कभीकभी ऐसा भी…

मैं ने कहा, ‘‘इंस्पेक्टर साहब, मैं इन्हें जानती हूं. ये बड़े अच्छे लड़के हैं. मेरे भाई हैं. आप गलत लोगों को पकड़ लाए हैं. इन्हें छोड़ दीजिए.’’

‘‘अरे मैडम, इन के मासूम और भोले चेहरों पर मत जाइए. जब चोर पकड़ में आता है तो वह ऐसे ही भोला बनता है. बड़ी मुश्किल से तो ये दोनों पकड़ में आए हैं और आप कहती हैं कि इन्हें छोड़ दें… और फिर ये आप के भाई कैसे हुए? दोनों तो मुसलिम हैं और अभी आप ने चालान की रसीद पर पूरबी अग्रवाल के नाम से साइन किया है तो आप हिंदू हुईं न,’’ बीच में वह पुलिस वाला बोल पड़ा जिस से मैं ने अपनी गाड़ी छुड़वाई थी.

उस के बेढंगे बोलने के अंदाज पर मुझे बहुत ताव आया और बोली, ‘‘इंस्पेक्टर, कुछ इनसानियत के रिश्ते हर धर्म, हर जाति से बड़े होते हैं. वक्त पड़ने पर जो आप के काम आ जाए, आप का सहारा बन जाए, बस उस मानवतारूपी धर्म और जाति का ही रिश्ता सब से बड़ा होता है. कुछ दिन पहले मैं एक मुसीबत में फंस गई थी, उस समय मेरी मदद करने को तत्पर इन लड़कों ने मुझ से मेरी जाति और धर्म नहीं पूछा था. इन्होंने मुझ से तब यह नहीं कहा था कि अगर आप मुसलिम होंगी तभी हम आप की मदद करेंगे. इन्होंने महज इनसानियत का धर्म निभाया था और मुश्किल में फंसी मेरी मदद की थी.’’

‘‘इंस्पेक्टर साहब, शायद मेरी समझ से जो इस धर्म को अपना ले, वह इनसान सच्चा होता है, निर्दोष होता, बेगुनाह होता है, गुनहगार नहीं. उस वक्त अपनी खुशी से मैं ने इन्हें कुछ देना चाहा तो इन्होंने लिया नहीं और आप कह रहे हैं कि…’’

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मेरी उन बातों का शायद उन पुलिस वालों पर कुछ असर पड़ा. लड़के भी मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने लगे थे. एक बोला, ‘‘मैडम, आप बचा लीजिए हमें. यह जबरदस्ती की पकड़ हमारी जिंदगी बरबाद कर देगी.’’

मैं ने भरोसा दिलाते हुए उन से कहा, ‘‘डोंट वरी, कुछ नहीं होगा तुम लोगों को. अगर उस दिन मैं ने तुम्हें न जाना होता और तुम ने मेरी मदद नहीं की होती तो शायद मैं भी कुछ नहीं कर पाती लेकिन किसी की निस्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल तो मिलता ही है. इसीलिए कहते हैं न कि जिंदगी में कभीकभी मिलने वाले ऐसे मौकों को छोड़ना नहीं चाहिए. अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए कि आप के हाथों किसी का भला हो जाए.’’

मेरी बातों के प्रभाव में आया एक पुलिस वाला नरम लहजे में बोला, ‘‘देखिए मैडम, इन लड़कों को उस पर्स वाली मैडम ने पकड़वाया है. अब अगर वह अपनी शिकायत वापस ले लें तो हम इन्हें छोड़ देंगे. नहीं तो इन्हें अंदर करने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है.’’

‘‘तो वह मैडम कहां हैं? फिर उन से ही बात करते हैं,’’ मैं ने तेजी से कहा. ऐसा लग रहा था जैसे कि कुछ अच्छा करने के लिए ऊर्जा अंदर से ही मिल रही थी और रास्ता खुदबखुद बन रहा था.

‘‘वह तो इन लोगों को पकड़वा कर कहीं चली गई हैं. अपना फोन नंबर दे गई हैं, कह रही थीं कि जब ये उन के पर्स के बारे में बता दें तो आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा तो उन्हें फोन कर के यहां बुलाइए. देखते हैं कि वह क्या कहती हैं? उन से ही अनुरोध करेंगे कि वह अपनी शिकायत वापस ले लें.’’

पुलिस वाले अब कुछ मूड में दिख रहे थे. एक पुलिस वाले ने फोन नंबर डायल कर उन्हें थाने आने को कहा.

फोन पहुंचते ही वह मैडम आ गईं. उन्हें देखते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘अरे, मिसेज सान्याल…’’ वह हमारे आफिसर्स लेडीज क्लब की प्रेसीडेंट थीं और मैं सेके्रटरी. इसी चक्कर में हम लोग अकसर मिलते ही रहते थे. आज तो इत्तफाक पर इत्तफाक हो रहे थे.

मुझे थाने में देख कर वह भी चौंक गईं. बोलीं, ‘‘अरे पूरबी, तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिसेज सान्याल, मेरी गाड़ी को पुलिस वाले बाजार से उठा कर थाने लाए थे, उसी चक्कर में मुझे यहां आना पड़ा. पर ये लड़के, जिन्हें आप ने पकड़वाया है, असली मुजरिम नहीं हैं. आप देखिए, क्या इन्होंने ही आप का पर्स झपटा था.’’

‘‘पूरबी, पर्स तो वे मेरा पीछे से मेरे कंधे पर से खींच कर तेजी से चले गए थे. एक बाइक चला रहा था और दूसरे ने चलतेचलते ही…’’ इत्तफाक से मेरे पीछे से एक पुलिस जीप आई, जिस में ये दोनों पुलिस वाले बैठे थे. मेरी चीख सुन के इन्होंने मुझे अपनी जीप में बिठा लिया. तेजी से पीछा करने पर बाइक पर सवार ये दोनों मिले और बस पुलिस वालों ने इन दोनों को पकड़ लिया. मुझे लगा भी कि ये दोनों वे नहीं हैं, क्योंकि इतनी तेजी में भी मैं ने यह देखा था कि पीछे बैठने वाले के, जिस ने मेरा पर्स झपटा था, घुंघराले बाल नहीं थे, जैसे कि इस लड़के के हैं. वह गंजा सा था और उस ने शाल लपेट रखी थी, जबकि ये लड़के तो जैकेट पहने हुए हैं.

‘‘इन पुलिस वाले भाईसाहब से मैं ने कहा भी कि ये लोग वे नहीं हैं मगर इन्होंने मेरी सुनी ही नहीं और कहा कि अरे, आप को ध्यान नहीं है, ये ही हैं. जब मारमार के इन से आप का कीमती पर्स निकलवा लेंगे न तब आप को यकीन आएगा कि पुलिस वालों की आंखें आम आदमी से कितनी तेज होती हैं.’’

फिर मिसेज सान्याल ने तेज स्वर में उन से कहा, ‘‘क्यों, कहा था कि नहीं?’’

पुलिस वालों से तो कुछ कहते नहीं बना, लेकिन बेचारे बेकसूर लड़के जरूर अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए बोले, ‘‘मैडम, अगर हम आप का पर्स छीन कर भागे होते तो क्या इतनी आसानी से पकड़ में आ जाते. अगर आप को जरा भी याद हो तो आप ने देखा होगा कि मैं बहुत धीरेधीरे बाइक चला रहा था क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले ही मेरे हाथ में फ्रैक्चर हो गया था. आप चाहें तो शहर के जानेमाने हड्डी रोग विशेषज्ञ डा. संजीव लूथरा से पता कर सकते हैं, जिन्होंने मेरा इलाज किया था.

‘‘हम दोनों यहां के एक मैनेजमेंट कालिज से एम.बी.ए. कर रहे हैं. आप चाहें तो कालिज से हमारे बारे में सबकुछ पता कर सकती हैं. इंस्पेक्टर साहब, आप की जरा सी लापरवाही और गलतफहमी हमारा कैरियर चौपट कर देगी. देश का कानून और देश की पुलिस जनता की रक्षा के लिए है, उन्हें बरबाद करने के लिए नहीं. हमें छोड़ दीजिए, प्लीज.’’

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अब बात बिलकुल साफ हो चुकी थी. पुलिस वालों की आंखों में भी अपनी गलती मानने की झलक दिखी. मिसेज सान्याल ने भी पुलिस से अपनी शिकायत वापस लेते हुए उन लोगों को छोड़ देने और असली मुजरिम को पकड़ने की प्रार्थना की. मुझे भी अपने दिल में कहीं बहुत अच्छा लग रहा था कि मैं ने किसी की मदद कर एक नेक काम किया है.

सचमुच, जिंदगी में कभीकभी ऐसे मोड़ भी आ जाते हैं जो आप के जीने की दिशा ही बदल दें. पुलिस के छोड़ देने पर वे दोनों लड़के वाकई मेरे भाई जैसे ही बन गए. बाहर निकलते ही बोले, ‘‘आप ने पुलिस से हमें बचाने के लिए अपना भाई कहा था न, आज से हम आप के बस भाई ही हैं. अब आप को हम मैडम नहीं ‘दीदी’ कहेंगे और हमारे अलगअलग धर्म कभी हमारे और आप के पाक रिश्ते में आड़े नहीं आएंगे. हमारा मोबाइल नंबर आप रख लीजिए, कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय अच्छीबुरी कोई बात हो, अपने इन भाइयों को जरूर याद कर लेना दीदी, हम तुरंत आप की सेवा में हाजिर हो जाएंगे.’’

उन का मोबाइल नंबर अपने मोबाइल में फीड कर के मैं मुसकरा दी थी और अपनी पकड़ी गई गाड़ी को ले कर घर आ गई. विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत में मेरे साथ हुआ, लग रहा था कि जैसे किसी फिल्म की शूटिंग देख कर आ रही हूं. घर पहुंच कर, इत्मीनान से चाय के सिप लेती हुई श्रेयस को फोन किया और सब घटना उन्हें सुनाई तो खोएखोए से वह भी कह उठे, ‘‘पूरबी, होता है, कभीकभी ऐसा भी जिंदगी में…’’     द्य

 

दो जून की रोटी

ए क पुराना प्रचलित चुटकुला है  जिसे अकसर लोग आपस में कहते सुनते रहते हैं :

2 गधे चरागाह में चर रहे थे. चरतेचरते 1 गधे ने दूसरे को एक चुटकुला सुनाया, पर दूसरा गधा चुटकुला सुन कर भी शांत रहा, उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की. तब चुटकुला सुनाने वाले गधे को झेंपने के अलावा कोई चारा नहीं रहा और सांझ होने पर दोनों गधे अपनेअपने निवास को चले गए.

अगले दिन दोनों गधे चरने के लिए फिर उसी चरागाह में आए तो चुटकुला सुनने वाला गधा बहुत जोर से हंसने लगा. उसे इस तरह हंसता देख कर दूसरे गधे ने हंसने का कारण जानना चाहा, तो उत्तर मिला कि कल जो चुटकुला उस ने सुना था, उसी पर हंस रहा है.

पहले गधे ने आश्चर्य से कहा कि चुटकुला तो कल सुनाया था, आज क्यों हंस रहे हो. इस पर दूसरे गधे से उत्तर मिला कि उस का अर्थ आज समझ में आया है.

अब हंसने की बारी चुटकुला सुनाने वाले की थी. उस ने जोर का ठहाका लगाते हुए कहा, ‘‘वाह, चुटकुला कल सुना था, हंस अब रहे हो. वास्तव में तुम रहोगे गधे के गधे ही. कल की बात आज समझ में आई है.’’

मेरे विचार से यह कथा मात्र एक चुटकुला नहीं है. इस में तो गहन रहस्य और ज्ञान छिपा है. वास्तविकता यह है कि बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं जिन का अर्थ तब समझ में नहीं आता जब कही जाती हैं. बहुत सी घटनाओं का अर्थ घटना के घटित होते समय जाहिर नहीं होता. बहुत सी बातों का अर्थ बाद में समझ में आता है. कभीकभी तो ऐसी बातों एवं घटनाओं का अर्थ समझने में वर्षों का वक्त लग जाता है. पर किसी भी बात के अर्थ को समझने में व्यक्ति विशेष की बुद्धि का भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. यदि व्यक्ति बुद्धिमान है तो बात का अर्थ समझने में विलंब नहीं होता, परंतु यदि व्यक्ति की बुद्धि कुछ मंद है तो अर्थ समझने में देर होती ही है. अल्पबुद्धि होने के कारण ही शायद यह चुटकुला गधों के बारे में प्रचलित है.

बचपन में घटित एक घटना को समझने में मुझे भी वर्षों का समय लग गया था. शायद बालमन में तब इतनी समझ नहीं थी कि इस बात का अर्थ पल्ले पड़ सके या गधों की तरह बुद्धि अल्प होने के कारण अर्थ समझ में नहीं आया था. जो भी कहें पर यह घटना लगभग 40 साल पुरानी है.

मेरे श्रद्धेय पिताजी का मुख्य व्यवसाय खेती था, लेकिन जमीन पर्याप्त न होने के कारण वह खेती मजदूरों से कराते थे और खुद सिंचाई विभाग में छोटीमोटी ठेकेदारी का कार्य करते थे. यह कहना अधिक उपयुक्त और तर्कसंगत होगा कि खेती तो मजदूरों के भरोसे थी और पिताजी का अधिक ध्यान ठेकेदारी पर रहता था.

गांव में खेल व मनोरंजन का कोई साधन नहीं था, अत: कक्षा 8 पास करने के बाद मेरा ध्यान खेती की ओर आकर्षित हुआ और मैं कभीकभी अपने खेतों पर मजदूरों का काम देखने के लिए जाने लगा. तब हमारे खेतों पर 3 मजदूर भाई, जिन के नाम ज्योति, मोल्हू व राजपाल थे, कार्य करते थे. वे मुंह अंधेरे, बिना कुछ खाएपीए हलबैल ले कर खेत पर चले जाते थे. वह खेत पर काम करते और दोपहर को उन की मां भोजन ले कर खेत पर जाती. तब काम से कुछ समय निकाल कर वे दोपहर का भोजन पेड़ की छांव में बैठ कर करते थे.

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संयोगवश कभीकभी उन के खाने के समय पर मैं भी खेत पर होता था व उन का खाना देखने का अवसर मिलता था. मैं ने उन के खाने में कभी दाल या सब्जी नहीं देखी. उन के खाने में अकसर नमक मिली हुई मोटे अनाज की रोटी होती थी व उस के साथ अचार और प्याज. उन की मां कुल मिला कर 6 रोटी लाती थी व तीनों भाइयों को 2-2 रोटी दे देती थी, जिन्हें खा कर वे पानी पीते और फिर अपने काम में लग जाते.

खाने के बीच अकसर उन की मां बातें करती रहती कि आज तो घर में सेर भर ही अनाज था, उसी को पीस कर रोटी बनाई है. जिन में से घर पर औरतें व बच्चे भी खाते थे. उन्हीं में से वह तीनों भाइयों के लिए भी लाती थीं. तब मैं उन की बातें सुनता अवश्य था पर अर्थ कुछ नहीं निकाल पाता था. मुझे यह बात सामान्य लगती थी. मुझे लगता था कि उन्होंने भरपेट भोजन कर लिया है. बालपन में इस का कुछ और अर्थ निकालना संभव भी नहीं था.

उन दिनों एक परंपरा और थी कि त्योहार यानी होलीदीवाली पर मजदूरों को किसान अपने घर पर भोजन कराते थे. उसी परंपरा के तहत ज्योति, मोल्हू व राजपाल भी त्योहार के अवसर पर हमारे घर भोजन करते थे.

चूंकि मेरा उन तीनों से ही बहुत अच्छा संवाद था इसलिए उन को अकसर मैं ही भोजन कराता था. मुझे उन को भोजन कराने में बहुत आनंद आता था. उस भोजन में रोटी, चावल, दाल, सब्जी, कुछ मीठा होता था तो वह तीनों भाई भरपेट भोजन करते थे व कुछ बचा कर अपने घर भी ले जाते थे ताकि परिवार की महिलाएं व बच्चे भी उसे चख सकें.

उन को कईकई रोटी व चावल खाता देख कर कभीकभी मेरी मां कह उठतीं कि अपने घर में तो ये केवल 2 रोटी खाते हैं और हमारे घर आते ही ये इतना खाना खाते हैं. तब मुझे अपनी मां की बात सच लगती थी क्योंकि मैं उन को खेत पर केवल 2 रोटी ही खाते देखता था. मैं यह समझने में सफल नहीं रहता कि ऐसा क्यों है, यह अपने घर केवल 2 रोटी खा कर पेट भर लेते हैं व हमारे घर पर इतना खाना क्यों खाते हैं.

