जीवन जीना अपनेआप में एक कला है. जिसे यह कलाकारी नहीं आती वह बेचारा कुछ इस तरह से जीता है कि उसे देख कर कोई भी कह सकता है, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू.’ सफलतापूर्वक जीवन जीने वाले नंबर एक के कलाकार होते हैं. उन के सामने हर बड़े से बड़ा कलाकार पानी भरता नजर आता है. चमचागीरी या खुशामद करना शाश्वत कला है और जिस ने इस कला में स्वर्ण पदक प्राप्त कर लिया या फिर जिसे ‘पासिंग मार्क’ भी मिल गया, तो उस की जिंदगी आराम से गुजर जाती है.

खुशामद इस वक्त राष्ट्र की मुख्य धारा में है. इस धारा में बहने वाले के हिस्से की सुखसुविधाएं खुदबखुद दौड़ी चली आती हैं. हमारे मित्र छदामीजी कहां से कहां पहुंच गए. साइकिल पर चलते थे, आज कार में चलते हैं. यह खुशामद का ही चमत्कार है. खुशामद की कला के विशेषज्ञ हर कहीं पाए जाते हैं. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक खुशामद करने वालों की भरमार है.

दरअसल, जीवन की हर सांस खुशामद की कर्जदार है. खुशामद और चमचागीरी में बड़ा बारीक सा अंतर है. चमचागीरी बदनामशुदा शब्द है, खुशामद अभी उतना बदनाम नहीं हुआ है, इसलिए लोग चमचागीरी तो करते हैं, लेकिन सफाई देते हैं कि भई थोड़ी सी खुशामद कर दी तो क्या बिगड़ गया. खुशामद कामधेनु गाय है, जिस की पूंछ पकड़ क र जाने कितने गधे घोड़े बन कर दौड़ रहे हैं. पद, पैसा या सुख आदि पाने की ललक में लोग खुशामद जैसे सात्विक हथियार का सहारा लेते हैं.

खुशामद एक तरह का अहिंसक हथियार है. सोचता हूं कि खुशामद की कला का इस्तेमाल कर के अगर कोई कुछ प्राप्त कर ले तो क्या बुराई है? यह तो जीवन जीने की कला है. इस के बिना आप जहां हैं, वहीं पड़े रह जाएंगे. जो लोग सड़ना नहीं चाहते हैं, वे कुछ करने के लिए खुशामद का सहारा ले कर आगे बढ़ते हैं.

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