घमंड में सूद साहब ने खुलेआम सभी के सामने विपिन को डांट लगाई और उस की खिल्ली उड़ाई. विपिन अपने इस अपमान को सहन नहीं कर सका और उस ने नौकरी छोड़ दी.

‘‘शायद अपने अपमान का बदला लेने के लिए ही विपिन ने प्रतिद्वंद्वी कंपनी ज्वाइन की है और उस की लिखित शिकायत पर विस्फोटक विभाग भी चुप नहीं बैठा. चूंकि वह जांच में भरपूर मदद कर रहा है, इसलिए हमें लाइसेंस नहीं मिल रहा है.’’

‘‘चलो, सुबह देखते हैं,’’ कह कर रोहित बिस्तर पर लेट गया, लेकिन काफी देर तक उस की आंखों में नींद नहीं आई. आंखें बंद कर सोचता रहा कि कैसे इस मसले को हल किया जाए.

सुबह 10 बजे रोहित और दत्ता विस्फोटक विभाग के मुख्यालय पहुंच गए और मोहन के केबिन के बाहर बैठ कर इंतजार करने लगे. मोहन जैसे ही दफ्तर आया, अपने केबिन के आगे रोहित को बैठा देख कर वह रुक गया.

‘‘रोहित, तुम और यहां…अरे, यह कैसा सुखद आश्चर्य है,’’ मोहन खुशी से हंसते हुए बोला.

‘‘मोहन, आज हम सालों बाद एकदूसरे से मिल रहे हैं तो साबित होता है कि दुनिया गोल है.’’

‘‘रोहित, चलो, केबिन मेें बैठ कर आराम से बात करते हैं.’’

मोहन और रोहित दोनों बचपन के दोस्त थे. स्कूल और कालिज में एकसाथ पढ़ते थे. दोनों के परिवार पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम में रहते थे. हमउम्र और एक ही गली में रहने के कारण दोनों का समय एकसाथ बीतता था. वे सिर्फ रात को सोने के लिए एकदूसरे से अलग होते थे. स्कूल और कालिज में एकसाथ पढ़ाई की. बी.काम. करने के बाद रोहित एमबीए करने अमेरिका चला गया और मोहन ने नौकरी कर ली.

इतने में चपरासी चाय ले आया. चाय की चुस्कियों में मोहन ने रोहित से पूछा, ‘‘आजकल रिहाइश कहां रखी है? लगभग 10 साल पहले मैं दिल्ली गया था. तुम ने मकान बेच दिया था. बहुत कोशिशों के बाद भी मुझे तुम्हारे नए मकान का पता नहीं चला. तब मैं ने देखा था कि आसपास सभी जगह आफिस बन गए थे और जिस बिल्ंिडग में मैं रहता था वहां बैंक खुल गया था.’’

‘‘हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद जब मैं दिल्ली वापस आया तब तुम मकान छोड़ कर जा चुके थे. 2-3 साल बाद मेरे घर वालों ने भी मकान बेच कर ग्रेटर कैलाश में कोठी बनवा ली. तभी से परिवार के साथ वहीं रह रहा हूं.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ, इस आफिस में तुम्हारा कैसे आना  हुआ?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘मोहन, मैं सूद एंड कंपनी में जनरल मैनेजर हूं और यहां लाइसेंस के सिलसिले में आया हूं.’’

कुछ पल की खामोशी के बाद मोहन ने कहा, ‘‘बचपन के दोस्त हो और लगभग 20 सालों के बाद मिले भी तो किन हालात में, यह इत्तफाक भी अजीब सा है.’’

रोहित भी कुछ बोल न सका. बचपन के साथी से लाइसेंस की कोई बात न कर सका.

चुप्पी तोड़ते हुए मोहन ने कहा, ‘‘रोहित, तुम्हारे आने का मकसद मैं समझ सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता हूं. तुम्हारी कंपनी के खिलाफ शिकायत की मैं ने जांच करवाई है, मेरे कुछ सिद्धांत हैं. मैं रिश्वत नहीं लेता हूं और निरीक्षण के दौरान जो अनियमितताएं पाई गई हैं उन के आधार पर लाइसेंस के लिए मैं अनुमति नहीं दे सकता हूं.’’

‘‘मोहन, इस बारे में अब मैं क्या बोलूं. फिर भी तुम से दिल की बात कह सकता हूं, क्योंकि तुम बचपन के दोस्त हो. जीवन में कभी मैं ने असफलता का सामना नहीं किया. अगर लाइसेंस नहीं मिला तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी और पहली बार असफलता का कारण दोस्ती बनेगी. मुझे अपनी इस असफलता पर तुम से कोई शिकायत भी नहीं होगी, लेकिन मोहन, कुछ रास्ता निकालो. हर समस्या का कोई न कोई समाधान तो होता है न. इस भ्रष्ट समाज में तुम जैसे ईमानदार आदमी को देख कर मुझे खुशी है. और सब से अधिक खुशी इस बात की है कि वह ईमानदार आदमी मेरा बचपन का सखा है.’’

रोहित की बात सुन कर मोहन ने कहा, ‘‘रोहित, मैं जानता हूं कि यहां मुझे छोड़ कर हर कोई भ्रष्ट है, मैं समाज से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं कर सकता. हां, तरीके तो बहुत हैं, मुझे सोचने के लिए वक्त दो. कल सुबह बात करते हैं.’’

‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगे,’’ झिझकते हुए रोहित ने मोहन से पूछा, ‘‘क्या शाम को मैं तुम्हारे घर आ सकता हूं?’’

‘‘तुम्हारा ही घर है, बेझिझक आ सकते हो,’’ कहते हुए मोहन ने एक कागज पर अपने घर का पता लिख कर रोहित को पकड़ा दिया.

रोहित और दत्ता होटल आ गए.

शाम को रोहित और दत्ता मोहन के घर रूप नगर के लिए चले. रास्ते में एक मिठाई की दुकान पर रुक कर रोहित ने मिठाई खरीदी.

‘‘कुछ गिफ्ट ले चलते हैं,’’ दत्ता ने कहा.

‘‘नहीं, दोस्ती को मैं पैसे में नहीं तोलना चाहता हूं. ऐसे दोस्त बहुत तकदीर से मिलते हैं. अगर आज पहली बार असफलता भी मिले तो कोई गम नहीं, क्योंकि मैं अपने दोस्त को खोना नहीं चाहता हूं. सोच लिया है कि अगर लाइसेंस नहीं मिला तो नौकरी छोड़ दूंगा.’’

इतने में मोहन का घर आ गया. 200 मीटर के प्लाट पर सिर्फ 2 कमरों का सेट बना था और सारा प्लाट खाली. घर के बाहर और अंदर दीवार के साथ फलदार पेड़ और पौधे घर की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे.

मोहन ने रोहित और दत्ता का स्वागत किया. घर के अंदर बैठक में मोहन की पत्नी नीलम ने नाश्ते का इंतजाम कर रखा था. रोहित ने नीलम को मिठाई का डब्बा पकड़ाते हुए धीरे से हेलो कहा.

चाय पीने के बाद मोहन ने रोहित को अपना घर दिखाया, ‘‘यह बैठक कम हमारा बेडरूम है, दूसरा बच्चों का बेडरूम, रसोई, बाथरूम और पीछे लान, जहां नीबू के झाड़ के साथ पपीते और अमरूद के पेड़ हैं.

‘‘एक छोटा सा साफसुथरा घर, जहां जरूरत की हर चीज बड़े करीने से मौजूद थी, लेकिन कोई भी विलासिता का सामान नजर नहीं आया.

ये भी पढ़ें- मेरे घर के सामने

‘‘यार, मोहन, तुम ने खाली प्लाट छोड़ रखा है, 1-2 कमरे और बनवा लो.’’

‘‘उस के लिए रकम चाहिए और तुम तो जानते हो कि रिश्वत मैं लेता नहीं और तनख्वाह में यह मुश्किल है, क्योंकि बच्चे बड़े हो रहे हैं, उन की पढ़ाई और कुछ भविष्य के लिए भी बचत करनी है.’’

‘‘बच्चे नजर नहीं आ रहे हैं,’’ रोहित ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘भई, तुम्हारे लाइसेंस के चक्कर में बच्चों का जिक्र तो रह ही गया. एक लड़का और एक लड़की हैं. दोनों कालिज में पढ़ते हैं और छुट्टियां मनाने वे न्यू समरहिल गए हैं. मैं भी पत्नी के साथ कल सुबह 10 दिन के लिए, बच्चों के पास जा रहा हूं. शाम को छुट्टी मंजूर करवाई है.’’

छुट्टी का नाम सुनते ही रोहित हक्काबक्का रह गया.

मोहन इस बात को भांप गया था. चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए बोला, ‘‘मेरे दोस्त, तुम इस बात को नहीं समझ सकते पर आफिस में मेरी मौजूदगी में तुम्हें लाइसेंस मिल नहीं सकता है क्योंकि ऐसे काम मेरी गैरमौजूदगी में होते हैं. सारी दुनिया के गलत काम होते हैं, एक और सही, दोस्ती की खातिर, इसीलिए मैं ने चीफ साहब से बात कर ली है. मैं 10 दिन की छुट्टी जा रहा हूं, तुम्हारा काम हो जाएगा.’’

रोहित को अपनी काबिलीयत और पैसे पर घमंड था. वह हमेशा समझता था कि पैसे के बलबूते सबकुछ संभव है, लेकिन आज यहां बाजी पलट गई. पैसे पर बचपन की दोस्ती हावी हो गई. पैसा हार गया और दोस्ती जीत गई. रोहित, मोहन की बात चुपचाप सुनता रहा.

‘‘रोहित, जब भी मेरे द्वारा आब्जेक्शन फाइल को पास करना होता है तो मुझे छुट्टी पर भेज दिया जाता है, ताकि कोई दूसरा अफसर उसे पास कर सके, आज मैं ने खुद छुट्टी मांगी है ताकि तुम्हारा काम हो सके. चलो, छोड़ो इस विषय को, रात काफी हो चुकी है, डिनर करते हैं.’’

खाना खाते हुए दत्ता पहली बार बोला, ‘‘मोहनजी, मैं आप के सिद्धांतों की कद्र करता हूं, क्या मैं आप का दोस्त बन सकता हूं?’’

‘‘बेशक, हर सच्चा आदमी मेरा दोस्त बन सकता है.’’

‘‘मैं आप की कसौटी पर खरा उतरने की भरपूर कोशिश करूंगा.’’

डिनर के बाद रोहित और दत्ता होटल वापस आ गए पर रोहित खामोश ही बना रहा. दत्ता ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘रोहित, तुम्हें अपने दोस्त पर गर्व होना चाहिए, जिस ने दोस्ती पर सिद्धांतों की बलि दे दी. जिस काम को पैसे नहीं कर सके उसे दोस्ती ने कर दिखाया.’’

‘‘लेकिन पैसे तो फिर भी लगेंगे,’’ रोहित ने कहा.

‘‘आज पहली बार असफल हुए हो रोहित, पर मेरी बात मानो, इस दोस्ती को कभी मत छोड़ना,’’ दत्ता बेहद भावुक हो गया था.

अगली सुबह मोहन आफिस में नहीं था. उस के सहयोगी सोहन के पास फाइल भेज दी गई. फाइल में से आपत्तिजनक कागजों को निकाल कर दूसरे कागज लगा दिए गए. आफिस में बैठ कर फैक्टरी का निरीक्षण भी हो गया और संतोषजनक रिपोर्ट लगा कर 3 दिन में लाइसेंस जारी कर दिया गया. कल तक जो काम असंभव लग रहा था पैसों के बोझ में दब कर संभव हो गया. लाइसेंस हाथ में आते ही रोहित खुशी से उछल पड़ा, झट से सूद साहब को फोन किया.

‘‘गुड न्यूज, सर, लाइसेंस मिल गया.’’

‘‘वैल डन रोहित, मैं जानता था कि तुम यह काम कर लोगे, इसीलिए मैं ने तुम्हें यह काम सौंपा था,’’ सूद साहब की आवाज में एक नई ताकत नजर आ रही थी.

ये भी पढ़ें- नुस्खे सरकारी दफ्तर में फतह पाने के

‘‘रोहित, तुम मानो या न मानो, पर तुम ने बाजी जीत कर हारी है और मोहन ने दोस्ती के नाम पर अपने सिद्धांतों की बलि दे कर बाजी जीत ली है,’’ इतना कह कर दत्ता मंदमंद मुसकरा रहा था और रोहित अवाक् हो उस को देखता रह गया.

विदाई

भाग-1

विदाई की रस्म पूरी हो रही थी. नीता का रोरो कर बुरा हाल था. आंसुओं की झड़ी के बीच वह बारबार नजरें उठा कर बेटी को देखती तो उस का कलेजा मुंह को आ जाता.

सारी औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थीं. टीना धीरेधीरे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी. बड़ी बूआ भीगी पलकों के साथ ढेर सारी नसीहतें दे रही थीं, ‘‘टीना, अब तेरे लिए ससुराल ही तेरा अपना घर है. वहां सब का खयाल रखना. सासससुर की सेवा करना…’’ कहतेकहते उन की रुलाई फूट पड़ी.

नीता बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाई, ‘‘अपना खयाल रखना टीना,’’ आगे मां की जबान साथ न दे पाई और वह बड़ी जीजी के कंधे का सहारा ले कर जोरजोर से रोने लगीं.

टीना और नरेश गाड़ी में बैठ गए. दुलहन के लिबास में लिपटी टीना की हालत पर नरेश भावुक हो उठा. उस ने धीरे से टीना का हाथ पकड़ कर उसे ढांढस बंधाने का प्रयास किया. पति का स्पर्श पा कर टीना को कुछ राहत मिली, वरना उसे लग रहा था कि उस के सारे परिचित पीछे छूट गए हैं.

1 घंटे में टीना अपनी ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी. नरेश का परिवार उस के लिए अपरिचित न था. दूर की रिश्तेदारी के कारण अकसर उन की मुलाकातें हो जाया करती थीं. ऐसे ही एक विवाह समारोह में नरेश की मां सुधा ने टीना को देखा था. उस का चुलबुलापन उन्हें बहुत अच्छा लगा. बिना समय गंवाए उन्होंने बात चलाई और 6 महीने के अंदर टीना उन की बहू बन कर उन के घर आ गई.

2 दिन तक विवाह की रम्में पूरी होती रहीं. तीसरे दिन नरेश व टीना हनीमून के लिए शिमला आ गए. दोनों बहुत खुश थे. नरेश के प्यार में खो कर टीना, मम्मी से बिछुड़ने का गम भूल  सी गई.

हनीमून के 2 दिन बहुत ही सुखद बीते. तीसरे दिन टीना को सर्दीबुखार ने घेर लिया. नरेश चिंतित था, ‘‘टीना, तुम आराम करो, लगता है यहां के मौसम में आए बदलाव के चलते तुम्हें सर्दी लग गई है.’’

‘‘मेरा बदन बहुत दुख रहा है नरेश.’’

‘‘तुम चिंता न करो, मैं डाक्टर को ले कर आता हूं.’’

‘‘डाक्टर की जरूरत नहीं है. एंटी कोल्ड दवाई से ही बुखार ठीक हो जाएगा, क्योंकि जब मुझे सर्दीबुखार होता था तो मम्मी मुझे यही दिया करती थीं.’’

‘‘मम्मी की बहुत याद आ रही है,’’ टीना को बांहों में भर कर नरेश बोला तो उस ने सिर हिला दिया.

‘‘तो इस में कीमती आंसू बहाने की क्या जरूरत है. अभी मम्मी से बात कर लो,’’ टीना की ओर मोबाइल बढ़ाते हुए नरेश बोला.

‘‘मुझे मम्मी से ढेर सारी बातें करनी हैं, अभी घर पर बहुत सारे मेहमान होंगे.’’

‘‘पगली, बाकी बातें बाद में कर लेना, अभी तो अपना हालचाल बता दो उन्हें.’’

‘‘प्लीज, उन्हें मेरी तबीयत के बारे में कुछ न बताना, वरना वे मुझे देखने यहीं आ जाएंगी. मैं मम्मी को जानती हूं,’’ टीना चहक कर बोली.

मम्मी के बारे में बात कर वह अपना दुखदर्द भूल गई. नरेश ने महसूस किया कि टीना सब से ज्यादा खुश मम्मी की बातों से होती है. अब टीना का दिल बहलाने के लिए वह बहुत देर तक मम्मी के बारे में बात करता रहा.

हनीमून के दौरान पूरे 7 दिनों में टीना ने एक बार भी अपनी ससुराल के बारे में कुछ नहीं पूछा. वह बस, अपनी मम्मी की और सहेलियों की बातें करती रही. हनीमून से वापस लौटते हुए टीना बोली, ‘‘नरेश, मुझे लखनऊ कितने दिन रुकना होगा.’’

‘‘तुम यह सब क्यों पूछ रही हो? अभी हमारी शादी को 8-10 दिन ही हुए हैं. जिस में हम घर पर 3 दिन ही रहे हैं. कम से कम 2 हफ्ते तो रुक ही जाना.’’

‘‘2 हफ्ते तक घर में बहू बन कर रहना मेरे बस की बात नहीं है.’’

‘‘मेरी मम्मी तुम्हें बहू नहीं बेटी की तरह रखेंगी. तुम खुद देख लेना. बहुत अच्छी मां हैं वह.’’

‘‘तुम्हारी बहन को देख कर मुझे अंदाजा लग गया है कि वह बेटी को किस तरह रखती हैं,’’ मुंह बना कर टीना बोली.

‘‘हम यहां से चल कर 2 दिन लखनऊ रुकेंगे. उस के बाद दिल्ली चलेंगे तुम्हारे मम्मीपापा के पास. वहां से जब तुम चाहोगी तब ही वापस आएंगे,’’ न चाहते हुए भी मजबूरी में टीना ने नरेश की यह बात मान ली.

लखनऊ में नरेश के परिवार वालों ने टीना की खूब खातिरदारी की. नरेश को लगा वह टीना को कुछ दिन और यहां रोक लेगा पर दूसरे दिन ही टीना ने अपने मन की बात कह डाली.

‘‘नरेश, हम कल दिल्ली चल रहे हैं न. मैं ने मम्मी को फोन से बता दिया है,’’ टीना बोली तो नरेश चुप हो गया. उस ने यह बात अभी तक अपने मम्मीपापा से नहीं कही थी. वह तुरंत पानी पीने के बहाने वहां से हट कर किचन में आ गया और धीरे से मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, टीना कल अपने मायके जाना चाहती है. आप की इजाजत हो तो…’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू. इतने दिन हो गए हैं उसे ससुराल आए हुए. इकलौती बेटी है वह अपने मां बाप की. घर की याद आनी तो स्वाभाविक है बेटा,’’ बेटे की दुविधा दूर करते हुए सुधा बोलीं.

कमरे में नरेश पहुंचा तो टीना बोली, ‘‘आप मेरी बात अधूरी छोड़ कर कहां चले गए थे?’’

‘‘पानी पीने चला गया था. तुम पैकिंग में व्यस्त थीं सो मैं खुद ही चला गया किचन तक.’’

‘‘कल का प्रोग्राम पक्का है न?’’

‘‘बिलकुल पक्का,’’ नरेश चहक कर बोला तो टीना ने राहत की सांस ली.

मायके पहुंच कर टीना मम्मी से लिपट कर खूब रोई. नीता, टीना को बड़ी देर तक सहलाती रही.

‘‘कितनी दुबली हो गई हैं मम्मी आप,’’ टीना बोली.

नरेश, मांबेटी को छोड़ कर अपने ससुर के पास आ गया.

‘‘पापा, बेटी के बिना घर खालीखाली लग रहा होगा आप को.’’

‘‘बेटी का असली घर तो उस की ससुराल ही होता है बेटा, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए. टीना अपनी मां के लाड़प्यार के कारण थोड़ी लापरवाह है. उस की नादानियों को नजरअंदाज कर दिया करना.’’

‘‘आप चिंता न करें पापाजी, धीरेधीरे टीना मेरे परिवार के साथ घुलमिल जाएगी.’’

एक ही दिन में नरेश समझ गया कि इस घर में टीना के पापा की उपस्थिति केवल नाम लेने भर की है. घर में सारे फैसले नीता के कहे अनुसार ही होते हैं.

एक हफ्ता बीत गया. टीना का मन लखनऊ जाने का न था, वह तो नरेश के साथ सीधे मुंबई जाना चाहती थी पर नरेश से कहने का वह साहस न जुटा सकी.

बेटी को विदा करते हुए नीता ने ढेरों हिदायतें दे डालीं. नरेश साथ खड़ा सबकुछ सुन रहा था पर बोला कुछ नहीं. उसे ताज्जुब हो रहा था कि उस की सास ने एक बार भी टीना को अपने सासससुर की सेवा से संबंधित नसीहत न दी. चलते वक्त वह नरेश से बोलीं, ‘‘बेटा, टीना का खयाल रखना, मैं ने जिंदगी की अमानत तुम्हें सौंप दी है.’’

शादी के 3 हफ्तों में ही नरेश को सबकुछ समझ में आने लगा था कि मम्मी के लाड़प्यार के कारण टीना की परवरिश एक आम लड़की की तरह नहीं हुई थी. घूमनाफिरना, मौजमस्ती करना और गप्पबाजी उस के खास शौक थे. घर के किसी काम में उस की रुचि न थी. सामान्य शिष्टाचार में उस का विश्वास न था.

ये भी पढ़ें- छोटी छोटी बातें

छुट्टियां खत्म हुईं तो नरेश के साथ टीना भी मुंबई आ गई.

नरेश, टीना से जितना सामंजस्य बिठाता, टीना अपनी हद आगे सरका देती.

टीना की गुडमार्निंग मम्मी को फोन से होती, और फिर तो बातों में टीना यह भी भूल जाती कि उस के पति को दफ्तर जाना है, महीने का टेलीफोन का बिल हजारों में आया तो नरेश बोला, ‘‘टीना, मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं 5 हजार रुपए महीना टेलीफोन के बिल पर खर्च कर सकूं. हमें अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी.’’

‘‘नरेश, आप के पास रुपए की कमी है तो मैं मम्मी से मांग लेती हूं. मेरे एक फोन पर वह तुरंत रुपए आप के खाते में ट्रांसफर करवा देंगी.’’

‘‘शादी के बाद बेटी को मां पर नहीं पति पर आश्रित रहना चाहिए.’’

‘‘मैं अपनी मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं,’’ टीना बोली, ‘‘उन का सबकुछ मेरा ही तो है. पता नहीं किस जमाने की बात कर रहे हो तुम.’’

‘‘छोटीछोटी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ठीक नहीं होता.’’

‘‘मम्मी, दूसरी नहीं मेरी अपनी हैं.’’

‘‘यही बातें तुम्हें मेरे लिए भी सोचनी चाहिए. मेरे मांबाप का मुझ पर कुछ हक है और हमारा उन के प्रति कुछ फर्ज भी है,’’ पहली बार अपने परिवार की पैरवी की नरेश ने.

दूसरे दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने सारी बातें अपनी मम्मी को बताईं तो वह बोलीं, ‘‘ठीक किया तू ने टीना. तुम्हारी ससुराल में जरा सी भी दिलचस्पी नरेश को उन की ओर मोड़ देगी. तुम्हें अपना भला देखना है कि ससुराल का.’’

शादी के बाद पहली होली पर नरेश ने टीना से घर चलने का आग्रह किया तो वह तुनक गई.

‘‘होली का त्योहार मुझे अच्छा नहीं लगता. रंगों से मुझे एलर्जी होती है.’’

‘‘बड़ों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी होता है टीना, मेरी खातिर तुम लखनऊ चलो न, वहां सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’ नरेश दुविधा में था कि क्या करे, क्योंकि टीना ससुराल जाने के लिए तैयार न थी. तभी नरेश के दिमाग में एक आइडिया आया और वह बोला, ‘‘टीना, चलो दिल्ली चलते हैं.’’ दिल्ली का नाम सुनते ही टीना तैयार हो गई.

होली से 2 दिन पहले वे दिल्ली पहुंच गए. नीता बेटीदामाद को देख कर फू ली न समाई. बेटी को होली पर मायके देख कर टीना के पापा पहली बार बोले, ‘‘टीना, इस समय तुम्हें मायके के बजाय अपनी ससुराल में होना चाहिए था. यह तुम्हारी ससुराल की पहली होली है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है? टीना यहां रहे या ससुराल में.’’

‘‘फर्क हमें नहीं हमारे समधीजी को पड़ेगा, जिन का बेटा होली के दिन अपनी ससुराल में पत्नी के साथ…’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हें कुछ पता है रिश्तेनातों के बारे में. मैं न होती तो…’’

‘‘आप दोनों हमें ले कर आपस में क्यों उलझ रहे हैं. टीना यहां रह लेगी और चूंकि मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है इसलिए मैं लखनऊ चला जाता हूं.’’

टीना के सामने अब कोई रास्ता न था. मजबूर हो कर उसे भी नरेश के साथ लखनऊ आना पड़ा. होली पर गुलाल के रंग टीना के सुंदर चेहरे पर बहुत फब रहे थे पर खुशी का असली रंग उस के चेहरे से नदारद था.

सुधा से बहू की उदासी और उकताहट छिपी न थी. वह सबकुछ देख कर भी चुप थी. इस अवसर पर उसे कोई नसीहत देना उस के दुख को क्रोध में बदलना था. बस, एक बार सुधा ने कहा, ‘‘टीना, कितना अच्छा लगता है जब तुम और नरेश यहां होते हो.’’

सुधा की बात सुन कर टीना चुप रही. रात को नरेश ने पूछा, ‘‘टीना, तुम्हारा मन कुछ दिन ससुराल में रहने को हो तो मैं अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेता हूं.’’

सुधा के शब्दों की खीज वह नरेश पर उतारते हुए बोली, ‘‘3 दिन में आप का मन नहीं भरा अपने लोगों के साथ रह कर.’’

‘‘अपनापन तो मन में होता है, टीना. मुझे तो तुम से जुड़े सभी लोग अपने लगते हैं.’’

‘‘मुझे तुम्हारी फिलोसफी नहीं सुननी, और यहां रुकना मेरे बस की बात नहीं.’’

टीना का दो टूक जवाब सुन कर भी नरेश हंस दिया और बोला, ‘‘सौरी डार्लिंग, हम कल सुबह ही यहां से चल पड़ेंगे.’’

मुंबई वापस लौट कर टीना ने राहत की सांस ली और ससुराल में घटी सब बातोें की जानकारी अपनी मम्मी को दे दी.

अकसर टीना और नरेश शाम को घर से बाहर ही खाना खाते क्योंकि टीना को खाना पकाना नहीं आता था और वह सीखने का प्रयास भी नहीं करती. कभी वह जिद कर के टीना से कुछ बनाने को कहता तो गैस के चूल्हे जलने के साथ टीना का मोबाइल कान से लग जाता.

हां, मम्मी, बताओ कढ़ी बनाने के लिए सब से पहले क्या करना है? इस तरह मम्मी से पूरी रेसिपी सुन कर जितना फोन का बिल बढ़ता उस से कम पैसे में होटल से लजीज खाना मंगाया जा सकता था. सो नरेश ने फरमाइश करनी ही छोड़ दी.

इधर नरेश ने महसूस किया कि टीना उस से उलझने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ती रहती है. कल की ही बात है, टीना को शोरूम में एक घड़ी बहुत पसंद आई. उस ने नरेश से घड़ी लेने का आग्रह किया, ‘‘नरेश देखो, कितनी सुंदर घड़ी है.’’

‘‘टीना, तुम्हारे पास पहले ही कई घडि़या हैं. उन में से कुछ तो तुम ने आज तक पहनी भी नहीं हैं और घड़ी ले कर क्या करोगी?’’

‘‘वे घडि़यां मुझे पसंद नहीं. मुझे तो यही चाहिए,’’ टीना जिद करते हुए  बोली.

इतनी देर में नरेश काउंटर से हट कर अलग खड़ा हो गया. टीना नरेश की ओर बढ़ी तो वह दुकान से बाहर आ गया. गुस्से से भरी टीना, नरेश के साथ घर तो आ गई पर घर में घुसते ही वह फट पड़ी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, दुकान में मेरी बेइज्जती करने की.’’

‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा न था. मैं तो बस, दुकान में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.’’

‘‘आज तक मेरी मम्मी ने कभी मेरी किसी इच्छा से इनकार नहीं किया. मैं जैसे चाहूं रहूं, खाऊंपीऊं, खरीदारी करूं या घूमू फिरूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था. टीना, प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी जेब में उस वक्त उतने रुपए नहीं थे.’’

‘‘के्रडिट कार्ड तो था. पहली बार मैं ने तुम्हारे सामने अपनी इच्छा रखी और तुम ने मेरी बेइज्जती की.’’

‘‘मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

‘‘तुम्हारा मेरे प्रति यही नजरिया रहा तो देख लेना मैं यहीं इसी घर में आत्महत्या कर लूंगी.’’

‘‘आत्महत्या तुम्हें नहीं मुझे करनी चाहिए जिस ने अपनी इतनी प्यारी पत्नी का दिल दुखाया. चलो, मैं अभी तुम्हारे लिए घड़ी ले आता हूं.’’

‘‘अब मुझे घड़ी नहीं चाहिए, जिस चीज के लिए एक बार ना हो जाए उसे मैं कभी हाथ नहीं लगाती,’’ कहते हुए टीना मुंह फुला कर सो गई. उस ने खाना भी नहीं खाया तो नरेश को भी भूखा सोना पड़ा.

अगले दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने मम्मी को कल की पूरी घटना सुना दी. सुन कर नीता को बड़ा गुस्सा आया और वह बोलीं, ‘‘यह तो नरेश ने अच्छा नहीं किया टीना, उस की हिम्मत तो देखो कि अपनी पत्नी की छोटी सी इच्छा पूरी न कर सका.’’

ये भी पढ़ें- कायरता का प्रायश्चित्त

‘‘मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ मम्मी.’’

‘‘ऐसे मौकों पर तुम कमजोर न पड़ना. आखिर वह इतनी तनख्वाह का करता क्या है? कहीं सारे रुपए घर तो नहीं भेज देता?’’

‘‘मैं ने कभी पूछा नहीं मम्मी.’’

‘‘नरेश की हर हरकत पर नजर रखना. तुम अभी कमजोर पड़ गईं तो फिर कभी पति पर राज नहीं कर सकोगी.’’

मम्मी के कहे अनुसार टीना ने नरेश की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिसे ले कर नरेश पर हावी हुआ जा सके.

-क्रमश:

 डा. के रानी

उजाले की किरण

पूर्व कथा

स्वर्णिमा अपनी देवरानी मालविका को पिकनिक पर जाने के लिए कहती है पर जब मालविका स्वर्णिमा से पिकनिक जाने के बारे में पूछती है तो वह इनकार कर देती है. मालविका के जिद करने पर वह जाने के लिए तैयार हो जाती है. वहां पर दोनों की मुलाकात मृणाल से होती है. स्वर्णिमा को सफेद साड़ी में देख कर मृणाल चौंक पड़ता है. स्वर्णिमा उस का परिचय मालविका से कराती इस से पहले ही उस का अतीत उस के सामने साकार हो उठता.

स्वर्णिमा और मृणाल एक ही कालिज में पढ़ते थे. उन की दोस्ती प्यार में बदल जाती है. कालिज की पढ़ाई पूरी करते ही मृणाल को बैंक में नौकरी मिल जाती है. एक दिन मृणाल अपनी मां के साथ शादी की बात करने स्वर्णिमा के घर पहुंचता है लेकिन स्वर्णिमा के पिताजी इस शादी से साफ इनकार कर देते हैं और उस की शादी सेठ रामनारायण के बेटे आलोक से कर देते हैं.

आलोक को शराब की बुरी आदत थी. इसी लत के कारण एक दुर्घटना में उस की मौत हो जाती है और स्वर्णिमा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है. मालविका स्वर्णिमा का बहुत खयाल रखती है. उस के साथ घूमनेफिरने और खरीदारी करने जाती है. और एक दिन रास्ते में उन दोनों की मुलाकात मृणाल से होती है. अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

‘‘कैसे हो, मृणाल?’’ उसे देख स्वर्णिमा ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं. तुम कैसी हो?’’ जवाब देने के बाद उस ने पूछा.

‘‘कैसी हो सकती हूं मैं? ठीक ही हूं,’’  स्वर्णिमा ने उदास लहजे में कहा.

‘‘चलिए न, कहीं बैठ कर बातें की जाएं,’’ मालविका ने कहा तो तीनों एक रेस्तरां में जा कर बैठ गए.

कुछ देर इधरउधर की बातों के बाद मालविका ने पूछा, ‘‘मृणालजी, आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘बस, मैं और मेरी मां. बड़ी बहन की शादी हो गई. वह अपनी ससुराल में है और छोटी बहन नागपुर में मेडिकल कालिज में पढ़ाई कर रही है.’’

‘‘क्या अभी तक तुम ने शादी नहीं की?’’ स्वर्णिमा ने पूछा.

‘‘स्वर्णिमा, मां तो हमेशा शादी के लिए कहती रहती हैं पर मैं ही टाल जाता हूं,’’ मृणाल ने स्वर्णिमा के चेहरे की तरफ देखते हुए कहा तो उस ने पलकें झुका लीं.

माहौल गंभीर हो रहा था. यह भांप कर मालविका बोली, ‘‘दीदी, देर हो रही है…अब घर चलते हैं.’’

एक दिन मालविका को बातों ही बातों में पता चला कि स्वर्णिमा का जन्मदिन 15 तारीख को है. बस, फिर क्या था. उस ने मन ही मन प्लान बना डाला और 15 तारीख को मानमनुहार कर के स्वर्णिमा को तैयार कर एक रेस्टोरेंट में ले आई और फोन कर के मृणाल को भी वहीं बुला लिया.

‘‘मालविका, तुम्हें मृणाल को यहां नहीं बुलाना चाहिए था,’’ स्वर्णिमा बोली.

‘‘दीदी, वह आप के साथ पढ़ते थे. आप के दोस्त भी थे. आप के जन्मदिन पर उन्हें तो आना ही चाहिए,’’ मालविका बोली.

‘‘मालविकाजी, आप ने मुझे अचानक यहां क्यों बुलाया? क्या कोई जरूरी काम था?’’ मृणाल ने आते ही पूछा तो वह तपाक से बोली, ‘‘आप कैसे मित्र हैं? आप को अपनी फै्रंड का बर्थडे भी याद नहीं रहता?’’

‘‘ओह, यह बात तो सचमुच मुझे याद नहीं रही वरना पहले तो हम एकदूसरे के साथ अपनाअपना जन्मदिन मनाते थे,’’ मृणाल ने बीती यादों में खोते हुए कहा.

‘‘मृणाल, एकदूसरे का जन्मदिन क्या सिर्फ आप दोनों ही मनाते थे, कोई और नहीं आता था?’’ कुछ सोचते हुए मालविका ने पूछा.

‘‘वह क्या है कि हमें भीड़भाड़ पसंद नहीं थी इसीलिए हम किसी और को नहीं बुलाते थे,’’ स्वर्णिमा ने अचकचा कर जवाब दिया.

इस के बाद मालविका ने और कुछ नहीं पूछा. वेटर को बुला कर खाने का आर्डर दिया और तीनों खापी कर उठ गए.

‘‘दीदी, आप से एक बात पूछूं,’’ लौटते समय रास्ते में मालविका ने अपनी जेठानी स्वर्णिमा से पूछा, ‘‘मुझे अपनी छोटी बहन या सहेली समझ कर उत्तर दीजिएगा. क्या आप और मृणाल सिर्फ अच्छे दोस्त भर थे या…’’

‘‘मालविका, यह कैसा प्रश्न है?’’ स्वर्णिमा इस सवाल से अचकचा सी गई. लेकिन मालविका ने जब अपनी कसम दी तो स्वर्णिमा बोली, ‘‘मालविका, आज तक यह बात मैं ने किसी से नहीं कही पर तुम से कहती हूं. मृणाल और मैं पहले अच्छे दोस्त थे, फिर बाद में एकदूसरे को चाहने लगे थे. मृणाल व उस की मां मेरे घर मम्मीडैडी से मेरा हाथ मांगने भी आए थे पर डैडी ने रिश्ते के लिए मना कर दिया था.’’

ये भी पढ़ें- तिकोनी डायरी

‘‘वह क्यों, दीदी?’’ मालविका ने प्रश्न किया.

‘‘क्योंकि डैडी उन्हें अपनी बराबरी का नहीं समझते थे. वह मेरा रिश्ता अपने बराबर की हैसियत वाले घर में ही करना चाहते थे.’’

‘‘लगता है, मृणालजी अब तक आप को भूल नहीं पाए हैं,’’ मालविका बोली, ‘‘तभी तो अपनी मां के कहने के बाद भी वह शादी नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘जानती हो, आज जब तुम पेमेंट के लिए काउंटर पर गई थीं तो मृणालजी ने मुझ से कहा था, स्वर्णिमा, अगर तुम चाहो तो मैं तुम से शादी करने को तैयार हूं्.’’

‘‘तो आप ने क्या जवाब दिया, दीदी?’’ मालविका ने पूछा.

‘‘मैं ने उसे समझाया कि यह असंभव है और वह किसी और लड़की से विवाह कर घर बसा ले,’’ स्वर्णिमा ने बताया.

‘‘दीदी, आप ने उन की बात मान क्यों नहीं ली?’’

‘‘मालविका, मैं किसी की विधवा हूं और मैं नहीं चाहती कि यह पाप मुझ से हो,’’ स्वर्णिमा ने कहा.

‘‘दीदी, रोतेबिलखते हुए जीना अपनी इच्छाओंआकांक्षाओं की हत्या कर स्वयं पर जुल्म करना क्या पाप नहीं? दीदी, आप उन्हें समझने की कोशिश कीजिए. यों कब तक अकेले घुटघुट कर दिन काटेंगी? अभी तो आप के सामने इतना लंबा जीवन पड़ा है,’’ मालविका ने कहा.

‘‘मालविका, मेरे जीवन में जितना दुख लिखा है उतना तो मुझे भोगना ही पडे़गा न,’’ स्वर्णिमा ने कहा.

मालविका अब अकसर स्वर्णिमा व मृणाल को किसी न किसी बहाने मिलवाने लगी थी. स्वर्णिमा भी अब पहले की तरह हर समय कमरे में बंद न रहती. मालविका के साथ बातें करती. हंसती व खुश रहती. मालविका भी खुश होती कि उस के प्रयासों से एक विधवा के होंठों पर हंसी आ जाती है.

मालविका ने एक बेटे को जन्म दिया तो घर में खुशियां छा गईं. सब बच्चे के जन्मोत्सव पर बड़ा आयोजन करने की तैयारी करने लगे कि नवजात शिशु की तबीयत खराब हो गई. उसे फौरन अस्पताल ले जाया गया पर डाक्टर तमाम कोशिशों के बाद भी बच्चे को बचा न सके.

यह घटना किसी सदमे से कम न थी. मालविका विक्षिप्त सी हो उठी. बेटे को जन्म दे कर उस ने क्याक्या कल्पनाएं कर डाली थीं पर एक पल में ही सबकुछ खत्म हो गया था. नवजात बेटे की मृत्यु के गम ने उस के होंठों की मुसकान छीन ली थी. उस के दिल पर लगा जख्म भर नहीं पा रहा था.

इस घटना को महीनों गुजर गए. धीरेधीरे परिवार के लोग भी सामान्य हो गए थे. एक दिन सब के जाने के बाद मालविका अपने कमरे से निकल कर बरामदे में रखी कुरसी पर बैठ गई. नजर अनायास ही स्वर्णिमा के कमरे की तरफ चली गई.

मालविका कुछ सोचते हुए उठी और आहिस्ता से जेठानी के कमरे का दरवाजा खोला और धीरे से पुकारा, ‘‘दीदी.’’

आज महीनों बाद कानों में यह संबोधन पड़ा तो स्वर्णिमा ने चौंक कर सिर उठाया. देखा, सामने मालविका खड़ी थी.

‘‘आओ, मालविका,’’ उस ने सस्नेह कहा तो वह अंदर चली आई.

‘‘दीदी, आप सही कहती हैं… जितना दुख तकदीर में लिखा है उतना इनसान को भोगना ही पड़ता है,’’ मालविका ने कहा.

‘‘मालविका, कुछ दिनों बाद दोबारा तुम्हारी गोद में नन्हामुन्ना आ जाएगा तो तुम सब भूल जाओगी. लेकिन मेरी बहन, मेरे सामने तो आशा की कोई किरण भी नहीं है. देखो, तुम ऐसे अच्छी नहीं लगती हो. अत: अब उदासी व दुख का दामन छोड़ दो,’’ स्वर्णिमा ने देवरानी को समझाते हुए कहा.