इन्हीं सब को देखतेभुगतते मैं खुद यौवन की दहलीज पर आ गया. पढ़ाई पूरी करने के बाद शहर में वकालत करने लगा. कुछ समय उपरांत न्यायिक सेवा में प्रवेश कर के शहरशहर तबादले की मार झेलता घूमता रहा व जीवन का चक्र गांव से शहर की तरफ परिवर्तित हो गया. खेती व खेतिहर मजदूर ज्योति, मोल्हू, राजपाल व अन्य कई मजदूर, जो कभी न कभी हमारी खेती में सहायक रहे थे, काफी पीछे छूट गए. मैं एक नई दुनिया में मस्त हो गया, जो बहुत सम्मानजनक व चमकीली थी. पर यदाकदा मुझे बचपन की बातें याद आती रहती थीं. गांव में जाने पर कभीकभार उन से भेंट भी हो जाती थी, पुरानी यादें ताजा हो जाती थीं.

कुछ ही दिन पहले न जाने क्या सोचतेसोचते मुझे उपरोक्त घटनाक्रम याद आ गया और जब मैं ने अपने वयस्क एवं परिपक्व मन से उन सब कडि़यों को जोड़ा तो वास्तविकता यह प्रकट हुई कि ज्योति, मोल्हू और राजपाल, ये 3 ही मजदूर गांव में नहीं थे बल्कि गांव में और भी बहुत मजदूर थे जिन का यही हाल था. शायद यही कारण था कि हमारे घर पर भोजन के समय उन्हें पेट भरने का अवसर मिलता था. अत: वह अपने घर की अपेक्षा हमारे घर पर अधिक भोजन करते थे. उस समय मुझे उन के अधिक खाने का कारण समझ में नहीं आया था. मुझे इस बात को समझने में लगभग 4 दशक का समय लग गया कि अनाज की कमी के कारण वे मजदूर रोज ही आधे पेट रहते थे और मुझे खेतिहर मजदूरों की उस समय की स्थिति का आभास हुआ कि तब ज्योति, मोल्हू व राजपाल जैसे श्रमिक दो जून की रोटी के लिए कितना काम करते थे व तब भी आधा पेट भोजन ही कर पाते थे.

इतने के लिए भी रूखासूखा खा कर उलटासीधा फटेपुराने कपड़ों से तन ढक कर हर मौसम में उन्हें खेती का कार्य करना पड़ता था. उन के लिए काम का कोई समय नहीं था, वह मुंहअंधेरे काम पर आते थे व देर रात को काम से लौटते थे.

मुझे जब भी अवकाश मिलता, मैं गांव जाता और उन तीनों श्रमिकों से अकसर भेंट होती, पर उन की हालत जस की तस रही. वे आधा पेट भोजन कर के ही जीवन व्यतीत करते रहे और इस दुनिया से विदा हो गए.

जीवन में उन्हें कभी दो जून की भरपेट रोटी मयस्सर नहीं हो पाई. ऐसे वे अकेले श्रमिक नहीं थे, न जाने कितने श्रमिक आधा पेट भोजन करतेकरते इस दुनिया से चले गए. अब भी, जब मैं सोचता हूं कि कितना कठिन होता है जीवन भर आधापेट भोजन कर के जीवन व्यतीत करना, तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ऊपर से नीचे तक सिहर जाता हूं.

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गांव से मेरा नाता समाप्त नहीं हुआ है. वही खेत हैं, वही खेती, पर वक्त ने सबकुछ बदल दिया है. अब तो खेतीहर श्रमिकों की स्थिति में आश्चर्य रूप से परिवर्तन हुआ है. ज्योति, मोल्हू व राजपाल के बच्चों के घर पक्के हो गए हैं. बच्चों को नए कामधंधे मिल गए हैं. अब गांव में आधा बदन ढके अर्थात शरीर पर मात्र लंगोटी डाले श्रमिक बिरले ही मिलते हैं.

समाज में समानता की ध्वनि सुनाई पड़ती है, जो प्रगति का परिचायक है पर साथ ही साथ किसानों के समक्ष समस्या भी हो गई है. अब खेती कार्य के लिए मजदूरों का मिलना लगभग असंभव हो गया है. पर वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता, वह तो हर पल करवट बदलता रहता है. मैं तो पूर्ण आशान्वित हूं कि भविष्य वास्तविक रूप से उज्ज्वल होगा.

कैसी है सीमा

झाड़ूपोंछा तो महरी करने लगी पर भोजन बनाने का भार मौसी पर आ पड़ा. वह नाश्ता और खाना बनाने में परेशान हो जातीं. अब वह बिना मसाले की सादी सब्जी से काम चला लेतीं. कहतीं, ‘‘अब उम्र हो गई. काम करने की पहले जैसी ताकत थोड़े ही रह गई है.’’

सीमा का मन होता, पूछे, मौसी, सिर्फ खाना ही तो बनाना है. और खाना बनाना भी कोई काम है? तुम तो कहती थीं, दालचावल और सब्जीरोटी तो कैदियों का खाना है. तुम ऐसा खाना क्यों बना रही हो, मौसी?

किसी तरह सप्ताह बीता था कि मौसी का मन उखड़ने लगा. एक दिन प्रभात से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे पास बहुत दिन रह ली. सुरेखा रोज सपने में दिखाई देती है. जाने क्या बात है. बहू जैसी ही उस की भी हालत है.’’

प्रभात सन्न रह गए, ‘‘मौसी, ऐसी कोई बात होती तो सुरेखा का पत्र जरूर आता. तुम चली जाओगी तो बड़ी मुसीबत होगी. अच्छा होता जो कुछ दिन और रुकजातीं.’’

पर मौसी नहीं मानीं. वह बेटी को याद कर के रोने लगीं. प्रभात निरुपाय हो गए. उन्होंने उसी दिन गांव पत्र लिखा.

सुशीला जीजी पिछले साल 2 माह रह कर गई थीं. उन्हें भी एक पत्र विस्तार से लिखा. कई दिनों बाद गांव से पत्र आया कि 15 दिनों बाद अम्मां स्वयं आएंगी. पर 15 दिनों के लिए दूसरी क्या व्यवस्था हो सकेगी?

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प्रभात को याद आया कि मंगला की बीमारी का समाचार मिलते ही गांव के लोग किस तरह हैदराबाद तक दौड़े चले जाते हैं. फिर सीमा के लिए ऐसा क्यों? शायद इस का कारण वह स्वयं ही है. जिस तरह सुनील ने अपने परिजनों के हृदय में मंगला के लिए स्नेह और सम्मान के बीज बोए थे, वैसा सीमा के लिए कभी किया था उस ने?

15 दिन बाद अम्मां गांव से आ गईं. उन के आते ही प्रभात निश्चिंत हो गए. उन्हें विश्वास था कि अम्मां अब सब संभाल लेंगी. मार्च का महीना?था. वह अपने दफ्तर के कार्यों में व्यस्त हो गए. सुबह घर से जल्द निकलते और रात को देर से घर लौटते.

पिछले वर्ष जब मंगला को आपरेशन से बच्चा हुआ था, उस समय अम्मां हैदराबाद में ही थीं. उन्होंने उस की खूब सेवा की थी. उस की सेवा का औचित्य उन की समझ में आता था, लेकिन सीमा को क्या हुआ, यह उन की समझ में ही न आता. वह दिनभर काम करें और बहू आराम करे, यह उन के लिए असहाय था.

प्रभात के सामने तो अम्मांजी चुपचाप काम किए जातीं, परंतु उन के जाते ही व्यंग्य बाण उन के तरकस में कसमसाने लगते. कभी वह इधरउधर निकल जातीं.

महल्ले की स्त्रियां मजा लेने के लिए उन्हें छेड़तीं, ‘‘अम्मां, हो गया काम?’’

‘‘हां भई, काम तो करना ही है. पुराने जमाने में बहुएं सास की सेवा करती थीं, आज के जमाने में सास को बहुओं की सेवा करनी पड़ती?है.’’

सीमा सुनती तो संकोच से गड़ जाती. किस मजबूरी में वह उन की सेवा ग्रहण कर रही थी, इसे तो वही जानती थी.

उसी समय प्रभात को दफ्तर के काम से सूरत जाना पड़ा. उन के जाने की बात सुन कर सीमा विकल हो उठी थी. जाने के 2 दिन पहले उस ने प्रभात से कहा भी, ‘‘अम्मां से कार्य करवाना मुझे अच्छा नहीं लगता. उन की यहां रहने की इच्छा भी नहीं है. उन्हें जाने दीजिए. यहां जैसा होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘परिवार से संबंध बनाना तुम जानती ही नहीं हो,’’ प्रभात ने उपेक्षा से कहा था.

प्रभात के जाते ही अम्मां मुक्त हो गई थीं. वह कभी मंदिर निकल जातीं, कभी अड़ोसपड़ोस में जा बैठतीं. सीमा को यह सब अच्छा ही लगता. उन की उपस्थिति में जाने क्यों उस का दम घुटता था.

उस दिन अम्मां सामने के घर में बैठी बतिया रही थीं. सीमा ने टंकी में से आधी बालटी पानी निकाला और उठाने ही जा रही थी कि देखा, अम्मां सामने खड़ी हैं. उसे याद आया अम्मां पीछे वाली पड़ोसिन से कह रही थीं, ‘‘प्रभात पेट में था, तब छोटी ननद की शादी पड़ी. हमें बड़ेबड़े बरतन उठाने पड़े,  पर कहीं कुछ नहीं हुआ. हमारी बहू तो 2-2 लोटा पानी ले कर बालटी भरती है, तब नहाती?है.’’

सीमा ने झेंप कर बालटी भरी और उठा कर स्नानघर तक पहुंची ही थी कि दर्द के कारण बैठ जाना पड़ा. जिस का भय था, वही हो गया. डाक्टर निरुपाय थे. गर्भपात कराना जरूरी हो गया.

अम्मां रोरो कर सब से कह रही थीं, ‘‘हम इतना काम करते थे तो भला क्या इन्हें बालटी भर पानी नहीं दे सकते थे. हमारे रहने का क्या फायदा हुआ?’’

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उसी दिन शाम को प्रभात घर लौटे. अस्पताल पहुंचे तो डाक्टर गर्भपात कर के बाहर निकल रही थीं. उन्होंने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘बच्चा निकालना जरूरी हो गया था. लड़का था.’’

प्रभात हतबुद्धि से डाक्टर को देखते रह गए. फिर अचकचा कर पूछा, ‘‘सीमा कैसी है?’’

कभी-कभी ऐसा भी…

शौपिंग कर के बाहर आई तो देखा मेरी गाड़ी गायब थी. मेरे तो होश ही उड़ गए कि यह क्या हो गया, गाड़ी कहां गई मेरी? अभी थोड़ी देर पहले यहीं तो पार्क कर के गई थी. आगेपीछे, इधरउधर बदहवास सी मैं ने सब जगह जा कर देखा कि शायद मैं ही जल्दी में सही जगह भूल गई हूं. मगर नहीं, मेरी गाड़ी का तो वहां नामोनिशान भी नहीं था. चूंकि वहां कई और गाडि़यां खड़ी थीं, इसलिए मैं ने भी वहीं एक जगह अपनी गाड़ी लगा दी थी और अंदर बाजार में चली गई थी. बेबसी में मेरी आंखों से आंसू निकल आए.

पिछले साल, जब से श्रेयस का ट्रांसफर गाजियाबाद से गोरखपुर हुआ है और मुझे बच्चों की पढ़ाई की वजह से यहां अकेले रहना पड़ रहा है, जिंदगी का जैसे रुख ही बदल गया है. जिंदगी बहुत बेरंग और मुश्किल लगने लगी है.

श्रेयस उत्तर प्रदेश सरकार की उच्च सरकारी सेवा में है, सो हमेशा नौकर- चाकर, गाड़ी सभी सुविधाएं मिलती रहीं. कभी कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी. बैठेबिठाए ही एक हुक्म के साथ सब काम हो जाता था. पिछले साल प्रमोशन के साथ जब उन का तबादला हुआ तो उस समय बड़ी बेटी 10वीं कक्षा में थी, सो मैं उस के साथ जा ही नहीं सकती थी और इस साल अब छोटी बेटी 10वीं कक्षा में है. सही माने में तो अब अकेले रहने पर मुझे आटेदाल का भाव पता चल रहा था.

सही में कितना मुश्किल है अकेले रहना, वह भी एक औरत के लिए. जिंदगी की कितनी ही सचाइयां इस 1 साल के दौरान आईना जैसे बन कर मेरे सामने आई थीं.

औरों की तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरे संग तो ऐसा ही था. शादी से पहले भी कभी कुछ नहीं सीख पाई क्योंकि पापा भी उच्च सरकारी नौकरी में थे, सो जहां जाते थे, बस हर दम गार्ड, अर्दली आदि संग ही रहते थे. शादी के बाद श्रेयस के संग भी सब मजे से चलता रहा. मुश्किलें तो अब आ रही हैं अकेले रह के.

मोबाइल फोन से अपनी परेशानी श्रेयस के साथ शेयर करनी चाही तो वह भी एक मीटिंग में थे, सो जल्दी से बोले, ‘‘परेशान मत हो पूरबी. हो सकता है कि नौनपार्किंग की वजह से पुलिस वाले गाड़ी थाने खींच ले गए हों. मिल जाएगी…’’

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उन से बात कर के थोड़ी हिम्मत तो खैर मिली ही मगर मेरी गाड़ी…मरती क्या न करती. पता कर के जैसेतैसे रिकशा से पास ही के थाने पहुंची. वहां दूर से ही अपनी गाड़ी खड़ी देख कर जान में जान आई.

श्रेयस ने अभी फोन पर समझाया था कि पुलिस वालों से ज्यादा कुछ नहीं बोलना. वे जो जुर्माना, चालान भरने को कहें, चुपचाप भर के अपनी गाड़ी ले आना. मुझे पता है कि अगर उन्होंने जरा भी ऐसावैसा तुम से कह दिया तो तुम्हें सहन नहीं होगा. अपनी इज्जत अपने ही हाथ में है, पूरबी.

दूर रह कर के भी श्रेयस इसी तरह मेरा मनोबल बनाए रखते थे और आज भी उन के शब्दों से मुझ में बहुत हिम्मत आ गई और मैं लपकते हुए अंदर पहुंची. जो थानेदार सा वहां बैठा था उस से बोली, ‘‘मेरी गाड़ी, जो आप यहां ले आए हैं, मैं वापस लेने आई हूं.’’

उस ने पहले मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर बहुत अजीब ढंग से बोला, ‘‘अच्छा तो वह ‘वेगनार’ आप की है. अरे, मैडमजी, क्यों इधरउधर गाड़ी खड़ी कर देती हैं आप और परेशानी हम लोगों को होती है.’’

मैं तो चुपचाप श्रेयस के कहे मुताबिक शांति से जुर्माना भर कर अपनी गाड़ी ले जाती लेकिन जिस बुरे ढंग से उस ने मुझ से कहा, वह भला मुझे कहां सहन होने वाला था. श्रेयस कितना सही समझते हैं मुझे, क्योंकि बचपन से अब तक मैं जिस माहौल में रही थी ऐसी किसी परिस्थिति से कभी सामना हुआ ही नहीं था. गुस्से से बोली, ‘‘देखा था मैं ने, वहां कोई ‘नो पार्किंग’ का बोर्ड नहीं था. और भी कई गाडि़यां वहां खड़ी थीं तो उन्हें क्यों नहीं खींच लाए आप लोग. मेरी ही गाड़ी से क्या दुश्मनी है भैया,’’ कहतेकहते अपने गुस्से पर थोड़ा सा नियंत्रण हो गया था मेरा.

इतने में अंदर से एक और पुलिस वाला भी वहां आ पहुंचा. मेरी बात उस ने सुन ली थी. आते ही गुस्से से बोला, ‘‘नो पार्किंग का बोर्ड तो कई बार लगा चुके हैं हम लोग पर आप जैसे लोग ही उसे हटा कर इधरउधर रख देते हैं और फिर आप से भला हमारी क्या दुश्मनी होगी. बस, पुलिस के हाथों जब जो आ जाए. हो सकता है और गाडि़यों में उस वक्त ड्राइवर बैठे हों. खैर, यह तो बताइए कि पेपर्स, लाइसेंस, आर.सी. आदि सब हैं न आप की गाड़ी में. नहीं तो और मुश्किल हो जाएगी. जुर्माना भी ज्यादा भरना पड़ेगा और काररवाई भी लंबी होगी.’’

उस के शब्दों से मैं फिर डर गई मगर ऊपर से बोल्ड हो कर बोली, ‘‘वह सब है. चाहें तो चेक कर लें और जुर्माना बताएं, कितना भरना है.’’

मेरे बोलने के अंदाज से शायद वे दोनों पुलिस वाले समझ गए कि मैं कोई ऊंची चीज हूं. पहले वाला बोला, ‘‘परेशान मत होइए मैडम, ऐसा है कि अगर आप परची कटवाएंगी तो 500 रुपए देने पड़ेंगे और नहीं तो 300 रुपए में ही काम चल जाएगा. आप भी क्या करोगी परची कटा कर. आप 300 रुपए हमें दे जाएं और अपनी गाड़ी ले जाएं.’’

उस की बात सुन कर गुस्सा तो बहुत आ रहा था, मगर मैं अकेली कर भी क्या सकती थी. हर जगह हर कोने में यही सब चल रहा है एक भयंकर बीमारी के रूप में, जिस का कोई इलाज कम से कम अकेले मेरे पास तो नहीं है. 300 रुपए ले कर चालान की परची नहीं काटने वाले ये लोग रुपए अपनीअपनी जेब में ही रख लेंगे.

मुझ में ज्यादा समझ तो नहीं थी लेकिन यह जरूर पता था कि जिंदगी में शार्टकट कहीं नहीं मारने चाहिए. उन से पहुंच तो आप जरूर जल्दी जाएंगे लेकिन बाद में लगेगा कि जल्दबाजी में गलत ही आ गए. कई बार घर पर भी ए.सी., फ्रिज, वाशिंग मशीन या अन्य किसी सामान की सर्विसिंग के लिए मेकैनिक बुलाओ तो वे भी अब यही कहने लगे हैं कि मैडम, बिल अगर नहीं बनवाएंगी तो थोड़ा कम पड़ जाएगा. बाकी तो फिर कंपनी के जो रेट हैं, वही देने पड़ेंगे.

श्रेयस हमेशा यह रास्ता अपनाने को मना करते हैं. कहते हैं कि थोड़े लालच की वजह से यह शार्टकट ठीक नहीं. अरे, यथोचित ढंग से बिल बनवाओ ताकि कोई समस्या हो तो कंपनी वालों को हड़का तो सको. वह आदमी तो अपनी बात से मुकर भी सकता है, कंपनी छोड़ कर इधरउधर जा भी सकता है मगर कंपनी भाग कर कहां जाएगी. इतना सब सोच कर मैं ने कहा, ‘‘नहीं, आप चालान की रसीद काटिए. मैं पूरा जुर्माना भरूंगी.’’

मेरे इस निर्णय से उन दोनों के चेहरे लटक गए, उन की जेबें जो गरम होने से रह गई थीं. मुझे उन का मायूस चेहरा देख कर वाकई बहुत अच्छा लगा. तभी मन में आया कि इनसान चाहे तो कुछ भी कर सकता है, जरूरत है अपने पर विश्वास की और पहल करने की.

वैसे तो श्रेयस के साथ के कई अफसर यहां थे और पापा के समय के भी कई अंकल मेरे जानकार थे. चाहती तो किसी को भी फोन कर के हेल्प ले सकती थी लेकिन श्रेयस के पीछे पहली बार घर संभालना पड़ रहा था और अब तो नईनई चुनौतियों का सामना खुद करने में मजा आने लगा था. ये आएदिन की मुश्किलें, मुसीबतें, जब इन्हें खुद हल करती थी तो जो खुशी और संतुष्टि मिलती उस का स्वाद वाकई कुछ और ही होता था.

पूरा जुर्माना अदा कर के आत्म- विश्वास से भरी जब थाने से बाहर निकल रही थी तो देखा कि 2 पुलिस वाले बड़ी बेदर्दी से 2 लड़कों को घसीट कर ला रहे थे. उन में से एक पुलिस वाला चीखता जा रहा था, ‘‘झूठ बोलते हो कि उन मैडम का पर्स तुम ने नहीं झपटा है.’’

‘‘नाक में दम कर रखा है तुम बाइक वालों ने. कभी किसी औरत की चेन तो कभी पर्स. झपट कर बाइक पर भागते हो कि किसी की पकड़ में नहीं आते. आज आए हो जैसेतैसे पकड़ में. तुम बाइक वालों की वजह से पुलिस विभाग बदनाम हो गया है. तुम्हारी वजह से कहीं नारी शक्ति प्रदर्शन किए जा रहे हैं तो कहीं मंत्रीजी के शहर में शांति बनाए रखने के फोन पर फोन आते रहते हैं. बस, अब तुम पकड़ में आए हो, अब देखना कैसे तुम से तुम्हारे पूरे गैंग का भंडाफोड़ हम करते हैं.’’

एक पुलिस वाला बके जा रहा था तो दूसरा कालर से घसीटता हुआ उन्हें थाने के अंदर ले जा रहा था. ऐसा दृश्य मैं ने तो सिर्फ फिल्मों में ही देखा था. डर के मारे मेरी तो घिग्गी ही बंध गई. नजर बचा कर साइड से निकलना चाहती थी कि बड़ी तेजी से आवाज आई, ‘‘मैडम, मैडम, अरे…अरे यह तो वही मैडम हैं…’’

मैं चौंकी कि यहां मुझे जानने वाला कौन आ गया. पीछे मुड़ कर देखा. बड़ी मुश्किल से पुलिस की गिरफ्त से खुद को छुड़ाते हुए वे दोनों लड़के मेरी तरफ लपके. मैं डर कर पीछे हटने लगी. अब जाने यह किस नई मुसीबत में फंस गई.

‘‘मैडम, आप ने हमें पहचाना नहीं,’’ उन में से एक बोला. मुझे देख कर कुछ अजीब सी उम्मीद दिखी उस के चेहरे पर.

‘‘मैं ने…आप को…’’ मैं असमंजस में थी…लग तो रहा था कि जरूर इन दोनों को कहीं देखा है. मगर कहां?

‘‘मैडम, हम वही दोनों हैं जिन्होंने अभी कुछ दिनों पहले आप की गाड़ी की स्टेपनी बदली थी, उस दिन जब बीच रास्ते में…याद आया आप को,’’ अब दूसरे ने मुझे याद दिलाने की कोशिश की.

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उन के याद दिलाने पर सब याद आ गया. इस गाड़ी की वजह से मैं एक नहीं, कई बार मुश्किल में फंसी हूं. श्रेयस ने यहां से जाते वक्त कहा भी था, ‘एक ड्राइवर रख देता हूं, तुम्हें आसानी रहेगी. तुम अकेली कहांकहां आतीजाती रहोगी. बाहर के कामों व रास्तों की तुम्हें कुछ जानकारी भी नहीं है.’ मगर तब मैं ने ही यह कह कर मना कर दिया था कि अरे, मुझे ड्राइविंग आती तो है. फिर ड्राइवर की क्या जरूरत है. रोजरोज मुझे कहीं जाना नहीं होता है. कभीकभी की जरूरत के लिए खामखां ही किसी को सारे वक्त सिर पर बिठाए रखूं. लेकिन बाद में लगा कि सिर्फ गाड़ी चलाना आने से ही कुछ नहीं होता. घर से बाहर निकलने पर एक महिला के लिए कई और भी मुसीबतें सामने आती हैं, जैसे आज यह आई और आज से करीब 2 महीने पहले वह आई थी.

उस दिन मेरी गाड़ी का बीच रास्ते में चलतेचलते ही टायर पंक्चर हो गया था. गाड़ी को एक तरफ रोकने के अलावा और कोई चारा नहीं था. बड़ी बेटी को उस की कोचिंग क्लास से लेने जा रही थी कि यह घटना घट गई. उस के फोन पर फोन आ रहे थे और मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करूं. गाड़ी में दूसरी स्टेपनी रखी तो थी लेकिन उसे लगाने वाला कोई चाहिए था. आसपास न कोई मैकेनिक शौप थी और न कोई मददगार. कितनी ही गाडि़यां, टेंपो, आटोरिक्शा आए और देखते हुए चले गए. मुझ में डर, घबराहट और चिंता बढ़ती जा रही थी. उधर, बेटी भी कोचिंग क्लास से बाहर खड़ी मेरा इंतजार कर रही थी. श्रेयस को फोन मिलाया तो वह फिर कहीं व्यस्त थे, सो खीझ कर बोले, ‘अरे, पूरबी, इसीलिए तुम से बोला था कि ड्राइवर रख लेते हैं…अब मैं यहां इतनी दूर से क्या करूं?’ कह कर उन्होंने फोन रख दिया.

काफी समय यों ही खड़ेखड़े निकल गया. तभी 2 लड़के मसीहा बन कर प्रकट हो गए. उन में से एक बाइक से उतर कर बोला, ‘मे आई हेल्प यू, मैडम?’

समझ में ही नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दूं. बस, मुंह से स्वत: ही निकल गया, ‘यस…प्लीज.’ और फिर 10 मिनट में ही दोनों लड़कों ने मेरी समस्या हल कर मुझे इतने बड़े संकट से उबार लिया. मैं तो तब उन दोनों लड़कों की इतनी कृतज्ञ हो गई कि बस, थैंक्स…थैंक्स ही कहती रही. रुंधे गले से आभार व्यक्त करती हुई बोली थी, ‘‘तुम लोगों ने आज मेरी इतनी मदद की है कि लगता है कि इनसानियत और मानवता अभी इस दुनिया में हैं. इतनी देर से अकेली परेशान खड़ी थी मैं. कोई नहीं रुका मेरी मदद को.’’ थोड़ी देर बाद फिर श्रेयस का फोन आया तो उन्हें जब उन लड़कों के बारे में बताया तो वह भी बहुत आभारी हुए उन के. बोले, ‘जहां इस समाज में बुरे लोग हैं तो अच्छे लोगों की भी कमी नहीं है.’

और आज मेरे वे 2 मसीहा, मेरे मददगार इस हालत में थे. पहचानते ही तुरंत उन के पास आ कर बोली, ‘‘अरे, यह सब क्या है? तुम लोग इस हालत में. इंस्पेक्टर साहब, इन्हें क्यों पकड़ रखा है? ये बहुत अच्छे लड़के हैं.’’

‘‘अरे, मैडम, आप को नहीं पता. ये वे बाइक सवार हैं जिन की शिकायतें लेले के आप लोग आएदिन पुलिस थाने आया करते हैं. बमुश्किल आज ये पकड़ में आए हैं. बस, अब इन के संगसंग इन के पूरे गिरोह को भी पकड़ लेंगे और आप लोगों की शिकायतें दूर कर देंगे.’’

इतना बोल कर वे दोनों पुलिस वाले उन्हें खींचते हुए अंदर ले गए. मैं भी उन के पीछेपीछे हो ली.

मुझे अपने साथ खड़ा देख कर वे दोनों मेरी तरफ बड़ी उम्मीद से देखने लगे. फिर बोले, ‘‘मैडम, यकीन कीजिए, हम ने कुछ नहीं किया है. आप को तो पता है कि हम कैसे हैं. उन मैडम का पर्स झपट कर हम से आगे बाइक सवार ले जा रहे थे और उन मैडम ने हमें पकड़वा दिया. हम सचमुच निर्दोष हैं. हमें बचा लीजिए, प्लीज…’’

एक लड़का तो बच्चों की तरह जोरजोर से रोने लगा था. दूसरा बोला, ‘‘इंस्पेक्टर साहब, हम तो वहां से गुजर रहे थे बस. आप ने हमें पकड़ लिया. वे चोर तो भाग निकले. हमें छोड़ दीजिए. हम अच्छे घर के लड़के हैं. हमारे मम्मीपापा को पता चलेगा तो उन पर तो आफत ही आ जाएगी.’’

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हालांकि मैं उन्हें बिलकुल नहीं जानती थी. यहां तक कि उन का नामपता भी मुझे मालूम नहीं था लेकिन कोई भी अच्छाबुरा व्यक्ति अपने कर्मों से पहचाना जाता है. मेरी मदद कर के उन्होंने साबित कर दिया था कि वे अच्छे लड़के हैं और अब उन की मदद करने की मेरी बारी थी. ऐसे कैसे ये पुलिस वाले किसी को भी जबरदस्ती पकड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे और गुनाहगार शहर में दंगा मचाने को आजाद घूमते रहेंगे.

मैं ने कहा, ‘‘इंस्पेक्टर साहब, मैं इन्हें जानती हूं. ये बड़े अच्छे लड़के हैं. मेरे भाई हैं. आप गलत लोगों को पकड़ लाए हैं. इन्हें छोड़ दीजिए.’’

‘‘अरे मैडम, इन के मासूम और भोले चेहरों पर मत जाइए. जब चोर पकड़ में आता है तो वह ऐसे ही भोला बनता है. बड़ी मुश्किल से तो ये दोनों पकड़ में आए हैं और आप कहती हैं कि इन्हें छोड़ दें… और फिर ये आप के भाई कैसे हुए? दोनों तो मुसलिम हैं और अभी आप ने चालान की रसीद पर पूरबी अग्रवाल के नाम से साइन किया है तो आप हिंदू हुईं न,’’ बीच में वह पुलिस वाला बोल पड़ा जिस से मैं ने अपनी गाड़ी छुड़वाई थी.

उस के बेढंगे बोलने के अंदाज पर मुझे बहुत ताव आया और बोली, ‘‘इंस्पेक्टर, कुछ इनसानियत के रिश्ते हर धर्म, हर जाति से बड़े होते हैं. वक्त पड़ने पर जो आप के काम आ जाए, आप का सहारा बन जाए, बस उस मानवतारूपी धर्म और जाति का ही रिश्ता सब से बड़ा होता है. कुछ दिन पहले मैं एक मुसीबत में फंस गई थी, उस समय मेरी मदद करने को तत्पर इन लड़कों ने मुझ से मेरी जाति और धर्म नहीं पूछा था. इन्होंने मुझ से तब यह नहीं कहा था कि अगर आप मुसलिम होंगी तभी हम आप की मदद करेंगे. इन्होंने महज इनसानियत का धर्म निभाया था और मुश्किल में फंसी मेरी मदद की थी.’’

‘‘इंस्पेक्टर साहब, शायद मेरी समझ से जो इस धर्म को अपना ले, वह इनसान सच्चा होता है, निर्दोष होता, बेगुनाह होता है, गुनहगार नहीं. उस वक्त अपनी खुशी से मैं ने इन्हें कुछ देना चाहा तो इन्होंने लिया नहीं और आप कह रहे हैं कि…’’

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मेरी उन बातों का शायद उन पुलिस वालों पर कुछ असर पड़ा. लड़के भी मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने लगे थे. एक बोला, ‘‘मैडम, आप बचा लीजिए हमें. यह जबरदस्ती की पकड़ हमारी जिंदगी बरबाद कर देगी.’’

मैं ने भरोसा दिलाते हुए उन से कहा, ‘‘डोंट वरी, कुछ नहीं होगा तुम लोगों को. अगर उस दिन मैं ने तुम्हें न जाना होता और तुम ने मेरी मदद नहीं की होती तो शायद मैं भी कुछ नहीं कर पाती लेकिन किसी की निस्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल तो मिलता ही है. इसीलिए कहते हैं न कि जिंदगी में कभीकभी मिलने वाले ऐसे मौकों को छोड़ना नहीं चाहिए. अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी चाहिए कि आप के हाथों किसी का भला हो जाए.’’

मेरी बातों के प्रभाव में आया एक पुलिस वाला नरम लहजे में बोला, ‘‘देखिए मैडम, इन लड़कों को उस पर्स वाली मैडम ने पकड़वाया है. अब अगर वह अपनी शिकायत वापस ले लें तो हम इन्हें छोड़ देंगे. नहीं तो इन्हें अंदर करने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है.’’

‘‘तो वह मैडम कहां हैं? फिर उन से ही बात करते हैं,’’ मैं ने तेजी से कहा. ऐसा लग रहा था जैसे कि कुछ अच्छा करने के लिए ऊर्जा अंदर से ही मिल रही थी और रास्ता खुदबखुद बन रहा था.

‘‘वह तो इन लोगों को पकड़वा कर कहीं चली गई हैं. अपना फोन नंबर दे गई हैं, कह रही थीं कि जब ये उन के पर्स के बारे में बता दें तो आ जाएंगी.’’

‘‘अच्छा तो उन्हें फोन कर के यहां बुलाइए. देखते हैं कि वह क्या कहती हैं? उन से ही अनुरोध करेंगे कि वह अपनी शिकायत वापस ले लें.’’

पुलिस वाले अब कुछ मूड में दिख रहे थे. एक पुलिस वाले ने फोन नंबर डायल कर उन्हें थाने आने को कहा.

फोन पहुंचते ही वह मैडम आ गईं. उन्हें देखते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘अरे, मिसेज सान्याल…’’ वह हमारे आफिसर्स लेडीज क्लब की प्रेसीडेंट थीं और मैं सेके्रटरी. इसी चक्कर में हम लोग अकसर मिलते ही रहते थे. आज तो इत्तफाक पर इत्तफाक हो रहे थे.

मुझे थाने में देख कर वह भी चौंक गईं. बोलीं, ‘‘अरे पूरबी, तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिसेज सान्याल, मेरी गाड़ी को पुलिस वाले बाजार से उठा कर थाने लाए थे, उसी चक्कर में मुझे यहां आना पड़ा. पर ये लड़के, जिन्हें आप ने पकड़वाया है, असली मुजरिम नहीं हैं. आप देखिए, क्या इन्होंने ही आप का पर्स झपटा था.’’

‘‘पूरबी, पर्स तो वे मेरा पीछे से मेरे कंधे पर से खींच कर तेजी से चले गए थे. एक बाइक चला रहा था और दूसरे ने चलतेचलते ही…’’ इत्तफाक से मेरे पीछे से एक पुलिस जीप आई, जिस में ये दोनों पुलिस वाले बैठे थे. मेरी चीख सुन के इन्होंने मुझे अपनी जीप में बिठा लिया. तेजी से पीछा करने पर बाइक पर सवार ये दोनों मिले और बस पुलिस वालों ने इन दोनों को पकड़ लिया. मुझे लगा भी कि ये दोनों वे नहीं हैं, क्योंकि इतनी तेजी में भी मैं ने यह देखा था कि पीछे बैठने वाले के, जिस ने मेरा पर्स झपटा था, घुंघराले बाल नहीं थे, जैसे कि इस लड़के के हैं. वह गंजा सा था और उस ने शाल लपेट रखी थी, जबकि ये लड़के तो जैकेट पहने हुए हैं.

‘‘इन पुलिस वाले भाईसाहब से मैं ने कहा भी कि ये लोग वे नहीं हैं मगर इन्होंने मेरी सुनी ही नहीं और कहा कि अरे, आप को ध्यान नहीं है, ये ही हैं. जब मारमार के इन से आप का कीमती पर्स निकलवा लेंगे न तब आप को यकीन आएगा कि पुलिस वालों की आंखें आम आदमी से कितनी तेज होती हैं.’’

फिर मिसेज सान्याल ने तेज स्वर में उन से कहा, ‘‘क्यों, कहा था कि नहीं?’’

पुलिस वालों से तो कुछ कहते नहीं बना, लेकिन बेचारे बेकसूर लड़के जरूर अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए बोले, ‘‘मैडम, अगर हम आप का पर्स छीन कर भागे होते तो क्या इतनी आसानी से पकड़ में आ जाते. अगर आप को जरा भी याद हो तो आप ने देखा होगा कि मैं बहुत धीरेधीरे बाइक चला रहा था क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले ही मेरे हाथ में फ्रैक्चर हो गया था. आप चाहें तो शहर के जानेमाने हड्डी रोग विशेषज्ञ डा. संजीव लूथरा से पता कर सकते हैं, जिन्होंने मेरा इलाज किया था.

‘‘हम दोनों यहां के एक मैनेजमेंट कालिज से एम.बी.ए. कर रहे हैं. आप चाहें तो कालिज से हमारे बारे में सबकुछ पता कर सकती हैं. इंस्पेक्टर साहब, आप की जरा सी लापरवाही और गलतफहमी हमारा कैरियर चौपट कर देगी. देश का कानून और देश की पुलिस जनता की रक्षा के लिए है, उन्हें बरबाद करने के लिए नहीं. हमें छोड़ दीजिए, प्लीज.’’

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अब बात बिलकुल साफ हो चुकी थी. पुलिस वालों की आंखों में भी अपनी गलती मानने की झलक दिखी. मिसेज सान्याल ने भी पुलिस से अपनी शिकायत वापस लेते हुए उन लोगों को छोड़ देने और असली मुजरिम को पकड़ने की प्रार्थना की. मुझे भी अपने दिल में कहीं बहुत अच्छा लग रहा था कि मैं ने किसी की मदद कर एक नेक काम किया है.

सचमुच, जिंदगी में कभीकभी ऐसे मोड़ भी आ जाते हैं जो आप के जीने की दिशा ही बदल दें. पुलिस के छोड़ देने पर वे दोनों लड़के वाकई मेरे भाई जैसे ही बन गए. बाहर निकलते ही बोले, ‘‘आप ने पुलिस से हमें बचाने के लिए अपना भाई कहा था न, आज से हम आप के बस भाई ही हैं. अब आप को हम मैडम नहीं ‘दीदी’ कहेंगे और हमारे अलगअलग धर्म कभी हमारे और आप के पाक रिश्ते में आड़े नहीं आएंगे. हमारा मोबाइल नंबर आप रख लीजिए, कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय अच्छीबुरी कोई बात हो, अपने इन भाइयों को जरूर याद कर लेना दीदी, हम तुरंत आप की सेवा में हाजिर हो जाएंगे.’’

उन का मोबाइल नंबर अपने मोबाइल में फीड कर के मैं मुसकरा दी थी और अपनी पकड़ी गई गाड़ी को ले कर घर आ गई. विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये सब हकीकत में मेरे साथ हुआ, लग रहा था कि जैसे किसी फिल्म की शूटिंग देख कर आ रही हूं. घर पहुंच कर, इत्मीनान से चाय के सिप लेती हुई श्रेयस को फोन किया और सब घटना उन्हें सुनाई तो खोएखोए से वह भी कह उठे, ‘‘पूरबी, होता है, कभीकभी ऐसा भी जिंदगी में…’’

काश, मेरा भी बौस होता

आज फिर अनीता छुट्टी पर है. इस का अंदाज मैं ने इसी से लगा लिया कि वह अभी तक तैयार नहीं हुई. लगता है कल फिर वह बौस को अदा से देख कर मुसकराई होगी. तभी तो आज दिनभर उसे मुसकराते रहने के लिए छुट्टी मिल गई है.

मेरे दिल पर सांप लोटने लगा. काश, मेरा भी बौस होता…बौसी नहीं…तो मैं भी अपनी अदाओं के जलवे बिखेरती, मुसकराती, इठलाती हुई छुट्टी पर छुट्टी करती चली जाती और आफिस में बैठा मेरा बौस मेरी अटेंडेंस भरता होता…पर मैं क्या करूं, मेरा तो बौस नहीं बौसी है.

बौस शब्द कितना अच्छा लगता है. एक ऐसा पुरुष जो है तो बांस की तरह सीधा तना हुआ. हम से ऊंचा और अकड़ा हुआ भी पर जब उस में फूंक भरो तो… आहा हा हा. क्या मधुर तान निकलती है. वही बांस, बांसुरी बन जाता है.

‘‘सर, एक बात कहें, आप नाराज तो नहीं होंगे. आप को यह सूट बहुत ही सूट करता है, आप बड़े स्मार्ट लगते हैं,’’ मैं ऐसा कहती तो बौस के चेहरे पर 200 वाट की रोशनी फैल जाती है.

‘‘ही ही ही…थैंक्स. अच्छा, ‘थामसन एंड कंपनी’ के बिल चेक कर लिए हैं.’’

‘‘सर, आधे घंटे में ले कर आती हूं.’’

‘‘ओ के, जल्दी लाना,’’ और बौस मुसकराते हुए केबिन में चला जाता. वह यह कभी नहीं सोचता कि फाइल लाने में आधा घंटा क्यों लगेगा.

पर मेरी तो बौसी है जो आफिस में घुसते ही नाक ऊंची कर लेती है. धड़मधड़म कर के दरवाजा खोलेगी और घर्रर्रर्रर्र से घंटी बजा देगी, ‘‘पाल संस की फाइल लाना.’’

‘‘मेम, आज आप की साड़ी बहुत सुंदर लग रही है.’’

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वह एक नजर मेरी आंखों में ऐसे घूरती है जैसे मैं ने उस की साड़ी का रेट कम बता दिया हो.

‘‘काम पूरा नहीं किया क्या?’’ ठां… उस ने गरम गोला दाग दिया. थोड़ी सी हवा में ठंडक थी, वह भी गायब हो गई, ‘‘फाइल लाओ.’’

दिल करता है फाइल उस के सिर पर दे मारूं.

‘‘सर, आज मैं बहुत थक गई हूं, रात को मेहमान भी आए थे, काफी देर हो गई थी सोने में. मैं जल्दी चली जाऊं?’’ मैं अपनी आवाज में थकावट ला कर ऐसी मरी हुई आवाज में बोलती जैसी मरी हुई भैंस मिमियाती है तो बौस मुझे देखते ही तरस खा जाता.

‘‘हां हां, क्यों नहीं. पर कल समय से आने की कोशिश करना,’’ यह बौस का जवाब होता.

लेकिन मेरे मिमियाने पर बौसी का जवाब होता है, ‘‘तो…? तो क्या मैं तुम्हारे पांव दबाऊं? नखरे किसी और को दिखाना, आफिस टाइम पूरा कर के जाना.’’

मन करता है इस का टाइम जल्दी आ जाए तो मैं ही इस का गला दबा दूं.

‘‘सर, मेरे ससुराल वाले आ रहे हैं, मैं 2 घंटे के लिए बाहर चली जाऊं,’’ मैं आंखें घुमा कर कहती तो बौस भी घूम जाता, ‘‘अच्छा, क्या खरीदने जा रही हो?’’ बस, मिल जाती परमिशन. पर यह बौसी, ‘‘ससुराल वालों से कह दिया करो कि नौकरी करने देनी है कि नहीं,’’ ऐसा जवाब सुन कर मन से बददुआ निकलने लगती है. काश, तुम्हारी कुरसी मुझे मिल जाती तो…लो इसी बात में मेरी बौसी महारानी पानी भरती दिखाई देती.

उस दिन पति से लड़ाई हो गई तो रोतेरोते ही आफिस पहुंची थी. मेरे आंसू देखते ही बौसी बोली, ‘‘टसुए घर छोड़ कर आया करो.’’ लेकिन अगर मेरा बौस होता तो मेरे आंसू सीधे उस के (बौस के) दिल पर छनछन कर के गरम तवे पर ठंडी बूंदों की तरह गिरते और सूख जाते. वह मुझ से पूछता, ‘क्या हुआ है? किस से झगड़ा हुआ.’ तब मैं अपने पति को झगड़ालू और अकड़ू बता कर अपने बौस की तारीफ में पुल बांधती तो वह कितना खुश हो जाता और मेरी अगले दिन की एक और छुट्टी पक्की हो जाती.

कोई भी अच्छी ड्रेस पहनूं या मेकअप करूं तो डर लगने लगता है. बौसी कहने लगती है, ‘‘आफिस में सज कर किस को दिखाने आई हो?’’ अगर बौस होता तो ऐसे वाहियात सवाल थोड़े ही करता? वह तो समझदार है, उसे पता है कि मैं उस के दिल के कोमल तारों को छेड़ने और फुसलाने के लिए ही तो ऐसा कर रही हूं. वह यह सब जान कर भी फिसलता ही जाएगा. फिसलता ही जाएगा और उस की इसी फिसलन में उस की बंद आंखों में मैं अपने घर के हजारों काम निबटा देती.

पर मेरी किस्मत में बौस के बजाय बौसी है, बासी रोटी और बासी फूल सी मुरझाई हुई. उस के होेते हुए न तो मैं आफिस टाइम पर शौपिंग कर पाती हूं, न ही ससुराल वालों को अटेंड कर पाती हूं, न ही घर जा कर सो पाती हूं, न ही अपने पति की चुगली उस से कर के उसे खुश कर पाती हूं और न ही उस के रूप और कपड़ों की बेवजह तारीफ कर के, अपने न किए हुए कामों को अनदेखा करवा सकती हूं.

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अगर मेरा बौस होता तो मैं आफिस आती और आफिस आफिस खेलती, पर काम नहीं करती. पर क्या करूं मैं, मेरी तो बौसी है. इस के होने से मुझे अपनी सुंदरता पर भी शक होने लगा है. मेरा इठलाना, मेरा रोना, मेरा आंसू बहाना, मेरा सजना, मेरे जलवे, मेरे नखरे किसी काम के नहीं रहे.

इसीलिए मुझे कभीकभी अपने नारी होने पर भी संदेह होने लगा है. काश, कोई मेरी बौसी को हटा कर मुझे बौस दिला दे, ताकि मुझे मेरे होने का एहसास त

कैसी है सीमा

‘‘आज जरा चेक पर दस्तखत कर देना,’’ प्रभात ने शहद घुली आवाज में कहा.

सीमा ने रोटी बेलतेबेलते पलट कर देखा, चेक पर दस्तखत करवाते समय प्रभात कितने बदल जाते हैं, ‘‘आप की तनख्वाह खत्म हो गई?’’ वह बोली.

‘‘गांव से पिताजी का पत्र आया था. वहां 400 रुपए भेजने पड़े. फिर लीला मौसी भी आई हुई हैं. घर में मेहमान हों तो खर्च बढ़ेगा ही न?’’

सीमा चुप रह गई.

‘‘पैसा नहीं देना है तो मत दो. किसी से उधार ले कर काम चला लूंगा. जब भी पैसों की जरूरत होती है, तुम इसी तरह अकड़ दिखाती हो.’’

‘‘अकड़ दिखाने की बात नहीं है. प्रश्न यह है कि रुपया देने वाली की कुछ कद्र तो हो.’’

‘‘मैं बीवी का गुलाम बन कर नहीं रह सकता, समझीं.’’

बीवी के गुलाम होने वाली सदियों पुरानी उक्ति पुरुष को आज भी याद है. किंतु स्त्रीधन का उपयोग न करने की गौरवशाली परंपरा को वह कैसे भूल गया?

बहस और कटु हो जाए, इस के पहले ही सीमा ने चेक पर हस्ताक्षर कर दिए.

शाम को प्रभात दफ्तर से लौटे तो लीला मौसी को 100 का नोट दे कर बोले, ‘‘मौसी, तुम पड़ोस वाली चाची के साथ जा कर आंखों की जांच करवा आना.’’

‘‘अरे, रहने दे भैया, मैं तो यों ही कह रही थी. अभी ऐसी जल्दी नहीं है. रायपुर जा कर जांच करा लूंगी.’’

‘‘नहीं मौसी, आंखों की बात है. जल्दी दिखा देना ही ठीक है.’’

मौसी मन ही मन गद्गद हो गईं.

प्रभात मौसी का बहुत खयाल रखते हैं. मौसी का ही क्यों, रिश्ते की बहनों, बूआओं, चाचाताउओं सभी का. कोई रिश्तेदार आ जाए तो प्रभात एकदम प्रसन्न हो उठते हैं. उस समय वह इतने उदार हो जाते हैं कि खर्च करते समय आगापीछा नहीं सोचते. मेहमानों की तीमारदारी के लिए ऐसे आकुलव्याकुल हो उठते हैं कि उन के आदेशों की धमक से सीमा का सिर घूमने लगता है.

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‘‘सीमा, आज क्या सब्जी बनी?है?’’ प्रभात पूछ रहे थे.

‘‘बैगन की.’’

‘‘बैगन की. मौसी की आंखों में तकलीफ है. बैगन की सब्जी खाने से तकलीफ बढ़ेगी नहीं? उन के लिए परवल की सब्जी बना लो.’’

‘‘नहीं. मैं बैगन की सब्जी खा लूंगी, बेटा. बहू को एक और सब्जी बनाने में कष्ट होगा. कालिज से थक कर आई है.’’

‘‘इस उम्र में थकना क्या है, मौसी? वह तो इन के घर वालों ने काम की आदत नहीं डाली, इसी से थक जाती हैं.’’

‘‘हां, बेटा. आजकल लड़कियों को घरगृहस्थी संभालने की आदत ही नहीं रहती. हम लोग घर के सब काम कर के 10 किलो चना दल कर फेंक देते थे,’’ मौसी बोलीं.

बस, इसी बात से सीमा चिढ़ जाती है. उस के मायके वालों ने काम की आदत नहीं डाली तो क्या प्रभात ने उस के लिए नौकरों की फौज खड़ी कर दी? एक बरतनकपड़े साफ करने वाली के अलावा दूसरा कोई नौकर तो देखा ही नहीं इस घर में.

और लीला मौसी के जमाने में घरगृहस्थी ही तो संभालती थीं लड़कियां. न पढ़ाईलिखाई में सिर खपाना था और न नौकरी के पीछे मारेमारे घूमना था.

सीमा सोचने लगी, ‘लीला मौसी तो खैर अशिक्षित महिला हैं, परंतु प्रभात की समझ में यह बात क्यों नहीं आती?’

अभी पिछले सप्ताह भी ऐसा ही हुआ था. सीमा ने करेले की सब्जी बनाई थी. प्रभात ने देखा तो बोले, ‘‘करेले बनाए हैं? क्या मौसी को दुबला करने का विचार है? उन के लिए कुछ और बना लो.’’

सीमा एकदम हतप्रभ रह गई. मौसी हंसीं, ‘‘नहीं… नहीं, कुछ मत बनाओ, बहू. बस, दाल को तड़का दे दो. तब तक मैं टमाटर की चटनी पीस लेती हूं.’’

‘‘मौसी, बहू के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है? आओ, उस कमरे में बैठें,’’ प्रभात बोले.

सीमा अकेली रसोई में खटती रही. उधर साथ वाले कमरे में मौसी प्रभात को झूठेसच्चे किस्से बताती रहीं, ‘‘तुम्हारे बड़े नानाजी खेत में पहुंचे तो देखा, सामने गांव के धोबी का भूत खड़ा है…’’

मौसी खूब अंधविश्वासी हैं. मनगढ़ंत किस्से खूब बताती हैं. भूतप्रेतों के, प्रभात के बड़े नाना, मझले नाना और छोटे नाना के, दूध सी सफेद छोटी नानी के, प्रभात की ननिहाल के जमींदार महेंद्रप्रताप सिंह और रूपा डाकू के भी. इन किस्सों के साथसाथ मौसी लोगों की मेहमाननवाजी और बढि़या भोजन को भी खूब याद करतीं. उन की व्यंजन चर्चा सुन कर श्रोताओं के मुंह में भी पानी भर आता.

मौसी मूंग के लड्डू, खस्ता, कचौरी, मेवे की गुझिया और खोए की पूरियों को याद किया करतीं.

प्रभात उन की हर फरमाइश पूरी करवाते. सीमा को कालिज जाने तक रसोई में जुटे रहना पड़ता. थकान के कारण खाना भी न खाया जाता. उस दिन भी ऐसा ही हुआ था. कालिज से लौट कर वह कुछ खाना ही चाहती थी कि प्रभात के मित्र आ गए. उस ने किसी तरह उन्हें चायनाश्ता करवाया. दूध का बरतन उठा कर अलमारी में रखने लगी तो सहसा चक्कर खा कर गिर पड़ी. सारे कमरे में दूध ही दूध फैल गया.

मौसी और प्रभात दौड़े आए. अपने निष्प्राण से शरीर को किसी तरह खींचती हुई सीमा पलंग पर जा लेटी. आंखें बंद कर के वह न जाने कितनी देर तक लेटी रही.

अचानक प्रभात ने धीरे से उसे उठाते हुए कहा, ‘‘सुनो, अब उठ कर जरा रसोई में देख लो. तब से मौसी ही लगी हुई हैं.’’

शरीर में उठने की शक्ति ही नहीं थी. ‘हूं’ कह कर सीमा ने दूसरी ओर करवट ले ली.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, यह मैं मानता हूं परंतु अपने घर का काम कोई और करे यह तो शोभा नहीं देता,’’ प्रभात धीरे से बोले.

सीमा का मन हुआ चीख कर कह दे, ‘मौसी के घर में बहूबेटी बीमार होती हैं, तब क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं? एक समय भोजन बना भी लेंगी तो ऐसी क्या प्रलय हो जाएगी?’ लेकिन कहा कुछ नहीं. आवाज कहीं गले में ही फंस कर रह गई. आंखों से आंसू बह निकले. उठ कर बचा हुआ काम निबटाया.

मौसी प्रभात की प्रशंसा करते नहीं थकतीं. उस दिन किसी से कह रही थीं, ‘‘हमारे परिवार में प्रभात हीरा है. सब के सुखदुख में साथ देता है. रुपएपैसे की परवाह नहीं करता. ऐसा आदरसम्मान करता है कि पूछो मत. बहू बड़े घर की लड़की?है, पर प्रभात का ऐसा शासन?है कि मजाल है बहू जरा भी गड़बड़ कर जाए.’’

यह प्रशंसा वह पहली बार नहीं सुन रही थी. ऐसी प्रशंसा प्रभात के परिवार के हर छोटेबड़े के मुख पर रहती है. ससुराल वालों को इतना आतिथ्यसत्कार तथा सेवा करने और बैंक के चेक फाड़फाड़ कर देने के बाद भी वह प्रभात के इस सुयश की भागीदार नहीं बन सकी. या यों कहा जाए कि प्रभात ने इस में उसे भागीदार बनाया ही नहीं बल्कि अपने लोगों के सामने उसे बौना बनाने में ही वह गर्व महसूस करते रहे. उस  की कमियों और गलतियों को वह बढ़ाचढ़ा कर सुनाया करते और सारा परिवार रस ले ले कर सुना करता.

इस संबंध में सीमा को अपनी देवरानी मंगला से ईर्ष्या होती है. देवर सुनील उस के सम्मान को बढ़ाने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते. हैदराबाद से वह साल में एक बार घर आते हैं. छोटेबड़े सभी के लिए कुछ न कुछ लाने का उन का नियम है, लेकिन लेनदेन का दायित्व उन्होंने मंगला को ही सौंप रखा है.

जब सारा परिवार मिल कर बैठता?है तब सुनील पत्नी को गौरवान्वित करते हुए कहते हैं, ‘‘मंगला, निकालो भई, सब चीजें. दिखाओ सब को, क्याक्या लाई हो तुम उन के लिए,’’ सब की नजरें मंगला पर टिक जाती?हैं. वह कितनी ऊंची हो जाती है सब की दृष्टि में.

मंगला की अनुपस्थिति में जब परिवार के लोग मिल बैठते हैं तो उस के लाए उपहारों की चर्चा होती?है. उस की दरियादिली की प्रशंसा होती है. परंतु सीमा की मेहनत की कमाई से भेजे गए मनीआर्डरों का कभी जिक्र नहीं होता. उस का सारा श्रेय प्रभात को जाता है. कभी बात चलती?है तो अम्मां उसे सुना कर साफ कह देती हैं, ‘‘सीमा की कमाई से हमें क्या मतलब? प्रभात घर का बड़ा बेटा है, उस की कमाई पर तो हमारा पूरा हक है.’’

कभीकभी सीमा सोचती है, ‘नेकी करते हुए भी किसी के हिस्से में यश और किसी के हिस्से में अपयश क्यों आता है?’ वैसे इस विषय में ज्यादा सोच कर वह अपना मन खराब नहीं करती. फिर भी उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह पाता. पिछले दिनों डाक्टर ने बताया था, ‘‘पैर भारी हैं. थोड़ा आराम करना चाहिए.’’

इधर मौसी कहती थीं, ‘‘एक रोटी बनाने का ही तो काम है घर में. न चक्की पीसनी है, न कुएं से पानी खींच कर लाना है. खूब मेहनत करो और डट कर खाओ. तभी तो सेहत बनेगी.’’

और एक दिन सेहत बनाने के चक्कर में लड्डू बांधतेबांधते कालिज जाने का समय हो गया था. सीमा जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी तो अचानक पैर फिसल गया. 3-4 सीढि़यां लांघती हुई वह नीचे जा गिरी. चोट तो उसे विशेष नहीं आई, पर पेट में दर्द होने लगा था.

‘‘इन के लिए बिस्तर पर आराम करना बहुत जरूरी है,’’ डाक्टर ने प्रभात से कहा था.

प्रभात ने लापरवाही के लिए सीमा को जी भर कर कोसा, किंतु इस परिस्थिति में डाक्टर की सलाह मानना आवश्यक हो गया.

(कहानी के अगले भाग में पढ़िए – क्या सीमा अपनी अहमियत मौसी और प्रभात को समझा पाएगी…)

 

“दावत ए खिचड़ी”

“अनु आज कुछ हल्का ही बनाना शाम को बॉस की बेटी की शादी में जाना है ।”
“फिर तो ये ग्रेंड शादी होगी।”
“हाँ,इतने आइटम होंगे कि चखना भी मुश्किल।”
तभी फोन की घंटी बजती है।
“हैलो, खुश रहो,
अरे आप बुलाए और हम न आये, हाँ भाई दीदी भी साथ आएगीं।”
“किसका फोन था ? ”
“तुम्हारे मौसेरे भाई प्रदीप का।”
“क्या कह रहा था ? ”
“आज उसका बेटा एक साल का हो गया तो जन्मदिन की पार्टी में बुलाया है।”
“एक दिन में दो-दो पार्टियां। कहाँ रखी है पार्टी?”
“होटल ब्लू हेवन।”
“और बॉस की।”
“गोविन्द उद्यान।”
“दोनों एक दूसरे के विपरीत एक शहर के इस छोर ,दूसरी दूसरे छोर कैसे जाएगें दोनों जगह ।”
“मैनें प्रदीप को बता दिया है। बॉस के यहाँ शादी में जाना है। देर हो जाएगी तो केक देर से काटना।”
“मुझे तो मुश्किल लग रहा है दोनों जगह जाना।”
“कोई मुश्किल नहीं,पहले हम शादी में जरा जल्दी पहुँचेंगे।खाना खाकर गिफ्ट देकर आठ बजे तक निकलकर नौ बजे तक प्रदीप के यहाँ पहुंच जाएगे।”
“ठीक है।”
“अब तुम खिचड़ी ही बना लो शाम को तो वैसे भी भारी खाना ही खाना है। फिर जल्दी तैयार हो जाओ।”
शादी में जब ये गेट के अंदर जाने लगे तो..
“अरे शर्मा जी अंदर कहाँ जा रहे हो,हम लड़की वाले हैं। बारात का स्वागत नहीं करोगे ? ”
मजबूरन दोनों को गेट पर ही रूकना पड़ा। बारात साढ़े नौ बजे लग पायी।
“खाने में बहुत भीड़ है, यदि खाना खाने रूके तो एक घंटा लग जाएगा।”
“क्यों न हम आइसक्रीम खाकर निकल ले, खाना प्रदीप के यहाँ खा लेगें।”
रास्ते में ट्रेफिक की वजह से पहुँचते- पहुँचते ग्यारह बज गये।
“क्या जीजाजी, बहुत लेट हो गये खाना भी बंद हो गया।खैर, आप तो शादी की पार्टी में खाकर ही आयें होंगे।”
“हाँ “धीमे स्वर में
“अरे भाई, कोई दीदी, जीजाजी को केक तो खिलाओ।”
एक- एक केक का पीस खाकर घर पहुँचते ही सोफे पर निढ़ाल हो गये।
“अनु पेट में तो चूहें कूद रहें हैं।”
“एक काम करों थोड़ी सी खिचड़ी ही बना लो।”

मौलिक
मधु जैन जबलपुर

एक और सच

वह रात में मेहमान अफसरों की सेवा करे. इस पर जितेंद्र ने प्रधान के चेहरे पर जोर का चांटा जड़ दिया. फिर क्या हुआ, पढि़ए, दिनेश पालीवाल की यह कहानी. एक आदमी को सुख से जीने के लिए क्याक्या चाहिए? आदमी का आदमी पर भरोसा, संबंधों में सहानुभूति, एकदूसरे का लिहाज, ठीक से जीने लायक आमदनी, जीवन की सुरक्षा, चैन की सांस ले सकने की आजादी, भयमुक्त वातावरण.

पर लूटमार, चोरीडकैती, हत्या, अपहरण, दंगाफसाद, बलात्कार और छलप्रपंच भरे इस वातावरण में क्या यह सब आम आदमी को नसीब है? लोग सुख से जिएं, इस की किसी को फिक्र है? नेता, जनप्रतिनिधि, अफसर सब के सब अपनेअपने जुगाड़ में जुटे हुए हैं. लोगों को जीने लायक मामूली सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं.

हबड़तबड़ में स्टेशन की तरफ भागती जा रही अमिला यही सब लगातार सोचे जा रही है. गाड़ी न निकल जाए. निकल गई तो गांव के स्कूल तक कैसे पहुंचेगी. अफसर आ रहे हैं. अंबेडकर गांव में खानापूर्ति के लिए रोज अफसरों के दौरे होते रहते हैं. गांव पूरी तरह संतृप्त होना चाहिए. हुं, खाक संतृप्त होगा. कभी राजीव गांधी ने कहा था, सरकार गांवों के लिए 1 रुपया यानी 100 पैसा भेजती है पर वहां तक पहुंचतेपहुंचते वह 10 पैसे ही रह जाते हैं. 90 पैसे बीच की सरकारी मशीन खा जाती है. कैसे विकास हो देश का? पर इस के लिए जिम्मेदार कौन हैं? नेतागण, बिचौलिए, भ्रष्ट नौकरशाही और कहीं न कहीं हमसब.

अजीब दिमाग होता है आदमी का. हर वक्त सोचविचार, मन में उठापटक, तर्कवितर्क. शहर से दूर इस गांव में तबादला कर दिया गया अमिला का. अफसरों से खूब गिड़गिड़ाई कि सर, बच्चा छोटा है. सास बहुत बूढ़ी हैं. कामकाज नहीं कर पातीं. ससुर को लकवा है. पति दूर के जिले में सरकारी सेवा में हैं. परिवार को देखने वाली मैं अकेली…मुझ पर रहम कीजिए, सर.

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लेकिन पैसा ऐंठू, रिश्वतखोरों को कहीं किसी पर रहम आता है? झिड़क दिया अमिला को, ‘हर कोई शहर में रहना चाहता है. उस के लिए एक से एक बहाने. सब को यहीं, शहर में रखेंगे तो गांव में कौन जाएगा पढ़ाने? मैं जाऊं? तबादला न स्वीकार हो तो नौकरी छोड़ दीजिए. हम दूसरी अध्यापिका रख लेंगे. कोई कमी है क्या? सरकारी नौकरी के लिए हर कोई तैयार बैठा रहता है. बी.टी.सी. और बी.एड. वाले रोज धरनाप्रदर्शन कर रहे हैं कि उन्हें नौकरी नहीं दी जा रही, हम उन में से किसी को बुला लेंगे, आप अपना घरपरिवार संभालिए. हमें क्या फर्क पड़ता है?’

सच कह रहे हैं. अफसरों को क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो काम करने वाले कर्मचारी को पड़ता है. तकलीफें तो उन्हें झेलनी पड़ती हैं. परेशान तो वे होते हैं. बाहर निकल आई थी दफ्तर से अमिला.

रामकिशन चपरासी पीछेपीछे खैनी हथेली पर रगड़ता भागाभागा आया था, ‘क्या टीचरजी, आप भी बस…इतने सालों से मास्टरी कर रही हैं और सरकारी अफसरों के कायदे नहीं जान पाईं. अरे, इन से काम कराने का एक ही तरीका है मैडम, इन्हें खुश करिए. और सरकारी देवता सिर्फ 2 प्रकार के भोग से ही खुश होते हैं, कैश या काइंड.’

जमीन में गड़ सी गई अमिला. कैश या काइंड. घर में कैश होता तो प्राइमरी स्कूल की इस अपमान भरी नौकरी में गांवगांव क्यों मारीमारी डोलती…घर- परिवार बरबाद करती…जीवन का जोखिम उठाती…

और काइंड…उस जैसी जवान युवती से ये अफसर और क्या चाहेंगे? सुनीता ने अपना तबादला काइंड से ही रुकवाया था. दबे स्वर में उसी ने अमिला से भी कहा था, ‘कहो तो बात करें?’

‘नहीं,’ स्पष्ट इनकार कर दिया था अमिला ने. सबकुछ मंजूर पर पति के प्रति ईमानदारी की कीमत पर कुछ भी मंजूर नहीं. औरत के पास और ऐसा होता ही क्या है जिस पर वह गर्व कर सके? एक यही तो.

पति सुमेर 2 सप्ताह में 1 दिन को घर आते हैं. बाकी दिन उसी कसबे में किराए के एक कमरे में हाथ से खाना और चाय बनाते हैं. गैस का छोटा चूल्हा ले रखा है. कभीकभार सड़क के ढाबे पर भी खा लेते हैं. सरकारी नौकरी है, छोड़ते भी नहीं बनती. परिवार है पर परिवार के सुख से वंचित.

‘कुछ करिए न…गांव तक टे्रन से सुबहसुबह जाने में बहुत परेशानी होती है. कभीकभी टे्रन लेट हो जाती है, राजधानी के कारण कहीं बीच के स्टेशन पर रोक दी जाती है. स्कूल लेट पहुंचने पर प्रधान आंखें तरेरता है,’ रात को अमिला ने सुमेर से कहा.

अमिला ने बताया कि कसबे के स्टेशन से 4 किलोमीटर पैदल चल कर गांव पहुंचना पड़ता है. सीधा कोई रास्ता नहीं है. खेतों के बीच से पगडंडी जाती है. खेतों में बाजरा, ज्वार, अरहर, गन्ने की फसलों के बीच से निकलने में बहुत खतरा रहता है. आतेजाते कभी भी बदमाश दबोच कर खेतों में घसीट कर ले जा सकते हैं. कई केस हो चुके हैं. अकसर लड़कियों, युवतियों की लाशें मिलती हैं खेतों में क्षतविक्षत.

आसपास के गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. दबंग लोग अपने घरों में दूरदूर से पकड़ कर लाई गई ‘पकड़ें’ रखते हैं. फिरौती मिल जाए तो छोड़ देते हैं न मिले तो मार कर कुएं में डाल देते हैं. पुलिस ही नहीं, आसपास के सब लोग जानते हैं पर सब का पैसा बंधा हुआ है. गांवों के लोग डर के कारण मुंह नहीं खोलते. नेता, पत्रकार और अफसर उन दबंगों के यहां दावत उड़ाने और ऐश करने आते रहते हैं. वे लोग उन की हर तरह की सेवा करते हैं.

सुन कर सुमेर परेशान जरूर हुए पर कुछ कर सकने में लाचार ही रहे. सोच कर बोले, ‘किसी तरह यह साल तो निकालना ही पड़ेगा, किसी नेता या अफसर से जुगाड़ निकालने की कोशिश करूंगा, शायद अगले साल तक कुछ कर पाऊं.’

‘और तब तक अगर मेरे साथ कुछ घट गया तो?’ अमिला परेशान हो उठी, ‘जब से उस खूनी कुएं के बारे में सुना है, सचमुच बहुत भय लगता है.’

झल्ला पड़े सुमेर, ‘15 दिन बाद घर आता हूं और तुम यही रोना ले कर बैठ जाती हो. ट्रेन से उस गांव जाने वाली तुम कोई अकेली तो हो नहीं. और भी सवारियां उतरती होंगी उस गांव की. सब के संगसाथ आयाजाया करो. ऐसे कौन खा जाएगा तुम्हें?’ कहने को कह तो गए सुमेर पर सोचते भी रहे, कहीं सचमुच अगर अमिला के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया तो? कितनी बदनामी होगी. पर करें तो क्या करें?

टे्रन में बैठी अमिला सारी स्थितियों पर सोचती रही. कुढ़ती और गुस्से से उबलती भी रही. सहसा उसे हेडमास्टर जितेंद्र की बात याद आई, ‘बहुत मत सोचा करो अमिला. यह दुनिया ऐसे ही चलेगी. हमारेतुम्हारे सोचने से कुछ नहीं होगा. मस्त रहा करो.’

जितेंद्र ही हैं जिन से वह अपने मन की बात कह लेती है. अपने भय और आतंक, अपनी आर्थिक परेशानियां, परिवार की कठिनाइयां बोलबता लेती है. पति तो 15 दिन में 1 दिन को आते हैं. उन से क्या कहे वह?

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‘‘हम अध्यापकों को इस नौकरी में कितनी जलालत भोगनी पड़ती है. इस के बावजूद अगर हम इसे छोड़ें तो हजार हमारी जगह काम करने को तैयार हैं. इसी का लाभ उठाती है व्यवस्था,’’ जितेंद्रजी बोले, ‘‘हर सरकारी योजना को जनता के बीच पहुंचाना हमारा काम है. पोलियो ड्राप्स इतवार को पिलाइए, ‘स्कूल चलो’ आंदोलन हम चलाएं, ग्रामीणों को स्वच्छता का महत्त्व हम बताएं, वृक्षारोपण हम कराएं, साक्षरता अभियान चलाना हमारी जिम्मेदारी, मिड डे मील हमारी जिम्मेदारी, स्कूल की साफसफाई हमारी जिम्मेदारी, मुफ्त पुस्तकें बंटें हमारी जिम्मेदारी, बच्चे स्कूल न आएं तो घरघर जा कर उन्हें स्कूल में बुला कर लाएं, यह भी हमारा काम.

गांधी जयंती हो या नेहरू दिवस, बुद्ध जयंती हो या अंबेडकर जयंती, हर मौके पर गण्यमान्य अतिथियों को बुला कर भाषण हमें कराने हैं. उन के चायनाश्ते का प्रबंध करना हमारी जिम्मेदारी, पर पैसा कहां से आए? इस सवाल पर सब एकदूसरे पर टालते हैं. प्रधानजी पैसा नहीं देते. आता है तो अपने पास रख लेते हैं. उन से कौन लड़े? है हम में ताकत? अफसरों से शिकायत करो तो कहते हैं, हम क्या जानें, वह आप की समस्या है, आप जानिए.’’

सहसा रुक कर हेडमास्टर जितेंद्र फिर बोले, ‘‘अब बड़ेबड़े शिक्षाधिकारी इस अंबेडकर गांव में आ रहे हैं. हर तरह गांव संतृप्त हुआ या नहीं, इस का मुआयना करने…हम ने शिक्षा अधिकारी से जा कर कहा, ‘सर, प्रधानजी न तो इमारत की मरम्मत का पैसा दे रहे हैं न रंगाईपुताई के लिए. बच्चों को पीने के पानी तक की कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही. स्कूल में श्यामपट्ट तक नहीं है. लिखने के लिए चौक या खडि़या मिट्टी तक नहीं मिलती. स्कूल के दरवाजे लोग उखाड़ कर ले गए हैं. आवारा जानवर रात को स्कूल में घुस कर बैठते हैं. उन का गोबर हमें पहले साफ करना पड़ता है तब स्कूल चल पाता है, इस पर बच्चों के मांबाप एतराज करते हैं, कहते हैं. बच्चे सफाई नहीं करेंगे…हमें चपरासी मिलता नहीं है. कौन करे यह सब…’

‘‘जानती हो शहर के अफसर ने क्या कहा? बोले, ‘आप लोग जो वेतन पाते हैं वह किसलिए? उस में से करिए आप लोग. हम तो पैसा प्रधान को देते हैं, उस से मिलबैठ कर आप किसी तरह यह सब कराइए… और हां, मिड डे मील पर जरूर ध्यान दीजिए. किसी बच्चे ने शिकायत की तो समझ लीजिए…’ ’’

‘‘लेकिन सर, मिड डे मील तो हम हफ्ते में 1-2 दिन ही दे पाते हैं. प्रधान न सामग्री देते हैं न जलावन के लिए कुछ. न बर्तन देते हैं. क्या करें?

‘‘अफसर कहते हैं, हम कुछ नहीं जानते, हमें सबकुछ चाकचौबंद मिलना चाहिए.’’

जितेंद्र ने गुस्से से कहा, ‘‘आने दीजिए इस बार. सब कह देंगे बड़े अफसरों से. फिर जो होगा, देखा जाएगा,’’ उन का चेहरा क्रोध से तमतमा गया था.

‘‘नहीं, जितेंद्रजी, ऐसा हरगिज मत करिएगा,’’ अमिला घबरा गई थी. कुछ सोच कर बोली थी, ‘‘आप अपने गांव से उस गांव तक मोटरसाइकिल पर आते हैं. रास्ते में वह खूनी कुआं पड़ता है. आसपास के सारे गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. आप को वह जालिम प्रधान कभी भी रास्ते में पकड़वा लेगा. आप को कुछ हो गया तो मैं इस गांव में किस के भरोसे नौकरी कर पाऊंगी? प्रधानजी की कैसी नजरें मुझे घूरती हैं, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. किसी भी दिन अनहोनी घट सकती है.’’

‘‘सब की ऐसी की तैसी,’’ जितेंद्रजी ने दिलासा दी, ‘‘अपने गांव में मेरी भी कुछ इज्जत है. अगर तुम पर जरा भी कोई आंच आई तो सैकड़ों लोगों को अपने गांव से ला कर यहां बवाल मचवा दूंगा.’’

‘‘उस सब की नौबत ही क्यों आने दी जाए? अक्ल से काम लें हम लोग,’’ अमिला ने कहा.

‘‘अक्ल से क्या काम लें, बताओ? प्रधानजी के पास मिड डे का अनाज और सामग्री आती है. वह हमें बहुत कम देते हैं. मीनू के अनुसार एक दिन भी हम बच्चों को नहीं खिला पाते. स्कूल की मरम्मत के लिए पैसा आया, प्रधान ने हड़प लिया. न गिरती इमारत की मरम्मत हो सकी, न दरवाजेखिड़कियां लग सकीं और न रंगाईपुताई हो सकी. यहां तक कि बच्चों के लिए मुफ्त बांटने को जो किताबें आईं वे तक गांव की स्टेशनरी की दुकान पर बेच दी गईं.

‘‘हेडमास्टर का एकमात्र कमरा है. उस में प्रधान ने अपने जानवरों का भूसा भरवा दिया है. पाठशाला एक प्रकार से पशुशाला बन गई है. शिकायत नहीं करेंगे तो अफसर चेतेंगे कैसे? सारा दोष हम पर मढ़ दिया जाएगा कि हम नकारा हैं और पैसा खा गए. सरकारी अफसर किसी को नहीं नापेंगे…हम मास्टरों को नाप देंगे… सस्पेंड तो करेंगे ही, संभव है नौकरी से निकाल बाहर करें. शिकायत के अलावा और कौन सा रास्ता है?’’

अमिला को लगा, जितेंद्रजी कहते तो सच हैं पर सच का नतीजा वह भी जानते हैं और अमिला भी. जिस प्रधान के खिलाफ गांव में कोई चुनाव लड़ने तक की हिम्मत नहीं करता, जिस के पास हथियारबंद लोगों की पूरी फौज रहती है, जो आसपास के इलाके में कुख्यात है, जिस की चारों तरफ तूती बोलती है, जिस के खिलाफ कोई जबान तक नहीं खोलता, जिस के पास अफसर और नेताओं का जमावड़ा लगा रहता है, दावतें उड़ती रहती हैं, आसपास की लड़कियों को ला कर रात को ऐश और जश्न होते हैं, उस दबंग के खिलाफ अमिला या जितेंद्र जैसे मामूली लोगों की क्या हैसियत है कि वे कुछ कह पाएं. पर यह भी सच है कि यह अंबेडकर गांव है और सरकारी आदेश है कि गांव हर तरह से संतृप्त होना चाहिए. अफसर मुआयने पर आ रहे हैं. क्या हो?

स्कूल की सफाई और रंगाईपुताई जितेंद्रजी को अपने पैसे से करानी पड़ी. खाद और बीज का जो पैसा घर पर रखा था, उसे लगाना पड़ा. अमिला ने कहा, ‘‘सर, पूरे खर्चे का हिसाब लगाइए, कुछ मैं भी करूं, यह सिर्फ आप की ही जिम्मेदारी क्यों हो?’’

‘‘तुम रहने दो, अमिला. मुझे तुम्हारी हालत अच्छी तरह पता है,’’ जितेंद्रजी मुसकराए, ‘‘कुछ भी हो, मैं इस बार अफसरों के आने पर पूरी स्थिति सब के सामने रख दूंगा, फिर चाहे मुझे नौकरी से ही हाथ क्यों न धोना पड़े,’’ उन की आवाज में जो दृढ़ता थी, उस से अमिला सचमुच सहम गई थी. अगर उन्होंने ऐसा किया तो नतीजे की वह कल्पना कर सकती थी.

दबी जबान बोली, ‘‘अच्छी तरह सोच लीजिए…आएदिन प्रधानजी और गांव के छुटभैए नेता बेकसूर लोगों को सब के सामने बेइज्जत करते रहते हैं. हम लोगों की बेइज्जती करते उन्हें क्या देर लगेगी?’’

‘‘जो होगा, देखा जाएगा, पर सहने की भी एक सीमा होती है, अमिला. हम कहां तक सहें? इस का प्रतिकार किसी न किसी को, एक न एक दिन करना ही पड़ेगा. फिर हम ही क्यों न करें? और इसी मौके पर क्यों न करें? रोजरोज मरने से एक दिन मरना ज्यादा अच्छा है, अमिला. हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए.’’

‘‘जिस हिम्मत का परिणाम हमें पहले से पता हो उसे दिखाने का क्या औचित्य है जितेंद्रजी?’’ अमिला ने कहा जरूर पर जितेंद्र अपने गुस्से को भीतर ही भीतर दबाते रहने का प्रयत्न करते रहे.

सफाई का प्रबंध, बच्चों के वस्त्रों की स्थिति, मिड डे मील, पीने के पानी की व्यवस्था, इमारत का रखरखाव, बच्चों की पढ़ाईलिखाई का स्तर सब की जांचपड़ताल की जाने लगी. बाहर से आए अफसर बिगड़ गए, ‘‘बहुत बुरी स्थिति है. आप लोग करते क्या रहते हैं?’’

जवाब में जितेंद्रजी ने सब के बीच सबकुछ कह दिया. अंत में उन्हीं लोगों से पूछा, ‘‘आप ही बताइए, इन स्थितियों में हम लोग क्या करें?’’

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एक सहायक शिक्षाधिकारी तमक कर आगे बढ़ आए, ‘‘बहाने मत बनाइए मास्टर साहब, हम लोग सब जानते हैं, आप लोग क्या गुलगपाड़ा करते रहते हैं. स्कूल आते नहीं. अपने खेतों पर काम करते या करवाते रहते हैं. शिक्षामित्रों से काम चलाऊ पढ़ाई कराते रहते हैं या अपनी एवज में 500-700 रुपए में अध्यापक रख लेते हैं और उस से बच्चों को यह अधकचरा पढ़वाते रहे हैं. हमें सारी खबर रहती है आप लोगों की. प्रधानजी हमें एकएक खबर, एकएक सूचना लिख कर देते रहते हैं.’’

कुछ देर बाद जितेंद्रजी को भीतर अकेले में बुला लिया गया. प्रधानजी मुसकराए, ‘‘रात को गांव में अधिकारी यहां मौजमस्ती और खानेपीने के लिए रुकेंगे. अपनी मास्टरनी से कहो, उन की सेवा में रहे रात को.’’

‘‘नहीं, अमिलाजी नहीं रुक सकेंगी यहां, सर…’’ जितेंद्र ने बारीबारी हर किसी चेहरे की तरफ देखा, ‘‘उन का बच्चा छोटा है और घर पर बूढ़ी सास उस बच्चे को नहीं संभाल सकतीं. पति बाहर दूसरे शहर में रहते हैं.’’

‘‘हम कुछ नहीं सुनना चाहते,’’ प्रधानजी गरजे, ‘‘अगर उसे नौकरी करनी है तो रात को हमारे इन अफसरों और मेहमानों की सेवा के लिए रुकना ही पड़ेगा. तुम अकेले उस का स्वाद चखते रहे हो…हम लोगों को भी उस का मजा लेने दो.’’

पता नहीं जितेंद्र को अचानक क्या हो गया. एक झन्नाटेदार चांटा जड़ दिया प्रधान के चेहरे पर. बस, फिर क्या था. जितेंद्र पर तमाम लोग एकदम टूट पड़े. उन्हें मारतेपीटते बाहर चबूतरे तक ले आए. वहां स्कूल के सारे बच्चे मौजूद थे. अमिला बुरी तरह घबरा गई. वे लोग लगातार लातघूंसे, थप्पड़मुक्के और जूतों से जितेंद्र की पिटाई कर रहे थे. अमिला तो एकदम हतबुद्ध. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि भीतर ऐसा क्या हुआ जो यह नौबत आ गई.

सारे बच्चों के बीच उन लोगों ने जितेंद्र को मुरगा बना दिया. एक दबंग ने पीछे से ऐसी लात मारी कि वह मुंह के बल गिर पड़े.

कुछ ही देर में अफसरों और नेताओं की गाडि़यां चली गईं. अमिला जितेंद्र के पास बैठी सिसकती रही.    द्य

टेढ़ी चाल

शौचालय से आ कर हाथ धोते हुए संगीता ने पूछा, ‘‘कौन आया था अभी? घंटी किस ने बजाई थी?’’

सुमन ने समाचारपत्र में आंखें गड़ाते हुए कहा, ‘‘कोई नहीं, रामप्रसाद आया था.’’

‘‘रामप्रसाद?’’ संगीता के स्वर में कटुता थी, ‘‘तो इस में छिपाने की क्या बात है? जरूर रुपए मांगने आया होगा. उस के जैसा भिखमंगा कोई नहीं देखा. कितने रुपए दिए?’’

‘‘अरे, कहा न, न मांगे, न मैं ने दिए,’’ सुमन के स्वर में एक लापरवाही सी थी.

‘‘मैं मान ही नहीं सकती. अरे, मेरा क्या, तुम सब रुपए लुटा दो,’’ संगीता ने क्रोध से कहा, ‘‘पर अपनी गृहस्थी का भी तो खयाल करो. बताओ न, कितने रुपए दिए?’’

तिलमिला कर सुमन ने कहा, ‘‘तुम हमेशा उल्टा क्यों सोचती हो? वह सिर्फ यह कहने आया था  कि उस के यहां आज सत्यनारायण की कथा है. निमंत्रण दिया था. मुझे तो इन ऊटपटांग बातों से चिढ़ है, इसलिए मैं ने टाल दिया.’’

‘‘मैं कहती थी न, रामप्रसाद यों ही नहीं आने का. तुम इन बातों को मानो या न मानो, पर उस ने तो कथा के नाम से पैसे जरूर मांगे होंगे,’’ संगीता बोली.

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झींकते हुए सुमन ने कहा, ‘‘अगर मांगता भी तो क्या इन फालतू कामों के लिए दे देता?’’

‘‘तो देख लेना,’’ संगीता ने चेतावनी दी, ‘‘अगर अभी नहीं ले गया तो अब किसी न किसी बहाने आता ही होगा. आखिर प्रसाद भी तो बनाना होगा, पैसे कम पड़ गए होंगे,’’ संगीता ने नकल की.

सुमन ने क्रोध से कहा, ‘‘भलीमानस, अब आए तो तुम ही दरवाजा खोलना और तुम   ही उस से निबट लेना. मेरा दिमाग मत खराब करो. अगर हो सके तो एक प्याली चाय बना दो. कब से बैठा इंतजार कर रहा हूं.’’

‘‘छि, एक प्याली चाय भी नहीं बना सकते? बड़े तीसमारखां बनते हैं कि दफ्तर में यह करता हूं, दफ्तर में वह करता हूं.’’

सुमन ने चिढ़ कर कहा, ‘‘दफ्तर में तुम्हारे जैसे 50 चपरासी हैं यह सब काम करने के लिए.’’

रसोई में से आवाज आई, ‘‘क्या कहा? सुनाई नहीं दिया.’’

सुमन ने दोहराना ठीक नहीं समझा. इतवार का दिन था. सारा दिन बरबाद करने से क्या लाभ? फिर कहा, ‘‘जल्दी ले आओ चाय, तलब लग रही है.’’

सुमन की आदत कुछ ऐसी है कि वह समयअसमय असुविधा होते हुए भी किसी के सहायता मांगने पर कभी न नहीं करता. रुपए के मामले में तो सदा नुकसान ही उठाना पड़ता है.

थोड़े से रुपए दे कर तो वह भूल ही जाता है. संगीता उस के इस स्वभाव से तंग है. सदा खीजती ही रहती है.

उस का एक ही प्रश्न होता है, ‘‘क्या फायदा आलतूफालतू लोगों का काम करने से? बदले में क्या कभी कुछ   मिलता है?’’

‘‘तो क्या हमेशा बदले में कुछ पाने की आशा से ही कुछ करना चाहिए?

निस्वार्थ सेवा में जो आनंद है वह स्वार्थ में कहां?’’

‘‘धरे रहो अपनी निस्वार्थ सेवा,’’ संगीता तुनक कर कहती, ‘‘मरे, काम निकलने के बाद कभी झांकते तक नहीं.’’

‘‘यह अपने मन की बात है,’’ सुमन बोला.

वैसे वह संगीता से इतने असहयोग की आशा नहीं करता था. आरंभ में वह काफी प्रसन्न दिखाई देती थी, पर अब तो वह जलन और कुढ़न का भी शिकार हो गई है. बातबात पर चिढ़ती रहती है.

कुछ ही महीने पहले की बात है कि किसी के यहां दावत पर दफ्तर के सहयोगी प्रेमचंद और उस की पत्नी करुणा से भेंट हुई थी. करुणा एक स्कूल में पढ़ाती थी. बातों ही बातों में पता लगा कि सुमन को कागज के कई प्रकार के फूल बनाने आते हैं. करुणा ने सोचा कि अगर वह यह कला सीख लेगी तो बच्चों को भी सिखा सकेगी. उस ने सुमन से पूछा कि क्या वह उस के घर यह कला सीखने आ सकती है. सुमन को क्या आपत्ति हो सकती थी?

संगीता को अच्छा नहीं लगा कि करुणा इस तरह खुलेआम बेखौफ हो कर उस के पति से बात करे. इस पर तुर्रा यह कि बिना उस से पूछे सुमन ने उसे घर आने का खुला निमंत्रण भी दे दिया. इस बात पर घर में आ कर उस ने खूब लड़ाई की.

जब करुणा आई तो वह बेमन से बैठी रही. प्रेमचंद ने हंस कर उस का मन बहलाने का प्रयत्न किया, पर उस के चेहरे की सख्ती छिपी न रही.

सुमन ने करुणा को थोड़ाबहुत फूल बनाना बताया और देर हो जाने के कारण फिर आने का निमंत्रण दे दिया. उसे कोई काम अधूरा करना अच्छा नहीं लगता था.

उन के जाने के बाद संगीता फूट पड़ी, ‘‘मैं पहले से कहे देती हूं कि अब ये लोग यहां नहीं आएंगे. सारे काम छोड़ कर मरी को बस कागज के फूल बनाने ही सूझे.’’

‘‘ओहो, तो हमारा कौन सा नुकसान हो गया? अरे, जो आता था सो बता दिया. उस का भला हो गया. बच्चों को स्कूल में सिखाएगी. इस से कला का और विस्तार होगा,’’ सुमन ने कहा.

‘‘किसी व्यावसायिक स्कूल में जा कर सीखती तो गांठ से पैसे जो खर्च करने पड़ते. यहां तो मुफ्त में ही काम निकल गया. चायनाश्ता भी मिल गया.’’

‘‘तुम तो बेकार में झगड़ती हो. इस में चायपानी भी जोड़ दिया.’’

‘‘अपनेआप बनानी पड़े तो जानो. वैसे मैं ने कह दिया है कि अब वह इस घर में नहीं आएगी.’’

‘‘अब कल तो आएगी ही. उस के बाद मना कर दूंगा.’’

‘‘कल भी नहीं. मैं दरवाजा ही नहीं खोलूंगी.’’

‘‘दरवाजा मैं खोल दूंगा. तुम कष्ट मत करना,’’ सुमन ने हंसते हुए कहा.

‘‘क्यों, क्या वह तुम्हारी कुछ लगती है?’’ सुमन की हंसी से आहत हो कर संगीता ने व्यंग्य किया.

‘‘तुम तो पागल हो,’’ सुमन क्रोध से बोला और मेज पर से पत्रिका उठा कर पन्ने पलटने लगा.

अंत में घर में शांति बनाए रखने के प्रयास में दूसरे दिन सुमन को प्रेमचंद से कहना पड़ा कि संगीता की तबीयत ठीक नहीं. वह स्वयं किसी दिन आ कर करुणा को बाकी के फूल बनाना सिखा देगा.

दरवाजे पर घंटी बजी तो सुमन की तंद्रा टूटी. उठ कर देखा तो प्रेमदयाल खड़ा था. पड़ोसी था. हाथ में एक थैला था. देख कर मुसकराया.

‘‘आओ, आओ, प्रेमदयाल, कैसे आए?’’

अंदर आ कर बैठते हुए प्रेमदयाल ने कहा, ‘‘अपने बगीचे में इस बार अच्छे पपीते हुए हैं. एक पपीता ले कर आया हूं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा किया. बहुत दिनों से मन भी कर रहा था पपीता खाने को,’’ सुमन ने हंस कर कहा.

पपीता हाथ में ले कर देखा, ‘‘सच ही बहुत अच्छा लग रहा है. काफी मेहनत करते हो.’’

‘‘अच्छा तो चलता हूं.’’

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‘‘अरे, ऐसे कैसे? बैठो, एक प्याला चाय पी कर जाना. मैं भी सोच रहा था कि कोई आए तो चाय पीने का बहाना मिले.’’

अंदर आ कर मुसकरा कर पपीता संगीता को दिखा कर रखते हुए कहा, ‘‘जल्दी से चाय तो बना दो. प्रेमदयाल आया है.’’

‘‘वह तो देख रही हूं. महीने भर से सूरत नहीं दिखाई. आज पपीता लाया है तो जरूर कोई मतलब होगा.’’

‘‘क्यों, क्या बिना मतलब पपीता नहीं ला सकता?’’

‘‘सब हमारी तरह मूर्ख नहीं होते. देख लेना, अभी कोई काम बताएगा.’’

‘‘छोड़ो भी, कहां का खटराग ले बैठीं. झटपट चाय बना दो.’’

संगीता ने मुंह बनाते हुए चाय बनाने के लिए गैस पर पानी का पतीला रख दिया. चाय पीने के बाद प्रेमदयाल ने बाहर जाते हुए दरवाजे पर ठिठक कर कहा, ‘‘हां, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया था. मुन्ना आएगा आप के पास. आप का कुछ समय लेगा.’’

‘‘अरे, तो इस में कहनेपूछने की क्या बात है? कभी भी आ जाए. उस का घर है. मैं नहीं होऊंगा तो संगीता होगी यहां.’’

‘‘नहीं, मेरा मतलब है उसे आप से कुछ पढ़ना है. परीक्षा सिर पर है. कल ढेर सारी समस्याएं सामने रख दीं उस ने. अब हम तो इतना पढ़ेलिखे हैं नहीं. जो कुछ पढ़ा था वह भी भूल गए. कुछ मदद कर देना उस की.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. भेज देना,’’ सुमन ने कहा.

सुमन मन ही मन सोच रहा था कि संगीता को बताए या नहीं. पर पत्नी के कान तो बाहर ही लगे हुए थे.

‘‘कहा नहीं था मैं ने कि बिना मतलब के प्रेमदयाल कभी सूरत नहीं दिखाएगा, पिछले साल के 4 अमरूद क्या भूल गए?’’

‘‘ओहो, अब बच्चे को अगर कुछ समझा दूंगा तो मेरा क्या घिस जाएगा? इस तरह कभीकभी पढ़ता रहा तो कभी अपने बच्चों के काम आएगा,’’ सुमन ने हंस कर कहा.

संगीता ने क्रोध से कहा, ‘‘चलो हटो, मुझे यह ठिठोली अच्छी नहीं लगती. यहां आ कर घंटों सिर खपाता रहेगा. कहां मिलेगा मुफ्त का मास्टर? एक पपीता दे कर 500 रुपए बचा लिए.’’

‘‘लो, फिर हिसाबकिताब में उलझ गईं, अच्छा बताओ, क्या सब्जी लानी है?’’

सुमन ने बाहर पैर रखा ही था कि निरंजन ने आ कर हाथ पकड़ लिया, ‘‘तो मिल ही गए. मैं तो डर रहा था कि कहीं चले न गए हो.’’

‘‘क्या बात है? घबरा क्यों रहे हो?’’

‘‘पप्पू को कुत्ते ने काट लिया है. वैसे तो कुत्ता पालतू है, पर उस के इंजेक्शन तो लगवाने ही पड़ेंगे. जरा स्कूटर निकालो तो उसे अस्पताल ले चलें.’’

‘‘ठीक है, तुम चलो, मैं अभी आता हूं.’’

‘‘बड़ी मेहरबानी होगी.’’

‘‘बस, मुझे तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. ऐसा कह कर शर्मिंदा मत करो.’’

सुमन स्कूटर की चाबी लेने घर में आया.

‘‘क्यों, क्या हो गया? थैला तो हाथ में है और रुपए भी मैं ने दे दिए थे?’’ संगीता ने संदेह से पूछा.

‘‘अरे, यह निरंजन है न, बाहर मिल गया. उस के बच्चे को कुत्ते ने काट लिया है. उसे अस्पताल पहुंचाना है.’’

संगीता ने भड़क कर कहा, ‘‘तो क्या शहर में स्कूटर और टैक्सी वालों ने हड़ताल कर दी है? लेकिन जब मुफ्त में सवारी मिलती हो तो कौन भाड़ा देना पसंद करता है?’’

‘‘इनसान को जो सहारा मिल जाए उस का ही तो आसरा लेगा. अभी आता हूं. ज्यादा देर नहीं लगेगी.’’

‘‘सब्जी नहीं होगी तो खाना नहीं बनेगा. उसी निरंजन से कह देना, होटल से कुछ ले कर बंधवा देगा. स्कूटर के 5 रुपए भी खर्च नहीं कर सकता.’’

‘‘तुम तब तक दालचावल चढ़ाओ, मैं लौट कर आता हूं.’’

‘‘मैं क्या जानती नहीं उस कंजूस को? वहां 2 घंटे खड़ा रखेगा और फिर वापस भी तुम्हारे साथ आएगा. 4 महीने हुए तब मैं ने कहा था कि दौरे पर हर महीने हैदराबाद जाते हो, मेरे लिए मोतियों की माला ले आना. उस दिन से आज तक सूरत नहीं दिखाई.’’

‘‘अब क्या कहूं, संगीता, तुम्हारी तो उल्टा सोचने की आदत है. अब उसे क्या परेशानी है, हमें क्या मालूम? एक बार रुपए दे कर देखतीं कि लाता है या नहीं.’’

‘‘भली चलाई. माला के तो दर्शन दूर रुपए भी हाथ से जाते. मैं कहे देती हूं कि उसे अस्पताल छोड़ कर चले आना, नहीं तो मैं ताला लगा कर चली जाऊंगी.’’

‘‘अच्छा, बाबा, अभी आता हूं,’’ सुमन झट से चाबी ले कर चला गया.

सब्जी ला कर आराम से बैठ कर सुमन ने पत्नी के कंधे पर हलके से थपथपाते हुए कहा, ‘‘अब एक प्याला चाय हो जाए तो कहूं कि धरती पर अगर सर्वोत्तम स्थान है तो बस यहीं है, यहीं है, यहीं है.’’

संगीता ने कर्कश स्वर में कहा, ‘‘मुझे नहीं अच्छी लगती यह खुशामद. अपनेआप बना लो.’’

‘‘किसी ने ठीक ही कहा है कि क्रोध में औरत की खूबसूरती दोगुनी हो जाती है. अब तुम मुझे दोगुनी सुंदर ही अच्छी लगती हो. अगर कहीं चौगुनी या आठगुनी सुंदर हो गईं तो भला मैं कहां बरदाश्त कर पाऊंगा? अब बना दोगी चाय तो तुम्हारे गुण गाऊंगा, नहीं तो… ’’

‘‘नहीं तो क्या?’’ संगीता ने पूछा.

‘‘नहीं तो क्या, नीचे हिदायतुल्ला के ढाबे में जा कर पी लूंगा.’’

‘‘क्यों, ढाबे में क्यों जाओगे?’’ संगीता ने बिगड़ कर कहा, ‘‘निरंजन के जाओ, प्रेमदयाल के जाओ, उस के… उस के… करुणा के यहां जाओ. बढि़या खुशबूदार चाय मिलेगी.’’

गहरी आह भरते हुए सुमन ने कहा, ‘‘बस, मजा ही किरकिरा कर दिया. क्या तीर मारा है.’’

दूसरे ही दिन संगीता को पत्र मिला कि उस के छोटे भाईबहन कालिज की छुट्टियों में उस के पास कुछ दिनों के लिए आने वाले हैं. संगीता बहुत प्रसन्न थी. उस ने बाजार से सामान लाने के लिए एक बड़ी सूची बना ली. सुमन के दफ्तर से आने की प्रतीक्षा कर रही थी.

सुमन ने जल्दी आने का वादा किया था. उस का मन खराब न हो, इसलिए गैस पर पानी चढ़ा दिया था ताकि सुमन के आते ही उसे एक प्याला चाय प्रस्तुत की जा सके.

‘‘लगता है तुम्हारी शादी हुए एक महीना भी नहीं हुआ. क्या जंच रही हो. लगता है, आज बाजार जाना नहीं होगा,’’ सुमन ने शरारत से कहा.

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‘‘क्या मतलब?’’ संगीता ने शरमाते हुए कहा.

‘‘अरे, मैं ठहरा मामूली इनसान. एक ही काम कर सकता हूं. या तो तुम्हारे साथ सामान खरीदने चलूं या तुम्हें लोगों की नजरों से बचाता फिरूं.’’

‘‘यह लो चाबी और उठो. ज्यादा बातें मत बनाओ,’’ संगीता पर्स उठा कर बाहर आ गई.

पता नहीं कैसे भूल हो गई कि जैसे ही सुमन ने किक मार कर स्कूटर चलाया तो गीयर न्यूट्रल में न होने से झटके से आगे भाग पड़ा. हैंडल हाथ से छूट गया और सुमन व स्कूटर दोनों गिर पड़े. नीचे नुकीले पत्थर पड़े थे. सुमन का सिर टकरा गया और वह अचेत हो गया. उस के शरीर से रक्त बहने लगा.

संगीता अवाक् रह गई. यह क्या हो गया? जब उसे होश आया तो चिल्लाने और रोने लगी. भीड़ इकट्ठी हो गई. सब अपनीअपनी राय दे रहे थे, पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. तभी भीड़ को चीरता हुआ रामप्रसाद आया, ‘‘क्या हुआ, भाभी? अरे, सुमन बाबू को चोट आ गई? आप चिंता मत कीजिए. आप घर जाइए, मैं संभालता हूं.’’

रामप्रसाद ने लोगों की मदद से एक टैक्सी रोक कर सुमन को उस में लिटाया और जानपहचान के एक लड़के से स्कूटर घर में रखने को कह कर सुमन को अस्पताल ले गया. संगीता के आंसू नहीं रुक रहे थे. पासपड़ोस की कुछ स्त्रियां आ कर उसे सांत्वना दे रही थीं.

लगभग 1 घंटे के बाद प्रेमदयाल ने आ कर कहा, ‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. अधिक चोट नहीं आई है. हैलमेट होने से बच गए, नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता.’’

‘‘कब आएंगे?’’ संगीता ने आतुरता से पूछा.

‘‘अब कुछ दिन तो अस्पताल में रहना पड़ेगा. मरहमपट्टी हो गई है. इंजेक्शन भी लगा दिए गए हैं. अभी तो सो रहे हैं. यह देखने के लिए कि अंदरूनी चोट तो नहीं है एक्सरे करने पड़ेंगे. वैसे डाक्टर ने कहा है कि जैसी हालत है उस से लगता है कि घबराने की कोई बात नहीं है.’’

‘‘मैं चलूंगी उन के पास.’’

‘‘क्यों नहीं. अरे, आप को ही तो लेने आया हूं. एक बार आंख खुली थी तो आप को पूछ रहे थे. मुझ से कहा कि आप को साथ ले जा कर सामान ले आऊं.’’

संगीता बोली, ‘‘कोई बात नहीं. सामान फिर आ जाएगा. आप मुझे ले चलिए.’’

टैक्सी में बिठा कर प्रेमदयाल संगीता को अस्पताल ले आया. जैसे ही पैसे देने को संगीता ने पर्स खोला, प्रेमदयाल ने रोक दिया, ‘‘कभी तो हमें भी सेवा करने का मौका दीजिए.’’

संगीता चुप हो गई और आतुरता से प्रेमदयाल के साथ सुमन के कमरे में पहुंची. सुमन सो रहा था. नींद के इंजेक्शन लगे थे. एक ही स्टूल था. प्रेमदयाल ने संगीता के लिए आगे कर दिया.

पास ही निरंजन और रामप्रसाद भी खड़े थे. कुछ और लोग भी थे जिन्हें संगीता नहीं जानती थी.

निरंजन ने कहा, ‘‘चिंता की कोई बात नहीं. हम सब लोग हैं. आप बिलकुल आराम से बैठिए. डाक्टर थोड़ी देर में आएंगे.’’

संगीता ने अवरुद्ध कंठ से कहा, ‘‘खाने का क्या होगा? कुछ बताया डाक्टर ने? मैं घर से बना कर ले आऊंगी.’’

‘‘अब आप कहां जा सकती हैं?’’ प्रेमदयाल ने मुसकरा कर कहा, ‘‘आप तो बस, इन की देखभाल कीजिए. खाने  के लिए मैं ने घर खबर पहुंचा दी है. आप का खाना भी आ जाएगा.’’

‘‘पर इतना कष्ट करने की क्या आवश्यकता थी?’’ संगीता ने औपचारिक रूप से पूछा.

‘‘भाभीजी, कष्ट में जो आनंद है वह आनंद में कहां? कभी किसी के काम आएं इसी में प्रसन्नता है. पर वैसे ऐसा अवसर कभी न आए, बस, यही इच्छा है.’’

संगीता चुप हो गई. रात को वह वहीं सो गई.

प्रेमदयाल, निरंजन और रामप्रसाद काफी देर तक रहे. फिर सुबह आने को कह कर चले गए.

सुबह 8 बजे करुणा और प्रेमचंद भी आए. दोनों के हाथों में फलों के थैले थे. ‘‘हमें तो रात में देरी से पता चला. बहुत देर हो गई थी, इसलिए नहीं आ सके. अब कैसी तबीयत है?’’ करुणा ने कहा.

‘‘अब उठने पर पता चलेगा. वैसे डाक्टर ने कहा है कि घबराने की

कोई बात नहीं है. एक्सरे वगैरह ले लिए हैं.’’

तभी सुमन ने आंखें खोलीं. चारों ओर देखा और फिर संगीता को देख कर मुसकराया, ‘‘आज शाम तक मैं चलने लायक हो जाऊंगा. आज सामान लाने चलेंगे, पर कपड़े जरा हलके पहनना.’’

‘‘छि,’’ संगीता ने शरमा कर कहा.

‘‘क्या हुआ?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘जरा हम भी तो सुनें?’’

‘‘कुछ नहीं, यों ही बड़बड़ा रहे हैं.’’

उन के जाने के बाद सुमन ने पूछा, ‘‘यहां कौन लाया था?’’

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‘‘रामप्रसाद.’’

‘‘उसे टैक्सी के पैसे देने होंगे. लोगों का खाने का भी उधार हो गया. समझ में नहीं आता कि यह सब एहसान कैसे चुकाऊंगा,’’ सुमन ने कहा.

सुमन के होंठों पर हाथ रखते हुए संगीता ने कहा, ‘‘बसबस, अब कुछ कहने की जरूरत नहीं है. मुझे सबक मिल गया है.’’

उपहार

लेखक- आभा सिंह

शीली के लिए विभव से मिलना अचानक ही था. हां, वह जरूर उस के आने की राह तकता पार्क के किनारे खड़ा इंतजार कर रहा था. भूल गए अतीत को इस तरह इंतजार करता देख शीली को कितनी तकलीफ हुई थी.

स्कूटर रोक लेने का इशारा करता विभव उस के नजदीक ही चला आया. लुटेपिटे व्यक्तित्व और खंडित मनोशक्ति वाला विभव दीनहीन याचक बना खड़ा था. उस ने इस पुरुष से तो प्रेम नहीं किया था. विभव के कहे कुछ शब्दों को सुन कर ही उसे मचली आने लगी. नजरें नीची कर स्कूटर स्टार्ट कर वह चुपचाप घर चली आई. विभव पुकारता ही रह गया…

घर पहुंच कर शीली को लगा कि अब खुल कर सांस आई है. मुंहहाथ धो कर ताजादम हुई.

चाय का घूंट भरते ही दिन भर की थकान पल भर में गायब हो गई. थोड़ा सहज होते ही फिर उस के मन में उलझाने वाले सवाल उठने लगे कि विभव अब क्यों आया? क्यों पहले की तरह वह पार्क के किनारे खड़ा उस का इंतजार कर रहा था. क्या वह उसे अपने से कमतर आंक रहा था? उस ने क्या सोचा कि वह 8 वर्ष के अतीत को भूल कर उसे फिर अपना लेगी… दोस्ती कर लेगी…पर क्यों? माना कि तब मेरे मन के सारे कोमल भाव उसी के इर्दगिर्द उमड़घुमड़ कर स्नेह की वर्षा करते थे तो क्या अब भी विभव उसे उसी मोड़ पर खड़े देखना चाहता है जहां उसे छोड़ गया था… कैसा दोटूक जवाब दिया था जब शीली ने स्नेह में भर, उस से विवाह का प्रस्ताव रखा था. एक लिजलिजा सा कारण दे कर सारे संबंध तोड़ गया था.

‘तुम से शादी कैसे कर लूं, शीली… तुम तो मेरी प्रेरणा हो, मेरा स्नेह हो, मेरे जीवन का संबल हो. क्या घरेलू औरत बन कर खो नहीं जाओगी? सच शीली, मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि जब मैं आफिस से थकाहारा लौटूं तो तुम मसालों से गंधाती और बच्चों की चिल्लपों से घिरी दिखाई दो. छि:…शीली, यह काम तो कोई साधारण औरत ही कर देगी, इसी से तो नंदी से विवाह कर रहा हूं…तुम तो बस, मेरी प्रेरणा बनी रहो.’

शीली अवाक् विभव का मुंह ताकती रह गई, क्योंकि वह तो यही जानती थी कि वर्षों से चले आ रहे स्नेहबंधन की परिणति विवाह ही होती है. खुद के गढ़े गए तर्कों में छिपी विभव की सोच उसे घृणित लगी. विवाह एक से और स्नेह दूसरी से…ऐसा संबंध समाज की किस परिभाषा के अंतर्गत आता है. प्रेमिका…रखैल…

ये शब्द शीली के दिमाग में आते ही उस का पूरा बदन सिहर गया, रोएं खड़े हो गए.

उस दिन के बाद कितनी ही बार उस ने विभव को वहीं पार्क के किनारे खड़ा देखा. हर बार उस के मुंह से अनायास ही दगाबाज या धोखेबाज शब्द निकलता और वह स्कूटर मोड़ कर दूसरे रास्ते से चली जाती.

एक बार शीली ने विभव से दूर रहने का फैसला किया तो स्नेह के झूठे बिरवे को नोंचनोंच कर फेंक दिया. चूंकि मातापिता बेटी की दशा से परिचित थे इसलिए उन्होंने शीली को उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली भेज दिया. दिल्ली में शीली की मौसी का घर था और उस की हमउम्र मौसेरी बहन भी थी. शीली के लिए अब दिन बिताना सहज होने लगा. मौसाजी ने एम.एससी. में शीली का एडमिशन करा दिया. विषय की गंभीरता और कैरियर बनाने की चाह ने शीली के अतीत पर पानी सा डाल दिया. कठिन मेहनत और लगन से उस का व्यक्तित्व बदलने लगा. अब वह अदम्य साहस और कर्मठता जैसे गुणों से लबरेज हो गई थी.

शीली की मेहनत ने परिणाम भी बहुत अच्छा दिया. एम.एससी. में फर्स्ट डिवीजन पा कर वह खुद भी चकित थी. मौसेरी बहन ने सुझाया कि पीएच.डी. भी कर लो. मातापिता से पूछने पर उन्होंने भी सहमति दे दी.

प्रो. प्रशांत के निर्देशन में शीली को पीएच.डी. करने की इजाजत मिल गई. शीली के अंदर कुछ करने की ललक से प्रो. प्रशांत बहुत प्रभावित थे. उन्होंने बहुत धीरज से शीली को काम का विषय समझाया. यही नहीं अपनी गाइडेंस में प्रशांत जैसाजैसा बताते गए शीली एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह वैसावैसा करती गई. इस तरह 4 साल की लंबी और कठिन मेहनत से शीली की पीएच.डी. पूरी हो गई.

प्रो. प्रशांत खुश थे. कहां मिलते थे ऐसे छात्र. अधिकतर तो घोड़े पर सवार… खुद से कुछ करते न बनता. न ही करने की इच्छा रखते…बस, हर समय यही चाहत कि सारी विषयवस्तु तैयार मिल जाए और वे अपने नाम के साथ इस उपाधि को जोड़ते. कुछ तो इतना करना भी गवारा न करते, 4 साल यों ही गुजार देते और पीएच.डी. को अधूरा छोड़ देते.

शोध शिक्षकों के बारे में शीली ने भी बहुत कुछ सुन रखा था लेकिन प्रो. प्रशांत ऐसे न थे. 4 सालों में शीली ने कुछ कहने भर को भी हलकापन नहीं पाया उन के व्यक्तित्व में. साथी छात्र भी खुशमिजाज और सहयोग करने में कभी पीछे न रहने वाले थे.

शोध पूरा होने के बाद शीली अपने मातापिता के पास लौट आई और काम की तलाश करने लगी. उसे इस बात की खुशी है कि उस ने अपनी मेहनत के बल पर इस संस्थान में नौकरी पाई है. इस संस्थान में काम करने का मन उस ने इसीलिए बनाया कि यहां तनख्वाह ठीक थी और काम की शर्तें भी अनुकूल थीं.

शीली ने धीरेधीरे संस्थान के वातावरण में खुद को ढालना शुरू किया. वैसे कितनी ही बार स्त्री होने के नाते उस के काम करने की क्षमता पर उंगली उठाई गई जो उसे पसंद न आई थी फिर भी यहां का अपना काम उसे पसंद आ रहा था.

बीतते समय के साथ शीली के व्यक्तित्व से निरीहता गायब हो गई और आत्मविश्वास से भरी कर्मठता ने उसे ऊंचा, और ऊंचा उठने के हौसले दिए. तीखी धार सा निखरता उस का व्यक्तित्व आसपास की परिस्थितियों को छीलता और अपने लिए जगह बना लेता. वह संस्थान के सम्माननीय पद पर काम कर रही थी.

शीली को लगा कि आज विभव का मिलना उस के शांत जीवन में पत्थर मारने जैसा है. उसे फिर से विभव की बातें याद आने लगीं. कैसे बिना उस की इच्छा जाने वह कहे जा रहा था:

‘कितनी गलती पर था मैं? अपनी मूर्खता से तुम्हारा अपना दोनों का सर्वनाश कर दिया…नंदी को क्या कहूं…जेवर, कपड़ा, ईर्ष्या और अपशब्दों का पर्याय है वह. मन इन्हीं उलझावों में भटक कर रह गया है. तुम…तुम मेरी प्रेरणा बनी रहो, मैं बाकी जीवन जी लूंगा.’

हर बार विभव ने अपने ही जीने की रट लगाई है. उस के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं. आखिर वह कैसे जी रही है? नहीं…नहीं, अब नहीं याद करना…न विभव को न उस की बातों को. उस की बातों में अब भी वही पुरानी कुटिल मानसिकता छिपी पड़ी है. उस ने जीवन में पहले एक प्रयोग किया और वह असफल रहा और अब इतने लंबे अरसे बाद एक और प्रयोग…नारी को क्या बेजान गुडि़या मान लिया जो ललक कर उस के नजदीक रहना चाहेगी. कापुरुष… नंदिनी से शादी इसलिए की, क्योंकि वह उस की तुलना में अमीर थी और अब फिर वैसे ही ओछे प्रयास…क्योंकि अब वह नंदिनी की तुलना में अधिक पढ़ीलिखी, अधिक दक्ष और अधिक कमाती है…उसे पहले भी जीवनसाथी नहीं चाहिए था और न ही अब…

शीली ने आज की घटना की उधेड़बुन से थके दिमाग को आंखें बंद कर दिलासा दी और करवट बदल कर सोने का यत्न करने लगी और कब उसे नींद आ गई पता ही न चला.

अगले दिन संस्थान जाते समय शीली सोच रही थी कि आज फिर विभव पार्क के किनारे खड़ा मिलेगा. उसे कुछ न कुछ उपाय जरूर सोच लेना है. यह रुटीन यों ही नहीं चल सकता. विभव का भरोसा नहीं, चोट खाया वह कहीं छिछोरेपन पर उतर आया तो? कुछ तो सोचना और करना ही होगा कि विभव वापस अपनी दुनिया में लौट जाए और वह चैन से जी सके.

काफी सोचविचार के बाद एक आइडिया उस के दिमाग में आया. वह लंच के समय सीट से उठी और बाजार चली गई. क्राफ्ट बनाने के सामान वाली दुकान पर दुकानदार को बहुत कुछ समझा कर अपना आर्डर दिया और वापस आ गई. शाम को घर लौटते समय अपना आर्डर लिया, उसे आकर्षक पैकिंग से पैक कराया और घर की तरफ चल दी.

शीली का अनुमान बिलकुल सही निकला. उस ने दूर से ही पार्क के किनारे खड़े विभव को देख लिया. एक घृणा की लहर उठी और उस के पूरे शरीर में फैल गई. अपने पर काबू कर उस ने अपना स्कूटर विभव के सामने रोका. उसे देख कर विभव की आंखों में चमक आ गई. शीली ने मन ही मन विभव को कोसा फिर झुक कर स्कूटर की डिक्की से पैकेट उठाया और विभव को थमा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ कामयाबी की मुसकान के साथ विभव ने पूछा.

‘‘तुम्हारे और मेरे संबंधों को एक नाम,’’ शीली का उत्तर भावहीन था.

विभव ने खुशीखुशी पैकेट को खोला तो देखता ही रह गया. कांपते हाथों से बाहर निकाला तो वह तिनकों से बना छोटा सा ‘बिजूका’ था. सिर पर नन्ही सी रंगबिरंगी हांडी धरे, रंगीन परिधान पहने, लाललाल होंठों से हंसता…कालीकाली आंखें चमकाता…

विभव के चेहरे पर प्रश्नचिह्न का भाव उभरा तो वह तटस्थ हो गई. उस के चेहरे पर कोई भाव न था, न गम न खुशी.

‘‘विभव, यह बिजूका है, तिनकों से बना, मिट्टी का सिर, रंगीन कपड़ों से सजा…यह उस इनसान का प्रतीक है जो लालच में सबकुछ पा लेने की लालसा में सबकुछ गंवा देता है. भावनाओं की सचाई से अछूता…दिखावे की रंगीनी ओढ़े. अब क्या बचा है इस के जीवन में… जीवन भर मरुस्थल में खड़े रहने की सजा…निपट सूनेपन में अपने अरमानों के पक्षियों को इधरउधर बच कर भागते हुए देखते रहने के सिवा…’’

विभव ने धीरे से बिजूका पैकेट में रख दिया. पता नहीं वह उस में छिपे संदेश को कितना समझ पाया…न समझे, पर शीली के प्रशस्त मार्ग पर कांटा बन कर चुभे तो नहीं…

शीली कुछ न कह कर मुड़ गई. स्कूटर स्टार्ट किया और घर की ओर चल दी. उसे उम्मीद थी कि अब विभव पार्क के किनारे खड़ा कभी नहीं मिलेगा.

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