‘सूत्रधार’ के बहाने सत्ता का खेल

सुनील शर्मा

20 दिसंबर, 2021 को मराठी और हिंदी फिल्मों के कलाकार व डायरैक्टर चंद्रकांत दत्तात्रेय जोशी की 77 साल की उम्र में मौत हो गई थी. जब मैं ने उन के बारे में थोड़ा ज्यादा खंगाला तो मुझे उन से जुड़ी एक हिंदी फिल्म नजर आई, जिस का नाम ‘सूत्रधार’ है.

चंद्रकांत दत्तात्रेय जोशी ने इस फिल्म का डायरैक्शन किया था, जिस में स्मिता पाटिल, गिरीश कर्नाड और नाना पाटेकर जैसे दिग्गज कलाकारों ने बेहतरीन काम किया था.

इस फिल्म की कहानी का प्लौट इतना भर था कि एक कच्चेपक्के घरों के अति पिछड़े गांव में एक अमीर जमींदार गिरीश कर्नाड का एकछत्र राज चलता है, जिसे लोग डर कहें या इज्जत से ‘सरकार’ कहते हैं.

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वह ‘सरकार’ बच्चे नाना पाटेकर के सामने उस के पिता की अपने गुरगों से पिटाई करवाता है, जो नाना पाटेकर के बालमन पर छप जाती है. नाना पाटेकर के पिता का कुसूर इतना ही होता है कि वह अपनी जमीन पर कुआं खुदवा रहा होता है, पर उस ने ‘सरकार’ से इजाजत नहीं ली होती है.

बड़ा हो कर नाना पाटेकर पहले गांव में ही टीचर बनता है और गिरीश कर्नाड के फैसलों की काट करता है. इतना ही नहीं, बाद में नौकरी छोड़ कर उसी के खिलाफ सरपंच का चुनाव लड़ कर जीतता है और गिरीश कर्नाड की सत्ता के किले में सेंध लगा देता है, पर बाद में नाना पाटेकर राजनीति के खेल में इतना ज्यादा रम जाता है कि वह अपने परिवार, अपने उसूल, अपनी आक्रामकता को परे रख कर धीरेधीरे दूसरा गिरीश कर्नाड बन जाता है. फिल्म के आखिर में एक बच्चा नाना पाटेकर के खिलाफ हो जाता है और कहानी में एक नया सूत्र बंध जाता है.

चूंकि अब देश में चुनाव का माहौल है तो फिल्म ‘सूत्रधार’ का एक संवाद और भी मौजूं हो जाता है कि ‘कुरसी सबकुछ बिगाड़ देती है’. यह संवाद एक आम आदमी के मुंह से कहलवाया गया है, जो गांव का ही बाशिंदा है और वह गांव भी कोई भारत सरकार का ‘निर्मल गांव’ नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र का एक पिछड़ा हुआ गांव है, जहां नाना पाटेकर अपनी राजनीति की शुरुआत हरिजन टोले से करता है, जो ‘सरकार’ गिरीश कर्नाड के अहम पर पहली चोट होती है और चूंकि लोग अंदर ही अंदर ‘सरकार’ और उन के गुरगों से खार खाए बैठे होते हैं, लिहाजा नाना पाटेकर अपनी ईमानदार इमेज के चलते चुनाव जीत जाता है.

फिल्म ‘सूत्रधार’ साल 1987 में रिलीज हुई थी, मतलब आज से 35 साल पहले, पर अगर भारत में राजनीति के मौजूदा हालात की बात करें, तो तब से ले कर आज तक कुछ ज्यादा आंदोलनकारी बदलाव नहीं हुआ है.

नाना पाटेकर जैसे नएनवेले नेता अपने क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव के सपने दिखा कर सत्ताधारी पक्ष को हराने की नीयत से जनता के सामने जाते हैं और अपने लक्ष्य को पा भी लेते हैं, पर बाद में जनता को महसूस होता है कि यह तो पहले जैसा ही निकम्मा निकला. अब भी उन की समस्याएं जस की तस हैं, पर भ्रष्टाचार करने वालों के चेहरे बदल गए हैं.

अगर फिल्म ‘सूत्रधार’ के कथानक को देखें तो एक मास्टरपीस होने के गुण भले ही उस में न हों, फिर भी वह भारतीय राजनीति का ऐसा आईना है, जो आज भी जस की तस तसवीर दिखाता है.

‘सरकार’ गिरीश कर्नाड का दबदबा खत्म होते ही उन के कुछ पिछलग्गू नाना पाटेकर की तरफ हो जाते हैं यानी उन की निष्ठा जनता के प्रति नहीं होती है, बल्कि वे सत्ता पक्ष में बने रहना चाहते हैं, फिर ताकत किसी के पास भी क्यों न रहे.

यहां जनता भी कठघरे में खड़ी दिखाई देती है और उस के लिए चुनाव का मतलब प्रचार के समय अमीर नेताओं से कुछ दिन भरपेट स्वादिष्ठ भोजन मिल जाना, कंबलबरतन उपहार में लपक लेना भर होता है. और अगर किसी ‘खास गुरगे’ को कुछ ज्यादा मिल गया तो वह अपनी औकात के हिसाब से गोलमाल करता है.

इस फिल्म में यही छोटा भ्रष्टाचार बड़ी बारीकी से दिखाया गया है कि कैसे गांव वालों से दूध खरीदने वाली सहकारी समिति के ‘कर्ताधर्ता’ किसान महिलाओं को ‘छुट्टा नहीं है’ कह कर अठन्नी का भी घपला कर लेते हैं. मुरगी केंद्र का रखवाला रात को मुरगी पका कर खा जाता है और दोस्तों के साथ दारू पार्टी करता है और सब से कहता फिरता है कि रात को मुरगी चोरी हो जाती है.

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यहां ‘कुरसी सबकुछ बिगाड़ देती है’ संवाद की गहराई समझ में आती है कि जब किसी छोटी या बड़ी कुरसी पर बैठने वाले के दस्तखत की कीमत बढ़ जाती है, तो फिर जनता के बीच से गए जनता के नुमाइंदे ही खुद को खुदा से कम नहीं समझते हैं. खुद नाना पाटेकर उस ‘भाऊ’ नीलू फुले की शरण में चला जाता है, जिस का हाथ पहले ‘सरकार’ के सिर पर होता है. मतलब जो मक्कारी और मौकापरस्ती में ‘सरकार’ का भी बाप होता है.

यहां फिर ‘निष्ठा’ का सवाल खड़ा होता है कि नेता तो जैसे भी होते हों, जनता भी अपनी मक्कारी का ठीकरा नेताओं के सिर पर फोड़ कर अपना पल्ला झाड़ने में बड़ी माहिर होती है. वह अपनी गरीबी, गंदगी और गलीजपने को कभी नहीं देखती है.

घरपरिवार में ही देख लें, तो किसी बड़े और सयाने के फैसलों की ही कद्र घर के दूसरे लोग नहीं करते हैं. वे अपने छोटे फायदों में ही उलझे रहते हैं, जिस का नतीजा यह होता है कि वे दूसरों से हर मामले में पिछड़ जाते हैं. जब ऐसे लोगों की भरमार हो जाती है तो उन से बना पड़ोस, महल्ला, गांव, कसबा, शहर भी उन शातिरों की भेड़ बन जाता है, जिसे जहां मरजी हांकना सब से आसान काम होता है.

भारत, जो कई सौ साल से विदेशी आक्रांताओं का गुलाम रहा है, में हम भारतीयों की इसी ‘निष्ठा’ की कमी भी बहुत बड़ी वजह रही है. यह कमी हमारे मन में इतनी ज्यादा घर कर चुकी है कि आज के सियासी नेता भी ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का सहारा ले कर कभी धर्म के नाम पर, तो कभी क्षेत्रवाद के नाम पर और जब बस नहीं चलता है तो जातियों में बांट कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.

यही वजह है कि फिल्म ‘सूत्रधार’ का एक पिछड़ा हुआ गांव हो या फिर असली जिंदगी की कोई मैट्रो सिटी, जनता चुनाव के समय तमाशबीन बन जाती है. उसे अपने छोटेछोटे फायदे नजर आते हैं, फिर सामने फिल्मी ‘सरकार’ हो या असली का बाहुबली.

पिछड़ों और दलितों से घबराई भाजपा की ठंडी गरमी

 शैलेंद्र सिंह

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उस से शिमला सी ठंड में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं. चुनाव की गरमी जैसेजैसे बढ़ रही है, भाजपा की बेचैनियां भी वैसेवैसे बढ़ रही हैं. महंगाई, बेरोजगारी और खेतीकिसानी के मुद्दों के आगे धर्म की बातें सुनना लोगों को पसंद नहीं आ रहा है.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही राजनीतिक दलों में वैसे ही भगदड़ मच गई, जैसे प्लेटफार्म पर रेलगाड़ी के आने के समय होती है. जिस का रिजर्वेशन होता है, वह भी और जिस का साधारण टिकट होता है, वह भी भगदड़ का हिस्सा होता है. जिस के पास ट्रेन का टिकट नहीं होता, वह सब से ज्यादा उछलकूद करता है. सब का मकसद एक ही होता है, रेलगाड़ी पर चढ़ कर अपनी मंजिल तक पहुंचना.

चुनाव आते ही सब नेताओं का एक ही मकसद होता है कि चुनाव जीत कर विधायक बनना. राजनीतिक दल कमजोर नेता को हटा कर मजबूत नेता को टिकट देना चाहते हैं, जिस से उन की सरकार बन सके. नेता टिकट कटने पर पार्टी के प्रति सारी निष्ठा को छोड़ कर अपने जुगाड़ में लग जाता है. उत्तर प्रदेश में चुनावी रेलगाड़ी अब प्लेटफार्म से चल चुकी है. जिस नेता को जहां बैठना था, बैठ चुका है.

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चुनावी गरमी अब बढ़ चुकी है. हालांकि प्रदेश के मौसम में पहले जैसी गरमी नहीं है, खासकर प्रदेश में सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी के खेमे में माहौल बेहद ठंडा महसूस हो रहा है. उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी पूरी ताकत झोंक दी है.

भाजपा के कार्यकर्ता धर्म के सहारे राजनीति करने में माहिर हैं. वे धर्म का प्रचार बेहतर तरीके से कर सकते हैं. बेरोजगारी, महंगाई और किसानों के मुद्दे पर हो रहे विरोध का वे सही जवाब नहीं दे पा रहे हैं. यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने 40 संगठनों के 4 लाख कार्यकर्ताओं को चुनाव प्रचार में उतार दिया है. ये कार्यकर्ता घरघर जा कर यह सम?ाने का काम कर रहे हैं कि वोट बेरोजगारी, महंगाई और किसान के मुद्दे पर नहीं, बल्कि धर्म के मुद्दे पर दें.

सवालों में घिरी ‘बुलडोजर सरकार’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करते केंद्र सरकार में गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहा कि ‘वोट यह देख कर मत दें कि विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री कौन है? वोट प्रधानमंत्री के हाथों को मजबूत करने के लिए दें’.

इस का सीधा सा मतलब यह था कि भाजपा बेरोजगारी, महंगाई और किसान के मुद्दे पर चुनाव लड़ने से डर रही है. इसी वजह से वह राष्ट्रवाद, धर्म और केंद्र सरकार के नाम पर वोट मांग रही है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने चुनाव प्रचार में कहते हैं, ‘कुछ नेताओं की गरमी अभी शांत नहीं हुई है. 10 मार्च को चुनाव नतीजा आने के बाद यह गरमी शांत कर दी जाएगी. मईजून के महीने में भी हम उत्तर प्रदेश को शिमला बना देते हैं’. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह बयान उन की ‘ठोंक दो’ शैली को बढ़ावा देने वाला है.

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योगी आदित्यनाथ और भाजपा के बड़े नेता डर और आतंक का माहौल बना कर वोट हासिल करना चाहते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में 5 साल पहले दबंग, दंगाई ही कानून थे. उन का कहा ही सरकार का आदेश हुआ करता था. हम उत्तर प्रदेश  के बदलाव के लिए खुद को खपा रहे हैं. विपक्ष के लोग बदला लेने के लिए ठान कर बैठे हैं. इन बदला लेने वालों के बयानों को देख कर लगता है कि वे पहले से ज्यादा खतरनाक हैं.

‘कोई भूल नहीं सकता कि 5 साल पहले व्यापारी लुटता था, बेटी घर से बाहर निकलने में घबराती थी, माफिया सरकारी संरक्षण में घूमते थे. प्रदेश  दंगों की आग में जल रहा होता था और सरकार उत्सव मना रही होती थी.’

योगी आदित्यनाथ ने अपनी छवि ‘बुलडोजर सरकार’ की बनाई है, जहां ‘ठोंक दो’, ‘गाड़ी पलटा दो’ जैसे अलंकार उन की सरकार की शोभा बढ़ाते हैं. यही जुमले अब भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए वोट मांगने में मुश्किल खड़ी कर रहे हैं. तमाम दांवपेंच और सत्ता के दबाव के बाद भी भाजपा अकेली पड़ गई है. दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने लोकदल सहित छोटेछोटे दलों के साथ सीधा गठबंधन कर लिया है.

कांग्रेस भी समाजवादी पार्टी के साथ है. कांग्रेस ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव और उन के चाचा शिवपाल यादव के सामने कांग्रेस का कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच यह नया नहीं है. समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ कभी अपना उम्मीदवार नहीं उतारती थी.

उत्तर प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अलगअलग चुनाव लड़ रही हैं. इस के बाद भी टिकट बंटवारे में उन का टारगेट यह है कि किस तरह से भाजपा के उम्मीदवार को हराया जा सके. इस के लिए दोनों दलों में आपसी सहमति बनी हुई है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचार करते हुए जब सड़क पर प्रियंका गांधी वाड्रा के काफिले के सामने सपा नेता अखिलेश यादव और लोकदल के नेता जयंत चौधरी मिल गए थे, तो दोनों काफिले रुक गए थे और आपसी अभिवादन के बाद ही आगे बढ़े थे.

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यह इन नेताओं की आपसी सम?ाबू?ा को दिखाता है. असल में कांग्रेस सपा गठबंधन से इस वजह से अलग है, जिस से वह अलग चुनाव लड़ कर भाजपा की अगड़ी जातियों खासकर ब्राह्मणों के वोट अपनी तरफ कर के भाजपा को नुकसान कर सके.

बेरोजगारी, महंगाई, किसान पर लाचारी

वोट मांगने के लिए घरघर जाने वाले कार्यकर्ताओं से लोग सवाल करते हैं कि पैट्रोल 100 रुपए लिटर, खाने का तेल 200 रुपए लिटर और रसोई गैस का सिलैंडर 1,000 रुपए का है, ऐसे में गृहस्थी कैसे चलेगी? इन सवालों के जवाब भाजपा का प्रचार करने वालों के पास नहीं है. शहरों से हट कर जब गांव के लोगों से वोट मांगे जाते हैं, तो वहां के लोग छुट्टा जानवरों से खेत में होने वाले नुकसान, खाद के महंगे दाम की बात करने लगते हैं.

इन सवालों के जवाबों से लाचार हो कर भाजपा ने नई रणनीति बनाई है. अब वह वोट मांगने के लिए उन घरों में जा रही है, जिन को सरकार की किसी न किसी योजना का लाभ मिला है. भाजपा की भाषा में इन को ‘लाभार्थी’ कहा जाता है.

प्रचार पर जाने वाले कार्यकर्ताओं को उन के क्षेत्र के लाभार्थियों के नाम की लिस्ट पहले से दे दी जाती है. कार्यकर्ता इन घरों पर ही जा रहे हैं. वहां उन से महंगाई, बेरोजगारी और किसानों के सवाल कम होते हैं. भले ही ‘लाभार्थी’ कहा जाने वाला यह वर्ग सीधे सवाल नहीं करता, पर उस के मन में भी यह सवाल उठता है कि महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की क्या हालत है?

भाजपा के लिए चुनौती देने वाली बात यही है कि उस का समर्थन करने वाले से ज्यादा लोग उस का विरोध करने वालों का कर रहे हैं.

एक लोकगायिका हैं नेहा सिंह राठौर. वे बिहार की रहने वाली हैं. उत्तर प्रदेश में उन का ननिहाल है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने एक गाना ‘बिहार मा का बा’ गाया था, जिस के जरीए नेहा सिंह को सोशल मीडिया पर बहुत तारीफ मिली थी. अब उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी नेहा सिंह राठौर ने ‘यूपी में का बा’ गाने के सहारे यहां की अव्यवस्था पर सवाल किया. इन सवालों के घेरे में नेहा सिंह ने ‘मोदीयोगी’ को निशाने पर लिया.

नेहा सिंह राठौर को जनता ने हाथोंहाथ लिया, जिस से बौखला कर भाजपा की आईटी सैल और अंधभक्तों ने नेहा को जबरदस्त ट्रोल करना शुरू कर दिया. पर नेहा ने हौसला नहीं हारा और हिम्मत से ‘यूपी में का बा’ के अलगअलग गाने गाती रहीं.

भाजपा का विरोध जनता के बीच इतना है कि उस का प्रचार करने वालों को दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. कार्यकर्ताओं को ही नहीं, बल्कि भाजपा के विधायकों और कई नेताओं को उन के क्षेत्र में घुसने से रोका गया. पहले भी इस तरह का इक्कादुक्का विरोध होता था, जिस में जनता को सामने कर के विपक्ष के लोग बैनरपोस्टर टांग देते थे कि ‘प्रचार के लिए यहां संपर्क न करें’. लेकिन नेता के सामने आ कर कोई विरोध नहीं करता था.

इस बार जनता विरोध कर रही है और भाजपा नेताओं को क्षेत्र में घुसने नहीं दे रही है. इस तरह की घटनाएं पूरे प्रदेश में घट रही हैं. उत्तर प्रदेश में 20 जनवरी से 30 जनवरी के बीच 9 नेताओं को जनता का विरोध ?ोलना पड़ा. लोगों ने इन को गांव में घुसने नहीं दिया.

मंत्री से ले कर विधायक का विरोध

इस में उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से ले कर तमाम नेता शामिल हैं. वे कौशांबी जिले की सिराथू सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. 22 जनवरी, 2022 को जब वे गुलामीपुर चुनाव प्रचार करने गए, तो महिलाओं ने उन को घेर कर नारेबाजी शुरू कर दी.

प्रयागराज से एमएलसी सुरेंद्र चौधरी को अफजलपुर में लोगों ने चुनाव प्रचार नहीं करने दिया. सुरेंद्र चौधरी सम?ाते रहे कि ‘सरकार ने राम मंदिर बनवाया’, पर लोगों ने एक नहीं सुनी. सुरेंद्र चौधरी को वहां से प्रचार छोड़ कर जाना पड़ा.

जालौन की उरई सीट से विधायक गौरी शंकर वर्मा चुनाव प्रचार करने गए, तो विरोध में नारेबाजी शुरू कर दी गई. लोगों ने जब सड़क, नल, पानी का हिसाब मांगा, तो गौरी शंकर वर्मा वहां से चलते बने.

इस तरह की घटनाएं पूरे प्रदेश में घट रही हैं. बुलंदशहर में देवेंद्र सिंह लोधी स्याना सीट से विधायक हैं. जब वे प्रचार करने गए, तो लोगों ने विरोध किया. उन का आरोप था कि ‘5 साल न कोई नल दिया, न सड़क. अब वोट मांगने क्यों आए हो?’ पहले तो देवेंद्र सिंह ने लोगों को सम?ाने की कोशिश की, पर जब बात नहीं बनी तो चुपचाप वापस चले आए.

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा विधायकों से लोग नाराज हैं कि अपने ही वोटरों को किसान आंदोलन में मुकदमे में फंसा दिया. इसी बात को ले कर खतौली से भाजपा विधायक विक्रम सैनी का विरोध हुआ. यही नहीं, कई जगहों पर वोट मांगने पर जनता ने भाजपा विधायकों के खिलाफ नारेबाजी की.

यहां के किसानों ने कहा कि उन पर जिस तरह से मुकदमे किए गए, कील और आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया, वह दर्द वे भूले नहीं हैं. यह सब देख कर ही भाजपा के बड़े नेताओं को प्रचार के लिए उतारना पड़ा, जिन के साथ पूरा लावलश्कर चलता है. इस से जनता विरोध नहीं कर पाती है.

किसान आंदोलन के साथसाथ महंगाई और बेरोजगारी भी विरोध की एक बड़ी वजह है. भाजपा इस कारण से इन मुद्दों को पीछे छोड़ कर धर्म, राष्ट्र, पलायन और बदमाशी पर बात कर रही है. भाजपा इन मुद्दों के नाम पर वोटर को डरा कर वोट लेना चाहती है.

‘अंडर करंट’ साबित होंगे

महंगाई और बेरोजगारी को भले ही विपक्ष चुनावी मुद्दा न बना पा रहा हो, पर महंगाई और बेरोजगारी को ले कर जनता के बीच गुस्सा बना हुआ है. पहले यह उबलते दूध की तरह होता था, जो कुछ समय में शांत हो जाता था.

इस चुनाव में केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी यह मुद्दा बना हुआ है. जनता इसी कारण विपक्षी दलों के साथ खड़ी है. भले ही विपक्षी दल खुद इन मुद्दों को ले कर बात करने से बच रहा हो, पर एक तरह से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में इस बार जनता चुनाव लड़ रही है. उस का यह गुस्सा ‘अंडर करंट’ की तरह ही है, जो अब वोट देते समय निकल कर सामने आएगा.

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सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर, 2021 में बेरोजगारी दर 7.84 फीसदी हो गई है. उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी की दर 4.9 फीसदी हो गई है. भले ही विपक्षी दल प्रमुखता से यह बात नहीं कर पा रहे हैं, पर उत्तर प्रदेश के बेरोजगारों ने ‘यूपी मांगे रोजगार’ नाम से अलग मुहिम चला रखी है.

भाजपा के वोटरों में सब से बड़ी तादाद  नौजवानों की है, जो 18 से 35 साल की उम्र के हैं. इन के पास रोजगार का सब से बड़ा संकट है. प्रयागराज में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले नौजवानों पर जिस तरह से लाठियां बरसाई गईं, वह भाजपा के लिए बड़ा संकट बन रहा है.

युवा कार्यकर्ता जब वोट मांगने जा रहे हैं, तो उन के साथी ही उन का विरोध कर रहे हैं. इन के विरोध की गंभीरता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी क्षेत्र वाराणसी के नौजवानों ने उन के जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के रूप में मनाया था.

बेरोजगारों के गुस्से की वजह यह है कि कोरोना काल के दौरान तालाबंदी से निजी क्षेत्र को जब नुकसान हुआ, तो वहां से तमाम लोगों को नौकरियों से बाहर कर दिया गया. ये युवा अब अपने सुरक्षित भविष्य के लिए सरकारी नौकरियों की तरफ जाना चाहते हैं. वहां परीक्षा पेपर आउट हो जा रहा है. परीक्षा का रिजल्ट सालोंसाल नहीं आता. जिन का रिजल्ट आ जाता है, उन को अपौइंटमैंट लैटर नहीं दिया जाता.

सरकार अब अपने विभागों में भी संविदा पर नौकरियां देने लगी है. वहां भी भाईभतीजावाद और सिफारिश चल रही है. इस वजह से छात्रों का गुस्सा उन के अंदर भरा हुआ है.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद में नौजवानों ने भाजपा को वोट दिया था. उस को यह लगा था कि ‘डबल इंजन’ सरकार उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसर खोलेगी.

नौजवानों को झांसा देने के लिए योगी सरकार ने ‘इंवैस्टर मीट’ और ‘डिफैंस ऐक्सपो’ जैसे कई आयोजन किए. नौजवानों को यह बताने की कोशिश भी की थी कि चीन से भाग कर विदेशी कंपनियां उत्तर प्रदेश में कारखाने लगाने जा रही हैं, जिस से नौजवानों को रोजगार मिल सकेगा.

उत्तर प्रदेश को फिल्म सिटी बनाने का झांसा भी दिया गया. इन में से कोई भी घोषणा जमीन पर नहीं उतरी. इस वजह से बेरोजगारों का गुस्सा अंडर करंट के रूप में काम कर रहा है, जिस का पता 10 मार्च को चल पाएगा.

भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उस से शिमला की ठंड में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं.

चुनाव और लालच : रोग बना महारोग

सुरेश चंद्र रोहरा

चुनाव का सीधा मतलब अब कोई न कोई लालच देना हो गया है. तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियां वोटरों को ललचाने का काम कर रही हैं और यह सीधासीधा फायदा नकद रुपए और दूसरी तरह के संसाधनों का है, जिसे सारा देश देख रहा है और संवैधानिक संस्थाएं तक कुछ नहीं कर पा रही हैं.

क्या हमारे संविधान में कोई ऐसा प्रावधान है कि राजनीतिक दल देश के वोटरों को किसी भी हद तक लुभाने के लिए आजाद हैं और वोटर अपनी समझ गिरवी रख कर के अपने वोट ऐसे नेताओं को बेच देंगे, जो सत्तासीन हो कर 5 साल तक उन्हें भुला बैठते हैं?

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क्या यह उचित है कि चुनाव जीतने के लिए लैपटौप, स्कूटी, मोबाइल, रुपएपैसे दिए जाना जरूरी हो? क्या अब विकास का मुद्दा पीछे रह गया है? क्या देश के दूसरे अहम मसले पीछे रह गए हैं कि हमारे नेताओं को रुपएपैसे का लौलीपौप वोटरों को देना जरूरी हो गया है या फिर यह सब गैरकानूनी है?

अब देश के सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर ऐक्शन ले लिया है और अब देखना यह है कि आगेआगे होता है क्या? क्या रुपएपैसे के लोभलालच पर अंकुश लग जाएगा या फिर और बढ़ता चला जाएगा? यह सवाल आज हमारे सामने खड़ा है.

25 जनवरी, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त सुविधाएं देने के वादे करना एक गंभीर मद्दा है.’

चीफ जस्टिस एनवी रमण, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने इस मामले को ले कर देश में चुनाव कराने वाली संवैधानिक संस्था भारतीय चुनाव आयोग और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर दिया है.

चुनाव में ‘माले मुफ्त दिल ए बेरहम’ जैसी हरकतें कर रहे राजनीतिक दलों  की मान्यता रद्द करने की मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने यह कदम उठाया. इस के बाद अब यह बहुतकुछ मुमकिन है कि आने वाले समय में कोई ठोस नतीजा सामने आ जाए.

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आप को यह बताते चलें कि सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एनवी रमण ने कहा, ‘अदालत जानना चाहती है कि इसे कानूनी रूप से कैसे नियंत्रित किया जाए? क्या ऐसा इन चुनावों के दौरान किया जा सकता है या इसे अगले चुनाव के लिए किया जाए? निश्चित ही यह एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि मुफ्त बजट तो नियमित बजट से भी तेज है.’

दरअसल, देश की चुनाव व्यवस्था और राजनीतिक दलों की मुफ्त घोषणाओं पर यह सुप्रीम कोर्ट का खास और गंभीर तंज है.

नींद में चुनाव आयोग

लंबे समय से देश में चुनाव आयोग वोटरों को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही घोषणाओं पर एक तरह से चुप्पी साध कर बैठा हुआ है. लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव उसे निष्पक्ष तरीके से पूरा कराने की जिम्मेदारी देश के संविधान ने चुनाव आयोग को सौंपी है और यह चुनाव आयोग केंद्र सरकार की मुट्ठी में रहा है.

ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे असंसदीय बरताव और कानून की नजर से गलतसलत बरताव को देखते हुए भी अनदेखा करता रहा है, वरना तकरीबन 40 साल पहले शुरू हुए वोटरों को लुभाने की कोशिशों पर शुरुआत में ही अंकुश लगाया जा सकता था.

दक्षिण भारत के बड़े नेता अन्नादुरई ने बहुत सस्ते में वोटरों को चावल देने की घोषणा के साथ इस चुनावी लालच के सफर की शुरुआत की थी, जिस के बाद एनटी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में इस चलन को आगे बढ़ाया.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जो अपने शबाब पर है, अखिलेश यादव ने वोटरों को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा दी है कि अगर हमारी सरकार आई तो हम यह देंगे, वह देंगे. इसी तरह कांग्रेस की चुनाव कमान संभालने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी उत्तर प्रदेश चुनाव में वोटरों को कांग्रेस की सरकार बनने पर बहुतकुछ फ्री में देने का ऐलान कर दिया है.

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पंजाब में कांग्रेस के नवजोत सिंह सिद्धू ने भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और फ्री में बहुतकुछ देने की योजनाएं जारी कर दी हैं. अब यह रोग देशभर में महारोग बन चुका है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया है.

आप को यह बताते चलें कि चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के साथ एक बैठक कर उन से उन के विचार जानने चाहे थे और फिर यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया था.

सुप्रीम कोर्ट में वोटरों को लालच देने के मुद्दे वाली यह याचिका भारतीय जनता पार्टी के नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है. याचिका में कहा गया है कि राजनीतिक दलों के चुनाव के समय मुफ्त चीजें देने की घोषणाएं वोटरों को गलत तरीके से प्रभावित करती हैं. इस से चुनाव प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और यह निष्पक्ष चुनाव के लिए ठीक नहीं है.

पीठ ने सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के सुब्रह्मण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले के एक पुराने फैसले का भी जिक्र किया. उस में अदालत ने कहा था कि चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के रूप में नहीं माना जा सकता है.

इस बारे में अदालत ने चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों की सलाह से आदर्श आचार संहिता में शामिल करने की सलाह दी थी.

याचिकाकर्ता की तरफ से एक सीनियर वकील ने दलील दी कि इस मामले में केंद्र सरकार से हलफनामा तलब करना चाहिए. राजनीतिक दल किस के पैसे के बल पर रेवडि़यां बांटने के वादे कर रहे हैं. कैसे राजनीतिक दल मुफ्त उपहार की पेशकश कर रहे हैं. हर पार्टी एक ही काम कर रही है.

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इस पर चीफ जस्टिस एनवी रमण ने उन्हें टोका और पूछा कि अगर हर पार्टी एक ही काम कर रही है, तो आप ने अपने हलफनामे में केवल 2 पार्टियों का ही नाम क्यों लिया है.

जवाब में उन वकील ने कहा कि वे पार्टी का नाम नहीं लेना चाहते. पीठ में शामिल जस्टिस हिमा कोहली ने उन से पूछा कि आप के बयानों में काफीकुछ स्पष्ट है. याचिकाकर्ता के वकील का सुझाव था कि इस तरह की गतिविधि में शामिल पार्टी को मान्यता नहीं देनी चाहिए.

अब देखिए कि आगे क्या होता है. क्या सुप्रीम कोर्ट के इस कदम से देश में आने वाले चुनाव में वोटरों को ललचाने का खेल बंद होगा या फिर यह बढ़ता ही चला जाएगा?

विधानसभा चुनाव 2022: दलित, पिछड़े और मुसलिम तय करेंगे जीत-हार

शैलेंद्र सिंह

त्रेता युग में अयोध्या के राजा दशरथ ने जब अपने बड़े बेटे राम को 14 साल के लिए वनवास भेजा तो राम ने अयोध्या के सजातीय लोगों या वहां की सेना से कोई मदद नहीं ली, बल्कि मदद लेने के लिए वे पिछड़ी जाति के केवट के पास गए. वन में खानेपीने के लिए वे आदिवासी जनजाति की शबरी के पास गए.

जब वन में रहते हुए पत्नी सीता का अपहरण रावण ने कर लिया, तब सीता को रावण की कैद से छुड़ाने के लिए भी राम ने अयोध्या की सेना और अपने सगेसंबंधियों का साथ नहीं लिया. रावण से युद्ध के लिए जो सेना राम ने बनाई उस में वानर, भालू जैसे वन में रहने वाले शामिल थे. लेकिन जब राम अयोध्या की गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने अपने राज्य के लोगों, मंत्रियों और सजातीय लोगों को हिस्सा दिया.

राम की बात और रामराज लाने वाली भाजपा ने भी यही किया. साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दलित और पिछड़ों में फूट डालने के लिए गैरयादव, पिछड़ी जातियों और गैरजाटव दलित जातियों के नेताओं से सत्ता बनाने में मदद ली. जैसे ही भाजपा को बहुमत मिला, सत्ता ऊंची जातियों के ठाकुरब्राह्मणों को सौंप दी.

इस से दलित और पिछड़े ठगे से रह गए. इन लोगों ने किसी न किसी बहाने अपनी बात रखने की कोशिश की, पर उन की आवाज को सुना नहीं गया. अब साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दलितपिछड़ों ने तय किया है कि वे भाजपा की बात को नहीं सुनेंगे.

सत्ता की चाबी इन के पास

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दलित, पिछड़े और मुसलिम जीतहार के सब से बड़े फैक्टर हैं. ये तीनों मिल कर तकरीबन 85 फीसदी होते हैं. बहुत से दलों और नेताओं को लग रहा है कि मायावती इस चुनाव में हाशिए पर हैं. तमाम चुनावी सर्वे मायावती को कांग्रेस से भी नीचे चौथे नंबर की पार्टी मानते हैं.

यह सच है कि मायावती का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति में पहले जैसा दमदार नहीं है, इस के बाद भी दलित बड़ा वोट बैंक है. चुनावी जीत में वह सब से बड़ा फैक्टर है. इस की वजह यह है कि सब से ज्यादा दलित वोट ही एक दल से दूसरे दल की तरफ जाते हैं.

साल 2014 से ले कर साल 2019 तक लोकसभा के 2 और विधानसभा के एक चुनाव में दलित वोटर धर्म के नाम पर भाजपा के साथ खड़े हो गए. साल 2017 में योगी सरकार के राज में दलितों पर हुए जोरजुल्म ने इस तबके को फिर से भाजपा से दूर खड़ा कर दिया है. अब यह तबका जिधर होगा जीत उधर ही होगी. उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से 85 सीटें रिजर्व्ड विधानसभा सीटें हैं.

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इन रिजर्व्ड सीटों में 31.5 फीसदी वोट ले कर 58 और बहुजन समाज पार्टी ने 27.5 फीसदी वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं. भारतीय जनता पार्टी को 14.4 फीसदी वोटों के साथ केवल 3 सीटें मिली थीं.

पर साल 2017 के विधानसभा चुनाव में नतीजे उलट गए और 85 रिजर्व्ड सीटों में से 69 सीटें भाजपा ने जीतीं. भाजपा को 39.8 फीसदी वोट मिले. वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीटें मिलीं, जबकि बसपा सिर्फ 2 सीटें ही जीत पाई. मतलब, दलित समाज जिधर खड़ा होगा जीत उधर ही होगी.

दलित को सत्ता में हिस्सेदारी देने के लिए संविधान में रिजर्व्ड सीटों का इंतजाम किया गया है. उत्तर प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों में से 85 सीटें रिजर्व्ड हैं. इन सीटों पर जिस का कब्जा रहा है, वही उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहा है. साल 2017 में 85 रिजर्व्ड सीटों में भाजपा ने 65 गैरजाटवों को टिकट दिया था. भाजपा ने 76 रिजर्व्ड सीटों पर जीत हासिल की. बसपा को 2, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 3 और अपना दल को 2 सीटें मिली थीं.

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा 58, बसपा 15 और भाजपा 3 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी, वहीं साल 2007 में बसपा 62, सपा 13, भाजपा 7 और कांग्रेस 5 सीटों पर जीती थी.

योगी राज में जब दलित अत्याचार की घटनाएं तेजी से घट रही थीं, उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा बन कर उभरे. दलित वर्ग उन को किस तरह से साथ दे रहा है, यह बात 2022 के विधानसभा चुनाव में तय हो जाएगी.

चंद्रशेखर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना चाहते थे, लेकिन सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने उन को केवल 3 सीटें देने की बात कही. इस से नाराज हो कर चंद्रशेखर ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया.

इन में बंटी दलित राजनीति

बसपा प्रमुख मायावती का अब दलितों के बीच वैसा असर नहीं रहा, जैसा 1990 के दशक में था. इस के बाद भी दलित तबका जीत का सब से बड़ा फैक्टर है. बसपा संस्थापक कांशीराम ने 80 के दशक में दलित समाज के बीच राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया था. यह उन की चेतना जगाने का ही नतीजा था कि मायावती 1-2 बार नहीं, बल्कि 4 बार मुख्यमंत्री बनी थीं.

दलित वोटों पर कांशीराम के बाद मायावती का लंबे समय तक एकछत्र राज रहा. पर मायावती ने जब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ‘दलितब्राह्मण’ किया तब से दलित तबका मायावती से दूर जाने लगा. बसपा जाटव और गैरजाटव में बंट गई. मायावती सिर्फ जाटव दलितों की ही नेता बन कर रह गईं. इसी वजह से मायावती उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर चली गईं.

मायावती ने खुद को राजनीति की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए अपने धुर विरोधी दल समाजवादी पार्टी के साथ साल 2019 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन भी किया था. इस के बाद भी दलित तबका मायावती के साथ खड़ा नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में जीत के लिए बना यह गठबंधन चुनाव के खत्म होते ही टूट गया.

अब साल 2022 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों पर कांग्रेस, सपा और भाजपा की नजर है. असल में पिछड़े समुदाय के बाद उत्तर प्रदेश में दूसरी सब से बड़ी हिस्सेदारी दलित बिरादरी की है.

उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 22 फीसदी के करीब है. यह दलित वोट बैंक जाटव और गैरजाटव के बीच बंटा हुआ है. दलित आबादी की सब से बड़ी तादाद 12 फीसदी जाटवों की है और 10 फीसदी गैरजाटव दलित हैं. उत्तर प्रदेश में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिन में 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिन का संख्या बल ज्यादा नहीं है.

दलित तबके की कुल आबादी में से 56 फीसदी जाटव के अलावा दलितों की दूसरी जो उपजातियां हैं, उन की तादाद 46 फीसदी के करीब है. पासी 16 फीसदी, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसदी और गोंड, धानुक और खटीक तकरीबन 5 फीसदी हैं.

उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की तादाद 20 फीसदी से ज्यादा है. राज्य में सब से ज्यादा दलित आबादी सोनभद्र में 42 फीसदी, कौशांबी में 36 फीसदी, सीतापुर में 31 फीसदी है, बिजनौरबाराबंकी में 25-25 फीसदी है. इस के अलावा सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर, जौनपुर में दलित तबका निर्णायक भूमिका में है.

उत्तर प्रदेश में दलितों की सब से बड़ी आबादी आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, नोएडा, अलीगढ़, गाजियाबाद, बस्ती, संत कबीरनगर, गोंडा, सिद्धार्थनगर, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और सहारनपुर जिलों में है. दलितों में जाटव के बाद दूसरे नंबर पर पासी जाति आती है, जो खासकर राजधानी लखनऊ के आसपास के जिलों जैसे सीतापुर, रायबरेली, बाराबंकी, अमेठी, कौशांबी, प्रतापगढ़, लखनऊ देहात, फतेहपुर, उन्नाव, हरदोई, बस्ती, गोंडा आदि में खासा असर रखती है.

मायावती की तरह ही दलित नेता चंद्रशेखर भी जाटव समुदाय से आते हैं. दोनों ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते हैं. उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति जाटव समुदाय के ही आसपास रही है, जिस की वजह से अनदेखी का शिकार हो कर साल 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद से गैरजाटव दलित में वाल्मीकि, खटीक, पासी, धोबी, कोरी समेत तमाम ऐसी जातियों के लोग विरोधी दलों के साथ चले गए.

दलित आबादी का यह बिखराव ही उस को कमजोर कर गया. बसपा के अलावा दूसरे दलों ने गैरजाटव दलित नेताओं को अपने पक्ष में करने का काम किया. भाजपा ने इस दिशा में बेहतर काम किया. पासी बिरादरी के कौशल किशोर को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया गया. उन की पत्नी को लखनऊ की मलिहाबाद सीट से विधायक बनाया गया.

दलित सियासत में धोबी और वाल्मीकि वोटरों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. बरेली, शाहजहांपुर, सुलतानपुर, गाजियाबाद, मेरठ, हाथरस और बागपत में धोबी और वाल्मीकि काफी बड़ी तादाद में रहते हैं. जाटवों और वाल्मीकि समाज के बीच काफी दूरियां देखने को मिलती हैं. वाल्मीकि तबका शुरू से ही भाजपा के साथ जुड़ा है. धोबी समाज भी साल 2012 के बाद से बसपा से हट गया.

उत्तर प्रदेश के दलित नेता

उत्तर प्रदेश में दलित नेताओं में मायावती का नाम सब से ऊपर आता है. उन की छांव में बसपा में कोई बड़ा नेता उभर नहीं पाया. भाजपा में सुरेश पासी, रमापति शास्त्री, गुलाबो देवी, कौशल किशोर और विनोद सोनकर जैसे नेता हैं. कांग्रेस के पास आलोक प्रसाद और पीएल पुनिया जैसे नेता हैं. साल 2017 के बाद दलित नेता चंद्रशेखर का नाम चर्चा में आया.

समाजवादी पार्टी में सुशीला सरोज और अंबरीश सिंह ‘पुष्कर’ जैसे नेता हैं. अंबरीश सिंह ‘पुष्कर’ ऐसे नेता हैं, जो साल 2017 में भाजपा लहर में भी विधानसभा चुनाव जीतने में कामयाब रहे. अगर समाजवादी पार्टी के संगठन में इन को अहमियत दी गई होती, तो आज वे दलितों के बड़े नेता बनते.

दलित राजनीति में एक दौर ऐसा भी था, जब कांग्रेस में बड़े दलित नेता होते थे. धीरेधीरे कांग्रेस का दलित वोट बैंक भाजपा में चला गया. इस को अपनी तरफ करने में सपा और बसपा दोनों ही नाकाम रहे.

जिधर पिछड़े उधर जीत

उत्तर प्रदेश की राजनीति में गैरयादव, अतिपिछड़ी जातियां चुनावी जीत का आधार बन गई हैं. इस वजह से ही भाजपा और सपा दोनों ही इन जातियों पर निर्भर हो चुकी हैं. छोटीछोटी ये जातियां आबादी में कम होने की वजह से अकेले दम पर भले ही सियासी तौर पर खास असर न दिखा सकें, लेकिन किसी बड़ी तादाद वाली जाति या फिर तमाम छोटीछोटी जातियां मिल कर किसी भी दल का राजनीतिक खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखती हैं.

उत्तर प्रदेश में सब से बड़ा वोट बैंक पिछड़े तबके का है. 52 फीसदी पिछड़े वोट बैंक में से तकरीबन 43 फीसदी वोट बैंक गैरयादव बिरादरी का है. जीतहार में इस का रोल सब से ज्यादा होता है.

उत्तर प्रदेश में पिछड़े तबके की 79 जातियां हैं, जिन में सब से ज्यादा यादव और दूसरा नंबर कुर्मी समुदाय का है. यादव सपा का परंपरागत वोटर माना जाता है. गैरयादव जातियों में कुर्मी और पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा, मौर्य, शाक्य और सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गड़रिया और पाल 3 फीसदी, निषाद, मल्लाह, बिंद, कश्यप, केवट 4 फीसदी, तेली, साहू, जायसवाल 4 फीसदी, जाट 3 फीसदी, कुम्हार, प्रजापति, चौहान 3 फीसदी, कहार, नाई, चौरसिया 3 फीसदी, राजभर 2 फीसदी और गुर्जर 2 फीसदी हैं.

स्वामी प्रसाद मौर्य समेत 12 दूसरे पिछड़ी जाति के विधायकों के भाजपा छोड़ने से यह बात साफ है कि इस चुनाव में भाजपा के साथ अतिपिछड़ी जातियां नहीं जा रही हैं.

फूट डालो और राज करो

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित, पिछड़े और मुसलिम सब से मजबूत हैं. मुसलिम तबका हमेशा से भाजपा के खिलाफ रहा है. ऐसे में भाजपा के पास केवल दलित और पिछड़े ही थे, जिन्हें भाजपा अपनी तरफ कर सकती थी. यहां यादव और जाटव भले ही भाजपा के साथ न हों, पर गैरजाटव और गैरयादव जातियों को वह अपनी तरफ करने में कामयाब रही है.

उत्तर प्रदेश का एक सामाजिक समीकरण और भी है, जिस में पिछड़ी जातियां और दलित एक जगह नहीं खड़े हो सकते. 90 के दशक में मंडल और कमंडल की राजनीति के बाद साल 1993 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई. 2 साल में ही यह सरकार गिर गई. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा ने चुनावी गठबंधन किया, पर वह भी कामयाब नहीं रहा.

भाजपा दलित और पिछड़ों के बीच इस दूरी का फायदा उठा कर सत्ता में बनी रहती है. भाजपा के लिए भी अब मुश्किल यह है कि वह दलित और पिछड़ों को एकसाथ कैसे साधेगी. जैसे ही चुनाव भाजपा बनाम सपा होगा, गैरजाटव दलित सपा के साथ न जा कर भाजपा के साथ खड़े हो जाएंगे, जो भाजपा के लिए फायदे का काम होगा. उत्तर प्रदेश में जाटव बनाम यादव एक मुद्दा रहा है. वे दोनों एकसाथ खड़े नहीं रहना चाहते हैं.

भाजपा की राजनीति

भारतीय जनता पार्टी ने जैसेजैसे राम मंदिर की राजनीति को आगे बढ़ाया, वैसेवैसे मुसलिम राजनीति उस के विरोध में एकजुट होने लगी. पहले मुसलिम तबका कांग्रेस के साथ पूरी तरह से लामबंद था. साल 1993 में उत्तर प्रदेश में मुसलिम वोटर का एक बड़ा धड़ा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़ा हो गया.

उत्तर प्रदेश में तकरीबन 20 फीसदी मुसलिम मतदाता हैं, जो पूरी तरह से भाजपा के विरोध में हैं. साल 2014 के बाद मुसलिम व भाजपा 2 अलगअलग ध्रुवों पर खड़े हो गए हैं. 20 फीसदी वोट जीतहार में बड़ा माने रखते हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस खाई को और भी चौड़ा कर दिया है.

इस के साथसाथ तीन तलाक, नागरिकता कानून और राम मंदिर के चलते मुसलिम तबका खुद को असुरक्षित महसूस कर के एकजुट हो गया है. योगी आदित्यनाथ ने ‘80 बनाम 20’ का नारा दे कर साफ कर दिया है कि मुसलिम भाजपा के साथ नहीं हैं.

इस चुनाव से पहले भी मुसलिम एकजुटता ने कमंडल की राजनीति को पछाड़ने का काम किया है. मुसलिम राजनीति तब और ज्यादा असरदार हो जाती है, जब दलित और पिछड़े उस के साथ मिल जाते हैं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में साल 1991 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए. हिंदुत्व के बल पर भाजपा ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल कर ली. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. उन्हीं के मुख्यमंत्री रहते 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मसजिद ढहा दी गई.

इस के बाद मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के एकमात्र मसीहा बन कर उभरे. मुसलिम वोटों के जरीए वे साल 1993 में मुख्यमंत्री बन गए. मुसलमानों का एक बड़ा तबका मुलायम सिंह यादव को एक मसीहा के रूप में देखने लगा. तब उत्तर प्रदेश की राजनीति में नारा लगा था ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गया जय श्रीराम’.

इस समीकरण को तोड़ने में भाजपा ने ‘फूट डालो राज करो’ का काम किया. इस का असर साल 2014 से देखने को मिला. हिंदुत्व का भाव दलित और पिछड़ों में जगा कर मुसलिम विरोध की ढाल तैयार हो गई.

पर साल 2022 में जिस तरह से दलितपिछड़ा तबका भाजपा से दूर हो रहा है, उस से उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ?ाटका लगेगा.

उत्तर प्रदेश: लोकतंत्र में विरोध के स्वर को दबाने के लिए मारी गोली

– शैलेंद्र सिंह  

लोकतंत्र में विरोध करने का संविधान में अधिकार दिया गया है. समय के साथसाथ तानाशाही सरकारों को यह पसंद नहीं आ रहा है. विरोध के स्वर को दबाने के लिए अब सरकारें किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गई हैं. केवल विपक्षी दलों की आवाज को ही नहीं, बल्कि मीडिया के स्वर को भी दबाया जा रहा है.

राजनीतिक पत्रिका ‘कारवां’ ने जब किसान आंदोलन और अलगअलग मुद्दों पर निष्पक्ष लेखों को छापा, तो राष्ट्रद्रोह जैसे मुकदमे लगा कर आवाज को दबाने का काम किया गया. कई तरह की धमकियां भी मिलीं.

सुलतानपुर की रहने वाली रीता यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को काले झंडे दिखाए, तो जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद बदमाशों ने उन की बोलैरो जीप को रोक कर पैर पर गोली मार दी.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब मुख्यमंत्री बनने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में गए, तो समाजवादी पार्टी की नेता पूजा शुक्ला ने उन्हें काले झंडे दिखाए, जिस के बाद पूजा को न केवल जेल भेजा गया, बल्कि उन का उत्पीड़न भी किया गया.

प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाने वाली 35 साल की रीता यादव संतोष यादव की पत्नी हैं. वे सुलतानपुर जिले के चांदा क्षेत्र के लालू का पूरा सोनावा गांव की रहने वाली हैं.

16 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘पूर्वांचल ऐक्सप्रैसवे’ का लोकार्पण करने के लिए सुलतानपुर पहुंचे थे. सुलतानपुर जिले के अरवलकीरी में रीता यादव ने प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाया. रीता यादव उस समय समाजवादी पार्टी में थीं.

प्रधानमंत्री को काला झंडा दिखाने के आरोप में पुलिस ने रीता यादव को जेल भेज दिया था. कुछ दिन जेल में रहने के बाद रीता यादव को जमानत पर रिहाई मिल गई थी. जेल से रिहा होने के बाद रीता यादव को समाजवादी पार्टी में कोई खास तवज्जुह नहीं मिली.

17 दिसंबर, 2021 को रीता यादव ने लखनऊ में कांग्रेस जिलाध्यक्ष अभिषेक सिंह राणा से मुलाकात की और कांग्रेस जौइन कर ली. कांग्रेस में उन की मुलाकात प्रियंका गांधी से भी हुई.

रीता यादव ने साल 2022 के विधानसभा चुनाव में सुलतानपुर की चांदा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी. इस की तैयारी के सिलसिले में वे पोस्टरबैनर छपवाने सुलतानपुर गई थीं. सोमवार, 3 जनवरी, 2022 को वे अपनी बोलैरो जीप से गांव लौट रही थीं. शाम के तकरीबन साढ़े 6 बजे का समय था. रास्ते में बाइक सवार 3 लोगों ने जीप को ओवरटेक कर के रोक लिया.

रीता यादव का कहना है, ‘‘मैं पोस्टरबैनर बनवाने गई थी. वहां से घर जा रही थी. रास्ते में हाईवे पर लंभुआ के पास 3 लोगों ने ओवरटेक कर के मेरी गाड़ी को रोका और गाली देते हुए जान से मारने की धमकी दी.

‘‘मेरे ड्राइवर की कनपटी पर पिस्टल लगा दी. मैं ने जब उन्हें तमाचा मारा, तो उन्होंने मेरे पैर पर गोली मार दी और भाग निकले.’’

कांग्रेस ने लगाया आरोप

इस घटना के बाद रीता को लंभुआ सीएचसी अस्पताल पहुंचाया गया. सूचना मिलते ही सीओ सतीश चंद्र शुक्ल सीएचसी पहुंचे और घायल रीता और उन के चालक से पूछताछ की. वहां से रीता यादव को सुलतानपुर जिला अस्पताल पहुंचा दिया गया.

कांग्रेस ने इस मामले को ले कर भाजपा को घेरा है. कांग्रेस ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को ट्विटर पर टैग करते हुए लिखा कि ‘लड़कियों को लड़ने से आप की पार्टी के जंगलराज में भाड़े के गुंडे रोक रहे हैं. महिलाओं की साड़ी खींचने वाले कायरों से इसी कायरता की उम्मीद है. बेटियों की एकजुटता से डरे कायर अब उन पर गुंडे छोड़ रहे हैं’.

सुलतानपुर पुलिस इस मामले को पूरी तरह से संदिग्ध मान रही है. पुलिस अधिकारी विपुल कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि मामले की जांच चल रही है. रीता यादव पुलिस के कुछ सवालों के जवाब नहीं दे पा रही हैं.

पुलिस का कहना है कि किसी बोलैरो जीप को बाइक सवार कैसे रोक सकते हैं? अगर उन की कोई दुश्मनी थी, तो रीता यादव को पैर पर गोली क्यों मारते?

रीता यादव का मामला आगे किस करवट बैठेगा, यह देखने वाली बात होगी, पर यह बात सच है कि विरोध के स्वर को दबाने के लिए अलगअलग तरह से कोशिश की जा रही है.

कई बार राजनीतिक दलों के अंधभक्त समर्थक भी खुद से ऐसे काम करते हैं. ‘हिदुत्व’ व ‘गौरक्षा’ के नाम पर तमाम मौब लिंचिंग की घटनाएं भी हुई हैं.

एक तरफ ‘धर्म संसद’ में भड़काने वाले बयान दिए जाते हैं और सरकार किसी भी तरह की कानूनी कार्यवाही नहीं करती है, वहीं दूसरी तरफ सामान्य विरोध पर गोली मारने जैसी घटनाएं घट रही हैं, जो सरकार के माथे पर कलंक जैसी हैं.

सियासत : इत्र, काला धन और चुनावी शतरंज

शैलेंद्र सिंह

गांवदेहात की एक बहुत पुरानी कहावत है, ‘कहता तो कहता, सुनता ब्याउर’. इस का मतलब है कि कहने वाला तो जैसा है वैसा है ही, सुनने वाला भी अपना दिमाग नहीं इस्तेमाल करता. वह भी झूठ को सच मान लेता है.

कुछ इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश की ‘इत्र नगरी’ कन्नौज में इत्र और गुटके का कारोबार करने वाले पीयूष जैन के यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ा. पीयूष जैन पर टैक्स न अदा करने और काला धन रखने का आरोप लगा. उन के यहां से बहुत सारा पैसा नकदी के रूप में मिला.

इस को ले कर राजनीति होने लगी. भारतीय जनता पार्टी के नेता पीयूष जैन को समाजवादी पार्टी का नेता बताते हुए कहते हैं कि ‘समाजवादी इत्र बनाने वाले कारोबारी के घर से काला धन निकला है’.

इस के बाद केवल छोटेमोटे लोकल नेता ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक इस का जिक्र करने लगते हैं. एक तरह से ‘इत्र’ की खुशबू को काले धन की ‘बदबू’ में बदल दिया जाता है. झूठ बोलने में न तो कहने वाला कुछ संकोच कर रहा है और न समझने वाला अपना दिमाग लगाना चाह रहा है.

क्या भारतीय जनता पार्टी का यह ‘मिथ्या प्रचार’ कामयाब हो गया? वैसे, किसी ने यह जानने और समझने की कोशिश नहीं की कि पीयूष जैन कौन हैं? उन का समाजवादी पार्टी के साथ किसी भी तरह का संबंध है भी या नहीं? समाजवादी इत्र किस ने बनाया था?

पीयूष जैन के जरीए समझा जा सकता है कि सोशल मीडिया के जमाने में राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाली आईटी सैल किस तरह से सच को झूठ में बदल सकती है. ऐसा अकेले पीयूष जैन के ही साथ नहीं हुआ है, बल्कि बहुत सारे ऐसे नेताओं के साथ हुआ है, जो भाजपा और उस की विचारधारा के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखाते हैं.

इस का एक बहुत बड़ा उदाहरण कांग्रेस नेता राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी को आईटी सेल की ताकत ने ‘पप्पू’ में बदल दिया. इस दिशा में बहुत सारे नाम हैं, जिन्हें आईटी सैल ने हीरो से विलेन बना दिया.

याद रहे कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी वहां पर केंद्र सरकार की एजेंसियों ने ममता बनर्जी पर शिकंजा कसने की कवायद की थी, पर पश्चिम बंगाल की जनता ने केंद्र की ‘डबल इंजन’ सरकार को धो डाला था.

अब कन्नौज के रहने वाले पीयूष जैन पर आते हैं. उन का कुसूर इतना था कि वे उस महल्ले में रहते हैं, जहां समाजवादी पार्टी के विधायक पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी रहते हैं. वे दोनों ही जैन हैं और इत्र व गुटके के कारोबार से जुड़े हैं. जैसे ही पीयूष जैन के यहां छापा पड़ा और तथाकथित काला धन मिला, भाजपा की आईटी सैल ने पीयूष जैन को सपा विधायक पुष्पराज जैन के रूप में बदनाम करना शुरू कर दिया.

छापा और बरामदगी

यह बात सच है कि पीयूष जैन के घर से जो पैसा बरामद हुआ, वह आंखें खोल देने वाला था. पर इस छापे में मिली रकम से 2 बातें भी साफ होती हैं कि सरकार नोटबंदी के बाद जिस काले धन के खत्म होने की बात कर रही थी, वह सही नहीं है. नोटबंदी से काले धन को रोकने में कोई मदद नहीं मिली, उलटे छोटे कारोबारी खत्म हो गए, क्योंकि अगर काले धन पर लगाम लग गई होती तो पीयूष जैन के यहां से इतना पैसा नहीं निकलता.

दूसरी बात यह कि भाजपा सरकार ने यह दावा भी किया था कि जीएसटी के बाद टैक्स चोरी खत्म हो गई है या न के बराबर रह गई है, पर यहां भी वह मात खा गई.

बहरहाल, पीयूष जैन को टैक्स चोरी के आरोप में अहमदाबाद की जीएसटी इंटैलिजैंस टीम ने 50 घंटे की लंबी पूछताछ के बाद गिरफ्तार किया. उन्हें सीजीएसटी ऐक्ट की धारा-69 के तहत गिरफ्तार कर पूछताछ के लिए कानपुर से अहमदाबाद ले जाया गया.

सर्विस ऐंड सर्विसेज टैक्स के अफसरों ने बताया कि छापामारी में इत्र कारोबारी के घर के अंदर एक बड़ा तहखाना मिला और 16 बेशकीमती प्रोपर्टी के दस्तावेज मिले. इन में कानपुर में 4, कन्नौज में 7, मुंबई में 2, दिल्ली में एक और दुबई की 2 प्रोपर्टी के दस्तावेज शामिल हैं.

इस के अलावा 18 लौकर और 500 चाबियां मिलीं. कुलमिला कर शुरुआती 120 घंटे की कार्यवाही में पीयूष जैन के ठिकानों से 257 करोड़ रुपए नकद और कई किलो सोना बरामद हुआ.

पीयूष जैन के घर में इतने पैसे मिले कि नोट गिनने के लिए मशीनें लाई गईं. कुल 8 मशीनों के जरीए पैसे को गिना गया.

कैसे खुला काला सच

अहमदाबाद की जीएसटी टीम को पुख्ता जानकारी मिली थी कि कानपुर में एक ट्रांसपोर्ट बिजनैसमैन टैक्स चोरी करता है. दरअसल, अहमदाबाद में एक ट्रक पकड़ा गया था. इस ट्रक में जा रहे सामान का बिल फर्जी कंपनियों के नाम पर बनाया गया था. सभी बिल 50,000 रुपए से कम के थे. टीम ने उस ट्रांसपोर्टर के घर और दफ्तर पर छापा मारा. वहां पर डीजीजीआई को तकरीबन 200 फर्जी बिल मिले. वहीं से पीयूष जैन और फर्जी बिलों के कनैक्शन का पता लगा. इस के बाद पीयूष जैन के घर पर छापामारी की गई.

पीयूष जैन कन्नौज की मशहूर इत्र वाली गली में इत्र का कारोबार करते हैं. इन के मुंबई में भी औफिस हैं. इनकम टैक्स को इन की तकरीबन 40 से ज्यादा ऐसी कंपनियां मिली हैं, जिन के जरीए पीयूष जैन अपना इत्र कारोबार चला रहे थे. वे गुटके के कारोबार से भी जुड़े हैं. कानपुर के ज्यादातर पान मसाला बनाने वाले उन के ग्राहक हैं. वे पीयूष जैन से ही पान मसाला कंपाउंड खरीदते हैं. गुटके के बिजनैस का कारोबार बढ़ने की वजह से ही पीयूष जैन को कन्नौज छोड़ कर कानपुर जाना पड़ा.

पीयूष जैन के पिता महेश चंद्र जैन कैमिस्ट की अच्छी जानकारी रखते हैं और उन का कारोबार भी इत्र से न जुड़ा हो कर कैमिस्ट की कंपाउंडिंग से जुड़ा हुआ है. पीयूष जैन के एक और भाई हैं अमरीश जैन. वे दोनों ही भाई कभी कन्नौज तो कभी कानपुर के घर पर रहते हैं. इन के पिताजी महेश चंद्र जैन ज्यादातर कन्नौज के मकान में रहते हैं.

50 साल के पीयूष जैन एक बहुत ही लोप्रोफाइल बिजनैसमैन हैं, जो एक आम जिंदगी बिताते हैं. वे अभी भी स्कूटर पर चलते हैं. उन के घर से सोना और नकदी बरामद होने के बाद और टैक्स चोरी के आरोप में कोर्ट ने उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया है.

जब पीयूष जैन के कानपुर वाले घर पर डीजीजीआई टीम की छापेमारी हुई, उस के बाद से उन का संबंध समाजवादी पार्टी और कन्नौज से समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन से जोड़ा जाने लगा. ऐसे में जब इस बात की पड़ताल की गई, तो पता चला कि पीयूष जैन और पुष्पराज जैन का आपस में कोई संबंध नहीं है. बस, इतना ही संबंध है कि वे दोनों एक ही जगह महल्ला छिपट्टी के रहने वाले हैं. वे दोनों जैन हैं और इत्र कारोबारी भी हैं. उन की आपस में न तो कोई रिश्तेदारी है और न ही कोई राजनीतिक संबंध.

समाजवादी इत्र को पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन ने लौंच किया था. इस से पीयूष जैन का कोई संबंध नहीं था. 60 साल के पुष्पराज जैन को कन्नौज में ‘परोपकारी’ और ‘राजनेता’ कहा जाता है. उन के पास एक पैट्रोल पंप और कोल्ड स्टोरेज यूनिट है. वे खेतीबारी से भी कमाई करते हैं और उन के पास मुंबई में भी घर और दफ्तर हैं. पुष्पराज जैन को साल 2016 में इटावाफर्रुखाबाद से एमएलसी के रूप में चुना गया था. वे प्रगति अरोमा औयल डिस्टिलर्स प्राइवेट लिमिटेड के सहमालिक हैं. उन के इस बिजनैस की शुरुआत उन के पिता सवाई लाल जैन ने साल 1950 में की थी.

पुष्पराज जैन और उन के 3 भाई कन्नौज में कारोबार चलाते हैं और एक ही घर में रहते हैं. उन के 3 भाइयों में से 2 भी मुंबई औफिस में काम करते हैं, जबकि तीसरा भाई उन के साथ कन्नौज में मैन्युफैक्चरिंग सैटअप पर काम करता है.

साल 2016 में पुष्पराज जैन के चुनावी हलफनामे के मुताबिक, पुष्पराज और उन के परिवार के पास 37.15 करोड़ रुपए की चल संपत्ति और 10.10 करोड़ रुपए की अचल संपत्ति है. उन का कोई आपराधिक रिकौर्ड नहीं है और उन्होंने कन्नौज के स्वरूप नारायण इंटरमीडिएट कालेज में 12वीं जमात तक पढ़ाई की है.

इन का है समाजवादी इत्र

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ‘इत्र नगरी’ कन्नौज से सांसद होने का सफर शुरू किया तो उन के साथ इत्र कारोबारी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी पार्टी में शामिल हो गए और धीरेधीरे उन की गिनती अखिलेश यादव के करीबी नेताओं में होने लगी. इस के बाद उन्होंने समाजवादी इत्र का निर्माण कर उसे लौंच किया और पार्टी से एमएलसी का चुनाव लड़ कर जीत हासिल की.

पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन शुरू से ही अपने पुश्तैनी घर पर रहे हैं और घर के पास ही इत्र का कारखाना लगाए हुए हैं, जहां से इत्र तैयार हो कर देशविदेश में भेजा जाता है.

पीयूष जैन के घर हुई छापेमारी के बाद पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन भी सुर्खियों में आ गए. भाजपा के लोगों ने पीयूष जैन को ही समाजवादी पार्टी का नेता बताना शुरू कर दिया, तो अखिलेश यादव ने उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि भाजपा ने पुष्पराज उर्फ पंपी जैन के घर छापा मारने के लिए कहा था, पर अफसर गलती से पीयूष जैन के घर पर छापा मार बैठे. पीयूष जैन के घर जो काला धन मिला है, उस से सपा का कोई मतलब नहीं है. यह सारा पैसा भाजपा के नेताओं का है. अफसरों की गलती से भाजपा का सच बाहर आ गया है.

अखिलेश यादव ने दावा किया कि भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार का असली निशाना पुष्पराज जैन थे, जिन्होंने हमारे लिए परफ्यूम बनाया था. उन्होंने (भाजपा) मीडिया के जरीए विज्ञापन दिया कि जिस पर छापा मारा गया, वह आदमी सपा का है. बाद में लोग सम?ा गए कि सपा के एमएलसी का इस से कोई लेनादेना नहीं है. भाजपा के लोग ‘सपा के इत्र कारोबारी पर छापा’ को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगे. यह सब ‘डिजिटल इंडिया’ की गलती की तरह लग रहा था.

काले धन पर प्रधानमंत्री का निशाना

समाजवादी पार्टी को बदनाम करने के लिए काले धन के आरोपी पीयूष जैन को सपाई नेता साबित करने की लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कूद पड़े. नरेंद्र मोदी का भाषण देश के प्रधानमंत्री का भाषण होता है. इस के तथ्यों में गलतियां नहीं होनी चाहिए. पीयूष जैन और पुष्पराज जैन के बीच के फर्क को पीएमओ के लोग भी नहीं समझ पाए या उत्तर प्रदेश में चुनावी फायदे के लिए इस फर्क को जानबूझ कर मिटाने का काम किया गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष जैन के घर हुई छापेमारी का इशारे से जिक्र किया, जिस में 194 करोड़ रुपए से ज्यादा की नकदी बरामद हुई है और समाजवादी पार्टी पर सत्ता में अपने कार्यकाल के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में ‘भ्रष्टाचार का इत्र’ छिड़कने का आरोप लगाया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीयूष जैन पर मारे गए छापे का जिक्र किया और कहा कि उन्होंने (सपा) साल 2017 से पहले पूरे उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार की इत्र बिखेर दी थी, जो सभी के सामने है, मगर अब वे अपना मुंह बंद रखे हुए हैं और के्रडिट लेने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं. नोटों का पहाड़, जिसे पूरे देश ने देखा है, यही उन की उपलब्धि और हकीकत है.

झूठ को सच में बदलने के लिए छापेमारी

बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस भाषण की आलोचना होने लगी. समाजवादी पार्टी ने भाजपा के इस झूठ को मुद्दा बना लिया. इस के बाद अचानक समाजवादी पार्टी के एमएलसी पुष्पराज जैन उर्फ पंपी जैन के कारोबारी ठिकानों पर भी इनकम टैक्स वालों की छापेमारी होने लगी. इस को अखिलेश यादव ने पकडे़ गए झूठ को सच में बदलने की कोशिश बताया.

सपा नेता रामगोपाल यादव ने कहा कि जबजब चुनाव आता है, तो छापे मारने वाले अफसरों की गाडि़यों पर लिख दिया जाता है, ‘आल इलैक्शन ड्यूटी’. तो ये तो इलैक्शन ड्यूटी पर हैं. वे अपना काम कर रहे हैं. अगर वे प्रोफैशनली करना चाहते थे, तो चुनाव से ठीक पहले यह छापे क्यों मारे जा रहे हैं? इस से पहले क्या इनकम टैक्स विभाग सो रहा था? सरकारी एजेंसियां दबाव में भी काम कर रही हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को कितनी परेशानी उठानी पड़ी, पर जीत ममता की हुई, भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. उत्तर प्रदेश में भी यही होगा. जनता भाजपा को सबक सिखाने के लिए तैयार है.

पंजाब:  नवजोत सिंह सिद्धू  राजनीति के “गुरु”

सुरेशचंद्र रोहरा

पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और संपूर्ण देश में यह एक ऐसा प्रदेश है जहां प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नवजोत सिंह सिद्धू अपने ही सरकार को चैलेंज करते, पटखनी देते दिखाई देते हैं, और  बघिया उघरते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को ऐसा घेरते हैं, मानो, सिद्धू उन्हें फूटी आंख नहीं देखना चाहते मानो, सिद्धू प्रदेश अध्यक्ष नहीं कोई विपक्ष हों. दरअसल, जो राजनीति की नई मिसाल उन्होंने दिखानी शुरू की है उसका सार संक्षिप्त यही है कि आने वाले समय में पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सफलता संदिग्ध नहीं रही.

यक्ष प्रश्न यह है कि क्या यह सब कांग्रेस आलाकमान की सहमति से हो रहा है. जानबूझकर हो रहा है. पहली नजर में तो यह सब कांग्रेस के विपरीत मालूम पड़ता है मगर क्या इसमें कांग्रेस का हित है?

दरअसल,यह सब राजनीति के मैदान में देश कई दशक बाद देख रहा है. मजे की बात यह है कि यह सब कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका की नजरों के सामने हो रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का यह आपसी मल युद्ध पंजाब में कांग्रेस को रसातल की ओर ले जाएगा, तो इसका जिम्मेदार कौन है?

आज कांग्रेस के लिए देशभर में संक्रमण का समय नजर आ रहा है. कांग्रेस, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का ढोल पीट रही भाजपा के सामने निरंतर कमजोर होती चली जा रही है अथवा रणनीति के साथ कांग्रेस को खत्म करने का प्रयास चल रहा है. ऐसे में पंजाब जहां कांग्रेस की अपनी सरकार है और भाजपा तीसरे नंबर पर ऐसे में सवाल है कि आखिर कांग्रेस क्या अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है या यह एक रणनीति के तहत हो रहा है.

वस्तुत: पंजाब में जैसी परिस्थितियां स्वरूप ग्रहण कर रही हैं उसे राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि धीरे-धीरे कांग्रेस हाशिए की ओर जा रही है. इसका एकमात्र कारण प्रदेश की कमान संभाल रहे नवजोत सिंह सिद्धू हैं. एक सवाल और भी है कि क्या नवजोत सिंह सिद्धू जैसा राजनीति का खिलाड़ी जानबूझकर ऐसा कर रहा है. क्या कांग्रेस आलाकमान ने उसे जानते समझते हुए खुली छूट दे रखी है कि कांग्रेस को कुछ इस तरह खत्म करना है या फिर आज जो परिदृश्य है उसमें नवजोत सिंह सिद्धू कुछ ऐसा खेल खेलने वाले हैं जो 2022  विधानसभा चुनाव में नया गुल खिलाएगा और कांग्रेस पुनः सत्ता में आ जाएगी? प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से जिस तरीके से नवजोत सिंह सिद्धू घोषणाएं कर रहे हैं महिलाओं को गैस सिलेंडर देंगे और 2000 रूपए प्रति माह देंगे यह सब इसी राजनीति का हिस्सा है. इसका परिणाम यह निकल सकता है कि सिद्धू पंजाब में राजनीति के नए “गुरु” के रूप में स्थापित हो जाएंगे.

धज्जियां उड़ाते सिद्धू

कांग्रेस पार्टी के निर्णय की धज्जियां उड़ाते प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हर रोज चर्चा में हैं. दो दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने चुटकी लेते हुए कहा, “दूल्हे के बिना कैसी बारात?” उन्होंने पिछले उथल-पुथल के दिनों का जिक्र करते हुए कहा कि संकट से बचने के लिए एक सही “मुख्यमंत्री” जरूरी था.

दरअसल, जब कांग्रेस आलाकमान ने यह स्पष्ट कर दिया  कि पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव सामूहिक रूप से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जो कांग्रेस का “दलित चेहरा” हैं के अलावा प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू (जाट चेहरा) और पूर्व पीपीसीसी प्रमुख सुनील जाखड़ (हिंदू चेहरा) के सामुहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो अपने स्वभाव या कहें रणनीति के तहत नवजोत सिंह सिद्धू चुप नहीं बैठे और जो कहना था कह डाला.

नवजोत सिंह सिद्धू ने बेअदबी मामले की जांच किए जाने में हुई देरी पर भी  मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी पर निशाना साध दिया. सिद्धू ने कहा – हर कोई घोषणा करता है, लेकिन यह संभव नहीं है. राजकोषीय घाटा देखिए. आर्थिक स्थिति के अनुसार घोषणा की जानी चाहिए.

कुल जमा नवजोत सिंह सिद्धू के तेवर अपने आप में चर्चा का विषय बन गए हैं क्योंकि कांग्रेस में वर्तमान समय में यह परिपाटी नहीं रही है कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध जाकर  सार्वजनिक बयान किया जाए. मगर सिद्धू हर रोज कुछ न कुछ ऐसा कहते हैं जो विपक्ष नहीं कह पाता. इस तरह पंजाब में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ही विपक्ष की भूमिका भी निभा रहे हैं और सारा देश चटकारे ले करके यह सब देख सुन रहा है. आगामी विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी नंबर 1 और नवजोत सिंह सिद्धू नंबर दो पर रहेंगे. अर्थात क्या कांग्रेस की सरकार की वापसी होगी इस रणनीति के पीछे काम हो रहा है या फिर अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी में जिस तरह नगर निगम चुनाव में बढ़त हासिल की है चुनाव में भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ कर बाजी मार ले जाएगी यह सब समय के गर्भ में है.

एक टीवी चैनल के घोषणा पत्र में नवजोत सिंह सिद्धू ताल ठोक कर कह रहे हैं कि पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी को क्या उन्होंने  बनाया है, नहीं, राहुल गांधी ने बनाया है.

कुल मिलाकर सार यह है कि सिद्धू चाहे जितना पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को राजनीति के तहत हाथों हाथ लेते हैंपर उसके पीछे सत्ता का संधान ही लक्ष्य है. देखना यह है कि अब पंजाब की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है.

प्रधानमंत्री सुरक्षा और फ़िल्मी कहानियां

सुरेशचंद्र रोहरा

नरेंद्र दामोदरदास मोदी प जब पंजाब गए  और वहां मौसम खराब होने के बाद जिस तरह उन्होंने रैली स्थल पर पहुंचने का प्रयास किया. इस बीच जो नौटंकी हुई वह सारे देश ने देखी है.

अब सवाल है सिर्फ प्रधानमंत्री की सुरक्षा के कथित हवाओं में उठे सवाल का, इसका जवाब शायद देश के उच्चतम न्यायालय के पास ही होगा या फिर देश की जनता के पास.

लाख टके का सवाल यह है  कि क्या वाकई हमारे देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा पंजाब में खतरे में पड़ गई थी. या फिर यह सब एक चुनावी ड्रामा मात्र है.

दरअसल, आज देश में  बड़े लोग बड़ी नौटंकियां खेलते हैं.हर छोटी-बड़ी बात को नाटकीयता के साथ प्रदर्शित करना क्या देश हित में है ? और शोध का विषय यह है कि जब से नरेंद्र दामोदरदास मोदी राजनीति के केंद्र में आए हैं ऐसा बारम बार कैसे हो जाता है. हमें यह भी याद रखना है कि 5 जनवरी के घटना क्रम के सप्ताह भर के भीतर ही चुनाव आयोग ने पंजाब सहित पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा कर दी है. इससे चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत और भी सजीव होकर हमारे सामने हैं.  आज देश की हर राजनीतिक पार्टी की  निगाह इन चुनावों पर है. और यह भी तथ्य सार्वजनिक है कि पांच राज्यों में चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी लगभग 50% महत्वपूर्ण राजनीतिक जगहों पर अपनी पहुंच दिखा और सभाएं ले चुके थे.

यह सबसे बड़ी हास्यास्पद स्थिति है कि कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री पर पाकिस्तान की तोपें चल जाती तो . जब पाकिस्तान वैसे ही छप्पन इंच से घबराया हुआ है तो भला वह क्या तोप चलाता और इस तरह का कायराना हमला पाकिस्तान या कोई भी देश भला क्यों करेगा.

कुल मिलाकर फिल्मों में जिस तरह कहानियां बनती हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सुरक्षा को लेकर भी कहानियां बुनी गई  हैं जो देश की राजनीति उबाल का बयास‌ बन गई है.

चुनाव रैली और यू टर्न

निसंदेह यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी बात का बतंगड़ बनाने में और बिगड़ी बात को बनाने में महारथी है.

चाणक्य ने जो जो कहा है शायद प्रधानमंत्री  ने उसे पूरी तरीके से घोट करके पी लिया है.

इसीलिए 5 जनवरी को जब सड़क मार्ग से भी आगे बढ़ रहे थे और किसानों ने रास्ता रोका हुआ था तो उन्होंने जो कुछ कहा और किया उससे देश की राजनीति में एक जलजला सा आ गया. अगरचे  प्रधानमंत्री  कुछ भी नहीं करते और शालीनता पूर्वक वापस आ जाते तो शायद पंजाब और देश की पांच राज्यों के मतदाताओं पर ज्यादा गहरा असर पड़ता  उन्होंने अपनी यात्रा को सुरक्षा से जोड़कर जो यू-टर्न लिया उससे राजनीति में तो उबाल आ गया है मगर अब मतदाताओं के बीच सकारात्मक संदेश नहीं गया.

अखबारों और टीवी पर चाहे यह मामला कितना ही सुर्खियां बटोरता रहे मगर आम मतदाता तो यह मानने को तैयार नहीं की प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई सेंध लग गई.

उनके सड़क मार्ग से जाने, और जब गंतव्य स्थल तक नहीं पहुंच पाए तो राजनीति शुरू हो गई . अगर आप रैली में पहुंच जाते हैं तो कोई राजनीति नहीं होती! यह प्रश्न कोई नहीं उठाता की प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध लगी है. अपने ही देश की धरती में अपने ही किसानों जनता के बीच सुरक्षा का यह सवाल खड़ा करना बहतों की समझ से परे है. शायद यही कारण है कि आज प्रधानमंत्री की सुरक्षा का मामला देश की सर्वोच्च अदालत उच्चतम न्यायालय  की देहरी तक पहुंच चुका है.

चुनाव और नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की भाजपा के लिए एक खासियत या फिर कहें लोक तंत्र के लिए सबसे बड़ी कमी यह है कि आप प्रधानमंत्री रहते हुए भी एक साधारण भाजपा कार्यकर्ता की तरह पार्टी के लिए वोट जुटाना चाहते हैं.जबकि यह भूल जाते हैं कि आप आज इस देश के प्रधानमंत्री हैं और एक गरिमामय पद पर हैं.

यही कारण है कि पंजाब सहित पांच राज्यों के महत्वपूर्ण चुनाव में प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी एक स्टार प्रचारक की भांति भारतीय जनता पार्टी का प्रचार अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं. और ऐसे में पंजाब में जो कुछ ड्रामा हुआ उसका सीधा संबंध चुनाव से है जिस तरह संवेदनशील मुद्दा बना दिया गया कल को जब इस गुब्बारे से हवा निकलेगी तो क्या होगा?

गरीब बच्चों को क्यों नहीं पढ़ने देते?

गरीब और अनपढ़ लोगों से जब उन के बच्चों को स्कूल भेजने और पढ़ाने की बात कही जाती है, तो उन का यही जवाब होता है, ‘इन को कौन सा पढ़लिख कर कलक्टर बाबू बनना है. पढ़ाईलिखाई बड़े और पैसे वालों के लिए होती है. स्कूल जा कर समय खराब करने से अच्छा है कि मेहनतमजदूरी कर के दो पैसे कमाए जाएं. इस से घरपरिवार की मदद हो सकेगी. लड़की को दूसरे घर जाना है. पढ़ालिखा कर क्या फायदा?’

गरीब अनपढ़ लोगों को अपने हकों का पता नहीं होता है. पौराणिक किताबों और कहानियों में यह बारबार कहा गया कि दलित तबके के लिए पढ़ाईलिखाई नहीं है.

इस का असर यह है कि गरीब अनपढ़ अपने बच्चों को पढ़ने नहीं देते. बच्चे पढ़ सकें, इस के लिए जरूरी है कि मांबाप भी सजग हों और वे बच्चों को स्कूल भेजें, पर पौराणिक कहानियों ने हमारे दिमाग पर ऐसा असर किया है कि मांबाप जागरूक ही नहीं होना चाहते हैं.

आज भी एससी और एसटी तबके में लड़कों की पढ़ाईलिखाई तो खराब है ही, लड़कियों की पढ़ाईलिखाई और भी ज्यादा खराब हालत में है. 5वीं जमात के बाद स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में

यह तादाद सब से ज्यादा है. तकरीबन 42 फीसदी लड़कियां 5वीं जमात के बाद, 67 फीसदी लड़कियां 8वीं जमात के बाद और 77 फीसदी लड़कियां 10वीं जमात के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं.

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ऊंची तालीम में भी दलित तबके की लड़कियों की तादाद सब से कम है. आदिवासी और दलित तबके में लड़कियों की पढ़ाईलिखाई की हालत बहुत बुरी है. इस की सब से बड़ी वजह है कि 8वीं जमात के बाद लड़कियों को घर के कामकाज में ?ांक दिया जाता है, वहीं 10वीं जमात तक आतेआते ज्यादातर लड़कियों की शादी हो जाती है. यह भी देखा गया है कि जब लड़कियां पढ़लिख लेती हैं, तो वे घरपरिवार और समाज को मदद करने के लायक हो जाती हैं.

तालीम से दूर बड़ी आबादी

जब गरीब और अनपढ़ लोगों की बात होती है, तो उस में सब से बड़ा हिस्सा एससी और एसटी तबके का है. इन्हें दलित या अछूत कहा जाता है. ये लोग भारत की कुल आबादी का 18 से 20 फीसदी हैं.

साल 1850 से साल 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबेकुचले तबके के नाम से देखती थी. इन की कुल आबादी 32 करोड़ के करीब मानी जाती है. यह भारत की आबादी का एकचौथाई हिस्सा है.

पौराणिक जमाने से आज तक दबेकुचले तबके के साथ भेदभाव होता आ रहा है. इन को सब से ज्यादा पढ़ाईलिखाई के हक से दूर रखा जाता है. सदियों से इस तबके के मन में एक बात अंदर तक बैठ गई है कि पढ़ाईलिखाई पर इन लोगों का हक नहीं है.

सरकार ने संविधान के मुताबिक तालीम देने का इंतजाम तो कर दिया, लेकिन सरकारी तालीम का बुरा हाल कर दिया, जिस की वजह से सरकारी स्कूल में पढ़ने के बाद भी ये लोग सामान्य वर्ग का मुकाबला करने में बहुत पीछे हो जा रहे हैं.

1931-32 में गोलमेज सम्मेलन के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने ऐसे लोगों के लिए अलग सूची बनाई, जिस से उन के लिए अलग सरकारी योजनाओं को चला कर उस का फायदा उन को दिया जा सके.

आजादी के बाद संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया, जिस में भारत के 29 राज्यों की 1,108 जातियों के नाम शामिल किए गए थे. ऊंचनीच के हिसाब से यह समाज तमाम बिरादरी और जातियों में बंटा है.

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तकरीबन 2000 साल से चली आ रही जातीय व्यवस्था को आजादी के 70 सालों के बाद भी खत्म नहीं किया जा सका है. किसी न किसी रूप में यह कायम है. इन को कमजोर करने के लिए जातीय व्यवस्था के भीतर जातियों का बंटवारा किया जा रहा है, जिस से राजनीतिक दबाव को कम किया जा सके.

कमजोर पड़ते दलित मुद्दे

डाक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे नेताओं ने पढ़ाईलिखाई को पूरी अहमियत दी थी. दलित आंदोलन को शुरू कर के उन को हक और पहचान दिलाने के लिए काम किया. 20वीं सदी की शुरुआत में दलितों की सामाजिक, तालीम और माली तौर पर हालत बेहद खराब थी. डाक्टर भीमराव अंबेडकर की अगुआई में दलित आंदोलन से दलितों को कुछ फायदे हुए.

आजादी मिलने के बाद यह आंदोलन राजनीतिक सत्ता पाने में लग गया, जिस के चलते दलित जातियां तमाम बिरादरी में बंट कर कमजोर हो गई हैं, जिस से उन का दबाव कम हो गया है. इस वजह से आरक्षण का विरोध करने वाले लोग अब आरक्षण को खत्म करने की मांग करने लगे हैं.

शासन व्यवस्था के हर दर्जे में कुछ सीटें दलितों के लिए आरक्षित होती हैं. इस का फायदा अब दलितों के एक वर्ग में ही बांटा जा रहा है. सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भी दलितों के लिए आरक्षण होता है.

आजादी के बाद बने भारत के संविधान में दलित हितों के संरक्षण के लिए ये व्यवस्थाएं की गई हैं. 70 साल के बाद भी ये आधीअधूरी ही हैं. दलितों के एक खास तबके तक ही फायदा पहुंच पा रहा है.

अहमियत को नहीं समझ रहे

यह सही है कि दलितों का एक तबका पढ़लिख कर आगे बढ़ गया है. इस ने अपने रोजगार भी शुरू कर लिए हैं. दलित इंडियन चैंबर औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री भी बन गई है. इस के बाद अभी भी दलितों का एक तबका बहुत पीछे है.

आरक्षण की नीति उन्हीं को फायदा पहुंचाती आ रही है, जो इस का फायदा ले कर आगे बढ़ चुके हैं. दलितों में एक छोटा तबका ऐसा तैयार हो गया है, जो अमीर है. यह दलितों की आबादी का महज 10 फीसदी है.

दलितों का यह तबका सामाजिक तौर पर खुद को ऊंचे दर्जे का सम?ाने लगा है. इस का बाकी दलित आबादी से कोई सरोकार नहीं रह गया है.

शहरों की बात छोड़ दें, तो गांव में एक बड़ा तबका ऐसा है, जो अभी भी पढ़ाईलिखाई के चलते तरक्की से कोसों दूर है. गांव के ऐसे लोग केवल मजदूर बने हुए हैं, क्योकि दलित भूमिहीन हैं. ऐसे में नौकरी और खेती उन के पास नहीं हैं. वे केवल सरकारी सुविधाओं पर आश्रित हो गए हैं. वे खुद कुछ करना नहीं चाहते, जिस की वजह से उन की तरक्की नहीं हो पा रही है.

वे ‘वोटबैंक’ राजनीति का शिकार हो गए हैं. जमीन के मालिक न होने के बावजूद दलित भूमिहीन मजदूर और सीमांत किसान की तरह नजर आता है. दलितों के पास जो थोड़ीबहुत जमीन है, गरीबी के चलते वह भी बिकती जा रही है.

काम नहीं आ रहे संविधान के हक

सरकारी स्कूलों में आज दलितों की तादाद दूसरी जातियों के मुकाबले ज्यादा है, लेकिन जैसेजैसे पढ़ाई आगे बढ़ती है, यह तादाद कम होती जा रही है. ये लोग सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जहां पढ़ाई का लैवल ज्यादा अच्छा नहीं होता.

इस वजह से इन को रोजगार भी घटिया दर्जे का ही मिलता है. जैसेजैसे आरक्षित नौकरियां और रोजगार के दूसरे मौके कम हो रहे हैं, वैसेवैसे इस तबके की निराशा और भी ज्यादा बढ़ती जा रही है.

साल 1997 से साल 2021 के बीच सरकारी नौकरियों में लाखों की कमी आई है, जिस की वजह से दलितों में भी रोजगार घटा है.

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संविधान ने दलितों को जो हक दिए हैं, वे उतने काम नहीं आ रहे जितना उम्मीद की जा रही थी. मिसाल के रूप में छुआछूत को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद यह आज तक कायम है. तमाम योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन उन का फायदा नहीं मिल रहा.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि दलित संगठन अब समाज में जागरूकता का काम करने की जगह राजनीति के जरीए सत्ता पाने में लग गए हैं.

वोट पाने के लिए अलगअलग तबके के लोगों को भी साथ लेना पड़ता है, जिस के चलते केवल दलित जागरूकता पर काम करना मुश्किल हो जाता है. इस की वजह से दलित मुद्दे कम होते जा रहे हैं. दलितों के लिए काम करने वाले दलों को भी दलित समाज की जगह सर्वसमाज की बात करनी पड़ रही है.

आज जरूरत इस बात की है कि गरीब और अनपढ़ लोग खुद सजग हों. अपने बच्चों को पढ़ने भेजें. जब वे पढ़लिख कर सम?ादार हो जाएंगे, तो अपना अच्छाबुरा सम?ाने लगेंगे.

जो लड़कियां स्कूल जाती हैं, वे कम उम्र में शादी नहीं करना चाहती हैं. वे अनपढ़ लोगों से बेहतर सोचती हैं. अपना और परिवार दोनों का भला करती हैं. इस वजह से गरीब और अनपढ़ लोगों को यह भूल जाना चाहिए कि पढ़लिख कर कौन सा कलक्टर बनना है. पढ़लिख कर ही अपने हक पता चल सकते हैं. वह जिंदगी में तरक्की का रास्ता है. अनपढ़ रह कर मजदूरी करने से अच्छा है कि पढ़लिख कर कोई हुनरमंद काम करें. इसी से जिंदगी में इज्जत मिलेगी.

ओमिक्रान और हमारी  निठल्ली सरकार!

पहली सुर्खी-

-अमेरिका, ब्रिटेन, चीन कई देशों में ओमिक्रान वायरस फैलता चला जा रहा है.

दूसरी सुर्खी-

भारत में भी कहीं-कहीं ओमिक्रान वायरस फैल रहा है अलर्ट जारी.

तीसरी सुर्खी – भारत में भी स्वास्थ्य विभाग ओमिक्रान

वायरस पर पैनी निगाह रखे हुए हैं रात का कर्फ्यू का राज्यों को सुझाव.

कोरोना की दो लहरें  हमारे देश और सारी दुनिया ने देखी हैं. जिसका डर था अपना स्वरूप बदल कर के कोरोना ने  के रूप में दुनिया को हलाकान शुरू कर दिया है. सारी दुनिया के चेहरे पर चिंता की  लकीरें स्पष्ट देखी जा सकती है. ऐसे में भारत में सब कुछ वैसा ही चल रहा है जैसा कि सामान्य दिनों में. हाल ही में विवाह उत्सव संपन्न हुए हैं उनमें ना तो किसी प्रोटोकॉल का पालन किया  गया और नहीं कहीं समझदारी दिखाई दी. यही नहीं केंद्र और राज्य सरकारें भी पूरी तरीके से आंख मूंदे हुए दिखाई दी. लोगों में जो एक जागरूकता मास्क को लेकर की होनी चाहिए वह भी कहीं दिखाई नहीं दी. यहां तक कि हमारे राजनेता सरकार में बैठे हुए नुमाइंदे प्रशासन में बैठे हुए अधिकारियों से जो सूझबूझ और जागरूकता की अपेक्षा थी वह भी कहीं नजर नहीं आई. ऐसे में यह सवाल आज फिर उठ खड़ा हुआ है कि कोरोना की भयंकर विभीषिका देखने के बाद भी अगर हमारे राजनेता सत्ता में बैठे हुए लोग अगर उदासीन हैं तो फिर दोषी कौन है.

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आज हम इस रिपोर्ट में यह महत्वपूर्ण मसला आपके समक्ष रख रहे हैं केंद्र हो या राज्य सरकारें कोरोना के मामले में क्या आप उन्हें समझदारी का परिचय देते हुए देखते हैं. क्या आपको एहसास है की सरकारी आखिर क्यों कुंभकरण निद्रा में सोए हुए हैं. और अगर कोरोना का यह दूसरा रूप ओमिक्रान

क्या गुल खिलाने जा रहा है और अगर अब इससे जन हानि होती है तो क्या  सरकार राज्य सरकारें और हमारे नेता जो निठल्ले बैठे हुए हैं दोषी नहीं माने जाएंगे.

देखते हुए भी आंखें बंद

आपको याद होगा कि जब कोरोना की पहली लहर आई थी प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने सब कुछ अपने हाथों में ले लिया और एक छत्र निर्णय लिया करते थे. सबसे पहले उन्होंने ही टेलीविजन पर आकर के अचानक ही लॉकडाउन का धमाका कर दिया था और सारे देश में हंगामा  बरपा हो गया था. दूसरी दफा जब आए तो खूब तालियां बजवाई दिए जलवाए. मगर उसके बाद जो हाहाकार मचा वह इतिहास में दर्ज हो चुका है.

हमारे देश में यही सबसे बड़ी खामी है कि हम लोग सब कुछ ईश्वर को छोड़ देते हैं, भाग्य पर छोड़ देते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर छुपा लेते हैं. हकीकत को नजरअंदाज करने के कारण भारत ने हमेशा बहुत ही तकलीफ है और कष्ट झेले हैं. आज लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद आज के आधुनिक युग में भी विज्ञान और जागरूकता को दरकिनार करते हुए हम शुतुरमुर्ग ही बने हुए हैं . कोरोना का बहु रुप ओमिक्रान धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैलता  चला जा रहा है. भारत की तैयारियों की बात करें तो देखते हैं कि सिर्फ बयानबाजी हो रही है. हम नजर रखे हुए हैं, हम राज्यों को सलाह दे रहे हैं, हम नाइट कर्फ्यू की बात कर रहे हैं. हम जमीनी हकीकत से बहुत दूर है हमें अपनी हॉस्पिटलों को जिस तरीके से तैयार करना चाहिए नहीं कर रहे हैं. देश की राजधानी दिल्ली से लेकर के किसी तहसील और गांव स्तर पर देखें तो कहीं भी कोई तैयारी हमें दिखाई नहीं देती. सिर्फ लोग इंतजार कर रहे हैं कि  ओमिक्रान चला आए और तब हम जागेंगे तब लोगों का इलाज करने का असफल प्रयास करेंगे और बाद में कहेंगे कि हमने बहुत कुछ किया.

दरअसल, सरकार में बैठे हुए हमारे निठल्ले नेता सिर्फ उद्घाटन और भूमि पूजन करने में पारंगत हैं. आज स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरीके से चुस्त-दुरुस्त करने का समय है उससे मुंह मोड़ा जा रहा है रात का कर्फ्यू लगा करके हमारे नेता हमारी सरकार क्या दिखाना चाहती है?

क्या ओमिक्रान वायरस रात को निकलता है? सरकार की सारी कवायद हंसी का पात्र है लोग अपने इन दिग्गदर्शक नेताओं पर हंसते हैं. कहते हैं धन्य हैं हमारे भाग्य विधाता!

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स्वास्थ्य इमरजेंसी अलर्ट क्यों नहीं

सीधी सी बात है- जब दुनिया भर में इस नए वायरस के आतंक से लोग परेशान हैं, लोग मर रहे हैं चर्चा का विषय बना हुआ है तो हमारे देश की सरकारी आंखें आंखें बंद करके क्यों सोई हुई है. क्यों नहीं देश में स्वास्थ्य हेल्थ इमरजेंसी अलर्ट कर दिया जाता. जिस तरीके से युद्ध के समय में देशभर में एक अलर्ट जारी कर दिया जाता है पूरी व्यवस्था देश की सुरक्षा में लग जाती है ऐसे में सब देखते समझते हुए भी स्वास्थ्य अलर्ट जारी नहीं करना अपने आप में एक गंभीर सवाल खड़ा करता है.  चाहिए कि देश का हर एक हॉस्पिटल इसके लिए तैयार किया जाए वहां बेड हो, गैस हो, वहां इस वायरस से मुकाबला करने के लिए सब कुछ सामान मेडिकल का उपलब्ध रहे. ताकि किसी की भी मृत्यु ना हो उसे इलाज मिल जाए. हमारे यहां नेता और सरकार प्रशासनिक अमला जानबूझकर के मानो अनदेखी कर रहा है और जब गांव गांव में घर घर में यह वायरस अपना आतंक दिखाना शुरू करेगा तब हक्का-बक्का यह शासन सिर्फ मीडिया में विज्ञापन जारी करना और बयान देने का काम करेगा.

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