Hindi Story : बुड्ढा कहीं का

Hindi Story : फब्तियां कसते लड़के इस प्रतीक्षा में थे कि उन का भी नंबर लग जाए. सास की उम्र वाली औरतें अपने को बिना कारण व्यस्त दिखाने में लगी थीं. बिना पूछे हर अवसर पर अपनी राय देते रहना भी तो एक अच्छा काम माना जाता है. ‘‘चलोचलो, गानाबजाना करो. ढोलक कहां है? और हारमोनियम कल वापस भी तो करना है,’’ सास का ताज पहने चंद्रमुखी ने शोर से ऊपर अपनी आवाज को उठा कर सब को निमंत्रण दिया. स्वर में उत्साह था.

‘‘हांहां, चलो. भाभी से गाना गवाएंगे और उन का नाच भी देखेंगे,’’ चेतना ने शरारत से भाभी का कंधा पकड़ा.

शिप्रा लजा कर अपने अंदर सिमट गई.

तुरंत ही लड़कियों व कुछ दूसरी औरतों ने शिप्रा के चारों ओर घेरा डाल दिया. बड़ी उम्र की महिलाओं ने पीछे सोफे या कुरसियों पर बैठना पसंद किया. युवकों को इस मजलिस से बाहर हो जाने का आदेश मिला पर वे किसी न किसी तरह घुसपैठ कर रहे थे.

शादी के इस शरारती माहौल में यह सब जायज था. अब रह गए घर के कुछ बुड्ढे जिन्हें बाहर पंडाल में बैठने को कहा गया. दरअसल, हर घर में वृद्धों को व्यर्थ सामान का सम्मान मिलता है. वे मनोरंजन का साधन तो होते हैं लेकिन मनोरंजन में शामिल नहीं किए जाते.

गानाबजाना शुरू हो गया. कुछ लड़कियों को नाचने के लिए ललकारा गया. हंसीमजाक के फव्वारे छूटने लगे. छोटीछोटी बातों पर हंसी छूट रही थी. सब को बहुत मजा आ रहा था.

पंडाल में केवल 4 वृद्ध बैठे थे. आपस में अपनीअपनी जवानी के दिनों का बखान कर रहे थे. जब अपनी पत्नियों का जिक्र करते तो खुसरपुसर कर के बोलते थे. हां, बातें करते समय भी उन का एक कान, अंदर क्या चल रहा है, कौन गा रहा है या कौन नाच रहा होगा, सुनने को चौकस रहता.

‘‘क्या जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह के दांत ठीक बिठाते हुए कहा, ‘‘आप का घर है. रौनक आप के कारण है लेकिन आप को सड़े आम की तरह बाहर

फेंक दिया गया है. चलिए, अंदर हमला करते हैं.’’

‘‘साले साहब, यह सब तुम्हारी बहन की वजह से है. तुम तो उसे मेरी शादी से भी पहले से जानते हो. वैसे तुम क्यों नहीं पहल करते? दरवाजा खुला है,’’ शीतला सहाय ने साले को चुनौती दी.

‘‘2-4 बातें सुनवानी हैं क्या? अपनी बहन से तो निबट लूंगा लेकिन अपनी पत्नी से कैसे पार पाऊंगा? मुंह नोच लेती है,’’ रंजन प्रसाद ने मुंह लटका कर कहा.

‘‘यार, हम दोनों एक ही किश्ती पर सवार हैं,’’ शीतला सहाय ने मुसकरा कर कहा, ‘‘याद है तुम्हारी शादी में तो मुजरा भी हुआ था. बंदोबस्त क्यों नहीं करते?’’

‘‘क्यों जले पर नमक छिड़कते हो, जीजाजी,’’ रंजन प्रसाद ने आह भर कर फिर से दांत ठीक किए और कहा, ‘‘मैं जा रहा हूं सोने. पता नहीं आप ने कचौडि़यों में क्या भरवाया था. अभी तक पेट नहीं संभला है.’’

‘‘अपनी बहन चंद्रमुखी से क्यों नहीं पूछते?’’ शीतला सहाय ने प्रहार किया, ‘‘हलवाई तो उस की पसंद का मायके से आया है.’’

रंजन प्रसाद खीसें निपोर कर चल दिए. शीतला सहाय ने देखा, बाकी के दोनों वृद्ध मुंह खोल कर खर्राटे भर रहे थे. उन्हें सोता देख कर एक गहरी सांस ली और सोचने लगे अब क्या करूं? मन नहीं माना तो खुले दरवाजे से अंदर झांकने लगे.

पड़ोस की लड़की महिमा फिल्मी गानों पर नाचने के लिए मशहूर थी. जहां भी जाती थी महफिल में जान आ जाती थी. महिमा के साथ एक और लड़की करिश्मा भी नाच रही थी. बहुत अच्छा लग रहा था. पास ही एक खाली कुरसी पर शीतला सहाय बैठ गए.

‘‘यहां क्या कर रहे हो?’’ चंद्रमुखी ने झाड़ लगाई, ‘‘कुछ मानमर्यादा का भी ध्यान है? बहू क्या सोचेगी?’’

शीतला सहाय ने झिड़क कर पूछा, ‘‘तो जाऊं कहां? क्या अपने घर में भी आराम से नहीं बैठ सकता? क्या बेकार की बात करती हो.’’ रंजन प्रसाद की पत्नी कलावती ने चुटकी ले कर कहा, ‘‘जीजाजी, बाहर घूम आइए. यहां तो हम औरतों का राज है.’’

कुछ औरतों को हंसी आ गई.

मुंह लटका कर शीतला सहाय ने कहा, ‘‘क्या करूं, साले साहब की तरह प्रशिक्षित नहीं हूं न. ठीक है, जाता हूं.’’

लगता है कहीं घूम कर आना ही होगा? शीतला सहाय अभी सोच ही रहे थे कि उन को अचानक अपने पुराने मित्र काशीराम का ध्यान आया. शादी का निमंत्रण उसे भेजा था लेकिन किसी कारणवश नहीं आया था. कोरियर से 50 रुपए का चेक भेज दिया था. शिकायत तो करनी थी सो यह समय ठीक ही था.

शीतला सहाय ने आटोरिकशा में बैठना छोड़ दिया था क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर आटो बहुत उछलता है. हर झटके पर लगता है कि शरीर के किसी अंग की एक हड्डी और टूट गई. मजबूरन बस की सवारी करनी पड़ती थी. बस स्टाप पर खड़े हो कर 561 नंबर की बस की प्रतीक्षा करने लगे जो काशीराम के घर के पास ही रुकती थी.

बस आई तो पूरी भरी हुई थी. बड़ी मुश्किल से अंदर घुसे. आगेपीछे से धक्के लग रहे थे. अपने को संभालने के लिए उन्होंने एक सीट को पकड़ लिया. दुर्भाग्य से उस सीट पर एक अधेड़ महिला बैठी हुई थी. उस के सिर पर कटोरीनुमा एक ऊंचा जूड़ा था. बस के हिलने पर शीतला सहाय का हाथ उस के जूड़े से लग जाता था. बहुत कोशिश कर रहे थे कि ऐसा न हो, लेकिन ऐसा न चाहते हुए भी हो रहा था.

अंत में झल्ला कर उस महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, जरा ठीक से खड़े रहिए न.’’

‘‘ठीक तो खड़ा हूं,’’ शीतला सहाय बड़बड़ाए.

‘‘क्या ठीक खड़े हैं. बारबार हाथ मार रहे हैं. उम्र का लिहाज कीजिए. शरम नहीं आती आप को,’’ महिला ने एक सांस में कह डाला.

‘‘क्या हो गया?’’ आगेपीछे बैठे   लोगों की उत्सुकता जागी.

‘‘कुछ नहीं. इन से ठीक से खड़े होने को कह रही हूं,’’ महिला ने रौब से कहा.

मर्दों को हंसी आ गई.

महिला के पास बैठी युवती ने कहा, ‘‘जाने दीजिए आंटी, क्यों मुंह लगती हैं. सारे मर्द एक से होते हैं.’’

महिला मुंह बना कर चुप हो गई.

अगले स्टाप पर बहुत से लोग उतर गए. खाली सीटों पर खड़े हुए यात्री झपट्टा मार कर बैठ गए. शीतला सहाय को कोई अवसर नहीं मिला. मन ही मन सोच रहे थे, उन के बुढ़ापे पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. कहां गई भारतीय शिष्टता, संस्कृति और संस्कार? लाचार और विवश खड़े रहे. टांगें जवाब दे रही थीं.

यह स्टाप शायद किसी कालिज के पास का था. धड़धड़ा कर 10-15 लड़कियां अंदर घुस आईं. उन के हंसने और किलकारी मारने से लग रहा था कि 100-200 चिडि़यां एकसाथ चहचहा रही हों. शीतला सहाय लड़कियों के बीच घिर गए.

बस एक झटके के साथ चल पड़ी. खड़े लोगों में कोई आगे गिरा तो कोई पीछे लेकिन अधिकतर संभल गए. रोज की आदत थी. शीतला सहाय ने गिरने से बचने के लिए आगे कुछ भी पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक लड़की का कंधा हाथ में आ गया.

‘‘अंकल, ये क्या कर रहे हैं?’’ लड़की ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘माफ करना, बेटी, मैं गिर गया था,’’ शीतला सहाय ने खेद प्रकट किया.

‘‘आप जैसे बूढ़े लोगों को मैं अच्छी तरह पहचानती हूं,’’ लड़की ने क्रोध से कहा, ‘‘मुंह से बेटीबेटी कहते हैं पर मन में कुछ और होता है. रोज आप जैसे लोगों से पाला पड़ता है. मेहरबानी कर के दूर खड़े रहिए.’’

‘‘क्या हुआ, जुगनी? क्यों झगड़ रही है?’’ दूसरी लड़की ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, अंकलजी धक्का दे रहे थे. मैं जरा इन्हें सबक सिखा रही थी,’’ जुगनी ने ढिठाई से कहा.

‘‘लगता है अंकलजी के घर में बेटियां नहीं हैं,’’ तीसरी लड़की ने अपना योगदान दिया.

पीछे से एक और लड़की ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘बुड्ढा बड़ा रंगीन मिजाज का लगता है.’’ इस पर सारी लड़कियां फुल- झडि़यों की तरह खिलखिला कर हंस दीं.

शीतला सहाय शरम से पानीपानी हो गए. उन्होंने मन ही मन प्रण किया कि अब कभी बस में नहीं बैठेंगे.

शीतला सहाय की असहाय स्थिति को देखते हुए एक वृद्ध महिला ने कहा, ‘‘भाई साहब, आप यहां बैठ जाइए. मैं अगले स्टाप पर उतर जाऊंगी.’’

‘‘अंकलजी को आंटीजी मिल गईं,’’ किसी लड़की ने धीरे से हंसते हुए कहा.

एक और हंसी का फव्वारा.

‘‘नहींनहीं, आप बैठी रहिए. मैं भी उतरने ही वाला हूं,’’ शीतला सहाय ने झूठ कहा.

लड़कियों ने शरारत से खखारा.

वृद्घा ने क्रोध से लड़कियों को देखा और कहा, ‘‘क्या तुम्हारे मांबाप ने यही शिक्षा दी है कि बड़ों का अनादर करो? शरम करो.’’

अचानक बस में शांति छा गई.

अगले स्टाप पर वृद्धा उतर गईं और शीतला सहाय ने बैठ कर गहरी सांस ली. बस अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच रही थी. बस धीरेधीरे खाली होती जा रही थी.

जैसे ही बस रुकी किसी ने शीतला सहाय के कंधे को छुआ और कहा, ‘‘सौरी, अंकल.’’

शीतला सहाय ने नजर उठा कर देखा तो वही लड़की थी जो उन से झगड़ रही थी.

क्षीण मुसकान से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटी.’’

लड़की जल्दी से उतर कर चली गई. उस ने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा. धीरेधीरे चलते हुए शीतला सहाय जब काशीराम के घर तक पहुंचे तो अपने दोस्त को बाहर टहलते हुए पाया.

अपने पुराने अंदाज से हंसी का ठहाका लगाते हुए दोनों गले मिले.

‘‘क्या बात है, उर्मिला ने घर से बाहर निकाल दिया?’’ शीतला सहाय ने छेड़ते हुए पूछा.

‘‘यही समझो, यार. प्रमिला ससुराल से आई है, सो उर्मिला ने कीर्तन मंडली बुला ली. अंदर औरतों का कीर्तन चल रहा है और मुझे अंदर बैठने की आज्ञा नहीं,’’ काशीराम ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अपने ही घर में अब्दुल्ला बेगाना.’’

‘‘हाहाहा,’’ शीतला सहाय ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘तो यह बात है.’’

‘‘यह तो नहीं पूछूंगा कि क्यों आए हो लेकिन फिर भी शंका समाधान तो करना ही पड़ेगा,’’ काशीराम ने शीतला सहाय के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.

‘‘यार, मेरी हालत भी कुछ तुम्हारे जैसी ही है. सब लोग नाचगा रहे हैं. मस्ती कर रहे हैं. मेरा भी मन किया कि जवानों के साथ बैठ कर तबीयत बहला लूं, लेकिन उन की दुनिया में बुड्ढों के लिए कोई जगह नहीं है,’’ शीतला सहाय ने ठंडी सास छोड़ी, ‘‘बस, घर से बाहर कर दिया.’’

शीतला सहाय ने अपने मित्र को बस में उन के साथ जो कुछ हुआ नहीं बताया क्योंकि उन्हें बुढ़ापे पर तरस आ रहा था. थोड़ी देर गप्पें मार कर उन्होंने घर का रास्ता नापा. मन हलका हो गया. बस यहीं से चलती थी सो बैठने की जगह मिल गई और वह अब की बार बिना हादसे के घर पहुंच गए.

उन्हें देखते ही बहुत लोगों ने घेर लिया मानो एक बिछुड़ा हुआ आदमी बहुत दिनों बाद मिला था.

‘‘बाबा को देखो. कितने खुश हैं. जरूर काशी अंकल से मिल कर आए होंगे,’’ निक्की ने छेड़ा.

‘‘यहां से जाते समय कितने बुड्ढे लग रहे थे. अब देखो एकदम जवान लग रहे हैं.’’

रोशन ने पूछा, ‘‘ये काशी अंकल आप को कौन सी घुट्टी पिलाते हैं?’’

शीतला सहाय हंस दिए, ‘‘कम से कम एक आदमी तो है जो बुड्ढे का बुढ़ापा भुला देता है. तुम लोग तो हमेशा मुझ से दूर रहने की कोशिश करते हो और हमेशा मेरी उम्र मुझे याद दिलाते रहते हो.’’

‘‘ठीक तो है, आदमी की उम्र उतनी ही होती है जितनी कि वह महसूस करता है. चलो, गरमगरम कचौडि़यां और ठंडी रसमलाई आप का इंतजार कर रही है,’’ रंजन प्रसाद ने कहा और शीतला सहाय का हाथ पकड़ लिया.

Hindi Story : आह्वान – क्या स्मिता दूसरी शादी से खुश थी

Hindi Story : एक भारतीय पुरुष को पत्नी यों अपनी मरजी से छोड़ कर चली जाए, बेहद अपमान व तौहीन की बात थी. मेरे अंदर बैठा भारतीय पति मन ही मन सोच रहा था, ‘पत्नी पति के बिना कितने दिन अकेली रहेगी? आएगी तो यहीं लौट कर.’ कुछ दिन के पश्चात वह लौटी तो सही, परंतु मुझे एक और आघात पहुंचाने के लिए. आते ही उस ने चहक कर बताया, ‘‘मुझे अपना मनचाहा दूसरा व्यक्ति मिल गया है और यहां से अच्छी नौकरी भी. मैं जल्दी ही तलाक की काररवाई पूरी करना चाहती हूं.’’

मैं पुरुष का सारा अहं समेटे उसे आश्चर्य से देखता भर रह गया. मेरा सारा दर्प चूरचूर हो बिखर गया. वह अपनी रहीसही बिखरी चीजें समेट कर चलती बनी और मेरी जिंदगी एक बीहड़ सन्नाटा बन कर रह गई. लगा, भरेपूरे संसार में मैं केवल अकेला हूं. इसी ऐलिस के कारण अपनों से भी पराया हो गया और वह भी यों छोड़ कर चल दी.

