न्याय-अन्याय : भाग 2 – निम्मी ने जब लांघी दरवाजे की दहलीज

लेखक – आरती लोहानी 

निम्मी अब बेफिक्र थी कि उसे मदद मिल जाएगी और वह धनी सेठ की रपट लिखा सकेगी.

शाम को देवेंद्र उस के पास आया, तो निम्मी ने सारी बात बताई और मदद मांगी.

‘‘तुम बिलकुल मत घबराओ. मैं तुम्हारी हर संभव मदद करूंगा,‘‘ पुलिस वाले ने कहा.

चाय पी कर जब देवेंद्र वहां से जाने लगा, तो अचानक बहुत तेज आंधी और बारिश होने लगी. आसमान से बिजली ऐसे कड़क रही थी, मानो सबकुछ खत्म कर के ही मानेगी. अब तो देवेंद्र को वहीं रुकना पड़ा.

छत पर सूख रहे कपड़े उतारने लिए निम्मी भागी, तो उस की साड़ी ही उड़ने लगी. देवेंद्र ने उस से कहा, ‘‘मैं ले आता हूं कपडे़. आप रहने दीजिए.‘‘

बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी. इधर देवेंद्र अपने पर काबू नहीं  कर पाया और जो उस की शिकायत सुनने आया था, उसी निम्मी को दबोच बैठा, जैसे शिकारी को कोई खास शिकार हाथ लगा हो.

लगभग आधे घंटे तक तेज की बारिश होती रही और पुलिस वाला एक लाचार को अपनी जिस्म की भूख मिटाने को मसलता रहा. उस के जाने के बाद निम्मी बदहवास सी इधरउधर घूम रही थी, पर घर की दीवारें भला उसे क्या सांत्वना देती.

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वह सोच रही थी कि क्या महिला का जिस्म इतना जरूरी है कि हर कोई अपना ईमान तक गिरवी रख दे. निम्मी मर जाना चाहती थी, पर जहर भी कहां से लाए इस तालाबंदी में. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.

निम्मी ने अमर को फोन करना चाहा. जैसे ही उस ने मोबाइल हाथ में लिया, तो खुद से ही सवाल करने लगी, ‘क्या कहेगी निम्मी उस से… वह परदेश में क्या करेगा, कैसे मदद को आएगा?‘

उस के बाद निम्मी ने फोन रख दिया. उसे सहसा याद आया कि बीती सुबह एक ट्रेन यहां से गुजरी थी और उस ने सुना था कि श्रमिक ट्रेन इन दिनों चल रही है. उसे अब यही एक रास्ता दिखा. किसी तरह वह रात काट लेती है और तड़के उठ कर घर से चल देती है पास में ही पटरियों की ओर.

पौ फटने का समय था और निम्मी बदहवास सी जा रही थी. सामने से आता पुजारी उसे देख लेता है और उस का पीछा करता है.

पुजारी पीपल के पेड़ को जल दे कर आ रहा था. तभी वह देखता है कि निम्मी पटरी पर लेट गई और ट्रेन की आवाज उसे सुनाई दी.

पुजारी भाग कर उसे पटरी से खींच लेता है और समझाबुझा कर घर ले आता है.

‘‘ये क्या कर रही थीं तुम… क्या करोगी इस तरह मर कर. इतनी खूबसूरत हो तुम और मुझ जैसे यौवन के पुजारी पूरी उम्र तुम्हारी पूजा करने को तैयार हैं,‘‘ पुजारी उस से कहता है.

‘‘तो और क्या करूं इस जिस्म का… कैसे इसे संभालू,‘‘ कह कर निम्मी रोने लगती है.

‘‘जरूरत ही क्या है इसे सहेज कर रखने की… ऐसा सुंदर रूप तो आज तक नहीं देखा मैं ने,‘‘ मौका पा कर पुजारी उसे सांत्वना देने के बहाने से अपने समीप ले आता है. धीरेधीरे वह उस के नशे में डूब जाता है और उसे यह भी भान नहीं रहता कि वह उस की मदद को आया था.

इसी तरह एक पुजारी भी किसी न किसी वजह से वहां आनेजाने लगा. अब तो लगभग हर रोज कोई न कोई वहां आता ही था कि तालाबंदी खत्म होने का आदेश भी जारी हो गया.

अब अमर के आने की भी उम्मीद होने लगी. इधर निम्मी अमर की राह देख रही थी, उधर निम्मी के दीवाने दुखी हो रहे थे.

निम्मी की मजबूरी का खूब फायदा उठा चुके ये लोग अभी तृप्त नहीं हुए थे. अनूप तो सोचने लगा कि अमर घर आता ही नहीं तो अच्छा था, क्योंकि उसे निम्मी के शरीर की मादक खुशबू से अभी तक मन नहीं भरा था. उस के साथ बिताया हर पल उसे याद आ रहा था.

अनूप को निम्मी की मिन्नतें, रोना और याचना करना भी याद था. उस शाम जब निम्मी चीनी लेने घर से बाहर निकली, तो वह जबरन उस के साथ अंदर आ गया. निम्मी ने उस से घर से बाहर जाने को कहा, तो उस ने मना कर दिया.

निम्मी मदद के लिए चिल्लाने लगी, तो उस ने उस का मुंह बंद कर दरवाजे की अंदर से कुंडा लगा दी. निम्मी रोती रही, पर उस की मदद को भला कौन आता. पुलिस पर भरोसा भी कैसे करे. अनूप उसे अपनी हवस की आग में जला रहा था और वह रोए जा रही थी, तभी वहां से कश्यप मास्टर गुजर रहे थे, तो उन्होंने उस की चीख सुनी तो फौरन घर की ओर मुड़े.

‘‘क्या हुआ बेटी? क्यों चीख रही हो तुम? दरवाजा खोलो बेटी.‘‘

बेटी शब्द सुनते ही निम्मी को न जाने कैसी शक्ति आ गई और उस ने अनूप के बालों को खींच कर उस के अंग पर वार कर दिया.

अनूप दर्द से चीखने लगा और मौका पा कर निम्मी ने दरवाजा खोल दिया. सामने मास्टर कश्यप खड़े थे. उन्होंने अपना अंगोछा निम्मी को ओढ़ा दिया. इस बीच अनूप भाग गया.

‘‘रो मत बेटी,‘‘ मास्टर साहब उसे सांत्वना दे रहे थे. निम्मी रोतेरोते कब मास्टर साहब की गोद में ही सो गई. मास्टर साहब ने अपनी बेटी को बुला कर निम्मी की देखभाल करने को कहा और चले गए.

अगले दिन अमर को घर आया देख वह बहुत खुश थी. अमर ने देखा कि गेहूं गोदाम में भरे हुए हैं, तो उस ने पूछा, ‘‘निम्मी, ये गेहूं किस ने काटे?‘‘

निम्मी ने उत्तर देते हुए कहा ,‘‘पुजारी और धनी सेठ ने.‘‘

अमर समझ रहा था कि निम्मी कुछ अनमनी सी है और कुछ कहने की कोशिश कर रही है, पर कुछ कह नहीं पा रही.

कुछ ही दिन बीते थे कि अमर की तबीयत खराब हो गई. उसे लोगों की मदद से अस्पताल ले जाया गया, जहां उस के टेस्ट चल रहे थे… इधर निम्मी भी एक रोज चक्कर खा कर गिर पड़ी.

पड़ोस की मिसेस सुधा उसे अस्पताल ले गई, जहां डाक्टर ने तुरंत उसे दवा दे कर कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है… कुछ कमजोरी है… उधर, अमर के टेस्ट की रिपोर्ट आ चुकी थी. उसे डाक्टर ने एचआईवी पौजिटिव की तसदीक की, तो उस के तो जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया. उस ने कभी गलत रिश्ता तो किसी से बनाया भी न था.

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अमर सोचसोच कर परेशान था. वह जैसेतैसे घर आया, तो निम्मी की तबीयत और खराब हो रही थी. उस की शुगर भी बढ़ रही थी.

अमर ने उसे तुरंत दवा दी, तो थोड़ा आराम हुआ. इस तरह दिन बीत रहे थे. अमर निम्मी को कैसे बताए, यह सोच रहा था, उधर निम्मी परेशान थी कि अमर को कैसे बताए कि कैसे उस के जिस्म के टुकड़ेटुकड़े हुए.

अमर ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘निम्मी, तुम मुझ पर भरोसा करती हो न?‘‘

‘‘यह पूछने की जरूरत है अमर?‘‘

‘‘तो सुनो… मेरी रिपोर्ट एचआईवी पौजिटिव आई है,‘‘ अमर ने एक ही सांस में कह दिया, ‘‘पर, यकीन मानो कि मेरा किसी से कोई संबंध नहीं है. मुझे याद आ रहा है, जब पिछली बार मैं शहर काम से गया था, तो एक सैलून में मैं ने अपनी दाढ़ी बनवाई थी, क्योंकि मुझे मीटिंग को देर हो रही थी, इसलिए मैं ने ही नाई को जल्दी शेव करने को कहा… शायद, उस ने ब्लेड को बदला नहीं था.‘‘ गहरी सांस लेते हुए अमर ने कहा.

यह सुन कर निम्मी चुप थी. बस वह आंखों से आंसू बहाए जा रही थी. कुछ देर बाद सहसा उस के चेहरे पर एक जीत की जैसी मुसकान दौड़ गई.

अमर अपनी बीमारी के कारण ही अधमरा हुआ जा रहा था और निम्मी मुसकरा रही थी. वह बोली, ‘‘अभी चलो, मुझे भी यह टेस्ट कराना है.‘‘

‘‘कल तुम्हें भी बुलाया है डाक्टर ने,’’ अमर ने कहा.

पूरी रात दोनों के लिए काटनी मुश्किल हो रही थी. निम्मी ने भी अमर को सबकुछ सच बता दिया था. दोनों बस रोए जा रहे थे.

अगले दिन निम्मी का भी टेस्ट किया गया, तो वह भी एचआईवी पौजिटिव निकली. दुखी होने के बजाय निम्मी खुश थी. पर दोनों के लिए जीना आसान न था. दोनों अपनी मजबूरियों पर रो रहे थे. जैसेतैसे संभलते हुए दोनों घर आए और एकदूजे को दिलासा दे ही रहे थे कि अनूप, देवेंद्र, धनी सेठ, पुजारी सब निम्मी के घर आए और अमर की तबीयत पूछने लगे.

इन सब को निम्मी ने ही फोन कर के बुलाया था. पहले तो अमर को बहुत गुस्सा आ रहा था, पर जैसेतैसे संभल कर उस ने सब को निम्मी का साथ देने के लिए धन्यवाद दिया और निम्मी से चाय बनाने को कहा.

‘‘आप लोगों का मैं जितना भी धन्यवाद करूं कम ही होगा,‘‘ अमर ने कहा, तो धनी सेठ ने कहा, ‘‘इस में धन्यवाद कैसा अमर साहब… हम अगर एकदूसरे के काम नहीं आएंगे, तो और कौन आएगा?‘‘

‘‘जी, कह तो आप बिलकुल सही रहे हैं… पर आप तो हमारे दुखसुख के सचमुच भागीदार हैं. इतना ही नहीं, हमारी बीमारी के भी…‘‘ एक कुटिल हंसी के साथ अमर ने कहा.

‘‘हम कुछ समझे नहीं अमर… बीमारी के भागीदार कैसे?’’ सभी ने चौंकते हुए पूछा.

अमर ने रहस्य खोला, तो सब के सब सकपका कर रह गए और एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

पुजारी समेत वहां मौजूद सब के चेहरे पीले पड़ गए. उधर निम्मी और अमर चैन की सांस ले रहे एकदूसरे को हिम्मत दे रहे थे और कुदरत के इस अजब न्याय और अन्याय को समझने की कोशिश कर रहे थे.

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न्याय-अन्याय : भाग 1 – निम्मी ने जब लांघी दरवाजे की दहलीज

लेखक – आरती लोहानी 

दरवाजे की कुंडी खड़कने की आवाज सुन कर निम्मी ने दरवाजा खोला, ‘‘जी कहिए…‘‘ निम्मी ने बाहर खड़े 2 लड़कों को अभिवादन करते हुए कहा.

‘‘जी, हम आप के महल्ले से ही हैं… आप को राशन की जरूरत तो नहीं… यही पूछने आए हैं,‘‘ उन में से एक व्यक्ति ने निम्मी से कहा.

