Serial Story: धनिया का बदला- भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘अरे, आओ रे छंगा… गले लग जाओ हमारे… आज कितने बरसों के बाद तुम से मुलाकात हो रही है… कितने दुबले हो गए हो तुम… खातेवाते नहीं हो क्या?’’ बीरू ने अपने भाई से कहा.

‘‘हां भाई बीरू… तुम तो जानते हो… इस खेतीकिसानी का काम करने के बाद कमबख्त चूल्हाचौका तो होने से रहा हम से… दिनभर की मेहनत के बाद जो भी बन पड़ता है बना लेते हैं और खा कर सो जाते हैं.’’

‘‘कोई बात नहीं छंगा भैया… अब हम आ गए हैं… कामधाम में तुम्हारा हाथ बंटाएंगे और तुम्हारी भाभी तुम को खूब दूधमलाई खिलाएंगी… और ये तुम्हारी 2 भतीजियां हैं, इन के साथ खूब खुश रहोगे तुम भी और हम भी.

‘‘हम दोनों भाई मिल कर काम करेंगे, तो हमारी खेती सोना उगलेगी सोना,’’ कह कर एक बार फिर से बीरू ने छंगा को गले लगा लिया.

बीरू और छंगा दोनों जुड़वां भाई थे. उन के मांबाप की मौत पहले ही हो  चुकी थी.

बचपन से ही बीरू को शहर जाने का शौक था, इसलिए वह गांव की ही एक लड़की से शादी करने के बाद अपनी बीवी को ले कर शहर निकल गया था और खेतीबारी का काम अकेले छंगा के सिर पर आ गया था.

अभी तक छंगा ही इस पूरी खेतीबारी का मालिक था. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि बीरू किसी दिन शहर को छोड़ कर गांव में भी रहने के लिए आ सकता?है, इसलिए उस ने बातोंबातों में ही बीरू से पूछा, ‘‘तो भैया… क्या शहर वाला मकान, जो किराए पर लिए थे, वह छोड़ दिए हैं आप?’’

‘‘अरे, हां रे… वह सब हम छोड़  के आए हैं… किराए का मकान, नौकरी, सबकुछ… अरे, जब गांव में ही अपनी इतनी सारी जमीन पड़ी हुई?है, तब किसी दूसरे की हांहुजूरी क्या करनी?’’ बीरू ने साफसाफ कह दिया था.

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अभी तक तो छंगा ही इस सारी खेती का मालिक बना बैठा था, पर अब अचानक से बीरू का वापस गांव में आ कर बसने की बात करना उसे बिलकुल सुहा नहीं रहा था.

बीरू की पत्नी का नाम धनिया था. सांवला रंग, तीखे नैननक्श, सांचे में ढला हुआ शरीर. उसे देखने से लगता ही नहीं था कि वह 2 बच्चों की मां है.

धनिया भी गांव में ही पलीबढ़ी थी, पर जब उसे बीरू अपने साथ ब्याह कर शहर ले गया, तो उस ने साड़ी पहनना सीख लिया था.

गांव की लड़की पर जब शहरीपन का रंग चढ़ गया, तो एक अलग किस्म की नजाकत आ गई थी धनिया में. अब जब वह साड़ी बांध कर उस पर खुली पीठ वाला तंग ब्लाउज पहन कर निकलती तो गांव के कुंआरे लड़के तो होश खो ही बैठते, बल्कि शादीशुदा और बूढ़े भी ललचाई नजरों से उसे घूरते रहते थे.

एक दिन की बात है. शाम के समय बीरू और धनिया खेत की तरफ टहलने के लिए निकले थे कि तभी किसी ने धनिया पर छींटाकशी की, ‘‘अरे, तू शहर की है गोरी या गांव की है छोरी. एक बार कलेजे से हमारे लग जा, तो मैं आज मना लूं होली…’’

‘‘तुम लोगों को शर्म नहीं आती इस तरह से एक औरत को छेड़ते हुए,’’ धनिया ने पलट कर देखा, तो 3-4 मनचलों का एक ग्रुप बैठा हुआ था.

बीरू को मामले को भांपने में देर नहीं लगी. उस की त्योरियां चढ़ गईं और मुट्ठियां भिंच गईं. वह आगे बढ़ा और उस ग्रुप में सब से आगे खड़े आदमी का कौलर पकड़ लिया और आननफानन में 1-2 घूंसे रसीद कर दिए.

इस से पहले कि लड़ाई आगे बढ़ती, वहां पर छंगा आ गया और हाथ जोड़ कर उन मनचलों के सरदार से माफी मांगने लगा.

‘‘पर छंगा, तुम इस से माफी क्यों मांग रहे हो? इस ने तो तुम्हारी भाभी को छेड़ा है…’’ बीरू बिफर रहा था.

‘‘अरे नहीं भैया, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी… ये तो यहां के बहुत भले लोग हैं. और वैसे भी ये यहां के होने वाले मुखिया हैं. इन से कोई झगड़ा मोल नहीं लेता है,’’ अभी छंगा बीरू को समझा ही रहा था कि मनचलों का सरदार, जिस का नाम कालिया था, गरज उठा, ‘‘छंगा, यह तुम्हारा भाई नहीं होता, तो आज यह अपनी टांगों पर चल कर अपने घर नहीं जा पाता.’’

‘‘कोई बात नहीं भैया… ये अभी नएनए आए हैं… आप के बारे में पता नहीं था… आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ छंगा ने बात को ज्यादा तूल नहीं दिया.

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अगले दिन छंगा बीरू को अपने खेत दिखाने ले गया. बीरू की खुशी का ठिकाना नहीं था, ‘‘अब तो दोनों भाई जम कर मेहनत करेंगे और इस जमीन से सोना उपजाएंगे,’’ कह कर बीरू ने खेत की मिट्टी उठा कर छंगा के माथे पर तिलक कर दिया और अपने माथे पर भी मिट्टी रगड़ ली थी.

‘‘ठीक है भैया, आप खेत में काम करो… हम जरा मुखियाजी के घर से खाद की बोरी उठा कर ले आते हैं,’’ कह कर छंगा वहां से चला गया.

बीरू तनमन से मेहनत करने में लग गया था और कोई फिल्मी गाने की धुन भी गुनगुना रहा था…

‘धांय’ की आवाज के साथ एक गोली ठीक बीरू के सीने में आ लगी थी और वह वहीं खेत में गिर गया.

गांव में लोग पीठ पीछे बहुतकुछ बातें कर रहे थे और सभी लोग मन ही मन हत्यारे को भी पहचान रहे थे, पर सामने किसी की भी कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि बीरू को गोली किस ने मारी है.

छंगा ने पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई. पुलिस ने छानबीन भी की, पर सुबूतों की कमी में पुलिस को मायूस ही लौटना पड़ा.

इस पूरी दुनिया में अब धनिया बेसहारा हो गई थी. वह सफेद साड़ी में बिना किसी साजसिंगार के सूनीसूनी फिरती थी.

‘‘भाभी… हम से आप का यह रूप नहीं देखा जाता… हम आप को ऐसे नहीं रहने देंगे,’’ छंगा की आवाज में दर्द था.

‘‘क्या करेंगे… जब हमारी किस्मत में ही विधवा का रूप लिखा है तो… ऊपर वाले की मरजी के आगे भला किस की चली है…’’

‘‘यह किस्मतविस्मत हम नहीं जानते… पर, सोचो भाभी… अभी तुम्हारे सामने पहाड़ सी जिंदगी है… 2 छोटी बेटियां हैं… और फिर गांव के मनचलों से बचने के लिए भी तो किसी के नाम का सहारा तो चाहिए न,’’ छंगा बोले जा रहा था.

धनिया की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस की चुप्पी को छंगा ने हां समझा और पंचायत बुला कर धनिया  से शादी कर के उसे सहारा देने की  बात कही.

‘‘अगर इस मामले में धनिया को कोई एतराज नहीं है, तो हम पंचों को भला क्या एतराज होगा,’’ सरपंच ने कहा.

धनिया भी वहां मौजूद थी. गांव के मनचलों से बचने के लिए अगर उसे किसी के नाम का सहारा मिल रहा है, तो भला इस में बुराई ही क्या है, ऐसा सोच कर धनिया ने अपनी रजामंदी दे दी.

‘‘भाभी, तुम बच्चों को ले कर आराम से यहां सो जाओ, मैं बगल वाली कोठरी में जा कर सो जाता हूं,’’ छंगा  ने कहा.

धनिया अपनी बेटियों को सीने से लगा कर सोती और छंगा दूसरी कोठरी में सोता रहा.

दोनों की शादी को 2 महीने बीत गए थे, पर छंगा ने अपने बरताव से कोई ऐसा काम नहीं किया था, जिस से धनिया को कोई एतराज होता. बात करते समय भी धनिया के चेहरे की तरफ न देख कर बिना नजरें मिलाए ही बात करता था छंगा और जिस्मानी संबंध बनाने की बात भी उस के मन में नहीं आई थी.

छंगा धनिया की बेटियों को खूब प्यार देता था. जब भी वह शहर जाता तो उन के लिए मिठाई जरूर ले आता था और अपने पास बिठा कर बारीबारी से खिलाता था.

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छंगा का अपनी बेटियों के प्रति ऐसा प्यार देख कर धनिया के मन को भी संतोष मिलने लगा था.

कुछ दिनों के बाद अचानक ही धनिया को बुखार आ गया. बुखार बहुत तेज था. छंगा तुरंत ही धनिया को शहर के डाक्टर से दवा दिलवा कर लाया.

दवा खा कर धनिया को कुछ राहत तो मिली, पर उस का शरीर अकसर ढीला रहता और नींद उसे घेरे रहती. शायद बुखार के चलते बदन में कमजोरी आ गई होगी, ऐसा सोच कर वह निश्चिंत थी.

प्रेम ऋण- भाग 3: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘अशीम केवल मित्र है, दीदी? मैं तो सोचती थी कि आप उस के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और किसी और के बारे में सोचेंगी भी नहीं. पर आप तो प्रशांत बाबू की मर्सीडीज देख कर सबकुछ भूल गईं.’’

‘‘कालिज का प्रेम समय बिताने के लिए होता है. मैं इस बारे में पूर्णतया व्यावहारिक हूं. अशीम अभी पीएच.डी. कर रहा है. 4-5 वर्ष बाद कहीं नौकरी करेगा. उस की प्रतीक्षा करते हुए मेरी तो आंखें पथरा जाएंगी. घर ढंग से चलाने के लिए मुझे भी 9 से 5 की चक्की में पिसना पड़ेगा. मैं उन भावुक मूर्खों में से नहीं हूं जो प्रेम के नाम पर अपना जीवन बरबाद कर देते हैं.’’

‘‘आप का हर तर्क सिरमाथे पर, लेकिन आप से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि आप अशीम को सब साफसाफ बता दें और उस के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना बंद कर दें. फिर प्रशांतजी का परिवार इसी शहर में रहता है. किसी को भनक लग गई तो…’’

‘‘किसी को भनक नहीं लगने वाली. तुम्हीं बताओ, मांपापा को आज तक कुछ पता चला क्या? हां, इस के लिए मैं तुम्हारी आभारी हूं. पर मैं इस उपकार का बदला अवश्य चुकाऊंगी.’’

‘‘अंशुल दीदी, तुम इस सीमा तक गिर जाओगी मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ पारुल बोझिल स्वर में बोली.

‘‘यदि अपने हितों की रक्षा करने को नीचे गिरना कहते हैं तो मैं पाताल तक भी जाने को तैयार हूं. तुम चाहती हो कि मैं अशीम को सब साफसाफ बता दूं, पर जरा सोचो कि जब सारे शहर को मेरे विवाह के संबंध में पता है पर केवल अशीम अनभिज्ञ है तो क्या यह मेरा दोष है?’’

‘‘पता नहीं दीदी, पर कहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘व्यर्थ की चिंता में नहीं घुला करते मेरी प्यारी बहन, अभी तो तुम्हारे खानेखेलने के दिन हैं. क्यों ऊंचे आदर्शों के चक्कर में उलझती हो. अशीम को मैं सबकुछ बता दूंगी पर जरा सलीके से. अपने प्रेमी को मैं अधर में तो नहीं छोड़ सकती,’’ अंशुल ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

पारुल चुप रह गई थी. वह भली प्रकार जानती थी कि अंशुल से बहस का कोई लाभ नहीं था. उस ने अपने अगले प्रश्नपत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी.

परीक्षा और विवाह की तैयारियों के बीच समय पंख लगा कर उड़ चला था. सुजाताजी ने अपनी लाड़ली के विवाह में दिल खोल कर पैसा लुटाया था. वीरेन बाबू को न चाहते हुए भी उन का साथ देना पड़ा था. अंशुल की विदाई के बाद कई माह से चल रहा तूफान मानो थम सा गया था. पारुल ने सहेलियों के साथ नाचनेगाने और फिर रोने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. पर अब सूने घर में कहीं कुछ करने को नहीं बचा था.

धीरेधीरे उस ने स्वयं को व्यवस्थित करना प्रारंभ किया था. पर एक दिन अचानक ही अशीम का संदेश पा कर वह चौंक गई थी. अशीम ने उसे कौफी हाउस में मिलने के लिए बुलाया था.

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अशीम से पारुल को सच्ची सहानुभूति थी. अत: वह नियत समय पर उस से मिलने पहुंची थी.

‘‘पता नहीं बात कहां से प्रारंभ करूं,’’ अशीम कौफी और कटलेट्स का आर्डर देने के बाद बोला.

‘‘कहिए न क्या कहना है?’’ पारुल आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘विवाह से 4-5 दिन पहले अंशुल ने मुझे सबकुछ बता दिया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मातापिता का मन रखने के लिए उसे इस विवाह के लिए तैयार होना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, और क्या कहा उस ने?’’

‘‘वह कह रही थी कि उस के विवाह के लिए मातापिता को काफी कर्ज लेना पड़ा. घर तक गिरवी रखना पड़ा. वह मुझ से विनती करने लगी, उस का वह स्वर मैं अभी तक भूला नहीं हूं.’’

‘‘पर ऐसा क्या कहा अंशुल दीदी ने?’’

‘‘वह चाहती है कि मैं तुम से विवाह कर लूं जिस से कि तुम्हारे मातापिता को चिंता से मुक्ति मिल जाए. और भी बहुत कुछ कह रही थी वह,’’ अशीम ने हिचकिचाते हुए बात पूरी की.

कुछ देर तक दोनों के बीच निस्तब्धता पसरी रही. कपप्लेटों पर चम्मचों के स्वर ही उस शांति को भंग कर रहे थे.

‘तो यह उपकार किया है अंशुल ने,’ पारुल सोच रही थी.

‘‘अशीमजी, मैं आप का बहुत सम्मान करती हूं. सच कहूं तो आप मेरे आदर्श रहे हैं. आप की तरह ही पीएच.डी. करने के लिए मैं ने एम.एससी. के प्रथम वर्ष में जीतोड़ परिश्रम किया और विश्वविद्यालय में प्रथम रही. इस वर्ष भी मुझे ऐसी ही आशा है. आप के मन में अंशुल दीदी का क्या स्थान था मैं नहीं जानती पर निश्चय ही आप ‘पैर का जूता’ नहीं हैं कि एक बहन को ठीक नहीं आया तो दूसरी ने पहन लिया,’’ सीधेसपाट स्वर में बोल कर पारुल चुप हो गई थी.

‘‘आज तुम ने मेरे मन का बोझ हलका कर दिया, पारुल. तुम्हारे पास अंशुल जैसा रूपरंग न सही पर तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अनोखा तेज है जिस की अंशुल चाह कर भी बराबरी नहीं कर सकती.’’

‘‘यही बात मैं आप के संबंध में भी कह सकती हूं. आप एक सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं. इन छोटीमोटी घटनाओं से आप सहज ही विचलित नहीं होते. आप के लिए एक सुनहरा भविष्य बांहें पसारे खड़ा है,’’ पारुल ने कहा तो अशीम खिलखिला कर हंस पड़ा.

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‘‘हम दोनों एकदूसरे के इतने बड़े प्रशंसक हैं यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं था. तुम से मिल कर और बातें कर के अच्छा लगा,’’ अशीम बोला और दोनों उठ खड़े हुए.

अपने घर की ओर जाते हुए पारुल देर तक यही सोचती रही कि अशीम को ठुकरा कर अंशुल ने अच्छा किया या बुरा? पर इस प्रश्न का उत्तर तो केवल समय ही दे सकता है.

चेतावनी- भाग 3: मीना उन दोनों के प्रेमसंबंध में क्यों दिलचस्पी लेने लगी?

लेखक- अवनिश शर्मा

जीवन हमारी सोचों के अनुसार चलने को जरा भी बाध्य नहीं. अगले दिन दोपहर को संदीप के पिता की कोठी की तरफ जाते हुए अर्चना और मैं काफी ज्यादा तनावग्रस्त थे, पर वहां जो भी घटा वह हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छा था.

संदीप की मां अंजू व छोटी बहन सपना से हमारी मुलाकात हुई. अर्चना का परिचय मुझे उन्हें नहीं देना पड़ा. कालिज जाने वाली सपना ने उसे संदीप भैया की खास ‘गर्लफ्रेंड’ के रूप में पहचाना और यह जानकारी हमारे सामने ही मां को भी दे दी.

संदीप की जिंदगी में अर्चना विशेष स्थान रखती है, अपनी बेटी से यह जानकारी पाने के बाद अंजू बड़े प्यार व अपनेपन से अर्चना के साथ पेश आईं. सपना का व्यवहार भी उस के साथ किसी सहेली जैसा चुलबुला व छेड़छाड़ वाला रहा.

जिस तरह का सम्मान व अपनापन उन दोनों ने अर्चना के प्रति दर्शाया वह हमें सुखद आश्चर्य से भर गया. गपशप करने को सपना कुछ देर बाद अर्चना को अपने कमरे में ले गई.

अकेले में अंजू ने मुझ से कहा, ‘‘मीनाजी, मैं तो बहू का मुंह देखने को न जाने कब से तरस रही हूं पर संदीप मेरी नहीं सुनता. अगला प्रमोशन होने तक शादी टालने की बात करता है. अब अमेरिका जाने के कारण उस की शादी साल भर को तो टल ही गई न.’’

‘‘आप को अर्चना कैसी लगी है?’’ मैं ने बातचीत को अपनी ओर मोड़ते हुए पूछा.

‘‘बहुत प्यारी है…सब से बड़ी बात कि वह मेरे संदीप को पसंद है,’’ अंजू बेहद खुश नजर आईं.

‘‘उस के पिता बड़ी साधारण हैसियत रखते हैं. आप लोगों के स्तर की शादी करना उन के बस की बात नहीं.’’

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‘‘मीनाजी, मैं खुद स्कूल मास्टर की बेटी हूं. आज सबकुछ है हमारे पास. सुघड़ और सुशीललड़की को हम एक रुपया दहेज में लिए बिना खुशीखुशी बहू बना कर लाएंगे.’’

बेटे की शादी के प्रति उन का सादगी भरा उत्साह देख कर मैं अचानक इतनी भावुक हुई कि मेरी आंखें भर आईं.

अर्चना और मैं ने बहुत खुशीखुशी उन के घर से विदा ली. अंजू और सपना हमें बाहर तक छोड़ने आईं.

‘‘कोमल दिल वाली अंजू के कारण तुम्हें इस घर में कभी कोई दुख नहीं होगा अर्चना. दौलत ने मेरे बड़े बेटे का जैसे दिमाग घुमाया है, वैसी बात यहां नहीं है. अब तुम फोन पर संदीप को इस मुलाकात की सूचना फौरन दे डालो. देखें, अब वह सगाई कराने को तैयार होता है या नहीं,’’ मेरी बात सुन कर अब तक खुश नजर आ रही अर्चना की आंखों में चिंता के बादल मंडरा उठे.

संदीप की प्रतिक्रिया मुझे अगले दिन शाम को अर्चना के घर जा कर ही पता चली. मैं इंतजार करती रही कि वह मेरे घर आए लेकिन जब वह शाम तक नहीं आई तो मैं ही दिल में गहरी चिंता के भाव लिए उस से मिलने पहुंच गई.

हुआ वही जिस का मुझे डर पहले दिन से था. संदीप अर्चना से उस दिन पार्क में खूब जोर से झगड़ा. उसे यह बात बहुत बुरी लगी कि मेरे साथ अर्चना उस की इजाजत के बिना और खिलाफत कर के क्यों उस की मां व बहन से मिल कर आई.

‘‘मीना आंटी, मैं आज संदीप से न दबी और न ही कमजोर पड़ी. जब उस की मां को मैं पसंद हूं तो अब उसे सगाई करने से ऐतराज क्यों?’’ अर्चना का गुस्सा मेरे हिसाब से बिलकुल जायज था.

‘‘आखिर में क्या कह रहा था संदीप?’’ उस का अंतिम फैसला जानने को मेरा मन बेचैन हो उठा.

‘‘मुझ से नाराज हो कर भाग गया वह, आंटी. मैं भी उसे ‘चेतावनी’ दे आई हूं.’’

‘‘कैसी ‘चेतावनी’?’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘मैं ने साफ कहा कि अगर उस के मन में खोट नहीं है तो वह सगाई कर के ही विदेश जाएगा…नहीं तो मैं समझ लूंगी कि अब तक मैं एक अमीरजादे के हाथ की कठपुतली बन मूर्ख बनती रही हूं.’’

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‘‘तू ने ऐसा सचमुच कहा?’’ मेरी हैरानी और बढ़ी.

‘‘आंटी, मैं ने तो यह भी कह दिया कि अगर उस ने मेरी इच्छा नहीं पूरी की तो उस के जहाज के उड़ते ही मैं अपने मम्मीपापा को अपना रिश्ता उन की मनपसंद जगह करने की इजाजत दे दूंगी.’’

एक पल को रुक कर अर्चना फिर बोली, ‘‘आंटी, उस से प्रेम कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है जो मैं अब शादी करने को उस के सामने गिड़- गिड़ाऊं…अगर मेरा चुनाव गलत है तो मेरा उस से अभी दूर हो जाना ही बेहतर होगा.’’

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और बोली, ‘‘दोस्ती और प्रेम के मामले में जो दौलत को महत्त्व देते हैं वे दोस्त या प्रेमी बनने के काबिल नहीं होते.’’

‘‘आप का बहुत बड़ा सहारा है मुझे. अब मैं किसी भी स्थिति का सामना कर लूंगी, मीना आंटी,’’ उस ने मुझे जोर से भींचा और हम दोनों अपने आंसुओं से एकदूसरे के कंधे भिगोने लगीं.

वैसे अर्चना की प्रेम कहानी का अंत बढि़या रहा. अपने विदेश जाने से एक सप्ताह पहले संदीप मातापिता के साथ अर्चना के घर पहुंच गया. अर्चना की जिद मान कर सगाई की रस्म पूरी कर के ही विदेश जाना उसे मंजूर था.

अगले दिन पार्क में मेरी उन दोनों से मुलाकात हुई. मेरे पैर छू कर संदीप ने पूछा, ‘‘मीना आंटी, मैं सगाई या अर्चना को अपने घर वालों से मिलाना टालता रहा, इस कारण आप ने कहीं यह अंदाजा तो नहीं लगाया कि मेरी नीयत में खोट था?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने आत्म- विश्वास के साथ झूठ बोला, ‘‘मैं ने जो किया, वह यह सोच कर किया कि कहीं तुम नासमझी में अर्चना जैसे हीरे को न खो बैठो.’’

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‘‘थैंक यू, आंटी,’’ वह खुश हो गया.

एक पल में ही मैं मीना आंटी से डार्लिंग आंटी बन गई. अर्चना मेरे गले लगी तो लगा बेटी विदा हो रही है.

Serial Story: निर्वासित राजकुमार का प्यार- भाग 2

आगे वीरप्रतापी सेनापति जोरावर सिंह और उन के पीछे तमाम फौज थी. आकाश जयकारों से गूंज रहा था. सोनार दुर्ग गर्व से माथा उठाए खड़ा था. पश्चिम की तरफ झुक आया चौदहवीं का चांद किले पर सुहागन के माथे की बिंदी की तरह प्रतीत हो रहा था. ऊंट और घोड़ों पर साजोसामान से लदी फौज को रवाना करते हुए लोगों के सीने उत्साह और जोश से भरे हुए थे.

लश्कर रवाना कर के महारावल को सोचने की फुरसत मिली. जोरावर वीर और साहसी था. यह बात महारावल जानते थे. इस कारण वह निश्चिंत थे कि जोरावर सिंह युद्ध जीत कर ही लौटेगा. फौज जिस गांव से गुजरती, घोड़ों की टापें उस से पहले पहुंचतीं.

गांव की औरतें, बच्चे उत्सुकता के साथ देखते. लोग जोश से भर कर फौज का स्वागत करते. खानेपीने की व्यवस्था करते. हर गांव से कुछ युवक अपने हथियार, घोड़ा, ऊंट कुछ भी ले कर साथ हो लेते. इस से फौज का मनोबल और बढ़ता. बीजोराई गांव तक पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई और लड़ाकों की संख्या 300 तक पहुंच गई.

गांव की सरहद से पहले वे रुक गए. पूर्णिमा का चांद निकल आया था. थोड़ी देर सभी ने आराम किया. रात बढ़ने पर वे गांव के करीब पहुंचे. विस्थापित ग्रामीणों ने हर्ष के साथ उन का स्वागत किया. जोरावर सिंह ने सेना को 4 टुकड़ों में बांट कर गांव को चारों तरफ से घेर लिया. जगहजगह आग जला कर नाकेबंदी कर दी, जिस से दुश्मन भागने न पाए.

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गांव खाली था. खाली घरों में अब जोधपुर रियासत के सैनिक रह रहे थे. गांव में कहींकहीं चिमनी टिमटिमा रही थी. सारे गांव में सन्नाटा था. घर पूर्णिमा की चांदनी में दूध की तरह लग रहे थे. गांव के आसपास उतरी फौज के शोर ने जंगल में मंगल कर दिया.

300 की फौज, दोढाई सौ ग्रामीण, कुछ बीजोराई के कुछ आसपास के, स्त्रीपुरुष, बच्चे. घोड़े, ऊंट, बकरियां. गांव के बाहर जंगल में गांव बसा था. इस के समाचार अंदर बीजोराई में भी मिल चुके थे. मेहता सिंघवी ने सारे सिपाहियों को एक जगह बुला कर सचेत कर दिया था. कहीं आक्रमण रात में न हो जाए.

गांव के चारों तरफ टिमटिमाती रोशनियों से यह अदांजा नहीं लग पा रहा था कि जैसलमेर की फौज कितनी है.

बीजोराई गांव के लोगों ने सेनापति को अपने दुखड़े सुनाए कि अचानक आ कर जोधपुर की फौज ने उन्हें घेर लिया. फौज ने घर से निकाल कर स्त्रियों और बच्चों के सामने लोगों को मारापीटा. उन के घरों को लूट लिया. कुछ की हत्या कर दी. कइयों को कैद कर लिया. बूढ़े, स्त्रियों और बच्चों को गांव से खदेड़ दिया.

कुछ लोग जान बचा कर निकल भागे. जोरावर सिंह ने उन्हें ढांढस दिया. उन के नुकसान की पूर्ति का आश्वासन दिया. इस के बाद रात में ही योजना के अनुसार वार्ता के बहाने मेहता सिंघवी से जैसलमेर फौज के सेनापति जोरावर सिंह अपने साथियों के साथ मिलने गए. मेहता सिंघवी बोला, ‘‘जोरावर सिंह जी, आप की वीरता के बड़े किस्से सुने हैं, आज दर्शन हो गए.’’

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‘‘सिंघवीजी, जोधपुर की नाराजगी वाजिब है. इस बात को हमारे दाता भी मानते हैं. हम ने आप के महाराज कुमार भीमसिंह को शरण दे कर भूल की है. मगर यह तो हमारा धर्म है जिसे आप भी समझते हैं. दाता ने खुद मुझे आप की सेवा में भेजा है कि मैं आप से अर्ज करूं कि आप गांवों पर कब्जा करने की जगह हम से बात करें.’’

‘‘जोरावर सिंह जी, आप खुद पधारे इसलिए मानना पड़ेगा कि महारावल सा सचमुच पछता रहे हैं. मैं आप की अर्ज अपने दाता तक जोधपुर पहुंचा दूंगा. आगे हमें क्या करना होगा, यह फैसला तो वह ही करेंगे.’’

इस के बाद जोरावर ने समझाया कि अगर वह जान सलामत चाहते हैं तो गांव खाली कर वापस लौट जाएं. मेहता सिंघवी ने गांव खाली करने से साफ मना किया तो उसी समय जोरावर सिंह ने कटार सिंघवी के सीने में उतार दी. यह सब पलक झपकते ही हो गया.

जोरावर के साथियों ने तलवारें खींच लीं. मेहता सिंघवी कातर दृष्टि से देखता हुआ वहीं लुढ़क गया. उसे ऐसे हमले का जरा भी गुमान नहीं था. तभी जोरावर ने अन्य सैनिकों को चेताया कि मेहता सिंघवी मारा जा चुका है, सब हथियार डाल दें वरना वे भी मारे जाएंगे.

जोरावर ने कटार वापस खोंस ली और तलवार उठा ली. जोधपुर के सैनिक जैसे भी थे, जिस हाल में थे, हथियार ले कर बाहर निकल पड़े. सिंघवी का शव देख कर वे हताश हो गए. फिर भी जोरावर सिंह और उन की सेना पर टूट पड़े. मगर तब तक फौज आ पहुंची. एक तो सिंघवी की लाश को देख कर जोधपुर के सिपाहियों की हिम्मत टूट चुकी थी, ऊपर से वह अचानक हुए इस हमले के लिए तैयार भी नहीं थे. उन्हें तो सिंघवी ने निश्चिंत कर दिया था. वह शांतिपूर्वक कोई रास्ता निकल आने के मुगालते में थे.

जोधपुर सैनिक संख्या में कम होने के कारण ज्यादा देर टिक नहीं पाए और शीघ्र ही युद्ध हार गए. बंदी सैनिकों को एक घर में निशस्त्र कर के रखा गया. घायलों का उपचार हुआ. शहीदों के पार्थिव शरीर ससम्मान उन के गांव भेजने की व्यवस्था की गई. लड़ाई खत्म होने के बाद बीजोराई गांव वाले अपनेअपने घरों में आए. सारा वातावरण विजय की खुशी और जयकारों से गूंज उठा.

उस समय महाराज कुंवर भीमसिंह पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के साथ मूलसागर में थे. उन्हें पता चला, मगर वह फौज के रवाना होने तक जैसलमेर नहीं आए. बाद में आ कर उन्होंने महारावल मूलराज से क्षमा मांगी. महारावल ने कहा, ‘‘महाराजकुमार सा, आप को लज्जित होने की कोई जरूरत नहीं है, ऐसा तो होता ही है.’’

‘‘हुकुम, मेरे कारण यह मुसीबत आई है. मैं आप को परेशानी में नहीं डालना चाहता. मैं कहीं और चला जाऊंगा.’’

‘‘नहीं, कुमारसा. आप हमारे सर के मोड़ हैं. आप इस तरह जाएंगे तो हम इतिहास को क्या मुंह दिखाएंगे. जब तक जैसलमेर में एक भी आदमी जीवित है, आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. आप हमारे मेहमान हैं और यहीं रहेंगे. आप की सेवा में कोई कमी हो तो हुकुम करें.’’

महारावल मूलराज से मिल कर कुंवर भीम सिंह आश्वस्त हुए. वह वापस मूलसागर चले गए. जैसलमेर की जीत की खबर सुन कर उन के मन का बोझ हलका हुआ. मगर वह स्वागत समारोह में शामिल नहीं हुए और पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के साथ मूलसागर में ही रहे.

जैसलमेर फौज की जोधपुर पर जीत की खबर पहुंचते ही जैसलमेर में खुशी की लहर दौड़ गई. लोगों में जोश भर गया. खबर देने वाले हलकारे को महारावल ने मोतियों का हार ईनाम में दिया. जैसलमेर की जीत कर लौटी सेना का भव्य स्वागत हुआ. जीत का समारोह कई दिन तक चला.

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इस के बाद सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो गया. उन दिनों जोधपुर महाराज कुमार भीमसिंह मूलसागर में रहते थे, मगर अकसर राजमहल आते रहते थे. राजमहल आते तो रनिवास में भी चले जाते थे. इस दरम्यान उन की नजर नागरकुंवर पर पड़ी.

नागरकुंवर महारावल मूलराज की पोती और राजकुमार रायसिंह की पुत्री थी. रायसिंह महारावल मूलराज को राजगद्दी से हटा कर खुद महारावल बन गए थे. मगर थोड़े समय बाद ही जोरावर सिंह और अन्य राजपूत ठाकुरों ने मिल कर रायसिंह को राजगद्दी से हटा कर मूलराज को फिर से महारावल की राजगद्दी पर बिठा दिया था. तब महारावल मूलराज ने अपने बेटे कुमार रायसिंह को देश निकाला दे दिया था.

शादी- भाग 1: सुरेशजी को अपनी बेटी पर क्यों गर्व हो रहा था?

‘‘सुनो, आप को याद है न कि आज शाम को राहुल की शादी में जाना है. टाइम से घर आ जाना. फार्म हाउस में शादी है. वहां पहुंचने में कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा,’’ सुकन्या ने सुरेश को नाश्ते की टेबल पर बैठते ही कहा.

‘‘मैं तो भूल ही गया था, अच्छा हुआ जो तुम ने याद दिला दिया,’’ सुरेश ने आलू का परांठा तोड़ते हुए कहा.

‘‘आजकल आप बातों को भूलने बहुत लगे हैं, क्या बात है?’’ सुकन्या ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.

‘‘आफिस में काम बहुत ज्यादा हो गया है और कंपनी वाले कम स्टाफ से काम चलाना चाहते हैं. दम मारने की फुरसत नहीं होती है. अच्छा सुनो, एक काम करना, 5 बजे मुझे फोन करना. मैं समय से आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या कहते हो, 5 बजे,’’ सुकन्या ने आश्चर्य से कहा, ‘‘आफिस से घर आने में ही तुम्हें 1 घंटा लग जाता है. फिर तैयार हो कर शादी में जाना है. आप आज आफिस से जल्दी निकलना. 5 बजे तक घर आ जाना.’’

‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ सुरेश ने आफिस जाने के लिए ब्रीफकेस उठाते हुए कहा.

आफिस पहुंच कर सुरेश हैरान रह गया कि स्टाफ की उपस्थिति नाममात्र की थी. आफिस में हर किसी को शादी में जाना था. आधा स्टाफ छुट्टी पर था और बाकी स्टाफ हाफ डे कर के लंच के बाद छुट्टी करने की सोच रहा था. पूरे आफिस में कोई काम नहीं कर रहा था. हर किसी की जबान पर बस यही चर्चा थी कि आज शादियों का जबरदस्त मुहूर्त है, जिस की शादी का मुहूर्त नहीं निकल रहा है उस की शादी बिना मुहूर्त के आज हो सकती है. इसलिए आज शहर में 10 हजार शादियां हैं.

सुरेश अपनी कुरसी पर बैठ कर फाइलें देख रहा था तभी मैनेजर वर्मा उस के सामने कुरसी खींच कर बैठ गए और गला साफ कर के बोले, ‘‘आज तो गजब का मुहूर्त है, सुना है कि आज शहर में 10 हजार शादियां हैं, हर कोई छुट्टी मांग रहा है, लंच के बाद तो पूरा आफिस लगभग खाली हो जाएगा. छुट्टी तो घोषित कर नहीं सकते सुरेशजी, लेकिन मजबूरी है, किसी को रोक भी नहीं सकते. आप को भी किसी शादी में जाना होगा.’’

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‘‘वर्माजी, आप तो जबरदस्त ज्ञानी हैं, आप को कैसे मालूम कि मुझे भी आज शादी में जाना है,’’ सुरेश ने फाइल बंद कर के एक तरफ रख दी और वर्माजी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला.

‘‘यह भी कोई पूछने की बात है, आज तो हर आदमी, बच्चे से ले कर बूढ़े तक सभी बराती बनेंगे. आखिर 10 हजार शादियां जो हैं,’’ वर्माजी ने उंगली में कार की चाबी घुमाते हुए कहा, ‘‘आखिर मैं भी तो आज एक बराती हूं.’’

‘‘वर्माजी, एक बात समझ में नहीं आ रही कि क्या वाकई में पूरे स्टाफ को शादी में जाना है या फिर 10 हजार शादियों की खबर सुन कर आफिस से छुट्टी का एक बहाना मिल गया है,’’ सुरेश ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘लगता है कि आप को आज किसी शादी का न्योता नहीं मिला है, घर पर भाभीजी के साथ कैंडल लाइट डिनर करने का इरादा है. तभी इस तरीके की बातें कर रहे हो, वरना घर जल्दी जाने की सोच रहे होते सुरेश बाबू,’’ वर्माजी ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, वर्माजी, ऐसी बात नहीं है. शादी का न्योता तो है, लेकिन जाने का मन नहीं है, पत्नी चलने को कह रही है. लगता है जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों भई…भाभीजी के मायके में शादी है,’’ वर्माजी ने आंख मारते हुए कहा.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, वर्माजी. पड़ोसी की शादी में जाना है. ऊपर वाले फ्लैट में नंदकिशोरजी रहते हैं, उन के बेटे राहुल की शादी है. मन इसलिए नहीं कर रहा कि बहुत दूर फार्म हाउस में शादी है. पहले तो 1 घंटा घर पहुंचने में लगेगा, फिर घर से कम से कम 1 घंटा फार्म हाउस पहुंचने में लगेगा. थक जाऊंगा. यदि आप कल की छुट्टी दे दें तो शादी में चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, सुरेश बाबू, आप डरते बहुत हैं. आज शादी में जाइए, कल की कल देखेंगे,’’ कह कर वर्माजी चले गए.

मुझे डरपोक कहता है, खुद जल्दी जाने के चक्कर में मेरे कंधे पर बंदूक रख कर चलाना चाहता है, सुरेश मन ही मन बुदबुदाया और काम में व्यस्त हो गया.

शाम को ठीक 5 बजे सुकन्या ने फोन कर के सुरेश को शादी में जाने की याद दिलाई कि सोसाइटी में लगभग सभी को नंदकिशोरजी ने शादी का न्योता दिया है और सभी शादी में जाएंगे. तभी चपरासी ने कहा, ‘‘साबजी, पूरा आफिस खाली हो गया है, मुझे भी शादी में जाना है, आप कितनी देर तक बैठेंगे?’’

चपरासी की बात सुन कर सुरेश ने काम बंद किया और धीमे से मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं ने भी शादी में जाना है, आफिस बंद कर दो.’’

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सुरेश ने कार स्टार्ट की, रास्ते में सोचने लगा कि दिल्ली एक महानगर है और 1 करोड़ से ऊपर की आबादी है, लेकिन एक दिन में 10 हजार शादियां कहां हो सकती हैं. घोड़ी, बैंड, हलवाई, वेटर, बसों के साथ होटल, पार्क, गलीमहल्ले आदि का इंतजाम मुश्किल लगता है. रास्ते में टै्रफिक भी कोई ज्यादा नहीं है, आम दिनों की तरह भीड़भाड़ है. आफिस से घर की 30 किलोमीटर की दूरी तय करने में 1 से सवा घंटा लग जाता है और लगभग आधी दिल्ली का सफर हो जाता है. अगर पूरी दिल्ली में 10 हजार शादियां हैं तो आधी दिल्ली में 5 हजार तो अवश्य होनी चाहिए. लेकिन लगता है लोगों को बढ़ाचढ़ा कर बातें करने की आदत है और ऊपर से टीवी चैनल वाले खबरें इस तरह से पेश करते हैं कि लोगों को विश्वास हो जाता है. यही सब सोचतेसोचते सुरेश घर पहुंच गया.

घर पर सुकन्या ने फौरन चाय के साथ समोसे परोसते हुए कहा, ‘‘टाइम से तैयार हो जाओ, सोसाइटी से सभी शादी में जा रहे हैं, जिन को नंदकिशोरजी ने न्योता दिया है.’’

‘‘बच्चे भी चलेंगे?’’

‘‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं, हमारे साथ कहां जाएंगे.’’

‘‘हमारा जाना क्या जरूरी है?’’

‘‘जाना बहुत जरूरी है, एक तो वह ऊपर वाले फ्लैट में रहते हैं और फिर श्रीमती नंदकिशोरजी तो हमारी किटी पार्टी की मेंबर हैं. जो नहीं जाएगा, कच्चा चबा जाएंगी.’’

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‘‘इतना डरती क्यों हो उस से? वह ऊपर वाले फ्लैट में जरूर रहते हैं, लेकिन साल 6 महीने में एकदो बार ही दुआ सलाम होती है, जाने न जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ सुरेश ने चाय की चुस्कियों के बीच कहा.

‘‘डरे मेरी जूती…शादी में जाने की तमन्ना सिर्फ इसलिए है कि वह घर में बातें बड़ीबड़ी करती है, जैसे कोई अरबपति की बीवी हो. हम सोसाइटी की औरतें तो उस की शानशौकत का जायजा लेने जा रही हैं. किटी पार्टी का हर सदस्य शादी की हर गतिविधि और बारीक से बारीक पहलू पर नजर रखेगा. इसलिए जाना जरूरी है, चाहे कितना ही आंधीतूफान आ जाए.’’

सुकन्या की इस बात को उन की बेटी रोहिणी ने काटा, ‘‘पापा, आप को मालूम नहीं है, जेम्स बांड 007 की पूरी टीम साडि़यां पहन कर जासूसी करने में लग गई है. इन के वार से कोई नहीं बच सकता है…’’

सुकन्या ने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों के खाने का क्या हिसाब रहेगा. मुझे कम से कम बेफिक्री तो हो.’’

ये लम्हा कहां था मेरा- भाग 2

शाम को घर पहुंची तो मीनाक्षी ने बताया कि सुदीप निकिता की हां सुनने के बाद आगे की बात करने अभिनव के घर चले गए हैं. वहां अभिनव के दादाजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई. 2-3 दिन से चल रहा बुखार इतना तेज हो गया कि वे बेहोशी की हालत में पहुंच गए. इस कारण उन्हें हौस्पिटल में भरती करना पड़ा. सुदीप भी अभिनव के पिता के साथ हौस्पिटल में ही थे.

2 दिन बाद दादाजी को हौस्पिटल से छुट्टी मिल गई. वे धीरेधीरे स्वस्थ हो रहे थे. इस बीच एक दिन अभिनव के मम्मीपापा निकिता के घर मिठाई का डब्बा ले कर आ गए. उन्होंने बताया कि दादाजी ने अभिनव का विवाह शीघ्र ही कर देने की इच्छा व्यक्त की है. मीनाक्षी और सुदीप तो स्वयं ही चाह रहे थे कि वह विवाह जल्द से जल्द हो जाए. फिर निकिता की हां कहीं न में न बदल जाए, इस का भी उन्हें भय सता रहा था.

डाक्टर से दादाजी की तबीयत के विषय में बात कर 2 महीने बाद ही विवाह

की तिथि तय कर दी गई. इस बीच एकदूसरे से खास बातचीत का अवसर नहीं मिला अभिनव व निकिता को. दोनों वीजा औफिस में मिले, किंतु वहां औपचारिकताएं पूरी करतेकरते ही समय बीत गया. अभिनव का विवाह के बाद एक  प्रोजैक्ट के सिलसिले में फ्रांस जाने का कार्यक्रम था. दोनों परिवारों के कहने पर इसे हनीमून ट्रिप का रूप दे दिया गया. निकिता भी साथ जा रही थी. उस ने भी अपनी प्रकाशन संस्था द्वारा पर्यटन पर प्रकाशित होने वाली एक पुस्तक के लिए फ्रांस पर लिखने में रूचि दिखाते हुए वह काम ले लिया. यों निकिता का मन भी नहीं था विवाह से पहले अभिनव से मिलनेजुलने का. क्या बात करती वह उस से? मातापिता की खुशियों का खयाल न होता उसे तो क्या वह शादी का फैसला लेती? शायद कभी नहीं.

समय पंख लगा कर उड़ा और निकिता व अभिनव पतिपत्नी के रिश्ते में बंध गए. बिदा हो कर निकिता ससुराल पहुंची तो रस्मोरिवाज पूरे होतेहोते रात हो गई. डिनर के बाद वह अपने कमरे में विचारमग्न बैठी थी कि अभिनव आ गया. उस ने बताया कि दादाजी को सांस लेने में कठिनाई हो रही है, इसलिए वह उन के पास ही बैठा है. निकिता को उस ने सो जाने की सलाह दे दी, क्योंकि अगले दिन उन्हें पैरिस की फ्लाइट लेनी थी.

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अभिनव के कमरे से जाते ही निकिता कपड़े बदल कर लेट गई. मातापिता की खुशियों के लिए जिंदगी से समझौता करने वाली निकिता यह नहीं जानती थी कि अभिनव भी एक मानसिक संघर्ष से जूझ रहा है. सच तो यह था कि वह भी अभी विवाह नहीं करना चाह रहा था. किसी लड़की के लिए मन में कोई भावना ही नहीं महसूस हो रही थी उसे कुछ दिनों से. अपनी पिछली नौकरी के दौरान हुआ एक अनुभव उस के मनमस्तिष्क को जकड़े बैठा था…

उस औफिस में सोनाली नाम की एक लड़की अभिनव के करीब आने की कोशिश करती रहती थी. काम में वह अच्छी नहीं थी, टीम लीडर अभिनव ही था, इसलिए उसे वश में कर प्रमोशन पाना चाहती थी. अभिनव उस की ओछी हरकतों को नापसंद करता था और उस से दूरी बनाए रखता था. इस बात से वह इतनी नाराज हुई कि एक दिन उस के कैबिन में काम की बातों पर चर्चा करते हुए अचानक ही शोर मचा दिया कि वह उस के साथ जबरदस्ती कर रहा था.

अभिनव के खिलाफ शिकायत भरा लंबाचौड़ा पत्र भी लिख कर दे दिया उस ने. उस में कहा गया कि अभिनव ने जानबूझ कर उस की रिपोर्ट खराब की है, क्योंकि वह उस से उस की मरजी के खिलाफ संबंध बनाना चाहता था. वहां के मैनेजमैंट ने अभिनव से इस विषय में सफाई मांगे बिना ही नौकरी छोड़ने का आदेश दे दिया.

उसी दिन से अभिनव कुंठित सा रहने लगा था. मातापिता द्वारा विवाह की बात शुरू होते ही वह टालमटोल करने लगता था. इस बार भी विवाह के लिए हामी उस ने अपने दादाजी की बीमारी के दबाव में आ कर भरी थी.

दादाजी के पास शादी की पहली रात अभिनव को बैठे देख उस की मम्मी ने वापस कमरे में भेज दिया. वह कमरे में पहुंचा तो निकिता गहरी नींद में थी. विचारों की कशमकश में उलझे हुए अभिनव को कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं लगा.

अगले दिन दोनों पैरिस रवाना हो गए. वहां लगभग 15 दिन बिताने थे उन्हें. अभिनव का काम तो केवल पैरिस तक ही सीमित था, लेकिन निकिता को फ्रांस के कुछ अन्य स्थानों पर भी जाना था.

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पैरिस पहुंच कर अभिनव जहां अपने औफिस की मीटिंग्स

और प्रोजैक्ट बनाने में लग गया, वहीं निकिता भ्रमण करते हुए नईनई जानकारी जुटाने में व्यस्त हो गई. उसे अपने प्रकाशन हाउस की फ्रांस स्थित एक सहयोगी कंपनी द्वारा महिला गाइड भी दी गई मदद के लिए.

2 दिन तक निकिता ने पैरिस में डिज्नीलैंड, नात्रे डैम, लैस इन्वैलिड्स, लुव्र म्यूजियम और ऐफिल टावर जा कर पर्याप्त जानकारी एकत्र कर ली. रात में होटल पहुंच कर जब वह डिनर कर लेती तब जा कर पहुंचता था अभिनव. औफिस में वह अगले दिन की प्रेजैंटेशन तैयार करने के बहाने देर तक रुका रहता था. उस के होटल पहुंचने पर निकिता दिनभर की थकान के कारण उनींदी सी होती थी.

उलटी गंगा- भाग 2: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

मैं तो कहती हूं उस की पत्नी को भी जेल में डाल देना चाहिए, जो एक गुनहगार की अगुआई कर रही है,’’ गुस्से से अपनी आंखें लाल कर नीलिका बोली.

‘‘हो सकता है अमनजी सही कह रहे हों और वह लड़की झूठ…’’

‘‘झूठ…? बीच में ही नीलिमा बोल पड़ी,’’ और वे सच बोल रहे हैं? क्यों, क्या वह लड़की पागल है जो खुद को ही बदनाम करेगी? जरूर कुछ किया ही होगा तभी तो वह बोल रही होगी… इसलिए गुनाह कर के भी मर्द बच निकलते हैं, क्योंकि उन की पत्नियां उन्हें बचाने के लिए दीवार बन कर उन के सामने खड़ी हो जाती हैं. जानती हैं कि पति गुनहगार है फिर भी… सच कहती हूं अगर उस की जगह मेरा पति होता न, तो मैं उसे नहीं छोड़ती. जेल भिजवा कर ही रहती साले को, ‘‘नीलिमा के मुंह से ऐसी बातें सुन कर योगेश के रोंगटे खड़े हो गए.’’

‘‘सोचो, खुद की भी बेटी है, अगर उस के साथ कोई ऐसा करे तो? छि:, अरे, औरत क्या कोई वस्तु है, जो जिस का जब मन चाहे इस्तेमाल कर लो, बिना उस की मरजी के?’’

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आज नीलिमा के तेवर देख योगेश की रूह कांप रही थी. बस मन ही मन यही

प्रार्थना किए जा रहा था कि वह इस सब से बचा रहे किसी तरह.

‘‘अब तुम्हें क्या हुआ?’’ योगेश के चेहरे पर हवाइयां उड़ते देख नीलिमा कहने लगी, ‘‘हां, पता है मुझे, तुम्हें भी सुन कर बुरा लग रहा होगा, है न? अरे किसी भी शरीफ इंसान को सुन कर बुरा लगेगा, मगर देखो, हम उन्हें क्या समझते थे और क्या निकले?’’ किसी का कुछ कहा नहीं जा सकता,’’ भुनभुनाते हुए नीलिमा किचन की तरफ बढ़ गई.

योगेश धम्म से वहीं सोफे पर बैठ गया. सोचने लगा कि आज जिस तरह से संस्कारी अमन अंकल की थूथू हो रही है, कल उस की बारी न हो. फिर कैसे नजरें मिलाएगा वह अपनी बेटियों से? गुमसुम सा वह आ कर कमरे में बैठ गया. नीलिमा ने पूछा, ‘‘कुछ खाओगे?’’

बच्चे और नीलिमा तो सो गए, उस की आंखें अब भी जाग रही थीं. अचानक उस के दिल में एक शूल सा उठता, फिर शांत हो जाता. कभी वह अपने सो रहे बच्चों को निहारता, तो कभी एकटक नीलिमा को देखता. आज नीलिमा उसे उस की पत्नी नहीं, बल्कि चंडिका का रूप लग रही थी, जो छूते ही भस्म कर देगी. इसलिए वह हौल में जा कर सोफे पर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन वहां भी उसे कहां चैन.

घर का 1-1 सामान जैसे उस के मुंह चिढ़ा रहा हो, हंस रहा हो उस पर और कह रहा हो, ‘‘देख रहे हो, कैसी उलटी गंगा बह रही है? नहीं बच पाओगे तुम भी योगेश बाबू. देरसबेर ही सही, पर कर्मों का फल तो सब को मिलता ही है. तुम्हें भी जरूर मिलेगा. उन की बातें सुन वह घबरा कर उठ बैठता और लंबीलंबी सांसें लेने लगता. डर के मारे हालत खराब हो रही थी उस की, पर बताए तो किसे और क्या? सोच कर ही कंपकंपा उठता कि अगर उस के किए गुनाह सब के सामने आ गए, तब क्या होगा? उस की तो बसीबसाई गृहस्थी ही उजड़ जाएगी.’’

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‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. क्यों मैं बेकार की बातें सोच रहा हूं? वह कभी अपना मुंह नहीं खोलेगी और अगर खोल दिया तो? तो मैं उसे झूठा साबित कर दूंगा. कह दूंगा वही मुझ पर डोरे डाल रही थी. जब दाल नहीं गली, तो मुझ पर इलजाम लगा रही है. मगर उस ने कोई सुबूत पेश कर दिया या गवाह खड़ा कर दिया तो, तो क्या होगा? कौन गवाह? किस की  इतनी हिम्मत है कि जो मेरे खिलाफ बोले,’ वह खुद से ही सवालजवाब किए जा रहा था और परेशान हुए जा रहा था. मुक्ता के साथ किए 1-1 अत्याचार आज उस की आंखों के सामने चलचित्र की तरह नाचने लगे.

बात 7-8 साल पहले की है. जिस कंपनी में योगेश बौस था. उसी कंपनी में मुक्ता भी काम करती थी, पर छोटे पद पर. चूंकि योगेश मुक्ता का बौस था, इसलिए उस की मजबूरी थी उस की हर बात को मानना. गोरा रंग, लंबे घने बाल, मोटीमोटी झील सी आंखें और उस का छरहरा बदन देख योगेश उसे देखता ही रह जाता. जिस तरह वह उसे नजरें गड़ाए देखा करता. उस से मुक्ता एकदम असहज हो जाती और अपने कपड़े ठीक करने लगती.

जानती थी वह कि उसे ले कर योगेश के विचार कुछ ठीक नहीं हैं, इसलिए वह अपना काम समय के साथ कर लिया करती ताकि योगेश को उसे कुछ कहने का मौका ही न मिले. फिर भी किसी न किसी बहाने वह उसे अपने कैबिन में बुला ही लेता और घंटों बेमतलब के कामों में उलझाए रखता. जब वह कामों में उलझी रहती, योगेश लगातार अपनी नजरें उस पर ही टिकाए रखता.

आप कितने भी अपने काम में व्यस्त क्यों न हों अगर कोई आप को एकटक निहार रहा हो, तो आप की नजरें खुदबखुद उस ओर चली जाती हैं. ऐसा अकसर होता है. जब मुक्ता की नजर योगेश पर पड़ती, तब भी ढीठ की तरह वह उसे उसी प्रकार निहारता रहता. हार कर मुक्ता ही अपनी नजरें नीची कर लेती या वहां से हट जाती.

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मुक्ता को अब योगेश के सामने जाने से भी डर लगने लगा था, क्योंकि जिस तरह से वह उस के सीने पर अपनी नजरें गड़ाए रहता, उस से वह सहम सी जाती. योगेश के डर से ही अब उस ने जींस टीशर्ट और स्लीवलैस कपड़े पहनने छोड़ दिए थे. जानबूझ कर ढीलेढाले कपड़े पहन कर औफिस जाती, ताकि योगेश उसे न देखे, पर उस की गंदी नजरें फिर भी उसे घूरती रहतीं.

कई बार तो वह जानबूझ कर उस से टकरा जाता, फिर भी मुक्ता ही सौरी बोलती. एक बार तो उस ने उस के सीने पर हाथ ही रख दिया और फिर सौरीसौरी कहने लगा, लेकिन योगेश ने ऐसा जानबूझ कर किया, यह बात मुक्ता जानती थी. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. जब भी मौका मिलता, वह मुक्ता को यहांवहां छू देता और बेचारी कुछ न बोल कर आगे बढ़ जाती.

रोना आता उसे अपनी हालत पर. सोचती क्या लड़की होना इतना बड़ा पाप है? शुरू से ही मुक्ता पर उस की गंदी नजर थी. जानता था वह कि यह नौकरी उस के लिए कितना माने रखती है, क्योंकि उस के घर में कमाने वाला उस के सिवा और कोई नहीं था. पिता की असमय मौत ने घरपरिवार की सारी जिम्मेदारी उस के कंधों पर डाल दी थी. इसी कारण वक्तबेवक्त योगेश उस का फायदा उठाता रहता था.

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उस दिन जानबूझ कर योगेश ने मुक्ता को देर रात तक औफिस में रोक लिया और कहा कि वह उसे घर छोड़ देगा. औफिस के चपरासी को भी उस ने छुट्टी दे दी. लेकिन मुक्ता जल्दीजल्दी अपना काम निबटा कर वहां से जाने ही लगी कि पीछे से आ कर योगेश ने उसे अपनी बांहों में दबोच लिया और उसे यहांवहां छूने लगा.

‘‘सर, यह क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे,’’ कह कर मुक्ता ताकत लगा कर उस की पकड़ से निकली ही कि फिर से उस ने उसे दबोचना चाहा, यह बोल कर कि इसी मौके की तो उसे कब से तलाश थी. मगर ऐन वक्त पर वही चपरासी वहां पहुंच गया और मुक्ता बच गई. वरना तो आज योगेश उसे नहीं छोड़ता. शायद वह चपरासी भी योगेश के गंदे इरादे भांप गया था, इसलिए अपना खाने का डब्बा छूट जाने का बहाना कर वापस आ गया और मुक्ता बरबाद होने से बच गई.

जरा सी आजादी- भाग 4: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

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मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

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‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

Serial Story: अस्मत का सौदा- भाग 1

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

हवेलीनुमा घर के एक हाल में बने एक शानदार औफिस में एक युवक, जिस की उम्र बामुश्किल 30 से 35 साल होगी, एक ऊंची पुश्त वाली कुरसी पर बैठा हुआ कुछ फाइलों के पन्ने पलट रहा था.

‘‘देखिए, आप लोगों के कागज तो पूरे हैं, पर इस में ‘सपोर्टिंग डौक्यूमैंट्स‘ की कमी है,‘‘ उस युवक ने अपनी आंखों के सवाल को सामने बैठी 2 महिला में से एक की आंखों की तरफ उछाला.

‘‘पर, हम ने तो सारे कागज लगा दिए हैं सर,‘‘ एक महिला उत्तेजित स्वर में बोल उठी.

उस की ये बात सुन कर उस युवक के चेहरे पर एकसाथ कई रंग आए और गए.

‘‘अरे, तू चुप रह… सर, यह अभी नईनई आई है न, इसे पता नहीं है आप का तरीका. मैं आप के ‘सपोर्टिंग डौक्यूमैंट्स‘ पूरे कर दूंगी. बस, आप इतना बता दीजिए कि ये बाकी के कागजात कहां पहुंचाने हैं,‘‘ एक महिला ने कहा.

‘‘वहीं, जहां आप हर बार पहुंचाती आई हैं… पर, इस बार मेरी एक छोटी सी शर्त है,‘‘ युवक ने कहा.

‘‘जी… कैसी शर्त?‘‘

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‘‘यही शर्त कि बाकी के कागजात जब आप देने आएं तो इन्हें भी साथ ले कर आएं,‘‘ युवक ने दूसरी महिला के बदन को घूरते हुए कहा.

‘‘जी, बिलकुल. आप के कागज भी पहुंच जाएंगे…. और ये भी,‘‘ महिला इतना कह कर मुसकराते हुए औफिस से बाहर चली गई और वह युवक अपनी ऊंची पुश्त वाली कुरसी में आराम से धंस गया और सिगरेट सुलगा कर गोला छल्ले उड़ाने लगा.

उस युवक का नाम रणबीर सिंह था, जो कि शहर के एक बड़े नेता का सारा कामकाज देखता था.

नेताजी के आगामी एक महीने का कार्यक्रम रणबीर सिंह के अनुसार ही तय किया जाता. कब, कहां किस की प्रतिमा का अनावरण, किस अस्पताल का उद्घाटन, अनाथालयों और विधवा आश्रमों में दिया जाने वाला दान भी रणबीर सिंह ही तय करता था.

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नेताजी के कार्यक्रमों में उन की किस एंगल की तसवीर प्रैस में जाएगी और कौन सी तसवीर सोशल मीडिया पर अपलोड की जाएगी, इन सब बातों को रणबीर सिंह की पारखी नजरों के एक्सरे से ही गुजरना होता था.

रणबीर सिंह भौतिकवादी व्यक्ति था. एक बहुत अच्छी जीवनशैली जीने का आदी हो चुका था रणबीर. निजी मकान, 2-3 गाड़ियां और कई बैंकों में कई खाते भी थे. ऐशोआराम और दौलत रणबीर सिंह ने नेताजी के नाम पर ही बनाई थी.

बहुत से लोग कई प्रकार के काम करवाने के लिए नेताजी के पास आते थे, तो उन सब लोगों से काम करवाने के बदले और सहयोग राशि के नाम पर रकम ऐंठना ही रणबीर सिंह का काम था. मसलन, कोई अपने बेटे की नौकरी लगवाने के लिए नेताजी के पास आता, तो कोई अपना ट्रांसफर अपने मनमुताबिक जगह पर करवाने को आता, तो कोई सिर्फ यही फरियाद ले कर आता कि नेताजी से कह दो कि मेरे नाम का फोन ही कर दें, तो मेरा काम हो जाएगा. और भी बहुत प्रकार के काम आते थे, जिस के एवज में पैसे ऐंठ कर नेताजी से काम करवा देता था रणबीर सिंह. इन सब कामों में रणबीर सिंह का कोई सानी नहीं था.

एक दिन ‘मजनूं का टीला‘ के एक शरणार्थी कैंप में नेताजी को जा कर शरणार्थियों को आर्थिक सहायता प्रदान करने का कार्यक्रम था. नेताजी पंक्ति में खड़े हुए असहाय शरणार्थियों को आर्थिक सहायता दे रहे थे और रणबीर सिंह उन के फोटो उतारने में लगा हुआ था.

‘‘सर, अभी कुछ ठीक नहीं आया… हां, अब जरा इधर देखिए… हां सर, अब मुसकराइए… सर, जरा इस बच्चे के सिर पर हाथ रखने वाला फोटो हो जाए… ऐसी तसवीरें सीधे दिल में उतर जाती हैं,‘‘ कहते हुए रणबीर सिंह पूरी तन्मयता से अपना काम कर रहा था.

तभी सहसा रणबीर सिंह की नजर एक सहमी हुई सी जवान लड़की पर पड़ी, जिस के चेहरे पर मैल लगा होने के बाद भी उस की सुंदरता रूप के पारखी रणबीर सिंह से न छुप सकी. उस लड़की की उम्र महज 20-22 साल ही रही होगी.

‘‘कसम से… अगर इस लड़की पर 20 रुपए की साबुन की टिकिया पूरी तरह खर्च कर दी जाए और इस के जिस्म को मलमल कर धो दिया जाए, तो कोहिनूर हीरा भी फेल हो जाए,‘‘ मन ही मन रणबीर सिंह बुदबुदा उठा था.

रणबीर सिंह ने आगे बढ़ कर उस लड़की को करीब से देखा और उस के सीने पर एक नजर डालते हुए बोला, ‘‘नाम क्या है तेरा?‘‘

‘‘सर, ये नाम नहीं बता पाएगी, क्योंकि गूंगी है,‘‘ उस लड़की के पास खड़ी दूसरी लड़की ने बताया.

‘‘ओह… गूंगी है बेचारी,‘‘ कुटिल भाव रणबीर के मन में आनेजाने लगे और वह सोचने लगा, माना कि उस के और नेताजी के बिस्तर पर सोने वाली लड़कियों की अभी तक कोई कमी नहीं है, पर फिर भी कभीकभी स्वाद बदलने के लिए एक गरीब शरणार्थी लड़की बुरी नहीं रहेगी. और फिर नेताजी के घर का काम भी करेगी और गाहेबगाहे मन बहलाने के काम भी आया करेगी. एक तरीके से गाड़ी की स्टैपनी के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता था रणबीर.

ऐसा सोच कर रणबीर ने आननफानन में नेताजी को इशारा किया, जिसे केवल नेताजी ही समझ पाए थे और बदले में उन से मिले हुए इशारे के अनुसार रणबीर ने अपना काम शुरू कर दिया था.

Serial Story: निर्वासित राजकुमार का प्यार- भाग 3

रायसिंह अपनी पत्नी और 2 बेटों के साथ जैसलमेर रियासत छोड़ कर चले गए थे. इन्हीं रायसिंह की राजकुमारी थी नागरकुंवर बाईसा. नागरकुंवर को महारावल मूलराज ने रायसिंह के साथ नहीं जाने दिया था. इस कारण नागरकुंवर बाईसा रनिवास जैसलमेर में ही रहती थी.

रनिवास में कुंवर भीमसिंह की नजर नागरकुंवर पर पड़ी. गोरी गट्ट मोतियों के पानी जैसी. गाल जैसे मक्खन की डलियां, होंठ ऐसे जैसे मलाई में लाल रंग मिला कर मक्खन पर 2 फांके बना दी हों. आंखें ऐसी जैसे मखमल के बटुए में हीरे रखे हुए हों. भीमसिंह तो उस का रूप देख कर जड़ हो गया.

वापस मूलसागर आने पर एक ही चेहरा बेचैन किए जा रहा था. आंखें बंद करे तो नागरकुंवर, खोले तो नागरकुंवर. किसी से बात करे तो नागरकुंवर. वह परेशान हो गए. बहुत टालने की कोशिश की मगर मन पर काबू नहीं रहा. तब भीमसिंह अकसर रनिवास में जा कर नागरकुंवर से मिलने लगे.

नागरकुंवर 15-16 बरस की थी. ये वही दिन होते हैं, जब कोई दिल को अच्छा लगने लगता है. नागरकुंवर को भीमसिंह अच्छे लगे थे. यही हाल भीमसिंह का भी था. उन्हें नागरकुंवर के अलावा कुछ भी अच्छा नहीं लगता था.

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भीमसिंह का आनाजाना रनिवास में बढ़ा और नागरकुंवर से मिलनाजुलना भी. तब महारावल सा को उन के दीवान ने एक रोज कहा, ‘‘दाता, बड़ेबुजुर्गों के लिए बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं. पर हुकुम, समय आने पर वे भी बड़े होने लगते हैं. हम को उन की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए. बाईसा 15-16 के पेटे में पहुंच गई हैं. वह शादी के लायक हो गई हैं. अब महाराज कुंवर रायसिंह तो यहां हैं नहीं. बाईसा की जिम्मेदारी अपने ऊपर है. दाता, आप फरमाएं तो शादी की बात चलाई जाए.’’

‘‘बाईसा इतनी बड़ी हो गईं क्या?’’

‘‘हां हुकुम, समय तो अपनी गति से चलता है.’’ दीवान बोला.

‘‘ठीक है, कोई ध्यान में है क्या?’’ महारावल मूलराज सफेद दाढ़ी को टटोलते हुए बोले.

‘‘एक है, आप माफी बख्शें तो अर्ज करूं.’’ दीवान ने कहा.

‘‘कौन है?’’ महारावल ने पूछा तो दीवान बोला, ‘‘राठौड़ अपने पुराने रिश्तेदार हैं. जोधपुर के कुंवर भीमसिंहजी यहां पधारे हुए हैं. शादी के हकदार भी हैं. कल को उन्हें राज मिलेगा. ऐसा मौका कब मिलेगा हुकुम. अभी अहसानों से दबे हैं. लगे हाथ बाईसा का ब्याह महाराज कुंवर भीमसिंह जी से कर लें तो सोने पर सुहागा हो जाए. घरघराना सब ठीक है.’’

आवाज को दबाते हुए दीवान आगे बोले, ‘‘हुकुम, जोधपुर से रोजरोज के झगड़ेटंटे होते हैं, वे भी खत्म हो जाएंगे. भीमसिंह जी के गद्दी बिराजने के बाद सरहद पर रोजरोज की किटकिट भी नहीं होगी.’’

‘‘पर भीमसिंह जी यह न समझें कि हम शरण दे कर अहसानों की कीमत ले रहे हैं.’’ महारावल ने कहा.

‘‘नहीं दाता, अहसान तो हम कर रहे हैं, शरण भी दी और बेटी भी.’’

‘‘महाराज कुंवरसा तो निर्वासित हैं. बारात कहां से आएगी. यों कैसे हो पाएगा ब्याह.’’

महारावल चिंता में पड़ गए. उन के बूढ़े चेहरे पर उदासी छा गई. ललाट पर पड़ी सलवटें और अधिक गहरा गईं. आखिर महारावल की सहमति मिल गई.

तब मूलसागर जा कर कुंवर भीमसिंह जी से बात की गई. सुन कर कुंवर भीमसिंह को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. उन का दिल बल्लियों उछलने लगा. मगर प्रत्यक्षत: गंभीर बने हुए बोले, ‘‘महारावलसा को पता है कि मैं एक निर्वासित राजकुमार हूं. निर्वासित का क्या भरोसा. उम्र भटकते हुए कट सकती है.’’

‘‘हम संबंधों को देखते हैं, सत्ता को नहीं. सत्ता तो आज है कल नहीं भी होगी. पर संबंध तो शाश्वत रहेंगे. राठौड़ वंश तो पीढि़यों से हमारे समधी रहे हैं. आप यहां पधारे हुए हैं. उस से अच्छा सुयोग और क्या होगा. आप नागरकुंवर बाईसा का पाणिग्रहण करें तो यह जैसलमेर पर आप का अहसान होगा. दाता की इच्छा है कि आप स्वीकृति दें तो विवाह की तिथि तय कर ली जाए.’’

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सारी बात खोल कर सामने रखी तो कुंवर जानबूझ कर पशोपेश में पड़े दिखाई देने लगे.

‘‘मैं आप लोगों का आभारी हूं कि आप ने मुझे इस योग्य समझा. पर आप तो जानते ही हैं कि बारात जोधपुर से नहीं आ पाएगी. इस से आप लोगों की गरिमा को ठेस पहुंच सकती है.’’

‘‘इतिहास गवाह है कुंवरसा, राजेमहाराजे कभी मुहूर्तों और बारातों के मोहताज नहीं होते. आप आदेश करें, सारे इंतजाम हो जाएंगे.’’

इस बार जवाब ठाकुर सवाईसिंह ने दिया, ‘‘जरूर हुकुम. महाराज कुंवरसा का विवाह बडे़ धूमधाम से होगा. आप तैयारियां कीजिए.’’

तुरंत शगुन में हीरे की अंगूठी, गुड़ और नारियल दिया, ‘‘आप ने शगुन कबूल किया हुकुम, सारा जैसलमेर आप का ऋणी हो गया है. महाराज कुंवरसा के यहां न होने से हमारी चिंताएं बढ़ गई थीं. आज हम धन्य हो गए हुकुम.’’

बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां बड़ी धूमधाम से की गईं. मूलसागर से बारात जैसलमेर आई. उस का भव्य स्वागत किया गया. सारा शहर दूल्हे की एक झलक देखने के लिए उमड़ पड़ा. रायसिंह अपनी बेटी का कन्यादान करने नहीं पहुंचे. न ही युवरानी या राजकुमारों को ही भेजा. महारावल ने स्वयं कन्यादान किया. शादी धूमधाम से संपन्न हुई.

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कुंवर भीमसिंह व राजकुमारी नागरकुंवर की मुलाकातों के चर्चे शहर में न हों और राजमहल की बदनामी न होने लगे, इसलिए उन दोनों का विवाह कर दिया गया. अब दोनों जीवनसाथी बन गए थे और उन्होंने अपना नवजीवन शुरू कर दिया था.

चंद दिन ही बीते थे कि महाराजा विजय सिंह का 46 साल की उम्र में स्वर्गवास हो गया. गुलाबराय की हत्या के बाद महाराजा विजय सिंह को कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और थोड़े समय बाद वह भी चल बसे थे. तब कुंवर भीमसिंह अपनी रानी नागरकुंवर के साथ जोधपुर आ गए. भीमसिंह जोधपुर की राजगद्दी पर बैठ गए और नागरकुंवर महारानी बन गईं.

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