अकेले में परिवार के लोगों की याद, उन की कही बातें मन को झकझोरने लगीं. भारत से अमेरिका आने के लिए जिन दिनों मैं अपनी तैयारी में व्यस्त था तो पिताजी, अम्मां व बड़े भैया की जबान पर एक ही बात रहती, ‘देखो, वीरू, वहां जा कर किसी प्रेम के चक्कर में मत फंसना. हम लोगों के घर में अपनी भारतीय लड़की ही निभ पाएगी.’ मैं सुन कर यों मुसकरा देता जैसे उन के कहे की मेरे लिए कोई अहमियत ही न हो.

मां मेरी स्वच्छंद प्रकृति से भलीभांति परिचित थीं. एक दिन उन्होंने पिताजी को एकांत में कुछ सुझाया और उन्हें मां का सुझाव पसंद आ गया. स्मिता व उस के परिवार के कुछ सदस्यों को अपने यहां बुलवा कर चटपट मंगनी की रस्म अदा कर दी गई.

‘कम से कम लड़के पर कुछ तो बंधन रहेगा स्वदेश लौटने का. साल भर बाद ही शादी के लिए बुलवा लेंगे. फिर स्मिता भी साथ चली जाएगी तो वहीं का हो कर भी नहीं रहेगा,’ पिताजी अपने किए पर बहुत प्रसन्न थे. स्मिता के परिवार वाले भी संतुष्ट थे कि उन्हें अमेरिका से लौटा वर अपनी बेटी के लिए मिल जाएगा.

यों स्मिता कम आकर्षक नहीं थी. वह मेरे सामने आई तो मैं उसे एकटक देखता ही रह गया था. बड़ीबड़ी मदभरी आंखें व माथे पर लटकती घुंघराले बालों की घनी सी लट. चेहरे पर इतना भोलापन कि मन को बरबस अपनी ओर खींच ले. मन के किसी कोने में बरबस ही आ कर अपना अधिकार जमा लिया था उस ने.

भारत से जब विदा होने लगा था तो सभी स्वजनों की आंसुओं से भरी आंखों के बीच वह भी सिर झुकाए एक ओर अलग खड़ी थी. बड़े भैया, मिथुन चाचा, रमा दीदी व शीला भाभी सभी मुझे बारबार गले लगा कर अपने हृदय की व्याकुलता प्रकट कर रहे थे. शरम के मारे वह उसी एक कोने में खड़ी रही. मैं ही उस के पास पहुंचा था और धीरे से उस के कान में कहा था, ‘अच्छा, स्मिता, फिर मिलेंगे. जहाज का वक्त हो गया है.’

उस ने एक बार अपनी नजर उठाई और मेरे चरणों में झुक गई थी. पिताजी मुझे बांहों में लपेट कर बुदबुदाए थे, ‘नालायक, देख, तेरे लिए कितनी अच्छी लक्ष्मी जैसी बहू ढूंढ़ी है हम ने. याद रखना, जल्दी ही लौटना है तुझे इस के लिए.’

मैं उन की भुजाओं के बंधन से मुक्ति पा कर जाने लगा तो आंखें पोंछते हुए वह बीचबीच में अटकती जबान से कहे जा रहे थे, ‘तेरे शौक के कारण भेज रहा हूं, वरना तो क्या इतनी दूर भेजता.’

कुछ देर तक जहाज में बैठने के पश्चात अपनी धरती व अपने आकाश को छोड़ते हुए मन कसैला सा रहा. जिन्हें पीछे छोड़ आया था उन की याद से मन दुखी था. स्मिता की याद मन में बारबार यों कौंध जाती जैसे बरसाती बादलों के बीच सहसा बिजली चमक उठती है.

न्यूयार्क हवाई अड्डे पर आज से 3 वर्ष पूर्व उतरा था तो मन सबकुछ भुला कर कितनी नई सुनहरी कल्पनाओं में उड़ानें भरने लगा था. जिस कल्पना-लोक में पहुंचने की तड़प मेरे मन में होश संभालते ही समा गई थी उसी धरती पर उतर कर लगा था यही है मेरी कल्पनाओं की धरती. यथार्थ में कल्पना से भी अधिक सुंदर.

उपस्थित मित्रगणों ने गले में बांहें डाल कर हवाई अड््डे पर मेरा स्वागत किया. प्रमोद से सामना होते ही मुझे लगा कि उस के चरणों में गिर पड़ूं. उसी ने मुझे अमेरिका बुलाने में अपना पूर्ण सहयोग दिया था. अपने दफ्तर में मेरे लिए काम की तलाश भी मेरे पहुंचने से पहले ही कर दी थी.

चिकनी, गुदगुदी कार शीशे जैसी सड़कों पर ऊंचेऊंचे भवनों के बीच से हो कर गुजरती जा रही थी और मैं हैरत से आंखें फाड़फाड़ कर इधरउधर देखता रहा. प्रमोद ने मेरे लिए एक छोटे से निवास का प्रबंध भी पहले से ही कर दिया था. खाना भी उस रात उस ने कहीं से मंगवा रखा था. मुझे अपने कमरे पर छोड़ने के पश्चात वह भी बहुत कम मिल पाया. कभी आमनासामना हो भी जाता तो दूर से ही ‘हैलो’ कह देता. अपनी व्यस्तता भरी जिंदगी में से कुछ क्षण भी वह मेरे लिए चुरा लेने को विवश था शायद.

एकदम भारतीय परिवेश से निकल कर यों लगने लगा जैसे अनेक मित्रों के रहते हुए भी मैं एकदम अकेला व उपेक्षित हूं. काम कर के लौटता तो लगता, मैं उस छोटे से कमरे में कैद हो गया हूं. न घर में कोई बोलने वाला था, न यह पूछने वाला कि मैं भूखा हूं या प्यासा. 6 महीने बीततेबीतते मुझे यह अकेलापन बेहद खलने लगा.

अकेलेपन की उस ऊब को मिटाने के लिए मैं अनजाने ही कब ऐलिस की ललचाई आंखों में उलझता गया और कब मैं साल भर के अंदर ही उस से विवाह करने पर उतारू हो गया, मैं स्वयं भी नहीं जान पाया.

घर वालों को पता चला तो सब के रोषपूर्ण पत्र आने लगे. मां ने लिखवाया था, ‘समझ ले तेरी मां मर गई.’ उसी  पत्र में बड़े भैया ने भी लिख भेजा था, ‘अपना काला मुंह हम सब को दिखाने की जरूरत नहीं. खानदान की इज्जत मिट्टी में मिला दी. क्या जवाब देंगे हम लड़की वालों को?’

मैं भी अंदर ही अंदर सुलग उठा था. उत्तर में लिख भेजा था, ‘शादीब्याह हर व्यक्ति की अपनी मरजी से होना चाहिए न कि खानदान की नाक रखने के लिए. आप लोग भी समझ लें कि वीरू इस दुनिया में नहीं रहा.’

तब से घर वालों ने मेरे द्वारा भेजी जाने वाली आर्थिक सहायता भी स्वीकार करनी बंद कर दी. मन को भारी आघात तो पहुंचा था, क्योंकि भारत से आने का मेरा प्रमुख उद्देश्य घर की दशा सुधारने का ही था, ‘मैं बाहर चला जाऊंगा तो ढेर सारे पैसे भेजा करूंगा, सब की हालत सुधर जाएगी,’ पिताजी को यही कह कर मैं आश्वस्त किया करता था.

ऐलिस से विवाह करने के पश्चात तो घर वालों को कुछ भेजने की संभावना ही नहीं थी. मैं ने भी सब को भुला दिया. बस, ऐलिस के रंग में डूब गया.

लेकिन वह सबकुछ बहुत दिनों तक नहीं चल पाया. बहुत जल्दी ही मैं यह महसूस करने लगा था कि ऐलिस की दुनिया बहुत रंगीन है. उस का रहने का स्तर बहुत ऊंचा है जिस तक पहुंचने की कोशिश में मैं अपनेआप को अयोग्य समझने लगा था.

उस की महत्त्वाकांक्षाएं मेरे भीतर की शांति को नष्ट करती जा रही थीं. शीघ्र ही हमारे संबंधों में ठंडापन आने लगा. फिर भी अपने भारतीय संस्कारों के वशीभूत हो मैं उस के साथ हर समझौते के लिए तैयार रहता.

उधर ऐलिस के लिए जिंदगी की परिभाषा मुझ से सर्वथा भिन्न थी. वह केवल जिंदगी जीना जानती थी, संबंध निभाना नहीं. विवाह यों भी विदेशी धरातल पर जीवन भर का संबंध न हो कर एक समझौता मात्र समझा जाता है. जब चाहा जोड़ लिया और जब मन में आया तोड़ डाला.

ऐलिस भी मुझे बारबार सुनाने लगी थी, ‘जब संबंधों में ही गरमाहट न हो तो हमें अलग हो जाना चाहिए. अब साथसाथ रहना एक पाखंड है.’

तब भी मुझे विश्वास नहीं होता था कि वह अपने कहे को इतनी सहजता से कार्यान्वित कर दिखाएगी. उस के प्रति एक आक्रोश अंदर ही सुलगता और राख हो जाता.

दिन गुजरते गए. अब 6 महीने होने को हैं. उन दिनों के बारे में सोचता हूं तो स्वयं पर ही आश्चर्य होता है. ऐलिस के साथ कैसे मैं इतनी असहाय, दयनीय जिंदगी गुजारने लगा था. हर समय उस की इच्छाओं को पूरा करने व उसी के कार्यक्रमों को निबटाने में लगा रहा. कितना विवश हो कर उस के इशारों पर नाचने लगा था.

मेरी पूरी दिनचर्या उसी के द्वारा नियोजित होती. कभी कुछ नकारना चाहता तो ऐलिस बड़ी शान से कहती, ‘भूल जाओ कि तुम एक भारतीय हो. अब तुम अमेरिका में रह रहे हो. यहां सभी को इतना काम करना पड़ता है, नहीं तो हम इस खटारा गाड़ी की जगह शेवरलेट कैसे खरीदेंगे? अपना खुद का घर कैसे लेंगे?’

उस के द्वारा थोपी गई दिनचर्या पर मुझे कई बार बेहद गुस्सा आ जाता परंतु उस आग में मुझे खुद ही जलना पड़ता. उस के आगे तो केवल मुसकरा कर ‘हां’ कह देनी पड़ती.

सचमुच उस के साथ मैं उन्मुक्त भाव से खिलखिलाया तो कभी नहीं, हां हंसता जरूर था. वह भी जब उस के सामने हंसने की जरूरत पड़ती थी. खुद की हंसी तो कभी नहीं हंसा.

उस से पीछा छूटा तो बेचैन हो कर अपने देश लौटने के लिए छटपटाने लगा हूं. क्या मेरी अपनी भी कोई धरती है? कोई आकाश है जिसे अपना कह कर ही स्वच्छंद विचरण कर सकूं? लगता है, मेरा जीवन अधर में लटका हुआ दिशाहीन विमान है जिस के विचरण के लिए कोई आकाश नहीं है. नीचे उतरने को कोई धरती भी नहीं. स्वदेश में सब पराए हो चुके हैं.

जब मैं भारत से विदा होने लगा था तब अम्मां ने मुझे कलेजे से लगा कर ऐसे लिपटा लिया था जैसे मैं कोई दुधमुंहा बच्चा होऊं. धोती का पल्लू मुंह में ठूंस, जमीन पर बैठ कर सिसकने लगी थीं. यदि अब उन के सामने गया तो क्या वह मुझे उसी तरह अपनी छाती से चिपटा लेंगी? शायद नहीं.

‘समझ ले, तेरी मां मर गई.’ पत्र में उन के लिखवाए गए ये शब्द आंखों के आगे तैरने लगते हैं.

पिताजी, बड़े भैया, चाचा व भाभी सभी तो रुष्ट हैं. और स्मिता? उस की तो शादी भी हो गई होगी. जब उस के घर वालों को पता चला होगा कि मैं ने यहां ऐलिस से विवाह कर लिया है तो उन का दिल मेरे प्रति कितनी नफरत से भर उठा होगा. चट से स्मिता के हाथ पीले कर दिए होंगे. मुझे यहीं इस विदेश में यों निरुद्देश्य ही जीना होगा, जीते जी मरने के समान.

एक दिन डाकिया दीदी की चिट्ठी दे गया. उस ने लिखा था, ‘ऐलिस के चले जाने से पूरे परिवार के लोग प्रसन्न हैं. अब तुम जल्दी लौट आओ. तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे बिना घर की दशा कैसी हो रही है.

‘इन 3 वर्षों में ही अम्मां की आंखों की रोशनी जाती रही है. रोरो कर मोतियाबिंद उतर आया है. चाचाजी को हर समय पेट की शिकायत रहती है. पिताजी चलनेफिरने के अयोग्य होते जा रहे हैं. धीरेंद्र भैया असमय ही बूढ़े हो गए हैं. उन के दोनों लड़के पैसे के अभाव के कारण पढ़नालिखना छोड़ बैठे हैं. यों समझ लो कि तुम्हारे बिना सब की कमर टूट चुकी है.

‘और तो और, मरम्मत के अभाव में हमारा अच्छाखासा घर भी पुराना लगने लगा है. अब सोच लो कि तुम्हारा कर्तव्य क्या बनता है.’

दीदी के हाथ की लिखी पंक्तियों को देखते ही कितनी ही मधुर स्मृतियों में मन हिलोरें खाने लगा. कोई भी शरारत भरा काम होता तो मैं और दीदी इकट्ठे रहते. होली के अवसर पर राह चलते लोगों पर घर की मुंडेर से रंग भरे गुब्बारे फेंकना व रंग खेलती टोलियों पर ऊपर से रंग भरी बालटियां उड़ेल देना हम दोनों को बहुत प्रिय था. दीवाली आती तो पटाखे छोड़ कर राह चलतों को तंग करते.

दीदी के प्यार भरे पत्र व उन से जुड़ी मधुर स्मृतियां मुझे भारत लौटने के लिए विवश करने लगीं. मेरा मन लौटने की तैयारियां करने के लिए लालायित हो उठा.

तभी असमंजस ने मुझे फिर से घेर लिया. वहां यदि स्मिता से सामना हो गया तो मेरी क्या दशा होगी? शहर ही में तो रहती है.

मैं ने मन ही मन छटपटा कर फिर अपना इरादा ठप कर दिया.

कुछ ही दिनों के पश्चात लेटरबाक्स में नीले रंग का सुंदर सा लिफाफा पड़ा दिखाई दिया. एक कोने पर सुंदर अक्षरों में लिखा था, स्मिता…

धड़कते दिल से पत्र खोला तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. एकएक शब्द प्यार में पगा कर उस ने लिखा था, ‘जाते समय आप ने मुझे वचन दिया था फिर से मिलने का. मिलन के उन्हीं क्षणों की प्रतीक्षा में दिन काट रही हूं. वर्षों से उन्हीं क्षणों के लिए जी रही हूं. देखती हूं और कितनी प्रतीक्षा करवाओगे. आजीवन भी करवाओगे तो करती रहूंगी क्योंकि हमारातुम्हारा संबंध तो जन्म भर का है.’

नीचे लिखा था, ‘केवल तुम्हारी, स्मिता.’

कितना निश्चल प्रेम है. न कोई शिकायत, न शिकवा. एक आह््वान है  पत्र में, परंतु कितने निस्वार्थ भाव से.

मुझे एकदम लगा, मेरी भी कोई धरती है. कोई खुला आकाश है मेरे लिए भी. वहां सब अपने हैं. मैं उन्हीं अपनों के प्रति अपने कर्तव्य निभाऊंगा. मां की आंखों का आपरेशन, पिताजी की कमजोरी का इलाज, उपचार, भैया व उन के बच्चों के खर्चों का वहन, यह सब मेरा फर्ज है. वर्षों बाद अपना फर्ज निभाऊंगा, अपनी धरती पर विचरूंगा, अपनों के बीच.

और स्मिता, उसी के पत्र के आह्वान ने ही तो मुझे भारत लौटने की प्रेरणा दी है. वही मेरी सच्ची जीवनसंगिनी बन कर रहेगी.

Hindi Story : यथार्थ – सरला ने भगवान दास को शादी के लिए क्यों मना किया था

Hindi Story : सरला आंटी के सहयोग  से ही उसे एक फ्लैट में बतौर ‘पेइंग गेस्ट’ स्थान मिला था. इस पार्टी में आने के लिए सरला आंटी ने ही जोर दिया था. वह पार्टी की गहमागहमी से अलगथलग शीतल पेय का गिलास लिए किनारे की कुरसी पर बैठी थी. अचानक अपने सामने कुरसी खींच कर बैठे शख्स को उस ने ध्यान से देखा.

‘‘मुझे पहचाना, मैं भगवानदास,’’ उस शख्स ने पूछा.

‘‘हां, हां,’’ उस ने कहा. उस शख्स को तो वह भूल ही नहीं सकती थी. 10 वर्ष पूर्व वह उसे देखने आया था और इस प्रकार संकोच में बैठा था मानो कोई दुलहन हो. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की तेजतर्रार मोहना के सामने उस के बोलने की क्षमता जैसे समाप्त हो गई थी. नाम पूछने पर जब उस ने अपना नाम ‘भगवान दास’ बताया तब वह खूब हंसी थी और आहत व अपमानित भगवानदास चुपचाप बैठा रहा था.

बाद में मोहना ने घर वालों से कह दिया था कि उसे ऐसे दब्बू, भोंदू भगवान के दासों में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह पहले प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती है. किंतु आज 10 वर्ष बाद भगवानदास पूरा सामर्थ्यवान पुरुष लग रहा था. उस की भेदती दृष्टि का वह सामना नहीं कर पा रही थी. बातचीत से पता चला कि वह बैंक मैनेजर हो गया था. उस के द्वारा बताने पर कि वह सिंचाई विभाग में बतौर स्टेनो काम कर रही है, वह व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘आप तो प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती थीं?’’

‘‘चाहने से ही तो सब संभव नहीं हो जाता,’’ उस ने बेजारी से कहा और जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वहां रुकना उसे अब भारी लग रहा था. सरला आंटी से इजाजत ले कर जब वह अपने कमरे में लौटी तो दरवाजे का ताला खोलते हुए उस के हाथ कांप रहे थे. सर्वप्रथम आईने में उस ने स्वयं का अवलोकन किया. 30 वर्ष की उम्र में भी वह सुंदर और कमनीय लग रही थी, इस से उसे कुछ संतोष का अनुभव हुआ. बिस्तर पर लेटते ही उस का दिमाग अतीत में भटकने लगा.

वह मांबाप की इकलौती पुत्री व दोनों भाइयों की लाडली छोटी बहन थी. पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहने के कारण उस के ख्वाब बहुत ऊंचे थे. वह उच्चाधिकारी बन कर घरपरिवार की सहा-यता करना चाहती थी और उस के लिए प्रयत्न भी कर रही थी किंतु विश्वविद्यालय के रंगीन वातावरण और सहशिक्षा के आकर्षण ने उसे मनचली बना दिया था. साथी छात्रों द्वारा दिए गए कमेंटों से उसे रोमांच का अनुभव होता था. अत: मानसिक भटकन का दौर आरंभ हो गया.  मोहना अपनी उन सहेलियों को हिकारत भरी नजर से देखती, जो शादी कर के बच्चे पाल रही थीं. विवाहोपरांत रोटी बना कर घर में जीवन व्यतीत करने वाली स्त्रियां उसे गुलामी की प्रतीक लगतीं. उस के संपर्क में आने वाले लोग जब उस से पूछते कि वह शादी कब तक करेगी तब वह कहती कि पढ़ाई पूरी कर के नौकरी में जमने के बाद ही वह इस बारे में सोचेगी.

उस दौरान आए सभी रिश्ते उस ने बेदर्दी से ठुकरा दिए थे, अत: घर वालों ने उसे उस की मरजी पर छोड़ दिया था. उस ने प्रशासनिक सेवा की प्रतियोगिता परीक्षा में 2 बार प्रयास किया किंतु असफल रही. हार कर वह बैंक की नौकरी के लिए कोशिश करने लगी, किंतु वहां भी सफलता हाथ न लगी. उस की लगभग सभी सहेलियों ने विवाह कर के घर बसा लिए किंतु उसे किसी मामूली पुरुष से विवाह करना कबूल न था.

मोहना को ऐसे लोगों और ऐसी व्यवस्था से भी घृणा थी जो एक लड़की की सारी खूबियों व योग्यता को शादी के मापदंड पर तोलते थे.

वह शादी की अहमियत समझती थी लेकिन मन के मुताबिक आदमी भी तो मिलना जरूरी था. उसे मनमाफिक नौकरी भी नहीं मिली. नौकरी के नाम पर बस स्टेनो का जाब मिला. उस ने शुरू में सोचा कि अच्छी नौकरी मिलने पर इसे छोड़ देगी किंतु बाद में यही नौकरी उस की नियति बन गई.

कई वर्ष बाद इस शहर में स्थानां-तरण होने तक सब कुछ शांत व घटना-विहीन चल रहा था, किंतु भगवानदास से हुई भेंट ने मानो शांत जल में कंकड़ फेंक दिया था. उसे याद आया कि उस ने क्या कुछ सोचा था किंतु उसे क्या मिला? शायद यह था सपने और यथार्थ में अंतर.

इत्तिफाकन इस बीच मोहना की भगवानदास से कई बार भेंट हुई. उस ने उसे स्कूटर पर लिफ्ट भी दी. साथसाथ काफी भी पी. इस के अलावा भगवानदास अकसर उस के छोटे से कमरे में भी पहुंच जाता. मोहना को भगवानदास का इत्तिफाकन या जानबूझ कर इस प्रकार मिलना, उस में रुचि जाहिर करना अच्छा लगता. कभीकभी वह उस के शरीर या चेहरे पर प्रशासनिक दृष्टि डालता, कभी उस के कपड़ों को आकर्षक बताता. मोहना एक अनजाने आकर्षण की गिरफ्त में आ गई थी. वर्षों पहले उस के ऊंचे उड़ते ख्वाबों ने जिस व्यक्ति को नाकाबिल सिद्ध कर दिया था, आज हृदय उसे अपनाने को उत्सुक हो उठा था. वह बेसब्री से उस के उस विशेष प्रस्ताव की प्रतीक्षा कर रही थी, जो उन्हें एक अटूट बंधन में बांध देता.

एक रात मम्मी ने मोहना को फोन कर के कहा, ‘‘मोहना, तेरे रंजन चाचा की लड़की छम्मो आजकल लखनऊ में ही रह रही है. उस का जेठ ललित अभी 2 सप्ताह पूर्व स्थानांतरण के बाद वहां पहुंचा है. वह अपर पुलिस अधीक्षक है. शादी के 3 महीने के अंदर ही किसी कारणवश उस का तलाक हो गया था. उस घटना के 10 वर्ष बाद अब वह पुन: विवाह का इच्छुक है. छम्मो ने ही सब कुछ बताया. तू कल ही जा कर छम्मो से मिल ले.’’

‘‘मम्मी, तुम्हें वहां बैठ कर भी चैन नहीं है क्या?’’ मोहना उखड़ कर बोली.

‘‘देख मोहना, तू कोई बच्ची नहीं है. सबकुछ समय से अच्छा लगता है. शादीब्याह की भी एक उम्र होती है.’’

‘‘क्यों, क्या हो गया है, मुझे? बूढ़ी हो गई हूं? इस उम्र तक शादी नहीं हुई तो क्या किसी से भी शादी कर लूं?’’ वह फोन पर ही चीखने लगी.

‘‘मोहना, मांबाप बच्चों को राह दिखाने के लिए सदैव जीवित नहीं रहते. तुम छम्मो का पता लिखो,’’ कहने के बाद मम्मी ने उस छम्मो का पता बताया.

मम्मी के ठंडे, नाराजगी भरे स्वर ने मोहना को संयत कर दिया. उस ने चुपचाप पता लिख लिया. छम्मो उस की चचेरी बहन थी. बचपन से ही वे एकदूसरे की प्रतियोगी थीं. उन में जरा भी नहीं पटती थी. छम्मो अनिंद्य सुंदरी थी. उस का विवाह एक करोड़पति परिवार में हुआ था. वह मोहना और उस की महत्त्वाकांक्षाओं का अकसर मजाक उड़ाती थी. मोहना उस से दूर ही रहती थी. उस से मिल कर उस में हीनभावना जाग्रत हो जाती थी. आज उसी छम्मो की मार्फत उस के लिए दुहाजू व्यक्ति का रिश्ता आया था. अपनी विवशता पर उसे रोना आया किंतु उसे छम्मो के घर जाना ही था अन्यथा मम्मी बेहद नाराज हो जातीं.

अगले दिन मोहना ने कार्यालय से छुट्टी ले ली और छम्मो के घर जाने के लिए तैयार हो गई. वह तैयार हो कर खुद को आईने में निहार ही रही थी कि तभी मकान मालकिन का नौकर उसे ताजे फूलों का एक गुलदस्ता और एक चिट दे गया. चिट में लिखा था, ‘‘मिस मोहना, कल किसी विशेष मसले पर बात के लिए आप से मिलूंगा. कार्यालय के बाहर मेरा इंतजार करिएगा-भगवानदास.’’

मोहना के अधरों पर मुसकराहट आ गई. उसे लगा कि यह विशेष मसला अवश्य ही विवाह का प्रस्ताव होगा. वह छम्मो से मिलने उत्साह से चल पड़ी.

छम्मो का घर ढूंढ़ने में उसे विशेष परेशानी नहीं हुई. आलीशान घर और पोर्टिकों में खड़ी लंबी विदेशी गाड़ी देख कर उसे कोफ्त हुई कि वह तो बसों में धक्के खाती है और छम्मो मौज उड़ाती है. ठंडी सांस ले कर उस ने घंटी दबा दी. दरवाजा वर्दीधारी नौकर ने खोला. वह आदर से उसे बैठा कर अंदर चला गया. कुछ देर में छम्मो वहां आई. उसे देख कर मोहना आसमान से जमीन पर गिरी. दुबलीपतली छम्मो की तुलना वह सामने खड़ी भीमकाय महिला से बिलकुल नहीं कर पा रही थी. उस की कमर, गले, हाथों, बांहों पर अतिरिक्त मांस की थैलियां लटक रही थीं. मोटापे के कारण दोनों बांहें शरीर से अलग फैले अंदाज में झूल रही थीं.

‘‘मुझे पता था कि तुम खुद ही मुझ से मिलने आओगी,’’ वह व्यंग्य से हंस रही रही थी. उस का शरीर हंसी के साथ हिलने लगा. उस का व्यंग्यात्मक लहजा मोहना को अपमानजनक लगा.

‘यह मुटल्ली सोच रही होगी कि मैं उस के जेठ से विवाह के चक्कर में भागी चली आ रही हूं,’ मोहना ने सोचा, लेकिन नपेतुले लहजे में बोली, ‘‘मम्मी ने तुम से मिलने को कहा था इसलिए चली आई. खैर, तुम सुनाओ, आजकल क्या खापी रही हो? तुम्हारा तो कालाकल्प हो गया है.’’

पल भर के लिए छम्मो का चेहरा उतर गया लेकिन संभलते हुए उस ने घमंड भरे लहजे में कहा, ‘‘सेठ मनसुख नारायण की इकलौती बहू भला क्या खाएगीपिएगी, यह कोई पूछने की बात है. तुम्हारी तरह मुझे रोटी की चिंता तो है नहीं इसलिए थोड़ा मांस चढ़ गया है शरीर पर. खैर, तुम सुनाओ, किस के इंतजार में अभी तक कुंआरी बैठी हो?’’

मोहना तिलमिला गई, लेकिन संतुलित लहजे में बोली, ‘‘किसी की प्रतीक्षा में कुंवारी नहीं बैठी हूं. परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन गईं कि शादी की नौबत नहीं आई.’’

मोहना के रुख से छम्मो भी नरम पड़ गई. उस ने कहा, ‘‘मोहना, यह तेरे लिए खुशी की बात है कि ललित भाई साहब से तेरे रिश्ते की बात चली है. यदि  वह तुझे पसंद कर लेते हैं तो तू झट से विवाह की तैयारी शुरू दे.’’

छम्मो की बात को मोहना खिन्न भाव से सुनती रही. उसे छम्मो के डी.वाई.एस.पी. जेठ में तनिक भी रुचि न थी. तभी नौकर चाय के लिए बुलाने आया. छम्मो ने घुटनों पर बल दे कर एक छोटे से ‘उफ’ के साथ अपनी विशाल काया को उठाया. हिरनी सी दौड़ने वाली सुंदर दुबलीपतली छम्मो याद आई मोहना को. दीदी की शादी में मंगल गीतों में ठुमकती छम्मो को देख कर ही तो स्वरूप मोहित हो गया था. फिर उन की शादी भी हो गई थी. सुंदर छम्मो का रूप, गर्व और व्यंग्यात्मक बातें मोहना को कभी अच्छी नहीं लगती थीं. छम्मो की खूब-सूरती का वर्तमान हाल विश्वास के काबिल न था.

इस वक्त छम्मो

मोहना की सुगठित देहयष्टि व आत्म-विश्वास से भरी मुखाकृति को दबीछिपी दृष्टि से देख रही थी.

चाय क्या अच्छीखासी दावत का इंतजाम था. मोहना को खाने के लिए कह कर छम्मो विभिन्न तश्तरियों में सजी मिठाइयों पर टूट पड़ी. पिज्जा, कचौडि़यां, कटलेट जैसे व्यंजनों से मेज अटी पड़ी थी. छम्मो की खुराक ने उस की वर्तमान सेहत का राज खोल दिया.

तभी भारी बूटों की आवाज से घर गूंज उठा. मोहना चौंक कर बूटों की आवाज की दिशा में देखने लगी. एक 6 फुट ऊंचा व्यक्ति बेझिझक अंदर आ गया, ‘‘छम्मो, अकेलेअकेले चाय पी जा रही है?’’

‘‘आइएआइए, मोहना आई है. इस के बारे में मैं ने आप से बताया था न,’’ छम्मो ने खड़ी हो कर आंचल सिर पर डालने का उपक्रम किया.

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर वह मोहना के बिलकुल बगल की सीट पर बैठ गया. एक भरपूर नजर उस पर डाल कर वह खाने में जुट गया. अपर पुलिस अधीक्षक की वरदी उस के मजबूत शरीर पर जंच रही थी. सिर पर घने बाल थे. कनपटी के सफेद बालों को छिपाने का यत्न नहीं किया गया था. मोटी मूंछें और जुड़ी भवें उस की सख्त प्रवृत्ति को सिद्ध कर रही थीं.

‘‘आप यहां अकेली रहती हैं?‘‘ अचानक ललित ने पूछा.

‘‘जी,’’ मोहना ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘तब तो आप की शामें हम लोगों के साथ बीतनी चाहिए,’’ उस ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा.

मोहना ने उत्तर नहीं दिया. उस की चुप्पी पर ललित ने लापरवाही से कंधे उचकाए और चाय सिप करने लगा. नाश्ते के बाद वह वहां से चला गया. उस में अपने रुतबे की हेकड़ी थी. मोहना शाम तक वहां ठहरी. अंधेरा होने से पहले वह उठ खड़ी हुई. छम्मो उसे छोड़ने बाहर आई. लान में ललित चेक की शर्ट और जींस पहने अपने मातहतों से घिरा बैठा कुछ फाइलें देख रहा था. उस के होंठों पर सुलगती सिगरेट थी. मोहना को देख कर उस ने सिगरेट फेंक दी और उस के पास गया.

‘‘मोहनाजी, आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा,’’ ललित ने कहा.

‘‘मुझे भी,’’ मोहना ने औपचारिकता निभाई.

‘‘मैं आप से मिल कर कुछ महत्त्वपूर्ण फैसले करना चाहता हूं. क्या कल हम पुन: मिल सकते हैं?’’ उस ने आग्रह किया.

मोहना हिचकिचा गई. वह ललित से पुन: मिलना या बात करना चाहती ही नहीं थी. उसे भगवानदास से मिल कर कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय करना था. मगर इस तरह किसी के अनुरोध को नकारना असभ्यता होती इसलिए भरसक नम्र हो कर उस ने कहा, ‘‘कल शाम को यदि मौका मिला तो मैं फोन कर दूंगी.’’

‘‘ओ. के.’’ ललित ने कहा. उस का चेहरा उतर गया. वह उलटे पैर अपने सहयोगियों के पास लौट गया.

‘‘हाथ आए अच्छे अवसर को गंवाना सरासर मूर्खता है, मोहना. भाई साहब ने तो तुझे पसंद भी कर लिया था,’’ छम्मो ने उद्विग्न स्वर में कहा.

‘‘महत्त्वपूर्ण फैसले सोचसमझ कर लिए जाते हैं,’’ मोहना ने मुसकरा कर कहा.

‘‘तुझे क्या लगता है कि अब भी सोचनेसमझने का वक्त बाकी है? मुझे तो लगता है कि तेरे भाग्य में अविवाहित रहना ही लिखा है. ताईजी के कहने पर मैं बेमतलब में इस झमेले में फंसी,’’ छम्मो ने नाराज स्वर में कहा.

‘‘तुम्हारी शुभेच्छा के लिए धन्यवाद. मैं फोन करूंगी.’’

‘‘कभी मेरे कमरे में भी आना,’’ मोहना ने कहा, पर छम्मो चुप रही.

मोहना तेजी से बाहर निकल गई. घर पहुंचने पर उसे बाहर ही मकानमालकिन मिल गईं, ‘‘आज तो बहुत अच्छी लग रही हो. आफिस नहीं गई थीं क्या? कहां से आ रही हो?’’

‘‘कजिन से मिल कर आ रही हूं,’’ मोहना उन के प्रश्नों की बौछार से घबरा गई, ‘‘यह बताइए, कोई मुझ से मिलने आया था क्या?’’

‘‘हां, भगवानदास आया था.’’

‘‘अच्छाअच्छा, वह तो कल मिलने आने वाला था. आज ही चला आया.’’

‘‘मोहना, भगवानदास को तुम कैसे जानती हो?’’

‘‘कई वर्ष पहले उस से मिली थी. अब यहीं भेंट हुई है.’’

‘‘इन वर्षों में तुम लोग एकदूसरे से नहीं मिले?’’

‘‘नहीं, लगभग 10 वर्ष बाद हम मिल रहे हैं.’’

‘‘मोहना, भगवानदास अकसर तुम से मिलता है. मुझे लगता है तुम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हो.’’

‘‘आप ठीक समझ रही हैं, आंटी. इसीलिए कोई निर्णय लेने के लिए वह आने वाला है.’’

‘‘क्या यह तुम अच्छा कर रही हो? मेरा मतलब भगवानदास के बीवीबच्चों से है. क्या उन के साथ अन्याय नहीं हो रहा है?’’

‘‘क्या वह विवाहित है?’’ मकान मालकिन की बात सुन कर मोहना को जोरदार झटका लगा.

‘‘मुझे आश्चर्य है. तुम इतनी महत्त्वपूर्ण जानकारी के बिना उस से मिलती रही हो?’’ मकान मालकिन के स्वर में कड़कड़ाहट थी.

दरअसल मोहना को भगवान एक सुखद सपने सा लगा था. वह जानबूझ कर उन अप्रिय सवालों से अनभिज्ञ रहना चाहती थी जो उस के सपने को तोड़ देते. फिर भगवानदास ने स्वयं भी तो कुछ नहीं बताया. उसे लगा होगा कि वह जीवन के उस पड़ाव पर है जहां मात्र एक पुरुष साथी ही संतोष के लिए पर्याप्त होता है. वह उस से ‘फ्लर्ट’ कर रहा था. घर में पत्नीबच्चे थे और वह उसे मनोरंजन के साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहा था.

मकान मालकिन गौर से मोहना की उड़ गई रंगत और लाल आंखों को देख रही थीं. उन के चेहरे पर सहानुभूति थी. मोहना चुपचाप कमरे में आ गई. वह बहुत देर तक सोती रही. उसे कई बार वक्त के थपेड़ों से मार्मिक आघात लगा था, जिस ने उस के स्वाभिमान को क्षतविक्षत कर दिया था, परंतु आज की घटना से तो उस का विश्वास ही डोल गया. उस का विवेक चेतनाशून्य हो गया था. वह धोखेबाज महत्त्वपूर्ण निर्णय के लिए आएगा. शायद बिना शादी किए साथ रहने के लिए कहे, क्या वह बर्दाश्त कर  पाएगी?

अचानक कुछ सोच कर मोहना झटकेसे उठी. उस ने आंसू भरे चेहरे को इस तरह पोंछा जैसे जीवन से अवसाद को पोंछ रही हो. कमरे से निकल कर वह मकान मालकिन की बैठक में पहुंची. वहां कोई नहीं था. उस ने फोन पर नंबर घुमाया. उधर से जिस भारीभरकम स्वर ने ‘हेलो’ कहा वह उसी की अपेक्षा कर रही थी कि वही रिसीवर उठाए. वह ललित ही था. मोहना ने कहा, ‘‘ललित साहब, आप महत्त्वपूर्ण फैसले के लिए मुझ से मिलना चाह रहे थे. मैं कल शाम आप की प्रतीक्षा करूंगी.’’

‘‘तो मुहतरमा को मौका मिल गया. बंदा कल हाजिर हो जाएगा,’’ ललित की जीवन से भरपूर आवाज ने मोहना के कानों में नवजीवन की घंटियां बजा दीं.

Hindi Story : विषकन्या बनने का सपना

Hindi Story : इस महीने की 12 तारीख को अदालत से फिर आगे की तारीख मिली. हर तारीख पर दी जाने वाली अगली तारीख किस तरह से किसी की रोशन जिंदगी में अपनी कालिख पोत देती है, यह कोई मुझ से पूछे.

शादीब्याह के मसले निबटाने वाली अदालत यानी ‘मैट्रीमोनियल कोर्ट’ में फिरकी की तरह घूमते हुए आज मुझे 3 साल हो चले हैं. अभी मेरा मामला गवाहियों पर ही अटका है. कब गवाहियां पूरी होंगी, कब बहस होगी, कब मेरा फैसला होगा और कब मुझे न्याय मिलेगा. यह ‘कब’ मेरे सामने नाग की तरह फन फैलाए खड़ा है और मैं बेबस, सिर्फ लाचार हो कर उसे देख भर सकती हूं, इस ‘कब’ के जाल से निकल नहीं सकती.

वैसे मन में रहरह कर कई बार यह खयाल आता है कि शादीब्याह जब मसला बन जाए तो फिर औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या है? रिश्तों की आंच न रहे तो सांसों की गरमी सिर्फ एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती.

आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की. मेरी छत मेरा वजूद था, मेरा अस्तित्व. बेशक, इस का विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था फिर भी सिर पर कुछ तो था पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई, मेरा सिर नंगा हो गया, सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया. जिस ने कभी मुझ से प्रेम किया था, 2 नन्हेनन्हे चूजे मेरे पंखों तले सेने के लिए दिए थे, उसे ही अब मेरे जिस्म से बदबू आती थी और मुझे उसे देख कर घिन आती थी.

अब से कुछ साल पहले तक मैं मिसेज वर्मा थी. 10 साल की परिस्थितियों की मार ने मेरे शरीर को बज्र जैसा कठोर बना दिया. अब तो गरमी व सर्दी का एहसास ही मिटने लगा है और भावनाएं शून्यता के निशान पर अटक गई हैं. लेकिन मेरे माथे की लाल, चमकदार बिंदी जब दुनिया की नजरों में धूल झोंक रही होती, मैं अकसर अपनी आंखों में किरकिरी महसूस किया करती.

उस दिन भी खूब जोरों की बारिश हुई थी. भीतर तक भीग जाने की इच्छा थी पर उस दिन बारिश की बूंदें, कांटों की चुभन सी पूरे जिस्म को टीस गईं और दर्द से आत्मा कराह उठी थी. मैं ने अपने बिस्तर पर, अपने अरमानों की तरह किसी और के कपड़े बिखरे देखे थे, मेरा आदमी, अपनी मर्दानगी का झंडा गाड़ने वाला पुरुष, हमेशा के लिए मेरे सामने नंगा हो चुका था.

‘‘हरामखोर तेरी हिम्मत कैसे हुई कमरे में इस तरह घुसने की?’’ शराब के भभके के साथ उस के शब्द हवा में लड़खड़ाए थे. मैं ने उन शब्दों को सुना. उस की जबान और मेरी टांगें लड़खड़ा रही थीं. मुझे लगा, जिस्म को अपने पैरों पर खड़ा करने की सारी शक्ति मुझ से किसी ने खींच ली थी. बड़ी मुश्किल से 2 शब्द मैं ने भी उत्तर में कहे थे, ‘‘यह मेरा घर है…मेरा…तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

इस से पहले कि मैं कुछ और कहती, देखते ही देखते मेरे जिस्म पर बैल्ट से प्रहार होने लगे थे. दोनों बच्चे मुझ से चिपके सिसक रहे थे, उन का कोमल शरीर ही नहीं आत्मा भी छटपटा रही थी.

इस के बाद बच्चों को सीने से लगाए मैं जिंदगी की अनजान डगर पर उतर आई थी. मेरी बेटी जो तब छठी में पढ़ती थी, आज 12वीं जमात में है, बेटा भी 8वीं की परीक्षा की तैयारी में है. उन दिनों मेरे बालों में सफेदी नहीं थी लेकिन आज सिर पर बर्फ सी गिरी लगती है. आंखों के ऊपर मोटे शीशे का चश्मा है. पीठ तब कड़े प्रहारों और ठोकरों से झुकती न थी लेकिन आज दर्द के एहसास ने ही बेंत की तरह उसे झुका दिया है. सच, यादें कितना निरीह और बेबस कर देती हैं इनसान को.

कुछ महीनों के बाद बातचीत, रिश्तेदारियां, सुलहसफाई और समझौते जैसी कई कोशिशें हुईं, पर विश्वास का कागजी लिफाफा फट चुका था, प्रेम की मिसरी का दानादाना बिखर गया था. बाबूजी का मानना कि आदमी का गुस्सा पानी का बुलबुला भर है, मिनटों में बनता, मिनटों में फूटता है, झूठ हो गया था. अकसर पुरुष स्वभाव को समझाते हुए कहते, ‘देख बेटी, मर्द कामकाज से थकाहारा घर लौटता है, न पूछा कर पहेलियां, उसे चिढ़ होती है…उसे समझने की कोशिश कर.’

मैं अपने बाबूजी को कैसे समझाती कि मैं ने इतने साल किस तरह अनसुलझी पहेलियां सुलझाने में होम कर दिए. सीने में बैठा अविश्वास का दर्द, बीचबीच में जब भी टीस बन कर उठता है तो लगता है किसी ने गाल पर तड़ाक से थप्पड़ मारा है.

मेरे, मेरे बच्चों और मेरे अम्मांबाबूजी के लंबे इंतजार के बाद भी कोई मुझे पीहर में बुलाने नहीं आया. मैं अमावस्या की रात के बाद पूर्णिमा की ओर बढ़ते चांद के दोनों छोरों में अकसर अपनी पतंग का माझा फंसा, उसे नीचे उतारने की कोशिश करती, लेकिन चांद कभी मेरी पकड़ में नहीं आया. मेरा माझा कच्चा था.

मेरी बेटी नींद से उठ कर अकसर अपनी बार्वी डौल कभी राह, कभी अलमारी के पीछे तो कभी अपने खिलौनों की टोकरी में तलाशती और पूछती, ‘‘मां, हम अपने पुराने घर कब जाएंगे?’’

उस के इस सवाल पर मैं सिहर उठती, ‘‘हाय, मेरी बेटी…भाग्य ने अब तुझ से तेरी बार्बी डौल छीन कर ऐसे अंधे कुएं में फेंक दी है, जहां से मैं उसे ढूंढ़ कर कभी नहीं ला सकती.’’

बेटी चुप हो जाती और मैं गूंगी. इसी तरह मेरी मां भी गूंगी हो जातीं जब मैं पूछती, ‘‘अम्मां, आप ने मेरे बारे में क्या सोचा? मैं क्या करूं, कहां जाऊं? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं, इन को मैं क्या दूं? प्राइवेट स्कूल की टीचर की नौकरी के सहारे किस तरह काटूंगी पहाड़ सी पूरी जिंदगी?’’

मां की जगह कंपकंपाते हाथों से छड़ी पकड़े, आंखों के चश्मे को थोड़ा और आंखों से सटाते हुए बाबूजी, टूटी बेंत की कुरसी पर बैठते हुए उत्तर देते, ‘‘बेटी, अब जो सोचना है वह तुझे ही सोचना है, जो करना है तुझे ही करना है…हमारी हालत तो तू देख ही रही है.’’

ठंडी आह के साथ उन के मन का गुबार आंखों से फूट पड़ता, ‘समय ने कैसी बेवक्त मार दी है तोषी की अम्मां…मेरी बेटी की जिंदगी हराम कर दी, इस बादमाश ने.’

बस, इसी तरह जिंदगी सरकती जा रही थी. एक दिन सर्द हवा के झोंकों की तरह यह खबर मेरे पूरे वजूद में सिहरन भर गईं कि फलां ने दूसरी शादी कर ली है.

‘शादी, यह कैसे हो सकता है? हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं,’ मैं ने फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल फेंक दिए थे. लग रहा था कि पांव के नीचे की धरती अचानक ही 5-7 गज नीचे सरक गई हो और मैं उस में धंसती चली जा रही हूं.

अम्मां और बाबूजी ने फिर हिम्मत बंधाई, ‘उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं, तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हारो, कुछ करो. सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने जाने कैसी अंधी उम्मीद के सहारे अदालत के दरवाजे खटखटा दिए, ‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो, मुझे न्याय दो, मेरा हक दो…झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़े से भारी कैसे हो सकता है?’ मैं ने पूछा था, ‘मेरे बच्चों के छोटेछोटे कपड़े, टोप, जूते और गाडि़यां, तलाक के कागजी बोझ के नीचे कैसे दब सकते हैं?’

मैं ने चीखचीख कर, छाती पीटपीट कर, उन झूठी गवाहियों से पूछा था जिन्होंने चंद सिक्कों के लालच में मेरी जिंदगी के खाते पर स्याही पोत दी थी. लेकिन किसी ने न तो कोई जवाब देना था, न ही दिया. आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए, कचहरी के चक्कर काटती, मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. हांक लगाने वाला अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोष में छपे नए काले अक्षर हैं.

आजकल रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी आंखों की पलकों से चिपका हुआ पाया है. न्यायाधीश बिक गया, बोली लगा दी चौराहे पर उस की, चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने. लानत है, थू… यह सोचने भर से मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है.

भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं, मेरा दोष ही क्या था जिस की उम्रकैद मुझे मिली और फांसी पर लटके मेरे मासूम बच्चे. न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी होता है उन बड़ीबड़ी, लालकाली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं, जो निर्दोषों को जीने की सजा और कसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है, समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?

ये प्रश्न हर रोज मुझे नाग बन कर डंसते हैं और मैं हर रोज कटुसत्य का विषपान करती, विषकन्या बनने का सपना देखती हूं.

आसमान में बादल का धुंधलका मुझे बोझिल कर जाता है लेकिन बादलों की ही ओट से कड़कती बिजली फिर से मेरे अंदर उम्मीद जगाती है जीने की, अपनी अस्मिता को बरकरार रखने की और मैं बारिश में भीतर तक भीगने के लिए आंगन में उतर आती हूं.

लेखक – निर्मलविक्रम

Hindi Story : जड़ें – आशीष और विनी की रिश्तों की क्या थी मजबूत जड़ें

Hindi Story : टेलीफोन की घंटी बहुत देर से बज रही थी. विनी बाथरूम में थी. वह बिना नहाए ही बाथरूम से निकली, रिसीवर को उठा कर जैसे ही उस ने कान पर ला कर ‘हैलो’ कहा, एक ऐसी आवाज उस के कानों में पड़ी जो बड़ी पहचानी सी थी परंतु फिर भी पहचान के घेरे में नहीं आ पा रही थी.

‘‘हैलो…कौन?’’ उस  ने बेसब्री से कहा.

‘‘विनी दीदी…नहीं पहचाना, नमस्ते…लगता है आप भूल गई हैं,’’ ये आवाज विनी को कई वर्ष पीछे धकेल कर ले गई.

‘‘अरे, राजू? कहां से बोल रहे हो भाई?’’ उस के मुख पर हर्षोल्लास पसर गया.

‘‘मैं अमेरिका से बोल रहा हूं…’’ आवाज खनक रही थी, ‘‘आप का आशीर्वाद है दीदी. इसीलिए यह सबकुछ हो सका. मैं ने यहां घर बना लिया है, दीदी. अपनेआप पर विश्वास नहीं होता. पता नहीं मैं यह सबकुछ कैसे कर पाया.’’

‘‘हम कहां कुछ करते हैं, राजू? हम तो माध्यम हैं न? हमें तो सिर्फ गुमान रहता है कि हम ने किया, हम करते हैं…’’ विनी आदत के अनुसार अपना फलसफा झाड़ना न भूली.

‘‘यही बातें सुनने को मेरा मन बेचैन रहता है, दीदी. यहां सबकुछ है, हर सुखसुविधा है पर वह बात नहीं जो वहां पर थी. और सब से बड़ी बात यहां विनी दीदी नहीं हैं…’’

‘‘अच्छा, अच्छा क्यों अपना बिल बढ़ा रहा है? मुंबई से तो कभी बात भी कर लेता था पर वहां जा कर तो भूल ही गया अपनी विनी दीदी को,’’ उस ने उलाहना दे कर बात बदलने का प्रयास किया.

‘‘नहीं, दीदी, भूलता तो आप को फोन कैसे करता. मेरी इच्छा थी कि पहले कुछ बन जाऊं तब आप को बताऊंगा कि मैं कुछ कर पाया. संस्कार तो आप से ही पाए हैं मैं ने. जड़ें मेरी वहां पर ही हैं, अपनी जड़ों से अलग हो कर कोई पेड़ पनप सकता है क्या? फिर मेरा बोधिवृक्ष तो आप हैं. मैं ने आप को पत्र लिखा है, दीदी.’’

‘‘पता नहीं क्याक्या बोल रहा है. चल, बच्चों को व बहू को मेरा प्यार देना, कभीकभी याद कर लिया करना अपनी विनी दीदी को…बाय…’’

विनी ने रिसीवर रख दिया. दरअसल, उस की भी आंखें भर आई थीं. वह धम्म से सोफे पर बैठ गई और अपने अतीत में विचरण करने लगी.

विनी जब विवाह कर के गुजरात आई थी तब राजू 8-10 वर्ष का था. धीरेधीरे राजू विनी के पास आने लगा. सामने नीचे वाले फ्लैट में ही वह रहता था. तनु को देखदेख कर बहुत खुश होता वह, कभी कहता कि कितना गोरा है, कितना सुंदर…वह उसे हर समय घुमाने के चक्कर में रहता. साल भर का होतेहोते तनु अपनी मां से अधिक राजू को पहचानने लगा था. विनी को भी बड़ी सुविधा होती.

राजू के परिवार में 4 भाई, 1 तलाकशुदा बहन व उस का बेटा और मातापिता थे. हर चीज उसे सब से कम व बची हुई ही मिलती. राजू के मन में एक ‘कांप्लेक्स’ आ गया था. एक बार राखी के दिन ऊपर आ गया. बोला, ‘दीदी, आप मुझे राखी बांधेंगी?’ विनी को उस का दीदी कहना बड़ा प्यारा लगता.

‘तुम्हारी तो बहन है न, राजू?’ विनी ने पूछा था.

‘हां, है न. पर मुझे राखी बंधवानी है. आप बांधेंगी न?’ वह राखी भी साथ ले कर आया था.

‘लाओ,’ विनी ने राखी उस के हाथ से ले कर उसे बांधी और टीका कर के उस के मुंह में मिठाई रख दी.

विनी उत्तर प्रदेश से गुजरात आई थी. वहां की प्रथा के अनुसार वह हर रक्षाबंधन को जवे, सेंवई बनाती. राजू ने दूध के जवे खाए तो उस का मन बागबाग हो गया. फिर वह हर वर्ष आ कर राखी बंधवाता और बड़ा सा कटोरा भर कर जवे खाता. विनी को न जाने क्यों उसे खाते देख कर एक अजीब तरह का सुख मिलता.

2-3 वर्ष बाद एक राखी के दिन राजू अचानक ही रोंआसा हो उठा था.

‘क्या बात है, राजू?’ विनी ने प्यार से पूछा.

‘कुछ नहीं, दीदी,’ आंसू आ कर उस की पलकों पर ठहर गए, ‘मैं आप को कुछ नहीं दे पाता हूं…’ कहतेकहते वह रो पड़ा.

‘बड़ा पागल है तू. क्या चाहिए मुझे. प्यार नहीं करता अपनी दीदी को?’

‘आप इतनी अच्छी क्यों हैं, दीदी? मुझे घर में चाय नहीं मिलती तो मैं आप के पास चला आता हूं, कुछ खाना

हो तो आप बना देती हैं, गरमगरम.

मेरी मां तो इतना कुछ नहीं करती

मेरे लिए.’

‘देख राजू, मां के पास कितना काम है करने के लिए. वह थक जाती हैं न. फिर तेरा मन जो कुछ खाने का होता है तू मेरे पास आता है, मैं बना देती हूं, क्या फर्क पड़ता है. मां तो बेटा मां ही होती है. तुम्हारी जड़ें उस में होती हैं. मां के लिए गलत कभी नहीं सोचना,’ कह कर विनी ने उस का माथा चूम लिया.

‘दीदी, मैं आप के लिए कुछ लाया हूं,’ एक दिन सहमते हुए उस ने रक्षाबंधन का तोहफा जेब से निकाल कर उस की हथेली पर रख दिया. यह एक छोटी सी सुंदर चांदी की डिबिया थी जिस पर एक सुंदर सी तसवीर बनी हुई थी.

‘ये कहां से लाया, राजू…’ विनी चौंकी, ‘मां की है न…बोल?’

‘हां.’

‘मां को पता है…?’

उस ने नहीं में सिर हिलाया.

‘गलत है न, बेटा. यह तो गलत काम हुआ. तू मुझे प्यार करता है न, वही तेरा गिफ्ट है. चल, मां की अलमारी में रख कर आ. रख देगा या मैं चलूं तेरे घर?’ विनी का माथा ठनकने लगा था.

‘नहीं दीदी, मैं रख दूंगा,’ उस ने धीरे से होंठ हिलाए.

‘पक्का?’

‘हां.’

राजू चला गया. पर उस के बाद जब भी वह आता विनी उसे अच्छीअच्छी बातें सिखाने का प्रयास करती.

उस ने पति से कह कर उन के व्यवसाय में उसे लगा दिया.

राजू ने काम के साथसाथ ही तकनीकी काम सीखना भी शुरू कर दिया था. उस के लिए आर्थिक सहायता भी विनी व उस के पति ने दी थी.

आज वह एक कुशल कारीगर बन अमेरिका पहुंच गया था. विनी को अच्छा लगना स्वाभाविक ही था. छोटे से छुईमुई के पौधे को मजबूत पेड़ के रूप में बढ़ते देख उसे बहुत खुशी हुई.

‘‘पोस्टमैन,’’ डाकिया ने डोरबेल का स्विच दबाते हुए जोर से कहा.

घंटी की आवाज से उस की तंद्रा भंग हुई और वह हड़बड़ाती हुई मेनगेट पर आई. डाकिए ने एक लिफाफा विनी को पकड़ाया और चलता बना.

आज 10-15 दिन बाद उसे राजू का पत्र मिला था. लिखा था :

स्नेहमयी, प्यारी दीदी,

चरण स्पर्श.

जीवन के जिस मोड़ पर आप से सहारा मिला उसे शब्दों में कैसे कहूं? आप लोगों की स्मृति सदा ही बनी रहती है. दीदी, यहां आ गया हूं क्योंकि इस संसार में जीने के लिए पूरे परिवार को धन की आवश्यकता होती है. आप से बहुत छोटा हूं परंतु अब तक जो भी अनुभव हुए उन के अनुसार लगा कि अगर ‘हैंड टू माउथ’ रहा तो कोई मुझे पूछेगा तक नहीं. नहीं जानता आप से किन जन्मों का संबंध है. पर दीदी, प्रार्थना करूंगा, आने वाले जन्मों में आप के पेट से जन्म लूं. आप मुझे अपना नाम दे सकें और दे सकें वे संस्कार जिन से मैं एक सही इनसान बन सकूं. यहां आ कर धन कमाना बहुत बड़ी सफलता नहीं है, दीदी, सफलता तब होगी जब मैं आप के दिए हुए नियम व संस्कारों को सहेज कर रख सकूंगा. आशीर्वाद दीजिए, दीदी. बच्चों को मेरा स्नेह व अंकल को सादर चरण स्पर्श…

आप का अपना, राजू.

विनी पत्र हाथ में पकड़े उस गुजराती बच्चे की भावनाओं को तोलती रह गई. उस की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी मानो अपने छोटे भाई पर आशीषों की बरखा कर रही हो. उस का मन संतुष्टि एवं प्रसन्नता से भर उठा था. बहुत गहरी, मजबूत जड़ें थीं रिश्तों की.

Hindi Story : पिपासा – क्या कमल की रहस्यमयी मौत का खुलासा हुआ

Hindi Story : सुबह के तकरीबन 9 बजे होंगे. भैंसों को चारासानी, पानी कर के दूध दुह कर ग्राहकों को बांट कर मदन खाट पर जा कर लेट गया था. पल दो पल में ही धूप उस के बदन पर लिपट कर अंगअंग सहला कर गरमाहट बढ़ाने लगी. मदन को गुदगुदी सी होने लगी थी. वह जैसे अपनी दोनों बांहों में धूप को समेट कर हौले से मुसकरा उठा.

तीस साल का मदन इतना भी रूखा या पत्थरदिल नहीं था, मगर अभी तक किसी को अपने दिल की बात कह कर अपना बना ही नहीं सका था.

मदन का पूरा बदन धूप की शरारतों से इठला ही रहा था, तभी अचानक किसी ने बाहर खटखट की आवाज की. आवाज सुन कर मदन चौंक गया.

‘अब कौन आया होगा?’ यह सवाल खुद से करता हुआ वह झट से करवट बदल कर पलटा और खाट पर से उठ कर जमीन खड़ा हुआ. जल्दी से वह बाहर गया, तो देखते ही पहचान गया.

“अरे, चमेली तुम…?”

“हां, मैं चमेली,” कह कर उस युवती ने अपने पास खड़े 4-5 बरस के बालक की कलाई को झिंझोड़ कर कहा.

चमेली मदन की दूर की रिश्तेदार थी. उस का विवाह जिला गाजियाबाद में हुआ था. और इस समय कुछ तो ऐसा हुआ था कि सारी दुनिया छोड़ कर वह बस मदन के दरवाजे पर खड़ी थी.

मदन ने उसे भीतर बुला लिया. कुछ ही देर बाद मदन को बाहर कुछ आवाजें सुनाई देने लगी थीं. लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी थी. पर, मदन अपनी मेहनत पर जीने वाला स्वाभिमानी युवक किसी बात से नहीं डरता था और न ही किसी की परवाह करता था.

चमेली ने भीतर आ कर मदन की तरफ याचनाभरी निगाह से देखा. इस से पहले मदन कुछ कहता, वह झुक कर उस के पैरों से लिपट गई.

चमेली के इस तरह लिपटते देख मदन को अभीअभी सेंकी हुई धूप की गरमाहट दोबारा महसूस होने लगी और वह रोमांचित सा हो रहा था, पर उधर इस सब से बेखबर चमेली उस से सुबकसुबक कर बोली, “मेरा पति हर बात पर शक करता था. मैं वहां से भाग आई. अब मैं वापस लौट कर नहीं जाना चाहती. आप मुझे अपनी शरण में ले लो, तो बची उम्र भी जैसेतैसे काट लूंगी.”

मदन उस के लगातार स्पर्श से यों भी मदहोश सा हुआ जा रहा था. वह अपनेआप को सहज करने की कोशिश करने लगा और उस ने बालक को प्यार से पुचकार कर कहा, “आओ ना… मेरे पास आओ.”

मदन के शब्दों ने उस बालक पर जादू सा काम किया. वह बालक शायद जन्मों से इस मनुहार की ही तो कामना कर रहा था, प्यार का संकेत मिला और वह मदन की छाती से लिपट गया. मदन ने आंखें बंद कर लीं. उस को एक पल के लिए ऐसा लगा, जैसे चमेली ने आ कर उसे जकड़ लिया हो.

कुछ पल के लिए वहां खामोशी सी छाई रही. पैरों पर चमेली और गोदी में मासूम बालक था. मदन इस आनंद को छक कर भोग रहा था.

अचानक चमेली ने उठ कर कहा,”कहीं आप को कोई दिक्कत तो नहीं.”

“अरे, नहीं. तुम आराम से यहां रहो,” मदन ने अपनी आवाज में प्यार छलकाते हुए कहा, तो चमेली के बदन में जैसे बिजली सी दौड़ गई. वह रास्ते की थकान भूल कर कच्चे मकान को देखती रही और इधरउधर जा कर उस ने रसोई खोज ली.

मदन ने कहा, “तुम थकी हुई हो. मैं कुछ चायदूध गरम करता हूं.”

चमेली मदन की ओर देख कर जोर से बोली, “बस, अब मैं सब कर लूंगी.”

मदन यह सुन कर निश्चिंत हो गया और वह बालक के साथ खेलने लगा.

चमेली जरा सी देर में चाय, दूध सब तैयार कर लाई. चमेली और मदन चाय की चुसकियां लेने लगे. बालक दूध का गिलास गटागट पी गया और शरीर में ताकत आते ही यहांवहां दौड़ने लगा.

मदन का सूना घर किलकारी से गूंज उठा, जैसे कोई उत्सव हो.

मदन के इस कच्चे मकान में रसोई और गोदाम के अलावा 3 कमरे और भी थे. एक कमरा चमेली ने ले लिया. इस दौरान 2-4 दिन गांव के लोगों ने किसी न किसी बहाने मदन के आंगन की ताकझांक भी कर ली. पर आखिरकार सब लोग समझ गए कि चमेली मदन की शरणागत है, और मदन को इस मामले में किसी की राय, सलाहमशवरा आदि कतई नहीं चाहिए.

चमेली को आए 7-8 दिन हो गए थे. वह अपने कच्चे मकान के उसी कमरे मे रहता, जहां चमेली रहती.

मदन चमेली के साथ जन्नत सा सुख पा रहा था, और वह कमरा मदन को किसी परीलोक से कम न लगता था. अब चमेली ने इतना प्यार लुटा दिया, तो मदन भी पीछे नहीं रहा. शहर से बादाम, काजू, अखरोट, कपड़ेलत्ते, मखमली बिस्तर और कई खिलौने ला कर उस ने चमेली के बालक को निहाल कर दिया था.

मदन ने उस बालक का नाम रखा था कमल. चमेली को कमल नाम इतना भाया कि वह अपने इस बालक का असली नाम बिलकुल ही भूल गई.

लगभग एक महीना हो गया था और अब हालात इतने हसीन थे कि चमेली सुबहशाम कुछ नहीं सोचती थी, जब भी तड़प कर मदन पुकार लगाता, चमेली उस के लिए गलीचा बनने में पलभर की देरी नहीं करती थी. चमेली ने तो उस का पुनर्जागरण कर दिया था. चमेली उस की मांग पर उफ न करती, तो मदन ने भी उसे सिरआंखों पर बिठाया.

इन दिनों मदन को यह पूरी दुनिया जैसे फूलों का बाग लगती थी. चमेली दो समय भोजन पकाती और बाकी का वक्त मदन उस को एक तिनका तक न तोड़ने देता था. भैसों का गोबर उठाने, वहां साफसफाई करने और रसोई के सब छोटेबड़े बरतन वह खुद खुशीखुशी मांजता था.

चमेली ने भी गांव में सहेलियां बना ली थीं. जब मदन गांव से बाहर होता तो चमेली का जी उचटने लगता और कभी कमल को ले कर तो कभी उस को सुला कर वह यहांवहां, इधरउधर आनेजाने लगी.

एक दिन मदन ने कमल को गांव की पाठशाला में दाखिला दिला दिया, वहीं सुबह दूध और दोपहर को बढ़िया खाना मिलता था. चमेली अब और खूबसूरत हो गई थी.

3 महीने गुजर गए. एक दिन मदन को सदमा लगा, जैसे वह आसमान से गिरा. हुआ यों कि चमेली रातोंरात गायब हो गई. खूब पता लगाया तो खबर मिली कि वह बगल गांव के एक छोरे के संग मुंबई भाग गई. दोनों अपनी मरजी से गए थे और चमेली मदन के घर से एक रुपया तक न ले गई, बस उस के दो समय के कपड़े वहां नहीं थे. घर पर सब सामान सहीसलामत पा कर मदन ने चैन की सांस ली, मगर अब वह और कमल अकेले रह गए.

चमली उसे धोखा दे गई, इसीलिए शोक करना मूर्खता ही होती. पर, जीवट वाले मदन ने हार नहीं मानी और उस ने कमल को ही अपना जीवन मान लिया.

मदन उसे खुद स्कूल छोड़ने और लाने जाता, बाकी समय उस की भैंसें तो थीं ही, जो उस को बिजी रखती थीं.

हौलेहौले मदन और बालक कमल एकदूजे की छवि बनते गए. बालक कमल दस वर्ष का हुआ, तो उस को नईनई बातें पता लगीं. वह पढ़ने में अच्छा था और मेवे, फलफूल खा कर मजबूत शरीर का धावक भी था.

एक दिन कमल मदन से सैनिक स्कूल में पढ़ने की जिद करने लगा. मदन ने उस की पूरी बात सुनी. मदन को कोई दिक्कत नहीं थी. यह तो गर्व की बात थी. मदन ने खुशीखुशी दौड़भाग कर सैनिक स्कूल का प्रवेशफार्म भर दिया. परीक्षा में कमल का चयन हो गया. मदन उस को छात्रावास छोड़ कर वापस लौटा और 1-2 दिन बेचैन रह कर फिर से खुद को यहांवहां उलझा कर भैसों के काम में मन लगाने लगा.

कमल और चमेली दोनों ही बारीबारी से मदन के सपनों में आते थे. वैसे, कमल की तो नियम से चिट्ठी और फोन भी आते थे. 2 महीने तक तो लंबे अवकाश में कमल उस के पास आ कर रहा.

कमल मदन को सैनिक स्कूल के कितने किस्से सुनाता रहता था. मदन को लगता कि चलो, जीवन सफल हो गया.

समय पंख लगा कर उड़ता रहा. कमल जब 14 वर्ष का हुआ, तो उसे वहां पर मेधावी छात्र की छात्रवृत्ति मिलने लगी. अब वह पढ़नेलिखने के लिए मदन पर कतई निर्भर नहीं था.

मदन इस साल इंतजार करता रहा, पर न तो कमल खुद ही आया और न ही उस का फोन आया. अब तो उस के चिट्ठीफोन आने सब बंद हो गए थे. मदन को अब कुछ अवसाद सा रहने लगा.

पर, वह चमेली के धोखे को याद कर के कमल का यह व्यवहार झेल गया. अब उस को काम करने में आलस आने लगा था, खासतौर पर भोजन पकाने में, इसलिए कुछ सोच कर उस ने घरेलू काम में मदद के लिए एक कामवाली रख ली. वह मदन से कुछ अधिक उम्र की थी, और खाना बनाना, कपड़े धोना वगैरह सब काम करने लगी.

एक दिन खाट पर लेटा मदन सोच रहा था कि आज कमल होता तो 20 बरस का होता. और चमेली… चमेली कहां होगी, यही सोचते हुए वह अचानक खाट से उठ बैठा, तो सामने कामवाली को खड़ा पाया.

वह कामवाली एक गिलास चाय बना कर ले आई थी. मदन की आंख से आंसू बह रहे थे. उस ने नजदीक जा कर वह आंसू अपने आंचल से पोंछ दिए और मदन अचानक ही एकदम भावुक सा हो उठा. उस ने संकेत से कुछ याचना की, फिर दोनों गले लग कर काफी देर तक यों ही बैठे रहे.

मदन बहुत ही कोमल दिल वाला और बड़ा ही भावुक है, यह बात इन 3 महीनों में वह अनुभवी स्त्री भांप गई थी.

अब कुछ सिलसिला यों बनने लगा कि वह कामवाली चमेली के उस कमरे में ले जा कर मदन को कभीकभी सहला दिया करती, तो कभी प्यार से पुचकार देती और कभीकभी मदन के आग्रह पर सारा काम यों ही रहने देती. बस मदन को छाती से चिपटा कर उस का दुखदर्द पी जाती थी. उस दिन भोजन मदन पकाता और एक ही थाली में दोनों थोड़ाथोड़ा खा लेते, पर पूरे तृप्त हो जाते थे.

इसी तरह एक साल और गुजर गया. मदन अब फिर से आनंद में रहने लगा था. गाव वालों की खुसुरफुसुर और ताकझांक चल रही थी. पर, इस से वह न तो कभी घबराया था और न ही आगे डरने वाला था. उस की कामवाली तो अपने खूनपसीने की रोटी खा रही थी. वह किसी अफवाह पर कान तक न देती थी. हर समय मौज में रहती और मदन की मौज में तिल भर कमी न आने देती थी.

एक दिन सुबहसवेरे वह मदन को सहला कर चाय उबाल रही थी कि एक आहट हुई. मदन उठ कर बाहर गया, तो 2 लोग बाहर खड़े थे, एक कमल और गोदी में तकरीबन 2 साल का प्यारा सा बालक.

मदन ने मन ही मन सोचा कि वाह बेटा, नौकरीब्याह सब कर लिया और खबर तक नहीं दी. पर, वह सिर झटक कर अपने विचार बदलने लगा. उस का दयावान मन जाग गया.

मदन को कमल से नाराजगी तो थी, पर नफरत नहीं थी. वह बहुत ही प्यार से उसे भीतर लाया. कमल ने सब रामकहानी सुना दी. वह अफसर हो गया था, पर पत्नी बेवफा निकली. वह किसी रसोइए के साथ भाग गई थी. अब यह नन्हा बालक किस के भरोसे रहेगा, कह कर कमल सुबक उठा.

कुछ देर बाद कमल के हाथों में चाय का गिलास आ गया था और बालक को एक सुंदर पर अधेड़ महिला गोदी में खिला रही थी.

मदन से सौ झूठीसच्ची बातें कर के कमल उसी दिन वापस लौट गया. मदन का जीवन एक बार फिर रौनक से भर उठा था. कितने बरस बीतते गए और बूढ़ा मदन उस बालक को बचपन से किशोरावस्था में जाता देख रहा था. यह बालक तो कमल से कई गुना मेधावी था, पर वह गांव की मिट्टी से बहुत लगाव रखता था. गांव छोड़ना ही नहीं चाहता था. लगभग छप्पन बरस की बूढ़ी हो चली कामवाली अम्मां अब मदन के पास स्थायी रूप से रहने लगी थी.

अब मदन और वो उस बालक का जीवन आधार थे. उन का गांव तो अब बहुत बेहतरीन हो गया था. बहुत सारी सुविधाएं यहां पर थीं. एक दिन मदन अपनी कामवाली के साथ किसी सामाजिक समारोह में गया तो वहां एक फौजी मिला. बातों से बातें निकलीं तो खुलासा हुआ कि वह कमल को जानता था. उस ने कमल की हर काली करतूत बताई और खुलासा किया कि कमल न जाने कितनी औरतें बदल चुका है. वह अफसरों की कमजोर नस का फायदा उठाता है और खुद भी गुलछर्रे उड़ाता है. वह अनैतिक हो चुका है. इतना बुद्धिमान है, पर बहुत ही गलत रास्ते पर है.

मदन चुपचाप सुनता रहा. उस को सुकून मिला कि अच्छा हुआ, जो कमल का बेटा यहां पर नहीं है. सुनता तो कितना परेशान होता.

मदन को इस बात का अंदेशा था क्योंकि कमल ने कभी एक नया पैसा इस बालक के लिए नहीं भेजा, कभी एक फोन तक नहीं किया था.

मदन ने उस फौजी युवक को अपना फोन नंबर दिया और उस का नंबर भी ले लिया.

कुछ सप्ताह और बीत गए. एक दिन सुबहसुबह ही मदन के पास फोन आया कि कमल की किसी रहस्यमयी और अज्ञात बीमारी से अचानक मौत हो गई है.

मदन ने संदेश सुन कर फोन काट दिया. उस ने उस रोज अपना सारा काम उसी तरह से किया जैसे वह पहले किया करता था. बालक भी पाठशाला से लौट कर खापी कर खेलने चला गया. उस दिन मदन की शाम एक सामान्य शाम की तरह गुजरी. मदन ने एक पल को भी कमल का शोक नहीं मनाया. अब कमल और चमेली उस के लिए अजनबी थे.

Hindi Story : आधुनिक श्रवण कुमार की कहानी

Hindi Story : पिछले साल जब मीरा ने समाचारपत्र में एक विदेश भ्रमण टूर के बारे में पढ़ा था तब से ही उस ने एक सपना देखना शुरू कर दिया था कि इस टूर में वह अपने परिवार के साथ वृद्ध मातापिता को भी ले कर जाए. चूंकि खर्चा अधिक था इसलिए वह पति राम और बेटे संजू से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं लेना चाहती थी. उसे पता था कि जब इस बात का पता पति राम को लगेगा तो वह कितना हंसेंगे और संजू कितना मजाक उड़ाएगा. पर उसे इस मामले में किसी की परवा नहीं थी. बस, एक ही उमंग उस के मन में थी कि वह अपने कमाए पैसे से मम्मीपापा को सैर कराएगी.

वह 11 बजने का इंतजार कर रही थी क्योंकि हर रोज 11 बजे वह मम्मी से फोन पर बात करती थी. आज फोन मिलाते ही बोली, ‘‘मम्मी, सुनो, जरा पापा को फोन देना.’’

पापा जैसे ही फोन पर आए मीरा चहकी, ‘‘पापा, आज ही अपना और मम्मी का पासपोर्ट बनने को दे दीजिए. हम सब अगस्त में सिंगापुर, बैंकाक और मलयेशिया के टूर पर जा रहे हैं.’’

‘‘तुम शौक से जाओ बेटी, इस के लिए तुम्हारे पास तो अपना पासपोर्ट है, हमें पासपोर्ट बनवाने की क्या जरूरत है?’’

‘‘पापा, मैं ने कहा न कि हम जा रहे हैं. इस का मतलब है कि आप और मम्मी भी हमारे साथ टूर पर रहेंगे.’’

‘‘हम कैसे चल सकते हैं? दोनों ही तो दिल के मरीज हैं. तुम तो डाक्टर हो फिर भी ऐसी बात कह रही हो जोकि संभव नहीं है.’’

‘‘पापा, आप अपने शब्दकोश से असंभव शब्द को निकाल दीजिए. बस, आप पासपोर्ट बनने को दे दीजिए. बाकी की सारी जिम्मेदारी मेरी.’’

बेटी की बातों से आत्मविश्वास की खनक आ रही थी. फिर भी उन्हें अपनी विदेश यात्रा पर शक ही था क्योंकि वह 80 साल के हो चुके थे और 2 बार बाईपास सर्जरी करवा चुके थे. उन की पत्नी पुष्पा 76 वर्ष की हो गई थीं और एक बार वह भी बाईपास सर्जरी करवा चुकी थीं. दोनों के लिए पैदल घूमना कठिन था. कार में तो वे सारे शहर का चक्कर मार आते थे और 10-15 मिनट पैदल भी चल लेते थे पर विदेश घूमने की बात उन्हें असंभव ही नजर आ रही थी.

वह बोले, ‘‘देखो बेटी, मैं मानता हूं कि तुम तीनों डाक्टर हो पर मेरे या अपनी मां के बदले तुम पैदल तो नहीं चल सकतीं.’’

‘‘पापा, आप पासपोर्ट तो बनने को दे दीजिए और बाकी बातें मुझ पर छोड़ दीजिए.’’

‘‘ठीक है, मैं पासपोर्ट बनने को दे देता हूं. हम तो अब अगले लोक का पासपोर्ट बनवाने की तैयारी में हैं.’’

‘‘पापा, ऐसी निराशावादी बातें आप मेरे साथ तो करें नहीं,’’ मीरा बोली, ‘‘आप आज ही भाई को कह कर पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दें. डेढ़ महीने में पासपोर्ट बन जाएगा. उस के बाद मैं आप को बताऊंगी कि हम कब घूमने निकलेंगे.’’

फोन पर बातें करने के बाद हरिजी अपनी पत्नी से बोले, ‘‘चल भई, तैयारी कर ले. तेरी बेटी तुझे विदेश घुमाने ले जाने वाली है.’’

‘‘आप भी कैसी बातें कर रहे हैं. मीरा का भी दिमाग खराब हो गया है. घर की सीढि़यां तो चढ़ी नहीं जातीं और वह हमें विदेश घुमाएगी.’’

‘‘मैं राजा को भेज कर आज ही पासपोर्ट के फार्म मंगवा लेता हूं. पासपोर्ट बनवाने में क्या हर्ज है. बेटी की बात का मान भी रह जाएगा. विदेश जा पाते हैं या नहीं यह तो बाद की बात है.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें, कर लें. अब तो कहीं घूमने की ही इच्छा नहीं है. बस, अपना काम स्वयं करते रहें और चलतेफिरते इस दुनिया से चले जाएं, यही इच्छा है.’’

उसी दिन मीरा ने रात को खाने पर पति राम और संजू से कहा, ‘‘आप लोग इतने दिनों से विदेश भ्रमण की योजना बना रहे थे. चलो, अब की बार अगस्त में 1 हफ्ते वाले टूर पर हम भी निकलते हैं.’’

‘‘अरे, मम्मी, जरा फिर से तो बोलो, मैं आज ही बुकिंग करवाता हूं,’’ बेटा संजू बोला.

राम बोले, ‘‘आज तुम इतनी मेहरबान कैसे हो गईं. तुम तो हमेशा ही मना करती थीं.’’

‘‘उस के पीछे एक कारण था. मैं अपने मम्मीपापा को भी साथ ले कर जाना चाहती थी और इस के लिए मेरे पास रुपए नहीं थे. 1 साल में मैं ने पूरे 1 लाख रुपए जोड़ लिए हैं. अब मम्मीपापा के लिए भी मैं टिकट खरीद सकती हूं.’’

‘‘यह मेरे और तेरे रुपए की बात कब से तुम्हारे मन में आई. तुम अगर अपने मम्मीपापा को साथ ले जाने की बात बोलतीं तो क्या मैं मना करता. 30 साल साथ रहने के बाद क्या तुम मुझे इतना ही जान पाई हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है पर मेरे मन में था कि मैं खुद कमा कर अपने पैसे से उन्हें घुमाऊं. बचपन में हम जब भी घूमने जाते थे तब पापा कहा करते थे कि जब मेरी बेटी डाक्टर बन जाएगी तब वह हमें विदेश घुमाएगी. उन की वह बात मैं कभी नहीं भूली. इसीलिए 1 साल में एक्स्ट्रा समय काम कर के मैं ने रुपए जोड़े और आज ही उन्हें फोन पर पासपोर्ट बनवाने को कहा है.’’

‘‘वाह भई, तुम 1 साल से योजना बनाए बैठी हो और हम दोनों को खबर ही न होने दी. बड़ी छिपीरुस्तम निकलीं तुम.’’

‘‘जो मरजी कह लो पर अगर हम लोग विदेश भ्रमण पर जाएंगे तो मम्मीपापा साथ जाएंगे.’’

‘‘तुम ने उन की तबीयत के बारे में भी कुछ सोचा है या नहीं या केवल भावुक हो कर सारी योजना बना ली?’’

‘‘अरे, हम 3 डाक्टर हैं और फिर वे दोनों वैसे तो ठीक ही हैं, केवल ज्यादा पैदल नहीं चल पाते हैं. उस के लिए हम टैक्सी कर लेंगे और जहां अंदर घूमने की बात होगी तो व्हीलचेयर में बैठा कर घुमा देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम चाहो. तुम खुश तो हम सब भी खुश.’’

पासपोर्ट बन कर तैयार हो गए. 8 अगस्त की टिकटें खरीद ली गईं. थामस नामक टूरिस्ट एजेंसी के सिंगापुर, बैंकाक और मलयेशिया वाले ट्रिप में वे शामिल हो गए. उन की हवाई यात्रा चेन्नई से शुरू होनी थी.

मीरा, राम और संजू मम्मीपापा के पास चेन्नई पहुंच गए थे. मीरा ने दोनों के सूटकेस पैक किए. उस का उत्साह देखते ही बनता था. मम्मी बोलीं, ‘‘तुम तो छोटे बच्चों की तरह उत्साहित हो और मेरा दिल डूबा जा रहा है. हमें व्हीलचेयर पर बैठे देख लोग क्या कहेंगे कि बूढ़ेबुढि़या से जब चला नहीं जाता तो फिर बाहर घूमने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘मम्मी, आप दूसरों की बातों को ले कर सोचना छोड़ दो. आप बस, इतना सोचिए कि आप की बेटी कितनी खुश है.’’

सुबह 9 बजे की फ्लाइट थी. सारे टूरिस्ट समय पर पहुंच चुके थे. पूरे ग्रुप में 60 लोग थे और सभी जवान और मध्यम आयु वर्ग वाले थे. केवल वे दोनों ही बूढे़ थे. चेन्नई एअरपोर्ट पर वे दोनों धीरेधीरे चल कर सिक्योरिटी चेक करवा कर लाज में आ कर बैठ गए थे. वहां बैठ कर आधा घंटा आराम किया और फिर धीरेधीरे चलते हुए वे हवाई जहाज में भी बैठ गए थे. दोनों के चेहरे पर एक विशेष खुशी थी और मीरा के चेहरे पर उन की खुशी से भी दोगुनी खुशी थी. आज उस का सपना पूरा होने जा रहा था.

3 घंटे की हवाई यात्रा के बाद वे सिंगापुर पहुंच गए थे. जहाज से उतर कर वे सीधे बस में बैठ गए जो उन्हें सीधे होटल तक ले गई. विशेष निवेदन पर उन्हें नीचे ही कमरे मिल गए थे.

यहां तक पहुंचने में किसी को भी कोई परेशानी नहीं हुई थी. होटल के कमरे में पहुंच कर मीरा बोली, ‘‘हां, तो मम्मी बताना, अभी आप कहां बैठी हैं?’’

‘‘सिंगापुर में. सच, मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा है. तू ने तो अपने पापा का सपना सच कर दिया.’’

इस पर पापा ने गर्व से बेटी की ओर देखा और मुसकरा दिए. शाम से घूमना शुरू हुआ. सब से पहले वे सिंगापुर के सब से बड़े मौल में पहुंचे. वहां बुजुर्गों और विकलांगों के लिए व्हीलचेयर का इंतजाम था. एक व्हील चेयर पर मम्मी और दूसरी पर पापा को बिठा कर मीरा और संजू ने सारा मौल घुमा दिया. फिर उन्हें एक कौफी रेस्तरां में बिठा कर मीरा ने अपने पति व बेटे के साथ जा कर थोड़ी शापिंग भी कर ली. रात में नाइट क्लब घूमने का प्रोग्राम था. वहां जाने से दोनों बुजुर्गों ने मना कर दिया अत: उन्हें होटल में छोड़ कर उन तीनों ने नाइट क्लब देखने का भी आनंद उठाया.

दूसरे दिन वे सैंटोजा अंडर वाटर वर्ल्ड और बर्डपार्क घूमने गए. शाम को ‘लिटिल इंडिया’ मार्केट का भी वे चक्कर लगा आए. तीसरे दिन सुबह वे सिंगापुर से बैंकाक के लिए रवाना हुए. बैंकाक में भी बड़ेबड़े शापिंग मौल हैं पर ‘गोल्डन बुद्धा’ की मूर्ति वहां का मुख्य आकर्षण है.

5 टन सोने की बनी बुद्ध की मूर्ति के दर्शन मम्मीपापा ने व्हीलचेयर पर बैठ कर ही किए. उस मूर्ति को देख कर सभी आश्चर्यचकित थे. वहां से उन का ग्रुप ‘पटाया’ गया. पटाया का बीच प्रसिद्ध है. यहां तक पहुंचने में भी दोनों बुजुर्गों को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई. वहां रेत में बैठ कर वे दूसरों द्वारा खेले गए ‘वाटर गेम्स’ का लुत्फ उठाते रहे. बीच के आसपास ही बहुत से मसाज पार्लर हैं. वहां का ‘फुट मसाज’ बहुत प्रसिद्ध है. पापा ने तो वहां के फुट मसाज का भी आनंद उठाया.

रात को वहां एक ‘डांस शो’ था जहां लोकनृत्यों का आयोजन था. डेढ़ घंटे का यह शो भी सब को आनंदित कर गया. 2 दिन बैंकाक में बीते फिर वहां से कुआलालम्पुर पहुंचे. वहां पैटरौना टावर्स, जेनटिंग आइलैंड घूमे. दोनों ‘केबल कार’ में तो नहीं चढ़े, पर साधारण कार में चक्कर अवश्य लगाए. वहां के स्नोवर्ल्ड वाटर गेम्स और थीम पार्क में भी वे नहीं गए. उस दिन उन्होंने होटल में ही आराम किया.

देखते ही देखते 6 दिन बीत गए. 7वें दिन फिर से चेन्नई के एअरपोर्ट पर उतरे और घर की ओर रवाना हुए. उस के बाद मम्मीपापा का पसंदीदा वाक्य एक ही था, ‘‘मीरा और राम तो हमारे श्रवण कुमार हैं जिन्होंने हमें विदेश की सैर व्हीलचेयर पर करवा दी.’’

Hindi Story : कितना झूठा सच

Hindi Story : ‘बेचारी, जीवन भर दुख ही उठाती रही. अब ऊपर से वैधव्य…’

दुख और संवेदना प्रकट करती सब महिलाएं उठ कर चली गईं. रेवा जड़ सी बैठी रही.

‘‘आप चल कर जरा लेटिए. मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ नीना ने आ कर उसे संभाला. बेजान गुडि़या सी रेवा पलंग पर आ कर लेट गई.

कितना झूठा सत्य? जो जीवन भर सर्पदंश सा उस के एकएक क्षण को विषाक्त करता रहा वही आज समुद्र मंथन से निकले गरल घट सा सहस्र धाराओं में बंट कर उसे व्याकुल कर रहा था, पर वह तो शिव नहीं थी जो इसे पी कर भी जीवित रहती. और वह अब जीना चाहती थी. किस के लिए मरे? किन मधुर क्षणों की थाती सहेजे? सोलह शृंगार कर सामाजिक मर्यादा की चिता पर चढ़ कर सती हो जाए? जीवन भर तो जल ही चुकी थी.

इंद्रधनुषी सपनों के रंग अभी सूखने भी न पाए थे कि वीरेन ने उपेक्षा की स्याही फेंक कर उन्हें बदरंग कर दिया था. फिर भी उस ने सजानेसंवारने का कितना प्रयत्न किया था. आंखकान पर  जबरदस्ती भ्रम की मनों रुई का भार डाल कर अंधीबहरी बन जाना चाहा था, परंतु यह भी क्या सहज था?

पागल सी हो कर मरीचिका के पीछे भागती वह सपनों के रंग समेटती, उन्हें क्रम से लगाती, पर वे बारबार उसे छलावा दे जाते, खंडखंड हो कर बिखर जाते और क्षितिज उतना ही दूर दिखता जितना प्रारंभ में था. भागतेभागते वह हांफ गई थी. शाम के ढलते सूरज की तरह घिसटघिसट कर पहुंचे भी तो कुछ हाथ आने वाला नहीं था. वहां बाकी था केवल एक स्याह अंधेरा.

जीवन की संध्या पर गुल्लू की तोतली बातों, पिंकी की हंसी और नन्हे की शरारतों का सलोना सिंदूरी रंग बिखरा हुआ था. यही एक थाती बच रही थी और आज रिश्तेनाते तथा आसपड़ोस की औरतें समझाने आ धमकी थीं कि इस सिंदूरी आभा पर वह वैधव्य की राख उड़ा कर, सामाजिक नियमों का पालन कर उसे गंदला कर ले.

पिछले महीने तार आया था कि वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है. बेजान कागज का टुकड़ा लिए वह दीवान पर बैठी रह गई थी. नीना ने आ कर पढ़ा.

‘‘फोन कर के इन को बुलवा लूं क्या?’’

वह समझ नहीं पाई कि सास से और क्या कहे.

पत्थर सी बैठी रेवा जैसे नींद से जागी, ‘‘क्यों? क्या जरूरत है? उसे कुछ कामधाम नहीं है क्या?’’

कहतेकहते तार को तोड़मरोड़ कर एक कोने में फेंक दिया. रसोई में जा कर सांभर को छौंक लगाने लगी. अभी पिंकी स्कूल से आ कर चावलसांभर मांगेगी. सवेरे कह गई थी कि मेरे आने तक बना कर रखना.

‘‘नीना, सांभर पाउडर कहां रखा है?’’

सफेद टाइलों के ऊपर लगी लाल सनमाइका के पटों वाली अलमारी में वह मैटल बाक्स के मसालों वाले डब्बे इधरउधर करने लगी.

नीना ने फिर तार के विषय में कुछ नहीं कहा. बिना कहे ही एक स्त्री दूसरी स्त्री के अंतर की व्यथा जान गई थी. कहनेसुनने को कुछ नहीं रहा.

दोपहर को खाना परोसते समय रेवा रोज की तरह गुल्लू को चावल बिखराने को मना कर रही थी. नन्हे कामिक खोले खाना खा रहा था. हाथ के निवाले में चावल, रोटी कुछ है भी या नहीं, यह देखने की उसे फुरसत नहीं थी. रोज की तरह रेवा ने कामिक छीन कर मेज पर फेंका, ‘‘खाते समय पढ़ने की आदत कब छूटेगी? जब मेदा खराब हो जाएगा?’’

आग्रह कर पिंकी की प्लेट में दोबारा चावलसांभर डालने लगी थी रेवा. घर की दिनचर्या में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया था. दोपहर में दादी की बगल में सिमटते गुल्लू ने आग्रह किया था, ‘‘दादीमां, हीरामन तोते की कहानी सुनाओ न.’’

‘‘दोपहर को कहानी नहीं सुनते. रात को सुनाऊंगी. अब घड़ी भर लेटने दे.’’

शाम को जय आया तो घर का वातावरण रोज की तरह सहज था. बच्चे खेलने गए थे. नीना किसी पत्रिका के पन्ने उलट रही थी. मां रसोई में रात के खाने की तैयारी में व्यस्त थी. किसी अनहोनी के घटने का कहीं चिह्न न था.

रात के खाने के बाद ही रेवा ने बात छेड़ी, ‘‘आज कानपुर से तार आया था.’’ बासी अखबार पलटते जय के हाथ रुक गए. उस का सर्वांग जल उठा. बोला कुछ नहीं. केवल आंखों से प्रश्न छलक उठा.

‘‘वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है,’’ बिना किसी भावना के ठंडे बरफीले स्वर में रेवा कह गई.

जय चुप था. वह क्या कहे? यह ऐसे व्यक्ति की बीमारी का समाचार था जिस ने उस का व छोटे भाईबहन का बचपन निर्ममता से अभावों की अंधी गलियों में धकेल दिया था. तिरस्कृत मां का असहाय यौवन, दुनिया भर का उपहास और पिता के होते हुए भी पितृविहीन होने का शूल सा चुभता एहसास. सब कुछ उस की आंखों के आगे आ गया.

प्रारंभ में जब बात ढकीछिपी थी तब भी कोईकोई रिश्तेदार या स्कूल का साथी व्यंग्य की पैनी छुरी चुभो देता था, ‘क्यों जय, तुम्हारे पिता ने 2 बीवियां रखी हुई हैं क्या? एक घुमानेफिराने के लिए, दूसरी घर में खाना बनाने के लिए?’

और फिर घिनौने रंग में रंगी तीखी हंसी का फव्वारा. जी में तो आता कि मुंह तोड़ दे कहने वाले का, पर बात सच थी. गुस्सा पी जाना पड़ता. घर आ कर देखता कि मां हर वक्त मूक दीपशिखा सी जलती रहती हैं. पिता घर आने की औपचारिकता सी निभाते थे. स्कूल की फीस, कपडे़, किताबों और पढ़ाई का हालचाल पूछते थे. फीस के लिए चेक काट कर अलमारी में रख देते थे.

पितृत्व यहीं तक सिमट कर रह गया था. घर के खर्चे के लिए मां को महीने का बंधा रुपया देते थे. बस, सब उत्तरदायित्व पूरे हो गए. ये रुपए, चेक जय को अपमान का प्याला लगते

जिसे फिलहाल उतारने के सिवा कोई रास्ता नहीं था. छोटा था तो क्या, सब समझता था.

फिर कैसे उन का व्यवहार एकदम बदल गया. मां को शायद लगा कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है. पुरानी कड़वाहट भूल कर फिर बौराई गौरैया सी तिनके समेटने लगी थीं, परंतु यह केवल एक छलावा निकला. प्यार के बोलों से युगों से पुरुष स्त्री को भरमाता आया है. भारतीय स्त्री जानबूझ कर इस गर्त में जा गिरती है. मां कहां का अपवाद थीं. जायदाद के कागज कह कर, मां से दूसरे विवाह के लिए स्वीकृति के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए. बिना पढे़ मां ने हस्ताक्षर कर दिए थे. अंधे विश्वास की दोधारी तलवार तले कट मरीं. अब तो खर्चा, रुपयापैसा भी नहीं मांग सकती थीं.

फिर वह चले गए नए घर में आधुनिका नई पत्नी के साथ, जो उन के साथ पार्टियों में आजा सकती थी. जाते समय दया कर गए कि मकान मां के नाम करवा गए. साल भर का किराया पेशगी भर गए. बाद में दोनों मामा आए. हाथ पटकपटक कर मां पर झुंझलाते रहे, ‘तुम इतनी भोली कैसे बन गईं कि बिना पढे़ हस्ताक्षर कर दिए?’

मां का रोष अपनी मौत स्वयं मर गया था. वहां अंकुरित हो रहा था एक निराला स्वाभिमान.

‘अब जाने भी दो, भैया.’

‘जाने कैसे दूं? हाईकोर्ट तक छीछालेदर करवा देंगे बच्चू की. याद करेंगे.’

‘नहीं. अब यह बात यहीं खत्म करो. कुछ लाभ नहीं,’ मां का स्वर सर्द था.

‘पर बच्चों का खर्चा तो उसे देना ही पडे़गा. उस का परिवार है.’

‘भैया…’ मां चीख पड़ी थीं, ‘बच्चे केवल मेरे हैं अब. किसी की दानदया की भीख पर नहीं पलेंगे. कहीं ऐसा न हो कि दूसरों के सहारे जीना सीख जाएं.’

‘पर रेवा…’ मामा ने समझाना चाहा.

‘जो मेरा था ही नहीं उस के लिए अब कैसी छीनाझपटी?’

मामा के सामने तो मां स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति बनी रही थीं पर जय जानता था कि कितनी रातों को वह नदी के कच्चे कगार सी टुकड़ाटुकड़ा ढहती रही हैं. कन्या पाठशाला की नौकरी के बाद शाम को ट्यूशन. शनिवार तथा रविवार को मां आसपड़ोस का सिलाई का काम ले आती थीं. फिर एक स्वेटर बुनने की मशीन भी रख ली. परित्यक्ता स्त्री और तिरस्कृत होने न मायके गईं न ससुराल. तिलतिल कर जलती हुई बच्चों को अपने कमजोर डैनों में समेटे रही थीं. जय साक्षी रहा है इस पूरी अग्निपरीक्षा का. सीता तो धरती की गोद में समा कर त्राण पा गई थीं पर मां जीवन भर उस अग्नि में तपती कुंदन होती रहीं. मशीन पर झुकी मां को देख कर जय का शैशव इस दलदल से उन्हें बाहर खींचने को कसमें खाता था. इसी इच्छाशक्ति के कारण वह हर कक्षा में अव्वल आता था. महेश को भी वह पढ़ाता था. शोभा की कापियां खोल कर स्वयं जांचने बैठ जाता था.

मां व बच्चों में एक मूक सा समझौता हो गया था जिस की शर्तें सभी एकएक कर पूरी कर रहे थे. इंटरमीडिएट की परीक्षा में जय ने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. अखबारों में उस के फोटो छपे, टेलीविजन पर उस का साक्षात्कार हुआ.

उस दिन विद्यालय के बाहर नीली फिएट से पिता उतरे. साथ में ‘वह’ भी थीं हाथों में बड़ा सा उपहार का डब्बा लिए.

‘मुझे तुम पर गर्व है, बेटे.’ भारतीय पिता एक योग्य बेटे का बाप होने की सार्वजनिक घोषणा करने का अवसर हाथ से कैसे जाने देता? जय निर्विकार सा उन्हें देखता रहा, जैसे वह कोई अजनबी हों.

इतने वर्षों में अजनबी तो बन ही गए थे. उपहार वाला हाथ हवा में ही लटका रह गया. जय आगे बढ़ गया. चेहरे पर संतुष्टि की मुसकान थी. आज मां के अपमान का दुख कुछ कम हुआ.

शाम को वह घर भी आ धमके. सब के लिए कपडे़, मिठाई, फलों के टोकरे, क्या कुछ नहीं लाए थे. मशीन पर बैठी मैली धोती पहने मां सकुचा सी गईं. जय ने उन्हें आंखों से आश्वासन दिया. बेटा जब बाप के बराबर कद का हो जाए तो मां को कितना आसरा हो जाता है.

‘कैसे आए?’ जय आज घर में मर्द था. बिना बुलाए इस मेहमान की शक्ल देखना भी उसे सहन नहीं हो रहा था. पराए घर में शानदार सूट पहने, अधेड़ अफसर पिता कितना बौना हो उठा था.

‘तुम्हें बधाई देने.’

‘मिल गई.’

‘अब आगे क्या करने का विचार है?’

जय झल्ला उठा, ‘अभी सोचा नहीं है कुछ.’

‘आई.आई.टी. में कोशिश करो.’

‘देखूंगा.’

शोभा उन्हें पहचानती थी. नमस्ते कर अंदर चली गई. साधारण मेहमान समझ कर हमेशा की तरह चाय बना कर ले आई. साथ में मठरी भी थी. जय ने जलती आंखों से उसे घूरा तो सकपका गई. कहां गलती हो गई.

बिना किसी के कहे ही उन्होंने चाय उठा ली. साथ में मठरी कुतरने लगे, ‘तुम ने बनाई है?’

‘बेटी’ कहतेकहते शायद झिझक गए. तभी लट्टू घुमाता महेश आ पहुंचा. उस से स्कूल और पढ़ाई के विषय में पूछने लगे, ‘तुम मेरे पास रहोगे, बेटा?’ चाय पीतेपीते पूछ बैठे.

‘कोई कहीं नहीं जाएगा. सब यहीं रहेंगे जहां आप उन्हें छोड़ गए थे.’

मां का स्वाभिमान दपदप कर जल रहा था. वह घबरा कर उठ खडे़ हुए. कैसे बूढे़ से लगने लगे. चुपचाप आ कर कार में बैठ गए. ड्राइवर ने कार स्टार्ट की. उन का सारा सामान जय ने खुली खिड़की से कार में रख दिया. फिर हाथ झाड़ने लगा. जैसे कूड़ा- करकट झाड़ रहा हो.

‘अब फिर कष्ट न कीजिएगा.’

यहीं सारे संबंध समाप्त कर जय ने हाथ झाड़ लिए. फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा.

बी.ए. पास करने के बाद उस ने बैंक से ऋण ले कर स्वतंत्र व्यवसाय शुरू किया और अब शहर के सफल व्यापारियों में गिना जाता था. कोठी, कार क्या कमी थी अब. शोभा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में आ गई थी. महेश पत्रकारिता में जाने का विचार रखता है. अखबारों व पत्रिकाओं में उस के लेख छपने लगे थे.

और मां? घर में 2 नौकरानियां रखी हुई थीं. कभी उन्हें आदेश देतीं, काम करवातीं, कभी स्वयं गेहूं चुनने बैठ जाती थीं.

शोभा की शादी में नानी ने कितना कहा था, ‘अरे पिता को तो बुलवा लो.’ जय भन्ना उठा था, ‘इतने वर्षों तक उन के बिना काम चलाते आए हैं, आज भी चला लेंगे.’

‘पर कन्यादान कौन करेगा?’

‘मां जो हैं.’

बात यहीं समाप्त हो गई थी.

फिर जय की शादी भी हो गई. पिछली बातें याद कर लोग हंसते, पर धनी व्यवसायी को लड़कियों की क्या कमी थी?

पहली ही रात जय ने नीना को पूरी कहानी सुना दी. साथ ही चेतावनी भी दे दी, ‘कभी इस घर में अलगाव की बात मत करना, हमें मां के दुखों को कम करना है बढ़ाना नहीं.’

गुल्लू, पिंकी और नन्हे के साथ हसंखेल कर मां के पुराने दिनों के घाव भर रहे थे. वीरेन की बदली होती रही थी. आजकल कानपुर में थे. सेवानिवृत्त हो कर वहीं रहने लगे थे.

आज वर्षों के अनछुए विषय की किरणें बिखेरता यह तार आ पहुंचा था, ‘‘दिल का दौरा पड़ा है वीरेन को. हालत गंभीर है.’’

मां बेटे ने एकदूसरे को देखा. जीवन भर दुखों की डोर में बंधे रहे थे. शब्द बेमानी हो उठे. फिर किसी ने न जाने की बात की, न हालचाल पता करने की इच्छा प्रकट की.

रेवा अब विगत की परतों को कुरेदती भी तो सिवा तिरस्कार के कोई स्मृति हाथ न लगती.

आज एक महीने बाद दूसरा तार आ गया. वीरेन की मृत्यु हो गई थी. उसी का समाचार पा कर औरतें रोनेपीटने, सांत्वना देने आई थीं पर नीना ने उन्हें बाहर खदेड़ कर दरवाजा बंद कर दिया.

अब एक बार कानपुर जाना जरूरी हो गया था. बच्चों को शोभा के पास छोड़ कर सभी कार से निकल गए.

वहां कुहराम मचा हुआ था. रेवा शांत थी. जय, नीना व महेश गंभीर थे. वीरेन की दूसरी पत्नी का चीत्कार गूंज रहा था, ‘‘मुझे किस के सहारे छोड़ गए?’’

रोतीबिलखती स्त्री, अस्तव्यस्त कपडे़. यही प्रौढ़ा क्या उन के अभावग्रस्त पितृविहीन शैशव का कारण थी?

उस दिन स्कूल के बाहर भी तो देखा था. आज जैसे सोने का सारा झूठा पानी उतरा हुआ था. बाकी रह गई थी वैधव्य की कालिख और ढलती आयु के अकेलेपन का कुहरा.

‘‘चलिए, बेटा तो आ गया मुखाग्नि देने को,’’ दरअसल, किसी ने जय को देख कर कहा था.

दूसरी शादी से वीरेन को कोई संतान नहीं हुई थी.

‘‘हम केवल अफसोस जाहिर करने आए थे, अब वापस जाएंगे,’’ कह कर जय उठ खड़ा हुआ. रेवा, नीना और महेश भी बाहर आ गए. औपचारिकता पूरी हो चुकी थी.

भरी सभा में जैसे किसी ने बम फेंक दिया. सब सकते में आ गए.

‘‘कलियुग है… घोर कलियुग. धरती रसातल को जाएगी. बेटा, बेटा होने से मुकर गया,’’ बड़ीबूढि़यां जय की मलामत कर रही थीं.

‘‘और मां को तो देखो. नीली साड़ी, चूडि़यां, बिछुए. कौन कहेगा कि यह विधवा है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

‘‘खबरदार, जो मेरी मां को विधवा कहा. इतने वर्षों तक वह किसी की पत्नी नहीं थी. वह आज भी विधवा नहीं है, वह मां है, केवल हमारी मां.’’

खुले आंगन में जैसे कांसे का थाल गिरा और छनाका देर तक गूंजता रहा.

लेखक- आदर्श मलगूरिया

Hindi Story : खून के छींटे – आखिर देवानंद को सामने देखकर मालिनी क्यों सन्न रह गई

Hindi Story : देवानंद को एकदम सामने देख कर मालिनी सन्न रह गई. देवानंद ने उसे देख कर मुसकराते हुए अपनी बाइक रोक दी थी. मालिनी तुरंत मुड़ कर दूसरी ओर बढ़ी, मगर वह तुरंत बाइक को मोड़ उस की राह के आगे खड़ा हो गया था. अभी वह कुछ सोचती या फैसला लेती कि एक दूसरी बाइक वहां आ खड़ी हुई.

मालिनी एकदम हक्कीबक्की रह गई थी कि उस ने उस की घेरेबंदी का यह नया पैंतरा शुरू किया है. यह जरूर उस का अपहरण करेगा. पहले ही देवानंद का नाम कई अपहरण कांड से जुड़ा है. उस के लिए यह कौन सी मुश्किल बात होगी. अचानक ही उस दूसरी बाइक से एक नौजवान उतरा और उस के बिलकुल नजदीक जा कर पिस्तौल निकाल कर गोलियां चला दीं.

तेज आवाज हुई और वह अब बाइक से छिटक कर सड़क पर छटपटा रहा था.

सुबह 10 बजे का समय था और बाजार में कोई भीड़ नहीं थी. सड़क पर कुछ ही गाडि़यां दौड़ रही थीं. लेकिन यहां पलक झपकते ही यह सबकुछ हो गया था. मालिनी का रास्ता रोकने वाले सड़क पर गिरे देवानंद की पीठ में 2 और गरदन पर एक गोली लगी थी. वहां से खून निकलना शुरू हो चुका था. अचानक उस के मुंह से खून का थक्का निकला और परनाले सा बह चला.

वे दोनों नौजवान बाइक सहित भाग चुके थे. वह उसे सड़क पर छटपटाते देख रही थी, जिस से डर कर वह भागना चाहती थी, अभी वही उसे कातर शिकायती निगाहों से देख रहा था, जैसे वे उसी के आदमी हों, जिन्होंने यह करतूत की थी. समय और हालात कितनी जल्दी बदल जाते हैं.

अब वह बिलकुल शांत था. बाजार की भीड़ देवानंद की ओर बढ़ते हुए घेरा बना कर खड़ी हो चुकी थी. सड़क पर अब गाडि़यां तेजी से भागने लगी थीं, ताकि वे किसी बंद वगैरह के चक्कर में न फंसें.

पुलिस घटना वाली जगह पर आ चुकी थी और अब एंबुलैंस की आवाज सुनाई दे रही थी. दूसरे लोगों की तरह वह भी वहां से वापस अपने घर की ओर लौट चली थी, ताकि किसी लफड़े में न पड़े.

‘‘क्या हुआ रे,’’ मालिनी की मां ने उसे देख कर हैरानगी जाहिर की, ‘‘बड़ी जल्दी आ गई. दुकान नहीं गई क्या?’’

‘‘नहीं मां, मैं नहीं गई,’’ मालिनी ने गुसलखाने में घुसते हुए छोटा सा जवाब दिया, ‘‘रास्ते में तबीयत ठीक नहीं लगी, तो वापस लौट आई.’’

मालिनी की आंखों के सामने दोबारा देवानंद का चेहरा आ गया था, जिस के नाकमुंह से खून की धार बह निकली थी.

मालिनी नाली के पास बैठ उलटी करने लगी थी. उस ने जल्दी से अपने कपड़ों को रगड़रगड़ कर धोना शुरू किया, जैसे उस पर खून के छींटे पड़े हों. अब वह अपने शरीर को मलमल कर नहा रही थी.

‘‘इतनी हड़बड़ाई क्यों है?’’ मालिनी की मां उसे शक की निगाहों से देखते हुए बोली, ‘‘दुकान से फोन आया था कि तुम अभी तक आई नहीं हो. मैं ने उन्हें बता दिया है कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए गई नहीं.

‘‘और हां, अभी पता चला है कि देवानंद को किसी ने गोली मार दी,’’ मां फिर बोली, ‘‘आजकल किसी का कोई ठिकाना नहीं. भला आदमी था बेचारा.’’

‘‘तो मैं क्या करूं,’’ मालिनी सहज होते हुए बोली, ‘‘तुम मुझे एक कप चाय बना दो. मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा. चक्कर सा आ रहा है.’’

मालिनी तख्त पर लेट गई. ‘बेचारा, भला आदमी’ उस ने बुरा सा मुंह बनाया, क्योंकि वह जानती है कि वह कितना भला और बेचारा था.

शहर के चुनिंदा बदमाशों में देवानंद की गिनती होती थी. न जाने कितने रंगदारी, चोरीडकैती से ले कर अपहरण तक में उस का नाम था. चुनाव के समय बूथ पर कब्जा तक का धंधा करता था वह. कई बार वह जेल भी जा चुका था. एक स्थानीय दबंग नेता के दम पर वह कारगुजारी कर बच निकलता था, इसलिए पुलिस भी सोचसमझ कर ही उस पर हाथ डालती थी. अकसर ही वह उस के साथ घूमता रहता था, इसलिए लोग उस से डरते थे और मां कहती है कि वह भला आदमी था.

आखिर क्यों नहीं बोलेगी कि वह भला आदमी था. कितनी ही बार वह उन के आड़े वक्त में काम आ चुका है. शहर के प्रमुख ‘साड़ी शौप’ में उसी ने उसकी नौकरी भी लगवाई थी. मगर उस  की कीमत उस ने चुकाई है, यह वही जानती है.

एक दिन मां कहीं बाहर गई थी. बापू भी रिकशा ले कर निकल गया था और भाई महेश स्कूल जा चुका था. देवानंद उस के घर में घुसा और उसे अकेली जान उस पर झपट पड़ा था और उस के रोनेछटपटाने का उस पर कोई असर नहीं पड़ा था.

मालिनी की आंखों के सामने देवानंद का छटपटाता चेहरा आ गया था. इसी तरह तो वह फर्श पर छटपटा रही थी और वह हवसी अपना काम कर गया था. वह उसी तरह लहूलुहान हो छटपटा रही थी और वह हंसता हुआ बाहर निकल गया था.

इस के बाद तो वह मौका देख कर घर में जब कभी घुस जाता और उस से अपनी हवस का शिकार बनाता था. शाम को फिर घर पर आता और मां को कुछ जरूरत की चीजें पकड़ा कर कहता, ‘‘किसी चीज की जरूरत हो, तो बेझिझक कहना और किसी से डरने की जरूरत नहीं. मैं हूं न.’’

मां की सराहना और दुआओं के बीच मालिनी कुछ कह नहीं पाती थी और इस बीच उसे बच्चा ठहर गया था. उस ने उसे कुछ दवाएं ला कर दी थीं. उन दवाओं के खाने के बाद उसे इतना खून बहा कि उस का चलनाफिरना मुश्किल हो गया था. उन दिनों वह उसी तरह छटपटाती थी, जिस तरह आज वह सड़क पर गिर कर छटपटा रहा था. फिर भी उस के मन में शक था कि जिन खून के छींटों के बीच वह छटपटा रहा था, उसे महसूस कर उसे खुश होना चाहिए या नहीं?

Hindi Story : एक विश्वास था

Hindi Story : मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर.

मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें