पांच साल बाद- भाग 5: क्या निशांत को स्निग्धा भूल पाई?

स्निग्धा दिल की बुरी नहीं थी. अत्यधिक प्यारदुलार और अनुचित छूट से वह उद्दंड और उच्छृंखल हो गई थी. वह हर उस काम को करती थी जिसे करने के लिए उसे मना किया जाता था. इस से उसे मानसिक संतुष्टि मिलती. जब लोग उसे भलाबुरा कहते और उस की तरफ नफरतभरी नजर से देखते तो उसे लगता कि उस ने इस संसार को हरा दिया है, यहां के लोगों को पराजित कर दिया है. वह इन सब से अलग ही नहीं, इन सब से महान है. दूसरे लोगों के बारे में उस की सोच थी कि ये लोग परंपराओं और मर्यादाओं में बंधे हुए गुलामों की तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं.

शादी को वह एक बंधन समझती थी. इसे स्त्री की पुरुष के प्रति गुलामी समझती थी. उस की सोच थी कि शादी करने के बाद पुरुष केवल स्त्री पर अत्याचार करता है. इसलिए उस ने ठान लिया था कि वह शादी कभी नहीं करेगी.

परंतु बिना शादी किए किसी पुरुष के साथ रहना उसे अनुचित न लगा.

उसे इलाहाबाद के वे दिन याद आते हैं जब राघवेंद्र के साथ रहते हुए पीठ पीछे उसे लोग न जाने किनकिन विशेषणों से संबोधित करते थे, जैसे- ‘चालू लड़की’, ‘चंट’, ‘छिछोरी’, ‘रखैल’ आदिआदि. तब उसे इन संबोधनों से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह किसी की बात पर कान नहीं धरती थी. वह बेफिक्री का आलम था और राघवेंद्र जैसे राजनीतिक नेता से उस का संपर्क था. वह सातवें आसमान पर थी और जमीन पर चल रहे कीड़ेमकोड़ों से वह कोई वास्ता नहीं रखना चाहती थी. उन दिनों उसे अच्छी बात अच्छी नहीं लगती थी और बुरी बात को वह सुनने के लिए तैयार नहीं थी. लोग उस के बारे में क्या सोचते थे, इस से उस को कोई लेनादेना नहीं था.

स्निग्धा के जीवन के साथ खिलवाड़ करने के लिए केवल राघवेंद्र ही जिम्मेदार नहीं था, इस के लिए स्निग्धा स्वयं जिम्मेदार और दोषी थी. अपनी गलती से उस ने सबक लिया था कि परंपराओं का उल्लंघन हमेशा उचित नहीं होता. राघवेंद्र ने भी स्निग्धा के शरीर से खेलने के बाद उसे छोड़ कर अच्छा नहीं किया था. इस प्रकार के चरित्र से उस का राजनीतिक जीवन तहसनहस हो गया था. इलाहाबाद बहुत आधुनिक शहर नहीं था कि बिना ब्याह के स्त्रीपुरुषों के संबंधों को आसानी से स्वीकार कर लेता. अगले आम चुनाव में उसे पार्टी की तरफ से टिकट नहीं दिया गया. उस ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा, परंतु बुरी तरह हार गया.

स्निग्धा को आज एहसास हो रहा था कि अपने अति आत्मविश्वास के कारण मांबाप द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का उस ने नाजायज फायदा उठाया था और अपने पांवों को गंदे दलदल में फंसा दिया था. वह अपने परिवार, संबंधियों और परिचितों से दूर हो गई. दोस्त उस का साथ छोड़ गए और आज वह इतनी बड़ी दुनिया में अकेली है. कोई उसे अपना कहने वाला नहीं है. थोड़ी देर के लिए अगर कोई सुखदुख बांटने वाला है तो वह है रश्मि, जो सच्चे मन से उस की बात सुनती है और सलाह देती है.

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दिल्ली आ कर वह अपने इलाहाबाद के दिनों की कड़वी यादों को भुलाने में काफी हद तक सफल हो गई थी. वहां रहती तो शहर के रास्तों, गलीकूचों और बागबगीचों से गुजरते हुए अपने कटु अनुभवों को भुला पाना उस के लिए आसान न था. अब निशांत से मिलने के बाद क्या वह अपना पिछला जीवन भूल सकेगी? उस के मन में कोई फांस तो नहीं रह जाएगी कि वह निशांत को धोखा दे रही है. परंतु वह ऐसा क्यों सोच रही है? क्या वह समझती है कि निशांत उसे अपना बना लेगा? उस के दिल में एक टीस सी उठी. अगर निशांत ने उसे ठुकरा दिया तो. इस तो के आगे उस के पास कोई जवाब नहीं था. हो भी नहीं सकता था, परंतु संसार में क्या अच्छे पुरुषों की कमी है? अगर वह चाहती है कि शादी कर के अपना घर बसा ले और एक आम गृहिणी की तरह जीवन व्यतीत करे तो उसे कौन रोक सकता था. निशांत न सही, कोई भी पुरुष उस का हाथ थामने के लिए तैयार हो जाएगा. उस में कमी क्या है?

सच तो यह है कि आज पहली बार उस का दिल सच्चे मन से किसी के लिए धड़का है और वह है निशांत.

स्निग्धा को बाराखंभा वाली जौब मिल गई, उस के जीवन में खुशियों के पलों में इजाफा हो गया, लेकिन जीवन में एक ठहराव सा था. पुरुष हो या स्त्री, एकाकी जीवन दोनों के लिए कष्टमय होता है. यह बात निशांत भी जानता था और स्निग्धा भी, परंतु अभी तक उन्होंने अपने मन की पर्तों को नहीं खोला था. ताश के खिलाडि़यों की तरह दोनों ही अपनेअपने पत्ते छिपा कर चालें चल रहे थे.

प्रतिदिन शाम को वे दोनों मिलते थे. मिलने की एक निश्चित अवधि थी और निश्चित स्थान. इंडिया गेट के लंबेचौड़े, खुले मैदान. कभी बैठ कर, कभी घास पर चलते हुए और कभी फूलों के पौधों के किनारे चलते हुए वे दुनियाजहान की बातें करते, वहां घूम रहे लोगों के बारे में बातें करते, चांदतारों की बातें करते और लैंपपोस्ट की हलकी रोशनी में एकदूसरे की आंखों में चांद ढूंढ़ने की कोशिश करते.

उन को मिलते हुए कई महीने बीत गए. चांद अभी भी उन की पकड़ से दूर था. स्निग्धा पहले जितनी वाचाल और चंचल थी, अब उतनी ही अंतर्मुखी हो गई थी या शायद निशांत के संसर्ग में आ कर उस के जैसी हो गई थी. यह उस के स्वभाव के विपरीत था, परंतु मानव मन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है. स्निग्धा उस के सामने अपने मन को बहुत ज्यादा नहीं खोल सकती थी, क्योंकि निशांत उस के बारे में सबकुछ जानता था. परंतु वह न तो उस के भूतकाल की कोई बात करता, न भविष्य के बारे में कोई बात. दोनों के बीच अनिश्चितता का एक लंबा ऊसर पसरा हुआ था. क्या इस ऊसर में प्यार का कोई अंकुर पनपेगा?

वोट क्लब के छोटेछोटे कृत्रिम तालाबों के किनारे चलते हुए निशांत ने पूछा, ‘जीवनभर अकेले ही रहने का इरादा है या कुछ सोचा है?’

‘क्या मतलब…?’ उस ने आंखों को चौड़ा कर के पूछा.

निशांत गंभीर था.

‘मांबाप के पास जाने का इरादा है?’ निशांत ने घुमा कर पूछा.

स्निग्धा के हृदय में कुछ चटक गया. फिर भी अपने को संभाल कर कहा, ‘उस तरफ के सारे रास्ते मेरे लिए बंद हो चुके हैं. न मुझ में इतना साहस है, न कोई इच्छा. उन के पास जा कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे ही इस संसार सागर को पार करना है, अकेले या किसी के साथ?’ उस का स्वर भीगा हुआ था.

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‘किस के साथ?’ निशांत ने उस का हाथ पकड़ लिया.

स्निग्धा के शरीर में एक मीठी सिहरन दौड़ गई. वह सिमटते हुए बोली, ‘जो भी मेरे मन को समझ लेगा.’

‘तो कोई ऐसा मिला है?’ वह जैसे उस के मन को परखने का प्रयास कर रहा था. स्निग्धा मन ही मन हंसी, ‘तो मुझ से बनने की कोशिश की जा रही है.’

वह आसमान की तरफ देखती हुई बोली, ‘देख तो रही हूं, सूरज के रथ पर सवार हो कर कोई औरों से बिलकुल अलग एक पुरुष मेरे जीवन में प्रवेश कर रहा है,’ आसमान में तारों का साम्राज्य था. चांद कहीं नहीं दिख रहा था, परंतु तारों की झिलमिलाहट आंखों को बहुत भली लग रही थी.’

‘परंतु आसमान में तो कहीं सूरज नहीं है, फिर उस का रथ कहां से आएगा?’ उस ने चुटकी ली.

‘अभी रात्रि है. रथ में जुते घोड़े थक गए हैं, वे विश्राम कर रहे हैं. कल फिर यात्रा मार्ग पर निकलेंगे,’ वह हंसी.

‘अच्छा, तो कल शाम तक यहां पहुंच जाएंगे?’

‘कह नहीं सकती. मार्ग लंबा है, समय लग सकता है,’ वह जमीन पर देखने लगी.

निशांत ने उस की कमर में हाथ डाल दिया. वह उस से सट गई.

‘जब सूरज का रथ तुम्हारे पास आ जाए तो उस पुरुष को ले कर मेरे पास आना, मेरे घर.’

‘अवश्य.’

एक दिन स्निग्धा ने मिलते ही एटम बम फोड़ा.

‘मैं तुम्हारे घर आना चाहती हूं.’

‘क्या सूरज का रथ और वह पुरुष आ चुका है?’ उस ने मुसकराती आंखों से स्निग्धा को देखते हुए पूछा.

‘हां,’ उस ने शरमाते हुए कहा.

‘कहां है?’

‘तुम्हारे घर पर ही उस से मिलवाऊंगी.’

‘तो फिर मुझे 2 दिन का समय दो. आने वाले इतवार को मैं घर पर तुम्हारा इंतजार करूंगा. ढूंढ़ लोगी न, भटक तो नहीं जाओगी?’

‘अब कभी नहीं,’ स्निग्धा ने आत्मविश्वास से कहा.

अगले इतवार को स्निग्धा उस के घर पर थी और कुछ ही महीनों बाद उस की बांहों में. कुछ साल में वह 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. यह तो बताने की जरूरत नहीं पर दोनों बच्चे मां से ज्यादा दादादादी से चिपटे रहते और दादादादी बहू के बिना न कहीं जाते न उस से पूछे बिना कुछ करते. निशांत कई बार कहता, ‘‘तुम भी अजीब हो, मैं ने तुम्हें पाया, बदले में मेरे मातापिता को छीन कर तुम ने अपनी तरफ कर लिया.’’

धुंधली सी इक याद- भाग 2: राज अपनी पत्नी से क्यों दूर रहना चाहता था?

Writer- Rochika Sharma

आज ईशा बहुत खुश थी. शादी के 2 साल बाद उस ने राज से अपने मन की बात कही और राज ने उसे स्वीकार भी किया. वह रात को गुलाबी रंग की नाइटी पहन और पूरे कमरे को खुशबू से तैयार कर स्वयं भी तैयार हो गई. राज भी उसे देख कर बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘तुम इस गुलाबी नाइटी में खिले कमल सी लग रही हो,’’ और फिर वह उस के गालों, माथे, होंठों को चूमने लगा. फिर न जाने उसे क्या हुआ वह ईशा से दूर होते हुए बोला, ‘‘ईशा, चलो सो जाते हैं, फिर कभी.’’  राज के इस व्यवहार से ईशा तो उस मोर समान हो गई जो बादल देख कर अपने  पंखों को पूरा गोल फैला कर खुश हो कर नाच रहा हो और तभी आंधी बादलों को उड़ा ले जाए. बादल बिन बरसे ही चले गए और मोर ने दुखी हो कर अपने पंख समेट लिए हों.  ईशा रोज किसी न किसी तरह कोशिश करती कि राज उस से शारीरिक संबंध स्थापित करे, लेकिन हर बार असफल हो जाती.

आज जब राज दफ्तर से आया तो ईशा ने जल्दी से रात का खाना निबटाया और सोने के पहले राज से बोली, ‘‘चलो न राज कहीं हिल स्टेशन घूम आते हैं… काफी समय हुआ हम कहीं नहीं गए हैं.’’  राज उस की कोई बात नहीं टालता था. अत: उस ने झट से हवाईजहाज के टिकट बुक किए और दोनों काठमांडु के लिए रवाना हो गए. ईशा काठमांडु में नेपाली ड्रैस पहन कर फोटो खिंचवा रही थी. उस की खूबसूरती देखने लायक थी. शादी के 4 साल बाद भी वह नवविवाहिता जैसी लगती थी. 7 दिन राज और ईशा नेपाल की सारी प्रसिद्ध जगहों पर घूमेफिरे.  राज ने उसे आसमान पर बैठा रखा था. जीजान से चाहता था वह ईशा को. ईशा भी उस के प्यार को दिल की गहराई से महसूस करती थी. राज उस की कोई ख्वाहिश अधूरी नहीं छोड़ता था. लेकिन रात के समय न जाने क्यों वह ईशा को वह नहीं दे पाता जिस का उसे पहली रात से इंतजार था और इस के लिए कई बार तो वह ईशा से माफी भी मांगता. कहता, ‘‘ईशा, तुम मुझ से तलाक ले लो और दूसरी शादी कर लो. न जाने क्यों मैं चाह कर भी…’’ इतना कह एक रात राज की आंखों में आंसू आ गए.

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ईशा कहने लगी, ‘‘ऐसा न कहो राज. हम दोनों ने 7 फेरे लिए हैं… एकदूसरे का हर हाल में साथ निभाने का वादा किया है. मैं हर हाल में तुम्हारा साथ निभाऊंगी. मैं तुम से प्यार करती हूं राज. फिर भी हमें 1 बच्चा तो चाहिए. उस के लिए हमें प्रयास तो करना होगा न?’’  शादी के 5 साल बीत चुके थे. अब तो ईशा से उस के मातापिता, सहेलियां, रिश्तेदार सभी पूछने लगे थे, ‘‘ईशा, तुम 1 बच्चा क्यों पैदा नहीं कर लेतीं? कब तक ऐसे ही रहोगी? परिवार में बच्चा आने से खुशियां दोगुनी हो जाती हैं.’’

हर बार ईशा मुसकरा कर जवाब देती, ‘‘आप ने कहा न… अब मैं इस बारे में सोचती हूं.’’  मगर यह सिर्फ सोचने मात्र से तो नहीं हो जाता न. बच्चे के लिए पतिपत्नी में  शारीरिक संबंध भी तो जरूरी हैं. शादी को 6 वर्ष बीत गए थे. कई बार ईशा सोचती कि एक बच्चा गोद ले ले ताकि कोई उसे बारबार टोके नहीं. लेकिन फिर सोच में पड़ जाती कि राज को ऐसा क्या हो जाता है कि वह संबंध बनाने से कतराता है? सब कुछ ठीक ही तो चल रहा है. वह उस के साथ खुश भी रहता है, उसे सहलाता है, चूमता है, लेकिन सिर्फ उस वक्त वह क्यों उस से दूर हो जाता है. वह इंटरनैट पर ढूंढ़ने लगी और डाक्टर से भी मिली.

डाक्टर ने कहा, ‘‘ईशा मैं तुम्हारे पति से मिलना चाहूंगी. पुरुषों के शारीरिक संबंध स्थापित करने में असफल होने के कई कारण होते हैं.’’

जब राज घर आया तो ईशा ने उसे बताया, ‘‘मैं डाक्टर से मिल कर आई हूं. डाक्टर आप से मिलना चाहती हैं. कल 11 बजे का समय लिया है. आप को मेरे साथ चलना है.’’

राज ने कहा, ‘‘ठीक है चलेंगे.’’  अगले दिन दोनों तैयार हो कर डाक्टर से मिलने पहुंच गए.  डाक्टर ने राज व ईशा से उन की शादी की पहली रात से ले कर अब तक की  सारी बातें पूछीं. एक बार को तो डाक्टर को भी कुछ समझ न आया. डाक्टर ने बताया, ‘‘पुरुषों में शारीरिक संबंध स्थापित न कर पाने के कई कारण होते हैं जैसे धूम्रपान, जिस के कारण पुरुषों के जननांग तक रक्तसंचार नहीं हो पाता है और उन में नपुंसकता आ जाती है. जिस से इरैक्टाइल डिस्फंक्शन की समस्या आ जाती है और शुक्राणुओं में कमी आ जाती है. इस से सैक्स करने की कामना में कमी आ जाती है.  ‘‘इस का दूसरा कारण होता है डिप्रैशन. जिस तरह यह आम जीवन को प्रभावित करता है उसी तरह यह सैक्स लाइफ को भी प्रभावित करता है. इनसान का दिमाग उस के सैक्स जीवन की इच्छाओं को संचित करने में मदद करता है. इसलिए सैक्स के समय किसी भी तरह का टैंशन या स्ट्रैस संबंध में बाधा पैदा करता है. डिप्रैशन एक ऐसी स्थिति है, जिस के कारण दिमाग का कैमिकल कंपोजिशन बिगड़ जाता है और उस का सीधा प्रभाव वैवाहिक जीवन पर पड़ता है. कामवासना में कमी आ जाती है.

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‘‘इस के कुछ उपाय होते हैं जैसे धूम्रपान कम करें, संतुलित आहार लें, व्यायाम करें. कई बार मोटापे के कारण भी शरीर में रक्तसंचार नहीं होता और काम उत्तेजना कम हो जाती है. कई बार मधुमेह रोग होने से भी समस्या होती है, क्योंकि मधुमेह इनसान के नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है, जिस के कारण इरैक्टाइल डिस्फंक्शन की शिकायत हो जाती है.  ‘‘कई बार पुरुषों में टेस्टोस्टेरौन हारमोन की कमी से भी सैक्स लाइफ प्रभावित होती है. इस के लिए सुबह के समय टेस्टोस्टेरौन लैवल का टैस्ट करवाना होता है, क्योंकि सुबह के समय इस का लैवल सब से ज्यादा होता है. शीघ्र पतन भी एक समस्या होती है, जिस में पुरुष महिला के सामने आते ही घबरा जाता है और स्खलित हो जाता है. इस कारण भी पुरुष महिला से दूर भागने लगता है.

ममता- भाग 1: क्या माधुरी को सासुमां का प्यार मिला

मा धुरी को आज बिस्तर पकड़े  8 दिन हो गए थे. पल्लव के मित्र अखिल के विवाह से लौट कर कार में बैठते समय अचानक पैर मुड़ जाने के कारण वह गिर गई थी. पैर में तो मामूली मोच आई थी किंतु अचानक पेट में दर्द शुरू होने के कारण उस की कोख में पल रहे बच्चे की सुरक्षा के लिए उस के पारिवारिक डाक्टर ने उसे 15 दिन बैड रैस्ट की सलाह दी थी. अपनी सास को इन 8 दिनों में हर पल अपनी सेवा करते देख उस के मन में उन के प्रति जो गलत धारणा बनी थी एकएक कर टूटती जा रही थी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि मनोविज्ञान की छात्रा होने के बाद भी वह अपनी सास को समझने में चूक कैसे गई?

उसे 2 वर्ष पहले का वह दिन याद आया जब मम्मीजी अपने पति पंकज और पुत्र पल्लव के साथ उसे देखने आई थीं. सुगठित शरीर के साथ सलीके से बांधी गई कीमती साड़ी, बौबकट घुंघराले बाल, हीरों का नैकलेस, लिपस्टिक तथा तराशे नाखूनों में लगी मैचिंग नेलपौलिश में वे बेहद सुंदर लग रही थीं. सच कहें तो वे पल्लव की मां कम बड़ी बहन ज्यादा नजर आ रही थीं तथा मन में बैठी सास की छवि में वह कहीं फिट नहीं हो पा रही थीं. उस समय उस ने तो क्या उस के मातापिता ने भी सोचा था कि इस दबंग व्यक्तित्व में कहीं उन की मासूम बेटी का व्यक्तित्व खो न जाए. वह उन के घर में खुद को समाहित भी कर पाएगी या नहीं. मन में संशय छा गया था लेकिन पल्लव की नशीली आंखों में छाए प्यार एवं अपनत्व को देख कर उस का मन सबकुछ सहने को तैयार हो गया था.

यद्यपि उस के मातापिता उच्चाधिकारी थे, किंतु मां को सादगी पसंद थी, उस ने उन्हें कभी भी गहनों से लदाफदा नहीं देखा था. वे साड़ी पहनती तो क्या, सिर्फ लपेट लेती थीं. लिपस्टिक और नेलपौलिश तो उन्होंने कभी लगाई ही नहीं थी. उन के अनुसार उन में पड़े रसायन त्चचा को नुकसान पहुंचाते हैं. वैसे भी उन्हें अपने काम से फुरसत नहीं मिलती थी.

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पापा को अच्छी तरह से रहने, खानेपीने और घूमने का शौक था. उन की  पैंटशर्ट में तो दूर रूमाल में भी कोई दागधब्बा रहने पर वे आसमान सिर पर उठा लेते थे. खानेपीने तथा घूमने का शौक भी मां के नौकरी करने के कारण पूरा नहीं हो पाया था, क्योंकि जब मां को छुट्टी मिलती थी तब पापा को नहीं मिल पाती थी और जब पापा को छुट्टी मिलती तब मां का कोई अतिआवश्यक काम आ जाता था.

उन के घर रिश्तेदारों का आना भी बंद हो गया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि यहां आने पर मेजबान की परेशानियां बढ़ जाती हैं तथा उन्हें व्यर्थ की छुट्टी लेनी पड़ती है. अत: वे भी कह देते थे, जब आप लोगों का मिलने का मन हो तब आ कर मिल जाइए.

मां का अपने प्रति ढीलापन देख कर पापा टोकते तो वे बड़ी सरलता से उत्तर देतीं, ‘व्यक्ति कपड़ों से नहीं, अपने गुणों से पहचाना जाता है और यह भी एक सत्य है कि आज मैं जो कुछ हूं अपने गुणों के कारण हूं.’

वेएक प्राइवेट संस्थान में पर्सनल मैनेजर थीं. कभीकभी औफिस के काम से उन्हें टूर पर भी जाना पड़ता था. घर का काम नौकर के जिम्मे था, वह जो भी बना देता सब वही खा लेते थे. मातापिता का प्यार क्या होता है उसे पता ही नहीं था. जब वे छोटी थीं तब बीमार होने पर उस ने दोनों में इस बात पर झगड़ा होते भी देखा था कि उस की देखभाल के लिए कौन छुट्टी लेगा? तब वह खुद को अत्यंत ही उपेक्षित महसूस करती थी. उसे लगता था कि उस की किसी को जरूरत ही नहीं है.

मां अत्यंत ही महत्त्वाकांक्षी थीं. यही कारण था कि दादी के बारबार यह कहने पर कि वंश चलाने के लिए बेटा होना ही चाहिए, उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन का कहना था कि आज के युग में लड़का और लड़की में कोई अंतर नहीं रह गया है. बस, परवरिश अच्छी तरह से होनी चाहिए लेकिन वे अच्छी तरह परवरिश भी कहां कर पाई थीं? जब तक दादी थीं तब तक तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन उन के बाद वह नितांत अकेली हो गई थी. स्कूल से लौटने के बाद घर उसे काटने को दौड़ता था, तब उसे एक नहीं अनेक बार खयाल आया था कि काश, उस के साथ खेलने के लिए कोई भाई या बहन होती.

माधुरी को आज भी याद है कि हायर सेकेंडरी की परीक्षा से पहले मैडम सभी विद्यार्थियों से पूछ रही थीं कि वे जीवन में क्या बनना चाहते हैं? कोई डाक्टर बनना चाहता था तो कोई इंजीनियर, किसी की रुचि वैज्ञानिक बनने में थी तो कोई टीचर बनना चाहता था. जब उस की बारी आई तो उस ने कहा कि वह हाउस वाइफ बनना चाहती है. सभी विद्यार्थी उस के उत्तर पर खूब हंसे थे. तब मैडम ने मुसकराते हुए कहा था, ‘हाउस वाइफ के अलावा तुम और क्या बनना चाहोगी?’ उस ने चारों ओर देखते हुए आत्मविश्वास से कहा था, ‘घर की देखभाल करना एक कला है और मैं वही अपनाना चाहूंगी.’

उस की इस इच्छा के पीछे शायद मातापिता का अतिव्यस्त रहना रहा था और इसी अतिव्यस्तता के कारण वे उस की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाए थे और शायद यही कारण था कि वह अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए पल्लव की तरफ आकर्षित हुई थी, जो उस की तरह कालेज में बैडमिंटन टीम का चैंपियन था. वे दोनों एक ही क्लब में अभ्यास के लिए जाया करते थे.

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खेलतेखेलते उन में न जाने कब जानपहचान हो गई, पता ही न चला. उस से बात करना, उस के साथ घूमना उसे अच्छा लगने लगा था. दोनों साथसाथ पढ़ते, घूमते तथा खातेपीते थे, यहां तक कि कभीकभी फिल्म भी देख आते थे, पर विवाह का खयाल कभी उन के मन में नहीं आया था. शायद मातापिता के प्यार से वंचित उस का मन पल्लव के साथ बात करने से हलका हो जाता था.

‘यार, कब तक प्यार की पींगें बढ़ाता रहेगा? अब तो विवाह के बंधन में बंध जा,’ एक दिन बातोंबातों में पल्लव के दोस्त शांतनु ने कहा था.

‘क्या एक लड़की और लड़के में सिर्फ मित्रता नहीं हो सकती. यह शादीविवाह की बात बीच में कहां से आ गई?’ पल्लव ने तीखे स्वर में कहा था.

‘मैं मान ही नहीं सकता. नर और मादा में बिना आकर्षण के मित्रता संभव ही नहीं है. भला प्रकृति के नियमों को तुम दोनों कैसे झुठला सकते हो? वह भी इस उम्र में,’ शांतनु ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा.

शांतनु तो कह कर चला गया, किंतु नदी की शांत लहरों में पत्थर फेंक गया था. पिछली बातों पर ध्यान गया तो लगा कि शांतनु की बातों में दम है, जिस बात को वे दोनों नहीं समझ सके या समझ कर भी अनजान बने रहे, उस आकर्षण को उस की पारखी निगाहों ने भांप लिया था.

गंभीरतापूर्वक सोचविचार कर आखिरकार माधुरी ने ही उचित अवसर पर एक दिन पल्लव से कहा, ‘यदि हम अपनी इस मित्रता को रिश्ते में नहीं बदल सकते तो इसे तोड़ देना ही उचित होगा, क्योंकि आज शांतनु ने संदेह किया है, कल दूसरा करेगा तथा परसों तीसरा. हम किसकिस का मुंह बंद कर पाएंगे. आज हम खुद को कितना ही आधुनिक क्यों न कह लें किंतु कहीं न कहीं हम अपनी परंपराओं से बंधे हैं और ये परंपराएं एक सीमा तक ही उन्मुक्त आचरण की इजाजत देती हैं.’

पल्लव को भी लगा कि जिस को वह अभी तक मात्र मित्रता समझता रहा वह वास्तव में प्यार का ही एक रूप है, अत: उस ने अपने मातापिता को इस विवाह के लिए तैयार कर लिया.

पल्लव के पिताजी बहुत बड़े व्यवसायी थे. वे खुले विचारों के थे इसलिए अपने इकलौते पुत्र का विवाह एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में करने को तैयार हो गए. मम्मीजी ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि जातिपांति पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि उन्हें लड़की पसंद आई तभी वे इस विवाह की इजाजत देंगी.

तांक झांक- भाग 3: क्यों शालू को रणवीर की सूरत से नफरत होने लगी?

Writer- Neerja Srivastava

शालू ने तरुण को इशारा किया. शालू ने तरुण को इशारे से ही तसल्ली दी और सैंडल उतार कर स्टेज पर आ गई.

फरमाइश का गाना बज उठा. फिर तो शालू ऐसी नाची कि सभी उस के साथ तालियां बजाते हुए मस्त हो थिरकने लगे. तरुण ने देखा वैस्टर्न डांस पर थिरकने वाले लोग भी ठुमकने लगे थे… वह नाहक ही घबरा रहा था… शालू तो छा गई…

गाना खत्म हुआ तो प्रिया के साथ रणवीर स्टेज पर आ गया. उस ने अपनी ठहरी हुई आवाज और धाराप्रवाह में चंद शेरों से सजे संक्षिप्त वक्तव्य के द्वारा सब को ऐसा मंत्रमुगध किया कि सभी वंसमोर वंसमोर कह उठे. प्रिया भी उसे गर्व से देखने लगी कि कितने शालीन ढंग से कितने खूबसूरती से शब्दों को पिरो कर बोलता है रणवीर. उस के इसी अंदाज पर तो वह मर मिटी थी. उस ने कुहनी के पास से रणवीर का बाजू प्यार से पकड़ लिया था. दोनों ने फिर किसी इंगलिश धुन पर डांस किया.

अब डांस फ्लोर पर सभी एकसाथ डांस का मजा लेने लगे. डांस का म्यूजिक चल पड़ा था. स्टेज पर वरवधू भी थिरकने लगे. सभी पेयर में नृत्य कर रहे थे. कभी पेयर बदल भी लिए जा रहे थे. शालू ने धीरेधीरे तरुण के साथ 1-2 स्टेप लिए पर पेयर बदलते ही वह घबरा उठी और किनारे लगी सीट में एक पर जा बैठी. तरुण थोड़ी देर नई रस्म में शामिल हो नाचता रहा.

एक बार प्रिया भी उस के पास आ गई पर दूसरे ही पल वह दूसरे की बांहों में थिरकती तीसरी के पास पहुंच गई. तरुण को झटका सा लगा. कुछ अजीब सा फील होने लगा, ‘कैसे हैं ये लोग… रणवीर अपने में मस्त किसी और की पत्नी के साथ और उस की पत्नी प्रिया किसी और के पति के साथ… अजब कल्चर है इन का. इस से अच्छी तो मेरी शालू है.’ उस ने दूर अकेली बैठी शालू की ओर देखा और फिर उस के पास चला गया.

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रणवीर ने देख लिया था, ‘उफ, शालू ने न तो खुद ऐंजौय किया और न पति को ही मजे लेने दिए. अपने पास बुला लिया… ऐसी पार्टियों के लायक ही नहीं वे… उधर प्रिया को देखो. कैसे एक हीरोइन सी सब की नजरों का केंद्र बनी हुई है. आई जस्ट लव हर…’ उसे नशा चढ़ने लगा था. कदमों के साथ उस की आवाज भी लड़खड़ाने लगी थी. रणवीर ने प्रिया को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो उस के कदम भी लड़खड़ाए और फिर फर्श पर जा गिरी. हड़कंप मच गया. क्या हुआ? क्या हुआ?

प्रिया दर्द से कराह उठी थी. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. रणवीर तो खुद उसे उठाने की हालत में न था. तरुण और शालू ने जैसेतैसे अस्पताल पहुंचाया.

उमेशजी अपने ड्राइवर को गाड़ी ड्राइव करने के लिए बोल रहे थे पर रणवीर माना नहीं. रास्ते भर तरुण, उस की इधरउधर भागती गाड़ी के स्टेयरिंग को मुश्किल से संभालता रहा. पर इस सब से बेखबर शालू महंगी गाड़ी में बैठी एक बार फिर अपने रईस पति की कल्पना में खो गई थी.

प्रिया घर आ गई थी. उस के पैर में प्लास्टर चढ़ गया था. लाते समय भी शालू और तरुण अस्पताल पहुंचे थे. तभी एक गरीब महिला रोती हुई आई और सब से अपने बच्चे के लिए खून देने के लिए गुहार करने लगी.

‘‘तुम प्रिया मैडम के पास चलो शालू. मैं अभी आता हूं,’’ कह तरुण ने शालू से कहा तो वह उस का आशय समझ गई.‘‘अभी 10 दिन भी नहीं हुए तुम्हें खून दिए तरुण,’’ शालू बोली.

तरुण नहीं माना. उस गरीब को खून दे आया. फिर प्रिया को उस के फ्लोर पर सहीसलामत पहुंचाया. अगले दिन बौस से डांट भी खानी पड़ी. औफिस पहुंचने में लेट जो हो गया था.

‘तरुण भी न दूसरों की खातिर अपनी परवाह नहीं करता,’ शालू औटो में बैठी सोच रही थी.

अपने ब्लौक के गेट के पास आने पर उसे एक संतरे की रेहड़ी वाला दिखा. उस ने औटो रुकवाया और उतर कर औटो वाले को पैसे देने लगी.

तभी वहां से हवा में बातें करती एक लंबी सी गाड़ी गुजरी. वह रोमांचित हो उठी. उस ने सिर उठा कर देखा, ‘अरे ये तो हमारे पड़ोसी रणवीर हैं. काश, उस का पति भी कोई बीएमडब्ल्यू जैसी गाड़ी वाला होता.’ शालू अभी यह सोच ही रही थी कि वही गाड़ी उलटी साइड से आ कर रेहड़ी वाले से जा टकराई. रेहड़ी उलट गई और रेहड़ी वाला छिटक कर दूर जा गिरा. उस के संतरे सड़क पर चारों ओर बिखर गए. शालू ने साफ देखा था. गाड़ी गलत साइड से आ कर रेहड़ी वाले से टकराई थी. फिर भी रणवीर ने तमाचे उस गरीब को जड़ दिए. फिर चीख कर बोला, ‘‘देख कर नहीं चल सकता?’’

‘‘साहबजी…’’ आंसू बन रेहड़ी वाले का दर्द आंखों में उतर आया. वह हाथ जोड़े इतना ही बोल सका.

‘‘ये पकड़ अपने नुकसान के रुपए… ज्यादा नाटक मत कर… कुछ नहीं हुआ… अब जल्दी सड़क साफ कर,’’ कह रणीवर ने उसे 2 हजार का 1 नोट दिया. शालू रणवीर का क्रूर व्यवहार देखती रह गई कि इतना अमानवीय बरताव…

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उस की महंगी गाड़ी फिर तेजी से उस की आंखों से ओझल हो गई. शालू को इस समय कोई रोमांच न हुआ, बल्कि उसे अपनी आंखों में नमी सी महसूस होने लगी. उस ने पर्स से रुमाल निकाल कर रेहड़ी वाले के माथे से रिसता खून पोंछ कर बैंडएड चोट पर चिका दी. फिर संतरे उठवाने में उस की मदद करने लगी.

‘‘रहने दीजिए मैडमजी मैं उठा लूंगा,’’ रेहड़ी वाले के पैरों और हाथों में भी चोटें थीं.

शालू ने नजरों से ओझल हुई उस गाड़ी की ओर देखा. वहां सिर्फ धूल का गुबार था, जिस ने उस की सपनीली कल्पना को उड़ा कर रख दिया कि शुक्र है उस का तरुण महंगी बड़ी गाड़ी में घूमने वाले ऐसे छोटे दिल के घटिया इंसान की तरह नहीं है. न जाने उस ने कितनी बार तरुण को ऐसे जरूरतमंदों की मदद करते देखा है. रईस ही तो है वह. वास्तव में बड़े दिल वाला रईस. शालू को तरुण पर प्यार आने लगा और फिर वह तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चली.

तलाक के बाद शादी- भाग 3: देव और साधना आखिर क्यों अलग हुए

एक मवाली हंस कर बोला, ‘‘लो, हीरो भी आ गया.’’ उस ने चाकू निकाल लिया. साधना भी देव को पहचान कर उन बदमाशों से छूट कर दौड़ कर देव से लिपट गई. वह डर के मारे कांप रही थी. देव उसे तसल्ली दे रहा था, ‘‘कुछ नहीं होगा, मैं हूं न.’’

इस से पहले मवाली आगे बढ़ता, तभी पुलिस की एक जीप रुकी सायरन के साथ. पुलिस ने तीनों को घेर लिया. पुलिस अधिकारी ने पूछा, ‘‘आप लोग इतनी रात यहां कैसे?’’

‘‘जी, औफिस में लेट हो गई थी.’’

‘‘और आप?’’

‘‘मैं भी इसी औफिस में हूं. थोड़ा आगेपीछे हो गए थे.’’

साधना जिस तरह देव के साथ सिमटी थी, उसे देख कर पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘‘आप पतिपत्नी को साथसाथ चलना चाहिए.’’

तभी 3 में से 1 मवाली ने कहा, ‘‘वही तो साब, अकेली औरत, सुनसान सड़क. हम ने सोचा कि…’’

इस से पहले कि उस की बात पूरी हो पाती, थानेदार ने एक थप्पड़ जड़ते हुए कहा, ‘‘कहां लिखा है कानून में कि अकेली औरत, सुनसान सड़क और रात में नहीं घूम सकती है. और घूमती दिखाई दे तो क्या तुम्हें जोरजबरदस्ती का अधिकार मिल जाता है.’’

थानेदार ने कहा, ‘‘आप लोग जाइए. ये हवालात की हवा खाएंगे.’’‘‘तुम यहां कैसे?’’ साधना ने पूछा.

‘‘प्रमोशन पर,’’ देव ने कहा.

‘‘और परिवार,’’ साधना ने पूछा.

‘‘अकेला हूं. तुम्हारा परिवार?’’

‘‘अकेली हूं. भाईभाभी के साथ रहती हूं.’’

‘‘शादी नहीं की?’’

‘‘हुई नहीं.’’

‘‘और तुम ने?’’

‘‘ऐसा ही मेरे साथ समझ लो.’’

‘‘औफिस में तो दिखे नहीं?’’

‘‘कल से जौइन करना है.’’

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फिर थोड़ी चुप्पी छाई रही. देव ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘खुश हो तलाक ले कर?’’ वह चुप रही और फिर उस ने पूछा, ‘‘और तुम?’’

‘‘दूर रहने पर ही अपनों की जरूरत का एहसास होता है. उन की कमी खलती है. याद आती है.’’

‘‘लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है.’’

‘‘क्यों, क्या हम दोनों में से कोई मर गया है जो देर होचुकी है?’’

साधना ने देव के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन.’’

न दोनों ने पास के एक शानदार  रैस्टोरैंट में खाना खाया. ‘‘घर चलोगी मेरे साथ? कंपनी का क्वार्टर है.’’

‘‘अब हम पतिपत्नी नहीं रहे कानून की दृष्टि में.’’

‘‘और दिल की नजर में? क्या कहता है तुम्हारा दिल.’’

‘‘शादी करोगे?’’

‘‘फिर से?’’

‘‘कानून, समाज के लिए.’’

‘‘शादी ही करनी थी तो छोड़ कर क्यों गई थी,’’ देव ने कहा.

‘‘औरत की यही कमजोरी है जहां स्नेह, प्यार मिलता है, खिंची चली जाती है. तुम्हारी बेरुखी और मां की प्रेमभरी बातों में चली गई थी.’’

‘‘कुछ मेरी भी गलती थी, मुझे तुम्हारा ध्यान रखना चाहिए था, लेकिन अब फिर कभी झगड़ा हुआ तो छोड़ कर तो नहीं चली जाओगी?’’ देव ने पूछा.

‘‘तोबातोबा, एक गलती एक बार. काफी सह लिया. बाहर वालों की सुनने से अच्छा है पतिपत्नी आपस में लड़ लें, सुन लें. एकदूसरे की.’’

अगले दिन औफिस के बाद वे दोनों एक वकील के पास बैठे थे. वकील दोस्त था देव का. वह अचरज में था,

‘‘यार, मैं ने कई शादियां करवाईं है और तलाक भी. लेकिन यह पहली शादी होगी जिस से तलाक हुआ उसी से फिर शादी. जल्दी हो तो आर्य समाज में शादी करवा देते हैं?’’

‘‘वैसे भी बहुत देर हो चुकी है, अब और देर क्या करनी. आर्य समाज से ही करवा दो.’’

‘‘कल ही करवा देता हूं,’’ वकील ने कहा.

शादी संपन्न हुई. इस बात की साधना ने अपनी मां को पहले खबर दी.

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मां ने कहा, ‘‘हम लोग ध्यान नहीं रख रहे थे क्या?’’

साधना ने कहा, ‘‘मां, लड़की प्रेमविवाह करे या परिवार की मरजी से, पति का घर ही असली घर है स्त्री के लिए.’’

देव ने अपने पिता को सूचना दी. उन्होंने कहा, ‘‘शादी दिल तय करता है अन्यथा तलाक के बाद उसी लड़की से शादी कहां हो पाती है. सदा खुश रहो.’’ और इस तरह शादी, फिर तलाक और फिर शादी.

अनकहा प्यार- भाग 2: क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

दुबई से नौकरी छोड़ कर आमिर ने अपना खुद का व्यापार शुरू कर दिया. बेटे सलीम को पढ़ाई के लिए उसे होस्टल में डाल दिया. सबीना का भी आमिर ने अच्छी तरह ध्यान रखा. उसे खूब प्रेम दिया. लेकिन जबजब आमिर सबीना से कहता कि नौकरी छोड़ दो. सबकुछ है हमारे पास. सबीना ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल तुम्हें कोई और भा गई. तुम ने फिर तलाक दे दिया तो मेरा क्या होगा? फिर मुझे यह नौकरी भी नहीं मिलेगी. मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती. इस बात पर अकसर दोनों में बहस हो जाती. घर का माहौल बिगड़ जाता. मन अशांत हो जाता सबीना का.

‘तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है?’ आमिर ने पूछा.

‘नहीं है,’ सबीना ने सपाट स्वर में जवाब दिया.

‘मैं ने तो तुम पर विश्वास किया. तुम्हें क्यों नहीं है?’

‘कौन सा विश्वास?’

‘इस बात का कि हलाला में पराए मर्द को तुम ने हाथ भी नहीं लगाया होगा.’

‘जब निकाह हुआ तो पराया कैसे रहा?’

‘मैं ने इस बात के लिए 3 लाख रुपए खर्च किए थे. ताकि जिस से हलाला के तहत निकाह हो, वह  हाथ भी न लगाए तुम्हें.’

‘भरोसा मुझ पर नहीं किया आप ने. भरोसा किया मौलवी पर. अपने रुपयों पर, या जिस से आप ने गैरमर्द से मेरा निकाह करवाया.’’

‘लेकिन भरोसा तो तुम पर भी था न.’

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‘न करते भरोसा.’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे 3 लाख रुपए भी गए और तुम ने रंगरेलियां भी मनाई हों.’ आमिर की इस बात पर बिफर पड़ी सबीना. बस, इसी मुद्दे को ले कर दोनों में अकसर तकरार शुरू हो जाती और सबीना पार्क में आ कर बैठ जाती.

पार्क की बैंच पर बैठे हुए उस की दृष्टि सामने बैठे हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी. वह थोड़ा चौंकी. उसे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति अमित हो सकता है. अमित उस के कालेज का साथी. 45 वर्ष के आसपास की उम्र, दुबलापतला शरीर, सफेद बाल, कुछ बढ़ी हुई दाढ़ी जिस में अधिकांश बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. यहां क्या कर रहा है अमित? इस शहर के इस पार्क में, जबकि उसे तो दिल्ली में होना चाहिए था. अमित ही है या कोई और. नहीं, अमित ही है. शायद मुझ पर नजर नहीं पड़ी उस की.

अमित और सबीना एकसाथ कालेज में पूरे 5 वर्ष तक पढ़े. एक ही डैस्क पर बैठते. एकदूसरे से पढ़ाई के संबंध में बातें करते. एकदूसरे की समस्याओं को सुलझने में मदद करते. जिस दिन वह कालेज नहीं आती, अमित उसे अपने नोट्स दे देता. जब अमित कालेज नहीं आता, तो सबीना उसे अपने नोट्स दे देती. कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दोनों मिल कर भाग लेते और प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए सब की वाहवाही बटोरते. जिस दिन अमित कालेज नहीं आता, सबीना को कालेज मरघट के समान लगता. यही हालत अमित की भी थी. तभी तो वह दूसरे दिन अपनत्वभरे क्रोध में डांट कर पूछता. ‘कल कालेज क्यों नहीं आईं तुम?’

सबीना समझ चुकी थी कि अमित के दिल में उस के प्रति वही भाव हैं जो उस के दिल में अमित के प्रति हैं. लेकिन दोनों ने कभी इस विषय पर बात नहीं की. सबीना घर से टिफिन ले कर आती जिस में अमित का मनपसंद भोजन होता. अमित भी सबीना के लिए कुछ न कुछ बनवा कर लाता जो सबीना को बेहद पसंद था. वे अपनेअपने सुखदुख एकदूसरे से कहते. अमित ने बताया कि उस के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. घर में बीमार बूढ़ी मां है. जवान बहन है जिस की शादी की जिम्मेदारी उस पर है. अपने बारे में क्या सोचूं? मेरी सोच तो मां के इलाज और बहन की शादी के इर्दगिर्द घूमती रहती है. बस, अच्छे परसैंट बन जाएं ताकि पीएचडी कर सकूं. फिर कोई नौकरी भी कर लूंगा.’’

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सबीना उसे सांत्वना देते हुए कहती, ‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा.

सबीना के घर की उन दिनों आर्थिक स्थिति अच्छी थी. उस के अब्बू विधायक थे. उन के पास सत्ता भी थी और शक्ति भी. कभी कहने की हिम्मम नहीं पड़ी उस की अपने अब्बू से कि वह किसी हिंदू लड़के से प्यार करती है. कहती भी थी तो वह जानती थी कि उस का नतीजा क्या होगा? उस की पढ़ाईलिखाई तुरंत बंद कर के उस के निकाह की व्यवस्था की जाती. हो सकता है कि अमित को भी नुकसान पहुंचाया जाता. लेकिन घर वालों की बात क्या कहे वह? उस ने खुद कभी अमित से नहीं कहा कि वह उस से प्यार करती है. और न ही अमित ने उस से कहा.

अमित अपने परिवार, अपने कैरियर की बातें करता रहता और वह अमित की दोस्त बन कर उसे तसल्ली देती रहती. पैसों के अभाव में सबीना ने कई बार अमित के लाख मना करने पर उस की फीस यह कह कर भरी कि जब नौकरी लग जाए तो लौटा देना, उधार दे रही हूं.

और अमित को न चाहते हुए भी मदद लेनी पड़ती. यदि मदद नहीं लेता तो उस का कालेज कब का छूट चुका होता. कालेज की तरफ से कभी पिकनिक आदि का बाहर जाने का प्रोग्राम होता, तो अमित के न चाहते हुए भी उसे सबीना की जिद के आगे झकना पड़ता. कई बार सबीना ने सोचा कि अपने प्यार का इजहार करे लेकिन वह यह सोच कर चुप रह गई कि अमित क्या सोचेगा? कैसी बेशर्म लड़की है? अमित को पहल करनी चाहिए. अमित

कैसे पहल करता? वह तो अपनी गरीबी

से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था. अमित सबीना को अपना सब से अच्छा दोस्त मानता था. अपना सब से बड़ा शुभचिंतक. अपने सुखदुख का साथी. लेकिन वह भी कर न सका अपने प्यार

का इजहार.

प्यार दोनों ही तरफ था. लेकिन कहने की पहल किसी ने नहीं की. कहना जरूरी भी नहीं था. प्यार है, तो है. बीए प्रथम वर्ष से एमए के अंतिम वर्ष तक, पूरे 5 वर्षों का साथ. यह साथ न छूटे, इसलिए सबीना ने भी अंगरेजी साहित्य लिया जोकि अमित ने लिया था. अमित ने पूछा भी, ‘तुम्हारी तो हिंदी साहित्य में रुचि थी?’

‘मुझे क्या पता था कि तुम अंगरेजी साहित्य चुनोगे,’ सबीना ने जवाब दिया.

‘तो क्या मेरी वजह से तुम ने,’ अमित ने पूछा.

‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. सोचा कि अंगरेजी साहित्य ही ठीक रहेगा.’

‘उस के बाद क्या करोगी?’

‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं, पीएचडी.’

‘मैं भी, सबीना बोली.’

जरूरी हैं दूरियां पास आने के लिए- भाग 3: क्यों मिशिका को भूलना चाहता था विहान

लेखिका- डा. मंजरी अमित चतुर्वेदी

‘‘जानती हो, जब हम साथ पढ़ाई करते थे तब भी मैं टौपिक समझ न आने के बहाने से देर तक बैठा रहता. तुम मुझे बारबार समझतीं. पर, मैं नादान बना बैठा रहता सिर्फ तुम्हारा साथ पाने की चाह में. जब छुट्टियों में बच्चे बाहर अलगअलग ऐक्टिविटी करते तब भी मैं तुम्हारी पसंद के हिसाब से काम करता था ताकि तुम्हारा साथ रहे.’’

‘‘विहान…’’ मिशी ने अचरज से कहा.

‘‘अभी तुम बस सुनो मुझे और मेरे दिल की आवाज को. याद है मिशी, जब हम 12वीं में थे, तुम मुझ से कहतीं, ‘क्यों विहान, गर्लफ्रैंड नहीं बनाई, मेरी तो सब सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं?’ मैं पूछता कि तुम्हारा भी है तो तुम हंस देतीं, ‘हट पागल, मुझे तो पढ़ाई करनी है एमबीए की, फिर मस्त जौब. पर विहान,  तुम्हारी गर्लफ्रैंड होनी चाहिए’ इतना  कह कर तुम मुझे अपनी कुछ सहेलियों की खूबियां गिनवाने लगतीं. मेरा मन करता कि तुम्हें  झकझर कर कहूं कि तुम हो तो, पर नहीं कह सका.

‘‘और तुम्हें जो अपने हर बर्थडे पर  जिस सरप्राइज का सब से ज्यादा इंतजार होता, वह देने वाला मैं ही था. बचपन में जब तुम को तुम्हारी फेवरेट टौफी तुम्हारे पैंसिल बौक्स में मिली, तुम बेहद खुश हुई थीं. अगली बार भी जब मैं ने तुम को सरप्राइज किया, तब तुम ने कहा था, ‘विहान, पता नहीं कौन है, मौम, डैड, दी या मेरी कोई फ्रैंड, पर मेरी इच्छा है कि मुझे हमेशा यह सरप्राइज गिफ्ट  मिले.’ तुम ने सब के नाम लिए, पर मेरा नहीं,’’ कहतेकहते विहान की आवाज लड़खड़ा सी गई, फिर भर आए गले को साफ कर वह आगे बोला, ‘‘तब से हर बार मैं यह करता गया. पहले पैंसिल बौक्स था, फिर बैग, फिर तुम्हारा पर्स और अब कूरियर.’’

सच जान कर मिशी जैसे सुन्न हो गई. वह हर बात विहान से शेयर करती थी. पर कभी यह नहीं सोचा कि विहान भी तो वह शख्स हो सकता है. उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

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रात गहरा चुकी थी. चांद स्याह रात के माथे पर बिंदी बन कर चमक रहा था. तेज हवा और लहरों के शोर में मिशी के जोर से धड़कते दिल की आवाज भी मिल रही थी. विहान आज वर्षों से छिपे प्रेम की परतें खोल  रहा था.

वह आगे बोला, ‘‘मिशी, उस दिन तो जैसे मैं हार गया जब मैं ने तुम से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है. मैं ने बहुत हिम्मत कर अपने प्यार का इजहार करने के लिए यह प्लान बनाया था. मैं ने धड़कते दिल से तुम से कहा, दिखाऊं फोटो, तुम ने झट से मेरा मोबाइल छीना और जैसे ही फोटो देखा, तुम्हारा रिऐक्शन देख, मैं ठगा सा रह गया. मुझे लगा, यहां मेरा कुछ नहीं होने वाला. पगली से प्यार कर बैठा,’’ इतना कह कर उस ने मिशी से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें याद है, उस दिन तुम ने क्या किया था?’’

‘‘हां, तुम्हारे मोबाइल में मुझे अपना फोटो दिखा तो मैं ने कहा, ‘वाओ, कब लिया यह फोटो, बहुत प्यारा है, सैंड करो’ और मैं उस पिक में खो गई, सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी. तुम्हारी गर्लफ्रैंड वाली बात तो मेरे दिमाग से गायब ही हो गई थी.’’

‘‘जी, मैडमजी, मैं तुम्हारी लाइफ में  इस हद तक जुड़ा रहा कि तुम मुझे कभी अलग से फील कर ही नहीं पाईं. ऐसा कितनी बार हुआ, पर तुम अपनेआप में थीं, अपने सपनों में, किसी और बात के लिए शायद तुम्हारे पास टाइम ही नहीं था, यहां तक कि अपने जज्बातों को समझने के लिए भी नहीं,’’ विहान कहता जा रहा था. मिशी जोर से अपनी मुट्ठियां भींचती हुई अपनी बेवकूफियों का हिसाब लगा रही थी.

इस तरह विहान न जाने कितनी छोटीबड़ी बातें बताता रहा और मिशी सिर झकाए सुनती रही. मिशी का गला रुंध गया, ‘‘विहान, इतना प्यार कोई किसी से कैसे कर सकता है. और तब तो बिलकुल नहीं जब उसे कोई समझने वाला ही न हो. कितना कुछ दबा रखा है तुम ने. मेरे साथ की छोटी से छोटी बात कितनी शिद्दत से सहेज कर रखी है तुम ने.’’

‘‘अरे, पागल रोते नहीं. और यह किस ने कहा कि तुम मुझे समझती नहीं थीं. मैं तो हमेशा तुम्हारा सब से करीबी रहा. इसलिए प्यार का एहसास कहीं गुम हो गया था. और इस हकीकत को सामने लाने के लिए मैं ने खुद को तुम से दूर करने का फैसला किया. कई बार दूरियां नजदीकियों के लिए बहुत जरूरी हो जाती हैं. मुझे लगा कि मेरा प्यार सच्चा होगा, तो तुम तक मेरी सदा जरूर पहुंचेगी. नहीं तो, मुझे आगे बढ़ना होगा तुम को छोड़ कर.’’

‘‘मैं कितनी मतलबी थी.’’

‘‘न बाबा, तुम बहुत प्यारी तब भी थीं और अब भी हो.’’

मिशी के रोते चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई. वह धीरे से विहान के कंधों पर अपना सिर टिकाने को बढ़ ही रही थी कि अचानक उसे कुछ याद आया. वह एकदम उठ खड़ी हुई.

‘‘क्या हुआ, मिशी?’’

‘‘यह सब गलत है.’’

‘‘क्यों गलत है?’’

‘‘तुम और पूजा दी…’’

‘‘मैं और पूजा….’’ कह कर विहान हंस पड़ा.

‘‘तुम हंस क्यों रहे हो?’’

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‘‘मिशी, मेरी प्यारी मिशी, मुझे जैसे ही पूजा और मेरी शादी की बात पता चली तो मैं पूजा से मिला और तुम्हारे बारे में बताया. सुन कर पूजा भी खुश हुई. उस का कहना था कि विहान हो या कोई और, उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. मांपापा जहां चाहेंगे, वह खुशीखुशी वहां शादी कर लेगी. फिर हम दोनों ने सारी बात घर पर बता दी. किसी को कोई प्रौब्लम नहीं है. अब इंतजार है तो तुम्हारे जवाब का.’’

इतना सुनते ही मिशी को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. अब न कोई शिकायत बची थी, न सवाल.

‘‘बोलो मिशी, मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं,’’ विहान ने बेचैनी से कहा.

‘‘मेरे चेहरे पर बिखरी खुशी देखने के बाद भी तुम को जवाब चाहिए,’’ मिशी ने नजरें झका कर भोलेपन से कहा.

‘‘नहीं मिशी, जवाब तो मुझे उसी दिन मिल गया था जब मैं 10 महीने बाद  तुम्हारे घर आया था. पहले वाली मिशी होती तो बोलबोल कर, सवाल पूछपूछ कर, झगड़ा कर के मुझे भूखा ही भगा देती,’’ कह कर विहान जोर से हंस पड़ा.

‘‘अच्छा जी, मैं इतनी बकबक करती हूं,’’ मिशी ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘हांजी, पर न तुम झगड़ीं, न कुछ बोलीं, बस देखती रहीं मुझे. ख्वाब बुनती रहीं. उसी दिन मैं समझ गया था कि जिस मिशी को पाने के लिए मैं ने उसे खोने का गम सहा, यह वही है, मेरी मिशी, सिर्फ मेरी मिशी,’’ विहान ने मिशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

मिशी ने भी विहान का हाथ कस कर थाम लिया हमेशा के लिए. वे हाथों में हाथ लिए चल दिए. जिंदगी के नए सफर पर साथसाथ कभी जुदा न होने के लिए. आसमां, चांदतारे, चांदनी और लहलहाता समुद्र उन के प्रेम के साक्षी बन गए थे.

कहीं दूर से हवा में संगीत की धुन उन के प्रेम की दास्तां बयां कर रही थी,  ‘मेरे हमसफर… मेरे हमसफर… हमें साथ चलना है उम्र भर…’

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आखिरी मुलाकात- भाग 2: क्यों सुमेधा ने समीर से शादी नहीं की?

Writer- Shivi Goswami

मैं उस का चेहरा देखे जा रहा था. वह मेरा बहुत अच्छा दोस्त बन गया था. शायद अब वह मेरे दिल की बात भी पढ़ने लगा था.

‘देखो, मैं ने जानबूझ कर हां बोला है और मैं कोई बहाना बना कर कल नहीं आऊंगा. तुम दोनों मूवी देखने अकेले जाना. इस से तुम्हें एकसाथ वक्त बिताने का मौका मिलेगा और अपने दिल की बात कहने का भी.’

‘लेकिन…’

‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, तुम्हें अपने दिल की बात कल उस से कहनी ही होगी. वह आ कर तो यह बात बोलेगी नहीं.’

मैं ने नीलेश को गले लगा लिया,

‘धन्यवाद नीलेश…’

‘ओह रहने दे, तेरी शादी में भांगड़ा करना है बस इसलिए ऐसा कर रहा हूं,’ यह कह कर नीलेश हंसने लगा.

आज रविवार था और नीलेश का प्लान कामयाब हो चुका था. उस ने सुमेधा को फोन कर के कह दिया था कि उस की मौसी बिना बताए उस को सरप्राइज देने के लिए पूना से यहां उस से मिलने आई हैं. इसलिए वह मूवी देखने नहीं आ सकता. लेकिन हम उस की वजह से अपना प्लान और मूड खराब न करें. इस से उस को अच्छा नहीं लगेगा.

सुमेधा मान गई और न मानने का तो कोई सवाल ही नहीं था. मैं मन ही मन नीलेश के दिमाग की दाद दे रहा था.

मौल के बाहर मैं सुमेधा का इंतजार कर रहा था. सुमेधा जैसे ही औटो से उतरी मैं ने उस को देख लिया था. सफेद सूट में वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. मैं उस को बस देखे जा रहा था. उस ने मेरी तरफ आ कर मुझ से हाथ मिलाया और कहा, ‘ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा?

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‘नहीं, मैं बस 20 मिनट पहले आया था,’

मैं ने उस की तरफ देखते हुए कहा.

‘ओह, आई एम सौरी. ट्रैफिक बहुत है आज, रविवार है न इसलिए,’ उस ने हंसते हुए कहा.

हम दोनों ने मूवी साथ देखी. लेकिन मूवी बस वह देख रही थी. मेरा ध्यान मूवी पर कम और उस पर ज्यादा था.

मूवी के बाद हम दोनों वहीं मौल के एक रेस्तरां में बैठ गए. सुमेधा मूवी के बारे में ही बात कर रही थी.

‘मुझे तुम से कुछ कहना है सुमेधा,’ मैं ने सुमेधा की बात बीच में ही काटते हुए कहा.

‘हां, बोलो समीर…,’ सुमेधा ने कहा.

‘देखो, मैं ने सुना है कि लड़कियों का सिक्स सैंस लड़कों से कुछ ज्यादा होता है, लेकिन फिर भी मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं. अगर तुम को मेरी बात पसंद न आए तो तुम मुझ से साफसाफ बोल देना. और हां, इस से हमारी दोस्ती में कोई फर्क नहीं आना चाहिए.’

‘लेकिन बात क्या है, बोलो तो पहले,’ सुमेधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

‘मुझे डर था कि कहीं अपने दिल की बात बोल कर मैं अपने प्यार और दोस्ती दोनों को ही न खो दूं. फिर नीलेश की बात याद आई कि कम से कम एक बार बोलना जरूरी है, जिस से सचाई का पता चल सके. मैं ने सुमेधा की तरफ देखते हुए अपनी पूरी हिम्मत जुटाते हुए कहा, ‘आई…आई लव यू सुमेधा. तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो.’

मेरी बात सुन कर सुमेधा एकदम अवाक रह गई. उस के चेहरे के भाव एकदम बदल गए.

‘सुमेधा, कुछ तो बोलो… देखो, अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं माफी चाहूंगा. जो मेरे मन में था और जो मैं तुम्हारे लिए महसूस करता हूं वह मैं ने तुम से कह दिया और यकीन मानो आज तक यह बात न तो मैं ने कभी किसी से कही है और न ही कहने का दिल किया कभी.’

सुमेधा मुझे देखे जा रही थी और मेरी घबराहट उस की नजरों को देख कर बढ़ती जा रही थी. वह धीमी आवाज में बोली, ‘मैं तुम से नाराज हूं…’

मैं उस की तरफ एकटक देखे जा रहा था.

‘मैं तुम से नाराज हूं इसलिए क्योंकि तुम ने यह बात कहने में इतना समय लगा दिया और मुझे लगता था कि मुझे ही प्रपोज करना पड़ेगा.’

उस की बात को सुन कर मुझे लगा कि कहीं मेरे कानों ने कुछ गलत तो नहीं सुन लिया था. कहीं यह सपना तो नहीं? लेकिन वह कोई सपना नहीं हकीकत थी.

मैं ने लंबी सांस लेते हुए कहा, ‘तुम ने मुझे डरा दिया था सुमेधा. मुझे लगा कहीं प्यार की बात बोल कर मैं अपनी दोस्ती न खो दूं.’

‘अच्छा… और अगर न बताते तो शायद अपने प्यार को खो देते,’ सुमेधा ने कहा.

उस दिन से ज्यादा खुश शायद मैं पहले कभी नहीं हुआ था. जब एम.ए. में फर्स्ट क्लास आया था तब भी और जब नौकरी मिली थी तब भी. एक अजीब सी खुशी थी उस दिन.

सुमेधा और मैं घंटों मोबाइल पर बात किया करते थे और मौका मिलते ही एकदूसरे के साथ वक्त बिताते थे.

उस दिन के बाद एक दिन सुमेधा ने मुझे बहुत खूबसूरत सा हार दिखाते हुए बाजार में कहा, ‘देखो समीर, कितना प्यारा लग रहा है.’

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मैं ने कहा, ‘तुम से ज्यादा नहीं.’

वह बोली, ‘जनाब, यह मेरी खूबसूरती को और बढ़ा सकता है.’

उस वक्त मन तो था कि मैं उस को वह हार दिलवा कर उस की खूबसूरती में चार चांद लगा दूं, लेकिन मेरी सैलरी इतनी नहीं थी कि उस को वह हार दिलवा सकता.

सुमेधा समझ गई थी. उस ने मेरी तरफ देखते हुए कहा, ‘इतना भी खूबसूरत नहीं है कि इस हार की इतनी कीमत दी जाए. लगता है अपने शोरूम के पैसे भी जोड़ दिए हैं. चलो समीर चाय पीते हैं.’

मुझे सुमेधा की वह बात अच्छी लगी. वह खूबसूरत तो थी ही, समझदार भी थी.

वक्त बीतता गया. सुमेधा चाहती थी कि मैं शादी से पहले अपने पैरों पर अच्छे से खड़ा हो जाऊं ताकि शादी के बाद बढ़ती हुई जिम्मेदारियों से कोई परेशानी न आए. बात भी सही थी. अभी मेरी सैलरी इतनी नहीं थी कि मैं शादी जैसी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभा सकूं.

हमारे प्यार को 1 साल से ज्यादा हो गया था. वक्त कैसे बीत गया पता ही नहीं चला.

आज सुमेधा औफिस नहीं आई थी. मैं ने सुमेधा को फोन किया, लेकिन पूरी रिंग जाने के बाद भी उस ने मोबाइल नहीं उठाया.

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हो सकता है वह व्यस्त हो किसी काम में. क्या हुआ होगा, जो सुमेधा ने मुझे नहीं बताया कि आज वह छुट्टी पर है. पूरा दिन बीत गया लेकिन सुमेधा का कोई फोन नहीं आया. मुझे बहुत अजीब लग रहा था. क्या आज वह इतनी व्यस्त है कि एक बार भी फोन या मैसेज करना जरूरी नहीं समझा?

दूसरा विवाह- भाग 1: क्या सोनाक्षी से विशाल प्यार करता था?

सोनाक्षी ‘बाय’ बोल कर औफिस जाने लगी, तभी उस की भाभी लीना ने उसे रोका और खाने का डब्बा थमा दिया, जिसे वह आज भी भूल कर जा रही थी. मगर वह कहने लगी कि रहने दो, आज वह औफिस की कैंटीन में खा लेगी.

‘‘कोई जरूरत नहीं, ले कर जाओ. रोजरोज बाहर का खाना सेहत के लिए ठीक नहीं होता,  झूठमूठ का गुस्सा दिखाती हुई लीना बोली, ‘‘मां को बताऊं क्या?’’

‘‘अच्छाअच्छा, ठीक है, लाओ, पर मां को कुछ मत बताना, वरना उन का भाषण शुरू हो जाएगा.’’ उस की बात पर लीना मुसकरा पड़ी और खाने का डब्बा उसे थमा दिया.

सोनाक्षी और लीना थीं तो ननदभाभी लेकिन दोनों सखियों जैसी थीं जिन्हें हर बात बे िझ झक बताई जा सकती है. ‘‘प्लीज भाभी, मां को मत बताना कि कभीकभार मैं कैंटीन में खा लेती हूं, वरना वह गुस्सा करेंगी,’ सोनाक्षी बोल ही रही थी कि विशाल उस के पीछे आ कर खड़ा हो गया.

लीना जानती थी वह कुछ न कुछ बोलेगी ही विशाल के बारे में और फिर दोनों के बीच बहसबाजी शुरू हो जाएगी. और वही हुआ भी. सोनाक्षी कहने लगी, ‘‘अब मैं निकलती हूं, वरना विशाल, गला फाड़ कर सोनाक्षीसोनाक्षी चिल्लाने लगेगा. अजीब इंसान है, कितनी बार कहा है नीचे से आवाज मत लगाया करो, सब सुनते हैं, पर नहीं, अक्ल से दिवालिया जो ठहरा, सम झता ही नहीं है.’’

‘‘अच्छा, तो अक्ल से दिवालिया इंसान हूं मैं, और तुम ज्ञान की पोटली,

‘‘ओहो… ओहो…’’ पीछे से विशाल की आवाज सुन सोनाक्षी ने दांतों तले अपनी जीभ दबा ली कि यह क्या बोल गई वह. अब तो यह विशाल का बच्चा छोड़ेगा नहीं उसे. ‘‘बोलो, चुप क्यों हो गईं? वैसे, मु झे लगता है दिमागी इलाज की तुम्हें जरूरत है क्योंकि आज औफिस बंद है. पता नहीं, शायद, आज ईद है?’’ बोल कर विशाल हंसा, तो लीना को भी हंसी आ गई.

दोनों को खुद पर हंसते देख सोनाक्षी को पहले तो बहुत गुस्सा आया, लेकिन फिर दांत निपोरती हुई बोली, ‘‘हां भई, पता है मु झे, वह तो मैं तुम्हारा टैस्ट ले रही थी.’’

‘‘टैस्ट… ले रही थी या अपने दिमाग का टैस्ट दे रही थी?’’ जोर का ठहाका लगाते विशाल बोला, तो लीना हंसी रोक न पाई.

‘‘वैसे, एक बात बताओ, क्या सच में तुम्हें पता नहीं था कि आज औफिस बंद है या मु झ से मिलने की बेताबी थी?’’ उस की आंखों में  झांकते हुए विशाल बोला, तो शरमा कर सोनाक्षी ने अपनी नजरें नीची कर लीं.

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सच बात तो यही है कि उसे सच में पता नहीं था कि आज औफिस की छुट्टी है. वह तो विशाल से मिलने को इतना आतुर रहती है कि औफिस जाने के लिए रोज वक्त से पहले ही तैयार हो कर उस की राह देखने लगती है और आज भी उस ने वही किया. जरा भी भान नहीं रहा उसे कि आज औफिस की छुट्टी है. वह तैयार हो कर विशाल की राह देखने लगी. विशाल के साथ बातें करना, उस के साथ वक्त गुजारना सोनाक्षी को बहुत अच्छा लगता है.

दरअसल, मन ही मन वह उस से प्यार करने लगी है और यह बात लीना भी जानती है कि सोनाक्षी विशाल को पसंद करती है. लेकिन घर में सब को यही लगता है कि दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं और कुछ नहीं. विशाल और सोनाक्षी एक ही औफिस में काम करते हैं और दोनों एकदूसरे को 2 सालों से जानते हैं. चूंकि दोनों एक ही औफिस में काम करते हैं इसलिए सोनाक्षी विशाल के साथ उस की ही गाड़ी में औफिस जातीआती है.

दोनों बातों में लगे थे. तब तक लीना सब के लिए चाय बना लाई. वह अपनी चाय ले कर सोफे  पर बैठ गई और उन की बातों में शामिल हो गई. लीना के हाथों की बनी चाय पी कर विशाल कहने से खुद को रोक नहीं पाया कि लीना के हाथों में तो जादू है. उस के हाथों की बनी चाय पी कर मूड फ्रैश हो जाता है.

सच में, लीना चाय बहुत अच्छी बनाती है, यह सब कहते हैं और सिर्फ चाय ही नहीं, बल्कि उस का हर काम फरफैक्ट होता है और यही बात विशाल को बहुत पसंद है. उसे गैरजिम्मेदार और कामों के प्रति लापरवाह इंसान जरा भी पसंद नहीं है. वह खुद भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाता है. लड़का है तो क्या हुआ? अपने घर के सारे काम वह खुद करता है और यह बात लीना को बहुत अच्छी लगती है.

लीना की बढ़ाई सुन कर मुंह बनाती हुई सोनाक्षी कहने लगी कि चाय वह भी अच्छी बना लेती है. तो चुटकी लेते हुए विशाल बोला, ‘‘हां, पी है तुम्हारे हाथों की बनी चाय भी, बिलकुल गटर के पानी जैसी,’’ उस की बात पर सब हंस पड़े और सोनाक्षी मुंह बनाते हुए विशाल पर मुक्का बरसाने लगी कि वह उस का मजाक क्यों बनाता है हमेशा?

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कुछ देर और बैठ कर विशाल वहां से जाने को उठा ही था कि लीना ने उसे रोक लिया, यह बोल कर कि वह खाना खा कर ही जाए. लीना के इतने प्यार से आग्रह पर विशाल ‘न’ नहीं कह पाया. वैसे, विशाल यहां यह बताने आया था कि आज बुकफेयर का अंतिम दिन है, इसलिए वहां चलना चाहिए, लेकिन सोनाक्षी मूवी देखने के मूड में थी.

‘‘मूवी? नहींनहीं, बेकार में 3 घंटे पकने से अच्छा है बुकफेयर चलना चाहिए,’’ सोनाक्षी की बात को काटते हुए विशाल बोला. कब से विशाल बुकफेयर जाने की सोच रहा था पर औफिस के कारण जा नहीं पा रहा था. आज छुट्टी है, तो सोचा वहां चला जाए.

सोनाक्षी का तो बिलकुल वहां जाने का मन नहीं था पर लीना बुकफेयर का नाम सुन कर ही चहक उठी. उसे किताबें पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. कोई कहे कि पूरे दिन बैठ कर किताबें पढ़ती रहो, तो उकताएगी नहीं वह, इतना उसे किताब पढ़ना अच्छा लगता है. तभी तो वह जब भी मार्केट जाती है, बुकस्टौल से अपने लिए दोचार अच्छीअच्छी किताबें खरीद लाती है.

नश्तर- भाग 2: पति के प्यार के लिए वो जिंदगी भर क्यों तरसी थी?

तब स्कूल में बराबर की अध्यापिकाओं में उन का मन रम गया था. कभी स्कूल से ही पास के बाजार में चाट खाने का कार्यक्रम बन जाता तो कभी फिल्म देखने का. उधर विजयजी ने भी चैन की सांस ली थी कि वे उन पर अपनी खीझ नहीं उतारतीं, अपनी सहेलियों में मस्त हैं.

एक दिन एक अध्यापिका के पिता की मृत्यु के कारण स्कूल 11 बजे ही बंद हो गया. सो, वे जल्दी घर आ गईं. 5 मिनट तक वे दरवाजा खटखटाती रहीं, तब कहीं आया ने खोला. वह कुछ हकलाते हुए बोली, ‘बच्चों को स्कूल छोड़ आईर् थी. स…स…साहब जल्दी घर आ गए हैं…’

‘क्यों?’

‘उन को दर्द हो रहा है?’

‘कहां?’

‘कमर में…न…नहीं सिर में…’

उस की हकलाहट पर उन्हें आश्चर्य हुआ. उन्होंने उसे घूर कर देखा था. यह देख उन्हें कुछ ज्यादा ही आश्चर्य हुआ कि यह तो बड़े सलीके से साड़ी बांधा करती है, पर इस समय वह बेतरतीब सी क्यों  नजर आ रही है? माला का पेंडेंट सदा बीच में रहता है, वह कंधे पर क्यों पड़ा हुआ है? बाल भी बेतरतीब हो रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा लगा, लेकिन वे सीधे अंदर घुसती चली गईं. कमरे में देखा, पति कुरसी पर बैठे उलटा अखबार पढ़ रहे हैं. उन्हें हंसी आ गई, ‘क्या सिर में इतना दर्द हो रहा है कि उलटे अक्षर समझ में आ रहे हैं?’

‘किस के सिर में दर्द हो रहा है?’

‘आप के और किस के?’

‘मेरे तो नहीं हो रहा,’ खिसिया कर उन्होंने उलटा अखबार सीधा कर लिया.

‘कपिला तो ऐसा ही कह रही थी.’

‘पहले सिर में दर्द हो रहा था, लेकिन कपिला ने चाय बना दी. चाय के साथ दवा लेने से आराम है?’

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उन्होंने कपड़े बदलने के लिए जैसे ही सोने के कमरे में कदम रखा, बिस्तर की सिलवटें देख कर तो जैसे उन का रक्त ही जम गया. एक झटके में कपिला की बेतरतीब बंधी साड़ी, उस का हकलाना, विजयजी का उलटा अखबार पढ़ना और बिस्तर की सिलवटें जैसे उन्हें सबकुछ समझा गई थीं. वे उसी कमरे में कपड़े बदलते हुए जारजार रो उठी थीं. उन्हें अपनेआप पर ही आश्चर्य हो रहा था कि वे कपिता के बाल पकड़ कर उसे घसीट कर घर से बाहर क्यों नहीं कर देतीं या विजयजी से लड़ कर घर में हंगामा क्यों नहीं खड़ा कर देतीं? लेकिन वे खामोश ही रहीं.

बाद में उन्होंने अचानक स्कूल से कई बार आ कर देखा, लेकिन कभी कुछ सुराग हाथ नहीं लगा.

हां, जब भी पति घर में होते, उन की आंखें हमेशा जिस ढंग से कपिला का पीछा करती रहतीं, इस से उस के प्रति उन का आकर्षण छिपा न रहता. उन दिनों वे समझ गईर् थीं कि जो पुरुष अपने मन की गांठ के कारण अपनी सुसंस्कृत पत्नी को भरपूर प्यार नहीं कर पाते, वे अपने तनमन की प्यास बुझाने के लिए अकसर भटक जाते हैं.

उस दिन को याद कर के जैसे आज भी नुकीला नश्तर उन के दिल में चुभता रहता है. जब वे कभी कपिला को टोकतीं तो वह उत्तर देती, ‘जल्दी क्या है बाईजी, अभी सारा काम हो जाएगा.’

एक बार कपिला ने एक दिन की छुट्टी मांगी, लेकिन 3 दिनों बाद काम पर लौट कर आई. वे तो मौका ही ढूंढ़ रही थीं. जानबूझ कर आगबबूला हो गईं, ‘तुझे पता नहीं है, मैं बाहर काम करती हूं?’

‘मैं ने गीता मेम की बाई को बोला तो था कि मेरे पीछे आप का काम कर ले.’

‘सिर्फ एक दिन आई थी. आज तू अपना हिसाब कर और चलती बन.’

‘पहले साहब से तो पूछ कर देख लो, मुझे निकालना पसंद करेंगे कि नहीं?’ कह कर वह कुटिलता से मुसकराई.

‘साहब कौन होते हैं घर के मामले में दखल देने वाले?’ कहते हुए उन का चेहरा तमतमा गया.

‘लो बोलो, वे तो घर के मालिक हैं…किस औरत को अपने घर में रखना है और किसे नहीं, वे ही तो सोचेंगे. मैं जब आईर् थी तो कैसे उदास रहते थे. अब कैसे खुश रहते हैं. उन की खुशी के वास्ते ही अपने घर में रख लो.’

‘तू बहुत बदतमीज औरत है.’

‘देखो, गाली मत निकालना. गाली देना हम को भी आता है,’ कपिला चिल्लाई.

उन्होंने बिना बोल मेज पर रखे पर्स में से रुपए निकाल कर उस का हिसाब चुकता कर दिया. वह बकती हुई चली गई. लेकिन क्या आज भी उन के जीवन से वह जा पाई है? उन के नारीत्व की खिल्ली उड़ाती उस की कुटिल मुसकान क्या अभी भी उन का पीछा छोड़ पाई है?

अब बुढ़ापे में यह अर्चना आ मरी है. वह अकसर अपने बचपन के किस्से सुनाती है, ‘भाभी, जब हम अपनी मौसी के यहां, यानी कि भैया की चाची के यहां गरमी की छुट्टियों में जाते थे तो जानती हो, तब ये बिलकुल जोकर लगते थे. ये किताब ले कर छत पर पढ़ने चले जाते थे. मैं पीछे से इन्हें धक्का दे कर ‘हो’ कर के डरा देती थी.’

तब हमेशा चुप रहने वाले विजयजी भी चहकते, ‘और जानती हो, इस ने मुझे भी शैतान बना दिया था. एक बार यह कुरसी पर बैठी तकिए का गिलाफ काढ़ रही थी. मैं ने इस की चोटी का रिबन कुरसी से बांध दिया था. जब यह कुरसी से उठी तो धड़ाम से ऐसे गिरी…’ विजयजी ने कुरसी पर से उठ कर गिरने का ऐसा अभिनय किया कि सीधे अर्चना की गोद में जा गिरे और दोनों देर तक खिलखिलाते, हंसते रहे.

वे क्रोध से कसमसा उठीं कि 64 वर्ष की उम्र में इस बुढ़ऊ को क्या हो गया है. फसाद की जड़ यह अर्चना ही है. इस के पति अकसर दौरे पर रहते हैं. बच्चे होस्टल में रह रहे हैं, इसलिए जबतब उन के घर आ टपकती है. बड़े अधिकार से आते ही घोषणा कर देती है, ‘आज तो हम यहीं खाना खाएंगे.’

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विजयजी अवकाशप्राप्त हैं. इस उम्र में यदि कोई चुहल करने वाला मिल जाए तो फिर तो चांदी ही चांदी है. पत्नी से वे कभी ठीक से जुड़ नहीं पाए. अर्चना से मिल रहे इस खुलेदिल के प्यारदुलार से जैसे उन के चेहरे पर रंगत आ गई है.

वे मन ही मन कुढ़ती रहती हैं. वैसे पति ऐसा कुछ नहीं करते कि उन से लड़झगड़ सकें. दोनों के रिश्तों के ऊपर भाईबहन का बोर्ड लगा है. वे कहें भी तो क्या? वैसे उन के दिल के दौरे का कारण भी तो अर्चना ही थीं.

उस दिन दोपहर में खाना बन चुका था. खाना लगाने के लिए अर्चना की सहायता लेने वे कमरे में जा रही थीं. अचानक दरवाजे के परदे के पीछे ही वे अर्चना की आवाज सुन कर रुक गईं.

‘छोडि़ए भैया…’

‘तुम मुझे भैया क्यों कहती हो?’ विजयजी का अधीर स्वर सुनाई दिया था.

‘जब हम युवा थे तो मैं ने आप को भैया कहने से इनकार किया था. खुद आगे बढ़ कर आप का प्यार मांगा था, लेकिन तब आप ने मेरा प्यार ठुकरा दिया था.’

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