व्यंग्य-
अपना देश उपवासों का देश है. हर माह, हर सप्ताह, हर रोज कोई न कोई त्योहार आते ही रहते हैं. दीपावली, होली जैसे कुछ खास त्योहारों को छोड़ दिया जाए, जिन में मिठाइयां, चटपटे नमकीन पकवानों का छक कर उपयोग किया जाता है तो शेष त्योहारों में महिलाओं द्वारा उपवास रख कर पर्वों की इतिश्री कर दी जाती है.
कुछ उपवास तो निर्जला होते हैं. ये उपवास औरतों के लिए चुनौतीपूर्ण होते हैं. साथ ही सहनशीलता का जीताजागता उदाहरण भी हैं. आम औरतें तो बिना अन्न खाए रह सकती हैं मगर बिना पानी के रहना सच में साहस भरा कदम है. यह उपवास हरेक के बूते का रोग नहीं होता. घर में पानी से भरे मटके हों, फ्रिज में पानी से भरी ठंडी बोतलें हों, गरमी अपना रंग दिखा रही हो, गला प्यास से सूख रहा हो और निर्जला व्रत रखने वाली महिलाएं इन से अपना मुंह मोड़ लें. है न कमाल की बात. ठंडी लस्सी, शरबत, केसरिया दूध की कटोरी को छूना तो दूर वे इस सुगंधित स्वादिष्ठ पेय की ओर देखती तक नहीं हैं. धन्य है आर्य नारी, सच में ऐसी त्यागमयी मूर्ति की चरण वंदना करने को मन करता है.
ऐसा निर्जला उपवास करने वाली औरतों की संख्या उंगलियों पर होती है मगर खापी कर उपवास करने वाली घरेलू औरतें हर घर में मिल जाती हैं जो परिवार के स्वास्थ्य, सुखसमृद्धि के लिए गाहे- बगाहे उपवास करती रहती हैं. उपवास के नाम पर वे अन्न त्याग करने में अपनी जबरदस्त आस्था रखती हैं.
प्रात:काल स्नान कर घोषणा करती हैं कि उन का आज उपवास है. वह अन्न ग्रहण नहीं करेंगी. मगर फलाहार के नाम पर सब चलता है. मौसमी फलों की टोकरियां इस बात का प्रमाण होती हैं कि परिवार की महिलाएं कितनी सात्विक हैं. श्रद्धालु हैं, त्यागी हैं.
ऐसे तीजत्योहार में वे अनाज की ओर देखती तक नहीं हैं. बस, फल के नाम पर कुछ केले खा लिए. पपीता या चीकू की कुछ फांकें डकार लीं. कोई पूछता तो गंभीरता से कहती, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं बस, थोड़े से भुने काजू ले लिए. कुछ दाने किशमिश, बादाम चबा लिए. विश्वास मानिए, मैं तो कुछ खाती नहीं. खापी कर उपवास किया तो उपवास का मतलब ही क्या रह गया.’’
‘‘आप सच कहती हैं, बहनजी. स्वास्थ्य की दृष्टि से सप्ताह में एक दिन तो अन्न छोड़ ही देना चाहिए. क्या फर्क पड़ता है यदि हम एक दिन अनाज न खाएं?’’ एक ही थैली की चट्टीबट्टी दूसरी महिला ने हां में हां मिलाते हुए कहा.
उपवास वाले दिन परिवार का बजट लड़खड़ा कर औंधेमुंह गिर जाता है. सिंघाड़े की सेव कड़ाही के तेल में तली जाने लगती है. कद्दू की खीर शुद्ध दूध में बनाई जाने लगती है. फलाहारी व्यंजन के नाम पर राजगीरा के बादशाही रोल्स बनने लगते हैं. फलाहार का दिन हो और किचन में सतरंगी चिवड़ा न बने, ऐसा कैसे हो सकता है? फलाहारी पकवान ही तो संभ्रांत महिलाओं को उपवास करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.
नएनए फलाहारी पकवान सुबह से दोपहर तक बनते रहते हैं. घरेलू औरतों के मुंह चलते रहते हैं. पड़ोस में फलाहारी पकवानों की डिश एक्सचेंज होती रहती हैं. एकदूसरे की रेसिपी की जी खोल कर प्रशंसा होती है, ‘‘बड़ा गजब का टेस्ट है. आप ने स्वयं घर पर बनाया है न?’’ एक उपवासव्रता नारी पूछती है.
‘‘नहीं, बहनजी, आजकल तो नएनए व्यंजनों की विधियां पत्रपत्रिकाओं में हर माह प्रकाशित होती रहती हैं. अखबारों के संडे एडीशन तो रंगीन चित्रों के साथ रेसिपीज से पटे रहते हैं. इसी बहाने हम लोग किचन में व्यस्त रहती हैं. आप को बताऊं हर टीवी चैनल वाले दोपहर को किचन टिप्स के नाम पर व्यंजन प्रतियोगिताएं आयोजित करते रहते हैं. ऊपर से पुरस्कारों की भी व्यवस्था रहती है. हम महिलाओं के लिए दोपहर का समय बड़े आराम से व्यंजन बनाने की विधियां देखने में बीत जाता है.
‘‘मैं तो कहती हूं, अच्छा भी है जो ऐसे रोचक व उपयोगी कार्यक्रम हमें व्यस्त रखते हैं, नहीं तो आपस में एकदूसरे की आलोचना कर हम टाइम पास करती रहती थीं. जब से मैं ने व्यंजन संबंधी कार्यक्रम टीवी पर देखने शुरू किए हैं विश्वास मानिए, पड़ोसियों से बिगड़े रिश्ते मधुर होने लगे हैं. मैं भी उपवास के नाम पर अब किचन में नएनए प्रयोग करती रहती हूं ताकि स्वादिष्ठ फलाहारी व्यंजन बनाए जा सकें.’’
विशेष पर्वों पर फलाहारी व्यंजन के कारण बाजार में सिंघाड़े, मूंगफली, राजगिरा, सूखे मेवे, तिल, साबूदाना और आलू जैसी फलाहारी वस्तुओं के भाव आसमान छूने लगते हैं. उपवास की आड़ में तेल की धार घर में बहने लगती है. नए परिधान में चहकती हुई महिलाएं जब उपवास के नाम पर फलाहारी वस्तुएं ग्रहण करती हैं, सच में वे काफी सौम्य लगती हैं. उन का दमकता चेहरा दर्शाता है कि उपवास रहने में सच संतोष व आनंद की अनुभूति होती है. बस, दुख इसी बात का रहता है कि हर नए व्यंजन का निराला स्वाद चटखारे के साथ लेते हुए कहती रहती हैं, ‘‘मैं तो कुछ खाती नहीं.’’