लोक जनशक्ति पार्टी: बिहार में लगातार गिरती साख

जब से लोक जनशक्ति पार्टी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान नहीं रहे हैं, तब से यह पार्टी अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही है. बेटे चिराग पासवान ने कमान तो संभाल ली, पर वे अपना दबदबा कायम नहीं रख पाए हैं. पहले उन के एकलौते विधायक ने पार्टी छोड़ी, फिर देखादेखी एकलौते एमएलसी ने भी लोजपा से हाथ जोड़ लिए.

नतीजतन, अब बिहार में लोजपा का न विधायक रहा है, न ही एमएलसी. इस के पहले लोजपा के 208 नेताओं ने जनता दल (यूनाइटेड) का दामन थाम लिया. इस से चिराग पासवान की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं.

बिहार विधानसभा व विधानपरिषद का दरवाजा लोजपा के लिए बंद हो चुका है. अब बिहार की राजनीति में 2 ही गठबंधन पूरी तरह से आमनेसामने हैं. तीसरी पार्टी की कोई हैसियत नहीं रही. एक तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तो दूसरी तरफ महागठबंधन.

बिहार की सत्ता के केंद्र में नीतीश कुमार हैं, जो पिछले कई साल से मुख्यमंत्री की कुरसी पर कब्जा जमाए हुए हैं. वे राष्ट्रीय जनता दल के साथ भी और भारतीय जनता पार्टी के साथ भी मुख्यमंत्री बने, इसलिए बिहार की जनता उन्हें अब ‘कुरसी कुमार’ के नाम से भी जानने लगी है.

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जिस लोक जनशक्ति पार्टी को रामविलास पासवान ने खूनपसीने से सींचा था, आज वह धराशायी हो रही है. रामविलास पासवान की मौत के बाद पार्टी की कमान उन के बेटे चिराग पासवान के हाथ में है. पर चिराग पासवान और नीतीश कुमार की एकदूसरे से पटरी नहीं बैठती है. वे दोनों एकदूसरे को पसंद नहीं करते हैं.

बिहार विधानसभा के चुनाव में जद (यू) को चिराग पासवान की वजह से 25-30 सीटों का नुकसान हुआ था. नतीजतन, नीतीश कुमार चिराग पासवान से खफा हैं. वे हर हाल में लोजपा को मटियामेट करना चाहते हैं.

यही वजह है कि उन्होंने लोजपा विधायक राजकुमार सिंह को अपने साथ कर लिया. एकमात्र एमएलसी नूतन सिंह भी वर्तमान राजनीतिक हालात देखते हुए भाजपा में शामिल हो गईं. नूतन सिंह के पति नीरज सिंह भाजपा कोटे से नीतीश सरकार की कैबिनेट में मंत्री बनाए गए हैं.

लोजपा दलित जातियों की राजनीति करने का दावा करती है, पर उस के पार्टी नेताओं में दलितों की नुमाइंदगी कम रहती है. दलितों के नाम पर रामविलास पासवान के परिवार के सदस्य ही सांसद और पार्टी में प्रमुख पदों पर विराजमान हैं. यह रामविलास पासवान के जमाने से ही चला आ रहा है. चिराग पासवान भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चल रहे हैं.

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रामविलास पासवान राजनीति में मौसम वैज्ञानिक के रूप में जाने जाते थे. वे हवा के रुख को पहचान कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते थे, लेकिन चिराग पासवान में वह काबिलीयत नहीं है. चिराग पासवान बिहार में वोटकटवा बन कर रह गए हैं.

लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान अपनी डूबती सियासी नैया को दलितसवर्ण गठजोड़ के साथ बचाना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने बिहार प्रदेश लोजपा का कार्यकारी अध्यक्ष राजू तिवारी को बनाया है. चुनाव के बाद राज्य और जिलास्तरीय संगठन के पदाधिकारियों को चिराग पासवान ने भंग कर दिया था.

अब नए सिरे से दलितसवर्ण और पिछड़ी जातियों को संगठन से जोड़ कर पार्टी को मजबूत करने की कवायद तेज हो गई है. इस का नतीजा क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा.

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जातजमात की बैठकें- नेता बनने की जोर आजमाइश

लेखक- धीरज कुमार

बिहार सरकार ने घोषणा कर दी है कि साल 2021 के अप्रैल महीने में पंचायत चुनाव होंगे. हालांकि अभी तारीख तय नहीं की गई है, लेकिन ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि अप्रैलमई तक चुनाव करा लिए जाएंगे.

पंचायत चुनाव का बिगुल बजते ही गांवगांव में चुनाव की सरगर्मी तेज होने लगी है. लोग अपनेअपने कुनबे में चर्चा करने लगे हैं. साथ ही, कहींकहीं तो लोग जातीय बैठकें, सम्मेलन करना भी शुरू कर चुके हैं.

चुनाव आयोग ने घोषणा कर रखी है कि बिहार में पंचायत चुनाव ईवीएम मशीन से ही होंगे. सरकार ने इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन खरीदने के लिए 122 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं. ऐसा लग रहा था कि ईवीएम खरीद से संबंधित मामला कोर्ट में जाने के चलते इस बार भी सरकार बैलेट पेपर पर ही चुनाव कराएगी, लेकिन सरकार ने 90,000 इलैक्ट्रौनिक वोटिंग मशीन खरीदने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है.

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बिहार में पंचायती राज व्यवस्था में तकरीबन 6 पदों के लिए चुनाव किए जाने हैं. इन में जिला परिषद अध्यक्ष, पंचायत समिति प्रमुख, मुखिया, वार्ड सदस्य, पंच, सरपंच आदि पद शामिल हैं. इन जीते हुए प्रतिनिधियों में से जिला परिषद उपाध्यक्ष, उपमुखिया, पंचायत समिति उपप्रमुख आदि का चयन चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है.

राज्य चुनाव आयोग के मुताबिक, इस बार पंचायत चुनाव में लगभग 10 लाख लोग अपना हाथ आजमाएंगे. इन में तकरीबन 5 लाख लोग नए उम्मीदवार खड़े होने की उम्मीद है.

बिहार की 8,387 ग्राम पंचायतों में चुनाव किए जाने हैं, इसलिए पूरे राज्य में तकरीबन 8,387 पद पर मुखिया, पंच, सरपंच वगैरह उम्मीदवारों का चयन किया जाएगा.

तकरीबन 1,14,667 वार्ड सदस्यों का चयन किया जाएगा. पंचायत समिति सदस्यों के 11,491 पदों पर चुनाव किए जाएंगे, जबकि जिला परिषद सदस्यों के 1,161 पद के लिए चुनाव किए जाने हैं.

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बिहार में अभी पंचायत चुनाव में दूसरे राज्यों की तरह राजनीतिक पार्टियां अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करती हैं. अभी तक चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवार दलरहित और पार्टीरहित ही होते हैं.

वैसे देखा जाए तो काम तो कार्यरत सरकार के अधीन ही करना पड़ता है. कार्यरत सरकार ही उन के लिए योजनाएं वगैरह बनाती है, इसीलिए इस चुनाव में स्थानीयता का असर ज्यादा रहता है.

बिहार सरकार ने पंचायती राज में चुने हुए उम्मीदवारों का वेतन पहले से ही तय कर रखा है, जिस में जिला परिषद प्रमुख को 12,000 रुपए दिए जाते हैं, वहीं जिला परिषद उपाध्यक्ष और पंचायत समिति सदस्य को 10,000 रुपए मिलते हैं. पंचायत समिति उपाध्यक्ष को 5,000 रुपए दिए जाते हैं.

मुखिया, सरपंच, जिला परिषद सदस्यों को 2,500 रुपए मासिक वेतन के रूप में मिलते हैं. उपमुखिया और उपसरपंच को 1,200 रुपए दिए जाते हैं.
पंचायत समिति सदस्य को 1,000 रुपए तय किए गए हैं. वार्ड सदस्य और पंच को 500-500 रुपए हर महीने दिए जाते हैं.

बिहार के रोहतास जिले के डेहरी ब्लौक की पहलेजा पंचायत के वर्तमान मुखिया प्रमोद कुमार सिंह का कहना है, ‘‘सरकार ने भले ही पंचायत प्रतिनिधियों का वेतन तय कर दिया है, लेकिन वह उन्हें समय से वेतन नहीं देती है. अभी भी मुखिया और वार्ड का पैसा तकरीबन डेढ़ साल से बकाया है.

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‘‘दरअसल, मुखिया को जो अनुदान अपने क्षेत्र में काम कराने के लिए मिलता है, उस का 80 फीसदी वार्ड सदस्यों के खाते में ट्रांसफर करना होता है यानी पंचायत के 80 फीसदी काम वार्ड सदस्यों द्वारा किए जाते हैं. मुखिया बची हुई 20 फीसदी राशि का उपयोग अपने लैवल से काम कराने के लिए करता है.
‘‘वार्ड सदस्य जो काम करते हैं, उस के लिए मुखिया भी जिम्मेदार होता है. काम गलत होने या भ्रष्टाचार के दोषी पाए जाने पर सरकार वार्ड सदस्य के साथसाथ मुखिया को भी दोषी ठहराती है और मुखिया को भी जेल जाना पड़ सकता है, भले ही उस काम को मुखिया ने नहीं करवाया हो.

‘‘इस तरह देखा जाए तो वार्ड सदस्यों का कार्य विस्तार तो किया गया है, पर मुखिया के अधिकारों को सीमित करने का काम किया गया है.’’ हालांकि इस चुनावी मौसम में गली, नुक्कड़, सड़कें, बाजार आदि में चर्चाएं तेज हो गई हैं कि इस बार किस जाति के वोट कितने हैं और इस बार कौनकौन लोग खड़े होने के लिए तैयारी कर रहे हैं. इस बार कौनकौन से नए चेहरे शामिल होने वाले हैं वगैरह.

कुछ लोगों ने तो बैनर, पोस्टर, होर्डिंग लगवाने भी शुरू कर दिए हैं. कुछ तो कई महीने पहले से ही बैनरहोर्डिंग से त्योहारों में शुभकामनाएं देने लगे थे, फिर भले ही वे बैनर में अपना नाम भावी उम्मीदवार के रूप में लिखते थे.

कुछ लोग समाज की कमियां गिना कर खुद को खास साबित करना चाह रहे हैं. अभी कुछ लोग चुपकेचुपके एकदूसरे की जातिकुनबे का भी विश्लेषण कर रहे हैं. इस के साथ ही पुराने उम्मीदवारों के कामकाज की समीक्षा गांवसमाज में होने लगी है.

कुछ लोगों का मानना है कि कुछ उम्मीदवारों ने तो अच्छा काम किया है. इस चुनाव में उन को दोबारा आने का मौका दिया जा सकता है. पर वे लोग
जो 5 साल मिलने के बाद भी अपना काम ठीकठाक नहीं कर पाए, अपने गांवसमाज के लिए अच्छा काम नहीं कर पाए, आम लोगों को बरगलाते रहे और नेता बन कर सरकारी पैसा हड़पते रहे, वैसे लोगों का पत्ता साफ करने के लिए कुछ लोगों में सुगबुगाहट शुरू हो गई है.

रोहतास जिले के डेहरी ब्लौक के अर्जुन महतो सब्जी विक्रेता हैं. उन का कहना है, ‘‘गली, नाली, सड़कें, जल, नल योजना में प्रतिनिधियों द्वारा जो काम किया गया है, उस की क्वालिटी कितनी है और कैसी है, किसी से छिपी नहीं है. आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां नल लगे ही नहीं, जबकि कुछ ऐसे भी गांव हैं, जहां नल तो लगे, पर कुछ दिन में ही नल गायब हो गए.

‘‘अभी तक सरकार की घरघर स्वच्छ जल पहुंचाने की योजना अधूरी ही रह गई है. कहींकहीं जलनल योजना हाथी के दांत की तरह दिखावे की चीज बन गई है.’’
सरकार ने घोषणा कर रखी है कि जिन के पास चरित्र प्रमाणपत्र रहेगा, वही चुनाव में उम्मीदवार बनेंगे, इसलिए जिस तरह से एसपी दफ्तर में चरित्र प्रमाणपत्र बनवाने की भीड़ उमड़ रही है, लोगों ने कयास लगाना शुरू कर दिया है कि इस बार पंचायत चुनाव में नए लोगों की ऐंट्री काफी होगी. पुराने लोग तो जोरआजमाइश करेंगे ही, नए लोगों ने भी अपनी घुसपैठ के लिए कोशिश जारी कर दी है.

कल तक पंचायत चुनाव में ऊंचे तबके के लोगों का बोलबाला ज्यादा रहता था. निचले तबके के लोग चुनाव में खड़े होने की हिम्मत नहीं कर पाते थे. लेकिन सरकार ने पिछले चुनाव में खड़े होने के लिए पिछड़ी जाति के 26 फीसदी और एसटीएससी के 16 फीसदी लोगों के लिए आरक्षण लागू किया था.

इस बार भी पुरानी आरक्षण व्यवस्था पर ही चुनाव होंगे, इसलिए सामान्य जातियों के साथसाथ पिछड़ी जाति और एसटीएससी के लोग चुनाव में खड़े होने लगे हैं.

इस के साथ ही बिहार सरकार ने पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण तय किया है, जिस के चलते महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है. लेकिन आज भी महिलाएं नाममात्र की उम्मीदवार होती हैं. उन की आड़ में उन के पति या बेटे ही काम करते हैं.

उम्मीदवारों का अपनी जातजमात में आनाजाना, उठनाबैठना, बढ़चढ़ कर बातें करना शुरू हो गया है. उन्होंने अपने क्षेत्र में घूमनाफिरना शुरू कर दिया है. लोगों के घर शादीब्याह, जलसे वगैरह में जाना शुरू कर दिया है. लोगों में अपनी बात रखनी शुरू कर दी है, ताकि आने वाले चुनाव में उन्हें नेता बनने का मौका मिल सके.

औरंगाबाद के बारुण के रहने वाले 75 साल के रामबालक सिंह मुसकराते हुए कहते हैं, ‘‘चुनाव आते ही उम्मीदवार बड़ेबुजुर्गों को दंडवत प्रणाम करना शुरू कर देते हैं. वे अपनी जातजमात में बैठकें कर आने वाले चुनाव में उम्मीदवार बनने की सहमति और समर्थन हासिल करना चाहते हैं. चूंकि यह लोकल चुनाव होता है, इसलिए लोकल लैवल पर जातजमात के वोट और उन का साथ मिलना जीत की उम्मीद को बढ़ा देता है.’’

निचले तबके से ताल्लुक रखने वाले 65 साल के मोहन प्रसाद रोहतास जिले के डेहरी औन सोन में रहते हैं. एक समय था, जब उन्होंने अपने गांव में मुखिया उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने की कोशिश की थी.

उन का कहना है, ‘‘एक समय था, जब बिहार में निचले तबके के लोग कभी उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने से डरते थे, लेकिन बिहार में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री रहने के दौरान पिछड़ी जाति और निचले तबके के लोगों में आत्मविश्वास जगा और वे राजनीति में शिरकत करने लगे. आज इस बात को नीतीश कुमार भी स्वीकार करते हैं, तभी उन्होंने बिहार में आरक्षण भी लागू किया.

‘‘आज भी पिछड़ी जाति और निचले तबके में शिक्षा की कमी है, इसलिए वे अपने हक से अनजान हैं. आज भी इस तबके में जागरूकता की कमी है, जिस के कारण वे राजनीति से अपनेआप को दूर रखते हैं, जबकि ऊंची जाति के लोग आज भी हर क्षेत्र में आगे हैं.

‘‘दूसरी बात यह कि निचले तबके में गरीबी इतनी है कि वे राजनीति के बारे में सोच ही नहीं पाते हैं. गरीब बेचारा गरीबी से त्रस्त और रोटी के लिए दिनरात परेशान रहता है, तो भला वह राजनीति कहां से करेगा.’’

सब से बड़ी बात यह है कि चुनाव में वही लोग खड़ा होने की कोशिश कर रहे हैं, जो समाज के दबंग हैं, ऊंची जाति के लोग हैं, अपराधी सोच के हैं. समाज के पढ़ेलिखे और सम झदार लोग अपनेआप को राजनीति से दूर रख रहे हैं. यही वजह है कि समाज में बदलाव नहीं हो पा रहा है.

आज भी भ्रष्टाचार व अपराध हद पर है, इसलिए जरूरी है कि जो लोग समाज को नई दिशा दे सकते हैं, समाज में बदलाव ला सकते हैं, वैसे लोगों को राजनीति में जरूर शिरकत करनी चाहिए, तभी समाज की तसवीर बदल सकती है, वरना सिर्फ जातपांत की राजनीति की बात करने से कोई फायदा नहीं.

समाज को विकसित करने के लिए इस से ऊपर उठ कर विकास की बात करनी होगी, तभी समाज का भला होगा.

विधानसभा चुनाव : गूंजेगा हाथरस गैंगरेप

प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 15 सालों के सत्ता विरोधी मतों का ही सामना नहीं करना होगा, बल्कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में एससी तबके की लड़की के साथ हुए गैंगरेप का भी असर वहां पड़ेगा.

इस बात का अंदेशा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लग चुका था. जनता दल (यूनाइटेड) के नेता केसी त्यागी गैंगरेप और लड़की की लाश को आननफानन जलाने में तीखी प्रतिक्रिया देने वाले नेताओं में सब से आगे थे.

केसी त्यागी ने कहा था, ‘अगर बलात्कार और हत्या के मामले में कार्यवाही करने के लिए किसी प्रधानमंत्री को अपने मुख्यमंत्री को फोन करना पड़े तो इस से शर्मनाक कोई दूसरी बात नहीं हो सकती.’

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हाथरस की घटना को देखने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद भी इस बात का अंदाजा लग चुका था कि यह घटना बिहार चुनाव पर असर डाल सकती है. इस वजह से उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोन कर के पूरे मामले को खुद के लैवल पर देखने को कहा.

इस की सब से बड़ी वजह यह भी थी कि भाजपा बिहार चुनाव मोदी के चेहरे पर ही लड़ रही है. दलित लड़की से गैंगरेप और उस की लाश को जबरन जलाने के सवालों से मोदी को जोड़ा न जा सके, इस के चलते प्रधानमंत्री द्वारा हस्तक्षेप किया गया.

उत्तर प्रदेश और बिहार के हालात एकजैसे ही हैं. एससी तबके को सताने की घटनाएं वहां भी होती रहती हैं. 2007 से 2017 के बीच अपराध के आंकड़े बताते हैं कि बिहार इस तरह के मामलों में देश में तीसरे नंबर पर रहा. बिहार में भाजपा व जद (यू) के साझेदारी की सरकार है. बिहार में 2016 में अनुसूचित जाति के लोगों पर जोरजुल्म के 5,701 मामले दर्ज हुए.

बिहार में वोट डालने का सब से बड़ा आधार जाति होती है. भाजपा ने रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह राजपूत मामले में बिहार को उलझाने का काम किया, पर कुछ ही समय में यह मुद्दा दरकिनार हो गया. अब वहां 15 साल के सुशासन पर वोट पड़ने हैं. इन सालों के विकास का हिसाब देना जद (यू) और भाजपा को भारी पड़ेगा. एससी तबका सवर्ण और बीसी तबके के साथ खड़ा नहीं होना चाहता.

दरार से और बिगड़े हालात

बिहार में तकरीबन 16 फीसदी एससी हैं. इस में से 5 फीसदी सब से ज्यादा पासवान और 4 फीसदी वाल्मीकि वोट हैं. हाथरस में गैंगरेप की पीडि़ता लड़की इसी जाति की थी. उस के साथ इंसाफ को ले कर उत्तर प्रदेश के अलगअलग जिलों में वाल्मीकि समाज ने धरना और विरोध प्रदर्शन करना शुरू किया था.

जैसेजैसे बिहार में चुनाव प्रचार होगा, वैसेवैसे विपक्षी दल हाथरस कांड को मुद्दा बनाएंगे. यह बात समझ आने के बाद ही बिहार में राजग के सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने अपना रास्ता बिहार में अलग कर दिया. लोजपा बिहार में राजग के गठबंधन के साथ चुनाव नहीं लड़ रही है.

लोजपा नेता चिराग पासवान ने खुल कर कह दिया है कि वे केंद्र सरकार में भाजपा और राजग के साथ हैं, पर बिहार चुनाव में जद (यू) के चलते राजग गठबंधन में नहीं हैं.

बिहार भाजपा और जद (यू) दोनों का मत है कि चिराग पासवान के दोहरे फैसले का फायदा विरोधी दल उठाएंगे. इस आपसी लड़ाई में राजग को नुकसान हो जाएगा, इसलिए वे बारबार कह रहे हैं कि जो नीतीश के साथ नहीं वह राजग के साथ नहीं.

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तमाम दबाव के बाद भी चिराग पासवान नीतीश कुमार के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं. यही नहीं, चिराग का झुकाव राजद यानी राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव की तरफ होने से राजग को दलित वोटों की ज्यादा फिक्र होने लगी है.

एससी बनेंगे मुद्दा

बिहार के विधानसभा चुनाव में इस बार लालू प्रसाद यादव सामने नहीं हैं. इस के बाद भी उन के सामाजिक न्याय की लड़ाई मुख्य मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव को ‘शोषितों की असली आवाज’ और ‘सामाजिक न्याय के प्रतीक’ के रूप में देखा जाता है. वे भले ही पिछड़ी यादव जाति से हैं, पर बिहार में दलितों की गैरपासवान बिरादरी उन के साथ खड़ी होती रही है.

नीतीश कुमार ने महादलित आयोग का गठन कर के एससी तबके को रिझाने का काम भले ही किया हो, पर यह तबका कभी उन के साथ नहीं रहा है. नीतीश कुमार के लिए दलित ही नहीं, मुसलिम वोट बैंक भी परेशानी खड़ी करने वाला है. कश्मीर में धारा 370 के मुद्दे, राम मंदिर और नागरिकता कानून के चलते वह राजग के साथ खड़ा नहीं होगा. ऐसे में राजग के मुकाबले कांग्रेसराजद गठबंधन ज्यादा असरदार दिख रहा है.

बिहार में कोरोना के समय पलायन कर के आने वाला मजदूर तबका तकरीबन 40 लाख है, जिसे बिहार में कोई रोजीरोजगार नहीं मिला. उसे वापस बड़े शहरों की तरफ लौटना पड़ा. इन में बड़ी तादाद दलितों की है. उन को लग रहा है कि बीते 15 सालों में दलितों के हालात जस के तस ही हैं. हाथरस गैंगरेप मामले ने इस पर मुहर भी लगा दी है. जो बातें एससी तबका भूलने वाला था, वे उसे फिर से याद आ रही हैं.

नीतीश कुमार ने किया शर्मिंदा

जनता दल (यूनाइटेड) ने जिन 115 उम्मीदवारों  के नामों का ऐलान किया है, उन में से एक नाम कुख्यात मंजू वर्मा का भी है. मंजू वर्मा को नीतीश कुमार ने  चेरिया बरियारपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया है. ये वही मंजू वर्मा हैं, जो नीतीश सरकार में समाज कल्याण विभाग की मंत्री थीं  और जिन के कार्यकाल में पिछले साल मुजफ्फरपुर बालिका गृह बलात्कार कांड हुआ था. इस कांड ने बिहार में सरकारी संरक्षण में बच्चियों के साथ यौन हिंसा  और दरिंदगी का एक ऐसा भयावह सच उजागर किया था, जिसे जान कर समूचा देश हैरान रह  गया था.

इस कांड के उजागर होने के बाद मंत्री मंजू वर्मा पर इस्तीफे का दबाव बना था और आखिरकार उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इस पूरे मामले में कथित रूप से मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा के भी शामिल होने की बात सामने आई थी.

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जांच के दौरान पुलिस ने मंजू वर्मा के घर पर छापेमारी की थी, जहां से गैरकानूनी हथियार और कारतूस भी बरामद हुए थे. इस पूरे मामले में मंजू वर्मा और उन के पति को गिरफ्तार किया गया था और जेल जाना पड़ा था. हालांकि कुछ दिनों बाद कोर्ट से दोनों को जमानत मिल गई थी.

मंजू वर्मा को जद (यू) से एक बार फिर से टिकट दे कर नीतीश कुमार ने यह संकेत दे दिया है कि अगर वे फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं, तो मंजू वर्मा की अगुआई और संरक्षण में बिहार में बच्चियों के साथ रेप और जोरजुल्म बदस्तूर जारी रहेगा.

बिहार चुनाव में नौजवान चेहरों ने संभाली कमान

बिहार चुनाव में इस बार नौजवान चेहरों ने धूम मचा रखी है. राजद के तेजस्वी यादव और लोजपा के चिराग पासवान ने तो वर्तमान सत्ता पक्ष की नींद हराम कर दी है. सोशल मीडिया पर नौजवान तबका इस बार के चुनाव में बहुत ज्यादा जोश में है. उम्मीदवारों के साथ नौजवान कार्यकर्ता ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं.

प्लूरल्स पार्टी से इस बार पुष्पम प्रिया चौधरी नौजवान उम्मीदवार हैं. अखबारों में पहले पेज पर इश्तिहार दे कर वे खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी हैं. दिग्गज नेता अपना भविष्य अपने बच्चों में देखने लगे हैं. अपनी राजनीतिक विरासत अपने बच्चों को सौंपने लगे हैं. अपने बच्चों के मोहपाश में फंसे नेता अपने विचार और धारा दोनों भूल कर अपने बच्चों को सियासी गलियारे में उतार चुके हैं.

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पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव की पूरी राजनीति कांग्रेस के खिलाफ रही. वे समाजवादी नेता के रूप में पूरे देश में चर्चित रहे. वे लोकदल, जनता दल से ले कर जद (यू) तक में रहे और कांग्रेस की विचारधारा का विरोध करते रहे. लेकिन इस बार उन की बेटी सुभाषिनी कांग्रेस का दामन थाम कर बिहारीगंज से चुनाव मैदान में उतर चुकी हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान  का राजनीति में प्रवेश राजग के रास्ते हुआ. राजग के जरीए लोजपा से 2014 और 2019 में चिराग पासवान जमुई से सांसद बने. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने उसी राजग के खिलाफ बिगुल फूंक दिया है. जिस विधानसभा क्षेत्र से जद (यू) के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, चिराग पासवान वहां से लोजपा के उम्मीदवार खड़े कर चुके हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और फिल्म स्टार शत्रुध्न सिन्हा की राजनीति की शुरुआत भाजपा से हुई थी. वे भाजपा के स्टार प्रचारक रहे थे, लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा. उन की पत्नी पूनम सिन्हा 2019 का लोकसभा चुनाव लखनऊ से समाजवादी पार्टी से लड़ी थीं. इस बार उन के बेटे लव सिन्हा बांकीपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

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प्लूरल्स पार्टी की प्रमुख पुष्पम प्रिया चौधरी ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. अपनी पार्टी की वे मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार हैं. उन्होंने साफ कहा है कि चुनाव के बाद उन का किसी दल के साथ गठबंधन नहीं करेगा. उन के पिता विनोद कुमार चौधरी जद (यू) के पूर्व विधानपार्षद रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी 2015 में राजग के साथ रहे. उस के बाद वे महागठबंधन में चले गए. उन के बेटे संतोष कुमार सुमन को राजद ने विधानपार्षद बनाया. इस के बाद वे फिर राजग में शामिल हो गए. इस बार जीतन राम मांझी इमामगंज और उन के दामाद देवेंद्र मांझी मखदूमपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह पूरी उम्र राजद में रहे. वे राजद का प्रमुख चेहरा थे. अब उन के बेटे सत्यप्रकाश सिंह ने जद (यू) का दामन थाम लिया है. पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह हमेशा जद (यू) में रहे. उन के बड़े बेटे इस बार रालोसपा के टिकट पर जमुई से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि छोटे बेटे सुमित सिंह चकाई से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतर रहे हैं.

राजनीति की मलाई का स्वाद चख चुके नेता और उन के बच्चे इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं कि राजनीति से अच्छा किसी भी क्षेत्र में स्कोप नहीं है, इसलिए तो नेता अपने बेटाबेटी को जिस भी दल से जैसे भी टिकट मिले, दिला देते हैं और जैसे भी हो चुनाव जिता कर सत्ता सुख का फायदा जिंदगीभर उठाते हैं.

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यही वजह है कि सिद्धांत और अपनी विचारधारा पर अडिग रहने वाले लोग राजनीति की मुख्यधारा से किनारे होते जा रहे हैं.

मिथिला की बेटी ने उड़ा दी है नीतीश कुमार की नींद

बिहार में आजकल सियासी रोटी गरम है और हर छोटे बड़े नेता तवे पर रोटी रख गरमगरम बयान देने में कसर नहीं छोड़ रहे.

अब बिहार सहित देश के कई जगहों पर एक खबर ने अनायास ही बिहार की राजनीति में सनसनी फैला दी है और यह सनसनी कोई और नहीं लंदन से पढलिख कर आई एक आधुनिक युवती पुष्पम प्रिया चौधरी ने फैलाई है.

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दरअसल, बिहार के कई अखबारों में छपे एक विज्ञापन ने सब को चौंका दिया है. विज्ञापन में पुष्पम प्रिया चौधरी नाम की एक महिला ने खुद को बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बताया है. विज्ञापन के जरीए इस महिला ने बताया है कि उस ने ‘प्लूरल्स’ नाम का एक राजनीतिक दल बनाया है और वह उस की अध्यक्ष हैं.

महिला दिवस पर पेश की दावेदारी

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर जहां पूरा विश्व महिला सशक्तिकरण पर जोर देने की बात कर रहा था, पुष्पम प्रिया चौधरी ने बिहार के अखबारों में विज्ञापन देते हुए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की. अपनी पार्टी का नाम उन्होंने प्लूरल्स  दिया है जबकि ‘जन गण सब का शासन’ पंच लाइन दी है.

पुष्पम प्रिया ने विज्ञापन में बताया कि उन्होंने विदेश में पढ़ाई की है और अब बिहार वापस आ कर प्रदेश को बदलना चाहती हैं.

कौन हैं पुष्पम

इंगलैंड के द इंस्टीट्यूट औफ डेवलपमैंट स्टडीज विश्वविद्यालय से एमए इन डेवलपमैंट स्टडीज और लंदन स्कूल औफ इकोनोमिक्स ऐंड पोलीटिकल साइंस से पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन में एमए किया है. वह दरभंगा की रहने वाली हैं और जेडीयू के पूर्व एमएलसी विनोद चौधरी की बेटी हैं. फिलहाल वे लंदन में ही रहती हैं.

जनता से अपील

पुष्पम प्रिया चौधरी ने विज्ञापन में बिहार की जनता को एक पत्र भी लिखा है, जिस में उन्होंने कहा है कि अगर वह बिहार की मुख्यमंत्री बनीं  तो 2025 तक बिहार को देश का सब से विकसित राज्य बना देंगी और 2030 तक इस का विकास यूरोपियन देशों जैसा होगा.

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पिता ने कहा नैतिक समर्थन है

पुष्पम प्रिया के पिता विनोद चौधरी चूंकि जेडीयू नेता हैं इसलिए मीडिया ने उन्हें घेर कर उन की राय जाननी चाही. पिता विनोद चौधरी ने कहा,”मेरी बेटी विदेश में पढ़ीलिखी  है. वह बालिग है और उस की और मेरी सोच में फर्क स्वाभाविक है. वह जो भी कर रही है सोचसमझ कर कर रही होगी. एक पिता होने के कारण मेरा आशीर्वाद सदैव उस के साथ है.”

क्या बदलने वाली है बिहार की राजनीति

बिहार की राजनीति यों तो दबंगई की रही है और अपने इसी दबंगई से कभी यहां की सत्ता पर राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने एकतरफा राज किया था. उन्हें करिश्माई नेता के तौर पर भी जाना जाता था. अपने चुटीली बोल और ठेठ गंवई अंदाज में बोलने वाले लालू फिलहाल चारा घोटाले में जेल में हैं पर उन की अनुपस्थिति में पत्नी राबङी देवी, बेटा तेजस्वी और तेजप्रताप राजनीति की बागडोर संभाले हुए हैं. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में राजद का अपना वोट बैंक है, जो कभी भी निर्णायक साबित हो सकता है.

उधर बीजेपी से नाता जोङ कर सरकार चला रहे सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार के लिए आगामी चुनाव जीतना आसान नहीं होगा, क्योंकि अभी तक बिहार में जातिगत आधार पर वोट पङते हैं मगर बीजेपी सरकार द्वारा लागू कैब, बढती बेरोजगारी, बिगङते कानून व्यवस्था से बिहार की जनता हलकान है और इस बार बीजेपी+जेडीयू गंठबंधन वहां आसानी से सरकार बना लेगी, इस में संशय ही है.

प्रशांत किशोर का दांव

उधर कभी नीतीश के खास रहे प्रशांत  किशोर भी सुशासन बाबू को खूब चिढा रहे हैं. नीतीश का बीजेपी के समर्थन में बोलना प्रशांत किशोर को शुरू से ही खल रहा था. वे पार्टी में रहते हुए भी नीतीश कुमार की नीतियों का कई बार आलोचना कर चुके थे, सो नीतीश ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया.

राजनीति के जानकार बताते हैं कि प्रशांत नीतीश के लिए राह का रोङा बन सकते हैं.

जल्दी ही मशहूर हो गई हैं प्रिया

पुष्पम प्रिया चौधरी यों तो युवा चेहरा हैं और जल्दी लोकप्रिय भी हो गई हैं पर बिहार की राजनीति में अभी नई हैं. पर यह राजनीति है और कहते हैं कि राजनीति और क्रिकेट अनिश्चितताओं का होता है. ऐसे में दिल्ली की तरह वहां भी कोई नया समीकरण बन जाए क्या पता?

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यह तो वक्त ही बताएगा कि बिहार में किस की सरकार बनेगी पर मिथिला की इस बेटी ने सियासी तीसमारखाओं की नींद जरूर उङा दी है.

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