‘मैं अब आप को और दुखी नहीं रहने दूंगी.’ मन ही मन सोचा मालविका ने फिर बोली, ‘‘दीदी, आज शाम मैं मृणालजी से मिलने जाऊंगी. मुझे उन से कुछ काम है.’’

स्वर्णिमा के बारबार पूछने पर भी मालविका ने यह नहीं बताया कि उसे मृणाल से क्या काम है. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद वह अपने कमरे में लौट आई.

दूसरे दिन मालविका सुबह ही स्वर्णिमा के कमरे में आई तो बड़ी खुश थी. चहकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरा काम हो गया.’’

‘‘कौन सा काम?’’ स्वर्णिमा ने पूछा.

‘‘कल मैं मृणालजी से मिलने गई थी,’’ मालविका बोली, ‘‘मैं ने उन से सारी बातें कर ली हैं.’’

‘‘कौन सा काम, कौन सी बात?’’ स्वर्णिमा ने पूछा, ‘‘मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है, मालविका कि तुम क्या कह रही हो.’’

‘‘दीदी, आप की शादी की बात मैं ने मृणालजी से कर ली है और वह तैयार भी हो गए हैं,’’ मालविका ने बताया तो स्वर्णिमा स्तब्ध रह गई.

‘‘नहीं, मालविका, मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती,’’ स्वर्णिमा ने कहा, ‘‘मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी तो मैं अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. फिर घर वाले मेरे बारे में क्या सोचेंगे? प्लीज, तुम ऐसा कुछ मत करना जिस से मेरा मजाक बन जाए.’’

‘‘दीदी, आप अंधेरे में रहतेरहते उस की इतनी अभ्यस्त हो गई हैं कि आप को उजाले की किरण नजर ही नहीं आती. जरा दुखों का आवरण हटा कर देखिए, खुशियां आप की प्रतीक्षा कर रही हैं. उठ कर उन्हें गले क्यों नहीं लगा लेतीं? आप घर वालों की चिंता न करें, उन्हें मैं समझा लूंगी और अपने जीवन में खुशियां लाने से कोई अपनी नजर में नहीं गिरता. आप कोई अनैतिक काम करने नहीं जा रही हैं,’’ मालविका ने जेठानी को समझाया और उस का हाथ पकड़ कर उसे उठाया. फिर लाल साड़ी पहना कर उस का शृंगार करने लगी. तैयार होने के बाद स्वर्णिमा ने जब शीशे में अपने को देखा तो शरमा गई. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी.

देवरानीजेठानी जब दोनों कमरे से बाहर निकलीं तो उन्हें देख सब आश्चर्यचकित रह गए.

लाल साड़ी में सास ने स्वर्णिमा को देखा तो क्रोध से चीख पड़ीं.

‘‘मांजी, आप गुस्सा न हों,’’ मालविका बोली, ‘‘आज स्वर्णिमा दीदी शादी करने जा रही हैं. इन के होने वाले पति का नाम मृणाल है और हां, यदि आप लोग भी दीदी को आशीर्वाद देना चाहें तो हमारे साथ अदालत चल सकते हैं.’’

‘‘छोटी बहू, तुम मेरी दी गई छूट का नाजायज फायदा उठा रही हो. इस खानदान की इज्जत व मानमर्यादा का भी तुम ने खयाल नहीं रखा है,’’ मांजी पहली बार मालविका से इतने कड़े शब्दों में बात कर रही थीं. फिर स्वर्णिमा की ओर मुड़ कर कहने लगीं, ‘‘और इस की तो मति ही मारी गई है जो विधवा हो कर भी विवाह रचाने चली है.’’

‘‘मांजी, यह कोई गलत काम नहीं है. यदि यह किसी भी तरह से गलत होता तो कानून विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं देता,’’ मालविका ने कहा.

‘‘अच्छा, तो तुम मुझे कानून पढ़ाओगी,’’ मांजी और भड़क उठीं, ‘‘बहू, अगर तुम दोनों ने कुछ भी उलटासीधा किया तो इस घर के दरवाजे हमेशाहमेशा के लिए तुम्हारे लिए बंद हो जाएंगे.’’

‘‘मां, मालविका जो कुछ कर रही है वह ठीक है,’’ राहुल ने अपनी पत्नी की तरफदारी लेते हुए कहा, ‘‘इन्हें जाने दें. हमें किसी की खुशियां छीनने का कोई अधिकार नहीं. सभी को अपनी मरजी के मुताबिक स्वतंत्रतापूर्वक जीने का पूरा हक है. मानमर्यादा व इज्जत के नाम पर हम किसी के पैरों में बेडि़यां डाल उसे घुटघुट कर जीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं.’’

ये भी पढ़ें- यह कैसी विडंबना

मांजी ने आश्चर्य से बेटे की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘राहुल, तुम भी…’’

‘‘हां मां, भाभी को दोबारा घर बसाने का पूरा अधिकार है. उन्हें रोकिए मत, जाने दीजिए. मालविका, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं,’’ राहुल ने कहा और आगे बढ़ गया.

मांजी ने बिलखते हुए कहा, ‘‘अब मैं लोगों को क्या मुंह दिखाऊंगी.’’

पास में खड़े राहुल के पापा ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुधा, जब तुम खुद बहू को आशीर्वाद दोगी तो कोई उस पर उंगली नहीं उठा सकेगा बल्कि लोग तुम्हें ही अच्छा कहेंगे.’’

राहुल, मालविका, मृणाल का एक दोस्त और उस की पत्नी की मौजूदगी में स्वर्णिमा व मृणाल विवाहसूत्र में बंध गए. सब ने उन्हें बधाई दी व उन के सुखमय जीवन की कामना की.

‘‘दीदी, मैं ने कहा था न कि उजाले की स्वर्णिम किरणें भी हैं. देखिए, आज वे आप का स्वागत करने को आतुर हैं,’’ मालविका बोली. आज उस के चेहरे पर अपूर्व संतुष्टि व खुशी थी. स्वर्णिमा को उस की खुशियां लौटा कर वह अपना गम भूल गई थी.

राहुल को भी अपनी पत्नी पर गर्व हुआ जिस ने किसी के बुझे चेहरे पर फिर से चमक ला दी थी. वे बाहर निकले तो मांजी के साथ घर के सारे सदस्य वहां खड़े थे. स्वर्णिमा के मम्मीडैडी भी आ गए थे.

‘‘बहू, मुझे क्षमा कर दो. क्रोध में मैं ने तुम्हें जाने क्याक्या कह दिया,’’ मांजी ने स्वर्णिमा से कहा तो मालविका अचरज से उन का मुंह देखने लगी.

‘‘मांजी, क्षमा मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. आप तो बस, मुझ पर अपना स्नेह बनाए रखें,’’ स्वर्णिमा सास के चरणों में झुकते हुए बोली.

स्वर्णिमा को गले लगाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मेरा स्नेह व आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है.’’

‘‘मृणाल, तुम ने मेरी बेटी के उजड़े जीवन में फिर से बहार ला दी है. मैं तुम्हारा यह एहसान कभी न भूल सकूंगा,’’ स्वर्णिमा के डैडी भानुप्रताप ने कहा.

‘‘डैडी, इस में एहसान की कौन सी बात है,’’ मृणाल ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘आप प्लीज, ऐसी बातें न कीजिए, बस, अपना आशीर्वाद दीजिए हमें.’’

‘‘जीते रहो, बेटा, सदा सुखी रहो. ईश्वर सब को तुम्हारे जैसा ही बेटा दे,’’ भानुप्रतापजी बोले.

बेटी का घर दोबारा बसते देख स्वर्णिमा की मम्मी की आंखों में भी संतुष्टि के भाव उभर आए थे.

स्वर्णिमा ने सब से विदा ली व मृणाल के साथ चली गई, एक नए जीवन की ओर जहां उजाले की स्वर्णिम किरणें उन की प्रतीक्षा कर रही थीं वहीं खुशियां उस के आंचल में खेलने को आतुर थीं.

शुचिता श्रीवास्तव

नाश्ता मंत्री का गरीब के घर

मंत्री महोदय की भावना को जान कर सचिव ने तुरंत संवाददाता सम्मेलन बुलाया. अगले ही दिन यह समाचार सुर्खियों में आ गया कि आगामी दौरे में मंत्रीजी किसी गरीब के घर भोजन करेंगे.

मंत्रीजी का सचिव काफी समझदार जीव था. साहब के मन की बात भांप कर, उन के लिए दौरे का मौका तलाशने लगा और बहुत जल्द ही एक मौका मिल गया.

वह खुशनसीब कसबा मेरा था, जहां विद्युत एवं उद्योग मंत्री का पदार्पण तय हुआ. सेठ मुरारीलाल की नई चावल मिल का उद्घाटन जो होना था. फिर कसबे में तलाश हुई एक समझदार गरीब की और वह लाटरी खुली जयराम के हक में. तय था कि मंत्री महोदय भोजन वहीं करेंगे, हर हालत में. तभी एक बात आड़े आ गई.

सेठ मुरारीलाल का प्रबल आग्रह आया कि मंत्री महोदय का भोजन उस की कुटिया पर हो. बात खजूर में अटकने जैसी हो गई थी. दरहकीकत, सेठ मुरारीलाल हर साल पार्टी को खासा तगड़ा चंदा दिया करते थे. भला ऐसे दानवीर को निराश कैसे किया जाता.

उस विषम परिस्थिति को सुलझाया जनाब सचिव महोदय ने. फौरन एक प्रेस नोट अखबारों को भेजा गया, ‘‘चूंकि मंत्री महोदय पहली दफा किसी गरीब के यहां भोजन करेंगे अतएव आमाशय पर बुरा असर पड़ने की आशंका को देखते हुए, फिलहाल मंत्रीजी गरीब के घर सिर्फ नाश्ता करेंगे.’’

प्रेस नोट छपने के बाद कूच की तैयारी होने लगी.

मेरे कसबे का गरीब जयराम, जिस ने बैंक से ऋण ले कर हाल ही में फोटो स्टेट एवं टाइपिंग सेंटर खोला था, मंत्रीजी की मेजबानी के सपने देखते हुए हलाल होने वाले बकरे की तरह फूला न समा रहा था. उसे जो भी मिलता, जहां भी मिलता, सगर्व टोक कर कहता, ‘‘सुना आप ने? मंत्रीजी नाश्ता मेरे यहां करेंगे और भोजन, सेठ मुरारीलाल की कोठी पर.’’

इधर मंत्री का कसबे में आना तय हुआ, उधर प्रशासन में मानो भूचाल आ गया. जयराम के घरदुकान को जाने वाली हर गलीसड़क पर यातायात बढ़ गया. सरकारी जीपें, कारें, स्कूटर उस के घरदुकान के सामने आ कर रुकने लगे. सब को गरीब का स्तर ऊंचा उठाने की फिक्र जो थी और यह भय भी था कि क्या जयराम मंत्रीजी को नाश्ता दे सकेगा?

लिहाजा, प्रदेश की राजधानी से एक पर्यवेक्षक आया और पार्टी के कुछ स्थानीय कार्यकर्ताओं को संग ले कर जयराम के खंडहरनुमा मकान तक पहुंचा. कुछ सरकारी पुछल्ले भी साथ लग लिए थे.

पार्टी पर्यवेक्षक ने जयराम से दरियाफ्त की, ‘‘मंत्री महोदय को नाश्ते में क्या खिलाओगे?’’

‘‘ज…जी…जी…’’ जयराम हकला गया. दरअसल, इस मुद्दे पर उस ने अभी तक सोचा ही न था.

उसे इस कदर घबराया हुआ देख, एक पंजाबी सरकारी अफसर ने उत्साह से पूछा, ‘‘ओय, तू नाश्ते दा मीणू की बणाया ए?’’

‘‘नाश्ते का मीनू,’’ कह कर जयराम सोचविचार में पड़ गया.

जयराम को सोच में पड़ा देख कर एक और सियासती ओहदेदार उचका, ‘‘इतना क्या सोच रहे हो, यार? तुम नाश्ता नहीं किया करते…’’

‘‘साहब,’’ बीच में बात काट कर हाथ जोड़ जयराम गिड़गिड़ाया, ‘‘हमें नाश्ता कहां नसीब, साब. किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ बैठ जाता है, बस,’’ उस का जवाब सुन कर पार्टी कार्यकर्ता और अधिकारी एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

‘‘मगर मैं मंत्रीजी को दूधजलेबी का नाश्ता दे दूंगा,’’ पूरे अभिमान के साथ जयराम ने घोषणा कर दी. हालांकि वह जानता था, ऐसा नाश्ता उस के बूते का न था. उस की घोषणा सुन कर राजधानी पर्यवेक्षक ने आंखें तरेरीं, ‘‘दूधजलेबी,’’ एकएक शब्द पर जोर दे कर वह बोला.

जयराम नहीं समझा कि वह क्या गलत बोल गया लेकिन कुछेक पुछल्लों ने फौरन पर्यवेक्षक का अभिप्राय समझ लिया.

एक स्थानीय कार्यकर्ता बोला, ‘‘जयराम, तुझे शरम आनी चाहिए. अरे, क्यों हमारी नाक कटवाने पर तुला है? नहीं जानता, मंत्री लोग नाश्ता कैसा करते हैं?’’

‘‘अरे, हम जानते हैं,’’ अपना सामान्य ज्ञान व्यक्त करते एक दूसरे कार्यकर्ता ने बखान करना शुरू कर दिया, ‘‘अहा…हा…, खालिस देसी घी में तले नमकीन काजू, मिठाइयां, कचौरी, सेब, नारंगी, क्रैकजैक बिस्कुट…’’

ये भी पढ़ें- नुस्खे सरकारी दफ्तर में फतह पाने के

बीच में ही उसे अर्द्धविराम बाध्य होना पड़ा. मुंह में आई लार को घोंट पुन: गले में गटका, फिर शुरू हुआ ही था कि जयराम रोंआसा हो कर बोला, ‘‘इतनी सारी चीजें मंत्रीजी बस, नाश्ते में ही खा जाएंगे?’’

‘‘धत,’’ पर्यवेक्षक ने माथा थाम लिया हाथों में, ‘‘अरे भाई, इतनी चीजें इसलिए रखनी पड़ती हैं कि मंत्री महोदय को न जाने क्या भा जाए?’’

‘‘एक व्यक्ति के लिए मैं किसी तरह इंतजाम कर लूंगा,’’ दबी जबान में जयराम बोला.

‘‘पागल हो क्या?’’ पर्यवेक्षक बोला, ‘‘मंत्री लोग कभी अकेले नाश्ता लिया करते हैं? अरे, पार्टी के कार्यकर्ता, मंत्री के सचिव, सरकारी अधिकारी, कारजीपों के ड्राइवर, पत्रकार और छायाकार ये सब अपने घरों से नाश्ता बांध कर लाएंगे क्या?’’

‘‘तकरीबन, 50-60 लोग हो ही जाएंगे,’’ एक अधिकारी अनुमान लगा कर बोला. वह पहले सांख्यिकी विभाग में था, ‘‘ऐसे वक्त पर कुछ गैरजरूरी लोग भी तो हाथ मार जाते हैं.’’

‘‘इंतजाम 100 आदमियों का रखना पड़ेगा,’’ एक चमचा खड़क उठा.

‘‘नहीं, साहब,’’ जयराम एकाएक पटरी से उतर गया, ‘‘इतने से तो मेरी बहन की शादी हो जाएगी.’’

सब के चेहरे उतर गए. बकरा हलाल हुए बगैर निकल भागने की कोशिश में था. तुरंत ही पकड़ मजबूत की गई.

अब एक गुंडा किस्म का कार्यकर्ता गुर्राया, ‘‘कोई बहाना नहीं चलेगा बे. पहले पूरे कसबे में कहता डोल रहा था, मंत्रीजी नाश्ता मेरे यहां करेंगे, अब मुकर कर ज्यादा होशियार बनना चाहता है?’’

‘‘नहीं, फजलू दादा, ऐसी बात नहीं है. मेरे घर में बहुत तंगहाली है. पिताजी ने तो बरसों से खाट पकड़ रखी है. मैं ने बीच में पढ़ाई छोड़ कर टाइपिंग सेंटर इसीलिए खोला है. धंधा अभी जमा नहीं. आधी कमाई दुकान का किराया और बैंक की किस्त चुकाने में चली जाती है. किसी तरह 10 जनों का पेट भर रहा हूं.’’

फजलू उसे लाल आंखों से घूरता रहा. नजर नीची कर फंसे गले से जयराम फिर बोला, ‘‘मंत्रीजी को नाश्ता कराने से मुझे क्या फायदा होगा? क्या बैंक ऋण माफ हो जाएगा? उलटे ज्यादा कर्ज में फंस जाऊंगा मैं.’’

‘‘जयराम बेटे, पैसा हाथ का मैल है,’’ रुद्राक्षधारी एक बुजुर्ग नेता ने उस के कंधे को थपथपाया, ‘‘यहां सवाल मान का है, प्रतिष्ठा का है. द्वापर में सुदामा श्रीकृष्ण के घर गए थे और कलयुग में तो स्वयं कृष्ण पधार रहे हैं सुदामा के घर. अरे, तुम्हें जो शोहरत और प्रतिष्ठा मिलेगी वह कम बात है क्या? तुम पढ़ेलिखे हो, सोचो, थोड़ा गहराई से सोचो.’’

जयराम बेबस हो गया. उस प्रभावशाली व्यक्तित्व और वक्तव्य के आगे उस की गति सांपछछूंदर की सी हो गई. उस का युवा अंतर्मन कहीं से पिघल कर आंखों में उतर कर बहने का यत्न करने लगा लेकिन उसे जज्ब कर गया वह.

तभी विद्युत विभाग के सहायक अभियंता ने नम्रतापूर्वक कहा, ‘‘जयराम, कितना अजीब है यह, विद्युत मंत्री घर पधारें और यहां बिजली नहीं. फिटिंग फटाफट करवा लो, मैं तुरंत बिजली देने का आदेश कर देता हूं.’’

और 3 दिन बीत गए. क्या न हुआ उन 3 दिनों में. जयराम के घर का कायापलट हो गया. सबकुछ खुदबखुद वैसे हो रहा था जैसे ‘जयसंतोषी मां’ फिल्म में होता है. जयराम महज मूकदर्शक था.

सर्वप्रथम, मकान की मरम्मत करने कारीगर आए और टूटफूट सुधार गए. फिर आया बिजली फिटिंग वाला मिस्त्री, तत्पश्चात पुताई करने वाले मजदूर आए और इमारत को चमका गए. शाम तक बिजली लग गई. उस के घर के सामने वाले मैदान को साफ कर दिया गया. गड्ढे पाट दिए गए. मैदान में सुनहरी बालू सब जगह बिखेर दी गई. यह नगर पालिका की मेहरबानी थी.

तीसरे दिन सुबह ही टैंट हाउस वाले खुदबखुद चले आए. मैदान में कनातें, चांदनी, मेजकुरसियां लगा दी गईं. कोई मनचला कहीं से माइक और रेकार्डप्लेयर लाया और उस पर बजने लगा, ‘आज मेरे यार की शादी है…’

नाश्ते का पूरा सामान, वैवाहिक भोज की व्यवस्था करने वाला एक दलाल ले आया. इस तरह जयराम को कतई भागदौड़ नहीं करनी पड़ी.

यह सब हो रहा था स्थानीय नेताओं के आदेश पर, जो नहीं चाहते थे कि मंत्रीजी के स्वागत में कोई खामी रहे. यह सही था, खद्दरधारी नेताओं ने जयराम को बागी न होने दिया क्योंकि वे तो बागियों को आत्मसमर्पण करवाने में माहिर थे. फिर जयराम से उन्हें खटका भी पूरा था. अब वे निश्चिंत थे.

बहरहाल, निश्चित समय से कुछ ही घंटों बाद मंत्री महोदय पूरे लवाजमे सहित पधारे. हालांकि वक्त भोजन का हो गया था किंतु इस महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम को संपन्न करना अत्यावश्यक समझा गया.

मंत्रीजी और अन्य लोग कुरसियों पर बैठ गए. जिन्हें जगह न मिली वे खड़े रहे. परोसने वाले, बरसातकीट- पतंगों की तरह  प्रकट हो गए. दनादन सामग्री परोसी जाने लगी. धड़ाधड़ प्लेटें साफ होने लगीं. बहुतों ने बहती गंगा में हाथ धो लिए.

