प्यार : निखिल अपनी पत्नी से क्यों दूर होने लगा था

कहने को निखिल मुझ से बहुत प्यार करते हैं. सभी कहते हैं कि निखिल जैसा पति संयोग से मिलता है. घर में सभी सुखसुविधाएं हैं. मैं जो चाहती हूं वह मुझे मिल जाता है लेकिन लोग यह क्यों नहीं समझते कि मैं इनसान हूं. मुझे घर में सजी रखी वस्तुओं से ज्यादा छोटेछोटे खुशी के पलों की जरूरत है.

शादी के इतने साल बाद भी मुझे यह याद नहीं पड़ता कि कभी निखिल ने मेरे पास बैठ कर मेरा हाथ पकड़ कर यह पूछा हो कि मेघा, तुम खुश तो हो या मैं तुम्हें उतना समय नहीं दे पाता जितना मुझे देना चाहिए लेकिन फिर भी मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. निखिल और मुझ में हमेशा एक दूरी ही रही. मैं अपने उस दोस्त को निखिल में कभी नहीं देख पाई जो एक लड़की अपने पति में ढूंढ़ती है. मैं कभी अपने मन की बात निखिल से नहीं कह पाई. मुझे निखिल के रूप में हमसफर तो मिला लेकिन साथी कभी नहीं मिला. इतने अपनों के होते हुए भी आज मैं बिलकुल अकेली हूं. जिस रिश्ते में मैं ने प्यार की उम्मीद की थी, मेरे उसी रिश्ते में इतनी दूरी है कि एक समुद्र भी छोटा पड़ जाए. मैं अपने इस रिश्ते को कभी प्यार का नाम नहीं दे पाई. मेरे लिए वह बस, एक समझौता ही बन कर रह गया जिसे मुझे निभाना था…चाहे घुटघुट कर ही सही. मैं ने धीरेधीरे अपने हालात से समझौता करना सीख लिया था.

 

अपने आसपास से छोटीछोटी खुशियों के पल समेट कर उन्हीं को अपने जीने की वजह बना लिया था. मैं ने इस के लिए एक स्कूल में नौकरी कर ली थी, जहां बच्चों की छोटीछोटी खुशियों में मैं अपनी खुशियां भी ढूंढ़ लेती थी. बच्चों की प्यारी और मासूमियत भरी बातें मुझे जीने का हौसला देती थीं. किसी इनसान के पास अगर उस के अपनों का प्यार होता है तो वह बड़ी से बड़ी मुसीबत का सामना भी आसानी से कर लेता है, क्योंकि उसे पता होता है कि उस के अपने उस के साथ हैं. लेकिन उसी प्यार की कमी उसे अंदर से तोड़ देती है, बिखरने लगता है सबकुछ…मैं भी टूट कर बिखर रही थी लेकिन मेरे अंदर का टूटना व बिखरना किसी ने नहीं देखा. जिंदगी का यह सफर सीधा चला जा रहा था कि अचानक उस में एक मोड़ आ गया और मेरी जिंदगी ने एक नई राह पर कदम रख दिया. मेरे दिल की सूखी जमीन पर जैसे कचनार के फूल खिलने लगे और उसी के साथ मेरे अरमान भी महकने लगे. स्कूल में एक नए टीचर समीर की नियुक्ति हुई. वह विचारों से जितने सुलझे थे उन का व्यक्तित्व भी उतना ही आकर्षक था. उन से बात कर के दिल को न केवल बहुत राहत मिलती थी बल्कि वक्त का भी एहसास नहीं रहता था. समीर कहा करते थे कि इनसान जो चाहता है उसे हासिल करने की हिम्मत खुद उस में होनी चाहिए. एक दिन बातों ही बातों में समीर ने पूछ लिया, ‘मेघा, तुम इतनी अलगअलग सी क्यों रहती हो? किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती हो. क्यों तुम ने अपने अंदर की उस लड़की को कैद कर के रखा है, जो जीना चाहती है? क्या तुम्हारा दिल नहीं करता कि उड़ कर उस आसमान को छू लूं…एक बार अपने अंदर की उस लड़की को आजाद कर के देखो, जिंदगी कितनी खूबसूरत है.’ समीर की बातें सुनने के बाद मुझे लगने लगा था कि मेरा भी कुछ अस्तित्व है और मुझे भी अपनी जिंदगी खुशियों के साथ जीने का हक है.

यों घुटघुट कर जीने के लिए मैं ने जन्म नहीं लिया है. इस तरह मुझे मेरे होने का एहसास दिया समीर ने और मुझे लगने लगा था जैसे मुझे वह दोस्त व साथी मिल गया है जिस की मुझे तलाश थी, जिसे मैं ने हमेशा निखिल में ढूंढ़ा लेकिन मुझे कभी नहीं मिला. मैं फिर से सपने देखना चाहती थी लेकिन मन में एक डर था कि यह सही नहीं है. समीर की आंखों में एक कशिश थी जो मुझे मुझ से ही चुराती जा रही थी. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था और मैं कहीं न कहीं अपने को बचाने की कोशिश कर रही थी लेकिन असफल होती जा रही थी. मन कह रहा था कि सभी पिंजरे तोड़ कर खुले आकाश में उड़ जाऊं पर इस दुनिया की रस्मोरिवाज की बेडि़यां, जिन में मैं इस कदर जकड़ी हुई थी कि उन्हें तोड़ने की हिम्मत नहीं थी मुझ में. मेरे अंदर एक द्वंद्व चल रहा था. दिल और दिमाग की लड़ाई में कभी दिल दिमाग पर हावी हो जाता तो कभी दिमाग दिल पर. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. समीर का बातें करतेकरते मेरे हाथ को पकड़ना, मुझे छूने की कोशिश करना, मुझे अच्छा लगता था. उन के कहे हर एक शब्द में मुझे अपनी जिंदगी आसान करने की राह नजर आती थी. मेरा मन करने लगा था कि मैं दुनिया को उन की नजरों से देखूं, उन के कदमों से चल कर अपनी राहें चुन लूं. भुला दूं कि मेरी शादी हो चुकी है. पता नहीं वह सब क्या था जो मेरे अंदर चल रहा था. एक अजीब सी कशमकश थी.

अपने अंदर की इस हलचल को छिपाने की मैं कोशिश करती रहती थी. डरती थी कि कहीं मेरे जज्बात मेरी आंखों में नजर न आ जाएं और कोई कुछ समझे, खासकर समीर को कुछ समझ में आए. समीर जब भी मेरे सामने होते थे तो मन करता था कि उन्हें अपलक देखती रहूं और यों ही जिंदगी तमाम हो जाए. उन की आंखों में डूब जाने का मन करता था. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं और क्या न करूं. दिमाग कहता था कि मुझे समीर से दूरी बना कर रखनी चाहिए और दिल उन की ओर खिंचता ही जा रहा था. दिमाग कहता था कि नौकरी ही छोड़ दूं और दिल मेरे कदमों को खुद ब खुद उस राह पर डाल देता था जो समीर की तरफ जाती थी. बहुत सोचने के बाद मैं ने दिमाग की बात मानने में ही भलाई समझी और फैसला किया कि अपने बढ़ते कदमों को रोक लूंगी. मैं ने समीर से कतराना शुरू कर दिया. अब मैं बस, काम की ही बात करती थी. समीर ने कई बार मुझ से बात करने की कोशिश की लेकिन मैं ने टाल दिया. वह परेशानी जो अब तक मैं ने अपने मन में छिपा रखी थी अब समीर की आंखों में दिखने लगी थी और मैं अपनेआप को यह कह कर समझाने लगी थी कि क्या हुआ अगर समीर मेरे पास नहीं हैं, कम से कम मेरे सामने तो हैं. क्या हुआ अगर हमसफर नहीं बन सकते, मगर वह मेरे साथ हमेशा रहेंगे मेरी यादों में…मेरे जीने के लिए तो इतना ही काफी है. मैं अपने विचारों में खोई समीर से दूर, बहुत दूर जाने के मनसूबे बना रही थी कि अगले दिन समीर स्कूल नहीं आए. मेरी नजरें उन्हें ढूंढ़ रही थीं लेकिन किसी से पूछने की हिम्मत नहीं थी क्योंकि जब अपने मन में ही चोर हो तो सारी दुनिया ही थानेदार नजर आने लगती है. किसी तरह वह दिन बीता पर घर आने के बाद भी अजीब सी बेचैनी छाई हुई थी.

अगले दिन भी समीर स्कूल नहीं आए और इसी तरह 4 दिन निकल गए. मेरी बेचैनी दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही थी फिर बहुत हिम्मत कर के सोचा कि फोन ही कर लेती हूं. कुछ तो पता चलेगा. मैं ने फोन किया तो उधर से सीमा ने फोन उठाया. मैं ने उस से पूछा, ‘‘अरे, सीमा तुम, कब आईं होस्टल से?’’ ‘‘दीदी, मुझे तो आए 2 दिन हो गए,’’ सीमा ने बताया. ‘‘सब ठीक तो है न…समीरजी भी 4 दिन से स्कूल नहीं आ रहे हैं.’’ ‘‘दीदी, इसीलिए तो मैं यहां आई हूं. भैया की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है और मेरी बातों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा. न तो ठीक से कुछ खा रहे हैं और न ही समय पर दवा ले रहे हैं. मैं तो कहकह कर थक गई. आप ही आ कर समझा दीजिए न.’’ मैं सीमा को मना नहीं कर पाई और अगले दिन आने को कह दिया. अगले दिन समीर के घर जा कर घंटी बजाई तो सीमा ने ही दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह बोली, ‘‘अंदर आइए न, मेघाजी, मैं तो आप का ही इंतजार कर रही थी.’’ ‘‘कैसी हो, सीमा,’’ मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है.’’ ‘‘पढ़ाई तो ठीक चल रही है, मेघाजी,’’ सीमा बोली, ‘‘बस, समीर भैया की चिंता है. हम दोनों का एकदूसरे के सिवा है ही कौन और मैं तो होस्टल में रहती हूं और भैया यहां पर बिलकुल अकेले. जब से मैं घर आई हूं देख रही हूं कि भैया बहुत उदास रहने लगे हैं. आप ही देखो न कितना बुखार है लेकिन ढंग से दवा भी नहीं लेते. आप तो उन की दोस्त हैं, आप ही बात कीजिए, शायद उन की समझ में आ जाए.’’ मैं सीमा के साथ समीर के कमरे में गई तो वह लेटे हुए थे. बहुत कमजोर लग रहे थे. मैं ने माथे पर हाथ रखा तो बुखार अभी भी था. मैं ने सीमा से कुछ खाने के लिए और ठंडा पानी लाने के लिए कहा और समीर को बैठने में मदद करने लगी. सीमा खिचड़ी ले आई.

मैं खिलाने लगी तो समीर बच्चों की तरह न खाने की जिद करने लगे. मैं ने कहा, ‘‘समीरजी, आप अपना नहीं तो कम से कम सीमा का तो खयाल कीजिए… वह कितनी परेशान है.’’ खैर, उन्हें खिचड़ी खिला कर दवा दी और लिटा दिया. मैं माथे पर पानी की पट्टियां रखने लगी. कुछ देर बाद बुखार कम हो गया. समीर सो गए तो मैं ने सीमा से कहा, ‘‘सीमा, मैं जा रही हूं. तुम अपने भैया का ध्यान रखना. अगर हो सका तो मैं कल फिर आने की कोशिश करूंगी.’’ मैं घर आ गई लेकिन दिमाग में एक सवाल घूम रहा था कि क्या समीर की इस हालत की जिम्मेदार मैं हूं? क्या मेरी बेरुखी से वह इतने आहत हो गए कि उन की तबीयत खराब हो गई. मुझे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था. ये बातें सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. फोन की घंटी की आवाज सुन कर मेरी नींद खुली. घड़ी में सुबह के 8 बज चुके थे. आज भी स्कूल की छुट्टी हो गई, यह सोचते हुए मैं ने फोन उठाया तो दूसरी तरफ सीमा थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘समीरजी की तबीयत कैसी है?’’ ‘‘मेघाजी, भैया ठीक हैं. बस, मुझे एक जरूरी काम से अपनी सहेली के साथ बाहर जाना है और भैया अभी इस लायक नहीं हैं कि उन्हें अकेला छोड़ा जा सके इसलिए आप की मदद की जरूरत है. क्या आप कुछ देर के लिए यहां आ सकती हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ और फोन रख दिया. मैं तैयार हो कर वहां पहुंची तो सीमा और उस की सहेली मेरा ही इंतजार कर रही थीं. वह मुझे थैंक्स कहती हुई चली गई. मैं ने समीर के कमरे में जा कर देखा तो वह सो रहे थे. मैं ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ गई और मेज पर रखी किताब के पन्ने पलटने लगी. थोड़ी देर बाद समीर के कमरे में कुछ आवाज हुई…मैं ने जा कर देखा तो समीर अपने बिस्तर पर नहीं थे. शायद बाथरूम में थे, मैं वहां से आ गई और रसोई में जा कर चाय का पानी चूल्हे पर रख दिया. चाय बना कर जब मैं बाहर आई तो समीर नहा चुके थे. उन की तबीयत पहले से ठीक लग रही थी लेकिन कमजोरी बहुत थी. मुझे देख कर वह चौंक गए. शायद उन्हें पता नहीं था कि मैं वहां पर हूं. ‘‘मेघाजी…आप, सीमा कहां है?’’ ‘‘उसे किसी जरूरी काम से जाना था, आप की तबीयत ठीक नहीं थी. अकेला छोड़ कर कैसे जाती इसलिए मुझे बुला लिया. आप चाय पीजिए, वह आ जाएगी.’’ ‘‘सीमा भी पागल है. अगर उसे जाना था तो चली जाती…आप को क्यों परेशान किया,’’ समीर बोले. मैं ने समीर की तरफ देखा और चुपचाप चाय का प्याला उन्हें थमा दिया.

हम खामोशी से चाय पीने लगे. कुछ भी कहने की हिम्मत न तो मुझ में थी और न शायद उन में. चाय पी कर मैं बर्तन रसोई में रखने के लिए उठी तो समीर ने मेरा हाथ पकड़ लिया. एक सिहरन सी दौड़ गई मेरे पूरे शरीर में. टे्र हाथ से छूट जाती अगर मैं उसे मेज पर न रख देती. मैं ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो उन्होंने और कस कर मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे लिए यह सबकुछ क्यों किया?’’ समीर के मुंह से अपने लिए पहली बार मेघाजी की जगह मेघा और आप की जगह तुम का उच्चारण सुन कर मैं चौंक गई. इस तरह से मुझे पुकारने का अधिकार उन्होंने कब ले लिया. मैं कुछ बोल ही नहीं पा रही थी कि उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘मेघा, तुम ने मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया. तुम ने मेरे लिए यह सब क्यों किया?’’ बहुत हिम्मत कर के मैं ने अपना हाथ छुड़ाया और कहा, ‘‘एक दोस्त होने के नाते मैं इतना तो आप के लिए कर ही सकती थी, इतना भी अधिकार नहीं है मेरा?’’ ‘‘पहले तुम यह बताओ कि क्या हमारे बीच अभी भी सिर्फ दोस्ती का रिश्ता है? मेघा, तुम्हारा अधिकार क्या है और कितना है इस का फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ समीर बोले. मैं ने अपनी नजरें उठाईं तो समीर मुझे ही देख रहे थे. कितना दर्द, कितना अपनापन था उन की आंखों में. दिल चाह रहा था कि कह दूं…समीर, मैं आप से बेइंतहा प्यार करती हूं…नहीं जी सकती मैं आप के बिना. अपने सभी जज्बात, सभी एहसास उन के सामने रख दूं…उन की बांहों में समा जाऊं और सबकुछ भुला दूं लेकिन होंठ जैसे सिल गए थे. बिना कुछ कहे ही हम एकदूसरे के जज्बात और हालात समझ रहे थे. मुझे भी यह एहसास हो चुका था कि समीर भी मुझे उतना ही प्यार करते हैं जितना मैं उन्हें करती हूं. वह भी अपने प्यार की मौन सहमति मेरी आंखों में पढ़ चुके थे और शायद उस अस्वीकृति को भी पढ़ लिया था उन्होंने. कुछ नहीं बोल पाए…हम बस, यों ही जाने कितनी देर बैठे रहे. फिर अचानक समीर ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और मेरे माथे को चूम लिया. अब मैं खुद को रोक नहीं पाई और उन की बांहों में समा गई. कितनी देर हम रोते रहे मुझे नहीं पता. दिल चाह रहा था कि यह पल यहीं रुक जाए और हम यों ही बैठे रहें. फिर समीर ने कहा, ‘‘मेघा, तुम जहां भी रहो खुश रहना और एक बात याद रखना कि मुझे तुम्हारी आंखों में आंसू और उदासी अच्छी नहीं लगती.

मैं चाहे तुम्हारे पास न रहूं, लेकिन तुम्हारे साथ हमेशा रहूंगा. बहुत देर हो गई है, अब तुम जाओ.’’ मैं ने अपना बैग उठाया और वहां से अपने घर आने के लिए निकल पड़ी. इसी प्यार ने एक बार फिर मुझे नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया. मैं ने सोच लिया था कि अब मैं समीर से कभी नहीं मिलूंगी. आज तो उस तूफान को हम पार कर गए, खुद को संभाल लिया, लेकिन दोबारा मैं ऐसा शायद न कर पाऊं और मैं नहीं चाहती थी कि समीर के आगे कमजोर पड़ जाऊं. मैं अपने प्यार को अपना तो नहीं सकती थी लेकिन उसी प्यार को अपनी शक्ति बना कर अपने फर्ज के रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी थी

मैं ने अगले दिन स्कूल में अपना इस्तीफा भेज दिया. मैं ने एक बार फिर प्यार और समझौते में से समझौते को चुन लिया. मेरे अंदर जो प्यार समीर ने जगाया वह एहसास, उन की कही हर एक बात, उन के साथ बिताए हर एक पल मेरी जिंदगी का वह अनमोल खजाना है, जो न तो कभी कोई देख सकता है और न ही मुझ से छीन सकता है. कितना अजीब सा एहसास है न यह प्यार, कब किस से क्या करवाएगा, कोई नहीं जानता. यह एहसास किसी के लिए जान देने पर मजबूर करता है तो किसी की जान लेने पर भी मजबूर कर सकता है. अब आप ही बताइए कि आप प्यार को किस तरह से परिभाषित करेंगे, क्योंकि मेरे लिए तो यह एक ऐसी पहेली है जो कम से कम मैं तो नहीं सुलझा पाई. मैं नहीं जानती कि मैं ने इतना प्यार करते हुए भी समीर को क्यों नहीं अपनाया और अपनी शादी के समझौते.

चलो एक बार फिर से : अमित का नेहा के लिए प्यार

‘कुछ तो था हमारे दरमियां… आज भी तुम्हें देख कर दिल की बस्ती में हलचल हो गई है…’

नेहा को देखते ही यह शायरी अमित के होठों पर खुद ब खुद आ गई थी. वही खुले लंबे बाल, बड़ीबड़ी झील सी गहरी आंखें, माथे पर लंबी सी बिंदिया और आंखों में कितने ही सवाल…अपनी साड़ी का पल्लू संभालती हुई नेहा मुड़ी तभी दोनों की नजरें टकरा गई थीं.

अमित एकटक उसे ही निहारता रह गया. नेहा की आंखों ने भी पल भर में उसे पहचान लिया था. अमित कुछ कहना चाहता था मगर नेहा ने खुद को संभाला और निगाहें फेर लीं.

अमित को लगा जैसे एक पल में मिली हुई खुशी अगले ही पल छिन गई हो. नेहा ने चोर नजरों से फिर उसे देखा. अमित अबतक उसी की तरफ देख रहा था.

“हैलो नेहा” अमित से रहा नहीं गया और वह उस के पास पहुंच गया.

“हैलो कैसे हो ?” धीमे स्वर में नेहा ने पूछा.

“जैसा छोड़ कर गई थीं.” अमित ने जवाब दिया तो नेहा ने एक भरपूर निगाह उस पर डाली और हौले से मुस्कुराती हुई बोली, “ऐसा तो नहीं लगता. थोड़े तंदुरुस्त हो गए हो.”

“अच्छा” अमित हंस पड़ा.

दोनों करीब 4 साल बाद एकदूसरे से मिले थे. 4 साल पहले ऐसे ही स्टेशन पर नेहा को गाड़ी में बिठा कर अमित ने विदा किया था. नेहा उस की जिंदगी से दूर जा रही थी. अमित उसे रोकना चाहता था मगर दोनों का ईगो आड़े आ गया था. वह गई तो मायके थी पर दोनों को ही पता था कि वह हमेशा के लिए जा रही है. लौट कर नहीं आएगी और फिर 2 महीने के अंदर ही तलाक के कागजात अमित के पास पहुंच गए. एक लंबी अदालती कार्यवाही के बाद दोनों की जिंदगी के रास्ते अलग हो गए.

“चाय पीओगी या कॉफी ?” पुरानी यादों का साया परे करते हुए अमित ने पूछा था.

“हां कॉफी पी लूंगी. तुम तो चाय पियोगे न. बट आई विल प्रेफर कॉफी.”

“ऑफकोर्स. अभी लाता हूं.”

नेहा अमित को जाता हुआ पीछे से देर तक देखती रही. तलाक के बाद उस ने शादी कर ली थी पर अमित अब तक अकेला था. वह नेहा को अपने दिलोदिमाग से निकाल नहीं सका था. शायद यही हालत नेहा की भी थी. मगर शादी के बाद प्राथमिकताएं बदल जाती हैं और वैसा ही नेहा के साथ भी हुआ था.

“और बताओ कैसी हो? सब कैसा चल रहा है? ”

अमित चाय और कॉफी ले आया था. नेहा के पास बैठते हुए उस ने पूछा तो एक लंबी सांस ले कर नेहा बोली,” सब ठीक ही चल रहा है. बस आजकल अपनी तबीयत को ले कर थोड़ी परेशान रहती हूं.”

“क्यों क्या हुआ तुम्हें?” चिंतित स्वर में अमित ने पूछा.

“कुछ नहीं बस अस्थमा से थोड़ी प्रॉब्लम हो रही है. सांस की तकलीफ रहती है.”

“आजकल तो वैसे भी कोरोना फैल रहा है. तुम्हें तो फिर अपना खास ख्याल रखना चाहिए.”

“हां वह तो रखती हूं. बस 2 दिन का देहरादून में काम है और फिर वापस नागपुर लौटना है. सुजय अभी नागपुर में ही शिफ्टेड है न.”

“अच्छा. मैं भी दिल्ली काम से आया था. मुझे भी वापस कोटा जाना है.*

“मेरी ट्रेन सुबह 6.40 की है. अमित जरा तुम देखो न, ट्रेन कब आएगी? स्टेशन मास्टर से पूछ कर बताओ न जरा. ट्रेन टाइम पर है या लेट है?”

“हां अभी पूछता हूं.” कह कर अमित चला गया.

पूछताछ करने पर पता चला कि लॉकडाउन हो गया है और इस वजह से ट्रेनें रद्द हो गई हैं. नेहा घबरा गई.
“अब क्या होगा ट्रेन कब चलेगी?”

“देखो नेहा. अभी तो यही पता चल रहा है कि 31 मार्च तक ट्रेनें रद्द कर दी गई हैं. सब कुछ बंद है. लौकडाउन में ट्रेनों के परिचालन पर पाबंदी लग गई है.”

“अरे अब मैं कहां जाऊंगी? ऐसा कैसे हो गया? होटल खुले हैं या नहीं?”

नेहा घबरा गई थी. उसे शांत कराते हुए अमित बोला,” नेहा परेशान मत हो. मेरे कजिन ब्रदर का घर है यहां. वह आजकल मुंबई में जॉब कर रहा है. इसलिए घर की चाबी मुझे दी हुई है. मुझे अक्सर यहां आना पड़ता है तो मैं उसी घर में ठहर जाता हूं. डोंट वरी. तुम भी मेरे साथ चलो. अभी तुम्हें वहीं ठहरा देता हूं. इतना तो विश्वास कर ही सकती हो मुझ पर. ”

“ओके डन. चलो.” नेहा अमित के साथ चल दी.

अमित उसे ले कर कजिन के घर पहुंचा. एक बेडरूम के इस घर में बाहर बड़ी सी बालकनी और झूला भी था. अच्छाखासा लौन था. गलियारे में सुंदर पेड़पौधे भी लगे हुए थे. घर छोटा मगर काफी खूबसूरत था.

अमित के घर पहुंच कर नेहा ने सारी बातें अपने वर्तमान पति यानि सुजय को बता दीं. परेशानी के वक्त पुराने पति की मदद लेने और उस के घर पर ठहरने के फैसले को सुजय ने पॉजिटिव वे में लिया और उस के सुरक्षित होने की खबर पर खुशी जाहिर की.

“गुड. थैंक्स अमित.” नेहा ने घर का मुआयना करते हुए कहा

” चलो तुम फ्रेश हो जाओ. मैं खाना बनाता हूं. तुम मेरी गेस्ट हो ना.”

“अच्छा तो अब तुम बनाओगे खाना? जब हम साथ थे तब तो कभी किचन में झांकते भी नहीं थे.”

“वक्त और परिस्थितियां बहुत कुछ सिखा देती हैं नेहा मैडम. आप हमारे हाथ का खाना खा कर देखना. उंगलियां चाटती रह जाओगी.”

“क्या बात है. बातें बनाना तो तुम्हें खूब आता है.” न चाहते हुए भी नेहा की जुबान पर पुरानी यादों की तल्खी आ ही गई थी.

तुरंत बात सुधारती हुई बोली,” वैसे अमित काफी अच्छे बदलाव नजर आ रहे हैं तुम में.”

“थैंक्यू” अमित मुस्कुरा कर काम में लग गया. वाकई उस ने बहुत स्वादिष्ट खाना बनाया था.

नेहा ने स्वाद से खाना खाया. थोड़ी देर बातचीत करते हुए पुरानी यादें ताजा करने के बाद सोने की बारी आई. बेडरूम एक ही था. अमित ने बेड की तरफ इशारा करते हुए कहा,” नेहा तुम आराम से सो जाओ यहां.”

“तुम कहां सोओगे?”

“मेरा क्या है? मैं बैठक में सोफे पर एडजस्ट हो जाऊंगा.”

“ओके”

नेहा आराम से बैड पर लुढ़क गई. बहुत नींद आ रही थी उसे. थकी हुई भी थी फिर भी रात भर करवटें बदलती रही. मन के आंगन में पुरानी यादें, कुछ कड़वी और कुछ मीठी, घेरा डाले जो बैठी थीं. अमित का भी यही हाल था. सुबह 8 बजे नेहा की नींद टूटी. बाहर आई तो देखा कि अमित नहाधो कर नाश्ता बना रहा है.

“क्या बात है. आई एम इंप्रैस्ड. पूरी गृहिणी बन गए हो.”

“घरवाली छोड़ कर चली जाए तो यही हाल होता है मैडम जी.”

अमित ने माहौल को हल्का बनाते हुए कहा. नेहा लौन में टहलने लगी तभी अमित चाय ले कर आ गया. नेहा ने चाय पीते हुए कहा,” अमित मुझे अजीब लग रहा है. सारे काम तुम कर रहे हो. देखो कहे देती हूं. दोपहर का खाना मैं बनाऊंगी और रात का भी. तुम केवल बर्तन साफ कर देना.”

“जैसी आप की आज्ञा मोहतरमा.” हंसते हुए अमित बोला.

इस तरह दोनों मिल कर लौकडाउन के इस समय में एकदूसरे की सहायता करते हुए वक्त बिताने लगते हैं. अमित जितना संभव होता सारे काम खुद करता. उसे नेहा की तबीयत को ले कर चिंता रहती थी. झाड़ू पौंछा या सफाई का काम नेहा को छूने भी नहीं देता.

एक दिन सुबहसुबह नेहा की तबीयत ज्यादा ही खराब हो गई. नेहा ने बताया कि उस का इनहेलर नहीं मिल रहा है. अमित उसी वक्त बाजार भागा. बड़ी मशक्कत के बाद उसे एक मेडिकल शॉप खुली मिली. वहीं से इनहेलर और जरूरी दवाइयां खरीद कर भागाभागा घर लौटा. इस समय एकएक पल महत्वपूर्ण था. नेहा की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. मगर समय पर इनहेलर मिल जाने से वह बेहतर महसूस करने लगी.

तब तक अमित ने जल्दी से एक बाउल में पानी गर्म किया और उस में लैवेंडर ऑयल की 5-6 बूंदें डालीं. इसे वह नेहा के पास ले आया और 5 -10 मिनट तक स्टीम लेने को कहा. इस से नेहा को काफी आराम मिला.

अब अमित ने एक गिलास गर्म पानी में शहद मिला कर उसे धीरेधीरे पीने को कहा. कुल मिला कर नेहा की तबीयत में काफी सुधार आ गया. अमित ने प्यार से नेहा का माथा सहलाते हुए कहा,” आज के बाद तुम्हें रोज शहद या हल्दी डाल कर गर्म पानी पीना है. इस से तुम्हें आराम मिलेगा.”

उस दिन नेहा को महसूस हुआ कि अमित वाकई उस से प्यार करता है और अलग हो कर भी वह दिल से उस से जुड़ा हुआ है. यह बात उस ने शिद्दत से महसूस की.

वह अमित के पास आ कर बैठ गई और उस के हाथों को थामते हुए बोली,” मैं अपना अतीत पूरी तरह भूल जाना चाहती हूं. आज से मैं केवल तुम्हारे साथ बिताए हुए ये खूबसूरत और प्यारे लम्हे याद रखूंगी. रियली आई मीन इट.”

“नेहा कौन कहता है कि एक्स हसबैंडवाइफ दोस्त नहीं हो सकते. अब तुम तो जिंदगी में आगे बढ़ चुकी हो. हमारा पुराना रिश्ता तो अब जुड़ नहीं सकता. फिर भी दोस्ती का एक नया रिश्ता तो हम बना ही सकते हैं न.”

उस दिन पहली बार दोनों गले लग कर खुशी के आंसू रोए थे.

अगले दिन सुबह नेहा एक फूल ले कर अमित के पास पहुंची.

“यह क्या है?” वह अचकचाया.

“फूल है गुलाब का.”

” वह तो है मगर इस नाचीज पर आज इतनी मेहरबान क्यों?”

“क्यों कि आज ही हम पहली दफा मिले थे. ईडियट भूल गए तुम?” शरारत से देखते हुए नेहा बोली.

“ओह याद आया. रियली मैं सरप्राइज्ड हूं. तुम्हें आज का दिन याद रह गया?”

“हां चलो, आज का दिन कुछ खास मनाते हैं.”

“फाइन ”

फिर दोनों ने मिल कर घर में एक शानदार डेट ऑर्गेनाइज की. घर को फूलों से सजाया. बरामदे में टेबल और कुर्सी लगा कर दोनों ने लंच किया. एकदूसरे की पसंद के कपड़े पहने. लंच में एकदूसरे की पसंद की चीजें ही ऑर्डर कीं गई. एक आर्डर करता और दूसरा किचन से सामान ले कर आता. दोनों ने पहली मुलाकात याद करते हुए एकदूसरे के लिए गाने गाए. शायरियां सुनाईं. गिफ्ट का आदानप्रदान किया. मजेदार बातें कीं और फिर एक खुशनुमा शाम का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.

यह सब दोनों ने इतने मजे लेते हुए और फ्रेंडली अप्रोच के साथ किया कि उन के लिए यह डेट यादगार बन गई.

रात में नेहा ने अमित को अपने पास ही सो जाने का न्योता दिया और बोली,” आज मैं एक खूबसूरत भूल करना चाहती हूं . बस केवल आज के लिए अपने हस्बैंड को चीट करूंगी अपने दोस्त की खातिर.”

“तुम तो बड़ी पाप पुण्य की बातें करती थीं कि विवाह के बाद परपुरुष को देखने पर भी नर्क मिलता है या सती सावित्री ही आदर्श होती है वगैरह-वगैरह.” अमित बोला.

नेहा मुंह बिचकाकर बोली, “वे सब पाखंड तो मैं अपनी मौसी से सीख कर आई थी. पता  है उन्होंने मां को ही चूना लगा डाला था. उनका पैसा एक ऐसी जमीन में लगवा दिया था जो थी ही नहीं और सिर्फ कागज थे. बचपन से हम समझते थे कि वे सुबह तीन घंटे पूजा करतीं हैं तो सही ही होंगीं. उन्होंने मां का वह कागजी हिस्सा भी बेच कर पैसे बेटे बहू को दे दिए. मां बहुत रोई थीं. तब से मैंने फैसला कर लिया कि इस झूठ फरेब में नहीं पड़ूंगी और अपनी शर्तों पर अपनी समझ से जिऊंगी.”

“काश तुम्हें यह समझ पहले होती” कहता हुआ अमित कपड़े फेंकते हुए नेहा के साथ बिस्तर पर लेट गया.

दोनों की जिंदगी में लौकडाउन का वह पूरा दिन उम्र भर के लिए यादगार बन गया था. पुरानी गलतफहमियां और कड़वाहट दूर हो गई थीं. एकदूसरे के ऊपर अधिकार न होते हुए भी वे एकदूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. एक अलग सा कंफर्ट लेवल था जिस ने तकलीफ के उन दिनों को भी नए रंग में रंग दिया था.

जातपांत : निर्मला से क्यों नाराज था उसका परिवार

निर्मला अपने पति राजन के साथ जिद कर के अपनी दादी के श्राद्ध में मायके आई थी. हालांकि राजन ने उसे बारबार यही कहा था कि बिन बुलाए वहां जाना ठीक नहीं है, फिर भी वह नहीं मानी और अपना हक समझते हुए वहां पहुंच ही गई.

निर्मला ने सोचा था कि दुख की इस घड़ी में वहां पहुंचने पर परिवार के सभी लोग गिलेशिकवे भूल कर उसे अपना लेंगे और दादी की मौत का दुख जताएंगे. पर उस का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ.

सभी ने निर्मला को देख कर भी नजरअंदाज कर दिया, मानो वह कोई अजनबी हो.

इस के बावजूद भी निर्मला को उम्मीद थी कि परिवार वाले भले ही उसे नजरअंदाज करें, मां ऐसा नहीं कर सकतीं.

तभी निर्मला ने राजन की तरफ इस तरह देखा, मानो वह मां के पास जाने की उस से इजाजत ले रही हो. फिर वह अकेली ही मां की तरफ बढ़ गई.

उस समय निर्मला की मां औरतों के हुजूम में आगे बैठी हुई थीं. जब मां ने निर्मला को अपने करीब आते देखा, तो वे उठ कर तेजी से दूसरे कमरे में चली गईं.

मां के पीछेपीछे निर्मला भी वहां पहुंच गई और प्यार से बोली, ‘‘मां, यह सब कैसे हुआ? क्या दादी बहुत दिनों से बीमार थीं?’’

‘‘तुम से मतलब? आखिर तुम पूछने वाली होती कौन हो? चली जाओ यहां से. फिर कभी भूल कर भी इस घर की तरफ मत देखना, नहीं तो तुम मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी,’’ गुस्से से चीखते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘ऐसा न कहो, मां. नहीं तो मैं अनाथ हो जाऊंगी. आखिर तुम्हारा ही तो सहारा है मुझे. मां हो कर भी तुम मेरे मन की भावना को नहीं समझोगी, तो और कौन समझेगा?’’ रोते हुए निर्मला बोली.

‘‘नहीं समझना है मुझे. कुछ नहीं समझना,’’ चीखते हुए उस की मां ने कहा.

‘‘क्यों नहीं समझना है, मां? तुम्हें समझना ही पड़ेगा. अपनी बेटी के दुख को महसूस करना ही पड़ेगा. आखिर मेरा इतना ही कुसूर था न कि मैं ने राजन से सच्चा प्यार किया? उस से शादी की, जो हमारी बिरादरी का नहीं है?

‘‘लेकिन मां, तुम मुझे गौर से देखो कि मैं राजन के साथ कितनी खुश हूं. मुझे किसी बात का दुख नहीं है,’’ खुशी जताते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘मुझे कुछ नहीं देखना है और न ही सुनना है, बस. तुम अभी और इसी समय उस राजन को ले कर यहां से चली जाओ, ताकि तुम्हारी दादी का श्राद्ध शांति से पूरा हो सके,’’ मां बोलीं.

‘‘हम यहां से चले जाएंगे, मां, रहने के लिए नहीं आए हैं. केवल दादी के श्राद्ध में आए हैं. बस, उसे पूरा हो जाने दो. क्योंकि दादी से मेरा और मुझ से उन का कितना गहरा लगाव था, यह तुम अच्छी तरह से जानती हो. मेरे बिना तो वे कुछ भी नहीं खातीपीती थीं,’’ सुबकते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘इसीलिए तो तुम उस कलमुंहे राजन के साथ भाग गई और कोर्ट में जा कर शादी कर ली. तब तुम्हें दादी का इतना खयाल नहीं था, जबकि उन्होंने तुम्हारी याद में अपनी जान दे दी?’’

‘‘मुझे दादी का बहुत खयाल था, मां. परंतु मैं क्या करती, आप सभी तो मुझ से खफा थे. डर के चलते मैं नहीं आ सकी,’’ रोते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘बड़ी आई डर वाली. जब इतना ही डर था, तो घर से कदम बाहर निकालते समय हजार बार सोचती? फिर भी कुछ नहीं सोचा.

‘‘अरे, क्या अपनी बिरादरी में लड़कों की कमी हो गई थी, जो उस नाशपीटे राजन के साथ भाग गई?’’ तीखी आवाज में उस की मां ने कहा.

मां के सवालों का जवाब देने के बजाय निर्मला ने कहा, ‘‘मां, मुझे जी भर कर कोस लो, लेकिन उन्हें कुछ न कहो, क्योंकि अब वे मेरे पति हैं.’’

‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे दुनिया में केवल एक तुम ही पति वाली हो, बाकी सब दिखावे वाली हैं,’’ खिल्ली उड़ाते हुए उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मेरी अच्छी मां, तुम तो मुझे ऐसा न कहो. हर मांबाप का सपना होता है कि मेरी बेटी अच्छे घर में ब्याहे, सुखशांति से रहे. उन्हीं में से मैं एक हूं.

‘‘तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि मैं ने अपने जीवनसाथी का खुद ही चुनाव कर तुम लोगों की परेशानी को दूर किया है. इस के बावजूद भी सभी की तरह तुम भी मुझे नजरअंदाज कर रही हो?’’ दुखी हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘हां, तुम इसी काबिल हो, इसीलिए नहीं मिलेगा अब तुम्हें वह लाड़प्यार और अपनापन, जो कभी यहां मिला करता था…’’

निर्मला की मां की बातें अभी पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि पिता, भाई, बहन व भाभी सभी वहां आ गए और गुस्से से निर्मला को घूरने लगे.

तभी उस के पिता दयाशंकर ने गुस्से में कहा, ‘‘कलंकिनी, मुझे तो तेरा नाम लेते हुए भी नफरत हो रही है. आखिर तुम ने मेरे घर में कदम रखने की हिम्मत कैसे की?’’

‘‘ऐसा न कहिए, पापा. आखिर इस घर से मेरा भी तो कोई रिश्ता है? उसी रिश्ते के वास्ते तो मैं यहां आई हूं. मुझे और मेरे पति को अपना लीजिए, पापा,’’ रोतेगिड़गिड़ाते हुए निर्मला ने कहा.

‘‘खबरदार, जो मुझे पापा कहा. तेरा पापा तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन तू इस घर को छोड़ कर गई थी. रहा सवाल अपनाने का, तो यह हक अब तुम खो चुकी हो.’’

‘‘नहीं, पापा नहीं. ऐसा न कहो और ठंडे दिमाग से सोचो कि प्यार करना क्या कोई जुर्म है?

‘‘आखिर मैं भी तो बालिग हूं. जब मैं अपना भलाबुरा सोचसमझ सकती हूं, तो फिर मुझे फैसला लेने का हक क्यों नहीं है? और फिर चाहे बातें भविष्य की हों या जीवनसाथी चुनने की, लड़कियों को यह हक जरूर मिलना चाहिए,’’ थोड़ा खुश हो कर निर्मला ने कहा.

‘‘तू मुझे हक के बारे में समझा रही है? अगर तू इतनी ही समझदार होती, तो अपनी ही जाति के लड़के से शादी करती, न कि किसी दूसरी जाति के लड़के से,’’ निर्मला के पिता ने कहा.

‘‘दूसरी जाति के लड़के क्या इनसान नहीं होते? क्या उन में समझदारी नहीं होती? इस की मिसाल तो राजन ही हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी की सारी खुशियां दे रखी हैं, कोई कमी महसूस नहीं होने दी है उन्होंने. मैं इस तरह के जातपांत के भेदभाव को नहीं मानती, जो एक इनसान को दूसरे इनसान से अलग करता हो, आपस में दूरियां बढ़ाता हो…

‘‘मैं केवल इनसानियत की जात को जानती व मानती हूं,’’ निर्मला बोलती चली गई.

‘‘बस करो अपनी यह बकवास और उस राजन के साथ यहां से चलती बनो,’’ इस बार चीखते हुए निर्मला का भाई विशाल बोला.

‘‘भैया, मुझे जो चाहो कह लो, मैं सब बरदाश्त कर लूंगी. लेकिन उन के बारे में कुछ भी नहीं सुन सकती. क्योंकि एक पत्नी अपने सामने पति की बेइज्जती कभी बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

‘‘अच्छा, तब तो मुझे तुम्हारे पति की बेइज्जती करनी ही होगी, वह भी तुम्हारे सामने,’’ नजरें तिरछी करते हुए विशाल बोला.

‘‘क्या…? यह तुम कह रहे हो? जबकि तुम भी किसी के पति हो और तुम्हारी पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है. महाभारत मचा दूंगी मैं यहां. तुम क्या समझते हो अपनेआप को कि वे तुम से कमजोर हैं?

‘‘वे जूडोकराटे में ब्लैकबैल्ट हैं और साथ ही पुलिस में भी हैं. उन से टकराना तुम्हें महंगा पड़ेगा, भैया.

‘‘हां, मैं यदि चाहूं, तो तुम्हारी पत्नी के सामने तुम्हारी बेइज्जती जरूर करवा सकती हूं, ताकि तुम बेइज्जती के दर्द को महसूस कर सको.

‘‘लेकिन, मैं इतनी बेवकूफ भी नहीं हूं कि तुम्हारी तरह कुछ करने से पहले कुछ सोचसमझ न सकूं. औरत हूं, इसलिए औरत का दर्द समझती हूं. लिहाजा, ऐसा कुछ नहीं करना चाहूंगी, जिस से कि भाभी के मन में दुख हो.’’

निर्मला की बातें सुन कर उस की भाभी सुबक पड़ी और उस ने आगे बढ़ कर निर्मला को गले लगा लिया.

‘‘माधुरी, यह तुम क्या कर रही हो? दूर हटो उस से. इस से हमारा कोई रिश्ता नहीं है,’’ चीखते हुए विशाल बोला.

‘‘रिश्ता है क्यों नहीं? खून का रिश्ता है हमारा, इसलिए अपनी बहन को अपना लीजिए. इस ने ठीक ही कहा है कि जातपांत कुछ नहीं होता. होती है तो केवल इनसानियत, और इनसानियत का रिश्ता,’’ निर्मला की तरफदारी लेते हुए उस की भाभी माधुरी ने कहा, मानो वह भी इनसानियत के रिश्ते को ही अहमियत दे रही हो.

लेकिन माधुरी की बातें सुन कर विशाल बौखला गया. वह गुस्से से बोला, ‘‘माधुरी, लगता है इस के साथसाथ तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है, कहीं…’’

अभी विशाल अपनी बातें पूरी भी नहीं कर पाया था कि तभी वहां राजन आ गया और सूझबूझ का परिचय देते हुए गंभीरता से बोला, ‘‘निर्मला, अब चलो यहां से. बहुत हो चुकी तुम्हारी बेइज्जती. मैं अब और सहन नहीं कर सकता.

‘‘मैं ने सबकुछ सुन लिया है और जान लिया है कि ये लोग ऐसे पत्थरदिल इनसान हैं, जो जातपांत का ढोंग रच कर समाज को गंदा करते हैं.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. अब मुझे समझ में आया कि मैं ने यहां आ कर कितनी बड़ी भूल की है?

‘‘ले चलिए मुझे. अब एक पल भी मैं यहां रुकना नहीं चाहूंगी,’’ उठते हुए निर्मला बोली और अपने पति राजन का हाथ थाम कर घर से बाहर जाने लगी.

उस की छोटी बहन उर्मिला ने दौड़ कर निर्मला का हाथ थाम लिया और सिसकते हुए बोली, ‘‘दीदी, मत जाओ. मुझे छोड़ कर मत जाओ.’’

‘‘पगली, मैं कहां तुम्हें छोड़ कर जा रही हूं? हां, जातपांत और उन बुरे रिवाजों को छोड़ कर जा रही हूं, जिसे मां, पापा व भैया ने अपनी मुट्ठियों में जकड़ रखा है.

‘‘मैं यहां नहीं आऊंगी तो क्या हुआ, तुम तो अपनी दीदी के घर आ सकती हो?’’ निर्मला बोली.

‘‘जरूर आऊंगी दीदी,’’ उर्मिला ने खुश हो कर कहा.

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेरते हुए निर्मला ने कहा और अपने पति राजन के साथ घर से बाहर निकल गई.

मृगतृष्णा: क्या विजय और राखी की शादी हुई

लौकडाउन में काम छूट जाने के चलते लखन अपने परिवार समेत पैदल ही दिल्ली से अपने गांव मीरपट्टी लौट आया था.

लखन के परिवार में उस की पत्नी के अलावा एक बेटी और बेटा थे. बेटी का नाम राखी और बेटे का नाम सूरज था.

दिल्ली में राखी अपनी मां के साथ दूसरों के घरों में चौकाबरतन का काम करती थी. सूरज अभी छोटा था और सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था. लखन कपड़े की एक फैक्टरी में मजदूर था.

लखन गांव के जमींदार चौधरी साहब का पुराना कारिंदा था, इसलिए चौधरी साहब ने तरस खा कर उसे खेत और बगीचे की देखभाल के लिए रख लिया.

लखन की पत्नी और बेटी राखी चौधरी साहब के घर में महरी का काम करने लगीं. इस तरह परिवार की गुजरबसर का इंतजाम हो गया.

राखी 17 साल की थी और गजब की खूबसूरत थी. कदकाठी लंबी, गोरी छरहरी काया, बड़ीबड़ी आंखें, मासूम चेहरा और चंचल स्वभाव के चलते वह किसी की भी नजरों में चढ़ जाती थी.

राखी को अपनी खूबसूरती का एहसास था. वह उस के प्रदर्शन में कोई कोताही नहीं बरतती थी. उस का प्रेमी जुगल दिल्ली में राजमिस्त्री का काम करता था. लौकडाउन के चलते वह भी गांव वापस आ गया था.

गांव में जुगल को कोई काम नहीं मिल रहा था. वह दिल्ली लौटने के बारे में सोच रहा था. गांव में उसे राखी से मिलने का कभीकभार ही मौका मिलता था.

चौधरी साहब का सब से छोटा बेटा विजय पटना में रह कर पढ़ाई कर रहा था. छुट्टी में वह घर आया हुआ था और लौकडाउन हो जाने के चलते वहीं फंस गया था.

विजय ने एक दिन राखी को दालान में काम करते देखा, तो देखता ही रह गया. राखी की बिखरी हुई लटें, उभरी हुई छाती और कसा बदन देख कर विजय बेचैन हो उठा. वह उस से दोस्ती बढ़ाने की जुगत बैठाने लगा.

मौका देख कर विजय ने राखी से अपने मन की बात रखी, ‘‘राखी, मैं तुम्हें पसंद करता हूं और तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘छोटे मालिक, आप बड़े लोग हैं. और, आप मु?ा जैसी गरीब लड़की से शादी करेंगे…?’’ राखी ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा.

‘‘राखी, जमाना बदल गया है. अब कोई बड़ाछोटा नहीं है…’’ विजय ने कहा.

राखी विजय के ?ांसे में आ तो गई, पर फिर भी उसे यकीन नहीं हो रहा था कि वह इस परिवार की बहू भी बन सकती है. उस ने यह बात जुगल को बताई.

जुगल ने समझते हुए कहा, ‘‘विजय बाबू शादी का ?ांसा दे कर तेरी जवानी को भोगना चाहते हैं. वे पढ़ेलिखे अमीर लोग हैं. किसी गरीब, 5वीं जमात पढ़ी लड़की से कभी शादी नहीं करेंगे.’’

जुगल के सम?ाने पर राखी सम?ा गई. एक दिन विजय ने अकेले में राखी को खेत के मचान पर बैठा कर बहलानेफुसलाने वाली बातें कीं, तो वह फिर से उस के ?ांसे में आ गई.

विजय राखी को यह यकीन दिलाने में कामयाब रहा कि जुगल को राखी की किस्मत देख कर जलन हो रही है. लालच में पड़ कर राखी ने विजय को हां कह दी और पलभर में जुगल के प्यार को भुला बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो मेरी जान, आओ न रोमांस करें,’’ राखी के उभारों को सहलाते हुए विजय ने कहा, तो राखी का तनमन मचल उठा.

विजय ने अपने होंठ राखी के दहकते होंठ पर रख दिए और हाथों से उस के बदन को सहलाने लगा. राखी तड़प कर विजय से लिपट गई. दोनों ने जी भर कर अपनी प्यास बु?ाई.

अब विजय का जब भी मन करता, वह राखी के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाता था.

राखी भी अब जुगल से मिलने से कतराने लगी थी. जुगल सम?ा गया कि राखी विजय के चंगुल में फंस गई है. उस ने राखी को कई बार सम?ाने की कोशिश की, लेकिन वह जुगल से बात ही नहीं करना चाहती थी.

इसी बीच लौकडाउन खुल गया. मजदूर वापस काम पर जाने लगे थे. जुगल दिल्ली लौट आया. लखन को भी उस की फैक्टरी से काम पर आने का फोन आया. फैक्टरी का मालिक पहले से ज्यादा तनख्वाह देने के लिए तैयार था.

गांव में बस किसी तरह गुजरबसर हो रही थी, इसलिए लखन भी दिल्ली आने की सोच रहा था. यह बात राखी ने विजय को बताई.

‘‘मेरा भी कालेज शुरू होने वाला है.  मैं भी यहां से चला जाऊंगा. तुम भी अपने पिताजी के साथ दिल्ली चली जाओ. समय आने पर मैं शादी के लिए घर में बात करूंगा. ध्यान रहे कि समय से पहले किसी को इस की भनक न लगे,’’ विजय ने राखी को चूमते हुए सम?ाया.

राखी अपने पापा के साथ दिल्ली चली आई. विजय पटना चला गया. पहले तो उन दोनों में फोन पर बात होती रहती थी, पर धीरेधीरे विजय ने पढ़ाई का हवाला दे कर बात करना बंद कर दिया. राखी को विजय का यह बरताव अजीब लग रहा था.

एक दिन जुगल ने राखी को फोन कर के मिलने की गुजारिश की. राखी ने हां कर दी. वे एक पार्क में मिले. इधरउधर की बात करने के बाद जुगल ने जो बात बताई, वह सुन कर राखी का कलेजा धक से रह गया.

जुगल ने बताया, ‘‘राखी, विजय बाबू ने धूमधाम से अपनी जाति की एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी कर ली है.’’

राखी का मन जुगल की बात मानने को तैयार नहीं था. जुगल ने राखी को अपने मोबाइल फोन में विजय की शादी की तसवीर दिखाई. राखी को लगा कि जैसे आसमान उस के सिर पर गिर गया हो. वह जुगल को पकड़ कर रोने लगी.

‘‘चुप कर पगली, हर वादा सच्चा नहीं होता. जो भरम था उसे भूल जाना बेहतर है. मैं हूं न तेरे साथ,’’ राखी के माथे को सहलाते हुए जुगल ने प्यार से कहा.

राखी कुछ बोल नहीं पाई. बस, जुगल की गोद में मुंह छिपा कर रोती रही.

लेखक- सुजीत सिन्हा

कालेजिया इश्क: इश्कबाजी की अनोखी कहानी

कालेज के दिन भी क्या थे. वैसे तो कालेज में न जाने कितने दोस्त थे, लेकिन सलीम और रजत के बिना न तो कभी मेरा कालेज जाना हुआ और न ही कभी कैंटीन में कुछ अकेले खाना.

सलीम दूसरे शहर का रहने वाला था. एक छोटे से किराए के कमरे में उस का सबकुछ था जैसे कि रसोईर् का सामान, बिस्तर और चारों तरफ लगीं हीरोइनों की ढेर सारी तसवीरें. हुआ यह कि एक दिन अचानक अपनी पूरी गृहस्थी साइकिल पर लादे मेरे घर आ गया. मैं ने पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘यार हुआ क्या, मकान मालिक से कहासुनी हो गई. मैं ने कमरा खाली कर दिया. चलो, कोई नया कमरा ढूंढ़ो चल कर,’’ उस ने जवाब दिया तो मैं ने कहा, ‘‘इतनी सुबह किस का दरवाजा खटखटाएं. तुम पहले चाय पियो, फिर चलते हैं.’’

सुबह 10 बजे मैं और सलीम नया कमरा ढूंढ़ने निकले. ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा, पड़ोसी इरफान चाचा का कमरा खाली था. इरफान चाचा पहले तैयार नहीं हुए तो मैं ने अपने ट्यूशन वाले इफ्तियार सर से कहा, ‘‘सर, मेरे दोस्त को कमरा चाहिए.’’ उन की इरफान चाचा से जान पहचान थी. उन के कहने पर सलीम को इरफान चाचा का कमरा मिल गया.’’

कुछ दिनों बाद सलीम ने बताया ‘‘यार, इरफान चाचा बड़े भले आदमी है, कभीकभी उन की बेटियां खाना दे जाती हैं.’’ मैं ने उस से कहा, ‘‘यार चक्कर में मत पड़ जाना.’’

‘‘यार मुझे कुछ लेनादेना नहीं, पढ़ाई पूरी हो जाए अपने शहर वापस चला जाऊंगा,’’ सलीम बोला.

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महीना भर बीता होगा सलीम को इरफान चाचा के यहां रहते हुए, एक सुबह वह फिर पूरी गृहस्थी साइकिल पर लादे मेरे घर आया. मैं ने पूछा, ‘‘अब क्या हुआ, तुम तो फिर बेघर हो गए?’’

उस ने कहा, ‘‘रुको, पहले मैं साइकिल खड़ी कर दूं, फिर बताता हूं. पिछले हफ्ते इरफान चाचा और उन की बेगम खुसरफुसुर कर रहे थे. मैं ने दरवाजे से सट कर उन की बातचीत सुनी. वे कह रहे थे, ‘लड़का तो अच्छा है अपनी जैनब के लिए सही रहेगा. इसे घर में ही खाना खिला दिया करो. जल्द ही निकाह कर देंगे.‘’’

मैं ने उस से कहा, ‘‘यार इस में कमरा छोड़ने की कौन सी बात है. तुम्हारी बिना मरजी के कोई भला शादी कैसे कर देगा.’’

सलीम ने कागज का एक टुकड़ा निकाल कर पढ़ा जो कि उर्दू में था, ’आप तो बड़े जहीन हैं. मुझे तो पता ही नहीं चला कि मैं कब आप को दिल दे बैठी. अब्बू कह रहे थे, लड़का बहुत भला है, खयाल रखा करो. कल आप का इंतजार करती रही और आप हैं कि आप को अपने दोस्तों से फुरसत नहीं. वैसे जो आप का बड़े बालों वाला दोस्त है वह तो इसी महल्ले में रहता है. अब्बू कह रहे थे. अपनी शादी में उसे भी बुलाना. आज आप के लिए मेवे वाली खीर बनाऊंगी, मुझे पता है. आप को बहुत पसंद हैं.

‘तुम्हारी जैनब.’

खत पढ़ने के बाद सलीम ने कहा, ‘‘तुम्हें पता है, ये खत किस ने लिखा है.’’ ‘‘जैनब ने लिखा होगा,’’ मैं ने कहा.‘‘नहीं, यह जैनब ने नहीं लिखा. मुझे पता है कि जैनब को उर्दू लिखनी नहीं आती. मैं ने यह भी पता कर लिया है कि इसे किस ने लिखा है.’’

‘‘अगर तुम्हें पता है तो बताओ किस ने लिखा है,’’ मैं ने अचरज से पूछा.

सलीम ने कहा, ‘‘इसे जैनब के अब्बू ने खुद लिखा है.’’

‘‘वो तुम्हें कैसे पता?’’

सलीम ने बताया, ‘‘इरफान चाचा के 4 बेटियां हैं और उन्होंने एक को भी नहीं पढ़ाया. मैं उन्हें अब हिंदी वर्णमाला सिखा रहा हूं. उर्दू सिर्फ उन की बेटियों को रटी हुई है थोड़ीबहुत लेकिन वे लिख नहीं पातीं.’’

मैं ने कहा, ‘‘तो अब क्या करें?’’सलीम बोला,’’ कुछ नहीं, पुराने मकान मालिक के पास जा रहा हूं, माफी मांग लूंगा वहीं रहूंगा.’’

पहला साल था हमारा ग्रेजुएशन का. रजत शहर का ही रहने वाला था. एक दिन जैसे ही मैं इकोनौमिक्स की क्लास में घुसा, मेरे होश उड़ गए. ब्लैकबोर्ड पर लिखा था ‘आई लव यू अंजुला.’ नीचे मेरा नाम लिखा था, ‘तुम्हारा राहुल’ और अंजुला नाम की जो लड़की क्लासमेट थी, उस की मेज पर गुलाब का फूल रखा था और साथ में एक लैटर, जिस में लिखा था, ‘अंजुला, आज मैं पूरी क्लास के सामने यह स्वीकार करता हूं कि मैं तुम्हे बेइंतहा प्यार करता हूं.’

ये सब देख कर और लैटर पढ़ कर मेरा हाल बेहाल था. क्लास में रजत मुझे मिला नहीं. वह ये सब कर के निकल चुका था. क्लास में सब से पहले अंजुला ही आई और ये सब देख कर फूटफूट कर रोने लगी. मैं तो मेजों के नीचे से निकल कर कालेज के पिछले दरवाजे से भाग कर घर आ गया. मैं 7 दिनों तक कालेज गया ही नहीं.

ग्रेजुएशन का दूसरा साल था. लंबी छुट्टी के बाद कालेज खुला. सलीम अपने शहर से वापस आ गया. सलीम और मैं हमेशा क्लास की आगे की पंक्ति में बैठते थे. ऐडमिशन चल रहे थे, एक दिन सलमा नाम की लड़की क्लास में आई. उस ने क्लास में पढ़ा रहे सर से कहा, ‘‘सर, मेरा नाम रजिस्टर में लिख लीजिए, मेरे पापा जिला जज हैं. उन का यहां ट्रांसफर हुआ है. सर ने लिख लिया. वह हमारे साथ ही क्लास की अगली पंक्ति में बैठती थी.

सलीम की निगाहें अकसर सलमा की तरफ ही रहती थीं, एक दिन सलीम ने मुझ से कहा, ‘‘तुम ने देखा, सलमा मेरी तरफ देखती रहती है.’’

मैं ने कहा, ‘‘अबे ओए तेरी अक्ल घास चरने गई. कहां राजा भोज कहां गंगू तेली. वह तेरी तरफ नहीं, मुझे देखती है.’’

सलीम ने तुरंत बात काटते हुए कहा, ‘‘नहीं, वह तुम्हारी तरफ बिलकुल नहीं देखती, वह मेरी तरफ ही देखती है और तुम्हें एक बात और बता दूं, अमीर लड़कियों को गरीब लड़कों से ही प्यार होता है. हिंदी फिल्मों में भी तो यही दिखाया जाता है.’’

मैं ने कहा,’’चलो, छोड़ो यार पिछले साल हम लोगों के नंबर कम आए थे, इस बार मेहनत कर लो, पता चले इन बातों के चक्कर में ग्रेजुएशन 3 की जगह 4 साल का हो जाए.’’

एक दिन सलीम का भ्रम टूट ही गया जब उस ने मुझे बताया, ‘‘यार, वह न मेरी तरफ देखती है और न तुम्हारी तरफ. आज मैं कौफी शौप गया तो मैं ने देखा जो अपने क्लास का सुहेल है, उस के साथ सलमा हाथ में हाथ डाले एक ही कप में कौफी पी रही थी.’’

मुझे हंसी आ गई. मैं ने पूछा, ’’फिर तुम्हारी गरीब लड़का और अमीर लड़की वाली फिल्म का क्या होगा?’’

सलीम ने झेंपते हुए कहा, ‘‘मेरी फिल्म फ्लौप हो गई.’’

लेकिन उस ने भी मुझ से पूछ लिया, ‘‘तुम भी तो कह रहे थे, वह तुम्हारी तरफ देखती है. तुम भी तो रेल सी देखते रह गए?’’

मैं ने कहा ‘‘छोड़ो यार, हमारी दोस्ती सब से बढ़ कर है.’’कुछ दिनों से रजत की अजीब किस्म के शरारती लड़कों से दोस्ती हो गई थी. जब भी कोई सर क्लास में पढ़ाने आते, रजत अपने शरारती दोस्तों के साथ क्लास के बाहर कसरत करने लगता.

एक दिन सर ने चिल्ला कर पूछा, ‘‘यह हो क्या रहा है, तुम पढ़ते समय ये हरकतें क्यों करते हो?’’रजत अकड़ कर बोला, ’’सर, इसे हरकत मत बोलिए. जैसे आप किसी विषय को क्लास में पढ़ाते हो वैसे ही मैं इन्हें कसरत कर के शरीर हृष्टपुष्ट रखने की ट्रेनिंग देता हूं.’’

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रजत की हरकतों से सर गुस्से में पैर पटकते क्लास छोड़ कर चले गए, ‘‘बेकार है पढ़ाना, यह पढ़ाने ही नहीं देगा.’’

मैं ने रजत से कहा, ‘‘यार, कभीकभी तो क्लास लगती है, उस पर भी तुम ड्रामा कर देते हो.’’

रजत बोला, ‘‘तुम्हें ज्यादा पढ़ाई सूझ रही है तो घर पर पढ़ा करो. हमें तो पहले शरीर हृष्टपुष्ट करना है, फिर पढ़ाई.’’

एक दिन तो हद हो गई, सर इकोनौमिक्स पढ़ा रहे थे. रजत और उस के दोस्त शेख की वेशभूषा में क्लास में घुसे और सर से बोले, ’’ए मिस्टर, हमें आप से बात करनी है. हमारे अरब में सौ तेल के कुएं हैं, और हम आप को अपना बिजनैस पार्टनर बनाना चाहते हैं.’’

सर आगबबूला हो गए. उन्होंने प्रिंसिपल से तुरंत शिकायत की. प्रिंसिपल ने पुलिस बुला दी. सभी शेख पिछला दरवाजा फांद कर नौ दो ग्यारह हो गए.

कालेज की लाइब्रेरी में नीचे का फ्लोर लड़कों के बैठने के लिए था और ऊपर का फ्लोर लड़कियों के लिए. लाइब्रेरियन लड़कों से तो बड़े खुर्राट तरीके  से बात करता लेकिन जब कोई लड़की बात करने आती तो उस की बातें ही खत्म नहीं होतीं. यह दूसरी बात थी कि लड़कियां ही उस से कम बात किया करती थीं.

एक दिन जब मैं, रजत और सलीम साथ में लाइब्रेरी में घुसे, सलीम ने लाइब्रेरियन से कोई मैगजीन मांगी. उस ने मैगजीन दी ही नहीं और वही मैगजीन जब एक लड़की ने मांगी तो उसे दे दी. सलीम को बड़ा गुस्सा आया. उस ने लाइब्रेरियन से गुस्से में कहा, ‘‘यह बताओ, हमारे में क्या कांटे लगे हैं. तुम्हें सिर्फ लड़कियां ही दिखाई देती हैं.’’

मोनू सिंह और उस की बहन भी हमारे बैचमेट थे. दोस्ती तो नहीं थी, हां, कभीकभार बातचीत हो जाती थी. एक दिन मैं, सलीम, रजत लाइब्रेरी में बैठे पढ़ रहे थे. अचानक ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज आनें लगी, बाद में पता चला कि मोनू सिंह की बहन का किसी ने दुपट्टा खींच दिया था. गांव से उस के साथ आए लोगों ने गोलियां चलाई थीं. खैर, मोनू सिंह और उन की बहन सैकंड ईयर में ही घर वापस चले गए.

पता ही नहीं चले कालेज के 2 साल कब फुर्र से उड़ गए. तीसरे साल में सलीम ने मुझे बताया, ‘‘यार, मुझे एक लड़की से प्यार हो गया है.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारी एक मुहब्बत पहले भी फ्लौप हो चुकी है. चुपचाप पढ़ाई करो, वैसे भी यह थर्ड ईयर है.’’ लेकिन सलीम के ऊपर जैसे मुहब्बत का भूत सवार था. मैं ने पूछा, ‘‘बताओ कौन है वह लड़की?’’

‘‘अरे वही गुलनाज जो पीछे बैठती है.’’ गुलनाज कभीकभार सलीम से बात कर लेती थी.

एक दिन मैं कालेज नहीं गया. सलीम शाम को घर आया,’’यार, तुम तो कालेज गए नहीं लेकिन तुम्हारे लिए किसी ने लैटर दिया है. लो, पढ़ लो.’’

लैटर में यों लिखा था-

‘डियर राहुल, मुझे पता है जीसीआर (गर्ल कौमन रूम) के सामने खड़े हो कर तुम सिर्फ मुझे ही देखते हो. बड़ी अच्छी बात है. तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो, लेकिन क्या करूं, मुझे शर्म लगती है तुम से बात करने में. इसीलिए आज तक हम कोई बात नहीं कर पाए. वैसे, मिलना या बातें करने से भी ऊंचा है हमारा प्यार. कल तुम गांधीजी की मूर्ति के पास जो बैंच है, उस के पास अपने हिस्ट्री के नोट्स रख देना, मैं उन्हें उठा लूंगी.

‘ढेर सारा प्यार. तुम्हारी ममता.’

लैटर में ढेर सारी गुलाब की पंखुडि़यां रखी थी. लैटर पढ़ने के बाद सलीम बोला, ‘‘बधाई हो. कालेज जाते कई दिन हो गए, ममता ने कभी उड़ती नजर से भी मेरी तरफ नहीं देखा.’’

मैं ने सलीम से पूछा, ‘‘यार, लैटर लिखने के बाद उस ने एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा.’’ सलीम ने बड़ी गंभीरता से कहा, ’’तुम ने पढ़ा नहीं. लैटर में उस ने खुद लिखा है उसे शर्म लगती है.

कालेज के दिन पता ही नहीं चले, कब वसंत के दिनों में पेड़ों पर आए बौर की तरह चले भी गए. आखिर ग्रेजुएशन के थर्ड ईयर की ऐग्जाम डेट्स आ गई. जब सभी पेपर हो गए, एक दिन शाम को सलीम घर पर मिलने आया. उस ने कहा, ‘‘आज तुम्हें एक राज वाली बात बतानी है.’’

‘‘बताओ.’’

सलीम ने लंबी सांस भरते हुए कहा, ‘‘ममता वाला लैटर मैं ने खुद लिखा था.’’

मैं ने अचरज से पूछा, ‘‘क्यों?’’ तो उस ने कहा, ‘‘मुझे डर था कि कहीं सलमा की तरह हमारीतुम्हारी एकतरफा मुहब्बत की तरह गुलनाज भी कौमन मुहब्बत न बन जाए.’’

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मैं ने कहा, ‘‘ओह, तो क्या गुलनाज तुम से प्यार करती है?’’ वह बोला, ‘‘नहीं यार, गुलनाज की सगाई लतीफ से हो गई है.’’ और हमेशा की तरह, गृहस्थी साइकिल पर लादे सलीम ने उसी रात महल्ला नहीं, बल्कि शहर ही छोड़ दिया.

राख : अभी ठंडी नहीं हुई

लक्ष्मी की गोद में अभी सालभर की बेटी थी. एक बूढ़ी सास थी. परिवार में और कोई नहीं था. वह अपनी बेटी को भी साथ ले गई थी. दरअसल, लक्ष्मी और किशन के बीच इश्कबाजी बहुत पहले से चल रही थी. जब वह लक्ष्मण से ब्याह कर आई थी, उस के पहले से ही यह सब चल रहा था. वह लक्ष्मण से शादी नहीं करना चाहती थी. एक तो लक्ष्मण पैसे वाला नहीं था, दूसरे वह शादी किशन से करना चाहती थी. वह दलित था, मगर पंच था और उस ने काफी पैसा बना लिया था. मगर मांबाप के दबाव के चलते लक्ष्मी को लक्ष्मण, जो जाति से गूजर था, के साथ शादी करनी पड़ी.

लक्ष्मी तो शादी के बाद से ही किशन के घर बैठना चाहती थी, मगर समाज के चलते वह ऐसा नहीं कर पाई थी. पर उस ने किशन से मेलजोल बनाए रखा था.

शादी की शुरुआत में तो वे दोनों चोरीछिपे मिला करते थे. बिरादरी के लोगों ने उन को पकड़ भी लिया था, मगर लक्ष्मी ने इस की जरा भी परवाह नहीं की थी.

जब लक्ष्मी ज्यादा बदनाम हो गई, तब भी उस ने किशन को नहीं छोड़ा. लक्ष्मण लक्ष्मी का सात फेरे वाला पति जरूर था, मगर लोगों की निगाह में असली पति किशन था.

जब शादी के 5 साल तक लक्ष्मी के कोई औलाद नहीं हुई, तब लक्ष्मण को बस्ती व बिरादरी के लोगों ने नामर्द मान लिया था. शादी के 6 साल बाद जब लक्ष्मी ने एक लड़की को जन्म दिया, तब समाज वालों ने इसे किशन की औलाद ही बताया था.

फिर भी लक्ष्मी लक्ष्मण की परवाह नहीं करती थी, इसलिए दोनों में आएदिन झड़पें होती रहती थीं. अब तो किशन भी उन के घर खुलेआम आनेजाने लगा था.

लक्ष्मण कुछ ज्यादा कहता, तब लक्ष्मी भी कहती थी, ‘‘ज्यादा मर्दपना मत दिखा, नहीं तो मैं किशन के घर बैठ जाऊंगी. तू मुझे ब्याह कर के ले तो आया हैं, मगर दिया क्या है आज तक? कभीकभी तो मैं एकएक चीज के लिए तरस जाती हूं. किशन कम से कम मेरी मांगी हुई चीजें ला कर तो देता है. तू भी मेरी हर मांग पूरी कर दिया कर. फिर मैं किशन को छोड़ दूंगी.’’

यहीं पर लक्ष्मण कमजोर पड़ जाता. बड़ी मुश्किल से मेहनतमजदूरी कर के वह परिवार का पेट भरता था. ऐसे में उस की मांग कहां से पूरी करे. स्त्रीहठ के आगे वह हार जाता था. अंदर ही अंदर वह कुढ़ता रहता था मगर लक्ष्मी से कुछ नहीं कहता था. मुंहफट औरत जो थी. उस की जरूरतें वह कहां से पूरी कर पाता, इसलिए किशन उस के घर में घंटों बैठा रहता था.

रहा सवाल लक्ष्मी की सास का, तो वह भी नहीं चाहती थी कि किशन उस के घर में आए.

एक दिन उस की सास ने कह भी दिया था, ‘‘बहू, पराए मर्द के साथ हंसहंस कर बातें करना, घर में घंटों बिठा कर रखना एक शादीशुदा औरत को शोभा नहीं देता है.’’

सास का इतना कहना था कि लक्ष्मी आगबबूला हो गई और बोली, ‘‘बुढि़या, ज्यादा उपदेश मत झाड़. चुपचाप पड़ी रह. तेरा बेटा जब मेरी मांगें पूरी नहीं कर सकता है, तब क्यों की तू ने उस के साथ मेरी शादी? अगर तेरा बेटा मेरी मांगें पूरी कर दे, तब मैं छोड़ दूंगी उसे.

‘‘एक तो मैं तेरे बेटे के साथ फेरे नहीं लेना चाहती थी, मगर मेरे मातापिता ने दबाव डाल कर तेरे बेटे से फेरे करवा दिए. अब चुपचाप घर में बैठी रह. अपनी गजभर की जबान मत चलाना, वरना मैं किशन के घर में बैठने में जरा भी देर नहीं करूंगी.’’

उस दिन लक्ष्मी ने अपनी सास को ऐसी कड़वी दवा पिलाई कि वह फिर कुछ न बोल सकी.

किशन अब बेझिझक लक्ष्मी के घर आने लगा. लक्ष्मी की हर मांग वह पूरी करता रहा. वह बनसंवर कर रहने लगी. कभीकभी वह किशन के साथ मेला और बाजार भी जाने लगी.

शुरूशुरू में तो बस्ती वालों ने भी उन पर खूब उंगलियां उठाईं, पर बाद में वे भी ठंडे पड़ गए. बस्ती वाले अब कहते थे कि लक्ष्मी के एक नहीं, बल्कि 2-2 पति हैं. फेरे वाला असली पति और बिना फेरे वाला दूसरा पति, मगर बिना फेरे वाला ही उस का असली पति बना हुआ था.

इस तरह दिन बीत रहे थे. जब शादी के 5 साल बाद लक्ष्मी पेट से हुई तब उस का बांझपन तो दूर हुआ, मगर एक कलंक भी लग गया. लक्ष्मी के पेट में जो बच्चा पल रहा था, वह लक्ष्मण का नहीं, किशन का था. मगर लक्ष्मी जानती थी कि वह बच्चा लक्ष्मण का ही है.

बस्ती वालों ने एक यही रट पकड़ रखी थी कि यह बच्चा किशन का ही है, मगर जहर का यह घूंट उसे पीना था. बस्ती वाले कुछ भी कहें, मगर सास को खेलने के लिए खिलौना मिल गया, लक्ष्मण पिता बन गया और नामर्दी से उस का पीछा छूट गया.

बस्ती वाले और रिश्तेदार सब लक्ष्मण को ही कोसते कि तू कैसा मर्द है, जो अपनी जोरू को किशन के पास जाने से रोक नहीं सकता. घर में आ कर किशन तेरी जोरू पर डोरे डाल रहा है, फिर भी तू नामर्द बना हुआ है. निकाल क्यों नहीं देता उसे. लक्ष्मण को तू अपनी लुगाई का खसम नहीं लगता है, बल्कि तेरी जोरू का खसम किशन लगता है.

लक्ष्मण इस तरह के न जाने कितने लांछन बस्ती वालों और रिश्तेदारों के मुंह से सुनता था. मगर वह एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता, क्योंकि लक्ष्मी किसी का कहना नहीं मानती थी.

कई महीनों से एक पुल बन रहा था. वहां लक्ष्मण भी मजदूरी कर रहा था. मगर अचानक एक दिन पुल का एक हिस्सा गिर गया. 6 मजदूर उस में दब गए. उन में लक्ष्मण भी था. हाहाकार

मच गया. पुलिस तत्काल वहां आ गई. पत्रकार उस पुल की क्वालिटी पर सवाल उठा कर ठेकेदार को घेरने लगे और फिर गुस्साई भीड़ वहां जमा हो गई.

पुल का टूटा मलबा उठाया गया. उन 6 लाशों का पुलिस ने पोस्टमार्टम कराया और उन के परिवारों को लाशें सौंप दीं.

जब लक्ष्मण की लाश उस की झोंपड़ी में लाई गई, तब उस की मां पछाड़ें मार कर रोने लगी. लक्ष्मी लाश पर रोई जरूर, मगर केवल ऊपरी मन से. लोकलाज के लिए उस की आंखों में आंसू जरूर थे, मगर वह अब खुद को आजाद मान रही थी.

समाज की निगाहों में लक्ष्मी विधवा जरूर हो गई थी, मगर वह अपने को विधवा कहां मान रही थी. पति नाम का जो सामाजिक खूंटा था, उस से वह छुटकारा पा गई थी.

लक्ष्मण तो मिट्टी में समा गया, मगर समाज के रीतिरिवाज के मुताबिक तेरहवीं की रस्म भी निकली थी. समाज के लोग जमा हुए. रसोई क्याक्या बनाई जाए. मिठाई कौन सी बनाई जाए, यह सब लक्ष्मण की मां से पूछा गया, तब उस ने अपनी बहू से पूछा, ‘‘बहू, कितना पैसा है तेरे पास.’’

मुंहफट लक्ष्मी बोली, ‘‘तुम तो ऐसे पूछ रही हो सासू मां जैसे तुम्हारा बेटा मुझे कारू का खजाना दे गया है.’’

‘‘तेरा क्या मतलब है?’’ सास जरा तीखी आवाज में बोली.

‘‘मतलब यह है सासू मां, मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है.’’

‘‘मगर, रस्में तो पूरी करनी पड़ेंगी.’’

‘‘तुम करो, वह तुम्हारा बेटा था,’’ लक्ष्मी ने जवाब दिया.

‘‘जैसे तेरा कुछ भी नहीं लगता था वह?’’ सवाल करते हुए सास बोली, ‘‘करना तो पड़ेगा. बिरादरी में नाक कटवानी है क्या?’’

‘‘देखो अम्मां, तुम जानो और तुम्हारा काम जाने. मैं ने पहले ही कह दिया है कि मेरे पास देने को फूटी कौड़ी नहीं है,’’ इनकार करते हुए लक्ष्मी बोली.

‘‘ऐसे इनकार करने से काम कैसे चलेगा. तेरहवीं तो करनी पड़ेगी. चाहे तू इस के लिए अपने गहने बेच दे,’’ सास बोली.

‘‘मैं गहने क्यों बेचूं, बेटा आप का भी था. आप अपने गहने बेच कर बेटे की तेरहवीं कर दीजिए,’’ उलटे गले पड़ते हुए लक्ष्मी बोली.

सासबहू के बीच लड़ाई सी छिड़ गई. दोनों इसी बात पर अड़ी रहीं. बिरादरी वालों ने देखा, दोनों जानीदुश्मन की तरह अपनीअपनी बात पर अड़ी हुई थीं. लोगों के समझाने का कोई असर

भी नहीं पड़ रहा है, तब वे ‘तुम दोनों मिल कर फैसला कर लेना’ कह कर चले गए.

सास ने कभी अपनी बहू के सामने मुंह नहीं खोला. लक्ष्मी भी कम नहीं पड़ी. एक का बेटा था, तो दूसरे का पति, मगर किसी को लक्ष्मण के मरने का गम नहीं था. तब लक्ष्मी ने एक फैसला लिया. कुछ कपड़े बैग में रखे, साथ में गहने भी और अपनी बच्ची को उठा कर वह बोली, ‘‘अम्मांजी, मैं जा रही हूं.’’

‘‘कहां जा रही है?’’ सास ने जरा गुस्से से पूछा.

‘‘मैं किशन के घर में बैठ रही हूं. आज से मेरा वही सबकुछ है.’’

‘‘बेहया, बेशरम, इतनी भी शर्म नहीं है, अपने खसम की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई और तू किशन के घर बैठने जा रही है. बिरादरी वाले क्या कहेंगे?’’ सास गुस्से से उबल पड़ी थी. आगे फिर उसी गुस्से से बोली, ‘‘जब से इस घर में आई है, न बेटे को सुख से जीने दिया और न मुझे. न जाने किस जनम का बैर निकाल रही?है मुझ से…’’

सास का बड़बड़ाना जारी था. मगर लक्ष्मी को न रुकना था, न वह रुकी. चुपचाप झोंपड़ी से वह बाहर चली गई. सारी बस्ती ने उसे जाते देखा, मगर कोई कुछ भी नहीं बोला.

माहौल : क्या सुलझ पाई सुमन की आत्महत्या की गुत्थी!

सुमन ने फांसी लगा ली, यह सुन कर मैं अवाक रह गया. अभी उस की उम्र ही क्या थी, महज 20 साल. यह उम्र तो पढ़नेलिखने और सुनहरे भविष्य के सपने बुनने की होती है. ऐसी कौन सी समस्या आ गई जिस के चलते सुमन ने इतना कठोर फैसला ले लिया. घर के सभी सदस्य जहां इस को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाने लगे, वहीं मैं कुछ पल के लिए अतीत के पन्नों में उलझ गया. सुमन मेरी चचेरी बहन थी. सुमन के पिता यानी मेरे चाचा कलराज कचहरी में पेशकार थे. जाहिर है रुपएपैसों की उन के पास कोई कमी नहीं थी. ललिता चाची, चाचा की दूसरी पत्नी थीं. उन की पहली पत्नी उच्चकुलीन थीं लेकिन ललिता चाची अतिनिम्न परिवार से आई थीं. एकदम अनपढ़, गंवार. दिनभर महल्ले की मजदूर छाप औरतों के साथ मजमा लगा कर गपें हांकती रहती थीं. उन का रहनसहन भी उसी स्तर का था. बच्चे भी उन्हीं पर गए थे.

