जिप्सम का इस्तेमाल क्यों, कब और कैसे करें

प्रदीप कुमार सैनी, डा. आरके यादव, डा. शंभू प्रसाद, डा. आदेश कुमार

वे कैल्शियम व सल्फर का इस्तेमाल नहीं करते हैं जिस से खेत की मिट्टी में कैल्शियम व सल्फर की कमी की समस्या धीरेधीरे बढ़ती जा रहीहै. इन की कमी सघन खेती वाली जमीन, हलकी जमीन और अपक्षरणीय जमीन में अधिक होती है.

कैल्शियम व सल्फर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन के मुख्य अवयवों में से?हैं जिन की पूर्ति के अनेक स्रोत?हैं, इन में जिप्सम एक खास उर्वरक?है. रासायनिक रूप से जिप्सम कैल्शियम सल्फेट है, जिस में 23.3 फीसदी कैल्शियम व 18.5 फीसदी सल्फर होता है.

जब जिप्सम पानी में घुलता है तो कैल्शियम व सल्फेट आयन प्रदान करता है. तुलनात्मक रूप से कुछ ज्यादा घनात्मक होने के चलते कैल्शियम के आयन मिट्टी में मौजूद विनियम सोडियम के आयनों को हटा कर उन की जगह ले लेते?हैं. आयनों का मटियार कणों पर यह बदलाव मिट्टी की रासायनिक व भौतिक अवस्था में सुधार कर देता है और मिट्टी फल के उत्पादन के लिए सही हो जाती?है. साथ ही, जिप्सम जमीन में सूक्ष्म पोषक तत्त्वों का अनुपात बनाने में सहायता करता है.

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जिप्सम क्यों डालें?

* जिप्सम एक अच्छा भूसुधारक है. यह क्षारीय जमीन को सुधारने का काम करता है.

* तिलहनी फसलों में जिप्सम डालने से सल्फर की पूर्ति होती है.

* जिप्सम मिट्टी में कठोर परत बनने से रोकता?है और मिट्टी में पानी के प्रवेश को रोकता?है.

* फसलों में जड़ों की सामान्य बढ़ोतरी और विकास में सहायक है.

* कैल्शियम और सल्फर की जरूरत की पूर्ति के लिए.

* कैल्शियम की कमी के चलते ऊपर बढ़ती हुई पत्तियों के अग्रभाग का सफेद होना, लिपटना और संकुचित होना होता है. अत्यधिक कमी की स्थिति में पौधों की बढ़वार रुक जाती है और वर्धन शिखा भी सूख जाती है जो कि जिप्सम डालने से पूरी की जा सकती है.

* अम्लीय मिट्टी में एल्यूमिनियम के हानिकारक प्रभाव को जिप्सम कम करता है.

* जिप्सम देने से मिट्टी में पोषक

तत्त्वों आमतौर पर नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, कैल्शियम और सल्फर की उपलब्धता में बढ़ोतरी हो जाती है.

* जिप्सम कैल्शियम का एक मुख्य स्रोत है जो कार्बनिक पदार्थों को मिट्टी के?क्ले कणों से बांधता?है जिस से मिट्टी कणों में स्थिरता प्रदान होती है और मिट्टी में हवा का आनाजाना आसान बना रहता है.

* जिप्सम का इस्तेमाल फसलों में अधिक उपज व उन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए किया जाता है.

* जिप्सम का इस्तेमाल फसल संरक्षण में भी किया जा सकता?है क्योंकि इस में सल्फर सही मात्रा में होता है.

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जिप्सम को कब और कैसे?डालें?

जिप्सम को मिट्टी में फसलों की बोआई से पहले डालते हैं. जिप्सम डालने से पहले खेत को पूरी तरह तैयार करें. (2-3 गहरी जुताई और पाटा लगा कर). इस के बाद एक हलकी जुताई कर के जिप्सम को मिट्टी में मिला दें.

आमतौर पर धान्य फसलें 10-20 किलोग्राम कैल्शियम प्रति हेक्टेयर और दलहनी फसलें 15 किलोग्राम कैल्शियम प्रति हेक्टेयर जमीन से लेती?हैं और सामान्य फसल पद्धति 10-20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर कैल्शियम जमीन से लेती?हैं.

जिप्सम को क्षारीय जमीन में मिलाने के लिए जरूरी मात्रा, क्षारीय जमीन की विकृति की सीमा, वांछित सुधार की सीमा और भूसुधार के बाद उगाई जाने वाली फसलों

पर निर्भर करती?है.

कितना सुधारक डालना है, इस की मात्रा का निर्धारण करने के लिए सब से पहले कितना जिप्सम डालने की जरूरत होगी, तय किया जाता है. इस को जिप्सम की जरूरत कहा जाता है.

जिप्सम की सही मात्रा जानने के लिए जिप्सम की विभिन्न मात्राओं को ले कर प्रयोग किए गए. इन प्रयोगों से यह प्रमाणित होता?है कि धान की फसल के लिए जिप्सम की कुल मात्रा का एकचौथाई भाग काफी है, जबकि गेहूं की फसल के लिए कुल मात्रा से आधा काफी है और मैदानी इलाकों में पाई जाने वाली क्षारीय मिट्टी के लिए तकरीबन 12-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर जिप्सम का इस्तेमाल किया जाता है.

क्षारीय जमीन सुधार के कामों को शुरू करने का सब से सही समय गरमी के महीनों में होता?है. जिप्सम फैलाने के तुरंत बाद कल्टीवेटर या देशी हल से जमीन की ऊपरी 8-12 सैंटीमीटर की सतह में मिला कर और खेती को समतल कर के मेंड़बंदी करना जरूरी है ताकि खेत में पानी सब जगह बराबर लग सके.

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जिप्सम को मिट्टी में ज्यादा गहराई तक नहीं मिलाना चाहिए. धान की फसल में जिप्सम की जरूरी मात्रा को फसल लगाने से 10-15 दिन पहले डालना चाहिए. पहले 4-5 सैंटीमीटर हलका पानी लगाना चाहिए. जब पानी थोड़ा सूख जाए, तो दोबारा 12-15 सैंटीमीटर पानी भर कर रिसाव क्रिया पूरी करनी चाहिए.

क्षारीय जमीन में जिप्सम को बारबार मिलाने की जरूरत नहीं होती है. यह पाया गया है कि यदि धान की फसल को क्षारीय जमीन में लगातार उगाते रहें तो जमीन के क्षारीयपन में कमी आती है. खेतों को भी लंबे समय तक के लिए खाली नहीं छोड़ना चाहिए.

हर किसान की पहुंच में हो ट्रैक्टर

लेखक-भानु प्रकाश राणा

अगर आप के पास ट्रैक्टर है तो वह आप के लिए यह एक अच्छी आमदनी का जरीया भी बनता है क्योंकि ज्यादातर किसानों के पास ट्रैक्टर या अन्य कृषि यंत्र नहीं होते हैं, जबकि आज जुताई का काम हो, गहाई का काम हो या खेत बोआई का काम हो, ज्यादातर खेती के काम कृषि यंत्रों पर ही आधारित हैं, इसलिए ऐसे किसान, जिन के पास ये साधन नहीं?हैं, वे खेती का काम ऐसे लोगों से ही कराते हैं जिन के पास यंत्रों की सुविधा हो.

अगर आप भी चाहते हैं कि किसी दूसरे किसान की तरह आप के पास भी ऐसी सुविधाएं हों, ट्रैक्टर हो, कृषि यंत्र हों, जिन से खेती का काम आसान हो सके, कमाई का जरीया बन सके तो आज देश में अनेक?ट्रैक्टर कंपनियां मौजूद हैं जिन के बनाए?ट्रैक्टरों की अलगअलग खूबियां?हैं, इसलिए अगर आप ट्रैक्टर खरीदना चाहते?हैं तो ट्रैक्टर खरीदने से पहले अपनी जरूरतें देखें और उसी के मुताबिक आगे कदम बढ़ाएं.

ट्रैक्टर खरीदने के लिए आप को लोन भी पास कराना होगा. इस के लिए यहां हम आप को?ट्रैक्टर खरीदने के बारे में कुछ जानकारी दे रहे?हैं जो आप के लिए फायदेमंद रहेगी.

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एसबीआई से ले सकते हैं ‘स्त्री शक्ति ट्रैक्टर लोन’ : अगर आप खेतीबारी से जुड़ा कोई काम करते?हैं और ट्रैक्टर खरीदना चाहते?हैं तो आप एसबीआई यानी भारतीय स्टेट?बैंक से लोन ले सकते?हैं. अन्य बैंक भी इस तरह के लोन उपलब्ध कराते हैं, लेकिन एसबीआई की?ट्रैक्टर खरीदने के लिए यह खास स्कीम है.

‘स्त्री शक्ति ट्रैक्टर लोन’, जिसे एसएसटीएल भी कह सकते?हैं के तहत आप

को अपने परिवार की किसी महिला को कर्ज

के लिए सहआवेदक बनाना होगा. इस स्कीम में आप ट्रैक्टर के अलावा दूसरे कृषि यंत्रों के लिए भी लोन ले सकते हैं.

ट्रैक्टर खरीदने के लिए किसान की सालाना आमदनी कम से कम डेढ़ लाख रुपए होनी चाहिए और किसान के पास कम से कम 2 एकड़ जमीन भी होनी चाहिए, जिस से बैंक आप पर भरोसा कर सके कि आप?ट्रैक्टर का लोन समय पर चुका सकते हैं.

इस के अलावा कोई भी व्यक्ति, स्वयंसहायता समूह या संस्था भी एसएसटीएल स्कीम के तहत लोन ले सकते हैं. बैंक द्वारा लोन देने का मकसद यही है कि किसान कृषि यंत्रों के माध्यम से खेती कर के नियमित आमदनी कर सकें और समय पर बैंक को लोन वापस

कर सकें.

महिला आवेदक क्यों जरूरी?: बैंक का ऐसा मानना है कि पुरुषों के मुकाबले महिला लोन चुकाने के मामले में ज्यादा जिम्मेदार होती हैं. इसी के चलते बैंक ने महिलाओं को प्राथमिकता दी है और ऐसे लोन पर ब्याज भी कम लगाया है.

कितना मिल सकता है लोन : मोटेतौर पर माना जाए कि अगर ट्रैक्टर की कीमत 5 लाख रुपए तक है तो आप को

4.25 लाख रुपए तक का लोन मंजूर हो सकता है. मतलब, ट्रैक्टर की कुल रकम का 80 से

85 फीसदी तक लोन मिल सकता?है. बाकी

15-20 फीसदी रकम आप को अपने पास से देनी होगी. ट्रैक्टर खरीदने के बाद उस का बीमा भी कराना जरूरी होगा.

जरूरी दस्तावेज

* आप का और सहआवेदक महिला का पासपोर्ट साइज फोटो.

* दोनों के पहचानपत्र. पता का प्रूफ दस्तावेज (वोटरकार्ड, आधारकार्ड, पैनकार्ड वगैरह हो सकते?हैं.)

* खेती के कागजात.

* बैंक पासबुक की स्टेटमैंट.

* आप की आमदनी की जानकारी.

* सहआवेदक महिला से आप का?क्या संबंध?है, उस की भी जानकारी देनी होगी.

ये सब जरूरी कागजात आप को पूरे करने होंगे.

अगर बैंक आप से ‘स्त्री शक्ति ट्रैक्टर लोन’ के लिए जमीन के कागज गिरवी रखने को कहता है या आप अपनी जमीन के कागज बैंक के पास गिरवी रखते हैं. इस से आप को कम ब्याज पर लोन मिलेगा.

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क्या हैं लोन की ब्याज दरें : अगर आप ‘स्त्री शक्ति ट्रैक्टर लोन’ लेना चाहते हैं, वह भी बिना जमीन को गिरवी रखे तो आप को तय ब्याज दर से 1.75 फीसदी अधिक ब्याज चुकाना पड़ेगा.

अगर आप बैंक के पास जमीन गिरवी रख कर ‘स्त्री शक्ति ट्रैक्टर लोन’ चाहते हैं तो आप को 1.75 फीसदी ब्याज की जगह 1.5 फीसदी ब्याज ही चुकाना पड़ेगा.

कितने समय में वापसी : अगर आप जमीन गिरवी रखे बिना लोन लेना चाहते?हैं तो आप को यह कर्ज 36 महीने में वापस करना होगा और अगर आप जमीन गिरवी रख कर लोन लेना चाहते?हैं तो आप को इसे चुकाने के लिए 48 महीने का समय मिलेगा. मतलब, बैंक के पास जमीन गिरवी रखने पर आप को अधिक छूट मिलेगी.

ट्रैक्टर खरीदने के बाद आप को एक महीने का समय ग्रेस पीरियड के?रूप में भी मिलता?है. इस का मतलब यह है कि एक महीने तक आप को लोन की किस्त चुकाने से?छूट दी जा सकती है.

अब बात आती है कि आप को कौन सा ट्रैक्टर खरीदना है, यह आप को अपनी जरूरत के हिसाब से तय करना है. आजकल बाजार में अनेक ब्रांड के ट्रैक्टर मौजूद हैं. हरेक की अपनी खूबियां हैं. यहां हम आयशर 551 ट्रैक्टर के बारे में कुछ जानकारी दे रहे?हैं.

आयशर 551 ट्रैक्टर

यह ट्रैक्टर 49 हौर्सपावर का?है और इस में 3300 सीसी का इंजन लगा है. 3 सिलैंडर, डायरैक्ट इंजैक्शन, वाटर कूल इंजन?है. इस ट्रैक्टर से 10-12 टन की ट्रौली और भारी कृषि यंत्रों से आसानी से काम लिया जा सकता है. जैसे 2 एमबी रिवर्सिएबल प्लाऊ, पावर हैरो,

7 फुटा रोटावेटर, कल्टीवेटर, स्पे्रयर आदि इस से चला सकते हैं.

यह ट्रैक्टर 1,700 किलोग्राम तक वजन उठा सकता?है. विशेष परिस्थितियों में यह वजन 1850 किलोग्राम तक भी हो सकता?है. इस में मल्टी डिस्क ब्रैक हैं जो औयल में डूबे रहते हैं. पडलिंग और धान की खेती में यह ट्रैक्टर तेजी और असरदार तरीके से काम करते?हैं. इस का रखरखाव का खर्चा भी कम है और ब्रेक की उम्र भी लंबी होती है.

मल्टी?स्पीड पीटीओ इंजन आरपीएम कम होने पर भी पीटीओ पर ज्यादा आरपीएम देता है. यह हर इंप्लीमैंट के लिए अनुकूल है. जहां अलगअलग पीटीओ स्पीड की जरूरत होती?है जैसे थ्रैशर, वाटरपंप, आल्टरनैटर आदि.

इस ट्रैक्टर में वाटर सैपरेटर भी लगा है. अगर किसी वजह से डीजल में पानी मिला है तो उस को वह डीजल से अलग कर देता है और ट्रैक्टर की इंजन टंकी में 48 लिटर तक डीजल भरा जा सकता है. इस ट्रैक्टर में सभी डिजिटल मीटर लगे हुए?हैं जिस से ट्रैक्टर किस स्पीड पर कितने आरपीएम पर चल रहा है, कितनी तेल खपत हुई है, यह सब पता चलता है.

इस ट्रैक्टर में पावर स्टेयरिंग भी है, जिसे आसानी से घुमाया जा सकता?है. इस ट्रैक्टर में

8 गियर आगे लगते हैं और 2 रिवर्स गियर हैं. इस में 12 वोल्ट की बैटरी लगी है. साथ ही, इस में मोबाइल चार्ज करने की सुविधा भी है.

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ड्राइवर के बैठने की सीट सुविधानुसार आगेपीछे की जा सकती?है. सीट के पीछे पानी की बोतल रखने की जगह दी गई है. सुरक्षा के लिहाज से ट्रैक्टर के अगले हिस्से में वजनी मजबूत बंपर लगा?है.

अधिक जानकारी के लिए आप आयशर कंपनी के फोन नंबर 022-40375754 पर बात कर सकते हैं.                                       ठ्ठ

जल्दी तैयार होती मूली की खेती

कृषि संवाददाता

लेकिन ज्यादा तापमान वाले इलाकों में मूली की फसल कठोर और तीखी होती है. मूली की खेती के लिए रेतीली दोमट और दोमट मिट्टियां उम्दा होती हैं. मटियार जमीन में इस की खेती करना फायदेमंद नहीं होता है, क्योंकि उस में मूली की जड़ें सही तरीके से पनप नहीं पाती?हैं.

मूली की खेती के लिए ऐसी जमीन का चयन करना चाहिए, जो हलकी भुरभुरी हो और उस में जैविक पदार्थों की भरपूर मात्रा हो. मूली के खेत में खरपतवार नहीं होने चाहिए, क्योंकि उन से जड़ों की बढ़वार रुक जाती है.

खेत की तैयारी : मूली की फसल लेने के लिए खेत की कई बार जुताई करनी चाहिए. पहले 2 बार कल्टीवेटर से जुताई कर के पाटा लगा दें, उस के बाद गहरी जुताई करने वाले हल से जुताई करें. मूली की जड़ें जमीन में गहरे तक जाती हैं, ऐसे में गहरी जुताई न करने से जड़ों की बढ़वार सही तरीके से नहीं हो पाती है.

मूली की उन्नत किस्में : मूली की फसल लेने के लिए ऐसी किस्म का चयन करना चाहिए, जो देखने में सुंदर व खाने में स्वादिष्ठ हो.

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पूसा चेतकी : 40 से 50 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म पूरी तरह सफेद, नरम व मुलायम होती है. स्वाद में तीखापन कम होता?है. इस की औसत पैदावार 250 क्विंटल प्रति हेक्टयर तक मिल सकती है. यह किस्म पूरे भारत में कहीं भी लगाई जा सकती है.

पूसा मृदुला?: बोआई के 250-300 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म लाल रंग की होती है. शीत ऋतु के लिए अच्छी फसल है. इस की औसत उपज 135 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक मिल जाती है. पूरे भारत के लिए यह किस्म मुफीद है.

पूसा जामुनी : 55 से

60 दिनों में तैयार होने वाली यह अनूठी गुणों वाली किस्म है. यह पौष्टिकता से?भरपूर बैगनी रंग में

होती?है.

पूसा गुलाबी : यह किस्म भी 55 से

60 दिनों में तैयार होती?है. नाम के मुताबिक यह गुलाबी रंग की होती?है. यह बेलनाकार किस्म?है.

पूसा विधु : 50 से 60 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म सफेद रंग की बेलनाकार होती?है. इस की 400 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार मिलती है. यह किस्म दिल्ली और उस के आसपास के इलाकों के लिए खास है.

इस के अलावा मूली की रैपिड रैड, पूसा हिमानी, हिसार मूली नंबर 1, पंजाब सफेद व ह्वाइट टिप वगैरह किस्मों को अच्छा माना जाता है.

मूली की खेती मैदानी इलाकों में सितंबर से जनवरी माह तक और पहाड़ी इलाकों में मार्च से अगस्त माह तक आसानी से की जा सकती है. वैसे, मूली की तमाम ऐसी किस्में तैयार की गई हैं जो मैदानी व पहाड़ी इलाकों में पूरे साल उगाई जा सकती हैं. पूसा चेतकी, पूसा देसी व जापानी सफेद वगैरह किस्में ऐसी हैं, जिन्हें सालभर उगाया जा सकता है.

मूली की 1 हेक्टेयर खेती के लिए तकरीबन 10 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. बारिश के मौसम में मेंड़ बना कर इस की बोआई की जाती है, जबकि दूसरे मौसमों में इसे समतल जमीन में भी उगाया जा सकता है. अगर मूली की फसल मेंड़ों पर ली जा रही?है, तो मेंड़ों से मेंड़ों की दूरी 45 सैंटीमीटर व ऊंचाई 22-25 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

खाद व उर्वरक?: चूंकि मूली की जड़ें सीधे तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं, लिहाजा इस में कम से कम रासायनिक खादों का इस्तेमाल किया जाना ठीक माना जाता है. मूली की बोआई से पहले ही मिट्टी में 120 क्विंटल गोबर की खाद व 20 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देनी चाहिए.

इस के अलावा 75 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिलानी चाहिए.

सिंचाई : बारिश के मौसम में मूली की फसल को सिंचाई की कोई जरूरत नहीं होती है, लेकिन गरमी में 4-5 दिनों के अंतराल पर फसल की सिंचाई करते रहना चाहिए. सर्दी वाली फसलों की सिंचाई 10-15 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए.

खरपतवार व कीट : मूली की फसल से खरपतवारों को समयसमय पर निकालते रहना चाहिए, चूंकि खरपतवारों से फसल का उत्पादन प्रभावित होता है, लिहाजा हर 15 दिनों पर खेतों में उगने वाले खरपतवारों को निकाल देना चाहिए.

मूली की फसल को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों में पत्ता काटने वाली सूंड़ी, सरसों की मक्खी व एफिड शामिल हैं. इन कीटों की रोकथाम के लिए रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करना सही नहीं होता?है. इन कीटों की रोकथाम के लिए हमेशा जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. इस के लिए 5 लिटर गोमूत्र व 15 ग्राम हींग को आपस में अच्छी तरह मिला कर फसल पर छिड़काव करते रहना चाहिए.

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आमतौर पर मूली की फसल में कोई खास रोग नहीं लगता है, फिर भी कभीकभी इस में रतुआ रोग का हमला देखा गया है. इस की रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा, गोमूत्र व तंबाकू मिला कर फसल को पूरी तरह से तरबतर करते हुए छिड़काव करना चाहिए.

उपज व लाभ : मूली की फसल जब कोमल हो तभी इस की खुदाई कर लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसी अवस्था में इस के दाम बहुत अच्छे मिलते हैं. बोआई के 30-35 दिनों बाद मूली की फसल उखाड़नी शुरू कर देनी चाहिए.

वैज्ञानिक तरीके से तैयार करें मिर्च की पौधशाला

मिर्च को सुखा कर बेचने के लिए सर्दी के मौसम की मिर्च का इस्तेमाल होता है. मिर्च की खासीयत यह है कि यदि पौध अवस्था में ही इस की देखभाल ठीक से कर ली जाए तो अच्छा उत्पादन मिलने में कोई शंका नहीं होती है. भरपूर सिंचाई समयानुसार करने से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है. टपक सिंचाई अपनाने से मिर्च की फसल से दोगुनी उपज हासिल की जा सकती है. टपक सिंचाई से

50-60 फीसदी जल की बचत होती है और खरपतवार से नजात मिल जाती है.

मिर्च की नर्सरी

ऐसे लगाएं

पौधशाला, रोपणी या नर्सरी एक ऐसी जगह?है, जहां पर बीज या पौधे के अन्य भागों से नए पौधों को तैयार करने के लिए सही इंतजाम किया जाता है. पौधशाला का क्षेत्र सीमित होने के कारण देखभाल करना आसान व सस्ता होता है.

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पौधशाला के लिए

जगह का चुनाव

* पौधशाला के आसपास बहुत बड़े पेड़ नहीं होने चाहिए.

* जमीन उपजाऊ, दोमट, खरपतवार से रहित व अच्छे जल निकास वाली हो, अम्लीय क्षारीय जमीन का चयन न करें.

* पौधशाला में लंबे समय तक धूप रहती हो.

* पौधशाला के पास सिंचाई की सुविधा मौजूद हो.

* चुना हुआ क्षेत्र ऊंचा हो ताकि वहां पानी न ठहरे.

* एक फसल के पौध लगाने के बाद दूसरी बार पौध उगाने की जगह बदल दें यानी फसलचक्र अपनाएं.

क्यारियों की तैयारी

व उपचार

पौधशाला की मिट्टी की एक बार गहरी जुताई करें या फिर फावड़े की मदद से खुदाई करें. खुदाई करने के बाद ढेले फोड़ कर गुड़ाई कर के मिट्टी को?भुरभुरी बना लें और उगे हुए सभी खरपतवार निकाल दें. फिर सही आकार की क्यारियां बनाएं. इन क्यारियों में प्रति वर्गमीटर की दर से 2 किलोग्राम गोबर या कंपोस्ट की सड़ी खाद या फिर 500 ग्राम केंचुए की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं. यदि मिट्टी कुछ भारी हो तो प्रति वर्गमीटर 2 से

5 किलोग्राम रेत मिलाएं.

मिट्टी का उपचार

जमीन में विभिन्न प्रकार के कीडे़ और रोगों के फफूंद जीवाणु वगैरह पहले से रहते?हैं, जो मुनासिब वातावरण पा कर क्रियाशील हो जाते हैं व आगे चल कर फसल को विभिन्न अवस्थाओं में नुकसान पहुंचाते हैं. लिहाजा, नर्सरी की मिट्टी का उपचार करना जरूरी?है.

सूर्यताप से उपचार

इस विधि में पौधशाला में क्यारी बना कर उस की जुताईगुड़ाई कर के हलकी सिंचाई कर दी जाती है, जिस से मिट्टी गीली हो जाए. अब इस मिट्टी को पारदर्शी 200-300 गेज मोटाई की पौलीथिन की चादर से ढक कर किनारों को मिट्टी या ईंट से दबा दें ताकि पौलीथिन के अंदर बाहरी हवा न पहुंचे और अंदर की हवा बाहर न निकल सके. ऐसा उपचार तकरीबन

4-5 हफ्ते तक करें. यह काम 15 अप्रैल से

15 जून तक किया जा सकता?है.

उपचार के बाद पौलीथिन शीट हटा कर खेत तैयार कर के बीज बोएं. सूर्यताप उपचार से भूमिजनित रोग कारक जैसे फफूंदी, निमेटोड, कीट व खरपतवार वगैरह की संख्या में भारी कमी हो जाती है.

