एक और बेटे की मां- भाग 1: रूपा अपने बेटे से क्यों दूर रहना चाहती थी?

मुन्ने के मासूम सवाल पर जैसे वह  जड़ हो गई. क्या जवाब दे वह?  सामने वाले फ्लैट में ही राजेशजी  अपनी पत्नी रूपा और मुन्ना के साथ रहते हैं. इस समय दोनों ही पतिपत्नी कोरोना पौजिटिव हो अस्पताल में भरती हैं. उन का एकलौता बेटा किशोर आया के साथ था.

आज वह आया भी काम छोड़ कर अपने घर भाग गई कि यहां जरूर कोई साया है, जो इस घर को बीमार कर जाता है. उस ने उसे कितना सम झाया कि ऐसी कोई बात नहीं और उसे उस छोटे बच्चे का वास्ता भी दिया कि वह अकेले कैसे रहेगा? मगर, वह नहीं मानी और चली गई. दोपहर में वही उसे खाना पहुंचा गई और तमाम सावधानियां बरतने की सलाह दे डाली. मगर 6 साल का बच्चा आखिर क्या सम झा होगा. आखिर वह मुन्ना से सालभर छोटा ही है.

मगर, मुन्ने का सवाल अपनी जगह था. कुछ सोचते हुए वह बोली, ‘‘अरे, ऐसा कुछ नहीं है. उस के मम्मीपापा दोनों ही बाहर नौकरी करने वाले ठहरे. शुरू से उस की अकेले रहने की आदत है. तुम्हारी तरह डरपोक थोड़े ही है.’’

‘‘जब किसी के मम्मीपापा नहीं होंगे, तो कोई भी डरेगा मम्मी,’’ वह बोल रहा था, ‘‘आया भी चली गई. अब वह क्या करेगा?’’

‘‘अब ज्यादा सवालजवाब मत करो. मैं उसे खानानाश्ता दे दूंगी. और क्या कर सकती हूं. बहुत हुआ तो उस से फोन पर बात कर लेना.’’

‘‘उसे उस की मम्मी हौर्लिक्स देती थीं. और उसे कौर्नफ्लैक्स बहुत पसंद है.’’

‘‘ठीक है, वह भी उसे दे दूंगी. मगर अभी सवाल पूछपूछ कर मु झे तंग मत करो. और श्वेता को देखो कि वह क्या कर रही है.’’

‘‘वह अपने खिलौनों की बास्केट खोले पापा के पास बैठी खेल रही है.’’

‘‘ठीक है, तो तुम भी वहीं जाओ और उस के साथ खेलो. मु झे किचन में बहुत काम है. कामवाली नहीं आ रही है.’’

‘‘मगर, मु झे खेलने का मन नहीं करता. और पापा टीवी खोलने नहीं देते.’’

‘‘ठीक ही तो करते हैं. टीवी में केवल कोरोना के डरावने समाचार आते हैं. फिर वे कंप्यूटर पर बैठे औफिस का काम कर रहे होंगे,’’ उस ने उसे टालने की गरज से कहा, ‘‘तुम्हें मैं ने जो पत्रिकाएं और किताबें ला कर दी हैं, उन्हें पढ़ो.’’

किचन का सारा काम समेट वह कमरे में जा कर लेट गई, तो उस के सामने किशोर का चेहरा उभर कर आ गया. ओह, इतना छोटा बच्चा, कैसे अकेले रहता होगा? उस के सामने राजेशजी और उन की पत्नी रूपा का अक्स आने लगा था.

पहले राजेशजी ही एक सप्ताह पहले अस्पताल में भरती हुए थे. और 3 दिनों पहले उन की पत्नी रूपा भी अस्पताल में भरती हो गई. अब सुनने में आया है कि वह आईसीयू में है और उसे औक्सीजन दी जा रही है. अगर उस के साथ ऐसा होता, तो मुन्ना और श्वेता का क्या होता. बहुत अच्छा होगा कि वह जल्दी घर लौट आए और अपने बच्चे को देखे. राजेशजी अपने किसी रिश्तेदार को बुला लेते या किसी के यहां किशोर को भेज देते, तो कितना ठीक रहता. मगर अभी के दौर में रखेगा भी कौन? सभी तो इस छूत की बीमारी कोरोना के नाम से ही दूर भागते हैं.

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वैसे, राजेशजी भी कम नहीं हैं. उन्हें इस बात का अहंकार है कि वे एक संस्थान में उपनिदेशक हैं. पैसे और रसूख वाले हैं. रूपा भी बैंककर्मी है, तो पैसों की क्या कमी. मगर, इन के पीछे बच्चे का क्या हाल होगा, शायद यह भी उन्हें सोचना चाहिए था. उन के रूखे व्यवहार के कारण ही नीरज भी उन के प्रति तटस्थ ही रहते हैं. किसी एक का अहंकार दूसरे को सहज भी तो नहीं रहने देता.

रूपा भी एक तो अपनी व्यस्तता के चलते, दूसरे अपने पति की सोच की वजह से किसी से कोई खास मतलब नहीं रखती. वह तो उन का बेटा, उसी विद्यालय में पढ़ता है, जिस में मुन्ना पढ़ता है. फिर एक ही अपार्टमैंट में आमनेसामने रहने की वजह से वे मिलतेजुलते भी रहते हैं. इसलिए मुन्ना जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो सोच रहा है. सोच तो वह भी रही है. मगर इस कोरोना की वजह से वह उस घर में चाह कर भी नहीं जा पाती और न ही उसे बुला पाती है.

शाम को उस के घर की घंटी बजी, तो उस ने घर का दरवाजा खोला. उस के सामने हाथ में मोबाइल फोन लिए बदहवास सा किशोर खड़ा था. वह बोला,  ‘‘आंटी, अस्पताल से फोन आया था,’’ घबराए स्वर में किशोर बोलने लगा, ‘‘उधर से कोई कुछ कह रहा था. मैं कुछ सम झा नहीं. बाद में कोई पूछ रहा था कि घर में कोई बड़ा नहीं है क्या?’’

वह असमंजस में पड़ गई. बच्चे को घर के अंदर बुलाऊं कि नहीं. जिस के मांबाप दोनों ही संक्रमित हों, उस के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए. फिर भी ममता ने जोर मारा. उस में उसे अपने मुन्ने का अक्स दिखाई दिया, तो उसे घर के अंदर बुला कर बिठाया. और उस से मोबाइल फोन ले कौल बैक किया. मगर वह रिंग हो कर रह जा रहा था. तब तक मुन्ना और नीरज ड्राइंगरूम में आ गए थे. मुन्ना उछल कर उस के पास चला गया. वह अभी कुछ कहती कि नीरज बोले, ‘‘बच्चा है, उसे कुछ हुआ नहीं है. उस का भी आरटीपीसीआर हुआ था. कुछ नहीं निकला है.’’

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धुंधली सी इक याद- भाग 3: राज अपनी पत्नी से क्यों दूर रहना चाहता था?

Writer- Rochika Sharma

‘‘वैसे तो मुझे आप से बात कर के सब ठीक ही लगता है फिर भी राज आप अपने हारमोन लैवल की जांच के लिए टैस्ट करवा लें और टैस्ट रिपोर्ट मुझे दिखाएं.’’  राज की हारमोन रिपोर्ट में कोई कमी नहीं थी. वह शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ था. डाक्टर चकित थी कि आखिर ऐसा क्या है कि राज ईशा को इतना चाहता है फिर भी वह वैवाहिक सुख से वंचित है?  डाक्टर ने काफी सोचविचार कर कहा, ‘‘राज व ईशा तुम दोनों सैक्स काउंसलर के पास जाओ. मैं आप को रैफर कर देती हूं.’’  अगले ही दिन राज व ईशा सैक्स काउंसलर के पास पहुंचे. काउंसलर ने उन की समस्या को ध्यान से सुना और समझा. फिर दोनों से उन के रहनसहन और जीवनशैली के बारे में पूछा. राज व ईशा ने उन्हें जवाब में जो बताया उस के हिसाब से तो दोनों के बीच सब ठीक ही चल रहा है. राज को दफ्तर में भी कोई समस्या नहीं थी, बल्कि इन 8 सालों में उसे हाल ही में तीसरी प्रमोशन मिली थी. ‘तो फिर आखिर क्या है, जो चाहते हुए भी राज को सैक्स के समय असफल कर देता है?’ सोच काउंसलर ने राज से अकेले में बात करने की इच्छा जाहिर की. ईशा काउंसलर का इशारा समझ कमरे से बाहर चली गई. अब काउंसलर ने राज से उस की शादी से पहले की जीवनी पूछी. उस से उसे पता चला कि राज गोद लिया बच्चा है. और सब जो राज ने डाक्टर को बताया वह इस तरह था, ‘‘सर मेरे परिवार में मैं, मेरी बड़ी बहन और मेरे मातापिता थे. बहन मुझ से 10 साल बड़ी थी. उस की शादी मात्र 18 वर्ष में पापा के दोस्त के इकलौते बेटे से कर दी गई. मेरे पापा ने अपनी वसीयत का ज्यादा हिस्सा मेरे नाम और कुछ हिस्सा दीदी के नाम किया.