‘‘जी धन्यवाद, अभी घर में पर्याप्त राशन है…‘‘ निम्मी ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है… जब भी जरूरत हो, तो इस मोबाइल नंबर पर फोन करना…‘‘ उन में से एक बड़ी मूंछों वाले लड़के ने निम्मी को एक कागज पर मोबाइल नंबर लिख कर देते हुए कहा.

लौकडाउन का तीसरा दिन था. पूरा शहर एक अंतहीन उदासी और सन्नाटे की ओर बढ़ रहा था. किसी को नहीं पता था कि कब बाजार खुलेगा, कब घर से बाहर निकल सकेंगे और कब हालात सामान्य होंगे. सब अपनेअपने घरों में कैद परिवारों के साथ समय बिता रहे थे.

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निम्मी का पति अमर किसी काम से दूसरे शहर गया हुआ था कि अचानक से ही कर्फ्यू जैसे हालात बन गए. निम्मी का विवाह हुए अभी सालभर भी नहीं हुआ था. निम्मी बहुत खूबसूरत थी और उस की सुंदरता के किस्से पूरे इलाके में हो रहे थे. कितने नौजवानों को अमर की किस्मत से रश्क था और कितने आदमी निम्मी को किसी न किसी तरह पाना चाहते थे, पर समाज का डर भी था. इस वक्त कइयों को पता था कि अमर घर पर नहीं है, इसलिए कई नएनए तरीकों से महल्ले के मर्द उस के घर के चक्कर काटने में लग गए.

उधर, अमर को इस बात का अंदाजा था कि उस की गैरमौजूदगी में निम्मी जरूर मुश्किलों से रूबरू होगी. अमर दिन में कई बार फोन करता और हालचाल पूछता था.

कहते हैं न कि जब मुश्किल घड़ी आती है तो अपने नातेरिश्तेदार मसलन दुख, चिंता, परेशानी और अवसाद आदि सब को साथ लाती है.

ये तालाबंदी भी निम्मी के जीवन में घोर अंधेरा ले कर आई थी. किसी तरह अपने रिश्तेदारों को फोन कर के वो अपना दर्द और अकेलापन दूर करने की कोशिश कर रही थी.

धीरेधीरे समय बीत रहा था और निम्मी को अमर से मिलने की उम्मीद दिखने लगी थी, तभी लौकडाउन को और आगे बढ़ा दिया गया. अब तो मुसीबत ही मुसीबत.

एक ओर राशन खत्म हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर अमर के खेत में गेहूं की खड़ी फसल. अब कौन फसल को काटे और कौन मंडी ले जाए.

हिमालय सरीखा सवाल निम्मी के सामने खड़ा था. वो किस से मदद मांगे, किस पर भरोसा करे और कैसे करे… क्योंकि निम्मी घर से बाहर कम निकलती थी. शादी कर के जब से वह यहां आई थी, उस ने किसी से कोई खास मेलजोल नहीं बढ़ाया था.

निम्मी सोच ही रही थी, तभी अमर का फोन का फोन आया, ‘‘निम्मी, मुझे तो अभी वहां आना संभव नहीं लगता… खेत का क्या हाल है… तुम गई हो क्या किसी रोज?‘‘ अमर ने चिंता जाहिर करते हुए पूछा.

‘‘बस एक दिन गई थी… फसल पक चुकी है, पर अमर, अब ये कटेगी कैसे… मजदूर भी नहीं मिल रहे हैं इस समय यहां,‘‘ निम्मी ने बताया. कुछ और इधर उधर की बात कर के निम्मी ने फोन रख दिया.

तभी उस के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘अमर… ओ अमर, बाहर निकल.‘‘

महल्ले के धनी सेठ की आवाज सुन कर निम्मी बाहर आई.

‘‘अमर को बुलाओ तो बाहर. उस से कहो कि अगर गेहूं को जल्द ही नहीं काटा तो सारी फसल खराब हो जाएगी.‘‘

‘‘जी, वे तो शहर से बाहर गए थे किसी काम से और तालाबंदी के चलते वहीं फंस गए,‘‘ निम्मी ने बताया.

हालांकि धनी सेठ अच्छी तरह से जानता था कि अमर घर पर नहीं है, फिर भी अनजान बनने की अदाकारी बखूबी कर रहा था. बोला, ‘‘ओह, लेकिन अगर फसल नहीं कटेगी तो भारी नुकसान उठाना पड़ेगा…‘‘ धनी सेठ ने हमदर्दी जताने की कोशिश की और बातचीत जारी रखी.

‘‘ठीक है, अब मैं चलता हूं… अगर कोई जरूरत हो, तो मुझे जरूर बता देना. मैं गेहूं मंडी तक पंहुचा दूंगा.‘‘

‘‘जी जरूर… वैसे, इतनी खेती तो है नहीं कि मंडी तक पंहुचाई जाए. हमारा ही गुजर होने लायक अनाज होता है,‘‘ निम्मी ने हाथ जोड़ कर कहा.

धनी सेठ कई सवाल ले कर जा रहा था कि निम्मी मुझे बुलाएगी या नहीं, क्या कभी निम्मी के साथ गुफ्तगू संभव है. वह खुद से ही बोले जा रहा था कि सामने से आते हुए पुजारी से सामना हो गया.

‘‘प्रणाम पुजारीजी… कैसे हैं आप?‘‘ धनी सेठ पुजारी से बोला.

‘‘चिरंजीवी रहो सेठ… तरक्की तुम्हारे कदम चूमे,‘‘ दोनों हाथ से आशीष देते हुए पुजारी ने कहा.

‘‘इस दुपहरी में कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे हैं?‘‘ धनी सेठ ने पुजारी से पूछा.

सकपकाते हुए पुजारी ने उत्तर दिया, ‘‘बस, एक यजमान के घर से आ रहा हूं… सोचा, थोड़ा नदी किनारे टहल ही आऊं.‘‘

‘‘अच्छाजी रामराम,‘‘ कह कर धनी सेठ आगे बढ़ गया.

इधर निम्मी ने अमर को धनी सेठ के प्रस्ताव के बारे में बताया, तो अमर ने साफ इनकार करने को कहा, क्योंकि वह उसे अच्छी तरह जानता था और इस सहयोग के पीछे की मंशा पर भी उसे संदेह था.

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निम्मी ने फोन रखा ही था कि घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया.

‘‘प्रणाम पुजारीजी,‘‘ निम्मी ने दरवाजा खोल कर सामने खड़े पुजारी का अभिवादन किया.

पुजारी ने भी धनी सेठ की तरह हमदर्दी और सहयोग का प्रस्ताव दिया. इसी तरह हेडमास्टर किशोर कश्यप ने भी सहयोग का प्रस्ताव निम्मी के सामने रखा.

निम्मी असमंजस में थी. एक ओर उस की शुगर की दवा भी खत्म हो रही थी, वहीं दूसरी ओर राशन भी खत्म होने को था.

अगले दिन मुंह पर चुन्नी लपेटे निम्मी महल्ले की दुकान तक गई. वहां से जरूरी सामान ले कर वह लौट रही थी, तभी सामने से उसी मूंछ वाले लड़के ने उसे पहचान लिया. उस का नाम अनूप शुक्ल था.

उसी ने हमदर्दी जताते हुए निम्मी से कहा, ‘‘अरे निम्मीजी, आप को किसी चीज की जरूरत थी, तो मुझ से कहतीं… आप क्यों इस धूप में बाहर निकलीं.‘‘

‘‘जी, इस में परेशानी की कोई बात नहीं… बस इस बहाने मैं टहल भी ली और सामान भी ले लिया.‘‘

इतना कह कर निम्मी तेजी से घर की ओर बढ़ गई. पर, तभी खयाल आया कि उस ने शुगर की दवा तो ली नहीं. वजह, उस की शुगर की दवा अगले दिन बिलकुल ही खत्म हो रही थी और मैडिकल स्टोर बहुत दूर था. तभी उसे अनूप के मोबाइल नंबर वाला कागज भी दिख गया, तो उस ने उसे फोन कर ही दिया.

फोन सुनते ही अनूप वहां आया. परेशानी सुन अनूप ने उसे फौरन दवा ला कर दे दी.

इसी तरह कुछ दिन बीत गए, पर गेहूं की फसल का कुछ तो करना था, वह यह सोच ही रही थी कि धनी सेठ और पुजारी कुछ मजदूरों के साथ उस के घर आ गए.

‘‘आप तो संकोच करेंगी निम्मीजी, पर हमारा भी तो कोई फर्ज बनता है कि नहीं?‘‘

‘‘मैं कुछ समझी नहीं,‘‘ निम्मी ने कहा.

‘‘इस में न समझने जैसा क्या है? बस, तुम हां कह दो, तो खेत से गेहूं ले आएं.‘‘

निम्मी कुछ समझती, इस से पहले दोनों ने मजदूरों को खेत में जाने का आदेश दे दिया. निम्मी ने औपचारिकतावश उन को चाय पीने को कह दिया. दोनों चाय पी कर चले गए.

उसी शाम धनी सेठ फिर निम्मी के घर आ धमका और बोला, ‘‘तुम ठीक तो हो न निम्मी… मेरा मतलब है कि खुश तो हो.‘‘

‘‘जी, मैं ठीक हूं,‘‘ निम्मी ने कहा. धीरेधीरे सेठ उस की ओर बढ़ने लगा… और पास आ कर बोला, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत और कमसिन हो…‘‘ इतना कह कर उस ने निम्मी की कमर में हाथ डाल दिया.

निम्मी कुछ रोकती या कहती, सेठ ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया और उसे बेहिसाब चूमने लगा. निम्मी रोती, कभी मिन्नत करती. विरोध की हर कोशिश उस की जाया हो रही थी. धनी सेठ की मजबूत बांहों से बचना उस के लिए नामुमकिन था. हर तरह का वास्ता निम्मी दे चुकी थी, पर जिस्म के भूखे सेठ को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, सिवाय निम्मी के शरीर के और उस ने उसे हर तरीके से भोगा. लगभग घंटेभर बाद वह झूमता हुआ घर से निकला, मानो सालों की प्यास बुझ गई हो.

सेठ के जाने के बाद निम्मी जोरजोर से रो रही थी, पर उस की चीख सुनने वाला कोई न था. सहसा उसे याद आया कि उस के महल्ले का देवेंद्र सिंह पुलिस में नौकरी करता है. किसी तरह निम्मी ने उस का पता किया.

‘‘हैलो… कौन बोल रहा है?‘‘ देवेंद्र सिंह ने फोन रिसीव करते हुए पूछा.

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‘‘जी, मैं आप के ही महल्ले से बोल रही हूं… मुझे आप की मदद चाहिए,‘‘ निम्मी ने जवाब दिया.

‘‘आप को अगर कोई परेशानी है, तो आप थाने आ कर रपट लिखा सकती हैं,‘‘ देवेंद्र सिंह ने यह कह कर फोन रख दिया.

निम्मी ने फिर से फोन किया, ‘‘हैलो… प्लीज, फोन मत काटना… मैं… मैं निम्मी बोल रही हूं. आप के ही महल्ले में रहती हूं. मेरे पति अमर इस समय यहां नहीं हैं और मैं मुसीबत में हूं.’’

अमर का नाम सुनते ही वह निम्मी को पहचान गया. ‘‘अच्छाअच्छा, मैं समझ गया. आप चिंता न करें. मैं शाम को आप के पास आता हूं.”

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

कायर : भाग 1 – कैसे बन गए दोनों में संबंध

बचपन की एकएक कर उभर रही तमाम घटनाओं ने विशाल के दिलोदिमाग पर बहुत ही गहरा असर छोड़ा था. यही वजह थी कि जब कभी भी वह किसी मर्द को औरत के ऊपर हाथ उठाते हुए देखता था तो उस की रगों में बहता जवान खून खौल जाता था.

बचपन में विशाल ने अपनी मां पर होने वाले बाप के जुल्मों को देखा था और यह उसी का नतीजा था.

विशाल का बाप शराबी था. वह शाम को शराब पी कर ही घर आता था. मां घर के राशनपानी के लिए पैसे मांगती थीं तो बाप गालियां बकने लगता था, पीटने लगता था.

मां को शराबी बाप की पिटाई से बचाने की कोशिश में विशाल कई बार बाप की टांगों से लिपट जाता था. इस पर शराबी बाप उसे दोनों हाथों से उठा कर चारपाई पर पटक देता था.

