पिताजी का तो सारा रुटीन ही बदल गया था. वे सुबह उठते, सैर कर के आते तो सब के लिए चाय बना देते. फिर बिना चिल्लाए सब को उठाते और बिना नाश्ते की मांग किए ही अस्पताल चले जाते. एक बार तो अच्छा लगा कि पिताजी मम्मी के पास जा रहे हैं पर फिर यह सोच कर डर लगा कि कहीं अस्पताल में जा कर भी तो मम्मी को डांटते नहीं हैं कि तू दवा क्यों नहीं पी रही, तू उठ कर बैठने की कोशिश क्यों नहीं करती. तू अपने आप हिला कर ताकि जल्दी ठीक हो. सौ सवाल थे जेहन में पर जवाब एक का भी नहीं मिल पाता था. मुझे कभीकभी यह भी समझ में नहीं आता था कि मैं मम्मी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हूं? क्यों लगता है कि पिताजी उन्हें डांटें नहीं, उन्हें परेशान न करें. मैं मन ही मन पिताजी से नाराज हूं या आतंकित हूं, यह भी समझ में नहीं आता था.
मैं तो पूरी तरह घरेलू महिला ही बन गई थी. पूरे घर की सफाई, कपड़े और रसोई का काम. रात अस्पताल में रह कर दीदी सुबह लौटतीं तो उन के आने से पहले अधिकतर काम मैं निबटा चुकी होती थी. वे भी मुझे देख कर हैरान होतीं. दीदी रात की जगी होतीं तो नाश्ता करते ही बिस्तर पर सो जातीं. थोड़ा काम करवा पातीं कि फिर से उन के अस्पताल जाने का वक्त हो जाता.
दोनों भाई बारीबारी से छुट्टी ले रहे थे. एकदो बार तो यों भी हुआ कि पिताजी रात को करवटें बदलते रहे और उन की नींद सुबह खुली ही नहीं. वे भी 6 बजे हमारे साथ जागे. मुझे यही लगा कि पिताजी को आदत है हर समय मम्मी को डांटते रहने की. अब मम्मी सामने नहीं हैं तो परेशान हो रहे हैं कि किसे डांटूं. हमें डांटतेडांटते भी चुप हो जाते.
उस दिन शाम को पिताजी घर लौटे तो बोले, ‘‘नीला, कितने दिन हो गए तेरी मां को अस्पताल गए हुए?’’ मैं ने बिना उन्हें देखे चाय देते हुए जवाब दिया, ‘‘10 दिन तो हो ही गए हैं.’’
पिताजी बोले, ‘‘तेरा मन नहीं किया अपनी मां से मिलने को?’’
मैं इतने दिनों से मम्मी की कमी महसूस कर रही थी पर बोल नहीं पा रही थी. पिताजी की इस बात से मेरे मन के भीतर कुछ उबाल सा उठने लगा. इस से पहले कि मैं कोई जवाब देती, पिताजी सपाट शब्दों में फिर बोले, ‘‘तेरी मां तुझे याद कर रही थी.’’ मैं भीतर के उबाल को रोक नहीं पाई, तेजी से रसोई में जा कर काम करतेकरते रोने लगी.
‘आप को क्या पता कि मैं कितनी परेशान हूं, हर पल मम्मी के घर आने की खबर का इंतजार कर रही हूं. वहां जाऊंगी और देखूंगी कि आप फिर मम्मी को ही हर बात के लिए दोष दे रहे हो, उन्हें डांट रहे हो तो और भी दुख होगा. वैसे भी आप को क्या फर्क पड़ता है कि मम्मी घर पर रहें या अस्पताल में.
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‘अस्पताल में जा कर भी क्या करते होंगे, मुझे पता है? आप से दो शब्द तो प्रेम के बोले नहीं जाते, मम्मी को टेंशन ही देते होंगे, तभी मम्मी 10 दिन अस्पताल में रहने के बावजूद अभी तक ठीक नहीं हो पाई हैं. हम बच्चों से पूछिए जिन्हें हर पल मां चाहिए. भले ही वे हमारे लिए कोई काम करें या न करें. मम्मी भी मुझे याद कर रही हैं. सभी तो मम्मी से मिलने अस्पताल चले गए, एक मैं ही नहीं गई.’ मैं रोतेरोते मन ही मन हर पल पिताजी को कोसती रही.
सोचतेसोचते मेरे हाथ से दूध भरा पतीला फिसल कर जमीन पर गिर गया. पूरी रसोई दूध से नहा गई और मैं यह सोच कर घबरा गई कि पिताजी अभी जोर से डांटेंगे और चिल्लाएंगे. सोचा ही था कि पिताजी हाथ में चाय का कप लिए सामने आ गए. पूर्वी और मोहन भैया भी आ गए.
पिताजी चुपचाप खड़े रहे. मोहन भैया घबरा कर बोले, ‘‘तेरे ऊपर तो गरम दूध नहीं गिरा?’’ मैं कसमसाई, ‘‘नहीं, पर सारा दूध गिर गया.’’ पूर्वी पोछा लेने दौड़ी. पिताजी ने बहुत ही शांत स्वर में कहा, ‘‘मोहन, बाजार से और दूध ले आओ,’’ और वापस अपने कमरे में चले गए. मैं पिताजी की पीठ ही देखती रह गई. मोहन भैया भी शांति से बोले, ‘‘तू अपना ध्यान रखना, कहीं जला न बैठना, मैं और दूध ले आता हूं.’’ पता नहीं क्यों फिर मम्मी की याद आ गई और मैं रोने लगी.
अगले दिन विनीता दीदी ने भी कहा कि आज रात तू मम्मी के पास रहना, मम्मी याद कर रही थीं. वैसे भी मेरी रात की नींद पूरी नहीं हो पा रही, कहीं मैं भी बीमार न हो जाऊं. मेरा मन भी मम्मी से मिलने का हो रहा था. मैं जानबूझ कर ज्यादा देर से जाना चाहती थी ताकि पिताजी अपने समय से निकल कर घर आ जाएं और मैं मम्मी के गले लग कर खूब रो सकूं. सब दिनों की कसर पूरी हो जाए.
मैं अस्पताल के आंगन में बिना वजह आधा घंटा बरबाद कर के मम्मी के स्पेशल वार्ड में पहुंची कि अब तो पिताजी निकल ही गए होंगे, पर जैसे ही अंदर जाने लगी पिताजी की आवाज सुनाई दी तो मेरे कदम वहीं रुक गए.
‘‘वीना, तू कह तो रही है मुझे जाने के लिए, लेकिन मेरा मन नहीं मानता कि तुझे अकेला छोड़ कर जाऊं. तेरे बिना मुझे घर काटने को दौड़ता है. मुझे तेरे बिना जीने की आदत नहीं है,’’ पिताजी का स्वर रोंआसा था.
‘‘आप तो इतने मजबूत दिल के हो, फिर क्यों रो रहे हो?’’
‘‘हां, हूं मजबूत दिल का, दुनिया के सामने अपनी कमजोरी दिखा नहीं सकता, मर्द हूं न, लेकिन मेरा दिल जानता है कि पत्थर बनना कितना मुश्किल होता है. तू जल्दी से ठीक हो जा, अब बरदाश्त नहीं हो रहा मुझे से,’’ पिताजी बच्चों की तरह फफक रहे थे.
‘‘आप ऐसे रोएंगे तो बच्चों को कौन संभालेगा. जाइए न. बच्चे भी तो घर पर अकेले होंगे,’’ मम्मी का स्वर भी रोंआसा था.
‘‘तू हाथ मत छुड़ा. अगर अस्पताल वाले मुझे इजाजत देते रात भर यहां रहने की तो दिनरात तेरी सेवा कर के तुझे साथ ले कर ही घर जाता. बच्चे भी तुझ पर गए हैं. मुझ से बोलते नहीं, पर सब तेरे घर आने का ही इंतजार कर रहे हैं. कोई अब शोर नहीं मचाता, न ही कोई टीवी देखता है,’’ पिताजी के शब्द आंसुओं में फिसलने लगे थे. मम्मी भी उसी में पिघल रही थीं.
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आंसुओं से मेरी भी आंखें धुंधला गई थीं. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. पिताजी के पत्थर दिल के पीछे प्रेम की अमृतधारा का इतना बड़ा झरना बह रहा है, यह तो मैं कभी देख ही नहीं पाई. मैं ने तो अपनी मम्मीपापा को एकसाथ बिस्तर पर हाथ में हाथ डाले बैठे नहीं देखा था लेकिन आज जो मेरे कानों ने मुझे नजारा दिखाया वह मेरी आंखें भी देखना चाह रही थीं. प्यार से लबालब भरे पिताजी की इस सूरत को देखने के लिए मैं तेजी से वार्ड में प्रवेश कर गई.
मेरे सामने आते ही पिताजी ने मम्मी के हाथ से अपना हाथ तेजी से हटा लिया. मैं एकदम मम्मी के गले लग कर जोर से रो पड़ी. मम्मी भी रो पड़ी थीं, ‘‘पागल है, रो क्यों रही है? मैं तो एकदो दिन में आ रही हूं.’’
वे नहीं जानती थीं कि मेरे इन आंसुओं में पिताजी की ओर से मेरा हर रोष धुल गया था. मैं ने पिताजी को कनखियों से देखा. पिताजी का चेहरा आंसुओं से खाली था पर अब मुझे वहां पत्थर दिल नहीं ‘प्यारे’ पिताजी दिख रहे थे, जो हमसब को खासतौर पर मम्मी को, बहुतबहुत प्यार करते थे.