अचानक एक कार ऐक्सिडैंट में मम्मीपापा की मृत्यु हो गई.  उस समय मैं 8 वर्ष का था. दीदी के सिवा मेरा कोई न था. अत: दीदी अब मुझे अपने पास रखने लगी थी. जीजाजी को भी कोई ऐतराज न था. जीजाजी के मातापिता को पैसों का लालच आ गया. फिर धीरेधीरे जीजाजी भी उन की बातों में आ गए. वे रोजरोज दीदी से कहने लगे कि वह वसीयत के कागज उन्हें दे दे. लेकिन दीदी ने नहीं दिए. वे दीदी को रोज मारनेपीटने लगे. दीदी समझ गई थी कि मुझे खतरा है.  ‘‘दीदी की एक सहेली थी. उन की कोई संतान न थी. वे एक बच्चा गोद लेना चाहते थे. दीदी ने उन से बात की और मुझे गोद लेने को कहा. वे झट से राजी हो गए. दीदी ने मुझे गोद देने के कागज तैयार करवा लिए. जीजाजी का व्यवहार दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा था. अब वे रोज शराब पी कर दीदी को मारनेपीटने लगे थे. मैं तब दीदी के पास ही रह रहा था.  ‘‘एक रात जीजाजी देर से आए. मैं उस वक्त दीदी के कमरे में था. जीजाजी बहुत ज्यादा शराब पीए थे. जीजाजी ने आते ही अंदर से कमरा बंद कर लिया और मुझे व दीदी को लातघूंसों से बहुत मारा. उस के बाद दीदी को बिस्तर पर पटक दिया और उस के साथ सैक्स किया. मैं उस वक्त 10 वर्ष का था. वह दृश्य बहुत डरावना था.  ‘‘मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं और मुझे वहीं नींद आ गई. सुबह दीदी जिंदा नहीं थी. सिर्फ एक लाश थी. मुझे और तो कुछ खास याद नहीं कि उस के बाद क्या हुआ, हां उस के बाद मेरे वर्तमान मातापिता मुझे अपने घर ले आए. अब जब भी मैं ईशा से करीबियां बढ़ाना चाहता हूं, मेरी आंखों के सामने उस रात की डरावनी धुंधली सी वह याद आ जाती है.

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‘‘मुझे लगता है दीदी की तरह कहीं मैं ईशा को भी न खो दूं. मैं ईशा से कुछ कह भी नहीं पाता हूं. हिम्मत नहीं जुटा पाता हूं. बस इसीलिए अपनेआप ही ईशा से दूर हो जाता हूं. यह सब अपनेआप होता है. मेरा अपने शरीर पर कोई नियंत्रण नहीं रहता और दीदी की लाश वहां दिखाई देती है.’’  राज की सारी बात सुन कर काउंसलर सब समझ गए कि क्यों चाह कर भी राज ईशा के साथ संबंध कायम करने में असफल रहता है. काउंसलर ने राज को घर जाने को कहा और अगले दिन आने को कहा. अगले दिन उन्होंने राज को प्यार से समझाया, ‘‘राज, तुम्हारी दीदी सैक्स के कारण नहीं मरीं, तुम्हारे जीजाजी ने उन्हें लातघूंसों से मारा. इस के कारण उन्हें कुछ अंदरूनी चोटें लगीं और वे उस दर्द को सहन नहीं कर पाईं और मौत हो गई.  ‘‘तुम ने दीदी को पिटते तो कई बार देखा था, लेकिन उस रात तुम ने जो दृश्य देखा वह पहली बार था और सुबह दीदी की लाश देखी तो तुम्हें ऐसा लगा कि दीदी सैक्स के कारण मर गई… आज इतने वर्षों बाद भी वह धुंधली सी याद तुम्हारे वैवाहिक जीवन को असफल कर रही है.’’  काउंसलर ने ईशा से भी इस बारे में बात की. उन्होंने राज के वर्तमान मातापिता को भी राज की स्थिति बताई. जब उन्हें हकीकत मालूम हुई तो उन्होंने राज की दीदी की मृत्यु की पोस्टमार्टम रिपोर्ट राज को दिखाई, जिस में साफ लिखा था कि राज की दीदी की जान दिमाग व पसलियों में चोट लगने से हुई थी और इसीलिए उस के जीजा को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

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अब सारी स्थिति राज के सामने थी. ईशा राज को उस पुरानी याद से दूर ले जाना  चाहती थी. अत: उस ने गोवा में होटल बुक किया और राज से वहां चलने का आग्रह किया. राज ने खुशीखुशी हामी भर दी.  ईशा वहां राज को उस की खूबियां बताते हुए कहने लगी, ‘‘राज तुम बहुत नेक और होशियार हो… तुम्हें पा कर मैं धन्य हो गई हूं. मैं तुम्हारी हर हार व जीत में तुम्हारे साथ हूं.’’  ऐसी बातें कर वह राज का मनोबल बढ़ाना चाहती थी. फिर रात के समय जैसे ही राज उस के करीब आ कर उस के बालों को सहलाने लगा, तो वह कहने लगी, ‘‘आगे बढ़ो राज. जब तक तुम मेरे साथ हो मुझे कुछ नहीं होगा, हिम्मत  करो राज.’’

7 दिन बस इसी तरह गुजर गए. अब राज का आत्मविश्वास लौटने लगा था. उस धुंधली सी याद की हकीकत वह समझ चुका था. ईशा ने राज की मम्मी व काउंसलर को खुशी से फोन कर बताया, ‘‘हम सफल हुए.’’  हालांकि राज एक बार तो डर गया था… सैक्स में सफल होने के बाद वह काफी देर  तक ईशा को टकटकी लगाए देखता रहा. फिर कहने लगा, ‘‘दुनिया तो सिर्फ तुम्हारी ऊपरी खूबसूरती देखती है ईशा… तुम्हारा दिल कितना सुंदर है… 8 वर्षों में तुम ने मेरी असफलता को एक राज रखा और हर वक्त मुसकराती रहीं.  आज मैं सफल हूं तो सिर्फ तुम्हारे कारण. तुम  ने इतनी मेहनत की, इतना सहा, विवाहित हो  कर भी 8 वर्षों तक कुंआरी का जीवनयापन करती रहीं और चेहरे पर शिकन भी न आने दी. तुम्हारा दिल कितना सुंदर है ईशा. तुम से सुंदर कोई नहीं.’’

दोनों जब गोवा से लौटे तो उन के चेहरे पर कुछ अलग ही चमक थी. वह चमक थी विश्वास और प्यार की. राज की मां भी बहुत खुश थीं. 3 महीने बाद ईशा ने खुशखबरी दी कि वह मां बनने वाली है.  राज की मां उसे ढेरों आशीर्वाद देते हुए बोलीं, ‘‘मैं दुनिया की सब से खुशहाल सास हूं, जिसे तुम जैसी बहू मिली.’’

ममता- भाग 2: क्या माधुरी को सासुमां का प्यार मिला

माधुरी के मातापिता अतिव्यस्त अवश्य थे किंतु अपने संस्कारों तथा रीतिरिवाजों को नहीं छोड़ पाए थे इसलिए विजातीय पल्लव से विवाह की बात सुन कर पहले तो काफी क्रोधित हुए थे और विरोध भी किया था, लेकिन बेटी की दृढ़ता तथा निष्ठा देख कर आखिरकार तैयार हो गए थे तथा उस परिवार से मिलने की इच्छा जाहिर की थी.

दोनों परिवारों की इच्छा एवं सुविधानुसार होटल में मुलाकात का समय निर्धारित किया गया था. बातों का सूत्र भी मम्मीजी ने ही संभाल रखा था. पंकज और पल्लव तो मूकदर्शक ही थे. उन का जो भी निर्णय होता उसी पर उन्हें स्वीकृति की मुहर लगानी थी. यह बात जान कर माधुरी अत्यंत तनाव में थी तथा पल्लव भी मांजी की स्वीकृति का बेसब्री से इंतजार कर रहा था.

बातोंबातों में मां ने झिझक कर कहा था, ‘बहनजी, माधुरी को हम ने लाड़प्यार से पाला है, इस की प्रत्येक इच्छा को पूरा करने का प्रयास किया है. इस के पापा ने तो इसे कभी रसोई में घुसने ही नहीं दिया.’

‘रसोई में तो मैं भी कभी नहीं गई तो यह क्या जाएगी,’ बात को बीच में ही काट कर गर्वभरे स्वर के साथ मम्मीजी ने कहा.

मम्मीजी के इस वाक्य ने अनिश्चितता के बादल हटा दिए थे तथा पल्लव और माधुरी को उस पल एकाएक ऐसा महसूस हुआ कि मानो सारा आकाश उन की मुट्ठियों में समा गया हो. उन के स्वप्न साकार होने को मचलने लगे थे तथा शीघ्र ही शहनाई की धुन ने 2 शरीरों को एक कर दिया था.

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पल्लव के परिवार तथा माधुरी के परिवार के रहनसहन में जमीनआसमान का अंतर था. समानता थी तो सिर्फ इस बात में कि मम्मीजी भी मां की तरह घर को नौकरों के हाथ में छोड़ कर समाजसेवा में व्यस्त रहती थीं. अंतर इतना था कि वहां एक नौकर था तथा यहां 4, मां नौकरी करती थीं तो ससुराल में सास समाजसेवा से जुड़ी थीं.

मम्मीजी नारी मुक्ति आंदोलन जैसी अनेक संस्थाओं से जुड़ी हुई थीं, जहां गरीब और सताई गई स्त्रियों को न्याय और संरक्षण दिया जाता था. उन्होंने शुरू में उसे भी अपने साथ चलने के लिए कहा और उन का मन रखने के लिए वह गई भी, किंतु उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा था.

उस का विश्वास था कि नारी मुक्ति आंदोलन के नाम पर गरीब महिलाओं को गुमराह किया जा रहा है. एक महिला जिस पर अपने घरपरिवार का दायित्व रहता है, वह अपने घरपरिवार को छोड़ कर दूसरे के घरपरिवार के बारे में चिंतित रहे, यह कहां तक उचित है? कभीकभी तो ऐसी संस्थाएं अपने नाम और शोहरत के लिए भोलीभाली युवतियों को भड़का कर स्थिति को और भी भयावह बना देती हैं.

उसे आज भी याद है कि उस की सहेली नीता का विवाह दिनेश के साथ हुआ था. एक दिन दिनेश अपने मित्रों के कहने पर शराब पी कर आया था तथा नीता के टोकने पर नशे में उस ने नीता को चांटा मार दिया. यद्यपि दूसरे दिन दिनेश ने माफी मांग ली थी तथा फिर से ऐसा न करने का वादा तक कर लिया था, किंतु नीता, जो महिला मुक्ति संस्था की सदस्य थी, ने इस बात को ऐसे पेश किया कि उस की ससुराल की इज्जत तो गई ही, साथ ही तलाक की स्थिति भी आ गई और आज उस का फल उन के मासूम बच्चे भोग रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि ये संस्थाएं भलाई का कोई काम ही नहीं करतीं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि किसी भी प्रतिष्ठान की अच्छाइयां छिप जाती हैं जबकि बुराइयां न चाहते हुए भी उभर कर सामने आ जाती हैं.

वास्तव में स्त्रीपुरुष का संबंध अटूट विश्वास, प्यार और सहयोग पर आधारित होता है. जीवन एक समझौता है. जब 2 अजनबी सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु विवाह के बंधन में बंधते हैं तो उन्हें एकदूसरे की अच्छाइयों के साथसाथ बुराइयों को भी आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए. प्रेम और सद्भाव से उस की कमियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए, न कि लड़झगड़ कर अलग हो जाना चाहिए.

मम्मीजी की आएदिन समाचारपत्रों में फोटो छपती. कभी वह किसी समारोह का उद्घाटन कर रही होतीं तो कभी विधवा विवाह पर अपने विचार प्रकट कर रही होतीं, कभी वह अनाथाश्रम जा कर अनाथों को कपड़े बांट रही होतीं तो कभी किसी गरीब को अपने हाथों से खाना खिलाती दिखतीं. वह अत्यंत व्यस्त रहती थीं. वास्तव में वह एक सामाजिक शख्सियत बन चुकी थीं, उन का जीवन घरपरिवार तक सीमित न रह कर दूरदराज तक फैल गया था. वह खुद ऊंची, बहुत ऊंची उठ चुकी थीं, लेकिन घर उपेक्षित रह गया था, जिस का खमियाजा परिवार वालों को भुगतना पड़ा था. घर में कीमती चीजें मौजूद थीं किंतु उन का उपयोग नहीं हो पाता था.

मम्मीजी ने समय गुजारने के लिए उसे किसी क्लब की सदस्यता लेने के लिए कहा था किंतु उस ने अनिच्छा जाहिर कर दी थी. उस के अनुसार घर की 24 घंटे की नौकरी किसी काम से कम तो नहीं है. जहां तक समय गुजारने की बात है उस के लिए घर में ही बहुत से साधन मौजूद थे. उसे पढ़नेलिखने का शौक था, उस के कुछ लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुके थे. वह घर में रहते हुए अपनी इन रुचियों को पूरा करना चाहती थी.

यह बात अलग है कि घर के कामों में लगी रहने वाली महिलाओं को शायद वह इज्जत और शोहरत नहीं मिल पाती है जो बाहर काम करने वाली को मिलती है. घरेलू औरतों को हीनता की नजर से देखा जाता है लेकिन माधुरी ने स्वेच्छा से घर के कामों से अपने को जोड़ लिया था. घर के लोग, यहां तक कि पल्लव ने भी यह कह कर विरोध किया था कि नौकरों के रहते क्या उस का काम करना उचित लगेगा.

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तब उस ने कहा था कि ‘अपने घर का काम अपने हाथ से करने में क्या बुराई है, वह कोई निम्न स्तर का काम तो कर नहीं रही है. वह तो घर के लोगों को अपने हाथ का बना खाना खिलाना चाहती है. घर की सजावट में अपनी इच्छानुसार बदलाव लाना चाहती है और इस में भी वह नौकरों की सहायता लेगी, उन्हें गाइड करेगी.

उस की बात सुन कर मम्मीजी ने मुंह बिचका दिया था लेकिन जो घर नौकरों के द्वारा चलने से बेजान हो गया था माधुरी के हाथ लगाने मात्र से सजीव हो उठा था. इस बात को पापाजी और पल्लव के साथ मम्मीजी ने भी महसूस किया था.

पल्लव, जो पहले रात में 10 बजे से पहले घर में कदम नहीं रखता था. वही अब ठीक 5 बजे घर आने लगा. यही हाल उस के पापाजी का भी था. एक बार भावुक हो कर पापा ने कहा भी था, ‘बेटा, तुम ने इस धर्मशाला बन चुके घर को पुन: घर बना दिया. सचमुच जब तक घरवाली का हाथ घर में नहीं लगता तब तक घर सुव्यवस्थित नहीं हो पाता है.’

एक बार पापाजी उस के हाथ के बने पनीर के पकवान की तारीफ कर रहे थे कि मम्मीजी चिढ़ कर बोलीं, ‘भई, मुझे तो बाहर के कामों से ही फुरसत नहीं है. इन बेकार के कामों के लिए समय कहां से निकालूं?’

‘बाहर के लोगों के लिए समय है, किंतु घर वालों के लिए नहीं,’ तीखे स्वर में ससुरजी ने उत्तर दिया था जो सास के जरूरत से अधिक घर से बाहर रहने के कारण अब परेशान हो उठे थे.

मेरा पति सिर्फ मेरा है- भाग 1: अनुषा ने अपने पति को टीना के चंगुल से कैसे निकाला?

सुबहबह के 6 बज गए थे. अनुषा नहाधो कर तैयार हो गई. ससुराल में उस का पहला दिन जो था वरना घर में क्या मजाल कि कभी सुबह 8 बजे से पहले उठी हो.

विदाई के समय मां ने समझाया, ‘‘बेटी, लड़कियां कितनी भी पढ़लिख जाएं उन्हें अपने संस्कार और पत्नी धर्म कभी नहीं भूलना चाहिए. सुबह जल्दी उठ कर सिर पर पल्लू रख कर रोजाना सासससुर का आशीर्वाद लेना. कभी पति का साथ न छोड़ना. कैसी भी परिस्थिति आ जाए धैर्य न खोना और मुंह से कभी कटु वचन न निकालना.’’

‘‘जैसी आप की आज्ञा माताश्री…’’

जिस अंदाज में अनुषा ने कहा था उसे सुन कर विदाई के क्षणों में भी मां के चेहरे पर हंसी आ गई थी.

अनुषा ड्रैसिंग टेबल के आगे बैठी थी. बीती रात की रौनक उस के चेहरे पर लाली बन कर बिखरी हुई थी. भीगी जुल्फें संवारते हुए प्यारभरी नजरों से उस ने बेसुध भुवन की तरफ देखा.

भुवन से वैसे तो उस की अरेंज्ड मैरिज हुई थी, मगर सगाई और शादी के बीच के समय में वे कई दफा मिले थे. इसी दरमियान उस के दिल में भुवन के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. तभी तो शादी के समय उसे महसूस ही नहीं हुआ कि वह अरेंज्ड मैरिज कर किसी अजनबी को जीवनसाथी बना रही है. उसे लग रहा था जैसे लव मैरिज कर अपने प्रियतम के घर जा रही है.

बाल संवार सिर पर पल्लू रख कर अनुषा सीढि़यों से नीचे उतर आई. सासससुर बैठकरूम में सोफे पर बैठे अखबार पढ़ते हुए चाय की चुसकियों का आनंद ले रहे थे. अनुषा ने उन को अभिवादन किया और किचन में घुस गई. उस ने अपने हाथों से सुबह का नाश्ता तैयार कर खिलाया तो ससुर ने आशीषस्वरूप उसे 5 हजार रुपए नोट दिए. सास ने अपने गले से सोने की चेन निकाल कर दी. तब तक भुवन भी तैयार हो कर नीचे आ चुका था.

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भुवन ने अनुषा को बताया था कि अभी औफिस में कुछ जरूरी मीटिंग्स हैं, इसलिए

2-3 दिन मीटिंग्स और दूसरे काम निबटा कर

अगले सप्ताह दोनों हनीमून के लिए निकलेंगे. इस के लिए भुवन ने 10 दिनों की छुट्टी भी ले रखी थी.

भुवन का औफिस टाइम 10 बजे का था. औफिस ज्यादा दूर भी नहीं था और जाना भी अपनी गाड़ी से ही था. फिर भी भुवन ठीक 9 बजे घर से निकल गया तो अनुषा को कुछ अजीब लगा. मगर फिर सामान्य हो कर वह खाने की तैयारी में जुट गई.

तब तक कामवाली भी आ गई थी. अनुषा को ऊपर से नीचे तक तारीफभरी नजरों से देखने के बाद धीरे से बोली, ‘‘शायद अब भुवन भैया उस नागिन के चंगुल से बच जाएंगे.’’

‘‘यह क्या कह रही हो तुम?’’ कामवाली की बात पर आश्चर्य और गुस्से में अनुषा ने कहा.

वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘बस बहूरानी कुछ ही दिनों में आप को मेरी बात का मतलब समझ आ जाएगा… 2-3 दिन इंतजार कर लो,’’ कह कर वह काम में लग गई.

फिर अनुषा की तारीफ करती हुई बोली, ‘‘वैसे बहूरानी बड़ी खूबसूरत हो तुम.’’

अनुषा ने उस की बात अनसुनी कर दी. उस के दिमाग में तो नागिन शब्द घूम रहा था. उसे नागिन का मतलब समझ नहीं आ रहा था.

पूरा दिन अनुषा भुवन के फोन का इंतजार करती रही. दोपहर में भुवन का फोन आया. दोनों ने आधे घंटे प्यारभरी बातें कीं. शाम में भुवन को आने में देर हुई तो अनुषा ने सास से पूछा.

सास ने निश्चिंतता भरे स्वर में कहा, ‘‘आ रहा होगा… थोड़ा औफिस के दोस्तों में बिजी होगा.’’

8 बजे के करीब भुवन घर लौटा. साथ में एक महिला भी थी. लंबी, छरहरी, नजाकत और

अदाओं से लबरेज व्यक्तित्व वाली उस महिला ने स्लीवलैस वनपीस ड्रैस पहन रखी थी. होंठों पर गहरी लिपस्टिक और हाई हील्स में वह किसी मौडल से कम नहीं लग रही थी. अनुषा को भरपूर निगाहों से देखने के बाद भुवन की ओर मुखातिब हुई और हंस कर बोली, ‘‘गुड चौइस. तो यह है आप की बैटर हाफ… अच्छी है.’’

बिना किसी के कहे ही वह सोफे पर पसर गई. सास जल्दी से 2 गिलास शरबत ले आई, शरबत पीते हुए उस ने शरबती आवाज में कहा, ‘‘भुवन, जिस दिल में मैं हूं उसे किसी और को किराए पर तो नहीं दे दोगे?’’

उस महिला के मुंह से ऐसी बेतुकी बात सुन कर अनुषा की भंवें चढ़ गईं. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से भुवन की ओर देखा और फिर सास की तरफ.

सास ने नजरें नीचे कर लीं और भुवन ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा, ‘‘यार टीना तुम्हारी मजाक करने की आदत नहीं गई.’’

‘‘मजाक कौन कर रहा है? मैं तो हकीकत बयां कर रही हूं. वैसे अनुषा तुम से मिल कर अच्छा लगा. आगे भी मुलाकातें होती रहेंगी हमारी. आखिर मैं भुवन की दोस्त जो हूं. तुम्हारी भी दोस्त हुई न. बैटर हाफ जो हो तुम उस की.’’

वह बारबार बैटर हाफ शब्द पर जोर दे रही थी. अनुषा उस का मतलब अच्छी तरह समझ रही थी.

टीना ने फिर से अदाएं बिखेरते हुए कहा, ‘‘आज की रात तो नींद नहीं, चैन नहीं, है न भुवन.’’

5-10 मिनट रुक कर वह जाने के लिए खड़ी हो गई. भुवन उसे घर छोड़ने चला गया.

अनुषा ने सास से सवाल किया, ‘‘यह

कौन है मांजी जो भुवन पर इतना अधिकार जता रही है?’’

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‘‘देखो बेटा, अब तुम भुवन की पत्नी हो इसलिए इतना तो तुम्हें जानने का हक है ही कि वह कौन थी? दरअसल, बेटा तुम्हें उसे भुवन

की जिंदगी में स्वीकार करना पड़ेगा. हमारी मजबूरी है बेटा. हम सब को भी उसे स्वीकार करना पड़ा है बेटे.’’

‘‘पर क्यों सासूमां? क्या भुवन का उस के साथ कोई रिश्ता है?’’

‘‘ऐसा कोई रिश्ता तो नहीं बहू पर बस यह जान लो कि उस के बहुत से एहसान हैं हमारे ऊपर. वैसे तो वह उस की बौस है, मगर भुवन को इस मुकाम तक पहुंचाने में काफी मदद की है उस ने. अपनी पावर का उपयोग कर भुवन को काफी अच्छा ओहदा दिया है. बस भुवन पसंद है उसे और कुछ नहीं.’’

‘‘इतना कम है क्या सासूमां? वह तो पत्नी की तरह हक दिखाती है भुवन पर.’’

ये घर बहुत हसीन है- भाग 2: उस फोन कॉल ने आन्या के मन को क्यों अशांत कर दिया

लेखक- मधु शर्मा कटिहा

वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इस से पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. ‘‘किस का फोन है?’’ पूछते हुए उस ने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज में बातें करने लगा.

निराश वान्या कपड़े हाथ में ले कर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किस ने किया होगा फोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उस से बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं… यह तो धोखा है.’ वान्या अपनेआप में उलझती जा रही थी.

आधुनिक सुखसुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिस के वह सपने देखती थी, उस की निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनीभीनी खुशबू, हलकी ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब, जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाए और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फोन उस के लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी…’ वान्या फूटफूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उस की प्रतीक्षा कर रहा

था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुरसियां वान्या को कोरी शान लग रही थीं. वान्या के बैठते ही आर्यन उस के बालों से नाक सटा कर लंबी सांस लेता हुआ बोला, ‘‘कौन सा शैंपू लगाया है? कहीं यह खुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अंदर तक मैं.’’

वान्या को आर्यन की शरारती मुसकान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. ‘‘जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफाई कर रही है. उसे जल्दी से वापस भेज देंगे… अपना बैडरूम तो तुम ने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतजार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा,’’ आर्यन का नटखट अंदाज वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गई. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की खुमारी बढ़ने लगी. ‘‘मुझे जरूर गलतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उस का इजहार तो उस आशिक जैसा लग रहा है, जिसे नईनई मोहब्बत हुई हो.’’ सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गई. फोम के गद्दे में धंसेधंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़ेखड़े ही झुक कर वान्या की आंखों को चूम मुसकराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.

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‘‘कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैं ने?’’ बैड के पास लगे विंटेज कलर फ्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.

दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ्रेम सा सुर्ख हो गया.

प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एकदूसरे की आगोश में खोएखोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

शाम को प्रेमा ने घंटी बजाई तो उन की नींद खुली. ग्रीन टी बनवा कर अपनेअपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुरसियों पर जा कर बैठ गए. वहां रंगबिरंगे फूल खिले थे. कतार में ऊंचेऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एकदूसरे के साथ बारबार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल टक रहे थे, रंग हरा ही था सब का. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, ‘‘मेरे राइट हैंड साइड वाले 4 पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले 3 खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद हैं कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब ऐंजौय करतीं.’’

‘‘अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी का नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैं ने अटेंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे का साथ बात कर रहे थे तुम?’’ वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जा कर अटक गया.

‘‘तुम्हें देखते ही शादी को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाए, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात ले कर. सब को लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को ले कर आ गईं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया.’’

आर्यन का मजाक सुन वान्या मुसकरा कर रह गई.

‘‘एक मिनट… शायद प्रेमा ने आवाज दी है, वापस जा रही होगी, मैं दरवाजा बंद कर अभी आया.’’ वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अंदर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौट कर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोच

कर फिर संदेह से घिर गई. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढि़यों पर चढ़ गई. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ दिखाई दे रहा था. ऊंचीऊंची फैली हुई पहाडि़यों पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटेबड़े मकान, मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एकदूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फसाला भी है. क्या राज है उस फोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आ कर आर्यन ने अपने हाथों से उस की आंखें बंद कर दीं.

‘‘तुम भी न आर्यन… कब आए छत पर?’’

‘‘हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानोंकान खबर भी न हो.’’ आर्यन शरारत से बोला.

‘‘और कौन होगा?’’ वान्या घबरा उठी.

‘‘अरे कितनी डरपोक हो यार… यहां कौन हो सकता है?’’ वान्या की आंखों से हाथों को हटा उस की कमर पर एक हाथ से घेरा बना कर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. ‘‘चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुंदर नजारे दिखाता हूं.’’

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आर्यन से सट कर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उस की छुअन और खुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गईं. दोनों साथसाथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़ेबड़े शहतीरों को जोड़ कर बनाई गई मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश, इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें,’ वान्या सोच रही थी.

मेरी खातिर- भाग 1: झगड़ों से तंग आकर क्या फैसला लिया अनिका ने?

‘‘निक्कीतुम जानती हो कि कंपनी के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं छोटेछोटे कामों के लिए बारबार बौस के सामने छुट्टी के लिए मिन्नतें नहीं कर सकता हूं. जरूरी नहीं कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ चलूं. तुम अकेली भी जा सकती हो न. तुम्हें गाड़ी और ड्राइवर दे रखा है… और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘चाहती? मैं तुम्हारी व्यस्त जिंदगी में से थोड़ा सा समय और तुम्हारे दिल के कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह चाहती हूं.’’

‘‘बस शुरू हो गया तुम्हारा दर्शनशास्त्र… निकिता तुम बात को कहां से कहां ले जाती हो.’’

‘‘अनिकेत, जब तुम्हारे परिवार में कोई प्रसंग होता है तो तुम्हारे पास आसानी से समय निकल जाता है पर जब भी बात मेरे मायके

जाने की होती है तो तुम्हारे पास बहाना हाजिर होता है.’’

‘‘मैं बहाना नहीं बना रहा हूं… मैं किसी भी तरह समय निकाल कर भी तेरे घर वालों के हर सुखदुख में शामिल होता हूं. फिर भी तेरी शिकायतें कभी खत्म नहीं होती हैं.’’

‘‘बहुत बड़ा एहसान किया है तुम ने इस नाचीज पर,’’ मम्मी के व्यंग्य पापा के क्रोध की अग्निज्वाला को भड़काने का काम करते थे.

‘‘तुम से बात करना ही बेकार है, इडियट.’’

‘‘उफ… फिर शुरू हो गए ये दोनों.’’

‘‘मम्मा व्हाट द हैल इज दिस? आप लोग सुबहशाम कुछ देखते नहीं… बस शुरू हो जाते हैं,’’ आंखें मलते हुए अनिका ने मम्मी से कहा.

‘‘हां, तू भी मुझे ही बोल… सब की बस मुझ पर ही चलती है.’’

पापा अंदर से दरवाजा बंद कर चुके थे, इसलिए मुझे मम्मी पर ही अपना रोष डालना पड़ा था.

अनिका अपना मूड अच्छा करने के लिए कौफी बना, अपने कमरे की खिड़की के पास जा खड़ी हो गई. उस के कमरे की खिड़की सामने सड़क की ओर खुलती थी, सड़क के दोनों तरफ  वृक्षों की कतारें थीं, जिन पर रात में हुई बारिश की बूंदें अटकी थीं मानो ये रात में हुई बारिश की चुगली कर रही हों. अनिका उन वृक्षों के हिलते पत्तों को, उन पर बसेरा करते पंछियों को, उन पत्तियों और शाखाओं से छन कर आती धूप की उन किरणों को छोटी आंखें कर देखने पर बनते इंद्रधनुष के छल्लों को घंटों निहारती रहती. उसे वक्त का पता ही नहीं चलता था. उस ने घड़ी की तरफ देखा 7 बज गए थे. वह फटाफटा नहाधो कर स्कूल के लिए तैयार हो गई. कमरे से बाहर निकलते ही सोफे पर बैठे चाय पीते पापा ने ‘‘गुड मौर्निंग’’ कहा.

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‘‘गुड मौर्निंग… गुड तो आप लोग मेरी मौर्निंग कर ही चुके हैं. सब के घर में सुबह की शुरुआत शांति से होती पर हमारे घर में टशन और टैंशन से…’’ उस ने व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी भौंहें चढ़ाते हुए कहा.

‘‘चलिए बाय मम्मी, बाय पापा. मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है.’’

‘‘पर बेटे नाश्ता तो करती जाओ,’’ मम्मी डाइनिंग टेबल पर नाश्ता लगाते हुए बोली.

‘‘सुबह की इतनी सुहानी शुरुआत से मेरा पेट भर गया है,’’ और वह चली गई.

अनिका जानती थी अब उन लोगों के

बीच इस बात को ले कर फिर से बहस छिड़

गई होगी कि सुबह की झड़प का कुसूरवार

कौन है. दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराने पर तुल गए होंगे.

शाम को अनिका देर से घर लौटी. घर जाने से बेहतर उसे लाइब्रेरी में बैठ कर

पढ़ना अच्छा लगा. वैसे भी वह उम्र के साथ बहुत एकांतप्रिय और अंतर्मुखी बनती जा रही थी. घर में तो अकेली थी ही बाहर भी वह ज्यादा मित्र बनाना नहीं सीख पाई.

‘‘मम्मी मेरा कोई छोटा भाईबहन क्यों नहीं है? मेरे सिवा मेरे सब फ्रैंड्स के भाईबहन हैं और वे लोग कितनी मस्ती करती हैं… एक मैं ही हूं… बिलकुल अकेली,’’ अनगिनत बार वह मम्मी से शिकायत कर अपने मन की बात कह चुकी थी.

‘‘मैं हूं न तेरी बैस्ट फ्रैंड,’’ हर बार मम्मी यह कह कर अनिका को चुप करा देतीं. अनिका अपने तनाव को कम करने और बहते आंसुओं को छिपाने के लिए घंटों खिड़की के पास खड़ी हो कर शून्य को निहारती रहती.

घर में मम्मीपापा उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. दरवाजे की घंटी बजते ही दोनों उस के पास आ गए.

‘‘आज आने में बहुत देर कर दी… फोन भी नहीं उठा रही थी… कितनी टैंशन हो गई थी हमें,’’ कह मम्मी उस का बैग कंधे से उतार कर उस के लिए पानी लेने चली गई.

‘‘हमारी इन छोटीमोटी लड़ाइयों की

सजा तुम स्वयं को क्यों देती हो,’’ ?पापा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘किस के मम्मीपापा ऐसे होंगे, जिन के बीच अनबन न रहती हो.’’

‘‘पापा, इसे हम साधारण अनबन का नाम तो नहीं दे सकते. ऐसा लगता है जैसे आप दोनों रिश्तों का बोझ ढो रहे हो. मैं ने भी दादू, दादी, मां, चाची, चाचू, बूआ, फूफाजी को देखा है पर ऐसा अनोखा प्रेम तो किसी के बीच नहीं देखा है,’’ अनिका के कटाक्ष ने पापा को निरुत्तर कर दिया था.

‘‘बेटे ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम अतिसंवेदनशील हो?’’

पापा के प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उस ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, मम्मी से शादी आप ने दादू के दबाव में आ कर की थी क्या?’’

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पापा को 20 साल पहले की अपनी पेशी याद आ गई जब पापा, बड़े पापा और घर के अन्य सब बड़े लोगों ने उन के पैतृक गांव के एक खानदानी परिवार की सुशील और पढ़ीलिखी कन्या अर्थात् निकिता से विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. घर वालों ने उन का पीछा तब तक नहीं छोड़ा था जब तक उन्होंने शादी के लिए हां नहीं कह दी थी.

पापा ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटे ऐसी कोई बात नहीं है… 19-20 की जोड़ी थी पर ठीक है. आधी जिंदगी निकल गई है आधी और कट ही जाएगी.’’

‘‘वाह पापा बिलकुल सही कहा आपने… 19-20 की जोड़ी है… आप उन्नीस है और मम्मा बीस… क्यों पापा सही कहा न मैं ने?’’

सजा- भाग 5: तरन्नुम ने असगर को क्यों सजा दी?

शाम को असगर के आने से पहले तरन्नुम ने खूब शोख रंग के कपड़े, चमकदार गहने पहने, गहरा शृंगार किया, असगर उसे तैयार देख कर हैरान रह गया. यह पहरावा, यह हावभाव उस तरन्नुम के नहीं थे जिसे वह सुबह छोड़ कर गया था.

‘‘आप को यों देख कर मुझे लगा जैसे मैं गलत कमरे में आ गया हूं,’’ असगर ने चौंक कर कहा.

‘‘अब गलत कमरे में आ ही गए हो तो बैठने की गलती भी कर लो,’’ तरन्नुम ने कहा, ‘‘क्या मंगवाऊं आप के लिए, चाय, ठंडा या कुछ और,’’ तरन्नुम ने लहरा कर पूछा.

‘‘होश में तो हो,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, आंखें खुल गईं तो होश में ही हूं,’’ तरन्नुम ने जवाब दिया, ‘‘आज का दिन मेरी जिंदगी का बहुत कीमती दिन है. आज मैं ने अपनी हिम्मत से तुम्हारे शहर में बहुत अच्छा घर ढूंढ़ लिया है. उस की खुशी मनाने को मेरा जी चाह रहा है. अब तो अनुबंध की प्रति भी है मेरे पास. देखो, तुम इतने महीने में जो न कर सके वह मैं ने 6 दिन में कर दिया,’’ अपना पर्स खोल कर तरन्नुम ने कागज असगर की तरफ बढ़ाए.

असगर ने कागज लिए. तरन्नुम ने थरमस से ठंडा पानी निकाल कर असगर की तरफ बढ़ाया. असगर के हाथ कांप रहे थे. उस की आंखें कागज को बहुत तेजी से पढ़ रही थीं. उस ने कागज पढ़े और मेज पर रख दिए. तरन्नुम उस के चेहरे के उतारचढ़ाव देख रही थी लेकिन असगर का चेहरा सपाट था कोरे कागज सा.

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‘‘असगर, तुम ने पूछा नहीं कि मैं ने कागजात में खाविंद का नाम न लिख कर वालिद का नाम क्यों लिखा?’’ बहुत बहकी हुई आवाज में तरन्नुम ने कहा.

असगर ने सिर्फ सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा.

‘‘इसलिए कि मेरे और निकहत कुरैशी के खाविंद का एक ही नाम है और अलबम की तसवीरें कह रही हैं कि हम दोनों बिना जाने ही एकदूसरे की सौतन बना दी गईं. निकहत बहुत प्यारी शख्सियत है मेरे लिए, बहुत सुलझी हुई, बेहद मासूम.’’

‘‘तरन्नुम,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, मैं कह रही थी वह बहुत अच्छी, बहुत प्यारी है. मैं उन का मन दुखाना नहीं चाहती, वैसा कुछ भी मैं नहीं करूंगी जिस से उन का दिल दुखी हो. इसलिए मैं वह घर किराए पर ले चुकी हूं और वहां रहने का मेरा पूरा इरादा है लेकिन उस घर में मैं अकेली रहूंगी. पर एक सवाल का जवाब तुम्हारी तरफ बाकी है, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया?’’

‘‘मुझे तुम बेहद पसंद थीं,’’ असगर ने हकलाते हुए कहा.

‘‘तो?’’

‘‘जब तुम्हें भी अपनी तरफ चाहत की नजर से देखते पाया तो सोचा…’’

‘‘क्या सोचा?’’ तरन्नुम ने जिरह की.

‘‘यही कि अगर तुम्हारे घर वालों को एतराज नहीं है तो यह निकाह हो सकता है,’’ असगर ने मुंह जोर होने की कोशिश की.

‘‘मेरे घर वालों को तुम ने बताया ही कहां?’’ तरन्नुम गुस्से से तमतमा उठी.

‘‘देखो, तरन्नुम, अब बाल की खाल निकालना बेकार है. शकील को सब पता था. उसी ने कहा था कि एक बार निकाह हो गया तो तुम भी मंजूर कर लोगी. तुम्हारी अम्मी ने झोली फैला कर यह रिश्ता अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई दे कर मांगा था. वैसे इसलाम में 4 शादियों तक भी मुमानियत नहीं है.’’

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‘‘देखिए, मुझे अपने ईमान के सबक आप जैसे आदमी से नहीं लेने हैं. आप की हिम्मत कैसे हुई निकहत जैसी नेक बीवी के साथ बेईमानी करने की और मुझे धोखा देने की,’’ तरन्नुम ने तमतमा कर कहा.

‘‘धोखाधोखा कहे जा रही हो. शकील को सब पता था, उसी ने चुनौती दे रखी थी तुम से शादी करने की.’’

‘‘वाह, क्या शर्त लगा रहे हैं एक औरत पर 2 दोस्त? आप को जीत मुबारक हो, लेकिन यह आप की जीत आप की जिंदगी की सब से बड़ी हार साबित होगी, असगर साहब. मैं आप के घर में किराएदार बन कर जिंदगी भर रहूंगी और दिल्ली आने के बाद अदालत में तलाक का दावा भी दायर करूंगी. वैसे मेरी जिंदगी में शादी के लिए कोई जगह नहीं थी. शकील ने शादी के बहुत बार पैगाम भेजे, मैं ने हर बार मना कर दिया. उसी का बदला इस तरह वह मुझ से लेगा, मैं ने सोचा भी नहीं था. आज पंचशील पार्क जा कर मुझे एहसास हुआ कि क्यों दिल्ली में घर नहीं मिल रहे? क्यों तुम उखड़ाउखड़ा बरताव कर रहे थे? देर आए दुरुस्त आए.’’

‘‘पर मैं तुम्हें तलाक देना ही नहीं चाहता,’’ असगर ने कहा, ‘‘मैं ने तुम्हें अपनी बीवी बनाया है. मैं तुम्हारे लिए दूसरी जगह घर बसाने के लिए तैयार हूं.’’

बहुत खुले दिमाग हैं आप के, लेकिन माफ कीजिए. अब औरत उस कबीली जिंदगी से निकल चुकी है जब मवेशियों की गिनती की तरह हरम में औरत की गिनती से आदमी की हैसियत परखी जाती थी. बच्चों से उन का बाप और निकहत से उस का शौहर छीनने का मेरा बिलकुल इरादा नहीं है और वैसे भी एक धोखेबाज आदमी के साथ मैं जी नहीं सकती. हर घड़ी मेरा दम घुटता रहेगा लेकिन तुम्हें बिना सजा दिए भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. इसीलिए तुम्हारे घर के ऊपर मैं किराएदार की हैसियत से आ रही हूं.’’

फिर तेज सांसों पर नियंत्रण करती हुई बोली थी तरन्नुम, ‘‘मैं सामान लेने जा रही हूं. तुम निकहत को कुछ बताने का दम नहीं रखते. तुम बेहद कमजोर और बुजदिल आदमी हो. हम दोनों औरतों के रहमोकरम पर जीने वाले.’’

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असगर के चेहरे पर गंभीरता व्याप्त थी. तरन्नुम अपनी अटैची बंद कर रही थी. वह मन ही मन सोच रही थी…अम्मीअब्बू की खुशी के लिए उसे वहां कोई भी बात बतानी नहीं है. यह स्वांग यों ही चलने दो जब तक वे हैं.’’

जीने की राह- भाग 6: उदास और हताश सोनू के जीवन की कहानी

Writer- संध्या 

‘‘आप जैसा ठीक समझें, पापा,’’ उस ने आत्मीयता से कहा. मैं ने बड़े भैया को रोके की रस्म के बारे में बताते हुए कहा, ‘‘भैया, मैं सुमन को ले कर मार्केट से हो कर आता हूं.’’ बड़े भैया ने कहा, ‘‘बेटा मन, मुझे भी तो शगुन के रूप में सोनू को कुछ देना है. मुझे भी मार्केट ले चल, या तू ही लेता आ. हां, पैसे मैं दिए देता हूं.’’ मैं ने भैया को रोकते हुए कहा, ‘‘भैया, कुछ लाने की जरूरत नहीं है सोनू के लिए, क्योंकि नीता, रिया के लिए कुछ न कुछ गहने बनवाती रहती थी, अभी जो नया सैट बनवाया था वह घर में ही रखा है, इसी तरह उस ने रिया के लिए साडि़यां भी खरीद रखी थीं. सो सोनू को आप वह ही दे दीजिए.’’ बड़े भैया खुश होते हुए बोले, ‘‘चल, यही ठीक है, तू ने तो एक मिनट में ही मेरी उलझन सुलझा दी. जब घर में सब है ही, तब तू क्यों मार्केट जा रहा है?’’ मैं ने कहा, ‘‘भैया, आप की बहू के लिए तो शगुन का इंतजाम हो गया, किंतु मुझे अपने दामाद के लिए भी तो अंगूठी, चैन, कपड़े लेने हैं. फिर मिठाई, नारियल, पान, सुपारी आदि भी तो लाना है.’’ बड़े भैया बोले, वे बेहद आश्चर्यचकित थे, ‘‘मन बेटा, यह सुमन, तेरा दामाद कैसे हो गया? तू तो इस का छोटा पापा है न?’’ ‘‘भैया, सोनू का कन्यादान मैं करूंगा, वह मेरी रिया है. सोनू के रूप में मुझे मेरी रिया मिल गई है. इस रिश्ते से सुमन मेरा दामाद ही हुआ न. वैसे भैया, उस का छोटा पापा तो मैं सदैव रहूंगा ही.’’ मार्केट जाते समय उत्तम एवं भाभीजी से तय हो गया कि वे दोनों भी आ जाएंगे एवं सोनू को भाभीजी तैयार कर देंगी. हम शाम को सोनू के घर पर पहुंच गए. सोनू को भाभीजी ने बहुत सुंदर ढंग से तैयार किया था. वह आसमान से उतरी परी सी लग रही थी. सुमन भी ब्लू सूट में किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था. दोनों की जोड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी. सारे कार्यक्रम बड़े ढंग से हो जाने के बाद बड़े भैया ने मेरी तरफ मुखातिब हो कर कहा, ‘‘सोनू के पापा, मैं आप की बेटी सोनू को जल्दी से जल्दी अपनी बहू बना कर अपने घर ले जाना चाहता हूं. इसलिए आप जल्दी से जल्दी शादी का मुहूर्त निकलवाइए.’’

मैं ने भी बड़ी नाटकीयता से जवाब दिया, ‘‘सुमन के पापा, आप एकदम सही फरमा रहे हैं. मैं भी अपनी बेटी सोनू को अपने बेटे सुमन की बहू बना कर जल्दी से जल्दी अपने घर ले आना चाहता हूं,’’ और हम सभी ठहाका लगा कर हंस पड़े. अच्छी बात यह भी रही कि एक हफ्ते बाद का ही मुहूर्त निकल आया. एक छोटे से कार्यक्रम में सोनू और सुमन की शादी कर दी गई. सोनू का कन्यादान मैं ने ही किया. हम दोनों बेहद भावविह्वल हो रहे थे. मुझे सोनू के रूप में बेटी मिल गई थी. उसे उस के मांपापा के स्थान पर मैं मिल गया था. यह घड़ी ही ऐसी थी जिस में हमें अपने नए रिश्ते के साथ, अपने बिछड़े रिश्ते भी बहुत याद आ रहे थे. सोनू मुझ से गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ी. मैं ने उसे संभालते हुए कहा, ‘‘बेटा, खुद को संभालो, अपनी भावनाओं पर काबू रखो, यह रोने का नहीं बल्कि खुशी का समय है. आज हम ने अपने रिश्ते को सार्थक नाम दिया है तथा आज हमारे अपने, जिन्हें हम ने खो दिया है, बेहद खुश होंगे. आज हम ने उन के सपनों को साकार कर उन्हें सही अर्थों में याद किया है, श्रद्धासुमन अर्पित किए हैं.’’ वह कस कर मेरे गले से लग गई, ठीक रिया की तरह. रिया भी जब बेहद भावुक होती थी, ऐसा ही करती थी. वह धीरे से बोली, ‘‘पापा, आप बहुत अच्छे इंसान हैं, मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रही हूं, जो आप मुझे मिले.’’

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सोनू बहू बन कर मेरे घर क्या आई मानो मेरे सूने घर में बहार आ गई. ऐसा महसूस होता मानो मरुस्थल में रिमझिमरिमझिम बारिश हो रही हो. बड़े भैया हमेशा कहते, ‘‘मन बेटा, तू ने मेरा दिल जीत लिया. तू ने मेरे ऊपर इतना बड़ा उपकार किया है, मुझे तू ने इतनी अच्छी बहू दी है, यह एहसान मैं तेरा कैसे चुकाऊंगा.’’ मैं कहता, ‘‘कैसी बातें करते हैं भैया, भला अपनोें पर कोई एहसान करता है. फिर सुमन, जैसा आप का बेटा वैसे ही मेरा भी तो बेटा है. मैं ने अपना भला किया है.’’ वे कहते, ‘‘सच कहता हूं मन, इतनी सुंदर, संस्कारी बहू मुझे मिलेगी, कभी सोचाभी नहीं था.’’ मैं, भैया को छेड़ते हुए कहता, ‘‘भैया, आप को बहू अच्छी मिली है तो मुझे भी लाखों में एक दामाद मिला है. मैं इस रिश्ते से बहुत खुश हूं.’’ वे मेरे साथ खुल कर हंस देते.

घर के बदले हुए वातावरण से मैं काफी उत्साहित था. एकाएक मेरे दिमाग में एक अद्भुत विचार आया, जिस से मेरा मनमयूर नाच उठा.  मैं ने भैया को टटोलते हुए कहा, ‘‘हालांकि मैं ने कोई एहसान नहीं किया है फिर भी आप कहते हैं न कि आप मेरा एहसान कैसे चुकाएंगे. आज मैं आप को सरलतम उपाय बताता हूं जिस से आप मेरे एहसान से उऋण हो जाएंगे. पहले वादा कीजिए ‘न’ नहीं करेंगे.’’ उन्होंने तत्परता से कहा, ‘‘बोल, मन बेटा, जो कहेगा, करूंगा, यह लाला का वादा है. जो कहेगा, दे दूंगा.’’ मैं ने उन की नजरों से नजरें मिलाते हुए कहा, ‘‘भैया, अब यहीं रह जाइए, हम सब साथ रहेंगे.’’ भैया, प्रश्नवाचक दृष्टि से मुझे देखने लगे. मैं ने कहा, ‘‘आप सोच रहे होंगे, बड़ा लालची निकला, स्वयं अकेला पड़ जाएगा, इसलिए हम सब को यहां रोक लेना चाहता है. ‘‘यह विचार मुझे पहले आया नहीं, वरना मैं आप से अवश्य चर्चा करता. शायद आप दोनों का साथ एवं सोनू की विदाई के भय से मेरे दिमाग में यह विचार उपजा. कहा भी जाता है आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है, सभी के साथ की लालसा ने शायद इस विचार को जन्म दिया.’’

‘‘मन बेटा, तू बहुत नेकदिल इंसान है. तुझे लालची तो मैं समझ नहीं सकता हूं, तू बोल रहा है तो जरूर सब का हित इस में होगा तभी रुकने को कह रहा है. मैं सोच रहा हूं, सुमन की नौकरी और मेरे घर का क्या किया जाए?’’ मैं ने कहा, ‘‘भैया, मैं ने सब के बारे में सोच लिया है. देखिए भैया, सुमन तो कभी भी नौकरी करना नहीं चाहता था, उस का सपना तो हमेशा से कोचिंग इंस्टिट्यूट रहा है. वह ऐसा कोचिंग इंस्टिट्यूट खोलना चाहता है जिस में शिक्षा का उत्तम स्तर होगा तथा वह व्यापार के उद्देश्य से नहीं खोला जाएगा. उस की गुणवत्ता के चलते, इतने स्टूडैंट्स आएंगे कि कम फीस में भी हमारा खर्चा आराम से निकल आएगा. आप की प्यारी बहू नीता भी ट्यूशन चलाती थी, वह छोटे स्तर पर ही यह काम कर रही थी, किंतु इन क्लासेस में उस की जान बसती थी. मैं उस के द्वारा चलाई गई इन क्लासेस को आप लोगों के सहयोग से बड़ा रूप देना चाहता हूं. ‘‘भैया, मैं और उत्तम 6 माह आगेपीछे रिटायर होने वाले हैं. हम दोनों भी इंस्टिट्यूट से जुड़ जाएंगे. पहले कालेज में पढ़ाते रहे हैं, अब कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाएंगे. समझिए कि रिटायर होते हुए भी रिटायर नहीं होंगे. आप भी रिटायर्ड प्रोफैसर हैं, आप को भी पढ़ाने में लगना होगा. अपनी सोनू भी अध्यापिका है वह भी गणित की, वह भी साथ हो जाएगी तथा आवश्यकतानुसार बाहर से शिक्षक ले लेंगे. मैं कई अच्छे प्रोफैसर को जानता हूं, जो खुशीखुशी हमारे साथ जुड़ जाएंगे.’’

भैया बोले, ‘‘मन बेटा, तू ने सोचा तो बहुत सही है. इस तरह सुमन का सपना भी पूरा होगा व मेरी बहू नीता का सपना भी साकार होगा तथा सब से बड़ी बात है कि हम सब एकसाथ रह भी सकेंगे. सच कहूं तो इस बुढ़ापे में तेरे साथ ही रहना चाहता हूं.’’ कोचिंग इंस्टिट्यूट की बात सुन कर सोनू और सुमन बेहद खुश हो गए. सुमन ने कहा, ‘‘छोटे पापा, कल ही तो मैं ने सोनू को अपने दिल की बात बताई थी. उस ने कहा भी था कि आप जब भी इंस्टिट्यूट खोलना चाहेंगे, वह भी उस में पूरा सहयोग करेगी किंतु यह सपना इतनी जल्दी साकार होगा, यह मैं ने नहीं सोचा था.’’ सब ने मिलबैठ कर यही तय किया कि सुमन और सोनू दिल्ली जा कर मकान एवं सुमन की नौकरी का काम निबटा लें. इस बहाने इन का हनीमून भी हो जाएगा तथा घर का काम भी निबट जाएगा. सुमन ने हंसते हुए कहा, ‘‘पापा, हनीमून पर अपनी नौकरी से इस्तीफा देने वाला मैं इकलौता बंदा ही होऊंगा.’’ सुमन की बात को बढ़ाते हुए सोनू ने जोड़ दिया, ‘‘हनीमून पर अपने मकान के लिए किराएदार ढूंढ़ने वाले भी हम पहले नवविवाहित जोड़ा बन जाएंगे.’’

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उन दोनों की चुहलबाजी पर हम सभी हंस पड़े. सोनू और सुमन की शादी को 5 वर्ष हो चुके हैं. हमारे द्वारा खोले गए इंस्टिट्यूट को भी लगभग 5 वर्ष हो रहे हैं. सोनू की सलाह पर इंस्टिट्यूट का नाम नीता इंस्टिट्यूट रखा गया. शहर में नीता इंस्टिट्यूट का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है. बड़े भैया, मैं व उत्तम के साथसाथ मेरे कुछ मित्र भी इस में शामिल हुए हैं. नई पीढ़ी व पुरानी पीढ़ी के संयुक्त योगदान का अच्छा प्रतिफल विद्यार्थियों को मिल रहा है. सोनू और सुमन की 3 साल की प्यारी सी बिटिया है, जिस का नाम सोनू ने रिया रखा है. आज सोनू और सुमन के सहयोग से मेरे चौबीस घंटे नीता (इंस्टिट्यूट) और रिया (पोती) के साथ व्यतीत होते हैं. मेरा और सोनू का अनोखा रिश्ता हम दोनों के ही जीवन का मजबूत संबल बना रहा. इस कथन पर पूरी तरह विश्वास सा हो गया है कि जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, उम्मीद का एक रास्ता अवश्य खुलता है. हिम्मत करे तो मनुष्य उस के सहारे निराशा से आशा की ओर उन्मुख हो सकता है.     

प्रेम गली अति सांकरी: भाग 6

Writer- जसविंदर शर्मा 

उस ने आहिस्ताआहिस्ता मेरे बदन को यों सहलाया जैसे मैं इस दुनिया की सब से नायाब और कीमती चीज हूं. वह मुझे दीवानगी और कामुकता के उच्च शिखर तक ले गया और फिर वापस लौट आया. मैं इस दुनिया में कहीं बहुत ऊपर तैर रही थी. वह बड़े सधे ढंग से इस खेल का निर्देशन कर रहा था. खुद पर उस का नियंत्रण लाजवाब था. ठीक वक्त पर वह रुका. हम दोनों एकसाथ अर्श पर पहुंचे.

पापा ने मेरी बहन को तो कभी कुछ नहीं कहा मगर जब मेरे लवर से संबंध बने और वह जब अकसर घर आने लगा तो पापा ने एक दिन मुझे आड़े हाथ लिया. बहस होने लगी. मैं विद्रोह की भाषा में बोल पड़ी. पापा की मिस्ट्रैस को ले कर मैं ने कुछ उलटासीधा कह दिया. पापा ने मेरी खूब धुनाई कर दी. प्यार करने वाले तो पहले ही इतने पिटे हुए होते हैं कि उन्हें तो एक हलका सा धक्का ही काफी होता है उन की अपनी नजर से नीचे गिराने के लिए. पापा ने जब मुझे पीटा तब भी मां कुछ नहीं बोलीं. अब वे पूरी तरह से गूंगी हो चुकी थीं. कई बार मैं ने सोचा कि उन्हें किसी बढि़या ओल्डऐज होम में भरती करवा दूं. मां को पैसे की किल्लत न थी.

इस कशमकश में कब मेरे बालों में सफेदी उतर आई, पता ही नहीं चला. मां के गुजर जाने के बाद घर में मैं अकेली ही रह गई. सब लोगों ने अपनेअपने घोंसले बना लिए थे. सब लोग आबाद हो गए थे. एक मेरी और पापा की नियति में दुख लिखे थे.

पापा काफी वृद्ध हो गए थे. अपनी मिस्ट्रैस और उस से हुई बेटी से उन की कम ही बनती थी. पापा कभीकभार हमारे घर आते. अपने औफिस की एक अन्य बूढ़ी औरत के घर में रहते थे. मां के गुजर जाने के बाद पापा की वित्तीय स्थिति काफी मजबूत हो गई थी. मां को जो खर्च देते थे वह भी बच जाता था.

फिर एक दिन पापा भी इस दुनिया से कूच कर गए. मेरी बहन विदेश चली गई थी. पापा की मौत के बारे में सुन कर 1 साल बाद आई. हम ने एकदूसरे को सांत्वना दी. भाई ने तो बरसों पहले ही हम लोगों से नाता तोड़ रखा था. वह बहुत पहले घर को बेचना चाहता था. मगर मैं यहां रहती थी. उस ने सोचा था कि मैं इस मकान को अकेले ही हड़प लूंगी.

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मैं भला मां को छोड़ कर कहां जाती. अपने मकान में मैं जैसी भी थी, सुख से रहती थी. मेरी नौकरी कोई खास बड़ी नहीं थी. दरअसल, अपने इश्क की खातिर मैं ने यह शहर नहीं छोड़ा था, इसलिए मेरी तरक्की के साधन सीमित थे यहां.

मैं अजीब विरोधाभास में थी. अपने आशिक के घर में जा कर नहीं रह सकती थी. मेरे जाने के बाद मां की हालत खराब हो जाती. वह पापा के कारण यहां आने से कतराता था. फिर भी हम ने कहीं दूसरी जगह मिलने का क्रम जारी रखा. हमारे प्यार की इन असंख्य पुनरावृत्तियों में हमेशा एक नवीनता बनी रही. हम ने एकदूसरे से शादी के लिए कोई आग्रह नहीं किया. हमारे इश्क में शिद्दत बनी रही क्योंकि हमारे प्यार की अंतिम मंजिल प्यार ही थी.

उस के सामने मेरी कैफियत उस बच्चे के समान थी जो नंगे हाथों से अंगार उठा ले. उस ने मेरे विचारों, मेरी मान्यताओं और मेरी समझ को उलटपलट कर रख दिया था, जैसे बरसात के दौरान गलियों में बहते पानी का पहला रेला अपने साथ गली में बिखरे तमाम पत्ते, कागज वगैरह बहा ले जाता है.

मैं भी एक पहाड़ी नदी की तरह पागल थी, बावरी थी, आतुर थी. मुझे बह निकलने की जल्दी थी. मुझे कई मोड़, कई ढलान, कई रास्ते पार करने थे. मुझे क्या पता था कि तेजी से बहती हुई नदी जब मैदानों में उतरेगी तो समतल जमीन की विशालता उस की गति को स्थिर कर देगी, लील लेगी. उस के साथ रह कर मुझे लगा कि मैं फिर से जवान हो गई हूं. मेरी उम्र कम हो गई है. फिर उस की उम्र देख कर बोध होता कि मैं गलत कर रही हूं. प्यार तो समाज की धारा के विरुद्ध जा कर ही किया जा सकता है.

मैं डर गई थी समाज से, पापा से, अपनेआप से. कहीं फंस न जाऊं, हालांकि उस से जुदा होने को जी नहीं चाहता था मगर उस के साथ घनिष्ठ होने का मेरा इरादा न था या कहें कि हिम्मत नहीं थी.

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मैं तो उसे दिल की गहराइयों से महसूस कर के देखना चाहती थी. मगर वह तो मेरे प्यार के खुमार में दीवानगी की हद तक पागल था. तभी तो मैं डर कर अजीब परस्पर विरोधी फैसले करती थी. कभी सोचती आगे चलूं, कभी पीछे हटने की ठान लेती. एक सुंदर मौका, जब मैं किसी को अपने दिल की गहराइयों से प्यार करती थी, मैं ने जानबूझ कर गंवा दिया.

मैं ने उसे अपमानित किया. उसे बुला कर उस से मिलने नहीं गई. वह आया तो मैं अधेड़ उम्र के सुरक्षित लोगों से घिरी बतियाने में मशगूल रही. उस की उपेक्षा की. आखिरकार, मैं ने अपनेआप को एक खोल में बंद कर लिया, जैसे अचार या मुरब्बे को एअरटाइट कंटेनरों में बंद किया जाता है. अब मुझे इस उम्र में जब मैं 58 से ऊपर जा रही हूं, उन क्षणों की याद आती है तो मैं बेहद मायूस हो जाती हूं. मैं सोचती हूं कि मैं ने प्यार नहीं किया और अपनी मूर्खता में एक प्यार भरा दिल तोड़ दिया.

अब मैं समझ गई हूं- भाग 3: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

रिमू की बेबुनियादी बातें सुन कर मैं लगभग ?ां?ाला सा गया था. वास्तव में इस प्रकार की बातों को ले कर कई बार हम दोनों में बहस हो जाया करती थी. मेरा क्रोध देख कर वह शांत तो हो गई परंतु ऐसा लग रहा था मानो उस के मन में कोई अंर्तद्वंद्व चल रहा है.

एक दिन जैसे ही मैं औफिस से लौटा, रिमू बड़ी मस्ती में गुनगुनाती हुई खाना बना रही थी. आमतौर पर हैरानपरेशान रहने वाली रिमू को इतना खुश देख कर मैं हैरान था, सो पूछा, ‘‘क्या बात है, बड़ी खुश नजर आ रही हो?’’

‘‘आज मम्मी आ रही हैं कुछ दिनों के लिए मेरे पास रहने.’’

‘‘तब तो तुम मांबेटी की ही तूती बोलेगी आज से इस घर में, मैं बेचारा एक कोने में पड़ा रहूंगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हो, मेरी मां क्या तुम्हारी मां नहीं है,’’ हलकी सी नाराजगी जताते हुए रिमू ने कहा.

‘‘अरे नहीं बाबा, मैं तो ऐसे ही मजाक कर रहा था. तुम चायनाश्ता लगाओ, मैं फ्रैश हो कर आता हूं,’’ कह कर मैं चेंज करने चला गया.

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2 दिनों बाद रीमा की मां हमारे घर आ गईं. यह कहने में अवश्य अजीब लगेगा परंतु सचाई यही थी कि 60 की उम्र में भी उन्होंने अपनेआप को बहुत फिट रखा था, जिस से वे रीमा की मां कम, बड़ी बहन अधिक लगती थीं. एक से एक आधुनिक परिधान धारण करती थीं वे.

आते ही उन्होंने रीमा को अपना लाइफस्टाइल बदलने और हैल्दी डाइट प्लान बनाने को कहा ताकि उस के दिन पर दिन बढ़ते कमर के घेरे को कम किया जा सके. घर के बदलते रंगढंग को देख कर मैं भी बड़ा खुश था. पर एक दिन जब सुबह मैं औफिस जाने को तैयार हो रहा था तो मांबेटी को एकसाथ तैयार हो कर जाते देख पूछ लिया.

‘‘अरे, इतनी सुबहसुबह कहां जा रही हैं आप दोनों, चलिए कहां जाना है, मैं छोड़ देता हूं?’’

‘‘कहीं नहीं बेटा, यहीं पास के ही मंदिर में जा रहे हैं. पैदल जाएंगे तो वौक भी हो जाएगी. आप औफिस जाइए,’’ सासुमां ने कहा तो मैं आश्वस्त हो कर औफिस रवाना हो गया.

इन दिनों पहले की अपेक्षा रिमू कुछ अधिक शांत और खुश नजर आने लगी थी. मैं इसे मां के आने की खुशी सम?ा रहा था. कुछ दिनों के बाद मु?ो औफिस के काम से ग्वालियर जाना पड़ा. मेरा काम एक दिन पूर्व ही समाप्त हो गया. सो, मैं एक दिन पूर्व ही घर आ गया. जैसे ही घर के द्वार पर पहुंचा तो घर से पंडितों के मंत्रोच्चार की ध्वनि आ रही थी. अंदर जा कर देखा तो रिमू और उस की मां 4 पंडितों से घिरी हवन करवा रही थीं. क्रोध से मेरी आंखें ज्वाला बरसाने लगीं, परंतु मौके की नजाकत को सम?ा कर मैं शांत रहा और अंदर चला गया.

कुछ ही देर में रिमू घबराती हुई मेरे लिए चायनाश्ता ले कर आई तो मैं लगभग चीखते हुए बोला, ‘‘यह सब क्या हो रहा था, जबकि तुम्हें पता है कि मैं इन सब अंधविश्वासों और ढकोसलों को नहीं मानता?’’

‘‘अरे बेटा, जन्मकुंडली का दोष शांत करवाने के लिए यह पूजा करवाना अत्यंत आवश्यक था. अब देखना तुम्हारा गृहस्थ जीवन बहुत अच्छे से चलेगा. बहुत पहुंचे हुए पंडितजी हैं और उन्होंने पूजा भी बहुत अच्छी करवाई है,’’ रिमू के बोलने से पूर्व ही उस की मां ने अपनी सफाई दी.

‘‘मांजी, यह सब मन का वहम है. क्या कमी है आप की बेटी को बताइए, जन्ममृत्यु, हारीबीमारी ये सब तो जीवन के एक हिस्से हैं. आज दुख है तो कल सुख भी आएगा. यदि पंडितजी इतने ही पहुंचे हुए हैं तो क्यों नहीं कोई अच्छी सी नौकरी प्राप्त कर ली, क्यों यजमान ढूंढ़ते फिरते हैं अपनी जीविका को चलाने के लिए.

‘‘आप की और पापाजी की कुंडली में तो 30 गुण मिले थे पर फिर भी आप दोनों हमेशा लड़ते?ागड़ते और एकदूसरे को अपमानित करते रहते हैं. आप तो इतनी आधुनिका हैं, फिर आप अपनी सोच को आधुनिक क्यों नहीं बना पाईं. गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाना पतिपत्नी के हाथ में होता हैं न कि किसी पंडित के हाथ में. जो काम मु?ो पसंद नहीं हैं वे मेरी पत्नी मेरी अनुपस्थिति में करेगी तो कैसे गृहस्थी सुखद हो सकेगी.’’

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मु?ो नहीं पता कि मेरी बातों का उन पर क्या असर हुआ परंतु उस समय उन्होंने वहां से चले जाने में ही अपनी भलाई सम?ा. इस घटना के 2 दिनों बाद जब रीमा की मम्मी को हम स्टेशन छोड़ने गए तो उन में से एक पंडितजी के हमें प्लेटफौर्म पर दर्शन हुए. बढि़या सिगरेट के कश खींचते हुए वे जींसटौप में किसी गुंडा टाइप आदमी के साथ बातचीत कर रहे थे.

मैं ने रिमू से कहा, ‘‘देखो ये हैं तुम्हारे पंडितजी. जिन से तुम अपनी गृहस्थी में शांति करवाने चली थीं.’’

‘‘बाप रे, ये तो सिगरेट पी रहे हैं.’’ उन्हें देख कर रीमा ने दांतों तले उंगली दबा ली. सासुमां को ट्रेन में बैठा कर जब हम घर आए तो हमारे पड़ोसी अपनी बेटी की शादी का कार्ड देने आ गए.

‘‘बेटा, आप लोग अवश्य आइएगा. बड़ी मुशकिल से तय हो पाई हमारी बेटी की शादी. जहां भी जाओ लोग जन्मकुंडली मिलाने की बात करते और न मिलने पर शादी की बात आगे ही नहीं बढ़ पाती थी, पर एक पंडित ने ही हमें इस का तोड़ बता दिया कि पहले लड़के की जन्मपत्रिका ले लो और मैं उसी के अनुसार बेटी की पत्रिका बना दूंगा. हम ने ऐसा ही किया और चट मंगनी पट ब्याह हो गया. क्या करें बेटा कई जगह विवशता में चालाकी करनी पड़ती है,’’ वे अपनी बेटी के विवाह के बारे में बताने लगे.

‘‘क्या ऐसा भी होता है? फिर कुंडली मिलवाने का क्या मतलब?’’ अब तक शांत बैठी रिमू अचरज से बोली.

‘‘हांहां भाभीजी, क्यों नहीं, आजकल सब संभव है. पंडितजी को चढ़ावा चढ़ाओ और असंभव कार्य को भी पंडितजी से संभव करवाओ. दरअसल, भाभीजी यह कुंडली कुछ होती ही नहीं है, यह सब तो पंडितों के चोंचले हैं दानदक्षिणा प्राप्त करने के.

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‘‘अब हमारा तो अंतर्जातीय विवाह हुआ है. आज 35 वर्ष हो गए हमारे दांपत्य जीवन को. हर सुखदुख को हम ने खुशीखुशी ?ोला है. 35 वर्षों में लड़ाई?ागड़ा तो छोडि़ए, किसी भी प्रकार की अनबन तक नहीं हुई हम दोनों में. एकदूसरे को इतना सम?ाते हैं हम दोनों. विवाह तो पतिपत्नी की सम?ादारी से सफल होते हैं, न कि कुंडली से.’’

इस के बाद वे तो चले गए पर रिमू की आंखें अवश्य खोल गए क्योंकि जैसे ही मैं उन्हें बाहर छोड़ कर आया, रिमू मेरे गले लग गई, बोली, ‘‘तुम सच कहते हो, यह कुंडली सिर्फ मन का वहम और पंडितजी के जीने का साधन है. अब मैं सब सम?ा गई हूं.’’

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