विशाल को एक ऐसे माहौल में रहने को मजबूर होना पड़ रहा था जहां मर्दों द्वारा औरतों से गालीगलौज और मारपीट करना एक मामूली बात थी.

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विशाल के बाप को उस की शराब ही ले डूबी थी. मां भी बहुत ज्यादा दिन जिंदा नहीं रही थीं पर मरने से पहले उन्होंने विशाल को इतना काबिल बना दिया था कि वह दो वक्त की रोटी कमा सके.

पेट पालने के लिए विशाल को कोई ढंग का रोजगार चाहिए था. लिहाजा, गांव को छोड़ वह कामधंधे की तलाश में शहर आ गया था. गांव वाला मकान बेच कर विशाल को इतने पैसे मिल गए थे कि शहर में कामधंधे की तलाश करते हुए वह कुछ दिन अपना गुजारा कर सके.

शहर में विशाल को रहने के लिए जहां किराए की जगह मिली वह एक झुग्गी बस्ती थी. वहां लड़ाईझगड़ा होना आम बात थी. इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग मेहनतमजदूरी कर के पेट पालते थे. सारा दिन मजदूरी कर के पैसे कमाना और रात को शराब पी कर गालीगलौज और लड़ाईझगड़ा करना वहां के तकरीबन सभी मर्दों की आदत थी.

विशाल को रहने के लिए किराए की जो जगह मिली थी, उस का मालिक रघुनाथ नाम का शख्स था. लोग उसे रघु कह कर पुकारते थे. रघु की उम्र 45 साल थी. वह किराए का आटोरिकशा चलाता था और पक्का शराबी था.

रघु ने अपने मकान का आगे वाला हिस्सा विशाल को किराए पर दिया था. वह कमरा अकेली जान के लिए काफी था. रघु मकान के पिछले वाले हिस्से में रहता था.

मकान के अगले और पिछले वाले हिस्से के बीच में एक आंगन था. आंगन में एक तरफ गुसलखाना और शौचालय बना हुआ था. वहां से कुछ ही दूरी पर पानी का सरकारी नल लगा हुआ था. सुबहशाम उस में एक घंटे के लिए पानी आता था.

रघु की बेहद खूबसूरत और जवान बीवी थी जो उम्र में उस से आधे से भी कम की लगती थी.

रघु की बीवी ने विशाल की जिंदगी में जबरदस्त हलचल पैदा कर दी थी. रघु की जवान बीवी से विशाल का सीधा आमनासामना किराए की जगह पर आने के 2 दिन बाद उस वक्त हुआ था जब वह सुबह आंगन में लगे हुए नल में से पानी की बालटी भर रहा था. ठीक उसी समय खाली बालटी हाथ में लिए अपने कमरे से बाहर निकल रघु की बीवी भी नल की तरफ आ गई.

वह अभीअभी नींद से जगी लगती थी. उस के बेहिसाब हुस्न और जवानी की दमक किसी बिजली की तरह विशाल के दिल पर गिरी. वह कुछ पल के लिए बुत बन कर रह गया. एकदम से गोरा रंग, तीखे नाकनक्श, खूब भराभरा सा बदन विशाल की रगों में बहता लहू उबलने लगा.

किसी तरह अपनी हालत को काबू में करते हुए विशाल ने अपनी बालटी को नल के नीचे से हटा दिया ताकि वह पहले पानी भर सके.

विशाल के बालटी हटाने पर उस ने अपनी खाली बालटी नल के नीचे रख दी और उस के भरने का इंतजार करने लगी. इस बात का फायदा उठाते हुए विशाल उस के रूप और जोबन का रसपान करता रहा.

बालटी जब लबालब भर गई तो वह झुक कर उस को उठाने लगी. वह दुपट्टा नहीं लिए थी इसलिए जब वह पानी से भरी बालटी उठाने के लिए झुकी तो कसे हुए सूट में से उस के उभारों की झलक विशाल पर जैसे सैकड़ों बिजलियां गिरा गईं.

विशाल को उस के चेहरे के भावों से लगा कि बालटी को उठा कर अपने कमरे तक ले जाने में उसे काफी दिक्कत महसूस हो रही थी. उस ने कहा, ‘‘लाइए, मैं छोड़ आता हूं.’’

उस ने इनकार नहीं किया. एक नजर विशाल को देखते हुए उस ने पानी से भरी हुई बालटी विशाल के बढ़े हाथ में थमा दी.

बालटी थामते वक्त विशाल का हाथ उस के हाथ से छू गया. विशाल की रगों में एक सनसनाहट सी फैल गई.

पानी से भरी बालटी उस के कमरे तक पहुंचा कर जब विशाल वापस जाने को हुआ तो वह एकाएक बोली, ‘‘तुम ही शायद नए किराएदार हो. मैं अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘विशाल नाम है मेरा.’’

‘‘अच्छा नाम है. शादीशुदा हो?’’

‘‘शादी तो अभी बाद की बात है, फिलहाल तो मैं नौकरी ढूंढ़ रहा हूं,’’ विशाल ने कहा.

‘‘शराब पीते हो?’’ उस ने अटपटा सा सवाल पूछा.

‘‘नहीं, मुझे शराब से नफरत है,’’ विशाल ने जवाब दिया. पहली बार की मुलाकात में ही उस के इतने सवालों से विशाल हैरान था.

‘‘अच्छी बात है. कम से कम शादी के बाद तुम्हारी बीवी को पीटना तो नहीं पड़ेगा,’’ तारा ने ठहाका मार कर हंसते हुए कहा.

विशाल से बातचीत को खत्म करने से पहले रघु की बीवी एक बहाने से उसे अपना नाम बताना नहीं भूली, ‘‘हम दोनों की उम्र में इतना फासला नहीं है कि तुम मुझे आप कह कर बुलाओ. मेरा नाम तारा है. तुम मुझ को मेरा नाम ले कर भी बुला सकते हो,’’ इतना कहने के बाद वह पानी की बालटी उठा कर कमरे के अंदर चली गई.

इस के बाद तैयार हो कर विशाल काम की तलाश में घर से निकला तो उस के खयालों में तारा छाई हुई थी. तारा एक शादीशुदा औरत थी. उस के लिए जैसी भावनाएं विशाल के मन में जन्म ले रही थीं वे एक तरह से गलत थीं. मगर अपनी इन गलत भावनाओं पर विशाल का कोई कंट्रोल नहीं था.

नौकरी तो नहीं मिली, पर बाहर ढाबे पर खाना खा कर घर आने में विशाल को देरी हो गई.

घर का दरवाजा खुला हुआ था. अंदर दाखिल होने के बाद अपने कमरे का ताला खोलने से पहले विशाल ने एक सरसरी नजर आंगन के दूसरी तरफ डाली. वहां कमरे की लाइट जल रही थी और बरतनों की हलकी खनक भी सुनाई दे रही थी.

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मकान के बाहर रघु का आटोरिकशा नहीं खड़ा था. इस का मतलब था कि वह अभी घर नहीं आया था.

विशाल में एक अजीब सी बेचैनी भर गई. उसे डर लगने लगा कि खयालों के भटकाव में उस से कहीं कुछ गलत न हो जाए. लिहाजा विशाल अपने कमरे में आया और अंदर से कुंडी लगा ली.

इस के बाद विशाल चारपाई पर लेट तो गया, मगर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. न चाहते हुए भी उस का खयाल बारबार तारा की तरफ ही जा रहा था. नींद विशाल की आंखों से आंखमिचौली खेलती रही. उस रात वह हुआ जिस में एक बार फिर से विशाल में सालों पहले वाले हालात में ला कर खड़ा कर दिया.

उस रात रघु ज्यादा शराब पी कर घर आया था. ज्यादा कमाई होने पर शायद वह ज्यादा शराब पी लेता था.

विशाल ने आटोरिकशा के आने की आवाज सुनी. कुछ देर बाद मकान का दरवाजा भी जोरदार आवाज के साथ बंद हुआ.

विशाल को डर था कि रघु के ज्यादा पी कर आने के नतीजे में कुछ न कुछ अनहोनी होगी.

विशाल का डर गलत नहीं निकला. रात की खामोशी को चीरते हुए पहले ऊंची आवाज में रघु और तारा के बीच तीखी कहासुनी की आवाजें सुनाई दीं. इस के बाद एकाएक ही कहासुनी भारी गालीगलौज और मारपीट में बदल गई. तारा के दर्द से चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं. साफ था कि रघु उसे पीट रहा था.

विशाल बेचैन हो बिस्तर से उठ बैठा. उस का खून खौल रहा था. बाजुओं की नसें फड़क रही थीं पर वह अपनी बेबसी पर छटपटाता रहा.

सवाल यह था कि वह कैसे और किस हैसियत से पतिपत्नी के मामले में दखल दे सकता था. समाज इस की इजाजत नहीं देता था.

रात के अनुभव से सुबह विशाल का मन खिन्न था. आंखें भी न सोने की वजह से भारी थीं इसलिए नौकरी की तलाश में घर से बाहर निकलने का इरादा उस ने छोड़ दिया.

रात को कसाई की तरह अपनी बीवी को पीटने वाला रघु अपने ठीक समय पर आटोरिकशा ले कर कामधंधे के लिए निकल गया.

विशाल दरवाजा खोल कर अपने कमरे से बाहर आ गया. उस की नजरें आंगन के दूसरी तरफ गईं. वहां कोई दिखाई नहीं दिया.

विशाल कुछ पल कशमकश वाली हालत में रहा और फिर उस के कदम अपनेआप आंगन के दूसरी तरफ जाने के लिए उठ गए.

विशाल को देख कर तारा चौंक गई. बीती रात हुई मारपीट के निशान उस के चेहरे पर साफ देखे जा सकते थे. उस की बाईं आंख के नीचे और ऊपरी होंठ पर सूजन नजर आ रही थी. बाकी जिस्म पर भी मारपीट के निशान जरूर रहे होंगे जो विशाल देख नहीं सकता था.

विशाल खुद को रोक नहीं सका और गुस्से का इजहार करते हुए बोला, ‘‘तुम्हारा मर्द इनसान है या जानवर. कोई अपनी औरत को इस तरह से पीटता है भला?’’

‘‘तो कैसे पीटता है?’’ तारा ने सवाल किया.

तारा के सवाल का जवाब विशाल को नहीं सूझा और वह बगलें झांकने लगा.

यह देख तारा अजीब तरीके से हंस दी और बोली, ‘‘तुम अभी इस बस्ती में नएनए आए हो इसलिए अजीब लगता होगा. मगर इस बस्ती में सभी मर्द अपनी औरतों को ऐसे ही पीटते हैं. तुम को यहां रहना है तो यह सब देखने की आदत डालनी होगी.’’

‘‘शायद तुम ने भी अपने मर्द के हाथों इस तरह से पिटने की आदत डाल ली है?’’ विशाल ने चुभती हुई आवाज में कहा.

‘‘इस के सिवा मैं कर भी क्या सकती हूं?’’

‘‘ऐसे जानवर को छोड़ क्यों नहीं देतीं?’’

‘‘छोड़ कर मैं कहां ठिकाना करूं? मांबाप ने बेचा था तो इस जानवर के पल्ले पड़ गई. अब इसे छोड़ कर क्या मैं किसी कोठे पर जा कर बैठ जाऊं?’’ तारा का लहजा बड़ा तल्ख था.

‘‘इस तरह की बातें पागलपन हैं. जिंदगी जीने के और भी रास्ते हैं,’’ विशाल ने कहा.

‘‘हमदर्दी जताते के लिए शुक्रिया. बिना किसी मर्द के समाज में एक अकेली और बेसहारा औरत की जिंदगी खुले मैदान में पड़े मांस के टुकड़े से ज्यादा नहीं होती, जिस को हर कोई नोचना चाहेगा.’’

‘‘तुम किसी दूसरे मर्द का हाथ भी तो थाम सकती हो?’’

‘‘जबरदस्ती…? जब तक कोई मेरा हाथ मांगने के लिए अपना हाथ आगे नहीं करेगा तब तक मैं उस का हाथ कैसे मांग सकती हूं? असली जिंदगी और बातों में बड़ा फर्क होता है,’’ तारा बोली.

‘‘एक बार इस नरक की जिंदगी से छुटकारा पाने का इरादा कर लोगी तो कोई न कोई हाथ थामने वाला भी मिल ही जाएगा,’’ विशाल ने कहा.

‘‘तुम थामोगे मेरा हाथ…?’’ तारा ने पूछा.

‘‘हां, मैं ऐसा कर सकता हूं,’’

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जोश में विशाल की जबान से यह बात निकल गई.

‘‘एक बार फिर सोच लो. याद रखो, औरत एक बेल की तरह है. सहारा देने वाले से एक बार लिपट जाए तो आसानी से छोड़ती नहीं,’’ तारा ने जोर दे कर कहा.

‘‘बेल लिपटने की हिम्मत तो दिखाए. सहारा भी कभी उस को छोड़ना नहीं चाहेगा,’’ तारा के गदराए जिस्म पर नजर गड़ाते हुए विशाल ने कहा.

तारा को जैसे यही बात कहने का इंतजार था. वह किसी बेल की तरह विशाल से लिपट गई. सबकुछ इतना अचानक और तेजी से हुआ कि विशाल हक्काबक्का रह गया.

शादीशुदा होने के बावजूद मर्द के मामले में तारा प्यासी लगती थी. वासना के उफनते ज्वार में जो भूमिका एक मर्द होने के नाते विशाल की बनती उस को एक तरीके से तारा निभा रही थी और उसे बेतहाशा चूम रही थी.

कुछ पलों में ही तारा ने जैसे अपने जिस्म की सारी गरमी और प्यार विशाल की रगों में उतारने की कोशिश की.

जब ज्वार उतरा तो उस की आंखों में कोई पछतावा नहीं था बल्कि उस की जगह जीने की एक नई उमंग थी, कुछ सपने थे.

विशाल के लिए तारा का जिस्म पाना एक तिलिस्म जैसा था. तारा ने उस तिलिस्म को एक झटके में ही खोल दिया था. सबकुछ इतना जल्दी हो गया था कि विशाल हैरान था.

तारा के साथ गहराते रिश्तों के बीच विशाल को बहुत सी बातें जानने को मिलीं. कुछ महल्ले के लोगों से तो कुछ तारा की जबानी.

(क्रमश:)

 क्या विशाल ने तारा का साथ जिंदगीभर निभाया? क्या तारा रघु से छुटकारा पा सकी? पढ़िए अगले अंक में…

कायर : भाग 2 – कैसे बन गए दोनों में संबंध

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था…

विशाल का बाप शराबी था. वह उस की मां को रोज पीटता था. विशाल को उस से नफरत हो गई थी. मांबाप के मरने के बाद विशाल रोजगार के लिए शहर आ गया और किराए पर रहने लगा. उस का मकान मालिक रघु अधेड़ उम्र का था, जो अपनी कमउम्र पत्नी तारा को जानवरों की तरह पीटता था. तारा की बेबसी देख कर विशाल उस का हमदर्द बन गया. धीरेधीरे तारा उस की ओर खिंचने लगी. कुछ दिनों बाद उन में संबंध बन गए.

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महल्ले के लोग रघु के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे. वे उसे मुंह लगाना भी पसंद नहीं करते थे. तारा को रघु ने जोरजबरदस्ती और पैसे के दम पर हासिल किया था. तारा की मानें तो रघु से पैसे ले कर उस के गरीब मांबाप ने उसे रघु के हवाले कर दिया था. शादी की रस्में तो कहने को निभाई गई थीं.

तारा के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने के बाद जब कोई परदा नहीं रहा तो विशाल ने उस के जिस्म पर मारपीट के निशान देखे. ‘‘यह इनसान तो मेरी उम्मीद से भी ज्यादा वहशी है. कब तक तुम यह सब सहती रहोगी?’’ विशाल ने पूछा.

‘‘जब तक मेरा नसीब चाहेगा,’’ एक ठंडी सांस भरते हुए तारा ने कहा. ‘‘नसीब को बदला भी जा सकता है,’’ विशाल बोला.

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‘‘अगर सचमुच ऐसा हो सकता है तो बिना देरी किए अभी मेरा हाथ थामो और यहां से कहीं दूर ले चलो,’’ उम्मीद भरी नजरों से विशाल को देखते हुए तारा ने कहा.

‘‘नहीं, अभी सही समय नहीं है. इस के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा… जब तक मेरा कहीं और ठिकाना नहीं बन जाता,’’ विशाल बोला. ‘‘ठीक है, मैं तब तक इंतजार करूंगी. एक बात का ध्यान रखना कि मेरी बरदाश्त की हद हो सकती है, मगर रघु के वहशीपन और जुल्म की कोई हद नहीं है,’’ तारा की बात में एक किस्म की मायूसी थी.

‘‘मैं वह हद नहीं आने दूंगा. उस से पहले ही मैं तुम को इस नरक से निकाल दूंगा,’’ विशाल ने भरोसा दिया. ‘‘उम्मीद नहीं है कि मेरे साथ धोखा नहीं होगा,’’ तारा बोली. जाल में फड़फड़ाते पक्षी के समान वह जल्दी से इस जाल को काट कर उड़ने को बेचैन थी.

इस में जरा भी शक नहीं कि एक औरत के रूप में तारा ने विशाल को जितना दिया था उस से ज्यादा कोई भी औरत किसी मर्द को नहीं दे सकती थी. लेकिन विशाल की सोच एकाएक मतलबी हो चली थी. एक आम मर्द की तरह वह भी सोचने लगा था कि तारा अब तक उस को जो दे चुकी थी स्थायी रिश्ते में उस से ज्यादा क्या दे सकती थी? इनसानी हमदर्दी वाली सोच पर वासना हावी होने लगी थी.

औरत को जिस्मानी तौर पर हासिल करने के बाद अकसर कई मर्दों को यह लगने लगता है कि औरत के पास अब उस को देने के लिए कुछ खास नहीं रहा. इसी बीच न जाने कैसे अचानक रघु को इन दोनों के संबंधों को ले कर शक होने लगा. शक्की मर्द अकसर बेहद बेरहम हो जाता है, लेकिन रघु बेरहमी के मामले में पहले ही जानवर था. उस ने तारा पर जुल्मों की हद कर दी.

मगर यह क्या… तारा की रौंगटे खड़े कर देने वाली चीखों को सुन कर विशाल की रगों में बहते खून का खौलना एकाएक बंद हो गया था. खून के ठंडेपन से विशाल खुद भी हैरान था. इस सब के पीछे कहीं न कहीं विशाल के अंदर की कायरता थी. वह सच का सामना करने से घबरा रहा था. हालात का यही तकाजा था कि वह तारा को ले कर जल्दी ही कोई फैसला करे.

एक दिन सुबहसवेरे काम पर जाने से पहले रघु ने विशाल को एक हफ्ते के अंदर जगह खाली करने का हुक्म दे दिया, ‘‘7 दिन के अंदर शराफत से जगह खाली कर देना, वरना सामान उठा कर बाहर फेंक दूंगा.’’ रघु की धमकी वाली जबान विशाल को अखरी, फिर भी कड़वा घूंट पी कर वह खामोश रहा. वैसे देखा जाए तो विशाल वहां से भागने की तैयारी कर रहा था, चुपके से चोरों की तरह.

7 दिन में जगह खाली करने वाली बात तारा को शायद मालूम नहीं थी. मगर रघु के इतना कह कर जाने के कुछ देर बाद ही तारा विशाल के कमरे में आ गई. वह बहुत ही टूटी हुई नजर आ रही थी.

‘‘अब मुझ से और बरदाश्त नहीं होता. मैं पता नहीं क्या कर बैठूंगी? देखो, जालिम ने इस बार मुझ पर कैसा सितम ढाया है,’’ यह कहने के बाद तारा ने ब्लाउज को हटा कर अपने बदन पर जलती बीड़ी से दागने के निशान विशाल को दिखाए. उन निशानों को देख एक बार तो विशाल भी कांप गया.

‘‘क्या इतना सब देखने के बाद भी तुम मुझ को अभी इंतजार करने के लिए ही कहोगे?’’ तारा ने पूछा. विशाल से जवाब देते नहीं बना. तारा ने जैसे सीधे उस की मर्दानगी पर ही सवाल उठाया था.

‘‘नहीं, अब तुम को ज्यादा इंतजार नहीं करना होगा. मैं जल्दी ही तुम को इस नरक से निकाल कर कहीं दूर ले जाऊंगा,’’ सूखे होंठों पर जबान फेरते हुए विशाल ने कहा. ‘‘आज तुम्हारे शब्दों में पहले वाली आग नहीं रही है. फिर भी मेरे पास इस के सिवा कोई चारा नहीं कि मैं तुम्हारी बात पर यकीन करूं. वैसे भी मेरी हालत बेल जैसी है. सहारा गया तो खत्म,’’ तारा ने अजीब हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘तुम को मुझ पर बने अपने भरोसे को कायम रखना चाहिए.’’ ‘‘इसी की कोशिश कर रही हूं, मगर मेरी बरदाश्त की एक हद है और इस हद के टूटने से मैं कब क्या कर बैठूंगी, मैं खुद नहीं जानती,’’ इतना कहने के बाद तारा चली गई.

तारा के तेवर विशाल को हैरानी में डालने वाले थे. पहले कभी तारा ने ऐसे अंदाज में बात नहीं की थी. विशाल को महसूस भी हुआ कि वह कायर था, औरत पर जुल्म होता देख उस की रगों में उबलने वाला खून बासी कढ़ी में आए उबाल से ज्यादा नहीं था. हकीकत का सामना करने की उस में हिम्मत नहीं थी. तारा के प्रति हमदर्दी के पीछे कहीं वासना की वह चाशनी थी जिस का स्वाद चखने के बाद विशाल की सोच में बहुत बदलाव आ गया था.

विशाल यह बात भी नजरअंदाज नहीं कर सकता था कि तारा दुनिया की नजरों में एक शादीशुदा औरत थी. उस के साथ विशाल के संबंध दुनिया की नजरों में गलत थे. उस पर रघु भी एक खतरनाक इनसान था. उस से दुश्मनी मोल लेने की विशाल में हिम्मत नहीं थी. रघु विशाल को एक हफ्ते के अंदर कमरा खाली करने की चेतावनी दे चुका था. रघु और विशाल के बीच कोई लेनदेन नहीं रह गया था. जगह का किराया वह महीने के शुरू में ही रघु को दे चुका था.

सामान के नाम पर विशाल के पास भारीभरकम कुछ भी नहीं था. वह किसी भी समय जगह खाली करने के लिए आजाद था. रात के वक्त चुपचाप ही अपनी जगह को छोड़ने से बेहतर रास्ता विशाल को नजर नहीं आ रहा था. दिन के उजाले में तारा कभी भी उस को आसानी से जाने नहीं देती.

आखिर रघु द्वारा दी गई समय सीमा के खत्म होने से पहले ही एक रात को विशाल ने खामोशी से अपना सामान बांधा और चोरों की तरह वहां से निकल जाने का फैसला किया. पर आधी रात के समय इस से पहले कि विशाल चोरों की तरह अपना सामान उठा कर वहां से निकल पाता एकाएक तारा दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गई.

तारा को देख विशाल सकते में आ गया. उस की चोर जैसी हालत हो गई. इस से पहले कि वह कुछ कह पाता, तारा ने एक नजर बंधे हुए सामान पर डाली और फिर उस की तरफ देखने लगी. तारा की खामोश आंखों में कई सवालों के रूप में एक आग सी धधक रही थी. उस आग ने विशाल को डरा दिया.

एकाएक तारा अजीब ढंग से हंसी और बोली, ‘‘मैं तुम्हारे भरोसे किस हद से गुजर गई और तुम एक मर्द हो कर भी इस तरह रात के अंधेरे में चोरों की तरह भाग रहे हो. मैं हैरान भी हूं और सदमे में भी हूं. आखिर मैं ने तुम्हारे जैसे कायर मर्द पर भरोसा कैसे कर लिया? ‘‘मगर, अब पछताने का कोई मतलब नहीं. मैं इतनी आगे बढ़ आई हूं कि वापसी के सभी रास्ते बंद हो चुके हैं.

‘‘तुम जैसे भी हो, मेरी किस्मत अब तुम्हारे साथ ही बंध गई है. मेरा हाथ पकड़ो और सुबह होने से पहले यहां से कहीं दूर निकल चलो. इस बात को तुम दिमाग से निकाल दो कि मैं तुम्हें अकेला यहां से जाने दूंगी.’’ तारा के लहजे में खुली धमकी थी जिस ने विशाल को चौंका दिया.

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‘‘तुम्हें गलतफहमी हो गई है. मैं इस समय कहीं नहीं जा रहा हूं, तुम को भी इस तरह इस वक्त मेरे कमरे में नहीं आना चाहिए था. रघु को इस बात का पता चल गया तो हम दोनों के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी.’’ ‘‘एक औरत से प्यार भी करते हो और इस तरह डरते भी हो. तुम मुझ को एक खूबसूरत जिंदगी का सपना दिखा कर कायर हो गए और मैं तुम्हारे भरोसे क्या से क्या बन गई? झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं.

‘‘मैं जानती हूं कि तुम चुपचाप यहां से भागने की तैयारी में थे. लेकिन अब मुझे साथ लिए बगैर तुम ऐसा नहीं कर सकोगे. मैं ने तुम से पहले ही कहा था कि औरत एक बेल की तरह होती है. लिपट जाए तो आसानी से छोड़ती नहीं. ‘‘रही बात रघु की, उस से डरने वाली कोई बात नहीं. वह यहां नहीं आएगा और न ही हमें जाने से रोकेगा. मुरदे कभी जागते नहीं,’’ तारा ने ठंडी आवाज में कहा.

‘‘क्या मतलब…?’’ विशाल के शरीर को जैसे बिजली का तार छू गया. ‘‘मतलब यह कि मैं ने उस जानवर को मौत के घाट उतार दिया है. जो खुद को मेरा पति कहता था और मुझ को इस का जरा भी अफसोस नहीं,’’ तारा की आवाज पहले की तरह ही बर्फ की सिल जैसी ठंडी थी.

विशाल के सिर पर जैसे कोई बम फूटा, वह हैरान सा तारा को देख रहा था. सामने खड़ी तारा को देख कर विशाल को कायर होने का एहसास हो रहा था.

कायर : कैसे बन गए दोनों में संबंध

बुजदिल : भाग 2- कलावती का कैसे फायदा उठाया

पिछले अंक में आप ने पढ़ा:

सुंदर एक फैक्टरी में क्लर्क था. उस के पास पैसे की कमी थी, इसलिए उस के दोस्त उस से कन्नी काटते थे. वे उसे अपनी पार्टियों में भी शामिल नहीं करते थे. लेकिन खूबसूरत कलावती से शादी के बाद वे उसे भी बीवी के साथ पार्टियों का न्योता भेजने लगे. दिलफेंक हरीश तो कलावती पर लट्टू हो गया था. वह उसे महंगेमहंगे गिफ्ट देने लगा था. पहले तो सुंदर को बहुत बुरा लगा, लेकिन बाद में उस ने इस बात का फायदा उठाना चाहा और अपनी बात कलावती के सामने रखी.

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जिस दिन सुंदर ने कलावती से आमदनी का अच्छा जरीया वाली बात की, उसी दिन कलावती काफी रात हुए घर आई. हरीश उस को अपनी गाड़ी से घर के बाहर तक छोड़ने आया था.

यह शायद पहला मौका था, जब हरीश घर के अंदर नहीं आया था.

कलावती अकेले ही अंदर आई थी. उस के होंठों की फीकी पड़ी लिपस्टिक और बिखरेबिखरे बाल जैसे खुद ही कोई कहानी बयान कर रहे थे.

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सबकुछ समझते हुए भी सुंदर आज उसे अनदेखा करने के मूड में था. कलावती ने सुंदर को कुछ कहने या सवाल करने का मौका ही नहीं दिया.

होंठों के एक कोर पर फैली लिपस्टिक को हाथ के अंगूठे से साफ करते हुए कलावती ने कहा, ‘‘मैं ने हरीश से बात की है. वह बिना किसी इंवैस्टमैंट के ही हमें अपने काम में 10 फीसदी की पार्टनरशिप देने को तैयार है. इस के लिए मुझे उस के दफ्तर में बैठ कर ही कामकाज में उस का हाथ बंटाना होगा.

‘‘हरीश जो भी सामान बेचता है, वह सब औरतों के इस्तेमाल में आने वाला है, इसलिए उस को लगता है कि एक औरत होने के नाते मैं उस के कारोबार को बेहतर तरीके से देख सकती हूं. जब ऐक्स्ट्रा आमदनी रैगुलर आमदनी की शक्ल ले लेगी, तो मैं बेशक नौकरी छोड़ दूंगी. तुम को मेरे इस फैसले पर कोई एतराज तो नहीं…?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ सुंदर ने उतावलेपन से कहा.

इस के बाद कलावती हरीश के दफ्तर में जाने लगी. कई बार कलावती खुद चली जाती और कभी उस को लेने के लिए हरीश की गाड़ी आ जाती. रात को कलावती अकसर 9-10 बजे से पहले घर नहीं आती थी. कभी रात को हरीश का ड्राइवर घर पर उसे छोड़ने आता था और कभी हरीश खुद.

कलावती अकसर खाना भी खा कर ही आती थी. अगर वह खाना खा कर नहीं आती, तो घर पर नहीं बनाती थी. सुंदर किसी ढाबे या होटल से खाना ले आता और दोनों मिल कर खा लेते थे.

कलावती के रंगढंग और तेवर लगातार बदल रहे थे. कई बार तो वह रात को घर आती, तो उस के मुंह से तीखी गंध आ रही होती थी. यह तीखी गंध शराब की होती थी.

कलावती के बेतरतीब कपड़ों और बिगड़ा हुआ मेकअप भी खामोश जबान में बहुतकुछ कहता था.

मगर सुंदर ने इन सब चीजों की तरफ से जैसे आंखें मूंद ली थीं. उस का खून अब जोश नहीं मारता था.

जो दोस्त कभी सुंदर को घास नहीं डालते थे, वे अपनी की गई मेहरबानियों की कीमत वसूले बिना कैसे रह सकते थे?

अब तो सारा खेल जैसे खुला ही था. एक मर्द अपनी बीवी का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहा था और बीवी सबकुछ समझते हुए भी अपनी खुशी से इस्तेमाल हो रही थी.

इस सारे खेल में हरीश भी खुद को एक बड़े और चतुर खिलाड़ी के रूप में ही देखता था. कारोबार में 10 फीसदी की साझेदारी का दांव खेल कर उस ने अपने दोस्त की खूबसूरत बीवी पर एक तरह से कब्जा ही कर लिया था. अब उस को कई बहाने से दोस्त के घर जाने की जरूरत नहीं रह गई थी. वह पति की रजामंदी से खुद ही उस के पास जो आ गई थी.

जल्दी ही कलावती अपने बैग में नोटों की गड्डियां भर कर लाने लगी थी. कहने को तो नोटों की ये गड्डियां साझेदारी में 10 फीसदी हिस्सा थीं, मगर असलियत में वह कलावती के जिस्म की कीमत थी.

दिन बदलने लगे. केवल एक साल में ही किराए के घर को छोड़ कर सुंदर और कलावती अपने खरीदे हुए नए मकान में आ गए. नया खरीदा मकान जल्दी ही टैलीविजन, वाशिंग मशीन, फ्रिज और एयरकंडीशन से सज भी गया.

दूसरे साल में उन के घर के बाहर एक कार भी सवारी के लिए नजर आने लगी.

लेकिन, इस के साथ ही साथ कलावती जैसे नाम की ही सुंदर की पत्नी रह गई थी. कलावती में घरेलू औरतों वाली कोई भी बात नहीं रह गई थी. अपने पति के कहने पर ही वह पैसा बनाने वाली एक मांसल मशीन बन गई थी.

लोग सुंदर के बारे में तरहतरह की बातें करने लगे थे. कुछ लोग तो पीठ पीछे यह भी कहने लगे थे कि कलावती बीवी तो थी सुंदर की, मगर सोती थी उस के दोस्त हरीश के साथ.

10 फीसदी की मुंहजबानी साझेदारी के नाम पर अगर हरीश उन को कुछ दे रहा था, तो बदले में पूरी शिद्दत से वसूल भी कर रहा था. कलावती के मांसल जिस्म को उस ने ताश के पत्तों के तरह फेंट डाला था.

सुंदर जब लोगों का सामना करता था, तो उन की शरारत से चमकती हुई आंखों में बहुतकुछ होता था. कुछ लोग तो इशारों ही इशारों में कलावती को ले कर सुंदर से बहुतकुछ कह भी देते थे, मगर इस से न ही तो अब सुंदर की मर्दानगी को चोट लगती थी और न ही उस का खून खौलता था. उस की सोच मानो बेशर्म हो गई थी.

हरीश जैसे रंगीनमिजाज रईस मर्दों और कलावती जैसी शादीशुदा औरतों के संबंध ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं हैं और न ही इस की उम्र ज्यादा लंबी होती है.

हरीश का मन भी कलावती से भरने लगा था. उस ने कलावती से छुटकारा पाने के लिए उस के प्रति बेरुखी दिखानी शुरू कर दी थी.

कलावती ने उस की बदली हुई नजरों को पहचान लिया, मगर उस को इस की कोई परवाह नहीं थी. हरीश से साफतौर पर कलावती के लेनदेन वाले संबंध थे और वह काफी हद तक इन संबंधों को कैश कर भी चुकी थी. मकान, घर का सारा कीमती सामान और गाड़ी हरीश की बदौलत ही तो थी.

वैसे, कलावती की नजरों में भी हरीश बेकार होने लगा था. उस को और निचोड़ना मुश्किल था.

हरीश ने साफ शब्दों में कलावती से छुटकारा मांगा. इस के बदले में कलावती ने भी एक बड़ी रकम मांगी. हरीश ने वह मांगी रकम दे दी.

हरीश से संबंध खत्म करने पर सुंदर ने कलावती से कहा, ‘‘हमारे पास अब सबकुछ है, इसलिए हमें पतिपत्नी के रूप में अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आना चाहिए.’’

सुंदर की बात पर कलावती खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘मुझ को नहीं लगता कि अब ऐसा हो सकता है. पतिपत्नी का रिश्ता तो इस मकान की बुनियाद में कहीं दफन हो चुका है. क्या तुम को नहीं लगता कि पति बनने के बजाय तुम केवल अपनी बीवी के दलाल बन कर ही रह गए? ऐसे में मुझ से दोबारा कोई सती सावित्री बनने की उम्मीद तुम कैसे कर सकते हो?’’

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कलावती के जवाब से सुंदर का चेहरा जैसे सफेद पड़ गया. कलावती ने जैसे उस को आईना दिखा दिया था.

कलावती वह औरत नहीं रह गई थी, जो अब घर की चारदीवारी में बंद हो कर रह पाती.

सुंदर भी जान गया था कि उस ने अपनी बीवी को दोस्तों के सामने चारे के रूप में इस्तेमाल कर के हासिल तो बहुतकुछ कर लिया था, मगर अपने जमीर और मर्दानगी दोनों को ही गंवा दिया था.

हरीश को छोड़ने के बाद कलावती ने सुंदर के एक और अमीर दोस्त दिनेश से संबंध बना लिए.

उधर कलावती बाहर मौजमस्ती कर रही थी, इधर सुंदर ने खूब शराब पीनी शुरू कर दी. कभीकभी शराब पी कर सुंदर इतना बहक जाता कि गलीमहल्ले के बच्चे उस का मजाक उड़ाते और उस पर कई तरह की फब्तियां भी कसते.

कुछ फब्तियां तो ऐसी कड़वी और धारदार होतीं कि नशे में होने के बावजूद सुंदर खड़ेखड़े ही जैसे सौ बार मर जाता.

जैसे शराब के नशे में एक बार जब सुंदर लड़खड़ा कर गली में गंदी नाली के पास गिर पड़ा, तो वहां खेल रहे कुछ लड़के खेलना छोड़ उसे उठाने के लिए लपकने को हुए, तो उन में से एक लड़के ने उन को रोक लिया और बोला, ‘‘रहने दो, मेरा बापू कहता है कि यह अपनी औरत की घटिया कमाई खाने वाला एक गंदा इनसान है. इज्जतदार और शरीफ लोगों को इस से दूर रहना चाहिए.’’

एक लड़के का इतना ही कहना था कि बाकी लड़कों के कदम वहीं रुक गए. शराब के नशे में लड़खड़ा कर सुंदर गिर जरूर गया था, मगर बेहोश नहीं था. लड़के के कहे हुए शब्द गरम लावे की तरह उस के कानों में उतर गए.

अपनी बुजदिली और लालच के चलते आज सुंदर कितना नीचे गिर चुका था, इस का सही एहसास गली में खेलने वाले लड़के के मुंह से निकले शब्दों से उसे हो रहा था.

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बुजदिल : भाग 1 – कलावती का कैसे फायदा उठाया

सुंदर के मन में ऐसी कशमकश पहले शायद कभी भी नहीं हुई थी. वह अपने ही खयालों में उलझ कर रह गया था.

सुंदर बचपन से ही यह सुनता आ रहा था कि औरत घर की लक्ष्मी होती है. जब वह पत्नी बन कर किसी मर्द की जिंदगी में आती है, तो उस मर्द की किस्मत ही बदल जाती है.

सुंदर सोचता था कि क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? कलावती के पत्नी बन कर उस की जिंदगी में आने के बाद क्या उस की किस्मत ने भी करवट ली थी या सचाई कुछ और ही थी?

खूब गोरीचिट्टी, तीखे नाकनक्श और देह के मामले में खूब गदराई कलावती से शादी करने के बाद सुंदर की जिंदगी में जबरदस्त बदलाव आया था. पर इस बदलाव के अंदर कोई ऐसी गांठ थी, जिस को खोलने की कोशिश में सुंदर हमेशा बेचैन हो जाता था.

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एक फैक्टरी में क्लर्क के रूप में 8 हजार रुपए महीने की नौकरी करने वाला सुंदर अपनी माली हालत की वजह से खातेपीते दोस्तों से काफी दूर रहता था

सुंदर अपने दोस्तों की महफिल में बैठने से कतराता था. उस के कतराने की वजह थी पैसों के मामले में उस की हलकी जेब. सुंदर की जेब में आमतौर पर इतने पैसे ही नहीं होते थे कि वह दोस्तों के साथ बैठ कर किसी रैस्टोरैंट का मोटा बिल चुका सके.

लेकिन शादी हो जाने के बाद एकाएक ही सबकुछ बदल गया था. सुंदर की अहमियत उस के दोस्तों में बहुत बढ़ गई थी. बड़ीबड़ी महंगी पार्टियों से उस को न्योते आने लगे थे. बात दूरी की हो, तो एकाएक ही सुंदर पर बहुत मेहरबान हुए अमीर दोस्त उस को लाने के लिए अपनी चमचमाती गाड़ी भेज देते थे.

पर किसी भी दोस्त के यहां से आने वाला न्योता अकेले सुंदर के लिए कभी भी नहीं होता था. उस को पत्नी कलावती के साथ ही आने के लिए जोर दिया जाता था.

कई दोस्त तो बहाने से सुंदर के घर तक आने लगे थे और कलावती के हाथ की गरमागरम चाय पीने की फरमाइश भी कर देते थे. चाय पीने के बाद दोस्त कलावती की जम कर तारीफ करना नहीं भूलते थे.

एक दोस्त ने तो कलावती के हाथ की बनी चाय की तारीफ में यहां तक कह डाला था, ‘‘कमाल दूध, चीनी या पत्ती में नहीं, भाभीजी के हाथों में है.’’

कम पढ़ीलिखी और बड़े ही साधारण परिवार से आई कलावती अपनी तारीफ से फूली नहीं समाती थी. उस के गोरे गाल लाल हो जाते थे और जोश में वह तारीफ करने वाले दोस्त को फिर से चाय पीने के लिए आने का न्योता दे देती थी.

सुंदर अपने दोस्तों को घर आने के लिए मना भी नहीं कर सकता था. आखिर दोस्ती का मामला जो था. लेकिन वह उन दोस्तों से इतना तंग होने लगा था कि उसे अजीब सी घुटन महसूस होने लगती थी.

सुंदर का एक दोस्त हरीश विदेशी चीजों का कारोबार करता था. वह कारोबार के सिलसिले में अकसर दिल्ली और मुंबई जाता रहता था. वह उम्र में सुंदर से ज्यादा होने के बावजूद अभी भी कुंआरा था.

हरीश काफी शौकीन किस्म का इनसान था. दोस्तों की मंडली में सब से ज्यादा रुपए खर्च करने वाला भी.

हरीश जब कभी सुंदर के घर उस से मिलने जाता था, तो कलावती के लिए विदेशी चीजें तोहफे में ले जाता था. हरीश के लाए तोहफों में महंगे परफ्यूम और लिपस्टिक शामिल रहती थीं.

ऐसे तोहफों को देख कर कलावती खिल जाती थी. इस तरह की चीजें औरतों की कमजोरी होती हैं और इस कमजोरी को हरीश पहचानता था.

सुंदर को अपनी बीवी कलावती पर हरीश की मेहरबानी और दरियादिली अखरती थी. वैसे तो शादी के बाद सभी दोस्त ही सुंदर पर मेहरबान नजर आने लगे थे, मगर हरीश की मेहरबानी जैसे एक खुली गुस्ताखी में बदल रही थी.

सुंदर को उस वक्त हरीश उस की मर्दानगी को ही चुनौती देता नजर आता, जब वह विदेशी लिपस्टिक कलावती को ताहफे में देते हुए साथ में एक गहरी मुसकराहट से कहता, ‘‘मैं शर्त के साथ कहता हूं भाभीजी कि इस लिपस्टिक का रंग आप की पर्सनैलिटी से गजब का मैच करेगा.’’

हरीश के तोहफे से खुश कलावती ‘थैंक्यू’ कह कर जब उस को स्वीकार करती, तो सुंदर को ऐसा लगता जैसे वह उस के हाथों से फिसलती जा रही है.

हरीश के पास अपनी गाड़ी भी थी. उस की गाड़ी में बैठते हुए कलावती की गरदन जैसे शान से तन जाती थी. कलावती को गाड़ी में ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठना अच्छा लगता था, इसलिए वह गाड़ी की अगली सीट पर हरीश के पास ही बैठती थी. मजबूरन सुंदर को गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ कर संतोष करना पड़ता था.

शहर में जब कोई नई फिल्म लगती थी, तो हरीश सुंदर से पूछे बिना ही 3 टिकटें ले आता था, इसलिए मना करने की गुंजाइश ही नहीं रहती थी.

जब कलावती फिल्म देखने के लिए तैयार होती थी, तो मेकअप के लिए उन्हीं चीजों को खासतौर पर इस्तेमाल करती, जो हरीश उसे तोहफे में देता रहता था.

सिनेमा जाने के लिए जब कलावती सजधज कर तैयार हो जाती, तो बड़े बिंदास अंदाज में हरीश उस की तारीफ करना नहीं भूलता था. वह कलावती के होंठों पर पुती लिपस्टिक के रंग की खासतौर पर तारीफ करता था.

यह देख कर सुंदर एक बार तो जैसे अंदर से उबल पड़ता था. मगर यह उबाल बासी कढ़ी में आए उबाल की ही तरह होता था.

सिनेमाघर में कलावती सुंदर और हरीश के बीच वाली सीट पर बैठती थी. उस के बदन में से निकलने वाली परफ्यूम की तीखी और मादक गंध दोनों के ही नथुनों में बराबर पहुंचती थी.

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परफ्यूम की गंध ही क्यों, बाकी सारे एहसास भी बराबर ही होते थे. अंधेरे सिनेमाघर में अगर कलावती की एक मरमरी नंगी बांह रहरह कर सुंदर को छूती थी, तो वह इस खयाल से बेचैन हो जाता था कि कलावती की दूसरी मरमरी बांह हरीश की बांह को छू रही होगी.

सिनेमाघर में हरीश दूसरी गुस्ताखियों से भी बाज नहीं आता था. सुंदर से कानाफूसी के अंदाज में बात करने के लिए वह इतना आगे को झुक जाता था कि उस का चेहरा कलावती के उभारों को छू लेता था.

जब सुंदर उस दौर से गुजरता, तब मन में इरादा करता कि वह खुले शब्दों में हरीश को अपने यहां आने से मना करेगा, पर बाद में वह ऐसा कर नहीं पाता था. शायद उस में ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी. वह शायद बुजदिल था.

हरीश की हिम्मत और बेबाकी लगातार बढ़ती गई. पहले तो सुंदर की मौजूदगी में ही वह उस के घर आता था, मगर अब वह उस की गैरमौजूदगी में भी आनेजाने लगा था.

कई बार सुंदर काम से घर वापस आता, तो हरीश उस को घर में कलावती के साथ चाय की चुसकियां भरते हुए मिलता.

हरीश को देख सुंदर कुछ कह नहीं पाता था, मगर गुस्से के मारे ऐंठ जाता. सुंदर को देख हरीश बेशर्मी से कहता, ‘‘इधर से गुजर रहा था, सोचा कि तुम से मिलता चलूं. तुम घर में नहीं थे. मैं वापस जाने ही वाला था कि भाभीजी ने जबरदस्ती चाय के लिए रोक लिया.’’

सुंदर जानता था कि हरीश सरासर झूठ बोल रहा था, मगर वह कुछ भी कर नहीं पाता. जो चीज अब सुंदर को ज्यादा डराने लगी थी, वह थी कलावती का हाथों से फिसल कर दूर होने का एहसास.

कुछ दिन तक सुंदर के अंदर विचारों की अजीब सी उथलपुथल चलती रही, पर हालात के साथ समझौता करने के अलावा उस को कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था.

सुंदर को मालूम था कि उस जैसे साधारण आदमी की सोसाइटी में जो शान एकाएक बनी थी, वह उस की हसीन बीवी के चलते ही बनी थी, वरना पांचसितारा होटलों, फार्महाउसों की महंगी पार्टियों में शिरकत करना उस के लिए एक हसरत ही रहती.

एक सच यह भी था कि पिछले कुछ महीनों से सुंदर को इन सब चीजों से जैसे एक लगाव हो गया था. यह लगाव ही जैसे कहीं न कहीं उसे उस की मर्दानगी को पलीता लगाता था.

कलावती भी जैसे अपने रूपरंग की ताकत को पहचानने लगी थी, तभी तो सुंदर के हरीश सरीखे दोस्तों से कई फरमाइश करने से वह कभी झिझकती नहीं थी. देखा जाए, तो शादी के बाद कलावती की ख्वाहिशें सुंदर की जेब से नहीं, बल्कि उस के दोस्तों की जेब से पूरी हो रही थीं.

सुंदर को यह भी एहसास हो रहा था कि झूठी मर्दानगी में खुद को धोखा देने से कोई फायदा नहीं. अगर उस का कोई दोस्त उस की बीवी के होंठों के लिए लिपस्टिक का रंग पसंद करता था, तो उस के असली माने क्या हो सकते थे?

अपनी खूबसूरत बीवी के खोने का डर सुंदर को लगातार सता रहा था. इस डर के बीच कई तरह की बातें सुंदर के मन में अचानक ही उठने लगी थीं. पति की जगह एक लालची इनसान उस के विचारों पर हावी होने लगा.

सुंदर को लगने लगा था कि उस की बीवी वास्तव में खूबसूरत थी और उस के यारदोस्त काफी सस्ते में ही उस को इस्तेमाल कर रहे थे. अगर उस की खूबसूरत बीवी अमीर दोस्तों की कमजोरी थी, तो उन की इस कमजोरी का फायदा वह अपने लिए क्यों नहीं उठाता था?

इस बात में कोई शक नहीं कि हरीश जैसे अमीर और रंगीनमिजाज दोस्त कलावती के कहने पर उस के लिए कुछ भी कर सकते थे.

सुंदर की सोच बदली, तो उस की वह तकलीफ भी कम हुई, जो दोस्तों के अपनी बीवी से रिश्तों को ले कर उस के मन में बनी हुई थी.

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शर्म और मर्दानगी से किनारा कर के सुंदर ने मौका पा कर कलावती से कहा, ‘‘क्या तुम को नहीं लगता कि हमारे पास भी रहने के लिए एक अच्छा घर और सवारी के लिए अपनी कार होनी चाहिए?’’

इस पर कलावती के होंठों पर एक अजीब तरह की मुसकराहट फैल गई. उस ने जवाब में कहा, ‘‘तुम्हारी 8 हजार रुपए की तनख्वाह को देखते हुए मैं इन चीजों के सपने कैसे देख सकती हूं?’’

‘‘कुछ कोशिश करने से सबकुछ हासिल हो सकता है.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘अगर हमारी आमदनी का कोई ऐक्स्ट्रा जरीया बन जाए, तो कुछ दिनों में ही हमारे दिन भी बदल सकते हैं.’’

‘‘मगर, ऐसा कोई जरीया बनेगा कैसे?’’ कलावती ने पूछा.

‘‘हरीश का काफी अच्छा कारोबार है. अगर वह चाहे तो बड़ी आसानी से हमारे लिए भी कोई आमदनी का अच्छा सा जरीया बन सकता है,’’ एक बेशर्म और लालच से भरी मुसकराहट होंठों पर लाते हुए सुंदर ने कहा.

सुंदर की बात पर कलावती की आंखें थोड़ी सिकुड़ गईं. पति उस से जो कहने के लिए भूमिका तैयार कर रहा था, उसे वह समझ गई थी.

(क्रमश:)

सुंदर आखिर चाहता क्या था? क्या कलावती ने उस की मदद की? हरीश और कलावती का रिश्ता कहां तक पहुंचा? पढ़िए अगले अंक में…

बुजदिल : कलावती का कैसे फायदा उठाया

आशीर्वाद : भाग 1 – कहानी मेनका, अमित और ढोंगी गुरु की

दोपहर का खाना खा कर मेनका थोड़ी देर आराम करने के लिए कमरे में आई ही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.

मेनका ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला. सामने डाकिया खड़ा था.

डाकिए ने उसे नमस्ते की और पैकेट देते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप की रजिस्टर्ड डाक है.’’

मेनका ने पैकेट लिया और दरवाजा बंद कर कमरे में आ गई. वह पैकेट देखते ही समझ गई कि इस में एक किताब है. पैकेट पर भेजने वाले गुरुजी के हरिद्वार आश्रम का पता लिखा हुआ था.

मेनका की जरा भी इच्छा नहीं हुई कि वह उस किताब को खोल कर देखे या पढ़े. वह जानती थी कि यह किताब गुरु सदानंद ने लिखी है. सदानंद उस के पति अमित का गुरु था. वह उठतेबैठते, सोतेजागते हर समय गुरुजी की ही बातें करता था, जबकि मेनका किसी गुरुजी को नहीं मानती थी.

मेनका ने किताब का पैकेट एक तरफ रख दिया. अजीब सी कड़वाहट उस के मन में भर गई. उस ने बिस्तर पर लेट कर आंखें बंद कर लीं. साथ में उस की 3 साल की बेटी पिंकी सो रही थी.

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मेनका समझ नहीं पा रही थी कि उसे अमित जैसा अपने गुरु का अंधभक्त जीवनसाथी मिला है तो इस में किसे दोष दिया जाए?

शादी से पहले मेनका ने अपने सपनों के राजकुमार के पता नहीं कैसेकैसे सपने देखे थे. सोचा था कि शादी के बाद वह अपने पति के साथ हनीमून पर शिमला, मसूरी या नैनीताल जाएगी. पहाड़ों की खूबसूरत वादियों में उन दोनों का यादगार हनीमून होगा.

मेनका के सारे सपने शादी की पहली रात को ही टूट गए थे. उस रात वह अमित का इंतजार कर रही थी. काफी देर के बाद अमित कमरे में आया था.

अमित ने आते ही कहा था, ‘देखो मेनका, आज की रात का हर कोई बहुत बेचैनी से इंतजार करता है पर मैं उन में से नहीं हूं. मेरा खुद पर बहुत कंट्रोल है.’

मेनका चुपचाप सुन रही थी.

‘सदानंद मेरे गुरुजी हैं. हरिद्वार में उन का बहुत बड़ा आश्रम है. मैं कई सालों से उन का भक्त हूं. उन के उपदेश मैं ने कई बार सुने हैं. उन की इच्छा के खिलाफ मैं कुछ भी करने की सोच ही नहीं सकता.

‘मैं ने तो गुरुजी से कह दिया था कि मैं शादी नहीं करना चाहता पर गुरुजी ने कहा था कि शादी जरूर करो तो मैं ने कर ली.’

मेनका चुपचाप अमित की ओर देख रही थी.

अमित ने आगे कहा था, ‘देखो मेनका, आज की रात हमारी अनोखी रात होगी. हम नए ढंग से शादीशुदा जिंदगी की पहली रात मनाएंगे. मेरे पास गुरुजी की कई किताबें हैं. मैं तुम्हें एक किताब से गुरुजी के उपदेश सुनाऊंगा जिन्हें सुन कर तुम भी मान जाओगी कि हमारे गुरुजी कितने ज्ञानी और महान हैं.

‘और हां मेनका, मैं तुम्हें एक बात और भी बताना चाहता हूं…’

‘क्या?’ मेनका ने पूछा था.

‘मेरा तुम से एक वादा है कि तुम मां जरूर बनोगी यानी तुम्हें तुम्हारा हक जरूर मिलेगा, क्योंकि गुरुजी ने कहा है कि गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत को तोड़ना पड़ता है.’

मेनका जान गई थी कि अमित गुरुजी के जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है. उस के सारे सपने बिखरते चले गए थे.

अमित एक सरकारी दफ्तर में बाबू के पद पर काम करता था. जब भी उसे समय मिलता तो वह गुरुजी की किताबें ही पढ़ता रहता था.

एक दिन किताब पढ़ते हुए अमित ने कहा था, ‘मेनका, गुरुजी के प्रवचन पढ़ कर तो ऐसा मन करता है कि मैं भी संन्यासी हो जाऊं.’

यह सुन कर मेनका को ऐसा लगा था मानो कुछ तेज सा पिघल कर उस के दिल को कचोट रहा है. वह शांत आवाज में बोल उठी थी, ‘मेरे लिए तो तुम अब भी संन्यासी ही हो.’

‘ओह मेनका, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं. मैं सच कह रहा हूं. अगर तुम गुरुजी की यह किताब पढ़ लो, तुम भी संन्यासिनी हो जाने के लिए सोचने लगोगी,’ अमित ने वह किताब मेनका की ओर बढ़ाते हुए कहा था.

‘अगर इन गुरुओं की किताबें पढ़पढ़ कर सभी संन्यासी हो गए तो काम कौन करेगा? मैं गृहस्थ जीवन में संन्यास की बात क्यों करूं? अगर तुम्हारी तरह मैं भी संन्यासी बनने के बारे में सोचने लगूंगी तो हमारी बेटी पिंकी का क्या होगा? बिना मांबाप के औलाद किस तरह पलेगी? बड़ी हो कर उस की क्या हालत होगी? उस के मन में हमारे लिए प्यार नहीं नफरत होगी. इस नफरत के जिम्मेदार हम दोनों होंगे.

‘जिस बच्चे को हम पालपोस नहीं सकते, उसे पैदा करने का हक भी हमें नहीं है और जिसे हम ने पैदा कर दिया है उस के प्रति हमारा भी तो कुछ फर्ज है,’ मेनका कहा था.

अमित ने कोई जवाब नहीं दिया था.

एक दिन दफ्तर से लौट कर अमित ने कहा था, ‘मेनका, मेरे दफ्तर में 3 दिन की छुट्टी है. मैं सोच रहा हूं कि हम दोनों गुरुजी के आश्रम में हरिद्वार चलेंगे.’

‘मैं क्या करूंगी वहां जा कर?’

‘जब से हमारी शादी हुई है, तुम एक बार भी वहां नहीं गई हो. अब तो तुम मां भी बन चुकी हो. हमें गुरुजी का आशीर्वाद लेना चाहिए… वे हमारे भगवान हैं.’

‘मेरे नहीं सिर्फ तुम्हारे. जहां तक आशीर्वाद लेने की बात है, वह भी तुम ही ले लो. मुझे नहीं चाहिए किसी गुरु का आशीर्वाद.’

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‘मेनका, मैं ने फोन कर के पता कर लिया है. गुरुजी अगले एक हफ्ते तक आश्रम में ही हैं. तुम मना मत करो.’

‘देखो अमित, मैं नहीं जाऊंगी,’ मेनका ने कड़े शब्दों में कहा था.

अमित को गुरुजी से मिलने के लिए अकेले ही हरिद्वार जाना पड़ा था.

3 दिन बाद अमित गुरुजी से मिल कर घर लौटा तो बहुत खुश था.

‘दर्शन हो गए गुरुजी के?’ मेनका ने पूछा था.

‘हां, मैं ने तो गुरुजी से साफसाफ कह दिया था कि आप की शरण में यहां आश्रम में आना चाहता हूं… हमेशा के लिए. गुरुजी ने कहा कि अभी नहीं, अभी वह समय बहुत दूर है. कभी मेनका से बात कर उसे भी समझाएंगे.’

‘वे भला मुझे क्या समझाएंगे? क्या मैं कोई गलत काम कर रही हूं या कोई छोटी बच्ची हूं? तुम ही समझते रहो और आशीर्वाद लेते रहो,’ मेनका ने कहा था.

तभी मेनका को पिंकी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी. पिंकी नींद से जाग चुकी थी. मेनका उसे थपकियां दे कर दोबारा सुलाने की कोशिश करने लगी.

शाम को अमित दफ्तर से लौट कर आया तो मेनका ने कहा, ‘‘आज आप के गुरुजी की किताब आई है डाक से.’’

इतना सुनते ही अमित ने खुश हो कर कहा, ‘‘कहां है… लाओ.’’

मेनका ने अमित को किताब का वह पैकेट दे दिया.

अमित ने पैकेट खोल कर किताब देखी. कवर पर गुरुजी का चित्र छपा था. दाढ़ीमूंछें सफाचट. घुटा हुआ सिर. चेहरे पर तेज व आंखों में खिंचाव था.

अमित ने मेनका को गुरुजी का चित्र दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो मेनका, गुरुजी कितने आकर्षक और तेजवान लगते हैं. ऐसा मन करता है कि मैं हरदम इन को देखता ही रहूं.’

‘‘तो देखो, मना किस ने किया है.’’

‘‘मेनका, तुम जरा एक कप चाय बना देना. मैं अपने गुरुजी की यह किताब पढ़ रहा हूं,’’ अमित बोला.

मेनका चाय बना कर ले आई और मेज पर रख कर चली गई.

अमित गुरुजी की किताब पढ़ने में इतना खो गया कि उसे समय का पता ही नहीं चला.

रात के साढ़े 8 बज गए तो मेनका ने कहा, ‘‘अब गुरुजी को ही पढ़ते रहोगे क्या? खाना खा लीजिए, तैयार है.’’

‘‘अरे हां मेनका, मैं तो भूल ही गया था कि मुझे खाना भी खाना है. गुरुजी की किताब सामने हो तो मैं सबकुछ भूल जाता हूं.’’

‘‘किसी दिन मुझे ही न भुला देना.’’

‘‘अरे वाह, तुम्हें क्यों भुला दूंगा? तुम क्या कोई भूलने वाली चीज हो…’’ अमित ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम खाना लगाओ… मैं आता हूं.’’

मेनका रसोई में चली गई.

रात के 11 बजे थे. मेनका आंखें बंद किए बिस्तर पर लेटी थी. साथ में पिंकी सो रही थी. अमित आराम से बैठा हुआ गुरुजी की किताब पढ़ने में मगन था. तभी वह पुरानी यादों में खो गया.

कुछ साल पहले अमित अपने दोस्त से मिलने चंडीगढ़ गया था. दोस्त के घर पर ही गुरुजी आए हुए थे. तब पहली बार वह गुरुजी के दर्शन और उन के प्रवचन सुन कर बहुत प्रभावित हुआ था.

कुछ महीने बाद अमित गुरुजी के आश्रम में हरिद्वार जा पहुंचा था. आश्रम में गुरुजी के कई शिष्य थे जो आनेजाने वालों की खूब देखभाल कर रहे थे.

अमित उस कमरे में पहुंचा जहां एक तख्त पर केसरी रंग की महंगी चादर बिछी थी. उस पर गुरुजी केसरी रंग का कुरता व लुंगी पहने हुए बैठे थे. भरा हुआ शरीर. गोरा रंग. चंदन की भीनीभीनी खुशबू से कमरा महक रहा था. 8-10 मर्दऔरत गुरुजी के विचार सुन रहे थे. अमित ने गुरुजी के चरणों में माथा टेका था.

कुछ देर बाद अमित कमरे में अकेला ही रह गया था.

‘कैसे हो बच्चा?’ गुरुजी ने उस से पूछा था.

‘कृपा है आप की. आप के पास आ कर मन को बहुत शांति मिली. गुरुजी, मन करता है कि मैं यहीं आप की सेवा में रहने लगूं.’

‘नहीं बच्चा, अभी तुम पढ़ाई कर रहे हो. पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाओ. यह आश्रम तुम्हारा ही है, कभी भी आशीर्वाद लेने आ सकते हो.’

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‘जी, गुरुजी.’

‘एक बात का ध्यान रखना बच्चा कि औरत से हमेशा बच कर रहना. उस से बचे रहोगे तो खूब तरक्की कर सकोगे, नहीं तो अपनी जिंदगी बरबाद कर लोगे. ब्रह्मचर्य से बढ़ कर कोई सुख संसार में नहीं है,’ गुरुजी ने उसे समझाया था.

उस के बाद जब कभी अमित परेशान होता तो गुरुजी के आश्रम में जा पहुंचता.

विचारों में तैरतेडूबते अमित को नींद आ गई और वह खर्राटे भरने लगा.

2 महीने बाद एक दिन दफ्तर से लौट कर अमित ने कहा, ‘‘मेनका, अगले हफ्ते गुरुजी के आश्रम में चलना है.’

‘‘तो चले जाना, किस ने मना किया है,’’ मेनका बोली.

‘‘इस बार मैं अकेला नहीं जाऊंगा. तुम्हें भी साथ चलना है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

आशीर्वाद : भाग 3 – कहानी मेनका, अमित और ढोंगी गुरु की

तभी एक शिष्य अमित के पास आया और बोला, ‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है.’’

अमित एकदम उठा और शिष्य के साथ चल दिया.

गुरुजी के कमरे में पहुंच कर अमित हाथ जोड़ कर बैठ गया.

सामने बैठे गुरुजी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अमित? मेनका नहीं आई?’’

‘‘गुरुजी, मैं ने उसे बहुत कहा, पर वह नहीं आई. कहने लगी कि मैं माफी नहीं मांगूंगी. इस पर मैं ने उसे थप्पड़ भी मार दिया और वह गुस्से में बेटी के साथ कहीं चली गई.’’

‘‘चली गई? कहां चली गई? इस तरह अपनी पत्नी से हमें अपमानित करा कर तुम ने उसे जानबूझ कर यहां से भेजा है. यह तुम ने अच्छा नहीं किया,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखा.

अमित घबरा गया. वह गुरुजी के चरणों में सिर रख कर बोला, ‘‘मैं ने उसे नहीं भेजा गुरुजी. मैं सच कह रहा हूं. मेरा विश्वास कीजिए.’’

‘‘विश्वास… कैसा विश्वास? मुझे तुम जैसे अविश्वासी भक्त नहीं चाहिए. जिन की पत्नी अपने पति की बात न मानती हो. हम ने मेनका को इसलिए बुलाया था कि उसे भी आशीर्वाद मिल जाता.’’

‘‘गुरुजी, आप कहें तो मैं उसे छोड़ दूं. उस से तलाक ले लूं.’’

‘‘हम कुछ नहीं कहेंगे. जो तुम्हारी इच्छा हो करो…’’ गुरुजी ने नाराजगी

भरी आवाज में कहा, ‘‘अब तुम जा सकते हो.’’

‘‘गुरुजी, मेनका की ओर से मैं माफी मांगता हूं.’’

‘‘ऐसा नहीं होता कि किसी के अच्छेबुरे कर्मों का फल किसी दूसरे को दिया जाए. तुम अपने कमरे में जाओ,’’ गुरुजी ने अमित की ओर गुस्से से देखते हुए कहा.

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अमित चुपचाप थके कदमों से अपने कमरे में पहुंचा.

कुछ देर बाद 2 शिष्य अमित के पास आए और उस के बैग में से कपड़े निकाल कर बाहर डालने लगे मानो कुछ ढूंढ़ रहे हों.

अमित समझ नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है? उस ने पूछा, ‘‘भैयाजी, यह क्या कर रहे हो? बैग से कपड़े क्यों निकाल रहे हो?’’

‘‘अभी पता चल जाएगा,’’ कहते हुए एक शिष्य ने बैग में से एक लाल रंग की बहुत सुंदर सी डब्बी निकाल कर खोली. उस में हीरे की एक अंगूठी थी.

दूसरा शिष्य बोला, ‘‘आज ही यह अंगूठी गुरुजी को दिल्लीवासी एक भक्त ने भेंट में दी थी. उस भक्त की आभूषण की दुकान है. यह डब्बी कुछ देर पहले से गायब थी. हमें तुम पर शक था, पर अब तो पता चल गया कि यह चोरी तुम ने ही की है.’’

‘‘नहीं, मैं ने अंगूठी नहीं चुराई. मैं चोर नहीं हूं. मुझे अंगूठी के बारे में कुछ नहीं मालूम. मैं बेकुसूर हूं,’’ अमित घबरा कर बोला.

‘‘अंगूठी तेरे पास से मिली है और तू कहता है कि तू ने चोरी नहीं की,’’ एक शिष्य ने कहा.

तभी 2 शिष्य और आ गए. उन चारों ने अमित के साथ मारपीट शुरू कर दी.

अमित के साथ हो रही मारपिटाई की आवाज सुन आश्रम में कुछ भक्त कमरों से बाहर निकल कर देखने गए. जब उन्हें पता चला कि गुरुजी की अंगूठी चुराने पर उस की पिटाई की जा रही है तो किसी ने भी उसे छुड़ाने की कोशिश नहीं की. सभी नफरत और गुस्से से अमित की ओर देख रहे थे.

सभी का कहना था कि ऐसे चोर की तो खूब पिटाई कर के पुलिस में देना चाहिए.

चारों शिष्यों ने अमित की इतनी पिटाई कर दी कि वह बेहोश हो गया. आश्रम से बाहर उसे सड़क के किनारे फेंक दिया.

गाडि़यां आतीजाती रहीं. लोग देखते रहे कि सड़क के किनारे कोई शख्स पड़ा हुआ है.

पुलिस की गश्ती गाड़ी उधर से जा रही थी. सड़क के किनारे किसी को पड़ा हुआ देख कर गाड़ी रुकी. दारोगा और

2 सिपाही उतरे. उन्होंने अमित को देखा. उस के चेहरे पर मारपिटाई के निशान थे. मुंह व सिर से खून भी निकला था.

पुलिस ने उसे उठा कर जिला अस्पताल में भरती करा दिया. डाक्टर से कह दिया कि जब यह होश में आ जाए तो सूचना दे देना.

सुबह तकरीबन 7 बजे अमित को होश आया तो उस का पूरा शरीर बुरी तरह से दुख रहा था.

डाक्टर ने अमित के पास आ कर पूछा, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘अमित.’’

‘‘क्या रात को किसी से झगड़ा हो गया था?’’ डाक्टर ने सवाल किया.

अमित ने सबकुछ बता दिया कि वह गुरुजी का एक भक्त है. पत्नी के साथ यहां आश्रम में आया था. रात पत्नी से कहासुनी होने पर वह चली गई. गुरुजी के शिष्यों ने उस पर चोरी का आरोप लगा कर मारपिटाई कर सड़क पर फेंक दिया.

‘‘तुम्हारा समय अच्छा है अमित कि उन शिष्यों ने तुम्हारी जान नहीं ली. वे तुम्हें बेहोशी की हालत में गंगा में भी फेंक सकते थे. अब उन्होंने तुम्हारा बैग, मोबाइल वगैरह सामान जरूर फेंक दिया होगा गंगा में.’’

अमित चुप रहा.

‘‘अब तुम्हारी पत्नी कहां होगी?’’ डाक्टर ने पूछा.

‘‘पता नहीं. वह बेटी को ले कर चली गई थी कि रात को किसी होटल में रुकेगी. सुबह बस या टे्रन से वापस जाने की बात कह रही थी.’’

‘‘उस के पास मोबाइल फोन होगा. जरा उस का नंबर बताओ.’’

अमित ने मेनका का मोबाइल नंबर बताया. डाक्टर ने नंबर मिलाया तो उधर घंटी बजने लगी.

‘हैलो,’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘मैडम मेनका बोल रही हैं?’’

‘हां, बोल रही हूं. आप कौन?’

‘‘मैं यहां सिविल अस्पताल से डाक्टर विपिन बोल रहा हूं. आप के पति अमित यहां अस्पताल में भरती हैं. अब वे काफी ठीक हैं. लीजिए उन से बात कीजिए,’’ कहते हुए डाक्टर ने मोबाइल अमित को दे दिया.

‘‘हैलो,’’ अमित की कराहती सी आवाज निकली.

‘क्या हुआ? तुम ठीक तो हो न? अस्पताल में क्यों? तुम्हारी तो आवाज भी नहीं निकल रही है.’

‘‘तुम यहां आ जाओ मेनका. मैं तुम्हारे बगैर जी नहीं सकूंगा,’’ कहतेकहते अमित को रुलाई आ गई.

‘मैं आ रही हूं. बस अभी पहुंच रही हूं,’ उधर से मेनका की घबराई सी आवाज सुनाई पड़ी.

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डाक्टर ने पुलिस को सूचना दे दी कि अमित को होश आ गया है.

कुछ देर बाद चिंतित व डरी सी मेनका पिंकी के साथ अस्पताल में अमित के पास पहुंची. अमित के चेहरे पर चोट के निशान थे. सिर पर पट्टी बंधी हुई थी.

अमित को देखते ही वह कांप उठी. उस ने पूछा, ‘‘यह कैसे हुआ?’’

अमित ने सबकुछ बता दिया.

तभी दारोगा व एक सिपाही उन के पास आए. दारोगा ने पूछा, ‘‘अब कैसे हो आप?’’

‘‘ठीक हूं…’’ अमित ने कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी और बेटी हैं.’’

‘‘अच्छा, अब आप यह बताओ कि हमें क्या करना है? आप चाहें तो रिपोर्ट लिखा सकते हो.’’

‘‘नहीं सर, हमें कोई रिपोर्ट नहीं लिखवानी है. हमें यह भी पता चल गया है कि गुरुजी की पहुंच ऊपर तक है. कई मंत्री व बड़ेबड़े नेता भी यहां आश्रम में आते रहते हैं. गुरुजी का कुछ नहीं बिगड़ेगा,’’ अमित ने कहा.

‘‘जिस दिन भी इस शैतान गुरु के पाप का घड़ा भर जाएगा, उस दिन यह भी नहीं बचेगा,’’ मेनका बोली.

कुछ देर तक बातचीत कर के दारोगा सिपाही के साथ वापस चला गया.

पछतावे के साथ अमित बोला, ‘‘कल सुबह अस्पताल से मुझे छुट्टी मिल जाएगी. हम वापस घर चले जाएंगे.

‘‘मेनका, मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस गुरु को मैं भगवान समझता रहा, वह एक शैतान है. इस गुरु की अंधभक्ति में मैं ने जिंदगी के इतने साल बरबाद कर दिए.

‘‘मैं ने हमेशा तुम्हारी कही गई बातों की अनदेखी की. तुम तो इन ढोंगी बाबाओं से नफरत करती थीं, लेकिन मैं उस की वजह नहीं समझ पाया.

‘‘तुम ने इशारोंइशारों में कई बार मुझे समझाने की कोशिश भी की थी, पर मेरी अक्ल पर तो जैसे पत्थर पड़ गए थे. दुख की बात तो यह है कि मैं ही तुम्हें यहां जबरदस्ती लाया था.’’

‘‘पुरानी बातों को सोच कर अपना मन मत दुखाओ. अगर मैं इस शैतान का कहना मान लेती तो कुछ भी न होता. तुम पर कोई आरोप न लगता. मारपिटाई भी न होती और न ही मुझे पिंकी के साथ होटल में जाना पड़ता.

‘‘मैं उन औरतों जैसी नहीं हूं जो अपने पति से विश्वासघात कर ऐसे ढोंगी गुरु की हर बात मान लेती हैं,’’ मेनका बोली.

‘‘मेनका, तुम तो बहुत पहले से ही मुझे समझा रही थीं, पर मैं ही गहरी नींद में आंखें बंद किए हुए था. काश, मैं भी तुम्हारी तरह गुरुजी के जाल में न फंसता.’’

‘‘कोई बात नहीं, जब जागो तभी सवेरा,’’ मेनका ने अमित की ओर देखते हुए कहा.

अमित एक नई सीख ले कर अस्पताल से सीधा अपने घर की ओर चल दिया. उस ने मन में ठान लिया था कि घर जाते ही वह उस ढोंगी गुरु के दिए गए सामान को फिंकवा देगा.

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