मां के संस्कारों का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है. कहते हैं न कि पिता लाख व्यभिचारी, लंपट हो लेकिन अगर मां के संस्कार अच्छे हों तो बच्चे लायक बन जाते हैं. चाचा और चाची बच्चों से बेखबर सिर्फ रुपए कमाने में लगे रहते. चाचा शाम को कचहरी से घर आते तो उन के हाथ में विदेशी शराब की बोतल होती. आते ही घर पर मुरगा व शराब का दौर शुरू हो जाता. एक आदमी रखा था जो भोजन पकाने का काम करता था. खापी कर वे बेसुध बिस्तर पर पड़ जाते.

ललिता चाची को उन की हरकतों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि चाचा पैसों से सब का मुंह बंद रखते थे. अगले दिन फिर वही चर्चा. हालत यह थी कि दिन चाची और बच्चों का, तो शाम चाचा की. उन को 6 संतानों में 3 बेटे व 3 बेटियों थीं, जिन में सुमन बड़ी थी.

फैजाबाद में मेरे एक चाचा विश्वभान का भी घर था. उन के 2 टीनएजर लड़के दीपक और संदीप थे, जो अकसर ललिता चाची के घर पर ही जमे रहते. वहां चाची की संतानें दीपक व संदीप और कुछ महल्ले के लड़के आ जाते, जो दिनभर खूब मस्ती करते.

मेरे पिता की सरकारी नौकरी थी, संयोग से 3 साल फैजाबाद में हमें भी रहने का मौका मिला. सो कभीकभार मैं भी चाचा के घर चला जाता. हालांकि इस के लिए सख्त निर्देश था पापा का कि कोई भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर वहां नहीं जाएगा, लेकिन मैं चोरीछिपे वहां चला जाता.

निरंकुश जिंदगी किसे अच्छी नहीं लगती? मेरा भी यही हाल था. वहां न कोई रोकटोक, न ही पढ़ाईलिखाई की चर्चा. बस, दिन भर ताश, लूडो, कैरम या फिर पतंगबाजी करना. यह सिलसिला कई साल चला. फिर एकाएक क्या हुआ जो सुमन ने खुदकुशी कर ली? मैं तो खैर पापा के तबादले के कारण लखनऊ आ गया. इसलिए कुछ अनुमान लगाना मेरे लिए संभव नहीं था.

मैं पापा के साथ फैजाबाद आया. मेरा मन उदास था. मुझे सुमन से ऐसी अपेक्षा नहीं थी. वह एक चंचल और हंसमुख लड़की थी. उस का यों चले जाना मुझे अखर गया. सुमन एक ऐसा अनबुझा सवाल छोड़ गई, जो मेरे मन को बेचैन किए हुए था कि आखिर ऐसी कौन सी विपदा आ गई थी, जिस के कारण सुमन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया.

जान देना कोई आसान काम नहीं होता? सुमन का चेहरा देखना मुझे नसीब नहीं हुआ, सिर्फ लाश को कफन में लिपटा देखा. मेरी आंखें भर आईं. शवयात्रा में मैं भी पापा के साथ गया. लाश श्मशान घाट पर जलाने के लिए रखी गई. तभी विश्वभान चाचा आए. उन्हें देखते ही कलराज चाचा आपे से बाहर हो गए, ‘‘खबरदार जो दोबारा यहां आने की हिम्मत की. हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म.’’

कुछ लोगों ने चाचा को संभाला वरना लगा जैसे वे विश्वभान चाचा को खा जाएंगे.

ऐसा उन्होंने क्यों किया? वहां उपस्थित लोगों को समझ नहीं आया. हो सकता है पट्टेदारी का झगड़ा हो? जमीनजायदाद को ले कर भाईभतीजों में खुन्नस आम बात है. मगर ऐसे दुख के वक्त लोग गुस्सा भूल जाते हैं.

यहां भी चाचा ने गुस्सा निकाला तो मुझे उन की हरकतें नागवार गुजरीं. कम से कम इस वक्त तो वे अपनी जबान बंद रखते. गम के मौके पर विश्वभान चाचा खानदान का खयाल कर के मातमपुरसी के लिए आए थे.

पापा को भी कलराज चाचा की हरकतें अनुचित लगीं. चूंकि वे उम्र में बड़े थे इसलिए पापा भी खुल कर कुछ कह न सके. विश्वभान चाचा उलटेपांव लौट गए. पापा ने उन्हें रोकना चाहा मगर वे रुके नहीं.

दाहसंस्कार के बाद घर में जब कुछ शांति हुई तो पापा ने सुमन का जिक्र किया. सुन कर कलराज चाचा कुछ देर के लिए कहीं खो गए. जब बाहर निकले तो उन की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. बेटी का गम हर बाप को होता है. एकाएक वे उबरे तो बमक पड़े, ‘‘सब इस कलमुंही का दोष है,’’ चाची की तरफ इशारा करते हुए बोले. यह सुन कर चाची का सुबकना और तेज हो गया.

‘‘इसे कुछ नहीं आता. न घर संभाल सकती है न ही बच्चे,’’ कलराज चाचा ने कहा. फिर किसी तरह पापा ने चाचा को शांत किया. मैं सोचने लगा, ’चाचा को घर और बच्चों की कब से इतनी चिंता होने लगी. अगर इतना ही था तो शुरू से ही नकेल कसी होती. जरूर कोई और बात है जो चाचा छिपा रहे थे, उन्होंने सफाई दी, ‘‘पढ़ाई के लिए डांटा था. अब क्या बाप हो कर इतना भी हक नहीं?’’

क्या इसी से नाराज हो कर सुमन ने आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाया? मेरा मन नहीं मान रहा था. चाचा ने बच्चों की पढ़ाई की कभी फिक्र नहीं की, क्योंकि उन के घर में पढ़ाई का माहौल ही नहीं था. स्कूल जाना सिर्फ नाम का था.

बहरहाल, इस घटना के 10 साल गुजर गए. इस बीच मैं ने मैडिकल की पढ़ाई पूरी की और संयोग से फैजाबाद के सरकारी अस्पताल में बतौर मैडिकल औफिसर नियुक्त हुआ. वहीं मेरी मुलाकात डाक्टर नलिनी से हुई. उन का नर्सिंगहोम था. उन्हें देखते ही मैं पहचान गया. एक बार ललिता चाची के साथ उन के यहां गया था. चाची की तबीयत ठीक नहीं थी. एक तरह से वे ललिता चाची की फैमिली डाक्टर थीं. चाची ने ही बताया कि तुम्हारे चाचा ने इन के कचहरी से जुड़े कई मामले निबटाने में मदद की थी. तभी से परिचय हुआ. मैं ने उन्हें अपना परिचय दिया. भले ही उन्हें मेरा चेहरा याद न आया हो मगर जब चाचा और चाची का जिक्र किया तो बोलीं, ‘‘कहीं तुम सुमन की मां की तो बात नहीं कर रहे?’’

‘‘हांहां, उन्हीं की बात कर रहा हूं,’’ मैं खुश हो कर बोला.

‘‘उन के साथ बहुत बुरा हुआ,’’ उन का चेहरा लटक गया.

‘‘कहीं आप सुमन की तो बात नहीं कर रहीं?’’

‘‘हां, उसी की बात कर रही हूं. सुमन को ले कर दोनों मेरे पास आए थे,’’

डा. नलिनी को कुछ नहीं भूला था. नहीं भूला तो निश्चय ही कुछ खास होगा?

‘‘क्यों आए थे?’’ जैसे ही मैं ने पूछा तो उन्होंने सजग हो कर बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा.

‘‘मैडम, बताइए आप के पास वे सुमन को क्यों ले कर आए,’’ मैं ने मनुहार की.

‘‘आप से उन का रिश्ता क्या है?’’

‘‘वे मेरे चाचाचाची हैं. सुमन मेरी चचेरी बहन थी,’’ कुछ सोच कर डा. नलिनी बोलीं, ‘‘आप उन के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि सुमन ने पापा से डांट खा कर खुदकुशी कर ली.’’

‘‘खबर तो मुझे भी अखबार से यही लगी,’’ उन्होंने उसांस ली. कुछ क्षण की चुप्पी के बाद बोलीं, ‘‘कुछ अच्छा नहीं हुआ.’’

‘‘क्या अच्छा नहीं हुआ?’’ मेरी उत्कंठा बढ़ती गई.

‘‘अब छोडि़ए भी गड़े मुरदे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उन्होंने टाला.

‘‘मैडम, बात तो सही है. फिर भी मेरे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर सुमन ने खुदकुशी क्यों की?’’

‘‘जान कर क्या करोगे?’’

‘‘मैं उन हालातों को जानना चाहूंगा जिन की वजह से सुमन ने खुदकुशी की. मैं कोई खुफिया विभाग का अधिकारी नहीं फिर भी रिश्तों की गहराई के कारण मेरा मन हमेशा सुमन को ले कर उद्विग्न रहा.’’

‘‘आप को क्या बताया गया है?’’

‘‘यही कि पढ़ाई के लिए चाचा ने डांटा इसलिए उस ने खुदकुशी कर ली.’’

इस कथन पर मैं ने देखा कि डा. नलिनी के अधरों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. अब तो मेरा विश्वास पक्का हो गया कि हो न हो बात कुछ और है जिसे डा. नलिनी के अलावा कोई नहीं जानता. मैं उन का मुंह जोहता रहा कि अब वे राज से परदा हटाएंगी. मेरा प्रयास रंग लाया.

वे कहने लगीं, ‘‘मेरा पेशा मुझे इस की इजाजत नहीं देता मगर सुमन आप की बहन थी इसलिए आप की जिज्ञासा शांत करने के लिए बता रही हूं. आप को मुझे भरोसा देना होगा कि यह बात यहीं तक सीमित रहेगी.’’

‘‘विश्वास रखिए मैडम, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से आप को रुसवा होना पड़े.’’

‘‘सुमन गर्भवती थी.’’  सुन कर सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैं सन्न रह गया.

‘‘सुमन के गार्जियन गर्भ गिरवाने के लिए मेरे पास आए थे. गर्भ 5 माह का था. इसलिए मैं ने कोई रिस्क नहीं लिया.’’

मैं भरे मन से वापस आ गया. यह मेरे लिए एक आघात से कम नहीं था. 20 वर्षीय सुमन गर्भवती हो गई? कितनी लज्जा की बात थी मेरे लिए. जो भी हो वह मेरी बहन थी. क्या बीती होगी चाचाचाची पर, जब उन्हें पता चला होगा कि सुमन पेट से है? चाचा ने पहले चाची को डांटा होगा फिर सुमन को. बच निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो सुमन ने खुदकुशी कर ली.

मेरे सवाल का जवाब अब भी अधूरा रहा. मैं ने सोचा डा. नलिनी से खुदकुशी का कारण पता चल जाएगा तो मेरी जिज्ञासा खत्म हो जाएगी मगर नहीं, यहां तो एक पेंच और जुड़ गया. किस ने सुमन को गर्भवती बनाया? मैं ने दिमाग दौड़ाना शुरू किया. चाचा ने श्मशान घाट पर विश्वभान चाचा को देख कर क्यों आपा खोया? उन्होंने तो मर्यादा की सारी सीमा तोड़ डाली थी. वे उन्हें मारने तक दौड़ पड़े थे. मेरी विचार प्रक्रिया आगे बढ़ी. उस रोज वहां विश्वभान चाचा के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखा. यहां तक कि दिन भर डेरा डालने वाले उन के दोनों बेटे दीपक और संदीप भी नहीं दिखे. क्या रिश्तों में सेंध लगाने वाले विश्वभान चाचा के दोनों लड़कों में से कोई एक था? मेरी जिज्ञासा का समाधान मिल चुका था.

हितैषी : कोरियन दंपती का अनोखा वादा

गरमी के दिन थे लेकिन कैलांग में लोग अभी भी गरम कपड़े पहने हुए थे. एसोचेम के अध्यक्ष द्वारा विदेशी प्रतिनिधियों के आग्रह पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस में विदेशी प्रतिनिधियों के साथ कुछ आप्रवासी भारतीय भी थे. आप्रवासी भारतीयों का विचार यह था कि सम्मेलन किसी बड़े मैट्रो शहर में न करवा कर किसी रोमांचक पर्वतीय क्षेत्र में आयोजित किया जाए. इसी कारण से 40 प्रतिनिधियों का प्रतिनिधिमंडल कैलांग के होटल में ठहरा हुआ था. मुक्त व्यापार, भारत में विदेशी निवेश के लिए नई संभावना, अवसर तलाशने के लिए नई रूपरेखा बनाने के लिए सम्मेलन आयोजित किया गया था. दिनभर वक्ताओं ने अपनेअपने विचार प्रकट किए और अपनेअपने प्रोजैक्ट से अपनी प्रस्तुतियां पेश की. कैलांग की प्रदूषणरहित शीतल जलवायु में रात होते ही प्रवीन जैना और उन की मंडली ने पार्टी आयोजित की. पार्टी में सभी देशीविदेशी प्रतिनिधियों ने जम कर शराब पी. एक कोरियन दंपती ऐसा भी था जो शराब की जगह शरबत पी रहा था. दूसरे लोग उन का उपहास उड़ा रहे थे.

‘‘सब से ज्यादा मैं ने पी है, मेरा कोई भी डेलीगेट मुकाबला नहीं कर सकता मिस्टर जैना,’’ राजेश ढींगरा ने झूमते हुए जोर से कहा.

‘‘आप ने कोई बहुत बड़ा काम नहीं किया है मिस्टर ढींगरा, कल आप का ट्रैकिंग में जाना कैंसिल,’’ जैना ने कहा.

‘‘नो वरी, पूरे 10 हजार रुपए की पी है मैं ने. मैं महंगी से महंगी पीता हूं मिस्टर जैना, यू आर जीरो,’’ राजेश ढींगरा चिल्ला कर बोला और बोतल को जोर से उछाल दिया. नाचरंग में भंग पड़ गया. विदेशी प्रतिनिधि एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. आखिरकार, राजेश ढींगरा बेहोश हो कर गिर पड़ा तो होटल के कर्मचारी उसे उठा कर उस के कमरे में लिटा आए.

अगले दिन शैक्षणिक कार्यक्रम के अंतर्गत 5 किलोमीटर की स्थानीय स्तर की ट्रैकिंग का कार्यक्रम रखा गया. इस में कुल 35 सदस्यों को कैलांग परिक्षेत्र में किब्बर नामक क्षेत्र में भेजने का निश्चय हुआ. 35 सदस्यों को 7-7 सदस्यों की

5 टोलियों में बांटा गया. टोली संख्या 5 में 2 भारतीय, 3 जापानी, 2 कोरियन थे. इन में एक कोरियन दंपती जीमारोधम और इमाशुम भी थे. इन के साथ भारवाहक लच्छीराम था. लच्छीराम ने अपनी टोली को सब से आगे ले जाने का निश्चय किया और यह टोली सब से आगे रही. 3 किलोमीटर चलने के बाद अब सीधी चढ़ाई शुरू हुई. टोली के कुछ सदस्य हांफने लगे. 2 भारतीय सदस्यों संतोष और नितीन एक वृक्ष के पास रुक गए.

‘‘हम लोग आगे चलने में असमर्थ हैं, पैरों में दर्द हो रहा है,’’ संतोष बोला.

‘‘वी आर औलसो टायर्ड, वी विल नौट मूव फरदर,’’ जापानियों ने भी आगे जाने में असमर्थता व्यक्त की.

‘‘ठीक है, आप लोग रुक जाएं और दूसरे लोगों के साथ वापस चले जाएं,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘सर, क्या आप लोग जाएंगे?’’ लच्छीराम ने कोरियन दंपती से पूछा.

‘‘हां, हम जाएंगे,’’ कोरियन दंपती बोले. लच्छीराम कोरियन दंपती को ले कर आगे पहाड़ी की ओर चला, सामने एक पहाड़ी नाला था, जिस में पानी कम था.

‘‘साहब, बरसात में इस नाले को कोई भी पार नहीं कर सकता,’’ लच्छीराम ने कहा.

‘‘आप कहां रहते हैं?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘मेरा घर उस पहाड़ी के पीछे है, अगर हिम्मत करें तो आप वहां चल सकते हैं,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘हम जरूर चलेंगे,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘सर, एक बात पूछना चाहता हूं, मुझे बताइए कि आप ने हिंदी कहां से सीखी?’’ लच्छीराम ने पूछा.

‘‘हम दोनों ने बनारस और जयपुर में हिंदी सीखी,’’ जीमारोधम ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे हिंदी भाषा अच्छी लगती है, मैं ने प्रेमचंद की कुछ कहानियों को कोरियन भाषा में अनुवाद किया है,’’ अब की बार इमाशुम बोली. लच्छीराम उन की हिंदी के प्रति रुचि देख कर आश्चर्यचकित था. बातोंबातों में 2 घंटे चलने के बाद वे पहाड़ी के पार लच्छीराम के गांव में पहुंचे. गांव में 10 परिवार थे जो कि भारवाहक का ही कार्य करते थे.

लच्छीराम का घर ऐसा था जैसे बर्फ में रहने वाले इगलू या जंगल में रहने वाले वन गूजर का तबेला हो. इस में लकड़ी का बाड़ा बना हुआ था जो तनिक झुका हुआ था, ऊपर से उसे घासफूस और खपचियों से ढक रखा था. इस झोंपड़ी में पर्याप्त जगह थी. इस में जंगली जानवरों से बचने के लिए पूरी व्यवस्था थी.

झोंपड़ी के अंदर लच्छीराम की पत्नी पारुली भोजन पकाने की व्यवस्था कर रही थी और साथ ही, पशुओं के बाड़े में पशुओं के लिए चारे का इंतजाम भी कर रही थी. झोंपड़ी के अंदर फट्टे बिछा रखे थे जो चारपाई का काम करते थे. लच्छीराम के 3 बच्चों, पत्नी और बूढ़े मांबाप ने जीमारोधम और इमाशुम का सत्कार किया. फट्टे पर ही एक फटी चादर बिछाई गई. पशुओं के बाड़े में बकरियां, भेड़े रहरह कर मिमिया रही थीं.

‘‘बाबाजी नमस्कार, आप कैसे हैं?’’ कोरियन दंपती ने बड़ी विनम्रता से झुकते हुए कोरियन शैली में अभिवादन किया.

‘‘साहब, बस आंखों की समस्या है, नजर कम हो गई है,’’ वृद्घ बोला.

बच्चे उन अजनबी लोगों को देख कर संकोच कर के एक कोने में बैठे थे. लच्छीराम ने फट्टे पर बिछी चादर पर कोरियन दंपती को बिठाया. इमाशुम पारुली से बातें करने लगी और चूल्हे पर उबलते बकरी के दूध को देखने लगी. पारुली देवी ने उबले दूध को गिलास में डाला और काले रंग का चियूरा के गुड़ की डली भी परोसी. 12 हजार फुट से ज्यादा ऊंचाई में उगने वाले पर्वतीय कामधेनु वृक्ष है चियूरा, जिस के फल से शहद, गुड़ और वनस्पति बनाए जाते हैं.

‘‘यह बकरी का दूध है,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘ठीक है, हम पहली बार बकरी का दूध पिएंगे,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘बहुत पतला दूध है,’’ इमाशुम ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा. अब लच्छीराम के तीनों बच्चे भी उन के पास आ कर बैठ गए.

‘‘बेटा, स्कूल जाते हो?’’ जीमारोधम ने पूछा. बच्चों ने सिर हिला कर बतलाया कि वे स्कूल नहीं जाते, बल्कि भेड़बकरियों की देखभाल करते हैं, उन को चराते हैं.

‘‘साहब, यहां गांव में कोई स्कूल नहीं है, यहां से 10 किलोमीटर दूर उस पहाड़ी के पीछे एक कसबा है लेकिन वहां जाने के लिए 10 किलोमीटर घूम कर जाना पड़ता है. बीच में एक पहाड़ी नाला पड़ता है जिस पर पुल नहीं है. अगर पुल बन जाएगा तो दूरी

घट कर 3 किलोमीटर रह जाएगी,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘क्या सरकार की तरफ से पुल नहीं बना?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘नहीं साहब, आज तक इस गांव में कोई जनप्रतिनिधि नहीं पहुंचा है. इस गांव में अधिकांश बच्चे भेड़ और बकरी चराते हैं या फिर भारिया बनते हैं, मैं भी भारिया हूं और मेरे बच्चे भी भारिया बनेंगे,’’ लच्छीराम ने उदास श्वास छोड़ते हुए कहा.

‘‘ये भारिया क्या होता है?’’ इमाशुम ने पूछा.

‘‘पोरटर, भार ढोने वाला,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘सरकार की तरफ से कोई भी विकास कार्यक्रम यहां नहीं होता क्योंकि यहां कोई आता ही नहीं,’’ इस बार पारुली ने वेदनापूर्ण स्वर में कहा. कुछ देर बैठ कर कोरियन दंपती ने पूरे परिवार, घर और उस स्थान की फोटो खींची और फिर वे लौटने लगे.

‘‘अच्छा, अब हम चलते हैं. हम अगले साल आएंगे और आप के इस गांव में एक पुल, स्कूल और डिस्पैंसरी जरूर खोलेंगे, यह हमारा प्रौमिस है,’’ जीमारोधम बोला और उस की पत्नी इमाशुम ने हां भरी, साथ ही अपने हैंडबैग से 500 रुपए के 4 नोट निकाले और पारुली को देते हुए कहा, ‘‘लो बहन, तुम सब लोग अपने लिए नए कपड़े बनवा लेना.’’

पारुली शर्म एवं संकोच से कुछ नहीं बोल पाई, उस का मन एक बार तो ललचाया लेकिन अंदर के स्वाभिमान की कशमकश ने विवश किया, उस ने नोट पकड़ने से मना कर दिया.

इमाशुम ने अपने हाथ से पारुली की मुट्ठी में नोट ठूंस दिए. पारुली की आंखों से झरझर आंसू टपकने लगे.

इमाशुम ने अपने दोनों हाथों से पारुली के हाथों को कस कर पकड़ लिया. पारुली संकोचवश कुछ नहीं बोल पाई. उस ने जिंदगी में पहली बार 500 रुपए का नोट देखा था.

‘‘साहब, अब आप से कब मुलाकात होगी?’’ अब लच्छीराम के वृद्ध पिता ने पूछा.

‘‘हम अगले साल आएंगे और आप की आंखों का इलाज भी करवाएंगे,’’ जीमारोधम ने कहा.

लच्छीराम कोरियन दंपती को ले कर वापस लौटने लगा. ‘‘सर, आप पहले इंसान हैं जिन्होंने इतनी बड़ी धनराशि हमें दी है,’’ लच्छीराम बोला.

‘‘कल आप ने देखा होटल में डेलीगेट्स लाखों रुपए की शराब पी गए लेकिन वे चाहते तो किसी पीडि़त को मदद दे सकते थे. हम कभी शराब नहीं पीते, उस पैसे को जरूरतमंद को दान करते हैं,’’ जीमारोधम बोला.

रात देर गए कोरियन दंपती की यह टोली होटल पहुंची और उन्होंने देखा, कई शराबी सदस्य हाथ में खाने की थाली में रखे भोजन को यों ही चखचख कर फेंक रहे थे. कईयों ने अपनी थाली में पूरा भोजन ले रखा था और उस भोजन की थाली को शराब के नशे में नीचे गिरा रहे थे. कई सदस्य अभी भी नाचरंग में मस्त थे. अन्न की बरबादी का नजारा लच्छीराम ने देखा. उस ने देखा कि 10 भोजन की थालियां तो बिलकुल भोजन से लबालब भरी हुई थीं. शराब ज्यादा पीने वाले प्रतिनिधियों ने सिर्फ एक चम्मच खा कर भोजन की थाली एक तरफ लुढ़का दी.

लच्छीराम ने नजर बचा कर उस थाली के भोजन को अपने थैले में जैसे ही डाला, ‘‘डौंट टच दिस प्लेट, यू पिग,’’ एक विदेशी अंगरेज प्रतिनिधि ने चिल्ला कर उसे डांटा. लच्छीराम ने अपना थैला वहीं छोड़ दिया, भय से वह सकपका गया. होटल स्टाफ ने देखा, कोरियन दंपती ने भी देखा. कोरियन दंपती यह देख कर आहत था. उन के चेहरे पर उस अंगरेज प्रतिनिधि के प्रति रोष था, लेकिन वे चुप रह गए. भारी कदमों से लच्छीराम ने कोरियन दंपती से विदा ली और उन्हें अपना पताठिकाना लिखवाया.

सम्मेलन समाप्त हो गया. सभी लोग चले गए. कैलांग की वादियों से लच्छीराम और उस के परिवार की स्मृति लिए कोरियन दंपती भी चले गए. 1 वर्ष बीता. लच्छीराम को पत्र मिला जो कोरियन दंपती ने भेजा था. कोरियन दंपती ने अपने आने के बारे में और परियोजना के बारे में सूचित किया था.

ठीक समय पर कोरियन दंपती अपनी टीम के साथ पहुंचे. उन के साथ तकनीशियनों की टोली भी थी. वे लोग किब्बर में पुल बनाना चाहते थे, स्कूल खोलना चाहते थे, डिस्पैंसरी खोलना चाहते थे. इन लोगों ने सब से पहले नाले पर पुल बनाने की सोची जिस से वहां निर्माण सामग्री लाने में मदद मिलती. वन विभाग ने आपत्ति लगा दी.

‘‘यहां आप पुल नहीं बना सकते विदाउट परमिशन औफ कंजर्वेटर,’’ वन विभाग के अधिकारियों ने सूचित किया. पुल का कार्य रोक दिया गया. कोरियन दंपती तब कंजर्वेटर से मिले.

‘‘देखिए, पर्यावरण का मामला है, जब तक एनओसी पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार से नहीं मिलेगी, तब तक अनुमति नहीं दी जा सकती,’’ कंजरर्वेटर बोला.

‘‘हमें क्या करना चाहिए?’’ जीमारोधम ने बड़े भोलेपन से पूछा.

‘‘यू शुड सबमिट योर ऐप्लीकेशन थ्रू प्रौपर चैनल, फर्स्ट सबमिट ऐप्लीकेशन ऐट योर एंबैसी,’’ कंजर्वेटर बोला.

‘‘सर, आप मेरे से हिंदी में बात कर सकते हैं, हमें हिंदी भाषा आती है,’’ जीमारोधम बोला.

‘‘सौरी, क्या करें अंगरेजी की आदत पड़ गई है,’’ कंजर्वेटर बोला.

‘‘आप अपनी ऐप्लीकेशन में यह भी लिखिए कि आप किस पर्पज से पुल बनाना चाहते हैं? आप के क्या प्रोजैक्ट हैं? आप की सोर्स औफ इनकम क्या है? ये सब डिटेल लिखिए.’’

कोरियन दंपती ने पुल बनाने, स्कूल खोलने, डिस्पैंसरी खोलने संबंधी अपनी परियोजना का खाका तैयार किया और अनुमति हेतु फाइल को अपने दूतावास के माध्यम से पर्यावरण मंत्रालय को भेजा. एक वर्ष के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने टिप्पणी लिख कर सूचित किया, ‘‘एज सून एज द कंपीटैंट अथौरिटी विल ग्रांट परमिशन, यू विल बी इनफौमर्ड थ्रू योर कोरियन एंबैसी.’’ जीमारोधम ने उस पत्र को अपने पुत्र ईमोमांगचूक को देते हुए उसे संभाल कर रखने को कहा.

21 वर्ष बीत गए, इस बीच कोरियन दंपती का निधन हो चुका था. एक दिन कोरियन दंपती के पुत्र ईमोमांगचूक को एक पत्र अपने कोरिया के घर पर मिला. पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार का यह पत्र कोरियन दूतावास के माध्यम से कोरियन दंपती को संबोधित था जो उन के पुत्र ईमोमांगचूक ने प्राप्त किया. उस में लिखा था, ‘‘विद रैफरैंस टू योर ऐप्लीकेशन अबाउट एनओसी, द कंपीटैंट अथौरिटी इज प्लीज्ड टू इनफौर्म यू दैट द परमिशन इज ग्रांटेड विद इफैक्ट फ्रौम सबमिशन औफ योर प्रौजैक्ट ऐप्लीकेशन औन कंस्ट्रकशन वर्क एट किब्बर, कैलांग, हिमाचल प्रदेश, इंडिया.’’

ईमोमांगचूक ने उस सरकारी पत्र को अपने दिवंगत मातापिता की तसवीर के पास रख दिया और अपने पिता की पुरानी फाइलों को तलाशने लगा जिस में उसे लच्छीराम का पुराना बदरंग फोटो मिला.

ईमोमांगचूक असमंजस के सागर में डूबनेउतरने लगा और वह अपने मातापिता की उस परियोजना को यथार्थ में बदलने के बारे में सोचने लगा.

खाउड्या : घूसखोर सिपाही सीतू

सीतू झोंपड़पट्टी वाले थाने में नयानया सिपाही भरती हुआ था. एक दिन थानेदार ने उसे रामू बनिए को बुला लाने के लिए भेजा.

रामू बनिया तो घर पर नहीं मिला, पर उस के मुनीम ने सीतू को 50 रुपए का नोट पकड़ा कर कहा, ‘‘थानेदार से कह देना कि सेठजी आते ही थाने में हाजिर हो जाएंगे.’’

लौट कर सीतू ने 50 रुपए का नोट थानेदार की मेज पर रख दिया और साथ ही मुनीम का पैगाम भी कह सुनाया.

जब वह जाने लगा तो थानेदार ने 50 रुपए का नोट उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘इसे रख लो, यह तुम्हारा इनाम है.’’

बाद में थाने के सिपाहियों ने सीतू का काफी मजाक उड़ाया और बताया कि मुनीम ने 50 रुपए उसे दिए थे, न कि थानेदार को. थानेदार तो 100 रुपए से कम को हाथ तक नहीं लगाता.

सीतू 50 रुपए ले कर खुश हो गया. यह उस की पहली ऊपर की कमाई थी. थानेदार उस की ईमानदारी का कायल हो गया. इस के बाद से थानेदार को जहां से भी पैसा ऐंठना होता, तो वह सीतू को भेज देता या अपने साथ ले जाता.

सीतू जो भी पैसा ऐंठ कर लाता था, उस में से उसे भी हिस्सा मिलता था. धीरेधीरे उस के पास काफी पैसा जमा हो गया. पर मन के किसी कोने में उसे अपनी इस ऊपर की कमाई से एक तरह के जुर्म का अहसास होता, मगर जब वह अपनी तुलना दूसरों से करता तो यह अहसास कहीं गायब हो जाता.

सीतू को एक बात अकसर चुभती थी कि कसबे के लोग बाकी सिपाहियों को तो पूरी इज्जत देते और सलाम करते थे, मगर उसे केवल मजबूरी में ही सलाम करते थे. वह चाहता था कि उसे भी दूसरे सिपाहियों के बराबर समझा जाए, मगर वह इस बारे में कुछ कर नहीं सकता था.

वैसे, अब सीतू काफी सुखी था.

उस के पास सरकारी मकान था. एक साइकिल भी उस ने खरीद ली थी. वह शान से साफसुथरे कपड़ों में रहता था. कम से कम झोंपड़पट्टी के लोग तो उस की कद्र करते ही थे.

सीतू अपने साथी सिपाहियों के मुकाबले खुद को बेहतर समझता था. उस के सभी साथी शादीशुदा थे, मगर वह इस झंझट से अभी तक आजाद था. मांबाप की याद भी उसे ज्यादा नहीं आती थी, क्योंकि उसे उन से ज्यादा लगाव कभी रहा ही नहीं था.

एक दिन सीतू अपनी साइकिल पर सवार हो कर बाजार से गुजर रहा था कि एक जगह भीड़ लगी देख कर वह रुक गया. उस ने देखा कि झोंपड़पट्टी में रहने वाली एक लड़की भीड़ से घिरी खड़ी थी और रोते हुए गालियां बक रही थी. वह कभीकभार भीड़ पर पत्थर भी फेंक रही थी.

भीड़ में शामिल लोग लड़की के पत्थर फेंकने पर इधरउधर भागते हुए उस के बारे में उलटीसीधी बातें कर रहे थे.

सीतू ने देखा कि कुछ लफंगे से दिखाई देने वाले लड़के उस लड़की को घेरने की कोशिश कर रहे थे. सीतू ने पास खड़े झोंपड़पट्टी में रहने वाले एक बूढ़े आदमी से पूछा, ‘‘बाबा, आखिर माजरा क्या है?’’

बूढ़े ने सीतू को पुलिस की वरदी में देख कर पहले तो मुंह बिचकाया, फिर बोला, ‘‘यह लड़की यहां बैठ कर लकड़ी के खिलौने बेच रही थी. जब सब खिलौने बिक गए, तो उस ने पैसे रख लिए और थैले में से रोटी निकाल कर खाने लगी.

‘‘तभी ये 3 बदमाश लड़के यहां आ धमके. एक ने उसे 50 का नोट दिखा कर पूछा कि ‘चलती है क्या मेरे साथ?’ तो लड़की ने उस के मुंह पर थूक दिया.

‘‘बस फिर क्या था, तीनों लड़के उस पर टूट पड़े. लड़की की चीखपुकार सुन कर भीड़ जमा हो गई तो लड़कों ने शोर मचा दिया कि इस लड़की ने चोरी की है. बस, तभी से यह नाटक चल रहा है.’’

इतना बता कर वह बूढ़ा सीतू को इस तरह घूर कर देखने लगा मानो कह रहा हो, ‘है हिम्मत इस लड़की को इंसाफ दिलाने की?’

इतना सुनते ही सीतू साइकिल की घंटी बजाते हुए भीड़ में जा घुसा. उस ने कड़क लहजे में लड़की से पूछा, ‘‘ऐ लड़की, यह सब क्या हो रहा है?’’

‘‘साहब, ये तीनों मुझ से बदतमीजी कर रहे हैं. मैं ने रोका तो जबरदस्ती करने लगे. मैं ने शोर मचाया तो बोले कि मैं चोर हूं, पर मैं ने कोई चोरी नहीं की है,’’ लड़की गुस्से में बोली.

‘‘साहब, यह झूठी है. यह तो पक्की चोर है. इस ने पहले भी कई चोरियां की हैं. जो घड़ी इस के हाथ में बंधी है वह मेरी है,’’ एक लड़के ने कहा.

‘‘इस ने मेरा 50 का नोट चुराया है,’’ दूसरा लड़का बोला.

‘‘ये लड़के झूठ बोलते हैं साहब. मैं ने चोरी नहीं की है,’’ लड़की ने सीतू के आगे हाथ जोड़ कर कहा.

लड़की के मुंह से ‘साहब’ सुन कर सीतू की छाती चौड़ी हो गई. उस ने एक लड़के से पूछा, ‘‘क्या सुबूत है कि यह घड़ी तेरी है?’’

इस से पहले कि वह लड़का कुछ कह पाता, भीड़ में से किसी की आवाज आई, ‘‘इस लड़की के पास क्या सुबूत है कि यह घड़ी इसी की है?’’

यह सुन कर सीतू भड़क उठा. साइकिल स्टैंड पर लगा कर उस ने अपना डंडा निकाल लिया. फिर वह भीड़ की तरफ मुड़ गया और हवा में डंडा लहराते हुए बोला, ‘‘किसे चाहिए सुबूत? इस लड़की के पास यह सुबूत है कि घड़ी इस के कब्जे में है… और किसी को कुछ पूछना है? चलो, भागो यहां से. क्या यहां जादूगर का तमाशा हो रहा है?’’

सीतू की फटकार सुन कर वहां जमा हुए लोग धीरेधीरे खिसकने लगे.

‘‘देखो साहब, वे तीनों भी भाग रहे हैं,’’ लड़की बोली.

‘‘तुम तीनों यहीं रुको और बाकी सब लोग जाएं,’’ सीतू ने उन लफंगों को रोकते हुए कहा.

जब भीड़ छंट गई, तो सीतू उन लड़कों से बोला, ‘‘चलो, थाने चलो.’’

थाने का नाम सुन कर उन तीनों लड़कों के साथसाथ वह लड़की भी घबरा गई. वह बोली, ‘‘देखो साहब, ये तो बदमाश हैं, मगर मैं थाने नहीं जाना चाहती.’’

‘‘अरी, तुझे कोई खा जाएगा क्या वहां? मैं हूं न तेरे साथ,’’ सीतू उसे दिलासा देते हुए बोला.

‘‘साहब, घड़ी इसी के पास रहने दीजिए. कहां थाने के चक्कर में फंसाते हैं,’’ एक लड़का बोला.

‘‘साला… फिर कहता है कि मैं चोर हूं. चलो साहब, थाने ही चलो,’’ लड़की गुस्से में बोली.

‘‘गाली नहीं देते लड़की,’’ सीतू ने लड़की से कहा और फिर लड़कों से बोला, ‘‘मैं तुम लोगों को तब से देख रहा हूं, जब तुम ने इस लड़की को 50 का नोट दिखाया था.’’

यह सुन कर तीनों लड़कों के चेहरे फीके पड़ गए. सीतू ने लड़की को बूढ़े के पास रुकने को कहा और तीनों लड़कों को ले कर थाने की ओर बढ़ चला. लड़कों ने आपस में कानाफूसी की और एक लड़के ने सौ का नोट सीतू की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अब तो जाने दो साहब. कभीकभी गलती हो जाती है.’’

सीतू ने एक नजर नोट पर डाली और फिर इधरउधर देखा, कुछ लोग उन्हें देख रहे थे.

‘‘रिश्वत देता है. इस जुर्म की दफा और लगेगी,’’ कहते हुए सीतू उन्हें धकेलता हुआ सड़क के मोड़ पर ले गया.

‘‘साहब, इस समय तो हमारे पास इतने ही पैसे हैं,’’ कहते हुए लड़के ने 50 का नोट और बढ़ा दिया.

सीतू ने इधरउधर देखा, वहां उन्हें कोई नहीं देख रहा था. वह बोला, ‘‘ठीक है, अब आगे ऐसी घटिया हरकत मत करना.’’

‘अरे साहब, कसम पैदा करने वाले की, अब ऐसा कभी नहीं करेंगे,’ तीनों ने एकसाथ कहा.

‘‘अच्छा जाओ, मगर दोबारा अगर पकड़ लिया तो सीधा सलाखों के पीछे डाल दूंगा,’’ सीतू ने नोट जेब में रखते हुए कहा.

सीतू कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा, फिर धीरेधीरे साइकिल धकेलता हुआ वहीं जा पहुंचा, जहां बूढ़े के पास लड़की को छोड़ कर गया था. लड़की तो वहां नहीं थी, पर बूढ़ा वहीं बैठा हुआ था. बूढ़ा सीतू को सिर से पैर तक घूर रहा था.

‘‘ऐ बूढ़े, वह लड़की कहां गई?’’ सीतू ने पूछा.

बूढ़े ने सीतू को घूरते हुए कहा, ‘‘पुलिस में भरती हो गए तो क्या यह तमीज भी भूल गए कि बड़ेबूढ़ों से किस तरह बात करते हैं. वह लड़की चली गई, पर इस से तुम्हें क्या मतलब? तुम्हारी जेब तो गरम हो गई न, जाओ ऐश करो.’’

‘‘क्या बकता है? किस की जेब की बात करता है? तुम ने उस लड़की को क्यों जाने दिया?’’ सीतू भड़क उठा.

‘‘इस इलाके में कोई भी तुम पुलिस वालों पर यकीन नहीं करता. ऐसे में वह लड़की क्या करती? सोचा था कि अपनी बिरादरी का एक आदमी पुलिस में आया है तो वह कुछ ठीक करेगा, मगर वाह री पुलिस की नौकरी, बेच दी अपनी ईमानदारी शैतान के हाथों और बन गया खाउड्या… जा खाउड्या अपना काम कर.’’

‘‘क्या बकता है? थाने में बंद कर दूंगा,’’ कहने को तो सीतू कह गया, मगर न जाने क्यों वह बूढ़े से नजरें नहीं मिला पाया.

सीतू इस बात को अच्छी तरह से जानता था कि रिश्वत लेना जुर्म है, मगर आज तक किसी पुलिस वाले ने उसे यह बात नहीं बताई थी. हां, साथियों ने यह जरूर समझाया था कि रिश्वत लेते समय पूरी तरह से चौकस रहना बहुत ही जरूरी होता है.

निगाहों से आजादी कहां : क्या बचा पाई वो अपनी इज्जत

‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.

ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.

रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’

रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’

‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’

‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’

‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’

‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’

‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’

‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’

‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’

‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’

‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’

‘‘नेकी और पूछपूछ.’’

‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’

‘‘तो चल,’’ कह कर रामकली चंपा के साथ हो ली. वैसे भी वह अब मजदूरी करना नहीं चाहती थी. एक तो यह हड्डीतोड़ काम था. फिर न जाने कितने मर्दों की काम वासना का शिकार बनो. कई मजदूर तो तगारी देते समय उस का हाथ छू लेते हैं, फिर गंदी नजरों से देखते हैं. कई ठेकेदार ऐसे भी हैं जो उसे हमबिस्तर बनाना चाहते हैं.

एक अकेली औरत की जिंदगी में कई तरह के झंझट हैं. उस का पति कन्हैया कमजोर है. जहां भी वह काम करता है, वहां से छोड़ देता है. भूखे मरने की नौबत आ गई तब मजबूरी में आ कर उसे मजदूरी करनी पड़ी.

जब पहली बार रामकली उस ठेकेदार के पास मजदूरी मांगने गई थी, तब वह वासना भरी आंखों से बोला था, ‘‘तुझे मजदूरी करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘ठेकेदार साहब, पेट का राक्षस रोज खाना मांगता है?’’ गुजारिश करते हुए वह बोली थी.

‘‘इस के लिए मजदूरी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत है तभी तो आप के पास आई हूं.’’

‘‘यहां हड्डीतोड़ काम करना पड़ेगा. कर लोगी?’’

‘‘मंजूर है ठेकेदार साहब. काम पर रख लो?’’

‘‘अरे, तुझे तो यह हड्डीतोड़ काम करने की जरूरत भी नहीं है,’’ सलाह देते हुए ठेकेदार बोला था, ‘‘तेरे पास वह चीज है, मजदूरी से ज्यादा कमा सकती है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहते हैं ठेकेदार साहब.’’

‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी जवानी है, किसी कोठे पर बैठ जाओ, बिना मेहनत के पैसा ही पैसा मिलेगा,’’ कह कर ठेकेदार ने भद्दी हंसी हंस कर उसे वासना भरी आंखों से देखा था.

तब वह नाराज हो कर बोली थी, ‘‘काम देना नहीं चाहते हो तो मत दो. मगर लाचार औरत का मजाक तो मत उड़ाओ,’’ इतना कह कर वह ठेकेदार पर थूक कर चली आई थी.

फिर कहांकहां न भटकी. जो भी ठेकेदार मिला, उस के साथ वह और चंपा काम करती थीं. दोनों का काम अच्छा था, इसलिए दोनों का रोब था. तब कोई मर्द उन की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा करता था.

मगर जैसे ही चंपा ने काम पर आना बंद किया, फिर काम करते हुए उस के आसपास मर्द मंडराने लगे. वह भी उन से हंस कर बात करने लगी. कोई मजदूर तगारी पकड़ाते हुए उस का हाथ पकड़ लेता, तब वह भी कुछ नहीं कहती है. किसी से हंस कर बात कर लेती है तब वह समझता है कि रामकली उस के पास आ रही है.

कई बार रामकली ने सोचा कि यह हाड़तोड़ मजदूरी छोड़ कर कोई दूसरा काम करे. मगर सब तरफ से हाथपैर मारने के बाद भी उसे ऐसा कोई काम नहीं मिला. जहां भी उस ने काम किया, वहां मर्दों की वहशी निगाहों से वह बच नहीं पाई थी. खुद को किसी के आगे सौंपा तो नहीं, मगर वह उसी माहौल में ढल गई.

‘‘ऐ रामकली, कहां खो गई?’’ जब चंपा ने बोल कर उस का ध्यान भंग किया तब वह पुरानी यादों से वर्तमान में लौटी.

चंपा आगे बोली, ‘‘तू कहां खो गई थी?’’

‘‘देख रामवती, तहसीलदार का बंगला आ गया. मेमसाहब के सामने मुंह लटकाए मत खड़ी रहना. जो वे पूछें, फटाफट जवाब दे देना,’’ समझाते हुए चंपा बोली.

रामकली ने गरदन हिला कर हामी भर दी.

दोनों गेट पार कर लौन में पहुंचीं. मेमसाहब बगीचे में पानी देते हुए मिल गईं. चंपा को देख कर वे बोलीं, ‘‘कहो चंपा, किसलिए आई हो?’’

‘‘मेमसाहब, आप ने कहा था, घर का काम करने के लिए बाई की जरूरत थी. इस रामकली को लेकर आई हूं,’’ कह कर रामकली की तरफ इशारा करते हुए चंपा बोली.

मेमसाहब ने रामकली को देखा. रामकली भी उन्हें देख कर मुसकराई.

‘‘तुम ईमानदारी से काम करोगी?’’ मेमसाहब ने पूछा.

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘रोज आएगी?’’

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘कोई चीज चुरा कर तो नहीं भागोगी?’’

‘‘नहीं मेमसाहब. पापी पेट का सवाल है, चोरी का काम कैसे कर सकूंगी…’’

‘‘फिर भी नीयत बदलने में देर नहीं लगती है.’’

‘‘नहीं मेमसाहब, हम गरीब जरूर हैं मगर चोर नहीं हैं.’’

चंपा मोरचा संभालते हुए बोली, ‘‘आप अपने मन से यह डर निकाल दीजिए.’’

‘‘ठीक है चंपा. इसे तू लाई है इसलिए तेरी सिफारिश पर इसे रख

रही हूं,’’ मेमसाहब पिघलते हुए बोलीं, ‘‘मगर, किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’’

‘‘आप को जरा सी भी शिकायत नहीं मिलेगी,’’ हाथ जोड़ते हुए रामकली बोली, ‘‘आप मुझ पर भरोसा रखें.’’

फिर पैसों का खुलासा कर उसे काम बता दिया गया. मगर 8 दिन का काम देख कर मेमसाहब उस पर खुश हो गईं. वह रोजाना आने लगी. उस ने मेमसाहब का विश्वास जीत लिया.

मेमसाहब के बंगले में आने के बाद उसे लगा, उस ने कई मर्दों की निगाहों से छुटकारा पा लिया है. मगर यह केवल रामकली का भरम था. यहां भी उसे मर्द की निगाह से छुटकारा नहीं मिला. तहसीलदार की वासना भरी आंखें यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

मर्द चाहे मजदूर हो या अफसर, औरत के प्रति वही वासना की निगाह हर समय उस पर लगी रहती थी. बस फर्क इतना था जहां मजदूर खुला निमंत्रण देते थे, वहां तहसीलदार अपने पद का ध्यान रखते हुए खामोश रह कर निमंत्रण देते थे.

ऐसे ही उस दिन तहसीलदार मेमसाहब के सामने उस की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘रामकली बहुत अच्छी मेहरी मिली है, काम भी ईमानदारी से करती?है और समय भी ज्यादा देती है,’’ कह कर तहसीलदार साहब ने वासना भरी नजर से उस की तरफ देखा.

तब मेमसाहब बोलीं, ‘‘हां, रामकली बहुत मेहनती है.’’

‘‘हां, बहुत मेहनत करती है,’’ तहसीलदार भी हां में हां मिलाते हुए बोले, ‘‘अब हमें छोड़ कर तो नहीं जाओगी रामकली?’’

‘‘साहब, पापी पेट का सवाल है, मगर…’’

‘‘मगर, क्या रामकली?’’ रामकली को रुकते देख तहसीलदार साहब बोले.

‘‘आप चले जाओगे तब आप जैसे साहब और मेमसाहब कहां मिलेंगे.’’

‘‘अरे, हम कहां जाएंगे. हम यहीं रहेंगे,’’ तहसीलदार साहब बोले.

‘‘अरे, आप ट्रांसफर हो कर दूसरे शहर में चले जाएंगे,’’ रामकली ने जब तहसीलदार पर नजर गड़ाई, तो देखा कि उन की नजरें ब्लाउज से झांकते उभार पर थीं. कभीकभी ऐसे में जान कर के वह अपना आंचल गिरा देती ताकि उस के उभारों को वे जी भर कर देख लें.

तब तहसीलदार साहब बोले, ‘‘ठीक कहती हो रामकली, मेरा प्रमोशन होने वाला है.’’

उस दिन बात आईगई हो गई. तहसीलदार साहब उस से बात करने का मौका ढूंढ़ते रहते हैं. मगर कभी उस पर हाथ नहीं लगाते हैं. रामकली को तो बस इसी बात का संतोष है कि औरत को मर्दों की निगाहों से छुटकारा नहीं मिलता है. मगर वह तब तक ही महफूज है, जब तक तहसीलदार की नौकरी इस शहर में है.

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