मंत्रीजी की प्लेट पूरी भरी थी. उन के हाथ में अधखाया नमकीन काजू का टुकड़ा था. उन्हें लोगों की बात सुनने और मुसकराने से कुछ फुरसत मिलती तो खा पाते. फोटोग्राफर उस मुद्रा को कैमरे में कैद करने में मशगूल थे. जो लोग मंत्री महोदय के नजदीकी थे उन्होंने मंत्रीजी की प्लेट भी साफ कर दी.

ऊंची नजर किए हुए ही मंत्री महोदय ने प्लेट में हाथ मारा और खाली महसूस कर चौंकते हुए नीचे देखा. बेवजह मुसकराए और तपाक से खड़े हो गए.

उस भीड़ में जयराम नजर न आ रहा था. उस का वजूद मंत्रीजी के सामने अति नगण्य था और थी किसे फुरसत जो जयराम को याद रखे. पूरा माहौल मंत्रीमय था. मंत्रीजी कार में बैठे. कारें, जीपें, स्कूटर वगैरह घरघरा कर चालू हुए और काफिला उड़ चला. जो पैरों पर सवार थे वे पैदल ही दौड़ लिए. सेठ मुरारीलाल की कोठी बगल में ही थी.

ये भी पढ़ें- एक और परिणीता

दुलहन सरीखी कोठी से बाहर आ कर सेठजी ने मंत्री महोदय को माल्यार्पण किया. छायाकारों ने वह चित्र खींचने के लिए दनादन फ्लैश चमकाए. भोजन के दौरान सेठ मुरारीलाल ने एक ऐसा लाइसेंस स्वीकृत करा लिया जिसे हासिल करने के लिए उद्योगपतियों में तगड़ी होड़ लगी थी. तत्पश्चात मिल का भव्य उद्घाटन हुआ, जिस में मंत्री महोदय ने मिल उद्योग के लिए एकाध रियायतों की घोषणा की.

ये भी पढ़ें- मैं ही दोषी हूं

उधर एकदम अकेला जयराम, कारवां गुजर जाने के बाद गुबार को देख रहा था. सीधीउलटी कुरसियां, साबुत- टूटी प्लेटें, गिलास और हाथ धोने के पानी से फिर पैदा हुआ कीचड़.

दूसरे दिन समाचारपत्रों की सुर्खियां इस तरह थीं : ‘मंत्री महोदय का अनूठा कदम, गरीब के घर नाश्ता’ समाचार खासा लंबा था, किंतु जयराम का कहीं उल्लेख नहीं था. सेठ मुरारीलाल की मिल का उद्घाटन करते हुए मंत्री महोदय द्वारा कुछेक रियायतों की घोषणा. यह समाचार सचित्र था, जिस में मंत्रीजी का स्वागत सेठजी कर रहे थे.

उसी रोज जयराम के घरदुकान पर हर घंटे कोई न कोई आता रहा. सभी भुगतान का तकाजा ले कर आए थे. मकान मरम्मत करने वाले कारीगर, बिजली फिटिंग का कार्य करने वाला मिस्त्री, पुताई मजदूर, टैंट हाउस वाला, नाश्ते की सामग्री की व्यवस्था करने वाला दलाल वगैरह.

तभी एक झलकी और दिखी. बिजली विभाग का लाइनमैन खंभे पर चढ़ा और खटाक से जयराम के घर का विद्युत संपर्क काट दिया गया. आखिरकार वह संपर्क अस्थायी ही तो था. उसी के बाजू में सेठ मुरारीलाल की नई चावल मिल धड़धड़ करती चल पड़ी थी.

प्रभाशंकर उपाध्याय ‘प्रभा’     

शायद बर्फ पिघल जाए

‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

ये भी पढ़ें- तुम्हीं ने दर्द दिया है

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.

‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.

मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.

मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.

‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’

दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.

क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.

‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’

निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’

अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.

‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’

ये भी पढ़ें- पांचवां मौसम

‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’

विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.

‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’

मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’

चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन भाभी?’’

‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’

चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.

मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’

मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में.

तपस्या

सागर विश्वविद्यालय का एम.ए. फाइनल का आखिरी परचा दे कर मंजरी हाल से बाहर आई. वह यह परीक्षा प्राइवेट छात्रा के रूप में दे रही थी. 6 महीने पहले एक दुर्घटना में उस के मातापिता का देहांत हो गया था और उस के बाद वह अपने चाचा के यहां रहने लगी थी. हाल से बाहर आते ही उसे अपनी पुरानी सहेली सीमा दिखाई दी. दोनों बड़े प्यार से मिलीं.

‘‘मंजरी, आज कितना हलका लग रहा है. है न? तेरे परचे कैसे हुए?’’

‘‘अच्छे हुए, तेरे कैसे हुए?’’

‘‘पास तो खैर हो जाऊंगी. तेरे जैसी होशियार तो हूं नहीं कि प्रथम श्रेणी की उम्मीद करूं. चल, मंजरी, छात्रावास में चल कर जी भर कर बातें करेंगे.’’

‘‘नहीं, सीमा, मुझे जल्दी जाना है. यहीं पेड़ की छांव में बैठ कर बातें करते हैं.’’

दोनों छांव में बैठ गईं.

‘‘मंजरी, तुम्हारे मातापिता की मृत्यु इतनी अकस्मात हो गई कि आज भी सच नहीं लगता. चाचाजी के यहां तू खुश तो है न?’’

मंजरी की आंखों में आंसू छलक आए. वह आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘चाचाजी के यहां सब लोग बड़े अच्छे स्वभाव के हैं. वहां पैसे की कोई कमी नहीं है. सब ठाटबाट से आधुनिक ढंग से रहते हैं. लेकिन सीमा, मुझे वहां रहना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘क्यों भला?’’

‘‘देखो, सीमा, मेरे पिताजी साधारण लिपिक थे और चाचाजी प्रखर बुद्धि के होने के कारण आई.ए.एस. हो गए. दोनों भाइयों की स्थिति में इतना अंतर था कि मेरे पिताजी हमेशा हीनभावना से पीडि़त रहते थे. फिर भी वह स्वाभिमानी थे. इसीलिए उन्होंने हमें चाचाजी के घर से यथासंभव दूर रखा था.

‘‘उन्हें बहुत दुख था कि बचपन में उन्होंने पढ़ाई की तरफ ध्यान नहीं दिया. अपनी यह कमी वह मेरे द्वारा पूरी करना चाहते थे. आर्थिक स्थिति कमजोर थी, फिर भी उन्होंने शुरू से ही मुझे अच्छे स्कूल में पढ़ाया. हर साल मुझे प्रथम श्रेणी में पास होते देख वह फूले नहीं समाते थे.’’

‘‘जाने दे ये दुखद बातें. चाचाजी के घर के बारे में बता.’’

‘‘चाचाजी के 2 बच्चे हैं. बड़ी लड़की रश्मि मेरी उम्र की है और वह भी एम.ए. फाइनल की परीक्षा दे रही है. छोटा कपिल कालिज में पढ़ता है. सीमा, तुझे यह सुन कर आश्चर्य होगा कि रश्मि और मैं चचेरी बहनें हैं, फिर भी हमारी शक्लसूरत एकदम मिलतीजुलती है.’’

‘‘तो इस का मतलब यह कि रश्मि बहन भी तुझ जैसी सुंदर है. है न?’’

‘‘रंग तो उस का इतना साफ नहीं, पर अच्छे कपड़ेलत्तों और आधुनिक साजशृंगार से वह काफी आकर्षक लगती है. तभी तो उस की शादी समीर जैसे लड़के से तय हुई है. आज 5 तारीख है न, 20 तारीख को दिल्ली में उन की शादी है.’’

‘‘अच्छा, यह तो बड़ी खुशी की बात है. पर यह समीर है कौन और करता क्या है?’’

‘‘समीर चाचाजी के पुराने मित्र रामसिंहजी का बेटा है. रामसिंहजी मथुरा में ऊंचे पद पर हैं. उन की 2 लड़कियां हैं और एक बेटा. लड़कियों की शादी हो चुकी है. समीर भी आई.ए.एस. है और आजकल सरगुजा में अतिरिक्त कलक्टर के पद पर कार्य कर रहा है. देखने में सुंदर, हंसमुख और स्वस्थ है.’’

‘‘तो क्या यह प्रेम विवाह है?’’

‘‘प्रेम विवाह तो नहीं कह सकते, लेकिन दोनों एकदूसरे को जानते हैं.’’

‘‘मंजरी, अपने चाचाजी से कहना कि तेरे लिए भी ऐसा ही लड़का ढूंढ़ दें.’’

‘‘हट, कैसी बातें करती है? कहां रश्मि और कहां मैं. पगली, समीर सरीखा पति पाने के लिए मांबाप का रईस होना आवश्यक है और मेरे तो मांबाप ही नहीं हैं. मैं तो शादी की बात सोच भी नहीं सकती. पास होते ही मैं नौकरी तलाश करूंगी. चाचाजी पर मैं और ज्यादा बोझ नहीं डालना चाहती.’’

रहस्यमय ढंग से हंसते हुए सीमा बोली, ‘‘अरे, तू शादी नहीं करना चाहती, तो अपने चाचाजी से मेरे लिए लड़का ढूंढ़ने के लिए कह दे.’’

दोनों हंसने लगीं.

‘‘अरे सीमा, एक बात तो तुझे बताना भूल ही गई. रसोई में चाचीजी की मदद करतेकरते मैं भी रईसी खाना, नएनए व्यंजन बनाना सीख गई हूं. अगर किसी आई.ए.एस. अधिकारी से ब्याह करने की तेरी इच्छा पूरी हो जाए तो अपने पति के साथ मेरे घर अवश्य आना, खूब बढि़या खाना खिलाऊंगी.’’

एकदूसरे से हंसीमजाक करते उन्हें आधा घंटा बीत गया. जब वे तपती धूप से परेशान होने लगीं तो जाने के लिए उठ खड़ी हुईं. मंजरी ने एक कागज पर चाचाजी का पता और अपना रोल नंबर लिख कर सीमा को दे दिया.

‘‘सीमा, परिणाम निकलते ही मुझे खबर करना.’’

‘‘जरूर…जरूर. अब कब मुलाकात होगी?’’ कह कर सीमा मंजरी के गले लगी. फिर दोनों भारी मन से एकदूसरे से विदा हुईं.

ये भी पढ़ें- गली आगे मुड़ती है

रश्मि और मंजरी के परचे अच्छे होने पर चाचाचाची खूब खुश थे.

‘‘चाचीजी, अब मैं घर का काम संभालूंगी, आप निश्चिंत हो कर बाहर का काम करिए,’’ मंजरी ने कहा.

शादी का दिन आया, लेकिन घर में कोई होहल्ला नहीं था. दोनों तरफ के मेहमानों के लिए एक अच्छे होटल में कमरे ले लिए गए थे. शादी और खानेपीने का प्रबंध भी होटल में ही था. मेहमान भी सिर्फ एक दिन के लिए आने वाले थे.

रश्मि के मातापिता मेहमानों की अगवानी के लिए सवेरे से ही होटल में थे. बराती सुबह 10 बजे पहुंच गए थे. सब का उचित स्वागतसम्मान किया गया. दोपहर 1 बजे खाना हुआ. खाने के बाद रश्मि के मातापिता थोड़ी देर के लिए आराम करने अपने कमरे में आ गए. 4 बजे फिर तैयार हो कर रिश्तेदारों और बरातियों के पास चले गए. जातेजाते रश्मि से बोल गए कि वह जल्दी मेकअप कर के वक्त पर तैयार हो जाए.

मांबाप के जाते ही रश्मि ने मंजरी को अपने पास बुलाया और बोली, ‘‘मंजरी, मैं मेकअप के लिए जा रही हूं. लेकिन यदि मुझे देर हो गई तो पिताजी को अलग से बुला कर ठीक 6 बजे यह लिफाफा दे देना, भूलना नहीं.’’

‘‘नहीं भूलूंगी. लेकिन तुम 6 बजे तक आने की कोशिश करना.’’

रश्मि हाथ में छोटा सा सूटकेस ले कर चली गई, होटल के ग्राउंड फ्लोर पर ब्यूटी पार्लर में जाने की बात कह कर.

जब शाम को 6 बज गए और रश्मि नहीं आई तो मंजरी ने चाचाजी को कमरे में बुला कर वह लिफाफा उन के हाथ में दे दिया.

‘‘चाचाजी, यह रश्मि ने दिया है.’’

‘‘अब बिटिया की कौन सी मांग है?’’ कहतेकहते उन्होंने लिफाफा खोला और अंदर का कागज निकाल कर जैसेजैसे पढ़ने लगे, उन का चेहरा क्रोध से लाल हो गया.

‘‘मूर्ख, नादान लड़की,’’ कहतकहते वह दोनों हाथों में सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘चाचाजी, क्या हुआ?’’

‘‘अब मैं क्या करूं, मंजरी?’’ कह कर उन्होंने वह कागज मंजरी को दे दिया और आंखों में आए आंसू पोंछ कर उन्होंने मंजरी से कहा, ‘‘जा बेटी, अपनी चाची को जल्दी से बुला ला. मैं रामसिंहजी को फोन कर के बुलाता हूं.’’

चिट्ठी पढ़ कर मंजरी सकपका गई और झट से चाची को बुला लाई. रश्मि के पिता ने वह चिट्ठी अपनी पत्नी के हाथ में पकड़ा दी. पढ़ते ही रश्मि की मां रो पड़ीं. चिट्ठी में लिखा था :

‘‘पिताजी, मैं जानती हूं, मेरी यह चिट्ठी पढ़ कर आप और मां बहुत दुखी होंगे. लेकिन मैं माफी चाहती हूं.

‘‘मैं मानती हूं कि समीर लाखों में एक है. मुझे भी वह अच्छा लगता है, लेकिन मैं रोहित से प्यार करती हूं और जब आप यह पत्र पढ़ रहे होंगे तब तक आर्यसमाज मंदिर में मेरी उस से शादी हो चुकी होगी. आप को पहले बताती तो आप राजी न होते.

‘‘मैं यह भी जानती हूं कि शादी के दिन मेरे इस तरह एकाएक गायब हो जाने से आप की स्थिति बड़ी विचित्र हो जाएगी. लेकिन मैं दिल से मजबूर हूं. हां, मेरा एक सुझाव है, मंजरी का कद मेरे जैसा ही है और रंगरूप में तो वह मुझ से भी बेहतर है. आप समीर से उस की शादी कर दीजिए. किसी को पता तक नहीं लगेगा. मैं फिर आप से क्षमा चाहती हूं. रश्मि.’’

इतने में रामसिंहजी भी अपनी पत्नी के साथ वहां आ गए. उन्हें देख कर रश्मि के पिता ने बड़े दुखी स्वर में कहा, ‘‘मेरे दोस्त, क्या बताऊं, इस रश्मि ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा,’’ और यह कह कर उन्होंने वह चिट्ठी उन्हें पकड़ा दी.

पत्र पढ़ कर समीर के माता और पिता दोनों ही हतप्रभ रह गए. फिर समीर के पिता ने मंजरी की तरफ देख कर कहा, ‘‘बेटी, तुम जरा बाहर जा कर देखो, कोई अंदर न आने पाए.’’

मंजरी बाहर चली गई. फिर कुछ देर उन लोगों में बातचीत हुई. इस के बाद रश्मि के पिता ने मंजरी को अंदर बुला कर कहा, ‘‘बेटी, हम सब की इज्जत अब तेरे हाथ में है. तू इस शादी के लिए हां कर दे तो हम लोग अभी भी बात संभाल लेंगे.’’

‘‘आप जो भी आज्ञा देंगे मैं करने को तैयार हूं,’’ मंजरी ने धीरे से कहा.

‘‘शाबाश, बेटी, तुझ से यही उम्मीद थी.’’

मंजरी ने सब के पैर छुए. सब ने राहत की सांस ले कर उसे आशीर्वाद दिया और आगे की तैयारी में लग गए.

शादी धूमधाम से हुई. किसी को कुछ पता नहीं चला. खुद समीर को भी इस हेरफेर का आभास न हुआ.

मथुरा में शानदार स्वागत आयोजन हुआ. जब सब रिश्तेदार वापस चले गए तो रामसिंहजी ने अपने पुत्र को बुला कर सब बात बता दी. सुन कर समीर ने अपने को बेहद अपमानित महसूस किया. उस के मन को गहरी ठेस लगी थी और उसे सब से अधिक अफसोस इस बात का था कि उस से संबंधित इतनी बड़ी बात हो गई और मांबाप ने कोई कदम उठाने से पहले उस से सलाह तक नहीं ली. मांबाप पर जैसे दुख का पहाड़ गिर पड़ा.

बेचारी मंजरी कमरे में ही दुबकी रहती. उसे समझ में नहीं आता था कि अब वह क्या करे. रश्मि की नादानी ने सब का जीवन अस्तव्यस्त कर दिया था. वह सोचती, रश्मि को समीर सरीखे भले लड़के के जीवन में इस तरह कड़वाहट भरने का क्या अधिकार था. मंजरी का मन सब के लिए करुणा से भर गया.

ये भी पढ़ें- एक और परिणीता

एक दिन मंजरी के सासससुर ने उसे बुला कर कहा, ‘‘मंजरी, हमारे इकलौते बेटे का जीवन सुखी करना अब तुम्हारे हाथ में है. समीर बहुत अच्छा लड़का है लेकिन उस के मन पर जो गहरा घाव हुआ है उसे भरने में समय लगेगा. तुम उस के मन का दुख समझने का प्रयास करो. हमें विश्वास है कि तुम्हारी सूझबूझ से उस का घाव जल्दी ही भर जाएगा. लेकिन तब तक तुम्हें सब्र से काम लेना होगा. किसी प्रकार की जल्दबाजी घातक सिद्ध हो सकती है.’’

‘‘आप निश्चिंत रहिए. मुझे उम्मीद है कि आप के आशीर्वाद और मार्गदर्शन से मैं सब ठीक कर लूंगी,’’ मंजरी बोली.

समीर को फिर से ड्यूटी पर जाना था. समीर के मातापिता ने सोचा, कहीं समीर सरगुजा जाते समय मंजरी को साथ ले जाने से मना न कर दे. इसलिए समीर के पिता ने लंबी छुट्टी ले ली और वह भी सरगुजा जाने के लिए सपत्नीक नवदंपती के साथ हो लिए.

जिन दिनों समीर के मातापिता सरगुजा में थे, उन दिनों मंजरी सब से पहले उठ कर नहाधो कर नाश्ते की तैयारी करती. खाना समीर की मां बनाती थीं. वह इस काम में भी अपनी सास का हाथ बंटाती. सासससुर के आग्रह से उसे सब के साथ ही नाश्ता और भोजन करना पड़ता.

एक दिन उस की सास अपने पति से बोलीं, ‘‘कुछ भी हो, लड़की सुंदर होने के साथसाथ गुणी भी है. मेरी तो यही प्रार्थना है कि जल्दी ही उसे पत्नी के योग्य सम्मान मिलने लगे.’’

‘‘मुझे तो लगता है, तुम्हारी इच्छा जल्दी ही पूरी होगी. बदलती हवा का रुख मैं महसूस कर रहा हूं,’’ मंजरी के ससुर बोले. और यही आशा ले कर उस के सासससुर वापस मथुरा चले गए.

एक रात खाने पर समीर ने मंजरी से कहा, ‘‘मैं जानता हूं, तुम्हें अकारण ही इस झंझट में फंसाया गया. मुझे इस बात का बहुत अफसोस है.’’

‘‘मैं जानती हूं, आप कैसी कठिन मानसिक यंत्रणा से गुजर रहे हैं. आप मेरी चिंता न करें. लेकिन कृपया मुझे अपना हितैषी समझें.’’

शादी के बाद दोनों में यह पहली बातचीत थी. फिर दोनों अपनेअपने कमरे में चले गए.

दूसरे दिन नाश्ते के समय मंजरी को लगा कि समीर उस से नजर चुरा कर उस की तरफ देख रहा है. वह मन ही मन खुश हुई. उसी शाम को कमलनाथ और आनंद सपत्नीक मिलने आए.

‘‘मंजरीजी, दिन में आप अकेली रहती हैं, कभीकभी हमारे यहां आ जाया कीजिए न,’’ कमलनाथजी की पत्नी निशाजी बोलीं.

‘‘जरूर आऊंगी, लेकिन कुछ दिन बाद. अभी तो मैं दिन भर उलझी रहती हूं.’’

‘‘किस में?’’ निशाजी ने पूछा. समीर ने भी आश्चर्य से उस की तरफ देखा.

‘‘यों ही, यह नमक, तेल, मिर्च का मामला अभी जम नहीं पाया. कभी तेल ज्यादा, कभी नमक ज्यादा तो कभी मिर्च ज्यादा,’’ मंजरी ने कहा.

सब लोग सुन कर हंस पड़े.

‘‘शुरूशुरू में खाना बनाते समय ऐसा ही होता है,’’ फिर आनंदजी की पत्नी रामेश्वरी ने आपबीती सुनाई.

मंजरी ने मेज पर नमकीन, मिठाई और चाय रखी. कमलनाथ कह रहे थे, ‘‘तो  समीर कल का पक्का है न? भाभीजी, कल सवेरे 7 बजे पिकनिक पर चलना है आप दोनों को. 30-40 मील की दूरी पर एक बहुत सुंदर जगह है. वहां रेस्ट हाउस भी है. सब इंतजाम हो गया है. मैं आप दोनों को लेने 7 बजे आऊंगा.’’

समीर और मंजरी ने एकदूसरे की तरफ देखा. फिर उसी क्षण समीर बोला, ‘‘ठीक है, हम लोग चलेंगे.’’

थोड़ी देर बाद जब सब चले गए तो समीर ने मंजरी से कहा, ‘‘तुम इतना अच्छा खाना बनाती हो, फिर भी सब  के सामने झूठ क्यों बोलीं?’’

‘‘आप को मेरा बनाया खाना अच्छा लगता है?’’

‘‘बहुत,’’ समीर ने कहा.

दोनों की नजरें एक क्षण के लिए एक हो गईं. फिर दोनों अपनेअपने कमरे में चले गए.

लेकिन थोड़ी ही देर बाद तेज आंधी के साथ मूसलाधार बारिश होने लगी. बिजली चली गई. समीर को खयाल आया कि मंजरी अकेली है, कहीं डर न जाए.

वह टार्च ले कर मंजरी के कमरे के सामने गया और उसे पुकारने लगा. मंजरी ने दरवाजा खोला और समीर को देख राहत की सांस ले बोली, ‘‘देखिए न, ये खिड़कियां बंद नहीं हो रही हैं. बरसात का पानी अंदर आ रहा है.’’

समीर ने टार्च उस के हाथ में दे दी और खिड़कियां बंद करने लगा. खिड़कियों के दरवाजे बाहर खुलते थे. तेज हवा के कारण वह बड़ी कठिनाई से उन्हें बंद कर सका.

‘‘तुम्हारा बिस्तर तो गीला है. सोओगी कैसे?’’

‘‘मैं गद्दा उलटा कर के सो जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?’’

मंजरी कुछ नहीं बोली. समीर ने अत्यंत मृदुल आवाज में कहा, ‘‘मंजरी.’’ और उस ने उस की तरफ बढ़ने को कदम उठाए. फिर अचानक वह मुड़ा और अपने कमरे में चला गया.

दूसरे दिन सवेरे 7 बजे दोनों नहाधो कर पिकनिक के लिए तैयार थे. इतने में कमलनाथ भी जीप ले कर आ पहुंचे. समीर उन के पास बैठा और मंजरी किनारे पर. मौसम बड़ा सुहावना था. समीर और कमलनाथ में बातें चल रही थीं. मंजरी प्रकृति का सौंदर्य देखने में मगन थी.

अब रास्ता खराब आ गया था और जीप में बैठेबैठे धक्के लगने लगे थे.

‘‘तुम इतने किनारे पर क्यों बैठी हो? इधर सरक जाओ,’’ समीर ने कहा.

लज्जा से मंजरी का चेहरा आरक्त हो उठा. उसे सरकने में संकोच करते देख समीर ने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से उसे अपने पास खींच लिया. मंजरी ने भी अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की.

ये भी पढ़ें- नुस्खे सरकारी दफ्तर में फतह पाने के

शाम 7 बजे घर लौटे तो दोनों खुश थे. पिकनिक में खूब मजा आया था. दोनों ने आ कर स्नान किया और गरमगरम चाय पीने हाल में बैठ गए. समीर बातचीत करने के लिए उत्सुक लग रहा था. ‘‘रात के खाने के लिए क्या बनाऊं?’’ मंजरी ने पूछा तो उस ने कहा, ‘‘बैठो भी, जल्दी क्या है? आमलेटब्रेड खा लेंगे.’’ फिर उस ने अचानक गंभीर हो कर कहा, ‘‘मंजरी, मुझे तुम से कुछ पूछना है.’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘मंजरी, इस शादी से तुम सचमुच खुश हो न?’’

‘‘मैं तो बहुत खुश हूं. खुश क्यों न होऊं, जब मेरे हाथ आप जैसा रत्न लगा है.’’

खुशी से समीर का चेहरा खिल उठा, ‘‘और मेरे हाथ भी तो तुम जैसी लक्ष्मी लगी है.’’

दोनों ही आनंदविभोर हो कर एकदूसरे को देखने लगे. शंका के

सब बादल छंट चुके थे. तनाव खत्म हो गया था.

इतने में कालबेल बजी. समीर उठ कर बाहर गया.

मंजरी सोच रही थी कि अगले दिन सवेरे वह सासससुर को फोन कर के यह खुशखबरी देगी.

‘‘मंजरी…मंजरी,’’ कहते हुए खुशी से उछलता समीर अंदर आया.

‘‘इधर आओ, मंजरी, देखो, तुम्हारा एम.ए. का नतीजा आया है.’’

दौड़ कर मंजरी उस के पास गई. लेकिन समीर ने आसानी से उसे तार नहीं दिया. मंजरी को छीनाझपटी करनी पड़ी. तार खोल कर पढ़ा :

‘‘हार्दिक बधाई. योग्यता सूची में द्वितीय. चाचा.’’

खुशी से मंजरी का चेहरा चमक उठा. तिरछी नजर से उस ने पास खड़े समीर की तरफ देखा.

समीर ने आवेश में उसे अपनी ओर खींच लिया और मृदुल आवाज में कहा, ‘‘मेरी ओर से भी हार्दिक बधाई. तुम जैसी होशियार, गुणी और सुंदर पत्नी पा कर मैं भी आज योग्यता सूची में आ गया हूं, मंजरी.’’

इस सुखद वाक्य को सुनते ही मंजरी ने अपना माथा समर्पित भाव से समीर के कंधे पर रख दिया. उस की तपस्या पूरी हो गई थी.

कमल भालेराव            

पांचवां मौसम

‘‘आज नीरा बेटी ने पूरे डिवीजन में फर्स्ट आ कर अपने स्कूल का ही नहीं, गांव का नाम भी रोशन किया है,’’ मुखिया सत्यम चौधरी चौरसिया, मिडिल स्कूल के ग्राउंड में भाषण दे रहे थे. स्टेज पर मुखियाजी के साथ स्कूल के सभी टीचर, गांव के कुछ खास लोग और कुछ स्टूडेंट भी थे.

आज पहली बार चौरसिया मिडिल स्कूल से कोई लड़की फर्स्ट आई थी जिस कारण यहां के लड़केलड़कियों में खास उत्साह था.

मुखियाजी आगे बोले, ‘‘आजतक हमारे गांव की कोई भी लड़की हाईस्कूल तक नहीं पहुंची है. लेकिन इस बार सूरज सिंह की बेटी नीरा, इस रिकार्ड को तोड़ कर आगे पढ़ाई करेगी.’’ इस बार भी तालियों की जोरदार गड़गड़ाहट उभरी.

लेकिन यह खुशी हमारे स्कूल के एक लड़के को नहीं भा रही थी. वह था निर्मोही. निर्मोही मेरा चचेरा भाई था. वह स्वभाव से जिद्दी और पढ़ने में औसत था. उसे नीरा का टौप करना चुभ गया था. हालांकि वह उस का दीवाना था. निर्मोही के दिल में जलन थी कि कहीं नीरा हाईस्कूल की हीरोइन बन कर उसे भुला न दे.

आज गांव में हर जगह सूरज बाबू की बेटी नीरा की ही चर्चा चल रही थी. उस ने किसी फिल्म की हीरोइन की तरह किशोरों के दिल पर कब्जा कर लिया था. आज हरेक मां अपनी बेटी को नीरा जैसी बनने के लिए उत्साहित कर रही थी. अगर कहा जाए कि नीरा सब लड़कियों की आदर्श बन चुकी थी, तो शायद गलत न होगा.

वक्त धीरेधीरे मौसम को अपने रंगों में रंगने लगा. चारों तरफ का वातावरण इतना गरम था कि लोग पसीने से तरबतर हो रहे थे. तभी छुट्टी की घंटी बजी. सभी लड़के दौड़तेभागते बाहर आने लगे. कुछ देर बाद लड़कियों की टोली निकली, उस के ठीक बीचोंबीच स्कूल की हीरोइन नीरा बल खा कर चल रही थी. वह ऐसी लग रही थी, जैसे तारों में चांद. नीरा जैसे ही स्कूल से बाहर निकली, निराला चौधरी को देख कर खिल उठी.

नीरा, निराला के पास पहुंची और बोली, ‘‘बिकू भैया, आप यहां?’’

बिकू निराला का उपनाम था. निराला बोला, ‘‘मैं मोटर- साइकिल से घर जा रहा था. सोचा, तुझे भी लेता चलूं.’’

फिर दोनों बाइक पर एकदूसरे से चिपट कर बैठ गए. बाइक दौड़ने लगी. सभी लड़केलड़कियां नीरा के इस स्टाइल पर कमेंट करते हुए अपनेअपने रास्ते हो लिए. मैं और निर्मोही भाई वहीं खड़ेखड़े नीरा की इस बेहयाई को देखते रहे.

नीरा आंखों से ओझल हो गई तो मैं निर्मोही भाई के कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘‘क्या देखते हो भैया, भाभी अपने भाई के साथ कूच कर गई.’’

इस पर निर्मोही भाई गुस्से में बोला, ‘‘बिकूवा उस का भैया नहीं, सैंया है.’’

मैं ने उन को पुचकारा, ‘‘रिलैक्स भैया, देर हो रही है. अब हम लोगों को भी चलना चाहिए.’’

फिर हम दोनों अपनीअपनी साइकिल पर सवार हो कर चल दिए. रास्ते में निर्मोही भाई ने बताया कि बिकूवा अपने ही गांव का रहने वाला है. शहर में उस का अपना घर है, जिस में वह स्टूडियो और टेलीफोन बूथ खोले हुए है. वह धनी बाप का बेटा है. उस के बाप के पास 1 टै्रक्टर और 2 मोटरसाइकिल हैं. बिकूवा अपने बाप का पैसा खूबसूरत लड़कियों को पटाने में पानी की तरह बहाता है.

वक्त के साथसाथ निराला और नीरा का प्यार भी रंग बदलने लगा. कुछ पता ही नहीं चला कि निराला और नीरा कब भाईबहन से दोस्त और दोस्त से प्रेमीप्रेमिका बन गए. इस के बाद दोनों एकदूसरे को पतिपत्नी के रूप में देखने का वादा करने लगे.

धीरेधीरे इन दोनों के प्यार की चर्चा गरम होने लगी. निर्मोही भाई भी इस बात को पूरी तरह फैला रहे थे. कब नीरा हाईस्कूल गई, कब उस पर निराला का जादू चला और कब उस की लवस्टोरी स्कूल से बाजार और बाजार से गांव के घरों तक पहुंची, कुछ पता ही नहीं चला. अब गांव की लड़कियां, जिन के दिल में कभी उस के लिए स्नेह हुआ करता था, अब वही उसे देख कर ताना कसने लगीं कि मिसेज निराला चौधरी आ रही हैं.

कोई कहता कि आज नीरा बिकूवा के स्टूडियो में फोटो खिंचवाने गई थी. कोई कहता, आज वह बिकूवा के साथ रेस्टोरेंट जा रही थी. आज वह बिकूवा के साथ यहां जा रही थी, आज वहां जा रही थी. ऐसी ही अनापशनाप बातें उस के बारे में सुनने को मिलतीं. लेकिन बात इतनी बढ़ जाने के बाद भी उस के घरवालों को जैसे कुछ पता ही नहीं था या फिर उन लोगों को नीरा पर विश्वास था कि नीरा जो कुछ भी करेगी उस से उस के परिवार का नाम रोशन ही होगा.

ये भी पढ़ें- महाभोज

एक दिन जब निर्मोही भाई से बरदाश्त नहीं हुआ तो जा कर नीरा के मातापिता को उस की लवस्टोरी सुनाने लगे, वे लोग उस पर बरस पड़े. वहां का माहौल मरनेमारने वाला हो गया. लेकिन निर्मोही भाई भी तो हीरो थे. उन में हार मानने वाली कोई बात ही नहीं थी.

गांव में जातिवाद का बोलबाला होने से स्कूल का माहौल भी गरम होता जा रहा था. स्कूल के छात्र 2 गुटों में बंट चुके थे. एक गुट के मुखिया निर्मोही भाई थे तो दूसरे के ब्रजेश. लेकिन उस गुट का असली नेता निराला था. दोनों गुटों में रोजाना कुछ न कुछ झड़प होती ही रहती.

उन्हीं दिनों 2 और नई छात्राएं मीनू, मौसम और एक नए छात्र शशिभूषण ने भी क्लास में दाखिला लिया.

जब मैडम ने हम लोगों से उन का परिचय करवाया तो उन दोनों कमसिन बालाओं को देख कर मेरी नीयत में भी खोट आने लगा. मुझे भी एक गर्लफ्रैंड की कमी खलने लगी. खलती भी क्यों नहीं. वे दोनों लाजवाब और बेमिसाल थीं. लेकिन मुझे क्या पता था कि जिस ने मेरे दिल में आग लगाई है उस का दिल मुझ से भी ज्यादा जल रहा है. मैं मौसम की बात कर रहा हूं. वह अकसर कोई न कोई बहाना बना कर मुझ से कुछ न कुछ पूछ ही लेती. कुछ कह भी देती. उधर मीनू तो निर्मोही भाई की दीवानी बन चुकी थी. पर मीनू का दीवाना शशिभूषण था.

अब एक नजर फिर देखिए, शशिभूषण दीवाना था मीनू का. मीनू दीवानी थी, निर्मोही की. निर्मोही नीरा के पीछे दौड़ता था. नीरा निराला के संग बेहाल थी, इन पांचों की प्रेमलीला देख कर मुझे क्या, आप को भी ताज्जुब होगा. मगर मेरे और मौसम के प्यार में ठहराव था. हम दोनों की एकदूसरे के प्रति अटूट प्रेम की भावना थी. तब ही तो चंद दिनों में ही मैं मौसम का प्यार पा कर इतना बदल गया कि मेरे घरवालों को भी ताज्जुब होने लगा. मैं और मौसम अकसर टाइम से आधा घंटा पहले स्कूल पहुंच जाते और फिर क्लास में बैठ कर ढेर सारी बातें किया करते.

उधर नीरा को मीनू और मौसम से बेहद जलन होने लगी क्योंकि ये दोनों लड़कियां नीरा को हर क्षेत्र में मात दे सकती थीं और दे भी रही थीं. वैसे तो पहले से ही स्कूल में नीरा की छवि धुंधली होने लगी थी लेकिन मीनू और मौसम के आने से नीरा की हालत और भी खराब हो गई. पढ़ाई के क्षेत्र में जो नीरा कभी अपनी सब से अलग पहचान रखती थी, आज वही निराला के साथ पहचान बढ़ा कर अपनी पहचान पूरी तरह भुला चुकी थी. जिन टीचर्स व स्टूडेंट्स का दिल कभी नीरा के लिए प्रेम से लबालब हुआ करता था, आज वही उसे गिरी नजर से देखते.

उन्हीं दिनों मेरे पापा का तबादला हो गया. मैं अपने पूरे परिवार के साथ गांव से शहर में आ गया. उन दिनों हमारा स्कूल भी बंद था, जिस कारण मैं अपने सब से अजीज दोस्त मौसम को कुछ नहीं बता पाया. अब मेरी पढ़ाई यहीं होने लगी. पर मेरे दिलोदिमाग पर हमेशा मौसम की तसवीर छाई रहती. शहर की चमकदमक भी मुझे मौसम के बिना फीकीफीकी लगती.

शुरूशुरू में मेरा यह हाल था कि मुझे यहां चारों तरफ मौसम ही मौसम नजर आती थी. हर खूबसूरत लड़की में मुझे मौसम नजर आती थी.

एक दिन तो मौसम की याद ने मुझे इतना बेकल कर दिया कि मैं ने अपने स्कूल की सीनियर छात्रा सुप्रिया का हाथ पकड़ कर उसे ‘मौसम’ के नाम से पुकारा. बदले में मेरे गाल पर एक जोरदार चांटा लगा, तब कहीं जा कर मुझे होश आया.

इसी तरह चांटा खाता और आंसू बहाता मैं अपनी पढ़ाई करने लगा. वक्त के साथसाथ मौसम की याद भी कम होने लगी. लेकिन जब कभी मैं अकेला होता तो सबकुछ भुला कर अतीत की खाई में गोते लगाने लगता.

धीरेधीरे 2 साल गुजर गए.

आज मैं बहुत खुश हूं. आज पापा ने मुझ से वादा किया है कि परीक्षा खत्म होने के बाद हम लोग 1 महीने के लिए घर चलेंगे. लेकिन परीक्षा में तो अभी पूरे 25 दिन बाकी हैं. फिर कम से कम 10 दिन परीक्षा चलेगी. तब घर जाएंगे. अभी भी बहुत इंतजार करना पड़ेगा.

ये भी पढ़ें- छोटी छोटी बातें

किसी तरह इंतजार खत्म हुआ और परीक्षा के बाद हम लोग घर के लिए रवाना हो गए. गांव पहुंचने पर मैं सब से पहले दौड़ता हुआ घर पहुंचा. मैं ने सब को प्रणाम किया. फिर निर्मोही भाई को ढूंढ़ने लगा. घर, छत, बगीचा, पान की दुकान, हर जगह खोजा, मगर निर्मोही भाई नहीं मिले. अंत में मैं मायूस हो कर अपने पुराने अड्डे की तरफ चल पड़ा. मेरे घर के सामने एक नदी बहती है, जिस के ठीक बीचोंबीच एक छोटा सा टापू है, यही हम दोनों का पुराना अड्डा रहा है.

हम दोनों रोजाना लगभग 2-3 घंटे यहां बैठ कर बातें किया करते थे. आज फिर इतने दिनों बाद मेरे कदम उसी तरफ बढ़ रहे थे. मैं ने मन ही मन फैसला किया कि भाई से सब से पहले मौसम के बारे में पूछना है. फिर कोई बात होगी. मौसम का खयाल मन में आते ही एक अजीब सी गुदगुदी होने लगी. तभी दोनाली की आवाज से मैं ठिठक गया.

कुछ ही दूरी पर भाई बैठेबैठे निशाना साध रहे थे. काली जींस, काली टीशर्ट, बड़ीबड़ी दाढ़ी, हाथ में दोनाली. भाई देखने में ऐसा लगते थे मानो कोई खूंखार आतंकवादी हों. भाई का यह रूप देख कर मैं सकपका गया. जो कभी बीड़ी का बंडल तक नहीं छूता था, आज वह गांजा पी रहा था. मुझे देख कर भाई की आंखों में एक चमक जगी. पर पलक झपकते ही उस की जगह वही पहले वाली उदासी छा गई. कुछ पल हम दोनों भाई एकदूसरे को देखते रहे, फिर गले लग कर रो पड़े.

जब हिचकियां थमीं तो पूछा, ‘‘भैया, यह क्या हाल बना रखा है?’’

जवाब में उन्होंने एक जोरदार कहकहा लगाया. मानो बहुत खुश हों. लेकिन उन की हंसी से दर्द का फव्वारा छूट रहा था. जुदाई की बू आ रही थी.

जब हंसी थमी तो वह बोले, ‘‘भाई, तू ने अच्छा किया जो शहर चला गया. तेरे जाने के बाद तो यहां सबकुछ बदलने लगा. नीरा और बिकूवा की प्रेमलीला ने तो समाज का हर बंधन तोड़ दिया. लेकिन अफसोस, बेचारों की लीला ज्यादा दिन तक नहीं चली. आज से कोई 6 महीना पहले उन दोनों का एक्सीडेंट हो गया. नीरा का चेहरा एक्सीडेंट में इस तरह झुलस गया कि अब कोई भी उस की तरफ देखता तक नहीं.’’

थोड़ा रुक कर भाई फिर बोले, ‘‘बिकूवा का तो सिर्फ एक ही हाथ रह गया है. अब वह सारा दिन अपने बूथ में बैठा फोन नंबर दबाता रहता है. शशिभूषण और मीनू की अगले महीने सगाई होने वाली है…’’

‘‘लेकिन मीनू तो आप को…’’ मेरे मुंह से अचानक निकला.

‘‘हां, मीनू मुझे बहुत चाहती थी. लेकिन मैं ने उस के प्यार का हमेशा अपमान किया. अब मैं सोचता हूं कि काश, मैं ने नीरा के बदले मीनू से प्यार किया होता. तब शायद ये दिन देखने को न मिलते.’’

फिर हम दोनों के बीच थोड़ी देर के लिए गहरी चुप्पी छा गई.

इस के बाद भाई को थोड़ा रिलैक्स मूड में देख कर मैं ने मौसम के बारे में पूछा. इस पर एक बार फिर उन की आंखें नम हो गईं. मेरा दिल अनजानी आशंका से कांप उठा.

मेरे दोबारा पूछने पर भाई बोले, ‘‘तुम तो जानते ही हो कि मौसम मारवाड़ी परिवार से थी. तुम्हारे जाने के कुछ ही दिनों बाद मौसम के पापा को बिजनेस में काफी घाटा हुआ. वह यहां की सारी प्रापर्टी बेच कर अपने गांव राजस्थान चले गए.’’

इतना सुनते ही मेरी आंखों के आगे दुनिया घूमने लगी. वर्षों से छिपाया हुआ प्यार, आंसुओं के रूप में बह निकला.

हम दोनों भाई छुट्टी के दिनों में साथसाथ रहे. पता नहीं कब 1 महीना गुजर गया और फिर हम लोग शहर आने के लिए तैयार हो गए. इस बार हमारे साथ निर्मोही भाई भी थे.

शहर आ कर निर्मोही भाई जीतोड़ पढ़ाई करने लगे. वह मैट्रिक की परीक्षा में अपने स्कूल में फर्स्ट आए.

आज 3 साल बाद पापा मुझे इंजीनियरिंग और भाई को मेडिकल की तैयारी के लिए कोटा भेज रहे थे. मैं बहुत खुश था, क्योंकि आज मुझे कोटा यानी राजस्थान जाने का मौका मिल रहा था. मौसम का घर भी राजस्थान में है. इसीलिए इतने दिनों बाद मन में एक नई आशा जगी थी.

ये भी पढ़ें- कायरता का प्रायश्चित्त

मैं भाई के साथ राजस्थान आ गया. यहां मैं हरेक लड़की में अपनी मौसम को तलाशने लगा. लेकिन 1 साल गुजर जाने के बाद भी मुझे मेरी मौसम नहीं मिली. अब हम दोनों भाइयों के सिर पर पढ़ाई का बोझ बढ़ने लगा था. लेकिन जहां भाई पढ़ाई को अपनी महबूबा बना चुके थे, वहीं मैं अपनी महबूबा की तलाश में अपने लक्ष्य से दूर जा रहा था. फिर परीक्षा भी हो गई. रिजल्ट आया तो भाई का सिलेक्शन मेडिकल के लिए हो गया, लेकिन मैं लटक गया.

मुझे फिर से तैयारी करने के लिए 1 साल का मौका मिला है और इस बार मैं भी जीतोड़ मेहनत कर रहा हूं. लेकिन फिर भी कभी अकेले में बैठता हूं तो मौसम की याद तड़पाने लगती है. वर्ष के चारों मौसम आते हैं और चले जाते हैं. पर मेरी आंखों को तो इंतजार है, 5वें मौसम का. पता नहीं कब मेरा 5वां मौसम आएगा, जिस में मैं अपनी मौसम से मिलूंगा.

संग्राम सिंह ‘चंद्रकेतु’

गली आगे मुड़ती है

‘‘पिछले एक हफ्ते से बहुत थक गई हूं,’’ संजना ने कौफी का आर्डर देते हुए रोली से कहा, ‘‘इतना काम…कभीकभी दिल करता है कि नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाऊं.’’

‘‘हां यार, मेरे घर वाले भी शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं,’’ रोली बोली, ‘‘लेकिन नौकरी की व्यस्तता में कुछ सोच नहीं पा रही हूं…नयना का ठीक है. शादी का झंझट ही नहीं पाला, साथ रहो, साथ रहने का मजा लो और शादी के बाद के झंझट से मुक्त रहो.’’

‘‘मुझे तो लिव इन रिलेशन शादी से अधिक भाया है,’’ नयना ने कहा, ‘‘शादी करो, बच्चे पैदा करो, बच्चे पालो और नौकरी को हाशिए पर रख दो. अरे, इतनी मेहनत कर के इंजीनियरिंग की है क्या सिर्फ घर चलाने और बच्चे पालने के लिए?’’

‘‘कैसा चल रहा है तेरा पवन के साथ?’’ रोली ने पूछा.

‘‘बहुत बढि़या, जरूरत पर एक दूसरे का साथ भी है लेकिन बंधन कोई नहीं. मैं तो कहती हूं, तू भी एक अच्छा सा पार्टनर ढूंढ़ ले,’’ नयना बोली.

‘‘कौन कहता है कि शादी बंधन है,’’ संजना कौफी के कप में चम्मच चलाती हुई बोली, ‘‘बस, कामयाब औरत को समय के अनुसार सही साथी तलाश करने की जरूरत है.’’

‘‘हां, जैसे तू ने तलाश किया,’’ नयना खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आई.आई.टी. इंजीनियर और आई.आई.एम. लखनऊ से एम.बी.ए. हो कर एक लेक्चरर से शादी कर ली, इतनी कामयाब बीवी को वह कितने दिन पचा पाएगा.’’

जवाब में संजना मुसकराने लगी, ‘‘क्यों नहीं पचा पाएगा. जब एक पत्नी अपने से कामयाब पति को पचा सकती है तो एक पति अपने से अधिक कामयाब पत्नी को क्यों नहीं पचा सकता है. आज के समय की यही जरूरत है,’’ कह कर कौफी का प्याला मेज पर रख कर संजना उठ खड़ी हुई. साथ ही रोली और नयना भी खिलखिलाते हुए उठीं और अपनी- अपनी राह चल पड़ीं.

तीनों सहेलियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़ेबड़े ओहदों पर थीं. फुरसत के समय तीनों एकदूसरे से मिलती रहती थीं. तीनों सहेलियों की उम्र 32 पार कर चुकी थी. रोली अभी तक अविवाहित थी. नयना एक युवक पवन के साथ लिव इन रिलेशन व्यतीत कर रही थी और संजना ने एक लेक्चरर से 3 साल पहले विवाह किया था. उस का साल भर का एक बेटा भी था. वैसे तो तीनों सहेलियां अपनीअपनी वर्तमान स्थितियों से संतुष्ट थीं लेकिन सबकुछ है पर कुछ कमी सी है की तर्ज पर हर एक को कुछ न कुछ खटकता रहता था.

रोली जब घर पहुंची तो 9 बज रहे थे. मां खाने की मेज पर बैठी उस का इंतजार कर रही थीं. उसे आया देख कर मां बोलीं, ‘‘बेटी, आज बहुत देर कर दी, आ जा, जल्दी से खाना खा ले.’’

9 बजना बड़े शहरों में कोई बहुत अधिक समय नहीं था, पर किसी ने भी उस का खाने के लिए इंतजार करना ठीक नहीं समझा. भाई अगर देर से आएं तो उन के लिए सारा परिवार ठहरता है. आखिर, वह अपनी सारी तनख्वाह इसी घर में तो खर्च करती है.

मां की तरफ बिना देखे रोली अंदर चली गई. बाथरूम से फ्रेश हो कर निकली तो मां प्लेट में खाना डाल रही थीं. उस ने किसी तरह थोड़ा खाना खाया. इस दौरान मां की बातों का वह हां, ना में जवाब देती रही और फिर अपने कमरे में बत्ती बुझा कर लेट गई. दिन भर के काम से शरीर क्लांत था लेकिन हृदय के अंदर समुद्री तूफान था. लंबेचौड़े पलंग ने जैसे उस का अस्तित्व शून्य बना दिया था.

रिश्ते तो कई आते हैं पर तय हो ही नहीं पाते क्योंकि या तो उसे अपनी वर्तमान नौकरी छोड़नी पड़ती या फिर लड़के का रुतबा उस के बराबर का नहीं होता और दोनों ही स्थितियां रोली को स्वीकार नहीं थीं. इसी कारण शादी टलती जा रही थी. वह हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहती थी. उस के संस्कार उसे नयना जैसा जीवन जीने की प्रेरणा नहीं देते थे और उस का रुतबा व स्वाभिमान उसे अपने से कम योग्य लड़के से शादी करने से रोकते थे.

नयना अपने फ्लैट पर पहुंची तो फ्लैट में अंधेरा था. पर्स से चाबी निकाल कर दरवाजा खोला और अंदर आ गई. ‘पवन कहां होगा’ यह सोच कर उस ने पवन के मोबाइल पर फोन लगाया और बोली, ‘‘पवन, कहां हो तुम?’’

‘‘नयना, मैं आज कुछ दोस्तों के साथ एक फार्म हाउस पर हूं. सौरी डार्लिंग, मैं आज रात वापस नहीं आ पाऊंगा. कल रविवार है, कल मिलते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.

पवन साथ हो या न हो, एक असुरक्षा का भाव जाने क्यों हमेशा उस के जेहन में तैरता रहता है. यों उन का लिव इन रिलेशन अच्छा चल रहा था फिर भी वह अपनेआप को कुछ लुटा हुआ, ठगा हुआ सा महसूस करती थी. विवाह की अहमियत दिल में सिर उठा ही लेती. वैवाहिक संबंधों पर पारिवारिक, सामाजिक व बच्चों का दबाव होता है इसलिए निभाने ही पड़ते हैं लेकिन उन के संबंधों की बुनियाद खोखली है, कभी भी टूट सकते हैं…उस के बाद…यह सोचने से भी नयना घबराती थी.

नयना ने 2 टोस्ट पर मक्खन लगाया, थोड़ा दूध पिया और कपड़े बदल कर बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई. पवन लिव इन रिलेशन के लिए तो तैयार है पर विवाह के लिए नहीं. कहता है कि अभी उस ने विवाह के बारे में सोचा नहीं है. सच तो यह है कि पवन यदि विवाह के लिए कहे भी तो शायद वह तैयार न हो पाए. विवाह के बाद की जिम्मेदारियां, बच्चे, घरगृहस्थी, वह कैसे निभा पाएगी. लेकिन जब अपने दिल से पूछती है तो एहसास होता है कि विवाह की अहमियत वह समझती है.

स्थायी संबंध, भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा विवाह से ही मिलती है. लाख उस के पवन के साथ मधुर संबंध हैं लेकिन उसे वह अधिकार तो नहीं जो एक पत्नी का अपने पति पर होता है. यह सबकुछ सोचतेसोचते नयना गुदगुदे तकिए में मुंह गड़ा कर सोने का असफल प्रयास करने लगी.

संजना घर पहुंची तो नितिन बेटे को कंधे से चिपकाए लौन में टहल रहा था. उसे अंदर आते देख कर उस की तरफ चला आया और बोला, ‘‘बहुत देर हो गई.’’

‘‘हां, नयना और रोली के साथ कौफी पीने रुक गई थी.’’

‘‘तो एक फोन तो कर देतीं,’’ नितिन नाराजगी से बोला.

दोनों अंदर आ गए. नितिन बेटे को बिस्तर पर लिटा कर थपकियां देने लगा. वह बाथरूम में चली गई. नहाधो कर निकली तो मेज पर खाना लगा हुआ था.

‘‘चलो, खाना खा लो,’’ संजना बोली तो नितिन मेज पर आ कर बैठ गया.

डोंगे का ढक्कन हटाती हुई संजना बोली, ‘‘कुछ भी कहो, खाना महाराजिन बहुत अच्छा बनाती है.’’

नितिन चुपचाप खाना खाता रहा. संजना उस की नाराजगी समझ रही थी. आज शनिवार की शाम नितिन का आउटिंग का प्रोग्राम रहा होगा, जो उस की वजह से खराब हो गया. एक बार मन किया कि मानमनुहार करे लेकिन वह इतनी थकी हुई थी कि नितिन से उलझने का उस का मन नहीं हुआ.

खाना खत्म कर के उस ने बचा हुआ खाना फ्रिज में रखा और बिस्तर पर आ कर लेट गई. नितिन सो गया था. आंखों को कोहनी से ढके संजना का मन कर रहा था कि वह नितिन को मना ले, लेकिन पता नहीं कौन सी दीवार थी जो उसे उस के साथ सहज होने से रोकती थी.

ये भी पढ़ें- मैं ही दोषी हूं

वैसे नितिन उस का स्वयं का चुनाव था. जब उस के लिए रिश्ते आ रहे थे उस समय उस की बूआ ने अपने रिश्ते के एक लेक्चरर लड़के का रिश्ता उस के लिए सुझाया था. घर में सभी खिलखिला कर हंस पड़े थे. कहां संजना बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक और कहां लेक्चरर.

तब उस की छोटी बहन मजाक में बोली थी, ‘वैसे दीदी, एक लेक्चरर से आप का आइडियल मैच रहेगा. आखिर पतिपत्नी में से किसी एक को तो घर संभालने की फुरसत होनी ही चाहिए. वरना घर कैसे चलेगा. आप पति बन कर राज करना वह पत्नी बन कर घर संभालेगा.’ और बहन की मजाक में कही हुई बात संजना के जेहन में आ कर अटक गई थी.

पहले तो उस के जैसी योग्य लड़की के लिए रिश्ते मिलने ही मुश्किल हो रहे थे. एक तो इस लड़के की नौकरी स्थानीय थी और दूसरे, आने वाले समय में बच्चे होंगे तो उन की देखभाल करने का उस के पास पर्याप्त समय होगा तो वह अपनी नौकरी पर पूरा ध्यान दे सकती है. यह सोच कर उस का निर्णय पुख्ता हो गया. उस के इस क्रांतिकारी निर्णय में पिता ने उस का साथ दिया था. उन की नजर में आज के समय में पति या पत्नी में से किसी का भी कम या ज्यादा योग्य होना कोई माने नहीं रखता है. और इस तरह से नितिन से उस का विवाह हो गया था.

शुरुआत में तो सब ठीक चला लेकिन धीरेधीरे उन के रिश्तों में ख्ंिचाव आने लगा. उस की तनखाह, ओहदा, उस का दायरा, उस की व्यस्तताएं सभी कुछ नितिन के मुकाबले ऊंचा व अलग था. और यह बात संजना के हावभाव से जाहिर हो जाती थी. नितिन उस के सामने खुद को बौना महसूस करता था. संजना सोच रही थी कि काश, उस ने विवाह करने में जल्दबाजी न की होती तो आज उस की यह स्थिति नहीं होती. उस से तो अच्छा रोली और नयना का जीवन है जो खुश तो हैं. नितिन उस की परेशानियां समझ ही नहीं पाता. वह चाहता है कि पत्नी की तरह मैं उस के अहं को संतुष्ट करूं. यही सोचतेसोचते संजना सो गई.

दूसरे दिन रविवार था. वह देर से सो कर उठी. जब वह उठी तो महाराजिन, धोबन, महरी सब काम कर के जा चुके थे और आया मोनू की मालिश कर रही थी. वह बाहर निकली, किचन में जा कर चाय बनाई. एक कप नितिन को दी और खुद भी बैठ कर चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगी.

तभी उस का फोन बज उठा. उस ने फोन उठाया, नयना थी, ‘‘हैलो नयना…’’ संजना चाय पीते हुए नयना से बात करने लगी.

‘‘संजना, क्या तुम थोड़ी देर के लिए मेरे घर आ सकती हो?’’ नयना की आवाज उदासी में डूबी हुई थी.

‘‘क्यों, क्या हो गया, नयना?’’ संजना चिंतित स्वर में बोली.

‘‘बस, घर पर अकेली हूं, रात भर नींद नहीं आई, बेचैनी सी हो रही है.’’

‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर संजना उठ खड़ी हुई. नितिन सबकुछ सुन रहा था. उस का तना हुआ चेहरा और भी तन गया.

वह तैयार हुई और नितिन से ‘अभी आती हूं’ कह कर बाहर निकल गई. नयना के फ्लैट में संजना पहुंची तो वह उस का ही इंतजार कर रही थी. बाहर से ही अस्तव्यस्त घर के दर्शन हो गए. वह अंदर बेडरूम में गई तो देखा नयना सिर पर कपड़ा बांधे बिस्तर पर लेटी हुई थी. कमरे में कुरसियों पर हफ्ते भर के उतारे हुए मैले कपड़ों का ढेर पड़ा हुआ था. कहने को पवन और नयना दोनों ऊंचे ओहदों पर कार्यरत थे पर उन के घर को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि यह 2 समान विचारों वाले इनसानों का घर है.

‘‘क्या हुआ, नयना,’’ संजना उस के सिर पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘पवन कहां है?’’

‘‘वह अपने दोस्तों के साथ शहर से दूर किसी फार्म हाउस पर गया हुआ है और मेरी तबीयत रात से ही खराब है. दिल बारबार बेचैन हो उठता है, सिर में तेज दर्द है,’’ इतना बताते हुए नयना की आवाज भर्रा गई.

संजना के दिल में कुछ कसक सा गया. यहां नयना इसलिए दुखी है कि पवन कल से लौटा नहीं और उस के पास नितिन के लिए समय नहीं है.

‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है. रात तक पवन लौट आएगा,’’ संजना बोली, ‘‘चल, तुझे डाक्टर को दिखा लाती हूं्. उस के  बाद मेरे घर चलना.’’

‘‘बात रात तक आने की नहीं है, संजना,’’ नयना बोली, ‘‘पवन का व्यवहार कुछ बदल रहा है. वह अकसर ही मुझे बिना बताए अपने दोस्तों के साथ चला जाता है. कौन जाने उन दोस्तों में कोई लड़की हो?’’ बोलते- बोलते नयना की रुलाई फूट पड़ी.

‘‘लेकिन तू ने कभी कहा नहीं…’’

‘‘क्या कहती…’’ नयना थोड़ी देर चुप रही, ‘‘वह मेरा पति तो नहीं है जिस पर कोई दबाव डाला जाए. वह अपने फैसले के लिए आजाद है, संजना,’’ और संजना की बांह पकड़ कर नयना बोली, ‘‘तू ने अपने जीवन में सब से सही निर्णय लिया है. तेरे पास सबकुछ है. सुकून भरा घर, बेटा और तुझे मानसम्मान देने वाला पति पर मेरे और पवन के रिश्तों का क्या है, कौन सा आधार है जो वह मुझ से बंधा रहे? आखिर इन रिश्तों का और इस जीवन का क्या भविष्य है? एक उम्र निकल जाएगी तो मैं किस के सहारे जीऊंगी?

‘‘जीवन सिर्फ जवानी की सीधी सड़क ही नहीं है, संजना. इस सीधी, सपाट सड़क के बाद एक संकरी गली भी आती है…अधेड़ावस्था की…और जब यह गली मुड़ती है न…तो एक भयानक खाई आती है…बुढ़ापे की…और जीवन का वही सब से भयानक मोड़ है, तब मैं क्या करूंगी…’’ कह कर नयना रोने लगी.

‘‘नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन तेरे जीवन की निश्ंिचतता उसी की वजह से है. उसे खोने का तुझे डर नहीं, घर की तुझे चिंता नहीं…बेटे के लालनपालन में तुझे कोई परेशानी नहीं…’’ रोतेरोते नयना बोली, ‘‘मेरे पास क्या है? पवन का मन होगा तब तक वह मेरे साथ रहेगा, फिर उस के बाद…’’

संजना हतप्रभ सी नयना को देखती रह गई. उस की आंखों में, उस के चेहरे पर असुरक्षा के भाव थे, भविष्य की चिंता थी. लेकिन क्यों? नयना खुद इतने ऊंचे पद पर कार्यरत थी, इस आजाद खयाल जीवन की हिमायती नयना के मन में भी पवन के खो जाने का डर है, जीवन में अकेले रह जाने का डर है. पवन के बाद दूसरा साथी बनाएगी फिर तीसरा…फिर चौथा…और उस के बाद जैसे एक विराट प्रश्नचिह्न संजना के सामने आ कर टंग गया था. वह तो अपनी नौकरी के अलावा कभी किसी बारे में सोचती ही नहीं. बस, नितिन का अपने से कम योग्य होना ही उसे खलता रहता है और इस बात से वह दुखी होती रहती है.

ये भी पढ़ें- एक रात की उजास

‘‘पवन कहीं नहीं जाएगा, नयना, आ जाएगा रात तक. तुम्हारा भ्रम है यह…’’ वह नयना को दिलासा देती हुई बोली. और दिन भर के लिए उस के पास रुक गई. शाम को जब वह घर पहुंची तो घर पर रोली को अपना इंतजार करते पाया.

‘‘अरे, रोली इस समय तुम कैसे आ गईं.’’

‘‘तुझ से बात करने का मन हो रहा था. सो, आ गई. नितिनजी ने बताया कि तू नयना के घर गई है, आने वाली होगी. मुझे इंतजार करने को कह कर वह कुछ सामान लेने चले गए.’’

एक पल चुप रहने के बाद रोली बोली, ‘‘नितिन बता रहे थे कि नयना की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, क्या हुआ है उसे?’’

‘‘कुछ नहीं, वह अपने और पवन के रिश्तों को ले कर कुछ अपसेट सी है,’’ संजना सोफे पर बैठती हुई बोली, ‘‘नयना को पवन पर भरोसा नहीं रहा. उसे लग रहा है कि उस की जिंदगी में कोई और है तभी वह उस से दूर जा रहा है.’’

‘‘लेकिन नयना उस से पूछती क्यों नहीं?’’ रोली रोष में आ कर बोली.

‘‘किस बिना पर, रोली. आखिर लिव इन रिलेशन का यही तो मतलब है कि जब तक बनी तब तक साथ रहे वरना अलग होने में वैवाहिक रिश्तों जैसा कोई झंझट नहीं.’’

‘‘और तू सुना, कैसी है,’’ थोड़ी देर बाद संजना बोली.

‘‘बस, ऐसे ही, कल से बहुत परेशान सी थी. घर में रिश्ते की बात चल रही है. एक अच्छा रिश्ता आया है. सब बातें तो ठीक हैं पर लड़का मुंबई में कार्यरत है? मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. इसी बात पर घर में हंगामा मचा हुआ था. पापा चाहते थे कि मुझे चाहे नौकरी छोड़नी पड़े पर मैं उस रिश्ते के लिए हां कर दूं. इसी विवाद से परेशान हो कर मैं थोड़ी देर के लिए तेरे पास आ गई.’’

‘‘तो क्या सोचा है तू ने?’’ संजना बोली.

‘‘सोचा तो था कि मना कर दूंगी,’’ रोली खिसक कर संजना के पास बैठती हुई बोली, ‘‘लेकिन नयना के बारे में जानने के बाद अब सोचती हूं कि हां कर दूं. आज की पीढ़ी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में उलझी हुई विवाह और विवाह के बाद की जिम्मेदारियों से दूर भाग रही है लेकिन जैसेजैसे उम्र आगे बढ़ती है पीछे मुड़ कर देखने का मन करता है. अगर 10 साल बाद कोई समझौता करना है तो आज क्यों नहीं?’’ पल भर के लिए दोनों सहेलियां चुप हो गईं.

‘‘तू ने सही और समय से निर्णय लिया, संजना. सभी को कुछ न कुछ समझौता तो करना ही पड़ता है. मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ रही है और नयना को भविष्य की सुरक्षा, लेकिन तेरे पास सबकुछ है. नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन अयोग्य तो नहीं है. पहले लड़कियां इतनी योग्य भी नहीं होती थीं तो उन्हें अपने से अधिक योग्य लड़के मिल जाते थे लेकिन अब जमाना बदल रहा है. लड़कियां इतनी तरक्की कर रही हैं कि यदि अपने से अधिक योग्य लड़के के इंतजार में बैठी रहेंगी तो या तो नौकरी ही कर पाएंगी या शादी ही.

‘‘ऐसे लड़के का चुनाव करना जिस के साथ घरेलू जीवन चल सके, बच्चों की परवरिश हो सके, बड़ेबुजुर्गों की देखभाल हो सके, अपने से लड़का कुछ कम योग्य भी हो तो इस में कुछ भी गलत नहीं है. समय के साथ यह बदलाव आना ही चाहिए. आखिर पहले पत्नी घर देखती थी आज ऊंचे ओहदों पर कार्य कर रही है तो पति के पास घर की देखभाल करने का समय हो तो इस में कुछ गलत है क्या?’’ यह कह कर रोली उठ खड़ी हुई.

संजना जब रोली को बाहर तक छोड़ कर अंदर आई तो ध्यान आया कि नितिन को बाजार गए हुए काफी देर हो गई और अभी तक वह आए नहीं. आज नितिन के लिए संजना के मन में अंदर से चिंता हो रही थी. तभी कौलबेल बज उठी, सामान से लदाफदा नितिन दरवाजे पर खड़ा था.

‘‘अरे, आप इतना सारा सामान ले आए,’’ संजना सामान के कुछ पैकेट उस के हाथ से पकड़ते हुए बोली, ‘‘बहुत देर हो गई, मैं इंतजार कर रही थी.’’

संजना के स्वर की कोमलता से नितिन चौंक गया. बिना कुछ बोले वह अपने हाथ का सामान किचन में रख कर बेडरूम में चला गया. संजना भी उस के पीछेपीछे आ गई.

‘‘नितिन,’’ पीछे से उस के गले में बांहें डालती हुई संजना बोली, ‘‘चलो, आज का डिनर बाहर करेंगे, फिर कोई फिल्म देखेंगे. आया को रोक लेते हैं. वह मुन्ने को देख लेगी.’’

उस के इस प्रस्ताव व हरकत से नितिन हैरत से पलट कर उस की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ संजना इठलाती हुई बोली, ‘‘हर समय गुस्से में रहते हो, यह नहीं की कभी बीवी को कहीं घुमा लाओ, फिल्म दिखा लाओ.’’

आम घरेलू औरतों की तरह संजना बोली तो उस की इस हरकत पर नितिन खिलखिला कर हंस पड़ा.

संजना उस के गले में बांहें डाल कर उस से लिपट गई, ‘‘मुझे माफ कर दो, नितिन.’’

‘‘संजना, इस में माफी की क्या बात है? मेरे लिए तुम, तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी काम में व्यस्तता, तुम्हारा रुतबा सभी कुछ गर्व का विषय है लेकिन जब तुम मुझे ही अपनी जिंदगी से दरकिनार कर देती हो तो दुख होता है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा. मेरे लिए आप से अधिक महत्त्वपूर्ण जीवन में दूसरा कुछ भी नहीं है. आप में और मुझ में कोई फर्क नहीं, हमारा कुछ भी, चाहे वह नौकरी हो या समाज, जिंदगी भर नहीं रहेगा…लेकिन हम दोनों मरते दम तक साथ रहेंगे.’’

ये भी पढ़ें- बंद गले का कोट

मानअभिमान की सारी दीवारें तोड़ कर संजना नितिन से लिपट गई. नितिन ने भी एक पति के आत्मविश्वास से संजना को अपनी बांहों में समेट लिया.

मैं ही दोषी हूं

‘‘मिश्राजी, अब तो आप खुश हैं न, आप का काम हो गया…आप का यह काम करवाने के लिए  मुझे काफी पापड़ बेलने पड़े,’’ शची ने मिठाई का डब्बा पकड़ते हुए आदतन कहा.

‘‘भाभीजी, बस, आप की कृपा है वरना इस छोटी सी जगह में बच्चों से दूर रहने के कारण मेरा तो दम ही घुट जाता,’’ मिश्राजी ने खीसें निपोरते हुए कहा.

शची की निगाह मिठाई से ज्यादा लिफाफे पर टिकी थी और उन के जाते ही वह लिफाफा खोल कर रुपए गिनने लगी. 20 हजार के नए नोट देख कर चेहरे की चमक दोगुनी हो गई थी.

शची के पति पल्लव ऐसी जगह पर कार्यरत थे कि विभाग का कोई भी पेपर चाहे वह ट्रांसफर का हो या प्रमोशन का या फिर विभागीय खरीदारी से संबंधित, बिना उन के दस्तखत के आगे नहीं बढ़ पाता था. बस, इसी का फायदा शची उठाती थी.

शुरू में पल्लव शची की ऐसी हरकतों पर गुस्सा हो जाया करते थे, बारबार मना करते थे, आदर्शों की दुहाई देते थे पर लोग थे कि उन के सामने दाल न गलती देख, घर पहुंच जाया करते थे और शची उन का काम करवाने के लिए उन पर दबाव बनाती, यदि उन्हें ठीक लगता तो वे कर देते थे. बस, लोग मिठाई का डब्बा ले कर उन के घर पहुंचने लगे…शची के कहने पर फिर गिफ्ट या लिफाफा भी लोग पकड़ाने लगे.

इस ऊपरी कमाई से पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई खुशी को देख कर पल्लव भी आंखें बंद करने लगे. उन के मौन ने शची के साहस को और भी बढ़ा दिया. पहले अपना काम कराने के लिए लोग जितना देते शची चुपचाप रख लेती थी किंतु जब इस सिलसिले ने रफ्तार पकड़ी तो वह डिमांड भी करने लगी.

पत्नी खुश, बच्चे खुश तो सारा जहां खुश. पहले जहां घर में पैसों की तंगी के कारण किचकिच होती रहती थी वहीं अब घर में सब तरह की चीजें थीं. यहां तक कि बच्चों के लिए अलगअलग टीवी एवं मोटर बाइक भी थीं.

शची जब अपनी कीमती साड़ी और गहनों का प्रदर्शन क्लब या किटी पार्टी में करती तो महिलाओं में फुसफुसाहट होती थी पर किसी का सीधे कुछ भी कहने का साहस नहीं होता था. कभी कोई कुछ बोलता भी तो शची तुरंत कहती, ‘‘अरे, इस सब के लिए दिमाग लड़ाना पड़ता है, मेहनत करनी पड़ती है, ऐसे ही कोई नहीं कमा लेता.’’

कहते हैं लत किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती और जब  यही लत अति में बदल जाती है तो दिमाग फिरने लगता है. यही शची के साथ हुआ. पहले तो जो जितना दे जाता वह थोड़ी नानुकुर के बाद रख लेती लेकिन अब काम के महत्त्व को समझते हुए नजराने की रकम भी बढ़ाने लगी थी. शची की समझ में यह भी आ गया है कि आज सभी को जल्दी है तथा सभी एकदूसरे को पछाड़ कर आगे भी बढ़ना चाहते हैं. और इसी का फायदा शची उठाती थी.

कंपनी को अपने स्टाफ के लिए कुछ नियुक्तियां करनी थीं. पल्लव उस कमेटी के प्रमुख थे. जैसा कि हमेशा से होता आया था कि मैरिट चाहे जो हो, जो चढ़ावा दे देता था उसे नियुक्तिपत्र मिल जाता था तथा अन्य को कोई न कोई कमी बता कर लटकाए रखा जाता था. एक जागरूक प्रत्याशी ने इस धांधली की सूचना सीबीआई को दे दी और उन्होंने उस प्रत्याशी के साथ मिल कर अपनी योजना को अंजाम दे दिया.

वह प्रत्याशी मिठाई का डब्बा ले कर पल्लव के घर गया. उस दिन शची कहीं बाहर गई हुई थी अत: दरवाजा पल्लव ने ही खोला. उस ने उन्हें अभिवादन कर मिठाई का डब्बा पकड़ाया और कहा, ‘‘सर, सेवा का मौका दें.’’

‘‘क्या काम है?’’ पल्लव ने प्रश्नवाचक नजर से उसे देखते हुए पूछा.

‘‘सर, मैं ने इंटरव्यू दिया था.’’

‘‘तो क्या तुम्हारा चयन हो गया है?’’

‘‘जी हां, सर, पर नियुक्तिपत्र अभी तक नहीं मिला है.’’

‘‘कल आफिस में आ कर मिल लेना. तुम्हारा काम हो जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर, लिफाफा खोल कर तो देखिए, इतने बहुत हैं या कुछ और का इंतजाम करूं.’’

‘‘अरे, इस की क्या जरूरत थी… जितना भी है ठीक है,’’ पल्लव ने थोड़ा झिझक कर कहा क्योंकि उन के लिए यह पहला मौका था…यह काम तो शची ही करती थी.

‘‘सर, यह तो मेरी ओर से आप के लिए एक तुच्छ भेंट है. प्लीज, एक बार देख तो लीजिए,’’ उस प्रत्याशी ने नम्रता से सिर झुकाते हुए कहा.

पल्लव ने रुपए निकाले और गिनने शुरू कर दिए. तभी भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते के लोग बाहर आ गए और पल्लव को धरदबोचा तथा पुलिस कस्टडी में भेज दिया.

ये भी पढ़ें- मिनी की न्यू ईयर पार्टी

शची जब घर लौटी तो यह सब सुन कर उस ने अपना माथा पीट लिया. उसे पल्लव पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने उसी के सामने रुपए गिनने क्यों शुरू किए…लेते समय सावधानी क्यों नहीं बरती. थोड़ा सावधान रहते तो मुंह पर कालिख तो नहीं पुतती. लोग तो करोड़ों रुपए का वारान्यारा करते हैं पर फिर भी नहीं पकड़े जाते और यहां कुछ हजार रुपयों के लिए नौकरी और इज्जत दोनों जाती रहीं. इच्छाएं इस तरह उस का मानमर्दन करेंगी यह उस ने सोचा भी नहीं था.

जानपहचान के लोग अब बेगाने हो गए थे. वास्तव में वह स्वयं सब से कतराने लगी थी. सब उस की अपनी वजह से हुआ था. पल्लव तो सीधेसीधे काम से काम रखने वाले थे पर उस की आकांक्षाओं के असीमित आकाश की वजह से पल्लव को यह दिन देखना पड़ा है.

शची ने यह सोच कर कि पैसे से सबकुछ संभव है, शहर का नामी वकील किया पर उस ने शची से पहले ही कह दिया, ‘‘मैडम, मैं आप को भुलावे में नहीं रखना चाहता. आप के पति रंगेहाथों पकड़े गए हैं अत: केस कमजोर है पर हां, मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगा.’’

पल्लव अलग से परेशान थे क्योंकि उन की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. आश्चर्य तो शची को तब होता था जब उसे अपने पति से मिलने के लिए ही नजराना चुकाना पड़ता था.

‘‘तो क्या सारा तंत्र ही भ्रष्ट है. अगर यह सच है तो यह सब दिखावा किस लिए?’’ अपने वकील को यह बात बताई तो वह बोला, ‘‘मैडम, आज के दौर में बहुत कम लोग ईमानदार रह गए हैं. जो ईमानदार हैं उन्हें भी हमारी व्यवस्था चैन से नहीं रहने देती. आप जिन लोगों की बात कर रही हैं वे भी कहीं नौकरी कर रहे हैं, उन्हें भी अपनी नौकरी बचाने के लिए कुछ मामले चाहिए… अब उस में कौन सा मुरगा फंसता है यह व्यक्ति की असावधानी पर निर्भर है.’’

उधर पल्लव सोच रहे थे कि नौकरी गई तो गई, पूरे जीवन पर एक कलंक अलग से लग गया. जिन बीवीबच्चों के लिए मैं ने यह रास्ता चुना वही उसे अब दोष देने लगे हैं. शची तो चेहरे पर झुंझलाहट लिए मिलने आ भी रही थी पर बच्चे तो उन से मिलने तक नहीं आए थे. क्या सारा दोष उन्हीं का है?

कितने अच्छे दिन थे जब शची के साथ विवाह कर के वह इस शहर में आए थे. आफिस जाते समय शची उन से शाम को जल्दी आने का वादा ले लिया करती थी. दोनों की शामें कहीं बाहर घूमने या सिनेमा देखने में गुजरती थीं. अकसर वे बाहर खा कर घर लौटा करते थे. हां, उन के जीवन में परेशानी तब शुरू हुई जब विनीत पैदा हुआ. अभी विनीत 2 साल का ही था कि विनी आ गई और वे 2 से 4 हो गए लेकिन उन की कमाई में कोई खास फर्क नहीं आया.

हमेशा हंसने वाली शची अब बातबात पर झुंझलाने लगी थी. पहले जहां वह सजधज कर गरमागरम नाश्ते के साथ उन का स्वागत किया करती थी अब बच्चों की वजह से उसे कपड़े बदलने का भी होश नहीं रहता था. पल्लव समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें?

बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल करवाने के लिए डोनेशन चाहिए था. उस स्कूल की मोटी फीस के साथ दूसरे ढेरों खर्चे भी थे…कैसे सबकुछ होगा? कहां से पैसा आएगा…यह सोचसोच कर शची परेशान हो उठती थी.

उन्हीं दिनों उन के एक मातहत का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया. उस ने पल्लव से निवेदन किया तो उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उस का ट्रांसफर रुकवा दिया था. इस खुशी में वह मिठाई के साथ 2 हजार रुपए भी घर दे गया. अब शची उन से इस तरह के काम करवाने का आग्रह करने लगी थी. शुरू में तो वह झिझके भी पर धीरेधीरे झिझक दूर होती गई और वह भी अभ्यस्त हो गए थे. ऊपर की कमाई के पैसों से शची के चेहरे पर आई चमक उन्हें सुकून पहुंचा जाती थी…साथ ही बच्चों की जरूरतें भी पूरी होने लगी थीं.

खूब धूमधाम से उन्होंने पिछले साल ही विनी का विवाह किया था…विनीत भी इसी वर्ष इंजीनियरिंग कर जाब में लगा है. अच्छीभली जिंदगी चल रही थी कि एकाएक वर्षों की मेहनत पर ग्रहण लग गया.

तब पल्लव को भी लगने लगा था कि भ्रष्टाचार तो हर जगह है… अगर वह भी थोड़ाबहुत कमा लेते हैं तो उस में क्या बुराई है. फिर वह किसी से मांगते तो नहीं हैं, अगर कुछ लोग अपना काम होने पर कुछ दे जाते हैं तो यह तो भ्रष्ट आचरण नहीं हुआ. लगता है, उन के साथ किसी ने धोखा किया है या उन्हें जानबूझ कर फंसाया गया है.

कहते तो यही हैं कि लेने वाले से देने वाला अधिक दोषी है पर देने वाला अकसर बच निकलता है जबकि अपना काम निकलवाने के लिए बारबार लालच दे कर वह व्यक्ति को अंधे कुएं में उतरने के लिए प्रेरित करता है और प्यास बुझाने को आतुर उतरने वाला यह भूल जाता है कि कुएं में स्वच्छ जल ही नहीं गंदगी के साथसाथ कभीकभी जहरीली गैसें भी रहती हैं और अगर एक बार आदमी उस में फंस जाए तो उस से बच पाना बेहद मुश्किल होता है. बच भी गया तो अपाहिजों की तरह जिंदगी बितानी पड़ जाती है.

अब पल्लव को महसूस हो रहा था कि बुराई तो बुराई है. किसी के दिल को दुखा कर कोई सुखी नहीं रह सकता. उन्होंने अपना सुख तो देखा पर जिसे अपने सुखों में कटौती करनी पड़ी, उन पर क्या बीतती होगी…इस पर तो उन का ध्यान ही नहीं गया था.

मानसिक द्वंद्व के कारण पल्लव को हार्टअटैक पड़ गया था. सीबीआई ने अपने अस्पताल में ही उन्हें भरती कराया किंतु हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही जा रही थी. शची, जो इस घटना के लिए, सारी परेशानी के लिए उन्हें ही दोषी मानती रही थी…उन की बिगड़ती हालत देख कर परेशान हो उठी.

पहले जब शची ने पल्लव की बिगड़ती हालत पर सीबीआई का ध्यान आकर्षित किया था तो उन में से एक ने हंसते हुए कहा था, ‘डोंट वरी मैडम, सब ठीक हो जाएगा. यहां आने पर सब की तबीयत खराब हो जाती है.’

उस समय उस की शिकायत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया लेकिन दूसरे दिन जब वह मिलने गई तो पल्लव को सीने में दर्द से तड़पते पाया. शची से रहा नहीं गया और वह सीबीआई के सीनियर आफिसर के केबिन में दनदनाती हुई घुस गई तथा गुस्से में बोली, ‘आप की कस्टडी में अगर पल्लव की मौत हो गई तो लापरवाही के लिए मैं आप को छोड़ूंगी नहीं. आखिर कैसे हैं आप के डाक्टर जो वास्तविकता और नाटक में भेद नहीं कर पा रहे हैं.’

शची की बातें सुन कर वह सीनियर अधिकारी पल्लव के पास गया और उन की हालत देख कर उन्हें नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया पर तब तक देर हो चुकी थी. डाक्टर ने पल्लव को भरती तो कर दिया पर अभी वह खतरे से खाली नहीं थे.

रोतेरोते शची की आंखें सूज गई थीं. कोई भी तो उस का अपना नहीं था. ऐसे समय बच्चों ने भी शर्मिंदगी जताते हुए आंखें फेर ली थीं. इस दुख की घड़ी में बस, उस की छोटी बहन विभा जबतब उस से मिलने आ जाया करती थी जो बहन को समझाबुझा कर कुछ खिला जाया करती थी.

शची टूट एवं थक चुकी थी. जाती भी तो जाती कहां? घर अब वीरान खंडहर बन चुका था. अत: वह वहीं अस्पताल में स्टूल पर बैठे पति को एकटक निहारती रहती थी. पल्लव को सांस लेने में शिकायत होने पर आक्सीजन की नली लगाई गई थी. सदमा इनसान को इस हद तक तोड़ सकता है, आज उसे महसूस हो रहा था. पति की हालत देख कर शची परेशान हो जाती पर कर भी क्या सकती थी. पल्लव की यह हालत भी तो उसी के कारण हुई है.

मन में हलचल मची हुई थी. तर्कवितर्क चल रहे थे. कभी पति को इतना असहाय उस ने महसूस नहीं किया था. दोनों बच्चे अपनीअपनी दुनिया में मस्त थे. पल्लव की गिरफ्तारी की खबर सुन कर उन दोनों ने अफसोस करना तो दूर, शर्मिंदगी जताते हुए किनारा कर लिया था पर बीमार पल्लव को देख कर रहा नहीं गया तो एक बार फिर उन की बीमारी के बारे में उस ने बच्चों को बताया.

विनी ने रटारटाया वाक्य दोहरा दिया था, ‘ममा, मैं नहीं आ सकती, डैड की वजह से मैं घर के सदस्यों से नजर नहीं मिला पा रही हूं…आखिर डैड को ऐसा करने की आवश्यकता ही क्या थी?’

आना तो दूर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया विनीत की भी थी. शची समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे. बच्चों के मन में पिता के प्रति बनी छवि ध्वस्त हो गई थी…पर क्या वह नहीं जानते थे कि पिता के इतने कम वेतन में तो उन की सुरसा की तरह नित्य बढ़ती जरूरतें व इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती थीं.

शची को अपनी कोख से जन्मी संतानों से नफरत होने लगी थी. कितने स्वार्थी हो गए हैं दोनों…पिता तो पिता उन्हें मां की भी चिंता नहीं रही…उस मां की जिस ने उन के अरमानों को पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास किए, उन्हीं के लिए गलत रास्ता अपनाया, हर सुखसुविधा दी…अच्छे से अच्छे स्कूल में शिक्षा दिलवाई, धूमधाम से विवाह किया…यहां तक कि दहेज में विनी को जब कार दी थी तब तो उस ने नहीं पूछा कि ममा, इतना सब कैसे कर पा रही हो.

ये भी पढ़ें-  सहयात्री

‘तुम बच्चों को क्यों दोष दे रही हो शची?’ उस के मन ने उस से पूछा, ‘उन्होंने तो वही किया जिस के वह आदी रहे थे… जैसे माहौल में तुम ने उन्हें पाला वैसे ही वह बनते गए. क्या तुम ने कभी किसी कमी का एहसास उन्हें कराया या तंगी में रहने की शिक्षा दी…पल्लव तो आदर्शवादी रहे थे, चोरीछिपे किए तुम्हारे काम से नाराज भी हुए थे तब तो तुम्हीं कहा करती थीं कि मैं सिर्फ वेतन में घर का खर्च नहीं चला सकती…तुम तो कुछ नहीं कर रहे हो, जो भी कर रही हूं वह मैं कर रही हूं…और हम मांग तो नहीं रहे…अगर थोड़ाबहुत कोई अपनी खुशी से दे जाता है तो आप को बुरा क्यों लगता है?’ अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन वह बोल पड़ी, ‘पर मैं ऐसा तो नहीं चाहती थी.’

‘ठीक है, तुम ऐसा नहीं चाहती थीं पर क्या तुम्हें पता नहीं था कि जो जैसा करता है उस का फल उसे भुगतना ही पड़ता है.’

अपनी आत्मा के साथ हुए वादविवाद से अब शची को एहसास हो गया था कि उसी ने बुराई को प्रश्रय दिया था. पल्लव के विरोध करने पर तकरार होती पर अंतत: जीत उस की ही होती. पल्लव चुप हो जाते फिर घर में खुशी के माहौल को देख कर वह भी उसी के रंग में रंगते गए.

अगर वह पल्लव को मजबूर नहीं करती, उन की सीमित आय में ही घर चलाती और बच्चों को भी वैसी ही शिक्षा देती तो आज पल्लव का यह हाल न होता…कहीं न कहीं पल्लव के इस हाल के लिए वही दोषी है.

पल्लव ने उस की खातिर बुराई का मुखौटा तो पहन लिया था पर शायद मन के अंदर की अच्छाई को मार नहीं पाए थे तभी तो अपनी छीछालेदर सह नहीं पाए और बीमार पड़ गए पर अब पछताए होत क्या जब चिडि़यां चुग गईं खेत.

पल्लव की हिचकी ने उस के मन में चल रहे अंधड़ को रोका. उन्हें तड़पते देख कर वह डाक्टर को बुलाने भागी और जब तक डाक्टर आए तब तक सब समाप्त हो चुका था. उस की आकांक्षाओं के आकाश ने उस का घरसंसार उजाड़ दिया था.

खबर सुन कर विभा भागीभागी आई और उसे देखते ही शची चीत्कार कर उठी, ‘‘पल्लव की मौत के लिए मैं ही दोषी हूं…मैं ही उन की हत्यारिन हूं… पल्लव निर्दोष थे…मेरी गलती की सजा उन्हें मिली…’’

शची का मर्मभेदी प्रलाप सुन कर विभा समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उसे संभाले. सचाई का एहसास एक न एक दिन सब को होता है पर यहां देर हो गई थी.

ये भी पढ़े- अनमोल उपहार

नुस्खे सरकारी दफ्तर में फतह पाने के

‘‘जीवन में मृत्यु निश्चित है’’ -इस उक्ति में संशोधन करते हुए आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रवर्तक कहे जाने वाले एडम स्मिथ ने कहा था, ‘‘जीवन में मृत्यु और कर, दो ऐसी चीजें हैं जो अपरिहार्य हैं और इन से बचा नहीं जा सकता.’’ यदि एडम स्मिथ आज के युग में होता तो वह तीसरी अपरिहार्यता या विवशता की ओर भी अवश्य ही संकेत करता और यह तीसरी अपरिहार्य वस्तु होती—आम आदमी द्वारा सरकारी दफ्तरों में जाने की जानलेवा विवशता.

हम तो कहते हैं कि आप के दुश्मन को भी सरकारी दफ्तर में न जाना पड़े. पर इस के बावजूद शायद यह प्रकृति की विवशता है कि आप जिस से मुक्ति चाहते हैं उस से बचा नहीं जा सकता. जन्म से पहले ही प्रसव के लिए भावी माता ने सरकारी अस्पताल में नाम लिखवा रखा हो तो आश्चर्य की बात नहीं. फिर जन्म के पंजीयन से ले कर मृत्यु तक आप को सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने ही काटने हैं.

यह तो सरकार की कृपा ही है कि आप को अपनी मृत्यु का भी खुद ही पंजीयन नहीं करवाना पड़ता. पर मृत्यु का पंजीयन कराना आप के उत्तराधिकारियों के लिए आवश्यक है. इस बात की सूचना आएदिन समाचारपत्रों और टेलीविजन द्वारा दी जाती है. पर इस के बावजूद आप ने अकसर समाचारपत्रों में पढ़ा होगा कि अमुकअमुक की मृत्यु के बाद भी उस के नाम सरकारी आदेश जारी होते रहे. उस का राशन भी लिया जाता रहा और वह सरकारी कागजों में बाकायदा जीवित रहा.

यदि आप भूल से बीच के किसी माह की पेंशन नहीं लेते हैं और यह गलती बाद के कुछ महीनों की पेंशन लेने के बाद सामने आती है तो आप को यह प्रमाणपत्र भी देना होगा कि आप 6 माह पूर्व भी जीवित थे. आप चाहे आज जिंदा हों, पर इस से पूर्व भी आप जीवित थे, इस के पुख्ता प्रमाण के बिना आप के कागज आगे नहीं सरकेंगे.

हमारे देश में हर छोटी से छोटी बात को ले कर शास्त्र लिख दिए गए हैं, संहिताएं बना दी गई हैं, मृतक के क्रियाकर्म का विधान तक गरुड़ पुराण में बता दिया गया है पर खेद है कि हमारे विद्वान बुद्धिजीवी आप को अभी तक यह नहीं बता पाए हैं कि सरकारी दफ्तर में आप कैसे प्रवेश करें और किस तरीके से व्यवहार करें.

इसीलिए सरकारी दफ्तर या संस्थान में आप की कदमकदम पर फजीहत होती है. आप को बारबार अपमानित होना पड़ता है. ऐसी स्थिति से बचने के लिए हम आप को कुछ गुर बता रहे हैं. इन गुरों को गांठ बांध लें. हमारा विश्वास है कि वक्तबेवक्त ये आप के काम आएंगे.

ये भी पढ़ें- आईना

पापी पेट का सवाल है

सरकारी दफ्तर एक ऐसा युद्धक्षेत्र है जहां सभी आप के दुश्मन हैं. वहां आप का कोई सगासंबंधी हो, तो भी वह आप की तरफ नजर उठा कर भी नहीं देखेगा. कारण यह कि वहां जो दावत होती है उस में आप की भूमिका सक्रिय न हो कर निश्चेष्ट होती है, क्योंकि वहां आप ही को खाया जाता है. जब आप खाद्य पदार्थ हैं तो ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या’ वाली उक्ति पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है.

फिर जो काम पैसा करता है वह काम आप के सगे पिताजी भी नहीं कर सकते. कहा भी गया है, ‘दादा बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया.’ इसलिए जब आप सरकारी दफ्तर में घुसें तो अपनेआप को भामाशाह समझें. इसी में आप का हित है. वहां कृपणता के लिए तनिक भी स्थान नहीं है. आप कितने भी गरीब क्यों न हों, आप से यह उम्मीद की जाती है कि आप सरकारी दफ्तर में जा कर वहां के कर्मचारियों की गरीबी दूर करें. आखिर पापी पेट का सवाल है.

आप को यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी कर्मचारियों के भी बालबच्चे हैं. और फिर उन्हें वेतन मिलता ही कितना है? और भला आज के महंगाई के युग में मात्र वेतन से किस का काम चलता है? यदि आप को यहां कुछ प्राप्त करना है तो पहले दीजिए. गांधीजी का उठा हुआ हाथ हर दफ्तर के आगंतुकों को कम से कम 5 रुपए देने का तो स्पष्ट निर्देश देता ही है.

आप ने उन के 3 बंदरों की भी कहानी सुनी होगी. यदि आप को उन के संकेतों का अर्थ ज्ञात नहीं तो हम बता देते हैं. आप सरकारी कर्मचारियों की बुराइयों और कमजोरियों की ओर न देखें. उन के बारे में कुछ कहें नहीं और उन के बारे में कुछ सुनें भी नहीं.

सरकारी दफ्तर में सब से अधिक महत्त्वपूर्ण जीव है, लिपिक यानी बाबू. उस का पेट अजगर की तरह होता है. वह बहुत ही मुश्किल से हिल पाता है अर्थात आप के लिए कुछ कर पाना उस के लिए एक कठिन तपस्या है. चपरासी वहां गणेशजी का जीवित रूप है जिसे प्रसन्न किए बिना आज तक कोई भी व्यक्ति कुछ पा नहीं सका है. उसे नाराज कर कोई भी व्यक्ति सुख की नींद नहीं सो सका है.

सरकारी दफ्तर में बाबू ही सबकुछ करता है. वही मिसिलों का नियामक है, उन्हें चलाता है. अफसर तो मात्र दस्तखत करता है. वह यदि चाहे तो भी अपने बाबू के विरुद्ध नहीं जा सकता, क्योंकि वह भी बाबू पर ही निर्भर करता है. वह जल में रह कर मगर से वैर नहीं कर सकता. इसलिए बाबू ने जो कह दिया या लिख दिया, वही अंतिम है. उस के विरुद्ध न कोई अपील है और न कोई फरियाद.

चपरासी इसी बाबू का दायां हाथ है. मिसिल ढूंढ़ने का सारा उत्तरदायित्व उसी का है. इसलिए मिसिल का मिलना उस की कृपा पर निर्भर करता है. यह कृपा बिकती है. बाजार की हर चीज की तरह यह खरीदी जा सकती है, बशर्ते कि आप की जेब में पैसा हो.

जब भी आप सरकारी दफ्तर में जाएं तो आप को चाहिए कि आप झुक कर चलें, चाहे आप की लंबाई के कारण आप को गरदन झुकाने में कष्ट ही क्यों न हो. कारण यह कि सरकारी दफ्तर में काम करवाना तो एक तपस्या है. यहां का नारा है, ‘‘जो हम से टकराएगा, चूरचूर हो जाएगा.’’

इसलिए याद रखिए कि यहां सभी पूज्य हैं और वंदनीय हैं. आप यहां किसी की उपेक्षा न करें, पता नहीं कब किस से आप का काम पड़ जाए. इसलिए नई बहू की तरह आप सभी का पालागन करें.

सरकारी दफ्तर में जा कर आप किसी के सामने बैठने की जुर्रत न करें. यों तो आप को कोई कुरसी वहां मिलेगी ही नहीं, पर अगर मिल भी जाए तो आप उस पर बैठ न जाएं, आगंतुक को बाबू के सामने खड़े रह कर ही बात करनी होती है. आप इस भ्रम में न रहें कि आप उस के वेतन से कहीं अधिक आयकर देते हैं. वहां तो बड़ा वही है और बड़ों के सामने बैठा नहीं जाता. चपरासी को आप वहां ‘साहबजी’ बोलिए, बाबू को ‘जैसी हुजूर की आज्ञा.’

याद रखिए, इन लोगों का काटा हुआ पानी भी नहीं मांगता. ये आप को वह पटकनी दे सकते हैं जो आप उम्र भर नहीं भूल सकेंगे. जानबूझ कर की गई इन की कोई भी करतूत आप के लिए जान का जंजाल बन जाएगी. ये लोग पूरे घाघ होते हैं. आप जैसे परम सयाने इन से रोज ही टकराते हैं और उन का वही हाल होता है जो पत्थर से टकराने पर होता है. ये पत्थर हैं जो पसीजते नहीं.

ये भी पढ़ें- असली पहचान

सहनशील और धैर्यवान बनिए

सरकारी दफ्तर में जाने से पहले आप को अत्यंत सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए. दफ्तर में आप को कितना भी अपमानित किया जाए, आप मुसकराते ही रहें. यदि दोपहर से कुछ पहले आप वहां पहुंचें. तो संबंधित अमले को दोपहर के खाने के लिए अवश्य आमंत्रित करें.

यदि दफ्तर में बाबू अपनी कुरसी पर नहीं है तो व्यर्थ में शोर न करें. आप कल फिर आ जाइए. दफ्तर कल भी खुलेगा.

याद रखिए कि किसी बाबू की अनुपस्थिति में उस का काम कोई दूसरा बाबू कदापि नहीं करेगा. वह काम जानता हो, तो भी एकदूसरे की रोजीरोटी का खयाल रखना भी इन का दायित्व है. अफसर के पास जा कर यह कहने की भयावह गलती आप न करें कि बाबू अपनी जगह पर नहीं है. यदि वह कहीं गया है तो इंतजार कीजिए. हो सकता है कि उसे कोई निजी, पर जरूरी काम हो.

क्या वह अपना जरूरी काम दफ्तर के समय में नहीं निबटा सकता? आखिर सभी दफ्तर 5 बजे बंद जो हो जाते हैं, इसलिए अपना काम करवाने वह इसी बीच तो जाएगा. अब हर छोटेमोटे काम के लिए वह आकस्मिक अवकाश तो लेगा नहीं.

इसी प्रकार यदि वह दोपहर के भोजन के बाद देर से आता है या घंटों चायपान में मशगूल है तो आप को इसे सहन करना चाहिए. जीवन की हमारी सभी भागदौड़ इस पेट के लिए ही तो है. यदि वह दिन भर खाता है या चरता है तो आप को कष्ट नहीं होना चाहिए.

उस का चायपान भी आप के हित में है. वह आप का काम भी तो सुस्ती भगा कर ही करेगा. बिना पान खाए भी वह काम नहीं कर सकता. इसलिए बेहतर यही है कि आप पानदान और सिगरेट की डब्बी अपने साथ ले कर जाएं, इस में भी आप का ही भला है.

यदि वह अपने साथियों से गप भी मार रहा है तो आप चुप रहें. यदि चालू मसलों पर दफ्तर के समय में संगीसाथियों से बहस नहीं होगी तो भला कब होगी? 5 बजे के बाद तो सभी को अपनेअपने घर की ओर भागने की जल्दी होती है. यह भी स्वाभाविक है कि सवेरे दफ्तर आने में कभी उसे देर हो जाए. उस समय भी बेहतर यही होगा कि आप कहें, ‘‘क्षमा कीजिए, मैं जरा जल्दी ही आ गया था.’’

यदि वह सो रहा हो तो उसे जगाने का साहस आप न करें. चुपचाप बैठ कर उस के जागने की प्रतीक्षा करें. रात में न तो मच्छर सोने देते हैं और न बच्चे. कभी बच्चों की बीमारी नींद में बाधा डालती है तो कभी गरमी. अब आप ही बताइए कि दफ्तर के वातानुकूलित कमरे में क्या नींद नहीं आएगी?

दफ्तर में ही बाबू अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और परिचितों से टेलीफोन द्वारा संपर्क कर पाता है. आप को यह कहने का हक नहीं है कि वह फोन पर गपशप कर रहा है. घंटों फोन करते रहना उस का अधिकार है. फोन पर कही जाने वाली उस की बातें आप को कितनी ही व्यर्थ क्यों न लगें, उस के लिए उन का महत्त्व है. इसलिए आप उसे रोकिएटोकिए नहीं.

‘गरीबी हटाओ’ नारे के संबंध में भी तो यही हुआ है. जबजब यह नारा लगाया गया है तबतब हर बार कर्णधारों और कर्मचारी वर्ग की ही गरीबी दूर हुई है. गरीबों की गरीबी हटने के अभी तक तो कोई आसार दिखाई नहीं देते. बाद की बाद में देखी जाएगी.

यों कहने को तो बहुत कुछ है पर फिर भी समझदार आदमी के लिए इतने ही गुर बहुत हैं. याद रखिए, दफ्तरों से आप का वास्ता तो रोजरोज ही पड़ेगा. यदि आप इन सिद्धांतों पर अमल करेंगे तो सरकारी दफ्तर में जा कर भी सही- सलामत लौटेंगे. हां, जेब कुछ हलकी जरूर हो जाएगी, वरना वहां आप को ऐसेऐसे कटु अनुभव होंगे कि आप सरकारी दफ्तर में जाना तो एक ओर रहा, सरकारी दफ्तर की ओर पांव कर के भी नहीं सोना चाहेंगे.

सरकारी दफ्तर एक अनिवार्य बुराई है. आप का और सरकारी दफ्तर का अस्तित्व एकदूसरे पर आधारित है. कहना चाहिए कि अन्योन्याश्रित है. आप हैं इसलिए सरकारी दफ्तर और सरकारी दफ्तरों के लोग हैं. वे लोग हैं और सरकारी दफ्तर हैं, इसीलिए तो आप हैं. यह तो चोलीदामन का साथ है.

यह संबंध एक बार स्थापित तो होना ही है. और एक बार स्थापित हो गया तो फिर अनंत काल तक यह संबंध बना ही रहता है. आप को तो इस अनचाहे रिश्ते को निभाना ही है. बेहतर है कि इसे हंस कर ही निभाएं. जब ओखली में सिर आ ही गया है तो फिर मूसल से क्या डरना.

ये भी पढ़ें- एक कश्मीरी

अपनी दफ्तर की यात्रा को आप कंटकाकीर्ण क्यों बनाते हैं? थोड़ी सी उदारता, तनिक सी कृत्रिम हंसी इसे सुखद बना देगी. अंत भला तो सब भला. जिन की कृपा से अच्छा फल मिलता हो, उन की कृपा तो आप अर्जित कर ही सकते हैं और करनी चाहिए. इस के लिए आप को तन, मन और धन से सदा तत्पर रहना चाहिए.

शिवेंद्र प्रसाद गर्ग ‘सुमन’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें