पत्नी की बात मानना नहीं है दब्बूपन की निशानी

पुरुषप्रधान समाज में आज महिलाएं हर क्षेत्र में नेतृत्व कर रही हैं. ऐसे में पढ़ीलिखी, योग्य व समझदार पत्नी की राय को सम्मान देना पति का गुलाम होना नहीं, बल्कि उस की बुद्धिमत्ता को दर्शाता है.

कपिल इंजीनयर हैं. लोक सेवा आयोग से चयनित राकेश उच्च पद पर हैं. विभागीय परिचितों, साथियों में दोनों की इमेज पत्नियों से डरने, उन के आगे न बोलने वाले भीरु या डरपोक पतियों की है. पत्नियों का आलम यह है कि नौकरी संबंधी समस्याओं की बाबत मशवरे के लिए पतियों के उच्च अधिकारियों के पास जाते समय वे भी उन के साथ जाती हैं.

उच्चाधिकारियों से मशवरे के दौरान कपिल से ज्यादा उन की पत्नी बात करती है. सोसाइटी में कपिल की दयनीय स्थिति को ले कर खूब चर्चाएं होती हैं. वहीं, राकेश ने अपनी स्थिति को जैसे स्वीकार ही कर लिया है और उन्हें इस से कोई दिक्कत नहीं है. असल में, उन्हें पत्नी की सलाह से बहुत बार लाभ हुए. बहुत जगह वह खुद ही काम करा आती. वे सब के सामने स्वीकार करते हैं कि शादी के बाद उन की काबिल पत्नी ने बहुत बड़ा त्याग किया है. वे घर व बाहर के सभी काम खुशीखुशी करते हैं, पत्नी की डांट भी खाते हैं और कभी ऐसा नहीं लगता कि वे खुद को अपमानित महसूस करते हों.

वास्तव में जो पतिपत्नी आपस में अच्छी समझ रखते हैं और मिलजुल कर निर्णय लेते हैं उन के घर में आपसी सामंजस्य और हंसीखुशी का माहौल रहता है. जरूरत इस बात की है कि पति हो या पत्नी, दोनों एकदूसरे की राय को बराबर महत्त्व व सम्मान दें और कोई भी निर्णय किसी एक का थोपा हुआ न हो. यदि पत्नी ज्यादा समझदार, भावनात्मक रूप से संतुलित व व्यावहारिक है तो पति अगर उस की राय को मानता है तो इस में पति को दब्बू न समझ कर, समझदार समझा जाना चाहिए.

इस के विपरीत, महेश और उन की पत्नी का दांपत्य जीवन इसलिए कभी सामान्य नहीं रह पाया क्योंकि उन्होंने अपनी दबंग पत्नी के सामने खुद को समर्पित नहीं किया. उन का सारा वैवाहिक जीवन लड़तेझगड़ते, एकदूसरे पर अविश्वास और शक करते हुए बीता. इस के चलते उन के बच्चे भी इस तनाव का शिकार हुए.

कई परिवार ऐसे दिख जाएंगे जिन में पति की कोई अस्मिता या सम्मान नहीं दिखेगा और पत्नियां पूरी तरह से परिवार पर हावी रहती हैं. ये पति अपने इस जीवन को स्वीकार कर चुके होते हैं और परिस्थितियों से समझौता कर चुके होते हैं. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ये दब्बू या कायर व्यक्ति हैं जिन का कोई आत्मसम्मान नहीं है? या फिर किन स्थितियों में उन्होंने हालात से समझौता कर लिया है और अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया है? अगर गहन विश्लेषण करें तो इन स्थितियों के कारण सामाजिक, पारिवारिक ढांचे में निहित दिखते हैं, जिन के कारण कई लोगों को अवांछित परिस्थितियों को भी स्वीकार करना पड़ता है.

समाज में एक बार शादी हो कर उस का टूटना बहुत ही खराब बात मानी जाती है. विवाह जन्मजन्मांतर का बंधन माना जाता है. और फिर बच्चों का भविष्य, परिवार की जगहंसाई, समाज का संकीर्ण रवैया आदि कई बातें हैं जिन के कारण लोग बेमेल शादियों को भी निभाते रहते हैं. कर्कशा और झगड़ालू पत्नियों के साथ  पति सारी जिंदगी बिता देते हैं. ऐसी स्त्रियां बच्चों तक को अपने पिता के इस तरह खिलाफ कर देती हैं कि बच्चे भी बातबात पर पिता का अपमान कर मां को ही सही ठहराते हैं और पुरुष बेचारे खून का घूंट पी कर सब चुपचाप सहन करते रहते हैं. समाज का स्वरूप पुरुषवादी है और यदि वह पत्नी की बात मानता है, उस की सलाह को महत्त्व देता है तो परिवार व समाज द्वारा उस पर दब्बू होने का ठप्पा लगा दिया जाता है.

बच्चे भी तनाव के शिकार

श्रमिक कल्याण विभाग के एक औफिसर की पत्नी ने पति की सारी कमाई यानी घर, प्रौपर्टी हड़प कर, बच्चों को भी अपने पक्ष में कर के गुंडों की मदद से पति को घर से निकलवा दिया और वह बेचारा दूसरे महल्ले में किराए का कमरा ले कर रहता है, कभीकभार ही घर आता है. आखिर, इस तरह के एकतरफा संबंध चलते कैसे रहते हैं?  इतना अपमान झेल कर भी पुरुष क्यों  ऐसी पत्नियों के साथ निभाते रहते हैं?

वास्तव में सारा खेल डिमांड और सप्लाई का है. भारतीय समाज में शादी होना एक बहुत बड़ा आडंबर होने के साथसाथ एक सामाजिक बंधन ज्यादा है. चाहे उस बंधन में प्रेम व विश्वास हो, न हो, फिर भी उसे तोड़ना बहुत ही कठिन है. वैवाहिक संबंध को तोड़ने पर समाज, रिश्तेदारों, आसपास के लोगों के सवालों को झेलना और सामाजिक अवहेलना को सहन करना बहुत ही दुखदायी होता है. और एक नई जिंदगी की शुरुआत करना तो और भी दुष्कर होता है. ऐसे में व्यक्ति अकेला हो जाता है और मानसिक रूप से टूट जाता है.

बच्चों का भी जीवन परेशानियों से भर जाता है. उन की पढ़ाई, कैरियर सब प्रभावित होते हैं, साथ ही, बच्चे मानसिक रूप से अस्थिर हो कर कई तरह के तनावों का शिकार हो जाते हैं

इन परिस्थितियों में अनेक लोग इसी में समझदारी समझते हैं कि बेमेल रिश्ते को ही झेलते रहा जाए और शांति बनाए रखने के लिए चुप ही रहा जाए. जब पति घर में शांति बनाए रखने के लिए चुप रहते हैं और पत्नी के साथ जवाबतलब नहीं करते तो इस तरह की अधिकार जताने वाली शासनप्रिय महिलाएं इस का फायदा उठाती हैं और पतियों पर और ज्यादा हावी होने की कोशिश करने लगती हैं. ऐसी पत्नी को इस बात का अच्छी तरह भान होता है कि यह व्यक्ति उसे छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता. अगर पति कुछ विरोध करने की कोशिश करता भी है तो वह उस पर झूठा इलजाम लगाने लगती है. यहां तक कि उसे चरित्रहीन तक साबित कर देती है.

ऐसी हालत में पुरुष की स्थिति मरता क्या न करता की हो जाती है. इधर कुआं तो उधर खाई. पति को अपने चंगुल में रखना ऐसी स्त्रियों का प्रमुख उद्देश्य होता है. वे घर तो घर, बाहर व चार लोगों के सम्मुख भी पति पर अपना अधिकार व शासन प्रदर्शित करने से बाज नहीं आतीं. और धीरेधीरे यह उन की आदत में आ जाता है. स्थिति को और ज्यादा हास्यास्पद बनने न देने के लिए पतियों के पास चुप रहने के सिवा चारा नहीं होता. इसे उन का दब्बूपन समझ कर उन पर दब्बू होने का ठप्पा लगा दिया जाता है. यह इमेज बच्चों की नजरों में भी पिता के सम्मान को कम कर देती है और ये औरतें बच्चों को भी अपने स्वार्थ व अपने अधिकार को पुख्ता बनाने के लिए इस्तेमाल करती हैं. समस्या की जड़ हमारे समाज का दकियानूसी ढांचा है जहां व्यक्ति इस संबंध को तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पाता और अपना सारा जीवन इसी तरह काट देता है.

हमेशा केवल स्त्रियों की त्रासदी का जिक्र किया जाता है. कई पुरुषों का जीवन भी त्रासदीपूर्ण होता है, ऐसा गलत स्त्री से जुड़ जाने के कारण हो जाता है. ऐसे पुरुषों के प्रति भी सहानुभूति रखनी चाहिए और वैवाहिक जीवन को डिमांड व सप्लाई का खेल न बना कर प्रेम व एकदूसरे के प्रति सम्मान की भावना से पूर्ण बनाना चाहिए.

पतिपत्नी गाड़ी के 2 पहिए

इस समस्या को दूसरे पहलू से भी देखा जाना चाहिए. एक धारणा बना रखी गई है कि पुरुष हमेशा स्त्री से ज्यादा समझदार होते हैं. समाज ने पारिवारिक, आर्थिक व सामाजिक सभी तरह के निर्णय लेने के अधिकार पुरुष के लिए रिजर्व कर दिए हैं. जबकि, यह तथ्य हमेशा सही नहीं हो सकता कि पुरुष ही सही निर्णय ले सकते हैं, स्त्री नहीं. जो स्त्री सारा घर चला सकती है, उच्चशिक्षा ग्रहण कर बड़ेबड़े पद संभाल सकती है वह पति को निर्णय लेने में अपनी सलाह या मशवरा क्यों नहीं दे सकती?

कई बार देखा गया है कि स्त्रियां परिस्थितियों को ज्यादा सही ढंग से समझ पाती हैं और अधिक व्यावहारिक निर्णय लेती हैं. ऐसे में यदि पति अपनी पत्नी की राय को सम्मान देता है, उस के मशवरे को मानता है तो उस पर दब्बू होने का ठप्पा लगा देना कैसे उचित है?

परिवार में केवल एक के द्वारा लिए गए फैसले एकतरफा और जल्दबाजी में लिए गए भी हो सकते हैं. जब कहते हैं कि, पतिपत्नी एक गाड़ी के 2 पहिए हैं, तो भला एक पहिए से गाड़ी कैसे चल सकती है? पत्नी को पति की अर्धांगिनी कहा जाता है लेकिन वही अर्धांगिनी अपनी बात मानने को या उस की राय पर विचार करने को कहे तो उसे शासन करना कहा जाता है. अब वह समय आ गया है कि दकियानूसी धारणाओं को छोड़ परिवार के निर्णयों को लेने में स्त्री की राय को भी प्राथमिकता दी जाए और उसे पूरा महत्त्व दिया जाए.

Holi 2024: रिश्तों में रंग घोले होली की ठिठोली

वैसे तो होली रंगों का त्योहार है पर इस में शब्दों से भी होली खेलने का पुराना रिवाज रहा है. होली ही ऐसा त्योहार है जिस में किसी का मजाक उड़ाने की आजादी होती है. उस का वह बुरा भी नहीं मानता. समय के साथ होली में आपसी तनाव बढ़ता जा रहा है. धार्मिक और सांप्रदायिक कुरीतियों की वजह से होली अब तनाव के साए में बीतने लगी है. पड़ोसियों तक के साथ होली खेलने में सोचना पड़ता है. अब होली जैसे मजेदार त्योहार का मजा हम से अधिक विदेशी लेने लगे हैं. हम साल में एक बार ही होली मनाते हैं पर विदेशी पानी, कीचड़, रंग, बीयर और टमाटर जैसी रसदार चीजों से साल में कई बार होली खेलने का मजा लेते हैं. भारत में त्योहारों में धार्मिक रंग चढ़ने से दूसरे धर्म और बिरादरी के लोग उस से दूर होने लगे हैं.

बदलते समय में लोग अपने करीबियों के साथ ही होली का मजा लेना पसंद करते हैं. कालोनियों और अपार्टमैंट में रहने वाले लोग एकदूसरे से करीब आने के लिए होली मिलन और होली पार्टी जैसे आयोजन करने लगे हैं. इस में वे फूलों और हर्बल रंगों से होली खेलते हैं. इस तरह के आयोजनों में महिलाएं आगे होती हैं. पुरुषों की होली पार्टी बिना नशे के पूरी नहीं होती जिस की वजह से महिलाएं अपने को इन से दूर रखती हैं. अच्छी बात यह है कि होली की मस्ती वाली पार्टी का आयोजन अब महिलाएं खुद भी करने लगी हैं. इस में होली गेम्स, होली के गीतों पर डांस और होली क्वीन चुनी जाती है. महिलाओं की ऐसी पहल ने अब होली को पेज थ्री पार्टी की शक्ल दे दी है. शहरों में ऐसे आयोजन बड़ी संख्या में होने लगे हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी होली की मस्ती से दूर ही रह रहा है.

धार्मिक कैद से आजाद हो होली

समाजशास्त्री डा. सुप्रिया कहती हैं, ‘‘त्योहारों की धार्मिक पहचान मौजमस्ती की सीमाओं को बांध देती है. आज का समाज बदल रहा है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार भी बदलें और उन को मनाने की पुरानी सोच को छोड़ कर नई सोच के हिसाब से त्योहार मनाए जाएं, जिस से हम समाज की धार्मिक दूरियों, कुरीतियों को कम कर सकें. त्योहार का स्वरूप ऐसा बने जिस में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें. अभी त्योहार के करीब आते ही माहौल में खुशी और प्रसन्नता की जगह पर टैंशन सी होने लगती है. धार्मिक टकराव न हो जाए, इस को रोकने के लिए प्रशासन जिस तरह से सचेत होता है उस से त्योहार की मस्ती उतर जाती है. अगर त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्ति मिल जाए तो त्योहार को बेहतर ढंग से एंजौय किया जा सकता है.’’

पूरी दुनिया में ऐसे त्योहारों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धार्मिक कैद से दूर होते हैं. त्योहार में धर्म की दखलंदाजी से त्योहार की रोचकता सीमित हो जाती है. त्योहार में शामिल होने वाले लोग कुछ भी अलग करने से बचते हैं. उन को लगता है कि धर्म का अनादार न हो जाए कि जिस से वे अनावश्यक रूप से धर्म के कट्टरवाद के निशाने पर आ जाएं. लोगों को धर्म से अधिक डर धर्म के कट्टरवाद से लगता है. इस डर को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्त किया जाए. त्योहार के धार्मिक कैद से बाहर होने से हर जाति व धर्म के लोग आपस में बिना किसी भेदभाव के मिल सकते हैं.

मस्त अंदाज होली का

होली का अपना अंदाज होता है. ऐसे में होली की ठिठोली के रास्ते रिश्तों में रस घोलने की पहल भी होनी चाहिए. होली की मस्ती का यह दस्तूर है कि कहा जाता है, ‘होली में बाबा देवर लागे.’ रिश्तों का ऐसा मधुर अंदाज किसी और त्योहार में देखने को नहीं मिलता. होली चमकदार रंगों का त्योहार होता है. हंसीखुशी का आलम यह होता है कि लोग चेहरे और कपड़ों पर रंग लगवाने के बाद भी खुशी का अनुभव करते हैं. होली में मस्ती के अंदाज को फिल्मों में ही नहीं, बल्कि फैशन और लोकरंग में भी खूब देखा जा सकता है. साहित्य में होली का अपना विशेष महत्त्व है. होली में व्यंग्यकार की कलम अपनेआप ही हासपरिहास करने लगती है. नेताओं से ले कर समाज के हर वर्ग पर हास्यपरिहास के अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है.

इस का वे बुरा भी नहीं मानते. ऐसी मस्ती होली को दूसरे त्योहार से अलग करती है. होली के इस अंदाज को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि होली में मस्ती को बढ़ावा दिया जाए और धार्मिक सीमाओं को खत्म किया जाए. रिश्तों में मिश्री सी मिठास घोलने के लिए होली से बेहतर कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता है. होली की मस्ती के साथ रंगों का ऐसा रेला चले जिस में सभी सराबोर हो जाएं. सालभर के सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएं. कुछ नहीं तो पड़ोसी के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत ही हो जाए.

Holi 2024: होली से दूरी, यंग जेनरेशन की मजबूरी

होली का दिन आते ही पूरे शहर में होली की मस्ती भरा रंग चढ़ने लगता है लेकिन 14 साल के अरनव को यह त्योहार अच्छा नहीं लगता. जब सारे बच्चे गली में शोर मचाते, रंग डालते, रंगेपुते दिखते तो अरनव अपने खास दोस्तों को भी मुश्किल से पहचान पाता था. वह होली के दिन घर में एक कमरे में खुद को बंद कर लेता  होली की मस्ती में चूर अरनव की बहन भी जब उसे जबरदस्ती रंग लगाती तो उसे बहुत बुरा लगता था. बहन की खुशी के लिए वह अनमने मन से रंग लगवा जरूर लेता पर खुद उसे रंग लगाने की पहल न करता. जब घर और महल्ले में होली का हंगामा कम हो जाता तभी वह घर से बाहर निकलता. कुछ साल पहले तक अरनव जैसे बच्चों की संख्या कम थी. धीरेधीरे इस तरह के बच्चों की संख्या बढ़ रही है और होली के त्योहार से बच्चों का मोहभंग होता जा रहा है. आज बच्चे होली के त्योहार से खुद को दूर रखने की कोशिश करते हैं.

अगर उन्हें घरपरिवार और दोस्तों के दबाव में होली खेलनी भी पड़े तो तमाम तरह की बंदिशें रख कर वे होली खेलते हैं. पहले जैसी मौजमस्ती करती बच्चों की टोली अब होली पर नजर नहीं आती. इस की वजह यही लगती है कि उन में अब उत्साह कम हो गया है.

1. नशे ने खराब की होली की छवि

पहले होली मौजमस्ती का त्योहार माना जाता था लेकिन अब किशोरों का रुझान इस में कम होने लगा है. लखनऊ की राजवी केसरवानी कहती है, ‘‘आज होली खेलने के तरीके और माने दोनों ही बदल गए हैं. सड़क पर नशा कर के होली खेलने वाले होली के त्योहार की छवि को खराब करने के लिए सब से अधिक जिम्मेदार हैं. वे नशे में गाड़ी चला कर दूसरे वाहनों के लिए खतरा पैदा कर देते हैं ऐसे में होली का नाम आते ही नशे में रंग खेलते लोगों की छवि सामने आने लगती है. इसलिए आज किशोरों में होली को ले कर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है.’’

2. एग्जाम फीवर का डर

होली और किशोरों के बीच ऐग्जाम फीवर बड़ी भूमिका निभाता है. वैसे तो परीक्षा करीबकरीब होली के आसपास ही पड़ती है. लेकिन अगर बोर्ड के ऐग्जाम हों तो विद्यार्थी होली फैस्टिवल के बारे में सोचते ही नहीं हैं क्योंकि उन का सारा फोकस परीक्षाओं पर जो होता है. पहले परीक्षाओं का दबाव मन पर कम होता था जिस से बच्चे होली का खूब आनंद उठाते थे. अब पढ़ाई का बोझ बढ़ने से कक्षा 10 और 12 की परीक्षाएं और भी महत्त्वपूर्ण होने लगी हैं, जिस से परीक्षाओं के समय होली खेल कर बच्चे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहते.

होली के समय मौसम में बदलाव हो रहा होता है. ऐसे में मातापिता को यह चिंता रहती है कि बच्चे कहीं बीमार न पड़ जाएं. अत: वे बच्चों को होली के रंग और पानी से दूर रखने की कोशिश करते हैं, जो बच्चों को होली के उत्साह से दूर ले जाता है. डाक्टर गिरीश मक्कड़ कहते हैं, ‘‘बच्चे खेलकूद के पुराने तौरतरीकों से दूर होते जा रहे हैं. होली से दूरी भी इसी बात को स्पष्ट करती है. खेलकूद से दूर रहने वाले बच्चे मौसम के बदलाव का जल्द शिकार हो जाते हैं. इसलिए कुछ जरूरी सावधानियों के साथ होली की मस्ती का आनंद लेना चाहिए.’’ फोटोग्राफी का शौक रखने वाले क्षितिज गुप्ता का कहना है, ‘‘मुझे रंगों का यह त्योहार बेहद पसंद है. स्कूल में बच्चों पर परीक्षा का दबाव होता है. इस के बाद भी वे इस त्योहार को अच्छे से मनाते हैं. यह सही है कि पहले जैसा उत्साह अब देखने को नहीं मिलता.

‘‘अब हम बच्चों पर तमाम तरह के दबाव होते हैं. साथ ही अब पहले वाला माहौल नहीं है कि सड़कों पर होली खेली जाए बल्कि अब तो घर में ही भाईबहनों के साथ होली खेल ली जाती है. अनजान जगह और लोगों के साथ होली खेलने से बचना चाहिए. इस से रंग में भंग डालने वाली घटनाओं को रोका जा सकता है.’’

3. डराता है जोकर जैसा चेहरा

होली रंगों का त्योहार है लेकिन समय के साथसाथ होली खेलने के तौरतरीके बदल रहे हैं. आज होली में लोग ऐसे रंगों का उपयोग करते हैं जो स्किन को खराब कर देते हैं. रंगों में ऐसी चीजों का प्रयोग भी होने लगा है जिन के कारण रंग कई दिनों तक छूटता ही नहीं. औयल पेंट का प्रयोग करने के अलावा लोग पक्के रंगों का प्रयोग अधिक करने लगे हैं. लखनऊ के आदित्य वर्मा कहता है, ‘‘मुझे होली पसंद है पर जब होली खेल रहे बच्चों के जोकर जैसे चेहरे देखता हूं तो मुझे डर लगता है. इस डर से ही मैं घर के बाहर होली खेलने नहीं जाता.’’

उद्धवराज सिंह चौहान को गरमी का मौसम सब से अच्छा लगता है. गरमी की शुरुआत होली से होती है इसलिए इस त्योहार को वह पसंद करता है. उद्धवराज कहता है, ‘‘होली में मुझे पानी से खेलना अच्छा लगता है. इस फैस्टिवल में जो फन और मस्ती होती है वह अन्य किसी त्योहार में नहीं होती. इस त्योहार के पकवानों में गुझिया मुझे बेहद पसंद है. रंग लगाने में जोरजबरदस्ती मुझे अच्छी नहीं लगती. कुछ लोग खराब रंगों का प्रयोग करते हैं, इस कारण इस त्योहार की बुराई की जाती है. रंग खेलने के लिए अच्छे किस्म के रंगों का प्रयोग करना चाहिए.’’