रसायनों द्वारा

जमीन उपचार

बोआई के 4-5 दिन पहले ही क्यारी को फोरेट 10 जी 1 ग्राम या क्लोरोपायरीफास

5 मिलीलिटर पानी के हिसाब से या कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से जमीन में मिला कर उपचार करते हैं. कभीकभी फफूंदीनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिला कर भी जमीन को सही किया जा सकता?है.

जैविक विधि द्वारा उपचार

क्यारी की जमीन का जैविक विधि से उपचार करने के लिए ट्राइकोडर्मा विरडी की

8 से 10 ग्राम मात्रा को 10 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर क्यारी में बिखेर देते हैं. इस के बाद सिंचाई कर देते?हैं. जब खेत का जैविक विधि से उपचार करें, तब अन्य किसी रसायन का इस्तेमाल न करें.

बीज खरीदने में

बरतें सावधानी

* बीज अच्छी किस्म का शुद्ध व साफ होना चाहिए, अंकुरण कूवत 80-85 फीसदी हो.

* बीज किसी प्रमाणित संस्था, शासकीय बीज विक्रय केंद्र, अनुसंधान केंद्र या विश्वसनीय विक्रेता से ही लेना चाहिए. बीज प्रमाणिकता का टैग लगा पैकेट खरीदें.

* बीज खरीदते समय पैकेट पर लिखी किस्म, उत्पादन वर्ष, अंकुरण फीसदी, बीज उपचार वगैरह जरूर देख लें ताकि पुराने बीजों से बचा जा सके. बीज बोते समय ही पैकेट खोलें.

बीजों का उपचार : बीज हमेशा उपचारित कर के ही बोने चाहिए ताकि बीजजनित फफूंद से फैलने वाले रोगों को काबू किया जा सके. बीज उपचार के लिए 1.5 ग्राम थाइरम, 1.5 ग्राम कार्बंडाजिम या 2.5 ग्राम डाइथेन एम 45 या 4 ग्राम?ट्राइकोडर्मा विरडी का प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए.

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यदि क्यारी की जमीन का उपचार जैविक विधि (ट्राइकोडर्मा) से किया गया है, तो बीजोपचार भी ट्राइकोडर्मा विरडी से ही करें.

बीज बोने की विधि : क्यारियों में उस की चौड़ाई के समानांतर 7-10 सैंटीमीटर की दूरी पर 1 सैंटीमीटर गहरी लाइनें बना लें और उन्हीं लाइनों पर तकरीबन 1 सैंटीमीटर के अंतराल से बीज बोएं.

बीज बोने के बाद उसे कंपोस्ट, मिट्टी व रेत के 1:1:1 के 5-6 ग्राम थाइरम या केप्टान से उपचारित मिश्रण से 0.5 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक ढक देते?हैं.

क्यारियों को पलवार से ढकना : बीज बोने के बाद क्यारी को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पुआल, सरकंडों, गन्ने के सूखे पत्तों या ज्वारमक्का के बने टटियों से ढक देते हैं ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे और सिंचाई करने पर पानी सीधे ढके हुए बीजों पर न पड़े, वरना मिश्रण बीज से हट जाएगा और बीज का अंकुरण प्रभावित होगा.

सिंचाई : क्यारियों में बीज बोने के बाद 5-6 दिनों तक हलकी सिंचाई करें ताकि बीज ज्यादा पानी से बैठ न जाए. बरसात में क्यारी की नालियों में मौजूद ज्यादा पानी को पौधशाला

से बाहर निकालना चाहिए.

क्यारियों से घासफूस तब हटाएं, जब तकरीबन 50 फीसदी बीजों का अंकुरण हो चुका हो. बोआई के बाद यह अवस्था मिर्च में 7-8 दिनों बाद, टमाटर में 6-7 दिनों बाद व बैगन में 5-6 दिनों बाद आती है.

खरपतवार नियंत्रण : क्यारियों में उपचार के बाद भी यदि खरपतवार उगते?हैं, तो समयसमय पर उन्हें हाथ से निकालते रहना चाहिए. इस के लिए पतली और लंबी

डंडियों की भी मदद ली जा सकती है.

बेहतर रहेगा, अगर पेंडीमिथेलिन की

3 मिलीलिटर मात्रा को प्रति लिटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के भीतर क्यारियों में अच्छी तरह छिड़क दें.

पौध विगलन : अगर क्यारियों में पौधे अधिक घने उग आए हैं तो उन को 1-2 सैंटीमीटर की दूरी पर छोड़ते हुए दूसरे पौधों को छोटी उम्र में ही उखाड़ देना चाहिए, वरना पौधों के तने पतले व कमजोर बने रहते?हैं.

वैसे, घने पौधे पदगलन रोग लगने की संभावना बढ़ाते हैं. उखाड़े गए पौधे खाली जगह पर रोपे जा सकते हैं.

पौध सुरक्षा?: पौधशाला में रस चूसने वाले कीट जैसे माहू, जैसिड, सफेद मक्खी व थ्रिप्स से काफी नुकसान पहुंचता है. विषाणु अन्य बीमारियों को फैलाते?हैं, लिहाजा इन के नियंत्रण के लिए नीम का तेल 5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में या डाईमिथोएट (रोगोर)

2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल

बना कर बोआई के 8-10 दिनों बाद और

25-27 दिनों बाद दोबारा छिड़कना चाहिए.

क्यारी और बीजोपचार करने के बाद भी अगर पदगलन बीमारी लगती है (जिस में पौधे जमीन की सतह से गल कर गिरने लगते हैं और सूख जाते?हैं), तो फसल पर मैंकोजेब या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

पौधे उखाड़ना : क्यारी में तैयार पौधे जब 25-30 दिनों के हो जाएं और उन की ऊंचाई 10-12 सैंटीमीटर की हो जाए या उन में 5-6 पत्तियां आ जाएं, तब उन्हें पौधशाला से खेत में रोपने के लिए निकालना चाहिए.

क्यारी से पौध निकालने से पहले उन की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. सावधानी से पौधे निकालने के बाद 50 या 100 पौधों के बंडल बना लें.

पौधों का रोपाई से पहले उपचार : पौधशाला से निकाले गए पौध समूह या रोपी गई जड़ों को कार्बंडाजिम बाविस्टीन 10 ग्राम प्रति लिटर पानी में बने घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए, रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई जरूर करें.

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गरमी के मौसम में कतार से कतार की दूरी 45 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी

30 सैंटीमीटर और बरसात में कतार से कतार की दूरी 60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 सैंटीमीटर रखें.

मिर्च से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए उस की नर्सरी लगा कर पौधशाला में सेहतमंद पौधे तैयार करने का अपना अलग महत्त्व है. जितनी स्वस्थ नर्सरी रहेगी, उतनी ही अच्छी रोप मिलेगी.

पशु की सेहत का रखें खयाल

लेखक- एम. जीलानी

लेकिन कुछ किसान ही अपनी गायभैंसों से अच्छा दूध ले पाते हैं. ज्यादातर किसान अपनी गायभैंसों से उन की कूवत के मुताबिक दूध लेने में नाकाम रहते हैं और उन की गायभैंसें भी सेहतमंद नहीं रहती हैं. ज्यादातर गायभैंसें अक्तूबरनवंबर महीनों में ब्याती हैं. आमतौर पर गायभैंसें ब्याने में आधा घंटे से ले कर 3 घंटे तक का समय लेती हैं. अगर गायभैंसें ब्याने में इस से ज्यादा समय लें, तो फौरन पशु चिकित्सक को बुला कर दिखाएं.

अगर गाय या भैंस का नवजात बच्चा (बछिया, बछड़ा या कटिया, कटरा) पैदा होने के 30 सैकंड बाद भी सांस लेना शुरू नहीं करता?है तो उसे कृत्रिम सांस (आर्टिफिशियल सांस) दिलाएं. नवजात बच्चे की छाती को धीरेधीरे दबाएं और पिछले हिस्से को उठा लें. ऐसा करने से बच्चा सांस लेना शुरू कर देगा.

नवजात बच्चा पैदा होने के 2-3 घंटे बाद पहला गोबर करता है. अगर नवजात बच्चा पैदा होने के 2-3 घंटे बाद गोबर नहीं करता है, तो उसे 30 मिलीलिटर अरंडी का तेल पिला दें.

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नवजात बच्चे के जिस्म पर (ब्याने के फौरन बाद) लगा लसलसा पदार्थ आमतौर पर मां (गाय या भैंस) चाट कर साफ कर देती है. अगर लसलसा पदार्थ नवजात बच्चे की मां चाट कर ठीक से साफ नहीं करती है तो ऐसी हालत में उसे साफ, सूखे कपड़े से पोंछ दें.

आमतौर पर गायभैंसें ब्याने के 2-4 घंटे बाद जेर गिरा देती हैं, लेकिन कभीकभी वे

8-12 घंटे तक का समय जेर गिराने में लेती हैं.

अगर गायभैंसें ब्याने के 8-12 घंटे बाद भी जेर नहीं डालती हैं तो इस का मतलब जेर रुक गई है. ऐसी हालत में फौरन पशुओं के डाक्टर या किसी माहिर से बच्चेदानी में फ्यूरिया जैसी दवा डलवाएं.

अगर गायभैंसें ब्याने के 30 घंटे बाद भी जेर नहीं गिराती हैं, तो पशुओं के डाक्टर से उसे निकलवाएं. ब्याई गई गाय या भैंस को पहले

5 दिनों तक 100 मिलीलिटर बच्चेदानी की सफाई वाली दवा दिन में 2 बार पिलाएं.

बच्चे (बछिया, बछड़ा या कटिया या कटरा) के पैदा होते ही उस की टुंडी यानी नाभि पर एंटीसैप्टिक यानी टिंचर आयोडीन, डेटोल या हलदी पाउडर लगाएं.

पैदा हुए बच्चे को खीस (पेवसी/पहला दूध) जल्द ही पिला दें. खीस की खुराक बच्चे के जिस्म के 1/10वें हिस्से के बराबर रखें यानी 10 किग्रा के बच्चे को 1 लिटर खीस पीने को दें और 30 किग्रा के बच्चे को 3 लिटर खीस पिलाएं.

यह खीस बच्चे के लिए बहुत ही पौष्टिक आहार है. खीस में ऐसी खासीयत होती है, जो बच्चे को बीमारियों से बचाती है. यह बच्चे में बीमारी से लड़ने की कूवत पैदा करती है. खीस पिलाने से बच्चा बचपन से ही तंदुरुस्त रहता है.

अक्तूबनवंबर माह में सर्दी पड़ना शुरू हो जाता है, ऐसे में बच्चे और उस की मां को सर्दी से बचाएं. बच्चे को सेहतमंद रखने के लिए और कब्ज से बचाने के लिए समयसमय पर 30-40 मिलीलिटर अरंडी का तेल पिलाते रहें.

जब बच्चे की उम्र 3 महीने की हो जाए तो उसे खुरपकामुंहपका बीमारी से बचाव का टीका लगवाएं. 6 महीने से ज्यादा उम्र वाले पशुओं को खुरपकामुंहपका, गलघोंटू और लंगरिया बीमारियों को रोकने वाला टीका लगवाएं.

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गाय और भैंस को हर 3 लिटर व ढाई लिटर दूध के हिसाब से 1 किलोग्राम राशन दें. जो गायभैंसें दूध नहीं दे रही हैं, उन्हें हर दिन

1 किलोग्राम राशन देना चाहिए.

गायभैंसों को 70 फीसदी हरा चारा और 30 फीसदी सूखा चारा देना चाहिए. तकरीबन 100 किलोग्राम वजन वाली गाय को

2.5 किलोग्राम और भैंस को 3 किलोग्राम सूखी खुराक की जरूरत होती है. इस में दोतिहाई चारा और एकतिहाई दाना देना चाहिए.

हरे चारे में कम से कम 11-12 फीसदी प्रोटीन होना चाहिए और दाने में 18-20 फीसदी प्रोटीन जरूरी?है. सभी पशुओं को संतुलित मात्रा में प्रोटीन देना जरूरी होता है.

पशुओं को संतुलित मात्रा में चारादाना दिन में 2 बार 8-10 घंटे के अंतराल पर दें. इस के अलावा 2 बार साफ ताजा पानी पीने को दें.

6 महीने की गाभिन गाय को 1 किलोग्राम व

6 महीने की गाभिन भैंस को डेढ़ किलोग्राम राशन (दाना) अलग से दें.

दुधारू पशुओं को रोजाना कम से कम

5 किलोग्राम हरा चारा जरूर दें. सर्दी के मौसम में बरसीम सब से अच्छा हरा चारा होता?है.

पशु के राशन में 2 फीसदी मिनरल मिक्सचर जरूर मिलाएं.

पशुओं से ज्यादा दूध लेने और उन को लंबे समय तक सेहतमंद बनाए रखने के लिए उन्हें संतुलित मात्रा में चारादाना (राशन) देना जरूरी होता?है. संतुलत राशन में खनिज लवण के साथ पोषक तत्त्व, प्रोटीन, विटामिन वगैरह तय मात्रा में रखे जाते हैं.

संतुलित आहार (राशन) बनाने का फार्मूला न्यूट्रीशन ऐक्सपर्ट से संपर्क कर के हासिल करें. संतुलित राशन घर पर भी बना सकते हैं. राशन बनाने में उम्दा क्वालिटी का अनाज (जई, जौ, गेहूं, ज्वार वगैरह), तेल, खली (सरसों, मूंगफली वगैरह की खली), ग्वारमील, शीरा, नमक, मिनरल मिक्सचर व विटामिनों का संतुलित मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है.

एडवांस डेरी फार्म पर पूरक आहार (सप्लीमैंट्री राशन) दिया जाता है. पूरक आहार खिलाने से पशु के जिस्म में आई कमियां दूर हो जाती हैं और वह लंबे समय तक सेहतमंद व दुधारू बना रहता?है. पूरक आहार में मिनरल मिक्सचर, फीड एडिटिव, बाईपास प्रोटीन, बी कांप्लैक्स वगैरह को शामिल किया जाता?है. बहुत सी प्राइवेट कंपनियां पूरक आहार बाजार में बेचती?हैं, तो उन की पूरी जानकारी हासिल कर के अपने पशु को पूरक आहार खिलाएं.

छोटे या जवान पशुओं को बाहरी और अंदरूनी कीड़े काफी नुकसान पहुंचाते हैं. अंदरूनी कीड़े जैसे फीताकृमि, गोलकृमि, वगैरह पशु के पेट में रह कर उस का आहार व खून पीते हैं, वहीं बाहरी कीड़े जैसे जूं, किल्ली, पिस्सू माइट वगैरह पशु के बाहरी जिस्म पर रहते हैं और उस का खून चूसते हैं. बाहरी और अंदरूनी दोनों ही कीड़े पशु को कमजोर बना देते हैं, जिस के चलते पशु की दूध देने की कूवत कम होती जाती है और पशु समय से पहले ही कमजोर व बीमार हो कर मर सकता है.

पशुओं के अंदरूनी कीड़ों को मारने के लिए कीड़ेमार दवा जैसे फेंटास, एल्बोमार, पैनाखुर वगैरह की सही मात्रा पशु

चिकित्सक से पूछ कर दें. वहीं बाहरी कीड़ों को मारने के लिए ब्यूटाक्स दवा की

2 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल कर पशु के शरीर पर अच्छी तरह से पोंछा लगाएं, पर दवा लगाने से पहले पशु के मुंह पर मुचका जरूर बांध दें, ताकि पशु दवा को चाट न सके.

पशुओं के गोबर का इस्तेमाल उपले यानी ईंधन बनाने में कतई न करें. गड्ढा खोद कर उस में गोबर डालें और गोबर की खाद तैयार करें. जिन पशुपालकों के पास खेती की जमीन नहीं है, वे गोबर की खाद गड्ढे में तैयार कर उसे अच्छे दामों पर बेच सकते हैं. जैविक खेती में गोबर की सड़ी खाद की काफी मांग रहती है.

दूध उत्पादन के लिए हमेशा दुधारू नस्ल के पशु ही पालें. गाय में साहीवाल, हरियाणा, करनस्विस, करनफ्रिज वगैरह और भैंस में मुर्रा, मेहसाना वगैरह नस्लें माली नजरिए से फायदेमंद साबित होती हैं.

दुधारू पशु (गायभैंस) खरीदने से पहले उस की नस्ल, दूध देने की कूवत वगैरह की जांच जरूर करनी चाहिए. पशु की वंशावली का रिकौर्ड भी जरूर देखना चाहिए यानी उस की मां, नानी, परनानी वगैरह कितना दूध देती थीं. इस के अलावा आप अपने इलाके और सुविधाओं के आधार पर ही पशु का चुनाव करें.

पशुशाल हमेशा ऐसी जगह बनाएं, जहां बारिश का पानी नहीं भरता हो. जगह हवादार व साफसुथरी होनी चाहिए. पशुशाला का फर्श पक्का खुरदरा रखें. गोबर को पशुशाला से उठा कर दूर खाद के गड्ढे में डालें. पशुशाला से पानी की निकासी का भी सही बंदोबस्त रखें.

पशुशाला के आसपास गंदा पानी जमा न होने दें. पशुशाला में मक्खीमच्छर से

बचाव का भी इंतजाम करें. पशुओं को सर्दी, गरमी व बरसात से बचाने के लिए पशुशाला में पुख्ता इंतजाम करें.

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ध्यान रखें कि पशुओं को किसी भी तरह की परेशानी न हो. सर्दी के मौसम में पशुशाला में बिछावन के लिए भूसा, लकड़ी का बुरादा, पेड़ों की सूखी पत्तियां या गन्ने की सूखी पत्तियों का इस्तेमाल करें. बिछावन गीला होने के बाद उसे गोबर के साथ उठा कर खाद के गड्ढे में डाल दें. हर रोज सूखा बिछावन ही इस्तेमाल में लाएं.   ठ्ठ

गाजर की खेती में कृषि यंत्र

लेखक-भानु प्रकाश राणा

इस फसल को तकरीबन हर तरह की मिट्टी में उपजाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए सब से सही बलुई दोमट मिट्टी होती है. इस फसल पर पाले का असर भी नहीं होता है.

खेत की तैयारी

खेत की जुताई कर के छोड़ दें, जिस से मिट्टी को तेज धूप लगे और कीड़ेमकोड़े खत्म हो जाएं. उस के बाद ट्रैक्टर हैरो या कल्टीवेटर से 3-4 बार जुताई करें. अच्छी तरह से पाटा चलाएं, जिस से मिट्टी भुरभुरी हो जाए. देशी गोबर वाली खाद मिला कर खेत को तैयार करें. इस के बाद गाजर के बीजों की बोआई करें. खेत में चाहें तो क्यारियां भी बना सकते हैं.

गाजर की मुख्य किस्में

पूसा केसर : यह एक उन्नतशील एशियाई किस्म है, जिस की जड़ें लालनारंगी सी होती हैं. जड़ें लंबीपतली व पत्तियां कम होती हैं. यह अगेती किस्म है, जिस में अधिक तापमान को सहन करने की कूवत होती है.

पूसा यमदिग्न: यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. इस की जड़ों का रंग हलका नारंगी (बीच के हिस्से में हलका पीला) होता है. गूदा मुलायम व मीठा होता है.

पूसा मेघाली : यह किस्म अच्छी मानी जाती है. किसान अपने इलाके के हिसाब से कृषि जानकारों से राय ले कर इस के बीज बो सकते हैं. यह किस्म भी अच्छे गुण वाली है.

पूसा रुधिर : यह पूसा की खास किस्म है. आकर्षक लंबी लाल जड़ें, चमकता लाल रंग, समान आकार और ज्यादा मिठास इस प्रजाति की खासीयतें हैं. इस के अलावा हिसार गेरिक, हिसार रसीली, हिसार मधुर, पूसा अंकिता वगैरह हैं.

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इन सब के अलावा यूरोपियन किस्मों की बोआई अक्तूबरनवंबर माह में करते हैं.

बीज की मात्रा और समय

अगेती किस्मों को अगस्त से सितंबर महीने तक ही बो दें. मध्यम व पछेती किस्मों को नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते तक बोया जाता है. गाजर की बोआई के लिए 6-7 किलोग्राम बीजों की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती?है. बोआई लाइनों में मेंड़ बना कर करें. इन मेंड़ों की आपस की दूरी 30-45 सैंटीमीटर और पौधे की दूरी 6 से 8 सैंटीमीटर रखें या छोटीछोटी क्यारियां बना कर बोएं.

खाद व उर्वरक

गाजर की अच्छी खेती लेने के लिए देशी गोबर की खाद 15 से 20 ट्रौली प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालें. नाइट्रोजन 30 किलोग्राम, फास्फोरस 40 किलोग्राम और पोटाश 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से 15-20 दिन पहले मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएं. 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन बोआई से 35-40 दिनों बाद छिड़कें, जिस से जड़ें अच्छी विकसित हो सकें.

सिंचाई : बोआई के लिए पलेवा करें या नमी होने पर बोएं. बोआई के 10-15 दिनों के बाद नमी न होने पर हलकी सिंचाई करें. सिंचाई अधिक पैदावार लेने के लिए जरूरी है, इसलिए हलकीहलकी सिंचाई करें. खेत में नमी रहना जरूरी है.

खरपतवार : खेत में खरपतवार न पनपने दें. समय रहते ही खरपतवार निकालते रहें. साथ ही, गाजर के पौधे ज्यादा घने महसूस हों तो उन्हें कम कर दें.

कीड़े व बीमारियां : गाजर में ज्यादातर पत्ती काटने वाला कीड़ा लगता है, जो पत्तियों को नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम के लिए जरूरी उपाय करें. फसल को अगेती बोएं. गाजर की फसल में एक पीलापन वाली बीमारी लगती है, जो पत्तियों को खराब करती है. बीजों को 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड से उपचारित कर के बोने पर यह बीमारी नहीं लगती है.

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खुदाई : जब गाजर की मोटाई व लंबाई ठीकठाक और बाजार भेजने लायक हो जाए, तो खुदाई करनी चाहिए. खुदाई के लिए खेत में नमी होनी चाहिए. खुदाई के समय ध्यान रखें कि जड़ों को नुकसान न पहुंचे. जड़ों के कटने से भाव घट जाता?है.

उपज : गाजर की फसल का ठीक तरह से ध्यान रखा जाए, तो 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है. वैसे, उपज किस्मों पर अधिक निर्भर करती?है.

कृषि मशीनों का इस्तेमाल

गाजर की बिजाई मजदूरों के अलावा मशीन से भी कर सकते हैं. इस के लिए तमाम कृषि यंत्र बाजार में मौजूद हैं. हरियाणा के अमन विश्वकर्मा इंजीनियरिंग वर्क्स के मालिक महावीर प्रसाद जांगड़ा ने खेती में इस्तेमाल की जाने वाली तमाम मशीनें बनाई हैं, जिन में गाजर बोने के लिए गाजर बिजाई की मशीन भी शामिल है.

बिजाई की मशीन

बैड प्लांटर व मल्टीक्रौप बिजाई मशीन बोआई के साथसाथ मेंड़ भी बनाती है. इस मशीन से गाजर के अलावा मूली, पालक, धनिया, हरा प्याज, मूंग, अरहर, जीरा, गेहूं, लोबिया, भिंडी, मटर, मक्का, चना, कपास, टिंडा, तुरई, फ्रांसबीन, सोयाबीन, टमाटर, फूलगोभी, पत्तागोभी, सरसों, राई और शलगम जैसी तमाम फसलें बोई और काटी जा सकती हैं.

मशीन से धोएं गाजर

खेत से निकालने के बाद गाजरों की धुलाई का काम भी काफी मशक्कत वाला होता है, जिस के लिए मजदूरों के साथसाथ ज्यादा पानी की जरूरत भी होती है.

जिन किसानों के खेत किसी नहरपोखर वगैरह के किनारे होते हैं, उन्हें गाजर की धुलाई में आसानी हो जाती है. इस के लिए वे लोग नहर के किनारे मोटर पंप के जरीए पानी उठा कर गाजरों की धुलाई कर लेते हैं. लेकिन सभी को यह फायदा नहीं मिल पाता.

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महावीर जांगड़ा ने जड़ वाली सब्जियों की धुलाई करने के लिए भी मशीन बनाई है. इस धुलाई मशीन से गाजर, अदरक व हलदी जैसी फसलों की धुलाई आसानी से की जाती है. इस मशीन से कम पानी में ज्यादा गाजरों की धुलाई की जा सकती है. इस मशीन को ट्रैक्टर से जोड़ कर आसानी से इधरउधर ले जाया जा सकता है.

अरहर से लें अच्छी उपज

लेखक- भानु प्रकाश राणा

अरहर में पाई जाने वाली मजबूत जड़ें सीमित नमी की दशा में भी फसल की बढ़वार को बनाए रखने के साथसाथ मिट्टी की रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार ला कर उस की पैदावार कूवत सुधारने में सहायक होती है. इस की पत्तियां झड़ कर मिट्टी में मिलने के बाद कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में बढ़ोतरी करती हैं और अरहर के पौधे की लकड़ी भी गांवदेहात में अनेक कामों में लाई जाती है. जैसे, भूस की बोगी बनाना और इस की लकड़ी को जलावन के रूप में?भी इस्तेमाल किया जाता?है.

खेत का चुनाव : अरहर की खेती के लिए ज्यादा पानी ठीक नहीं रहता इसलिए जमीन का चुनाव करते समय ध्यान रखें कि खेत ऊंचा और समतल हो. खेत में बरसाती पानी के निकलने का अच्छा बंदोबस्त हो यानी अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट या दोमट मिट्टी अरहर के लिए मुफीद रहती है.

उन्नतशील प्रजातियां : अरहर का अधिकतम उत्पादन लेने के लिए प्रजाति का चुनाव बोआई के समय के आधार पर करना चाहिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आमतौर पर 2 तरह की प्रजातियों की बोआई की जाती है.

प्रगतिशील किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी का कहना है कि अरहर कुदरत 3 अधिक उपज देने वाली किस्म है और यह कीट व रोगों से मुक्त है. इस की बोआई में 3 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज लगता है. 10 से 12 क्विंटल प्रति एकड़ पैदावार मिलती है. अधिक जानकारी के लिए किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी के मोबाइल नंबर 9935281300 पर संपर्क कर सकते हैं.

बोआई का समय : जून माह में अरहर की अगेती प्रजातियों की बोआई कर देनी चाहिए जिस से कि गेहूं की बोआई समय से की जा सके और देरी से पकने वाली प्रजातियों की बोआई जुलाई माह तक कर देनी चाहिए.

बीज का उपचार?: मिट्टी में पनपने वाले रोग (उकठा और जड़ गलन) से बचाव के लिए फफूंदीनाशक दवा कार्बंडाजिम 2.5 ग्राम या ट्बूकोनाजोल 1 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इस के बाद 10 किलोग्राम बीज को 200 ग्राम राइजोबियम जीवाणु टीका से उपचारित कर बोआई करनी चाहिए. उपचारित बीजों को?छाया में सुखाना चाहिए. ध्यान रहे कि राइजोबियम जीवाणु टीका से उपचारित करने के बाद बीज को किसी भी रसायन से बीज शोधन न करें.

जल्दी पकने वाली किस्म 15 से

18 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और देर से पकने वाली किस्म 12 से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

जिन इलाकों में बारिश ज्यादा होती है और पानी का जमाव होता है, वहां अरहर की फसल की बोआई मेंड़ों पर करना सही रहता है. अच्छे जल निकास से पौधों की बढ़वार भी अच्छी होती है व पौधों में बीमारी का प्रकोप भी कम होता?है.

उर्वरक की मात्रा : अरहर से सही पैदावार मिल सके, इस के लिए 15:40:20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एनपीके की जरूरत होती है. इस की पूर्ति के लिए 125 किलोग्राम एनपीके या 87 किलोग्राम डीएपी व 33 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई करते समय डालनी चाहिए.

अरहर में फूल आने के बाद 200 लिटर पानी में 3 किलोग्राम यूरिया और 800 ग्राम जिंक सल्फेट और 800 ग्राम सल्फर का घोल बना कर एक एकड़ में स्प्रे करने से उपज बढ़ती?है.

साथ में लें दूसरी फसल : अरहर की पंक्तियों के बीच में शुरुआती 2-3 महीने तक काफी खाली जगह रहती है जिस में दूसरी फसलें सहफसल के रूप में ली जा सकती?हैं. अरहर के साथ?ज्वार की फसल लेने से अरहर में उकठा रोग का प्रकोप भी कम होता है. उड़द की सहफसली खेती खरपतवार बढ़ने से रोकती है. इस के अलावा तिल, मक्का, मूंगफली वगैरह भी अरहर के साथ सहफसल के रूप में ले सकते हैं.

सिंचाई : अगेती फसल में फलियां बनते समय अक्तूबर माह में एक सिंचाई जरूरी है. देर से पकने वाली प्रजातियों में पाले से बचाव के लिए दिसंबर या जनवरी माह में सिंचाई करना ठीक रहता है.

खरपतवार की रोकथाम : शुरुआती दौर में अरहर की फसल की बढ़वार कम होती है, जबकि खरपतवारों की बढ़वार तेजी से होती है, इसलिए बोआई के 20-25 दिन बाद खुरपी या फावड़े से एक निराई करनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण के लिए पैंडीमिथेलीन (स्टांप) 30 ईसी 3 लिटर मात्रा को 800 लिटर पानी में घोल बना कर बोआई के तुरंत बाद स्प्रे भी कर सकते हैं.

बोआई का तरीका : अरहर की जल्दी पकने वाली प्रजाति की लाइन से लाइन की दूरी 45 से 60 सैंटीमीटर रखें और पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सैंटीमीटर रखें. देर से पकने वाली प्रजाति की लाइन से लाइन की दूरी 60 से

70 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 15 से

30 सैंटीमीटर रखें.

खेती में जल निकासी का सही इंतजाम

कम पानी में जिस तरह से फसल की अच्छी पैदावार नहीं होती है, उसी तरह से?ज्यादा पानी में भी अच्छी पैदावार नहीं होती है. ऐसे में जरूरी?है कि फसल में पानी की मात्रा सही हो.

खेती के कामों में लगे किसानों द्वारा जल निकासी यानी पानी के निकलने पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है. जिन जगहों पर ज्यादा बारिश होती है, वहां पर जल निकासी का सही इंतजाम न होने से हर साल हजारों एकड़ फसल गल जाती है.

जल निकासी की जरूरत

कुछ जमीनें इस तरह की होती?हैं, जिन में बरसात ज्यादा होने से पानी काफी दिनों तक के लिए भर जाता है. नतीजतन, वहां बोई गई फसल खराब हो जाती है और अगली फसल बोने के लिए भी समय पर खेत तैयार नहीं हो पाता है.

* कहींकहीं नहरों की सतह पास के खेत से ऊंची होती है, वहां बरसात में खेत में पानी भर जाता है. ऐसे खेतों से पानी के निकलने का पुख्ता इंतजाम करना पड़ता?है.

* कुछ खेतों में पानी भरा होने से खेती की मशीनों का इस्तेमाल नहीं हो पाता. इन खेतों में जल निकासी का इंतजाम कर के ही खेती की मशीनों का इंतजाम किया जा सकता?है.

लाभकारी है जल निकासी

* जमीन में मौजूद ज्यादा पानी निकल जाने से औक्सीजन पौधों की जड़ों तक पहुंच जाता है, जिस से फसल अच्छी हो जाती है. फसल की सेहत के लिए पौधों की जड़ों तक हवा का पहुंचना जरूरी होता?है.

* जमीन के लाभदायक जीवाणु हवा में अपना काम ठीक तरह से करते हैं. हवा से उन के काम करने की रफ्तार भी तेज होती है. इस से फसल को जरूरी भोजन भी मिल जाता है.

* जल निकासी से जमीन फसल बोने के लिए जल्दी तैयार की जा सकती है.

* जल निकासी न होने से जमीन कम उपजाऊ हो जाती है. ज्यादा पानी रुकने से अकसर जमीन ऊसरीली हो जाती है.

* जल निकासी से मिट्टी में मिले हानिकारक लवण, जो फसल की बढ़वार में रुकावट होते हैं, वे पानी के साथ बह जाते हैं. नतीजतन, भूमि की उपजाऊ ताकत बढ़ जाती?है.

जल भराव से नुकसान

* जिन इलाकों में ज्यादा पानी भर जाता?है और वहां पर जल निकासी का सही इंतजाम नहीं होता है, उन इलाकों में फसलों को कई तरह से नुकसान हो सकता?है.

* पौधे के लिए एक तय तापमान जरूरी होता है, उस से कम या ज्यादा तापमान होने से फसल पर बुरा असर पड़ता है. नमी ज्यादा होने से मिट्टी का तापमान गिर जाता?है.

* जमीन में सही हवा और तापमान की सहायता से लाभदायक जीवाणु काम करते?हैं. नमी ज्यादा होने पर जीवाणुओं पर उलटा असर पड़ता?है.

* ज्यादा समय तक पानी भरा रहने से जमीन सामान्य फसलें पैदा करने की कूवत खो देती है. नमी ज्यादा होने से जुताई और बोआई समय पर नहीं हो पाती, जिस से फसल की उपज कम हो जाती है.

* बीज जमने के लिए भी सही तापमान की जरूरत होती?है. ज्यादा नमी होने से तापमान कम हो जाता?है, जिस से बीज देर से जमते?हैं. इस का असर फसल के बढ़ने पर पड़ता?है और फसल देर से पकती?है.

* जड़ें पानी के लिए ही नीचे की ओर बढ़ती?हैं. खेतों में ज्यादा पानी भरा रहने से जड़ों को पानी ऊपर ही मिल जाता है, जिस से वे

ऊपर ही रह जाती हैं. इस से फसल कमजोर रह जाती?है.                                         ठ्ठ

खेती में जल निकासी का सही इंतजाम

लेखक -शैलेंद्र सिंह

ज्यादा पानी भी खेती के लिए नुकसानदायक बन जाता है. लिहाजा, खेतों से जरूरत से ज्यादा पानी निकालने का पुख्ता बंदोबस्त होना बेहद जरूरी है.

कम पानी में जिस तरह से फसल की अच्छी पैदावार नहीं होती है, उसी तरह से?ज्यादा पानी में भी अच्छी पैदावार नहीं होती है. ऐसे में जरूरी?है कि फसल में पानी की मात्रा सही हो.

खेती के कामों में लगे किसानों द्वारा जल निकासी यानी पानी के निकलने पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है. जिन जगहों पर ज्यादा बारिश होती है, वहां पर जल निकासी का सही इंतजाम न होने से हर साल हजारों एकड़ फसल गल जाती है.

जल निकासी की जरूरत

कुछ जमीनें इस तरह की होती?हैं, जिन में बरसात ज्यादा होने से पानी काफी दिनों तक के लिए भर जाता है. नतीजतन, वहां बोई गई फसल खराब हो जाती है और अगली फसल बोने के लिए भी समय पर खेत तैयार नहीं हो पाता है.

* कहींकहीं नहरों की सतह पास के खेत से ऊंची होती है, वहां बरसात में खेत में पानी भर जाता है. ऐसे खेतों से पानी के निकलने का पुख्ता इंतजाम करना पड़ता?है.

* कुछ खेतों में पानी भरा होने से खेती की मशीनों का इस्तेमाल नहीं हो पाता. इन खेतों में जल निकासी का इंतजाम कर के ही खेती की मशीनों का इंतजाम किया जा सकता?है.

लाभकारी है जल निकासी

* जमीन में मौजूद ज्यादा पानी निकल जाने से औक्सीजन पौधों की जड़ों तक पहुंच जाता है, जिस से फसल अच्छी हो जाती है. फसल की सेहत के लिए पौधों की जड़ों तक हवा का पहुंचना जरूरी होता?है.

* जमीन के लाभदायक जीवाणु हवा में अपना काम ठीक तरह से करते हैं. हवा से उन के काम करने की रफ्तार भी तेज होती है. इस से फसल को जरूरी भोजन भी मिल जाता है.

* जल निकासी से जमीन फसल बोने के लिए जल्दी तैयार की जा सकती है.

* जल निकासी न होने से जमीन कम उपजाऊ हो जाती है. ज्यादा पानी रुकने से अकसर जमीन ऊसरीली हो जाती है.

* जल निकासी से मिट्टी में मिले हानिकारक लवण, जो फसल की बढ़वार में रुकावट होते हैं, वे पानी के साथ बह जाते हैं. नतीजतन, भूमि की उपजाऊ ताकत बढ़ जाती?है.

जल भराव से नुकसान

* जिन इलाकों में ज्यादा पानी भर जाता?है और वहां पर जल निकासी का सही इंतजाम नहीं होता है, उन इलाकों में फसलों को कई तरह से नुकसान हो सकता?है.

* पौधे के लिए एक तय तापमान जरूरी होता है, उस से कम या ज्यादा तापमान होने से फसल पर बुरा असर पड़ता है. नमी ज्यादा होने से मिट्टी का तापमान गिर जाता?है.

* जमीन में सही हवा और तापमान की सहायता से लाभदायक जीवाणु काम करते?हैं. नमी ज्यादा होने पर जीवाणुओं पर उलटा असर पड़ता?है.

* ज्यादा समय तक पानी भरा रहने से जमीन सामान्य फसलें पैदा करने की कूवत खो देती है. नमी ज्यादा होने से जुताई और बोआई समय पर नहीं हो पाती, जिस से फसल की उपज कम हो जाती है.

* बीज जमने के लिए भी सही तापमान की जरूरत होती?है. ज्यादा नमी होने से तापमान कम हो जाता?है, जिस से बीज देर से जमते?हैं. इस का असर फसल के बढ़ने पर पड़ता?है और फसल देर से पकती?है.

* जड़ें पानी के लिए ही नीचे की ओर बढ़ती?हैं. खेतों में ज्यादा पानी भरा रहने से जड़ों को पानी ऊपर ही मिल जाता है, जिस से वे

ऊपर ही रह जाती हैं. इस से फसल कमजोर रह जाती?है.                                         ठ्ठ

पावर वीडर खरपतवार हटाए पैदावार बढ़ाए

लेखकभानु प्रकाश राणा

हमारे देश के अनेक इलाकों के किसान गन्ना, कपास, सब्जी या फूलों वगैरह की खेती लगातार करते आ रहे?हैं. इन सभी फसलों को ज्यादातर लाइन में बोया जाता है. दूसरी फसलों की तुलना में इन फसलों को बोने वाली लाइनों के बीच की दूरी भी अधिक होती है. इस वजह से लाइनों के बीच वाली जगहों में अनेक खरपतवार आ जाते?हैं.

ये ऐसे खरपतवार होते?हैं जो बिना बोए ही उपज आते हैं. उर्वरकों को हम अपनी फसल में इसलिए डालते हैं कि हमें अच्छी पैदावार मिल सके. इन उर्वरकों का फायदा ये खरपतवार भी उठाते हैं और तेजी के साथ

बढ़ते?हैं जिस का सीधा असर फसल की पैदावार पर पड़ता है यानी फसल पैदावार में गिरावट आ जाती है.

खरपतवारों की रोकथाम

सहफसली खेतीबारी : कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खरपतवारों की रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाना एक तरीका है यानी खेत में फसल को बदलबदल कर बोना. इस से खरपतवारों को पनपने का मौका नहीं मिलता.

जैसे, हम अभी गन्ना की फसल ले रहे हैं तो अगली बार उस में गेहूं बोएं, गेहूं कटने के बाद खेत भी कुछ समय खाली रहते हैं. उस समय उस में हरी खाद के लिए ढैंचा वगैरह बोएं. उस के बाद धान लगाएं, फिर गन्ना की बोआई कर सकते हैं. इस तरह बदलबदल कर फसल बोने से खरपतवारों पर रोक लगती है.

करें सहफसली खेती

अगर आप गन्ने की खेती कर रहे?हैं तो उस के साथ सहफसली खेती करें. जब गन्ना?छोटा होता?है उस समय उस की लाइनों के बीच में खाली जगह में आलू, लहसुन, गोभी, भिंडी टमाटर वगैरह की खेती भी करें. इन सब्जियों के अलावा समय के मुताबिक गन्ने के साथ दलहनी फसल उड़द, मूंग, लोबिया वगैरह भी उगा सकते हैं. ऐसा करने से अधिक फायदा होगा. खरपतवारों की रोकथाम तो होगी ही, साथ ही सहफसली खेती में मुनाफा भी होगा.

कहने का सीधा सा मतलब यह है कि दोनों लाइनों के बीच में जो जगह बची है, वहां की मिट्टी की पैदावार कूवत का फायदा खरपतवार उठाते हैं. उसी जगह का इस्तेमाल कर अगर आप ने दूसरी फसल भी ले ली तो खरपतवारों को पनपने का मौका ही नहीं मिला.

खास परिस्थितियों में आप खरपतवारों को खत्म करने के लिए सही खरपतवारनाशक का इस्तेमाल कर सकते हैं. आजकल रासायनिक खरपतवार के अलावा अनेक जैविक खरपतवारनाशक भी आ रहे हैं, उन का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

यंत्रों से करें रोकथाम

इस तरह की फसलों में खरपतवार के सफाए के लिए पावर वीडर एक कारगर यंत्र है. इस खरपतवारनाशक यंत्र से कम समय में अनेक फसलों से खरपतवार निकाले जा सकते हैं. यह यंत्र सभी छोटेबड़े किसानों के लिए अच्छा यंत्र है. साथ ही, पहाड़ी इलाकों के लिए भी उपयोगी है. खरपतवार निकालने के इस तरह के यंत्र खासकर लाइनों में बोई गई फसल के लिए अच्छे रहते हैं.

हौंडा रोटरी टिलर : मौडल एफजे 500 आरडी रोटरी पावर वीडर की कुछ खासीयतें दी गई हैं. इस यंत्र में 5.5 हौर्सपावर का 4 स्ट्रोक एयर कूल्ड इंजन लगा?है और धूल से बचाव के लिए इंजन में एयर क्लिनर भी लगा है.

गियर बौक्स जमीन में ऊंचाई पर दिया गया है. इस वजह से यह मिट्टी में नहीं फंसता और बिना रुकावट के चलता?है. 2 गियर फौर्वर्ड (सामने की ओर) व 1 गियर रिवर्स (वापसी) के लिए दिया गया है जिस से अपनी सुविधानुसार आगे या पीछे किया जा सकता है.

यह यंत्र खरपतवार को जड़ से खोद कर निकालता है. यह यंत्र पैट्रोल से चलाया जाता है और इस की टीलिंग (खुदाई) चौड़ाई को

18 इंच से 24 इंच, 36 इंच तक कटाव बढ़ाया जा सकता?है और टीलिंग यानी खुदाई की गहराई को 3 से 5 इंच तक कम या ज्यादा किया जा सकता है.

इस यंत्र के बारे में अधिक जानकारी के लिए फोन नंबर 0120-2341050-59 पर आप बात कर सकते हैं. यहां से आप को अपने नजदीकी डीलर की जानकारी या फोन नंबर भी मिल सकता है. आप अपनी सुविधानुसार यहां से इस यंत्र के बारे में जानकारी ले सकते हैं.

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