4. ईको फ्रैंडली होली की हो शुरुआत

‘‘होली का त्योहार पानी की बरबादी और पेड़पौधों की कटाई के कारण मुझे पसंद नहीं है. मेरा मानना है कि अब पानी और पेड़ों का जीवन बचाने के लिए ईको फ्रैंडली होली की पहल होनी चाहिए. ‘‘होली को जलाने के लिए प्रतीक के रूप में कम लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए और रंग खेलते समय ऐसे रंगों का प्रयोग किया जाना चाहिए जो सूखे हों, जिन को छुड़ाना आसान हो. इस से इस त्योहार में होने वाले पर्यावरण के नुकसान को बचाया जा सकता है,’’ यह कहना है सिम्बायोसिस कालेज के स्टूडेंट रह चुके शुभांकर कुमार का. वह कहता है, ‘‘समय के साथसाथ हर रीतिरिवाज में बदलाव हो रहे हैं तो इस में भी बदलाव होना चाहिए. इस से इस त्योहार को लोकप्रिय बनाने और दूसरे लोगों को इस से जोड़ने में मदद मिलेगी.’’

एलएलबी कर रहे तन्मय को होली का त्योहार पसंद नहीं है. वह कहता है, ‘‘होली पर लोग जिस तरह से पक्के रंगों का प्रयोग करने लगे हैं उस से कपड़े और स्किन दोनों खराब हो जाते हैं. कपड़ों को धोने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. कई बार होली खेले कपड़े दोबारा पहनने लायक ही नहीं रहते. ‘‘ऐसे में जरूरी है कि होली खेलने के तौरतरीकों में बदलाव हो. होली पर पर्यावरण बचाने की मुहिम चलनी चाहिए. लोगों को जागरूक कर इन बातों को समझाना पड़ेगा, जिस से इस त्योहार की बुराई को दूर किया जा सके. इस बात की सब से बड़ी जिम्मेदारी किशोर व युवावर्ग पर ही है.

होली बुराइयों को खत्म करने का त्योहार है, ऐसे में इस को खेलने में जो गड़बड़ियां होती हैं उन को दूर करना पड़ेगा. इस त्योहार में नशा कर के रंग खेलने और सड़क पर गाड़ी चलाने पर भी रोक लगनी चाहिए.’’

5. किसी और त्योहार में नहीं होली जैसा फन

होली की मस्ती किशोरों व युवाओं को पसंद भी आती है. एक स्टूडेंट कहती है, ‘‘होली ऐसा त्योहार है जिस का सालभर इंतजार रहता है. रंग और पानी किशोरों को सब से पसंद आने वाली चीजें हैं. इस के अलावा होली में खाने के लिए तरहतरह के पकवान मिलते हैं. ऐसे में होली किशोरों को बेहद पसंद आती है

‘‘परीक्षा और होली का साथ रहता है. इस के बाद भी टाइम निकाल कर होली के रंग में रंग जाने से मन अपने को रोक नहीं पाता. मेरी राय में होली जैसा फन अन्य किसी त्योहार में नहीं होता. कुछ बुराइयां इस त्योहार की मस्ती को खराब कर रही हैं. इन को दूर कर होली का मजा लिया जा सकता है.’’ ऐसी ही एक दूसरी छात्रा कहती हैं, ‘‘होली यदि सुरक्षित तरह से खेली जाए तो इस से अच्छा कोई त्योहार नहीं हो सकता. होली खेलने में दूसरों की भावनाओं पर ध्यान न देने के कारण कई बार लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है, जिस से यह त्योहार बदनाम होता है. सही तरह से होली के त्योहार का आनंद लिया जाए तो इस से बेहतर कोई दूसरा त्योहार हो ही नहीं सकता.

‘‘दूसरे आज के किशोरों में हर त्योहार को औनलाइन मनाने का रिवाज चल पड़ा है. वे होली पर अपनों को औनलाइन बधाइयां देते हैं. भले ही हमारा लाइफस्टाइल चेंज हुआ हो लेकिन फिर भी हमारा त्योहारों के प्रति उत्साह कम नहीं होना चाहिए.’’

बीवी का चालचलन, शौहर का जले मन

दुनिया का सब से हसीन और खूबसूरत रिश्ता पतिपत्नी का ही माना जा सकता है, जिस में 2 अनजान लोग जिंदगी के सफर में कदम से कदम मिला कर चलते हैं, एकदूसरे के सुखदुख के भागीदार बनते हैं और घरगृहस्थी की जिम्मेदारी निभाते हुए बुढ़ापे में एकदूसरे का पूरा खयाल भी रखते हैं.

लेकिन यह रिश्ता कांच जैसा नाजुक भी बहुत होता है, जिस में एक कंकड़ भी पड़ जाए तो यह कुछ ऐसा दरकता है कि इस में सिवा अंधेरे के कुछ और नहीं दिखता. इस कंकड़ का नाम है शक.

कुछ चुनिंदा मामलों को छोड़ दें तो शक यों ही दिलोदिमाग में घर नहीं करता है. दरअसल, यह एक किस्म की बीमारी है जो अगर समय रहते दूर न हो तो यकीन में बदलने लगती है.

कामयाब और खुशहाल शादीशुदा जिंदगी की एक शर्त पतिपत्नी का एकदूसरे के प्रति ईमानदार रहना भी है और उस से भी ज्यादा अहम है एकदूसरे पर भरोसा होना. दोनों में से कोई भी इसे तोड़ता है तो जिंदगी भार बन जाती है.

हमारे समाज पर पकड़ और दबदबा मर्दों का है, जो घर के मुखिया भी होते हैं. इस नाते उन्हें औरतों के मुकाबले ज्यादा हक मिले हुए हैं, जिन का अगर वे बेजा इस्तेमाल करें तो किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ता, पर औरतों पर आज भी कई बंदिशें हैं. इन में से एक है बहैसियत बीवी का किसी पराए मर्द की तरफ आंख उठा कर भी न देखना, फिर मर्द भले ही इधरउधर मुंह मारता फिरे, उसे दोष नहीं दिया जाता.

इस में भी कोई शक नहीं है कि कुछ बीवियां, वजह कुछ भी हो, अगर ये बंदिशें तोड़ती हैं तो एक जुर्म का जन्म और 2 जिंदगियों का खात्मा होता है. एक शौहर अपनी बीवी की कई जिद और ज्यादतियां बरदाश्त कर लेता है, लेकिन उस की बेवफाई पर मरनेमारने की हद तक तिलमिला उठता है. ऐसा इसलिए है कि वह बीवी को अपनी जायदाद समझता है और यह बात उसे बचपन में ही समझ आ जाती है कि बीवी किसी और से सैक्स करे तो गुनाहगार होती है, जिस की सजा भी उसे ही तय करनी है.

लेकिन अकसर शौहर के शक बेबुनियाद होते हैं, पर इस का मतलब यह नहीं है कि सभी बीवियां सतीसावित्री या पाकसाफ होती हैं, बल्कि यह है कि यह समस्या का हल नहीं है. समस्या और उस के हल को समझने से पहले कुछ ताजा हादसों पर नजर डालना जरूरी है :

-छत्तीसगढ़ के जांजगीरचांपा के रहने वाले 21 साला सिक्योरटी गार्ड संजय कुमार सूर्यवंशी ने अपनी 20 साला बीवी नीलम प्रधान की बेरहमी से गला घोंट कर बीती 8 जनवरी को हत्या कर दी. पकड़े जाने के बाद संजय ने जो वजह बताई वह यह थी कि नीलम अकसर मोबाइल फोन पर बातचीत और चैटिंग में बिजी रहती थी, इसलिए उसे उस के चालचलन पर शक हो चला था. इस हादसे में हैरानी की बात यह है कि इन दोनों ने 2 साल पहले ही लव मैरिज की थी.

-राजस्थान के जोधपुर की भोपालगढ़ तहसील के गांव मिंडोली के बाशिंदे 25 साला श्रवण कुमार भील को अपनी 20 साला बीवी जतनबाई के चालचलन पर महज इसलिए शक हो गया था कि शाम को काम के बाद जब वह घर लौटता था तो बीवी घर पर नहीं मिलती थी.

5 महीने से शक की आग में जल रहे श्रवण ने आखिकार बीती 23 दिसंबर की आधी रात को बिजली के तार से गला दबा कर बीवी की हत्या कर दी. उस समय जतनबाई पेट से थी. इन दोनों की शादी 5 साल पहले हुई थी.

-छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर के बलरामपुर में होटल दीपक में एक पतिपत्नी बीती 8 जनवरी को मरे हुए मिले थे. पति विद्युत विश्वास की लाश कमरे के बाथरूम में फंदे पर झूलती मिली तो पत्नी रिक्ता मिस्त्री पलंग पर मरी पड़ी थी. इन दोनों ने भी तकरीबन डेढ़ साल पहले अदालत में लव मैरिज की थी.

अपने सुसाइड नोट में विद्युत ने साफसाफ लफ्जों में लिखा था कि उसे अपनी बीवी रिक्ता के चालचलन पर शक है, इसलिए वह उस की हत्या कर खुदकुशी कर रहा है.

-मध्य प्रदेश के नागदा के रहने वाले पेशे से ट्रक ड्राइवर राजेश ने बीती 13 जनवरी को अपनी बीवी राधाबाई का खून करने की कोशिश जिस वहशीपन से की उसे सुन हर किसी की रूह कांप उठी. उस की शादी 15 साल पहले हुई थी और 2 बेटे भी हैं.

राजेश और उस के मांबाप समेत मौसी ने राधाबाई को कमरे में बंद कर के पहले उस के साथ जी भर कर मारपीट की और फिर उस की जीभ, नाक, गाल और छातियां काट दीं. इस के बाद उस के मुंह में बेलन ठूंस दिया और राधा को मरा समझ कर चारों भाग गए, लेकिन वह बच गई थी, इसलिए उसे इलाज के लिए इंदौर भेज दिया गया.

जड़ में है धर्म भी

यहां इस बात के कोई खास माने नहीं हैं कि बीवियां भी आजकल इधरउधर मुंह मारते हुए सैक्स सुख और वह प्यार ढूंढ़ने लगी हैं, जो उन्हें शौहर से नहीं मिलता, लेकिन इसे मंजूरी नहीं दी जा सकती, क्योंकि वे गलत होती हैं, लेकिन इस के माने ये नहीं हैं कि चालचलन के शक में या बदचलनी साबित हो जाने या फिर उजागर हो जाने पर उन के साथ वहशियाना बरताव किया जाए.

यह भी ठीक है कि कोई भी शौहर अपनी बीवी की बदचलनी आसानी से बरदाश्त नहीं कर पाता है, लेकिन जब वह खुद गलत राह पर चलता है तो वकील बन कर दलीलें देने लगता है और बीवी के मामले में जज बन कर फैसला करने लगता है.

इस फसाद की एक जड़ धर्म भी है, जिस के खोखले और दोहरे उसूलों ने उसे मर्दानगी के माने बहुत गलत तरीके से सिखा रखे हैं. धार्मिक किताबों में जगहजगह यह कहा गया है कि औरत नीच है, गुलाम है, पैर की जूती है और उस का जिम्मा शौहर को खुश रखना और उस की खिदमत करते रहना है. औरत का अपना कोई वजूद नहीं है और किसी भी तरह की आजादी देने से वह गलत रास्ते पर चल पड़ती है.

यह बात भी किसी सुबूत की मुहताज नहीं है कि समाज पर दबदबा मर्दों का है, इसलिए वे न तो औरत की इज्जत करते हैं और न ही उसे बराबरी का दर्जा देते हैं, क्योंकि इस से उन की हेठी होती है.

जिस धर्मग्रंथ ‘मनुस्मृति’ को हिंदू अपना संविधान मानते हैं उस के अध्याय 9 के श्लोक 2 से ले कर 6 तक में साफसाफ हिदायत दी गई है कि ‘औरत को बचपन में पिता, जवानी में भाई और शादी के बाद पति की सरपरस्ती में रहना चाहिए. किसी भी उम्र में उसे आजाद नहीं रहना चाहिए.’

इसी किताब के अध्याय 9 के 45वें श्लोक में कहा गया है कि ‘पति पत्नी को छोड़ सकता है, गिरवी रख सकता है, बेच सकता है लेकिन औरत को यह हक नहीं है. शादी के बाद पत्नी सिर्फ पत्नी ही रहती है.’

यानी पति ऊपर लिखा कुछ भी करे यह उस का हक है. इस तरह की बातों और हिदायतों ने मर्दों को मनमानी करने की खुली छूट दे रखी है, जिस का कहर आएदिन बीवियों को भुगतना पड़ता है. उन के साथ जानवरों जैसा बरताव किया जाता है. अगर वे किसी से यों ही बात भी कर लें तो शौहर की भवें तन जाती हैं और वह उसे बदचलन मानने लगता है.

बकौल ‘मनुस्मृति’ औरत अकेलेपन का बेजा इस्तेमाल करने वाली होती है ( अध्याय 2 श्लोक 215 ) यानी औरत को अकेले छोड़ने से वह मर्दों को लुभाती है और उन्हें भी गलत रास्ते पर चलने के लिए उकसाती है.

औरतों को बदचलन साबित करने के लिए इसी किताब के अध्याय 9 श्लोक 114 में कहा गया है कि औरत सैक्स के लिए किसी भी उम्र या बदसूरती को नहीं देखती. अध्याय 9 के ही श्लोक 17 में तो हद ही कर दी गई है जिस के मुताबिक औरत सिर्फ गहने, कपड़ों और बिस्तर को ही चाहने वाली होती है. वह वासनायुक्त, बेईमान, जलनखोर और दुराचारी है.

अब जरा ‘मनुस्मृति’ के ही अध्याय 5 के श्लोक 115 पर नजर डालें तो पाएंगे कि ‘पति भले ही चरित्रहीन हो, दूसरी औरतों पर फिदा हो, नामर्द हो, जैसा भी हो औरत को पतिव्रता रहते हुए उसे देवता की तरह पूजना चाहिए.’

हिंदुओं की सब से बड़ी धार्मिक किताब ‘रामायण’ को न पढ़ने वाले आम लोग भी यह मानते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता का त्याग क्यों किया था. इस बात को धर्मगुरु भी बांचते हैं और इस पर कई फिल्में और टैलीविजन सीरियल भी बन चुके हैं. कहानी बहुत सीधी और दिलचस्प है कि रावण को मारने के बाद जब राम अयोध्या आए तो जनता ने घी के दिए जलाते हुए उन का जोरदार स्वागत किया था. अभी कुछ दिन ही बीते थे कि राम के जासूसों ने उन्हें बताया कि प्रजा सीता की पवित्रता पर शक करती है. यह शक इसलिए था कि सीता लंबे समय तक लंका में रावण की सरपरस्ती में रही थीं.

बस इतना सुनना था कि अपनी मर्यादा और राजधर्म को निभाने वाले राम ने सीता की अग्नि परीक्षा ले डाली. इस में कामयाब होने के बाद भी जनता में सीता को ले कर तरहतरह की बातें होती रहीं तो राम ने उन्हें जंगल भेज दिया. वह भी यह जानतेबूझते कि वे पेट से हैं और इस दौरान पत्नी को सब से ज्यादा जरूरत पति के साथ और प्यार की होती है.

लेकिन अपना राजधर्म निभाते हुए राम ने जो सख्ती दिखाई आज भी उस की मिसाल धर्म के ठेकेदार यह दलील देते हुए कहते देते हैं कि राजा हो तो राम जैसा जिस ने पत्नी से ज्यादा मर्यादा और प्रजा को तवज्जुह दी.

इस में कोई शक नहीं कि शक शौहर की फितरत होती है, लेकिन इस के नतीजे किसी के हक में अच्छे नहीं नकलते, इसलिए शौहरों को चाहिए कि शक होने पर वे सब्र से काम लें और बीवी की बदचलनी साबित भी हो जाए तो खुद के हाथ उस के खून से न रंगे, क्योंकि इस में नुकसान उन का भी है.

क्या करें शौहर

शक के बारे में यह कहावत मशहूर है कि इस का इलाज तो लुकमान हकीम के पास भी नहीं था, इसलिए शौहरों को बीवी पर बेवजह शक करने से बचना चाहिए. बीवी अगर खुले मिजाज वाली हो और दूसरों से हंसबोल कर बात करने वाली हो तो कुढ़ने और खुद का खून जलाने के बजाय उसे बताना चाहिए कि आप को यह सब पसंद नहीं है, लेकिन इस बाबत धौंसधपट या मारापीटी से काम नहीं लेना चाहिए.

बीबी का गैरमर्दों से हंसनाबोलना बदचलनी के दायरे में नहीं आता, इसलिए उस के स्वभाव से थोड़ा समझौता शौहर को भी करना चाहिए. अगर इस मुद्दे पर कलह होती है तो अकसर बीवियां जानबूझ कर शौहर को चिढ़ाने के मकसद से और भी ऐसा ही करती हैं, जिस से बनने के बजाय बात और बिगड़ती जाती है.

शौहर को अब चालचलन से कम अपने मर्द होने की हेठी पर गुस्सा आने लगता है, जिस के चलते वह उस की हत्या करने जैसे जुर्म को अंजाम देने भी उतारू हो आता है, जिस से उसे हासिल कुछ नहीं होता और बाकी जिंदगी जेल की सलाखों के पीछे काटनी पड़ती है. अगर बच्चे हों तो उन का भी भविष्य खराब होता है.

बीवी की बदचलनी साबित हो न हो यह अलग बात है, लेकिन हर शौहर की कोशिश यह होनी चाहिए कि वह बीवी को हर लिहाज से संतुष्ट रखे और उसे इज्जत और बराबरी का दर्जा दे. हां, बदचलनी जब साबित हो ही जाए तब बजाय उसे खुद सजा देने के तलाक के लिए अदालत में जाना चाहिए. हालांकि इस में थोड़ी दिक्कतें जरूर पेश आती हैं, लेकिन यकीन मानें कि वे उतनी नहीं होतीं जितनी हत्या के बाद पकड़े जाने पर होती हैं.

बीवी से हर समय प्यार जताते रहना भी एक अच्छा उपाय है जिस से वह हंसनेबोलने के लिए किसी और का रुख न करे. जिन शौहरों को लंबे समय या दिनों तक बाहर रहना पड़ता है, उन्हें चाहिए कि मोबाइल फोन के जरीए पत्नी से घरगृहस्थी के साथसाथ रोमांटिक बातें करते हुए प्यार जताते रहें. यह कतई न सोचें कि उन की गैरमौजूदगी में वह किसी और के साथ गुलछर्रे उड़ा रही होगी. यही शक होता है जिस की कोई जमीन नहीं होती.

याद रखें कि पतिपत्नी का रिश्ता आपसी भरोसे पर टिका होता है. अगर किसी भी वजह से यह दरकता है तो टूटता घर है. किसी दूसरे के चुगली करने पर भी बीवी पर शक करना उस के साथ ज्यादती है.

बीवियां भी समझें

अगर शौहर को आप का गैरमर्दों से हंसनाबोलना पसंद नहीं है तो उस के जज्बातों को समझते हुए धीरेधीरे यह आदत छोड़ें और याद रखें कि इस से आप का कोई नुकसान नहीं होने वाला है, लेकिन अगर पति का शक बढ़ता जाएगा तो जरूर कई दिक्कतें खड़ी होने लगती हैं.

अगर पति की आमदनी कम हो तो उसे ताने मारना उस के भीतर शक पैदा करने वाली बात भी हो सकती है.

पति अगर सैक्स में मनमुताबिक संतुष्ट न कर पाता हो तो इस की वजह बीवी को पहले खोजनी चाहिए. आजकल कमानाखाना मुश्किल होता जा रहा है. इस तनाव का असर मर्दों की सैक्स जिंदगी पर भी पड़ता है. कई बार वे टैंपरेरी नामर्दी के भी शिकार हो जाते हैं. ऐसे में बीवी को कहीं और सुख ढूंढ़ने की नादानी करने के बजाय शौहर से खुल कर बात कर डाक्टर से मशवरा लेना चाहिए. ज्यादातरर मरीज इलाज से ठीक हो जाते हैं.

इस पर भी बात न बने तो बजाय चोरीछिपे किसी और से जिस्मानी रिश्ता बनाने के पहले पति से खुल कर बात कर तलाक ले लेना ज्यादा ठीक रहता है, क्योंकि किसी की बीवी रहते नाजायज संबंध बनाना आ बैल मुझे मार जैसी बात साबित होती है और शौहर मरनेमारने पर उतारू हो आता है.

नाजायज संबंध आमतौर पर ज्यादा दिनों तक छिप नहीं पाते हैं और बिरले ही शौहर होते हैं जो आंखों देखी मक्खी निगल पाते हैं.

लुभाने वाले मर्दों से ज्यादा नजदीकियां भी पति के शक की वजह बनती हैं, इसलिए खुद को काबू में रखना चाहिए, खासतौर से उस सूरत में जब शौहर को यह पसंद न हो. आजकल ज्यादातर बीवियां मोबाइल फोन में बिजी रहती हैं, जिस पर शौहर की खीज कुदरती बात है और शक होना भी कि बीवी न जाने किस से गुटरगूं कर रही है, इसलिए मोबाइल फोन के ज्यादा इस्तेमाल से भी बचना चाहिए.

प्रैगनैंट महिलाओं पर घरेलू हिंसा का ऐसे पड़ता है प्रभाव

मुंबई की 24 साल की मनीषा जब गर्भवती हुई तो कुछ परेशान सी रहने लगी. वह न तो अपनी मनपसंद का खाना बना सकती थी और न ही खा सकती थी, क्योंकि परिवार में सासससुर हमेशा उसे अच्छा खाना बना कर खाने पर ताने देते थे. अगर मनीषा का पति अपने मांबाप से कुछ कहता तो वे उसे भी भलाबुरा कहते.

एक दिन तो इतनी कहासुनी हुई कि सासससुर ने मनीषा को घर से निकल जाने को कह दिया. मनीषा के घर छोड़ने के कदम में उस के पति ने भी उस का साथ दिया और दोनों ने बड़ी मुश्किल से अपनी अलग गृहस्थी जमाई. अब मनीषा को इस बात का डर सताने लगा था कि पता नहीं उस की डिलिवरी ठीक से होगी या नहीं. अपनेआप को काफी संभालने के बाद भी उस की प्रीमैच्योर डिलिवरी हुई. बच्ची ने काफी समय बाद बोलनाचलना सीखा.

नवजात पर बुरा असर

ऐसी कई घटनाएं हैं जहां डिलिवरी के समय या बाद में बच्चे का मानसिक और शारीरिक विकास कम होने पर डाक्टर जब इस की बारीकी से जांच करते हैं तब कई बार घरेलू हिंसा की बात सामने आती है. एक सर्वे में पाया गया कि 5 प्रैगनैंट महिलाओं में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार अवश्य होती है. इन में से कुछ महिलाएं तो पहले इस बारे में बता देती हैं तो कुछ छिपाती हैं, जिस का पता डिलिवरी के बाद चलता है. यह घरेलू हिंसा ज्यादातर 21 से 35 वर्ष की महिलाओं के साथ होती है और खासकर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली महिलाओं के साथ और कुछ खास समुदाय और उच्च वर्ग की महिलाओं के साथ.

इस बारे में मुंबई के मल्हार नर्सिंगहोम की स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञा, डा. रेखा अंबेगांवकर कहती हैं, ‘‘घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को केवल प्रैगनैंसी के दौरान या बाद में ही नहीं, बल्कि गर्भधारण के पहले से भी अगर उन्हें डोमैस्टिक वायलैंस का सामना करना पड़ता है, तो उस का असर प्रैगनैंसी के बाद भी बच्चे पर होता है. यह अधिकतर उन परिवारों में अधिक होता है जहां पति किसी नशे का आदी हो. निम्नवर्ग में यह अधिक है.

‘‘कई बार महिला नहीं चाहती कि उस का बच्चा ऐसे माहौल में जन्म ले, जहां उसे अच्छी परवरिश न मिले. ऐसे में गर्भधारण के बाद वह जरूरत के अनुसार खानापीना छोड़ देती है. सही समय पर अपना चैकअप नहीं कराती, जिस से बच्चे का विकास गर्भ में कम होता है और प्रीमैच्योर डिलिवरी हो जाती है, जिस से बाद में बच्चे में कई प्रकार की समस्याएं जन्म लेती हैं. मसलन, विकास सही तरह से न होना, बात न कर पाना. देरी से चलना आदि.

‘‘इस के अलावा अगर किसी ने पत्नी के पेट पर जोर से लात मारी हो या धक्का दिया हो तो कई बार प्लैसेंटा अलग हो जाने से भी बच्चा प्रीमैच्योर हो जाता है या फिर गर्भपात होने का डर रहता है.’’

डा. रेखा आगे कहती हैं, ‘‘शारीरिक हिंसा तो बाहर से दिखती है, लेकिन मानसिक यातनाओं को समझना मुश्किल होता है, क्योंकि महिलाएं उसे बताना नहीं चाहतीं. ऐसी कई महिलाएं मेरे पास आती हैं जो ट्रामा में होती हैं कि बच्चा लड़का है या लड़की. ऐसे केसेज को बहुत सावधानी से हैंडल करना पड़ता है.

‘‘शारीरिक यातनाओं की शिकार महिलाएं अधिकतर सरकारी अस्पतालों में दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि वहां गरीब महिलाएं अधिक जाती हैं और उन के घरों में घरेलू हिंसा अधिक होती है.

‘‘थोड़े पढ़ेलिखे परिवारों में मेल चाइल्ड पर लोग अधिक फोकस्ड होते हैं, क्योंकि उन्हें 1 या 2 बच्चे ही चाहिए, उन्हें लड़का अवश्य चाहिए. उन्हें लिंग की जांच कराने के लिए मजबूर किया जाता है, जो वे नहीं कराना चाहतीं. ऐसे में अधिकतर महिलाएं मानसिक रूप से प्रताडि़त होती हैं.’’

हिंसा की शुरुआत

घरेलू हिंसा की शुरुआत पुरुष का पहले अपनी पत्नी को चांटा मारने से होती है. इस के बाद आती है शारीरिक और सैक्सुअल वायलैंस. कई बार घरेलू हिंसा इतनी अधिक होती है कि महिला की जान पर भी बन आती है. इस में अगर महिला कामकाजी है, तो कुछ विरोध करती है, लेकिन ऐसा करने पर परिवार के अन्य लोग और समाज उसे ही दोषी मानता है.

इस बारे में मुंबई के सूर्या हौस्पिटल के बाल रोग विशेषज्ञ डा. मेहुल दोषी कहते हैं, ‘‘घरेलू हिंसा की वजह से प्रैगनैंट वूमन हमेशा डरी रहती है. इस में चाहे शादी लव मैरिज हो या अरेंज्ड किसी में भी यह समस्या हो सकती है. ऐसी प्रताडि़त महिला का ब्लडप्रैशर सही नहीं होता. वह ऐनीमिक हो जाती है, उसे मधुमेह की बीमारी भी हो सकती है. इस से बच्चे का मानसिक और शारीरिक विकास सही नहीं हो पाता और उस का वजन कम होता है. बच्चा कुपोषण का शिकार होता है. मृत्यु दर भी इन बच्चों की अधिक है.’’

यह हिंसा उन परिवारों में भी अधिक है. जहां पतिपत्नी अकेले रहते हैं. संयुक्त परिवारों में इन की संख्या कम है. इस की वजह के बारे में मानसिक रोग विशेषज्ञ डा. राजीव आनंद बताते हैं, ‘‘प्रैगनैंसी के बाद महिला को कई सारे शारीरिक और मानसिक दौर से गुजरना पड़ता है. अकेले होने पर इस बदलाव को अपने ऊपर देख कर उन्हें अजीब अनुभव होता है, इस में पति का साथ न मिलने पर वे चिड़चिड़ी हो जाती हैं और पति इसे समझ नहीं पाता, परिणामस्वरूप, कहासुनी, बहस, मारपीट आदि शुरू हो जाती है जबकि संयुक्त परिवारों में सब का साथ मिलने से यह थोड़ा आसान हो जाता है. महिला अपनी समस्या को किसी के साथ शेयर कर सकती है.

बच्चे को जन्म देने के लिए पतिपत्नी दोनों को एकदूसरे के प्रति निष्ठावान होने की आवश्यकता होती है. कुछ दंपतियों में तो शादी के दूसरे साल से ही अनबन शुरू हो जाती है. ऐसे में पत्नी सोचने पर मजबूर हो जाती है कि वह बच्चे को जन्म दे या नहीं.

औडियोलौजिस्ट ऐंड स्पीच थेरैपिस्ट देवांगी दलाल का कहना है, ‘‘बचपन से अगर बच्चा कुपोषण का शिकार है, तो उस की बौडी मूवमैंट भी देर से होती है. अधिकतर ऐसे बच्चे 1 साल के बाद बोलने लगते हैं. इस की वजह उन का गर्भ में सही तरह विकास न होना है.

‘‘घरेलू हिंसा की शिकार अधिकतर महिलाओं के पति अशिक्षित और आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे होते हैं, जिन्हें बच्चा इसलिए नहीं चाहिए क्योंकि उन के लिए बच्चा बोझ है और वे अपनी पत्नी को गर्भपात के लिए मजबूर करते हैं. उन के न मानने पर मारपीट करते हैं. इसे कम करने के लिए महिलाओं का शिक्षित और आत्मनिर्भर होना आवश्यक है.’’

बच्चे की जिम्मेदारी पतिपत्नी दोनों की होती है, लेकिन अगर पति या पारिवारिक माहौल ठीक नहीं है तो निराश न हों, क्योंकि बच्चे की जिम्मेदारी मां की भी है और कुछ सावधानियां बरतने से इस से छुटकारा पाया जा सकता है. डाक्टर रेखा के अनुसार डोमैस्टिक वायलैंस से बचने के उपाय निम्न हैं:

  • सब से पहले पति का व्यवहार ठीक न होने पर परिवार के दूसरे सदस्यों का सहारा लें.
  • अधिक समस्या है, तो मनोरोग चिकित्सक के पास जाएं.
  • नशे या ड्रग के आदी पति से दूर रहें.
  • घरेलू हिंसा को सहें नहीं, बल्कि पुलिस में रिपोर्ट करें.
  • किसी एनजीओ की भी हैल्प ले सकती हैं.

New Year 2024: नई आस का नया सवेरा

New Year Special: नया साल (New Year) आ गया है. सब एक दूसरे को बधाई (Greetings) दे रहे हैं और कह रहे हैं कि साल 2024 (Year 2024) आपके लिए खुशियां लाए. आप बाहर से कितने ही उपाय कर लें, सकारात्मक सोच की पचास किताबें पढ़ लें, सोचसोच कर पचासों वस्तुएं संगृहीत कर लें जो आप के लिए सुखदायक हैं, परंतु यदि आप की आंतरिक विचारणा अनर्गल, आत्मपीड़ित व निंदक है, आप ढुलमुल नीति के हैं, तब आप के जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने वाला नहीं. हमारे व्यवहार के गलत तरीके हमारे जीवन में तनाव लाते हैं, दुख से ही हमें अधिक परिचित कराते हैं. हम हर सुखात्मक स्थिति में भी तकलीफ ही तलाश करते हैं. क्या हो चुका है, यह हमें प्रीतिकर नहीं लगता, पर जो नहीं हुआ है उस पर हमारी दृष्टि लगी रहती है. हम स्वयं शांति चाहते हैं, हर काम में परफैक्शन तलाश करते हैं, तब हमारी निगाह हमेशा कमियां तलाश करने में चली जाती है और हम तो दुखी होते ही हैं, दूसरे के लिए भी दुखात्मक भावनाएं पैदा करते हैं. चाहे घर पर हों या कार्यालय में, हम कहीं भी खुश नहीं रह सकते, हम जीवन को दयनीय और दुखात्मक बनाते चले जाते हैं.

शेखर साहब बड़े अफसर रहे हैं. कार्यालय में आते ही वे पहले अपनी नाक पर उंगली रख कर सगुन देते. तब कुरसी पर बैठते. बजर बजाते, पीए अंदर आता तो सगुन देखते, सगुन चला तो अंदर आने देते, वरना वापस भेज देते. पूरा कार्यालय परेशान था. वे मेहनती व ईमानदार भी थे. पर न वे खुश रह पाते थे न किसी और को रहने दे सकते थे. एक बार उन के बड़े साहब आए. उन्हें यह पता था. वे अपने साथ नसवार से रंगा लिफाफा लाए थे. उन्हें दिया तो वे अचानक छींकने लग गए. शेखर साहब घबरा गए. सगुन जो बिगड़ गया था. बड़े साहब ने समझाया, सगुन की बात नहीं है, कागज में नसवार लगी है. छींक आएगी ही. सगुन को पालना बंद करो. तुम ने सब को दुखी कर रखा है.

जिंदगी चलने का नाम है

आप ने नट का खेल अवश्य देखा होगा. नट अपने संतुलन से बांस के सहारे रस्सी पर कुशलता से चलता है. यह जीवन जीने की वह कला है, जो बिना धन दिए प्राप्त की जा सकती है. कुछ रास्ते हैं, जहां आप खुशहाल जीवन को दुखी बना देते हैं जबकि दुखी जीवन को भी खुशी से जीने लायक बना सकते हैं.

हम अकसर आदर्शवादी विचारों से प्रभावित होते हैं. हमें बाहर यह बताया जाता है कि हम गलत बातों को छोड़ दें, यह समझाया जाता है कि जहां तक हो सके गलत विचारधारा को कम करते जाएं, इस से धीरेधीरे आप नकारात्मक सोच के प्रवाह से बाहर आते जाएंगे. पर यह भी उतना प्रभावशाली नहीं है.

हमारे भीतर नकारात्मकता का पहला वेग तेज उफान की तरह तब आता है, जब हम अपनेआप को दूसरों के साथ तुलना कर के देखते हैं. बचपन में यह सिखाया गया है, तुम्हें क्लास में फर्स्ट आना है. मातापिता हमेशा अपने बच्चे की दूसरों के साथ तुलना कर के उस का मूल्यांकन करते हैं.

क्या कभी हम ने अपनेआप से, अपनी कार्यकुशलता को, अपनी उत्पादकता को सराहा है? हमें यह सिखाया गया है कि इस से अहंकार पैदा हो जाता है. पर यह सोचना उचित नहीं है.

तुलना अपनेआप से करें

अपनी उपलब्धियों से तुलना करें. कल घूमने नहीं गया, व्यायाम नहीं किया, ब्लडशुगर बढ़ गई है आदि. अपनेआप अपने स्वास्थ्य के प्रति ध्यान जाएगा. ऐसे ही, कल बगीचे में पानी दिया था. पौधे अच्छे लग रहे हैं. आप हमेशा अपने आज की अपने कल से तुलना कर, बेहतर खुशी पा सकते हैं, अपनी कार्यकुशलता को बढ़ा सकते हैं. सुबह उठते ही समय अपनेआप को दें, आज यह काम करना है, टारगेट जो संभव हो उस से कम ही रखें. रात को एक बार अवश्य सोचें, कितना हो गया, क्या कमी रही, बस नींद गहरी आएगी. अपनेआप पर विश्वास आना शुरू होगा. खुश रहने की यह पहली सीढ़ी है.

खुद चुनें अपनी राह

आप बीमार हैं, अस्वस्थ हैं. अकसर आप पाएंगे कि पचासों लोग आप को देखने आ रहे हैं, वे सब के सब आप को सलाह दे रहे हैं. जहां खुशी होती है, वहां लोग नहीं जाते, पर जहां कहीं अभाव या कमी होती है, वहां सलाह देने वालों की जमात जमा हो जाती है. तो क्या हम सब को सुनने के लिए तैयार बैठे हैं? हम हमेशा सब को खुश नहीं कर सकते, सब की बातों को मान कर अपना रास्ता नहीं बना सकते.

माना सलाह और सलाहकार जीवन में महत्त्वपूर्ण हैं, पर रास्ता हमें स्वयं ही तय करना है. हर व्यक्ति को उस के सामर्थ्य की पहचान है. जो व्यक्ति, इस राह पर चले हों, उन की सफलता या असफलता के अनुभव ही आप के लिए सहायक हो सकते हैं. यह याद रहे. जिस किसी ने अपने अनुभव को बताया है, वह अतीत की घटना हो चुकी है. वर्तमान में हर घटना नई होती है. यहां दोहराव नहीं होता. चुनौती का सामना मात्र वर्तमान में ही रह कर होता है. हो सकता है, जो निर्णय लिया है, उस में कमी रह गई हो, वांछित लाभ न मिला हो पर यह असफलता आगे की रणनीति बनाने में सहायक होगी. जो कहा गया है, उसे सुनें. परंतु अपनी आंतरिक विचारणा का आधार न बनने दें.

तू दुख का सागर है

फिल्म ‘सीमा’ में मन्ना डे द्वारा गाया गीत ‘तू प्यार का सागर है’…आज उल्टा हो गया है. चारों ओर नकारात्मकता के सागर हिलोरे लेते रहते हैं. आज टैलीविजन, समाचारपत्र, नकारात्मकता के भंडार हो गए हैं. सुबह से ही टीवी पर राशियों व 9 ग्रहों का नकारात्मक मेला करोड़ों लोगों को नकारात्मक कर के कमजोर बनाने में लग जाता है. रोजाना पचासों ज्योतिषी, बारह खाने और 9 ग्रह की रामलीला बेच कर करोड़ों रुपए कमाते हैं. टीवी का रिमोट अपने हाथ में है. अपने मन को सजग रखें. ऐसी परिस्थितियों से नकारात्मकता बढ़ती है और आशावाद की जगह निराशावाद जन्म लेता है. इस से बचें. मन को सृजनात्मक कार्यों से जोड़ने का प्रयास करें.

कल ही की बात है शर्माजी बता रहे थे. उन्हें रात के 11 बजे उन की बेटी ने नींद से जगा कर फोन पर बताया कि दामाद के पिता का पुराने प्रेमसंबंध का पता लगने पर दोनों पितापुत्र बहुत झगड़ रहे थे. यह बात परिवार में घटी पुरानी घटना थी. घटना भी हजारों मील दूर की थी. यह बात अगले दिन भी तो बताई जा सकती थी. इस बात से शर्माजी रात भर बेचैन रहे. नकारात्मक लहरों में डूबे रहे.

लोगों का काम है कहना

मेरी एक परिचित मेरे पास आई हुई थीं. उन्होंने बताया कि वे कुछ दूरी पर शनि मंदिर में गई थी. वहां पूजा करवाई थी. ‘पूजा…’ मैं चौंक गया. क्या शनि की भी पूजा होती है? हमारा मन इसीलिए इतना नकारात्मक हो गया है कि हम सब तरफ भय को ही देख पाते हैं. थोड़ी सी भी कठिनाई आई नहीं कि हम पंडित, ज्योतिषी, बाबा की शरण में पहुंच जाते हैं.

हमारा मन जैसा होता जाता है, वह उन्हीं बातों को संगृहीत करने लग जाता है. यह उस की आदत है. हम जब निरंतर चाहे अपने परिवार में हों या पड़ोस में, इन नेगेटिव लोगों से घिरे रहते हैं तो वे सचमुच हमारी रचनात्मकता को सोख लेते हैं. आप आशावादी कैसे होंगे जब आप के वातावरण में नकारात्मक लहरें चारों ओर से धक्के मार रही हों.

खुश रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. हम खुश रहें तो दवाओं का आधा खर्चा कम हो जाता है साथ ही, हमारी कार्यकुशलता भी बढ़ जाती है. वाणिज्य की भाषा में इस से बड़ा कोई इन्वेस्टमैंट नहीं है, जहां मुनाफा बहुत ज्यादा है.

आखिर हम हर मामूली बात को भी ज्यादा गंभीरता से क्यों लेते हैं? आम बोलचाल में अधिक कहना, बतियाना, हमारा स्वभाव हो गया है. पहले टैलीफोन पर बात करना कठिन था, महंगा बहुत था. बाहर की कौल सुबह से शाम तक नहीं लग पाती थी. तनाव कम था. अब मोबाइल क्रांति है. खाने वाली बाई फोन कर कहती है, ‘मैं शाम को नहीं आऊंगी.’ पूछा जाता है, ‘क्यों? 3 दिन पहले भी छुट्टी ली थी.’ वह फोन काट देती है. गृहिणी नाराज हो जाती है. वह फिर फोन करती है. वह फोन नहीं उठाती है. संघर्ष शुरू हो गया, परिवार अचानक तनाव में चला जाता है.

आज हालत यह है कि आप कहीं भी हों, मोबाइल हमेशा आप को जोड़े रखता है. सगाइयां विवाह के पहले टूट जाती हैं. आप को बतियाने का शौक है. पैसे कम लगते हैं, जो कहना…नहीं कहना है…सब कह दिया जाता है.

चुप रहने का अपना मजा है, अपने को बोलते हुए भी सुनें और खुश रहना एक बार आदत में आ गया तो कैसी भी कठिनाई आए, आप की सामना करने की ताकत बढ़ जाएगी. क्या आप यह नहीं चाहते हैं?

जब डॉक्टर करता है, गर्भपात का अपराध!

Scoiety News in Hindi: गांव में अपढ़ झोला छाप डाक्टर किसी गर्भपात (Abortion) के अपराध में शामिल होते हैं तो कहा जा सकता है कि उन्हें कानून का ज्ञान नहीं है. मगर यही काम अगर पढ़े लिखे चिकित्सक पैसों के लिए करने लगे तो समाज में यह सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर कानून कहां है और रुपयों की अंधी दौड़ कहां जाकर खत्म होती है. एक मसला छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में एक चर्चा का विषय बना हुआ है.  एक महिला चिकित्सक (Female Doctor) जेल भेज दी गई है… शायद आप भी जानना चाहेंगे की एक महिला चिकित्सक ने किस तरह संबंधों और चंद रुपयों की खातिर अवैध गर्भपात करने का अपराध कर स्वयं और अपने पेशे पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है.

इस घटनाक्रम में तथ्य यह है कि महिला  डॉक्टर को कई दफे की छापामारी के बाद अंततः पुलिस ने दिल्ली में गिरफ्तार किया है. यानी की आरोपी डॉक्टर केस दर्ज होने के बाद 3 महीने से फरार थी.    नाबालिग को भ्रमित करके दुष्कर्म करने वाला युवक, और गर्भपात कराने वाले उसके परिजन माता-पिता सहित 4 लोग पहले से जेल के सीखचों के पीछे पहुंच गए हैं.

नाबालिक के गर्भपात से जुड़ी इस कहानी की  शुरुआत 20 जनवरी 2021 को हुई. छत्तीसगढ़ के धमतरी जिला के सिहावा थाने में नाबालिक रानी ( काल्पनिक नाम)  ने परिजनों के साथ आकर दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाई और बताया कि सिरसिदा कर्णेश्वर पारा निवासी लोकेश तिवारी ने उसके साथ दुष्कर्म किया है गर्भ ठहरने के बाद अपने रिश्तेदार संध्या रानी शर्मा के घर ओडिशा प्रांत ले गया. वहां वह रानी को सरकारी अस्पताल ले जाकर डॉक्टर से सांठगांठ कर उसका गर्भपात करा दिया. पुलिस ने मामले की विवेचना करने के पश्चात पुलिस जांच में दोषी पाए गए आरोपी लोकेश तिवारी, उसकी मां रेवती तिवारी, पिता देवराज तिवारी और रिश्तेदार संध्यारानी को जेल भेज दिया.

ss

कानून के साथ खिलवाड़….

दरअसल, हमारे आसपास समाज में ऐसे घटनाक्रम घटित होते चले जाते हैं. मगर जब कभी बात कानून के दरवाजे तक पहुंचती है तो फिर सफेदपोशों के चेहरे पर से नकाब उतरने लगती है. छत्तीसगढ़ के धमतरी में घटित घटना क्रम की तह में जाए तो यह सत्य सामने आ जाता है कि अपने बेटे लोकेश को बदनामी से बचाने मां रेवती तिवारी ने रिश्तेदार ओडिशा निवासी संध्या रानी शर्मा से बातचीत की. फिर डॉ. ममता रानी बेहरा को गर्भपात के लिए तैयार किया.

चिकित्सक ममता रानी संबधो के फेर में आकर के कानून को अपने हाथ में ले बैठी. मसले की जांच करने वाली महिला अधिकारी डीएसपी सारिता वैद्य के मुताबिक  रिपोर्ट के बाद से महिला डॉ. ममता रानी बेहरा गायब थी. लगातार पुलिस ढूंढ रही थी अंततः लंबे अंतराल के पश्चात दिल्ली में महिला डॉक्टर को पुलिस ने अपनी गिरफ्त में ले लिया. महिला डॉक्टर इतनी चालाक थी कि लंबे समय तक पुलिस को धोखा देती रही.

पुलिस के मुताबिक गर्भपात कराने वाली महिला डॉ. ममता रानी बेहरा (37) रायगढ़, ओडिशा की निवासी है.वहां के सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट के पद पर पदस्थ थी. उसने नाबालिग को गर्भपात की दवा खिला गर्भपात करवा दिया और पुलिस से लंबे समय तक आंख मिचौली का खेल खेलते अंततः कानून के लंबे हाथों में आ ही गई.

गर्भपात और कानून

गर्भपात का अपराधीकरण कानूनी पेचीदिगियों से भरा हुआ है. एक समय था जब गर्भपात एक सामान्य घटना मानी जाती थी. मगर धीरे धीरे कानून बनता चला गया और  वैध और अवैध गर्भपात परिभाषित हुआ. हालांकि, सीमित मायनों में कानून के मुताबिक वयस्क महिलाओं को अपने लिए निर्णय लेने की स्वायत्तता  है (कि उसे बच्चे को जन्म देना है या नहीं), पर फिर भी एक महिला को केवल अपनी मर्जी से गर्भपात करने की कानूनी रूप से अनुमति नहीं है (यदि डॉक्टर ऐसा करने की सलाह न दे तो). यह जरुर है कि एक डॉक्टर को (गर्भपात को लेकर अपनी राय बनाने के बाद), माँ के अलावा किसी की सहमति की आवश्यकता नहीं होती.

ऐसे में यह सीधा सीधा गंभीर अपराध है कि नाबालिक मां की अनुमति के बिना गर्भपात कर दिया गया.गर्भपात की इस लंबी कहानी में नियम उप नियम बन चुके हैं. कानून के जानकार उच्च न्यायालय बिलासपुर के अधिवक्ता बी के शुक्ला के मुताबिक कुछ परिस्थितियों को छोड़कर बाकी गर्भपात को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. नाबालिक का गर्भपात तो स्पष्ट रूप से गंभीर अपराध की संज्ञा में आता है और मामला सिद्ध हो जाने पर आरोपी को कठोर सजा भुगतनी होती है.

पुलिस अधिकारी विवेक शर्मा के मुताबिक बलात्कार के मामलों में न्यायालय की अनुमति से ही गर्भपात संभव है. अन्यथा कोई भी गर्भपात गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है.

आज भी लोग अंधविश्वास में फंसे हैं

मुसाफिरों से भरी एक बस झारखंड से बिहार की तरफ जा रही थी. अचानक सुनसान सड़क के दूसरी तरफ से एक सियार पार कर गया. ड्राइवर ने तेजी से ब्रेक लगाए. झटका खाए मुसाफिरों में से एक ने पूछा, ‘‘भाई, बस क्यों रोक दी?’’

बस के खलासी ने जवाब दिया, ‘‘सड़क के दूसरी तरफ से सियार पार कर गया है, इसलिए बस कुछ देर के लिए रोक दी गई है.’’

सभी मुसाफिर भुनभुनाने लगे. कुछ लोग ड्राइवर की होशियारी की चर्चा भी करने लगे.

उस अंधेरी रात में जब तक कोई दूसरी गाड़ी सड़क का वह हिस्सा पार नहीं कर गई, तब तक वह बस वहीं खड़ी रही, लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि यह अंधविश्वास है.

सड़क है तो दूसरी तरफ से कोई भी जीवजंतु इधर से उधर पार कर सकता है. यह आम सी बात है. इस में बस रोकने जैसी कोई बात नहीं है, जबकि कई लोग मन ही मन कोई अनहोनी होने से डरने लगे थे.

रास्ते के इस पार से उस पार कुत्ता, बिल्ली, सियार जैसे जानवर आजा सकते हैं. इसे अंधविश्वास से जोड़ा जाना ठीक नहीं है. इस के लिए मन में किसी अनहोनी हो जाने का डर पालना भी बिलकुल गलत है.

बिहार के रोहतास जिले के डेहरी में बाल काटने वाले सैलून तो सातों दिन खुले रहते हैं. लेकिन, सोनू हेयरकट सैलून के मालिक से पूछे जाने पर वे बताते हैं, ‘‘ग्राहक तो पूरे हफ्ते में महज 4 दिन ही आते हैं. 3 दिन तो हम लोग खाली ही बैठे रहते हैं.

‘‘यहां के ज्यादातर हिंदू मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल नहीं कटवाते हैं. इन 3 दिनों में इक्कादुक्का लोग ही बाल कटवाने आते हैं या फिर जिन का ताल्लुक दूसरे धर्म से रहता है, वे लोग आते हैं.’’

भले ही लोग 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन आज भी हमारी सोच 18वीं सदी वाली है. डेहरी के बाशिंदे विनोद कुमार पेशे से कोयला कारोबारी हैं. उन का एक बेटा है, इसलिए वे सोमवार के दिन बालदाढ़ी नहीं कटवाते हैं.

पूछे जाने पर वे हंसते हुए कहते हैं, ‘‘ऐसा रिवाज है कि जिन के एक बेटा होता है, उन के पिता सोमवार के दिन बालदाढ़ी नहीं कटवाते हैं. इस के पीछे कोई खास वजह नहीं है. गांवघर में पहले के ढोंगी ब्राह्मणों ने यह फैला दिया है, तो आज भी यह अंधविश्वास जारी है.

‘‘दरअसल, लोगों के मन में सदियों से इस तरह की बेकार की बातें बैठा दी गई हैं, इसीलिए आज भी वे चलन में हैं.

‘‘पहले के लोग सीधेसादे होते थे. इस तरह के पाखंडी ब्राह्मणों ने जो चाहा, वह अपने फायदे के लिए समाज में फैला दिया.’’

आज भी लोग गांवदेहात में भूतप्रेत, ओझा, डायन वगैरह के बारे में खूब बातें करते हैं. लोगों को यकीन है कि गांव में डायन जादूटोना करती है.

औरंगाबाद के एक गांव के रहने वाले रणजीत का कहना है कि उन की पत्नी 2 साल से बीमार है. उन की पत्नी की बीमारी की वजह कुछ और नहीं, बल्कि डायन के जादूटोने के चलते है, इसीलिए वे किसी डाक्टर को दिखाने के बजाय कई सालों से ओझा के पास दिखा रहे हैं. कई सालों से वे मजार पर जाते हैं और चादर चढ़ाते हैं.

रोहतास जिले के एक गांव में एक लड़की को जहरीले सांप ने काट लिया था. उस के परिवार वाले बहुत देर तक झाड़फूंक करवाते रहे.

झाड़फूंक के बाद मामला जब बिगड़ गया, तो उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे बचाया नहीं जा सका, जबकि अखबार में भी इस के बारे में प्रचारप्रसार किया जाता रहा है कि किसी इनसान को सांप के काटने पर झाड़फूंक नहीं कराएं, बल्कि अस्पताल ले जाएं.

अगर समय रहते उसे अस्पताल ले जाया गया होता तो बचाया जा सकता था. पर आज भी लोग अंधविश्वास के चलते झाड़फूंक पर ज्यादा यकीन करते हैं. अभी भी लोग इलाज कराने के बजाय सांप काटने पर झाड़फूंक करवाना ही ठीक समझते हैं.

आज भी लोग झाड़फूंक, मंत्र, जादूटोना वगैरह पर यकीन करने के चलते अपनी जान गंवा रहे हैं. वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि झाड़फूंक करवाने से कुछ नहीं होता है. इस से कोई फायदा नहीं होने वाला है. अगर समय रहते

सांप काटने वाले इनसान का इलाज कराया जाए तो उस की जान बचाई जा सकती थी.

बिहार के कई शहरों में ज्यादातर दुकानदार शनिवार को अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्च लटकाते हैं. हर शनिवार की सुबह कुछ लोग नीबूमिर्च को एकसाथ धागे में पिरो कर दुकानदुकान बेचते भी मिल जाते हैं.

तकरीबन सभी दुकानदार इसे खरीदते हैं. वे पुरानी लटकी हुई नीबूमिर्च को सड़क पर फेंक देते हैं. लोगों के पैर उस पर न पड़ जाएं, इसलिए लोग बच कर चलते हैं. कई बार तो लोग अपनी गाड़ी के पहिए के नीचे आने से भी इन्हें बचाते हैं.

कुछ लोगों का मानना है कि पैरों के नीचे या गाड़ी के नीचे अगर फेंका हुआ नीबू और मिर्च आ जाए तो जिंदगी में परेशानी बढ़ सकती है.

कुछ दुकानदारों का मानना है कि नीबूमिर्च लटकाने से बुरी नजर से बचाव होता है. दुकान में बिक्री खूब होती है. इस तरह देखा जाए, तो फालतू में नीबूमिर्च आज भी बरबाद किए जा रहे हैं, जबकि इस तरह के नीबूमिर्च लटकाने का कोई फायदा नहीं है.

आज भी बहुत से लोग गरीब हैं. पैसे की कमी में वे नीबूमिर्च खरीदने की सोचते भी नहीं हैं. इस तरह से यह तो नीबूमिर्च की बरबादी है. ऐसा कहने वाला कोई भी धर्मगुरु, पंडित, पुजारी, मौलवी नहीं होता है.

दरअसल, आज भी यह अंधविश्वास  ज्यों का त्यों बना हुआ है. ऐसी बातें बहुत पहले से ही पाखंडी ब्राह्मणों, पंडेपुजारियों ने आम लोगों में फैला रखी हैं, इसीलिए ऐसा अंधविश्वास आज भी जारी है.

औरंगाबाद की रहने वाली मंजू कुमारी टीचर हैं. उन का कहना है कि वे एक बार पैदल ही इम्तिहान देने जा रही थीं. उन्होंने वहां जाने के लिए शौर्टकट रास्ता चुना था.

अभी इम्तिहान सैंटर काफी दूर था कि एक बिल्ली उन का रास्ता काट गई. वे काफी देर तक वहीं खड़ी इंतजार करती रहीं, पर उस रास्ते से कोई गुजरा नहीं. उन्हें ऐसा लगा कि उन का इम्तिहान छूट जाएगा, इसलिए वे जल्दीजल्दी उस रास्ते से हो कर इम्तिहान सैंटर तक पहुंचीं.

उन के मन में धुकधुकी हो रही थी कि आज इम्तिहान में कुछ न कुछ गड़बड़ होगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बल्कि उन का इम्तिहान उस दिन बहुत अच्छा हुआ. बाद में अच्छे नंबर भी मिले थे.

उस दिन से वे इस तरह के अंधविश्वासों से बहुत दूर रहती हैं. वे मानती हैं कि अगर वे अंधविश्वास में रहतीं, तो उन का इम्तिहान छूटना तय था.

दरअसल, बचपन से ही घर के लोगों द्वारा यह सीख दी जाती है कि ब्राह्मणों, पोंगापंडितों, साधुओं, पाखंडियों, धर्मगुरुओं की कही गई बातें तुम्हें भी इसी रूप में माननी हैं. बचपन से लड़केलड़कियों को यह सब धर्म से जोड़ कर बताया जाता है. उन्हें विज्ञान से ज्यादा अंधविश्वास के प्रति मजबूत कर दिया जाता है.

यही वजह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी अंधविश्वासों को लोग ढोते आ रहे हैं. विज्ञान यहां विकसित नहीं है. लेकिन अंधविश्वास खूब फलफूल रहा है. इस की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि कोई काट ही नहीं सकता है.

यहां के लोग पर्यावरण, पेड़पौधे की हिफाजत करने के बजाय अंधविश्वास  की हिफाजत करते हैं.

जब देश में राफेल आता है, तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को नारियल फोड़ कर पूजा करते हुए मीडिया के जरीए दिखाया जाता है, तो देश में एक संदेश जाता है कि आम लोग ही अंधविश्वास में नहीं पड़े हुए हैं, बल्कि यहां के खास लोग भी इसे बढ़ावा देना चाहते हैं, जबकि कोरोना काल में देशभर के मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे वगैरह सभी बंद थे.

लोगों को भगवान के वजूद के बारे में समझ आने लगा था. लोगों को यकीन हो गया था कि देवीदेवताओं की मेहरबानी से यह बीमारी ठीक होने वाली नहीं है, बल्कि वैज्ञानिकों द्वारा जब दवा बनाई जाएगी, तभी यह बीमारी जाएगी.

लोगों में देवीदेवताओं के साथ ही मंदिरमसजिद के प्रति भी आस्था कम हुई है, तो दूसरी ओर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर में सीधे लोट जाते हैं और यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि सबकुछ ऊपर वाला ही है.

और तो और, एक टैलीविजन चैनल वाले ने तो दिखाया कि उस समय नरेंद्र मोदी ने ‘राम’ का नाम कितनी बार लिया, इसीलिए देश के कुछ हिस्सों में कोरोना जैसी महामारी को बीमारी कम समझा गया, इसे दैवीय प्रकोप समझने की भूल हो गई.

देश में कोरोना कहर बरपा रहा था, तो बिहार के कुछ इलाकों में कोरोना माता की पूजा की जा रही थी.

रोहतास जिले के डेहरी औन सोन में सोन नदी के किनारे कई दिनों तक औरतों ने आ कर पूजापाठ की. नदियों के किनारे औरतें झुंड में पहुंच कर 11 लड्डू और 11 फूल चढ़ा कर पूजा कर रही थीं.

घर के मर्दों द्वारा औरतों को मना करने के बजाय उन्हें बढ़ावा दिया जा रहा था, तभी तो वे अपनी गाड़ी में बैठा कर उन्हें नदी के किनारे पहुंचा रहे थे.

इस तरह के अंधविश्वास मोबाइल फोन के चलते गांवदेहात में काफी तेजी से फैलते हैं, इसलिए जरूरी है कि मांबाप अपने बच्चों को विज्ञान के प्रति जागरूक करें. उन्हें शुरू से ही यह बताने की जरूरत है कि विज्ञान से बदलाव किया जा सकता है. विज्ञान हमारी जरूरतें पूरी कर रहा है. इस तरह के अंधविश्वास से हम सभी पिछड़ जाएंगे.

नाबालिग लड़कियों का प्यार!

किशोरावस्था में लड़कियां जब किसी के प्यार के फंदे में फंस जाती है, तो अक्सर आगे जाकर अपनी जिंदगी तबाह कर लेती है.

यह एक ऐसी उम्र होती है, जब युवा आकर्षण में नवयुवतियां ऐसी भूल कर बैठती है कि आने वाला समय उनके लिए अंधकार मय हो सकता है. क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि सामने जो युवक है अथवा अधेड़ उम्र का व्यक्ति है, उसकी मंशा कितनी “सौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली” वाली है.

दरअसल, युवावस्था में पांव रखने वाली युवती एक ऐसी मोहक अवस्था में होती है कि जब उसे दुनियादारी का पता नहीं होता.आम तौर पर मीठी चुपड़ी बातों में आकर वह जब प्यार की अंधी गली में आगे बढ़ जाती है तो पीछे मुड़ कर देखने का वक्त ही नहीं रह जाता और जिंदगी तबाही की ओर अग्रसर हो चुकी होती है.

आइए! आज इस अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक त्रासदी पर दृष्टिपात करते हुए इस रिपोर्ट के माध्यम से यह संदेश युवा पीढ़ी को देने का प्रयास करें कि ठीक है आपकी उम्र प्यार… मोहब्बत की है, मगर थोड़ा संभल कर, समझ के साथ कर आगे बढ़ना.

शादी का झांसा, जिंदगी बर्बाद!

छत्तीसगढ़ के जगदलपुर आदिवासी बाहुल्य जिले में नाबालिग को विवाह झांसा देकर भगाने का मामला सामने आया है. युवक ने नाबालिग को भगाकर अवैध सम्बन्ध बनाए. पुलिस के अधिकारी ने हमारे संवाददाता को बताया कि परपा थाना इलाके के एक युवक शादी का झांसा देकर एक नाबालिग लड़की को अपने साथ भगाकर ले गया और उसका शीलभंग कर शादी करने का आश्वासन देता रहा .
पुलिस में रिपोर्ट के पश्चात तथ्यों की विवेचना की गई . इधर जब परिजनों को लापता हो गई लड़की नही मिली तो उन्होंने भी ख़ोज बीन शुरू की. पुलिस ने तलाश की, अंततः आरोपी को बड़े आमाबाल खरियापारा से गिरफ्तार कर लिया.

इस मसले पर परपा नगर निरीक्षक बी.आर.नाग ने बताया मामला नाबालिग लड़की का था अतः हमने संवेदनशीलता के साथ जांच प्रारंभ की और आरोपी की खोजबीन की गई. आखिरकार साइबर सेल और मुखबिर से जानकारी मिली कि गुम लड़की और आरोपी युवक भानपुरी इलाके के बड़े आमाबाल में है. टीम ने दबिश देकर नाबालिग लड़की को शामु कुमार बघेल के कब्जे से बरामद किया. लड़की ने बताया कि आरोपी ने उसे शादी का प्रलोभन देकर जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाकर दुष्कर्म किया है. आरोपी शामु कुमार बघेल को पुलिस ने कड़ा सबक सिखाते हुए धारा 366क, 376 भादवि, 06 पाक्सो एक्ट के तहत कार्यवाही कर कोर्ट में पेश किया गया. जहा से आरोपी को न्यायिक रिमाण्ड पर जेल भेजा गया है.

इस धोखे का हल क्या है?

सवाल यह है, कि इस धोखे और झांसे का हल क्या है. आखिरकार कैसे नाबालिक लड़कियां झांसे…. धोखेबाजी से बच सकती हैं. इस संदर्भ में पुलिस अधिकारी इंद्र भूषण सिंह कहते हैं कि सबसे बड़ा दायित्व होता है माता पिता और परिवार का. जो नाबालिक लड़कियों को, बच्चों को संस्कार दे सकते हैं.आज की इस आपाधापी के समय में माता पिता के पास समय नहीं रहता कि वे बच्चों से खुलकर अंतरंग बातें कर सकें. फलस्वरूप नाबालिक विशेष रूप से लड़कियां जब कहीं थोड़ा सा भी आसरा, झुकाव… प्यार का संबंल मिलता है तो किसी बेल की तरह लिपटने लगती है.

इस संदर्भ में प्रसिद्ध चिकित्सक डॉक्टर जी. आर. पंजवानी के मुताबिक बच्चों को अच्छे संस्कार हेतु श्रेष्ठतम पुस्तकें पढ़ने की आदत डालनी चाहिए जिन्हें पढ़कर वे सकारात्मक उर्जा से ओतप्रोत हो सकते हैं और गलत राह ओर नहीं बढ़ेंगे.

मिसाल: सामाजिक भाईचारा- जाट के घर से उठी, दलित लड़की की डोली

देवाराम जाखड़ की प्रगतिशील सोच व क्रांतिकारी पहल के चलते एक दलित समाज की लड़की पुष्पा की शादी एक जाट किसान परिवार के आंगन में पूरी होने पर देवाराम जाखड़ की सोच, उन की कोशिश और उन की हिम्मत की हर कोई तारीफ कर रहा है. गंवई इलाके में सब से ज्यादा अछूत समझी जाने वाली हरिजन जाति का नौजवान चाऊ गांव में दूल्हा बन कर घोड़ी पर ही नहीं बैठा, बल्कि वह घोड़ी पर सवार हो कर तोरण मारने के लिए जाट जाति के घर भी पहुंच गया.

जाखड़ों वाली ढाणी पर जब यह बरात पहुंची, तो जाटणी (देवाराम जाखड़ की पत्नी) ने दूल्हे का स्वागत चांदी के सिक्के से तिलक लगा कर किया. जाखड़ों की ढाणी में घोड़ी पर बैठे हरिजन दूल्हे के आगे भी वैसे ही नाचगान चल रहे थे, जैसे अकसर यहां के जाटों में होने वाले शादीब्याह में चलते रहते हैं. देवाराम जाखड़ ने शादी के कार्ड में कार्ल मार्क्स का संदेश ‘लोगों की खुशी के लिए पहली आवश्यकता धर्म का अंत है. धर्म अफीम की तरह है,’ लिखवाया.

कार्ड में कई संदेश दिए गए, जिन में पहला संदेश ज्योतिबा फुले का था, जिस में ज्योतिबा फुले को राष्ट्रपिता मानते हुए असमान व शोषक समाज को उखाड़ फेंकने के उन के ऐलान को उजागर किया गया. इस कार्ड में देवाराम जाखड़ ने ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिकारियों के क्रांतिकारी संदेश लिखवाए, जिन का नाम इस इलाके के लोगों ने पहली बार सुना. शादी के कार्ड में भगत सिंह, डाक्टर भीमराव अंबेडकर, सर छोटूराम, जयपाल सिंह, बिरसा मुंडा जैसे क्रांतिकारियों के संदेश लिखवाए गए, पर देवाराम जाखड़ ने किसी ब्राह्मणवादी देवीदेवता को पास भी नहीं फटकने दिया. शादी के कार्ड में एकमात्र तसवीर विद्रोही संत रैदास की थी.

शादी के इस कार्ड के कवर पेज पर ‘जय जवान जय किसान’ के स्लोगन के साथ ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का ऐलान किया गया. इतना ही नहीं, इन्होंने इस कार्ड के कवर पेज पर शिक्षा और आजादी के बारे में लिखते हुए ‘किताबों संग आजादी, पढ़े चलो, बढ़े चलो’ का नारा भी दिया.

जाखड़ का यह गांव मशहूर मारवाड़ी लोककवि कानदानजी के गांव ‘मरुधर म्हारो देश झोरड़ों’ का ग्राम पंचायत मुख्यालय है, इसलिए इस निमंत्रणपत्र को पढ़ कर कानदानजी की एक कविता में थार के रेगिस्तान में बसने वाले ऐसे ही हीरेमोतियों के लिए दी गई उपमा ‘मरुधर का मोती’ याद आती है. शायद देवाराम जाखड़ जैसी ऊंची सोच रखने वाले लोगों के लिए ही कानदानजी ने यह उपमा दी होगी. देवाराम जाखड़ द्वारा खेतीकिसानी की आमदनी से करवाई गई यह शादी मरुधर में जाति आधारित ऊंचनीच और अंधविश्वास मिटाने की दिशा में बहुत बड़ा कदम होगा.

गौरतलब है कि इस देश में वर्ण व्यवस्था के चलते हजारों बरसों से सामाजिक व्यवस्था में एक दमघोंटू सा माहौल रहा है, हद दर्जे की छोटी सोच का बोलबाला रहा है, धार्मिक कर्मकांडों के चलते इनसानियत कहीं एक कोने में सदियों तक दफन रही है, दम तोड़ती रही है, सिसकती रही है… कह सकते हैं कि इस दमघोंटू व्यवस्था के खिलाफ भी लोगों ने सोचना और कदम उठाना शुरू किया है.

जाट एक किसान कौम है, जो हमेशा इंसाफ और सच के साथ रही है, जो इतिहास में कमजोर तबके के साथ खड़ी मिली है. जाट पुरखों ने अपना सबकुछ दांव पर लगा कर भी दलितों और कमजोरों के हक की लड़ाई पूरे दमखम के साथ लड़ी है. ज्यादातर यह कौम पाखंड और कर्मकांडी जमात से अकसर दूर ही रही है, बल्कि इन का मुखर विरोध भी रहा है. 11वीं शताब्दी में पैदा हुए इस कौम के महापुरुष वीर तेजाजी का जीवन इस का प्रमाण है, जिन्होंने दलितों को अपने साथ रखा, दूसरों की खातिर अपना जीवन बलिदान कर दिया था. आज भी यह शादी उसी परंपरा में एक और कड़ी है.

देवाराम जाखड़ कहते हैं, ‘‘हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि हमारे असली और स्वाभाविक साथी एससी और एसटी ही हैं. मनुवादी और सामंती  तत्त्वों से हमारी परंपरागत सोच का कोई मेल न कभी गुजरे कल में हुआ और आज और भविष्य में तो इस की उम्मीद कम ही लगती है, क्योंकि उन के हित और हमारे हित एक नहीं हैं. ‘दलित वर्गों से हमारे हितों का कोई टकराव नहीं है, हमारा और इन का मेल स्वाभाविक है. हमें यह बात दिल और अपनी समझ में बैठानी होगी कि बिना एससी व एसटी के साथ हम अधूरे हैं. अगर ये सब एक नहीं हुए, तो सब नुकसान में ही रहेंगे. वक्त की जरूरत को समझते हुए इन की एकता बहुत जरूरी है.’’

यहां केवल यही एक बड़ी बात नहीं है कि इस किसान परिवार ने बिना मांबाप की एक दलित लड़की पुष्पा की शादी का खर्चा उठाया है. इस में बड़ी बात यह है कि ठेठ थार के रेगिस्तान की इस धोरा री धरती में, जहां की बड़ी आबादी ब्राह्मणवाद की गुलाम है, जो 100 फीसदी पिछड़ी सोच में जी रही है, जहां हरिजन लोग मेघवालों, नायकों, बावरियों, ढोली, भीलों और चौकीदारों वगैरह के घर के दरवाजे से भी काफी दूर खड़े रहते हैं, वहां जाट कौम के किसान परिवार ने एक हरिजन की बेटी की शादी अपने घर के आंगन में की है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें